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जप चर्चा परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा दिनांक 27 जुलाई 2023 हरे कृष्णा ! (पद्ममाली प्रभु) सभी भक्तों को मेरा दंडवत प्रणाम । आज का यह जपा टॉक एक प्रकार का जपा टॉक ही होगा लेकिन इसमें प्रश्नोत्तरी चलेगा। पिछले 6 दिनों में आप में से कुछ भक्तों द्वारा जो प्रश्न पूछे गए थे, उनमें से कुछ चुने हुए प्रश्नों का उत्तर, स्वयं गुरु महाराज देंगे। अत: आप सब से अनुरोध है कि अपने नाम जप को थोड़ा विराम दे दीजिए क्योंकि ऐसा भी संभव है कि किसी अन्य भक्त द्वारा पूछा गया प्रश्न हमारा भी हो सकता है। यहां हमें स्वयं गुरु महाराज जी के मुखारविंद से प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने का परम सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। सभी भक्तों से अनुरोध है कि नाम जप को विराम दे दीजिए। संभव हो तो बुक पैन( पुस्तक, कलम) भी ले कर बैठ सकते हैं और गुरू महाराज जो भी प्रश्न और उत्तर कहेंगे, उसको लिख सकते हैं। यहां सब की जानकारी के लिए हम वह प्रश्न स्क्रीन पर डिस्प्ले भी करेंगे और एक के बाद एक गुरू महाराज जी उनके उत्तर भी देंगे। आइए, अब हम जपा टॉक अथवा प्रश्नोत्तरी सत्र के लिए तैयार होते हैं। हरे कृष्ण ! गुरु महाराज: तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ।। ( श्रीमद भगवतगीता ४.३४) कृष्ण ने भी गीता के चौथे अध्याय के 34 श्लोक में कहा है (उसको भी आप याद रखा करो कि हमें क्या करना है।) प्रणिपातेन अर्थात हमें शरण में जाना चाहिए, परिप्रश्नेन अर्थात प्रश्न पूछने चाहिए और सेवया अर्थात सेवा भाव के साथ या नम्रता के साथ आपके प्रश्नों का स्वागत है। श्रीशुक उवाच वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप । आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥ ( श्रीमद भागवतम २.१.१) अनुवाद: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, आपका प्रश्न महिमामय है, क्योंकि यह समस्त प्रकार के लोगों के लिए बहुत लाभप्रद है। इस प्रश्न का उत्तर श्रवण करने का प्रमुख विषय है और समस्त अध्यात्मवादियों ने इसको स्वीकार किया है। ऐसा शुकदेव गोस्वामी ने भी कहा। तुम्हारा प्रश्न वरियात अर्थात श्रेष्ठ है। क्यों श्रेष्ठ है? क्योंकि इस प्रश्न के उत्तर से सभी का लाभ होने वाला है। लोकहितम! यह प्रश्न केवल पर्सनल (व्यक्तिगत) या प्राइवेट या स्वार्थ से भरे नहीं होते हैं या न ही होने चाहिए। इन प्रश्नों के उत्तर के श्रवण से परमार्थ होगा। वैसे प्रश्न पूछना यह साइन ऑफ इंटेलिजेंसी अर्थात बुद्धिमता का लक्षण है। हो सकता है कि कभी कभी कुछ भक्त यहां प्रश्न इसलिए नहीं पूछते होंगे कि हम कितने अनाड़ी हैं, सबको पता चल जाएगा। अरे ! इतना भी नहीं पता है, इसलिए भी कुछ भक्त प्रश्न नहीं पूछते होंगे । लेकिन ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी (ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है) l यदि कोई बात हम समझ नही पाए हैं या स्पष्ट नहीं हुई तो हमें ईमानदारी से जरूर प्रश्न पूछने चाहिए। अथातो ब्रह्म - जिज्ञासा। ( वेदांत सूत्र) अनुवाद: अत: अभी ब्रह्म ( पूर्ण पुरषोत्तम भगवान) के विषय में प्रश्र पूछने चाहिए। वैसे वेदांत सूत्र का कहना है , अरे! अरे ! तुम अभी मनुष्य बन चुके हो, तो प्रश्न पूछो किंतु प्रश्न कैसे पूछने चाहिए। अथातो ब्रह्म - जिज्ञासा। उन प्रश्नों का संबंध ब्रह्म, परब्रह्म या भगवान से होना चाहिए अर्थात् मनुष्य को भगवान से संबंधित प्रश्न जरूर पूछने चाहिए। तुम अभी मनुष्य बन चुके हो। इन प्रश्नों के उत्तर से ऐसा शुकदेव गोस्वामी कहते हैं श्रीमदभागवतं के दसवें स्कंध के प्रथम अध्याय में कहते हैं..... त्रिपुनातिं अर्थात तीन पार्टीज या तीन प्रकार के व्यक्तित्व अति शुद्ध व लाभान्वित होते हैं। वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि । वक्तारं प्रच्छकं श्रोतृस्तत्पादसलिलं यथा ॥ (श्रीमद भागवतम १०.१.१६) अनुवाद: भगवान् विष्णु के चरणों के अँगूठे से निकलने वाली गंगा तीनों लोकों - ऊपरी, मध्य तथा अधः लोकों-को पवित्र बनाने वाली है। इसी तरह जब कोई व्यक्ति भगवान् वासुदेव कृष्ण की लीलाओं तथा गुणों के विषय में प्रश्न करता है, तो तीन प्रकार के व्यक्ति-वक्ता या उपदेशक, प्रश्नकर्ता तथा सुनने वाले मनुष्य-शुद्ध हो जाते हैं। प्रश्न पूछने व्यक्तित्व पुनाति अर्थात शुद्ध होते हैं। प्रश्न पूछने वाला तो लाभान्वित होता ही है और साथ ही साथ श्रोता( जो उस उत्तर को सुनने वाले हैं) वे श्रोता भी लाभान्वित होंगे। स्वयं वक्ता का भी इसमें फायदा और शुद्धिकरण होगा। इसलिए मैं अपने शुद्धिकरण के लिए भी इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करूंगा। उत्तर कैसे दिए जाते हैं, शुकदेव गोस्वामी कहते है- यथामति अधितं जैसे मैंने सुना है, पढ़ा है। उसी के आधार पर मैं उत्तर दूंगा और जहां तक मेरी मति काम करती है। यथा मति; यथाशक्ति। हरि! हरि ! देखते हैं, क्या प्रश्न हैं? प्रश्न : १ असत्संग को कैसे दूर किया जाए? असत्संग के प्रभाव को कैसे कम किया जाए ? (अमरावती से हरिनामावृत प्रभु पूछ रहे हैं ( हम नाम का भी उल्लेख करेंगे, किसका प्रश्न है ताकि वे जरूर सुने और अन्य भी सुने।) उत्तर : असत्सङ्ग-त्याग, -एइ वैष्णव-आचार 'स्त्री-सङ्गी'- एक असाधु, 'कृष्णाभक्त' आर ॥ (श्रीचैतन्य-चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.८७) अर्थ: वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रियों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कृष्ण-भक्त नहीं हैं। ऐसा विचार गौडीय वैष्णवों का होता है। ऐसा सिद्धांत ही होता है। असत्सङ्ग-त्याग, -एइ वैष्णव-आचार। वैष्णव इसके लिए प्रसिद्ध होते हैं। गौडीय वैष्णव असत्संग त्यागने के लिए जाने जाते हैं। असत्संग के प्रभाव को कैसे कम किया जाए । इसके लिए असत्संग मत करो। सत्संग करो। 'साधु-सङ्ग', 'साधु-सङ्ग'- सर्व-शास्त्र कय । लव-मात्र साधु-सङ्ग सर्व-सिद्धि हय ॥ (श्रीचैतन्य-चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.५४) अर्थ: सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति में हैं। वित्व-सिद्ध मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है। संग दो प्रकार के होते हैं। सत्संग और असत्संग। इन शब्दों की ओर अगर हम) ध्यान देंगे तो दोनों में ही संग संग तो सामान्य शब्द है किंतु एक असत अर्थात झूठ मुठ का यानि मायावी संग है और दूसरा सत्संग है। सत् तो भगवान है, असत माया है। ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ऐसा शंकराचार्य भी घोषित करते हैं। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे उन्होंने इस अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ अर्थात इस्कॉन की स्थापना इस उद्देश्य से की ताकि संसार भर के लोगों को संग प्राप्त हो सके, सत्संग प्राप्त हो सके। ऐसे सत्संग सर्वत्र उपलब्ध करवाए जा रहे हैं । यहां पर भी सत्संग प्रतिदिन होता है, इस जूम कॉन्फ्रेंस में आपका स्वागत है। प्रतिदिन स्वागत है, औरों को भी बुलाइए उनका भी कल्याण कीजिए। वे भी प्रभावित होंगे यहां के सत्संग से और इस्कॉन के मंदिरों में जाकर सत्संग कर सकते हो या फिर भक्ति वृक्ष कार्यक्रम में सत्संग होते रहते हैं । हरे कृष्ण भक्त नगर संकीर्तन करते हुए आपके नगर में गलियों में भी जा सकते हैं । बिखराऊँ मैं गली गली हरि नाम के हीरे मोती। घर बैठे बैठे ही आपके द्वार पर यह हमारे पदयात्री अराउंड द वर्ल्ड ऑल ओवर इंडिया। वे गाँव गाँव नगर नगर जाकर सभी लोगों को सत्संग दे रहे हैं। इस्कॉन द्वारा आयोजित कई प्रकार के सत्संग का पूरा लाभ उठाइए और इसी के साथ असत्संग के प्रभाव से बच सकते हो। भक्त रंजन यहां पर लिख रहे हैं : प्रश्न २) हरि नाम की महिमा सुनने पर भी मन में श्रद्धा नहीं होती। मैंने अपनी श्रद्धा खो दी है। महाराज, मेरी सहायता कीजिए। उत्तर: हरि नाम की महिमा सुनने पर भी हरि नाम में श्रद्धा नहीं होती। ऐसा तो नहीं होना चाहिए। श्रद्धा घट रही है तो हमें सावधान होना चाहिए। वैसे हरि नाम की महिमा केवल सुननी ही नहीं है, हरिनाम की महिमा इसीलिए सुनते रहना चाहिए ताकि हम हरि नाम लेना प्रारंभ करेंगे, हम लेते रहेंगे जैसे बोतल में मधु है/शहद है यह मीठा है। ऐसा हम पढ़ते जाएंगे और सुनते जाएंगे किंतु उस बोतल का ढक्कन खोल के जब तक हम पिएंगे नहीं और हम स्वयं आस्वादन नहीं करेंगे तो उस महिमा को सुनने का क्या लाभ अथवा क्या फायदा? महिमा सुनने पर हमें हरि नाम का उच्चारण/ कीर्तन/ जप भी तो करना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। श्रद्धा तो शुरुआत है या फिर आपके प्रश्न का यह भी उद्देश्य हो सकता है कि ऐसे श्रद्धा के बिना आप जप यदि कर रहे हो। आदौ श्रद्धा ततः साधु-सङ्गोऽथ भजन-क्रिया । ततोऽनर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः ॥ अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति । साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः ॥ (भक्तिरसामृतसिन्धु १.४.१५-१६) अर्थ: सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है। तत्पश्चात् वह गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि-विधानों का पालन करता है। इस तरह वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। इसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है, यह साधन-भक्ति का मार्ग है। धीरे-धीरे भाव गहन होते जाते हैं और अन्त में प्रेम जागृत होता है। कृष्णभावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए भगवत्प्रेम के क्रमिक विकास की यही प्रक्रिया है। आप भजन क्रिया कर रहे हो, आप जप कर रहे हो। इसका अर्थ है कि श्रद्धा तो है इसलिए आप जप कर रहे हो किंतु संभावना यह है कि आप कह रहे हो कि मेरी दृढ़ श्रद्धा नहीं है या शास्त्रों की भाषा में मैं निष्ठावान नहीं हूँ। कुछ श्रद्धा तो है, कुछ श्रद्धावान तो हूँ किंतु मैं निष्ठावान नहीं हूं। फिर क्या करें, शास्त्रों में कहना है कि आदौ श्रद्धा के साथ साधु संग में आते हैं। साधु के पास पहुंचते ही वे आपको भजन क्रिया समझाएंगे, ये करो, यह मत करो आप। तब उस भजन क्रिया को हमें अपने जीवन में अपनाना होगा। जब हम भजन करते रहेंगे और विधि विधान या विधि निषेध का पालन करते रहेंगे तो फिर हम अपराधों से मुक्त हो जाएंगे, अपराध मुक्त हो जाएंगे। साधु संग, भजनक्रिया से अनर्थ निवृत्ति या अनर्थों से मुक्त होंगे। अनर्थों से अधिक से अधिक मुक्त होते जाएंगे, उसी के साथ हम अधिक मात्रा में निष्ठावान भी बनने वाले हैं, लेकिन श्रद्धा तो है परंतु निष्ठा नहीं है। तो हमें अनर्थों की लिस्ट बनानी चाहिए कि हम कौन कौन से अनर्थों से भरे हुए हैं। हमसे कौन कौन से अपराध हो रहे हैं और उन अपराधों से बचने का हर प्रयास करना चाहिए, जिससे आप निष्ठावान बन जाओगे। तुम स्थिर हो जाओगे, और फिर उसी के साथ आपका उतार चढ़ाव चलता रहता है। कभी घन तो कभी तरल पहले भी समझाया है। माधुर्य कादंबनी, साइंस ऑफ डिवोशनल सर्विस अर्थात भक्ति रसामृत सिंधु में यह सारा वर्णित है। ये सारा शास्त्र ही है, हमें शास्त्रज्ञ होना होगा। हमें भक्ति शास्त्री कोर्स करना होगा, यह सब सीखना समझना होगा, भक्ति का शास्त्र समझना होगा। महिमा भी सुने और महिमा को सुनकर जप करते रहे। साथ ही साथ हरिनाम के चरणों में हमसे यदि कोई अपराध हो रहे हैं तो उसको टालते रहे, तब आपकी श्रद्धा, निष्ठा में परिणत होगी। आप निष्ठावान बन जाओगे, स्थिर हो जाएंगे और कोई तब और अधिक यू टर्न भी नहीं होगा। प्रश्न ३:- जप करते समय मन में अनेक विचार आते हैं, कभी आध्यात्मिक, कभी भौतिक। क्या आध्यात्मिक चिंतन करना अच्छा है या नहीं? ( शंकर मौर्य जी, देहू से ) उत्तर: यह क्या प्रश्न है? आप सभी जो सुन रहे हो, आप क्या कहोगे? क्या आध्यात्मिक चिंतन करना अच्छा है या खराब है। निश्चित ही आध्यात्मिक चिंतन करना अच्छा ही है। आध्यात्मिक चिंतन करना ही चाहिए। मन में अनेक विचार आते हैं। विचार तो आएंगे ही। कहा जाए कि मन का यह धर्म ही है। थिंकिंग, फीलिंग, विलिंग। यह मन का कार्य है। थिंकिंग अर्थात सोचना, सोचना, सोचना। कौन सोचता है? मन सोचता है। सोच कभी बंद नही होगी। हम पत्थर नहीं बन सकते, न हीं बनेंगे। हम तो सजीव हैं, हम तो विचार करते रहेंगे, हम में मन है। हमारे अंतकरण में मन भी है, विचार तो आते रहेंगे। बस समस्या यह है कि कभी आध्यात्मिक विचार तो कभी भौतिक विचार। हमारा लक्ष्य यह है कि हमारे विचार सदैव आध्यात्मिक हो। *स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् । सर्वे विधि-निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥ (पद्म पुराण) अनुवाद: कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं। उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए। शास्त्रों में उल्लिखित सारे सकारात्मक व नकारात्मक नियम (अर्थात् विधि और निषेध) इन्हीं दो नियमों के अधीन है, उसे होने चाहिए। हमारी गोपियां...( हमारी गोपियां तो नहीं है। कृष्ण की गोपियां है, तो हमारी भी हैं।) गोपियों की खासियत है कि वे सदैव भगवान का स्मरण करती रहती है, दूसरी बात वे भगवान को कभी नहीं भूलती। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दृढ़तापूर्वक अनुशंसित किया है कि हमें भक्ति करनी है। कैसी भक्ति करें या कैसा स्मरण करें या कैसे विचार करें, हाई थिंकिंग। कैसे विचार करें, गोपियों जैसे विचार करें या गौड़ीय वैष्णवों जैसे विचार करें या ब्रज के भक्तों जैसा विचार करें। केवल आध्यात्मिक विचार करें, हमारा लक्ष्य है कि हम आध्यात्मिक विचार में तल्लीन रहे। तब हम आध्यात्मिक विचार करते रहेंगे। सोच रहा था की हमारे दिमाग में कई सारी चिप्स हैं, यदि वे सारी आध्यात्मिक विचारों से भर देंगे। दूसरे शब्दों में हमनें सारा दिमाग आध्यात्मिक विचारों से भर दिया तो फिर भौतिक विचार आएंगे कहां से। इसका स्त्रोत ही हमने समाप्त कर दिया है। हमारे पहले के जो भौतिक विचार रहे हैं, वही विचार पुन: आते रहते हैं, एक्शन की रिएक्शन तो होती रहती है। हमें उसके परे पहुंचना है। हमारे भीतर जो कभी आध्यात्मिक तो कभी भौतिक द्वंद चलता ही रहता है । यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।। ( श्रीमद भगवत गीता ४.२२) अर्थ: वे जो अपने आप स्वतः प्राप्त हो जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, ईर्ष्या और द्वैत भाव से मुक्त रहते हैं, वे सफलता और असफलता दोनों में संतुलित रहते हैं, वे सभी प्रकार के कार्य करते हुए कर्म के बंधन में नहीं पड़ते। हमें इस द्वंद से परे पहुंचना है। जहां केवल भगवान का नाम का ही चिंतन हो । प्रश्न: गुरु महाराज, जब मैं जप करता हूं तो मैं ध्यानपूर्वक जप करने की कोशिश करता हूं लेकिन कभी कभी मेरे मन में कई विचार आते हैं और मैं फिर से जप पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करता हूं लेकिन फिर कभी कभी विचार दोबारा आ जाते हैं, इससे ध्यान भटकता है। तब इससे अलग होकर जप की मुद्रा में कैसे आ सकते हैं? ( युधिष्ठिर दास, भोपाल से।) उत्तर: वैसे अभी जिस प्रश्न का उत्तर दिया, यह लगभग वैसा ही प्रश्न है। युधिष्ठिर प्रभु भी पूछ रहे हैं तो उसका उत्तर तो आपको मिला ही है।" हमें अलग होकर जप की मुद्रा में कैसे आ सकते हैं" यह थोड़ा अलग से प्रश्न पूछ रहे हैं या अतिरिक्त प्रश्न पूछ रहे हो कि हम यह विरह की अवस्था में कैसे जप करें। यह विरह की अवस्था तो काफी प्रगत अवस्था है युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥ अर्थ: हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है। ये वैसे शिक्षाष्टक है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं ही ये शिक्षाएं दी हैं, सारे संसार को सिखाया है। उसमें में पहले जो 5 शिक्षाएं हैं अथवा 5 अष्टक हैं; उसमें श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु साधना भक्ति सिखा रहे हैं। हम जब साधना में सिद्ध होंगे तभी हम और ऊपर उठेंगे, हम में भाव उत्पन्न होंगे। साधन भक्ति, फिर भाव भक्ति और फिर अंततोगत्वा प्रेम भक्ति। यह सोपान है स्टैप्स (सीढियां) हैं। हम जंप नहीं कर सकते, पहले साधना भक्ति में स्थिर हो। फिर साधना भक्ति में पूर्णता को प्राप्त करने का अभ्यास करते रहें। तब स्वाभाविक .. नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति।। अर्थ: हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्‌गद्‌ वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? ये प्रश्न श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ही उठाए हैं। जो भाव भक्ति के स्तर के प्रश्न हैं या जिज्ञासाएं हैं। ऐसा कब होगा जब मै़ आपके नाम के उच्चारण करूंगा तो नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा। अश्रु धाराएं बहाने लगेंगे और शरीर में आश्चर्य में रोमांच उत्पन्न होगा। मेरा गला गद् गद् हो उठेगा। प्रभु! वह दिन कब आएंगे ? कबे ह'बे बोलो से-दिन आमार ! (आमार) अपराध घुचि', शुद्ध नामे रुचि, कृपा-बले ह'बे हृदये संचार ॥ हे भगवान्! कृपया मुझे बताएँ कि वह दिन कब आएगा जब मैं नाम-अपराध से मुक्त ( वैष्णव भजन , भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित) हो जाऊँगा, कब आपकी कृपा से मैं भगवान् के पवित्र नाम जप का रसास्वादन करने में समर्थ बन पाऊँगा? ऐसा ही कुछ तुम पूछ रहे हो। वो अभी कहा है। हरिनाम में रूचि, अपराधे घुचि। हम अपराधों से कब बचेंगे ताकि मेरी हरिनाम में रूचि हो। ऐसे दिन कब आएंगे प्रभु! अब भी हम भगवान से विरह या सेपरेशन के भाव यदि हम महसूस नहीं कर पा रहे तो हमें समझना चाहिए कि हमें साधना पर और ध्यान देना होगा। अधिक अधिक साधना में निपुण या परफेक्शन की ओर आगे बढ़ना होगा। इसलिए शिक्षाष्टकम की पहली पांच शिक्षाओ पर कार्य करो। तब तुम स्वाभाविक रूप से भाव, प्रेम की ओर आगे बढ़ोगे। लेकिन भूलना भी नहीं चाहिए। हममें भाव भी उदित होने चाहिए कि विरह की व्यथा से हम कब परेशान होंगे। यह विचार होने चाहिए जिससे हम ऊपर उठने का प्रयास करेंगे। हाउ टू गो हायर। प्रश्न: नाम में नाम नामी में कोई अंतर नहीं है लेकिन हमें इसका कोई अनुभव नहीं होता तो हमें ऐसा क्या करना चाहिए कि ऐसा हो सके। ( संकर्षण देव, हमारे ब्रह्मचारी जलगांव टेंपल से पूछ रहे हैं) उत्तर: यह बहुत बढ़िया प्रश्न है। नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य-रस-विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ॥ (पद्म पुराण) अर्थ : कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंदमय है। यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वरदान देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनन्द का आगार, अर्थात् कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनन्दमय है। यह सभी प्रकार से स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कृष्ण-नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं। हम सुनते ही रहते हैं कि नाम नामी में अर्थात भगवान के नाम में और भगवान् में कोई अंतर नहीं है। हम सुनते तो हैं किंतु अनुभव नहीं होता तो क्या करें। वैसे आप नहीं कह सकते हो कि आप अनुभव नहीं कर रहे हो। इसका अनुभव तो हम सभी करते हैं यदि आपको हरिनाम में थोड़ी भी रुचि है या रूचि बढ़ रही है राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तम् | प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् || ( श्रीमद भगवतगीता ९.२) अर्थ: यह ज्ञान विद्याओं का राजा और सभी रहस्यों में सबसे गहरा है। यह उन लोगों को शुद्ध करता है जो इसे सुनते हैं। यह प्रत्यक्ष रूप से साकार करने योग्य, धर्म के अनुरूप, अभ्यास में आसान और प्रभाव में चिरस्थायी है। ऐसा कृष्ण ने कहा है कि हम जब भक्ति करते हैं तब भक्ति सुसुखं करते हैं। सुसुखं विद ग्रेट हैप्पीनेस हम उसका अनुभव भी करते हैं सुख का, आनंद का अनुभव भी करते हैं । भक्ति करते हुए या हरे कृष्ण महामंत्र का नाम जपते समय किसी सुख अथवा किसी आनंद का हमनें अनुभव किया है तो इससे सिद्ध होता है कि नाम और नामी में अंतर नहीं है। श्रील प्रभुपाद इस संबंध में समझाया करते थे कि हम आम आम, जल जल, पानी पानी कहते जाएंगे तो प्यास बुझने वाली नहीं है। वह तो बढ़ ही सकती है क्योंकि पानी जो नाम है और पानी जो द्रव अथवा वस्तु है; यह दोनों अलग-अलग है किंतु भगवान का नाम और भगवान दोनों एक ही होने के कारण हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहेंगे तो कृष्ण जो सच्चिदानंदमय है, आनंद की मूर्ति है; उनका हम अनुभव करते ही है। जितना भी करते हैं आनंद करते हैं तो हमें समझना चाहिए कि हम अनुभव कर रहे हैं। व्यवहारिक और व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा नाम और नामी में भेद नहीं है। (मुझे याद आ रहा है) नंद के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की! नंद भवन में आनंद हुआ है। आनंद भी एक भगवान का नाम है। सच्चिदानंद नाम है आनंद भी है। ब्रज वासी तो कह रहे थे कि नंद भवन में आनंद हुआ है। मतलब क्या हुआ है कि नंदनंदन हुए हैं। नंद नंदन कृष्ण और आनंद या कन्हैयालाल या नंद नंदन कहिए एक ही बात है। आनंद हुआ है, आनंद से भर चुका है नंद भवन या ब्रजमंडल, गोकुल। यदि हम आनंद का थोड़ा भी अनुभव कर रहे हैं, सुख का अनुभव कर रहे हैं तो नाम और नामी में भेद नहीं है, इसी का ही अनुभव कर रहे हैं। कृष्ण कहते ही हैं कि नाम लेते ही मुरलीधर कृष्ण की छवि तुरंत हमारे समक्ष खड़ी हो जाती है जब हम सोचते हैं और जो नाम लेते हैं, हमारे समक्ष उनका रूप प्रकट होता है अर्थात् हमारे मन में रूप उदित हो जाता है, प्रकट हो जाता है क्यों? क्योंकि नाम और नामी में अंतर नहीं है । हरि! हरि! नाम लेते रहिए और अधिक से अधिक अनुभव करते रहिए। नाम ही नामी है। प्रश्र: सभी १६ माला जप में समान ऊर्जा कैसे बनाए रखें (पराक्रमी पार्थ पुणे से) उत्तर: हरि! हरि! यहां यह भी कह सकते हैं कि हर दिन या पूरे जीवन में एक जैसी ऊर्जा कैसे बनाए रखे, इतना ही नही, इस एनर्जी को कैसे मेंटेन करें कि भगवत धाम जाने के उपरांत भी यह एनर्जी बनी रहे, क्यों केवल १६ माला तक हम राउंड ही मारते रहेंगे । भगवान का नाम वहां भी लेते रहेंगे। वैसे हमारा लक्ष्य एक दिन के 16 राउंड्स का ही नहीं है। हर दिन के १६ माला जप इस जीवन में और इस जीवन से परे करते रहना का है। यही हमारा लक्ष्य है हरि! हरि! उत्साहान्निश्चयाद्धैर्यात् तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति ॥ अर्थ: शुद्ध भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धान्त अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धान्तों के अनुसार कर्म करना (यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम्-कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगति छोड़ देना तथा (६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना । ये छहों सिद्धान्त निसन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं। श्रील रूपगोस्वामी उपदेशामृत में कह रहे हैं, ये छ: कार्य करोगे तो प्रसिद्धति। यहां हरि नाम की बात हो रही है तो हरि नाम में सिद्धि और परफेक्शन। कलि-कालेर धर्म-कृष्ण-नाम-सङ्कीर्तन । कृष्ण-शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन ॥ (श्रीचैतन्य-चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक ७.११) अर्थ: कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता। कृष्ण का नाम हम ले रहे हैं।ऐसा उत्तर भी दिया जा सकता है। नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः। अर्थ: 2) हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। भगवान के नाम में जो शक्ति है, हम ध्यानपूर्वक प्रयास कर रहे हैं। ध्यान पूर्वक जप करने का प्रयास कर सकते हैं या साधना जब हम से होती है तो वही हरि नाम की शक्ति से हम युक्त होंगे। समर्थ होंगे, समान शक्ति, हमें प्रेरित करती रहेगी। तत्पश्चात सदैव उच्च कैसे रहें ? ये बातें होती हैं। सदैव उच्च रहें। शक्ति हमें प्रेरित करेगी, हम अपने 16 माला जप.. 16 राउड्स कहा तो ये तो हमारा कर्तव्य हो गया भगवान् के प्रति। लेकिन हमारे 17 वें राउंड से भगवान् हमसे अधिक प्रसन्न होते हैं। तो एनर्जानइज्ड हो जाएंगे कि हम फिर रुकने का नाम नहीं लेंगे । १६ माला जप उत्साह के साथ करो। फिर उत्साही भक्तों के संग में रहो तो उनका उत्साह देकर आप में जोश आएगा। आप उत्साहित होंगे, केवल उत्साह नहीं चाहिए, निश्चय भी चाहिए, धैर्य भी चाहिए। तत्तत्कर्मप्रवर्तनात्। भक्ति के कई सारे अंग है या नवधा भक्ति है तो सबको अपनाना होगा। असत् संग से बचना चाहिए और सत्संग में सत्तोवृत महात्माओं, आचार्यों, गुरुजनों के चरणों का अनुसरण करते हुए फिर ये षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति हुआ। प्रश्न : भगवान के नाम में रुचि तो है और मैं ध्यान से जप करने का प्रयास करता हूं लेकिन मेरे अंदर अभी भी भाव की कमी है उसे कैसे बढ़ाया जाए । (अभिषेक कुमार) उत्तर: पहले जिन प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं, उसी में आपके प्रश्न का भी उत्तर आ ही जाता है। आप जप कर रहे हो मतलब साधना कर रहे हो। जप की साधना कर रहे हो किंतु भाव की कमी है। साधना भक्ति के परिणाम या फलस्वरुप ही भाव उत्पन्न होते हैं, भाव भक्ति तत्पश्चात प्रेम भक्ति। आप यह भी कह रहे हो कि भगवान के नाम में रुचि तो है, लेकिन आपको और रुचि बढ़ानी होगी। क्योंकि श्रद्धा से प्रेम तक का सोपान है। जब आसक्ति बढ़ जाती है तो रूचि बढ़ जाती है। रूचि बढ़ जाती है तो भाव बढ़ जाते है। भाव बढ़ जाते हैं तो प्रेम का हम अनुभव करते हैं। इसलिए रुचि बढ़ा दीजिए। फिर आप पूछोगे कि रूचि कैसे बढ़ाएं, हमें निष्ठावान होना होगा, निष्ठावान कैसे होंगे ? अनर्थ निवृत्तियों से अर्थात अनर्थों से बचना होगा। उसके लिए भजन क्रिया अपनाना होगा। भजन क्रिया को कैसे अपनाएंगे। साधू संग करना होगा। साधू संग के लिए कुछ तो आप में श्रद्धा होनी चाहिए। इस तरह से जहां भी कमी है। जैसे यदि प्रेम की कमी है तो भाव को बढ़ाईए या नीचे के जो सारे स्तर हैं उसमें अधिक से अधिक पूर्णता को प्राप्त करना होगा। भाव से पहले साधना है। साधना की सिद्धि है भाव के उत्पादन में या निर्माण में या अनुभव में। प्रश्न: हम केवल 16 माला पूरी करने की अपेक्षा जप पर अधिक ध्यान कैसे दे सकते हैं? क्या तब हम अन्य सेवाओं को भी नजर अंदाज कर सकते हैं? उत्तर: आप पूछ रहे हो कि कैसे हम जप ध्यानपूर्वक करते रहे। ऐसा नही कि यह १६ माला पूरी करनी है तो फटाफट कर लेते हैं। 16 माला का जप करना या पूरा करना (कंप्लीट 16 राउंड) वह एक लक्ष्य तो होता ही है। संख्यापूर्वक नामगान नितिभिः। साथ ही साथ हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारा जप ध्यानपूर्वक हो रहा है या नही। फ़ोकस सही प्रकार से हो रहा है या नही, यह दोनों ही महत्वपूर्ण है। ध्यानपूर्वक जप करना महत्वपूर्ण है, 16 माला का जप करना भी लक्ष्य है, इसलिए दोनों को बैलेंस करें। दूसरा आपने पूछा कि "क्या हम अन्य सेवाओं को भी नजर अंदाज कर सकते हैं।" नही! हम अन्य सेवाओं को भी नजर अंदाज नही कर सकते हैं। क्योंकि जब हम जप करते हैं तो सेवा योग्यं कुरुं । सेवा योग्यं कुरुं । हम प्रार्थना करते हैं, हे भगवान! हे राधे! हे कृष्ण! मैं आपका सेवक हूं। मुझे सेवा दीजिए। अपनी सेवा में नियुक्त किजिए। आपने सचमुच ध्यानपूर्वक जप किया है और 16 माला संख्यापूर्वक पूरा कर रहे हैं, भगवान आपको सेवा देने वाले हैं, तैयार हो जाइए। उसको भी टाल नहीं सकते। भगवान आपको बुद्धि देंगे, अंदर से कुछ प्रेरणा देंगे उसको सुनो। लिसन टू कृष्ण, कृष्ण को सुनो। आपका जप पूरा हुआ, इतने में टेंपल कमांडर आ गए या फिर काउंसलर आ कर कहें प्रभु! यह सेवा है। तब हमें समझना चाहिए कि भगवान हमारे जप से प्रसन्न है और हमारे लिए सेवा तैयार रखे हैं। आप इग्नोर नहीं कर सकते। वैसे भी अज्ञान कोई ज्ञान नहीं है। प्रश्न: यदि जप करते समय सेवा मिले तो क्या करना चाहिए। क्या हमें अपना जप बंद कर देना चाहिए या हमें जप जारी रखना चाहिए और सभी माला जप करने के बाद सेवा करना चाहिए। जप करते समय जप कीजिए। सेवा करते समय सेवा कीजिए। दोनों का ही अपना समय होता है। आप अपना जप पूरा करते रहो और २४ घंटे का प्लान बनाईए कि मैं जप इस समय करूंगा, सेवा इस समय करूंगा और ये काम इस समय करूंगा। ताकि आपका सब कार्य नियत समय पर हो। दैनिक जीवन में परिवर्तन इस समय ये करना, उस समय ये करना यह व्यवस्थित जीवन नही है। शिष्य मतलब अनुशासन, प्रभुपाद जी ऐसा भी कहा करते थे। शिष्यों का जीवन अनुशासित होना चाहिए। कुछ नियंत्रण या कुछ नियमावली हमारे जीवन में होनी चाहिए।नियमावली बनानी चाहिए और फिर उसके अनुसार हमें सेवा के समय सेवा या जप के समय जप, श्रवण के समय श्रवण और अध्ययन के समय अध्ययन , प्रसाद के समय प्रसाद लेना चाहिए। प्रभुपाद जी अपने प्रसाद के समय को लेकर या इसका टाइम, उसका टाइम को लेकर काफी पार्टीकुलर अथवा दृढ़ थे। इसलिए हमें अपना जीवन भी व्यवस्थित करना चाहिए। प्रश्न: हमारे भौतिक कर्तव्यों का पालन किस मानसिक स्थिति से पूरा करें कि कर्मबंधन ना लगे और परिणाम की चिंता ना हो। क्या यह है कि जप करने से सब भौतिक कार्यों में भी सफलता मिल जायेगी ? उत्तर: हरि! हरि! हाँ! ये भी भगवान ने कहा है। अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः |/तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् || ( श्रीमद भागवतम २.३.१०) अर्थ: कोई कामना हो अथवा ना हो तथा समस्त कामनाओं की इच्छा हो अथवा मोक्ष की इच्छा हो तो तीव्र भक्ति योग से भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करें। आप जैसे भी हो अकामी हो या सर्वकामी हो, मोक्षकामी हो; आप भगवान की भक्ति करते रहो। आपकी कामना भगवान पूरी करेंगे। यह एक बात हुई लेकिन हमें सावधान भी रहना चाहिए कि हम किस प्रकार की इच्छा रखते हैं। कौन सी इच्छा उचित है और कौन सी इच्छा उचित नहीं है। उसके अनुसार ही हमें अपनी इच्छा को स्थिर करना चाहिए। वहीं संकल्प विकल्प होता है। हमें यह सुलझाना चाहिए। हमें वही संकल्प लेने चाहिए अर्थात् मन में बैठाने चाहिए जो हमारी भक्ति या भगवान की प्राप्ति के लिए अनुकूल है और जो प्रतिकूल हैं उससे बचना चाहिए। हरि! हरि! प्रश्न: भक्ति के सभी अंगों में से जप सबसे महत्वपूर्ण अंग है। तो क्या यह ठीक है कि हम अन्य अंगों और सेवाओं को न्यूनतम कर दे और अधिक समय जप में व्यतीत करें? उत्तर: अभी अभी कुछ उत्तर दिया ही है। जप तो स्वयं हमारे कल्याण और उद्धार के लिए होता है किंतु हमें ये सोचना है कि औरों का कल्याण कैसे हो ? नामे रूचि, जीवे दया, वैष्णव सेवा तीनों बातें कही हैं। नाम में रूचि होनी चाहिए और नाम में रूचि होगी तभी आपके मन में जीवों के प्रति दया उत्पन्न होगी, फिर ये दया दिखानी होगी। अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम् ॥ (महोपनिषद्, अध्याय ६, मंत्र ७१) अर्थ - यह मेरा अपना है और यह नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त (सञ्कुचित मन) वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है। ये सारा संसार ही हमारा परिवार है। जैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है। भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार । जन्म सार्थक करि' कर पर-उपकार ॥ (श्रीचैतन्य-चरितामृत आदि लीला श्लोक ९.४१) अर्थ:- जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए। परोपकार अर्थात परमार्थ का कार्य भी तो करना है, केवल स्वार्थ ही नहीं। जप कर कर के और अधिक जप कर कर के, हर समय जप करने से हमारा तो कल्याण होगा लेकिन अन्यों का कल्याण कैसे होगा? हमारा उत्तरदायित्व जीवे दया भी है और साथ ही साथ वैष्णव सेवा अर्थात वैष्णव की सेवा भी हमें करनी है। ये अंग तो बहुत महत्वपूर्ण है किंतु रूप गोस्वामी ने पांच महत्वपूर्ण अंग बताए हैं। उसमें भी हरिनाम है। लेकिन उन्होंने पाँच की एक समूह/ सूची दी है :- नाम संकीर्तन , भागवत श्रवण, साधु संग, विग्रह अराधना और धाम में निवास। हम इन अंगों को नजर अंदाज नहीं कर सकते। हमारा जीवन थोड़ा युक्त या संतुलित होना चाहिए। इसलिए जप और अन्य सेवाओं में हमें संतुलन करना ही होगा। हमारी गौडी़य परंपरा में हम केवल भजनानंदी नहीं हो सकते। वैसे अधिक महत्व तो गोष्ठी आनंदियों का है या गोष्ठीनंदी बनना है। कुछ भक्त या साधक केवल अभ्यास करते हैं लेकिन प्रचार नहीं करते। कुछ भक्त केवल प्रचार ही करते रहते हैं और साधन अभ्यास नहीं करते। ये दोनों भी अधूरा है दोषपूर्ण है, हमें दोनों ही करना चाहिए भजन और प्रचार। वह आदर्श है। प्रश्न:- अगर हम सही ढंग से जप नहीं करेंगे तो भगवान हमें स्वीकार नहीं करेंगे क्या ? उत्तर: तो ढंग से जप करो न । सही ढ़ंग से जप भी नहीं करना चाहते और भगवान भी स्वीकार करें । भगवान तो दयालु हैं, जनार्दन हैं भाव ग्राही जनार्दन। भगवान हमारे भावों को स्वीकार करते हैं।हमसे कई गलतियां हुई तो उसे माफ भी करते हैं लेकिन हमें इसका अधिक लाभ नहीं उठाना चाहिए। सर्वोत्तम यह है कि हम सही ढंग से जप करें और सही ढंग से जप नहीं करने में वैष्णव अपराध आते हैं। आप सही ढंग से जप नहीं कर रहे मतलब वैष्णव अपराध कर रहे हो तो भगवान इससे नाराज़ होंगे। दुर्वासा मुनि ने राजा अंबरीश महाराज के चरणों में जो अपराध किया था, तो उनको किसी ने नहीं स्वीकारा और विष्णु भगवान ने भी स्वीकार नहीं किया। नहीं! नहीं! मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता। अंबरीश महाराज के पास वापिस जाओ, अंबरीश महाराज के चरणों में क्षमा याचना करो। तब तक मैं तुम्हें स्वीकार नहीं करूंगा। इसलिए सही ढ़ंग से जप नहीं करना मतलब दस नामापराध करते जाना है। विधि तो यह है कि सभी वैष्णवों को इन सभी अपराधों से बचने का पूरा पूरा प्रयास करते हुए जप करना चाहिए। प्रश्न: हम प्रात: काल में जप कर रहे हैं, परंतु यदि कोई भक्त आ कर हमें कोई सेवा देता है तो उस समय क्या करें। जप करते रहें या उनकी बात को सुनें और सेवा के लिए जप छोड़ के चले जाएं? उत्तर: बेस्ट है, बढ़िया या सही है कि आप जप करते रहो किंतु कोई एमरजेंसी है या वह सेवा क्या बाद में नहीं की जा सकती, क्या उसी समय में करने की आवश्यकता है? इस पर विचार करो और फिर धीरे धीरे क्या होता है कि उसका अपवाद भी रूल बन जाता है। कभी कभी कोई भक्त आया तो उसने सेवा के लिए पूछा तो अगर हम फ्री रहेंगे, सेवा करने के लिए तैयार रहेंगे तो इसका लाभ वही भक्त पुनः पुनः उठा सकता है या अन्य भक्त भी आएंगे, जप के समय आपको सेवा देते जाएंगे। इससे फिर आपके जप का सत्यनाश होगा। आपके जप करने का समय तो सेवा में चला गया। प्रातः काल का समय तो जप के लिए, ध्यान के लिए होता है। उस समय का उपयोग जप के लिए है, ध्यान के लिए है, अपनी साधना के लिए है सेवा में नहीं लगाना चाहिए, एमरजेंसी की बात अलग है। प्रश्न: कैसे ध्यानपूर्वक जप न करना ही पवित्र नाम के विरुद्ध सभी १० अपराधों का मूल कारण है ? उत्तर: हम ध्यानपूर्वक जप नहीं करते इसलिए हम दस नाम अपराध भी करते रहते हैं। भक्ति विनोद ठाकुर समझाते हैं, हम ध्यानपूर्वक जप नहीं करते इसलिए तो हमसे दस नाम अपराध होते रहते हैं। इसके विपरीत कहें तो हम सुनते रहते हैं कि हम दस नाम अपराध करते हैं इसलिए हम से ध्यानपूर्वक जप नहीं होता। इसलिए हमें दस नाम अपराधों से बचना चाहिए। ये अपराध नहीं करने चाहिए ताकि हमारा जप ध्यानपूर्वक हो। ध्यानपूर्वक जप न होना कारण बन जाता है। वैसे हम ध्यानपूर्वक जप नहीं कर रहे, जप में ध्यान नहीं है, अन्य बातों में ध्यान है या अपराधों में ध्यान है या उसी समय जप कर रहे हैं। ध्यानपूर्वक जप नहीं कर रहे हैं मतलब क्या कर रहें हैं‌। अपराध कर रहे हैं कुछ साधू निंदा, ईर्ष्या द्वेष की बातें सोच रहे होंगे या श्रीमद्भगवद्गीता २.६२ ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (श्रीमद भगवतगीता २.६२) अर्थ: इन्द्रियविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है। मन ही मन भगवान का ध्यान, ध्यानपूर्वक जप करने की बजाय हमारा ध्यान विषयों की ओर जा रहा है। हम अपराध करते ही जाएंगे न, ध्यानपूर्वक जप नहीं कर रहे हैं मतलब हम अन्य ही बातों का ध्यान कर रहे हैं। अन्य किसी बातों पर विचार हो रहा है। हम इंद्रियों का ध्यान कर रहे हैं। इंद्रियों का विषय, भोग विलास की योजना मन में स्थापित हो रही इससे फिर ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते उन विषयों में हमारा मन अधिक स्थिर होगा। सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते फिर हम कामी होंगे काम की प्रवृति हमारी बढ़ती जाएगी। किसी तरह हमने जप तो समाप्त कर लिया परंतु यह ध्यानपूर्वक जप नहीं हुआ, केवल १६ माला जप हुआ। उससे जब आप उठोगे, तब आप जप करते समय जो जो आप सोच रहे थे, जिन विषयों का ध्यान कर रहे थे, इसका ध्यान, उसका ध्यान, दुनिया का ध्यान तो वही करोगे न?? पवित्र नाम के विरुद्ध अपराध, इसका स्त्रोत आपका ध्यानपूर्वक जप न करना बनेगा। तत्पश्चात दिन भर में आप अपराध कर रहे हो। इसलिए हमें अपराधों से बचने का प्रयास करना चाहिए और फिर जप के समय हमें ध्यानपूर्वक भगवान के ध्यान का प्रयास करना चाहिए। जिससे चेतो दर्पण मार्जनं होगा। चेतना के दर्पण का मार्जन / सफाई होगी और भगवान आपके भक्ति भाव को देखकर ददामि बुध्दियोगं बुद्धि देंगे/ दिमाग देंगे/ विचार देंगे। उच्च विचार, या सेवा भाव उत्पन्न होगा और वैष्णव सेवा के विचार मन में उठेंगें। दया भाव उत्पन्न होगा, जीवे दया तो फिर जप के उपरांत आप वही कार्यों में जो अपराध से मुक्त हैं, उस कार्यों में आप लगे रहोगे। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि जप से पहले या अपराधों से बचने का हर प्रयास करना चाहिए और जप के समय पूरा ध्यानपूर्वक जप करने का प्रयास होना चाहिए। प्रश्न :चित्त और मन में क्या फर्क है ? चित्त तो चेतना से संबंध रखता है। इस चित्त को चेतना भी‌ कहा है। चित्त को हृदय भी कहते हैं।इस चित्त को अंतःकरण भी कहते हैं। गोपियां भी कहती हैं कि प्रभु! (वैसे तो गोपियों को प्रार्थना नही करनी पड़ती।) आप चित्त चोर हैं। पहले तो आपने वस्त्रों की चोरी की। (बाद में वस्त्र लौटा दिए) वो‌ वस्त्र पहन कर अपने घर की ओर तो जा रही हैं लेकिन वो अनुभव करती हैं। कृष्ण ने पहले तो वस्त्रों की चोरी की, अब हमारा चित्त , हमारा ध्यान , हमारा मन कृष्ण की ओर दौड़ रहा है तो वह चित्त है। चेतना भी कहो, चित्तवृत्ति निरोधः चित्त में बहुत सारी वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उसका निरोध करना, हम जप के समय निरोध करते हैं। चित्तवृत्ति में निरोधः। (मैं थोड़ा वेदाबेस में देख रहा था।) समाधिस्थ मतलब चित्त में स्थिर। कृष्ण भावना में स्थिर । चित्त गुहा, हृदय को गुफा कहा है। किसकी गुफा ? इस गुफा में कौन रहता है ? चित्त रहता है। चित्त वृति चित्त हरि चित्त प्रसन्नचित:। गौरांग के भक्त चित्त प्रसन्। उनका चित्त प्रसन्न होता है या फिर चित्त प्रसन्न। ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता १८.५४) अर्थ: इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है। वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है। उस अवस्था में वह कभी नहीं मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है। कृष्ण कैसे हैं? चित्ताकर्षक होते हैं। यह चित्त है। मन तो मन है। मन, बुद्धि अंहकार। मन तो भौतिक है। मन सूक्ष्म शरीर का एक अंग है। मनेव मनुष्याणं कारणं बंध मोक्ष्यं। ये मन ही हमारे बंधन या मुक्ति का कारण है। हमें अभ्यास करते हुए इस मन को अपना मित्र ही बनाना है। ये शत्रु के रूप में अपना कार्य करते ही रहता है। भजो रे मन श्रीनंदनंदनं अभयचरणार्विदं रे । इस मन को प्रार्थना करते हैं कि हे मन!भज ले मन अभयचरणार्विंद को और ये अरविंद चरणार्विंद या फिर कभी कभी भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहते भी हैं कि मन को अगर सुन नहीं रहा तो उसको डांटो, पीटो, झाड़ू से मोर्निंग में, दिन में जूते से पीटो ताकि वो सही पटरी पर आ जाए। स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो- र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥ (श्रीमद्भागवतम् ९.४.१८) महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करण में, अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में, अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने-बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे। भगवान के चरण कमलों का ये मन स्मरण करता रहे जिससे हमारा चित्त प्रसन्न हो। भगवान फिर ऐसे चित्त की चोरी करते हैं । ऐसे चित्त में भगवान कृष्ण के विचार या कृष्णभावना जागृत होती है। इस प्रकार ये चित्त है, ये मन है। इन दोनों का संबंध भी है। हमें हर प्रयास करना चाहिए ताकि मन फेवरेबल हो। ताकि हमारा चित्त/ हमारी भावना कृष्ण कोंशियस हो कृष्ण भावनाभावित हो। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!

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