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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
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जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी द्वारा
दिनाँक – 29 मई
हरे कृष्ण
पिछले कुछ दिनों से ये जो सत्र चल रहे हैं, शिक्षाष्टकम् की भी कक्षाएं चलती रही और अब अपराधों का भी अध्ययन हो रहा है। इन दोनों के पीछे का उद्देश्य विशेष है ताकि हमारी हरि नाम प्रभु की सेवा शुद्ध हो या यह शिक्षाष्टकम श्रवण करके।
हरि हरि
जप तो चलता ही रहता है, परंतु इस जप को कैसे सुधारा जा सकता है? तो इसके लिए जपा टॉकस होते हैं नाम अपराध को लेकर यह बड़े महत्वपूर्ण हैं वैसे अपराध तो नगण्य हैं, दे आर यूज़लेस, हमें यूजलेसनेस को समझना है, इतना समझना है कि वह यूजफुल नहीं है यूज़ लेस है और हमें वह करना ही नहीं है जबकि हम उसका उपयोग करते हुए जप करते रहते हैं जबकि समझना है कि हमें उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। अपराधों को मारो गोली कहो छोड़ो, जाओ या फिर जब भगवान श्रीकृष्ण कहे,
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥
(श्रीमद् भगवद्-गीता 18.66)
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत।
(श्रीमद् भगवद्-गीता 18.66)
हमें भगवान के नाम का आश्रय लेना है, यह आश्रय लेने में जो बाधा उत्पन्न करते हैं वह अपराध है। नास्तिक लोग जो होते हैं या अधार्मिक लोग कहो वह अपराध करते रहते हैं। वह पापी होते हैं, लेकिन लोग जैसे ही धार्मिक बनने लगते हैं या आस्तिक बनने लगते हैं अस्ति मतलब भगवान है और कुछ वह भगवान की आराधना करने लगते हैं, धार्मिकता को अपनाते हैं तो उनके कुछ अपराध शुरू हो जाते हैं। ये नोट कर लेना तो हम लोग अब आस्तिक बने हैं या धार्मिक या कृष्ण कॉन्शसनेस में आ रहे हैं, धरम के मार्ग पर हैं तो हम लोग पाप कम कर देते हैं वैसे महापाप तो चार हैं – मांस भक्षण, अवैध स्त्री पुरुष संग, नशा पान और जुआ खेलना इनको महापाप कहा गया है। हम ऐसे पाप तो नहीं करते हैं लेकिन हम से क्या होता है हमसे अपराध होते हैं और वह फिर अपराध – सेवा अपराध है, विग्रह सेवा अपराध है, वैष्णव अपराध नाम अपराध है। हम पाप नहीं करते हम पापी नहीं हैं किंतु हम अपराध करते हैं हम अपराधी हैं । कैसे हम नाम प्रभु की सेवा कैसे हम निरपराध करें ? नाम अपराध 10 हैं और हम अपराधों के विषय में कुछ बात भी करते हैं (कंठस्थ किए होते हैं) उसको रट् लेते हैं अधिकतर तोते जैसा ही रट् लेते हैं। पता नहीं क्या कहा या क्या कह रहे हैं केवल रटते ही रहते हैं उसको कंठस्थ ही किया है, ह्रदयंगम नहीं किया तो हम अपराध करते रहेंगे, नाम की जो साधना है मतलब नाम जप की जो साधना है और फिर नाम जप साधना की सिद्धि भी कहते हैं, नाम सिद्धी-नाम सिद्धि मतलब नाम जप की हो गई सिद्धि अर्थात नाम जप सिद्ध हो गया। हम साधक है तो सिद्ध हो गए, हमको क्या होना चाहिए हमको कृष्ण प्रेम प्राप्त होना चाहिए। नाम की सिद्धि कृष्ण प्रेम प्राप्ति में है नहीं तो कैसी सिद्धि। तो जब तक नाम अपराध की नाम प्रभु की नाम सिद्धि की बातें हो रही है या नामदेव की बातें हो रही हैं, नाम देव – महाराष्ट्र में नामदेव कौन हैं? एक महान संत हैं, ज्ञानेश्वर के साथ ही थे हम ऐसा सोचने लगते हैं कि नामदेव लेकिन नामदेव तो भगवान का नाम है कैसे देव- नामदेव जैसे हरिदेव कैसे देव -हरि हरि , नाम देव भगवान नाम है यानी नामरूप
कली काले नाम रुपे कृष्ण अवतार
जैसे ही हम कुछ दिनों से अपराधों की चर्चा कर रहे हैं, अपराधों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। मैं स्वयं भी अधिक अधिक इसकी महिमा समझ रहा हूं, इनको समझना कितनी महत्वपूर्ण बात है क्योंकि इसको समझे बिना हम इसको टाल नहीं सकते। मुझे कहा गया है आज मेरी बारी है, कई दिनों से इन अपराधों को समझने का प्रयास चल रहा है। एक-एक करके 6 अपराधों की चर्चा हो चुकी है और आज हम अपराध संख्या सात और आठ को समझेंगे। यह सारे 10 नाम अपराध पद्मपुराण के स्वर्ग खंड में आते हैं। पद्म पुराण में इन 10 नाम अपराधों का उल्लेख हुआ है, दुनिया वाले या फिर यह कहो कि हिंदू जगत के जन उनको तो चिंता भी नहीं होती, किसको पता होता है कि नाम अपराध भी होते हैं। नाम जप या कीर्तन तो कई सारे जन्म से लोग करते रहते हैं, केवल हरे कृष्ण वाले ही नहीं हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण का कीर्तन या जप करने वाले या और भी भगवान के नाम हैं यह भी है इसका कीर्तन और जप करने वाले लोग असंख्य हैं । लेकिन नहीं नाम अपराध भी होते हैं नाम अपराध मत करो क्यों अपराधहीन जप होना चाहिए। इस पर तो चर्चा होती ही नहीं सुनने भी नहीं आता ये नाम अपराध भी कुछ होते हैं वह क्या चीज है किसी ने सुना नहीं, कोई कहता नहीं, किसी से सुना नहीं और इन नाम अपराधों को सुनना समझना महत्वपूर्ण है। जितना जप करना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण इन 10 नाम अपराधों को समझना और समझ के इन 10 नाम अपराधों से बचने का प्रयास भी महत्वपूर्ण है। इसलिए हम लोग इसे गंभीरता से लें और कुछ दिनों तक यह पाठ तो चलता ही रहेगा लेकिन इसके उपरांत भी आप इसे भूलेगा नहीं इन 10 नाम अपराधों को केवल याद ही नहीं रखना है। यह भी याद रखना है कि इनको टालना है, इनसे बचना है और यदि ऐसा नहीं करेंगे तो बहुत जन्म जन्मांतर के नाम जप या नाम कीर्तन के उपरांत भी कृष्ण प्रेम को भूल जाओ। कृष्ण प्रेम नहीं प्राप्त होने वाला है ऐसा शास्त्रों का वचन है। सावधान
धर्म: स्वनुष्ठित: पुंसां विष्वक्सेनकथासु य: ।नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥
(श्रीमद् भागवतम 1.2.8)
अनुवाद :-
मनुष्य द्वारा अपने पद के अनुसार सम्पन्न की गई वृत्तियाँ यदि भगवान् के सन्देश के प्रति आकर्षण उत्पन्न न कर सकें, तो वे निरी व्यर्थ का श्रम होती हैं। फिर हमारी रति हमारा प्रेम भगवन्नाम में उत्पन्न नहीं हुआ तो जो हमारे सारे प्रयास रहे वे श्रम एवं ही केवलम हैं। हमने केवल खाली फोकट श्रम ही किया मैं आपको यह कहने का प्रयास ही कर रहा हूं, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है नाम अपराध वाली बात को समझना और इसको टालना । पद्म पुराण में जैसे लिखा है सातवाँ और आठवां नाम अपराध
नामों बलात् यस्य ही पाप बुद्धि ना विद्यते तस्य यामी ही शुद्धि
इसका भाषांतर या आप जिसको रट्ते रहते हो कंठस्थ किए हो वह है, जिनकी नाम के बल पर पाप करने की बुद्धि होती है। फिर से ध्यान पूर्वक सुने नहीं तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ने वाला है उनकी यम नियम आदि यौगिक प्रक्रियाओं से भी शुद्धि नहीं होती है और अगला आठवां है
धर्म व्रत त्याग हुतादि सर्व शुभ क्रिया समान अपि प्रमाध:
अनुवाद:- हरे कृष्ण महामंत्र के जप को वेदों में वर्णित एक शुभ सकाम कर्म, कर्मकांड के समान समझना, धर्म व्रत त्याग होम आदि के समान समझना वैसे इन सारे अपराधों की चर्चा श्रील भक्ति विनोद ठाकुर अपने जैव धर्म नामक पुुुस्तक के एक अध्याय में, जैव धर्म अर्थात जीव का धर्म, वैसे कलयुग में जीव का धर्म तो नाम संकीर्तन है। भक्ति विनोद ठाकुर ने इन नाम अपराधों को विस्तार से समझाया है, वह भी इस ग्रंथ में जो शिक्षा अष्टकम नामक ग्रंथ है उसका समावेश किया गया है। आपने उस ग्रंथ को प्राप्त किया या नहीं, किस किस के पास यह ग्रंथ है? कुछ भी हेंड रेज नहीं हो रहे हैं। कुछ लोगों के पास यह है, अधिकतर लोगों के पास यह ग्रंथ नहीं पहुंचा है। जरूर प्राप्त कीजिए इसका अध्ययन बहुत आवश्यक है और फिर अध्ययन के उपरांत इस पर मनन और अमल को हमें करते ही रहना है । जो सातवा नाम अपराध है कि नाम के बल पर पाप करना इसे संक्षेप में कहा जाता है। नाम के बल पर पाप करना पहले ही कह दूं आपसे इन दोनों नाम अपराधों का संबंध एक नाम अपराध नंबर 2 से संबंध है। देवी देवताओं को भगवान के समान अथवा उनसे स्वतंत्र समझना, ये जो दूसरा नाम अपराध है उसके साथ ही सातवाँ और आठवां अपराध जुड़े हुए हैं। वैसे सातवें और आठवें अपराधों का भी आपस में परस्पर संबंध है और शिक्षा अष्टकम का
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
इस चतुर्थ शिक्षा अष्टकम के साथ भी इन दोनों सातवे तथा आठवें अपराध का सीधा संबंध है। नाम इतना बलवान है कि शास्त्रों में कहा गया है
नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् । प्रणामो दु:खशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥
(श्रीमद् भागवतम 12.13.23)
अनुवाद:- मैं उन भगवान् हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है।
सभी पापों का नाश कर सकता है और ऐसा भी कहा है कि ऐसा कोई पाप नहीं है जिसका विनाश या जिससे मुक्ति हरि नाम से नहीं होगी ।
किबा मन्त्र दिला , गोसाञि , किबा तार बल। जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल ॥
अनुवाद:- हे प्रभु, आपने मुझे कैसा मन्त्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ।”
ऐसा चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कितना बलवान है यह शक्तिशाली है। चैतन्य महाप्रभु भी ने कहा है , नामनामकारी बहुदा निज सर्व शक्ति: तत्रापिता मैंने अपनी शक्ति इसमें ठूँस ठूँस भरी हुई है। नाम इतना बलवान है जितना भगवान शक्तिमान है, जितना हम भगवान के नाम का, शक्ति का महिमा सुने होते हैं, इसका हम लोग फायदा उठाने की जो प्रवृत्ति है, बुद्धि है वही है सातवाँ नाम अपराध। नाम इतना बलवान है कि हम पुनः पुनः पाप करने लगते हैं, कुछ पाप हो जाए हमसे तो क्या परवाह है बाद में क्या करना है जप तो करना ही है। आज दिन भर पाप करें, कल जप तो करना ही है क्योंकि नाम बहुत बलवान है। हम मुक्त हो जाएंगे या हम कुंभ मेले जाएंगे गंगा तेरा पानी अमृत, गंगा का जल अमृत है हमको अमर बना सकता है। मुक्त करा सकता है तो चलो एक कुंभ मेले से दूसरे कुंभ मेले तक पाप करते जाएंगे और फिर जाकर गंगा में डुबकी लगाएंगे हो गए। मुक्त तो यह गंगा में जो बल है या हरिनाम में जो बल है इसका फायदा उठाने का और जानबूझकर जान के यह करने का की हरी नाम में हमारे पाप को धूल मिलाने की, मिटाने की शक्ति है यह जानकर भी हम पाप या अपराध करते जाए तो यह अपराध है। वैसे अनजाने कुछ अपराध हो जाते हैं दुर्घटना वर्ष हमारी पुरानी आदतों से आदतें छुटती नहीं। इसमें पाप होता रहता है उस पाप की बात नहीं हो रही है, हमने कहा भी कि जाने और अनजाने। अनजाने तो पाप हो जाते हैं वह भी नहीं होने चाहिए। किंतु जाने अनजाने जानबूझकर हम पाप करते हैं यह जानकर कि हरि नाम में इतनी शक्ति है तो थोड़ा पाप कर लिया तो क्या हो गया यह जो बुद्धि है यह विपरीत बुद्धि है, ऐसी योजना से हमे बचना है। पाप करने की बुद्धि हम बनाए रखते हैं।
नामों बलात् यस्य ही पाप बुद्धि ना विद्यते तस्य यामी ही शुद्धि
फिर यहां कहा है कि इस अपराध में यम नियम हैं, यह भी हमारा कुछ सुधार नहीं कर पाएंगे कि यम मतलब विधि निषेध जो है यह करो यह मत करो यह भी हमारी मदद नहीं करेंगे क्योंकि हमारे दिमाग में यह पाप बुद्धि घुसी हुई है और हम उस से मुक्त होना नहीं चाहते। यम नियम से तो शुद्ध ही होना है फिर आसन प्राणायाम और प्रत्याहार अत्याहार और प्रत्याहार, हर इंद्रिया का जो आहार होता है सिर्फ जिह्वा का या मुख का ही आहार नहीं होता। रूप- रंग, रस गंध शब्द स्पर्श यह इंद्रियों के विषय हैं और यह जो अलग-अलग इंद्रियां हैं ज्ञानेंद्रियां इसका भक्षण करते ही रहते हैं लेकिन यह प्रत्याहार करने की बजाय साधक अत्याहार या आहार करता ही रहता है। पाप करता ही रहता है यह सोच कर कि नाम में इतना बल है तो मैं मुक्त हो ही जाऊंगा तो यम नियम या अष्टांग विधि ही है। यह क्या कर सकती है कुछ सुधार नहीं कर सकती समाधिस्थ केशव। हम समाधिस्थ योगस्थ नहीं होंगे।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||
“योगस्थ कुरु कर्माणि” योग में स्थित होकर, समाधिस्थ होकर हमें भगवान की सेवा करनी है तो हम योगस्थ और समाधिस्थ नहीं होंगे। यह माया वादियों की समाधि की बात नहीं है। वह तो ब्रह्मलीन होना चाहते हैं तो यह यम नियम अष्टांग योग कुछ हमारा फायदा नहीं कर पाएगा ।जब तक हम यह पाप बुद्धि बनाए रखेंगे,हरी हरी
समझ गए आप कुछ तो समझे होंगे ही लेकिन शायद उस पर मनन करना होगा या पुनःपुनः इसको समझने का और भी प्रयास हमको करना होगा और साथ ही साथ शिक्षाष्टकम् जैसे ग्रंथों का हमें अध्ययन करना होगा ।
बोधयंत परसपरम चर्चा करते हुए या
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति! भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्। [लेना, देना, खाना, खिलाना, रहस्य बताना और उन्हें सुनना ये सभी 6 प्रेम के लक्षण है!]
मैं सोच रहा था मैं तो वही कर रहा हूं, गोपनीय बातें हैं गहरी बातें हैं इनको मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूं और यह प्रीति लक्षण है। मेरा आपसे जो प्रेम है उसका ही यह लक्षण और दर्शन भी हो सकता है पता नहीं आप क्या मान रहे हो आई लव यू कहो मैं कह रहा हूं, मेरा आपसे प्रेम है इसलिए मैं चाहता हूं आप सब इन अपराधों को भलीभांति समझे और समझकर अमल करें और कृष्ण प्रेम को प्राप्त करें जो जीवन का लक्ष्य है। दस नाम अपराध कहने के बाद भी वैसे हम यह कहते रहते हैं।
अब आठवां अपराध है हरे कृष्ण महामंत्र के जप को वेदों में वर्णित एक शुभ सकाम कर्म, धर्म, व्रत, त्याग, होम आदि के समान समझना तो यह समान नहीं है जैसे देवता और भगवान कृष्ण समान नहीं है वैसे ही यह कुछ धार्मिक कृत्य या जिनको शुभ कृत्य कहे हैं। जैसे यज्ञ है और तप है सबको अलग-अलग कर्मकांड , वेद भरे पड़े हैं कर्मकांड से। यह कर्मकांड यह विधि विधान और भक्ति का जो यह कर्म उसमें भी जो नाम जप यह एक ही बराबर है। एक ही बात है लेकिन यह एक बात नहीं है एक ही बात कहने वाले लोग फिर कहते हैं, मानव सेवा माधव सेवा लेकिन मानव सेवा यह समाज सेवा देश सेवा मानव जाति की सेवा के लिए कई सारे अस्पताल खोलते हैं, स्कूल कॉलेज खोलते हैं या कोई दान धर्म करते हैं अन्य दान करते हैं। ऐसे कई प्रकार से वह सेवा करते हैं तो उस सेवा की तुलना हरि नाम जप के स्तर पर है ऐसा समझना अपराध है।
हरि हरि
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह करना गजब ध्यान करना यह तो कृष्ण की सेवा है यह तो नाम भगवान है और जो पुण्य कर्म करने वाले हैं यज्ञ भी करते हैं और अलग-अलग देवी देवता को आहुति चढ़ाते हैं। वह तो पंच उपासना के अंतर्गत हुआ यदि देवो की उपासना वहां कर रहे हो और यह तो कृष्ण की उपासना है तो दोनों उपासना एक स्तर की नहीं है या एक ही है
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः|भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ||
(श्रीमद भागवतम 9.25)
देवा नाम यजोयंती कृष्ण ने कहा जो देवी देवताओं के पुजारी हैं जो कर्मकांड करने वाले देवी-देवताओं की आराधना करते अपनी कोई आकांक्षा या महत्वाकांक्षा को लेकर किसी विशिष्ट देवता की आराधना करते हैं ।
कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः | तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||
(श्रीमद भगवद्गीता 7.20)
प्रपद्यंते अन्य देवता, जो कामी होते हैं अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए अन्य देवी देवताओं का आश्रय लेते हैं। आराधना करते हैं, यज्ञ करते हैं और उसी के अंतर्गत कुछ पुण्य कर्म करने को प्रेरित होते हैं तो उसकी तुलना, ऐसा करोगे तो करते रहो लेकिन कहां पहुंचोग़े, देवों के स्वर्ग में पहुंचेंगे । जो मेरी आराधना करते हैं वह मेरे पास आते हैं कृष्ण भगवत गीता में कह रहे हैं तो पुण्य कर्म का फल ,जैसे श्री कृष्ण भी कहे ,
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ||
(श्रीमद भगवद्गीता 14.18)
भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता में कहा है, वे पुण्यात्मा होते हैं, पुण्य मतलब अच्छे कर्म किंतु वे उत्तम कर्म नहीं होते, गुड होते हैं लेकिन बेस्ट नहीं होते अच्छे होते हैं, सतोगुण में होते हैं। सतोगुण भी हो सकते हैं वे लेकिन गुणातीत नहीं होते भक्ति तो गुणातीत है।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||
(श्रीमद भगवद्गीता 2.45)
सावधान हे अर्जुन वेदों का विषय क्या है तीन गुण लेकिन तुम गुणातीत बनो, वेदों का विषय या उद्देश्य कुछ प्राप्ति कामवासना की तृप्ति के लिए किए जाते हैं लेकिन तुम बनो और तुम भक्ति करो गुणातीत बनो, यह जो जप है यह गुणातीत भक्ति है। यह गुणातीत करते हैं हमने किसी के ऊपर कोई उपकार किया तो श्रील प्रभुपाद का प्रसिद्ध वह वचन या बाते भी है। टाटा या बिड़ला का या अंबानी या अडानी का बेटा ऐसे ही कहीं भटक रहा है तो आपको आई दया और आपने उसको आश्रय दिया और आपके सामर्थ्य के अनुसार कुछ उसकी मदद कर रहे हो सहायता कर रहे हो, यह एक प्रकार हुआ और दूसरा प्रकार क्या है? यह समझना कि यह किसका कितने श्रीमान व्यक्ति का पुत्र है तो यहां क्यों भटक रहे हो जाओ गो बैक चलो तुमको हम घर वापसी तुम्हारे पिता के घर पर पहुंचाते हैं और हम तुमको क्या सुख सुविधा दे सकते हैं। तुम्हारे पिताश्री, हम तो हज़ारपति हैं तुमको हजार रुपए हमारे पास जेब में हैं या हो सकता है हम लखपति हैं तुम्हारे पिताश्री तो करोड़पति, अरबपति हैं तो यही बात है हम इस संसार में समाज सेवा मानव जाति की सेवा करते रहते हैं किंतु इन लोगों को जीवो को यह समझ कर कि वे कृष्ण के हैं येई जीव कृष्णदास सेई विश्वास
हमें यह विश्वास है कि हम तुम्हें कृष्ण के पास भेजेंगे तो वहां तो लक्ष्मी सहस्त्र शत संभ्रम चिन्तामणि-प्रकार-सद्मसु कल्प-वृक्ष-लक्षवृतेषु सुरभिर अभिपालयंतम लक्ष्मी-सहस्र-शत-संभ्रम-सेव्यम नम गोविंदम आदि-पुरुषम तम अहम भजामि
(श्रीमद भगवद्गीता 5.29)
मानव उस गोलोक में तो लाखों करोड़ों लक्ष्मी या गोपियां या राधा रानी जिन श्रीकृष्ण की सेवा करने के लिए उत्कंथीत या सम्भ्रमित होती रहती हैं। हमको यह सोचना पड़ेगा कि हमें सेवा कब मिलेगी, कैसे मिलेगी हमें यह सेवा मिलेगी भी कि नहीं मिलेगी। ऐसे उस धाम में हम कैसे इस जीव को पहुंचा सकते हैं यह उत्तम बात है ।
यह ठीक है रामानंद राय चैतन्य महाप्रभु को कह रहे थे लेकिन यह उत्तम है। इट्स ओके व्हाट दिस इज द बेस्ट यह सर्वोत्तम है तो हमारे दिमाग में भी ऐसे संस्कार बने हैं की देवी देवताओं के पुजारी हम रहे हैं और सतोगुण ही बनके हमने कई सारे पुण्य कृत्य किए हैं। शायद करना हमने बंद किया होगा किंतु उसकी जो वासना है उसका जो संस्कार है अभी हम पर प्रभावित करते रहते हैं। आच्छादित करते रहते है तो इस विचारों से मुक्त होना है इस विचारधारा से मुक्त होना है या जो दुनिया वाले जो कुछ ऐसा धार्मिक लोग समझते हैं कि पुण्य कर्म और भक्ति कर्म एक ही बात है। कभी-कभी तो उनकी बात अधिक अच्छी बात है, कहने वाले जैसे विवेकानंद स्वामी महाराज कहा करते थे यह जो लोगों को कुछ बेगुन वगैरह खिलाओ । बैगन की भाजी बनती है तो तेल वगैरह की भी आवश्यकता होती है तो आप बेकार का तेल को क्यों जला रहे हो यज्ञ में आहुति चढ़ा रहे हो भगवान की विग्रह आराधना में भी तेल का और रसोई घर में भी तेल का उपयोग होता है या दीप भी जलते हैं वहां भी जलाते हो आप यह बंद करो ।दिस इज यूजलेस लोगों को बेगुँन खिलाओ और कुछ खिलाओ कुछ दे दो और यह सब बंद करो क्योंकि वह समकक्ष ही नहीं हमारा पुण्य और तुम्हारी भक्ति एक दर्जे की है, समकक्ष है ऐसा ही नहीं लोग तो भक्ति को तो नगण्य समझते हैं, छोड़ दो यह भक्ति, लोगों की सेवा करो। मैं भी स्वामी विवेकानंद का फॉलोअर्स था और कइयो का था तो फिर जब हम श्रील प्रभुपाद की जय श्रील प्रभुपाद के चरणों में पहुंचे श्रील प्रभुपाद समझाएं
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखा: ।प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥
अनुवाद:- जिस तरह वृक्ष की जड़ को सींचने से तना, शाखाएँ तथा टहनियाँ पुष्ट होती हैं और जिस तरह पेट को भोजन देने से शरीर की इन्द्रियाँ तथा अंग प्राणवान् बनते हैं उसी प्रकार भक्ति द्वारा भगवान् की पूजा करने से भगवान् के ही अंग रूप सभी देवता स्वत: तुष्ट हो जाते हैं।
विधि क्या है? वृक्ष की सेवा करनी है, वृक्ष फलता फूलता देखना चाहते हो तो उसकी जड़ों में पानी दो, उसके पत्तों को कुछ खिलाते नहीं है, फल को खिलाते नहीं है या शाखा को खिलाते नहीं है विधि क्या है उसकी जो रूट है उसकी जो मूल है वहां पानी डाल दो पहुंच जाएगा सारी शाखा उपशाखा पत्ते फल उनकी पुष्टि होगी तो देवी-देवता मूल नहीं है। आई होप आप लोगों को कुछ तो समझ आ रहा है पहले से अधिक कुछ तो समझ रहे हैं, ये दो नाम अपराध भी। मैं यह कह रहा हूं कि इन सारी नाम अपराधों को, यह अपराध है। पहला यह है दूसरा यह है इसको भली-भांति समझ लो और फिर हमें हर प्रयास करना है इसको टालने का प्रयास करना है, तभी हमसे वही तो बात है जो जप करते हैं उसकी तीन अवस्थाएं कहीं गए हैं अपराध सहित – जप भी करते हैं अपराध भी करते हैं, जप भी चल रहा है और अपराध भी चल रहा है। दूसरा होता है नामाभास, नाम का कुछ आभास होने लगता है कुछ अपराध अभी बचे हुए हैं। नामाभास की स्थिति में उस स्तर पर या मन: स्थिति में तो नाम अपराधों से भी बचना है, नाम आभास से भी अधिक आगे बढ़ना है, नामाभास से मुक्ति तो हो गई जैसे अजामिल की हुई नारायण नारायण कहा था इसको नामाभास कहते हैं । हेल्पलेस बनके असहाय बनके उसने पुकारा नारायण का नाम जो उसके पुत्र का ही नाम था। नारायण किसी और का नाम नहीं है जैसे कि मैं कह रहा था नामदेव कौन , संत नामदेव लेकिन नामदेव और कोई नहीं है। नामदेव कौन हैं, भगवान हैं तो नारायण पुत्र का तो नाम था ही लेकिन नारायण नाम नारायण का ही है ।अनजाने कहो अननोइंग्ली उसने नारायण नारायण कहा और जिस स्थिति में कहा हेल्पलेस असहाय स्थिति में तो वे मुक्त हो गए। मुक्त हो गए मतलब उस समय यमदूत आए थे उनसे बचा लिया नहीं तो यमदूत तैयार थे वह खींच रहे थे। उसकी आधी आत्मा तो बाहर आ गई थी और आधा शरीर अटका हुआ था इतने में विष्णु दूत आ गए और विष्णु दूतों ने भगा दिया क्यों और उसने और साधना की हरिद्वार गए थे। अजामिल कन्नौज कानपुर क्षेत्र से फिर हरिद्वार गए और उन्होंने बड़े सावधानी पूर्वक कार्य अपराधों से बचते हुए अपनी साधना की और भक्त हो गए। नामआभास ने उनको मुक्त बना दिया और अभ्यास किया अपराध रहित जप करने का तो भक्त हो गए विष्णु भक्त, दूसरी टीम आई और बैकुंठी यानी अजामिल को बिठाकर बैकुंठ लोक ले गए यही जीवन का लक्ष्य है। हरि हरि
जड़ भरत भी जड़ भरत होने से पहले वे भरत महाराज से अंते नारायण स्मृति उन्होंने नहीं की तो अगले जन्म में हिरण बन गए लेकिन हिरण के शरीर में ही बड़ी सावधानी के साथ रहते थे, भगवान की कृपा से उन्होंने जो गलतियां की थी व्यस्त हुए थे और भी जो अपराध किए होंगे उनका स्मरण करते हुए वे हिरण का जीवन जी रहे थे लेकिन पुन: वही अपराध वही पाप ना हो तो फिर तीसरे जन्म में
*बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 7.19)
ऐसे कई बार जन्म ले सकते हैं भरत महाराज इसके उदाहरण हैं अपराध करोगे तो पुन: जन्म लेना पड़ेगा । पुनः जन्म की संभावना है, साधु सावधान सब भक्तों सावधान ओके टाइम इज अप । ऐसा ही होता है कुछ बातें अधूरी रह जाती हैं तो देखते हैं नेक्स्ट टाइम इज ऑलवेज नेक्स्ट टाइम तो होता ही है। हू नोज होगा कि नहीं इसलिए अच्छा है कि आज ही । कल करे सो आज कर आज करे सो अब और आज से अच्छा है अब करो पूरा समझे भी नहीं तो यह डायलॉग कंटिन्यू हो सकता है भक्तों के साथ में सीनियर डीवोटीस के संग में इसको चर्चा या प्रश्न उत्तर शंका समाधान इत्यादि आगे बढ़ा सकते हैं।
हरे कृष्ण
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हरे कृष्ण
जप चर्चा
दिनांक- 20 मई 2023
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
आज का जपा टोंक प्रारंभ करते हैं।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद। जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त वृंद।। आप सभी ने इस शिक्षाष्टकं नामक ग्रंथ को प्राप्त किया या नही?आशा है कि आप सभी के पास यह ग्रंथ है। शिक्षाष्टकं के अध्ययन के लिए यह बहुत उपयोगी ग्रंथ है। इसे अवश्य प्राप्त कीजिए।
सेई सेई भावे निज-श्लोक पाडिया। श्लोकेर अर्थ अस्वादे दुई-बंधु लान।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.6)
चैतन्य चरित्रामृत की अंत: लीला अतिंम अध्याय, अध्याय संख्या 20 में शिक्षाष्टकं की शिक्षाएं दी गई हैं और शिक्षाष्टकं तो स्वयं चैतन्य महाप्रभु ने दिया है।
श्री कृष्ण चैतन्य राधा-कृष्ण ना ही अन्य।
शिक्षाष्टकं चैतन्य महाप्रभु स्वयं सुनाया करते थे। जगन्नाथपुरी में एक गंभीर स्थान है, जिसे गंभीरा ही कहते हैं। यहाँ चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद और स्वरूप दामोदर के साथ शिक्षाष्टकं पर चर्चा किया करते थे। उन्हें सुनाते थे, उन्हें पढ़ाते थे और उनके साथ श्लोको का आस्वादन करते थे
कौन दिने कौन भावे श्लोक-पढन। सेई श्लोक अस्वादिते रात्रि-जागरण।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.7)
किसी दिन या किसी रात्री को कोई एक श्लोक या श्लोक का अंश लेते थे और उसके जो भाव है, उसका आस्वादन करते और आस्वादन करते-करते रात्रि का जागरण होता, जिसको स्लीपलेस नाइट कहते हैं।
यार चित्ते कृष्ण प्रेमा-करये उदय। तांर वाक्य क्रिया, मुद्रा विज्ञेह ना बुझय।।
(चैतन्य चरितामृतम मध्य लीला 23.39)
श्री चैतन्य चरितामृत में ही कहा गया है कि जिनके चित्त में प्रेम का उदय होता है, ऐसे व्यक्ति के वाक्य, उनकी क्रियाएं, उनके कार्य, उनके हाव-भाव और मुद्रा को विद्वान भी नहीं समझ सकते।यहां तो जिनके चित्त में प्रेम का उदय हो रहा है, वह श्री कृष्ण ही हैं, स्वयं भगवान ही हैं। इसीलिए उनके यह वाक्य शिक्षाष्टकं हैं, उनकी सारी क्रियाएं, कार्यकलाप या हाव भाव या उनके लक्षणों को समझना कठिन होता है। यहां हम ऐसे कठिन विषय को समझने का प्रयास कर रहे हैं। इस विषय को अचिंत्य कहा जा सकता है। इसको बुद्धि से समझा नहीं जा सकता, भगवान ही हृदय प्रांगण में इस विषय को प्रकाशित करेंगे और किसे?
तृणादपि शुनिचेन वाली मनोवृत्ति वाले भक्तों को ही चैतन्य महाप्रभु के भाव या क्रियाएं समझ में आती हैं। ऐसे भाव की अब भी आवशयकता है।
वैराग्य – विद्या – निज – भक्ति – योग – शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः । श्री – कृष्ण – चैतन्य – शरीर – धारी कृपाम्बुधिर्यस्तमहं प्रपद्ये।।
(चैतन्य चरितामृतम मध्य लीला 6.254)
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय लेकर हम इन अष्टको को समझने का प्रयत्न करते हैं। सार्वभौम भट्टाचार्य ने इन शब्दों में महाप्रभु की गौरव गाथा कही है।
शिक्षाष्टकं एक: पुरुषं पुराण:”।
एक अकेले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही शिक्षाष्टकं के शिक्षक हैं। श्री कृष्ण चैतन्य शरीर धारी, वह श्री कृष्ण चैतन्य का शरीर धारण करके प्रकट हुए हैं और क्या सिखा रहे हैं? वह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की विद्या सिखाने के लिए प्रकट हुए हैं और यंहा इस शिक्षाष्टकं में भी वह पढा और सुना रहे हैं।
कृष्णं वंदे जगद्गुरु, जगत गुरु चैतन्य महाप्रभु ने इस शिक्षाष्टकं को पढ़ाया और सुनाया है
कहिते कहिते प्रभुर दैन्य बाडिला।‘शुद्ध भक्ति कृष्ण- ठाणि मागिते लागिला।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.27)
चैतन्य चरितामृतम अंत: लीला के 20 वे अध्याय में यह वचन हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने दो मित्रों, भाइयों के साथ जगन्नाथपुरी के गंभीरा में इस शिक्षाष्टकं का आस्वादन कर रहे हैं और इसे कहते कहते उनमें देन्य भाव और बढ़ रहा है और इस देन्य भाव में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु शुद्ध भक्ति मांगने लगते हैं ।
प्रेमेर स्वभाव- याहां प्रेमेर संबंध। सेइ माने- कृष्णे मोर नाही, प्रेम गंध।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.28)
यहां पर यह भी कहा जा रहा है कि जो सचमुच प्रेमी भक्त होते हैं, जिनका स्वभाव ही प्रेम देने का होता है, वो वैसे तो यह मानते रहते हैं कि अरे अरे मुझे तो प्रेम की गंध भी प्राप्त नहीं हो रही है। किंतु वास्तव में वह प्रेम से भरपूर होते हैं, किंतु यह उनका भाव होता है कि मुझे तो प्रेम की गंध भी प्राप्त नहीं हो रही है। अगले अगले अष्टको में प्रथम अष्टक, द्वितीय और तृतीय अष्टक के भाव भी धीरे-धीरे प्रकट होते जाएंगे
धन जन नाहि मागो, कवित सुंदरी। शुद्ध भक्ति देह मोरे,कृष्ण कृपा करि।।
(चैतन्य चरितामृतम अंत: 20.30)
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं कि मुझे धन नहीं चाहिए, मैं जन नहीं मांग रहा हूं, कविता और सुंदरी नहीं मांग रहा हूं, कृपया करके मुझे शुद्ध भक्ति दीजिए।
इन शब्दों में चैतन्य महाप्रभु कृपा की याचना कर रहे हैं। आप लोग मेरे पीछे-पीछे दोहरा सकते हैं
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि।।
(चैतन्य चरितामृत अंत: 20.29)
आज इस अष्टक का पाठन होगा।मैं पढ़ाऊंगा और आप सुनोगे। चैतन्य महाप्रभु ने भी इस अष्टक को तीसरे अध्याय में समझाया है। हल्का सा भाष्य सुनाया है और फिर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने यह भाष्य लिखा है, इस भाष्य का नाम उन्होंने संबोधन भाष्य दिया है और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी अपना एक भाष्य लिखा है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने सारे अष्टकोंन के अन्वय भी लिखे हैं।अष्टक तो पद्य है उन्होंने अष्टक को गद्य बनाकर लिखा है, यह अन्वय है। इसको समझते हैं, इस श्लोक को हमने अभी सुना- ना धनम् ना जन्म उसका अन्वय और अन्वय के साथ इसके शब्दार्थ भी हैं। हे जगदीश जगन्नाथ मतलब कृष्ण, जगदीश यह संबोधन है।*अहमं न धनं, न जनं, न सुंदरीम इत्यादि कैतवातक त्रिवर्ग मुलं कर्म।
हे जगदीश, जगन्नाथ, अहं न धनं, न जनं, न सुंदरीम कवितां वा (इत्यादि कैतवात्मक त्रिवर्ग मूलं कर्म)
श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर अन्वय में लिखते हैं यह जो है धन्म, जन्म, कविता, सुंदरीं इत्यादि कैतवातमक त्रिवर्ग मुलं कर्म है। कैतव धर्म के अंतर्गत ऐसी मांग होती है।
धर्म: प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां। वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।। श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वर:। सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभि: शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्।।
(श्रीमद् भागवतम् 1.1.2)
किंतु भागवत धर्म ने इनको ठुकराया है। धनं जन्म सुंदरीं कवितां यह कैतव धर्म है। मैं इनको नहीं चाहता हूं। न कामये।(न प्रार्थये किंतु)
मुझे धनं-जन्म प्राप्त हो मेरी ऐसी कामना नहीं है और
मम जन्मनि जन्मनि (अत: अपौनभरवरूपं ज्ञानमपि न कामये।अपितु),
मेरा पुनः पुन: जन्म ना हो, मैं मुक्त हो जाऊं इसके संबंधित जो ज्ञान है, मैं ऐसा ज्ञान भी प्राप्त नहीं करना चाहता हूं और अगर मैं मुक्त भी नहीं हुआ तो भी मुझे कोई परवाह नहीं है किंतु
त्वयि (अधोक्षजे), अहैतुकी (निष्कामा व्यवधानरहिता),
भक्ति: भवतात् (भूयात्)
मुझे अधोक्षज: भगवान कि अहैतुकी (निष्कामा व्यवधानरहिता), भक्ति प्राप्त हो।यही मेरी कामना है।
हे जगदीश ,जगन्नाथ,
अहं न धनं, न जनं, न सुंदरीम कवितां वा (इत्यादि कैतवात्मक त्रिवर्ग मूलं कर्म),
न कामये। (न प्रार्थये किंतु),
मम जन्मनि जन्मनि (अत: अपौनभरवरूपं ज्ञानमपि न कामये।, अपितु),
त्वयि (अधोक्षजे),
अहैतुकी (निष्कामा व्यवधानरहिता),
भक्ति: भवतात्(भूयात्)
अहं धमार्थ कामात्मिकां भुक्तिं भवबंधमोचनात्मिकां मुक्तिं न प्रार्थये, केवलां शुद्धामेव सेवां त्वच्चरणे अहं याचे इत्यर्थ:
मुझे भुक्ति नहीं चाहिए धर्म अर्थ काम मोक्ष वाली भुक्ति नहीं चाहिए भवबंधमोचनात्मिकां मुक्तिं न प्रार्थये और मुझे भव बंधन से मुक्त होने वाली मुक्ति भी नहीं चाहिए । मैं मुक्ति के लिए भी प्रार्थना नहीं कर रहा हूं।
केवलां शुद्धामेव सेवां त्वच्चरणे अहं याचे इत्यर्थ:
केवल आपके चरणो में शुद्ध भक्ति हो यही मेरी प्रार्थना है और इस अष्टक का अनुवाद इस प्रकार से है, हे जगदीश मुझे धन अनुयाई, सुंदर पत्नी या, अलंकारी भाषा में वर्णित सकाम कर्मों की कामना नहीं है। मैं तो केवल इतना ही चाहता हूं कि जन्म जन्मांतर आपकी अहैतुकि भक्ति करता रहूं और अब संबोधन भाष्य भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा, यह भाष्य तो अधिक विस्तार में हैं किंतु हमने इसमें से केवल एक ही अंश चुना है, उस भाष्य में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं, हे जगदीश धनं, जनं, सुंदरीम कवितां वा अहमं न कामये। इसमे जो स्थूललिडगतेन्द्रिय, अत्र धनपदेन वर्णाश्रम निष्ठ धर्म धनम् ऐहिकपारतिकजडसुखकरं सर्वं अर्थ धनम् स्थूललिडगतेन्द्रियगणानन्दकरं कामधनं ज्ञातव्यम्।
जनपदेन स्वशरीरानुगस्तीपुत्रदासदासीप्रजाबन्धुबान्धवादय: ज्ञातव्या:।
सुन्दरीकवितापदेन ‘सा विद्या तन्मतियर्रया इति न्यायात् भगवल्लीलातत्व कीर्तनरूपकाव्यम बिना अन्यकाव्यलक्षणा सामान्यविद्या ज्ञेया।
एतत् सर्व महं न याचे किंतु जन्मनि जन्मनि त्वयि ईश्वरे प्राणेश्वरे कृष्णे अहेतुकीं भक्तिं याचे।
अहेतुकी भक्ति: फलानुसन्धानरहिता चित्स्वभावाश्रया कृष्ण नानन्दरूपा शुद्धा केवला अकिंचनामिश्रा भक्ति रिति
धन पद हैं, जन पद हैं, सुंदरी कविता पद हैं, इसके संबंध में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भाष्य लिखते हैंं। धन पद के संबंध में वह तीन प्रकार के धन का उल्लेख करते हैं। वर्णाश्रम
निष्ठ धनं धर्म मुझे नहीं चाहिए।
वर्णाश्रम धर्म का अवलंबन करके जो धनार्जन होता है वह मुझे नहीं चाहिए। धर्म धनं
, अर्थ धनं, काम धनं उसको भी समझा रहे हैं या दूसरे शब्दों में यह जो धर्म, अर्थ, काम मोक्ष वाला जो पुरुषार्थ होता है और धार्मिक लोग इसी को प्राप्त करना चाहते हैं। धर्म, अर्थ, काम और अंततः मोक्ष। धर्म धनं मुझे नहीं चाहिए,अर्थ धनं जो इस लोक मे या परलोक में जो जड़ आनंद की प्राप्ति के लिए जिस धन का हम प्रयोग करते हैं ऐसा अर्थ (धन) हमें नहीं चाहिए और स्थूललिडगतेन्द्रियगणानन्दकरं हमारा जो स्थूल शरीर जो इंद्रियों से युक्त है और लिंग शरीर, जिसमें मन है (मन षष्ठाणी इंद्रयाणि)
इन इंद्रिय ग्रामों को, जिसमें मन भी है आनंद या मनोरंजन इंद्रिय तृप्ति के उद्देश्य से जो धन संचय होता है, ऐसी कामना भी ऐसा धन भी मैं नहीं चाहता हूं, ज्ञातव्यम् भक्ति विनोद ठाकुर कह रहे हैं अब धनं के उपरांत जनपद जो है या जन शब्द जो है इस अष्टक में उसको समझाते हैं। जनपदेनस्वशरीरानुग
अपने शरीर के संबंधित या शरीर के उपरांत जो होते हैं, उनका उल्लेख करते हैं, जैसे कि स्त्री है, पुत्र है, दास, दासी, प्रजा बंधु बांधव यह मुझे नहीं चाहिए। यदि वह भौतिक विचार वाले हैं और अधार्मिक हैं, पापी हैं तो ऐसे अनुयायी मुझे नहीं चाहिए। मुझे धन नहीं चाहिए, मुझे जन नहीं चाहिए । अब धन और जन के उपरांत सुन्दरी कविता पदेन, इसको समझाते हैं, सुंदरी कविता यह विद्या की बात है या वेदों में जो अलंकारी भाषा में जो कई सारी बातें समझाई जाती हैं, वैसी विद्या मुझे नहीं चाहिए। कई भाषाओं में आता है सुंदरी एक शब्द और कविता दूसरा शब्द यहां दोनों को जोड़ कर कह रहे हैं। वैसे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर सुंदरी का भी भाष्य सुनाएंगे जब हम वहाँ तक पहुंचेंगे। विद्या श्रील भक्ति विनोद ठाकुर श्रीमद् भागवत के चतुर्थ स्कंध से यह उदाहरण दे रहे हैं। विद्या की परिभाषा सुना रहे हैं, जिस विद्या के अर्जन से हमारी मती भगवान में लग जाए, वह वास्तव में विद्या है। कृष्णे मति अस्तु ऐसा भी आशीर्वाद दिया जाता है, तुम्हारी मति कृष्ण में हो या कृष्ण में लगे तो उसके पीछे जो ज्ञान या विद्या है ताकि म
ति कृष्ण में लगे वह विद्या विद्या है नही तो उसको अविद्या कहेंगें या अपरा विद्या जैसे नाम भी शास्त्रों में दिए गए हैं विद्या- अविद्या,या परा विद्या – अपरा विद्या, इस न्याय के अनुसार
सा विद्या तन्मतियर्रया लिखते हैं भगवल्लीलातत्व कीर्तनरूपकाव्यम बिना, ऐसा काव्य या ऐसी कविता या ऐसे शास्त्रों या वेदों के वचन जिसमें भगवत लीला के तत्व की चर्चा नहीं हैं,
अन्यकाव्यलक्षणा सामान्यविद्या ज्ञेया,अन्य काव्य के लक्षण जो हैं वह सामान्य विद्या है या
या अविद्या है या अपरा विद्या है और ऐसे विद्या मुझे नहीं चाहिए।
इसको भी भक्ति विनोद ठाकुर ने समझाया है सुंदरीं कवितां पर जो भाष्य लिखा है
एतत् सर्व महं न याचे किंतु जन्मनि जन्मनि त्वयि ईश्वरे प्राणेश्वरे कृष्णे अहेतुकीं भक्तिं याचे।
मुझे यह सब नहीं चाहिए। मैं पुनः पुनः जन्म लेने के लिए भी तैयार हूं, मुझे आप मुक्त मत बनाइए। मेरे जन्म होते रहे, किंतु हे कृष्ण, आप में,कृष्ण में, ईश्वर में, परमेश्वर मे क्या हो?
मैं अहैतुकि भक्ति चाहता हूं, यह कहकर अहैतुकि भक्ति की परिभाषा लिखते हैं। अहैतुकि भक्ति कि परिभाषा क्या होती है?
अहैतुकी भक्ति: फलानुसन्धानरहिता
जब फल कि अपेक्षा नही होती। फल से रहित भक्ति। अहैतुकि भक्ति में फल की अपेक्षा नहीं होती, कोई हेतु नहीं होता। वह अहैतुकि भक्ति है, आगे समझा रहे हैं,
चित्स्वभावाश्रया चित चेतना मतलब जब नही है, जड़ के विपरीत है, चेतन। तो चित स्वभाव, चैतन्य स्वभाव या दिव्य स्वभाव का आश्रय ली हुई अहैतुकि भक्ति है और क्या कृष्ण आनन्दरूपा, कृष्ण को आनंद देने वाली भक्ति शुद्धा भक्ति अर्थात केवला और केवल भक्ति, इसमें और कोई मिश्रण नहीं है। ज्ञान मिश्रा नहीं है, कर्म मिश्रा नहीं है, केवला भक्ति। निशकिंचन होकर की गई भक्ति, इसलिए केवला भक्ति बन जाती है। ऐसी अहैतुकि भक्ति को समझना चाहिए अब आगे बढ़ते हैं श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने शिक्षाष्टकं पर यह भाष्य लिखा है। इसको विवरक्ति नाम दिया है। इस श्लोक में
हे जगदीश! नाहमत धनं जनं सुंदरीं वा कवितां कामये। मम तु प्रति जन्म त्वमेव सेव्यत्वेन भवसि, त्वय्येव मे अहैतुकी भक्ति भरवतु। अत्र “सुंदरी कविता” शब्देन वेदबोधितो धर्म:,”धन”
शब्देनार्थ: “जन” शब्देन च कलतत्रादिकामनीयविषय: समुद्दिटष:।न केवल महं धर्मार्थकामरूपासु भुक्तिषु वीतराग:,परमपुनभरवरूपा मुक्तिरपि न मे कामनीया भवति ,ना हमत्र चतुवर्गकामनाप्रणोदित: सेवयामि भवतं परतुं भवतसेवाप्रवृतिरेव मां सेवने प्रयोजयति
इस श्लोक में अत्र “सुंदरी कविता” शब्देन वेदबोधितो धर्म: यहां इस शिक्षाष्टक में जो सुंदरी कविता कहा है, उससे क्या बोध होता है? वेद में दिया हुआ धर्म, वेद मे जिसका बोध होता है ऐसा वाला धर्म कविता सुंदरी शब्द से वेद बोधिधर्म संकेत होता है। आगे समझाया है, यहां सुंदरी कविता दोनों को साथ में कहेंगे तो वेदबोधितो धर्म: ऐसा संकेत होता है। किंतु अलग से भी
“जन” शब्देन अर्थ, न धनं न जनं,
अर्थ मतलब आर्थिक विकास। अर्थव्यवस्था मुझे नहीं चाहिए । “जन” शब्देन च कलतत्रादिकामनीयविषय: समुदिष्टा: सुंदरी को कविता से अलग करके सुंदरी एक अलग से शब्द है, पद है ऐसा भी अगर स्वीकार करते हैं तो वह समझा रहे हैं कि जो जन शब्द है, ना धनम् ना जन्म तो जन शब्द मे कलतत्रादि का उल्लेख होता है,भक्ति विनोद ठाकुर ने भी कहा है, स्त्री, पुत्र, दास, दासी, बंधु बांधव उसमे कलतत्रा का पत्नी, स्त्री का बड़ा स्थान है, बड़ी भूमिका है। जन शब्द से न धनं न जनं जो है, जन शब्द से सुंदरी जो शब्द है, कविता सुंदरी के साथ तो उसका भी उल्लेख जन शब्द से होता है ऐसा भी समझना चाहिए। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर समझा रहे हैं, भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने भी सुंदरी कविता वाली बात कही है, कुछ अलंकारिक शब्दों का उपयोग होता है और उससे लोग आकृष्ट होते हैं, जो वेद धर्म या वेद निष्ठ लोग उसी से आकर्षित होते हैं, श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता में कहा है, भगवत गीता के द्वितीय अध्याय के 42 और 43 श्लोक में कृष्ण ने कहा है
श्रीमद भगवद्गीता 2.42-43
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
अनुवाद-अल्प ज्ञानी ,मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म , शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इन्द्रिय तृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है।
इसका अनुवाद ही पढ़ लेते हैं
अनुवाद-अल्प ज्ञानी ,मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, प्रभुपाद कह रहे हैं फ्लावरी लैंग्वेज ऐसी सुंदर मन को लुभावने वाली भाषा जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म, शक्ति इत्यादि के लिए विभिन्न सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं, वेदों के वचन वेदों की सुंदरी कविता।
इन्द्रिय तृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण, वह कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। ऐश्वर्यमय जीवन की इच्छा करने वाले लोग कहते हैं कि इस जीवन से बढ़कर और कुछ नहीं है। अलंकारिक सुंदर कविता जो है, वेदों के कर्मकांड और ज्ञान कांड विभाग में इससे सावधान रहना है। भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर विवृति को आगे बढ़ाते हुए, यह भी विवृति का एक अंश है। जिसको हम चार्ट बनाकर आपको समझा रहे हैं। इसका शीर्षक हमने पंचोपासना दिया है और यह पंचोपासना है भी।
धर्मकामों वेदनिष्ठ: सवितारमाराधयति, गणपतिमर्थकाम: शक्तिं कामकामो रूद्रम मोक्षकाम: सर्वं एवैते सकामा: विष्णूपासकाश्रच् सुतरामेव विद्धभक्तपदभाजो भवंति।पंचविधमेतदुपासनं सकाममेव,निष्कामभूमिकायां निर्गुणब्रहोपासकश्रच सिद्धो भवति।परमहैतुभक्त्यैव शुद्धविष्णोराराधनं जायते।
धर्मकामों वेदनिष्ठ: सवितारमाराधयति जो धर्म निष्ठ है, जो धर्म के कामी होते हैं, जो वेद निष्ठ होते हैं, जो कविता सुंदरी से आकृष्ट होते हैं वह सूर्य की उपासना करते हैं। पंच उपासना 5 इष्ट देवों की अलग-अलग उपासना है। यह हिंदू धर्म में प्रचलित है। गणपतिमर्थकाम: जो अर्थ के कामी होते हैं, वह गणपति की आराधना करते हैं।धर्म की कामना वाले सूर्य की उपासना करते हैं, अर्थ की कामना वाले गणपति की उपासना करते हैं। शक्तिं कामकामो और जो कामी होते हैं, कई सारी कामनाओं की कामना करते हैं, वह शक्ति या दुर्गा की उपासना करते हैं। यह अराधना इस संसार में या हिंदू समाज में बहुत प्रसिद्ध है। व्यक्ति जाने-अनजाने दुर्गा की आराधना करता है, क्योंकि वह कामी है। जो रूद्रम मोक्षकाम: कामी होते हैं, वह शिवजी की आराधना करते हैं। मोक्ष कामी शिवजी की आराधना करते हैं। उपासना के अंतर्गत पांचवें हैं सर्वं एवैते सकामा: विष्णूपासकाश्रच्, जो सभी प्रकार की कामना करते हैं , वह अलग-अलग उपासना नहीं करते ₹विष्णु की आराधना करते हैं। वह सर्वकामी होते हैं।सब प्रकार की कामना धर्म, अर्थ , काम, मोक्ष और भी कोई कामना हैं तो सारी कामना वाले ,विष्णु की आराधना करते हैं, इस प्रकार से यह सब काम आराधना हुई।
परमहैतुभक्त्यैव शुद्धविष्णोराराधनं जायते। विवृति में आगे लिखते हैं कि अहैतुकि भक्ति तो तब होती है, शुद्ध आराधना विष्णु की तब होती है, जब उसके पीछे कोई हेतु या उद्देश्य, कामना नहीं होती।अहैतुकि भक्ति ही शुद्ध भक्ति है, यही विधि है।
कृष्ण-भक्त – निष्काम, अतएव ‘शांत’।भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी–सकली ‘अशांत’।।
(चैतन्य चरितामृत मध्य 19.149)
विष्णु की आराधना के पीछे कृष्ण-भक्त – निष्काम, अतएव ‘शांत’ , यह चैतन्यचरित्रामृत् का प्रसिद्ध वचन है। एक हम देख रहे हैं, मुक्ति की कामना, भुक्ति की कामना, सिद्धि की कामना वाले अशांत रहते हैं। न धनं न जनं सुंदरीं और कवितां भी यह भुक्ति की कामना का उल्लेख होता है शिक्षाष्टक में। मैं मुक्ति भी नही चाहता हूं लेकिन मुक्ति चाहने वाले होते हैं, भुक्ति चाहने वाले होते हैं, सिद्धि चाहने वाले होते हैं अष्ट सिद्धियां हैं। वह सभी अशांत होते हैं किंतु क्योंकि कृष्ण भक्त निष्काम होते हैं, इसलिए वह शांत भी होते हैं।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(चैतन्य चरित्रामृत मध्य 6.242)
भक्ति के शुद्ध प्रकार का भी उल्लेख हो रहा है, आप समझ जाइए तो कर्म मिश्र भक्ति करने वाले भुक्ति की कामना करते हैं। ज्ञान मिश्र भक्ति करने वाले मुक्ति की कामना करते हैं, योग मिश्र भक्ति करने वाले अष्टांग योग सिद्धि प्राप्ति करने वाले उनसे योग मिश्र भक्ति होती हैं। यहां जो नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव,तीन बार न अस्ति न अस्ति न अस्ति, यह उपाय नहीं है, इस उपाय से नही। और कोई उपाय नहीं तो किन उपायों से,….
तो कर्म मिश्र भुक्ति या मुक्ति यह मार्ग नही है। इससे हम पराम गति को प्राप्त नहीं करेंगे। दूसरा जो नास्त्येव है, ज्ञान मिश्र भक्ति से यह संभव नहीं होगा। भगवत भक्ति संभव नहीं होगी। योग मिश्र तीसरा नास्त्येव हैं। कर्म मिश्र भक्ति मार्ग से नहीं ज्ञान मिश्र भक्ति मार्ग से नहींं, योग मिश्र भक्ति मार्ग से नहीं तो किस मार्ग से हरेर नाम एवं केवलम? हरि का नाम ही केवल एक मात्र उपाय है, आप समझ रहे हो ना। इसी को श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने भी कहा है, कर्मकांड, ज्ञानकांड केवल विशेर भांड। हमारे वेद निष्ठ धर्म में यह कर्मकांड, ज्ञानकांड, कर्म मिश्र भक्ति , ज्ञान मिश्र भक्ति , एक बहुत बड़ा खंड है। गोडिय वैष्णवो के अनुसार कर्मकांड, ज्ञान कांड विष का प्याला है, इस जहर को तथाकथित धार्मिक लोग पीते रहते हैं। हमें नाम अमृत का पान करना चाहिए, शिष्टाष्टक यह भी कहता है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने सभी अष्टकों का एक-एक कीर्तन पद लिखा है, हर अष्टक में जो भाव है, उसको बांग्ला भाषा में पयार बना कर समझाया है, वह कहते हैं, प्रभु आपके चरणों में मेरा केवल एक ही निवेदन है
प्रभु तव पद-युगे मोरा निदान नहीं मागी देह-सुख, विद्या, धन, जन (1)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
मुझे देहसुख,-विद्या, धन इत्यादि नहीं चाहिए।
नाहि मागी स्वर्ग, आरा मोक्ष नहीं मागी ना कोरी प्रार्थना कोनो विभूति लागी(2)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
मुझे स्वर्ग और मोक्ष भी नहीं चाहिए, स्वर्ग मुझे नहीं चाहिए, मोक्ष नहीं चाहिए। कोई वैभव, विभूति, सिद्धि की भी प्रार्थना मैं नहीं करता हूँ।
निज-कर्म-गुण-दोष जे जे जन्म पाई। जन्में जेनो तव नाम-गुण गाई।। (3)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
मेरे कर्म के अनुसार अगर मुझे पुनः पुनः जन्म लेना पड़ता है, तो उन जन्मों में मैं बस आपका नाम गुण गाऊं, नाम का कीर्तन करूं। यही अभिलाषा है।
एई मात्र आशा मम तोमर चरणे। अहैतु की भक्ति हृदय जागे अनुषाने।। (4)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
यही आशा आपके चरणों में मेरी है कि मेरे हृदय प्रांगण में आपके लिए अहैतु की भक्ति जागे।
विषये जे प्रीति एबे आचये अमर। से-मत प्रीति हक चरणे तोमर।।(5)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
जैसे विषयी लोगों की प्रीति विषयों में होती है, वैसी मति मैं आपके चरणों में लगा दूं। मैं आपको विषय बना लूं। आपका नाम, रूप, गुण, लीला मेरे विषय हो।
विपदे सम्पदे ताहा ठाकुर सम भावे। दिनिन वृद्धि हक नामरा प्रभाव।। (6)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
कभी मैं संपन्न हो जाऊं, कभी विपदा आ सकती है, हर परिस्थिति में मेरा समभाव रहे। कभी जय, कभी पराजय, कभी लाभ- हानि दोनों परिस्थितियों में, यह जो द्वंद चलते हैं संसार में, मैं समभाव रहूं और दिन प्रतिदिन में आपके नाम से आकृष्ट् हो जाऊं, प्रभावित हो जाऊ, प्रेरित हो जाऊ।
पशु-पक्षी होये ठकि स्वरगे वा निरोये। तव भक्ति राहु भक्तिविनोद-हृदोये।। (7)
( लेखक भक्ति विनोद ठाकुर, पुस्तक गीतावली)
मैं जो भी बनूँ, मुझे जो भी आप बनाओगे, पशु पक्षी जो भी बनाओगे, मुझे आप स्वर्ग में रखोगे या नर्क में रखोगे, लेकिन एक बात निश्चित मुझे प्राप्त हो। वह है भक्ति। मेरे हृदय में आपके चरणो में भक्ति सेवा का ही मैं अभिलाषी हूं।
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि।।
(चैतन्य चरितामृत अंत: 20.29)
अनुवाद:- हे जगदीश, आपके चरणों में मेरी भक्ति हो। मुझे भौतिक संपत्ति, भौतिकवादी अनुयायी, सुंदर पत्नी या अलंकारिक भाषा में वर्णित सकाम कर्मों की कामना नहीं है, मैं तो इतना ही चाहता हूं कि मैं जन्म जन्मांतर आपकी अहैतु की भक्ति करता रहूं।
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु यहां स्वयं ही नाम कीर्तन, नाम जप, कर रहे हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह शिक्षाष्टक की शिक्षाएं हैं, जिसको हम ग्रहण कर रहे हैं, सीख रहे हैं। इसका परिणाम यही है कि सारी शिक्षा इस में परिणित हो कि हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करते रहें। कीर्तनीय सदा हरि करते रहें। किस समझ के साथ? ना धनं ना जन्म ना सुंदरीं.. ऐसे हर शिक्षाष्टक में अलग अलग समझ या भाव, शिक्षा दी गयी है। यह सारी शिक्षाएं हमे प्रेरित करें ताकि हम भक्ति करते रहें।
और भक्ति कैसी होती हैं ?
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.2.6)
अनुवाद :- संपूर्ण मानवता के लिए सर्वोच्च धर्म वह है, जिसके द्वारा मनुष्य दिव्य भगवान के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति सेवा प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं को पूरी तरह से संतुष्ट करने के लिए ऐसी भक्तिमय सेवा प्रेरणा रहित और निर्बाध होनी चाहिए।
सूत गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत में कहा है, अहैतु की भक्ति जिसको शिक्षाष्टक में समझाया गया है। अप्रतिहता- अखंडित, खंडित हुए बिना, कीर्तनीय सदा हरि। ऐसी भक्ति करने की शिक्षा दी गई है। इसी के साथ संयम, नियम आते हैं, यह निषेध हैं। ऐसा नहीं- ऐसा नहीं । फिर करें क्या? हरेर नाम एव केवलम हरे कृष्ण हरे कृष्ण करें यह विधि है । हम मध्य में पहुंच गये हैं, चार अष्टकों का अध्ययन हो चुका है और बने रहिए। आने वाले दिनों में बचे हुए 4 शिक्षाष्टको का अध्ययन होगा, तो बने रहिए। तो कभी भविष्य में इस पर चर्चा या
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् | कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||
(भगवद्गीता 10.9)
या प्रश्न उत्तर या शंका समाधान या आप क्या सीखें क्या समझे या कौन सी बात समझ नहीं आई इस पर चर्चा हो सकती है। आप भी आपस में एकत्रित होकर समाधान कर सकते हो। जो समझे हैं, उनसे समझ सकते हो। घर के सदस्य, भक्ति वृक्ष के सदस्य, भक्त समूह की सभा में भी इस पर चर्चा कर सकते हो और कुछ कॉमन क्वेश्चन कर सकते हो।
धन्यवाद
हरे कृष्ण
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जप चर्चा
परम् पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनांक 12 मई 2023
हरे कृष्ण!!!
क्या कॉन्फ्रेंस के श्रोता तैयार हैं? आप सब का स्वागत है।
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण के श्रवण कीर्तन और तत्पश्चात इसके स्मरण से हम ऐसे विषय को सुनने और समझने के लिए अथवा ऐसे संवाद को समझने के लिए तैयार होते हैं। जैसा संवाद राय रामानंद और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मध्य हुआ, जो कि अत्यंत गोपनीय ( बहुत कॉन्फिडेंशियल) व सर्वोपरि भी है। इसको समझने के लिए पूर्व तैयारी (क्या) है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तत्पश्चात हमें हरे कृष्ण महामंत्र को भी समझना है। मतलब कृष्ण को समझना है, फिर राधा को भी समझना है। वह समझने के लिए या कहो कि हरे कृष्ण महामंत्र के साक्षात्कार या गॉड रिलाइजेशन के लिए यह जो विषय वस्तु अथवा संवाद है, इसकी मदद से हम महामंत्र को समझते हैं। फिर महामंत्र की मदद से इस विषय वस्तु को समझते हैं। (आप समझ रहे हो)
बातें तो सर्वोत्तम है, सर्वोच्च है, सर्वोपरि है। चैतन्य महाप्रभु की आशाएं तो थी कि दुनिया में से..
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये | यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ||
( श्रीमद भगवतगीता 7.3)
अनुवाद:- कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है |
(आप भगवान के वचन अथवा उस श्लोक को जानते हो ना?) हजारों हजारों में से एक सिद्धि के लिए प्रयास करेगा। उनमें से कोई व्यक्ति मुझे तत्व से जानेगा। मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये | यततामपि.. फिर ऐसा प्रयत्न करने वालों में कोई कोई होगा यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः लेकिन तत्व तो है और तत्व को जानना है यह दुर्लभ है। ऐसे जन भी दुर्लभ हैं, लेकिन ऐसे जन जो दुर्लभ हैं इनकी संख्या बहुत कम हो सकती है। वे सुने समझे इसलिए यह संवाद हो रहा है। जैसे कृष्ण और अर्जुन में संवाद हुआ था लेकिन वह भी केवल अर्जुन के लिए नहीं था अपितु हम सभी के लिए था। भगवान ने उस संवाद के लिए कुछ ऐसी परिस्थिति निर्माण की है। कृष्ण स्वयं अर्जुन को संबोधित कर रहे हैं, तब उसका संकलन होता है। श्रील व्यास देव उसकी रचना (भगवत गीता यथारूप) करते हैं। ताकि सारी दुनिया उसको पढ़े सुने।
यह संवाद विद्यानगर में गोदावरी के तट पर संपन्न हुआ। इस संवाद के पीछे भी भगवान का विचार है कि एक दिन नोएडा में ( 500 वर्ष बाद) लोग इसको सुनेंगे। इस संवाद के पीछे भगवान की इच्छा और विचार है। ऐसा नहीं होता तो…।
यह संवाद भी संपन्न हुआ है।चैतन्य चरितामृत की मध्य लीला के आठवां अध्याय के अंत में हम इसे पढ़ रहे हैं।
श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जो इस ग्रंथ के रचयिता अथवा लेखक हैं। वे कहते हैं कि यह जो संवाद मैं लिख रहा हूं, निश्चित ही मैं यह संवाद सुनने के लिए वहां नहीं था। वैसे जब यह चैतन्य चरितामृत ग्रंथ लिखा गया था तब चैतन्य महाप्रभु इस संसार में नहीं थे। चैतन्य महाप्रभु अंतर्ध्यान हो चुके थे। उनके अंतर्ध्यान होने के बहुत साल उपरांत लगभग 30- 40 वर्ष पश्चात यह ग्रंथ लिखा गया था। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने राधा कुंड के तट पर (उनकी कुटिया भी आपने देखी होगी?) चैतन्य चरितामृत ग्रंथ को लिखा। वे लिखते हैं कि मैं इसको स्वरूप दामोदर के कड़चे के आधार पर लिख रहा हूं।
( सारी भूमिका आपको समझाने में ही समय जाने वाला है)
स्वरूप दामोदर के कड़चे के आधार पर श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने इस ग्रंथ को लिखा है।
यह स्वरूप दामोदर कौन है? यह ललिता है।
ललिता विशाखा आदि यत सखीवृन्द। आज्ञाय करिब सेवा चरणारविन्द॥
( वैष्णव भजन- राधा कृष्ण प्राण मोर)
अर्थ- ललिता और विशाखा के नेतृत्वगत सभी सखियों की आज्ञा से मैं श्रीश्रीराधा-कृष्ण के श्री चरणों की सेवा करूँगा।
ललिता और विशाखा, वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संवाद विशाखा के साथ हो रहा है या विशाखा ही सुना रही है, राय रामानंद विशाखा है। चूंकि स्वरूप दामोदर भी वहां नहीं थे, तो भी स्वरूप दामोदर ने इस संवाद को अपने कड़चे ( अपने नोट्स) में लिखा है। श्रील व्यास देव भी कुरुक्षेत्र में नहीं थे जब यह संवाद हो रहा था तो भी उन्होंने उस संवाद की रचना कर ही दी।
स्वरूप दामोदर जैसे भक्तों के लिए ऐसी शक्ति, सामर्थ्य या दूरदर्शन इत्यादि संभव है। वे वहां उपस्थित नहीं होते हुए भी सुन रहे थे या देख रहे थे और कड़चा/ नोटस अथवा शायरी लिख रहे थे।श्रील कृष्ण दास कविराज उस कड़चे के संदर्भ के साथ दामोदर स्वरूप कड़चेनुसारे रामानंद मिलन लीला करिले प्रचारे.. ऐसा लिखते हैं।
यह इस अध्याय का अंतिम वचन है। स्वरूप दामोदर के कड़चे के अनुसार राय रामानंद का चैतन्य महाप्रभु के साथ मिलन या उनके साथ जो संवाद हुआ है, उसकी रचना मैं कर रहा हूं। देखिए! कौन-कौन लिख रहे हैं? कौन कौन बोल रहे हैं? किनके बीच में संवाद हो रहा है? रस विचार हो रहा है। रस तत्व पर चर्चा हो रही है। यह सब रस विचार या रस तत्व का प्रकाशन ब्रह्म मध्व गौड़ीय संप्रदाय करेगा। ऐसी व्यवस्था हमारे संप्रदाय में हुई है। चैतन्य महाप्रभु स्वयं ही इस संप्रदाय के सदस्य बन जाते हैं। इसी परंपरा में इसका प्रकाशन, इस रहस्य का उद्घाटन हुआ। अन्यत्र यह प्राप्त होने वाला नहीं है। यह विचार, यह तत्व.. फिर इसको रस कहिए अथवा प्रेम कहिए। दूसरा नाम प्रेम भी दिया जा सकता है। देखते हैं, आज जो संवाद होगा उसमें प्रेम की परिभाषा दी है। प्रेम किसको कहते हैं, रस प्रेम यह निर्णय भी है। यह निष्कर्ष भी है। साधन, साध्य, निर्णय को लेकर वैसे यह डायलॉग अथवा संवाद हो रहा है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु साध्य के संबंध में निष्कर्ष या निर्णय सुनना चाहते हैं अर्थात किसको हासिल करना है? क्या लक्ष्य है? क्या उद्देश्य है?) वैसे भी चैतन्य महाप्रभु के मत के अनुसार प्रेम ही लक्ष्य है प्रेम प्राप्ति।
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता । श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः ॥ (चैतन्य मञ्जुषा)
अनुवाद:- भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की धी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्द- प्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्रीचैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है।
यह सारा रस या रस विचार या प्रेम का विचार कहो। इस पर यहां चर्चा हो रही है।
नमो महावदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते। कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नमः॥
अर्थ- हे परम करूणामय अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं।
चैतन्य महाप्रभु क्यों प्रकट हुए कृष्ण प्रेम प्रदाय.. ते… मतलब देना। देने के लिए चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए, कृष्ण प्रेम का वितरण भी उनकी लीला रही।
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार। हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।।
( वैष्णव भजन- जय जय जगन्नाथ)
अर्थ : अब वे पुन: भगवान गौरांग के रूप में आए हैं, गौर वर्ण अवतार श्री राधिका के प्रेम व परम आनंदित भाव से युक्त और पवित्र भगवन्नामो तथा हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन का चारो ओर प्रसार किया है।
गौर भगवान, राधा भाव में प्रकट हुए, राधा भाव को अपनाया और उसी भाव में ही उन्होंने (क्या किया) प्रचार किया। हरि नाम का प्रचार किया। हरि नाम ही प्रेम है।
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥
( वैष्णव भजन- हरि हरि विफले)
अर्थ:- गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
उन्होंने प्रेम का भी वितरण किया है और साथ ही साथ यहां संवाद के रूप में प्रेम का शास्त्र (साइंस ऑफ रस प्रेम शास्त्र) भी सिखाया/ समझाया है। समानांतर ही दोनों प्राप्त हो रहे हैं। हरे कृष्ण महामंत्र प्राप्त हो रहा है, जो प्रेम है। प्रेम प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है या पंचम पुरुषार्थ है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष गौड़ीय वैष्णवों के लिए पुरुषार्थ नहीं है। उनका पुरुषार्थ (किसमें है?) प्रेम प्राप्त करना है। कृष्ण प्रेम प्राप्ति में उनके पुरुषार्थ का प्रदर्शन होता है। प्रेम का शास्त्र साइंस तत्व और साथ ही साथ प्रेम हरे कृष्ण महामंत्र के रूप में है। (अभी मैं सोच रहा था) यह हम सब लोग सुन व पढ़ रहे हैं। हम लोग अपने शुद्धिकरण के लिए श्रवण कर रहे हैं। इस प्रकार के विषयों के श्रवण से ऐसा शुद्धिकरण होगा जैसा शुकदेव गोस्वामी ने कहा।
इसलिए शुकदेव गोस्वामी ने स्वयं ही पांच अध्याय अर्थात रास पञ्च अध्याय सुनाएं। श्रीमद्भागवतम् के दसवें स्कंध में अध्याय 29 से लेकर 33 तक ये पांच अध्याय रस के संबंध में है अथवा माधुर्य लीला के संबंध में है। इसके निष्कर्ष में शुकदेव गोस्वामी ने इस रास पंच अध्याय में पांचवें अध्याय के अंतिम श्लोक. में कहा है-
विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णो: श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद् य: । भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर: ॥
(श्रीमद भागवतम 10.33.39)
अनुवाद:- जो कोई वृन्दावन की युवा-गोपिकाओं के साथ भगवान् की क्रीड़ाओं को श्रद्धापूर्वक सुनता है या उनका वर्णन करता है, वह भगवान् की शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा। इस तरह वह शीघ्र ही धीर बन जाएगा और हृदय रोग रूपी कामवासना को जीत लेगा।
(केवल इसी वचन पर एक पाठ या क्लास हो सकता है जो हम देना नहीं चाहते) मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता था कि जो शुकदेव गोस्वामी ने अभी-अभी विक्रीडितं व्रजवधू: अर्थात व्रजवधू या गोपियां या राधा रानी के साथ जो कृष्ण की क्रीडा होती है, के विषय मे कहा। (इंक्लूडिंग रासलीला रसमयी क्रीड़ा…) जो भी इस लीला को, इस क्रीडा को अर्थात राधा कृष्ण के मध्य की या गोपी कृष्ण के मध्य की लीला को श्रृणवतः मतलब जो सुनेंगे, (कैसे सुनेंगे) श्रद्धान्वित: अर्थात श्रद्धा के साथ जो सुनेंगे, कोई प्रश्न नही करेंगे मतलब सुनने के बाद मन में कोई संशय नहीं करेंगे। ऐसे विषय वस्तु जब हम सुनते पढ़ते है.. वैसे यह तर्क वितर्क का काम नहीं है। यह बातें अचिन्त्य हैं, केवल सुनना है। आत्मा को सुनने दो, जो भी है, सत्य है/ हकीकत है या लीला है; श्रद्धा के साथ सुने और अनुशृणुयादथ… (कैसे सुने) परंपरा में सुनें। जिन्होंने उनके आचार्य गुरु से सुना है फिर उनके गुरु से सुना है। अनुशृणुयादथ। फिर यह भी कहा है- वर्णयेद् अर्थात साथ ही साथ इसको सुनना भी चाहिए। सुनने वाला या सुनाने वाला श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद् य:। फिर लाभ क्या है? फल क्या है? जिसको श्रुतिफल कहते हैं। भागवतम् में कई अध्यायों के अंत में श्रुतिफल दिया गया है कि यह लीला सुनने का क्या फल है। यह जो रासक्रीड़ा संबंधी लीला है जिसका वर्णन शुकदेव गोस्वामी इन 5 अध्यायों में किया है, इसको सुनने का क्या लाभ है।श्रील शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं। (श्रील शुकदेव गोस्वामी का स्मरण कीजिए।)
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं। हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर: ॥
ऐसे श्रोता और वर्णनकर्ता को सुनना है और सुनाना है। मतलब श्रवणं कीर्तनं .. ऐसा जो करेंगे उनको भक्ति का लाभ होगा। भक्ति कैसी है? भक्तिं परां
प्रतिलभ्य.. भक्ति का लाभ होगा। भक्ति प्राप्त होगी, भगवति अर्थात भगवान या राधा कृष्ण में प्रीति अथवा प्रेम या भक्ति प्राप्त होगी। यह एक भाग हुआ और क्या होगा।
कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर:
ऐसे व्यक्ति धीर बनेंगे। अनडिस्टर्ब, आप विचलित नहीं होंगे। किससे विचलित नहीं होंगे? कामं अर्थात काम/ कामवासना से विचलित नहीं होंगे। (हरि! हरि! सोना नहीं है) हृद्रोगम अर्थात हार्टअटैक या दिल की बीमारी मतलब काम रोग या भव रोग। ऐसे ऐसे रोगों के नाम है। ऐसे रोग, काम रोग से कामवासना से वह व्यक्ति मुक्त होगा। अपहिनोती। यह काम रोग पर … औषधि क्या है? उपचार क्या है? नाड़ी परीक्षण हुआ। कौन सा रोग है? तुम काम रोगी हो, तुम हृद्र रोगी हो, भव रोगी हो। जो वैष्णव डॉक्टर है, वे इस रोग को पहचानते हैं। हमें पता नही चलता है।
काम रोग का यह औषधि है। (क्या औषधि है?)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। के साथ यह कीर्तनीय सदा हरिः हुआ और क्या औषधि है
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥
(श्रीमद्भागवतम् 1.2.18)
अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
भागवत की सेवा, भागवत का श्रवण। भागवत का श्रवण से..( यहां हम चैतन्य चरितामृत खोल कर बैठे हैं) चैतन्य चरितामृत के श्रवण से और साथ ही साथ हरे कृष्ण महामंत्र के श्रवण कीर्तन से हम काम रोग से सदा के लिए मुक्त होंगे। हरिबोल!
शुकदेव गोस्वामी ने इसकी खुराक (डोज) लेने की सलाह दी है।
राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेद गतौ तौ ।चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तदद्वयं चैक्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम् ॥
अनुवाद:-
श्रीराधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक् कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गये हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात् कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं।
राधा कृष्ण प्रणय .. प्रेम और गाढ़ा होता है, उसको प्रेम कहने की बजाय प्रणय कहते हैं। साधारणतया जो हम प्रेम कहते हैं , उसके भी आगे के स्तर हैं। प्रेम का विकास है .. स्नेह भी प्रेम से ऊंचा है। तत्पश्चात मान.. (हरि! हरि!) राधारानी मान करके बैठती है, फिर माननी कहलाती है। वह भी प्रेम का एक स्तर है। मान से भी ऊंचा प्रणय है। प्रणय के लिए प्रणय और फिर राग, तत्पश्चात अनुराग, तब फिर भाव और फिर महाभाव होता है। ऐसे भी प्रेम के स्तर है। अधिक अधिक विकसित स्तर है। यह सब रस शास्त्र उज्जवल नीलमणि नामक जो ग्रंथ है, जिसे रूप गोस्वामी ने लिखा है, उसमें यह सब चर्चा आती है। एक्सक्लूसिवली माधुर्य रस के साथ शेयर करने वाला, उसकी चर्चा करने वाला एक ग्रंथ लिखे। पहले उन्होंने भक्तिरसामृत सिंधु नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें सभी रसों की चर्चा है। दास्य रस, सख्य रस, वात्सल्य रस, माधुर्य रस। भक्तिरसामृत सिंधु नामक ग्रंथ में इस पर प्रकाश डाला है।( फिर उन्होंने क्या किया?)वे माधुर्य रस पर और अधिक चर्चा उज्जवल नीलमणि नामक ग्रंथ में करते हैं। उज्जवल नीलमणि जैसा भी ग्रंथ संसार में नहीं है। हरि! हरि!
ऐसे कई स्थानों या ग्रंथों में रस विचार या रस तत्व की चर्चा हमारे आचार्य वृन्द कर चुके हैं। वैसे यह संवाद कई दिनों तक चलता रहा। (सप्ताह-दस दिन के लिए) यह एक दिन या एक रात्रि का संवाद नहीं है। हम भी इस संवाद की चर्चा तीन दिनों से कर रहे हैं। तब भी शायद भक्तिरसामृत सिंधु का एक बिंदु को भी हमनें स्पर्श नहीं किया। ऐसा विषय वस्तु या रस शास्त्र या प्रेम शास्त्र है।
अखिल-रसामृत-मूर्ति: प्रश्रमार-रुचि-रुद्ध-तारक-पालि: |कलिता-श्याम-ललितो राधा-प्रेयां विदुर जयति ||
(भक्तिरसामृत सिंधु 1.1.1)
भक्तिरसामृत सिंधु में अखिल, कृष्ण को कहा है जिसका कृष्ण दास कविराज गोस्वामी उल्लेख कर रहे हैं 1.1.1( भक्तिरसामृत सिंधु का पहला अध्याय पहला श्लोक) पहला खंड भी। इसमें चार विभाग हैं, प्रथम विभाग, प्रथम अध्याय, प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द … अखिल-रसामृत-मूर्ति: यह कृष्ण का एक नाम हुआ। (क्या नाम हुआ?) अखिल-रसामृत-मूर्ति अर्थात अखिल रस की मूर्ति। जिसको परसोनिफिकेशन (अवतार) कहते हैं। कृष्ण कृपा मूर्ति। हरि! हरि! आचार्यों को कृष्ण कृपा की मूर्ति कहते हैं। श्री कृष्ण अगर मूर्ति हैं तो कहना है तो यह कह सकते हैं कि वे अखिल रस अमृत की मूर्ति हैं। वे अखिल मतलब संपूर्ण (कंप्लीट) पूर्ण या प्रेम की मूर्ति है ।
वे रस के ही बने हुए हैं, वे रसखान हैं। खान समझते हो? सोने की खान मतलब सोना ही सोना। उसकी कोई लिमिट ही नहीं। रसखान।
कृष्णेर अनन्त-शक्ति, ताते तिन —प्रधान । ‘चिच्छ क्ति’, ‘माया-शक्ति’, ‘जीव-शक्ति’-नाम ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.151)
अनुवाद:
“श्रीकृष्ण की अनन्त शक्तियाँ हैं, जिन्हें तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है। ये हैं – आध्यात्मिक शक्ति , भौतिक शक्ति तथा तटस्था शक्ति जो जीवों के नाम से विख्यात है ।”
भगवान कृष्ण की, हम जब भगवान कहते हैं तो भगवान पूर्ण (कंप्लीट) तब होते हैं जब उनकी शक्तियों का भी विचार होता है। शक्ति- शक्तिमान। भगवान को शक्तिमान भी कहते हैं। भगवान को शक्तिमान क्यों कहते हैं? क्योंकि वे शक्तियों से युक्त हैं।
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.८)
अनुवाद:-
भगवान् या परमेश्वर के लिए कोई भी करने लायक कर्तव्य नहीं है अर्थात् उन्हें कोई भी कार्य करने की जरूरत नहीं है। भगवान् के समान अथवा उनसे बढ़कर कोई नहीं है। उनकी अनन्त दिव्य शक्तियाँ हैं जो उनमें स्वाभाविक रूप से रहती हैं और उन्हें पूर्ण ज्ञान, बल और लीलाएँ प्रदान करती हैं।
परास्य, भगवान की विविध शक्तियां है। शक्ति के कारण शक्ति और शक्तिमान तब भगवान पूर्ण (कंप्लीट) हो गए। यह मायावादी कंपनी जो है, वे भगवान की शक्ति को स्वीकार नहीं करते। फिर यह शक्ति ही रूप या व्यक्तित्व धारण करती है। शक्ति, व्यक्ति बन जाती है। राधारानी भी भगवान की एक शक्ति हैं और उस शक्ति का नाम आह्लादिनी शक्ति है।
चिच्छ क्ति, माया शक्ति, जीव शक्ति नाम
हरि बोल! यह सुनकर कि हम जीव शक्ति भी भगवान की शक्ति हैं। श्रील प्रभुपाद की जय!!!
चिच्छक्ति या अंतरंगा शक्ति।
यह सब माया की शक्ति है। यह सब शास्त्र की भाषा है। माया शक्ति- बहिरंगा शक्ति, अंतरंगा शक्ति, योगमाया है। बहिरंगा शक्ति महामाया है। इसके अतिरिक्त एक अन्य शक्ति है जिसे तटस्था शक्ति कहते हैं। तटस्था शक्ति अर्थात जीव शक्ति वे हम हैं। जीव शक्ति कौन है? हम भी भगवान की एक शक्ति हैं। भगवान हमारे बिना अपूर्ण (इनकंप्लीट) हैं। वे पूर्ण (कंप्लीट) होते हैं जब हम भी.. अर्थात उनके साथ हमारी भी गणना होती है।
यह तो संवाद के अन्तर्गत कहा जा रहा है। मैं तो आपकी ओर
कुछ कुछ बिंदु छिड़का रहा हूं ।
आनन्दांशे ‘ह्लादिनी ’, सदंशे ‘सन्धिनी ’ । चिदंशे ‘सम्वित्’, यारे ज्ञान क रि’ मानि ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत 8.155)
अनुवाद
“ह्लादिनी उनका आनन्द पक्ष है , सन्धिनी उनका शाश्वतता पक्ष है और सम्वित् ज्ञान पक्ष है।”
भगवान कैसे होते हैं? सच्चिदानंद विग्रह। यहां जो आनंद है- सत, चित, आनंद। भगवान पूर्ण हैं। जो आनंद है, उसे आह्लादिनी शक्ति कहते हैं।सत चित में जो सत् है- ( यहां थोड़ा भिन्न क्रम से उल्लेख हुआ है) सत् को सदंशे ‘सन्धिनी ’ कहते हैं। हरि! हरि! (आपको पता होना चाहिए। आप वैसे गौड़ीय वैष्णव बन रहे हो यह जो शब्दकोश है, वह गौड़ीय वैष्णव जगत में प्रचलित है या हम गौड़ीय वैष्णव यह भाषा बोलते हैं। जब हम बोलते हैं तो हमें पता होता है।)
तीसरा है चिदंशे सम्वित्।
जो आनंद है उसे आह्लादिनी कहते हैं। हमारे मतलब की बात तो यहां है। बाकी तो सब बातें हैं।
राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् .. राधा कृष्ण के मध्य का जो प्रणय है। यह आह्लादिनी शक्ति की अभिव्यक्ति है। राधा कृष्ण के मध्य का जो प्रणय/ प्रेम स्नेह जो है यह आह्लादिनी शक्ति की अभिव्यक्ति का प्राकट्य
कृष्णके आह्लादे, ता’ते नाम —‘ह्लादिनी ’ । सेइ शक्ति -द्वारे सुख आस्वादे आपनि ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.157)
अनुवाद:
“ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को दिव्य आनन्द प्रदान करती है। इसी आह्लादिनी शक्ति के माध्यम से कृष्ण समस्त आध्यात्मिक आनन्द का स्वयं आस्वादन करते हैं ।”
कृष्ण को आनंद देने वाली, आह्लादिनी शक्ति कहलाती है। कृष्ण कैसे सुखी रहते हैं अर्थात कृष्ण को सुखी रखने वाली कौन है। वह आह्लादिनी शक्ति है। तब आह्लादिनी, व्यक्ति अर्थात राधारानी बन जाती हैं।
वैसे अन्य और भी शक्तियां है जो व्यक्ति बन जाती है। हम भी शक्ति हैं, हम भी बन गए हैं व्यक्ति। अब ये सारी शक्तियां वैसे भगवान की प्रसन्नता के लिए है। भगवान की प्रसन्नता के लिए शक्ति का निर्माण… सारे जीव भी शक्ति हैं। वे भी भगवान को आह्लाद देते हैं। हमें भगवान को आह्लाद देने के लिए बनाया है। टू बी इंजॉयड। हमें किसलिए बनाया है, टू बी इंजॉयड। हमें कृष्ण के आनंद के लिए बनाया है। हम स्वयं (आनंद) इंजॉयमेन्ट करें तो यह माया है। जब हम स्वयं ही आनंद लेना चाहते हैं अथवा आनंद या सुख भोगना चाहते हैं तो फिर हम भोगी बन जाते हैं लेकिन जब हम भगवान की प्रसन्नता के लिए सारे कार्य करते हैं तो हम योगी बन जाते हैं। यह हमारी पूर्णता भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि राधा रानी जो आह्लादिनी शक्ति है। वह जितना आह्लाद भगवान को देती हैं। उतना और कोई नहीं दे सकता। भगवान, भगवान हैं तो उनको बहुत आह्लाद की आवश्यकता है। उनकी मांग (डिमांड) बहुत सारी है।
हर जीव कुछ-कुछ आह्लाद तो देता है। भगवान को आह्लाद देना उसका धर्म है किंतु कुछ बिंदु, बिंदु ही हो सकते हैं लेकिन राधा रानी जो कृष्ण को आह्लाद देती है, वह सिंधु हैं। वैसे गोपियां भी हैं लेकिन उनकी भी सीमा है। वे कितना आह्लाद दे सकती हैं। हरि! हरि!
एक अन्य रहस्यमई बात यहां कही जा रही है। वह यह है कि
सुख-रूप कृष्ण करे सुख आस्वादन । भक्त-गणे सुख दिते ‘ह्लादिनी ’—कारण ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.158)
अनुवाद:
“भगवान् कृष्ण मूर्तिमान सुख होते हुए भी सभी प्रकार के दिव्य सुख का आस्वादन करते हैं। उनके शुद्ध भक्तों द्वारा आस्वादन किया गया सुख भी उनकी ह्लादिनी शक्ति से प्रकट होता है ।”
कृष्ण सुख का आस्वादन करते हैं। राधारानी सुख देती हैं किंतु यह जो आह्लादिनी शक्ति है, भक्त गणे सुख दिते आह्लादिनी कारण। आह्लादिनी शक्ति, भगवान को सुख और आनंद देती ही रहती है। जीव को जो आह्लाद या आनंद/ सुख प्राप्त होता है, वह भी आह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। आह्लादिनी शक्ति, भगवान, भक्तों व जीवों को आह्लाद देती है। ऐसे याद रखिए, इसकी डिटेल समझना। स्रोत तो साधारण ही है। कृष्ण के आह्लाद का जो स्तोत्र है, वही स्तोत्र जीव के आह्लाद या आनंद का है। ऐसी भगवान की व्यवस्था है।
प्रेमेर परम -सार ‘महाभाव’ जानि । सेइ महाभाव -रूपा राधा -ठाकुराणी ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.160)
अनुवाद:
“भगवत्प्रेम का सार अंश महाभाव अर्थात् दिव्य आह्लाद कहलाता है और इस महाभाव का प्रतिनिधित्व करने वाली हैं श्रीमती राधारानी ।”
हम लोग जो महा भाव सुनते रहते हैं। उसकी संक्षिप्त में परिभाषा (डेफिनेशन) कही गई है। प्रेम का परम सार है- महाभाव। भाव भक्ति ( समझ रहे हो) साधन भक्ति फिर भाव भक्ति फिर प्रेम भक्ति। तो प्रेम का परम सार। ये महाभाव है।
(आगे सुनिए)
सेइ महाभाव -रूपा राधा -ठाकुराणी..
इस महाभाव पर अधिकार राधा रानी का ही है। हममें भी कुछ हद तक भाव प्रकट होते हैं लेकिन राधा रानी… राधा महाभावा ठकुरानी।
चैतन्य महाप्रभु जब जगन्नाथ पुरी मंदिर आए और दर्शन करते ही भावविभोर हो गए। सार्वभौम भट्टाचार्य, चैतन्य महाप्रभु को अपने घर पर ले गए। वे परीक्षा कर रहे थे, जो भाव उनमें प्रकट हो रहे हैं वे असली है या नकली है। तत्पश्चात उन्होंने निर्णय यह किया कि यह भाव ही नहीं है। यह तो महाभाव का प्रकटीकरण है। यह सार्वभौम भट्टाचार्य का निष्कर्ष था, उन्होंने परीक्षा की। वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य एक परीक्षक थे।
चैतन्य महाप्रभु में महाभाव किस तरह प्रकट हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु कौन हैं?
श्रीकृष्ण चैतन्य राधा-कृष्ण नहे अन्य।
वे केवल कृष्ण ही नहीं हैं, राधा भी हैं तो परीक्षण का निष्कर्ष यह निकला अर्थात परीक्षण का निरीक्षण यह हुआ कि यह भाव तो महाभाव है। ऐसे चैतन्य महाप्रभु का परिचय बताया। चैतन्य महाप्रभु कौन है?
प्रेमेर ‘स्वरूप -देह’—प्रेम-विभावित । कृष्णेर प्रेयसी-श्रेष्ठा जगते विदित ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.162)
अनुवाद:
“श्रीमती राधारानी का शरीर भगवत्प्रेम का वास्तविक रूपान्तर है। वे कृष्ण की सर्वाधिक प्रिय संगिनी हैं, जो सारे जगत् में सुप्रसिद्ध हैं।”
(आप देखिए अगर समझ सकते हैं तो) कृष्णेर प्रेयसी-श्रेष्ठा
कृष्ण की प्रियेसियां तो कई हैं।लेकिन उन प्रयेसियों में श्रेष्ठ
‘मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय’
जैसे कृष्ण ने स्वयं के संबंध में कहा। राधारानी भी वैसे ही है, ना तो राधा रानी से कोई ऊंचा है ना कोई राधारानी के बराबर का है। सब नीचे ही है। सब निम्न स्तर पर ही है।
मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
( श्रीमद भगवद्गीता 7.7)
अनुवाद:-
हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
पर तर पर तर.. बैटर बेस्ट.. राधारानी इज द बेस्ट। यह संवाद सम्पन्न हो ही रहा है, एक रात्रि में जो संवाद हो रहा है। राय रामानंद, उनसे बुलवा रहे हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से राय रामानंद ही कह चुके हैं कि मैं एक वीणा हूं। जिसको बजाने वाले आप हो, मैं तो वीणा हूं लेकिन वीणा वादक आप हो। जब तक आप तार को नहीं छेंड़ेंगे, तब तक कुछ होना नहीं है। कुछ बोल या वचन नहीं कहा जाएगा। आप ही मुझे बुलवाओ। आप कुछ इस वीणा को बजाओ, फिर चैतन्य महाप्रभु बुलवा रहे हैं। उन्होंने ऐसी ऐसी बातें कही है जो हमारे परे हैं।
महाभाव -चिन्ताम णि’ राधार स्वरूप । ललितादि सखी —ताँर काय -व्यूह-रूप ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.165)
अनुवाद :
“श्रीमती राधारानी सर्वोत्तम आध्यात्मिक मणि हैं और अन्य गोपियाँ -यथा ललिता , विशाखा आदि – उनके आध्यात्मिक शरीर के विस्तार रूप हैं ।”
केवल सुनना है और श्रद्धा के साथ स्वीकार करना है। जब हमारा समय आएगा, उसका साक्षात्कार और उसका अनुभव होने की अपेक्षा रखते हुए हम ऐसे ऐसे वचनों को धारण करेंगे। हमारी जैसी जैसी कृष्ण भावना में प्रगति होगी, जैसे-जैसे हमारा नाम जप अधिक अधिक अपराध रहित होगा, निद्रा रहित होगा तो हम अधिक अधिक इन बातों को इन वचनों को समझेंगे। अभी हम सुन लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं तो ज्ञान हो गया। लेकिन केवल ज्ञान से काम नही बनता है।
ज्ञान का विज्ञान करना होता है। ज्ञान का विज्ञान, साक्षात्कार तत्पश्चात व्यवहार (प्रैक्टिकल एप्लीकेशन कहते हैं।)
राधा प्रति कृष्ण स्नेह।
कृष्ण का जो राधा से प्रेम है, यह कैसे प्रकाशित होता है। राधा में जो सुगंध है, राधा के अंग सुगंधित है। इससे पता चलना चाहिए कि यह कृष्ण का स्नेह ही प्रकाशित हो रहा है। राधा से या राधा के सर्वांग से उत्पन्न होने वाला सुंगध।
कारुण्यामृत-धाराय स्नान प्रथम । तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम ॥
(श्रीचैतन्यचरितामृत मध्य लीला 8.167)
अनुवाद:
“श्रीमती राधारानी पहला स्नान करुणा रूपी अमृत की धारा में करती हैं और दूसरा स्नान युवावस्था के अमृत में करती हैं।”
राधा रानी स्नान करती है, एक स्नान कारुण्यामृत-धारा है।कारुण्य, उसका अमृत उसकी धारा से स्नान करती है। यह प्रथम स्नान है। कारुण्यामृत-धाराय से स्नान करती हैं। साधारण जल से नहीं। उसी के साथ वह करुणामयी भी बन जाती हैं। ऐसा भी हम समझ सकते हैं। अगला।
तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम
(शब्द भी ऐसे है, हम लोग क्या-क्या शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं, सुनते पढ़ते रहते हैं। ऐसे शब्द..) तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम। तारुण्य अमृतधारा का स्नान। सदा के लिए राधा रानी तरुणी रह जाती हैं। (तरुणी समझते हैं?) तरुण-तरुणी। तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम।(एक और शब्द सुनिए।)
लावण्यामृत-धाराय तदुपरि स्नान । निज-लज्जा -श्याम -पट्टसाटि -परिधान ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.168)
अनुवाद:
“दोपहर के स्नान के बाद श्रीमती राधारानी शारीरिक कान्ति के अमृत से पुनः स्नान करती हैं और तब लज्जा रूपी वस्त्र धारण करती हैं, जो उनकी काली रेशमी साड़ी होती है ।”
वे स्नान करती हैं, (किस में) लावण्य अमृतधारा से स्नान करती हैं। लावण्य सौंदर्य कहो। लावण्य ब्यूटी पार्लर, ब्यूटी पार्लर में आच्छादित करते हैं। ( इम्पोज़ करते हैं)
निज-लज्जा -श्याम -पट्टसाटि -परिधान
राधा रानी गुणों की खान हैं। उसमें से एक गुण लज्जा है। ( टू बी शाई।) राधारानी साड़ी पहनती हैं। जिससे उनकी लज्जा प्रकट होती है। आजकल तो निर्लज्ज साड़ी पहनती ही नहीं, कभी-कभी तो कुछ भी नहीं पहनती। बिल्कुल विपरीत हुआ।स्त्रियों को राधा के गुण प्रकट करने चाहिए।
सौन्दर्य —कुङ्कम, सखी-प्रणय —चन्दन । स्मित -कान्ति —कर्पूर, तिने—अङ्गे विलेपन ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.170)
अनुवाद:
“श्रीमती राधारानी के निजी सौन्दर्य की उपमा कुंकुम नामक लाल चूर्ण से की जाती है। अपनी सखियों के प्रति उनका स्नेह चन्दन -लेप की तरह है और उनकी हँसी की मधुरता कपूर के समान है। इन सबको मिलाकर उनके शरीर पर लेप किया जाता है ।”
कुमकुम सौंदर्य का प्रदर्शन है। हम लोग तिलक पहनते हैं। इससे हमारा सौंदर्य और भी उभर आता है।
‘सखी-प्रणय —चन्दन’ । सखियों के साथ प्रणय है, राधारानी की अष्ट सखियां है। चंदन लेपन जो है,
सर्वांगे हरिचंदन सर्वांगे हरिचंदनं सुलितम कंठे च मुक्तावली।
यह (किसका) प्रदर्शन है (इससे किस का पता चलता है) राधा रानी का। राधा रानी का अपनी सखियों से प्रेम/ स्नेह है।
स्मित -कान्ति —कर्पूर, कपूर का लेपन होता है। चंदन, कपूर का भी लेपन होता है। राधारानी सुमित हास्य (स्माइल) करती है।
( इस विषय पर आगे बहुत है)
विशाखा ने कहा है। (यह सब कौन बोल रहा है? विशाखा बोल रही है) राय रामानंद विशाखा है। अगर कोई जानता है तो विशाखा जानती है या नही राधारानी को? आपने भगवान को देखा है? हम कह सकते हैं कि हमनें तो नहीं देखा है लेकिन हम उनको जानते हैं जिन्होंने कृष्ण को देखा है। जब हम कृष्ण के सम्बंध में कुछ बोलते रहते हैं। क्या आपने कृष्ण को देखा है जो यह सब बात कर रहे हैं। हमने तो नहीं देखा है लेकिन हम देखा हैं, मिले हैं, जानते हैं। भगवान को तो देखते ही रहते हैं, वहीं से ब्रॉडकास्टिंग होता है। जो भी वे कहते हैं,
अगला विषय कृष्ण है। यथारूप। कृष्ण को देखते हुए..
नम: पङ्कजनाभाय नम: पङ्कजमालिने । नम: पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ (श्रीमद्भागवतम श्लोक 1.8.22)
अनुवाद:-
जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सदृश गर्त है, जो सदैव कमल-पुष्प की माला धारण करते हैं, जिनकी चितवन कमल-पुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों (के तलवों) में कमल अंकित हैं, उन भगवान् को मैं सादर नमस्कार करती हूँ।
कुंती महारानी की प्रार्थना के अंतर्गत कुंती महारानी भगवान को रथ पर विराजमान या आरुढ़ देख रही हैं। कृष्ण अब हस्तिनापुर से द्वारका के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। तो वह उनके रथ के समक्ष आ गई
(शी इज राइट देयर)
श्रीकृष्ण को देखते हुए वह वर्णन कर रही है। नम: पङ्कजमालिने। आपको नमस्कार जो ऐसी माला पहने हो। चरणों को देख रही हैं। नमस्ते नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये
कृष्ण को मेरा नमस्कार, वे देखती हुई प्रार्थना कर रही है। फिर उसी को शुकदेव गोस्वामी सुना रहे हैं और वह सत्य कथा परम्परा में हम तक पहुंच जाती है।
रात्रि-दिन कुञ्जे क्रीड़ा करे राधा -सङ्गे । कैशोर वयस सफल कैल क्रीड़ा -रङ्गे ॥
अनुवाद:
“भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावन के कुंजों में श्रीमती राधारानी के साथ दिन-रात क्रीड़ा करते हैं। इस तरह उनकी कैशोर अवस्था राधारानी के साथ क्रीड़ा में सफल होती है ।”
किशोर किशोरी, कुंजों में.. निकुंजों में विराजो घनश्याम राधे राधे..।
वृंदावन में या ब्रज मंडल में कुछ क्षेत्रों को निकुंज कहते हैं। राधा कृष्ण, गोपी कृष्ण की लीला के लिए दे आर रिजर्व्ड। वहां और कोई पहुंच नहीं सकता, न ग्वाले, कोई भी नही। वहां क्रीड़ा करे राधा सङ्गे। ऐसी क्रीड़ा करते हुए देखिए आगे क्या कहा है।
कैशोर वयस सफल कैल क्रीड़ा -रङ्गे
युवक, किशोर है, किशोरावस्था का साफल्य किस में है। किशोरी के साथ/ गोपियों के साथ इस प्रकार की माधुर्य लीला का संपन्न होना। इस प्रकार की लीला खेलना, राधा कृष्ण दोनों के तारुण्य का साफल्य उसमें है।
एतत सुनी प्रभु तारे…
इस प्रकार का संवाद भी हो रहा है। बीच-बीच में दोनों व्याकुल हो जाते हैं। क्रंदन करने लगते हैं। एक दूसरे का अलिंगन देते है। गला गली चल रहा है।
एक गला दूसरे गले के साथ.. गला गली चल रहा है।
एइ-मत प्रेमावेशे रात्रि गोङाइला ।
राय रामानंद और महाप्रभु दोनों ने पूरी रात ऐसे ही बिताई है।
एइ-मत प्रेमावेशे रात्रि गोङाइला । प्रातः-काले निज -निज-कार्ये दुँहे गेला ॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत 8.234)
कई रात्रियों से यह संवाद चल रहा है।
यह जितना भी संवाद हुआ… वैसे जितना भी संवाद हुआ, वह सारा का सारा नहीं लिखा गया है। उसमें से कुछ बिंदु लेकर ही प्रस्तुत किया गया है।
मोरे कृपा करिते तोमार इहाँ आगमन । दिन दश र हि’ शोध मोर दुष्ट मन ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत 8.236)
अनुवाद:- श्री रामानन्द राय ने कहा , “आप मुझ पर अपनी अहैतु की कृपा दर्शाने ही यहाँ आये हैं। अतएव आप यहाँ कम से-कम दस दिन तक रुक जायें और मेरे दूषित मन को शुद्ध कर दें।”
मुझ पर कृपा करने हेतु आप यहां पधारे हो, राय रामानंद जी कहते हैं। अब कम से कम 10 दिन तो रहो और शोध मोर दुष्ट मन अर्थात मेरे दुष्ट मन का शोधन या परिष्कार या शुद्धिकरण कीजिए।
जैसे मैंने कहा था कि अलग-अलग रात्रि पर अलग-अलग टॉपिक/ विषय पर चर्चा भी हो रही है। जो चर्चा अधूरी रह गई थी उस को अगली रात्रि आगे बढ़ाते हैं। अब कुछ अंतिम दिन ही आ रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु का स्टे वहां चल रहा है। उन दिनों में सातवां, आठवां या नवां दसवां दिन हो सकता है। राय रामानंद कहते हैं-
एक संशय मोर आछे हृदय
मेरे मन में एक संशय उत्पन्न हो रहा है। (अब उसको पढ़ कर नहीं, ऐसे ही सुनाता हूँ)
संशय यह है कि वह कह रहे हैं- जब आप आए थे तब आपको मैं गौरांग रूप में देख रहा था। मैं एक दंड और कमंडलु धारण किए हुए सन्यासी रूप को देखता रहा, देखता रहा लेकिन अभी अब आप यह कैसा रूप दिखा रहे हो। यह तो गौरांग रूप नहीं है, यह तो मुझे श्याम सुंदर रूप दिख रहा है। इसका समझना थोड़ा मुश्किल जा रहा है। यह क्या हो रहा है। आप हो कौन? आप गौरांग हो या गौर सुंदर हो या श्यामसुंदर हो आप कौन हो
ताहाते प्रकट देखों स -वंशी वदन । नाना भावे चञ्चल ताहे कमल -नयन ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.270)
अनुवाद:- “मैं देख रहा हूँ कि आप मुख में वंशी धारण किये हैं और आपके कमल -नेत्र विभिन्न भावों के कारण चंचल हो रहे हैं।”
आपके हाथ में दंड तो नहीं है। आपके हाथ में तो बंसी है। मैं क्या देख रहा हूँ, मुझे क्या दिखा रहे हो ।
राधा-कृष्णे तोमार महा-प्रेम हय । याहाँ ताहाँ राधा -कृष्ण तोमारे स्फुरय ॥ (श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.277)
अनुवाद:- श्रीचैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “हे राय , आप महान् भक्त हैं और राधाकृष्ण के प्रेमभाव से सदैव पूरित रहते हैं। अतएव आप जहाँ कहीं जो कुछ देखते हैं, वह आप में कृष्णभावनामृत को जाग्रत करता है।
संक्षिप्त में यही कह सकते हैं कि उस दर्शन को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने और भी विस्तारित किया। पहले तो वे राय रामानंद को गौरांग महाप्रभु के स्थान पर श्याम सुंदर रूप का ही दर्शन दे रहे थे। जब उन्होंने यह संशय कह कर सुनाया भी।
तब चैतन्य महाप्रभु क्या कहते हैं
तबे हा सि’ ताँरे प्रभु देखाइल स्वरूप ।‘रस-राज’, ‘महाभाव’—दुइ एक रूप ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.282)
अनुवाद:
भगवान् कृष्ण समस्त आनन्द के आगार हैं और श्रीमती राधारानी साक्षात् महाभावमय भगवत्प्रेम की मूर्तिमन्त स्वरूप हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु में ये दोनों स्वरूप मिलकर एक हो गये हैं। ऐसा होने के कारण श्रीचैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय को अपना वास्तविक स्वरूप दिखलाया।
(थोड़े हँसते हुए स्मित हास्य के साथ ( वे हास्य कर रहे थे) श्री कृष्ण का स्मित हास्य राय रामानंद देख रहे थे।
तबे हा सि’ ताँरे प्रभु देखाइल स्वरूप
श्रीकृष्ण का अपना जो स्वरूप है, उसका दर्शन दिया व चैतन्य महाप्रभु के स्वरूप का दर्शन दिया। (वो दर्शन कैसा था) रसराज! एक रूप रसराज कृष्ण का धारण किया और दूसरा महाभाव का।
एक रुपए दुई, दोनों एक ही रूप में। गौरांग या गौरांग के स्थान पर श्याम सुंदर और राधा रानी का दर्शन दिया
देखि’ रामानन्द हैला आनन्दे मूर्च्छिते । धरिते ना पारे देह , पड़िला भूमिते ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.283)
अनुवाद:
यह स्वरूप देखकर रामानन्द राय दिव्य आनन्द के कारण मूर्छित हो गये। वे खड़े नहीं रह सके, अतः भूमि पर गिर पड़े।
इससे राय रामानंद और भी सम्भर्मित हुए.. गए काम से। अचेतन हुए। बाह्य ज्ञान नहीं रहा।
धरिते ना पारे देह , पड़िला भूमिते और भूमि पर गिर गए।
तत्पश्चात चैतन्य महाप्रभु उनको फिर चेतन कर देते हैं, जगाते हैं। इसी के साथ अपनी संपूर्ण लीला में ऐसा दर्शन केवल और केवल राय रामानंद को ही दिया। चैतन्य महाप्रभु की जो लीला धरातल पर 48 वर्ष होती रही, उन सभी लीलाओं में एक ही समय में एक ही स्थान पर चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं राधा और कृष्ण होने का दर्शन राय रामानंद को दिया। इसीलिए जहां दर्शन दिया, उस स्थान को गौड़ीय वैष्णव दक्षिण भारत का वृंदावन कहते हैं। एक तो वृंदावन, वृंदावन है, जहां राधा कृष्ण की लीला संपन्न होती ही है और दूसरा स्थान विद्यानगर, गोदावरी के तट पर बन गया। जहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने राधा कृष्ण का दर्शन दिया।
अब कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान कर रहे हैं और निवेदन करते हुए कि अब…
दुइ-जने नीलाचले रहिब एक -सङ्गे । सुखे गोङाइब काल कृष्ण-कथा-रङ्गे ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.298)
अनुवाद :
“हम दोनों जगन्नाथ पुरी में मिलकर रहेंगे और कृष्ण-कथा कहते हुए सुखपूर्वक अपना समय बितायेंगे ।”
आप थोड़ा अर्ली रिटायरमेंट ले लो, बस हो गया। मैं थोड़ा दक्षिण भारत की यात्रा कर रहा हूं। यात्रा करते करते पुनः मैं जब भी जगन्नाथ पुरी लौटूंगा तब तक आप रिटायरमेंट लेकर पहुंच जाना। तब हम सुख से वहां अपना समय बिताएंगे। (किस में) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। अर्थात हरि कीर्तन में और हरि कथा में अपना जीवन आपके संग में बिताएंगे।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
दिनाँक 11 -05 -23
हरे कृष्ण!!!
जप को विराम दीजिए किंतु ध्यान को विराम नहीं देना है। मंत्र मेडिटेशन ध्यान पूर्वक जप और अब ध्यान पूर्वक ही हम जप चर्चा को सुनेंगे और आप जानते ही हैं जैसा कि अनाउंसमेंट हुई थी , आज राय रामानंद और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संवाद होगा। राय रामानंद तिरोभाव दिवस की जय….! तो उसी के उपलक्ष में यह संवाद, श्रवण, कीर्तन, स्मरण हम कर रहे हैं।
जय जय श्री चैतन्य जया नित्यानंद। जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद।।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ट्रैवलिंग एंड ट्रैवलिंग दक्षिण भारत की यात्रा में हैं तो वह पहुंचे हैं कुव्वुर और ये कहाँ था गोदावरी के तट पर, उसको विद्यानगर भी कहते हैं वहीं पर इनको मिलना भी था। चैतन्य महाप्रभु को राय रामानंद से, अनायास ही जब मिले तो फिर कैसे मिलन हुआ, राय रामानंद और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मध्य में और क्या संवाद हुआ, जिसका श्रवण ध्यान हम कर चुके हैं। याद है ? उसी को आगे बढ़ाएंगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भिक्षा के लिए निमंत्रण मिला और वे मध्याह्न भोजन के लिए राय रामानंद के यहाँ गए हैं। भोजन और विश्राम के उपरांत पुन: राय रामानंद के साथ मिलन होता है। राय रामानंद जी ने कहा है आप रहिए यहां, कितने दिन, पांच सात दिन, यहां पर रहोगे तो फिर क्या होगा आपका अंग संग कहो आपके साथ वार्तालाप होगा,
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ (श्रीमद भागवतम ३.२५.२५ )
अनुवाद- शुद्ध भक्तों की संगति में श्रीभगवान् की लीलाओं तथा उनके कार्यकलापों की चर्चा कान तथा हृदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाली होती है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन में मनुष्य धीरे-धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात् मुक्त हो जाता है और उसका आकर्षण स्थिर हो जाता है। तब असली समर्पण तथा भक्तियोग का शुभारम्भ होता है।
हृदय के लिए, कानों के लिए , भक्ति का रसायन हम पान करेंगे। तो पुनः मिलान हुआ है
प्रभु कहे साध्येर निर्णय इस संवाद में यह भी संवाद का एक वैशिष्टय ही है। श्रीकृष्ण अर्जुन का भी संवाद है और शुकदेव गोस्वामी और राजा परीक्षित का भी संवाद है और यह भी एक संवाद है। यहां राय रामानंद बनते हैं या उनको बनाया जाता है वक्ता और गौर भगवान बन जाते हैं श्रोता या फिर राय रामानंद जी विशाखा है, विशाखा बन जाती है वक्ता और कृष्ण कन्हैया लाल बन जाते हैं श्रोता । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जिज्ञासा है वह जानना चाहते हैं।
*प्रभु कहे, “एहो बाह्य, आगे कह आर” ।
राय कहे, – “स्वधर्म-त्याग, एइ साध्य-सार” ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला, अध्याय ८.६१)
अनुवाद – श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा, “यह भी बाह्य है। इस विषय पर आगे कहो।” तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “वर्णाश्रम में अपने नियत कर्मों को त्यागना ही पूर्णता का सार है ।”
गौर भगवान सुनना चाहते हैं साध्य और साधन का निर्णय या साध्य कहो या लक्ष्य कहो क्या है , हमें कहां तक पहुंचना है, कौन सा है गंतव्य स्थान जिसकी चर्चा प्रारंभ होती है और इसका विषय बन जाता है या रसोएशय या कहो रस तत्व की चर्चा होगी। एक तत्व विचार होता है और फिर रस विचार ऐसे चर्चा के दो विभाग भी बन जाते हैं। जब हम ज्ञान की बात करते हैं तो तत्वज्ञान तो और रसत ज्ञान, तो यहां रस की चर्चा है। इसी रस से फिर रास होता है। रास क्रीड़ा या रासोवेशयः जो भगवान रस के ही बने हैं रसों से ही बने हैं या रसराज कृष्ण कैसे हैं, रसराज रसों के राजा हैं और फिर रसों के कई प्रकार हैं। मैंगो जूस है, टोमैटो जूस है, अलग-अलग प्रकार के रसों का स्वाद है उसमें द्वादश रस है उसमें 12 रस हैं, 7 गौण रस हैं, प्रधान रस 5 हैं सख्य, वात्सल्य, दास्य, माधुर्य, शांत। इन रसों का ज्ञान क्या है ? रस से संबंधित चर्चा प्रारंभ होती है। उत्तर में राय रामानंद कहते जाते हैं।
यत्करोषि यदशनासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ (श्रीमद भगवद्गीता 9.27)
अनुवाद – रामानन्द राय ने आगे कहा, “हे कुन्ती पुत्र, तुम जो कुछ करो, जो भी खाओ, जो भी यज्ञ करो, जो भी दान दो तथा तुम जितनी भी तपस्याएँ करो, उन सबके फल मुझे, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण को अर्पण करो। ”
पहले वर्णाश्रम धर्म की चर्चा करते हैं वर्णाश्रम धर्म का अवलंबन करना चाहिए कृष्ण ने गीता में कहा है
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशःI तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता 4.13)
अनुवाद- प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।
तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते हैं “एहो बाह्य” यह तो बाहर का हुआ और आगे कहो तो फिर राय रामानंद कहते हैं
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 9.27)
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो।
इस बात से भी चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न नहीं हैं “एहो बाह्य” वह कहते हैं यह भी बाह्य” है बाहर का है यह गौण है और आगे बढ़ो और इससे भी ऊंची बात कहो तो फिर रामानंद राय कहते हैं।
प्रभु कहे, “एहो बाह्य, आगे कह आर” । राय कहे, “कृष्णे कर्मार्पण सर्व-साध्य-सार” ॥ (श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.59)
अनुवाद :- महाप्रभु ने कहा, “यह तो बाह्य है। आप मुझे कोई दूसरा साधन बतलायें।” इस पर रामानन्द ने उत्तर दिया, “सारी पूर्णता का सार यह है कि अपने कर्मों के फल कृष्ण को अर्पित किये जाएँ।”
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद -सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत।
राय रामानंद ने सोचा कि यह भगवत गीता का सार है। भगवत गीता के संवाद के अंत में कृष्ण ने स्वयं कहा यह श्रेष्ठ बात हो सकती है ऐसा राय रामानंद सोच तो रहे थे लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने कहा एहो बाह्य, यह भी बाहर का है और आगे बढ़ो
प्रभु कहे, “एहो बाह्य, आगे कह आर” ।
राय कहे, “ज्ञान-शून्या भक्ति साध्य-सार” ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.66)
अनुवाद – यह सुनकर महाप्रभु ने पहले की तरह इसे भी बाह्य भक्ति मानते हुए अस्वीकार कर दिया। उन्होंने रामानन्द राय से पुनः आगे बोलने के लिए कहा। इस पर रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “ज्ञान से रहित शुद्ध भक्ति ही पूर्णता का सार है।”
साध्य की चर्चा यहां हो रही है, राय रामानंद कहते हैं साध्य का सार भक्ति है, भक्ति है ज्ञान शून्य, एक ज्ञान मिश्रित भक्ति होती है वह भी सही नहीं है। ये ज्ञान कि भगवान महान हैं और हम लहान हैं। हम छोटे हैं उसमें भक्ति का भाव उतना नहीं होता है, उतना रस उत्पन्न नहीं होता भगवान के महानता के ज्ञान से, वैकुंठ में भगवान महान हैं। किंतु वृंदावन में भगवान प्रेमी भगवान या सबके साथ मिलजुल कर रहने वाले, किसी के साथ खेलने वाले, किसी के भी पुत्र बन जाते हैं और गोपियों के साथ उनकी रास क्रीडाएं होती हैं। यह संभव नहीं है यदि वह समझे कि भगवान महान हैं।
प्रभु कहे, “एहो हय, किछु आगे आर” ।
राय कहे, “ सख्य-प्रेम सर्व-साध्य-सार” ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.74)
अनुवाद – रामानन्द राय से यह सुनकर महाप्रभु ने पुनः प्रार्थना की कि वे और आगे बढ़ें। रामानन्द राय ने उत्तर में कहा, “सख्य भाव से की गई कृष्ण की प्रेमाभक्ति सर्वोच्च पूर्णता है।
कृष्ण के मित्र कहते हैं तुम क्या समझते हो “तुम कौन बडा लोग अमि तुमी सम तो मैत्री जो है बराबर वालों में ही संभव होती है। उन्हीं के मध्य में मैत्री होती है, यह ज्ञान शून्य भक्ति कही जाती है, वृंदावन में जो भक्ति होती है वह ज्ञान शून्य भक्ति होती है। वैसे दास्य रस की जब बात होती है तब राय रामानंद कहने लगते हैं हां
प्रभु कहे, – “ एहो उत्तम, आगे कह आर” । राय कहे, “वात्सल्य-प्रेम सर्व-साध्य-सार” ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.76)
अनुवाद- महाप्रभु ने कहा, “यह कथन अति उत्तम है, किन्तु आगे कहते चलो।” तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “भगवान् के प्रति वात्सल्य प्रेम सर्वोच्च पूर्णता की अवस्था है।”
हां यह ठीक लग रहा है। हां यह ठीक है।
प्रभु कहे, “एहो उत्तम, आगे कह आर” ।
राय कहे, कान्ता-प्रेम सर्व-साध्य-सार ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.79)
अनुवाद- महाप्रभु ने कहा, “तुम्हारे कथन उत्तरोत्तर अच्छे होते जा रहे हैं, किन्तु इन सबसे बढ़कर अन्य दिव्य रस है, जिसे आप अच्छी तरह बतला सकते हैं।” तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “भगवत्प्रेम में कृष्ण के प्रति माधुर्य आसक्ति सर्वोपरि है।
लेकिन जब प्रेम भक्ति या प्रेम रस का, सख्य रस का उल्लेख होते ही उन्होंने कहा यह उत्तम है। फिर सख्य रस का उल्लेख हुआ जिसको उत्तम कहा वात्सल्य रस या वात्सल्य प्रेम, नंद बाबा यशोदा और सभी बुजुर्ग जो व्यक्ति हैं वृंदावन के उनके साथ कृष्ण का वात्सल्य रस हरि हरि ! युवकों के साथ सख्य रस और गोपियों के साथ माधुर्य रस इन तीनों को कृष्ण ने कहा या चैतन्य महाप्रभु ने कहा यह है उत्तम यह सब रस भी उत्तम है। वात्सल्य रस भी उत्तम है और माधुर्य रस भी उत्तम है।
कृष्ण-प्राप्तिर उपाय बहु-विध हय । कृष्ण-प्राप्ति-तारतम्य बहुत आछय ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.82)
अनुवाद- ‘कृष्ण की कृपा प्राप्त करने के अनेक साधन तथा विधियाँ हैं। अब उन सारी दिव्य विधियों का अध्ययन सापेक्ष महत्त्व की दृष्टि से किया जायेगा।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यहां भी जब राय रामानंद कहते जा रहे हैं बहुत अच्छे तो चैतन्य महाप्रभु फिर कमेंट कहते हैं यह तीनों भी उत्तम होते हुए सख्य रस से वात्सल्य रस और माधुर्य रस इसमें भी तरतत्तम का भाव है। गुड, बेटर, बेस्ट, तरतत्तम
किन्तु और ग्रेइ रस, सेइ सर्वोत्तम । तटस्थ हञा विचारिले, आछे तर-तम ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8. 83)
अनुवाद- यह सच है कि भगवान् के साथ जिस भक्त का जैसा भी सम्बन्ध है, वही उसके लिए सर्वोत्तम है। किन्तु तो भी जब हम विभिन्न विधियों का अध्ययन तटस्थ होकर करते हैं, तो हम समझ सकते हैं कि प्रेम की उच्च तथा निम्न कोटियाँ होती हैं।
जो सख्य रस के भक्त हैं उनके लिए सख्य रस सर्वोत्तम है, जो वात्सल्य रस के भक्त हैं उनके लिए वात्सल्य रस सर्वोत्तम है और जो गोपियां राधा रानी की जय। जय श्री राधे उनके लिए जो माधुर्य रस है वह सर्वोत्तम है ऐसा होते हुए भी इन रसों में भी तरत्तम का विचार है समझ है।
पूर्व-पूर्व- रसेर गुण— परे परे हय । दुइ तिन गणने पञ्च पर्यन्त बाड़य।
( श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.85)
अनुवाद- एक रस से लेकर बाद के रसों तक क्रमशः बढ़ोतरी होती जाती है। दूसरे, तीसरे और अधिक से अधिक पाँचवे रस तक प्रत्येक परवर्ती रस के गुण में पूर्ववर्ती रस के गुण प्रकट होते हैं।
माधुर्य रस में सभी रसों का समावेश है वात्सल्य रस है उसमें सभी रस हैं लेकिन माधुर्य रस का समावेश नहीं है, सख्य रस में और जो रस हैं वह हैं किंतु सख्य रस में वात्सल्य रस नहीं है माधुर्य रस नहीं हैं।
गुणाधिक्ये स्वादाधिक्य बाड़े प्रति-रसे । शान्त-दास्य- सख्य-वात्सल्येर गुण मधुरेते वैसे ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.86)
अनुवाद-“गुणों में वृद्धि के साथ-साथ प्रत्येक रस के स्वाद में भी वृद्धि होती जाती है। अतएव शान्त रस, दास्य रस, सख्य रस तथा वात्सल्य रस के सारे गुण माधुर्य रस में प्रकट होते हैं।
श्रील प्रभुपाद की जय…! हर रस का गुण या माधुर्य बढ़ता है सख्य रस से अधिक रस है वात्सल्य रस में वात्सल्य रस से अधिक गुणवत्ता आस्वादन है माधुर्य रस में
आकाशादिर गुण ग्रेन पर-पर भूते । दुइ तिन क्रमे बाड़े पञ्च पृथिवीते ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.87)
अनुवाद- पाँच भौतिक तत्त्वों-आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी-में गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि एक, दो तथा तीन की क्रमिक विधि से होती है और अन्तिम अवस्था में पृथ्वी तत्त्व में पाँचों गुण पूर्णतया दृष्टिगोचर होते हैं।
परिपूर्ण-कृष्ण-प्राप्ति एइ ‘प्रेमा’ हैते । एइ प्रेमार वश कृष्ण कहे भागवते ॥ (श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.88)
अनुवाद – भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की पूर्ण प्राप्ति भगवत्प्रेम से, विशेष रूप से माधुर्य रस द्वारा सम्भव हो पाती है। भगवान् कृष्ण इस स्तर के प्रेम के वश में हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत में ऐसा कहा गया है।
हृदये प्रेरण कर, जिह्वाय कहाओ वाणी । कि कहिये भाल-मन्द, किछुइ ना जानि ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.123)
अनुवाद -आप मेरे हृदय के भीतर से मुझे प्रेरित करते हैं और जीभ से कहलवाते हैं। मैं यह नहीं जानता कि मैं अच्छा बोल रहा हूँ या बुरा ।
हरि हरि ! तो यह सिद्ध हो रहा है वैसे माधुर्य रस ही सर्वोत्तम है। हर एक के लिए अपने-अपने रस उत्तम है लेकिन सभी रसों में सर्वोत्तम रस माधुर्य रस है और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो प्रकट हुए हैं समर्पित उज्जवल उन्नत रस हय चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में श्रीकृष्ण दास कविराज गोस्वामी उल्लेख करते हैं कि चैतन्य महाप्रभु क्यों प्रकट हुए हैं? उन्नत उज्जवल रस जो है “माधुर्य रस” यह देने के लिए प्रकट हुए हैं और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मत के अनुसार भगवान की भक्ति कैसे करनी चाहिए
आराध्यो भगवान ब्रजेश तनय , तद्धामं वृन्दावनं। रम्या काचिदुपासना व्रजवधु वर्गेण या कल्पिता।। श्रीमद भागवतम प्रमाण अमलम प्रेम पुमर्थो महान। श्री चैतन्य महाप्रभोर मत मिदम , तत्रादरो न परः।।
गोपियां राधा रानी जिस भाव के साथ, बड़े माधुर्य भाव के साथ गुह्य प्रेम के साथ जो आराधना करती हैं। कृष्ण की यह आराधना की पद्धति सर्वोत्तम है और उसका प्रचार, केवल प्रचार ही नहीं अपितु उसके पहले आस्वादन करने के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। आगे चर्चा होने वाली है गोपियों की और गोपियों में श्रेष्ठ है राधा रानी , राधा रानी की जय !
हम समझ गए , मान गए चैतन्य महाप्रभु कहते हैं साध्य साधने का निर्णय हुआ और सर्वोपरि यह माधुर्य रस ही है और ये रस ही रास है उसी से रास होता है।
सार्वभौम-सङ्गे मोर मन निर्मल हइल । कृष्ण-भक्ति-तत्त्व कह, ‘ ताँहारे पुछिल ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.125)
अनुवाद – सार्वभौम भट्टाचार्य की संगति करने से मेरा मन निर्मल हुआ है। इसीलिए मैंने उनसे कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति के तत्त्व के विषय में पूछताछ की।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपनी जिज्ञासा को आगे बढ़ाते हुए ऐसे उत्तर खोलने जा रहे हैं राय रामानंद से कहलाएंगे
तेंहो कहे—आमि नाहि जानि कृष्ण-कथा । सबे रामानन्द जाने, तेंहो नाहि एथा ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.126)
अनुवाद – सार्वभौम भट्टाचार्य ने मुझसे कहा, ‘वास्तव में मैं भगवान् कृष्ण की कथा के विषय में नहीं जानता। रामानन्द राय ही सब कुछ जानता है, किन्तु वह यहाँ उपस्थित नहीं है।
आप ऐसे ऐसे प्रश्न पूछ रहे हो जिज्ञासा हो रही है इसका उत्तर तो मैं नहीं जानता किंतु आप जो भी कहलाओगे मुझसे, मैं कहता जाऊंगा “साक्षात् ईश्वर तुमि” आप तो साक्षात ईश्वर परमेश्वर भगवान हो। आप का नाटक ,आप की करतूत ,आप की लीला, कौन समझ सकता है।
जो जो आप जिज्ञासा कर रहे हो उनके उत्तर मेरे हृदय प्रांगण में प्रकाशित कीजिए दिव्यज्ञान हृदय प्रकाशित और जब यह विचार हृदय प्रांगण में प्रकाशित होंगे हृदये प्रेरण कर, जिह्वाय कहाओ वाणी तो फिर उसी को मैं अपनी जीवा से उच्चारण करूंगा। सही गलत मैं तो नहीं जानता कैसे कहलाओगे मैं कहता जाऊंगा तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं
प्रभु कहे, मायावादी आमि त’ सन्न्यासी । भक्ति-तत्त्व नाहि जानि, मायावादे भासि ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.124)
अनुवाद- श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मैं तो मायावादी संन्यासी हूँ और मैं यह भी नहीं जानता कि भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति है क्या। मैं तो केवल मायावादी दर्शन के सागर में तैरता रहता हूँ।
कह रहे है मैं तो मायावादी सन्यासी हूं मैं कहां से जान लूंगा ,भक्ति और भक्ति का तत्व ,”मायावादी कृष्ण अपराधी” अन्य स्थान पर चैतन्य महाप्रभु ने कहा है मायावादी कृष्ण अपराधी, मायावादी कृष्ण के चरणो में अपराध करने वाले और वह तो भक्ति का विरोध करते हैं भक्ति करते ही नहीं, वह स्वयं ही भगवान बनना चाहते हैं। “अहम् ब्रह्मास्मि” कहते हैं। वहां भगवान नहीं रहे और वे भगवान बन गए लेकिन भक्ति नहीं रही क्योंकि भक्त ही नहीं है क्योंकि भक्त ही बन गए भगवान, जिसको करनी चाहिए थी भक्ति वह बन जाता है भगवान, फिर भक्ति का अंत एंड ऑफ द भक्ति
सार्वभौम-सङ्गे मोर मन निर्मल हइल । ‘कृष्ण-भक्ति-तत्त्व कह, ‘ ताँहारे पुछिल ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.125)
अनुवाद- सार्वभौम भट्टाचार्य की संगति करने से मेरा मन निर्मल हुआ है। इसीलिए मैंने उनसे कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति के तत्त्व के विषय में पूछताछ की।
तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य जी ने बताया था हरि हरि ! कि आप मुझे यह सारा जैसे कृष्ण भक्ति की चर्चा कृष्ण भक्ति तत्व ताँहारे पुछिल हरि हरि !
तेंहो कहे—आमि नाहि जानि कृष्ण – कथा । सबे रामानन्द जाने, तेंहो नाहि एथा ॥ (श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.126)
अनुवाद – सार्वभौम भट्टाचार्य ने मुझसे कहा, ‘वास्तव में मैं भगवान् कृष्ण की कथा के विषय में नहीं जानता। रामानन्द राय ही सब कुछ जानता है किन्तु वह यहाँ उपस्थित नहीं है।
और उन्होंने कहा राय रामानंद सब कुछ जानता है वह विद्वान है और राय रामानंद रसिक भक्त है कुछ भक्त कैसे होते हैं? रसिक होते हैं। भागवत को सुनो, भक्तों के लिए, रसिको के लिए है भागवत, आप भागवत हो, व्यक्ति भागवत हो, तो आप जानते हो
तोमार ठाञि आइलाङ तोमार महिमा शुनिया । तुमि मोरे स्तुति कर ‘सन्यासी’ जानिया ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.127)
अनुवाद -श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “मैं आपकी महिमा सुनकर यहाँ आया हूँ। किन्तु आप मुझे संन्यासी जानकर मेरी प्रशंसा कर रहे हैं।
आपके संबंध में इतनी सारी महिमा सुनकर मैं आपके पास आया हूं किंतु आप मेरी स्तुति कर रहे हो मुझे सन्यासी जान के, लेकिन मैं तो मायावादी सन्यासी हूं और आप सर्वज्ञ हो। आप रसिक भक्त हो , ऐसा मैंने खुद सुना है तो कृपया सुनाइए मुझे और इसी के साथ चैतन्य महाप्रभु ज्ञान की बात भी कहते हैं
किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय । ग्रेइ कृष्ण-तत्त्व- वेत्ता, सेइ ‘गुरु’ हय ॥
(श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.128)
अनुवाद – कोई चाहे ब्राह्मण हो अथवा संन्यासी या शूद्र हो-यदि वह कृष्ण- तत्त्व जानता है, तो गुरु बन सकता है।”
जो कृष्ण तत्त्ववेत्ता है सही गुरु है वही गुरु हो सकते हैं जो कृष्ण तत्त्ववेत्ता है जो जानकार हैं।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.9)
हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्म को) जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है।
कृष्ण को तत्वतः जानना होता है। सिद्धांत की बात करने में आलस नहीं करना चाहिए जो आपको तत्व देता हो तो मैं तो आपका शिष्य बन कर आया हूं आपसे सुनने के लिए आया हूं और आप गुरु हो। किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय कोई विप्र हो सकता है या किसी ब्राह्मण परिवार में हुआ हो, कोई सन्यासी होगा या कोई शूद्र भी हो सकता है। देट नॉट इंपोर्टेंट यह बहुत आवश्यक नहीं है। सन्यासी है या शूद्र परिवार में जन्मा है या ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ है इससे व्यक्ति गुरु नहीं बनता। तो क्या क्वालिफिकेशन ? जो तत्ववेत्ता है वह गुरु बन सकता है और आप तत्व वेता हो तो मुझे आप सुनाइए
राय कहे, “आमि नट, तुमि सूत्र-धार । ग्रेइ मत नाचाओ, तैछे चाहि नाचिबार ॥ ॥ (श्रीचैतन्य – चरितामृत मध्य लीला 8.132)
अनुवाद- श्री रामानन्द राय ने कहा, “मैं तो केवल नाचने वाली कठपुतली हूँ, और आप रस्सी खींचने वाले हैं। आप मुझे जिस तरह नचायेंगे, मैं उसी तरह नाचूँगा ।
मैं तो नट हूं या कठपुतली हूं और आप हो सूत्रधार, आप कठपुतली वाले हो और मैं कठपुतली हूं तो ठीक है आप जैसे भी नचाओगे मुझे , मैं नाचूंगा, नचाओ नचाओ मुझे। श्रील प्रभुपाद ने भी ऐसे विचार प्रकट किए थे जब बोस्टन से न्यूयॉर्क जा रहे थे उसी जलदूत वोट में बैठकर और श्रील प्रभुपाद ने जो दृश्य देखा बोस्टन में, मैं तो यह प्रचार के लिए आया हूं लेकिन यहां तो रैट रेस चल रही है। चूहे की दौड़ यहां के बोस्टन या अमेरिका के लोग इतने व्यस्त लग रहे हैं। भागम भाग चल रही है रुकने का नाम नहीं ले रहे, कैसे करूंगा मैं प्रचार ? तो श्रील प्रभुपाद ने एक कविता लिखी उसके अंत में लिखते हैं ” आमि तो काष्ठेर पुतली मैं एक काष्ठ की पुतली हूं नचाओ प्रभु नचाओ मुझे नचाओ, मुझे बुलवाओ जैसा आप चाहोगे, तो राय रामानंद भी वही बात कह रहे हैं। “परम ईश्वर कृष्ण:” और अब जब राय रामानंद बोलेंगे तो जो बातें बोलने वाले हैं रस विचार की बातें या माधुर्य रस की बातें जो सर्वोपरि है ऐसी चर्चा और कहीं नहीं मिलेगी, ऐसी बातें इस संवाद के अंतर्गत आ जाती हैं। जो बातें भागवत में भी नहीं कहे शुकदेव गोस्वामी ,यह नहीं कि वह नहीं जानते थे किंतु जिस प्रकार का ऑडियंस वहां था और इसीलिए श्रील प्रभुपाद चैतन्य चरितामृत को क्या कहते हैं ? इसका अध्ययन मतलब पोस्ट ग्रेजुएशन का यह सिलेबस या स्टडी मटेरियल है, भगवत गीता क्या है, भगवत गीता है प्राइमरी स्कूल का सिलेबस और श्रीमद भगवतम है ग्रेजुएशन, चैतन्य चरितामृत यह पोस्ट ग्रेजुएशन का स्टडी मटेरियल तभी बन जाता है जब राय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु के मध्य का जो संवाद है कॉन्फिडेंशियल, अति गोपनीय रहस्यमई बातें, जब चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद के मुखारविंद से कहलाते हैं और इसी के साथ इस रहस्य का उद्घाटन हुआ है। एक समय तो चैतन्य महाप्रभु ने तो स्टॉप स्टॉप उनके मुख को बंद करवाया ये कहकर यू आर क्रॉसिंग द बाउंड्री और फिर इस प्रकार का संवाद है जो विषय वस्तु प्रस्तुत की गई है यह गीता भागवत के भी परे की बातें हैं और धर्म की तो भूल ही जाओ। इसीलिए तो अन्य ग्रन्थ बाइबल, इस्लाम या हमारे अन्य पुराणों में भी यह चर्चा का विषय बना है। यह केवल और केवल चैतन्य चरितामृत में ही है। इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु के प्राकट्य का एक कारण था कि वो राधा रानी को जानना चाहते हैं और उस राधा भाव को लेकर प्रकट हुए हैं। “राधा भाव कोबालितं” राधा का भाव और राधा की ज्योति कांति को लेकर गौरांग बने हैं , मतलब राधा बने हैं तो इस संवाद के माध्यम से चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का जो उद्देश्य है वह राधा को या राधा की महिमा किस प्रकार की है। राधा जिस आनंद का अनुभव करती है वह आनंद कैसा है, जब राधा कृष्ण में कंपटीशन होता है तो कृष्ण अनुभव करते हैं आई एम गेटिंग डिफीटेड मैं हार रहा हूं और राधा जीतती रहती है और वैसे रुकमणी ने कहा भी था। चैतन्य मंगल नामक जो ग्रंथ है उसमे उल्लेख आता है कि कैसे रुकमणी एक समय द्वारिका में द्वारकाधीश को कही थी प्रभु जी ऐसी कुछ बातें हैं बस मैं जानती हूं लेकिन राधारानी अधिक जानती है और आप जानते ही नहीं, आप कुछ भी नहीं जानते। तुम्हारे विरह की व्यथा ,जब सेपरेशन होता है तो उस समय जो हम अनुभव करती हैं , मैं थोड़ा अनुभव करती हूं लेकिन राधारानी उसका अनुभव सदैव करती ही रहती है, उन बातों को, आप नहीं जानते तो कृष्ण ने कहा ,ऐसा क्या कह रहे हो क्या तुमने भागवत नहीं पढ़ा ? भागवत के प्रारंभ में ही कहा है मैं कैसा हूं। अभिज्ञ, स्वराट, मैं सर्वज्ञ हूं। श्रीमद् भागवत १.१.१ भागवत ने कहा है मैं अभिज्ञ हूं। मैं सर्वज्ञ हूं और तुम कह रही हो कि मैं जानता नहीं ? कृष्ण ने स्वीकार किया कि हां हां कुछ बातें ऐसी हैं जो मैं नहीं जानता केवल राधारानी जानती है। तो फिर उसने उसी समय संकल्प लिया था की नेक्स्ट टाइम जब मैं प्रकट होऊंगा तो मैं राधा रानी बनूंगा। राधा रानी का भाव लेकर राधा रानी बनकर प्रकट होऊंगा। वैसे वो दोनों ही बने हैं “श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य” यह जो सिद्धांत की बात है चैतन्य महाप्रभु कैसे हैं वह कृष्ण है और राधा रानी भी हैं तो अंतः कृष्णा बाहिर गौरा अंदर व्यक्ति कृष्णा और बाहर है वह गौरांग महाप्रभु या गौर वर्ण के या बाहर है राधा और अंदर है कृष्ण छिपे हुए हैं। अब यहां पर यह जो संवाद हो रहा है तो वह राधा को जानना चाहते हैं राधा को जानने के लिए ही प्रकट हुए हैं या जानने के लिए ही नहीं, वह कृष्ण भी बने हैं तो कृष्ण क्या करेंगे
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थानार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 4.8 ॥ श्रीमद्भगवद्गीता
अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
धर्म की स्थापना भी तो करना है
“श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौरा कोरिला प्रचार”तो हरे कृष्ण नाम कीर्तन यह कलयुग का धर्म है इसकी भी स्थापना की है उन्होंने यह मध्य लीला में 6 वर्षों तक चैतन्य महाप्रभु रमण करके अपना फर्ज निभा रहे है कृष्ण है ,तो जो कृष्ण का कर्तव्य है जो उद्देश्य होता है ,क्या उद्देश्य ?
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || 4.7 || श्रीमद्भगवद्गीता
अनुवाद- हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
वह करने के उपरांत तो अब वे श्रीकृष्ण महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रहेंगे 18 वर्ष उसमें से हुए लास्ट के जो 12 वर्ष हैं उसको अंतिम लीलाएं कहा है। चैतन्य चरित्रामृत की आदि लीला मध्य लीला और फिर अंत्य लीला 12 वर्ष के अंत में महाप्रभु ने क्या किया है ? फोकस किया है राधा रानी बन गए हैं राधा भाव में ,राधा रानी को समझने की लीला खेले हैं। तो इसके लिए राधा रानी को समझना है इसलिए राधा रानी बने भी हैं और वह समझना भी चाहते हैं। इसमें बहुत बड़ा योगदान वैसे राय रामानंद जी का होने वाला है। राय रामानंद कौन है ?विशाखा है। विशाखा की मदद से वह राधा रानी को समझेंगे या समझने का प्रयास हो रहा है। हर एक की भक्ति के अनुसार भगवान उनको रिवॉर्ड भी देते हैं।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ 4.11 ॥ श्रीमद्भगवद्गीता
अनुवाद- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।
कृष्ण कहते हैं जो जितनी मेरी शरण में आता है उनको मैं अकॉर्डिंग्ली उनके साथ रेसप्रॉकेट करता हूं लोग जैसे मुझे भेजते हैं ये यथा मां प्रपद्यंते मेरी शरण में आते हैं और मेरा भजन करते हैं मेरी स्तुति करते हैं। इसका अक्षरसा यदि भावार्थ लेना है तो मैं भी वैसे ही भजन करता हूं जो जैसी मेरी शरण में आता है। यह सिद्धांत तो कृष्ण कह गए भगवत गीता में लेकिन जब राधा रानी और गोपियों जो है उन पर यह सिद्धांत लागू नहीं होता। गोपियां राधा रानी जैसा मेरी शरण में आती है या मेरा भजन करती हैं तो उतना मैं नहीं कर सकता ,उसका बदला मैं नहीं चुका सकता। इसीलिए रास पंचाध्याय में श्रीमद्भागवत में अल्टीमेटली रास क्रीडा हो रही है तो कृष्ण, राधा रानी और गोपियों से मिलते हैं तब पता है वह क्या कहते हैं
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।
या माभजन्दुर्जरगेहशृङ्खलाः
संवृश्च्य तद्वः प्रतियातु साधुना ॥ 10.32.22 ॥ श्रीमद्भागवतम
अनुवाद -मैं आपलोगों की निस्पृह सेवा के ऋण को ब्रह्मा के जीवनकाल की अवधि में भी चुका नहीं पाऊँगा। मेरे साथ तुमलोगों का सम्बन्ध कलंक से परे है। तुमने उन समस्त गृह- बन्धनों कोतोड़ते हुए मेरी पूजा की है जिन्हें तोड़ पाना कठिन होता है। अतएव तुम्हारे अपने यशस्वी कार्य ही इसकी क्षतिपूर्ति कर सकते हैं।यह बड़ा प्रसिद्ध वचन है श्री कृष्ण का भागवत के श्री रास पंचाध्याय के अंतर्गत न पारयेऽहं
हे ! गोपियों हे! राधा रानी तुम लोगों का जो समर्पण है जो जो तुम मेरे लिए करती हो मुझे प्रसन्न करने के लिए , मैं तो ऋणी हूं और उस ऋण से मुक्त नहीं हो सकता “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्” मैंने तो कह दिया भगवत गीता में लेकिन तुम हे ! गोपियों हे! राधा रानी तुम्हारी बात अलग है। मैं सदैव ऋणी रहूंगा हे गोपियों तुम्हारा और राधा रानी का , ऐसे ऐसे भाव, ऐसे ऐसे विचार, ऐसे ऐसे रस, यह रस का विचार है और फिर भगवान के विचार भी हैं और भगवान के विचारों को जानना ही भगवान को जानना हुआ। फ्रॉम दिस एंगल व्यू कहो इस एंगल से जो कृष्ण को जानना है, कृष्ण के भाव, कृष्ण के विचार, कृष्ण के दिल की बातें ,ऐसा ज्ञान अन्य से प्राप्त नहीं होता है। या फिर इसकी समझ वैसे गौड़िये वैष्णवो को ही है और इसीलिए भी जो चार संप्रदाय हैं। ऑथराइज्ड परंपराएं हैं उसमें भी वह सर्वोपरि हो जाती है और यहां जैसे राय रामानंद के साथ संवाद हो रहा है उसी के साथ इस रस को और मोर कंडेंस्ड, अधिक अधिक गाढ़ा बनाया जा रहा है। यह रामानंद राय की कंट्रीब्यूशन है। वैसे भी तो ऐसा ही किया चैतन्य महाप्रभु ने ,जब वे प्रकट हुए हैं तो विशाखा को भी लाए हैं ,ललिता को भी लाए हैं ,साथ में स्वरूप दामोदर जो चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे जगन्नाथपुरी में तो उनके विचार उनका गान उसका माधुर्य यह रस विचार कहो या यह रस को और गाढ़ा बनाता है। रूप गोस्वामी ,रूपमंजरी नाम सुना होगा मंजरी, मंजरी नाम का एक गोपियों का प्रकार है तो उन मंजरियों की लीडर हैं रूपमंजरी। इस समय गोलोक में है। उस रूपमंजरी को ले आए धरातल पर और उनको अवतरित किया, प्राकट्य किया रूप गोस्वामी के रूप में और फिर उन्होंने इतना सारा ग्रंथों का भंडार गौड़िये वैष्णवो में भक्ति रसामृत सिंधु ग्रंथ लिखा और भी कई सारे ग्रंथों को उन्होंने लिखा। सनातन गोस्वामी और एक गोपी है मंजरी है। एंड ऑन एंड ऑन प्रमोद आनंद सरस्वती ठाकुर जो वृंदावन की महिमा लिखे हैं और राधा कृष्ण की लीला पर प्रकाश डालते हैं। यहां पर थोड़ा सा सेंपलिंग चल रहा है या एक नमूना कहो प्रस्तुत किया जा रहा है रामानंद और चैतन्य महाप्रभु के इस संवाद के रूप में ,किंतु ऐसे संवाद औरों के साथ भी हुए हैं। सनातन गोस्वामी के साथ 2 महीने संवाद चलता रहा वाराणसी में, समझने की बात यह है कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण जो अर्जुन के साथ कुछ बातें किए थे संवाद किए थे या फिर शेकहैंड कहो लेकिन उसके आगे की बातें करने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में भगवान प्रकट हुए हैं और फिर वही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपनी ओर से भी कुछ लिखते हैं रचना करते हैं जिनको शिक्षा अष्टकम कहते हैं। यहाँ से शुरुआत होती है
चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥1॥ शिक्षाष्टकम्
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥
यहां पर अंतिम शिक्षाअष्टक है।
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः॥8॥ शिक्षाष्टकम्
अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें -वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥
यह राधा रानी के वचन है राधा रानी कह रही है। जो भी कहिए और यह सब प्रेम की भाषा है। राधा रानी प्रेम की भाषा बोल रही हैं तो यह माधुर्य रस की रस की भाषा बोल रही है। वहां शिक्षाअष्टक के अंत में तो माधुर्य रस के” वैसे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे “यह महामंत्र भी दिया हैं। भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि जब मैं गोलोक से लौट रहा था आ रहा था तो आते-आते मैं यहां पर वहां से कृष्ण प्रेम लेकर के आया हूं। कैसा है कौन सा है ?”हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे? कृष्ण प्रेम है। इसका जब हम श्रवण कीर्तन करते हैं जप करते हैं ध्यानपूर्वक तो यह महामंत्र माधुर्य रस के अंतर्गत है। क्योंकि कुछ आचार्य तो कहते हैं यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण जिसमें यह जो 16 शब्द है या नाम है एक है राधा एक है कृष्ण एक है राधा एक है कृष्ण एक राधा एक है कृष्ण तो यह रास क्रीड़ा है। राधा कृष्ण राधा कृष्ण तो ऐसे ही रासलीला का भी प्रकाशन इस महामंत्र के माध्यम से होता है। माधुर्य रस जो सर्वोपरि है सर्वोत्तम है और पूर्ण है वात्सल्य रस भी पूर्ण है और अपूर्ण भी है। सेम थिंग सख्य रस पूर्ण भी है और अपूर्ण भी है लेकिन पूर्ण तो माधुर्य रस है और इस महामंत्र के साथ यह माधुर्य रस भी जुड़ा हुआ है। तो जिससे कि हम अधिक अधिक ध्यान पूर्वक प्रार्थना पूर्वक जप करेंगे , उस नाम में जो रस है इसी समझ से रसों वैश्य कृष्ण ही है। रस राज और फिर उनका नाम कृष्ण है। “अभिनत्व नाम नामिनो” यह हरे कृष्ण नाम अभी रसोवैश है जो कृष्ण है रसराज हैं इसका जब हम उच्चारण करते हैं।
वैसे रुक्मणी ने भी कहा हे भुवन सुंदर श्रीकृष्ण क्या मैं आपके गुणों को कहो या नाम को भी कहो या लीला को भी कहो, मैं जो सुनती हूं आप हमारे कर्णो के माध्यम मुझ में प्रवेश करते हो हृदय प्रांगण में आप पहुंच जाते हो और वहां मैं हूं ; तो होता क्या है
मेरा जो आदि देवी का आध्यात्मिक भौतिक ताप है वह शांत हो जाता है। मेरा जो बुखार है टेंपरेचर है, गरमा गरम मामला है इस संसार में, वह शांत हो जाता है। ऐसा रुक्मणी ने भी कहा हमारे लिए कहा ताकि हम भी वैसा ही करें। श्रवण कीर्तन करें। रुकमणी अपने श्रवण कीर्तन के लिए प्रसिद्ध थी और कृष्ण के नाम रूप गुण लीला को सुन सुनकर उसने मन बना लिया था की विवाह यदि होगा और जब होगा तो केवल और केवल कृष्ण के साथ, इस तरह से हमारा भी मन बनना चाहिए। कृष्ण हमारे ही पति हैं। जो पुरुष हैं वह कृष्ण ही हैं “गोविंदम आदि पुरुषम तमहं भजामि” और हम प्रकृति हैं, जीवात्मा क्या है प्रकृति और भगवान है पुरुष , उस दृष्टि से भी भगवान सभी जीवो के पति हैं। यहाँ स्त्री का शरीर पुरुष के शरीर का विचार नहीं है। स्त्री के शरीर में पुरुष के शरीर में जो आत्मा है वह प्रकृति है और उस प्रकृति का पुरुष है कृष्ण और जैसे रुक्मणी ने अपना मन बना लिया तो हमें भी वन ऑफ दिस डे अपना माइंड फिक्स करना है कृष्ण के ऊपर नेति नेति, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं, बहु शाखा मेनी ब्रांच हमारा दिमाग कितने प्रकार से पता नहीं क्या-क्या सोचता और करता रहता है। साध्य क्या है ? व्हाट इज द गोल लक्ष्य क्या है ? उसकी चर्चा यहां हो रही है और निर्णय हो गया साध्य क्या है जैसे कृष्ण साध्य है या राधाकृष्ण साध्य हैं और उनकी भक्ति और माधुर्य भाव में की हुई भक्ति यह साथ्य है, सर्वोपरि है। जय ! देखते हैं और भी यह संवाद पूरा नहीं हुआ है पहले जो भी कहा वह संक्षिप्त में ही कहा, यह सोच कर कि शायद या विचार पूरा हो जाएगा। लेकिन वह संक्षिप्त में कहते-कहते भी अब तक संवाद बचा हुआ है तो संभावना है कि और एक सत्र की जरूरत है।
देखते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।