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*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*26 सितंबर 2021*
हरे कृष्ण । हमारे साथ 770 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरी बोल। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । आपका स्वागत है। मेरा भी स्वागत पंढरपुर में हो रहा है । आप सुन रहे हो। आपको सुनाई दे रहा है? ठीक है। सुनना चाहोगे, तब सुनाई देगा। हरि हरि। गौरंग। मंगला आरती हो गई। वृंदावन में मंगला आरती में गाते हैं। तृणादपि रिट्रीट वाले भी बैठे हैं । आप गोवर्धन में हो क्या? अभी तृणादपि पढ़ रहा था। आपके लिए कुछ अलग से कुछ सोचा नहीं था, रिट्रीट वालों के लिए। वृंदावन धाम की जय। आप भाग्यवान हो। वृंदावन में पहुंच गए हो । गिरिराज गोवर्धन की जय । गोवर्धन तलहटी में कई सारे भक्त पहुंचे हैं, रिट्रीट के लिए उसका नाम रखा है ।
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना ।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 17.31)
अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ।
कीर्तनीयः सदा हरिः वैसे तभी संभव होता है जब तृणादपि सुनीचेन। यह एक बात हुई। तृणादपि तृण से भी नीचे, सुनीचेन नम्र होकर, जैसे घास का तिनका होता है। आप उस पर चलते हो, उसको ठुकराते हो। वह शिकायत नहीं करता है। हरि हरि। नम्र होना चाहिए। नम्र और सहनशीलता का उदाहरण देने के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने एक तो घास का तिनका और सहनशीलता के लिए वृक्ष का उदाहरण दिया है। घास का तिनका भी और वृक्ष लता बेल का भी। तो जब हम होंगे तृणादपि सुनीचेन अंग्रेजी में कहते हैं। वैसे मैं भी कहता रहता हूं इन सच अ स्टेट ऑफ माइंड वन कैन चेंट द नेम ऑफ लॉर्ड कांस्टेंटली (ऐसी मानसिक स्थिति में भगवान के नाम का जप करना चाहिए)। कीर्तनीयः सदा हरिः, लक्ष्य तो है कीर्तन करना। कितने समय के लिए और कब-कब कीर्तन करना है? सदा हरि। सदा मतलब सदैव। प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य की बात है। तो भगवान की भक्ति ऐसी करनी होती है। कैसी करनी होती है? अहैतूकी अप्रतियथा। इसमें कोई हेतू भी और कोई कारण भी ना हो। हम भगवान के सेवक हैं। तो और क्या कारण है? भगवान हमारे मालिक ही नहीं, मित्र भी बनते हैं। उनकी सेवा करना हमारा धर्म है। अहैतुकि, कृष्ण भगवान की सेवा क्यों करें? पूछा जा सकता है। क्यों नहीं । ऐसे पूछने वाले हैं कि भगवान की सेवा क्यों करें। उसका उल्टा, वैसे सुल्टा प्रश्न है कि भगवान की सेवा क्यों ना करें? भगवान की सेवा के लिए ही तो हमें बनाया है। हमारा धर्म है, भगवान की सेवा इसीलिए अहैतुकी जिसमें हेतु नहीं होता। चैतन्य महाप्रभु आगे कहे है।
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये ।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥
( शिक्षाष्टकम् 4 )
अनुवाद:- हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ।
चैतन्य महाप्रभु प्रार्थना कर रहे हैं कि मुझे आपकी सेवा में लगाईए। जब हम जप करते हैं तो सेवा योग्यं गुरु सेवा योग्यं गुरु, ऐसी प्रार्थना जप के समय यह भाव है तो और जप भगवान है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण भगवान है तो भगवान से जप करने वाला प्रार्थना भी कर रहा है। मुझे सेवा के लिए योग्य बना दो। सेवा के लिए योग्य हम कैसे बनेंगे? तृणादपि सुनीचेन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हम को मंत्र दिया है। ऐसे मन की स्थिति में हमें जप करना चाहिए। तो कुछ शर्ते बताई है, यह कंडीशन है। तो फिर क्या होगा? फिर कीर्तनया सदा हरी संभव होगा। सदा कीर्तन करना है और कब-कब कीर्तन करना है। गौडिए वैष्णव और रिट्रीट के भक्तों 2 मिनट नाम लेना चाहिए। प्रातः काल में जब उठते हैं और सोने से पहले 2 मिनट हो गया। भगवान खुश हो जाओ। 2 प्लस 2, 4 मिनट आपकी सेवा में हमने अर्पण करें और हमारे लिए कितने मिनट 23 घंटे 56 मिनट और आपके लिए 4 मिनट। इस दुर्देव से भारत भूमि में भी ऐसा लोग सोचते हैं। हम पागल थोड़ी ही है हरे कृष्ण वाले। हमारा कर्तव्य भी है, काम धंधे भी है। लेकिन लोग समझते नहीं हैं कि कर्तव्य क्या होता है। कर्तव्य यानी करने योग्य। करने योग्य तो सिर्फ कृष्ण की सेवा ही है। कीर्तनया सदा हरी यही कर्तव्य हैं। क्या कर्तव्य हैं? यही कर्तव्य है कीर्तनीय सदा हरी। कीर्तनीय सदा हरी जब कहा है तो भगवान की कीर्ति से संबंध है। भगवान का कीर्तन हमेशा करना चाहिए, सदैव करना चाहिए।
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना ।
श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ ।
यह भी नित्य करना चाहिए। विग्रह की आराधना सदैव करनी चाहिए और सैदव करते रहना चाहिए। हरि हरि। वह भी कीर्तन है। वह भी कीर्ति है। जब हम विग्रह की आराधना करते हैं तो हम भगवान का कीर्तन करते हैं या फिर विग्रह की आराधना के साथ भी कीर्तन करना चाहिए। ऐसा भी समझना चाहिए। हमारे हरे कृष्ण आंदोलन में ग्रंथ वितरण को भी हम कीर्तन समझते हैं। हर समय हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे तो नही करते। यह समय है गीता जयंती का तो गीता लो गीता पढ़ो या अभद्र पूर्णिमा आ गई तो भागवत का सेट ले लो। उसका प्रचार करते हैं। भगवतम का और गीता का वितरण करते हैं। हरे कृष्ण आंदोलन में इसको संकीर्तन कहते हैं। संकीर्तन पार्टी मतलब हरे कृष्ण हरे कृष्ण कीर्तन करने वाली पार्टी ही नहीं है। ग्रंथ वितरण करने वाली पार्टी है संकीर्तन पार्टी है। ग्रंथ वितरण कर के भगवान का गौरव गाथा भी गाते हैं। गौरव गाथा जिस ग्रंथ में है उसी को देते हैं। उसको कोई पढ़ेगा भगवान की कीर्ति फैलती है या ग्रंथों में है। तो हो गया संकीर्तन हुआ। कीर्तनीयः सदा हरिः को भी समझना चाहिए। कीर्तनीयः सदा हरिः मतलब केवल कीर्तन ही नहीं है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण ही नहीं है। भगवान की सेवा भी कीर्तन है। अलग-अलग प्रकार की सेवा। अलग-अलग प्रकार की सेवा करते हुए भी हमको कीर्तन करना है ऐसा हमको जीव गोस्वामी समझाते हैं। वितरण भी कर रहे हैं, रसोई भी बना रहे हैं, वह भी कीर्तन है। वह भी सेवा है। कीर्तनीयः सदा हरिः हमें एक समय कीर्तनीयः सदा हरिः हमारा लक्ष्य है। भगवत धाम भी पहुंचना है। भगवत धाम पहुंचेंगे तो प्रातः काल 2:00 मिनट और शाम को 2:00 मिनट, ऐसा नियम नहीं चलता है। भगवत धाम में , गोलोक में वहां पर रात और दिन भगवान का कीर्तन , भगवान का संग, भगवान का सानिध्य, भगवान का दर्शन, भगवान भगवान, भगवान के लिए यह, भगवान के लिए वो। वहां पर ऐसा होता रहता है। कीर्तनीयः सदा हरिः करना है, तो कैसे कर सकते हैं? तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा इसको कहने से पहले कहा था। *दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः* यह दुर्देव की बात है कि मुझे हरि नाम अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है। अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है, मुझे आकर्षण नहीं है मुझे हरि नाम में प्रेम नहीं है, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा द्वितीय शिक्षाष्टकम् में कहे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने तीसरे शिक्षाष्टकम् में अंत में कहा कि कीर्तनीयः सदा हरिः। मेरा दुर्देव है, में अभागी हूं। मुझे अनुराग नहीं है, हरिनाम में कोई आकर्षण नहीं है। कैसे आकर्षण बढ़ सकता है? इसके लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तृणादपि सुनीचेन की बात कह रहे हैं। इसको भलीभांति समझना चाहिए। ऐसे मन की स्थिति में कैसी मन की स्थिति है? हमको बताया है तृणादपि सुनीचेन इस मंत्र में शिक्षाष्टक में चैतन्य महाप्रभु ने कोई लंबी चौड़ी शिक्षा नहीं दी है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के केवल आठ निर्देश है, 8 वचन है या वाक्य है। उसमें से यह तीसरा वाक्य बड़ा ही महत्वपूर्ण है। तृणादपि सुनीचेन इतना महत्वपूर्ण है कि ऐसा सुझाव है कि तृणादपि सुनीचेन मंत्र की माला गले में धारण करनी चाहिए। इसको हृदय के पास रखना चाहिए। तृणादपि का जो भाव है। *तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।*
*अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।* नम्र लोग भगवान के राज्य में वास करेंगे। ईसाई धर्म में और बाइबिल में ऐसी समझ है कि नम्र है, विनम्र है वह पात्र बनेंगे। भगवत धाम प्राप्ति के पात्र बनेंगे। वह योग्य उम्मीदवार बनेंगे। कीर्तनीयः सदा हरिः करने के लिए और फिर अंततोगत्वा भगवत धाम में लौटने के लिए तृणादपि सुनीचेन, यह जो भाव है, विनम्रता इसको पात्रता भी कहा है।
विद्यां ददाति विनयं,
विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति,
धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥
अनुवाद:- विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है ।
*विद्यां ददाति विनयं* विद्या ही देती है विनय। विद्या क्या देती है? विनय देती है।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
( भगवद् गीता 5.18 )
अनुवाद:- विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
ब्राह्मण का भगवत गीता में उल्लेख किया है। ब्राह्मण के 2 लक्षण बताएं हैं। ब्राह्मण युक्त होते हैं, किससे? विद्याविनयसम्पन्ने, विनय संपन्न ब्राह्मण। जो सचमुच विद्वान है, यह व्यक्ति विद्वान है कि नहीं कैसे परीक्षा लोगे? कैसे पता लगवाओगे? वो विनम्र है तो विद्वान है। सचमुच ज्ञानवान है, वह नम्र ही होगा क्योंकि ज्ञानवान होना मतलब भगवान के निकट होना। यह मराठी में चलता है कि भगवान महान है और हम लहान है। यह ज्ञान हैं। हम छोटे हैं, अंश है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
( भगवद् गीता 15.7 )
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
हम एक शूद्र जीव हैं। यह ज्ञान है। भगवान महान है यह भी ज्ञान है। हम अंश हैं छोटे हैं यह भी ज्ञान हैं। तो ऐसा ज्ञान, ऐसी विद्वत्ता, *विद्यां ददाति विनयं* क्या देती है? विनय देती है। देखा तो उल्टा होता हुआ देखते हैं। विद्वान या ब्राह्मण तो घमंडी होते हैं, पाखंडी होते हैं। ब्राह्मण विद्वान अधिकतर घमंडी देखे जाते हैं। लेकिन सचमुच जिसने विद्या का अर्जन किया हुआ है। वह नम्र बनेगा। *विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।* विद्या क्या बनाती है? नम्र या विनय व्यक्ति पात्र बनता है। पात्र मतलब बर्तन जिसमें हम कुछ रखते हैं। पात्र बनेंगे, कृष्ण को भी हम धारण कर सकते हैं। ध्यान धारणा समाधि। *तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।*
सहनशीलता भी कैसी? वृक्ष जैसे सहनशील । कठिन तो है किंतु किसी वृक्ष के नीचे हम लोग आराम करते हैं उस वृक्ष की छाया में बैठते हैं हो सकता है उसी वृक्ष के कुछ फल भी चख रहे हैं और फिर उसी पेड़ को कुल्हाड़ी से हम काट भी रहे हैं तो वो वृक्ष कोई शिकायत नहीं करता । उल्टा तुमको कोई पीटता नहीं है, सहन करता है । यह है सहनशीलता हरि हरि !! और यह सहनशीलता का ज्वलंत उदाहरण नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की ! उनकी सहनशीलता । उनको जब दंडित किया जा रहा था, चांद काजी के लोग सिपाही या जो भी 22 बाजारों में पीट रहे थे । हजारों लोगों के समक्ष पिटाई हो रही थी तो सहन किया उन्होंने और इसीलिए भी सहन किया उनका हरि नाम में इतनी श्रद्धा थी , हरि नाम में श्रद्धा नहीं होना भी नाम अपराध है तो नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की हरि नाम में इतनी श्रद्धा इतने आसक्त थे कि वह कह रहे थे जब उनको पीटा जा रहा था चाबुक से या डंडे से । मेरा शरीर खंड खंड हो सकता है मुझे परवाह नहीं है लेकिन मैं नाम लेना नहीं छोडूंगा । हर हाल में में कीर्तन करूंगा ही तो हरि नाम में जो श्रद्धा थी और फिर हरि नाम में श्रद्धा हरि नाम भगवान है तो इतनी श्रद्धा थी हरी ना में मतलब भगवान में श्रद्धा हरि नाम में श्रद्धा मतलब भगवान में श्रद्धा । इसलिए वह सहन भी कर पाए या वैसे भगवान स्वयं ही सारी पिटाई वैसे भगवान के पीठ पर हो रही थी । चैतन्य महाप्रभु के पीठ पर हो रही थी भगवान बीच में आ रहे थे । यह शप्त प्रहरी यह जो लीला हुई तो चैतन्य महाप्रभु ने दिखाया । उस लाठी के निशान महाप्रभु के नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने देखा तो हैरान हो गए मेरे लिए आपने सारा यह सह लिया हरि हरि !! यह भी एक फिर उच्च स्तर पर यह सब होता है । सहन कैसे कर पाते हैं ? भगवान शक्ति देते हैं । भगवान सामर्थ्य देते हैं । भगवान ही ऐसी चेतना देते हैं । ठीक है मैं तो शरीर हूं ही नहीं, मैं तो आत्मा हूं तो आत्मा का क्या बात ? ...
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
( भगवद् गीता 2.23 )
अनुवाद:- यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है ।
आत्मा तो किसी शस्त्र से काटा नहीं जा सकता और आग इसको जला नहीं सकती तो इस प्रकार का आत्म साक्षात्कार भी है तो सहनशीलता संभव है या यह सहन करना संभव है । लेकिन हमारा आत्मसाक्षात्कार क्या है ?
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.84.13 )
अनुवाद:- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता - ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है ।
मैं तो तीन धातु का बना हुआ यह शरीर है कफ, पित, वायु का बना हुआ यह मैं हूं । शारीरिक चेतना पर जो है वह तो सहन नहीं कर पाएगा । उसके लिए हर बात असहनीय होती है । लेकिन जिसका जो आत्म साक्षात्कार है जो साक्षात्कार है मैं आत्मा हूं तो आत्मा को तो काटा या पीटा नहीं जा सकता यह सब शरीर के स्तर पर ही होता है तो यह सब अनुभव या साक्षात्कार भी तो इसी को विद्वान कहेंगे । फिर ज्ञान भी हो रहा है । ज्ञान का साक्षात्कार भी हो रहा है । सूचनाएं एकत्र करना का रूपांतरण भी हो रहा है । कंठ में रखे हुए जो श्लोक है उसको हृदयंगम हम कर रहे हैं या
"तृणादपि सु-नीचेन" यह सब समझने के लिए यह सब संबंधित बातें भी है तो नम्रता सहनशीलता यह अनिवार्य है और आगे कौन सी शर्त है ताकि "कीर्तनीयः सदा हरिः" हो जाए । 16 माला जप रोज हम संकल्प लेते हैं तो लेकिन धीरे धीरे 16 के हम 8 कर देते हैं माला और फिर 4 कर देते हैं माला । अभी तो एक भक्त मिला मुझे । कोशिश की स्थिति में मैंने जप ही नहीं किया,जप हो ही नहीं रहा था । ऐसा भी होता है हमारी । हमें तो 16 के स्थान पर वैसे 32 करते हैं माला या 64 माला कर सकते हैं अधिक अधिक माला बढ़ाना है । मात्रा में गुण में भी "कीर्तनीयः सदा हरिः" तो इसके लिए आगे फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे हैं ऐसी मन की स्थिति में, कैसी मन की स्थिति में ? "अमानिना मानदेन" यह इसको उपकरण भी कहते हैं या तृतीया विभक्ति के यह शब्द है । अमानि । अमानी शब्द का अमानीना । मतलब अमानी होकर । अमानी मान 'द' शब्द है तृतीया विभक्ति मान देन हुआ तो अमानीन-मानदेन तो 2 क्रियाएं हैं । 2 भावहै 2 स्वभाव है व्यक्तित्व है । एक तो अमानी होना । अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा नहीं रखना । कितना मुश्किल कार्य है वैसे । पूजा लाभ प्रतिष्ठा और बहुत कुछ छोड़ सकते हैं यह 4 नियमों का पालन कर सकते हैं और भी बहुत कुछ कर सकते हैं लेकिन हमसे बध्ध जीव से यह लाभ पूजा प्रतिष्ठा हमारी पूजा हो । हमें कुछ लाभ हो कुछ विशेष व्यक्तित्व है स्थान है ऐसी समझ है । ऐसा प्रचार हो ऐसा घोषणा हो हमारे नाम का कुछ बोर्ड लगे यह हो वह हो । यह वधध जीव बहुत चाहता है तो अमनि मतलब उसके विपरीत जो चाहता है अमानिन और "मानदेन" औरों का सम्मान करने वाला । औरों का सनमान सत्कार करने वाला और उसी के साथ पहला नाम अपराध जुड़ा हुआ है सत्ताम निंदा । संतों की भक्तों की निंदा करना । उनके चरणों में अपराध करना । काएन, मनसा अपराध, बाचा से अपराध । शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से, वचन के रूप से और हम उसमें बड़े दक्ष होते हैं और इसको नाम अपराधों में इसको नंबर वन नाम अपराध या वैसे विशेष कैटेगरी में रखा गया है यह नाम अपराध भक्ति विनोद ठाकुर । यह 10 नाम अपराध तो है लेकिन उसमें भी वैष्णव अपराध एक विशेष स्थान ग्रहण करता है तो वैष्णवो का अपराध नहीं करना चाहिए । वैष्णवो की सेवा करनी चाहिए । वैष्णवो की निंदा नहीं करना चाहिए । वैष्णव भोगी नहीं बनना चाहिए । वैष्णव त्यागी नहीं बनना चाहिए । वैष्णव द्रोही नहीं बनना चाहिए यह शब्द सीखने भी तो होंगे द्रोह मतलब क्या होता है ? हमको पता नहीं होता है कई बार । उल्टे हमको क्या होने चाहिए ? वैष्णव सेवी होने चाहिए । नामें रुचि, जीवे दया, वैष्णव सेवन यह भी एक छोटा ही वचन है लेकिन नाम में रूचि बढ़ाना चाहते हैं तो वैष्णव की सेवा करनी चाहिए । वैष्णवो की निंदा नहीं करनी चाहिए । वैष्णवो से द्रोह नहीं करना चाहिए । वैष्णव भोगी मतलब कुछ फायदा उठाना । हरि हरि !! हम जब सेवा करने की बात करते हैं, प्रातः काल में मैं सोच रहा था केवल भगवान की सेवा नहीं करनी है वह अधूरी हो गई । हमारे सेवा के लिस्ट में वैष्णवों का भक्तों का जीवो का भी नाम होना चाहिए तो मोटे-मोटे दो ही नाम होंगे । हरि हरि !! एक तो भगवान की सेवा और भक्तों की सेवा । केवल भक्तों की सेवा नहीं करनी है और केवल भगवान की भी सेवा नहीं करनी चाहिए । भगवान की और भक्तों की सेवा तो फिर सेवा पूर्ण होगी ।
यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्था: प्रकाशन्ते महात्मनः ॥
(श्वेताश्वर उपनिषद 6.23)
अनुवाद:- जिन महात्माओं के हृदय में श्रीभगवान् में और श्रीभगवान् की तरह गुरु में भी उतनी ही दिव्य श्रद्धा होती है , उनमें वैदिक ज्ञान का सम्पूर्ण तात्पर्य स्वतः -जिनसे प्रकाशित हो जाता है ।
यह भी एक वैदिक मत्र प्रसिद्ध है । यहां तो गुरु का नाम लिया है यस्य देवे जैसे भगवान की देवकी आदिदेव की सेवा करते हैं वैसी गुरु की भी सेवा करनी चाहिए तो गुरु के सेवा के अंतर्गत वैष्णवो की सेवा का नाम जोड़ सकते हैं । हरि हरि !! जोर की अनुशंसा दी गई है रूप गोस्वामी प्रभुपाद का की हमसे जो वरिष्ठ भक्त हैं, आचरण बताएं कैसे कैसे आचरण करना होता है जो वरिष्ठ है उनकी सेवा करनी चाहिए उनकी सानिध्य में सेवा करनी चाहिए । जो समकालीन है मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना चाहिए तो मित्र बनकर उनकी सेवा करते हैं सहायता करते हैं तो जो वरिष्ठ हैं उनकी एक प्रकार से सेवा करते हैं । जो समकक्ष हें उनकी सेवा कुछ उनके सहायता करके उनकी सेवा करते हैं और जो छोटे होते हैं नए हैं उनकी सहायता करते हैं प्रचार करते हैं । नामे रूची, जीवे दया उन पर दया दिखाते हैं । वह भी सेवा ही है, सारी सेवा ही है दो वरिष्ठ के साथ समकक्ष के साथ छोटो के साथ व्यवहार अलग अलग होते हैं लेकिन वह सेवा ही है वह प्रेम की है । वह प्रेम का प्रदर्शन है वह सेवाभाव है तो "अमानिना मानदेन" । यह सब बातें सीखनी है हमको । मुझे निश्चित पता नहीं थे आप सब जो वहां रिट्रीट कर रहे हो मैंने अभी उसका टाइटल पढ़ा 'तृणाद् अपि' रिट्रीट तो मैं ऐसी कल्पना कर रहा हूं यह जो इसको सीख रहे हो इस पर चर्चा हो रही है की कैसे हम तृणाद् अपि तृणाद् अपि सुनीचॆन यह जो मंत्र सूत्र महाप्रभु ने दिया हुआ है उस पर कैसे अमल करना है ताकि हम क्या करें ? "कीर्तनीयः सदा हरिः" हो जाए हमसे और फिर दुबारा "कीर्तनीयः सदा हरिः" मतलब कीर्तन ही नहीं है प्रभुपाद तो कहे व्यस्त रहिए 24 घंटे तो 6 घंटे के लिए सोते हैं वह री कीर्तन है, वह भी सेवा सेवा होगी 24 घंटे भगवान की सेवा करनी है तो सेवा की अलग-अलग प्रकार हो सकते है उसमें श्रवण कीर्तन भी सेवा है अर्चनम् भी सेवा है और प्रसाद ग्रहण करना भी सेवा है इत्यादि इत्यादि । "कृष्णेर संसार करी छाडि अनाचार" अनाचार छोड़के कृष्ण के लिए संसार करना । कृष्ण को केंद्र में रखते हुए संसार करना और उसमें 24 घंटे व्यस्त रहना यही है "कीर्तनीयः सदा हरिः" । हमको कीर्तनीयः सदा हरिः को समझना चाहिए क्या ? 24 घंटे केबल हरे कृष्ण महामंत्र का जप ही नहीं है और और भी सेवाएं हैं उसी के कृष्ण से संबंधित तो जो रिट्रीट कर रहे हैं उनके लिए भी हमारा यह संदेश या केवल तृणाद् अपि सुनीचॆन तो पढ़ा तो मैंने सोचा कि ऐसा ही कुछ विषय चल रही है तो मैंने दो शब्द कहे मुझे आशा है कि उनके प्रासंगिक और उसी के साथ फिर आप सभी का भी रिट्रीट हो गई आज प्रातः काल में । वैसे मैं कह ही रहा था कि कल ही मैंने शायद कहा कि या भक्त रिट्रीट के लिए जाते हैं सप्ताह भर के लिए रिट्रीट होती है कई दिनों तक जपा रिट्रीट होती है लेकिन हम तो और वो कभी साल में दो चार बार होती है जपा रिट्रीट लेकिन हम भी यह जपा सेशन यह जपा टॉक यह भी एक प्रकार का जपा रिट्रीट ही है तो हमने भी आज प्रात काल का यह जपा रिट्रीट आपके लिए किया जपा सेशन एंड जपा टॉक जपा रिट्रीट । ठीक है ।॥ गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥ भगवान आप सबको शक्ति बुद्धि दे । भक्ति दे ताकि आप "कीर्तनीयः सदा हरिः" करते रहे या उसके लिए तैयार हो जाए । हरि बोल !
॥ हरे कृष्ण ॥