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जप चर्चा
परम् पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनांक 12 मई 2023
हरे कृष्ण!!!
क्या कॉन्फ्रेंस के श्रोता तैयार हैं? आप सब का स्वागत है।
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण के श्रवण कीर्तन और तत्पश्चात इसके स्मरण से हम ऐसे विषय को सुनने और समझने के लिए अथवा ऐसे संवाद को समझने के लिए तैयार होते हैं। जैसा संवाद राय रामानंद और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मध्य हुआ, जो कि अत्यंत गोपनीय ( बहुत कॉन्फिडेंशियल) व सर्वोपरि भी है। इसको समझने के लिए पूर्व तैयारी (क्या) है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तत्पश्चात हमें हरे कृष्ण महामंत्र को भी समझना है। मतलब कृष्ण को समझना है, फिर राधा को भी समझना है। वह समझने के लिए या कहो कि हरे कृष्ण महामंत्र के साक्षात्कार या गॉड रिलाइजेशन के लिए यह जो विषय वस्तु अथवा संवाद है, इसकी मदद से हम महामंत्र को समझते हैं। फिर महामंत्र की मदद से इस विषय वस्तु को समझते हैं। (आप समझ रहे हो)
बातें तो सर्वोत्तम है, सर्वोच्च है, सर्वोपरि है। चैतन्य महाप्रभु की आशाएं तो थी कि दुनिया में से..
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये | यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ||
( श्रीमद भगवतगीता 7.3)
अनुवाद:- कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है |
(आप भगवान के वचन अथवा उस श्लोक को जानते हो ना?) हजारों हजारों में से एक सिद्धि के लिए प्रयास करेगा। उनमें से कोई व्यक्ति मुझे तत्व से जानेगा। मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये | यततामपि.. फिर ऐसा प्रयत्न करने वालों में कोई कोई होगा यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः लेकिन तत्व तो है और तत्व को जानना है यह दुर्लभ है। ऐसे जन भी दुर्लभ हैं, लेकिन ऐसे जन जो दुर्लभ हैं इनकी संख्या बहुत कम हो सकती है। वे सुने समझे इसलिए यह संवाद हो रहा है। जैसे कृष्ण और अर्जुन में संवाद हुआ था लेकिन वह भी केवल अर्जुन के लिए नहीं था अपितु हम सभी के लिए था। भगवान ने उस संवाद के लिए कुछ ऐसी परिस्थिति निर्माण की है। कृष्ण स्वयं अर्जुन को संबोधित कर रहे हैं, तब उसका संकलन होता है। श्रील व्यास देव उसकी रचना (भगवत गीता यथारूप) करते हैं। ताकि सारी दुनिया उसको पढ़े सुने।
यह संवाद विद्यानगर में गोदावरी के तट पर संपन्न हुआ। इस संवाद के पीछे भी भगवान का विचार है कि एक दिन नोएडा में ( 500 वर्ष बाद) लोग इसको सुनेंगे। इस संवाद के पीछे भगवान की इच्छा और विचार है। ऐसा नहीं होता तो...।
यह संवाद भी संपन्न हुआ है।चैतन्य चरितामृत की मध्य लीला के आठवां अध्याय के अंत में हम इसे पढ़ रहे हैं।
श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जो इस ग्रंथ के रचयिता अथवा लेखक हैं। वे कहते हैं कि यह जो संवाद मैं लिख रहा हूं, निश्चित ही मैं यह संवाद सुनने के लिए वहां नहीं था। वैसे जब यह चैतन्य चरितामृत ग्रंथ लिखा गया था तब चैतन्य महाप्रभु इस संसार में नहीं थे। चैतन्य महाप्रभु अंतर्ध्यान हो चुके थे। उनके अंतर्ध्यान होने के बहुत साल उपरांत लगभग 30- 40 वर्ष पश्चात यह ग्रंथ लिखा गया था। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने राधा कुंड के तट पर (उनकी कुटिया भी आपने देखी होगी?) चैतन्य चरितामृत ग्रंथ को लिखा। वे लिखते हैं कि मैं इसको स्वरूप दामोदर के कड़चे के आधार पर लिख रहा हूं।
( सारी भूमिका आपको समझाने में ही समय जाने वाला है)
स्वरूप दामोदर के कड़चे के आधार पर श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने इस ग्रंथ को लिखा है।
यह स्वरूप दामोदर कौन है? यह ललिता है।
ललिता विशाखा आदि यत सखीवृन्द। आज्ञाय करिब सेवा चरणारविन्द॥
( वैष्णव भजन- राधा कृष्ण प्राण मोर)
अर्थ- ललिता और विशाखा के नेतृत्वगत सभी सखियों की आज्ञा से मैं श्रीश्रीराधा-कृष्ण के श्री चरणों की सेवा करूँगा।
ललिता और विशाखा, वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संवाद विशाखा के साथ हो रहा है या विशाखा ही सुना रही है, राय रामानंद विशाखा है। चूंकि स्वरूप दामोदर भी वहां नहीं थे, तो भी स्वरूप दामोदर ने इस संवाद को अपने कड़चे ( अपने नोट्स) में लिखा है। श्रील व्यास देव भी कुरुक्षेत्र में नहीं थे जब यह संवाद हो रहा था तो भी उन्होंने उस संवाद की रचना कर ही दी।
स्वरूप दामोदर जैसे भक्तों के लिए ऐसी शक्ति, सामर्थ्य या दूरदर्शन इत्यादि संभव है। वे वहां उपस्थित नहीं होते हुए भी सुन रहे थे या देख रहे थे और कड़चा/ नोटस अथवा शायरी लिख रहे थे।श्रील कृष्ण दास कविराज उस कड़चे के संदर्भ के साथ दामोदर स्वरूप कड़चेनुसारे रामानंद मिलन लीला करिले प्रचारे.. ऐसा लिखते हैं।
यह इस अध्याय का अंतिम वचन है। स्वरूप दामोदर के कड़चे के अनुसार राय रामानंद का चैतन्य महाप्रभु के साथ मिलन या उनके साथ जो संवाद हुआ है, उसकी रचना मैं कर रहा हूं। देखिए! कौन-कौन लिख रहे हैं? कौन कौन बोल रहे हैं? किनके बीच में संवाद हो रहा है? रस विचार हो रहा है। रस तत्व पर चर्चा हो रही है। यह सब रस विचार या रस तत्व का प्रकाशन ब्रह्म मध्व गौड़ीय संप्रदाय करेगा। ऐसी व्यवस्था हमारे संप्रदाय में हुई है। चैतन्य महाप्रभु स्वयं ही इस संप्रदाय के सदस्य बन जाते हैं। इसी परंपरा में इसका प्रकाशन, इस रहस्य का उद्घाटन हुआ। अन्यत्र यह प्राप्त होने वाला नहीं है। यह विचार, यह तत्व.. फिर इसको रस कहिए अथवा प्रेम कहिए। दूसरा नाम प्रेम भी दिया जा सकता है। देखते हैं, आज जो संवाद होगा उसमें प्रेम की परिभाषा दी है। प्रेम किसको कहते हैं, रस प्रेम यह निर्णय भी है। यह निष्कर्ष भी है। साधन, साध्य, निर्णय को लेकर वैसे यह डायलॉग अथवा संवाद हो रहा है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु साध्य के संबंध में निष्कर्ष या निर्णय सुनना चाहते हैं अर्थात किसको हासिल करना है? क्या लक्ष्य है? क्या उद्देश्य है?) वैसे भी चैतन्य महाप्रभु के मत के अनुसार प्रेम ही लक्ष्य है प्रेम प्राप्ति।
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता । श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः ॥ (चैतन्य मञ्जुषा)
अनुवाद:- भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की धी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्द- प्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्रीचैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है।
यह सारा रस या रस विचार या प्रेम का विचार कहो। इस पर यहां चर्चा हो रही है।
नमो महावदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते। कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नमः॥
अर्थ- हे परम करूणामय अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं।
चैतन्य महाप्रभु क्यों प्रकट हुए कृष्ण प्रेम प्रदाय.. ते... मतलब देना। देने के लिए चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए, कृष्ण प्रेम का वितरण भी उनकी लीला रही।
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार। हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।।
( वैष्णव भजन- जय जय जगन्नाथ)
अर्थ : अब वे पुन: भगवान गौरांग के रूप में आए हैं, गौर वर्ण अवतार श्री राधिका के प्रेम व परम आनंदित भाव से युक्त और पवित्र भगवन्नामो तथा हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन का चारो ओर प्रसार किया है।
गौर भगवान, राधा भाव में प्रकट हुए, राधा भाव को अपनाया और उसी भाव में ही उन्होंने (क्या किया) प्रचार किया। हरि नाम का प्रचार किया। हरि नाम ही प्रेम है।
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥
( वैष्णव भजन- हरि हरि विफले)
अर्थ:- गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
उन्होंने प्रेम का भी वितरण किया है और साथ ही साथ यहां संवाद के रूप में प्रेम का शास्त्र (साइंस ऑफ रस प्रेम शास्त्र) भी सिखाया/ समझाया है। समानांतर ही दोनों प्राप्त हो रहे हैं। हरे कृष्ण महामंत्र प्राप्त हो रहा है, जो प्रेम है। प्रेम प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है या पंचम पुरुषार्थ है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष गौड़ीय वैष्णवों के लिए पुरुषार्थ नहीं है। उनका पुरुषार्थ (किसमें है?) प्रेम प्राप्त करना है। कृष्ण प्रेम प्राप्ति में उनके पुरुषार्थ का प्रदर्शन होता है। प्रेम का शास्त्र साइंस तत्व और साथ ही साथ प्रेम हरे कृष्ण महामंत्र के रूप में है। (अभी मैं सोच रहा था) यह हम सब लोग सुन व पढ़ रहे हैं। हम लोग अपने शुद्धिकरण के लिए श्रवण कर रहे हैं। इस प्रकार के विषयों के श्रवण से ऐसा शुद्धिकरण होगा जैसा शुकदेव गोस्वामी ने कहा।
इसलिए शुकदेव गोस्वामी ने स्वयं ही पांच अध्याय अर्थात रास पञ्च अध्याय सुनाएं। श्रीमद्भागवतम् के दसवें स्कंध में अध्याय 29 से लेकर 33 तक ये पांच अध्याय रस के संबंध में है अथवा माधुर्य लीला के संबंध में है। इसके निष्कर्ष में शुकदेव गोस्वामी ने इस रास पंच अध्याय में पांचवें अध्याय के अंतिम श्लोक. में कहा है-
विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णो: श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद् य: । भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर: ॥
(श्रीमद भागवतम 10.33.39)
अनुवाद:- जो कोई वृन्दावन की युवा-गोपिकाओं के साथ भगवान् की क्रीड़ाओं को श्रद्धापूर्वक सुनता है या उनका वर्णन करता है, वह भगवान् की शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा। इस तरह वह शीघ्र ही धीर बन जाएगा और हृदय रोग रूपी कामवासना को जीत लेगा।
(केवल इसी वचन पर एक पाठ या क्लास हो सकता है जो हम देना नहीं चाहते) मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता था कि जो शुकदेव गोस्वामी ने अभी-अभी विक्रीडितं व्रजवधू: अर्थात व्रजवधू या गोपियां या राधा रानी के साथ जो कृष्ण की क्रीडा होती है, के विषय मे कहा। (इंक्लूडिंग रासलीला रसमयी क्रीड़ा...) जो भी इस लीला को, इस क्रीडा को अर्थात राधा कृष्ण के मध्य की या गोपी कृष्ण के मध्य की लीला को श्रृणवतः मतलब जो सुनेंगे, (कैसे सुनेंगे) श्रद्धान्वित: अर्थात श्रद्धा के साथ जो सुनेंगे, कोई प्रश्न नही करेंगे मतलब सुनने के बाद मन में कोई संशय नहीं करेंगे। ऐसे विषय वस्तु जब हम सुनते पढ़ते है.. वैसे यह तर्क वितर्क का काम नहीं है। यह बातें अचिन्त्य हैं, केवल सुनना है। आत्मा को सुनने दो, जो भी है, सत्य है/ हकीकत है या लीला है; श्रद्धा के साथ सुने और अनुशृणुयादथ... (कैसे सुने) परंपरा में सुनें। जिन्होंने उनके आचार्य गुरु से सुना है फिर उनके गुरु से सुना है। अनुशृणुयादथ। फिर यह भी कहा है- वर्णयेद् अर्थात साथ ही साथ इसको सुनना भी चाहिए। सुनने वाला या सुनाने वाला श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद् य:। फिर लाभ क्या है? फल क्या है? जिसको श्रुतिफल कहते हैं। भागवतम् में कई अध्यायों के अंत में श्रुतिफल दिया गया है कि यह लीला सुनने का क्या फल है। यह जो रासक्रीड़ा संबंधी लीला है जिसका वर्णन शुकदेव गोस्वामी इन 5 अध्यायों में किया है, इसको सुनने का क्या लाभ है।श्रील शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं। (श्रील शुकदेव गोस्वामी का स्मरण कीजिए।)
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं। हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर: ॥
ऐसे श्रोता और वर्णनकर्ता को सुनना है और सुनाना है। मतलब श्रवणं कीर्तनं .. ऐसा जो करेंगे उनको भक्ति का लाभ होगा। भक्ति कैसी है? भक्तिं परां
प्रतिलभ्य.. भक्ति का लाभ होगा। भक्ति प्राप्त होगी, भगवति अर्थात भगवान या राधा कृष्ण में प्रीति अथवा प्रेम या भक्ति प्राप्त होगी। यह एक भाग हुआ और क्या होगा।
कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर:
ऐसे व्यक्ति धीर बनेंगे। अनडिस्टर्ब, आप विचलित नहीं होंगे। किससे विचलित नहीं होंगे? कामं अर्थात काम/ कामवासना से विचलित नहीं होंगे। (हरि! हरि! सोना नहीं है) हृद्रोगम अर्थात हार्टअटैक या दिल की बीमारी मतलब काम रोग या भव रोग। ऐसे ऐसे रोगों के नाम है। ऐसे रोग, काम रोग से कामवासना से वह व्यक्ति मुक्त होगा। अपहिनोती। यह काम रोग पर ... औषधि क्या है? उपचार क्या है? नाड़ी परीक्षण हुआ। कौन सा रोग है? तुम काम रोगी हो, तुम हृद्र रोगी हो, भव रोगी हो। जो वैष्णव डॉक्टर है, वे इस रोग को पहचानते हैं। हमें पता नही चलता है।
काम रोग का यह औषधि है। (क्या औषधि है?)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। के साथ यह कीर्तनीय सदा हरिः हुआ और क्या औषधि है
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥
(श्रीमद्भागवतम् 1.2.18)
अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
भागवत की सेवा, भागवत का श्रवण। भागवत का श्रवण से..( यहां हम चैतन्य चरितामृत खोल कर बैठे हैं) चैतन्य चरितामृत के श्रवण से और साथ ही साथ हरे कृष्ण महामंत्र के श्रवण कीर्तन से हम काम रोग से सदा के लिए मुक्त होंगे। हरिबोल!
शुकदेव गोस्वामी ने इसकी खुराक (डोज) लेने की सलाह दी है।
राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेद गतौ तौ ।चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तदद्वयं चैक्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम् ॥
अनुवाद:-
श्रीराधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक् कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गये हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात् कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं।
राधा कृष्ण प्रणय .. प्रेम और गाढ़ा होता है, उसको प्रेम कहने की बजाय प्रणय कहते हैं। साधारणतया जो हम प्रेम कहते हैं , उसके भी आगे के स्तर हैं। प्रेम का विकास है .. स्नेह भी प्रेम से ऊंचा है। तत्पश्चात मान.. (हरि! हरि!) राधारानी मान करके बैठती है, फिर माननी कहलाती है। वह भी प्रेम का एक स्तर है। मान से भी ऊंचा प्रणय है। प्रणय के लिए प्रणय और फिर राग, तत्पश्चात अनुराग, तब फिर भाव और फिर महाभाव होता है। ऐसे भी प्रेम के स्तर है। अधिक अधिक विकसित स्तर है। यह सब रस शास्त्र उज्जवल नीलमणि नामक जो ग्रंथ है, जिसे रूप गोस्वामी ने लिखा है, उसमें यह सब चर्चा आती है। एक्सक्लूसिवली माधुर्य रस के साथ शेयर करने वाला, उसकी चर्चा करने वाला एक ग्रंथ लिखे। पहले उन्होंने भक्तिरसामृत सिंधु नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें सभी रसों की चर्चा है। दास्य रस, सख्य रस, वात्सल्य रस, माधुर्य रस। भक्तिरसामृत सिंधु नामक ग्रंथ में इस पर प्रकाश डाला है।( फिर उन्होंने क्या किया?)वे माधुर्य रस पर और अधिक चर्चा उज्जवल नीलमणि नामक ग्रंथ में करते हैं। उज्जवल नीलमणि जैसा भी ग्रंथ संसार में नहीं है। हरि! हरि!
ऐसे कई स्थानों या ग्रंथों में रस विचार या रस तत्व की चर्चा हमारे आचार्य वृन्द कर चुके हैं। वैसे यह संवाद कई दिनों तक चलता रहा। (सप्ताह-दस दिन के लिए) यह एक दिन या एक रात्रि का संवाद नहीं है। हम भी इस संवाद की चर्चा तीन दिनों से कर रहे हैं। तब भी शायद भक्तिरसामृत सिंधु का एक बिंदु को भी हमनें स्पर्श नहीं किया। ऐसा विषय वस्तु या रस शास्त्र या प्रेम शास्त्र है।
अखिल-रसामृत-मूर्ति: प्रश्रमार-रुचि-रुद्ध-तारक-पालि: |कलिता-श्याम-ललितो राधा-प्रेयां विदुर जयति ||
(भक्तिरसामृत सिंधु 1.1.1)
भक्तिरसामृत सिंधु में अखिल, कृष्ण को कहा है जिसका कृष्ण दास कविराज गोस्वामी उल्लेख कर रहे हैं 1.1.1( भक्तिरसामृत सिंधु का पहला अध्याय पहला श्लोक) पहला खंड भी। इसमें चार विभाग हैं, प्रथम विभाग, प्रथम अध्याय, प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द ... अखिल-रसामृत-मूर्ति: यह कृष्ण का एक नाम हुआ। (क्या नाम हुआ?) अखिल-रसामृत-मूर्ति अर्थात अखिल रस की मूर्ति। जिसको परसोनिफिकेशन (अवतार) कहते हैं। कृष्ण कृपा मूर्ति। हरि! हरि! आचार्यों को कृष्ण कृपा की मूर्ति कहते हैं। श्री कृष्ण अगर मूर्ति हैं तो कहना है तो यह कह सकते हैं कि वे अखिल रस अमृत की मूर्ति हैं। वे अखिल मतलब संपूर्ण (कंप्लीट) पूर्ण या प्रेम की मूर्ति है ।
वे रस के ही बने हुए हैं, वे रसखान हैं। खान समझते हो? सोने की खान मतलब सोना ही सोना। उसकी कोई लिमिट ही नहीं। रसखान।
कृष्णेर अनन्त-शक्ति, ताते तिन —प्रधान । ‘चिच्छ क्ति’, ‘माया-शक्ति’, ‘जीव-शक्ति’-नाम ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.151)
अनुवाद:
“श्रीकृष्ण की अनन्त शक्तियाँ हैं, जिन्हें तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है। ये हैं - आध्यात्मिक शक्ति , भौतिक शक्ति तथा तटस्था शक्ति जो जीवों के नाम से विख्यात है ।”
भगवान कृष्ण की, हम जब भगवान कहते हैं तो भगवान पूर्ण (कंप्लीट) तब होते हैं जब उनकी शक्तियों का भी विचार होता है। शक्ति- शक्तिमान। भगवान को शक्तिमान भी कहते हैं। भगवान को शक्तिमान क्यों कहते हैं? क्योंकि वे शक्तियों से युक्त हैं।
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.८)
अनुवाद:-
भगवान् या परमेश्वर के लिए कोई भी करने लायक कर्तव्य नहीं है अर्थात् उन्हें कोई भी कार्य करने की जरूरत नहीं है। भगवान् के समान अथवा उनसे बढ़कर कोई नहीं है। उनकी अनन्त दिव्य शक्तियाँ हैं जो उनमें स्वाभाविक रूप से रहती हैं और उन्हें पूर्ण ज्ञान, बल और लीलाएँ प्रदान करती हैं।
परास्य, भगवान की विविध शक्तियां है। शक्ति के कारण शक्ति और शक्तिमान तब भगवान पूर्ण (कंप्लीट) हो गए। यह मायावादी कंपनी जो है, वे भगवान की शक्ति को स्वीकार नहीं करते। फिर यह शक्ति ही रूप या व्यक्तित्व धारण करती है। शक्ति, व्यक्ति बन जाती है। राधारानी भी भगवान की एक शक्ति हैं और उस शक्ति का नाम आह्लादिनी शक्ति है।
चिच्छ क्ति, माया शक्ति, जीव शक्ति नाम
हरि बोल! यह सुनकर कि हम जीव शक्ति भी भगवान की शक्ति हैं। श्रील प्रभुपाद की जय!!!
चिच्छक्ति या अंतरंगा शक्ति।
यह सब माया की शक्ति है। यह सब शास्त्र की भाषा है। माया शक्ति- बहिरंगा शक्ति, अंतरंगा शक्ति, योगमाया है। बहिरंगा शक्ति महामाया है। इसके अतिरिक्त एक अन्य शक्ति है जिसे तटस्था शक्ति कहते हैं। तटस्था शक्ति अर्थात जीव शक्ति वे हम हैं। जीव शक्ति कौन है? हम भी भगवान की एक शक्ति हैं। भगवान हमारे बिना अपूर्ण (इनकंप्लीट) हैं। वे पूर्ण (कंप्लीट) होते हैं जब हम भी.. अर्थात उनके साथ हमारी भी गणना होती है।
यह तो संवाद के अन्तर्गत कहा जा रहा है। मैं तो आपकी ओर
कुछ कुछ बिंदु छिड़का रहा हूं ।
आनन्दांशे ‘ह्लादिनी ’, सदंशे ‘सन्धिनी ’ । चिदंशे ‘सम्वित्’, यारे ज्ञान क रि’ मानि ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत 8.155)
अनुवाद
“ह्लादिनी उनका आनन्द पक्ष है , सन्धिनी उनका शाश्वतता पक्ष है और सम्वित् ज्ञान पक्ष है।”
भगवान कैसे होते हैं? सच्चिदानंद विग्रह। यहां जो आनंद है- सत, चित, आनंद। भगवान पूर्ण हैं। जो आनंद है, उसे आह्लादिनी शक्ति कहते हैं।सत चित में जो सत् है- ( यहां थोड़ा भिन्न क्रम से उल्लेख हुआ है) सत् को सदंशे ‘सन्धिनी ’ कहते हैं। हरि! हरि! (आपको पता होना चाहिए। आप वैसे गौड़ीय वैष्णव बन रहे हो यह जो शब्दकोश है, वह गौड़ीय वैष्णव जगत में प्रचलित है या हम गौड़ीय वैष्णव यह भाषा बोलते हैं। जब हम बोलते हैं तो हमें पता होता है।)
तीसरा है चिदंशे सम्वित्।
जो आनंद है उसे आह्लादिनी कहते हैं। हमारे मतलब की बात तो यहां है। बाकी तो सब बातें हैं।
राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् .. राधा कृष्ण के मध्य का जो प्रणय है। यह आह्लादिनी शक्ति की अभिव्यक्ति है। राधा कृष्ण के मध्य का जो प्रणय/ प्रेम स्नेह जो है यह आह्लादिनी शक्ति की अभिव्यक्ति का प्राकट्य
कृष्णके आह्लादे, ता’ते नाम —‘ह्लादिनी ’ । सेइ शक्ति -द्वारे सुख आस्वादे आपनि ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.157)
अनुवाद:
“ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को दिव्य आनन्द प्रदान करती है। इसी आह्लादिनी शक्ति के माध्यम से कृष्ण समस्त आध्यात्मिक आनन्द का स्वयं आस्वादन करते हैं ।”
कृष्ण को आनंद देने वाली, आह्लादिनी शक्ति कहलाती है। कृष्ण कैसे सुखी रहते हैं अर्थात कृष्ण को सुखी रखने वाली कौन है। वह आह्लादिनी शक्ति है। तब आह्लादिनी, व्यक्ति अर्थात राधारानी बन जाती हैं।
वैसे अन्य और भी शक्तियां है जो व्यक्ति बन जाती है। हम भी शक्ति हैं, हम भी बन गए हैं व्यक्ति। अब ये सारी शक्तियां वैसे भगवान की प्रसन्नता के लिए है। भगवान की प्रसन्नता के लिए शक्ति का निर्माण... सारे जीव भी शक्ति हैं। वे भी भगवान को आह्लाद देते हैं। हमें भगवान को आह्लाद देने के लिए बनाया है। टू बी इंजॉयड। हमें किसलिए बनाया है, टू बी इंजॉयड। हमें कृष्ण के आनंद के लिए बनाया है। हम स्वयं (आनंद) इंजॉयमेन्ट करें तो यह माया है। जब हम स्वयं ही आनंद लेना चाहते हैं अथवा आनंद या सुख भोगना चाहते हैं तो फिर हम भोगी बन जाते हैं लेकिन जब हम भगवान की प्रसन्नता के लिए सारे कार्य करते हैं तो हम योगी बन जाते हैं। यह हमारी पूर्णता भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि राधा रानी जो आह्लादिनी शक्ति है। वह जितना आह्लाद भगवान को देती हैं। उतना और कोई नहीं दे सकता। भगवान, भगवान हैं तो उनको बहुत आह्लाद की आवश्यकता है। उनकी मांग (डिमांड) बहुत सारी है।
हर जीव कुछ-कुछ आह्लाद तो देता है। भगवान को आह्लाद देना उसका धर्म है किंतु कुछ बिंदु, बिंदु ही हो सकते हैं लेकिन राधा रानी जो कृष्ण को आह्लाद देती है, वह सिंधु हैं। वैसे गोपियां भी हैं लेकिन उनकी भी सीमा है। वे कितना आह्लाद दे सकती हैं। हरि! हरि!
एक अन्य रहस्यमई बात यहां कही जा रही है। वह यह है कि
सुख-रूप कृष्ण करे सुख आस्वादन । भक्त-गणे सुख दिते ‘ह्लादिनी ’—कारण ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.158)
अनुवाद:
“भगवान् कृष्ण मूर्तिमान सुख होते हुए भी सभी प्रकार के दिव्य सुख का आस्वादन करते हैं। उनके शुद्ध भक्तों द्वारा आस्वादन किया गया सुख भी उनकी ह्लादिनी शक्ति से प्रकट होता है ।”
कृष्ण सुख का आस्वादन करते हैं। राधारानी सुख देती हैं किंतु यह जो आह्लादिनी शक्ति है, भक्त गणे सुख दिते आह्लादिनी कारण। आह्लादिनी शक्ति, भगवान को सुख और आनंद देती ही रहती है। जीव को जो आह्लाद या आनंद/ सुख प्राप्त होता है, वह भी आह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। आह्लादिनी शक्ति, भगवान, भक्तों व जीवों को आह्लाद देती है। ऐसे याद रखिए, इसकी डिटेल समझना। स्रोत तो साधारण ही है। कृष्ण के आह्लाद का जो स्तोत्र है, वही स्तोत्र जीव के आह्लाद या आनंद का है। ऐसी भगवान की व्यवस्था है।
प्रेमेर परम -सार ‘महाभाव’ जानि । सेइ महाभाव -रूपा राधा -ठाकुराणी ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.160)
अनुवाद:
“भगवत्प्रेम का सार अंश महाभाव अर्थात् दिव्य आह्लाद कहलाता है और इस महाभाव का प्रतिनिधित्व करने वाली हैं श्रीमती राधारानी ।”
हम लोग जो महा भाव सुनते रहते हैं। उसकी संक्षिप्त में परिभाषा (डेफिनेशन) कही गई है। प्रेम का परम सार है- महाभाव। भाव भक्ति ( समझ रहे हो) साधन भक्ति फिर भाव भक्ति फिर प्रेम भक्ति। तो प्रेम का परम सार। ये महाभाव है।
(आगे सुनिए)
सेइ महाभाव -रूपा राधा -ठाकुराणी..
इस महाभाव पर अधिकार राधा रानी का ही है। हममें भी कुछ हद तक भाव प्रकट होते हैं लेकिन राधा रानी... राधा महाभावा ठकुरानी।
चैतन्य महाप्रभु जब जगन्नाथ पुरी मंदिर आए और दर्शन करते ही भावविभोर हो गए। सार्वभौम भट्टाचार्य, चैतन्य महाप्रभु को अपने घर पर ले गए। वे परीक्षा कर रहे थे, जो भाव उनमें प्रकट हो रहे हैं वे असली है या नकली है। तत्पश्चात उन्होंने निर्णय यह किया कि यह भाव ही नहीं है। यह तो महाभाव का प्रकटीकरण है। यह सार्वभौम भट्टाचार्य का निष्कर्ष था, उन्होंने परीक्षा की। वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य एक परीक्षक थे।
चैतन्य महाप्रभु में महाभाव किस तरह प्रकट हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु कौन हैं?
श्रीकृष्ण चैतन्य राधा-कृष्ण नहे अन्य।
वे केवल कृष्ण ही नहीं हैं, राधा भी हैं तो परीक्षण का निष्कर्ष यह निकला अर्थात परीक्षण का निरीक्षण यह हुआ कि यह भाव तो महाभाव है। ऐसे चैतन्य महाप्रभु का परिचय बताया। चैतन्य महाप्रभु कौन है?
प्रेमेर ‘स्वरूप -देह’—प्रेम-विभावित । कृष्णेर प्रेयसी-श्रेष्ठा जगते विदित ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.162)
अनुवाद:
“श्रीमती राधारानी का शरीर भगवत्प्रेम का वास्तविक रूपान्तर है। वे कृष्ण की सर्वाधिक प्रिय संगिनी हैं, जो सारे जगत् में सुप्रसिद्ध हैं।”
(आप देखिए अगर समझ सकते हैं तो) कृष्णेर प्रेयसी-श्रेष्ठा
कृष्ण की प्रियेसियां तो कई हैं।लेकिन उन प्रयेसियों में श्रेष्ठ
'मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय'
जैसे कृष्ण ने स्वयं के संबंध में कहा। राधारानी भी वैसे ही है, ना तो राधा रानी से कोई ऊंचा है ना कोई राधारानी के बराबर का है। सब नीचे ही है। सब निम्न स्तर पर ही है।
मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
( श्रीमद भगवद्गीता 7.7)
अनुवाद:-
हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
पर तर पर तर.. बैटर बेस्ट.. राधारानी इज द बेस्ट। यह संवाद सम्पन्न हो ही रहा है, एक रात्रि में जो संवाद हो रहा है। राय रामानंद, उनसे बुलवा रहे हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से राय रामानंद ही कह चुके हैं कि मैं एक वीणा हूं। जिसको बजाने वाले आप हो, मैं तो वीणा हूं लेकिन वीणा वादक आप हो। जब तक आप तार को नहीं छेंड़ेंगे, तब तक कुछ होना नहीं है। कुछ बोल या वचन नहीं कहा जाएगा। आप ही मुझे बुलवाओ। आप कुछ इस वीणा को बजाओ, फिर चैतन्य महाप्रभु बुलवा रहे हैं। उन्होंने ऐसी ऐसी बातें कही है जो हमारे परे हैं।
महाभाव -चिन्ताम णि’ राधार स्वरूप । ललितादि सखी —ताँर काय -व्यूह-रूप ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.165)
अनुवाद :
“श्रीमती राधारानी सर्वोत्तम आध्यात्मिक मणि हैं और अन्य गोपियाँ -यथा ललिता , विशाखा आदि - उनके आध्यात्मिक शरीर के विस्तार रूप हैं ।”
केवल सुनना है और श्रद्धा के साथ स्वीकार करना है। जब हमारा समय आएगा, उसका साक्षात्कार और उसका अनुभव होने की अपेक्षा रखते हुए हम ऐसे ऐसे वचनों को धारण करेंगे। हमारी जैसी जैसी कृष्ण भावना में प्रगति होगी, जैसे-जैसे हमारा नाम जप अधिक अधिक अपराध रहित होगा, निद्रा रहित होगा तो हम अधिक अधिक इन बातों को इन वचनों को समझेंगे। अभी हम सुन लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं तो ज्ञान हो गया। लेकिन केवल ज्ञान से काम नही बनता है।
ज्ञान का विज्ञान करना होता है। ज्ञान का विज्ञान, साक्षात्कार तत्पश्चात व्यवहार (प्रैक्टिकल एप्लीकेशन कहते हैं।)
राधा प्रति कृष्ण स्नेह।
कृष्ण का जो राधा से प्रेम है, यह कैसे प्रकाशित होता है। राधा में जो सुगंध है, राधा के अंग सुगंधित है। इससे पता चलना चाहिए कि यह कृष्ण का स्नेह ही प्रकाशित हो रहा है। राधा से या राधा के सर्वांग से उत्पन्न होने वाला सुंगध।
कारुण्यामृत-धाराय स्नान प्रथम । तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम ॥
(श्रीचैतन्यचरितामृत मध्य लीला 8.167)
अनुवाद:
“श्रीमती राधारानी पहला स्नान करुणा रूपी अमृत की धारा में करती हैं और दूसरा स्नान युवावस्था के अमृत में करती हैं।”
राधा रानी स्नान करती है, एक स्नान कारुण्यामृत-धारा है।कारुण्य, उसका अमृत उसकी धारा से स्नान करती है। यह प्रथम स्नान है। कारुण्यामृत-धाराय से स्नान करती हैं। साधारण जल से नहीं। उसी के साथ वह करुणामयी भी बन जाती हैं। ऐसा भी हम समझ सकते हैं। अगला।
तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम
(शब्द भी ऐसे है, हम लोग क्या-क्या शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं, सुनते पढ़ते रहते हैं। ऐसे शब्द..) तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम। तारुण्य अमृतधारा का स्नान। सदा के लिए राधा रानी तरुणी रह जाती हैं। (तरुणी समझते हैं?) तरुण-तरुणी। तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम।(एक और शब्द सुनिए।)
लावण्यामृत-धाराय तदुपरि स्नान । निज-लज्जा -श्याम -पट्टसाटि -परिधान ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.168)
अनुवाद:
“दोपहर के स्नान के बाद श्रीमती राधारानी शारीरिक कान्ति के अमृत से पुनः स्नान करती हैं और तब लज्जा रूपी वस्त्र धारण करती हैं, जो उनकी काली रेशमी साड़ी होती है ।”
वे स्नान करती हैं, (किस में) लावण्य अमृतधारा से स्नान करती हैं। लावण्य सौंदर्य कहो। लावण्य ब्यूटी पार्लर, ब्यूटी पार्लर में आच्छादित करते हैं। ( इम्पोज़ करते हैं)
निज-लज्जा -श्याम -पट्टसाटि -परिधान
राधा रानी गुणों की खान हैं। उसमें से एक गुण लज्जा है। ( टू बी शाई।) राधारानी साड़ी पहनती हैं। जिससे उनकी लज्जा प्रकट होती है। आजकल तो निर्लज्ज साड़ी पहनती ही नहीं, कभी-कभी तो कुछ भी नहीं पहनती। बिल्कुल विपरीत हुआ।स्त्रियों को राधा के गुण प्रकट करने चाहिए।
सौन्दर्य —कुङ्कम, सखी-प्रणय —चन्दन । स्मित -कान्ति —कर्पूर, तिने—अङ्गे विलेपन ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.170)
अनुवाद:
“श्रीमती राधारानी के निजी सौन्दर्य की उपमा कुंकुम नामक लाल चूर्ण से की जाती है। अपनी सखियों के प्रति उनका स्नेह चन्दन -लेप की तरह है और उनकी हँसी की मधुरता कपूर के समान है। इन सबको मिलाकर उनके शरीर पर लेप किया जाता है ।”
कुमकुम सौंदर्य का प्रदर्शन है। हम लोग तिलक पहनते हैं। इससे हमारा सौंदर्य और भी उभर आता है।
'सखी-प्रणय —चन्दन' । सखियों के साथ प्रणय है, राधारानी की अष्ट सखियां है। चंदन लेपन जो है,
सर्वांगे हरिचंदन सर्वांगे हरिचंदनं सुलितम कंठे च मुक्तावली।
यह (किसका) प्रदर्शन है (इससे किस का पता चलता है) राधा रानी का। राधा रानी का अपनी सखियों से प्रेम/ स्नेह है।
स्मित -कान्ति —कर्पूर, कपूर का लेपन होता है। चंदन, कपूर का भी लेपन होता है। राधारानी सुमित हास्य (स्माइल) करती है।
( इस विषय पर आगे बहुत है)
विशाखा ने कहा है। (यह सब कौन बोल रहा है? विशाखा बोल रही है) राय रामानंद विशाखा है। अगर कोई जानता है तो विशाखा जानती है या नही राधारानी को? आपने भगवान को देखा है? हम कह सकते हैं कि हमनें तो नहीं देखा है लेकिन हम उनको जानते हैं जिन्होंने कृष्ण को देखा है। जब हम कृष्ण के सम्बंध में कुछ बोलते रहते हैं। क्या आपने कृष्ण को देखा है जो यह सब बात कर रहे हैं। हमने तो नहीं देखा है लेकिन हम देखा हैं, मिले हैं, जानते हैं। भगवान को तो देखते ही रहते हैं, वहीं से ब्रॉडकास्टिंग होता है। जो भी वे कहते हैं,
अगला विषय कृष्ण है। यथारूप। कृष्ण को देखते हुए..
नम: पङ्कजनाभाय नम: पङ्कजमालिने । नम: पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ (श्रीमद्भागवतम श्लोक 1.8.22)
अनुवाद:-
जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सदृश गर्त है, जो सदैव कमल-पुष्प की माला धारण करते हैं, जिनकी चितवन कमल-पुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों (के तलवों) में कमल अंकित हैं, उन भगवान् को मैं सादर नमस्कार करती हूँ।
कुंती महारानी की प्रार्थना के अंतर्गत कुंती महारानी भगवान को रथ पर विराजमान या आरुढ़ देख रही हैं। कृष्ण अब हस्तिनापुर से द्वारका के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। तो वह उनके रथ के समक्ष आ गई
(शी इज राइट देयर)
श्रीकृष्ण को देखते हुए वह वर्णन कर रही है। नम: पङ्कजमालिने। आपको नमस्कार जो ऐसी माला पहने हो। चरणों को देख रही हैं। नमस्ते नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये
कृष्ण को मेरा नमस्कार, वे देखती हुई प्रार्थना कर रही है। फिर उसी को शुकदेव गोस्वामी सुना रहे हैं और वह सत्य कथा परम्परा में हम तक पहुंच जाती है।
रात्रि-दिन कुञ्जे क्रीड़ा करे राधा -सङ्गे । कैशोर वयस सफल कैल क्रीड़ा -रङ्गे ॥
अनुवाद:
“भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावन के कुंजों में श्रीमती राधारानी के साथ दिन-रात क्रीड़ा करते हैं। इस तरह उनकी कैशोर अवस्था राधारानी के साथ क्रीड़ा में सफल होती है ।”
किशोर किशोरी, कुंजों में.. निकुंजों में विराजो घनश्याम राधे राधे..।
वृंदावन में या ब्रज मंडल में कुछ क्षेत्रों को निकुंज कहते हैं। राधा कृष्ण, गोपी कृष्ण की लीला के लिए दे आर रिजर्व्ड। वहां और कोई पहुंच नहीं सकता, न ग्वाले, कोई भी नही। वहां क्रीड़ा करे राधा सङ्गे। ऐसी क्रीड़ा करते हुए देखिए आगे क्या कहा है।
कैशोर वयस सफल कैल क्रीड़ा -रङ्गे
युवक, किशोर है, किशोरावस्था का साफल्य किस में है। किशोरी के साथ/ गोपियों के साथ इस प्रकार की माधुर्य लीला का संपन्न होना। इस प्रकार की लीला खेलना, राधा कृष्ण दोनों के तारुण्य का साफल्य उसमें है।
एतत सुनी प्रभु तारे...
इस प्रकार का संवाद भी हो रहा है। बीच-बीच में दोनों व्याकुल हो जाते हैं। क्रंदन करने लगते हैं। एक दूसरे का अलिंगन देते है। गला गली चल रहा है।
एक गला दूसरे गले के साथ.. गला गली चल रहा है।
एइ-मत प्रेमावेशे रात्रि गोङाइला ।
राय रामानंद और महाप्रभु दोनों ने पूरी रात ऐसे ही बिताई है।
एइ-मत प्रेमावेशे रात्रि गोङाइला । प्रातः-काले निज -निज-कार्ये दुँहे गेला ॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत 8.234)
कई रात्रियों से यह संवाद चल रहा है।
यह जितना भी संवाद हुआ... वैसे जितना भी संवाद हुआ, वह सारा का सारा नहीं लिखा गया है। उसमें से कुछ बिंदु लेकर ही प्रस्तुत किया गया है।
मोरे कृपा करिते तोमार इहाँ आगमन । दिन दश र हि’ शोध मोर दुष्ट मन ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत 8.236)
अनुवाद:- श्री रामानन्द राय ने कहा , “आप मुझ पर अपनी अहैतु की कृपा दर्शाने ही यहाँ आये हैं। अतएव आप यहाँ कम से-कम दस दिन तक रुक जायें और मेरे दूषित मन को शुद्ध कर दें।”
मुझ पर कृपा करने हेतु आप यहां पधारे हो, राय रामानंद जी कहते हैं। अब कम से कम 10 दिन तो रहो और शोध मोर दुष्ट मन अर्थात मेरे दुष्ट मन का शोधन या परिष्कार या शुद्धिकरण कीजिए।
जैसे मैंने कहा था कि अलग-अलग रात्रि पर अलग-अलग टॉपिक/ विषय पर चर्चा भी हो रही है। जो चर्चा अधूरी रह गई थी उस को अगली रात्रि आगे बढ़ाते हैं। अब कुछ अंतिम दिन ही आ रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु का स्टे वहां चल रहा है। उन दिनों में सातवां, आठवां या नवां दसवां दिन हो सकता है। राय रामानंद कहते हैं-
एक संशय मोर आछे हृदय
मेरे मन में एक संशय उत्पन्न हो रहा है। (अब उसको पढ़ कर नहीं, ऐसे ही सुनाता हूँ)
संशय यह है कि वह कह रहे हैं- जब आप आए थे तब आपको मैं गौरांग रूप में देख रहा था। मैं एक दंड और कमंडलु धारण किए हुए सन्यासी रूप को देखता रहा, देखता रहा लेकिन अभी अब आप यह कैसा रूप दिखा रहे हो। यह तो गौरांग रूप नहीं है, यह तो मुझे श्याम सुंदर रूप दिख रहा है। इसका समझना थोड़ा मुश्किल जा रहा है। यह क्या हो रहा है। आप हो कौन? आप गौरांग हो या गौर सुंदर हो या श्यामसुंदर हो आप कौन हो
ताहाते प्रकट देखों स -वंशी वदन । नाना भावे चञ्चल ताहे कमल -नयन ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.270)
अनुवाद:- “मैं देख रहा हूँ कि आप मुख में वंशी धारण किये हैं और आपके कमल -नेत्र विभिन्न भावों के कारण चंचल हो रहे हैं।”
आपके हाथ में दंड तो नहीं है। आपके हाथ में तो बंसी है। मैं क्या देख रहा हूँ, मुझे क्या दिखा रहे हो ।
राधा-कृष्णे तोमार महा-प्रेम हय । याहाँ ताहाँ राधा -कृष्ण तोमारे स्फुरय ॥ (श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.277)
अनुवाद:- श्रीचैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “हे राय , आप महान् भक्त हैं और राधाकृष्ण के प्रेमभाव से सदैव पूरित रहते हैं। अतएव आप जहाँ कहीं जो कुछ देखते हैं, वह आप में कृष्णभावनामृत को जाग्रत करता है।
संक्षिप्त में यही कह सकते हैं कि उस दर्शन को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने और भी विस्तारित किया। पहले तो वे राय रामानंद को गौरांग महाप्रभु के स्थान पर श्याम सुंदर रूप का ही दर्शन दे रहे थे। जब उन्होंने यह संशय कह कर सुनाया भी।
तब चैतन्य महाप्रभु क्या कहते हैं
तबे हा सि’ ताँरे प्रभु देखाइल स्वरूप ।‘रस-राज’, ‘महाभाव’—दुइ एक रूप ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.282)
अनुवाद:
भगवान् कृष्ण समस्त आनन्द के आगार हैं और श्रीमती राधारानी साक्षात् महाभावमय भगवत्प्रेम की मूर्तिमन्त स्वरूप हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु में ये दोनों स्वरूप मिलकर एक हो गये हैं। ऐसा होने के कारण श्रीचैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय को अपना वास्तविक स्वरूप दिखलाया।
(थोड़े हँसते हुए स्मित हास्य के साथ ( वे हास्य कर रहे थे) श्री कृष्ण का स्मित हास्य राय रामानंद देख रहे थे।
तबे हा सि’ ताँरे प्रभु देखाइल स्वरूप
श्रीकृष्ण का अपना जो स्वरूप है, उसका दर्शन दिया व चैतन्य महाप्रभु के स्वरूप का दर्शन दिया। (वो दर्शन कैसा था) रसराज! एक रूप रसराज कृष्ण का धारण किया और दूसरा महाभाव का।
एक रुपए दुई, दोनों एक ही रूप में। गौरांग या गौरांग के स्थान पर श्याम सुंदर और राधा रानी का दर्शन दिया
देखि’ रामानन्द हैला आनन्दे मूर्च्छिते । धरिते ना पारे देह , पड़िला भूमिते ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.283)
अनुवाद:
यह स्वरूप देखकर रामानन्द राय दिव्य आनन्द के कारण मूर्छित हो गये। वे खड़े नहीं रह सके, अतः भूमि पर गिर पड़े।
इससे राय रामानंद और भी सम्भर्मित हुए.. गए काम से। अचेतन हुए। बाह्य ज्ञान नहीं रहा।
धरिते ना पारे देह , पड़िला भूमिते और भूमि पर गिर गए।
तत्पश्चात चैतन्य महाप्रभु उनको फिर चेतन कर देते हैं, जगाते हैं। इसी के साथ अपनी संपूर्ण लीला में ऐसा दर्शन केवल और केवल राय रामानंद को ही दिया। चैतन्य महाप्रभु की जो लीला धरातल पर 48 वर्ष होती रही, उन सभी लीलाओं में एक ही समय में एक ही स्थान पर चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं राधा और कृष्ण होने का दर्शन राय रामानंद को दिया। इसीलिए जहां दर्शन दिया, उस स्थान को गौड़ीय वैष्णव दक्षिण भारत का वृंदावन कहते हैं। एक तो वृंदावन, वृंदावन है, जहां राधा कृष्ण की लीला संपन्न होती ही है और दूसरा स्थान विद्यानगर, गोदावरी के तट पर बन गया। जहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने राधा कृष्ण का दर्शन दिया।
अब कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान कर रहे हैं और निवेदन करते हुए कि अब...
दुइ-जने नीलाचले रहिब एक -सङ्गे । सुखे गोङाइब काल कृष्ण-कथा-रङ्गे ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.298)
अनुवाद :
“हम दोनों जगन्नाथ पुरी में मिलकर रहेंगे और कृष्ण-कथा कहते हुए सुखपूर्वक अपना समय बितायेंगे ।”
आप थोड़ा अर्ली रिटायरमेंट ले लो, बस हो गया। मैं थोड़ा दक्षिण भारत की यात्रा कर रहा हूं। यात्रा करते करते पुनः मैं जब भी जगन्नाथ पुरी लौटूंगा तब तक आप रिटायरमेंट लेकर पहुंच जाना। तब हम सुख से वहां अपना समय बिताएंगे। (किस में) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। अर्थात हरि कीर्तन में और हरि कथा में अपना जीवन आपके संग में बिताएंगे।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!