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हरे कृष्ण, पंढरपुर धाम, 30 मई 2021 हमारे साथ 785 स्थानों से भक्त जप कर रहें है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। इसे स्कोर कहो या इतने स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हम राधा गोपीनाथ जी की प्रसन्नता के लिए हम सब जप कर रहे हैं। कई सारे नाथ हैं, जगन्नाथ भी हैं। हमारे आचार्य भी हैं, श्रील प्रभुपाद की जय। उन सबकी प्रसन्नता के लिए भी यह स्कोर से घोषणा करते हैं। इतने स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। एक प्रकार से भगवान के चरणों में से यह आहुति है। जब स्कोर की घोषणा होती है, तो यह एक आहुति कह सकते हो। स्वाहा स्वाहा, वह भी आहुति ही होता है आहुति चढ़ती है। निश्चित ही यह भी हम भी जो करते हैं ,वह भी जप यज्ञ ही होता है, आहुति होती है। ऐसा कौन सा यज्ञ है जिसमे आहुति ना चढ़े? तो इस स्कोर के रूप में घोषणा होती है। कितने स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। कितने स्थानों में भक्त उपस्थित हैं। भगवान की प्रसन्नता के लिए हम घोषणा करते हैं। फिर भगवान नोट करते है, हां हां यह भी जप तक रहे हैं, यह भी जप कर रहे हैं, यह भी जप कर रही है, यह भी जप कर रहे हैं। पूरा परिवार जप कर रहा है या फिर कुछ बालिकाएं जप कर रहे हैं। बालिका *का* मतलब छोटा। राधा जब छोटी होती, तब उनको राधिका कहते हैं। गोपिका, बालिका, *का* से लघुत्व(छोटा) का उल्लेख होता है। *का* मतलब छोटा। वैसे तो राधा कभी छोटी हो नहीं सकती। उम्र की दृष्टि से लीला में छोटी मोटी हो जाती है। बालिकाएं जप कर रही हैं। बालक जप कर रहे हैं। आबाल वृद्ध जप कर रहे हैं। पुन: एक दूसरा शब्द आ गया। आबाल वृद्ध *आ* मतलब पर्यंत। *आब्रह्मभुवनाल्ल‍ोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।* *मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६ ॥* (श्रीमद्भगवद्गीता 8.16) तात्पर्य इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक कहना है। आबाल वृद्ध मतलब बालको से लेकर वृद्धों तक, तो इस सब जप कर रहे हैं। कई सारे नगरों में, ग्रामों में, देशों में, नर भी और नारियां भी जप कर रही हैं। ऐसी घोषणा होती है भगवान, गुरु या गौरंग की प्रसन्नता के लिए कहो। जय गौरंग। गुरुजनों के, आचार्य वृंदो के, गौरंग के और राधा कृष्ण के, जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की जय या विठ्ठल रुकमणी की जय, सीता राम लक्ष्मण हनुमान की प्रसन्नता के लिए यह सब घोषणा हो रही है। यह कहते कहते ही समय बीत गया। जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्त वृंद। शिक्षाष्टक, वह भी आठवां अंतिम शिक्षाष्टक वेदांत जैसा है। वेदांत मतलब वेद का अंत, वेद का सार वैसे ही है यह आठवां शिक्षाष्टक है। जो 7 शिक्षाष्टक हैं, 8 से पहले, उन सभी का सार, अर्थ और भावार्थ इस अष्टक में है। वह आठवां अष्टक का दिन है उसका रसास्वादन कर रहे हैं। फिर आज के दिन, यह भी संयोग की बात है और आज ही राय रामानंद तीरोभाव तिथि महोत्सव है। धीरे धीरे इनसे आपको परिचित होना होगा। हम दो हमारे दो हमारा परिवार खत्म। लेकिन इतने छोटे आप नहीं हो। ऐसी संकीर्ण वृत्ति होनी ही नहीं चाहिए। नहीं तो फिर हम नराधम रहेंगे। हम को नरोत्तम बनना है। तो हमारी दृष्टि कुछ विशाल, दूर दृष्टि और उच्च विचार भी होनी चाहिए। फिर हम को जानना होगा कि राय रामानंद हमारे परिवार के सदस्य हैं। हमारा जो परिवार के परंपरा के आचार्यवृंद, हमारे पूर्वज हैं। पूर्वज होते हैं और फिर वंशज होते हैं। तो आज राय रामानंद का तिरोभाव दिवस है। जो जगन्नाथपुरी में ही हुआ। जो हम शिक्षाष्टक का रसास्वादन कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रसास्वादन करा रहे हैं। किनको करा रहे हैं? जिनका आज तिरोभाव उत्सव है उन्हीं को रसास्वादन करा रहे हैं। रामानंद को रस रसामृत या भक्ति रसामृत पिला रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राय रामानंद को सुनो सुनो, स्वरूप दामोदर सुनो ऐसा कहीं बार कहे हैं। राय रामानंद का तिरोभाव तिथि महोत्सव है। यह जो शिक्षाष्टक भाव, गुण, अर्थ है या जो गोपनीयता या विचारों की सर्वोच्चता छिपी हुई है या भरी हुई है। ऐसे ही विषय की चर्चा, चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद के मध्य संवाद हुआ। फिर राय रामानंद के चरित्र की चर्चा होती है। जो अभी चर्चा करने का समय नहीं है। जब चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत में थे। गोदावरी के तट पर कोहड़ नामक स्थान, विद्यानगर भी वहां से दूर नहीं है। वहां यह दोनो मिलते हैं। इन दोनों के मध्य में राय रामानंद और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मध्य का संवाद है। यह एक प्रसिद्ध संवाद है, कई संवाद चैतन्य चरितामृत में है। लेकिन यह संवाद विशेष है, अद्वितीय है। उसका विषय यही माधुर्य लीला है। जब चर्चा और संवाद हो रहा था। इस संवाद में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने, रामानंद को ही वक्ता बनाया है। राय रामानंद के मुख से महाप्रभु बोल रहे हैं या शिक्षाष्टक के रसास्वादन में चैतन्य महाप्रभु खुद ही बोल रहे हैं और गंभीरा में, जगन्नाथ पुरी में राय रामानंद को सुना रहे हैं। किंतु गोदावरी नदी के तट पर जब चैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद का मिलन हुआ। तब चैतन्य महाप्रभु ने राय रामानंद को वक्ता बनाया और महाप्रभु स्वयं श्रोता बने हैं। जब चर्चा हो रही है। तो चर्चा कई दिनों तक चलती रही, पूरी रात चर्चा में बीत जाती थी। तो एक रात्रि को जब यह चर्चा हो रही थी। रस विचार की चर्चा हो रही थी। यह बहुत बड़ा विचार है, रस शास्त्र है। भक्ति के 5 अलग-अलग रस है। इसकी चर्चा हो रही थी। यह बाहरी है और कई बातें राय रामानंद, राधा कृष्ण मंदिर में जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सुनाया था उन्होंने कहा यह ठीक है, यह ठीक है। चैतन्य महाप्रभु उनको प्रेरित कर रहे थे। तुम आगे कहो और कहो। यह उत्तम है और फिर यह सर्वोत्तम है। माधुर्य लीला, श्रृंगार रस की चर्चा प्रारंभ हुई। तो यह सर्वोत्तम है। तो वहीं शिक्षाष्टक का रसास्वादन और उसमें भी जो 8वा शिक्षाष्टक है। यह सर्वोत्तम विचार है, बात है, विषय वस्तु है। फिर चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद को प्रेरित कर रहे थे और कहो और कहो और कहो। ऐसा समय आया कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राय रामानंद का मुख बंद करने लगे। नहीं नहीं, बस इतना काफी है। अति गोपनीय और बहुत विस्तृत जानकारी के साथ, महाभाव राधारानी ठाकुरानी के संबंध में राय रामानंद बोलने लगे। उनको क्या समस्या है? राय रामानंद तो सभी बातें जानते हैं। उनसे कुछ छुपा नहीं हैं। क्योंकि वह ललिता विशाखा है। स्वयं सखी विशाखा ही है। तो वह सब समय साक्षी रहती है। राधा कृष्ण के लीला की साक्षी और केवल साक्षी ही नहीं, सहायक भी बनती है। राधा कृष्ण की लीला संपन्न होने में पूरा योगदान देती है। राय रामानंद जब बोलते गए तब उन बातों को प्रेम विवृत चर्चा, प्रेम विवृत यह शास्त्र ग्रंथ भी है। महाप्रभु को राय रामानंद को रोकना पड़ा। तो वह राय रामानंद है। *आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा।* *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः॥८॥* अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें - वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं। 8वा अष्टक महाप्रभु ने कहा, नहीं-नहीं महाप्रभु ने नहीं कहा। यह तो महाप्रभु में जो राधा रानी है। श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण न अन्य। *राधा कृष्ण-प्रणाया-विकितिर हलादिनी शाक्तिर अस्माद एकात्मनाव आपि भुवी पुरा देहा-भेद: गतौ ताऊ चैतन्यख्यां प्रकाशं अधुना तद्द्वायं कैक्यं आपत: राधा-भव-द्युति-सुवलित: नौमी कृष्ण-स्वरूपम।* (मध्य लीला 1.5) इन दोनों में से यह जो अष्टक है, इसे राधा रानी ने कहा है। आपको कहा था कि आठवें अष्टक में प्रेम का प्रदर्शन है। साधना, भक्ति और दो श्लोक छठे और सातवें श्लोक हैं। आठवां श्लोक है, शिक्षाष्टक है, भक्ति का प्रदर्शन है। तो प्रेमिका राधा ही है और अपने प्रेम का दर्शन कर रही है। अपना प्रेम जो कृष्ण से है उसको व्यक्त कर रही है। हरी हरी। इसी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जो गोपनीय कारण भगवान के प्राकट्य का भी जो गोपनीय कारण है। राधा को समझना है, राधा भाव को ही तो समझना है इसीलिए तो प्रकट हुए हैं। *राधा भाव द्युति सुवलितम नौमी कृष्ण स्वरूपम* उनका उद्देश्य यहां सफल हो रहा है। जब ये शिक्षाष्टक कहा जो की राधा रानी ने स्वयं ही कहा है या महाप्रभु ने कहा है। अंत: कृष्ण बहिर गौरांग। कृष्ण अंदर छिपे हुए है, राधारानी बाहर से दिखती है। *राधारानी उवाच:* राधारानी ने कहा। राधा के सारे भाव या भक्ति भाव उदित हो रहे है। इस प्रेम अवतार में जिसका आस्वादन करने के लिए ही महाप्रभु तथा श्रीकृष्ण प्रकट हुए है। वे प्रेम पुरुष भी है। हरि हरि। मर्यादा पुरुष श्रीराम। पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेम पुरुषोत्तम। यहां जो 8वे शिक्षाष्टक का उच्चारण हुआ है जो राधा रानी ने ही किया है। कृष्ण स्वयं राधा रानी बनकर ही उस भाव का आस्वादन कर रहे है। राधा रानी को जान रहे है। यह उद्देश्य सफल हो रहा है। तो राधा रानी ने क्या कहा है इस अष्टक में? *आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा*। *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः* ॥८॥ अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें । वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥ आपकी मर्जी है आप स्वतंत्र हो प्रभु। *आश्लिष्य* आप या तो आलिंगन दे सकते हो या फिर आपकी मर्जी है। *पादरतां पिनष्टु* मैंने तो आपके चरणों का आश्रय लिया हुआ है। आप मुझे अपने चरणों से ठुकरा सकते हो या मुझे चूर्ण बना सकते हो। हरि हरि। *पदार्शनाथ* दर्शन न देकर आप मुझे मर्माहत कर सकते हो । मेरी संवेदनाओं को आप वेदना पहुंचा सकते हो। मेरी जो भावना है, मर्म है *मर्महताम* । तो आश्लिष्य या मैंने पहले भी कहा था संसार में प्रचार होता है ऐसे शब्दों का उपयोग होता है। ठुकरा दो या प्यार करो। मुझे प्रेम कर सकते हो या आलिंगन दे सकते हो या गले लगा सकते हो या मुझे ठुकरा सकते हो। *पादरतां पिनष्टु माम* । *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो* । मै जानती हूं आप तो लंपट हो और आपके अपनी मर्जी अनुसार आप जो भी करे। कभी संकल्प, कभी विकल्प। तो लंपट जो आप हो । लंपट ऐसे ही करते रहते है। ऐसे वार करते रहते है। *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो* लेकिन यह आध्यात्मिक लंपटता है। हमारे कृष्ण कन्हैया, छोटे कृष्ण रसिक शेखर कहलाते है। रास रसिक कृपामय। रास रसिक जो आप हो या रसिक शेखर हो। चूड़ा मणि हो रसिक शेखरो के इसलिए आप लंपट बन जाते हो या कहलाते हो। लंपट जैसा आपका व्यवहार होता है। लेकिन आपके प्रति मेरा जो विचार, भाव या जो संबंध है। मेरे तो आप सदैव प्राणनाथ हो और मेरा अन्य कोई प्राणनाथ नहीं है। आप ही मेरे प्राणनाथ हो । *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः* । हे नाथ, हे रमण, हे पृष्ट, *क्वासी क्वासी* ऐसा भी राधा रानी का वचन मिलता है रास पंचाध्य के अध्यायों में। राधा रानी मालिनी बनी थी। मान करके बैठी थी। *न चलितम शकलोनी* । मैं तो अभी चल भी नहीं सकती। *माम नय* । मुझे कंधे पर उठाकर जहां चाहे आप लेकर जा सकते हो। ऐसा मान कहो या हट करके राधारानी बैठी थी। कृष्ण ने उस समय क्या किया? हरि हरि। कृष्ण अंतर्ध्यान हुए या कहे ठीक है बैठो ऐसा संकेत दिए और जैसे ही कंधे पर राधा रानी बैठने वाली थी, कृष्ण अंतर्ध्यान हुए। हरि हरि। बेचारी राधा रानी आपकी दासी है। *मे दर्शया स्निध्यम।* इस बेचारी राधा रानी को पुनः दर्शन दो। राधा रानी प्रार्थना कर रही है कि प्रकट हो जाओ। तो यही *आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा*। *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः* ।। यह जो भाव विचार है, सर्वोच्च विचार है, यह राधा रानी का विचार है। हरि हरि। फिर इसके आगे कोई बात नही है। इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राय रामानंद और स्वरूप दामोदर के साथ जो ललिता और विशाखा ही है। उनके साथ यह चर्चा करते करते अपनी रचनाएं शिक्षाष्टक सीखो और बाकी भागवत भी है, जगन्नाथ नाटक भी है राय रामानंद नाटक लिखे है। राय रामानंद नाटक लिखे जगन्नाथ की प्रसंता के लिए। जगन्नाथ की देव दासिया, जो बालिकाए हुआ करती थी। जगन्नाथ को रिझाने के लिए, जगन्नाथ के शयन के पूर्व उन्हें गीत गोविंद गा कर सुनाया जाता था और आज भी सुनाया जाता है। हम कई बार जब जगन्नाथ मंदिर गए, सायं काल में गए। तो मंदिर में एक जगह गीत गोविंद सुनाते है, बड़ा मधुर गान होता है। गीत गोविंद के गान के साथ ,देव दासिया नृत्य किया करती थी। राय रामानंद की सेवा थी। वे निर्देशक थे उस नाटक के या कहे पूरे कार्यक्रम के निर्देशक थे, जो हर सायं काल होता था। जो युवतियां उसमे भाग लेती। राय रामानंद उनका सारा श्रृंगार भी करते थे और उनको सिखाते भी थे की वस्त्र कैसे पहनने है । यह सब राय रामानंद की सेवा हुआ करती थी। तो ये सेवा वैसी ही है, जैसे राय रामानंद कृष्ण के नित्य लीला में जैसे विशाखा है। राधा कृष्ण की सेवा के लिए विशाखा, और गोपियों को तैयार करती है। ठीक ऐसे ही यहां जगन्नाथ की सेवा , प्रसन्नता के लिए विशाखा बनी है राय रामानंद, वही भूमिका यहां निभा रही है। आज राय रामानंद का तिरोभाव दिवस है। वे पुरुष रूप में जरूर है । हमारे षड गोस्वामी वृंदावन के यह सब गोपियां है, मंजरिया है। *अन्यथा रूपम स्वरूपेण व्यवस्तीथी* । उनका जो स्वरूप है , गोपियां का, सखियों का, मंजीरियो का ऐसे ही राय रामानंद विशाखा है और ऐसी भूमिका चैतन्य महाप्रभु के प्रकट लीला में वे निभाते रहे। यह जो माधुर्य लीला का विषय है, कठिन है समझना । प्रेम के व्यापार को प्रेमी भक्त ही समझ पाते है जो प्रेमी है। जो शुद्ध भक्ति कर रहे है प्रगति कर रहे है, आगे बढ़ रहे है। हरि हरि। *त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन* । *निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्* ॥४५॥ (भगवद गीता 2.45) अनुवाद: वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है | हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो | समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो | तीन गुणों से जो परे है, उनके लिए माधुर्य लीला का यह विषय है। हरि हरि। साथ ही साथ हम माधुर्य लीला का औषधि के रूप में हम उसका आस्वादन, श्रवण, कीर्तन कर सकते है ताकि हम शुद्ध हो जाए, मन भी पवित्र हो जाए। ऐसा सामर्थ्य भी है इस रसास्वादन में। लेकिन जो इस का आस्वादन् करते है परंतु साधना भक्ति नही करते और हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन नही करते। कीर्तन कर के, चेतो दर्पण मार्जनम नही करते, ऐसे जनों के लिए, ऐसे अधमो के लिए, ऐसे कामी, क्रोधी, लोभी जनों के लिए यह विषय नहीं है। यह उनके पल्ले नहीं पड़ेगा, उन्हें समझ नहीं आएगा। तो बड़े सावधानी से इस विषय को सुनना है और समझना है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। शिक्षाष्टकम की जय। राय रामानंद की जय। जगत गुरु श्रीला प्रभुपाद की जय। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।

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