Hindi

जप चर्चा पंढरपुर धाम 5 अगस्त 2021 896 स्थानों से भक्त जपकर रहे हैं । हरि हरि बोल ! हरि हरि बोल गोर हरि बोल मुकुंद माधव गोविंद बोल हरि हरि बोल गोर हरि बोल जय जय श्री-चैतन्य जया नित्यानंद । जयाद्वैतचद्र जय गौर-भक्त- वृन्द ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 5.2 ) अनुवाद:-श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो ! श्री नित्यानंद प्रभु की जय हो ! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो ! पंचतत्व की जय ! हमको आज पंचतत्व याद आ रहे हैं । हरि हरि !! पञ्च- तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तं-रूप- स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.14 ) अनुवाद:- मैं उन परमेश्वर कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूं, जो अपने भक्तरूप, भक्तस्वरूप, भक्तावतार, शुद्ध, भक्त और भक्तशक्ति रूपी लक्षण से अभिन्न हैं । "पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तं-रूप- स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥" यह पंचतत्व प्रणाम मंत्र है । मंत्रों की बात या श्लोकों की बात चल रही थी उपदेशामृत के यह मंत्र यह श्लोक उसको भी याद करो उसको भी कंठस्थ करो । मंत्र श्लोक तो कई है और उसमें से कुछ प्रणाम मंत्र भी होते हैं जिसको कहते हुए हम प्रणाम करते हैं प्रणाम मंत्र तो पंचतत्व का यह प्रणाम मंत्र है । वैसे हर गोडिय वैष्णव को यह मंत्र पता होना चाहिए । पंचतत्व प्रणाम पत्र तो क्या है प्रणाम मंत्र ? "पञ्च- तत्त्वात्मकं" प्रणाम मंत्र आप नहीं लिखना है शायद आप नहीं लिख पाओगे जिस गति से मैं कहूंगा । चैतन्य चरितामृथम ढूंढिए ! अभी नहीं ढूंढना । नोट करो इसको ढूंढना है और आपके नोटबुक में इसको नोट कर देना ताकि आप उसको देख देख कर फिर याद भी कर सकते हो । कंठस्थ कर सकते हो, ह्रदयगंम कर सकते हो । पञ्च- तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तं-रूप- स्वरूपकम् । "पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तं-रूप- स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥" तो वही है यह पंचतत्व का प्रणाम मंत्र हुआ और फिर हम श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वेत । गदाधर श्रीवासदि गौर भक्त वृंद ॥ यह पंचतत्व महामंत्र हुआ । श्रील प्रभुपाद लिखते हैं वैसे दो महामंत्र है । एक है . . . हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ और एक महामंत्र है । वह कौन सा है ? "श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वेत । गदाधर श्रीवासदि गौर भक्त वृंद ॥" यह भी महामंत्र है तो हरे कृष्ण महामंत्र के जप के प्रारंभ में इस पंचतत्व महा मंत्र को भी हम उच्चारण करते हैं स्मरण करते हैं याद जपकरते हैं या जप करते समय हम पहले यह मंत्र कहते हैं महामंत्र ।पहले यह मंत्र कहते हैं महामंत्र । "श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वेत । गदाधर श्रीवासदि गौर भक्त वृंद ॥" और फिर कहते हैं ! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ तो इतने महत्वपूर्ण है यह पंचतत्व । कितने तत्व हैं ? पांच तत्व । हम तक तो की बात नहीं करने वाले थे ! तत्व या सिद्धांत के बात करते समय आलस भी नहीं करना चाहिए । सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस । इहा हइते कृष्णे लागे शुद्र मानस ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 2.117 ) अनुवाद:- निष्ठा पूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धांतों की व्याख्या को विवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ होता है । इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है । "सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस" सिद्धांत की चर्चा पुनः पुनः करनी चाहिए उत्साह के साथ करनी चाहिए । आलस नहीं होनी चाहिए । तत्व अति महत्वपूर्ण है । जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ( भगवद् गीता 4.9 ) अनुवाद:- हे अर्जुन ! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है । कृष्ण कहे । मेरे जन्म को, मेरे लीलाओं को, मेरे तत्वों को जो जानता है, कैसे जानता है ? "तत्त्वतः" जानता है उसी का उद्धार उसी का कल्याण वही होगा कृष्णभावना भावित और तभी तो संभव होगा "त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति" भगवत धाम लौटेगा । लौटने का यह अधिकारी बनेगा तत्वतः भगवान को जानने से । यह पंचतत्व भी है । "पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं" कृष्ण कैसे हैं ? कृष्ण "पञ्च-तत्त्वात्मकं" बन गए । यह कृष्ण अब बन गए पांच तत्व बन गए । किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय । य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ' गुरु ' हय ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.128 ) अनुवाद:- कोई चाहे ब्राह्मण हो अथवा सन्यासी या शुद्र हो-यदि वह कृष्ण-तत्त्व जानता है, तो गुरु बन सकता है । यह भी कहा है । हरि हरि !! "किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय" कोई सन्यासी हो सकता है, विक्रम हो सकता है, ब्राह्मण हो सकता है, शूद्र भी हो सकता है । शूद्र हो सकता है जन्म से कहो लेकिन जो "य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ' गुरु ' हय" आप "कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता" कोई बात नहीं आप किस वर्ण के वर्ण के आश्रम के थे, या बर्ण में या आश्रम में , जन्मे थे या अपनाए थे उस आश्रम को कृष्ण तत्व को जानते हो ! "सेइ ' गुरु ' हय" आप गुरु हो, आप गुरु बन सकते हो । वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं जिह्वावेगमुदरोपस्थ वेगम् । एतान्वेगान् यो विषहेत धीर: सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात् ॥ ( श्रीउपदेशामृत श्लोक 1 ) अनुवाद: - वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन कि मांगों को,क्रोध कि क्रियाओं को तथा जीभ, उदर एवं जननेन्द्रियों के वेगो को सहन कर सकता है, वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य हैं । सारे पृथ्वी पर आप शिष्य बना सकते हो । "य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ' गुरु ' हय", "किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय" , य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ' गुरु ' हय" । इसको भी आप याद रखना चाहिए । वैसे ऐसा भी कहना आना चाहिए, जैसे मैं कह रहा हूं । कौन गुरु है ? कौन गुरु बन सकता है ? "य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ' गुरु ' हय", उसका उत्तर है । कौन गुरु बन सकता है ? जेइ सेइ । जो है कृष्ण तत्त्व-वेता" वही बन सकता है गुरु । फिर दीक्षा गुरु बनेंगे फिर शिक्षा गुरु बनेंगे वर्तप्रदर्शक गुरु बनेंगे । हरि हरि !! तो यह पंचतत्व या भगवान पांच रूपों में, पांच तत्वों में प्रकट हुए और वह है श्रीकृष्ण चैतन्य एक, नित्यानंद दूसरे, अद्वैत आचार्य तीसरे, गदाधर चौथे, और श्रीवास पांचवे और श्रीवासदि गौर भक्त वृंद भी कहा है । गौर भक्त वृंद श्रीवास ठाकुर गौर भक्त हैं । आदि भी कहा है । आदि मतलब कल बताया आपने नोट किया होगा तो फिर पढ़ सकते हो । आदि का क्या अर्थ होता है ! आदि इत्यादि, तो श्रीवासदि मतलब श्रीवास और उस श्रेणी के और भक्त वैसे ही और भक्त । यह सब पांच मिलके पंचतत्व हुआ और यह पांच मिले एक स्थान पर श्रीवास आंगन में । श्रीवास ठाकुर के बाडी में कहो । श्रीवास ठाकुर जो नारद मुनि रहे । नारद मुनि बने हैं श्रीवास ठाकुर । कृष्ण बने हैं श्रीकृष्ण चैतन्य । बलराम बने हैं नित्यानंद । महाविष्णु या सदाशिव शंकर बने हैं अद्वैत आचार्य । राधा रानी बनी है गदाधर पंडित और नारद मुनि जेसे कहा बने हैं श्रीवास ठाकुर तो यह पांच पंचतत्व है पांच व्यक्तित्व है और यह पांचो एक ही है । एक होते हुए भी यह अलग-अलग लीला के लिए अलग-अलग बनते हैं या रूप धारण करते हैं । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास ठाकुर का आंगन कहो या श्रीवास ठाकुर का भवन कहो इसको उन्होंने अपना कर्मभूमि बनाया । जन्मभूमि तो योगपीठ, योगपीठ आप सुने होंगे देखना चाहिए वैसे । योगपीठ चैतन्य महाप्रभु के जन्म का स्थान, निमाई वहां नीम का वृक्ष भी है आज भी है तो उसके तले, नीचे वहां वह सचिनंदन सच्ची के नंदन या जगन्नाथ मिश्र नंदन बने हैं । जन्मभूमि योगपीठ तो श्रीवास ठाकुर का घर, चैतन्य महाप्रभु ने अपना कर्मभूमि या अपने यह संकीर्तन आंदोलन हेड क्वार्टर (मुख्यालय) कहो बनाए । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और और लीलाएं तो हुई है । बाल लीला विद्या लीलाएं अध्ययन-अध्यापन करते रहे वह भी लीलाएं हैं और फिर उनका कार्य तो ... परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ( भगवद् गीता 4.8 ) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वैसे अवतारी हैं । वह स्वयं भगवान है । किंतु वे युग अवतारी का भी काम करने वाले हैं तो उस युग का जो धर्म है फिर कलियुग का जो धर्म है उसका स्थापना के कार्य भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु करने वाले हैं । श्रो राधार भावे एबे गौर अवतार । हरे कृष्ण नाम गौर कोरिला प्रचार ॥ 4 ॥ ( जय जय जगन्नाथ सचिर नंदन भजन, वासुदेव घोष ) अनुवाद:- वही आए है जो । वह आ गए है ! ओह, व्रज से वह नदिया में आए हैं । श्रीराधा के भाव और तेज को स्वीकार कर वे व्रज से नदिया आए हैं । वह आए हैं ! अब गोविन्द, भगवान गौरांग के रूप में आए हैं । वह हरे कृष्ण महामंत्र बांटने आए हैं ! तो हरे कृष्ण नाम क प्रचार करने वाले हैं हरे कृष्ण नाम धर्म के स्थापना करने वाले हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो उसका कार्य संपन्न हुआ श्रीवास ठाकुर के बाड़ी या आंगन से तो यह प्रारंभ तब हुआ जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गया गए थे । हरि हरि !! अब पिताश्री नहीं रहे तो श्राद्ध का जो अनुष्ठान है उसको संपन्न करने के लिए गया गए । मायापुर से गया गए । आप जानते हो गया कहां है तो वहां विष्णु पाद है वहां गए और वहीं पर मिलन हुआ उनका किन के साथ ? ईश्वर पुरी, तो ईश्वर पुरी ने उनको मंत्र दिया । दीक्षित हुए । भगवान दीक्षित हुए । हरि हरि !! भक्तों रूप क्योंकि, भक्त बने हैं । भगवान बने हैं भक्त । श्री कृष्ण बने हैं श्रीकृष्ण चैतन्य तो यह श्री कृष्ण चैतन्य भगवान के भक्त की भूमिका निभा रहे हैं । दीक्षा ग्रहण कर लिए उन्होंने महामंत्र प्राप्त किया, तो यह कीर्तन करने लगे, तो बस हो गया वह पहले के वह निमाई पंडित नहीं रहे अब । वे पागल हो गए । वे पांडित्य के कारण जो गंभीरी होता है वह नहीं रही, पागल हो गए । नष्ट हो गए । यह नाम कीर्तन करते हुए या फिर नृत्य करते हुए और फिर क्या क्या सब कुछ होने लगा और फिर इसीलिए उन्होंने कहा भी हे गोसाई .. किबा मन्त्र दिला, गोसाञि, किबा तार बल । जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.81 ) अनुवाद:- हे प्रभु, आपने मुझे एक ऐसा मंत्र दिया है ? मैं तो इस महामंत्र का करने मात्र से पागल हो गया हूं ! कैसा मंत्र दिए हो ? जब से आपने मुझे मंत्र दिया और उसका मैंने कीर्तन और जप प्रारंभ किया तो मैं हो गया पागल-पागल । पगला बाबा हो गया मैं ! सब लोग कहे निमाई पागल हो क्या ? पागल हो गया निमाई ! तो यह पागल निमाई अब सारी दुनिया को पागल करने वाला है । खुद बन गया पागल या भगवान बन गए पागल तो यह दुनिया को अब पागल बनाएंगे । तो पांच इंद्रियां है, पांचों ने मिलके मतलब पंचतत्वों ने क्या किया ? वह स्वयं ही इस कृष्ण प्रेम का हरि नाम धन का आस्वादन कर रहे हैं । पाँचे मिलि लुटे प्रेम, करे आस्वादन । य़त य़त पिये, तृष्णा बाढे अनुक्षण ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.21 ) अनुवाद:- कृष्ण के गुण दिव्य प्रेम के आगार माने जाते हैं । जब कृष्ण विद्यमान थे, तब यह प्रेम का आगार निश्चय ही उनके साथ था, किंतु वह पूरी तरह से सीलबन्द था । किंतु जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने पंचतत्व के संगियों के साथ आये, तो उन्होंने दिव्य कृष्ण प्रेम का आस्वादन करने के लिए कृष्ण के दिव्य प्रेमागार की सील तोड़कर उसे लूट लिया । वे ज्यों-ज्यों उसका का आस्वादन करके गये, त्यों-त्यों और अधिकाधिक आस्वादन करने की तृष्णा बढ़ती हो गई । जैसे वह पिते रहै हरि नाम का पान करते रहे यह पांचो मिलकर पंचतत्व जैसे पीछे गए उनकी तृष्णा बढ़ रही है । और पिया तो और । पीने की इच्छा हो रही है, इच्छा अधिक अधिक तीव्र हो रही है । लोलुप्ता बढ़ रही है और पीउं-और पीउं । जो शराबी पिताहि रहता है, तो और पिता है । और पीने कि इच्छा होती है उसको । पुनः पुनः पियाइया हय महामत्त । नाचे, कान्दे, हासे, गाय, य़ैछै मद-मत्त ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.22 ) अनुवाद:- स्वयं श्री पंचतत्व ने पुनः पुनः नाच कर इस तरह भगवत्प्रेम रूपी अमृत को पीना सुगम बनाया । वे नाचते, रोते, हँसते और गाते थे, मानो उन्मत हों और इस तरह उन्होंने भगवत्प्रेम का वितरण किया । तो पुनः पुनः और और पीके क्या पी रहे हैं ? हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ का पान कर रहे हैं कौन ? श्री कृष्ण चैतन्य, नित्यानंद, अद्वैतचार्य, गदाधर, श्रीवास यह हरि नाम संकीर्तन का श्रवणं और फिर पहले कीर्तन और फिर श्रवण कर रहे हैं । श्रवणं, कीर्तन हो रहा है । इसका आस्वादन हो रहा है । इस को लूट रहे हैं लूट सको तो लूट लो और यह तिजोरी में जो है यह हरि नाम धन या अमृत कृष्ण प्रेम तो उसको निकाल रहे हैं बाहर और पी रहे हैं । पीके मत्त हो रहे हैं । नशा में आ रहे हैं । "नाचे, कान्दे, हासे, गाय, य़ैछै मद-मत्त" तो मद मतलब नशा आना । काम क्रोध लोग मद होता है ना मद यह तो भौतिक मद होता है यह षडरिपु है, इसमें से जो मद है मतलब नशा ही है । अपनी संपत्ति की अपनी वैभव की इसकी, पदवी की, उसकी । मद नशा में आ जाता है व्यक्ति ,तो यहां तो यह पंचतत्व यह हरि नाम का आस्वादन कर कर के हो क्या रहा है ? नाचे - नाच रहे हैं , कान्दे- रो रहे हैं/क्रंदन कर रहे हैं । अश्रु धाराएं बह रही हैं । नाम्नाम् अकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिः तत्रार्पिता नियमितः स्मरणेन कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि दुर्दैवं ईदृशम् इहाजनि नानुरागः ॥ ( श्री श्री शिक्षाष्टकम् 2 ) अनुवाद:- हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अतः आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है । तो भगवान ने यह , जो नाम में शक्ति है वह शक्ति का प्रभाव पड रहा है इनके ऊपर । नयनं गलदश्रु - धारया वदनं गद्गद - रुद्धया गिरा । पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम - ग्रहणे भविष्यति ॥ ( श्री श्री शिक्षाष्टकम् 6 ) अनुवाद:- हे प्रभु , कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे ? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा ? ऐसे चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टक में कहे । ऐसा कब होगा ऐसा कब होगा मैं जब भी कीर्तन करूंगा या आपके नाम का उच्चारण करूंगा हे प्रभु ! चैतन्य महाप्रभु एक भक्त भूमिका निभा रहे हैं तो भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं, ऐसा कब होगा ? कबे ह'बे बोलो से-दिन आमार अपराध घुचि', शुद्ध नामे रुचि, कृपा-बले ह'बे ह्रदये संचार ॥ 1 ॥ ( कबे ह'बे बोलो, शरणागति ) अनुवाद:- कब, ओह कब, वह दिन कब मेरा होगा? आप मुझे अपना आशीर्वाद कब देंगे, मेरे सभी अपराधों को मिटा देंगे और पवित्र नाम के जप के लिए मेरे दिल को स्वाद [रुचि] देंगे ? ऐसा दिन कब मेरे आएगा ? कि मैं हरि नाम का उच्चारण करते ही "नयनं गलदश्रु - धारया" अश्रु धाराएं कब बेहने लगेगी ? "वदनं गद्गद - रुद्धया गिरा" गला कब अवरुद्ध होगा ? और शरीर में रोमांच कब होगा ? ऐसा चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में कह रहे हैं । शिक्षाष्टक कि उन्होंने जब रचना की है और वहां पर स्वरूप दामोदर राय रामानंद के साथ जब बता रहे थे यह शिक्षाष्टक तो उस समय वह कह रहे हैं, कब होगा ऐसा ? "नयनं गलदश्रु - धारया" पहले का ही हो चुका था, मायापुर में भी हो रहा था यह सब सारे भक्ति के लक्षण विकार "पुनः पुनः पियाइया हय महामत्त" ठीक है ! पात्रपात्र-विचार नाहि, नाहि स्थानास्थान । य़ेइ य़ाँहा पाय, ताँहा करे प्रेम-दान ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.23 ) अनुवाद:- भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है , इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं । उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी । जहाँ कहीं भी अवसर मिला , पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया । तो दोनों भी हो रहा है । स्वयं भी आस्वादन कर रहे हैं और साथ ही साथ इसको औरों को बांट रहे हैं और यहीं पर बन रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ... नमो महा-वदान्याय कृष्ण- प्रेम- प्रदाय ते । कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर- त्विषे नम: ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 19.53 ) अनुवाद:- हे परम दयालु अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं , जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमस्कार करते हैं । चैतन्य महाप्रभु बड़े धनी बने । धनी तो वे थे ही, उनके पास धन का हरि नाम का उनके पास और वे दानी बने हैं और केबल श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही नहीं है धनी, यह सारे पंचतत्व जो है पांच जो व्यक्तित्व है यह अपना उनका समूह है । वे सभी धनी है और सभी दानी बने हैं । "नमो महा-वदान्याय" रूप गोस्वामी ने कहा चैतन्य महाप्रभु को । आप इतना दयालु हो "महा-वदान्याय" । "महा-वदान्याय" मतलब वीरदान, सूरदान होना इसको "वदान्य" कहते हैं या दया की दृष्टि । तो ''नमो महा-वदान्याय कृष्ण- प्रेम-प्रदाय ते" आप तो एक "महा-वदान्याय" हो आप तो महा दयालु हो । क्यों महा दयालु हो ? "कृष्ण- प्रेम-प्रदाय ते" प्रद मतलब देते हो , कृष्ण प्रेम का बांटते हो । तो यहां यह सारे पंचतत्व मिलके , महादान हो रहा है प्रेम दान हो रहा है तो सर्वत्र इसका वितरण भी अब हो रहा है । जो आता है .. पात्र अपात्र कोई विचार नहीं है सबको बांट रहै हैं । भारतीय है अफ्रीकन है यूरोपियन है ये है वह है , काला है, गोरा है, गरीब है, शक्तिमान है, स्त्री है, पुरुष है अबाल है , वृद्ध है । सबको मुफ्त में बांट रहे हैं यह हरि नाम । लुटिया , खाइया , दिया , भाण्डार उजाड़े । आश्चर्य भाण्डार , प्रेम शत - गुण बाड़े ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.24 ) अनुवाद:- यद्यपि पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम के भण्डार को लूटा और इसकी सामग्री का आस्वादन किया तथा उसे बाँट दिया , फिर भी उसमें कोई कमी नहीं हुई , क्योंकि यह अद्भुत भण्डार इतना भरा - पूरा है कि ज्यों - ज्यों प्रेम का वितरण किया जाता है , त्यों - त्यों इसकी आपूर्ति सैकड़ों गुना बढ़ जाती है । ता लूट रहे हैं । लूट सके तो लूट ! हम कहते हैं लूट सके तो लूट । "राम नाम के हीरे मोती बिखरा हुं में गली गली" तो यह प्रारंभ किया यह लूट, लुटेरे पंचतत्व लूट रहे हैं इस हरिनाम को । हरि नाम धन को और पंचतत्व उसको बांट रहे हैं । इसका वितरण कर रहे हैं । कृष्ण प्रेम का दान कर रहे हैं हरि नाम के रूप में । "आश्चर्य भाण्डार , प्रेम शत - गुण बाड़े" तो जितना वह आश्चर्य भाण्डार , यह भंडार जो है या तिजोरी घर यह खजाना है ये बड़ा अद्भुत है । क्योंकि जितना वह बांट रहे हैं उतना खाली होना चाहिए था ! लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है । जितना वो बांट रहे हैं उतना वह भरता जाता है । खाली होता ही नहीं ! ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ( श्री इशोपनिषद 1 ) अनुवाद:- भगवान पूर्ण हैं और कि वे पूरी तरह परिपूर्ण है , अतएव उनके सारे उद्भव तथा यह व्यवहार जगत , पूर्ण के रूप में परिपूर्ण हैं । पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है , वह भी अपने में पूर्ण होता है । चूंकि वे सम्पूर्ण हैं , अतएव उनसे यद्यपि न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती है , तो भी वे पूर्ण रहते हैं । तो जितना खाली करने का प्रयास हो रहा है, बांट रहे हैं तो घट नहीं रहा बांटने से घट नहीं रहा है वह बढ़ ही रहा है । मानो उतना ही था जितना शुरुआत में था । इतना तो आस्वादन किया, खा लिया, बांट लिया लेकिन अभी तक उतना का उतना ही है । उछलिल प्रेम-वन्या चौदिके वेड़ाय । स्री, वृद्घ, बालक, य़ुवा, सबारे डुबाय ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.25 ) अनुवाद:- भगवत्प्रेम की बाढ़ से सारी दिशाएं आप्लावित होने लगी और इस तरह से युवक, वृद्ध, स्त्रियां तथा बच्चे उस बाढ़ में डूबने लगे । तो चौदि के साथ सभी दिशाओं में इसका वितरण हो रहा है । बाढ़ आ गई यहां लिखा है । प्रेम बन्या । तो बाढ़ आती है तो सब या फिर नदी दूर-दूर तक पहुंच जाता है जहां पर पहले पानी नहीं था वहां तक पहुंच जाता है । यह हरि नाम का जो खजाना है या वहां बाढ़ आ रही है और यह हरि नाम की जो लहरें, तरेंगे, बूंदे पहुंचे सर्वत्र दूर-दूर फेहल रही है । तो हम तक जो यह पहुंच रही है हरी नाम हमारे घर तक पहुंच गया हम तक पहुंच गया ! या 500 साल के उपरांत हम तक पहुंच गया । चाइना में पहुंचा यहां पहुंचा वहां पहुंचा । यह अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्ण भावना संघ हो गई । लगभग हजार मंदिर हो गए और फिर कितने कौन-कौन से प्रोजेक्ट और कितनी सारी पद यात्राएं और संकीर्तन पार्टी यह वही कार्य कर रहे हैं जो कार्य प्रारंभ किए पंचतत्व । पंचतत्व का जो कार्य था हरिनाम का अस्वादन करनाऔर उसका वितरण करना । हरि हरि !! और फिर इसलिए चैतन्य महाप्रभु ने कहा .. यारे देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ' एइ देश ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 7.128 ) अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । घरे घरे गिया कोरो एई भीक्षा बोलो 'कृष्ण', भजो कृष्ण, कोरो कृष्ण-शिक्षा ( चैतन्य भागवत् मध्यखंड 13.9 ) अनुवाद:- घर-घर जाओ और सभी निवासियों से भीख मांगो, कृपया कृष्ण का नाम जपें, कृष्ण की पूजा करें, और दूसरों को कृष्ण के निर्देशों का पालन करना सिखाएं । सुनो सुनो नित्यानंद, सुनो हरिदास सर्वत्र आमर अज्ञा कोरोहो प्रकाश ( चैतन्य भागवत् मध्यखंड 13.8 ) अनुवाद:- सुनो सुनो नित्यानंद ! सुनो, हरिदास ! हर जगह मेरी आज्ञा का प्रचार करो ! तुम यहां जगन्नाथपुरी में क्या कर रहे हो ? जाओ, नित्यानंद प्रभु जाओ बंगाल तो नित्यानंद प्रभु बंगाल गए । नदिया गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन पतियाछे नामहट्ट जीवेर कारण ॥ 1 ॥ ( श्रद्धावान जन हे , श्रद्धावान जन हे ) प्रभुर आज्ञाय भाइ मागि एइ भिक्षा बोलो ' कृष्ण ' , भजो ' कृष्ण ' , कर कृष्ण शिक्षा ॥ 2 ॥ ( नदिया गोद्रुमे भजन ) अनुवाद:- 1. नदिया के गोद्रुम क्षेत्र में नित्यानन्द महाजन ने पतित जीवों के उद्धार के लिए हरिनाम का बाजार खोला है । अनुवाद:- 2. श्रद्धावान लोगों ! श्रद्धावान लोगों ! श्रीगौरांग महाप्रभु की आज्ञा से हे भाइयों , मैं आपसे तीन बातों की भिक्षा माँगता हूँ श्रीकृष्ण के नामों का कीर्तन करों , श्रीकृष्ण की पूजा करो , और अन्यों को इसकी शिक्षा दो । तो नित्यानंद प्रभु ने नाम हाट्ट खोलें । नदिया गोद्रुम में भी और "पतियाछे नामहट्ट जीवेर कारण" जीवो के उद्धार कल्याण के लिए । नित्यानंद प्रभु जो आदि गुरु है बलराम नित्यानंद तो उन्होंने ने प्रचार कार्य आरंभ किया चैतन्य महाप्रभु के आदेश अनुसार और फिर उसी परंपरा में यह प्रचार का कार्य चलता रहा आचार्य उपरांतआचार्य आये उन्होंने हरिनाम का आस्वादन कियापरांतआचार्य आये उन्होंने हरिनाम का आस्वादन किया और साथ ही साथ फिर भक्ति विनोद ठाकुर आए उन्होंने कुछ योजनाएं बनाई, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर उसको सूखे दुखे भूलो ना'को, वन्दे हरि-नाम करो रे बढ़ाए, और फिर 1922 में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर अभयबाबू को कहे तुम बड़े बुद्धिमान लगते हो जाओ पाश्चात्य देश में जाओ अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो । "यारे देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश" तो श्रील प्रभुपाद ऐसे हीं किए। और यह करने के लिए फिर उन्होंने इस हरे कृष्ण आंदोलन का स्थापना की कुछ दिन पहले जो इस्कॉन इनकॉन के नींव निगमन का दिन था और फिर यह करते-करते या करने के लिए श्रील प्रभुपाद 14 बार पूरी पृथ्वी का भ्रमण किए और जहां जहां गए वहां वहां पर श्रील प्रभुपाद ने वही कार्य किए जो कार्य यह पंचतत्व प्रारंभ किए थे और फिर श्रील प्रभुपाद ने हमको उनके शिष्यों को आदे१ा उपदेश दिए इस को बढ़ाना है । किताब वितरण करो किताब वितरण करो । वही उद्देश्य है या प्रसाद वितरण करो उसी का अंश है यह । नगर संकीर्तन प्रारंभ हुए । न्यूयॉर्क में लंदन टोक्यो में मेलबर्न, साउथ अफ्रीका , ऑस्ट्रेलिया यहां वहां सर्वत्र कीर्तन होने लगा । फिर लोग कहे, हरे कृष्ण लोग' ए' हरे कृष्ण लोग । यह हरे कृष्ण लोग है । क्यों हरे कृष्ण लोग कहने लगे ? क्योंकि.., पृथिवीते आछे यत नगरादि - ग्राम । सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम ॥ ( चैतन्य भागवत अन्त्यखण्ड 4.1.26 ) अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा । सर्वत्र उनके नाम का प्रचार होने लगा तो वैसा ही कार्य जो जो पंचतत्वों ने वहां श्रीवास आंगन में जो कार्य किया हरि नाम का आस्वादन हरि नाम का वितरण यह कार्य अब सारे संसार भर में हो रहा है, और इस कार्य को हमको भी करना है । इस को आगे बढ़ाना है । और यही है इस युग का धर्म.. कलि - कालेर धर्म कृष्ण - नाम - सङ्कीर्तन । कृष्ण - शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन ॥ ( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 7.11 ) अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है । कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता । धर्म-स्थापन-हेतु साधुर व्यवहार । पुरी-गोसाञिर य्रे आचरण, सेई धर्म सार ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 17.185 ) अनुवाद:- भक्त के आचरण से धर्म के वास्तविक प्रयोजन की स्थापना होती है । माधवेन्द्र पुरी गोस्वामी का आचरण ऐसे धर्मों का सार है । तो आप सब साधु हो या स्त्री साधु को साध्वी कहते हैं । या तो साधु या साध्वी हो या फिर कोई फर्क नहीं है ! गृहे थाको, वने थाको, वने थाको, सदा 'हरि' बोले' डाको, I सूखे दुखे भूलो ना'को, वन्दे हरि-नाम करो रे ॥ 4 ॥ ( गाए गौर मधुर स्वरे :श्री नामागीतावली ) अनुवाद:- आपका जीवन किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है, और आपने इंद्रियों के भगवान, हृषिकेश की सेवा नहीं की है। इसे लोभक्तिविनोद ठाकुर की सलाह: "बस एक बार, पवित्र नाम के अमृत का आनंद लें!" आप घर के गृहस्थ हो या वनके ब्रह्मचारी हो हम दोनों का व्यवसाय एक ही है । हम दोनों के कर्तव्य एक ही है । "सूखे दुखे भूलो ना'को, वन्दे हरि-नाम करो रे" सुख-दुख में हरी नाम को नहीं भूलना है । हरि नाम का प्रचार प्रसार करना है । हरि ! ठीक है ! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !! ॥ हरे कृष्ण ॥

English

Russian