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*हरे कृष्ण* *जप चर्चा -27 -04 -2022* (धर्मराज प्रभु द्वारा ) *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥* *श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥* *वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च।श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥* *साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं। श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश्च।।* *हे कृष्ण करुणासिन्धु दीनबंधु जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तू:ते।।* *तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्वरि वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये॥* *वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।* *जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥* सर्वप्रथम मैं गुरु महाराज के श्री चरण कमलों में प्रणाम करता हूं और साथ ही साथ उपस्थित समस्त भक्त वृन्दों के चरणों में भी प्रणाम करता हूं और साथ ही साथ सभी से कृपा की याचना करता हूं। आज के इस जपा टॉक में बोलने के लिए हरे कृष्ण, जैसा कि सभी जानते हैं की भक्ति में प्रगति करने के लिए नहीं अपितु भक्ति करने के लिए भी बहुत अधिक श्रद्धा और विश्वास की आवश्यकता होती है अगर व्यक्ति के अंदर श्रद्धा नहीं है तो उसके भक्तिमय जीवन की शुरुआत तो हो ही नहीं सकती और फिर आगे प्रगति होने का सवाल ही पैदा नहीं होता और यह भी हमें पता होना चाहिए और पता भी है जैसे पहले श्रद्धा है और फिर बाद में साधु संग है। अनर्थ निवृत्ति है और फिर यह अंत में प्रेम तक पहुंचते हैं तो ऐसा लग सकता है कि हमें कि श्रद्धा तो केवल शुरुआत में ही उचित है प्रेम में पहुंचने के बाद फिर हमें श्रद्धा की कोई आवश्यकता नहीं है। जबकि श्रद्धा तो हर एक स्टेप पर आवश्यक है लेकिन जो प्रारंभ की श्रद्धा है वह बहुत ही कोमल श्रद्धा है। जैसे श्रद्धा है फिर साधु संग है, भजन क्रिया है, अनर्थ निवृत्ति फिर रुचि, आसक्ति, निष्ठा, भाव, प्रेम यह जो स्तर है बहुत ही गहराई में है इसमें श्रृद्धा है और बहुत ही विशेष रूप से भगवान की ओर ले जाने वाली यह श्रद्धा है। आज हम उसी श्रद्धा और विश्वास से संबंधित बात करेंगे जैसे कि एक श्लोक है जिसका कि हम प्रतिदिन उच्चारण करते हैं प्रसाद लेने से पहले *महाप्रसादे गोविन्दे नमोः ब्रह्मणि वैष्णवे स्वल्पपुण्यवताः राजन विश्वासो नैवजायते।।* अनुवाद - हे राजन! जो अल्प पुण्य वाले लोग हैं वो भगवान के प्रसाद में, भगवान में ब्राह्मण में, परब्रह्म में और भगवान के भक्तों मे विश्वास नहीँ करते हैं।। यह बहुत प्रसिद्ध है और इसमें यह बताया गया है कि महाप्रसाद में, गोविंद में, नाम ब्रह्म में, या ब्राह्मणों में और वैष्णव में उनका विश्वास नहीं होता है जिनका क्या है ? स्वल्पपुण्यवताःराजन, स्वल्प पुण्य जिनके पास पुण्य की कमी है या पुण्य की पूंजी कम है उनका इन चीजों में विश्वास नहीं होता ऐसा बताया गया है और साथ-साथ यह भी बताया है गीता के श्लोकों में, *येषांत्वन्तगतंपापंजनानांपुण्यकर्मणाम् | तेद्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताभजन्तेमांदृढव्रताः ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 7.28 ) अनुवाद: जिन मनुष्यों ने पूर्व जन्मों में तथा इस जन्म में पुण्य कर्म किये हैं और जिनके पाप कर्मों का पूर्ण तया उच्छेदन हो चुका होता है,वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं | भगवान कहते हैं जिनके हृदय की पाप पूर्ण प्रवृत्ति पूर्ण रूप से नष्ट हो चुकी है और जो पुण्य कर्मों में लगे हुए हैं, भौतिक जगत का जो द्वंद है, दोनों द्वंदों से परे होकर दृढ़ता से मेरी, दृढ़ व्रता होकर इस प्रकार से मेरी भक्ति करते हैं। अब यहां जो पुण्य की बात हो रही है, यह कौन सा पुण्य है ? एक पुण्य वह जो प्रसिद्ध पुण्य है, स्वल्प पुण्य, जो हमें स्वर्ग लोक में लेकर जा रहा है। एक बार ऐसा हुआ जब हम लोग बातचीत कर रहे थे उसमें से एक व्यक्ति जो थोड़ा सा लीडर था वह कहने लगा कि हम सभी स्वर्ग में जाना चाहते हैं और स्वर्ग में जाने के लिए सभी लालायित हैं। स्वर्ग में जाने के लिए क्या करना है? कैसे उस पर चर्चा हो रही थी। उसने कहा मान लीजिए जैसे हमें अमेरिका में जाना है तो वहां जाने के लिए वहां की करेंसी होना हमारे पास जरूरी है। हम क्या करते हैं यहां की करेंसी को वहां की करेंसी में कन्वर्ट करते हैं जिससे हम वहां जाकर जो अतिरिक्त कार्य है, वह हम वहां कर सकें, बता रहे थे कि जैसे ही हम वहां की करेंसी को कन्वर्ट करके वहां जाते हैं और वहां की करेंसी को लेते हैं उसी प्रकार यदि हमें जाना है तो पुण्य की आवश्यकता है कहां की करेंसी है पुण्य है? हम उस पुण्य का कैसे क्या करेंगे अगर दान और कर्म करेंगे तो क्या होगा, दान और धर्म जो है वह पुण्य में कन्वर्ट हो जाएगा और फिर उस पुण्य के द्वारा हम स्वर्ग में जा सकते हैं। उसने बताया लेकिन यहां जो पुण्य की बात हो रही है वह स्वर्ग का पुण्य नहीं है क्योंकि स्वर्ग का पुण्य क्या हो जाता है ? *तेतंभुक्त्वास्वर्गलोकंविशालं क्षीणेपुण्येमर्त्यलोकंविशन्ति ।एवंत्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतंकामकामालभन्ते ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 9.21) अनुवाद -इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रिय सुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्य कर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनःलौटआते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रह कर इन्द्रिय सुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है | क्योंकि पुण्य समाप्त होने के बाद हमें यहां वापस आना होता है और हमें फिर दूसरा पुण्य चाहिए। हमें ऐसा पुण्य चाहिए जो हमें गोलोक वृंदावन में ले जाए अभी मैंने यह जो श्लोक कहा *येषांत्वन्तगतंपापंजनानांपुण्यकर्मणाम* प्रभुपाद जी कहते हैं कौन सा पुण्य ? वह कोई स्वर्ग में लेकर जाने वाला पुण्य नहीं, वह कहते हैं भगवान के धाम में भक्ति वाला पुण्य है, इसीलिए यदि वह हम प्राप्त कर रहे हैं जाने के लिए, तो हमें क्या करेंसी, हम देते हैं तो उसके लिए क्या है श्रीप्रह्रादउवाच *श्रवणंकीर्तनंविष्णो: स्मरणंपादसेवनम्।अर्चनंवन्दनंदास्यंसख्यमात्मनिवेदनम्॥* (श्रीमदभागवतम 7.5.23 ) अनुवाद - प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान विष्णु के दिव्य पवित्रनाम, रूप, गुण, सामग्री और लीलाओं के बारे में सुनकर और जप करना, उनका स्मरण करना, भगवान के चरण कमलों की सेवा करना, सोलह प्रकार की सामग्री के साथ भगवान की सम्मान जनक पूजा करना, भगवान उनका सेवक बनकर, भगवान को अपना सबसे अच्छा दोस्त मानते हुए और सब कुछ उन्हें समर्पित करना (दूसरे शब्दों में, शरीर, मन और शब्दों के साथ उनकी सेवा करना) - इन नौ प्रक्रियाओं को शुद्ध भक्ति सेवा के रूप में स्वीकार किया जाता है।जिसने अपना जीवन इन नौ विधियों के माध्यम से कृष्ण की सेवा में समर्पित कर दिया है, उसे सब से अधिक विद्वान व्यक्ति समझा जाना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। यह जो नवधा भक्ति है इसको करने से क्या होता है, हमारे अंदर भक्तों के प्रति श्रद्धा का विकास हो जाता है और क्या होता है उसका एक विशेष पुण्य हमें प्राप्त हो जाता है जैसा कि श्रीमद्भागवत में ही कहा है। *शृण्वतांस्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन: ।हृद्यन्त:स्थोह्यभद्राणिविधुनोतिसुहृत्सताम्॥* * (श्रीमदभागवतम 1.2.17) अनुवाद - श्रीकृष्ण, भगवान के व्यक्तित्व, जो हर किसी के दिल में परमात्मा हैं और सच्चेभक्त के उपकार हैं, भक्त के दिल से भौतिक भोग की इच्छा को साफ करते हैं, जिसने उनके संदेशों को सुनने की इच्छा विकसित की है, जो अंदर हैं जब ठीक से सुना और जप किया जाता है तो वे स्वयंगुणी होते हैं। जो कोई भगवान श्रीकृष्ण के बारे में श्रवण या कीर्तन करता है तो क्या होता है उसको एक पुण्य प्राप्त हो जाता है और उससे क्या होता है कि भगवान सबके हृदय में विराजमान होते हैं। भगवान जब तक इस ह्रदय में विराजमान हैं जैसे भगवान देखते हैं कि मेरे बारे में जो कोई श्रवण आदि कर रहा है, भक्तों के हृदय में पूर्ण रूप से जो अभद्रता विद्यमान होती है उसका नाश हो जाता है। कैसे ? श्रवण कीर्तन करने से, वह समाप्त हो जाता है और हमें विशेष पुण्य प्राप्त हो जाता है और इस पुण्य के द्वारा हमारा जो विश्वास है हमारी श्रद्धा है, इस महाप्रसाद में, गोविंद में, उनके नाम में, ब्राह्मणों में, वैष्णव में, हमारी श्रद्धा बढ़ेगी क्योंकि अभी हम स्वल्पपुण्यवता: नहीं हैं। तो क्या हैं ?हमें अच्छा पुण्य प्राप्त हुआ है। क्या करने से? श्रवण कीर्तन करने से, जैसे उपनिषदों में कहा है कि *यस्यदेवेपराभक्तिःयथादेवतथागुरौ। तस्यमहात्मनःकथिताःएतेअर्थाःप्रकाशन्ते॥* (श्रीमद भगवद्गीता 6.23) अनुवाद - किन्तु जिसके हृदय में 'ईश्वर' के प्रति परम प्रेम तथा परमा भक्ति है तथा जैसी 'ईश्वर' के प्रति है वैसी ही 'गुरु' के प्रति भी है, ऐसे 'महात्मा' पुरुष को जब ये महान विषय बताये जाते हैं, वे स्वतःअपने अन्तर अर्थों को उद्घाटित कर देते हैं, सचमुच, उस 'महात्मा' के लिए वे स्वतःप्रकाशित हो जाते हैं। भगवान में जिनकी पूर्ण रूप से या उचित रूप से श्रद्धा है अविचलित रूप से श्रद्धा है उन्हीं के ह्रदय में, शास्त्र का जो ज्ञान है वह पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। ह्रदय में प्रकाश उत्पन्न होता है और प्रकट होता है ज्ञान क्योंकि केवल सुनते हैं और ऐसा होता है कि श्रद्धा ,यदि हमारी पूर्ण रूप से नहीं है, गुरु के वचनों में और फिर भगवान में, तो क्या होगा ? श्रद्धा के अभाव के कारण हम वह प्राप्त नहीं कर पाएंगे जो शास्त्र का विशेष ज्ञान है। मुझे स्मरण है कि 1994 में जब मैं दिल्ली में था वहां सेंट्रल ऑफिस था एक लक्ष्य है, एक प्रसंग है, गुरु महाराज वृंदावन जा रहे थे और गुरु महाराज की विशेष कृपा से मैं भी पिछली सीट पर बैठा था और जैसे ही वृंदावन में प्रवेश हुआ तो गुरु महाराज ने पूछा कि वृंदावन के बारे में कुछ सुना है ? मैंने कहा सुना है लेकिन आप के मुख से भी कुछ सुनना चाहता हूं। गुरु महाराज ने कहा कि यहां वृंदावन में स्वयं कृष्ण रहते हैं यशोदा और नंद महाराज भी यही रहते हैं। ऐसे कहा, मानो मुझे ऐसा लग रहा था दूसरा कोई कहे या सुने तो लगे कि हां कृष्ण रहते हैं लेकिन मुझे यही इतना अलग महसूस हुआ, ऐसा लगा कि गुरु महाराज की वाणी मेरे ह्रदय के अंदर जाकर पहुंच रही है तो यह बहुत आवश्यक है कि गुरु के वचनों में श्रद्धा बहुत महत्वपूर्ण चीज है। एक बार की बात है की प्रभुपाद 1976 में तेहरान में थे तो उन्होंने कथा बताई थी बताया था शिव और पार्वती के बीच में, दोनों ही ऐसे एक गांव से गुजर रहे थे लेकिन वह अपने साधारण वेष में थे और जब जा रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक भिखारी था गांव में तो पार्वती जी को उस भिखारी पर दया आई , उन्होंने शिवजी से कहा कि प्रभु उसको कुछ तो दीजिए, शिव जी ने कहा इसको दे कर भी कुछ लाभ होने वाला नहीं है लेकिन पार्वती ने जिद की कुछ तो दीजिए तब शिवजी ने क्या किया उनके पास खरबूजा था, उस खरबूजे में बहुत सारा सोना हीरा मोती जवांहरात भर कर उसको दे दिया और वह दोनों चले गए , भिखारी ने सोचा कि मैं उस खरबूजे का क्या करूंगा, इसी प्रकार से हम देखते हैं कि कृष्ण हमको कम दाम में कुछ गुण कुछ कृपा इत्यादि देने को तैयार हैं लेकिन क्या हो रहा है कि हम तैयार नहीं हैं हमारी वह श्रद्धा नहीं है उनमें, इसीलिए हम उसको प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं कृष्ण का जो विशेष ज्ञान है उसको प्राप्त करना श्रद्धा का अभाव और माया का प्रभाव यह चल रहा है। इसीलिए श्रद्धा के कारण क्या होता है कि यदि हमारी श्रद्धा गलत स्थानों में पहुंच जाए तो भी इसका कोई फायदा नहीं है , जैसे चैतन्य महाप्रभु जब वृंदावन में उन्होंने प्रवेश किया था तब का यह प्रसंग है। चैतन्य महाप्रभु अक्रूर घाट पर थे और तब उन्होंने सुना, उनमें आपस में चर्चा हो रही थी कालिया दाह जहां पर है हमने वहां पर कृष्ण को देखा है और फिर बलभद्र भट्टाचार्य जो चैतन्य महाप्रभु की सेवा में थे। वह भी कहते हैं कि प्रभु मैं भी यहाँ कृष्ण का दर्शन करना चाहता हूं, काले रूप में कृष्ण वहां स्वयं ही आए हैं। कालिया नाग पर कृष्ण नृत्य कर रहे हैं लोगों ने कहा, चैतन्य महाप्रभु को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा उन्होंने एक झापड़ मारा और कहा नहीं यह तो मूर्खता है। लोग कह रहे हैं कि कृष्ण ऐसे कैसे प्रकट हो सकते हैं आप जैसा बता रहे हो वैसा नहीं है। यह सही नहीं है यह गलत हो गया, फिर कुछ ने कहा कि कृष्ण तो पास में ही हैं प्रभुपाद ने यहां पर बताया है आप कृष्ण को कहां ढूंढ रहे हो, और कुछ समय के बाद कुछ लोग और आ जाते हैं वृंदावन में और कहते हैं कि आप लोग जो कह रहे हैं कि कृष्ण को देखा यह सही है या गलत है ? वह कहते हैं कि नहीं कृष्ण को नहीं देखा, वहां रात में एक मछुआरा है वह नाव में होता है और उसके पास एक मशाल भी होती है और वह मछली पकड़ने के लिए जाता है और हमको क्या लगता है कि नाव मतलब जो की कालिया है और मछुआरे को देखकर उनको लगता है कि यह कृष्ण है और उनके हाथ में जो मशाल होती है उसको देख कर लगता है कि यह कालिया के फन पर जो हीरे हैं वह चमक रहे हैं। ऐसा लगता है वह गलत है लेकिन वह लोग कह रहे हैं महाप्रभु से कि आप तो सन्यासी हो आप नारायण बन गए हो आप ही नारायण हो तब महाप्रभु कहते हैं कि विष्णु ! विष्णु ! आप क्या कह रहे हो आप ऐसे जीवों को, भगवान कह रहे हो गलत है। यह वास्तव में तो वह स्वयं भगवान ही हैं फिर भी वह कह रहे हैं कि वास्तव में कोई सन्यास लेने से ही भगवान नहीं बन जाता या कोई मछुआरा वहां गया (जल में गया) कृष्ण जैसा लग रहा है किंतु वह कृष्ण नहीं है। मतलब उनकी श्रद्धा जो है, वह श्रद्धा तो है लेकिन वह सही श्रद्धा नहीं है और इस श्रद्धा के द्वारा भगवान का प्रेम प्राप्त होने वाला नहीं है। इसी प्रकार यदि गलत स्थान पर हम श्रद्धा दिखाते हैं तो इससे हमें कुछ भी लाभ प्राप्त होने वाला नहीं है, क्योंकि हमको लगता है अरे इतनी श्रद्धा है हमारी फिर भी क्यों प्रगति नहीं हो रही, कारण यही है क्योंकि 4 कुमार थे उनकी श्रद्धा या विश्वास भगवान का जो निराकार तत्व है उसमें था, वैसे उन्होंने ब्रह्मा जी के मुख से अपने पिता के मुख से भगवान के बारे में सुना था उनके रूप के बारे में भी सुना था लेकिन उसके बावजूद भी भगवान के रूप के प्रति जो आकर्षण है या जो श्रद्धा है वह प्रकट नहीं हो पाई थी निराकार जो थे वही थे और जब वैकुंठ में वहां गए जय विजय के साथ जो बातचीत वगैरह हुई और उन्होंने देखा कि बैकुंठ के द्वार में स्वयं भगवान आए हैं। उनको देखा और दंडवत किया और जैसे ही दंडवत किया एक विशेष चमत्कार हो गया उनके जीवन में क्या हो गया। *तस्यारविन्दनयनस्यपदारविन्द-किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायु: ।अन्तर्गत: स्वविवरेणचकारतेषां सङ्क्षोभमक्षरजुषामपिचित्ततन्वो: ॥* (श्रीमदभागवतम 3.15.43) अनुवाद- जब भगवान के चरणकमलों से तुलसी के पत्तों की सुगंध लेकर उन ऋषियों के नथुनों में प्रवेश किया, उन्होंने शरीर और मन दोनों में परिवर्तन का अनुभव किया, भले ही वे निराकार ब्रह्मज्ञान से जुड़े हुए थे। मतलब कमल जैसे आंखों वाले जब भगवान को देखा और कमल जैसे चरणों की ओर जब वे झुके (चारों कुमार), वहां से जो वायु प्रवाहित हुई चरणों के पास से होकर और जैसे ही उसने उनके नथुनों में प्रवेश किया उस वायु ने वायु सिर्फ केवल कहने वाली वायु नहीं थी उसमें क्या मिश्रण हुआ था ? प्रभुपाद जी बताते हैं कि भगवान के चरणों में जो आरती या तुलसी जो अर्पण करते हैं उसकी सुगंध थी ही, किंतु भगवान के चरणों में भी जो सुगंध थी दोनों का मिश्रण होकर उनके जो नथुनों में प्रवेश किया तो उससे क्या हो गया उससे चमत्कार जैसे हो गया, क्या हो गया ? भगवान के निराकार तत्व में उनका जो ज्यादा श्रद्धा थी वह तुरंत बदल गयी और शरीर में एक विशेष परिवर्तन हो गया उनको भगवान के रूप में जो इतनी विश्वास और श्रद्धा और भगवान के चरणों का सुगंध लेते ही तुलसी जी की , क्या हुआ ?परिवर्तन आ गया और विशेष श्रद्धा उनको प्राप्त हो गयी, उन्होंने सुना था लेकिन क्या था भगवान से वे कहते हैं कि हमने ब्रह्मा जी से सुना था आपके बारे में तब इतना पूरी श्रद्धा और विश्वास नहीं था लेकिन आज क्या हुआ कि आपके चरणों में तुलसी की सुगंध को सूंघने के उपरांत हमें एक विशेष अनुभव हुआ हमें आपके रूप का साक्षात्कार हो गया दर्शन हो गया तो यह श्रद्धा हो गयी। ऐसे श्रद्धा के अलग-अलग नाम है श्रद्धारूप, निष्ठा रूप, लेकिन हम यह जो चर्चा कर रहे हैं यह श्रद्धा अभी मैं बताऊंगा कि भगवान मेरी हर समय रक्षा करेंगे श्रद्धा भी होना बहुत जरूरी है *अवश्य रक्षीबे कृष्ण*, श्री कृष्ण से श्रद्धा यह विश्वास बड़ा जरूरी है। *अनुकुल्यस्यसंकल्प: प्रतिकुल्यविवर्जनम ।रक्षित्यतितिविश्वसोगोपतीत्वेवाराणसींतथा | आत्मानिकेपकारपाण्येशंविधाशरणगति: ||* (चैतन्य चरितामृत मध्य 11.676) अनुवाद - समर्पण के छह विभाग हैं भक्ति सेवा के अनुकूल उन चीजों की स्वीकृति, प्रतिकूल चीजों की अस्वीकृति, यह विश्वास कि कृष्ण सुरक्षा देंगे, भगवान को अपने संरक्षक या स्वामी के रूप में स्वीकार करना, पूर्णआत्म-समर्पण और विनम्रता। . भगवान कब रक्षा करेंगे जैसे प्रल्हाद महाराज इतना विश्वास और श्रद्धा थी भगवान में, उन्होंने इतना श्रवण किया था नारद मुनि के आश्रम में अपनी मां के गर्भ में, वैसे पंढरपुर के पास में ही वह स्थान है लेकिन यहां नरसिंहपुर नाम का एक स्थान है वहां पर अभी भी जहां नारद मुनि का आश्रम हुआ करता था वह आज भी वह आश्रम है और वहां नारद मुनि और प्रल्हाद की माता वहीं पर थे अर्थात कयाधु नारद मुनि के आश्रम में थी और वहीं पर उन्होंने श्रवण किया था इसीलिए उनका इतना प्रभाव था इतनी श्रद्धा उनकी तीव्र हो गई थी भगवान के प्रति कि भगवान मेरी जरूर रक्षा करेंगे। *दैन्य, अत्मानिवेदन, गोप्तृत्वेवरण।‘ अवश्यरक्षिबेकृष्ण-विश्वास,पालन।।* अनुवाद - दैन्य, ठाकुर जी से आत्मनिवेदन करना, प्रभु को अपने पालनकर्ता के रुप में अनुभव करना, श्रीकृष्ण मेरी अवश्य रक्षा करेगें, ऐसा दृढ़ विश्वास रखना। तो कहीं भी हो चाहे वह पहाड़ियों से हो, ऊपर से नीचे फेंका गया या फिर उनको आग में डाला गया और उनको जहर दिया सांपों के बीच में छोड़ दिया और हाथी के पैरों के नीचे कुचला और प्रयास किया , ऐसे हर स्थिति में उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा कि क्या कर रहे हो कि मैं तो एक छोटा बच्चा हूं, बालक हूं आप मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहा उन्हें पूर्ण विश्वास था कि भगवान मेरी रक्षा करेंगे। मारने वालों ने उनसे पूछा तू तो छोटा बालक है तुझे डर नहीं लग रहा है जब हमने तुझे ऊपर से फेंका तुम मरे क्यों नहीं कैसे मरेंगे , तब प्रल्हाद महाराज ने कहा कि भगवान मेरे पिता हैं और लक्ष्मी जी मेरी मां हैं और जब मैं नीचे गिर गया था पृथ्वी माता जो लक्ष्मी माता जैसी ही है उन्होंने मेरी रक्षा की, वहां पर ऐसा वह कह रहे है फिर उनको पूछा कि और जो हमने तुमको विष दिया था तो उसको पीने से तुम क्यों नहीं मरे थे ? यहां तो थोड़े से विष से ही आदमी मर जाता है इतना विष का प्याला तुम्हें पीने को दिया फिर भी तुम नहीं मरे? यह कैसे हुआ तो प्रल्हाद महाराज बहुत शांत स्वभाव में कहते हैं कि जैसे समुद्र मंथन में मेरी माँ लक्ष्मी जी प्रकट हो गयी उसी प्रकार विष भी समुद्र मंथन से ही प्रकट हुआ इसलिए विष है, मेरी मौसी जैसे हैं इसीलिए मेरा रक्षण हो गया वहां पर और फिर सांपों के बीच में जब छोड़ा तब क्यों नहीं मरे तुम? कितने जहरीले सांप थे। प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि वह तो मेरे पिताजी के भाई हैं और इसलिए क्या है कि वह अनंत शेष है और क्या है वह मेरे चाचा हैं तो इसीलिए जब मैं सर्पो के बीच में गया तो मेरे चाचा ने मेरी रक्षा की और फिर वह अलग अलग पूछते हैं। इस प्रकार जब अलग-अलग प्रयास किया और उन्होंने देखा कि वह मर नहीं रहा है मुझे ही कुछ करना होगा हिरण्यकशिपु ने सोचा , उसने कहा कि कहां है तुम्हारा भगवान ? क्या इस महल में है क्या इस खंभे में भी है ? प्रह्लाद महाराज ने कहा था हाँ, हिरण्यकशिपु कहता है कि मेरे महल के खंभे में तेरा भगवान क्या कर रहा है ? प्रल्हाद महाराज ने कहा कि मेरा ही नहीं यह आपका भी है इस प्रकार श्रील प्रभुपाद इंटरव्यू दे रहे थे इंटरव्यू में क्या हुआ मुझे याद नहीं कि वहां एक स्टूडियो था या क्या था या मंदिर था इतना मुझे स्मरण नहीं मैं उस वीडियो को भी देख रहा था वहां बहुत बड़ा बहुत सुंदर कृष्ण का चित्र था पेंटिंग था इंटरव्यू में जो इंटरव्यू ले रहा था उसने श्रील प्रभुपाद से पूछा स्वामी जी यही वो भगवान हैं उंगली दिखा कर कहा थोड़ा अच्छे भाव से नहीं कहा, यही आपके भगवान हैं ? श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यह मेरे ही नहीं आपके भी भगवान हैं केवल अंतर इतना है कि आपकी वह श्रद्धा नहीं है आप भगवान को स्वीकार नहीं कर रहे हो। इससे हम समझ सकते हैं कि भगवान को हम श्रद्धा के अभाव से स्वीकार नहीं करते हैं भक्तों के संग में जब आते हैं तो श्रद्धा हमारी क्या होती है और अधिक बढ़ती है. इसीलिए कहते हैं ना , *कृष्ण-भक्ति-जन्म-मूलहया 'साधु-संग' । कृष्ण-प्रेमजन्मे, तेहोपुन: मुखियाअंग।।* अनुवाद - "भगवान कृष्ण की भक्ति सेवा का मूल कारण उन्नत भक्तों के साथ जुड़ाव है। यहां तक कि जब कृष्ण के लिए निष्क्रिय प्रेम जागता है, तब भी भक्तों के साथ संगति सबसे आवश्यक है। कृष्ण भक्ति का जो जन्म है वह कैसे होता है? साधु संतो के संग में होता है और श्रद्धा बढ़ जाती है उनके संग में , साथ ही साथ क्या होता है कि हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि चलो कृष्ण भक्ति तो बढ़ रही है साधु संग में, अब मुझे कोई आवश्यकता नहीं है साधु संग प्राप्त करने की, नहीं ,कृष्ण भक्ति प्राप्त होने के बाद भी हमें क्या करना है साधु संतों का संग लेना है क्योंकि उनके संग के बिना हमारी गाड़ी आगे नहीं जा सकती। एक बार ऐसा हुआ कि एक छोटा बालक था और उसका एक्सीडेंट हो गया और एक्सीडेंट होने के कारण उसको अस्पताल में भर्ती कराया गया और उसके सर पर कुछ चोट आई थी और बाद में उसके माता-पिता सामने आ गए और फिर डॉक्टर ने कहा उसकी पट्टी वगैरा खोली और उस बालक से कहा कि देखो तुम्हारे मम्मी डैडी आ गए हैं। उस बच्चे ने कहा कि मम्मी डैडी मैं तो जानता नहीं हूं मैं तो इनको पहचानता नहीं हूं उसके मम्मी पापा हैरान रह गए कि यह बच्चा ऐसा क्यों बोल रहा है ,यह तो अभी 1 घंटे पहले की बात है यह तो जानता था और ऐसा क्या हो गया यह पहचान ही नहीं रहा है। डॉक्टर ने कहा कि यह क्या हो गया लगता है इसने अपनी याददाश्त खो दी है, इसीलिए यह सब कुछ भूल गया। इसी प्रकार हमें क्या करना चाहिए तभी कहते हैं इसको अकेले में मत छोड़ो , क्या करो? जिन जिन के साथ में रहा है उनके साथ में रखो इसको , इससे क्या होगा कि उन सबके साथ रहते रहते धीरे-धीरे इसको स्मरण हो जाएगा कि आप उसके मम्मी पापा हो या भाई है, यह सब याद आ जाएगा उसी प्रकार हमने भी अपनी याददाश्त खो दी है। हम भगवान के धाम में थे जैसे हम भौतिक जगत में आ गए तो हम भूल गए कि हम कौन हैं? कहां से आए हैं? अभी हमको याददाश्त नहीं है। हमको कुछ याद नहीं आ रहा इसीलिए हम को कहा जा रहा है कि आप अकेले मत रहो, क्या करो आप भक्तों के संग में रहो। भक्तों के संग में रहने से क्या लाभ होगा कि आपको भगवान के प्रति सब कुछ याद आने लगेगा हां सही बात है यह गोलोक वृंदावन में था, खेल रहा था बातें कर रहा था या फिर में गोपी थी, गोपियों के साथ कृष्ण के साथ रासलीला हो रही थी यह सब हमको स्मरण होगा, जब स्मरण होगा तो हमारे लिए बहुत आसान हो जाएगा भगवान के धाम में जाना, जैसे कल ही गुरु महाराज बता रहे थे तो बहुत अच्छा लगा मुझे जो मंगल आरती है, मंगल आरती हमारे जीवन को मंगलमय बनाती है और गुरु महाराज बता रहे थे हमें इस प्रकार हम देखते हैं सुबह का जो समय है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है भक्तों के लिए मॉर्निंग प्रोग्राम क्योंकि भगवान गोलोक में जल्दी उठ जाते हैं अपने धाम में और यशोदा मैया सजाती हैं और जो उनके सारे ग्वाल बाल मित्र हैं, वे सभी जल्दी जल्दी उठ कर उनके पास जाते हैं और यदि हमें सुबह जल्दी उठने की आदत नहीं है या इस मॉर्निंग प्रोग्राम में हमारी श्रद्धा नहीं है या विश्वास नहीं है हम यहां अगर उठेंगे नहीं तो वहां जाने का सवाल ही नहीं आता हम वहां जाएंगे भी नहीं कभी। इसीलिए हमें यहां उठने का अभ्यास करना चाहिए इसीलिए हमारी श्रद्धा को बढ़ाने के लिए साधु संग है और गुरु महाराज विशेष रूप से हमें यह ज़ूम टेंपल के माध्यम से यह श्रद्धा को विकसित करने के लिए, क्या करते हैं हमें विशेष प्रेरणा दे रहे हैं विशेष कृपा हम पर बरसा रहे हैं। यह संग बहुत आवश्यक है तो यदि हम इस संग से वंचित रहेंगे तो क्या होगा हमें जो भगवान का स्मरण होना चाहिए या भगवान के धाम में जाने का जो स्मरण है वह जरूरी है, जैसे गुरु महाराज कहते हैं जपा सेशन में ही कल एक माता जी का नाम था नित्य लीला माताजी तो गुरु महाराज ने कहा कि नित्य लीला का स्मरण कर रही हो, वह पूछ रहे थे तो इस प्रकार से क्या है यहां अगर पूरा तैयारी में है तभी वहां पहुंच सकते हैं अर्थात गुरु के वचनों में श्रद्धा जैसे उन्होंने कहा कि तुम नित्य लीला का स्मरण करोगी। गुरु महाराज के मुख से वह वचन आया इसका अर्थ है कि वह सही ही होगा निश्चित रूप से गुरुमुख पद्म वाक्य चितेते करिया ऐक्य यह श्रद्धा और यह विश्वास यदि हमारे अंदर नहीं है तब क्या होगा? फिर होगा कि हम वहीं के वहीं रह जाएंगे और जो हमको आगे जाना है, आगे जो बढ़ना है वह इतना संभव नहीं हो पाएगा तो जैसा कि हमने कहा कि श्रद्धा वह चाबी है जो जितना अच्छा हम कमाएंगे क्या हो जाएगा यह सारा जो साधु संग है और यह सब बाद में क्या हो जाएगा धीरे-धीरे हम आगे आगे बढ़ते जाएंगे और प्रभुपाद जी ने कहा है इट्स रियल प्रोसेस ऐसा नहीं है कि एक रात में पूरा चमत्कार हो गया ऐसा नहीं होगा क्योंकि यदि पहले जीवन में उसने अच्छी श्रद्धा विकसित की है, उसको यदि अच्छा संग प्राप्त हुआ जैसा कि हम प्रल्हाद महाराज का उदाहरण देखते हैं तो तुरंत ही होगा ज्यादा समय नहीं लगेगा, लेकिन जो बहुत समय से नहीं कर पाए हैं अभी अभी शुरुआत की है उनको थोड़ा समय लगेगा लेकिन फिर भी यह हमारी भक्ति तीव्रता के अनुसार है प्रभुपाद से किसी ने पूछा की प्रभुपाद भगवान की शुद्ध भक्ति कब तक प्राप्त हो सकती है। प्रभुपाद जी ने कहा बस 2 मिनट में या फिर आपको जन्म भी लग सकते हैं यह हमारे ऊपर है उपदेशमृत के पहले जो भूमिका है उसमें देखते हैं कि भक्तों की जो मनोवृति है उस पर निर्भर है कि हमारी कितनी प्रगति होती है, हमारी मनोवृति अगर भगवान में या फिर जैसे कि हमने शुरुआत की महाप्रसाद में , यह सब जो बताया है इनमें यदि श्रद्धा नहीं है तो फिर आगे बढ़ना बहुत मुश्किल है और सदैव स्वल्पपुण्यवता ही रहेंगे। हम यह पुण्य प्राप्त नहीं होंगे। हमारी गाड़ी वहीं घूमेगी इसीलिए महाप्रसाद में श्रद्धा मतलब क्या है ? महाप्रसाद में श्रद्धा का मतलब यह नहीं है कि दिन भर महाप्रसाद खाओ वह अच्छा भी है लेकिन महाप्रसाद इस भाव से लेना चाहिए जैसे हमने सुना था कि प्रभुपाद की जो शिष्य गोविंद माता जी है वह क्या करती है जैसे ही महाप्रसाद आता है, लगभग 20 मिनट तक वह प्रार्थना करती रहती है महाप्रसाद की वह स्तुति करती हैं, महाप्रसाद को लेने के लिए एक अलग प्रकार की कॉन्शियस डेवेलप करना पड़ती है वह लेते समय इस भाव से लेती हैं कि यह साक्षात क्या है, भगवान का ही रूप है इस भाव से, प्रसाद मतलब प्रभु का साक्षात दर्शन और गोविंद में भगवान में श्रद्धा कब बनेगी श्रवण करने से श्रवण कीर्तन भगवान के नाम में, या नाम ब्रह्म में, श्रद्धा तो शुद्ध भक्तों के मुख से जब नाम श्रवण करते हैं तो क्या होता है। प्रभुपाद घाट पर जब वहां मैं जप करता था तो वहां पर श्रील प्रभुपाद जी का एक कीर्तन लगाया हुआ था। हरे कृष्ण का जो कि बहुत प्रसिद्ध है और बीच में प्रभुपाद जी भी जपा टॉक, वैसे प्रभुपाद जी ने ही जपा टॉक शुरू किया है, पहले से जपा के बीच में जपा टॉक प्रभुपाद जी बोल रहे थे बताते हैं कि यह भगवान का नाम है इतना महान है तो मैं सुन रहा था कि प्रभुपाद जी को , वह शुद्ध भक्तों का जो हमें संग है ,ज्यादा कोई मेहनत नहीं कर रहे हैं प्रभुपाद जी ने सब कुछ रेडी रखा है केवल इतना है कि हमें श्रद्धा से उसको लेना है बस इतना, जितना हम लेते रहेंगे और वही जो श्रद्धा है वह लेते लेते बढ़ते बढ़ते क्या हो जाएगी एक प्रेम के रूप में ,जैसे कोई एक कली होती है कलि मतलब कलयुग नहीं, कली अर्थात फूल वाली कली छोटी सी है लेकिन धीरे-धीरे विकसित होकर वह फूल में परिवर्तित हो जाती है, ठीक उसी प्रकार हमारी जो पहले बहुत कोमल श्रद्धा है जैसे गुलाब का फूल उसको यदि हम ऐसे ही लाएंगे तो क्या होगा उसकी पंखुड़िया नीचे गिर जाएंगी। इसीलिए शुरुआत में श्रद्धा को और अधिक बढ़ाने के लिए हमें श्रवण करना निरंतर गुरु की आज्ञा का पालन करना और इस प्रकार से होते होते हमारी श्रद्धा इतनी मजबूत हो जाएगी कि कोई हमारी श्रद्धा को हिला नहीं पाएगा और वही फिर हमें प्रेम तक लेकर जाएगी भगवान के प्रेम तक और ब्राह्मणों में वैष्णव में श्रद्धा क्योंकि अन्यो में ही श्रद्धा नहीं है तो उनके मुख से सुनने का सवाल ही नहीं आता तो कहा जाता है ना जैसे अमेरिका में कहा जाता है वी हैवे फेथ गॉड कि हमें भगवान में विश्वास होता है अच्छी बात है लेकिन हमारे लिए इतना काफी नहीं है बल्कि हमें साधु-संत का संग करना चाहिए। इस्कॉन, इतना अच्छा घर दिया है प्रभुपाद जी ने जिसमें इतने सारे संत रहते हैं, संग करने का यह बहुत ही अच्छा सुनहरा अवसर है जो हमें प्राप्त हुआ है और ऐसा संग प्राप्त करने से क्या होगा धीरे-धीरे हमारी भगवान के प्रति श्रद्धा बढ़ती रहेगी और 1 दिन हम भी प्रेम को प्राप्त करके भगवान के धाम में जा सकेंगे। हरे कृष्ण !

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