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*जप चर्चा* *15 -12 -2021* *सोलापुर धाम से* हरे कृष्ण ! आज 1000 एक आईडी से और दूसरी आईडी से 30 अर्थात 1030 स्थानों से भक्त इस जप में सम्मिलित हैं, जिसमें सोलापुर के भक्त भी हैं। संभावना है कि सोलापुर में सबसे अधिक भक्तों की संख्या है। गीता जयंती महोत्सव की जय ! ओम नमो भगवते वासुदेवाय ! वासुदेव को नमस्कार ! वासुदेव यदि समक्ष हैं तो हम नमस्कार कर सकते हैं लेकिन मन ही मन में हमें स्मरण करना होगा उनके रूप का स्मरण ताकि वे प्रकट हो जाएं, हमको देखें ताकि हम नमस्कार भी कर सकते हैं और आगे जो भी करना है जो शिकायत है या कोई निवेदन है। कृष्ण ने गीता का उपदेश कल सुनाया, फिर कहना होगा , हे कृष्ण ! करुणा सिंधु भगवान की करुणा का ही फल करुणास्वरूप, यह करुणा नहीं तो क्या है। हे कृष्ण करुणा सिंधु संभवामि युगे युगे, *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.8) अनुवाद -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | जब भगवान इस जगत में आए हम पर कृपा करने के लिए, यदि भगवान कृपालु नहीं होते तो फिर भगवान अपनी लीला बैकुंठ में गोलोक में जारी रखते और हम यहीं के यहीं मरते रह जाते। किंतु भगवान भूलते नहीं, उन्होंने कहा है भगवत गीता में, *मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्र्वतम् | नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 8.15) अनुवाद- मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है | जिस जगत में तुम हो हे जीवो ! हे जीवो ! हे जीव ! वह कैसा है? दुःखालय है और अशास्वत भी हैं। अर्थात तुम दुखी हो भगवान जानते हैं कि नहीं? हम दुखी हैं करके *वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन |भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्र्चन ||* ( श्रीमद्भगवद्गीता 7.26) अनुवाद- हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता | कृष्ण ने भी कहा था और हमने भी कहा था कल भी और दीक्षा समारोह में भी कह रहे थे। मैं जानता हूं मैं बहुत कुछ जानता हूं और मैं सब कुछ जानता हूं आप किस परिस्थिति से गुजर रहे हो उसे मैं जानता हूं आपको छप्पर फाड़ के कुछ मिला या कुछ दिया, समझते हो, उसको भी मैं जानता हूं और आपका दिवाला निकल गया उसको भी मैं जानता हूं हरि हरि! इस लाभ और हानि के बीच में, इस परिस्थिति में तुम पिसे जा रहे हो, इसको भी मैं जानता हूं। ऐसे जानकार कृष्ण, ऐसे कई विचार फिर उससे कई और विचार ऐसे कई विचारों से एक विचार बनता है और दूसरा जो कहा, वह विचार और अन्य विचारों का कारण बनता है। दूसरे विचार से तीसरे, चौथे ऐसे विचार, तो कृष्ण करुणा सिंधु हैं इसको समझा रहे थे, आप स्वीकार करोगे कि नहीं कि कृष्ण करुणा सिंधु हैं। अगर हैं तो फिर आप कृष्ण को समझ गए कृष्ण का आपको साक्षात्कार हुआ। हल्का सा और स्वीकार भी कर लिया आपने पूर्ण श्रद्धा के साथ भी नहीं, किन्तु मान तो लिया। यदि हम इतना भगवान को समझ गए, गीता का उन्होंने उपदेश सुनाया और गीता का उपदेश सुनाना, यह भी भगवान की एक लीला ही है। वैसे रास क्रीड़ा तो लीला है माखन चोरी वह भी एक लीला है। लेकिन फिर भगवान युद्ध खेल रहे हैं युद्ध के मैदान में हैं वह लीला है कि नहीं ? वह भी लीला ही है या भगवान सृष्टि करते हैं। श्रीमद्भागवतम के तृतीय स्कंध में सृष्टि कर्ता कौन हैं वैसे भगवान ही हैं भगवान शुरुआत करते हैं और फिर ब्रह्मा को हैंडोवर करते हैं कि अब आगे का काम आगे का कंस्ट्रक्शन तुम करो। यह सारा मटेरियल है कंस्ट्रक्शन, रेत है सरिया है यह है वह है, भगवान सप्लाई करते हैं और कंस्ट्रक्शन कैसे करना है यह बताते हैं और फिर कहते हैं आगे तुम सृष्टि करो वही करना है। भगवान की सृष्टि उत्पत्ति लालन पालन करना वह भी भगवान की लीला है। सृष्टि उत्पत्ति और फिर क्या होगा, क्या बच गया संहार, यह भगवान की लीला है। फिर वह केवल शंकर भगवान ही नहीं करते, वे संकर्षण भगवान की मदद से करते हैं और फिर संकर्षण भगवान से शंकर, शिव शंकर सदाशिव, संकर्षण भगवान के भक्त हैं। संकर्षण भगवान की आराधना करते हैं। ध्यान करते हैं आपने देखा है ध्यानस्थ शिव जी को? आपने देखा है उनके हाथ में माला भी होती है और ध्यान कर रहे हैं। वह खुद का ध्यान कर रहे हैं क्या? ध्यान किसी और का करना होता है तो शिवजी भी ध्यान करते हैं संकर्षण भगवान का, उनसे कृपा याचना करते हैं ताकि वे शिवजी को समर्थ बना दें संहार की जो लीला है। सृष्टि की उत्पत्ति संहार यह भी एक लीला ही है। कृष्ण की वृंदावन की मधुर लीला, वह लीला है ही किंतु युद्ध लीला, नही हो सकती है ऐसा हम सोचते हैं यह भी लीला ही है। वैसे लीला के अलावा भगवान और कुछ करते ही नहीं, जो भी करते हैं उसको क्या कहना होगा लीला है। *जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.9) अनुवाद - हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। कृष्ण ने कहा, कल भी कहा गीता में, मेरा जन्म लेना भी लीला है हम जब जन्म लेते हैं तो हमारी लीला नहीं होती। श्रीभगवानुवाच *कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये ।खियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ॥* (श्रीमदभागवतम ३. ३१. १) भगवान् ने कहा : परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव ( आत्मा ) को पुरुष के वीर्य के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है *पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् | कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ||* (श्रीमद्भगवद्गीता १३. २२ ) अनुवाद- इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है | यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है | इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं | हमको जन्म लेना ही पड़ता है चॉइस नहीं है “कर्मणा दैवनेत्रेण” हमारे कर्मों के अनुसार हमको जन्म दिया जाता है। लेना ही होता है। *न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा | इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ||* (श्रीमद्भगवद्गीता ४. १४) अनुवाद- मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ | जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह कभी भी कर्मों के पाश में नहीं बँधता | कृष्ण ने कल भी कहा, भगवान जब कर्म करते हैं तब उसको लीला कहते हैं और वह कर्म जिसको लीला कहते हैं। *न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले* वह कर्म क्रिया या लीलाएं हमें लिप्त नहीं करती उसका कोई कर्म हमें भोगना नहीं पड़ता। यह अंतर हुआ हमारे कर्म में और भगवान के कर्म में, हमारे कर्म का फल है, बुरा भी हो सकता है भला भी हो सकता है लेकिन भगवान के कर्म के एक्शन की होती है रिएक्शन, एवरी एक्शन हैज ए रिएक्शन इक्वल अपोजिट रिएक्शन फिजिक्स वाले भी कहते हैं हमने पढ़ा था विज्ञान पढ़ते थे। किन्तु भगवान के संबंध में ऐसा नहीं है। अर्थात यह जो युद्ध है यह भी भगवान की लीला ही है और दिखाया भी, ग्यारहवें अध्याय में भगवान ने भगवत गीता में, कोई कुछ भी नहीं कर रहा है युद्ध प्रारंभ भी नहीं हुआ है। अर्जुन युद्ध खेलने के लिए तैयार भी नहीं है, भगवान ने विराट रूप में दिखाया क्या हो रहा है सारा जो सैन्य है भागे दौड़े आ रहा है। भगवान ने कुछ किया होगा उसी के साथ लोग दौड़ रहे हैं और फिर स्वाहा ! अग्नि संस्कार हो रहे हैं और फिर जलकर खाक हो रहे हैं। अर्जुन तुम युद्ध करने वाले नहीं हो, मैं कर्ता हूं करने वाला मैं हूं। भगवान ने दिखाया विराट रूप में, भगवान की लीला है कि नहीं ? बैठे-बैठे सब सैन्य आ रहा है उनमें और मुख से ज्वाला भी निकल रही है। कैसे, भगवान के विराट रूप के दांत भी हैं बड़े-बड़े डरावने डरावने और नुकीले और उसमें कई सारे फंस रहे हैं। गर्दन कट रही है, यहां एक्सीडेंट हो रहा है किसी का हाथ, पैर कट गया। भगवान ने थोड़ा चला लिया। आगे मुझे कहना यह था कुरुक्षेत्र में युद्ध हो रहा है। आज डे नंबर टू , कल भी हुआ ना अर्जुन ने फिर 45 मिनट के भाषण के उपरांत क्या कहा ? अर्जुन उवाच | *नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||* (श्रीमद्भगवद्गीता १८. ७३) अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया , आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ | “करिष्ये वचनं तव” आप जैसा चाहते हो, मैं समझ गया कि आप चाहते हो , अर्जुन ने पहले सोचा होगा कि मेरे चाहने से ही सभी होता है। क्या ? मैं युद्ध नहीं करूंगा ऐसा मैंने कहा भी और नहीं करूंगा तो युद्ध नहीं होगा, ऐसा अर्जुन ने सोचा होगा लेकिन ऐसा नहीं होगा, वैसा नहीं होता वही होता है जो मंजूरे ख़ुदा होता है। जो मंजूर है वही होगा। हमारे चाहने नहीं चाहने से नहीं , अतः युद्ध भी एक लीला ही है और उस युद्ध में भगवान अपनी लीला अर्जुन के सारथी के रूप में खेल रहे हैं। वे सारथी बने हैं। "पार्थ सारथी" पार्थ के सारथी बने हैं। लेकिन इस संभ्रमित स्थिति में जो मार्गदर्शन की आवश्यकता है वह भगवान ही बताएंगे, भगवान ही चलाएंगे, हां करेंगे भगवान और युद्ध जीतने के लिए जितने भी मदद करेंगे। वैसे सारथी की बहुत बड़ी भूमिका होती है आप कल्पना कर सकते हो की रथ को कैसे हांकना है, किस प्रकार से हांकना है, कैसे उसको मोड़ना है लेफ्ट राइट यू टर्न, ताकि, डरना नहीं अब धनुर्धारी अर्जुन को चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा कुछ नहीं करने वाले हैं 18 दिन, लेकिन शुरुआत में ही जो पहले ही दिन मार्गदर्शन करने की आवश्यकता होती है। *तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||* (श्रीमद्भगवद्गीता १०. १०) अनुवाद- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं | *ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते* भगवान ने बुद्धि दी। इस तरह सारा गीता का उपदेश भगवान ने अर्जुन को बुद्धि ही दी है हरि हरि ! और फिर हम कहते आ रहे हैं वैसे अर्जुन कोई बुद्धू नहीं था भगवान ने उसे गीता के संदेश उपदेश समझने के लिए डिक्लेअर किया या घोषणा की। क्या घोषणा थी ? *स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः | भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता ४. ३) अनुवाद- आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो | भक्तोऽसि मे सखा चेति, ये दो बातें कही भगवान ने, तुम मेरे भक्त हो तुम मेरे सखा हो, अर्जुन को गीता का उपदेश सुनाया जा रहा है ताकि कोई व्यक्ति भक्त बने। (व्यक्ति को जीव को या बद्ध जीव को) भक्त बनाने के लिए। भक्त बनाने के उद्देश्य से बद्ध को मुक्त और मुक्त को भक्त बनाने के उद्देश्य से गीता का उपदेश सुनाया है। *मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||* (श्रीमद्भगवद्गीता १८. ६५) अनुवाद- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो | यह जो मैंने उपदेश बताया अर्जुन को और अभी सुना ही रहा हूं बिल्कुल अंत में जो बात कही है मेरा स्मरण करो, मेरे भक्त बनो, मद्भक्तो मद्याजी, मेरी आराधना करो मां नमस्कुरु मुझे नमस्कार करो, ऐसा करोगे तो क्या होगा कोई फायदा है कुछ, *मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे* कृष्ण कहते हैं फिर मुझे ही तुम प्राप्त होगे यह बात सत्य है एक बात प्रतिजाने मैं प्रतिज्ञा पूर्वक यह कहता हूं। मन्मना भव मद्भक्तो और तुम मुझे प्रिय हो। इस संसार में केवल अर्जुन ही भगवान को प्रिय है क्या? और भी कोई प्रिय है कि नहीं ? सभी प्रिय हो। तुम भी, सभी तो होंगे, लेकिन व्हाट अबाउट मी ? मेरा क्या ? कृष्ण कह रहे हैं प्रियोऽसि एक एक को संबोधित करते हुए, हर जीव को संबोधित करते हुए, भगवान कह रहे हैं प्रियोऽसि त्वम , त्वं -तुम, असी मतलब है। सरल संस्कृत है कठिन नहीं है। गीता का उपदेश सुनाने के पीछे का उद्देश्य है जीव को पुनः भक्त बनाना है और अपने धाम ले आना है। लेकिन इस गीता का उद्देश्य अभी-अभी देना प्रारंभ किया है तभी भगवान ने घोषणा भी की कि भक्तोऽसि अर्जुन तुम तो भक्त हो, वह भी प्रिय, तुम भक्त हो, भक्त होंगे ऐसा नहीं , तुम अभी भक्त हो। अतः यहाँ भगवान ने कैसे सम्भ्रमित किया अर्जुन को और उसको बद्ध और अभक्त बना दिया। माया से मोहित कराया और फिर ऐसे अर्जुन को गीता का उपदेश सुनाया मतलब हम जैसे इस संसार में होते हैं वैसा ही अर्जुन को बना दिया। वैसे ही विचार वाला अर्जुन और अब देखो, ऐसे उसको मैं अभी गीता का उपदेश सुना रहा हूं। तब अर्जुन ने क्या कहा, “अर्जुन उवाच | *नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||* (श्रीमद्भगवद्गीता १८. ७३) अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ । मेरा मोह नष्ट हो गया और भी बहुत कुछ कहा स्थितोऽस्मि और अंत में कहा कॉन्क्लूज़न में कहा, करिष्ये वचनं तव , मैं भक्त हो गया अब मैं आपके आदेश का पालन करूंगा। अब मैं आपका भक्त हूं। मतलब क्या दिखाया भगवत गीता का ऐसा प्रभाव दिखाया, डेमोंसट्रेशन दन एंड नाउ, ऐसे थे अर्जुन और ऐसे के अब कैसे हो गए , यह सब इसी गीता का प्रयोग, किस पर होगा ? हम सब पर तो इसका फाइनल प्रोडक्ट क्या होगा? हम भी भक्त होंगे और हम भी कहेंगे करिष्ये वचनं तव, आपका आदेश (योर विश इज़ माय कमांड) बस आप आदेश करो ओके एक आदेश है। *यारे देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ' एइ देश ॥* (चैतन्य चरितामृत 7.128) अनुवाद:- " हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । " दूसरे अवतार में, जिनको मिलोगे उनको कहोगे कृष्ण उपदेश करो, मतलब हम इस्कॉन में क्या कहते हैं ? भगवत गीता का वितरण करो और क्या करूं ? कलयुग आ गया *हरेर्नामेव केवलम* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। ।* अभी-अभी आपने कहा था ना कि आप की तैयारी हो चुकी है। कैसी तैयारी करे ? "करिष्ये वचनं तव" हमें आपका उपदेश समझ में आ गया। मतलब क्या? अब हम आपके आदेश का पालन करने के लिए तैयार हैं। मतलब भगवत गीता समझ में आ गई और आगे से जो आदेश होंगे तो उसको फॉलो करो और बहुत कुछ मोटा मोटी कीर्तन, जप करना है और गीता का, भागवत का श्रवण चिंतन, वाचन ठीक है। निताई गौर प्रेमानंदे ! हरि हरि बोल !

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