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जप चर्चा
दिनांक २६ दिसम्बर २०२०
हरे कृष्ण!
हरि! हरि! आज हम 700 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं।
(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन।
(जय) यमुनातीर वनचारी॥
( वैष्णव गीत)
अर्थ:- वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।
हरि! हरि!
हरे कृष्ण!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
हम आप सभी को देखकर बहुत प्रसन्न हैं। महामुनि जी, मनोहरा कहां गयी? हम तो सबको देखना चाहते हैं।हरि!हरि! हम यह देखना चाहते हैं कि आप भक्ति कर रहे हो। आप सब भक्त बन रहे हो। हरि! हरि!
गीता जयंती महोत्सव की जय!
आप सभी गीता जयंती महोत्सव में सम्मिलित हुए ही होंगे। बौध्दित्यम! हिंदी समझ में आती है? हिंदी समझती हो? गुड़( अच्छा है) वैसे अंग्रेजी में जो अनुवाद हो रहा है, उसको पढ़ सकती हो।
हिंदी जपा टॉक का अंग्रेजी में अनुवाद और तुम्हारी भाषा में भी अनुवाद हो रहा है। अन्यथा पदमावती! तुम ट्रांसक्रिप्शन पढ़ सकती हो। क्या तुम पढ़ रही हो? अच्छा है( गुड़)।
श्रीकृष्ण तो कुरुक्षेत्र में ही हैं, श्रीकॄष्ण की यह कुरुक्षेत्र लीला है। कल युद्ध प्रारंभ हुआ था और आज युद्ध का द्वितीय दिवस है। पौने सात बज गए हैं। सूर्य उदय हो रहा है। पुनः सेनाएं जुट रही हैं।
मनोहरा आ गयी। हरि! हरि!
महाभारत में प्रतिदिन के युद्ध का वर्णन है। आप पढ़ सकते हो कि हर दिन क्या क्या हुआ था। श्रील व्यासदेव जोकि महाभारत के रचयिता हैं, उन्होंने प्रति दिन का छोटा छोटा चैप्टर(अध्याय) ही लिखा है। श्रीकृष्ण की कुरुक्षेत्र में मुख्य महत्वपूर्ण लीला तो गीता जयंती के दिन ही सम्पन्न हुई। श्रीकृष्ण ने गीता को जन्म दिया। श्रीकृष्ण ने गीता को कहा। कुरुक्षेत्र में यही प्रधान लीला है, कल जब हमनें कुरुक्षेत्र में प्रोग्राम किया था अथवा कुरुक्षेत्र में गीता वर्ल्ड डे ( गीता दिवस) मनाया था। जब वह दिवस कुरुक्षेत्र में मनाया जा रहा था, तब वहां यज्ञ भी हुआ और इस्कॉन के कई लीडर्स ने सम्बोधित भी किया और हमनें भी कुछ कहा। श्रीकृष्ण ने भगवतगीता इस धाम में जहाँ पर कही थी, उसी धाम में हमनें वर्चुअल अर्थात इंटरनेट के माध्यम से पहुंचकर संबोधन किया। जब हम वहाँ सम्बोधित कर रहे थे, तब हमनें यह भी सुना कि इस्कॉन कुरुक्षेत्र से अतुल कृष्ण प्रभु, जोकि हमारे साक्षी गोपाल प्रभु के सुपुत्र हैं, वह कह रहे थे कि कुरुक्षेत्र ही एक ऐसा धाम है, जहाँ राधारानी भी आई थी। वैसे मैंने आपको एक दिन बताया भी था।कुरुक्षेत्र में द्वारकावासियों और वृन्दावनवासियों का महामिलन हुआ था। अतुल कृष्ण प्रभु यह भी स्मरण दिलवा रहे थे कि कुरुक्षेत्र में हास्य रस की लीला, सांख्य रस की लीला, माधुर्य रस की लीला, वात्सल्य रस की लीला भी सम्पन्न हुई। इस महामिलन के अंतर्गत श्री कृष्ण से मिलने के लिए वृन्दावन के भक्त भी वहां पहुंचे थे।यह गीता जयंती के समय की बात नहीं हैं अपितु यह सूर्यग्रहण के समय की बात है।जब श्रीकृष्ण, बलराम, वसुदेव, देवकी और सभी द्वारकावासी सूर्यग्रहण के समय सूर्यकुंड में स्नान करने के लिए आए थे। उस समय ही यह मिलन हुआ था।
श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों को बुलाया था।श्रीकृष्ण और बलराम के मित्र श्रीदामा इत्यादि भी आए, उनके साथ मिलन हुआ। उनके विशेष अष्टसखा भी हैं और असंख्य सखा हैं, वे सभी वहाँ पहुंचे।
[12/26, 4:55 PM] Purnanandi Radha DD: कुरुक्षेत्र में उनके साथ मिलन हुआ।हरि! हरि!
लेकिन हमारा मिलन कब होगा। हम, औरों के मिलन की बात करते ही रहते हैं कि भगवान इनको मिले या भगवान उनको मिले। भगवान कुरुक्षेत्र में बलराम, नंद बाबा और यशोदा को भी मिले। वहाँ वात्सल्य रस से भरी लीलाएं सम्पन्न हुई। यशोदा ने कृष्ण को अपनी गोद में लिया। उस समय श्रीकृष्ण १०० वर्ष के थे लेकिन यशोदा के लिए वे उनके अपने लाला ही हैं।यशोदा-दुलाल भी हैं। यशोदा माता ने उनको गोद में लिया, यशोदा मैया का वात्सल्य पुनः उमड़ आया था। साथ में गायें भी आयी थी। गायों और कृष्ण के मध्य का रस अथवा संबंध अथवा भाव अथवा भक्ति भी वात्सल्य से पूर्ण हैं, यह वात्सल्य भरी लीला अथवा वात्सल्य रस है। कुरुक्षेत्र में गायों के साथ मिलन अथवा वात्सल्य प्रेम का आदान- प्रदान हुआ था श्रीकृष्ण, कुरुक्षेत्र में गोपियों और राधारानी के साथ भी मिले। श्रीकृष्ण, राधारानी और गोपियों को थोड़ा एकांत में मिले। वैसे वे वृंदावन में वैसे ही मिलते हैं। रास क्रीड़ाएँ आदि होती हैं तो वे किसी नगर के चौराहे में नहीं होती अपितु वह एकान्त में ही होती हैं। हरि! हरि!
वे सब कुरुक्षेत्र में मिले और वहाँ सभी रसों का प्रदर्शन अथवा आदान- प्रदान हुआ।
मैं कुछ कह रहा था कि भगवान इन भक्तों से मिले हैं अथवा मिलते ही रहते हैं और वे मिलन का आनन्द लूटते रहते हैं। लूट सके तो लूट लें लेकिन हम उस आनन्द को लूट नहीं रहे हैं ।
हरि! हरि!
हमारा कुछ तो मिलन हो रहा है लेकिन गाढ़ अलिंगन नहीं हो रहा है। साधन भक्ति हो रही है किन्तु भाव भक्ति या रागानुग भक्ति नही हो रही है। रागानुग भक्ति यह अलग अलग राग ही है, वैसे कृष्ण के ग्वाल बाल अथवा मित्र अथवा मित्रों का राग प्रेम ही हैं। राग अर्थात आसक्ति अथवा प्रेम ही है। तत्पश्चात अनुराग... कैसा अनुराग? जिस प्रकार भगवान् के मित्रों ने भक्ति अथवा प्रेम किया अथवा नंद बाबा यशोदा का ऐसा वात्सल्य प्रेम रहा। जब हम उनके चरणों का अनुसरण करते हुए भक्ति करते हैं और उनको आदर्श बना कर अपनी साधना करते हैं अथवा कृष्ण प्रेम चाहते हैं या जाग्रत कराना चाहते हैं। तब वह रागानुग कहलाती है।
गोपी और राधारानी के भाव को कौन समझ सकता है। इतना ऊंचा भाव... फिर भी जब हम यथासम्भव सुन अथवा श्रवण करके भक्ति करते हैं, वह भक्ति रागानुग भक्ति कहलाती है। भगवान स्वयं गौड़ीय वैष्णवों के आचार्य बने हैं। वह भगवान स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भगवान् बने हैं। वे भगवान बने नहीं हैं अपितु वे भगवान हैं ही। ऐसा नहीं कि वे भगवान नहीं थे और फिर भगवान् बने। जो भगवान नहीं हैं, वह कभी भी भगवान नहीं बन सकता।
एक बार श्रील प्रभुपाद ने एक भक्त से पूछा क्या चाहते हो?
तुम भगवान बनना चाहते हो? उस भक्त ने कहा- हां, हां मुझे भगवान बनाइए। मैं भगवान बनना चाहता हूं। उस व्यक्ति ने पूछा कि स्वामीजी इंडिया से आए हैं।
भारत के कई स्वामी देश- विदेश में प्रचार करते हुए बताते हैं कि
'मैं भगवान हूं, तुम भगवान् हो और मैं तुम्हें भी भगवान बना दूंगा।' ऐसा प्रचार करने वाले कि मैं तुम्हें भगवान बना दूंगा। आज का स्वामी कल नारायण बनता है। इस व्यक्ति ने ऐसा सुना था।
श्रील प्रभुपाद को लगा कि यह व्यक्ति भगवान बनने के मूड़ में है। इसलिए उन्होंने पूछा कि क्या तुम भगवान बनना चाहते हो? वह व्यक्ति बोला-हां-हां, मैं भगवान बनना चाहता हूं। प्रभुपाद ने उस समय कहा कि तुम भगवान बनना चाहते हो, इसका अर्थ हुआ कि तुम अभी भगवान नही हो, तुम भगवान बनना चाहते हो। श्रील प्रभुपाद ने कहा- कृष्ण ही भगवान हैं लेकिन कृष्ण भगवान बन नहीं सकते क्योंकि वह हमेशा ही भगवान् हैं। कृष्ण भगवान हैं, वह एक दिन के लिए भगवान नहीं बनते, वह भगवान थे, हैं और रहेंगे।
ऐसा समय नहीं था कि भगवान नहीं थे और अचानक कुछ चमत्कार हुआ कि किसी ने उनको भगवान् बनाया या फिर वह एक दिन के लिए भगवान बन गए। श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा- जो अब भगवान नहीं है, वह भगवान नहीं बन सकता।
वह भक्त जो थे, वह बड़ी आशा लेकर बड़े समय से सोच रहे थे कि मैं भगवान बनना चाहता हूं, देखता हूँ कि कौन मुझे भगवान बना सकता है। शायद ये स्वामीजी जो भारत से आए हैं, मुझे भगवान् बना सकते हैं। उन्होंने पूछा भी कि क्या तुम भगवान बनना चाहते हो, यस यस - तब स्वामी जी ने ये सारी बातें कही। तुम भगवान बनना चाहते हो, मतलब की तुम अब भगवान नही हो। जो भगवान नहीं है, वह भगवान नहीं बन सकता, भूल जाओ तुम। श्री कृष्ण बलराम और श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु सदा के लिए भगवान् हैं। भगवान ने भगवतगीता का उपदेश सुनाते हुए अपने कुछ वैभव भी कहे हैं। वह जब गीता का उपदेश सुना रहे थे, तब सुनाते सुनाते १०वें अध्याय में पहुंचे। श्रीकृष्ण ने अपने वैभव और विभूतियों की विषय में चर्चा की है कि मैं यह हूँ, मैं वह हूं।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।।
( श्रीमद् भगवतगीता ७.८)
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ।
सूर्य और चंद्रमा में जो प्रकाश है।
प्रभास्मि - वह प्रकाश मैं ही हूँ।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.२५)
अनुवाद:- मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ।
जो भी स्थावर ( स्थित) जंगम (चल) वस्तुएं होती हैं, उन स्थावर वस्तुओं अर्थात जिन्हें कोई हटा नहीं सकता है अर्थात जो अपने स्थान पर स्थित अथवा स्थिर है, उन वस्तुओं अथवा स्थानों में मैं हिमालय हूं।स्थावराणां हिमालयः।
भगवान ऐसे कई सारे ऐश्वर्य के विषयों में कहते रहे हैं
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥३५॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.२६)
अनुवाद:- मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ | समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलने वाली वसन्त ऋतु हूँ।
इन ऋतुओं में मैं ही बसंत
ऋतु हूं, नदियों में गंगा मैं हूँ। कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि मैं ही हूँ। हाथियों में ही ऐरावत मैं हूँ। घोड़ों में उच्चैःश्रवा मैं हूँ। काफी लंबी सूची हैं, भगवान ने केवल यह कहा ही नहीं, कि यह मैं हूँ, वह मैं हूँ, ये मेरी विभूतियां हैं। यह मेरी शक्ति का प्रदर्शन हैं। भगवान ने उसको स्थापित करके भी दिखाया अर्थात भगवान ने इसे सिद्ध करके दिखाया। भगवान ने ११वें अध्याय में अपना विश्वरूप दिखाया। भगवान ने कहा कि इस विश्व में जो हिमालय, गंगा, ऐरावत और शंकर है, वह मैं ही हूँ, भगवान ने जो जो कहा था कि मैं यह हूँ, मैं वह हूं। भगवान ने उसको अपने विराट रुप में दिखाया, विश्वरूप में दिखाया अर्थात जब भगवान गीता का उपदेश सुना रहे थे उसी के अंतर्गत यह डेमो, यह प्रत्क्षय भी हुआ कि मैं कौन हूँ, मैं क्या क्या हूं। उन्होंने दसवें अध्याय में जो जो कहा था वह उन्होंने अर्जुन को दिखा भी दिया लेकिन ऐसे विश्वरूप में अर्जुन को कोई रुचि नहीं थी। अर्जुन भयभीत अथवा डर गए , कांप रहे थे। वह, भगवान् के ऐश्वर्य को देख अथवा समझ रहे थे।
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्रै्चव षण्णां भग इतींगना।।
( विष्णु पुराण ६.५.४७)
अनुवाद:- "पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान्" उन्हें कहा जाता है जो छह ऐश्वर्यों से परिपूर्ण हैं- जिनके पास पूर्ण बल, यश, धन, ज्ञान, सौंदर्य और वैराग्य है।
भगवान् षड् ऐश्वर्य पूर्ण हैं। अर्जुन वह ऐश्वर्य अथवा विभूतियां देख रहे थे। अर्जुन का ऐसे रूप से वैसे कुछ लेना देना नहीं था।
क्योंकि अर्जुन का भगवान से ऐसा संबंध है। उनका संबंध भगवान के मूल रूप से है, सच्चिदानंद विग्रह रूप से हैं। हरि! हरि!
भगवान ने अर्जुन को पहले चतुर्भुज रुप दिखाया। अर्जुन चतुर्भुज रुप का दर्शन देखकर भी प्रसन्न नहीं था।
वह विश्वरूप को तो देखना ही नहीं चाहते थे। भगवान् ने अपना चतुर्भुज रूप दिखाया। अर्जुन प्रसन्न नहीं थे, तत्पश्चात भगवान ने अपना द्विभुज रुप अर्थात सौम्य अथवा सुंदर रूप जब दिखाया। जिस रुप के संबंध में श्री कृष्ण ने अर्जुन को ११वें अध्याय में कहा था कि
श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ११.५२)
अनुवाद:- श्रीभगवान् ने कहा - हे अर्जुन! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यन्त दुष्कर है | यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यन्त प्रियरूप को देखने की ताक में रहते हैं।
हे अर्जुन! तुम्हें मेरा विश्वरुप पसंद नहीं आया या तुम मेरे विश्वरूप को देखकर उससे डर गए। उसमें कुछ भयानक दर्शन भी रहे। तुम भयभीत हो गए। तुम उस विश्वरूप के साथ अपना संबंध स्थापित नहीं कर पाए। श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे, ऐसे अगर आप विश्वरूप को माला स्थपित करना चाहते हो तो कैसी माला अर्पित करोगे।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ९.२६)
अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे
स्वीकार करता हूँ।
भगवान् को पत्रम, पुष्पम कैसे खिलाओगे या अर्पित करोगे। भक्त विश्वरूप पसंद नहीं करते। भगवान ने जो अपना द्विभुज रूप दिखाया है, श्रीकृष्ण ही रुप के संबंध में कहते हैं कि सुदुर्दर्शमिदं रूपं अब जिस रुप का तुम दर्शन कर रहे हो। यह दर्शन दुर्लभ हैं। 'सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम' - मेरे इस रुप को जो भक्त देख रहे हैं। ये रुप अथवा दर्शन बड़ा दुर्लभ है।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः - देवता भी इस रुप के दर्शन के लिए लालायित या उत्कंठित रहते हैं। दर्शन कब होगा, दर्शन कब होगा।
ब्रह्मा जी भी, नंदग्राम में इस लाला के दर्शन के लिए आते हैं। सभी आते हैं। भगवान की लीलाएं श्री वृन्दावन में सम्पन्न होती हैं। श्रीकृष्ण जब भी किसी असुर का वध करते हैं, वह दृश्य देखने अथवा दर्शन करने के लिए सभी देवता पहुंच जाते हैं।
सूत उवाच
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमारुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तभि-स्तत्रै: साङगपद्रेणोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा: ध्यानव संगततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।
( श्री मद् भागवतम १२.१३.१)
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा- ब्रह्मा,वरुण, इंद्र, रुद्र तथा मरुतगण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद क्रमों तथा उपनिषदों समेत बांचकर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने आपको समाधि में स्थिर करके और अपने आपको उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता - ऐसे पूर्ण पुरषोत्तम भगवान् को मैं सादर नमस्कार करता हूँ।
ब्रह्मा,वरुण, इंद्र, रुद्र आदि सभी देवता स्तुति करते हैं, दर्शन करते हैं । यह दुर्लभ दर्शन ऐसा है अर्थात, जिस रूप का तुम अभी दर्शन कर रहे हो, वह दुर्लभ है।
गीता का उपदेश सुनाते सुनाते बीच में ऐसा भी संवाद अथवा ऐसा भी दर्शन हो चुका है अथवा यह भी घटनाएं घटी हैं। श्री कृष्ण ने अपने मूल सच्चिदानंद विग्रह में कहा है। हरि! हरि!
भगवान ने बहुत कुछ कहा है, उन्होंने थोड़े ही समय में बहुत कुछ या सब कुछ कहा है और जो भी कहा है- सत्य ही कहा है। सत्य के अलावा और कुछ नहीं कहा है। ये सारे सत्य वचन श्रीकृष्ण के कहे हुए वचन हैं- भगवतगीता एक शास्त्र है।
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम्। एको देवो देवकीपुत्र एव। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।।
( गीता महात्म्य ७)
अर्थ:- आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यंत उत्सुक हैं। अतएव एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम्- केवल एक शास्त्र भगवदगीता हो, जो सारे विश्व के लिए हो। एको देवो देवकीपुत्र एव- सारे विश्व के लिए एक ईश्वर हो- श्रीकृष्ण। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि और एक मंत्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे।
कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा- केवल एक ही कार्य हो - भगवान की सेवा।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्मादि्वनिः सृता।।
( गीता महात्मय ४)
अनुवाद:- चूंकि भगवतगीता भगवान के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्यकता नहीं रहती।
अन्य शास्त्रों की आवश्यकता क्या है। जब श्री कृष्ण ने गीता जयंती के दिन गीता को उपलब्ध करवाया है। निश्चित है कि भगवान् ने हमें ऐसा ज्ञान, ऐसी भक्ति उस उपदेश के अंतर्गत दी है।
अर्जुन ने उन वचनों को सुना। अर्जुन जैसे जैसे सुनते रहे वैसे ही उनको साक्षात्कार हो रहा था। गीता के प्रवचन के अंत में अर्जुन को आत्म-साक्षात्कार/ भगवत साक्षात्कार हुआ। अर्जुन पूरी तरह से कृष्ण भावना भावित हो गए। वे केवल भाव ही नहीं अपितु भाव पूर्वक् भक्ति के लिए तैयार हुए।
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.७३)
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।
हमें भाव पूर्ण करके निष्क्रिय नहीं होना है, हमें शांत नहीं होना है। हमें सक्रिय होना है। जिसमें भाव भी है और क्रिया भी है अर्थात कार्य भी है। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता८.७)
अनुवाद:- अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए | अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।
मेरा अनुस्मरण करते हुए युद्ध करो।
गीता का अभ्यास प्रतिदिन २४ घंटे करने के लिए है। जो केवल सुन रहे हैं बैठे बैठे। सुनना तो चाहिए। लौटने के बाद भी हम कार्य में लगे हैं। कार्य में तो लगना चाहिए।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय । सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
( श्रीमद् भगवतगीता २.४८)
अनुवाद:- हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो | ऐसी समता योग कहलाती है।
योग में स्थित होकर कार्य करना चाहिए। जो भी कार्य हो, वह योग में स्थित होकर कार्य करना चाहिए। योग में स्थित होना ही
तो गीता सिखाती है। भगवान सभी जीवों को गीता में कार्य करते हुए सिखाते हैं । कौन सा कार्य करणीय है।
कार्याकार्य व्यवस्थौ शास्त्रं प्रमाणते।
गीता प्रमाण है,अधिकृत है। कौन सा कार्य उचित है और कौन सा कार्य अनुचित है। ये गीता के माध्यम से हम समझ सकते हैं। हमें किस कार्य में स्थित होना है अथवा किस कार्य में तल्लीन होना है। किस कार्य को त्यागना है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ( श्रीमद भागवतम १८.६६)
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
किस कार्य को त्यागना है। शास्त्रों में वर्णन है कि कौन सा कार्य (त्यजय)है कौन सा उपातेय ( उपत्यज) है अर्थात कौन सा अनुकूल है कौन सा प्रतिकूल है। भगवतगीता को बुद्धियोग भी कहा है। भगवान उन्हें ऐसा दिमाग ऐसी बुद्धि भी देते हैं, जो गीता को पढ़ते अथवा सुनते हैं।
हरि! हरि!
भगवान ने गीता का उपदेश सुनाकर भविष्य में होने वाले हम जैसे मनुष्यों अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए उपदेश दिया है। अब हमारी बारी है कि हम उस उपदेश को पढ़े, सुनें और समझें एवं भगवान् ने उसको समझने के लिए भगवतगीता में ही लिखा है।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ( श्री मद् भगवतगीता ४.३४)
अर्थ:- तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।
मैं, अर्जुन तुम्हें भगवतगीता का उपदेश सुना रहा हूँ, लेकिन भविष्य में लोग इसको अगर सुनना और समझना चाहेंगे, तब हमें
तद्विद्धि प्रणिपातेन करना होगा। हमें आचार्यों, गुरुजनों, महात्माओं, भक्तों के आश्रय लेना चाहिए। भगवान कहते हैं तद्विद्धि प्रणिपातेन - तुम्हें उसे जानना होगा और उनके पास जाकर प्रणिपातेन अर्थात अर्जुन जैसे तुम मुझ से प्रश्न पूछ रहे हो, मैं उत्तर दे रहा हूँ , ऐसे प्रश्नुत्तर करना होगा अर्थात प्रश्न करने चाहिए।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।
जो तत्त्ववेत्ता हैं अर्थात जिसने तत्व का दर्शन किया है। ऐसे गुरुजनों अर्थात दीक्षा शिक्षा , गुरुओं के पास पहुंचो और परिप्रश्नेन सेवया अर्थात सेवा भाव अर्थात विन्रम भाव के साथ प्रश्न करो। नम्र बन कर प्रश्न पूछो। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं- वे तुम्हें दीक्षा देंगे, अर्थात वे ज्ञान देंगे। भगवान ने ऐसी व्यवस्था की है। इसके संबंध में कृष्ण ने भगवतगीता के ४.३४ भी कहा है। हरि! हरि।
ठीक है। मैं यहीं विराम देता हूँ।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
गीता पढ़ो और गीता पर चर्चा करो।
ददाति प्रतिगृह्णति गुह्यमाख्यति पृच्छति। भुक्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्
( श्री उपदेशामृत श्लोक संख्या ४)
अनुवाद:- दान में उपहार देना देना, दान- स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपिनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।
( श्री मद् भगवतगीता१०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
गुह्यमाख्यति पृच्छति और बोधयन्तः परस्परम् करो।
सत्संग में एक दूसरे को बोध करो। जो भी समझ में आया है, उसे दूसरों के साथ शेयर करो। गीता का वितरण करो और गीता जयंती पर गीता बांटों।
प्रेम भक्ति चंद्रिका, कुछ शास्त्रों का प्रचार कर रही हो? किताबों का वितरण करो। हरि! हरि!
तत्पश्चात एक दिन स्कोर इत्यादि भी पता लगवाएंगे। अभी आप कल के स्कोर का, विशेष अनुभव का संक्षेप में उल्लेख कर सकते हो।
हरे कृष्ण!