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हरे कृष्ण
जप चर्चा
दिनांक- 20 मई 2023
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
आज का जपा टोंक प्रारंभ करते हैं।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद। जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त वृंद।। आप सभी ने इस शिक्षाष्टकं नामक ग्रंथ को प्राप्त किया या नही?आशा है कि आप सभी के पास यह ग्रंथ है। शिक्षाष्टकं के अध्ययन के लिए यह बहुत उपयोगी ग्रंथ है। इसे अवश्य प्राप्त कीजिए।
सेई सेई भावे निज-श्लोक पाडिया। श्लोकेर अर्थ अस्वादे दुई-बंधु लान।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.6)
चैतन्य चरित्रामृत की अंत: लीला अतिंम अध्याय, अध्याय संख्या 20 में शिक्षाष्टकं की शिक्षाएं दी गई हैं और शिक्षाष्टकं तो स्वयं चैतन्य महाप्रभु ने दिया है।
श्री कृष्ण चैतन्य राधा-कृष्ण ना ही अन्य।
शिक्षाष्टकं चैतन्य महाप्रभु स्वयं सुनाया करते थे। जगन्नाथपुरी में एक गंभीर स्थान है, जिसे गंभीरा ही कहते हैं। यहाँ चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद और स्वरूप दामोदर के साथ शिक्षाष्टकं पर चर्चा किया करते थे। उन्हें सुनाते थे, उन्हें पढ़ाते थे और उनके साथ श्लोको का आस्वादन करते थे
कौन दिने कौन भावे श्लोक-पढन। सेई श्लोक अस्वादिते रात्रि-जागरण।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.7)
किसी दिन या किसी रात्री को कोई एक श्लोक या श्लोक का अंश लेते थे और उसके जो भाव है, उसका आस्वादन करते और आस्वादन करते-करते रात्रि का जागरण होता, जिसको स्लीपलेस नाइट कहते हैं।
यार चित्ते कृष्ण प्रेमा-करये उदय। तांर वाक्य क्रिया, मुद्रा विज्ञेह ना बुझय।।
(चैतन्य चरितामृतम मध्य लीला 23.39)
श्री चैतन्य चरितामृत में ही कहा गया है कि जिनके चित्त में प्रेम का उदय होता है, ऐसे व्यक्ति के वाक्य, उनकी क्रियाएं, उनके कार्य, उनके हाव-भाव और मुद्रा को विद्वान भी नहीं समझ सकते।यहां तो जिनके चित्त में प्रेम का उदय हो रहा है, वह श्री कृष्ण ही हैं, स्वयं भगवान ही हैं। इसीलिए उनके यह वाक्य शिक्षाष्टकं हैं, उनकी सारी क्रियाएं, कार्यकलाप या हाव भाव या उनके लक्षणों को समझना कठिन होता है। यहां हम ऐसे कठिन विषय को समझने का प्रयास कर रहे हैं। इस विषय को अचिंत्य कहा जा सकता है। इसको बुद्धि से समझा नहीं जा सकता, भगवान ही हृदय प्रांगण में इस विषय को प्रकाशित करेंगे और किसे?
तृणादपि शुनिचेन वाली मनोवृत्ति वाले भक्तों को ही चैतन्य महाप्रभु के भाव या क्रियाएं समझ में आती हैं। ऐसे भाव की अब भी आवशयकता है।
वैराग्य - विद्या - निज - भक्ति - योग - शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः । श्री - कृष्ण - चैतन्य - शरीर - धारी कृपाम्बुधिर्यस्तमहं प्रपद्ये।।
(चैतन्य चरितामृतम मध्य लीला 6.254)
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय लेकर हम इन अष्टको को समझने का प्रयत्न करते हैं। सार्वभौम भट्टाचार्य ने इन शब्दों में महाप्रभु की गौरव गाथा कही है।
शिक्षाष्टकं एक: पुरुषं पुराण:"।
एक अकेले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही शिक्षाष्टकं के शिक्षक हैं। श्री कृष्ण चैतन्य शरीर धारी, वह श्री कृष्ण चैतन्य का शरीर धारण करके प्रकट हुए हैं और क्या सिखा रहे हैं? वह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की विद्या सिखाने के लिए प्रकट हुए हैं और यंहा इस शिक्षाष्टकं में भी वह पढा और सुना रहे हैं।
कृष्णं वंदे जगद्गुरु, जगत गुरु चैतन्य महाप्रभु ने इस शिक्षाष्टकं को पढ़ाया और सुनाया है
कहिते कहिते प्रभुर दैन्य बाडिला।‘शुद्ध भक्ति कृष्ण- ठाणि मागिते लागिला।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.27)
चैतन्य चरितामृतम अंत: लीला के 20 वे अध्याय में यह वचन हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने दो मित्रों, भाइयों के साथ जगन्नाथपुरी के गंभीरा में इस शिक्षाष्टकं का आस्वादन कर रहे हैं और इसे कहते कहते उनमें देन्य भाव और बढ़ रहा है और इस देन्य भाव में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु शुद्ध भक्ति मांगने लगते हैं ।
प्रेमेर स्वभाव- याहां प्रेमेर संबंध। सेइ माने- कृष्णे मोर नाही, प्रेम गंध।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.28)
यहां पर यह भी कहा जा रहा है कि जो सचमुच प्रेमी भक्त होते हैं, जिनका स्वभाव ही प्रेम देने का होता है, वो वैसे तो यह मानते रहते हैं कि अरे अरे मुझे तो प्रेम की गंध भी प्राप्त नहीं हो रही है। किंतु वास्तव में वह प्रेम से भरपूर होते हैं, किंतु यह उनका भाव होता है कि मुझे तो प्रेम की गंध भी प्राप्त नहीं हो रही है। अगले अगले अष्टको में प्रथम अष्टक, द्वितीय और तृतीय अष्टक के भाव भी धीरे-धीरे प्रकट होते जाएंगे
धन जन नाहि मागो, कवित सुंदरी। शुद्ध भक्ति देह मोरे,कृष्ण कृपा करि।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.30)
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं कि मुझे धन नहीं चाहिए, मैं जन नहीं मांग रहा हूं, कविता और सुंदरी नहीं मांग रहा हूं, कृपया करके मुझे शुद्ध भक्ति दीजिए।
इन शब्दों में चैतन्य महाप्रभु कृपा की याचना कर रहे हैं। आप लोग मेरे पीछे-पीछे दोहरा सकते हैं
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि।।
(चैतन्य चरितामृत अंत: 20.29)
आज इस अष्टक का पाठन होगा।मैं पढ़ाऊंगा और आप सुनोगे। चैतन्य महाप्रभु ने भी इस अष्टक को तीसरे अध्याय में समझाया है। हल्का सा भाष्य सुनाया है और फिर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने यह भाष्य लिखा है, इस भाष्य का नाम उन्होंने संबोधन भाष्य दिया है और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी अपना एक भाष्य लिखा है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने सारे अष्टकोंन के अन्वय भी लिखे हैं।अष्टक तो पद्य है उन्होंने अष्टक को गद्य बनाकर लिखा है, यह अन्वय है। इसको समझते हैं, इस श्लोक को हमने अभी सुना- ना धनम् ना जन्म उसका अन्वय और अन्वय के साथ इसके शब्दार्थ भी हैं। हे जगदीश जगन्नाथ मतलब कृष्ण, जगदीश यह संबोधन है।*अहमं न धनं, न जनं, न सुंदरीम इत्यादि कैतवातक त्रिवर्ग मुलं कर्म।
हे जगदीश, जगन्नाथ, अहं न धनं, न जनं, न सुंदरीम कवितां वा (इत्यादि कैतवात्मक त्रिवर्ग मूलं कर्म)
श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर अन्वय में लिखते हैं यह जो है धन्म, जन्म, कविता, सुंदरीं इत्यादि कैतवातमक त्रिवर्ग मुलं कर्म है। कैतव धर्म के अंतर्गत ऐसी मांग होती है।
धर्म: प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां। वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।। श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वर:। सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभि: शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्।।
(श्रीमद् भागवतम् 1.1.2)
किंतु भागवत धर्म ने इनको ठुकराया है। धनं जन्म सुंदरीं कवितां यह कैतव धर्म है। मैं इनको नहीं चाहता हूं। न कामये।(न प्रार्थये किंतु)
मुझे धनं-जन्म प्राप्त हो मेरी ऐसी कामना नहीं है और
मम जन्मनि जन्मनि (अत: अपौनभरवरूपं ज्ञानमपि न कामये।अपितु),
मेरा पुनः पुन: जन्म ना हो, मैं मुक्त हो जाऊं इसके संबंधित जो ज्ञान है, मैं ऐसा ज्ञान भी प्राप्त नहीं करना चाहता हूं और अगर मैं मुक्त भी नहीं हुआ तो भी मुझे कोई परवाह नहीं है किंतु
त्वयि (अधोक्षजे), अहैतुकी (निष्कामा व्यवधानरहिता),
भक्ति: भवतात् (भूयात्)
मुझे अधोक्षज: भगवान कि अहैतुकी (निष्कामा व्यवधानरहिता), भक्ति प्राप्त हो।यही मेरी कामना है।
हे जगदीश ,जगन्नाथ,
अहं न धनं, न जनं, न सुंदरीम कवितां वा (इत्यादि कैतवात्मक त्रिवर्ग मूलं कर्म),
न कामये। (न प्रार्थये किंतु),
मम जन्मनि जन्मनि (अत: अपौनभरवरूपं ज्ञानमपि न कामये।, अपितु),
त्वयि (अधोक्षजे),
अहैतुकी (निष्कामा व्यवधानरहिता),
भक्ति: भवतात्(भूयात्)
अहं धमार्थ कामात्मिकां भुक्तिं भवबंधमोचनात्मिकां मुक्तिं न प्रार्थये, केवलां शुद्धामेव सेवां त्वच्चरणे अहं याचे इत्यर्थ:
मुझे भुक्ति नहीं चाहिए धर्म अर्थ काम मोक्ष वाली भुक्ति नहीं चाहिए भवबंधमोचनात्मिकां मुक्तिं न प्रार्थये और मुझे भव बंधन से मुक्त होने वाली मुक्ति भी नहीं चाहिए । मैं मुक्ति के लिए भी प्रार्थना नहीं कर रहा हूं।
केवलां शुद्धामेव सेवां त्वच्चरणे अहं याचे इत्यर्थ:
केवल आपके चरणो में शुद्ध भक्ति हो यही मेरी प्रार्थना है और इस अष्टक का अनुवाद इस प्रकार से है, हे जगदीश मुझे धन अनुयाई, सुंदर पत्नी या, अलंकारी भाषा में वर्णित सकाम कर्मों की कामना नहीं है। मैं तो केवल इतना ही चाहता हूं कि जन्म जन्मांतर आपकी अहैतुकि भक्ति करता रहूं और अब संबोधन भाष्य भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा, यह भाष्य तो अधिक विस्तार में हैं किंतु हमने इसमें से केवल एक ही अंश चुना है, उस भाष्य में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं, हे जगदीश धनं, जनं, सुंदरीम कवितां वा अहमं न कामये। इसमे जो स्थूललिडगतेन्द्रिय, अत्र धनपदेन वर्णाश्रम निष्ठ धर्म धनम् ऐहिकपारतिकजडसुखकरं सर्वं अर्थ धनम् स्थूललिडगतेन्द्रियगणानन्दकरं कामधनं ज्ञातव्यम्।
जनपदेन स्वशरीरानुगस्तीपुत्रदासदासीप्रजाबन्धुबान्धवादय: ज्ञातव्या:।
सुन्दरीकवितापदेन 'सा विद्या तन्मतियर्रया इति न्यायात् भगवल्लीलातत्व कीर्तनरूपकाव्यम बिना अन्यकाव्यलक्षणा सामान्यविद्या ज्ञेया।
एतत् सर्व महं न याचे किंतु जन्मनि जन्मनि त्वयि ईश्वरे प्राणेश्वरे कृष्णे अहेतुकीं भक्तिं याचे।
अहेतुकी भक्ति: फलानुसन्धानरहिता चित्स्वभावाश्रया कृष्ण नानन्दरूपा शुद्धा केवला अकिंचनामिश्रा भक्ति रिति
धन पद हैं, जन पद हैं, सुंदरी कविता पद हैं, इसके संबंध में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भाष्य लिखते हैंं। धन पद के संबंध में वह तीन प्रकार के धन का उल्लेख करते हैं। वर्णाश्रम
निष्ठ धनं धर्म मुझे नहीं चाहिए।
वर्णाश्रम धर्म का अवलंबन करके जो धनार्जन होता है वह मुझे नहीं चाहिए। धर्म धनं
, अर्थ धनं, काम धनं उसको भी समझा रहे हैं या दूसरे शब्दों में यह जो धर्म, अर्थ, काम मोक्ष वाला जो पुरुषार्थ होता है और धार्मिक लोग इसी को प्राप्त करना चाहते हैं। धर्म, अर्थ, काम और अंततः मोक्ष। धर्म धनं मुझे नहीं चाहिए,अर्थ धनं जो इस लोक मे या परलोक में जो जड़ आनंद की प्राप्ति के लिए जिस धन का हम प्रयोग करते हैं ऐसा अर्थ (धन) हमें नहीं चाहिए और स्थूललिडगतेन्द्रियगणानन्दकरं हमारा जो स्थूल शरीर जो इंद्रियों से युक्त है और लिंग शरीर, जिसमें मन है (मन षष्ठाणी इंद्रयाणि)
इन इंद्रिय ग्रामों को, जिसमें मन भी है आनंद या मनोरंजन इंद्रिय तृप्ति के उद्देश्य से जो धन संचय होता है, ऐसी कामना भी ऐसा धन भी मैं नहीं चाहता हूं, ज्ञातव्यम् भक्ति विनोद ठाकुर कह रहे हैं अब धनं के उपरांत जनपद जो है या जन शब्द जो है इस अष्टक में उसको समझाते हैं। जनपदेनस्वशरीरानुग
अपने शरीर के संबंधित या शरीर के उपरांत जो होते हैं, उनका उल्लेख करते हैं, जैसे कि स्त्री है, पुत्र है, दास, दासी, प्रजा बंधु बांधव यह मुझे नहीं चाहिए। यदि वह भौतिक विचार वाले हैं और अधार्मिक हैं, पापी हैं तो ऐसे अनुयायी मुझे नहीं चाहिए। मुझे धन नहीं चाहिए, मुझे जन नहीं चाहिए । अब धन और जन के उपरांत सुन्दरी कविता पदेन, इसको समझाते हैं, सुंदरी कविता यह विद्या की बात है या वेदों में जो अलंकारी भाषा में जो कई सारी बातें समझाई जाती हैं, वैसी विद्या मुझे नहीं चाहिए। कई भाषाओं में आता है सुंदरी एक शब्द और कविता दूसरा शब्द यहां दोनों को जोड़ कर कह रहे हैं। वैसे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर सुंदरी का भी भाष्य सुनाएंगे जब हम वहाँ तक पहुंचेंगे। विद्या श्रील भक्ति विनोद ठाकुर श्रीमद् भागवत के चतुर्थ स्कंध से यह उदाहरण दे रहे हैं। विद्या की परिभाषा सुना रहे हैं, जिस विद्या के अर्जन से हमारी मती भगवान में लग जाए, वह वास्तव में विद्या है। कृष्णे मति अस्तु ऐसा भी आशीर्वाद दिया जाता है, तुम्हारी मति कृष्ण में हो या कृष्ण में लगे तो उसके पीछे जो ज्ञान या विद्या है ताकि म
ति कृष्ण में लगे वह विद्या विद्या है नही तो उसको अविद्या कहेंगें या अपरा विद्या जैसे नाम भी शास्त्रों में दिए गए हैं विद्या- अविद्या,या परा विद्या - अपरा विद्या, इस न्याय के अनुसार
सा विद्या तन्मतियर्रया लिखते हैं भगवल्लीलातत्व कीर्तनरूपकाव्यम बिना, ऐसा काव्य या ऐसी कविता या ऐसे शास्त्रों या वेदों के वचन जिसमें भगवत लीला के तत्व की चर्चा नहीं हैं,
अन्यकाव्यलक्षणा सामान्यविद्या ज्ञेया,अन्य काव्य के लक्षण जो हैं वह सामान्य विद्या है या
या अविद्या है या अपरा विद्या है और ऐसे विद्या मुझे नहीं चाहिए।
इसको भी भक्ति विनोद ठाकुर ने समझाया है सुंदरीं कवितां पर जो भाष्य लिखा है
एतत् सर्व महं न याचे किंतु जन्मनि जन्मनि त्वयि ईश्वरे प्राणेश्वरे कृष्णे अहेतुकीं भक्तिं याचे।
मुझे यह सब नहीं चाहिए। मैं पुनः पुनः जन्म लेने के लिए भी तैयार हूं, मुझे आप मुक्त मत बनाइए। मेरे जन्म होते रहे, किंतु हे कृष्ण, आप में,कृष्ण में, ईश्वर में, परमेश्वर मे क्या हो?
मैं अहैतुकि भक्ति चाहता हूं, यह कहकर अहैतुकि भक्ति की परिभाषा लिखते हैं। अहैतुकि भक्ति कि परिभाषा क्या होती है?
अहैतुकी भक्ति: फलानुसन्धानरहिता
जब फल कि अपेक्षा नही होती। फल से रहित भक्ति। अहैतुकि भक्ति में फल की अपेक्षा नहीं होती, कोई हेतु नहीं होता। वह अहैतुकि भक्ति है, आगे समझा रहे हैं,
चित्स्वभावाश्रया चित चेतना मतलब जब नही है, जड़ के विपरीत है, चेतन। तो चित स्वभाव, चैतन्य स्वभाव या दिव्य स्वभाव का आश्रय ली हुई अहैतुकि भक्ति है और क्या कृष्ण आनन्दरूपा, कृष्ण को आनंद देने वाली भक्ति शुद्धा भक्ति अर्थात केवला और केवल भक्ति, इसमें और कोई मिश्रण नहीं है। ज्ञान मिश्रा नहीं है, कर्म मिश्रा नहीं है, केवला भक्ति। निशकिंचन होकर की गई भक्ति, इसलिए केवला भक्ति बन जाती है। ऐसी अहैतुकि भक्ति को समझना चाहिए अब आगे बढ़ते हैं श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने शिक्षाष्टकं पर यह भाष्य लिखा है। इसको विवरक्ति नाम दिया है। इस श्लोक में
हे जगदीश! नाहमत धनं जनं सुंदरीं वा कवितां कामये। मम तु प्रति जन्म त्वमेव सेव्यत्वेन भवसि, त्वय्येव मे अहैतुकी भक्ति भरवतु। अत्र "सुंदरी कविता" शब्देन वेदबोधितो धर्म:,"धन"
शब्देनार्थ: "जन" शब्देन च कलतत्रादिकामनीयविषय: समुद्दिटष:।न केवल महं धर्मार्थकामरूपासु भुक्तिषु वीतराग:,परमपुनभरवरूपा मुक्तिरपि न मे कामनीया भवति ,ना हमत्र चतुवर्गकामनाप्रणोदित: सेवयामि भवतं परतुं भवतसेवाप्रवृतिरेव मां सेवने प्रयोजयति
इस श्लोक में अत्र "सुंदरी कविता" शब्देन वेदबोधितो धर्म: यहां इस शिक्षाष्टक में जो सुंदरी कविता कहा है, उससे क्या बोध होता है? वेद में दिया हुआ धर्म, वेद मे जिसका बोध होता है ऐसा वाला धर्म कविता सुंदरी शब्द से वेद बोधिधर्म संकेत होता है। आगे समझाया है, यहां सुंदरी कविता दोनों को साथ में कहेंगे तो वेदबोधितो धर्म: ऐसा संकेत होता है। किंतु अलग से भी
"जन" शब्देन अर्थ, न धनं न जनं,
अर्थ मतलब आर्थिक विकास। अर्थव्यवस्था मुझे नहीं चाहिए । "जन" शब्देन च कलतत्रादिकामनीयविषय: समुदिष्टा: सुंदरी को कविता से अलग करके सुंदरी एक अलग से शब्द है, पद है ऐसा भी अगर स्वीकार करते हैं तो वह समझा रहे हैं कि जो जन शब्द है, ना धनम् ना जन्म तो जन शब्द मे कलतत्रादि का उल्लेख होता है,भक्ति विनोद ठाकुर ने भी कहा है, स्त्री, पुत्र, दास, दासी, बंधु बांधव उसमे कलतत्रा का पत्नी, स्त्री का बड़ा स्थान है, बड़ी भूमिका है। जन शब्द से न धनं न जनं जो है, जन शब्द से सुंदरी जो शब्द है, कविता सुंदरी के साथ तो उसका भी उल्लेख जन शब्द से होता है ऐसा भी समझना चाहिए। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर समझा रहे हैं, भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने भी सुंदरी कविता वाली बात कही है, कुछ अलंकारिक शब्दों का उपयोग होता है और उससे लोग आकृष्ट होते हैं, जो वेद धर्म या वेद निष्ठ लोग उसी से आकर्षित होते हैं, श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता में कहा है, भगवत गीता के द्वितीय अध्याय के 42 और 43 श्लोक में कृष्ण ने कहा है
श्रीमद भगवद्गीता 2.42-43
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
अनुवाद-अल्प ज्ञानी ,मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म , शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इन्द्रिय तृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है।
इसका अनुवाद ही पढ़ लेते हैं
अनुवाद-अल्प ज्ञानी ,मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, प्रभुपाद कह रहे हैं फ्लावरी लैंग्वेज ऐसी सुंदर मन को लुभावने वाली भाषा जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म, शक्ति इत्यादि के लिए विभिन्न सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं, वेदों के वचन वेदों की सुंदरी कविता।
इन्द्रिय तृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण, वह कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। ऐश्वर्यमय जीवन की इच्छा करने वाले लोग कहते हैं कि इस जीवन से बढ़कर और कुछ नहीं है। अलंकारिक सुंदर कविता जो है, वेदों के कर्मकांड और ज्ञान कांड विभाग में इससे सावधान रहना है। भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर विवृति को आगे बढ़ाते हुए, यह भी विवृति का एक अंश है। जिसको हम चार्ट बनाकर आपको समझा रहे हैं। इसका शीर्षक हमने पंचोपासना दिया है और यह पंचोपासना है भी।
धर्मकामों वेदनिष्ठ: सवितारमाराधयति, गणपतिमर्थकाम: शक्तिं कामकामो रूद्रम मोक्षकाम: सर्वं एवैते सकामा: विष्णूपासकाश्रच् सुतरामेव विद्धभक्तपदभाजो भवंति।पंचविधमेतदुपासनं सकाममेव,निष्कामभूमिकायां निर्गुणब्रहोपासकश्रच सिद्धो भवति।परमहैतुभक्त्यैव शुद्धविष्णोराराधनं जायते।
धर्मकामों वेदनिष्ठ: सवितारमाराधयति जो धर्म निष्ठ है, जो धर्म के कामी होते हैं, जो वेद निष्ठ होते हैं, जो कविता सुंदरी से आकृष्ट होते हैं वह सूर्य की उपासना करते हैं। पंच उपासना 5 इष्ट देवों की अलग-अलग उपासना है। यह हिंदू धर्म में प्रचलित है। गणपतिमर्थकाम: जो अर्थ के कामी होते हैं, वह गणपति की आराधना करते हैं।धर्म की कामना वाले सूर्य की उपासना करते हैं, अर्थ की कामना वाले गणपति की उपासना करते हैं। शक्तिं कामकामो और जो कामी होते हैं, कई सारी कामनाओं की कामना करते हैं, वह शक्ति या दुर्गा की उपासना करते हैं। यह अराधना इस संसार में या हिंदू समाज में बहुत प्रसिद्ध है। व्यक्ति जाने-अनजाने दुर्गा की आराधना करता है, क्योंकि वह कामी है। जो रूद्रम मोक्षकाम: कामी होते हैं, वह शिवजी की आराधना करते हैं। मोक्ष कामी शिवजी की आराधना करते हैं। उपासना के अंतर्गत पांचवें हैं सर्वं एवैते सकामा: विष्णूपासकाश्रच्, जो सभी प्रकार की कामना करते हैं , वह अलग-अलग उपासना नहीं करते ₹विष्णु की आराधना करते हैं। वह सर्वकामी होते हैं।सब प्रकार की कामना धर्म, अर्थ , काम, मोक्ष और भी कोई कामना हैं तो सारी कामना वाले ,विष्णु की आराधना करते हैं, इस प्रकार से यह सब काम आराधना हुई।
परमहैतुभक्त्यैव शुद्धविष्णोराराधनं जायते। विवृति में आगे लिखते हैं कि अहैतुकि भक्ति तो तब होती है, शुद्ध आराधना विष्णु की तब होती है, जब उसके पीछे कोई हेतु या उद्देश्य, कामना नहीं होती।अहैतुकि भक्ति ही शुद्ध भक्ति है, यही विधि है।
कृष्ण-भक्त - निष्काम, अतएव 'शांत'।भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी--सकली 'अशांत'।।
(चैतन्य चरितामृत मध्य 19.149)
विष्णु की आराधना के पीछे कृष्ण-भक्त - निष्काम, अतएव 'शांत' , यह चैतन्यचरित्रामृत् का प्रसिद्ध वचन है। एक हम देख रहे हैं, मुक्ति की कामना, भुक्ति की कामना, सिद्धि की कामना वाले अशांत रहते हैं। न धनं न जनं सुंदरीं और कवितां भी यह भुक्ति की कामना का उल्लेख होता है शिक्षाष्टक में। मैं मुक्ति भी नही चाहता हूं लेकिन मुक्ति चाहने वाले होते हैं, भुक्ति चाहने वाले होते हैं, सिद्धि चाहने वाले होते हैं अष्ट सिद्धियां हैं। वह सभी अशांत होते हैं किंतु क्योंकि कृष्ण भक्त निष्काम होते हैं, इसलिए वह शांत भी होते हैं।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(चैतन्य चरित्रामृत मध्य 6.242)
भक्ति के शुद्ध प्रकार का भी उल्लेख हो रहा है, आप समझ जाइए तो कर्म मिश्र भक्ति करने वाले भुक्ति की कामना करते हैं। ज्ञान मिश्र भक्ति करने वाले मुक्ति की कामना करते हैं, योग मिश्र भक्ति करने वाले अष्टांग योग सिद्धि प्राप्ति करने वाले उनसे योग मिश्र भक्ति होती हैं। यहां जो नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव,तीन बार न अस्ति न अस्ति न अस्ति, यह उपाय नहीं है, इस उपाय से नही। और कोई उपाय नहीं तो किन उपायों से,....
तो कर्म मिश्र भुक्ति या मुक्ति यह मार्ग नही है। इससे हम पराम गति को प्राप्त नहीं करेंगे। दूसरा जो नास्त्येव है, ज्ञान मिश्र भक्ति से यह संभव नहीं होगा। भगवत भक्ति संभव नहीं होगी। योग मिश्र तीसरा नास्त्येव हैं। कर्म मिश्र भक्ति मार्ग से नहीं ज्ञान मिश्र भक्ति मार्ग से नहींं, योग मिश्र भक्ति मार्ग से नहीं तो किस मार्ग से हरेर नाम एवं केवलम? हरि का नाम ही केवल एक मात्र उपाय है, आप समझ रहे हो ना। इसी को श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने भी कहा है, कर्मकांड, ज्ञानकांड केवल विशेर भांड। हमारे वेद निष्ठ धर्म में यह कर्मकांड, ज्ञानकांड, कर्म मिश्र भक्ति , ज्ञान मिश्र भक्ति , एक बहुत बड़ा खंड है। गोडिय वैष्णवो के अनुसार कर्मकांड, ज्ञान कांड विष का प्याला है, इस जहर को तथाकथित धार्मिक लोग पीते रहते हैं। हमें नाम अमृत का पान करना चाहिए, शिष्टाष्टक यह भी कहता है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने सभी अष्टकों का एक-एक कीर्तन पद लिखा है, हर अष्टक में जो भाव है, उसको बांग्ला भाषा में पयार बना कर समझाया है, वह कहते हैं, प्रभु आपके चरणों में मेरा केवल एक ही निवेदन है
प्रभु तव पद-युगे मोरा निदान नहीं मागी देह-सुख, विद्या, धन, जन (1)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
मुझे देहसुख,-विद्या, धन इत्यादि नहीं चाहिए।
नाहि मागी स्वर्ग, आरा मोक्ष नहीं मागी ना कोरी प्रार्थना कोनो विभूति लागी(2)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
मुझे स्वर्ग और मोक्ष भी नहीं चाहिए, स्वर्ग मुझे नहीं चाहिए, मोक्ष नहीं चाहिए। कोई वैभव, विभूति, सिद्धि की भी प्रार्थना मैं नहीं करता हूँ।
निज-कर्म-गुण-दोष जे जे जन्म पाई। जन्में जेनो तव नाम-गुण गाई।। (3)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
मेरे कर्म के अनुसार अगर मुझे पुनः पुनः जन्म लेना पड़ता है, तो उन जन्मों में मैं बस आपका नाम गुण गाऊं, नाम का कीर्तन करूं। यही अभिलाषा है।
एई मात्र आशा मम तोमर चरणे। अहैतु की भक्ति हृदय जागे अनुषाने।। (4)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
यही आशा आपके चरणों में मेरी है कि मेरे हृदय प्रांगण में आपके लिए अहैतु की भक्ति जागे।
विषये जे प्रीति एबे आचये अमर। से-मत प्रीति हक चरणे तोमर।।(5)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
जैसे विषयी लोगों की प्रीति विषयों में होती है, वैसी मति मैं आपके चरणों में लगा दूं। मैं आपको विषय बना लूं। आपका नाम, रूप, गुण, लीला मेरे विषय हो।
विपदे सम्पदे ताहा ठाकुर सम भावे। दिनिन वृद्धि हक नामरा प्रभाव।। (6)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
कभी मैं संपन्न हो जाऊं, कभी विपदा आ सकती है, हर परिस्थिति में मेरा समभाव रहे। कभी जय, कभी पराजय, कभी लाभ- हानि दोनों परिस्थितियों में, यह जो द्वंद चलते हैं संसार में, मैं समभाव रहूं और दिन प्रतिदिन में आपके नाम से आकृष्ट् हो जाऊं, प्रभावित हो जाऊ, प्रेरित हो जाऊ।
पशु-पक्षी होये ठकि स्वरगे वा निरोये। तव भक्ति राहु भक्तिविनोद-हृदोये।। (7)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
मैं जो भी बनूँ, मुझे जो भी आप बनाओगे, पशु पक्षी जो भी बनाओगे, मुझे आप स्वर्ग में रखोगे या नर्क में रखोगे, लेकिन एक बात निश्चित मुझे प्राप्त हो। वह है भक्ति। मेरे हृदय में आपके चरणो में भक्ति सेवा का ही मैं अभिलाषी हूं।
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि।।
(चैतन्य चरितामृत अंत: 20.29)
अनुवाद:- हे जगदीश, आपके चरणों में मेरी भक्ति हो। मुझे भौतिक संपत्ति, भौतिकवादी अनुयायी, सुंदर पत्नी या अलंकारिक भाषा में वर्णित सकाम कर्मों की कामना नहीं है, मैं तो इतना ही चाहता हूं कि मैं जन्म जन्मांतर आपकी अहैतु की भक्ति करता रहूं।
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु यहां स्वयं ही नाम कीर्तन, नाम जप, कर रहे हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह शिक्षाष्टक की शिक्षाएं हैं, जिसको हम ग्रहण कर रहे हैं, सीख रहे हैं। इसका परिणाम यही है कि सारी शिक्षा इस में परिणित हो कि हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करते रहें। कीर्तनीय सदा हरि करते रहें। किस समझ के साथ? ना धनं ना जन्म ना सुंदरीं.. ऐसे हर शिक्षाष्टक में अलग अलग समझ या भाव, शिक्षा दी गयी है। यह सारी शिक्षाएं हमे प्रेरित करें ताकि हम भक्ति करते रहें।
और भक्ति कैसी होती हैं ?
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.2.6)
अनुवाद :- संपूर्ण मानवता के लिए सर्वोच्च धर्म वह है, जिसके द्वारा मनुष्य दिव्य भगवान के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति सेवा प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं को पूरी तरह से संतुष्ट करने के लिए ऐसी भक्तिमय सेवा प्रेरणा रहित और निर्बाध होनी चाहिए।
सूत गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत में कहा है, अहैतु की भक्ति जिसको शिक्षाष्टक में समझाया गया है। अप्रतिहता- अखंडित, खंडित हुए बिना, कीर्तनीय सदा हरि। ऐसी भक्ति करने की शिक्षा दी गई है। इसी के साथ संयम, नियम आते हैं, यह निषेध हैं। ऐसा नहीं- ऐसा नहीं । फिर करें क्या? हरेर नाम एव केवलम हरे कृष्ण हरे कृष्ण करें यह विधि है । हम मध्य में पहुंच गये हैं, चार अष्टकों का अध्ययन हो चुका है और बने रहिए। आने वाले दिनों में बचे हुए 4 शिक्षाष्टको का अध्ययन होगा, तो बने रहिए। तो कभी भविष्य में इस पर चर्चा या
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् | कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||
(भगवद्गीता 10.9)
या प्रश्न उत्तर या शंका समाधान या आप क्या सीखें क्या समझे या कौन सी बात समझ नहीं आई इस पर चर्चा हो सकती है। आप भी आपस में एकत्रित होकर समाधान कर सकते हो। जो समझे हैं, उनसे समझ सकते हो। घर के सदस्य, भक्ति वृक्ष के सदस्य, भक्त समूह की सभा में भी इस पर चर्चा कर सकते हो और कुछ कॉमन क्वेश्चन कर सकते हो।
धन्यवाद
हरे कृष्ण