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जप चर्चा हरे कृष्ण दिनांक २५.०३.२१ जीव जागो! सोई हुई आत्माओं,पुण: जाग जाओ! जैसा कि मैंने अंग्रेजी में बता ही दिया,आज के दिन का महत्व या महिमा या यह दिन मेरे लिए कैसे महत्वपूर्ण रहा। मैं नहीं जानता कि मैं कब से इस ब्रह्मांड में यहां से वहां भ्रमण कर रहा था, यहां से वहां घूम रहा था, जैसे कि मैं कुछ ढूंढ रहा था। "ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु-कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति-लता बीज।।" (चेतनयचरित्रामृत मध्य लीला 19.151) मैं घूम रहा था और कुछ खोज रहा था। मेरी पढ़ाई विलिंगटन कॉलेज, शिवाजी यूनिवर्सिटी, सांगली से चल रही थी। मैं वहीं से अपनी पढ़ाई जारी रख सकता था, लेकिन मैं सोचने लगा कि अगर मैं मुंबई विश्वविद्यालय का ग्रेजुएट बन जाऊं तो और भी अच्छा होगा और बाद में समझ आया कि मैंने ऐसा क्यों सोचा।मुझे लगा था कि मुंबई विश्वविद्यालय का इतना नाम हैं।ऐसा सोच कर मैंने सांगली को छोड़ा और मुंबई पहुंच गया।मुंबई में मैंने कीर्ति कॉलेज, दादर में अपना नाम दर्ज करा दिया।मैं कीर्ति कॉलेज में पढ़ने लगा,वैसे मैं पढ़ तो नहीं रहा था क्योंकि मेरा ध्यान पढ़ने में नहीं लगता था। जबरदस्ती पढ़ने का प्रयास कर रहा था।क्योंकि मन में पढ़ने की इच्छा नहीं थी।अधिकतम समय मैं कॉलेज की लाइब्रेरी में ही बिताया करता था। अपने पाठ्यक्रम की किताबे मैं बहुत कम ही पढता था और दूसरी ही किताबें पढ़ता रहता था। बड़े-बड़े विश्वविख्यात समाज सुधारक,मानव सेवक या देश भक्त के चरित्र पढ़ने में मेरी विशेष रुचि रहती थी। क्योंकि मेरे मन में एक सेवक होने की तीव्र इच्छा थी। मैं समाज सेवको या मानव जाति के सेवकों की तरह ही बनना चाहता था। मुझे लगता था मैं भी कोइ सेवक या देश भक्त बन जाऊं। ऐसा करते-करते मैं मुंबई पहुंचा और एक-दो साल ही हुए थे कि मैंने सुना कि क्रॉस मैदान में हरे कृष्णा उत्सव होने जा रहा हैं। मैंने सुना कि भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद अपने अमरीकी और यूरोपियन साधुओं के साथ क्रॉस मैदान में आने वाले हैं और यह उत्सव 25 मार्च से शुरू हो रहा हैं। ऐसी घोषणा पूरे मुंबई में हो रही थी। हर जगह इश्तिहार बट चुके थे। जैसे ही मैंने पढ़ा कि अमेरिकी साधु मुंबई में आए हैं,मैं आश्चर्यचकित हो गया और मैंने सुना कि एक भक्तिवेदांत स्वामी हैं, जो विश्व भर में प्रचार करते हैं। इन्होंने प्रचार करके अमरिकियों को साधु बना दिया हैं। पूरे शहर में ऐसा प्रचार चल रहा था। सारे मुंबई के लोगों के लिए यह अचरज वाली बात थी कि अमरीकी साधु आने वाले हैं। सब आश्चर्य में थे कि ऐसा कैसे हो सकता हैं कि अमेरिकी लोग साधु बन गए। लेकिन अमरिकी साधु ऐसा कैसे हो सकता हैं? ऐसा संभव नहीं हैं। इस खबर की प्रमाणिकता जानने के लिए सारी मुंबई क्रॉस मैदान में इस हरे कृष्णा उत्सव की ओर दौड़ पड़ी थी और इस भीड़ में मैं भी था।बल्कि मैं तो सबसे आगे था। मैं उस समय एक विश्वविद्यालय का छात्र था,जिसकी उम्र केवल 21-22 साल ही थी। दादर से चर्चगेट स्टेशन का सफर मैंने लोकल ट्रेन में बैठकर तय किया और क्रॉस मैदान चर्चगेट स्टेशन के पास ही हैं।पहले दिन जब मैं वहां पहुंचा तो वहां का वैभव देख कर आश्चर्यचकित रह गया। वहां एक बहुत ही विशाल पंडाल लगा था। 200 फीट ऊंचाई पर एक बहुत बड़ा गुब्बारा भी लगाया गया था। उस पर हरे कृष्णा लिखा था और एक बहुत बड़ा बैनर भी था जिस पर हरे कृष्णा लिखा था।सारी मुंबई वहा दौड़ रही थी। हजारों की संख्या में लोग वहां पहुंच रहे थे।तो मैं आपको बता रहा था कि किस प्रकार से मैं सांगली से मुंबई पहुंचा।मैं मुंबई स्वयं ही नहीं आया था,बल्कि वहां पर लाया गया था।मैं तो यह सोचकर मुंबई आया था कि यहां पर पढ़ाई अच्छी होगी,लेकिन जब मैं श्रील प्रभुपाद से मिला तो मुझे समझ में आया कि जैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं "ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु-कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति-लता बीज।।" (चेतनयचरित्रामृत मध्य लीला 19.151) तब मैं समझ पाया कि भगवान मुझे भाग्यवान बनाना चाहते थे।अगर मैं सांगली में ही पढ़ाई करता रहता तो आज जो हम यह सुनहरा दिन मना रहे हैं,वह नहीं मना पाते। मैं श्रील प्रभुपाद से नहीं मिल पाता।मेरा तो यही मानना है कि गौरांग महाप्रभु ही मुझे प्रेरित कर रहे थे। चैतन्य महाप्रभु ने हीं मुझे सांगली से मुंबई आने के लिए प्रेरित किया। यह चैतन्य महाप्रभु की ही इच्छा थी कि मैं सांगली से मुंबई आऊं। उन्होंने ही हरे कृष्णा आंदोलन से मेरा परिचय करा कर मुझे अत्यंत सौभाग्यवान बनाया। मैं तो कुछ और ही सोच रहा था,लेकिन चैतन्य महाप्रभु की यही इच्छा थी। उन्हीं की इच्छा से ही सारा संसार चलता हैं।जिस परिवार में मैं जन्मा था उस परिवार के इष्ट देव पांडुरंगा विट्ठल हैं,हमारे इष्ट देव की,गौरांग महाप्रभु की,श्री कृष्ण की कृपा का ही परिणाम हैं, कि आज के दिन में श्रील प्रभुपाद से मिला। और जैसा मैंने बताया कि मेरीे पढ़ाई करने में कोई रुचि नहीं थी। कहने को तो मैं विज्ञान का विद्यार्थी था। फिजिक्स, केमिस्ट्री,बायो इन विषयों में मैं पढ़ाई कर रहा था,लेकिन पढता कम ही था।क्योंकि मेरी रुचि नहीं थी। मुझे भौतिक पढ़ाई करना इतना नापसंद था कि जब मैं कॉलेज से अपने कमरे पर जाया करता था तो रास्ते में मैं किताबों को दूर फेंक दिया करता था। इतनी दूर कि मुझे इनको फिर दोबारा ना पढ़ना पढे़। कभी-कभी तो गटर में फेंक दिया करता था। धीरे-धीरे इस प्रकार का वैराग्य उत्पन्न हो रहा था। मेरी बचपन से ही ऐसी रूचि थी कि मैं किसी आंदोलन या किसी देशभक्त या समाजसेवी का अनुयाई बन जाऊं और सेवा करूं। सेवा करने की मेरी बहुत इच्छा थी। मेरा मन होता था कि मैं किसी की तो सेवा करूं।मानव जाति की या देश की,किसी की भी।क्योंकि मैं महाराष्ट्रन था,इसलिए उस समय के जो बिनोवा भावे थे जोकि गांधी के सच्चे भक्त थे, उनके बारे में मैंने काफी सुना था और उनसे जुड़ने के लिए मैं कॉलेज,पढ़ाई सब छोड़ कर गया। लेकिन बाद में पता चला कि भगवान ने मुझे बाल- बाल बचाया। वहां पहुंचने की वजह से मैं वर्धा गया और वर्धा से सेवाग्राम क्योंकि कुछ दूरी पर था तो मुझे चलकर जाना था। मेरे पास जाने के लिए कोई साधन या धनराशि नहीं थी,इसलिए मैं चलकर जा रहा था। उस वक्त मुझे कई दिक्कतें आ रही थी। क्योंकि मैं भूखा प्यासा भी था। भूखा प्यासा होने की वजह से मैंने बीच रास्ते से ही मैं वापस मुड़ने का फैसला किया।लेकिन सांगली आने के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे। मेरे पास बस एक घड़ी थी। क्योंकि मुझे पैसों की जरूरत थी इसलिए मैंने बड़े सस्ते में घड़ी बेची और और शायद उस वक्त मुझे उसके ₹15 हीं मिले थे,क्योंकि मैं बिना टिकट के यात्रा नहीं करना चाहता था। सांगली लौट के आने के बहुत समय बाद मैंने घर वालों को बता दिया कि मैं कहां गया था और क्या क्या हुआ। इस प्रकार से भगवान ने मुझे बचाया।पर क्योंकि सेवा करने का विचार अभी तक मन से नहीं गया था तो इसलिए भगवान ने कृपा करके आज ही के दिन 50 वर्ष पूर्व मुझे श्रील प्रभुपाद से मिलवाया। मैं अपने गुरु श्रील प्रभुपाद से पहली बार 1971 में मिला और मेरे गुरु महाराज,उनके गुरु महाराज श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद से पहली बार 1922 में मिले। और पहली मुलाकात में ही उनको उनके गुरु महाराज ने आदेश दिया कि पाश्चात्य देश में जाओ और चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन का अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। उन्होंने अपने गुरु महाराज के आदेश का पालन बहुत सफलतापूर्वक किया। श्रील प्रभुपाद अमेरिका गए और इतने अच्छे से प्रचार किया कि आज सभी लोग श्रील प्रभुपाद को अपना नायक मानते हैं। श्रील प्रभुपाद जानते थे कि दुनिया वाले अमेरिकन और यूरोपियन की नकल करते हैं। तो उन्होंने सोचा कि अगर मैं इनको कृष्ण भक्त बनाऊंगा तो दुनिया वाले इनकी नकल करके स्वयं ही भक्त बन जाएंगे।इसी विचार के साथ श्रील प्रभुपाद ने अमेरिका में प्रचार किया और अमेरिकियों को साधु बनाया।श्रील प्रभुपाद को जो सफलता मिली थी उस को दर्शाने के लिए श्रील प्रभुपाद अपने अमरीकी और यूरोपीयन साधुओं को लेकर भारत लौटे थे। श्रील प्रभुपाद इस विचार से उनको अपने साथ लाए थे कि जिन भारतीयों को अपने धर्म में आस्था नहीं है तो वह इन विदेशियों की नकल कर करके भक्त बन जाएंगे। श्रील प्रभुपाद को लगा कि क्योंकि भारतीय विदेशियो की नकल करते हैं,तो जब यह विदेशी ही भक्त बनेंगे तो भारतीय भी विचार करेंगे और अपने धर्म की ओर मुडेंगें।1970 में प्रभुपाद अपने विदेशी शिष्यों के साथ भारत लौटे और भारत का भ्रमण कर रहे थे और हर अलग-अलग स्थानों पर हरे कृष्णा उत्सव मना रहे थे। हम तो यहां पर मुंबई के हरे कृष्णा उत्सव की बात कर रहे हैं जब प्रभुपाद के मुझे प्रथम दर्शन हुए थे। किंतु इस हरे कृष्णा उत्सव से पहले श्रील प्रभुपाद हरे कृष्णा उत्सव कई स्थानों पर कर चुके थे। इन्हीं 30- 40 शिष्यों के साथ श्रील प्रभुपाद अमृतसर गीता सम्मेलन के लिए भी गए थे। 1971 के जनवरी में श्रील प्रभुपाद वाराणसी भी गए थे और वहां पर नगर संकीर्तन भी किया।वहा से श्रील प्रभुपाद गोरखपुर गए थे। वहां गीता प्रेस गोरखपुर गए और हनुमान प्रसाद पोद्दार से मिले। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग लोगों से अपने आंदोलन का परिचय करा रहे थे।इन विदेशी भक्तों को उन दिनों में वाइट एलीफैंट ही कहते थे," सफेद हाथी"।गोरखपुर से 1971 मई में श्रील प्रभुपाद कुंभ मेले में गए थे। उस समय अर्ध कुंभ चल रहा था।यह हरे कृष्ण वाले प्रयाग इलाहाबाद में कुंभ मेले के आकर्षण का केंद्र हो चुके थे।इनको भारतीय अंग्रेज कहते थे ,वैसे तो भक्त सभी जगह से थे।अमेरिकन,यूरोपियन,जर्मन किंतु आम भाषा मे भारतीय इन्हें अंग्रेज कहते थे। श्रील प्रभुपाद सूरत भी गए थे और सूरत में तो उन्हें बहुत बड़ी सफलता प्राप्त हुई थी। प्रभुपाद मद्रास भी गए थे।इसी तरह फिर हरे कृष्णा उत्सव क्रॉस मैदान मार्च में आज ही के दिन हुआ था। इस उत्सव से पहले कुछ उत्सव विभिन्न स्थानों पर हो चुके थे और कुछ इसके बाद होने वाले थे।उसी श्रृंखला में श्रील प्रभुपाद का एक कार्यक्रम एलआईसी ग्राउंड न्यू दिल्ली में भी हुआ था।फिर एक कार्यक्रम कोलकाता में भी हुआ था और ऐसे ही प्रोग्राम में जाते-जाते श्रील प्रभुपाद भक्तों को वृंदावन ले गए और मायापुर भी ले गए थे। 1 साल के अंदर अंदर श्रील प्रभुपाद और उनके विदेशी भक्तों ने यह सभी यात्राएं,प्रचार और उत्सव पूर्ण किए। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद विचारों की क्रांति कर रहे थे और कई जीवो को भाग्यवान बना रहे थे। चैतन्य महाप्रभु ही कई जीवो को श्रील प्रभुपाद के संपर्क में लाकर,उनके शिष्यों के संपर्क में लाकर,महामंत्र के संपर्क में लाकर या श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों के संपर्क में लाकर भाग्यवान बना रहे थे। पूरे भारतवर्ष में इस प्रकार असंख्य जीव भाग्यवान बन रहे थे।इस हरे कृष्णा उत्सव क्रॉस मैदान ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मेरे जीवन में क्रांति आ गई। मैंने जो हरे कृष्णा भक्तों के कीर्तन सुने और कीर्तन को सिर्फ सुना ही नहीं देखा भी।कीर्तन को सिर्फ सुनना नहीं होता कीर्तन को देखना भी होता हैं। कीर्तनकार को देखना चाहिए।जो भक्त नृत्य करते हैं उनको भी देख सकते हैं या कीर्तनकार जब अलग-अलग वाद्य बजाते हैं तो उनको भी देखा और सुना जाता हैं और सब को ही देखना और सुनना चाहिए। सबसे प्रथम इस कीर्तन ने ही मुझे प्रभावित किया और फिर श्रील प्रभुपाद के अमरीकी और यूरोपीयन साधुओं ने मुझे प्रभावित किया। मैंने इससे पहले भी कई कीर्तन सुने थे। बचपन से ही मैं भजन कीर्तन सुनता रहा था। हमारे गांव में हर एकादशी पर रात भर भजन हुआ करते थे। उसे मैं भी कुछ समय के लिए तो सुनता ही था और भी बहुत सारे भजन कीर्तन सुने ही थे।लेकिन यह जो हरे कृष्णा कीर्तन था इसे जब मैंने देखा और सुना और जिस लगन और जिस भक्ति भाव के साथ वह लोग कीर्तन कर रहे थे,उसने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया। उनकी भक्ति में बहुत तीव्रता थी। जब वो कीर्तन कर रहे थे तो वह उस कीर्तन में तल्लीन थे। उन्हें मानो इस बात का एहसास ही नहीं था कि कुछ 30,000 लोग श्रोता बनकर उनको देख और सुन रहे हैं। या यह कह सकते हैं कि वह अपनी ही दुनिया में थे।अपने में पूर्णतः मस्त थे। वह नाच और कूद रहे थे और एक टीम की तरह काम कर रहे थे।कोई मुख्य कीर्तनया था,तो कोई पीछे गा रहा था,कोई वाद्य बजा रहा था और कुछ मिलजुल कर नाच भी रहे थे। इतनी शक्ति और सामर्थ्य के साथ में नाच और गा रहे थे कि वह पसीने पसीने हो रहे थे। पसीने पसीने होना भी एक भक्ति का लक्षण हैं।पसीने पसीने होना, अष्ट सात्विक विकार में से एक हैं या मौसम की वजह से भी हो सकता हैं। मुंबई का मौसम ऐसा है कि आसानी से कोई भी पसीना पसीना हो सकता हैं। कह नहीं सकते किस कारण से हो रहे थे। भक्ति भाव के कारण या वहां के मौसम के कारण।लेकिन हां पूरी तरह से पसीने में तर हो रहे थे। इससे मुझे स्मरण आ रहा हैं कि जैसा बाइबिल में कहा गया है कि भक्ति करनी हैं तो कैसे करो? अपने पूरे दिल से करो, अपनी पूरी ताकत से करो। अपने पूरे दिल और ताकत से भगवान को प्रेम करो। अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी: । तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् (श्रीमदभागवतम 2.3.10) श्रीमदभागवतम में भी यही कहा हैं और बाइबिल में अंग्रेजी भाषा मैं कुछ भित्र शब्दों में यही बात कही है। तो मैं इन हरे कृष्ण भक्तों को देख रहा था कि किस तरह से यह बिना किसी इच्छा के,पूरी तरह से समर्पित थे। अपने पूर्ण समर्पण के साथ यह लोग कीर्तन और नित्य कर रहे थे ।प्रभावित तो सभी हो रहे थे,लेकिन हर व्यक्ति उस कीर्तन से अलग-अलग मात्रा में प्रभावित हो रहा होगा। मैं थोड़ा विशेष प्रभावित हुआ उस कीर्तन से और श्रील प्रभुपाद के प्रवचन से।उस समय श्रील प्रभुपाद अंग्रेजी में प्रवचन दिया करते थे। पूरी तरह से तो नहीं लेकिन लगभग हां मैं ज्यादातर समझ ही जाता था। प्रतिदिन कीर्तन और श्रील प्रभुपाद का प्रवचन, यह दो मुख्य चीजें तो होती ही थी और मंच पर राधा कृष्ण के विग्रह विराजित रहते थे।हरे कृष्णा उत्सव के समय इन हरे कृष्णा वालों ने क्रॉस मैदान को मंदिर ही बना दिया था। पूरा पंडाल ही मंदिर था और ज्यादातर लोग पुजारी बनकर वही रहते थे और भगवान की अच्छी तरह से आराधना करते थे।भगवान का अभिषेक, श्रृंगार,आरतियां सब कुछ वहां चल रहा था। उस पर मैंने यह " मुंबई इज माइ ऑफिस" जो ग्रंथ लिखा है इसमें चर्चा की हैं।वह सब तो देखा ही था,लेकिन उससे पहले का भी विवरण प्रभुपादलीलामृत में पढ़ा और भक्तों से सुना था फिर मैंने कुछ साल पहले, ओर अध्ययन किया और कई साक्षात्कार लिए तो पता चला कि किस प्रकार से यह क्रॉस मैदान का हरे कृष्णा उत्सव व्यवस्थित था‌। जिस एक बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया,जिसकी खोज में मैं था और जिसका उत्तर मुझे मिला वह है प्रभुपाद का केवल 1 दिन का प्रवचन।उस दिन प्रभुपाद प्रवचन में समझा रहे थे और मुझे लगा कि प्रभुपाद मुझसे ही बात कर रहे हैं।जैसे वह बात कहकर प्रभुपाद मुझे ही संबोधित कर रहे हैं कि अगर हमें पेड़ का पालन पोषण करना हैं तो उसकी जड़ में पानी देना होगा। यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखा: । प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥ (श्रीमदभागवतम 4.31.14) केवल मूल में जल डालने से वृक्ष के पत्ते,फल,फूल सबको ही जल मिल जाता हैं। अलग से उन्हें जल देने की आवश्यकता नहीं होती। केवल मूल में जल डालने से ही पूरे वृक्ष का पालन पोषण हो जाता हैं। मुझे ऐसे लग रहा था जैसे प्रभुपाद मुझे ही समझा रहे थे कि हम सब की सेवा करना चाहते हैं, चाहे वह देश की हो, राष्ट्र की हो या परिवार वालों की हो या पूरी मानव जाति की सेवा करनी हो। इन सब की जड़ भगवान हैं। इन सब को बीज प्रदान करने वाले पिता भगवान ही हैं। भगवान ने स्वयं ऐसा गीता में कहा है। सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।भगवद्गीता 14.4।। हमारे स्रोत भगवान हैं। हम भगवान से उत्पन्न हुए हैं और उनसे जुड़े हैं। भगवान हमारे हैं और हम भगवान के हैं।अगर हम भगवान की सेवा करेंगे,जो कि हमारी जड़ हैं तो फिर वह सेवा ओर सभी तक पहुंच जाएगी।भगवान बह्रम है,परमात्मा हैं और परमात्मा की सेवा करने से आत्मा की भी सेवा हो जाएगी।क्योंकि आत्मा भगवान कि अंश हैं। क्योंकि हम भगवान से आए हैं,इसलिए उनकी सेवा करने पर अंशी तक स्वयं ही पहुंच जाएगी। मानव जाति की सेवा करना मतलब उन शरीरों में जो आत्मा हैं उनकी सेवा करनी हैं, क्योंकि सब शरीर नहीं आत्मा हैं। सभी आत्माएं कह रही हैं कि उन्हें मदद की जरूरत हैं। शरीर तो केवल एक वस्त्र हैं। आत्मा व्यक्ति स्वयं हैं।कृष्ण की सेवा करने से आत्मा की भी सेवा हो जाती हैं। यही बात प्रभुपाद ने समझाई और तुरंत मुझे मार्ग मिल गया। मुझे मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो गए और मैंने मन से स्वीकार कर लिया कि हां!हां! मैं यही करूंगा और यही करना चाहता हूं। उसी उत्सव में मन ही मन मैंने प्रभुपाद को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। तुरंत ही मैंने प्रभुपाद के कुछ छोटे ग्रंथ खरीद लिए और जपमाला भी ले ली और हरे कृष्ण महामंत्र ने तो मेरी आत्मा को छू ही लिया था। यही कुछ मुख्य बिंदु हैं, जो आपके साथ बांटना चाहता था। इसी दिन से मेरे जीवन को एक नई दिशा मिल गई। "महाजनो येन गतः स पन्थाः" जिस पथ पर महाजन चले हैं और प्रभुपाद जिस पथ पर चल रहे थे, उस पथ का मैंने उस दिन से अनुगमन करना प्रारंभ कर दिया। आज ही के दिन से मैं प्रभुपाद का और उनके अनुयायियों का अनुयाई बना और उसी के साथ ही चैतन्य महाप्रभु का अनुयाई या यूं कहें भक्त बना। पूरा तो नहीं बना लेकिन तभी से बनना प्रारंभ हो गया। इस 1 दिन के साथ जो शुभारंभ हुआ फिर आगे जो भी हुआ वह आप देख और सुन ही रहे हो। तब से आज तक यह 50 वर्ष की यात्रा रही। इसके लिए मैं भगवान का, गौरांग महाप्रभु का आभार प्रकट करता हूं। मुझे नहीं पता कि किन शब्दों में मैं उनका आभार प्रकट करूं,जिन्होंने मुझे श्रील प्रभुपाद दिए जो मेरे लिए साक्षात हरि हैं। "साक्षाद् धरित्वेन समस्त-शास्त्रैर्" आज सायं काल में भी कार्यक्रम हैं, आज ही नहीं हर शाम कार्यक्रम होने वाला हैं। आज तो मैं ही कार्यक्रम करूंगा जो कि 6:00 बजे से शुरू होने वाला हैं।लगभग 1 घंटे का हैं। इसके बाद पद्मावली आपको सूचनाएं देंगे। किंतु अगर एक दो पंक्तियों में आप अपने विचार लिखना चाहते हो तो आप लिख भी सकते हो। इस उत्सव के अंतिम 3 दिन में मैं और भी बहुत कुछ कहने वाला हूं,उत्सव या प्रभुपाद और मेरे मिलन के संबंध में,उस समय आप लोग कुछ बोलना चाहे तो बोल पाएंगे लेकिन आज अगर आप बोलना चाहते हो तो आप लिख सकते हैं चैट बॉक्स ओपन हैं हरे कृष्ण।।

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