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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
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जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनांक 27 जुलाई 2023
हरे कृष्णा !
(पद्ममाली प्रभु)
सभी भक्तों को मेरा दंडवत प्रणाम । आज का यह जपा टॉक एक प्रकार का जपा टॉक ही होगा लेकिन इसमें प्रश्नोत्तरी चलेगा। पिछले 6 दिनों में आप में से कुछ भक्तों द्वारा जो प्रश्न पूछे गए थे, उनमें से कुछ चुने हुए प्रश्नों का उत्तर, स्वयं गुरु महाराज देंगे। अत: आप सब से अनुरोध है कि अपने नाम जप को थोड़ा विराम दे दीजिए क्योंकि ऐसा भी संभव है कि किसी अन्य भक्त द्वारा पूछा गया प्रश्न हमारा भी हो सकता है। यहां हमें स्वयं गुरु महाराज जी के मुखारविंद से प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने का परम सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। सभी भक्तों से अनुरोध है कि नाम जप को विराम दे दीजिए। संभव हो तो बुक पैन( पुस्तक, कलम) भी ले कर बैठ सकते हैं और गुरू महाराज जो भी प्रश्न और उत्तर कहेंगे, उसको लिख सकते हैं। यहां सब की जानकारी के लिए हम वह प्रश्न स्क्रीन पर डिस्प्ले भी करेंगे और एक के बाद एक गुरू महाराज जी उनके उत्तर भी देंगे। आइए, अब हम जपा टॉक अथवा प्रश्नोत्तरी सत्र के लिए तैयार होते हैं।
हरे कृष्ण !
गुरु महाराज:
तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ।।
( श्रीमद भगवतगीता ४.३४)
कृष्ण ने भी गीता के चौथे अध्याय के 34 श्लोक में कहा है (उसको भी आप याद रखा करो कि हमें क्या करना है।) प्रणिपातेन अर्थात हमें शरण में जाना चाहिए, परिप्रश्नेन अर्थात प्रश्न पूछने चाहिए और सेवया अर्थात सेवा भाव के साथ या नम्रता के साथ
आपके प्रश्नों का स्वागत है।
श्रीशुक उवाच
वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप । आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥
( श्रीमद भागवतम २.१.१)
अनुवाद: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, आपका प्रश्न महिमामय है, क्योंकि यह समस्त प्रकार के लोगों के लिए बहुत लाभप्रद है। इस प्रश्न का उत्तर श्रवण करने का प्रमुख विषय है और समस्त अध्यात्मवादियों ने इसको स्वीकार किया है।
ऐसा शुकदेव गोस्वामी ने भी कहा। तुम्हारा प्रश्न वरियात अर्थात श्रेष्ठ है। क्यों श्रेष्ठ है? क्योंकि इस प्रश्न के उत्तर से सभी का लाभ होने वाला है। लोकहितम! यह प्रश्न केवल पर्सनल (व्यक्तिगत) या प्राइवेट या स्वार्थ से भरे नहीं होते हैं या न ही होने चाहिए। इन प्रश्नों के उत्तर के श्रवण से परमार्थ होगा। वैसे प्रश्न पूछना यह साइन ऑफ इंटेलिजेंसी अर्थात बुद्धिमता का लक्षण है। हो सकता है कि कभी कभी कुछ भक्त यहां प्रश्न इसलिए नहीं पूछते होंगे कि हम कितने अनाड़ी हैं, सबको पता चल जाएगा। अरे ! इतना भी नहीं पता है, इसलिए भी कुछ भक्त प्रश्न नहीं पूछते होंगे । लेकिन ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी (ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है) l यदि कोई बात हम समझ नही पाए हैं या स्पष्ट नहीं हुई तो हमें ईमानदारी से जरूर प्रश्न पूछने चाहिए।
अथातो ब्रह्म – जिज्ञासा।
( वेदांत सूत्र)
अनुवाद: अत: अभी ब्रह्म ( पूर्ण पुरषोत्तम भगवान) के विषय में प्रश्र पूछने चाहिए।
वैसे वेदांत सूत्र का कहना है , अरे! अरे ! तुम अभी मनुष्य बन चुके हो, तो प्रश्न पूछो किंतु प्रश्न कैसे पूछने चाहिए। अथातो ब्रह्म – जिज्ञासा।
उन प्रश्नों का संबंध ब्रह्म, परब्रह्म या भगवान से होना चाहिए अर्थात् मनुष्य को भगवान से संबंधित प्रश्न जरूर पूछने चाहिए। तुम अभी मनुष्य बन चुके हो। इन प्रश्नों के उत्तर से ऐसा शुकदेव गोस्वामी कहते हैं श्रीमदभागवतं के दसवें स्कंध के प्रथम अध्याय में कहते हैं…..
त्रिपुनातिं अर्थात तीन पार्टीज या तीन प्रकार के व्यक्तित्व अति शुद्ध व लाभान्वित होते हैं।
वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि । वक्तारं प्रच्छकं श्रोतृस्तत्पादसलिलं यथा ॥
(श्रीमद भागवतम १०.१.१६)
अनुवाद: भगवान् विष्णु के चरणों के अँगूठे से निकलने वाली गंगा तीनों लोकों – ऊपरी, मध्य तथा अधः लोकों-को पवित्र बनाने वाली है। इसी तरह जब कोई व्यक्ति भगवान् वासुदेव कृष्ण की लीलाओं तथा गुणों के विषय में प्रश्न करता है, तो तीन प्रकार के व्यक्ति-वक्ता या
उपदेशक, प्रश्नकर्ता तथा सुनने वाले मनुष्य-शुद्ध हो जाते हैं।
प्रश्न पूछने व्यक्तित्व पुनाति अर्थात शुद्ध होते हैं।
प्रश्न पूछने वाला तो लाभान्वित होता ही है और साथ ही साथ श्रोता( जो उस उत्तर को सुनने वाले हैं) वे श्रोता भी लाभान्वित होंगे। स्वयं वक्ता का भी इसमें फायदा और शुद्धिकरण होगा। इसलिए मैं अपने शुद्धिकरण के लिए भी इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करूंगा। उत्तर कैसे दिए जाते हैं, शुकदेव गोस्वामी कहते है-
यथामति अधितं जैसे मैंने सुना है, पढ़ा है। उसी के आधार पर मैं उत्तर दूंगा और जहां तक मेरी मति काम करती है। यथा मति; यथाशक्ति। हरि! हरि !
देखते हैं, क्या प्रश्न हैं?
प्रश्न : १
असत्संग को कैसे दूर किया जाए? असत्संग के प्रभाव को कैसे कम किया जाए ?
(अमरावती से हरिनामावृत प्रभु पूछ रहे हैं ( हम नाम का भी उल्लेख करेंगे, किसका प्रश्न है ताकि वे जरूर सुने और अन्य भी सुने।)
उत्तर : असत्सङ्ग-त्याग, -एइ वैष्णव-आचार ‘स्त्री-सङ्गी’- एक असाधु, ‘कृष्णाभक्त’ आर ॥
(श्रीचैतन्य-चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.८७)
अर्थ:
वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रियों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कृष्ण-भक्त नहीं हैं।
ऐसा विचार गौडीय वैष्णवों का होता है।
ऐसा सिद्धांत ही होता है। असत्सङ्ग-त्याग, -एइ वैष्णव-आचार।
वैष्णव इसके लिए प्रसिद्ध होते हैं। गौडीय वैष्णव असत्संग त्यागने के लिए जाने जाते हैं।
असत्संग के प्रभाव को कैसे कम किया जाए । इसके लिए असत्संग मत करो। सत्संग करो।
‘साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सङ्ग’- सर्व-शास्त्र कय । लव-मात्र साधु-सङ्ग सर्व-सिद्धि हय ॥
(श्रीचैतन्य-चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.५४)
अर्थ: सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति में हैं। वित्व-सिद्ध मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।
संग दो प्रकार के होते हैं। सत्संग और असत्संग।
इन शब्दों की ओर अगर हम) ध्यान देंगे तो दोनों में ही संग संग तो सामान्य शब्द है किंतु एक असत अर्थात झूठ मुठ का यानि मायावी संग है और दूसरा सत्संग है। सत् तो भगवान है, असत
माया है। ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ऐसा शंकराचार्य भी घोषित करते हैं। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे उन्होंने इस अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ अर्थात इस्कॉन की स्थापना इस उद्देश्य से की ताकि संसार भर के लोगों को संग प्राप्त हो सके, सत्संग प्राप्त हो सके। ऐसे सत्संग सर्वत्र उपलब्ध करवाए जा रहे हैं । यहां पर भी सत्संग प्रतिदिन होता है, इस जूम कॉन्फ्रेंस में आपका स्वागत है। प्रतिदिन स्वागत है, औरों को भी बुलाइए उनका भी कल्याण कीजिए। वे भी प्रभावित होंगे यहां के सत्संग से और इस्कॉन के मंदिरों में जाकर सत्संग कर सकते हो या फिर भक्ति वृक्ष कार्यक्रम में सत्संग होते रहते हैं । हरे कृष्ण भक्त नगर संकीर्तन करते हुए आपके नगर में गलियों में भी जा सकते हैं ।
बिखराऊँ मैं गली गली हरि नाम के हीरे मोती। घर बैठे बैठे ही आपके द्वार पर यह हमारे पदयात्री अराउंड द वर्ल्ड ऑल ओवर इंडिया। वे गाँव गाँव नगर नगर जाकर सभी लोगों को सत्संग दे रहे हैं। इस्कॉन द्वारा आयोजित कई प्रकार के सत्संग का पूरा लाभ उठाइए और इसी के साथ असत्संग के प्रभाव से बच सकते हो।
भक्त रंजन यहां पर लिख रहे हैं :
प्रश्न २) हरि नाम की महिमा सुनने पर भी मन में श्रद्धा नहीं होती। मैंने अपनी श्रद्धा खो दी है। महाराज, मेरी सहायता कीजिए।
उत्तर: हरि नाम की महिमा सुनने पर भी हरि नाम में श्रद्धा नहीं होती। ऐसा तो नहीं होना चाहिए। श्रद्धा घट रही है तो हमें सावधान होना चाहिए। वैसे
हरि नाम की महिमा केवल सुननी ही नहीं है, हरिनाम की महिमा इसीलिए सुनते रहना चाहिए ताकि हम हरि नाम लेना प्रारंभ करेंगे, हम लेते रहेंगे जैसे बोतल में मधु है/शहद है यह मीठा है। ऐसा हम पढ़ते जाएंगे और सुनते जाएंगे किंतु उस बोतल का ढक्कन खोल के जब तक हम पिएंगे नहीं और हम स्वयं आस्वादन नहीं करेंगे तो उस महिमा को सुनने का क्या लाभ अथवा क्या फायदा? महिमा सुनने पर हमें हरि नाम का उच्चारण/ कीर्तन/ जप भी तो करना चाहिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रद्धा तो शुरुआत है या फिर आपके प्रश्न का यह भी उद्देश्य हो सकता है कि ऐसे श्रद्धा के बिना आप जप यदि कर रहे हो।
आदौ श्रद्धा ततः साधु-सङ्गोऽथ भजन-क्रिया । ततोऽनर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः ॥ अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति । साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः ॥
(भक्तिरसामृतसिन्धु १.४.१५-१६)
अर्थ: सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है। तत्पश्चात् वह गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि-विधानों का पालन करता है। इस तरह वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। इसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है, यह साधन-भक्ति का मार्ग है। धीरे-धीरे भाव गहन होते जाते हैं और अन्त में प्रेम जागृत होता है। कृष्णभावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए भगवत्प्रेम के क्रमिक विकास की यही प्रक्रिया है।
आप भजन क्रिया कर रहे हो, आप जप कर रहे हो। इसका अर्थ है कि श्रद्धा तो है इसलिए आप जप कर रहे हो किंतु संभावना यह है कि आप कह रहे हो कि मेरी दृढ़ श्रद्धा नहीं है या शास्त्रों की भाषा में मैं निष्ठावान नहीं हूँ। कुछ श्रद्धा तो है, कुछ श्रद्धावान तो हूँ किंतु मैं निष्ठावान नहीं हूं। फिर क्या करें, शास्त्रों में कहना है कि आदौ श्रद्धा के साथ साधु संग में आते हैं। साधु के पास पहुंचते ही वे आपको भजन क्रिया समझाएंगे, ये करो, यह मत करो आप। तब उस भजन क्रिया को हमें अपने जीवन में अपनाना
होगा। जब हम भजन करते रहेंगे और विधि विधान या विधि निषेध का पालन करते रहेंगे तो फिर हम अपराधों से मुक्त हो जाएंगे, अपराध मुक्त हो जाएंगे। साधु संग, भजनक्रिया से अनर्थ निवृत्ति या अनर्थों से मुक्त होंगे। अनर्थों से अधिक से अधिक मुक्त होते जाएंगे, उसी के साथ हम अधिक मात्रा में निष्ठावान भी बनने वाले हैं, लेकिन श्रद्धा तो है परंतु निष्ठा नहीं है। तो हमें अनर्थों की लिस्ट बनानी चाहिए कि हम कौन कौन से अनर्थों से भरे हुए हैं। हमसे कौन कौन से अपराध हो रहे हैं और उन अपराधों से बचने का हर प्रयास करना चाहिए, जिससे आप निष्ठावान बन जाओगे। तुम स्थिर हो जाओगे,
और फिर उसी के साथ आपका उतार चढ़ाव चलता रहता है।
कभी घन तो कभी तरल पहले भी समझाया है। माधुर्य कादंबनी, साइंस ऑफ डिवोशनल सर्विस अर्थात भक्ति रसामृत सिंधु में यह सारा वर्णित है। ये सारा शास्त्र ही है, हमें शास्त्रज्ञ होना होगा। हमें भक्ति शास्त्री कोर्स करना होगा, यह सब सीखना समझना होगा, भक्ति का शास्त्र समझना होगा। महिमा भी सुने और महिमा को सुनकर जप करते रहे। साथ ही साथ हरिनाम के चरणों में हमसे यदि कोई अपराध हो रहे हैं तो उसको टालते रहे, तब आपकी श्रद्धा, निष्ठा में परिणत होगी। आप निष्ठावान बन जाओगे, स्थिर हो जाएंगे और कोई तब और अधिक यू टर्न भी नहीं होगा।
प्रश्न ३:-
जप करते समय मन में अनेक विचार आते हैं, कभी आध्यात्मिक, कभी भौतिक। क्या आध्यात्मिक चिंतन करना अच्छा है या नहीं? ( शंकर मौर्य जी, देहू से )
उत्तर: यह क्या प्रश्न है? आप सभी जो सुन रहे हो, आप क्या कहोगे? क्या आध्यात्मिक चिंतन करना अच्छा है या खराब है। निश्चित ही आध्यात्मिक चिंतन करना अच्छा ही है। आध्यात्मिक चिंतन करना ही चाहिए। मन में अनेक विचार आते हैं। विचार तो आएंगे ही। कहा जाए कि मन का यह धर्म ही है। थिंकिंग, फीलिंग, विलिंग। यह मन का कार्य है। थिंकिंग अर्थात सोचना, सोचना, सोचना। कौन सोचता है? मन सोचता है। सोच कभी बंद नही होगी। हम पत्थर नहीं बन सकते, न हीं बनेंगे। हम तो सजीव हैं, हम तो विचार करते रहेंगे, हम में मन है। हमारे अंतकरण में मन भी है, विचार तो आते रहेंगे। बस समस्या यह है कि कभी आध्यात्मिक विचार तो कभी भौतिक विचार। हमारा लक्ष्य यह है कि हमारे विचार सदैव आध्यात्मिक हो।
*स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् । सर्वे विधि-निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥
(पद्म पुराण)
अनुवाद:
कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं। उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए। शास्त्रों में उल्लिखित सारे सकारात्मक व नकारात्मक नियम (अर्थात् विधि और निषेध) इन्हीं दो नियमों के अधीन है, उसे होने चाहिए।
हमारी गोपियां…( हमारी गोपियां तो नहीं है। कृष्ण की गोपियां है, तो हमारी भी हैं।) गोपियों की खासियत है कि वे सदैव भगवान का स्मरण करती रहती है, दूसरी बात वे भगवान को कभी नहीं भूलती। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दृढ़तापूर्वक अनुशंसित किया है कि हमें भक्ति करनी है। कैसी भक्ति करें या कैसा स्मरण करें या कैसे विचार करें, हाई थिंकिंग। कैसे विचार करें, गोपियों जैसे विचार करें या गौड़ीय वैष्णवों जैसे विचार करें या ब्रज के भक्तों जैसा विचार करें। केवल आध्यात्मिक विचार करें, हमारा लक्ष्य है कि हम आध्यात्मिक विचार में तल्लीन रहे। तब हम आध्यात्मिक विचार करते रहेंगे। सोच रहा था की हमारे दिमाग में कई सारी चिप्स हैं, यदि वे सारी आध्यात्मिक विचारों से भर देंगे। दूसरे शब्दों में हमनें सारा दिमाग आध्यात्मिक विचारों से भर दिया तो फिर भौतिक विचार आएंगे कहां से। इसका स्त्रोत ही हमने समाप्त कर दिया है। हमारे पहले के जो भौतिक विचार रहे हैं, वही विचार पुन: आते रहते हैं, एक्शन की रिएक्शन तो होती रहती है। हमें उसके परे पहुंचना है। हमारे भीतर जो कभी आध्यात्मिक तो कभी भौतिक द्वंद चलता ही रहता है ।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।
( श्रीमद भगवत गीता ४.२२)
अर्थ:
वे जो अपने आप स्वतः प्राप्त हो जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, ईर्ष्या और द्वैत भाव से मुक्त रहते हैं, वे सफलता और असफलता दोनों में संतुलित रहते हैं, वे सभी प्रकार के कार्य करते हुए कर्म के बंधन में नहीं पड़ते।
हमें इस द्वंद से परे पहुंचना है। जहां केवल भगवान का नाम का ही चिंतन हो ।
प्रश्न: गुरु महाराज, जब मैं जप करता हूं तो मैं ध्यानपूर्वक जप करने की कोशिश करता हूं लेकिन कभी कभी मेरे मन में कई विचार आते हैं और मैं फिर से जप पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करता हूं लेकिन फिर कभी कभी विचार दोबारा आ जाते हैं, इससे ध्यान भटकता है। तब इससे अलग होकर जप की मुद्रा में कैसे आ सकते हैं?
( युधिष्ठिर दास, भोपाल से।)
उत्तर: वैसे अभी जिस प्रश्न का उत्तर दिया, यह लगभग वैसा ही प्रश्न है। युधिष्ठिर प्रभु भी पूछ रहे हैं तो उसका उत्तर तो आपको मिला ही है।” हमें अलग होकर जप की मुद्रा में कैसे आ सकते हैं”
यह थोड़ा अलग से प्रश्न पूछ रहे हैं या अतिरिक्त प्रश्न पूछ रहे हो कि हम यह विरह की अवस्था में कैसे जप करें। यह विरह की अवस्था तो काफी प्रगत अवस्था है
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥
अर्थ: हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है।
ये वैसे शिक्षाष्टक है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं ही ये शिक्षाएं दी हैं, सारे संसार को सिखाया है। उसमें में पहले जो 5 शिक्षाएं हैं अथवा 5 अष्टक हैं; उसमें श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु साधना भक्ति सिखा रहे हैं। हम जब साधना में सिद्ध होंगे तभी हम और ऊपर उठेंगे, हम में भाव उत्पन्न होंगे। साधन भक्ति, फिर भाव भक्ति और फिर अंततोगत्वा प्रेम भक्ति। यह सोपान है स्टैप्स (सीढियां) हैं। हम जंप नहीं कर सकते, पहले साधना भक्ति में स्थिर हो। फिर साधना भक्ति में पूर्णता को प्राप्त करने का अभ्यास करते रहें। तब स्वाभाविक ..
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति।।
अर्थ: हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्गद् वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा?
ये प्रश्न श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ही उठाए हैं। जो भाव भक्ति के स्तर के प्रश्न हैं या जिज्ञासाएं हैं। ऐसा कब होगा जब मै़ आपके नाम के उच्चारण करूंगा तो
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा।
अश्रु धाराएं बहाने लगेंगे और शरीर में आश्चर्य में रोमांच उत्पन्न होगा। मेरा गला गद् गद् हो उठेगा। प्रभु! वह दिन कब आएंगे ?
कबे ह’बे बोलो से-दिन आमार ! (आमार) अपराध घुचि’, शुद्ध नामे रुचि, कृपा-बले ह’बे हृदये संचार ॥
हे भगवान्! कृपया मुझे बताएँ कि वह दिन कब आएगा जब मैं नाम-अपराध से मुक्त
( वैष्णव भजन , भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित)
हो जाऊँगा, कब आपकी कृपा से मैं भगवान् के पवित्र नाम जप का रसास्वादन करने में समर्थ बन पाऊँगा?
ऐसा ही कुछ तुम पूछ रहे हो।
वो अभी कहा है।
हरिनाम में रूचि, अपराधे घुचि।
हम अपराधों से कब बचेंगे ताकि मेरी हरिनाम में रूचि हो। ऐसे दिन कब आएंगे प्रभु! अब भी हम भगवान से विरह या सेपरेशन के भाव यदि हम महसूस नहीं कर पा रहे तो हमें समझना चाहिए कि हमें साधना पर और ध्यान देना होगा। अधिक अधिक साधना में निपुण या परफेक्शन की ओर आगे बढ़ना होगा। इसलिए शिक्षाष्टकम की पहली पांच शिक्षाओ पर कार्य करो। तब तुम स्वाभाविक रूप से भाव, प्रेम की ओर आगे बढ़ोगे।
लेकिन भूलना भी नहीं चाहिए। हममें भाव भी उदित होने चाहिए कि विरह की व्यथा से हम कब परेशान होंगे। यह विचार होने चाहिए जिससे हम ऊपर उठने का प्रयास करेंगे। हाउ टू गो हायर।
प्रश्न: नाम में नाम नामी में कोई अंतर नहीं है लेकिन हमें इसका कोई अनुभव नहीं होता तो हमें ऐसा क्या करना चाहिए कि ऐसा हो सके। ( संकर्षण देव, हमारे ब्रह्मचारी जलगांव टेंपल से पूछ रहे हैं)
उत्तर: यह बहुत बढ़िया प्रश्न है।
नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य-रस-विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ॥
(पद्म पुराण)
अर्थ : कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंदमय है। यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वरदान देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनन्द का आगार, अर्थात् कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनन्दमय है। यह सभी प्रकार से स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कृष्ण-नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं।
हम सुनते ही रहते हैं कि
नाम नामी में अर्थात भगवान के नाम में और भगवान् में कोई अंतर नहीं है। हम सुनते तो हैं किंतु अनुभव नहीं होता तो क्या करें। वैसे आप नहीं कह सकते हो कि आप अनुभव नहीं कर रहे हो। इसका अनुभव तो हम सभी करते हैं यदि आपको हरिनाम में थोड़ी भी रुचि है या रूचि बढ़ रही है
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तम् | प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ||
( श्रीमद भगवतगीता ९.२)
अर्थ: यह ज्ञान विद्याओं का राजा और सभी रहस्यों में सबसे गहरा है। यह उन लोगों को शुद्ध करता है जो इसे सुनते हैं। यह प्रत्यक्ष रूप से साकार करने योग्य, धर्म के अनुरूप, अभ्यास में आसान और प्रभाव में चिरस्थायी है।
ऐसा कृष्ण ने कहा है कि हम जब भक्ति करते हैं तब भक्ति सुसुखं करते हैं। सुसुखं विद ग्रेट हैप्पीनेस हम उसका अनुभव भी करते हैं सुख का, आनंद का अनुभव भी करते हैं । भक्ति करते हुए या हरे कृष्ण महामंत्र का नाम जपते समय किसी सुख अथवा किसी आनंद का हमनें अनुभव किया है तो इससे सिद्ध होता है कि नाम और नामी में अंतर नहीं है। श्रील प्रभुपाद इस संबंध में समझाया करते थे कि हम आम आम, जल जल, पानी पानी कहते जाएंगे तो प्यास बुझने वाली नहीं है। वह तो बढ़ ही सकती है क्योंकि पानी जो नाम है और पानी जो द्रव अथवा वस्तु है; यह दोनों अलग-अलग है किंतु भगवान का नाम और भगवान दोनों एक ही होने के कारण हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहेंगे तो कृष्ण जो सच्चिदानंदमय है, आनंद की मूर्ति है; उनका हम अनुभव करते ही है। जितना भी करते हैं आनंद करते हैं तो हमें समझना चाहिए कि हम अनुभव कर रहे हैं।
व्यवहारिक और व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा नाम और नामी में भेद नहीं है। (मुझे याद आ रहा है)
नंद के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की! नंद भवन में आनंद हुआ है। आनंद भी एक भगवान का नाम है। सच्चिदानंद नाम है आनंद भी है। ब्रज वासी तो कह रहे थे कि नंद भवन में आनंद हुआ है। मतलब क्या हुआ है कि नंदनंदन हुए हैं। नंद नंदन कृष्ण और आनंद या कन्हैयालाल या नंद नंदन कहिए एक ही बात है। आनंद हुआ है, आनंद से भर चुका है नंद भवन या ब्रजमंडल, गोकुल। यदि हम आनंद का थोड़ा भी अनुभव कर रहे हैं, सुख का अनुभव कर रहे हैं तो नाम और नामी में भेद नहीं है, इसी का ही अनुभव कर रहे हैं। कृष्ण कहते ही हैं कि नाम लेते ही मुरलीधर कृष्ण की छवि तुरंत हमारे समक्ष खड़ी हो जाती है जब हम सोचते हैं और जो नाम लेते हैं, हमारे समक्ष उनका रूप प्रकट होता है अर्थात् हमारे मन में रूप उदित हो जाता है, प्रकट हो जाता है क्यों? क्योंकि नाम और नामी में अंतर नहीं है । हरि! हरि! नाम लेते रहिए और अधिक से अधिक अनुभव करते रहिए। नाम ही नामी है।
प्रश्र:
सभी १६ माला जप में समान ऊर्जा कैसे बनाए रखें (पराक्रमी पार्थ पुणे से)
उत्तर: हरि! हरि!
यहां यह भी कह सकते हैं कि हर दिन या पूरे जीवन में एक जैसी ऊर्जा कैसे बनाए रखे, इतना ही नही, इस एनर्जी को कैसे मेंटेन करें कि भगवत धाम जाने के उपरांत भी यह एनर्जी बनी रहे, क्यों केवल १६ माला तक
हम राउंड ही मारते रहेंगे । भगवान का नाम वहां भी लेते रहेंगे। वैसे हमारा लक्ष्य एक दिन के 16 राउंड्स का ही नहीं है। हर दिन के १६ माला जप इस जीवन में और इस जीवन से परे करते रहना का है। यही हमारा लक्ष्य है हरि! हरि!
उत्साहान्निश्चयाद्धैर्यात् तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति ॥
अर्थ:
शुद्ध भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धान्त अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धान्तों के अनुसार कर्म करना (यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम्-कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगति छोड़ देना तथा (६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना । ये छहों सिद्धान्त निसन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
श्रील रूपगोस्वामी उपदेशामृत में कह रहे हैं, ये छ: कार्य करोगे तो प्रसिद्धति। यहां हरि नाम की बात हो रही है तो हरि नाम में सिद्धि और परफेक्शन।
कलि-कालेर धर्म-कृष्ण-नाम-सङ्कीर्तन । कृष्ण-शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन ॥
(श्रीचैतन्य-चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक ७.११)
अर्थ:
कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
कृष्ण का नाम हम ले रहे हैं।ऐसा उत्तर भी दिया जा सकता है।
नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः।
अर्थ:
2) हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।
भगवान के नाम में जो शक्ति है, हम ध्यानपूर्वक प्रयास कर रहे हैं। ध्यान पूर्वक जप करने का प्रयास कर सकते हैं या साधना जब हम से होती है तो वही हरि नाम की शक्ति से हम युक्त होंगे। समर्थ होंगे, समान शक्ति, हमें प्रेरित करती रहेगी। तत्पश्चात सदैव उच्च कैसे रहें ? ये बातें होती हैं। सदैव उच्च रहें। शक्ति हमें प्रेरित करेगी, हम अपने 16 माला जप.. 16 राउड्स कहा तो ये तो हमारा कर्तव्य हो गया भगवान् के प्रति। लेकिन
हमारे 17 वें राउंड से भगवान् हमसे अधिक प्रसन्न होते हैं। तो एनर्जानइज्ड हो जाएंगे कि हम फिर रुकने का नाम नहीं लेंगे ।
१६ माला जप उत्साह के साथ करो।
फिर उत्साही भक्तों के संग में रहो तो उनका उत्साह देकर आप में जोश आएगा। आप उत्साहित होंगे, केवल उत्साह नहीं चाहिए, निश्चय भी चाहिए, धैर्य भी चाहिए। तत्तत्कर्मप्रवर्तनात्। भक्ति के कई सारे अंग है या नवधा भक्ति है तो सबको अपनाना होगा। असत् संग से बचना चाहिए और सत्संग में सत्तोवृत महात्माओं, आचार्यों, गुरुजनों के चरणों का अनुसरण करते हुए फिर ये षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति हुआ।
प्रश्न : भगवान के नाम में रुचि तो है और मैं ध्यान से जप करने का प्रयास करता हूं लेकिन मेरे अंदर अभी भी भाव की कमी है उसे कैसे बढ़ाया जाए । (अभिषेक कुमार)
उत्तर:
पहले जिन प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं, उसी में आपके प्रश्न का भी उत्तर आ ही जाता है। आप जप कर रहे हो मतलब साधना कर रहे हो। जप की साधना कर रहे हो किंतु भाव की कमी है। साधना भक्ति के परिणाम या फलस्वरुप ही भाव उत्पन्न होते हैं, भाव भक्ति तत्पश्चात प्रेम भक्ति। आप यह भी कह रहे हो कि भगवान के नाम में रुचि तो है, लेकिन आपको और रुचि बढ़ानी होगी। क्योंकि श्रद्धा से प्रेम तक का सोपान है। जब आसक्ति बढ़ जाती है तो रूचि बढ़ जाती है। रूचि बढ़ जाती है तो भाव बढ़ जाते है। भाव बढ़ जाते हैं तो प्रेम का हम अनुभव करते हैं। इसलिए रुचि बढ़ा दीजिए। फिर आप पूछोगे कि रूचि कैसे बढ़ाएं,
हमें निष्ठावान होना होगा, निष्ठावान कैसे होंगे ? अनर्थ निवृत्तियों से अर्थात अनर्थों से बचना होगा। उसके लिए भजन क्रिया अपनाना होगा। भजन क्रिया को कैसे अपनाएंगे। साधू संग करना होगा। साधू संग के लिए कुछ तो आप में श्रद्धा होनी चाहिए। इस तरह से जहां भी कमी है। जैसे यदि प्रेम की कमी है तो भाव को बढ़ाईए या नीचे के जो सारे स्तर हैं उसमें अधिक से अधिक पूर्णता को प्राप्त करना होगा। भाव से पहले साधना है। साधना की सिद्धि है भाव के उत्पादन में या निर्माण में या अनुभव में।
प्रश्न: हम केवल 16 माला पूरी करने की अपेक्षा जप पर अधिक ध्यान कैसे दे सकते हैं? क्या तब हम अन्य सेवाओं को भी नजर अंदाज कर सकते हैं?
उत्तर:
आप पूछ रहे हो कि कैसे हम जप ध्यानपूर्वक करते रहे। ऐसा नही कि यह १६ माला पूरी करनी है तो फटाफट कर लेते हैं। 16 माला का जप करना या पूरा करना (कंप्लीट 16 राउंड) वह एक लक्ष्य तो होता ही है।
संख्यापूर्वक नामगान नितिभिः। साथ ही साथ
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारा जप ध्यानपूर्वक हो रहा है या नही। फ़ोकस सही प्रकार से हो रहा है या नही, यह दोनों ही महत्वपूर्ण है। ध्यानपूर्वक जप करना महत्वपूर्ण है, 16 माला का जप करना भी लक्ष्य है, इसलिए दोनों को बैलेंस करें। दूसरा आपने पूछा कि “क्या हम अन्य सेवाओं को भी नजर अंदाज कर सकते हैं।”
नही! हम अन्य सेवाओं को भी नजर अंदाज नही कर सकते हैं। क्योंकि जब हम जप करते हैं तो सेवा योग्यं कुरुं । सेवा योग्यं कुरुं । हम प्रार्थना करते हैं, हे भगवान! हे राधे! हे कृष्ण! मैं आपका सेवक हूं। मुझे सेवा दीजिए। अपनी सेवा में नियुक्त किजिए। आपने सचमुच ध्यानपूर्वक जप किया है और 16 माला संख्यापूर्वक पूरा कर रहे हैं,
भगवान आपको सेवा देने वाले हैं, तैयार हो जाइए। उसको भी टाल नहीं सकते। भगवान आपको बुद्धि देंगे, अंदर से कुछ प्रेरणा देंगे उसको सुनो। लिसन टू कृष्ण, कृष्ण को सुनो। आपका जप पूरा हुआ, इतने में टेंपल कमांडर आ गए या फिर काउंसलर आ कर कहें प्रभु! यह सेवा है। तब हमें समझना चाहिए कि भगवान हमारे जप से प्रसन्न है और हमारे लिए सेवा तैयार रखे हैं। आप इग्नोर नहीं कर सकते। वैसे भी अज्ञान कोई ज्ञान नहीं है।
प्रश्न: यदि जप करते समय सेवा मिले तो क्या करना चाहिए। क्या हमें अपना जप बंद कर देना चाहिए या हमें जप जारी रखना चाहिए और सभी माला जप करने के बाद सेवा करना चाहिए।
जप करते समय जप कीजिए। सेवा करते समय सेवा कीजिए। दोनों का ही अपना समय होता है। आप अपना जप पूरा करते रहो और २४ घंटे का प्लान बनाईए कि मैं जप इस समय करूंगा, सेवा इस समय करूंगा और ये काम इस समय करूंगा। ताकि आपका सब कार्य नियत समय पर हो। दैनिक जीवन में परिवर्तन इस समय ये करना, उस समय ये करना यह व्यवस्थित जीवन नही है। शिष्य मतलब अनुशासन, प्रभुपाद जी ऐसा भी कहा करते थे। शिष्यों का जीवन अनुशासित होना चाहिए। कुछ नियंत्रण या कुछ नियमावली हमारे जीवन में होनी चाहिए।नियमावली बनानी चाहिए और फिर उसके अनुसार हमें सेवा के समय सेवा या जप के समय जप, श्रवण के समय श्रवण और अध्ययन के समय अध्ययन , प्रसाद के समय प्रसाद लेना चाहिए। प्रभुपाद जी अपने प्रसाद के समय को लेकर या इसका टाइम, उसका टाइम को लेकर काफी पार्टीकुलर अथवा दृढ़ थे। इसलिए हमें अपना जीवन भी व्यवस्थित करना चाहिए।
प्रश्न:
हमारे भौतिक कर्तव्यों का पालन किस मानसिक स्थिति से पूरा करें कि कर्मबंधन ना लगे और परिणाम की चिंता ना हो। क्या यह है कि जप करने से सब भौतिक कार्यों में भी सफलता मिल जायेगी ?
उत्तर:
हरि! हरि!
हाँ! ये भी भगवान ने कहा है।
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः |/तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ||
( श्रीमद भागवतम २.३.१०)
अर्थ:
कोई कामना हो अथवा ना हो तथा समस्त कामनाओं की इच्छा हो अथवा मोक्ष की इच्छा हो तो तीव्र भक्ति योग से भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करें।
आप जैसे भी हो अकामी हो या सर्वकामी हो, मोक्षकामी हो; आप भगवान की भक्ति करते रहो। आपकी कामना भगवान पूरी करेंगे। यह एक बात हुई लेकिन हमें सावधान भी रहना चाहिए कि हम किस प्रकार की इच्छा रखते हैं। कौन सी इच्छा उचित है और कौन सी इच्छा उचित नहीं है। उसके अनुसार ही हमें अपनी इच्छा को स्थिर करना चाहिए। वहीं संकल्प विकल्प होता है। हमें यह सुलझाना चाहिए। हमें वही संकल्प लेने चाहिए अर्थात् मन में बैठाने चाहिए जो हमारी भक्ति या भगवान की प्राप्ति के लिए अनुकूल है और जो प्रतिकूल हैं उससे बचना चाहिए।
हरि! हरि!
प्रश्न:
भक्ति के सभी अंगों में से जप सबसे महत्वपूर्ण अंग है। तो क्या यह ठीक है कि हम अन्य अंगों और सेवाओं को न्यूनतम कर दे और अधिक समय जप में व्यतीत करें?
उत्तर:
अभी अभी कुछ उत्तर दिया ही है। जप तो स्वयं हमारे कल्याण और उद्धार के लिए होता है किंतु हमें ये सोचना है कि औरों का कल्याण कैसे हो ?
नामे रूचि, जीवे दया, वैष्णव सेवा तीनों बातें कही हैं।
नाम में रूचि होनी चाहिए और नाम में रूचि होगी तभी आपके मन में जीवों के प्रति दया उत्पन्न होगी, फिर ये दया दिखानी होगी।
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम् ॥ (महोपनिषद्, अध्याय ६, मंत्र ७१)
अर्थ – यह मेरा अपना है और यह नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त (सञ्कुचित मन) वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
ये सारा संसार ही हमारा परिवार है। जैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है।
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार । जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥
(श्रीचैतन्य-चरितामृत आदि लीला श्लोक ९.४१)
अर्थ:-
जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।
परोपकार अर्थात परमार्थ का कार्य भी तो करना है, केवल स्वार्थ ही नहीं। जप कर कर के और अधिक जप कर कर के, हर समय जप करने से हमारा तो कल्याण होगा लेकिन अन्यों का कल्याण कैसे होगा? हमारा उत्तरदायित्व जीवे दया भी है और साथ ही साथ वैष्णव सेवा अर्थात वैष्णव की सेवा भी हमें करनी है। ये अंग तो बहुत महत्वपूर्ण है किंतु रूप गोस्वामी ने पांच महत्वपूर्ण अंग बताए हैं। उसमें भी हरिनाम है। लेकिन उन्होंने पाँच की एक समूह/ सूची दी है :- नाम संकीर्तन , भागवत श्रवण, साधु संग, विग्रह अराधना और धाम में निवास। हम इन अंगों को नजर अंदाज नहीं कर सकते। हमारा जीवन थोड़ा युक्त या संतुलित होना चाहिए। इसलिए जप और अन्य सेवाओं में हमें संतुलन करना ही होगा। हमारी गौडी़य परंपरा में हम केवल भजनानंदी नहीं हो सकते। वैसे अधिक महत्व तो गोष्ठी आनंदियों का है या गोष्ठीनंदी बनना है। कुछ भक्त या साधक केवल अभ्यास करते हैं लेकिन प्रचार नहीं करते। कुछ भक्त केवल प्रचार ही करते रहते हैं और साधन अभ्यास नहीं करते। ये दोनों भी अधूरा है दोषपूर्ण है, हमें दोनों ही करना चाहिए भजन और प्रचार। वह आदर्श है।
प्रश्न:-
अगर हम सही ढंग से जप नहीं करेंगे तो भगवान हमें स्वीकार नहीं करेंगे क्या ?
उत्तर:
तो ढंग से जप करो न । सही ढ़ंग से जप भी नहीं करना चाहते और भगवान भी स्वीकार करें । भगवान तो दयालु हैं, जनार्दन हैं भाव ग्राही जनार्दन। भगवान हमारे भावों को स्वीकार करते हैं।हमसे कई गलतियां हुई तो उसे माफ भी करते हैं लेकिन हमें इसका अधिक लाभ नहीं उठाना चाहिए। सर्वोत्तम यह है कि हम सही ढंग से जप करें और सही ढंग से जप नहीं करने में वैष्णव अपराध आते हैं। आप सही ढंग से जप नहीं कर रहे मतलब वैष्णव अपराध कर रहे हो तो भगवान इससे नाराज़ होंगे। दुर्वासा मुनि ने राजा अंबरीश महाराज के चरणों में जो अपराध किया था, तो उनको किसी ने नहीं स्वीकारा और विष्णु भगवान ने भी स्वीकार नहीं किया। नहीं! नहीं! मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता। अंबरीश महाराज के पास वापिस जाओ, अंबरीश महाराज के चरणों में क्षमा याचना करो। तब तक मैं तुम्हें स्वीकार नहीं करूंगा। इसलिए सही ढ़ंग से जप नहीं करना मतलब दस नामापराध करते जाना है। विधि तो यह है कि सभी वैष्णवों को इन सभी अपराधों से बचने का पूरा पूरा प्रयास करते हुए जप करना चाहिए।
प्रश्न: हम प्रात: काल में जप कर रहे हैं, परंतु यदि कोई भक्त आ कर हमें कोई सेवा देता है तो उस समय क्या करें। जप करते रहें या उनकी बात को सुनें और सेवा के लिए जप छोड़ के चले जाएं?
उत्तर: बेस्ट है, बढ़िया या सही है कि आप जप करते रहो किंतु कोई एमरजेंसी है या वह सेवा क्या बाद में नहीं की जा सकती, क्या उसी समय में करने की आवश्यकता है? इस पर विचार करो और फिर धीरे धीरे क्या होता है कि उसका अपवाद भी रूल बन जाता है। कभी कभी कोई भक्त आया तो उसने सेवा के लिए पूछा तो अगर हम फ्री रहेंगे, सेवा करने के लिए तैयार रहेंगे तो इसका लाभ वही भक्त पुनः पुनः उठा सकता है या अन्य भक्त भी आएंगे, जप के समय आपको सेवा देते जाएंगे। इससे फिर आपके जप का सत्यनाश होगा। आपके जप करने का समय तो सेवा में चला गया। प्रातः काल का समय तो जप के लिए, ध्यान के लिए होता है। उस समय का उपयोग जप के लिए है, ध्यान के लिए है, अपनी साधना के लिए है सेवा में नहीं लगाना चाहिए, एमरजेंसी की बात अलग है।
प्रश्न: कैसे ध्यानपूर्वक जप न करना ही पवित्र नाम के विरुद्ध सभी १० अपराधों का मूल कारण है ?
उत्तर:
हम ध्यानपूर्वक जप नहीं करते इसलिए हम दस नाम अपराध भी करते रहते हैं। भक्ति विनोद ठाकुर समझाते हैं, हम ध्यानपूर्वक जप नहीं करते इसलिए तो हमसे दस नाम अपराध होते रहते हैं। इसके विपरीत कहें तो हम सुनते रहते हैं कि हम दस नाम अपराध करते हैं इसलिए हम से ध्यानपूर्वक जप नहीं होता। इसलिए हमें दस नाम अपराधों से बचना चाहिए। ये अपराध नहीं करने चाहिए ताकि हमारा जप ध्यानपूर्वक हो। ध्यानपूर्वक जप न होना कारण बन जाता है। वैसे हम ध्यानपूर्वक जप नहीं कर रहे, जप में ध्यान नहीं है, अन्य बातों में ध्यान है या अपराधों में ध्यान है या उसी समय जप कर रहे हैं। ध्यानपूर्वक जप नहीं कर रहे हैं मतलब क्या कर रहें हैं। अपराध कर रहे हैं कुछ साधू निंदा, ईर्ष्या द्वेष की बातें सोच रहे होंगे या
श्रीमद्भगवद्गीता २.६२
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
(श्रीमद भगवतगीता २.६२)
अर्थ:
इन्द्रियविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
मन ही मन भगवान का ध्यान, ध्यानपूर्वक जप करने की बजाय हमारा ध्यान विषयों की ओर जा रहा है। हम अपराध करते ही जाएंगे न, ध्यानपूर्वक जप नहीं कर रहे हैं मतलब हम अन्य ही बातों का ध्यान कर रहे हैं। अन्य किसी बातों पर विचार हो रहा है। हम इंद्रियों का ध्यान कर रहे हैं। इंद्रियों का विषय, भोग विलास की योजना मन में स्थापित हो रही इससे फिर
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते
उन विषयों में हमारा मन अधिक स्थिर होगा।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते
फिर हम कामी होंगे काम की प्रवृति हमारी बढ़ती जाएगी। किसी तरह हमने जप तो समाप्त कर लिया परंतु यह ध्यानपूर्वक जप नहीं हुआ, केवल १६ माला जप हुआ। उससे जब आप उठोगे, तब आप जप करते समय जो जो आप सोच रहे थे, जिन विषयों का ध्यान कर रहे थे, इसका ध्यान, उसका ध्यान, दुनिया का ध्यान तो वही करोगे न?? पवित्र नाम के विरुद्ध अपराध, इसका स्त्रोत आपका ध्यानपूर्वक जप न करना बनेगा। तत्पश्चात दिन भर में आप अपराध कर रहे हो। इसलिए हमें अपराधों से बचने का प्रयास करना चाहिए और फिर जप के समय हमें ध्यानपूर्वक भगवान के ध्यान का प्रयास करना चाहिए। जिससे चेतो दर्पण मार्जनं होगा।
चेतना के दर्पण का मार्जन / सफाई होगी और भगवान आपके भक्ति भाव को देखकर ददामि बुध्दियोगं बुद्धि देंगे/ दिमाग देंगे/ विचार देंगे। उच्च विचार, या सेवा भाव उत्पन्न होगा और वैष्णव सेवा के विचार मन में उठेंगें। दया भाव उत्पन्न होगा, जीवे दया तो फिर जप के उपरांत आप वही कार्यों में जो अपराध से मुक्त हैं, उस कार्यों में आप लगे रहोगे।
इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि जप से पहले या अपराधों से बचने का हर प्रयास करना चाहिए और जप के समय पूरा ध्यानपूर्वक जप करने का प्रयास होना चाहिए।
प्रश्न :चित्त और मन में क्या फर्क है ?
चित्त तो चेतना से संबंध रखता है। इस चित्त को चेतना भी कहा है। चित्त को हृदय भी कहते हैं।इस चित्त को अंतःकरण भी कहते हैं। गोपियां भी कहती हैं कि प्रभु! (वैसे तो गोपियों को प्रार्थना नही करनी पड़ती।) आप चित्त चोर हैं।
पहले तो आपने वस्त्रों की चोरी की। (बाद में वस्त्र लौटा दिए) वो वस्त्र पहन कर अपने घर की ओर तो जा रही हैं लेकिन वो अनुभव करती हैं। कृष्ण ने पहले तो वस्त्रों की चोरी की, अब हमारा चित्त , हमारा ध्यान , हमारा मन कृष्ण की ओर दौड़ रहा है तो वह चित्त है। चेतना भी कहो, चित्तवृत्ति निरोधः चित्त में बहुत सारी वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उसका निरोध करना, हम जप के समय निरोध करते हैं। चित्तवृत्ति में निरोधः। (मैं थोड़ा वेदाबेस में देख रहा था।) समाधिस्थ मतलब चित्त में स्थिर। कृष्ण भावना में स्थिर । चित्त गुहा, हृदय को गुफा कहा है। किसकी गुफा ? इस गुफा में कौन रहता है ? चित्त रहता है।
चित्त वृति चित्त हरि चित्त प्रसन्नचित:। गौरांग के भक्त चित्त प्रसन्। उनका चित्त प्रसन्न होता है या फिर चित्त प्रसन्न।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १८.५४)
अर्थ: इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है। वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है। उस अवस्था में वह कभी नहीं मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है।
कृष्ण कैसे हैं? चित्ताकर्षक होते हैं। यह चित्त है। मन तो मन है। मन, बुद्धि अंहकार। मन तो भौतिक है। मन सूक्ष्म शरीर का एक अंग है।
मनेव मनुष्याणं कारणं बंध मोक्ष्यं। ये मन ही हमारे बंधन या मुक्ति का कारण है। हमें अभ्यास करते हुए इस मन को अपना मित्र ही बनाना है। ये शत्रु के रूप में अपना कार्य करते ही रहता है।
भजो रे मन श्रीनंदनंदनं अभयचरणार्विदं रे । इस मन को प्रार्थना करते हैं कि हे मन!भज ले मन अभयचरणार्विंद को और ये अरविंद चरणार्विंद या फिर कभी कभी भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहते भी हैं कि मन को अगर सुन नहीं रहा तो उसको डांटो, पीटो, झाड़ू से मोर्निंग में, दिन में जूते से पीटो ताकि वो सही पटरी पर आ जाए।
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो- र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥
(श्रीमद्भागवतम् ९.४.१८)
महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करण में, अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में, अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने-बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे।
भगवान के चरण कमलों का ये मन स्मरण करता रहे जिससे हमारा चित्त प्रसन्न हो। भगवान फिर ऐसे चित्त की चोरी करते हैं । ऐसे चित्त में भगवान कृष्ण के विचार या कृष्णभावना जागृत होती है। इस प्रकार ये चित्त है, ये मन है। इन दोनों का संबंध भी है। हमें हर प्रयास करना चाहिए ताकि मन फेवरेबल हो। ताकि हमारा चित्त/ हमारी भावना कृष्ण कोंशियस हो कृष्ण भावनाभावित हो।
निताई गौर प्रेमानंदे
हरि हरि बोल!!
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
विषय -जपा रिट्रीट
दिनांक 26 जुलाई 2023
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। बहुत से लोगों ने तुलसी भी रखी है और तुलसी के पास बैठे हैं। धीर चैतन्य परिवार सहित तुलसी की आरती कर रहे हैं और यह बहुत ही सुंदर आईडिया है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। दर्शन कीजिए खुली आंखों से श्री राधा रास बिहारी की जय।
1973 में श्रील प्रभुपाद ने मुझे श्री राधा रास बिहारी का हेड पुजारी बनाया था।
अब आप अपनी आंखों से और कुछ नहीं देख रहे हो, भगवान का दर्शन कर रहे हो, संकीर्तन कर रहे हो और जिनको देख रहे हो जिनकी कीर्ति का यश गान कर रहे हो क्योंकि जब आप जप करते हो तो वही करते हो।
यह है हरे कृष्ण हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हुए आप आराधना करते हो उनका दर्शन कर रहे हो और उनकी आराधना कीर्तन के साथ कर रहे हो। कीर्तन के बिना की हुई आराधना अधूरी रहती है, जीव जागो । भगवान इज कॉलिंग 6:30 बज गए कब तक सोए रहोगे दिस इज वेक अप कॉल। आप किसी ने अपनी बिटिया को जगाया या घर वालों को जगा सकते हो। अच्छा है पति-पत्नी साथ में जप कर रहे हैं ऐसा ही होना चाहिए पत्नी की जिम्मेदारी है पति को मुक्त करने की और पति की vice versa एक दूसरे को मुक्त करने की जिम्मेदारी है।
गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् पिता न स स्यात्स्वजनि न सा स्यात्। दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या-न्न मोचद्यः समुपेतमृत्युम् ॥
(श्रीमद भागवतम 5.5.18)
जो व्यक्ति अपने आश्रितों को बार-बार जन्म और मृत्यु के मार्ग से नहीं बचा सकता, उसे कभी आध्यात्मिक गुरु, पिता, पति, माता या पूजनीय देवता नहीं बनना चाहिए।
यदि अपने स्वजन को मुक्त करने वाले नहीं हो तो अच्छा होगा कि आप स्वजन मत बनिए , गुरु न सस्यात गुरु भी मत बनिए यदि आप अपने शिष्यों को मुक्त करने वाले नहीं हो तो, पिता भी मत बनिए, ऐसा भी कहा गया है माता मत बनिए जननी ना सस्यात माता पिता मत बनिए। बालक बालिकाओं को जन्म मत दीजिए यदि आप उनको मुक्त करने वाले नहीं हो तो आपको उन्हें इस दुखालय संसार में नहीं लाना चाहिए। यही कर्तव्य है गुरु के साथ औरों का भी पति का पत्नी का बच्चों का मित्रों का स्वजनों का उनको मुक्त करने की जिम्मेदारी (कर्तव्य है, रियल ड्यूटी है) बाकी कर्तव्य तो रोटी कपड़ा मकान वाली यह तो पशु पक्षियों की योनियों में भी होता है कुछ स्पेशल नहीं है नथिंग स्पेशल हरि हरि
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो इन्सान और पशु में समान है । इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है ।
धर्म ही विशेष है, मानव समाज में स्वयं धार्मिक बनना, कृष्ण कॉन्शियस बनना औरों को भी कृष्ण कॉन्शियस बनाना, कृष्ण भक्त बनाना दिस इस द मेन ड्यूटी। हरे कृष्ण हरे कृष्ण याद रखिए, यही तथ्य है हम कुछ भी बढ़ा-चढ़ाकर एक अक्षर भी नहीं कह रहे हैं। यह सारी बातें भगवान ने कही है, यह सभी बातें शास्त्रों में लिखी हुई है। यह भगवान की बातें हैं, भगवान के विचार हैं शास्त्रों में, हरे कृष्ण हरे कृष्ण …. कहने का कार्य, सुनने का कार्य
बहुत कुछ कहता भी रहा हूं और कुछ कहने की आवश्यकता भी है और भी कुछ कहना चाहता हूं। इस जप रिट्रीट के अंतर्गत सुनिए और कैसे सुनना है ध्यान पूर्वक सुनिए या अपने कान खोल कर सुनिए। पता है ना आपको सुनने वाला तो आत्मा ही होता है, यह कान नहीं सुनता आत्मा ही सुनता है। आत्मा के कारण ही जब यह शरीर मरता है तब कान होते हुए भी कान सुनते नहीं, आंखें होती हैं लेकिन कुछ दिखता नहीं क्योंकि वहां आत्मा नहीं होती है। देखने वाला सुनने वाला या सूंघने वाला वहां नहीं रहा, मुझे हमारे भक्ति वेदांत हॉस्पिटल के एक डॉक्टर बता रहे थे उन्होंने कहा कि मृत्यु के समय अंतिम इंद्रिय जो कार्यरत रहता है वह होता है कान। एक समय उसको स्पर्श का अनुभव नहीं होता या किसी दृश्य का कुछ दिखाई नहीं देता, अंतिम इंद्रीय कान होता है, अच्छा है कि श्रवण करना ही महत्वपूर्ण होता है। अंतिम सांस तक ठीक है और इंद्रियां अभी काम नहीं कर रही वह मर गई लेकिन एक इंद्रिय अब भी जीवित है और वह कान होता है। हम सुन सकते हैं इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले गोविंद नाम लेकर यह प्राण तन से निकले। हम नाम दे पा रहे हैं या और भी हम सुन सकते हैं गोविंद का नाम हरे कृष्ण हरे कृष्ण तो वह कृष्ण नाम सुनके प्राण तन से निकले। वैसे क्या कहा जाए और कितना कहा जाए शरीर जब वृद्ध होता है और शिथिल होता है, विकार बन जाता है। ना तो हम तीर्थ यात्रा में जा सकते हैं ना तो विग्रह की आराधना कर सकते हैं सब धीरे-धीरे करना बंद ही हो जाता है।
एक ही कार्य अंतिम सांस तक हम कर सकते हैं वह है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहने का कार्य, हरे कृष्ण हरे कृष्ण सुनने का कार्य। हरी नाम इस प्रकार अंतिम सांस तक हमारा साथ दे सकता है, देता है इसीलिए भी यह नाम संकीर्तन, नाम जप अधिक महत्वपूर्ण है और जो आध्यात्मिक विधि विधान है उनका पालन शारीरिक रूप से संभव नहीं होता किंतु यह श्रवण कीर्तन तो व्यक्ति कर ही सकता है। उसमें से श्रवण तो बाकी सब बंद होने पर भी चलता रहता है हरि हरि।
सो थिस इज रिलायबल और जप करने वाला और सुनने वाला आत्मा ही है। इसका भी एक उदाहरण है हमारे गौड़ीय वैष्णव अब वृद्ध हुए और बीमार चल रहे थे, डॉक्टर स्टेथोस्कोप के साथ जांच पड़ताल कर रहे थे , जब उनका डायग्नोसिस चल रहा था उनको अचरज हुआ उनके स्टेथोस्कोप से उनको हरे कृष्ण हरे कृष्ण सुनाई दे रहा था, उन्होंने गौड़ीय वैष्णव महात्मा के मुख की ओर देखा, मुख बंद था तो भी डॉक्टर को महामंत्र सुनाई पड़ रहा था। वक्षस्थल पर जांच पड़ताल कर रहे थे या पीछे कर रहे थे तो महामंत्र का उच्चारण कौन कर रहा था, कौन करता होगा उनकी आत्मा पुकार रही थी, बोल रही थी, मुख में बोलने की क्षमता नहीं थी। आत्मा हरि हरि तो आत्मा तो नाच रही थी शरीर का जन्म हो रहा है ।
नाम नाचे- जीव नाचे, नाचे प्रेम धन
ऐसा श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने भी लिखा है हरि नाम चिंतामणि में , नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन तो जब नाम नाचता है तो जीव भी नाचने लगता है नाम ही भगवान है। भगवान साथ में नृत्य करते हैं, जो हम होते हैं तो हम भी नृत्य करने लगते हैं और जो प्रेम का धन है,
प्रेम की तरंगे हैं लहरे हैं वह आंदोलित हो रही है, वह भी नाच रही है। मानो नाम नाचे, भगवान नाच रहे हैं जीव नाच रहा है और आनंद का सागर भी आंदोलित हो रहा है तो लव एट द फर्स्ट साइट ऐसा अंग्रेजी में कहते हैं। पहली बार देखा और प्रेम हुआ हरि-हरि क्योंकि जीवन में ऐसा होता है लव एट फर्स्ट साइट, मेरा भी आई फॉल इन लव विद दिस होली नेम, पहली मुलाकात में 1971 का जो हरे कृष्ण फेस्टिवल क्रॉस मैदान के पास मुंबई में जो श्रील प्रभुपाद संपन्न कर रहे थे। वहां जब मैं गया जो भी देखा सुना श्रील प्रभुपाद के साथ, उनकी शिष्य मंडली जो कीर्तन कर रही थी, नृत्य कर रही थी बस दैट वाज इट पहली मुलाकात में आई वाज सोल्ड आउट उस उत्सव से मैं क्या प्राप्त करके आया टेक अवे वह यह हरि नाम था। मेरे कानों में गूंज रहा था उत्सव के उपरांत भी और दृश्य अविस्मरणीय था अनफॉरगेटेबल एक्सपीरियंस ! जब मेरे कमरे में मैं अकेला ही रहता हमारे रूममेट् नहीं रहते तो मैं कमरे के सारे खिड़की दरवाजे पर्दे बंद करके अकेला ही नाचता और कूदता यह गाते हुए, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जीव नाचे नाम नाचे नाचे प्रेम धन इसका मैं अनुभव करता रहा आगे फिर श्रील प्रभुपाद ने मुझे दीक्षा भी दी, हरि नाम दीक्षा दी, उन्होंने श्रीकृष्ण को दिया महामंत्र के रूप में और जप करने के लिए मुझसे संकल्प लिया तब से अब तक आज की तारीख तक मैं हर रोज एवरीडे इसको विदाउट फेल वगैरह जो कहते हैं आई हैव चैनटेड मिनिमम 16 राउंड एवरी सिंगल डे और इतना ही नहीं और भी क्या कहोगे इसको विशेषता या समथिंग लाइक दैट। पिछले कुछ 51 या 52 वर्षों से मैंने प्रतिदिन हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन भी और जप भी किया है और कब किया है प्रतिदिन। प्रतिदिन 365 मल्टीप्लाई 51/52 में बहुत बड़ी संख्या बनती है इतने दिन मैंने जप किया है इतने दिनों में से अधिकतर दिन हो सकता है 95 या 96% ऑफ़ द डेज मैंने प्रातः काल में जप किया है, मंगल आरती हुई और चैनटेड हरे कृष्ण महामंत्र। कुछ भक्त ऐसा सोचते हैं कि आज तो छुट्टी है, आज तो थोड़ा ट्रैवलिंग करना है ही ऐसा वैसा कर लेंगे, दिन में जप कर लेंगे। क्या हुआ होगा मैंने ऐसा नहीं किया है पहले कार्य पहले सेवा, हरिनाम प्रभु की सेवा।
महामंत्र की सेवा मैंने प्रतिदिन प्रातः काल में मैंने जप ही किया है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। और सुनिए बहुत सी बातें हैं जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश यह बात तो पूरी जानकारी नहीं है सिर्फ अंदाजा लगा कर ही मैं कह सकता हूँ कि प्रभुपाद ने यह बात मुझे ही कही जारे देखो तारे कहो हरे कृष्ण उपदेश स्टैंडर्ड की बात तो चैतन्य महाप्रभु ने ही कही थी, किंतु मुझे प्रभुपाद जब पद यात्रा का उद्घाटन कर रहे थे 1976 में मंथ ऑफ़ सेप्टेंबर 10 तारीख कृष्ण बलराम मंदिर के पीछे वृंदावन में प्रभुपाद के क्वार्टर में जब पदयात्रा का उद्घाटन हुआ तो उस उद्घाटन के अंत में हम जब प्रस्थान कर रहे थे, पदयात्रा प्रारंभ हो रही थी तो प्रभुपाद ने फाइनली कहा हे लोकनाथ स्वामी ,जारे देखो तारे कहो हरे कृष्ण उपदेश तो इस प्रकार का आदेश उपदेश प्रभुपाद ने मुझे किया, उस आदेश का पालन भी मैं कर रहा हूं तो फिर हमें क्या कहा जाए यह जप कॉन्फ्रेंस भी शुरू की जो कई वर्षों से चल रही है और उसमें अधिकतर हरे कृष्ण महामंत्र का जप करने से संबंधित ही आदेश उपदेश और प्रेरणा के वचन कहे जाते हैं आप सबका स्वागत है आप जुड़े रहिए इस जप कॉन्फ्रेंस से और फिर जप टॉक भी देते हैं, और इस तरह से ये जप चर्चा ही जप रिट्रीट बन जाती है। कल की कक्षा में प्रश्नोत्तरी होगी।
हरे कृष्ण
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जप चर्चा
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनांक 25 जुलाई
ध्यान दीजिए मन का ध्यान भगवान की ओर है या नहीं ध्यान दे दीजिए और कौन ध्यान देगा मन की ओर ? बुद्धि है बुद्धि से काम लीजिए भगवान आपको बुद्धि देते हैं, प्रयास में लगे रहते हैं कीर्तनीय सदा हरी
भगवद गीता 10.10
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
जो सतत और प्रीति पूर्वक जप करना चाहते हैं और कर रहे हैं भगवान उनको बुद्धि देते हैं, ताकि हमारा मन कृष्ण की और मुड़े। ताकि हम ध्यान कर सकें, ध्यान पूर्वक जप कर सकें
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे देखिए आप सुन रहे हैं कि नहीं यह मंत्र यह नाम –
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
थोड़ा सा ऊंचा कहिए की मन सुने आप क्या कह रहे हो हरे कृष्ण हरे कृष्ण……
अंबरीश महाराज अपना मन भगवान के चरण कमलो में स्थिर करते थे, आप भी अभ्यास कीजिए। भगवान के चरण कमल में कहो या भगवान के रूप में कहो, गुण में भी ठीक है, धाम में भी ठीक है, लीला में भी ठीक है । नाम में भी स्वागत है, धाम में भी स्वागत है। यह सारे भगवान के स्वरूप हैं- नाम स्वरूप ,लीला स्वरूप, रूप स्वरूप, गुण स्वरूप, यह सब ध्यान के विषय हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
अब हम आपको भगवान के विग्रह का दर्शन कराएंगे अपने मन को दौडाओ – एक मंदिर से दूसरे मंदिर की ओर । ऐसा मन का दौड़ना उचित है क्योंकि मन तो दौड़ता ही रहता है एक इंद्रीय विषय से दूसरे इंद्रियों के विषय की ओर। दौड़ना और जाना तो ठीक है लेकिन कहां दौड़ता है? कहां जाना है ? क्या देखने के लिए ? किसको देखने के लिए जाना है ?
नमः पंकज नाभाय नमः पंकज मालिने। नमः पंकज नेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घये।।
अनुवाद: हे भगवान, जिनके पेट पर कमल के फूल जैसा गड्ढा है, जो हमेशा कमल के फूलों की माला से सुशोभित रहते हैं, जिनकी दृष्टि कमल के समान शीतल है और जिनके पैर कमल से अंकित हैं, आपको मेरा आदरपूर्वक प्रणाम है।
ऐसी कुंती महारानी ने प्रार्थना की है… हे पद्मनाभ! हे कमल नयन ! हे पंकज !
हे पद्ममाली ! हे भगवान । हरि हरि ।
यह सैंपल प्रार्थना है, नमूना है ऐसी कई प्रार्थना हैं जो हमें सीखनी और करनी चाहिए, जप कर रहे हैं तो हम प्रार्थना कर रहे हैं । श्राव्य – दर्शय आपकी लीला मुझे सुनाइए । दर्शन दीजिए दर्शय जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे यह दर्शन यह समाधि है।
ध्यान अवस्था में दर्शन कर रहे हैं, ध्यान कर रहे हैं, योगी ऐसा ध्यान करते हैं जप योगी भी ऐसा ध्यान कर सकते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
विग्रह भगवान हैं अर्चा विग्रह भगवान का अवतार है आप जाप करते रहिए डॉन’ट नीड टू स्टॉप सुनते-सुनते जप कर सकते हैं। इनमें से कई सारे विग्रहों के हमने प्रत्यक्ष दर्शन किए हैं तो कई सारी अन्य बातें भी याद आती हैं, जब उनका दर्शन करते हैं। जैसे इस मंदिर का दर्शन वहां के भक्तों का स्मरण होता है, वह स्मरण भी माया नहीं है कृष्णभावनामृत ही है ।
ज्ञानस्याध्यात्मिकस्यापि वैराग्यस्य च फल्गुणः। स्पष्टतार्थं पुनर्निमाण अपि तद् एवेदं निराकृतं॥
(भक्ति रसामृत सिंधु 1.2.258)
जब कोई त्याग करता है कृष्ण संबंधी बातों का या विचारों का, वैराग्य फल्गु कथ्यते ऐसा वैराग्य फल्गु कहलाता है, फल्गु नहीं युक्त वैराग्य हरि हरि युक्त वैराग्य।
प्रभु कहे, – “मायावादी कृष्ण अपराधि। ‘ब्रह्म’, ‘आत्मा’ ‘चैतन्य कहे निरावधि ।।
अनुवाद: श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मायावादी निर्विशेषवादी लोग भगवान कृष्ण के महान अपराधी हैं; इसलिए वे केवल ‘ब्राह्मण,’ ‘आत्मा’ और ‘चैतन्य’ शब्दों का उच्चारण करते हैं।
चैतन्य चरितामृत (मध्य लीला -17.129)
मायावादी कृष्ण अपराधी, कितना अपराध करते हैं मायावादी, भगवान निराकार है ऐसा कहते हैं। कहते हैं कि भगवान निर्गुण हैं, कल हम कितने सारे भगवान के गुण देख रहे थे, सुन रहे थे। आज हम कितने सारे रूप देख रहे हैं।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् | परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् ||
(श्रीमद भगवद्गीता 9.11)
जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते ।
(भगवद गीता 9.11)
कृष्ण को कहना पड़ा कि वह मूढ है , मूर्ख है
वह मुझे नहीं जानते।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
और जो मेरी शरण भी नहीं लेते।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ||
श्रीमद भगवद्गीता 7.15)
नरो में अधम ऐसे लोग भगवान की शरण में नहीं आते। आप नरोत्तम बनिए । नरों में उत्तम ना की नराधम ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
मानो रास नृत्य के लिए तैयार हैं ।
बरहपीडं नटवर-वपु: कर्णयो: कर्णिकारम बिभ्रद वासा: कनक-कपिशं वैजयंती च मलम्। रंध्राण वेनोर अधारा-सुधायपुरयं गोप-वृंदैर वृन्दारण्यं स्व-पाद-रमणं प्रविषाद गीता-कीर्तिः।।
(श्रीमद भागवतम 10.21.5)
अपने सिर पर मोर-पंख का आभूषण, कानों पर नीले कर्णिका फूल, सोने के समान चमकीला पीला वस्त्र और वैजयंती माला पहने हुए, भगवान कृष्ण ने सबसे महान नर्तक के रूप में अपने दिव्य रूप का प्रदर्शन किया, जब उन्होंने वृन्दावन के जंगल में प्रवेश किया, सुशोभित किया। यह उनके पदचिन्हों के निशान के साथ। उन्होंने अपनी बांसुरी के छिद्रों को अपने होठों के रस से भर दिया और चरवाहे लड़के उनकी महिमा गाते थे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो जो दर्शन किए उसका स्मरण करते हुए जप को आगे बढ़ाइए। ऐसे दर्शनों से हमारा जप सरल होता है हम ध्यानस्थ होते हैं।
अथवा ज्ञान के लिए हमें विषय मिलता है जब कहा जाता है कि ध्यान करो तो पहला प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान करें ? क्यों ध्यान करो ? ऐसा भी कोई पूछ सकता है फिर कैसे ध्यान करें? तो ऐसे ध्यान करें, दर्शन करें मुख में नाम हाथ में काम या हाथ में काम आंखों में दर्शन यही काम है दर्शन करना भी एक क्रिया है। एक इंद्रिय की क्रिया हुई, आंखों की क्रिया, आंखों का कृत्य करते-करते मुख में नाम और आंखों में दर्शन या मुख में नाम हाथ में स्पर्श। स्पर्श भी क्रिया है यह माला का स्पर्श करते हैं ।तुलसी माला का, तुलसी का स्पर्श ! जाप भी कर रहे हैं और स्पर्श की क्रिया भी कर रहे हैं। हाथ से स्पर्श मुख से नाम। नासिका से गंध तुलसी पत्र का गंध, धूप का गंध, पुष्पों का गंध, जो पुष्प भगवान को अर्पित किए हुए हैं, उनका गंध नासिका से तो नासिका को बिजी रखो, मुख में नाम, नासिका से गंध लो इस प्रकार हम अपनी सारी इंद्रियों को …….और यह भक्ति भी है। अपनी इंद्रियों को
यथा श्री- नारद – पंचरात्रे
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् | हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिर उच्यते।।
(भक्ति रसामृत सिंधु 1.1.12)
अपनी इंद्रियों को भगवान की सेवा में लगाना यह भक्ति की परिभाषा है तो मुख में नाम, चल रहा है और साथ में हाथ से काम, हाथ से स्पर्श, नासिका से गंध, आंखों से दृश्य और जिह्वा पर भगवान नृत्य करने लगेंगे।
तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावलीलब्धये कर्णक्रोडकडम्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम् ।चेतःप्राङ्गणसंगिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्णद्वयी।।
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला-1.99)
चैतन्य-चरितामृत: आदि-लीला 4.165
आत्मेन्द्रिय-प्रीति-वांछा-तारे बलि ‘काम’।कृष्णेन्द्रिय-प्रीति-इच्छा धरे ‘प्रेम’ नाम।
अपनी इंद्रियों को संतुष्ट करने की इच्छा काम (वासना) है, लेकिन भगवान कृष्ण की इंद्रियों को प्रसन्न करने की इच्छा प्रेम (प्रेम) है।
अपनी इंद्रियों की प्रसन्नता के लिए किया गया काम या कार्य , काम कहलाता है । कामवासना वाला काम और कृष्ण केंद्रीय प्रीति धरे प्रेम नाम कृष्ण की इंद्रियों की प्रीती के लिए की गई, किया गया कार्य यह प्रेम कहलाता है ।
एक है काम तो दूसरा है प्रेम।
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जप चर्चा
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
विषय-महामंत्र जप मे निहित भाव
दिनांक – 23 जुलाई 2023
हरे कृष्ण
आप सभी का स्वागत है सुप्रभातम।
आशा है कि आपने कल शाम, आज प्रातः काल के जप के लिए पूर्व तैयारी की है और अपनी मानसिकता को भी तैयार किया है। हरि हरि। गौरांग।
यह ब्रह्म मुहूर्त की पावन बेला है और पुरुषोत्तम मास भी चल रहा हैं और आपने अपने अपने स्थान ग्रहणकर लिए हैं। कल या परसों आपको यह भी बताया गया था कि जप के लिए आपका आसन कैसा होना चाहिए।
हरि हरि।
अब जो जप रिट्रीट के अंदर जप हो रहा है, उसको आगे बढ़ाते हैं।हरि हरि। आप कैसे हो? इसका सामान्य जवाब होता है कि मैं ठीक हूं, किंतु हम भूल जाते हैं कि अभी-अभी कुछ देर पहले हमने गाया है-
संसार-दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्।प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥
(गुर्वष्टकम-1)
अनुवाद- श्रीगुरुदेव कृपासिन्धु से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं । जिस प्रकार वन में लगी दावाग्नि को शान्त करने हेतु बादल उस पर जल की वर्षा कर देता है, उसी प्रकार श्रीगुरुदेव भौतिक जगत् की धधकती अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत् का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ ॥
हम यह भूल जाते हैं कि हम इस संसार दावानल में हैं तो हम कैसे सुखी हो सकते हैं?
हा हा प्रभु नित्यानंद, प्रेमानंद सुखी कृपालोकन कोरो अमी बोरो दुखी
(श्रीगौर पद पदे प्रार्थना)
अनुवाद- मेरे प्रिय भगवान नित्यानंद, आप हमेशा आध्यात्मिक आनंद में आनंदित रहते हैं। चूँकि आप हमेशा बहुत खुश दिखते हैं, मैं आपके पास आया हूँ क्योंकि मैं सबसे ज्यादा दुखी हूँ। यदि आप कृपा करके अपनी दृष्टि मुझ पर डाल दें तो मैं भी प्रसन्न हो जाऊँ।
हम गाते हैं कि हे नित्यानंद प्रभु मैं दुखी हूं, कृपा करके मुझे सुखी कीजिए, हम इस संसार में संसार दावानल में जल रहे हैं और हम सुखी हो, यह कैसे संभव हो सकता है? हम ठीक हो ही नहीं सकते। ऐसी अवस्था में हमें भगवान की तरफ दौड़ना चाहिए। हमे भगवान से सहायता प्राप्त करने के लिए दौड़ना चाहिए, जैसा अजामिल ने किया। मेरी मदद करो मदद करो,मुझे कोई मदद नहीं मिल रही है, ऐसे भावों के साथ.. अजामिल ने कहा था… नारायण नारायण। हरि हरि।
तब नारायण के दूत विष्णु दूत वहां पहुंचे। प्रभुपाद जी कहा करते थे कि हमें बच्चें की तरह रोना चाहिए। बच्चा जब संकट में होता है या मां से बिछुड जाता है तो उसको तुरंत मां याद आती है, वह क्रंदन करने लगता है,रोने लगता है, मां को पुकारने लगता है। तो हम जप कर्ताओं को भी, यह समझते हुए जप करना चाहिए कि हम किस स्थिति में हैं, हम इस संसार दावानल में हैं, इसको भगवान ने दुखालय कहा है, तो जब हम महामंत्र को कहते हैं, पुकारते हैं, तो यह भाव होना चाहिए।
अयि नंद-तनुजा किंकरम् पतितं माम् विषमे भवाम्बुधौ।कृपया तव पद-पंकज- स्थित-धूलि-सदृशं विचिन्तय।।
(शिष्टांष्टकं)
अनुवाद- ” हे नंद तनुज (कृष्ण) !मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किंतु किसी ना किसी प्रकार से मैं जन्म मृत्यु रूपी सागर में गिर पड़ा हूं। कृपया इस विषम मृत्यु सागर से मेरा उद्धार करके, मुझे अपने चरणकमलों कि धूली का कण बना लीजिए”।
हमारे जप के द्वारा यह भाव व्यक्त होने चाहिए और यहां हमारी मां-हमारे बाप, भगवान नाम के रूप में हमारे समक्ष अवतार लेते हैं। हरि हरि।
हम भगवान से कहते हैं कि हम इस विषम संसार में फंसे हैं, कृपया मुझे उठाइए और अपने चरणों की दासी बनाईये। इस महामंत्र के कई सारे भाष्य भी हैं, भावार्थ भी हैं। आज की जप चर्चा के समय उनको भी प्रस्तुत करेंगे।जैसा की कल बताया गया था आज हम इस जप रिट्रीट को 8:30 तक भी खींच सकते हैं, तो क्या आज आप तैयार हो?
आज के लिए यह भी प्रस्ताव है कि आज हम 25 माला करने का प्रयास करेंगे, देखते हैं कितना समय लगता है क्योंकि बीच में जप चर्चा भी है। आप इस जप रिट्रीट सेशन के समय 25 माला करने का संकल्प ले सकते हो और चाहे तो दिन में और अधिक जप कर सकते हो। जब जप रिट्रीट चलती है तो अधिक से अधिक जप किया जाता है। एक दिन 16 माला..दूसरे दिन 25 माला.. उससे अगले दिन 32 माला.. ऐसा करके बढ़ाते रहते हैं।हमारी भी यह जप रिट्रीट हो रही है, तो आज हम कम से कम 25 माला इसी सेटिंग में करेंगें। जैसे अभी आप आसनस्थ हुए हो और अभी ध्यानस्थ भी होने वाले हो, ध्यान करने वाले हो, ध्यान पूर्वक जाप करने वाले हो। जप के बीच में मैं कुछ-कुछ कहता भी रहूंगा और फिर जप भी करते रहना है, यह आपका प्रातः काल का संकल्प है। कल आपको यह भी संकल्प लेने के लिए कहा था कि आपको देखना है कि आपको जप में कौन-कौन से सुधार करने हैं, आप जप मैं कौन-कौन से सुधार कर सकते हो? हर जापक उसका स्मरण करते हुए भी इस संकल्प को पूरा करे। पूरे शक्ति सामर्थ या युक्ति का भी उपयोग करते हुए भगवान के नाम का स्मरण करें, जप करें, हरि नाम का स्पष्ट उच्चारण होना चाहिए.. जिव्हा में कंपन होनी चाहिए, होठ हिलने चाहिए। श्रवण होना चाहिए और फिर श्रवण से, कीर्तनम और विष्णु स्मरणं होना चाहिए।
(एसबी 7.5.23-24)
श्रीप्रह्लाद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णुः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसरपिता विष्णुउ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा। क्रियायेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥
अनुवाद-, प्रहलाद महाराज ने कहा-भगवान विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान के चरण कमलो की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात् मनसा,वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना)- शुद्ध भक्ति कि ये 9 विधियां स्वीकार की गई हैं, जिस किसी ने इन नो विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
विष्णु का स्मरण और ध्यान होना चाहिए। आज आपने 1900 लोकेशन से जॉइन किया है, आप सभी का पुनः पुनः स्वागत है। हम इस संख्या से प्रसन्न हैं।
(यहाँ से जप शुरू होता है)
जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद। श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। ….
माया को पार करना कठिन तो है, ऐसा स्वयं कृष्ण ने कहा है कि मेरी माया बड़ी जबरदस्त है, मेरी माया बड़ी बलवान है और क्यों नहीं होगी, भगवान स्वयं बलवान हैं तो भगवान की माया तो बलवान होनी ही चाहिए।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ (भगवद्गीता 7.14)
अनुवाद- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किंतु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं वह सरलता से इसे पार कर जाते हैं।
इतना कह कर तुरंत भगवान ने कहा है कि मेरी माया तो बड़ी ही बलवान है, इसको पार करना कठिन तो है, किंतु तुरंत भगवान ने फिर कहा “मामेव ये प्रपद्यन्ते माया मेतां तरन्ति ते”। यदि कोई व्यक्ति मेरी शरण में आता है तो वह माया से तर जाएगा।
हरि हरि।
हम जब जप करते हैं, तब हम नाम का आश्रय लेते हैं और क्योंकि नाम ही भगवान है, हम भगवान का आश्रय लेते हैं। यह समय भगवान का आश्रय लेने का समय है तो भगवान का आश्रय लीजिए और ऐसा आश्रय लेने वाले को महात्मा कहा गया है।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता: |भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ||
(भगवद्गीता 9.13)
अनुवाद-हे पार्थ, मोह मुक्त महात्मा जन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णत: भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान के रूप में जानते हैं।
रबर स्टैंप महात्मा नहीं, वास्तविक महात्मा वह है जिसने दैवी प्रकृति का आश्रय लिया है, वह दैवी प्रकृति राधा रानी है। महाभावा ठकुरानी राधा रानी का आश्रय लेना मतलब महात्मा होना है। हमें राधा रानी की शरण में जाना है और जब हम
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कह रहे हैं तो हम राधा रानी के शरण में ही जा रहे हैं। हरि हरि।
तो राधा को पुकारिए, कृष्ण को पुकारिए, आश्रय लीजिए और इस संसार के पार पहुंच जाइए।यहीं पर, इसी समय चिंता छोड़िए और चिंतन कीजिए। यह चिंतन का समय है चिंतन करते ही आप चिंता मुक्त हो जाओगे। हरि हरि। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कृष्ण को पुकारिए। मैं भी बीच-बीच में कुछ-कुछ कहता रहता हूं, उसको भी सुनना है। यह जप रिट्रीट हो रही है और यह सभी के लिए कहा जा रहा है, तो आप सब भी अपने स्क्रीन ऑन और ऑडियो ऑन रखिए, ताकि कुछ आदान-प्रदान संभव हो। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे…
कृष्ण-प्राप्ति होय जाहां हैते (श्री गुरु वंदना-(प्रेम-भक्ति-चंद्रिका से)
अनुवाद- श्री गुरु की कृपा से जीव भौतिक कलेशों के महासागर को पार कर सकता है तथा कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है।
तो उत्साह के साथ, निश्चय के साथ, धैर्य के साथ, जप कीजिए।मैं जब कुछ बोलता हूं तो आपको जप रोकने की आवश्यकता नहीं है, मुझे भी सुनते रहिए और जप भी करते रहिए या हल्का सा बीच में कुछ लिखते भी रहिए, आपके अंतकरण में एक स्मृति पटल भी है, वहां पर भी आप लिख सकते हो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आज 25 माला करनी है
राधा आपसे कह सकती है कि मुझे पुकार तो रहे हो लेकिन क्या कहना चाहते हो? आपका क्या विचार है? क्या चाहते हो मुझसे?कहो तो सही। तो इस भाष्य में लिखा गया है कि भगवान से क्या कहना चाहते हैं, हमारी क्या प्रार्थना है, रो रो कर हम कुछ कह रहे हैं। यह जप करना ही रोना है। क्या कह रहे हो? कहो तो सही। तो गोपाल गुरु गोस्वामी हमको सिखा रहे हैं कि क्या कहना चाहिए। क्या विचार होना चाहिए? हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे.. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे..जप करते रहिए। जप करते हुए आप इस महामंत्र का दर्शन कर सकते हैं, महामंत्र दर्शनीय है।
“हरे”-
हरे: मच्चित्तं ह्त्वा भवबन्धनान्मोचय।।
अनुवाद-हे हरे! मेरे चित्त को हर कर मुझे भव बंधन से विमुक्त कर दीजिए।
यह भाव है, यह संस्कृत में लिखा गया है इसका हिंदी में अनुवाद भी लिखा गया है। आप कृष्ण नाम का दर्शन भी कर सकते हैं हरे कृष्ण कहा तो
“कृष्ण ”
कृष्ण : मच्चित्तमाकर्ष।।
अनुवाद-हे कृष्ण ! मेरे चंचल चित को अपनी ओर आकर्षित कर लीजिए।
जब हम कृष्ण कहते हैं तो हमारे मन में ऐसे विचार उठने चाहिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जप करते रहिए। तीसरा नाम हरे है।
हरे-
हरे: स्वमाधुर्येण मच्चित्तं हर।।
अनुवाद-हे हरे! अपने स्वाभाविक माधुर्य से मेरा चित्त हर लीजिए
हे राधे! तुम माधुर्य की मूर्ति हो, उसी माधुर्य से मेरे चित्त को हर लीजिए इसलिए तुम्हें हरा कहा जाता है। क्योंकि तुम चित्त को हर लेती हो, जो हरती है, उनको हरे कहते हैं। वह क्या करती है, वह चित्त को हरती है। हे राधे, कृपया मेरे चित्त की चोरी करें।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे..हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे..
चौथा नाम कृष्ण है-
“कृष्ण”-
कृष्ण: स्वभक्तद्वारा भजनज्ञकृषनेन मच्चित्तं शोधय
अनुवाद-हे कृष्ण!भक्तितत्ववेत्ता अपने भक्त के द्वारा अपने भजन का ज्ञान देकर मेरे चित्त को शुद्ध बनाईए।
यह सब कहना होता है। ऐसा विचार गोपाल गुरु गोस्वामी का है और केवल इतना ही नहीं और भी बहुत अधिक सोच है और भी विचार हो सकते हैं, किंतु यह केवल एक गाइडलाइन है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे.. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे..
हे कृष्ण…….
मुझे अपने भक्तों का संग प्रदान करें, ताकि वह भक्त मुझे भजन के संबंधित ज्ञान का दान दें। मेरा मार्गदर्शन करें, ताकि मेरे चित्त का शुद्धिकरण हो।
चेतो दर्पण मार्जनं कैसे होगा?आपके भक्त का संग करके,वह भक्त मुझे ज्ञान का दान करेंगे
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥ (शिष्टांष्टकं-1)
अनुवाद:-
श्री कृष्ण संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारंबार जन्म मृत्यु रूपी महा दावानल को शांत करने वाला है यह संकीर्तन यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगल रूपी चंद्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृतिक विद्या रूपी वधू का यही जीवन हैं। यह आनंद के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्री कृष्ण नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन करता हैं।
आगे बढ़ते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे..
जैसे यहां साधु संत शिरोमणि उदाहरण दे रहे हैं, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज ने अभय चरण को दान दिया।
अब जो आगे का “कृष्ण” है
“कृष्ण”-
कृष्ण नामरूपगुणलीलादिषु मन्निष्ठां कुरू
अनुवाद:- हे कृष्ण! अपने नाम, रूप ,गुण, लीला आदि में मेरी निष्ठा उत्पन्न करा दीजिए।
यह कौन सा कृष्ण है? हरे कृष्ण महामंत्र में यह पांचवा है। मेरी आपके नाम, रूप, गुण ,लीलाओं में निष्ठा हो और आदिषु अर्थात और भी हैं.. धाम हैं, परिकर भी होने चाहिए, इन सभी में मेरी निष्ठा हों।हमारी कृष्ण से ऐसी प्रार्थना है, जब हम कृष्ण कहते हैं, वह कृष्ण पांचवा नाम है।
अगला नाम का उच्चारण है, कृष्ण
“कृष्ण”-
“कृष्ण : रूचिभवतु मे”
अनुवाद:- हे कृष्ण! आपके नाम रूप गुण लीला आदि में मेरी रूचि उत्पन्न हो जाए।
कृष्ण से ऐसी प्रार्थना है कि आपके नाम, रूप, गुण लीला में मेरी रुचि उत्पन्न हो जाए, श्रद्धा के जो सोपान है, उसमें जो रुचि है, मुझे वह रुचि प्राप्त हो जाए।
कह तो हम कृष्ण रहे हैं, किंतु मन में हमारे यह विचार है, कृष्ण से प्रार्थना है कि आपके प्रति मेरी रुचि उत्पन्न हो जाए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे.. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
सातवां हैं.. आगे का हरे
“हरे”-
हरे : निजसेवायोग्यं मां कुरू
अनुवाद:- हे हरे! मुझे आप अपनी सेवा के योग्य बना लीजिए।
मुझे अपनी सेवा के योग्य बना दो, पात्र बना दो, लायक बना दो। मुझे सेवा दो और मुझसे सेवा करवाओ। मुझे शक्ति, बुद्धि दो। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे.. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे…
जब हम “हरे” कहेंगे
“हरे”-
हरे: स्वसेवामादेशय
अनुवाद-हे हरे! मुझे आप अपनी सेवा के योग्य बनाकर अपनी सेवा का आदेश दीजिए।
पहले तो प्रार्थना थी, कि मुझे सेवा योग्य बना दो और यहां जब हमने हरे कहा तो यहां प्रार्थना है, कि मुझे आदेश दीजिए, मुझे सेवा के लिए योग्य तो बना दिया, किंतु अब मुझे सेवा दीजिए, आदेश दीजिए। इतना जब हम कहते हैं,जब हमने हरे कहा तो
यह नाम और यह शब्द निर्जीव नहीं है। यह सजीव है, यह सच्चिदानंद है, यह शब्द, यह नाम, यह नाम भगवान है।
और अब हैं नोंवा हरे
“हरे”
हरे: स्वप्रेष्ठेन सह स्वाभीष्टलीलां मां श्रावय
अनुवाद :-
हे हरे!अपने प्रियतम के सहित की गई अपनी अभीष्ट लीलाओं का मुझे श्रवण कराईये।
तुम तुम्हारे कृष्ण के साथ जो अपनी मनपसंद लीलाओं को खेलती हो, मुझे उन लीलाओ को सुनाओं। मैं वह लीला सुनना चाहता हूं, मुझे सुनाओं या फिर वह लीला हम भक्तों से भी सुन सकते हैं। राधा रानी की ओर से भक्त हमें सुनाएगें, साधु शास्त्र हमें सुनाएगें, ऐसा निवेदन है कि अपनी स्वाभीष्टलीला मुझे सुनाईए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे.. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे..
अब जब हम राम कहेंगे
“राम”
रामकृष्ण का ही नाम है।
य: रमति स: राम:
राम: प्रेष्ठया सह स्वाभीष्टलीलां मां श्रावय
अनुवाद:- हे राम! हे राधिका रमण , आप अपनी प्रियतमा श्री राधिका के सहित की गई अपनी अभीष्ट लीलाओं का मुझे श्रवण कराइए।
यह राम से प्रार्थना है। पहले राधा से प्रार्थना की और अब राम से, कृष्ण से प्रार्थना है, आपकी प्रेष्ठा राधा रानी है और गोपियां भी हैं और भी कुछ प्रेष्ठ हैं और कुछ प्रेष्ठाएं हैं, उनके साथ जो आपकी लीलाएं संपन्न होती हैं, वह लीला मुझे सुनाईएं। मुझे सुनाईए, मैं सुनना चाहता हूं, जब हम हरे राम कहते हैं तो ऐसी प्रार्थना करते हैं। हरे- राधा को प्रार्थना और राम-कृष्ण को प्रार्थना
और आगे का हरे नाम है, यह राधा का नाम है, जब हम राधा को संबोधित करते हैं तो आप क्या कह रहे हैं-
“हरे”
हरे: स्वप्रेष्ठेन सह स्वाभीष्टलीलां मां दर्शय
अनुवाद:- हे हरे! श्री राधिके!आप अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ अपनी अभीष्ट लीलाओं का दर्शन कराइए!
पहले दोनों को ही राधा को और कृष्ण को हमने कहा था, आपकी लीला, राधा के साथ आपकी लीला, हे राधे आपकी कृष्ण के साथ की लीला को सुनाइए, किंतु यहां निवेदन क्या है, वह लीला मुझे दिखाइए। लीला का मुझे दर्शन कराइए, तो पहले श्रवण, फिर दर्शन। श्रवण से ही दर्शन होता है, यही विधि है। दर्शन की विधि श्रवण है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे.. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
अब जब हमने आगे का राम कहा
“राम”
जप करते-करते हम राम तक पहुंच गए हैं
जो कि कृष्ण ही हैं
राम: प्रेष्ठया सह स्वाभीष्टलीलां मां दर्शय
अनुवाद:- हे राम! हे राधिका रमण! आप अपनी प्रियतमा के साथ अपनी अभिष्ट लीलाओं के दर्शन कराईए।
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे ।
यह ऐसी ही प्रार्थना है, मेरे मन में आपके दर्शन की लालसा और उत्कंठा है। दर्शन लौलयम का फल होता है, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे..
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे..
और फिर आगे का राम
“राम”
राम: नामरूपगुणलीलास्मरणादिषु मां योजय
अनुवाद:- हे राम, अर्थात अंतरंग भक्तों के साथ क्रीड़ा करने वाले कृष्ण.. आप मुझे कृपया अपने नाम, रूप ,गुण, लीला आदि के स्मरण में लगा दीजिए।
पहले कह रहे थे कि मुझे सुनाईए फिर प्रार्थना थी कि मुझे दिखाइए, दर्शन दीजिए और यहां अब राम से कृष्ण से कह रहे हैं कि कृपया मुझे इन लीलाओं का सदैव स्मरण रहे, ऐसा कुछ करिए। जिन लीलाओं का मैंने श्रवण किया, उनका दर्शन भी हुआ वह सदैव मेरे मन में, वह स्मरण निरंतर मेरे मन में होता रहे। हे राम, ऐसा कुछ कीजिए ।यह मनन भी है, यह चिंतन भी है।
“राम”
राम: तत्र मां निजसेवायोग्यं कुरू
अनुवाद:- हरे राम, अर्थात अंतरंग भक्तों को सुख देने वाले श्याम अपनी लीलाओ में मुझे अपनी सेवा के योग्य बना लीजिए।
या दूसरे शब्दों में मैं जब नित्य प्रविष्ट हो जाऊंगा
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
(भगवतगीता 4.9)
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
आप मुझे अपने धाम बुलाईए और मुझे मेरे योग्य सेवा दीजिए, मुझे आपकी सेवा के योग्य बना दो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
“हरे”-
जब आगे का हरे हम कहेंगे
हरे मां स्वाङीकृत्य रमस्व
अनुवाद-हे हरे अपने एक दास के रूप में मुझे स्वीकार करें, जैसा आप चाहें, उस प्रकार मुझसे आनंद उठाइए।
यह राधा भाव में या गोपी भाव में प्रार्थना है, मेरा अंगीकार करो, मुझे स्वीकार करो। मुझे स्वीकार करो मेरे साथ रमिए, आप तो औरों के साथ रमते ही रहते हो जैसे राधा रमण, मुझे भक्त बनाईए और हे प्रभु, मेरे साथ रमिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
अब इस महामंत्र का अंतिम नाम है, हरे
“हरे”
हरे: मया सह रमस्व
अनुवाद-हे हरे! कृपया मेरे साथ विशुद्ध क्रीडा कीजिए, आपके श्री चरणों में मेरी यही प्रार्थना है।
यह और भी ऊंची बात है। मैं आपके साथ रमू आप मेरे साथ रमिए।
मुझे आपके सानिध्य में, आपके संग में रमाईये। आपके श्री चरणों में मेरी यही प्रार्थना है, आप मेरे साथ विशुद्ध क्रीडा कीजिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
भागवत में अपने एक तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद ने लिखा है कि
जो हम यज्ञ संपन्न करके प्राप्त नहीं कर सकते या और कई सारे विधि विधानों से जिसको हम प्राप्त नहीं कर सकते, वह हम हरे कृष्ण महामंत्र के नाम जप से प्राप्त कर सकते हैं।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
अनुवाद-“कलह और पाखंड के इस युग में मुक्ति का एकमात्र साधन भगवान के पवित्र नामों का जाप है और कोई रास्ता नहीं। और कोई रास्ता नहीं। और कोई रास्ता नहीं।’ ”
क्या आप सबने देखा और सुना? अपने जप को सुधारिए। यह गोपाल गुरु गोस्वामी जी का भाषण अगर आपके जप को नहीं सुधार सकता तो फिर क्या सुधारेगा? फिर तो आपका और कुछ नहीं किया जा सकता। मुझे पूरा यकीन है कि केवल सुधार ही नहीं बल्कि इससे तो आपके जप में क्रांति होगी और क्रांति होनी ही चाहिए, परिवर्तन होना चाहिए। आपका जो जप के प्रति दृष्टिकोण था, वह बदलना चाहिए और ऐसी आशा और प्रार्थना भी है कि आप इससे लाभान्वित हुए होंगे और आप इसका पूरा लाभ उठाओगे और गोपाल गुरु गोस्वामी ने यह जो भाव व्यक्त किया है, उनसे प्रभावित होकर आप भी अधिक ध्यान पूर्वक, अधिक प्रेम पूर्वक और उत्साह के साथ जप करते रहोगे। आप मुझसे कहना चाहते होंगें कि बातें कम करो और जप अधिक करो। अब मैं आपसे अधिक बात नहीं करूंगा, क्योंकि हमें 25 माला का जप भी पूरा करना है। अभी-अभी हमने जो भी देखा, सुना उन बातों का स्मरण करते हुए अपने जप को आगे बढाइए और 25 माला का संकल्प जब तक पूरा नहीं होता तब तक हिलना डुलना नहीं है।
गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनांक 22 जुलाई 2023
हरे कृष्ण!!!
हमनें अभी शिक्षाष्टकं का भी पाठ किया और हमनें दस नाम अपराध भी सुने। अष्टांगयोग शास्त्र की भाषा में इन्हें यम और नियम कहा जाता है। दस नाम अपराध यम है। (अपराध करोगे तो यमदूत आएंगे। ऐसे भी आप याद रख सकते हो कि यम किसको कहा जाता है।) कभी-कभी विभ्रांति हो जाती है कि यम कौन सा है, नियम कौन सा है। अपराध अथवा पाप यह सब यम के अंतर्गत आते हैं अर्थात ऐसा ना करें, यह यम कहलाता है। शिक्षाष्टकम् हमारे मन को जप करने के लिए तैयार करता है। यम, नियम, तत्पश्चात आसन होता है, आप जप के समय पद्मासन में बैठ सकते हो, आप सुखासन में बैठे सकते हो। सुख, आसन जैसा कि भोजन के समय भारतीय पद्धति और शैली के अनुसार भोजन के लिए बैठते हैं, वह बैठना भी सुखासन कहलाता है। सुखासन भी आसन का ही अंग होता है, हम मंदिर में बैठे हैं या घर में, घर भी एक मंदिर है। हमनें घर को ही मंदिर बनाया है और उस मंदिर में सुखासन में बैठकर या भक्तों के संग में सुखासन में बैठकर हम जप करते हैं। वैसे जब आसन की बात होती है तो एक स्थान और काल का विचार होता है। प्रातः काल या ब्रह्म मुहूर्त में सबसे बेस्ट आसन होता है। याद रखिए, आसन मतलब स्थान, आसन मतलब काल या समय, दोनों उचित है। ब्रह्म मुहूर्त चल रहा है, यह दिन का सर्वोत्तम समय है।( बेस्ट टाइम ऑफ द डे) यह काल अवधि सतोगुण से भरपूर होती है। यह गुड मॉर्निंग/ सुप्रभातम कहने का भी समय होता है, आपकी प्रातः शुभ हो। यम, नियम, आसन, प्राणायाम। हम प्राणायाम तो… वैसे आसन भी कई प्रकार के हैं। यह पतंजलि की अष्टांग योग पद्धति है या अन्य शास्त्रों में भी अष्टांग का वर्णन आता है। उसमें अष्टांग अर्थात आठ अंग होते हैं इसलिए इसको अष्ट अंग कहते हैं। यम एक अंग, नियम दूसरा अंग, आसन तीसरा अंग और प्राणायाम चौथ अंग। प्राणायाम के अंतर्गत हम आराम से रहते हैं। श्रील प्रभुपाद ने एक समय मुझे कहा था कि जिव्हा में कंपन होना चाहिए। जिव्हा से कहना है, होंठ हिलने चाहिए। हम जब महामंत्र का उच्चारण करते हैं, जिव्हा में कंपन होना चाहिए और हमें उसका श्रवण करना चाहिए। कुछ भक्त ऐसा भी समझाते हैं कि एक सांस में दो या तीन या चार महामंत्रों का उच्चारण कर सकते हैं। यथासंभव, यथाशक्ति, तत्पश्चात उसको सुनना है। हमारे लिए यही प्राणायाम है। प्राणायाम की साइकिल(चक्र) है। एक तो मानसिक जप नहीं करना है, श्वास, उश्वास होगा। उससे उच्चरित महामंत्र को सुनना है, श्रवण करना है फिर यह चक्र पूर्ण हुआ।
श्रवणं कीर्तनं फिर होना है स्मरणं।
यह श्वास, उश्वास, उच्चारण, श्रवण, कीर्तन मंद भी नहीं होना चाहिए। कुछ भक्त निद्रालू अर्थात निद्रा की अवस्था में जप करते हैं, तब बहुत देरी लगती है। एक-एक महामंत्र या एक माला का जप करने के समय हम और कुछ न् कुछ सोचते ही रहते हैं।
इसलिए एक-एक माला पूर्ण करने में कभी 10 मिनट या 15 मिनट भी लग जाते हैं। कुछ तो फटाफट इतना जल्दी-जल्दी करते हैं कि कुछ ही मिनट में एक के बाद एक माला हो जाती है। हमें ज्यादा जल्दी और ज्यादा धीरे जप करने को टालना है। ५ मिनट और १०मिनट के बीच का समय सही है। वैसे तो औसत समय 7:30 मिनट का बताया जाता है। ऐसा अनुभव है लेकिन 7:30 मिनट से थोड़ा अधिक समय भी किसी को लग सकता है या किसी का थोड़ा पहले पूरा हो सकता है। यह भी थोड़ी नियमावली कहो या सलाह कहो, यह भी प्राणायाम के अंतर्गत होगा। फिर पांचवा अंग है, प्रत्याहार। यम, नियम, आसन प्राणायाम, प्रत्याहार। यह पांच अंग, इसको बाह्य अंग कहते हैं। एक्सटर्नल फीचर्स या अंग, यह प्रत्याहार बड़ा ही महत्वपूर्ण अंग है। इस पर सभी प्रकार के योगियों को और विशेषकर जप योगियों को बहुत कार्यवाही करनी होती है। जप योगियों को भी अष्टांग योग की विधि विधानों में चितवृत्ति निरोधों का पालन करना होता है, चितवृत्ति निरोध बहुत ही महत्वपूर्ण वचन है। यह विधि चितवृत्ति निरोध है। हमारे चित्त में जो वृत्ति या विचार उत्पन्न होते हैं, उनका निरोध करें अर्थात जो नकारात्मक वृत्तियां जो पाप की वासना या पाप की वृत्ति या इसको हमने यम कहा, इस प्रकार की वृत्ति या इस प्रकार के विचार (इस प्रकार की प्रेरणा के विचार) कि यह करो, वह करो, मन फिर उनकी ओर दौड़ रहा है। चित्त में जो ऐसी वृत्तियां उत्पन्न होती हैं। उनका निरोध/ दमन करना है। उसका निग्रह करना है, यह बहुत महत्वपूर्ण अंग है। आगे ध्यान, धारणा, समाधि यह तीन अंग बच गए। ध्यान पूर्वक जप करो, हमारा लक्ष्य है ध्यान पूर्वक जप करने का। ध्यान पूर्वक जप कैसे करें? इन पांचो अंगों की ओर ध्यान दें।
या तैयारी करें तत्पश्चात ध्यान होगा। यह प्रत्याहार बहुत बड़ा महत्वपूर्ण अंग है। हम फेल या सफल होते हैं, हम यशस्वी या काम से जाते हैं, यह प्रत्याहार पर निर्भर करता है। अन्य भी जो अंग हैं यम नियम आदि लेकिन प्रत्याहार का जो अंग/ सोपान/ स्टेप है या कहो यहां से द्वार खुलने वाला है। यहां से हमें ध्यान की ओर आगे बढ़ना है, यह प्रत्याहार है। प्रत्याहार मतलब प्रति आहार, आहार के विरोध में कुछ कार्यवाही करनी है, मन को हम फीडिंग करते रहते हैं, हम विषयों का ध्यान करते हैं। मन से विषयों का ध्यान करते हैं। वैसे संसार का हर व्यक्ति ध्यानी होता है, ध्यान करता है। आप केवल साधक भक्त ही ध्यान नहीं करते अपितु संसार का हर व्यक्ति, हर आदमी ध्यान करता है। इस विषय पर कृष्ण भगवदगीता में कहते हैं
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषुपजायते | संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते
( भगवतगीता २.६२)
अर्थ:- इंद्रियों के विषयों पर चिंतन करते समय, व्यक्ति उनके प्रति आसक्ति विकसित करता है। आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है।
पुंस: मतलब लोभ, लोभ हर प्रकार के लोभ। भुक्ति कामी सिद्धि कामी.. और सभी कामी कामी जिनको हम कर्मी कहते हैं, वे सभी ध्यान करते हैं। ध्यानस्थ होते हैं।
(वे किसका ध्यान करते हैं?) ध्यायतो विषयान्पुंस: वे विषयों का ध्यान करते हैं। हमारे शरीर में भगवान ने पांच इंद्रियों को… शास्त्र है। हरि! हरि!
यह पूरा का पूरा कहने का समय नहीं है। यह प्रवचन का समय नहीं है, हमें जप भी करना है किंतु (हरि! हरि!) हमारा मन विषयों की ओर दौड़ता है, फिर उनका ध्यान करता है। ध्यायतो विषयान्पुंस: इसको रोकना है। इसको प्रत्याहार कहते हैं।
यतो यतो निश्चलति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥( भगवतगीता ६.२६)
अर्थ:- जब और जहाँ भी मन बेचैन और अस्थिर होकर भटकने लगे तब उसे वापस लाकर स्थिर करते हुए भगवान की ओर केन्द्रित करना चाहिए।
वैसे भगवान भी भगवत गीता के छठवें अध्याय में अष्टांग योग के विषय में कहते हैं। प्रत्याहार मतलब क्या? मन जहां जहां दौड़ता है। (मन कहां-कहां दौड़ता है? विषयों की ओर दौड़ता है।) जप करते समय भी दौड़ेगा, जरूर दौड़ेगा क्योंकि हमनें उसको पहले दौड़ने दिया था। उसकी आदत ही पड़ी हुई है। यह सेकंड नेचर या नेचर आफ माइंड है अर्थात यह मन की प्रकृति है।मन और इंद्रियों के विषय का स्वाभाविक संबंध है। भौतिक दृष्टि से इनका स्वाभाविक संबंध है। इंद्रियों के विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह पांच विषय हैं। पांच इंद्रियां हैं तो पांच विषय भी हैं, हर इंद्रिय का एक-एक विषय है। इस जप की साधना में प्रत्याहार पर उसको ध्यान केंद्रित करना होता है। जप के समय यही होमवर्क होता है, प्रत्याहार मतलब मन जहां-जहां दौड़ता है उसे वापस खींच कर ध्यायतो विषयान्पुंस: अर्थात विषयों में ध्यान लगाने की बजाय, विषयों की ओर मन को दौड़ने देने की बजाय, मन को भगवान की ओर दौड़ाना है।
वैसे शरीर में पांच इंद्रियां हैं किंतु आत्मा की भी तो इंद्रिय है लेकिन वह इंद्रियां दूषित है।
अत: श्री- कृष्ण -नामादि न भवेद् ग्राह्यं इन्द्रियैः | सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयं एव स्फुरति अद:।।
(भक्तिरसामृत सिंधु १.२.२३४)
अनुवाद:- कृष्ण और उनके पवित्र नामों को भौतिक इंद्रियों द्वारा नहीं समझा जा सकता है, लेकिन जब कोई व्यक्ति भगवान के पवित्र नाम और दिव्य रूप को स्वीकार करने की प्रवृत्ति विकसित करता है, तो कृष्ण अनायास ही जीभ और अन्य इंद्रियों में प्रकट होते हैं। ”
ऐसा एक सिद्धांत है या नियम है। हमारी जो शरीर में अभी इंद्रिय है, वह कलुषित हैं, दूषित हैं। उनकी मदद से हम भगवान का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम इसका अनुभव हम नहीं कर सकते या इन इंद्रियों से इसका ध्यान हम नहीं कर सकते। (हमें क्या करना है)
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयं एव स्फुरति अद:। फिर वही सिद्धांत आगे कहता है। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ, आप जिह्वा से भगवान की सेवा प्रारंभ करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
(आप क्या करो।) वहां चल रहा था ध्यायतो विषयान्पुंस:। प्रत्याहार अंग के अंतर्गत विषयों का ध्यान मत करो। वहां से मन को वापस ले आओ और भगवान में लगा दो, यही ध्यान है। भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम में धाम की ओर उस मन को दौड़ाओ। वहां आगे कृष्ण कहते हैं।
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषुपजायते |संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
हम इंद्रियों के मनोरंजन या इंद्रिय तृप्ति के कार्यों में लगे रहते हैं। उसी इसका ध्यान करते हैं।विषयान्पुंस: और हम आसक्त हो जाते हैं। हमें उससे आसक्ति हो जाती है। इस आसक्ति के फलस्वरूप काम उत्पन्न होता है, कामवासना उत्पन्न होती है, कामवासना प्रबल होती है।
इंद्रियां जल रही है, वे कुछ खाना पीना चाहती हैं। हमें फिर उसमें आहुति चढ़ानी पड़ती है। हम इंद्रियों को खिलाते पिलाते रहते हैं क्योंकि कामवासना उदित होती है। विषयों का ध्यान करने से काम उत्पन्न होता है।
अब देखिए, यदि हम विषयों का ध्यान नहीं अपितु भगवान का ध्यान करेंगे, भगवान का स्मरण करेंगे, भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम का स्मरण करेंगे तो हम भगवान में आसक्त होने वाले हैं और संसार से अनासक्त होने वाले हैं। विषयों का ध्यान करने से काम उदित होता रहता है। जबकि यहां भगवान का ध्यान करने से प्रेम उत्पन्न होने वाला है। बिल्कुल विपरीत बात है, विषयों का ध्यान वहां काम उत्पन्न होता है अर्थात काम जागृत होता है, काम हमको नचाता है। जप का समय भगवान का ध्यान करने का समय है। ध्यानपूर्वक जप करो।
ध्यानपूर्वक जप करो। भगवान का ध्यान करो। भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम का ध्यान करो। ऐसा करने से जीव का भगवान के प्रति जो स्वाभाविक प्रेम है, वह जागृत होगा। हम कामी की बजाय प्रेमी बनेंगे। सारा संसार कामी है किंतु हमें प्रेमी बनना है।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कभु नय । श्रवणादि-शुद्ध-चित्ते करये उदय ॥
(श्रीचैतन्य-चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.१०७)
अनुवाद:- कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्त्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।
हरि! हरि!
हर जीव का भगवान से प्रेम है, आपका, भगवान से प्रेम है। आप प्रेमी भक्त हो लेकिन प्रेम को आच्छादित किया गया है, माया ने या मायावी कार्यकलापों ने ढका हुआ है। बस यह जो हरे कृष्ण महामंत्र का जप/ जप योग / जप यज्ञ अथवा जप की साधन (क्या करती है?) हमारा जो भगवान से प्रेम है, उसको जाग्रत करती है।
आशा है कि हमनें जो भी कहा आपने ध्यानपूर्वक सुना है। हमनें यह कहकर अभी पूर्व तैयारी की, जिससे हम ध्यानपूर्वक जप करने का अभ्यास करें। आपको कुछ योजना अथवा विचार मिला होगा। यह पांचों अंग, ध्यान प्रारंभ की पूर्व तैयारी है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार।
अब अगला ध्यान है, ध्यान करना है।
आगे बढ़िए, यह जो पांच अंग अथवा पांच सोपान है। इसकी मदद से या इसका उपयोग करते हुए हम ध्यान की ओर आगे बढ़ते हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द॥
अर्थ:-
मैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानंद प्रभु, श्री अद्वैताचार्य प्रभु, श्री गदाधर पंडित प्रभु तथा श्रीवास प्रभु सहित अन्योन्य सभी गौरभक्तों को प्रणाम करता हूँ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
मंत्र मेडिटेशन अर्थात मंत्र का ध्यान करना है। मन को नाम के श्रवण में लगाना है, उसको व्यस्त रखना है। ‘ कीप माइंड बिजी’ श्रवण में मन को व्यस्त रखना है, फिर नाम स्मरण होगा। नाम के श्रवण से नाम का स्मरण भी होगा, नाम भगवान है। नाम का स्मरण/ नाम स्मरण अर्थात भगवान का स्मरण। इसलिए अपने मन को खाली या रिक्त नहीं रखना है, उसको भर दो, उसको व्यस्त रखो। मन: मध्य मंत्र। मंत्र मध्य मन:। मन में मंत्र, मंत्र में मन। इसमें मन को व्यस्त रखो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
फिर ध्यानपूर्वक सुनो। हर नाम सुनो। हरे सुनो। कृष्ण सुनो।
तुलसी को रख सकते हो। तुलसी के पास जप करो। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर तुलसी महारानी के साथ अथवा निकट अपना जप किया करते थे।
वसुधैव कुटुंबकम। ‘जप रिफॉर्म रिट्रीट ‘ इस पर लिखा है, जप को सुधारने के लिए रिट्रीट। आप स्वयं भी सोचो, आप कौन-कौन से सुधार लाना चाहते हो या आपके जप अथवा जप साधना में कौन-कौन से दोष या त्रुटियां या अभाव अथवा कमियां है, उसकी लिस्ट बना लो। यह जो जप रिट्रीट का समय है, देखो! कैसे उन गलतियों को सुधारना है, उन त्रुटियों से मुक्त होना है। जप के समय सोने की आदत हो या कई प्रकार की… हर एक ही अपनी लिस्ट हो सकती है, यह सब याद रखिए। यहां लिखा है- ‘ ट्रांसफॉर्म योर जप।’ यहां पर जो भी कहा जा रहा है अथवा मैं आपको जो भी इनफॉरमेशन या जानकारी दे रहा हूं, यह इनफॉरमेशन कैसे आपको ट्रांसफॉर्म भी कर सकती है। इनफॉरमेशन से ट्रांसफॉर्मेशन। जानकारी से परिवर्तन। हरि! हरि! जप रिट्रीट के लक्ष्य की ओर भी ध्यान दीजिए।
अपना जप सुधारिए। हरि! हरि!
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार यह जो अंग है, इनमें कहां-कहां सुधार की आवश्यकता है, यह भी सोचिए। संकल्प लीजिए कि मैं इससे मुक्त होना चाहता हूं। यहां मैं सुधार चाहता हूं, यहां पर, वहां पर, सुधार चाहता हूं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
मैं तुलसी के पास बैठूंगा, मैं अपने मोबाइल को साथ में नहीं रखूंगा। मैं जप के समय किसी अन्य कॉल को स्वीकार नहीं करूंगा, मैं पहले से ही व्यस्त हूं। ऑनलाइन हूं, कृष्ण के साथ हमारी कॉल चल रही है। इसलिए
दूसरा कोई कॉल अटेंड नहीं करूंगा। ‘ नो मोबाइल।’ ऐसे अपने अपने खुद के सुधार की बातें सोचिए और इस जप रिट्रीट के समय करिए। हरि! हरि!
एक दिन पहले तैयारी करो। आज के जप की तैयारी एक दिन पहले करनी होती है या शुरुआत करनी होती है। विशेषकर यम, नियम की ओर एक दिन पहले से ध्यान देना होता है। पहले या दूसरे सोपान, नंबर एक या नंबर दो, यम, नियम। तत्पश्चात हम लोग प्रात: में आसन पर बैठते हैं, उसके पश्चात प्राणायाम। तब प्रत्याहार शुरू होता है। इन पांच अंगों में से यम,नियम यह जो अंग है, यह पूर्व तैयारी के अंतर्गत आता है। जप करने के प्रारंभ में उस प्रातः काल को भी हो सकता है। एक दिन पहले या पहले से पहले भी हो सकता है। जप से पहले यम नियम की ओर ध्यान दें। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
देखिए कि आप समय पर सो रहे हो या नहीं। तभी आप समय पर उठ सकते हो।
जप रिट्रीट में जप होगा, कुछ चर्चा होगी, कुछ बातें होंगी। मैं देख रहा हूं कि श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज भी जप कर रहे हैं। आप सभी भी जप कर रहे हो, लेकिन मुझे लगा कि महाराज जप के साथ व्यस्त हैं, वे तल्लीन हैं।
मुझे एक बात याद आई। मैं भी जूहू हरे कृष्ण लैंड में कुछ नया-नया सा ही भक्त था। एक प्रातः काल को हमारे बहुत बड़े डोनर/ लाइफ पैटर्न मेंबर जुहू मंदिर आए, वह हमारे मंदिर के अध्यक्ष से मिलना चाहते थे। लाइफ पैटर्न डोनर की सहायता के लिए मैंने कहा कि मैं देख कर आता हूं, पूछ कर आता हूं कि वे आपको मिल सकते हैं या नहीं। वह फ्री है या नहीं। मैं जब उनको मिलने गया। वैसे वे राधा रास बिहारी मंदिर में ही थे, राधा रास बिहारी की जय।
मैंने कहा कि वह फलाने लाइफ मेंबर आपसे मिलना चाहते हैं। उन्होंने मुझसे कहा, जिसे सुनकर मैं हैरान भी हुआ और मुझे अचरज भी लग रहा था। उन्होंने कहा कि अपने उन लाइफ मेंबर को बता दीजिए कि मैं व्यस्त हूं। मैं उन्हें अभी नहीं मिल सकता। मैं मन ही मन में सोच रहा था कि आप व्यस्त नहीं हो। आप तो केवल जप ही कर रहे हो, आप बिजी थोड़ी ही हो, यह मेरे मन की बात थी। मैंने कही तो नहीं किंतु धीरे-धीरे फिर मैं समझने लगा कि वे सचमुच व्यस्त थे। कृष्ण के साथ उनका बिजनेस या उनका वार्तालाप चल रहा था।भगवान को पुकारने जैसे हरे कृष्ण हरे कृष्ण संबोधन भी है, वे उसमें व्यस्त थे। जप के समय व्यस्त होना भी चाहिए, यह व्यस्तता है। दिस इस द बिजनेस। वेरी सीरियस बिजनेस लेकिन हम इस बिजनेस (व्यापार) को सीरियसली (गंभीर) नहीं लेते। जब हम जप करते हैं और कोई देखेगा भी तो वह सोचेगा भी नहीं कि वह व्यस्त/बिजी/ तल्लीन है।
लगता है कि जस्ट फ्री है, बस किसी की प्रतीक्षा में ही है। उनके साथ आ कर कुछ बातचीत करें या कहें या ब्रेकिंग द न्यूज़ कहे। वह बस केवल इंतजार कर रहा है। (जस्ट वेटिंग) जब कोई जपकर्ता को देखता है,
देखने वाले को भी यह महसूस हो कि नहीं! नहीं! वह बहुत बिजी है, व्यस्त है, मैं उसे कैसे डिस्टर्ब कर सकता हूं, वह बहुत तल्लीन है। उसको तो उनके साथ बात करने में भय भी होगा कि मैं उसको कैसे डिस्टर्ब कर सकता हूं। हरि!हरि! जप करना मतलब व्यस्तता है। यह अध्यात्मिक व्यापार है, स्पिरिचुअल अंडरटेकिंग ए बिजनेस है। हरि! हरि! हमें देखना चाहिए कि हमारा बिज़नेस कैसा चल रहा है। चैंटिंग इज द बिजनेस, जप एक कार्य है। आसानी से इसको कार्य कह सकते हैं यह कर्तव्य है। सब समझ लीजिए हम इस शब्द का प्रयोग करते रहते हैं। कर्तव्य अर्थात करने योग्य, ड्यूटी! यह जप करना, हर मनुष्य का कर्तव्य है। कर्तव्य या ड्यूटी के नाम से लोग क्या-क्या नहीं करते। उसकी ड्यूटी कहते हैं लेकिन रियल ड्यूटी अर्थात वास्तविक कर्तव्य या करणीय बात यदि कोई है तो
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
( हरि का नाम, हरि का नाम, हरि का नाम.. बस केवल श्री हरि का ही नाम… इस कलिकाल में प्रभु के नाम के अतिरिक्त और कोई गति नहीं।)
जो आप कह रहे हो कि यह भी कर्तव्य है, नहीं, वह भी नहीं है। वह भी नहीं है, वह भी नहीं है, कर्म योग भी नहीं है, ज्ञान योग भी नहीं है, कर्म कांड भी नहीं है, ज्ञान कांड भी नहीं है। नेति नेति नेति नॉट दिस, नॉट दिस। यह भी कर्तव्य नहीं है, यह भी कर्तव्य नहीं है, यह कर्तव्य नहीं है। इसलिए कहा है नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा। हमें ऐसा भी सत, असत का विचार करते हुए विवेक के साथ यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नही अपितु यह करना है। शास्त्रों ने हमें फोकस करने के लिए कहा है, हरेर्नामैव केवलम्। यह भी देखिए हरेर्नामैव अर्थात हरि नाम, एव का अर्थ केवल होता है। हरेर्नामैव नाम एव, नाम ही इतना ही नहीं आगे केवलम भी कहा। नाम एव से काम बन सकता था। लेकिन नाम एवं अर्थात नाम ही पर जोर देने के लिए आगे और एक शब्द का प्रयोग किया केवलम, इतना महत्वपूर्ण है। साथ ही उसको तीन बार कहा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चावल इकट्ठा करते थे, भिक्षा मांगते थे। उनको समझा रहे थे कि हरेर्नामैव केवलम्। उसका भाष्य सुना रहे थे, तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा, एक बार नही तीन बार भी कहा है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
हम कलयुग में जो मंदबुद्धि के लोग हैं, एक बार कहने से काम नहीं बनता, समझ में नहीं आता। पल्ले नहीं पड़ता, इसलिए तीन बार हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
हरि! हरि!
श्रील प्रभुपाद ने जब दीक्षा के समय मुझे महामंत्र दिया। हम कहते रहते हैं कि इस महामंत्र की दीक्षा देना मतलब कृष्ण को ही देना है। दीक्षा के समय आपको कृष्ण को दिया जाता है। लो कृष्ण लो।
कृष्ण से तोमार कृष्ण दिते पार, तोमार शकति आछे। आमि त’ कांगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बलि’, धाइ तव पाछे पाछे॥
अर्थ: कृष्ण आपके हृदय के धन हैं, अतः आप कृष्णभक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं। मैं तो कंगाल, (दीन-हीन) पतितात्मा हूँ। मैं कृष्ण-कृष्ण कह कर रोते हुये आपके पीछे-पीछे दौड़ रहा हूँ।
कृष्ण आपके पास है। उस कृष्ण को आप हमें दे सकते हो। ठीक है, ले लो। मैं कृष्ण को दे रहा हूं। मैं किस रूप में आपको कृष्ण को दे रहा हूं।
कलि-काले नाम-रुपे कृष्ण-अवतार। नाम हय सर्व-जगत-निस्तार।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला १७.२२)
अर्थ: “कलि के इस युग में, भगवान का पवित्र नाम, हरे कृष्ण महा-मंत्र, भगवान कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम का जप करने से व्यक्ति सीधे भगवान से जुड़ जाता है। जो कोई ऐसा करता है उसका उद्धार अवश्य होता है।
नाम रूप, नाम प्रभु के रूप में दे रहा हूं। इसको भी हमें समझना है, यही बात है।
नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:। पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोSभिन्नत्वं नाम नामिनो:।।
( पद्म पुराण)
अर्थ:- कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनन्दमय है। यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वरदान देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनन्द का आगार, अर्थात् स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कृष्ण-नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न है।
नाम ही भगवान है। नाम ही भगवान है। नाम ही भगवान है। श्रील प्रभुपाद मुझे समय-समय पर पूछते कि “क्या तुम अपना नाम जप कर रहे हो?” कई बार प्रभुपाद ने मुझसे पूछा। वैसे मैं अच्छा जपकर्ता था, मैं जप करता ही रहता था। तो भी प्रभुपाद मुझसे पूछा करते थे। जप हो रहा है? 16 माला पूरी होती है? फिर मैं सोच रहा था कि हमारे जीवन में भी कोई होना चाहिए। वैसे इस ज़ूम कॉन्फ्रेंस में हम भी आपसे पूछते रहते हैं कि आप जप कर रहे हो? या आपका जप कैसा हो रहा है। इसलिए तो यह जप रिट्रीट भी चल रही है। शायद आपका जप पूरा ठीक से नहीं हो रहा है? या पूरा नहीं हो रहा है? या अधिक नहीं हो रहा है? या दिस वन तथा दैट वन। वैसे श्रील प्रभुपाद का ऑफिस मुंबई में था। ‘ मुंबई इज माय ऑफिस।’ और उस ऑफिस के हम भी एक स्टाफ मेंबर थे। प्रभुपाद का बहुत अंग संग सानिध्य हम मुंबई के ब्रह्मचारियों को प्राप्त हुआ। प्रभुपाद कितना सारा समय बिताते थे। इसलिए पूछा भी करते थे, मुझे भी पूछते थे। हम ज़ूम कॉन्फ्रेंस में तो पूछताछ करते ही हैं। पूछताछ होती है लेकिन इस प्लेटफार्म या फोरम मंच के अलावा आप जहां भी हो, इस नगर में या ग्राम में या वहां भी कोई आपसे पूछने वाला हो। आपका जप कैसा हो रहा है। जप हो रहा है या नही ? ऐसा कोई होना चाहिए। वह काउंसलर भी हो सकते हैं। ऐसा कोई होना चाहिए। हाउ इज योर चेंटिंग? हाउ आर यू? कहने वाले तो बहुत मिलते हैं। कैसे हो? हाउ आर यू? आप भी जब एक दूसरे से मिलते हो। आप एक दूसरे के मित्र हो या गॉड ब्रदर या गॉड सिस्टर हो या दीन बंधु हो। आप भी दीनों के बंधु हो, यह रोल भी आपको निभाना है। आपको एक दूसरे से पूछना चाहिए कि आपका जप कैसा हो रहा है? हाउ इज योर चेंटिंग? मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूं। पूछते तो रहते हैं स्वास्थ्य कैसा है। स्वास्थ्य कैसा है? मतलब आपके शरीर का स्वास्थ्य कैसा है। इसी के सीमित ही हमारी जिज्ञासा अथवा पूछताछ रहती है। शरीर का स्वास्थ्य कैसा है लेकिन वैष्णव होने के नाते हमारी जिज्ञासा हाउ आर यू आप कैसे हो? हमें आत्मा का स्मरण करते हुए पूछना चाहिए कि आपकी आत्मा का स्वास्थ्य कैसा है? आपकी आत्मा का स्वास्थ्य कैसा है। हाउ यू आर द सोल। हमारी आत्मा नहीं होती है, हम आत्मा होते हैं। इसको भी नोट कीजिए। हम आत्मा है फिर आत्मा का शरीर होता है। हम और मम की बात है। मैं आत्मा हूं। आप कैसे हो? हाउ आर यू मतलब हम तो शरीर है ही नहीं, प्रश्न तो आपकी आत्मा कैसी है? होना चाहिए। आपकी आत्मा का स्वास्थ्य कैसा है। हरि! हरि! आत्मा का स्वास्थ्य निर्भर करता है हमारे आध्यात्मिक साधना और सेवा पर। हम आत्मा के महात्मा बन जाएंगे, मतलब हम स्वस्थ हैं, यह निर्भर करता है हरेर्नामैव केवलम् पर । अधिकतर हमारी आत्मा का स्वास्थ्य हमारे जप पर निर्भर करता है। फिर प्रश्न होता है कि जप कैसा हो रहा है?
जप पर हमारा स्वास्थ्य निर्भर तो रहता है लेकिन फिर भी जप हो रहा है तो कैसा हो रहा है। अपराध रहित हो रहा है कि नहीं? हरि! हरि! इसके डोजेस। रिकमड डोज (अनुसंशित खुराक) 16 माला है, पूरा डोज हम ले रहे हैं। हरि! हरि! ऐसी पूछताछ करने वाले भी हमारे जीवन में होने चाहिए।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यं आख्याति पृच्छति। भुंक्ते भोज्यते चैव षड्-विधं प्रीति-लक्षणम्।।
(उपदेशामृत श्लोक-4)
अर्थ:दान में उपहार देना, धर्मार्थ उपहार स्वीकार करना, विश्वास में अपने मन को प्रकट करना, गोपनीय रूप से पूछताछ करना, प्रसाद स्वीकार करना और प्रसाद चढ़ाना एक भक्त और दूसरे द्वारा साझा किए जाने वाले प्रेम के छह लक्षण हैं।
यह वैष्णव सदाचार के अंतर्गत या प्रीति लक्ष्णम का प्रदर्शन करने के अंतर्गत आते हैं। हाउ आर यू ? हाउ इज योर चेंटिंग? चेंटिंग ठीक है तो आप ठीक हैं। चेंटिंग ठीक नहीं है तो नॉट ओके। ऐसे लोग तो हाउ आर यू सर? आई एम फाइन आई एम फाइन। कोई आईसीयू में लेटा हुआ है और उससे भी पूछो तो हाउ आर यू ? वह भी उत्तर देगा। आई एम फाइन, मैं ठीक हूं। दुनिया जानती ही नहीं है। किसको फाइन होना कहते हैं। हरि! हरि!
हमारे देश की ख्याति है, इसको तपोभूमि कहते हैं। यह भारतवर्ष, भारत देश अब नहीं रहा। अधिकतर नहीं रहा लेकिन यह भारत विश्व गुरु है या हुआ करता था। पुन: विश्व गुरु हो, ऐसे प्रयास या ऐसे विचार भी उठ रहे हैं। धीरे-धीरे संसार, भारत को मान रहा है, विश्व गुरु के रूप में स्वीकार कर रहा है। इस देश की ख्याति में …यह तपोभूमि है। भारत भूमि तपोभूमि है, अन्य स्थान भोग भूमि है। विशेषकर पाश्चात्य देश भोग भूमि है।
भारतवर्ष तपोभूमि है। जो तप करते हैं उसको तपस्वी कहते हैं। तप करके ही फिर वे यशस्वी होते हैं या फिर ओजस्वी भी होते हैं। यह सारे शब्द भी इसके साथ जुड़े हुए हैं। यह जप भी तप है, जप भी एक महान तप है। जप करके हम इस भारत के, इस तपोभूमि के यशस्वी भक्त बन सकते हैं या व्यक्ति बन सकते हैं। जप तप है। जप तप कैसा चल रहा है? जप ही तप है। हरि! हरि! एक शारीरिक तप होता है, एक वाचिक तप होता है, एक मानसिक तप होता है। भगवद गीता में भगवान ने तप के तीन प्रकार या स्तर के विषय में बताया है। शरीर के स्तर पर तप, कायेन, मनसा, वाचा। कायेन शरीर से, मनसा मन से, वाचा वाणी से। इन तीनों तपो में वैसे और भी प्रकार हैं लेकिन इन तीन का एक समूह है। कायेन, मनसा, वाचा। शरीर का तप, वाचा का तप, मन का तप। इन तीनों में मन का तप श्रेष्ठ है, इन तीनों में ऊपर है।
जब हम जप करते हैं तब हम मन से तप करते हैं। शरीर से तप, वाचा वाणी से तप, फिर मन से तप। जप ही तप है, जप करने को मनन भी कहते हैं। हरि! हरि!
वैसे हम लोग मंत्र का जप करते हैं। देखिए, यहां पर मंत्र अर्थात मन और त्र । इन दो शब्दों से एक शब्द बन गया। मंत्र उन शब्दों का समूह होता है या संग्रह होता है। जिसका उच्चारण या श्रवण करने से महामंत्र का (वह क्या करता है) मंत्र, मन को मुक्त करता है।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥
अर्थ:- मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। मनुष्य के बंधन या मोक्ष का कारण मन ही होता है। विषयों में आसक्त मन बंधन का, और निर्विषय मन मुक्ति का कारण होता है।
क्या वचन है! मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
मन ही हमारे बंधन का कारण और मन ही हमारी मुक्ति का कारण है। हरि! हरि!
सावधान! सावधान! हमारे सुधार की बात चल रही है। जप ही तप है, मन हमारे बंधन या मुक्ति का कारण है। जप करना इस मंत्र का मनन करना या ध्यान करना या ध्यान पूर्वक जप करना, नाम का ध्यान करना। हरे का ध्यान करना, फिर कृष्ण का ध्यान करना फिर से हरे का ध्यान.. जब हम ध्यान करेंगे, मनन करेंगे तो यह हमें शुद्ध बनाता है, हमें पवित्र बनाता है।
चेतोदर्पणमार्जनं कराता है। उसके साथ हम मुक्त हो जाते हैं। मुक्त ही नहीं होते अपितु हम भक्त हो जाते हैं। मुक्ति की किसको परवाह है, हमारा लक्ष्य मुक्ति नहीं है, हमारा लक्ष्य भक्ति है। हम भक्त बनेंगे, यह जप रूपी तप करने से पूर्ण रूप से भक्त बनेंगे। ऋषभदेव ने भी अपने 100 पुत्रों को संबोधित करते हुए कहा है, उस लीला में उनके सौ ही पुत्र थे। वैसे तो सभी जीव भगवान के पुत्र है। लेकिन ऋषभदेव भगवान जब प्रकट हुए तो उस लीला में उनके सौ पुत्र थे। भरत सबसे बड़े पुत्र थे, भगवान एक समय सब पुत्रों को संबोधित कर रहे थे। जो भी संबोधन हुआ वो श्रीमद् भागवत के पंचम स्कंद के पांचवें अध्याय में वर्णित है। श्रील प्रभुपाद इसमें कई सारे उपदेश के वचन हमें सुनाया करते थे। कहा जाए तो अब भी सुना रहे हैं।
ऋषभ उवाच नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये । तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् ५.५.१)
अर्थ:- भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा: हे पुत्रो, इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है, उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन-रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर-सूकर भी कर लेते हैं। मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने आपको तपस्या में लगाये। ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है, तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है, जो भौतिक आनन्द से परे है और अनवरत टिकने वाला है।
वह बात जो महाप्रभु पहले शिक्षाष्टकम में कह रहे हैं। वही बात यहां ऋषभदेव अपने इस वचन में कह रहे हैं। हे पुत्रों! संबोधित कर रहे हैं। हमें समझना चाहिए कि हम तो वहां नहीं थे। उन 100 पुत्रों में से हम एक नहीं थे लेकिन जब भगवान कह रहे हैं पुत्रों तो हमें समझना चाहिए कि भगवान हम सबको संबोधित कर रहे हैं। (क्या संबोधन है?) तपो दिव्यं। हे पुत्रों! तपस्या करो! कैसी तपस्या करो? दिव्य तपस्या करो। सभी तपस्या दिव्य नहीं होती। तपस्या कौन नहीं करता? सारी दुनिया तपस्या करती है लेकिन कुछ तपस्या लौकिक होती है तो कुछ तपस्या अलौकिक। तपो दिव्यं, दिव्य तप करो, जिसके विषय में कृष्ण कहते हैं।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
(श्रीमद भगवतगीता ९.२७)
अर्थ:- हे कुंती के पुत्र, तुम जो कुछ भी करते हो, जो कुछ तुम खाते हो, जो कुछ तुम अर्पित करते हो और दान करते हो, साथ ही जो भी तपस्या तुम करते हो, वह सब मेरे लिए एक भेंट के रूप में किया जाना चाहिए। जो भी करते हो, खाते हो, तपस्या करते हो, दान देते हो जो भी कार्य.. मुझे अर्पित करो। तपस्या जब भगवान को अर्पित करेंगे या भगवान की प्रसन्नता के लिए हम तपस्या करेंगे। वह तपस्या दिव्य तपस्या कहलाएगी, इसका परिणाम क्या होगा। ऋषभदेव भगवान कह रहे हैं दिव्य तपस्या से (क्या) होगा शुद्धिकरण होगा। चेतोदर्पणमार्जनं होगा। चेतोदर्पणमार्जनं होने के उपरांत ही यह अंतकरण जिसमें मन, बुद्धि, अहंकार है। इन सबको मिलकर जो अंतकरण है, उसका शुद्धिकरण होगा। तब ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्, तुम सुखी होगें। कितना सुख? आनन्दाम्बुधिवर्धनं। चैतन्य महाप्रभु शिक्षाष्टकम में कह रहे हैं आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं। वही बात ऋषभदेव भी कह रहे हैं। तपस्या करो, दिव्य तपस्या होनी चाहिए, ऐसा करोगे तो शुद्धिकरण होगा। जब शुद्धिकरण होगा तो जो और और आवरण कवरिंग तुमको ढक कर रखे हैं, तुमको बद्ध बनाए हुए हैं। वह सारे हटाए मिटाए जाएंगे। और आप फ्री हो जाएंगे, आप मुक्त होंगे। फिर वह मुक्ति का आनंद, भक्ति का आनंद आप लूटोगे। सुखी होने की यह विधि है जैसे टेलीविजन है, ऑन किया और मनोरंजन हो रहा है। लेकिन ये भोग के उपाय अथवा साधन है। इस संसार के जो विषय हैं, भोगानंद है या मैंथुनानंद, यह आनंद, वह आनंद, विषयानंद या विषय का सुख ही हमारे दुख का कारण बनता है। इसलिए हम कहते रहते हैं कि भोग से रोग होते हैं लेकिन तपस्या से हम निरोगी होंगे। जप तप करेंगे, तो हम निरोगी होंगे। वह जो आनंद है, वह आनंद नहीं अमीरी में, जो आनंद लकीर फकीर करे वह आनंद नहीं अमीरी में।
हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इतनी बातें आप याद रखिए। याद रखने के लिए क्या किया जा सकता है, (जैसे हमारी साधना सिद्ध प्रभु लिख रहे हैं। राइट इट डाउन। आप में से कौन-कौन लिख रहे हो। दिखाओ अपना नोटबुक। खाली हाथ नहीं दिखाना। नोटबुक दिखाओ।) लिखिए, लिखने से वह आपकी संपत्ति हो गई। जो लिखा है, वह आपका धन हुआ। फिर कहो, उस संपत्ति को, उन वचनों को आपने डिपॉजिट किया। (वेरी गुड। कई सारे सभी तो नहीं पर कई भक्त लिख रहे हैं) यह भी साधना है। यह भी बताया था। जप रिट्रीट के समय पेपर और पेन साथ में रखो। लिखने का अभ्यास करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
दिन में यथा संभव आप किसी ईस्टगोष्ठी में या भक्तों के समूह में गैदरिंग में या जब उनको मिलते हो, अपने प्रश्नों के उत्तर उनसे भी या काउंसलर इत्यादि स्त्रोतों से प्रश्नों के उत्तर भी आप पता लगवा सकते हो या गुह्यमाख्याति पृच्छति भी हो सकता है। प्रतिदिन होना चाहिए। ऐसी कोई व्यवस्था आपके जीवन में होनी चाहिए। आज का यह सेशन कैसा रहा। भक्तों से, मित्र से या जो ज्वाइन किए थे आप उनके साथ भी चर्चा कर सकते हो, आपके अलग अलग फोरम हो सकते हैं। आई लाइक दिस, आई लाइक दैट। यह समझ में आया, पहली बार ऐसा स्पष्टीकरण हुआ, पहली बार मैं इसको समझा। इस प्रकार इस कम्युनिकेशन डायलॉग से दिन भर में हम इसी मूड में रह सकते हैं। हम इस कांफ्रेंस को क्लोज करने वाले हैं लेकिन इस टॉपिक को क्लोज नहीं करना है। इसको आगे बढ़ाया जा सकता है।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( श्रीमद भगवत गीता १०.९)
अर्थ:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें निवास करते हैं, उनका जीवन पूरी तरह से मेरी सेवा के लिए समर्पित है और वे हमेशा एक-दूसरे को प्रबुद्ध करने और मेरे बारे में बातचीत करने से बहुत संतुष्टि और आनंद प्राप्त करते हैं।
बोधयन्त: परस्परम्, एक दूसरे को बोध करें। गुह्यमाख्याति पृच्छति करते रहे, मेरे भक्त करते हैं। भगवान ने बड़े अभिमान के साथ भगवत गीता के दसवें अध्याय में कहा है, बोधयन्त: परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।
ठीक है।
गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
विषय – जप रिट्रीट
दिनांक 21 जुलाई 2023
हरे कृष्ण!!
तीनों आईडी फुल हो चुकी है। 1000 , 1000 और 500। अर्थात 2500 जापक। देखते हैं आगे क्या करना है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ऐसा जप कीजिए जैसा आपने पहले कभी ना किया हो मतलब कि अधिक ध्यान पूर्वक या अधिक प्रेम पूर्वक भी कहा जा सकता है। तीसरी आईडी की क्षमता बढ़ा दी गई है। इसकी क्षमता 1000 कर दी गई है। (यह रनिंग कमेंट्री है कुछ बातें सुनने की आपको आवश्यकता भी नहीं है)
स्वयं भगवान आपका आलिंगन करते हुए आपका स्वागत करें।
मुझे तो पुष्पमाला ही प्राप्त हुई, आपको भगवान का आलिंगन प्राप्त हो। हरि! हरि! यह मिलन उत्सव भी है। हरि! हरि! भगवान का भक्त से मिलन, मुलाकात भी कहते हैं, कृष्ण के साथ व्यक्तिगत समय। पर्सनल टाइम विद कृष्ण। हरि! हरि! भगवान, भक्ति, भक्त। (भक्त का भगवान से मिलन कौन कराती है?) भक्ति, भक्त का भगवान से मिलन कराती है। हम भक्तिपूर्वक, ध्यान पूर्वक, प्रेमपूर्वक पुकारेंगे। हमारी पुकार द्रोपदी जैसी पुकार हो या गजेंद्र जैसी पुकार हो या अजामिल जैसी पुकार हो। हरि! हरि!
अयि नन्दतनुज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पादपंकज- स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥
अर्थ- हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए।
हरि! हरि! (अब 2700 जापक जप कर रहे हैं।) क्यों पुकारे? व्हाई कॉल? फिर इमरजेंसी कॉल भी है तो ऐसे कॉल को पहले उठाया जाता है।
विषमे भवाम्बुधौ।
चैतन्य महाप्रभु कहते हैं मैं इस भवसागर में गिरा हूं। इसलिए प्रभु मुझे उठाइए।
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा- मदर्शनार्न्महतां करोतु वा। यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥
अर्थ : एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़-आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें- वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।
मुझे गले लगाइए, यह भाव भी शिक्षाष्टकम में व्यक्त हुआ है। हरि! हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कृष्ण भी उतने बन जाते हैं, आपके हर एक के अपने अपने कृष्ण हैं, वे अपना विस्तार करते हैं। जैसे रास डांस में हर गोपी के साथ एक कृष्ण होते हैं।। हरि! हरि! वैसे ही आपके खुद के कृष्ण, जितने जीव उतने भगवान। एक होते हुए भी वे अनेक बन जाते हैं। हरि! हरि! हमें भगवान मिस कर रहे हैं और करते ही रहते हैं। वे हमारे कॉल की प्रतीक्षा कब से कर रहे हैं। अब जब हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।.. यह जीव और भगवान के मध्य में 24 x7 हॉटलाइन है। भगवान सब समय उपलब्ध हैं, वे तैयार हैं, वे इच्छुक हैं। बस! हमारी ओर से देरी होती है। हरि! हरि! फोन कॉल.. श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे कि यह जो हरे कृष्ण महामंत्र है, यह भगवान का टेलीफोन नंबर है। जब हम जप करते हैं, इस नाम का उच्चारण करते हैं अर्थात हम उस नंबर को डायल करते हैं। तब कृष्ण व्यक्तिगत रूप से उस कॉल को अटेंड करते हैं। कृष्ण इज वेरी पर्सनल, कृष्ण किसी सहायक को नहीं कहते कि तुम कॉल को उठाओ। नहीं! भगवान स्वयं कॉल को अटेंड करते हैं। हरि! हरि! वैसे भूलना नहीं चाहिए। हम राधा और कृष्ण दोनों को कॉल करते हैं। पहले कॉल तो हमारा राधा को ही होता है। हरे अर्थात राधा।राधा या हरे कहने से हमारा द्वार खुलता है। जब हम राधा कहते हैं तो हमारे राधा कहने को कृष्ण सुनते हैं। हमने कहा तो राधा लेकिन कृष्ण सुनते हैं, कृष्ण प्रसन्न होते हैं कि कोई मेरी राधा का नाम ले रहा है, कृष्ण राधा का नाम सुनना पसंद करते हैं। हरे कृष्ण जब हम कहते हैं- तब हमने कहा कृष्ण लेकिन उसको पहले सुनने वाली तो पहली राधा होती हैं, मेरे कृष्ण का कोई नाम ले रहा है, इस प्रकार दोनों ही राधा और कृष्ण प्रसन्न होते हैं। किसके कारण प्रसन्न होते हैं कि अरे! कौन-कौन पुकार रहा है, मेरी राधा का नाम कौन ले रहा है। मेरे कृष्ण का नाम कौन ले रहा है। धन्यवाद! मेरे कृष्ण का नाम लेने के लिए, धन्यवाद! मेरी राधा का नाम लेने के लिए। फिर वह धन्यवाद किसके पास जाता है। हम जो जप कर रहे हैं उनका आभार कि हम राधा कृष्ण को मानते हैं। वे हरे कृष्ण हरे कृष्ण पुकारने वाले से प्रसन्न होते हैं। राधा कृष्ण दोनों प्रसन्न होते हैं। हरि! हरि! ऐसे व्यक्ति को फिर पुरस्कार भी देते हैं, पुरस्कार क्या है? उसको अपने धाम ले आते हैं। धाम लौट आते हैं। हरि! हरि!लेकिन लौटने से पहले, जहां पर भी वो जापक है, जप कर रहा है, वहां स्वयं राधा और कृष्ण पहुंच जाते हैं। उस स्थान को अपना धाम बनाते हैं।
तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि । नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि यत् शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधव:।।
( श्रीमद्भागवतम श्लोक 1.5.11)
अनुवाद:
दूसरी ओर, जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है, वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं।
मैं वहाँ रहता हूं, जहां जापक/ साधक मेरे नाम का उच्चारण करता है। राधा कहेगी कि जहां कोई मेरे कृष्ण का नाम पुकार रहा है वहां मैं रहती हूं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
[ जब जपा रिट्रीट होती है तब जप अधिक होता है, चर्चाएं कुछ कम ही होती हैं। शायद आपने सोचा होगा कि जपा रिट्रीट होने वाली है तो बातें ही बातें होंगी। हरि! हरि! कुछ बातें हो चुकी हैं। वैसे जप अधिक, बातें कम का भी समय होता है। हम टॉक में जो सुनते हैं… अंग्रेजी में कहते हैं-वॉक द टॉक। टॉक(चर्चा) में जो बातें कही जाती हैं, जप करते समय उस पर अमल करना है। कहने के लिए ज्यादा समय नहीं लगता लेकिन उसको करने के लिए बहुत समय या पूरा जीवन भी उसमें बीत सकता है। कहा जाता है, बारंबार कहा जाता है कि ध्यानपूर्वक जप करो। बस जपा रिट्रीट हो गई, आपको बता दिया। ध्यानपूर्वक जप करो लेकिन ध्यान पूर्वक जप करते करते करते सदियां बीत सकती हैं और बीतती भी हैं। हरि! हरि! हमने कह तो दिया कि ध्यान पूर्वक जप करो लेकिन हमारे पल्ले नहीं पड़ता। हम समझ नहीं पाते कि कैसे ध्यान पूर्वक जप करें, जप कर तो रहे हैं। हम जप करना तो चाहते हैं लेकिन कैसे ध्यान पूर्वक करें? हाऊ टू चैंट अटेंटीवली। किसको कहते हैं कि हां यह जप ध्यानपूर्वक जप हो रहा है।
हरि! हरि! यह फटाफट नहीं होने वाला है, ऑन द स्पॉट नहीं होने वाला है। ध्यानपूर्वक जप करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। ( जल्दी जल्दी करते हुए) बस हो गया। हम ध्यानपूर्वक ध्यान कर रहे हैं। ध्यानपूर्वक जप करो, ऐसा कहते ही ध्यान पूर्वक जप नहीं होगा।हम जप तो करेंगे लेकिन वह ध्यानपूर्वक जप नहीं होगा। ध्यानपूर्वक जप करने का अभ्यास हमें करते रहना होगा। ध्यानपूर्वक जप करने का लक्ष्य या उसमें सिद्धि क्या है? हां! हम अब ध्यानपूर्वक जप कर रहे हैं। हम पूरे तल्लीन हुए हैं, बस एक मैं हूं; दूसरे राधा-कृष्ण हैं एवं उनके साथ सारा आध्यात्मिक जगत भी है किंतु इस संसार की ना तो कोई वस्तु है, ना तो कोई व्यक्ति है, ना कोई भाव है, ना कोई विचार है। हम भगवान के साथ हुए हैं, इसे हम योग या भक्ति योग कहते हैं। वैसे योगों के भी प्रकार हैं, कर्मयोग, ध्यानयोग, अष्टांगयोग लेकिन उसमें कमियां हैं, त्रुटियां हैं, अभाव है। इसलिए सभी योगों में भक्ति योग सर्वश्रेष्ठ है।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ॥
( श्रीमद भगवद्गीता श्लोक 6.47)
अनुवाद:
समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्त:करण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।
हमें भक्ति योगी बनना है भगवान के धाम में हर व्यक्ति भक्तियोगी होता है। वहां कर्मयोगी/ ध्यानयोगी… दिस वन दैट वन नहीं होता, योग मतलब संबंध। वहां से भी शुरुआत हो सकती है। संबंध ज्ञान से या संबंध के साक्षात्कार।
(जीव) कृष्णदास, ए विश्वास, कर्’ ले त’ आर दुःख नाइ (कृष्ण) बल् बे जबे, पुलके ह’बे झ’र्बे आँखि, बलि ताइ॥
अर्थ:- परन्तु यदि मात्र एकबार भी तुम्हें यह ज्ञान हो जाए कि मैं कृष्ण का दास हूँ तो फिर तुम्हें ये दुःख-कष्ट नहीं मिलेंगे तथा जब कृष्ण नाम उच्चारण करोगे तो तुम्हारा शरीर पुलकित हो जाएगा तथा आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगेगी।
यह विश्वास कि मैं भगवान का हूं, शुरुआत तो करें कि मैं भगवान का दास हूं, हम यहां से शुरुआत कर सकते हैं। हमारे अन्य भी संबंध हो सकते हैं, भगवान के मित्र हो सकते हैं। भगवान के माता-पिता जैसे वात्सल्य भाव भी हो सकता है। संबंध ज्ञान से शुरुआत करते हुए फिर होता है अभिधेय- सेटल होना सेवा करना। उस संबंध में हमारा भगवान के साथ जो संबंध है। दास्य भाव, सांख्य भाव.. कौन सा भाव ? इसका हमें धीरे धीरे अनुभव या साक्षात्कार होगा। तत्पश्चात लक्ष्य/ प्रयोजन है- कृष्ण प्रेम प्राप्ति। हरि! हरि! कृष्ण प्रेम को वैसे प्रेम मयी सेवा ही कहना होगा। प्रेम मयी सेवा क्योंकि हम जीव हैं। जीव भगवान का दास है, सेवक है। वैसे भगवान के मित्र भी भगवान के सेवक हैं, भगवान के माता-पिता भी भगवान के सेवक हैं। भगवान की प्रेसियां तो सेविकाएं ही हैं। सेव्या, सेवक, सेवा की बात है, हम सेवक हैं। भगवान सेव्या हैं। सेवा से हमारा संबंध सेव्या या भगवान के साथ हो जाता है। यही सही बात है। और हम उसी दिन बता रहे थे कि हम भक्त हैं और हमें भक्ति करते हुए भगवान को प्राप्त करना है। भक्त, भगवान को जोड़ने वाली भक्ति है अथवा उपासक, उपासना और उपास्य या कहें कि जापक- हम जो जप करते हैं। जाप्य जिनका हम जप करते हैं फिर ध्यानपूर्वक जप करना यह भक्ति हुई। जापक को जाप्य या भगवान के साथ यह ध्यानपूर्वक जप करना; इसके साथ हमारा भूला हुआ सम्बन्ध पुनः स्थापित होता है। हरि! हरि! ध्यान पूर्वक जप करने का फल है कि हम ध्यानी बनेंगे। हम ध्यानस्थ होंगे। हम समाधिस्थ होंगे लेकिन हम उस प्रकार के समाधिस्थ नहीं होंगे जिस प्रकार के योगी जो अपनी ध्यान अवस्था में परमात्मा का ध्यान करते हैं। हमें उस प्रकार के योगी बनना है जिस प्रकार की योगिनी गोपियां होती हैं या भगवान के ग्वाल बाल होते हैं। वे ध्यान अवस्था/ मुद्रा में बैठकर भगवान का ध्यान नहीं करते। प्राकृतिक रूप से रोज वे जो भी कर रहे हैं, वे ध्यानपूर्वक ही करते हैं या समाधि की अवस्था में ही करते हैं। सारे कार्यकलाप समाधिस्थ होकर या ध्यानपूर्वक अथवा प्रेम पूर्वक सेवा करते रहते हैं।
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि | योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ||
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |
कायेन मनसा वाचा.. कायेन अपने सारे शरीर से, वह भगवान की सेवा करते हैं। कायेन, मनसा मन से बुद्धि भी/ इंद्रिय भी है। वह सब का उपयोग करते हैं।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति
योगी कार्य करते हैं, हिलते हैं, डुलते हैं, नाचते हैं, खेलते हैं, रसोई बनाते हैं, पकाते हैं, माला बनाते हैं अर्थात जितनी भी क्रियाएं हैं, वे सब करते हैं। संस्कृत में 2000 धातुएं हैं, मतलब जितनी धातुएं हैं, उतनी ही क्रियाएं हैं और वह क्रियाएं, उपसर्ग इत्यादि से जोड़ने पर असंख्य क्रियाएं/ एक्टिविटीज हो जाती हैं। वह सारी की सारी एक्टिविटीज (कार्यकलाप) भगवान के भक्त भगवत धाम में करते रहते हैं। वे सब प्रेम पूर्वक व ध्यानावस्था में करते हैं। प्रेम पूर्वक करते हैं। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यही प्रेम है, 537 वर्ष पूर्व जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आए, तब वे साथ में गोलोकेर प्रेम धन हरि नाम संकीर्तन को लाए थे।
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥
( वैष्णव भजन- हरि हरि विफले)
अर्थ:-
गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
वे ले भी आए और कृष्ण प्रेम प्रदायते।
उन्होंने इस कृष्ण प्रेम का वितरण भी किया।
पृथिविते आछे यत नगरादि-ग्राम सर्वत्र प्रचार हैबे मोरा नाम
मेरे नाम का सर्वत्र प्रचार होगा।श्रील प्रभुपाद ने इस्कॉन की स्थापना करते हुए ऐसी व्यवस्था बनायी ताकि संसार भर में चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी हो। इस प्रकार यह हरि नाम जो कृष्ण प्रेम है, जो स्वयं भगवान है। यह सर्वत्र फैल रहा है, हमारे पास महामंत्र पहुंचा है इसलिए आप यहां पहुंचे हो या फिर जब दीक्षा होती है। दीक्षा के समय आपको मंत्र दिया जाता है। मंत्र दिया जाता है अर्थात (मतलब क्या दिया जाता है) आपको भगवान ही दिए जाते हैं। यह लो भगवान, भगवान को लो, कृष्ण को लो।
नाम चिंतामणिः कृष्ण चैतन्य-रस-विग्रहः। पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तो ‘भिन्नत्वं नाम-नमिनोः’।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133)
अर्थ:-
कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंददायक है। यह सभी आध्यात्मिक आशीर्वाद प्रदान करता है, क्योंकि यह स्वयं कृष्ण हैं, जो सभी सुखों के भंडार हैं। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य मधुरताओं का रूप है। यह किसी भी हालत में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से कम शक्तिशाली नहीं है। चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से दूषित नहीं है, इसलिए इसके माया से जुड़े होने का कोई सवाल ही नहीं है। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त और आध्यात्मिक है; यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों से बंधा नहीं होता। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृष्ण और कृष्ण का नाम स्वयं एक समान है।’
यह समस्या हमारे साथ है, हम सोचते हैं कि नाम कैसे भगवान है? हरि! हरि! नाम कैसे भगवान है? नाम और नामी में कोई फर्क नहीं है। आम! आम! आम! कहते जाओ, केवल नाम कहने से आम का आस्वादन तो नहीं होगा। श्रील प्रभुपाद समझाया करते थे कि पानी.. पानी.. पानी.. पानी… कहो तो प्यास बुझने वाली नहीं है। केवल पानी पानी कहने से संभावना है कि आप की प्यास बढ़ जाए। इससे आपका गला और सूख सकता है। पानी… पानी… वाटर… वाटर… कहते-कहते हुए। कारण क्या है कि वस्तु पानी और नाम पानी (पानी का नाम पानी) यह जो पानी है। यह दो अलग-अलग बातें हैं, यहां नाम और नामी दो अलग-अलग हैं। पानी नाम एक चीज है, पानी वस्तु या द्रवभूत पदार्थ वह अलग है। जब हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कहते हैं तो नाम ही नामी होने के कारण… नाम ही नामी है। भगवान का नाम ही है
अभिन्नत्वं नाम-नमिनोः’
यह नामी भगवान है। कैसे? नाम चिंतामणि…
यह नाम चिंतामणि है, रस की खान है, आनंद का स्त्रोत्र है। विग्रह मतलब रूप, रस विग्रह। रस जब मूर्तिमान बनता है तो वह कृष्ण का रूप, राधा का रूप धारण करता है। रसवस्यो.. यह
शास्त्रों का बहुत प्रसिद्ध वचन है। वेदवाणी है। रसवस्यो… भगवान रस से बने हैं। अखिल रसामृत सिन्धु.. केवल रस के बने हैं।
फिर अलग-अलग रस हैं, रस के भी नाम हैं। हरि! हरि! सात गौण रस हैं। पांच प्रधान रस हैं। दास्य, साख्य, वात्सल्य, माधुर्य और शांत रस। भगवान इन रसों से बने हैं, रस ने अपना रूप धारण कर लिया है। रस मूर्तिमान बन गया है, वही श्रीकृष्ण हैं, वही राधा हैं। वैसे राधा और कृष्ण एक आत्मानपि एक ही आत्मा हैं। दोनों की एक ही आत्मा है, राधा और कृष्ण अर्थात भगवान पूर्ण हुए है। राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और कृष्ण के बिना राधा अधूरी हैं। एक शक्ति है और दूसरा शक्तिमान है।
नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य – रस – विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य – मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम – नामिनोः ॥
उसी मंत्र में और भी कहा है। पूर्ण शुद्धो नित्य मुक्तो..
यह भगवान का नाम कैसा है? पूर्ण शुद्ध, पूरा शुद्ध है, स्वयं भी शुद्ध है। यह औरों को भी शुद्ध बना सकता है। यह महामंत्र शुद्धिकरण की सामर्थ्य शक्ति रखता है। भगवान का नाम पूर्ण शुद्घ है।
कृष्ण – सूर्य – सम; माया हय अन्धकार । याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.31 )
अनुवाद:
“कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अन्धकार के समान है। जहाँ कहीं सूर्य – प्रकाश है, वहाँ अन्धकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्योंही माया का अन्धकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरन्त नष्ट हो जाता है।”
कृष्ण को सूर्य की तुलना भी दी जाती है, कृष्ण सूर्य के समान है। सूर्य क्या करता है? सूर्य में जो ज्वाला भी है, आग धधक रही है। सूर्य की अग्नि है। जैसे अग्नि से हमें प्रकाश प्राप्त होता है, अग्नि में दहन अथवा जलाने की शक्ति होती है। अग्नि के 2 गुण धर्म हैं- एक प्रकाश देना, अग्नि प्रकाश देती है, अग्नि जलाती है। जब हम कहते हैं और यह सब सच ही है। कृष्ण सूर्य सम, कृष्ण सूर्य जैसे हैं। कृष्ण में भी यह दो गुण हैं, वैसे कई सारे गुण हैं लेकिन यहां पर दो गुणों की बातें हो रही हैं। कृष्ण जो सूर्य के सम है, वह प्रकाश देंगे, वह प्रकाश ज्ञान के रूप में हमें प्राप्त होगा।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥
अर्थ:-
श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
वह भी है। वैसे इसके कई सारे कनेक्शन है। एक तो हमें प्रकाश मिलेगा।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः भी होगा।
साथ ही साथ हम में जो दोष है, हम में जो त्रुटियां हैं, उसका भी दहन होगा। उसको भी जलाया जाएगा।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 4.37)
अनुवाद:
जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है।
प्रभुपाद समझाया करते थे कि सूर्य जब प्रकाशमान होता है, तब वह प्रकाश तो देता है और साथ ही साथ सूर्य की किरणें इस जगत में जहाँ मल मूत्र विसर्जन करने वाले जो स्थान हैं, उनको भी पवित्र करता है। दुर्गंध के स्थान पर सुगंध की स्थापना करता है।जहां भी मैला है अथवा कूड़ा करकट है, वहां वहां सूर्य की किरणें पहुंचकर उसको शुद्ध, पवित्र या दोष से मुक्त कर देती हैं। वैसे ही जब हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का उच्चारण करते हैं, तब भगवान प्रकट होते हैं, हमें पूर्ण शुद्ध बनाते हैं। कृष्ण का जो प्रकाश है, ज्ञान है, उनमें जो सामर्थ्य है। वैसे शुकदेव गोस्वामी ने कहा-
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण: । कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥
( श्रीमद भागवतम श्लोक 12.3.51)
अनुवाद:-
हे राजन्, यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है— केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है।
यह कलयुग दुर्गुणों की खान है लेकिन इस कलयुग में एक गुण भी है। वह कौन सा गुण है? कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥
कृष्ण का कीर्तन करेंगे। कृष्ण के नाम का जप करेंगे। मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥ हम मुक्त होंगे, यह भगवान का नाम इस संसार के संग/बंधनों से हमें मुक्त करेगा। ऐसा शुकदेव गोस्वामी भागवत में कह चुके हैं। हरि! हरि! ओम!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
ब्रह्मा जी बोल रहे हैं। ओम…. ओम कहकर उन्होंने प्रारंभ किया। उन्होंने इस महामंत्र को कहा। फिर कहा
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इति षोडशकं नाम्नम, कलि-कल्मश-नाशनम; नतः परतरोपयः, सर्व-वेदेषु दृश्यते।
अर्थ:-
सोलह शब्द- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण
कृष्ण, हरे हरे; हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे-विशेष रूप से कली के सभी प्रदूषणों को पूरी तरह से नष्ट करने के लिए हैं। कलियुग के प्रदूषण से बचने के लिए सभी वेदों में इस सोलह अक्षर वाले मंत्र के जाप के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
कलि के जो दोष, कल्मष हैं, उनका निवारण होगा। (कौन करेगा? )
इति षोडशकं नाम्नम
यह 16 नाम वाला जो मंत्र है, महामंत्र.. यह हमें मुक्त करेगा। हरि! हरि! इसके विषय में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टक में कहते हैं। शिक्षाष्टक का पहला वचन या शब्द तो यही है यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहने का क्या लाभ है? क्या फायदा है? चैतन्य महाप्रभु पहली बात ही कहते हैं
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
अर्थ:-श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
अपनी चेतना का जो दर्पण है, उसका मार्जन होगा, सफाई होगी, धुलाई होगी। (कौन करेगा?) भगवान करेंगे। (किस रूप में करेंगे) अपने नाम कलि काले नाम रुपे कृष्णावतार अर्थात नाम के रूप में करेंगे। हमारे लिए जो भी बातें बंधनकारी हैं अथवा हमें माया में फंसायी हुई है। यह भगवान का नाम सारे भव बंधन को काट देगा, तोड़ देगा और उसकी राख बना देगा। भगवान ही भगवान के नाम के रूप में आते हैं। हरि! हरि!हमें यह भगवान का नाम/ शास्त्र व सिद्धांत भी सीखने समझने हैं। जैसा आपको बताया जा रहा है ताकि इसे सुनकर भी हमारी नाम में और श्रद्धा हो जाए। पता नही था कि नाम की इतनी महिमा है। हम श्रद्धा से निष्ठा तक पहुंच जाते हैं। हरि नाम की महिमा का अधिक से अधिक श्रवण करते हैं। उसके साथ साथ हमें यह भी अनुभव करना है कि नाम ही भगवान है। नाम हमें भगवान के रूप तक पहुंचाता है। वहां से उनके गुणों को प्रकाशित करता है। भगवान के गुणों के साक्षात्कार हमें होने लगते हैं और धीरे-धीरे हम लीला की ओर बढ़ते हैं। फिर लीलाएं जहां संपन्न होते हैं अर्थात धाम का भी साक्षात्कार होता है। अंततोगत्वा भगवान हमें
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
( श्रीमद भगवद्गीता 4.9)
अर्थ:-
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
ऐसे जीव अथवा ऐसी जीवात्मा जब नाम सिद्धि अथवा नाम जप की सिद्धि को प्राप्त कर लेगी मतलब जब हम शुद्ध नाम जप करेंगे। शुरुआत से ही हम से अपराध होते ही रहते हैं। जप भी कर रहे हैं, अपराध भी हो रहे हैं। अपराध क्यों नहीं होंगे? अब तक तो हमनें जन्म जन्मांतरों से अपराध के बिना तो कुछ किया ही नहीं या जो भी किया पाप ही किया है। हमनें भगवान की कृपा से जप करना प्रारंभ तो किया है। हमें नाम के रूप में भगवान मिलें।
फिर धीरे-धीरे भगवान जो करते हैं, जैसा कि हमने कहा? वे हमें प्रकाश देते हैं, हमें ज्ञान देते हैं और साथ ही साथ हमें, हमारी पाप बुद्धि से मुक्त करते हैं। हम में जो भी दोष व त्रुटियां हैं, उस से मुक्त करते हैं। जैसे ही हम नाम की शरण लेंगे, हरिनाम प्रभु यह सब करता है। इनको नाम प्रभु कहते हैं मतलब नाम ही प्रभु है, नाम ही भगवान है। मैं यह भी सोच रहा था कि जो हम नाम अपराध कहते रहते हैं (पवित्र नाम के विरद्ध अपराध)। पवित्र नाम ही भगवान है। नहीं तो.. अरे तुमने अपराध किया! किसी के चरणों में, किसी के प्रति तुमने अपराध किया। व्यक्ति का यह संकेत होता है। ए! तुम नाम अपराध कर रहे हो, धाम अपराध भी कर रहे हो। यह नाम भगवान है। वैसे धाम भी भगवान है, नाम भगवान है, नाम व्यक्तित्व है, सुप्रीम पर्सनैलिटी आफ गोड़हैड अर्थात पुरुषोत्तम भगवान है। भगवान पुरुष है, भगवान व्यक्ति है। हरि नाम ही वह व्यक्तित्व है, वह भगवान है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥
( श्रीमद भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद:
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत।
इस वचन में भगवान ने वादा किया हुआ है। अरे जीव! तुम क्या करो? बाकी दुनियादारी व तथाकथित दान धर्म के कर्म को छोड़ दो। कुछ गौण बातें, कुछ सुलभ बातें भी हो सकती हैं। (क्या करो?)
मामेकं शरणं व्रज
मेरी शरण में आओ। मेरे अकेले की… मैं ही हैं।
एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य । यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 5.142)
अनुवाद:
एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
मैं आपकी शरण में आऊंगा। शरण में आना, यह हमें करना है। अब आपकी( भगवान की) शरण में आ गए। आप क्या करोगे?
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा
कृष्ण गीता के निष्कर्ष में कह रहे हैं। ए जीव, मेरी शरण में आओ। अगर ऐसा तुम करोगे तो मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूं। किसकी? अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा
कितने पापों से? सर्व पापेभ्यो:।
सभी पापों से, सभी पापों से। अभी तक हमने जो कुछ किया, कुछ मिनट पहले मैं कह ही रहा था कि हम अभी तक केवल पाप ही करते रहे हैं।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ॥
( श्रीमद भगवद्गीता 7.19)
अनुवाद:
अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है फिर समझ में आता है
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:
जब व्यक्ति भगवान की शरण में आता है तब भगवान कहते हैं कि मैं तुम्हें मुक्त करूंगा, मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त करूंगा। यदि मेरी शरण में नहीं आओगे तो फिर तुम्हारा चलता रहेगा। इस एक्शन का वो रिएक्शन, एक्शन रिएक्शन। कारण- प्रभाव। यह चलता रहेगा, तुम्हारा
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥ 21॥
फिर से जन्म, फिर से मृत्यु, फिर से माँ के गर्भ में रहना! संसार के इस असीम सागर को पार करना वास्तव में कठिन है। हे मुरारी! अपनी दया से मुझे छुड़ाओ।
यह सब सदा के लिए चल सकता है। यह जो संसार का चक्र है, जन्म मृत्यु का जो चक्र है। इससे मुक्त होने का एकमेव उपाय या मार्ग क्या है? हम भगवान की शरण में जाएं। हम भगवान की शरण में जाते हैं तो भगवान ने कहा है कि तुम्हारे जो एक्शन की रिएक्शन होने वाली है, जो प्रतिक्रिया होने वाली है, उससे मैं तुम्हें मुक्त करूंगा। मैं जिम्मेदारी लेता हूं, वही बात है। कृष्ण सूर्य सम बन जाते हैं अर्थात सूर्य के समान। सूर्य क्या करता है? जहां गंदगी है, जहां मल मूत्र होता है, उसको स्वच्छ बनाता है और वह स्वयं सदा के लिए स्वच्छ रहता ही है। सूर्य में कभी भी दोष या गंदगी नहीं आती।
सारे संसार को साफ या स्वच्छ करते-करते सूर्य गंदा नहीं होता। सूर्य तो सदा के लिए पवित्र रहता है व अन्यों को शुद्ध, पवित्र या स्वच्छ बनाता रहता है। उसी प्रकार यहां कहा गया है कि भगवान पूर्ण शुद्ध, नित्य मुक्त हैं। भगवान स्वयं पूर्ण शुद्ध है और अन्यों को शुद्ध करते रहते हैं। भगवान स्वयं नित्य मुक्त है। जो स्वयं ही मुक्त नहीं, वह औरों को कैसे बना देगा। भगवान स्वयं मुक्त हैं, अभिज्ञ, स्वराट, स्वतंत्र हैं। वे औरों को भी मुक्त बना सकते हैं। यह केवल भगवान ही कर सकते हैं।
एकला ईश्वर कृष्ण आर सब भृत्य।
मुक्ति प्रदाता सर्वेषाम
मुक्ति- सब को मुक्त करने वाले बस विष्णु हैं। विष्णु तत्व हैं, देवी देवता नहीं है और कोई पार्टी नहीं है। जो विष्णु पार्टी है, जो विष्णु है, विष्णु के अवतार हैं, प्रकार हैं। वैसे विष्णु ही अवतारी के अवतार हैं। विष्णु, कृष्ण, नारायण, राम, श्रीचैतन्य महाप्रभु की जय!
ये सारे संसार को मुक्त करने की शक्ति/ युक्ति/ सामर्थ्य रखते हैं। इनके अतिरिक्त कोई नहीं। इसलिए कृष्ण कहते हैं
मामेकं शरणं व्रज अर्थात
मेरे अकेले की शरण में आ जाओ। यह-हरे कृष्ण महामंत्र ही, यह हरि नाम ही हरि है। इसमें कोई अंतर नहीं है। एक ही बात है।
जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥
अर्थ :
निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान् के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक व्यवहार करो।
हरि नाम का आश्रय ही भगवान का आश्रय है। नामजप करना ही भगवान की शरण में आने का अभ्यास है। हरि! हरि! जब हम भगवान की शरण में आएंगे, पूरी समझ के साथ भगवान के नाम की शरण में आएंगे तब यही हरि नाम करने वाला है
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥
यह संसार की ज्वाला/ आग से हमें मुक्त करने वाला है। यह हरि नाम श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं
जहां आग लगी है, यदि हम उसी स्थान पर यह हरि नाम लेंगे तो वहां क्रांति होगी, वहां हरियाली छा जाएगी, वहां पुष्प उगेंगे, सुगंध होगी। शीतल मंद हवा बहने लगेगी। ऐसा स्थान बदल जाएगा, जहां दावाग्नि थी, उसी स्थान पर से केरव चंद्रिका वितरण चंद्रमा की शीतल किरणें प्रकाशित होंगी।हमारे जीवन को शीतल/ ठंडा/ मंगलमय बना देगी। यह हरि नाम का आश्रय है।
विद्यावधूजीवनम् हम विद्वान होंगे। जब हम भक्ति करते हैं तब हमें ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होता है। भक्ति/हरि नाम का जप करना यह सर्वोत्तम भक्ति है।
श्रीप्रह्राद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ ( श्रीमद भागवतम 7.5.23-24)
अर्थ :
प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना)—शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
हम मुक्त होंगे, हमें विद्या वधू जीवनम प्राप्त होगा। हम ज्ञानवान भी बनेंगे।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
तत्पश्चातआनंद सागर में जीव गोते लगाने लगेगा। यह आनंद मय जीवन…
इतीदृक् स्व-लीलाभिर् आनन्द-कुण्डे स्व-घोषं निमज्जन्तम् आख्यापयन्तम्।तदीयेषित-ज्ञेषु भक्तैर् पुनः प्रेमतस् तं शतावृत्ति वन्दे ॥
(दामोदरष्टकम-3)
जैसे आध्यात्मिक जगत में भगवान के परिकर/ संगी/ साथी.. भगवान की लीला के आनंद के सागर में नहाते हैं। ऐसा अनुभव जीव करने लगेगा और सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्
उस का रस से उसका अभिषेक होगा। उसी में स्नान करेगा, उसका ऐसा जीवन बनेगा, आनंद ही आनंद गड़े। परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम ऐसे संकीर्तन व ऐसे हरे कृष्ण महामंत्र की जय! ऐसा स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। नाम की भी जय! नाम का जप करने वाले की जय! जय! जय होगी।
यह पवित्र नाम की भी जीत होगी। वह व्यक्ति भी विजेता होगा जो नाम जप करता है। नाम प्रभु की जय! आप सब जीवात्माओं की जय. हो। आप भी ऐसे विजयी हो। जप करते-करते, करते -करते करते अधिक ध्यान पूर्वक जप करते-करते हेतु चेतोदर्पणमार्जनं करते-करते करते तमसो मां ज्योतिर्गमय होगा । हम अंधेरे से प्रकाश की ओर अमृतमय अर्थात मृत से हम अमर बनेंगे। हरि! हरि!
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