Hindi
जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनांक 22 जुलाई 2023
हरे कृष्ण!!!
हमनें अभी शिक्षाष्टकं का भी पाठ किया और हमनें दस नाम अपराध भी सुने। अष्टांगयोग शास्त्र की भाषा में इन्हें यम और नियम कहा जाता है। दस नाम अपराध यम है। (अपराध करोगे तो यमदूत आएंगे। ऐसे भी आप याद रख सकते हो कि यम किसको कहा जाता है।) कभी-कभी विभ्रांति हो जाती है कि यम कौन सा है, नियम कौन सा है। अपराध अथवा पाप यह सब यम के अंतर्गत आते हैं अर्थात ऐसा ना करें, यह यम कहलाता है। शिक्षाष्टकम् हमारे मन को जप करने के लिए तैयार करता है। यम, नियम, तत्पश्चात आसन होता है, आप जप के समय पद्मासन में बैठ सकते हो, आप सुखासन में बैठे सकते हो। सुख, आसन जैसा कि भोजन के समय भारतीय पद्धति और शैली के अनुसार भोजन के लिए बैठते हैं, वह बैठना भी सुखासन कहलाता है। सुखासन भी आसन का ही अंग होता है, हम मंदिर में बैठे हैं या घर में, घर भी एक मंदिर है। हमनें घर को ही मंदिर बनाया है और उस मंदिर में सुखासन में बैठकर या भक्तों के संग में सुखासन में बैठकर हम जप करते हैं। वैसे जब आसन की बात होती है तो एक स्थान और काल का विचार होता है। प्रातः काल या ब्रह्म मुहूर्त में सबसे बेस्ट आसन होता है। याद रखिए, आसन मतलब स्थान, आसन मतलब काल या समय, दोनों उचित है। ब्रह्म मुहूर्त चल रहा है, यह दिन का सर्वोत्तम समय है।( बेस्ट टाइम ऑफ द डे) यह काल अवधि सतोगुण से भरपूर होती है। यह गुड मॉर्निंग/ सुप्रभातम कहने का भी समय होता है, आपकी प्रातः शुभ हो। यम, नियम, आसन, प्राणायाम। हम प्राणायाम तो... वैसे आसन भी कई प्रकार के हैं। यह पतंजलि की अष्टांग योग पद्धति है या अन्य शास्त्रों में भी अष्टांग का वर्णन आता है। उसमें अष्टांग अर्थात आठ अंग होते हैं इसलिए इसको अष्ट अंग कहते हैं। यम एक अंग, नियम दूसरा अंग, आसन तीसरा अंग और प्राणायाम चौथ अंग। प्राणायाम के अंतर्गत हम आराम से रहते हैं। श्रील प्रभुपाद ने एक समय मुझे कहा था कि जिव्हा में कंपन होना चाहिए। जिव्हा से कहना है, होंठ हिलने चाहिए। हम जब महामंत्र का उच्चारण करते हैं, जिव्हा में कंपन होना चाहिए और हमें उसका श्रवण करना चाहिए। कुछ भक्त ऐसा भी समझाते हैं कि एक सांस में दो या तीन या चार महामंत्रों का उच्चारण कर सकते हैं। यथासंभव, यथाशक्ति, तत्पश्चात उसको सुनना है। हमारे लिए यही प्राणायाम है। प्राणायाम की साइकिल(चक्र) है। एक तो मानसिक जप नहीं करना है, श्वास, उश्वास होगा। उससे उच्चरित महामंत्र को सुनना है, श्रवण करना है फिर यह चक्र पूर्ण हुआ।
श्रवणं कीर्तनं फिर होना है स्मरणं।
यह श्वास, उश्वास, उच्चारण, श्रवण, कीर्तन मंद भी नहीं होना चाहिए। कुछ भक्त निद्रालू अर्थात निद्रा की अवस्था में जप करते हैं, तब बहुत देरी लगती है। एक-एक महामंत्र या एक माला का जप करने के समय हम और कुछ न् कुछ सोचते ही रहते हैं।
इसलिए एक-एक माला पूर्ण करने में कभी 10 मिनट या 15 मिनट भी लग जाते हैं। कुछ तो फटाफट इतना जल्दी-जल्दी करते हैं कि कुछ ही मिनट में एक के बाद एक माला हो जाती है। हमें ज्यादा जल्दी और ज्यादा धीरे जप करने को टालना है। ५ मिनट और १०मिनट के बीच का समय सही है। वैसे तो औसत समय 7:30 मिनट का बताया जाता है। ऐसा अनुभव है लेकिन 7:30 मिनट से थोड़ा अधिक समय भी किसी को लग सकता है या किसी का थोड़ा पहले पूरा हो सकता है। यह भी थोड़ी नियमावली कहो या सलाह कहो, यह भी प्राणायाम के अंतर्गत होगा। फिर पांचवा अंग है, प्रत्याहार। यम, नियम, आसन प्राणायाम, प्रत्याहार। यह पांच अंग, इसको बाह्य अंग कहते हैं। एक्सटर्नल फीचर्स या अंग, यह प्रत्याहार बड़ा ही महत्वपूर्ण अंग है। इस पर सभी प्रकार के योगियों को और विशेषकर जप योगियों को बहुत कार्यवाही करनी होती है। जप योगियों को भी अष्टांग योग की विधि विधानों में चितवृत्ति निरोधों का पालन करना होता है, चितवृत्ति निरोध बहुत ही महत्वपूर्ण वचन है। यह विधि चितवृत्ति निरोध है। हमारे चित्त में जो वृत्ति या विचार उत्पन्न होते हैं, उनका निरोध करें अर्थात जो नकारात्मक वृत्तियां जो पाप की वासना या पाप की वृत्ति या इसको हमने यम कहा, इस प्रकार की वृत्ति या इस प्रकार के विचार (इस प्रकार की प्रेरणा के विचार) कि यह करो, वह करो, मन फिर उनकी ओर दौड़ रहा है। चित्त में जो ऐसी वृत्तियां उत्पन्न होती हैं। उनका निरोध/ दमन करना है। उसका निग्रह करना है, यह बहुत महत्वपूर्ण अंग है। आगे ध्यान, धारणा, समाधि यह तीन अंग बच गए। ध्यान पूर्वक जप करो, हमारा लक्ष्य है ध्यान पूर्वक जप करने का। ध्यान पूर्वक जप कैसे करें? इन पांचो अंगों की ओर ध्यान दें।
या तैयारी करें तत्पश्चात ध्यान होगा। यह प्रत्याहार बहुत बड़ा महत्वपूर्ण अंग है। हम फेल या सफल होते हैं, हम यशस्वी या काम से जाते हैं, यह प्रत्याहार पर निर्भर करता है। अन्य भी जो अंग हैं यम नियम आदि लेकिन प्रत्याहार का जो अंग/ सोपान/ स्टेप है या कहो यहां से द्वार खुलने वाला है। यहां से हमें ध्यान की ओर आगे बढ़ना है, यह प्रत्याहार है। प्रत्याहार मतलब प्रति आहार, आहार के विरोध में कुछ कार्यवाही करनी है, मन को हम फीडिंग करते रहते हैं, हम विषयों का ध्यान करते हैं। मन से विषयों का ध्यान करते हैं। वैसे संसार का हर व्यक्ति ध्यानी होता है, ध्यान करता है। आप केवल साधक भक्त ही ध्यान नहीं करते अपितु संसार का हर व्यक्ति, हर आदमी ध्यान करता है। इस विषय पर कृष्ण भगवदगीता में कहते हैं
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषुपजायते | संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते
( भगवतगीता २.६२)
अर्थ:- इंद्रियों के विषयों पर चिंतन करते समय, व्यक्ति उनके प्रति आसक्ति विकसित करता है। आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है।
पुंस: मतलब लोभ, लोभ हर प्रकार के लोभ। भुक्ति कामी सिद्धि कामी.. और सभी कामी कामी जिनको हम कर्मी कहते हैं, वे सभी ध्यान करते हैं। ध्यानस्थ होते हैं।
(वे किसका ध्यान करते हैं?) ध्यायतो विषयान्पुंस: वे विषयों का ध्यान करते हैं। हमारे शरीर में भगवान ने पांच इंद्रियों को... शास्त्र है। हरि! हरि!
यह पूरा का पूरा कहने का समय नहीं है। यह प्रवचन का समय नहीं है, हमें जप भी करना है किंतु (हरि! हरि!) हमारा मन विषयों की ओर दौड़ता है, फिर उनका ध्यान करता है। ध्यायतो विषयान्पुंस: इसको रोकना है। इसको प्रत्याहार कहते हैं।
यतो यतो निश्चलति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥( भगवतगीता ६.२६)
अर्थ:- जब और जहाँ भी मन बेचैन और अस्थिर होकर भटकने लगे तब उसे वापस लाकर स्थिर करते हुए भगवान की ओर केन्द्रित करना चाहिए।
वैसे भगवान भी भगवत गीता के छठवें अध्याय में अष्टांग योग के विषय में कहते हैं। प्रत्याहार मतलब क्या? मन जहां जहां दौड़ता है। (मन कहां-कहां दौड़ता है? विषयों की ओर दौड़ता है।) जप करते समय भी दौड़ेगा, जरूर दौड़ेगा क्योंकि हमनें उसको पहले दौड़ने दिया था। उसकी आदत ही पड़ी हुई है। यह सेकंड नेचर या नेचर आफ माइंड है अर्थात यह मन की प्रकृति है।मन और इंद्रियों के विषय का स्वाभाविक संबंध है। भौतिक दृष्टि से इनका स्वाभाविक संबंध है। इंद्रियों के विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह पांच विषय हैं। पांच इंद्रियां हैं तो पांच विषय भी हैं, हर इंद्रिय का एक-एक विषय है। इस जप की साधना में प्रत्याहार पर उसको ध्यान केंद्रित करना होता है। जप के समय यही होमवर्क होता है, प्रत्याहार मतलब मन जहां-जहां दौड़ता है उसे वापस खींच कर ध्यायतो विषयान्पुंस: अर्थात विषयों में ध्यान लगाने की बजाय, विषयों की ओर मन को दौड़ने देने की बजाय, मन को भगवान की ओर दौड़ाना है।
वैसे शरीर में पांच इंद्रियां हैं किंतु आत्मा की भी तो इंद्रिय है लेकिन वह इंद्रियां दूषित है।
अत: श्री- कृष्ण -नामादि न भवेद् ग्राह्यं इन्द्रियैः | सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयं एव स्फुरति अद:।।
(भक्तिरसामृत सिंधु १.२.२३४)
अनुवाद:- कृष्ण और उनके पवित्र नामों को भौतिक इंद्रियों द्वारा नहीं समझा जा सकता है, लेकिन जब कोई व्यक्ति भगवान के पवित्र नाम और दिव्य रूप को स्वीकार करने की प्रवृत्ति विकसित करता है, तो कृष्ण अनायास ही जीभ और अन्य इंद्रियों में प्रकट होते हैं। ”
ऐसा एक सिद्धांत है या नियम है। हमारी जो शरीर में अभी इंद्रिय है, वह कलुषित हैं, दूषित हैं। उनकी मदद से हम भगवान का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम इसका अनुभव हम नहीं कर सकते या इन इंद्रियों से इसका ध्यान हम नहीं कर सकते। (हमें क्या करना है)
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयं एव स्फुरति अद:। फिर वही सिद्धांत आगे कहता है। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ, आप जिह्वा से भगवान की सेवा प्रारंभ करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
(आप क्या करो।) वहां चल रहा था ध्यायतो विषयान्पुंस:। प्रत्याहार अंग के अंतर्गत विषयों का ध्यान मत करो। वहां से मन को वापस ले आओ और भगवान में लगा दो, यही ध्यान है। भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम में धाम की ओर उस मन को दौड़ाओ। वहां आगे कृष्ण कहते हैं।
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषुपजायते |संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
हम इंद्रियों के मनोरंजन या इंद्रिय तृप्ति के कार्यों में लगे रहते हैं। उसी इसका ध्यान करते हैं।विषयान्पुंस: और हम आसक्त हो जाते हैं। हमें उससे आसक्ति हो जाती है। इस आसक्ति के फलस्वरूप काम उत्पन्न होता है, कामवासना उत्पन्न होती है, कामवासना प्रबल होती है।
इंद्रियां जल रही है, वे कुछ खाना पीना चाहती हैं। हमें फिर उसमें आहुति चढ़ानी पड़ती है। हम इंद्रियों को खिलाते पिलाते रहते हैं क्योंकि कामवासना उदित होती है। विषयों का ध्यान करने से काम उत्पन्न होता है।
अब देखिए, यदि हम विषयों का ध्यान नहीं अपितु भगवान का ध्यान करेंगे, भगवान का स्मरण करेंगे, भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम का स्मरण करेंगे तो हम भगवान में आसक्त होने वाले हैं और संसार से अनासक्त होने वाले हैं। विषयों का ध्यान करने से काम उदित होता रहता है। जबकि यहां भगवान का ध्यान करने से प्रेम उत्पन्न होने वाला है। बिल्कुल विपरीत बात है, विषयों का ध्यान वहां काम उत्पन्न होता है अर्थात काम जागृत होता है, काम हमको नचाता है। जप का समय भगवान का ध्यान करने का समय है। ध्यानपूर्वक जप करो।
ध्यानपूर्वक जप करो। भगवान का ध्यान करो। भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम का ध्यान करो। ऐसा करने से जीव का भगवान के प्रति जो स्वाभाविक प्रेम है, वह जागृत होगा। हम कामी की बजाय प्रेमी बनेंगे। सारा संसार कामी है किंतु हमें प्रेमी बनना है।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य' कभु नय । श्रवणादि-शुद्ध-चित्ते करये उदय ॥
(श्रीचैतन्य-चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.१०७)
अनुवाद:- कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्त्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।
हरि! हरि!
हर जीव का भगवान से प्रेम है, आपका, भगवान से प्रेम है। आप प्रेमी भक्त हो लेकिन प्रेम को आच्छादित किया गया है, माया ने या मायावी कार्यकलापों ने ढका हुआ है। बस यह जो हरे कृष्ण महामंत्र का जप/ जप योग / जप यज्ञ अथवा जप की साधन (क्या करती है?) हमारा जो भगवान से प्रेम है, उसको जाग्रत करती है।
आशा है कि हमनें जो भी कहा आपने ध्यानपूर्वक सुना है। हमनें यह कहकर अभी पूर्व तैयारी की, जिससे हम ध्यानपूर्वक जप करने का अभ्यास करें। आपको कुछ योजना अथवा विचार मिला होगा। यह पांचों अंग, ध्यान प्रारंभ की पूर्व तैयारी है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार।
अब अगला ध्यान है, ध्यान करना है।
आगे बढ़िए, यह जो पांच अंग अथवा पांच सोपान है। इसकी मदद से या इसका उपयोग करते हुए हम ध्यान की ओर आगे बढ़ते हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द॥
अर्थ:-
मैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानंद प्रभु, श्री अद्वैताचार्य प्रभु, श्री गदाधर पंडित प्रभु तथा श्रीवास प्रभु सहित अन्योन्य सभी गौरभक्तों को प्रणाम करता हूँ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
मंत्र मेडिटेशन अर्थात मंत्र का ध्यान करना है। मन को नाम के श्रवण में लगाना है, उसको व्यस्त रखना है। ' कीप माइंड बिजी' श्रवण में मन को व्यस्त रखना है, फिर नाम स्मरण होगा। नाम के श्रवण से नाम का स्मरण भी होगा, नाम भगवान है। नाम का स्मरण/ नाम स्मरण अर्थात भगवान का स्मरण। इसलिए अपने मन को खाली या रिक्त नहीं रखना है, उसको भर दो, उसको व्यस्त रखो। मन: मध्य मंत्र। मंत्र मध्य मन:। मन में मंत्र, मंत्र में मन। इसमें मन को व्यस्त रखो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
फिर ध्यानपूर्वक सुनो। हर नाम सुनो। हरे सुनो। कृष्ण सुनो।
तुलसी को रख सकते हो। तुलसी के पास जप करो। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर तुलसी महारानी के साथ अथवा निकट अपना जप किया करते थे।
वसुधैव कुटुंबकम। 'जप रिफॉर्म रिट्रीट ' इस पर लिखा है, जप को सुधारने के लिए रिट्रीट। आप स्वयं भी सोचो, आप कौन-कौन से सुधार लाना चाहते हो या आपके जप अथवा जप साधना में कौन-कौन से दोष या त्रुटियां या अभाव अथवा कमियां है, उसकी लिस्ट बना लो। यह जो जप रिट्रीट का समय है, देखो! कैसे उन गलतियों को सुधारना है, उन त्रुटियों से मुक्त होना है। जप के समय सोने की आदत हो या कई प्रकार की... हर एक ही अपनी लिस्ट हो सकती है, यह सब याद रखिए। यहां लिखा है- ' ट्रांसफॉर्म योर जप।' यहां पर जो भी कहा जा रहा है अथवा मैं आपको जो भी इनफॉरमेशन या जानकारी दे रहा हूं, यह इनफॉरमेशन कैसे आपको ट्रांसफॉर्म भी कर सकती है। इनफॉरमेशन से ट्रांसफॉर्मेशन। जानकारी से परिवर्तन। हरि! हरि! जप रिट्रीट के लक्ष्य की ओर भी ध्यान दीजिए।
अपना जप सुधारिए। हरि! हरि!
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार यह जो अंग है, इनमें कहां-कहां सुधार की आवश्यकता है, यह भी सोचिए। संकल्प लीजिए कि मैं इससे मुक्त होना चाहता हूं। यहां मैं सुधार चाहता हूं, यहां पर, वहां पर, सुधार चाहता हूं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
मैं तुलसी के पास बैठूंगा, मैं अपने मोबाइल को साथ में नहीं रखूंगा। मैं जप के समय किसी अन्य कॉल को स्वीकार नहीं करूंगा, मैं पहले से ही व्यस्त हूं। ऑनलाइन हूं, कृष्ण के साथ हमारी कॉल चल रही है। इसलिए
दूसरा कोई कॉल अटेंड नहीं करूंगा। ' नो मोबाइल।' ऐसे अपने अपने खुद के सुधार की बातें सोचिए और इस जप रिट्रीट के समय करिए। हरि! हरि!
एक दिन पहले तैयारी करो। आज के जप की तैयारी एक दिन पहले करनी होती है या शुरुआत करनी होती है। विशेषकर यम, नियम की ओर एक दिन पहले से ध्यान देना होता है। पहले या दूसरे सोपान, नंबर एक या नंबर दो, यम, नियम। तत्पश्चात हम लोग प्रात: में आसन पर बैठते हैं, उसके पश्चात प्राणायाम। तब प्रत्याहार शुरू होता है। इन पांच अंगों में से यम,नियम यह जो अंग है, यह पूर्व तैयारी के अंतर्गत आता है। जप करने के प्रारंभ में उस प्रातः काल को भी हो सकता है। एक दिन पहले या पहले से पहले भी हो सकता है। जप से पहले यम नियम की ओर ध्यान दें। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
देखिए कि आप समय पर सो रहे हो या नहीं। तभी आप समय पर उठ सकते हो।
जप रिट्रीट में जप होगा, कुछ चर्चा होगी, कुछ बातें होंगी। मैं देख रहा हूं कि श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज भी जप कर रहे हैं। आप सभी भी जप कर रहे हो, लेकिन मुझे लगा कि महाराज जप के साथ व्यस्त हैं, वे तल्लीन हैं।
मुझे एक बात याद आई। मैं भी जूहू हरे कृष्ण लैंड में कुछ नया-नया सा ही भक्त था। एक प्रातः काल को हमारे बहुत बड़े डोनर/ लाइफ पैटर्न मेंबर जुहू मंदिर आए, वह हमारे मंदिर के अध्यक्ष से मिलना चाहते थे। लाइफ पैटर्न डोनर की सहायता के लिए मैंने कहा कि मैं देख कर आता हूं, पूछ कर आता हूं कि वे आपको मिल सकते हैं या नहीं। वह फ्री है या नहीं। मैं जब उनको मिलने गया। वैसे वे राधा रास बिहारी मंदिर में ही थे, राधा रास बिहारी की जय।
मैंने कहा कि वह फलाने लाइफ मेंबर आपसे मिलना चाहते हैं। उन्होंने मुझसे कहा, जिसे सुनकर मैं हैरान भी हुआ और मुझे अचरज भी लग रहा था। उन्होंने कहा कि अपने उन लाइफ मेंबर को बता दीजिए कि मैं व्यस्त हूं। मैं उन्हें अभी नहीं मिल सकता। मैं मन ही मन में सोच रहा था कि आप व्यस्त नहीं हो। आप तो केवल जप ही कर रहे हो, आप बिजी थोड़ी ही हो, यह मेरे मन की बात थी। मैंने कही तो नहीं किंतु धीरे-धीरे फिर मैं समझने लगा कि वे सचमुच व्यस्त थे। कृष्ण के साथ उनका बिजनेस या उनका वार्तालाप चल रहा था।भगवान को पुकारने जैसे हरे कृष्ण हरे कृष्ण संबोधन भी है, वे उसमें व्यस्त थे। जप के समय व्यस्त होना भी चाहिए, यह व्यस्तता है। दिस इस द बिजनेस। वेरी सीरियस बिजनेस लेकिन हम इस बिजनेस (व्यापार) को सीरियसली (गंभीर) नहीं लेते। जब हम जप करते हैं और कोई देखेगा भी तो वह सोचेगा भी नहीं कि वह व्यस्त/बिजी/ तल्लीन है।
लगता है कि जस्ट फ्री है, बस किसी की प्रतीक्षा में ही है। उनके साथ आ कर कुछ बातचीत करें या कहें या ब्रेकिंग द न्यूज़ कहे। वह बस केवल इंतजार कर रहा है। (जस्ट वेटिंग) जब कोई जपकर्ता को देखता है,
देखने वाले को भी यह महसूस हो कि नहीं! नहीं! वह बहुत बिजी है, व्यस्त है, मैं उसे कैसे डिस्टर्ब कर सकता हूं, वह बहुत तल्लीन है। उसको तो उनके साथ बात करने में भय भी होगा कि मैं उसको कैसे डिस्टर्ब कर सकता हूं। हरि!हरि! जप करना मतलब व्यस्तता है। यह अध्यात्मिक व्यापार है, स्पिरिचुअल अंडरटेकिंग ए बिजनेस है। हरि! हरि! हमें देखना चाहिए कि हमारा बिज़नेस कैसा चल रहा है। चैंटिंग इज द बिजनेस, जप एक कार्य है। आसानी से इसको कार्य कह सकते हैं यह कर्तव्य है। सब समझ लीजिए हम इस शब्द का प्रयोग करते रहते हैं। कर्तव्य अर्थात करने योग्य, ड्यूटी! यह जप करना, हर मनुष्य का कर्तव्य है। कर्तव्य या ड्यूटी के नाम से लोग क्या-क्या नहीं करते। उसकी ड्यूटी कहते हैं लेकिन रियल ड्यूटी अर्थात वास्तविक कर्तव्य या करणीय बात यदि कोई है तो
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
( हरि का नाम, हरि का नाम, हरि का नाम.. बस केवल श्री हरि का ही नाम... इस कलिकाल में प्रभु के नाम के अतिरिक्त और कोई गति नहीं।)
जो आप कह रहे हो कि यह भी कर्तव्य है, नहीं, वह भी नहीं है। वह भी नहीं है, वह भी नहीं है, कर्म योग भी नहीं है, ज्ञान योग भी नहीं है, कर्म कांड भी नहीं है, ज्ञान कांड भी नहीं है। नेति नेति नेति नॉट दिस, नॉट दिस। यह भी कर्तव्य नहीं है, यह भी कर्तव्य नहीं है, यह कर्तव्य नहीं है। इसलिए कहा है नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा। हमें ऐसा भी सत, असत का विचार करते हुए विवेक के साथ यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नही अपितु यह करना है। शास्त्रों ने हमें फोकस करने के लिए कहा है, हरेर्नामैव केवलम्। यह भी देखिए हरेर्नामैव अर्थात हरि नाम, एव का अर्थ केवल होता है। हरेर्नामैव नाम एव, नाम ही इतना ही नहीं आगे केवलम भी कहा। नाम एव से काम बन सकता था। लेकिन नाम एवं अर्थात नाम ही पर जोर देने के लिए आगे और एक शब्द का प्रयोग किया केवलम, इतना महत्वपूर्ण है। साथ ही उसको तीन बार कहा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चावल इकट्ठा करते थे, भिक्षा मांगते थे। उनको समझा रहे थे कि हरेर्नामैव केवलम्। उसका भाष्य सुना रहे थे, तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा, एक बार नही तीन बार भी कहा है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
हम कलयुग में जो मंदबुद्धि के लोग हैं, एक बार कहने से काम नहीं बनता, समझ में नहीं आता। पल्ले नहीं पड़ता, इसलिए तीन बार हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
हरि! हरि!
श्रील प्रभुपाद ने जब दीक्षा के समय मुझे महामंत्र दिया। हम कहते रहते हैं कि इस महामंत्र की दीक्षा देना मतलब कृष्ण को ही देना है। दीक्षा के समय आपको कृष्ण को दिया जाता है। लो कृष्ण लो।
कृष्ण से तोमार कृष्ण दिते पार, तोमार शकति आछे। आमि त’ कांगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बलि’, धाइ तव पाछे पाछे॥
अर्थ: कृष्ण आपके हृदय के धन हैं, अतः आप कृष्णभक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं। मैं तो कंगाल, (दीन-हीन) पतितात्मा हूँ। मैं कृष्ण-कृष्ण कह कर रोते हुये आपके पीछे-पीछे दौड़ रहा हूँ।
कृष्ण आपके पास है। उस कृष्ण को आप हमें दे सकते हो। ठीक है, ले लो। मैं कृष्ण को दे रहा हूं। मैं किस रूप में आपको कृष्ण को दे रहा हूं।
कलि-काले नाम-रुपे कृष्ण-अवतार। नाम हय सर्व-जगत-निस्तार।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला १७.२२)
अर्थ: “कलि के इस युग में, भगवान का पवित्र नाम, हरे कृष्ण महा-मंत्र, भगवान कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम का जप करने से व्यक्ति सीधे भगवान से जुड़ जाता है। जो कोई ऐसा करता है उसका उद्धार अवश्य होता है।
नाम रूप, नाम प्रभु के रूप में दे रहा हूं। इसको भी हमें समझना है, यही बात है।
नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:। पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोSभिन्नत्वं नाम नामिनो:।।
( पद्म पुराण)
अर्थ:- कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनन्दमय है। यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वरदान देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनन्द का आगार, अर्थात् स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कृष्ण-नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न है।
नाम ही भगवान है। नाम ही भगवान है। नाम ही भगवान है। श्रील प्रभुपाद मुझे समय-समय पर पूछते कि "क्या तुम अपना नाम जप कर रहे हो?" कई बार प्रभुपाद ने मुझसे पूछा। वैसे मैं अच्छा जपकर्ता था, मैं जप करता ही रहता था। तो भी प्रभुपाद मुझसे पूछा करते थे। जप हो रहा है? 16 माला पूरी होती है? फिर मैं सोच रहा था कि हमारे जीवन में भी कोई होना चाहिए। वैसे इस ज़ूम कॉन्फ्रेंस में हम भी आपसे पूछते रहते हैं कि आप जप कर रहे हो? या आपका जप कैसा हो रहा है। इसलिए तो यह जप रिट्रीट भी चल रही है। शायद आपका जप पूरा ठीक से नहीं हो रहा है? या पूरा नहीं हो रहा है? या अधिक नहीं हो रहा है? या दिस वन तथा दैट वन। वैसे श्रील प्रभुपाद का ऑफिस मुंबई में था। ' मुंबई इज माय ऑफिस।' और उस ऑफिस के हम भी एक स्टाफ मेंबर थे। प्रभुपाद का बहुत अंग संग सानिध्य हम मुंबई के ब्रह्मचारियों को प्राप्त हुआ। प्रभुपाद कितना सारा समय बिताते थे। इसलिए पूछा भी करते थे, मुझे भी पूछते थे। हम ज़ूम कॉन्फ्रेंस में तो पूछताछ करते ही हैं। पूछताछ होती है लेकिन इस प्लेटफार्म या फोरम मंच के अलावा आप जहां भी हो, इस नगर में या ग्राम में या वहां भी कोई आपसे पूछने वाला हो। आपका जप कैसा हो रहा है। जप हो रहा है या नही ? ऐसा कोई होना चाहिए। वह काउंसलर भी हो सकते हैं। ऐसा कोई होना चाहिए। हाउ इज योर चेंटिंग? हाउ आर यू? कहने वाले तो बहुत मिलते हैं। कैसे हो? हाउ आर यू? आप भी जब एक दूसरे से मिलते हो। आप एक दूसरे के मित्र हो या गॉड ब्रदर या गॉड सिस्टर हो या दीन बंधु हो। आप भी दीनों के बंधु हो, यह रोल भी आपको निभाना है। आपको एक दूसरे से पूछना चाहिए कि आपका जप कैसा हो रहा है? हाउ इज योर चेंटिंग? मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूं। पूछते तो रहते हैं स्वास्थ्य कैसा है। स्वास्थ्य कैसा है? मतलब आपके शरीर का स्वास्थ्य कैसा है। इसी के सीमित ही हमारी जिज्ञासा अथवा पूछताछ रहती है। शरीर का स्वास्थ्य कैसा है लेकिन वैष्णव होने के नाते हमारी जिज्ञासा हाउ आर यू आप कैसे हो? हमें आत्मा का स्मरण करते हुए पूछना चाहिए कि आपकी आत्मा का स्वास्थ्य कैसा है? आपकी आत्मा का स्वास्थ्य कैसा है। हाउ यू आर द सोल। हमारी आत्मा नहीं होती है, हम आत्मा होते हैं। इसको भी नोट कीजिए। हम आत्मा है फिर आत्मा का शरीर होता है। हम और मम की बात है। मैं आत्मा हूं। आप कैसे हो? हाउ आर यू मतलब हम तो शरीर है ही नहीं, प्रश्न तो आपकी आत्मा कैसी है? होना चाहिए। आपकी आत्मा का स्वास्थ्य कैसा है। हरि! हरि! आत्मा का स्वास्थ्य निर्भर करता है हमारे आध्यात्मिक साधना और सेवा पर। हम आत्मा के महात्मा बन जाएंगे, मतलब हम स्वस्थ हैं, यह निर्भर करता है हरेर्नामैव केवलम् पर । अधिकतर हमारी आत्मा का स्वास्थ्य हमारे जप पर निर्भर करता है। फिर प्रश्न होता है कि जप कैसा हो रहा है?
जप पर हमारा स्वास्थ्य निर्भर तो रहता है लेकिन फिर भी जप हो रहा है तो कैसा हो रहा है। अपराध रहित हो रहा है कि नहीं? हरि! हरि! इसके डोजेस। रिकमड डोज (अनुसंशित खुराक) 16 माला है, पूरा डोज हम ले रहे हैं। हरि! हरि! ऐसी पूछताछ करने वाले भी हमारे जीवन में होने चाहिए।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यं आख्याति पृच्छति। भुंक्ते भोज्यते चैव षड्-विधं प्रीति-लक्षणम्।।
(उपदेशामृत श्लोक-4)
अर्थ:दान में उपहार देना, धर्मार्थ उपहार स्वीकार करना, विश्वास में अपने मन को प्रकट करना, गोपनीय रूप से पूछताछ करना, प्रसाद स्वीकार करना और प्रसाद चढ़ाना एक भक्त और दूसरे द्वारा साझा किए जाने वाले प्रेम के छह लक्षण हैं।
यह वैष्णव सदाचार के अंतर्गत या प्रीति लक्ष्णम का प्रदर्शन करने के अंतर्गत आते हैं। हाउ आर यू ? हाउ इज योर चेंटिंग? चेंटिंग ठीक है तो आप ठीक हैं। चेंटिंग ठीक नहीं है तो नॉट ओके। ऐसे लोग तो हाउ आर यू सर? आई एम फाइन आई एम फाइन। कोई आईसीयू में लेटा हुआ है और उससे भी पूछो तो हाउ आर यू ? वह भी उत्तर देगा। आई एम फाइन, मैं ठीक हूं। दुनिया जानती ही नहीं है। किसको फाइन होना कहते हैं। हरि! हरि!
हमारे देश की ख्याति है, इसको तपोभूमि कहते हैं। यह भारतवर्ष, भारत देश अब नहीं रहा। अधिकतर नहीं रहा लेकिन यह भारत विश्व गुरु है या हुआ करता था। पुन: विश्व गुरु हो, ऐसे प्रयास या ऐसे विचार भी उठ रहे हैं। धीरे-धीरे संसार, भारत को मान रहा है, विश्व गुरु के रूप में स्वीकार कर रहा है। इस देश की ख्याति में ...यह तपोभूमि है। भारत भूमि तपोभूमि है, अन्य स्थान भोग भूमि है। विशेषकर पाश्चात्य देश भोग भूमि है।
भारतवर्ष तपोभूमि है। जो तप करते हैं उसको तपस्वी कहते हैं। तप करके ही फिर वे यशस्वी होते हैं या फिर ओजस्वी भी होते हैं। यह सारे शब्द भी इसके साथ जुड़े हुए हैं। यह जप भी तप है, जप भी एक महान तप है। जप करके हम इस भारत के, इस तपोभूमि के यशस्वी भक्त बन सकते हैं या व्यक्ति बन सकते हैं। जप तप है। जप तप कैसा चल रहा है? जप ही तप है। हरि! हरि! एक शारीरिक तप होता है, एक वाचिक तप होता है, एक मानसिक तप होता है। भगवद गीता में भगवान ने तप के तीन प्रकार या स्तर के विषय में बताया है। शरीर के स्तर पर तप, कायेन, मनसा, वाचा। कायेन शरीर से, मनसा मन से, वाचा वाणी से। इन तीनों तपो में वैसे और भी प्रकार हैं लेकिन इन तीन का एक समूह है। कायेन, मनसा, वाचा। शरीर का तप, वाचा का तप, मन का तप। इन तीनों में मन का तप श्रेष्ठ है, इन तीनों में ऊपर है।
जब हम जप करते हैं तब हम मन से तप करते हैं। शरीर से तप, वाचा वाणी से तप, फिर मन से तप। जप ही तप है, जप करने को मनन भी कहते हैं। हरि! हरि!
वैसे हम लोग मंत्र का जप करते हैं। देखिए, यहां पर मंत्र अर्थात मन और त्र । इन दो शब्दों से एक शब्द बन गया। मंत्र उन शब्दों का समूह होता है या संग्रह होता है। जिसका उच्चारण या श्रवण करने से महामंत्र का (वह क्या करता है) मंत्र, मन को मुक्त करता है।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥
अर्थ:- मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। मनुष्य के बंधन या मोक्ष का कारण मन ही होता है। विषयों में आसक्त मन बंधन का, और निर्विषय मन मुक्ति का कारण होता है।
क्या वचन है! मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
मन ही हमारे बंधन का कारण और मन ही हमारी मुक्ति का कारण है। हरि! हरि!
सावधान! सावधान! हमारे सुधार की बात चल रही है। जप ही तप है, मन हमारे बंधन या मुक्ति का कारण है। जप करना इस मंत्र का मनन करना या ध्यान करना या ध्यान पूर्वक जप करना, नाम का ध्यान करना। हरे का ध्यान करना, फिर कृष्ण का ध्यान करना फिर से हरे का ध्यान.. जब हम ध्यान करेंगे, मनन करेंगे तो यह हमें शुद्ध बनाता है, हमें पवित्र बनाता है।
चेतोदर्पणमार्जनं कराता है। उसके साथ हम मुक्त हो जाते हैं। मुक्त ही नहीं होते अपितु हम भक्त हो जाते हैं। मुक्ति की किसको परवाह है, हमारा लक्ष्य मुक्ति नहीं है, हमारा लक्ष्य भक्ति है। हम भक्त बनेंगे, यह जप रूपी तप करने से पूर्ण रूप से भक्त बनेंगे। ऋषभदेव ने भी अपने 100 पुत्रों को संबोधित करते हुए कहा है, उस लीला में उनके सौ ही पुत्र थे। वैसे तो सभी जीव भगवान के पुत्र है। लेकिन ऋषभदेव भगवान जब प्रकट हुए तो उस लीला में उनके सौ पुत्र थे। भरत सबसे बड़े पुत्र थे, भगवान एक समय सब पुत्रों को संबोधित कर रहे थे। जो भी संबोधन हुआ वो श्रीमद् भागवत के पंचम स्कंद के पांचवें अध्याय में वर्णित है। श्रील प्रभुपाद इसमें कई सारे उपदेश के वचन हमें सुनाया करते थे। कहा जाए तो अब भी सुना रहे हैं।
ऋषभ उवाच नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये । तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् ५.५.१)
अर्थ:- भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा: हे पुत्रो, इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है, उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन-रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर-सूकर भी कर लेते हैं। मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने आपको तपस्या में लगाये। ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है, तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है, जो भौतिक आनन्द से परे है और अनवरत टिकने वाला है।
वह बात जो महाप्रभु पहले शिक्षाष्टकम में कह रहे हैं। वही बात यहां ऋषभदेव अपने इस वचन में कह रहे हैं। हे पुत्रों! संबोधित कर रहे हैं। हमें समझना चाहिए कि हम तो वहां नहीं थे। उन 100 पुत्रों में से हम एक नहीं थे लेकिन जब भगवान कह रहे हैं पुत्रों तो हमें समझना चाहिए कि भगवान हम सबको संबोधित कर रहे हैं। (क्या संबोधन है?) तपो दिव्यं। हे पुत्रों! तपस्या करो! कैसी तपस्या करो? दिव्य तपस्या करो। सभी तपस्या दिव्य नहीं होती। तपस्या कौन नहीं करता? सारी दुनिया तपस्या करती है लेकिन कुछ तपस्या लौकिक होती है तो कुछ तपस्या अलौकिक। तपो दिव्यं, दिव्य तप करो, जिसके विषय में कृष्ण कहते हैं।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
(श्रीमद भगवतगीता ९.२७)
अर्थ:- हे कुंती के पुत्र, तुम जो कुछ भी करते हो, जो कुछ तुम खाते हो, जो कुछ तुम अर्पित करते हो और दान करते हो, साथ ही जो भी तपस्या तुम करते हो, वह सब मेरे लिए एक भेंट के रूप में किया जाना चाहिए। जो भी करते हो, खाते हो, तपस्या करते हो, दान देते हो जो भी कार्य.. मुझे अर्पित करो। तपस्या जब भगवान को अर्पित करेंगे या भगवान की प्रसन्नता के लिए हम तपस्या करेंगे। वह तपस्या दिव्य तपस्या कहलाएगी, इसका परिणाम क्या होगा। ऋषभदेव भगवान कह रहे हैं दिव्य तपस्या से (क्या) होगा शुद्धिकरण होगा। चेतोदर्पणमार्जनं होगा। चेतोदर्पणमार्जनं होने के उपरांत ही यह अंतकरण जिसमें मन, बुद्धि, अहंकार है। इन सबको मिलकर जो अंतकरण है, उसका शुद्धिकरण होगा। तब ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्, तुम सुखी होगें। कितना सुख? आनन्दाम्बुधिवर्धनं। चैतन्य महाप्रभु शिक्षाष्टकम में कह रहे हैं आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं। वही बात ऋषभदेव भी कह रहे हैं। तपस्या करो, दिव्य तपस्या होनी चाहिए, ऐसा करोगे तो शुद्धिकरण होगा। जब शुद्धिकरण होगा तो जो और और आवरण कवरिंग तुमको ढक कर रखे हैं, तुमको बद्ध बनाए हुए हैं। वह सारे हटाए मिटाए जाएंगे। और आप फ्री हो जाएंगे, आप मुक्त होंगे। फिर वह मुक्ति का आनंद, भक्ति का आनंद आप लूटोगे। सुखी होने की यह विधि है जैसे टेलीविजन है, ऑन किया और मनोरंजन हो रहा है। लेकिन ये भोग के उपाय अथवा साधन है। इस संसार के जो विषय हैं, भोगानंद है या मैंथुनानंद, यह आनंद, वह आनंद, विषयानंद या विषय का सुख ही हमारे दुख का कारण बनता है। इसलिए हम कहते रहते हैं कि भोग से रोग होते हैं लेकिन तपस्या से हम निरोगी होंगे। जप तप करेंगे, तो हम निरोगी होंगे। वह जो आनंद है, वह आनंद नहीं अमीरी में, जो आनंद लकीर फकीर करे वह आनंद नहीं अमीरी में।
हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इतनी बातें आप याद रखिए। याद रखने के लिए क्या किया जा सकता है, (जैसे हमारी साधना सिद्ध प्रभु लिख रहे हैं। राइट इट डाउन। आप में से कौन-कौन लिख रहे हो। दिखाओ अपना नोटबुक। खाली हाथ नहीं दिखाना। नोटबुक दिखाओ।) लिखिए, लिखने से वह आपकी संपत्ति हो गई। जो लिखा है, वह आपका धन हुआ। फिर कहो, उस संपत्ति को, उन वचनों को आपने डिपॉजिट किया। (वेरी गुड। कई सारे सभी तो नहीं पर कई भक्त लिख रहे हैं) यह भी साधना है। यह भी बताया था। जप रिट्रीट के समय पेपर और पेन साथ में रखो। लिखने का अभ्यास करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
दिन में यथा संभव आप किसी ईस्टगोष्ठी में या भक्तों के समूह में गैदरिंग में या जब उनको मिलते हो, अपने प्रश्नों के उत्तर उनसे भी या काउंसलर इत्यादि स्त्रोतों से प्रश्नों के उत्तर भी आप पता लगवा सकते हो या गुह्यमाख्याति पृच्छति भी हो सकता है। प्रतिदिन होना चाहिए। ऐसी कोई व्यवस्था आपके जीवन में होनी चाहिए। आज का यह सेशन कैसा रहा। भक्तों से, मित्र से या जो ज्वाइन किए थे आप उनके साथ भी चर्चा कर सकते हो, आपके अलग अलग फोरम हो सकते हैं। आई लाइक दिस, आई लाइक दैट। यह समझ में आया, पहली बार ऐसा स्पष्टीकरण हुआ, पहली बार मैं इसको समझा। इस प्रकार इस कम्युनिकेशन डायलॉग से दिन भर में हम इसी मूड में रह सकते हैं। हम इस कांफ्रेंस को क्लोज करने वाले हैं लेकिन इस टॉपिक को क्लोज नहीं करना है। इसको आगे बढ़ाया जा सकता है।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( श्रीमद भगवत गीता १०.९)
अर्थ:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें निवास करते हैं, उनका जीवन पूरी तरह से मेरी सेवा के लिए समर्पित है और वे हमेशा एक-दूसरे को प्रबुद्ध करने और मेरे बारे में बातचीत करने से बहुत संतुष्टि और आनंद प्राप्त करते हैं।
बोधयन्त: परस्परम्, एक दूसरे को बोध करें। गुह्यमाख्याति पृच्छति करते रहे, मेरे भक्त करते हैं। भगवान ने बड़े अभिमान के साथ भगवत गीता के दसवें अध्याय में कहा है, बोधयन्त: परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।
ठीक है।
गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल!