Hindi
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
27 जुलाई 2021
श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृंदा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
964 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं, जैसे 64 माला करने के दिन आए हैं। शायद आप में से कुछ भक्त साधक चातुर्मास्य के कारण भी जुड़ रहे हो आपका स्वागत है।
चातुर्मास्य का सीजन का फायदा उठाइए और अपनी साधना कीजिए भक्ति कीजिए सेवा कीजिए अधिक कीजिए और उसकी क्या कहे
अकामः सर्व - कामो वा मोक्ष - काम उदार - धीः । तीव्रण भक्ति - योगेन यजेत पुरुषं परम् ॥१० ॥
अनुवाद:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है , वह चाहे सकाम हो या निष्काम अथवा मुक्ति का इच्छुक हो , उसे चाहिए कि सभी प्रकार से परमपूर्ण भगवान् की पूजा करे ।
ऐसी भी महत्वपूर्ण सूचना है कामो वा मोक्ष - काम उदार - धीः तीव्रण भक्ति - योगेन यजेत पुरुषं परम् तो हम जिस स्तर पर भी है या हो सकता है गलती से और भी कोई कामना है मोक्ष की कामना है या कामना है नहीं तो सभी के लिए कहां है तीव्रण भक्ति - योगेन तो फिर जहां तक यह तीव्र भक्ति का उदाहरण है कहो भक्ति कैसी चाहिए तीव्र भक्ति उसको अहेतुकी भी कहा है। अप्रतिहता भी और ययात्मा सुप्रसिधती लेकिन यहां हम तीव्रता की बात कर रहे हैं। गजेंद्र के जीवन में या गजेंद्र का उदाहरण एक ज्वलंत उदाहरण है। भक्ति की तीव्रता या अपनी भक्ति को या अपनी पुकार को इतना तीव्र बनाया है,उसको आर्त नाद नाद मतलब कुछ कहना कुछ ध्वनि तो कैसी थी उनकी ध्वनि आर्त जैसे कृष्ण भी कहे हैं गीता में चार प्रकार के लोग भगवान की ओर आते हैं।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || १६ ||
अनुवाद:- हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी |
चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं मेरी ओर आते हैं वह कौन कौन होते हैं, आर्त और अर्थाति,जिज्ञासु ज्ञानी ऐसे अर्जुन को कहा तुम इसे ध्यान रखो चार प्रकार के लोग हैं उसमें जो आर्त मतलब अति दुखी लोग आर्त फिर उनकी जो भी वे कहेंगे उस की मन की स्थिति को आर्त नाद कहते हैं, तो गजेंद्र का मोक्ष भी हुआ यह प्रसंग श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध 2,3 अध्याय में तीसरे चौथे अध्याय में इसका वर्णन हुआ है।
गजेंद्र मोक्ष वैसे मोक्ष ही नहीं उनको तो वैकुंठ की प्राप्त हुई मोक्ष कहने से कुछ और भी समझ में आता हैं। या कुछ ध्वनित होता हैं लेकिन वैसा नही सोचना है। जब मायावादी को मोक्ष को प्राप्त नहीं किये कैवल्य मुक्ति नही हुई उनकी इसको कैवल्य नरकायते कहां है। कैवल्य मुक्ति की तुलना नरकायतें नारकीय कहा हैं लेकिन यहा जो गजेंद्र को मोक्ष प्राप्त हुआ तो इस प्रसंग के अंतर्गत उनकी जो प्रार्थनाएं है।
गजेंद्र की प्रार्थना और उस प्रार्थना में यह आर्त या जो कष्ट है असुविधा है परेशानी है या उनको साक्षात्कार हुआ इस बात का दुखालयम और अशाश्वतम यह जगह दुख का सागर है। या सुख दुख का मेला है या प्रभुपाद ने एक समय लिखा है माया संसार दिखाता है कभी-कभी अपना ऐसा चेहरा दिखाता है अग्ली फेस कुरूप होता है। या वैसा ही दर्शन इस संसार का दर्शन
संसार-दावानल-लीढ-लोक
त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्।
प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य
वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) कृपासिन्धु (भगवान्) से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। जिस प्रकार एक मेघ वन में लगी हुई दावाग्नि पर जल की वर्षा करके उसे शान्त कर देता है, उसी प्रकार श्री गुरुदेव सांसारिक जीवन की प्रज्वलित अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
जिसको हम प्रतिदिन गाते हैं संसार दावानल यह दावानल है वैसे कई शब्दों में यह संसार का वर्णन हुआ है। कृष्ण ने तो कहा है दुखालयम हैं तब इस गजेंद्र को पूरा साक्षात्कार हुआ यह संसार कैसा है यह संसार दुखालय हैं। तो यह सारा इतिहास भी है उस दुख की स्थिति में कैसे वह फंसे कैसे उन्होंने अपराध किया अगस्त मुनि के चरणों में अपराध किया कहो या सदाचार को नहीं दिखाया अगस्त मुनि आए थे उस स्थान पर अपने शिष्यों के साथ जहाँ इंद्रद्युम्न राजा भी वहां थे और वो भी अपने साधना में ध्यान में लगे थे किंतु जब अगस्त मुनि आए तब आदर सम्मान सत्कार होना चाहिए था वह अगस्त्यमुनि है या ब्राह्मण है।
इन्द्रद्युम्न तो राजा है क्षत्रिय है क्षत्रियों का धर्म है ब्राह्मण के शरण में जाना या
नमो ब्राह्मण देवाय गो ब्राह्मण हिताय जगत् हिताय कृष्णाय गोविंदाय नमो नमः कृष्ण भी सुदामा का स्वागत कैसे करते हैं वह जग प्रसिद्ध घटना है।
ऐसे सम्मान सत्कार किया तो यह सब नहीं हुआ तो अगस्त मुनि क्रोधित हुए और उन्होंने श्राप दिया की तुम मंदबुद्धि के बन जाओ हाथी बन जाओ और फिर ऐसा ही हुआ और फिर ऐसा यह वर्णन किया हुआ है।
गजेंद्र मोक्ष के प्रसंग में आप पढ़िए गा तो फिर ग्राह आया घड़ियाल आया तो।ठीक है इसको बताना होता है,पड़ता है वैसे यह गजेंद्र गज इंद्र गज मतलब हाथी हाथियों में इंद्र प्रधान प्रधान हाथी खगेंद्र खग मतलब ख मतलब आकाश और ग मतलब गमन करने वाला होगा खग मतलब पक्षी खगेंद्र मतलब गरुड़ पक्षी पक्षियों में प्रधान ऐसे सब नाम होते हैं। इंद्र का नाम जोड़ा जाता है। फिर मृगेंद्र मतलब पशु और उसमें जो श्रेष्ठ पशु हैं वो हैं सिंह को मृगेंद कहते हैं। तो कोई मृगेंद्र हैं कोई खगेंद्र हैं तो कोई गजेंद्र हं तो आप समझते हो इसे और आगे ये थे गजेंद्र मतलब हाथियों में श्रेष्ठ तो वो पोहोंचे थे अपने हाथियों नी के साथ और पूरे परिवार के साथ बाल बच्चे भी आये थे। और ये त्रिकुट नाम का जो पर्वत है श्वेतदीप में वहां के पर्वत के तलहटी में पहुंचे वहां के तालाब में विचरण कर रहे हैं और हाथी को बहुत आनंद होता है स्नान करते समय आनंद लूटता है और वो सब आनंद लूट रहे थे और इतने में समय आ गया कोन समय आगया काल आगया कालोस्मि मैं काल हूँ। भगवान काल बनकर आगए ग्राह उस घड़ियाल के रूप में और उसके पैर को पकड़ लिया और खिंचा हाथी को जल मस्य और ये युद्ध चलता रहा बाहोत समय तक बहुत सालों तक यह दोनों की खींचातानी चल रही थी प्रयास तो चल रहे थे गजेंद्र के इस फंदे से मुक्त होने के अपने डिफेंस में समझते हो कईयों की सहायता लेने का प्रयास चल रहा था है। पत्नियों का बच्चों का या हम देखते हैं कि कोई अपने वकील है लॉयर इंजीनियर इत्यादि की सहायता मांगते रहते हैं । जैसे कहा गया हैं
देहापत्य - कलत्रादिष्वात्म - सैन्येष्वसत्स्वपि । तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥४ ॥ .17 "
अनुवाद:- आत्मतत्त्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते , क्योंकि वे शरीर , बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं । पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यंभावी मृत्यु को नहीं देख पाते ।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा है ये जो सेना हम तयार कर रहे होते हैं जैसे पत्नि और ये शरीर भी है शरीर का भी हम कुछ उपयोग करते हैं। हमारी रक्षा के लिए और जब अकेले से काम नहीं बना तो फिर अपत्य है पुत्र है पुत्रियां हैं कलत्र पत्नि है और भी बाकी है लेकिन सुखदेव गोस्वामी कहते हैं यह सब क्या है और असत सैनेशु असत वपि ये जो सारा सैन्य हैं संदेशों मनी यह सारा झूट मूट का है मराठी में कहते हैं लूटू पुटु झूठ मुठ का है यह काम नहीं आएगा जब मृत्यु आ धमका है कालोस्मि मैं काल बन जाता हूं या काल सर्प भी कहां है यह काल बनता है या कालसर्प कहते हैं तो इतने सारे प्रयास तो यह कर रहा था वैसे सभी बद्ध जीव करते ही हैं। आहार निद्रा भय मिथुन तो उसमें से जो भय है भय से रक्षा करना संकट से मुक्त होने का प्रयास करना तो सारे प्रयास किए लेकिन सारे विफल जा रहे थे तो फिर दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे ना कोई जिसने भगवान का स्मरण किया या ऐसे सदैव से ही कहो जिसको भगवान का स्मरण हुआ स्मरण होने का कारण यह भी था कि उसने पूर्वजन्म में जब वह इंद्रद्युम्न थे उन्होंने साधना भक्ति की थी प्रार्थना है की थी सीखी थी प्रार्थना किया करते थे तो जो भी जैसे आगे भगवद्गीता में कहा हैं कि
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् || ४० ||
अनुवाद:- इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् कई सारे सिद्धांत काम कर रहे हैं जो भी पहले की जो की पुण्याई की पूंजी थी अभी काम आ रही है।
तो उन्होंने धड़ा धड़ प्रार्थना करने लगे यह हाथी संस्कृत भाषा में प्रार्थना कर रहा है तो जो भी पहले कंठस्थ किया था और हॄदयंगम किया था वह सब याद आ रहा है क्या हनको यह तुरंत यह सोचना होगा उन्हें भगवान याद दिला रहे हैं।
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ ||
अनुवाद:-
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च इसलिए तो भगवान बैठे रहते हैं और साथी बड़े सक्रिय रहते हैं हमारे हॄदय प्रांगण में हमारे साथ हमारे साथी हैं। हमारे जीवन के साथी हाथी नहीं है ऐसे कुछ सिनेमा भी था शायद लेकिन जीवन का साथी तो भगवान है तो भगवान ने उनको स्मरण दिलाया मतः मुझसे आता है क्या आता है मुझसे आता है।
स्मृति, ज्ञान या जो भूलना भी हैं हम भूल बैठे हैं हम भगवान को भूल बैठे हैं यह भी भगवान की ही व्यवस्था है हम भगवान को याद कर रहे हैं यह भगवान की कृपा है और भगवान को भूले है और कई लोग कहते भगवान नही है ये नही है हम नही मानते मुझे कोई फरक नही पड़ता किसने देखा है।
ऐसे विचार भी भगवान दे देते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि जब विनाश का समय आता है तो बुद्धि दिमाग उल्टा काम करता है। तो ऐसी बुद्धि सुबुद्धि दिया या तो कुबुद्धि भगवान ही दे रहे हैं।
उसके पूर्व कर्मों के अनुसार तो यहां पर भगवान ने सद्बुद्धि दी इस हाथी को गजेंद्र को और वह प्रार्थना करने लगे तो श्रीमद्भागवत में कई सारे प्रार्थनाएं हैं कुंती महारानी की प्रार्थना है या शभीष्म पितामह की प्रार्थना है प्रल्हाद महाराज की प्रार्थना है कई सारी प्रार्थनाएं है कई सारे प्रार्थना वो से भरा पड़ा है श्रीमद्भागवत उन प्रार्थना में इस गजेंद्र की प्रार्थना जो प्रार्थना भगवान ने सुनी तो भगवान वह मुक्त हुए उस प्रार्थना ने मुक्त किया मुक्त ही क्या किया या भक्त बनाया हरि हरि प्रार्थना होती है धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष तो कुछ काम के लिए प्रार्थना या कामशास्त्र होते हैं कामशास्त्र फिर यह अर्थशास्त्र यह चार होते चार पुरूषार्थ होते है ना उनके अपने अपने शास्त्र है। तब काम का भी शास्त्र हैं और अर्थ का भी शास्त्र है काम का शास्त्र है और अर्थ का शास्त्र है धर्म का शास्त्र है मोक्ष का शास्त्र है और इसके परे है इसके ऊपर है भक्ति शास्त्र कृष्ण प्रेम प्राप्ति का शास्त्र तो हर पुरुषार्थ का अपना-अपना शास्त्र हैं अपने-अपने विधि विधान है। तो धर्मशास्त्र भी है, लेकिन फिर भगवान ने कहा है
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६ ||
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
तो ऐसे कुछ धर्म के शास्त्र भी है जिसे कहते परित्यज्य उसे त्यागो मेरी शरण में आओ तो भगवान के शरणागति का जो शास्त्र है जो प्रेम का शास्त्र है तो एक काम शास्त्र दूसरा प्रेम शास्त्र भगवत प्रेम का शास्त्र वैसे ही भगवत गीता भी है भागवत भी है चैतन्य चरित्रामृत भी है तो यह भगवान ने भी प्रेरणा दी प्रेरित किया इस गजेंद्र को और वह प्रेम की बातें करने लगे प्रेम शास्त्र की और भगवान को तत्वता जानते हुए इनकी जब प्रार्थना हम पढ़ते हैं तो वह समझ में आता है और आना चाहिए की यह भगवत तत्वों को समझे हुए है यह गजेंद्र प्राथना कर रहे थे तो उन्होंने कहा मुक्ताय और भगवान का एक नाम भी हैं।
वैसे जो प्रार्थना की है वह भगवान को संबोधित करते हुए प्रार्थना कर रहे हैं । वह देवी देवताओं को संबोधित करते हुए प्रार्थना नहीं कर रहे हैं अगर करते तो मतलब तत्व को नहीं समझे , भगवत तत्व , विज्ञान को नहीं समझे । मुक्ताय उन्होंने कहा , मतलब भगवान मुक्त है । जो स्वयं मुक्त है वही तो औरों को मुक्त कर सकता है जो पूरा बंधा हुआ है , बंद है , हथकड़ी भेड़िया या दोरी से हाथ पैर बांध दिए हैं और आप वहां पहुंचकर कह रहे हों कि मदद करो! मदद करो! मदद करो! वह आपकी क्या मदद करेंगा? वह तो हिल भी नहीं पा रहा है और तुम कर रहे हो मदद करो! मदद करो! मदद उनसे मांगनी चाहिए , जहां तक मुक्त होने की के लिए मदद है , जो स्वयं मुक्त है वही औरों को मुक्त कर सकता है । वह होते हैं भगवान और भगवान के भक्त वही उनको मुक्त कर सकते हैं । यहां मुक्ताय , भगवान आप मुक्त हो और मुझे मुक्त कीजिए । बड़ी सुंदर प्रार्थनाये है , इस प्रार्थना के ऊपर ही कभी-कभी गोविंद स्वामी महाराज की साथ दिवसीय कथा होती है। केवल यह गजेंद्र मोक्ष के अंतर्गत जो गजेंद्र की प्रार्थना है वह सात दिवस यह कथा सुनाते ही है । एक एक संबोधन गजेंद्र किया हुआ है , जानबूझकर वह संबोधन कर रहे हैं । साक्षीने और यह नम: , नमः चल रहा है शुरुआती है नमः ,
श्रीगजेन्द्र उवाच ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् । पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥
(श्रीमद्भागवत 8.3 2)
अनुवाद:- गजेन्द्र ने कहा : मैं परम पुरुष वासुदेव को सादर नमस्कार करता हूँ ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) । उन्हीं के कारण यह शरीर आत्मा की उपस्थिति के कारण कर्म करता है ; अतएव वे प्रत्येक जीव के मूल कारण हैं । वे ब्रह्मा तथा शिव जैसे महापुरुषों के लिए पूजनीय हैं और वे प्रत्येक जीव के हृदय में प्रविष्ट हैं । मैं उनका ध्यान करता हूँ ।
शुरुआत भी कैसी है देखिए ओम नमो भगवते ,मैं भगवान को नमस्कार कर रहा हूं , मैं भगवान को प्रार्थना कर रहा हूं । हरि हरि । उन्होंने कहा कि साक्षिणे परमात्मने यह सारे शब्द चतुर्थी में होंगे ,जब नमः होता है तब नमः शिवाय कहना ही पड़ता है , रामायण नमः , कृष्णाय नमः , विष्णवे नमः शब्द कैसा है? शब्द के अंत में उकार है , विकार है , एकार है या नकार है, नकारान उसके अनुसार वह शब्द चतुर्थी ने बनेंगे । नमः के साथ चतुर्थी होती है , यहां कई सारे नाम है , सहस्त्र नाम तो नहीं है लेकिन शेकडो नामो का उल्लेख करते हुए और हरनाम भगवान की कुछ या तो उनके रूप का या गुण का या लीला का या धाम का उल्लेख करने वाले नामों का उच्चारण कर रहे हैं ।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे । निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥
(श्रीमद्भागवत 8.3.12)
अनुवाद:- मैं सर्वव्यापी भगवान् वासुदेव को , भगवान् के भयानक रूप नृसिंह देव को , भगवान् के पशुरूप ( वराह देव ) को , निर्विशेषवाद का उपदेश देने वाले भगवान् दत्तात्रेय को , भगवान् बुद्ध को तथा अन्य सारे अवतारों को नमस्कार करता हूँ । मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जो निर्गुण हैं , किन्तु भौतिक जगत में सतो , रजो तथा तमो गुणों को स्वीकार करते हैं । मैं निर्विशेष ब्रह्मतेज को भी सादर नमस्कार करता हूँ ।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे । पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥
(श्रीमद्भागवत 8.3.13)
अनुवाद:- मैं आपको नमस्कार करता हूँ । आप परमात्मा , हर एक के अध्यक्ष तथा जो कुछ भी घटित होता है उसके साक्षी हैं । आप परम पुरुष , प्रकृति तथा समग्र भौतिक शक्ति के उद्गम हैं । आप भौतिक शरीर के भी स्वामी हैं । अतएव आप परम पूर्ण हैं । मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ ।
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय । सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय ॥
(श्रीमद्भागवत 8.3.15)
अनुवाद:- हे भगवान् ! आप समस्त कारणों के कारण हैं , किन्तु आपका अपना कोई कारण नहीं है , अतएव आप हर वस्तु के अद्भुत कारण हैं । मैं आपको अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ । आप पञ्चरात्र तथा वेदान्तसूत्र जैसे शास्त्रों में निहित वैदिक ज्ञान के आश्रय हैं , जो आपके साक्षात् स्वरूप हैं और परम्परा पद्धति के स्रोत हैं । चूँकि मोक्ष प्रदाता आप ही हैं अतएव आप ही अध्यात्मवादियों के एकमात्र आश्रय हैं । मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ ।
अखिलकारनाय मतलब क्या? सर्व कारण कारणम , अखिलकारनाय । आप कारणों के भी कारण हो , मूल कारण आप ही हो और क्या कह रहे हैं देखिये , (हँसते हुये)
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय । स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥
(श्रीमद्भागवत 8.3.17)
अनुवाद:- चूकि मुझ जैसे पशु ने परममुक्त आपकी शरण ग्रहण की है , अतएव आप निश्चय ही मुझे इस संकटमय स्थिति से उबार लेंगे । निस्सन्देह , अत्यन्त दयालु होने के कारण आप निरन्तर मेरा उद्धार करने का प्रयास करते हैं । आप अपने परमात्मा - रूप अंश से समस्त देहधारी जीवों के हृदयों में स्थित हैं । आप प्रत्यक्ष दिव्य ज्ञान के रूप में विख्यात हैं और आप असीम हैं । हे भगवान् ! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ ।
मेरे जैसे प्रपन्न पशु , मैं पशु तो हूं लेकिन मैं आपके शरण में आ गया हूं । मैं जो हु उसको भी मोक्ष देने वाले । पशु हुआ तो क्या हुआ आपके शरण में आया हूं , कोई पशु भी शरण में आए तो पशुपाश , पशु है उसे उसके डोरियों से बांध लिया है । आशापाश बद्धे , कई सारे पाश है , आशा के पाश या कर्मों के बंधन है या गुणों की डोरियों ने उनको बांध लिया है लेकिन विमोक्षनाय विमुक्ताए खलनाय और , और , और ,और , यह प्रार्थना आप पढ़िएगा । यह पूरा भाग पढ़ सकते हो या पुरा अध्याय ही पढ़ सकते हो । अष्टम स्कंध के दो - तीन - चार अध्याय और एक वह प्रार्थना कर रहे हैं और अलग-अलग नाम का उच्चारण कर रहे हैं , कीर्तन कर रहे हैं । कीर्तनिय सदा हरी कर रहे हैं , जैसे हम करते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। इसी का यह भाष्य है कहो , इसी को ही विलग करोगे तब यह सारे नाम आ जाते हैं । इन सारे नामों का इस एक नाम में एक हरे कृष्ण महामंत्र में समावेश है ।
नाम नामकारी बहुधा सर्वशक्ति , भगवान ने अपने सारे नाम , सारी शक्तियां , सारी लीलाये , सब कुछ एक मंत्र में भर दिया है और वह हरे कृष्ण महामंत्र है । हरे कृष्ण महामंत्र को हम समझेंगे , हरे कृष्णा मतलब क्या है ? गजेंद्र की प्रार्थना को पढे तो हम महामंत्र को समझेंगे। हरि हरि । एक वह इसके साथ कीर्तन ही कर रहे हैं , कीर्तनिय सदा हरी चल रहा है । यह गजेंद्र मोक्ष प्रसंग में गजेंद्र कीर्तन कर रहे हैं और कीर्तन करते समय कीर्तन करते करते कुछ अर्चन भी कर रहे हैं । कैसे उन्होंने अर्चना की? एक , वह भगवान को याद कर रहे हैं , भगवान वैकुंठ पति जो भगवान है , वैकुंठनायक जो भगवान है उनका स्मरण कर रहे हैं , उन्हीं की आराधना चल रही है । वह तालाब में ही होते हैं और वह तालाब में फंसे है और उस तालाब का इतना सुंदर शुकदेव गोस्वामी ने वर्णन किया है । तालाब, तालाब का किनारा और वहां की वृक्षावली वही के कुछ फूल उन्होंने अपने सूंड से उठा लिए हैं । वह हाथी का हाथ ही होता है , हाथी के चार पैर होते हैं और एक हाथ होता है । हाथी की सूंड हाथ जैसा काम करती है , उस सुंडसे कुछ पुष्प को उठाये और ,
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः ||
(भगवद्गीता 9.26)
अनुवाद:-
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ |
भक्ति पूर्वक प्रार्थना कर ही रहे हैं , वह भगवान को पुष्प अर्पित कर रहे हैं और साथ ही में उस समय नमस्कार चल ही रहा है ।
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते । योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥
(श्रीमद्भागवत 8.3.27)
अनुवाद:- मैं उन ब्रह्म , परमात्मा , समस्त योग के स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो सिद्ध योगियों द्वारा अपने हृदयों में तब देखे जाते हैं जब उनके हृदय भक्तियोग के अभ्यास द्वारा सकाम कर्मों के फलों से पूर्णतया शुद्ध तथा मुक्त हो जाते हैं ।
नतोऽस्म्यहम् , मैं नतमस्तक हो रहा हूं और बार-बार वह नमस्कार कर रहे हैं , झुककर नमस्कार कर रहे हैं । नमस्कार कर रहे हैं , प्रार्थना कर रहे हैं पत्रम पुष्पम फलम अर्पित कर रहे हैं । कौन कहता है भगवान नहीं आते ? क्यों नहीं आते होंगे ? गजेंद्र जैसे पुकारते नहीं इसीलिए नहीं आते होंगें। इस गजेंद्र से हमको सीखना है भगवान को पुकारना है तो कैसे पुकारना चाहिए , केवल ओठो को हिलाना नहीं , तोते की तरह कंठ से कंठस्थ की हुई बाते , तोते जैसा रटी हुए बातों को कहने से भगवान नहीं आएंगे, यहां दिल से , तहे दिल से , दिल से मतलब उस आत्मा से , आत्मा की पुकार जब बन जाएगी , आत्मा जब पुकारेगा और ऐसा पुकारेगा कि और कोई नहीं है , मेरा और कोई सहारा नहीं है । जब हम अपना सरक्षंण करना छोड़ देंगे , यह प्रयास चल रहा है , वह प्रयास चल रहा है , वह प्रयास चल रहा है नही तो लाइफ इंश्योरेंस है ही लेकिन अनन्य भक्ति , अन्य और कोई नहीं केवल भगवान कृष्ण । कृष्ण कन्हैया लाल की जय । भगवान ऐसी प्रार्थना सुनते हैं ।भगवान ने गजेंद्र की ऐसी प्रार्थना सुनी और भागे दौड़े आए । वैसे गरुड़ पर आरूढ़ हुए लेकिन भगवान कुछ गरुड़ से भी अधिक गति से जा रहे थे ।गरुड़ कभी कभी पीछे ही रह जाता इतनी स्पीड के साथ जा रहे थे । जितनी तीव्रता रही , जितना आर्तनाद रहा , जितना उसमें गाम्भीर्य रहा वैसा ही प्रतिसाद भगवान की ओर से भी हो रहा है , भगवान समझ रहे थे कि अभी आपातकालीन स्थिति है ।
भगवान श्री कृष्ण भागे दौड़े आ रहे हैं । वैसे दोनों को अभी मुक्त किया है , ग्राह का भी अपने सुदर्शन चक्र से गला काट दिया वह भी मुक्त हुआ , उसको भी श्राप मिला था । यह ग्राह घड़ीया यह पूर्वजन्म में गंधर्व था हू हू , हू हू गंधर्व का नाम था ( हंसते हुए ) और देवल ऋषि ने उन को श्राप दिया था , मगरमच्छ बन जाओ । दोनों को भी श्राप मिले थे , भगवान ने दोनों को भी मुक्त किया है और खासकर गंधर्व तो गंधर्व लोक लौट गया और इस गजेंद्र को अपना उसका अपना खुद का जो स्वरूप है वह प्राप्त हुआ है । प्राप्त क्या हुआ? वह होता ही है उसको कहीं और से लाना नहीं होता है। आत्मा का अपना स्वरूप है, उस स्वरूप का वर्णन भी है । भगवान जैसा ही वर्णन होता है , बाप जैसा बेटा । भगवान जैसे होते हैं वैसे भी आत्मा भी होते हैं । उस रूप को धारण किया है , प्राप्त किया है और फिर भगवान ने क्या किया? गरुड़ के पीछे उस गजेंद्र को बिठा लिया , अब वह गजेंद्र नहीं रहा , गज नहीं रहा , उनका पार्षद बन गया है। अपने ही वाहन में पीछे की सीट पर बिठा लिया जैसे कोई स्कूटर से आ जाये आप को ले जाने के लिए और अब पीछे बैठो , पीछे बैठो । भगवान ने वैसे ही किया है , वहीं छोड़ दिया। फिर मिलेंगे या अब देखूंगा मैं कुछ व्यवस्था करुगा तुमको स्वधाम या स्वदेश भेजने के लिए। वैकुंठ हमारा स्वदेश है , सभी जीवो की मातृभूमि पितृभूमि वैकुंठ है। भगवान ने स्वयं अपने साथ अपने यान में बिठाकर गजेंद्र को, अभी उसका नाम हम गजेंद्र ही कह रहे हैं उसको स्वधाम लेकर गए । यह एक यशस्वी कथा है , इस प्रकार गजेंद्र का जीवन सफल हुआ । इस पर चिंतन कीजिए मनन कीजिए हॄदयंगन कीजिए इस लीलाको , इस घटना को और ऐसी प्रार्थना करना हमें सीखना है । गजेंद्र जैसी प्रार्थना सीखनी है । जैसे हमने कहा हमें कोई परिवर्तन नहीं करना है वही प्रार्थना को हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह प्रार्थना वही है , बस गजेंद्र का जो भाव है , भक्ति है उसमें खासकर जो तीव्रता रही उस भक्ति का , प्रार्थना का आर्तनाद जो रहा वह कैसे आ जाए इसके लिए हम उन्ही को प्रार्थना कर सकते हैं कि हमको भी ऐसी भाव भक्ति वह दे । हरी हरी । वैसे उन्होंने दो ही मुख्य बातें की है , एक नाम दूसरा प्रणाम । क्या कर रहे थे ? नाम ले रहे थे और प्रणाम कर रहे थे , नाम और प्रणाम । दो बातें याद रखिए एक बात नाम है , दूसरा प्रणाम है।
संख्यापूर्वक - नामगान - नतिभिः कालावसानीकृतौ निद्राहार - विहारकादि - विजितौ चात्यन्त - दीनौ च यौ राधाकृष्ण - गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ वन्दे रूप - सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव - गोपालको
अनुवाद:- वृन्दावन के छः गोस्वामी , श्री रूप गोस्वामी , श्री सनातन गोस्वामी , श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी , श्री रघुनाथ दास गोस्वामी , श्री जीव गोस्वामी तथा श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी के प्रति मैं अपने आदरयुक्त प्रणाम अर्पण करता हूँ , जो गिनतीपूर्वक भगवान् के पवित्र नामों का उच्चारण करने में और नतमस्तक होने में व्यस्त रहते थे । इस प्रकार उन्होंने अपने मूल्यवान जीवन का उपयोग किया और इन भक्तिमय क्रियाओं के आचरण द्वारा उन्होंने आहार व निद्रा की सारी क्रियाओं को जीत लिया । भगवान् के दिव्य गुणों के स्मरण द्वारा मंत्रमुग्ध होकर वे सदैव लीन और नम्र होकर रहते थे ।
षठ गोस्वामी से हम यह सीखते हैं । संख्या पूर्वक नाम गान किया करते थे और नतिभि झुकते थे , विनम्र भाव से वह गान किया करते थे । हरि नाम , संख्या पूर्वक हरि नाम किया करते थे । ठीक है । हरि हरि।