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जप चर्चा दिनांक १९.१२.२०२०

हरे कृष्ण!

आज 830 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

हरे कृष्ण! आज मायापुर के भक्त ग्रंथ वितरण के लिए नवद्वीप जा रहे हैं। हमारे पास प्रात: काल का ऐसा शुभ समाचार आया है। आशा है कि आप सब ने भी योजनाएं बनाई होंगी कि आज कहाँ एवं किस प्रकार से ग्रंथों का और विशेष रुप से भगवतगीता का वितरण करेंगे। गीता जयंती महोत्सव की जय!

भगवान् की प्रसन्नता के लिए भगवतगीता का वितरण करना, इसका मतलब यह समझो कि भगवान का वितरण करना है। गीता के वचन भगवान ही हैं। हरि! हरि!

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्र्चिन्मे प्रियकृत्तमः। भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।। ( श्री मद् भगवतगीता१८.६९)

अनुवाद:- इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा।

गीता का उपदेश अथवा आदेश अर्जुन को सुनाने के उपरांत १८वें अध्याय के अंत में कृष्ण ने कहा कि 'कश्र्चिन्मे प्रियकृत्तमः' अर्थात हे अर्जुन! हम दोनों के मध्य में जो सवांद सम्पन्न हुआ है अथवा जिसका लगभग समापन हो रहा है, इस संवाद को जो अन्यों के पास पहुंचाएंगा, वह मुझे अतिप्रिय होगा।

वैसे १८ वें अध्याय में सर्वधर्मान्परित्यज्य.... कहने के बाद गीता का संदेश/ उपदेश तो पूरा हो गया और अर्जुन ने भी कह दिया हैं कि

अर्जुन उवाच। नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।। ( श्री मद् भगवतगीता १८.७३)

अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।

मेरा मोह नष्ट हो गया है। वैसे नष्टो मोहः कहने से पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने १८ वें अध्याय के श्लोक संख्या ६९ में कहा है कि

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्र्चिन्मे प्रियकृत्तमः। भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।। ( श्रीमद् भगवतगीता१८.६९)

अनुवाद: इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा।

गीता केवल बांटने अर्थात वितरण करने के लिए नहीं है, गीता अध्ययन के लिए भी है।

गीता अध्ययन के लिए भी है और वितरण के लिए भी है। हे गीता के वितरण करने वाले भक्तों! सुनो! जब हम गीता पढ़ते हैं, तब भी भगवान प्रसन्न होते हैं और जब हम भगवतगीता का वितरण करते हैं तब और भी प्रसन्न होते हैं। हमें भगवान को प्रसन्न करना है। हमें भगवतगीता का स्वयं अध्ययन करते हुए और साथ ही साथ उस गीता के ज्ञान का वितरण करना है।

'मेरी पुस्तकों का अध्ययन करो और उनका वितरण करो।( रीड माई बुक्स एंड डिस्ट्रीब्यूट माई बुक्स)' श्रील प्रभुपाद, संस्थापक आचार्य दोनों ही बातें कहते थे।

मेरे ग्रंथों का अध्ययन करो से, यहां यह समझना चाहिए कि मेरे अर्थात भगवान के ग्रंथों का अध्ययन करो। श्रील प्रभुपाद ने भगवान के ग्रंथों का पहले अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया और अपने गुरु के आदेशानुसार उनका तात्पर्य लिखा। अब आप उन ग्रंथों का अध्ययन एवं वितरण कीजिये।

हरि! हरि!

प्रभुपाद कहा करते थे कि क्या आप मुझे प्रसन्न करना चाहते हो,

हां,हां हम चाहते हैं, हमें क्या करना होगा? प्रभुपाद कहते हैं कि मेरे ग्रंथों का वितरण करो, मैं प्रसन्न हो जाऊंगा। श्रील प्रभुपाद प्रसन्न होते भी थे। हरि! हरि!

श्रील प्रभुपाद अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते थे लेकिन साथ साथ कई बार श्रील प्रभुपाद यह भी कहते थे कि "मेरी एक शिकायत हैं।" शिष्य पूछते थे "क्या शिकायत है?" प्रभुपाद कहते थे कि आप मेरे ग्रंथों का अध्ययन थोड़ा कम करते हो। ऐसा नहीं की आप नहीं करते हो। हो सकता है कि कुछ नहीं भी करते होंगे। श्रील प्रभुपाद उनके बारे में कह रहे थे जो अध्ययन करते थे लेकिन उतना नहीं करते थे जितने से श्रील प्रभुपाद प्रसन्न हो जाए।इस प्रकार श्रील प्रभुपाद की शिकायत भी हुआ करती थी कि हम उनके ग्रंथों को पर्याप्त रुप से नहीं पढ़ते। यदि हमें श्रील प्रभुपाद, अपने संस्थापकाचार्य को प्रसन्न करना है तो हमें दोनों ही कार्य करने है।

श्रील प्रभुपाद की जय!

हमें उनके ग्रंथों का अध्ययन एवं उनके ग्रंथों का वितरण करना है। अंत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्र्चिन्मे प्रियकृत्तमः। इस संसार में उसकी उपेक्षा मुझे न तो अन्य कोई सेवक प्रिय है और ना कभी होगा। यहाँ वे कौन से सेवक की बात कर रहे हैं?

य इदं परमं गुह्यं मद्भकतेष्वभिधास्यति। भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।। ( श्री मद् भगवतगीता १७.६८)

अनुवाद:- जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त में वह मेरे पास वापस आएगा ।

जो व्यक्ति भक्तों को यह परम् रहस्य बताता है अर्थात प्रचारक अथवा ग्रंथ वितरक अथवा भगवतगीता का वितरण करने वाले भक्त इस रहस्य को स्वयं बताते हैं ( अर्थात यदि ऐसा अवसर मिलता है) तब माइक पर वे दूसरों को सम्बोधित करते हैं या फिर कृष्ण ' - उपदेश करते हैं।

यारे देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश ।आमार आज्ञाय गुरु हय तार ' एइ देश ॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत ८.१२८)

अनुवाद: हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । "

वे भगवतगीता का उपदेश सुनाते हैं या फिर भगवतगीता ही देते हैं। लो! भगवतगीता ले लो, भगवतगीता पढ़ो। यह कृष्ण का सन्देश है। भगवान ने आपके लिए एक चिट्ठी लिख कर पीछे छोड़ी है। भगवान अपने धाम लौट गए हैं किन्तु उन्होंने जाते जाते एक प्रेम पत्र लिखा है, ए जीवों ! यह पत्र तुम्हारे लिए है। वह पत्र भगवतगीता है। वैसे उनका यह सवांद अर्जुन के साथ हुआ था। लेकिन अर्जुन सभी जीवों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। भगवान जब अर्जुन से बात कर रहे हैं, मानो वे संसार के हर जीव के साथ संवाद कर रहे हैं। हरि! हरि!

जब हम वह सवांद अर्थात पत्र अथवा वह भगवतगीता किसी को देते हैं तब हम उसे कृष्ण को ही दे देते हैं अथवा कृष्ण के विचारों को ही देते हैं अथवा कृष्ण प्रेम को देते हैं। भगवान ने भगवत गीता में कहा है कि, 'हे जीव! तुम मेरे प्रिय हो'

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। ( श्रीमद् भगवतगीता १८.६५)

अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो।

मुझे तुम अति प्रिय हो। कृष्ण आपसे प्यार करते हैं। भगवान जीव से प्रेम करते हैं। जब हम किसी को भगवतगीता देते हैं तब हम उस व्यक्ति का संबंध भगवान के साथ स्थापित करते हैं।जब भगवान ऐसा प्रयास देखते हैं कि कोई जीव, भक्त, साधक किसी जीव को यारे देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश कर रहा है या भगवतगीता लेने के लिए निवदेन कर रहा है अथवा प्रार्थना कर रहा है। जब भगवान उसके प्रयास को देखते हैं कि एक जीव दूसरे जीव के साथ कृष्ण के संबंध की बात कर रहा है अथवा बोधयन्तः परस्परम् कर रहा है। मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥९॥

भगवतगीता के वितरण के समय... भी बोध है।

हरि! हरि!

वह गीता की कुछ महिमा भी सुनाता होगा।

आप कैसे हिन्दू हो, जिसके घर में भगवतगीता नहीं है, वह कैसा हिन्दू, जिस घर में गीता, भागवतम नहीं है, वह घर नहीं अपितु शमशान है। ऐसा भी शास्त्रों में कहा गया है। हर हिन्दू के घर में या हर एक के घर में चाहे वह हिन्दू हो या बिंदु हो, मुसलमान हो या इसाई के घर में अर्थात हर जीव अथवा मनुष्य के घर में, उसके हाथ में, उसके कान, मन, हृदय में भगवत गीता होनी चाहिए। भगवत गीता केवल हिंदुओं के लिए नहीं है। आप जिसके साथ डील करते हो, वे अधिकतर हिंदू होते हैं, आप उन्हें कहिए कि हम भगवान का संदेश अथवा भगवान का पत्र / चिट्ठी का संदेश लाए हैं, कृपया स्वीकार कीजिए, उसको खोल कर पढ़िए। हरि! हरि!

जो ऐसा प्रयास करते हैं, वह भगवान को कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः अर्थात अत्यंत प्रिय है। क्या आप भगवान के प्रिय बनना चाहते हो? यस! परम करुणा! क्या भगवान के प्रिय बनना चाहते हो? क्या आप भगवान के प्रिय होना चाहते हो? कुछ तो चाह रहे हैं। लव कुश मोरिशियस से चाह रहे हैं लेकिन कुछ तो बैठे ही हैं, लेटे तो नहीं हैं। कम से कम बैठे हैं, अच्छा है। लेटे तो नहीं है, बैठे हैं। ठीक है।

आप सभी संकेत कर रहे हो कि आप भगवान के प्रिय बनना चाहते हो। भगवान के प्रिय कैसे बने? भगवान ने भगवत गीता के अंत में ही कहा है और गीता के अंतिम वचन हैं। कुछ क्षणों के उपरांत इस गीता का संवाद समापन होने वाला है। यहां पर कृष्ण कह रहे हैं 'कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः' गीता के ज्ञान का वितरक मुझे अत्यंत प्रिय है।

वैसे गोपियों ने भी कहा था- तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्। श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जना:।। (गोपी गीत)

अनुवाद:- आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत में कष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं। विद्वान मुनियों द्वारा प्रसारित ये कथाएँ मनुष्य के पापों को समूल नष्ट करती हैं और सुनने वालों को सौभाग्य प्रदान करती हैं। ये कथाएँ जगत-भर में विस्तीर्ण हैं और आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत हैं। निश्चय ही जो लोग भगवान्‌ के सन्देश का प्रसार करते हैं, वे सबसे बड़े दाता हैं।

आपका यह कथामृत भगवतगीता है अथवा उपदेशामृत का जो संदेश है। गोपियाँ कहती हैं कि जो आपकी कथा के अमृत का वितरण करते हैं। वे भूरिदा जनाः हैं। वे बड़े दयालू हैं। हरि! हरि!

श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ रथयात्रा के समय खूब नृत्य किया और जब वे थके गए या थकने की लीला का प्रदर्शन कर रहे थे अथवा दिखा रहे थे। तत्पश्चात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बगल के उद्यान में जगन्नाथ बलदेव गार्डन में जाकर लेट गए। सार्वभौम भट्टाचार्य और अन्य भक्तों ने राजा प्रताप रूद्र को कहा- जाओ! यही समय है, मिलो और जाओ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण कमलों की सेवा करो।जब उनकी सेवा करोगे अथवा मसाज अथवा मालिश करोगे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों का ही नहीं अपितु उनके सर्वांग का ही सेवा करना और साथ में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को गोपीगीत सुनाना। राजा प्रताप रुद्र दोनों कार्य कर रहे थे। मसाज भी चल रहा है और साथ तव कथामृतं तप्तजीवनं ... हो रहा है।

श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बड़े ध्यान एवं प्रेम पूर्वक सुन रहे थे और इस बात से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बड़े प्रसन्न थे। उन्हें चरणों की सेवा से अधिक महत्वपूर्ण जो उन्होंने गोपीगीत अथवा गीतामृत सुनाया था। वह लगा था जब कोई गीतामृत भी सुनाता है, उससे भगवान् प्रसन्न होते हैं। वहाँ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।

वैसे एक समय ऐसा था, जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राजा प्रताप रुद्र को नहीं मिलना चाहते थे। मैं तुम्हारा चेहरा भी नहीं देखना चाहता। नही! नहीं! मैं नहीं मिलूंगा। इसके कई सारे कारण हैं।

लेकिन अब जिसको नहीं मिलना चाहते थे, वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु केवल मिले ही नहीं अपितु जब उसी राजा प्रताप रुद्र ने श्री चैतन्य महाप्रभु को गीतामृत अथवा गोपीगीत सुना रहे थे। यह गोपीगीत अमृत है या सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थो वत्सः सुधिभोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।

यह गीतोपनीषद, भगवद्गीता, जो समस्त उपनिषदों का सार है, गाय के तुल्य है और ग्वालबाल के रूप में विख्यात भगवान् कृष्ण इस गाय को दुह रहे हैं । अर्जुन बछड़े के समान है, और सारे विद्वान् तथा शुद्ध भक्त भगवद्गीताके अमृतमय दूध का पान करने वाले हैं ।” (गीता महात्म्य ६)

वहाँ पर गीता को अमृत कहा जा रहा है। यह भी अमृत है यह गोपीगीत भी अमृत है, कथामृत है या नामामृत है, यह सारे अमृत हैं।

राजा प्रताप रूद्र ने यह कथामृत सुनाया और पिलाया, तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इतने प्रसन्न हुए, वैसे वे लेटे हुए थे, वे उठ गए। चैतन्य महाप्रभु ने सुना था राजा प्रताप रूद्र से सुना था क्या सुना था। गोपी गीत जोकि गोपियों ने गाया था, उसी गीत को अब राजा प्रताप रूद्र ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सुनाया अथवा सुना रहे थे। वैसे गोपी गीत का पूरा अध्याय ही है।

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्। श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः।।

गोपी गीत का श्लोक है। गोपियों ने कहा था और राजा प्रताप रूद्र भी कह रहे हैं, जो भी इस गीतामृत का वितरण करते हैं या गोपी गीत अमृत या भागवत अमृत का वितरण करते हैं वह कौन है? वे भूरिदा जनाः हैं। वह बड़े उदार हैं। जब यह बात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने राजा प्रताप रुद्र से सुनी तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहने लगे तुम ही तो भूरिदा हो। तुम भूरिदा हो। तुम मुझ पर इतनी कृपा कर रहे हो। मुझे यह अमृत का पान करा रहे हो। मैं कृतज्ञ हूं। तुमने, मेरे ऊपर बहुत उपकार किया है। मुझे भी कृतज्ञ बन कर बदले में कुछ करना चाहिए। तुमने, मुझे बहुत कुछ दिया, यह गीता अमृत सुनाया व पिलाया लेकिन मैं क्या दे सकता हूं। हरि! हरि!

मैं तो त्रिदंडी भक्त भिक्षुक, सन्यासी व वैरागी ही हूं। मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि एक बात मैं कर सकता हूं, मैं तुमको आलिंगन दे सकता हूं, मेरे पास देने के लिए और कुछ नहीं है। अगर तुम्हें एतराज नहीं हो तो मैं तुम्हें आलिंगन दे सकता हूं। राजा प्रताप रुद्र और क्या चाहते होंगे? जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं को ही दे रहे हैं। वह धनं, जन्म, सुंदरिम, नही दे रहे हैं। उनका मूल्य ही क्या है? जब कृष्ण ही मिल अथवा प्राप्त हो रहे हैं। उन्होंने एक दूसरे को बाहुपाश में धारण किया अथवा गाढ आलिंगन दिया। राजा प्रताप रुद्र को श्री कृष्ण चैतन्य की प्राप्ति कैसे हुई? किसके कारण? उन्होंने यह गोपी गीत सुनाया था जिससे भगवान् कृष्ण प्रसन्न हुए। यहां भगवत गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा ही है जो भी इस गीता के वचनों अथवा गीता को औरों के साथ शेयर करते हैं और यह गीता का भी वचन है, भगवान गीता में ही कह रहे हैं।

हम भी गीता जयंती के उपलक्ष में गीता का वितरण करने के लिए भगवान की ओर से एवं श्रील प्रभुपाद की ओर से प्रेरित कर रहे हैं। ऐसा कार्य ऐसी सेवा करने से भगवान केवल प्रसन्न ही नहीं होने वाले हैं, अपितु भगवान स्वयं को आपको देने वाले हैं। मुझे ही ले लो, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ या मेरी ओर आ जाओ। मेरे धाम में लौट कर आओ। तुम्हें चल कर आने की आवश्यकता नहीं, मैं व्यवस्था करूंगा। मैं तुम्हारें लिए विमान भेजूंगा। वैसे कहते हैं ना हाथी है, ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है। वह तपस्या तो करनी होगी। भगवान अपने विष्णुदूतों को भेजते हैं कि उनको ले कर आओ। उनको ले कर आओ। जो- जो प्रेमपूर्वक भगवतगीता का वितरण कर रहे हैं, उनको नोटिस किया जाता है। भगवान याद रखते हैं एवं उसके अनुसार अंत में भगवान की याद भी आएगी। अन्त में नारायण स्तुति भी होगी और होनी भी चाहिए। भगवान स्मरण दिलवाएंगे। हरि! हरि!

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

भगवागीता के १८वें अध्याय के श्लोक में, मैं जो सुना रहा था, उसको पढ़िएगा।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ( श्रीमद् भगवागीता १८.६६)

अनुवाद: समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत। इस श्लोक के बाद वाले जो भी श्लोक हैं, स्वयं भगवान ने ही भगवतगीता के संवाद के वितरण चर्चा की है। उन्होंने कुछ गाइडलाइन्स भी दी हैं। किसको गीता देनी है और किसको नहीं देनी है। कुछ विधि निषेध संक्षिप्त में बताए हैं। इस बात को जरूर कहा है कि जो इस गीता का वितरण करेंगे, वे भक्त कृष्ण के अतिप्रिय बनेंगे। प्रियकृत्तमः श्री कृष्ण इस शब्द का प्रयोग करते हैं, ठीक है।

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः । ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ (श्रीमद भगवद्गीता १८.७०)

अनुवाद:- और मैं घोषित करता हूँ कि जो हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करता है, वह अपनी बुद्धि से मेरी पूजा करता है।

दोनों ही बातें कही हैं, ऊपर कहा है जो वितरण करते हैं। मुझे प्रिय हैं एवं मेरे प्रिय बनते हैं और जो अध्ययन करते हैं, वे बुद्धि से मेरी पूजा करते हैं, वे बुद्धिमान हो जाते हैं।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। (श्रीमद् भगवद्गीता १०.१०)

अनुवाद:- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं । उनको बुद्धि देता हूं। भगवान उनको बुद्धि दें, उनको गीता का अध्ययन करने के लिए एवं गीता का वितरण करने के लिए प्रेरित करें।

हरे कृष्ण!

English

19 December 2020

Distributing Srila Prabhupada’s Books means Distributing the Lord

Hare Krsna! Devotees from 830 Locations are chanting with us right now. Gaur premanande Hari Haribol.

Today devotees of Mayapur are going to Navadvipa for book distribution. This is good news. Hope all of you have planned the same. For the pleasure of the Lord, we distribute books. Try to understand that distributing Books means distributing the Lord to all.

na ca tasman manusyesu kascin me priya-krttamah bhavita na ca me tasmad anyah priyataro bhuvi

Translation: There is no servant in this world more dear to Me than he, nor will there ever be one more dear.[BG 18.69]

Gita is not only for distribution, we have to also read it. We have to do both. When we read Bhagavad Gita, the Lord becomes happy and when we distribute it, the Lord becomes happier. We have to read and distribute it. Srila Prabhupada, the founder Acarya of ISKCON, said, "Read and distribute my books.” We have to understand that he is saying to read the Lord's book. Srila Prabhupada would say, “If you want to please me then distribute my books.” Prabhupada appreciated the devotees who distributed the books. Prabhupada also complained that devotees are not reading his books. We have to understand the importance of reading and distributing.

ya idam paramam guhyam mad-bhaktesv abhidhasyati bhaktim mayi param krtva mam evaisyaty asamsayah

Translation: For one who explains the supreme secret to the devotees, devotional service is guaranteed, and at the end he will come back to Me.[ BG 18.68]

Sri Krsna left this very important message for all of us. Bhagavad Gita is a letter that He left for all of us. He is saying to Arjuna, but we have to understand that he is communicating with all the living entities of this world. When we give someone a Bhagavad Gita then we are helping them establish a relationship with Krsna.

mam evaisyasi satyam te pratijane priyo 'si me

This pleases Krsna. Krsna loves us. This pleases Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu when He sees that we are putting in efforts to preach Bhagavad Gita to whoever we come across. There should not be any discrimination on any basis. Bhagavad Gita should reach everyone. Mostly we deal with Hindus at the time of book distribution. We must tell them that we have brought a letter for them. This book distribution is an effort that we are making to please Krsna. We all desire to please Krsna. How do we do it? Krsna says this in Bhagavad Gita.

kascin me priya-krttamah

The one who spreads this knowledge is His dearest devotee.

tava kathamrtam tapta-jivanam kavibhir iditam kalmasapaham sravana-mańgalam srimad atatam bhuvi grnanti ye bhuri-da janah

Translation: The nectar of Your words and the descriptions of Your activities are the life and soul of those suffering in this material world. These narrations, transmitted by learned sages, eradicate one's sinful reactions and bestow good fortune upon whoever hears them. These narrations are broadcast all over the world and are filled with spiritual power. Certainly those who spread the message of Godhead are most munificent.[ Gopi Geet Verse 9]

Even the Gopis say that those who spread the nectarean Katha of Sri Krsna are the most fortunate people.

Once Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu was lying down in the Jagannatha Vallabh Garden after the Ratha-yatra. Sarvabhauma Bhattacharya and others asked King Prataparudra to approach Mahaprabhu and serve His lotus feet. They asked the king to sing Gopi Geet as while doing so he would please Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu very much. Mahaprabhu was extremely pleased mainly because of the singing of Geet of Gopis. Once Mahaprabhu had said that he would not even see the face of the king. And now this song pleased Mahaprabhu so much that he showered his mercy. He was lying down but being so much pleased He got up. The Gopis said that whoever distributes the knowledge of Bhagavad Gita or Srimad Bhagavatam are extremely magnanimous. Mahaprabhu said to King Prataparudra that he is magnanimous that he sang this song for Him. "I am indebted to you. I must also give you something in return. But what can I give? I am a Sannayasi living on alms. All I can give is Myself, through a hug.”

What else would the King need? Mahaprabhu gave him a special Hug. King Prataparudra got this great opportunity because he sang this Gopi Geet.

kascin me priya-krttamah

In Bhagavad Gita Krsna says that whoever spreads this knowledge of Bhagavad Gita is extremely dear to Him. When we engage in this activity it pleases Krsna and Caitanya Mahaprabhu. What do we get in return? Krsna gives Himself in return. Krsna takes us back home, back to godhead. The study of the Bhagavad Gita is also equally important. Krsna will help us think only of Him at the time of death. That is also important for us to get free from this material world.

Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Ram Hare Rama Rama Rama Hare Hare

na ca tasmān manuṣyeṣu kaścin me priya-kṛttamaḥ bhavitā na ca me tasmād anyaḥ priya-taro bhuvi

In this verse, Krsna has given a brief talk on the instructions for book distribution. How important it is and who is eligible and who is not. How dear that devotee is to Krsna who distributes Bhagavad Gita.

adhyeṣyate ca ya imaṁ dharmyaṁ saṁvādam āvayoḥ jñāna-yajñena tenāham iṣṭaḥ syām iti me matiḥ

Translation: And I declare that he who studies this sacred conversation worships Me by his intelligence.[ BG 18.70]

One who studies and distributes, worships the Lord also becomes dear to Him. Krsna provides the right intelligence.

Russian