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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक १० अप्रैल २०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ७६५
स्थानों से जो भक्तगण जप कर रहे हैं, उन सबकी जय हो अर्थात आप सब की जय हो जो इस जपा सेशन और जपा टॉक में सम्मिलित हुए हैं।
हरि! हरि!
आप तैयार हो? सावधान!
तैयार अर्थात मन की भी तैयारी होना। अपने मन को स्थिर करो। सुनने के लिए दृढ़ निश्चयी बनो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह महामन्त्र सुनने के लिए भी दृढ़ निश्चयी बनो।
हम इसे ध्यानपूर्वक जप करना कहते हैं। ध्यानपूर्वक जप तब होगा, ( अभी तो आप कुछ कर ही रहे हो, जप चल ही रहा है)। आप श्रवण का कुछ सुन सकते हो। हम विषय बदलने के लिए नहीं कह सकते, विषय तो कृष्ण ही रहेगा। जब हम भी जप करते हैं अथवा जपा टॉक करते हैं, तब विषय तो कृष्ण ही होते है।
वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.१३१)
तात्पर्य अनुसार- ” वैदिक साहित्य में, जिसमें रामायण, पुराण तथा महाभारत सम्मिलित हैं, आदि से लेकर अंत तक तथा बीच में भी केवल भगवान् हरि की ही व्याख्या की गई है।”
हमारा ध्यानपूर्वक जप तब होगा, जब निश्चयपूर्वक जप किया जाएगा अर्थात जब हम निश्चयपूर्वक जप करेंगे तभी हमारा ध्यानपूर्वक जप होगा। इस पर भी सोचो। क्या आप इसे समझ पाए। क्या आप इससे सहमत है?आप को यह बात मंजूर है? मंजूर हो या नहीं हो,सत्य तो है ही। फिर आपकी मर्जी, लेकिन ध्यानपूर्वक जप करना है तो निश्चय पूर्वक जप करना ही होगा। हमें निश्चयपूर्वक या उत्साह पूर्वक कहना होगा।
उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
( श्री उपदेशामृत श्लोक सख्या ३)
अनुवाद:- शुद्ध भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं:
१) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना ( ३) धैर्यवान होना( ४) निमायक सिद्धांतो के अनुसार कर्म करना ( यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं- कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगति छोड़ देना तथा(६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिन्हों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्संदेह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
ये तीनों बातें आ गयी। उत्साह होना चाहिए, निश्चय होना चाहिए, धैर्य होना चाहिए। तत्पश्चात हमें समझना चाहिए कि निश्चय क्या होता है? हम निश्चयी कैसे बन सकते हैं, उत्साह में वर्धन कैसे बढ़ा सकते हैं, धैर्यवान कैसे बन सकते है? धीर, सोबर, धैर्य। धैर्य में स्थर्य भी है। ये अच्छे शब्द हैं। एक शब्द है क्षुब्धता और दूसरा शब्द स्तब्धता है। जैसे समुन्दर में ऊपर से लहरे तरंगे औऱ कभी कभी सुनामी भी आ जाती है, समुंदर आन्दोलित हो जाता है। उसको क्षुब्धता कहा जाता है । जैसे राम ने अपना धनुष बाण उठाया। वे समुंदर को डरा रहे थे क्योंकि समुंदर पार करने में कुछ सहायता नहीं कर रहा था। उस समय समुंदर भयभीत हुआ और क्षुब्ध हुआ। वैसे ही हमारा मन भी क्षुब्ध होता है। हमारे मन की स्थिति क्षुब्ध हो जाती है लेकिन उसी समुन्दर में जब हम गहराई में जाएंगे। वहां समुंदर स्तब्ध होता है अथवा स्थिर होता है, लगता है कि वह ना हिल और न ही डुल रहा है। हम आपको समझा रहे हैं कि यह क्षुब्धता क्या होती है? और स्तब्धता क्या होती है? हमारा मन स्वभाव से चंचल अथवा क्षुब्ध होता है, उसको स्थिर अथवा स्तब्ध बनाना है अथवा स्तम्ब जैसा बनाना है, स्तंभित होना है। भक्ति के अष्ट विकार अथवा लक्षण हैं। विकार का अर्थ कोई खराब चीज नहीं है। भक्ति करने से कुछ बदलाव आ जाते हैं। भक्ति दिखती है, उसमें एक स्तंभित होना भी हैं।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अर्थ:- श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
जैसे शरीर में रोमांच या रोंगटे खड़े हो जाना इत्यादि इत्यादि ये बदलाव है। रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो – उसी के अंतर्गत एक स्तंभित होना है। स्तंभ अर्थात खंबा। खंभे का क्या वैशिष्ट्य होता है? वह स्थिर रहता है। वह हिलता डुलता नहीं है। भक्ति करते करते स्तंभित होना, वह भक्ति करने वाले साधकों की सिद्धि भी है। साधना की सिद्धि है। क्षुब्धता से स्तब्धता तक। स्तंभित होना अर्थात अपलक नेत्रों से देखना और देखते ही रहना। ना हिलना और ना ही डुलना है, ऐसी भी एक स्थिति है। मन की स्थिति या भावों का ऐसा प्रदर्शन हो जाता है। करना नहीं पड़ता है, यह स्वभाविक है। मन में वैसे स्तंभित हुए हैं।
उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
( श्री उपदेशामृत श्लोक सख्या ३)
यह बात नहीं है तो नहीं है, यह बात आपके लिए नहीं होनी चाहिए। यह बात रूप गोस्वामी प्रभुपाद (उनको भी प्रभुपाद कहते हैं, वैसे कईयों को प्रभुपाद कहते हैं) रूप गोस्वामी प्रभुपाद अपने उपदेशामृत नामक ग्रंथ में लिखते हैं ( क्या नाम सुना है, यदि नहीं सुना तो फिर आपने क्या सुना है?)रूप गोस्वामी इस उपदेशामृत नामक ग्रंथ में जो बातें कह रहे हैं, वही हम आपको सुना रहे हैं। इसके पहले जो चार श्लोक हैं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण श्लोक हैं। हरि! हरि! आप उसे देख लेना और पढ़ लेना। बहुत छोटा सा ही ग्रंथ है। कुल ग्यारह श्लोकों में यह ग्रंथ पूरा हो गया है। यह सारे उपदेशों का सार भी है। उसमें से एक वचन अथवा एक श्लोक षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति भी है। षड् मतलब 6 और उसका बहुवचन षड्भि है। इन छह बातों से अथवा यह करने से अर्थात ऐसी भक्ति करने से व्यक्ति सिद्धि प्राप्त करता है अथवा विशेष सिद्धि को प्राप्त करता है या सर्वोच्च सिद्धि को प्राप्त करता है। इन 6 बातें को करने से प्रसिध्यति होती है। उन 6 बातों में से ये 3 बातें उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् है।
हम भक्त हैं। हो या नहीं? मैंने नहीं कहा कि मैं भक्त हूँ, मैंने कहा कि हम भक्त हैं, हम में आप भी आ गए। ऐसे सारे जीव भक्त हैं। सभी जीव भगवान् के भक्त हैं। आप जीव हो या नहीं?
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
( श्रीभगवतगीता ३.१६)
अनुवाद:- हे प्रिय अर्जुन! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है | ऐसा व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है।
जो जीवित है, वह जीव है। जीवन का लक्षण जिसमें है, वो जीवित है।
आप भी भक्त हो। हम भक्ति कर रहे हैं। वैसे हम साधक भक्त हैं लेकिन अभी तक साधना सिद्ध भक्त नहीं हुए हैं लेकिन साधना सिद्ध बनना चाहेंगे। नाम तो साधना सिद्ध है लेकिन हमें साधना करके सिद्ध होना हैं।
साधना के अंतर्गत ही ये सब उत्साहित होने की साधना आती है। साधन और साध्य ऐसा भी संबंध है। साधन और साध्य इन दोनों का घनिष्ठ संबंध होता है। हम साधन से ही साध्य को प्राप्त करते हैं। हमें इसे साध्य करना है। यह हमारा साध्य अथवा लक्ष्य है। इसलिए उचित साधनों व उपकरणों का उपयोग करना होगा, साधना को अपनाना होगा जिससे हम सिद्ध बनेंगे व साध्य को प्राप्त करेंगे। यह साधन है- उत्साह, निश्चय, धैर्य। ऐसा उपदेश है कि यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो साधना में सिद्धि प्राप्त होने वाली नहीं है। श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद ऐसा समझा रहे हैं। आप साधना में सिद्धि प्राप्त करना चाहते हो, लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हो, लक्ष्य तो भगवान् हैं। कृष्ण लक्ष्य है या हम कहते हैं कि कृष्ण प्रेम लक्ष्य है। कृष्ण लक्ष्य हैं या कृष्ण प्रेम लक्ष्य है, एक ही बात है। हमें
भक्ति को प्राप्त करना है। यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे जो महामन्त्र कहते हैं (जो सच है, वही कहते हैं)
यह महामन्त्र का जप साधन भी है और साध्य भी है। बड़ी विचित्र बात है कि यह साधन भी है और साध्य भी है। साधन है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे और साध्य है हरे कृष्ण हरे कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे
ये एक प्रसिद्ध बात है, एक बार जब प्रभुपाद से पूछा गया कि प्रभुपाद, आप जप करते हो, आप जप करते हुए क्या प्राप्त करना चाहते हो, जप करने का फल क्या है? क्या होना चाहिए। जप करने का परिणाम क्या होना चाहिए? साध्य क्या है? तब प्रभुपाद ने कहा- ‘मोर चेंटिंग’
मैं जप कर रहा हूँ, यह साधन है। साधन करते करते और अधिक जप व कीर्तन करने की इच्छा जग ही रही है अथवा बढ़ ही रही है। ऐसा नहीं हैं कि इस महामन्त्र के कुछ साधन व सोपान बनाकर हमें और कुछ प्राप्त करना है या महामन्त्र के परे पहुंचना है, महामन्त्र के परे तो कुछ है ही नहीं। भगवतधाम में भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे है। यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण आपका पीछा नहीं छोडगा। हम जप करते करते मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होने का अर्थ क्या है? १६ माला समाप्त हो गयी। मेरी ड्यूटी हो गयी। अंततः मैंने १६ माला जप कर लिया। यह महामन्त्र का जप कीर्तन साधन अथवा साध्य है। नहीं! हम यहां भी हरे कृष्ण महामन्त्र का जप व कीर्तन करेंगे, वहां भी करेंगे। भगवतधाम लौटेंगे, वहां पर भी यही करना है। ये शाश्वत विधि है। भक्ति शाश्वत है तो यह विधि भी शाश्वत है। आप साधक के रूप में साधना कर रहे हैं। यदि सिद्ध हो गए तो यही करना है। जप में रुचि बढ़ रही है। हम जप से आसक्त हो रहे हैं। हम में जप करने से भाव उदित हो रहे हैं अर्थात हम कॄष्ण प्रेम का अनुभव कर रहे हैं, यह भी सिद्धि ही है। यह सब श्रद्धा से प्रेम तक के सोपान हैं।
जिसके विषय में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने माधुर्य कादम्बिनी नामक ग्रंथ में समझाया है। उसकी भी चर्चा होती ही रहती है व होनी ही चाहिए और हमें समझना चाहिए।
हम एक सोपान से दूसरे सोपान तक पहुंच गए हैं, वह भी सिद्धि ही है। हम श्रद्धा के साथ जप कर रहे थे और अब निष्ठा के साथ जप कर रहे हैं। यह सिद्धि है। पहले हम लोग श्रद्धावान ही थे। अब हम निष्ठावान बन गए हैं। यह प्रगति है। व्यक्ति निष्ठावान कब बनता है?
जब उसकी अनर्थो व पापों से निवृत्ति होती हैं।
पापाची वासना नको दावू डोळां,
त्याहूनी आंधळा बराच मी II
निंदेचे श्रवण नको माझे कानी,
बधीर करोनी ठेवी देवा II
अपवित्र वाणी नको माझ्या मुखा,
त्याहूनी मुका बराच मी II
नको मज कधी परस्त्रीसंगती,
जनातून माती उठता भली II
तुका म्हणे मज अवघ्याचा कंटाळा,
तू ऐक गोपाळा आवडीसी II
( सन्त तुकाराम)
अनुवाद:- हे भगवान, इस दुनिया के पापों की देखने के लिए गवाह न बनने दें, बेहतर होगा कि मुझे अंधा बना दें; मैं किसी की बीमारी न सुनूं, मुझे बहरा बना दें; पापी शब्दों को मेरे होंठों से बचने दें, मुझे बेहतर गूंगा बना दें; मुझे दूसरे की पत्नी के बाद वासना न करने दें, बेहतर है कि मैं इस धरती से गायब हो जाऊं। तुकाराम जी कहते है; मैं दुनियादारी से हर चीज से थक गया हूं, मुझे अकेलापन पसंद है। हे गोपाल।
जब अनर्थ निवृत्ति होती है तब हम अपराधों से बचते हैं व अपराधों से बचने का प्रयास करते हैं। हमें सफलता मिल रही है। निष्ठावान बनने के लिए साधु सङ्ग भी चाहिए।
आदौ श्रद्धा ततः साधु-सङ्गोअ्थ भजन क्रिया। ततोअनर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः।।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति। साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भाव भवेत्क्रमः।।
( भक्तिरसामृतसिंधु १.४.१५-१६)
अनुवाद:- सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है। तत्पश्चात वह गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि- विधानों का पालन करता है। इस तरह वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। इसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। यह साधन भक्ति का मार्ग है। धीरे धीरे भाव गहन होते जाते हैं और अंत में प्रेम जागृत होता है। कृष्ण भावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए भगवतप्रेम के क्रमिक विकास की यही प्रक्रिया है।
हम साधु सङ्ग कर रहे है।
साधु सङ्ग प्राप्त होना भी सिद्धि है।
‘साधु- सङ्ग’,साधु- सङ्ग’,- सर्व शास्त्रे कय। लव मात्र साधु- सङ्गे सर्व- सिद्धि हय।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.५४)
अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण- भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।
ऐसा नहीं है कि हमें किसी अवस्था में साधु सङ्ग की आवश्यकता नहीं होगी कि मैं निष्ठावान हो गया हूँ। मुझे अब साधु सङ्ग की कोई आवश्यकता नहीं हैं। यह एक गलत धारणा है। साधु सङ्ग अर्थात भक्तों के सङ्ग की आवश्यकता हमें साधन के अन्तर्गत भी है। हम साधक हैं, हमें साधुसंग चाहिए। यदि हम सिद्ध भी हो गए या हम कह भी सकते हैं तब भी साधुसंग चाहिए।यह साधू सङ्ग जो साधन है इसका लक्ष्य और अधिक साधु सङ्ग है। जैसे हम भगवतधाम में जाएंगे, वहां भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण है। भगवतधाम में जाएंगे, वहां भी साधु ही साधु हैं।
यहां तो थोड़े ही साधू हैं। वहां हर व्यक्ति साधु है। कोई बदमाश या मूर्ख नहीं है। वहां तो साधु ही साधु हैं। यदि आपको साधु सङ्ग अच्छा नहीं लगता तो भूल जाओ, तब वैकुण्ठ या गोलोक प्राप्ति आपके लिए नहीं है। वहां केवल भगवान ही प्राप्त नहीं होने वाले हैं। भगवान् के भक्त भी प्राप्त होंगे।
साधु सङ्ग साधन भी है और साध्य भी है। यदि ऐसे सन्तों का सङ्ग करते जाएंगे तब वे हमें भजन करने में प्रेरणा देते हैं। साधु अपना आदर्श हमारे समक्ष रखते हैं। तब हम प्रेरित होते हैं। साधु सङ्ग से फिर भजन क्रिया अर्थात अधिक अधिक भजन करेंगे या वे हमें इशारा भी कर सकते हैं। हे प्रभु! मुझ से अपराध हो रहा है या तुम साधु निंदा कर रहे हो। इत्यादि इत्यादि। शास्त्र तो नहीं कहेंगे लेकिन साधु कहेंगे। हम से कोई अपराध हो रहा है लेकिन व्यवहारिक जीवन में कुछ नाम अपराध हो रहे हैं। यदि साधु की संगति है तब साधु विधि- निषेध दोनों बताएंगे। यह करो , यह मत करो। करो। यह मत करो। भजन क्रिया तत्पश्चात अनर्थ निवृत्ति होगी तत्पश्चात हम निष्ठावान हो गए। निष्ठावान हो गए अर्थात हमारे जीवन में स्थर्य आ गया। हमारे मन में स्थर्य आ गया। इसी को निष्ठावान कहा गया है। यहाँ से हम पीछे नहीं मुड़ेंगे। हम जब निष्ठावान बनते है तब हम यू- टर्न नहीं लेंगे। केवल आगे ही बढ़ेंगे। श्रद्वावान से निष्ठावान तक बढ़ेंगे। हरि! हरि!
(मैं बहुत कुछ कह रहा हूँ, सब कुछ कहने का प्रयास भी चलता ही रहता है। अच्छा हो कि यदि हमारे पांच मुख होते तब कई सारे मुखों से एक साथ कई सारी बातें ही बातें कह ही सकते थे। यह भी सिद्धि ही है।)
हम श्रद्वावान थे, पर अब निष्ठावान बन गए। यह सिद्धि है। अब निष्ठावान से और आगे बढ़े हैं और अब हरि नाम में रुचि बढ़ रही है, तो यह सिद्धि है। यदि हम हरिनाम से आसक्त हुए और हम से रहा नहीं जाता और हम प्रातः काल में अपनी मीठी नींद को त्याग कर अथवा ठकुरा कर दौड़ पड़ते हैं कि मेरी जपमाला कहां है, जपा सेशन शुरू होने जा रहा है? हमारी रुचि बढ़ेगी तो हम दौड़ पड़ेंगे और जब उत्साह के साथ जप करेंगे तो यह भी सिद्धि है। इस प्रकार यह अलग-अलग सोपान, स्तर व लेवल हैं। साधु सङ्ग से भजन क्रिया वह भी सिद्धि है। भजन क्रिया से अनर्थ निवृत्ति वह भी सिद्धि है। हम निष्ठावान बन गए तब सिद्ध हो गए। अगर रुचि बढ़ रही है तो सिद्धि है। आसक्त हो गए तो भी सिद्धि है। कुछ भाव उदित हो रहा है, कुछ आशा की किरण दिख रही है भाव और प्रेम यह भी अलग-अलग सिद्धि के ही स्तर हैं। इस प्रकार प्रतिदिन हम ऐसी साधना करेंगे।
उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
जो भी साधु बताएंगे कि यह नवधा भक्ति है, यह भक्ति करो। ऐसे कार्य करो, ऐसी सेवा करो। तत्तकर्मप्रवर्तनात्।
सङ्गत्यागात्सतो अर्थात असत सङ्ग को त्याग दो।
असत्सङ्ग-त्याग,-एइ वैष्णव-आचार। ‘स्त्री- सङ्गी एक असाधु, ‘ कृष्णभक्त’ आर्।।
( श्रीचैतन्य- चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.८७)
अनुवाद:- वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रियों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कॄष्ण भक्त नहीं हैं।
आप लिख लो, नोट करो कि वैष्णव की क्या पहचान है? असत्सङ्ग-त्याग, अर्थात जो असत्सङ्ग को त्यागता है- हो सकता है कि अपने घर वाले ही असत्सङ्ग प्रदान करने वाले हो, थोड़ा सा और कम से कम मन में आप उनसे दूर रहो। इमोशनली( भावनात्मक) कहो या मेंटली (मानसिक) रूप से आप दूर रह सकते हो, तो रहो। यदि पड़ोसियों या आफिस के साथियों का संग, उसका संग, इसका सङ्ग बेकार का है मायावी व दानवी है।असत्सङ्ग-त्याग करो। आपको स्वयं निरीक्षण करना होगा कि मैं किस-किस के संग में आता हूं। मुझे किस किस के साथ डील करना पड़ता है? उनका संग सत् है या असत् है? असत् है तो सावधान। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते अर्थात तब संत महात्मा, आचार्य के चरण कमलों का अनुसरण करो। वैसी वृति को अपनाओ ।वृति और प्रवृत्ति। उपदेशामृत के उस श्लोक को पढ़िए। जिससे षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति हो जाए। (थोड़ा-थोड़ा संस्कृत भी सीखो) यह षड्भि बहुवचन है। इन छह बातों को अपनाने अथवा करने से षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यतिअर्थात हम भक्ति व साधना में सिद्धि प्राप्त करेंगे। जप करने में सिद्धि क्या है? यह भी आप समझ गए की उसकी सिद्धि क्या है। आप सभी ऐसे सिद्ध महात्मा बनो, प्रयास करो। प्रयास तो करना ही होगा।
संस्कृत में एक कहावत है-
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः! न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
( हितोपदेश)
अनुवाद:- जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुँह में मृग स्वयं नहीं प्रवेश करता है, उसी प्रकार केवल इच्छा करने से सफलता प्राप्त नहीं होती है अपने कार्य को सिद्ध करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है ।
सिंह जो वनराज (केशवी) कहलाता है, वो राजा हुआ तो क्या हुआ। जब उसको भी भोजन करना होता है तब केवल वह अपना मुख खोल कर बैठ नहीं सकता। प्रविशन्ति मुखे मृगा: – उस वनराज के मुख में मृग या पशु पक्षी स्वयं प्रवेश नहीं करते, उस वनराज को भी उठना पड़ता है अथवा दौड़ना पड़ता है व शिकार करना पड़ता है। वह भी कभी सफल तो कभी असफल हो जाता है लेकिन प्रयास के बिना कुछ प्राप्त नहीं होता। कुछ तो प्रयास करना ही होगा। लगे रहिए और प्रयास कीजिए।
कहा भी है कि भगवान उनकी मदद करते हैं जो स्वयं अपनी मदद (सहायता) उत्साह के साथ करते हैं। भगवान् ऐसे साधक के कार्य, उत्साह, निश्चय, धैर्य को देखकर सहायता करते हैं अर्थात
भगवान् उनकी मदद करते हैं जो प्रयास कर रहे हैं।
ठीक है। हरे कृष्ण!
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ०७ अप्रैल २०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ८५२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल! अकिंचन भक्त, तुम्हारा भी स्वागत है। आज यह संख्या थोड़ा अधिक होने का कारण एकादशी भी हो सकती है लेकिन आज सभी के लिए एकादशी नहीं है। पंढरपुर में आज हमारे लिए एकादशी नहीं है। हम कल एकादशी मनाएंगे। कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से भी हम कल ही एकादशी मनाएंगे। एकादशी के दिन हम श्रवण, कीर्तन उत्सव मनाते हैं। इसलिए कल प्रातः कालीन सत्र के अंतर्गत मैं भी कीर्तन करूंगा। जप तो होगा ही, साथ में कीर्तन और कथा भी होगी लेकिन कल कथा अंग्रेजी में होगी। (आप थोड़ा अंग्रेजी भी सीख सकते हो) मैं सोच रहा था कि क्या संख्या में वृद्धि होने का कारण कोरोना वायरस तो नहीं है क्योंकि कोरोनावायरस भी बढ़ रहा है।
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।
अर्थ:- दुःख में हर इंसान ईश्वर को याद करता है लेकिन सुख में सब ईश्वर को भूल जाते हैं, अगर सुख में भी ईश्वर को याद करो तो दुःख कभी आएगा ही नहीं।
यह भी समस्या है। करोना का रोना पूरी दुनिया व भारत वासियों को परेशान कर रहा है। महाराष्ट्र तो टॉप में चल रहा है, ऐसे में परेशान जनता को भगवान ही याद आते हैं। यह भी हो सकता है कि आप में से भी कुछ भक्त जो इस जपा कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित हुए हो, वे दुखी हों अथवा दुख देख रहे हों। हरि! हरि! ‘यह मेरे साथ भी हो सकता है’ (वैसे कभी ऐसा सोचना भी चाहिए), नहीं तो लोग मर रहे हैं और मरने दो। हमें कोई परवाह नहीं है। उस मरण से हमारा कोई लेना देना नहीं है, अधिकतर ऐसा ही हमारा स्टैंड होता है। युधिष्ठिर महाराज ने भी ऐसा ही कहा था-
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्। शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्र्चर्यमतः परम्।।
( महाभारत वनपर्व ३१३.१२६)
अनुवाद:- इस संसार में प्रतिदिन अंसख्य जीव यमराज के लोक में जाते हैं; फिर भी जो बचे रहते हैं, वे यहाँ पर ही स्थायी पद की आकांक्षा करते हैं। भला इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है?
अहनि अर्थात दिन। आप “अहर्निशं सेवामहे’ जानते हो ना ? ‘अहर्निशं सेवामेह’ आपने यह भी कहीं पढ़ा होगा। शायद भारत डाक व तार विभाग का यही लोगो (ध्येय वाक्य है।अहर्निशं सेवामेह’ अर्थात हम आपकी दिन रात सेवा करेंगे।अह का बहुवचन अहनि हुआ अर्थात हर दिन। रात के बाद दिन के बाद दिन अर्थात अहनि। ( मैं आपको सारा शब्दार्थ बता रहा हूँ। लेकिन ऐसे भी समझना चाहिए)
लोग मर रहे हैं अथवा मारे जा रहे हैं लेकिन जो गए नहीं हैं अथवा बचे हुए हैं, कल रात कई सारों ने प्रस्थान किया था। आज प्रातः काल भी कुछ आईसीयू में हैं और कुछ कहां-कहां हैं। यह मृत्युलोक ही है, आज जब हमनें यह प्रातः कालीन जपा सत्र प्रारंभ किया था,तब उस समय थोड़ा लाइट इफेक्ट के लिए स्पेशल लाइट्स जलाई गई। लाइट जलाते ही उस समय लाखों कीड़े वहां पहुंच गए।( वे परेशान कर रहे थे इसीलिए हमने मास्क भी लगाया था। हम आपको मास्क लगाने का रहस्य बता रहे हैं) लेकिन हमारे एक माला का जप करते-करते एक लाख कीड़ों की मृत्यु हमारी आंखों के सामने हो गयी। हम आशा कर रहे थे कि जब हम जप कर रहे हैं तब शायद उन कीड़ों का कल्याण हुआ होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का कीर्तन सुनते सुनते वे बेचारे प्रस्थान कर गए। पांच मिनट के अंदर लगभग एक लाख अर्थात जितने लोग कल भारत में कोरोना वायरस से पॉजिटिव पाए गए थे, उतने ही जीव मेरे समक्ष पांच मिनट में समाप्त हो गए। तब मैं सोच रहा था कि हमारी अर्थात मनुष्य की दृष्टि में लाखों कीड़े- मकोड़े कुछ मिनटों में मर जाते हैं, और हम देखते भी हैं। वैसे ही जो देवता है जोकि अजर अमर होते हैं। (आप अमर तो समझते हो? लेकिन क्या कभी अजर के अर्थ को समझने का प्रयास किया। अजर जो जरा से संबंधित है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि। अजर अर्थात जो कभी बूढ़े नहीं होते।) वे अजर अमर रहते हैं। वे बूढ़े नहीं होते व बीमार भी नहीं होते। वे अमर रहते हैं। जब वे हम मनुष्यों को मरते हुए देखते हैं, तब उन देवताओं के यहां, 5 मिनटों में लाखों-करोड़ों मनुष्य ऐसे ही जान गंवाते दिखाई देते होंगे, जैसे हमारे समक्ष यह लाखों-करोड़ों कीड़े ऐसे ही मर जाते हैं। इसीलिए भी इस लोक अथवा पृथ्वी लोक अथवा इस त्रिभुवन का एक नाम मृत्यु लोक भी है। इस लोक का नाम ही मृत्यु लोक है क्योंकि हमें अधिकतर मरना ही होता है। कितने लोग मरते हैं? जितने लोग जन्म लेते हैं, उतने लोग ही मरते हैं।
तब डेथ रेट कितना है? यह डेथ रेट सौ प्रतिशत है। ऐसा नहीं है कि सौ लोगों ने जन्म लिया तो 50 लोग नहीं मर रहे हैं। ऐसा नहीं है।( तब नियम क्या है? ) भगवान ने नियम बनाया है। भगवान की सृष्टि में ऐसा नियम है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
( श्रीमद् भगवतगीता २.२७)
अनुवाद:- जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु निश्चित है। यह मृत्यु होती ही रहती है। हरि हरि!
इस जगत को मृत्यु लोक भी कहते हैं
। किसी की मृत्यु हुई तो यह कोई अचरज वाली बात नहीं है। (हम मरने वाले हैं या नहीं?आप ने जन्म लिया है?) आपने जन्म लिया है इसीलिए तो यहां बैठे हो अर्थात जन्म लेकर बैठे हो लेकिन नियम क्या है?
‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु’ -जन्म लिया है, तब मरना ही होगा। हमारा मरण निश्चित है। हरि! हरि! लेकिन हम मरने की तैयारी नहीं करते। हम यह जो जप अथवा भक्ति करते हैं, यह मरने की तैयारी ही है। हरि! हरि! जैसे आर्ट ऑफ लिविंग (जीने की कला) होती है, वैसे ही आर्ट ऑफ डाईंग ( मरने की कला) भी होती है। साधु, शास्त्र, आचार्य हमें कौन सी कला अथवा शास्त्र सिखाते हैं? हम कह सकते हैं कि वे हमें यह मरने की कला अथवा विज्ञान सिखाते हैं। यह मरने की कला अथवा विज्ञान है। हरि! हरि!
स्वीडन में एक किताब प्रकाशित हुई थी जिसका टाइटल था- आर्ट ऑफ कॉमेटिंग सुसाइड (आत्महत्या करने की कला)। उस देश में लोग आत्महत्या करना चाहते थे।इसलिए किसी ने कई तरीके सोचे औऱ लिखकर उसको प्रकाशित किया।’आपको दिमाग लड़ाने की आवश्यकता नहीं है।आप आत्महत्या करना चाहते हो तो यह पुस्तक लो। यह किताब तुम्हारे लिए मैन्युअल है। उसको पढ़ो और कोई एक तरीका अपनाओ।’यह मरने का दूसरा तरीका है लेकिन जब राजा परीक्षित का मरना निश्चित ही हो गया था। तब तिथि भी निश्चित हो गई थी कि आप सात दिन में मरने वाले हो। तब उस समय सभी महात्मा, राजर्षि देवऋषि एकत्रित हुए। सभी सोच रहे थे कि राजा परीक्षित को तैयार करना है। राजा परीक्षित को अब तैयारी करनी होगी।
एतावान् साङ्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया। जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायण स्मृतिः।।
( श्रीमद् भागवतम् २.१.६)
अनुवाद्:- पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति के अभ्यास से या स्वधर्म का भलीभांति पालन करने से मानव जीवन की जो सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान् का स्मरण करना।
अद्वैत आचार्य? हरिबोल! स्लीपिंग इज आल्सो डाईंग( सोना भी मृत्यु ही है) स्लीपिंग इज ऑलमोस्ट लाइक डाईंग।( सोना भी मृत्यु के समान है) सोना लगभग मरण ही है। जब हम मरने की कला की चर्चा कर रहे हैं, तब इस चर्चा के बीच कुछ मर रहे हैं अर्थात सो रहे हैं मतलब मर ही रहे हैं। ऐसे में इस कला को कैसे सीखोगे? कैसे तैयारी करोगे? तैयारी किए बिना मरना, पशु जैसा मरना है। कैट्स एंड डॉग्स भी बिना तैयारी किए मरते हैं लेकिन हमें मनुष्य जीवन में तैयारी करनी चाहिए। हम उस क्षण के लिए तैयार रहना चाहिए।
शुकदेव गोस्वामी भी वहीं पहुँच गए।
अगले सात दिन में जो कथा हुई, उसका उद्देश्य अन्ते नारायण स्मृतिः अर्थात अन्त काल में नारायण की स्मृति अथवा कृष्ण की स्मृति हो। अन्त में नारायण की स्मृति हुई ।अंग्रेजी में कहते हैं कि आल इज वैल, दैट एंड्स वेल
अंत ठीक है तो सब कुछ ठीक है। यदि अंत ठीक नहीं हुआ तब आपके सारे प्रयास बेकार गए। आप असफल हुए। हरि! हरि!
(सुन रही हो ना? बीच में झपकी लग रही है। मैं एक दो लोगों के सैम्पल देख रहा हूँ। ९०० लोगों में से एक स्क्रीन पर एक सो रहा है मतलब कई सारे सोते होंगे।)
जो सोएगा, वो खोएगा। जानते तो हो, लेकिन हम जानते हुए भी नहीं समझते।
देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि। तेषां प्रमतो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति।।
( श्रीमद् भागवतम् २.१.४)
अनुवाद:- आत्मतत्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते, क्योंकि वे शरीर, बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यम्भावी अवश्यभावी विनाश (मृत्यु) को नहीं देख पाते।
पश्यन्नपि न पश्यति अर्थात हम देखते हुए भी देखते या समझते नहीं हैं। ( संस्कृत का श्लोक आ गया) हमनें सुना तो होता है, जो सोएगा वो खोएगा लेकिन फिर भी हम सोते रहते ही हैं। पश्यन्नपि न पश्यति का कारण क्या है? ‘तेषां प्रमतो निधनं’ अर्थात हम इससे या उससे इतने अधिक आसक्त होते हैं। इसलिए मराठी में कहावत है कडते पर वर्त नहि। ऐसे ही ‘पश्यन्नपि न पश्यति’हरि! हरि!
शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित की मदद की जिससे वे मृत्यु के लिए तैयार हो जाए।
राजा परीक्षित यह भी कह रहे थे कि मेरे पास तो बहुत कम समय है,केवल सात ही दिन बचे है। तब उनको बताया गया कि सात दिन तो बहुत होते हैं।
शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को खटवांग मुनि के विषय में बताया( जिसका वर्णन श्रीमद् भागवतम् में भी आता है)
खटवांग मुनि के पास कितना समय था? खटवांग मुनि के पास कुछ ही क्षण थे। कुछ ही क्षणों में वे ऐसे गंभीर बन गए, शायद उनके पास एक प्रहर की अवधि थी जोकि कुछ मिनटों अथवा आधे घंटे का होती है। इतने कम समय में उन्होंने कृष्णभावना का अभ्यास क्या किया होगा? उन्होंने उसकी फ्रिकवेंसी( आवृत्ति) इंटेंसिटी(तीव्रता) को बढ़ा दिया। (इस पर विचार करो) उन्होंने ऐसी तीव्रता के साथ अपनी साधना श्रवण, कीर्तन, स्मरण को अपना लिया अथवा बढ़ा दिया। जैसा कि भगवान् कृष्ण ने भी कहा है
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरषं परम्।।
( श्रीमद् भागवतम २.३.१०)
अनुवाद:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे समस्त भौतिक इच्छाओं से युक्त हो या निष्काम हो अथवा मुक्ति का इच्छुक हो, उसे चाहिए कि वह सभी प्रकार से परम् पूर्ण भगवान् की पूजा करे।
भगवान् की भक्ति में तीव्रता होनी चाहिए।तीव्रेण भक्तियोगेन। ढीला ढाला काम नहीं,तीव्रेण अर्थात तीव्रता होनी चाहिए। जैसे पुलिस या आर्मी के लोग इंटरवल अथवा लंच ब्रेक या स्पेस आउट होने पर, फालतू समय गंवा रहे होते हैं, तब उनका कमांडर उनको कहता है कि सावधान! तब उस आर्मी का ध्यान जोकि इधर उधर था, वे फिर केंद्रित हो जाता है और अपना बेल्ट आदि टाइट कर आदेश की प्रतीक्षा करते हैं कि आपका क्या आदेश है? वे आदेश की प्रतीक्षा करेंगे अर्थात वे ध्यान केंद्रित हो जाएंगे। ऐसे ही ‘तीव्रेण भक्तियोगेन’ तीव्रता और फ्रीक्वेंसी( आवृत्ति) के साथ भगवान् की सेवा करनी होती है
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे। अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति।
( श्रीमद्भागवतगम १.२.६)
अनुवाद:- सम्पूर्ण मानवता के लिए परम् वृत्ति ( धर्म) वही है, जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा- भक्ति प्राप्त कर सकें। ऐसी भक्ति अकारण तथा अखंड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके।
भागवत कहता है ‘भक्तिरधोक्षजे’ भगवान का एक नाम अधोक्षज है। उनकी भक्ति करना। कैसी भक्ति करना? अहैतुकि अर्थात जिसमें कोई भौतिक कामना ना हो।
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
( श्री श्रीशिक्षाष्टकम श्लोक संख्या ४)
अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ।
अहैतुकि मतलब जिसमें धन, सुंदरी आदि की कोई कामना ना हो। अप्रतिहता मतलब
अखंड। कुंती महारानी ने गंगोहम शब्द का प्रयोग किया है। हरि! हरि! राजा परीक्षित वैसी ही तैयारी कर रहे थे। जब वे ऐसा अभ्यास करते हैं, तब क्या होता है?
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥६॥
( श्रीमद् भगवत गीता ८.६)
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
भगवत गीता में बड़े ही महत्वपूर्ण शब्द हैं। कृष्ण कह रहे हैं- यं यं वापि स्मरन्भावं अर्थात यं यं मतलब जो जो। वैसे तं तं भी होता है तं तं का अर्थ वह। स्मरन्भावं- हमारा जैसा भाव होगा अथवा हम जिस भाव में स्मरण करेंगे अर्थात जब इस कलेवरं अथवा अंत का समय आता है, उस समय हमारे जो भाव होते हैं, तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः अर्थात उसी के अनुसार हमारा भविष्य निश्चित होता है। अगला जन्म निश्चित ही है । जन्म है तो मृत्यु है, मृत्यु है तो फिर जन्म है। यदि जन्म नहीं लेना चाहते हो तो ऐसी तैयारी करनी होगी जैसा कि कृष्ण ने कहा है-
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ४.९)
अनुवाद:-
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
ऐसी व्यवस्था है अथवा
मृत्यु के समय हमारे जो भाव रहेंगे भगवान कहते हैं वह तुम्हारा अगला जन्म निर्धारित करेंगे।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १४.१८)
अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं
यदि तुम्हारे सात्विक भाव और विचार होंगे तो स्वर्ग जाओगें अन्यथा रुक जाओ, पुनः मृत्यु लोक में पहुंचोगें। मृत्यु के समय के भाव व विचार बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
एक परिवार, शंभू नाथ का पुजारी था। उस परिवार में पिताश्री की जान जा रही थी, उनकी एक-दो सांस ही बची थी। सभी परिवार के सदस्य इकट्ठे हो जाते हैं। उनके पांच पुत्र थे और वे सब भी वहां पहुंच गए और पिताजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि पिताजी, पिताजी, भोला! भोला! कहिए, शिव भोला कहिए।
डैडी!! डैडी! भोला! भोला! कहो, भोला तो कहिए लेकिन पिताजी ने भोला कहने की बजाय कोका कोला कहा। तत्पश्चात वह कहां गए होंगे? वह कोका कोला लोक गए होंगे। कोका कोला लोक कौन सा है? अमेरिका, कोका कोला लोक है। यह समस्या है। हमें तैयारी करनी है जिससे अंतिम क्षणों में ..
इसीलिए वह गीत भी है।
इतना तो करना स्वामी,
जब प्राण तन से निकले,
गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले। वैसी तैयारी करनी होगी। हमारे जपा रिट्रीट करने वाले अर्थात जब हमारी जपा रिट्रीट होती है तब कभी-कभी जपा रिट्रीट को प्रस्तुत करने वाले प्रस्तुतकर्ता यह भी कहते हैं कि हे जप कर्ता भक्तों, आप कल्पना कीजिए कि आप मृत्यु का सामना कर रहे हो’ कल्पना कीजिए कि मृत्यु आपकी ओर दौड़कर आ ही रही है और कभी भी पहुंच सकती है। वैसे ऐसा संभव ही है। उस स्थिति में आप क्या करोगे? कल्पना कीजिए और फिर तैयार भी रहो। अजामिल ने मृत्यु को देखा को था। उसने मृत्यु को देखा मतलब यमदूतों को देखा था। तब उस बेचारे ने नारायण! नारायण! कहा। भगवान् ने उसको क्रेडिट दे दिया जबकि वह अपने पुत्र नारायण को पुकार रहा था। वह सोच रहा था कि मैं अपने पुत्र नारायण को नारायण नारायण पुकार रहा हूँ लेकिन नारायण किसका नाम है? बताइए? नारायण किसका नाम है? बहुत ही सरल प्रश्न है। शायद प्रश्न थोड़ा कठिन हो सकता है लेकिन उत्तर बड़ा ही आसान है। नारायण किसका नाम है? महालक्ष्मी! बताओ, नारायण किसका नाम है? नारायण का नाम नारायण हैं। केवल नारायण ही नारायण है। कृष्ण, किसका नाम है, केवल कृष्ण का नाम कृष्ण है। बाकी सब कृष्ण दास या नारायण दास है। भगवान ने उसको क्रेडिट दे दिया और उसने नामाभास में भगवान को पुकारा। तब बेचारा कम से कम मुक्त तो हुआ। भक्त तो नहीं हुआ और न ही उसे वैकुण्ठ ले कर गए थे। लेकिन वह मुक्त हुआ, वह जीवन भर नारायण आ जाओ, नारायण बैठो, नारायण भोजन करो, नारायण तुम्हारे लिए खिलौने हैं… नारायण, नारायण ऐसा कहता रहा। यह भी फायदे हैं। अपने परिवार के सदस्यों को नारायण या गिरिधारी या पांडुरंग ऐसे कुछ नाम देने चाहिए लेकिन आजकल चिंकू पिंकू ऐसे नाम चलते रहते हैं। किसी से पूछो बेटे का नाम क्या है? चिंकू! इस प्रकार चिंकू पिंकू यह सब बेकार के नाम हैं। इसका कोई फायदा नहीं है हमारी संस्कृति में ऐसी व्यवस्था तो है जिसका कोई फायदा उठाएगा। वह अपने बेटे और बेटियों के नाम भगवान के नाम पर ही रखेगा। हरि! हरि! जपा रिट्रीट में जप करने वाले को कभी-कभी ऐसा होमवर्क दिया जाता है और कहा जाता है कि आप कल्पना करो कि आप मृत्यु को सामना कर रहे हो, आप उस स्थिति का सामना कैसे करोगे अथवा आप कैसी तैयारी करोगे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहने की बजाय आप डॉक्टर डॉक्टर कहोगे या बचाओ बचाओ कहोगे। जैसे प्रभुपाद के समय से यह चर्चा हो रही है- किसी ने कहा कि चैंट चैंट चैंट( जप करो, जप करो, जप करो) कहो। तब दूसरे व्यक्ति ने कहा कैंट,कैंट, कैंट( नहीं, नहीं, नहीं) एक निवेदन कर रहा है चैंट चैंट चैंट( जप करो, जप करो, जप करो) लेकिन दूसरा व्यक्ति कह रहा है कैंट,कैंट, कैंट( नहीं, नहीं, नहीं), कैंट(नहीं, नहीं, नहीं) अरे बाबा तुमने कैंट कहने में इतना शक्ति, सामर्थ्य और समय भी व्यतीत कर दिया, उतने समय में तुम चैंट चैंट चैंट( जप , जप , जप) कह सकते थे या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कह सकते थे। हरि! हरि! सभी अभ्यास करो। यह अभ्यास तो वही है।
मनो मध्ये स्थितो मंत्रौ मन्त्र मध्ये स्थितं मनः मनो मन्त्र समा युक्तम एतेहि जपा लक्षणम।
(आपको मनो मध्ये याद है? कल आपको गृह कार्य दिया था। आपअभी नोटबुक खोल रहे हो? प्रेम मंजरी कल का मंत्र क्या था? क्या तुम बिना अपने नोट्स देखे बता सकती हो? ओके, आधे तक पुंहच गयी) ऐसे ही हनुमान ने कहा था कि हम लंका तो जा सकते हैं लेकिन हम आधा रास्ता तय कर सकते हैं, कोई कह सकता है कि मैं रास्ते का 70% जा सकता हूं। मनो मध्ये स्थितो मंत्रौ अर्थात मन में मंत्र को स्थिर करो। इसे थोड़ा उल्टा करके भी कहना है वह मनो मध्ये था,
मन्त्र मध्ये स्थितं मनः अर्थात मन को मंत्र में स्थिर करो या फिर मंत्र को मन में स्थिर करो। मनो मन्त्र समा युक्तम, दोनों का एक दूसरे के साथ मिलन या मिश्रण करो या एक में दूसरे को, दूसरे में एक को या एतेहि जपा लक्षणम। यही जप का लक्षण है। जप के समय यही करना होता है। बड़ा ही संक्षिप्त व सूत्र रूप में जप का लक्षण बताया है। जप के समय ऐसा अभ्यास करो। यह तैयारी है, यह कला भी है। यह शास्त्र भी है। आर्ट एंड साइंस ऑफ डाइंग।
हरि! हरि! ठीक है यहां रुक जाते हैं।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
6 एप्रिल 2021
787 स्थानो से आज जप हो रहा है । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
हरि हरि बोल गौर हरी बोल ।
मुकुंद माधव गोविंद बोल।। हरि हरि बोल गौर हरि बोल।
हरि बोल । इस जप सेशन में आप सभी का स्वागत है , और जपा सेशन में ही नहीं जप चर्चा में भी स्वागत है । वॉल्क द टॉक , ऐसा भी कहते हैं । जैसे कहते हो वैसे चलते रहो , जैसे कहते हो वैसे ही चलो , वॉक द टॉक । हम पहले जप करते हैं फिर चर्चा होती है । ऐसा हो सकता है वॉल्क द टॉक , आज का टॉक भी कल का वॉल्क है । जैसे बोलते हो , जैसे सुनते हो वैसे ही करो । बोले तैसा चाले त्याची वंदावी पाऊले । ऐसा मराठी में है । व्यक्ति जैसा बोलता है वैसा ही चलता है ऐसे व्यक्ति का अनुसरण करो , ऐसे व्यक्ति का अनुयाई बनो , ऐसे व्यक्ति को अपना हीरो , नेता या आदर्श बनाओ । किसको ? बोले तैसा चाले । जैसा बोलता है वैसा ही चलता है , त्याची वंदावी पाऊले उनके चरणों का आश्रय लो , उनके चरणों का अनुगमन करो , अनुगामी बनो । वह व्यक्ति , वह व्यक्तित्व अभी विद्यमान नही है । ध्यानचंद्र गोस्वामी लगभग श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के समकालीन रहे , उनका एक मंत्र , उनका विचार व्यक्त करने वाला ही यह मंत्र है । श्री कृष्णा चैतन्य स्वामी महाराज ने मेरे साथ अभी-अभी व्हाट्सएप मैसेज पर यह मंत्र शेयर किया है । श्री ध्यानचंद्र गोस्वामी महाराज का एक वचन जो हमारे जप के लिए उपयोगी है , और जप के सबंधित हैं , वह जप के लक्षण कह रहे हैं । मैं उसे अभी कहने वाला हूं , पढ़ कर सुनाने वाला हूं । छोटा ही है , यथासंभव आप अगर आप श्रुतिधर हो तो आपको लिखने की आवश्यकता नहीं है , यदी श्रुतीधर हो तो , किंतु कलयुग में तो श्रुति धर विरला ही होते हैं । आप इसको नोंद कर के रखो , लिख लो । यह मंत्र है या कहो कि सूत्र ही है मतलब यह संक्षिप्त है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण बात है इसमें काफी तथ्य सत्य ठुस ठुस के भरा हुआ है , यही सत्य है । गौर गोविंद चरण स्मरण पद्धति नामक ध्यानचंद्र गोस्वामी महाराज का एक ग्रंथ है । उसमें से 64 वा यह वचन है । उन्होणे इस प्रकार रचना कि हैं । आप तैयार हो ? परमकरुना तैयार हैं । सुनने के लिए तैयार हो ?या लिखने के लिए तैयार हो ? सुनने के लिए यथासंभव लिखने के लिए तैय्यार रहो ।
मनो मध्ये स्थितो मंत्र क्या सुना ? मनो मध्ये स्थितो मंत्र ठीक है , आगे बढते है ।
मंत्र मध्ये स्थितं मन तीसरा पद है ,
मनो मंत्र समायुक्तम येतधी जप लक्षण । इस संक्षिप्त रूप मे बहुत कुछ , सब कुछ उन्होंने कहा या लिखा है । बहुत अच्छा किसी ने बहुत अच्छे से चैट में भेजा है , आप भी देख सकते हो किसी ने लिखा है उसे देख कर आप भी लिख सकते हो या फिर किसी के साथ बाट सकते हो ।
मनो मध्ये स्थितो मंत्र
मंत्र मध्ये स्थितं मन
मनो मंत्र समायुक्तम येतधी जप लक्षण ।
इसका भाषांतर है , वैसे शब्दार्थ आसान है , शब्दार्थ का ही भाषांतर के बाद भावार्थ ऐसा क्रम होता है। पहले शब्दार्थ देखते है , मनो मध्ये मतलब मन का संधी के नियम नुसार मनो हुआ ।डरना नहीं मनो मतलब कोई और चीज नहीं है मनो मन ही है । मनमध्ये मध्ये तो समझते हो मन में मनामध्ये , स्थित मंत्र इसको समझिए । स्थित मतलब स्थित होना मंत्र मतलब मंत्र । मंत्र को मन में स्थिर करो और अब बारी है मंत्र की मंत्र मध्ये स्थितम मन मंत्र में पहले मन में था मन में मंत्र को स्थित करो अब वह कह रहे है मंत्र मध्ये स्थित मन मंत्र में मन को स्थित करो । मनो मंत्र समायुक्त मतलब मन और मंत्र समायुक्तम उसको समरस करो उसका संगम होने दो , उसका मिलन होने दो , उसका मिश्रण होने दो समायुक्तम , समायुक्तम कहो या मन मंत्र से युक्त और मंत्र मन युक्त । मन में मंत्र , मंत्र में मन । ऐसे स्थिति को प्राप्त करो जहां आप पहचान ही नहीं पाओगे यह मंत्र कौन सा है ? और मन कौन सा है ? येतधी जप लक्षणम और यही तो जप का लक्षण है । लक्षण समझते हो ? लक्षण , जैसा कोरोनावायरस के लक्षण होते हैं , हर चीज का लक्षण होता है या उसके कुछ गुणधर्म होते है । येतधी जप लक्षण हम प्रतिदिन जप करते हैं । जिसको हम जपयोग कहते हैं जपयोग , जप के माध्यम से योग , योग मतलब लिंक या संबंध स्थापित करना इसको ही योग कहते हैं । संबंध किसके साथ स्थापित करना है ? कृष्ण के साथ अपना संबंध स्थापित करना है । अपना मतलब किसका ? आत्मा का संबंध परमात्मा या भगवान के साथ स्थापित करना है । आत्मा तो आत्मा ही है जो जप करता है , और भगवान है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
यह क्या है नहीं कहना चाहिए , यह कौन है कहना चाहिए । क्या है मतलब कोई निर्जीव चीज है तो हम कहते हैं यह क्या है ? यह क्या है ? लेकिन यहां यह पूछना है कि यह कौन है ? यह कौन है ? क्योंकि यह हरे कृष्ण महामंत्र भगवान है । हरे कृष्ण हरे कृष्ण भगवान है । हरी हरी। यह शब्दार्थ हुआ , यहां अंग्रेजी में अनुवाद भी लिखा है । अब तक आप उसको भाषांतर स्वयं कर सकते हो या आपने मन ही मन में कर भी दिया होगा । मंत्रा फर्मली सिचुएटेड इन माइंड , एक भाग है मंत्र मन मे स्थित करो । माईंड फर्मली सीचीयुटेड इन मंत्रा । और मन मंत्र मे स्थापित है । सच अ सिमलेस काँनेकशन ऑफ माइंड एंड मंत्र इज अ स्टेट ऑफ आयडियल जप । इन दोनो को संस्कृत में कहा है समायुक्तम । मन और मंत्र समायुक्तम , युक्त भी कहते हैं । भक्ति युक्त या भय युक्त या इससे युक्त , उससे युक्त । मन मंत्र युक्त है और मंत्र मन युक्त है ऐसा भी है मतलब समायुक्त हुआ और ऐसा होना ही येतधी जप लक्षण जप का लक्षण यही है ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥
महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में , अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने – बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन , को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श – इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में , अपनी घ्राण – इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में , अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा करने में लगाया । निस्सन्देह , महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा । वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त होने की यही विधि है ।
वैसे राजा कुरुशेखर इन्होंने यह प्रार्थना की है । आप थक गए क्या? हरि हरि । क्या प्रार्थना कर रहे हैं ? भगवान के चरण कमल मेरे मन में स्थित हो , भगवान के चरण मन में स्थित करना मतलब क्या करना ? या फिर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे इस महामंत्र को मन में स्थित करना मतलब क्या करना? सोचो तो सही , मन में मंत्रों को कैसे स्थित करोगे ? यह समझने के लिए मन का जो कार्य हैं। अपने मन का जो विचार है मन क्या-क्या करता है यहां श्रील प्रभुपाद सब समय कहते गए लिखा भी है, थिंकिंग फीलिंग वीलिंग ये मन के कार्य है तो मन सोचता है मन क्या करता है सोचना मन का कार्य होता है। तो मंत्र को मन में स्थिर करना मतलब क्या करोगे मंत्र के बारे में सोचो मंत्र के बारे में सोचो और फिर मंत्र के बारे में सोचो मतलब क्या भगवान के बारे में सोचो।
हरि हरि…….
सो माधुरी ना मम चित्त आकर्षय यह आपको पहले हम ने सिखाया है उस पर प्रेजेंटेशन दिया है यह सब हो चुका है हरनाम हरनाम मतलब क्या कितने नाम है मंत्र में 16 है 32 अक्षर है 16 नाम है।
कलिसंतरणोपनिषद् ५-६
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥५ ॥ इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मषनाशनं । नातः परतरोपायः सर्व वेदेषु दृश्यते ॥६ ॥
अनुवाद:- सोलह नाम – हरे कृष्ण , हरे कृष्ण , कृष्ण कृष्ण , हरे हरे । हरे राम , हरे राम , राम राम , हरे हरे विशेष रूप से कलि के कल्मषों का नाश करने वाले हैं । कलि के दोषों से मुक्ति पाने के लिए इन सोलह नामों के कीर्तन के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है । समस्त वैदिक साहित्य में खोजने के पश्चात इस युग के लिए , हरे कृष्ण के कीर्तन से अधिक उत्कृष्ट कोई अन्य धर्म – विधि नहीं मिलेगी । ( श्री ब्रह्मा श्री नारद को उपदेश देते हैं । )
तो हर नाम के उच्चारण के समय कैसा विचार होना चाहिए इसको भी सिखाया है गोपाल गुरु गोस्वामी ने उनकी व्याख्या हम कई बार पढ़े और सुने है।
इस प्रकार के विचार हर नाम के साथ यह विचार है यह एक मार्गदर्शक के रुप में उन्होंने दिया है। मम सेवा योग्य कुरु मुझे अपने सेवा के लिए योग्य बनाओ ऐसा विचार हम जब जप कर रहे हैं तो श्रील प्रभुपाद अपनी ओर से सब भाष्य कहते भी हैं और साथ ही यहां लिखा भी है। महामंत्र का जप कर रहे तो हम प्रार्थना कर रहे हैं यह नाम ही भगवान है और हम उन्हें प्रार्थना कर रहे हैं मुझे सेवा में लगाई ये। मैं आपका हूं हे राधे, हे कृष्ण सेवा योग्यं कुरु मतलब मुझे सेवा में लगाई ये यह विचार है मुझे सेवा में लगाई ये यह जो विचार हैं ऐसा अगर हम विचार कर रहे हैं और ऐसे विचारों में अगर हम तल्लीन है तो हमने क्या किया महामंत्र को मन में स्थिर किया महामंत्र को मन में बिठाया और यह अभ्यास है। ऐसे ही कुछ फटाफट नहीं बैठेगा क्योंकि मन चंचल है मन में कई सारे अविचार भी पहले से ही स्थित है। और उसके अनुसार मन अपना काम धंधा करेगा मन दौड़ेगा……
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ ||
अनुवाद:- हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |
कृष्ण ने कहा है भगवत गीता के छटवें अध्याय को आपको पढ़ना चाहिए भगवत गीता का जो छठवां अध्याय है उसका नाम ध्यान योग भी है वैसे उसमें अष्टांग योग की बातें हैं या हठयोग की बातें हैं उसमें मन को समझाया है मन क्या है मन के क्या लक्षण है उसको मानस शास्त्र ही कहो आप भगवान से सीख सकते हो भगवत गीता के छठे अध्याय में मन को नियंत्रित करना है और मन में मंत्रों को मनो मध्ये स्थितो तो उसको स्थित करना है मन को समझना होगा मन का अभ्यास करना होगा उसको समझना होगा तो छठवां अध्याय 1 स्थान है जहां हम मन को समझ सकते हैं ऐसे समय तो हो गया ठीक है तो मन में मंत्र को बिठाना है झट से समझना होगा मंत्र ही भगवान है।
राजा कुलशेकर ऐसे कह रहे हैं कि मैं अपने मन में भगवान के चरण कमलों का स्मरण करना चाहता हूं या फिर श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ रथ यात्रा के समय जगन्नाथ से कहा करते थे जगन्नाथ से उनका संबोधन हो रहा है या संवाद हो रहा है और चैतन्य महाप्रभु कर रहे……
अन्येर हृदय -मन , मोर मन वृन्दावन , ‘ मने ‘ वने एक करि ‘ जानि । ताहाँ तोमार पद – द्वय , कराह यदि उदय , तबे तोमार पूर्ण कृपा मानि ॥१३७ ॥
अनुवाद:- श्रीमती राधारानी के भाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा , “ अधिकांश लोगों के लिए मन तथा हृदय एक होते हैं , किन्तु मेरा मन कभी भी वृन्दावन से अलग नहीं होता , अतएव मैं अपने मन और वृन्दावन को एक मानती हूँ । मेरा मन पहले से वृन्दावन है और चूँकि आप वृन्दावन को पसन्द करते हैं , तो क्या आप अपने चरणकमल वहाँ रखेंगे ? इसे मैं आपकी पूर्ण कृपा मानूंगी ।
मेरा मन ही वृंदावन है ऐसे मन रूपी वृंदावन में बसिए रहीये हे प्रभु ऐसे मन और वृंदावन में कोई भेद नहीं रहा।
मन बन गया फिर कृष्णभावनाभावित, मंत्रमुग्ध तो मन में मंत्र को स्थिर करना मतलब ही भगवान को स्थिर करना…..
हरि हरि। मन में भगवान के नाम को मंत्र को स्थिर करना या मंत्र में मन को स्थिर करना यही विधि है इस्कॉन की….
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
अर्थ:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है
चेतोदर्पणमार्जनं जो कहते हैं चेतना का दर्पण का मार्जन हम करते हैं जो भी धूल जमी हुई है चेतना के दर्पण पर चेतना के आईने पर हमारे उस पर कई सारे धूल कचरा और मन में कचरा ही कचरा विचार है सारी माया है।
माया से ही भर गया है मन हरि हरि तो उसके स्थान पर जो कचरा है उसको साफ करते जाना है और यह कृष्ण सूर्य सम वैसे ही होता हैं चेतोदर्पण मार्जनम चेतना का मार्जन और हम जब चेतना कहते हैं अंतकरण कहते हैं उसके अंतर्गत हमारा यह सुष्म शरीर आता है मन,बुद्धि,अहंकार इसे हमारा अंतकरण बना हुआ है। जो ढक लेती है आत्मा को आच्छादित कर लेती है।तब हरे कृष्ण महामंत्र ध्यान से जप से हम मंत्र को भगवान को इस मन के पास लाते हैं मन में जो भी कचरा है यह तो होता ही है ना जब सूर्य उदित होता है तो उसके किरणों से कई सारे गंदे स्थान है जहां मल मूत्रो का विसर्जन हो या क्या-क्या नहीं होता वह सब सूर्य देव या सूर्य की किरणें साफ़ बना देती है स्वच्छ बना देती है यही सूर्य की किरण है इसी प्रकार जब हम पुन्हा पुन्हा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस महामंत्र को ध्यान पूर्वक सुनते हैं।
हम ध्यान करने का प्रयास करते हैं मतलब विचार करते हैं और मन का जो कार्य है कार्य ही हम कह रहे थे विचार करना है फिर हम सोचते हैं फिर कुछ भाव उत्पन्न होते हैं वह भय का भी भाव हो सकता है, या काम वासना के भाव उत्पन्न हो सकते हैं कई प्रकार के भाव भावना थिंकिंग फीलिंग वीलिंग फिर कुछ इच्छा हो जाती है। हम अधिक सोचते हैं वह भाव अधिक अधिक उदित होते हैं और भावना भावना परिणत होते हैं इच्छा में आप की तीव्र इच्छा हो जाती है फिर वह इच्छा पूर्ति के लिए आप तैयार हो जाते हो…….
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||
अनुवाद:- इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |
इसको भी भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के दूसरे अध्याय में समझाएं संसार के विषयों का ध्यान करते हैं ध्यान कोन नहीं करता संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है कि जो ध्यान नहीं करता हर कोई ध्यान करता है। लेकिन प्रश्न यह है कि अंतर यह हो सकता है कि यह समूह माया का ध्यान कर सकती है और यह समूह कृष्ण का ध्यान कर सकती है और तीसरा समुदाय हैं नही, यह दो ही है एक तो माया का ध्यान करते रहो मरते रहो या फिर कृष्ण का ध्यान करो….
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
अथवा भगवान की धाम में चले जाओ जो माया का ध्यान है माया के विषयों का ध्यान करने वालों का क्या हाल होता है….
सङगात्सञ्जायते जिन विषयों का ध्यान करेंगे उसी में आसक्त होंगे।
और सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते और फिर कामना इच्छा थिंकिंग फीलिंग वीलिंग कुछ-कुछ बहुत तीव्र इच्छा तो यह होते रहता है या मन में चलते रहता है थिंकिंग फीलिंग वीलिंग तो थिंकिंग के स्तर पर ही यह मन सोचता रहता है सोचता रहता है उसी स्तर पर ही वहां भगवान के नाम का ध्यान जप के समय मतलब भगवान का ही ध्यान और फिर भगवान के ही नाम रूप गुण लीला का ध्यान हम करेंगे तो फिर हमें हमने मंत्र को मन में स्थिर किया मतलब भगवान को ही मन में स्थिर किया मतलब यह मन पहले का मन नहीं रहा मायावी मन नहीं रहा।
वह मन बन गया कृष्णाभावनाभावित मन हो गया जिसका मन अभी भगवान में लग रहा है भगवान का ध्यान कर रहा है।
हरि हरि…..
ठीक है तो आप और अधिक सोचो विचार करो अभी और समझाने के लिए समय नहीं है स्वयं ही अभी और विचार करो विचारों का मंथन हो सकता है बाकी समझो इस मंत्र का मनो मध्ये स्थितो मंत्रो मंत्र मध्ये स्थितम मनः मनो मंत्र समायुक्तम एतदि जप लक्षणम
आप भी सीखो और ओरो को भी सिखाओ,ओरो को सिखाते हुए आप भी सीख जाओगे,समझ जाओगे आपको भी साक्षात्कार होंगे औरो को सिखाते सिखाते लेकिन पहले तो चैरिटी बिगिंस फ्रॉम होम पहले आप स्वयम को सिखाओ पहले स्वयम विद्यार्थी बनो फिर बाद में शिक्षक बनो फिर बाद में औरों को सिखाओ ईच वन टीच वन हर व्यक्ति को सीखना चाहिए और सिखाना ही चाहिए टीच वन ऑफ यू बिकम टीचर ऐसा करना पड़ता है गौड़ीय वैष्णव आचार्य भजनानंदी भी होते हैं और गोष्टीआनंदी भी होते हैं भजनानंदी और गोष्टीआनंदी भजन करो भजन करो और अपने भजन का आनंद ओरो के साथ बाटो या कृष्ण की कथा ओरो के साथ बाटो….
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||
अनुवाद :- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
ठीक है हम यही रुकते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
०५,०४,२०२१
७२४ स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
क्या आप सब ठीक हो? ठीक होने के लिए जप करना आवशयक हैं। कृष्ण भावना भावित होने से हम ठीक हो जाते हैं।अन्यथा ठीक ना होने पर भी हम कहते रहते हैं कि हम ठीक हैं। हमें संसार में यह नहीं पता चलता है कि ठीक होना क्या हैं। मैं ठीक हूं ऐसा लोग बिना सोचे समझे ही कहते रहते हैं। अगर कोई अस्पताल में भी भर्ती हो तो भी उससे पूछा जाए कि आप कैसे हो?तो वह भी यही कहेंगे कि हम बढ़िया हैं। इस संसार में होना ही मतलब हम इमरजेंसी वार्ड में भर्ती हो चुके हैं।अगर आप इस ब्रह्मांड में हो तो मतलब आप आईसीयू में हो। आप आदि देविक,आदि भौतिक कष्टों से से पीड़ित हों। बार-बार जन्म मृत्यु जरा व्याधि से ग्रसित हो।इस संसार में यह सब व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ते हैं। तो इसीलिए हम आईसीयू में ही हुए ना। हरि हरि।। क्या किसी को आईसीयू पसंद होता हैं?आपको क्या यह आईसीयू पसंद हैं? इसीलिए यहां से निकलने की कुछ योजना बनाओ। कृष्ण ने भौतिक संसार के विषय में कहा हैं कि
मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्|
नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:।।
भगवत गीता( ८.१५)
अनुवाद- मुझे प्राप्त करके महापुरुष जो भक्ति योगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते।क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती हैं।
आलय मतलब निवास स्थान। इसलिए भगवान ने इस भौतिक संसार को दुख आलय कहा हैं। दुखों का निवास स्थान।भगवान इस संसार को दुखालय कह रहे हैं और आप इसे सुखालय कह रहे हो या आप इसे सुखालय बनाना चाहते हो, क्या आप इस संसार के स्वभाव में परिवर्तन ला सकते हो?भगवान नें ही इसे दुखालय बनाया है तो दुखालय ही रहेगा। संसार के स्वभाव में परिवर्तन संभव नहीं हैं। इसीलिए क्या करना आवश्यक हैं?
हरेर् नाम हरेर् नाम हरेर् नामैव केवलम्
कलौ नास्त्य् एव नास्त्य् एव नास्त्य् एव गतिर् अन्यथा।।
केवल हरि नाम ही है यहां बस बाकी सब तो दुखालय है अश्वात है अपनी परिस्थिति को समझो जिसमें हम फंसे हुए हैं।
जय-जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त वृंदा।।
आज उस विषय में चर्चा करेंगे जिसके विषय में कल करनी चाहिए थी, कल श्रीवास ठाकुर का आविर्भाव दिवस था किंतु कल मैं हरे कृष्ण उत्सव के ग्रैंड फिनाले में व्यस्त था जो कि कल हो रहा था।कल प्रातः काल में भी हुआ और सायं काल में भी हुआ। आपको उस समय की कुछ यादें सुनाई गई। उस ग्रैंड फिनाले उत्सव के कारण श्रीवास ठाकुर का संस्मरण हम नहीं कर पाए तो उसी को हम आज करेंगे। कभी ना करने से अच्छा हैं कि देरी से ही किया जाए।क्या आप श्रीवास ठाकुर को जानते हैं?श्रीवास ठाकुर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के पार्षद रहे। केवल पार्षद ही नहीं रहे बल्कि एक विशेष पार्षद या परिकर रहें।
कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् ।
यज्ञै: सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधस:।।
(श्रीमद भागवतम् ११.०५.३२)
pañca-tattvātmakaṁ kṛṣṇaṁ
bhakta-rūpa-svarūpakam
bhaktāvatāraṁ bhaktākhyaṁ
namāmi bhakta-śaktikam
(चेतनय चरित्रामृत आदि लीला १.१४)
यह पंचतत्व मंत्र हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण मंत्र हैं।यह आप सबको ही पता होना चाहिए। यह पंचतत्व का प्रणाम मंत्र हैं। यह भी हमें पता होना चाहिए कि तत्व क्या हैं। हमें भगवान को तत्व से जानना चाहिए। तत्वों में कई प्रकार के तत्व हैं,उसमें पंचतत्व एक तत्व हैं। यह पंचतत्व तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के ही विभिन्न रूप हैं। श्रीवास ठाकुर इन पंच तत्वों के सदस्य रहें।
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद,श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।
(पंचतत्व प्रणाम मंत्र)
यह पंचतत्व महामंत्र हैं।जब हम हरे कृष्ण महामंत्र करते हैं तब हम हर बार नई माला शुरू करने से पहले यह पंचतत्व महामंत्र मंत्र कहते हैं। दो मंत्र हैं, एक पंचतत्व प्रणाम मंत्र और एक पंचतत्व महामंत्र। पंचतत्व में एक है चैतन्य महाप्रभु, एक नित्यानंद प्रभु, एक अद्वैत आचार्य प्रभु, एक गदाधर पंडित और एक है श्रीवास ठाकुर।
भजमन नारायण नारायण नारायण।।
नारद मुनि ही श्रीवास ठाकुर हैं।जो हमारी परंपरा के आचार्य भी हैं।सबसे पहले इसी की चर्चा करेंगे कि हमारे परंपरा के आचार्य कौन-कौन हैं। एक हैं ब्रह्मा,एक हैं नारद जी। हम ब्रह्म मधव गोडिय वैष्णव कहलाते हैं। नारद जी ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। नारद जी भागवत में से भी एक हैं। नारद जी श्रीवास पंडित के रूप में अवतरित हुए।श्रीवास ठाकुर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकटय से बहुत पहले ही प्रकट हो चुके थे। लगभग 50 वर्ष पूर्व वह प्रकट हो चुके थे।वह चार भाई थे।श्रीराम, श्रीवास,श्रीनिधि। वह सभी गौर भक्त थे। इनका जन्म पूर्व बंगाल में हुआ था। जो कि अब बांग्लादेश कहलाता हैं। किंतु वह मायापुर में स्थानांतरित हुए और मायापुर में निवास करने लगे।महाप्रभु के प्राकट्य से पहले हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस महामंत्र का कीर्तन करने वाले कई भक्त थे। उनके प्राकट्य से पहले इस महामंत्र का जप करने वाले श्री अद्वैत आचार्य थे, श्रील हरिदास ठाकुर थे और श्रीवास ठाकुर और उनके भ्राता भी थे। चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य से बहुत पहले ही चैतन्य महाप्रभु के परिकर कीर्तन किया करते थे।
बंगला में घर को या संपत्ति को बाड़ी कहते हैं।अब मैं श्रीवास ठाकुर की बाड़ी के बारे में उल्लेख करता हूं।जब हम योगपीठ से बाहर आते हैं तो, अब आप कहेंगे कि योगपीठ क्या हैं? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के जन्म स्थान को योगपीठ कहते हैं। जब हम योगपीठ से बाहर आते हैं, तब प्रवेश द्वार से बांयी तरफ जांए( अगर दांयी तरफ जाए तो मायापुर चंद्रोदय मंदिर की तरफ जाएंगे)और जब बांयी और जाएंगे तो लगभग 200 मीटर की दूरी पर श्रीवास ठाकुर की बाड़ी हैं। जोकि श्रीवास आंगन के नाम से प्रसिद्ध हैं।कुछ-कुछ विदेशी भक्त श्रीवास आंगन को श्रीवास अंगम कहते हैं, लेकिन यह कहना गलत हैं। आप अगर किसी को ऐसा कहते सुने तो उसे सुधार सकते हैं। मेरा भी यह लक्ष्य है कि मैं इसे सुधार सकूं।आचार, प्रचार के साथ सही उचार यानी कि उच्चारण भी होना चाहिए।श्रीवास ठाकुर की बाड़ी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कर्मभूमि बनी। योगपीठ उनकी जन्मभूमि थी, जहां जन्म हुआ और 24 वर्ष तक कुछ लीलाएं वहां होती रही।किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जो संकीर्तन आंदोलन किया उसके मुख्यालय के रूप में उन्होंने श्रीवास आंगन का चयन किया।
ājānu-lambita-bhujau kanakāvadātau
saṅkīrtanaika-pitarau kamalāyatākṣau
viśvambharau dvija-varau yuga-dharma-pālau
vande jagat priya-karau karuṇāvatārau
[CB Ādi-khaṇḍa 1.1]
संकीर्तन आदोलन के परम पिता श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु के साथ मिलकर संकीर्तन आंदोलन की स्थापना और उसका प्रचार प्रसार श्रीवास ठाकुर की बाड़ी से ही किया। उसी को अपना मुख्यालय बनाया।जैसे श्रील प्रभुपाद ने न्यूयॉर्क में अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ की स्थापना की और न्यूयॉर्क को एक समय पर अपना मुख्यालय बनाया। शुरू में प्रभुपाद वहीं से प्रचार कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद लॉस एंजलिस कैलिफ़ोर्निया को अपना पश्चिमी मुख्यालय कहां करते थे। भारत में मुंबई को भी श्रील प्रभुपाद ने अपना मुख्यालय बनाया था।
श्रीवास ठाकुर का आंगन चैतन्य महाप्रभु की गतिविधियों का केंद्र बना। हरि हरि।। श्रीवास ठाकुर गृहस्थ थे। श्रीवास ठाकुर ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ सहयोग दिया ताकि कीर्तन आंदोलन फैलता रहें। आप सभी भक्तों के लिए श्रीवास ठाकुर का चरित्र आदर्श हैं। जैसा कि मैंने बताया कि नारद मुनि ही श्रीवास ठाकुर बने हैं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को और उनके अनुयायियों को अपना योगदान दे रहे हैं।अब हम श्रीवास ठाकुर की मुख्य लीलाओं का वर्णन करेंगे।वर्णन तो नहीं कह सकते केवल नाम ही गिना पाएंगे। पूरी लीला तो नहीं कह पाएंगे। यहीं से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन आंदोलन प्रारंभ हुआ।चैतन्य महाप्रभु ने गया में दीक्षा ली और दीक्षा लेकर महाप्रभु नवदीप मायापुर लोटे तो लौटने के बाद श्रीवास ठाकुर के आंगन में संकीर्तन होने लगा। सभी पंचतत्व सदस्य वहां उपस्थित रहा करते थें। केवल शुद्ध भक्तों की संगति में रात भर अमृतमय कीर्तन हुआ करता था। पूरी रात ही जागरण हुआ करता था। एक दिन श्रीवास ठाकुर के आंगन में कीर्तन हो रहा था और उसी समय उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। जैसे ही पुत्र की मृत्यु हुई श्रीवास ठाकुर की पत्नी मालिनी और कुछ माताएं वहां पहुंच गई और क्रंदन करना प्रारंभ करने लगी किंतु तुरंत ही उन्हें रोकते हुए श्रीवास ठाकुर ने कहा कि चुप हो जाओ चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन हो रहा हैं, उसमें व्यवधान उत्पन्न नहीं होना चाहिए हरि हरि।। एक लीला ऐसी भी है कि एक ब्रह्मचारी थे,जो केवल दूध ही लेते थे। दूध ही उनका आहार था। एक दिन वह श्रीवास आंगन में पहुंचे और चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन में सम्मिलित होने की इच्छा करने लगे। उनकी महत्वाकांक्षा थी कि चैतन्य महाप्रभु का दर्शन कर सके और महाप्रभु के परिकरो के संग में कीर्तन कर सकें। श्रीवास ठाकुर के साथ उनका कुछ समझौता हुआ। श्रीवास ठाकुर ने उनको अनुमति तो दे दी पंरतु क्योंकि वह शुद्ध भक्त नहीं थे ईसलिए चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें इजाजत नहीं दी।यह लीला भी श्रीवास आंगन में घटित हुई।
नित्यानंद प्रभु श्रीवास ठाकुर के घर में ही रहने लगे थे,क्योंकि चैतन्य महाप्रभु अपने घर में यानी कि योगपीठ में रहते थे और योगपीठ श्रीवास ठाकुर के आंगन से बहुत ही निकट था इसलिए नित्यानंद प्रभु ने श्रीवास ठाकुर के घर को ही अपना निवास स्थान बना लिया। भविष्य में जीव गोस्वामी घर बार,धन दौलत छोड़कर नवद्वीप हरे कृष्ण आंदोलन से जुड़ने के लिए आए। उनका जन्म स्थान रामकेली था। मायापुर आते ही वह सीधे श्रीवास ठाकुर की बाड़ी पर पहुंच गए। वहां नित्यानंद प्रभु के साथ उनका मिलन हुआ इसलिए श्रीवास आंगन, नित्यानंद प्रभु और जीव गोस्वामी का मिलन स्थल बना। इसीलिए उसे सर्वप्रथम मिलन स्थली भी कहते हैं। श्रीवास ठाकुर के घर पर जब भक्त पूरी रात भर कीर्तन किया करते थे तो उस समय कर्मकांडी ब्राह्मण या निंदक श्रीवास ठाकुर की बेजती करना चाहते थे। उन्होंने एक दिन सबको बुलाकर कहा कि देखो यह कैसा वैष्णव है इनके घर के सामने रखा हैं।गोपाल चप्पल ने उनके घर के सामने देवी पूजा का सामान रख दिया था। एक गोपाल चप्पल नामक व्यक्ति थे, जो निंदा करने में बहुत पटायित थे। वह वैष्णव के प्रति अपराध करने में बहुत ही निपुण थे।ऐसी निपुणता बिल्कुल भी अच्छी नहीं हैं। अगर कोई ऐसा निपुण है तो अपनी ऐसी निपुणता को छोड़ दो।कुछ अपराधी वैष्णव अपराधियों में नामी अपराधी होते हैं। यह गोपाल चप्पल ऐसे ही नामी अपराधी थे। हमलोगो को ऐसा नाम ही अपराधी नहीं बनना हैं। हरि हरि।।
गोपाल चप्पल ने कुछ शराब और एक मटके में कुछ मीट ला कर श्रीवास ठाकुर के आंगन के सामने रख दिया था। उन्होंने ऐसी सामग्री लाकर उनके घर के सामने रख दी थी जिसका उपयोग दुर्गा पूजा वाले करते हैं। जैसे ही उस रात्रि का कीर्तन समाप्त हुआ था तो गोपाल चप्पल कई सारे लोगों को इकट्ठे करके ले आए और उन्हें कहा कि यह देखो! यह कोई वैष्णव नहीं हैं। यह तो दुर्गा पूजा करने वाला हैं। ऐसा करने की वजह से इस अपराधी का बहुत ही बुरा हाल हुआ। उन्हें कोढ की बीमारी ने पकड़ लिया। कुछ जल्दी या बाद में ऐसा ही होता हैं, जब हम वैष्णव अपराध करते हैं। यहां यह बात ध्यान में रखने वाली हैं कि अपराध का परिणाम कैसा होता हैं। तो यह घटना भी श्रीवास ठाकुर के द्वार के सामने ही घटी हैं। यह लीला चैतन्य भागवत में हैं। चैतन्य चरित्रामृत में चैतन्य महाप्रभु की बाल लीलाओं का विवरण हैं। मायापुर और नवद्वीप लीलाओं का वर्णन कम हैं। अधिकतर मायापुर और नवदीप लीलाओं का वर्णन आप चैतन्य भागवत में पढ़ सकते हो।चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु की व्यास पूजा मनाना चाहते थे। यह व्यास पूजा चैतन्य महाप्रभु श्रीवास ठाकुर के घर में ही मनाना चाहते थे।
नित्यानंद प्रभु आदि गुरु हैं। तो श्रीवास आंगन में ही नित्यानंद महाप्रभु की व्यास पूजा मनाई गई। क्या आपको याद हैं कि मैनें एक बार आपको बताया था कि एक बार एक सप्त पहर महा प्रकाश लीला संपन्न हुई थी। जिस लीला में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सारे नवद्वीप वासियों को आमंत्रित किया था।सभी को बुलाया और विशेष दर्शन दिया। जिस भगवदता को वह छुपाना चाहते थे उस भगवदता का प्रदर्शन किया। महाप्रभु अपनी भगवदता को छुपाना चाह रहे थे लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। तो 1 दिन उन्होंने स्वयं ही सभी को बुलाकर अपनी भगवदता का प्रदर्शन किया। उस दिन 21 घंटों तक सप्त पहरीय कीर्तन किया।सप्त पहर मतलब 21 घंटे। एक पहर 3 घंटे का होता हैं। उस दिन उन्होंने 21 घंटे तक भगवत साक्षात्कार किया।वैसे तो श्री कृष्ण चैतन्य एक भक्त की भूमिका निभा रहे थे,किंतु उस दिन उन्होंने दिखाया कि वह “कृष्णसतु भगवान स्वयं” हैं।उस दिन उन्होंने हर भक्त को अपने-अपने भाव के अनुसार दर्शन दिए। मुरारी गुप्त को उन्होंने राम जी के रूप में दर्शन दिए। उनके लिए वह श्री राम बने।जब मुरारी गुप्त दर्शन कर रहे थे तब उन्होंने खुद की और देखा तो पाया कि पीछे पूछ थी।वह हनुमान बने थे।
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि:।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:।।
(श्रीमद भगवतम २.१०.०६)
हर भक्त ने भगवान की शाश्वत लीला में जो रूप हैं,जो भी उनका संबंध हैं, उसी स्वरूप को धारण कर रखा था।सारे भक्तों ने तो उस स्वरूप के अनुसार दर्शन किया। उन सबको भगवत् साक्षात्कार भी हो रहा था और खुद का साक्षात्कार भी हो रहा था। यह बहुत ही तीव्र अनुभव था ।जो कि 21 घंटे तक चलता रहा था। यह लीला इन्हीं श्रीवास ठाकुर के प्रांगण में हुई। हरि हरि ।।
श्रीवास ठाकुर के निवास स्थान पर अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु से विशेष निवेदन किया था कि मैंने आपको पुकारा था कि आप इस संसार में आकर धर्म स्थापना करोगे या परित्राणाय साधु नाम करोगे,दुष्टों का विनाश करोगे
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
भगवत गीता 4.8।।
लेकिन ऐसा तो आप कुछ नहीं कर रहे हो। आप की लीलाएं तो शुद्ध भक्तों के संग में संपन्न हो रही हैं। तो दुनिया का क्या होगा? जिसके लिए मैंने आपको बुलाया था।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनका यह निवेदन भी स्वीकार कर लिया। उस समय से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन सारे संसार के लिए उपलब्ध कराया। सारे नवद्वीप भर में नगर संकीर्तन होने लगा।
udilo aruna puraba-bhage,
dwija-mani gora amani jage,
bhakata-samuha loiya sathe,
gela nagara-braje
(भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित)
जो कीर्तन श्रीवास ठाकुर के आंगन तक सीमित था,अद्वैत आचार्य के आग्रह से अब वह सभी के लिए उपलब्ध हो गया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सर्वत्र प्रचार करने लगे। जब प्रचार करने लगे तो उसका विरोध भी होने लगा। उस समय नवाब हुसैन शाह की सरकार चल रही थी। वहां के काजी, चांद काजी संकीर्तन को रोक रहे थे और कीर्तन करने वाले भक्तों की पिटाई हो रही थी। एक समय श्रीवास ठाकुर के आंगन में ही चांद काजी ने कीर्तन करने वाले कुछ भक्तों को परेशान किया, उनको पीटा और उनकी मृदंग तोड़ दी। इसीलिए श्रीवास ठाकुर के घर का नाम “खोल भंग डांग” भी पड़ गया। जब हम परिक्रमा के समय श्रीवास ठाकुर के आंगन पर जाते हैं, तो वहां पर लिखा हुआ हैं “खोल भंग डांग”, क्योंकि इसी स्थान पर चांद काजी के लोगों ने मृदंग को तोड़ा।
जब हम श्रीवास ठाकुर के आंगन का दर्शन करने जाते हैं, तो वहां पर वेदी पर वह टूटा हुआ मृदंग भी रखा हैं। वहां जाकर उस मृदंग का भी दर्शन कर सकते हैं।तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने असहयोग आंदोलन कि शुरुआत की।असहयोग आंदोलन को प्रारंभ करने वाले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे।सरकार के साथ सहयोग मत करो। सरकार चाहती थी कि कीर्तन बंद हो, कीर्तन नहीं हो।चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि हम इसकी परवाह नहीं करते। हम इसमें योगदान नहीं देंगे। कीर्तन तो होता ही रहेगा। तो फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसे कीर्तन का आयोजन किया कि सारे नवद्वीप के भक्त वहां पहुंच गए। श्रीवास ठाकुर की बाड़ी पर पूरी नवद्वीप की आबादी से कई गुना अधिक भक्त पहुंच गए। चेतनय भागवत में वर्णन हैं, कि देवता भी अपनी वेशभूषा में परिवर्तन करके उस कीर्तन में सम्मिलित हुए थे।चेतनय भागवत में उस कीर्तन की विशेष शोभा का वर्णन हैं।कीर्तन श्रीवास ठाकुर के आंगन से प्रारंभ हुआ और उसका गंतव्य स्थान था, चांद काजी की कोठी।
अगर आप परिक्रमा में गए हो तो आपको पता होगा, जहां पर चांद काजी की समाधि हैं। कृष्ण लीला में कृष्ण ने कंस का वध किया था,लेकिन चेतनय लीला में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने चांद काजी का वध तो नहीं किया किंतु उन्हें भक्त बना दिया। चांद काजी भक्त बन गए। जब संकीर्तन काजी के निवास स्थान पर पहुंचा तो उसके प्रभाव से ही चांद काजी प्रभावित हुए और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की शरण में आ गए और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने चांद काजी पर विशेष कृपा की और चांद काजी ने कुछ घोषणाएं भी की। और भी कई घटनाएं घटी। उन्होंने घोषणा की कि मेरे पूरे राज्य में कहीं भी आज से संकीर्तन की कोई भी रोकथाम नहीं होगी। आप सब कीर्तन करते रहो। मेरा संपूर्ण योगदान आपके साथ हैं। संकीर्तन करते रहो। मृदंग बजाते रहो।इस तरह चांद काजी वैष्णव बन गए। गोडिय वैष्णव जब नवदीप मंडल परिक्रमा में जाते हैं तो चांद काजी की समाधि का दर्शन अवश्य करते हैं।हम वहां चांद काजी की समाधि की परिक्रमा करते हैं और वहा कि धूल अपने मस्तक पर लगाते हैं। महाप्रभु विष्णु भी थे। ऐसे विष्णु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पतितो को पावन बनाया। उसका ज्वलंत उदाहरण चांद काजी हैं। इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु और श्रीवास ठाकुर का घनिष्ठ संबंध रहा।हरि हरि।। श्रीवास ठाकुर के आंगन से ही चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन आंदोलन की शुरुआत की और कई सारे संकीर्तन उन्हीं के आंगन में किए। श्रीवास ठाकुर का कल आविर्भाव दिवस था।
श्रीवास ठाकुर आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ३.०४.२०२१
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में ७३७ स्थानों से प्रतिभागी जप में सम्मिलित हैं।
हरि! हरि!
हम सब या कहा जाए कि मैं श्रील प्रभुपाद के साथ हुई प्रथम भेंट का उत्सव मना रहा हूँ। यह ५० वीं वर्षगांठ है। श्रील प्रभुपाद के साथ यह भेंट ५० वर्ष पूर्व बॉम्बे के क्रॉस मैदान में चल रहे उत्सव के दौरान हुई थी। हम इन दिनों से इस विषय में कभी अंग्रेजी और कभी हिंदी में चर्चा कर ही रहे हैं। हरि! हरि!
एक दिन उस उत्सव के दौरान घोषणा हुई कि भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद ने रूस अर्थात मास्को की यात्रा करने का कार्यक्रम बनाया है। जब वहां उपस्थित लगभग १००००-२०००० भारतीय दर्शकों की भीड़ ने इस घोषणा को सुना कि एक भारतीय स्वामी कम्युनिस्ट देश रशिया की यात्रा करेंगे, उनके लिए यह आश्चर्यजनक खबर थी। इसका बहुत अधिक स्वागत भी हुआ, उन्होनें तालियां भी बजाई। मैं भी वहाँ उपस्थित दर्शकों में एक था। श्रील प्रभुपाद पहले ही भारत में आ चुके थे और वे अब बंबई में अपने अमेरिकी शिष्यों और यूरोपियन शिष्यों के साथ थे लेकिन उनके पास अभी तक कोई रूसी शिष्य नहीं था। वे अधिक से अधिक देशों में जाने की सोच रहे थे। इसलिए उन्होंने अपना अगला लक्ष्य रूस, मोस्को जाने का बनाया।
पृथिवीते आछे यत् नगरादि ग्राम सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि दुनिया भर में हर शहर और गाँव में मेरे नाम का जप किया जाएगा। श्रील प्रभुपाद उनकी भविष्यवाणी को सच कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद सोच रहे थे और उन्होंने योजना भी बनाई थी कि अब कौन सा देश अवशेष है, ठीक है अब मैं वहां जाऊंगा। वे योजनाएं बना रहे थे। हरि! हरि!
मैं सोच रहा हूं कि चैतन्य महाप्रभु ने एक भविष्यवाणी की थी कि इस पवित्र नाम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। दुनिया भर में एक हर शहर और हर गांव तक पहुंचेगा, इसका क्या अर्थ है?
श्रील प्रभुपाद इसे अवश्य ले जाएंगे न केवल पवित्र नाम ही पहुचेंगा बल्कि भगवान् के पवित्र नाम के पहुंचने से पहले इतनी सारी चीज़ें शहर और गांवों तक पहुंचेगी और होगी। यह कृष्ण भावनामृत चेतना का संपूर्ण पैकेज है। किताबें भी उन जगहों पर पहुँचने वाली हैं और उपदेशक भी उन जगहों पर पहुँचने वाले हैं। किताबें ज़रूरी हैं, यहीं कृष्ण भावनामृत चेतना का दर्शन है।
यह श्रील प्रभुपाद की योजना थी। यह हमारा फैमिली बिज़नेस अर्थात घरेलू व्यापार है और यह उनके आध्यात्मिक गुरु का भी उनको निर्देश था कि यदि तुम्हें धन मिले, तो किताबें छापना (मनी और प्रिंट बुक्स) उन्हें भारत में बहुत धन प्राप्त नही हो रहा था। इसलिए वह कुछ ना कुछ छपवा रहे थे। चूंकि अब वे पश्चिम में थे और उन्हें अधिक धन प्राप्त हो रहा था इसलिए वे उस धन का प्रयोग पुस्तकों की छपाई करवाने में निवेश कर रहे थे। अब तक उनके कुछ अनुयायी थे। प्रभुपाद उन्हें किताबें बाँटने के लिए निर्देश दे रहे थे, डिस्ट्रिब्यूट बुक्स डिस्ट्रिब्यूट बुक्स डिस्ट्रिब्यूट बुक्स। जिन गाँव के कस्बों और नगरों में किताबें बांटी जाएगी, वे लोग हरे कृष्ण का जप करेंगे, वे दीक्षित होगे। वे गुरु भी बनेंगे।
श्रील प्रभुपाद संस्थापकाचार्य होंगे। (मैं कुछ और कहने लगा।)
श्रील प्रभुपाद जगत गुरु हैं। वे कई देशों, कस्बों, गाँवों में पहुँचने वाले थे और पवित्र नाम देने वाले थे। वैसे उन शहरों और गाँवों में पवित्र नाम के पहुँचने के बहुत सारे तरीके हैं। यहां तक कि जार्ज हैरिसन को भी भगवान् के पवित्र नाम का प्रचार करने का श्रेय जाता है। क्या आपने जोर्ज़ हैरिसन का नाम सुना है? वह इंग्लैंड के बड़े ही प्रसिद्ध गायक (बीटलस) हैं। वह श्रील प्रभुपाद के एक अनुयायी हैं। जोर्ज़ हैरिसन के दुनिया भर में हर जगह लाखों प्रंशसक व अनुयायी हैं। जोर्ज़ हैरिसन ने हरे कृष्ण महामन्त्र को गाकर ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्ड किया। एक बार प्रभुपाद के दिनों में उस रिकॉर्डिंग को बेचा और बांटा गया। उस समय उस एल्बम की बिक्री का सर्वश्रेष्ठ रिकॉर्ड रहा। वह ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग उनकी मास्टर वॉइस ( उनकी अदभुत आवाज) में थी।
यह ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग की कई कई स्थानों पर बिक्री हुई। प्रभुपाद और हरे कृष्ण भक्तों के विभिन्न शहरों और गांवों में पहुंचने से पहले ही यह पवित्र नाम लोकप्रिय हो गया और सभी के लिए हर जगह प्रचलित हो गया था। भगवान का नाम स्वयं प्रचलित होने की शक्ति रखता है। पवित्र नाम स्वयं भगवान् है। पवित्र नाम स्वयं उन कस्बों और गाँवों के लिए अपना रास्ता बना रहा था अर्थात पवित्र नाम स्वयं फैल रहा था। जोर्ज हैरिसन तो एक निमित मात्र बन रहे थे।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्
( श्रीमद् भगवतगीता ११.३३)
अनुवाद:- अतःउठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो | ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।
वह प्रभुपाद के अनुयायी हो सकते हैं। फिर भी भगवान् का नाम मंदिरों और अनुयायियों, संघों में फैल रहा था। केवल हरि नाम ही नहीं अपितु मंदिर भी जरूरी हो गए और मंदिरों की स्थापना होने लगी।
राधा कृष्ण मंदिरों, जगन्नाथ, गौरांग के मंदिरों की स्थापना हुई और अब ये मंदिर भी हर कस्बे और हर गाँव तक पहुँचने लगे हैं .. हरि हरि .. लोग हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करने लगे हैं जिससे वे आध्यात्मिक रूप से मजबूत हो सकें और वे माया के प्रलोभनों का विरोध कर सकें। माया- आप यह लीजिए,.. आप इसे पियो। आप यह पोशाक पहनो .. यह सब भ्रामक है। इसलिए जो लोग हरे कृष्ण का जाप करेंगे, उन्हें भक्ति से शक्ति मिलेगी, जो माया का सामना करने के लिए एक शक्ति मिलेगी। यह माया को एक किक होगी। जिससे वे अवैध सेक्स न करना और जुआ न खेलना, मांस भक्षण नही करना, नशापान नही करने के इन 4 नियामक सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम होंगे। यह भी होने वाला है। जैसे जैसे पवित्र नाम फैलेगा, वहां किताबें भी होंगी, पवित्र नाम फैलेगा और वहां मंदिर भी स्थापित होंगे। श्रील प्रभुपाद स्वयं इसे कर रहे थे। भगवान्, प्रभुपाद के ह्रदय में हैं। प्रभुपाद स्वयं कहते थे मेरे आध्यात्मिक गुरु मेरे साथ ही हैं। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर मुझे देख रहे हैं और निर्देश दे रहे हैं।
मुझे दिल में प्रेरणा देने वाला भगवान् है, गौरांग भी यहां है और परम्परा के आचार्य भी हैं। अन्यथा कोई भी व्यक्ति हमारे आस-पास नहीं था। इसके विपरीत सभी प्रतियोगिता करने के लिए खड़े थे ( इसलिए मैंने ऐसा कहा) प्रभुपाद ने इस कृष्ण भावनामृत को अकेले ही (सिंगल हैंड) प्रारंभ किया और हरिनाम का प्रचार कर पूरे विश्व में फैलाया।
भारत सरकार भी कोई मदद नहीं कर रही थी। प्रभुपाद की सहायता के लिए गौड़ीय मठ के सदस्य भी आगे नहीं आ रहे थे। इसलिए प्रभुपाद व्यवहारिक रूप से अपने नए अनुयायियों के साथ थे। जब वे अमेरिका गए, तब अमेरिकन, यूरोपियन अफ्रीकन, रशियन भी उनके साथ थे। जब प्रभुपाद रशिया गए, वहां प्रभुपाद एक युवक से मिले, जिसे प्रभुपाद ने बहुत समय दिया। उसने कोई प्रोग्राम का आयोजन भी किया था। प्रभुपाद मास्को यूनिवर्सिटी के प्रो० कोत्सवकी से भी मिले थे। लेकिन प्रभुपाद ने इस नवयुवक से बहुत सारी बातें की। प्रभुपाद उसे दीक्षा देने वाले थे। प्रभुपाद ने उसे क्रैश कोर्स दिया और उसे अनंत शांति दास नाम भी दिया। अनंत शांति प्रभु, श्रील प्रभुपाद के प्रथम रशिया ( रूसी) शिष्य बनें । अनंत शेष प्रभु ने कृष्ण भावनामृत चेतना को पूरे रशिया में फैलाया जिससे धीरे धीरे रशिया से और अधिक भक्त जुड़ने लगे। इसी प्रकार यूक्रेन से अर्जुन जुड़ गए, ओजस्वनि, माधवनंदनी, नंदिनी जुड़ गई ( यह तो नई पीढ़ी है) हरि! हरि! तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने गुरुकुल विद्यालयों को स्थापना की। इस प्रकार नई नई परियोजनाएं खुल रही थी अर्थात अधिक से अधिक कृष्ण भावनामृत और नए प्रोजेक्ट्स का खुलासा हो कुछ सामने आ रहा था। वे खुलासा कर रहे हैं । इस प्रकार वे कृष्ण भावनामृत का प्रचार कर रहे थे और भगवान् के पवित्र नाम को आगे बढ़ा रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने गुरुकुल स्कूल व गौशाला भी शुरू किए।
नमो ब्राह्मणदेवाय गो ब्राह्मण हिताय च। जगत हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः।।
( विष्णु पुराण १.१९.६५)
वर्णाश्रम धर्म के स्थापना की व्यवस्था हो रही थी। श्रील प्रभुपाद ने फार्म कम्युनिटी की स्थापना की। वे न्यूयॉर्क में थे। लेकिन वे हर जगह थे। वे सेंन फ्रांस्सिको, मोंट्रियल में थे। उन्होंने अपनी टीम को इंग्लैंड में भेजा। उन्होंने अपनी टीम को अफ्रीका भेजा। प्रभुपाद स्वयं भी साउथ अफ्रीका गए। वे यहाँ वहां सभी जगह गए। जब प्रभुपाद पश्चिम में गए थे, उनके पास कोई पैसा नहीं था। उनके पास वायुयान की यात्रा का किराया देने के लिए धन भी नहीं था। इसलिए प्रभुपाद कार्गो जहाज से अमेरिका गए थे।
जैसा कि आप जानते ही हो कि श्रील प्रभुपाद जब एक वर्ष न्यूयॉर्क में थे। उन्होंने वहां से सेन फ्रान्सिको के लिए उड़ान भरी। 1966 में यह उनकी पहली हवाई यात्रा थी। उससे पूर्व उन्होंने कभी भी हवाई यात्रा नहीं की थी। जब उन्होंने यूयॉर्क से सेन फ्रांस्सिको के लिए हवाई यात्रा की, तब कहा जा सकता है कि वे अंतर्राष्ट्रीय यात्री बन गए।
वे अब दुनिया भर में यात्रा कर रहे थे, उस समय उन्हें जेटऐज परिव्राजकाचार्य के रूप में जाना जाने लगा।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ९.२२)
अनुवाद:- किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ।
श्रील प्रभुपाद के पास धन की कमी थी लेकिन भगवान् कृष्ण उन्हें उपलब्ध करवा रहे थे। जब प्रभुपाद न्यूयॉर्क में आए थे तब प्रभुपाद के पास आंतरिक रुप से कोई फंड (धन) नहीं था। उनके पास मात्र चालीस रुपये थे अर्थात आठ डॉलर थे, चालीस डॉलर नहीं थे लेकिन फिर वर्ष 1977 में जब वे प्रयाण हुए उन्होंने लगभग चार करोड़ डॉलर की सम्पति अपने पीछे छोड़ी। यह प्रभुपाद की सम्पति कृष्ण की सम्पति है। भगवान् कृष्ण हर जगह, हर स्थान पर कृष्णभावनामृत के प्रचार हेतु धन, सारी सुविधाएं, मैनपावर उपलब्ध करवा रहे थे। प्रभुपाद ने उत्सव जैसे जन्माष्टमी और राधाष्टमी हर जगह सेलिब्रेट( मनाने) प्रारंभ करवाए। उन्होंने लोकप्रिय रथ यात्रा उत्सव का प्रारंभ भी करवाया। उन्होंने प्रसाद वितरण अर्थात फ़ूड फ़ॉर लाइफ का प्रारंभ करवाया।
उन्होंने अपनी शेष जीवन अवधि में अथार्त वर्ष 1965 से 1977 में प्रस्थान करने तक लगभग केवल 10 या 12 वर्षों में यह सब किया। उन्होंने कृष्णभावनामृत आंदोलन में कृष्णभावनामृत का प्रकटीकरण थोड़े समय के भीतर किया है। हम इसे भगवतगीता के श्लोक से अनुभव कर सकते है।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.७८)
अनुवाद:- जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन है, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है। ऐसा मेरा मत है।
यह भगवतगीता का अंतिम वां अथार्त ७०० वां श्लोक है। जहाँ कृष्ण, गौरांग और श्रील प्रभुपाद हैं। यह एक टीम है। सही! जैसे गुरु और गौरांग! गुरु- श्रील प्रभुपाद, संस्थापक आचार्य और गौरांग कृष्ण और कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। आप वहां क्या देखते हैं, आप वहां पर उनके ऐश्वर्य देखते हो। ये ऐश्वर्य अलग-अलग तरह के हो सकते हैं, लोगों को इसका एहसास नहीं होता है कि आध्यात्मिक ऐश्वर्य क्या है? तत्र श्रीर्विजयो- जहाँ गुरु गौरांग का दल( टीम) है जैसे कृष्ण और अर्जुन, गौरांग और प्रभुपाद, वहां जीत निश्चित है अर्थात जीत की गारंटी है। श्रील प्रभुपाद विजेता अथवा विजयी बनें।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् ।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१२)
अनुवाद:-श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
प्रभुपाद ने श्रीचैतन्य महाप्रभु के इस वाक्य को सिद्ध करके दिखाया। परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम। यह संकीर्तन आंदोलन की विजय है। प्रभुपाद के संकीर्तन आंदोलन विजयी हुए। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम श्रील प्रभुपाद में शक्ति का असाधारण समावेश है। नैतिकता और नैतिकता के सिद्धांत की स्थापना हुई। हम श्रील प्रभुपाद की अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ में यह सब होते हुए देख रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद निमित मात्र बने हैं।
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।
जैसे कृष्ण, कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन को निमित बनाना चाहते थे। अर्जुन उनके इंस्ट्रूमेंट(माध्यम) बनकर विजयी हुए, वैसे ही यह वर्ल्ड वाइड( विश्व व्यापी) युद्ध है। प्रीचिंग इज फाइटिंग( प्रचार कर लड़ना है) प्रभुपाद सेनापति भक्त अथवा संकीर्तन आर्मी में कमांडर-इन- चीफ के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने एक नाव उधार ली और कलयुग की राजधानी न्यूयॉर्क को लक्ष्य किया। प्रभुपाद ने वहां टाइम बम अर्थात अपनी पुस्तकों और पवित्र नाम के हथियारों के साथ प्रवेश किया। उन्होंने हरि नाम के बम की वर्षा की और गुलाब जामुन अर्थात बुलेट्स की दावत दी। आप माया को इस्कॉन के गोलियों अर्थात गुलाब जामुन खा कर अपने से दूर रख सकते हो।
भगवान् कृष्ण या गौरांग महाप्रभु ने श्रील प्रभुपाद को एक उपकरण बनाया।
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्
भक्तिवेदांत स्वामी निमित्तमात्रं भव। निश्चित ही गौरांग महाप्रभु की ओर से श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने 1922 में कोलाकाता में उल्टडांगा में अभय बाबू को निर्देश दिया था और भक्तिवेदान्त स्वामी को इंस्ट्रूमेंट अथवा उपकरण बनने को कहा था।
निमित्तमात्रं भव । ‘पश्चिम में जाओ। कृष्णभावनामृत का प्रचार अंग्रेजी भाषा में करो। ‘ यह भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की ओर से भक्तिवेदांत स्वामी को एक निर्देश था। जैसे कुरुक्षेत्र युद्ध क्षेत्र में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया था, वैसे ही यह श्रील प्रभुपाद के लिए निर्देश के समान था। इसलिए प्रभुपाद ने गौरांग के उपकरण बनने की सफलतापूर्वक अपनी भूमिका निभाई । इसके परिणामस्वरूप कृष्णभावनामृत पूरे संसार भर में फैला। तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने पूरे विश्व में प्रचार किया। तब वे 1971 में भारत में वापिस आए। अब वह भारत को भी जीतना चाहते थे। वे त्यौहारों का आयोजन कर रहे थे। बहुत भाग्य की बात है कि श्रील प्रभुपाद ने 1971 में क्रॉस मैदान में उत्सव का आयोजन किया था। यह मानना होगा कि हम पर गौरांग की कृपा हुई।
ब्रह्मांड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति लता बीज।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१)
अनुवाद:- सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्मांड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह- मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह- मंडलों को। ऐसे करोड़ो भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण और गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रुपी लता के बीज को प्राप्त करता है।
वहां लगभग दस हजार, बीस हजार और कभी कभी तीस हजार लोग भी श्रील प्रभुपाद के संपर्क में आए। वहां पर उन्हें श्रील प्रभुपाद और उनके अनुयायियों को देखने और सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं उन भाग्यशाली आत्माओं में से एक था। यह भी कहना चाहिए कि राधानाथ महाराज एक और भाग्यशाली आत्मा थे अर्थात हम दोनों को प्रभुपाद से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। श्रील प्रभुपाद ने तुरंत ही हम पर अपनी कृपा की और हम उनके अनुयायी और तत्पश्चात धीरे-धीरे उनके शिष्य बन गए। धन्यवाद श्रील प्रभुपाद! हमें स्वीकार करने के लिए, हम आपके आंतरिक रूप से ऋणी हैं।
धन्यवाद श्रील प्रभुपाद!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
हरे कृष्ण!
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