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*जप चर्चा*
*सोलापुर धाम से*
*25 सितंबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
क्या आवाज ठीक है? सोलापुर के भक्तों के लिए तो ठीक ही है। आज 805 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। जपा सेशन भी ऑनलाइन और ऑन ग्राउंड अथवा ऑफ लाइन दोनों ही हो रहा है। इस्कॉन सोलापुर भक्तवृन्द की जय!!!
इस्कॉन सोलापुर के भक्त भी जप के समय हमें अपना संग दे रहे हैं। हम उनकी उपस्थिति के लिए उनके आभारी हैं। हरि! हरि! आप सब तैयार हो? यस गायत्री? क्या तुम तैयार हो? ठीक है। जप टॉक में फूड फॉर द थॉट ही बता रहे हैं, जिससे हम और अधिक बुद्धिमान भी होंगे। बुद्धि का पोषण होगा, बुद्धि को कुछ खिलाएंगे, पिलाएंगे। फूड फॉर थॉट और ड्रिंक फॉर थॉट दोनो हो सकते हैं। फ़ूड भी हो सकता है और ड्रिंक भी हो सकता है। मस्तिष्क या बुद्धि के लिए खाद्य और पेय जिससे हम बुद्धिजीवी बन जाएं, कुछ इंटेलिजेंट बन जाएं, हम बुद्धिमान बन जाएं।
*तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||*
( श्रीमद भगवतगीता १०.१०)
अनुवाद:- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
कृष्ण भी कहते हैं," मैं बुद्धि देता हूं।" भगवान की ओर से हम भी आपको बुद्धि देने का प्रयास करते हैं। अपना मनोधर्म अथवा अपने विचार नहीं अपितु भगवान के विचार देने का प्रयास तो रहता है। कभी-कभी थोड़ा फेल भी होते रहेंगे, उसके लिए माफ करना। हरि! हरि!
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते, भगवान बुद्धि देते हैं, गुरुजन बुद्धि देते हैं,
*चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥3॥*
अर्थ:- वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।
'दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित' हम हर रोज गाते हैं। गुरु हमारे हृदय में दिव्य ज्ञान प्रकाशित करते हैं। जब हम सुनते हैं
*गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य, आर न करिह मने आशा।*
हम तब थोड़े फोकस या केंद्रित हो जाते हैं। उसके लिए कुशाग्र बुद्धि की आवश्यकता है। बुद्धि हो तो कैसी हो? कुशाग्र बुद्धि। यह बुद्धि की विशेषता अथवा विशिष्टय कहा जाता है। ऐसा समय भी होता है कि जब हम जपा टॉक करते हैं। अच्छा है, जिससे प्रातः काल में हमें कुछ बुद्धि प्राप्त हो, कुछ दिव्य ज्ञान हमारे हृदय आंगन में प्रकाशित हो तब फिर हमारा दिन ठीक जाएगा। दो चार छोटे छोटे विचार आ रहे हैं लेकिन वे मोटे भी हो सकते हैं। मैं सोच रहा था फिर वही बातें ..
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैब षडविधम प्रीति-लक्षणम् ॥४॥*
( उपदेशामृत श्लोक संख्या 4)
अनुवाद:-दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना -भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
गोपनीय बातें करते हैं और पूछते हैं गुह्ममाख्याति पृष्छति।
इसे ही षडविधम प्रीति-लक्षणम् कहा जाता है। यह प्रीति का लक्षण है कि अपने विचार को शेयर करें, यह दिल की बात है।
मन की बात नहीं, मन को मारो गोली। दिल की बात मतलब आत्मा की बात है। मन का कुछ भरोसा नहीं है।
प्रातः काल में विचार आ रहा था कि यह जो चैंटिंग है,
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
जैसे ही आज मैं उठा और मंगला आरती के लिए तैयार हो रहा था, ऐसे विचार आ रहे थे कि महामंत्र का जप और कीर्तन स्वयं भगवान भी करते हैं।
आपनि आचरि जगत सिखाए। यह कोई विशेष बात या गंभीर मामला है। हम लोग जो जप व कीर्तन करते हैं,
*महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणार विन्दम्॥2॥*
हम गाते ही हैं। इस प्रकार यह छोटी बात है, इसको मोटा बनाना है तो इस पर व्याख्या कर सकते हैं, विस्तार से कह सकते हैं लेकिन बीज विचार अर्थात जो बीज के रूप में अंकुरित होता है, फिर उगता है, तत्पश्चात बढ़ता है और विशाल वृक्ष का रूप धारण करता है। सीड थॉट, ऐसा विचार मन में आया था कि यह कीर्तन तो स्वयं भगवान करते थे। यह एक विचार था लेकिन मैंने कहा था दो चार विचार आए थे। दूसरा विचार यह भी आया था
*हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥*
अर्थ: हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु, यह वैष्णव भजन का अंश है। विफले जनम गोङाइनु, यह बंगला भाषा का शब्द है , थोड़ा कठिन है। यह विचार भी आया। मैं सोच रहा था कि हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु,
कुछ बातें याद आ रही थी, मैं सोच रहा था कि मैंने अपना समय इसमें, उसमें खराबकर दिया।
हमारे कई आचार्य हैं, विनय पत्रिका अर्थात विनय के कुछ वचन लिखते हैं व गाते हैं। विचार व्यक्त करते हैं कि मैंने जीवन को ऐसे ही गवाया, वैसे ही गवाया, गवाया ही नहीं अपितु खोया, हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु,
मैंने भी यह करके, वह करके हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। कल
सायः काल को कुछ क्षणों के लिए किसी के प्रति ऐसे विचार आ रहे थे, किंतु फिर बीच में ही मैंने आवाज दी स्टॉप इट, इस विचार को आगे मत बढ़ाओ। इसके संबंध में या उसके संबंध में जो मात्सर्य या हैट्रेड। जैसा कि संस्कृत में कहा जाता है- अन्यश्र्च उत्कर्षः असहनीय अर्थात औरों का उत्कर्ष/ प्रगति असहनीय अथवा सहन नहीं होता हम पर दुखे सुखी हो जाते हैं अर्थात हम औरों का सुख देख कर हम दुखी हो जाते हैं अर्थात उनको सुखी देखकर हम दुखी हो जाते हैं। स्टॉप इट। मैं महाप्रभु से प्रार्थना कर रहा था कि कि मुझे बचाइये, मेरी रक्षा कीजिए ताकि मैं किसी के प्रति ना आऊं।
में औरों से द्वेष ना करूं। इसी के विषय में महाप्रभु भी कहते हैं।
*तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 17.31)
अनुवाद:- जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।"
अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा मत करो अपितु दूसरों का मान अथवा सत्कार करो। कृष्ण कहते हैं
*यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||*
(श्रीमद भगवतगीता 4.22)
अनुवाद:- जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं |
भगवान भगवत गीता में कहते हैं, द्वंद के अतीत पहुंचो, द्वंद के अतीत पहुंचो। मात्सर्य रहित बनो। मैं मायापुर उत्सव के समय प्रार्थना कर रहा था। अब जब कुछ मात्सर्य के सम्बन्ध में विचार हो रहा था , तब इस भाव को भगवान ने कृपा की ओर से नो नो कहा- यह सब प्रातः काल विचार आ रहे थे। मैं भी कायेन, मनसा वाचा, गंभीर हो गया।
अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||*
( श्रीमद भगवत गीता 18.73)
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
*कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।*
(श्रीमद भगवतगीता 2.7)
अनुवाद:- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |
धर्मसम्मूढचेताः लेकिन उन्होंने जब भगवत गीता सुनी तब अर्जुन कहने लगे कि मेरा मोह नष्ट हो गया है, अब मैं समृति कर रहा हूं। गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव का जो भाव है वैसा ही अर्जुन ने कहा कि ऐसे भाव उत्पन्न हुए, ऐसा विचार बना कि मैं तैयार हूं। लेकिन हम उस भाव में रहते नहीं। हम अच्युत नहीं है। हम च्युत भी हो जाते हैं। कभी अच्युत और कभी च्युत। किंतु हमारे प्रयास होने चाहिए ताकि हम हमेशा के लिए हाई रह सके 'टू स्टे हाई फॉरएवर'। जब लोग कुछ नशा लेते हैं और बाद में जब उनका नशा उतर जाता है तो वे नीचे आ जाते हैं। नशा उतरने पर लोअर आ जाते हैं। हायर गए थे अब लोअर जाएंगे। अगली बार और बड़ी डोज़ लेंगे। ऐसा करते-करते वे डोज को बढ़ाते हैं, वहां से भी ऊपर हायर जाने क पर तमोगुण का इतना प्रभाव होगा। हाई एंड लो। श्रील प्रभु पाद जब अमेरिका पहुंचे- प्रभुपाद जानते थे कि यह सब लोग ड्रग एडिक्ट्स है। नशा पान करते हैं, प्रभुपाद ने कहा मैं भी एक नशीला पदार्थ लेकर आया हूं। मेरे पास भी ड्रग है। इस ड्रग से सब ऊपर ही जातेहैं। नीचे जाने का कोई प्रश्न ही नहीं। उन लोगों ने कहा स्वामी जी वह क्या है
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह ड्रग है, उसका परिणाम यह भी हुआ कि लोगों ने सारा नशा पानी छोड़ दिया। वैसे कुछ समय के लिए दोनों ही चल रहे थे । प्रभुपाद का दिया हुआ ड्रग भी ले रहे थे और ड्रग्स भी लेकिन इस परम् उच्च का आस्वादन इन भक्तों जीवों ने किया तो उनकी बुरी आदतें पाप छूट गए।
*विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||*
( श्रीमद भगवतगीता 2.59)
अनुवाद: देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है | लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है |
*पापाची वासना नको दावू डोळा। त्याहुनि आंधळा बराच मी ।।*
संत तुकाराम महाराज
हरि! हरि! आज मंगला आरती हो रही थी मैं ही मंगला आरती को गा रहा था
*संसार-दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥*
यह विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की रचना है। गुर्वाष्टक अर्थात गुरूवा और अष्टक।
गुर्वाष्टक में गुरु की गौरव गाथा, मान सम्मान, उनकी महिमा या उनके गुणधर्म का उल्लेख हुआ है। मैं सोच रहा था कि प्रभुपाद ने जो हमें इस्कॉन दिया हुआ है, जो लाइफ़स्टाइल दी हुई है ,जो साधना दी हुई है, उसी का तो उल्लेख इस गुर्वाष्टक में हुआ है। चार आइटम -
*महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥*
अर्थ - श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
हम इस्कॉन में क्या करते हैं
हम इस्कॉन में कीर्तन करते हैं, कीर्तन के साथ नृत्य भी करते हैं। वादित्रमाद्यन् अर्थात वाद्य बजते हैं, कीर्तन होता है। हम महाप्रभु द्वारा सिखाया हुआ कीर्तन करते हैं। यह एक एक्टिविटी है। यह इस्कॉन का एक कार्यक्रम है।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन। निश्चित ही हम कीर्तन करते हैं, कीर्तन करते क्या होता है, रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् अर्थात रोमांच होता है। इसकी और भी ध्यान देना होगा कि मुझे कब रोमांच होगा।
*नयनम गलदश्रु-धारया वदनम गद्गद-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 20.36)
अनुवाद:- हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?'
कब मेरा गला गदगद हो उठेगा ? रोमांच कब होगा? हम आधा तो कर ही लेते हैं अर्थात कीर्तन कर ही लेते हैं,पर अब वह रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो कब होगा। हम जो गुर्वाष्टक में गाते हैं।
दूसरा उल्लेख है हम श्री विग्रह की जो आराधना करते हैं, उनका श्रृंगार करते हैं, मंदिर मार्जन करते हैं और गुरुजन क्या करते हैं।
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि अर्थात
अपने भक्तों या शिष्यों को सेवा देते हैं। वैसे वही भगवान को आमंत्रित करते हैं, जब प्राण प्रतिष्ठा होती है तब प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु, आप यह रूप बन जाइए आप यह रूप बन जाइए। उसमें प्राण डाले जाते हैं।
*राधा कृष्ण प्राण मोर जुगल किशोर । जीवने मरणे गति आर नाहि मोर ।।*कालिन्दीर कूले केलि कदम्बेर वन । रतन वेदीर ऊपर बसाब दुजन ।। श्यामगौरी अङ्ग दिब ( चुया ) चन्दनेर गन्ध । चामर ढुलाबो कबे हेरिबो मुखचन्द्र ।। गाँथिया मालतीर माला दिबो दोहार गले । अधरे तुलिया दिबो कर्पूर ताम्बूले ।। ललिता विशाखा आदि जत सखीवृन्द । आज्ञाय करिबो सेवा चरणारविन्द ।। श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुर दासेर अनुदास । सेवा अभिलाष करे नरोत्तमदास ।।*
अनुवाद - राधाकृष्ण युगल किशोर ही मेरे प्राणस्वरूप हैं । इस जीवनमें उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति ( आश्रय ) नहीं है । कब मैं कालिन्दीके किनारेपर स्थित कदम्बवृक्षोंके वनमें रत्नजड़ित सिंहासनपर दोनोंको बैठाकर उनके श्रीअंगोंमें चन्दन प्रदान करूंगा तथा चामर ढुलाते हुए उनके श्रीमुखकमलका दर्शन करूँगा ? मैं कब मालती फूलोंकी माला गूंथकर दोनोंके गलेमें पहनाऊँगा , उनके अधरोंपर कर्पूरयुक्त सुगन्धित ताम्बूल अर्पण करूँगा तथा ललिता , विशाखा आदि जितनी भी सखियाँ हैं , उनकी आज्ञानुसार दोनोंके श्रीचरणकमलोंकी सेवा करूँगा । श्रीनरोत्तमदास ठाकुरजी श्रीमन्महाप्रभुके दासोंके अनुदासोंकी सेवाकी अभिलाषा करते हैं ।
आचार्य, गुरु जन प्रार्थना करके कृष्ण के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। इसकी सेवा की जिम्मेदारी जिन्होंने आमंत्रित किया है, उसी की होती है। फिर वह सेवा गुरुजन, आचार्यजन स्वयं भी करते हैं। वे औरों से भी सेवा करवाते हैं व कर लेते हैं। राधा कृष्ण के भी विग्रहों की आराधना युक्तस्य (यह युक्तस्य शब्द महत्वपूर्ण है) और भक्तों के साथ विग्रह की आराधना करते हैं। विग्रह आराधना का हमारे इस्कॉन में काफी महत्व है या इस्कॉन के केंद्र में विग्रह आराधना है। जिस प्रकार से हमारे इस्कॉन में विग्रह की पूरी समझ के साथ आराधना होती है शायद ही कहीं और होती होगी। हरि हरि। यह दूसरी क्रिया है। पहला कीर्तन है। दूसरा विग्रह आराधना है। तीसरा
*चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥*
अर्थ:- श्री गुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात् चबाए जाने वाले, पेय अर्थात् पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले - इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
कीर्तन करते समय भी हम संगठित होकर कीर्तन करते हैं इसलिए संकीर्तन कहा जाता है अर्थात कई भक्त एकत्रित होंगे और कीर्तन होगा। ऐसे कई भक्त 'युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि'
कई सारे भक्त एकत्रित होंगे और फिर वह मिलकर विग्रह की आराधना करेंगे। तत्पश्चात चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद अर्थात प्रसाद का भगवान को भोग भी लगेगा। छप्पन भोग लगेंगे। यहां कहा गया है कि चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- प्रसाद को चार प्रकार से खाया जाता है इसलिए चतुर्विधा या छप्पन भोग, 32 व्यंजन की बात नहीं है, इतने आइटम की बात नहीं है। चतुर्विधा अर्थात चार प्रकार का प्रसाद अर्थात चार प्रकार से इसको खाया जाता है। हम लोग चार प्रकार से खाते हैं। उसके नाम भी है। चार प्रकार से उसको ग्रहण करते हैं। विधा मतलब प्रकार। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव - गुरुजन जब देखते हैं कि भक्त प्रसाद ले रहे हैं, वे प्रसन्न होते हैं, वे प्रसाद ले रहे हैं। भगवान कृष्ण ने ऐसा कहा भी है
*पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति | तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः ||*
( श्रीमद भगवतगीता 9.26)
अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ |
इसी को ग्रहण कर रहे हैं। ये
प्रसाद ग्रहण करके और भी कृष्ण भावना भावित हो जाएंगे क्योकि अन्न परब्रह्म अर्थात प्रसाद कृष्ण है। कृष्ण प्रसाद के रूप में हममें प्रवेश करते हैं। यह भगवान का बहुत ही मधुर रूप है, सबको भाता है। कई लोग प्रसाद खा खाकर भक्त बन जाते हैं। प्रभुपाद ने विदेशों में संडे फेस्टिवल शुरू किया जिसे पहले लव फीस्ट कहते थे। आज प्रीति भोजन होगा। प्रीति भोजन के लिए कई लोग आते थे। वैसे नारद मुनि भी बताते हैं कि वे कैसे भक्त बनें। श्रीमद भागवतम के प्रथम स्कंध में वर्णन है कि वे श्रील व्यास देव के साथ बात कर रहे थे कि प्रसाद व उच्छिष्ट खाकर खाकर मैं नारद मुनि बन गया। भक्तवृंद जब प्रसाद ग्रहण करते हैं ,प्रसाद ग्रहण करने के लिए यह भी कहा है-
*भुड.कते भोजयते चैव*
प्रसाद खाते हैं और प्रसाद खिलाते भी हैं, ऐसा नहीं है कि अकेला ही खा रहा है। कि हेड पुजारी ने सारा अकेले ही खा लिया।ऐसा वहां भी हुआ था जब माधवेन्द्र पूरी वहां पहुंचे थे... (नहीं अभी समय नहीं है)
वितरण, फ़ूड फ़ॉर लाइफ भी है, अन्नामृत भी है। यह सब प्रसाद चतुर्विधा के अंतर्गत आ गया है।
*श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥*
अर्थ:- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
वैसे यह भी बड़ा महत्वपूर्ण कार्यक्रम है।
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥*
( श्रीमद भागवतम 1.2.18)
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
श्रवण कीर्तन अनिवार्य है। हमारे इस्कॉन में या श्रील प्रभुपाद के इस्कॉन में या श्री चैतन्य महाप्रभु के इस्कॉन में इस पर जोर दिया जाता है।
श्रीप्रह्लाद उवाच
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥*
*इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥*
( श्रीमद भागवतम 7.5.23)
अर्थ:- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात् मनसा , वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना ) - शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
इसलिए जपा सेशन, जपा टॉक, प्रातः काल में भागवत कथा और सायः काल में भगवत गीता का पाठ और कथा कीर्तन। फिर उसी के अंतर्गत पुस्तकों का वितरण व अध्ययन भी आ जाता है । यह जो सारा शास्त्रों के संबंधित जो भी हम करते हैं, वही है श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् है।
इसकी चर्चा होती है। श्रवण कीर्तन होता है। श्रवण कीर्तन से स्मरण होता है ।श्रवणं कीर्तनं विष्णुं स्मरणम ...
तत्पश्चात
*निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया तत्राति-दक्ष्याद् अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥6॥*
अर्थ:- श्रीगुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्रीश्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यन्त श्रेष्ठता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
छठवां गुर्वाष्टक है। इसमें कहेंगे कि यह चिंतन का विषय है, मनन का विषय है। कीर्तन की हुई जो बातें हैं, कुछ स्मरण तो हुआ। उसी का और चिंतन करते जाओ। सोचते जाओ विचारों का मंथन होने दो, उसे मनन कहते हैं। भगवान की लीलाओं का स्मरण, राधा माधव की लीलाओं का स्मरण, वे निकुंज में क्या करते हैं।
निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै
या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया।
युनो अर्थात राधा कृष्ण दो।रति-केलि-सिद्धयै अर्थात
रति मतलब माधुर्य और केलि मतलब लीला। फिर गुरुजन अपने स्वरूप अथवा अपने नित्य स्वरूप में भगवान के लीला में कुछ सहायता भी करते हैं। फिर आगे की बातें हैं और अधिक गोपनीय बातें हैं। गुरु साक्षात हरि हैं। वे साक्षात हरि की भूमिका भी निभाते हैं किंतु वे भगवान के प्रिय भी हैं। वे भगवान के पार्षद हैं। शुरुआत का जो गुर्वाष्टक है-
संसार दावानल इस दुनिया में आग लगी हुई है, आपको वर्षा भी तो हो रही है, आतप ताप अतिवृष्टि अनावृष्टि भी है। जीव परेशान है, आग लगी है तो कौन बुझाएगा। गुरु की कृपा से इस आग को बुझाया जा सकता है। इसलिए कहा है गुणार्णवस्य अर्थात गुण और अवस्य, गुण मतलब गुण, अवस्य मतलब सागर। गुरु, आचार्य गुण के साधक हैं। गुरु भगवान की कृपा का दान करते हैं।
*यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥*
अर्थ: श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए।
गुरु प्रसन्न होते हैं तो भगवान प्रसन्न होते हैं। लेकिन जब से यस्याऽप्रसादन्न् यदि वह प्रसन्न नहीं होंगे हमनें प्रसन्न नहीं किया तो कोई गति नहीं है, हम आगे बढ़ेंगे नहीं, हम अपने गंतव्य स्थान तक नहीं पहुंचेंगे। जो भगवत धाम कृष्ण भावना भावित होना है, भगवान की सेवा को प्राप्त करना है। जीवन का लक्ष्य है, राधा कृष्ण के चरणों की सेवा। यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि। प्रसाद प्राप्त हुआ, उनको हमनें प्रसन्न किया, यस्याऽप्रसादन्न्, अगर वे प्रसन्न नहीं हुए तो कोई गति नहीं हैं। ऐसे गुरुजनों का ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
श्रील प्रभुपाद की जय !
गुरु शिष्य परंपरा की जय!
राधा दामोदर की जय!
बोल प्रेमानंदे हरि हरि बोल!