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*जप चर्चा*
*दिनांक 09 अप्रैल 2022*
*उद्धव प्रभु द्वारा*
हरे कृष्ण!!!
*ॐ नमो भगवते श्री रामायण!*
*ॐ नमो भगवते श्री रामायण!*
*ॐ नमो भगवते श्री रामचंद्राय!*
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तुते।।*
*तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरिप्रिये।।*
*लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् । कारुण्यरुपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥*
*मनोजवं मारुततुल्य- वेगम् जितेन्द्रि- यं बुद्धिमतां- वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
*मुकम करोति वाचालं पङ्गं लङ्घयते गिरिम्। यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्।।*
*नमस्ते गुरु-देवाय सर्व-सिद्धि प्रदेयिं सर्व मंगला रूपया सर्वानंद विधियनै।।*
*जगत गुरु श्रील प्रभुपाद की जय!!!*
*पतित पावन गुरु महाराज की जय!!!*
हरे कृष्ण!!!
सर्व प्रथम महाराज के श्रीचरणों में सादर कोटि कोटि प्रणाम।
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज की जय! समस्त वैष्णव वृन्द की जय!
कल की कथा में हम अंतिम पड़ाव पर थे जैसे देखते हैं कि राम के द्वारा रावण का वध हो गया है। तत्पश्चात कथा हमनें जल्दी-जल्दी में थोड़ा सा निपटाने का प्रयास किया था। उस प्रसंग में 2-3 घटनाएं बड़ी महत्वपूर्ण घटी। एक रामचंद्र जी द्वारा विभीषण का राज्याभिषेक किया गया। जब रावण का वध हुआ तब सभी देवी देवता आकाश में स्थित थे, सुमन वृष्टि हो रही थी, गंधर्व- किन्नर इत्यादि नृत्य कर रहे थे, गान कर रहे थे, वहां पर महादेव जी, ब्रह्मा जी भी थे और भी वहां काफी सारे देवी देवता इंद्र, चंद्र, वरुण आदि उपस्थित थे। ब्रह्मा जी ने भगवान की भगवत्स्वरूप में स्तुति की अर्थात ब्रह्मा जी के द्वारा बहुत सुंदर स्तुति भगवान् को अर्पित की गई। महादेव जी इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने भगवान के पिता श्री दशरथ महाराज को वहां पर बुलाया जो स्वर्ग में स्थित थे। वे श्वेत वस्त्र धारण कर के अपने पुत्र को साक्षात दर्शन देने के लिए वहां पर आए। उन्होंने रामजी का अभिवादन किया और कहा कि भले ही मैं उच्च लोकों में हूं। स्वर्ग का उपभोग कर रहा हूं लेकिन रामचंद्र आप के सानिध्य में जो आनंद मुझे प्राप्त होता था, उतना आनंद उच्च लोकों में भी नहीं है। यह भाव दशरथ महाराज ने अभिव्यक्त किया और आभार व्यक्त किया कि हमारे वंश को पावन पूण्यति करने के लिए प्रभु आप प्रकट हुए। इससे हमारा रघुकुल सूर्यवंश जो हैं,उसकी ख्याति, ध्वज पताका दसों दिशाओं में फैल गई है। आपकी कृपा से प्रसिद्धि मिल गई है, आगे वर्णन किया गया है कि देवराज इंद्र के द्वारा राम रावण युद्ध में जितने भी वानर पक्ष के जो योद्धा मारे जा चुके थे, उन्हें इंद्र के द्वारा पुनः जीवित कर दिया गया। जब विभीषण महाराज लंकापति लंकेश बन गए तब उन्होंने जितने भी महत्वपूर्ण सुग्रीव आदि योद्धा थे अर्थात जिन्होंने राम रावण युद्ध में राजा रामचंद्र की सहायता की थी, उनका मनोबल बढ़ाया। महाराज विभीषण के द्वारा ऐसे वानरों का विशेष सत्कार किया गया। इस प्रकार से यह युद्ध कांड अथवा लंका कांड समाप्त हुआ।
उत्तरकांड आरंभ हुआ, उत्तरकांड में 111 सर्ग है। जिसको हम अध्याय कहते हैं। इसमें बहुत सारी ऐसी लीलाओं का वर्णन है जो रामायण में आगे पीछे नहीं कह पाए थे, वाल्मीकि जी द्वारा उनको यहां पर कवर किया गया है। जैसे ही राजा रामचंद्र पुष्पक विमान पर बैठकर .....उन्होंने हनुमान जी को आगे भेज दिया क्योंकि भरत महाराज ने कहा था " प्रभु! यदि 14 वर्षों के बाद आपको कुछ क्षण भी विलंब होता है तो आप मुझे जीवित नहीं देख पाएंगे।" हनुमान जी क्योंकि वायु पुत्र हैं, वे पवन के वेग से अयोध्या गए और भरत को यह समाचार दिया कि राजा रामचंद्र आ रहे हैं। सुग्रीव व बहुत सारे वानरों को लेकर सीता, लक्ष्मण के साथ भगवान् अयोध्या वापस आते हैं।
जैसे ही विभीषण महाराज जी का राज्य अभिषेक हो गया, तब हनुमान जी के ही माध्यम से सीता माता को भगवान रामचंद्र ने संदेश भिजवाया कि ऐसे ऐसे मैं आपको लेने के लिए आ रहा हूं आप सज्य हो जाइए। हनुमान जी को सीता माता ने जैसे ही देखा, सीता माता भी बहुत प्रसन्न हो गई कि उनका मिलाप होने वाला है लेकिन अभी मैं इस विषय को संक्षिप्त में इसलिए कह रहा हूँ क्योकि आगे इसमें कुछ कथा जोड़कर आपको सुनाऊंगा। सीता माता का वहां पर अग्नि परीक्षण हुआ। राजा रामचंद्र ने लोक अपवाद के डर से सीता माता से आग्रह किया तो माता ने अग्नि में प्रवेश किया। तत्पश्चात अग्निदेव खुद सीता माता को स्वयं लेकर बाहर आए। उन्होंने भगवान की भगवत स्वरूप में स्तुति की और सीता माता को बड़े प्रेम से प्रभु रामचंद्र को समर्पित किया। एक अग्नि परीक्षा लंका में हुई। तत्पश्चात वे पुष्पक विमान पर बैठ कर अयोध्या आए। अयोध्या में राजा रामचंद्र का बहुत सुंदर स्वागत सत्कार हुआ। बहुत सारे दीपों का दीप दान किया गया। बहुत सारे दीपों की आवली श्रृंखला से सारी अयोध्या जगमगा उठी। राजा रामचंद्र का स्वागत सत्कार किया गया। उस पर्व/ दिवस / उत्सव को हम दीपावली के रूप में मनाते हैं। उत्तरकांड जैसे ही आरंभ होता है, जैसे ही राजा रामचंद्र राजा बनते हैं क्योंकि उनको अपने भक्तों का संग करना बहुत अच्छा लगता है। बहुत सारे ऋषि मुनियों का जमावड़ा वहां पर लगता है। पहले ही अध्याय से इस बात को आरंभ किया गया कि बहुत सारे ऋषि मुनि जिसमें याज्ञवल्क्य ऋषि, भारद्वाज ऋषि, गौतम ऋषि और खासकर अगस्तय ऋषि, वशिष्ठ मुनि, विश्वामित्र मुनि समय-समय पर आते थे और वहां सत्संग होता था। विशेषकर प्रभु रामचंद्र और अगस्त्यमुनि का संवाद काफी सारे अध्यायों में वर्णन किया गया है। अगस्त्यमुनि वहां पर आए थे, उनकी राम जी से चर्चा हो रही थी। राम जी ने उनको उच्च आसन पर बिठाया, उनके चरणों में बैठकर बहुत सारे प्रश्न निवेदित किए, रावण के बारे में, सीता के बारे में या जो भी रामायण के विषय में। वे साधु महात्माओं के मुखारविंद से और अधिक अधिक सुनना/जानना चाहते थे ।
इसी प्रसंग में आरंभ में ही रावण किस प्रकार से राक्षस कुल में प्रकट हुआ था, इसकी कथा आती है। वर्णन किया गया है सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा जी थे, उनसे बहुत सारी ब्रह्मऋषि उन ब्रह्मऋषियों में एक पुलस्तय नाम के ऋषि थे। पुलस्तय मुनि के पुत्र का नाम विश्रवा था जिसका विवाह भरद्वाज जी की कन्या के साथ किया गया। जिससे उनको कुबेर नामक पुत्र प्राप्त हो गया, जोकि देवी देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं।
राक्षसी कुल की कन्या जिसका नाम था कैकसी था, जब वह शरण में आई तो विश्ववा मुनि ने उनको भी शरण प्रदान की। इस कैकसी के माध्यम से उनको तीन पुत्र व एक कन्या प्राप्त हुई। रावण, कुंभकरण, विभीषण और शर्पूनखा, जिनके बारे में आप जानते हैं। रावण तो बड़ा राक्षस बना। इन सब ने ब्रह्मा जी की तपस्या की और ब्रह्मा जी से अलग अलग प्रकार के वरदान प्राप्त किए। रावण और कुंभकरण के बारे में बताया जाता है कि कुंभकरण इंद्रासन चाहते थे तो निद्रासन प्राप्त हो गया। वह लगातार छह महीने सोते थे और 6 महीने खाते रहते थे। इस प्रकार से रावण की उत्पत्ति का कथा यहां अगस्त्य मुनि, भगवान् रामचंद्र को बताते हैं। एक बड़ी सुंदर कथा यहां इस प्रकार से आती है कि देवताओं के जो गुरु हैं बृहस्पति, उनके पुत्र कुश ध्वज जो ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त हो चुके थे। कुशध्वज की पुत्री का नाम वेदवती था, वेदवती सर्व गुणों से संपन्न थी लक्ष्मी स्वरूपा सभी दिव्य गुणों से युक्त थी। इसका जन्म ही इसलिए हुआ था ताकि वह भगवान को पति के रूप में प्राप्त कर सके। ब्रह्मर्षि कुशध्वज की बहुत बड़ी इच्छा थी कि भगवान् मेरे दामाद बने। समय-समय पर जब भी कोई आता था, अपना यह भाव वे उसको भी बताते थे कि हां मैं प्रयास में हूं। मैं अपनी पुत्री का विवाह भगवान विष्णु के साथ करना चाहता हूं। वहां पर शुम्भ नाम का एक राक्षस था, जिसको इस वेदवती के प्रति मोह हो गया और वह उससे विवाह करना चाहता था। जब कुशध्वज ब्रह्म ऋषि ने उनको मना किया, सामने तो वह राक्षस कुछ कर नहीं पाया लेकिन जब कुशध्वज विश्राम कर रहे थे, तब उस राक्षस ने सोते हुए ब्रह्मर्षि कुशध्वज की हत्या कर दी। पिताजी का जैसे ही वध हो गया तब कन्या ने यह संकल्प लिया कि मेरे पिताजी का आधा अधूरा संकल्प मैं पूर्ण करूंगी। वह कठोर तपस्या करने लगी जिससे वह भगवान को पति रूप में प्राप्त कर सके। एक बार वह ऐसे ही तपस्या कर रही थी, वहां पर रावण आता है। (हम सभी लोग जानते हैं कि अलग-अलग प्रकार के दोषों का प्रतिनिधित्व करने वैसे काफी सारे राक्षस हैं उसमें जो काम वासना का प्रतीक है, वह रावण है। जब आप रामायण पढ़ेंगे तो आप काफी जगह देखेंगे कि उसने काफी सारी देवियों, उप देवियों अप्सराओं पर जोर जबरदस्ती की।) एकदम ब्रह्मर्षि की पुत्री, ब्रह्म तेज गति से ओतप्रोत जब यह ओजस्वी, तेजस्वी कन्या तप कर रही थी। रावण ने जैसे ही उसको देखा तो उसको मोह हो गया, वह चाहता था कि मैं इस लड़की का भोग करूंगा। वह कामारत होकर वहां गया और अनर्गल बातें करना प्रारंभ कर दिया व अपनी बातों से उस स्त्री को अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करने लगा। उसने पहले तो बड़े प्रेम से पूछा कि आप कौन हो? आप अपने बारे में बताओ? वेदवती ने भी बड़े प्रेम से, श्रद्धा भाव से उत्तर दिया क्योंकि वेदवती को कल्पना नहीं थी कि उसके मन में क्या चल रहा है। उसने अपना परिचय दिया कि मैं ऐसे ऐसे बृहस्पति जी की पौत्री हूं। कुश ध्वज मेरे पिताजी हैं और भगवान श्री विष्णु को मैं पति रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या रत हूं। मैं संकल्प कर चुकी हूं, भगवान को मैं पति रूप में प्राप्त करूंगी। रावण ने कहा कि जो अप्रत्यक्ष है, अप्रकट है, उसकी क्या आकांक्षा करना? भगवदस्वरूप मैं ही हूं। मैं तीनों लोकों का विजेता हूं। शक्तिशाली हूं, सामर्थ्य शील हूं, क्यों नहीं, तुम मेरा वरण करती? वेदवती ने देखा कि रावण जबरदस्ती कर रहा है। बेचारी, वह वहां से भागने का प्रयास करती है। रावण उनके केश पकड़ लेता है। केशों को पकड़कर अपनी ओर खींचने का प्रयास करता है। वेदवती इतनी सत्य संकल्प थी, उसने अपना हाथ ही बाहर निकाला उनका हाथ तलवार के समान धार धार हो गया। उन्होंने अपने हाथ से ही अपने बाल काट लिए और इस तरह वह रावण के चंगुल से छूट कर भागने में समर्थ हो गई। लेकिन जब उसने देखा कि मेरा यह शरीर किसी ना किसी माध्यम से किसी ना किसी प्रकार से रावण जैसे नीच व्यक्ति के द्वारा छेड़ा गया है और अब यह इतना शुद्ध नहीं रहा कि प्रभु चरणों में मैं अर्पित कर सकूं । वह अग्नि में ही प्रविष्ट होती है और कहती है कि फिलहाल तो मेरा संकल्प पूरा नहीं हो रहा है लेकिन भविष्य में मैं भगवान को अपने पति के रूप में प्राप्त करूंगी लेकिन साथ ही साथ मैं संकल्प करती हूं कि हे मूर्ख रावण! जन्म इसलिए हो कि मेरा जन्म ही तुम्हारी मृत्यु का कारण बने।
इस प्रकार कहती है कि मैं तुम्हें श्राप नहीं देना चाहती हूँ पर मेरा जो भगवान को पाने का संकल्प है मेरी जो तपस्या चल रही है उस में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है, मेरी पुण्य की राशि क्षीण हो सकती है। इसलिए मैं तुम्हें श्राप नहीं दे रही लेकिन मैं निश्चित ही तुम्हारी मृत्यु का कारण बंनूँगी।
इस तरह से उसने शरीर छोड़ा, पुनः एक छोटी कन्या बनकर लंका में ही प्रकट हो गई। छोटी सी बच्ची थी, छोटी सी बालिका थी जैसे ही रावण को पता चला एक दिव्य गुणों से युक्त कन्या हमारे राज्य में प्रकट हुई है और रावण ने उसको देखा। रावण के साथ ऐसे बहुत सारे ज्योतिषी, मंत्री, तंत्री चलते थे। वे त्रिकालज्ञ हुआ करते थे। एक मंत्री ने देखा कि इसमें सारे गुण है जो रावण को मौत देने के लिए पर्याप्त है। उसने कहा कि इस कन्या से आप अभी छुटकारा पाइए। रावण ने उस कन्या को उठाया, उसको समुद्र में फेंक दिया। वाल्मीकि रामायण में ऐसा वर्णन है कि वह समुंदर के माध्यम से ही जनकपुर पहुंची जहां पर जनक महाराज स्वर्ण के हल से खेती कर रहे थे। वहां उनको एक पेटिका में यह दिव्य कन्या लेटी हुई मिली। देवी जब भी प्रकट होती है, चाहे वह सीता हो, राधा हो वह कभी भी किसी भी को अपना प्रत्यक्ष माता पिता न बनाकर अयोनिज:, स्वयंभू प्रकट होती हैं। इस प्रकार से जनक महाराज जी को सीता प्राप्त हुई। वही सीता बनी। वही सीता रावण के राज्य को समाप्त करने के लिए रावण के प्राण जाने के निमित्त बन गई। एक बड़ी सुंदर कथा हमें रामायण में सुनने को मिलती है, इसी प्रसंग में यह बहुत ही प्रचलित कथा है और खासकर हम इस्कॉन के भक्त लोग इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। यह बहुत सुंदर प्रसंग महाराज जी के मुखारविंद से हमने काफी बार सुना है। महाप्रभु की लीला से इसका बहुत सुंदर सम्बन्ध आता है, उसको भी थोड़ा स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। महाप्रभु जब दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे। दक्षिण मथुरा के नाम से प्रसिद्ध मदुरई नाम का स्थान है। वहां पर एक रामदास नामक ब्राह्मण थे जो राम जी के बड़े ही निष्ठावान भक्त थे। एक दिन चैतन्य महाप्रभु को अपने यहां दोपहर पर भोजन के लिए बुलाया था लेकिन जैसे ही महाप्रभु वहां पहुंच गए, उन्होंने देखा कि वहां कोई रसोई की व्यवस्था नहीं की गई थी और वे ऐसे ही उदास बैठे हुए थे। महाप्रभु जी ने पूछा- क्या हुआ? वे इतने तल्लीन थे, इतने लीला अनुरक्त थे, लीला में ही प्रविष्ट हुए थे। उन्होंने कहा कि लक्ष्मण जी कंद मूल फल लाने के लिए बाहर गए हैं जब वह लाएंगे तब माता सीता अपने हाथों से बहुत सुंदर रसोई बनाएगी, राम जी को अर्पण करेगी। तब वह हम कुछ ग्रहण कर सकते हैं। तब तक आप विश्राम कीजिए। महाप्रभु ने देखा कि यह कितना अनुरक्त भक्त है। लेकिन जैसे ही उस ब्राह्मण को बाह्यसुधि हुई, उनको पता चला कि महाप्रभु को उन्होंने बुलाया था जो कि साक्षात रामचंद्र हैं। तब उन्होंने बड़ें प्रेम से बहुत सुंदर प्रसाद अपने हाथों से बनाया, महाप्रभु को भर पेट खिलाया, महाप्रभु प्रसन्न हुए। महाप्रभु ने जब आग्रह किया कि आप भी प्रसाद ग्रहण कीजिए तो उन्होंने मना कर दिया कि मुझे प्रसाद नहीं ग्रहण करना हैं क्योंकि मैं बहुत दुखी हूं। महाप्रभु ने पूछा कि तुम क्यों दुखी हो? तब उन्होंने कहा कि मेरी सीता माता, इतनी शुद्ध है, इतनी पवित्र है तो राक्षस रावण जैसा व्यक्ति कैसे सीता को छू सकता है? वह जलकर भस्म क्यों नहीं हो गया? कोई व्यक्ति हो , सामान्य कोई पतिव्रता स्त्री भी हो उसका भी तेज इस ब्रह्मांड में किसी योद्धा द्वारा सहन करने लायक नहीं है। यह तो भगवत स्वरूप, लक्ष्मी स्वरूप सीता माता थी। रावण कैसे छू सकता है? जब ऐसा प्रश्न पूछा तो महाप्रभु ने बड़ें प्रेम से उनको समझाने का प्रयास किया कि यह तो भगवान की एक विशिष्ट लीला होती हैं, सब भगवान के परिकर होते हैं। स्वपार्षद अवतीर्ण...
रावण भी कोई ऐरा गैरा थोड़ी है, भगवान का ही सेवक था जय विजय ही रावण कुंभकरण बने थे। फिर भी उस ब्राह्मण को संतुष्टि नहीं हुई। उसने कहा कि ठीक है, महाप्रभु ,आप कह रहे हैं तो मैं इस बात को स्वीकार करता हूं लेकिन महाप्रभु ने देखा कि वह इतना संतुष्ट नहीं था। तत्पश्चात महाप्रभु पुनः धीरे-धीरे और गहराई में दक्षिण भारत में जाने लगे। जैसे ही वह रामेश्वर पहुंचते हैं, वहां पर उन्होंने धनुषकोटी में स्नान किया, राजा रामचंद्र का दर्शन किया। वहां बड़ा मंदिर था वहां पर महेन्द्र पर्वत का दर्शन किया। उस समय रामेश्वर धाम में साधु संतों में कूर्म पुराण के ऊपर चर्चा चल रही थी। चर्चा का विषय था कि किस प्रकार से जो रावण है जो असली वाली सीता है, उसको नहीं छू पाया था जिसका उसने हरण किया था, वह छाया सीता थी, वह मूल सीता नहीं थी। महाप्रभु ने उस कथा को बड़े ध्यान से सुना और उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने आग्रह किया यह जो भी कूर्म पुराण की प्रतियां आपके पास है, भोजपत्र पर लिखी हुई जो मनुस्क्रिप्ट जिसे कहते हैं, वह मुझे प्रदान कीजिए। मैं आपको इसे पुनः लाकर वापस दे दूंगा। महाप्रभु ने वहां से कूर्म पुराण को प्रत्यक्ष प्रमाण रूप में लेकर पुनः एक बार मदुरई गए। ब्राह्मण से मिले औऱ उसको सारे भोजपत्र खोलकर दिखाएं और समझाया, देखो! किस प्रकार से कथांतर हुआ है।
यह बड़ी ही गोपनीय कथा कूर्म पुराण में आती है,वह ब्राह्मण बड़े ध्यान से सुन रहे थे। महाप्रभु ने उन्हें समझाया कि जैसे ही राजा नासिक पंचवटी में आए थे... आज भी आप नासिक जाएंगे, पंचवटी के सामने एक सीता गुफा है, उसको अग्निगुफ़ा भी कहते हैं। वहां पर प्रविष्ट होकर राजा रामचंद्र ने सीता माता को अग्नि के संरक्षण में रखा था और अग्निदेव ने उनको छाया सीता देवी दी, जिसका वर्णन हम यहां उत्तरकांड में देख रहे हैं। यह वेदवती थी। वह रावण को मारना चाहती थी, वेदवती छाया सीता के रूप में बाहर प्रकट हुई। उसके पश्चात नासिक पंचवटी से रावण ने उस का हरण किया और आगे की लीला आप लोग पिछले कुछ दिनों से सुनते आ रहे हैं। जब युद्ध कांड के अंत में जब माता सीता की परीक्षा की गई, सीता माता अग्नि में प्रविष्ट हुई तो वहां से जो सीता बाहर निकली, इसके विषय में बताया जाता है कि जो प्रविष्ट हुई सीता है, वह छाया सीता है, वेदवती थी। जो अपना संकल्प पूर्ण कर रही थी, उसने रावण का वध करवाया। उसके पश्चात जो मूल सीता थी राजा रामचंद्र के साथ, वह लक्ष्मी स्वरूपा सीता श्रीदेवी हैं, वे प्रकट होती हैं और उसको लेकर राजा रामचंद्र अयोध्या आते हैं।
उनका संबंध बालाजी भगवान से भी आता है। ऐसा कहा जाता है कि जो बालाजी भगवान हैं वह साक्षात रामचंद्र ही हैं। रामचंद्र के ही अवतार हैं या उनका ही विस्तार है। उनके साथ आप श्रीदेवी या भूदेवी/ वेदवती माता जो देखते हैं। आगे चलकर घटना इस प्रकार से है कि जो श्रीवास के रूप में जो अन्य पुराणों में कथा आती है। एक संकल्प इसका पूर्ण हुआ कि मैं रावण का वध कर सकूं या उनके वध का निमित्त कारण अथवा हेतु बन सकूं। दूसरी जो उनकी मूल इच्छा थी कि मैं भगवान के साथ विवाह करूं तो इस रूप में भगवान ने उनकी वह इच्छा पूर्ण की थी। बाला जी ने विधिवत माता वेदवती के साथ विवाह किया हैं। दो जो पत्नियां है -श्रीदेवी, वह लक्ष्मी हैं या सीता माता है। जो भू देवी का स्वरूप है- वह वेदवती हैं, वही पद्मावती माता हैं। इस प्रकार से बहुत सुंदर लीला हमें उत्तरकांड में देखने को मिलती है।
आगे रावण के विषय में कहा गया है कि वह अलग-अलग प्रकार से दिग्विजय आदि कर रहा था लेकिन उसे कुछ ऐसे शक्तिशाली योद्धाओं से भिड़ना पड़ा, जहां पर उसे मुंह की खानी पड़ी अथवा परास्त होना पड़ा। उनमें मुख्य रूप से तीन नाम आते हैं -एक बाली, दूसरे बलि, तीसरे सहस्त्रबाहु अर्जुन जिन्हें कार्त वीर्य अर्जुन भी कहते हैं। तैत्रारैय मुनि की कृपा से उसको हजार हाथ प्राप्त हुए थे। रावण जब इन को जीतने के लिए गया था तब यह परास्त होकर आया था।
भागवत में यह कथा आती है कि एक बार वह सुतल लोक चला गया। वहां बड़े प्रेम से आवाभगत किया गया। बलि महाराज ने घूम घूम कर दिखाया कि किस प्रकार से सुतल लोक, स्वर्ग के ऐश्वर्या से भी बढ़कर है। तब रावण को मोह हो गया कि बाप रे! यहां पर तो कितना सोना है!
उस समय शायद सोने की लंका का निर्माण हो ही रहा था और उसे बहुत सारा सोना चाहिए था। भ्रमण करते करते बलि और रावण एक स्थान पर पहुंचे, जहां पर सोने का पहाड़ था। उसने कहा- बाप रे! आपके यहां तो सोने का पहाड़ है। बलि महाराज के साथ जितने भी अंगरक्षक थे, वे सब हंसने लगे। बलि महाराज ने रावण को कहा कि नहीं! नहीं! यह कोई पहाड़ नहीं है। यह जो हमारे परदादा हरिण्यकशियपु के साथ नरसिंह भगवान का जब भयंकर युद्ध हो रहा था, तब उस समय हरिण्यकशियपु के कान से कुंडल गिरा था, यह वह है, जो आपको पहाड़ लग रहा है। इस तरह उसने वहां पर प्रयास किया और बलि महाराज को कहा कि मैं आपके साथ युद्ध करना चाहता हूं। बलि महाराज ने कहा युद्ध करने के लिए फिलहाल मेरा कोई मूड नहीं है लेकिन मैं आपको लंका पहुंचा सकता हूं। वहां पर वामनदेव भगवान जो द्वार पर पहरेदार बन कर खड़े हैं। वामन देव को आग्रह किया गया। वर्णन किया गया है कि वामन देव ने ऐसी लात मारी उस रावण को कि वह सुतल लोक से सीधे लंका आकर गिर गया। कहीं-कहीं रामचरित्र मानस में ऐसा भी वर्णन है यह जो बलि थे, उन्होंने रावण को ले जाकर घुड़साल में बांध दिया था। वहां छोटे बच्चे आते थे, फटके मार कर चले जाते थे। बलि महाराज को थोड़ी सी दया आ गई और उन्होंने उसको छोड़ दिया। ऐसा भी वर्णन आता है।
जब एक बार रावण अपनी बहुत सारी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में बहुत ही कोलाहल कर रहा था तब सहस्त्रबाहु अर्जुन आते हैं और अपनी सहस्त्र भुजाओं से बहुत बड़ा बांध बना देते हैं। जिससे रावण की सारी पत्नियां, उसकी सारी स्त्रियां और वह खुद भी पानी में बहने लगता है। ऐसी परिस्थिति में सहस्त्रबाहु अर्जुन को रावण बहुत विचित्र पशु लगता है कि कैसे इसके इसके दस दस सिर है। बड़ा ही यह विचित्र प्राणी लगता है। वह उसको बड़ें ही प्रेम से चुटकी से पकड़ते हैं, और लाकर अपने घर में जहां पर बच्चे खेलते थे वहां पर उसको टांग देता है।साक्षात पुलस्त्य मुनि को वहां पर आना पड़ा। मध्यस्थ करना पड़ा और निवेदन करना पड़ा। तब सहस्त्रबाहु अर्जुन, जिसने रावण को विचित्र पशु के रूप में देख कर अपने घर में बांधकर रखा था। उसने रावण को छोड़ दिया। अब रही बात बाली की।
एक बार नदी के तट पर बैठकर बाली गायत्री कर रहे थे। रावण वहां पर भी जाकर कोलाहल कर उनको परेशान करने का प्रयास कर रहा था भगवान के ध्यान में अवरोध उत्पन्न ना हो, इसलिए बाली ने उसको अपने कांख में पकड़ा। वर्णन किया गया है कि एक, दो नहीं, अपितु पूरे 6 महीने तक वे उसको अपने कांख में ही पकड़ कर घूमते थे। वैसे ही सोते थे, वैसे ही उठते थे, वैसे ही खाते थे। इस प्रकार से रावण बहुत ही जगह पर लज्जित हुआ है लेकिन जो राक्षसी प्रवृत्ति के लोग होते हैं वह बड़े ही निर्लज्ज होते हैं और इस तरह के भौतिकता पूर्ण कार्य करने में उनको कोई भी संकोच नहीं होता है।
आगे हनुमान जी की उत्पति का वर्णन किया गया है। सुमेरु पर्वत के ऊपर एक वानर राज राज्य किया करते थे जिनका नाम केसरी था और जिनकी पत्नी का नाम था अंजना। वायु देव की कृपा से इनको एक अंश प्राप्त हुआ जो पवन पुत्र हनुमान बने। वायु पुत्र बड़े ही ओजस्वी तेजस्वी हनुमान हैं। एक दिन उनको जब बहुत तेज भूख लगी थी , उनकी माता ने उनको किसी पालने में या जमीन पर लिटा दिया था। उन्होंने उगता हुआ सूर्य देखा तो उनको लगा कि यह फल है वह खाने के लिए गए। ऐसा रामायण में वर्णन है। जैसे ही वह बड़ी तेजी से सूर्य की ओर बढ़ रहे थे तो सारे देवी देवता चिंतित हो गए थे। वहां पर राहु भी आ गया था क्योंकि वह ग्रहण का समय था। राहु भी खाना चाहता था, तब हनुमान जी को लगा कि यह मेरे कंपटीशन में है। यह मेरे साथ प्रतियोगिता कर रहा है और यह इस फल को खाना चाहता है। तब राहु को बजरंगबली हनुमान जी ने लात मार दी तब बेचारा अलग-अलग प्रकार से गुलाटिया खाता हुआ, बहुत दूर जाकर गिरा और डर गया। डर के वह देवराज इंद्र के पास जाकर हनुमान जी की शिकायत करने लगा कि मेरे हक को कोई हनुमान छीन रहा है। मुझे खाना चाहिए लेकिन हनुमान खुद सूर्य को ग्रहण कर रहे हैं। तब देवराज इंद्र ऐरावत के ऊपर बैठकर आते हैं। ऐरावत को आगे करते हैं कि जाओ, इस शक्तिशाली बालक को नीचे गिरा दो। जैसे ही ऐरावत वहां पर उसको सूंड से मारने के लिए आता है, हनुमान जी उसकी पूछं घुमाकर इधर उधर पटक देते हैं। देवराज इंद्र के हाथी के शरीर से रक्त निकलने लगता है, उसके पश्चात कोई परिस्थिति अनुकूल ना देखते हुए देवराज इंद्र ने अपना व्रज निकाला और हनुमान जी की ठुड्डी पर प्रहार किया। उसकी वजह से हनुमान जी बेहोश हो गए। बेसुध हो गए, उनके जो पिताजी हैं पवन देव बड़े नाराज होते हैं। इस तरह से सारे संसार की पवन को एकत्र कर लेते हैं जिससे हर किसी को सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। ब्रह्माजी देवी देवता वहां पर उपस्थित हुए। सब वायु देव से क्षमा याचना करते हैं तब सबने हनुमान जी को पुनः प्रकट कर दिया, सशक्त बना दिया। बहुत सारे देवी देवताओं ने उनको बहुत सारे अलग-अलग प्रकार से वरदान दिए। जैसे शिवजी ने कहा कि तुम किसी भी शास्त्र से नहीं मरोगे, व्रज जैसा तुम्हारा शरीर बन जाएगा इसलिए उनका नाम वजरंगी हो गया। चूंकि उस व्रज से हनुमान जी की ठुड्डी पर मार दिया गया था, जिसे हनु भी कहते हैं। वहां पर सूजन सी हो गई थी। इसलिए इंद्र में उनका नाम रखा हनुमान। जय हनुमान!
इस प्रकार से हनुमान जी की बाल लीलाओं का संक्षिप्त में थोड़ा सा वर्णन किया गया है। जब राजा रामचंद्र यहां पर आए थे तो सीता माता का परित्याग करना पड़ा। एक धोबी था जिसकी पत्नी काफी समय दूसरे घर ननिहाल / ससुराल/ मायके में रह कर आई थी। वह धोबी बड़ा नाराज होकर कह रहा था कि मैं राम थोड़ी हूं जिसकी पत्नी इतने दिन बाहर रहकर आई और पुनः स्वीकार कर लूंगा। राम जी ने लक्ष्मण जी से कहा- आप एक काम करो, सीता को आप जंगल में छोड़ कर आओ। लक्ष्मण जी उनको वाल्मीकि मुनि के आश्रम में छोड़ कर आते हैं। उसके पश्चात सीता माता ने लव और कुश दो पुत्रों को जो बहुत ही ओजस्वी तेजस्वी हैं, को जन्म देती हैं। लव कुश आश्रम में ही सभी प्रकार की विद्याओं को प्राप्त करते हैं। इसी संदर्भ में हम देखते हैं जो प्रसिद्ध कुत्ते की कथा है, वो यहां पर आती है। राजा रामचंद्र कहा करते थे कि जो भी अभिलाषी है, वह मेरे द्वार पर आए। एक दिन लक्ष्मण जी बाहर गए उन्होंने देखा कि एक कुत्ता खड़ा है। वह भी कुछ बोलना चाहता है। लक्ष्मण जी ने कहा- आइए, आपको भी हम न्याय प्रदान करते हैं। कुत्ते ने कहा कि जब तक राजा रामचंद्र परमिशन नहीं देंगे तब तक मैं भीतर नहीं आऊंगा। राम जी ने जब उनको भीतर बुलाया, तब ये कुत्ता रामचंद्र से कहने लगा किस प्रकार से बहुत सारे ब्राह्मण थे, बहुत सारा यज्ञ चल रहा था तो जब वह उठ गए तो मुझे लगा मेरा भाग है। मैंने खाने का प्रयास किया ब्राह्मणों ने मुझ पर प्रहार किया। उसके सिर से रक्त बह रहा था। राजा रामचंद्र ने उन ब्राह्मणों को बुलाया।तब उन ब्राह्मणों ने भी कबूला कि हां, हमनें ऐसा अपराध किया है। अब इनको क्या दंड दिया जाए क्योंकि ब्राह्मण तो अदंडनीय होते हैं। रामचंद्र जी ने कुत्ते से ही पूछा कि इनको क्या दंड दिया जाए? तब कुत्ते ने कहा कि "आप इनको मठाधीश बना दीजिए, आप इन को किसी एक मंदिर का अध्यक्ष बना दीजिए। पूर्व जन्म में मैं भी एक कालंजर नाम के मठ का अधिपति था और मैं भगवान् की बहुत अच्छे से सेवा करता था। फिर भी कुछ ना कुछ गलतियां रह जाती थी तो मैं कुत्ता बन गया। सोचिए जब ऐसे पापी-तापी मठाधीश बन जायेगें तो कितनी तुच्छ योनि में ये लोग चले जाएंगे। इसलिए मैं चाहता हूं कि आप इनको मठाधीश बना दीजिए।"
उसी प्रसंग में ऐसे कहा गया है कि कोई व्यक्ति सपरिवार नर्कगामी होना चाहता है
सब परिवार नर्क गामी होना चाहता है या नरक जाना चाहता है या किसी को नरक भेजना है तो कहते हैं कि उनको देवता, गो, ब्राह्मण, वैष्णव का अधिष्टाता बना दो उनके चरणों में स्वयं अपराध हो जाएगा। यह अधोगति को प्राप्त हो जाएंगे। ऐसे संक्षिप्त में कथा आती है। राजा रामचंद्र राय अयोध्या में राज्य कर रहे थे तो तीनों जो अलग-अलग भाई थे, वे अलग-अलग दिशा में जाकर दिग्विजय कर रहे थे। इसी प्रसंग में शत्रुघ्न की कथा आती है, लवणासुर नामक राक्षस का उन्होंने वध किया। लवणासुर का वध करने के पश्चात देवी देवताओं की मदद से वहां पर उन्होंने बहुत सुंदर एक स्वर्ण की नगरी निमार्ण की। जिसका नाम मधुपुरी है उसे मधुरा कहते हैं उन्होंने मधुरापुरी का निर्माण किया जिसे हम मथुरा भी कहते हैं। वह शत्रुघ्न के द्वारा बसाई गई थी, उन्होंने 12 वर्षों तक वहां राज्य किया, पुनः मिलने के लिए रामचंद्र के पास आए। राजा रामचंद्र ने अश्वमेध यज्ञ किया। जिस का घोड़ा लव कुश ने वाल्मीकि के आश्रम में पकड़ा। इसके पश्चात जब उनको राज्यसभा में बुलाया गया, वहां पर लव कुश ने रामायण को गाया है। सीता महारानी की शुद्धि को प्रस्तुत करने का प्रयास किया किंतु फिर भी कुछ लोगों के मन में किंतु परंतु था। इस बात को सीता माता सहन नहीं कर पाई और वह रसातल भूमि में लुप्त हो गई। सीता महारानी का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए वाल्मीकि मुनि ने राजा रामचंद्र को बहुत समझाया। राजा रामचंद्र जी को बहुत खेद हो गया कि मैंने सीता को गंवाया है लेकिन उन्होंने बड़े प्रेम से लव-कुश को स्वीकार किया और लव कुश को वशिष्ठ मुनि के अनुसार उनके मार्गदर्शन में अयोध्या का राजा बनाया गया। भागवतम् में वर्णन आता है कि 13000 वर्षों तक और रामायण में वर्णन आता है 11000 वर्ष तक राजा रामचंद्र ने इस भू लोक इस अयोध्या का राज्य किया। उसके पश्चात उन्होंने धीरे-धीरे लीला का समापन किस प्रकार से किया है। ( क्षमा कीजिए ज्यादा नहीं एक 2 मिनट मैं आपके और लूंगा) जब भगवान की लीला समाप्त होती है तो देवी देवताओं के द्वारा भगवान को सूचित किया जाता है। इस लीला को हमने कृष्ण लीला में भी देखा है और महाप्रभु की लीला में भी देखा है कि प्रभु! अब आपका कोई कार्य नहीं रहा। आप भगवत धाम वापस जा सकते हैं, देवताओं के द्वारा निवेदन किया जाता था। उसी प्रकार से महाकाल एक बार साक्षात राम जी को मिलने के लिए आए, वह राम जी से बात करना चाहते थे। लक्ष्मण जी बगल में खड़े थे उन्होंने कहा हम दोनों ही बात करेंगे, बीच में कोई नहीं आएगा। आप प्रतिज्ञा कीजिए यदि कोई बीच में व्यवधान उत्पन्न करता है आप उसका सर विच्छेद कर देंगे या उसका परित्याग कर देंगे। राजा रामचंद्र ने लक्ष्मण से कहा कि आप द्वार पर खड़े रहो, किसी को भी भीतर मत आने देना। जब इनकी चर्चा चल ही रही थी किंतु वहां पर दुर्वासा ऋषि आए। दुर्वासा ऋषि ने कहा कि मैं राम जी से मिलना चाहता हूं। लक्ष्मण जी ने मना किया, लक्ष्मण जी ने मना किया तो वे बड़े नाराज हो गए और कहा कि आप के जितने भी बच्चे हैं, मैं ऐसा श्राप दे दूंगा कि वे सब लुप्त हो जाएंगे। आपका सारा वंश नष्ट हो जाएगा तब मजबूरन लक्ष्मण जी को प्रविष्ट होकर राम जी को सूचित करना पड़ा कि दुर्वासा मुनि आए हैं। तत्पश्चात राम जी ने दुर्वासा जी का सादर सत्कार किया और उनकी सेवा की। उसके पश्चात राम जी को मजबूरन वशिष्ठ मुनि सारे धर्मज्ञाता आदि एकत्रित हुए और कहा कि आपको धर्म को रखने के लिए, धर्म का अधिष्ठान करने के लिए आपको लक्ष्मण को दंडित करना पड़ेगा। राम जी ने कहा कि मैं लक्ष्मण को प्राणदंड तो नहीं दे सकता लेकिन मैं उसको अपने से अलग होने की आज्ञा प्रदान करता हूं। आप अयोध्या से निष्कासित किए जाते हो, कृपया आप निकल जाइए। लक्ष्मण जी को केवल इतना कहना बाकी था कि आप अयोध्या छोड़ कर चले जाइए, वही लक्ष्मण जी के लिए मृत्यु के समान था। लक्ष्मण जी सरयू के तट पर जाते हैं और सरयू की तरफ उन्मुख होकर भगवान का चिंतन करते हैं और शेष रूप में प्रकट होकर सरयू जी में प्रवेश करते हैं व अपने क्षीरसागर में चले जाते हैं। भगवत धाम अनंत शेष के रूप में चले जाते हैं। उसके पश्चात राजा रामचंद्र अपनी सारी सेना अपने प्रजा वासियों को बुलाते हैं और एक बड़ा सुंदर उपदेश उनको प्रदान करते हैं। उसके पश्चात बहुत ही बड़ा पुष्पक विमान आता है, उसके ऊपर सारी प्रजा को बिठाकर राजा रामचंद्र साकेत धाम को चले जाते हैं। वर्णन किया गया है कि जाने से पहले उन्होंने 5 लोगों को पीछे रखा। उन 5 लोगों में हम देखते हैं कि सबसे पहले हनुमान जी हैं, विभीषण है, जाम्बवान है, मेंद नाम के एक वानर थे और विविध नामक वानर थे, जिनकी कथा हम कृष्ण लीला में भी देखते हैं। इस प्रकार से 5 लोगों को उन्होंने पीछे रखा, उसमें से हनुमान और विभीषण अमर बन गए। जामवंत, मेंद, विविध द्वापर युग के अंत में मर गए या उनका हनन करना पड़ा। इस प्रकार से राजा रामचंद्र हनुमान जी से कहते हैं कि जहां जहां मेरी कथा हो रही है, मेरे नाम का गुणगान हो रहा है, हनुमान जी, उस स्थान को पवित्र बनाए रखने के लिए, उसकी सुरक्षा के लिए मैं आग्रह करता हूं। कलियुग के अंत तक आप यहां पर निवास करो, राम भक्तों की रक्षा करो। उनके दिव्य सत्संग कथा कीर्तन में किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न ना हो, उसकी देखभाल आप करो। उसी राम जी की आज्ञा का अनुपालन हनुमान जी आज भी कर रहे हैं। हम देखते हैं कि कितने भी बड़े धर्म संकट में सत्संग होता है तो कुछ ना कुछ ऐसा पर्याय हो जाता है कि कथा कीर्तन बड़ी सुकृत स्वीकृति से पार हो जाती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण करोना काल में हम देख सकते हैं कि सत्संग में इतनी पहुंच भक्तों की नहीं थी, एक दूसरे को देखना तक मुश्किल हो गया था लेकिन महाराज जी की कृपा से हम देखते हैं कि ऐसा ही प्रकरण नाम जप (जपा टॉक) का शुरू हो गया, अब हम देखते हैं दो दो आईडी हैं । उसमें भी हम देखते हैं हजार हजार लोग उपस्थित हैं, कथा सुनते हैं। हम देखते हैं कोई ना कोई ऐसा पर्याय रास्ता निकल जाता है जिसका अनंत गुणा फल हो जाता है । सारे भक्तों के लिए संभव नहीं हो पा रहा था की सबको जाकर मिलना लेकिन अब हम देखते हैं कि बैठे बैठे हजारों लोगों को प्रचार प्रसार इस माध्यम से किया जा रहा है। यह बहुत विशेष बात है। साकेत धाम का अंग स्वरूप धाम है, ब्रह्म लोक के बगल में जिसे साकेत धाम कहा गया है।
अपने सारे प्रजा वासियों को लेकर रामचंद्र पुष्पक विमान पर विद्यमान होकर अपने साकेत धाम को लौट जाते हैं। इस तरह से रामायण ग्रंथ का संवरण हो जाता है। ग्रंथ की महिमा का गान अंतिम अध्याय में किया गया है। इस तरह से इस ग्रंथ को विश्राम दिया गया है ।बहुत-बहुत धन्यवाद हरे कृष्ण।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
महाराज की आज्ञा से महाराज की कृपया से पदमाली प्रभु ने मुझे यह सेवा दी, इसके लिए हृदय से उनका धन्यवाद। मैं आभारी हूं।