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जप चर्चा
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनांक 25 जुलाई
ध्यान दीजिए मन का ध्यान भगवान की ओर है या नहीं ध्यान दे दीजिए और कौन ध्यान देगा मन की ओर ? बुद्धि है बुद्धि से काम लीजिए भगवान आपको बुद्धि देते हैं, प्रयास में लगे रहते हैं कीर्तनीय सदा हरी
भगवद गीता 10.10
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
जो सतत और प्रीति पूर्वक जप करना चाहते हैं और कर रहे हैं भगवान उनको बुद्धि देते हैं, ताकि हमारा मन कृष्ण की और मुड़े। ताकि हम ध्यान कर सकें, ध्यान पूर्वक जप कर सकें
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे देखिए आप सुन रहे हैं कि नहीं यह मंत्र यह नाम -
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
थोड़ा सा ऊंचा कहिए की मन सुने आप क्या कह रहे हो हरे कृष्ण हरे कृष्ण......
अंबरीश महाराज अपना मन भगवान के चरण कमलो में स्थिर करते थे, आप भी अभ्यास कीजिए। भगवान के चरण कमल में कहो या भगवान के रूप में कहो, गुण में भी ठीक है, धाम में भी ठीक है, लीला में भी ठीक है । नाम में भी स्वागत है, धाम में भी स्वागत है। यह सारे भगवान के स्वरूप हैं- नाम स्वरूप ,लीला स्वरूप, रूप स्वरूप, गुण स्वरूप, यह सब ध्यान के विषय हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
अब हम आपको भगवान के विग्रह का दर्शन कराएंगे अपने मन को दौडाओ - एक मंदिर से दूसरे मंदिर की ओर । ऐसा मन का दौड़ना उचित है क्योंकि मन तो दौड़ता ही रहता है एक इंद्रीय विषय से दूसरे इंद्रियों के विषय की ओर। दौड़ना और जाना तो ठीक है लेकिन कहां दौड़ता है? कहां जाना है ? क्या देखने के लिए ? किसको देखने के लिए जाना है ?
नमः पंकज नाभाय नमः पंकज मालिने। नमः पंकज नेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घये।।
अनुवाद: हे भगवान, जिनके पेट पर कमल के फूल जैसा गड्ढा है, जो हमेशा कमल के फूलों की माला से सुशोभित रहते हैं, जिनकी दृष्टि कमल के समान शीतल है और जिनके पैर कमल से अंकित हैं, आपको मेरा आदरपूर्वक प्रणाम है।
ऐसी कुंती महारानी ने प्रार्थना की है... हे पद्मनाभ! हे कमल नयन ! हे पंकज !
हे पद्ममाली ! हे भगवान । हरि हरि ।
यह सैंपल प्रार्थना है, नमूना है ऐसी कई प्रार्थना हैं जो हमें सीखनी और करनी चाहिए, जप कर रहे हैं तो हम प्रार्थना कर रहे हैं । श्राव्य - दर्शय आपकी लीला मुझे सुनाइए । दर्शन दीजिए दर्शय जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे यह दर्शन यह समाधि है।
ध्यान अवस्था में दर्शन कर रहे हैं, ध्यान कर रहे हैं, योगी ऐसा ध्यान करते हैं जप योगी भी ऐसा ध्यान कर सकते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
विग्रह भगवान हैं अर्चा विग्रह भगवान का अवतार है आप जाप करते रहिए डॉन'ट नीड टू स्टॉप सुनते-सुनते जप कर सकते हैं। इनमें से कई सारे विग्रहों के हमने प्रत्यक्ष दर्शन किए हैं तो कई सारी अन्य बातें भी याद आती हैं, जब उनका दर्शन करते हैं। जैसे इस मंदिर का दर्शन वहां के भक्तों का स्मरण होता है, वह स्मरण भी माया नहीं है कृष्णभावनामृत ही है ।
ज्ञानस्याध्यात्मिकस्यापि वैराग्यस्य च फल्गुणः। स्पष्टतार्थं पुनर्निमाण अपि तद् एवेदं निराकृतं॥
(भक्ति रसामृत सिंधु 1.2.258)
जब कोई त्याग करता है कृष्ण संबंधी बातों का या विचारों का, वैराग्य फल्गु कथ्यते ऐसा वैराग्य फल्गु कहलाता है, फल्गु नहीं युक्त वैराग्य हरि हरि युक्त वैराग्य।
प्रभु कहे, - "मायावादी कृष्ण अपराधि। 'ब्रह्म', 'आत्मा' 'चैतन्य कहे निरावधि ।।
अनुवाद: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मायावादी निर्विशेषवादी लोग भगवान कृष्ण के महान अपराधी हैं; इसलिए वे केवल 'ब्राह्मण,' 'आत्मा' और 'चैतन्य' शब्दों का उच्चारण करते हैं।
चैतन्य चरितामृत (मध्य लीला -17.129)
मायावादी कृष्ण अपराधी, कितना अपराध करते हैं मायावादी, भगवान निराकार है ऐसा कहते हैं। कहते हैं कि भगवान निर्गुण हैं, कल हम कितने सारे भगवान के गुण देख रहे थे, सुन रहे थे। आज हम कितने सारे रूप देख रहे हैं।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् | परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् ||
(श्रीमद भगवद्गीता 9.11)
जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते ।
(भगवद गीता 9.11)
कृष्ण को कहना पड़ा कि वह मूढ है , मूर्ख है
वह मुझे नहीं जानते।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
और जो मेरी शरण भी नहीं लेते।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ||
श्रीमद भगवद्गीता 7.15)
नरो में अधम ऐसे लोग भगवान की शरण में नहीं आते। आप नरोत्तम बनिए । नरों में उत्तम ना की नराधम ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
मानो रास नृत्य के लिए तैयार हैं ।
बरहपीडं नटवर-वपु: कर्णयो: कर्णिकारम बिभ्रद वासा: कनक-कपिशं वैजयंती च मलम्। रंध्राण वेनोर अधारा-सुधायपुरयं गोप-वृंदैर वृन्दारण्यं स्व-पाद-रमणं प्रविषाद गीता-कीर्तिः।।
(श्रीमद भागवतम 10.21.5)
अपने सिर पर मोर-पंख का आभूषण, कानों पर नीले कर्णिका फूल, सोने के समान चमकीला पीला वस्त्र और वैजयंती माला पहने हुए, भगवान कृष्ण ने सबसे महान नर्तक के रूप में अपने दिव्य रूप का प्रदर्शन किया, जब उन्होंने वृन्दावन के जंगल में प्रवेश किया, सुशोभित किया। यह उनके पदचिन्हों के निशान के साथ। उन्होंने अपनी बांसुरी के छिद्रों को अपने होठों के रस से भर दिया और चरवाहे लड़के उनकी महिमा गाते थे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो जो दर्शन किए उसका स्मरण करते हुए जप को आगे बढ़ाइए। ऐसे दर्शनों से हमारा जप सरल होता है हम ध्यानस्थ होते हैं।
अथवा ज्ञान के लिए हमें विषय मिलता है जब कहा जाता है कि ध्यान करो तो पहला प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान करें ? क्यों ध्यान करो ? ऐसा भी कोई पूछ सकता है फिर कैसे ध्यान करें? तो ऐसे ध्यान करें, दर्शन करें मुख में नाम हाथ में काम या हाथ में काम आंखों में दर्शन यही काम है दर्शन करना भी एक क्रिया है। एक इंद्रिय की क्रिया हुई, आंखों की क्रिया, आंखों का कृत्य करते-करते मुख में नाम और आंखों में दर्शन या मुख में नाम हाथ में स्पर्श। स्पर्श भी क्रिया है यह माला का स्पर्श करते हैं ।तुलसी माला का, तुलसी का स्पर्श ! जाप भी कर रहे हैं और स्पर्श की क्रिया भी कर रहे हैं। हाथ से स्पर्श मुख से नाम। नासिका से गंध तुलसी पत्र का गंध, धूप का गंध, पुष्पों का गंध, जो पुष्प भगवान को अर्पित किए हुए हैं, उनका गंध नासिका से तो नासिका को बिजी रखो, मुख में नाम, नासिका से गंध लो इस प्रकार हम अपनी सारी इंद्रियों को .......और यह भक्ति भी है। अपनी इंद्रियों को
यथा श्री- नारद - पंचरात्रे
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् | हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिर उच्यते।।
(भक्ति रसामृत सिंधु 1.1.12)
अपनी इंद्रियों को भगवान की सेवा में लगाना यह भक्ति की परिभाषा है तो मुख में नाम, चल रहा है और साथ में हाथ से काम, हाथ से स्पर्श, नासिका से गंध, आंखों से दृश्य और जिह्वा पर भगवान नृत्य करने लगेंगे।
तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावलीलब्धये कर्णक्रोडकडम्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम् ।चेतःप्राङ्गणसंगिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्णद्वयी।।
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला-1.99)
चैतन्य-चरितामृत: आदि-लीला 4.165
आत्मेन्द्रिय-प्रीति-वांछा-तारे बलि 'काम'।कृष्णेन्द्रिय-प्रीति-इच्छा धरे 'प्रेम' नाम।
अपनी इंद्रियों को संतुष्ट करने की इच्छा काम (वासना) है, लेकिन भगवान कृष्ण की इंद्रियों को प्रसन्न करने की इच्छा प्रेम (प्रेम) है।
अपनी इंद्रियों की प्रसन्नता के लिए किया गया काम या कार्य , काम कहलाता है । कामवासना वाला काम और कृष्ण केंद्रीय प्रीति धरे प्रेम नाम कृष्ण की इंद्रियों की प्रीती के लिए की गई, किया गया कार्य यह प्रेम कहलाता है ।
एक है काम तो दूसरा है प्रेम।