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जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनाँक 11 -05 -23
हरे कृष्ण!!!
जप को विराम दीजिए किंतु ध्यान को विराम नहीं देना है। मंत्र मेडिटेशन ध्यान पूर्वक जप और अब ध्यान पूर्वक ही हम जप चर्चा को सुनेंगे और आप जानते ही हैं जैसा कि अनाउंसमेंट हुई थी , आज राय रामानंद और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संवाद होगा। राय रामानंद तिरोभाव दिवस की जय....! तो उसी के उपलक्ष में यह संवाद, श्रवण, कीर्तन, स्मरण हम कर रहे हैं।
जय जय श्री चैतन्य जया नित्यानंद। जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद।।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ट्रैवलिंग एंड ट्रैवलिंग दक्षिण भारत की यात्रा में हैं तो वह पहुंचे हैं कुव्वुर और ये कहाँ था गोदावरी के तट पर, उसको विद्यानगर भी कहते हैं वहीं पर इनको मिलना भी था। चैतन्य महाप्रभु को राय रामानंद से, अनायास ही जब मिले तो फिर कैसे मिलन हुआ, राय रामानंद और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मध्य में और क्या संवाद हुआ, जिसका श्रवण ध्यान हम कर चुके हैं। याद है ? उसी को आगे बढ़ाएंगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भिक्षा के लिए निमंत्रण मिला और वे मध्याह्न भोजन के लिए राय रामानंद के यहाँ गए हैं। भोजन और विश्राम के उपरांत पुन: राय रामानंद के साथ मिलन होता है। राय रामानंद जी ने कहा है आप रहिए यहां, कितने दिन, पांच सात दिन, यहां पर रहोगे तो फिर क्या होगा आपका अंग संग कहो आपके साथ वार्तालाप होगा,
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ (श्रीमद भागवतम ३.२५.२५ )
अनुवाद- शुद्ध भक्तों की संगति में श्रीभगवान् की लीलाओं तथा उनके कार्यकलापों की चर्चा कान तथा हृदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाली होती है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन में मनुष्य धीरे-धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात् मुक्त हो जाता है और उसका आकर्षण स्थिर हो जाता है। तब असली समर्पण तथा भक्तियोग का शुभारम्भ होता है।
हृदय के लिए, कानों के लिए , भक्ति का रसायन हम पान करेंगे। तो पुनः मिलान हुआ है
प्रभु कहे साध्येर निर्णय इस संवाद में यह भी संवाद का एक वैशिष्टय ही है। श्रीकृष्ण अर्जुन का भी संवाद है और शुकदेव गोस्वामी और राजा परीक्षित का भी संवाद है और यह भी एक संवाद है। यहां राय रामानंद बनते हैं या उनको बनाया जाता है वक्ता और गौर भगवान बन जाते हैं श्रोता या फिर राय रामानंद जी विशाखा है, विशाखा बन जाती है वक्ता और कृष्ण कन्हैया लाल बन जाते हैं श्रोता । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जिज्ञासा है वह जानना चाहते हैं।
*प्रभु कहे, "एहो बाह्य, आगे कह आर" ।
राय कहे, – “स्वधर्म-त्याग, एइ साध्य-सार" ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला, अध्याय ८.६१)
अनुवाद - श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा, “यह भी बाह्य है। इस विषय पर आगे कहो।" तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “वर्णाश्रम में अपने नियत कर्मों को त्यागना ही पूर्णता का सार है ।"
गौर भगवान सुनना चाहते हैं साध्य और साधन का निर्णय या साध्य कहो या लक्ष्य कहो क्या है , हमें कहां तक पहुंचना है, कौन सा है गंतव्य स्थान जिसकी चर्चा प्रारंभ होती है और इसका विषय बन जाता है या रसोएशय या कहो रस तत्व की चर्चा होगी। एक तत्व विचार होता है और फिर रस विचार ऐसे चर्चा के दो विभाग भी बन जाते हैं। जब हम ज्ञान की बात करते हैं तो तत्वज्ञान तो और रसत ज्ञान, तो यहां रस की चर्चा है। इसी रस से फिर रास होता है। रास क्रीड़ा या रासोवेशयः जो भगवान रस के ही बने हैं रसों से ही बने हैं या रसराज कृष्ण कैसे हैं, रसराज रसों के राजा हैं और फिर रसों के कई प्रकार हैं। मैंगो जूस है, टोमैटो जूस है, अलग-अलग प्रकार के रसों का स्वाद है उसमें द्वादश रस है उसमें 12 रस हैं, 7 गौण रस हैं, प्रधान रस 5 हैं सख्य, वात्सल्य, दास्य, माधुर्य, शांत। इन रसों का ज्ञान क्या है ? रस से संबंधित चर्चा प्रारंभ होती है। उत्तर में राय रामानंद कहते जाते हैं।
यत्करोषि यदशनासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ (श्रीमद भगवद्गीता 9.27)
अनुवाद - रामानन्द राय ने आगे कहा, "हे कुन्ती पुत्र, तुम जो कुछ करो, जो भी खाओ, जो भी यज्ञ करो, जो भी दान दो तथा तुम जितनी भी तपस्याएँ करो, उन सबके फल मुझे, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण को अर्पण करो। "
पहले वर्णाश्रम धर्म की चर्चा करते हैं वर्णाश्रम धर्म का अवलंबन करना चाहिए कृष्ण ने गीता में कहा है
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशःI तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता 4.13)
अनुवाद- प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।
तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते हैं "एहो बाह्य" यह तो बाहर का हुआ और आगे कहो तो फिर राय रामानंद कहते हैं
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 9.27)
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो।
इस बात से भी चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न नहीं हैं "एहो बाह्य" वह कहते हैं यह भी बाह्य" है बाहर का है यह गौण है और आगे बढ़ो और इससे भी ऊंची बात कहो तो फिर रामानंद राय कहते हैं।
प्रभु कहे, "एहो बाह्य, आगे कह आर" । राय कहे, "कृष्णे कर्मार्पण सर्व-साध्य-सार" ॥ (श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.59)
अनुवाद :- महाप्रभु ने कहा, “यह तो बाह्य है। आप मुझे कोई दूसरा साधन बतलायें।" इस पर रामानन्द ने उत्तर दिया, “सारी पूर्णता का सार यह है कि अपने कर्मों के फल कृष्ण को अर्पित किये जाएँ।"
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद -सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत।
राय रामानंद ने सोचा कि यह भगवत गीता का सार है। भगवत गीता के संवाद के अंत में कृष्ण ने स्वयं कहा यह श्रेष्ठ बात हो सकती है ऐसा राय रामानंद सोच तो रहे थे लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने कहा एहो बाह्य, यह भी बाहर का है और आगे बढ़ो
प्रभु कहे, "एहो बाह्य, आगे कह आर" ।
राय कहे, "ज्ञान-शून्या भक्ति साध्य-सार" ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.66)
अनुवाद - यह सुनकर महाप्रभु ने पहले की तरह इसे भी बाह्य भक्ति मानते हुए अस्वीकार कर दिया। उन्होंने रामानन्द राय से पुनः आगे बोलने के लिए कहा। इस पर रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “ज्ञान से रहित शुद्ध भक्ति ही पूर्णता का सार है।"
साध्य की चर्चा यहां हो रही है, राय रामानंद कहते हैं साध्य का सार भक्ति है, भक्ति है ज्ञान शून्य, एक ज्ञान मिश्रित भक्ति होती है वह भी सही नहीं है। ये ज्ञान कि भगवान महान हैं और हम लहान हैं। हम छोटे हैं उसमें भक्ति का भाव उतना नहीं होता है, उतना रस उत्पन्न नहीं होता भगवान के महानता के ज्ञान से, वैकुंठ में भगवान महान हैं। किंतु वृंदावन में भगवान प्रेमी भगवान या सबके साथ मिलजुल कर रहने वाले, किसी के साथ खेलने वाले, किसी के भी पुत्र बन जाते हैं और गोपियों के साथ उनकी रास क्रीडाएं होती हैं। यह संभव नहीं है यदि वह समझे कि भगवान महान हैं।
प्रभु कहे, “एहो हय, किछु आगे आर" ।
राय कहे, “ सख्य-प्रेम सर्व-साध्य-सार" ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.74)
अनुवाद - रामानन्द राय से यह सुनकर महाप्रभु ने पुनः प्रार्थना की कि वे और आगे बढ़ें। रामानन्द राय ने उत्तर में कहा, "सख्य भाव से की गई कृष्ण की प्रेमाभक्ति सर्वोच्च पूर्णता है।
कृष्ण के मित्र कहते हैं तुम क्या समझते हो “तुम कौन बडा लोग अमि तुमी सम तो मैत्री जो है बराबर वालों में ही संभव होती है। उन्हीं के मध्य में मैत्री होती है, यह ज्ञान शून्य भक्ति कही जाती है, वृंदावन में जो भक्ति होती है वह ज्ञान शून्य भक्ति होती है। वैसे दास्य रस की जब बात होती है तब राय रामानंद कहने लगते हैं हां
प्रभु कहे, – “ एहो उत्तम, आगे कह आर" । राय कहे, “वात्सल्य-प्रेम सर्व-साध्य-सार" ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.76)
अनुवाद- महाप्रभु ने कहा, “यह कथन अति उत्तम है, किन्तु आगे कहते चलो।” तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “भगवान् के प्रति वात्सल्य प्रेम सर्वोच्च पूर्णता की अवस्था है।"
हां यह ठीक लग रहा है। हां यह ठीक है।
प्रभु कहे, “एहो उत्तम, आगे कह आर" ।
राय कहे, कान्ता-प्रेम सर्व-साध्य-सार ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.79)
अनुवाद- महाप्रभु ने कहा, “तुम्हारे कथन उत्तरोत्तर अच्छे होते जा रहे हैं, किन्तु इन सबसे बढ़कर अन्य दिव्य रस है, जिसे आप अच्छी तरह बतला सकते हैं।” तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “भगवत्प्रेम में कृष्ण के प्रति माधुर्य आसक्ति सर्वोपरि है।
लेकिन जब प्रेम भक्ति या प्रेम रस का, सख्य रस का उल्लेख होते ही उन्होंने कहा यह उत्तम है। फिर सख्य रस का उल्लेख हुआ जिसको उत्तम कहा वात्सल्य रस या वात्सल्य प्रेम, नंद बाबा यशोदा और सभी बुजुर्ग जो व्यक्ति हैं वृंदावन के उनके साथ कृष्ण का वात्सल्य रस हरि हरि ! युवकों के साथ सख्य रस और गोपियों के साथ माधुर्य रस इन तीनों को कृष्ण ने कहा या चैतन्य महाप्रभु ने कहा यह है उत्तम यह सब रस भी उत्तम है। वात्सल्य रस भी उत्तम है और माधुर्य रस भी उत्तम है।
कृष्ण-प्राप्तिर उपाय बहु-विध हय । कृष्ण-प्राप्ति-तारतम्य बहुत आछय ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.82)
अनुवाद- 'कृष्ण की कृपा प्राप्त करने के अनेक साधन तथा विधियाँ हैं। अब उन सारी दिव्य विधियों का अध्ययन सापेक्ष महत्त्व की दृष्टि से किया जायेगा।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यहां भी जब राय रामानंद कहते जा रहे हैं बहुत अच्छे तो चैतन्य महाप्रभु फिर कमेंट कहते हैं यह तीनों भी उत्तम होते हुए सख्य रस से वात्सल्य रस और माधुर्य रस इसमें भी तरतत्तम का भाव है। गुड, बेटर, बेस्ट, तरतत्तम
किन्तु और ग्रेइ रस, सेइ सर्वोत्तम । तटस्थ हञा विचारिले, आछे तर-तम ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8. 83)
अनुवाद- यह सच है कि भगवान् के साथ जिस भक्त का जैसा भी सम्बन्ध है, वही उसके लिए सर्वोत्तम है। किन्तु तो भी जब हम विभिन्न विधियों का अध्ययन तटस्थ होकर करते हैं, तो हम समझ सकते हैं कि प्रेम की उच्च तथा निम्न कोटियाँ होती हैं।
जो सख्य रस के भक्त हैं उनके लिए सख्य रस सर्वोत्तम है, जो वात्सल्य रस के भक्त हैं उनके लिए वात्सल्य रस सर्वोत्तम है और जो गोपियां राधा रानी की जय। जय श्री राधे उनके लिए जो माधुर्य रस है वह सर्वोत्तम है ऐसा होते हुए भी इन रसों में भी तरत्तम का विचार है समझ है।
पूर्व-पूर्व- रसेर गुण— परे परे हय । दुइ तिन गणने पञ्च पर्यन्त बाड़य।
( श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.85)
अनुवाद- एक रस से लेकर बाद के रसों तक क्रमशः बढ़ोतरी होती जाती है। दूसरे, तीसरे और अधिक से अधिक पाँचवे रस तक प्रत्येक परवर्ती रस के गुण में पूर्ववर्ती रस के गुण प्रकट होते हैं।
माधुर्य रस में सभी रसों का समावेश है वात्सल्य रस है उसमें सभी रस हैं लेकिन माधुर्य रस का समावेश नहीं है, सख्य रस में और जो रस हैं वह हैं किंतु सख्य रस में वात्सल्य रस नहीं है माधुर्य रस नहीं हैं।
गुणाधिक्ये स्वादाधिक्य बाड़े प्रति-रसे । शान्त-दास्य- सख्य-वात्सल्येर गुण मधुरेते वैसे ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.86)
अनुवाद-“गुणों में वृद्धि के साथ-साथ प्रत्येक रस के स्वाद में भी वृद्धि होती जाती है। अतएव शान्त रस, दास्य रस, सख्य रस तथा वात्सल्य रस के सारे गुण माधुर्य रस में प्रकट होते हैं।
श्रील प्रभुपाद की जय...! हर रस का गुण या माधुर्य बढ़ता है सख्य रस से अधिक रस है वात्सल्य रस में वात्सल्य रस से अधिक गुणवत्ता आस्वादन है माधुर्य रस में
आकाशादिर गुण ग्रेन पर-पर भूते । दुइ तिन क्रमे बाड़े पञ्च पृथिवीते ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.87)
अनुवाद- पाँच भौतिक तत्त्वों-आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी-में गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि एक, दो तथा तीन की क्रमिक विधि से होती है और अन्तिम अवस्था में पृथ्वी तत्त्व में पाँचों गुण पूर्णतया दृष्टिगोचर होते हैं।
परिपूर्ण-कृष्ण-प्राप्ति एइ 'प्रेमा' हैते । एइ प्रेमार वश कृष्ण कहे भागवते ॥ (श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.88)
अनुवाद - भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की पूर्ण प्राप्ति भगवत्प्रेम से, विशेष रूप से माधुर्य रस द्वारा सम्भव हो पाती है। भगवान् कृष्ण इस स्तर के प्रेम के वश में हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत में ऐसा कहा गया है।
हृदये प्रेरण कर, जिह्वाय कहाओ वाणी । कि कहिये भाल-मन्द, किछुइ ना जानि ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.123)
अनुवाद -आप मेरे हृदय के भीतर से मुझे प्रेरित करते हैं और जीभ से कहलवाते हैं। मैं यह नहीं जानता कि मैं अच्छा बोल रहा हूँ या बुरा ।
हरि हरि ! तो यह सिद्ध हो रहा है वैसे माधुर्य रस ही सर्वोत्तम है। हर एक के लिए अपने-अपने रस उत्तम है लेकिन सभी रसों में सर्वोत्तम रस माधुर्य रस है और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो प्रकट हुए हैं समर्पित उज्जवल उन्नत रस हय चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में श्रीकृष्ण दास कविराज गोस्वामी उल्लेख करते हैं कि चैतन्य महाप्रभु क्यों प्रकट हुए हैं? उन्नत उज्जवल रस जो है "माधुर्य रस" यह देने के लिए प्रकट हुए हैं और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मत के अनुसार भगवान की भक्ति कैसे करनी चाहिए
आराध्यो भगवान ब्रजेश तनय , तद्धामं वृन्दावनं। रम्या काचिदुपासना व्रजवधु वर्गेण या कल्पिता।। श्रीमद भागवतम प्रमाण अमलम प्रेम पुमर्थो महान। श्री चैतन्य महाप्रभोर मत मिदम , तत्रादरो न परः।।
गोपियां राधा रानी जिस भाव के साथ, बड़े माधुर्य भाव के साथ गुह्य प्रेम के साथ जो आराधना करती हैं। कृष्ण की यह आराधना की पद्धति सर्वोत्तम है और उसका प्रचार, केवल प्रचार ही नहीं अपितु उसके पहले आस्वादन करने के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। आगे चर्चा होने वाली है गोपियों की और गोपियों में श्रेष्ठ है राधा रानी , राधा रानी की जय !
हम समझ गए , मान गए चैतन्य महाप्रभु कहते हैं साध्य साधने का निर्णय हुआ और सर्वोपरि यह माधुर्य रस ही है और ये रस ही रास है उसी से रास होता है।
सार्वभौम-सङ्गे मोर मन निर्मल हइल । कृष्ण-भक्ति-तत्त्व कह, ' ताँहारे पुछिल ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.125)
अनुवाद - सार्वभौम भट्टाचार्य की संगति करने से मेरा मन निर्मल हुआ है। इसीलिए मैंने उनसे कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति के तत्त्व के विषय में पूछताछ की।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपनी जिज्ञासा को आगे बढ़ाते हुए ऐसे उत्तर खोलने जा रहे हैं राय रामानंद से कहलाएंगे
तेंहो कहे—आमि नाहि जानि कृष्ण-कथा । सबे रामानन्द जाने, तेंहो नाहि एथा ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.126)
अनुवाद - सार्वभौम भट्टाचार्य ने मुझसे कहा, 'वास्तव में मैं भगवान् कृष्ण की कथा के विषय में नहीं जानता। रामानन्द राय ही सब कुछ जानता है, किन्तु वह यहाँ उपस्थित नहीं है।
आप ऐसे ऐसे प्रश्न पूछ रहे हो जिज्ञासा हो रही है इसका उत्तर तो मैं नहीं जानता किंतु आप जो भी कहलाओगे मुझसे, मैं कहता जाऊंगा “साक्षात् ईश्वर तुमि” आप तो साक्षात ईश्वर परमेश्वर भगवान हो। आप का नाटक ,आप की करतूत ,आप की लीला, कौन समझ सकता है।
जो जो आप जिज्ञासा कर रहे हो उनके उत्तर मेरे हृदय प्रांगण में प्रकाशित कीजिए दिव्यज्ञान हृदय प्रकाशित और जब यह विचार हृदय प्रांगण में प्रकाशित होंगे हृदये प्रेरण कर, जिह्वाय कहाओ वाणी तो फिर उसी को मैं अपनी जीवा से उच्चारण करूंगा। सही गलत मैं तो नहीं जानता कैसे कहलाओगे मैं कहता जाऊंगा तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं
प्रभु कहे, मायावादी आमि त' सन्न्यासी । भक्ति-तत्त्व नाहि जानि, मायावादे भासि ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.124)
अनुवाद- श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैं तो मायावादी संन्यासी हूँ और मैं यह भी नहीं जानता कि भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति है क्या। मैं तो केवल मायावादी दर्शन के सागर में तैरता रहता हूँ।
कह रहे है मैं तो मायावादी सन्यासी हूं मैं कहां से जान लूंगा ,भक्ति और भक्ति का तत्व ,"मायावादी कृष्ण अपराधी" अन्य स्थान पर चैतन्य महाप्रभु ने कहा है मायावादी कृष्ण अपराधी, मायावादी कृष्ण के चरणो में अपराध करने वाले और वह तो भक्ति का विरोध करते हैं भक्ति करते ही नहीं, वह स्वयं ही भगवान बनना चाहते हैं। "अहम् ब्रह्मास्मि" कहते हैं। वहां भगवान नहीं रहे और वे भगवान बन गए लेकिन भक्ति नहीं रही क्योंकि भक्त ही नहीं है क्योंकि भक्त ही बन गए भगवान, जिसको करनी चाहिए थी भक्ति वह बन जाता है भगवान, फिर भक्ति का अंत एंड ऑफ द भक्ति
सार्वभौम-सङ्गे मोर मन निर्मल हइल । 'कृष्ण-भक्ति-तत्त्व कह, ' ताँहारे पुछिल ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.125)
अनुवाद- सार्वभौम भट्टाचार्य की संगति करने से मेरा मन निर्मल हुआ है। इसीलिए मैंने उनसे कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति के तत्त्व के विषय में पूछताछ की।
तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य जी ने बताया था हरि हरि ! कि आप मुझे यह सारा जैसे कृष्ण भक्ति की चर्चा कृष्ण भक्ति तत्व ताँहारे पुछिल हरि हरि !
तेंहो कहे—आमि नाहि जानि कृष्ण - कथा । सबे रामानन्द जाने, तेंहो नाहि एथा ॥ (श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.126)
अनुवाद - सार्वभौम भट्टाचार्य ने मुझसे कहा, 'वास्तव में मैं भगवान् कृष्ण की कथा के विषय में नहीं जानता। रामानन्द राय ही सब कुछ जानता है किन्तु वह यहाँ उपस्थित नहीं है।
और उन्होंने कहा राय रामानंद सब कुछ जानता है वह विद्वान है और राय रामानंद रसिक भक्त है कुछ भक्त कैसे होते हैं? रसिक होते हैं। भागवत को सुनो, भक्तों के लिए, रसिको के लिए है भागवत, आप भागवत हो, व्यक्ति भागवत हो, तो आप जानते हो
तोमार ठाञि आइलाङ तोमार महिमा शुनिया । तुमि मोरे स्तुति कर 'सन्यासी' जानिया ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.127)
अनुवाद -श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “मैं आपकी महिमा सुनकर यहाँ आया हूँ। किन्तु आप मुझे संन्यासी जानकर मेरी प्रशंसा कर रहे हैं।
आपके संबंध में इतनी सारी महिमा सुनकर मैं आपके पास आया हूं किंतु आप मेरी स्तुति कर रहे हो मुझे सन्यासी जान के, लेकिन मैं तो मायावादी सन्यासी हूं और आप सर्वज्ञ हो। आप रसिक भक्त हो , ऐसा मैंने खुद सुना है तो कृपया सुनाइए मुझे और इसी के साथ चैतन्य महाप्रभु ज्ञान की बात भी कहते हैं
किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय । ग्रेइ कृष्ण-तत्त्व- वेत्ता, सेइ 'गुरु' हय ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.128)
अनुवाद - कोई चाहे ब्राह्मण हो अथवा संन्यासी या शूद्र हो-यदि वह कृष्ण- तत्त्व जानता है, तो गुरु बन सकता है।"
जो कृष्ण तत्त्ववेत्ता है सही गुरु है वही गुरु हो सकते हैं जो कृष्ण तत्त्ववेत्ता है जो जानकार हैं।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.9)
हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्म को) जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है।
कृष्ण को तत्वतः जानना होता है। सिद्धांत की बात करने में आलस नहीं करना चाहिए जो आपको तत्व देता हो तो मैं तो आपका शिष्य बन कर आया हूं आपसे सुनने के लिए आया हूं और आप गुरु हो। किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय कोई विप्र हो सकता है या किसी ब्राह्मण परिवार में हुआ हो, कोई सन्यासी होगा या कोई शूद्र भी हो सकता है। देट नॉट इंपोर्टेंट यह बहुत आवश्यक नहीं है। सन्यासी है या शूद्र परिवार में जन्मा है या ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ है इससे व्यक्ति गुरु नहीं बनता। तो क्या क्वालिफिकेशन ? जो तत्ववेत्ता है वह गुरु बन सकता है और आप तत्व वेता हो तो मुझे आप सुनाइए
राय कहे, "आमि नट, तुमि सूत्र-धार । ग्रेइ मत नाचाओ, तैछे चाहि नाचिबार ॥ ॥ (श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.132)
अनुवाद- श्री रामानन्द राय ने कहा, “मैं तो केवल नाचने वाली कठपुतली हूँ, और आप रस्सी खींचने वाले हैं। आप मुझे जिस तरह नचायेंगे, मैं उसी तरह नाचूँगा ।
मैं तो नट हूं या कठपुतली हूं और आप हो सूत्रधार, आप कठपुतली वाले हो और मैं कठपुतली हूं तो ठीक है आप जैसे भी नचाओगे मुझे , मैं नाचूंगा, नचाओ नचाओ मुझे। श्रील प्रभुपाद ने भी ऐसे विचार प्रकट किए थे जब बोस्टन से न्यूयॉर्क जा रहे थे उसी जलदूत वोट में बैठकर और श्रील प्रभुपाद ने जो दृश्य देखा बोस्टन में, मैं तो यह प्रचार के लिए आया हूं लेकिन यहां तो रैट रेस चल रही है। चूहे की दौड़ यहां के बोस्टन या अमेरिका के लोग इतने व्यस्त लग रहे हैं। भागम भाग चल रही है रुकने का नाम नहीं ले रहे, कैसे करूंगा मैं प्रचार ? तो श्रील प्रभुपाद ने एक कविता लिखी उसके अंत में लिखते हैं " आमि तो काष्ठेर पुतली मैं एक काष्ठ की पुतली हूं नचाओ प्रभु नचाओ मुझे नचाओ, मुझे बुलवाओ जैसा आप चाहोगे, तो राय रामानंद भी वही बात कह रहे हैं। "परम ईश्वर कृष्ण:" और अब जब राय रामानंद बोलेंगे तो जो बातें बोलने वाले हैं रस विचार की बातें या माधुर्य रस की बातें जो सर्वोपरि है ऐसी चर्चा और कहीं नहीं मिलेगी, ऐसी बातें इस संवाद के अंतर्गत आ जाती हैं। जो बातें भागवत में भी नहीं कहे शुकदेव गोस्वामी ,यह नहीं कि वह नहीं जानते थे किंतु जिस प्रकार का ऑडियंस वहां था और इसीलिए श्रील प्रभुपाद चैतन्य चरितामृत को क्या कहते हैं ? इसका अध्ययन मतलब पोस्ट ग्रेजुएशन का यह सिलेबस या स्टडी मटेरियल है, भगवत गीता क्या है, भगवत गीता है प्राइमरी स्कूल का सिलेबस और श्रीमद भगवतम है ग्रेजुएशन, चैतन्य चरितामृत यह पोस्ट ग्रेजुएशन का स्टडी मटेरियल तभी बन जाता है जब राय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु के मध्य का जो संवाद है कॉन्फिडेंशियल, अति गोपनीय रहस्यमई बातें, जब चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद के मुखारविंद से कहलाते हैं और इसी के साथ इस रहस्य का उद्घाटन हुआ है। एक समय तो चैतन्य महाप्रभु ने तो स्टॉप स्टॉप उनके मुख को बंद करवाया ये कहकर यू आर क्रॉसिंग द बाउंड्री और फिर इस प्रकार का संवाद है जो विषय वस्तु प्रस्तुत की गई है यह गीता भागवत के भी परे की बातें हैं और धर्म की तो भूल ही जाओ। इसीलिए तो अन्य ग्रन्थ बाइबल, इस्लाम या हमारे अन्य पुराणों में भी यह चर्चा का विषय बना है। यह केवल और केवल चैतन्य चरितामृत में ही है। इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु के प्राकट्य का एक कारण था कि वो राधा रानी को जानना चाहते हैं और उस राधा भाव को लेकर प्रकट हुए हैं। “राधा भाव कोबालितं” राधा का भाव और राधा की ज्योति कांति को लेकर गौरांग बने हैं , मतलब राधा बने हैं तो इस संवाद के माध्यम से चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का जो उद्देश्य है वह राधा को या राधा की महिमा किस प्रकार की है। राधा जिस आनंद का अनुभव करती है वह आनंद कैसा है, जब राधा कृष्ण में कंपटीशन होता है तो कृष्ण अनुभव करते हैं आई एम गेटिंग डिफीटेड मैं हार रहा हूं और राधा जीतती रहती है और वैसे रुकमणी ने कहा भी था। चैतन्य मंगल नामक जो ग्रंथ है उसमे उल्लेख आता है कि कैसे रुकमणी एक समय द्वारिका में द्वारकाधीश को कही थी प्रभु जी ऐसी कुछ बातें हैं बस मैं जानती हूं लेकिन राधारानी अधिक जानती है और आप जानते ही नहीं, आप कुछ भी नहीं जानते। तुम्हारे विरह की व्यथा ,जब सेपरेशन होता है तो उस समय जो हम अनुभव करती हैं , मैं थोड़ा अनुभव करती हूं लेकिन राधारानी उसका अनुभव सदैव करती ही रहती है, उन बातों को, आप नहीं जानते तो कृष्ण ने कहा ,ऐसा क्या कह रहे हो क्या तुमने भागवत नहीं पढ़ा ? भागवत के प्रारंभ में ही कहा है मैं कैसा हूं। अभिज्ञ, स्वराट, मैं सर्वज्ञ हूं। श्रीमद् भागवत १.१.१ भागवत ने कहा है मैं अभिज्ञ हूं। मैं सर्वज्ञ हूं और तुम कह रही हो कि मैं जानता नहीं ? कृष्ण ने स्वीकार किया कि हां हां कुछ बातें ऐसी हैं जो मैं नहीं जानता केवल राधारानी जानती है। तो फिर उसने उसी समय संकल्प लिया था की नेक्स्ट टाइम जब मैं प्रकट होऊंगा तो मैं राधा रानी बनूंगा। राधा रानी का भाव लेकर राधा रानी बनकर प्रकट होऊंगा। वैसे वो दोनों ही बने हैं "श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य" यह जो सिद्धांत की बात है चैतन्य महाप्रभु कैसे हैं वह कृष्ण है और राधा रानी भी हैं तो अंतः कृष्णा बाहिर गौरा अंदर व्यक्ति कृष्णा और बाहर है वह गौरांग महाप्रभु या गौर वर्ण के या बाहर है राधा और अंदर है कृष्ण छिपे हुए हैं। अब यहां पर यह जो संवाद हो रहा है तो वह राधा को जानना चाहते हैं राधा को जानने के लिए ही प्रकट हुए हैं या जानने के लिए ही नहीं, वह कृष्ण भी बने हैं तो कृष्ण क्या करेंगे
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थानार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 4.8 ॥ श्रीमद्भगवद्गीता
अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
धर्म की स्थापना भी तो करना है
“श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौरा कोरिला प्रचार”तो हरे कृष्ण नाम कीर्तन यह कलयुग का धर्म है इसकी भी स्थापना की है उन्होंने यह मध्य लीला में 6 वर्षों तक चैतन्य महाप्रभु रमण करके अपना फर्ज निभा रहे है कृष्ण है ,तो जो कृष्ण का कर्तव्य है जो उद्देश्य होता है ,क्या उद्देश्य ?
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || 4.7 || श्रीमद्भगवद्गीता
अनुवाद- हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
वह करने के उपरांत तो अब वे श्रीकृष्ण महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रहेंगे 18 वर्ष उसमें से हुए लास्ट के जो 12 वर्ष हैं उसको अंतिम लीलाएं कहा है। चैतन्य चरित्रामृत की आदि लीला मध्य लीला और फिर अंत्य लीला 12 वर्ष के अंत में महाप्रभु ने क्या किया है ? फोकस किया है राधा रानी बन गए हैं राधा भाव में ,राधा रानी को समझने की लीला खेले हैं। तो इसके लिए राधा रानी को समझना है इसलिए राधा रानी बने भी हैं और वह समझना भी चाहते हैं। इसमें बहुत बड़ा योगदान वैसे राय रामानंद जी का होने वाला है। राय रामानंद कौन है ?विशाखा है। विशाखा की मदद से वह राधा रानी को समझेंगे या समझने का प्रयास हो रहा है। हर एक की भक्ति के अनुसार भगवान उनको रिवॉर्ड भी देते हैं।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ 4.11 ॥ श्रीमद्भगवद्गीता
अनुवाद- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।
कृष्ण कहते हैं जो जितनी मेरी शरण में आता है उनको मैं अकॉर्डिंग्ली उनके साथ रेसप्रॉकेट करता हूं लोग जैसे मुझे भेजते हैं ये यथा मां प्रपद्यंते मेरी शरण में आते हैं और मेरा भजन करते हैं मेरी स्तुति करते हैं। इसका अक्षरसा यदि भावार्थ लेना है तो मैं भी वैसे ही भजन करता हूं जो जैसी मेरी शरण में आता है। यह सिद्धांत तो कृष्ण कह गए भगवत गीता में लेकिन जब राधा रानी और गोपियों जो है उन पर यह सिद्धांत लागू नहीं होता। गोपियां राधा रानी जैसा मेरी शरण में आती है या मेरा भजन करती हैं तो उतना मैं नहीं कर सकता ,उसका बदला मैं नहीं चुका सकता। इसीलिए रास पंचाध्याय में श्रीमद्भागवत में अल्टीमेटली रास क्रीडा हो रही है तो कृष्ण, राधा रानी और गोपियों से मिलते हैं तब पता है वह क्या कहते हैं
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।
या माभजन्दुर्जरगेहशृङ्खलाः
संवृश्च्य तद्वः प्रतियातु साधुना ॥ 10.32.22 ॥ श्रीमद्भागवतम
अनुवाद -मैं आपलोगों की निस्पृह सेवा के ऋण को ब्रह्मा के जीवनकाल की अवधि में भी चुका नहीं पाऊँगा। मेरे साथ तुमलोगों का सम्बन्ध कलंक से परे है। तुमने उन समस्त गृह- बन्धनों कोतोड़ते हुए मेरी पूजा की है जिन्हें तोड़ पाना कठिन होता है। अतएव तुम्हारे अपने यशस्वी कार्य ही इसकी क्षतिपूर्ति कर सकते हैं।यह बड़ा प्रसिद्ध वचन है श्री कृष्ण का भागवत के श्री रास पंचाध्याय के अंतर्गत न पारयेऽहं
हे ! गोपियों हे! राधा रानी तुम लोगों का जो समर्पण है जो जो तुम मेरे लिए करती हो मुझे प्रसन्न करने के लिए , मैं तो ऋणी हूं और उस ऋण से मुक्त नहीं हो सकता “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्” मैंने तो कह दिया भगवत गीता में लेकिन तुम हे ! गोपियों हे! राधा रानी तुम्हारी बात अलग है। मैं सदैव ऋणी रहूंगा हे गोपियों तुम्हारा और राधा रानी का , ऐसे ऐसे भाव, ऐसे ऐसे विचार, ऐसे ऐसे रस, यह रस का विचार है और फिर भगवान के विचार भी हैं और भगवान के विचारों को जानना ही भगवान को जानना हुआ। फ्रॉम दिस एंगल व्यू कहो इस एंगल से जो कृष्ण को जानना है, कृष्ण के भाव, कृष्ण के विचार, कृष्ण के दिल की बातें ,ऐसा ज्ञान अन्य से प्राप्त नहीं होता है। या फिर इसकी समझ वैसे गौड़िये वैष्णवो को ही है और इसीलिए भी जो चार संप्रदाय हैं। ऑथराइज्ड परंपराएं हैं उसमें भी वह सर्वोपरि हो जाती है और यहां जैसे राय रामानंद के साथ संवाद हो रहा है उसी के साथ इस रस को और मोर कंडेंस्ड, अधिक अधिक गाढ़ा बनाया जा रहा है। यह रामानंद राय की कंट्रीब्यूशन है। वैसे भी तो ऐसा ही किया चैतन्य महाप्रभु ने ,जब वे प्रकट हुए हैं तो विशाखा को भी लाए हैं ,ललिता को भी लाए हैं ,साथ में स्वरूप दामोदर जो चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे जगन्नाथपुरी में तो उनके विचार उनका गान उसका माधुर्य यह रस विचार कहो या यह रस को और गाढ़ा बनाता है। रूप गोस्वामी ,रूपमंजरी नाम सुना होगा मंजरी, मंजरी नाम का एक गोपियों का प्रकार है तो उन मंजरियों की लीडर हैं रूपमंजरी। इस समय गोलोक में है। उस रूपमंजरी को ले आए धरातल पर और उनको अवतरित किया, प्राकट्य किया रूप गोस्वामी के रूप में और फिर उन्होंने इतना सारा ग्रंथों का भंडार गौड़िये वैष्णवो में भक्ति रसामृत सिंधु ग्रंथ लिखा और भी कई सारे ग्रंथों को उन्होंने लिखा। सनातन गोस्वामी और एक गोपी है मंजरी है। एंड ऑन एंड ऑन प्रमोद आनंद सरस्वती ठाकुर जो वृंदावन की महिमा लिखे हैं और राधा कृष्ण की लीला पर प्रकाश डालते हैं। यहां पर थोड़ा सा सेंपलिंग चल रहा है या एक नमूना कहो प्रस्तुत किया जा रहा है रामानंद और चैतन्य महाप्रभु के इस संवाद के रूप में ,किंतु ऐसे संवाद औरों के साथ भी हुए हैं। सनातन गोस्वामी के साथ 2 महीने संवाद चलता रहा वाराणसी में, समझने की बात यह है कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण जो अर्जुन के साथ कुछ बातें किए थे संवाद किए थे या फिर शेकहैंड कहो लेकिन उसके आगे की बातें करने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में भगवान प्रकट हुए हैं और फिर वही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपनी ओर से भी कुछ लिखते हैं रचना करते हैं जिनको शिक्षा अष्टकम कहते हैं। यहाँ से शुरुआत होती है
चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥1॥ शिक्षाष्टकम्
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥
यहां पर अंतिम शिक्षाअष्टक है।
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः॥8॥ शिक्षाष्टकम्
अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें -वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥
यह राधा रानी के वचन है राधा रानी कह रही है। जो भी कहिए और यह सब प्रेम की भाषा है। राधा रानी प्रेम की भाषा बोल रही हैं तो यह माधुर्य रस की रस की भाषा बोल रही है। वहां शिक्षाअष्टक के अंत में तो माधुर्य रस के" वैसे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे "यह महामंत्र भी दिया हैं। भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि जब मैं गोलोक से लौट रहा था आ रहा था तो आते-आते मैं यहां पर वहां से कृष्ण प्रेम लेकर के आया हूं। कैसा है कौन सा है ?"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे? कृष्ण प्रेम है। इसका जब हम श्रवण कीर्तन करते हैं जप करते हैं ध्यानपूर्वक तो यह महामंत्र माधुर्य रस के अंतर्गत है। क्योंकि कुछ आचार्य तो कहते हैं यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण जिसमें यह जो 16 शब्द है या नाम है एक है राधा एक है कृष्ण एक है राधा एक है कृष्ण एक राधा एक है कृष्ण तो यह रास क्रीड़ा है। राधा कृष्ण राधा कृष्ण तो ऐसे ही रासलीला का भी प्रकाशन इस महामंत्र के माध्यम से होता है। माधुर्य रस जो सर्वोपरि है सर्वोत्तम है और पूर्ण है वात्सल्य रस भी पूर्ण है और अपूर्ण भी है। सेम थिंग सख्य रस पूर्ण भी है और अपूर्ण भी है लेकिन पूर्ण तो माधुर्य रस है और इस महामंत्र के साथ यह माधुर्य रस भी जुड़ा हुआ है। तो जिससे कि हम अधिक अधिक ध्यान पूर्वक प्रार्थना पूर्वक जप करेंगे , उस नाम में जो रस है इसी समझ से रसों वैश्य कृष्ण ही है। रस राज और फिर उनका नाम कृष्ण है। “अभिनत्व नाम नामिनो” यह हरे कृष्ण नाम अभी रसोवैश है जो कृष्ण है रसराज हैं इसका जब हम उच्चारण करते हैं।
वैसे रुक्मणी ने भी कहा हे भुवन सुंदर श्रीकृष्ण क्या मैं आपके गुणों को कहो या नाम को भी कहो या लीला को भी कहो, मैं जो सुनती हूं आप हमारे कर्णो के माध्यम मुझ में प्रवेश करते हो हृदय प्रांगण में आप पहुंच जाते हो और वहां मैं हूं ; तो होता क्या है
मेरा जो आदि देवी का आध्यात्मिक भौतिक ताप है वह शांत हो जाता है। मेरा जो बुखार है टेंपरेचर है, गरमा गरम मामला है इस संसार में, वह शांत हो जाता है। ऐसा रुक्मणी ने भी कहा हमारे लिए कहा ताकि हम भी वैसा ही करें। श्रवण कीर्तन करें। रुकमणी अपने श्रवण कीर्तन के लिए प्रसिद्ध थी और कृष्ण के नाम रूप गुण लीला को सुन सुनकर उसने मन बना लिया था की विवाह यदि होगा और जब होगा तो केवल और केवल कृष्ण के साथ, इस तरह से हमारा भी मन बनना चाहिए। कृष्ण हमारे ही पति हैं। जो पुरुष हैं वह कृष्ण ही हैं "गोविंदम आदि पुरुषम तमहं भजामि" और हम प्रकृति हैं, जीवात्मा क्या है प्रकृति और भगवान है पुरुष , उस दृष्टि से भी भगवान सभी जीवो के पति हैं। यहाँ स्त्री का शरीर पुरुष के शरीर का विचार नहीं है। स्त्री के शरीर में पुरुष के शरीर में जो आत्मा है वह प्रकृति है और उस प्रकृति का पुरुष है कृष्ण और जैसे रुक्मणी ने अपना मन बना लिया तो हमें भी वन ऑफ दिस डे अपना माइंड फिक्स करना है कृष्ण के ऊपर नेति नेति, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं, बहु शाखा मेनी ब्रांच हमारा दिमाग कितने प्रकार से पता नहीं क्या-क्या सोचता और करता रहता है। साध्य क्या है ? व्हाट इज द गोल लक्ष्य क्या है ? उसकी चर्चा यहां हो रही है और निर्णय हो गया साध्य क्या है जैसे कृष्ण साध्य है या राधाकृष्ण साध्य हैं और उनकी भक्ति और माधुर्य भाव में की हुई भक्ति यह साथ्य है, सर्वोपरि है। जय ! देखते हैं और भी यह संवाद पूरा नहीं हुआ है पहले जो भी कहा वह संक्षिप्त में ही कहा, यह सोच कर कि शायद या विचार पूरा हो जाएगा। लेकिन वह संक्षिप्त में कहते-कहते भी अब तक संवाद बचा हुआ है तो संभावना है कि और एक सत्र की जरूरत है।
देखते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।