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जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
विषय - जप रिट्रीट
दिनांक 21 जुलाई 2023
हरे कृष्ण!!
तीनों आईडी फुल हो चुकी है। 1000 , 1000 और 500। अर्थात 2500 जापक। देखते हैं आगे क्या करना है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ऐसा जप कीजिए जैसा आपने पहले कभी ना किया हो मतलब कि अधिक ध्यान पूर्वक या अधिक प्रेम पूर्वक भी कहा जा सकता है। तीसरी आईडी की क्षमता बढ़ा दी गई है। इसकी क्षमता 1000 कर दी गई है। (यह रनिंग कमेंट्री है कुछ बातें सुनने की आपको आवश्यकता भी नहीं है)
स्वयं भगवान आपका आलिंगन करते हुए आपका स्वागत करें।
मुझे तो पुष्पमाला ही प्राप्त हुई, आपको भगवान का आलिंगन प्राप्त हो। हरि! हरि! यह मिलन उत्सव भी है। हरि! हरि! भगवान का भक्त से मिलन, मुलाकात भी कहते हैं, कृष्ण के साथ व्यक्तिगत समय। पर्सनल टाइम विद कृष्ण। हरि! हरि! भगवान, भक्ति, भक्त। (भक्त का भगवान से मिलन कौन कराती है?) भक्ति, भक्त का भगवान से मिलन कराती है। हम भक्तिपूर्वक, ध्यान पूर्वक, प्रेमपूर्वक पुकारेंगे। हमारी पुकार द्रोपदी जैसी पुकार हो या गजेंद्र जैसी पुकार हो या अजामिल जैसी पुकार हो। हरि! हरि!
अयि नन्दतनुज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥
अर्थ- हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए।
हरि! हरि! (अब 2700 जापक जप कर रहे हैं।) क्यों पुकारे? व्हाई कॉल? फिर इमरजेंसी कॉल भी है तो ऐसे कॉल को पहले उठाया जाता है।
विषमे भवाम्बुधौ।
चैतन्य महाप्रभु कहते हैं मैं इस भवसागर में गिरा हूं। इसलिए प्रभु मुझे उठाइए।
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा- मदर्शनार्न्महतां करोतु वा। यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥
अर्थ : एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़-आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें- वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।
मुझे गले लगाइए, यह भाव भी शिक्षाष्टकम में व्यक्त हुआ है। हरि! हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कृष्ण भी उतने बन जाते हैं, आपके हर एक के अपने अपने कृष्ण हैं, वे अपना विस्तार करते हैं। जैसे रास डांस में हर गोपी के साथ एक कृष्ण होते हैं।। हरि! हरि! वैसे ही आपके खुद के कृष्ण, जितने जीव उतने भगवान। एक होते हुए भी वे अनेक बन जाते हैं। हरि! हरि! हमें भगवान मिस कर रहे हैं और करते ही रहते हैं। वे हमारे कॉल की प्रतीक्षा कब से कर रहे हैं। अब जब हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।.. यह जीव और भगवान के मध्य में 24 x7 हॉटलाइन है। भगवान सब समय उपलब्ध हैं, वे तैयार हैं, वे इच्छुक हैं। बस! हमारी ओर से देरी होती है। हरि! हरि! फोन कॉल.. श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे कि यह जो हरे कृष्ण महामंत्र है, यह भगवान का टेलीफोन नंबर है। जब हम जप करते हैं, इस नाम का उच्चारण करते हैं अर्थात हम उस नंबर को डायल करते हैं। तब कृष्ण व्यक्तिगत रूप से उस कॉल को अटेंड करते हैं। कृष्ण इज वेरी पर्सनल, कृष्ण किसी सहायक को नहीं कहते कि तुम कॉल को उठाओ। नहीं! भगवान स्वयं कॉल को अटेंड करते हैं। हरि! हरि! वैसे भूलना नहीं चाहिए। हम राधा और कृष्ण दोनों को कॉल करते हैं। पहले कॉल तो हमारा राधा को ही होता है। हरे अर्थात राधा।राधा या हरे कहने से हमारा द्वार खुलता है। जब हम राधा कहते हैं तो हमारे राधा कहने को कृष्ण सुनते हैं। हमने कहा तो राधा लेकिन कृष्ण सुनते हैं, कृष्ण प्रसन्न होते हैं कि कोई मेरी राधा का नाम ले रहा है, कृष्ण राधा का नाम सुनना पसंद करते हैं। हरे कृष्ण जब हम कहते हैं- तब हमने कहा कृष्ण लेकिन उसको पहले सुनने वाली तो पहली राधा होती हैं, मेरे कृष्ण का कोई नाम ले रहा है, इस प्रकार दोनों ही राधा और कृष्ण प्रसन्न होते हैं। किसके कारण प्रसन्न होते हैं कि अरे! कौन-कौन पुकार रहा है, मेरी राधा का नाम कौन ले रहा है। मेरे कृष्ण का नाम कौन ले रहा है। धन्यवाद! मेरे कृष्ण का नाम लेने के लिए, धन्यवाद! मेरी राधा का नाम लेने के लिए। फिर वह धन्यवाद किसके पास जाता है। हम जो जप कर रहे हैं उनका आभार कि हम राधा कृष्ण को मानते हैं। वे हरे कृष्ण हरे कृष्ण पुकारने वाले से प्रसन्न होते हैं। राधा कृष्ण दोनों प्रसन्न होते हैं। हरि! हरि! ऐसे व्यक्ति को फिर पुरस्कार भी देते हैं, पुरस्कार क्या है? उसको अपने धाम ले आते हैं। धाम लौट आते हैं। हरि! हरि!लेकिन लौटने से पहले, जहां पर भी वो जापक है, जप कर रहा है, वहां स्वयं राधा और कृष्ण पहुंच जाते हैं। उस स्थान को अपना धाम बनाते हैं।
तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि । नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि यत् शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधव:।।
( श्रीमद्भागवतम श्लोक 1.5.11)
अनुवाद:
दूसरी ओर, जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है, वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं।
मैं वहाँ रहता हूं, जहां जापक/ साधक मेरे नाम का उच्चारण करता है। राधा कहेगी कि जहां कोई मेरे कृष्ण का नाम पुकार रहा है वहां मैं रहती हूं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
[ जब जपा रिट्रीट होती है तब जप अधिक होता है, चर्चाएं कुछ कम ही होती हैं। शायद आपने सोचा होगा कि जपा रिट्रीट होने वाली है तो बातें ही बातें होंगी। हरि! हरि! कुछ बातें हो चुकी हैं। वैसे जप अधिक, बातें कम का भी समय होता है। हम टॉक में जो सुनते हैं... अंग्रेजी में कहते हैं-वॉक द टॉक। टॉक(चर्चा) में जो बातें कही जाती हैं, जप करते समय उस पर अमल करना है। कहने के लिए ज्यादा समय नहीं लगता लेकिन उसको करने के लिए बहुत समय या पूरा जीवन भी उसमें बीत सकता है। कहा जाता है, बारंबार कहा जाता है कि ध्यानपूर्वक जप करो। बस जपा रिट्रीट हो गई, आपको बता दिया। ध्यानपूर्वक जप करो लेकिन ध्यान पूर्वक जप करते करते करते सदियां बीत सकती हैं और बीतती भी हैं। हरि! हरि! हमने कह तो दिया कि ध्यान पूर्वक जप करो लेकिन हमारे पल्ले नहीं पड़ता। हम समझ नहीं पाते कि कैसे ध्यान पूर्वक जप करें, जप कर तो रहे हैं। हम जप करना तो चाहते हैं लेकिन कैसे ध्यान पूर्वक करें? हाऊ टू चैंट अटेंटीवली। किसको कहते हैं कि हां यह जप ध्यानपूर्वक जप हो रहा है।
हरि! हरि! यह फटाफट नहीं होने वाला है, ऑन द स्पॉट नहीं होने वाला है। ध्यानपूर्वक जप करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। ( जल्दी जल्दी करते हुए) बस हो गया। हम ध्यानपूर्वक ध्यान कर रहे हैं। ध्यानपूर्वक जप करो, ऐसा कहते ही ध्यान पूर्वक जप नहीं होगा।हम जप तो करेंगे लेकिन वह ध्यानपूर्वक जप नहीं होगा। ध्यानपूर्वक जप करने का अभ्यास हमें करते रहना होगा। ध्यानपूर्वक जप करने का लक्ष्य या उसमें सिद्धि क्या है? हां! हम अब ध्यानपूर्वक जप कर रहे हैं। हम पूरे तल्लीन हुए हैं, बस एक मैं हूं; दूसरे राधा-कृष्ण हैं एवं उनके साथ सारा आध्यात्मिक जगत भी है किंतु इस संसार की ना तो कोई वस्तु है, ना तो कोई व्यक्ति है, ना कोई भाव है, ना कोई विचार है। हम भगवान के साथ हुए हैं, इसे हम योग या भक्ति योग कहते हैं। वैसे योगों के भी प्रकार हैं, कर्मयोग, ध्यानयोग, अष्टांगयोग लेकिन उसमें कमियां हैं, त्रुटियां हैं, अभाव है। इसलिए सभी योगों में भक्ति योग सर्वश्रेष्ठ है।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ॥
( श्रीमद भगवद्गीता श्लोक 6.47)
अनुवाद:
समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्त:करण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।
हमें भक्ति योगी बनना है भगवान के धाम में हर व्यक्ति भक्तियोगी होता है। वहां कर्मयोगी/ ध्यानयोगी... दिस वन दैट वन नहीं होता, योग मतलब संबंध। वहां से भी शुरुआत हो सकती है। संबंध ज्ञान से या संबंध के साक्षात्कार।
(जीव) कृष्णदास, ए विश्वास, कर्’ ले त’ आर दुःख नाइ (कृष्ण) बल् बे जबे, पुलके ह’बे झ’र्बे आँखि, बलि ताइ॥
अर्थ:- परन्तु यदि मात्र एकबार भी तुम्हें यह ज्ञान हो जाए कि मैं कृष्ण का दास हूँ तो फिर तुम्हें ये दुःख-कष्ट नहीं मिलेंगे तथा जब कृष्ण नाम उच्चारण करोगे तो तुम्हारा शरीर पुलकित हो जाएगा तथा आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगेगी।
यह विश्वास कि मैं भगवान का हूं, शुरुआत तो करें कि मैं भगवान का दास हूं, हम यहां से शुरुआत कर सकते हैं। हमारे अन्य भी संबंध हो सकते हैं, भगवान के मित्र हो सकते हैं। भगवान के माता-पिता जैसे वात्सल्य भाव भी हो सकता है। संबंध ज्ञान से शुरुआत करते हुए फिर होता है अभिधेय- सेटल होना सेवा करना। उस संबंध में हमारा भगवान के साथ जो संबंध है। दास्य भाव, सांख्य भाव.. कौन सा भाव ? इसका हमें धीरे धीरे अनुभव या साक्षात्कार होगा। तत्पश्चात लक्ष्य/ प्रयोजन है- कृष्ण प्रेम प्राप्ति। हरि! हरि! कृष्ण प्रेम को वैसे प्रेम मयी सेवा ही कहना होगा। प्रेम मयी सेवा क्योंकि हम जीव हैं। जीव भगवान का दास है, सेवक है। वैसे भगवान के मित्र भी भगवान के सेवक हैं, भगवान के माता-पिता भी भगवान के सेवक हैं। भगवान की प्रेसियां तो सेविकाएं ही हैं। सेव्या, सेवक, सेवा की बात है, हम सेवक हैं। भगवान सेव्या हैं। सेवा से हमारा संबंध सेव्या या भगवान के साथ हो जाता है। यही सही बात है। और हम उसी दिन बता रहे थे कि हम भक्त हैं और हमें भक्ति करते हुए भगवान को प्राप्त करना है। भक्त, भगवान को जोड़ने वाली भक्ति है अथवा उपासक, उपासना और उपास्य या कहें कि जापक- हम जो जप करते हैं। जाप्य जिनका हम जप करते हैं फिर ध्यानपूर्वक जप करना यह भक्ति हुई। जापक को जाप्य या भगवान के साथ यह ध्यानपूर्वक जप करना; इसके साथ हमारा भूला हुआ सम्बन्ध पुनः स्थापित होता है। हरि! हरि! ध्यान पूर्वक जप करने का फल है कि हम ध्यानी बनेंगे। हम ध्यानस्थ होंगे। हम समाधिस्थ होंगे लेकिन हम उस प्रकार के समाधिस्थ नहीं होंगे जिस प्रकार के योगी जो अपनी ध्यान अवस्था में परमात्मा का ध्यान करते हैं। हमें उस प्रकार के योगी बनना है जिस प्रकार की योगिनी गोपियां होती हैं या भगवान के ग्वाल बाल होते हैं। वे ध्यान अवस्था/ मुद्रा में बैठकर भगवान का ध्यान नहीं करते। प्राकृतिक रूप से रोज वे जो भी कर रहे हैं, वे ध्यानपूर्वक ही करते हैं या समाधि की अवस्था में ही करते हैं। सारे कार्यकलाप समाधिस्थ होकर या ध्यानपूर्वक अथवा प्रेम पूर्वक सेवा करते रहते हैं।
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि | योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ||
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |
कायेन मनसा वाचा.. कायेन अपने सारे शरीर से, वह भगवान की सेवा करते हैं। कायेन, मनसा मन से बुद्धि भी/ इंद्रिय भी है। वह सब का उपयोग करते हैं।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति
योगी कार्य करते हैं, हिलते हैं, डुलते हैं, नाचते हैं, खेलते हैं, रसोई बनाते हैं, पकाते हैं, माला बनाते हैं अर्थात जितनी भी क्रियाएं हैं, वे सब करते हैं। संस्कृत में 2000 धातुएं हैं, मतलब जितनी धातुएं हैं, उतनी ही क्रियाएं हैं और वह क्रियाएं, उपसर्ग इत्यादि से जोड़ने पर असंख्य क्रियाएं/ एक्टिविटीज हो जाती हैं। वह सारी की सारी एक्टिविटीज (कार्यकलाप) भगवान के भक्त भगवत धाम में करते रहते हैं। वे सब प्रेम पूर्वक व ध्यानावस्था में करते हैं। प्रेम पूर्वक करते हैं। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यही प्रेम है, 537 वर्ष पूर्व जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आए, तब वे साथ में गोलोकेर प्रेम धन हरि नाम संकीर्तन को लाए थे।
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥
( वैष्णव भजन- हरि हरि विफले)
अर्थ:-
गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
वे ले भी आए और कृष्ण प्रेम प्रदायते।
उन्होंने इस कृष्ण प्रेम का वितरण भी किया।
पृथिविते आछे यत नगरादि-ग्राम सर्वत्र प्रचार हैबे मोरा नाम
मेरे नाम का सर्वत्र प्रचार होगा।श्रील प्रभुपाद ने इस्कॉन की स्थापना करते हुए ऐसी व्यवस्था बनायी ताकि संसार भर में चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी हो। इस प्रकार यह हरि नाम जो कृष्ण प्रेम है, जो स्वयं भगवान है। यह सर्वत्र फैल रहा है, हमारे पास महामंत्र पहुंचा है इसलिए आप यहां पहुंचे हो या फिर जब दीक्षा होती है। दीक्षा के समय आपको मंत्र दिया जाता है। मंत्र दिया जाता है अर्थात (मतलब क्या दिया जाता है) आपको भगवान ही दिए जाते हैं। यह लो भगवान, भगवान को लो, कृष्ण को लो।
नाम चिंतामणिः कृष्ण चैतन्य-रस-विग्रहः। पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तो 'भिन्नत्वं नाम-नमिनोः'।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133)
अर्थ:-
कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंददायक है। यह सभी आध्यात्मिक आशीर्वाद प्रदान करता है, क्योंकि यह स्वयं कृष्ण हैं, जो सभी सुखों के भंडार हैं। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य मधुरताओं का रूप है। यह किसी भी हालत में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से कम शक्तिशाली नहीं है। चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से दूषित नहीं है, इसलिए इसके माया से जुड़े होने का कोई सवाल ही नहीं है। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त और आध्यात्मिक है; यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों से बंधा नहीं होता। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृष्ण और कृष्ण का नाम स्वयं एक समान है।'
यह समस्या हमारे साथ है, हम सोचते हैं कि नाम कैसे भगवान है? हरि! हरि! नाम कैसे भगवान है? नाम और नामी में कोई फर्क नहीं है। आम! आम! आम! कहते जाओ, केवल नाम कहने से आम का आस्वादन तो नहीं होगा। श्रील प्रभुपाद समझाया करते थे कि पानी.. पानी.. पानी.. पानी... कहो तो प्यास बुझने वाली नहीं है। केवल पानी पानी कहने से संभावना है कि आप की प्यास बढ़ जाए। इससे आपका गला और सूख सकता है। पानी... पानी... वाटर... वाटर... कहते-कहते हुए। कारण क्या है कि वस्तु पानी और नाम पानी (पानी का नाम पानी) यह जो पानी है। यह दो अलग-अलग बातें हैं, यहां नाम और नामी दो अलग-अलग हैं। पानी नाम एक चीज है, पानी वस्तु या द्रवभूत पदार्थ वह अलग है। जब हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कहते हैं तो नाम ही नामी होने के कारण... नाम ही नामी है। भगवान का नाम ही है
अभिन्नत्वं नाम-नमिनोः'
यह नामी भगवान है। कैसे? नाम चिंतामणि...
यह नाम चिंतामणि है, रस की खान है, आनंद का स्त्रोत्र है। विग्रह मतलब रूप, रस विग्रह। रस जब मूर्तिमान बनता है तो वह कृष्ण का रूप, राधा का रूप धारण करता है। रसवस्यो.. यह
शास्त्रों का बहुत प्रसिद्ध वचन है। वेदवाणी है। रसवस्यो... भगवान रस से बने हैं। अखिल रसामृत सिन्धु.. केवल रस के बने हैं।
फिर अलग-अलग रस हैं, रस के भी नाम हैं। हरि! हरि! सात गौण रस हैं। पांच प्रधान रस हैं। दास्य, साख्य, वात्सल्य, माधुर्य और शांत रस। भगवान इन रसों से बने हैं, रस ने अपना रूप धारण कर लिया है। रस मूर्तिमान बन गया है, वही श्रीकृष्ण हैं, वही राधा हैं। वैसे राधा और कृष्ण एक आत्मानपि एक ही आत्मा हैं। दोनों की एक ही आत्मा है, राधा और कृष्ण अर्थात भगवान पूर्ण हुए है। राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और कृष्ण के बिना राधा अधूरी हैं। एक शक्ति है और दूसरा शक्तिमान है।
नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य - रस - विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य - मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम - नामिनोः ॥
उसी मंत्र में और भी कहा है। पूर्ण शुद्धो नित्य मुक्तो..
यह भगवान का नाम कैसा है? पूर्ण शुद्ध, पूरा शुद्ध है, स्वयं भी शुद्ध है। यह औरों को भी शुद्ध बना सकता है। यह महामंत्र शुद्धिकरण की सामर्थ्य शक्ति रखता है। भगवान का नाम पूर्ण शुद्घ है।
कृष्ण - सूर्य - सम; माया हय अन्धकार । याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.31 )
अनुवाद:
“कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अन्धकार के समान है। जहाँ कहीं सूर्य - प्रकाश है, वहाँ अन्धकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्योंही माया का अन्धकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरन्त नष्ट हो जाता है।”
कृष्ण को सूर्य की तुलना भी दी जाती है, कृष्ण सूर्य के समान है। सूर्य क्या करता है? सूर्य में जो ज्वाला भी है, आग धधक रही है। सूर्य की अग्नि है। जैसे अग्नि से हमें प्रकाश प्राप्त होता है, अग्नि में दहन अथवा जलाने की शक्ति होती है। अग्नि के 2 गुण धर्म हैं- एक प्रकाश देना, अग्नि प्रकाश देती है, अग्नि जलाती है। जब हम कहते हैं और यह सब सच ही है। कृष्ण सूर्य सम, कृष्ण सूर्य जैसे हैं। कृष्ण में भी यह दो गुण हैं, वैसे कई सारे गुण हैं लेकिन यहां पर दो गुणों की बातें हो रही हैं। कृष्ण जो सूर्य के सम है, वह प्रकाश देंगे, वह प्रकाश ज्ञान के रूप में हमें प्राप्त होगा।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥
अर्थ:-
श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
वह भी है। वैसे इसके कई सारे कनेक्शन है। एक तो हमें प्रकाश मिलेगा।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः भी होगा।
साथ ही साथ हम में जो दोष है, हम में जो त्रुटियां हैं, उसका भी दहन होगा। उसको भी जलाया जाएगा।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 4.37)
अनुवाद:
जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है।
प्रभुपाद समझाया करते थे कि सूर्य जब प्रकाशमान होता है, तब वह प्रकाश तो देता है और साथ ही साथ सूर्य की किरणें इस जगत में जहाँ मल मूत्र विसर्जन करने वाले जो स्थान हैं, उनको भी पवित्र करता है। दुर्गंध के स्थान पर सुगंध की स्थापना करता है।जहां भी मैला है अथवा कूड़ा करकट है, वहां वहां सूर्य की किरणें पहुंचकर उसको शुद्ध, पवित्र या दोष से मुक्त कर देती हैं। वैसे ही जब हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का उच्चारण करते हैं, तब भगवान प्रकट होते हैं, हमें पूर्ण शुद्ध बनाते हैं। कृष्ण का जो प्रकाश है, ज्ञान है, उनमें जो सामर्थ्य है। वैसे शुकदेव गोस्वामी ने कहा-
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण: । कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥
( श्रीमद भागवतम श्लोक 12.3.51)
अनुवाद:-
हे राजन्, यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है— केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है।
यह कलयुग दुर्गुणों की खान है लेकिन इस कलयुग में एक गुण भी है। वह कौन सा गुण है? कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥
कृष्ण का कीर्तन करेंगे। कृष्ण के नाम का जप करेंगे। मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥ हम मुक्त होंगे, यह भगवान का नाम इस संसार के संग/बंधनों से हमें मुक्त करेगा। ऐसा शुकदेव गोस्वामी भागवत में कह चुके हैं। हरि! हरि! ओम!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
ब्रह्मा जी बोल रहे हैं। ओम.... ओम कहकर उन्होंने प्रारंभ किया। उन्होंने इस महामंत्र को कहा। फिर कहा
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इति षोडशकं नाम्नम, कलि-कल्मश-नाशनम; नतः परतरोपयः, सर्व-वेदेषु दृश्यते।
अर्थ:-
सोलह शब्द- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण
कृष्ण, हरे हरे; हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे-विशेष रूप से कली के सभी प्रदूषणों को पूरी तरह से नष्ट करने के लिए हैं। कलियुग के प्रदूषण से बचने के लिए सभी वेदों में इस सोलह अक्षर वाले मंत्र के जाप के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
कलि के जो दोष, कल्मष हैं, उनका निवारण होगा। (कौन करेगा? )
इति षोडशकं नाम्नम
यह 16 नाम वाला जो मंत्र है, महामंत्र.. यह हमें मुक्त करेगा। हरि! हरि! इसके विषय में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टक में कहते हैं। शिक्षाष्टक का पहला वचन या शब्द तो यही है यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहने का क्या लाभ है? क्या फायदा है? चैतन्य महाप्रभु पहली बात ही कहते हैं
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
अर्थ:-श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
अपनी चेतना का जो दर्पण है, उसका मार्जन होगा, सफाई होगी, धुलाई होगी। (कौन करेगा?) भगवान करेंगे। (किस रूप में करेंगे) अपने नाम कलि काले नाम रुपे कृष्णावतार अर्थात नाम के रूप में करेंगे। हमारे लिए जो भी बातें बंधनकारी हैं अथवा हमें माया में फंसायी हुई है। यह भगवान का नाम सारे भव बंधन को काट देगा, तोड़ देगा और उसकी राख बना देगा। भगवान ही भगवान के नाम के रूप में आते हैं। हरि! हरि!हमें यह भगवान का नाम/ शास्त्र व सिद्धांत भी सीखने समझने हैं। जैसा आपको बताया जा रहा है ताकि इसे सुनकर भी हमारी नाम में और श्रद्धा हो जाए। पता नही था कि नाम की इतनी महिमा है। हम श्रद्धा से निष्ठा तक पहुंच जाते हैं। हरि नाम की महिमा का अधिक से अधिक श्रवण करते हैं। उसके साथ साथ हमें यह भी अनुभव करना है कि नाम ही भगवान है। नाम हमें भगवान के रूप तक पहुंचाता है। वहां से उनके गुणों को प्रकाशित करता है। भगवान के गुणों के साक्षात्कार हमें होने लगते हैं और धीरे-धीरे हम लीला की ओर बढ़ते हैं। फिर लीलाएं जहां संपन्न होते हैं अर्थात धाम का भी साक्षात्कार होता है। अंततोगत्वा भगवान हमें
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
( श्रीमद भगवद्गीता 4.9)
अर्थ:-
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
ऐसे जीव अथवा ऐसी जीवात्मा जब नाम सिद्धि अथवा नाम जप की सिद्धि को प्राप्त कर लेगी मतलब जब हम शुद्ध नाम जप करेंगे। शुरुआत से ही हम से अपराध होते ही रहते हैं। जप भी कर रहे हैं, अपराध भी हो रहे हैं। अपराध क्यों नहीं होंगे? अब तक तो हमनें जन्म जन्मांतरों से अपराध के बिना तो कुछ किया ही नहीं या जो भी किया पाप ही किया है। हमनें भगवान की कृपा से जप करना प्रारंभ तो किया है। हमें नाम के रूप में भगवान मिलें।
फिर धीरे-धीरे भगवान जो करते हैं, जैसा कि हमने कहा? वे हमें प्रकाश देते हैं, हमें ज्ञान देते हैं और साथ ही साथ हमें, हमारी पाप बुद्धि से मुक्त करते हैं। हम में जो भी दोष व त्रुटियां हैं, उस से मुक्त करते हैं। जैसे ही हम नाम की शरण लेंगे, हरिनाम प्रभु यह सब करता है। इनको नाम प्रभु कहते हैं मतलब नाम ही प्रभु है, नाम ही भगवान है। मैं यह भी सोच रहा था कि जो हम नाम अपराध कहते रहते हैं (पवित्र नाम के विरद्ध अपराध)। पवित्र नाम ही भगवान है। नहीं तो.. अरे तुमने अपराध किया! किसी के चरणों में, किसी के प्रति तुमने अपराध किया। व्यक्ति का यह संकेत होता है। ए! तुम नाम अपराध कर रहे हो, धाम अपराध भी कर रहे हो। यह नाम भगवान है। वैसे धाम भी भगवान है, नाम भगवान है, नाम व्यक्तित्व है, सुप्रीम पर्सनैलिटी आफ गोड़हैड अर्थात पुरुषोत्तम भगवान है। भगवान पुरुष है, भगवान व्यक्ति है। हरि नाम ही वह व्यक्तित्व है, वह भगवान है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥
( श्रीमद भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद:
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत।
इस वचन में भगवान ने वादा किया हुआ है। अरे जीव! तुम क्या करो? बाकी दुनियादारी व तथाकथित दान धर्म के कर्म को छोड़ दो। कुछ गौण बातें, कुछ सुलभ बातें भी हो सकती हैं। (क्या करो?)
मामेकं शरणं व्रज
मेरी शरण में आओ। मेरे अकेले की... मैं ही हैं।
एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य । यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 5.142)
अनुवाद:
एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
मैं आपकी शरण में आऊंगा। शरण में आना, यह हमें करना है। अब आपकी( भगवान की) शरण में आ गए। आप क्या करोगे?
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा
कृष्ण गीता के निष्कर्ष में कह रहे हैं। ए जीव, मेरी शरण में आओ। अगर ऐसा तुम करोगे तो मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूं। किसकी? अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा
कितने पापों से? सर्व पापेभ्यो:।
सभी पापों से, सभी पापों से। अभी तक हमने जो कुछ किया, कुछ मिनट पहले मैं कह ही रहा था कि हम अभी तक केवल पाप ही करते रहे हैं।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ॥
( श्रीमद भगवद्गीता 7.19)
अनुवाद:
अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है फिर समझ में आता है
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:
जब व्यक्ति भगवान की शरण में आता है तब भगवान कहते हैं कि मैं तुम्हें मुक्त करूंगा, मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त करूंगा। यदि मेरी शरण में नहीं आओगे तो फिर तुम्हारा चलता रहेगा। इस एक्शन का वो रिएक्शन, एक्शन रिएक्शन। कारण- प्रभाव। यह चलता रहेगा, तुम्हारा
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥ 21॥
फिर से जन्म, फिर से मृत्यु, फिर से माँ के गर्भ में रहना! संसार के इस असीम सागर को पार करना वास्तव में कठिन है। हे मुरारी! अपनी दया से मुझे छुड़ाओ।
यह सब सदा के लिए चल सकता है। यह जो संसार का चक्र है, जन्म मृत्यु का जो चक्र है। इससे मुक्त होने का एकमेव उपाय या मार्ग क्या है? हम भगवान की शरण में जाएं। हम भगवान की शरण में जाते हैं तो भगवान ने कहा है कि तुम्हारे जो एक्शन की रिएक्शन होने वाली है, जो प्रतिक्रिया होने वाली है, उससे मैं तुम्हें मुक्त करूंगा। मैं जिम्मेदारी लेता हूं, वही बात है। कृष्ण सूर्य सम बन जाते हैं अर्थात सूर्य के समान। सूर्य क्या करता है? जहां गंदगी है, जहां मल मूत्र होता है, उसको स्वच्छ बनाता है और वह स्वयं सदा के लिए स्वच्छ रहता ही है। सूर्य में कभी भी दोष या गंदगी नहीं आती।
सारे संसार को साफ या स्वच्छ करते-करते सूर्य गंदा नहीं होता। सूर्य तो सदा के लिए पवित्र रहता है व अन्यों को शुद्ध, पवित्र या स्वच्छ बनाता रहता है। उसी प्रकार यहां कहा गया है कि भगवान पूर्ण शुद्ध, नित्य मुक्त हैं। भगवान स्वयं पूर्ण शुद्ध है और अन्यों को शुद्ध करते रहते हैं। भगवान स्वयं नित्य मुक्त है। जो स्वयं ही मुक्त नहीं, वह औरों को कैसे बना देगा। भगवान स्वयं मुक्त हैं, अभिज्ञ, स्वराट, स्वतंत्र हैं। वे औरों को भी मुक्त बना सकते हैं। यह केवल भगवान ही कर सकते हैं।
एकला ईश्वर कृष्ण आर सब भृत्य।
मुक्ति प्रदाता सर्वेषाम
मुक्ति- सब को मुक्त करने वाले बस विष्णु हैं। विष्णु तत्व हैं, देवी देवता नहीं है और कोई पार्टी नहीं है। जो विष्णु पार्टी है, जो विष्णु है, विष्णु के अवतार हैं, प्रकार हैं। वैसे विष्णु ही अवतारी के अवतार हैं। विष्णु, कृष्ण, नारायण, राम, श्रीचैतन्य महाप्रभु की जय!
ये सारे संसार को मुक्त करने की शक्ति/ युक्ति/ सामर्थ्य रखते हैं। इनके अतिरिक्त कोई नहीं। इसलिए कृष्ण कहते हैं
मामेकं शरणं व्रज अर्थात
मेरे अकेले की शरण में आ जाओ। यह-हरे कृष्ण महामंत्र ही, यह हरि नाम ही हरि है। इसमें कोई अंतर नहीं है। एक ही बात है।
जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥
अर्थ :
निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान् के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक व्यवहार करो।
हरि नाम का आश्रय ही भगवान का आश्रय है। नामजप करना ही भगवान की शरण में आने का अभ्यास है। हरि! हरि! जब हम भगवान की शरण में आएंगे, पूरी समझ के साथ भगवान के नाम की शरण में आएंगे तब यही हरि नाम करने वाला है
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥
यह संसार की ज्वाला/ आग से हमें मुक्त करने वाला है। यह हरि नाम श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं
जहां आग लगी है, यदि हम उसी स्थान पर यह हरि नाम लेंगे तो वहां क्रांति होगी, वहां हरियाली छा जाएगी, वहां पुष्प उगेंगे, सुगंध होगी। शीतल मंद हवा बहने लगेगी। ऐसा स्थान बदल जाएगा, जहां दावाग्नि थी, उसी स्थान पर से केरव चंद्रिका वितरण चंद्रमा की शीतल किरणें प्रकाशित होंगी।हमारे जीवन को शीतल/ ठंडा/ मंगलमय बना देगी। यह हरि नाम का आश्रय है।
विद्यावधूजीवनम् हम विद्वान होंगे। जब हम भक्ति करते हैं तब हमें ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होता है। भक्ति/हरि नाम का जप करना यह सर्वोत्तम भक्ति है।
श्रीप्रह्राद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ ( श्रीमद भागवतम 7.5.23-24)
अर्थ :
प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना)—शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
हम मुक्त होंगे, हमें विद्या वधू जीवनम प्राप्त होगा। हम ज्ञानवान भी बनेंगे।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
तत्पश्चातआनंद सागर में जीव गोते लगाने लगेगा। यह आनंद मय जीवन...
इतीदृक् स्व-लीलाभिर् आनन्द-कुण्डे स्व-घोषं निमज्जन्तम् आख्यापयन्तम्।तदीयेषित-ज्ञेषु भक्तैर् पुनः प्रेमतस् तं शतावृत्ति वन्दे ॥
(दामोदरष्टकम-3)
जैसे आध्यात्मिक जगत में भगवान के परिकर/ संगी/ साथी.. भगवान की लीला के आनंद के सागर में नहाते हैं। ऐसा अनुभव जीव करने लगेगा और सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्
उस का रस से उसका अभिषेक होगा। उसी में स्नान करेगा, उसका ऐसा जीवन बनेगा, आनंद ही आनंद गड़े। परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम ऐसे संकीर्तन व ऐसे हरे कृष्ण महामंत्र की जय! ऐसा स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। नाम की भी जय! नाम का जप करने वाले की जय! जय! जय होगी।
यह पवित्र नाम की भी जीत होगी। वह व्यक्ति भी विजेता होगा जो नाम जप करता है। नाम प्रभु की जय! आप सब जीवात्माओं की जय. हो। आप भी ऐसे विजयी हो। जप करते-करते, करते -करते करते अधिक ध्यान पूर्वक जप करते-करते हेतु चेतोदर्पणमार्जनं करते-करते करते तमसो मां ज्योतिर्गमय होगा । हम अंधेरे से प्रकाश की ओर अमृतमय अर्थात मृत से हम अमर बनेंगे। हरि! हरि!