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जप चर्चा 23 सितंबर 2021 सोलापुर, 808 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । घर में ऑनलाइन जप करने की वजाए मंदिर में आकर सोलापुर मंदिर में कई भक्त जप कर रहे थे मेरे साथ । उन सभी भक्तों की भी जय हो । हरि हरि !! आज वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल का अंतिम दिन है तो अंतिम दिवस का अंतिम सत्र है । समय रात 8:00 बजे इस वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल का समापन होगा और हम कीर्तन करेंगे 8:00 बजे । आप सब का स्वागत है । जानकारी तो आप सबको पता लगवाईए । शायद आप प्रतिदिन तो लॉगइन करते ही होंगे पिछले 7 दिनों से कथा अखंड यह उत्सव चल रहा है । श्रील प्रभुपाद की जय ! श्रील प्रभुपाद की गौरव गाथा गाने वाला वितरित या प्रसारित करने वाला यह उत्सव या उसके अलावा शायद पद्ममाली कुछ सूचना देंगे । दिन में भी और भगवद्गीता पर प्रस्तुतीकरण है वह अंग्रेजी में होगा । न्यूजीलैंड के भक्तों के लिए लिए तो वह होगा 1:00 से 2:00 तक भारत के समय अनुसार । भगवद्गीता की महिमा और गीता का सार वह होगा 1:00 बजे । वैसे सभी तो चाट के मैसेजेस में पढ़ता नहीं किंतु कुछ पढ़ने में आया तो कई भक्त कुछ अनाउंसमेंट कर रहे थे शायद वेणी माधव बेंगलुरु से और उनके सहयोगी ने इतने सारे भागवद् सेट् का वितरण किया और भी कुछ भक्त सूचना कर रहे थे अच्छे खबर यह सूचना सूचित कर रहे थे । उनके भी हम आभारी हैं और उनसे प्रसन्न भी है तो हो सकता है कि शायद पद्ममाली इसका कुछ रिकॉर्ड या नोट करके इसको सूचित भी किया जा सकता है जपा टॉक के अंत में । हरि हरि !! नहीं तो क्या है आपको वैसे कल बता ही दिया लेकिन यहां बड़ी संख्या में आप आप भी नहीं सकते सोलापुर की बात है इस्कॉन सोलापुर में । शरद पूर्णिमा के दिन राधा दामोदर भगवान के प्राण प्रतिष्ठा का महोत्सव संपन्न होने जा रहा है । हरि बोल ! उसी की तैयारी कहो या कुछ योजना करने की उद्देश्य से मैं यहां पहुंचा हूं तो कल से यहां यह सारी चर्चाएं हो रही है तो याद रखिए किंतु महामारी का का समय है । इस कोरोना को मारो गोली लेकिन कोई मर नहीं रहा है कोरोना । अभी भी अपने लक्षण दिख रहा है थोड़े-थोड़े । इस समूल नष्ट नहीं हुआ है तो इसलिए सरकार सावधानी बरतने की कह रही है तो हम उतना बड़ा उत्सव जितना हम चाहते थे ऐसा नहीं मना पाएंगे किंतु आप में से कुछ भक्त तो सीमित सह-भागी होगा तो देखते हैं कृष्ण भक्त इनका चयन करते हैं और आप में से कुछ भक्तों को जरूरी आमंत्रण जाएंगे और उस उत्सव के लिए आप साबुत सादर आमंत्रित होंगे । हरि हरि !! मेरे साथ जप करने वाले भक्त अधिकतर जवान ही है यह सराहनीय बात है । जवानी में भगवान की सेवा कर रहे हैं भगवान का नाम रट रहे हैं । कलियुग है तो उसके कारण भी बूढ़े होने पर ही देखेंगे । ऐसे विचार है बूढ़े होने पर देखेंगे । क्या देखोगे ? दिखाई भी नहीं देगा । अच्छा है कोई ताजे फल, हम जब ताजे हैं जवान जवान है अभी हम सब भी हम समर्पित हो जाए भगवान के सेवा में । फल जब सढ़ गया, सढ़ा हुआ फल फिर हम अर्पित करेंगे तो कृष्ण उसका आनंद लेंगे तो अच्छा है । यही उम्र है थोड़ा देरी हो गया जवान मतलब देरी ही हो गया । जवानी में हम अगर भक्ति प्रारंभ किए भक्ति तो कब प्रारंभ करनी होती है ? श्रीप्रह्राद उवाच कौमार आचरेत्पाज्ञो धर्मान्भागवतानिह । दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यश्रुवमर्थदम् ॥ ( श्रीमद् भगवतम् 7.6.1 ) अनुवाद:- प्रह्माद महाराज ने कहा : पर्याप्त बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ से ही । अर्थात् बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव शरीर का उपयोग करे । यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान् होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है । यदि निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है । कुमार अवस्था में । BG 2.13 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ ( भगवद् गीता 2.13 ) अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है । धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता । तीन अवस्थाएं हैं तो उसमें पहली अवस्था है कुमार अवस्था तो वह सही समय है । ऐसा नहीं कि हम बहुत समय गवा चुके हैं या कल कुछ विजिटर्स आए थे तो उनके साथ चर्चा हो रही थी हमने उनसे पूछा ! जप करती हो माताजी या हमारे साथ प्रातःकाल में ? तो प्रातःकाल वो नहीं करती थी, तो फिर हमने कहा ! अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज मैक्स् म्यान् हेल्दी वेल्थी वॉइस । यह कहावत तो अंग्रेजी में हैं और तो पश्चात जगत में भी यह कहावत प्रसिद्ध है । पश्चात देश के लोग भी कहते हैं ! क्या कहते हैं ? 'अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज' हमारे देश में या भारतवर्ष में भारत के संस्कृति में तो इसको प्राधान्य दिया गया है ही । जल्दी सोना जल्दी उठो । ब्रह्म मुहूर्त में परम ब्रह्मा के प्राप्ति के प्रयास प्रारंभ करो ब्रह्म मुहूर्त में । ब्रह्म मुहूर्त मंगल आरती करो जीवन मंगलमय होगा । उस दिन का जो प्रवास है । हर दिन एक प्रवास होता ही है । आपकी यात्रा मंगलमय हो । आप की दिनभर की जो यात्रा है कार्यकलाप है या सोच है तो मंगल में मंगल आरती से या ... हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ तो इस बात को कंटेंट कंडेम्न्ड किया है वैसे शुकदेव गोस्वामी । कथा प्रारंभ करते ही कथा प्रारंभ अभी-अभी हो गई थी तो उन्होंने कहा था लोग क्या करते हैं ? निद्रया हियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः । दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्ब भरणेन वा ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 2.1.3 ) अनुवाद:- ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी ) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों भरण - पोषण में बीतता है । तो जो बिरहा गृहमैंधी होते हैं, ग्रुप वासियों गुरु वस्तुओं के गृहस्थों के दो प्रकार होते हैं । एक गृहस्थ आश्रमी । गृहस्थ आश्रमी गृहस्थ, आश्रम में रहने वाले गृहस्थ आश्रम में । वैसे मनुष्यों को आश्रम में रहना चाहिए तभी आप सभ्य हो । आप ब्रह्मचारी या वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम के लिए तैयार नहीं हो तो ठीक है गृहस्थ आश्रम । लेकिन आश्रम में ही रहना चाहिए या ब्रह्मचारी नहीं तो गृहस्थ, नहीं तो वानप्रस्थ, नहीं तो सन्यास । लेकिन मनुष्य को आश्रम किसी ना किसी आश्रम को संबंध होना चाहिए उसे तो एक गृहस्थ आश्रमी होते हैं और दूसरे गृहमेधि होते हैं । यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम् । तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 7.9.45 ) अनुवाद:- विषयी जीवन की तुलना खुजली दूर करने हेतु दो हाथों को रगड़ने से की गई है गृहमेधी अर्थात् तथाकथित गृहस्थ जिन्हें कोई आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है , सोचते हैं कि यह खुजलाना सर्वोत्कृष्ट सुख है , यद्यपि वास्तव में यह दुख का मूल है । कृपण जो ब्राह्मणों से सर्वथा विपरीत होते हैं , बारम्बार ऐन्द्रिय भोग करने पर भी तुष्ट नहीं होते । किन्तु जो धीर हैं और इस खुजलाहट को सह लेते हैं उन्हें मूल् तथा धूर्तों जैसे कष्ट नहीं सहने पड़ते । प्रहलाद महाराज भी कहे गृहमेधिओं का क्या करते हैं गृहमेधि ? शुकदेव गोस्वामी वही कह रहे हैं वही बात शुकदेव गोस्वामी भी कह रहे हैं प्रहलाद महाराज भी कह रहे हैं । दोनों भी महाजन है, द्वादश महाजनों में यह दोनों हैं । तर्कोंSप्रतिष्ठ श्रुतयो विभिन्ना नासावृषिर्य़स्य मतं न भिन्नम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो ये़न गत: स पन्थाः ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्यलीला 17.186) अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, "शुष्क तर्क में निर्णय का अभाव होता हैं। जिस महापुरुष का मत अन्यों से भिन्न नहीं होता, उसे महान ऋषि नहीं माना जाता। केवल विभिन्न वेदों के अध्ययन से कोई सही मार्ग पर नहीं आ सकता, जिससे धार्मिक सिद्धांतों को समझा जाता हैं। धार्मिक सिद्धांतों का ठोस सत्य शुद्ध स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के ह्रदय में छिपा रहता हैं। फलस्वरूप, जैसा कि सारे शास्त्र पुष्टि करते हैं, मनुष्य को महाजनों द्वारा बतलाए गये प्रगतिशील पद पर ही चलना चाहिए । महाजन हमको पथ दिखाते, पथ प्रदर्शक होते हैं । यह दोनों कह रहे हैं "निद्रया हियते नक्तं" लोग या अर्ली टू, तो लोग सोते हैं फिर पहलाद महाराज अपने मित्रों से मित्रों को संबोधित कर रहे थे तो उन्होंने कहा ; वैसे हमारा आधा जीवन तो सोने में ही जाता है । हम लोग सोचते नहीं लेकिन आधा जीवन तो और हम 70 साल जिए तो उसमें से 35 साल हमारे सोने में जाते हैं तो "निद्रया हियते नक्तं" "नक्तं" मतलब रात्रि । "निद्रया हियते" गवाते हैं । "नक्तं" रात्रि को "निद्रया" सोने और "व्यवायेन च वा वयः" "व्यवायेन" मतलब मैथुन आदि क्रिया । मीटिंग्स भी चलती है पार्टी भी चलती भी है । लेट नाइट पार्टी चलती है जिनके खाने के साथ फिर पीना भी होता है और खूब खाना और पीना हुआ तो फिर, रूप गोस्वामी कहते हैं ... वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम् । एतान्वेगान् यो विषहेत धीर: सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात् ॥ ( श्रीउपदेशामृत श्लोक 1 ) अनुवाद: - वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन कि मांगों को,क्रोध कि क्रियाओं को तथा जीभ, उधर एवं जननेन्द्रियों के वेगो को सहन कर सकता है,वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य हैं । यह प्रेशर डालता है कहां समझाया है हमारे जीव्हा, हमारा पेट और हमारी जननेन्द्रिया वह एक पंक्ति में हैं तो जीह्वा पर नियंत्रित नहीं है तो हम खूब खायेंगे खूब पिएंगे पेट भरेंगे । उससे प्रेशर बढ़ेगा तो फिर जनन इंद्रियां उनकी मांग बढ़ेगी । "वेगं" उसमें आवेग बढ़ेगा पुशिंग कहते हैं फिर ... अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ ( भगवद् गीता 3.36 ) अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी ! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है ? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो । हम नहीं चाहते हुए भी कुछ पाप हो ही जाता है यह क्या है कौन है ? यह सब ... BG 3.37 श्री भगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥ ( भगवद् गीता 3.37 ) अनुवाद:- श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है । फिर कृष्ण को कहना पड़ा उसके उत्तर में कृष्ण कहे काम तुम्हारा शत्रु है "काम एष क्रोध एष" यह तुमसे कई सारे पाप करवाते हैं काम, क्रोध तो कामवासना बढ़ती है प्रबल होती है । हम नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं और फिर पाप करते हैं और "यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं" "मैथुनादि" " गृहमेधि" जो गुहमेधि होते हैं जो गृहस्थ आश्रम के जो होते हैं एक गृहस्थ ब्रह्मचारी होते हैं । यह भी आश्रम का एक प्रकार । एक ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी होते हैं । कुछ गृहस्थ ब्रह्मचारी होते हैं और फिर गृहमेधि होते हैं तो कुछ नीति नियमों का पालन नहीं करते । अनैतिक व्यवहार चलता है और उसी को कहते हैं अवैध स्त्री पुरुष संग । अविधि पूर्वक । जो निशिध बातें हैं वही उसको अपनाते हैं और "यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं" गृहमेधिओं का सुख किस में है ? "यन्मैथुनादि" मैथुन में । जिस सुख को प्रहलाद महाराज कहे; कैसा है यह सुख ? "तुच्छं" तुच्छ है । यह बात समझाते हुए श्रील प्रभुपाद एक समय कोलकाता में थे प्रवचन दे रहे थे तो प्रभुपाद थुके । थु ! 'तुच्छं' वे वास्तविक में थुके 'तुच्छं' । अपने साक्षात्कार के साथ प्रभुपाद पूरी साक्षात्कार के साथ यह जो तुच्छता है, यह मैथुन कि जो सुख तुच्छता है नीचता जो है उसमें कोई उच्च बात है नहीं वैसे यह नीच बात है वैसे तो उस नीचता का तुच्छता का पूरा साक्षात्कार के साथ श्रील प्रभुपाद "तुच्छं" थूक रहे हैं । हमारे भक्तों ने पुस्तिका भी लिखी थी तो उसका शीर्षक दिए थे "जॉय ऑफ नो सेक्स" आप समझे ? लिखा था जॉय ऑफ नो सेक्स । एक सेक्स एंजॉयमेंट तो चलती रहती है सेक्स एंजॉयमेंट । इंजॉय करते हैं सेक्स, लेकिन उनको पता नहीं है ऐसे इंजॉय करने वालों को आनंद होता है जो सेक्स नहीं करते । हरि हरि !! वैसे वह आनंद तो, वह आनंद नहीं है अमीरी में जो आनंद फकीर करे वैराग्य वान जो होते हैं । उनको जो आनंद जिस आनंद का वे अनुभव करते हैं ऐसा संसार में किसी का अनुभव नहीं होता । संसार में तो क्या चलता है ? मनोरंजन मनोरंजन मनोरंजन । मनोरंजन चलता रहता है । लेकिन जो भक्त होते हैं संत होते हैं साधक होते हैं उनका लक्ष्य होता है आत्मरंजन । आत्मा को सुख देना, आत्मा को आनंद देना और जो आत्मा में आनंद लूटते हैं आत्मा में आराम लेते हैं उनको कहा जाता है आत्माराम । सूत उवाच आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकों भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 1.7.10 ) अनुवाद:- जो आत्मा में आनन्द लेते हैं , ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म - साक्षात्कार के पथ पर स्थापित हो चुके हैं , ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं , फिर भी भगवान् की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् में दिव्य गुण हैं , अतएव वे मुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकते हैं । भागवद् में कहा है । 'आत्माराम' आत्मसंतुष्ट तो हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ यह आत्मा को आनंद देने कि लिए और संसार भर के सारी भोग की जो सामग्री है हमारे इंद्रियां हमारे मन हमारा शरीर उसके भोग को यह सामग्री यह सारा संसार है यह । इंद्रियों के विषय हैं और मनोरंजन के साधन है या हरि हरि !! तो वैसे हमारे लक्ष्य होना चाहिए, मैं तो कहते हैं रहता हूं अपना ख्याल रखो वाली बात है । अपना ख्याल रखो, अपना ख्याल रखो, अपना ख्याल रखो । हमारे बड़े लोग ऐसा कहते रहते हैं कई मां-बाप यह कहते रहते हैं । अंग्रेजी बोलने वाले टेक केयर योरसेल्फ । अपना ख्याल करो, संभालो, अपना ख्याल करो तो कहते तो हैं टेक केयर योरसेल्फ ! अपना ख्याल करो । सेल्फ का ख्याल करो, सेल्फ को संभालो लेकिन र्दुदैव से सेल्फ को समझते नहीं । सेल्फ तो सेल्फ है । आत्मा वास्तविक में सेल्फ है । वैसे आत्मा जब कहते हैं शरीर को भी आत्मा कहा है शस्त्र मे और मन भी अंतकरण भी आत्मा है लेकिन वास्तविक में आत्मा का ख्याल करना जो है वह आत्मा ही है तो जो पशु होते हैं उनको आत्मा का ज्ञान नहीं होता, आत्मसाक्षात्कार नहीं होता । उनका साक्षात्कार क्या होता है ? यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥ ( श्रीमद् भगवतम् 10.84.13 ) अनुवाद:- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता - ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है । यह बात कृष्ण ही कहे हैं कुरुक्षेत्र में किंतु महाभारत युद्ध के समय की बात नहीं है आपको पहले बताया, कब कभी यह बात बताए तो "यस्यात्मबुद्धिः" जिसकी आत्मबुद्धि है । आत्माबुद्धि मतलब यह आत्मा है लेकिन वह गलती से अमित भ्रमित होके वह क्या सोचते हैं ? "कुणपे त्रिधातुके" तीन धातु का बना हुआ मतलब कफ वायु से बना हुआ यह शरीर है इस शरीर को 'कुणप' कहा है । यह मैं हूं ऐसा समझते हैं । "यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः" । यह सब गलत धारणाएं हैं । "यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः" वो है गधा । सोचता है कि "शरीर है इस शरीर को 'कुणप' कहा है । यह मैं हूं ऐसा समझते हैं । "यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके" यह तीन धातु का आर्युविज्ञान के अनुसार यह शरीर कफ, पीत, वायु से बना हुआ है और कफ, पीत, वायु में कुछ विकार या असंतुलन होता है तो फिर रोग होता है ऐसी आयुर्वेद की समझ है और उस में संतुलन लाना ही स्वस्थ रहना तो टेक केयर योरसेल्फ ख्याल रखो । हम सेल्फ को ही नहीं जानते या शरीर को सेल्फ मानते हैं । इसको भी विस्तार करते हैं प्रभुपाद समझाते हैं हमारे या हमारा परिवार मिलके हम एक सेल्फ हुआ फिर हम जिस जाति के हैं वह सब मिलकर एक हमारा सेल्फ हुआ । धीरे धीरे हमको बढ़ा के ठीक है देशवासी हमारे "भौम इज्यधीः" भारत माता की ! और सब भारतीय सब मिलके हम सेल्फ इस प्रकार हमारा 'अहम' यही अहंकार है । प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः । अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ ( भगवद् गीता 3.27 ) अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं । तो अहंम तो आत्मा है । प्रभुपाद लिखते हैं दो प्रकार के अहंम होते हैं । एक अहं है 'अहं दासोस्मी', 'अंह कृष्ण भक्तस्मी' । 'अंह कृष्ण दासोस्मी' मैं कृष्ण का दास हूं । "ममैवांशो" वो एक अंह हुआ और फिर यह झूठ मुट का अंह । वास्तविक अंहकार, झूठा अहंकार । वास्तविक अहंकार तो आत्मा है हमारा सेल्फ और झूठा अहंकार तो शरीर है और शरीर है ऐसा मिलके हम अहंकार तो हम सेल्फ तो समझते ही नहीं तो कैसे ख्याल करेंगे टेक केयर योरसेल्फ I इसलिए भगवद् गीता पढ़नी चाहिए सुननी चाहिए । हमको समझना चाहिए । हम हैं कौन ? और फिर उस अंह का उस आत्मा का हमें केयर करना चाहिए तो इस इस्कॉन में आत्मा की केयर करने के लिए एक तो पहले हम सेल्फ को पहचानना है । आत्मा कौन है ? आत्मा कहां है ? कैसा है आत्मा ? कौन है आत्मा ? या मैं आत्मा हूं और उसके बाद उसका ख्याल रखना उस आत्मा का केयर करने के लिए सिखाया जाता है । इसीलिए फिर आत्मा की केयर करना इसीलिए इस को जगाया जाता है । जीव जागो, जीव जागो, गौराचांद बोले । कोत निद्रा याओ माया - पिशाचीर कोले ॥ 1॥ ( जीव जागो, भक्ति विनोद ठाकुर ) अनुवाद:- भगवान् श्रीगौरचन्द्र पुकार रहे हैं , " उठो , उठो ! सोती आत्माओं उठ ! लम्बे काल से तुम माया पिशाचिनी की गोद में सो रहे हो ! कब तक सोए रहोगे ? उठो ! गौरचांद, गौरांग,गौरांगा, गौरांगा ! गौरांग बुला रहे हैं, जाओ जीव जागो तो जीव को जगाते हैं और फिर दिन भर आत्मा का ख्याल । हरि हरि !! फिर हम स्वस्थ हो जाते हैं । स्वस्थ हो ? यह पूछते भी हैं ।एक तो टेक केयर योरसेल्फ कहते हैं और फिर स्वस्थ हो-स्वस्थ हो ? पूछते हैं । स्वस्थ हो, अपने 'स्व' में स्थित हो ऐसा प्रश्न हुआ करता था । स्वस्थ हो, हमारा स्वास्थ्य ठीक है ? ऐसा प्रश्न पूछने पर हम, हां मेरा पेट ठीक है । सिर दर्द नहीं है, मैं स्वस्थ हूं । कोई बीमारी नहीं है तो कलियुग में ऐसा स्वस्थ हो का ऐसा मतलब ऐसा अर्थ ऐसा भाव निकालते हैं । लेकिन प्राचीन काल में जब पूछा जाता था स्वस्थ हो ? तुम्हारा स्व-आत्मा या आत्मासाक्षात्कार, स्वस्थ जब हम सुनेंगे ध्यान पूर्वक कहेंगे सुनेंगे, स्वस्थ तो सुबह से कुछ भाव भी हममें जागेंगे । स्वस्थ हो । हमारा स्व, हमारा आत्मा ठीक है या स्थित है वैसे अर्जुन ने कहा ही ना भगवद् गीता का प्रवचन सुने और फिर 18 वे अध्याय में ... अर्जुन उवाच नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ ( भगवद् गीता 18.73 ) अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत ! अब मेरा मोह दूर हो गया । आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई । अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ । 'स्थितोऽस्मि' मैं भी स्वस्थ हो गया । "गतसन्देहः" कोई संदेह नहीं रहा । "स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव" अब आपका आदेश पालन करने के मैं तैयार हूं, मैं स्वस्थ हूं या युद्ध के प्रारंभ में हम जैसे यहां पहुंचे तो मैं तो ठीक था लेकिन कुछ बिगाड़ हुआ और ... कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ( भगवद् गीता 2.7 ) अनुवाद:- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ । ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ । अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ । कृप्या मुझे उपदेश दें । कोई 'कार्पण्यदोष' लग गया मुझे । "पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः" तो मैं समभ्रमित हो गया । इसीलिए पूछ रहा हूं "पृच्छामि त्वां" आपसे पूछ रहा हूं । कौन पूछ रहा है ? "धर्मसम्मूढचेताः" जो सम्मूढ जो मैं मूढ बन गया हूं किसके संबंध में ? धर्म के संबंध में । धर्म मतलब कर्तव्य । क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए इसमें मैं थोड़ा समभ्रमित हो चुका हूं तो "यच्छ्रेयः स्या" जिसमें मेरा श्रेय है, "तं ब्रूहि तन्मे" मुझे कहिए । जिसमें मेरा श्रेय है । जिसमें मेरा कल्याण है, आप कहिए मुझे । "यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे" उसको मुझे कहिए और यह "शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्" आप की शरण में आ रहा हूं तो मुझे आप ही समझाइए, मेरा कल्याण किसमें है ? युद्ध करने में या युद्ध नहीं करने में तो ऐसा प्रश्न था । ऐसी मन की स्थिति थी डामाडोल तो वही अर्जुन "स्थितोऽस्मि गतसन्देहः", "त्वत्प्रसादान्मयाच्युत" आपका यह प्रसाद भगवद् गीता का जब से मैं सुन रहा हूं यह सुन चुका हूं तो अब स्थिर हो गया मैं और आपके सिवा के लिए तैयार हूं, "करिष्ये वचनं" तो अर्जुन स्वस्थ हो गए । कुछ बीमारी माया से ग्रस्त हो चुके थे माया का प्रभाव किंतु भगवद् गीता का प्रवचन सुने या भगवान ही साधु बन गए उनके लिए तो ... साधु-सङ्ग', 'साधु-सड्ग-सर्व-शास्त्रे कय । लव-मात्र साधु-सड़गे सर्व-सिद्धि हय ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्यलीला 22.54 ) अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है । तो सिद्ध हो गए वैसे शुकदेव गोस्वामी भी कहे भगवद् का प्रवचन सुने तो और सुनना चाहते हो ना नहीं-नहीं अभी धन्यवाद । राजोवाच सिध्दोस्म्यनुगृहीतोस्मि भवता करुणात्मना । श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरि: ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 12.6.2 ) अनुवाद:- महाराज परीक्षित ने कहा अब मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया है क्योंकि आप सरीखे महान् तथा दयालु आत्मा ने मुझ पर इतनी कृपा प्रदर्शित कि हैं ।आपने स्वयं मुझसे आदि अथवा अंत से रहित भगवान् हरि कि यह कथा कह सुनाई हैं । आपके करुणा का, कोरोना का नहीं आपके करुणा का फल है कि मैं 'सिधःअस्मी' । साधु-सङ्ग', 'साधु-सड्ग-सर्व-शास्त्रे कय । लव-मात्र साधु-सड़गे सर्व-सिद्धि हय ॥ तो शुक देव गोस्वामी का संग 7 दिन प्राप्त हुआ तो अब परीक्षित महाराज कह रहे हैं "सिधःअस्मी" मै सिद्ध और "अनुगृहीतोस्मि"। आपका अनुग्रह हुआ मुझ पर तो मैं कृतज्ञ हूं, मैं आभारी हूं । धन्यवादः,धन्यवाद । ॥ हरे कृष्ण ॥

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