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*जप चर्चा* *राधे श्याम प्रभु द्वारा* *दिनांक 30 अप्रैल 2022* हरे कृष्ण *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।* *वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।* *(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* सर्वप्रथम मैं परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज के श्री चरण कमलों में सादर दंडवत प्रणाम करता हूं और आप सब वैष्णव की कृपा आशीर्वाद की याचना करता हूं कि हम श्रील गदाधर पंडित के संबंध में दो शब्द आज बोल पाएं। आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि प्रभुपाद ने बोला है कि हमें नाम जप करने से पहले हमेशा पंचतत्व महामंत्र का उच्चारण करना चाहिए। *(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।* प्रभुपाद जी अनेक तात्पर्यों में बताते हैं कि जो इस पंचतत्व महामंत्र का उच्चारण करता है, उसके अंदर से अपराध भावना निकल जाती है और नाम अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण करने में उसे शुद्धता प्राप्त होती है। शुरुआत के दिनों में मुझे आश्चर्य होता था कि कैसे हम कृष्ण चैतन्य मंत्र बोलने से अपराध से मुक्त होते हैं। मेरे मन में बहुत समय तक य़ह प्रश्न था। कुछ सालों के उपरांत इसके विषय में सुनने और पढ़ने के पश्चात मुझे पता लगा कि य़ह जो पंचतत्व है, इन पांच महापुरुषों के बीच में चैतन्य महाप्रभु हैं। *श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य* ( चैतन्य भागवत) अर्थ:- भगवान चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन् श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं। महाप्रभु साक्षात कृष्ण हैं। स्वयं कृष्ण हैं लेकिन एक खास उद्देश्य को लेकर वे इस दुनिया में अवतरित हुए हैं। उद्देश्य यह था कि कृष्ण राधा भाव को स्वीकार कर, राधा के भाव को अनुभव करने के लिए अर्थात कृष्ण प्रेम का अनुभव करके उसको वितरित करने के लिए श्रीकृष्ण, चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। *राधा कृष्ण प्रणय विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद्। एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ।।* *चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा- भाव- द्युति- सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपं।।* (श्रीकृष्ण चरितामृत आदि लीला १.५) अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएं भगवान की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियां हैं। यद्यपि राधा और कृष्ण अभिन्न हैं, किंतु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधरानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए है। स्वरूप दामोदर ऐसा बताते हैं कि वे राधा भाव को स्वीकार कर आए हैं लेकिन वह भगवान श्रीकृष्ण हैं। हम बड़े भाग्यशाली हैं क्योंकि 500 वर्ष पहले ही चैतन्य महाप्रभु अवतरित हुए हैं। कृष्ण जब राधा के भाव में आ जाते हैं तो और अधिक कृपालु दयालु हो जाते हैं। वे जिस प्रेम को अनुभव कर रहे हैं जिस भक्ति भावना का अनुभव कर रहे हैं। उसी को मुफ्त में बहुत सरलता से, बहुत आसानी से वितरण कर रहे हैं लेकिन वह अकेले नहीं आए थे, अपने साथ बहुत सारे पार्षदों को लेकर आए थे। इस पंचतत्व के चित्र में देखें तो चैतन्य महाप्रभु में इस बाजू में नित्यानंद प्रभु हैं और दूसरी तरफ गदाधर पंडित है। नित्यानंद प्रभु आदि गुरु हैं। जैसे हम व्यष्टि गुरु और समष्टि गुरु बोलते हैं। जो हमारे दीक्षा गुरु होते हैं, वे व्यष्टि गुरु होते हैं। लेकिन सब गुरुओं की शक्ति जहां से आती है, उसे समष्टि गुरु कहतें हैं। वे नित्यानंद प्रभु हैं, वे आदि गुरु हैं, बलराम हैं। *नायमब्रह्म बलहीनन लभ्यो न च प्रमादत्तपसो वाप्यलिङ्गात्।एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वानस्तस्यैैष आत्मा धाम।।* (मुकण्ड उपनिषद) अर्थ:- यह आत्मा शक्तिहीन या उत्तेजना से या लिंग रहित तप से प्राप्त नहीं हो सकती । लेकिन जो ज्ञाता इन साधनों से प्रयास करता है, आत्मा ब्रह्म में प्रवेश करती है। ऐसा शास्त्र बताते हैं कि अध्यात्मिक बल के बिना कोई भी आध्यात्मिक जीवन में शामिल होकर लगातार उसकी अंतिम सांस तक भी भक्ति में नहीं जुड़ पाएगा लेकिन हमें बल उनसे प्राप्त होता है जो हमें दीक्षा देते हैं और गुरु परंपरा से जोड़ते हैं। गुरु हमें शिक्षा दीक्षा के द्वारा आध्यात्मिक बल प्रदान करते हैं। उन सब गुरुजनों के बल का स्तोत्र बलराम जी हैं। वही बलराम जी, नित्यानंद प्रभु के रूप में आते हैं। नित्यानंद प्रभु अत्यंत कृपालु अत्यंत दयालु होते हैं। यदि उनका कृपा कटाक्ष हम पर नहीं गिरता है तो हमें श्री राधा रानी सेवा नहीं देगी। इसीलिए हम गुरु के श्री चरणों में जुड़कर सेवा प्राप्त करते हैं। इसीलिए तीसरा अपराध बताता है कि हमें गुरु की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। राधा जी के श्री चरणों से ही कृपा आशीर्वाद प्राप्त करके ही हमें सेवा प्राप्त होगी । नित्यानंद प्रभु के दायीं तरफ अद्वैत आचार्य हैं। एक और अद्वैत आचार्य और दूसरी और श्रीवास ठाकुर हैं। आप पंच तत्व में देखते हैं, अद्वैत आचार्य प्रभु पंचरात्रिक विधि को सिखाते हैं। उन्होंने शालिग्राम शिला के समक्ष गंगाजल और तुलसी लेकर, गंगा के तट पर बैठकर शालिग्राम की पूजा करके, बहुत सुंदर तरीके से भगवान के नामों को निसहाय भावना, निष्कपट भाव से पुकारकर भगवान कृष्ण को विनती की कि आप अवतरित हो जाइए। आप के आए बिना कलियुग के जीवों के लिए दूसरा सहारा नहीं हैं। वे हमें पंचरात्रिक विधि सिखाते हैं कि कैसे हमें श्रीकृष्ण की उपासना करनी चाहिए। पंचरात्रिक विधि से शुद्धता प्राप्त होता है और समयबद्धता प्राप्त होती है। भगवान की उपासना से भगवान की निकटता प्राप्त होती है। भगवान का स्मरण बढ़ता है, भगवान के लिए प्रेम जगता है। जो भगवान के श्री विग्रह को भोग चढ़ाते हैं, भगवान का श्रृंगार करते हैं। भगवान के लिए दिव्य तपस्या करते हैं, भगवान के लिए मंत्रों का उच्चारण करते हैं, भगवान के लिए अर्चनाएं करते हैं। उन सबका भगवान की ओर शीघ्र ही आकर्षण बढ़ता है। यह सब अद्वैत आचार्य प्रभु सिखाने वाले हैं।पंचरात्रिक विधि वे खुद भी करते हैं और दुनिया को भी सिखाते हैं। दूसरी तरफ जो श्रीवास ठाकुर हैं, वे नारद जी हैं। वे हमें भागवत विधि सिखाते हैं। भागवत विधि मतलब श्रवणं और कीर्तनं। हम समझते हैं कि नारद मुनि हाथ में वीणा लेकर भगवान के नामों, कथा का प्रचार प्रसार करते हैं। श्रीवास का घर ही महाप्रभु की लीला स्थली बना। उनको खुद भी भगवान के नाम और भगवान की कथा में अटूट विश्वास था। उनके मन में कभी भी लेश मात्र भी चिंता नहीं था। एक बार उनका एक छोटा पुत्र भी मर गया फिर भी वे परवाह किए बिना भगवान चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन में शामिल होकर नाच गा रहे थे। अपने पर बहुत नियंत्रण था, जब चैतन्य महाप्रभु को पता चला। तब चैतन्य महाप्रभु ने उस बच्चे को जिंदा किया (आप लोग जानते ही हैं।) इस तरह से श्रीवास ठाकुर श्रवण कीर्तन में इतना डूब कर भक्ति करते हैं। प्रेम विभोर होकर दुनिया के सब प्रकार से समस्याओं को भूलकर अपने चित्त की कल्मष को दूर करके भक्ति भाव में विभोर होकर भक्ति करते हैं। उनसे हम भागवत विधि सीखेंगे । हम पंचरात्रिक विधि अद्वैत आचार्य प्रभु से दूसरी भागवतविधि श्रीवास ठाकुर से सीखते हैं। अभी आज हम गदाधर पंडित के विषय में सुनेंगे जो चैतन्य महाप्रभु के इस ओर खड़े हैं। गदाधर पंडित साक्षात राधा रानी है, वृषभानु नंदिनी है। ऐसा गणगौर दीपिका में बताया गया है कि राधा जी खुद इस धाम पर अवतरित हुई हैं। जब चैतन्य महाप्रभु अवतरित होते हैं तो राधा जी भी अवतरित होती हैं। कभी भी शक्तिमान अकेले नहीं होते। इसलिए उधर ही नवद्वीप धाम में श्री माधव मिश्रा और रत्नावली देवी के घर पर गदाधर पंडित का जन्म होता है। रत्ना देवी, शची माता को अपनी बहन ही मानती थी। दोनों बहुत निकट मित्र थे और एक दूसरे के साथ अक्सर मिलते थे एक दूसरे के घर में जाते थे। ऐसा बताया गया है कि बचपन में दोनों श्री गौर हरि और गदाधर बहुत निकट मित्र थे और साथ में ही खेलते कूदते थे।साथ में ही गुरुकुल में पढ़ाई के लिए जाते थे। एक ही स्कूल में पढ़े थे, इस प्रकार बहुत ही निकट मित्र थे। जब गदाधर पंडित थोड़े बड़े हुए तो उनके स्वभाव के बारे में बताया गया है कि वह बचपन से बहुत शांत स्वभाव के थे। बहुत धैर्य रखते थे और ज्यादा बोलते नहीं थे। बहुत कोमल स्वभाव वाले थे, वह बाकी लोगों के साथ ज्यादा मिलते नहीं थे, दूसरे लोगों से जरा हटकर रहते थे। सदा भगवान के चिंतन या स्मरण में रहते थे। बहुत अनासक्त थे, ऐसा गदाधर पंडित के स्वभाव के बारे में बताया गया है। चैतन्य महाप्रभु के पार्षदों में गदाधर पंडित ब्रह्मचारी हैं। अगर तत्व के तौर पर देखा जाए तो गदाधर पंडित श्रीमती राधारानी हैं। श्रीमती राधारानी ने अपने भाव कृष्ण को प्रदान किया और राधा रानी, कृष्ण को अपना भाव देने के बाद वह भी साथ में आती। जैसे कभी-कभी किसी कंपनी के लोग कुछ मशीन बेचते हैं। मशीन को बेचने के बाद वे खुद भी आते हैं और मशीन को कैसे यूज करना है, उसको भी सिखाते हैं। अगर मशीन इस्तेमाल करते समय कुछ गड़बड़ हो गई उसको ठीक करने के लिए कंपनी वाले लोग मशीन के साथ एक व्यक्ति को भेजते हैं। इसी तरह से राधा जी ने ही किया है इसी तरह से राधा जी ने ही कृष्ण को भाव प्रदान किया है। कृष्ण जो परम भगवान हैं, परम पुरुषोत्तम हैं, वे स्वामी हैं, प्रभु है लेकिन राधा जी उनकी दासी हैंं। वह सेवक भगवान हैं और भगवान सेव्य भगवान हैं। सेव्य होकर भी भगवान को अनुभव नहीं है कि भाव को लेकर कैसे इस्तेमाल करना है। इसलिए उनको सिखाने के लिए राधा रानी गदाधर पंडित बन कर आती है। राधारानी जिन्होंने अपना भाव कृष्ण को दे दिया है। आसमान में जब पूर्णिमा होती है, वह राधा के भाव जैसा है,क्योंकि राधा अपना भाव कृष्ण को दे देती है। इसीलिए गदाधर पंडित अमावस्या को प्रकट होते हैं और वे अमावस्या के दिन इस दुनिया से अप्रकट भी होते हैं। अमावस्या मतलब पूर्णिमा नहीं है, राधारानी ने अपना भाव कृष्ण को प्रदान किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि राधाजी के अंदर से भक्ति भाव चला गया और अब वे भक्ति नहीं कर पाएंगी। ऐसा नहीं है, जब राधा जी अपने भाव को कृष्ण को प्रदान करती हैं, उनके हृदय में भी कृष्ण के लिए विरह वैसे का वैसे ही रहता है। जैसे आपके पास दिया हो, हम दामोदर के महीने में एक दिए से हजारों दिया जलाते हैं। उसके बाद भी हमारे पास जो दिया है, वह वैसे का वैसे ही रह जाता है। इस प्रकार हम दिव्य ज्ञान भी हजारों, लाखों, करोड़ो लोगों को प्रदान कर सकते हैं। दिव्य ज्ञान कभी मिटता नहीं, हमें उससे और लाभ प्राप्त होता है। उससे घटता नहीं है, भागवतम के ११वें स्कन्ध में बताया गया है भक्ति सन्जयाते अर्थात एक भक्त के हृदय की भक्ति कूदती है और दूसरे भक्त में चली जाती है। *कृष्ण भक्ति रस भाविता मतिः क्रीयतां य़दि कुतोअपि लभ्यते। तत्र लौल्यमपि मूल्यमेकलं जन्म-कोटि- सुकृतैर्न लभ्यते।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.70) अर्थ:- " सैकड़ों-. हजारों जन्मों के पुण्यकर्मों से भी कृष्ण भावना भावित शुद्ध भक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। इसे तो केवल एक मूल्य पर- उसे प्राप्त करने की उत्कट लालसा से ही- प्राप्त की जा सकती है। यदि यह कहीं भी उपलब्ध हो सके, तो उसे तुरंत ही खरीद लेनी चाहिए।" विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर बताते हैं कि कृष्ण की भक्ति में अपलावित जो ह्रदय कूद पड़ता है, उसके अंदर एक उद्वेग उत्पन्न होता है। कृष्ण के प्रेम, कृष्ण की सेवा, कृष्ण के दर्शन के लिए लालायित होता है। ऐसे एक महान शुद्ध भक्त के कृष्ण भावनामृत संग के साथ हमें संग करना चाहिए। बोलते हैं कि जितना भी पैसा देना हो, उसे पैसा देकर खरीदना चाहिए लेकिन पैसे से खरीदा नहीं जा सकता है। श्रद्धापूर्वक सेवा करने से ही हम गुरु के हृदय से भक्ति को प्राप्त करते हैं। गुरु, शिष्य को भक्ति प्रदान करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि गुरु के पास से भक्ति खाली हो जाती है, ऐसा नही हैं गुरु के हृदय में भक्ति वैसी की वैसी ही रहती है। साथ-साथ में दूसरों को भी भक्ति प्रदान करता है। ऐसे ही जब राधा जी आती हैं और कृष्ण का अनुभव करने के लिए महाप्रभु को अपना भाव प्रदान करती हैं, कहती हैं,-" ठीक है यदि आपकी इच्छा है, भक्त की भावना क्या है, आप उसको देखना चाहते हो तो मैं आपको भाव प्रदान करती हूं।" संत तुकाराम का एक प्रसिद्ध गीत है। उसमें बताते हैं कि हे विठ्ठल आपकी खूबसूरती, आपकी मधुरिमा, आप की भक्ति करने से होने वाले ज्ञान के विषय में आपको क्या जानकारी है। आप तो स्वामी हो लेकिन हम लोग आपके दास हैं। हम उसका अनुभव करते हैं। जैसे कमल के अंदर कमल की सुगंध, कमल का शहद, कमल की खूबसूरती, कमल की सुंदरता, उसकी मधुरिमा जो है कौन जानता है। वो कमल ही जानता है लेकिन कमल में बैठकर उसकी सुगंध का अनुभव करने वाले भ्रमर जानते हैं। हम भक्त भ्रमर जैसे हैं, आप तो कमल जैसे खूबसूरत हो। हे विट्ठल! आपको, आपके बारे में क्या मालूम। ऐसे ही जब कृष्ण ने इसके विषय में सुना। उन्होंने बोला- हां, हां! मेरी भी इच्छा हो रही है, मैं भी कमल की सुगंध का अनुभव करूं, कमल की मधु चखूं। इसी प्रकार जब भगवान को इच्छा होती है, तब वे राधा के भाव को स्वीकार करते हैं। तब चैतन्य महाप्रभु को यदि कोई बोलता था कि आप विष्णु हो, विष्णु हो तब वे तुरंत अपने कान बंद कर लेते थे और बोलते थे विष्णु! विष्णु! विष्णु! मुझे याद मत दिलाओ। अगर तुम याद दिला दोगे कि मैं भगवान हूं। ततपश्चात यह मधुरिमा चली जाएगी जिसे मैं भक्त की भूमिका में अनुभव कर रहा हूँ। मैं भक्त ही होकर इस लीला को पूरा करना चाहता हूं। चैतन्य महाप्रभु की ऐसी इच्छा थी। अभी हमें गदाधर पंडित की कुछ लीलाओं को सुनने से पता चलेगा कि उन्होंने कैसे अपने भाव को प्रकट किया। जब वे छोटे थे, निमाई पंडित के साथ खेलते थे। एक बार नवद्वीप में गोपीनाथ आचार्य के घर में ईश्वरपुरी आए थे, वे उधर आकर कथा सुना रहे थे, उसी समय गदाधर पंडित भी वहां पहुंच गए। ईश्वरपुरी ने गदाधर पंडित को बहुत प्रेम किया और आशीर्वाद भी प्रदान किया। उनके पास कृष्णामृतम लीला नामक एक किताब थी। वे उस पुस्तक से कृष्ण लीला/ कृष्ण लीला बताया करते थे। गदाधर पंडित ध्यानपूर्वक सुना करते थे। गदाधर पंडित ने निमाई पंडित को भी बुला लिया कि आप भी आकर सुनो।सात महीने लगातार दिन रात गदाधर पंडित, निमाई पंडित, गोपीनाथ आचार्य इन सब लोगों ने ईश्वर पुरी से कथा सुनी। गदाधर पंडित के एक प्रिय मित्र मुकुंद दत्त थे, उनकी गदाधर पंडित और निमाई पंडित के साथ बहुत अच्छी मैत्री था। गदाधर पंडित मुकंद दत्त को बहुत प्रेम करते थे। एक बार मुकंद दत्त ने बोला कि एक बहुत ही अच्छे भक्त हैं, मैं आपको उनके दर्शन करवाऊंगा। मैं आपको उनके पास लेकर जाऊंगा। गदाधर पंडित और मुकंद दत्त की आदत थी कि कोई भी वैष्णव उनकी बस्ती में आता था, तब वे दोनों तुरंत वहां चले जाते थे। उनकी सेवा करते थे, उनसे कथा श्रवण किया करते थे, लीला कीर्तन सुनते थे। जब वे पुंडरीक विद्यानिधि के वहां पहुंचे, गदाधर पंडित पुंडरीक विद्यानिधि को देखकर बहुत विस्मित हुए। उन्होंने देखा कि पुंडरीक विद्यानिधि बड़े अच्छे कपड़े पहने हुए थ। उन्होंने अनेक अंगूठी, नेकलेस आदि आभूषण पहने हुए थे। उन्होंने देखा कि यह व्यक्ति तो बड़े भोग ऐश्वर्य में जी रहा है। तब उनके मन में एक प्रश्न उठा यदि कोई व्यक्ति दिख रहा है जो भोग ऐश्वर्य आदि से लिप्त है, आकर्षित है। ऐसे व्यक्ति के साथ संग करके हमें क्या लाभ प्राप्त हो सकता है। वे बोले नही पर अपने मन ही मन में सोच रहे थे कि हे मुकुंद दत्त! तुम, क्यों मुझे एक ऐसे व्यक्ति के पास लाए हो। तुम तो मेरे प्रिय मित्र हो, परम् वैष्णव हो, समझ में नहीं आ रहा। तब मुकंद दत्त ने सोचा कि मुझे गदाधर पंडित को दिखा देना चाहिए कि पुंडरीक विद्यानिधि कौन है? तब उन्होंने भागवतम से सुंदर तरीके से एक गीत गाया - *बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं विभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।।* ( श्रीमद भागवतम १०.२१.५) अनुवाद:- अपने सिर पर मोरपंख का आभूषण, अपने कानों में नीले कर्णिकार फूल, स्वर्ण जैसा चमचमाता पीला वस्त्र तथा वैजयंती माला धारण किये भगवान कृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ नर्तक का दिव्य रूप प्रदर्शित करते हुए वृंदावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीक बना दिया। उन्होंने अपने होठों के अमृत से अपनी वंशी के छेदों को भर दिया और ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया। उन्होंने गीत में गाया कि भगवान श्रीकृष्ण खूबसूरत व्यक्ति हैं, जो मुरली बजाते हैं, जिनके घुंघराले बाल हैं। जिनका पीतांबर चमक रहा है व जिनके शरीर पर माता यशोदा ने अनेक सुंदर सुंदर आभूषण पहनाए हुए हैं। वे अपने साथ अनेक गोपाल बालकों को लेकर वृंदावन के जंगलों में प्रवेश करते हैं जिधर कोयल कुहू कर रही है, मोर नाच रहे हैं। हिरन उनको प्रेम से दिख रहे हैं, वे ऐसे जंगल में प्रेम से प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे कृष्ण को छोड़कर मैं किसके बारे में सोच सकता हूं, यह भागवतम में बहुत सुंदर गीत है, साथ साथ उन्होंने यह भी गाया *अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापायदप्यसाध्वी। लेभे गतिं धात्र्युचितांं ततोअन्यं कं वा दयालु शरणं व्रजेम।* ( श्रीमद भागवतम ३.२.२३) अनुवाद:- अहो, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा, जिन्होंने उस असुरिनी ( पूतना) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतध्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था? इस प्रार्थना में बताया गया है कि बकीं अर्थात पूतना। पूतना नामक राक्षसी अपने स्तन पर एक बहुत गहरा कालकूट विष का लेपन कर कृष्ण को मारने की योजना के साथ आई थी। कृष्ण ने ऐसी राक्षसी का भी उद्धार किया। उन्होंने उसको अपने धाम में अपनी मां/ धात्री का स्थान दिया। ऐसे कृष्ण को छोड़कर मैं किसकी शरण ले सकता हूं। जब पुंडरीक विद्यानिधि ने इस गीत को सुना, तब वे जोर से रोने लगे। जमीन पर लोटने पोटने लगे। अपने कपड़ों को फाड़ने लगे। भागने, दौड़ने लगे। ऐसे प्रेम विभोर होकर उनके शरीर से अष्ट सात्विक विकार प्रकट होने लगे। कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! इस प्रकार वे कृष्ण का नाम पुकारते हुए अपने आप को नियंत्रित नहीं कर पाए। तब गदाधर पंडित ने देखा कि यह साधारण पुरुष नहीं है। यह महान शुद्ध भक्त है, मुझसे गलती हो गई। मैं मन में इनकी बाहरी उपाधियों को देखकर इनके बारे में गलत सोच लिया, उनके मन में अफसोस हुआ। उन्होंने सोचा कि मुझे इन से दीक्षा लेना चाहिए ताकि मेरे अपराध दूर हो जाए, मैं इनसे दीक्षा लूंगा और इनकी सेवा करूँगा। इस प्रकार उन्होंने मुकुंद दत्त को अपना मन प्रकट किया। तब मुकुंद दत्त ने पुंडरीक विद्यानिधि से विनती किया कि आप इन्हें दीक्षा दीजिए। पुंडरीक विद्यानिधि बहुत खुश हुए, उन्होंने बोला कि यह मेरा भाग्य है कि गदाधर पंडित जैसे रत्न मुझे एक शिष्य के रूप में प्राप्त हुए हैं। मैं इनको क्यों नहीं स्वीकार करूँगा, मैं बहुत खुश हूं, यह बोल कर उन्होंने उनको स्वीकार कर लिया। इस प्रकार से आप देखेंगे कि गदाधर पंडित, पंडित पुंडरीक विद्यानिधि के शिष्य बने। (मैं पुंडरीक धाम, बांग्लादेश में गया था। उधर हमनें देखा.. पुंडरीक विद्यानिधि, राधा रानी के पिताजी ही हैं। वह वृषभानु है, गदाधर पंडित अर्थात राधारानी अपने पिता से ही दीक्षा ले रही थी। उसी पुंडरीक गांव में ही उनका जन्म हुआ था।) जैसा मैंने आपको पहले बताया कि गदाधर पंडित बहुत कोमल स्वभाव के थे। जब निमाई पंडित अपनी शिरोमणि लीला कर रहे थे तब वे कभी कभी गदाधर पंडित को बोलते थे, हे गदाधर पंडित! इधर आ जाओ। मुक्ति की परिभाषा बताओ। गदाधर पंडित कुछ बोलते थे, तब निमाई पंडित उसके विरुद्ध बोलते थे, गदाधर पंडित उसको मान जाते थे, तब निमाई पंडित उसके भी विरुद्ध कुछ बोलते थे। ऐसे ही बोल बोल कर निमाई पंडित न्याय शास्त्र पर कुछ विवाद करते रहते थे, जो गदाधर पंडित को अच्छा नहीं लगता था। जैसा कि मैंने आपको बताया वे कोमल स्वभाव के थे। इसलिए कभी कभी वे दूर से ही नहीं निमाई पंडित को देख कर भाग जाते थे। मुकुंद भी ऐसे ही थे, मुकुंद भी गदाधर पंडित को देखकर भाग जाते थे। तब निमाई पंडित उन दोनों को जोर से बुलाते थे। हे मुकन्द, हे गदाधर ! एक दिन ऐसा आएगा । जब शिव जी और ब्रह्मा जी भी मेरे साथ बैठकर भक्ति करने के लिए आएंगे, मेरी भक्ति से प्रभावित होंगे। ऐसे निमाई पंडित ने अपनी महानता को प्रकट किया। ईश्वरपुरी के पास जाकर गया में दीक्षा ली। वे अपने पिताजी के श्राद्ध का बहाना बताकर गए थे लेकिन विशेषकर वह दीक्षा लेने के लिए गए थे। दीक्षा लेकर उनके ह्रदय में ऐसा प्रेम उमड़ पड़ा- हे कृष्ण, आप किधर हो! श्याम वर्ण, कृष्ण आप किधर हो। हे वृंदावन के नाथ , आप किधर हो। हे नंद के पुत्र, आप किधर हो? हे यशोदा नंदन, आप किधर हो? इस प्रकार वे पुकार पुकार रोते थे। यह संदेश पूरे नवद्वीप में लोगों को पहुंच गया। सबको पता चल गया की निमाई पंडित अब शुद्ध भक्त बन गया है। सब लोग देखने के लिए आए, जब गदाधर को भी पता चला तो गदाधर भी खुश हुए। गदाधर पंडित उनको कुछ पान जैसा खाने का प्रदार्थ देने के लिए उनके घर में आए। उस समय निमाई पंडित उनको पूछ कर रोने लगे। हे गदाधर! वो श्यामल वर्ण का सुंदर लड़का कृष्ण किधर है, जो हमेशा पीतांबर पहनकर मुरली बजाता है, वह कृष्ण किधर है? मुझे वो मुरली वाला कृष्ण दिखा दो। ऐसे बोल कर निमाई पंडित गंगा जमुना की तरह प्रेमाश्रु बहाने लगे। निमाई पंडित की आंखों से प्रेमाश्रु बहते देखकर गदाधर पंडित ने बोला- निमाई! तुम चिंता मत करो। तुम्हारे हृदय में ही भगवान विराजमान हैं, वे अंतर्यामी हैं। भगवान सबके हृदय में हैं, तुम्हारे हृदय में भी हैं। इसको सुनकर निमाई पंडित अपने हृदय को फाड़ने लगे, उन्होंने सोचा कि कृष्ण मेरे हृदय में है तो मुझे उसको देखना है अभी ।तब उस समय गदाधर पंडित ने तुरंत उनको बोला कि आप चिंता मत करो, कृष्ण अभी आ ही रहे हैं, कुछ ही क्षण में इधर आ जाएंगे, उसको सुनकर निमाई पंडित शांत हुए। शची माता यह सब देख रही थी। कैसे मेरा बेटा अभी अपने हृदय को फाड़ सकता था, लेकिन गदाधर पंडित ने उसको बचा लिया। उन्होंने बोला- गदाधर! तुम हमेशा निमाई के साथ रहा करो, उसे कभी अकेला मत छोड़ना, इस प्रकार उनकी मां ने उनसे विनती की। इस प्रकार गदाधर पंडित, निमाई पंडित के बहुत ही निकट पार्षद थे। एक दिन की बात है, चैतन्य महाप्रभु, शुक्लांबर ब्रह्मचारी के यहां पहुंचकर कृष्ण कथा करने लगे। जब महाप्रभु बैठकर भगवान का हरि नाम अथवा कीर्तन कर रहे थे। तब गदाधर पंडित वहां पहुंच गए और अपने घुटनों पर बैठकर वह बाहर ही बाहर कथा सुनने लगे। जब कथा का रस बढ़ गया, कथा से उनमें विरह भावना उत्पन्न हो गई और गदाधर पंडित प्रेम विभोर होकर विरह भावना में जोर जोर से रोने लगे। तब चैतन्य महाप्रभु ने पूछा कि यह आवाज किधर से आ रही है? उन्होंने तुरंत शुक्लांबर ब्रह्मचारी को पूछा कि कौन रो रहा था। शुक्लांबर ब्रह्मचारी ने बोला कि गदाधर पंडित बाहर है। चैतन्य महाप्रभु ने उनको तुरंत अंदर बुलाया और उनका अलिंगन किया, तब महाप्रभु ने उनको बोला- हे गदाधर! तुम इतने पुण्यात्मा हो, तुम इतने शुद्ध हो। तुमनें बचपन से कृष्ण की शुद्ध भक्ति का अभ्यास किया है लेकिन मेरा जीवन देखो मैंने अपना जीवन बर्बाद कर दिया है। मैं तर्क वितर्क न्याय दर्शन आदि को पढ़कर पंडित बनकर नवद्वीप में अनेक विद्यार्थियों को न्याय सिखाता रहा और अपने पांडित्य के कारण मैं भक्ति प्राप्त नहीं कर पाया। इसके कारण ही मुझे भगवान कृष्ण का संग प्राप्त नहीं हुआ जो तुम्हें प्राप्त हो रहा है। भागवतम की इस कथा को सुनकर तुम्हारी आंखों से प्रेमाश्रु बह रहे हैं, तुम कितना भाग्यशाली हो और मैं कितना भाग्यहीन हूं। इस तरह से वे बोलने लगे। तब गदाधर पंडित ने बोला- नहीं! नहीं !नहीं! ऐसा नहीं! ऐसा नहीं है! इस तरह से नवद्वीप में अनेक लीलाएं हुई, अभी समय की पाबंदी है। उनकी जगन्नाथपुरी में हुई एक दो छोटी सी लीला को बोलकर मैं विराम देता हूँ। जब जगन्नाथपुरी में गदाधर पंडित पहुंच गए तो महाप्रभु ने उनको वहां टोटा गोपीनाथ नामक एक स्थान दिया था। वहां आज भी टोटा गोपीनाथ के विग्रह हैं। टोटा का अर्थ गार्डन अथवा बग़ीचा होता है, उस मंदिर के साथ सुंदर बगीचा है। गदाधर पंडित ने छोटे गोपीनाथ की प्रेम से पूजा आराधना करते हुए वहां सालों साल बिताए। चैतन्य महाप्रभु भी वहां पर अपने पार्षदों के साथ पहुंच जाते थे। रामानंद राय, चैतन्य महाप्रभु, सार्वभौम भट्टाचार्य, स्वरूप दामोदर, रूप- सनातन, हरिदास ठाकुर सभी पहुंच जाते थे, उनके साथ बैठकर श्रीमद्भागवत सुनते थे और गदाधर पंडित अपनी भागवत को खोल कर पढ़ते थे। वे श्लोकों को गाते थे और उसके बारे में बोलते थे। महाप्रभु भी कुछ बोलते थे, तब चैतन्य महाप्रभु बहुत आनंदित होते थे। महाप्रभु ध्रुव चरित्र, प्रह्लाद चरित्र हमेशा सुनते थे औऱ महाप्रभु सुनने के बाद बोलते थे कि और एक बार बोलो, ध्रुव चरित्र को दोहराओ, प्रह्लाद चरित्र को फिर से दोहराओ, उनको ऐसे अच्छा लगता था। आपने चित्र देखा होगा जिसमें महाप्रभु, गदाधर पंडित के पास बैठकर सुन रहे हैं। ऐसे गदाधर पंडित ने समय बिताया, उनकी दो खास चीजें थी। एक भागवत सुनाना और दूसरा टोटा गोपीनाथ की पूजा आराधना करना। अपनी वृद्धावस्था में गदाधर पंडित को टोटा गोपीनाथ की पूजा करने, हार पहनाने में, कपड़े बदलने में थोड़ा मुश्किल होता था। टोटा गोपीनाथ उनकी सेवा से प्रसन्न व प्रेरित होकर वहीं बैठ गए और बोले तुम इतनी दूर नहीं पहुंचा पाओगे, मैं ही बैठ जाता हूं, अब तुम आराम से सेवा करो, उन्होंने गदाधर पंडित से बैठकर सेवा लिया। इसलिए आज भी जब टोटा गोपीनाथ के विग्रह को देखेंगे तो बैठे हुई अवस्था में ही देखेंगे। महाप्रभु अपनी अंतिम लीला में उसी विग्रह के अंदर प्रविष्ट हुए। टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रविष्ट होकर भगवान अपने धाम चले गए, गदाधर पंडित भी चले गए। जगन्नाथपुरी में रहते हुए गदाधर पंडित ने क्षेत्र संन्यास लिया था ताकि मैं टोटा गोपीनाथ की पूजा आराधना कर पाऊं लेकिन एक समय उन्हें पता चला कि चैतन्य महाप्रभु पुरी छोड़कर प्रचार कार्य के लिए बाहर (दक्षिण भारत और वृंदावन) जाने वाले हैं। उनको बहुत दुख हुआ, उन्हें मालूम नहीं था कि महाप्रभु कभी हमें छोड़कर भी जाएंगे, उन्होंने बोला मैं भी उनके साथ जाऊंगा। महाप्रभु ने कहा- नहीं! नहीं! तुम्हें नहीं आना है। तुमने क्षेत्र संन्यास लिया है। गदाधर पंडित बोले- मेरे क्षेत्र संन्यास को भाड़ में जाने दीजिए। मुझे परवाह नहीं है क्योंकि आप जिधर हो, वही मेरे लिए वृंदावन है, फिर भी महाप्रभु ने उन्हें परमिशन नहीं दी। तब गदाधर पंडित बेहोश होकर गिर गए। महाप्रभु आगे नहीं जा पाए। रामकेली जाकर वापस लौट आए। वहां आकर महाप्रभु ने गदाधर पंडित को बोला कि गदाधर! तुम्हें साथ नहीं लेकर गया, तुम्हारी बात नहीं मानी मैंने, इसीलिए कृष्ण ने मुझे वृंदावन में जाने की अनुमति नहीं दी, उनका इतना निकट प्रेम था। ऐसे अनेक सुंदर-सुंदर लीलाएं हुई। आज के सत्र में हमनें पांच अर्थात पंच तत्वों के बारे में जाना। मैनें पंच तत्व अर्थात चैतन्य महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु, अद्वैत आचार्य प्रभु, गदाधर पंडित और श्रीवास के बारे में दो शब्द बोला। आज गदाधर पंडित का आविर्भाव दिवस है, इसलिए गदाधर पंडित की लीलाएं अधिक समझी। हम लोग नाम जप करते हैं, नाम जप करते समय भी हमें प्रार्थना करनी चाहिए। श्रीकृष्ण चैतन्य, जो राधा और कृष्ण के भाव हैं। नित्यानंद प्रभु जो आदि गुरु हैं, श्री अद्वैत आचार्य जो पंचरात्रिक रात्रि की विधि सिखाने वाले हैं। गदाधर जो राधा हैं जिन्होंने अपना भाव कृष्ण को प्रदान किया है, साथ में कृष्ण को आश्वासन देने के लिए आती हैं। उस भाव के द्वारा भक्ति को कैसे अनुभव किया जाए वह सिखाने के लिए आती हैं। श्रीवास आदि जो नारद मुनि हैं जो भागवत विधि सिखाने के लिए आए हैं। गौर भक्त बाकी सब गौर भक्त वृंदों के चरणों में हम आश्रित होकर नाम जपते हैं। इस तरह हम इस मंत्र को निरपराध भावना के साथ जब जपते हैं अर्थात इस पंचतत्व महामन्त्र को बोलकर तब हम *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* गाते हैं तब इस तरह हमें महान महान व्यक्तियों की कृपा प्राप्त होती है। हमें नाम जप में शामिल होना चाहिए, ऐसा प्रभुपाद जी बताते हैं। उसके द्वारा नाम जप में रुचि बढ़ेगी, नाम जपने से अपराध निकल जाएगा। इन पंचतत्व के महान अवतारों की कृपा हमारे जीवन में प्राप्त होगी। इस तरह से प्रभुपाद ने पंचतत्व मंत्र देकर सारी दुनिया में पाश्चात्य देशों में लोगों के अपराधों को हटाकर हरिनाम में रुचि प्रदान की है। श्रील प्रभुपाद की जय! श्री नाम प्रभु की जय! गौर भक्त वृंद की जय! गदाधर पंडित की जय! हरे कृष्ण!!!

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