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जप चर्चा परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी द्वारा दिनाँक - 29 मई हरे कृष्ण पिछले कुछ दिनों से ये जो सत्र चल रहे हैं, शिक्षाष्टकम् की भी कक्षाएं चलती रही और अब अपराधों का भी अध्ययन हो रहा है। इन दोनों के पीछे का उद्देश्य विशेष है ताकि हमारी हरि नाम प्रभु की सेवा शुद्ध हो या यह शिक्षाष्टकम श्रवण करके। हरि हरि जप तो चलता ही रहता है, परंतु इस जप को कैसे सुधारा जा सकता है? तो इसके लिए जपा टॉकस होते हैं नाम अपराध को लेकर यह बड़े महत्वपूर्ण हैं वैसे अपराध तो नगण्य हैं, दे आर यूज़लेस, हमें यूजलेसनेस को समझना है, इतना समझना है कि वह यूजफुल नहीं है यूज़ लेस है और हमें वह करना ही नहीं है जबकि हम उसका उपयोग करते हुए जप करते रहते हैं जबकि समझना है कि हमें उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। अपराधों को मारो गोली कहो छोड़ो, जाओ या फिर जब भगवान श्रीकृष्ण कहे, सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श‍ुच: ॥ (श्रीमद् भगवद्-गीता 18.66) अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत। (श्रीमद् भगवद्-गीता 18.66) हमें भगवान के नाम का आश्रय लेना है, यह आश्रय लेने में जो बाधा उत्पन्न करते हैं वह अपराध है। नास्तिक लोग जो होते हैं या अधार्मिक लोग कहो वह अपराध करते रहते हैं। वह पापी होते हैं, लेकिन लोग जैसे ही धार्मिक बनने लगते हैं या आस्तिक बनने लगते हैं अस्ति मतलब भगवान है और कुछ वह भगवान की आराधना करने लगते हैं, धार्मिकता को अपनाते हैं तो उनके कुछ अपराध शुरू हो जाते हैं। ये नोट कर लेना तो हम लोग अब आस्तिक बने हैं या धार्मिक या कृष्ण कॉन्शसनेस में आ रहे हैं, धरम के मार्ग पर हैं तो हम लोग पाप कम कर देते हैं वैसे महापाप तो चार हैं - मांस भक्षण, अवैध स्त्री पुरुष संग, नशा पान और जुआ खेलना इनको महापाप कहा गया है। हम ऐसे पाप तो नहीं करते हैं लेकिन हम से क्या होता है हमसे अपराध होते हैं और वह फिर अपराध - सेवा अपराध है, विग्रह सेवा अपराध है, वैष्णव अपराध नाम अपराध है। हम पाप नहीं करते हम पापी नहीं हैं किंतु हम अपराध करते हैं हम अपराधी हैं । कैसे हम नाम प्रभु की सेवा कैसे हम निरपराध करें ? नाम अपराध 10 हैं और हम अपराधों के विषय में कुछ बात भी करते हैं (कंठस्थ किए होते हैं) उसको रट् लेते हैं अधिकतर तोते जैसा ही रट् लेते हैं। पता नहीं क्या कहा या क्या कह रहे हैं केवल रटते ही रहते हैं उसको कंठस्थ ही किया है, ह्रदयंगम नहीं किया तो हम अपराध करते रहेंगे, नाम की जो साधना है मतलब नाम जप की जो साधना है और फिर नाम जप साधना की सिद्धि भी कहते हैं, नाम सिद्धी-नाम सिद्धि मतलब नाम जप की हो गई सिद्धि अर्थात नाम जप सिद्ध हो गया। हम साधक है तो सिद्ध हो गए, हमको क्या होना चाहिए हमको कृष्ण प्रेम प्राप्त होना चाहिए। नाम की सिद्धि कृष्ण प्रेम प्राप्ति में है नहीं तो कैसी सिद्धि। तो जब तक नाम अपराध की नाम प्रभु की नाम सिद्धि की बातें हो रही है या नामदेव की बातें हो रही हैं, नाम देव - महाराष्ट्र में नामदेव कौन हैं? एक महान संत हैं, ज्ञानेश्वर के साथ ही थे हम ऐसा सोचने लगते हैं कि नामदेव लेकिन नामदेव तो भगवान का नाम है कैसे देव- नामदेव जैसे हरिदेव कैसे देव -हरि हरि , नाम देव भगवान नाम है यानी नामरूप कली काले नाम रुपे कृष्ण अवतार जैसे ही हम कुछ दिनों से अपराधों की चर्चा कर रहे हैं, अपराधों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। मैं स्वयं भी अधिक अधिक इसकी महिमा समझ रहा हूं, इनको समझना कितनी महत्वपूर्ण बात है क्योंकि इसको समझे बिना हम इसको टाल नहीं सकते। मुझे कहा गया है आज मेरी बारी है, कई दिनों से इन अपराधों को समझने का प्रयास चल रहा है। एक-एक करके 6 अपराधों की चर्चा हो चुकी है और आज हम अपराध संख्या सात और आठ को समझेंगे। यह सारे 10 नाम अपराध पद्मपुराण के स्वर्ग खंड में आते हैं। पद्म पुराण में इन 10 नाम अपराधों का उल्लेख हुआ है, दुनिया वाले या फिर यह कहो कि हिंदू जगत के जन उनको तो चिंता भी नहीं होती, किसको पता होता है कि नाम अपराध भी होते हैं। नाम जप या कीर्तन तो कई सारे जन्म से लोग करते रहते हैं, केवल हरे कृष्ण वाले ही नहीं हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण का कीर्तन या जप करने वाले या और भी भगवान के नाम हैं यह भी है इसका कीर्तन और जप करने वाले लोग असंख्य हैं । लेकिन नहीं नाम अपराध भी होते हैं नाम अपराध मत करो क्यों अपराधहीन जप होना चाहिए। इस पर तो चर्चा होती ही नहीं सुनने भी नहीं आता ये नाम अपराध भी कुछ होते हैं वह क्या चीज है किसी ने सुना नहीं, कोई कहता नहीं, किसी से सुना नहीं और इन नाम अपराधों को सुनना समझना महत्वपूर्ण है। जितना जप करना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण इन 10 नाम अपराधों को समझना और समझ के इन 10 नाम अपराधों से बचने का प्रयास भी महत्वपूर्ण है। इसलिए हम लोग इसे गंभीरता से लें और कुछ दिनों तक यह पाठ तो चलता ही रहेगा लेकिन इसके उपरांत भी आप इसे भूलेगा नहीं इन 10 नाम अपराधों को केवल याद ही नहीं रखना है। यह भी याद रखना है कि इनको टालना है, इनसे बचना है और यदि ऐसा नहीं करेंगे तो बहुत जन्म जन्मांतर के नाम जप या नाम कीर्तन के उपरांत भी कृष्ण प्रेम को भूल जाओ। कृष्ण प्रेम नहीं प्राप्त होने वाला है ऐसा शास्त्रों का वचन है। सावधान धर्म: स्वनुष्ठित: पुंसां विष्वक्सेनकथासु य: ।नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ (श्रीमद् भागवतम 1.2.8) अनुवाद :- मनुष्य द्वारा अपने पद के अनुसार सम्पन्न की गई वृत्तियाँ यदि भगवान् के सन्देश के प्रति आकर्षण उत्पन्न न कर सकें, तो वे निरी व्यर्थ का श्रम होती हैं। फिर हमारी रति हमारा प्रेम भगवन्नाम में उत्पन्न नहीं हुआ तो जो हमारे सारे प्रयास रहे वे श्रम एवं ही केवलम हैं। हमने केवल खाली फोकट श्रम ही किया मैं आपको यह कहने का प्रयास ही कर रहा हूं, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है नाम अपराध वाली बात को समझना और इसको टालना । पद्म पुराण में जैसे लिखा है सातवाँ और आठवां नाम अपराध नामों बलात् यस्य ही पाप बुद्धि ना विद्यते तस्य यामी ही शुद्धि इसका भाषांतर या आप जिसको रट्ते रहते हो कंठस्थ किए हो वह है, जिनकी नाम के बल पर पाप करने की बुद्धि होती है। फिर से ध्यान पूर्वक सुने नहीं तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ने वाला है उनकी यम नियम आदि यौगिक प्रक्रियाओं से भी शुद्धि नहीं होती है और अगला आठवां है धर्म व्रत त्याग हुतादि सर्व शुभ क्रिया समान अपि प्रमाध: अनुवाद:- हरे कृष्ण महामंत्र के जप को वेदों में वर्णित एक शुभ सकाम कर्म, कर्मकांड के समान समझना, धर्म व्रत त्याग होम आदि के समान समझना वैसे इन सारे अपराधों की चर्चा श्रील भक्ति विनोद ठाकुर अपने जैव धर्म नामक पुुुस्तक के एक अध्याय में, जैव धर्म अर्थात जीव का धर्म, वैसे कलयुग में जीव का धर्म तो नाम संकीर्तन है। भक्ति विनोद ठाकुर ने इन नाम अपराधों को विस्तार से समझाया है, वह भी इस ग्रंथ में जो शिक्षा अष्टकम नामक ग्रंथ है उसका समावेश किया गया है। आपने उस ग्रंथ को प्राप्त किया या नहीं, किस किस के पास यह ग्रंथ है? कुछ भी हेंड रेज नहीं हो रहे हैं। कुछ लोगों के पास यह है, अधिकतर लोगों के पास यह ग्रंथ नहीं पहुंचा है। जरूर प्राप्त कीजिए इसका अध्ययन बहुत आवश्यक है और फिर अध्ययन के उपरांत इस पर मनन और अमल को हमें करते ही रहना है । जो सातवा नाम अपराध है कि नाम के बल पर पाप करना इसे संक्षेप में कहा जाता है। नाम के बल पर पाप करना पहले ही कह दूं आपसे इन दोनों नाम अपराधों का संबंध एक नाम अपराध नंबर 2 से संबंध है। देवी देवताओं को भगवान के समान अथवा उनसे स्वतंत्र समझना, ये जो दूसरा नाम अपराध है उसके साथ ही सातवाँ और आठवां अपराध जुड़े हुए हैं। वैसे सातवें और आठवें अपराधों का भी आपस में परस्पर संबंध है और शिक्षा अष्टकम का न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्‌भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ इस चतुर्थ शिक्षा अष्टकम के साथ भी इन दोनों सातवे तथा आठवें अपराध का सीधा संबंध है। नाम इतना बलवान है कि शास्त्रों में कहा गया है नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् । प्रणामो दु:खशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥ (श्रीमद् भागवतम 12.13.23) अनुवाद:- मैं उन भगवान् हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है। सभी पापों का नाश कर सकता है और ऐसा भी कहा है कि ऐसा कोई पाप नहीं है जिसका विनाश या जिससे मुक्ति हरि नाम से नहीं होगी । किबा मन्त्र दिला , गोसाञि , किबा तार बल। जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल ॥ अनुवाद:- हे प्रभु, आपने मुझे कैसा मन्त्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ।” ऐसा चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कितना बलवान है यह शक्तिशाली है। चैतन्य महाप्रभु भी ने कहा है , नामनामकारी बहुदा निज सर्व शक्ति: तत्रापिता मैंने अपनी शक्ति इसमें ठूँस ठूँस भरी हुई है। नाम इतना बलवान है जितना भगवान शक्तिमान है, जितना हम भगवान के नाम का, शक्ति का महिमा सुने होते हैं, इसका हम लोग फायदा उठाने की जो प्रवृत्ति है, बुद्धि है वही है सातवाँ नाम अपराध। नाम इतना बलवान है कि हम पुनः पुनः पाप करने लगते हैं, कुछ पाप हो जाए हमसे तो क्या परवाह है बाद में क्या करना है जप तो करना ही है। आज दिन भर पाप करें, कल जप तो करना ही है क्योंकि नाम बहुत बलवान है। हम मुक्त हो जाएंगे या हम कुंभ मेले जाएंगे गंगा तेरा पानी अमृत, गंगा का जल अमृत है हमको अमर बना सकता है। मुक्त करा सकता है तो चलो एक कुंभ मेले से दूसरे कुंभ मेले तक पाप करते जाएंगे और फिर जाकर गंगा में डुबकी लगाएंगे हो गए। मुक्त तो यह गंगा में जो बल है या हरिनाम में जो बल है इसका फायदा उठाने का और जानबूझकर जान के यह करने का की हरी नाम में हमारे पाप को धूल मिलाने की, मिटाने की शक्ति है यह जानकर भी हम पाप या अपराध करते जाए तो यह अपराध है। वैसे अनजाने कुछ अपराध हो जाते हैं दुर्घटना वर्ष हमारी पुरानी आदतों से आदतें छुटती नहीं। इसमें पाप होता रहता है उस पाप की बात नहीं हो रही है, हमने कहा भी कि जाने और अनजाने। अनजाने तो पाप हो जाते हैं वह भी नहीं होने चाहिए। किंतु जाने अनजाने जानबूझकर हम पाप करते हैं यह जानकर कि हरि नाम में इतनी शक्ति है तो थोड़ा पाप कर लिया तो क्या हो गया यह जो बुद्धि है यह विपरीत बुद्धि है, ऐसी योजना से हमे बचना है। पाप करने की बुद्धि हम बनाए रखते हैं। नामों बलात् यस्य ही पाप बुद्धि ना विद्यते तस्य यामी ही शुद्धि फिर यहां कहा है कि इस अपराध में यम नियम हैं, यह भी हमारा कुछ सुधार नहीं कर पाएंगे कि यम मतलब विधि निषेध जो है यह करो यह मत करो यह भी हमारी मदद नहीं करेंगे क्योंकि हमारे दिमाग में यह पाप बुद्धि घुसी हुई है और हम उस से मुक्त होना नहीं चाहते। यम नियम से तो शुद्ध ही होना है फिर आसन प्राणायाम और प्रत्याहार अत्याहार और प्रत्याहार, हर इंद्रिया का जो आहार होता है सिर्फ जिह्वा का या मुख का ही आहार नहीं होता। रूप- रंग, रस गंध शब्द स्पर्श यह इंद्रियों के विषय हैं और यह जो अलग-अलग इंद्रियां हैं ज्ञानेंद्रियां इसका भक्षण करते ही रहते हैं लेकिन यह प्रत्याहार करने की बजाय साधक अत्याहार या आहार करता ही रहता है। पाप करता ही रहता है यह सोच कर कि नाम में इतना बल है तो मैं मुक्त हो ही जाऊंगा तो यम नियम या अष्टांग विधि ही है। यह क्या कर सकती है कुछ सुधार नहीं कर सकती समाधिस्थ केशव। हम समाधिस्थ योगस्थ नहीं होंगे। योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते || "योगस्थ कुरु कर्माणि" योग में स्थित होकर, समाधिस्थ होकर हमें भगवान की सेवा करनी है तो हम योगस्थ और समाधिस्थ नहीं होंगे। यह माया वादियों की समाधि की बात नहीं है। वह तो ब्रह्मलीन होना चाहते हैं तो यह यम नियम अष्टांग योग कुछ हमारा फायदा नहीं कर पाएगा ।जब तक हम यह पाप बुद्धि बनाए रखेंगे,हरी हरी समझ गए आप कुछ तो समझे होंगे ही लेकिन शायद उस पर मनन करना होगा या पुनःपुनः इसको समझने का और भी प्रयास हमको करना होगा और साथ ही साथ शिक्षाष्टकम् जैसे ग्रंथों का हमें अध्ययन करना होगा । बोधयंत परसपरम चर्चा करते हुए या ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति! भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्। [लेना, देना, खाना, खिलाना, रहस्य बताना और उन्हें सुनना ये सभी 6 प्रेम के लक्षण है!] मैं सोच रहा था मैं तो वही कर रहा हूं, गोपनीय बातें हैं गहरी बातें हैं इनको मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूं और यह प्रीति लक्षण है। मेरा आपसे जो प्रेम है उसका ही यह लक्षण और दर्शन भी हो सकता है पता नहीं आप क्या मान रहे हो आई लव यू कहो मैं कह रहा हूं, मेरा आपसे प्रेम है इसलिए मैं चाहता हूं आप सब इन अपराधों को भलीभांति समझे और समझकर अमल करें और कृष्ण प्रेम को प्राप्त करें जो जीवन का लक्ष्य है। दस नाम अपराध कहने के बाद भी वैसे हम यह कहते रहते हैं। अब आठवां अपराध है हरे कृष्ण महामंत्र के जप को वेदों में वर्णित एक शुभ सकाम कर्म, धर्म, व्रत, त्याग, होम आदि के समान समझना तो यह समान नहीं है जैसे देवता और भगवान कृष्ण समान नहीं है वैसे ही यह कुछ धार्मिक कृत्य या जिनको शुभ कृत्य कहे हैं। जैसे यज्ञ है और तप है सबको अलग-अलग कर्मकांड , वेद भरे पड़े हैं कर्मकांड से। यह कर्मकांड यह विधि विधान और भक्ति का जो यह कर्म उसमें भी जो नाम जप यह एक ही बराबर है। एक ही बात है लेकिन यह एक बात नहीं है एक ही बात कहने वाले लोग फिर कहते हैं, मानव सेवा माधव सेवा लेकिन मानव सेवा यह समाज सेवा देश सेवा मानव जाति की सेवा के लिए कई सारे अस्पताल खोलते हैं, स्कूल कॉलेज खोलते हैं या कोई दान धर्म करते हैं अन्य दान करते हैं। ऐसे कई प्रकार से वह सेवा करते हैं तो उस सेवा की तुलना हरि नाम जप के स्तर पर है ऐसा समझना अपराध है। हरि हरि हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह करना गजब ध्यान करना यह तो कृष्ण की सेवा है यह तो नाम भगवान है और जो पुण्य कर्म करने वाले हैं यज्ञ भी करते हैं और अलग-अलग देवी देवता को आहुति चढ़ाते हैं। वह तो पंच उपासना के अंतर्गत हुआ यदि देवो की उपासना वहां कर रहे हो और यह तो कृष्ण की उपासना है तो दोनों उपासना एक स्तर की नहीं है या एक ही है यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः|भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् || (श्रीमद भागवतम 9.25) देवा नाम यजोयंती कृष्ण ने कहा जो देवी देवताओं के पुजारी हैं जो कर्मकांड करने वाले देवी-देवताओं की आराधना करते अपनी कोई आकांक्षा या महत्वाकांक्षा को लेकर किसी विशिष्ट देवता की आराधना करते हैं । कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः | तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया || (श्रीमद भगवद्गीता 7.20) प्रपद्यंते अन्य देवता, जो कामी होते हैं अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए अन्य देवी देवताओं का आश्रय लेते हैं। आराधना करते हैं, यज्ञ करते हैं और उसी के अंतर्गत कुछ पुण्य कर्म करने को प्रेरित होते हैं तो उसकी तुलना, ऐसा करोगे तो करते रहो लेकिन कहां पहुंचोग़े, देवों के स्वर्ग में पहुंचेंगे । जो मेरी आराधना करते हैं वह मेरे पास आते हैं कृष्ण भगवत गीता में कह रहे हैं तो पुण्य कर्म का फल ,जैसे श्री कृष्ण भी कहे , ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || (श्रीमद भगवद्गीता 14.18) भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता में कहा है, वे पुण्यात्मा होते हैं, पुण्य मतलब अच्छे कर्म किंतु वे उत्तम कर्म नहीं होते, गुड होते हैं लेकिन बेस्ट नहीं होते अच्छे होते हैं, सतोगुण में होते हैं। सतोगुण भी हो सकते हैं वे लेकिन गुणातीत नहीं होते भक्ति तो गुणातीत है। त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् || (श्रीमद भगवद्गीता 2.45) सावधान हे अर्जुन वेदों का विषय क्या है तीन गुण लेकिन तुम गुणातीत बनो, वेदों का विषय या उद्देश्य कुछ प्राप्ति कामवासना की तृप्ति के लिए किए जाते हैं लेकिन तुम बनो और तुम भक्ति करो गुणातीत बनो, यह जो जप है यह गुणातीत भक्ति है। यह गुणातीत करते हैं हमने किसी के ऊपर कोई उपकार किया तो श्रील प्रभुपाद का प्रसिद्ध वह वचन या बाते भी है। टाटा या बिड़ला का या अंबानी या अडानी का बेटा ऐसे ही कहीं भटक रहा है तो आपको आई दया और आपने उसको आश्रय दिया और आपके सामर्थ्य के अनुसार कुछ उसकी मदद कर रहे हो सहायता कर रहे हो, यह एक प्रकार हुआ और दूसरा प्रकार क्या है? यह समझना कि यह किसका कितने श्रीमान व्यक्ति का पुत्र है तो यहां क्यों भटक रहे हो जाओ गो बैक चलो तुमको हम घर वापसी तुम्हारे पिता के घर पर पहुंचाते हैं और हम तुमको क्या सुख सुविधा दे सकते हैं। तुम्हारे पिताश्री, हम तो हज़ारपति हैं तुमको हजार रुपए हमारे पास जेब में हैं या हो सकता है हम लखपति हैं तुम्हारे पिताश्री तो करोड़पति, अरबपति हैं तो यही बात है हम इस संसार में समाज सेवा मानव जाति की सेवा करते रहते हैं किंतु इन लोगों को जीवो को यह समझ कर कि वे कृष्ण के हैं येई जीव कृष्णदास सेई विश्वास हमें यह विश्वास है कि हम तुम्हें कृष्ण के पास भेजेंगे तो वहां तो लक्ष्मी सहस्त्र शत संभ्रम चिन्तामणि-प्रकार-सद्मसु कल्प-वृक्ष-लक्षवृतेषु सुरभिर अभिपालयंतम लक्ष्मी-सहस्र-शत-संभ्रम-सेव्यम नम गोविंदम आदि-पुरुषम तम अहम भजामि (श्रीमद भगवद्गीता 5.29) मानव उस गोलोक में तो लाखों करोड़ों लक्ष्मी या गोपियां या राधा रानी जिन श्रीकृष्ण की सेवा करने के लिए उत्कंथीत या सम्भ्रमित होती रहती हैं। हमको यह सोचना पड़ेगा कि हमें सेवा कब मिलेगी, कैसे मिलेगी हमें यह सेवा मिलेगी भी कि नहीं मिलेगी। ऐसे उस धाम में हम कैसे इस जीव को पहुंचा सकते हैं यह उत्तम बात है । यह ठीक है रामानंद राय चैतन्य महाप्रभु को कह रहे थे लेकिन यह उत्तम है। इट्स ओके व्हाट दिस इज द बेस्ट यह सर्वोत्तम है तो हमारे दिमाग में भी ऐसे संस्कार बने हैं की देवी देवताओं के पुजारी हम रहे हैं और सतोगुण ही बनके हमने कई सारे पुण्य कृत्य किए हैं। शायद करना हमने बंद किया होगा किंतु उसकी जो वासना है उसका जो संस्कार है अभी हम पर प्रभावित करते रहते हैं। आच्छादित करते रहते है तो इस विचारों से मुक्त होना है इस विचारधारा से मुक्त होना है या जो दुनिया वाले जो कुछ ऐसा धार्मिक लोग समझते हैं कि पुण्य कर्म और भक्ति कर्म एक ही बात है। कभी-कभी तो उनकी बात अधिक अच्छी बात है, कहने वाले जैसे विवेकानंद स्वामी महाराज कहा करते थे यह जो लोगों को कुछ बेगुन वगैरह खिलाओ । बैगन की भाजी बनती है तो तेल वगैरह की भी आवश्यकता होती है तो आप बेकार का तेल को क्यों जला रहे हो यज्ञ में आहुति चढ़ा रहे हो भगवान की विग्रह आराधना में भी तेल का और रसोई घर में भी तेल का उपयोग होता है या दीप भी जलते हैं वहां भी जलाते हो आप यह बंद करो ।दिस इज यूजलेस लोगों को बेगुँन खिलाओ और कुछ खिलाओ कुछ दे दो और यह सब बंद करो क्योंकि वह समकक्ष ही नहीं हमारा पुण्य और तुम्हारी भक्ति एक दर्जे की है, समकक्ष है ऐसा ही नहीं लोग तो भक्ति को तो नगण्य समझते हैं, छोड़ दो यह भक्ति, लोगों की सेवा करो। मैं भी स्वामी विवेकानंद का फॉलोअर्स था और कइयो का था तो फिर जब हम श्रील प्रभुपाद की जय श्रील प्रभुपाद के चरणों में पहुंचे श्रील प्रभुपाद समझाएं यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखा: ।प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥ अनुवाद:- जिस तरह वृक्ष की जड़ को सींचने से तना, शाखाएँ तथा टहनियाँ पुष्ट होती हैं और जिस तरह पेट को भोजन देने से शरीर की इन्द्रियाँ तथा अंग प्राणवान् बनते हैं उसी प्रकार भक्ति द्वारा भगवान् की पूजा करने से भगवान् के ही अंग रूप सभी देवता स्वत: तुष्ट हो जाते हैं। विधि क्या है? वृक्ष की सेवा करनी है, वृक्ष फलता फूलता देखना चाहते हो तो उसकी जड़ों में पानी दो, उसके पत्तों को कुछ खिलाते नहीं है, फल को खिलाते नहीं है या शाखा को खिलाते नहीं है विधि क्या है उसकी जो रूट है उसकी जो मूल है वहां पानी डाल दो पहुंच जाएगा सारी शाखा उपशाखा पत्ते फल उनकी पुष्टि होगी तो देवी-देवता मूल नहीं है। आई होप आप लोगों को कुछ तो समझ आ रहा है पहले से अधिक कुछ तो समझ रहे हैं, ये दो नाम अपराध भी। मैं यह कह रहा हूं कि इन सारी नाम अपराधों को, यह अपराध है। पहला यह है दूसरा यह है इसको भली-भांति समझ लो और फिर हमें हर प्रयास करना है इसको टालने का प्रयास करना है, तभी हमसे वही तो बात है जो जप करते हैं उसकी तीन अवस्थाएं कहीं गए हैं अपराध सहित - जप भी करते हैं अपराध भी करते हैं, जप भी चल रहा है और अपराध भी चल रहा है। दूसरा होता है नामाभास, नाम का कुछ आभास होने लगता है कुछ अपराध अभी बचे हुए हैं। नामाभास की स्थिति में उस स्तर पर या मन: स्थिति में तो नाम अपराधों से भी बचना है, नाम आभास से भी अधिक आगे बढ़ना है, नामाभास से मुक्ति तो हो गई जैसे अजामिल की हुई नारायण नारायण कहा था इसको नामाभास कहते हैं । हेल्पलेस बनके असहाय बनके उसने पुकारा नारायण का नाम जो उसके पुत्र का ही नाम था। नारायण किसी और का नाम नहीं है जैसे कि मैं कह रहा था नामदेव कौन , संत नामदेव लेकिन नामदेव और कोई नहीं है। नामदेव कौन हैं, भगवान हैं तो नारायण पुत्र का तो नाम था ही लेकिन नारायण नाम नारायण का ही है ।अनजाने कहो अननोइंग्ली उसने नारायण नारायण कहा और जिस स्थिति में कहा हेल्पलेस असहाय स्थिति में तो वे मुक्त हो गए। मुक्त हो गए मतलब उस समय यमदूत आए थे उनसे बचा लिया नहीं तो यमदूत तैयार थे वह खींच रहे थे। उसकी आधी आत्मा तो बाहर आ गई थी और आधा शरीर अटका हुआ था इतने में विष्णु दूत आ गए और विष्णु दूतों ने भगा दिया क्यों और उसने और साधना की हरिद्वार गए थे। अजामिल कन्नौज कानपुर क्षेत्र से फिर हरिद्वार गए और उन्होंने बड़े सावधानी पूर्वक कार्य अपराधों से बचते हुए अपनी साधना की और भक्त हो गए। नामआभास ने उनको मुक्त बना दिया और अभ्यास किया अपराध रहित जप करने का तो भक्त हो गए विष्णु भक्त, दूसरी टीम आई और बैकुंठी यानी अजामिल को बिठाकर बैकुंठ लोक ले गए यही जीवन का लक्ष्य है। हरि हरि जड़ भरत भी जड़ भरत होने से पहले वे भरत महाराज से अंते नारायण स्मृति उन्होंने नहीं की तो अगले जन्म में हिरण बन गए लेकिन हिरण के शरीर में ही बड़ी सावधानी के साथ रहते थे, भगवान की कृपा से उन्होंने जो गलतियां की थी व्यस्त हुए थे और भी जो अपराध किए होंगे उनका स्मरण करते हुए वे हिरण का जीवन जी रहे थे लेकिन पुन: वही अपराध वही पाप ना हो तो फिर तीसरे जन्म में *बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते | वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||* (श्रीमद भगवद्गीता 7.19) ऐसे कई बार जन्म ले सकते हैं भरत महाराज इसके उदाहरण हैं अपराध करोगे तो पुन: जन्म लेना पड़ेगा । पुनः जन्म की संभावना है, साधु सावधान सब भक्तों सावधान ओके टाइम इज अप । ऐसा ही होता है कुछ बातें अधूरी रह जाती हैं तो देखते हैं नेक्स्ट टाइम इज ऑलवेज नेक्स्ट टाइम तो होता ही है। हू नोज होगा कि नहीं इसलिए अच्छा है कि आज ही । कल करे सो आज कर आज करे सो अब और आज से अच्छा है अब करो पूरा समझे भी नहीं तो यह डायलॉग कंटिन्यू हो सकता है भक्तों के साथ में सीनियर डीवोटीस के संग में इसको चर्चा या प्रश्न उत्तर शंका समाधान इत्यादि आगे बढ़ा सकते हैं। हरे कृष्ण

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