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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा-२९/०५/२०२२*
*परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज*
*बद्री नारायण नारायण नारायण*
*बद्री नारायण नारायण नारायण*
*बद्री नारायण नारायण नारायण*
आप भी कहिये
*बद्री नारायण नारायण नारायण*
हरे कृष्ण
हमारे ऑल इंडिया पदयात्रा के भक्त श्री बद्रिकाश्रम पधारे है।
आप मेरे पीछे जो मंदिर देख रहे हो वो बद्रीनाथ धाम का मंदिर है।
वे भक्त अपने फोन से हमे श्री सरस्वती नदी के दर्शन भी करा रहे है।
हम आप सभी का स्वागत करते है।
आप सभी हमारे साथ जप कर ही रहे है कुछ समय से
लेकिन मेने कुछ अंग्रेजी भाषी भक्तों को भी जुड़े हुए देखा और मैं उन्हे बताना चाहता हु की में काफी प्रसन्न हूं उन्हे देखकर
और मैं यह बताते हुए भी प्रसन्न हो रहा हूं की हमारे पदयात्रा भक्त कल बद्रिकाश्रम पहुंच गए है। ब्रह्मचारी भक्तो के साथ मैंने कुछ गृहस्थ भक्त भी देखे
बद्रिकाश्रम अति पवित्र धाम है।
श्री उद्धव जी भी वहा नित्य निवास करते है।
हमारे अति महत्वपूर्ण ग्रंथ श्रीमद भागवत महापुराण यही बद्रिकाश्रम में लिखा गया है
वहा श्रील व्यासदेव की गुफा है
और श्री गणेश की भी गुफा है।
श्रीमद भागवत के पहले स्कंध के ३ से ७ अध्याय में श्रील व्यासदेव और नारद मुनि का जो संवाद देखने मिलता है वो यही हुआ है।
भगवान श्री नर नारायण यही तपस्या कर रहे है।
उन्ही का नाम जपते हुए श्री नारदमुनी विचरण करते है।
नारदमुनी श्रील व्यासदेव के भी गुरुदेव है। काफी यादें मुझे आ रही है बद्रीनाथ का विचार करते हुए।
पर समय सीमित होने के कारण और मेरा एक ही मुख होने के कारण में नही जानता की उसमे से कितनी बार में बता पाऊंगा।
भगवान नारायण यहां तपस्वी के रूप में निवास करते है।
तपस्वी होने के कारण वे लक्ष्मी देवी के साथ नही है।
श्री लक्ष्मी देवी यहां अपने स्वरूप में नही लेकिन नारायण की सेवा के लिए एक बद्री वृक्ष के रूप में रहती है
बद्री नारायण का अर्थ है लक्ष्मी नारायण
यह चार महत्वपूर्ण धामों में से एक है।
लगभग सारे ही भारतीय लोगो के कामना होती है की वे बद्रीनाथ के दर्शन जीवन में एक बार तो कर ले।
मुझे कमसेकम ३ बार यह लाभ मिला है
पहली बार में १९७७ में गया था जब श्रील प्रभुपाद वृंदावन में रहते थे और उनका स्वस्थ बहुत अच्छा नही था
हमारी नरदमून संकीर्तन पार्टी थी जो अब श्रील प्रभुपाद आदेशानुसार बैलगाड़ी पदयात्रा में बदल चुकी थी
हम पैदल गए थे, नाकि हवाई जहाज से
कल जो ये पदायत्री पहुंचे है वह छठी बार है, वे भारत की परिक्रमा में छठा चक्कर लगा रहे है।
आप मेरे पीछे चित्र में देख सकते हो की बद्रीनाथ विशाल हिमालय पर्वतों के बीच में स्थित है। भगवान कहते है की स्थावर वस्तुओं में मैं हिमालय हूं
तो हम इस विशाल हिमालय का दर्शन करते हुए आगे बढ़ रहे थे और यह बहुत ही विशेष अनुभव था, मुझे एक मच्छर जैसा होने का अनुभव हो रहा था
विनम्रता बढ़ाने वाला अनुभव है ये
सामने देखो तो विशाल हिमालय जो भगवान से अभिन्न है
नीचे खाई में देखो तो गंगा जो भी भगवान का स्वरूप है। ऊपर देखो तो सूर्य, वो भी भगवान का स्वरूप है
भगवान कहते है सारे तेजस्वी वस्तुओ में सूर्य हूं। तो मार्ग में यह तीन वस्तु ही दिख रही थी और तीनों ही भगवदस्वरूप
हम ऊपर की ओर बढ़ते जा रहे थे
हमारी सोच भी ऊंची बढ़ती जा रही थी
श्री निताई गौरसुंदर को मस्तक पर धारण करके हम बढ़ रहे थे
जो आज चल रहे है वही १९८६ में चले थे, समग्र ब्रह्मांड में सबसे अधिक घूमे हुए विग्रह है ये।
बहुत ही अलौकिक अनुभव हो रहा था। हिमालय जैसा ऊंचा और कुछ नही है, तो जितना ऊपर हम उठे थे हम उतने गोलोक वैकुंठ के नजदीक थे। मंदिर की चारो ओर बर्फ है लेकिन मंदिर के समीप, परिसर में ही २ प्राकृतिक गर्म पानी के कुंड है
आप देख सकते हो की बहुत भीड़ लगी है, शिव और पार्वती यहां रहते थे और यही स्नान करते थे। एक कुंड का पानी तो इतना गर्म है की श्रद्धालु भक्त कपड़े की पोटली में चावल डालकर उसमे पकाते।
एक दो माला होने पर चावल पाक जाते।
दूसरे कुंड में सहने योग्य गर्म पानी है
हमने व्यासदेव की गुफा भी देखी
श्री माध्वाचार्य भी यहां ८०० वर्ष पूर्व आए थे
उन्हे यही व्यासदेव से दीक्षा भी प्राप्त हुई।
तदुप्रांत उन्होंने वेदान्त सूत्र पर अपना भाष्य लिखा और श्रील व्यासदेव को दिया
तो जब हम यह से वृंदावन लौटे हम उनसे मिलने गए। उनकी तबियत बहुत अच्छी नही थी।
वे बिस्तर में लेट थे और मुझसे पूछ रहे थे की प्रचार कैसा चल रहा है और कौनसी पुस्तक अच्छी बिक रही है?
तो यह सारा रिपोर्ट देते हुए मेने श्रील प्रभुपाद से कहा की हमने आपकी भगवद गीता श्रील व्यासदेव को उनकी गुफा में जाकर बताई
यह सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए
तो यह मंदिर केवल ६ महीने खुला रहता है
सर्दियों के समय मंदिर बर्फ से ढका जाता है और सारे लोग बद्रीनाथ से निकल कर नीचे के स्थानों में चले जाते है। इन ६ महीने नरदमुनी और देव गण पूजा करते है,
भारतीय सेना के तैनात कई सैनिकों का अनुभव है की मंदिर बन होने बावजूद उन्हें शंख एवं घंट आदि की आवाज आती है
अर्थात सेवा चालू ही रहती है
वहा भारत का आखरी गांव भी पड़ता है
वहा एक चाय की दुकान भी है जिसपर लिखा है “भारत की आखरी चाय की दुकान”
यह दुर्भाग्य है की अब चाय इतनी प्रचलित हो गयी है। भीम के द्वारा बनाया हुआ पुल भी वहा है
सरस्वती नदी के ऊपर यह विशाल पत्थर रखकर भीम ने पांडवों के जाने के लिए मार्ग तय किया था।
सबसे पहले द्रौपदी ने देह छोड़ा मार्ग में
फिर सहदेव और तदुपरांत नकुल
फिर अर्जुन
फिर केवल भीम और युधिष्ठिर रह गए
भीम ने यह पुल बनाया केवल एक विशाल पत्थर रखकर। फिर आगे जाकर अंत में केवल युधिष्ठिर महाराज बच गए और उन्हें विमान लेने आया।
उनके साथ पूरे मार्ग में एक कुत्ता भी आया था
उन्होंने विमान चालक जो स्वयं यमराज थे उनसे कहा की यदि कुत्ता नही आसक्त तो मैं भी नही आऊंगा
यह उनकी एक परीक्षा थी जिसमे वे उत्तीर्ण हुए। ध्रुव महाराज भी भगवद धाम लौटते समय यहां आए थे और उन्होंने स्नानादि करके ऋषियों से भेंट करी थी। उन्होंने अपनी माता का भी स्मरण किया, वे मेरी मार्गदर्शक रही है, आज में उनके बिना भगवद्धाम कैसे जाऊं।
तभी उन्होंने समिपमे एक और विमान देखा जिसमे सुनीति माता भी भगवद्धाम प्रयाण कर रही थी।
अर्जुन भी यही से अपने पिता इंद्र से मिलने गए थे। सारे पांडव और द्रौपदी बद्रिकाश्रम में उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। एक बार एक दिव्य पुष्प उड़ते हुए उनके पास आया और द्रौपदी ने और इसे पुष्पों की मांग की तो भीम नजदीक के एक पर्वत पर गए
मार्ग में वे एक वृद्ध वानर से मिले।
वे अपनी लंबी पूछ मार पर लेटाए हुए सो रहे थे
भीम ने उनसे निवेदन किया की वे अपनी पूछ हटा ले पर उन्होंने कहा की में अति वृद्ध हु, तुम ही हटा दो। पर अतिशय दम लगाने पर भी उनसे पूछ न हिली और निवेदन करने पर उस वृद्ध वानर ने दर्शन देते हुए बताया की वे हनुमान थे और उन्हे कई वरदान दिए। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया की महाभारत के युद्ध में वे साथ देंगे और अर्जुन के रथ पर वे ध्वजा बन कर विराजमान हुए।
मैं उस पर्वत का नाम भूल गया हूं
समय किसके लिए नही रुकता, समय हो गया है, मैं अपनी वाणी को यही विराम देता हु। हम रोज मिलेंगे ऐसी आशा है।
हरे कृष्ण।
गौर प्रेमा नंदे हरी हरी बोल।
बद्रिकाश्रम धाम की जय
माधवाचार्य की जय।
शंकराचार्य की जय
श्रील प्रभुपाद की जय
ग्रन्थ राज श्रीमद भागवतम की जय।
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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा-२७/०५/२०२२*
*परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज*
हरे कृष्ण
गौरांग
*श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत्य गदाधर श्रीवासादि गौर भक्त वृंद*
जपा टॉक के लिए तयार हो ?
Iskcon पद यात्री तयार हो?
आज है मेरे पीछे भेद कह।, खजाना कहो, भंडार कहो चैतन्य भगवत की जय
आज प्रातःकाल आपके मन में प्रश्न उठा होगा क्या है
आज है वृन्दावन दास ठाकुर का आज जन्म दिवस है जन्मोत्सव है। यह स्वयं वेद व्यास थे। चैतन्य दास थे वृध्नवान दास
जो भागवत की रचना किये वे पुनः प्रकट हुए और उन्होंने लिखा चैतन्य भागवत। वेद किस उद्देश्य से लिखे जाते है मुझे जानने के लिए ही वेद है ऐसा कृष्ण कह रहे है गीता में। चैतन्य भागवत वेद है।
वेदो का रचइया श्रील व्यास देव है जो स्वयं भगवान् के श्यकतावेश अवतार है।
उन्होंने आपने सम्बन्ध की जो बाते
*श्रीराधिका-माधवयोर्अपार*
*माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्*
*प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य*
*वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम*
राधा माधव के नाम , रूप गुण लीला की बात कहो श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु स्वयं राधा कृष्ण है।
यदि वृन्दावन दास ठाकुर ५०० वर्ष पूर्व जन्मे नहीं होते तो हमको नहीं पता चलता।
हम पर विशेष कृपा की है हमें वेद दिया उन्होंने।
वेद भगवान को जानने के लिए होता है।
चैतन्य भागवत के दाता है वृन्दावन दास ठाकुर वे महान है आज वे जन्मे।
नारायणी के पुत्र थे वृन्दावन दास ठाकुर
नारायणी का अद्भुत व्यक्तित्व रहा।
बचपन में ही नारायणी को महाप्रभु का अंग संग प्राप्त हुआ। चैतन्य महाप्रभु के आन्दोलन को फैलाना है तो चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास आँगन को बनाया कार्यालय।
वही पर चैतन्य महाप्रभु का दर्शन हुआ नारायणी को। ऐसी गुणवती थी नारायणी।
नारायणी को उच्छिष्ट खिलाया करते थे चैतन्य महाप्रभु ।
४ साल की थी नारायणी तो उसमे भक्ति का ऐसा प्रदर्शन किया सब चकित हुए उसके हाव भाव को देख के।
नारायणी के पुत्र थे वृन्दावन दास ठाकुर।
ऐसे माता के पुत्र संछिप्त में कहा मैंने। माँ के पुत्र कैसे होंगे।
माता से पुत्र का परिचय होता है और पुत्र से माता का परिचय होता है की माँ कैसी होगी।
यह जन्म हुआ आज के दिन वृन्दावन दास ठाकुर को तो चैतन्य महाप्रभु का अंग संग नहीं प्राप्त हुआ।
वृन्दावन दास ठाकुर और नारायणी नवद्वीप में एक स्थान है गोद्रुम द्वीप वहा वे रहने लगे नाम गाछी नाम है यही पर नारायणी रहने लगी उस समय नारायणी के पति नहीं थे वृन्दावन दास ठाकुर उस समय गर्भ में थे।
हरतकि नाम का एक वृक्ष है वहा। नित्यानंद प्रभु के साथ जब भ्रमण कर रहे थे तो नित्यानंद प्रभु ने हर तकि संभल के रखे थे वे और कहते थे मई कल खाऊंगा।
नित्यानंद सभी गुरु के गुरु है उनके शिष्य है श्रील व्यास देव और अभी भूमिका निभा रहे है वृन्दावन दास ठाकुर का।
नाम , रूप , गन , लीला का उन्होंने वर्णन किया था। नाम गाछी नाम का एक स्थान है जब हम परिक्रमा करते है तो इस स्थान पर दर्शन करते है यहाँ लीला कथा होती है वृन्दावन दास ठाकुर का स्मरण करते है। वृन्दावन दास ठाकुर को कोटि कोटि नमस्कार करो हम स्पर्श तो नहीं कर सकते।
मै सोच रहा था वृन्दावन दास ठाकुर महाप्रभु का वर्णन किये है और चैतन्य भागवत में नित्यानंद का वर्णन अधिक है चैतन्य भागवत में।
२ मुख्या ग्रन्थ है चैतन्य भागवत और चैतन्य चरितामृत। चैतन्य भागवत – श्रील भक्ति सिद्धांत
श्रील प्रभुपाद चैतन्य चरितामृत का भाष्य लिखे है हरी हरी। चैतन्य भागवत में चैतन्य महाप्रभु के नवदीप लीला का विस्तार से वर्णन है।
चैतन्य महाप्रभु ४८ वर्ष में से २४ वर्ष नवदीप मायापुर में है इसका वर्णन चैतन्य भागवत में है आदि खंड मध्य खंड मिलके ४५ अध्याय है।
४५ अध्याय में नस्वीप का वर्णन है। चैतन्य चरितामृत में केवल २४ अध्याय में है अधिक लीला आपको चैतन्य भागवत में मिलेगा।
चैतन्य महाप्रभु में सन्यास की लीला २४ वर्ष तक चलती रही।
वृन्दावन दास ठाकुर इसका वर्णन १० अध्याय में किये है। चैतन्य महाप्रभु की अंतिम लीला है २० अध्याय में। ये दोनों ग्रन्थ मिलके एक पूरा ग्रन्थ बन जाता है।
केवल चैतन्य चरितामृत पढ़ेंगे तो अधूरा ज्ञान रह जायेगा। दोनों मिलाके पूरा ग्रन्थ बनता है। चैतन्य भागवत , चैतन्य चरितामृत , चैतन्य मंगल यह सब वेद वाणी है।
और क्या कहे ऐसा विचार आ रहा था हम ऋणी है वृन्दावन दास ठाकुर के।
वे भगवान् है।
स्वयं भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने लीला की। दूसरे भगवान आये वृन्दावन दास ठाकुर के रूप में
मुरारी गुप्त डायरी नहीं लिखते तो क्या होता भगवान स्वयं आते है और धर्म की स्थापना करते है यह सब करते है और लिखने की व्यवस्था करते है।
वेद व्यास के रूप में आकर भगवान सब लिखते है। किसका आभार माने, भगवान दयालु है कृपालु है कृपा वश कृपा से करना ही होता है उन्हें सब।
कृपालु बनके उन्होंने संकलन किया वर्णन किया।
और हमको कहना पड़ता है अहैतुकी कृपा। वृन्दावन दास ठाकुर के रूप में वेद व्यास है उन्होंने चैतन्य भागवत की रचना करके हम पर कृपा की है। यह विचार आ रहा था मै जप कर रहा था तो मई जब औरो को जप करते देख रहा था तो मई सुख का अनुभव कर रहा था।
आपको भी ऐसा लगाना चाहिए आपके मन में विचार आना चाहिए अधिक लोग जप करे कीर्तन करे जो कलियुग का धर्म है
मै यह भी सोच रहा रहा था ऐसे विचार क्यों आते है यह विचार भगवान के विचार होते है।
*महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत*
*वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन*
*रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो*
*वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम*
ऐसा विचार भगवान का है क्योकि वे स्वयं नृत्य आकृति है। महाप्रभु जब नवद्वीप में प्रकट हुए तो उस गोलोक के नवद्वीप में सदैव कीर्तनिया सदा हरी करते रहते है। वे सदैव कीर्तन नृत्य करते है सारा संसार नृत्य करे ऐसा वे सोचते है।
*हरेर नाम एव केवलं*
हमारे मन में विचार उठने चाहिए सारा संसार करे कीर्तन और जप। सारी दुनिया ऐसा ही करे।
इस प्रकार हमारा सम्बन्ध महाप्रभु के साथ होता है।
भगवान भागवत में कहे है साधु मेरा ह्रदय है और साधु का ह्रदय मै हु।
ऐसे सचि नंदन आपके ह्रदय प्रांगण में हो।
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर की जय।
श्रील प्रभुपाद की जय।
गौर प्रेमा नंदे हरी हरी बोल।
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जप चर्चा
24 मई 2022
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
असली जो सुख है, आनंद है उसका अनुभव तब संभव है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
यह जप भी तप है, इसे याद रखो | जप भी क्या है? तप है | इस वाक्य को भी याद रख सकते हो ‘जप ही तप है’ जप यज्ञ भी है जप बहुत कुछ है जप भगवान ही है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
रुकना नहीं है it not cheap thing. आनंद प्राप्ति के लिए बहुत बड़ा मूल्य चुकाना पड़ता है — “Big price” |
टीवी खरीद लिया, पाँच दस हजार रूपए खर्च किए, टीवी on किया और आह मिल गया सुख। वह सुख नहीं है टीवी के परदे पर आप जो दृश्य देख रहे हो उससे तथाकथित सुखी होते हो। वह सुख ही आपके दुख का कारण बनने वाला है लेकिन यहां हम आनंद की बात कर रहे हैं, जीभ को चाहिए आनंद, सुख नहीं, यह दुनिया है सुख दुख का मेला। सुख चाहिए तो दुख के लिए तैयार हो जाओ या तैयार नहीं भी हो तो दुख मिलने की वाला है | बुद्धिमान व्यक्ति तो वह व्यक्ति है जो prevention is better then cure. जो दुख को टाल सकता है।
konteya ye hi saṁsparśa-jā bhogā
duḥkha-yonaya eva te
ādy-antavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ BG 5.22
तुम बुद्धू हो तो भगवान से बुद्धि प्राप्त करो भगवान को सुनो | Borrow intelligence from God.
इस संसार का सुख आदि शुरुआत भी होता है सुख से और अंत भी होता है आदि अंत | यह बुद्धू का काम है ऐसे जीवन में मिलते रहते हैं सुख दुख, सुख दुख:
Sitosna sukha duhkhadah- BG 2.14
जैसे अलग-अलग ऋतुए
गर्मी है तो ठंडी भी आने वाली है ठंडी है तो गर्मी आने ही वाली है अभी सुख का सीजन है तो दुख का सीजन आने ही वाला है sooner or लेटर
ye hi saṁsparśa-jā bhogā
duḥkha-yonaya eva te
ādy-antavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ BG 5.22
जैसे बुद्धिमान लोग बिना रमते इन बातों में रमते ही नहीं है रुचि नहीं लेते सांसारिक सुख में, तो दुख ही नहीं आएगा, सांसारिक सुख का उपभोग आपने नहीं किया तो उसका जो reaction है प्रतिक्रिया है every action has its opposite action or reaction.
सुख की प्रतिक्रिया क्या है दुख, सुख का परिणाम है दुख और सुख प्राप्ति के लिए कुछ मूल्य चुकाना पड़ता है | कुछ शॉपिंग करके आते हैं या कहीं जाते हैं यहां जाना है वहां जाना है काठमांडू जाना है हवाई जाना है उसके लिए बहुत हवाई किराया है उसके लिए तो सुख प्राप्ति के लिए कुछ तो मूल्य चुकाना पड़ता है लेकिन दुख तो वक्त में मिलता है कब समझोगे आप इस बात को, get convinced सुख प्राप्ति के लिए कुछ मूल्य चुकाना पड़ता ही है, nothing is free, इस संसार में कुछ भी फ्री का माल नहीं मिलता है, लेकिन दुख तो फ्री में मिलता है, लेकिन जब हम सुख को खरीदते हैं सुखी बनाने की वस्तु को खरीदते हैं उसी के साथ हम दुख भी खरीदते ही हैं। दुख का टैग भी साथ में आ ही जाता है
बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी क्रियाकलापों में लिपता नहीं रुचि नहीं लेता उसकी दिलचस्पी नहीं होती कैसे कार्यों में |
हे कुंती नंदन अर्जुन अध्यन्त वह भी गया, सुख का कुछ उपभोग कर ही रहे थे कि इतने में आ गया, अभी कुछ खा रहे थे सुख का अनुभव कर रहे थे इतने में उल्टी हो गई या डायरिया हो गया, दौड़ रहे हैं टॉयलेट, अभी-अभी अभक्ष भक्षण किया हमने जो नहीं खाना चाहिए था वो खा लिया या उतना नहीं खाना चाहिए था उतना खा लिया या उस समय नहीं खाना चाहिए था उस समय खा लिया। सुखी होने के लिए सुख का अनुभव करने के लिए खाते-खाते खाना समाप्त ही नहीं हुआ कि दुख आ गया असुविधा पेट दर्द या उल्टी या बुखार, फिर गोली खाओ दवा खाओ, यह कहते-कहते हमारा जप चर्चा का समय प्रारम्भ हो ही गया, इन पदयात्रियों ने यह टॉपिक खोला उन पद यात्रियों को धन्यवाद। उन पद यात्रियों से प्रेरणा लो, मुझे प्रभुपाद प्रेरित किए पदयात्रा करने के लिए | यह पदयात्रा है तुम्हारे लिए कल्याणकारी है औरों का भी कल्याण करेगी यह पदयात्रा श्रील प्रभुपाद का एक वाक्य लाइक और so many other statements यह तुम्हारे लिए अच्छी है तुम्हारा कल्याण और औरों का भी कल्याण होगा इस पदयात्रा से | श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं पदयात्रा किए। छह साल भगवान यात्रा कर रहे थे | वे बद्रिकाश्रम तो नहीं गए, रामेश्वर जरूर गए थे | यह चार धाम यात्रा है जिसमें जगन्नाथ पुरी की यात्रा चैतन्य महाप्रभु ने की , रामेश्वर की यात्रा की, और भी कई धाम गए तीर्थों की यात्रा हुई थी और जहां जहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गये उन स्थानों को चैतन्य महाप्रभु ने तीर्थ स्थान बना दिया।
tīrthī-kurvanti tīrthāni
ŚB 1.13.10
झारखंड के जंगल में मंगल वह भी तीर्थ स्थान हुआ गौड़िय वैष्णव वहां भी जाते हैं हमारे पदयात्री भी वहां गए थे और वहा चैतन्य महाप्रभु भी गए थे | यह क्या काल्पनिक बात है लोग प्रश्न पूछते हैं। वहां जाकर देखो चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्ह आज भी देख सकते हो वह सबूत है। यह सत्य है काल्पनिक नहीं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं एक आदर्श रखे हैं हम सभी के समक्ष और उनकी भविष्यवाणी
“पृथ्वीते आछे यतो नगरादि ग्राम
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ”
pṛthivīte āche yata nagarādi grāma
sarvatra pracāra hoibe mora nāma
[CB Antya-khaṇḍa 4.126]
मेरे नाम का प्रचार होगा सर्वत्र प्रचार होगा। तो कैसे होगा प्रचार, प्रचार के लिए मीडियम माध्यम फोरम मंच हो सकते हैं तो उसमें से यह फोरम यह पदयात्रा माध्यम प्रभुपाद के हरि नाम को दूर दूर देशों में ऐसे स्थानों में जहां पहुंचना भी मुश्किल है दुर्गम स्थान वहां पदयात्रा ही जा सकती हैं, यह पदयात्रा से वहां पैदल ही जाया जा सकता है। तो श्रील प्रभुपाद ने महाप्रभु चैतन्य की भविष्यवाणी सच करने के लिए एक योजना प्रभुपाद ने जो बनाई और मुझे सुनाई और मुझे वो करने के लिए आदेश दिया और इस पदयात्रा में आप देख रहे हो कुछ हमारे पदयात्री चैतन्य महाप्रभु संकीर्तन आंदोलन के founding fathers गौरांग नित्यानंद गौरांग नित्यानंद, इनका है यह आंदोलन, इनका है यह मूवमेंट हरे कृष्णा आंदोलन यह संस्थापक हैं, वैसे गौरांग नित्यानंद मतलब कृष्ण और बलराम यही है राम और लक्ष्मण, यह कलयुग में कलयुग के धर्म की स्थापना इन्होंने की | स्वयं ही उनकी प्रकट लीला में भ्रमण करते हुए उन्होंने हरि नाम का प्रचार किया हरि नाम धर्म की संस्था की स्थापना की
dharma-saṁsthāpanārthāya sambhavami yuge yuge
BG 4.8
उन्होंने नित्यानंद प्रभु को क्षेत्र दिया, तुम बंगाल जाओ, यहां मेरे साथ क्यों रहते हो, नित्यानंद प्रभु बंगाल गए नवदीप गए
फिर वहां पर श्री नित्यानंद प्रभु ने नाम हॉट नाम का बाजार शुरू किया, ऐसे बाजार खोलें जहां पर केवल हरि नाम one product वस्तु या व्यक्ति का ही विक्रय होता है, श्रद्धा मूल्य है, हरी नाम व्यक्ति या वस्तु कैसे खरीद सकता है, श्रद्धा है तो ले लो, जो श्रद्धा के साथ आते थे श्रद्धा लेकर आते थे उनको हरिनाम प्राप्त होता था और आज भी वैसी ही बात है तो चैतन्य महाप्रभु ने सर्वत्र हरि भ्रमण करके नित्यानंद प्रभु ने नवदीप बंगाल में भ्रमण करके हरि नाम का प्रचार किया, पदयात्रा मतलब दोनों ने ही की है। और जब नवदीप में प्रातः काल उठकर दोनों ने ही चैतन्य महाप्रभु के सन्यास लीला के पहले तो चैतन्य प्रभु और नित्यानंद प्रभु निकलते थे
udilo aruna puraba-bhage,
dwija-mani gora amani jage,
bhakata-samuha loiya sathe,
gela nagara-braje
By Bhakti Vinod Thakur
प्रातः काल में ही चैतन्य महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु, पंचतत्व के अन्य सदस्य और असंख्य नवदीप वासियों को साथ में लेकर चैतन्य महाप्रभु नगर और ग्रामों में भ्रमण संकीर्तन प्रभात फेरी निकालते थे, दक्षिण भारत में जब पद यात्रा कर रहे थे तो हमने देखा दक्षिण भारत के कई गांवों में लोग ख़ास कर आंध्रा में हरिनाम
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
का कीर्तन नृत्य करते हुए अपने अपने गांव में प्रभात फेरी निकालते हैं| हमने पूछा उनको कहां से सीखे ये? उनको कहां से प्रेरणा मिली? तो हमारे बाप दादा यहीं करते थे | उनके पास उत्तर तो नहीं है लेकिन हमारे पास है चैतन्य महाप्रभु ने करके दिखाया किया 500 वर्ष पूर्व तो उसी परंपरा में उन गांवों के नगरों के कुछ कुछ लोग भी आज तक संकीर्तन यात्राएं करते हैं या उसको पदयात्रा भी कह सकते हैं लेकिन यह लिमिटेड होती हैं within the village |
sankirtanaika pitarau- CB Adi 1.1
गौरांग नित्यानंद प्रभु इस संकीर्तन के पिता श्री हैं और मैं कह रहा था कि आज भी पदयात्रा का नेतृत्व गौरांग नित्यानंद प्रभु कर रहे हैं और हमारे ये पदयात्री चैतन्य महाप्रभु के चरण कमलों का अनुसरण करते हुए पीछे-पीछे जाते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
तो आप भी नगर कीर्तन में जाओ प्रभात फेरी निकालो या फिर एक गांव से दूसरे गांव भी जा सकते हो, अभी one day पदयात्रा भी चल रही है, आजकल 1 दिन ही सही, कुछ भक्त तो पूरा एक जीवन दे रहे हैं, हमारे श्री आचार्य प्रभु जिनको आप देख रहे हैं वे पूरा जीवन दे रहे है | आप पूरा जीवन नहीं तो 1 साल दो, एक महीना दो या 1 सप्ताह या कम से कम 1 दिन समय-समय पर 1 दिन महीने में 1 दिन | कुछ सोचो आप कैसे हरी नाम का प्रचार-प्रसार बढ़ा सकते हो
bhārata-bhūmite haila manuṣya-janma yāra
janma sārthaka kari’ kara para-upakāra
CCAdi 9.41
हरि नाम का प्रचार प्रसार करना है हरि नाम का वितरण करना है प्रसाद का वितरण करना है लोगों को तीर्थ यात्रा में ले जाना या स्वयं को ले जाना और औरों को साथ में ले आना ऐसे कई सारे कार्य हैं परोपकार के कार्य, वैसे iskcon की जो सारी गतिविधियां है यह सब परोपकार का कार्य ही है, मंदिर निर्माण का कार्य है यह परोपकार का कार्य है, यदि गुरु स्कूल चलाते हैं तो यह भी परोपकार का कार्य है, वर्णाश्रम धर्म की स्थापना हो रही है यह भी परोपकार का कार्य है, food for life प्रसाद वितरण बहुत बड़ा परोपकार का कार्य है, यह परोपकार का कार्य जो कर रहे हैं जो fore front है हम उनकी सहायता करें एन केन प्रकारेन। fore front the army man उनके हाथ में बंदूके है they are fighting उनकी सहायता करने के लिए support system स्वयं लड़ाई करने वाले तो कम ही होते हैं, उनकी सहायता करने वाले उनको योगदान देने वाले support system जो supporting personality जो होती है वह बहुत बड़ी व्यवस्था होती है हम स्वयं ही प्रचारक नहीं है तो हम प्रचारकों का जो इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं support करें
प्रभुपाद कहा करते थे preaching is fighting, प्रचार करना क्या है एक प्रकार का युद्ध है, fighting with माया, illusionary forces और श्रील प्रभुपाद हमारे सेनापति भक्त हैं प्रभुपाद का नाम ही है या प्रभुपाद कहलाते ही थे सेनापति भक्त, यह संकीर्तन आर्मी के कमांडर इन चीफ |
श्रील प्रभुपाद की जय
हम सब आर्मी हो गए या सप्लायर हो गए खाली पेट तो आर्मी मैन बंदूक नहीं चला पाएंगे तो यह बंदूक का सप्लायर बुलेट का सप्लायर | हम सब जो श्रोता है we are a team. हमारा एक दल है, united effort कौन क्या करेगा कौन क्या करेगा कौन क्या करेगा like that we all have our task.
आपने दो दिन पहले जब मेरा जप टॉक हुआ फिर कहा था any question कोई प्रश्न है any comment। Comments पर तो अभी हम विचार नहीं करेंगे आपमें से कुछ भक्तों ने प्रश्न पूछे थे उसे मैं सोच रहा था कि बुद्धिमान व्यक्ति ही प्रश्न पूछ सकता है जिसे साइन ऑफ़ इंटेलिजेंस कहते हैं मैं आप लोगों को प्रेरित करता हूँ प्रश्न पूछे जाने चाहिए | मन में कोई शंका है संशय है उसके समाधान के लिए प्रश्न पूछे जाने चाहिए अगर संशय है तो मन में संशय बना रहता है उससे हानि होती है
saṁśayātmā vinaśyati
BG 4.40
संशय आत्मा का विनाश, विकास नहीं, विनाश हमारे जो संशय हैं doubt clarification के लिए हमें प्रश्न पूछने चाहिए |
वैसे I am not the only person, आपको प्रश्न पूछने चाहिए आपकी भक्ति वृक्ष ग्रुप में भी प्रश्न उत्तर हो सकते हैं आप सबके counciller होने चाहिए जिनसे आप प्रश्न पूछो और उत्तर प्राप्त करो यदि आप बहुत उत्कंठित हो किसी प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए तो महात्मा गांधी कहा करते थे अपना अनुभव उन्होंने गीता खोली और उनका प्रश्न का उत्तर उनको मिल जाता था यहां प्रश्न पूछा करो यह गीता, भागवत, उपनिषद यह सब संवाद है प्रश्न उत्तर है सठीक प्रश्न और सठीक उत्तर है।
किसी ने पूछा
How to stay together with the different Maharaja desciple of different thoughts?
अलग-अलग प्रकार के विचार वाले भक्तों के साथ हम कैसे रह सकते हैं?
विचार अलग-अलग है तो कैसे साथ रह सकते हैं ठीक है विचार अलग-अलग हैं तो भक्तों का समाज है तो
Pinde pinde matiḥ bhinna – subhasitaratna
जहां तक हो विचार कृष्ण भावना भावित विचार हैं तब तो कोई समस्या नहीं है यहां प्रभुपाद बात कहते थे Unity in Diversity। मत भिन्नता के कारण प्रभुपाद के समय में भी हमारे जैसे हरे कृष्ण भक्तों के समाज में कुछ विभाजन हो रहा था या कुछ अनुभव या संकेत मिल रहे थे तो फिर प्रभुपाद ने कहा यूनिटी इन द डाइवर्सिटी, भिन्न-भिन्न मत या विचार या योजनाएं भिन्न-भिन्न भक्तों की हो सकती है लेकिन जब तक वह कृष्ण भावना भावित विचार हैं या कृष्ण को प्रसन्न करने के उद्देश्य से वह विचार हैं वह योजना है तो यूनिटी इन डायवर्सिटी तो भिन्न होते हुए भी हम एक हो सकते हैं, एक होने चाहिए।
इस संसार में संभव ही नहीं है दो व्यक्ति बिलकुल एक जैसा ही सोचे, not possible.
ऐसा भी कहा जाता है कि दो व्यक्ति एकदम एक जैसा ही सोचने वाले है, तो दो की आवश्यकता भी नहीं एक से काम बनेगा। तो उनको अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए कि बिल्कुल वैसा ही सोचेगा हर व्यक्ति वैसा ही सोचेगा जब तक वह विचार कृष्ण भावना भावित है कृष्ण से प्रेरित है या वह विचार प्रमाणिक है उस विचार का विकास करना है, उस व्यक्ति से घृणा या द्वेष नहीं करना चाहिए, इस प्रकार हमें थोड़ा broad minded बनके हमें शिष्य मंडली या हरे कृष्ण आंदोलन में और गुरु के भी शिष्य हो सकते हैं उनके साथ भी हम as a team कार्य कर सकते हैं यूनिटी इन डायवर्सिटी।
How can we distribute books online in the west and east, request some training of other devotee who are doing that online?
अच्छा प्रश्न है एक भक्त पूछ रहे हैं कि हम ऑनलाइन प्रभुपाद के ग्रंथों का कैसे वितरण कर सकते हैं यह विचार का ही स्वागत है ग्रंथों का वितरण करने का सोच रहे हो और इस प्रश्न का स्वागत है सम्य प्रश्न है भागवत में सम्य प्रश्न बढ़िया प्रश्न है। क्योंकि यह औरों को प्रेरित करता है या इस प्रश्न के उत्तर से सभी लाभांवित होंगे प्रश्न से भी और प्रश्न के उत्तर से भी जैसे मैंने कहा कि यह व्यक्ति प्रश्न पूछने वाले हमारे अंतर्यामी कृष्ण from शिलांग से प्रश्न पूछ रहे हैं, हम ऐसा प्रश्न नहीं पूछते, उन्होंने पूछा तो हम उनसे प्रेरणा ले सकते हैं इसीलिए इस ए गुड क्वेश्चन वंडरफुल क्वेश्चन ग्रंथ वितरण का विचार जहां तक ऑनलाइन की बात है मैं स्वयं इन बातों को ज्यादा नहीं जानता हूँ लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि यह ऑनलाइन ग्रंथों का वितरण हो रहा है मैं जब नोएडा में था तो उन्होंने स्कोर अनाउंस किया 70 भगवत गीता डिस्ट्रीब्यूट हुई तो मैंने पूछा किसने किसको डिसटीब्यूट किया ऑनलाइन ऑनलाइन आई वास प्लीज 70 भगवत गीता ऑनलाइन | हमारे सोलापुर के बामण हरी नाम प्रभु आपने सुना होगा इस्कॉन सोलापुर was winning the prizes world wide distribution मे यह कैसे संभव हो रहा था ऑनलाइन बुक डिसटीब्यूशन से या जहां तक यह ट्रेनिंग की बात है contact विथ others and sharing and u find out आप ऑनलाइन क्या सोच रहे हैं तो आपको ऑनलाइन का ज्ञान होना चाहिए और कौन-कौन करते हैं कैसे करते हैं पता लगाना चाहिए अंतर्यामी कृष्ण प्रभु आज तो दुनिया ऑनलाइन ही चल रही है यह कोरोनावायरस की देन है एक फायदा भी हुआ blessing in disguise जिसको कहते हैं काफी काम धंधे ई-कॉमर्स ई माने हो गया इलेक्ट्रॉनिक मीडियम से काफी दुनिया चल रही है सरकार चल रही है या व्यापार चल रहे हैं तो क्यों नहीं
प्रभुपाद कहा ही करते थे – प्रतियोगिता ही सिद्धांत है इस ऑनलाइन को माया मत सोचो उसका उपयोग हम कृष्ण की सेवा में कर सकते हैं ऑनलाइन और इस प्रकार हम सोशल मीडिया को spiritual मीडिया बना सकते हैं सुन रहे हैं आप सोशल से spiritual बना सकते हैं। यह सोशल मीडिया बड़ी खतरनाक माया का एक बड़ा जंजाल है भ्रम है लेकिन इसी को हम कृष्णाइज कर सकते हैं उसका कृष्ण की सेवा में ऑनलाइन उपयोग करते हैं तो देखते हैं कि कभी आपको इस फोरम में भी ऐसा कुछ टैनिंग या प्रेजेंटेशन दिया जा सकता है जो ऑनलाइन का भी हो सकता है।
अनादि भक्ति देवी दासी इनकी अभी-अभी दीक्षा हुई 10 दिन पहले उज्जैन में यह मध्य प्रदेश से हैं और प्रश्न भी पूछ रही है she is a very serious student कुछ समय पहले उसको देखा मैंने how can we increase our preaching so that atleast they can understand the existance of soul यह माताजी पूछ रही है कि हम कैसे प्रचार को बढ़ा सकते हैं ताकि लोगों को कम से कम इतना तो पता चले कि वे शरीर नहीं है वे आत्मा है इस प्रचार को कैसे बढ़ा सकते हैं आप ही सोचो या औरो से सीखो कि कैसे प्रचार कर रहे हैं यह शिक्षा तो भगवत गीता में भगवान ने दिया सभी शास्त्रों में उपनिषदों में भी
Bg. 2.13
dehino ’smin yathā dehe
kaumāraṁ yauvanaṁ jarā
tathā dehāntara-prāptir
dhīras tatra na muhyati
यह भगवत गीता का मेन टॉपिक है ही You are just not a body you are a spirit soul तो फिर या गीता का वितरण करना होगा इससे प्रचार बढ़ेगा आप भी ऑनलाइन प्रचार करो आपके इष्ट मित्रों को इकट्ठा करो ऑनलाइन गीता पढ़ने का महिमा सुनाओ और प्रभुपाद के ग्रंथों को पढ़ने के लिए प्रेरित करो ऑनलाइन और भी बहुत तरीके हैं जैसे कि चैतन्य महाप्रभु ने ही कहा
yare dekha tare kaha krsna upadesa
amara ajna guru haya tara ei desa
[Cc. Madhya 7.128]
कृष्ण उपदेश क्या है भगवत गीता कृष्ण का उपदेश। सोचो कैसे जिन जिन को आप मिलते हो कैसे उनको यह संदेश दे सकते हो यह संदेश उन तक पहुंचाओ यह जो देहात्म बुद्धि है उसके स्थान पर यह आत्म साक्षात्कार मैं आत्मा हूँ जिसका ज्ञान
Pranair arthair dhiya vaca – SB 10.22.35
ऐसा आचरण जो धिया है बुद्धि का उपयोग करो, दिमाग लडाओ, थोड़ा धन प्राप्ति के लिए कितना कितना दिमाग लड़ाते हैं या और उसे पता लगाओ कि कैसे कैसे विचार करते हैं उनसे प्रेरणा लो बढ़ाओ प्रचार।
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*जप चर्चा*
*सच्चिदानंद प्रभु द्वारा!!!!*
*दिनांक 21.05.2022*
हरे कृष्ण!!!
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
हरे कृष्ण!!!
आज हम संबंध ज्ञान के विषय में चर्चा करेंगे। हरिदास ठाकुर और श्रील भक्ति विनोद ठाकुर हरिनाम चिंतामणि में समझा रहे हैं कि जब तक हम संबंध ज्ञान में स्थित नहीं होंगे, तब तक हम शुद्ध रूप से हरि नाम नहीं ले सकते। हम जीव तटस्था शक्ति के हैं। हमें भगवान ने अल्प स्वतंत्रता दी है। सबसे पहली गलती जो हमसें हुई है, वह यह है कि हमनें अपनी अल्प स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया है। हमने कृष्ण की सेवा को ठुकराया है और माया का आलिंगन किया है। यह हमारी सबसे पहली गलती है और अभी भी वही गलती प्रतिदिन होती रहती है। हम सब जानते हैं कि हम सब कृष्ण के दास हैं लेकिन हमारे भजन और हमारी सेवा में भगवान को प्रसन्न करने का जो भाव है, वह अनेक बार टिका नहीं रहता क्योंकि अधिकतर हम अपनी पहचान देहात्मबुद्धि के स्तर से करते हैं अर्थात हम अपनी पहचान शरीर से करते हैं। इसलिए श्रील प्रभुपाद जी ने जन्म मृत्यु से परे ( बियोंड बर्थ एंड डेथ) में बताया है। केवल सैद्धांतिक यह ज्ञान होना कि हम शरीर नहीं आत्मा है, नहीं चलेगा।
व्यवहारिक होना चाहिए, हमें अपने जीवन को इस प्रकार से बनाना होगा कि हम शारीरिक सुख से विचलित ना हो जाए। यदि हम शारीरिक सुख से बीच-बीच में विचलित होते रहेंगे तो संबंध ज्ञान में स्थिरता नहीं आएगी। जैसे 11 वें स्कंध में भगवान, उद्धव जी को समझाते हैं कि जो व्यक्ति भौतिक इंद्रियों को वश में नहीं रखता है तो उसके अंदर भौतिक इच्छा/ इंद्रिय तृप्ति की इच्छा का वेग होता है और वह रजोगुण में ग्रस्त हो जाता है। इसीलिए हमें जो अल्प स्वतंत्रता मिली है, हमें उसका सही सही उपयोग हर क्षण करना पड़ेगा। हम केवल( खाली) बोलेंगे, अथवा प्रवचन देंगें। जैसे भगवद्गीता के श्लोक 2.13 में बताते हैं-
*देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।*
( श्रीमद भगवद्गीता २.१३)
अर्थ:- जिस तरह शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरंतर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।
लेकिन उस समय भी हम देहात्मबुद्धि के स्तर पर हो सकते हैं। हमारी यह इतनी सूक्ष्म बीमारी है। इसीलिए वहां पर बताया है कि जिस व्यक्ति को पूर्ण रूप से समझ में आ गया है कि मैं कृष्ण का नित्य दास हूं।ऐसा नहीं कि सुबह मॉर्निंग प्रोग्राम के समय कृष्ण का दास हूं और फिर पूरा दिन अपने पूरे शरीर और मन इंद्रियों का दास बनता हूं। ऐसा नहीं चलेगा। हमें अपनी सभी क्रियाओं को भगवान की सेवा के साथ जोड़ना पड़ेगा। बोलना आसान है लेकिन यदि हमें भजन में स्थिरता चाहिए तो इसको करना पड़ेगा। हरिनाम चिंतामणि में यह स्पष्ट लिखा है, जब तक एक गुरु अपने शिष्य को संबंध ज्ञान में स्थित नहीं करता है। वह शुद्ध रूप से, नित्य रूप से हरि नाम नहीं ले सकता। इसीलिए देखिए, प्रभुपाद जी ने ज्यादा प्रवचनों में ” हम शरीर नहीं हैं, हम आत्मा हैं।” के ऊपर बहुत जोर दिया है, जब व्यक्ति यह स्वीकारता है, केवल विचारों से नहीं अपितु क्रियाओं से स्वीकारता है। अपने पूरे 24 घंटे की क्रिया से, कि मैं कृष्ण का नित्य दास हूं। कृष्ण मेरे शाश्वत स्वामी हैं और यह माया मुझे लात मार मार कर सिखा रही है कि तू दास है, तू बॉस नहीं है। यह संबंध ज्ञान है, जब किसी को यह जागृति आती है, यह स्वीकार करता है और अपने जीवन में ऐसे परिवर्तन लाता है कि इस स्तर पर वह रह सके तब वह कीर्तनीय सदा हरि: शुद्ध रूप से कर पाएगा। हम इसको हल्के से ले लेते हैं कि हम हरि नाम ले रहे हैं। चार नियमों का पालन कर रहे हैं। लेकिन यह भी लाना जरूरी है इस में स्थित होना जरूरी है। संबंध ज्ञान में
*कृष्णार्थे अखिल चेष्टा, तत्कृपावलोकन। जन्म- दिनादि-महोत्सव लञा भक्त गण।।*
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.१२६)
अनुवाद:- भक्त को चाहिए कि वह कृष्ण के लिए सारी चेष्टाएँ करे। उनकी कृपा के लिए लालायित रहे। भक्तों के साथ मिलकर विभिन्न उत्सवों में- यथा कृष्ण जन्माष्टमी या रामचंद्र के जन्मोत्सव में भाग लें।
हमारी हर चेष्टा कृष्ण वाली होनी चाहिए।
कृष्ण को प्रसन्न करने वाली होनी चाहिए। हर क्षण, हम कोई भी अपना व्यक्तिगत कार्य कर रहे हैं उसको भी भगवान की सेवा से जोड़ना है। वह क्रिया कैसे कर सकते है? जैसे हम सो रहे हैं। भगवान कहते हैं-
*ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।*
( श्रीमद भगवद्गीता १८.६१)
अर्थ:- हे अर्जुन!परमेश्वर प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं।
हम शरीर को आराम दे रहे हैं जिससे हमारा शरीर सुबह अच्छी साधना करेगा और फिर अच्छी सेवा करेगा। हम शरीर नहीं हैं, यह भी समझना है। सोने के समय, सोने के बाद भी… हमें इसका अभ्यास करना पड़े़गा। हमारी सारी झूठी पहचान है कि मैं पति हूं, मैं मालिक हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं.. इन सब उपाधियों को त्यागना होगा क्योंकि जब तक उपाधि लेकर बैठेंगे, यह अहम ममेति भाव बना रहेगा, मैं और मेरा। फिर उसमें मिश्र भक्ति होगी, शुद्ध भक्ति नहीं होगी। इसीलिए इसका अनुशीलनं अर्थात इसका अभ्यास करना पड़ेगा। देखिए! हरि नाम लेने के लिए कितना सारा कुछ करना पड़ता है। तुम सोचते हैं कि माला झोली में हाथ डाल दिया और हरे कृष्ण हरे कृष्ण … और भगवत प्राप्ति हो गई। नहीं! इतना आसान नहीं है। प्रभुपाद जी कहते हैं- साधना से साध्य को सिद्ध करना है। अगर हमारी सेवा में या हमारी साधना में, हमारा उद्देश्य अपनी संतुष्टि का है तो उसको भौतिक माना गया है। अगर हम हरे कृष्ण कर रहे हैं ताकि हमें बहुत सुख शांति मिले तो यह भी भौतिक स्तर की चेंटिंग है। जब हम भगवान की प्रसन्नता के लिए जप कर रहे हैं।
कीर्तन का मतलब कीर्ति। भगवान की कीर्ति का यशोगान कर रहे हैं। भगवान को प्रसन्नता दे रहे हैं। इसी प्रकार अगर हर सेवा में हम यह दिखाना चाहते हैं कि हम बहुत शक्तिशाली हैं, बहुत दक्ष हैं। यदि लाभ, पूजा प्रतिष्ठा की इच्छा आ जाती है तो वह सेवा भी दूषित हो जाती है। इस प्रकार से हमें भाव बनाए रखना है कि हम कृष्ण के नित्य दास हैं। मुक्ति की व्याख्या क्या है
*मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः।।*
( श्रीमद्भागवतं २.१०.६)
अनुवाद:- परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति मुक्ति है।
मुक्ति की व्याख्या है कि हम अपने स्वरूप में स्थित रहे और हमारा स्वरूप क्या है?
*जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास*
यह दास का भाव अर्थात दास्य भाव सभी रसों में है। चाहे दास्य रस ले लो, साख्य रस ले लो, वात्सल्य रस ले लो, या माधुर्य रस ले लो। जो गोपियां है, यशोदा मां है, यह भी कृष्ण को प्रसन्न करने का भाव सदा बना कर रखती है। यह अभ्यास धीरे-धीरे.. इसलिए आप देखते हैं जो ब्राह्मण दीक्षित भक्त हैं, जब वे आल्टर में पूजा करने के लिए जाते हैं तो पूजा करने से पहले भूत शुद्धि करते हैं।
*नाहं विप्रो न च नर पतिर्नापि वैश्यो न शुद्रो। नाहं वर्णीं न च गृह- पतिर्नो वनस्थो य़तिर्वा।। किन्तु प्रोद्यन्निखिल परमानंद पूर्नामृताब्धेर्। गोपी- भर्तुः पद-कमलयोर्दास-दासानुदासः।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला अध्याय १३. ८०)
अनुवाद:- “मैं न तो ब्राह्मण हूं, न क्षत्रिय, न वैश्य, न ही शुद्र हूँ। न ही मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी हूं। मैं तो गोपियों के भर्ता भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के दास के दास का भी दास हूँ। वे अमृत के सागर के तुल्य हैं और विश्व के दिव्य आनंद के कारणस्वरूप हैं। वे सदैव तेजोमय रहते हैं।”
मैं यह नहीं हूं, मैं वह नहीं हूं। इस प्रकार से यह होते ही रहना चाहिए। जब भी हमारे अंदर ऐसा भाव आए अर्थात दास्य भाव हटकर इंद्रिय तृप्ति का भाव आ जाए तो सबसे पहले बोलना चाहिए
*न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥4॥*
अनुवाद:- हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।
उसके बाद बोलना चाहिए – नाहं विप्रो न च नर-पति..
इस प्रकार से वापिस अपना ट्यूनिंग…, जैसे स्टेरिंग होता है, गाड़ी थोड़ी ऐसी हो गयी तो उसको हम फिर ट्रैक पर लाते हैं।
यह श्लोक हमें ट्रैक पर रखेंगे।
यह एक केवल एक बार नहीं करना होता है, जब भी इसकी जरूरत हो तब इसका उपयोग कर सकते हैं। हमें ज्ञान में स्थित होना चाहिए।
*वैराग्य- विद्या- निज- भक्ति- योग-शिक्षार्थमेकः. पुरुष: पुराण:। श्री कृष्ण चैतन्य शरीर धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ६.२५४)
अर्थ:- मैं उन पूर्ण पुरषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता हूँ, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं, मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ।
जिसमें ज्ञान नहीं है वैराग्य नहीं है, वह भक्ति किस प्रकार की???
*वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजितः। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम्।।* (श्रीमद्भागवतं १.२.७)
अनुवाद:-भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरंत ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त के लेता है।
वास्तव में अगर कोई भगवान को प्रसन्न करने के लिए भक्ति करता है , तब वह भक्ति योग होगा। वह भगवान के साथ जुड़ेगा। जब वह भगवान से जुड़ेगा तो उसके अंदर ज्ञान आएगा, ज्ञान आएगा तो वैराग्य भी आएगा। किसी के अंदर वैराग्य में संघर्ष हो रहा है उसका मतलब ज्ञान में कमी है। हो सकता है कि उसने बहुत कुछ कंठस्थ किया हो, बहुत सारे श्लोक पढ़कर वह पंडित बना हो लेकिन हजम नहीं हुआ है। उस ज्ञान का पाचन नहीं हुआ है, समझ में नहीं आया है। कभी-कभी हम प्रचार करने के लिए बहुत कुछ ऐसा ज्ञान इकट्ठा करते हैं लेकिन उसका अभ्यास नहीं करते। फिर ऐसा ही हो जाएगा और हमारी प्रगति अटक जाएगी। एक और महत्वपूर्ण बिंदु है कि हमें संबंध ज्ञान 24 घंटे बनाए रखना है। इससे व्यक्ति शुद्ध भक्ति में धीरे-धीरे आगे बढ़ेगा, धीरे-धीरे स्थिरता आ जाएगी। निष्ठा मध्यम अधिकारी का लक्षण है। यह ऑटोमेटिक नहीं होगा, इसके लिए अभ्यास करना होगा। क्योंकि हम बद्ध जीव है, हमारे अंदर बहुत सारे अनर्थ हैं। हमारे हृदय में षड् रिपु है। इसीलिए हम घड़ी-घड़ी विचलित होते हैं, भ्रमित होते रहते हैं। इसीलिए हमें प्रतिदिन इन चीजों का अभ्यास करना होगा। धीरे-धीरे हमें अपनी इंद्रियों को..जैसे कि भगवान भगवत गीता में कहते हैं
*तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।*
( श्रीमद भगवद्गीता ३.४१)
अनुवाद:- इसलिए हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारंभ में ही इंद्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक ( काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म- साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो।
इंद्रिया को वश में करना है, उसके बाद मन को वश में करना है। पहले जितेंद्रिय बनना है फिर विजित आत्मा बनना है। तत्पश्चात बुद्धि को सही रखना है तब जो आत्मा है, व्यवस्थित होगी। आध्यात्मिक जीवन में पूरी तरह से स्थिरता, निष्ठा, भक्ति आएगी। इसके लिए शास्त्रों को पढ़ना, साधु संग करना, बैठकर, चिंतन मनन करना, अपना स्तर अभी क्या है उसकी जांच करना, मार्गदर्शन लेना, यह बहुत बड़ा प्रोग्राम है। जो इस प्रकार से भक्ति नहीं करते हैं तो उनकी फिर क्या हालत होती है? जैसे एक डायलॉग है 20 साल से घास काट रहा हूं, 40 साल से घास काट रहा हूं। वैसे ही स्थिति हो जाती है, बहुत लोगों की ऐसी स्थिति होती है। वे शुरुआत में अपने से वरिष्ठ भक्तों का संग करते हैं। जब वे खुद प्रचारक बन जाते हैं, उसके बाद वे सोचते हैं कि हमें अभी संग करने की जरूरत इतनी अधिक नहीं है। हमें लोगों को संग देने की ज़्यादा जरूरत है। वे उसमें इतने लीन हो जाते हैं कि वे भूल जाते हैं अपनी बैटरी चार्ज करनी है। वे दस, बीस, तीस, चालीस साल तक एक ही स्तर पर रुके रहते हैं। इसलिए अपने आप को आगे बढ़ाते रहना है और दूसरे लोगों को भी जो हमें भगवान ने दिया है, वैष्णवों ने दिया है, शास्त्रों से मिला है वह दूसरों के साथ बांटना है लेकिन हमें हमेशा अपने आप को ऊपर उठाते रहना है। यह हरि नाम चिंतामणि के दो श्लोकों में लिखा है- यह बहुत महत्वपूर्ण है भजन में आगे बढ़ने के लिए। अगर हम सोचते हैं कि हम हरे कृष्णा कर रहे हैं, प्रसाद खा रहे हैं, 4 नियमों का पालन कर रहे हैं। उसके बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है। यह अपने आप हो जाएगा, नहीं। यह अपने आप नहीं होगा। आपको अपने मन और इंद्रियों को वश में करना है गुरु, वैष्णवजन आप को ज्ञान देंगे कि कैसे किया जा सकता है लेकिन करना आपको है। वे आपके लिए नहीं करेंगे, यह बहुत महत्वपूर्ण चीज है। प्रभुपाद अपने लेक्चर में बताते हैं कि मृत्यु के समय गुरु जी की शिक्षा आपके साथ जाएगी। गुरु जी आपका प्लेन नहीं उड़ाएंगे, गुरु जी की कृपा रहेगी, ज्ञान रहेगा लेकिन प्लेन आपको उड़ाना है। 32000 बिच्छू काटने वाला दर्द हो रहा होगा लेकिन कृष्ण का स्मरण आपको करना पड़ेगा, यह अभ्यास आपको करना होगा। अभी से इसका अभ्यास करेंगे तो उस दिन आखरी सांस पर अंते नारायणे स्मृति होगी और हमारा कल्याण होगा। इसलिए यह जो अभ्यास है, इसे प्रतिदिन बनाए रखना है। नहीं तो शास्त्र कहते हैं
*यस्सात्मबुद्धि कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।यतीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि-ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः।।*
( श्रीमद्भागवतं १०.८४.१३)
अर्थ:- जो व्यक्ति कफ, पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय शरीर को स्वयं मान बैठता है, जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थ स्थल को केवल जल का स्थान मानता है किन्तु जो आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नत व्यक्तियों के साथ अपना कुछ सम्बन्ध नहीं देखता, उनसे कुछ अपनेपन का अनुभव नहीं करता, उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन तक नहीं करता- ऐसा व्यक्ति गाय या गधे से बेहतर नहीं है।
जो अपनी पहचान शरीर से करता है अथवा अपनी जन्मभूमि से करता है, वह गाय और गधे के जैसा है। स एव गोखरः। इसलिए सभी भक्त जानते हैं कि इस देहात्मबुद्धि से निकलना कितना कठिन है। कठिन इसलिए है क्योंकि हमारे अंदर जो भौतिक इच्छा है, उसके कारण हम इससे बाहर नहीं निकल पाते। जब तक हम अच्छी तरह नहीं समझेंगे कि इस भौतिक इच्छा से हमारा मनोरंजन हो सकता है, आत्म रंजन नहीं हो सकता। किसी भी प्रकार की इन्द्रिय तृप्ति से हमारी आत्मा को एक किंचित मात्र भी सुख नहीं मिलेगा। प्रभुपाद जी कहते हैं कि अगर ये भौतिक इन्द्रिय तृप्ति/भौतिक जगत तुच्छ नहीं लगता है तो आपने आध्यात्मिक मार्ग के चौखट पर पैर भी नहीं रखा है, आप बाहर हैं। जब तक यह स्पष्ट नहीं हो जाएगा, शत प्रतिशत स्पष्टता नहीं आएगी और हम संबंध ज्ञान में स्थित नहीं रहेंगे। फिर माला चलती रहेगी, हरिनाम चलता रहेगा, सेवा चलती रहेगी लेकिन फिर से अभ्यास करने के लिए आना पड़ेगा, क्योंकि इससे सिद्धि नहीं होगी। इसका अभ्यास कीजिए, भूत शुद्वि कीजिए। इसको समझिए और अपनी अपनी इंद्रियों को धीरे-धीरे वश में कीजिए। कभी-कभी लोग प्रश्न पूछते हैं, बहुत कठिन है, हमारे लिए संभव नहीं है। हां- एक अनन्त कोटि समय से हमारी ये आदतें हैं, एक दो दिन में सफलता नहीं मिलेगी। अगर हम चाहेंगे कि चार-पांच साल में पूरा का पूरा साफ हो जाए, वो भी कठिन लगता है लेकिन एक परसेंट तो आप आगे बढ़ ही सकते हैं।
एक परसेंट से ले लो, अगर हर दो-तीन महीने में एक परसेंट भी कम होता जा रहा है। (एक परसेंट तो कोई भी कर सकता है।) धीरे-धीरे 5 परसेंट हो जाएगा, फिर 10 परसेंट हो जाएगा। फिर धीरे-धीरे व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर सकेगा। इसके लिए क्या चाहिए? अच्छा संग लेना बहुत जरूरी है। साधु संग नियमित करते रहना चाहिए। शास्त्र को नियमित पढ़ते रहना चाहिए और चिंतन मनन करना चाहिए। मनन बहुत आवश्यक व महत्वपूर्ण है। शंकराचार्य कहते हैं श्रवण से मनन में सौ गुणा लाभ है और फिर निदिध्यासन करना चाहिए। निदिध्यासन में श्रवण से 10000 गुणा लाभ है। मनन से 100 गुना लाभ है, इस तरह से हम लोग प्रयास करते हैं। इस संबंध ज्ञान में स्थित होना, जिससे हमारा जो नाम भजन है- यह जो जप है, वो शुद्ध रूप से और हमेशा कीर्तनीय सदा हरिः हो सके। ऐसा नहीं कि 16 माला किया और राहत मिल रही है। अरे, 16 माला हो गई, बहुत राहत हो गई। इसका मतलब है कि अभी शुरू नहीं हुआ है, कभी भी बंद नहीं करना चाहिए। प्रभुपाद जी कहते हैं कि माला पर जो अपना संकल्प लिया है, वह करो। बाकी हर समय *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* करते रहो।
हरे कृष्ण।।।
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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा-२०/०५/२०२२*
*परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज*
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद*
*जय जय श्री अद्वैत्य चंद्र गौर भक्त वृन्द*
आपने कल्पना की होगी अभी जपा टॉक होगा। आज का दिन महान है आज के दिन की जय।
क्यों महान है ?
आज श्री रामानंद राय तिरोभाव तिथि महोत्सव है।
हम कितने भाग्यवान है। संसार के लोग जब हम भी संसार में थे तो हमारा किसी का बर्डे, श्राद, मैरिज एनिवर्सरी ऐसे कुछ उत्सव हम मानते थे हमारे लिए वो दिन महान थे। कहा हमारा बर्थडे और श्राद और कहा रामानंद राय का तिरोभाव तिथि महोत्सव।
समय समय पर ऐसे न्यूज़ आते है हमारे जीवन में।
राम का बर्डे सीता का बर्डे राधा का बर्डे
एक प्रकार से उत्सव हम संसार में मानते है लेकिन ऐसे जो दिन है राय रामानंद तिरोभाव तिथि जब हम मानते है तो हमारे मति का कारण बन जाते है भक्ति की जननी बन जाते है भक्ति देते है हमको ऐसे दिन। श्रील प्रभुपाद के हम आभारी है जिन्होंने हमारे लिए ऐसे दिन दिए है
वह दिन आ गया आज का दिन आ गया।
गुरु और गौरांग के हम आभारी है।
हरी हरी
श्रील रामानंद राय ऐसे विभूतिया है जो श्री चैतन्य महाप्रभु के लीला में थे।
राय रामानंद की जय।
*गौर ना हैतो, तबे कि हैतो*
*केमने धरित दे*
*राधार महिमा, प्रेम-रस-सीमा*
*जगते जानात के*
यदि गौरांग महाप्रभु नहीं होते तो राधा की महिमा और प्रेम की सीमा को संसार कैसे जानता।
यदि रामानंद राय नहीं होते तो यह संसार राधा की महिमा को कैसे जानता। राधा की महिमा का गान करने का श्रेय या कहो निमित्त श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रामानंद को बनाया। फिर वे राधा की महिमा गाने लगे। संसार इसे हजम नहीं कर पायेगा इसीलिए महाप्रभु ने कहा एनफ।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संवाद कई लोगो के साथ हुआ। लेकिन राय रामानंद के साथ जो हुआ वह कुछ विशेष है।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जिस उद्देश्य से प्रकट हुए वह था उन्नत उज्जवल रस माधुर्य रस श्रृंगार रस यह देने के लिए और लोगो को इसका आस्वादन कराने के लिए प्रकट हुए।
श्रीमती राधा रानी की जय।
इसकी महिमा श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद के मुँह से लिए। यदि वे भावो का प्रेम का वर्णन नहीं करते तो संसार के लोग कैसे समझते। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भावानंद राय से कहते थे – तुम पाण्डु तो तुम्हारे पुत्र पांडव है।
विशाखा थे राय रामानंद ऐसी मान्यता है।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब मिले तो कई संवाद होता रहा एक दिन की बात है रात्रि के समय अचानक राय रामानंद को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का दर्शन नहीं हो रहा था श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ कृष्ण और राधा का दर्शन हो रहा था। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु २ के एक हुए है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उसदिन इसका खुलासा किया दर्शन दिया राधा कृष्ण का। ऐसा दर्शन केवल राय रामानंद को दिया हरी हरी।
वही एक मुलाकात में चैतन्य महाप्रभु को जाना था दक्षिण भारत यात्रा में। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने याद रखा था गोदावरी के तट पर फिर राय रामानंद के साथ मिलान हुआ क्या कहना उस मिलान का। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखे है उस संवाद को।
मध्य लीला के ८ अध्याय में यह लिखा है आपको इसे पढ़ना चाहिए वह मिलान कुछ विशेष रहा।
दर्शन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दिया।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को दर्शन देना ही था क्योकि राय रामानंद विशाखा है। राधा की सखी है विशाखा।
राय रामानंद विशाखा होने के कारन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह छुपा नहीं पाए।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पहली मुलाकात में दर्शन दे दिया। उन दिनों में राय रामानंद गवर्नर थे।
विशाखा बानी है गवर्नर।
रूप और सनातन बने थे प्रधान मंत्री हुसैन शाह के यहाँ वे रूप मंजिरी है।
राय रामानंद को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा छोड़ दो यह राय रामानंद ने तत छन छोड़ दिया।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब लौटे जगन्नाथ पूरी तो राजा प्रताप रूद्र का राज था।
राय रामानंद ने उस समय इस्तीफा दिया और राजा प्रताप रूद्र ने स्वीकार किया। वह समय आ चूका था श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जब अंतिम १२ साल थे जगन्नाथ पूरी ने रहे।
१८ वर्ष टोटल वे रहे थे जगन्नाथ पूरी में।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा की महिमा जनना चाहते थे। राधा की महिमा कैसी है राधा जो कृष्ण प्रेम का आस्वादन कराती थी वह कृष्ण को पता नहीं था रुक्मिणी ने कहा था प्रभु प्रभु आप नहीं जानते राधा के भाव के।
विरह की भाव जो राधा रानी को होती है वह प्रभु आप नहीं जानते।
कृष्ण ने उसी छन मन बना लिया था मुझे राधा बनाओ और कृष्ण बन गए राधा।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जो स्वरुप है उसमे राधा कांति राधा का भाव है
कृष्ण राधा जैसा बनना चाहते है। पहले कृष्ण लीला खेले है और अंतिम लीला में यह राधा भाव में गम्भीरा में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रहते थे। उस समय राय रामानंद पार्षद बने। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपना अधिकतर समय स्वरुप दामोदर के साथ बिताया था। स्वरुप दामोदर कौन है ? ललिता
राय रामानंद के साथ संवाद होता था वैसा संवाद गम्भीरा में होने लगा।
राय रामानंद से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सुना करते थे। विशेष सेवा राय रामानंद कर रहे थे। जगन्नाथ स्वामी के शयन के पहले देव दासिया नृत्य प्रस्तुत करती थी।
नृत्य के पहले राय रामानंद श्रृंगार करते थे उन गोपियों का जो नृत्य करते थे।
जैसे विशाखा करती है कृष्ण के लिए।
चैतन्य चरितामृत में कमेंट आता है मै तो सन्यासी हु लेकिन स्त्रियाँ को मै देखता हु तो मेरा मन विचलित होता है। यह हमारे लिए कह रहे है महाप्रभु।
ऐसे और कैसे कैसे यह राय रामानंद थे उनका आज तिरोभाव तिथि है।
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*जप चर्चा*
*दिनाँक -18 -05 -2022*
(अनंत शेष प्रभु द्वारा )
हरे कृष्ण !
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले।
स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥
वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च।
श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥
साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं।
श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश्च।।
*हे कृष्ण करुणासिन्धु दीनबंधु जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तुते।।*
*तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसते देवि प्रणमामि हरिप्रिये॥*
*वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
*जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥*
हरे कृष्ण, समस्त वैष्णव भक्तों तथा गुरु महाराज के श्री चरण कमलों में सादर दंडवत प्रणाम करता हूं। हरि नाम चिंतामणि के श्रंखला में प्रथम अध्याय का श्रवण कर रहे थे उसी को आगे जारी रखेंगे। हरिनाम चिंतामणि के अंतर्गत संक्षेप में श्री चैतन्य महाप्रभु तथा हरिदास ठाकुर के मध्य संवाद में यह जिज्ञासा की गई कि जीव का उद्धार कैसे हो। इसके उत्तर में श्रील हरिदास ठाकुर कहते हैं। सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण परम तत्व हैं और भगवान श्रीकृष्ण की तीन शक्तियां चिद अचिद और जीव। आध्यात्मिक जिसे अंतरंगा शक्ति भी कहते हैं और भौतिक बहिरंगा और फिर जीव शक्ति इन 3 के विषय में चर्चा सुनी थी।
जीव वैभव:
*चिद्-धर्म वशत: जीव स्वतन्त्र गठन । संख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन ॥* ३५॥
मुक्तजीव
*सेड़ सुखहेतू यारा कृष्णेर वरिल ।कृष्ण पारिषद मक्त-रूपेते रहिल॥* ३६॥
उस नित्य आनंद हेतु जिन्होंने कृष्ण की शरण स्वीकार की है, वे मुक्त होकर कृष्ण के साथ शाश्वत रूप मंस उनके पार्षद बनकर निवास कर रहे हैं।
बद्ध – बहिर्मुख जीव
*यारा पन: निज-सख करिया भावना। पार्श्वस्तिता माया-प्रति करिल कामना ।।* ३७
जो जीव अपने निज सुख की वांछा करते हैं वे माया की ओर आकर्षित हो जाते, जो सदैव निकट ही स्थित होती है।
चित्द में विशेष रूप से नाम रूप गुण लीला धाम जो भगवान से अभिन्न है। इस स्वरूप का हमने श्रवण किया और तत्पश्चात अचिद वैभव में गोलोक से लेकर अतल सुतल पाताल आदि , श्रीचैतन्य महाप्रभु बताते हैं माया का वैभव है चित् व वैभव पूर्ण तत्व माया आध्यात्मिक जगत है चित्त जिसमें भगवान का पूर्ण ऐश्वर्य है। और यह आचिद वैभव क्या है छाया जैसे पर परछाई होती है इसको भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं।
*उर्ध्वमूलमधःशाखमश्र्वत्थं प्राहुरव्ययम् | छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ||* (श्रीमद भागवतम 15.1 )
अनुवाद- भगवान् ने कहा – कहा जाता है कि एक शाश्र्वत वृक्ष है, जिसकी जड़े तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं । जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है ।
आध्यात्मिक जगत का विकृत प्रतिबिंब है यह भौतिक जगत , तत्पश्चात जीव तत्व भगवान के जैसे स्वरूप वाला चित्त स्वरूप वाला तो ध्यान रखिए आध्यात्मिक जगत में चित्त शब्द प्रयोग किया जाता है और भौतिक जगत के लिए अचिद शब्द प्रयोग किया जाता है और जीव को क्या कहा गया है पुनः स्वरूपा चित्त अर्थात आध्यात्मिक चित् वाला ही स्वरूप है। इस जीव तत्व के विषय में आज हम थोड़ा समझने का प्रयास करेंगे क्योंकि इससे संबंधित प्रश्न सदैव मन में रहता है जैसा कि कई लोग बार-बार कहते हैं कि प्रभु जी हम माया में हैं। मोह और माया इस शब्द का प्रयोग बहुत अधिक सरलता से किया जा सकता है, परंतु वास्तविक इसको तत्वतः समझना आवश्यक है। व्यक्ति मुक्त तभी हो सकता है जब वह वास्तविक अपनी बद्ध अवस्था को समझ पाए। व्यक्ति निरोगी तभी होता है जब उसको रोग की पहचान हो जाए। उसको जैसे कि डायग्नोसिस किया जाता है तो वास्तविक इसका रोग क्या है इसे हम समझने का प्रयास करेंगे। चित्त धर्म से पूर्ण आध्यात्मिक स्वभाव संयुक्त जीव है, जीव कितने हैं, अनंत हैं अनगिनत जीव हैं। इस जगत में जीव का वास्तविक अस्तित्व उसका मूल प्रयोजन क्या है? या आत्मा के अस्तित्व का मूल आधार क्या है? अनंत संख्या में जीव हैं जो आध्यात्मिक स्वभाव से पूर्ण हैं और उनका मूल प्रयोजन है “सुख” अब इसके दो विभाजन किए गए हैं।
प्रथम कहा गया है मुक्त जीव और दूसरा बद्ध जीव, मुक्त जीव का क्या लक्षण है वही सुख के लिए क्या करता है श्रीकृष्ण का वरण करता है श्रीकृष्ण का आश्रय लेता है श्रीकृष्ण की सेवा में जो सुख की अनुभूति करता है उसको कहा गया है कृष्ण परिकर, कृष्ण के परिकर मतलब पार्षद हैं और मुक्त हैं तो वास्तव में यदि हम मुक्त होना चाहते हैं या बद्ध होना चाहते हैं और हमें अच्छी तरह से पता चल जाए तो निश्चित रूप से हम अपने आप को निरोगी रखने के लिए इस रोग के लक्षण से अपने आप को मुक्त करने का प्रयास करेंगे किस रूप में इसको अन्य शब्दों में भी कहा जाता है श्रीकृष्ण के सुख में ही जिसका सुख हो जिसकी समस्त चेष्टाएँ श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष होती हैं उसे मुक्त जीव कहा गया है। जब हम अपने व्यक्तिगत जीवन में शब्दों को सुनते हैं परीक्षण भी किया जा सकता है किस अनुपात में हमारी चेष्टाएँ हैं। हमारी भावनाएं श्रीकृष्ण को सुख देने के लिए होती हैं जिस अनुपात में हमें श्रीकृष्ण को सुख देना है हम प्रातः काल से उठकर संध्या तक जितनी भी क्रियाएं कर रहे हैं कृष्ण को सुख मिल रहा है कैसे, इस क्रिया से ,यह भावना जितनी अधिक प्रगाढ़ होती चली जाती है उतना ही वास्तविक अवस्था के समीप पहुंचने लगता है और इसी को गोस्वामी कहते हैं
*निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः । मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व-रूपेण व्यवस्थितिः ॥६॥*
अनुवाद -अपनी बद्धावस्था के जीवन-सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है। परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति ‘मुक्ति’ है।
या जैसे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी के शब्दों में कहा जाए “जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास”, जीव का स्वरूप क्या है कृष्ण का नित्य दास होना। वह श्रीकृष्ण के आश्रय में रहता है यह मुक्त अवस्था का लक्षण है मतलब मुक्त अवस्था और बद्ध अवस्था, वास्तविक हमारी चीजों पर निर्भर नहीं करती। जैसे भावना या सुख का हेतु क्या है ? सुख का प्रयोजन क्या है ? श्रीकृष्ण का वर्णन करना। बद्ध अवस्था किसे कहा गया है तो निज सुख वर्णन है। शब्द बहुत अधिक स्पष्ट होते हैं यदि आप समझ सके कृष्ण का वर्णन किया उनके सुख के लिए, यहां पर शब्द है अपने सुख के लिए विचार करना, जब यह निज सुख का विचार जैसे ही आया तो निकट में ही बगल में ही कृष्ण के निकट में कौन हैं ? माया
*कृष्ण बहिर्मुख हइया भोग वॉछा करे | निकटस्थ माया तारे झापटिया धरे ।। पिशाची पाइले जेन मति-छन्न हय मायाग्रस्त जीवेर हय से भाव उदय || आमि सिद्ध कृष्ण दास, एइ कथा भुले । मायार नाफर हडया चिर दिन बले ।।*
*कभु राजा, कभु प्रजा, कभु विप, शुद्ध। । कभ दरवी, कभ सखी, कभ किट खुद्ध ।।*
*कम स्वर्गे, कभ मये, नरके वा कम । कभ देव, कभु दैत्य, कभु दास, प्रभु ||*
निकट में जो माया है जिस क्षण आपने जीवन में मुझे सुख चाहिए यह भावना जैसे ही आयी तो समझ लेना चाहिए कि आप लपेटे में आ चुके हैं। जब यह भावना आती है जो सुख की भावना तभी तुरंत ही व्यक्ति बद्ध हो जाता है या उस अवस्था में पड़ता है। इस प्रकार से माया कितनी शक्तिशाली रूप से हमें बांध देती है उसको हम थोड़ा समझने का प्रयास करेंगे, श्रीमद् भागवत तथा कुछ आचार्यों के शब्दों में माया या अविद्या के पाँच रूप तो आगे श्रील हरिदास ठाकुर चैतन्य महाप्रभु से कह रहे हैं। ऐसे जीव जो कृष्ण से बहिर्मुख हुए , प्रारंभ कहां से हुआ निज सुख की भावना से, निज सुख से फिर माया ने उसको पकड़ लिया तो जैसे माया शब्द है जो कृष्ण से बहिर्मुख हो चुका है और वह शरीर माया द्वारा रचित या फिर यह जो 8400000 योनियां है देवी धाम मतलब जिसको अचिद कहा गया है। इस भौतिक जगत में वह आ जाता है तो यह किस तरह से जो यह जीव है। आसमान से गिरे मतलब आध्यात्मिक जगत से गिरे संसार में हम फंसे हैं और जो हम यहां पर अटके हुए हैं तो कैसे यह माया हमें बांधती है भागवत के शब्दों में देखा जाए क्योंकि शब्दों को बहुत ही सहजता से प्रकट करना चाहिए।
प्रभुजी हम तो माया में हैं, माया में हैं समस्या यह है कि माया क्या रही है यह समझ में नहीं आता, माया के लक्षण जैसे शरीर में कुछ लक्षण पता चलते हैं तब आपको पता चलता है कि आपको रोग है। यहां पर श्री चैतन्य महाप्रभु जब हरिदास ठाकुर से कहते हैं कि कैसे जीव का उद्धार हो तो कैसे हैं, हमारा रोग क्या है? तब यह अवश्य देखेंगे इस सत्र में थोड़ा संक्षिप्त में समझने का प्रयास करेंगे , रोग क्या है हमारा जो हम माया में हैं उसके बाद में श्री हरिदास ठाकुर चैतन्य महाप्रभु को विभिन्न प्रकार की औषधियां बताते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने जीव का उद्धार करने के लिए कौन-कौन से उपाय किए हैं और उन समस्त औषधियों के फेल होने पर अंततः केवल एक ही औषधि बस जाती है। हरि नाम, इसको अंततः बताया जाएगा। आइए हम यहां पर यह जो माया या जिसे बहिर्मुख कहा जाए या जिसे अविद्या कहते हैं, इसी को श्रीमद्भागवत के शब्द में जब भगवान ने प्राथमिक सृष्टि किया और अंततः ब्रह्मा जी के द्वारा जब गौण सृष्टि की गई, यह सृष्टि माया के निर्मित हुई जिसको श्रीमद्भागवत में तृतीय स्कंध अध्याय 12 के श्लोक संख्या 12 में बताया गया है। पांच प्रकार की माया का वर्णन किया गया है आप लोग भी मेरे साथ में कह सकते हैं
*सदवानकटहास्थितहाताहा सेड़ सब नित्य कृष्ण बहिर्मख हैल। देवी धामे मायाकत शरीर पाइल॥* (श्री.भा.३.१२.२ )
अनुवाद: वे ही जीव कृष्ण से नित्य बहिर्मुख होकर, देवी धाम में माया से रचित शरीर को प्राप्त करते हैं।मोह-माया क्या है? अविद्या-अज्ञान क्या है?
*सत्सर्जाग्रेऽन्ध-तामिस्त्रम् अथ तामिस्त्रम् आदि-कृत् । महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञान-वृत्तयः ।।*
अनुवाद : ब्रह्मा ने सर्वप्रथम आत्म-प्रवंचना, मृत्यु का भाव, हताशा के बाद क्रोध, मिथ्या स्वामित्व का भाव तथा मोहमय शारीरिक धारणा या अपने असली स्वरूप की विस्मृति जैसी अविद्यापूर्ण वृत्तियों की संरचना की।
यह पांच चीजें हमें अपने जीवन में परीक्षण करनी है कितने प्रमाण हैं उस प्रमाण के आधार पर आप कह सकते हो कि वास्तव में हम माया में हैं। इन्हीं को प्रभुपाद के शब्दों में कहा जाता है तो अधिकृत अर्थात सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने कौन-कौन सी चीजें बनाई । अब क्रम यह है सबसे पहले है तम जैसे हम कहते हैं ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य “तम” शब्द का अर्थ क्या होता है। इस प्रकार से हमने वास्तविक रूप से यह सुना निज सुख की भावना इस संसार में भोगने की इच्छा जीव की हुई। भोगने की इच्छा के लिए क्या करना पड़ेगा उसे अपने स्वरूप का विस्मरण दिलाना जरूरी है कि मैं श्रीकृष्ण का नित्य दास हूं और मैं श्रीकृष्ण के भोग के लिए बना हूं। यह सबसे पहली चीज होती है जिस प्रकार से उदाहरण के लिए कहा जाए मान लीजिए अगर मुझे यह मानना है मैं अमेरिकन हूं उसके लिए पहली चीज क्या करनी पड़ेगी पहले मुझे विस्मरण दिलाना पड़ेगा कि मैं भारतीय हूं क्यों कि जब मुझे इस व्यक्तित्व का विस्मरण होगा तभी तो मुझे पता चलेगा कि आई एम अमेरिकन, अमेरिकन हूं यह माया का प्रभाव है। सबसे पहली चीज तम वह स्वरूप का लक्षण है विस्मरण है मैं श्रीकृष्ण का नित्य दास हूं, मैं आत्मा हूं, मैं कृष्ण की सेवा और कृष्ण के सुख के लिए ही बना हूं इसका विस्मरण, सबसे पहले तो तम और मोह , यहां पर कह रहे हैं भ्रांत धारणा मतलब मिसिडेंटिफिकेशन, प्रभुपाद जी कहते हैं
भ्रातर्यर्हि निमिलिता: सि नयने तत्र क्वा कान्तात्मज-भ्रातृ-स्वाप्त-सुहृद्गण: क्वाच चपः कुत्र प्रतिष्ठादयः।
कुत्रहंकृत्यः प्रभूत-धनविद्या द्यैस्त सर्वत-स्त्वं निरविद्या सविद्या! किं नु न चल स्यद्यैव वृंदावनम्? ।।
( श्री प्रबोधानंद सरस्वती, वृन्दावन महिमामृत (1.81))
अर्थ:-
हे भ्रातः! जब तुम दोनों नेत्र बन्द करोगे (मृत्यु को प्राप्त होवोगे) तब तुम्हारे स्त्री, पुत्र, भ्राता एवं विश्वासपात्र सुहृदगण कहाँ रहेंगे? तुम्हारे गुण, तुम्हारी प्रतिष्ठा आदि किस काम आवेंगे? प्रभुता, धन एवं विद्या जनित जो अभिमान है, वह कहाँ रहेगा? इसलिये, हे सुविज्ञ! सबों से वैराग्य करके आज ही तू क्यों श्रीवृन्दावन नहीं चलता?
मतलब अपनी गलत पहचान को स्वीकार किया जाता है। पहली चीज है कि अपनी पहचान को भुला दिया गया कल्पना कीजिए कि संसार में माया की प्रोग्रामिंग कितना पावरफुल है मान लीजिए आप में से यहां पर कोई प्रभु जी हैं और आपको कहा जाए आप कल्पना करें कि आप स्त्री हैं कठिन है ना हम अपनी पहचान में इतने अधिक स्थित हैं के कठिन हो जाएगा कि आप स्त्री हैं स्त्री की तरह विचार कीजिए उसकी तरह पहनावा कीजिए तो यह कठिन हो जाएगा इसी प्रकार माया का कार्य यही है कि वह सबसे पहले हमारी पहचान को पूरी तरह से भुला देती है और दूसरा कार्य कि वह गलत पहचान को स्थापित करवाती है कि हम यह शरीर हैं। अतः भ्रांत धारणा मतलब गलत धारणा, देखा जाए तो हम शरीर नहीं है। हम शरीर को ही मान लेते हैं यह शरीर नश्वर है। इसी को ही शाश्वत मान लिया जाता है इस तरह से इस को मोह कहा गया है और मोह का परिणाम क्या होता है, महा मोह मतलब भोग्य वस्तुओं का स्वामी, जैसा मेरा घर है मेरी यह वस्तु है, मेरी संपत्ति है, मेरा परिवार है, यह जो स्वामित्व ममत्व की भावना इसको मोह कहते हैं।
क्रम आप समझ रहे हैं ना तम से मोह आया फिर मोह से महा मोह आया पहले अपनी पहचान भूल गए दूसरी बात है आपनी गलत पहचान बनाई और गलत पहचान से ही आपने फिर अपना एक गलत संसार बना लिया कि मेरा संसार है और उसके बाद क्या होता है तमिस्त्रं जो संसार मेरा है और इस संसार को जब हम भोगने का प्रयास करते हैं। तब व्यक्ति के आगे अवरोध आता है और व्यक्ति के अंदर क्रोध उत्पन्न हो जाता है उसी को तमिस्त्रं कहा गया है और अंध तमिस्त्रं मृत्यु का भय, मृत्यु का भय है। ब्रह्मा ने सबसे पहले आत्मा का विस्मरण, मृत्यु का भाव, हताशा के बाद क्रोध, मोह में शारीरिक धारणा अपने असली स्वरूप की विस्मृति अर्थात अविद्या समझना, तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद के हम पढ़ते हैं विभिन्न प्रकार के जीवों की सृष्टि में वास्तविक में पूर्ण ब्रह्मा जी ने यह परिस्थितियां उत्पन्न की मतलब यदि आपको अब इस संसार में भोग करना है तब उसके लिए आपको तैयार किया जाता है जिससे आप आराम से रह सके। मान लीजिए जैसे कोई व्यक्ति अपना घर छोड़कर परदेश में जाता है जब तक वह अपने घर में लौट कर नहीं आए तो वह व्याकुल रहता है बेचैन रहता है वास्तव में यदि आप उस परदेश को अपना घर मान लेंगे तो आप घर लौटना नहीं चाहेंगे, अपने घर का अपने निजधाम का अपने निजी स्वरूप का अपनी निजी सेवा का पूरी तरह से एकदम मेमोरी डिलीट कर दी जाती है। किसी भी तरह से उसको अवरुद्ध कर दिया जाता है ताकि इस संसार में जीव भोग कर सके जब तक जीव अपने असली स्वरूप को भूल नहीं जाता तब तक जीवन की भौतिक अवस्था में उसके लिए रह पाना असंभव है।
कितना सरल है हम भूल चुके हैं यहां तक कि मैं प्रवचन दे रहा हूं और कितना भी कह लूं कि मैं शरीर नहीं मैं आत्मा हूं परंतु यदि देखा जाए तो उसकी अनुभूति कितनी है वास्तव में कृष्ण के आनंद के लिए ही बना हूं यह किस अनुपात में इसकी अनुभूति है यदि देखा जाए तो उतनी नहीं है जितनी की होनी चाहिए इसका अर्थ समझ सकते हैं इसका अर्थ तम है। इसमें दासत्व का स्मरण नहीं हो रहा है हालांकि तिलकधारी धारण किए हुए जीव कृष्णदास का मतलब है कि स्मरण है। इस शरीर को तो हम मानते हैं ना कहने के लिए चाहे हम कितना भी कह दे परंतु अंत में शरीर है और अगर कभी उपवास होने लगे तो शरीर को कुछ कष्ट हो रहा है मतलब तम भी है और मोह भी है शरीर के जो सम्बंधित वस्तु मेरा मैकबुक, मेरा स्मार्टफोन है उनके प्रति मेरा है जबकि दान में मिलता है हमें भी ग्रहस्थो की तो बात ही कुछ और है गृहस्थ कमाते भी हैं
ब्रह्मचारी तो दान पर ही प्राप्त होता है परंतु फिर भी जो भी वस्तु आपके पास है आपके पास आ जाती है उसमें मोह तत्व भाव बन ही जाता है। अगर उसमें कोई अवरोध लेकर आए तो मान लीजिए कि आप एकादशी में बैठे हैं और आम का रस आपके सामने रखा जाए और किसी ने तुरंत कहा कि प्रभु जी प्रसाद कम है आपको नहीं मिलेगा आपके सामने आम का गिलास का रस रखा है हटा दिया जाए तो क्या होगा तामिस्त्र मतलब क्रोध और फिर, भौतिक जगत की पहली दशा अपने स्वरूप की विस्मृति अपने असली स्वरूप को भूल जाना और मृत्यु से भयभीत होना निश्चित है और व्यक्ति को भय आता कहां से है, बहुत सुंदर बात कही है इसको भागवत में भी कहा गया है , ब्रह्मा जी ने ही पाँच पर्वो वाली अविद्या की सृष्टि की है।
पातञ्जल योगदर्शन में भी कहा गया 1. अविद्या (तम), 2. अस्मिता (मोह), 3. राग (महा मोह) , 4. द्वेष (तामिश्र), 5. अभिनिवेश (अंध तामिश्र) ये पांच प्रकार के क्लेश हैं |
जैसे अपने स्वरूप में आपने भूल गए तब भी डर लगता है शरीर मरने वाला है ऐसे में विशुद्ध आत्मा की मृत्यु हो जाएगी। प्रभुपाद जी कहते हैं भौतिक मृत्यु के साथ यह झूठी पहचान उन वस्तुओं के मिथ्या स्वामित्व का कारण है जो श्रेष्ठ नियंत्रण के द्वारा प्रदत होती है तो श्रीधर स्वामी की और कुछ टिकाओ में से समझने का प्रयास करेंगे । श्रीधर स्वामी यहां कह रहे हैं कि सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने अविद्या के 5 वर्णन किया है
श्रीधर स्वामी टीका : सर्व प्रथम ब्रह्माजी ने अविद्या (अज्ञान) की पाँच वृत्तियों की सृष्टि की।
1.तम- स्वरूप का प्रकाश न होना तम कहलाता है।
2.मोह- देह आदि में होने वाली आत्मत्व की बुद्धि को ही मोह कहते हैं
3.महामोह- भोगों की इच्छा को महा मोह कहते हैं । अथवा भोग्य विषयों में ममत्व का आरोप अर्थात ये मेरे हैं।
4.तामिस्त्र- भोग की प्राप्ति में किसी के द्वारा बाधा डाले जाने पर जो क्रोध उत्पन्न होता है उसको तामिस्त्र कहते हैं।
5.अन्धतामिस्र- भोग का नाश हो जाने पर यह सोचना कि अरे मैं ही नष्ट हो गया इसी को अन्धतामिस्र कहते हैं इत्यादि।
श्रीधर स्वामी ने स्वरूप का प्रकाश ना होना तम कहलाता है प्रकाश मतलब अनुभव नहीं हो रहा है मान लीजिए भगवान के निज धाम में जो हमारा मुख्य स्वरूप है जिस भी स्वरूप में हम हैं पूरी तरह से वो ढक चुका है हालांकि वह शरीर के अंदर है एक आत्मा है जिस स्वरुप में है परंतु उस स्वरूप में इतना गहरा आवरण है की किंचित मात्र भी अनुभूति नहीं होती उस स्वभाव की , उस स्वरूप की, तो यह कितना हार्ड कवरिंग है तम और दूसरा है मोह, देह आदि में होने वाली आत्म बुद्धि को ही मोह कहा गया है और शरीर की पहचान कितना भी कहां जाए जिस तरह से श्रीमद्भागवत में अन्य तरह से इस बात को कहा गया है कि जब तक आप देह से अपनी पहचान बना रहे हैं पर आप क्या कर रहे हैं कि भगवान की सेवा कर रहे हैं भगवान की भक्ति कर रहे हैं भगवान का नाम जप कर रहे हैं।
भगवान की अर्चना कर रहे हैं परंतु देह को आपने मैं मान लिया है तो जितनी भी आपकी रचनाएं हैं जितना आप का भजन है जितना आपका नाम जप है तो वह किसके समान कहा जाता है जिस प्रकार राख में आहुति दी जाए, राख में अगर आप घी डालते हैं तो कितनी संभावना है कि अग्नि प्रज्वलित हो जाए वैसे ही इसीलिए आप देखते हैं कि भगवान के लिए जब आप भगवान की सेवा करते हैं भगवान की अर्चना करते हैं जानते हैं कि सबसे पहले जो क्रिया होती है, भूत शुद्धि मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य नहीं हूं, मैं ब्रह्मचारी गृहस्थ नहीं हूं इसके साथ ही प्रारंभ होती है इसी बात को श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा है जब तक आप अपने आप को देह मानते हैं तब तक आपको क्लियर नहीं है। देखा जाए तो संसार अच्छा है कृत्रिम रूप से संसार अच्छा लगता है संसार में भोगने की इच्छा है यह अपना परिवार है यह अपने जन हैं अपनी वस्तु है अपनी संपत्ति है यह सब वास्तविक लगता है जैसे जिस तरह से श्रील प्रभुपाद ने कहा है। वृंदावन महिमा में एक बहुत सुंदर वचन कहते हैं, यह तुम अपनी आंखों को खोल कर यह पलके खुलती हैं पलके बंद होती हैं कभी तुमने विचार किया है बहुत शीघ्र एक ऐसा क्षण आने वाला है हे मेरे मन तुम्हारे लिए एक ऐसा अच्छा क्षण आएगा जब यह पलके बंद होंगी और बंद होंगी फिर कभी नहीं खुलेगी और जब वह पूरी तरह से बंद हो जाएगी, तब कौन सी पत्नी कौन सा बच्चा को आत्मजा कौन सा भाई कौन से अपने परिजन पुत्र कौन सी प्रतिष्ठा कौन सी संपत्ति और कौन सा घर एक क्षण में जैसे ही पलके बंद होगी तो कोई भी नहीं रहेगा कोई भी वस्तु नहीं रहेगी परंतु इतना भयंकर यह प्रभाव है कि यह कहने में कितना भी हम कह लें परंतु यह अपनापन इस संसार से छूट नहीं रहा है।
चौथी बात तामिस्त्र हो जाएगा आपको जब क्रोध उत्पन्न होता है तो हम देखते हैं कि हमारे जीवन में क्रोध क्यों आता है क्योंकि हम इस संसार को भोगना चाहते हैं जहां क्रोध ईष्या द्वेष आदि जो दोष आते हैं। यही कारण है और अंत में कहा है भोग का नाश हो जाने पर यह सोचना कि मैं नष्ट हो गया जैसे मतलब यह चला गया तो मैं अब जी नहीं पाऊंगा इस वस्तु के बिना मैं अपने प्राण दे दूंगा ऐसी दशा हो जाती है कि इतना अपनापन है इस संसार से उस वस्तु के प्रति होता है कि अगर वह वस्तु चली जाए जैसे आपने देखा होगा कि जब नोट बंदी हुई थी हमने सुना कुछ लोगों के साथ ऐसा हुआ जैसे उनके साथ रातों-रात नोटबंदी हो गई तो फिर कुछ लोगों को हार्टअटैक तक आ गया कुछ लोग बोलते भी थे कि प्रभु जी अपना बिजनेस, मैं तो खत्म हो गया जब उनके बिजनेस में कोई बहुत बड़ी हानी होती है। उस टाइम पर कहते हैं मैं तो खत्म हो गया पूरी तरीके से खत्म हो चुका हूं। खत्म हुआ का मतलब क्या हुआ कि जो भोग की वस्तु थी वह नहीं रही, ऐसा लगा उनको कि उनका अस्तित्व ही नष्ट हो गया इसको कहते हैं
अंधतामिस्त्र अर्थ है यह भोग नष्ट होने पर अपने नष्ट होने की प्रतीत होना और दूसरा अंधतामिस्त्र का अर्थ है मृत्यु का भय, कितना अधिक हमारे जीवन में मृत्यु का भय है कहने को कितना भी सुन ले हम परंतु फिर भी भय बना रहता है। मेरी जिस दिन मृत्यु हो गई तो क्या होगा निश्चित रूप से यहां पर तो सब भक्त हैं जो हरि नाम जप कर रहे हैं विशुद रूप से गुरु का आश्रय लिया है देखते हैं अनुपात कुछ कुछ कम हो रहा है ध्यान है ना आपको तम तामिस्त्र मोह महा मोह
तमो ‘विवेको मोहः स्याद
अंतः-करण-विभ्रमं
महा-मोहस तू विज्ञानो
ग्राम्य-भोग-सुखैणा
( विष्णु पुराण)
एक बार पुनः इसको विष्णु पुराण में कहा गया है उसी बात को विवेक के अभाव में तम कहा जाता है अपनी पहचान का विवरण मैं हूं पुनः अंत करण ब्रह्म महा सुखों को भोगने की इच्छा तामिस्त्र का मतलब क्रोध और तमिस्त्रों के साधन इसी को श्रील प्रभुपाद ने अपने तात्पर्य में कहा है मैं तो वहां पर भी इन शब्दों का भिन्न प्रकार से श्लोक अविद्या राग द्वेष कहा जाता है उसको तम को ही अविद्या कहा जाता है। अस्मिता का मतलब अपनी गलत पहचान को स्वीकार करना और राग हो जाता है वस्तु के प्रति और द्वेष आदि होता है और इतना अधिक उस वस्तु के प्रति अपनापन हो जाता है कि वस्तु नष्ट हो जाए तो ऐसा लगता है कि हम भी नष्ट हो गए। यह वास्तविक चार्ट भी है तम मतलब पुनः स्वरूप का प्रकाश कहां गया है अपने स्वभाव को भूलना जैसे कि श्रील प्रभुपाद ने कहा है शब्द प्रयोग किया है देहात्म बुद्धि महामोह मतलब वह इच्छा या ममता इस जगत के प्रति यह संसार अपना लगना और भगवान अपने ना लगना तमिस्त्रा भोग की अप्राप्ति से क्रोध और अंततः भोग के सकाम है इसी को श्रील प्रभुपाद अन्य तरीके से शब्द प्रयोग किए हैं। आवरण आत्मिका मतलब जिस तरह से यहां पर एक अलग दृष्टांत दिया है। इस को पूरी तरह से शरीर जल के अंदर जा चुका है एक आवरण माया क्या कहती है सबसे पहले पहचान को पूरी तरीके से छुपा देती है आपसे आपकी पूरी तरह से भूल चुके हैं कि कितने जन्मों से हम भटक रहे हैं। पहचान का किंचित मात्र भी हमें अनुभूति नहीं हो पा रही है और फिर होता है विक्षिप्त आत्मा उस मूल वृत्ति स्वभाव से विपरीत दिशा में हमें प्रोग्राम कर दिया जाता है इस तरह से इस वास्तविक महा या माया कहा गया है और इस मोह माया के अंतर्गत रहकर फिर क्या होता है आगे कहा गया है
*बद्ध – बहिर्मुख जीव पुण्य-पाप-कर्मचक्रे पडिया एखन |स्थूल-लिंग देहे सदा करेन भ्रमण ||* ३९।।
*कभ स्वर्गे उठे, कभ निरये पडिया। चौराशी लक्षयोनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया ||* ४०||
फिर इस संसार में यह जो चक्कर चल रहा है अपनी पहचान हम भूल चुके हैं गलत पहचान को स्वीकार किया है और अपना एक गलत परिवार और संसार बना कर बैठे हैं और फिर निरंतर भय बना रहता है। वस्तु का हमसे छूट ना जाए वह पुण्य पाप का चक्रों में पड़ जाता है। फिर अलग-अलग 8400000 लिंग का मतलब शरीर निरंतर भ्रमण करता रहता है कभी स्वर्ग में जाता है कभी नरक में जाता है 84 लाख योनियां। इसी को कवि राज गोस्वामी के शब्दों में कहा जाए तो कवि राज गोस्वामी क्या कहते हैं यह एक प्रसिद्ध वाक्य है आप सभी जानते हैं
*कृष्ण बहिर्मुख हइया भोग वॉछा करे | निकटस्थ माया तारे झापटिया धरे ||*
क्रम क्या है कृष्ण भक्त मुक्त श्रीकृष्ण विस्मरण होने पर इस संसार के भोग की इच्छा होती है हम आध्यात्मिक जगत से आए तब भी यही बात होती है और इस संसार में जबकि हम भक्ति कर रहे हैं तभी भी यही अनुभव होता है। प्रभु जी हम तो माया में पड़ गए माया में पढ़ते कब हैं पहली क्रिया होती है जब श्रीकृष्ण का विस्मरण पहली बात और इसका परिणाम दूसरा क्या होता है भोग वांछा और अगर यह दो हो तो फिर माया पकड़ लेती है जिस तरह से आपने एक उदाहरण सुना भी होगा कि गांव में इस तरह से होता है, हमने सुना है कि किसी व्यक्ति को सांप डस लेता है तो सांप डस ले, शरीर में जहर पहुंचा है यह कैसे पता चलेगा तो गांव में एक प्रक्रिया है कि जाती है कि हमने सुना है कि नीम के पत्ते जोकि बहुत कड़वे होते हैं नीम के पत्ते उसके मुंह में डाले जाते हैं खिलाया जाता है उसको नीम के पत्ते इतने कड़वे होते हैं कि आप खा नहीं सकते तो उस व्यक्ति के शरीर में विष फैल चुका है कि नहीं कैसे पता चलता है , कहते हैं कि नीम के पत्ते उसके मुंह में डाल देते हैं अगर नीम के पत्तों का उसे कड़वापन अनुभव होता है मतलब समझना चाहिए अभी विष का प्रभाव नहीं हुआ है परंतु यदि उसे नीम के पत्ते का मुख में डालने के बाद उसके कड़वे पन का एहसास नहीं होता है अर्थात समझ लो कि फिर जहर फैल चुका है। संसार जो है बहुत दुख में है विष् रूप या मल बमन है, परंतु संसार अच्छा लगना मतलब यह समझ लेना कि की वास्तविक माया का विष फ़ैल चुका है। वही यहां कहा गया है कि
*पिशाची पाइले जेन मति-छन्न हय | मायाग्रस्त जीवेर हय से भाव उदय ||*
यहां पर कृष्ण दास कवि राज गोस्वामी ने एक दूसरा पिशाची जैसे कोई भूत से ग्रसित हो जाता है कहते हैं मति छन हुए वह व्यक्ति अपने नॉर्मल बिहेवियर नहीं करता माया ग्रस्त, मान लीजिए व्यक्ति नॉर्मल चार रोटी खाता है अंदर भूत घुस जाता है तो 50 रोटी भी खा जाता है , उसकी क्रिया अलग हो जाती है उसकी आवाज भी बदल जाती है। वैसे ही यह माया रूपी पिशाचिनी पकड़ लेती है, बहुत ही विचित्र प्रकार का अब तो अपने स्वभाव अपने स्वरूप के विपरीत वहां क्रियाओं को करने लगता है आगे वे कहते हैं कि
*आमि सिद्ध कृष्ण दास, एइ कथा भुले । मायार नाफर हडया चिर दिन बले ।।*
कि हम श्रीकृष्ण दास के दास हैं यही हम भूल गए हैं इस बात को पूरी तरह से माया का नौकर होकर इस संसार में भटकता रहता है किस तरह से कभी राजा बनता है कभी प्रजा बनता है कभी ब्राह्मण बनता है कभी शुद्र बनता है कभी दुखी कभी सुखी कभी छोटा सा कीड़ा बन जाता है कभी स्वर्ग कभी भौतिक जगत और कभी पृथ्वी जगत में कभी नरक में जाता है। इस तरह से निरंतर भ्रमण करता रहता है। महाभारत में एक प्रसंग आता है जिसमें इस बात का वर्णन किया जाता है कि एक समय भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ घूम रहे थे अचानक अर्जुन ने क्या देखा एक छोटा सा कीड़ा था जो बहुत संघर्ष कर रहा था ऊपर चढ़ने के लिए , उसके उस कष्ट को देख कर अर्जुन के हृदय में दया का भाव उमड गया, कहा की प्रभु इस जीव के विषय में आप कुछ विचार कीजिए कि कैसे इसका उद्धार हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण वहां पर मुस्कुराने लगे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि यह छोटा सा जो कीड़ा है तुम्हारी जानकारी के लिए कम से कम 50 बार इंद्र बन चुका है आप समझ रहे हैं वाकई इस संसार में ऐसा कोई शरीर है नहीं ऐसा कोई भोग है नहीं जो आपने अनुभव किया नहीं है। इस तरह प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि पुनः पुनः इस तरह से यह रोग जो माया कृत शरीर पाइला यह जो भ्रमण कर रहे हैं यह हमारा भयंकर रोग है।
भगवान श्रीकृष्ण इस रोग का कैसे निवारण करते हैं वह आगे वर्णन किया गया है अभी यहीं तक विराम देंगे अब इसका कैसे उपाय आप अपना परीक्षण करके देख सकते हैं। यह चीजें हैं और जितना अधिक अनुपात में हम भगवान के भक्तों के संग में आ रहे हैं भगवान का नाम जप कर रहे हैं उतना मृत्यु का भय नहीं रह जाता परंतु हां पता है कि लोग जिस रूप में रहके भगवान श्रीकृष्ण, गुरु का, वैष्णव का संग हमें प्रदान करें सेवा करें तो क्रोध भी कुछ अनुपात में कम हुआ है जिस अनुपात में कम हो रहा है मतलब माया का प्रभाव कम हो रहा है जिस अनुपात में श्रीकृष्ण के साथ अपनापन लग रहा है उस अनुपात में हमारा माया के साथ अनुपात कम हो रहा है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
गौर प्रेमानन्दे !
हरि हरी बोल !
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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा- १७/०५/२०२२*
*परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज*
हरे कृष्ण
गौरांग
*श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत्य गदाधर श्रीवासादि गौर भक्त वृंद*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
श्री राधा गोविन्द देव की जय
हमने जो सुना उसको सुनाएंगे
भौतिक जगत में यदि कोई किसी के नाम को बार बार पुकारे तो वह कुछ मिनटों में ऊब जाता है किन्तु हरे कृष्ण को मंत्र को बिना थके जपा जा सकता है।
यह हरे कृष्ण मंत्र नित्य नविन है ऐसा प्रभुपाद भागवत के तात्पर्य में लिखे है अब और नहीं कहेंगे आप चिंतन करो मनन करो और समज जाओ प्रभुपाद के इस वचन को। भौतिक जगत के बाते से इंसान थक जाता है किन्तु *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* इसके कहने से और इच्छा जग जाती है यह मंत्र नित्य नविन जान पड़ता है। जप की संख्या बढ़ने की बात यहाँ प्रभुपाद कह रहे है तो आप वैसे याद रहिये।
यहाँ आने से पहले मै उज्जैन में था श्री अवन्तिपुर धाम की जय।
वहा हमने कुछ दिन बिताये। वहां हम व्यस्त थे। कथा , प्रह्लाद के उपदेश , कीर्तन मेले , जप यज्ञ वह भी होते रहे , महा अभिषेक हुआ , दीक्षा अनुष्ठान हुआ। किन्तु हरे कृष्ण महामंत्र को बिना थके हम जप रहे थे हम थक नहीं रहे थे। भगवान की आरती कर रहे थे राधा मदन मोहन की जय। प्रह्लाद नरसिम्हा की जय। हम थके नहीं उलटे अधिक अधिक कीर्तन।, कथा , अभिषेक और और करने की इच्छा जग रही थी इसीलिए यहाँ आये नॉएडा में तो आगे बढ़ा रहे है इसे । भारत वर्ष की जय।
मेरा भारत महान।
नॉएडा के रस्ते में जब हम अवन्तिपुर में थे तो कुछ तीर्थो की यात्रा की यहाँ की महिमा का श्रवण किया।
तीर्थ यात्रा से मुझे इस बात का साक्षात्कार हो रहा था की भारत सच मच महान है।
और फिर महान है भारत कहेंगे तो प्राचीन भारत ही महान है और अर्वाचीन भारत भारत बन गया इंडिया।
गर्व से कहो हम भारतीय है लेकिन हमें कोई गर्व नहीं है। अवन्तिपुर में कई सरे स्थल है हम कुछ नामिना देखा सुना तो विचार आया भारत महान है प्राचीन है।
अवन्तिपुर स्थान में हम पहुंचते है तो वह स्थान हमें पंहुचा देते है लाखो करोडो वर्ष पूर्व और महान घटना का स्मरण दिलाते है
४ स्थान में से एक स्थान है जहा समुद्र मंथन हुआ वहा कुछ अमृत की बून्द गिरी और वहा कुम्भ मेला लगता है वह स्थान है अवन्तिपुर।
कुम्भ मेले की हम बात करते है उज्जैन में कुम्भ मेला है मुझे उज्जैन में पदवी प्राप्त हुयी यह अर्वाचीन बात है।
भगवान् का दर्शन करने के लिए मै वह गया तो सभी ने कहा महंत आ रहे है तो मेरा फायदा हुआ।
१२ ज्योतिर्लिंग में से यह एक है।
उज्जैन में यह प्रसिद्ध है हमारे लिए तो *वैष्णवनाम यथा शम्भू* है।
प्रलय के समय वे तांडव करते है और तमोगुण को प्रेरित करते है सब विनाश करते है वे कल भैरव बनते है। विष्णु ही कृष्ण ही ऐसा करते है।
वे ही शंकराचार्य बने और मायावाद भाष्य उनको सुनना पड़ा।
इसी अवन्तिपुर में जन्म थे राजा इन्द्रदुम्न । वे भगवान में महँ भक्त थे। जगन्नाथ मंदिर की स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा राजा इन्द्रद्युम्न ने की।
अवन्तिपुर में एक ब्रह्माण्ड थे वे वैराग्य को प्राप्त हुए।
इस्कॉन में जब सन्यासियों को दीक्षा दी जाती है तो एक मंत्र दिया जाता है जो इसी ब्रह्माण्ड के द्वारा उच्चारित है जिसे हम रोज जपते है गायत्री का ध्यान करते है।
इस अवन्तिपुर धाम का माहात्म्य कहो यह कुम्भ नामक बुक में लिखा है। हम हरे कृष्ण भक्त जाते है कुम्भ में तो कीर्तन होता है
– *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
ब्रह्माण्ड के समाज में आया धन जो एकत्रित करने में कितने भय संकट का सामना करना पड़ता है सम्पाती के कारण १५ प्रकार की अवांछित बाते उत्पन्न होती है।
इच्छा न होनेपर भी यह प्राप्त होता है – चोरी, हिंसा, काम , क्रोध, घृणा , लड़ाई झगड़ा, स्त्री में अनुगति, जुआ , नशा इन समबा सम्बन्ध संपत्ति में है।
हम उस देश के वासी है जहा असंख्य नदी बहती है।
जल वहा तेजी से दौड़ती है इसके लिए उस नदी का नाम है शिप्रा।
वहा एक राम घाट भी है वहा सभी स्नान करते है। हम कल नरसिम्हा घाट पर पहुंच गए। नरसिम्हा भगवान् कई स्थानों में गए।
नरसिम्हा भगवान ने नरसिम्हा पल्ली में हाथ धोया।
कई सथानो पर नरसिम्हा भगवान गए है अवन्तिपुर का भी उन्होंने चयन किया।
हमने भी कल शिप्रा नदी में आचमन किया।
वहा पर एक कोटि तीर्थ कुंड है।
राम ने एक समय हनुमान को कथा जाओ सरे संसार के तीर्थो का जल ले आओ।
हनुमान सभी तीर्थो का जल लेट थे और सभी जल को उज्जैन में एक कुंड में रखते थे और फिर वहा सब जमा होने के बाद वे अयोध्या ले गए।
श्रील प्रभुपाद के जन्मोत्सव जब हम मना रहे थे तो हमें कोटि कोटि तो नहीं लेकिन १००० स्थानों का तीर्थ एकत्रित किया और उससे श्रील प्रभुपाद का अभिषेक हुआ।
अवन्तिपुर हमारे लिए श्रेष्ठ है महान है।
कृष्ण बलराम जब छोटे थे तो छोटी छोटी गैया छोटे छोटे ग्वाल में बिजी थे।
कृष्ण जब छोटे थे तो स्कूल नहीं भेजा जब वे ११ साल के हुए तो दोनों को स्कुल भेजा और वहा गुरुकुल था अवन्तिपुर में सांदीपनि मुनि के यहाँ।
हम भी कल वहा गए थे जहा कृष्ण बलराम पढ़ते थे।
वहा यह दर्शाया है कृष्ण बलराम हर रोज एक विद्या को सिखाते पढ़ते और उसमे पारंगत होते ऐसे विद्यार्थी थे वे।
वहा ६४ कला या विज्ञान का प्रदर्शन हमने वहा देखा। वहा नारायण गांव है जहा कृष्ण सुदामा के साथ ईंधन ढूंढने गए थे। हरी हरी
गुरु को प्रशन्न करने के लिए कृष्ण क्या क्या कर रहे थे वहा सेवा करते थे नम्र थे कृष्ण।
कृष्ण बलराम को प्रचार के लिए भेजा जाता था उन्हें भिक्षा के लये भेजा जाता था।
सभी जाते थे मधुकरी लेने लेकिन सबसे अधिक कृष्ण का ही होता था।
द्वार द्वार अवन्तिपुर में वे जाते थे।
कृष्ण सभी को दर्शन देते और सभी के चित्त को हर लेते वे लोग चाहते थे की कृष्ण ऐसे रुके रहे अधिक समय।
वे पत्नी से कहते थे चावल ले आओ, आलू ले आओ और कृष्ण को अधिक समय रुका के रखते थे।
बहुत अन्न एकत्रित करते थे कृष्ण इससे अन्न कूट बन जाता था।
कृष्ण के मित्र कृष्ण के पीछे पीछे जाते थे।
कृष्ण मित्र के साथ प्रचार के लिए जाते।
वहा पर हमने यह भी देखा – दक्षिणा का जब समय आया तो गुरु ने कहा मेरे मृत पुत्र को लौटा दो।
तो कृष्ण में वह पूरा किया।
सोमनाथ में वह जगह है। वहा कृष्ण गए। समुद्र में कृष्ण गए वहा वह नहीं मिला।
भगवान यमपुरी गए। कृष्ण बलराम जैसे पहुंचते है तो वहा शंख बजाया।
वह ध्वनि जब वहा नरक के निवासियों ने तो सभी चतुर्भुज रूप धारण करके भागवत धाम लौटे उसी समय यमराज आये और गुरु का पूर्ति दिए उसे लेकर कृष्ण बलराम अवन्तिपुर लौटे।
इस बात से गुरु और गुरु की पत्नी का क्या कहना।
गुरु ने आशीर्वाद दिया तुम्हारे मुख से जो भी वचन निकलेगा वह वेद वाणी होगा तुम जो भी कहोगे सत्य कहोगे सत्य के अलावा कुछ नहीं कहोगे।
ऐसा आशीर्वाद गुरु ने दिया।
अवन्तिपुर में कृष्ण बलराम की यह लीला हुयी।
हरी हरी
भारत सर्कार इस अवन्तिपुर का निर्माण कर रही है।
महाकाल महा मंदिर का छेत्र है यह।
यहाँ नव निर्माण होने वाला है वहा के अधिकारी के मदत से हम महाकाल का दर्शन किया।
नव निर्माण का कार्य वहा प्रारम्भ हुआ है।
भारत के प्रधान मंत्री प्रोहत्साहन देने वाले है औपचारिक पद्धति से।
बहुत अच्छी है यह सराहनीय है।
इस देश के राजा धर्म की रक्षा में योगदान दे रहे है।
ऐसा करेंगे तो अच्छे दिन आएंगे।
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*जप चर्चा*
*परम् पूजनीय श्री लोकनाथ महाराज द्वारा*
*दिनांक 14 मई 2022*
हरे कृष्ण!!
गौरांगा!!गौरांगा!!
*( जय) श्री कृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
इस जूम कॉन्फ्रेंस में, कम से कम मैं तो भक्तों के साथ जप करता हूं। इस कॉन्फ्रेंस में दस- बीस देशों से कम से कम हजार दो हजार की संख्या में भक्त जप करते हैं और तत्पश्चात लगभग इस समय अर्थात पौने सात बजे पर हम हल्का सा जपा टॉक करते हैं, जो कि अभी प्रारंभ हो रहा है। वैसे माफ करना, आपके जप को हमनें ऐसे बीच में रोक दिया। किसी कार्य को प्रारंभ करना तुलनात्मक दृष्टि से कुछ आसान हो सकता है। मेंटेनेंस की तुलना में क्रिएशन अर्थात निर्माण आसान माना जाता है। आप समझ रहे हैं? जप करना या जप प्रारंभ करना कठिन भी है और जैसा कि हम कह रहे हैं तुलनात्मक दृष्टि से यह आसान भी कहा जा सकता है। लेकिन एक बार हमने जप करना प्रारंभ किया है और फिर दीक्षा भी हो गई, हमनें संकल्प भी लिया। प्रतिदिन सोलह माला जप करो- ऐसा आदेश भी हुआ और हमनें स्वीकार भी कर लिया। अब हमें क्या करना है? न्यूनतम 16 माला का जप करते रहना है। कब तक करना है? वैसे प्रतिदिन करना है। यह जप प्रतिदिन करना है। कितने दिन? प्रतिदिन।
इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले…. गोविंद नाम लेकर… कब तक। आखरी सांस तक आप कहोगे या सुनने के उपरांत या भगवान का नाम लेकर ही हम शरीर को त्यागेंगे, तब तक हमें जप करना है। क्या यह उत्तर सही है? क्या हमें जप को रोकना है, जब शरीर रुक जाएगा। शरीर समाप्त हुआ, तो क्या जप को समाप्त करना है? हम ही समाप्त नहीं होंगे। जप करने वाला तो शरीर नहीं है। जप करने वाला कौन है? आत्मा?
*न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः | अजो नित्यः शाश्र्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||*
(श्रीमद भगवद्गीता २.२०)
अनुवाद:-
आत्मा के लिए न तो कभी जन्म होता है और न ही मृत्यु। वह अस्तित्व में नहीं आया है और अस्तित्व में नहीं आएगा। वह अजन्मा, शाश्वत, सदा विद्यमान और आदिम है। जब शरीर मारा जाता है तो वह नहीं मारा जाता है।
शरीर का तो अंत हुआ, हमारा अंत नहीं होता। वैसे मैं कभी-कभी सोचता हूं कि मैंने भी जीवन भर यह कीर्तन किया है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहना फिर उसका जप या कीर्तन करना। जब इस शरीर का अंत होगा तो वहां से आगे क्या मैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण नहीं कहूंगा? अचानक ब्रेक लगेगा? मैं जीवन भर जप करता रहा। कीर्तन करता रहा और शरीर का अंत हुआ। मेरा तो अंत नहीं हुआ और न ही होने वाला है तो क्या मेरा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहना जप या कीर्तन करना बंद होगा ? नहीं होना चाहिए। हम तो अगले जन्म में भी जप /कीर्तन करते रहेंगे। जप करते रहेंगे। हम भगवत धाम भी जाएंगे, वहां क्या करना है? वहां भी *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* इस प्रकार यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहना है या
*तद्वाग्विसर्गोजनताघविप्लवोयस्मिन्प्रतिप्रतिश्लोकमबधबत्यपि । नामनंतस्ययशोऽङ्कितानिय त्शृण्वन्ति गायन्ति गृणंति साधव:।।*
( श्रीमद्भागवतं १.५.११)
अनुवाद:-
दूसरी ओर, वह साहित्य जो असीमित परमेश्वर के नाम, प्रसिद्धि, रूप, लीलाओं आदि की दिव्य महिमाओं के वर्णन से भरा है, एक अलग रचना है, जो एक क्रांति लाने की दिशा में निर्देशित दिव्य शब्दों से भरा है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं।
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वन्दन यह भक्ति है और भक्ति करना तो जीव का धर्म है। जब तक जीव है, भक्ति करता रहेगा। जैसे हम साधक हैं, साधना की सिद्धि हुई, इसे मंत्र सिद्धि भी कहते हैं। मंत्र सिद्धि या परफेक्शन ऑफ द चैटिंग द होली नेम ऑफ द लॉर्ड। परफेक्शन को क्या कहोगे? एक दिन में हम जप/ कीर्तन करके परफेक्ट हो गए अब आगे हमें जप या कीर्तन करने की आवश्यकता नहीं? वैसे परफेक्शन तो यह होगा कि हम जप करते ही रहे, साधना करते रहे। जप की साधना कहो या कीर्तन की साधना कहो, श्रवण कीर्तन की साधना या नित्यम भागवत सेवा की साधना या कीर्तनीय सदा हरि की साधना। साधना से क्या होना चाहिए? हम निष्ठावान बनेंगे। निष्ठावान वह अवस्था है, वह स्तर है जहां से व्यक्ति फिर पीछे नहीं मुड़ता। नो यू टर्न या नो मोर आया राम, गया राम। राम आया भी और गया भी। कब गया पता भी नहीं चलता, अगले डोर से आ गया पीछे की डोर से एग्जिट हो गया। ऐसा नहीं होता है। नो मोर यू टर्न। जब हम निष्ठावान बनेंगे, केवल हमें निष्ठावान ही नहीं बनना है, हमें रुचि भी बढ़ानी है। श्रद्धा से प्रेम तक के जो सोपान है। हमें निष्ठा से भी आगे बढ़ना है या ऊपर चढ़ना है। अगर सोपान की बात है तो? फिर रुचि के स्तर पर पहुंचना है।
*नामे रुचि, जीवे दया, वैष्णव सेवा* रुचि से ऊपर और भी सोपान है। आसक्ति! हम आसक्त है।
*श्रीराधिका-माधवयोर्अपार- माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥*
अर्थ:-
श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
लोलुपता। लोलुपता अच्छी नहीं होती ना लेकिन किस में है ये लोलुपता! ये राधा माधव के नाम, रूप, गुण, लीला के श्रवण का आस्वादन करने में है। वे कब-कब आस्वादन करते हैं? प्रतिक्षण! प्रतिक्षणे आस्वादन लोलुपस्य। हमें आसक्त होना है, हम कैसे आसक्त हो सकते हैं। किसी ने श्रील प्रभुपाद से प्रश्न पूछा तो प्रभुपाद ने कहा कि जैसे एक शराबी होता है।लोग उनको शराबी इसीलिए भी कहते हैं क्योंकि जीना तो क्या जीना, शराब के बिना। वह शराबी है। हरि! हरि!
यहां लॉक डाउन के समय भी सब कुछ बंद था। मंदिर भी बंद थे लेकिन सरकार को शराब की दुकानें खोलने पड़ी क्योंकि कुछ लोग सोच रहे थे कि बिना शराब हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जब दुकानें खोली तो वहां भीड़ उमड़ आई। अहं पूर्वम् अहं पूर्वम्। जैसे कि कुंभ मेले में वे अमृत पान के लिए टूट पड़ रहे हो। अहं पूर्वम् अहं पूर्वम्। हम पहले, हम पहले। श्रील प्रभुपाद कह अथवा समझा रहे थे कि जैसे शराबी या ड्रंकड व्यक्ति जिसको शराब का चस्का लगता है। यह ओवरनाइट नहीं होता, वह एक दिन में या कुछ दिनों में शराबी नहीं बनता। शराब पीते पीते पीते पीते पीते पीते पीते एक दिन ऐसा समय आता है कि जीना तो क्या जीना इस शराब के बिना। हम भी इस हरि नाम में ऐसे आसक्त हो सकते हैं। पीते पीते, बस पीना है, उसमें आस्वादन है। हरि! हरि!
आसक्त भी होना है, भाव को भी जगाना है।
*नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥*
यह शिक्षाष्टकं का छठवां जो अष्टक है। यह भाव भक्ति की बात करता है।स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही… वन्डरिंग।
*कबे बोलो से-दिन अमर (अमर) अपराधा घुचि’, शुद्ध नाम रुचि, कृपा-बले हाबे हिदोय संस्कार।।*
अर्थ:-
हे कब, वह दिन मेरा कब होगा? आप मुझे अपना आशीर्वाद कब देंगे, मेरे सभी अपराधों को मिटा देंगे और पवित्र नाम के जप के लिए मेरे दिल को स्वाद [रुचि] देंगे?
मैं अपराध से मुक्त कब होऊँगा? नाम में रुचि कब होगी? इतनी रुचि कि उसका आस्वादन करते समय
*नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥*
अर्थ:-
हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्गद् वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा?
*महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन। रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥*
अर्थ:-
श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
रोमाञ्च- एक, कम्प- दो, अश्रु- तीन यह कब होगा ? यह भाव है। भाव से भी ऊंची एक स्थिति है, जो प्रेम की स्थिति है। जब इस प्रेम का आस्वादन करेंगे, हम भी प्रेमी बनेंगे।
‘यह कौन सा कीर्तन हो रहा है? ‘ राजा प्रताप रूद्र ने पूछा- जब रथ यात्रा में सम्मिलित होने के लिए बंगाल से, नवद्वीप से, शांतिपुर से, श्रीखंड से, पुलिन ग्राम से भक्त आ रहे थे और जगन्नाथ पुरी धाम में प्रवेश कर रहे थे। (जगन्नाथ पुरी धाम की जय!) उस समय राजा प्रताप रूद्र अपने महल की छत पर चढ़े थे और वहीं से कीर्तन को देख और सुन भी रहे थे। ( मेरे विचार से) उनके साथ सार्वभौम भट्टाचार्य थे। राजा ने पूछा कि मैंने तो पहले और भी कीर्तन सुने थे, वही महामंत्र *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
वही वाद्य
*’तथाई तथाई’ बजालो खोल,घाना घाना ताहे झजेरा रोल, प्रेमे ढाला सोनारा अंग, कैराने नुपुरा बाजे*
अर्थ:-
और मृदंग बजाया और झांझ समय पर बजते रहे। भगवान गौरांग की झिलमिलाती सुनहरी विशेषताएँ नाच उठीं और उनके पैरों की घंटियाँ बज उठीं।
किंतु यह जो कीर्तन है, जिसको मैं अभी सुन रहा हूं। यह मेरे चित को आकृष्ट कर रहा है। मेरे ह्रदय प्रांगण में कुछ खलबली मचा रहा है। यह कैसा कीर्तन है?
इसके विषय में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा और पूछा था।
*किबा मंत्र दिला, गोसाइं, किबा तारा बाला जपिते जपिते मंत्र करिला पगला*
अनुवाद:-
“मेरे प्रिय स्वामी, आपने मुझे किस प्रकार का मंत्र दिया है? मैं केवल इस महा-मंत्र के जाप से पागल हो गया हूँ!
कैसा मंत्र है, जब से मैं इस मंत्र का कीर्तन सुन रहा हूं, इस मन्त्र ने मुझे या इस मंत्र में जो बल,शक्ति है।
*नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥2॥*
अर्थ:-
हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। मुझे तो पागल बना दिया है।
वहां राजा प्रताप रुद्र भी कुछ अनुभव कर रहे थे। उन्होंने कीर्तन सुना, उन्होंने पहली बार इस तरह का कीर्तन सुना था। यह कुछ भिन्न लग रहा था, कुछ भिन्न था। उन्होंने पूछा यह कौन सा कीर्तन है, जवाब में उनको बताया गया कि यह प्रेम कीर्तन है। इस कीर्तन का नाम प्रेम कीर्तन है, श्रद्धा से प्रेम तक। प्रेम कीर्तनं
*गोलोकेरा प्रेम-धन, हरि-नाम-संकीर्तन, रति न जन्ममिलो केने ते संसार-बिशानेले, दीक्षा-निसि हिया न कोनू , उपाय।*
( वैष्णव भजन- हरि हरि विफले )
अर्थ:-
गोलोक वृंदावन में दिव्य प्रेम का खजाना भगवान हरि के पवित्र नामों के सामूहिक जप के रूप में उतरा है। उस नामजप के प्रति मेरा आकर्षण कभी क्यों नहीं आया ? दिन-रात मेरा हृदय
सांसारिकता के विष की आग से जलता रहता है और मैंने इसे दूर करने का कोई उपाय नहीं किया है।
हरि हरि!!
हमारा लक्ष्य भी प्रेम कीर्तन करना है। जब हम प्रेम कीर्तन कर पाएंगे, तो ही हम भगवत धाम लौट सकते हैं।
एंट्रेंस पर हमारा कुछ स्क्रीनिंग होगा, कुछ परीक्षण होगा।
जैसे श्रीवास आंगन अर्थात श्रीवास ठाकुर बाड़ी में यह संकीर्तन प्रारंभ हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पंचतत्व और कुछ शुद्ध भक्तों के साथ में कीर्तन करना प्रारंभ किया। शुरुआत में रात भर कीर्तन और नृत्य होता था, उस कीर्तन में केवल शुद्ध भक्तों को ही आने की अनुमति थी। केवल 100% शुद्ध भक्त को अनुमति थी। एक दो बार, वैसे जो इतने अधिक शुद्ध नहीं थे, वे भी प्रवेश कर लिए लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने डिटेक्ट कर लिया कि कोई गलत अथवा अशुद्ध व्यक्ति अथवा अपराधी व्यक्ति का इसमें प्रवेश किया है। उस दिन, उस समय चैतन्य महाप्रभु में वह भाव प्रकट नहीं हो रहे थे, कुछ तो गड़बड़ी है।
तब उन अशुद्व व्यक्तियों को बाहर निष्कासित किया गया था। एक बार शायद श्रीवास ठाकुर की सास( मदर इन लॉ) को भी बाहर किया था और एक समय ब्रह्मचारी जो दावा कर रहा था कि मैं इतना तपस्वी हूं, मैं केवल दुग्ध पान करता हूं, मेरी इतनी महिमा है लेकिन उसको भी बाहर किया गया। ऐसे यह भी कहने का प्रयत्न हो रहा है कि भगवत धाम में प्रवेश जो 100% शुद्ध व्यक्ति है, वही कर सकता है। इसलिए भक्ति विनोद ठाकुर भी कहते हैं कि
*अपराध शून्ये होइया, लहो कृष्ण नाम।* आप अपराध कर सकते हो आपको अपराध करने की अनुमति है लेकिन कितने अपराध कर सकते हैं? जीरो अपराध कर सकते हैं। कEल ही एक भक्त ने पूछा कि जब हम एक ही आयु के सम वयस्क भक्त एकत्रित होते हैं तो थोड़ा प्रजल्प करते रहते हैं।महाराज! क्या यह ठीक है? ज्यादा नहीं, थोड़ा थोड़ा प्रजल्प करते हैं। आप क्या कहोगे? इसके उत्तर में क्या कहोगे? मैंने भी कल इसका उत्तर दिया ही था। वैसे मैंने कल भक्तों से पूछा था। आपकी क्या राय है? वही आपसे पूछ रहा हूं। आप क्या सोचते हो, थोड़ा थोड़ा प्रजल्प हो जाए। क्या यह ठीक है? ओके है कहने वाले अपने हाथों को ऊपर करें? मतलब मैंने भी यही कहा था कि नहीं, परमिशन अर्थात अनुमति नहीं है।
( कुछ हमारे यहां ज़ूम पर कुछ प्रतिभागी भी हाथ ऊपर कर रहे हैं। श्रीमती राधिका दिल्ली, श्री चैतन्य पदयात्रा से और भी कुछ भक्त हाथ ऊपर कर रहे हैं। आप हाथ ऊपर कर रहे हैं, इसका मतलब क्या है?? तुम क्या फेवर में हो? प्रजल्प करना चाहिए? आप हाथ ऊपर क्यों उठा रहे हैं?)
*अत्याहार: प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रह: । जनसङ्गश्च लौल्यं च षड्भिरभक्ति विनश्यति।।*
( उपदेशामृत श्लोक संख्या 2)
अनुवाद:-
जब वह निम्नलिखित छह गतिविधियों में बहुत अधिक उलझ जाता है तो उसकी भक्ति सेवा खराब हो जाती है: (1) आवश्यकता से अधिक खाना या आवश्यकता से अधिक धन एकत्र करना; (2) सांसारिक चीजों के लिए अति-प्रयास करना जो प्राप्त करना बहुत मुश्किल है; (3) सांसारिक विषयों पर अनावश्यक रूप से बात करना; (4) धर्मग्रंथों के नियमों और विनियमों का केवल उनका पालन करने के लिए अभ्यास करना और आध्यात्मिक उन्नति के लिए नहीं, या शास्त्रों के नियमों और विनियमों को अस्वीकार करना और स्वतंत्र रूप से या सनकी रूप से काम करना; (5) सांसारिक मन वाले व्यक्तियों के साथ जुड़ना जो कृष्ण भावनामृत में रुचि नहीं रखते हैं; और (6) सांसारिक उपलब्धियों का लालची होना।
षडभिः, षड मतलब छः, भि: मतलब इन छः से,
इस उपदेशामृत में यह जो 6 बातें कही गयी हैं, यह स्वयं रूप गोस्वामी प्रभुपाद द्वारा कही गयी है । वे उपदेश का अमृत सुना रहे हैं। उसमें कहा है- साधु। साधु सावधान। हे जप करने वाले साधकों या जप करने वाले भक्तों! सावधान! यह नहीं कर सकते, यह निषिद्ध है। इसका तात्पर्य भी आपको पढ़ना होगा। प्रभुपाद समझाते हैं कि अत्याहार क्या होता है, तत्पश्चात प्रजल्प विशेष रुप से प्रजल्प जनसंगश्च
*असत-संग-त्याग, – ए वैष्णव-आचार ‘स्त्री-संगी’ – एक आसाधु, ‘कृष्णभक्त’ आरा।।*
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.87)
अनुवाद:-
“वैष्णव को हमेशा सामान्य लोगों की संगति से बचना चाहिए। आम लोग भौतिक रूप से बहुत अधिक जुड़े होते हैं, खासकर महिलाओं से। वैष्णवों को भी उन लोगों की संगति से बचना चाहिए जो भगवान कृष्ण के भक्त नहीं हैं।
असत संग को त्यागना ही वैष्णवों का आचरण होता है। प्रजल्प अर्थात गॉसिप, रुमौर अर्थात अफवाहें इसी को ग्राम कथा कहते हैं। एक कथा होती है कृष्ण कथा और दूसरी होती है ग्राम कथा। शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं- श्रवण कीर्तन आदि, ऐसे हजारों टॉपिक ग्राम कथा के अंतर्गत या प्रजल्प के अंतर्गत या गॉसिप के अंतर्गत आते हैं, इसको टालना है। नहीं टालोगे तो विनश्यति। भक्ति का विनाश होगा।
हमने प्रारंभ में कहा भी था कि तुलनात्मक दृष्टि से किसी कार्य को प्रारंभ करना थोड़ा सा आसान हो सकता है किंतु उसको मेंटेन करते रहना है या मेंटेन करना है।श्रील प्रभुपाद ने भक्तों/ शिष्यों व अपने अनुयायियों को कहा कि मैंने जो भी बनाया अथवा क्रिएट किया है, उसे मेंटेन करो। ऐसा होमवर्क हम शिष्यों को प्रभुपाद के समय मिला। (हम सभी प्रभुपाद के शिष्य ही हुआ करते थे। आप नहीं थे? अगर आप होते तो आप भी प्रभुपाद के शिष्य बन जाते।) हम शिष्य को फिर यह होमवर्क है। अब आप आ ही गए, आपका स्वागत है। मेंटेनेंस, हर चीज का मेंटेनेंस होना चाहिए। टेंपल मेंटेनेंस, साधना मेंटेनेंस, जपा मेंटेनेंस। मेंटेनेंस या मेंटेनेंस का पोर्टफोलियो विष्णु ने अपने पास रखा है।
ब्रह्मा जो रजोगुण के इंचार्ज हैं, वह क्रिएशन को संभालते हैं। क्रिएशन तो हुआ, किंतु हमने कुछ नेगलेक्ट अथवा इग्नोर किया है। कई सारी बातों को हम टालते रहे या पोस्टपोन करते रहे हैं। ऐसा करेंगे तो हम .. ये इग्नोरेंस हो गया। हम तमोगुण के क्षेत्र में आ गए। रजोगुण से हमनें शुरुआत की। वैसे भक्ति का कार्य रजोगुण से नहीं होता है। वह गुणातीत है। तो भी… ( चेंज द टॉपिक अभी नहीं) कहा जाए कि रजोगुण से हमने शुरुआत की सतोगुण नहीं है। सतोगुण की बजाय, तमोगुण ने जीवन में प्रवेश किया। हम तमोगुणी बने। तमोगुण के इंचार्ज कौन हैं? शिवजी हैं, उनसे प्रेरणा लेकर हम इग्नोर करते रहे। जो निषिद्ध बातें हैं, उनको करते रहे। क्या होता है?
क्रिएशन हुआ था, उसको मेंटेन करने की बजाय अथवा मेन्टेन्स से पहले ही क्या हो जाएगा। डिस्ट्रक्शन, मे बी डेली बेसिस कुछ डिस्ट्रक्शन हो सकता है। डिस्ट्रक्शन! डिस्ट्रक्शन!( विनाश! विनाश) महाविनाश (ग्रैंड टोटल महा डिस्ट्रक्शन) हो सकता है अर्थात क्या हो सकता है? पुन: मुषिक भवः। पुनः चूहा बनो। आए थे तुम राम गए … आया राम गया राम। यह दुर्लभ मानव..
*भजहु रे मन श्री- नंदन अभय-करनरविंदा रे दुर्लभ मानव-जनमा सत-संगे तारोहो ए भव-सिंधु रे*
( वैष्णव भजन)
अर्थ:-
(1) हे मन, बस नन्दपुत्र के चरणकमलों की पूजा करो, जो मनुष्य को निर्भय बनाते हैं। इस
दुर्लभ मानव जन्म को प्राप्त करके संतों की संगति से इस सांसारिक अस्तित्व के सागर को पार करें।
सत्संग जो प्राप्त हुआ था, उस सत्संग अथवा साधु संग से सर्वसिद्धि होना थी, सिद्धि को प्राप्त करना था। यह नहीं होगा, वी लूज एवरीथिंग। भक्तों के संग को हम खो बैठेंगे। फिर राम राम की बजाय मरा मरा करेंगे, फिर मरते रहो। पुनर मुशिक भवः। हरि! हरि! ओके! बेसिकली यह कहा जा रहा है, रिमाइंडर दिया जा रहा है कि हमें भक्ति को मेंटेन करना है। अपनी साधना को मेंटेन करना है और हम अपने जप की बात करते ही रहते हैं। जपा सेशन, जपा कॉन्फ्रेंस ही है। इसके अंतर्गत जो जपा टॉक होता है। कैसे जप को मेंटेन करना है डोंट डिस्ट्रॉय, मेंटेन। उसका विनाश नहीं करना है। उसका विकास करना है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण,
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम,
राम राम हरे हरे।।
हम आप सब की सफलता की प्रार्थना करते हैं। आप सब को यह मेंटेनेंस प्रोजेक्ट अथवा इस संकल्प में आप यशस्वी हो। वैसे भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा हैं- परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनं।
संकीर्तन आंदोलन की जय!
संकीर्तन भक्तों की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
भक्ति चारू स्वामी महाराज की जय!
भक्ति चारु महाराज ने श्रील प्रभुपाद की ओर से, परंपरा की ओर से भी जो दिया है, उसको मेंटेन करो। हम भी कुछ दे रहे हैं। उसी का हम कुछ रिमाइंडर तो दे ही रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा-१३/०५/२०२२*
*परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज*
रुक्मिणी मैया की जय
आज रुक्मिणी द्वादशी महोत्सव है। आज के द्वादशी को रुक्मिणी द्वादशी कहते है। चतुर्दशी को केवल चतुर्दशी नहीं कहते इसी प्रकार कई तिथियों में भगवान् का प्राकट्य जुड़ा है जैसे विजय दशमी। कृष्ण जन्मे अष्टमी को तो कृष्ण जन्माष्टमी , राम जन्मे नवमी को तो राम नवमी। ये अलग अलग नाम प्रसिद्ध है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
का जप करने वाले हम जापक है जप करने वाला जापक कहलाता है। हरे कृष्ण के जप में हम कृष्ण को सम्बोधित करते है कृष्ण अवतारी है कृष्ण के जितने अवतार है उसमे हम कृष्ण को सम्बोधित करते है। हरे है राधा हरे केवल राधा नहीं है।
*नानावतारं अकरोद्भुवनेषु किंतु*
भगवान् के नाना अवतार है। यह नाना नानी वाला नहीं है हा। राधा भी अवतार लेती है राधा का भी विस्तार होता है। गोपिया भी राधा का विस्तार है। एक तो गोपियों से श्रेष्ट है राधा। गगोपिया प्रेष्ठा है राधा परम प्रेष्ठा है। चन्द्रावली और राधा एक ही है तत्त्व की दृष्टि से सिद्धांत की दृष्टि से। वृन्दावन की गोपिया कात्यायनी की आराधना कर रही थी एक मास में हेमंत ऋतु में मार्गशीष महीने में। कात्यायनी को वे प्रार्थना कर रही थी – *नन्द गोप सुतं देवी पतिम में कुरुते नमः* वे प्रार्थना कर रही थी नन्द के पुत्र को हमारे पति बना दो। १६१०८ गोपिया द्वारका में कृष्ण की रनिया बनती है। १६१०८ में २ पट रानी है या प्रमुख रानी है और वह है सत्यभामा और रुक्मणि।
चन्द्रावली बनती है रुक्मिणी और राधा बनाते है सत्यभामा। रुक्मिणी के रूप में आज के दिन उसने जन्म लिया कुण्डिन पुर में।
विदर्भ में है यह कुण्डिनपुर। नागपुर से कुछ १००-१५० किलोमीटर दूर है यह। यहाँ आज के दिन भीष्मक नंदिनी बानी यह राज भीष्मक की पुत्री। चन्द्रावली के पिताश्री का नाम है चन्द्रक।
जब वह रुक्मिणी बनती यही तो उनके पिता बनाते है भीष्मक। जब वह छोटी थी तो कृष्ण की कथा या द्वारका धीश की कथा सुनाने का अवसर मिला। द्वारकाधीश की कथा सुन सुन कर प्रेम उतपन्न हुआ। हम जब सुनते है कृष्ण के सम्बन्ध में नाम, रूप , गुण लीला के सम्बन्ध में तो हम आसक्त होता है । हम भगवान् को भूल बैठते है हम च्युत है हमारा पतन होता है तो हम भूल जाते है ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते है किन्तु रुक्मिणी की बात ऐसी नहीं है रुक्मिणी भ्रम में नहीं थी जब उसने कथा सुनी तो उसको कृष्ण का स्मरण हुआ ऐसा दर्शाया है लीला में रुक्मिणी ने कृष्ण की लीलाये सुनी द्वारका से आये कई ऋषि से। ऋषि मुनि आते है तो क्या करते है ? उत्सव में लीला कथाये सुनते है चर्चा होती है।
ऋषि मुनि जब कथा सुनते तो बाल रुक्मिणी कथा को सुना कराती थी सुन सुन कर उसका चित्त आकृष्ट हुआ। पत्र में लिखा है रुक्मिणी ने सब। विवाह का समय जब आया विवाह योग्य जब बनी यह सब आपको नहीं कहेंगे ८ बजे कथा में सब कहेंगे। पत्र भेज दिया जब कृष्ण पढ़े तो रथ में आये तूफान की तरफ एक ट्रैन का नाम भी है तूफान। प्रातःकाल कुण्डिनपुर पहुंच गए। कृष्ण आगे थे उन्होंने किया अपहरण रुक्मिणी का और फिर द्वारका के लिए प्रस्थान किया शुभमंगल सावधान हुआ विवाह सम्पन्न हुआ रुक्मिणी बन गयी रानी द्वारकाधीश की। रुक्मिणी सभी रानियों में श्रेष्ठ थी। चन्द्रावली बनती है रुक्मिणी। रुक्मिणी मतलब सोना।
रुक्मिणी के अंग का रंग स्वर्ण रंग का है। रुक्मिणी गौरांगी है। विदर्भ में जन्म हुआ तो यह हो जाती है वैदर्भी ऐसे असंख्य नाम है। श्री श्री विट्ठल रखुमाई की जय। कुण्डिन पुर में है कुछ समय था आपकी जानकारी के लिए कुन्डीरपुर में भी ISKCON है। यह भी धाम है अवन्तिपुर धाम। कुण्डिनपुर भी धाम है यहाँ भी कृष्ण बलराम आये थे वहा जो कृष्ण ने अपहरण किया तो वहा सब असुर आये थे शिशुपाल, रुक्मी।
रुक्मी का संकलप था मेरी बहन का विवाह होगा तो शिशुपाल के साथ।
कृष्ण वहा आये और रुक्मिणी को ले गए। रुक्मिणी और किसी की हो ही नहीं सकती।
कुण्डिनपुर में जहा अपहरण हुआ वही पर हमारा ISKCON है। रुक्मिणी ने पत्र में लिखा था मै अम्बिका मंदिर से लौटूंगी तो बिच में आप मेरा अपहरण करना वही स्थान पर आज हमारा ISKCON है। हमारे प्रॉपर्टी में शुरुवात में जब हमने प्राप्त की तो वहा ५ कदम्ब के वृक्ष थे यह और कही नहीं है हमारे भक्तो का दवा यह है कृष्ण जब आये थे तो कदम्ब के माला पहन के आये थे और कुछ फूल गिरे तो उसी से यह वृक्ष है वहा।
आज तो वहा कई सारे कदम्ब के वृक्ष है। रुक्मिणी द्वारकाधी पंढरपुर गए और वहा रह गए ५००० वर्ष पूर्व की बात है। एक समय रुक्मिणी रूठ गई। उस रुक्मिणी को खोजते हुए द्वारकाधीश पहुंच गए पंढरपुर। महाराष्ट्र ने जन्म लिया था इसीलिए माइका में गई रुक्मिणी। वहा पुंडलिक नाम के भक्त ने कहा आप यही रह जाओ। पुंडलिक नाम के भक्त को विशेष वरदान देने आये रुक्मिणी और द्वारकाधीश। पुंडलिक ने कहा भविष्य में यहाँ कई सारे लोग आएंगे आपके दर्शन के लिए। तब से द्वारकाधीश और रुक्मिणी पंढरपुर में विराजमान है।
विट्ठल रुख्मिणी पंढरपुर के है। हरी हरी
रुक्मिणी मैया की जय
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हरे कृष्ण
*जप चर्चा*
*दिनांक-11 -05 -2022*
(अनंत शेष प्रभु द्वारा )
हरे कृष्ण !
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥*
*वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च। श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥*
*साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं।श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश्च।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धु दीनबंधु जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते।।*
*तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसते देवि प्रणमामि हरिप्रिये॥*
*वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
*जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥*
सर्वप्रथम गुरु महाराज तथा सभी भक्तों के श्री चरणों में सादर दंडवत प्रणाम तो हरिनाम चिंतामणि के अंतर्गत हम लोगों ने प्रथम अध्याय प्रारंभ किया था तत्पश्चात यहां चैतन्य महाप्रभु ने सिद्ध बकुल में हरिदास ठाकुर से जीवों के उद्धार के विषय में पूछते हैं और वहां पर हरिदास ठाकुर ने जो उत्तर प्रारंभ किया उसी को आगे आज हम करेंगे श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित मंगलाचरण से हम इसकी शुरुआत करेंगे।
*गदाइ गौरांग जय जान्हवा-जीवन। सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तगण ||१||*
हरिनाम चिंतामणि
गदाई गौरांग जहँवा जीवन सीता अद्वैतआचार्य एवं श्रीवास ठाकुर आदि भक्तगण श्री गदाधर पंडित चैतन्य महाप्रभु की जय हो ! इस प्रथम अध्याय के अंतर्गत श्री चैतन्य महाप्रभु का प्रश्न था
*एक दिन भगवान्, समुद्रे करिया स्नान, श्री सिद्ध-बकले हरिदासे | मिलि’आनन्दित मने, जिज्ञासिला सयतने, किसे जीव तरे अनायासे ||६||* हरिनाम् चिंतामणि
किसे जीव तरे अनायासे किस प्रकार से जीव को तारा जाए तो अब इस प्रश्न के उत्तर में श्री हरिदास ठाकुर ने अपने दैन्य का प्रकाशन किया और फिर कृष्ण तत्व को समझाना प्रारंभ किया यह थोड़ा सा हमने पढ़ा था इसमें श्री हरिदास ठाकुर और चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रभुपाद के जो भाव हैं उसको समझने का प्रयास करेंगे, सर्वप्रथम यहां प्रश्न है कैसे जीवों का उद्धार हो ? हरिदास ठाकुर ने इसका उत्तर प्रकाशन किया है कुछ तत्व को समझाते हुए (कृष्ण तत्व को समझाते हुए) किस तरह से कृष्ण परम स्वतंत्र हैं और कृष्ण की असंख्य शक्तियां हैं जिन शक्तियों को विभाजित किया गया है 3 में
*एक मात्र इच्छामय कृष्ण सर्वेश्वर । नित्य शक्तियोगे कृष्ण विभु परत्पर ||* १२||
*कृष्ण-कृष्णशक्ति कृष्णशक्ति कृष्ण हइते राग सुँन्दर । जेइ शक्ति, सेइ कृष्ण-वार गोचर ||* १६||
*कृष्ण विभु, शक्ति-तार अनन्त वैभवे कृष्ण हय*
हरिनाम चिंतामणि
तो सर्वप्रथम हमने चित्त के विषय में जो चर्चा की उसी को हम आगे पुनः समझने का प्रयास करेंगे।
*चिद वैभव – अनन्त वैकुण्ठ आदि यत कृष्णधाम | गोविन्द श्रीकृष्ण हरि आदि यत् नाम ||* १७||
*द्विभुज-मुरलीधर आदि यत रूप | भक्तानन्दप्रद आदि गुण अपरूप ||* १८||
*व्रजे रासलीला, नवद्वीपे संकीर्तन। एड्रूपे कृष्णलीला विचित्र गणन ||* १९||
*ए समस्त चिद् वैभव अप्राकृत हय । आसिया ओ ए प्रपंचे प्रापंचिक नय ||* २०||
हरिनाम चिंतामणि
तो यहां पर धाम, नाम, रूप, गुण, लीला हाईलाइट किया हुआ है यदि आप यहां पर देखेंगे इसको पूरा हम समझ सकते हैं तो प्रथम पंक्ति में धाम के विषय में, दूसरे में नाम के विषय में, तीसरी पंक्ति में रूप के विषय में, चौथी पंक्ति में उनके गुण के विषय में और पांचवी में लीला और अंत में कहा गया है यहां पर यह सब कुछ जितना भी है श्री कृष्ण का धाम नाम रूप और गुण लीला यह सभी अप्राकृतिक वैभव है। भले ही इस प्रापंचिक में भौतिक जगत में हो किंतु यह कभी भी इस भौतिक जगत में नहीं रहते इसी को आगे कहते हैं।
*चिद् वैभव चिद् व्यापार समुदय विष्णू-तत्व-सार। विष्णुपद बलि’ वेदे गाय बार बार ||* २१||
हरिनाम् चिंतामणि
यह जो चित् यह जो आध्यात्मिक समूह है इसी को विष्णु तत्व कहा जाता है और वेदों के द्वारा विष्णुपाद यह शब्द भी कहा गया है। तो कई बार हम यह सुनते हैं परम पद प्राप्त हुआ, विष्णुपद प्राप्त हुआ, परम पद का मतलब यह नाम रूप गुण लीला यह सभी विष्णुपद के अंतर्गत आते हैं। आगे हरिदास ठाकुर कह रहे हैं श्रीकृष्ण की चिद् विभूति ही शुद्ध विष्णु तत्व है और शुद्धसत्व में स्थित है।
*नहि ताहे जड धर्म मायार विकार || जडातीत विष्णुतत्व शुद्धसत्व सार ||* २२।।
*शुद्धसत्व रजस्तमो गन्ध विरहित ।। रजस्तमोमिश्र मिश्रसत्व सुविदित ||* २३|| हरिनाम् चिंतामणि
जड़ धर्म मतलब भौतिक प्राकृतिक जो जगत है, जो दुख आलयम है, अशास्वतं है, यह सभी दोष तीनों गुणो, यह नाम रूप लीला गुण में नहीं आते हैं इसीलिए उनको विशुद्ध सत्व कहा गया है क्योंकि इसमें रजोगुण और तमोगुण का गंध नहीं रहता। रजोगुण और तमोगुण का जब मिक्स हो जाता है तो उसको मिश्रित तत्व कहते हैं यहां तक कि हम चर्चा सुन चुके हैं यहां पर अंतिम जो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर का तात्पर्य था जो आप पीले रंग में हाईलाइट किए हुए देख रहे हैं
*गोलोके, वैकुंठे आर कारण सागरे।अथवा ए जडे थाके, विष्णु नाम धरे* *२६||
*प्रवेशि ए जड विश्वे मायार अधीश।। विष्णुनामे प्राप्त विभु सर्वदेव-ईश ||* २७ ।।
*मायार ईश्वर मायी शुद्धसत्वमय । एइ प्रापंचिक जगते चिद् वैभव अवतीर्ण हइयाओ प्रापंचिक हथ ला।।*
*चिद् वैभवेइ थाळे । इहा अचिन्त्य शक्तिर परिचय, चिद् शुद्ध सत्व ।।*
*मिश्रसत्व मिश्रसत्व ब्रम्हा शिव आदि सब हय ||* २८||
हरिनाम् चिंतामणि
प्रापंचिक जगत में यह जो चित् चिन्मय है आध्यात्मिक जगत में अवतीर्ण होता है। प्रापंचिका अर्थात भौतिक नहीं है यह उनका चिन्मय स्वभाव है वह सदैव बना रहता है। यह अचिंत्य शक्ति जो भगवान की है उसका परिचय हरिदास ठाकुर यहां पर दे रहे हैं। श्री चैतन्य शिक्षा अष्टकम में जो 8 श्लोक हैं उसकी व्याख्या जो है श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा की गई है भिन्न भिन्न स्थानों पर संबोधन है। वहां पर भी एक विशेष बात को बताया गया है, अधिकांश भक्तों का अनुभव है कि हम बहुत कुछ नाम जप करते हैं और बहुत अधिक नाम के विषय में सुनते भी हैं कितने भक्त कहते हैं कि नाम जप की महिमा को कहा जाता है अनुभव यह है कि व्यावहारिक कितना भी आप नाम विषय के बारे में सुन ले, जब नाम जप करते हैं तो उस समय नाम जप में मन को स्थिर करना बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि जिस प्रकार से किसी भी इमारत की शुरुआत होती है, जब तक नींव मजबूत ना हो तब तक कितना भी प्रयास क्यों ना किया जाए। इमारत खड़ी नहीं हो सकती वैसे ही नाम ग्रहण जो यह विचार किया जा रहा है जो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा हरिनाम चिंतामणि में, नाम ग्रहण करने की नींव ही गलत हो तो प्रयास कितना भी किया जाए, कितने भी सिद्धांतों की चर्चा की जाए किंतु नाम में मन स्थिर नहीं होता। तो कौन सा सबसे प्रमुख नियम है शिक्षा अष्टम के प्रथम श्लोक की व्याख्या में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने इस बात को बतलाया है की नाम जप जब आप प्रारंभ करते हैं तो नाम जप आपका ठीक से कैसे होगा , जब आप इस सिद्धांत को भलीभांति समझ जाएं , नाम रूप गुण है यह भगवान का चिन्ह तत्व है, चिन्मय तत्व है इसी को यदि अन्य शब्दों में कहा जाए तो चिंतामणि में एक अन्य स्थान पर इस बात को बताया गया है नाम नामी एक तत्व है।
*जबे नाम रूपे ऐक्य हयत साधने । नाम लइते रूप आइसे चित्ते सर्वक्षणे ।।*
अर्थ – इस अभ्यास द्वारा जब व्यक्ति देखता है कि भगवान् कृष्ण नाम व रूप एकसमान हैं, प्रत्येक क्षण भगवान् कृष्ण का रूप व्यक्ति के हृदय में भगवान् के नाम में दृष्टिगोचर होता है।
हरिनाम् चिंतामणि
हम जानते हैं दिव्यता परंतु भगवान का नाम रूप गुण लीला यह भी दिव्य है और भगवान के समान ही भगवान के जैसे ही हैं। यह बात जब तक नहीं समझ में आएगी अर्थात सरल शब्दों में कहा जाए तो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं जब आप नाम जप करने बैठते हैं नाम जप की शुरुआत कैसे की जाए यह प्रश्न पूछते हैं, सदैव भक्त पूछते हैं हरि नाम चेक करते हैं। हम जब हरि नाम जप करते हैं तो कैसे जप किया जाए कि हमारा हरि नाम जप अच्छा हो, सबसे पहले यह धारणा को अच्छी तरह समझ कर स्वीकार करना कि भगवान का नाम और भगवान अभिन्न है। हम सदैव गुरु महाराज के मुख से श्रील प्रभुपाद जी के मुख से शब्दों में पुनः पुनः इस बात को सुनते रहते हैं नाम और नामी अभिन्न है। यहां पर श्रील हरिदास ठाकुर ने बहुत अधिक जोर दिया हम जब नाम जप करते हैं तब यह धारणा अच्छी तरह से कन्वेंस होनी चाहिए कि साक्षात भगवान यही है। आध्यात्मिक जगत से जैसे श्रील प्रभुपाद कहते हैं
*गोलोकेर प्रेम-धन, हरि-नाम-संकीर्तन, रतिनजन्ममिलोकेने तेसंसार-बिशानेले, दीबा-निसिहिया नकोइनु , उपय*
अर्थ – गोलोक वृंदावन में दिव्य प्रेम का खजाना भगवान हरि के पवित्र नामों के सामूहिक जप के रूप में उतरा है। उस नाम जप के प्रति मेरा आकर्षण कभी क्यों नहीं आया ? दिन-रात मेरा हृदय सांसारिकता के विष की आग से जलता रहताहै और मैंने इसे दूर करने का कोई उपाय नहीं किया है।
उसके अर्थ में श्रील प्रभुपाद कहते हैं स्वयं भगवान इस नाम के रूप में इस जगत में अवतरित हुए हैं।
*नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:| पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोसभिन्नत्वं नाम नामिनो:||*
अनुवाद- ‘कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंदमय है। यह सभी आध्यात्मिक आशीर्वाद प्रदान करता है, क्योंकि यह स्वयं कृष्ण हैं, सभी सुखों के भंडार हैं। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य मधुरों का रूप है। यह किसी भी परिस्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से कम शक्तिशाली नहीं है। चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से दूषित नहीं है, इसलिए इसके माया के साथ शामिल होने का कोई सवाल ही नहीं है। कृष्ण का नाम हमेशा मुक्त और आध्यात्मिक है; यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा वातानुकूलित नहीं होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृष्ण और कृष्ण के नाम स्वयं समान हैं।’
यह बात अच्छी तरह से समझ लीजिए जो नाम से जीभ से उच्चारित किया जाये वो साक्षात स्वयं श्रीकृष्ण हैं और साथ में 10 नाम अपराध छाड़ि निर्जन बसिया तो निर्जन का मतलब यह नहीं है कि आप एकांत में जाकर के बस जाएंगे । निर्जन का अर्थ वास्तविक भक्तगण हैं अर्थात भगवत भक्त उनके साथ, एक तात्पर्य में बताया जा रहा है 10 अपराधों को छोड़कर एकांत स्थान , एकांत का अर्थ होता है एक जहां पर हो सभी का एक ही धेय बन जाता है ऐसे सम विचार वाले जो भक्त हैं उन सब के साथ बैठकर जब नाम जप किया जाता है। तो परिणाम क्या होगा यदि आप इस बात को अच्छी तरह से समझ लेंगे कि नाम और नामी एक ही है। नाम साक्षात भगवान है इस धारणा के साथ जैसे ही आप नाम जप प्रारंभ करेंगे अपराधो को छोड़ते हुए, उसका परिणाम क्या होगा। आगे कहते हैं हरिदास ठाकुर
*अति अल्पदिने नाम लइया सदय । श्री श्यामसुन्दर रूपे हयेन उदय ||*
यहां पर अल्प दिन शब्द है (मुझे जहां तक स्मरण है शायद श्रीमान सच्चिदानंद प्रभु के मुख से यह सुना है कि भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा अल्प दिन कहा मतलब बहुत ही कम समय में) यदि आप सिद्धांत को पूरी तरह से समझ लेते हैं और नाम जप करते हुए सदैव ध्यान रखते हैं, श्रीकृष्ण हैं साक्षात श्रीकृष्ण हरे कृष्ण महामंत्र करते समय स्वयं भगवान है यह बात यदि हम समझ जाएं तो नाम बहुत बहुत प्रभावशाली होता है। नाम बहुत अधिक दयालु हो जाता है और क्या करता है नाम रूप को प्रकाशित करता है।
श्रीश्याम सुंदर रुपए उदय जैसे ही आप श्रीकृष्ण के नाम पर उच्चारण करेंगे वैसे ही श्रीकृष्ण का रूप भी इस प्रकार से जैसे श्री श्री राधा पंढरीनाथ या श्री श्री राधा श्यामसुंदर का दर्शन करते हैं परंतु जब कपाट बंद हो जाते हैं तब हम भगवान का दर्शन नहीं कर पाते परंतु नाम जप को इस तरह से लिया जाता है नाम और नामी अभिन्नत्वम को समझ कर तब नाम रूप को प्रकाशित करता है बहुत ही कम समय में और आगे क्या होगा कहते हैं।
*जबे नाम रूपे ऐक्य हयत साधने । नाम लइते रूप आइसे चित्ते सर्वक्षणे ।।* हरिनाम् चिंतामणि
अनुवाद- इस अभ्यास द्वारा जब व्यक्ति देखता है कि भगवान् कृष्ण नाम व रूप एकसमान हैं, तो प्रत्येक क्षण भगवान् कृष्ण का रूप व्यक्ति के हृदय में भगवान् के नाम में दृष्टिगोचर होता है।
मैंने कुछ कुछ उसका अनुवाद भी किया है, पयार का अभ्यास द्वारा जो व्यक्ति देखता है कि भगवान कृष्ण का नाम और रूप एक समान है तो प्रत्येक क्षण भगवान का रूप भगवान के नाम के साथ व्यक्ति के हृदय में दृष्टिगोचर होता है। यह हरिदास ठाकुर स्वयं अपना अनुभव बता रहे हैं हम आंखें बंद कर ले तो जैसे कृष्ण ने कहा तो क्या होता है तो साधारण तौर पर एक अंधकार बस दिखाई देता है, मैं आपसे कुछ नहीं कह रहा हूं आप सभी इस वक्त गुरु महाराज के सानिध्य में जप कर रहे हैं सर्वसाधारण अनुभव है कि नाम से रूप प्रकट नहीं होता क्योंकि मूल् जो धारणाएं हुई भी हैं वह हम अच्छी तरह से बैठा भी नहीं पाए कि नाम स्वयं भगवान हैं। उस तरह से यदि हम लेंगे तो सभी क्षण जैसे आपने राधा श्यामसुंदर कहा तो सहज स्वाभाविक राधा श्यामसुंदर का रूप प्रकट हो जाएगा, राधारमण कहा तो राधारमण का रूप प्रकाशित होगा, राधा माधव कहेंगे राधा माधव का रूप प्रकाशित होगा इस तरह से नाम जप करने से नाम से रूप प्रकाशित हो गया आगे क्या कहते हैं।
*तार किछु दिने रूपे गुण करि योग ।श्रीनाम-स्मरणे गुण करये सम्भोग ।। स्वल्पदिने नाम, रूप, गुण एक हय । नाम लैते सर्वक्षण तिनेर उदय ||*
हरिनाम् चिंतामणि
और कुछ दिन तक ऐसे ही नाम जप करें नाम जप के साथ आपको रूप दर्शन हो रहा है रूप का प्रभाव स्वभाविक हो रहा है। हृदय में श्री कृष्ण के गुण प्रकाशित होने लगते हैं ह्रदय में आप नाम जप कर रहे हैं और श्रीकृष्ण के गुण भक्तवत्सल दयालुता श्रीकृष्ण का माधुर्य अलग अलग जो कृष्ण के गुण हैं वह नाम के साथ में सहज स्वाभाविक आने लगते हैं। , इसके बाद बताता हूं कुछ ही दिनों में क्या होगा नाम रूप गुण तीनों एक हो जाएंगे जैसे कि आप नाम जप कर रहे हैं तो नाम के साथ में ही तीनों उदित हो रहे हैं, नाम भी आ रहा है, गुण भी आ रहा है, रूप भी आ रहा है, पर आप ध्यान रखिए नीव को मत भूलिए आधार था कि नाम की दिव्यता और नाम अभिन्न है यह बात जब हमें समझ में आ जाती है कि हम जब नाम जप कर रहे हैं तो यह कोई साधारण सांसारिक प्राकृत अक्षर नहीं है, शब्द नहीं है इसके माध्यम से स्वयं भगवान अवतरित हुए चैतन्य महाप्रभु की इस धारणा से आप जब नाम जप करते हैं तब नाम जप मैं जो भी कठिनाई है तुरंत नष्ट होने लगेगी। ऐसा व्यवहारिक रूप से कुछ जपा रिट्रीट में जब मैंने सुना, उसमें उन्होंने इस बात को बताया था और इस तरह से करते हैं
नाम से रूप, गुण और लीला का प्रकाश
*नाम करे अविरत भक्त महाशय । कृपा करि’ रूप-गुण-लीलार उदय ।।।*
अनुवाद- जब भक्त पवित्र भगवन्नाम का अविरत सतत जप करता है तो कृपावश भगवान् का रूप, गुण तथा लीलाएँ उसके समक्ष प्रकट हो जाती है।
श्री हरिनाम चिंतामणि, भजन प्रणाली
हरिनाम् चिंतामणि
उसका परिणाम क्या होगा भक्त तत्पर हो जाता है और अधिक नाम जप करने के लिए अविरत निरंतर अखंडित जिसको श्रीचैतन्य महाप्रभु कहते हैं की कीर्तनीय सदा हरी ऐसा हो नाम जप, आप जब नाम जप करते हैं। कभी प्रश्न उठता है कि प्रभु जी नाम जप अच्छा हो रहा है, यह कैसे पता चले? उसका एक मापदंड यह भी दिया जाता है कि आपका जब नाम जप हो जाए आप जो निर्धारित संख्या पर नाम जप करते हैं, 16 माला करते हैं जितनी भी नाम संख्या करते हैं वह नाम जप हो जाता है। माला के ऊपर उसके पश्चात भी आपकी जीभ नाम जप का उच्चारण करती रहे तब समझना चाहिए नाम जप अच्छा हुआ। जिसको श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि दा सिक्सटीन ऑन बीट्स एंड अनलिमिटेड ऑफबीट या अन्यथा कहा जाता है निश्चित संख्या का प्रयोजन क्या है? संख्या इसलिए दी जाती है कि संख्या से अंततः आप निरंतर उस नाम जप के लिए प्रवृत्त हो सके ऐसा जब नाम जप करेंगे तब देखो नाम जप, ऐसा नाम जप कब होगा, विश्वनाथ हरिदास ठाकुर पद्धति से देखा जाए तो नाम रूप गुण का अनुभव हो रहा है कि एक तो सहज स्वाभाविक आपका निरंतर नाम होने लगेगा ऐसे में परिणाम क्या होगा।
*नाम से रूप, गुण और लीला का प्रकाश नाम करे अविरत भक्त महाशय । कृपा करि’ रूप-गुण-लीलार उदय ।।*
श्री हरिनाम चिंतामणि, भजन प्रणाली
अनुवाद- जब भक्त पवित्र भगवन्नाम का अविरत सतत जप करता है तो कृपावश भगवान् का रूप, गुण तथा लीलाएँ उसके समक्ष प्रकट हो जाती है।
भगवान अत्यंत दयालु हो जाते हैं भगवान लीलाओं को भी प्रकाशित कर देते हैं। यहां पर मुझे स्मरण हो रहा है कि श्रील प्रभुपाद का प्रसिद्ध वाक्य, भक्तों ने एक प्रश्न पूछा कि प्रभुपाद जी जब हम नाम जप करते हैं, तब क्या हमें श्रीकृष्ण की लीलाओं का स्मरण करना चाहिए ? श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि कृपया कृत्रिम रूप से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है सहज स्वाभाविक लीलाएं जब प्रकट होने लगती है। जब नामजप को अच्छी तरीके से किया जाता है जब आप कृष्ण की लीलाओं को जैसे कि हम गुरु महाराज जी के मुख से कथा श्रवण करते रहते हैं। उन कथाओं को जब हम सुनेंगे, नाम जब भलीभांति उतरेगा तो वही हमको सब स्मरण होने लगता है। इसी के विषय में श्रील प्रभुपाद लिखते हैं इस भौतिक जगत में पानी शब्द का, यह दोनों भिन्न है। प्यास लगने पर यह यदि मैं मात्र पानी पानी शब्द पुकारू तो मेरी प्यास नहीं बुझेगी मुझे वास्तविक रूप में पानी की आवश्यकता है, यह भौतिक चेतना का स्वभाव है परंतु आध्यात्मिक जगत तथा आध्यात्मिक चेतना में नाम एवं नामी अभिन्न है।
उदाहरण के लिए श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि हम हरे कृष्ण का कीर्तन कर रहे हैं यदि कृष्ण इस हरे कृष्ण कीर्तन से भिन्न होते तब हम किस प्रकार हरि नाम कीर्तन से संतुष्ट हो जाते। प्रभुपाद कह रहे हैं कि हम कीर्तन करते हैं जैसे कि प्रभुपाद ने कहा व्हाट इज द रिजल्ट ऑफ चैटिंग? आप कीर्तन करते हैं तो आपको और अधिक प्रेरणा मिलती है और अधिक नाम जप करने का यही प्रमाण है। कई बार भक्त बोलते हैं इतना नाम जप कर रहे हैं लेकिन कुछ रिजल्ट मिल नहीं रहा है। एक शिष्य अपने गुरु के पास गया और उसने कहा कि गुरु महाराज आप ने कहा तो , कृष्ण का इतना नाम जप किया कुछ भी अनुभव नहीं हुआ इसका अर्थ है कि वास्तविकता में मंत्र काम नहीं कर रहा। गुरु महाराज ने कहा कि ठीक है अगर यह मंत्र काम नहीं कर रहा तो ऐसा करते हैं कि कुछ दूसरी विधि बताते हैं केवल एक काम करना कि तुम्हें जो यह मंत्र दिया गया है । मान लीजिए जैसे कि यह हरे कृष्ण महामंत्र दिया गया है और यह हरे कृष्ण महामंत्र काम नहीं कर रहा तो क्या करो , 24 घंटे तक बिल्कुल इस हरे कृष्ण महामंत्र को ना तो स्मरण करो और ना ही उच्चारण करना तुम्हारे ध्यान में यह मंत्र बिल्कुल भी नहीं आना चाहिए और बिल्कुल भी इस मंत्र को बोलना नहीं है अब जैसे ही गुरु ने कहा शिष्य प्रणाम करके उठने लगा उसके मन में वह महामंत्र हुआ कि मुझे यह महामंत्र याद नहीं रखना है।
मुझे यह महामंत्र को बोलना नहीं है तो महामंत्र और अधिक याद आने लगा और फिर वह बार-बार विचार करने लगा और बाहर निकलने लगा तो और अधिक वह मंत्र उसको स्मरण होने लगा और मंत्र जप के लिए और इच्छा होने लगी उसकी और वह कुछ क्षणों में अपने गुरु के पास आ कर प्रणाम करता है। कहा की यह तो बहुत कठिन लग रहा है मुझे नाम जप को मैं पूरी तरीके से भूल जाऊं तब गुरु महाराज ने कहा वास्तव में यही तो फल है कि आप नाम जप कर रहे हैं और इसका परिणाम क्या है। नाम जप निरंतर चल रहा है यह अपने आप में बहुत बड़ा परिणाम है जैसे एक साधारण नाम जैसे श्रील प्रभुपाद बात कह रहे हैं कि श्रीमान जॉन तीन बार पुकारने के बाद आप थक जाएंगे किंतु यह हरे कृष्ण महामंत्र आप यदि 24 घंटे भी करते हैं आप थकेंगे नहीं, यह परम सत्य दिव्य सत्य स्वभाव है या व्यवहारिक है। कोई भी इसका अनुभव कर सकता है, शुरू में श्री चैतन्य महाप्रभु के शब्दों में कहा जाए तो यह बात सभी भक्त लोग जानते हैं परंतु श्रील प्रभुपाद इसका अनुवाद जिस प्रकार से लिखे हैं बहुत ही महत्वपूर्ण है।
*कलि-काले नाम-रूपे कृष्ण-अवतार । नाम हैते हय सर्व-जगत्निस्तार ।।*
हरिनाम् चिंतामणि
अनुवाद- इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामंत्र भगवान् कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है | जो कोई भी ऐसा करता है, उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है।
कलयुग में नामरूप में कृष्ण अवतरित हुए और नाम को लेने से हे सर्व जगत निस्तार सभी जीवो का उद्धार होता है और अब अनुवाद देखिए मैंने अलग से हटाकर अलग से हाईलाइट भी किया है। प्रभुपाद ने अनुवाद में एडिशनल पॉइंट बताएं हैं इस कलयुग में भगवान के पवित्र नाम अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र भगवान श्री कृष्ण का अवतार है और अब प्रभुपाद क्या लिख रहे है देखिए केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य, भगवान की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है। श्रील प्रभुपाद के अनुवाद की विशेषताएं अगर कोई अपनी बुद्धि से समझने का प्रयास करें तो यह बात वह मिस कर जाएगा जो प्रभुपाद के अनुवाद में भी लिखी है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है जो कोई भी ऐसा करता है उसका निश्चित रूप से उद्धार होता है। प्रभुपाद मुंबई मे प्रवचन दे रहे थे वहां पर श्रील प्रभुपाद बहुत सुंदर बात कहते हैं। हरे कृष्ण जब मैं और श्रीकृष्ण को अपनी आंखों, अपने सामने देखने मैं कोई भी अंतर नहीं है केवल व्यक्ति को इसको अनुभव करना होता है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ग्रंथ में भी मैं शायद यहां रिफरेंस नहीं ले पाया उसमें भी श्रील प्रभुपाद ने जहां तक मुझे स्मरण है अध्याय 90 मैं इस बात को बताया गया है, प्रभुपाद जी कह रहे थे कि आप जो यह हरे कृष्ण महामंत्र है यह हरे कृष्ण राम इन शब्दों पर मन को स्थिर करके और आध्यात्मिक जगत में ब्रह्म परमधाम जिसे कहा गया है। उस परम धाम गोलोक वृंदावन में साक्षात राधा कृष्ण निकुंज में नित्य विहार करते हैं।
राधा कृष्ण का साक्षात दर्शन करना और हरे कृष्ण महामंत्र के अक्षरों में ध्यान को केंद्रित करना एक समान है प्रभुपाद कहते हैं वहां पर तो चैतन्य चरितामृतम में इन्हीं शब्दों को समझाया है आपने तात्पर्य में श्री चैतन्य महाप्रभु , जब कुलीन ग्राम के भक्त आए थे जहां पर चैतन्य महाप्रभु ने कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम का वर्णन किया, किसे कहा है जिसके मुख से एक बार भी कृष्ण का नाम निकलता है तो उसे पूज्य कहा गया है और वह सर्वोच्च माना गया है। इस तात्पर्य में प्रभुपाद बहुत अच्छी बहुत सुंदर बात कहते हैं मनुष्य को कृष्ण के पवित्र नाम को, नाम की दिव्यता के स्वरूप, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के साथ एक रूप में स्वीकार करना चाहिए कि भगवान का नाम दिव्य है और भगवान के समान है। यह बात स्वीकार करनी चाहिए, यह स्वीकार करने से क्या होगा प्रभुपाद क्या कहते हैं जैसे कि पद्म पुराण में कहा गया है कि, वह यहां पर हैं
*नाम चिन्तामणि: कृष्ण: चैतन्य रस-विग्रहः। पूर्ण: शुद्धो नित्य-मुक्त: अभिन्नत्वात्-नाम-नामिनो ।।* चैतन्य चरितामृत.मध्य.१७.१३३
हरिनाम् चिंतामणि
इस तरह मनुष्य को समझना चाहिए कि कृष्ण नाम या स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं। ऐसी श्रद्धा के साथ मनुष्य को नाम कीर्तन करते रहना होगा मतलब कि इस श्रद्धा के साथ नाम और नामी अभिन्न है। इसी के साथ में नाम कीर्तन को प्रारंभ करना होगा, कोई भी यह जो मानता है क्या मानता है कि भगवान का नाम भगवान से अभिन्न है। प्रभुपाद क्या कह रहे हैं वह शुद्ध भक्त है, एक बार हम बहुत बड़ी चर्चा कर रहे थे की प्रभुपाद के शुद्ध भक्तों कैसा होना चाहिए ? तो श्रील प्रभुपाद ने इतनी सरल परिभाषा दी है इस बात को आप कलयुग में समझ लीजिए नाम और नामी अभिन्न है भले ही वह कनिष्ठ अवस्था में क्यों ना हो उसे शुद्ध भक्तों की गणना में लिया गया है आगे कहते हैं कि अतएव *कृष्णेर ‘नाम’,’देह’, ‘विलास’।
प्राकृतेन्द्रिय-ग्राहा नहे, हय स्व-प्रकाश॥* चैतन्य चरितामृत, मध्य १७.१३४ हरिनाम् चिंतामणि
भगवान् कृष्ण का पवित्र नाम, उनका शरीर तथा उनकी लीलाएँ इन कुंठित भौतिक इन्द्रियों द्वारा नही जाने जा सकते । वे स्वतन्त्र रूप से प्रकट होते हैं।
यहां पर कहा है कि नाम विग्रह मतलब अर्चा विग्रह राधा पंढरीनाथ और उनका स्वरूप मतलब जो भगवान विग्रह रूप में भी हैं और सच्चिदानंद रूप में भी आध्यात्मिक जगत में तो एक अर्चा अवतार है , एक नाम अवतार है और यह आध्यात्मिक जगत में भगवान का रूप है यह तीनों एक हैं इनमें कोई अंतर नहीं है क्योंकि यह सभी परिपूर्ण है, परम पूर्ण हैं अतः सच्चिदानंद स्वरूप अर्थात दिव्य रूप से आनंद में है। देह के अंदर जो रहता है उसे देही कहते हैं। देह और देहि में अंतर मतलब देह कौन है? भगवान श्री कृष्ण अर्चना विग्रह स्वरूप हैं देही का अर्थ है आध्यात्मिक भगवान। श्रीकृष्ण है अर्चा रूप और स्वरूप एक है और वैसे ही नाम और नामी यह भी एक है।
*अत: श्रीकृष्ण-नामादि न भवेद्-ग्राहामिन्द्रियैः । सेवोन्मुरवे हि जिव्हादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ।।* १३६।। चैतन्य चरितामृत.मध्य. १७.१३६
हरिनाम् चिंतामणि
आध्यात्मिक जगत में इस जगत में जीव में क्या अंतर है जीव का नाम और देह यह सब भिन्न होता है परंतु भगवान के विषय में यह भिन्नता नहीं रहती। श्रील प्रभुपाद अपने तात्पर्य में बता रहे हैं कृष्ण का नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न है बस जीव का शरीर उसकी आत्मा से भिन्न है. उसका नाम उसके शरीर से भिन्न है। प्रभुपाद जी ने वही शब्द उदाहरण दिया है, यहां पर किसी का नाम जॉन हो सकता है और हम जॉन कहकर पुकारे तो हो सकता है कि वह वहां पर कभी भी प्रकट ना हो सके किंतु लेकिन हम श्रीकृष्ण के नाम का पवित्र उच्चारण करते हैं तो तुरंत हमारी जीव पर प्रकट होते हैं श्रील प्रभुपाद के तात्पर्य में बहुत क्लियर कर दिया है इस बात को पद्म पुराण में कृष्ण ने कहा है
यत्र गायन्ति मद् भक्ता, तन्त्र तिष्ठामि नारद’ – हे। हरिनाम् चिंतामणि
चैतन्य चरितामृत.मध्य.१५.१३२ तात्पर्य … पद्म पुराण में कृष्ण ने कहा है,
अनुवाद – नारद, जहाँ कही भी मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते रहते हैं, वहाँ मै उपस्थित रहता हूँ।’ जब भक्तगण कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं, कृष्ण तुरन्त वहाँ उपस्थित हो जाते हैं।
हे नारद जहां पर भी मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन करते हैं वहां मैं उपस्थित रहता हूं। जब भक्तगण श्री कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं तो कृष्ण तुरंत वहां उपस्थित हो जाते हैं। वहां पर दिया गया है।
*नाम चिन्तामणि: कृष्ण: चैतन्य रस-विग्रहः। पूर्ण: शुद्धो नित्य-मुक्त: अभिन्नत्वात्-नाम-नामिनो।।*
कृष्णदास कवि राज गोस्वामी बताते हैं कृष्ण का नाम श्रीकृष्ण का स्वरूप और श्रीकृष्ण की लीलाएं कोई भी प्राकृत नहीं है और प्राकृत इंद्रियों के द्वारा उनका अनुभव नहीं किया जा सकता, वह स्वयं प्रकाशित होते हैं। यहां पर हरिदास ठाकुर ने प्रारंभ किया है नाम रूप गुण लीला धाम की दिव्यता प्रपंच यह शब्द कि मैं यहां पर थोड़ी सी चर्चा कर रहा हूं कृष्ण का नाम, कृष्ण की लीला, श्रीकृष्ण के रूप स्वरूप, श्रीकृष्ण के समान ही हैं, आध्यात्मिक है और आनंद में है। श्रीकृष्ण का नाम रूप लीला आदि को इन इंद्रियों के द्वारा हम अनुभव नहीं कर पाते परंतु इनकी जो सेवा की जाती है।
*अत: श्रीकृष्ण-नामादि न भवेद्-ग्राहामिन्द्रियैः ।
सेवोन्मुरवे हि जिव्हादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ।।* १३६।। चैतन्य चरितामृत.मध्य. १७.१३६
हरिनाम् चिंतामणि
सेवोन्मुरवे हि जिव्हादौ जीभ के द्वारा इस नाम की सेवा को प्रारंभ किया जाता है स्वयं नाम अपने आप को प्रकाशित करता है। इन भिन्न-भिन्न रूपों में यहां तक हम जो जिस तत्व को कह रहे थे, चित्त वैभव तो यहां तक समझाया गया है किस तरह से मतलब हम भगवान का नाम रूप गुण लीला के संपर्क में जब आते हैं मतलब जब हम भगवान का अर्चा विग्रह रूप में दर्शन करते हैं भगवान का नाम उच्चारण करते हैं यह सदैव अध्यात्मिक है। दिव्य है इस धारणा को ध्यान में रखते हुए हमें उनके साथ व्यवहार करना चाहिए। मतलब उस तरह से नाम जप करना चाहिए उसी तरह से विग्रह की सेवा करनी चाहिए। यह प्रथम सिद्धांत में आपको बतलाया है और फिर यह सिद्धांत को मैं अचिद् वैभव में हमने सुना था इसकी अधिक व्याख्या मैं नहीं करूंगा तो 14 लोक जो पंचमहाभूत मन बुद्धि अहंकार आदि के साथ जो बने हुए हैं उसको अचिद् वैभव कहा गया है।
*अचिद् वैभव माया तत्व ए भूर्लोक, भूवल्र्लोक आर स्वर्गलोक।। महर्लोक, जन-तप:-सत्य-ब्रम्हलोक ॥* ३२।।
*अतल-सुतल-आदि निम्नलोक सात । मायिक वैभव तव शुन जगन्नाथ ||* ३३||
*चिदवैभव पूर्णतत्व, माया छाया तार। जीव वैभव चिदनुस्वरूप जीव-वैभव प्रकार ||* ३४|
यहां पर समस्त 14 लोको को अचिद् वैभव कहा गया है । अचिद्वै भव माया छाया तो यहां पर अचिद् वैभव या माया तत्व कहा गया है। इस तरह से इन दो की चर्चा करके फिर जीव के विषय में बताया गया है। अब हम जीव तत्व को अगले सत्र में लेंगे ,जीव स्वरूप भगवान जैसे चिन्मय हैं। जीव भी आध्यात्मिक जगत में वह भी अध्यात्मिक है यह हरि नाम चिंतामणि में जीव गोस्वामी ने इस बात को बताया है कि इस भौतिक जगत में दो ही चीज जिनमें शाश्वत है कौन सी, वह कहते हैं कि नाम और जीव को छोड़कर कोई भी अन्य वस्तु इस संसार में, इस बात के साथ हम विराम देंगे समय हो चुका है और फिर अब जीव के विषय में, बद्ध जीव , मुक्त जीव और कैसे वह यह बहुत महत्वपूर्ण एक विषय है। कौन सा एक वायरस है जिस वायरस के कारण बद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। उस वायरस को या विषय जब हम समझ जाएंगे तब शायद हम मुक्त होने का प्रयास कर सकते हैं उसकी चर्चा हम अगले सत्र में करेंगे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
परमपूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज द्वारा
10 मई 2022
वंदे वाल्मीकि कोकिलम
सीताया पतये नमः
सीता के राम को नमस्कार।
राम किसके है?
सभी के है |
लेकिन सर्वप्रथम और सबसे पहले वे सीता के है | समझ में आ रहा है? तो आज के दिन का क्या कहना?
एक तो आज हम पंढरपुर पहुंच गए |
पंढरपुर धाम की जय |
वैसे पंढरपुर दंडकारण्य में है, यहाँ सीताराम की लीलाएं संपन्न हुई | पंढरपुर वैसे पंचवटी गोदावरी का तट और नासिक से दूर नहीं है | यह कथा नहीं है, जपा टॉक है | अच्छा होता कि कथा होती या कथा का समय होता |
सीता नवमी महोत्सव की जय |
जैसे राम का जन्म नवमी को हुआ और सीता का जन्म भी नवमी का ही है | आज के दिन नवमी के दिन दस लाख वर्ष पूर्व भी वह दिन नवमी का ही था जिस दिन जब राजा जनक खेत में (जैसे कुरुक्षेत्र कुरू का क्षेत्र ), जनक के क्षेत्र में, अपने क्षेत्र में हल जोत रहे थे, हल चला रहे थे तो उनका हल अटक गया उन्होंने कोशिश तो की होगी बैलो को और आगे बढ़ाने के लिए, हल को खींचने के लिए लेकिन यह संभव नहीं हुआ तो उनको पता चला कि उनका हल अटक गया है, एक संदूक बॉक्स था तो उसको जब वे निकाले और खोल कर देखें तो जय सीते |
इसी प्रकार सीता का प्राकट्य जन्म हुआ और राजा जनक को सीता प्राप्त हुई | पृथ्वी से प्रकट हुई या पृथ्वी से प्राप्त हुई तो सीता को अवनी या धरती पुत्री भी कहते है | इसीलिए ही जब कहना नहीं चाहिए आज तो प्राकट्य का दिन है लेकिन जब अंतर्ध्यान हुई सीता तो पुनः पृथ्वी ही प्रकट होती है सीतामढ़ी नामक एक स्थान है जहां हम गए थे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम जो है आप अगर राम को श्री राम समझना चाहते हो तो कोई दिक्कत नहीं है ऐसा श्रील प्रभुपाद कहा करते थे तो फिर हरे राम हरे राम में से जो राम है श्री राम है तो फिर हरे कौन हुई? सीतामैया की जय । तो जब हम
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
का जब कीर्तन करते है जप करते है तो हम सीता राम का भी जप करते है सीता राम को भी सम्बोधित करते है सीता राम को भी पुकारते है इसको याद रखीएगा । राम की राधा है तो क्या कहोगे? राम की राधा कौन है ? राम की राधा है सीता और कृष्ण की सीता है राधा । जब राम ही है कृष्ण तो सीता भी है राधा रानी।
parasya śaktir vividhaiva śrūyate
[Śvetāśvatara Upaniṣad 6.8]
परा भगवान परम परमेश्वर या परमात्मा की शक्ति विभिन्न प्रकार की है और सीता भी राम की शक्ति है, यह राम की आल्हदिनी शक्ति है, आल्हाद देने वाली शक्ति है | मैं सोच रहा था हममें और सीता में कुछ तो साम्य है कुछ तो समानता है सीता में और हममें। यह कैसे संभव है सीता में और हममें साम्य कैसे संभव है? तो सीता शक्ति है तो हम भी शक्ति है तो साम्य हुआ की नहीं।
धनुष शिव का धनुष जब जनक के दरबार में या महल में हुआ करता था उसके साथ सीता खेलती थी | जब सीता स्वयंबर का समय आया, उस समय राम भी कहीं दूर नहीं थे, वन में ही थे लक्ष्मण के साथ | विश्वामित्र उनको दर्शन करा रहे थे तो जनकपुरी भी गए, स्वयंबर का समय था तब उस धनुष को प्रत्यंचा चढ़ाने में श्री राम को यश मिला और उसी के साथ सीता हो गई राम की सीता। और उस समय ओर भी स्त्रियां उपस्थित थी वे भी मन में सोच रही थी, इच्छा जग रही थी कि क्या सीता को तो स्वीकार कर रहे हैं क्या कभी हमें भी स्वीकार करेंगे राम? लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि वे राम थे | एक पत्नी और एक वाणी श्री राम | तो भगवान श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम तो अपनी मर्यादा का प्रदर्शन किए है लेकिन जो जो महिलाएं स्त्रियां यह चाहती थी कि हमें भी श्री राम मिले पति के रूप में उनको फिर भविष्य में जब-जब भविष्य में श्री राम श्री कृष्ण के रूप में प्रकट हुए तो फिर जो वृंदावन में गोपीयों का प्रकार है — मिथिला वासिनी गोपियाँ।
राम लक्ष्मण और सीता नवदीप पहुंचे | जब नवदीप में हम जाते है एक द्वीप है मोदरूम द्वीप। मोदरूम आनंद देने वाला | इस द्वीप में दास भक्ति का प्राधान्य है तो सबसे श्रेष्ठ दास कौन है हनुमान।
राम भक्त हनुमान की जय |
तो हनुमान भी वहां थे एक समय जब वहां राम लक्ष्मण और हनुमान भी थे तो राम हंसने लगे तो सीता पूछी क्या हुआ क्या हुआ अब हंस क्यों रहे हैं? ऐसा तो कोई दृश्य नहीं है कोई घटना घटी नहीं है जिसके कारण आप हंस सकते थे, हंस रहे हो तो उस समय राम कहे | भविष्य में मैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होऊंगा और मैं संन्यास लूंगा और उस समय तुम सीते तुम बनोगी विष्णु प्रिया। और मैं संन्यास लूंगा तो फिर यह कोई हर्ष की बात तो नहीं है इसमें तो विरह की बात है इसमें विरह की व्यथा ही मुझे उस लीला में प्राप्त होगी | तो वहां पर श्री राम बताते हैं कि वैसे एक मिलन का आनंद होता है, जिसे संभोग कहते हैं और दूसरा होता है विप्रलम्भ। विप्रलम्भ वैसे लगता तो विरह और व्यथा है यह विरह की व्यथा जला रही है | लेकिन विप्रलंभ अवस्था में अधिक आनंद का अनुभव होता है ऐसा श्री राम समझा रहे थे | तो होता यह है कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सन्यास लिए और फिर भविष्य में अंतर्ध्यान भी हुए | विष्णुप्रिया ने महाप्रभु के विग्रह की आराधना या महाप्रभु के विग्रह का अंग संग दर्शन प्राप्त किया और वे धामेश्वर महाप्रभु कहलाये । यहां विष्णु प्रिया महाप्रभु की आराधना, विग्रह की आराधना कर रही है।
राम का वनवास तो एक ही बार हुआ लेकिन सीता का वनवास दो बार हुआ और फिर सीता ने लव और कुश को जन्म दिया | बाल्मीकि मुनि के आश्रम में उन दिनों वह रहती थी | बाल्मीकि मुनि ने रामायण की रचना की | फिर सीता अंतर्ध्यान भी हो जाती है | तब राम को जब जब यज्ञ वगैरह करना होता था तो यज्ञ में भी अकेले नहीं रह सकते थे तो सीता की मूर्ति बनाकर अपने साथ वे रखते थे। जैसे विष्णुप्रिया श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के विग्रह की आराधना करती थी तो राम अपनी लीला में सीता के अंतर्धान होने के उपरांत सीता के मूर्ति की आराधना कहो या उस मूर्ति से प्रेम करते थे, आराधना करते थे, उसको साथ में रखते थे यह भी कुछ साम्य है। जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा में गए तो मदुरई के पास एक आश्रम है सानिध्यमय वे भक्त अनुभव कर रहे थे कि यह श्रीराम ही है तो राम के भाव और राम की लीलाओं का स्मरण करने लगे तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पूछा 12:00 बज गए कुछ राजभोग कुछ भोजन की तैयारी करो भोजन कहाँ है? तो राम भक्त कहने लगे लक्ष्मण जब कंदमूल फल ले आएगे और सीता रानी जब बनाएगी भोजन तब भोग लगाएंगे आपको या आपको प्रसाद खिलाएंगे |
तो उनके लिए यह जो राम भक्त थे उनके लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही बन गए राम। और वह भक्त इस बात से बहुत चिंतित ही नहीं दुखी भी थे, इस बात से कि उस रावण ने सीता का अपहरण किया | इस बात को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता, मैं तो जीवित भी नहीं रह सकता, मैं तो स्वयं को अग्नि में प्रवेश करके जलाना चाहूंगा। तो उस समय स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु समझा रहे थे नहीं-नहीं वह तो असली सीता को, आदी सीता को नहीं ले गया, वह छाया सीता को ले गया ऐसा समझाएं बुझाए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राम भक्त को फिर सांत्वना हुई और भी कुछ आगे हुआ।
सीता का जब अपहरण हुआ और उस समय राम और लक्ष्मण कुटिया पर लौट आए, देखे तो सीता नहीं है तो उस समय राम ने जो विरह का अनुभव किया है वह विरह वैसा ही रहा जैसा जब वृंदावन मे कृष्ण दूर चले गए या दिख नहीं रहे थे या मिल नहीं रहे थे जैसे गोपियां और राधा रानी खोज रही थी कृष्ण को खोज रही थी | पुकार रही थी
कृष्णा………
कृष्णा…….
गोपियाँ पुकार रही थी या सभी से पूछ रही थी वृक्षों को पूछ रही थी आपने देखा है क्या? आपने देखा होगा तो जैसे यह गोपियां और राधा रानी कृष्ण की खोज कर रही थी वन में, वृंदावन में, वैसे ही खोज यहां रामलीला में राम करते है सीता की खोज। और वे पुकारते हैं
सीते……
सीते……
और पूछ रहे थे सभी से क्या आपने देखा है? आपने देखा होगा। तो यहां पर विप्रलम्भ स्वयं श्रीराम ही विप्रलम्भ अवस्था में सीता की खोज में | तभी रामायण के नायक राम और नायिका सीता है |
सीता महारानी की जय |
फिर वहां से अरण्यकांड से किष्किंधा कांड किष्कीँधा में जाना सीता को खोजते खोजते है और फिर हनुमान और सबको भेजना सीता की खोज में और जब समाचार हनुमान लेकर आए मेरी सीता कहाँ है समाचार the best news of श्रीराम for his life तब उनकी जान में जान आ गई | जब हनुमान ने बताया कि हां हां मैं जानता हूँ और यह समाचार सुनकर जब राम बेहद खुश हुए थे उस खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था | इसका संबंध राम का सीता से जो प्रेम है, सीता का महिमा भी है, सीता महात्मय भी है इसका कुछ अंदाजा भी हम लगा सकते हैं | राम प्रसन्न हुए इस बात से जब उस बात का पता चला कि सीता है और वह जीवित है और वह कहाँ है तो हनुमान को गले लगाया, आलिंगन दिया और वहां से फिर सुंदरकांड के बाद फिर अयोध्या कांड जो लंका में होना था जय श्री राम जय श्री राम असंख्य वानरों और भालू के साथ प्रस्थान कर रहे थे और बीच में आ गया सागर हिंद महासागर और उसको पार करना था तो उसे पार करने के लिए सारे जो प्रयास हो रहे हैं यह सारे प्रयास किस लिए कि पुन: राम का सीता के साथ या सीता प्राप्त हो, सीता के साथ मिलन हो, यह दर्शाता है यह संकेत मिलते हैं यह सारे जो प्रयास हो रहे हैं अरण्यकांड में किष्किंधा कांड में और युद्ध कांड तक लंका की ओर जा रहे हैं और रावण का वध हुआ है |
विजय दशमी महोत्सव की जय| राम की विजय
सीता को उस दिन पुनः प्राप्त किए और पुनः जो मिलन और उस मिलन का जो आनंद उसका वर्णन हम सुनते है पढ़ते है रामायण में और पुनः फिर जब अयोध्या की ओर जा रहे थे हनुमान, लक्ष्मण, विभीषण और बहुत से लोग जा रहे थे तो जब हिंद महासागर के ऊपर से भगवान उड़ान भर रहे थे तो राम बता रहे थे देखो देखो नीचे देखो उसने पुल देखा उसी के साथ श्रीराम समझा रहे थे, तुम को खोजने में तुम को प्राप्त करने में कितने सारे विघ्न आए और कितने सारे प्रयास हम को करना पड़ा उसमें से यह पुल बनाना भी हमारा एक प्रयास रहा।
तो पुनः अयोध्या लौटे श्री राम, यहां वैसे राम और सीता की प्रतीक्षा में सारी अयोध्या थी और जब वे श्री राम और सीता पहुचे अयोध्या में स्वागत हुआ, हमें यहां यह भी याद रखना चाहिए कि केवल राम का स्वागत नहीं हो रहा है साथ में सीता का भी स्वागत हो रहा है।
सीताराम की जय |
सीता को राम से अलग किया ही नहीं जा सकता | राम और सीता एक ही आत्मा है |
ekātmānāv api bhuvi purā deha-bhedaṁ gatau tau
CC Adi 1.5
लीला के लिए वे एक से दो हो जाते हैं | एक शक्तिमान और उनकी शक्ति
Śakti-śaktimator abhedaḥ [Brahma-sūtra]
ऐसा भी सिद्धांत है शक्तिमान से शक्ति को अलग नहीं किया जा सकता तब अयोध्या में पुनः सीताराम का स्वागत हुआ है और फिर अभिषेक हुआ राज्याभिषेक हुआ और वहां भी सीता और राम की स्थापना हुई है।
पुनः सीता अलग हो जाती है | राम अपने एक चर्चा सुनते हैं कि धोबी बात कर रहा है अपनी पत्नी से बात कर रहा है उसने स्वीकार किया होगा राम ने, रावण की लंका में इतने दिन रही राम से दूर थी राम ने तो स्वीकार कर लिया लेकिन मैं तुम्हें स्वीकार नहीं करूंगा | राम ने यह बात जब सुनी, राम जब ऐसी बातें सुनने के लिए रात में जाया करते थे भेष बदलकर। किसी के मन में कोई शंका नहीं होनी चाहिए इस प्रकार की शंका एक नागरीक के मन में ऐसी शंका थी उसका भी समाधान करने हेतु कहो राम ने फिर कहा लक्ष्मण को कहा ले जाओ इसको सीता को नहीं पता क्या हो रहा है और लक्ष्मण को ऐसा कार्य करना पड़ा सीता को रथ में बैठाया और उन दिनों सीता गर्भवती थी | वैसे लक्ष्मण नहीं चाहते थे ऐसा कार्य नहीं करना चाहते थे | जैसा राम कह रहे थे ऐसा नहीं करना चाहते थे लक्ष्मण और वैसे सीता ने लक्ष्मण से जो कहा था गोदावरी के तट पर पंचवटी में जाओ जाओ राम को तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है जाओ क्यों देरी कर रहे हो तुम्हारे मन में कोई और विचार या वासना है इसीलिए तुम नहीं जा रहे हो मैं कहती हूँ जाओ तो फिर बेचारे लक्ष्मण को जाना पड़ा।
Shlok anischamapi
नहीं चाहते हुए भी तो ऐसे कुछ कार्य लक्ष्मण को करने पड़े इस रामलीला में क्योंकि वे अनुज थे छोटे थे छोटे भाई थे | उन्होंने संकल्प लिया कि अगली बार जब मैं प्रकट होऊंगा छोटा भाई नहीं बनूंगा मैं दादा बनूंगा,, मैं बड़ा भैया बनूंगा, मैं अग्रज बनूंगा, अनुज नहीं बनूंगा तो कृष्ण की लीला में लक्ष्मण बन गए बलराम। और राम हो जाते हैं श्री कृष्ण।
तो लक्ष्मण सीता को दूसरी बार ले जाते हैं पहली बार राम और लक्ष्मण के साथ सीता गई और अब लक्ष्मण उसको ले जा रहे हैं तो बाल्मीकि मुनि के आश्रम के पास छोड़कर आए और वहीं पर सीता ने जन्म दिया लव और कुश को और वहीं पर अपने पिताश्री की लीलाएं कथाएं और नाम रूप गुण लीलाओं का श्रवण किया और शिक्षा प्राप्त किए बाल्मीकि मुनि से। और ग्रंथ की रचना की लेकिन इसका प्रचार-प्रसार कौन करेगा ऐसा बाल्मीकि सोच ही रहे थे इतने भी पिता के दो पुत्र बालक द्वार पर आए और bell बजाएं May I come in Sir? क्या हम आ सकते हैं? तो बाल्मीकि समझ गए मैं जो सोच रहा था कौन कौन करेगा प्रचार रामलीला का, यही तो बालक करेंगे राम ने ही भेजा उनको या भगवान ने ही भेजा उनको। तो यह विद्यार्थी बन जाते हैं बाल्मीकि जी के और इस कथा के पारंगत या निपुण हो जाते हैं और यह राम की कथा नहीं है यह रामायण, सीता की भी कथा है। सीता राम की कथा का प्रचार और प्रसार लव-कुश ने किया हुआ है कथा सुनाते सुनाते यह अयोध्या तक पहुंच जाते हैं और सीता राम की लीला कथा को श्रीराम सुनना चाहते हैं |
लव और कुश को दरबार में बुलाया जाता है दरबार खचाखच भर चुका है सारी रानियां है और सारी माताएं और मंत्री भी वहां पहुंच चुके हैं सीता राम की कथा इतनी अद्भुत मधुर है तो राम ने भी इस कथा को सुना और जो सुना रहे थे लव और कुश तो राम ने देखा कि इस कथा के जो वक्ता है और उनका जो आसन है मेरे आसन से कुछ नीचे ही है मेरा आसन और ऊंचा है तो राम काफी सावधानी से नीचे उतरे राम भी सोच रहे थे कि मैं अपराध कर रहा हूँ |
वे बड़े ध्यान से सुन रहे थे, आप कभी सोके सुनते हो |
सीता राम की कथा तो सर्वोपरि है और इस कथा के वक्ता का स्थान भी ऊंचा होना चाहिए तो फिर राम बड़े सावधानी से उठते हैं और नीचे उतर कर ऐसा स्थान ग्रहण करते हैं जो लव और कुश के स्थान से कुछ नीचे था निम्न था और फिर सभी सुनते रहे और रामायण की सीताराम की कथा उसके श्रोता भी राम ही हो गए, उसके श्रोता भी लक्ष्मण भी हो गए, उस कथा के श्रोता भरत और शत्रुघ्न भी हुए और माताएं भी हुई और यह राम की कथा सीता राम की कथा कहना होगा आज सीता नवमी है। यह कथा तब तक सुनाई जाएगी जब तक यह सूरज है और चांद है ऐसी नदियां जब तक बहती रहेगी |
चंद्रभागा मैया की जय |
और यहां जब तक पहाड़ रहेंगे तब तक इस लीला कथा का प्रचार प्रसार होता रहेगा। अमर रहे सीताराम और उनकी लीला कथा। सीता दयालु है, सीता की कृपा के बिना राम प्राप्त नहीं होते | अभी प्रार्थना करनी चाहिए सीता के चरणों में। ताकि हमें भी राम मिले या राम की कृपा मिलें बिना सीता कृपा के राम नहीं मिलते जैसे राधा की कृपा के बिना कृष्ण नहीं मिलते तो सीता की कृपा के बिना राम भी नहीं मिलते।
satyam satyam punah, satyam Satya evam puna puna,
Vina Radhiko Praade, mata Prasade Na Vidyte
– Narada Purana ( note – Guru Maharaj used sita at the place of Radhika)
सीता नवमी महोत्सव की जय
जनकपुर धाम की जय |
जनक जी की जय |
जनक जिनके कारण वह जानकी बनी और फिर श्रीराम की भार्या अर्धांगिनी बनी।
श्रील प्रभुपाद की जय |
उनकी कृपा के बिना भी कुछ संभव नहीं है।
यस्य प्रसादाद् भगवत्-प्रसादो
यस्याप्रसादान् न गतिः कुतोऽपि
ध्यायन् स्तुवंस् तस्य यशस् त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्री-चरणारविन्दम्
सीता की कृपा भी हमें गुरुजनों से मिलती है, गुरु की कृपा ही सीता की कृपा है।
उनकी कृपा से सीताराम हमें मिलेंगे
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*🌹हरे कृष्ण🌹*
*जप चर्चा-०९/०५/२०२२*
*परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज*🙏🙇♂️🙇🏻♂️👏🏻👏🏻🌹🌹🌹🙇♂️👏🏻👏🏻👏🏻
*जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भव तुमि*
यह इसीलिए कहा जब हम जप करते है तो मन में कहते रहते है *जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भव तुमि* मुझे दर्शन दे मेरे नयनो के पथ में आ जाइये इस बात का स्मरण हुआ आज प्रातःकाल। मै SKCON लातूर में हु यहाँ से सीधा प्रसारण हो रहा है हम यहाँ आये थे क्योकि जगन्नाथ मंदिर का भूमि समारोह सम्पन्न हुआ आज प्रातःकाल सोचा की यहाँ जापोत्सव कर दे जप करना यह एक उत्सव है इसको जप उत्सव कहते है जगन्नाथ के कथा नाम लीला सुनते है तो श्रवणोत्सव होता है। हमारे आचार्च जप करने वाले को जापक कहते है। हमारे हीरो है आचार्य आपके भाषा में। बाकि हीरो जीरो होते है लेकिना आचार्य रियल हीरो है। श्री कृष्ण ने आचार्य नामचार्य की पदवी दी हरिदास ठाकुर को। जगन्नाथ पूरी ने नामचार्य रहा करते थे वह सिद्ध बकुल नाम का स्थान है। वह श्री कृष्ण नामचार्य सदैव *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* जप करते थे वे ३ लाख नाम का जप करते थे। हम तो ३ बार भी नाम नहीं लेते। हरिदास ठाकुर का जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनकी मुख्या साधना थी जप की साधना।
हरिदास ठाकुर मंदिर में नहीं जा सकते थे। भगवान् के दर्शन से वे वंचित रहते तो जगन्नाथ उनको दर्शन देने जाते। जय गौर से कृष्ण जय जगन्नाथ। स्वयं जगन्नाथ जी उनका दर्शन करते और फिर जगन्नाथ कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरिदास को मिलाने जाते। हरिदास ठाकुर ने कभी जगन्नाथ मंदिर में जाने का प्रयास भी नहीं किया जहा रहते थे वही रहकर अपनी नम्रता का प्रदर्शन किया। जहा रहते थे सिद्ध बकुल वही से जगन्नाथ के चक्र का दर्शन किया करते थे। यह विधी है जो चक्र का दर्शन करते है तो हो जाता है भगवान् का दर्शन यह भी दर्शाया है उन्होंने। श्रील प्रभुपाद यह भी कहा करते थे भगवान् को देखना कठिन कार्य है आलिंगन देना कठिन है किन्तु यदि भगवान् हमें देखना चाहेंगे तो कौन रोक सकता है। श्रील प्रभुपाद कहते थे ऐसा कार्य करो जिससे भगवान् आपको देखना चाहेंगे। जप की सेवा है यह बेस्ट सेवा है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
यह सेवा है यह सर्वोपरि है यह सेवा जो है इसे भगवान् मिलाना चाहते है हरी हरी।
हम भक्ति योगियों की तुलना वैसे बिल्ली के बच्चे से की जाती है। ज्ञान मिश्रित भक्ति वालो की तुलना बन्दर के बच्चे से की जाती है। दोनों में अंतर क्या है ? बन्दर एक शाखा से दूसरी शाखा में जाता है तो उस बन्दर के बच्चे को सावधान रहना होता है उसे अपनी मम्मी को पकड़े रहना पड़ता है ताकि बच्चा गिरे नहीं। ताकि वो माँ के साथ रह सके। बिल्ली के बच्चे को जब जाना होता है तो बिल्ली का बच्चा म्याऊकहता है और बिल्ली आती है मुँह से पकड़ लेती है और एक घर से दूसरे घर ले जाती है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* करते रहना है हेल्प हेल्प हेल्प यह भाव इसमें आ गया। वैकुण्ठ जाना है, गोलोक जाना है वह जाने के लिए न हाथी है न घोडा है वह पैदल ही जाना है उसके लिए क्या करना है
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
जप करना, कीर्तन करना यह सर्वोच्च विधि है भगवत प्राप्ति है। कई सरे योग है सबसे श्रेष्ठ योग है भक्ति योग। जप करना भक्ति योग है। जप करने वालो को कही आना जाना नहीं होता। भगवानके भक्त जहा सेवा करते है वह भगवान् आ जाते है। *विट्ठल आला आला माला भेटण्याला*
जब हम द्रोपदी जैसे बुलाएंगे तो भगवान् आएंगे हम बुलाते नहीं। द्रोपदी भी शुरवात में जब दुष्ट दुशाशन निर्वस्त्र करने का प्रयास कर रहा था तो द्रोपदी एक हाथ से प्रयास कर रही थी। दोरपडी के अंत में जब कहा हे कृष्ण हे गोविन्द तो भगवान दौड़ के आये वह साडी ९० वरि थी साडी का पहाड़ बन गया।
ध्रुव महाराज ने तो रिकॉर्ड तोड़ किया ६ महीने में भगवान् को प्राप्त किया। बुद्धा ने ६ वर्ष लगाया था। ध्रुव महाराज को कही जाना नहीं पड़ा वह तो भगवान् आ गए। *तीरथि कुर्वन्ति तीर्थानि* आप भक्त हो आप जहा जप करते हो वह स्थान तीर्थ बन जाता है पवित्र बन जाता है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
का कीर्तन जप करने से।
योगी खोज रहे है ५० हजार वर्ष वे ध्यान करते है लेकिन भगवान नहीं मिलते। भगवान कहते है मेरे भक्त नाम जप करते है कीर्तन करते है वह मै रहता हु।
भवगान सत्यवचनी है। श्री राम की खासयित है एक वचनी है वे।
हिरण्यकशिपु ने कहा तुमने कहा न भगवान सभी जगह है तो हिरण्यकशिपु ने खम्बे पर प्रहार किया और वह से नरसिंह देव आये। अपने भक्त के वचन को सही करने के लिए भगवान प्रकट हुए। जहा जहा हम कीर्तन करते है वहा सोचना है भगवान है।
४ कुमार जब कथा सुना रहे थे वहा भगवान पहुंचे और वह इंद्रा भी थे मृदंगा बजा रहे थे प्रह्लाद महाराज करतल बजा रहे थे यह वर्णन पदम् पुराण में आता है।
सारे श्रोताओ ने कथा नोट किया वे सभी कीर्तन करने लगे। भगवान् की मुलाकात हो रही थी श्रोताओ ने कहा उस दिन भगवान से भविष्य में जहा जहा कीर्तन होगा आप वह भी आएंगे तो भगवान् ने कहा तथास्तु। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
यदि आप कथा के बिच में सो गए तो भगवान नहीं आएंगे। क्योकि वहा माया है। कीर्तन जप करते रहो ऐसा भगवान ने कहा। गोपिया जब ढूंढ रही थी कृष्ण को वृन्दावन में तो कृष्ण नहीं मिले। वृंदावन ने तालवान , तालवान से कुमुदवन, महावन सभी वन में गई लेकिन कृष्ण नहीं मिले वहा से वे गई यमुना और वह उन्होंने गोपीगीत गाया।
*जयति तेऽधिकं जन्मना व्रज: श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि*
*दयित दृश्यतां दिक्षु तावका- स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते*
वहा भगवान प्रकट हुए। हमें नाम का आश्रय लेते हुए हमें जप करना है –*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* हमारा भाव होना चाहिए हेल्प हेल्प हेल्प
हम कह रहे है – *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* और साथ में हमें कहना है सेवा का अधिकार मुझे दो ऐसे अलग अलग भाव जुड़े है। प्रेम के साथ नाम जप करना है फिर उतना भगवान् हमारे पास आएंगे। हमारी शरणागति ५०% है तो भगवान आधे रस्ते तक आएंगे। भक्ति हमारी तीव्र होनी चाहिए। जप कभी कभी नहीं करना है *कीर्तनिया सदा हरी* प्रतिदिन करना है। यह सब करना है हम साधक है अभ्यास से हम परफेक्ट बनते है।
धन्यवाद्।
हरे कृष्ण
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*जप चर्चा*
*आमरेंद्र प्रभु द्वारा*
*दिनांक 07 मई 2022*
हरे कृष्ण!!!
मैं यह बहुत सुंदर अवसर देने के लिए कृतज्ञता भाव से झुककर दंडवत देता हूं। सर्वप्रथम परम आराध्य हमारे प्राण प्रिय श्री लोकनाथ महाराज के चरण कमलों में नतमस्तक होकर मैं सिर झुका कर दंडवत देता हूं।
केवल महाराज जी का दर्शन मात्र करने से केवल दिन ही नहीं, वर्ष ही नहीं अपितु जीवन ही पवित्र हो जाता है। चित्त सभी कल्मषों से मुक्त होकर उल्लासित होने लगता है। जिन्होंने प्रभुपाद की इतनी सेवा की, इतने उच्च कोटि के महापुरुष और प्रभुपाद जी के कृपा पात्र, केवल उनके दर्शन मात्र करने से हमारा जीवन सफल हो गया, हम सब कृतार्थ हो गए। पद्ममाली प्रभु का मैं विशेष आभार प्रकट करता हूं कि उन्होंने मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति को योग्य समझकर सभी एकत्र वैष्णव वैष्णवी वृंद के संग में मानो मुझे फैंक कर यह अवसर दिया कि मैं आप सभी एकत्रित भक्तों को कुछ दो-तीन वाक्य कहकर प्रसन्न करके आप सब के आशीर्वाद से कुछ पोषित हो पाऊं। पद्ममाली प्रभु पुनः आपको दंडवत देता हूं। सभी, जो आज एकत्रित वैष्णव वैष्णवी वृंद हैं, एकत्रित वरिष्ठ वैष्णवी वृंद है, जिन्होंने भजन किया है व कर रहे हैं और गुरु महाराज के सानिध्य में नाम जप कर रहे हैं, आप सब की जय हो। आप सब के चरणों में मेरा बारंबार दण्डवत प्रणाम। मेरी कोई योग्यता नहीं है, केवल आप सब के दर्शन करने मात्र से मैं पवित्र हो रहा हूं।
कितनी दृढ़ता, आर्त भाव व एकाग्रता से आप सब प्रातः काल में नाम जप कर रहे हैं। ब्रह्मा जी की सृष्टि में विरला ही किसी को मानव शरीर प्राप्त होता है और उसमें पूर्ण रूप से कृष्ण भावना भावित होकर प्रफुल्लित चेतना व विकसित भाव से प्रभु के चरणों में समर्पित होना और गुरु महाराज के सानिध्य में बैठकर प्रातः काल में नाम जप करना, यह तो दुर्लभ बात है और मुझे केवल आशीर्वाद से रक्षित करने के लिए इतनी संख्या में भक्त आज आए हैं। आप सब प्रार्थना कीजिए मुझेआदेश मिला है कि मैं नाम के विषय में, हरि नाम के विषय में कुछ बोल कर अपनी जिव्हा को पवित्र करूं। आप सब मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि सही समय पर, सही शब्दों के प्रयोग से सही भाव से, हरि नाम की स्तुति हो सके, हमारे अंतःकरण का शुद्धिकरण हो। गुरु महाराज की प्रसन्नता और उनके मुखारविंद पर एकमात्र मुस्कान एकमात्र उद्देश्य रखकर मैं आज के सत्र को प्रारंभ करता हूं।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
मेरे परम आराध्य गुरुवर, श्रील गुरु महाराज एक बार कथा में कह रहे थे कि व्यक्ति को कथा में वह बोलना चाहिए जो साक्षात्कार बात हो, जो अनुभवी बात हो। नाम के विषय में मुझे कुछ अनुभव नहीं है तो मैं अब क्या बोलूं? पर श्रील गुरु महाराज का मुझे एक और आदेश था कि श्रील प्रभुपाद की वाणी को ही केंद्र बनाए और जो प्रभुपाद ने सिखाया है, उसी बात को पुनः बारंबार, कथा के माध्यम से पहुंचाए। आज हम क्या करेंगे श्रील प्रभुपाद के तात्पर्यों को उन्हीं के ग्रंथों से अर्थात श्रील प्रभुपाद ने हरि नाम के विषय में जो कहा है, हम आज उन बातों को हम सुनेंगे परंतु आज एक विशेष शीर्षक रहेगा कि हरि नाम जपने से कैसे अंत: करण का शुद्धिकरण होता है। हरि नाम जपने से कैसे अनर्थ व अपराध उन्मूलित होते हैं, हरि नाम जपने से कैसे चेतो दर्पण मार्जनम होता है। अलग-अलग प्रमाण शास्त्रों से निकाल व निचोड़ अथवा सार को प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा। चलिए! देखते हैं कि श्रील प्रभुपाद ने अपने शास्त्रों में कहां कहां, किन-किन बातों का उल्लेख किया है। सर्वप्रथम मैं अपेक्षा करता हूं कि आप सब देख पा रहे हैं। सर्वप्रथम हमारा प्रमाण श्रीमद्भागवत के नौवें स्कंध के पांचवें अध्याय में से सोलहवां श्लोक रहेगा। यह ही प्रसिद्ध श्लोक है।
यह दुर्वासा मुनि द्वारा उद्धृत श्लोक है।
*यन्नामश्रुतिमात्रे पुमान् भवति निर्मल: । तसय न्यास: किं वा दासानामस्थिष्यते ।।*
(श्रीमद्भागवतम ९.५.१६)
अर्थ:-
यहोवा के सेवकों के लिए क्या असंभव है? उनके पवित्र नाम के श्रवण से ही व्यक्ति शुद्ध हो जाता है।
दुर्वासा मुनि और अम्बरीश महाराज के प्रसिद्ध उपाख्यान या चरित्र से यह बहुत विख्यात श्लोक है। जिसमें दुर्वासा मुनि, प्रभु से अपनी आत्मरक्षा की याचना करते हैं और उस संदर्भ में कहते हैं- हे प्रभु!
यन्नामश्रुतिमात्रे अर्थात
आपके नाम के श्रवण मात्र से पुमान् भवति निर्मल: अर्थात व्यक्ति निर्मल हो जाता है। कौन कह रहा है दुर्वासा मुनि स्वयं कह रहे हैं।
*तसय न्यास: किं वा दासानामस्थिष्यते।*
आपके चरण के प्रति आसक्त भक्ति भाव से आसक्त जो भक्त हैं, दासानामस्थिष्यते अर्थात जो दास समूह है। ऐसा कौन सा अवशेष, ऐसी कौन सी अपूर्ण इच्छा की पूर्ति नहीं होती, ऐसा भक्त के लिए क्या अवशेष बचता है। केवल आपके नाम श्रवण मात्र से चित्त इतना निर्मल हो चुका है। श्रील प्रभुपाद जी कहते थे जस्ट चैंट एंड हियर कई बार भक्त पूछते हैं कि नाम जपते समय क्या सोचना है, क्या चिंतन करना है, क्या पढ़ना है, क्या लिखना है, कैसे बैठना है? श्रील प्रभुपाद जी ने बहुत सरल किया, मुख से नाम का उच्चारण और कर्ण इंद्रियों से श्रवण। बस और कुछ नहीं करना। प्रभुपाद का एक और नियम है सिट प्रॉपर्ली अर्थात ठीक से बैठना, नाम जपना और श्रवण मात्र करना। कई बार मुझ जैसे मूर्ख को लगता है कि यह तो बहुत सरल है। इससे बढ़कर भी कुछ होगा पर नहीं, यहां देखिए यही शास्त्र का निचोड़ है। यह सार है कि नाम श्रवण मात्र करने से व्यक्ति निर्मल हो जाता है। श्रील जीव गोस्वामी षड् संदर्भ में इस बात को कहते हैं केवलम नाम ना श्रवण अपेक्षा… केवल नाम के समय अपेक्षा। यही कर्तव्य है।
*प्रथमं नम्नःश्रवणं अंतःकरण शुद्ध अर्थ अपक्ष शुद्ध कंठ करने रूप श्रवणा तद उभय योग्यता भवती*
नाम श्रवण करने से अंत: करण शुद्ध होता है। तद उभय योग्यता भवती, फिर लीला श्रवण की योग्यता बढ़ती है।
यहां देखिए, प्रभुपाद जी अर्थ लिखते हैं- केवल नाम जप और श्रवण।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
एकाग्र भाव से नाम जपना और श्रवण करना, इससे व्यक्ति निर्मल होता है, यह संस्कृत की वाणी है।
देखिए यन्नामश्रुतिमात्रे केवल श्रवण मात्र करने से पुमान् भवति निर्मल: अर्थात भक्त निर्मल हो जाता है। यह श्रीमद्भागवतं का प्रमाण है। चलिए, एक और प्रमाण देख लेते हैं। यह भागवतम के 6वें स्कन्ध, 16 अध्याय का 39वां श्लोक है। मैं हर प्रमाण के क्रमांक को बोल नहीं पाऊंगा, समय की पाबंदी है। जैसा कि स्क्रीन में प्रदर्शित हो रहा है आप सब से अनुरोध है, यदि इच्छा रखें तो आप इन क्रमांकों को अपनी नोटबुक में लिख सकते हैं। ताकि आगे जाकर यह हमारी आस्था और हमारी श्रद्धा के पुष्टिकरण में सहयोगी हो।
श्रील प्रभुपादजी,भागवत के छठवें स्कंध के 16 अध्याय के तात्पर्य में नाम के विषय में बहुत सुंदर बात लिखते हैं.- प्रभुपाद जी लिखते हैं – ऐसा भी जीव जिसके चित्त में कई सारे भौतिक इच्छाएं, अपेक्षाएं, अभिलाषाएं भरी हुई हैं, वह भी भगवान का भजन कर सकता है। प्रभुपाद जी लिखते हैं यदि वह तीव्रता, दृढ़ता से नाम जप करता है, तो ऐसा व्यक्ति भी गोलोकधाम की ओर प्रस्थान हो सकता है। आगे प्रभुपाद जी कहते हैं- यह सत्य है, यह तथ्य है, यह तत्व है। यदि कोई कृष्ण भावना भावित हो और इस पथ में अग्रसर होने की चेष्टा करें परन्तु चित्त में कई सारे भौतिक कल्मष, कई सारी अभिलाषाएं, कई सारी इच्छाएं, वांच्छाये नाना प्रचुर मात्रा में भरी है। इससे हमें हतोत्साहित, निरोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। प्रभुपाद जी कहते हैं, केवल दृढ़ता से नाम जपने मात्र से जगत फीका लगने लगता है और प्रभु के चरण बहुत मधुर लगने लगते हैं। वैसे तो है ही, लेकिन अब साक्षात्कार होने लगता है। प्रभुपाद जी कहते हैं कि नाम जपने मात्र से व्यक्ति प्रभु की ओर आकृष्ट होता है, जगत से विरक्त होने लगता है।
एक और प्रमाण देखते हैं। यह गीता के 16वें अध्याय का सातवां श्लोक है। प्रभुपाद जी तात्पर्य में बहुत सुंदर बात लिखते हैं, यहां से पढ़ लीजिए। प्रभुपाद जी लिखते हैं जो आसुरी प्रवृत्ति के लोग होते हैं, वे पवित्रता का पालन नहीं करते हैं। जो आसुरी राक्षसी प्रवृत्ति के जो जीव हैं जिनका अंतःकरण दूषित है, वह बाहरी दृष्टिकोण से हो या अंदरूनी दृष्टिकोण से हो वे पवित्रता का पालन नहीं करते। प्रभुपाद जी फिर हमें उपदेश दे रहे हैं कि भक्तों के लिए बाहरी दृष्टिकोण से पवित्रता रखना अनिवार्य है। इसके लिए स्नान, दंत मंजन इत्यादि जो कर्तव्य है, उनका पालन होना चाहिए। इनको करने से देह शुद्ध होती है परंतु चित् की पवित्रता का यदि दृष्टिकोण दिया जाए, तो हमेशा महामन्त्र को याद रखना चाहिए और जप करना चाहिए।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
प्रभुपाद जी कहते हैं, बाहरी दृष्टिकोण से शुद्धिकरण या पवित्रता का पालन है, उसको तो करना ही है। उससे हम मनुष्य बनते हैं परंतु यदि अंदरूनी पवित्रता का दृष्टिकोण दिया जाए, हमें निरंतर सतत, सर्वदा, नित्यदा यह अलग अलग श्लोक शास्त्रों में पाए जाते हैं। हमें प्रभु के नामों का उच्चारण करना है, चाहे जैसी भी प्रवृत्ति क्यों ना हो।
अन्य शास्त्रों में भी पाया जाता है।
*ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः॥*
(हरिभक्तिविलस ३।३७, गरुड़ पुराण)
अर्थ
चाहे (स्नानादिक से) पवित्र हो अथवा (किसी अशुचि पदार्थ के स्पर्श से) अपवित्र हो, (सोती, जागती, उठती, बैठती, चलती) किसी भी दशा में हो, जो भी कमल नयनी (विष्णु, राम, कृष्ण) भगवान का स्मरण मात्र से वह (उस समय) बाह्म (शरीर) और अभ्यन्तर (मन) से पवित्र होता है |
कई बार जब हम आचमन करते हैं, तो यह आचमनीय मंत्र हो जाता है, भूत शुद्धि मंत्र। इसका अर्थ यह है कि हम मंत्र बोलने से शुद्ध नहीं होंगे। इसका सार यह है कि कोई भी व्यक्ति, कहीं भी हो किसी भी स्तर से हो, किसी भी धरा में हो, किसी भी परिस्थिति में हो वह नाम जपने से और प्रभु का स्मरण करने से अवश्य शुद्ध होता है। यह गीता का 16 अध्याय जोकि बहुत महत्वपूर्ण अध्याय है। उसके एक श्लोक के तात्पर्य में प्रभुपाद जी बताते हैं।
श्रीमद्भागवत के नौवें स्कंध, दसवें अध्याय के 51 श्लोक क्रमांक के तात्पर्य में प्रभुपाद जी बहुत सुंदर बात कहते हैं। उसी बात को बारंबार ताल ठोक कर बताते हैं।
यहां प्रभुपाद जी कहते हैं कलियुग दोषों का महासागर है लेकिन इसमें एक बहुत विशेष गुण है। केवल हरे कृष्ण महामंत्र के रटन पटन, उच्चारण मात्र से हम सभी कल्मषों, सभी अनर्थों, सभी अपराधों से अर्थात जो भी अंदर दुष्ट प्रवृत्ति है, इससे हम मुक्त होंगे और अवश्य गोलोक धाम की ओर यात्रा करेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। प्रभुपाद जी आगे बताते हैं कि अगर कोई इस नाम जप और नाम संकीर्तन के आंदोलन में यदि कोई सम्मिलित हो जाए, सदस्य बन जाए तब वह कलियुग के सभी अनर्थों से मुक्त हो सकता है और सतयुग प्रवृत्ति में जैसे भक्त थे, उसी प्रकार व्यक्ति स्थित हो सकता है। प्रभुपाद जी आगे कहते हैं किसी भी व्यक्ति अर्थात हमारा भूत, वर्तमान, भविष्य कैसा भी, क्यों न हो, हम किसी भी स्थान पर क्यों न हो, चाहे किसी भी समय पर हो, कोई भी कुल, जाति, राष्ट्र इत्यादि हो, इसका कोई भेदभाव नहीं है। कोई भी व्यक्ति कहीं भी है बस केवल जिव्हा होनी चाहिए, एक भाव होना चाहिए, इच्छा होनी चाहिए, बस।
*वक्तुम समर्थोपी न शक्ति कसीद अहो जनानं व्यवसाभिमुख्यं जीवे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंदा दामोदर माधवेती*
श्रीपाद बिल्व मंगल ठाकुर गोविंद दामोदर माधवेति स्त्रोत में कहते हैं- वक्तुम समर्थोपी न शक्ति कश्चित। हे जीव, तुम्हारे जीवन पर धिक्कार है। प्रभु ने इतनी कृपा करके मानव शरीर प्रदान किया, मुख् पर एक जिव्हा भी फिट कर दी जिससे केवल ओष्ट स्पंदन मात्रेण अर्थात जिव्हा और होंठ के कीर्तन मात्र से संसार का चुंगल, प्रपंच नष्ट हो सकता है। फिर भी जीव इतनी उत्सकुता से नरक की ओर अग्रसर होता है कि नाम जपने की कोई उत्सकुता नहीं होती। नाम जपने के लिए कोई प्रवृत्ति नहीं होती। चर्चा करने के लिए बहुत ज़्यादा उत्कंठा होती है।
*आश्चर्य एतद धि मनुस्य लोके सुधाम परित्यज्य विस्म पिबंति नामनि नारायण गोकर्णि त्यक्तवन्या वाचः कुहकः पठानं*
हमारे कुल शेखर जी भी मुकुंद माला स्तोत्र में यही कहते हैं- अरे आश्चर्य है। पशु यदि अमृत को छोड़कर गंदे नाले से पानी पिए तो जान सकते हैं लेकिन हम मनुष्य होकर भी वही कर रहे हैं अमृतधारा, यमुना धारा प्रभु के गुण लीला की यमुना बह रही है, उसको छोड़ कर गंदे नाले के कूड़े कचरे भरे हुए इस जगत की वार्ता में हम पड़े हैं। वे इसे आश्चर्य एतद धी ही कहते हैं। मुझे इतना आश्चर्य लग नहीं रहा क्योंकि मैं उस प्रवृत्ति में हूँ। हम जब किसी समस्या में होते हैं तो हमें लगता नहीं है कि वह कोई समस्या है। जब कोई समस्या से बाहर हटता है तो देखता है कि दूसरा व्यक्ति समस्या में फंसा है। कुल शेखर जी कहते हैं कि यह आश्चर्य है।
सुधाम परित्यज्य विषम पिबन्ति।
अन्य वार्ता करने के लिए इतनी उत्सुकता और प्रभु के सरल नाम उच्चारण में मन नहीं लगता।
प्रभुपाद जी तीन बातें कह रहे हैं- निरंतर नाम, वैष्णव सदाचार का पालन और असत आचरण व पाप प्रवृत्ति से दूरी बनाए रखना। फिर मन में संशय होता है, अगर पाप ना छूटे तो … प्रभुपाद जी आगे कहते हैं ।आचार्य हैं ना! सब जानते हैं। प्रभुपाद जी कहते है कि अगर पाप ना छूटे, पाप- प्रवृत्ति उन्मूलित नहीं हो रही। हमारी प्रवृत्ति इतनी गहरी हो चुकी है अब, हम ऐसा कट्टर जीवन जी रहे हैं, उस पाप से हम दूर नहीं हो पा रहे हैं। प्रभुपाद जी कहते हैं कि कोई बात नहीं। नाम भाव बना कर प्रभु से आर्त भाव से पुकार पुकार कर भीख मांग मांग कर रक्षा की याचना करते करते नाम रटो। अवश्य सब पापों से मुक्त हो जाएंगे।
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा, डरो मत । प्रभु कहते हैं- मा शुचः लेकिन हम चिंता करते हैं कि होगा या नहीं होगा परंतु नाम रटने मात्र से हो जाएगा। हमारे महाराज जी एक उदाहरण देते हैं। यह गाँव की बात है, बिहार की बात है। एक व्यक्ति को चक्कर आ जाता है, वैद्यराज के पास चला जाता है। वैद्यराज कहता है कि बस, तुम नींबू पानी पी लो, सब ठीक हो जाएगा। व्यक्ति कहता है- अरे! मैं सब कुछ छोड़ कर तुम्हारे पास आया हूं, केवल नींबू पानी पीने से हो जाएगा? एक-दो शॉर्ट लगाओ अर्थात एक- दो इंजेक्शन लगाओ। तब लगे कि हम मरीज हैं और आप डॉक्टर हैं। केवल नींबू पानी पी लेने से.. यह तो केवल छल हो रहा है महाराज जी कहते हैं- ऐसी प्रवृत्ति है। नींबू पानी से बात बनेगी पर श्रद्धा नहीं है।
केवल नाम रटने मात्र से भवसागर पार हो जाता है पर इच्छा है जब तक एक दो यज्ञ ना हो जाए, थोड़े धुएं ना निकले, थोड़ा हम हवन इत्यादि ना करें तब तक बात बनेगी नहीं। केवल नींबू पानी रूपी नाम जपने से थोड़ी भवसागर पार होगा, माया देवी को मूर्ख समझ के रखा है। महाराज जी कहते हैं कि अगर हम सरल तरीके से पहुंच जाएंगे, तो वह मूर्ख ही होगा जो घूम फिर कर चले। प्रभुपाद जी नाम रटने मात्र से क्या होगा, उसके इतने प्रमाण दे रहे हैं। ठीक है, पाप नहीं छूट रहा, कोई बात नहीं। नाम रटते रहो, सब पाप उन्मूलित होगा। प्रभु गीता में कह रहे हैं-‘ मा शुचः ‘अर्थात तुम चिंता मत करो। तुम तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह करो और पापों से मुक्ति मुझ पर छोड़ दो। प्रभुपाद जी कहते हैं यह करने से जीवन सफल होगा।
अब चैतन्यचरितामृत की ओर चलते हैं। चैतन्यचरितामृत के अन्त्य लीला के 20वें अध्याय का 11 श्लोक क्रमांक- श्रीमन महाप्रभु की वाणी-
*नाम-संकीर्तन हैते सर्वनार्थ-नाश सर्व-सुबोधय, कृष्ण-प्रेमेरा उल्लासा।।*
अनुवाद:-
“केवल भगवान कृष्ण के पवित्र नाम का जप करने से, सभी अवांछित आदतों से मुक्त किया जा सकता है। यह सभी अच्छे भाग्य को जगाने और कृष्ण के लिए प्रेम की लहरों के प्रवाह की शुरुआत करने का साधन हैं।
महाप्रभु कहते हैं कि केवल नाम रटने से, केवल नाम के संपूर्ण कीर्तन मात्र करने से तीन बातें सिद्ध है- सर्व अनर्थ नाश- जो भी अनर्थ है, चाहे वह स्थूल है या सूक्ष्म है, जो भी हो, सर्व अनर्थ नाश। महाप्रभु की वाणी है। हर शब्द महाप्रभु के मुख से उद्धृत है।
नाम संकीर्तन होते सर्व अनर्थ नाश- भूत, वर्तमान, भविष्य, स्थूल हो या सूक्ष्म हो, जो भी अनर्थ हो, हमारे प्रति हो या दूसरों के प्रति हो, सामाजिक जीवन में हो, पारिवारिक जीवन में हो, आर्थ व्यवहार करते समय व्यवसाय में हो, हमारे अध्ययन में हो, जहां भी हो, कई बार संशोधन रिसर्च करते समय अनर्थ हो जाते हैं। पशुओं के ऊपर टेस्टिंग होता है तो महाप्रभु कहते हैं सर्व अनर्थ नाश- जो भी अनर्थ हुए हैं, नाम उच्चारण मात्र से नष्ट हो जाते हैं। यह पहली बात हुई।
दूसरी बात सर्व-सुबोधय अर्थात पूर्ण रूप से भक्ति विकसित हो जाएगी, प्रफुल्लित हो जाएगी और कृष्ण प्रेम के तरंग से व्यक्ति स्पर्शित होगा, आप्लावित होगा, निमज्जित होगा। कृष्ण प्रेम में डूबने लगेगा।
वामन देव ने तीन कदम लिए। बलि महाराज को क्या मिला, मुक्ति मिली। महाप्रभु ने एक श्लोक में 3 कदम ले लिए। कहते हैं कि नाम मात्र से तीन कदम। अनर्थ नष्ट हो जाते हैं, भाग्य खुलने लगता है, चित् विकसित होने लगता है और कृष्ण प्रेम की तरंग से आप्लावित हो जाता है।
इस सन्दर्भ की पुष्टिकरण करने के लिए महाप्रभु कहते हैं-
*चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥*
अर्थ:_श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
यह श्लोक वैसे तो बहुत प्रसिद्ध है। हर गौड़ीय वैष्णव से अपेक्षित बात है कि वह प्रातः काल में इसको रटें और इसका उच्चारण करें। पर संदर्भ ऐसा है पिछले श्लोक और इस श्लोक का।
महाप्रभु चेतो दर्पणं मार्जनं इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं। चित रूपी दर्शन में प्रभु का दर्शन नहीं हो पा रहा है क्योंकि यह दर्पण, यह आइना जो है, अब प्रदूषित है। नाम रुपी सोप अर्थात साबुन लेकर धोने मात्र से , यह दर्पण स्वच्छ हो जाता है। आत्मसाक्षात्कार और परमात्मा साक्षात्कार दोनों एक कदम से संभव है।
चलिए, अब पुनः भगवत गीता की ओर चलते हैं। भगवत गीता के 13 अध्याय का 8, 9, 10, 11, 12 का जो श्लोक समूह है, उसके तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद जी बहुत सुंदर बात लिखते हैं-इस बात को पुनः देखिए, प्रभुपाद जी पवित्रता के विषय में क्या क्या कहते हैं।( ध्यान रहे कि हमारा शीर्षक है कि नाम जप करने से हमारा चित्त कैसे शुद्ध होगा) प्रभुपाद यहां कहते हैं- भक्ति के पथ पर अग्रसर होने के लिए, प्रगतिशील होने के लिए पवित्रता अति अनिवार्य है। जैसा कि हमनें पहले कहा- बाहरी दृष्टिकोण से पवित्रता और आंतरिक दृष्टिकोण से पवित्रता। प्रभुपाद जी आगे कहते हैं कि बाहरी दृष्टिकोण से स्नान करने से पवित्रता आती है। हमारे महाराज जी कहते हैं, पर यदि कोई यह सोचे कि केवल स्नान मात्र करने से पवित्र होगा, यह संभव नहीं क्योंकि मछली अधिक से अधिक पानी में रहती है लेकिन सबसे गंदी बदबू वही मारती है। केवल पानी में रहने से कोई पवित्र नहीं होता। देह शुद्ध होता है, चित्त पवित्र नहीं होता। चित्त पवित्र नाम जप करने से, मंत्र उच्चारण करने से होता है। इसीलिए वैदिक संस्कृति में हर प्रांत में यह प्रथा पाई जाती है। स्नान करते समय व्यक्ति पानी से तो स्नान करता ही है और साथ साथ ही वह प्रभु का कोई प्रिय नाम उच्चारित करता है। कोई नरसिंह कवच का उच्चारण कर रहा है, कोई गजेंद्र मोक्ष का उच्चारण कर रहा है। कोई राम रक्षा स्तोत्र का उच्चारण कर रहा है। कोई राम कृष्ण हरि का कीर्तन कर रहा है। कोई गोविंद दामोदर स्तोत्र गा रहा है। वह अपने प्रिय श्लोकों का जो संग्रह है, वह गाता रहता है नहाते नहाते प्रभु का नाम लेता है। प्रभुपाद जी यहां कहते हैं जो अंदरूनी पवित्रता के लिए हमें सतत कृष्ण का स्मरण करना है। अब कोई कहेगा यह कैसे संभव है? आगे प्रभुपाद जी कहते हैं- यह निरंतर हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करने से होता है
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हमें केवल निरंतर हरे कृष्ण महामंत्र हरि नाम का उच्चारण करना है।
*खाते शुइते यथा तथा नाम लय काला-देश-नियम नहीं, सर्व सिद्धि हय ।।*
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद
“समय या स्थान की परवाह किए बिना, जो भोजन या सोते समय भी पवित्र नाम का जप करता है, वह सभी पूर्णता को प्राप्त करता है।
यह चैतन्य भागवत की प्रसिद्ध वाणी है। उठते- बैठते, चलते फिरते, खाते- सोते, भाव हो या अभाव हो, श्रद्धा हो या श्रद्धा हीन हो व्यक्ति को मुख से नाम लेना चाहिए। ड्यूटी मानकर नाम लेना है और कर्ण इंद्रियों से श्रवण करना है। प्रभुपाद जी कहते हैं केवल यह करने मात्र से हमारे चित में पूर्व संचित कुकर्म के कारण सभी कल्मष व भौतिक इच्छाओं की जो धूल हमारे धूसरित हुई है, वह सब उन्मूलति होती है, स्वच्छ हो जाती है।
चलिए एक और प्रमाण चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला 25 अध्याय से देखते हैं। यह बहुत सुंदर श्लोक है।
*एक ‘नामाभासे’ तोमर पाप-दोना याबे आरा ‘नाम’ ला-इते कृष्ण-चरण पाइबे*
अनुवाद:-
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सुबुद्धि राय को आगे सलाह दी: “हरे कृष्ण मंत्र का जाप करना शुरू करें और जब आपका जप लगभग शुद्ध हो जाएगा, तो आपकी सभी पापपूर्ण प्रतिक्रियाएं दूर हो जाएंगी। पूरी तरह से जप करने के बाद, आपको कृष्ण के चरण कमलों में आश्रय मिलेगा ।
महाप्रभु, सुबुद्धि राय से कहते हैं। वे शुद्ध नाम की वाणी नहीं कह रहे हैं, एक नामभास कह रहे हैं। केवल अपराध रहित नाम लेने से तुम्हारे सारे पाप दोष चले जाएंगे और आगे यदि शुद्ध नाम ले तो
आरा
‘नाम’ ला-इते कृष्ण-चरण पाइबे अपराध नाम लेने से यह होता है कि भोग वांछा बढ़ जाती है। अपराध नाम लेने से हमें ऐश्वर्य मिलने लगता है, भोग सामग्री एकत्रित होती है। कई बार यह भी सुनने में आता है कि भक्त कहता है – घर मिल गया, अरे! यह तो प्रभु की कृपा है। दो तीन गाड़ियां मिल गई, यह तो प्रभु की कृपा है। अरे देखिए, हमारी तो आसक्ति बढ़ रही है। प्रभु की कृपा तो इससे नहीं होती। प्रभु की कृपा जब उतरती है तो
*अकिंचनीय- कृत्य पदस्रितं याः करोति भीक्सुम पथि गेह हिनं केनापी अहो भिसन कौर इडर्ग दृष्टि श्रुतो वा न जगत त्रयी पी*
बिल्व मंगल ठाकुर कहते हैं कि जब प्रभु की कृपा उतरती है तो विरक्ति प्रदान करती है, आसक्ति नहीं। नाम अपराध जपने से भोग बढ़ने लगता है। अगर व्यक्ति उस में फंस जाए, नाम छूट जाएगा। अगर अपराध से मुक्त हो जाएगा। आगे चलेंगे, नाम आभास की ओर तो हमारे पाप अपराध नष्ट हो जाएंगे। यहां महाप्रभु कहते हैं कि नामाभास तोमार पाप दोष जावे। नामाभास होने पर सब अनर्थ अपराध उन्मूलित होते हैं। यदि कोई भाव से प्रभु को पुकारे ,अश्रु गंगा प्रवाहित होकर पुकारे, हे प्रभु! हे मेरे स्वामी! अनंत जन्म बीत गए, अलग अलग अनंत योनियों में भ्रमण कर रहा हूं। कई माता, कई पिता, कई भ्राता, कई भार्या इत्यादि कई कई अलग अलग संबंधों में फंसा हूं। हे प्रभु! आप एकमात्र मेरे हो ।
*गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवासः शरणं सुहृत् | प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ||*
अनुवाद:-
मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यन्तप्रिय मित्र हूँ | मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ|
आप एकमात्र आत्मा की आत्मा हो। आपकी विस्मृति होने से मैं इस जगत में अलग-अलग संबंध, अलग-अलग रिश्ते नाते खेल खेलकर थक गया हूं। प्रभु, अब आप मिल जाओ। यह रिश्ते तो मैं तब तक खेलूंगा, जब तक प्रभु आप नहीं मिलते। एक बार आप मिल गए तब मैं क्यों खेलूंगा।” इस पर यदि यह भूख बढ़ जाए, ह्रदय में प्यास फटने लगे तो शुद्ध नाम उद्धृत होने लगता है। शुद्ध नाम का उदय होता है। महाप्रभु कहते हैं नामाभास से पाप नष्ट होते हैं। शुद्ध नाम से प्रभु की प्राप्ति होती है। (चलिए, देखते है कि प्रभुपाद जी क्या लिखते हैं) प्रभुपाद नाम के विषय में बहुत सुंदर बात कहते हैं। भक्तों से यह बात अपेक्षित है कि केवल दस नाम अपराध का रटन नहीं करें बल्कि अनुपालन कर के जीवन में इस बात को आत्मसात भी करें कि कैसे मैं उन अपराधों से मुक्त हो सकता हूं।
ऐसा नहीं है कि नाम कभी-कभी पवित्र है, कभी अपवित्र!! नहीं! प्रभुपाद जी कहते हैं नाम सूर्य समान है, हमारे अपराध जो है घन मेघ है। जो उन नाम रूपी सूर्य प्रकाश को ढक देते हैं। महाप्रभु के भक्त श्रील प्रभुपाद जी कहते हैं, व्यक्ति को चाहिए कि वो पवित्र हो ताकि नाम उच्चारण ठीक से हो। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि पहले मैं पवित्र हो जाऊं फिर नाम जपूगां। प्रभुपाद जी कहते हैं, जिस भी अवस्था में हो, निरंतर हरि नाम लेने की यह बात हमें अपने हृदय में बिठा लेनी चाहिए और नाम जप के प्रभाव से हम धीरे-धीरे भौतिक दूषणों से मुक्त होने लगते हैं। प्रभुपाद जी कितनी बार उसी बात को कह रहे हैं, देखिए! यह झूठ नहीं है। हमें प्रभुपाद जी की वाणी में पूर्ण रूप से श्रद्धा भाव से उतरना है। भगवान के चरण प्राप्ति के लिए शुद्धिकरण अनिवार्य है और शुद्धिकरण के लिए नाम जप अनिवार्य है। प्रभुपाद जी कहते हैं- नाम जपने मात्र से अनर्थ निकल जाएंगे, अनर्थ निवृत्ति हो जाएगी और अर्थ की प्रवृत्ति होगी। आज के लिए प्रमाण के लिए हम अंतिम श्लोक पांचवें स्कंध के 98 अध्याय के 18 श्लोक के तात्पर्य से लेते हैं जिसमें श्रील प्रभुपाद जी कहते हैं महाप्रभु ने संकीर्तन आंदोलन को हर गली, हर राज्य में, हर स्थान में जाकर प्रसारित किया, उसका प्रचार किया ताकि हर बद्ध अवस्था, व्याधि ग्रस्त जीव को कृष्ण नाम श्रवण मात्र करने का का यह सौभाग्य प्राप्त हो। श्रवण करने से क्या होता है? कई बार हम सुनते हैं कि चैंट एंड हियर से क्या होगा? हमें मेडिटेट करना पड़ता है। हमें यह करना पड़ता है। कुछ नहीं करना पड़ता है। हमें प्रभुपाद की इस वाणी पर पूर्ण रूप से समर्पित होना है। यहां प्रभुपाद जी कहते हैं कि केवल सुनने मात्र से *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* ही सब हो जाएगा।
देखिए! प्रभुपाद जी की नाम के प्रति आस्था देखिए, प्रभुपाद जी सिर्फ हरे कृष्ण ही लिख सकते थे। पर जब भी संदर्भ आता है वे पूरे नाम को लिखते हैं। ताकि हम पढ़े तो हम नाम जपे और प्रभुपाद को बोलते समय भी इतनी उत्कंठा होती थी। प्रभुपाद जी केवल डिक्टेट कर रहे हैं, वाणी के माध्यम से बोल रहे हैं। प्रभुपाद जी का केवल हरे कृष्ण महामंत्र बोलने से मन नहीं भरता। बोलना पड़ रहा है- *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे ।हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
प्रभुपाद जी यह भक्ति भाव से लिख रहे हैं। प्रभुपाद जी कहते हैं कि केवल श्रवण मात्र करने से व्यक्ति पूर्ण रूप से शुद्ध होता है। (अंतिम वाणी) प्रभुपाद जी कहते हैं- हमारे हरे कृष्ण महामंत्र/ इस्कॉन आंदोलन का सर्वश्रेष्ठ कार्य है कि नाम जपे और दूसरों से नाम जपवायें। नाम श्रवण मात्र करने से कीर्तन मात्र करने से अंतःकरण शुद्ध होता है। हमें बैठना है और सतत् नाम रटना है। मन चाहे जहां भी चला जाए, हमें केवल श्रवण करके इस मन को पुनः वापस जप में लौटना है। क्योंकि यन्न्नाम श्रुति मात्रेण पुमान भवति निर्मला।इस श्लोक से हमने प्रारंभ किया और अंतिम वाणी भी यही रहेगी। केवल श्रवण मात्र करने से हृदय शुद्ध होता है और भगवान की प्राप्ति होती है। आज के सत्र कथा के माध्यम से यहीं पर अपनी वाणी को विराम दूंगा। नाम के विषय में मेरा कोई अनुभव नहीं है। कोई साक्षात्कार नहीं है परंतु मैंने सोचा श्रील प्रभुपाद जी जिन्होंने महाप्रभु के सेनापति के रूप में कृष्ण नाम का इस जगत में प्रसार किया है, उन्हीं के मुख से नाम की महिमा सुनते हैं। केवल आप सब की सेवा के लिए श्लोकों का संग्रह करके आप सबके संतोष के लिए यहां प्रस्तुत है। यदि यहां पर आपको अच्छा लगे, प्रेरणाप्रदायक लगे तो बिना भूले मेरे लिए प्रार्थना कीजिएगा ताकि यह जो मैं कह रहा हूं, बक रहा हूं उस सब को मुझे अपने जीवन में उतारने का सामर्थ्य आए।
*वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
श्रील प्रभुपाद की जय!!!
परम् पूज्य पाद श्री लोकनाथ महाराज की जय!!!
अनन्त कोटि गौर भक्त वृंद की जय!!!
श्री हरिनाम प्रभु की जय!!!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!
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*जप चर्चा*
*दिनांक 04 -05 -2022*
(धर्मराज प्रभु द्वारा )
*हरे कृष्ण !*
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥*
*वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च। श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥*
*साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं। श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश्च।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धु दीनबंधु जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्त:।।*
*तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसते देवि प्रणमामि हरिप्रिये॥*
*वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
*जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥*
हरे कृष्ण ! सर्वप्रथम में गुरु महाराज के चरणो में दंडवत प्रणाम करता हूं और उपस्थित समस्त वैष्णव भक्तों को प्रणाम करता हूं। आप सभी का एक बार फिर स्वागत और आज का जो विषय है वैसे तो इसकी बहुत जरूरत है। प्रतिदिन हर एक के लिए डांसिंग अर्थात नृत्य करना कितना जरूरी है और कितना आवश्यक है हमारे भक्तिमय जीवन के लिए और सभी जानते हैं कि चैतन्य महाप्रभु ने जो हमें तीन विशेष तथ्य दिए हैं, जो तत्व बहुत ही प्रसिद्ध हैं, बहुत महत्वपूर्ण भी हैं। साथ ही साथ वह अपने भक्तिमय जीवन में उतारना बहुत महत्वपूर्ण है और बहुत आसान भी है। चैटिंग, डांसिंग एंड फिस्टिंग जिससे कि हम क्या कर सकते हैं, हम हर समय भगवान के कीर्तन में उनके लिए नृत्य करना है उनके लिए प्रसाद बनाना है। महाप्रभु चाहते थे उनको पता था कि कलयुग के जीवों को सबसे ज्यादा क्या अच्छा लगता है, उनको नाचना अच्छा लगता है, उनको खाना भी अच्छा लगता है, उनको यह तीनों ही चीजें अच्छी लगती हैं इसीलिए महाप्रभु ने कहा कि यदि उनकी यह तीनों ही चीज हैं भक्तिमय जीवन से जुड़ जाएं तो क्या होगा, उनके लिए यह अच्छा हो जाएगा इसीलिए महाप्रभु ने क्या किया तीनों को ऐसे भक्ति में डाल दिया जिससे कि सभी लोग इसका लाभ उठाकर भगवान की प्राप्ति आसानी से कर सकें। कलयुग में यह उद्देश्य था उनका और इसीलिए प्रतिदिन जो हम मंगला आरती में गाते हैं।
*महाप्रभोः कीर्तन नृत्यगीत वादित्रमाद्यान् मनसो रसेन। रोमांच कंपाश्रुतरंग भाजो वंदे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।* श्री गुरुवाष्टक -2
अर्थ- श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन में कीर्तन, नृत्य, गायन तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए जो भावविभोर हो उठते हैं, तथा अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हुए जो अश्रुपात, कम्पन तथा रोमांञ्चादि भावों का अनुभव करते हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
महाप्रभु के नृत्य कीर्तन और गीत में जहां पर बहुत सारे वाद्य यंत्र बजाए जा रहे हो, उसको देख कर जो आध्यात्मिक गुरु हैं वह बहुत प्रसन्न होते हैं। रोमांच होता है, अश्रु बहते हैं और वे पुलकित होते हैं, इस प्रकार से और भी भाव प्रकट होते हैं। चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन और नृत्य को देखकर और चैतन्य महाप्रभु ने हमें यह प्रदान किया है। नृत्य की विधि जो की ऐसा हो जाता है कि हम नाचना चाहते हैं लेकिन कभी-कभी थोड़ा बहाना भी बन जाता है ऐसी कहावत है नाच ना आवे आंगन टेढ़ा कहते हैं। कभी-कभी हम नाच नहीं सकते कारण अलग अलग हो सकत है किंतु फिर भी अगर हम स्वस्थ हैं तंदुरुस्त हैं तो भगवान के लिए नृत्य करना बहुत जरूरी है। चैतन्य महाप्रभु तो स्वयं ही इतना नृत्य करते थे यहां तक कि जब हरिदास ठाकुर ने अपना देह छोड़ा तो उनके देह को लेकर उनको उठा कर चैतन्य महाप्रभु ने नृत्य किया था।
*नमामिहरिदासंतंचैतन् : त: त -प्रभुमसंस्थाम। आपियान-मूर्तिं स्वंकेकत्वानानर्तयः।।*
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य 11.1)
अनुवाद – मैं हरिदास ठाकुर और उनके गुरु श्रीचैतन्य महाप्रभु को अपना सम्मानपूर्वक प्रणाम करता हूं, जिन्होंने हरिदास ठाकुर के शरीर को उनकी गोद में लेकर नृत्य किया था।
चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर के दिव्य शरीर को उठाकर क्या किया, नृत्य करने लगे सभी जगह। इससे हम समझ सकते हैं कि नृत्य करना हर एक स्थिति में मतलब किसी की मृत्यु हुई है या कोई जीवित है भगवान के लिए जो नृत्य है वह कभी भी रोका नहीं जा सकता है और हमारा कीर्तन केवल नृत्य के लिए ही सीमित नहीं होना चाहिए। केवल हम नाच रहे हैं और हरी नाम का उच्चारण नहीं कर रहे हैं तो फिर वह नृत्य क्या हो जाएगा। बाहर के जो लोग नृत्य करते हैं उसका जो उद्देश्य है, क्या है? इन्द्रियतृप्ति और हमारे भक्ति में जो भाव होता है उस भावना को भी भगवान को अर्पित करने का एक साधन है नृत्य और भगवान इससे बड़े प्रसन्न हो जाते हैं और हर क्षण इस नृत्य में हमारे जो हाथ हैं, यह हमारे पैर हैं हमारा पूरा शरीर है जितना भी हम इसका जो उपयोग करते हैं तो क्या हो रहा है। हम इसको भी भगवान के चरणों में अर्पण कर रहे हैं। इस नृत्य के द्वारा और हमारी भक्ति में भावना को प्रदर्शित करने के लिए यह क्या है यह बहुत ही आसान तरीका है नृत्य करना और चैतन्य महाप्रभु अपने दोनों हाथों को ऊपर उठा कर नाचते थे। दोनों हाथ ऊपर उठाकर मतलब प्रार्थना करना कहना कि हे भगवान मैं आपके प्रति शरणागत हूं। जैसे द्रौपदी भी भरी सभा में जब उसका वस्त्र हरण हो रहा था तभी उसने दोनों हाथ ऊपर उठाए हुए थे दोनों हाथ ऊपर उठाने का मतलब वह भगवान से प्रार्थना कर रही थी तब भगवान ने बड़े प्रसन्न होकर उसकी रक्षा की क्योंकि जब हम भी दोनों हाथ ऊपर उठाकर नृत्य करते हैं तो भगवान तुरंत वहां आ जाते हैं जैसे भगवान कहते हैं।
नाहम तिष्ठामी वैकुंठे योगिनाम हृदयेसु वा।
तत्र तिष्ठामी नारद यत्र गायंती मद-भक्त: ।।
“अनुवाद- मैं वैकुंठ में नहीं हूं और नही योगियों के दिलों में मैं वहीं रहता हूं जहां मेरे भक्त मेरी गतिविधियों का महिमा मंडन करते हैं।” यह समझा जाना चाहिए कि भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व अपने भक्तों की संगति नहीं छोड़ते हैं।
हे नारद मुझे वैकुंठ में ढूंढना भी मुश्किल हो जाएगा, योगियों के हृदय में भी ढूंढना मुश्किल है, लेकिन मैं वहां जरूर रहूंगा। जहां मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन नृत्य करेंगे वहां मैं जरूर रहूंगा वह मेरा पता है “दिस इज माय एड्रेस” वह वहां पर तुम मिल सकते हो। यह इतना विशेष है भगवान का यह जो कीर्तन है, नृत्य है, महाप्रभु स्वयं भी करते थे। कीर्तन कभी-कभी ऐसा भी होता था कि कृष्ण जब अपनी रासलीला करते थे तो पूरे ब्रह्मा की रात को एक रात में कन्वर्ट कर देते थे, कितना भी लंबा कर सकते थे । इसी प्रकार श्रीवास आंगन में भी कीर्तन होता था, नृत्य होता था ब्रह्मा जी की रात में भी कभी-कभी क्या होता था कि इतना लंबा कीर्तन करते रहते थे किसी को पता नहीं चलता था की सारी रात हम ने कीर्तन किया। किंतु महाप्रभु क्या करते थे कि ब्रह्मा जी की पूरी रात को बढ़ा सकते थे और जैसे गुरु महाराज का जब कीर्तन होता है तो कोई बैठ भी नहीं सकता तुरंत उसको अंदर से प्रेरणा मिलती है कि नाचना है बस अभी बैठना नहीं है। एक बार मुझे स्मरण है कि मैं पुणे के मंदिर में गया था और गुरु महाराज जी वहां पर आए थे और एक भक्त था उसका पैर में कुछ फ्रैक्चर हुआ था इसलिए वह एक चेयर पर बैठा हुआ था और मंदिर के ब्रह्मचारी शायद न्यू ब्रह्मचारी था और वहां पर बैठा था चेयर पर और जब गुरु महाराज का कीर्तन शुरू हुआ तो उसकी भी इच्छा हो रही थी कि वह नाचे, सारे भक्त भी नाच रहे थे और सभी भक्त उस को मना करने लगे कि नहीं अभी मत उठाओ, नहीं तो और भी पैर टूट जाएगा उसको कुर्सी पर जबरदस्ती बैठा रहे थे। किंतु फिर भी वह उनके साथ नाचने का प्रयास कर रहा है, वह कहने लगा कुछ भी होने दो महाराज जी नाच रहे हैं और मैं नहीं नाच रहा यह कैसे हो सकता है और गुरु महाराज स्वयं भी, आप सभी गुरु महाराज के मुख से सुन चुके हो जैसा कि जब गुरु महाराज ने पहली बार हरे कृष्ण फेस्टिवल अटेंड किया वहां के भक्तों को देखा, बाहर के भक्तों को, उनको देखकर वे प्रसन्न हुए और उसके बाद अपने रूम में जाकर अंदर से दरवाजा बंद करके वह जिस प्रकार से भक्त नाच रहे थे गा रहे थे उसी प्रकार से गुरु महाराज भी अपने कमरे में बंद होकर नृत्य कर रहे थे गा रहे थे। इसलिए इस प्रकार से हम समझ सकते हैं कि नृत्य और कीर्तन कितना अधिक महत्वपूर्ण है हमारे भक्तिमय जीवन में प्रगति करने के लिए। वैसे द्वारका माहत्म्य में में भी वर्णन है जैसे कि बताया जाता है कि स्वयं भगवान भी बताते हैं कि एक बार नारद वहां पर जो मेरे नामों का कीर्तन करते हुए नृत्य करता है उसका क्या होता है एक उदाहरण देते हैं। जिस तरह एक वृक्ष होता है और उस वृक्ष पर बहुत सारे पक्षी बैठे हुए हैं यदि हम वृक्ष को हिला दे तो क्या होगा कि सभी पक्षी उड़ जाते हैं ठीक इसी प्रकार जब हम नृत्य करते हैं भगवान के नामों का कीर्तन करते हैं तो क्या होता है हमें पता नहीं होता है कि कितने जन्म जन्म के जो पाप हैं जो हमारे अंदर मौजूद है वह पाप क्या होते हैं तुरंत ही नष्ट हो जाते हैं। इतनी ताकत है भगवान के नाम का नृत्य और कीर्तन करने में है। इसी प्रकार एक बार गुरु महाराज जी बता रहे थे की संगीत में नृत्य होना आवश्यक है भक्ति में , यदि ऐसा हो, तभी क्या हो जाता है तभी वह असली संगीत है तो बिना नृत्य के संगीत नहीं होता है। इसीलिए श्रीलरूप गोस्वामी भक्तिरसामृतसिन्दु में कहते हैं कि हमें भगवान के समक्ष जाकर नृत्य करना यह विशेष प्रकार से भक्ति का एक अंग है। ऐसा नहीं है कि हम केवल लोगों को दिखाने के लिए नाच रहे हैं हम क्या करते हैं हम केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए नृत्य करते हैं और भगवान को प्रसन्न करने के लिए नृत्य करेंगे तो क्या हो जाएगा तब लोग देखेंगे कि कितनी गंभीरता से कितने प्रेम से यह नृत्य कर रहे हैं। भगवान को प्रसन्न करने के लिए इसको देख कर लोग आकृष्ट हो जाएंगे इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु स्वयं अपने अनुयायियों के साथ जब नवदीप में कीर्तन करते थे और नृत्य करते थे तब लोग सोचते थे कि यह क्या हो रहा है। जो लोग एक बार नृत्य में अंदर जाते थे फिर बाहर नहीं आ पाते थे इस प्रकार का चक्रव्यू होता था, कुछ लोगों को चक्रव्यू के अंदर जाना पड़ता था महाप्रभु का चक्रव्यू, उसी प्रकार जब महाप्रभु नृत्य करते थे तब लोग केवल देखने के लिए ही जाते थे बाहर से, किन्तु बाहर नहीं आ पाते थे अंदर जाने के बाद और नृत्य करना शुरू कर देते थे। कीर्तन के साथ, विशेष प्रकार से एक चाबी है हमारे पास जो कीर्तन के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। स्मरण हो रहा है मुझे यहां पंढरपुर में लगभग 15 साल पहले की बात है, मेरे पैर का एक्सीडेंट हुआ था फ्रैक्चर हुआ था और उस समय मैं चल नहीं पा रहा था। फिर गुरु महाराज ने देखा उनको तो पता ही था और वह जानते थे कि मैं हमेशा नृत्य करता हूं, गुरु महाराज के कीर्तन में , गुरु महाराज ने पूछा मुझसे कि कार में बैठ गया है और फिर मैं प्रणाम भी नहीं कर पाता था हाथ जोड़कर केवल करता था। गुरु महाराज ने कहा की धर्मराज तुमने नृत्य नहीं किया आज ? मैंने कहा गुरु महाराज अंदर से इच्छा है किंतु यदि आपकी कृपा हो तो मैं कर सकता हूं ऐसा कहा और पंढरपुर से अरवाडे जब पहुंच गया वहां एक प्रोग्राम था। वहां पर मुझसे कहा लोगों ने कि अरे अरे तुम क्यों नाच रहे हो तो मैंने भी कहा कि मुझे गुरु महाराज का आशीर्वाद मिल गया है अभी मैं नाच सकता हूं और तब से नाचना मेरा जारी रहा। इसीलिए गुरु महाराज की वाणी में इतनी शक्ति है और यदि हम उसका लाभ उठाएंगे तो अच्छा है और नहीं उठाएंगे तो यह जो अभी केवल नए लोगों के लिए डांस है जैसा उनको नए स्टेप्स दिखाएंगे कि ऐसा करो वैसे करो, ऐसा नहीं, वैसे तो स्वामी स्टेप्स सभी के लिए हैं जो प्रभुपाद जी ने प्रारंभिक तौर पर समझाया था मतलब केवल पैर को ऐसे करो और ऐसे करो बस सिंपल लेकिन बाद में हम लोगों ने अलग प्रकार के विशेष तरीके भी निकाले हैं अब जब आप पंढरपुर में आओगे, यहां पर दोनों हाथ ऐसे करके भक्त नाचते हैं बहुत आनंद आता है करने में और ऐसे श्रील प्रभुपाद कहा करते थे, और एक पत्र में भी लिखा है कीर्तन हो रहा है केवल दूर खड़े होकर देखने के लिए नहीं हो रहा है हमें क्या करना चाहिए हमें भी इसके अंदर प्रवेश करके नृत्य करना चाहिए भगवान की प्रसन्नता के लिए और श्रील प्रभुपाद चैतन्य चरित अमृत के एक श्लोक के तात्पर्य में बताते हैं कि वास्तव में लोग कीर्तन और नृत्य का अर्थ नहीं समझ रहे हैं । इसी प्रकार श्रीनिवास आचार्य ने जो लिखा है षड् गोस्वामी अष्टकम में उसके अनुसार
*कृष्णोत्कीर्तन-गण-नर्तन-परौप्रेमामृतंभो-निधि धीरधिरा-जन-प्रियौप्रिया-करौनिर्मत्सराउपूजितौ।श्री-चैतन्य-कृपा-भरौभुवीभुवोभारवाहंतराकौ वंदेरूपा-सनातनौरघु-यवागोपालको।।* (षड गोस्वामीअष्टकं )
-अनुवाद (1) मैं छह गोस्वामी, अर्थात् श्रीरूपगोस्वामी, श्रीसनातनगोस्वामी, श्रीरघुनाथभट्टगोस्वामी, श्रीरघुनाथदासगोस्वामी, श्रीजीवगोस्वामी, औरश्रीगोपालभट्टगोस्वामी, जो हमेशा पवित्र जप में लगे रहते हैं, उनको अपना सम्मानपूर्वक प्रणाम करता हूं। कृष्ण का नाम और नृत्य, वे भगवान के प्रेम के सागर की तरह हैं और वे कोमल और बदमाश दोनों के बीच लोकप्रिय हैं क्योंकि वे किसी से ईर्ष्या नहीं करते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, वे सभी के लिए सुखद होते हैं और वे पूरी तरह से भगवान चैतन्य से आशीषित होते हैं। इस प्रकार वे भौतिक ब्रह्मांड में सभी बद्ध आत्माओं को वितरित करने के लिए मिशनरी गतिविधियों में लगे हुए हैं।
कीर्तन मतलब केवल गा नहीं रहे, नाच भी रहे हैं और हम सोचते हैं कि यह शायद प्रभुपाद जी ने शुरू किया होगा। षड गोस्वामी लोग इतने सीनियर थे वह नृत्य गान करने के कारण, लोग उनके प्रति आकर्षित होते थे और उनका नृत्य केवल दिखावे के लिए नहीं होता था। चैतन्य महाप्रभु जब कीर्तन करते थे तब वक्रेश्वर पंडित, एक बार वह रिकॉर्ड हो गया तब गिनीज बुक जैसा कोई रिकॉर्ड नहीं होता था और यदि होता तो टूट चुका होता, पहले ही लगातार 72 घंटे कीर्तन और नृत्य हो रहा था वहां पर इतने बड़े-बड़े आचार्य और वैष्णव सभी को महाप्रभु ने कहा कि नृत्य करो, जबकि प्रभुपाद जी की 72 वर्ष से भी ज्यादा उम्र थी तब भी स्वयं प्रभुपाद जी भी नृत्य करते थे, गाते थे जिससे सबको प्रेरणा मिलती थी। बताते भी हैं चैतन्य महाप्रभु पार्षद लीला में स्वयं नृत्य करके भी दिखाते हैं और षड गोस्वामियों ने भी इसका अनुकरण किया और फिर बाद में हम जो कृष्णभावनामृत आंदोलन है इसमें भी क्या करते हैं, इसमें भी सिखाया है नृत्य करो, कीर्तन करो और हम उसको भी कर रहे हैं और वास्तव में यह जो कीर्तन नृत्य की जो सेवा है प्रभुपाद जी बताते हैं यह कोई भौतिक जगत का नहीं है यह आध्यात्मिक जगत से ही यहां प्रकट हुआ है। यह जो संकीर्तन है यह दिख रहा है कि हम यहां नाच रहे हैं लेकिन यह क्या है कि यहां की विधि नहीं है, यह तो आध्यात्मिक जगत से आया हुआ है जैसे यह वृंदावन नवदीप या मायापुर है, वहां गोलोक में जो नवद्वीप मायापुर या वृंदावन है हर समय वहां महाप्रभु नित्यानंद गौर गदाधर श्रीवासाचार्य अद्वैत आचार्य वह सभी हर समय नृत्य करते रहते हैं। मतलब वहां से जब यहां लेकर के आए हैं तो यह बड़ी ही विशेष कृपा उनकी हम सब पर रही है। इसीलिए यदि हम उसको अपने जीवन में अपनाते हैं और उसको उतारते हैं हम भी स्वयं नाचते हैं तब क्या होता है, विशेष रूप से हम भगवान को प्रसन्न कर पाएंगे और प्रभुपाद जी बताते हैं। हम जितना अधिक मात्रा में कीर्तन और नृत्य में अपने आप को उस में प्रविष्ट करेंगे उससे क्या होगा कि और ज्यादा अधिक हमको जो कृष्ण भावनामृत का अमृत है उसका आस्वादन करना हमारे लिए बहुत आसान हो जाएगा और फिर एक तो आपको यह नेक्टर ऑफ़ डिवोशन में भी बताया है रूप गोस्वामी जी भी बताते हैं, क्या है कि महाप्रभु का कीर्तन वगैरा है लेकिन कृष्ण और बलराम भी कुछ कम नहीं है नाचने में, क्योंकि वही तो है ना महाप्रभु, कोई अलग थोड़ी ना है अर्थात रास होता है वह तो है ही किंतु यह अलग से भी होता है। यहां पर षड गोस्वामी गण बताते हैं कभी-कभी क्या होता है कि कृष्ण अपने ग्वाल बालों के साथ उसमें बलराम जी भी रहते हैं जब कोई उत्सव होता है तब वह पूरे नृत्य करने में कृष्ण बलराम अपने संग युवा साथियों के साथ बहुत नृत्य करते हैं और फिर यहां तक कि जो उनके गले में फूलों की माला है वह और जितना भी श्रृंगार है वह सब कुछ इतना हिलने लगता है उनका पीतांबर वगैरह और सारे जो गोपालक हैं ग्वाल बाल वह भी पूर्ण रूप से पसीने पसीने हो जाते हैं और फिर उनका पूरा शरीर भीग जाता है। कहते हैं कि यह भी क्या है उनका यह जो भीगना है या जो उनकी थकान है वह भी क्या है, वह भी एक विशेष लक्षण है उनका थकान होना फिर यह पूरा पसीना पसीना होना यह विशेष लक्षण है हमें आकर्षित करने का, इसीलिए भगवान यदि अभी पसीने में भीग गए, उससे क्या हो रहा है क्या उनके शरीर से बदबू आ रहा है ? नहीं, उसमें भी सुगंध है उसकी भी महक होती है यह बहुत ही विशेष बात है। भगवान जो करते हैं नाचते हैं उनका इतना सारा जो अश्रु प्रवाहित होता था और पसीना भी जो लोगों को स्पर्श होता था, क्या होता था उससे संसारा अलग महक या सुगंध हो जाती थी गुरु महाराज एक बार बता रहे थे कि चैतन्य महाप्रभु जब भ्रमण करते थे अलग-अलग स्थानों में विशेष रूप से साउथ इंडिया में जब अलग-अलग स्थानों से आए थे तो वहां उनके पहुंचते ही हजारों लोग वहां पहुंच जाते थे उनको कोई मैसेज नहीं दिया जाता था व्हाट्सएप वगैरह कुछ भी नहीं था। लेकिन फिर भी जब भगवान सबके हृदय में रहते हैं उन सब को पता लग जाता था, उनके शरीर की जो सुगंध थी उस सुगंध से भी पता लग जाता था अपनी महाप्रभु की जो सुगंध होती थी उस से आकर्षित हो जाते थे। जिस प्रकार हिरण होता है ना वह देखता है कि कस्तूरी कहां है कस्तूरी कहां है इसीप्रकार महाप्रभु के शरीर से वे सभी आकर्षित होते थे उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं उसका सुगंध, महाप्रभु का नृत्य सभी को बहुत आकर्षित करता था, सभी उनके पीछे जाते थे उस नृत्य के कारण और श्रील प्रभुपाद बताते हैं जिस प्रकार एक विशेष वर्णन करते हैं। जब कृष्ण के भक्त नृत्य करते हैं तो क्या होता है? इस पृथ्वी पर जो अमंगल होता है उसका नाश कर देते हैं और अमंगल को मंगल बना देते हैं और नृत्य के समय उनकी जो अलग अलग भाव भंगीमय है जो भी प्रकट कर रहे हैं और अपने विशेष आंखों के द्वारा वे सभी पर दृष्टिपात कर रहे हैं। इससे भी क्या हो जाता है कि पूरी दसों दिशाओं का जो अमंगल है वह भी नष्ट हो जाता है। यह नृत्य का प्रभाव है और जब वह अपने दोनों हाथ उठाकर नृत्य करते हैं तो उससे क्या होता है, जो अलग-अलग ग्रह हैं देवताओं के भी ग्रह लोक हैं वहां का भी जो अमंगल है वह भी नष्ट हो जाता है। देखिए भक्त जब नृत्य और कीर्तन करता है तो केवल वहां के आसपास के पेड़ पौधों को ही लाभ होता है ऐसा नहीं है या केवल इसी धरातल का ही लाभ होता है ऐसा नहीं है यह पृथ्वी के परे भी जो अलग-अलग ग्रह हैं वहां पर भी इसका प्रभाव पहुंच जाता है इसीलिए यह जो नृत्य करना या कीर्तन करना यह केवल किसी व्यक्ति के लिए ही या अन्य के लिए ही है। ऐसा नहीं है यह चाहे कोई नया हो या पुराना हो सभी के लिए है जब राजा प्रताप रुद्र ने देखा की अलग-अलग टोलियां बनी थी जगन्नाथ रथ यात्रा में और सभी दर्शन कर रहे थे बहुत ही आनंद से दर्शन कर रहे थे और राजा प्रताप रूद्र पर तो विशेष कृपा हो रही थी वहां, राजा प्रताप रूद्र बहुत ही विनम्रता से वहां झाड़ू लगा रहे थे रथ के सामने तब महाप्रभु बड़े प्रसन्न हुए थे और देखा भी था उनको मिले भी थे और जब देखा कि सातों टोलियों में कीर्तन और नृत्य है बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि कौन सी टोली में कौन-कौन नृत्य कर रहा है या कीर्तन कर रहा है कौन-कौन जा रहा है और महाप्रभु एक टोली में नृत्य कर रहे थे। लेकिन राजा प्रताप रूद्र को ऐसी महाप्रभु ने अपनी कृपा उन पर की थी जिससे राजा प्रताप रुद्र क्या कर पा रहे थे चैतन्य महाप्रभु को सातों साथ की साथ टोलियो में नृत्य करते हुएदेख पा रहे थे और उनको आश्चर्य हुआ, महाप्रभु इधर भी है उधर भी सब जगह हैं और एक ही साथ मुझे दिख रहे हैं। हम समझ सकते हैं कि जो महाप्रभु का नृत्य है, उनका जो कीर्तन है वह केवल अपनी मस्ती में नहीं थे बल्कि सबको अपनी कृपा भी दे रहे थे विशेष या अन्य जीवो को और भी अधिक आकर्षित करने के लिए कहते हैं ना हायर टेस्ट, मतलब क्या है हम कुछ खा रहे हैं हमको बहुत अच्छा लगता है ऐसी बात नहीं है उसका टेस्ट तो हमको मिल ही जाता है, प्रसाद है इसलिए। किंतु फिर भी हम भक्त हैं तो क्या होता है कि हम को एक आनंद का अनुभव होता है और हम जो इस्कॉन में या हरे कृष्ण आंदोलन में नृत्य करना सबसे आसान तरीका है भक्ति करने का, वैसे प्रसाद भी है, लेकिन आज हमारा डांस का टॉपिक है अतः डांस में हमें विशेष रूप से कुछ करना नहीं पड़ता है। छोटे बच्चे भी नाच सकते हैं उसमें छोटे बच्चे भी नृत्य करके उसको भक्ति का एक अंग प्रदर्शन कर सकते हैं। भगवान की प्रसन्नता के लिए जबकि उनको पता नहीं है कि यह भी भक्ति का एक अंग है। फिर भी क्या कर सकते हैं भगवान की प्रसन्नता के लिए वह भी नृत्य करके , भगवान भी देखेंगे कि अरे यह तो मेरी प्रसन्नता के लिए कर रहे हैं । इसीलिए एक विशेष भगवान को आकर्षित करने का पहलू है और यदि किसी को इतना अच्छा नृत्य नहीं आता है तो श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि इसके लिए यह जरूरी नहीं, आपको कहीं जहां ट्रेनिंग होता है ना डांस ट्रेनिंग होता है बहुत सारे डांस एकेडमी होते हैं तो क्या है कि एक बार में कहीं किसी स्थान में गया था और वहां पर मेरा एक प्रवचन था और वह शायद 3 स्टोरी बिल्डिंग था और सबसे ऊपर था वहां पर हमारा प्रवचन का प्रोग्राम था। जब मैं ऊपर गया तो वहां में जल्दी पहुंच गया और जो नीचे वाला फ्लोर था वहां मैंने देखा कि वहां डांस एकेडमी लिखा हुआ था थोड़ा मैंने अंदर झांक कर देखा, वहां के जो डांस डायरेक्टर थे उनसे मिला और उनसे कहा कि बहुत अच्छी बात है कि आप डांस सिखाते हो लेकिन आप जो डांस सिखाते हो आप कभी हमारे कीर्तन में भी उनको लेकर के आइए आप देखिए कि हमारे भी इस्कॉन का हर एक स्टेप कैसे होता है। यह कीर्तन नृत्य यही हमारे क्या हैं ? इसके ऊंचे तत्व है। इसके द्वारा हम अपने आप को भक्ति में प्रगत करते हैं। मुझको बड़ा आश्चर्य हुआ कि अलग-अलग डांस एकेडमी इतने सारे हैं कहीं पर भरतनाट्यम है या अन्य है किंतु फिर भी उस नृत्य का जो वास्तविक उद्देश्य क्या है ? जबकि हमारा जो नृत्य है वह भगवान की प्रसन्नता के लिए था यह उस उद्देश्य को प्रकट करता था लेकिन अभी कलयुग में उसने इसको जो कृष्ण भावना भावित भक्त हैं उसके लिए क्या है कि उसका नृत्य ही उसका जीवन है क्योंकि वह उसी के द्वारा भगवान को प्रसन्न कर सकता है। एक बार किसी ने पूछा प्रभुपाद समझो यदि कोई भक्त हो जिस का उत्साह कम हो गया है उसको लग रहा है कि वह बहुत डल हो गया है उसे कुछ रुचि नहीं आ रही है भक्ति में और उसको लग रहा है कि अभी बस वही वही बात हो रही है तो अभी क्या करूं? श्रील प्रभुपाद ने कहा, कि क्या करो भगवान के पास जाओ और कीर्तन में नृत्य करो बस उत्साह तुम्हें मिल जाएगा यह सबसे आसान तरीका है। कोई कह सकता है कि मैं इतना नाच नहीं सकता हूं फिर भी वहां बैठे-बैठे अंदर ही अंदर से हम क्या कर सकते हैं नाच सकते हैं तो शरीर के द्वारा करना तो अच्छा ही है लेकिन कभी ऐसी स्थिति आ जाती है शरीर के कारण या कुछ कि हम वहां प्रत्यक्ष रूप से हम नहीं कर सकते किंतु हम ऐसा भाव व्यक्त कर सकते हैं कि हम भगवान के लिए नृत्य कर रहे हैं। वहीं पर ऐसे मन में या विचार ला सकते हैं वृंदावन मायापुर आदि स्थानों पर मैं वहां गया हूं वहां मैं नृत्य कर रहा हूं ऐसे भाव लाने से भी क्या होगा उससे हम दूर बैठे हैं किंतु फिर भी क्या है वहां हम बैठकर के नृत्य कर रहे हैं। लेकिन जो सक्षम हैं उनके लिए ऐसा नहीं होना चाहिए कि मैं अभी सीनियर हो गई या मैं नृत्य नहीं कर सकती या मेरे लिए आवश्यक नहीं है नृत्य, तो आप देखिए स्वयं गुरु महाराज जी भी नृत्य करते हैं। यहां पंढरपुर में भक्त लोग जब उन्होंने इतना देखा कि गुरु महाराज स्वयं आ गए सभी के बीच में और नृत्य करने लगे आगे पीछे आकर तो सभी समझ गए कि हमें भी अभी नृत्य करना है। गुरु महाराज बाह्य दृष्टि से एज के रूप में ज्यादा है किंतु अंदर से तो अभी मैंने देखा है कि जब गुरु महाराज जी कहीं से आए थे बहुत थके हुए थे किंतु अभी भी जब उनको मौका मिलता है तभी वो कीर्तन कर रहे हैं। केवल कीर्तन ही करेंगे ? तो नहीं, वही नृत्य भी करेंगे और स्वयं भी सबको नचायेंगे। यह बहुत विशेषता है गुरु महाराज जी की। हम देख सकते हैं कि राधानाथ स्वामी महाराज जी का नृत्य भी बहुत प्रसिद्ध है। एक बार गुरु महाराज कीर्तन कर रहे हैं और राधा स्वामी महाराज नृत्य कर रहे हैं और कंपटीशन चल रहा है। कुछ दिन पहले मैंने सुना कि जब गुरु महाराज एक बार जब भक्ति तीर्थ महाराज जब से गुरु महाराज जब यहां पर थे तब गुरु महाराज , मुझे वह स्थान स्मरण नहीं हो रहा है वहां पर गुरु महाराज ने मंगला आरती का कीर्तन लीड किया वह मंगला आरती गाने लग गए और भक्ति तीर्थ महाराज नृत्य कर रहे थे और बाद में मंगला आरती हो गई फिर बाद में नरसिंह आरती तुलसी आरती भागवतम , जप करने का समय है फिर बाद में 9:00 बजे तब भी कीर्तन हो रहा था और भक्ति तीर्थ महाराज नृत्य कर रहे थे। गुरु महाराज ने कहा कि आपने इतने समय तक नृत्य किया है आपने मुझे कहा नहीं कि मैं रोक दूं तो उन्होंने कहा कि आप कीर्तन कर रहे थे इसलिए मैं मृत्य कर रहा था , उन्होंने कहा मुझे आप के कारण है इतनी प्रेरणा हो रही थी कि मैं नृत्य करूं पूरा टाइम मैं हर समय नाचता रहूं यही विशेषता है कि जब गुरु महाराज कभी पंडाल प्रोग्राम होता है और जब वहां जाते ही तब पूरा पंडाल हिलने लग जाता है। पंडाल नहीं ,अंदर जो भक्त हैं सभी नृत्य करने लगते हैं और नए लोग आकर्षित होकर देखते हैं कि यह सब क्या हो रहा है। यहां पर लोकनाथ स्वामी महाराज आए थे उनको लगता है कि अरावड़े से आए हैं बहुत साल पहले महाराज ने कहा कि आप यदि नृत्य कर रहे हैं इसका मतलब आप खुश हैं आप नृत्य नहीं कर रहे हैं तो उसका मतलब क्या है आप दुखी हैं। दाल में कुछ काला है कभी-कभी हम कहते हैं कि लोगों से की नृत्य करो कुछ दिखाओ, से लोग कहते नहीं नहीं हम अंदर से ही कर रहे हैं। लेकिन यह बाह्य रूप से भी प्रकट होना चाहिए केवल मन से ही नहीं, इससे क्या होगा कि भगवान विष्णु प्रसन्न हो जाएंगे। मुझे स्मरण है कि गुरु महाराज पूछते थे मुझसे नोएडा में, धर्मराज सभी को नचाते हो ना तुम? क्योंकि सभी को नचाना भी जरूरी है और यदि वह यहां नहीं नाचेंगे तो क्या है कीर्तन में यदि नृत्य करना है तो अंत में हमको अच्छा लगने लगता है। कीर्तन के विपरीत अर्थ क्या है नृत्यकी, अच्छा कि हम बाहर नृत्य में आकृष्ट हो जाए तो हम महाप्रभु के कीर्तन में आकृष्ट होकर उसका लाभ ले सके।
हरे कृष्ण !
श्रील प्रभुपाद की जय !
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