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जप चर्चा,
28 फरवरी 2022
श्री कृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज द्वारा
हरे कृष्णा,
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंदा
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले ।
स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।
नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने
नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे
निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ।
वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद..श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गोर भक्त वृंदा
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्णा, कृपया सभी मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिए। आज बहुत महत्वपूर्ण दिन हैं, आज श्रील ईश्वर पुरी तिरोभाव तिथि महोत्सव हैं। तो आज मैं चैतन्य चरित्रामृत में से एक श्लोक पढ़ना चाहूंगा।
चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला 9.11
śrī-īśvarapurī-rūpe aṅkura puṣṭa haila
āpane caitanya-mālī skandha upajila
श्रील प्रभुपाद इसका अनुवाद करते हैं कि.. आगे चलके उस भक्ति लता बीज का ईश्वर पुरी के रूप में विस्तार हुआ और उस बीज का जो विस्तार हुआ आगे चलकर, उस भक्ति लता वृक्ष का जो मुख्य तना हैं,वह स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु बनें।
तात्पर्य-श्रील भक्ति सिद्धांत अपने अनुभाष्य में इस प्रकार से बताते हैं, श्रील ईश्वर पुरी कुमारहट नामक स्थान के निवासी थे।
जहां आज के समय में एक रेलवे स्टेशन हैं, कुमार हट के नाम से और उसके समीप भी एक रेलवे स्टेशन हैं, जिसका नाम हलि सहारा जोकि कलकत्ता के ईस्टर्न भाग के अंतर्गत आता हैं। ईश्वर पुरी एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और वह माधवेंद्र पुरी के प्रिय शिष्य थे। चैतन्य चरितामृत अंतः लीला 8.28-31 में यह बताया गया हैं कि
विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने अपने गुरुवाष्टक मे लिखा है
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥ (गुरूवाष्टक)
जैसा कि हमने यह श्लोक पहले ही सुना हैं, कि गुरु की कृपा के बिना कृष्ण की कृपा प्राप्त नहीं होती। भगवान की कृपा हमें गुरु की कृपा से प्राप्त होते हैं।गुरु की कृपा के बिना कोई भी अध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता या अध्यात्मिक गुरु की दया से ही व्यक्ति पूर्ण हो जाता हैं। यह यहां स्पष्ट रूप से बताया गया हैं।एक वैष्णव भक्त हमेशा भगवान द्वारा संरक्षित रहता हैं।
लेकिन अगर ऐसा प्रतीत होता हैं कि वह ठीक नहीं हैं, तो यह केवल इसलिए होता है ताकि उनके शिष्य उनकी सेवा कर सके। उनके शिष्यों को सेवा का मौका प्रदान करने के लिए होता हैं। ईश्वर पुरी ने अपनी सेवा द्वारा अपने अध्यात्मिक गुरु को प्रसन्न किया और अपने आध्यात्मिक गुरु की कृपा द्वारा वह एक बहुत ही महान व्यक्तित्व बन गए कि स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्वीकार किया। श्रील ईश्वर पूरी चैतन्य महाप्रभु के आध्यात्मिक गुरु थे, लेकिन भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु को दीक्षा देने से पहले वह नवद्वीप गए और गोपीनाथ आचार्य के घर में कुछ महीनों तक उन्होंने वास किया। उस समय उनका भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु से परिचय हुआ और चैतन्य महाप्रभु समझ गए कि ईश्वर पुरी ने उनकी पुस्तक कृष्णा लीलामृत का पाठ करके श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा की हैं। यह चेतनय भागवत आदि लीला अध्याय 11 में समझाया गया हैं ताकि सभी को उदाहरण द्वारा यह समझाया जा सके कि कैसे अपने आध्यात्मिक गुरु के विश्वसनीय और इमानदार शिष्य बनाया जा सकता हैं या अच्छा शिष्य बना जा सकता हैं। चैतन्य महाप्रभु ईश्वर पुरी के जन्म स्थान कुमारहट पर गए और वहां से कुछ भूमि या वहां की कुछ माटी एकत्रित की। इसे वह बहुत ही सावधानी से रखते थे और इसका छोटा सा अंश प्रतिदिन खाते थे। यह चैतन्य भागवत आदि लीला अध्याय 17 में बताया गया हैं और अब यह प्रथा बन गई हैं कि भक्त वहां जाए और वहां जाकर कुछ मिट्टी एकत्रित करके लाएं।यहां हमने कुछ महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की, जिससे कि हम ईश्वर पुरी की महिमा को समझ पाए और हमने माधवेंद्र पुरी और ईश्वर पुरी के बीच में भी जो घनिष्ठ संबंध था उसके विषय में भी सीखा और समझा। माधवेंद्र पुरी ही भक्ति लता वृक्ष के मुख्य बीज हैं। वह ईश्वर पुरी के आध्यात्मिक गुरु हैं। ईश्वर पुरी की तुलना जो वृक्ष या बीज से एक छोटा सा तना उत्पन्न होता हैं, उससे की गई हैं और पुनः समझा रहे हैं कि जिस प्रकार से माधवेंद्र पुरी एक बीज हैं और ईश्वर पूरी एक छोटा सा तना हैं और जब वह पूरी तरह से बड़ा होकर फलित होता हैं तो विशाल वृक्ष बन जाता हैं। उसका मुख्य तना स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु हैं और जो शाखाएं हैं,वह अद्वैत आचार्य प्रभु और नित्यानंद प्रभु और अन्य महाप्रभु के पार्षद हैं। उस प्रकार शाखा उपशाखा बनके आज हमारे पास एक भक्ति का बड़ा वृक्ष हैं और जब माधवेंद्र पुरी काफी वृद्ध अवस्था में थे और चलने फिरने में असमर्थ थे तब इस अवस्था में उनके शिष्य ईश्वर पूरी उनकी बहुत अच्छे से सेवा कर रहे थे। वह हमेशा उनके पास रहकर हरे कृष्ण महामंत्र का जप करके उन्हें सुनाया करते थे और वह वृंदावन में राधा कृष्ण की जो लीलाएं होती हैं, उनका भी पठन करते थे। वह लगातार माधवेंद्र पुरी को राधा कृष्ण की नित्य लीलाओं का स्मरण करा रहे थे और जिससे माधवेंद्र पुरी का हृदय राधा कृष्ण के विरह भाव भरे प्रेम में भर जाता था और माधवेंद्र पुरी विरह में विलाप करते हुए अपने बिस्तर में ही पुकारते रहते थे कि, मुझे मथुरा नहीं मिला, मुझे मथुरा नहीं मिला, मुझे मथुरा नहीं मिला, मैंने मथुरा की प्राप्ति नहीं की। मथुरा ना पाईनु... मथुरा ना पाई नु.. मुझे मथुरा की प्राप्ति नहीं हुई. मुझे मथुरा प्राप्त नहीं हुई और इस तरह से उनका हृदय राधा कृष्ण के विरह प्रेम से अभिभूत हो जाता था।
ईश्वर पुरी इस प्रकार से अपने गुरु महाराज की वपू सेवा करते थे। प्रतिदिन उन्हें राधा-कृष्ण की नित्य लीलाओं का स्मरण करा कर और उनके हृदय में अल्लहाद उत्पन्न कर के वह अपने गुरु महाराज की वपू सेवा किया करते थे और देखा जाए तो उन्होंने अपने गुरु महाराज की बहुत ही तुच्छ स्तर की वपू सेवा भी की हैं। उन्होंने वाणी और वपू दोनों सेवा की हैं। ईश्वर पुरी माधवेंद्र पुरी के प्रति इतने समर्पित थे कि उन्होंने स्वयं उनके मल मूत्र को साफ किया हैं और नित्य प्रतिदिन किया करते थे और वह जो भी सेवा माधवेंद्र पुरी की कर रहे थे, उसके बदले में उन्हें माधवेंद्र पुरी की कृपा प्राप्त हो रही थी, उनका आशीर्वाद प्राप्त हो रहा था।श्रील प्रभुपाद जी अपने तात्पर्य में लिखते हैं कि माधवेंद्र पुरी ने ईश्वर पुरी से यह कहा कि मेरे प्रिय पुत्र, में केवल कृष्ण से यह प्रार्थना कर सकता हूं कि वह तुमसे प्रसन्न हो जाएं और वह आपसे सदैव प्रसन्न रहें। यह वास्तव में अति उत्तम आशीर्वाद हैं और हमें भी इस प्रकार से कार्य करना चाहिए,यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे गुरु भी हम से प्रसन्न होकर हमें इस प्रकार का ही आशीर्वाद दें और हमारे गुरु कृष्ण से प्रार्थना करते हुए यह कहे कि हे मेरे कृष्ण, कृपया आप मेरे इस शिष्य से प्रसन्न हो जाइए। हमें इस प्रकार से अपने गुरु महाराज की सेवा करनी चाहिए कि हमारे गुरु महाराज हम से प्रसन्न होकर बार-बार कृष्ण से प्रार्थना करें कि कृपया कृष्ण
,कृपया कृष्ण मेरे शिष्य से प्रसन्न हो जाइए।तो आप में से कौन यह चाहता हैं कि गुरु महाराज भगवान से यह प्रार्थना करें कि हे कृष्ण आप मेरे शिष्यो से प्रसन्न हो जाइए?
इसी प्रकार से हमें भी यही भाव रखना हैं, कि हमारे गुरु महाराज भी हम से प्रसन्न होकर हमें यही आशीर्वाद दें और जब हमारे आध्यात्मिक गुरु या गुरु महाराज हमें आशीर्वाद देते हैं तो भगवान अपने आप प्रसन्न हो जाते हैं और इसी बात को और गहराई से बताने के लिए श्रील प्रभुपाद श्रीला विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के कोटेशन से बताते हैं
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥
जब हम कृष्ण को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं, लेकिन जब हम अपने आध्यात्मिक गुरु को अप्रसन्न करते हैं, तब कृष्ण भी हम से प्रसन्न नहीं होते, अप्रसन्न हो जाते हैं। हम यहां देख सकते हैं कि ईश्वर पूरी को अपने गुरु माधवेंद्र प्रभु की इतनी कृपा प्राप्त हुई कि उनकी सेवा का यह फल प्राप्त हुआ कि उन्हें स्वयं भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के दीक्षा गुरु बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को व्यक्तिगत रूप से दीक्षा प्रदान की। जब चैतन्य महाप्रभु के पिता ने अपना देह त्याग किया था या इस जगत का त्याग किया था तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पिंडदान करने के लिए गया गए थे और वहां चैतन्य महाप्रभु ईश्वर पुरी से मिले। वहां ईश्वर पुरी ने उन्हें यह मंत्र दिया और कहा कि यह मंत्र सबसे शक्तिशाली मंत्र है और शायद आप सभी यह मंत्र जानते हैं। अगर आप सभी यह मंत्र जानते हैं तो कृपया मेरे साथ इसका जप कीजिए। क्या आप तैयार हैं ?हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।ईश्वर पुरी से इस मंत्र को प्राप्त करने के बाद निमाई पंडित पुण: नवद्वीप वापस लौट आए
और नवद्वीप में वह शुद्ध भक्ति के अष्ट विकार प्रकट करने लगे। वह राधा और कृष्ण के अलावा कुछ भी याद नहीं रख पाते थे। लोगों को लगता था कि यह पागल हो गए हैं। निमाई पंडित अपने व्याकरण सीखने वाले छात्रों से मिले और वह निमाई पंडित से व्याकरण से संबंधित बहुत कठिन प्रश्न पूछते थे, लेकिन निमाई पंडित हर उत्तर में केवल राधा और कृष्ण की लीलाओं के बारे में ही बताते थे। उनका हर उत्तर राधा और कृष्ण से ही संबंधित होता था।कृष्ण हर एक वस्तु की जड़ हैं।
अहम सर्वस्य प्रभवो: ..
भगवान सभी के कारण हैं और कुछ 5 घंटों के बाद में निमाई पंडित अपनी समाधि से बाहर आते और अपने छात्रों से पूछते कि मैंने तुम्हें क्या बताया था? मुझे कुछ भी याद नहीं और उनके छात्र उन्हें बताते कि आपने पिछले 5 घंटों से केवल राधा कृष्ण के बारे में ही बात किया। हमें केवल राधा कृष्ण के बारे में ही बताया।तब निमाई पंडित कहते हैं कि मैं पागल हो चुका हूं। कृपया मुझे माफ कीजिए। मैं पागल हूं और वह उनसे कहते कि कृपया आप अपनी पुस्तके यहां से ले जाइए और व्याकरण किसी और से जाकर सीखिए। परंतु उनके छात्र कहते कि नहीं, हम किसी भी और को अपने शिक्षक के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। हमारे शिक्षक केवल आप ही हैं। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण,जो कि स्वयं भगवान हैं।
लेकिन उन पर भी वह कृपा तब हुई जब उनके गुरु महाराज ने उन पर कृपा करके उन्हें यह मंत्र प्रदान किया, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे.. एक समय पर श्री चैतन्य महाप्रभु श्री ईश्वर पुरी के जन्म स्थान पर गए जो कि कुमारहट मे हैं। महाप्रभु अपने गुरु महाराज के लिए इतना समर्पित हैं कि वहां से उन्होंने कुछ मिट्टी उठाई और अपने पास एक डिब्बे में डाल कर रख ली और हर एक बार भोजन पाते हुए वह अपने भोजन के साथ उस मिट्टी को भी ग्रहण करते थे जो कि उन्होंने कुमारहट से उठाई थी। तो ऐसे ही एक बार मैं अरावड़े में था, जो कि गुरु महाराज जी का गांव हैं। मैंने भी वहां से कुछ मिट्टी अपने पास रख ली और मैं भी अपने खाने के साथ उस धूल को थोड़ा-थोड़ा करके खाता हूं। आप में से कौन उस धूल को या मिट्टी को ग्रहण करना चाहेगा? उस मिट्टी को जो कि गुरु महाराज के जन्म स्थान अरावड़े की हैं। आध्यात्मिक गुरु के जन्म स्थान की धूल बहुत ही पवित्र होती हैं, क्योंकि उसमें गुरु महाराज के चरण चिन्ह अंकित होते हैं। सही मायनों में जब हम कहते हैं कि श्रील गुरु महाराज के चरण कमलों की धूल लेना या उसे अपने सर पर लगाना इसका सही भाव यह हैं कि हम अपने गुरु महाराज के आदेशों का या उनकी वाणी का पालन करें और पिछली रात्रि जब मैं गुरु महाराज के साथ था, तब गुरु महाराज यानी कि परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज जी बता रहे थे कि किस प्रकार से वह अपने गुरु महाराज अर्थात श्रील प्रभुपाद की वाणी और वपू सेवा करते हैं और गुरु महाराज श्रील प्रभुपाद के मस्तक पर, कपाल में चंदन का लेप लगाते थे। श्रील प्रभुपाद जी को चरणामृत भेंट करते थे और वह प्रभुपाद जी को जुहू में प्रसाद वितरण में मदद करते थे। परंतु गुरु महाराज बता रहे थे कि मुख्य रूप से मैंने अधिकतर वाणी सेवा की हैं। मैंने केवल श्रील प्रभुपाद के निर्देशों की सेवा की हैं, निर्देशों का पालन किया हैं और वाणी सेवा या गुरु महाराज के आदेशों का पालन करना सबसे मुख्य सेवा हैं। हम बहुत ही भाग्यवान हैं कि हमें यह प्रतिदिन अवसर मिल रहा हैं कि हम गुरु महाराज परम पूज्य लोकनाथ स्वामी के मुखारविंद से श्रवण कर सकें और गुरु महाराज की कृपा से बहुत से श्रेष्ठ वैष्णवो के द्वारा सुन सकें और उनसे सुनकर हम उनकी वाणी सेवा कर पा रहे हैं और उन से सुनना और उनके आदेशों का पालन करना इसी समान हैं, जिस प्रकार हम उनके जन्म स्थान से धूल लेकर उसे ग्रहण करें और आज के समय में हम जब तकनीक का प्रयोग करके हम दूर दूर से कहीं से भी एक दूसरे से जुड़ कर इस प्रकार से श्रवण करते हैं, तो यह अद्भुत हैं। कल ही गुरु महाराज एक व्हाट्सएप ग्रुप में लिख रहे थे कि हां तकनीक बहुत अच्छे से, अद्भुत तरीके से काम करती हैं। हम इसे कृष्ण की सेवा में प्रयोग कर सकते हैं ।मुझे आपको यह बताते हुए बहुत अधिक प्रसन्नता हो रही हैं कि हमारा जो यह लोक स्टूडियो, जो पंढरपुर धाम में,महाराष्ट्र भारत में हैं, वह पूरी तरह से कार्यरत होने के लिए तैयार हैं और यहां लोक स्टूडियो में जो भी गतिविधियां होंगी वह हम आप सभी के साथ साझा करेंगे और मेरे साथ यहां पर मेरे प्रिय गुरु भाई स्वरूपानंद प्रभु भी हैं, जो कि ग्रेटर नोएडा यूपी से हैं।वह इस लोक स्टूडियो को बनाने में एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग रहे हैं और हम आप सभी से आशीर्वाद चाहते हैं कि हम गुरु महाराज की वाणी की इस लोक स्टूडियो के रूप में सेवा कर सके और आप सभी के साथ इस वाणी को बांट सके जो कि महाराज के जन्म स्थान की धूल के समान ही हैं। श्रील ईश्वर पुरी तिरोभाव तिथि महा महोत्सव की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। श्रील गुरु महाराज की जय। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।।