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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*राधे श्याम प्रभु द्वारा*
*दिनांक 30 अप्रैल 2022*
हरे कृष्ण
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
सर्वप्रथम मैं परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज के श्री चरण कमलों में सादर दंडवत प्रणाम करता हूं और आप सब वैष्णव की कृपा आशीर्वाद की याचना करता हूं कि हम श्रील गदाधर पंडित के संबंध में दो शब्द आज बोल पाएं। आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि प्रभुपाद ने बोला है कि हमें नाम जप करने से पहले हमेशा पंचतत्व महामंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।*
प्रभुपाद जी अनेक तात्पर्यों में बताते हैं कि जो इस पंचतत्व महामंत्र का उच्चारण करता है, उसके अंदर से अपराध भावना निकल जाती है और नाम अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण करने में उसे शुद्धता प्राप्त होती है। शुरुआत के दिनों में मुझे आश्चर्य होता था कि कैसे हम कृष्ण चैतन्य मंत्र बोलने से अपराध से मुक्त होते हैं। मेरे मन में बहुत समय तक य़ह प्रश्न था। कुछ सालों के उपरांत इसके विषय में सुनने और पढ़ने के पश्चात मुझे पता लगा कि य़ह जो पंचतत्व है, इन पांच महापुरुषों के बीच में चैतन्य महाप्रभु हैं।
*श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य*
( चैतन्य भागवत)
अर्थ:- भगवान चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन् श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
महाप्रभु साक्षात कृष्ण हैं। स्वयं कृष्ण हैं लेकिन एक खास उद्देश्य को लेकर वे इस दुनिया में अवतरित हुए हैं। उद्देश्य यह था कि कृष्ण राधा भाव को स्वीकार कर, राधा के भाव को अनुभव करने के लिए अर्थात कृष्ण प्रेम का अनुभव करके उसको वितरित करने के लिए श्रीकृष्ण, चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं।
*राधा कृष्ण प्रणय विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद्। एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ।।*
*चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा- भाव- द्युति- सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपं।।*
(श्रीकृष्ण चरितामृत आदि लीला १.५)
अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएं भगवान की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियां हैं। यद्यपि राधा और कृष्ण अभिन्न हैं, किंतु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधरानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए है।
स्वरूप दामोदर ऐसा बताते हैं कि वे राधा भाव को स्वीकार कर आए हैं लेकिन वह भगवान श्रीकृष्ण हैं। हम बड़े भाग्यशाली हैं क्योंकि 500 वर्ष पहले ही चैतन्य महाप्रभु अवतरित हुए हैं। कृष्ण जब राधा के भाव में आ जाते हैं तो और अधिक कृपालु दयालु हो जाते हैं। वे जिस प्रेम को अनुभव कर रहे हैं जिस भक्ति भावना का अनुभव कर रहे हैं। उसी को मुफ्त में बहुत सरलता से, बहुत आसानी से वितरण कर रहे हैं लेकिन वह अकेले नहीं आए थे, अपने साथ बहुत सारे पार्षदों को लेकर आए थे। इस पंचतत्व के चित्र में देखें तो चैतन्य महाप्रभु में इस बाजू में नित्यानंद प्रभु हैं और दूसरी तरफ गदाधर पंडित है। नित्यानंद प्रभु आदि गुरु हैं।
जैसे हम व्यष्टि गुरु और समष्टि गुरु बोलते हैं। जो हमारे दीक्षा गुरु होते हैं, वे व्यष्टि गुरु होते हैं। लेकिन सब गुरुओं की शक्ति जहां से आती है, उसे समष्टि गुरु कहतें हैं। वे नित्यानंद प्रभु हैं, वे आदि गुरु हैं, बलराम हैं।
*नायमब्रह्म बलहीनन लभ्यो न च प्रमादत्तपसो वाप्यलिङ्गात्।एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वानस्तस्यैैष आत्मा धाम।।*
(मुकण्ड उपनिषद)
अर्थ:- यह आत्मा शक्तिहीन या उत्तेजना से या लिंग रहित तप से प्राप्त नहीं हो सकती । लेकिन जो ज्ञाता इन साधनों से प्रयास करता है, आत्मा ब्रह्म में प्रवेश करती है।
ऐसा शास्त्र बताते हैं कि
अध्यात्मिक बल के बिना कोई भी आध्यात्मिक जीवन में शामिल होकर लगातार उसकी अंतिम सांस तक भी भक्ति में नहीं जुड़ पाएगा लेकिन हमें बल उनसे प्राप्त होता है जो हमें दीक्षा देते हैं और गुरु परंपरा से जोड़ते हैं। गुरु हमें शिक्षा दीक्षा के द्वारा आध्यात्मिक बल प्रदान करते हैं। उन सब गुरुजनों के बल का स्तोत्र बलराम जी हैं। वही बलराम जी, नित्यानंद प्रभु के रूप में आते हैं। नित्यानंद प्रभु अत्यंत कृपालु अत्यंत दयालु होते हैं। यदि उनका कृपा कटाक्ष हम पर नहीं गिरता है तो हमें श्री राधा रानी सेवा नहीं देगी। इसीलिए हम गुरु के श्री चरणों में जुड़कर सेवा प्राप्त करते हैं। इसीलिए तीसरा अपराध बताता है कि हमें गुरु की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। राधा जी के श्री चरणों से ही कृपा आशीर्वाद प्राप्त करके ही हमें सेवा प्राप्त होगी ।
नित्यानंद प्रभु के दायीं तरफ अद्वैत आचार्य हैं। एक और अद्वैत आचार्य और दूसरी और श्रीवास ठाकुर हैं।
आप पंच तत्व में देखते हैं, अद्वैत आचार्य प्रभु पंचरात्रिक विधि को सिखाते हैं। उन्होंने शालिग्राम शिला के समक्ष गंगाजल और तुलसी लेकर, गंगा के तट पर बैठकर शालिग्राम की पूजा करके, बहुत सुंदर तरीके से भगवान के नामों को निसहाय भावना, निष्कपट भाव से पुकारकर भगवान कृष्ण को विनती की कि आप अवतरित हो जाइए। आप के आए बिना कलियुग के जीवों के लिए दूसरा सहारा नहीं हैं। वे हमें पंचरात्रिक विधि सिखाते हैं कि कैसे हमें श्रीकृष्ण की उपासना करनी चाहिए। पंचरात्रिक विधि से शुद्धता प्राप्त होता है और समयबद्धता प्राप्त होती है। भगवान की उपासना से भगवान की निकटता प्राप्त होती है। भगवान का स्मरण बढ़ता है, भगवान के लिए प्रेम जगता है। जो भगवान के श्री विग्रह को भोग चढ़ाते हैं, भगवान का श्रृंगार करते हैं। भगवान के लिए दिव्य तपस्या करते हैं, भगवान के लिए मंत्रों का उच्चारण करते हैं, भगवान के लिए अर्चनाएं करते हैं। उन सबका भगवान की ओर शीघ्र ही आकर्षण बढ़ता है। यह सब अद्वैत आचार्य प्रभु सिखाने वाले हैं।पंचरात्रिक विधि वे खुद भी करते हैं और दुनिया को भी सिखाते हैं।
दूसरी तरफ जो श्रीवास ठाकुर हैं, वे नारद जी हैं। वे हमें भागवत विधि सिखाते हैं। भागवत विधि मतलब श्रवणं और कीर्तनं।
हम समझते हैं कि नारद मुनि हाथ में वीणा लेकर भगवान के नामों, कथा का प्रचार प्रसार करते हैं।
श्रीवास का घर ही महाप्रभु की लीला स्थली बना। उनको खुद भी भगवान के नाम और भगवान की कथा में अटूट विश्वास था। उनके मन में कभी भी लेश मात्र भी चिंता नहीं था। एक बार उनका एक छोटा पुत्र भी मर गया फिर भी वे परवाह किए बिना भगवान चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन में शामिल होकर नाच गा रहे थे। अपने पर बहुत नियंत्रण था, जब चैतन्य महाप्रभु को पता चला। तब चैतन्य महाप्रभु ने उस बच्चे को जिंदा किया (आप लोग जानते ही हैं।) इस तरह से श्रीवास ठाकुर श्रवण कीर्तन में इतना डूब कर भक्ति करते हैं। प्रेम विभोर होकर दुनिया के सब प्रकार से समस्याओं को भूलकर अपने चित्त की कल्मष को दूर करके भक्ति भाव में विभोर होकर भक्ति करते हैं। उनसे हम भागवत विधि सीखेंगे । हम पंचरात्रिक विधि अद्वैत आचार्य प्रभु से दूसरी भागवतविधि श्रीवास ठाकुर से सीखते हैं।
अभी आज हम गदाधर पंडित के विषय में सुनेंगे जो चैतन्य महाप्रभु के इस ओर खड़े हैं। गदाधर पंडित साक्षात राधा रानी है, वृषभानु नंदिनी है। ऐसा गणगौर दीपिका में बताया गया है कि राधा जी खुद इस धाम पर अवतरित हुई हैं। जब चैतन्य महाप्रभु अवतरित होते हैं तो राधा जी भी अवतरित होती हैं। कभी भी शक्तिमान अकेले नहीं होते। इसलिए उधर ही नवद्वीप धाम में श्री माधव मिश्रा और रत्नावली देवी के घर पर गदाधर पंडित का जन्म होता है। रत्ना देवी, शची माता को अपनी बहन ही मानती थी। दोनों बहुत निकट मित्र थे और एक दूसरे के साथ अक्सर मिलते थे एक दूसरे के घर में जाते थे। ऐसा बताया गया है कि बचपन में दोनों श्री गौर हरि और गदाधर बहुत निकट मित्र थे और साथ में ही खेलते कूदते थे।साथ में ही गुरुकुल में पढ़ाई के लिए जाते थे। एक ही स्कूल में पढ़े थे, इस प्रकार बहुत ही निकट मित्र थे। जब गदाधर पंडित थोड़े बड़े हुए तो उनके स्वभाव के बारे में बताया गया है कि वह बचपन से बहुत शांत स्वभाव के थे। बहुत धैर्य रखते थे और ज्यादा बोलते नहीं थे। बहुत कोमल स्वभाव वाले थे, वह बाकी लोगों के साथ ज्यादा मिलते नहीं थे, दूसरे लोगों से जरा हटकर रहते थे। सदा भगवान के चिंतन या स्मरण में रहते थे। बहुत अनासक्त थे, ऐसा गदाधर पंडित के स्वभाव के बारे में बताया गया है।
चैतन्य महाप्रभु के पार्षदों में गदाधर पंडित ब्रह्मचारी हैं। अगर तत्व के तौर पर देखा जाए तो गदाधर पंडित श्रीमती राधारानी हैं। श्रीमती राधारानी ने अपने भाव कृष्ण को प्रदान किया और राधा रानी, कृष्ण को अपना भाव देने के बाद वह भी साथ में आती। जैसे कभी-कभी किसी कंपनी के लोग कुछ मशीन बेचते हैं। मशीन को बेचने के बाद वे खुद भी आते हैं और मशीन को कैसे यूज करना है, उसको भी सिखाते हैं। अगर मशीन इस्तेमाल करते समय कुछ गड़बड़ हो गई उसको ठीक करने के लिए कंपनी वाले लोग मशीन के साथ एक व्यक्ति को भेजते हैं। इसी तरह से राधा जी ने ही किया है इसी तरह से राधा जी ने ही कृष्ण को भाव प्रदान किया है। कृष्ण जो परम भगवान हैं, परम पुरुषोत्तम हैं, वे स्वामी हैं, प्रभु है लेकिन राधा जी उनकी दासी हैंं। वह सेवक भगवान हैं और भगवान सेव्य भगवान हैं।
सेव्य होकर भी भगवान को अनुभव नहीं है कि भाव को लेकर कैसे इस्तेमाल करना है। इसलिए उनको सिखाने के लिए राधा रानी गदाधर पंडित बन कर आती है। राधारानी जिन्होंने अपना भाव कृष्ण को दे दिया है। आसमान में जब पूर्णिमा होती है, वह राधा के भाव जैसा है,क्योंकि राधा अपना भाव कृष्ण को दे देती है। इसीलिए गदाधर पंडित अमावस्या को प्रकट होते हैं और वे अमावस्या के दिन इस दुनिया से अप्रकट भी होते हैं। अमावस्या मतलब पूर्णिमा नहीं है, राधारानी ने अपना भाव कृष्ण को प्रदान किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि राधाजी के अंदर से भक्ति भाव चला गया और अब वे भक्ति नहीं कर पाएंगी। ऐसा नहीं है, जब राधा जी अपने भाव को कृष्ण को प्रदान करती हैं, उनके हृदय में भी कृष्ण के लिए विरह वैसे का वैसे ही रहता है।
जैसे आपके पास दिया हो, हम दामोदर के महीने में एक दिए से हजारों दिया जलाते हैं। उसके बाद भी हमारे पास जो दिया है, वह वैसे का वैसे ही रह जाता है। इस प्रकार हम दिव्य ज्ञान भी हजारों, लाखों, करोड़ो लोगों को प्रदान कर सकते हैं। दिव्य ज्ञान कभी मिटता नहीं, हमें उससे और लाभ प्राप्त होता है। उससे घटता नहीं है, भागवतम के ११वें स्कन्ध में बताया गया है भक्ति सन्जयाते अर्थात एक भक्त के
हृदय की भक्ति कूदती है और दूसरे भक्त में चली जाती है।
*कृष्ण भक्ति रस भाविता मतिः क्रीयतां य़दि कुतोअपि लभ्यते। तत्र लौल्यमपि मूल्यमेकलं जन्म-कोटि- सुकृतैर्न लभ्यते।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.70)
अर्थ:- ” सैकड़ों-. हजारों जन्मों के पुण्यकर्मों से भी कृष्ण भावना भावित शुद्ध भक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। इसे तो केवल एक मूल्य पर- उसे प्राप्त करने की उत्कट लालसा से ही- प्राप्त की जा सकती है। यदि यह कहीं भी उपलब्ध हो सके, तो उसे तुरंत ही खरीद लेनी चाहिए।”
विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर बताते हैं कि कृष्ण की भक्ति में अपलावित जो ह्रदय कूद पड़ता है, उसके अंदर एक उद्वेग उत्पन्न होता है। कृष्ण के प्रेम, कृष्ण की सेवा, कृष्ण के दर्शन के लिए लालायित होता है। ऐसे एक महान शुद्ध भक्त के कृष्ण भावनामृत संग के साथ हमें संग करना चाहिए। बोलते हैं कि जितना भी पैसा देना हो, उसे पैसा देकर खरीदना चाहिए लेकिन पैसे से खरीदा नहीं जा सकता है। श्रद्धापूर्वक सेवा करने से ही हम गुरु के हृदय से भक्ति को प्राप्त करते हैं। गुरु, शिष्य को भक्ति प्रदान करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि गुरु के पास से भक्ति खाली हो जाती है, ऐसा नही हैं गुरु के हृदय में भक्ति वैसी की वैसी ही रहती है। साथ-साथ में दूसरों को भी भक्ति प्रदान करता है। ऐसे ही जब राधा जी आती हैं और कृष्ण का अनुभव करने के लिए महाप्रभु को अपना भाव प्रदान करती हैं, कहती हैं,-” ठीक है यदि आपकी इच्छा है, भक्त की भावना क्या है, आप उसको देखना चाहते हो तो मैं आपको भाव प्रदान करती हूं।” संत तुकाराम का एक प्रसिद्ध गीत है।
उसमें बताते हैं कि हे विठ्ठल आपकी खूबसूरती, आपकी मधुरिमा, आप की भक्ति करने से होने वाले ज्ञान के विषय में आपको क्या जानकारी है। आप तो स्वामी हो लेकिन हम लोग आपके दास हैं। हम उसका अनुभव करते हैं। जैसे कमल के अंदर कमल की सुगंध, कमल का शहद, कमल की खूबसूरती, कमल की सुंदरता, उसकी मधुरिमा जो है कौन जानता है। वो कमल ही जानता है लेकिन कमल में बैठकर उसकी सुगंध का अनुभव करने वाले भ्रमर जानते हैं।
हम भक्त भ्रमर जैसे हैं, आप तो कमल जैसे खूबसूरत हो। हे विट्ठल! आपको, आपके बारे में क्या मालूम। ऐसे ही जब कृष्ण ने इसके विषय में सुना। उन्होंने बोला- हां, हां! मेरी भी इच्छा हो रही है, मैं भी कमल की सुगंध का अनुभव करूं, कमल की मधु चखूं। इसी प्रकार जब भगवान को इच्छा होती है, तब वे राधा के भाव को स्वीकार करते हैं।
तब चैतन्य महाप्रभु को यदि कोई बोलता था कि आप विष्णु हो, विष्णु हो तब वे तुरंत अपने कान बंद कर लेते थे और बोलते थे विष्णु! विष्णु! विष्णु! मुझे याद मत दिलाओ। अगर तुम याद दिला दोगे कि मैं भगवान हूं। ततपश्चात यह मधुरिमा चली जाएगी जिसे मैं भक्त की भूमिका में अनुभव कर रहा हूँ। मैं भक्त ही होकर इस लीला को पूरा करना चाहता हूं। चैतन्य महाप्रभु की ऐसी इच्छा थी।
अभी हमें गदाधर पंडित की कुछ लीलाओं को सुनने से पता चलेगा कि उन्होंने कैसे अपने भाव को प्रकट किया। जब वे छोटे थे, निमाई पंडित के साथ खेलते थे। एक बार नवद्वीप में गोपीनाथ आचार्य के घर में ईश्वरपुरी आए थे, वे उधर आकर कथा सुना रहे थे, उसी समय गदाधर पंडित भी वहां पहुंच गए। ईश्वरपुरी ने गदाधर पंडित को बहुत प्रेम किया और आशीर्वाद भी प्रदान किया। उनके पास कृष्णामृतम लीला नामक एक किताब थी। वे उस पुस्तक से कृष्ण लीला/ कृष्ण लीला बताया करते थे। गदाधर पंडित ध्यानपूर्वक सुना करते थे। गदाधर पंडित ने निमाई पंडित को भी बुला लिया कि आप भी आकर सुनो।सात महीने लगातार दिन रात गदाधर पंडित, निमाई पंडित, गोपीनाथ आचार्य इन सब लोगों ने ईश्वर पुरी से कथा सुनी। गदाधर पंडित के एक प्रिय मित्र मुकुंद दत्त थे, उनकी गदाधर पंडित और निमाई पंडित के साथ बहुत अच्छी मैत्री था। गदाधर पंडित मुकंद दत्त को बहुत प्रेम करते थे। एक बार मुकंद दत्त ने बोला कि एक बहुत ही अच्छे भक्त हैं, मैं आपको उनके दर्शन करवाऊंगा। मैं आपको उनके पास लेकर जाऊंगा। गदाधर पंडित और मुकंद दत्त की आदत थी कि कोई भी वैष्णव उनकी बस्ती में आता था, तब वे दोनों तुरंत वहां चले जाते थे। उनकी सेवा करते थे, उनसे कथा श्रवण किया करते थे, लीला कीर्तन सुनते थे। जब वे पुंडरीक विद्यानिधि के वहां पहुंचे, गदाधर पंडित पुंडरीक विद्यानिधि को देखकर बहुत विस्मित हुए। उन्होंने देखा कि पुंडरीक विद्यानिधि बड़े अच्छे कपड़े पहने हुए थ। उन्होंने अनेक अंगूठी, नेकलेस आदि आभूषण पहने हुए थे। उन्होंने देखा कि यह व्यक्ति तो बड़े भोग ऐश्वर्य में जी रहा है। तब उनके मन में एक प्रश्न उठा यदि कोई व्यक्ति दिख रहा है जो भोग ऐश्वर्य आदि से लिप्त है, आकर्षित है। ऐसे व्यक्ति के साथ संग करके हमें क्या लाभ प्राप्त हो सकता है। वे बोले नही पर अपने मन ही मन में सोच रहे थे कि हे मुकुंद दत्त! तुम, क्यों मुझे एक ऐसे व्यक्ति के पास लाए हो। तुम तो मेरे प्रिय मित्र हो, परम् वैष्णव हो, समझ में नहीं आ रहा।
तब मुकंद दत्त ने सोचा कि मुझे गदाधर पंडित को दिखा देना चाहिए कि पुंडरीक विद्यानिधि कौन है? तब उन्होंने भागवतम से सुंदर तरीके से एक गीत गाया –
*बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं विभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।।*
( श्रीमद भागवतम १०.२१.५)
अनुवाद:-
अपने सिर पर मोरपंख का आभूषण, अपने कानों में नीले कर्णिकार फूल, स्वर्ण जैसा चमचमाता पीला वस्त्र तथा वैजयंती माला धारण किये भगवान कृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ नर्तक का दिव्य रूप प्रदर्शित करते हुए वृंदावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीक बना दिया। उन्होंने अपने होठों के अमृत से अपनी वंशी के छेदों को भर दिया और ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया।
उन्होंने गीत में गाया कि भगवान श्रीकृष्ण खूबसूरत व्यक्ति हैं, जो मुरली बजाते हैं, जिनके घुंघराले बाल हैं। जिनका पीतांबर चमक रहा है व जिनके शरीर पर माता यशोदा ने अनेक सुंदर सुंदर आभूषण पहनाए हुए हैं। वे अपने साथ अनेक गोपाल बालकों को लेकर वृंदावन के जंगलों में प्रवेश करते हैं जिधर कोयल कुहू कर रही है, मोर नाच रहे हैं। हिरन उनको प्रेम से दिख रहे हैं, वे ऐसे जंगल में प्रेम से प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे कृष्ण को छोड़कर मैं किसके बारे में सोच सकता हूं, यह भागवतम में बहुत सुंदर गीत है, साथ साथ उन्होंने यह भी गाया
*अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापायदप्यसाध्वी। लेभे गतिं धात्र्युचितांं ततोअन्यं कं वा दयालु शरणं व्रजेम।*
( श्रीमद भागवतम ३.२.२३)
अनुवाद:-
अहो, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा, जिन्होंने उस असुरिनी ( पूतना) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतध्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था?
इस प्रार्थना में बताया गया है कि बकीं अर्थात पूतना। पूतना नामक राक्षसी अपने स्तन पर एक बहुत गहरा कालकूट विष का लेपन कर कृष्ण को मारने की योजना के साथ आई थी। कृष्ण ने ऐसी राक्षसी का भी उद्धार किया। उन्होंने उसको अपने धाम में अपनी मां/ धात्री का स्थान दिया। ऐसे कृष्ण को छोड़कर मैं किसकी शरण ले सकता हूं। जब पुंडरीक विद्यानिधि ने इस गीत को सुना, तब वे जोर से रोने लगे।
जमीन पर लोटने पोटने लगे। अपने कपड़ों को फाड़ने लगे। भागने, दौड़ने लगे। ऐसे प्रेम विभोर होकर उनके शरीर से अष्ट सात्विक विकार प्रकट होने लगे। कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! इस प्रकार वे कृष्ण का नाम पुकारते हुए अपने आप को नियंत्रित नहीं कर पाए। तब गदाधर पंडित ने देखा कि यह साधारण पुरुष नहीं है। यह महान शुद्ध भक्त है, मुझसे गलती हो गई। मैं मन में इनकी बाहरी उपाधियों को देखकर इनके बारे में गलत सोच लिया, उनके मन में अफसोस हुआ। उन्होंने सोचा कि मुझे इन से दीक्षा लेना चाहिए ताकि मेरे अपराध दूर हो जाए, मैं इनसे दीक्षा लूंगा और इनकी सेवा करूँगा।
इस प्रकार उन्होंने मुकुंद दत्त को अपना मन प्रकट किया। तब मुकुंद दत्त ने पुंडरीक विद्यानिधि से विनती किया कि आप इन्हें दीक्षा दीजिए। पुंडरीक विद्यानिधि बहुत खुश हुए, उन्होंने बोला कि यह मेरा भाग्य है कि गदाधर पंडित जैसे रत्न मुझे एक शिष्य के रूप में प्राप्त हुए हैं। मैं इनको क्यों नहीं स्वीकार करूँगा, मैं बहुत खुश हूं, यह बोल कर उन्होंने उनको स्वीकार कर लिया। इस प्रकार से आप देखेंगे कि गदाधर पंडित, पंडित पुंडरीक विद्यानिधि के शिष्य बने। (मैं पुंडरीक धाम, बांग्लादेश में गया था। उधर हमनें देखा.. पुंडरीक विद्यानिधि, राधा रानी के पिताजी ही हैं। वह वृषभानु है, गदाधर पंडित अर्थात राधारानी अपने पिता से ही दीक्षा ले रही थी। उसी पुंडरीक गांव में ही उनका जन्म हुआ था।) जैसा मैंने आपको पहले बताया कि गदाधर पंडित बहुत कोमल स्वभाव के थे। जब निमाई पंडित अपनी शिरोमणि लीला कर रहे थे तब वे कभी कभी गदाधर पंडित को बोलते थे, हे गदाधर पंडित! इधर आ जाओ। मुक्ति की परिभाषा बताओ। गदाधर पंडित कुछ बोलते थे, तब निमाई पंडित उसके विरुद्ध बोलते थे, गदाधर पंडित उसको मान जाते थे, तब निमाई पंडित उसके भी विरुद्ध कुछ बोलते थे। ऐसे ही बोल बोल कर निमाई पंडित न्याय शास्त्र पर कुछ विवाद करते रहते थे, जो गदाधर पंडित को अच्छा नहीं लगता था। जैसा कि मैंने आपको बताया वे कोमल स्वभाव के थे। इसलिए कभी कभी वे दूर से ही नहीं निमाई पंडित को देख कर भाग जाते थे। मुकुंद भी ऐसे ही थे, मुकुंद भी गदाधर पंडित को देखकर भाग जाते थे। तब निमाई पंडित उन दोनों को जोर से बुलाते थे। हे मुकन्द, हे गदाधर ! एक दिन ऐसा आएगा । जब शिव जी और ब्रह्मा जी भी मेरे साथ बैठकर भक्ति करने के लिए आएंगे, मेरी भक्ति से प्रभावित होंगे। ऐसे निमाई पंडित ने अपनी महानता को प्रकट किया। ईश्वरपुरी के पास जाकर गया में दीक्षा ली। वे अपने पिताजी के श्राद्ध का बहाना बताकर गए थे लेकिन विशेषकर वह दीक्षा लेने के लिए गए थे। दीक्षा लेकर उनके ह्रदय में ऐसा प्रेम उमड़ पड़ा-
हे कृष्ण, आप किधर हो! श्याम वर्ण, कृष्ण आप किधर हो। हे वृंदावन के नाथ , आप किधर हो। हे नंद के पुत्र, आप किधर हो? हे यशोदा नंदन, आप किधर हो? इस प्रकार वे पुकार पुकार रोते थे। यह संदेश पूरे नवद्वीप में लोगों को पहुंच गया। सबको पता चल गया की निमाई पंडित अब शुद्ध भक्त बन गया है।
सब लोग देखने के लिए आए, जब गदाधर को भी पता चला तो गदाधर भी खुश हुए। गदाधर पंडित उनको कुछ पान जैसा खाने का प्रदार्थ देने के लिए उनके घर में आए। उस समय निमाई पंडित उनको पूछ कर रोने लगे। हे गदाधर! वो श्यामल वर्ण का सुंदर लड़का कृष्ण किधर है, जो हमेशा पीतांबर पहनकर मुरली बजाता है, वह कृष्ण किधर है? मुझे वो मुरली वाला कृष्ण दिखा दो। ऐसे बोल कर निमाई पंडित गंगा जमुना की तरह प्रेमाश्रु बहाने लगे। निमाई पंडित की आंखों से प्रेमाश्रु बहते देखकर गदाधर पंडित ने बोला- निमाई! तुम चिंता मत करो। तुम्हारे हृदय में ही भगवान विराजमान हैं, वे अंतर्यामी हैं। भगवान सबके हृदय में हैं, तुम्हारे हृदय में भी हैं। इसको सुनकर निमाई पंडित अपने हृदय को फाड़ने लगे, उन्होंने सोचा कि कृष्ण मेरे हृदय में है तो मुझे उसको देखना है अभी ।तब उस समय गदाधर पंडित ने तुरंत उनको बोला कि आप चिंता मत करो, कृष्ण अभी आ ही रहे हैं, कुछ ही क्षण में इधर आ जाएंगे, उसको सुनकर निमाई पंडित शांत हुए। शची माता यह सब देख रही थी। कैसे मेरा बेटा अभी अपने हृदय को फाड़ सकता था, लेकिन गदाधर पंडित ने उसको बचा लिया। उन्होंने बोला- गदाधर! तुम हमेशा निमाई के साथ रहा करो, उसे कभी अकेला मत छोड़ना, इस प्रकार उनकी मां ने उनसे विनती की। इस प्रकार गदाधर पंडित, निमाई पंडित के बहुत ही निकट पार्षद थे। एक दिन की बात है, चैतन्य महाप्रभु, शुक्लांबर ब्रह्मचारी के यहां पहुंचकर कृष्ण कथा करने लगे। जब महाप्रभु बैठकर भगवान का हरि नाम अथवा कीर्तन कर रहे थे। तब गदाधर पंडित वहां पहुंच गए और अपने घुटनों पर बैठकर वह बाहर ही बाहर कथा सुनने लगे। जब कथा का रस बढ़ गया, कथा से उनमें विरह भावना उत्पन्न हो गई और गदाधर पंडित प्रेम विभोर होकर विरह भावना में जोर जोर से रोने लगे। तब चैतन्य महाप्रभु ने पूछा कि यह आवाज किधर से आ रही है? उन्होंने तुरंत शुक्लांबर ब्रह्मचारी को पूछा कि कौन रो रहा था। शुक्लांबर ब्रह्मचारी ने बोला कि गदाधर पंडित बाहर है। चैतन्य महाप्रभु ने उनको तुरंत अंदर बुलाया और उनका अलिंगन किया, तब महाप्रभु ने उनको बोला- हे गदाधर! तुम इतने पुण्यात्मा हो, तुम इतने शुद्ध हो। तुमनें बचपन से कृष्ण की शुद्ध भक्ति का अभ्यास किया है लेकिन मेरा जीवन देखो मैंने अपना जीवन बर्बाद कर दिया है। मैं तर्क वितर्क न्याय दर्शन आदि को पढ़कर पंडित बनकर नवद्वीप में अनेक विद्यार्थियों को न्याय सिखाता रहा और अपने पांडित्य के कारण मैं भक्ति प्राप्त नहीं कर पाया।
इसके कारण ही मुझे भगवान कृष्ण का संग प्राप्त नहीं हुआ जो तुम्हें प्राप्त हो रहा है। भागवतम की इस कथा को सुनकर तुम्हारी आंखों से प्रेमाश्रु बह रहे हैं, तुम कितना भाग्यशाली हो और मैं कितना भाग्यहीन हूं। इस तरह से वे बोलने लगे। तब गदाधर पंडित ने बोला- नहीं! नहीं !नहीं! ऐसा नहीं! ऐसा नहीं है! इस तरह से नवद्वीप में अनेक लीलाएं हुई, अभी समय की पाबंदी है। उनकी जगन्नाथपुरी में हुई एक दो छोटी सी लीला को बोलकर मैं विराम देता हूँ। जब जगन्नाथपुरी में गदाधर पंडित पहुंच गए तो महाप्रभु ने उनको वहां टोटा गोपीनाथ नामक एक स्थान दिया था। वहां आज भी टोटा गोपीनाथ के विग्रह हैं। टोटा का अर्थ गार्डन अथवा बग़ीचा होता है, उस मंदिर के साथ सुंदर बगीचा है। गदाधर पंडित ने छोटे गोपीनाथ की प्रेम से पूजा आराधना करते हुए वहां सालों साल बिताए। चैतन्य महाप्रभु भी वहां पर अपने पार्षदों के साथ पहुंच जाते थे। रामानंद राय, चैतन्य महाप्रभु, सार्वभौम भट्टाचार्य, स्वरूप दामोदर, रूप- सनातन, हरिदास ठाकुर सभी पहुंच जाते थे, उनके साथ बैठकर श्रीमद्भागवत सुनते थे और गदाधर पंडित अपनी भागवत को खोल कर पढ़ते थे।
वे श्लोकों को गाते थे और उसके बारे में बोलते थे। महाप्रभु भी कुछ बोलते थे, तब चैतन्य महाप्रभु बहुत आनंदित होते थे। महाप्रभु ध्रुव चरित्र, प्रह्लाद चरित्र हमेशा सुनते थे औऱ महाप्रभु सुनने के बाद बोलते थे कि और एक बार बोलो, ध्रुव चरित्र को दोहराओ, प्रह्लाद चरित्र को फिर से दोहराओ, उनको ऐसे अच्छा लगता था। आपने चित्र देखा होगा जिसमें महाप्रभु, गदाधर पंडित के पास बैठकर सुन रहे हैं। ऐसे गदाधर पंडित ने समय बिताया, उनकी दो खास चीजें थी। एक भागवत सुनाना और दूसरा टोटा गोपीनाथ की पूजा आराधना करना। अपनी वृद्धावस्था में गदाधर पंडित को टोटा गोपीनाथ की पूजा करने, हार पहनाने में, कपड़े बदलने में थोड़ा मुश्किल होता था। टोटा गोपीनाथ उनकी सेवा से प्रसन्न व प्रेरित होकर वहीं बैठ गए और बोले तुम इतनी दूर नहीं पहुंचा पाओगे, मैं ही बैठ जाता हूं, अब तुम आराम से सेवा करो, उन्होंने गदाधर पंडित से बैठकर सेवा लिया। इसलिए आज भी जब टोटा गोपीनाथ के विग्रह को देखेंगे तो बैठे हुई अवस्था में ही देखेंगे। महाप्रभु अपनी अंतिम लीला में उसी विग्रह के अंदर प्रविष्ट हुए। टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रविष्ट होकर भगवान अपने धाम चले गए, गदाधर पंडित भी चले गए। जगन्नाथपुरी में रहते हुए गदाधर पंडित ने क्षेत्र संन्यास लिया था ताकि मैं टोटा गोपीनाथ की पूजा आराधना कर पाऊं लेकिन एक समय उन्हें पता चला कि चैतन्य महाप्रभु पुरी छोड़कर प्रचार कार्य के लिए बाहर (दक्षिण भारत और वृंदावन) जाने वाले हैं। उनको बहुत दुख हुआ, उन्हें मालूम नहीं था कि महाप्रभु कभी हमें छोड़कर भी जाएंगे, उन्होंने बोला मैं भी उनके साथ जाऊंगा। महाप्रभु ने कहा- नहीं! नहीं! तुम्हें नहीं आना है। तुमने क्षेत्र संन्यास लिया है। गदाधर पंडित बोले- मेरे क्षेत्र संन्यास को भाड़ में जाने दीजिए। मुझे परवाह नहीं है क्योंकि आप जिधर हो, वही मेरे लिए वृंदावन है, फिर भी महाप्रभु ने उन्हें परमिशन नहीं दी। तब गदाधर पंडित बेहोश होकर गिर गए। महाप्रभु आगे नहीं जा पाए। रामकेली जाकर वापस लौट आए। वहां आकर महाप्रभु ने गदाधर पंडित को बोला कि गदाधर! तुम्हें साथ नहीं लेकर गया, तुम्हारी बात नहीं मानी मैंने, इसीलिए कृष्ण ने मुझे वृंदावन में जाने की अनुमति नहीं दी, उनका इतना निकट प्रेम था। ऐसे अनेक सुंदर-सुंदर लीलाएं हुई।
आज के सत्र में हमनें पांच अर्थात पंच तत्वों के बारे में जाना। मैनें पंच तत्व अर्थात चैतन्य महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु, अद्वैत आचार्य प्रभु, गदाधर पंडित और श्रीवास के बारे में दो शब्द बोला। आज गदाधर पंडित का आविर्भाव दिवस है, इसलिए गदाधर पंडित की लीलाएं अधिक समझी। हम लोग नाम जप करते हैं, नाम जप करते समय भी हमें प्रार्थना करनी चाहिए। श्रीकृष्ण चैतन्य, जो राधा और कृष्ण के भाव हैं। नित्यानंद प्रभु जो आदि गुरु हैं, श्री अद्वैत आचार्य जो पंचरात्रिक रात्रि की विधि सिखाने वाले हैं। गदाधर जो राधा हैं जिन्होंने अपना भाव कृष्ण को प्रदान किया है, साथ में कृष्ण को आश्वासन देने के लिए आती हैं। उस भाव के द्वारा भक्ति को कैसे अनुभव किया जाए वह सिखाने के लिए आती हैं। श्रीवास आदि जो नारद मुनि हैं जो भागवत विधि सिखाने के लिए आए हैं। गौर भक्त बाकी सब गौर भक्त वृंदों के चरणों में हम आश्रित होकर नाम जपते हैं। इस तरह हम इस मंत्र को निरपराध भावना के साथ जब जपते हैं अर्थात इस पंचतत्व महामन्त्र को बोलकर तब हम *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* गाते हैं तब इस तरह हमें महान महान व्यक्तियों की कृपा प्राप्त होती है। हमें नाम जप में शामिल होना चाहिए, ऐसा प्रभुपाद जी बताते हैं। उसके द्वारा नाम जप में रुचि बढ़ेगी, नाम जपने से अपराध निकल जाएगा। इन पंचतत्व के महान अवतारों की कृपा हमारे जीवन में प्राप्त होगी। इस तरह से प्रभुपाद ने पंचतत्व मंत्र देकर सारी दुनिया में पाश्चात्य देशों में लोगों के अपराधों को हटाकर हरिनाम में रुचि प्रदान की है।
श्रील प्रभुपाद की जय!
श्री नाम प्रभु की जय!
गौर भक्त वृंद की जय!
गदाधर पंडित की जय!
हरे कृष्ण!!!
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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा -27 -04 -2022*
(धर्मराज प्रभु द्वारा )
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥*
*वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च।श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥*
*साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं। श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश्च।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धु दीनबंधु जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तू:ते।।*
*तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्वरि वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये॥*
*वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
*जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥*
सर्वप्रथम मैं गुरु महाराज के श्री चरण कमलों में प्रणाम करता हूं और साथ ही साथ उपस्थित समस्त भक्त वृन्दों के चरणों में भी प्रणाम करता हूं और साथ ही साथ सभी से कृपा की याचना करता हूं। आज के इस जपा टॉक में बोलने के लिए हरे कृष्ण, जैसा कि सभी जानते हैं की भक्ति में प्रगति करने के लिए नहीं अपितु भक्ति करने के लिए भी बहुत अधिक श्रद्धा और विश्वास की आवश्यकता होती है अगर व्यक्ति के अंदर श्रद्धा नहीं है तो उसके भक्तिमय जीवन की शुरुआत तो हो ही नहीं सकती और फिर आगे प्रगति होने का सवाल ही पैदा नहीं होता और यह भी हमें पता होना चाहिए और पता भी है जैसे पहले श्रद्धा है और फिर बाद में साधु संग है। अनर्थ निवृत्ति है और फिर यह अंत में प्रेम तक पहुंचते हैं तो ऐसा लग सकता है कि हमें कि श्रद्धा तो केवल शुरुआत में ही उचित है प्रेम में पहुंचने के बाद फिर हमें श्रद्धा की कोई आवश्यकता नहीं है। जबकि श्रद्धा तो हर एक स्टेप पर आवश्यक है लेकिन जो प्रारंभ की श्रद्धा है वह बहुत ही कोमल श्रद्धा है। जैसे श्रद्धा है फिर साधु संग है, भजन क्रिया है, अनर्थ निवृत्ति फिर रुचि, आसक्ति, निष्ठा, भाव, प्रेम यह जो स्तर है बहुत ही गहराई में है इसमें श्रृद्धा है और बहुत ही विशेष रूप से भगवान की ओर ले जाने वाली यह श्रद्धा है। आज हम उसी श्रद्धा और विश्वास से संबंधित बात करेंगे जैसे कि एक श्लोक है जिसका कि हम प्रतिदिन उच्चारण करते हैं प्रसाद लेने से पहले
*महाप्रसादे गोविन्दे नमोः ब्रह्मणि वैष्णवे स्वल्पपुण्यवताः राजन विश्वासो नैवजायते।।*
अनुवाद – हे राजन! जो अल्प पुण्य वाले लोग हैं वो भगवान के प्रसाद में, भगवान में ब्राह्मण में, परब्रह्म में और भगवान के भक्तों मे विश्वास नहीँ करते हैं।।
यह बहुत प्रसिद्ध है और इसमें यह बताया गया है कि महाप्रसाद में, गोविंद में, नाम ब्रह्म में, या ब्राह्मणों में और वैष्णव में उनका विश्वास नहीं होता है जिनका क्या है ? स्वल्पपुण्यवताःराजन, स्वल्प पुण्य जिनके पास पुण्य की कमी है या पुण्य की पूंजी कम है उनका इन चीजों में विश्वास नहीं होता ऐसा बताया गया है और साथ-साथ यह भी बताया है गीता के श्लोकों में,
*येषांत्वन्तगतंपापंजनानांपुण्यकर्मणाम् | तेद्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताभजन्तेमांदृढव्रताः ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 7.28 )
अनुवाद: जिन मनुष्यों ने पूर्व जन्मों में तथा इस जन्म में पुण्य कर्म किये हैं और जिनके पाप कर्मों का पूर्ण तया उच्छेदन हो चुका होता है,वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं |
भगवान कहते हैं जिनके हृदय की पाप पूर्ण प्रवृत्ति पूर्ण रूप से नष्ट हो चुकी है और जो पुण्य कर्मों में लगे हुए हैं, भौतिक जगत का जो द्वंद है, दोनों द्वंदों से परे होकर दृढ़ता से मेरी, दृढ़ व्रता होकर इस प्रकार से मेरी भक्ति करते हैं। अब यहां जो पुण्य की बात हो रही है, यह कौन सा पुण्य है ? एक पुण्य वह जो प्रसिद्ध पुण्य है, स्वल्प पुण्य, जो हमें स्वर्ग लोक में लेकर जा रहा है। एक बार ऐसा हुआ जब हम लोग बातचीत कर रहे थे उसमें से एक व्यक्ति जो थोड़ा सा लीडर था वह कहने लगा कि हम सभी स्वर्ग में जाना चाहते हैं और स्वर्ग में जाने के लिए सभी लालायित हैं। स्वर्ग में जाने के लिए क्या करना है? कैसे उस पर चर्चा हो रही थी। उसने कहा मान लीजिए जैसे हमें अमेरिका में जाना है तो वहां जाने के लिए वहां की करेंसी होना हमारे पास जरूरी है। हम क्या करते हैं यहां की करेंसी को वहां की करेंसी में कन्वर्ट करते हैं जिससे हम वहां जाकर जो अतिरिक्त कार्य है, वह हम वहां कर सकें, बता रहे थे कि जैसे ही हम वहां की करेंसी को कन्वर्ट करके वहां जाते हैं और वहां की करेंसी को लेते हैं उसी प्रकार यदि हमें जाना है तो पुण्य की आवश्यकता है कहां की करेंसी है पुण्य है? हम उस पुण्य का कैसे क्या करेंगे अगर दान और कर्म करेंगे तो क्या होगा, दान और धर्म जो है वह पुण्य में कन्वर्ट हो जाएगा और फिर उस पुण्य के द्वारा हम स्वर्ग में जा सकते हैं। उसने बताया लेकिन यहां जो पुण्य की बात हो रही है वह स्वर्ग का पुण्य नहीं है क्योंकि स्वर्ग का पुण्य क्या हो जाता है ?
*तेतंभुक्त्वास्वर्गलोकंविशालं क्षीणेपुण्येमर्त्यलोकंविशन्ति ।एवंत्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतंकामकामालभन्ते ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 9.21)
अनुवाद -इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रिय सुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्य कर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनःलौटआते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रह कर इन्द्रिय सुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है |
क्योंकि पुण्य समाप्त होने के बाद हमें यहां वापस आना होता है और हमें फिर दूसरा पुण्य चाहिए। हमें ऐसा पुण्य चाहिए जो हमें गोलोक वृंदावन में ले जाए अभी मैंने यह जो श्लोक कहा *येषांत्वन्तगतंपापंजनानांपुण्यकर्मणाम* प्रभुपाद जी कहते हैं कौन सा पुण्य ? वह कोई स्वर्ग में लेकर जाने वाला पुण्य नहीं, वह कहते हैं भगवान के धाम में भक्ति वाला पुण्य है, इसीलिए यदि वह हम प्राप्त कर रहे हैं जाने के लिए, तो हमें क्या करेंसी, हम देते हैं तो उसके लिए क्या है
श्रीप्रह्रादउवाच
*श्रवणंकीर्तनंविष्णो: स्मरणंपादसेवनम्।अर्चनंवन्दनंदास्यंसख्यमात्मनिवेदनम्॥* (श्रीमदभागवतम 7.5.23 )
अनुवाद – प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान विष्णु के दिव्य पवित्रनाम, रूप, गुण, सामग्री और लीलाओं के बारे में सुनकर और जप करना, उनका स्मरण करना, भगवान के चरण कमलों की सेवा करना, सोलह प्रकार की सामग्री के साथ भगवान की सम्मान जनक पूजा करना, भगवान उनका सेवक बनकर, भगवान को अपना सबसे अच्छा दोस्त मानते हुए और सब कुछ उन्हें समर्पित करना (दूसरे शब्दों में, शरीर, मन और शब्दों के साथ उनकी सेवा करना) – इन नौ प्रक्रियाओं को शुद्ध भक्ति सेवा के रूप में स्वीकार किया जाता है।जिसने अपना जीवन इन नौ विधियों के माध्यम से कृष्ण की सेवा में समर्पित कर दिया है, उसे सब से अधिक विद्वान व्यक्ति समझा जाना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
यह जो नवधा भक्ति है इसको करने से क्या होता है, हमारे अंदर भक्तों के प्रति श्रद्धा का विकास हो जाता है और क्या होता है उसका एक विशेष पुण्य हमें प्राप्त हो जाता है जैसा कि श्रीमद्भागवत में ही कहा है।
*शृण्वतांस्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन: ।हृद्यन्त:स्थोह्यभद्राणिविधुनोतिसुहृत्सताम्॥* * (श्रीमदभागवतम 1.2.17)
अनुवाद – श्रीकृष्ण, भगवान के व्यक्तित्व, जो हर किसी के दिल में परमात्मा हैं और सच्चेभक्त के उपकार हैं, भक्त के दिल से भौतिक भोग की इच्छा को साफ करते हैं, जिसने उनके संदेशों को सुनने की इच्छा विकसित की है, जो अंदर हैं जब ठीक से सुना और जप किया जाता है तो वे स्वयंगुणी होते हैं।
जो कोई भगवान श्रीकृष्ण के बारे में श्रवण या कीर्तन करता है तो क्या होता है उसको एक पुण्य प्राप्त हो जाता है और उससे क्या होता है कि भगवान सबके हृदय में विराजमान होते हैं। भगवान जब तक इस ह्रदय में विराजमान हैं जैसे भगवान देखते हैं कि मेरे बारे में जो कोई श्रवण आदि कर रहा है, भक्तों के हृदय में पूर्ण रूप से जो अभद्रता विद्यमान होती है उसका नाश हो जाता है। कैसे ? श्रवण कीर्तन करने से, वह समाप्त हो जाता है और हमें विशेष पुण्य प्राप्त हो जाता है और इस पुण्य के द्वारा हमारा जो विश्वास है हमारी श्रद्धा है, इस महाप्रसाद में, गोविंद में, उनके नाम में, ब्राह्मणों में, वैष्णव में, हमारी श्रद्धा बढ़ेगी क्योंकि अभी हम स्वल्पपुण्यवता: नहीं हैं। तो क्या हैं ?हमें अच्छा पुण्य प्राप्त हुआ है। क्या करने से? श्रवण कीर्तन करने से, जैसे उपनिषदों में कहा है कि
*यस्यदेवेपराभक्तिःयथादेवतथागुरौ। तस्यमहात्मनःकथिताःएतेअर्थाःप्रकाशन्ते॥* (श्रीमद भगवद्गीता 6.23)
अनुवाद – किन्तु जिसके हृदय में ‘ईश्वर’ के प्रति परम प्रेम तथा परमा भक्ति है तथा जैसी ‘ईश्वर’ के प्रति है वैसी ही ‘गुरु’ के प्रति भी है, ऐसे ‘महात्मा’ पुरुष को जब ये महान विषय बताये जाते हैं, वे स्वतःअपने अन्तर अर्थों को उद्घाटित कर देते हैं, सचमुच, उस ‘महात्मा’ के लिए वे स्वतःप्रकाशित हो जाते हैं।
भगवान में जिनकी पूर्ण रूप से या उचित रूप से श्रद्धा है अविचलित रूप से श्रद्धा है उन्हीं के ह्रदय में, शास्त्र का जो ज्ञान है वह पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। ह्रदय में प्रकाश उत्पन्न होता है और प्रकट होता है ज्ञान क्योंकि केवल सुनते हैं और ऐसा होता है कि श्रद्धा ,यदि हमारी पूर्ण रूप से नहीं है, गुरु के वचनों में और फिर भगवान में, तो क्या होगा ? श्रद्धा के अभाव के कारण हम वह प्राप्त नहीं कर पाएंगे जो शास्त्र का विशेष ज्ञान है। मुझे स्मरण है कि 1994 में जब मैं दिल्ली में था वहां सेंट्रल ऑफिस था एक लक्ष्य है, एक प्रसंग है, गुरु महाराज वृंदावन जा रहे थे और गुरु महाराज की विशेष कृपा से मैं भी पिछली सीट पर बैठा था और जैसे ही वृंदावन में प्रवेश हुआ तो गुरु महाराज ने पूछा कि वृंदावन के बारे में कुछ सुना है ? मैंने कहा सुना है लेकिन आप के मुख से भी कुछ सुनना चाहता हूं। गुरु महाराज ने कहा कि यहां वृंदावन में स्वयं कृष्ण रहते हैं यशोदा और नंद महाराज भी यही रहते हैं। ऐसे कहा, मानो मुझे ऐसा लग रहा था दूसरा कोई कहे या सुने तो लगे कि हां कृष्ण रहते हैं लेकिन मुझे यही इतना अलग महसूस हुआ, ऐसा लगा कि गुरु महाराज की वाणी मेरे ह्रदय के अंदर जाकर पहुंच रही है तो यह बहुत आवश्यक है कि गुरु के वचनों में श्रद्धा बहुत महत्वपूर्ण चीज है। एक बार की बात है की प्रभुपाद 1976 में तेहरान में थे तो उन्होंने कथा बताई थी बताया था शिव और पार्वती के बीच में, दोनों ही ऐसे एक गांव से गुजर रहे थे लेकिन वह अपने साधारण वेष में थे और जब जा रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक भिखारी था गांव में तो पार्वती जी को उस भिखारी पर दया आई , उन्होंने शिवजी से कहा कि प्रभु उसको कुछ तो दीजिए, शिव जी ने कहा इसको दे कर भी कुछ लाभ होने वाला नहीं है लेकिन पार्वती ने जिद की कुछ तो दीजिए तब शिवजी ने क्या किया उनके पास खरबूजा था, उस खरबूजे में बहुत सारा सोना हीरा मोती जवांहरात भर कर उसको दे दिया और वह दोनों चले गए , भिखारी ने सोचा कि मैं उस खरबूजे का क्या करूंगा, इसी प्रकार से हम देखते हैं कि कृष्ण हमको कम दाम में कुछ गुण कुछ कृपा इत्यादि देने को तैयार हैं लेकिन क्या हो रहा है कि हम तैयार नहीं हैं हमारी वह श्रद्धा नहीं है उनमें, इसीलिए हम उसको प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं कृष्ण का जो विशेष ज्ञान है उसको प्राप्त करना श्रद्धा का अभाव और माया का प्रभाव यह चल रहा है। इसीलिए श्रद्धा के कारण क्या होता है कि यदि हमारी श्रद्धा गलत स्थानों में पहुंच जाए तो भी इसका कोई फायदा नहीं है , जैसे चैतन्य महाप्रभु जब वृंदावन में उन्होंने प्रवेश किया था तब का यह प्रसंग है। चैतन्य महाप्रभु अक्रूर घाट पर थे और तब उन्होंने सुना, उनमें आपस में चर्चा हो रही थी कालिया दाह जहां पर है हमने वहां पर कृष्ण को देखा है और फिर बलभद्र भट्टाचार्य जो चैतन्य महाप्रभु की सेवा में थे। वह भी कहते हैं कि प्रभु मैं भी यहाँ कृष्ण का दर्शन करना चाहता हूं, काले रूप में कृष्ण वहां स्वयं ही आए हैं। कालिया नाग पर कृष्ण नृत्य कर रहे हैं लोगों ने कहा, चैतन्य महाप्रभु को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा उन्होंने एक झापड़ मारा और कहा नहीं यह तो मूर्खता है। लोग कह रहे हैं कि कृष्ण ऐसे कैसे प्रकट हो सकते हैं आप जैसा बता रहे हो वैसा नहीं है। यह सही नहीं है यह गलत हो गया, फिर कुछ ने कहा कि कृष्ण तो पास में ही हैं प्रभुपाद ने यहां पर बताया है आप कृष्ण को कहां ढूंढ रहे हो, और कुछ समय के बाद कुछ लोग और आ जाते हैं वृंदावन में और कहते हैं कि आप लोग जो कह रहे हैं कि कृष्ण को देखा यह सही है या गलत है ? वह कहते हैं कि नहीं कृष्ण को नहीं देखा, वहां रात में एक मछुआरा है वह नाव में होता है और उसके पास एक मशाल भी होती है और वह मछली पकड़ने के लिए जाता है और हमको क्या लगता है कि नाव मतलब जो की कालिया है और मछुआरे को देखकर उनको लगता है कि यह कृष्ण है और उनके हाथ में जो मशाल होती है उसको देख कर लगता है कि यह कालिया के फन पर जो हीरे हैं वह चमक रहे हैं। ऐसा लगता है वह गलत है लेकिन वह लोग कह रहे हैं महाप्रभु से कि आप तो सन्यासी हो आप नारायण बन गए हो आप ही नारायण हो तब महाप्रभु कहते हैं कि विष्णु ! विष्णु ! आप क्या कह रहे हो आप ऐसे जीवों को, भगवान कह रहे हो गलत है। यह वास्तव में तो वह स्वयं भगवान ही हैं फिर भी वह कह रहे हैं कि वास्तव में कोई सन्यास लेने से ही भगवान नहीं बन जाता या कोई मछुआरा वहां गया (जल में गया) कृष्ण जैसा लग रहा है किंतु वह कृष्ण नहीं है। मतलब उनकी श्रद्धा जो है, वह श्रद्धा तो है लेकिन वह सही श्रद्धा नहीं है और इस श्रद्धा के द्वारा भगवान का प्रेम प्राप्त होने वाला नहीं है। इसी प्रकार यदि गलत स्थान पर हम श्रद्धा दिखाते हैं तो इससे हमें कुछ भी लाभ प्राप्त होने वाला नहीं है, क्योंकि हमको लगता है अरे इतनी श्रद्धा है हमारी फिर भी क्यों प्रगति नहीं हो रही, कारण यही है क्योंकि 4 कुमार थे उनकी श्रद्धा या विश्वास भगवान का जो निराकार तत्व है उसमें था, वैसे उन्होंने ब्रह्मा जी के मुख से अपने पिता के मुख से भगवान के बारे में सुना था उनके रूप के बारे में भी सुना था लेकिन उसके बावजूद भी भगवान के रूप के प्रति जो आकर्षण है या जो श्रद्धा है वह प्रकट नहीं हो पाई थी निराकार जो थे वही थे और जब वैकुंठ में वहां गए जय विजय के साथ जो बातचीत वगैरह हुई और उन्होंने देखा कि बैकुंठ के द्वार में स्वयं भगवान आए हैं। उनको देखा और दंडवत किया और जैसे ही दंडवत किया एक विशेष चमत्कार हो गया उनके जीवन में क्या हो गया।
*तस्यारविन्दनयनस्यपदारविन्द-किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायु: ।अन्तर्गत: स्वविवरेणचकारतेषां सङ्क्षोभमक्षरजुषामपिचित्ततन्वो: ॥* (श्रीमदभागवतम 3.15.43)
अनुवाद- जब भगवान के चरणकमलों से तुलसी के पत्तों की सुगंध लेकर उन ऋषियों के नथुनों में प्रवेश किया, उन्होंने शरीर और मन दोनों में परिवर्तन का अनुभव किया, भले ही वे निराकार ब्रह्मज्ञान से जुड़े हुए थे।
मतलब कमल जैसे आंखों वाले जब भगवान को देखा और कमल जैसे चरणों की ओर जब वे झुके (चारों कुमार), वहां से जो वायु प्रवाहित हुई चरणों के पास से होकर और जैसे ही उसने उनके नथुनों में प्रवेश किया उस वायु ने वायु सिर्फ केवल कहने वाली वायु नहीं थी उसमें क्या मिश्रण हुआ था ? प्रभुपाद जी बताते हैं कि भगवान के चरणों में जो आरती या तुलसी जो अर्पण करते हैं उसकी सुगंध थी ही, किंतु भगवान के चरणों में भी जो सुगंध थी दोनों का मिश्रण होकर उनके जो नथुनों में प्रवेश किया तो उससे क्या हो गया उससे चमत्कार जैसे हो गया, क्या हो गया ? भगवान के निराकार तत्व में उनका जो ज्यादा श्रद्धा थी वह तुरंत बदल गयी और शरीर में एक विशेष परिवर्तन हो गया उनको भगवान के रूप में जो इतनी विश्वास और श्रद्धा और भगवान के चरणों का सुगंध लेते ही तुलसी जी की , क्या हुआ ?परिवर्तन आ गया और विशेष श्रद्धा उनको प्राप्त हो गयी, उन्होंने सुना था लेकिन क्या था भगवान से वे कहते हैं कि हमने ब्रह्मा जी से सुना था आपके बारे में तब इतना पूरी श्रद्धा और विश्वास नहीं था लेकिन आज क्या हुआ कि आपके चरणों में तुलसी की सुगंध को सूंघने के उपरांत हमें एक विशेष अनुभव हुआ हमें आपके रूप का साक्षात्कार हो गया दर्शन हो गया तो यह श्रद्धा हो गयी। ऐसे श्रद्धा के अलग-अलग नाम है श्रद्धारूप, निष्ठा रूप, लेकिन हम यह जो चर्चा कर रहे हैं यह श्रद्धा अभी मैं बताऊंगा कि भगवान मेरी हर समय रक्षा करेंगे श्रद्धा भी होना बहुत जरूरी है *अवश्य रक्षीबे कृष्ण*, श्री कृष्ण से श्रद्धा यह विश्वास बड़ा जरूरी है।
*अनुकुल्यस्यसंकल्प: प्रतिकुल्यविवर्जनम ।रक्षित्यतितिविश्वसोगोपतीत्वेवाराणसींतथा | आत्मानिकेपकारपाण्येशंविधाशरणगति: ||* (चैतन्य चरितामृत मध्य 11.676)
अनुवाद – समर्पण के छह विभाग हैं भक्ति सेवा के अनुकूल उन चीजों की स्वीकृति, प्रतिकूल चीजों की अस्वीकृति, यह विश्वास कि कृष्ण सुरक्षा देंगे, भगवान को अपने संरक्षक या स्वामी के रूप में स्वीकार करना, पूर्णआत्म-समर्पण और विनम्रता। .
भगवान कब रक्षा करेंगे जैसे प्रल्हाद महाराज इतना विश्वास और श्रद्धा थी भगवान में, उन्होंने इतना श्रवण किया था नारद मुनि के आश्रम में अपनी मां के गर्भ में, वैसे पंढरपुर के पास में ही वह स्थान है लेकिन यहां नरसिंहपुर नाम का एक स्थान है वहां पर अभी भी जहां नारद मुनि का आश्रम हुआ करता था वह आज भी वह आश्रम है और वहां नारद मुनि और प्रल्हाद की माता वहीं पर थे अर्थात कयाधु नारद मुनि के आश्रम में थी और वहीं पर उन्होंने श्रवण किया था इसीलिए उनका इतना प्रभाव था इतनी श्रद्धा उनकी तीव्र हो गई थी भगवान के प्रति कि भगवान मेरी जरूर रक्षा करेंगे।
*दैन्य, अत्मानिवेदन, गोप्तृत्वेवरण।‘ अवश्यरक्षिबेकृष्ण-विश्वास,पालन।।*
अनुवाद – दैन्य, ठाकुर जी से आत्मनिवेदन करना, प्रभु को अपने पालनकर्ता के रुप में अनुभव करना, श्रीकृष्ण मेरी अवश्य रक्षा करेगें, ऐसा दृढ़ विश्वास रखना।
तो कहीं भी हो चाहे वह पहाड़ियों से हो, ऊपर से नीचे फेंका गया या फिर उनको आग में डाला गया और उनको जहर दिया सांपों के बीच में छोड़ दिया और हाथी के पैरों के नीचे कुचला और प्रयास किया , ऐसे हर स्थिति में उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा कि क्या कर रहे हो कि मैं तो एक छोटा बच्चा हूं, बालक हूं आप मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहा उन्हें पूर्ण विश्वास था कि भगवान मेरी रक्षा करेंगे। मारने वालों ने उनसे पूछा तू तो छोटा बालक है तुझे डर नहीं लग रहा है जब हमने तुझे ऊपर से फेंका तुम मरे क्यों नहीं कैसे मरेंगे , तब प्रल्हाद महाराज ने कहा कि भगवान मेरे पिता हैं और लक्ष्मी जी मेरी मां हैं और जब मैं नीचे गिर गया था पृथ्वी माता जो लक्ष्मी माता जैसी ही है उन्होंने मेरी रक्षा की, वहां पर ऐसा वह कह रहे है फिर उनको पूछा कि और जो हमने तुमको विष दिया था तो उसको पीने से तुम क्यों नहीं मरे थे ? यहां तो थोड़े से विष से ही आदमी मर जाता है इतना विष का प्याला तुम्हें पीने को दिया फिर भी तुम नहीं मरे? यह कैसे हुआ तो प्रल्हाद महाराज बहुत शांत स्वभाव में कहते हैं कि जैसे समुद्र मंथन में मेरी माँ लक्ष्मी जी प्रकट हो गयी उसी प्रकार विष भी समुद्र मंथन से ही प्रकट हुआ इसलिए विष है, मेरी मौसी जैसे हैं इसीलिए मेरा रक्षण हो गया वहां पर और फिर सांपों के बीच में जब छोड़ा तब क्यों नहीं मरे तुम? कितने जहरीले सांप थे। प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि वह तो मेरे पिताजी के भाई हैं और इसलिए क्या है कि वह अनंत शेष है और क्या है वह मेरे चाचा हैं तो इसीलिए जब मैं सर्पो के बीच में गया तो मेरे चाचा ने मेरी रक्षा की और फिर वह अलग अलग पूछते हैं। इस प्रकार जब अलग-अलग प्रयास किया और उन्होंने देखा कि वह मर नहीं रहा है मुझे ही कुछ करना होगा हिरण्यकशिपु ने सोचा , उसने कहा कि कहां है तुम्हारा भगवान ? क्या इस महल में है क्या इस खंभे में भी है ? प्रह्लाद महाराज ने कहा था हाँ, हिरण्यकशिपु कहता है कि मेरे महल के खंभे में तेरा भगवान क्या कर रहा है ? प्रल्हाद महाराज ने कहा कि मेरा ही नहीं यह आपका भी है इस प्रकार श्रील प्रभुपाद इंटरव्यू दे रहे थे इंटरव्यू में क्या हुआ मुझे याद नहीं कि वहां एक स्टूडियो था या क्या था या मंदिर था इतना मुझे स्मरण नहीं मैं उस वीडियो को भी देख रहा था वहां बहुत बड़ा बहुत सुंदर कृष्ण का चित्र था पेंटिंग था इंटरव्यू में जो इंटरव्यू ले रहा था उसने श्रील प्रभुपाद से पूछा स्वामी जी यही वो भगवान हैं उंगली दिखा कर कहा थोड़ा अच्छे भाव से नहीं कहा, यही आपके भगवान हैं ? श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यह मेरे ही नहीं आपके भी भगवान हैं केवल अंतर इतना है कि आपकी वह श्रद्धा नहीं है आप भगवान को स्वीकार नहीं कर रहे हो। इससे हम समझ सकते हैं कि भगवान को हम श्रद्धा के अभाव से स्वीकार नहीं करते हैं भक्तों के संग में जब आते हैं तो श्रद्धा हमारी क्या होती है और अधिक बढ़ती है. इसीलिए कहते हैं ना ,
*कृष्ण-भक्ति-जन्म-मूलहया ‘साधु-संग’ । कृष्ण-प्रेमजन्मे, तेहोपुन: मुखियाअंग।।*
अनुवाद – “भगवान कृष्ण की भक्ति सेवा का मूल कारण उन्नत भक्तों के साथ जुड़ाव है। यहां तक कि जब कृष्ण के लिए निष्क्रिय प्रेम जागता है, तब भी भक्तों के साथ संगति सबसे आवश्यक है।
कृष्ण भक्ति का जो जन्म है वह कैसे होता है? साधु संतो के संग में होता है और श्रद्धा बढ़ जाती है उनके संग में , साथ ही साथ क्या होता है कि हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि चलो कृष्ण भक्ति तो बढ़ रही है साधु संग में, अब मुझे कोई आवश्यकता नहीं है साधु संग प्राप्त करने की, नहीं ,कृष्ण भक्ति प्राप्त होने के बाद भी हमें क्या करना है साधु संतों का संग लेना है क्योंकि उनके संग के बिना हमारी गाड़ी आगे नहीं जा सकती। एक बार ऐसा हुआ कि एक छोटा बालक था और उसका एक्सीडेंट हो गया और एक्सीडेंट होने के कारण उसको अस्पताल में भर्ती कराया गया और उसके सर पर कुछ चोट आई थी और बाद में उसके माता-पिता सामने आ गए और फिर डॉक्टर ने कहा उसकी पट्टी वगैरा खोली और उस बालक से कहा कि देखो तुम्हारे मम्मी डैडी आ गए हैं। उस बच्चे ने कहा कि मम्मी डैडी मैं तो जानता नहीं हूं मैं तो इनको पहचानता नहीं हूं उसके मम्मी पापा हैरान रह गए कि यह बच्चा ऐसा क्यों बोल रहा है ,यह तो अभी 1 घंटे पहले की बात है यह तो जानता था और ऐसा क्या हो गया यह पहचान ही नहीं रहा है। डॉक्टर ने कहा कि यह क्या हो गया लगता है इसने अपनी याददाश्त खो दी है, इसीलिए यह सब कुछ भूल गया। इसी प्रकार हमें क्या करना चाहिए तभी कहते हैं इसको अकेले में मत छोड़ो , क्या करो? जिन जिन के साथ में रहा है उनके साथ में रखो इसको , इससे क्या होगा कि उन सबके साथ रहते रहते धीरे-धीरे इसको स्मरण हो जाएगा कि आप उसके मम्मी पापा हो या भाई है, यह सब याद आ जाएगा उसी प्रकार हमने भी अपनी याददाश्त खो दी है। हम भगवान के धाम में थे जैसे हम भौतिक जगत में आ गए तो हम भूल गए कि हम कौन हैं? कहां से आए हैं? अभी हमको याददाश्त नहीं है। हमको कुछ याद नहीं आ रहा इसीलिए हम को कहा जा रहा है कि आप अकेले मत रहो, क्या करो आप भक्तों के संग में रहो। भक्तों के संग में रहने से क्या लाभ होगा कि आपको भगवान के प्रति सब कुछ याद आने लगेगा हां सही बात है यह गोलोक वृंदावन में था, खेल रहा था बातें कर रहा था या फिर में गोपी थी, गोपियों के साथ कृष्ण के साथ रासलीला हो रही थी यह सब हमको स्मरण होगा, जब स्मरण होगा तो हमारे लिए बहुत आसान हो जाएगा भगवान के धाम में जाना, जैसे कल ही गुरु महाराज बता रहे थे तो बहुत अच्छा लगा मुझे जो मंगल आरती है, मंगल आरती हमारे जीवन को मंगलमय बनाती है और गुरु महाराज बता रहे थे हमें इस प्रकार हम देखते हैं सुबह का जो समय है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है भक्तों के लिए मॉर्निंग प्रोग्राम क्योंकि भगवान गोलोक में जल्दी उठ जाते हैं अपने धाम में और यशोदा मैया सजाती हैं और जो उनके सारे ग्वाल बाल मित्र हैं, वे सभी जल्दी जल्दी उठ कर उनके पास जाते हैं और यदि हमें सुबह जल्दी उठने की आदत नहीं है या इस मॉर्निंग प्रोग्राम में हमारी श्रद्धा नहीं है या विश्वास नहीं है हम यहां अगर उठेंगे नहीं तो वहां जाने का सवाल ही नहीं आता हम वहां जाएंगे भी नहीं कभी। इसीलिए हमें यहां उठने का अभ्यास करना चाहिए इसीलिए हमारी श्रद्धा को बढ़ाने के लिए साधु संग है और गुरु महाराज विशेष रूप से हमें यह ज़ूम टेंपल के माध्यम से यह श्रद्धा को विकसित करने के लिए, क्या करते हैं हमें विशेष प्रेरणा दे रहे हैं विशेष कृपा हम पर बरसा रहे हैं। यह संग बहुत आवश्यक है तो यदि हम इस संग से वंचित रहेंगे तो क्या होगा हमें जो भगवान का स्मरण होना चाहिए या भगवान के धाम में जाने का जो स्मरण है वह जरूरी है, जैसे गुरु महाराज कहते हैं जपा सेशन में ही कल एक माता जी का नाम था नित्य लीला माताजी तो गुरु महाराज ने कहा कि नित्य लीला का स्मरण कर रही हो, वह पूछ रहे थे तो इस प्रकार से क्या है यहां अगर पूरा तैयारी में है तभी वहां पहुंच सकते हैं अर्थात गुरु के वचनों में श्रद्धा जैसे उन्होंने कहा कि तुम नित्य लीला का स्मरण करोगी। गुरु महाराज के मुख से वह वचन आया इसका अर्थ है कि वह सही ही होगा निश्चित रूप से गुरुमुख पद्म वाक्य चितेते करिया ऐक्य यह श्रद्धा और यह विश्वास यदि हमारे अंदर नहीं है तब क्या होगा? फिर होगा कि हम वहीं के वहीं रह जाएंगे और जो हमको आगे जाना है, आगे जो बढ़ना है वह इतना संभव नहीं हो पाएगा तो जैसा कि हमने कहा कि श्रद्धा वह चाबी है जो जितना अच्छा हम कमाएंगे क्या हो जाएगा यह सारा जो साधु संग है और यह सब बाद में क्या हो जाएगा धीरे-धीरे हम आगे आगे बढ़ते जाएंगे और प्रभुपाद जी ने कहा है इट्स रियल प्रोसेस ऐसा नहीं है कि एक रात में पूरा चमत्कार हो गया ऐसा नहीं होगा क्योंकि यदि पहले जीवन में उसने अच्छी श्रद्धा विकसित की है, उसको यदि अच्छा संग प्राप्त हुआ जैसा कि हम प्रल्हाद महाराज का उदाहरण देखते हैं तो तुरंत ही होगा ज्यादा समय नहीं लगेगा, लेकिन जो बहुत समय से नहीं कर पाए हैं अभी अभी शुरुआत की है उनको थोड़ा समय लगेगा लेकिन फिर भी यह हमारी भक्ति तीव्रता के अनुसार है प्रभुपाद से किसी ने पूछा की प्रभुपाद भगवान की शुद्ध भक्ति कब तक प्राप्त हो सकती है। प्रभुपाद जी ने कहा बस 2 मिनट में या फिर आपको जन्म भी लग सकते हैं यह हमारे ऊपर है उपदेशमृत के पहले जो भूमिका है उसमें देखते हैं कि भक्तों की जो मनोवृति है उस पर निर्भर है कि हमारी कितनी प्रगति होती है, हमारी मनोवृति अगर भगवान में या फिर जैसे कि हमने शुरुआत की महाप्रसाद में , यह सब जो बताया है इनमें यदि श्रद्धा नहीं है तो फिर आगे बढ़ना बहुत मुश्किल है और सदैव स्वल्पपुण्यवता ही रहेंगे। हम यह पुण्य प्राप्त नहीं होंगे। हमारी गाड़ी वहीं घूमेगी इसीलिए महाप्रसाद में श्रद्धा मतलब क्या है ? महाप्रसाद में श्रद्धा का मतलब यह नहीं है कि दिन भर महाप्रसाद खाओ वह अच्छा भी है लेकिन महाप्रसाद इस भाव से लेना चाहिए जैसे हमने सुना था कि प्रभुपाद की जो शिष्य गोविंद माता जी है वह क्या करती है जैसे ही महाप्रसाद आता है, लगभग 20 मिनट तक वह प्रार्थना करती रहती है महाप्रसाद की वह स्तुति करती हैं, महाप्रसाद को लेने के लिए एक अलग प्रकार की कॉन्शियस डेवेलप करना पड़ती है वह लेते समय इस भाव से लेती हैं कि यह साक्षात क्या है, भगवान का ही रूप है इस भाव से, प्रसाद मतलब प्रभु का साक्षात दर्शन और गोविंद में भगवान में श्रद्धा कब बनेगी श्रवण करने से श्रवण कीर्तन भगवान के नाम में, या नाम ब्रह्म में, श्रद्धा तो शुद्ध भक्तों के मुख से जब नाम श्रवण करते हैं तो क्या होता है। प्रभुपाद घाट पर जब वहां मैं जप करता था तो वहां पर श्रील प्रभुपाद जी का एक कीर्तन लगाया हुआ था। हरे कृष्ण का जो कि बहुत प्रसिद्ध है और बीच में प्रभुपाद जी भी जपा टॉक, वैसे प्रभुपाद जी ने ही जपा टॉक शुरू किया है, पहले से जपा के बीच में जपा टॉक प्रभुपाद जी बोल रहे थे बताते हैं कि यह भगवान का नाम है इतना महान है तो मैं सुन रहा था कि प्रभुपाद जी को , वह शुद्ध भक्तों का जो हमें संग है ,ज्यादा कोई मेहनत नहीं कर रहे हैं प्रभुपाद जी ने सब कुछ रेडी रखा है केवल इतना है कि हमें श्रद्धा से उसको लेना है बस इतना, जितना हम लेते रहेंगे और वही जो श्रद्धा है वह लेते लेते बढ़ते बढ़ते क्या हो जाएगी एक प्रेम के रूप में ,जैसे कोई एक कली होती है कलि मतलब कलयुग नहीं, कली अर्थात फूल वाली कली छोटी सी है लेकिन धीरे-धीरे विकसित होकर वह फूल में परिवर्तित हो जाती है, ठीक उसी प्रकार हमारी जो पहले बहुत कोमल श्रद्धा है जैसे गुलाब का फूल उसको यदि हम ऐसे ही लाएंगे तो क्या होगा उसकी पंखुड़िया नीचे गिर जाएंगी। इसीलिए शुरुआत में श्रद्धा को और अधिक बढ़ाने के लिए हमें श्रवण करना निरंतर गुरु की आज्ञा का पालन करना और इस प्रकार से होते होते हमारी श्रद्धा इतनी मजबूत हो जाएगी कि कोई हमारी श्रद्धा को हिला नहीं पाएगा और वही फिर हमें प्रेम तक लेकर जाएगी भगवान के प्रेम तक और ब्राह्मणों में वैष्णव में श्रद्धा क्योंकि अन्यो में ही श्रद्धा नहीं है तो उनके मुख से सुनने का सवाल ही नहीं आता तो कहा जाता है ना जैसे अमेरिका में कहा जाता है वी हैवे फेथ गॉड कि हमें भगवान में विश्वास होता है अच्छी बात है लेकिन हमारे लिए इतना काफी नहीं है बल्कि हमें साधु-संत का संग करना चाहिए। इस्कॉन, इतना अच्छा घर दिया है प्रभुपाद जी ने जिसमें इतने सारे संत रहते हैं, संग करने का यह बहुत ही अच्छा सुनहरा अवसर है जो हमें प्राप्त हुआ है और ऐसा संग प्राप्त करने से क्या होगा धीरे-धीरे हमारी भगवान के प्रति श्रद्धा बढ़ती रहेगी और 1 दिन हम भी प्रेम को प्राप्त करके भगवान के धाम में जा सकेंगे।
हरे कृष्ण !
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जप चर्चा
26 अप्रैल 2022
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज
जय जय राधे
जय जय श्याम
जय जय श्री वृन्दावन धाम
अच्छा पीछे पीछे भी गाना चाहते हो, कम से कम जो यहां मेरे पास बैठे हैं, उन्होंने तो गाना प्रारंभ कर दिया |
इसलिए यह स्पष्ट करने के लिए मैंने गाया कि मैं कहाँ हूँ और कहाँ से आपके साथ जप कर रहा था और यह जप चर्चा कहाँ से होगी |
वृंदावन धाम की जय |
एकादशी महोत्सव की जय |
और इसीलिए भी आज संख्या अधिक है | आप में से कुछ आया राम गया राम भी हो | प्रतिदिन आप नहीं रहते हो | जप करने वाले को जापक कहते हैं | कुछ जापक आज हमारे साथ जप कर रहे हैं, उसमे से कुछ हमारे साथ प्रतिदिन नहीं रहते है | या रहते हैं तो फिर देरी से पहुंचते हैं | आज तो 06:15 मे हाउसफुल हो गया, 06:15 तक 1000 भक्त आ गए थे | ऐसी उत्सुकता उत्कंठा आप यदि प्रतिदिन प्रदर्शित कर सकते हो तो मैं प्रसन्न हो जाऊँगा और भगवान तो निश्चित ही प्रसन्न होंगे |
एकादशी से संबंधित और कुछ बातें करने से पहले और कुछ बातें याद आ रही है स्मरण हो रही है | आज वृंदावन कृष्ण बलराम मंदिर में मैं मंगल आरती गा रहा था |
मंगल आरती महोत्सव की जय |
मंगल मंगल नाम भी क्या बढ़िया है | कैसी आरती ? मंगल आरती |यह नाम ऐसे ही नहीं दिया है |
आपकी यात्रा मंगलमय हो — ऐसा रेलवे वाले भी कहते हैं | हमारी जो दिन की यात्रा है, 1 दिन की यात्रा है , प्रातः काल में प्रारंभ होती है तो मंगल आरती करने से हमारा पूरा दिन मंगलमय होता है, पूरे दिन की यात्रा मंगलमय होगी, शुभ होगी, शुभ मंगल होगी | इसलिए भी हमें मंगला आरती को अटेंड करना चाहिए। कई विचार तो आ ही जाते हैं
Uthi Uthi Gopala
Arunoday Jhala
*मराठी भजन*
यह गीत किसका है बताइए? यशोदा जी कन्हैया को जगाती है उठो उठो गोपाल जाओ माखन चोरी के लिए जाओ, माखन खाओ और खुश हो जाओ। उठो उठो क्योंकि थोड़ी देर में और ग्वाल बाल पहुंचेंगे द्वार पर घंटी बजाएंगे, कन्हैया उठो चलो | तो विचारिए कि हमें अभ्यस्त होना होगा, प्रातः काल में उठने का अभ्यास करना होगा नहीं तो फिर हमलोग गोलोक तो पहुंच गए और कृष्ण तो गए भी गाय चराने के लिए और हम सोते रहे।
Practice makes one perfact.
अभी से अभ्यास करना होगा प्रातः काल में उठने का क्योंकि हमें क्या करना है एक दिन नित्य लीला प्रविष्ट होना है भगवान की लीला में प्रवेश करना है जिसमें प्रातः कालीन भी कुछ लीलाए है या हो सकता है माखन चोरी आप ग्वाल बाल बनकर कृष्ण के साथ माखन चोरी के लिए आपको जाना होगा।
Very good reason
वैसे हमारा अभ्यास नहीं होगा प्रात काल में उठने का तो ऐसे गोलोक में एडमिशन भी नहीं होने वाला है, गोलोक में बैकुंठ में वृंदावन में प्रवेश भी नहीं होगा, जाओ भीड़ जाओ और सोते रहो। प्रातः काल में सोने वालों जागो। जो मंगला आरती में गीत यहां गाया जाता है
विभावरी शेष, आलोक-प्रवेश,
निद्रा छाड़ि’ उठ जीव।
बल’ हरि हरि, मुकुन्द मुरारी,
राम कृष्ण हयग्रीव॥1॥
रात्रि का अन्त हो चुका है तथा सूर्योदय हो रहा है। सोती हुई जीवात्माओं, जागो! तथा श्रीहरि के नामों का जप करो। वे मुक्तिदाता हैं तथा मुर नामक असुर को मारनेवाले हैं। वे ही भगवान् बलराम, भगवान् कृष्ण तथा हयग्रीव (भगवान् का अश्व ग्रीवा धारण किया हुआ अवतार) है।
तो ऐसी शुरुआत होती है सुबह आरती की और पता नहीं हम समझते हैं या नहीं समझते जो पहली पंक्ति है उसमें ही कहा है विभावरी शेष आलोक प्रदेश | क्या हुआ है? विभावरी शेष रात्रि समाप्त हो रही है, विभावरी शेष शेष मतलब समापन विभावरी शेष, आलोक प्रवेश आलोक मतलब प्रकाश प्रकाश का प्रवेश हो रहा है या होने वाला है। सूर्योदय होने ही वाला है, अंधेरा या रात्रि समाप्त होने वाली है, प्रकाश आ रहा है, निद्रा छाड़ी उठ जीव, हे जीव निद्रा को त्यागो और उठो और क्या करो?
फिर हरि हरि बोलो
Uttisthatā jāgrata prāpya varān nibhodata
[Kaṭha Upaniṣad 1.3.14]
यह भी उपदेश है, उत्तिष्ठ वेद वाणी उत्तिष्ठ जाग्रत और समझो भी कि यह मनुष्य देह प्राप्त हुआ है, यह वरदान मिला हुआ है, हे जीव दुर्लभ मानव मानव जन्म कैसा है? दुर्लभ है |
भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन,
अभय चरणारविन्द रे।
दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे,
तरह ए भव सिन्धु रे॥1॥
हे मन, तुम केवल नन्दनंदन के अभयप्रदानकारी चरणारविंद का भजन करो। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर संत जनों के संग द्वारा भवसागर तर जाओ!
From Bhajahu re mana bhajan by Govinda Das Kaviraja
इसलिए क्या करो? जन्म सत्संग में बिताओ। यह प्रातः काल में उठने के संबंध में बात या विचार हुआ |
और कुछ दिन पहले हम एक मॉर्निंग वॉक में गए | श्रील प्रभुपाद भी मॉर्निंग वॉक में जाया करते थे वृंदावन में ही, मैं भी उनके साथ जाया करता था। तो जब हम गए कुछ दिन पहले मॉर्निंग वॉक में तो हम एक रामताल नामक स्थान पर गए, वृंदावन में ब्रज विकास संस्थान बड़ा सक्रिय है तो उन्होंने उस स्थान को अन्वेषण करके, खोज कर उसे निकाला और उसका विकास किया और वह स्थान है शोभरी मुनि की तपस्या स्थली। बाद में पढ़िएगा वहां के कुछ शिलालेख जानकारी फोटोग्राफ। तो इसी स्थान पर शोभरी मुनि तपस्या किए तो हम स्मरण कर रहे थे तो शोभरी मुनि का स्मरण किया और उन्होंने गरुड़ वैष्णव के चरणों में किए हुए अपराधों का भी स्मरण किया, वैसे यह तपस्या स्थली है बाद में तपस्या किए यहां पर, पहले तो वह गए जो कालिया रेत जो है कालिया दह, वहा पहले तपस्या करते थे, ध्यान करते थे | पूरी लीला प्रारंभ हो रही है जो कहने के लिए अब समय नहीं है | तो वहां एक समय गरुड़ आएं और दो चार मछलियां खाई और चले गए तदुपरांत उन सारी मछलियों ने एक सभा बुलाई एक यूनियन की स्थापना हुई और गरुड़ मुर्दाबाद | उसका नेतृत्व यह शोभरी मुनि ही कर रहे थे उन्होंने भी हां में हां मिलाई और शोभरी मुनि ने श्राप भी दिया तुम इस स्थान पर नहीं आ सकते, इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि शोभरी मुनि के मन में काम वासनाए जगी और यही होता है अपराध का फल विशेषकर वैष्णव अपराध का परिणाम दुष्परिणाम ही होता है | वह शोभरी मूनी के ऊपर वे प्रभावित हुए और उनकी काम वासना इतनी प्रबल हुई कि अपने ध्यान भावना छोड़कर वृंदावन भी छोड़ दिया, वृंदावन से उनको बाहर कर दिया, you are not fit to stay in Vrindavan, वृंदावन में रहने के लिए तुम योग्य नहीं हो, वृंदावन में अपराध करते हो वैष्णव अपराध | हम तो वृंदावन में नहीं है सोलापुर में है तो सोलापुर में अपराध कर सकते हैं, ऐसी बात नहीं है कहीं भी नहीं करना चाहिए वृंदावन में तो करना ही नहीं चाहिए तो सोलापुर नागपुर कानपुर में भी या उदयपुर यह सारे पूर है वहा भी वैष्णव अपराध नहीं करने चाहिये, करोगे तो क्या होगा या क्या हुआ शोभरी मुनि के साथ। यह सब हम वहां रामताल जहां हम गए थे मॉर्निंग वॉक में यह सारी बातें स्मरण हो रही थी तो सोचा कि आपको स्मरण दिलाएं दिला दे यह वैष्णव अपराध। और आज का जो दिन है यह संकल्प का दिन है यहां थोड़ी देर में समय बिताना चाहता हूँ और मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आज एकादशी के दिन आप कैसे कैसे संकल्प ले मैं कहते रहता हूँ, वैसे भक्ति विनोद ठाकुर कहते थे उनका रिकमेंडेशन हुआ करता था कि एकादशी के दिन वैष्णव को पिछले दो सप्ताह में हमारा जो परफॉर्मेंस रहा, हमारी साधना सेवा रही, वह कैसी रही, इसका परीक्षण निरीक्षण संस्कृत में कहा जा सकता है यह करने का दिन यह एकादशी का दिन है | तो आप क्या क्या मैं आपको एक टॉपिक दे रहा हूँ कि और थोड़ा समय भी दे रहा हूँ कि आप मे से कुछ भक्त आप कह भी सकते हो कि यह आप क्या-क्या संकल्प लेना चाह रहे हो। क्या स्वीकार करना चाहते हो कि यह गलती हुई,यह अपराध हुआ, यह कसूर कभी यह अभाव, यह माया का ऐसा प्रभाव रहा, मैं इससे बचना चाहता हूँ, आने वाले दो सप्ताह अगली एकादशी तक यहां पर सुधार वहां पर सुधार या कहीं निधी या निषेध होते हैं does और donts होते है does को मैं और करूंगा इस विधि को मैं और करूंगा या अधिक जप करूंगा या अधिक अध्ययन करूंगा यह भी संकल्प है। और निषेध है यह अपराध नहीं करूंगा या मंगला आरती के समय नहीं सोऊंगा या ज्यादा नहीं खाऊंगा, कई सारी बातें हैं | आप जानते यह संसार जो सुख दुख का मेला है। इसके पहले मैं एक और बात कहना चाहता था यह मैंने पुनः कल सुनी या मैंने पहली बार सुनी |
राधारमण भगवान की जय
वृंदावन के राधा रमण
यह भी नोट किया मैंने कि लगभग चार सौ पांच सौ वर्ष पूर्व वृंदावन में जो मुसलमानों के हमले हुआ करते थे और इसके कारण कई सारे वृंदावन के विग्रह को स्थानांतरित किया, जयपुर, करोली, नाथद्वारा, यहां कानपुर के पास हरिदेव गोवर्धन के हरिदेव कानपुर के पास एक स्थान पर पहुंचाया गया, इस प्रकार कई सारे विग्रहो को स्थानांतरित किया गया था किंतु राधारमण तो यही रहे, उनको यही सुरक्षित रखा गया, राधारमण विग्रह का स्थानांतरण करने की आवश्यकता नहीं रही |
राधारमण की जय |
राधारमण तो पहले शीला थे आप यह जानते हैं और हमारे षट गोस्वामी वृंदो में से एक गोपाल भट्ट गोस्वामी वे गंडकी नदी से शिलाए ले आए उनकी आराधना करते थे | फिर एक दिन की बात है कोई धनी दानी व्यक्ति कई सारे मंदिरों में गए जहां गोड़िय वैष्णव या गोस्वामी वृंद उन विग्रहों की आराधना करते थे अलग-अलग राधा गोविंद, राधा दामोदर, राधा मदन मोहन इत्यादि | तो उन्होंने विग्रहो की आराधना के लिए कई साज श्रृंगार अलंकार मुकुट मुरली इत्यादि दान में दिए ये सब। और वे गोपाल भट्ट गोस्वामी के पास भी आए और उनको उन्होंने एक सेट दे दिया वस्त्रों का और अलंकार मुरली | उसको स्वीकार तो किया लेकिन गोपाल भट्ट गोस्वामी सोच रहे थे कि मेरे विग्रह भी अगर राधा गोविंद जैसे होते मेरे विग्रह भी यदि राधा मदन मोहन जैसे होते या मेरे विग्रह भी यदि राधा गोपीनाथ जैसे होते तो मैं भी यह जो सारा साज सिंगार मुझे प्राप्त हुआ है मैं भी श्रृंगार करता |
श्री-विग्रहाराधन-नित्य-नाना-
शृङ्गार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ
युक्तस्य भक्तांश् च नियुञ्जतोऽपि
वन्दे गुरोः श्री-चरणारविन्दम्
श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
तो हुआ क्या यह दान देकर यह भेंट देकर वह दानी धनी व्यक्ति तो प्रस्थान किए और अगली सुबह जब गोपाल भट्ट गोस्वामी जगे और अपने विग्रह की आराधना का समय था, मंगला आरती का समय था भोर मे तो देखते हैं कि उनकी शीला ने रूप धारण किया है, त्रिभंग ललित हुए है, और उनका जो मुख मंडल है वह गोपीनाथ जैसा है, वक्षस्थल गोविंद जैसा है और उनका चरण कमल राधा मदन मोहन जैसे हैं | जहां तक मुझे याद है कुछ उल्टा-पुल्टा भी हो सकता है | लेकिन यह तीन विग्रह जो गोड़िय वैष्णव के यह तीन विशेष विग्रह है। सम्बन्ध विग्रह और फिर अभीदेय विग्रह और प्रयोजन विग्रह। तो इन तीन विग्रहों के समान राधा रमण का विग्रह ऐसा रूप धारण किए। कितनी अदभुत घटना है, अविस्मरणीय घटना है। और मैंने फिर कल इस बात को सुना, पहली बार मैंने इस बात को सुना कि भगवान की आराधना के अंतर्गत भोग भी होते हैं और रसोई भी बनती है तो गोपाल भट्ट गोस्वामी में साढे चार सौ पाँच सौ वर्ष पूर्व एक समय मंत्र उच्चारण के साथ अग्नि को प्रज्वलित किया रसोई घर में और रसोई बनी और वह अग्नि प्रज्वलित रही बिना बुझे जब तक गोपाल भट्ट गोस्वामी थे और आज तक वही ज्वाला जिसको गोपाल भट्ट गोस्वामी ने मंत्रों उच्चारण द्वारा प्रज्वलित किया था, दियासलाई से नहीं, उसी अग्नि से पिछले 500 वर्षों से राधारमण जी की रसोई बन रही है, वहां गैस वगैरह नहीं है, बस चूल्हा है और लकड़ी आदि का ही उपयोग होता है और वहां अखंड ज्योति अखंड ज्वाला जल रही है, राधारमण जी के लिए भोग बन रहे हैं।
राधारमण जी और गोपाल भट्ट गोस्वामी की जय।
बस मैं आपको बताना चाहता था कल जो मैंने यह बातें सुनी राधा रमण जी के संबंध में।
मैं सुनना चाहता हूँ | मैं ही नहीं आप सबको सुनाइए कि आप क्या करोगे |
पिछले एकादशी को मैं उदयपुर में था नोएडा मे भी था और आज वृंदावन मे हूँ। आप जहां भी थे वैसे आप तो कहीं आते-जाते नहीं। यह नहीं कहूंगा अभी आपको दुख होगा। हमें अपना स्थान छोड़ना भी चाहिए, हम इतने आशक्त हैं इसलिए हम घर को नहीं छोड़ते हमारे गांव को नहीं छोड़ते | छोड़ना चाहिए, धाम यात्रा में जाना चाहिए, सत्संग में जाना चाहिए, नाथद्वारा जाना चाहिए, पास में ही तो है या बिठूर जाना चाहिए कानपुर के पास ही है या जहां ध्रुव महाराज का जन्म हुआ | हम बड़े ही भाग्यवान है इस देश के वासी जहां कई सारे तीर्थ हैं या फिर पदयात्रा में जा सकते हैं एक दिन पदयात्रा में निकल सकते हैं, या ग्रन्थ वितरण के लिए जा सकते हैं इस प्रकार हम घर को भी छोड़ सकते हैं अगर आपने घर को नहीं छोड़ा, छोड़ना तो चाहिए था तो आप इसमें सुधार करोगे। अच्छा कहो मैं सुनना चाहता हूँ आपके क्या-क्या निरीक्षण रहे पिछले दो सप्ताह के और उसमें आप कैसे सुधार करना चाहोगे आपको केवल एक मिनट में कहना है,
ये brainstorming है दिल खोल के सारी की सारी बातें कहने का समय नही है |
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
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*जप चर्चा*
*परम् पूज्य भक्ति आश्रय वैष्णव स्वामी महाराज*
*वृंदावन धाम से*
*दिनांक 23.04.2022*
हरे कृष्ण!!!
*गुरवे गौरचंद्राय राधिकायै तदालये।कृष्णाय कृष्णभक्त्ताय तद् भक्ताय नमो नमः।।*
*वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।*
परम पूज्य श्रीलोकनाथ महाराज और उनके कृपा सानिध्य में उपस्थित आज के ज़ूम लिंक में जितने भी भक्तवृंद है और विशेषकरके पदमाली प्रभु जो कृपा करके बीच-बीच में मुझे सेवा का अवसर प्रदान करते हैं, आप सभी के चरणों में मेरा सादर प्रणाम! उन्होंने आज श्री अभिराम ठाकुर की तिरोभाव तिथि पर कुछ चर्चा करने के लिए बताया है। आप अगर गौरमंडल दर्शन में गए होंगे, (हुगली) वर्धमान जिले में खानकुला है। जिसके पास कृष्ण नगर, राधा नगर है, वहां श्रील अभिराम ठाकुर की पूजा का मंदिर स्थित है। श्रील अभिराम ठाकुर द्वादश गोपालों में से एक है एवं नित्यानंद प्रभु के अति प्रिय कृपा पार्षद हैं। श्रील अभिराम ठाकुर के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वे ब्रज लीला में साक्षात श्रीदाम अर्थात भगवान के प्रिय सखा थे। एक समय भगवान कृष्ण अपने सखाओं के साथ लुका छुपी खेल रहे थे। (हाइड एंड सीक) श्रीदाम जी के छुपने की बारी थी, वे एक गुफा में छिप गए थे। कृष्ण को खेलते खेलते अचानक याद आया कि मुझे नवद्वीप में लीला करनी है, वे नवद्वीप चले गए। कृष्ण बलराम सब चले गए, श्रीदाम रह गए। नवद्वीप लीला में गौरांग महाप्रभु ने देखा कि श्रीदाम नहीं है।
उन्होंने बलराम से कहा- श्रीदाम कहां है? तब महाप्रभु ने कहा- वो भांडीरवन के पीछे वंशीवट है, वहां छिपा हुआ है। आज भी आप जब भांडीरवन के वंशीवट में जाएंगे, वहां श्रीदाम की गुफा है, जहां वे बैठे थे। द्वापर युग से लेकर कलयुग तक वहीं छिपे थे। नित्यानंद प्रभु, द्वापर में बलराम थे और अब कलियुग में नित्यानंद हो गए थे। युग परिवर्तन हुआ तो बहुत कुछ परिवर्तन हो गया था। द्वापर युग में लोगों की हाइट 12 हाथ थी, अब तो साढ़े तीन हाथ है। गौरांग महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को भेजा कि जाओ! आवाज करो, वह आएगा। नित्यानंद प्रभु ब्रज में गए श्रीदाम! श्रीदाम! श्री दाम! पुकारा। श्रीदाम ने सुना, कौन मुझे बुला रहा है? वे बाहर निकले, उन्होंने देखा कि कोई छोटे साइज का मनुष्य है। नित्यानंद प्रभु ने बोला कि क्या आप श्रीदाम हैं? उन्होंने कहा कि हां, मैं ही श्रीदाम हूं। नित्यानंद प्रभु ने कहा कि श्री कृष्ण , चैतन्य लीला में हैं, वे आपको बुला रहे हैं। श्रील अभिराम ठाकुर ने कहा- तुम्हें कैसे पता कि वे बुला रहे हैं, तुम कौन हो? नित्यानंद प्रभु ने कहा कि मैं बलराम हूँ।अभिराम ठाकुर( श्रीदाम) ने पूछा कि आप दाऊ हो, मेरे दादा हो? दाऊ दादा हो? लगता तो नहीं हैं कैसे विश्वास करूं कि आप ही दाऊ दादा हो। कैसे मान लूं। बलराम ने कहा कि कैसे मानोगे, मैं आधार कार्ड तो लेकर आया नहीं। कोई आई.डी. प्रूफ तो है नहीं। अभिराम ठाकुर ने कहा कि अगर तुम सचमुच में दाऊ हो तो एक ही पहचान है कि हमारी सखा मंडली में कृष्ण के जितने भी गोप सखा हैं अथवा सखा मंडली में मेरे साथ कोई टक्कर नहीं ले सकता था। कृष्ण तो मेरे से हार जाता था , कृष्ण का मेरे साथ टक्कर रहता था, वह खेलते हुए हमेशा हार जाता था। केवल मुझे तो टक्कर देने वाला दाऊ है। दाऊजी मुझे टक्कर देने वाले हैं। विशेषकर जब हमारी दौड़ प्रतियोगिता होती थी वह मुझे पकड़ लेते थे।
अगर सचमुच श्री गौरांग है, श्री संकर्षण हैं आप मेरे दाऊ दादा हैं, तो चेक कर लेते हैं। हम दौड़ प्रतियोगिता करते हैं, यदि तुम मुझे ओवरटेक कर लोगे तो मान लूंगा। नही तो…तुम्हारी हाइट इतनी है और मेरी इतनी, ऐसे कैसे मान लूं।
नित्यानंद प्रभु बोले- ठीक है! दोनों दौड़ प्रतियोगिता के लिए खड़े हो गए लेकिन कहा कि यहां कहां दौड़ेंगे, एक साथ गोवर्धन तलहटी में चलते हैं, वहां दौड़ लगाएंगे। दोनों गोवर्धन तलहटी पर चले गए और जाकर दौड़े। (हम लोग जब गोवर्धन परिक्रमा करते हैं, तो दौड़ कर नहीं, आराम से पैदल करते हैं। फिर महीना आराम करते हैं, पता नही क्या कर दिया हो।) उन दोनों ने दौड़ना शुरू किया, दौड़ दौड़ कर सात परिक्रमा लगा दी। सातवीं बार में नित्यानंद प्रभु ने उसे पकड़ लिया, तब श्रीदाम बोले कि मान गया कि तुम ही दाऊ हो। नहीं तो किसी में इतनी ताकत नहीं है कि मुझे दौड़ते हुए पकड़ ले। इतने लंबे-लंबे मेरे पैर, मैं इतने बडे बडे कदम रखता हूँ तो कलयुग के मुनष्य इतने छोटे कैसे पकड़ सकते हैं, तुम्हारी हाइट इतनी छोटी। उस समय नित्यानंद प्रभु के पास हल था, उन्होंने हल से खींचकर उनको अपने समान कर दिया और बोला चलो अब चलना है। श्रीदाम के मन में था कि भगवान श्रीकृष्ण जी चले गए, आप भी चले गए मुझे बुलाया भी नहीं। ये अच्छा नही किया। मुझे बुला लेना था, यह तो ठीक नहीं हुआ, उनके मन में परीक्षा करने की भावना थी। वे नित्यानंद प्रभु के साथ गए, वही श्रीदाम गौर लीला में अभिराम ठाकुर के नाम से प्रसिद्ध हैं। राम दास गोपाल वही हैं, वह नित्यानंद प्रभु के मुख्य पार्षद हैं। जब
महाप्रभु सन्यास लेकर पूरी में थे, उस समय नवद्वीप से भक्त लोग वहां उनके पास जाते थे। एक समय नित्यानंद प्रभु के साथ उनके पार्षद रामदास भी गए थे। चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को आदेश दिया कि मैं तो यहां रहूंगा, तुम जाकर बंगाल में प्रचार करो। अपने पार्षद रामदास को साथ लेकर जाओ, वह साक्षात ब्रज के गोपाल, ग्वाल हैं । नित्यानंद प्रभु के साथ उन्होंने अद्भुत लीला प्रदर्शन किया।
श्रील अभिराम ठाकुर की दो लीलाएं काफी प्रसिद्ध हैं, उनके पास एक चाबुक होता था, उसका नाम जय मंगल था। अगर किसी पर कृपा करते तो उसको चाबुक मार देते।
अगर किसी को मारते थे, तो समझो वह कृष्ण प्रेम में आ गया। सोचो, मार खाने से ही कृष्ण प्रेम आ जाता था तो कृपा करने से क्या होता। वह ऐसे ही किसी को नहीं मारते थे, चाबुक रखा हुआ था। जिस पर मन करता था, उसको खूब पीटते थे। उसका पिटाई से अंदर सब बदल जाता था।
श्रील अभिराम ठाकुर का एक और विशेष स्वभाव था। अगर पता चलता कि यह भगवान बड़ें प्रसिद्ध हैं, यहां ठाकुर जी की पूजा हो रही है, ये बड़ें प्रसिद्ध व्यक्ति थे, तो जाकर प्रणाम करते थे। उनके प्रणाम को सहन करना, किसी के बस की बात नहीं था। साक्षात कृष्ण या भगवत तत्व , विष्णु तत्व न हो, उनके प्रणाम को सहन नहीं कर सकते थे। क्योंकि वे साक्षात भगवत थे। हमेशा उसी मूड में रहते थे, उसी भाव में रहते थे, उनका अतिमानवीय कृत्य है। मनुष्य लोक में रहते मनुष्य की तरह व्यवहार करते हुए भी भगवद चिंतन में रहते थे। नित्यानंद प्रभु उनके परम मित्र हैं, उनके प्रभु हैं। वे नित्यानंद के पुत्र को जाकर प्रणाम करते थे, छह पुत्रों को प्रणाम करके मार डाला। जब सातवीं पुत्री आई, उनको भी जाकर प्रणाम किया, उनको कुछ नहीं हुआ। केवल पुत्रों को प्रणाम हुआ, वे ही गए, ऐसा नहीं है। विग्रहों को प्रणाम करते थे, अगर कोई कहता था कि मेरी साक्षात शालिग्राम शिला है, अगर वो सही में साक्षात शालिग्राम नहीं होगा, तो अभिराम प्रभु के प्रणाम करते ही वो टूट जाता था। विग्रह भी सही नहीं होगा, भगवान की उपस्थिति न हो उसमें तो वह विग्रह भी टूट जाता, फट या टेढ़ा मेढ़ा हो जाता था। बंगाल में कई विग्रहों को प्रणाम करके अभिराम ठाकुर ने परीक्षण किया था।
जब हम गौरमंडल दर्शन में जाते हैं, जब हम लोग श्रीपाद दर्शन के लिए गए थे। आप लोग ध्यान देकर सुनिए, जब हम दर्शन के लिए जाते हैं- दो प्रकार का दर्शन होता है एक है श्रीधाम और दूसरा श्रीपाद। जहां पर भगवान की साक्षात लीला होती है, उसको हम श्रीधाम कहते हैं। जहां पर भगवान के नित्य पार्षद / निज जन का वास होता है या भजन इत्यादि करते हैं, वह स्थान श्रीपाद कहलाता है। वह भी इतना ही शक्तिशाली है बल्कि उससे ज्यादा शक्तिशाली होता है भगवान तो भगवान ही हैँ लेकिन जो भगवान के भक्त होते हैं उनको हम रिलेट कर सकते हैं। भगवान को तो हम कर ही नहीं सकते, भक्तों का चरित्र भगवान के चरित्र से ज्यादा इंपोर्टेंट है। उससे ज्यादा प्रेरणा प्राप्त करते हैं। हम लोग नवद्वीप मंडल दर्शन करने के लिए जाते हैं और नवद्वीप की परिक्रमा करते हैं। बहुत लोग मायापुर जाते हैं और आसपास के द्वीप के दर्शन कर लेते हैं। नहीं नहीं। भगवान चैतन्य महाप्रभु के जो निजी भक्त/ पार्षद गण है उनके निज गण हैं, वह महाप्रभु से कुछ कम नहीं है। महाप्रभु के कृपा पात्र हैं उनकी जो भ्रमण स्थलियाँ है, उनको श्रीपाद कहा जाता है। गौरांग महाप्रभु के स्थान को मायापुर कहते हैं, नवद्वीप तो छोटा सा है लेकिन गौरमंडल काफी विशाल है। गौर मंडल के अंदर काफी स्थान है, महाप्रभु के जितने निज गण हैं। महाप्रभु ने उनको आस पास गौर मंडल में स्थान दे दिया है, एक से एक महान भक्त हैं।
उनको श्रीपाद कहा जाता है। उनमें से एक पाद अभिराम ठाकुर है, जिनका स्थान खानापुर है। खानापुर इसलिए कहते हैं क्योंकि वहां एक नदी का नाम खाना है, उसके किनारे एक स्थान है जहां कृष्ण प्राप्ति अर्थात गोपीनाथ विग्रह की प्राप्ति अभिराम ठाकुर जी को हुई थी। वह कृष्ण नगर है। आप बंगाल के विषय में प्रसिद्ध जनरल नॉलेज पढ़ेंगे। राजा राममोहन राय का नाम बड़ा प्रसिद्ध है, इन्होंने सती प्रथा को बंद करवाया था। राजा राम मोहन राय का ब्रिटिश साम्राज्य में बहुत बड़ा कॉलेज था। राजा राममोहन राय का जहां पर घर था, उसके ठीक विपरीत नदी थी, जहाँ अभिराम ठाकुर का स्थान है। आज भी सब उस स्थान पर जाते हैं जहां श्री गोपीनाथ जो कुंड से प्रकट हुए थे जिसे अभिराम कुंड कहते हैं। वह दिव्य कुंड है, उन्होंने उस कुंड के नीचे से श्री गोपीनाथ विग्रह को प्रकट किया था। उनकी पत्नी का नाम मालिनी देवी था, अभिराम ठाकुर के जो शिष्य थे, उनको वे बोलते थे कि समय हो रहा है, मैं जा रहा हूँ। शिष्य कहते थे हम आपको छोड़कर कैसे रह सकते हैं। उन्होंने कहा कि अपना विग्रह बना लो, मालिनी देवी का अपना भी एक विग्रह है, सब अद्भुत है। वहां जब हम दर्शन करने के लिए गए थे, खानपुर के पास बहुत प्राचीन सुंदर मंदिर है- राधा काला चांद मंदिर। जब हम राधा काला चांद मंदिर में गए, उसमें बहुत सुंदर राधा रानी है। वैसे कृष्ण हमेशा राधा रानी के अनुराग/ साथ में रहते हैं लेकिन यहां विग्रह देखा कि कृष्ण राधा रानी के पीछे खड़ें हैं लेकिन एक बार पता चला कि विग्रह तो ऐसे ही थे। लेकिन एक बार अभिराम ठाकुर आए , उस समय पट खुला था और आकर जैसे ही प्रणाम करने लगे। कृष्ण डर गए कि ये आया है और मुझे कुछ कर देगा और जाकर राधा रानी के पीछे स्वयं छुप गए। जब कृष्ण छिप गए थे, तो पुजारी आया तो उसने देखा कृष्ण पोजीशन चेंज करके राधा रानी के पीछे खड़े हैं। अभिराम ठाकुर भी देख रहे हैं कि कृष्ण कहाँ गए, कृष्ण पीछे खड़ें हैं।
महाप्रभु के जाने के बाद में श्रीनिवास आचार्य, अभिराम ठाकुर का दर्शन करने व आशीर्वाद लेने के लिए आए। श्रीनिवास आचार्य ने उनको व उनकी पत्नी मालिनी देवी को प्रणाम किया। जब श्री निवास आचार्य प्रणाम कर रहे थे, उस समय अभिराम ठाकुर के पास चाबुक पड़ा था, उन्होंने उसे उठाया और श्रीनिवास आचार्य को पीटा। श्रीनिवास आचार्य ने फिर से प्रणाम किया, अभिराम ठाकुर ने फिर से पीटा। तब श्रीनिवास आचार्य ने एक बार और प्रणाम किया, उन्होंने फिर से उन्हें पीटा, तीन बार पिटने के बाद उनकी पत्नी मालिनी देवी ने बोला, बहुत हो गया, प्रभु! और कितना कृष्ण प्रेम देंगे । तीन बार दे चुके हो और वह संभाल नहीं सकेगा। वह बच्चा है, आप उसको कितना प्रेम का हाई डॉज दे रहे हो। इस प्रकार अभिराम ठाकुर प्रेम/ गदगद लीला में इतना मग्न रहते थे। किसी को चांटा मारते थे किसी को प्रणाम करते थे। किसी को चाबुक से पीट देते थे, जिससे वो कृष्ण प्रेम से भर जाते थे। इस प्रकार से अभिराम ठाकुर जब वहां रहते थे तब एक दिन उनके मन में आया कि मेरा सखा बांसुरी बजाता है, तो मैं भी बाँसुरी बजाऊं। मन में बांसुरी बजाने के लिए आया तो बांसुरी को ढूंढने लगे। बोले कहां से बांसुरी बजाऊंगा, ढूंढते ढूंढते कोई भी बांसुरी भी नहीं मिल रही थी। तब उन्हें एक लकड़ी पड़ी हुई मिली जिसको कई व्यक्ति उठा नहीं सकते थे। वह लकड़ी इतनी भारी थी जिसे लगभग 16- 17 आदमी मिलकर भी उठा नहीं सकते थे, उन्होंने इतने विशाल लकड़ी को उठाकर छेद कर लिया और बाँसुरी की तरह बजाने लगे। ऐसे अद्भुत गुणगान है कहते हैं कि बांसुरी बजाने के बाद उन्होंने बाँसुरी को वहां गाड़ दिया था। वही बकुल वृक्ष हुआ। यदि आप कृष्ण नगर दर्शन करने के लिए जाएंगे, वहीं मंदिर के आगे रामपुर है और उसके आगे विशाल बकुल वृक्ष है। उसे सिद्ध बकुल भी कहा जाता है। बांसुरी पेड़ के रूप में प्रकट हुई अद्भुत लीला है।
एक तार्किक था, जो नवद्वीप में उस समय में शक्ति उपासक था बहुत बड़ें बड़ें सिद्ध आकर उनसे तर्क किया करते थे।
तर्क करके अंतत: अभिराम ठाकुर से परास्त हो कर वैष्णव बने। इस प्रकार उन्होंने और उनके शिष्यों के द्वारा अनेक अद्भुत अद्भुत लीलाएं प्रस्तुत की गयी। आज भी हम वहां अभिराम ठाकुर के स्थल का दर्शन करते हैं।
श्री गोपीनाथ की उपासना करते थे और उनकी पत्नी मालिनी देवी पूजा करती रही। वह भी अपने विग्रह दे गए थे।
वो विग्रह ऑल्टर में नहीं है, पुजारी को कहेंगे, अलग से दिखाएंगे। मालिनी देवी वे विग्रह भी हैं एक समय वहां प्रतिष्ठान उत्सव कर रहे थे, तब सबको बुलाया गया, गौर मंडल के सब भक्तों को बुलाया गया। सारे बड़े बड़े भक्त महंत सब आए थे। प्रसाद वितरण इत्यादि हो रहा था, उनकी पत्नी प्रवचन कर रही थी। सब बड़े बड़े भक्त बैठे हुए थे। जब वह प्रवचन कर रही थी तब उस समय एक हवा का झोंका आया, मालिनी देवी का घुंघट उड़ गया। उस समय बड़े-बड़े लोग सामने बैठे थे। उनके एक हाथ में पुस्तक थी तो साड़ी का घूंघट कैसे ठीक करें। संभालाना था, सबके सामने कैसे करें। तुरंत दो हाथ और निकल पड़े, वे चतुर्भुज हो गई और तुरंत दो हाथों से साड़ी ठीक हो गई। सामने बैठे लोग हैरान हो गए कि ये तो प्रवचन कर रही थी, ये कैसे हुआ। वे समझ गए कि मालिनी देवी साधरण नहीं हैं, वो भी असाधारण है। इस प्रकार अभिराम ठाकुर ने नित्यानंद प्रभु के पार्षद के रूप में उनके साथ नवद्वीप में अति अद्भुत लीला की।अभिराम दास जो राम दास के रूप में भी प्रसिद्ध है, आज भी उनके विग्रह के दर्शन वहां हो जाएंगे। अति दिव्य स्थान है। बुकल वृक्ष, रामकुंड है। बहुत ही भव्यशाली और बहुत ही कृष्ण प्रेम से भरा स्थल है।
महाप्रभु के जाने के बाद में वे भी चैत्र कृष्ण के सप्तमी को धाम में चले गए। आज अभिराम ठाकुर का तिरोभाव है, ऐसे ऐसे भगवद साक्षात सख्य भाव के भक्त थे। कृष्ण लीला के श्री दाम और चैतन्य लीला के अभिराम ठाकुर के तिरोभाव तिथि पर हम सब नित्यानंद प्रभु के श्री चरणों में ही प्रार्थना करेंगे कि हम पर अपनी कृपा करें। उनके जैसे पार्षद श्री गोपाल, श्रीदाम अभिराम ठाकुर हमको थोड़ा लात भी मार दे, एक चांटा भी मार दे, अपने चाबुक से पीट दे वैसे तो आजकल चाबुक तो रहा ही नहीं लेकिन अपने दिव्य विलास धाम से अगर थोड़ा बहुत गुस्सा भी करके कैसे भी हम पर थोड़ा दृष्टिपात कर ले वही हमारे लिए बहुत बड़ा आशीर्वाद हो जाएगा ।कृष्ण प्रेम के लायक तो हम अभी बने ही नहीं लेकिन उनकी कृपया से हम कृष्ण प्रेम के लायक बन सकते हैं। नित्यानंद प्रभु बहुत कृपालु हैं, प्रेम दाता हैं, उन्हीं के पार्षद हैं रामदास, वही गोप सखा श्रीदाम अभिराम ठाकुर के आज तिरोभाव तिथि पर हम सभी हृदय से यही प्रार्थना /श्रद्धांजलि उनके चरणों में अर्पित करते हैं। हे अभिराम ठाकुर! आपके पूजित श्रीगोपीनाथ के चरणों में हम प्रार्थना करते हैं कि अधमों को आपकी कृपा की आवश्यकता है। हम पर दया कीजिए। आज की विशेष तिथि में गोपीनाथ, श्रीदाम सखा और मालिनी देवी के श्री चरणों में खानपुर कृष्ण नगर की भूमि उसकी तरु लता, उनके शिष्य, प्रशिष्य सभी को प्रणाम करते हैं कि हमें भी अभिराम ठाकुर की कृपा प्राप्त हो।
श्री अभिराम ठाकुर की जय!
श्री नित्यानंद प्रभु की जय!!
हरे कृष्ण
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जप चर्चा,
22 अप्रैल 2022,
वृंदावन धाम.
ओम नमो भगवते वासुदेवाय।
क्या सुना आपने, या अब तक महामंत्र ही सुन रहे हो। मैंने जप चर्चा प्रारंभ की हुई है। ओम नमो भगवते वासुदेवाय, मैंने कहा। ध्रुव महाराज वृंदावन में इसी मंत्र का उच्चारण कीर्तन या जप कर रहे थे। कौन सा मंत्र, ओम नमो भगवते वासुदेवाय। वह युग अलग था सतयुग की बातें हैं यह। कलयुग में तो हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इस महामंत्र का ही जप कीर्तन करते हैं। और यह नहीं कि, हम ओम नमो भगवते वासुदेवाय कहते ही नहीं। हम जरूर कहते हैं। भागवत कथा के प्रारंभ में कहते हैं, या और भी कहीं कह सकते हैं। कहते रहते हैं।
हरि हरि, मैं वैसे कानपुर में था कुछ दिन पहले और इस्कॉन कानपुर के मंदिर के कुछ ही दूरी पर बिठूर नाम का स्थान है। 10 किलोमीटर के अतंर पर ही यह स्थान है और यह बिठूर ध्रुव महाराज का जन्म स्थान है। वहां पर जाने का प्रस्ताव, कुछ विचार, इच्छा तो हो रही थी। जब मैं नहीं जा पाया था किंतु जैसे ही वृंदावन आया मैं अनायास ही मतलब बिना प्रयास ही ध्रुव महाराज की कथा का श्रवण और कीर्तन पठन अध्ययन करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। तो यही श्रवन अध्ययन के उपरांत मैंने सोचा कि, ध्रुव महाराज की कृपा हुई मुझ पर। उनकी जन्मस्थली को जाने जाकर देखने की इच्छा तो हुई लेकिन नहीं जा पाया तो, वह जन्म स्थान बिठूर तो फिर हम उनके कर्म स्थान आए। ध्रुव महाराज यहां वृंदावन में मधुबन है। यहां वैसे थ्रुव महाराज बिठूर छोड़कर बालक ही है। हरि हरि और वैसे हम कानपुर से वैसे हम तो गाड़ी घोड़े से आ गए। ध्रुव महाराज तो चल कर आए थे और इस प्रकार उनका तपस्या का जीवन रास्ते में ही प्रारंभ हो चुका था।
हरि हरि, ध्रुव महाराज अपने तपस्या के लिए प्रसिद्ध है। और उनसे कुछ सीखना है तो उनकी तपस्या से कुछ प्रेरणा प्राप्त करो और उनकी तपस्या के, उनका संकल्प कहो, दृढ़ संकल्प उनका निश्चय कहो उत्साहात निश्चयात धैर्यात यह ध्रुव महाराज के जीवन से सीखने समझने की बातें हैं। ध्रुव महाराज हम ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते हैं। कार्तिक मास में ब्रज में भी तपस्या करनी पड़ती ही है। तो हम परिक्रमा के भक्तों को पहले स्थान जहां लेकर जाते हैं, वह होता है जो ध्रुव टीला मधुबनमे ध्रुव टीला है वहा ले जाते हैं। और ध्रुव महाराज की कथा या तपस्या का स्मरण करते हैं, दिलाते हैं और ब्रजमंडल परिक्रमा के भक्तों को हम प्रेरित करते हैं या उनके जीवन से प्रेरणा प्राप्त होती है। ध्रुव महाराज के चरित्र से यह तपस्या करने की जो बातें हैं।
हरि हरि, ध्रुव महाराज भगवान को प्राप्त करना चाहते थे। भगवान जब प्राप्त होंगे तो उनसे ऐसा स्थान, ऐसी पदवी प्राप्त करना चाहते थे जो उनके घराने में और किसी को ऐसे पदवी प्राप्त नहीं थी। मुझे कहां मिल सकते हैं भगवान? सुनीती ने कहा था, उनकी मां ही बन गई शिक्षा गुरु वर्त्म प्रदर्शक गुरु। माता-पिता, वैसे भविष्य में गुरु प्राप्ति के पहले माता-पिता ही ही होते हैं गुरु। सुनीती ने कहा कि, बेटा तुम भगवान को मिलना चाहते हो प्राप्त करना चाहते हो तो ऋषिमुनि उनको वन में प्राप्त करते हैं। वन में उनका दर्शन करते हैं।
वे वन की ओर प्रस्थान किए और सुदैवसे मधुबन या वृंदावन में पहुंच गए। और भी कई सारे वन है लेकिन वृंदावन जैसा वन या स्थान कहीं पर भी नहीं है। ऐसे वन में आए। वैसे माता ने तो कुछ मार्गदर्शन किया था, यह भगवत प्राप्ति के लिए और व्यक्ति जब और गंभीर होता हैं, कृष्ण प्राप्ति करने के संबंध में, भगवान व्यवस्था करते हैं। ब्रह्मांडभम्रिते कौन भाग्यवान जीव। गुरु कृष्ण प्रसादे पाए भक्तिलता बीज।। भगवान मिला देते हैं गुरु से गुरुजनों के संपर्क में लाते हैं उस व्यक्ति जो कुछ पूरे गंभीर भगवत प्राप्ति के संबंध में या कुछ जिज्ञासा है। जैसे कृष्ण ने कहा है, चार प्रकार के लोग मेरे पास आते हैं। चतुर्विधा भजन्त माम ए जनः जो पुण्यात्मा होते हैं। चतुर्विधा, चार प्रकार के लोग होते हैं जो मेरी ओर आते हैं। कृष्ण भगवदगीता मे कहे हैं। चार प्रकार के लोग नहीं आते हैं मेरी ओर जो दुरात्मा होते हैं। चार प्रकार के लोग मेरी ओर आते हैं वह पुण्यात्मा होते हैं।
अर्थो अर्थार्थी जिज्ञासु ज्ञानी चार प्रकार के लोग। अभी तो पूरा नहीं समझाएंगे लेकिन आपको समझना तो चाहिए। अर्थो मतलब दुखी व्यक्ति भगवान के पास जाता है। अर्थाथी या धनार्थी या फिर धन संपदा प्राप्त करने वाला, चाहने वाला व्यक्ति भगवान के पास जाता है। कोई जिज्ञासु भगवान के पास पहुंचता है। तो कोई पहले ही कुछ ज्ञान है तो ज्ञानवान मां प्रपद्यंते, ज्ञानी व्यक्ति भगवान के पास पहुंच जाता है। इसमें से ध्रुव महाराज किस प्रकार में स्थित होते हैं, किस उद्देश्य अर्थाथी उनको कुछ पदवी, कुछ स्थान चाहिए था। उनकी तीव्र इच्छा थी लेकिन अभी इतना ही कहेंगे। भगवान की व्यवस्था से उनको नारद मुनि मिले। जमुना के तट पर ध्रुव घाट भी है। आपके जानकारी के लिए मतलब विश्राम घाट मथुरा के जमुना के तट पर है। वहां से कुछ ही दूरी पर ध्रुव घाट है। वहा ध्रुव और नारद मुनि का मिलन हुआ और उन्होंने परीक्षा भी ली है। इतनीसी उम्र में भगवान को प्राप्त करना चाहते हो! वन में जाकर। तो इनका निश्चय दृढ़ निश्चय है कि ऐसे ही कुछ बात कर रहे हैं ध्रुव महाराज पता कर रहे हैं नारदमुनि। तो नारदजी समझ गए कि यह तो बड़ा पक्का है। इसका निर्णय इसका निश्चय दृढ़ निश्चय है। घर लोटो अपने महल लोटो यहां क्या वन में क्यों आए हो, कुछ बातें तो ध्रुव महाराज परीक्षा पास हो गए और फिर उनको आदेश उपदेश किए हैं। ओम नमो भगवते वासुदेवाय। इसका तुम जप करो इसी के साथ उनको आदेश दिए हैं और ध्यान करो। वैसे सतयुग है तो सतयुग के अनुरूप कृतये ध्यायतो विष्णु त्रेतायाम यजतो मखे।
व्दापारे परिचर्याम कलोतद हरिकीर्तनात।। अब आप जानते हो या आपको जानना चाहिए। चार युगों में चार विधियां हैं। सतयुग की विधि कहे कि तुम ध्यान करो और केवल ध्यान करो ही नहीं कहां है। कैसे ध्यान करना है, ध्यान की सारी विधि गुरु नारद मुनि समझाएं।तत तथः गच्छभद्रमते यमुनायास ततम शुचि पुण्यं मधुबनम यत्र सानिध्यम नित्यदा हरेः यह नारद मुनि के वचन ही है। यह सब रिकॉर्ड करके रखा है भागवत में। यहां ध्रुव महाराज की कथा ध्रुव की कथा वैसे यहां मैत्रेय मुनिने विदुर जी को कथा सुना रहे हैं हरिद्वार में। शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को सुनाएं और उसी कथा को फिर सुत गोस्वामी नैमिषारण्य में ऋषि-मुनियों को सुनाएं। उसी कथा को श्रील प्रभुपाद भी हमको सुनाया करते थे। और उसी कथा को फिर हम मैं आपको सुना रहा हूं और फिर इसे सुनी हुए कथा को आपको औरों को सुनाना चाहिए। तो इस प्रकार परंपरा में इस कथा का प्रचार और प्रसार होता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी जब तोटा गोपीनाथ मंदिर में गदाधर पंडित थे पंचतत्व के सदस्य उनसे भागवत कथा सुनते थे। उन भागवत कथाओं में ध्रुव महाराज की कथा स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सुना करते थे।
विशेष रुचि लेते थे ध्रुव महाराज की कथा सुनने में। और यह जब मैं कह रहा हूं तो भगवान की कथा सुनते हैं तो भगवान उनके भक्तों की कथा सुनते हैं। और उनका हे भी तो कौन। वे एक तो भगवान है और उनके भक्त हैं। तो बोधयन्तम परस्परम, भक्त सुनते हैं भगवान की कथा तो स्वयं भगवान अपने भक्तों की कथा सुनते हैं। सुनते ही रहते हैं। यहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह कथा विशेषता ध्रुव महाराज की कथा सुनकर बड़ा हर्षित होते हैं।
यहां ध्रुव घाट पर नारद मुनि ने ध्रुव महाराज को कहा, “हे पुत्र, हे शिष्य गच्छ भद्रं” जाओ जाओ तुम्हारा कल्याण हो। कहां जाओ यमुनायास तटम यमुना के तट पर ही लेकिन वहां से और कुछ दूर जाकर जमुना के तट पर जाओ। पुण्य मधुवनम या मधुबन में जाओ। पुण्य मधुबन में जाकर मैंने जो भी तुमको आदेश उपदेश दिए हैं वह साधना भक्ति तपस्या ध्यान तुम वहां करो। मधुबन में करो। ध्रुव महाराज ध्रुवा घाट से टीले जाते हैं। उस टीले का नाम पहले से कुछ होगा या नहीं होगा लेकिन, तब से जब से ध्रुव महाराज वहां गए और उन्होंने तपस्या की और उन्होंने 6 महीने में भगवान को अपने सामने खड़ा कर दिया। इसलिए उस स्थान का नाम ध्रुव के नाम से वह स्थान प्रसिद्ध है। ध्रुव टीला कहते हैं। जो ध्रुव टीला वहां स्थली ध्रुव महाराज के तपस्या का, चरित्र का, उनकी ध्यान धारणा का और वही से उनको भगवत प्राप्ति हुई, उसका स्मरण दिलाता है। ध्रुव महाराज की तपस्या यह सब हमारे कल्पना से परे हैं।
वैसे हर 3 दिन में पहले महीने में 3 दिन में एक बार त्रिरात्रान्ते त्रिरात्रान्ते ऐसे लिखा है। फिर कुछ बेर या ऐसे ही कुछ फल खाते थे। यह नहीं कि वह सेव या अमरूद या ऐसे कुछ फल नहीं खाते थे। साधा फल बेर ही खाते थे। और कब 3 दिन में एक बार। हम लोग तो दिन में दो बार हमारा चलता रहता है लेकिन ध्रुव महाराज 3 दिन में एक बार खाते थे। थोड़ा सा फलम और फिर दूसरे महीने में 6 दिनों में एक बार। पहले फल थे और आप वहां कुछ पत्ते ही खा लेते थे। और ऐसा भी जो पत्ते के गिरे हुए हैं सूखे पत्ते हैं उसी को खा लेते थे। अगले महीने तीसरे महीने में नो दिनों में एक बार मतलब 1 महीने में वह 3 बार ही भोजन करने वाले। क्या खाएंगे पहले फल खाते थे दूसरे महीने में उन्होंने सिर्फ पत्ते ही खाए और अब तीसरे महीने में थोड़ा जल पीने वाले हैं। पत्रं पुष्पं फलं तोयं तो यह मतलब दूध या थोड़ा जल पी रहे हैं। और अब चौथे महीने में 12 दिनों में एक बार क्या करते थे, हवा खाते थे। सांस लेते थे 12 दिनों में एक बार सांस ले लिया। अभी यहां फल भी नहीं, पत्ते भी नहीं, जल भी नहीं केवल हवा और फिर पांचवा महीना आ गया तो फिर उन्होंने सांस लेना भी छोड़ दिया। बस एक पैर पर ही खड़े हैं मतलब वहां से ना तो हिलेंगे ना डुलेंगे या शरीर के कोई मांग की पूर्ति नहीं होगी। नहीं सुनेंगे। कठोर तपस्या एक पैर पर ही खड़े रहेंगे। जब तपस्या कठोर होती है तपस्वी एक पैर पर ही खड़े होते हैं। ध्रुव महाराज एक पैर पर खड़े हैं। और इसी के साथ ओम नमो भगवते वासुदेवाय। ओम नमो भगवते वासुदेवाय।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय। इसका उच्चारण, श्रवण, कीर्तन, स्मरण आप जानते हो इसकी कथा के क्रम में ध्रुव महाराज स्मरण के लिए प्रसिद्ध है। आप जानते हो नवविधा भक्ती के 1-1 भक्ति के 1-1 आचार्य हैं एक विशेष भक्त है। श्रवण के आचार्य है या भक्त है राजा परीक्षित श्रवणम के नाम हैं। श्रवणं कीर्तनम विष्णु स्मरणं की जब बात आती है तो, नंबर एक पर है ध्रुव महाराज। श्रवणम
कीर्तनम और विशेषता ध्रुव महाराज कर रहे थे। भगवान को वहां पहुंचना पड़ा और भी बातें हैं। सारी हवा बंद मामला हुआ और सांस लेना भी कठिन हुआ। जब ध्रुव महाराज ने सांस लेना रोक दिया तो सारे ब्रह्मांड में हवा का चहल-पहल बंद हुआ। इससे देवता भी परेशान हुए और मदद मदद भगवान से प्रार्थना करने लगे तो फिर भगवान, बहुत छोटा बालक है ना मधुबन में वह तपस्या कर रहा है। उसमें सांस लेना बंद कर लिया है। ठीक है, मैं ही जाता हूं और सांस लेना जो बंद किया है उसको बंद करता हूं। सांस लेने के लिए मैं निवेदन करता हूं। मैं जाता हूं। ऐसा देवताओं से कहकर भगवान स्वयं मधुबन आए हैं और ध्रुव महाराज को दर्शन दिए हैं मतलब आ गए।
हरि हरि, भगवान आकर सामने खड़े हुए लेकिन ध्रुव महाराज भगवान की और देख भी नहीं रहे। अरे तुम मुझे मिलना चाहते थे। तुम मुझे चाहते थे। मेरा दर्शन करना चाहते थे. मैं तो आ गया हूं। मेरी तरफ देखो। ध्रुव महाराज ध्यान अवस्था में ध्यानावस्थित तदगतेन मनसा पश्यन्ति यंयोगिनो यह नहीं की वे देख नहीं रहे थे लेकिन भगवान को कहां देख रहे थे, ध्यान अवस्था में अपने हृदय प्रांगण में जो परमात्मा है उन्ही का दर्शन कर रहे थे। भगवान ने क्या किया, अंदर का जो दर्शन है उसको बंद कर दिया. तो ध्रुव महाराज सोचने लगे क्या मैंने अपने भगवान को खो दिया, क्या हुआ भगवान अदृश्य हो गए क्या? ध्रुव महाराज ने जैसे ही आंखें खोल दी तो वही भगवान जो हृदय में थे, वही समक्ष प्रत्यक्ष उपस्थित थे।
हरि हरि, भगवान को देखते ही ध्रुव महाराज उनका स्तुतिगान प्रार्थना करने चाहते थे लेकिन ऐसा कुछ पहले का उनको ट्रेनिंग नहीं था। वह नहीं कर पाए थे। कुछ स्तुति गान तो करना चाह रहे थे। पुनः भगवान समझ गए कुछ प्रार्थना करना चाहता है। कुछ कहना चाहता है उसकी तीव्र इच्छा तो है, कुछ कहने, बोलने की, स्तुति करने की तो, भगवान ने अपने शंख भगवान उसके सिर पर रखा। भगवान चतुर्भुज है। अपने शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए चतुर्भुज मूर्ति में दर्शन दे रहे थे। अपने हाथ के एक हाथ में शंख था। उसीसे सिरपर स्पर्श करते है ध्रुव महाराज को। ध्रुव महाराज फटाफट या धड़ाधड़ स्तुति के वचन कहने लगे। कह पाए। वह सब स्तुति भागवत में विस्तार से दी हुई है। और यह सब कथा आपके जानकारी के लिए, यह चतुर्थ स्कंध है। हां यह आठवां अध्याय, नववा अध्याय दसवां अध्याय ऐसे कई सारे अध्याय में ध्रुव महाराज कथा चौथे स्कंध में आप पढ़ सकते हो। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पढ़ते या सुनते थे ध्रुव महाराज कथा। और वैसे भी एक ध्रुव महाराज और प्रल्हाद महाराज कथा अधिकतर होती रहती है, इस संसार में या भारतवर्ष में।
हम भी जब छोटे थे तो, स्कूल में भी पढाते। आजकल सेकुलर स्टेट बन गया तो वह भी बंद कर दिया। यह ध्रुव महाराज कथा, यह धर्म है। यह धर्मनिरपेक्षता संविधान, यह सब असुरी संपदा का प्रभाव या प्रसार के कारण अब बच्चों को स्कूल कॉलेज में कॉलेज तो दूर बाकी स्कूल में भी बंद कर दी है। ध्रुव महाराज कथा बचपन में हम सुने थे और मैं अकेला ही थोड़े सुना हुं। ध्रुव महाराज और प्रह्लाद महाराज की कथा तो सभी को सुनने को मिलती ही है। आपने भी सुने होगी। हां कि नहीं? गुरु महाराज कांफ्रेंस में एक भक्त को संबोधित करते हुए पूछ रहे हैं। ध्रुव महाराज, प्रह्लाद महाराज कथा आपने भी सुनी होगी।
हरि हरि, आप कहां पर पढ सकते हो यह हमें बता रहा हूं। भागवत में चतुर्थ स्कंध
भगवान ने दर्शन भी दिया है और कुछ वरदान भी देना चाहते हैं। मांगो मांगो लेकिन यही तो होता है। शुरुआत में जो कुछ कुछ इच्छा के साथ व्यक्ति भगवान के पास जाता है और भगवत प्राप्ति करना चाहता है ताकि, भगवान मिलते ही मैं यह मांग लूंगा। यह चाहूंगा। तो ध्रुव महाराज से जब पूछा। तो तुम किसी और उद्देश्य के साथ भगवत प्राप्ति करना चाहते थे। किंतु अब जब भगवत प्राप्ति हुई। भगवान का दर्शन हुआ लेकिन भगवान के दर्शन प्राप्ति के लिए उन्हें जो साधना की तपस्या की मंत्रों का उच्चारण किया उससे क्या होता है? चेतोदर्पण मार्जनम चेतना का दर्पण का मार्जन होता है। और यह तो मुक्ति की कामना, मुक्ति की कामना, भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी सकले अशांत, अशांति फैली होती है। भुक्ति मुक्ति सिदध्दी की कामना के कारण ऐसी कामना की बात ना समाप्त हो जाती है। पापाची वासना न लागो मना त्याहुनि आंधळा मी बरा। तुकाराम महाराज के यहां वचन है मुझे यह पापकी वासना है। इस पाप की वासना को समूल नष्ट करो। तो वही होता है जब आचार्यों के गुरुजनों के आदेश उपदेश अनुसार हम साधना भक्ति करते हैं।
साधना से फिर और फिर यह नहीं कि हमें सिर्फ साधना भक्ति ही करनी है जीवन भर में। साधना भक्ति भी करनी है किंतु उससे हम भाव, भक्तिभाव के स्तर पर भी पहुंचना चाहते हैं या वहां पर हम प्रेमाभक्ति के स्तर पर भी पहुंचना चाहते हैं। और हम पहुंचते हैं साधना भक्ति विधिपूर्वक हमने निभाई है, कि है तो भाव और प्रेम तक पहुंचते हैं। तो ध्रुव महाराज ने भाव और प्रेम उदित हुआ था इसलिए प्रेमान्जनाक्षुरीत भक्तिविलोचनेन। संत सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।। भगवान का दर्शन वैसे उन्ही को होता है जिनकी आंखें प्रेम आंसुओं से भर जाती है। प्रेमान्जनाक्षुरीत भक्तिविलोचनेन। फिर संत सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।। फिर वे देखते हैं। भगवान कह रहे थे, मांगो मांगो कुछ वरदान मांगो। तो फिर ध्रुव महाराज का उत्तर था,
कामेस्थतास्तोअस्मि वरंनयाचे। क्या कहा उन्होंने, कृतार्थ हो गया मैं। आपके दर्शन मात्र से मैं कृतार्थ हो गया। मैं संतुष्ट हो गया। मैं पूरा प्रसन्न हूं आपके साथ के लिए मिलन से यह दर्शन से। वरंनयाचे मुझे कोई वर नहीं चाहिए। आप जो मिल गए मुझे और कुछ नहीं चाहिए। यास्मीन तुष्टि जगत तुष्ट, भगवान मिल गए तो हो गया पूरी संतुष्टि।
हरि हरि, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
ध्रुव महाराज के चरणकमलों का हमें भी अपने जीवन में अनुसरण करना है और हमको भी कृष्ण का भक्त बनना है। हम को भी दर्शन करने हैं भगवान के। और अंततोगत्वा भगवान, भगवत धाम भी अपना है। हो सकता है अगले सत्र में कुछ ध्रुव महाराज के चरित्र संबंधित कुछ चर्चा कर सकेंगे। अभी यहीं विराम देते हैं अगर आप के कुछ प्रश्न हैं किंतु अभी समय नहीं है। प्रश्न या कोई कमेंट है तो आप लिख सकते हैं। कोई कमेंट या प्रश्न है तो आप लिख लो, पद्ममाली प्रभुजी पढ सकते हैं आपके प्रश्न है या कमेंट कोई सीधा सरल प्रश्न है तो आप लिखो।
हरिबोल।
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*जप चर्चा*
*20 -04 -2022*
(गुरु महाराज द्वारा )
हरे कृष्ण !
कृष्ण प्रेम आप समझते हो, यह जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस संबंध का जो ज्ञान है अविद्या है, इसको अपरा कहा है। आप जानते हैं विद्या के दो प्रकार परा विद्या, अपरा विद्या उत्कृष्ट और निकृष्ट भी इसको कह सकते हैं । हरि हरि ! हिंदू जगत और सारा क्रिश्चियन जगत, मुस्लिम जगत और सारा जगत कहाँ लगा हुआ है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इसकी प्राप्ति में, इन्हें चार पुरुषार्थ कहा जाता है। उस से संबंधित ज्ञान जो है यह भी अपरा विद्या है। परा विद्या है जो प्रेम के संबंधित ज्ञान है , प्रेम प्राप्ति, कृष्ण प्रेम हरि हरि ! तो फिर प्रेम प्राप्ति से संबंधित जो ज्ञान है, जो विचार है, पढ़ते हैं, कथा है, लीला है यह परा विद्या है या जिसको कृष्ण राज विद्या कहते हैं। राज विद्या राजगुह्यं पवित्रम , इदम , उत्तमम ,
*राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 9.2)
अनुवाद- यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है | यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है |
आप समझते हो उत्तमम- तम से परे, देखिए उत्तम शब्द कैसे बना है तम से परे बियोंड इग्नोरेंस ट्रांससेंडिंग इग्नोरेंस मतलब ऊपर भी, उत्तमम मतलब ऊपर तम से ऊपर, अपरा विद्या में कुछ तम है, रज है, कुछ सत्व भी हो सकता है। कृष्ण प्राप्ति से संबंधित जो विद्या है यह राज विद्या है राज राजगुह्यं है, पवित्रम, इदम् मतलब यह उत्तमम है। हरि हरि ! प्रेम प्राप्त करना यह हमारे जीवन का लक्ष्य है, इसे भूले नहीं हरि ! गौड़ीय वैष्णव वैसे समझते हैं इन बातों को या इसको समझ कर ही तो वे गौड़ीय वैष्णव बनते हैं नहीं तो वह हिंदू रह जाएंगे या और धर्मावलंबी बन जाएंगे हरि हरि !
*नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कभु नय। श्रवणादि-शुद्ध-चित्ते करये उदय।।*
19. 107॥
अनुवाद – कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”
हम श्रवण कीर्तन करेंगे तो फिर कृष्ण प्रेम उदित होगा, कृष्ण प्रेम प्राप्त होगा, प्रकाशित होगा हम अनुभव करेंगे। यह अनुभव की ही बात है यह श्रवण की ही बात है। ( उत्कल बंग यात्रा में छोटे बच्चे भी बैठे हैं, हरि हरि भाग्यवान हैं ) एक तो हम कीर्तनीय सदा हरी करते हैं, यहां संक्षेप में कहेंगे श्रवण के दो प्रकार कह सकते हैं या श्रवण कीर्तन के दो प्रकार हैं, एक तो *कीर्तनीय सदा हरि* सदा हरी कीर्तन करना या जप करना और नित्यम भागवत सेवया
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥* (श्रीमद भागवतम १.२.१८)
अनुवाद-भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
*गीता भागवत करिती श्रवण । अखंड चिंतन विठोबाचे ॥* संत तुकाराम
भागवत और चैतन्य चरित्रामृत इसका श्रवण कीर्तन और यह श्रवण कीर्तन, यह दोनों प्रकार का है। इस तरह बताया कि 2 प्रकार एक तो जप करना भी श्रवण कीर्तन है और भागवत का श्रवण, चैतन्य चरितामृत का श्रवण कीर्तन करना भी श्रवण ही है। हरि हरि ! मैं कल चैतन्य चरितामृत पढ़ रहा था मेरी आदत है कहो इट्स माय हॉबी या मेरी प्रवृत्ति है। मैं जब सुनता हूं पढ़ता हूं और उससे प्रभावित होता हूं या कुछ समझता हूं तो तुरंत ही सोचता हूं कि इस बात को औरों के साथ शेयर करना चाहता हूं । मैं फिर अवसर ढूंढता हूं कि कब मुझे कोई मंच, कोई प्लेटफार्म प्राप्त होगा ताकि मैंने सुनी पढ़ी और समझी, सीखी अनुभव की हुई बातें मैं औरों को कहूं। मैंने पढ़ लिया चैतन्य चरितामृत फिर सोचा कि कहना ही होगा और यही है वह
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
कृष्ण चाहते भी हैं कृष्ण भक्तों से, कृष्ण भक्त क्या करेंगे, बोधयन्ता परस्परं आपको भी करना है। मैं ऐसे करता हूं आप को कह रहा हूं तो फिर मैं भी कृष्ण भक्त हूं या फिर बनने का प्रयास हो रहा है। आप भी कृष्ण भक्त बनना चाहते हो कि नहीं ? बहुत अच्छा, कृष्ण भक्तों का यह लक्षण ही है, यह कर्तव्य है, कहो जैसा कि कृष्ण ने कहा बोधयन्त परस्परं, मेरे भक्त क्या करते हैं वह एक दूसरे को बोध करते हैं, गुह्यं आख्याति प्रयच्छति करते हैं, कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च, मेरी कथा कहा करते हैं और तुष्यंति च रमन्ति च उसी से संतुष्ट होते हैं और उसी में रमे रहते हैं। अब थोड़ा प्रारंभ करता हूं यह तो अभी भूमिका बनाते बनाते समय बीत जाता है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
बच्चे जा रहे हैं मेरी स्क्रीन पर तो मैं बहुत कुछ देखता हूं शायद आप मोबाइल की स्क्रीन पर लिमिटेड या यथासंभव ही होता है। आप लैपटॉप या डेक्सटॉप की स्क्रीन का उपयोग किया करो तो आप और थोड़ा विराट या विश्वरूप या जहां-जहां भक्त हैं और जितने भक्त जप कर रहे हैं उनका दर्शन देख सकते हो। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में थे, वृंदावन धाम की जय ! वृंदावन में थे कहते ही बहुत कुछ याद आ जाता है। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में थे ऐसा कहने पर फिर आगे की बात कहना मुश्किल भी होता है, वृंदावन में तुमने कहा था , कहो वृंदावन में थे तो क्या किया, उन्होंने क्या लीला की ? अभी तो नहीं कहेंगे लेकिन ऐसा विचार आता है मन में हरि हरि ! फिर यहां से प्रस्थान किया , यहां से जब मैंने कहा तो फिर शायद आपको आईडिया आ रहा होगा मैं कहां हूं इस समय, क्योंकि मैंने यहां से कहा, वहां से कह सकता था लेकिन कह नहीं सकता क्योंकि मैं वहीं पर हूं। मैं इस बात को छुपाना भी चाहता हूं लेकिन हो गया एक्सीडेंट, हंसते हुए हरि हरि गौरंगा ! चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन से प्रस्थान किया जगन्नाथ पुरी के लिए, रास्ते मे प्रयाग पहुंचे और वहां रूप गोस्वामी से मिले और अनुपम से हरि हरि ! और वहीं पर यह बात है पहले कही भी है, लेकिन यह बातें नित्य नूतन होती हैं कभी पुरानी नहीं होती हैं। पहले कही हुई बातें पुन्: कही जाती है, कहीं जानी चाहिए, अतः वहीं पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का दर्शन हुआ हरि हरि रूप गोस्वामी को ,
*आजानुलम्बित-भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक-पितरौ कमलायताक्षौ। विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ।।*
(चैतन्य भागवत)
संकीर्तन करते हुए दर्शन हुआ या कह तो दिया वहां दर्शन हुआ, तो फिर कैसा दर्शन हुआ यह भी कहना पड़ता है। वैसे मन में विचार उठते हैं कि दर्शन किया ,तो कैसा था वह दृश्य जिस का दर्शन किया हरि हरि ! गौरंगा और वहीं पर आप जानते हो कि अगर आपने सुना है लेकिन भूल जाते हो। इसीलिए भी पुनः पुनः कहने की आवश्यकता होती है। यहीं पर रूप गोस्वामी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को स्तुति करने वाले हैं किन शब्दों में ,
*नमो महा-वदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते। कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर-त्विषे नमः ॥*
अनुवाद- “हे परम दयालु अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।
यह भी कह सकते हैं कि यह स्तुति या इन शब्दों में स्तुति, उन्होंने की, क्योंकि इस प्रकार का उनको चैतन्य महाप्रभु का दर्शन हुआ और फिर महाप्रभु ने दर्शन दिया , दर्शन मतलब साक्षात्कार भी है अनुभव भी है फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को देखकर उन्होंने स्तुति की इस प्रकार का दर्शन हुआ। महावदान्याय कैसे हो आप ? महावदान्याय, यही दर्शन है, यह अनुभव है, साक्षात्कार है, कृष्ण प्रेम प्रदायते, कैसे देखा क्या दर्शन किया वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, कृष्ण प्रेम दान दे ही रहे थे अर्थात जो देखा उन्होंने कहा भी, उसी स्तुति में कृष्ण प्रेम प्रदायते। वहां त्रिवेणी के संगम या तीन नदियों के तट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को संकीर्तन करते हुए देखा और उस संकीर्तन को उन्होंने (असंख्य लोगों ने) या उन्होंने घेर लिया था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु से इतने सारे लोग आकृष्ट हो चुके थे और उनको श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु क्या दे रहे थे कृष्ण प्रेम दे रहे थे, उनके समक्ष उन्हीं के मध्य में ,
*महाप्रभो: कीर्तन नृत्यगीत वादित्रमाद्यान् मनसो रसेन। रोमांच कंपाश्रुतरंग भाजो वंदे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।2।।*
श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन में कीर्तन, नृत्य, गायन तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए जो भावविभोर हो उठते हैं, तथा अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हुए जो अश्रुपात, कम्पन तथा रोमांञ्चादि भावों का अनुभव करते हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* दे रहे थे, जो दे रहे थे उसको देखा और अनुभव किया फिर अपनी स्थिति में उन्होंने कहा कृष्ण प्रेम प्रदायते, कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामने गौर-त्विषे नमः , कृष्ण चैतन्य यह तो अभी पूरा नहीं कहूंगा , कृष्णाय तो यह कृष्ण का स्वरूप ही है। श्रीकृष्ण चैतन्य है उनकी चेतना उत्पन्न कर रहे हैं या असंख्य जीवों को चैतन्य दे रहे हैं जीवन, लाइफ गिविंग देम, लाइव मेकिंग देम एक्साइटेड, ऐसे चैतन्य महाप्रभु को या कृष्ण को देखा। उनका नाम हो गया कृष्ण चैतन्य कृष्ण हो गए श्रीकृष्ण चैतन्य गौर-त्विषे नमः । उनकी गौर कांति देखी गौरंगा ,गौरव को देखा और कहा गौर-त्विषे, आपसे श्याम सुंदर 5000 वर्ष पूर्व लेकिन अब आप गौर सुंदर बने हो हरि हरि ! इस प्रकार उन्होंने स्तुति की अपने अनुभव की बात, आंखों देखा जो भी दर्शन था और उसी के साथ जो साक्षात्कार।उन्होंने इस प्रार्थना के साथ उसको प्रकाशित किया, नमो महावदान्याय कृष्ण प्रेम प्रदायते , कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामने गौर-त्विषे नम: हरि हरि ! इतने में वहां वल्लभाचार्य आ गए या वल्लभाचार्य चैतन्य महाप्रभु को मिलने आए प्राइवेट दर्शन के लिए आ गए और वहां रूप गोस्वामी और अनुपम भी थे। वल्लभाचार्य आप जानते ही हो ये एक पुष्टिमार्ग के आचार्य हैं ( विष्णु स्वामी, रुद्र संप्रदाय) यह चार वैष्णव संप्रदायों में एक रुद्र संप्रदाय से, हरी हरी और उसी परंपरा में विष्णु स्वामी गुरु और उन्हीं का प्रतिनिधित्व किया वल्लभाचार्य ने और ये बाल गोपाल की आराधना भी करते रहे और प्रचार प्रसार हरि हरि ! वल्लभाचार्य के बारे में जब सुनोगे, अभी ज्यादा मैं नहीं सुनाने वाला हूं लेकिन आपको यह पता लगना चाहिए कि वल्लभाचार्य चैतन्य महाप्रभु के समकालीन थे सम मतलब,जब चैतन्य महाप्रभु धरातल पर थे, धरातल पर उस समय वल्लभाचार्य भी थे। किंतु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भगवान हैं और वल्लभाचार्य आचार्य भक्त हैं। वल्लभाचार्य को चैतन्य महाप्रभु ने देखो देखो यह रूप गोस्वामी है और संक्षिप्त में परिचय भी दिया हुआ है। यहां पर चैतन्य चरितामृत में पूरा उल्लेख नहीं है। रूप गोस्वामी उनको यहां मिले ऐसा कहते ही वल्लभाचार्य उनकी ओर जा रहे थे। रूप रूप गोस्वामी की ओर, ताकि उनका चरण स्पर्श वे कर सकते हैं या उनको आलिंगन दे सकते हैं, इस उद्देश्य से जब वल्लभाचार्य जाने लगे, उस समय जहां भी दर्शन दे रहे थे, दर्शन मंडप चैतन्य महाप्रभु वल्लभाचार्य को , रूप गोस्वामी झट से वहां से उठे और दौड़ने लगे और दूर जाने लगे और कहने लगे नहीं नहीं मैं तो अस्पर्श हूं, डोंट टच मी ,
*भट्ट मिलिबारे याय, दुहे पलाय दूरे। ‘अस्पृश्य पामर मुञि, ना हुँइह मोरे’ ॥* 67॥
अनुवाद-जब वल्लभ भट्टाचार्य उनकी ओर बढ़े, वे और दूर चले गये। रूप गोस्वामी ने कहा, “मैं अछूत और अत्यन्त पापी हूँ। कृपा करके मुझे न छुएँ।”
यह शब्द है चैतन्य चरितामृत के मैं अस्पृश्य अदृश्य हूं और मैं स्पर्श करने योग्य नहीं हूं। मुझे स्पर्श मत कीजिए हरि हरि ! इसी के साथ वैसे इस बात का पता चलता है या किस बात का दर्शन होता है यह भी कहा जा सकता है। क्या दर्शन यह है, रूप गोस्वामी की नम्रता
*तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥*
अनुवाद- “जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।”
चैतन्य महाप्रभु ने कहा है अपने शिक्षा अष्टक में, उसका यह ज्वलंत उदाहरण है देखिए रूप गोस्वामी का रिस्पांस क्या रहा। जब वल्लभाचार्य उनकी ओर जा रहे थे उनको मिलने या उनको आलिंगन देने या चरण स्पर्श करने ,रूप गोस्वामी वहां थे दूर जा रहे थे नहीं नहीं मुझे छुओ मत हरि हरि ! जय !रूप गोस्वामी प्रभुपाद की जय ! वैसे ही यह वल्लभाचार्य चैतन्य महाप्रभु को मिलने उनका दर्शन करने तो आए ही थे लेकिन उनका उद्देश्य चैतन्य महाप्रभु को अपने घर पर ले जाने का था। वल्लभाचार्य गृहस्थ थे, हरि हरि ! वल्लभाचार्य पंढरपुर में थे और वहां पर उन्होंने कथा की, अपनी भागवत कथा के लिए वल्लभाचार्य प्रसिद्ध हैं। उनकी कुछ 84 बैठके हैं। सारे भारतवर्ष में सर्वत्र जहां जहां उन्होंने कथा की, भागवत कथा की, उसको बैठक कहते हैं। पंढरपुर में भी जैसे हमारे इस्कॉन या राधा पंढरीनाथ मंदिर में, अभी जस्ट टू हंड्रेड मीटर दूरी पर उसी चंद्रभागा के तट पर वल्लभाचार्य बैठक है और विट्ठल भगवान ने उनको दर्शन दिया पंढरपुर में, विट्ठल भगवान वहां पहुंचे वल्लभाचार्य बैठक पर यहां भागवत कथा कर रहे थे इसीलिए भी मैं कह रहा हूं और भगवान ने उनको आदेश दिया उस वक्त वे ब्रह्मचारी ही थे, तुम गृहस्थ बनो, गृहस्थ धर्म को अपनाओ ऐसा आदेश स्वयं भगवान वल्लभाचार्य को दिए थे । उसके उपरांत वे गृहस्थ बन गए और जब उनके पुत्र हुए उसमें से एक का नाम उन्होंने विट्ठलनाथ रखा क्योंकि विट्ठल भगवान के आदेश अनुसार उन्होंने गृहस्थ आश्रम को अपनाया था, अपने पुत्र का नाम विट्ठलनाथ रखा। यहां प्रयागराज में प्रयाग मंडल में अड़यिल नाम के ग्राम के स्थान पर वल्लभाचार्य रहते थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने निमंत्रण को स्वीकार किया और नौका से जाना था, त्रिवेणी के उस पार था वल्लभाचार्य का निवास स्थान एक ग्राम में। तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब नौका से यात्रा कर रहे थे, उस समय कुछ विशेष घटनाएं घटती हैं और विशेष बात यह है कि वह जमुना के जल को वह गंगा का भी हो सकता है या त्रिवेणी के जल को चैतन्य महाप्रभु ने जब देखा तो जल में श्याम वर्ण की छटा होती है। श्यामल या काला सांवला जल होता है। जल का वर्ण होता है , उसको श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब देखा तो बस उसको उद्दीपन कहते हैं। हम जब कुछ बात देखते हैं, दृश्य देखते हैं, दर्शन करते हैं, कहीं जाते हैं तो वहां की वस्तु के संपर्क में आने से उसका दर्शन करने से, उसको सुनने से जो भाव उदित होते हैं उसको उद्दीपन कहते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु में यह भाव उमड़ आए और उसी के साथ
*महाप्रभो: कीर्तन नृत्यगीत वादित्रमाद्यान् मनसो रसेन। रोमांच कंपाश्रुतरंग भाजो वंदे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।2।।*
श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन में कीर्तन, नृत्य, गायन तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए जो भावविभोर हो उठते हैं, तथा अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हुए जो अश्रुपात, कम्पन तथा रोमांञ्चादि भावों का अनुभव करते हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
चैतन्य महाप्रभु का शरीर रोमांचित हुआ। यह सब अलग-अलग विकार हैं, वे स्वयं ही डगमगा रहे हैं। अंदर जो भाव् आ रहे हैं जानो बॉडी कंट्रोल, वह बाह्य ज्ञान रहता ही नहीं ,ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और भक्त वल्लभाचार्य रूप गोस्वामी भी जा रहे हैं। वोट डगमग करने लगी और इमरजेंसी कुछ खतरा उत्पन्न हो रहा था, तभी चैतन्य महाप्रभु को शांत करने का प्रयास भी कर रहे थे हरि हरि ! श्रीचैतन्य महाप्रभु की लीला क्योंकि वे भक्त बने हैं। भगवान बन गए हैं, भक्त कौन से भक्त बने हैं वे राधा बने हैं और राधा के भाव यहां भी जो दर्शन हुआ। कोई छोटी सी बात देखी तो कृष्ण के रंग जैसा रंग ही देखा उस जल की तरंगों में, नदी के तरंगों में, ठीक है फाइनली पहुंच गए वल्लभाचार्य निवास स्थान पर और वहां वल्लभाचार्य ने चैतन्य महाप्रभु का भव्य स्वागत किया हुआ है। नए वस्त्र पहनाए हैं, चैतन्य महाप्रभु नए वस्त्रों का श्रंगार किये हुए हैं या सुसज्जित हुए हैं, चंदन लेपन हुआ है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण कमलों का पाद प्रक्षालन वल्लभाचार्य करते हैं हरि हरि और फिर कई सारे भोग खिलाते हैं फिर उनके विश्राम का समय होता है राजभोग के उपरांत मंदिरों में विग्रह को हम विश्राम देते हैं। यहां तो वल्लभाचार्य के लिए चैतन्य महाप्रभु स्वयं पहुंचे हैं और फिर स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही वल्लभाचार्य के लिए हैं तो वैसी आराधना की है, श्री विग्रह आराधना नित्य नाना श्रृंगार तन मंदिर मार्जनादो और अपने घर भक्त और अपने घर वालों के साथ सब मिलकर चैतन्य महाप्रभु की आराधना कर रहे हैं उनके लिए भी और चैतन्य महाप्रभु लेट जाते हैं। वह चरणों की सेवा करते हैं उनके अंग को दबाते हैं हरि हरि ! और यह सब हो रहा है समझ के साथ, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन और यह सब हो रहा है इस समझ के साथ कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन हैं, वे स्वयं भगवान हैं इस बात को भी वल्लभाचार्य समझे थे अदर वाइज कैसे आचार्य जो भगवान चैतन्य महाप्रभु को नहीं पहचाने, नहीं समझे इस प्रकार यदि उनको साक्षात्कार नहीं होता तो कैसे आचार्य हरि हरि ! यह और कोई आराधना कर रहे हैं , वल्लभाचार्य आराधना कर रहे हैं उस संबंध में हम जब सुनते हैं तब उसको सुनकर आत्मा प्रसन्न होता है उनको हर्ष होता है लेकिन साथ ही साथ फिर मन में विचार भी उठता है।
*कबे हबे बोलो कबे हबे बोलो से-दिन आमार। (आमार) अपराध घुचि, शुद्धनामे रुचि, कृपाबले हबे हृदये संचार।।1।।* भक्ति विनोद ठाकुर कृत
अहो! कब मेरा ऐसा शुभ दिन आयेगा जब श्रीगौरसुन्दर की कृपा से मेरे समस्त प्रकार के अपराध नष्ट हो जायेंगे, जिसके फलस्वरूप शुद्ध नाम में रुचि हो जायेगी तथा हृदय मे स्फूर्ति होगी।
हमारे जीवन में वह दिन कब आएगा कि हम भी इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की या श्री राम की सेवा कर पाएंगे ऐसी सेवा मुझे भी करनी चाहिए, मी टू हरि हरि ! ठीक है अभी मैं इतना ही कहूंगा। वैसे भी और एक भक्त इतने में पहुंच गए रघुपति उपाध्याय वहां पहुंचे और उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार किया है
*’आगे कह’—प्रभु-वाक्ये उपाध्याय कहिल। रघुपति उपाध्याय नमस्कार कैल ॥*
( चैतन्य चरितामृत मध्य 19. 97)
अनुवाद-जब महाप्रभु ने रघुपति उपाध्याय से और अधिक सुनाने के लिए कहा, तो उसने तुरन्त ही महाप्रभु को नमस्कार किया और उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया।
और यह रघुपति उपाध्याय (हरि बोल यह कहानी आप को सुलाने के लिए नहीं है, आपको जगाने के लिए है यह आपका कृष्ण प्रेम जागृत करता है करने के लिए है और जब कृष्ण प्रेम जागृत होता है तो सोने का कोई नाम लेगा) हरि हरि ! रघुपति उपाध्याय यह माधवेंद्र पुरी के शिष्य रहे तो माधवेंद्र पुरी के शिष्य तो ईश्वर पुरी भी थे और उनके शिष्य चैतन्य महाप्रभु मतलब चैतन्य महाप्रभु के गुरु के भाई ,गुरु भाई ,यह रघुपति है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पंढरपुर में भी जब पहुंचे थे तब वहां श्री रंगपुरी से मिले थे पंढरपुर में। फिर श्रीरंगपुरी भी माधवेंद्र पुरी के शिष्य थे और यहां रघुपति उपाध्याय, प्रयाग में चैतन्य महाप्रभु से मिल रहे हैं। यह दोनों भी माधवेंद्र पुरी के शिष्य हैं। वहां पंढरपुर में भी क्या हुआ था यह 7 दिन 7 रात्रि तक उनका संवाद होता रहा। हरि कथा में उन्होंने पंढरपुर में 7 दिन 7 रातें बिताई तो यहां पर भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने लाभ उठाया रघुपति उपाध्याय के सानिध्य का और उनसे कह रहे हैं हरि कथा सुनाइए, उन्होंने निवेदन किया है
*’दँहार मुखे कृष्ण-नाम करिछे नर्तन।एड्-दुइ ‘अधम’ नहे, हय ‘सर्वोत्तम’* ( चैतन्य चरितामृत मध्य 19.71)
अनुवाद-वल्लभ भट्टाचार्य ने कहा, “जब ये दोनों निरन्तर कृष्ण-नाम का कीर्तन जप रहते हैं, तो फिर ये अस्पृश्य कैसे हो सकते हैं? उल्टे, ये सर्वोत्तम हैं।”
हरि हरि ! चैतन्य महाप्रभु ने उनसे निवेदन किया कुछ हरि कथा सुनाइए कुछ हरि ,कथा सुनाइए तब मधुर कथा रघुपति उपाध्याय ने सुनाया है आप उसको पढ़ सकते हो, यह वैसे चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19 अध्याय , इसी अध्याय में वैसे चैतन्य महाप्रभु और रूप गोस्वामी का संवाद ,यही अध्याय में है ,वहां पर भी आप पढ़ सकते हो या तो संक्षिप्त में ही जो वार्तालाप संवाद हुआ चैतन्य महाप्रभु और रघुपति उपाध्याय के मध्य में , यह होमवर्क है आपके लिए आप भी पढ़ा करो या नहीं कि आप केवल सुनते ही रहोगे जब हम पढ़ते हैं तो सुनते भी हैं। पढ़ना मतलब सुनना है। पढ़ा करो हरि हरि ! और फिर उस ग्राम के कई वासी भी वहां पहुंच गए।
*प्रभु देखिबारे ग्रामेर सब-लोक आइल।प्रभु-दरशने सबे ‘कृष्ण-भक्त’ हइल ॥*
( चैतन्य चरितामृत मध्य 19. 109)
अनुवाद-यह सुनकर कि श्रीचैतन्य महाप्रभु आये हुए हैं, सारे ग्रामवासी उनका दर्शन करने के लिए आये। उनका दर्शन करने मात्र से वे सभी कृष्ण-भक्त बन गये।
सब कृष्ण भक्त अडाइल ग्राम जहां वल्लभाचार्य रहते थे अंत में उस ग्राम के निवासी भी, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के दर्शन के लिए आए और फिर जरूर वहां कीर्तन भी हुआ होगा ही।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य में और वैसे भी कहा ही है।
*साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सङ्ग’—सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय ॥*
(चैतन्य चरितामृत मध्य 22.54)
अनुवाद-“सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।”
लव , मतलब किंचित सा थोड़ा सा साधु संग, सिद्धि प्रदान करता है। यहां तो स्वयं भगवान साधु बन के आए हैं, उनका संग जब प्राप्त हुआ है वहां के निवासियों को, दर्शन किए हैं और श्रवण कीर्तन हुआ है। बस एक ही सेटिंग में, एक ही मीटिंग में बन गए कृष्ण भक्त । हरि बोल ! हमको तो पूरा जीवन बीत रहा है पता नहीं कब बनेंगे हम भक्त लेकिन यहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बस पहली बार मिले दर्शन किए चैतन्य महाप्रभु के साथ और हो गए कृष्ण भक्त।
गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल !
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*जप चर्चा*
*परम् पूजनीय लोक नाथ स्वामी महाराज द्वारा*
*कानपुर से!!!*
*दिनांक 16.04.2022*
हरे कृष्ण!!!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! इस्कॉन कानपुर भक्त वृंद की जय!
अभी आपकी जानकारी के लिए कुछ अनाउंसमेंट (घोषणा) हुई। शायद यहां उपस्थित भक्तों ने नहीं सुना होगा। मैं आपकी जानकारी के लिए कहता हूं कि हम अभी इस्कॉन के राधा माधव के समक्ष और आपके साथ जप कर ही रहे थे । इस्कॉन राधा माधव की जय! साथ ही साथ हम देशभर के और कई विदेशों के भक्तों के साथ भी बड़ी संख्या में जप कर रहे थे और प्रतिदिन जप करते ही रहते हैं। तत्पश्चात इस समय 6.45 पर जपा टॉक होता है। पहले जप करते हैं और फिर जपा टॉक होता है। कुछ कथा, कुछ स्मरण करते हैं, कुछ श्रवण कीर्तन होता है। आज भी हम उस को आगे बढ़ा रहे हैं। अंतर इतना ही है कि आज हम जपा टॉक को थोड़ा छोटा करेंगे क्योंकि 8:00 बजे दोबारा टॉक है, भागवत कथा होने वाली है। यह उस घोषणा (अनाउंसमेंट) में कहा गया है, मैंने इसको आपकी जानकारी व समझ के लिए दोबारा दोहराया है।
आज का दिन महान है। वैसे कृष्ण भावनामृत में हर दिन महान होता ही है किंतु कुछ दिन बहुत अधिक महान होते हैं। जैसे आज चैत्र पूर्णिमा है। (है या नहीं?) आज के दिन त्रेता युग में दस लाख (1000000) वर्ष पूर्व और द्वापर युग अर्थात पांच हजार (5000) वर्ष पूर्व और इस कलियुग में (500) वर्ष पूर्व, कुछ घटनाएं घटी। आज के दिन इस पूर्णिमा के दिन कुछ लीलाएं संपन्न हुई। आज कई आचार्यों के आविर्भाव तिथि महोत्सव भी है। उनमें हमारे राम भक्त हनुमान की जयंती भी आज है। राम भक्त हनुमान की जय!
युग अलग-अलग या कालावधि अलग-अलग थे लेकिन आज के दिन ये सब घटनाएं, ये सब लीलाएं अथवा कुछ आविर्भाव या जन्म तिथियां हुई हैं। आज चैत्र पूर्णिमा है। हरि! हरि! आज संक्षिप्त ही कहना है, यह चुनौती है। इतना महान चरित्र और मुझे कुछ मिनटों में कहना है। हरि! हरि!
हनुमान को ही याद करते हैं, आपने आजकल किष्किंधा क्षेत्र के संबंध में बारंबार सुना होगा। अभी तो यह रामनवमी संपन्न हुई है और राम कथाएं हो ही रही थी। रामकथा के अंतर्गत एक कांड है, किष्किंधा कांड। किष्किंधा स्थान भी है। किष्किंधा में (आजकल की भाषा में) हम्पी नामक स्थान है।(आपने सुना होगा) जो महाराष्ट्र और कर्नाटक के बॉर्डर पर है। वहां पर पंपा सरोवर भी है और ऋषिमुख पर्वत भी वहां पर है। यह सारा पर्वतीय क्षेत्र है। वहां पर्वत के शिखर पर ही हनुमान का जन्म आज के दिन हुआ। हरि बोल! राम भक्त हनुमान की जय!
यह भी समझना होगा, (पता नहीं आज मैं क्या-क्या समझाने वाला हूं) हनुमान राम भक्त हैं लेकिन भगवान नहीं हैं। हनुमान राम दास हैं या राम भक्त हैं। ऐसी कई सारी सिद्धियां प्राप्त किए हुए हैं, जहां होते हैं चमत्कार, तब वहां होता है नमस्कार। हमारे देश में चमत्कार दिखाने वाले कई सारे सिद्धि, योगी, बाबा वगैरह होते हैं। ये भगवान, वे भगवान..। फिर सिद्धि दिखाते हैं, चाहे साईं है या…
इन बदमाशों का नाम तक का उच्चारण होता है। हरि! हरि!
हनुमान, पवन पुत्र थे। हनुमान के लिए आसमान में उड़ना तो बाएं हाथ का खेल है, यह उनकी सिद्धि थी। वैसे जब उन्होंने जन्म लिया, (भागवत कथा के समय में अधिक कहने का विचार तो था) जन्म लेते ही (वैसे सूर्य उदय तो हो चुका है) हनुमान को भूख लगी और मम्मी से मांगने लगे। कुछ खाने को दो ,मैया! कुछ खाने को दो। मैया ने सूर्य की ओर संकेत किया, वह देखो, कोई फल है, उसको खाओ। हनुमान ने उड़ान भरी और सूर्य की ओर आगे बढ़े। निकट पहुंचकर अब सूर्य को खाने का प्रयास करना ही था, इतने में सूर्य देव ने इंद्र देवता को कहा -बचाओ! बचाओ! बचाओ! हेल्प! हेल्प!
इंद्र जोकि स्वर्ग के राजा हैं, उन्होंने अपने हथियार व्रज का प्रयोग किया और मार दिया, हो सकता है कि फैंका भी हो। वह निशाना हनुमान जी की ठोड़ी अथवा हनु पर लगा। अंदर कुछ टूट भी गया, कुछ बिगाड़ भी हुआ। जैसे हनुमान का जो नाम है अर्थात हनुमान की जो हनू है, जिस प्रकार का हम दर्शन करते हैं। वह इंद्र के व्रज के प्रहार से हुआ था, इसलिए उनका नाम हनुमान हुआ। जब यह प्रहार हुआ तब हनुमान बालक ही थे,अभी अभी जन्में ही थे, वे बेहोश हो गए थे। तब पवन देवता आगे बढ़े, बच्चे को बचाने के उद्देश्य से, उसकी रक्षा करने के उद्देश्य से उसको पुनः वापिस हम्पी में ले आए। लेकिन उन्होंने अनुभव किया था अर्थात वे समझ गए थे कि मेरे बालक पर प्रहार करने वाला स्वर्ग का राजा है। उसमें सूर्य और कई सारे देवता सम्मिलित है। तब पवन/ वायु देवता ने अपनी वायु का जो चहल-पहल है, उसको रोक दिया था।
इसी के साथ संसार भर के जीवों व देवताओं का दम घुटने लगा। फिर उन सब को पवन देवता के आश्रय में हम्पी आना पड़ा और वे पवन देवता से प्रार्थना करने लगे। कृपया हवा छोड़िए, दम घुट रहा है माफ कीजिए, कृपया हमें क्षमा कीजिए। उस समय सूर्य देव, इंद्र देव, अग्नि देव के साथ साथ सभी देवताओं ने अलग-अलग वरदान दिए। कोई हथियार तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकता अर्थात कुछ भी तुम्हें हानि नहीं पहुंचा सकता। यहां तक कि मेरा व्रज भी भविष्य में तुम्हें कोई क्षति नहीं पहुंचा सकता, ऐसा वरदान इंद्र ने दिया। हनुमान का एक नाम वजरंगी हुआ, उनका अंग व्रज जैसा कठोर व बलवान है। वजरंगी हनुमान की जय!!!
ब्रह्मा भी आए थे, ब्रह्मा ने कहा- तुम अमर बनो, तुम चिरंजीवी बनो कुछ प्रसिद्ध चिरंजीवी व्यक्तित्व है। उनमें एक हनुमान है, हनुमान चिरंजीवी है, सदा के लिए जीवित रहने वाले हैं। अग्नि देवता ने वरदान दिया कि अग्नि तुमको जला नहीं सकती। इसीलिए हनुमान जब लंका पहुंचे थे तब रावण ने वहां के लोगों को कहा था कि इसकी पूंछ पर कोई वस्त्र बांध दो और आग लगा दो। पूंछ भी जलेगी और यह भी जल जाएगा लेकिन ऐसा तो कुछ हुआ नहीं। इसके विपरीत, उस हनुमान ने सारी लंका को जला दिया। इस प्रकार कई देवताओं ने कई सारे अलग-अलग वरदान दिए। हनुमान को कई सारी सिद्धियां प्राप्त हुई। वे अपनी सिद्धियों का उपयोग राम की सेवा में ही करते रहे।
जब सीता को खोजना था, तब हनुमान ने उड़ान भरी, वायु मार्ग से गए, वह भी सिद्धि है। वहां गए तो कुछ बिल्ली बन गए। छोटे बन गए तो फिर अणिमा, लघिमा, जो अष्ट सिद्धियां हैं। यह सारी हनुमान को प्राप्त हुई।
रास्ते में सुरसा आई तब (आप जानते ही हो?) उसने मुख बड़ा किया। हनुमान उससे बड़े हो गए, तब सुरसा ने अपना मुख और भी बड़ा किया अर्थात हनुमान के साइज से दुगना कर दिया। हनुमान उसके मुख के भी दुगने आकार के बन गए, इस तरह प्रतियोगिता हो रही थी। अंततोगत्वा हनुमान छोटे मक्खी के साइज के बन गए। सुरसा के मुख में प्रवेश भी किया। अंदर और बाहर भी हुए। तत्पश्चात आगे बढ़े। यह सब सिद्धियां…
राम को जब लंका जाना था, राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम है।
वे भी उड़ान भरकर जा सकते थे लेकिन वे नहीं गए। हनुमान, राम की सेवा में पहले उड़ान भर कर लंका गए। लंका एयरवेज! हमारे हनुमान, वैसे ब्रह्मचारियों के लिए एक आदर्श ब्रह्मचारी हैं। हरि! हरि!
जप करने वालों के लिए भी हनुमान एक आदर्श हैं। वे सब समय सीताराम.. सीताराम… या श्री राम… जय राम.. जय राम… जय जय राम… जप करते ही रहते हैं, उनके हाथ में काम, मुख में सदैव नाम रहता है।
*चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥3॥*
( गुरु- वंदना)
अर्थ:-
वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं, वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।
उनके हृदय प्रांगण में दिव्य ज्ञान प्रकाशित होता रहता है या
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। यं श्यामसुंदरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।*
( ब्रह्म- संहिता श्लोक ५.३८)
अर्थ:- जो स्वयं श्यामसुंदर श्री कृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिंत्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रञ्जित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अनतर्हृदय में दर्शन करते हैं, उन आदि पुरुष भगवान गोविंद का मैं भजन करता हूं।
वैसे हनुमान में भी भक्ति के सारे लक्षण, विकार उनके अंग में प्रकाशित होते हैं। आंसू भी बहाते हैं, रोमांचित भी होते हैं, जब वे राम नाम का उच्चारण करते हैं तब वे हृदय प्रांगण में सीताराम का दर्शन भी करते हैं।
मुझे याद आया, कुछ वर्ष पहले मैं मुंबई में था, तब मैं जुहू से चौपाटी मंदिर की तरफ जा रहा था। मैंने साइन(बिल) बोर्ड देखा। उसमें एक नौजवान (यंगमैन) युवक था और अपना सीना फाड़ कर दिखा रहा था। हम देखना तो नहीं चाहते थे लेकिन इतने बड़े बिल/बोर्ड साइन बोर्ड देखना ही पड़ता है। हमने जब देखा, उसके दिल में लिम्का बोतल दिखाई हुई थी, गर्मी का दिन था।
हम जो भी देखते व सुनते हैं , उसी का स्मरण भी होता है।
*ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते | सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।*
( भगवद्गीता २.६२)
अनुवाद:-
इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
(लिम्का पीने की कामना हो जाती है, जब हम लिम्का का ध्यान करते हैं। वो व्यक्ति लिम्का का ही ध्यान कर रहा था औऱ उसके दिल में तो लिम्का ही बैठी हुई थी।)
हनुमान ने एक समय में ने अपना सीना फाड़ कर दिखाया, जिसमें जय सीताराम थे। जय सीताराम! जय सीताराम!
ठीक है,
मेरा समय समाप्त हो चुका है। आज के दिन जो तिथियां है, उसका स्मरण,भागवत कथा के समय करेंगे। यह हमारे जो ज़ूम कॉन्फ्रेंस के भक्त हैं, उनके लिए जपा कॉन्फ्रेंस संक्षिप्त में हुआ। वैसे आपका भी स्वागत है। कानपुर के भक्त 8:00 बजे कथा में रहेंगे ही लेकिन आप सभी भी 8:00 बजे भी ज्वाइन कर सकते हो और बची हुई आज की कथाएं या देखते हैं, किस प्रकार कितना चर्चा या स्मरण कर सकते हैं। ठीक है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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*जप चर्चा*
*13 -04 -2022*
(कृष्णभक्त प्रभु द्वारा)
हरे कृष्ण !
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
इस ज़ूम पर उपस्थित सभी लोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद स्पेशली धन्यवाद पदमाली प्रभु को जो कि इस ज़ूम कांफ्रेंस के ऑर्गेनाइजर हैं। जैसे कि हम हर बार सुना करते ही हैं गुरु महाराज जी से (इस शरीर या हेल्थ के विषय में अपने भक्तों को सारे शिष्यों को बताते रहते हैं) हम हर बार श्रवण करते हैं कि आत्मा शाश्वत है, शरीर नश्वर है फिर भी हमें शरीर का क्यों बहुत अच्छे से ख्याल रखना चाहिए, क्योंकि जब तक हमारा यह शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा तब तक हम साधना नहीं कर सकते। हेल्थ, साधना और सेवा यह तीन सीक्वेंस हैं। सबसे पहले हमारी हेल्थ उसके बाद साधना और उसके बाद सेवा कभी-कभी भक्तों को लगता है कि हम तो शरीर नहीं हैं हम तो आत्मा हैं क्यों शरीर का ध्यान देना है, चलो तपस्या करते हैं रघुनाथ दास गोस्वामी ने तो इतनी तपस्या की षडगोस्वामियों ने तो खाना भी छोड़ दिया। प्रायः 24 घंटे में वह 2 घंटे विश्राम करते थे हरिदास ठाकुर 22 घंटे जप करते थे तो हमें भी करना चाहिए तो नौसिखिया अवस्था में ऐसी भावनाएं ऐसे तरंग हृदय में उत्पन्न होते हैं। मगर शरीर का ध्यान देना वह भी कितना महत्वपूर्ण है मेरे पढ़ने में आने में श्रीमद्भागवत का यह दशम स्कंध प्रथम अध्याय का शीर्षक है, भगवान कृष्ण का अवतार परिचय
*मृत्युर्बद्धिमतापोह्ये यावद्बुद्धिबलोदयम्। यद्यसौ न निवर्ते नापराधोअ्स्ति देहिनः।।* ( श्रीमद्भागवतं १०.१.४८)
अनुवाद:- बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जब तक बुद्धि तथा शारीरिक पराक्रम रहे, तब तक मृत्यु से बचने का प्रयास करता रहे। हर देहधारी का यही कर्तव्य है। यदि उद्यम करने पर भी मृत्यु को टाला नहीं जा सके तो मृत्यु को वरण करने वाला मनुष्य अपराधी नहीं है।
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जब तक बुद्धि तथा शारीरिक पराक्रम रहे तब तक मृत्यु से बचने का प्रयास करता रहे। हर देह धारी का यही कर्तव्य है यदि उद्यम करने पर भी मृत्यु को टाला नहीं जा सके तो मृत्यु को वरण करने वाला मनुष्य असमय मृत्यु का सामना करने वाला है। मनुष्य के लिए यह स्वाभाविक है कि वह अपनी रक्षा का पूरा प्रयत्न करें यद्यपि मृत्यु निश्चित है किंतु प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि उससे बचे और बिना विरोध के मृत्यु को वरण ना करें, क्योंकि प्रत्येक जीव् एक मृत आत्मा है। क्योंकि इस जीवन में निंदनीय जीवन पर थोपा गया दंड अतः वैदिक संस्कृति मृत्यु से बचने पर आधारित है।
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||* ( श्रीमद् भगवद गीता ४.९)
अनुवाद:-हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
हर व्यक्ति को चाहिए कि आध्यात्मिक जीवन का अनुशीलन करके मृत्यु तथा पुनर्जन्म से बचने का प्रयास करें और जीवित रहने के लिए संघर्ष किए बिना मृत्यु के सामने घुटने ना टेके जो व्यक्ति मृत्यु को रोकने का प्रयास नहीं करता वह बुद्धिमान मनुष्य नहीं है क्योंकि व्यक्ति को आसान मृत्यु का सामना करना पड़ रहा था अतः वसुदेव का कर्तव्य था कि उसे प्राण पद से बचाते हैं, अतः उन्होंने कंस को फुसलाने का दूसरा तरीका सोचा जिससे व्यक्ति को बचाया जा सके यह भागवत का प्रसंग है। जब देवकी और वसुदेव के विवाह के उपरांत उनके भ्राता श्री कंस उनको छोड़ने जा रहे थे रथ की डोरी हाथ में लेकर और जब आकाशवाणी हुई कि इसी देवकी और वसुदेव का आठवां पुत्र कल तेरा काल बनने वाला है और तुझे मृत्यु दंड देगा तब तुरंत ही वह विचलित हो गया। जो आसुरी प्रवृत्ति के जो लोग होते हैं वह किसी चीज का सोच विचार ना रखते हुए तुरंत अपनी प्रिय बहन जिसको घर छोड़ने जा रहा था उसको तलवार से काट कर मारने के लिए तैयार हुआ और उस समय वसुदेव अलग अलग दृष्टांत या अलग अलग सिद्धांत के द्वारा देवकी की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। यहां पर प्रभुपाद जी लिख रहे हैं जो व्यक्ति अपनी मृत्यु के सामने घुटने टेक देता है वह बुद्धिमान नहीं है। ऐसा नहीं है कि भक्तों को मृत्यु प्राप्त होने वाली नहीं है भक्तों को भी मृत्यु प्राप्त होगी यह तो फाइनल टैस्ट है हम सभी का, मगर मृत्यु को प्राप्त करने से पहले हमें अपना आध्यात्मिक जीवन पूर्ण करने के लिए यह मनुष्य जीवन की प्राप्ति हुई है जिसे हम हर रोज सुनते हैं।
*शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्*
(कालिदास द्वारा रचित कुमारसम्भव)
अर्थ:–यह शरीर वास्तव में [अच्छे] कर्म करने का साधन है
महाराज जी बार-बार इस श्लोक को जोकि उपनिषद का श्लोक है उसको वर्णित करते हुए बताते हैं *शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम* शरीर ही सारे कर्तव्यों को एकमात्र पूर्ण करने का साधन है। इसीलिए शरीर को स्वस्थ रखना बहुत आवश्यक है, सारे कर्तव्य कि सिद्धि भी इसी शरीर के माध्यम से प्राप्त होनी है जो हम साधना कर रहे हैं, साधना करने के लिए यह शरीर ही साधन है। साधन साधना और सिद्धि, साधना हमारे हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना, गुरु के द्वारा प्रदत आदेशों का पालन करना, जिस में शारीरिक सेवाएं हो गई यदि हमारा शरीर ठीक नहीं है तो हम कहां से भक्ति और शारीरिक सेवाएं कर सकेंगे स्वास्थ्य से, इसीलिए “स्वा अस्थ” कहा गया है अपने स्वा में स्थित है। लोगों को लगता है स्वास्थ्य मतलब अपने शरीर के विषय में पूछा जा रहा है आपका शरीर कैसा है ,हाउ आर यू ,आई एम गुड आई एम फाइन, मगर अपने स्वास्थ अपने स्वा में स्थित है क्या स्वा मतलब अपनी आत्मा, आत्मा के उद्धार के लिए यह शरीर क्या कार्य कर रहा है। जैसे हमारी संस्था में फूड फॉर लाइफ होता है। जीने के लिए अन्न मगर लोग जीने के लिए नहीं खाते हैं खाने के लिए भी जीते हैं। अब देखिए कहीं भी रास्ते में कोई भी दुकान या कोई भी गाड़ी कोई भी होटल खोल दिया जाए, लोग कुछ भी बिना सोचे समझे वहां पर लेना प्रारंभ कर देते हैं, वह कौन है? वह व्यक्ति किस भावना से पका रहा है? कौन सी शुद्धता का पालन कर रहा है? कुछ नही। लोग अच्छा स्वाद देखते ही तुरंत होटल में लाइन लगा देते हैं और फिर जैसा अन्न वैसा मन स्वयंपाक मराठी में कहा गया है स्वयं मतलब खुद ही स्वयं अपने आप पाक वृत्ति करना है। जो साधक है जो ब्रजवासी है या अलग-अलग धाम में जो साधना कर रहे हैं ऋषि मुनि योगी वह कभी भी किसी के हाथ का बना हुआ भोजन नहीं स्वीकारते, वह स्वयं बना करके खाते हैं। इसी को कहा गया है स्वयंपाक स्वयं कुकिंग करके उसको भगवान को अर्पित करके अच्छी भावना में, अच्छी चेतना में स्वीकार करते हैं और उसको कहा गया है स्वयंपाक, आजकल की स्थिति ऐसी है फैशन और आजकल कई आधुनिक समाज विशेष रुप से यंगस्टर यह शारीरिक त्वचा का, मेकअप पूरे शरीर को सजाना उस में लगे रहते हैं विशेष रूप से त्वचा में, त्वचा का ख्याल करने में, त्वचा को स्वस्थ रखने के लिए मगर जब तक सिर्फ त्वचा को ही नहीं, शरीर को भी स्वस्थ रखना पड़ेगा और इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि सूर्य नमस्कार प्राणायाम तो आज कल का यह खानपान फास्ट फूड फास्ट ट्रेक और फास्ट नर्क की ओर जैसे एक बात बता रहे थे पिज़्ज़ा पास्ता नरकेर रास्ता, पिज्जा और पास्ता खा कर लो फास्ट नरक की ओर जाना पसंद करते हैं। जैसे गुरु महाराज भी हर बार बताते हैं जब कोई व्यक्ति सिगरेट पीने के लिए अपने हाथ में सिगार लेता है और एडवर्टाइज कर रहा है। किंग साइज जो सिगरेट पी रहा है व्यक्ति उसको लग रहा है कि मैं बहुत बड़ा राजा बन गया हूं और मैं राजा की तरह जी रहा हूं मगर उसके और थोड़ा सा आगे बताया गया है, कैंसर हॉस्पिटल आगे हैं आप लेफ्ट लेना और आपके लिए कैंसर हॉस्पिटल और इसीलिए कहा गया है कि जब तक हमारा शरीर स्वस्थ नहीं है तब तक हम भगवान की भक्ति और साधना अच्छी तरह से नहीं कर पाते और इसीलिए कभी-कभी भक्तों के जीवन में भ्रांत धारणा है यह शरीर का कुछ काम नहीं है इसको कष्ट देना है
*यदा मुकुन्दो भगवान क्षमं त्यक्त्वा स्व पदम् गतिः। तद दिन कलीर अयातः सर्व साधना वधकः ।।*
(1.65 श्रीमद भगवत महात्म्य)
सभी साधना की जैसे की हम चर्चा कर ही रहे थे साधना के विषय में की कली हमेशा साधना में बाधा डालने का कार्य करता ही है। शरीर धर्म खलु, धर्म साधनम्, महाराज ने उपनिषद का वाक्य के द्वारा श्रवण करते हैं जो शरीर सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है और इसी शरीर को स्वस्थ रखना है, क्यों आवश्यक है? सारे कर्तव्य और कार्य सिद्धि शरीर के माध्यम से ही होती है और इसीलिए हम शरीर का ध्यान रखते हैं क्योंकि हम इस शरीर के द्वारा भगवान की भक्ति अच्छी तरह से कर सकें और जैसे कहा गया है।
*नायम बलहीनन लभ्यो न च प्रमादत् तपसो वाप्यलिङ्गात्। एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वानस्तस्यैैष आत्मा धाम।।*
( मुण्डक उपनिषद)
अनुवाद:-इस आत्मा को कोई भी नहीं जीत सकता है जो बिना ताकत के है, न ही खोज में त्रुटि के साथ, और न ही एक सच्चे निशान के बिना एक पूछताछ के द्वारा: लेकिन जब ज्ञानी व्यक्ति इन तरीकों से प्रयास करता है तो उसका स्वयं ब्रह्म में प्रवेश करता है, उसका निवास स्थान।
आत्मा परमात्मा को समझना है तो यह कमजोर शरीर और कमजोर मन उसको कभी नहीं समझ पाता है और इसीलिए हमारा कर्तव्य है की श्रील प्रभुपाद जी के आंदोलन में हमें यदि अच्छी तरह से सेवा करनी है तो सभी भक्तों को अपनी हेल्थ के ऊपर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि कई बार देखा गया है कि भक्तगण जब भी यात्राओं में या अपने दैनिक जीवन में भी, शरीर को कभी-कभी इतना द्वितीय स्थान दे देते हैं अपने कारोबार में या अपनी सेवाओं में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि शरीर साथ नहीं दे पाता और लंबे समय के लिए यदि हम भक्ति करना चाहते हैं, भगवान की सिद्धि प्राप्त करना चाह रहे हैं तो फिर वह कठिन हो सकता है और इसीलिए ऐसा नहीं है कि हमें शरीर के प्रति आसक्त होकर ही हमें कार्य करने मे भले ही शरीर के ऊपर आसक्ति सकती हो ना भी हो फिर भी हमें इस शरीर को एक मशीन के रूप में चलाना है। मशीन हमें भगवान की प्राप्ति, हरि नाम में रुचि प्राप्त करा सकती है जैसे प्रल्हाद महाराज अपने मित्रों को जब शिक्षाएं दे रहे थे महाराज ने कहा,
श्री प्रह्लाद उवाच
*कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह। दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्।।*
( श्रीमद्भागवतं ७.६.१)
अनुवाद:-प्रह्लाद महाराज ने कहा:- पर्याप्त बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारंभ से ही अर्थात बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव शरीर का उपयोग करें। यह मनुष्य शरीर अत्यंत दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भांति नाशवान होते हुए भी अर्थ पूर्ण है क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति संपन्न की जा सकती है। यदि निष्ठा पूर्वक किंचित भी भक्ति की जाए तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
यह भगवतम के सातवें स्कंध के छठे अध्याय का पहला श्लोक है कि अपने मित्रों को प्रल्हाद महाराज समझा रहे हैं कि जब तब हमें भक्ति प्रारंभ करने, कब से करेंगे कौमारं आचरेत जब हमारी आयु 5 साल की है तभी हमें भक्ति करनी चाहिए और जो अंत में वह बता रहे हैं अ ध्रुवम मतलब यह शरीर भले ही टेंपरेरी नश्वर है कभी भी नष्ट हो सकता है मगर उसके साथ-साथ यह अ ध्रुवम फुल ऑफ मीनिंग यह परिपूर्ण भी है इसमें अर्थ है सिर्फ क्योंकि मनुष्य जीवन में ही भगवान की प्राप्ति आत्म साक्षात्कार किया जा सकता है किसी अन्य शरीर में नहीं और इसी तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद समझाते हैं कि कलयुग में सबसे जो महान भागवत धर्म है तो भागवत धर्म क्या है ? हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण करना ही कलयुग में सबसे बड़ा एक धर्म बताया गया है जैसे अलग-अलग तथाकथित धर्म नहीं है भागवत धर्म यदि है तो श्रील प्रभुपाद हमें समझा रहे हैं, भगवतानी है मतलब हरे कृष्ण मंत्र का उच्चारण करना कि यह सही में भागवत धर्म है, भगवत गीता के उपदेशों को सुनकर अपने जीवन में उतारना चाहिए। इस प्रकार भक्ति में सशक्त बने तथा पशु जीवन में प्रतीत होने के भय से मुक्त होने, इस कलयुग के लिए भागवत धर्म का अनुसरण अत्यंत सरल बना दिया गया है शास्त्र का कथन है
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* महामंत्र प्रमुख हैं प्रभुपाद जी यहां लिख रहे हैं।
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।*
(बृहन्नारदीय पुराण ३.८.१२६)
अनुवाद:– इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम हरिनाम और केवल हरि नाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है ,अन्य कोई विकल्प नहीं है।
मनुष्य के केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने की आवश्यकता है जो भी इस महामंत्र का कीर्तन करता है उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और वह जन्म-मृत्यु के चक्र से बच जाता है और इसी जन्म मृत्यु के चक्र से बचाने के लिए इस शरीर की हमें आवश्यकता है 84,00000 योनियों में एक ही मनुष्य शरीर है जो हमें भगवत प्राप्ति या भगवान के चरण कमलों में आसक्ति उत्पन्न कर आ सकता है श्रील प्रभुपाद कहते है *भजन कोरो साधन कोरो मूर्ते जानेले हया* बंगाली कहावत कितना साधन साधना की है वह हम जब मृत्यु की शैया पर होंगे तब पता चलेगा जैसे भगवान ने भी कहा
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||* ( श्रीमद् भगवद्गीता १८.६६)
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
मेरी शरण में जो आता है या अंत समय में जो भगवान का नाम स्वीकार करता है या भगवान को याद करता है वही भगवान की प्राप्ति करता है और यही प्रश्न पुष्टि पूर्णा एक रामानुजाचार्य के अलग-अलग गुरुओं में थे और यह पुष्टि पूर्ण की सेवा थी वरुण राज स्वामी कांचीपुरम में हैं, उनको जल् देने की सेवा हर रोज उनके अभिषेक के लिए जो कुछ करनी है पुष्कर्णी कुंड होते हैं जिनको दक्षिण भारत में पुष्कर्णी कहा जाता है उनको भगवान के लिए अभिषेक के जल् लाने की सेवा थी। जब यह तुष्टि पूर्ण को पूछा गया कि अब भगवान से पूछिए भगवान ने तो कहा है
यदि तत्काल या एक्सीडेंट के कारण हमारी मृत्यु हो जाए और अंत समय में भगवान आपका स्मरण ना हो तो क्या होगा ?ब्रजराज स्वामी ब्रजराज मतलब सभी वरदानो को देने वालों में सबसे श्रेष्ठ और वह वरदराज भगवान ने कहा कि कोई चिंता नहीं यदि उसमें अपने जीवन में प्रमाणिकता से भगवत भक्ति का प्रयास किया है और अंत समय में यकृत यत किंचित या किसी कारणवश येन केन प्रकारेण उसको मेरा स्मरण नहीं हुआ इट्स माय ड्यूटी वह मेरी रिस्पांसिबिलिटी है कि मैं उसको वापस खुद लेकर आता हूं। देखिए और एक यही कारण है जो इस मनुष्य को हमें भगवान की सेवा में लगाना या भगवान की भक्ति में लगाने के लिए मनुष्य शरीर की आवश्यकता है और इसीलिए प्रभुपाद जी लिख रहे हैं कि अभी हम पूरी तरह से शुद्ध नहीं इसीलिए हमें मृत्यु के सामने घुटने नहीं टेकना है। जो व्यक्ति मृत्यु के सामने घुटने टेक देता है वह बुद्धिमान नहीं है , मृत्यु तो आने वाली ही है मगर मृत्यु आने के पहले हमें हार नहीं माननी हमें पूरी अच्छी तरह से मृत्यु से लड़ते हुए अंतिम समय तक भगवत भक्ति करने का प्रयास करना चाहिए। श्रील प्रभुपाद और सभी आचार्य के द्वारा उनकी जीवनी से हम सीख सकते हैं कि किस प्रकार अंतिम समय तक प्रभुपाद जी भी अपने अंतिम समय के लिए ऋषिकेश से जब वापस आए तो उनको वृंदावन में हीं अपनी अंतिम लीला देह त्याग करने की इच्छा थी, सारे भक्तों ने आनंद से श्रील प्रभुपाद जी का स्वागत किया किंतु जब उनको पता चला कि ऋषिकेश से वृंदावन क्यों आए हैं तब सारे भक्त दुखी होकर रोने लगे कि प्रभुपाद अब हमारे बीच ज्यादा समय नहीं रहेगे और जैसे ही प्रभुपाद जी थोड़ा ठीक हो जाते तो वे अलग-अलग योजना बनाते हैं कि मुझे लंदन जाना है, मुझे अमेरिका जाना है, मुझे गोवर्धन की परिक्रमा करनी है, बैलगाड़ी में बैठकर अंतिम समय तक भी प्रभुपाद जी अपने जीवन में कृष्ण भक्ति और भगवान के चरणों को उन्होंने ऐसे पकड़ के रखा कि अपने घुटने उन्होंने मृत्यु के सामने ठेके नहीं और इसीलिए हम भक्तों को इस शरीर का ध्यान रखते हुए अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए स्वस्थ बनना है। स्वस्थ मतलब आत्मा में स्थित होने के लिए या साधना में स्थित होने के लिए इस शरीर को संभाल के रखना हमारा एक कर्तव्य है। जैसे हरिदास ठाकुर के पास महाप्रभु आए थे और कभी महाप्रभु क्रोधित नहीं हुए थे लेकिन एक दिन क्रोधित अवस्था में आए ,हरिदास यह क्यों सनातन गोस्वामी बार-बार आत्महत्या करने का विचार मन में ला रहा है उसको पता नहीं है कि यह शरीर अभी उसकी प्रॉपर्टी नहीं है देट बिलॉन्गस टू मी यह अभी भगवान की प्रॉपर्टी है शरीर भी भगवान की संपत्ति है तो उसका उपयोग भगवत भक्ति में करना है। महाप्रभु ने भी कहा सनातन गोस्वामी से हरिदास ठाकुर के द्वारा हरिदास ठाकुर के माध्यम से उन्होंने उनको संदेश पहुंचाया , बताओ कि शरीर की आत्महत्या आवश्यक नहीं है, भगवत भक्ति सबसे महत्वपूर्ण है और इसीलिए सभी भक्तों को अपने स्वास्थ्य का और विशेष रूप से जो भक्त कुछ पीड़ा से या अलग-अलग बीमारी से ग्रस्त हैं उनसे निवेदन है वह सभी अपनी दवाई ले या इस प्रकार बनाये रखें दिन का शेड्यूल जिससे हमें भक्ति करने के लिए या हरि नाम लेने के लिए आसानी हो और अंततोगत्वा हमें नारायण का स्मरण हो और लंबे समय तक श्रील प्रभुपाद और गुरु महाराज के इस आंदोलन में सक्रिय रूप से सेवा करते रहें। और देखिए अब जब भी प्रभुपाद लिखते हैं डिवोशनल सर्विस डिवोशन नहीं लिखते डिवोशनल सर्विस लिखते हैं सक्रियता वह सक्रियता रखने के लिए हमें स्वस्थ रहना आवश्यक है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
धन्यवाद !
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जप चर्चा
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज
12 अप्रैल 2022
आज मैं इस्कॉन उदयपुर में हूँ और उदयपुर के भक्तों के साथ में हूँ । मैं सोच रहा था कि अच्छा होता कि मैं आज पंढरपुर में भी होता क्योंकि आज जो एकादशी चैत्र एकादशी है , पंढरपुर में बहुत बड़ा उत्सव प्रतिवर्ष आज के दिन चैत्र एकादशी के दिन होता है, हजारों लाखों भक्त पैदल चलते हुए जिसे दिंडी कहते है और कीर्तन करते हुए वहां पहुंच जाते हैं, पहुंच चुके हैं।
पंढरपुर धाम की जय |
या फिर मैं यह भी सोच रहा था कि अच्छा होता कि मैं आज मायापुर में होता, जहाँ श्री जय पताका स्वामी महाराज का व्यास पूजन महोत्स्व संपन्न हो रहा है, मैं ऐसा सोच रहा था। मेरा जन्म भी एकादशी के दिन हुआ था आषाढ़ महीने की एकादशी थी, जय पताका स्वामी महाराज का जन्म चेत्र एकादशी। लेकिन वैसे हम दोनों का जन्म एक साल ही हुआ था, हम दोनों ही 1949 में जन्मे थे, वे मुझसे थोड़ा सीनियर वरिष्ठ पहले जन्मे, चेत्र में जन्मे थे एकादशी के दिन और फिर कुछ महीनों के उपरांत आषाढी एकादशी को मेरा जन्म हुआ था |
जय पताका स्वामी महाराज की जय |
अविर्भाव व्यास पूजा महोत्सव की जय |
आज मैं आज उदयपुर में हूँ इस बात से भी मैं प्रसन्न हूँ और मेरी प्रसन्नता का एक और विशेष कारण भी है यहां के भक्तों से मिलन भी हुआ और महा सत्संग भी हुआ और हम कुछ कथा कीर्तन नर्तन भी यहां के भक्तों के साथ कर पाए लेकिन मैं कहूंगा कि मैं इस साल उदयपुर के भक्तों का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे यहां आमंत्रित किया और मुझे श्रीनाथजी का दर्शन कराया |
जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की जय | गौर निताई की जय |
उनके दर्शन से तो पवित्र और लाभान्वित हो ही गए किन्तु श्रीनाथजी का दर्शन कुछ विशेष रहा, चित्त आकर्षक रहा, भगवान को कहते हैं चितचोर। चोरों में अग्रगण्य है, कई प्रकार की चोरी करते हैं, माखन चोर है, यह चोर वो चोर, गोपियों के वस्त्र चोरी किए हैं लेकिन कल मैं अनुभव कर रहा था कि यह चितचोर ही है।
श्री नाथ जी की जय |
हरि नाथ मतलब राधा नाथ
श्रीनाथ मतलब राधा नाथ और क्या कहें ऐसी ऐसी यादें आ रही थी जब हम दर्शन कर रहे थे और दर्शन करते समय ही नहीं अब भी तब भी आज भी और अब तक तो यादें आ ही रही है।
श्रीनाथजी विशेष विग्रह है और हम गौड़ीय वैष्णव के लिए भी विशेष है सभी के लिए। क्योंकि हमारे गौड़ीय वैष्णव परंपरा के प्रथम आचार्य माधवेंद्र पुरी जी का श्रीनाथजी के साथ घनिष्ठ संबंध रहा, उनके स्वप्न में आए, यह विग्रह उनके स्वप्न में आए, वृन्दावन की बात है और कहा मुझे वहां से निकालो, उन्हें वहां जमीन में गड्ढा में छीपाए थे श्रीनाथ जी को उनकी रक्षा हेतु। मुसलमानों का आक्रमण हुआ था और तंग कर रहे थे और जब उन्होंने लगभग सात आठ सौ वर्ष तक कारोबार चला रहे थे, कई प्रकार के विघ्न डाल रहे थे, उत्पात मचा रहे थे, वृंदावन में भी वे काफी सक्रिय रहें, जिसके कारण विग्रहो को या तो स्थानांतरित किया जा रहा था या वहीं पर किसी कुंड में छिपाया जा रहा था | तो और कहना तो है और कह तो रहा हूँ कुछ ऐसी बातों को कहने का विचार आया है ही और यह इतिहास जो मैं बता रहा हूँ, भगवान माधवेंद्र पुरी के सपनों में आए थे मुझे वहां से निकालो और फिर वैसे ही माधवेंद्र पूरी श्रीनाथजी गिरिराज क्षेत्र में थे तो
गिरिराज धरण की जय
गिरिराज क्षेत्र में ही माधवेंद्र पुरी ने श्रीनाथ जी की स्थापना की और पूजा अर्चना प्रारंभ हुई और अन्नकूट महोत्सव मनाया करते थे और माधवेन्द्र पुरी ने श्रीनाथजी के लिए जो अन्नकूट का आयोजन किया उसकी तुलना जैसा प्रश्न नहीं | कृष्ण ने कहा नंद बाबा को गोवर्धन की पूजा करो इंद्र की पूजा छोड़ दो तो उस समय नंद महाराज और सारे ब्रज वासियों ने जो अन्नकूट बनाया था, कूट मतलब पर्वत, अन्नकूट मतलब अन्न का पर्वत। जैसे चित्रकूट कूट मतलब पर्वत | तो जैसे कृष्ण बलराम की उपस्थिति में गोवर्धन पूजा मनाई गई थी पहली बार उस समय जैसे अन्नकूट महोत्सव मनाया गया था वैसे ही माधवेंद्र पुरी ने श्रीनाथजी के लिए बनाया।
इसमे कई सारी घटनाएं हैं श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन आए थे, गोवर्धन जी की परिक्रमा कर रहे थे, उस समय श्रीनाथजी पर्वत के शिखर पर स्थापित थे तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि मुझे गोवर्धन पर नहीं चढ़ना चाहिए लेकिन मैं दर्शन तो करना चाहता हूँ फिर वहां अफवाहे फैलाई श्री चैतन्य महाप्रभु ने, मुसलमान आने वाले हैं यवन आ रहे हैं यहां से भागो दौड़ो तो वैसे लोग कर रहे थे तो उस समय भगवान के विग्रह को जो गोवर्धन के शिखर पर विराजित हुआ करते थे वहां से गाथुली नामक ग्राम मे ले गए और फिर महाप्रभु वहां जाकर श्रीनाथजी का दर्शन किया, आप समझ सकते हो गोवर्धन चढ़ नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने अफवाह फैलाई, चैतन्य महाप्रभु ने किसी को बताया नहीं। सब कारणों के कारण है।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय | जब सन्यास लिए थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु, चैतन्य महाप्रभु अब शांतिपुर से जगन्नाथपुरी जा रहे थे सन्यास दीक्षा लेने के बाद, जब वे खीर चोर गोपीनाथ मंदिर पहुंचे उड़ीसा में बालेसर के पास है। तो वहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने खीर चोर गोपीनाथ की कथा तो सुनाई ही, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां पर माधवेंद्र पुरी की कथा सुनाएं, माधवेंद्र पुरी का जीवन चरित्र सुनाएं, माधवेंद्र पुरी के गुण गाए स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने । ऐसे थे कौन? ऐसे थे माधवेंद्र पुरी।
श्रीनाथजी ने ही वैसे माधवेंद्र पुरी जी को भेजा था जाओ जाओ जगन्नाथपुरी जाओ वहां से चंदन लेकर आओ इतने समय से जब मैं जमीन में था गड्ढे में था तो अब भी मैं कुछ गर्मी महसूस कर रहा हूँ तो चंदन लेकर आओ घीसो और लेपन करो, ऐसा कहा जब श्रीनाथजी माधवेंद्र पुरी के सपने में आए, पहली बार स्वपन मैं आये तो कहा मुझे गड्ढे से निकालो बाहर करो, जब पुनः सपने में आए तो कहा मेरे लिए चंदन लेकर आओ, तो चंदन लेकर जगन्नाथपुरी से वे आ ही गए, खीर चोर गोपीनाथ जी भी माधवेंद्र पुरी के सपनों में आए और कहे की अब खीर चोर गोपीनाथ की सेवा करो चंदन के, साथ मुझ में और खीर चोर गोपीनाथ में कोई अंतर नहीं है उनकी सेवा ही मेरी सेवा है | इस प्रकार माधवेंद्र पुरी जी का और श्रीनाथजी का घनिष्ठ संबंध रहा।
वैसे ही जब श्रीनाथजी की स्थापना करने का इतिहास भी काफी प्राचीन और पुराना है, द्वारकाधीश श्री कृष्ण के पड़पोत्र बज्रनाभ है। बज्रनाभ ने कई सारे देव की स्थापना की – गोविंद देव या हरिदेव, बलदेव और उसी के साथ उन्होंने यह जो श्रीनाथजी है उनकी भी स्थापना की। किसने स्थापना की?- वज्रनाभ। रहते तो द्वारका में, लेकिन कृष्ण के गोलोक धाम जाने के उपरांत वे मथुरा गए थे वृंदावन गए थे वहां के राजा भी थे तो वहां पर उन्होंने कई सारे मंदिरों की स्थापना की तो उसमें से यह विग्रह थे- श्रीनाथजी। उत्पाद तो चल ही रहे थे मुसलमानों के, तो कई सारे विग्रह राजस्थान में स्थानांतरित किए और उसमें श्रीनाथजी भी हैं। अच्छा हुआ एक दृस्टि से यहां के निवासियों के लिए श्रीनाथजी यहां उदयपुर यहां राजस्थान में आए। किसी का Loss तो किसी का gain होता है ब्रज के निवासी श्री नाथ जी को खोये तो आप सब श्रीनाथजी को पाएं।
और यहां पर पहुंचते-पहुंचते भी उनको डेढ़ दो साल लगे, वृंदावन से नाथद्वारा की यात्रा कर ही रहे थे छिप छिप पर उनको लाया जा रहा था यहां छुपा लिया गया वहां छुपा लिया गया और वहां से मैंने उस रथ को भी देखा जिस रथ पर भगवान को बिठाकर यात्रा हुए उनका प्रवेश नाथद्वारा की ओर हुई। तो अब तो बल्लभाचार्य संप्रदाय भगवान की सेवा कर रहे हैं लेकिन एक समय यह गौड़ीय वैष्णव के श्री माधवेंद्र पुरी के सेवित विग्रह रहे हैं। भगवान आए तो है नाथद्वारा लेकिन मैंने सुना कि नाथद्वारा में यहां का जल नहीं पीते मुझे कहां का जल चाहिए मैं जमुना का जल पिऊंगा तो आज तक जमुना का जल ही पीते हैं जलपान जब करते हैं | और माधवेंद्र पुरी जो अन्नकूट का भोग लगाते थे वह परंपरा यहां नाथद्वारा में भी होती रहती हैं अन्नकूट महोत्सव, हर रोज इतना सारा अन्न उनको खिलाया जाता है संभावना है कि जो भी यात्री आते हैं वह प्रसाद या अन्नकूट ही ग्रहण करते हैं, मैं तो यहाँ था लेकिन मेरे लिए भी थाली आयी नाथद्वारा से। और क्या कहें श्रीनाथजी हम सभी का कैसे ख्याल रखते हैं, ये तो दर्शन दे रहे हैं ही। दर्शन दे रहे हैं यह कुछ कम है क्या और क्या चाहिए।
भगवान ने दर्शन दिया, दुनिया को दर्शन देते हैं, हम कहते रहते हैं मैं दर्शन करने के लिए गया तो सही हां मैं दर्शन करने गया था, गए तो थे, दर्शन तो हम तब लेंगे यदि दर्शन देने वाले दर्शन देंगे तो हम दर्शन ले सकते हैं। और श्रीनाथजी तो दर्शन देते हैं। भगवान दर्शन देते हैं श्रीनाथजी भी।
श्री नाथ जी की जय |
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे
ये सारी आचार्यों की कृपा है कि पहले माधवेंद्र पूरी ने दर्शन किया तो उन्होंने दर्शन दिया और उनको। वैसे भगवान की 16108 रानियां है, भगवान जब अंतर्ध्यान हुए थे द्वारका में तो सबको लेकर अर्जुन जाते हैं, अर्जुन को कहा था – इनको संभालो यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, तो वे लेकर गए और वे वृंदावन में पहुंच गई तब तक भगवान अंतर्ध्यान हो चुके थे, सारी लीला वृंदावन में संपन्न हो चुकी थी, भगवान की अब प्रकट लीला का पर्दा लगा हुआ था, पर्दे के पीछे तो लीलाएं संपन्न हो रही थी वृंदावन में भी। लेकिन प्रकट लीला सम्पन्न नहीं हो रही थी तो यह सब जो पहुंची हुई रानियां पूछ रही थी कहां गए कृष्णा कहां है कन्हैया कहां है और लीलाएं कहां है कहां है कहां है
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥
यह सब रानियां ऐसा कर रही थी और बड़ी उदास थी रानियां वृंदावन में होते हुए भी। तभी शांडिल्य ऋषि ने कहा था कि यहा तो राजा परीक्षित आए थे राजा परीक्षित हस्तिनापुर से मथुरा आए थे ब्रजनाभ को मिलने के लिए। सब ठीक-ठाक है? प्रजा प्रसन्न है? और उस समय ब्रजनाभ ने कहा था उनकी माताएं थी, मेरी माता है, यह जो 16108 रानियां तो प्रसन्न नहीं है, उनको भगवान के दर्शन नहीं हो रहे हैं, तो शांडिल्य ऋषि ने कहा था कि आप संकीर्तन का आयोजन करो गोवर्धन के तट पर, तो वैसे ही हुआ शांडिल्य ऋषि, मुनि गर्ग आचार्य थे यह 5000 वर्ष पूर्व का इतिहास है यह वह घटनाक्रम है जब हम ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते हैं तो या हमारे ब्रजमंडल दर्शन पुस्तक मे यह सब चर्चा पढ़ सकते हो तो जब गोवर्धन में सारी रानियां वहां पहुंच गई और उन्होंने संकीर्तन किया तो हुआ क्या? उद्धव प्रकट हुए, जहां उत्सव वहां उद्धव ऐसे ही समझ है। और उत्सव देते हैं हमको उत्साह। अब सारी रानियों को उत्साहित करना है, सभी रानियां वहां पहुंची थी तब उद्धव जी प्रकट हुए और उन्होंने भगवान की कथाएं सुनाई, 1 महीने तक वह कथा चल रही थी और वैसे यह कथा भागवत कथा हो रही थी और राजा परीक्षित वहां थे हस्तिनापुर से वे आए थे मथुरा | और ब्रजनाभ तथा राजा परीक्षित दोनों मिलकर उन्होंने यह संकीर्तन का आयोजन किया था गोवर्धन के तट पर गोवर्धन की तलहटी में | तो उद्धव प्रकट हुए और कथा प्रारंभ होने जा रही थी तो उद्धव ने कहा राजा परीक्षित law and order maintain करो, जिससे हमारी कथा होती रहे, मुझे भी तो कथा सुननी है तो उद्धव कहे थे तुम्हारे लिए एक विशेष भागवत कथा का आयोजन होने जा रहा है, होने वाला है, तो वैसे भगवान अंतर्ध्यान हुए
yadä mukundo bhagavän ksmäm tyaktvä sva-padam gatah/
tad dinät kalir äyätah sarva-sädhana-bädhakah //1.65// Srimad Bhagavata Mahatmya
जिस दिन भगवान अंतरध्यान हुए 125 वर्ष के उपरांत। द्वारका से अंतरध्यान हुए। उसी दिन से कली प्रारम्भ हुआ day no.1। तो जब 30 साल बीत गए तो ये कली 30 साल का था तब श्री शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को कथा सुनाए। उद्धव कथा पहले सुनाए। उद्धव बैठक भी है, जैसे श्री नाथ जी की बैठक है। आचार्य बल्लभाचार्य जी भागवत कथा किया करते थे। और श्री नाथ द्वारा में उनकी बैठक है। वैसे ही उद्धव बैठक है वहाँ कुसुम सरोवर के तट पर। तो जब कथा सुनाने लगे उद्धव और सभी सुन रहे थे, पता नही आप सुण रहे है या नही, सुनने सुनने में भी अंतर है। जब ध्यान पूर्वक श्रद्धा पूर्वक जब ये रानियाँ कथा सुन रही थी उसका परिणाम ये हुआ की उनको वहाँ कृष्ण दिखने लगे। पहले जब आई थी तो कहाँ है कृष्ण, कहाँ है कृष्ण, दिख नहीं रहे कृष्ण, कहाँ है उनकी लीलाए। उद्धव जब लीला कथा का वर्णन सुनाने लगे, उसी के साथ भगवान का दर्शन और उनकी लीलाए प्रकट हुई और ये उद्देश्य भी होता है। ऐसे भी जब चार कुमार भागवत कथा सुना रहे थे, भक्ति देवी ज्ञान वैराग्य को नारद मुनि वहां थे नारद मुनि ने आयोजन किया था। जब कई लोग एकत्र हुए आनंद वन गंगा के तट पर हरिद्वार की बात है जब चार कुमार ने जब भागवत कथा सुनाई, उस कथा में स्वयं भगवान आ गए और कथा की पूर्णाहुति के समय स्वयं भगवान वहां थे और जम के वहां कीर्तन और नृत्य हो रहा था भगवान की उपस्थिति में। और उस कथा में जो श्रोता थे उन्होंने भी भगवान की उपस्थिति को नोट किया या देख लिया उस समय जो भी श्रोता थे उन्होंने निवेदन किया प्रभु जैसे आप आज की कथा में पधारे, वैसे ही जब कभी भविष्य में जहां-तहां भी आप की कथा होगी तो कृपया आप की ऐसी ही उपस्थिति और आपका ऐसा ही दर्शन संभव है क्या? तो ज्यादा सोचे नहीं कृष्णा कहे तथास्तु।
nāhaṁ tiṣṭhāmi vaikuṇṭhe yogināṁ hṛdayeṣu vā
tatra tiṣṭhāmi nārada yatra gāyanti mad-bhaktāḥ [Padma Purāṇa]
तत्र वहां, बैकुंठ में भी नहीं मिल सकता, मैं योगियों के ह्रदय में भी शायद नहीं मिल सकता लेकिन वहां मैं जरूर रहता हूँ जहां मेरी कथा भी और कीर्तन भी जहां होता है।
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थानार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ८ ॥ BG. 4.8
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
जहाँ नित्यम भागवत सेवया होता है। जहाँ क्या होता है? नित्यम भगवतम सेवया।
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।
भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥ १८ ॥ ŚB 1.2.18
भगवतम का श्रवण और कीर्तनीय सदा हरी होता है वहां मैं रहता हूँ ।
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥
तभी वहां बैठकर कुसुम सरोवर जहां उद्धव जी कथा सुना रहे थे तो ये होने लगा कि एक-एक करके माताएं उठने लगी और क्या करने लगी? भगवान की लीला में उनका प्रवेश होने लगा, उनको समझ में आने लगा उनको साक्षात अनुभव होने लगा, मैं कृष्ण लीला में फिट होने लगी हूँ उनकी नित्य लीला में। इनका संबंध भगवान के साथ नित्य है, एक एक या दस दस या सौ सौ या हजार हजार रानियां उठ उठ कर उन उन लीलाओं में एकदम कभी लीलाएं देखने लगी थी श्रवण से, उनको दर्शन हुआ ऐसा ही होता है श्रवण से होता है दर्शन। श्रवण के बिना दर्शन नहीं होता। दर्शन श्रवण से होता है। वहां जब श्रवण हो रहा था उद्धव सुना रहे थे तो उन सब को दर्शन होने लगा फिर ऐसा एक समय आ गया वहाँ केवल ब्रजनाभ बच गए और सारी रानियों ने प्रवेश किया भगवान की नित्य लीलाओं में। और यह आईडिया है कि जब जब कथा होती है अभी हो रही है
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
ऐसे उच्च विचार आए थे कि सभी सुखी हो, पर दुखी दुखम |
वैष्णव औरों को दुखी देखकर दुखी होते हैं | कुछ लोग तो औरों को सुखी देखकर दुखी होते हैं
पर सूखे दुखी |
ऐसे कीर्तन करते जाएंगे जप करते जाएंगे और भागवत की कथा का श्रवण करते जाएंगे तो हमारा भी लक्ष्य वही है जैसे उन रानियों ने अपने-अपने स्थान ग्रहण कर लिए, हम भी कृष्ण के नित्य दास हैं
जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास (चैतन्य चरितामृत)| [Cc. Madhya 20.108]
कृष्ण के नित्य दास है नित्य दास हैं। माया के दास तो नित्य नहीं है, समझ लो माया के दास हम सदा के लिए नहीं है लेकिन कृष्ण के दास हम सदा के लिए हैं
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि: ।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति: ॥ ६ ॥ ŚB 2.10.6
भागवतम में शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं उनको करना क्या है
अन्यथा क्या-क्या करना है अन्यथा रूपम हम लोग जो कई सारे रूप धारण करते रहते हैं, 84 लाख प्रकार की योनि है, उतने प्रकार के रूप है और अब यह मनुष्य रूप धारण किए हैं प्रभु
इसको त्यागना है और ऐसी स्थिति में या मनस्थिति या मानसिकता या भाव को प्राप्त करना है, यह बोलिए कि कृष्णा भावना भावित इतना बनना है कि हमको पुनः इस कारागार के यह ब्रह्मा का कारागार है यहां की कोई वर्दी पहनने की आवश्यकता नहीं है, वैसे यह जो शरीर है वह कारागार की वर्दी है समझ रहे हैं। कारागार में किसी को एडमिट कर दें पहले क्या करते हैं, उसको कारागार की वर्दी पहनाते हैं, नंबर भी देते हैं 420 है यह। यह शरीर कारागार की वर्दी है फिर भी हम इसके साथ सेल्फी खींचते हैं, कोई पसंद करेगा क्या? आपको कि सच में आप कारागार में हो और आप वहां छुपा लेते हैं अपना मुंह ढक लेते हैं अगर कोई फोटो खींचने का प्रयास करता है | यह बात हम समझते नहीं हैं इसीलिए इसकी सेल्फी खींच कर हम खुश होते हैं | हमें अपने स्वरूप में ठीक होना है और हमारा भी भगवान के साथ नित्य संबंध ही नहीं बल्कि लेनदेन हमारा व्यवहार या उनकी किसी लीला में हमारा भी भूमिका है और हमारी वह भूमिका कोई और नहीं निभा सकता इस प्रकार वहां रिक्त स्थान बन जाता है
when we go back we will fill the blank and lila continues.
कृष्ण भी प्रतीक्षा में है और पता नहीं हम कितना चाहते होंगे उनको प्राप्त करने के लिए, लेकिन हम से अधिक कृष्ण चाहते है उनको हम प्राप्त हो, ऐसा स्नेह संबंध है भगवान का सभी जीवो के साथ। और इसीलिए भगवान आते भी हैं समय-समय पर |
Golokam ca parityajya lokanam trana-karanat – Markandeya Purana
यह चैतन्य महाप्रभु के संबंध में कहा है संसार में लोगो को राहत पहुंचाने के लिए स्वयं भगवान आते हैं, आते हैं तो भगवान यहां रह ही जाते हैं यह विग्रह है, भगवान के विग्रह है |
श्री नाथ जी की जय
उनकी लीला कथा चल रही है| यह विग्रह स्वयं भगवान है । आज भी हमारे साथ भगवान है, वे कई रूपों में है, एक रूप उनका विग्रह के रूप में है और भी रूप हैं
कलि-काले नाम-रूपे कृष्ण-अवतार
नाम होते हया सर्व-जगत-निस्तारं CC Ādi 17.22
यह तो बड़ा ही दयालु अवतार है यह नाम प्रभु
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
भागवत के रूप में भगवान उपस्थित हैं। आप जा रहे हो?- उद्धव ने कहा। उनको पता चला कि भगवान अपने धाम लौटने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने कहा me too मैं भी जाऊंगा। No no you stay here. नहीं नहीं नहीं मैं यहां नहीं रह सकता | फिर भगवान ने कहा ठीक है ठीक है बाबा मैं भी रहता हूँ |
किस रूप में? भागवत के रूप में मैं रहता हूँ । फिर उद्धव कहे ठीक है ठीक है मैं भी रहता हूँ भागवत भी भगवान है स्वयं भगवान।
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभि: सह ।
कलौ नष्टदशामेष पुराणार्कोऽधुनोदित: ॥ ४३ ॥ ŚB 1.3.43
कलियुग है जब लोगों की दृष्टि नष्ट होती हैं, पुराण मतलब भागवत महापुराण, अर्ध मतलब सूर्य जब सूर्य उदित होता है और उनके उदय के साथ सर्वत्र प्रकाश छा जाता है, फैलता है, उसी प्रकार और सभी दिखने लगता है जब सूर्योदय होता है वैसे ही जब भागवत से प्रकाश प्राप्त होता है तब जीवो को भी दिखने लगता है | दृष्टि तो नष्ट हो चुकी है तो भागवत के श्रवण से उन्हें दिखने लगता है जैसे भगवान की रानीयों को दिखा तो कई सारे रूपों में भगवान आज भी है | प्रसाद के रूप में भगवान आज भी हैं। और यह सारे रूप उपलब्ध कराए जा रहे हैं इस्कॉन में। कृष्ण भावनामृत संघ में
श्रील प्रभुपाद की जय
और प्रभुपाद का यह हरे कृष्णा आंदोलन कृष्ण को प्रस्तुत कर रहा है | Here is Krishna.
राधेरासबिहारी मंदिर, जुहू मुंबई मे प्रभुपाद व्यास आसन पर बैठ कर कहा here is krishna. विग्रह के रूप मे, कथा के रूप मे, हरिनाम के रूप मे, धाम के रूप मे, मायापुर वृन्दावन उत्सव शुरू किये प्रभुपाद ने, धाम की यात्रा के रूप मे, प्रसाद के रूप मे, प्रसाद भगवान है, प्रसाद अन्न परब्रह्म है, भगवान के भक्त के रूप मे |
ārādhanānāṁ sarveṣāṁ viṣṇor ārādhanaṁ param
tasmāt parataraṁ devi tadīyānāṁ samarcanam
[Padma Purana, Laghu-bhāgavatāmṛta 2.4] CC Madhya 11.31
शिव जी पार्वती से कहा हे देवी आराधना करनी है तो किसकी करो | विष्णु की आराधना करो | तदीय जो भगवान के है, तुलसी महारानी की जय, गौमाता की जय, यमुना मैया की जय, आचार्य की जय, इन सब तदीय की आराधना मेरी आराधना से भी श्रेष्ठ है ऐसा भगवान ने कहा |
यदि हम कहे भगवान हम आपका भक्त हूँ तो भगवान उतना प्रसन्न नही होते, स्वीकार नही करते
हम कहते है कि भगवान हम आपके भक्त के भी भक्त है, तो भगवान जल्दी स्वीकार करते है |
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा य: करोति स मध्यम: ॥ ४६ ॥ ŚB 11.2.46
हमें भगवान से प्रेम करना है, भक्तो से मैत्री पूर्ण व्यवहार आदान प्रदान करना है, श्रद्धालु पर दया करनी है और जो आसुरी प्रवित्ती के लोगो से दुरी बनाके रखनी है |
चार प्रकार के लोगो से चार प्रकार का व्यवहार करना है, हम जैसे साधको के लिए बताया गया है |
विष्णु य विष्णु के भक्तो के प्रति अपराध करने वालो की उपेक्षा करनी है|
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*जप चर्चा*
*दिनांक 09 अप्रैल 2022*
*उद्धव प्रभु द्वारा*
हरे कृष्ण!!!
*ॐ नमो भगवते श्री रामायण!*
*ॐ नमो भगवते श्री रामायण!*
*ॐ नमो भगवते श्री रामचंद्राय!*
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तुते।।*
*तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरिप्रिये।।*
*लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् । कारुण्यरुपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥*
*मनोजवं मारुततुल्य- वेगम् जितेन्द्रि- यं बुद्धिमतां- वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
*मुकम करोति वाचालं पङ्गं लङ्घयते गिरिम्। यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्।।*
*नमस्ते गुरु-देवाय सर्व-सिद्धि प्रदेयिं सर्व मंगला रूपया सर्वानंद विधियनै।।*
*जगत गुरु श्रील प्रभुपाद की जय!!!*
*पतित पावन गुरु महाराज की जय!!!*
हरे कृष्ण!!!
सर्व प्रथम महाराज के श्रीचरणों में सादर कोटि कोटि प्रणाम।
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज की जय! समस्त वैष्णव वृन्द की जय!
कल की कथा में हम अंतिम पड़ाव पर थे जैसे देखते हैं कि राम के द्वारा रावण का वध हो गया है। तत्पश्चात कथा हमनें जल्दी-जल्दी में थोड़ा सा निपटाने का प्रयास किया था। उस प्रसंग में 2-3 घटनाएं बड़ी महत्वपूर्ण घटी। एक रामचंद्र जी द्वारा विभीषण का राज्याभिषेक किया गया। जब रावण का वध हुआ तब सभी देवी देवता आकाश में स्थित थे, सुमन वृष्टि हो रही थी, गंधर्व- किन्नर इत्यादि नृत्य कर रहे थे, गान कर रहे थे, वहां पर महादेव जी, ब्रह्मा जी भी थे और भी वहां काफी सारे देवी देवता इंद्र, चंद्र, वरुण आदि उपस्थित थे। ब्रह्मा जी ने भगवान की भगवत्स्वरूप में स्तुति की अर्थात ब्रह्मा जी के द्वारा बहुत सुंदर स्तुति भगवान् को अर्पित की गई। महादेव जी इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने भगवान के पिता श्री दशरथ महाराज को वहां पर बुलाया जो स्वर्ग में स्थित थे। वे श्वेत वस्त्र धारण कर के अपने पुत्र को साक्षात दर्शन देने के लिए वहां पर आए। उन्होंने रामजी का अभिवादन किया और कहा कि भले ही मैं उच्च लोकों में हूं। स्वर्ग का उपभोग कर रहा हूं लेकिन रामचंद्र आप के सानिध्य में जो आनंद मुझे प्राप्त होता था, उतना आनंद उच्च लोकों में भी नहीं है। यह भाव दशरथ महाराज ने अभिव्यक्त किया और आभार व्यक्त किया कि हमारे वंश को पावन पूण्यति करने के लिए प्रभु आप प्रकट हुए। इससे हमारा रघुकुल सूर्यवंश जो हैं,उसकी ख्याति, ध्वज पताका दसों दिशाओं में फैल गई है। आपकी कृपा से प्रसिद्धि मिल गई है, आगे वर्णन किया गया है कि देवराज इंद्र के द्वारा राम रावण युद्ध में जितने भी वानर पक्ष के जो योद्धा मारे जा चुके थे, उन्हें इंद्र के द्वारा पुनः जीवित कर दिया गया। जब विभीषण महाराज लंकापति लंकेश बन गए तब उन्होंने जितने भी महत्वपूर्ण सुग्रीव आदि योद्धा थे अर्थात जिन्होंने राम रावण युद्ध में राजा रामचंद्र की सहायता की थी, उनका मनोबल बढ़ाया। महाराज विभीषण के द्वारा ऐसे वानरों का विशेष सत्कार किया गया। इस प्रकार से यह युद्ध कांड अथवा लंका कांड समाप्त हुआ।
उत्तरकांड आरंभ हुआ, उत्तरकांड में 111 सर्ग है। जिसको हम अध्याय कहते हैं। इसमें बहुत सारी ऐसी लीलाओं का वर्णन है जो रामायण में आगे पीछे नहीं कह पाए थे, वाल्मीकि जी द्वारा उनको यहां पर कवर किया गया है। जैसे ही राजा रामचंद्र पुष्पक विमान पर बैठकर …..उन्होंने हनुमान जी को आगे भेज दिया क्योंकि भरत महाराज ने कहा था ” प्रभु! यदि 14 वर्षों के बाद आपको कुछ क्षण भी विलंब होता है तो आप मुझे जीवित नहीं देख पाएंगे।” हनुमान जी क्योंकि वायु पुत्र हैं, वे पवन के वेग से अयोध्या गए और भरत को यह समाचार दिया कि राजा रामचंद्र आ रहे हैं। सुग्रीव व बहुत सारे वानरों को लेकर सीता, लक्ष्मण के साथ भगवान् अयोध्या वापस आते हैं।
जैसे ही विभीषण महाराज जी का राज्य अभिषेक हो गया, तब हनुमान जी के ही माध्यम से सीता माता को भगवान रामचंद्र ने संदेश भिजवाया कि ऐसे ऐसे मैं आपको लेने के लिए आ रहा हूं आप सज्य हो जाइए। हनुमान जी को सीता माता ने जैसे ही देखा, सीता माता भी बहुत प्रसन्न हो गई कि उनका मिलाप होने वाला है लेकिन अभी मैं इस विषय को संक्षिप्त में इसलिए कह रहा हूँ क्योकि आगे इसमें कुछ कथा जोड़कर आपको सुनाऊंगा। सीता माता का वहां पर अग्नि परीक्षण हुआ। राजा रामचंद्र ने लोक अपवाद के डर से सीता माता से आग्रह किया तो माता ने अग्नि में प्रवेश किया। तत्पश्चात अग्निदेव खुद सीता माता को स्वयं लेकर बाहर आए। उन्होंने भगवान की भगवत स्वरूप में स्तुति की और सीता माता को बड़े प्रेम से प्रभु रामचंद्र को समर्पित किया। एक अग्नि परीक्षा लंका में हुई। तत्पश्चात वे पुष्पक विमान पर बैठ कर अयोध्या आए। अयोध्या में राजा रामचंद्र का बहुत सुंदर स्वागत सत्कार हुआ। बहुत सारे दीपों का दीप दान किया गया। बहुत सारे दीपों की आवली श्रृंखला से सारी अयोध्या जगमगा उठी। राजा रामचंद्र का स्वागत सत्कार किया गया। उस पर्व/ दिवस / उत्सव को हम दीपावली के रूप में मनाते हैं। उत्तरकांड जैसे ही आरंभ होता है, जैसे ही राजा रामचंद्र राजा बनते हैं क्योंकि उनको अपने भक्तों का संग करना बहुत अच्छा लगता है। बहुत सारे ऋषि मुनियों का जमावड़ा वहां पर लगता है। पहले ही अध्याय से इस बात को आरंभ किया गया कि बहुत सारे ऋषि मुनि जिसमें याज्ञवल्क्य ऋषि, भारद्वाज ऋषि, गौतम ऋषि और खासकर अगस्तय ऋषि, वशिष्ठ मुनि, विश्वामित्र मुनि समय-समय पर आते थे और वहां सत्संग होता था। विशेषकर प्रभु रामचंद्र और अगस्त्यमुनि का संवाद काफी सारे अध्यायों में वर्णन किया गया है। अगस्त्यमुनि वहां पर आए थे, उनकी राम जी से चर्चा हो रही थी। राम जी ने उनको उच्च आसन पर बिठाया, उनके चरणों में बैठकर बहुत सारे प्रश्न निवेदित किए, रावण के बारे में, सीता के बारे में या जो भी रामायण के विषय में। वे साधु महात्माओं के मुखारविंद से और अधिक अधिक सुनना/जानना चाहते थे ।
इसी प्रसंग में आरंभ में ही रावण किस प्रकार से राक्षस कुल में प्रकट हुआ था, इसकी कथा आती है। वर्णन किया गया है सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा जी थे, उनसे बहुत सारी ब्रह्मऋषि उन ब्रह्मऋषियों में एक पुलस्तय नाम के ऋषि थे। पुलस्तय मुनि के पुत्र का नाम विश्रवा था जिसका विवाह भरद्वाज जी की कन्या के साथ किया गया। जिससे उनको कुबेर नामक पुत्र प्राप्त हो गया, जोकि देवी देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं।
राक्षसी कुल की कन्या जिसका नाम था कैकसी था, जब वह शरण में आई तो विश्ववा मुनि ने उनको भी शरण प्रदान की। इस कैकसी के माध्यम से उनको तीन पुत्र व एक कन्या प्राप्त हुई। रावण, कुंभकरण, विभीषण और शर्पूनखा, जिनके बारे में आप जानते हैं। रावण तो बड़ा राक्षस बना। इन सब ने ब्रह्मा जी की तपस्या की और ब्रह्मा जी से अलग अलग प्रकार के वरदान प्राप्त किए। रावण और कुंभकरण के बारे में बताया जाता है कि कुंभकरण इंद्रासन चाहते थे तो निद्रासन प्राप्त हो गया। वह लगातार छह महीने सोते थे और 6 महीने खाते रहते थे। इस प्रकार से रावण की उत्पत्ति का कथा यहां अगस्त्य मुनि, भगवान् रामचंद्र को बताते हैं। एक बड़ी सुंदर कथा यहां इस प्रकार से आती है कि देवताओं के जो गुरु हैं बृहस्पति, उनके पुत्र कुश ध्वज जो ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त हो चुके थे। कुशध्वज की पुत्री का नाम वेदवती था, वेदवती सर्व गुणों से संपन्न थी लक्ष्मी स्वरूपा सभी दिव्य गुणों से युक्त थी। इसका जन्म ही इसलिए हुआ था ताकि वह भगवान को पति के रूप में प्राप्त कर सके। ब्रह्मर्षि कुशध्वज की बहुत बड़ी इच्छा थी कि भगवान् मेरे दामाद बने। समय-समय पर जब भी कोई आता था, अपना यह भाव वे उसको भी बताते थे कि हां मैं प्रयास में हूं। मैं अपनी पुत्री का विवाह भगवान विष्णु के साथ करना चाहता हूं। वहां पर शुम्भ नाम का एक राक्षस था, जिसको इस वेदवती के प्रति मोह हो गया और वह उससे विवाह करना चाहता था। जब कुशध्वज ब्रह्म ऋषि ने उनको मना किया, सामने तो वह राक्षस कुछ कर नहीं पाया लेकिन जब कुशध्वज विश्राम कर रहे थे, तब उस राक्षस ने सोते हुए ब्रह्मर्षि कुशध्वज की हत्या कर दी। पिताजी का जैसे ही वध हो गया तब कन्या ने यह संकल्प लिया कि मेरे पिताजी का आधा अधूरा संकल्प मैं पूर्ण करूंगी। वह कठोर तपस्या करने लगी जिससे वह भगवान को पति रूप में प्राप्त कर सके। एक बार वह ऐसे ही तपस्या कर रही थी, वहां पर रावण आता है। (हम सभी लोग जानते हैं कि अलग-अलग प्रकार के दोषों का प्रतिनिधित्व करने वैसे काफी सारे राक्षस हैं उसमें जो काम वासना का प्रतीक है, वह रावण है। जब आप रामायण पढ़ेंगे तो आप काफी जगह देखेंगे कि उसने काफी सारी देवियों, उप देवियों अप्सराओं पर जोर जबरदस्ती की।) एकदम ब्रह्मर्षि की पुत्री, ब्रह्म तेज गति से ओतप्रोत जब यह ओजस्वी, तेजस्वी कन्या तप कर रही थी। रावण ने जैसे ही उसको देखा तो उसको मोह हो गया, वह चाहता था कि मैं इस लड़की का भोग करूंगा। वह कामारत होकर वहां गया और अनर्गल बातें करना प्रारंभ कर दिया व अपनी बातों से उस स्त्री को अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करने लगा। उसने पहले तो बड़े प्रेम से पूछा कि आप कौन हो? आप अपने बारे में बताओ? वेदवती ने भी बड़े प्रेम से, श्रद्धा भाव से उत्तर दिया क्योंकि वेदवती को कल्पना नहीं थी कि उसके मन में क्या चल रहा है। उसने अपना परिचय दिया कि मैं ऐसे ऐसे बृहस्पति जी की पौत्री हूं। कुश ध्वज मेरे पिताजी हैं और भगवान श्री विष्णु को मैं पति रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या रत हूं। मैं संकल्प कर चुकी हूं, भगवान को मैं पति रूप में प्राप्त करूंगी। रावण ने कहा कि जो अप्रत्यक्ष है, अप्रकट है, उसकी क्या आकांक्षा करना? भगवदस्वरूप मैं ही हूं। मैं तीनों लोकों का विजेता हूं। शक्तिशाली हूं, सामर्थ्य शील हूं, क्यों नहीं, तुम मेरा वरण करती? वेदवती ने देखा कि रावण जबरदस्ती कर रहा है। बेचारी, वह वहां से भागने का प्रयास करती है। रावण उनके केश पकड़ लेता है। केशों को पकड़कर अपनी ओर खींचने का प्रयास करता है। वेदवती इतनी सत्य संकल्प थी, उसने अपना हाथ ही बाहर निकाला उनका हाथ तलवार के समान धार धार हो गया। उन्होंने अपने हाथ से ही अपने बाल काट लिए और इस तरह वह रावण के चंगुल से छूट कर भागने में समर्थ हो गई। लेकिन जब उसने देखा कि मेरा यह शरीर किसी ना किसी माध्यम से किसी ना किसी प्रकार से रावण जैसे नीच व्यक्ति के द्वारा छेड़ा गया है और अब यह इतना शुद्ध नहीं रहा कि प्रभु चरणों में मैं अर्पित कर सकूं । वह अग्नि में ही प्रविष्ट होती है और कहती है कि फिलहाल तो मेरा संकल्प पूरा नहीं हो रहा है लेकिन भविष्य में मैं भगवान को अपने पति के रूप में प्राप्त करूंगी लेकिन साथ ही साथ मैं संकल्प करती हूं कि हे मूर्ख रावण! जन्म इसलिए हो कि मेरा जन्म ही तुम्हारी मृत्यु का कारण बने।
इस प्रकार कहती है कि मैं तुम्हें श्राप नहीं देना चाहती हूँ पर मेरा जो भगवान को पाने का संकल्प है मेरी जो तपस्या चल रही है उस में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है, मेरी पुण्य की राशि क्षीण हो सकती है। इसलिए मैं तुम्हें श्राप नहीं दे रही लेकिन मैं निश्चित ही तुम्हारी मृत्यु का कारण बंनूँगी।
इस तरह से उसने शरीर छोड़ा, पुनः एक छोटी कन्या बनकर लंका में ही प्रकट हो गई। छोटी सी बच्ची थी, छोटी सी बालिका थी जैसे ही रावण को पता चला एक दिव्य गुणों से युक्त कन्या हमारे राज्य में प्रकट हुई है और रावण ने उसको देखा। रावण के साथ ऐसे बहुत सारे ज्योतिषी, मंत्री, तंत्री चलते थे। वे त्रिकालज्ञ हुआ करते थे। एक मंत्री ने देखा कि इसमें सारे गुण है जो रावण को मौत देने के लिए पर्याप्त है। उसने कहा कि इस कन्या से आप अभी छुटकारा पाइए। रावण ने उस कन्या को उठाया, उसको समुद्र में फेंक दिया। वाल्मीकि रामायण में ऐसा वर्णन है कि वह समुंदर के माध्यम से ही जनकपुर पहुंची जहां पर जनक महाराज स्वर्ण के हल से खेती कर रहे थे। वहां उनको एक पेटिका में यह दिव्य कन्या लेटी हुई मिली। देवी जब भी प्रकट होती है, चाहे वह सीता हो, राधा हो वह कभी भी किसी भी को अपना प्रत्यक्ष माता पिता न बनाकर अयोनिज:, स्वयंभू प्रकट होती हैं। इस प्रकार से जनक महाराज जी को सीता प्राप्त हुई। वही सीता बनी। वही सीता रावण के राज्य को समाप्त करने के लिए रावण के प्राण जाने के निमित्त बन गई। एक बड़ी सुंदर कथा हमें रामायण में सुनने को मिलती है, इसी प्रसंग में यह बहुत ही प्रचलित कथा है और खासकर हम इस्कॉन के भक्त लोग इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। यह बहुत सुंदर प्रसंग महाराज जी के मुखारविंद से हमने काफी बार सुना है। महाप्रभु की लीला से इसका बहुत सुंदर सम्बन्ध आता है, उसको भी थोड़ा स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। महाप्रभु जब दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे। दक्षिण मथुरा के नाम से प्रसिद्ध मदुरई नाम का स्थान है। वहां पर एक रामदास नामक ब्राह्मण थे जो राम जी के बड़े ही निष्ठावान भक्त थे। एक दिन चैतन्य महाप्रभु को अपने यहां दोपहर पर भोजन के लिए बुलाया था लेकिन जैसे ही महाप्रभु वहां पहुंच गए, उन्होंने देखा कि वहां कोई रसोई की व्यवस्था नहीं की गई थी और वे ऐसे ही उदास बैठे हुए थे। महाप्रभु जी ने पूछा- क्या हुआ? वे इतने तल्लीन थे, इतने लीला अनुरक्त थे, लीला में ही प्रविष्ट हुए थे। उन्होंने कहा कि लक्ष्मण जी कंद मूल फल लाने के लिए बाहर गए हैं जब वह लाएंगे तब माता सीता अपने हाथों से बहुत सुंदर रसोई बनाएगी, राम जी को अर्पण करेगी। तब वह हम कुछ ग्रहण कर सकते हैं। तब तक आप विश्राम कीजिए। महाप्रभु ने देखा कि यह कितना अनुरक्त भक्त है। लेकिन जैसे ही उस ब्राह्मण को बाह्यसुधि हुई, उनको पता चला कि महाप्रभु को उन्होंने बुलाया था जो कि साक्षात रामचंद्र हैं। तब उन्होंने बड़ें प्रेम से बहुत सुंदर प्रसाद अपने हाथों से बनाया, महाप्रभु को भर पेट खिलाया, महाप्रभु प्रसन्न हुए। महाप्रभु ने जब आग्रह किया कि आप भी प्रसाद ग्रहण कीजिए तो उन्होंने मना कर दिया कि मुझे प्रसाद नहीं ग्रहण करना हैं क्योंकि मैं बहुत दुखी हूं। महाप्रभु ने पूछा कि तुम क्यों दुखी हो? तब उन्होंने कहा कि मेरी सीता माता, इतनी शुद्ध है, इतनी पवित्र है तो राक्षस रावण जैसा व्यक्ति कैसे सीता को छू सकता है? वह जलकर भस्म क्यों नहीं हो गया? कोई व्यक्ति हो , सामान्य कोई पतिव्रता स्त्री भी हो उसका भी तेज इस ब्रह्मांड में किसी योद्धा द्वारा सहन करने लायक नहीं है। यह तो भगवत स्वरूप, लक्ष्मी स्वरूप सीता माता थी। रावण कैसे छू सकता है? जब ऐसा प्रश्न पूछा तो महाप्रभु ने बड़ें प्रेम से उनको समझाने का प्रयास किया कि यह तो भगवान की एक विशिष्ट लीला होती हैं, सब भगवान के परिकर होते हैं। स्वपार्षद अवतीर्ण…
रावण भी कोई ऐरा गैरा थोड़ी है, भगवान का ही सेवक था जय विजय ही रावण कुंभकरण बने थे। फिर भी उस ब्राह्मण को संतुष्टि नहीं हुई। उसने कहा कि ठीक है, महाप्रभु ,आप कह रहे हैं तो मैं इस बात को स्वीकार करता हूं लेकिन महाप्रभु ने देखा कि वह इतना संतुष्ट नहीं था। तत्पश्चात महाप्रभु पुनः धीरे-धीरे और गहराई में दक्षिण भारत में जाने लगे। जैसे ही वह रामेश्वर पहुंचते हैं, वहां पर उन्होंने धनुषकोटी में स्नान किया, राजा रामचंद्र का दर्शन किया। वहां बड़ा मंदिर था वहां पर महेन्द्र पर्वत का दर्शन किया। उस समय रामेश्वर धाम में साधु संतों में कूर्म पुराण के ऊपर चर्चा चल रही थी। चर्चा का विषय था कि किस प्रकार से जो रावण है जो असली वाली सीता है, उसको नहीं छू पाया था जिसका उसने हरण किया था, वह छाया सीता थी, वह मूल सीता नहीं थी। महाप्रभु ने उस कथा को बड़े ध्यान से सुना और उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने आग्रह किया यह जो भी कूर्म पुराण की प्रतियां आपके पास है, भोजपत्र पर लिखी हुई जो मनुस्क्रिप्ट जिसे कहते हैं, वह मुझे प्रदान कीजिए। मैं आपको इसे पुनः लाकर वापस दे दूंगा। महाप्रभु ने वहां से कूर्म पुराण को प्रत्यक्ष प्रमाण रूप में लेकर पुनः एक बार मदुरई गए। ब्राह्मण से मिले औऱ उसको सारे भोजपत्र खोलकर दिखाएं और समझाया, देखो! किस प्रकार से कथांतर हुआ है।
यह बड़ी ही गोपनीय कथा कूर्म पुराण में आती है,वह ब्राह्मण बड़े ध्यान से सुन रहे थे। महाप्रभु ने उन्हें समझाया कि जैसे ही राजा नासिक पंचवटी में आए थे… आज भी आप नासिक जाएंगे, पंचवटी के सामने एक सीता गुफा है, उसको अग्निगुफ़ा भी कहते हैं। वहां पर प्रविष्ट होकर राजा रामचंद्र ने सीता माता को अग्नि के संरक्षण में रखा था और अग्निदेव ने उनको छाया सीता देवी दी, जिसका वर्णन हम यहां उत्तरकांड में देख रहे हैं। यह वेदवती थी। वह रावण को मारना चाहती थी, वेदवती छाया सीता के रूप में बाहर प्रकट हुई। उसके पश्चात नासिक पंचवटी से रावण ने उस का हरण किया और आगे की लीला आप लोग पिछले कुछ दिनों से सुनते आ रहे हैं। जब युद्ध कांड के अंत में जब माता सीता की परीक्षा की गई, सीता माता अग्नि में प्रविष्ट हुई तो वहां से जो सीता बाहर निकली, इसके विषय में बताया जाता है कि जो प्रविष्ट हुई सीता है, वह छाया सीता है, वेदवती थी। जो अपना संकल्प पूर्ण कर रही थी, उसने रावण का वध करवाया। उसके पश्चात जो मूल सीता थी राजा रामचंद्र के साथ, वह लक्ष्मी स्वरूपा सीता श्रीदेवी हैं, वे प्रकट होती हैं और उसको लेकर राजा रामचंद्र अयोध्या आते हैं।
उनका संबंध बालाजी भगवान से भी आता है। ऐसा कहा जाता है कि जो बालाजी भगवान हैं वह साक्षात रामचंद्र ही हैं। रामचंद्र के ही अवतार हैं या उनका ही विस्तार है। उनके साथ आप श्रीदेवी या भूदेवी/ वेदवती माता जो देखते हैं। आगे चलकर घटना इस प्रकार से है कि जो श्रीवास के रूप में जो अन्य पुराणों में कथा आती है। एक संकल्प इसका पूर्ण हुआ कि मैं रावण का वध कर सकूं या उनके वध का निमित्त कारण अथवा हेतु बन सकूं। दूसरी जो उनकी मूल इच्छा थी कि मैं भगवान के साथ विवाह करूं तो इस रूप में भगवान ने उनकी वह इच्छा पूर्ण की थी। बाला जी ने विधिवत माता वेदवती के साथ विवाह किया हैं। दो जो पत्नियां है -श्रीदेवी, वह लक्ष्मी हैं या सीता माता है। जो भू देवी का स्वरूप है- वह वेदवती हैं, वही पद्मावती माता हैं। इस प्रकार से बहुत सुंदर लीला हमें उत्तरकांड में देखने को मिलती है।
आगे रावण के विषय में कहा गया है कि वह अलग-अलग प्रकार से दिग्विजय आदि कर रहा था लेकिन उसे कुछ ऐसे शक्तिशाली योद्धाओं से भिड़ना पड़ा, जहां पर उसे मुंह की खानी पड़ी अथवा परास्त होना पड़ा। उनमें मुख्य रूप से तीन नाम आते हैं -एक बाली, दूसरे बलि, तीसरे सहस्त्रबाहु अर्जुन जिन्हें कार्त वीर्य अर्जुन भी कहते हैं। तैत्रारैय मुनि की कृपा से उसको हजार हाथ प्राप्त हुए थे। रावण जब इन को जीतने के लिए गया था तब यह परास्त होकर आया था।
भागवत में यह कथा आती है कि एक बार वह सुतल लोक चला गया। वहां बड़े प्रेम से आवाभगत किया गया। बलि महाराज ने घूम घूम कर दिखाया कि किस प्रकार से सुतल लोक, स्वर्ग के ऐश्वर्या से भी बढ़कर है। तब रावण को मोह हो गया कि बाप रे! यहां पर तो कितना सोना है!
उस समय शायद सोने की लंका का निर्माण हो ही रहा था और उसे बहुत सारा सोना चाहिए था। भ्रमण करते करते बलि और रावण एक स्थान पर पहुंचे, जहां पर सोने का पहाड़ था। उसने कहा- बाप रे! आपके यहां तो सोने का पहाड़ है। बलि महाराज के साथ जितने भी अंगरक्षक थे, वे सब हंसने लगे। बलि महाराज ने रावण को कहा कि नहीं! नहीं! यह कोई पहाड़ नहीं है। यह जो हमारे परदादा हरिण्यकशियपु के साथ नरसिंह भगवान का जब भयंकर युद्ध हो रहा था, तब उस समय हरिण्यकशियपु के कान से कुंडल गिरा था, यह वह है, जो आपको पहाड़ लग रहा है। इस तरह उसने वहां पर प्रयास किया और बलि महाराज को कहा कि मैं आपके साथ युद्ध करना चाहता हूं। बलि महाराज ने कहा युद्ध करने के लिए फिलहाल मेरा कोई मूड नहीं है लेकिन मैं आपको लंका पहुंचा सकता हूं। वहां पर वामनदेव भगवान जो द्वार पर पहरेदार बन कर खड़े हैं। वामन देव को आग्रह किया गया। वर्णन किया गया है कि वामन देव ने ऐसी लात मारी उस रावण को कि वह सुतल लोक से सीधे लंका आकर गिर गया। कहीं-कहीं रामचरित्र मानस में ऐसा भी वर्णन है यह जो बलि थे, उन्होंने रावण को ले जाकर घुड़साल में बांध दिया था। वहां छोटे बच्चे आते थे, फटके मार कर चले जाते थे। बलि महाराज को थोड़ी सी दया आ गई और उन्होंने उसको छोड़ दिया। ऐसा भी वर्णन आता है।
जब एक बार रावण अपनी बहुत सारी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में बहुत ही कोलाहल कर रहा था तब सहस्त्रबाहु अर्जुन आते हैं और अपनी सहस्त्र भुजाओं से बहुत बड़ा बांध बना देते हैं। जिससे रावण की सारी पत्नियां, उसकी सारी स्त्रियां और वह खुद भी पानी में बहने लगता है। ऐसी परिस्थिति में सहस्त्रबाहु अर्जुन को रावण बहुत विचित्र पशु लगता है कि कैसे इसके इसके दस दस सिर है। बड़ा ही यह विचित्र प्राणी लगता है। वह उसको बड़ें ही प्रेम से चुटकी से पकड़ते हैं, और लाकर अपने घर में जहां पर बच्चे खेलते थे वहां पर उसको टांग देता है।साक्षात पुलस्त्य मुनि को वहां पर आना पड़ा। मध्यस्थ करना पड़ा और निवेदन करना पड़ा। तब सहस्त्रबाहु अर्जुन, जिसने रावण को विचित्र पशु के रूप में देख कर अपने घर में बांधकर रखा था। उसने रावण को छोड़ दिया। अब रही बात बाली की।
एक बार नदी के तट पर बैठकर बाली गायत्री कर रहे थे। रावण वहां पर भी जाकर कोलाहल कर उनको परेशान करने का प्रयास कर रहा था भगवान के ध्यान में अवरोध उत्पन्न ना हो, इसलिए बाली ने उसको अपने कांख में पकड़ा। वर्णन किया गया है कि एक, दो नहीं, अपितु पूरे 6 महीने तक वे उसको अपने कांख में ही पकड़ कर घूमते थे। वैसे ही सोते थे, वैसे ही उठते थे, वैसे ही खाते थे। इस प्रकार से रावण बहुत ही जगह पर लज्जित हुआ है लेकिन जो राक्षसी प्रवृत्ति के लोग होते हैं वह बड़े ही निर्लज्ज होते हैं और इस तरह के भौतिकता पूर्ण कार्य करने में उनको कोई भी संकोच नहीं होता है।
आगे हनुमान जी की उत्पति का वर्णन किया गया है। सुमेरु पर्वत के ऊपर एक वानर राज राज्य किया करते थे जिनका नाम केसरी था और जिनकी पत्नी का नाम था अंजना। वायु देव की कृपा से इनको एक अंश प्राप्त हुआ जो पवन पुत्र हनुमान बने। वायु पुत्र बड़े ही ओजस्वी तेजस्वी हनुमान हैं। एक दिन उनको जब बहुत तेज भूख लगी थी , उनकी माता ने उनको किसी पालने में या जमीन पर लिटा दिया था। उन्होंने उगता हुआ सूर्य देखा तो उनको लगा कि यह फल है वह खाने के लिए गए। ऐसा रामायण में वर्णन है। जैसे ही वह बड़ी तेजी से सूर्य की ओर बढ़ रहे थे तो सारे देवी देवता चिंतित हो गए थे। वहां पर राहु भी आ गया था क्योंकि वह ग्रहण का समय था। राहु भी खाना चाहता था, तब हनुमान जी को लगा कि यह मेरे कंपटीशन में है। यह मेरे साथ प्रतियोगिता कर रहा है और यह इस फल को खाना चाहता है। तब राहु को बजरंगबली हनुमान जी ने लात मार दी तब बेचारा अलग-अलग प्रकार से गुलाटिया खाता हुआ, बहुत दूर जाकर गिरा और डर गया। डर के वह देवराज इंद्र के पास जाकर हनुमान जी की शिकायत करने लगा कि मेरे हक को कोई हनुमान छीन रहा है। मुझे खाना चाहिए लेकिन हनुमान खुद सूर्य को ग्रहण कर रहे हैं। तब देवराज इंद्र ऐरावत के ऊपर बैठकर आते हैं। ऐरावत को आगे करते हैं कि जाओ, इस शक्तिशाली बालक को नीचे गिरा दो। जैसे ही ऐरावत वहां पर उसको सूंड से मारने के लिए आता है, हनुमान जी उसकी पूछं घुमाकर इधर उधर पटक देते हैं। देवराज इंद्र के हाथी के शरीर से रक्त निकलने लगता है, उसके पश्चात कोई परिस्थिति अनुकूल ना देखते हुए देवराज इंद्र ने अपना व्रज निकाला और हनुमान जी की ठुड्डी पर प्रहार किया। उसकी वजह से हनुमान जी बेहोश हो गए। बेसुध हो गए, उनके जो पिताजी हैं पवन देव बड़े नाराज होते हैं। इस तरह से सारे संसार की पवन को एकत्र कर लेते हैं जिससे हर किसी को सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। ब्रह्माजी देवी देवता वहां पर उपस्थित हुए। सब वायु देव से क्षमा याचना करते हैं तब सबने हनुमान जी को पुनः प्रकट कर दिया, सशक्त बना दिया। बहुत सारे देवी देवताओं ने उनको बहुत सारे अलग-अलग प्रकार से वरदान दिए। जैसे शिवजी ने कहा कि तुम किसी भी शास्त्र से नहीं मरोगे, व्रज जैसा तुम्हारा शरीर बन जाएगा इसलिए उनका नाम वजरंगी हो गया। चूंकि उस व्रज से हनुमान जी की ठुड्डी पर मार दिया गया था, जिसे हनु भी कहते हैं। वहां पर सूजन सी हो गई थी। इसलिए इंद्र में उनका नाम रखा हनुमान। जय हनुमान!
इस प्रकार से हनुमान जी की बाल लीलाओं का संक्षिप्त में थोड़ा सा वर्णन किया गया है। जब राजा रामचंद्र यहां पर आए थे तो सीता माता का परित्याग करना पड़ा। एक धोबी था जिसकी पत्नी काफी समय दूसरे घर ननिहाल / ससुराल/ मायके में रह कर आई थी। वह धोबी बड़ा नाराज होकर कह रहा था कि मैं राम थोड़ी हूं जिसकी पत्नी इतने दिन बाहर रहकर आई और पुनः स्वीकार कर लूंगा। राम जी ने लक्ष्मण जी से कहा- आप एक काम करो, सीता को आप जंगल में छोड़ कर आओ। लक्ष्मण जी उनको वाल्मीकि मुनि के आश्रम में छोड़ कर आते हैं। उसके पश्चात सीता माता ने लव और कुश दो पुत्रों को जो बहुत ही ओजस्वी तेजस्वी हैं, को जन्म देती हैं। लव कुश आश्रम में ही सभी प्रकार की विद्याओं को प्राप्त करते हैं। इसी संदर्भ में हम देखते हैं जो प्रसिद्ध कुत्ते की कथा है, वो यहां पर आती है। राजा रामचंद्र कहा करते थे कि जो भी अभिलाषी है, वह मेरे द्वार पर आए। एक दिन लक्ष्मण जी बाहर गए उन्होंने देखा कि एक कुत्ता खड़ा है। वह भी कुछ बोलना चाहता है। लक्ष्मण जी ने कहा- आइए, आपको भी हम न्याय प्रदान करते हैं। कुत्ते ने कहा कि जब तक राजा रामचंद्र परमिशन नहीं देंगे तब तक मैं भीतर नहीं आऊंगा। राम जी ने जब उनको भीतर बुलाया, तब ये कुत्ता रामचंद्र से कहने लगा किस प्रकार से बहुत सारे ब्राह्मण थे, बहुत सारा यज्ञ चल रहा था तो जब वह उठ गए तो मुझे लगा मेरा भाग है। मैंने खाने का प्रयास किया ब्राह्मणों ने मुझ पर प्रहार किया। उसके सिर से रक्त बह रहा था। राजा रामचंद्र ने उन ब्राह्मणों को बुलाया।तब उन ब्राह्मणों ने भी कबूला कि हां, हमनें ऐसा अपराध किया है। अब इनको क्या दंड दिया जाए क्योंकि ब्राह्मण तो अदंडनीय होते हैं। रामचंद्र जी ने कुत्ते से ही पूछा कि इनको क्या दंड दिया जाए? तब कुत्ते ने कहा कि “आप इनको मठाधीश बना दीजिए, आप इन को किसी एक मंदिर का अध्यक्ष बना दीजिए। पूर्व जन्म में मैं भी एक कालंजर नाम के मठ का अधिपति था और मैं भगवान् की बहुत अच्छे से सेवा करता था। फिर भी कुछ ना कुछ गलतियां रह जाती थी तो मैं कुत्ता बन गया। सोचिए जब ऐसे पापी-तापी मठाधीश बन जायेगें तो कितनी तुच्छ योनि में ये लोग चले जाएंगे। इसलिए मैं चाहता हूं कि आप इनको मठाधीश बना दीजिए।”
उसी प्रसंग में ऐसे कहा गया है कि कोई व्यक्ति सपरिवार नर्कगामी होना चाहता है
सब परिवार नर्क गामी होना चाहता है या नरक जाना चाहता है या किसी को नरक भेजना है तो कहते हैं कि उनको देवता, गो, ब्राह्मण, वैष्णव का अधिष्टाता बना दो उनके चरणों में स्वयं अपराध हो जाएगा। यह अधोगति को प्राप्त हो जाएंगे। ऐसे संक्षिप्त में कथा आती है। राजा रामचंद्र राय अयोध्या में राज्य कर रहे थे तो तीनों जो अलग-अलग भाई थे, वे अलग-अलग दिशा में जाकर दिग्विजय कर रहे थे। इसी प्रसंग में शत्रुघ्न की कथा आती है, लवणासुर नामक राक्षस का उन्होंने वध किया। लवणासुर का वध करने के पश्चात देवी देवताओं की मदद से वहां पर उन्होंने बहुत सुंदर एक स्वर्ण की नगरी निमार्ण की। जिसका नाम मधुपुरी है उसे मधुरा कहते हैं उन्होंने मधुरापुरी का निर्माण किया जिसे हम मथुरा भी कहते हैं। वह शत्रुघ्न के द्वारा बसाई गई थी, उन्होंने 12 वर्षों तक वहां राज्य किया, पुनः मिलने के लिए रामचंद्र के पास आए। राजा रामचंद्र ने अश्वमेध यज्ञ किया। जिस का घोड़ा लव कुश ने वाल्मीकि के आश्रम में पकड़ा। इसके पश्चात जब उनको राज्यसभा में बुलाया गया, वहां पर लव कुश ने रामायण को गाया है। सीता महारानी की शुद्धि को प्रस्तुत करने का प्रयास किया किंतु फिर भी कुछ लोगों के मन में किंतु परंतु था। इस बात को सीता माता सहन नहीं कर पाई और वह रसातल भूमि में लुप्त हो गई। सीता महारानी का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए वाल्मीकि मुनि ने राजा रामचंद्र को बहुत समझाया। राजा रामचंद्र जी को बहुत खेद हो गया कि मैंने सीता को गंवाया है लेकिन उन्होंने बड़े प्रेम से लव-कुश को स्वीकार किया और लव कुश को वशिष्ठ मुनि के अनुसार उनके मार्गदर्शन में अयोध्या का राजा बनाया गया। भागवतम् में वर्णन आता है कि 13000 वर्षों तक और रामायण में वर्णन आता है 11000 वर्ष तक राजा रामचंद्र ने इस भू लोक इस अयोध्या का राज्य किया। उसके पश्चात उन्होंने धीरे-धीरे लीला का समापन किस प्रकार से किया है। ( क्षमा कीजिए ज्यादा नहीं एक 2 मिनट मैं आपके और लूंगा) जब भगवान की लीला समाप्त होती है तो देवी देवताओं के द्वारा भगवान को सूचित किया जाता है। इस लीला को हमने कृष्ण लीला में भी देखा है और महाप्रभु की लीला में भी देखा है कि प्रभु! अब आपका कोई कार्य नहीं रहा। आप भगवत धाम वापस जा सकते हैं, देवताओं के द्वारा निवेदन किया जाता था। उसी प्रकार से महाकाल एक बार साक्षात राम जी को मिलने के लिए आए, वह राम जी से बात करना चाहते थे। लक्ष्मण जी बगल में खड़े थे उन्होंने कहा हम दोनों ही बात करेंगे, बीच में कोई नहीं आएगा। आप प्रतिज्ञा कीजिए यदि कोई बीच में व्यवधान उत्पन्न करता है आप उसका सर विच्छेद कर देंगे या उसका परित्याग कर देंगे। राजा रामचंद्र ने लक्ष्मण से कहा कि आप द्वार पर खड़े रहो, किसी को भी भीतर मत आने देना। जब इनकी चर्चा चल ही रही थी किंतु वहां पर दुर्वासा ऋषि आए। दुर्वासा ऋषि ने कहा कि मैं राम जी से मिलना चाहता हूं। लक्ष्मण जी ने मना किया, लक्ष्मण जी ने मना किया तो वे बड़े नाराज हो गए और कहा कि आप के जितने भी बच्चे हैं, मैं ऐसा श्राप दे दूंगा कि वे सब लुप्त हो जाएंगे। आपका सारा वंश नष्ट हो जाएगा तब मजबूरन लक्ष्मण जी को प्रविष्ट होकर राम जी को सूचित करना पड़ा कि दुर्वासा मुनि आए हैं। तत्पश्चात राम जी ने दुर्वासा जी का सादर सत्कार किया और उनकी सेवा की। उसके पश्चात राम जी को मजबूरन वशिष्ठ मुनि सारे धर्मज्ञाता आदि एकत्रित हुए और कहा कि आपको धर्म को रखने के लिए, धर्म का अधिष्ठान करने के लिए आपको लक्ष्मण को दंडित करना पड़ेगा। राम जी ने कहा कि मैं लक्ष्मण को प्राणदंड तो नहीं दे सकता लेकिन मैं उसको अपने से अलग होने की आज्ञा प्रदान करता हूं। आप अयोध्या से निष्कासित किए जाते हो, कृपया आप निकल जाइए। लक्ष्मण जी को केवल इतना कहना बाकी था कि आप अयोध्या छोड़ कर चले जाइए, वही लक्ष्मण जी के लिए मृत्यु के समान था। लक्ष्मण जी सरयू के तट पर जाते हैं और सरयू की तरफ उन्मुख होकर भगवान का चिंतन करते हैं और शेष रूप में प्रकट होकर सरयू जी में प्रवेश करते हैं व अपने क्षीरसागर में चले जाते हैं। भगवत धाम अनंत शेष के रूप में चले जाते हैं। उसके पश्चात राजा रामचंद्र अपनी सारी सेना अपने प्रजा वासियों को बुलाते हैं और एक बड़ा सुंदर उपदेश उनको प्रदान करते हैं। उसके पश्चात बहुत ही बड़ा पुष्पक विमान आता है, उसके ऊपर सारी प्रजा को बिठाकर राजा रामचंद्र साकेत धाम को चले जाते हैं। वर्णन किया गया है कि जाने से पहले उन्होंने 5 लोगों को पीछे रखा। उन 5 लोगों में हम देखते हैं कि सबसे पहले हनुमान जी हैं, विभीषण है, जाम्बवान है, मेंद नाम के एक वानर थे और विविध नामक वानर थे, जिनकी कथा हम कृष्ण लीला में भी देखते हैं। इस प्रकार से 5 लोगों को उन्होंने पीछे रखा, उसमें से हनुमान और विभीषण अमर बन गए। जामवंत, मेंद, विविध द्वापर युग के अंत में मर गए या उनका हनन करना पड़ा। इस प्रकार से राजा रामचंद्र हनुमान जी से कहते हैं कि जहां जहां मेरी कथा हो रही है, मेरे नाम का गुणगान हो रहा है, हनुमान जी, उस स्थान को पवित्र बनाए रखने के लिए, उसकी सुरक्षा के लिए मैं आग्रह करता हूं। कलियुग के अंत तक आप यहां पर निवास करो, राम भक्तों की रक्षा करो। उनके दिव्य सत्संग कथा कीर्तन में किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न ना हो, उसकी देखभाल आप करो। उसी राम जी की आज्ञा का अनुपालन हनुमान जी आज भी कर रहे हैं। हम देखते हैं कि कितने भी बड़े धर्म संकट में सत्संग होता है तो कुछ ना कुछ ऐसा पर्याय हो जाता है कि कथा कीर्तन बड़ी सुकृत स्वीकृति से पार हो जाती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण करोना काल में हम देख सकते हैं कि सत्संग में इतनी पहुंच भक्तों की नहीं थी, एक दूसरे को देखना तक मुश्किल हो गया था लेकिन महाराज जी की कृपा से हम देखते हैं कि ऐसा ही प्रकरण नाम जप (जपा टॉक) का शुरू हो गया, अब हम देखते हैं दो दो आईडी हैं । उसमें भी हम देखते हैं हजार हजार लोग उपस्थित हैं, कथा सुनते हैं। हम देखते हैं कोई ना कोई ऐसा पर्याय रास्ता निकल जाता है जिसका अनंत गुणा फल हो जाता है । सारे भक्तों के लिए संभव नहीं हो पा रहा था की सबको जाकर मिलना लेकिन अब हम देखते हैं कि बैठे बैठे हजारों लोगों को प्रचार प्रसार इस माध्यम से किया जा रहा है। यह बहुत विशेष बात है। साकेत धाम का अंग स्वरूप धाम है, ब्रह्म लोक के बगल में जिसे साकेत धाम कहा गया है।
अपने सारे प्रजा वासियों को लेकर रामचंद्र पुष्पक विमान पर विद्यमान होकर अपने साकेत धाम को लौट जाते हैं। इस तरह से रामायण ग्रंथ का संवरण हो जाता है। ग्रंथ की महिमा का गान अंतिम अध्याय में किया गया है। इस तरह से इस ग्रंथ को विश्राम दिया गया है ।बहुत-बहुत धन्यवाद हरे कृष्ण।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
महाराज की आज्ञा से महाराज की कृपया से पदमाली प्रभु ने मुझे यह सेवा दी, इसके लिए हृदय से उनका धन्यवाद। मैं आभारी हूं।
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जप चर्चा
7 अप्रेल, 2022
श्री राम कथा की शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आगे चलते है, पिछले कई दिनों से यह रामकथा सत्र चल रहा है। श्री राम जन्मे अयोध्या में तो बालकाण्ड, फिर अयोध्या कांड फिर वहां से ऐसे श्री राम प्रस्थान कर चुके हैं वे दक्षिण की ओर आ रहे हैं। प्रयाग आये और फिर दक्षिण दिशा की और वे आगे बढ़े चित्रकूट दक्षिण दिशा की और आगे बढ़े चित्रकूट से राम गिरी पर्वत या रामटेक नागपुर के पास वह भी दक्षिण दिशा में वहां से फिर साउथ वेस्ट जाते हैं गोदावरी पंचवटी की और वहां से भी आगे दक्षिण की और किष्किंधा क्षेत्र आपकी जानकारी के लिए महाराष्ट्र और कर्नाटक के बॉर्डर पर है। किष्किंधा क्षेत्र का भी नाम है और किष्किंधा कांड भी है। यहां की लीला आप कल सुने और अब कह ही देता हूं वहां से आगे बढ़ने वाले हैं और दक्षिण में जाएंगे श्रीलंका तक और फिर लौटते समय पुष्पक विमान से आएँगे।
जाते हुए पदयात्रा करते हुए, वनवासी के जैसे चलते हुए गए लंका तक और वहां से दीपावली के दिन पुष्पक विमान से अयोध्या लौटेंगे। किष्किंधा क्षेत्र में जब श्री राम थे तो चातुर्मास का समय था और बाली का वध हुआ और वध करने वाले श्री राम की जय। सुग्रीव का तो काम बन गया उसके जीवन में जो बिगड़ी हुई बातें थी राम ने उनको सब ठीक-ठाक कर दिया लेकिन अब स्वयं राम के जीवन में जो बिगाड़ आया था उसमें अब सहायता करनी थी। राम ने मदद की सुप्रीम की अब सुग्रीव की बारी थी राम की मदद करने के लिए ताकि सीता को खोजा जाए, सीता को पुनः प्राप्त किया जाए। सुग्रीव ने 10 दिशाओं में सीता की खोज के लिए कई सारे दल या टीम भेजी। उसमें से एक टीम जिस टीम में स्वयं हनुमान जामवंत अंगद इत्यादि इत्यादि मंडली थी। उन्होंने बहुत समय के लिए खोज करते रहे, करते रहे लेकिन सीता का कुछ पता नहीं लगा तब खोजते खोजते कन्याकुमारी कहो या रामेश्वर कहो उस क्षेत्र में पहुंचे थे। सीता पता नहीं चल रहा था तो वे बड़े उदास थे निराश है और वह सोच रहे थे कि अब हम वापस जाकर यह नहीं बता सकते कि हमें सीता का पता नहीं लगा सके तो सुग्रीव हमारी जान ले लेंगे।
उन्होंने सोचा कि हम उपवास करते हैं या भूख हड़ताल करते हैं और यही मर जाते हैं। सीता तो मिल ही नहीं रही हैं। उस समय वे आपस में चर्चा भी कर रहे थे तो चर्चा यह भी हो रही थी कि कैकई के कारण दशरथ की जान गई, कैकई के कारण जटायु की जान गई, कैकई के कारण ही बालि का वधू हुआ और अब शायद हमारी बारी है। हम भी मरेंगे उस कैकई के कारण। इस प्रकार ये चर्चा हो रही थी। इसको सुनने वाले थे संपाती जो जटायु के भाई थे, उन्होंने क्या कहा? आप जटायु की बात कर रहे हैं? और सुनाइए और सुनाइए तो उनको और बातें सुनाई भ्राता की, उनके छोटे भाई थे जटायु। संपाती प्रसन्न हुए। उनको पता था या उनके पास दूर दृष्टि थी या दूर के दृश्य देखने की शक्ति या सामर्थ्य थी, पक्षी जो थे आकाश में उड़ान भरने वाले और दूर से जमीन के दृश्य या वस्तु देखने वाले। संपाती ने देखा एक सौ योजन दूर मतलब 800 किलोमीटर दूर लंका के अशोक वन में सीता है। अब वहां जाना है तो आपस में चर्चा कर रहे थे वहां कैसे पहुंच सकते हैं। जल पर भी चला जा सकता है लेकिन किसी को उड़ान भरना होगा इस समुद्र को पार करना होगा कोई कहता है मैं 10 20 मील जा सकता हूं, किसी ने कहा कि 50 100 किलोमीटर या मील तो मैं जा सकता हूं, 100 योजन मतलब 800 मील मैं नहीं जा सकता, किसी ने कहा मैं आधे रास्ते तक तो जा सकता हूं लेकिन फिर मेरी वही जल समाधि होगी मैं गिर जाऊंगा समुंद्र में।
अंगद ने कहा मैं जा सकता हूं लेकिन लौटने का कोई भरोसा नहीं है। ऐसी चर्चाएं जब हो रही थी तो हनुमान तो चुपचाप बैठे थे कुछ कह नहीं रहे थे। जामवंत ने उनको स्मरण दिलाया उनकी शक्ति, सामर्थ्य का उन्होंने यह भी कहा कि तुम तो इतने शक्तिमान हो तुम तो मेरु पर्वत की कई बार हजारों बार परिक्रमा कर सकते हो, मेरु पर्वत की। वैसे हनुमान को स्मरण दिलाने की आवश्यकता थी वे तैयार हुए। जय हनुमान। अब वे आगे बढ़ते हैं महेंद्र पर्वत पर चढ़ते हैं ।दक्षिण भारत में एक प्रसिद्ध पर्वत है, महेंद्र पर्वत वहां पर भगवान और देवताओं से विशेष प्रार्थना करते हैं ताकि उनको यश मीले, लंका पहुंचने में और सीता के मिलन में। वहां से हनुमान ने जब उड़ान भरी है तैयारी कर रहे हैं अपने पैरों से पहाड़ के शिखर को दबाएँगे और फिर उड़ान भरेंगे आकाश में। ऐसा जब कर रहे थे या उन्होंने ऐसा किया तो पहाड़ में खलबली मच गई, कई पर्वत के शिखर गिर रहे थे, कई वृक्ष उखड़ कर हवा के गति से बड़ी स्पीड के साथ उनके पीछे जा रहे थे। हनुमान वहां से आगे बढ़ रहे थे, बढ़ चुके थे। आंधी तूफान का क्या कहना और जब वे समुद्र के ऊपर से जा रहे थे तो समुंद्र के अंदर खलबली मच रही है। हनुमान ने एक विशाल रूप धारण किया था। उनकी छाया समुद्र के जल में दिख रही थी 80 मील लंबे थे, हनुमान की ऊंचाई थी। हनुमान 240 मील चौड़े थे। जंबो जेट, उनका शरीर ही हवाई जहाज बन गया था। वे थोड़े ऊपर से स्पीड से जा रहे हैं तो गर्मी है वायु देवता उनके पिताश्री है तो वे हनुमान के लिए शीतलता प्रदान कर रहे हैं। उनकी हैप्पी जर्नी टू लंका और समुद्र को पार किया और वहां त्रिकूट पर्वत पर उतरे। वहां चित्रकूट था यह त्रिकूट है त्रिकूट पर्वत।
वहां बहुत ऊंचा पर्वत, वहीँ से उन्होंने लंका अवलोकन किया, काफी जानकारी प्राप्त कर रहे हैं। उसका उपयोग होगा जब राम युद्ध के लिए पहुंचेंगे। वे अडवांस पार्टी का कार्य भी कर रहे हैं, जासूसी भी कर रहे हैं और कुछ सीक्रेटस का पता लगा रहे हैं। यहाँ पहाड़ से भी उन्होंने कुछ पता लगाया है। वहां प्रवेश करते समय प्रवेश द्वार पर उस लंका की अधिष्ठात्री देवी रखवाली कर रही है। हनुमान जब अंदर जाना चाह रहे थे तो उसने कहा हे वानर रुको, नो परमीशन, नो एडमिशन विथआउट परमीशन, वहां पर दोनों के मध्य वार्तालाप, संवाद और वाद-विवाद भी होता है और फिर हनुमान उसको तमाचा मारते हैं। वो बेचारी बेहोश होकर गिर गई। और जब होश में आई तो उसे याद आया, भविष्य में कोई एक वानर आएगा और वह प्रवेश करेगा या प्रवेश करने वाला है बहुत बलवान होगा और ऐसा जब होगा तो धीरे-धीरे लंका का और फिर अंततोगत्वा रावण का विनाश का ही कारण बनने वाला हैं । उसे धीरे धीरे यह बातें याद आई और उसी के साथ उसने रास्ता दे दिया है। हनुमान जी अब लंका में है और खोज रहे हैं सीता को, कहाँ होगी सीता, कहाँ होगी सीता। वहां कई सारे महल हैं हनुमान जी एक महल से दूसरे महल से तीसरे महल तक जा रहे हैं । हनुमान को कुछ आईडिया था सीता के सौंदर्य की बात कहो, चरित्र की बात कहो उसके अनुसार वो खोज रहे थे। वे पहचानने की कोशिस कर रहे थे। वहां कई स्त्रियाँ दिख रही थी लेकिन वे शराब पी रही थी, अलग अलग पुरुषों को आलिंगन दे रही थी। ये देख कर हनुमान समझ रहे थे कि ऐसा व्यवहार तो सीता के लिए संभव ही नहीं है।
सीता और करें नशा पान, सीता और करे किसी पर पुरुष का आलिंगन। ये पतिव्रता नारी है और सौंदर्य कि बात तो उसमे से उन्हें कोई नहीं लगा कि सीता जैसे सौंदर्य वाली स्त्री वहां थी। खूब खोजने के उपरांत भी वहां नहीं मिली सीता या सीता का पता नहीं लगा तो निराश होकर वे वन की ओर जाते हैंउस। समय हनुमान अलग-अलग रुप भी धारण करते हैं कभी छोटा बिल्ली जैसा बन जाते हैं कभी इधर जाते हैं कभी उधर जाते हैं। अशोक वन में जाते हैं और यही पर सीता को मिलने वाले हैं इसके पहले वे उन्होंने अयोध्या में श्रीराम जय राम जय जय राम, श्री राम जय राम जय जय राम ये ध्वनि सुनी तो हनुमान ने कहा मैं अयोध्या में आ गया क्या? यहां पर राम की गौरव गाथा गाए जा रही है, गुण गाए जा रहे हैं। जहां से ध्वनि आ रही थी वहां प्रस्थान कर गए वह घर विभीषण का था। रावण के एक भाई राम भक्त थे। जैसे राम भक्त हनुमान वैसे विभीषण भी भक्ति में कुछ कम नहीं थे। वैसे हनुमान के साथ किसी की भी तुलना नहीं हो सकती। जब हम रामदास कहते हैं तो पहला नाम हमें हनुमान का ही याद आता हैं राम के तो कई दास हैं, कृष्ण के, भगवान के कई दास से लेकिन उन सभी दासों में दास नंबर वन, नंबर वन हनुमान जी है। नवधा भक्ति में हर भक्ति के विशेष आचार्य या भक्त है श्रवण भक्ति श्रवण करते हैं तो राजा परीक्षित, कीर्तन भक्ति सुखदेव गोस्वामी, स्मरण भक्ति प्रहलाद महाराज।
श्रवणं, कीर्तन, विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चन वन्दनं दास्य सख्यमात्मनिवेदनम् ।।
अनुवाद – श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, साख्य और आत्मनिवेदन ये भक्ति के नौ भेद है।
दास्यम की बात आती है तो हनुमान भक्त शिरोमणि है। हनुमान उनकी जो हनू है चिन है उसमें हम देखते हैं मुख और चिन, ठोड़ी भी कहते हैं, एक समय इंद्र ने अपने वज्र से हनुमान के ऊपर प्रहार किया उसी के कारण उनकी हनु टूट गई, कुछविकृति आई इसीलिए उनका मुख ऐसा दिखता है हम दर्शन करते हैं। ऐसे मुख वाले या हनु वाले हनुमान। हनुमान या मान ऐसी है जिनकी हनु इसलिए उनका नाम भी हनुमान राम भक्त हनुमान। विभीषण भी राम भक्त थे। राम का नाम भी लेते ही रहते थे। अपने महल की दीवार पर उन्होंने राम राम राम राम लिखा हुआ था। सुनने में आता है कि एक समय जब रावण विभीषण के यहां आए और जब उन्होंने देखा अपने भ्राता के, भाई के घर में सर्वत्र राम राम राम लिखा है तो क्रोधित हुए और उन्होंने कहा हे राम का नाम लिखा है तुमने विभीषण ने कहा यह वह राम नहीं है, वह राम नहीं है, यह जो रा है रा रा स्टैंड फॉर रावण म है उसका मतलब है मंदोदरी। यह श्री श्री रावण मंदोदरी का शार्ट फॉर्म राम है। रावण ने कहा बढ़िया बहुत अच्छा शाबाश गुड बाय या गुड ब्रदर और कहते हैं कि रावण ने पूरी लंका में राम-राम राम-राम राम-राम लिखवाया। वो सोच तो रहा था कि यह रावण और मंदोदरी का नाम है परन्तु राम तो राम है और कोई हो ही नहीं सकता।
हनुमान जी खोजते खोजते अशोक वाटिका में पहुंचे हैं जहां पर सीता को रावण ने बंदी बनाकर रखा था और सीता जिस वृक्ष के नीचे थीउसी वृक्ष के ऊपर हनुमान जी पहुंच गए और वही से अवलोकन करने लगे। सीता के हाव-भाव और उसकी दुर्बलता और आक्रोश और से पता चला सौंदर्य और यही सीता होनी चाहिए। फिर कई सारे दृश्य भी देखें जब राक्षस या रखवाली कर रही थी वह सीता को परेशान कर रही थी धमकाती है, डराती है, जाओ जाओ शरण में जाओ, रावण महाराज की शरण में जाओ, मरना है तुम्हें सीता को पिटती हैं, सीता के साथ क्या-क्या गाली गलौज होता है हनुमान जी सब देख रहे थे और थोड़ी देर में रावण का भी वहां पहुंचना। वो सारे प्रस्ताव सीता को दे चूका था, आज पुनः उसने कहा मेरा प्रस्ताव स्वीकार करो भूल जाओ उस राम को, देखो इस लंका के वैभव को और मैं हूं लंकेश, तुम मेरी बनो, मेरी रानी बनो वी विल इंजॉय, हम यहाँ उपभोग करेंगे। उस समय सीता का रावण को फटकारना और सीता रावण को बहुत खरी-खोटी सुनाती है, सीता कहती है मेरे से दूर रहो तो उस समय रावण ने कहा कि 2 और महीने, 2 महीने की अवधि देता हूं मैं तुम्हें अगर तुम नहीं मान जाओगी तो समाप्त, तुम जीवित नहीं रहोगी, समझी ऐसा कहकर रावण चला जाता है। यह सब देखकर और सुनकर हनुमान यह समझ गए थे कि यही तो है सीता, यही तो है सीता। हनुमान नीचे उतरे और सीता के साथ वार्तालाप प्रारंभ होता है। कई सारी बाते वे सीता को बताते हैं, वह कह तो रहे थे मैं राम दूत हूँ मैं राम का दूत हूं राम का संदेशा लाया हूं लेकिन इनका बड़ा रूप देख कर सीता सोचने लगाती हैं कि यह कोई राक्षस होना चाहिए। इस रूप में मेरे समक्ष आया है। हनुमान ने सीता को अंगूठी दी कि यह ले लो जो मुझे राम ने दी है। सीता ने देखा और कहा यस यस यह तो राम की अंगूठी है। सीता देखती है और समझती है और कई बातों से सीता मान जाती है कि यह हनुमान राम के भेजे हुए दूत ही है। हनुमान सीता जी से कहते हैं कि चलो चलते हैं,
सीता – कहां?
हनुमान – किस्किंधा जहां श्रीराम इस समय मौजूद है।
सीता- कैसे?
हनुमान- बैठो मेरे कंधे पर
सीता – मैं और तुम्हारे कंधे पर, मैं पर-पुरुष को स्पर्श भी नहीं करती और बढ़िया तो यह होगा कि तुम राम को ले आओ, राम को भेजो, उन्हें अपनी शक्ति, शौर्य, सामर्थ्य का प्रदर्शन करने दो और मुझे मुक्त करने दो, प्राप्त करने दो। मैं ऐसे पलायन नहीं करना चाहती तुम्हारे कंधे पर बैठकर और मैं तुम्हारे कंधे पर बैठ भी नहीं सकती। सीता ने भी हनुमान को अपनी अंगूठी दी कि जब भगवान राम तुम से पूछेंगे कि इसका कोई सबूत है कि तुम सचमुच सीता से मिले तो यह निशानी उन्हें दिखा देना और यह भी बता देना कि चित्रकूट में जो स्फटिक शिला के ऊपर जो लीला हुई इंद्र का पुत्र कौवा बन कर आया था और कैसे परेशान कर रहा था, इत्यादि इत्यादि और फिर राम ने आगे क्या किया यह सब घटनाएं सीता ने हनुमान को सुनाई और कहा कि उनको कहना कि यह दोबारा तुम दोहराओ। ऐसी कई बातें थी जो सीता को ही पता थी इस संसार में, ब्रह्मांड में और किसी को भी पता नहीं थी उस घटना से संबंधित जो बातें थी तो राम जब सुनेंगे तो उन्हें वह समझ जाएंगे कि तुम सीता को मिल कर आए हो। हनुमान लौटने के पहले कुछ आहार, नाश्ता पानी हो जाए तो वे वहां के बगीचे में फल खाने लगे। फल तो कुछ कम ही खाए। उस वन को उन्होंने पूरा तहस-नहस कर दिया, विनाश किया, सब उल्टा पुल्टा कर दिया, सब वृक्ष उखाड़ कर फेंक दिए और क्या-क्या सत्यानाश कर दिया। वह उद्धान जो पूरा मेंटेन था उसको तहस नहस कर दिया। इसका समाचार जब रावण के पास पहुंचा तो वह बोला ओह बंदर। उसने कई सारे सैनिक अस्सी हजार सैनिक भेजे। जान लो इस बंदर की या पकड़ लो उस बंदर को, इस मंकी बिजनेस को बंद करो, रोको इसे। हनुमान ने तो इन सारे अस्सी हजार सैनिकों को लिटाया या यमपुरी भेजा।
उसको पकड़ कर ले आओ या उसको जला दो, उसकी पूंछ में कुछ वस्त्र बांध दो और आग लगा दो वह भी जल जाएगा या अपमानित होगा। ऐसा जब किया तो हनुमान जी एक महल से दूसरे महल और फिर खिड़कियों में से अपनी पूछ को अंदर डालते और सब जगह आग लगने लग गई घर जलने लग गए और फिर नेक्स्ट और फिर नेक्स्ट और फिर अगले अगले ऐसे लंका के विभिन्न हिस्सों पर उन्होंने आग लगाई। इस प्रकार हनुमान ने वहां पर शक्ति का प्रदर्शन किया और कहा मैं राम का दास हूँ, यदि दास की इतनी शक्ति और सामर्थ्य है तो फिर मेरे स्वामी श्री राम शक्ति, सामर्थ्य की तो तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह तो अभी शक्ति के प्रदर्शन का थोड़ा सैंपल दिखाया है। कहते हैं कि जब हनुमान लंका में ही थे, समुद्र के तट पर आए और अपनी पूंछ को समुद्र के जल में बुझाया और फिर हनुमान ने जब पीछे मुड़कर देखा तो वहां इतना सारा धुआं था कि उनका मुख या चेहरा ही काला पड़ गया और इसीलिए वानरों की एक जाति का मुंह काला होता है उसका संबंध इस लीला से है।
हनुमान अब वहां पर वापस लौटे हैं जहां जामवंत, अंगद इत्यादि भक्त या खोजने वाला दल प्रतीक्षा कर रहे था। उनको समाचार दे दिया और कहा कि चलो किष्किंधा चलते है, अब तो हं वहां जा सकते हैं, हमारे पास भगवान श्री राम के लिए गुड न्यूज़ है। रास्ते में एक बगीचे में वे रुकते हैं वहां पर भी कुछ खानपान होता है और वही मंकी बिजनेस चलता है। खाते तो कम है खराबी अधिक करते हैं, उन्होंने वहां पर सुग्रीव के उद्यान में भी वही किया। वहां से अन्ततोगत्वा राम के पास पहुंचे हैं। राम प्रतीक्षा में ही थे और किसी दल ने कुछ पता नहीं लगा पाए थे। अब आशा थी कि सिर्फ हनुमान का जो दल है वह अगर खोज पाते हैं तो वह एक आशा की एक किरण है। हनुमान आए और समाचार दिये, अंगूठी भी दे दी और जो लीला कथा सीता ने सुनाई वह भी सुनाई। राम बहुत खुश थे, वे हनुमान से और उनकी कंपनी से बहुत खुश थे।
श्रीराम हनुमान को पुरस्कार देना चाहते थे। क्या देंगे पुरस्कार? वे तो सोच रहे हैं और कहते हैं कि हे हनुमान यदि इस समय मैं अयोध्या में होता तो तुम्हें बहुत बड़ा पुरस्कार देता, लेकिन मैं तो अब वनवासी हूं, मेरे पास तो तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। मैं एक बात कर सकता हूं, वह क्या है। मैं तुम्हें गले लगा सकता हूं अगर तुम्हें कोई परेशानी नहीं हो तो और फिर राम आगे बढ़े हैं और हनुमान को अपने बाहुपाश में धारण किए हैं। आपने वह चित्र देखा होगा। दस लाख वर्ष पुराना फोटोग्राफ आज भी हम देख सकते हैं। यह सुंदरकांड है, सुंदरकांड की लीलाएं हैं। इसमें सीता की खोज का कार्य और हनुमान को खोज के कार्य में जो सफलता मिली, और उनका किष्किंधा लौटकर राम को खुशखबरी देना यह सभी सुन्दरकाण्ड के अंतर्गत है। सुंदरकांड वैसे रामलीला या हनुमान लीला ही है। हनुमान के शक्ति का, भक्ति का, युक्ति का, धैर्य का, शौर्य का, सौंदर्य का प्रदर्शन है सुंदरकांड में और इसी में हनुमान की गौरव गाथा है। इसमें कई बातें हैं हम कह भी नहीं पाए हैं। महेंद्र पर्वत से लंका की ओर जा रहे थे तो रास्ते में कई सारे विघ्न आ रहे थे। मैनाक पर्वत भी आया विश्राम करो, विश्राम करो विश्राम करो, विश्राम नहीं जब तक मेरा कार्य पूरा नहीं होता मैं रिलैक्स नहीं करूंगा। हनुमान पूर्ण रूप से फोकस थे। मैनाक पर्वत ने कहा हनुमान विश्राम करो विश्राम करो। इस प्रकार का भी अनर्थ ही होता है हम आलसी बनते हैं सेवा करते समय। हनुमान इससे बचे हैं उन्होंने मैनाक पर्वत का स्पर्श किया और आगे बढ़े।
आगे सुरसा आई और हनुमान बलवान तो है ही पर युक्तिवान और बुद्धिमान भी हैं। देवता परीक्षा लेना चाहते थे तो उन्होंने सुरसा को भेजा। आप जानते हो पढ़ा और सुना होंगा। मेरे समक्ष जो भी आता है मैं उसे खाती हूं, तो हनुमान अपने साइज को बढ़ा देते हैं तो फिर सुरसा अपने मुख का साइज दोगुना कर देती है। उससे दुगना हनुमान बढ़ जाते हैं उससे दुगनी सिरसा बन जाती है और एक समय हनुमान इतने छोटे बन जाते हैं उसके मुख में प्रवेश करते हैं और बाहर आ जाते हैं कि तुमने खाया, मैं तो तुम्हारे मुंह से प्रवेश किया और बाहर आ गया। ऐसे ही युक्ति पूर्वक सुरसा से भी जान बचाई और अपनी युक्ति बुद्धि का प्रदर्शन किया है। देवता भी हनुमान से प्रसन्न थे। आगे सिहिंका आती है, वह राक्षसी थी हनुमान जब जा रहे थे तो उनकी छाया को पकड़कर हनुमान को कंट्रोल कर रही थी, रोक रही थी, नीचे खींच रही थी तो हनुमान ने उसके मुख में प्रवेश करके उसका भी सत्यानाश किया। सिहिंका अपनी सिद्धि कि शक्ति का प्रयोग कर रही थी तो हनुमान ने अपनी भक्ति की शक्ति से उस को परास्त किया है। इस प्रकार से विघ्नों से, अनर्थों से हनुमान बचे हैं। ऐसे ही हनुमान की गौरवगाथा सुंदरकांड में कही हुई, गाई हुई है। सुंदरकांड की जय ।
राम भक्त हनुमान की जय। सीता, राम, लक्षमण हनुमान जी की जय।
निताई गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा*
*दिनांक 06 -04 -2022*
*राम कथा*
हरे कृष्ण !
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे न मः॥*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥*
*वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च। श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥*
*साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं। श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश्च।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धु दीनबंधु जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तुते:।।*
*तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये॥*
*वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
*जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥*
हरे कृष्ण तो आप सभी भागवत कथा प्रेम रस अनुरागी, वैष्णवो, वैष्णवी श्रोताओं के श्री चरणों में सादर अभिनंदन है। भगवान श्री रामचंद्र और उनके पवित्र भक्तों के चरित्र श्रवण करने की जो आप वैष्णवों के हृदय में प्यास है उन्हीं को मैं प्रणाम करता हूं क्योंकि हम वैष्णवो का सच्चा धन है, वासुदेवकथारुचिः
*शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेवकथारुचिः। स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थनिषेवणात्।।* ( श्रीमद्भागवतं १.२.१६)
अनुवाद:- हे द्विजो, जो भक्त समस्त पापों से पूर्ण रूप से मुक्त है, उनकी सेवा करने से महान सेवा हो जाती है। ऐसी सेवा से वासुदेव की कथा सुनने के प्रति लगाव उत्पन्न होता है
वासुदेव की कथा में रुचि हमें रसिक भक्तों के संग में सहज ही प्राप्त होती है। जैसा भागवत जी में कहा गया है। भगवान श्रीराम, मंगलमय लीला करके अपना स्वयं आचरण करके धर्म की स्थापना का पालन करते हुए हमें सिखा रहे हैं। अरण्यकांड में भगवान सुग्रीव से मिलते हैं पंपा सरोवर। कल महाराज जी हमें स्मरण करा रहे थे और आप सभी जानते हैं पूरी दुनिया श्रीराम, राम, राम, करती है और सारे ब्राह्मण, विप्र, साधु समाज, भी राम के दर्शन की आशा करते हैं और उनका संग सानिध्य चाहते हैं लेकिन वह राम बिना बुलाए बिना आमंत्रण निमंत्रण दिए शबरी के घर जाते हैं। वो कहते हैं ना, भक्ति में कोई कुल जाति यह विचार नहीं रहता, वैष्णव में प्रेम भक्ति ही देखा जाता है। अब सीता जी का तो हरण हो चुका है अरण्यकांड में और भगवान रामचंद्र ने और लक्ष्मण जी ने एक काम बढ़िया किया कि रावण की बहन की नाक काटी कल महाराज ने इसे भी संक्षेप में स्मरण कराया था “नासिक”, उसके बाद पंचवटी तो पंचवटी होते हुए फिर शबरी से मिलते हुए राम लक्ष्मण आगे बढ़ गए हैं।
*आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥*
*तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥*
भावार्थ- श्री रघुनाथजी फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर-॥1॥
देखिए एक सामान्य नीति है जब भी आप बड़ों से मिले तो आपको आगे चलकर उनको प्रणाम करना चाहिए जैसे हम महाराज से मिलते हैं या वरिष्ठ भक्तों से मिलते हैं या उनको देखते हैं तो, हमें उनकी ओर कदम बढ़ा के आगे चलना चाहिए और जब उनके समीप पहुंचते हैं तब उन्हें दंडवत करना चाहिए यह वैष्णव विधि है लेकिन यहां पर राम जी आगे चल रहे हैं और राम से बड़ा कौन है, कोई नहीं है स्वयं परम तत्व परम ब्रह्म है लेकिन आगे चले रघुराई, गोस्वामी ने लिखा है कि रघुवीर आगे चल रहे हैं क्यों ? क्योंकि सामने एक विप्र ब्राह्मण आ रहा है और किस का भेजा हुआ? आप सभी जानते हैं कि वह श्री हनुमान जी हैं और सुग्रीव ने उनको भेजा है। राम, लक्ष्मण , कभी-कभी यह सीता हरण के बाद क्रम व्यतिक्रम हो जाता है कि लक्ष्मण जी आगे चलते थे और रामजी पीछे चलते थे, कभी-कभी रामजी आगे चलते हैं और लक्ष्मण जी पीछे चलते हैं। चित्रकूट में यह नहीं हुआ पर लेकिन यहां सीता हरण के बाद अरण्यकांड में दंडकारण्यम वन में
*दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥*
*निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥*
भावार्थ- प्रभु राम ने दंडक वन को सुहावना बनाया, परंतु नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। रघुनाथ ने राक्षसों के समूह को मारा, परंतु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़नेवाला है।
पृथ्वी को पावन करते हुए अपने चरणों से अपने श्री अंग से, सभी को दर्शन देते हुए सबको धन्य करते हुए राघवेंद्र सरकार जब लीला विहार करते थे तब ये क्रम यहां पर आगे पीछे हो जाता था व्यतिक्रम हो जाता था। यहां पर राम चूँकि सबसे बड़े हैं तो आगे क्यों चल रहे हैं ? भगवान कह रहे हैं कि सामने हनुमान है और वह क्या है ? मेरा भक्त है भगवान कहते हैं , कि मेरे भक्तों मुझसे भी बड़े हैं देखिए, अब इस लीला में संकेत मिल रहा है।
*श्रदामृतकथायां मे शश्र्वन्मदनुकीर्तनम्। परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम।।*
*आदरः परिचर्चायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम।मद्भक्तापूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः।।*
*मदर्थेअर्थष्वङ्गचेष्टा च वचसा मद्गुणोरणम्। मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविवर्जनम।।*
*मदर्थेअर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थ यद्व्रतं तपः।।*
*एवं धर्मेर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्मयि सञ्जायते भक्तिः कोअ्नथोअ्र्थोअ्स्यावशिष्यते।।*
(श्रीमद्भागवतं ११.१९.२०-२४)
अनुवाद:- मेरी लीलाओं की आनंदमयी कथाओं में दृढ़ विश्वास, मेरी महिमा का निरंतर कीर्तन, मेरी नियमित पूजा में गहन आसक्ति, सुंदर स्तुतियों से मेरी प्रशंसा करना, मेरी भक्ति का समादर, साष्टांग नमस्कार, मेरे भक्तों की उत्तम पूजा ,सारे जीवों में मेरे चेतना का ज्ञान, सामान्य शारीरिक कार्यों को मेरी भक्ति में अर्पण, मेरे गुणों का वर्णन करने के लिए वाणी का प्रयोग, मुझे अपना मन अर्पित करना, समस्त भौतिक इच्छाओं का बहिष्कार, मेरी भक्ति के लिए संपत्ति का परित्याग, भौतिक इन्द्रियतृप्ति तथा सुख का परित्याग तथा मुझे पाने के उद्देश्य से दान, यज्ञ, कीर्तन, व्रत, तपस्या इत्यादि वांछित कार्यों को संपन्न करना- यह सिद्धांत है, जिनसे मेरे शरणागत हुए लोग स्वत: मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न करते हैं। तो फिर मेरे भक्तों के लिए कौन सा अन्य उद्देश्य या लक्ष्य शेष रह जाता है?
भागवत जी का प्रसिद्ध श्लोक, उद्धव गीता में कृष्ण चंद्र कहते हैं कि मेरे भक्तों की पूजा अर्चना प्रणाम मुझसे भी बढ़कर होना चाहिए और सभी जीवो में मुझे देखना चाहिए और गुरु सुनुर्मति और वैष्णव में नर मती करता है या भेद करता है तो वह नरक में जाता है और रामायण में भी आया है शबरी को ही भगवान कहते हैं।
*आराधनानां सवैषां विष्णोराराधनं परम। तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम्।।* ( पदम् पुराण)
अनुवाद:- (शिव जी ने दुर्गा देवी से कहा:) हे देवी, यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है, लेकिन भगवान विष्णु की पूजा सर्वोपरि है। किंतु भगवान विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णवों की सेवा, जो (वैष्णव) भगवान विष्णु के संबंध में हैं।
जैसे प्रभुपाद के तात्पर्यो में आप ने पढ़ा या सुना होगा भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं मुझ से भी बढ़कर है उनके भक्त। हनुमान जी एक ब्राह्मण विप्र बन के आए हैं उनको प्रणाम कर रहे हैं श्रीराम और आगे बढ़ कर उनसे मिल रहे हैं, मानो कि मुझसे बड़े तो मेरे भक्त हैं और दूसरा हनुमान जी ब्राह्मण के रूप में हैं। यह किष्किंधा कांड की मंगलमय शुरुआत है हनुमान और राम का मिलन हो रहा है और हनुमान जी राम जी का सुग्रीव से मिलन कराएंगे।
*तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा, राम मिलाय राज पद दीन्हा”( हुनुमान चालीसा)*
अर्थ-आपने सुग्रीव को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया जिसके कारण वे राजा बने।
पूरे नार्थ इंडिया में और राम प्रेमी भक्तों में प्रसिद्ध हैं। हम इस्कॉन के भक्तों के लिए कभी-कभी कुछ नया हो सकता है लेकिन यह प्रसिद्ध है और एकदम सत्य है। देखिए यहां पर एक विचारक बात है कहां जा रहे हैं राम, क्योंकि शबरी ने कहा कि आगे चलिए तो आगे जाकर एक पर्वत आएगा “ऋषि मुख पर्वत” ऋष्यमूकपर्वत निअराया” राम जी आगे चल रहे हैं और साथ में लक्ष्मण जी भी । कहां हैं ऋषिमुख पर्वत वहां पर रहते थे श्री सुग्रीव और मंत्री, कौन मंत्री ? केवल हनुमान, एक राजा के साथ होता है सैन्य, राज्य तो यह सब कुछ रहा नहीं सुग्रीव जी के पास, एक ही वस्तु या व्यक्ति था, वो था श्री हनुमान जी , ऐसे अध्यात्म रामायण, पद्म रामायण में बताया है। त्रेता में राम आते हैं और करोड़ों बार आ चुके हैं। काल भेद के अनुसार रामायण की लीलाएं अनंत हैं। इस बात को शुकदेव जी ने भी भागवत में कहा ,
*ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदैश्र्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्र्चितै: ||*
( श्रीमद् भगवद्गीता १३.५)
अनुवाद:– विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है | इसे विशेष रूप से वेदान्त सूत्र में कार्य-कारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है |
बहुत लोगो ने रामायण को अपने-अपने भाव और भक्ति में गाया है। पद्म रामायण में जैसा कि वर्णन है कि राम जी जब छोटे थे तो महल में बंदर आते थे, बंदरों के साथ रामजी खेलते खेलते रोते थे। दशरथ जी कहते थे रघुनाथ रो क्यों रहे हो ? सुमंत जरा देखो तो राम क्यों रो रहे हैं, उसको बंदर चाहिए कोई भी बंदर उसके सामने नखरे करता है, बंदर के नखरे तो आपने देखे ही होंगे वृंदावन धाम में “वृंदावन के बंदर को मरम न जाने कोई फ्रूटी बिस्किट देकर चश्मा वापस होइ ” उनकी अपनी लीलाएं चलती हैं, नखरे राम जी के भी थे ,बोले तुमको कौन सा बंदर चाहिए सुमंत जी पूछते हैं दशरथ जी खड़े हैं मुझे जो चाहिए वह है ही नहीं और उसके बाद रामजी रोना ही बंद नहीं करते हैं। सुमंत जी को दशरथ जी भेजते हैं और अंजनी नंदन अंजनी के बेटे जो हनुमान जी बाल स्वरूप में हैं उसको लेकर आते हैं और राम जी जब तक गुरुकुल में पढ़ने गए। मतलब जब उनका उपनयन संस्कार हुआ 5 वर्ष के थे और जब गुरुकुल भेजा गया और गुरुकुल में रहे। अल्प समय बहुत कम समय रहे और वापस आए तो फिर विश्वामित्र ले गए बालकांड में यह सब सुना बचपन में लीला फिर विश्वामित्र ले गए , तब हनुमान जी वापस चले गए और उसके बाद अब मिल रहे हैं। लेकिन वाल्मीकि जी ने जो मैं अभी बता रहा हूं बाल्मीकि जी ने तो बालकांड में बहुत कुछ वर्णन नहीं किया है। अब कितना करेंगे अनंत भगवान अनंत कथा हैं। समय और पात्र और स्थान के अनुसार लीला स्मृति के अनुसार वैष्णव विद्वान साधु लोग वर्णन करते हैं शेष शारदा भी आ जाएं तो फिर रामचरित्र का पूर्ण वर्णन तो नहीं करते हैं इसलिए इसको बड़े उदार दिल से समझना चाहिए। हनुमान जी से अब मिलन हो रहा है और सुग्रीव भेज रहे हैं और सुग्रीव कहां बैठे हैं ? ऋषि मुख पर्वत पर, किष्किंधा कांड पूरा, हनुमान सुग्रीव और राम यह तीन हीरो हैं और फिर शुरुआत की है यह है किष्किंधा कांड। किष्किंधा कांड का एंड क्या है संपाती के साथ चर्चा होकर सारे बंदर पार्टी के हैं सुग्रीव जी, जो राम जी की मित्रता के बाद सेवा में भेजी थी चारों दिशाओं में तो दक्षिण दिशा में हनुमान जी जामवंत अंगद, अच्छे-अच्छे हीरो इस टीम में थे, पता था यही वर्ल्ड कप लाएंगे, सभी इसी में थे और कृपा से यह संपाती से मिलते हैं और कहते हैं कि मैं देख रहा हूं कि सामने सीता है लंका में, फिर कहा कि कौन जाएगा सामने? अंगद ने कहा कि मैं जा सकता हूं लेकिन रिटर्न टिकट का पता नहीं है।
*न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः | यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 15.6)
अर्थ:–वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते ।
फिर हनुमान जी को कहते हैं जो जाने वाला है वह तो चुपचाप बैठा है और जामवंत जी उसको स्मरण कराते हैं “पवन तनय बल पवन समाना” आप पवन के पुत्र हो और आप का बल पवन के समान है आप इसके पार जा सकते हो। हनुमान जी को वह शक्ति याद आ गई और फिर वह पर्वताकार, लेकर जोर से कूदे, यहां पर किष्किंधा कांड समाप्त होता है। बहुत कुछ है कि आपको पता चले लेकिन यहां पर हनुमान अकेले थे और सुग्रीव की दशा गृहस्थ भक्तों के लिए बिल्कुल प्रैक्टिकल है हम लोग भी सुग्रीव ही हैं। सुग्रीव को क्या मिला , किष्किंधा कांड में उसके पास कुछ नहीं था हनुमान की सेवाएं, लेकिन जब हनुमान जी ने भगवान राम से मिलाया तो उसको पुनः राज्य मिल गया था सब सुख मिल गया था पत्नी मिल गई सब कुछ और फिर वह राम को भूलकर जलसा पार्टी करने लगा। फिर हनुमान जी को राम भेजते हैं और सुग्रीव को याद दिलाते हैं और फिर वह राम सेवा में लगते हैं। हमारा भी ऐसे ही होता है कुछ नहीं होता है तो गुरु और भगवान याद आते हैं। गुरु और भगवान की कृपा से सब सुविधा हो जाए , उसको भी हम भूल जाते हैं और अपने भोगो में पड़ जाते हैं। भगवान कृपा करते हैं और गुरु को फिर भेजते हैं जैसे हनुमान जी को भेजा तो यह किष्किंधा कांड का सारांश, अब थोड़ा सा समय है हमारे पास थोड़ा प्रवेश करते हैं कुछ बातों में जो रहस्य है और उसमें जो रस है, रामलीला रस उसका हम आस्वादन करते हैं। यह ऋषि मुख पर्वत क्या है? देखिए शब्दों पर ध्यान दीजिए ऋषि या मतलब जो वेद के विषयों को जानता है, उसके मंत्रों को जानता है उसका आचरण करता है वह है ऋषि और फिर उसी की उपाधि लगती थी ब्रह्मर्षि, फिर महर्षि, और फिर देवताओं के समाज में देवर्षि , राज ऋषि, देखिए लेकिन जब ऋषियों की बात करते हैं हनुमान जी भी अपने आप में ऋषि हैं। जिस ऋषि की हम बात कर रहे हैं हनुमान जी अपने आप में ऋषि हैं सारा वेद जानते हैं सूर्यदेव से पढ़े हैं सूर्य के शिष्य हैं, हनुमान जी वेद मंत्र सब जानते हैं एक ऋषि सब जानता है और उसी के अनुसार अपना आचरण करता है धर्म के अनुसार वह ऋषि है।
*प्रायेणाल्पायुष: सभ्य कलावस्मिन् युगे जना: । मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रताः।।*
( श्रीमद भागवतम १.१.१०)
अनुवाद:- हे विद्वान, कलि के इस लौह युग में लोगों की आयु न्यून है। वे झगड़ालू, आलसी, पथभ्रष्ट, अभागे होते हैं तथा साथ ही साथ सदैव विचलित रहते हैं।
वैसे तो आजकल जनता इतनी बुद्धि डाउन है कि दाढ़ी बढ़ा ले या गले में तीन-चार माला घुमाने , कुर्ता धोती देखकर भारत में, उसे ही ऋषि या साधु मानते हैं। यह लोग भी कहते हैं वत्स तेरा कल्याण होगा जो हम टीवी में देखते हैं ऋषि मुनि तो वह इसी को ही मानते हैं लेकिन ऋषि पेंट शर्ट में भी हो सकता है। संस्कार ऋषि के होने चाहिए उस कि अपनी गरिमा महिमा है लेकिन वस्तुतः गुणों की गरिमा है वेश कि नहीं तो वैष्णव वेश बनाकर वेष बनाना तो बहुत इजी है लेकिन वैष्णव गुणों से अपने आप को अपने जीवन को विभूषित करना यह तो बड़ी साधना करनी पड़ेगी। गुरु वैष्णव का अनुग्रह आशीर्वाद की आवश्यकता पड़ेगी असली वैष्णव गुण जैसे वैष्णवजन ते तेने कहिये फिर हमारे गोड़ीए प्रभुपाद के गुरु महाराज जी ने लिखा है ना, कि केवल वैष्णव तो फिर उसमें प्रतिष्ठा की आशा छोड़नी पड़ेगी और बहुत सारे भजनों में इस वस्तुतः को बताया गया है। तो ऋषि वेद को जानने वाला समस्त आचरण करने वाला और मुक्त मानव , माने चुप मौन रहकर जहां साधना करते थे वह ऋषि मुख पर्वत, अर्थात वह आए मतंग ऋषि की साधना तपस्या होती थी। मतंग ऋषि का नाम अरण्यकांड में आया है बहुत ही असंग रहे , ऐसे हैं मतंग, मतलब बड़े ही असंग, संसार के भौतिक विषयों में कोई आसक्ति नहीं थी और अंदर से प्रेम भक्ति रस में रंगे थे। बड़े ही असंग और बड़े रंग रस और अंदर से राम वेद कृष्ण भक्ति से भरे थे ऐसे थे मतंग, ऐसे ऋषि थे जो चुप रहकर साधना करते थे। देखिए हम भक्तों को साधना तो करनी है लेकिन यह गाढ़ी फिलॉसफी या यही साधना या दर्शन है प्रदर्शन नहीं भक्त लोग प्रदर्शन में लगे रहते हैं। पहले के भक्त अपनी भक्ति सेवा को छुपाते थे। कलयुग में भक्त लोग छपाते हैं, कुछ भी करा मैं आज यात्रा कर रहा हूं मैं इधर गया मैं उधर गया शो चल रहा है एक तरफ से कहते हैं ऐसा क्यों कर रहे हो ? दूसरों को प्रेरणा मिलेगी अरे तुम प्रेरणा को छोड़ो अपनी देखो कि कहां दलदल में फंसे हो, प्रतिष्ठा का यह ड्रामा दिख जाता है। ज्यादा दिन नहीं चलता, साधु लोग सब समझ जाते हैं लेकिन वह चुप रहते हैं क्या करें बद्धजीव हैं, जानते हैं हमारे कहने का भाव समझिए की वैष्णव है ऐसा दिखाने की अपेक्षा वैष्णव बनने का विनम्र प्रयास करें। वैष्णव है हम ऐसा दिखाने के बजाए हमें सच्चा वैष्णव बनने का प्रयास करना चाहिए और हमारे विषय में दूसरे साधु बोलेंगे कि हम क्या हैं। हम खुद नहीं, ऋषि का नाम आया है तो वैष्णव जब भी बोलता है तो भगवान के गुण गाता है, भक्तों के गुण गाता है, भगवान नाम गाता है अपना नाम अपना गुण कभी नहीं गाता और महाभारत में लिखा है स्वयं गुण गान का मतलब आत्महत्या के समान है। अगर कोई गाये, तो उसको पसंद नहीं होता, यह सब वैष्णव गुण आपको सब मिलेंगे चैतन्य चरितामृथम में , भागवत में, यह मतंग में गुण थे। मैं कहने का यह प्रयास कर रहा हूं और सुग्रीव वहां पर रह रहे थे। सुग्रीव किष्किंधा कांड के किष्किंधा नगरी का नाम है यह भी ध्यान दीजिए किष्किंधा केसरी वानर या वानर इनका अड्डा या राज्य था। राजधानी है किष्किंधा और जहां पर बाली का शासन था। सुग्रीव उसका छोटा भाई था उसको भगा दिया गया था। आपको यह भी पता होना चाहिए भक्तों को की सुग्रीव सूर्यांश है। वाल्मीकि जी लिखते हैं सूर्य के अंश से पैदा हुआ है और बाली इंद्र के अंश से पैदा हुआ है और दोनों भाई हैं बाली बड़ा है और सुग्रीव छोटे लेकिन भाइयों में वेर हो गया, जमता नहीं था। यह प्राचीन काल से चला आ रहा है कोई नई बात नही है, देखा जाता है दुनिया में उसमें मिसअंडरस्टैंडिंग था। ऐसे भ्रम के कारण वेर हो गया। प्राय: ऐसा होता है दो संबंधों में जब झगड़ा होता है बैर होता है उसका मूल कारण कोई और व्यक्ति या वस्तु होती है। उसके कारण हो जाता है और इन लोगों को बढ़िया से ना समझने के कारण कान में कोई विश डाल देता है। मुंह से उगलते रहते हैं और झगड़ा हो जाता है यह सब देखा जाता है। दुनिया में तो एक मायावी राक्षस था एक स्टोरी सुन लेते हैं। उनके दो बेटे थे धुंध वीर छोटा और बड़ा माया वीर और धुंध वीर एक भैंस का रूप लेकर आया था बाली के पास लड़ने के लिए और बाली को इंद्रदेव ने एक माला दी थी जब उसके कंठ में होगी तो सामने वाले का आधा बल उसमें आ जाएगा और बाली वीर था। आपने सुना होगा रावण को बगल में दबा के छ महीने परिक्रमा की ,चारों समुंद्र का, चारों दिशाओं की संध्या करता था। रावण इतना बड़ा लेकिन उसको अंगद कहते भी हैं जब वह जाते हैं ,हां में जानता हूं आपको, मेरे पिता को आप मिले होंगे , आपको परिचय तभी हो गया होगा , बड़ा बलवान व्यक्ति है बाली ,अगर कोई वीर योद्धा को ललकारता है तो वीर का लक्षण है ,चुनौती दे ,तो झुकता नहीं और धुंध वीर जो भैंसा बन कर आया था उसको मार दिया और उसको गोल गोल घुमा कर जैसे कृष्ण ने वह गधा कौन था ताल वन में धेनु, उसको घुमा के जैसे फेंका , एक साथ ताल के वृक्ष किसी की इतनी कथा है कि यह देव लोक से उतरे थे और जैसे सर्प कुंडली लगा कर बैठता है वैसे कुंडली गोल गोल ,ऐसे ही यह सात वृक्ष थे और जब वह गिरा उसके ऊपर तो वृक्ष के सारे पत्ते गिर गए और उसका शरीर के सारे लोथड़े उड़ गए और वह जो हड़पिंजर होता है भैंसे का, जो बढ़ा वही सूख गया मार दिया इसने, क्योंकि बाली तो बाली था और यह जो ऋषि मुख पर्वत की तलेटी है। वह जो ऋषि मुख पर्वत जो कि मतंग ऋषि के साधन भजन , उनके शिष्यों की स्थली थी उन्होंने देखा कि कौन इतना अत्याचार , इतना भूकंप जैसा आ गया कि वृक्ष गिर गए ,पत्ते गिर गए और मतलब जैसे भारी भूकंप आ गया , तब संकेतों से पता चला कि यह बाली ने उस असुर को मार के पूरा पराक्रम किया। ऋषि मतंग ने कह दिया कि यदि बाली इस क्षेत्र में एक योजन में अपना चरण रखेगा तो उसका मस्तक भस्म हो जाएगा। मतलब कोई आ नहीं सकता। जैसे आप नंद गांव में नंदेश्वर पर्वत के विषय में जानते हैं कि कोई भी असुर अगर यहां आया तो वह वह पत्थर बन जाएगा इसीलिए तो नंद बाबा गोकुल से कन्हैया को वहां ले गए थे कि वहां पर सेफ है। क्योंकि वहां कोई भी कंस के व्यक्ति आ रहे थे। अघासुर अभी नहीं आया , लेकिन वह क्या नाम था तृणावर्त, छकड़े के रूप में , शकटासुर , पूतना, महाराज जी कल कह रहे थे भगवान राम ने भी ताड़का से श्रीगणेश किया था और हमारे ठाकुरजी ने भी पूतना से, लेडीस फर्स्ट फॉलो कर रहे हैं इसीलिए यहां पर भी दुश्मन की कमजोरी जानना चाहिए। सुग्रीम क्या किया अब कौन सी सेफ जगह है जहां की बाली नहीं आ सकता , वह स्थान था ऋषि मुख पर्वत क्योंकि भूल से गलती से बाली इस एरिया में एंट्री नहीं करेगा और यत किंचित किया तो इन ऋषियों की तपस्या स्थली और उन ऋषियों के ब्रह्म वाक्य, एक सच्चा ब्राह्मण वैष्णव जिसने तप किया है वह बोले तो प्रकृति के स्वामी परमेश्वर को भी करना पड़ता है और एक पतिव्रता नारी, इन दोनों के बहुत बोल बाले ,बहुत चर्चे हैं। अगर यह बोल दिया तो भगवान भी फेल नहीं कर सकते और आज दोनों ही मिलना मुश्किल है कलयुग में, इसीलिए बड़े बड़े राजा बड़े-बड़े वीर शस्त्र धारी ब्राह्मण के बच्चे को देखकर दंडवत करते थे। इनको तलवार चलाना पड़ेगा लेकिन यह तो जीभ चला देंगे तो वहीं पर भस्म हो जाएंगे और कलयुग में तो सब मंद हो गए हैं तो अच्छा है नहीं तो आजकल के ब्राह्मण चार रास्ते पर खड़े हो जाए, मर्सिडीज वाले को बोले कि गाड़ी हमें दे दे नहीं तो हम तुझे भस्म कर देंगे ,सारी दुनिया परेशान हो जाएगी वो ऋषि श्रृंगी ने बोल दिया
*इति लङि्घमर्यादं तक्षकं सप्तमेअ्नि।दड्क्ष्यति स्म कुलाङ्गरं चोदितो मे ततद्रुहम्।।*
( श्रीमद्भागवतं १.८.३७)
अनुवाद:- उस ब्राह्मण पुत्र ने राजा को इस प्रकार श्राप दिया, आज से सातवें दिन अपने वंश के इस सर्वाधिक नीच महाराज परीक्षित को तक्षक सर्प डस लेगा क्योंकि इसने मेरे पिता को अपमानित करके शिष्टाचार के नियमों को तोड़ा है।
तो देखो परीक्षित को ब्राह्मणों के वचनों में लेकिन
*जिह्वा दग्धा परान्नेन करौ दग्धौ प्रतिग्रहात्। मनो दग्धं परस्त्रीभि: कार्यसिद्धि: कथं भवेत्।।* -कुलार्णवतन्त्र,१५/७७
अर्थात्- दूसरे का अन्न खाने से जिसकी जीभ जल चुकी है,दूसरे से दान लेने से जिसके हाथ जल चुके हैं और दूसरे की स्त्री का चिंतन करने से जिसका मन जल चुका है, उसे सिद्धि कैसे मिल सकती है?
दूसरों का अन्न खा खा कर जीभ जल गई और दूसरों का धन ले लेकर ब्राह्मणों के हाथ, उनके आशीर्वाद में ,कोई नहीं बचा लेकिन सच्चा तपस्वी होना तो वह बोल कर ही हो सकता है। वह हाथ दे तो भाग्य चेंज कर सकता है इसीलिए लोग आशा करते हैं कि वैष्णव उन पर हाथ रखे या दर्शन दे या कोई आशीर्वाद दे दे वो सफल हो जाता है अगर उसकी भक्ति है तो भक्ति की शक्ति होती है। प्राय: पहले लोग ब्राह्मणों से डरते थे। ऋषि ने बोल दिया तो बाली सावधान है कि यहां एंट्री नहीं करेगा अब और एक और बात सुनिए बहुत आनंद की सुग्रीव जी ने देखा कि दो राजकुमार आ रहे हैं और राम लक्ष्मण सूर्य की तरह चमक रहे थे वह कोई प्रकाश सा छा रहा है और प्रकृति में कोई आनंद का वातावरण अनुभव हो रहा है लेकिन डर का, जो वह होता है ना कि जला हुआ छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है सुग्रीव हमेशा टेंशन में घर में रहता था कि वह कहीं आ तो नहीं गया , वह तो नहीं आ सकता , किसी और को तो भेज सकता है। इसीलिए उन्होंने कहा कि हनुमान जी कृपा करके आप चेक करिए यह दोनों कोई मायावी या कोई रूप बदलकर या बाली के भेजे हुए तो नहीं है ना ?आप किस को चेक करें और राम लक्ष्मण दोनों आ रहे थे इसीलिए हनुमान जी बात मानकर उसका काम करने के लिए गए राम लक्ष्मण से मिलने, राम लक्ष्मण दोनों आ रहे थे इसीलिए हनुमान जी कोई रूप बदल के या फिर बाली के भेजे हुए तो नहीं है आप इसको चेक करिए और राम लक्ष्मण दोनों आ रहे थे। इसीलिए हनुमान जी सुग्रीव की बात मानकर उसका काम करने के लिए गए राम लक्ष्मण से मिलने, यह दोनों क्षत्रिय है , लेकिन है किस वेश में ?तपस्वी के वेश में लेकिन फिर भी क्षत्रिय के लक्षण शरीर से प्रकट हो रहे हैं। महापुरुष के 32 लक्षण और दूसरा धनुष और तीर साथ में, तो पता चलता है कि क्षत्रिय वेश दूर से दिख रहा है। सारा दूर से समझ में आ जाता है ना , अब देखिए हम इस बात से थोड़ा सा किष्किंधा कांड से ,बालकांड की स्मृति लेते हैं ,गोस्वामी जी ने लिखा है हम भक्तों की साधना में बहुत जरूरी है , इसीलिए इस बात को जानना हुआ, क्या ? की राम लक्ष्मण भगवान हैं मायावी नहीं, असुर नहीं है , साधु है , भला करने वाले हैं परोपकारी हैं करुणा के सागर हैं । सुग्रीव भगवान को नहीं समझ पा रहा राम लक्ष्मण को, भगवान को जानने के लिए, समझने के लिए किसको भेज रहे हैं हनुमान को और राम लक्ष्मण क्या हैं ?सीता को ढूंढ रहे हैं और रो रहे हैं तपस्वी हैं और आपने बाल कांड को, संतो से सुना होगा , उसमें शिव जी की कथा आती है। उसमें क्या वर्णन है की राम लक्ष्मण ढूंढ रहे हैं। कथा सुनकर आ रहे थे शिव जी और नंदीश्वर पर पार्वती जी बैठी थी, शिव जी ने दंडवत किया राम जी को, जिनकी कथा सुनकर आ रहे हैं , उनको दंडवत किया लेकिन पार्वती जी ने नहीं किया उन्होंने कहा कि आप जगदीश्वर हो, महादेव हो, पूरी दुनिया आपको प्रणाम करती है, कैलाश से मैं सबको देखती हूं और आप यह राजा जैसे लड़के को प्रणाम कर रहे हो और वह भी इतना पागल कि वह पक्षियों को पूछ रहा है पत्थरों को पूछ रहा है, इतना पागल दीवाना तो कलयुग में भी कोई नहीं होगा ,पत्थर को पूछे ,कम से कम और आप उनके सामने प्रणाम कर रहे हैं ?शिवजी ने कहा कि यह अपनी लीला कर रहे हैं कथा नहीं सुनी तुमने, मैं कथा में तो सो गई थी। जो कथा में सोता है वह कृष्ण को नहीं समझ सकता इसीलिए आप भक्तगण ध्यान दीजिए दो बातों का, कथा में निद्रा नहीं लेना और कथा समाप्त हो जाए फिर किसी की निंदा नहीं करना और हम दोनों करते हैं बढ़िया तरीके से इसीलिए वहीं के वहीं हैं। कथा में निद्रा और कथा के बाहर यह भक्त, जिसने यह किया वह किया निंदा और कुछ लोग तो जिंदा ही है निंदा करने के लिए , जब तक वह दो 5 लोगों की निंदा नहीं कर लेते तब तक प्रसाद नहीं पचता उन लोगों को, ऐसे लोगों को, भक्तों को दूर से प्रणाम। कथा में निद्रा नहीं लेना और कथा के बाद निंदा नहीं करना कृष्ण प्रगति में कोई रोक नहीं सकता आपको। अगर इसको सावधान होकर सुन लीजिए , लेकिन यह कथा में सो गई थी इसीलिए भगवान को नहीं समझ पा रही और देखिए एक है यहां पर सुग्रीव और दोनों के पास एक एक व्यक्ति एक के पास शंकर है और एक के पास हनुमान और हनुमान कौन है ? रुद्र अवतार, राम सेवा में हनुमान बन कर आए हैं।
*शंकर सुवन केसरी नंदन तेज प्रताप महा जग वंदन। विद्यावान गुण अति चतुर राम काज करिबे को आतुर।*
चालीसा में देखिए सती और सुग्रीव हम लोगों में से भी कुछ सती और सुग्रीव हैं हमने पहले ही उपमा दी है , हमारी तुलना कीजिए अब इनके पास शंकर हैं और उनके पास हनुमान अब देखिए शंकर राम जी को समझ रहे हैं हनुमान भी समझ रहे हैं लेकिन सुग्रीव नहीं समझ रहे सती भी नहीं समझ रही लेकिन फिर भी सती और सुग्रीव में एक अंतर है, की सती स्वयं परीक्षा लेने गई और इसने हनुमान जी को भेजा ,सती, शंकर जी इसलिए नहीं लाए देखिए हमारा भी यही प्रॉब्लम है सती वाला ,क्या ? कि खुद भगवान को जानते नहीं और जो भगवान को जानते हैं भगवान को मानते हैं ऐसे वैष्णव गुरु को हम मानते नहीं , ऐसे में हमारा उद्धार हो सकता है क्या ? एक तो हम भगवान को मिले नहीं ,देखे नहीं ,जानते नहीं और जो भगवान को जानता है, भगवान को मानता है, भगवान के धाम से आया है, श्रील प्रभुपाद और वह बता रहे हैं भगवान के विषय में हमारे उद्धार के लिए वरना हम तो मानते ही नहीं , लोग क्या करेंगे? मरेंगे और क्या होगा, फिर कौन बचा सकता है इन लोगों को और कुछ लोग अपनी बुद्धि को ही श्रेष्ठ मानते हैं। जैसे कि एक दृष्टांत है की एक गुरुकुल में ,एक बाप अपने बच्चे को, छोड़ने आया, बहुत सारे बच्चे पढ़ रहे थे और आचार्य पढ़ा रहे थे , बाप कहता है देखो मेरा बेटा है सो ब्रिलियंट बहुत बुद्धिमान है। 16 गुण संपन्न है 16 आना है , सब में होशियार है आपको बस थोड़ा ही बोलना पड़ेगा इसको सब समझ जाएगा, एक नंबर की शक्ति है याद करने की इसको, गुरुजी ने कहा बस करिए, अब रख दीजिए, बस हो गया अब हम पढ़ाएंगे व्यक्ति बोला नहीं, आप देखिए तो, आप सीरियसली हमारी बात को सुनिए, वह हमारा बेटा है बढ़िया से, आप देखना,1 साल के बाद वह वापस, गुरुकुल में मिलने आते हैं। 1 साल में आकर बाप उसी होशियारी में, गुरूजी मेरा बेटा बताओ कैसा ? गुरुजी, ने कहा आपने जैसा कहा था ,16 गुण संपन्न 16 आना संपन्न वास्तव में आपने सत्य कहा था बिल्कुल ऐसा ही है। लेकिन बस 2 गुण कम है। 98 तो है मेरे बेटे में, कम हो ही नहीं सकते फिर भी कौन से गुण कम है मुझे बताओ, उसने कहा देखो, एक तो एक नंबर का गधा मूर्ख है और दूसरा हमारी सुनता नहीं, बस यह दो दुर्गुण है। बाकी सब गुण ही गुण हैं। अब बचा क्या बताओ, एक तो मूर्ख बुद्धि है इसको और दूसरा हमारा कुछ भी मानता नहीं ,बस यह दो बातों को छोड़कर खाने में होशियार ,सोने में होशियार ,बाकी तो सब बढ़िया सा करता है ,अब समझ में आ रहा है वह कौन है ,वह हम ही हैं। एक तो है नहीं उतना कुछ और दूसरा जो गुरु जन वैष्णव् लोग कहते हैं हम मानते नहीं, ऐसा उद्धार हो सकता है क्या ? इसीलिए देखो सती का क्या हाल है लेकिन यहां सुग्रीव जी ने एक सौभाग्य कर दिया कि हनुमान को भेज दिया, अच्छा एक प्रश्न है भक्तों को डायरेक्ट हनुमान जी बाहर से बंदर स्वरूप नहीं गए विप्र रूप लेकर गए, ब्राह्मण का रूप लेकर गए, हनुमान जी का भी एक स्टाइल है , उस विभीषण से मिलेंगे सुंदरकांड में , उत्तरकांड आप पढ़ेंगे तो भरत जी को मैसेज देने के लिए रामजी भेजेंगे ,एक विप्र बनके, हनुमान जी तो हैं ही ब्राह्मण के संस्कार वही बनेंगे और क्या ब्रह्म जानाति , तो इसमें कोई क्या दिक्कत है ,लेकिन ब्राह्मण रूप क्यों लिया ? इसका भाई यह कारण भी है वाल्मीकि जी लिखते हैं कि भिक्षु रुप धरि, भिक्षु का रूप धर के हनुमान जी गए हनुमान जी ने सोचा की बटु ब्रह्मचारी का रूप धर के जाऊंगा तो सबको सामने अगर क्षत्रिय होगा तो , तपस्वी सही में होगा तो, या कोई असुर या कोई मायावी भी होगा तो, कम से कम ब्राह्मण ब्रह्मचारी को देखकर व्यक्ति रिस्पेक्ट करता है। क्योंकि वह निरपेक्ष होता है ब्राह्मण जो उसमें भी ब्रह्मचारी जो पड़ रहा है छोटा बच्चा है तो उनको देखकर किसी को भी दया आती है या आनंद मिलता है और कुछ उटपटांग बच्चा पूछ भी ले तो तो बुरा भी नहीं लगता, और बड़ा व्यक्ति कोई अविवेक कर दे तो कोई व्यक्ति क्या पूछ रहा है , ब्राह्मण है ब्रह्मचारी है वास्तव में ब्रह्मचारी थे और विप्र रूप लिया है , तो मैं कोई भी प्रश्न करूंगा इनकी परीक्षा ले लूंगा या कोई और भी बात, तो चिंता की कोई बात नहीं है अगर वह कुछ इधर उधर होंगे तो विरोध नहीं करेंगे ,क्योंकि ब्राह्मण बच्चे को देखकर सुख ही मिलता है दया ही आती है, कुछ देते ही हैं ,कुछ हेल्प करने को ही मन प्राय: सबका करता है। और दूसरा अगर भगवान है या कोई ज्ञानी है तो ब्राह्मण को देखकर तो रिस्पेक्ट करता है ना, भला आप किसी कास्ट के क्यों ना हो लेकिन कोई वेद अगर आप ही जानते हो तो प्रणाम करेगा यह है ही नमो: ब्राह्मण देवाय, अच्छा तो बड़ी लंबी कथा है समय नहीं है हमारे पास, राम क्या बोले हनुमान क्या बोले, कौन परिचय कौन हो , फिर यह अपना परिचय देते हैं। इनको पूछते हैं कि आप कौन हो तो यह कहते हैं हम दशरथ के पुत्र राम लक्ष्मण तब वह समझ गए कि यह तो हमारे इष्ट आराध्य हैं। हनुमान जी साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हैं। राम और हनुमान का मधुर मिलन होता है। बड़ा प्रेम भक्त और भगवान का आनंद देने वाला यह घटना है। आप लोग किष्किंधा कांड सुन रहे हैं सभी वैष्णव से मैं विनती करता हूं कि भगवान राम की रामनवमी आ रही है। आप आधा पौना घंटा यह अलग-अलग वैष्णव से , गुरु महाराज से हम सुन रहे हैं लेकिन यह तो केवल भाइयों, बातें हैं ओवरव्यू चल रहा है। आप सब भक्तों को समय निकाल कर खुद भी पूरा यह सब चिंतन रामायण का चिंतन मनन करना चाहिए। ताकि रोम रोम में राम रस हमें प्राप्त हो क्योंकि समय इतना ही है ,कोई कैसे इतना बताएगा ,लेकिन आपके पास ग्रंथ है रामायण है तो और गहराई से इसे समझ सकते हैं। इन बातों को और देखिए ,हनुमान जी गुरु का काम कर रहे हैं , वही ले जाएंगे अब सुग्रीव के पास, जीवन में जब हनुमान आते हैं तभी तभी राम आते हैं। जब जीवन में गुरु आते हैं तभी गोविंद आते हैं और गुरु का काम है कि उनके दोषों को शुद्ध करके भगवान से हमें मिलाएं, हनुमान जी ने यही किया ,सुग्रीव के गुण बताएं, बात बताइए और मिलवा दिया और सुग्रीव एक काम में बड़े होशियार थे ,किसमें ?भागने में, लेकिन सुग्रीव भागे हैं ,अभागे नहीं हैं। क्योंकि उनके पास हनुमान हैं जिसके पास वैष्णव संग है ,वह सबसे सौभाग्यशाली हैं,वही भगवान को खींच कर ले कर आएगा, उसके पास हनुमान हैं उसके पास राम आने वाले हैं राम आ जाएंगे तो फिर क्या बाकी रह जाएगा बताओ, कुछ भी नहीं रहेगा। सुग्रीव के चरित्र से आप लोग अच्छे तरीके से परिचित हैं लेकिन हनुमान जी ने एक बड़ी बुद्धि लगाई बोले सरकार एक प्रार्थना है , बोले क्या? आप हमारी पीठ पर बैठ जाइए बाल्मीकि जी ने भी संकेत किया था कि हनुमान जी ने कहा कि अब नहीं चलने दूंगा अब आप दोनों को पीठ पर चढ़ा लूंगा, क्यों, वहां पर देखो आपने कई पोस्टर देखे होंगे कि हनुमान जी ऐसे जा रहे हैं और दोनों कंधे पर बैठे हैं। बाल्मीकि जी ने गोस्वामी तुलसी गीत लिखा है ठीक है कॉमन है क्योंकि आगे गोद में भी बैठा सकते हैं ले जा सकते हैं हनुमान जी बड़े वीर हैं, हनुमान जी बुद्धिमान हैं उन्होंने कहा कि गोद में उठा लूंगा उससे अच्छा है कि पीठ पर बैठा लू , कारण है , क्योंकि मां या कोई अपने बेटे को गोद में उठाती है तो जिम्मेदारी किसकी रहती है उठाने वाले की लेकिन अगर पीठ पर कोई बैठता है तो जिम्मेवारी किसकी होती है बैठने वाले की कि वह संभाल कर बैठे नहीं तो गिर जाएगा अगर हम किसी को आगे से पकड़े तो हमारी जिम्मेदारी है लग ना जाए, गिर ना जाए ,लेकिन जो ऊपर चढ़ाया है पीठ पर तो किसकी जिम्मेदारी है बैठने वालों की, भगवान को बिठाया तो हनुमान को बुद्धिमान कहते हैं। अब देखो प्रभु की फ्लाइट टेक ऑफ करेगा, आपका काम है पकड़े रहना, अब इधर उधर का देखें तो हनुमान जी ऐसे कह रहे हैं मतलब मुझे पकड़कर रखना भगवान हमें पकड़ कर रखेंगे, फिर चिंता नहीं होगी और सारी तकलीफ कहां है ,जानते हैं ना, भेजें में, भेजा तो भेजा लेकिन भेजा नहीं भेजा, हम लोगों को जो भेजा दिया है, ब्रेन उसी में तो गड़बड़ है। बुद्धि में तो क्या करें, लक्ष्मण जी राम जी आपको कोई डर है ना, मैं उड़ रहा हूं आप एक काम करिए कि मेरे सर को पकड़ लीजिए। हनुमान जी मैं सोचा कि गुरु लक्ष्मण अनंत से और राम का हाथ सर पर आ जाए सारा बुद्धि ब्रेनवाश क्लीन हो जाऊंगा। मतलब पकड़ कर रखेंगे मुझे उनके माथे पर सर है तो मुझे क्या डर है। हनुमान जी इस तरह लक्ष्मण और राम को लेके जा रहे हैं। बस यही छवि आज के दिन में भक्त लोग जीवन में रखिए और प्रेरणा लीजिए कि हमारे सर पर भी गुरु का हाथ , वैष्णवो का हाथ, उनका साथ हो और भगवान का हाथ, भगवान का साथ, अपने हाथों में मिल जाएगा तो इस तरह हनुमान जी सुग्रीव से मिलाते हैं ,मित्रता कराते हैं और फिर बड़ी लंबी बातें हैं , किष्किंधा कांड की और अंत में सुग्रीव सभी को सेवा में लगाते हैं। आप लोगों ने मुझे किष्किंधा कांड की लीलाओं का स्मरण करने का अवसर दिया उसके लिए धन्यवाद।
हरे कृष्ण
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*जप चर्चा*
*परम् पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज (गुरु महाराज) द्वारा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 02.04.2022*
हरे कृष्ण!!!
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।*
*श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि।*
*श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि।*
*श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि।*
*श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥*
( श्रीरामरक्षास्रोतम्)
अर्थ:- मैं एकाग्र मनसे श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूं, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धाके साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणोंको प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणोंकी शरण लेता हूँ।
जय श्री राम!!!
इस ज़ूम मंदिर के संचालक पद्ममाली प्रभु की इच्छा व योजना से आज से राम कथा प्रारंभ हो रही है। हरिबोल। आज का दिन वैसे विशेष दिन है। आज नए वर्ष का शुभारंभ हो रहा है, चैत्र मास प्रतिपदा का प्रारंभ हो रहा है। जहां मैं बैठा हूं, वहां से देख ही रहा हूं कि सूर्य नारायण उदित हो रहे हैं। जिस सूर्यवंश में श्रीराम प्रकट हुए, वह सूर्य भी अभी-अभी प्रकट हो रहे हैं।
हरि बोल! नया वर्ष है तो आप सभी को नये वर्ष की शुभकामनाएं । ग्रीटिंग द न्यू ईयर। हमारा नया वर्ष एक जनवरी से नहीं होता है, हम लोग पाश्चात्य देश की नकल करते हैं और हम लोग हैप्पी न्यू ईयर इत्यादि कहते हैं लेकिन सनातन धर्म के अनुयायियों का यदि कोई नया वर्ष है, तो वह नया वर्ष आज से इस चैत्र मास से प्रारंभ हो रहा है। उसी नए वर्ष के साथ एक नए ऋतु का भी जो सभी ऋतुओं में श्रेष्ठ है
*बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ||*
(श्रीमद भगवद्गीता १०.३५ )
अनुवाद:-
मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ | समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलने वाली वसन्त ऋतु हूँ।
वसंत ऋतु भी आज से प्रारंभ हो रही है। हरि बोल।
श्री राम का जन्म दिवस तो आज नहीं है। नवमी के दिन श्रीराम प्रकट होंगे या प्रकट हुए थे। वैसे वह मंगलवार का दिन था, पता नहीं, इस वर्ष कौन सा वार नवमी के दिन होगा? यह सब इतिहास तो ही है। रामायण इतिहास है, जिसका अर्थ है कि यह सारी घटित घटनाएं हैं। एक राजा था फिर एक रानी थी। राजा श्रीराम थे और रानी सीता महारानी थी। सीता महारानी की जय!
ऐसी कहानी अति प्राचीन है। न तो राम काल्पनिक है, ना तो रामायण, काल्पनिक किया या मनोधर्म की बात है। ऐसी बात है ही नहीं। राम सत्य हैं।
राम नाम सत्य है। उसको तब याद करते हैं, जब कोई चल बसता है।
हमारे श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज भी कह रहे हैं- हां, तब तो याद आता ही है। राम नाम सत्य है। राम नाम सत्य है। इस राम के नाम को सदैव राम..राम..
*राम रमेति रमेति रामे राम मनोरमे। सहस्र-नामभिस तुल्यं राम-नाम वरणने।।*
अनुवाद-
‘हे वराणनी, मैं राम, राम, राम के पवित्र नाम का जप करता हूं और इस तरह इस सुंदर ध्वनि का आनंद लेता हूं। रामचंद्र का यह पवित्र नाम भगवान विष्णु के एक हजार पवित्र नामों के बराबर है।’
शिव जी ने भी ऐसा मनोरमा (पार्वती) को कहा था। मैं राम राम राम राम … राम करता हूं। मैं राम में रमता हूं। अहम रामे रमे। हे मनोरमे ! वे मनोरमा को संबोधन करते हैं। वे इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि वह सदैव राम में रमे रहते हैं।
राम राम राम कहते हुए या *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* एक बार श्रील प्रभुपाद से पूछा गया कि यह हरे राम जो आप कहते हो, क्या ये श्रीराम है? तब प्रभुपाद ने कहा- हां , हां। यह हरे राम, श्रीराम ही हैं, ऐसा श्रील प्रभुपाद कहते थे। ऐसी मान्यता है कि जो हरे राम में राम है , वो श्रीराम हैं तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन फिर हरे का अर्थ सीता हो जाएगा। सीता राम। हरे राम मतलब सीताराम। जय श्रीराम! जय श्रीराम! हो गया काम।
ब्रह्मा के एक दिन में जिसे हम कल्प कहते हैं, ब्रह्मा के एक दिन के जो वैवस्वत मनु हैं, जो कि सातवें मनु हैं। ब्रह्म के 28 वें चतुर्युग के त्रेता युग में श्रीराम अयोध्या धाम में हुए। अयोध्या धाम की जय! जिस अयोध्या को कोई जीत नहीं सकता इसलिए अ – योद्धा। जिसे युद्ध में कोई जीत नहीं सकता। जिस राजधानी को, इस स्थान को, ना तो वहां के राजा को… जीत नहीं सकता। इसलिए इसका नाम है अयोध्या! अयोध्या परम पावनी सरयू नदी के तट पर स्थित है। वहां केवल राम ही नहीं हैं। राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न प्रकट हुए हैं, वे सभी विष्णु तत्व हैं। रामनवमी के दिन आपको बताएंगे कि यह रामनवमी का उत्सव नहीं है। यह भरत नवमी भी है, शत्रुघ्न नवमी भी है और लक्ष्मण नवमी भी है। इसको याद रखिएगा। यह सब भगवान हैं। अयोध्या में प्रकट होकर भगवान अब…
*भयं त्यागाता भद्रम वो हितार्थं युधि रावणम् | सा पुत्र पुत्रम् सा अमात्यं सा मित्र जनता बंधवं ||*
*हत्वा कृष्राम दुरधरम देवा शं भयवाहम् |दश वर्ण सहस्राणी दास वर्ण शतानी च || वात्स्यामी मानुषे लोके पालनं पृध्वीम इमाम* |
अर्थ:-
डर को दूर करो, आप पर सुरक्षा हो, उस क्रूर और दुष्ट दिमाग वाले रावण को नष्ट करने पर, जो देवताओं और ऋषियों के साथ-साथ अपने बेटों, पोते, दोस्तों, चचेरे भाइयों और रिश्तेदारों, मंत्रियों और बलों के लिए भी युद्ध में भयानक हो गया था। तेरा कल्याण, तब मैं ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी पर शासन करने वाले मानव संसार में निवास करूंगा।” इस प्रकार विष्णु ने देवताओं को आश्वासन दिया।
श्री राम इस धरातल पर कुल 11000 वर्षों तक अपनी लीलाओं का प्रदर्शन करेंगे। जब राम की लीला संपन्न हो रही थी, एक समय की बात है- नारायण नारायण, जय श्रीराम कहते, गाते हुए नारद जी वाल्मीकि के आश्रम में पहुंच जाते हैं और वाल्मीकि को राम की संक्षिप्त में कथा सुनाते हैं। रामायण के बालकांड का जो पहला सर्ग है, उसे मिलाकर रामायण में कुछ 500 सर्ग हैं। 24000 श्लोक हैं। सात अलग-अलग कांड हैं। भागवतं में स्कन्ध होते हैं, रामायण में कांड होते हैं। रामायण का जो पहला कांड है- बाल कांड, उसका जो पहला सर्ग है उसकी संक्षिप्त में कथा नारद मुनि सुनाते हैं, उसे संक्षिप्त रामायण भी कहते हैं। कथा सुनाकर नारद मुनि प्रस्थान करते हैं उसके उपरांत वाल्मीकि जी तमसा नदी के तट पर विचरण कर रहे थे। तब उन्होंने एक दृश्य देखा, उन्होंने एक क्रौंच नामक पक्षी का वध करते हुए एक शिकारी को देखा। उस दृश्य को देखकर बाल्मीकि जी बड़े व्याकुल और शोकाकुल हुए। वह शोक कर रहे थे, निकल गया उनके मुख से श्लोक। जो उन्होंने कहा, उनको बड़ा अचरज हुआ कि मैंने पहले तो कभी श्लोक नहीं कहा था। पहली बार, मैंने जो श्लोक कहा- यह कैसे संभव हुआ। तब उन्होंने तमसा नदी में स्नान किया। उनके साथ उनके शिष्य भरद्वाज भी साथ में थे। जब अपने आश्रम में लौटते हैं, तब वहां साक्षात ब्रह्मा जी अपने वाहन हंस पर विराजमान होकर वहां पधारते हैं। ब्रह्मा जी ने कहा कि मेरी प्रेरणा से ही तो तुमने वह श्लोक कहा और मैं अब चाहता हूं कि तुम बहुत सारे श्लोकों की रचना करो अर्थात तुम रामायण के रचयिता बनो।
*मत छंदत एव ते ब्राह्मण प्रवित्ते अयम सरस्वती | रामस्य चरितं कत्सनाम कुरु त्वम् इसत्तम |*
( वाल्मीकि रामायण बाल कांड 1-2-31)
अर्थ:-
“हे ब्राह्मण, आपकी वह वाणी मेरी इच्छा से ही निकली, इसलिए हे प्रख्यात ऋषि, आप राम की कथा को उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत करेंगे ।
उन्होंने ऐसा आदेश भी दिया, कुरु अर्थात क्या करो। राम के चरित्र की रचना करो। राम का चरित्र कैसा होगा ? जब तुम राम का चरित्र लिखोगे
*यवत स्थितिंति गिरयं सरितां च महतले । तवत रामायण कथा लोकेशु प्रचार्यति ।।*
( वाल्मीकि रामायण बाल कांड 1-2-36)
अर्थ:-
“जब तक पहाड़ और नदियाँ पृथ्वी की सतह पर फलती-फूलती है, तब तक इस दुनिया में रामायण की कथा फलती-फूलती रहेगी।
जब तक पर्वत और सागर रहेंगे, तब तक इस संसार, ब्रह्मांड भर में राम की कथा का प्रचार होता रहेगा। ऐसा भी ब्रह्मा जी ने कहा। (उन्होंने कई सारी बातें कहीं लेकिन अभी संक्षिप्त में ही कहा जा सकता है क्योंकि यहां समय की पाबंदी है। ) तब वाल्मीकि मुनि अपने आश्रम में जो उत्तर भारत में गंगा के तट पर है… (हम लोग वहां गए हैं। मैं कई बार गया हूं,जहां से सीता अंतर्धान हुई थी।) वैसे उन दिनों में जब बाल्मीकि जी द्वारा रामायण की रचना हो रही थी, सीता उन्हीं के आश्रम में रहा करती थी। राम का वनवास तो एक ही बार हुआ लेकिन सीता जी का वनवास दो बार हुआ। जब द्वितीय बार सीता वनवास गई तब वे वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहती थी। उन्हें वहां पहुंचाया गया था, लक्ष्मण को ऐसा कार्य करना पड़ा, वे ऐसा करना नहीं चाहते थे। चूंकि वे राम के अनुज थे अथवा छोटे भाई थे, वे राम के आदेश को कैसे टाल सकते थे। इसलिए उन्होंने संकल्प भी किया था कि अगली बार जब मैं प्रकट होऊंगा, मैं छोटा भाई नहीं बनूंगा, मैं बड़ा भाई बनूंगा, मैं दादा बनूंगा। जय बलराम ! रामलीला के राम- लक्ष्मण, द्वापर युग के कृष्ण बलराम और कलयुग के गौर निताई एक ही हैं। बलराम बड़े भाई हुए, वाल्मीकि मुनि को उनके आश्रम में ब्रह्मा जी ने ऐसी शक्ति और प्रेरणा प्रदान की थी, उन्होंने रामायण की रचना की थी। यह रस भरा रस रसीला ग्रंथ है, इसमें कई सारे रस हैं इसलिए इसे महाकाव्य भी कहते हैं। इसमें कई सारे रस हैं- करुणा रस है, अद्भुत रस है, वीर रस, हास्य रस है। जितने अधिक काव्य या वांग्मय महान बनता है, रामायण महान भी है। वैसे सभी काव्यों में और ग्रंथों में अति प्राचीन अगर कोई ग्रंथ है तो वह रामायण ही है। जय श्रीराम! वैसे यह रामायण, राम ही है।
*कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्।आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥३४॥*
अर्थ:-
मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरोंवाले ‘राम-राम’ के मधुर नामको कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूं ।
वाल्मीकि की तुलना कोकिल से की है जो कु कु कु करती है वसंत ऋतु है। उसका जो गान है, बड़ा मधुर है। अपनी ही रामायण कविता रूपी वृक्ष है, उसी की शाखा पर बैठकर इस कोकिल वाल्मीकि ने मधुरं मधुराक्षरम्… गाया। एक एक अक्षर रामायण का मधुर है और राम से भरपूर है। यह रामायण हमारे देश या भारतवर्ष की एक संपत्ति है। प्रभुपाद को इंग्लैंड में किसी ने कहा था कि हे स्वामी जी, आप हमारे देश में क्यों आए हो ? तब प्रभुपाद ने कहा था, (वह बात अलग है वैसे लेकिन… ) आप भी हमारे देश से आए थे और हमारे देश के जिसे आपने विशेष या मूल्यवान संपत्ति समझा, उसको आप लूट कर ले गए लेकिन हमारे देश की जो असली संपत्ति है, उसको आपने ना ही पहचाना और ना ही उसकी चोरी की अथवा लूटा। मैं उस संपत्ति को देने आया हूं। मैं आपको रामायण देने आया हूं, मैं महाभारत देने आया हूं, गीता, भागवत देने आया हूं। श्रील प्रभुपाद ने भी समझा कि यह रामायण महाभारत आदि ग्रंथ हमारे देश की संपत्ति है। वाल्मीकि मुनि ने जब इस ग्रंथ की रचना का कार्य पूरा किया, तब वह सोच रहे थे कि रचना तो मैंने की पर इस ग्रंथ रामायण का प्रचार प्रसार कौन करेगा? ऐसा वह सोच ही रहे थे तभी ‘मे वी कम इन सर’ क्या हम आ सकते हैं। द्वार पर दो सुकुमार लव और कुश थे। जो उन दिनों में वहां रहते थे। सीता ने लव और कुश को वाल्मीकि मुनि के आश्रम में ही जन्म दिया था। सीता के अलावा वाल्मीकि भी लव और कुश का लालन पालन कर रहे थे। जब उनको द्वार पर देखा तब वाल्मीकि के मन में विचार आया कि रामायण का प्रचार और प्रसार लव और कुश करेंगे। वैसे ही श्रील व्यास देवजी ने भागवत की रचना की थी, इन दोनों में एक समानता है। वहां पर भी वाल्मीकि के गुरु महाराज नारद मुनि है। श्रील व्यास देव के भी गुरु नारद मुनि ही हैं। नारद मुनि ने श्रील व्यास देव को भी भागवतं के संबंध में या भागवत का महात्म्य समझाया बुझाया। इसके उपरांत श्री व्यास देव ने भागवत की रचना की। वे भी यही सोच रहे थे कि भागवत का प्रचार कौन करेगा। मैं तो लेखक हूं, वक्ता कौन बनेगा? उन्होंने शुकदेव गोस्वामी को भागवत पढ़ाया, सिखाया, समझाया और शुकदेव गोस्वामी को तैयार किया। सर्वप्रथम भागवत की कथा करने वाले शुक मुनि ही हो गए। शुकदेव गोस्वामी की जय!
यहां रामायण की रचना करने वाले वाल्मीकि मुनि थे। वे जब सोच रहे थे इसको पढ़ाएगा कौन? इसका प्रसार कौन करेगा? लव और कुश आ गए, उन्होंने उनको ट्रेंड किया।
वे दोनों वीणा बजाते हुए फटाफट प्रक्षिशित हो गए। हरि! हरि! (सोते हुए नहीं अपितु जगते हुए..)
*तौ तु गान्धर्वतत्त्वज्ञौ स्थानमूर्च्छनकोविदौ |भ्रातरौ स्वरसम्पन्नौ गन्धर्वाविव रुपिणौ ||*
( वाल्मीकि रामायण)
अर्थ:
वे संगीत की कला से परिचित हैं और पिच के साथ कुशल हैं और अपनी आवाज को रोकते हैं और उन दोनों भाइयों की न केवल एक समृद्ध आवाज है, बल्कि वे आकाशीय गायकों की तरह भी दिखते हैं।
जैसे गंधर्व गायक होते हैं, वैसे ही लव और कुश गंधर्व जैसे गायक थे। गायन की कला में निपुण थे, भ्रातरौ स्वरसम्पन्नौ अर्थात स्वर, लय,बद्ध, छंद। रामायण तो छंद बद्ध ही हैं, गुरु महाराज वाल्मीकि मुनि से उन्होंने लयबद्ध गायन करना सीखा। अब लव और कुश रामायण की संगीतमय कथा करने लगे। जहां पर भी उनकी कथा की घोषणा होती कि आज यहां पर कथा होनी है। कथाकार लव और कुश यहां कथा करेंगे, तब वहां कई सारे ऋषि मुनि रामायण की कथा लव कुश के मुखारविंद से सुनने के लिए एकत्रित हो जाते। यह कथाकार कम उम्र के बाल व्यास थे, यह बालक ही थे। बालक लव और कुश की कथा…. वैसे जब बालक कथा करते हैं तो कथा को लोग और भी पसंद करते हैं, उसकी सराहना होती है। बालक होते हुए कथा कर रहा है, गायन कर रहा है। जिस कथा को वाल्मीकि जी ने लिखा था, उसी कथा को वे हुबहू प्रस्तुत कर रहे थे। वहां बड़ी संख्या में ऋषि मुनि एकत्रित हुआ करते थे। जब वे कथा को ध्यानपूर्वक सुनते, ध्यानपूर्वक… कानों से सुन कर उस कथा को हृदय तक पहुंचाते। (कुडन्ति कुडन्ति जायरे.. समझते हो? ) एक कान से अंदर कथा और दूसरे कान से कथा बाहर। वैसे एक कान से कथा को अंदर जाने ही नहीं देते क्योंकि ध्यान ही नही हैं। सोये है या ध्यान कहीं और पर है तो एक कान से भी प्रवेश नहीं करती। कथा जहां है, वहीं रह जाती है, श्रवण तो होता ही नहीं। कथा जब होती है उसको श्रवणोत्सव कहते हैं। कैसा उत्सव? श्रवण उत्सव, कानों के लिए उत्सव। जैसे जगन्नाथपुरी में आंखों के लिए नेत्रोत्सव होता है जब आंखें भगवान के सौंदर्य का पान करती है, तब आंखों के लिए उत्सव होता है। वैसे जिह्वा उत्सव हम जानते हैं, जब महाप्रसादे गोविंदे … तब उत्सव ही उत्सव होता है। यदि उसमें सभी हैं …खीर है, पनीर है तो फिर क्या कहना… लेकिन ऋषि मुनि वनों में.. यहां वहां कथा होती थी, उनका उत्सव हुआ करता था। होगा भी तो क्यों नहीं? उनका अनुभव ऐसा रहता था कि यह लव और कुश दिखने में भी राम जैसे दिखते थे (यहां लिखा है वैसे) बिंब-प्रतिबिंब, बिंब का प्रतिबिंब होता है। बिंब-प्रतिबिंब एक दूसरे से मिलते जुलते होते हैं। ये यह दोनों राम जैसे दिखते थे, अब तक किसी को राम के कनेक्शन का लव कुश के साथ का पता नहीं था। यही बात थी, जब लव कुश से कथा सुनते तब उनका अनुभव यह रहता कि राम की लीला को प्रत्यक्ष देख रहे हैं।
लव कुश राम की लीला को प्रत्यक्ष दिखाते, दर्शाते। उनके ऑडियो का बन जाता वीडियो कभी-कभी राधा गोविंद महाराज की कथा… कई ऐसा कमेंट करते हैं कि जब वे कथा सुनाते हैं, तब लगता है कि जिस कथा का वे वर्णन करते हैं, मानो वह कथा वहां संपन्न हो रही है। निश्चित ही ऐसा अनुभव ऋषि मुनियों का हुआ करता था जब वे लव कुश से राम की कथा सुनते थे। जब वे कथा सुन रहे थे, उनको रोमांच हो रहा था, आंखों से…
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव ह्रदयेषु विलोकयन्ति। यं श्यामसुंदरमचिन्तयगुणस्वरूप गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।*
( ब्रह्म- संहिता श्लोक ५.३८)
अर्थ:- जो स्वयं श्यामसुंदर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रंचित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अन्तरहृदय में दर्शन करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
आंखों में आंसू हैं या कई स्तब्ध हो रहे हैं । संभावना है कि कुछ जमीन पर लोट रहे हैं। जब हम श्रीकृष्ण, श्रीराम, श्रीकृष्ण चैतन्य की कथा सुनते हैं अथवा ध्यानपूर्वक सुनते हैं, यही तो योग है। जीव या आत्मा का परमात्मा या भगवान के साथ मिलन ही कहो या दर्शन कहो या चरण स्पर्श कहो या यथासंभव आलिंगन देना कहो। कथा महोत्सव एक प्रकार से मिलनोत्सव है। जीवात्मा और जितने भी जीवात्मा सुन रहे हैं, उन सब का कथा के माध्यम से मिलन हो रहा है। कथा कौन है? कथा भगवान है। राम की कथा श्रीराम है। अभिन्नत्वा। राम और राम का नाम, राम और राम के गुण, राम और राम की लीला, राम और राम का धाम। यह राम ही हैं। छोड़नी घेला राम… कैसे राम हमको अयोध्या में छोड़कर चले गए? चैन पड़े मुझे ना राम बिना, ना नाही सियाराम…
यह जो भाव है कि राम नहीं है या यह राम वन में गए। हमें यही छोड़कर गए तो उसे उस अवस्था में राम की लीला तो सुनी जा सकती है। जैसे गोपियों ने गोपी गीत गाया, वे खोई हुई थी, कहां है कृष्ण? कहां है कृष्ण? कहां मिलेंगे कृष्ण? मिल नहीं रहे थे। तब वे यमुना के तट पर गई और वहां गोपी गीत का गान गोपियों ने प्रारंभ किया और भगवान की लीलाओं का स्मरण करने लगी। तब कृष्ण प्रकट हो गए। भगवान की लीला और भगवान में जो अभिन्नत्व है। वह अलग अलग नहीं है, राम की लीला भी राम हैं। जहां- जहां रामलीला का श्रवण कीर्तन होता है, वहां वहां राम उपस्थित हो जाते हैं, ऐसी प्रसिद्ध बात तो है ही
*नाहं तिष्ठामी वैकुण्ठे योगिनां हृदयेशु वा। मदभक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामी नारद।।*
( पद्म पुराण)
अर्थ:-
“मैं वैकुण्ठ में नहीं हूँ और न ही योगियों के हृदय में हूँ। मैं वहीं रहता हूं जहां मेरे भक्त मेरी गतिविधियों का महिमामंडन करते हैं।” यह समझा जाना चाहिए कि भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व अपने भक्तों की संगति नहीं छोड़ते हैं।
जहां मेरी कथा का श्रवण कीर्तन होता है, वहां मैं उपस्थित होता हूं।
सब ऋषि-मुनियों का अपना अनुभव है, वे रामायण व रामलीला का श्रवण कर रहे हैं। राम को लीला खेलते हुए वह सारा दृश्य देखते थे। वाह! वाह! क्या बात बढ़िया कथा “और सुनाते जाइए।” ऐसे उदगार हुआ करते थे। तब वे उस कथा के अंत में लव और कुश के पास जाकर उनको आलिंगन देते, उनके बालों को सूंघते, उनको अलग अलग भेंट दे देते। कोई बाल कथा कारों को कोई कमंडलु देता, कोई कोपीन देता, कोई फल देता या कोई जनेऊ दे देता। ऐसा वर्णन है यहां पर कथा वहां पर कथा करते करते लव और कुश अयोध्या पहुंच गए। अब अयोध्या में कथा होने लगी।
राम राम राम सीता राम राम राम श्री राम
*अयोध्या वासी राम राम राम, दशरथ नंदन राम। पतिता पवन जानकी जीवन सीता मोहन राम।।*
*अयोध्या वासी राम राम राम, दशरथ नंदन राम । पतित पवन जानकी जीवन, सीता मोहना राम।।*
*राम राम राम बोलो, राम राम राम जय राम राम राम बोलो, राम राम राम ।।*
जब वे कथा गान करते थे, लोग एकत्रित हो जाते थे। अब अयोध्या के लोग एकत्रित होने लगे, जब वे बैठकर कथा करते थे तब लोग आकर बैठ जाते । लव और कुश जब खड़े होते तब वे भी खड़े हो जाते। लव कुश कथा करते हुए आगे बढ़ते, कथा के बिना तो रहते ही नहीं, लोग उनके पीछे पीछे जाते, अयोध्या में शोभायात्रा अथवा जुलूस हो रहा है। इस कथा का समाचार राम को मिला, ऐसे ऐसे दो सु-कुमार बालक अयोध्या में कई दिनों से कथा कर रहे हैं। राम ने कहा मैं भी सुनना चाहता हूं, लव और कुश को दरबार में लाया गया। राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, कौशल्या, कैकई, सुमित्रा भी और कई सारे मंत्री, महामंत्री दरबार खचाखच भरा हुआ था। लव और कुश को माइक्रोफोन दे दिया, कृपया कथा सुनाइए। लव और कुश ने जब राम की कथा प्रारंभ की, तब सारे श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए। (यह भाव था) मोहित हुए, आकर्षित हुए चित आकर्षक कथा प्रारंभ हो ही रही थी। यहां वर्णन आया है कि शुरुआत में तो राम अपने सिंहासन पर बैठे थे। उन्होंने इस बात को नोटिस किया कि मैं तो श्रोता हूं और मेरा आसन वक्ताओं के आसन से ऊंचा ?यह उचित नहीं है, यह सदाचार नहीं है। तब राम बड़े सावधानी से आसन से उठ जाते हैं। ताकि कोई चहल-पहल नहीं हो , किसी का ध्यान आकृष्ट ना हो। सभी का ध्यान कथा पर केंद्रित बना रहे। इस उद्देश्य से राम बड़ी सावधानी से अपने आसन से नीचे उतरते हैं व ऐसे स्थान पर बैठते हैं, जहां लव और कुश का स्थान ऊंचा हो। वहां बैठकर श्रीराम अपनी कथा सुनते हैं सुनते गए… सुनते गए, सुनते गए…राम की कथा नौ दिवस तक चलती ही रहती है
भागवत कथा तो सात दिवसीय होती है। रामायण की कथा, अधिकतर कथा कार 9 दिनों तक करते हैं। लव कुश सुनाते गए। हम थके नहीं हैं।
*वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे।यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे।।*
( श्रीमद्भागवतं १.२.१९)
अर्थ:-
हम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को
सुनते थकते नहीं, जिनका यशोगान स्त्रोतों तथा स्तुतियों से किया जाता है। उनके साथ दिव्य सम्बंध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है, वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं।
सुनाते रहिए.. सुनाते रहिए
राम ,लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न उनकी कथा
भी है। रामायण में तो राम की भी कथा का वर्णन है भरत की भी कथा है, शत्रुघ्न की कथा है और दशरथ की भी कथा है, सीता की कथा है। वहां जो उपस्थित थे, वही लोग अपनी-अपनी कथा सुन रहे थे। सभी कथा सुन रहे हैं, ऐसे मधुर हैं श्रीराम। उतनी ही मधुर उनकी कथा भी है। जय श्री राम! रामनवमी महोत्सव की जय! सीता राम लक्ष्मण हनुमान की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
( वैसे शोलापुर में प्रतिवर्ष विशेष कार्यक्रम होते रहते हैं। महाराष्ट्र में यहां गुडी पडवा एक विशेष पर्व है। उसे सोलापुर इस्कॉन के भक्त बहुत बढ़िया से धूमधाम के साथ मनाते हैं। वहां पर भी उत्सव व राम कथा का आयोजन हो रहा है। आप सभी सादर आमंत्रित हो।
हरे कृष्ण!!!
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