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जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 13 दिसंबर 2021 हरे कृष्ण..! हरि बोल..! गीता जयंती महोत्सव कि जय..! आज 1024 स्थानों से भक्त जप चर्चा में भाग ले रहे हैं। ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय..! गीता का जन्म तो कल होगा,आप सब सर्वत्र कुरुक्षेत्र का समाचार,कुरुक्षेत्र से समाचार, ब्रेकिंग द न्यूज़ सुन रहे हैं, पंढरपुर में भी सुन रहे हैं ,प्रभुपाद कह रहे हैं कि यही तो युद्ध हुआ था। 1970 कि बात हैं, जब प्रभुपाद रेल से अपने विदेशी शिष्यों के साथ अमृतसर से दिल्ली जा रहे थे और जब ट्रेन कुरुक्षेत्र के स्टेशन पर रुकी तब प्रभुपाद में उंगली करके दिखाया था कि वहां पर “धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 1.1) अनुवाद: -धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? यहां पर युद्ध हुआ,कुरुक्षेत्र धाम में और फिर ऐसा विश्वास, पक्का विश्वास था श्रील प्रभुपाद का कि महाभारत के इतिहास कि एक विशिष्ट घटना यहां कुरुक्षेत्र में घटी थीं।ऐसा विश्वास अधिकतर ही लोगों में नहीं हैं,लोगो का कहना हैं कि यह सब माइथोलॉजी हैं या काल्पनिक हैं या फिर फेयरी टेल। ऐसा ही प्रचार अंग्रेजों ने शुरू किया और अब तक हम मुंडी हिलाते हुए हां हां माइथोलॉजी हां हां।यहां तक कि महात्मा गांधी,अरे कहां के महात्मा, कैसे कहा जाए उनको महात्मा? उनका विश्वास नहीं था कि कृष्ण सचमुच कुरुक्षेत्र में पहुंचे थे और "श्री भगवान उवाच" वहा हुआ। "मेरे सत्य के साथ के प्रयोग" ऐसे शीर्षक वाली,किताब महात्मा गांधी ने लिखी हैं। उसमें वे लिखते हैं कि मेरा विश्वास नहीं हैं, मैं इस बात को स्वीकार नहीं करता कि कृष्ण थे । भगवद्गीता 1.21-22 “अर्जुन उवाच सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेऽच्युत | यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् || २१ || कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ||” (श्रीमद्भगवद्गीता1.21-22) अनुवाद: -अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ | यह सब हुआ,मेरा रथ खड़ा करो, सेनाओं के बीच में और फिर आगे जो भी हुआ, वह नहीं हुआ ऐसे लोगों से जब हम गीता को सुनते हैं या गीता के रहस्य को सुनते हैं,जिनका विश्वास ही नहीं हैं, इस इतिहास में कि कृष्ण सचमुच वहां थें।गीता तो श्री कृष्ण कल कहेंगे। गीता जयंती महोत्सव कि जय..! गीता का जन्म कल होगा।आज अराइवल डे हैं, वैसे कई दिनों से अराइवल चल रहा हैं,चल रहा था।याद रखिए ये विश्वयुद्ध होने जा रहा हैं। महाभारत का जो युद्ध संपन्न हुआ वह विश्वयुद्ध था।सारे विश्व के राजा, महाराजा और सैनिक वहां पहुंचे थे। 18 अक्षयोनि सेना,11 अक्षयोनि सेना कौरवो कि और से ,7 अक्षयोनि सेना पांडवों कि ओर से,तो 18 अक्षयोनि सेना हुईं। यह अट्ठारह का कुछ खेल हैं। महाभारत में 18 पर्व है और यह युद्ध भी 18 दिन तक चलने वाला हैं और 18 अक्षयोनि सेना भी वहां पहुंच रही है और भगवत गीता भी 18 अध्याय मे श्रीकृष्ण सुनाने वाले हैं। 18-18-18 ध्यान रखिए और यह सत्य हैं, वास्तविक हैं तो फिर कल के गीता जयंती के दिन भगवान ने "श्री भगवान उवाच" ये गीता की महिमा हैं "श्री भगवान उवाच", कौन उवाच ? "श्री भगवान उवाच" गीता का महात्म्य, कितनी महान हैं, यह गीता। क्या हैं गीता का महात्म्य? श्री भगवान उवाच बस हो गया।महात्म्य अगर जानना चाहते हो तो भगवान ने कहा या भगवान ने कही गीता गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥ (गीता महात्मय ४) अनुवाद:-चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।” गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः । क्या आवश्यकता है जब गीता उपलब्ध हैं। एक शास्त्र पर्याप्त हैं। एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकीपुत्र एव ।। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।। (गीता महात्म्य ७) अनुवाद:-“आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा ।” गीता की महिमा उतनी ही हैं, जितनी भगवान श्री कृष्ण की महीमा हैं। किसने कहा? किसी बदमाश ने कहा? या किसी अंधे ने कहा कि सूर्य नहीं हैं, किसने कहा अंधे ने कहा तो इसने कहा, कहने वाला कौन हैं, इसके ऊपर निर्भर रहता हैं। वह जो कही हुई बातें हैं,उसकी कीमत, उसकी महिमा, उसका महत्व, उसकी उपयोगिता हम समझ सकते हैं। वक्ता कौन हैं? कौन कहने वाला है? यहाँ श्री भगवान उवाच" चल रहा हैं। हरि हरि! अगर हम सुनेंगे और श्रद्धा पुर्वक उसको स्वीकार करेंगें। श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। (श्रीमद्भगवद्गीता 4.39) अनुवाद: - जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरंत आध्यात्मिक शांति को प्राप्त होता हैं। ऐसे भगवत गीता में कहा हैं कि अगर विश्वास हैं तो श्रद्धा से सुनो और फिर ज्ञानवान बनोगे और गुणवान भी बनोगे और फिर भक्तिवान भी बनोगे, अगर श्रद्धावान हो तो श्रद्धा से सुनो। महात्मा गांधी का विश्वास नहीं था कि भगवान वहां पर पहुंचे थे कि नहीं, उन्होंने गीता कहीं कि नहीं, इसमें विश्वास नहीं हैं तो फिर उन्कि कही हुई बातों में हम क्यों विश्वास रखेंगे ! मनोधर्म,हरि हरि! यह गीता का उपदेश किसी को पता नहीं हैं कि कल गीता जयंती के दिन जयंती मतलब जन्म।इस गीता के जन्मदाता स्वयं भगवान कृष्ण हैं ।"कृष्णस्तु भगवान स्वयं" स्वयं भगवान इस गीता को जन्म देने वाले हैं और जन्म कहां से होगा?मुख से होगा । गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्मव्दिनि:सृता।। भगवान अपने मुख से किसी को जन्म दे सकते हैं। जैसे गीता को जन्म दे रहे हैं। मुखारविंद से गीता का जन्म हुआ। गीता के जन्मदाता कृष्ण हैं। हरि हरि! और अगर हम सुनते हैं फिर मानते हैं, समझते हैं,यह कृष्ण कौन है? भगवान कौन है? फिर मानना पड़ेगा ना! जब कृष्ण कहते हैं 4 अध्याय में “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 4.8) अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | ऐसा संवाद हो रहा हैं।संवाद के अंतर्गत श्री कृष्ण अर्जुन को यह गीता का संदेश,उपदेश सुना रहे हैं।इस गीता को गीतोपनिषद भी कहा गया हैं। श्रीमद् भगवद् गीतासु उपनीषदसु ब्रम्हविद्यायाम ऐसे भगवत गीता में लिखा होता हैं, हर अध्याय में, गीतोपनिषद,उपनिषद में क्या होता है? एक शिक्षक, आचार्य अपने शिष्यों को साथ लाता हैं, बिठाता हैं और उसको सुनाता हैं, 'उप' मतलब पास 'नी' मतलब विनम्र होकर 'षद' मतलब बैठो और फिर होगा संवाद और जो 108 उपनिषद हैं और भी हैं। प्रधान तो 108 बताए गए हैं।उन सभी में गुरु शिष्य का संवाद हैं। गुरु शिष्य परंपरा में, यहां तो श्री कृष्ण ही आचार्य बनने वाले हैं। “कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 2.7) अनुवाद: -अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें | ऐसी गीता की शुरुआत होने वाली हैं। अर्जुन स्वीकार करने वाले हैं, जिससे मैं हूं "शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्”। मैं हूं आपका शिष्य।मैं जो आपकी शरण में आ रहा हूं 'शाधि'आप मुझे उपदेश दीजिए। मैं जो प्रपन्ना अर्थात आपकी शरण में आ रहा हूं, त्वम शाधि या भवान शाधि, आप मुझे आदेश या उपदेश दीजिए।तो यहां टीम बनी हैं और कहा भी जाता हैं, गुरु हो तो कृष्ण जैसा और शिष्य हो तो अर्जुन जैसा, तो जोड़ी ऐसी होनी चाहिए।उपनिषदों में ऐसे संवाद का वर्णन हैं, गीता जयंती के प्रातः काल में ही यह संवाद प्रारंभ होता हैं, इनकी माया तो अद्भुत हैं, किसने ऐसा सोचा होगा कि यहां तो युद्ध होने जा रहा हैं और कृष्ण की सेटिंग देखिए,ही इज सेटिंग द सीन, पूरा मंच तैयार हैं और मंच किसके लिए तैयार हैं? युद्ध के लिए तैयार हैं भगवद्गीता 1.1 “धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||” अनुवाद धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? युद्ध भूमि में क्या हो रहा हैं,युद्ध कैसे हो रहा हैं? युद्ध कैसे आगे बढ़ रहा हैं? कैसे युद्ध भूमि में अब श्री कृष्ण प्रवचन सुनाने वाले हैं। या युद्ध में जो भी हो रहा हैं,यह इस लोक से परे हैं। जो यह परिस्थिति हैं उसके परे पहुंचकर भगवान ने अपना एक अलग जगत निर्माण किया हैं, जिसमें केवल कृष्ण हैं और अर्जुन हैं और उसके अलावा मानो कुछ भी नहीं हैं और होगा भी तो उसकी परवाह नहीं हैं। जैसे कि आसपास के वातावरण को पूरी तरह भुला दिया जाए, मतलब गुनातीत या उस परिस्थिति के अतीत या द्वंद्वातीत,युद्ध मतलब द्वंद भी होता हैं युद्ध स्थली में यह संवाद होने जा रहा हैं और अर्जुन इस संसार के बद्ध जीवो का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं या भगवान ने अर्जुन का डिमोशन किया।एक होता हैं प्रमोशन और दूसरा डिमोशन, क्योंकि वैसे तो अर्जुन भक्त हैं। यह प्रमोशन हैं, भक्त होना एक प्रमोशन हैं। भगवद्गीता 4.3 “स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः | भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् || ३ ||” अनुवाद आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो | उनको डिमोट किया मतलब अर्जुन मायातीत थे और उन पर माया का प्रभाव डाल दिया गया उन्हें माया के अधीन कर दिया गया, मानो भगवान ने कोई छू मंत्र फूंक दिया और इसी के साथ अर्जुन की स्थिति डांवाडोल हो चुकी हैं। यह कल भी कह रहे थे कि जब अर्जुन वहां पहुंचे थे,तो कितना जोश था उनमें, उनका खून खोल रहा था।मेरे साथ और कोई युद्ध करना चाहता हैं, दिखा दो वह कौन हैं? आगे बढ़ाओ मेरे रथ को, अर्जुन का यह जोश था लेकिन भगवान के हाथ में ही सब की चाबी हैं। मेरी डोरी तेरे हाथ, हमारी डोरी उनके हाथों में हैं। वह हमको नचा भी सकते हैं।यहां अर्जुन के भावो में, विचारों में, उनके निश्चय में, उत्साह, निश्चित,धैर्य नहीं रहा उपदेशामृत 3 उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति ॥ ३ ॥ अनुवाद भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना शुद्ध (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कम करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्--कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं। उत्साह नहीं रहा, वह निरउत्साही हो गए।उनमें धैर्य नहीं रहा और जब उन्होंने देखा कि उन्हें किन के साथ युद्ध करना हैं तो कल जैसे मैं बता रहा था भगवद्गीता 2.9 “सञ्जय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः | न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह || ९ ||” अनुवाद संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया | | अर्जुन ने कहा कि मैं युद्ध नहीं करूंगा,यह डिमोशन हुआ ना। इतने शूरवीर जो कि अपने वीरता का प्रदर्शन करने वहां धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में पहुंचे थे और धर्म युद्ध खेलने वाले थे और डिमोशन हो गया।अब खेलना ही नहीं चाहते थे। भगवान ने अर्जुन को एक मायावी अथवा माया से प्रभावित या समभ्रमित कर दिया। अहम मम: से प्रभावित किया और अब अर्जुन इस संसार के बध जीवो का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं,जैसे इस संसार के लोग बातें करते रहते हैं, वैसे ही बातें अर्जुन करने वाले हैं। ऐसे सवाल अर्जुन पूछने वाले हैं ,अपनी शंका का व्यक्त करने वाले हैं। BG 3.36 “अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ३६ ||” अनुवाद अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो | अर्जुन ने मुख्य रूप से 16 प्रश्न पूछे और उसके उत्तर स्वयं श्री भगवान उवाच दे रहे हैं और फिर विश्वरूप भी दिखाया है पहले तो 10 अध्याय में मैं यह हूं मैं वह हूं अपने ऐश्वर्या बताएं BG 10.25 “महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् | यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः || २५ ||” अनुवाद मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ | सारी नदियों में मैं गंगा हूं,इत्यादि इत्यादि।कृष्ण अपनी विभूतियां बता रहे हैं और विभूति योग की बातें करते हैं और अब अर्जुन उनका दर्शन करना चाहते हैं।अर्जुन ऐसा कह रहे हैं कि आपने कह तो दिया पर अब मुझे दिखा दो तो फिर भगवान ने अपने विश्व रूप में अपना सारा वैभव दिखाया हैं। ग्यारहवें अध्याय में भगवान ने दिखाया हैं। क्या ऐसा कोई कर सकता हैं?कई सारे तथाकथित भगवान गलियों में घूमते रहते हैं।भारत की गलियों में ऐसे कई सारे भगवान घूमते रहते हैं,उनको कहो कि दिखाओ अपना विश्वरूप,क्या आज तक किसी ने दिखाया हैं। कृष्ण ने विश्व रूप दिखाया और विश्व रूप में भविष्य भी दिखाया कि अगले 18 दिनों में क्या होने वाला हैं। वैसे करने वाला करता तो मैं ही हूं और इस युद्ध को चाहने वाला भी मैं ही हूं। मैं चाहता हूं कि युद्ध करो।कृष्ण ने प्रयास तो किए थे।वह स्वयं गए थे दूत बनकर कि पांडवों को उनका राज्य लौटा दो। यह उनका हक हैं। चलो सारा नहीं तो कम से कम पांच पांडवों का एक-एक गांव तो दे दो, 5 गांव तो दे दो किंतु यह कौरव तो बहुत स्वार्थी थे।उन्होंने कहा कि 5 गांव तो बहुत बड़े होते हैं, सुई की नोक जितना क्षेत्र भी नहीं देंगे। कृष्ण ने अपनी तरफ से प्रयास तो किया था कि कुछ समझोता हो जाए लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो युद्ध ही पर्याय था तो यह युद्ध भगवान की इच्छा था,मैं चाहता हूं कि युद्ध हो। तुम कौन हो,अगर मैं चाहता हूं युद्ध हो तो युद्ध होगा। तुम्हारे कहने से क्या होगा।मैं चाहता हूं कि युद्ध हो,इसलिए अर्जुन उठो निमित्त बनो,हे सव्यसाची भगवद्गीता 11.33 “तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् | मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भाव सव्यसाचिन् || ३३ ||” अनुवाद अतःउठो! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीत कर सम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हों।| भगवान स्मरण दिला रहे हैं कि तुम ऐसे बढ़िया सर्वोत्तम धनुर्धारी हो, तुम सव्यसाची हो, तुम तो बाय या दाएं किसी भी हाथ से धनुष चला सकते हो, आमतौर पर जो बान होता हैं वह बाएं हाथ से ही चलाया जाता हैं, लेकिन अर्जुन तो इतने कुशल थे कि दाएं बाएं किसी भी हाथ से धनुष चला सकते थे। भगवान अर्जुन को याद दिला रहे हैं कि तुम तो दोनों हाथ से धनुष चला सकते हो, निमित्त बनो, हे सव्यसाची! और यशस्वी हो जाओ। यश को प्राप्त करो। यश तो मिलेगा ही मिलेगा। गीता के अंत में स्वयं संजय ही कहने वाले हैं कि किसकी जीत होती हैं? भगवद्गीता 18.78 “यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः | तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ७८ ||” अनुवाद जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है | जहां कृष्ण और अर्जुन होते हैं,वहा विजय होती हैं या जहां धर्म होता हैं, वहां विजय होती हैं। तो कृष्ण कह रहे हैं कि यश को प्राप्त करो।हरि हरि।इस प्रकार कृष्ण बोलते जा रहे हैं और संवाद आगे बढ़ रहा हैं और इस संवाद को पूरा किया और ज्यादा समय भी नहीं लिया। जिस प्रकार मैंने आज आपको जपा टॉक सुनाया हैं ना, आधा घंटा इससे थोड़ा ही ज्यादा।अगर मेरे पास थोड़ा और समय होता, 7:30 बजे तक का तो मैं 45 मिनट के लिए बोलता। इतने ही समय में भगवद्गीता कही गई हैं। केवल 45 मिनट में भगवान ने इस संवाद को पूरा किया हैं और 45 मिनट में ही अर्जुन कृष्ण भावनाभावित बन गए। भगवद् साक्षात्कार हुआ और अर्जुन एकदम तैयार हो गए। भगवद्गीता 18.73 “अर्जुन उवाच | नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || ७३ ||” अनुवाद अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ | आप भी आधे पौने घंटे से सुन रहे हो, तो क्या आप भी तैयार हो? तैयार हो तो भाषण यही बंद करेंगे और तैयार नहीं हो तो भाषण को आगे बढ़ाना होगा। चलो आप कह तो रहे हो कि आप तैयार हो। ठीक हैं। बहुत अच्छे। मैंने बहुत अच्छे से अपना काम किया। ठीक हैं। कल आगे बात करते हैं, अगर आवश्यकता हुई तो। गीता जयंती महोत्सव की जय।

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