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जप चर्चा
दिनांक १५.०८.२०२०
हरे कृष्ण !
विषय- मंत्र मेडीटेशन ऑन एकादशी महोत्सव!
आज इस कांफ्रेंस में 720 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं।
स्वरूपानंद, 'शेवड हेड' बालों का बंधन नहीं रहा! मुक्त हो गए। मुक्त भारत ! मुक्त ! हरे कृष्ण !
हरि! हरि! आज एकादशी भी है।
एकादशी महोत्सव की जय!
महाराष्ट्र में कहते हैं एकादशी के दिन कुछ लोग, कुछ साधक 'दुपटखासी' होते हैं।
पदयात्रियों! दामोदर! हम तो दुगना खाते हैं, डबल खाते है। एकादशी फीस्ट होती है।
एकादशी का दिन तो उपवास का होता है। इसलिए फास्टिंग फ्रॉम माया होना चाहिए लेकिन हम थोड़ा फिस्टिंग भी कर लेते हैं। थोड़ा चल जाएगा। एकादशी के दिन थोड़ा फ़ीस्टिंग कर ही लेते हैं अर्थात कुछ प्रसाद या कुछ विशेष प्रसाद ग्रहण करते हैं किंतु फास्टिंग फ्रॉम माया तो होना चाहिए। हम कई बार बताते हैं कि 'फास्टिंग फ्रॉम माया, फिस्टिंग ऑन कृष्णा।'
कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय,
स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई।
सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ,
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥3॥
अर्थ:-भगवान् कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादम दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।
कृष्ण को खाओ सेइ अन्नामृत पाओ, फिर राधाकृष्ण-गुण गाओ।
फीस्ट ऑफ, राधाकृष्ण गुण गाओ अर्थात अधिक से अधिक गुण गाओ और सेइ अन्नामृत भी पाओ। हरि! हरि! उपवास करो। हम उपवास के विषय में दुबारा नहीं बताएंगे। आपको कितनी बार बताना पड़ता है। उपवास मतलब वास या निवास और उप मतलब पास। भगवान के पास रहने को उपवास कहते हैं। भगवान के साथ रहो। भगवान के पास रहो। तो हो गया उपवास। केवल अन्न या प्रसाद नहीं ग्रहण किया या निर्जला एकादशी करने से उपवास नहीं होता। फास्टिंग करें या ना करें, वैसे अन्न तो नहीं ग्रहण करना है। प्रसाद ग्रहण करें या ना ग्रहण करें या कम ग्रहण करें लेकिन फास्टिंग फ्रॉम माया तो होना चाहिए, उसके लिए प्रयास तो होना चाहिए या कहा जाए एकादशी के दिन अधिक प्रयास होना चाहिए। माया से उपवास करो। माया से दूर रहो या माया का भक्षण मत करो अर्थात माया का आस्वादन मत करो। जब इंद्रिय तृप्ति, मनोरंजन इत्यादि होता है तब हम फ़ीस्टिंग ऑन माया करते है। हमें फास्टिंग् फ्रॉम माया करनी है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम।
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवलक्षणा।
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येअ्धीतमुत्तमम्।
( श्री मद् भागवतम् ७.५.२३-२४)
अनुवाद :- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज- सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरण कमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति के ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
एकादशी के दिन श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं अधिक से अधिक करें। फिस्टिंग और माया से दूर रहे। हरि! हरि!
माया को ना तो सुने, ना ही सूँघे। लोग क्या-क्या पाउडर सूंघते रहते हैं। वे जिस शरीर पर पाउडर लगा है, उसको सूंघना चाहते हैं । ऐसे धंधे संसार में चलते रहते हैं। आप समझ रहे हैं ना कि हम लोग माया पर फीस्ट कैसे करते हैं? हमारी सारी इंद्रियां माया पर टूट पड़ती है। हमारी इस इन्द्रिय में उस इंद्रिय में , इस जिव्हा पर आग लगी हुई है। जिव्हा खाना चाहती है और कान , सिनेमा संगीत सुनना चाहते हैं। स्पर्श इंद्रिय कुछ मुलायम शरीर या सॉफ्ट बॉडी को स्पर्श करना चाहती है इसे हिरण्यकशिपु कहा गया है। वह व्यक्ति हिरण्यकशिपु बन जाता है। उसको सोना या मुलायम बेड(बिस्तर) अच्छा लगता है।
हिरण्यकशिपु। हिरण्य मतलब गोल्ड( सोना) कशिपु मतलब सॉफ्ट बेड। उसी के साथ ही उसमें कामिनी कांचन भी है। माया का उपवास अर्थात माया से दूर रहो और कृष्ण के अधिक पास रहो। 'माया से दूर, कृष्ण के पास रहो।' हमें एकादशी के दिन कृष्ण के अधिक से अधिक पास पहुंचने का और माया से अधिक से अधिक दूर जाने का प्रयास करना होता है। हरि! हरि!
मैं आपके साथ फूड फॉर थॉट या आपके मस्तिष्क के लिए कुछ खुराक या आपके ध्यान के लिए कुछ विषय या टेकनीक कहा जाए, शेयर करना चाहता हूं जोकि इंद्रद्युम्न महाराज ने प्रभुपाद व्यास पूजा ऑफरिंग में लिखी थी।
परसों व्यास पूजा हुई थी तब मैंने उनकी ऑफरिंग पढ़ी थी। उन्होंने उसमें एक कोटेशन दिया है, अंग्रेजी में जप के संबंध में एक पैराग्राफ है। जब मैंने उसे पढ़ा, मुझे अच्छा लगा। जब मुझे कोई भी बात अच्छी लगती है तब मैं सोचता हूं मैं कैसे इस अच्छी बात को अन्यों के साथ शेयर कर सकता हूं। ऐसा आप भी सोचा कीजिए। वैसे चींटी को भी यदि कोई शक्कर का एक कण/ दाना मिलता है, वह पहले उसका थोड़ा सा आस्वादन करती है। उसके पश्चात वह अन्यों को बुलाकर लाती है। तत्पश्चात वे सब मिलकर उस शक्कर को खाती हैं। वह चींटीं अकेले नहीं खाती है। चींटीं से सीखो।एक होती है चींटी और दूसरी तरफ कुत्ता। एकदम विपरीत होता है। चींटी का स्वभाव अच्छा है। हम चींटी से सीख सकते हैं।
प्रभुपाद ने जिनेवा में 74वीं भागवतम क्लास में कहा था कि आप सब प्रथम श्रेणी के शुद्ध भक्त बनो। ना कि दूसरी और तृतीय श्रेणी के भक्त। कोई थर्ड क्लास (तृतीय श्रेणी) बनना चाहेगा? बनना तो कोई नहीं चाहता लेकिन हम तो थर्ड क्लास ही हैं या हम सेकंड क्लास चल रहे हैं और हमें बनना क्या है? श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि हमें फर्स्ट क्लास( प्रथम श्रेणी) भक्त बनना है। तत्पश्चात प्रभुपाद कह रहे हैं कि इस युग में फर्स्ट क्लास ( प्रथम श्रेणी) का भक्त बनना आसान हुआ है। केवल चार नियमों का पालन करो। चार महापापों से दूर रहो। महापाप के विषय में आप जानते ही हो कि कौन कौन से हैं - नशा पान, मांस भक्षण, अवैध स्त्री सङ्ग, जुआ खेलना। इन सब से दूर रहो और हरे कृष्ण का जप करो। यह विधि है। बस यदि आप इतना भी कर लोगे कि चार निषधों से दूर रहैं और हरे कृष्ण का जप करोगे तब आप प्रथम श्रेणी के भक्त बनोगे। हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना मतलब कृष्ण को सदैव अपने हृदय प्रांगण में स्थापित करना, रखना या स्मरण करना है। प्रभुपाद यहां पर एक ध्यान या विचार या गाइडलाइन दे रहे हैं। प्रभुपाद क्या कह रहे हैं, इसे सुनिए।
ऐसा सोचो अर्थात एक दिव्य अलौकिक कल्पना करो कि कृष्ण आने वाले हैं और मैंने एक रत्न जड़ित सिंहासन तैयार कर रखा है जो कि रत्न जड़ित डायमंड युक्त है व रूबी आदि रत्नों से समालंकृत है। मैं उस अलंकृत सिंहासन पर कृष्ण को विराजमान करना चाहता हूं। इसलिए मैंने उस आसन को तैयार रखा है। जब कृष्ण आएंगे तब मैं निवेदन करूंगा। प्रभु! प्रभु! आप यहां विराजमान होइए। अपने हृदय प्रांगण में ऐसी स्थिति या परिस्थिति की व्यवस्था करो। इस आसन अथवा सिंहासन की हृदय में ही स्थापना करो और फिर सिंहासन पर कृष्ण को बैठाओ अर्थात उनको स्थापित करो। अब विचार करो कि कृष्ण, आप पर कृपा करके आ ही गए हैं और उस सिंहासन पर बैठे हैं और मैं अब उनके (श्री कृष्ण) के चरण कमलों को गंगा और यमुना के जल से चरणों का अभिषेक करूंगा या कर रहा हूं अथवा उनके चरणों की पाद प्रक्षालन कर रहा हूँ। ऐसा भी सोचिए कि भगवान् के अभिषेक व स्नान के पश्चात मैं अब कृष्ण को एक विशेष ड्रेस ( वेश) पहना रहा हूँ व उनका श्रृंगार कर रहा हूँ। तत्पश्चात फिर मैं अलग-अलग अलंकारों से उनको सजा रहा हूँ अब भगवान् भोजन के लिए तैयार हैं । फिर मैं उनको भोजन खिलाऊंगा। प्रभुपाद कहते हैं कि आप ऐसा विचार करो, ऐसा ध्यान करो, और यह सरल है। इसे गाइड लाइन कह सकते हो लेकिन यह नहीं कहा कि केवल ऐसा ही सोचना है, हम ऐसा भी सोच सकते हैं और इसी प्रकार अन्य भी मेडिटेशन हो सकते हैं। जैसा कि नरोत्तम दास ठाकुर या फिर कई सारे हमारे आचार्यों ने मेडिटेशन बताए हैं।
राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर।
जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥1॥
कालिन्दीर कूले केलि-कदम्बेर वन।
रतन वेदीर उपर बसाब दुजन॥2॥
श्याम गौरी अंगे दिब चन्दनेर गन्ध।
चामर ढुलाब कबे हेरिब मुखचन्द्र॥3॥
गाँथिया मालतीर माला दिब दोंहार गले।
अधरे तुलिया दिब कर्पूर ताम्बूले॥4॥
ललिता विशाखा आदि यत सखीवृन्द।
आज्ञाय करिब सेवा चरणारविन्द॥5॥
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभुर दासेर अनुदास।
सेवा अभिलाष करे नरोत्तमदास॥6॥
( वैष्णव भजन नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित)
अर्थ :
(1) युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है।
(2) कालिन्दी (यमुना) के तटपर कदम्ब के वृक्षों के वन में, मैं इस युगलजोड़ी को रत्नों के सिंहासन पर विराजमान करूँगा।
(3) मैं उनके श्याम तथा गौर अंगों पर चन्दन का लेप करूँगा, और कब उनका मुखचंद्र निहारते हुए चामर ढुलाऊँगा।
(4) मालती पुष्पों की माला गूँथकर दोनों के गलों में पहनाऊँगा और कर्पूर से सुगंधित ताम्बुल उनके मुखकमल में अर्पण करूँगा।
(5) ललिता और विशाखा के नेतृत्वगत सभी सखियों की आज्ञा से मैं श्रीश्रीराधा-कृष्ण के श्री चरणों की सेवा करूँगा।
(6) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के दासों के अनुदास श्रील नरोत्तमदास ठाकुर दिवय युगलकिशोर की सेवा-अभिलाषा करते हैं।
यह भी एक ध्यान है।कालिन्दीर कूले केलि-कदम्बेर वन कालिंदी अथवा यमुना के तट पर कदंब का वृक्ष है और उनके ऊपर मैं भगवान् किशोर किशोरी को बैठा रहा हूं।
चामर ढुलाब कबे हेरिब मुखचन्द्र उनको चंवर ढूला रहा हूँ और उनको तंबोल, मसाला आदि खिला रहा हूँ और उनका मुख चंद्र का दर्शन कर रहा हूँ।
ललिता विशाखा आदि यत सखीवृन्द।
आज्ञाय करिब सेवा चरणारविन्द
जब मैं यहां पहुँचूँगा तो ललिता विशाखा की अनुमति लूंगा और फिर मैं भी कुछ सेवा करूंगा।
इसलिए जप करते हुए
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ऐसा चित्र, ऐसा दर्शन, ऐसा ध्यान , स्मरण या ऐसी संकल्पना में मन को व्यस्त रखना है। मन जहां तहाँ दौड़ता रहता है।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ (श्री मद् भगवतगीता ६.२६)
अनुवाद :- मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।
यतो यतो अर्थात वहाँ से फिर मन को वापस लाकर हरि नाम् महामंत्र का उच्चारण व श्रवण भी कर सकते हैं । श्रवण भी हो रहा है। श्रवण के पहले कीर्तन हो रहा है तभी तो श्रवण हो रहा है। श्रवण कीर्तन हो रहा है इसलिए स्मरण भी हो रहा है। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद ने एक नमूना अर्थात एक गाइडलाइन बताई है कि हम किस प्रकार व्यस्त रह सकते हैं। हमारे मन का कार्य या प्रवृत्ति थिंकिंग, फीलिंग, विल्लिंग होती है। मन सोचता ही रहता है। मन इच्छा करता है। थिंकिंग, फीलिंग, विल्लिंग। मन में कुछ भाव उत्पन्न होते हैं। हम सोचना बंद नहीं कर सकते। मन में जो भाव उत्पन्न होते हैं, हम उसको रोक नहीं सकते और ना ही हम इच्छा हीन बन सकते हैं।
लेकिन हमें जप करते समय यह सब थिंकिंग, फीलिंग, विल्लिंग कृष्ण के लिए करना है अर्थात हमें हरे कृष्ण महामंत्र जप के समय यह सब करना है। यही है मंत्र मेडिटेशन। हरि! हरि! कीप डूइंग थिस, 'गोइंग ऑन '
हरि बोल!