Chant Japa with Lokanath Swami is an open group, for anyone to join. So if you wish to experience the power of mantra meditation or if you wish to intensify your relationship with the Holy Names, join us daily from 5.15 - 7.30 am IST on ZOOM App. (Meeting ID: 9415113791 / 84368040601 / 86413209937) (Passcode: 1896).
To get latest updates of His Holiness Lokanath Swami Maharaja Join What’s App Community: https://chat.whatsapp.com/Hdzzfn6O4ed1hk9kjV5YN5Current Month
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*दिनांक 30 -03 -2022*
(गुरुमहाराज द्वारा )
हरे कृष्ण !
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन त स्मै श्रीगुरुवे नम : ।।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।*
*वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामेव एव केवलं।कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिर अन्यथा।।*
*नमोः महावदन्याय कृष्ण प्रेम प्रदायते ।कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामिने गौर-त्विषे नमः ।।*
*श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
*निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !*
धन्यवाद ! आपकी उपस्थिति के लिए वैसे, आप सभी के लिए जो ज़ूम कॉन्फ्रेंस में हमारे साथ जप कर रहे थे, लेकिन वैसे मैं सोच रहा था जो हमारे समक्ष बैठे हैं इस्कॉन सोलापुर भक्त वृंद की जय ! उनका भी मैं स्वागत आभार, उनका भी अभिनंदन ! आप सभी का अभिनंदन, ज़ूम मंदिर में , व्रजधाम इस्कॉन सोलापुर राधा दामोदर मंदिर में जो आज जप कर रहे हैं उन सभी का अभिनंदन, अभिनंदन समझते हो कांग्रेचुलेशन, कुछ लोग अंग्रेजी समझते हैं शायद अंग्रेजी वर्जन वाले समझेंगे अभिनंदन, हम मंगला आरती में पहुंच गए और मैं जानता हूं आप, किसी का घर एक या दो या तीन या चार या पांच या 10 किलोमीटर दूर होते हुए भी आप घर से ही पागल की तरह दौड़ आए, वैसे गोपियां भी दौड़ कर आती थी वैसा ही कुछ भाव, उतना तो नहीं कुछ मेल खाता है, किन्तु यह भगवान देखते हैं हमारे प्रयासों को भगवान देखते हैं।
*सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्र्च दृढव्रताः |नमस्यन्तश्र्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ||* (श्रीमद भगवद्गीता ९.१४ )
अनुवाद-ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं।
कृष्ण ने कहा भी है आप कीर्तन करें या जप करें,कब तक ? आप करें सततम् , भगवद्गीता उसमें भी कहा है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा ही है “कीर्तनीय सदा हरि” ,
*तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥* 31॥
अनुवाद- “जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।”
लेकिन श्रीकृष्ण भी कह कर गए कुरुक्षेत्र में, आज हमारी और आल इंडिया पदयात्रा कुरुक्षेत्र में पहुंची है। कुरुक्षेत्र धाम की जय ! अभी हम वहां का दृश्य देख रहे थे। बीच में निताई गौर सुंदर और उनके परिकर ऑल इंडिया पदयात्रा के भक्त वृंद कुरुक्षेत्र पहुंचे, वहां पर कृष्ण ने कहा, “सततं कीर्तयन्तो मां” सदैव मेरा कीर्तन हो, कीर्ति का गान मतलब कीर्तन, कीर्ति का गान कीर्ति का उच्चारण, या गांन ही कीर्तन है। तो सततम् कीर्तन करें और यतन्तश्र्च दृढव्रताः प्रयत्न पूर्वक दृढ़ता के साथ, दृढ़ श्रद्धा के साथ, निश्चय के साथ, आप सतत कीर्तन करो या आपने प्रयास किया जहां पहुंचने के लिए, यही है। यतन्तश्र्च दृढव्रताः देखा जाता है तब फिर देखने वाले एक तो कृष्ण, पहले देखते हैं फिर हमने भी देखा, हमने फिर आपके लिए अभिनंदन की बात की , हम प्रसन्न हैं आपके इस प्रयत्न से हरि हरि ! पहले भगवान देखते हैं बाद में हम देख सकते हैं। भगवान कैसे देखते हैं? चंद्रमा उनकी एक आंख है सूर्य दूसरी, आंखें शशि चंद्रमा,
*रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसुर्ययो:। प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।।*
(श्रीमद भगवद्गीता ७.८)
अनुवाद- हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ |
किसने कहा? कृष्ण कहते रहते हैं, लेकिन सुनता कौन है और यदि सुनते हैं तो फिर समझता कौन है कि भगवान क्या कह रहे हैं। प्रभास्मि , “भा” मतलब “प्रकाश: और इसीलिए सूर्य को भास्कर कहते हैं। भा के आगे विसर्ग होता है। विसर्ग समझते हो ? भा और आगे का है। तो वह भास्कर हुआ , प्रकाश करने वाला, प्रकाश देने वाला, सूर्य प्रकाश देता है इसीलिए भास्कर कहते हैं। तो सूर्य पहले देखते हैं भगवान देखते हैं या रात्रि के समय चंद्रमा देखते हैं। चंद्रमा का प्रकाश यदि नहीं है तो हम नहीं देख पाएंगे, सूर्य का प्रकाश नहीं है तो हम नहीं देख पाएंगे। पहले भगवान ही देखते हैं हर चीज को। हर चीज को प्रथम देखने वाले कौन हैं, भगवान हैं। भगवान नहीं देखेंगे तो हम नहीं देख पाएंगे। आपकी आंखें बेकार हैं आंख होते हुए भी, इन आंखों में तो भगवान नहीं दिखाएंगे आपको, आंख होती है प्रकाश डालते हैं, लाइट ऑन दिस एंड देट देख सकते हैं फिर हम देख सकते हैं, नहीं तो अंधेरा है, आंखें तो होती हैं लेकिन क्या देख सकते हो ? इस प्रकार आप लोग निर्भर हो भगवान पर है कि नहीं? यू मस्ट, भगवान पर निर्भर होना ही पड़ता है। जो जानकार है या जो ईमानदार है वही जानता है हरि हरि !मैं सोच तो और भी कुछ रहा था पहली बार ही नहीं बहुत बार सोचा कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का प्रचार होना चाहिए। अधिक अधिक होना चाहिए वैसे भी लोग राम को जानते हैं कृष्ण को जानते हैं लेकिन चैतन्य महाप्रभु को नहीं जानते और कलयुग में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को जानना अनिवार्य है। वह कलयुग के कृष्ण हैं।
*नमो महा-वदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते। कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर-त्विषे नमः ॥* ( चैतन्य चरितामृत मध्य 19. 53)
अनुवाद- “हे परम दयालु अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।नमस्कार की बात करते हैं।
रूप गोस्वामी प्रभुपाद कि प्रार्थना में भी वे नमस्कार की बात करते हैं। मेरा नमस्कार किसको? कृष्णाय नमः, लेकिन कैसे कृष्ण को ? कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामिने, मैं श्रीकृष्ण चैतन्य नाम के कृष्ण को मेरा नमस्कार, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय ! यह जमाना यह युग चैतन्य महाप्रभु का युग है और इस युग का धर्म जो है।
*कलि-कालेर धर्म-कृष्ण-नाम-सङ्कीर्तन । कृष्ण-शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन ॥* (चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 7.11)
अनुवाद-कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
इसकी स्थापना करने वाले भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को जानना, फिर उनके नाम को जानना है, उनके रूप को जानना है, उनकी लीलाओं को जानना है, उनके परिकरों को जानना है, उनके धाम को जानना है।
*श्री गौर मंडला भूमि जेबा जाने चिंतामणि , तार भय ब्रजभूमि बास* (नरोत्तम दास ठाकुर )
जैसा आप देख रहे हो कि पता है कहां का दृश्य है वृंदावन का तो है। वृंदावन में कहां? कुसुम सरोवर की जय ! वृंदावन में प्रवेश करने का प्रवेश द्वार है मायापुर नवदीप , नवदीप के द्वार से वृंदावन पहुंचना होता है, यह विधि है। इसीलिए हम भक्तों को प्रभुपाद ने जो उत्सव दिए या उत्सव प्रिय मानव फिर मनुष्य को उत्सव प्रिय होते हैं। श्रील प्रभुपाद, मायापुर वृंदावन उत्सव की जय ! उसी क्रम से पहले मायापुर में प्रवेश और फिर वृंदावन पहुंच जाओ। गौर मंडल भूमि, जैसे ब्रजमंडल है वैसे, “गौर मंडल भूमि जेवा जाने चिंतामणि” यह गौर मंडल भूमि भी चिंतामणि है जैसे वृंदावन चिंतामणि है। जैसा कि ब्रह्मा जी ने कहा है
*चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्र सेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।* (ब्रम्ह सहिता 5.29)
अनुवाद- मैं आदि पुरुष उन श्रीगोविन्द भगवान् का भजन करता हूँ जो ऐसे गोलोक में कामधेनु गायों का पालन करते हैं जो चिन्तामणि से निर्मित हैं और लाखों कल्पवृक्षों से घिरा है। वहाँ श्रीगोविन्द लक्ष्मीस्वरूपा हजारों गोपांगनाओं द्वारा सेवित होते रहते हैं।
वृंदावन चिंतामणि धाम है, मायापुर कुछ कम नहीं है। मायापुर भी चिंतामणि धाम है। ब्रजमंडल भूमि जेबा जाने, जो जानेंगे क्या कैसा है यह मायापुर चिंतामणि धाम, नवदीप मंडल यह मायापुर धाम यह चिंतामणि धाम है, तार भय ब्रजभूमि वास, उसका होगा ब्रजभूमि में प्रवेश और वास, बृजवासी बनेगा, वृंदावन वासी बनेगा, कैसे जानेंगे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को? जैसे मैं जब मायापुर गया था तो मुझे एक ग्रंथ प्राप्त हुआ उसका नाम है ? “मुरारी गुप्तेर कडीचाले” आप पढ़ सकते हो पढ़िए , बंगाली है, आप सीख सकते हो। जैसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज ऐसी अपेक्षा रखते थे गौड़ीय वैष्णव अधिकाधिक नॉन बंगाली जो बंगाली नहीं है जो बंगाल में नहीं जन्मे , वे भी पड़ेंगे , पढ़ने से पहले उसको सीखेंगे,भाषा को पढ़ना सीखेगे,ऐसा चाहते थे, किंतु चैतन्य चरितामृत बांग्ला भाषा में है फिर श्रील प्रभुपाद ने कृपा की या उनके गुरु महाराज ने आदेश किया, उसका पालन किया कि तुम पाश्चात्य देशों में जाकर, क्या करो? प्रचार करो। यहां पर भी यह आदेश हो रहा है श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का आदेश हो रहा है। एक उल्टाडांगा जंक्शन रोड स्थान है जहां पर ही आदेश हुआ, कितने साल पहले 100 साल पहले, इस वर्ष हम लोग सौवी वर्षगांठ, शताब्दी महोत्सव बना रहे हैं। आदेश जो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को दिया, इस आदेश देने के पीछे भी चैतन्य महाप्रभु ही हैं, नहीं तो मेरा मूल विचार था कि चैतन्य महाप्रभु का प्रचार होना चाहिए। श्रील प्रभुपाद भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज जी भी वह चाहते थे चैतन्य महाप्रभु का प्रचार होना चाहिए कहां कहां होना चाहिए ,पाश्चात्य देशों में होना चाहिए और सर्वत्र होना चाहिए।
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
फिर गौर वाणी का प्रचार किया और अंग्रेजी भाषा में प्रचार किया, पहले तो चैतन्य महाप्रभु को जानने वाले अधिकाधिक बंगाली हैं और कुछ गौड़िये ही जानते थे क्योंकि उनकी भाषा में कुछ गौड़ीय वाङ्गमय चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत इत्यादि ग्रंथ हैं। प्रभुपाद ने उसको माना और कहा अपने शिष्यों को अब आप क्या करो ? इसका अधिक से अधिक भाषाओं में अनुवाद करो, प्रिंट माय बुक्स एज मेनी एज लैंग्वेज, अंग्रेजी में करो। लॉस एंजेलिस में प्रभुपाद ने कहा, ऐसे नहीं क्या करो ? मेरे ग्रंथों का अनुवाद करो, कौन सी भाषा में जितना अधिक से अधिक संभव है। इसके पीछे भी वही चैतन्य महाप्रभु, ताकि चैतन्य महाप्रभु का प्रचार हो। चैतन्य महाप्रभु का अधिक से अधिक देशों में, खंडों में, देशों में और अलग-अलग भिन्न भिन्न भाषा जानने वाले, भिन्न-भिन्न भाषा जानने वाले लोग भी चैतन्य महाप्रभु को जाने समझे इस उद्देश्य के सारे आदेश भी दिए जा रहे हैं और व्यवस्था या कार्यकलाप भी संपन्न हो रहे हैं। इस्कॉन में होते रहे हैं। श्रील प्रभुपाद और फिर उनके शिष्य भी आगे और उनके भी शिष्य आगे उस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का अधिक से अधिक प्रचार होना चाहिए। उनके विषय में चैतन्य चरितामृत कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने लिखा है और वृंदावन दास ठाकुर ने भी लिखा है। क्या लिखा है चैतन्य भागवत में जैसे श्रीमद्भागवत *श्रीकृष्ण और अवतारों की लीला कथा है* भागवत में वैसे भागवत के10 टॉपिक हैं। ईशानू कथा यह टॉपिक है, ईशानू कथा ईश मतलब परमेश्वर परमेश तो जैसे भागवत हैं श्रीकृष्ण, वैसे चैतन्य भागवत भी है। यह दोनों अलग-अलग भागवत हैं एक श्रीमद् भागवत और दूसरा चैतन्य भागवत और फिर आपकी जानकारी के लिए अगर आपको पता नहीं है तो इन दोनों भागवत के रचयिता श्रील व्यास देव ही हैं। व्यास देव् ने श्रीमद भगवतम की रचना की और चैतन्य भागवत के रचयिता भी व्यास देव ही हैं।
व्यास देव प्रकट हुए वृंदावन दास ठाकुर के रूप में तो चैतन्य भागवतेर व्यास वृन्दावन दास ऐसे कहा है चैतन्य भागवत के व्यास कौन हैं ? वृंदावन दास ठाकुर, यह जो चैतन्य भागवत चैतन्य चरितामृत चैतन्य मंगल और एक ग्रंथ, इसमें चैतन्य महाप्रभु की जो बाल लीला या किशोर लीला, नवदीप में लीलाएं संपन्न हुई, 24 वर्ष चैतन्य महाप्रभु वहां रहे, नवदीप मायापुर धाम की जय ! जहां आप लोग रहते हो। सोलापुर में अच्छा नहीं लगता ?उधर रहे , क्या चैतन्य महाप्रभु वहां नहीं रहे, चैतन्य महाप्रभु रहते नहीं थे, चलते थे। चलायमान चैतन्य से भरपूर थे। वे अपने संचार भाव का ऐसा आंदोलन, कहीं टिकते तो नहीं थे एक स्थान पर रहते नहीं थे चलाए मान चैतन्य महाप्रभु की जय ! जो 24 वर्षों की लीला है जो नवदीप में संपन्न हुई उसका वर्णन लिखते हैं चैतन्य चरितामृत, चैतन्य मंगल और अन्य ग्रंथों में उसका आधार है।
यह मुरारी गुप्त का कड़चा, क्या मतलब डायरी या दयनंदिनी मराठी में कहते हैं। नवद्वीप में ही मायापुर में मुरारी गुप्त हुए चैतन्य महाप्रभु से वह 5 वर्ष अधिक उम्र वाले थे। चैतन्य महाप्रभु से 5 वर्ष पहले पूर्व में प्रकट हुए यह मुरारी गुप्त, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहो या जगन्नाथ मिश्र शचि माता इस परिवार के साथ इनका बड़ा घनिष्ठ संबंध था और खूब आना जाना होता था। मुरारी गुप्त अपने घर से योगपीठ आते थे उन दिनों में श्रीकृष्ण का दर्शन करके आते हैं, किसी मंदिर में जाने की आवश्यकता नहीं थी। उन दिनों में श्रीकृष्ण कहां रहते थे, योग पीठ में रहते थे केवल रहते ही नहीं थे, खेलते थे नाचते थे बहुत नटखट भी थे, बहुत कुछ चलती रही उनकी लीला, मुरारी गुप्त भी कहे चलो दर्शन करके आते हैं। कहां जाएंगे ?वह नीम के पेड़ के नीचे जो कुटिया है जगन्नाथ मिश्र भवन है।
*ब्रजेन्द्रनन्दन जेड; शचीसुत हैल सेइ,बलराम हइल निताइ। दीन हीन यतछिल, हरिनामे उद्धारिल,तार साक्षी जगाइ माधाइ।।*
नरोत्तम दास ठाकुर
इस कलियुग में व्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण शचीमाता के पुत्र के रूप में अवतरित हुए हैं
और बलरामजी श्रीनित्यानन्द प्रभु के रूप में। हरिनाम ने सभी पतित जीवों का उद्धार कर दिया है और जगाइ-मधाइ नामक दो पापी इसके प्रमाण हैं।
नंदनंदन आजकल कौन बने हैं शचीनंदन, जय शचीनंदन गौर हरि, शचि माता प्राणधन गौर हरी, नदिया बिहारी गौर हरी, युग अवतारी गौर हरी, गौर हरी गौर हरी।
मुरारी गुप्त वहां जाकर चैतन्य महाप्रभु को देखते थे चैतन्य महाप्रभु के सारे कार्यकलापों को देखते थे। भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन कर रहे हैं हमको तो जरा परोक्ष में दर्शन करना पड़ता है। परोक्ष और कई हैं भगवान उनका हम स्मरण करते हैं।
*नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कभु नय। श्रवणादि-शुद्ध-चित्ते करये उदय ।।*
(चैतन्य चरितामृत मध्य 22.107)
अनुवाद- “कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”
श्रवण आदि करते हैं, श्रवण कीर्तन आदि तो भगवान का दर्शन होता है। भगवान उदित होते हैं प्रेम जागृत होता है परोक्ष में, हमको तो परोक्ष में लेकिन मुरारी गुप्त के लिए भगवान अपनी प्रकट लीला खेल रहे थे। अपनी प्रकट लीला भगवान की आप्रकट लीला और प्रकट लीला, यह मुरारी गुप्त देखा करते थे सुना करते थे चैतन्य महाप्रभु को और उनको हो रहा था साक्षात्कार, उसका नाम क्या है ? भगवत साक्षात्कार कृष्ण रिलाइजेशन गॉड रिलाइजेशन कहो कृष्ण रिलाइजेशन , कृष्ण तो वही हैं उनको देखो उनको समझो साक्षात्कार। यह मुरारी गुप्त साक्षात्कार पुरुष थे और भी बहुत सारे चैतन्य महाप्रभु के परिकर, सारे भगवत साक्षात्कारी ही थे।
नित्य परिकर लेकिन यह मुरारी गुप्त वैसे थे हनुमान प्रकट हो गए, चैतन्य महाप्रभु की लीला में कौन बने मुरारी गुप्त, हनुमान। मुरारी गुप्त के साथ इनकी लीला चलती रहती थी, लीला खेलना है तो भक्त हैं और परिकर हैं, अकेले लीला संभव है क्या ?आपकी भी जब कोई लीला होती है और कोई है तभी तो लीला करेंगे, मुरारी गुप्त के साथ इनका आदान-प्रदान लेन देन कई प्रकार का है। यह सारे जो आंखों देखे दृश्य कहो या उनके सारे अनुभव कहो जो अभी वह सुनते थे देखते थे संग थे या वह सब लिखते थे, मुरारी गुप्त नोट करते थे। जैसे तुकाराम महाराज का हो, उनके भी साक्षात्कार अभंग के रूप में उन्होंने लिखें थोड़ा अलग है वहां तो परोक्ष में तुकाराम महाराज जहां भी हैं देहू में है वहीं से दर्शन कर रहे हैं।
*सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी । कर कटावरी ठेवुनिया ॥ तुळसी हार गळा कासे पीतांबर । आवडे निरंतर तेची रूप ॥* (संत तुकाराम अभंग 1)
पंढरपुर में खड़े हैं या बैकुंठ में है या गोलोक में है। वहां के अनुभव या दूरदर्शन हो रहा है। तुकाराम महाराज को कैसा दर्शन दूर का दर्शन, दूर नगरी कृष्ण जहां है। लेकिन यहां तो मुरारी गुप्त के लिए है प्रत्यक्ष दर्शन, जो उनके दर्शन और जो वो सुनते थे अनुभव करते थे वह लिखते जाते थे। क्या आप इतना सारा बताते जाते हो कि कृष्ण ऐसे हैं, वैसे लीला खेली, हमने देखा है , लोग बोलते हैं, अच्छा भाई ठीक है, हमने तो नहीं देखा हम देखना चाहते हैं इसीलिए सारे प्रयास हो रहे हैं। श्रील प्रभुपाद की जय ! लेकिन हम उनको जानते हैं जिन्होंने देखा और वह हैं मुरारी गुप्त और उन्होंने भी देखा लेकिन वैशिष्ट यह रहा कि उन्होंने कृपा करके, उस सब को लिखा, अगर मुरारी गुप्त नहीं लिखते तो कुछ पता नहीं चलता। चैतन्य महाप्रभु की बाल लीला, नवदीप लीला का, मुरारी गुप्त का कड़चा दैनंदिनी ही आधार है। जो ग्रंथों की रचना हुई चैतन्य भागवत, चैतन्य चरितामृत चैतन्य मंगल, वह सब भी रेफरेंस लेते हैं। हरि हरि ! ऐसे में चैतन्य महाप्रभु ने मुरारी गुप्त को दर्शन दिए। वह दर्शन था राम दरबार का चैतन्य महाप्रभु अचानक वह है नहीं, उनके स्थान पर उन्होंने देखा कौन है जय श्री राम और फिर उन्होंने लक्ष्मण को भी देखा, राम के ऊपर छत्र धारण किए हैं और भरत और शत्रुघ्न को भी देखा वह दोनों चामर ढूला रहे हैं और राम की सेवा कर रहे हैं। उन्होंने देखा कि कई सारे वानर हैं जो स्तुति कर रहे हैं श्रीराम की और मुरारी गुप्त कौन हैं स्वयं ही हनुमान हैं। उन्होंने और एक लीला में जो अष्ट पहर लीला हुई थी उसमें भी चैतन्य महाप्रभु ने दर्शन दिया राम के रूप में और दर्शन कर रहे थे। मुरारी गुप्त ने देखा वह मायापुर के प्रकट लीला के मुरारी गुप्त नहीं थे हनुमान थे , लेकिन पीछे पूछ भी थी। यह दर्शन करके वे मूर्छित हो गए और जब उन्हें बाहरी ज्ञान हुआ तब अपने घर लौटे और धर्मपत्नी से बोले भोजन तैयार है ?धर्म पत्नी ने कहा भोग तैयार है। भोजन तैयार नहीं है, भोग होता है भगवान के लिए और भोजन होता है हमारे लिए, भगवान जब भोजन करते हैं भोग भोगते हैं तो बन जाता है प्रसाद , हमारे लिए भोजन तो उसने कहा भोग तैयार है। वह दे दो, उसमें कई सारे पकवान थे, एक एक करके बंगाली आइटम भी थे उसे उठा के ऐसे फेंक रहे थे मानो किसी को खिला रहे हैं। धर्मपत्नी को आश्चर्य लगा, शायद उसने सोचा होगा कि आज का भोग मंदिर के विग्रह के सामने रखेंगे, वही भोग लगाएंगे वह ऐसा नहीं कर रहे थे वह किसी को खिला रहे थे। धर्मपत्नी अनुभव कर रही थी कि कोई खा रहा है कोई ग्रहण कर रहा है कुछ गिर भी रहा था भूमि पर, उसमें से कुछ पकवान तो विशेष भोजन था घी की अधिक मात्रा थी तो सुखी जीवन
*यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।। त्रयोवेदस्य कर्तारौ भण्डधूर्तनिशाचराः । चार्वक।।*
अनुवाद- मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये । ऋण करके भी घी पिये । अर्थात् सुख-भोग के लिए जो भी उपाय करने पड़ें उन्हें करे । दूसरों से भी उधार लेकर भौतिक सुख-साधन जुटाने में हिचके नहीं । परलोक, पुनर्जन्म और आत्मा-परमात्मा जैसी बातों की परवाह न करे । भला जो शरीर मृत्यु पश्चात् भष्मीभूत हो जाए, यानी जो देह दाहसंस्कार में राख हो चुके, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है । जो भी है इस शरीर की सलामती तक ही है और उसके बाद कुछ भी नहीं बचता इस तथ्य को समझकर सुखभोग करें, उधार लेकर ही सही । तीनों वेदों के रचयिता धूर्त प्रवृत्ति के मसखरे निशाचर रहे हैं, जिन्होंने लोगों को मूर्ख बनाने के लिए आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी बातों का भ्रम फैलाया है ।
घी से बने हुए पकवान उसकी अधिक महिमा है या उसका अधिक मूल्य है या फायदा भी है । तेल डालडा वगैरह नहीं था, घी था अधिक ही था लेकिन हम को ऐसा नहीं करना चाहिए घी की मात्रा को कंट्रोल करना चाहिए नहीं तो हमारे लिए परेशानी होंगी किसी डॉक्टर ने कहा कि इस्कॉन के डेवोटीस को कहा करो , उनको दिखता है शक्कर और खूब घी का हलवा बगैरा खाते हैं ना , कुछ समय के उपरांत यह भी हो सकता है डिनर खिलाया और फिर नेक्स्ट मॉर्निंग चैतन्य महाप्रभु भागे दौड़े आए हैं दवा है ? यह मुरारी गुप्त वैसे वैद्य थे प्रसिद्ध वैद्य थे। चैतन्य महाप्रभु , क्या हुआ क्या हुआ होना क्या है इतना अजीन इनडाइजेशन, आपने कुछ ज्यादा खाया , क्या? जो की ज्यादा मात्रा वाला था , क्या तुमको पता नहीं ? खिलाने वाले तो तुम थे और तुम खिलाते गए खिलाते गए खिलाते गए। शायद क्योंकि यह आवेश में, भाव में थे, उनको पता भी नहीं उन्होंने क्या किया , कितना कितना क्या-क्या खिला दिया लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने कहा अपनी धर्मपत्नी से पूछो वह तो होश में थी उसको पता है फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को और कोई दवा देने से पहले मुरारी गुप्त के घर में एक विशेष जल औषधि, वह जल ही औषधि का काम करता था, चैतन्य महाप्रभु ने उसको देखा और दौड़े और खूब पी लिए मुरारी गुप्त बोले आपके लिए नहीं है। वह छोड़ दीजिए आप इसे, लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने उसको ग्रहण किया है और ठीक हो गए। थैंक यू धन्यवाद औषधि के लिए , तुम्हारे पास तुम ही उलझन के कारण बने और तुम ही सुलझन के कारण भी, प्रॉब्लम एंड सलूशन तो यह भी एक दिन का मुरारी गुप्त का अनुभव है फर्स्ट एंड एक्सपीरियंस उन्होंने लिख लिया इस प्रकार हंड्रेड्स सैकड़ों हजारों कहो छोटे-मोटे अनुभव रिलाइजेशन, लीला आज यह हुआ आज दोपहर को यह हुआ, आज शाम को यह हुआ, आज रात्रि को यह हुआ फिर नेक्स्ट डे यह हुआ यहां पर यह हुआ वहां पर वह हुआ यह सब लिखा। राइटिंग ब्लैक एंड वाइट यह जानकर भी हमारा विश्वास होना चाहिए। मन में ऐसे ही
*अज्ञश्र्चाद्यधानश्र्च संशयात्मा विनश्यति | नायं लोकोSस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ||*
अनुवाद- किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते है | संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है |
जीव संशय करता ही रहता है। सचमुच में चैतन्य महाप्रभु हुए थे ?क्या गॉड इज़ रियली एक्जिस्ट? किसी ने देखा भी था उनको ? यह मुरारी गुप्त की डायरी और फिर श्रीकृष्ण चैतन्य चरितामृत में मुरारी गुप्त, एक चरित्र लिखा महाप्रभु के चरित्र ने उसका नाम दिया श्रीकृष्ण चैतन्य चरिता मृत एक है। चैतन्य चरित अमृत और दूसरा है श्री कृष्ण चरितामृत , दो चरित्रामृत वैसे तो और भी है लेकिन थैंक यू। किसको थैंक यू ? मुरारी गुप्त को, ऋषि ऋण कहते हैं हम ऋणी हैं। ऋषि मुनियों के भी , पूर्व आचार्य के, कितना उपकार किया , मुरारी गुप्त ने सारे संसार के ऊपर हरी हरी ! ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का प्रचार होता रहना चाहिए और उस प्रचार के अंतर्गत ही है।
*यारे देख, तारे कह ‘कृष्ण’-उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार’ एइ देश ॥* ( चैतन्य चरितामृत मध्य 7.128)
अनुवाद- “हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।” यारे देख ता रे कह कृष्ण उपदेश ,आमार अज्ञाय गुरु हय तार ऐइ देश।
( चैतन्य चरितामृत मध्य 7.128)
चैतन्य महाप्रभु ने आदेश दिया कि आप सब प्रचार करो कृष्ण का प्रचार करो या हरी नाम का प्रचार करो या पहुंचाओ
*पृथ्विते आछे यत नगरादि ग्राम। सर्वत्र प्रचार होइबे मोरा नाम।।*
( चैतन्य भगवत अन्त्य 4.126)
चैतन्य महाप्रभु ने कहा प्रचार होना चाहिए यह ड्यूटी भी चैतन्य महाप्रभु ने अपने अपने अनुयायियों को दी है और चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी वह गौड़िये वैष्णव सभी प्रकार के वैष्णव में श्रेष्ठ है। गौड़िये वैष्णव , गर्व से कहो हम गौड़िये वैष्णव हैं। गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं ,उसमें ऐसा कोई गर्व की बात नहीं है वैसे ,लेकिन गर्व से अभिमान के साथ आप कहते जाओ कि हम गौड़िये वैष्णव हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय !
श्रील प्रभुपाद की जय !
अनंत कोटी वैष्णव भक्त वृंद की जय !
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
परम पूज्य श्री भक्ति प्रेम स्वामी महाराज
29 मार्च 2022
श्री गोविन्द घोष तिरोभाव दिवस महा महोत्सव की जय
हम श्रील प्रभुपाद के प्रति बहुत आभारी है | प्रभुपाद ने हमें बहुत कुछ दिया है विशेष रूप से हमारे आचार्य परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज जिन्होंने हमें आचरण करके दिखाया है, रोज सुबह without fail एक साथ बैठकर जप करना, घर में आप कर रहे हैं या नहीं कोई देखने नहीं जा रहा है, इसीलिए कम से कम कैमरे में सामने आकर करो | और वे साथ में खुद बैठकर जप करते हैं | इसे कहते हैं आचार्य | हम प्रभुपाद के बहुत आभारी हैं कि उन्होंने हमें इस तरह के आचार्य दिए है जो हाथ पकड़ कर के हमें भगवत धाम लेकर जाएंगे | मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ, मेरे ऊपर महाराज की विशेष कृपा दृष्टि है, वैसे तो हमें महाराज के मुख से सुनना चाहिए लेकिन माता-पिता कभी कभी देखना चाहते हैं कि बच्चे ने कितना सीखा है | आज बहुत ही पवित्र दिन है श्री गोविंद घोष की तिरोभाव तिथि है | गोविंद घोष महाप्रभु के अन्यतम पार्षद थे | तीन भाई थे गोविंद घोष, माधव घोष, वासुदेव घोष | बहुत बड़े कीर्तनया थे, सिर्फ कीर्तनया ही नहीं, तीनो भाई गान बहुत अच्छा करते थे | गोविंद घोष गान के रचयिता भी थे | जगन्नाथपुरी में जो कीर्तन नृत्य होता था गोविंद घोष उस कीर्तन का नेतृत्व करते थे | चांदकाजी के दलन में भी और भी बहुत जगह कीर्तन का नेतृत्व करते थे | बंगाल से सभी लोग उनसे मिलने, कीर्तन में शामिल होने आते थे | बाद मे तीनो भाइयों ने बंगाल में आकर तीन स्थानों पर अपने को स्थापित किया | बंगाल में एक स्थान अग्रद्वीप वहां पर गोविंद घोष ठाकुर ने अपना श्रीपाद बनाया | वे अपने पुत्र संग छूटने से बहुत दुखी हुये, इतने दिनों से गोपीनाथ की सेवा कर रहे थे, जब मैं चला जाऊंगा तो गोपीनाथ की सेवा कौन करेगा, मेरा पिंड कौन देगा, मेरा श्राद्ध कौन करेगा तो गोपीनाथ ने कहा कि दुखी होने की कोई बात नहीं है, मैं तुम्हारा पिंड दूंगा, गोविंद घोष के अप्रकट होने के बाद आज की तिथि में गोपीनाथ ने खुद पिंड दिया, गौर पूर्णिमा के बाद जो द्वादशी आती है, विग्रह भी इसी तरह से है गोपीनाथ की हाथ से पिंड देते हुए, बहुत सुंदर विग्रह है | आप सब पानीहाटी चिड़ा दही उत्सव जानते है वह लाखों लाखों भक्त आए थे, उसी प्रकार यहां लाखो लाखो लोग आते है, बहुत बड़ा उत्सव बहुत बड़े क्षेत्र में मनाया जाता है, अलग-अलग संप्रदाय साधारण मनुष्य वहां अपना तंबू लगाते हैं, भजन कीर्तन करते हैं, प्रसाद वितरण करते हैं, गोविंद घोष से प्रार्थना करते है, वह हमें महाप्रभु के चरणों में नित्य स्थान प्रदान करें |
गौरांगेर संगी-गने, नित्य-सिद्ध कोरी माने,
से जाये ब्रजेंद्र-सुत-पास
यह महाप्रभु के नित्य पार्षद है, यह ब्रज में कलावती सखी है |
हरि नाम की महिमा अनंत है |
जिस प्रकार भगवान का गुण अनंत है, भगवान का नाम अनंत है, उसी प्रकार भगवान के नाम की महिमा भी अनंत है | जिस प्रकार आकाश अनंत है, लेकिन चिड़िया आकाश को खत्म करने के लिए उड़ती है, इसी प्रकार वैष्णव जन हरि नाम की महिमा को खत्म करने के लिए जप करते है, हरि नाम इतना शक्तिशाली है, यह हमारे हृदय में आग जल रही है, वासना रूपी आग जल रही है, कामना वासना अग्नि की तरह हृदय में जल रही है, इस अग्नि को शमण करने के लिए हरि नाम अमृत की बारिश करता है, जिस प्रकार वन की अग्नि को बुझाने के लिए बारिश चाहिए | जिस प्रकार कामना वासना सुष्म है, यह हरिनाम कान के छिद्र से प्रवेश करता है और हृदय में प्रवेश करता है |
Jaiva Dharma –
visaya-väsanänale mora citta sadä jvale,
ravi-tapta maru-bhümi sama
karna-randhra-patha diyä, hrdi mäjhe pravesiya
barisaya sudhä anupama
hrdaya haita bale, jihvära agreta cale
sabda-rüpe näce anuksana
kanthe mora bhange svara, anga kämpe thara thara
sthira haite nä päre carana
cakse dhärä, dehe gharma, pulakita saba carma,
vivarna haila kalevara
mürcchita haila mana, pralayera ägamana
bhäve sarva-deha jara-jara
kari eta upadrava, citte varse sudhä-drava
more däre premera sägare
kichu nä bujhite dila, more ta bätula kaila
mora citta-vitta saba hare
lainu äsraya jän’ra hena vyavahära tän’ra
varnite nä päri e sakala
हरिनाम हृदय में जाकर बहुत सुंदर अमृत की वर्षा करता है | जहां पर कामना वासना की आग जल रही थी, वहाँ इतनी अमृत की वर्षा करता है, वह आग बुझ जाती है और वहां अमृत का तालाब बन जाता है और कमल खिल जाते है | और जब वह हृदय में प्रवेश करता है तब वह हृदय से बलपूर्वक जिह्वा में आता है |
हरिनाम शब्द रूप में जिह्वा पर नृत्य करता है | हरि नाम में इतनी शक्ति है जब वह जिह्वा पर नृत्य करता है, हमारे पूरे शरीर पर नियंत्रण कर लेता है और शरीर दूसरे के नियंत्रण से बाहर निकल जाता है | जिस तरह क्रिकेटर जब बॉलिंग करने जाता है, तो अपनी फील्डिंग को पूरा सजा लेता है, उसका पूरा नियंत्रण फील्डिंग पर रहता है, कहां किसको खड़ा करना है |
हरि नाम के प्रभाव से इस प्रकार कंठ अवरुद्ध हो जाता है, पसीना होने लगता है, शरीर कांपने लगता है, चरण स्थिर नहीं रह पाते है अर्थात पूरे शरीर का नियंत्रण हरिनाम कर लेता है | आंख से वर्षा की तरह आंसू आते है, शरीर से पसीना आता है, रोंगटे खड़े हो जाते है, शरीर का रंग बदल जाता है| शरीर में आठ प्रकार के परिवर्तन विकार आते है, शरीर के परिवर्तन को भी विकार कहते है | यह तामसिक राजसिक विकार नहीं है, तामसिक विकार में क्रोध करते है, आंखें लाल होती है | यह सात्विक विकार है, आठ प्रकार के सात्विक विकार होते है और यह हरि नाम करवाता है | और अंत में बेहोश हो जाता है |
यह शरीर के साथ एक प्रकार का उपद्रव है | हमें कहीं जाना है और कोई शत्रु आकर हमारे शरीर को नियंत्रण कर ले तो हम नहीं चल पाते है, इस प्रकार शत्रु हम पर उपद्रव करता है | इसी प्रकार हरि नाम हम पर एक प्रकार का उपद्रव शुरू कर देता है | भक्ति विनोद ठाकुर गाते है हमने जो हरि नाम का आश्रय लिया है, वह हमारे साथ इस तरह का व्यवहार कर रहा है, यह क्या? हमने उसका आश्रय लिया है, उसे हमारे साथ अच्छा करना चाहिए | जिसका आश्रय लेते हैं वह हमारे साथ इस तरह का व्यवहार करेगा क्या?
लेकिन उसके पहले क्या करते है? जब इस प्रकार का उपद्रव करता है, हृदय को अमृत में डूबा देते है और इस प्रकार इतनी अमृत की वर्षा होती है कि तालाब अमृत का सरोवर बन जाता है और उसमें डूबा देते है | हरिनाम जब अमृत के सागर में जब डूबाता है तो अमृत छोड़कर कुछ भी नहीं मिलता है , ठीक वैसे ही जैसे पानी में डूबने पर पानी छोड़कर कुछ भी नहीं मिलता है | मेरे चित्त की जो वृत्ति है, कहीं कुछ नियंत्रण नहीं रहता है, मेरे पर ही मेरा नियंत्रण नहीं रहता है | बड़े आश्चर्य की बात है मैंने जिसका आश्रय लिया वह मेरे साथ ऐसा कर रहा है | फिर बाद में हम सोचते हैं कि ठीक है भगवान इच्छामय है जो चाहे वह कर सकते हैं उनका एक नाम इच्छामय है, ठीक है उनकी ऐसी इच्छा है तो भगवान की इच्छा के विरुद्ध क्या कर सकते है, वह मेरे साथ ऐसा ही करना चाहते है | जैसे हम शिक्षाष्टकम में गाते है –
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः॥८॥ श्री शिक्षाष्टकम्
हे भगवान मैं आपकी पैर में स्थित दासी हूँ, आप उसको आलिंगन करें या उसे अस्वीकार कर दें फिर भी आप मेरे प्राणनाथ हैं |
Jaiva Dharma-
krsna-näma icchämaya jähe jähe sukhi haya
sei mora sukhera sambala
premera kalikä näma, adbhuta-rasera dhäma
hena bala karaye prakäsa
isat vikasi’punah, dekhäya nija-rüpa-guna
citta hari laya krsna päsa
pürna-vikasita hanä, braje more jäya lanä
dekhäya more svarüpa-viläsa
more siddha-deha diyä, krsna-päse räkhe giyä
e dehera kare sarba-näsa
krsna-näma cintämani akhila-rasera khani
nitya-mukta, suddha-rasamaya
namera bäläi yata, sabha la’ye hai hata
tabe mora sukhera udaya
इसी प्रकार कृष्ण इच्छामय है,
तो इस प्रकार में हमें कष्ट देकर सुखी होना चाहते हैं तो मैं मान लूंगा यही मेरा सुख है | लेकिन एक बात है कि हरि नाम मे इतनी शक्ति कहां से आती है | यह तो केवल शब्द है | जिस प्रकार एक फूल कली से आता है, कली धीरे-धीरे जब खिलती है तो बहुत सुंदरता और खुशबू आती है, यह सुंदरता और खुशबू दूसरों का आकृष्ट करती है, उसी प्रकार नाम कृष्ण प्रेम की कली की तरह है | जैसे हम किसी का नाम लेते हैं, तो उस व्यक्ति का रूप स्वतः आ जाता है, जब रूप देखते हैं तो साथ साथ गुण भी मन मे आ जाते है, जब गुण देखते हैं तो साथ-साथ उनके परिकर पार्षद भी देखते हैं किनके साथ कर रहे है और जब यह देखते हैं तो उनके साथ धाम का दर्शन भी होता है | अर्थात सब कुछ नाम के अंदर है | नाम से रूप गुण लीला परिकर धाम सब कुछ प्रकाशित होता है, जिस प्रकार फूल कली से आता है|
हमारे जीवन का लक्ष्य है कृष्ण प्रेम | वह कृष्ण प्रेम फूल है लेकिन नाम कली है | इसमें इतना रस है कि ये अद्भुत है कल्पना से परे है | यह जो नाम है जब थोड़ा खिल जाता है, विकसित हो जाता है, वाह कितना सुंदर है यह, यह सुंदरता दिखाकर यह हमारे चित्त की वृत्ति को हर लेते हैं |
जब हम शुरू शुरू में हरि नाम लेते है, कितना मजा आता है, चलो करते रहते है | धीरे-धीरे हमारा व्यवसाय धंधा संसार शरीर के प्रति ध्यान हमारा दुर चला जाता है और ध्यान कृष्ण के ऊपर चला जाता है | और जब यह कली पूर्ण विकसित हो जाती है, वृंदावन में लेकर जाती है और मेरा जो स्वरूप है, मैं कृष्ण का नित्य दास हूँ, वह हरिनाम दिखाता है |
हरि नाम इतना शक्तिशाली है कि वह पकड़ कर रखता है और कृष्ण के पास लेकर जाता है, ले जाकर सिद्ध देह दान करता है, चिन्मय देह दान करता है, इस शरीर को विनाश कर देता है | जिसे विनाश करने की इच्छा नहीं है उसे हरि नाम नहीं करना चाहिए | क्योंकि हरिनाम करने से इस शरीर का विनाश हो जाएगा |
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं ( श्री शिक्षाष्टकम्)
कृष्ण नाम चिंतामणि है, जितने भी प्रकार के रस है, सारे रस की खान है, रस एक प्रकार की वस्तु है जिसका स्वाद अत्यंत सुंदर और दूसरे को जोड़ने वाला है, जो रस भगवान के साथ जोड़ाता है, वहीं चिन्मय रस है, सारा आनंद इसके अंदर है, हमें आनंद पाने के लिए कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है | हरि नाम शुद्ध रस है, इसके अंदर कोई कल्मस कलुसिता नहीं है | जिस प्रकार हम मीठा खाते हैं बहुत स्वादिष्ट लगता है परंतु डर लगता है कहीं डायबिटीज ना हो जाए, लेकिन भगवान के साथ भक्ति का जो रस है वो सिद्ध रस है | ये रस कब मिलेगा? फायदा कब होगा? जब हम नाम अपराध से मुक्त होकर हरिनाम करेंगे |
इस प्रकार आनंदमय जीवन हम प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन एक शर्त है | नाम अपराध से मुक्त होकर हरिनाम करना होगा | यह तो बहुत कठिन बात है | पहले तो आसान लग रहा था परंतु अब कठिन लगता है | लेकिन पद्म पुराण में कहा है कि यदि हम निरंतर हरिनाम करेंगे, तो हमें अपराध करने का मौका नहीं मिलेगा | अपराधों से मुक्त होना तो मुश्किल काम है, तो सबसे अच्छी बात है कि यदि हमेशा हरिनाम करेंगे, तो अपराध करने के लिए समय ही नहीं मिलेगा |
nämäparädha-yuktani nämanyeva haranty agham
avisranta-prayutani tany evartha-karani hi- Padma Purana
हो सकता है आप शुद्ध नाम नहीं ले पाते हैं, अपराध युक्त नाम करते हैं लेकिन ये नाम यदि आप निरंतर करेंगे, तो आप अपराध से मुक्त हो जाएंगे और शुद्ध नाम का जो फल है कृष्ण प्रेम वह प्राप्त होगा | मेरा सौभाग्य है कि श्री लोकनाथ स्वामी महाराज और आप जैसे शुद्ध भक्तों के संग में हरिनाम करने का अवसर मिला है यह मेरे लिए प्रभुपाद का और चैतन्य महाप्रभु का बहुत ही सुंदर तोहफा है |
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*सच्चिदानंद प्रभु द्वारा*
*दिनांक 26.03.2022*
हरे कृष्ण!!!
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
हरे कृष्ण!!!
भक्ति करने के लिए जो मुख्य चीज अनिवार्य है, वह श्रद्धा से प्राप्त होती है। श्रद्धा एकमात्र चीज है जिससे हम भक्ति कर सकते हैं। हरि नाम लेने में भी श्रद्धा जरूरी है। श्रद्धा मुख्य वस्तु है लेकिन श्रद्धा नाम में और तरीके अर्थात विधि में…
*श्रुति स्मृति पुराणादि पञ्चरात्रविधि विना। ऐकान्तिकी हरेर्भक्तिरुत्पातायैव कल्पते।।*
( भक्तिरसामृत सिंधु १.२.१०१)
अनुवाद:- वह भगवद्भक्ति, जो उपनिषदों, पुराणों तथा नारद पंचरात्र जैसे प्रामाणिक वैदिक ग्रंथों की अवहेलना करती है, समाज में व्यर्थ ही उत्पात फैलाने वाली है।
विधि में भी श्रद्धा होना जरूरी है। यदि नाम में श्रद्धा है लेकिन विधि में नहीं है तब पूरी सफलता में कमी रह जाएगी। इसलिए जैसे हरिनाम चिंतामणि में बताया है निपुण भक्ति अर्थात जो दस अपराध से बच कर भक्ति करता है, वह निपुण है। चैतन्य महाप्रभु ने शिक्षाष्टकम में पूरे एक एक स्थल बताए हैं, वह श्रद्धा के स्थल हैं।
*चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥*
अर्थ:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
यह नाम में श्रद्धा है। तत्पश्चात दूसरे में बताया है कि चूंकि हम अपराध करते हैं इसीलिए नाम में अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है। कभी ऊपर, कभी नीचे ऐसे चल रहा है।
फिर तीसरे श्लोक में इसको सुधारने के लिए हम अपराध से बचकर जप करने का प्रयास करते हैं और अपने अंदर धीरे-धीरे हम नम्रता, सहनशीलता, क्षमा, लोगों को आदर देना और आदर की अपेक्षा नहीं करने का प्रयास करते हैं , यह थर्ड लेवल है। चौथे लेवल में
*न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥*
अर्थ:-हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।
हमें कोई भौतिक इच्छा नहीं हैं, मुक्ति की भी इच्छा नहीं है। केवला अहेतु की भक्ति चाहिए। पांचवें स्थल पर हम भगवान का आश्रय चाहते हैं कि भगवान उनके चरण कमलों में हमें कोई स्थान दे दे। इस प्रकार से श्रद्धा बढ़ेगी, आपका नाम भजन में, कीर्तन में बढ़ेगी। यदि श्रद्धा बढ़ रही है तो आप एक एक लेवल ऊपर जाएंगे, आपके अंदर उसी हिसाब से गुण आने चाहिए। अगर वह गुण नहीं आ रहे हैं तो इसका अर्थ आपकी श्रद्धा नहीं बढ़ रही है।
उसका अर्थ है कि आपकी श्रद्धा और कहीं और पर भी है। वहां से श्रद्धा हटाकर भगवान में रखनी है। कभी-कभी हम लोग सोचते हैं कि हम में बहुत श्रद्धा है। प्रभुजी, हम में बहुत श्रद्धा है। हमारी कृष्ण के प्रति बहुत श्रद्धा है लेकिन एक माला भी नहीं करते। उनको बोलो माला करो तब वे कहते हैं कि नहीं! नहीं! हम हमेशा भगवान का नाम लेते रहते हैं। वे विधि को स्वीकार नहीं करते। विधि को स्वीकार नहीं करेंगे तो शुद्धिकरण नहीं होगा। इस प्रकार जो सद्गुण है, उसमें विकास नहीं होगा। जैसे कहते हैं-
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।*
( श्रीमद्भागवतं १.२.१८)
अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से ह्रदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रंशसा दिव्य गीतों से की जाती है।
उससे क्या होता है?
*तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्र्च ये। चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति।।*
अर्थ:- ज्यों ही ह्रदय में अटल प्रेमा भक्ति स्थापित हो जाती है, प्रकृति के रजोगुण तथा तमोगुण के प्रभाव जैसे काम, इच्छा तथा लोभ ह्रदय से लुप्त हो जाते हैं। तब भक्त सत्त्वगुण में स्थित होकर परम सुखी हो जाता है।
रजोगुण और तमोगुण धीरे धीरे कम हो जाता है और हम सतोगुण में स्थित होते हैं। सतोगुण का मतलब यह नहीं है कि हम खाली जप के समय सतोगुण में रहे। ऐसा संभव नहीं हो सकता। 24 घंटे की बात है। यह समय लगेगा। एक-दो दिन में काम नहीं होता है लेकिन धीरे-धीरे बढ़ते जाना चाहिए। आधा प्रतिशत, एक प्रतिशत सात्विकता बढ़ती जाएगी। इससे भजन में धीरे-धीरे स्थिरता आएगी। जैसे गुरु महाराज भी कहते हैं कि पिछले 24 घंटे में आपने क्या किया है, आपका जप उसके ऊपर आधारित रहता है। हमारा दैनिक जो आचरण है…. समस्या क्या है? हम सबसे ज्यादा किसके साथ संग करते हैं। हम सबसे ज्यादा संग अपने मन के साथ करते हैं। मन में जो चल रहा है, वह हमें बहुत प्रभावित करता है। जब तक इन विधि विधानों का पालन अच्छे से नहीं होगा। मन की स्थिति अच्छी नहीं होगी तो नाम भजन में एकाग्रता आना बहुत कठिन रहेगा। मन विचलित होता रहेगा। इसलिए जरूरी है कि हम लोग नाम के साथ जो नाम लेने का तरीका /विधि अथवा विधान अथवा प्रक्रिया है उसमें भी श्रद्धा बढ़ाए। साथ साथ में उसकी भी खेती करें। इसके बाद हमारा जप व कीर्तन धीरे धीरे बढ़िया होता जाएगा। यह बहुत ही जरूरी है। जैसे प्रभुपाद जी भक्ति लता बीज की व्याख्या करते हैं, द मेथड रूल्स रेगुलेशन बाय व्हिच वन इज परफेक्टली ट्रेनेड इन डिवोशनल सर्विसेज, सिस्टेंएड कन्सटूयट आवर भक्ति लता बीज। वे नीति नियम तरीका जिससे व्यक्ति सिद्ध रूप से शिक्षित किया जाता है। यह जप ऐसा कोई छू मंत्र वाली चीज़ नहीं है। माला झोली में हाथ डाल दिया। छू मंत्र छू मन्त्र हरे कृष्ण! हरे कृष्ण! और सब कुछ हो जाएगा। उसमें फायदा होगा ही लेकिन नाम अपराध और नामाभास में आप भटक जायोगे, ऊपर नीचे होते रहोगे। शुद्ध नाम तक नहीं जा सकते, शुद्ध नाम प्राप्त करने के लिए आपको विधि विधान पहले सुनना या पढ़ना पड़ेगा। फिर उसका चिंतन, मनन करना पड़ेगा, तत्पश्चात अपने अंदर धीरे धीरे यह सब गुण लाने पड़ेंगे।
जैसे जैसे उसमें विकास होगा। तब आपके जप व कीर्तन से भगवान प्रसन्न होंगे। जब भगवान आपके कीर्तन से प्रसन्न होंगे तो सोचिए आपको कितना आनंद आएगा, यह दिव्य आनंद है। यदि जप में भी हम अपना सुख ढूंढ़ रहे हैं तो यह भी भौतिक है। जप भगवान को प्रसन्न करने के लिए है। क्योंकि कीर्तन का अर्थ होता है कीर्ति का गान। किसकी कीर्ति का गान। भगवान को प्रसन्न करने के लिए गान। शुद्ध भक्ति का उद्देश्य क्या है ? भगवान को प्रसन्न करना है। इसीलिए जो भक्ति में आगे बढ़ना चाहते हैं उनको श्रील प्रभुपाद जी की किताबों को, शास्त्रों को अच्छी तरह से पढ़ना चाहिए। धीरे-धीरे पढ़कर उसका मनन करना चाहिए। धीरे-धीरे ये सब गुण हमारे अंदर आने चाहिए। इसी प्रकार से हम साधु संग करते हैं तो हमारे अंदर उस साधु के गुण आने चाहिए। हमें उनसे प्रभावित होना है। उनके सद्गुणों से प्रभावित होना है। उनके आचरण से प्रभावित होना है। इसीलिए हरिनाम चिंतामणि में बताया है कि सबसे फास्ट तरीका प्रगति का नाम जप में है कि जो अच्छी तरह से जप करते हैं, उनकी संगति में जप करो। इसलिए देखिए, गुरु महाराज की कितनी असीम कृपा है। वे हर रोज सुबह हमारे साथ ज़ूम के माध्यम से जप करते हैं। पूरी दुनिया में जो भी भक्त हैं, वह महाराज की संगति में जप कर सकते हैं, महाराज का उत्साह देख सकते हैं। महाराज की स्थिरता देख सकते हैं महाराज की शुद्धता देख सकते हैं ।महाराज के सद्गुणों का स्मरण कर सकते हैं। अगर हमें भी अच्छा जप करना है तो धीरे-धीरे इन सब विधि-विधानों का पालन करके हमारे अंदर भी यह सब आना चाहिए। तभी हम में स्थिरता आएगी। अगर हम केवल सोचते हैं कि हम केवल हरे कृष्ण हरे कृष्ण करते रहेंगे और हमें शास्त्र पढ़ने की जरूरत नहीं है, हम साधु संग से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है। तो यह भ्रांति है। यह महा भ्रांति है। इसलिए हम देखते हैं कि बहुत सारे भक्त कभी-कभी लंबे समय तक भक्ति में होने के बावजूद प्रगति नहीं कर पाते क्योंकि जो विधि विधान व प्रोसेस है। उसमें उनकी श्रद्धा कम है। जप तो करते हैं लेकिन जो जप करने का तरीका है। अपराध से बचने के लिए,नम्रता, सहनशीलता, क्षमा, स्थिरता, निपुण होना इन सब में उतना प्रयास नहीं कर रहे। तत्व विभ्रम एक प्रकार का अनर्थ है। वे तत्व को नहीं जानते हैं लेकिन भगवान कहते हैं-
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।*
( श्रीमद भगवद्गीता ४.९)
अर्थ:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
मुझे तत्वत: रूप से जानो। भारत में तो सभी लोग कृष्ण को जानते हैं। प्रभुपाद की कृपा से अब दुनिया में लोग कृष्ण को जानते हैं। इस्कॉन को जानते हैं लेकिन तत्वत: का मतलब क्या है? एक ही पुरुष है-
*एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।य़ारे य़ैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य।।*
(श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक 5. 142)
अर्थ:- एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियंता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
जब तक हम भोक्ता बनने की चेष्टा कर रहे हैं, इसका अर्थ है कि हम कृष्ण को तत्व रूप में नहीं जानते हैं।
हमें समझना है कि
*जीवेर ‘ स्वरूप’ हय- कृष्णेर नित्य दास’। कृष्णेर तटस्था-. शक्ति’ भेदाभेद प्रकाश।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २०.१०८)
अर्थ:- कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिति है, क्योंकि जीव कृष्ण कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय अभिन्न और भिन्न है।
ऐसे नही लिखा कि कभी कभी भोक्ता। नहीं। जब भी हमारे अंदर भोग विलास की इच्छा होती है तब इसका अर्थ है हमारी भक्ति में स्थिरता नहीं है। हम लोग अभी प्राथमिक स्तर पर हैं। कनिष्ठ लेवल पर हैं। कनिष्ठ कब उन्नत हो सकता है। इसके बारे में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जैव धर्म में बताते हैं। जब कनिष्ठ अपनी कमजोरियों को निपटता है, सबसे पहले तो उसको जागृति आनी चाहिए कि मेरे अंदर यह कमजोरी है। सब स्वीकार करना पड़ेगा। बहुत लोग स्वीकार नहीं करते। उनको बहुत बार बोलो कि तुम्हारे अंदर यह कमी है। उसे सुधारो। जैसे कुछ लोग जप में सोते हैं और अगर हम उनको कहते हैं कि प्रभु, आप सो रहे थे। तब वे कहते हैं कि नहीं! मैं ध्यान कर रहा था। स्वीकार करने के लिए भी तो ईमानदार चाहिए।
कोई बोल रहा है और आप स्वीकार नहीं कर रहे तो क्या करना चाहिए। जप में दो घंटे के लिए वीडियो ऑन कर लो तब देखो फिर कि तुम ध्यान में थे या सो रहे थे। कितना स्पष्ट उच्चारण कर रहे थे। पूरा वीडियो में रिकॉर्डिंग आ जाएगा। दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। फिर परिवर्तन लाना पड़ेगा कि कैसे हम जप में न सोए।
यह जो भक्ति में आगे बढ़ने का तरीका है, उसमें भी श्रद्धा होना बहुत जरूरी है। इसीलिए जो सही भक्ति है, वह इतनी आसान नहीं है। जो भावकुता वाली भक्ति है, वह आसान लगती है। लेकिन जो सही भक्ति है उसमें बहुत सारे शुद्धिकरण की आवश्यकता है। अपने चरित्र को सुधारना। कैसे एक कनिष्ठ, मध्यम बन सकता है? जब उसका चरित्र आदर्श धार्मिक बनता है। आदर्श धार्मिक चरित्र! अपने स्वार्थ के लिए किसी को किनारे नहीं करना। कूटनीति नहीं करना। यह सब गुण लाने पड़ेंगे। अगर हम एक तरफ भक्ति कर रहे हैं और दूसरी तरफ यह सब चीजें चल रही है तो कैसे प्रगति हो सकती है? नहीं हो सकती है। तब आप भटकते रहेंगे। कभी नामाभास? बाकी ज्यादातर समय नाम अपराध में। आदर्श धार्मिक चरित्र बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ेगा। बहुत मेहनत करना पड़ेगा।
*अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी:। तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्।।*
( श्रीमद्भागवतं २.३.१०)
अर्थ:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे समस्त भौतिक इच्छाओं से युक्त हो या निष्काम हो अथवा मुक्ति का इच्छुक हो, उसे चाहिए कि वह सभी प्रकार से परम् पूर्ण भगवान् की पूजा करें।
भक्ति विनोद ठाकुर के द्वारा भक्ति में आगे बढ़ने का सबसे बेस्ट तरीका बताया गया है। साधु संग अच्छे साधुओं का संग और शरणागति। विधि का मतलब शरणागति है।
*आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्। रक्षिष्यतीति विश्र्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा।आत्मनिक्षेप कार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः।।*
( हरिभक्ति विलास ११.६७६)
अर्थ:- शरणागति के छह विभाग ये हैं- भक्ति के अनुकूल बातों को स्वीकार करना, प्रतिकूल बातों का बहिष्कार करना, कृष्ण द्वारा संरक्षण पर पूर्ण विश्वास होना, भगवान् को संरक्षक या स्वामी के रूप में स्वीकार करना, पूर्ण आत्मसमर्पण तथा दीनता।
जो हमारा जप अच्छा करने के लिए अनुकूल है, उसको स्वीकारना, जो हमारे जप में विघ्न उत्पन्न कर रहा है, उसको हटाना। कृष्ण ही हमारे रक्षक हैं, कृष्ण ही हमारा पालन कर रहे हैं। शरणागति का मुख्य अंग निर्भरता है, डिपेंड ऑन कृष्ण! कृष्ण हमारा पालन करेंगे। अगर इसमें हमारा विश्वास नहीं बढ़ रहा है तो कैसे प्रगति होगी। अगर भजन करने के लिए जैसे आप नौकरी कर रहे हैं और आपका बीस लाख का पैकेज है। लेकिन उसमें इतनी धुलाई होती है कि जब आप घर आते हैं तो धोयेला मोरा की तरह सीधे सोफे पर बैठ कर सो जाते हैं। आपको कभी शास्त्र पढ़ने का समय नहीं मिल रहा है। इसलिए यह नौकरी अनुकूल नहीं है। इससे अच्छा है 15 लाख का पैकेज लो जहां पर आपको जॉब के ऊपर भी टाइम मिले। भक्ति में आगे बढ़ने के लिए यह सब निर्णय लेने पड़ते हैं। यह शरणागति है।
अगर हम इस प्रकार से सोचेंगे नहीं तो क्या होगा? संघर्ष होता रहेगा। बहुत वर्ष ऐसे बीत जाएंगे।
प्रगति करने में बहुत जन्म लग जाएंगे। हमें यह श्रद्धा होनी चाहिए कि भगवान एक हाथी को इतना सारा भोजन दे रहे हैं। हाथी तो नौकरी भी नहीं करता है। स्कूल में सोलह- सत्रह साल पढ़ाई करने नहीं जाता है, डिग्री लेने, अपना करियर बनाने के लिए। तो हमें इतना परेड करने की क्या जरूरत है? हम भी अपना थोड़ा समय भक्ति में अच्छी तरह से निकाले। समय देना पड़ेगा, अगर नाम के साथ संबंध बनाना है तो समय देना पड़ेगा। भागवत के साथ संबंध बनाना है तो भागवत को समय देना पड़ेगा। साधु के साथ संबंध बनाना है तो साधु को समय देना पड़ेगा। उनकी सेवा करनी पड़ेगी। इन सब चीजों के लिए बहुत सारा समय चाहिए। मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य है- आध्यात्मिक प्रगति। भौतिक ज्ञान / पदार्थ ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं है। सभी लोग संभाल रहे हैं। 8400000 योनियों संभाल रही हैं लेकिन हम लोग क्या कर रहे हैं? इतना बढ़िया भगवान ने हमें बुद्धि दी है उसके बावजूद हम आहार, निद्रा, भय, मैथुन में ग्रस्त हो रहे हैं। हम अपने अध्यात्मिकता में कम से कम समय (मिनिमम टाइम) लगाना चाहते हैं। यह मूर्खता है। कृष्णभावनामृत के लिए हमें अधिक से अधिक समय देना चाहिए और अन्य चीजों के लिए कम समय देना चाहिए। यह भी आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् है। कैसे कम से कम समय में हम अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा कर ले और ज्यादा से ज्यादा समय हम भक्ति में लगाएं। ऐसे बहुत सारे निर्णय हैं जिसकी बहुत आवश्यकता है। यही तो समझना है। हम शास्त्र क्यों पढ़ते हैं, शास्त्र पढ़ना कोई टाइम पास नहीं है, उन शास्त्रों को पढ़कर हमें अपने अंदर परिवर्तन लाना है। भागवत पढ़कर आपको भागवत बनना पड़ेगा। तब आपको कृष्ण की प्राप्ति होगी। तब आपको गोलोक प्राप्त होगा।
प्रभुपाद जी ने क्या कहा है- दिस मूवमेंट फ़ॉर मेकिंग ब्राह्मण, दिस मूवमेंट फ़ॉर मेकिंग बिल्डिंग करैक्टर। भक्ति में आदर्श बनना बहुत जरूरी है। इसके लिए विधि विधानों को जानना, उसको कैसे अपने जीवन में उतारना, साधुओं से ट्रेनिंग लेना है। यह भी जरूरी है, तब जाकर आप शुद्ध नाम ले सकते हो। एक शुद्ध नाम आपके मुखारविंद से निकलेगा और आपके सारे पाप नष्ट हो जाएंगे। उसके बाद आपका शुद्ध नाम बढ़ता जाएगा। धीरे-धीरे आप ऊंचे स्तर पर रूचि, आसक्ति, भाव भक्ति, प्रेमा भक्ति के स्तर पर जा सकते हैं। नहीं तो, यह सब बहुत कठिन है। सबसे बड़ा जो विघ्न है -, यह जो सोपान है- श्रद्धा, साधु संग, भजन क्रिया, अनर्थ निवृत्ति, निष्ठा, रुचि, आसक्ति, भाव भक्ति, प्रेमा भक्ति। यह सारा श्रद्धा का विकास है। इसमें सबसे बड़ा टफ स्तर है, वह है अनर्थ निवृत्ति। ऐसे बहुत सारे भक्त चर्चा करते हैं कि 90% अनर्थ निवृत्ति पार नहीं कर पाते क्योंकि बहुत सारे लोग अपनी कमी देख भी नहीं पाते। जैसे आप मनन करते हैं, मनन में क्या होता है। धीरे-धीरे आपकी कमी, आपके हृदय की गंदगी, आपके सामने आती है। फिर ऐसा लगता है कि बहुत हो गया, बहुत हो गया। कभी-कभी तो नींद हराम हो जाती है। एक बार मैं अपने शिक्षा गुरु के साथ बैठा था। शाम का समय था, उन्होंने एक ऐसा पॉइंट बोल दिया कि पूरी रात ही नींद नहीं आई। मैं सोचता रह गया कि मेरे अंदर यह कमी है या नहीं है, मैं सोचता रह गया। चिंतन करता रह गया, इसलिए कहते हैं कि मनन के बाद क्या करो, जो आपका फेवरेट कीर्तन है, वो सुनो, तब नींद आएगी। नहीं तो वह अंदर खटकेगा- अरे! मेरे अंदर यह प्रॉब्लम है, वो प्रॉब्लम है। मेरे अंदर यह गंदगी है। ज्यादातर लोग मनन करते ही नहीं हैं। कैसे मनन करना है, वो भी पता नही है। पर ये उपनिषद में बताया है कि श्रवण, मनन.. यह तरीका है। जैसे गुरु महाराज हर रोज हमें जपा टॉक में अलग-अलग विधि-विधान बताते हैं। भागवत प्रवचन में बताते हैं। आप प्रभुपाद जी के प्रवचन सुनिए। प्रभुपाद जी क्या बता रहे हैं। प्रभुपाद जी हमें ट्रेनिंग दे रहे हैं। तुम्हें यह करना है, तुम्हें वह करना है, वे बता रहे हैं। खाली हम जप कर रहे हैं और 4 नियमों का पालन करने का प्रयास कर रहे है। जिसमें भी वो पूरा चार का तो पालन नहीं हो पाता। कभी 3.7 हो रहा है क्या 3.9 हो रहा है। हमें आगे बढ़ने के लिए और भी बहुत कुछ करना है। यह एक लेवल तक आने के लिए ठीक था और ऊपर तक जाने के लिए और नियमों की जरूरत है। प्रभुपाद जी ने कहा ना- इनीशिएशन इज द बिगिनिंग। इनीशिएशन का मतलब क्या है शुरुआत लेकिन आगे जैसे हम स्कूल में जाते हैं तब अगली अगली क्लास में फिर और और नया-नया सिखाया जाता है।ऐसी प्रकार में यह श्रद्धा के जो स्थल हैं आप अगर अनर्थ निवृत्ति पर है तो वहां आपको बहुत सारी चीज सीखना है। जब आप निष्ठा पर पहुंचेगें। आपको वहां बहुत सारी चीज सीखना है। नए नए नीति नियम, संकल्प लेने होंगे। जिससे आप रुचि पर जा सकते हो। रुचि पर जाने पर आपको और नए नए जबरदस्त नियम संकल्प लेने पड़ेंगे, तब आप आसक्ति पर जा सकते हो। वहां पर और जबरदस्त जबरदस्त संकल्प लेने पड़ेंगे तब आप भाव भक्ति पर जा सकते हो। यह विधि है, क्रम है। खाली हरे कृष्ण करें और ऊपर बढ़ें, तब कम से कम निष्ठा लेवल पर होना चाहिए। आपको शबरी जैसी ज्यादा बुद्धि नहीं होनी चाहिए। तब तो हो जाएगा, जब आपका हृदय शुद्ध है तब हरिनाम करने से बहुत जल्दी रिजल्ट मिलेगा। लेकिन जब हमारे अंदर अनर्थ है तो हमारे अंदर अनर्थ क्यों आए? जैसे किसी ने कुआं खोदा, मालिक एक मजदूर को लाता है और कहता है कि जाओ, पीछे बगीचे में कुआं खोदना है। 20 फुट इधर से मापाई कर देना, 20 फुट उधर से मापाई कर लेना। वह कुआं खोदने लगा। मालिक को कुछ काम था, वह चला गया। जब मालिक वापस आया तो उसने देखा कि इसने तो गलत जगह पर कुआं खोल दिया है। 20 फीट अंदर कुआं खोदा है।तब मालिक क्या बोलेगा- इसको भर बेटा ! और इधर खोद हमने ऐसा ही किया है। हमने इतने इतने कुएं खोद दिए हैं। वह सब गलत आदत हमारे अंदर जो भी है, उसकी खेती हमने की है। केवल हम जिम्मेदार हैं और कोई जिम्मेदार नहीं है। उसको आपको मेहनत करके रोकना अथवा निपटना पड़ेगा। जितना आपने मेहनत किया था खेती में, उतनी मेहनत उसको निपटने में लगेगी। अगर वो नहीं करेंगे तो हम बस मुफ्त का चंदन घिस रहे हैं तो उतना प्रगति नहीं होगा। भक्ति में मुफ्त का चंदन नहीं चलता है। कृपा है, लेकिन अपना ईमानदारी और गंभीरता भी चाहिए।
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||*
( श्रीमद भगवद्गीता ४.११)
अर्थ:- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |
जैसे हम शरणागत होंगे, वैसे ही भगवान हम पर कृपा करेंगे। दामोदर लीला में भी दो उंगली का प्रसंग आता है। एक तो है हमारा प्रयास और एक है भगवान की कृपा। जो जो हमारी कमजोरी है, इसको निपटना। इसी से हमारा भजन उन्नत हो सकता है। यह कनिष्ठ से मध्यम जाने के लिए है। यह सब प्रयास भक्ति में बहुत जरूरी है। जानिए कि नाम में श्रद्धा और विधि विधान में श्रद्धा दोनों चाहिए। श्रद्धा इन नेम एंड श्रद्धा इन द प्रोसेस ऑफ चैंटिंग। इसलिए जैसे बढ़िया-बढ़िया किताब है, चैटिंग के बारे में। जैसे हरि नाम चिंतामणि है, प्रभुपाद जी की किताब है। प्रभुपाद के बहुत सारे शिष्यों की किताबें हैं। इनको आप पढ़ सकते हैं। गुरु महाराज की जपा के बारे में किताब है, उसको भी पढ़िए, उससे आपको उत्साह मिलेगा। धीरे-धीरे अपने अंदर विकास लाइए, विधि-विधानों का पालन बहुत अच्छे से हम करते रहेंगे, धीरे-धीरे एक-एक लेवल पर हम उठ सकेंगे। अगर कोई एक बच्चा एक क्लास में है तो ठीक से पढ़ाई नहीं करता है तो वही क्लास में रहेगा। ऊपर कहां से जाएगा। इसी प्रकार से अगर हम अनर्थ निवृत्ति में अच्छी पढ़ाई नहीं कर रहे हैं तो निष्ठा पर हम कहां जाएंगे, हम जा ही नहीं सकते। फिर भजन में कभी स्थिरता नहीं आएगी, कभी ऊपर कभी नीचे। यही चलता रहेगा, ठीक है।
हरे कृष्ण!
श्रील प्रभुपाद की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*दिनांक -23 -03 -2022*
हरे कृष्ण !
सबसे पहले मेरा दंडवत प्रणाम महाराज जी के श्री चरण कमलों में और सभी वैष्णव वृन्दों को मेरा प्रणाम !
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हरे कृष्ण ! तो मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे ज़ूम टेंपल में सुंदर कार्यक्रम में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जबसे कोरोना हुआ है तबसे महाराज की कृपा से हम सभी इकट्ठे जप कर रहे हैं। आज सुबह मुझे ऐसा अवसर प्राप्त हुआ उसके लिए मैं महाराज जी को धन्यवाद दूंगा। हम सभी जानते हैं कि हरि नाम का हमारे आध्यात्मिक जीवन में कितना महत्व है कितना महत्वपूर्ण रोल है। भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज कहा करते थे हरि नाम इज़ आवर लाइफ ! हरि नाम हमारा जीवन है ! एक प्रकार से हमारा पूरा जीवन क्वालिटी ऑफ आवर लाइफ है और वह बिल्कुल निर्भर करती है हमारी क्वालिटी ऑफ जपा के ऊपर, जिस मन से हम जप करेंगे उसी प्रकार से हमारा पूरा दिन रहता है। अच्छे रूप से हम भक्तों के साथ व्यवहार भी करते हैं और पूरा दिन उत्साह भी बना रहता है इसीलिए बहुत आवश्यक है कि हम भक्तों के संग प्रतिदिन कुछ हरि नाम की महिमा का श्रवण करें। कैसे हम अपने जप को और अधिक अच्छा बढ़ा सकते हैं कि हम हरि नाम के प्रति अपना आकर्षण उत्पन्न कर सकते हैं, तो इसीलिए आप लोग प्रतिदिन प्रयास करते हैं महाराज के निर्देशन में, यह आप सभी का बहुत बड़ा सौभाग्य है। मैं आपसे कुछ बातें शेयर करूंगा जो मैंने पढी सुनी है और आप सब से आशीर्वाद की याचना करते हुए कि अपने इस प्रयास से मैं अपने आपको शुद्ध कर सकूं और आप सबके दिव्यानंद के लिए और हरि नाम की प्रसन्नता के लिए कुछ कह सकूं। श्रीमद भगवतम के 11वे स्कंध 8 वे अध्याय में पिंगला वेश्या का एक वर्णन आता है पिंगला की एक बहुत सुंदर प्रार्थना है। यह 11वे स्कंध का 8 अध्याय का 31 वां श्लोक है
*सन्तं समीपे रमणं रतिप्रदं वित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय अकामदं दुःखभयाधिशोक मोहप्रदं तुच्छमहं भजेऽज्ञा ||*
(श्रीमद भागवतम 11.8.31)
अनुवाद -मैं ऐसी मूर्ख निकली कि मेरे हृदय में जो शाश्वत स्थित है और मुझे अत्यन्त प्रिय है उस पुरुष की मैंने सेवा छोड़ दी। वह अत्यन्त प्रिय ब्रह्माण्ड का स्वामी है, जो कि असली प्रेम तथा सुख का दाता है और समस्त समृद्धि का स्रोत है। यद्यपि वह मेरे ही हृदय में है, किन्तु मैंने उसकी पूर्णरूपेण अनदेखी की है। बजाय इसके मैंने अनजाने ही तुच्छ आदमियों की सेवा की है, जो मेरी असली इच्छाओं को कभी भी पूरा नहीं कर सकते और जिन्होंने मुझे दुख, भय, चिन्ता, शोक तथा मोह ही दिया है।
आप में से बहुत से भक्त अवगत होंगे पिंगला के एपिसोड से, भगवान उद्धव से यह बता रहे हैं कि पिंगला ने कितनी सुंदर शिक्षाएं दी। पिंगला एक वैश्या थी और एक रात को अपने आप को बहुत सजा कर सवांर कर वह अपने कक्ष के द्वार पर आ जाती है और प्रतीक्षा करती है कि कौन उसका कस्टमर होगा, ग्राहक होगा और उसके साथ संग करेगा, सामने से एक व्यक्ति आ रहा है शायद उसका कस्टमर होगा, लेकिन वह भी निकल जाता है ऐसे प्रतीक्षा करते करते बहुत समय निकल जाता है लेकिन कोई भी कस्टमर जब उसके पास नहीं आता तो वह एकदम निराश होकर उसके हृदय में वैराग्य उत्पन्न होता है और उससे बहुत सुंदर एक गीत निकलता है। यह बहुत सुंदर उसकी एक व्यथा है।
*कृष्ण-बहिर्मुख-दोषे माया हैते भय ।कृष्णोन्मुख भक्ति हैते माया-मुक्त हय ॥* (चै.च. मध्य लीला 24.136 )
अनुवाद- “कृष्णभावनामृत का विरोध करके मनुष्य पुनः माया के प्रभाव द्वारा बद्ध तथा भयभीत हो जाता है। श्रद्धापूर्वक भक्तिमयी सेवा सम्पन्न करने से मनुष्य माया से मुक्त हो जाता है।”
सततम् भगवान मेरे इतने निकट हैं और वह भगवान जो असली भोक्ता है जो पूरे ब्रह्मांड के स्वामी हैं जो वास्तव में मुझे प्रेम करते हैं लेकिन मैं उनको प्रेम ना करके इस संसार के व्यक्तियों से प्रेम करने का प्रयास कर रही हूं और उन संसार के व्यक्तियों से प्रेम करके मुझे मिला भी क्या है ? मोह, क्षोभ, शोक, दुख, इत्यादि तो अब वह निर्णय लेती है कि मुझे अब भगवान से प्रेम करने का प्रयास करना है। इन सांसारिक व्यक्तियों से प्रेम करके मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ बल्कि शोक मोह भय इत्यादि प्राप्त हुआ। यदि वास्तव में देखा जाए तो ऐसी स्थिति प्रत्येक जीव की है कि भगवान जो हम सबके इतने निकट हैं जो हम से बहुत प्रेम करते हैं जो हमारे सुहृदयम सर्वभूतानां है उनसे विमुख होकर उनसे बहिर्मुखी होकर हम संसार के व्यक्तियों से प्रेम करने का प्रयास कर रहे हैं और इससे हम विषम दुख और मोह को प्राप्त कर रहे हैं। चैतन्य चरितामृत में भी जब वह महाप्रभु सनातन गोस्वामी को कुछ शिक्षाएं दे रहे हैं तब महाप्रभु उसमें बताते हैं कि हर एक बद्ध जीव का क्या मुख्य दोष है ? महाप्रभु बताते हैं सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण नहीं है हमारे जीवन की समस्या का मुख्य दोष मुख्य कारण है कृष्ण के प्रति आकर्षण ना होना। एक प्रकार से हमने कृष्ण को त्यागा हुआ है कृष्ण से वैराग्य लिया हुआ है तो मनुष्य जीवन का लक्ष्य है कृष्ण के प्रति आकर्षण बढ़ाना जितनी मात्रा में हम कृष्ण के प्रति आकर्षण बढ़ाते रहेंगे उतनी ही मात्रा में हमारे ऊपर माया का प्रभाव कम होता रहेगा यही मनुष्य जीवन है यही हमारी साधना है और हम जानते हैं कि भगवान और हम जानते हैं कि भगवान की असीम शक्तियां हैं और सभी शक्तियों में जो भगवान की प्रमुख शक्ति है वह उनकी कृपा शक्ति है और भगवान अपनी कृपा शक्ति से अपने नाम के रूप में प्रकट होते हैं। भगवान और भगवान के नाम में कोई अंतर नहीं है
*नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य-रस-विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ॥* (चै. च. मध्य लीला 17.133)
अनुवाद- “कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनन्दमय है। यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वर देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनन्द के आगार, स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कृष्ण-नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न है।
यदि हमारे जीवन का लक्ष्य कृष्ण से आकर्षण उत्पन्न करना है तब यही हमारे जीवन की सबसे बड़ी हर समस्या का समाधान है। हरि नाम के प्रति हम जितना अधिक आकर्षण उत्पन्न करेंगे उतनी ही मात्रा में हम माया के प्रभाव से बचे रहेंगे। वरिष्ठ भक्त बताते हैं हमारे नाम के जपने में पांच प्रकार के ” ए “आते हैं यह पांच 5 ” ए ” क्या है ? पहला ए है “अट्रैक्शन” हमारा हरिनाम के प्रति आकर्षण होना चाहिए। आकर्षण कैसे होता है ? जितना हम अधिक हरि नाम के विषय में सुनेगे या पढेंगे उतना आकर्षण बढ़ेगा। चैतन्य महाप्रभु ने जब ईश्वरपुरी से दीक्षा ली गया में. श्रील प्रभुपाद एक तात्पर्य में लिख रहे हैं ईश्वरपुरी पाद जी ने उनको आदेश दिया कि आप प्रतिदिन श्रीमद भगवतम को बहुत गहराई से पढ़िए, बहुत बहुत ध्यानपूर्वक पढ़िए जितना हम ध्यान पूर्वक इसको पड़ेंगे उतना हमारा हरि नाम के प्रति आकर्षण बढ़ेगा। भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज कहा करते हैं की हरी नाम की जो स्वरूप शक्ति है वह हरि कथा है। जितना हरि कथा का श्रवण करेंगे श्रीमद भगवतम का अध्ययन करेंगे उतना हरि नाम में हमारी श्रद्धा हमारा आकर्षण बढ़ेगा तो सबसे पहले क्योंकि हरि नाम हमारा जीवन है , इसके प्रति हमें आकर्षण उत्पन्न करना है। हरि नाम, होली नेम के प्रति यह पहला , दूसरा जहां आकर्षण हुआ “अट्रैक्शन” होगा। वहां अटेंशन जाएगा। हम देखते हैं संसार में बिलबोर्ड हैं एडवरटाइजिंग है वह हमें अट्रैक्ट करती हैं , हमारा ध्यान उस तरफ जाता है तो जहां अट्रैक्शन है वहां “अटेन्शन” है लेकिन केवल अटेंशन लेना ही पर्याप्त नहीं है अटेंशन के बाद आता है “अब्जॉर्प्शन” , पूरा मनोयोग के साथ पूरा ह्रदय निवेशित करके यही साधना भक्ति का सार है।
*येन केन प्रकारेण मन: कृष्णे निवेशयेत । सर्वे विधि निषेधास्युरेत्योरेव किंकरः।।*
इस ढंग से जप करें तो पूरा मन उसमें लग जाए , बताया जाता है कि जप का वास्तविक अर्थ यह है माइंड इन द मंत्र, मंत्रा इन द माइंड, इसे पूर्ण मनोयोग के साथ करना यह अब्जॉर्प्शन” है। तो पहला है अट्रैक्शन, अटेंशन और फिर तीसरा है अब्जॉर्प्शन चौथा आता है “अटैचमेंट” , जब हम पूरा अब्जॉर्ब हो जाते हैं फिर हमारा अटैचमेंट होता है। फिर हम16 माला पर ही नहीं रुकना चाहेंगे, क्यों केवल 16 माला ही 60,000 क्यों नहीं और माला करने की इच्छा होगी जहां मौका मिलेगा वही माला लेकर शुरू हो जाएंगे अटैचमेंट और फिर पांचवा है “अफेक्शन” प्रेम हरि नाम के प्रति, प्रेम उत्पन्न होना तो यह हमारे जीवन का लक्ष्य है। फिर कैसे हम हरि नाम के प्रति आकर्षण उत्पन्न करें ? खूब हरी नाम की महिमा को सुनें, श्रीमद भागवतम को अच्छे ढंग से पढ़ें, समझें, श्रवण करें और फिर हम हरि नाम को सुनने का प्रयास करें *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* और अब्जॉर्प्शन का अर्थ है पूरे हृदय में निवेशित, दोष क्या बता रहे हैं चैतन्य महाप्रभु, जब हम कृष्ण से विमुख होते हैं तो हमें माया का भय होता है हम इस संसार में आ जाते हैं और यह संसार इतना भयावह हैं और इसका समाधान क्या है ? कृष्ण उन्मुख होना जैसे हम कृष्ण के उन्मुख हो जाते हैं। हम माया से भी मुक्त हो जाते हैं यानी कि हमारे जीवन की समस्या माया के प्रति आकर्षण नहीं है। माला में अगर हम हृदय नहीं डालेंगे अपना तब यह एक प्रकार की मैकेनिक जस्ट काइंड ऑफ फॉर्मेलिटी जैसे जब हार्ट फीलिंग के साथ में भगवान को पुकारता है, उससे चीजें अटैचमेंट हो जाती है और फिर “अफेक्शन” अब श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर जी हरि नाम चिंतामणि में बताते हैं। ह्रदय को भगवान में लगाने के लिए आवश्यक है हम जप करें तब हमें संबंध ज्ञान में स्थित होकर ही जप करना चाहिए। मैं कौन हूं ? भगवान कौन हैं ? मैं क्या कर रहा हूं ? अब्सेंट माइंडेड जपा क्या होता है। बस उठाया माला हरे कृष्ण हरे कृष्ण करना शुरू कर दिया। माला शुरू करने से पहले अधिकांश बुरा मत मानिएगा कोटा फुल करना होता है मुझे 16 माला करनी है गुरु जी का आदेश है कि 16 माला निपट जाए, मेरा आज का हो जाएगा मैं रिलैक्स हो जाऊंगा, येन केन प्रकारेण 16 माला निपटाना है। परम पूजनीय भक्ति चारु स्वामी महाराज अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं नॉर्मली मोस्ट ऑफ द चैंटर्स, चैंट द राउंडस, वी डोंट चैंट द होली नेम, 16 राउंड्स निपटा देते हैं हरि नाम का जप नहीं करते। हरि नाम के प्रति प्रेम उत्पन्न करने का भाव नहीं है। येन केन प्रकारेण 16 माला का जप निपटाने का उद्देश्य है। उसमें हृदय को नहीं डाला अपनी फीलिंग को नहीं डाला, यह बहुत आवश्यक है। संबंध ज्ञान में स्थित होना कि मैं जप क्यों कर रहा हूं ? ठीक है गुरु की प्रसन्नता के लिए क्यों गुरु ने आदेश दिया है। मेरा कृष्ण के साथ एक शाश्वत संबंध है। हरि नाम चिंतामणि में भक्ति विनोद ठाकुर जी बताते हैं कि पूरे मृत्यु लोक में यहां कदम कदम पर, क्षण क्षण पर मृत्यु हो रही है। केवल इस मृत्युलोक में दो ही चीज जीवित हैं एक है हरी नाम और दूसरा है जीवात्मा, जीव, हरि नाम तो हमेशा ही आध्यात्मिक रहता है लेकिन जो जीव है जब वह कृष्ण से विमुख हो जाता है तो उसकी लगभग मृत अवस्था ही है। हालाकि आत्मा कभी मरती नहीं है , गहरी सुसुप्त अवस्था में है हर जीव आत्मा जो कृष्ण से विमुख है। जैसे एक अग्नि से एक स्फुलिंग निकलती है और खत्म हो जाती है तो उसको कैसे पुनर्जीवित किया जाता है जप के माध्यम से, एक चिन्मय जीवात्मा है जो कृष्ण से विमुख होकर लगभग इस मृत्यु लोक का हो गया है। जब हम उसको हरि नाम से जोड़ते हैं तब यह जप कहलाता है और फिर आत्मा को दोबारा से जीवन मिलता है और वह अपनी वास्तविक स्थिति में आता है। जप का अर्थ है हरी नाम को जीवात्मा से जोड़ना जैसे ही हरि नाम अर्थात कृष्ण से जोड़ना उसकी वास्तविक स्थिति है तब दुबारा से उसमें उत्साह और जीवन वापस आता है। यही संबंध ज्ञान है और इसमें स्थित होकर कि मैं कौन हूं तीन चीजें बताते हैं। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर पहले अपने बारे में जाने कि मैं कौन हूं? मैं भगवान का दास हूं। इसीलिए श्रीमद्भागवत को आप जितना पढेंगे श्री प्रभुपाद के तात्पर्य को जानने का प्रयास करेंगे, आप का संबंध ज्ञान स्पष्ट होगा। संबंध ज्ञान के बारे में जानना, कृष्ण के विमुख जीवात्मा इस संसार में, इस संसार में मेरा दोष क्या है? कि मैं कृष्ण से विमुख हो गया, मुझे करना क्या है ? कृष्ण से आकर्षण पाने के लिए मुझे अपना संबंध स्थापित करना है। माध्यम क्या है ? यह हरि नाम है जो कि गुरु परंपरा द्वारा दिया हुआ है। इसीलिए मुझे बहुत गंभीरता से भगवान को पुकारना है तो कैसे पुकारे *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि जप बहुत आसान है जप का अर्थ है होठों से बोलना, कानों से सुनना, ह्रदय से रोना, यही है जप, कैसे रोना है? जैसे छोटा बच्चा रो-रो कर मां को पुकारता है असहाय अवस्था में क्योंकि उस बच्चे के पास कोई ऑप्शन नहीं है बच्चा चल नहीं सकता, बोल नहीं सकता, हिल डुल नहीं सकता उसके पास कम्युनिकेशन का एक ही तरीका है कि वह रोके मां को पुकारता है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* वह वह जेन्युइन क्राइंग कैसे आएगी ? जैसे छोटा बच्चा रोता है। जेन्युइन क्राइंग, असहाय अवस्था में क्राइंग कैसे आएगी ? क्योंकि हम यहां कंफर्टेबल मानते हैं इस मेटेरियल जगत में हम अपने आप को बहुत कंफर्टेबल मानते हैं हमारे जीवन का लक्ष्य ही स्पष्ट नहीं है। हमारे जीवन का लक्ष्य है इस संसार में हम सुखी रहे, जब हम अच्छे ढंग से संबंध को जानेंगे अपने हृदय को खोजेंगे, हम आप सबको बोलेंगे कि आपको क्या चाहिए ? प्रभु आप की आवश्यकताएं क्या है ? हमें ऊपर लगेगा कि हमारी आवश्यकता है मुझे धन चाहिए , मुझे पोस्ट चाहिए ,मुझे पावर चाहिए , यह चाहिए वह चाहिए, संसार में , यह मेरी आवश्यकता है यह पूरी होगी तो मैं खुश हो जाऊंगा। फिर और थोड़ा गहराई में जाएंगे तो मेरी क्या आवश्यकता है? वास्तव में मुझे क्या चाहिए? मुझे सिक्योरिटी चाहिए,, मुझे प्रेम चाहिए और गहराई में जाएंगे तो मुझे क्या चाहिए वास्तव में हमको कृष्ण चाहिए। जब हम जप करने बैठे तब इस ढंग से हमें इस पूरी मानसिकता के साथ लाना चाहिए कि मुझे कृष्ण की आवश्यकता है। यहां से जैसे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर बहुत अच्छे ढंग से बताते हैं बहुत सुंदर उदाहरण देते थे जब हम माला कर रहे हैं जब हमने मनके को पकड़ा, मनके को जो यह पकड़ रहे हैं तो यह मनका नहीं है यह चैतन्य महाप्रभु के चरण कमल हैं। कल्पना कीजिए कि आप ने चैतन्य महाप्रभु को चरण कमलों को पकड़ लिया जब आपने महाप्रभु के चरण कमलों को पकड़ लिया तो आप प्रभु से क्या मांगेंगे । महाप्रभु के चरण कमलों को पकड़कर उनका प्रेम मांगेंगे, चाहे हम जो भी प्रार्थना कर सकते हैं। मुझे मालूम है कि मुझे आपकी सेवा मांगनी चाहिए, मुझे आपकी सेवा करनी चाहिए लेकिन मैं माया की सेवा करता हूं। मेरी रक्षा कीजिए मुझे बचाइए मुझे अपनी सेवा में लगाइए या कोई एक अनर्थ मुझे बहुत सता रहा है , हम महाप्रभु के चरणों को पकड़कर प्रार्थना कर सकते हैं मुझे शक्ति दे कि मैं इन अनर्थ से ऊपर उठ सकूं।
*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना । अमानिन मानदेन कीर्तनीय: सदा हरिः ।।* (शिक्षाष्टकं 3)
स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनःस्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम का सतत कीर्तन कर सकता है।
मैं उसको सुनता हूं बोलता हूं लेकिन मैं उसको अपने जीवन में अप्लाई नहीं कर पाता, बिना आपकी कृपा के मैं उसको अपने जीवन में कैसे उतार पाऊंगा। जो आध्यात्मिक जीवन में बढ़ने के लिए वास्तविक इच्छा का अनुभव कर रहा हूं। उसको मैं रो कर पुकार सकता हूं यह कोई आर्टिफिशियल नहीं है कि मुझे प्रेम ही मांगना है। प्रेम ही मांगना चाहिए जो मैं आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने के लिए अपनी चुनौतियों का सामना कर सकूं , उसके लिए मैं भगवान से प्रार्थना करूं वह प्रार्थना हृदय से निकले मैं मुख से बोल रहा हूं, कानों से सुन रहा हूं और हृदय से प्रार्थना कर रहा हूं यह संबंध ज्ञान निश्चित होकर जप है अगर हम संबंध ज्ञान में स्थित होकर जप नहीं करते, भक्ति विनोद ठाकुर जी बताते है हरि नाम चिंतामणि में
*यावत संबंध-ज्ञान स्थिर नाहि हय।तावत अनर्थे नामाभासेर आश्रय।।*
मैं इस संबंध ज्ञान में स्थित होकर जप नहीं कर रहा हूं ? मैं क्या कर रहा हूं ? नाम नहीं ले रहा , नाम का आभास कर रहा हूं। शैडो चैट , छाया हरि नाम , नहीं ले रहा जो यह हरि नाम की छाया है वह कभी भी आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकती। आज जो टेंपल में हम हैं हम किसी तरह से जूम टेंपल में मिल गए ,यह तो बहुत अच्छी बात है पर यहां जूम प्रसाद नहीं हो सकता, प्रसाद की छाया दिखा दी जाए एक फोटो दिखा दिया जाए कि बाल भोग का समय हो गया है। देखिए यह देखिए बाल भोग पा लीजीए तो उससे हमारी संतुष्टि नहीं होगी। जब संतुष्टि नहीं होगी आत्मा की तो आत्मा को आनंद की अभिलाषा, आत्मा को आनंद चाहिए। यह संतुष्टि हम कहां ढूंढते हैं भौतिक जगत में और हमें मालूम ही नहीं चलता अनकॉन्शियसली बिना हमारे जाने कि हम अपने आध्यात्मिक स्तर में कंप्रोमाइज करना शुरू कर देते हैं। चलता है कोई बात नहीं सभी कर रहे हैं थोड़ा बहुत तो चलता है या जप मैं सो भी गए तो क्या फर्क पड़ता है थोड़ी-थोड़ी बातें सब चलता है। कोई बात नहीं कोई पश्चाताप नहीं होता कि अगर ध्यान पूर्वक जप नहीं हुआ, वर्षों से अपने आप को संतुष्ट करने के की कोशिश करते हैं। संतुष्ट करने का प्रयास कर लेते हैं जो असली आनंद का स्रोत है वह हरि नाम उसकी हमें केवल छाया मिल रही है, छाया से कभी भी संतुष्टि नहीं होती। हमें अपने आप से पूछना चाहिए क्या मैं जब भक्ति में आया और महत्वकांक्षा की भक्ति में मुझे प्रेम चाहिए, भक्ति में प्रगति कर सकूं, क्या मेरी वह इच्छाएं पूरी हो रही हैं ? नहीं हो रही तो क्यों नहीं हो रही ? क्योंकि नाम की छाया मात्र मुझे मिल रही है। सही ढंग से मेरा कृष्ण के साथ संबंध स्थापित नहीं हो पा रहा। इस छाया से मुझे कैसे संतुष्टि प्राप्त होगी। मुझे वास्तविक नाम का जप करना है हालांकि मेरी स्थिति बहुत खराब है मुझे हृदय से नाम करना चाहिए , मेरे हृदय में बहुत अनर्थ हैं। प्रभुपाद कहते हैं केवल सिंसेरिटी चाहिए बस , यही इस संकीर्तन आंदोलन की खूबी है। चाहे कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों ना हो कितना ही बड़ा अपराधी क्यों ना हो प्रमाणिक गुरु के संपर्क में आने के बाद वह भगवान को रो-रो कर पुकार सकता है तो जो मेरी यह वास्तविक स्थिति होनी चाहिए और मैं इस स्थिति में हूं और मैं उस वास्तविक स्थिति को पाना चाहता हूं। अकेले में बहुत असहाय हूं जब तक आपकी और गुरु की कृपा प्राप्त नहीं होगी मैं आगे नहीं बढ़ सकता। यह पुकारेंगे इस संबंध ज्ञान में स्थित होकर अपने आप को असहाय अवस्था में पाएंगे तब हम को महाप्रभु आकर्षित करेंगे। हमारा हरि नाम के प्रति आकर्षण बढ़ता रहेगा और भक्ति विनोद ठाकुर जी बताते हैं कैसे हम भक्ति में प्रगति कर रहे हैं ? यह कैसे होगा जितना हमारा हरि नाम के प्रति आकर्षण बढ़ता जाएगा। वरना हम ऐसे नहीं करते केवल मैकेनिकल चेटिंग करते हैं। इसी तरह से कोटा कॉन्शियस रहते हैं कृष्णा कॉन्शियस के बजाय, किसी तरह से मेरा कोटा पूरा हो जाए।
*बह जन्म करे यदि श्रवण, कीर्तन ।तबु त’ ना पाय कृष्ण-पदे प्रेम-धन ॥*
(चै. च. आदि लीला 8.16)
अनुवाद-यदि कोई हरे कृष्ण महामन्त्र के जप में दस अपराध करता रहता है, तो वह चाहे अनेक जन्मों तक पवित्र नाम का जप करने का प्रयास क्यों न करे, उसे भगवत्प्रेम प्राप्त नहीं हो सकेगा, जो इस जप का चरम लक्ष्य है।
भक्ति रस अमृत सिंधु के एक अध्याय में प्रभुपाद जी बहुत सुंदर बात लिख रहे हैं पेज नंबर 107 में प्रभुपाद जी कहते हैं हालांकि हरि नाम में इतनी शक्ति है इसकी पहली किस्त क्या है
*चेतोदर्पण-मार्जनं भव-महादावाग्नि निर्वापणं श्रेय:कैरव-चंद्रिका-वितरणं विद्यावधूजीवनम् । आनन्दाम्बुधि-वर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्।।*
1. श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो हमारे चित्त में वर्षों से संचित मल को साफ करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी महाग्नि को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तनयज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन (पति) है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमें नित्य वांछित पूर्णामृत का आस्वादन कराता है।
यह हमारे हृदय में गंदगी को साफ कर देती हैं प्रभुपाद लिख रहे हैं मैं भक्ति रस अमृत सिंधु में हिंदी में पढ़ रहा हूं जो व्यक्ति इस धूल को अपने हृदय से हटाना नहीं चाहता अपितु उसको उसी तरह रहने देना चाहता है वह हरे कृष्ण महामंत्र का दिव्य फल प्राप्त नहीं कर सकते, हालांकि हरि नाम हमारे हृदय की धूल को भगा देता है साफ कर देता है लेकिन साधक स्वयं यह नहीं चाहता । यह धूल साफ मत करना इसको यहीं रहने दो हमारे घर कोई अचानक से मेहमान आने वाला हो तो हम कभी क्या करते हैं कि धूल को कारपेट के नीचे छुपा देते हैं या अलमारी में गंदे कपड़े डाल देते हैं बंद कर देते हैं यह गंदगी ऐसी ही बनी रहे इसको डिस्टर्ब मत करो इसी ढंग से हमारे हृदय में ऐसी भौतिक इच्छाएं जिनको हम समझते हैं कि वह हमारे आनंद के स्रोत हैं इनको तो हम नहीं हटाएंगे थोड़ा बहुत हमें आनंद लेते रहना चाहिए हरि नाम में। अगर हम अपने मन की इच्छाएं नहीं रखेंगे इनको हम नहीं हटाएंगे थोड़ा बहुत जिनको हम समझते हैं हमारे आनंद के स्रोत हैं इनको हम नहीं हटाएंगे थोड़ा बहुत हमें आनंद लेते रहना चाहिए तो हरी नाम में हमेशा ही यही रखेंगे, नहीं मुझको यह साफ करना है तो हरि नाम हालांकि सर्व शक्तिशाली है , सर्व शक्तिशाली होते हुए भी कार्य नहीं करेगा क्योंकि हरि नाम जीवित है यह कोई मैकेनिकल चीज नहीं है. शक्ति है तो साफ करेगा ही करेगा।
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 4.11)
अनुवाद- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |
जितनी मात्रा में हम हरि नाम को हृदय से पुकारेंगे उतनी मात्रा में हमारा हरि नाम हम पर प्रभावशाली होगा इसीलिए आप फीलिंग के साथ, हमारे आचार्य बताते हैं अगर हार्टबीट नहीं है और हमारी फीलिंग नहीं है जप मैं तो कहते हैं कि ब्लैक बुलेट को फायर करते हैं , पिस्तौल चला रहे हैं , पर उसमें कारतूस नहीं है बस टॉय टॉय आवाज आ रही हैं, उसमें कारतूस नहीं है तो वह प्रभावशाली नहीं होगा। जब तक उसमें गोली नहीं डालेंगे तो राइफल ब्लैक ही रहेगा। कुल मिलाकर हां आज हमने चर्चा की कैसे पिंगला जो वैश्या थी ने कैसे बहुत सुंदर प्रार्थनाएं की, इस संसार में जो सबसे ज्यादा मेरे हृदय से प्रेम करता है सबसे निकट उसे छोड़कर संसार के व्यक्तियों से प्रेम करने का प्रयास किया जिससे मुझे भय शोक आदि प्राप्त हुआ। हमें केवल कृष्ण से प्रेम करना है कृष्ण के प्रति आकर्षण बनाना है। मुख्य जीवन का दोष क्या है कि हम कृष्ण से विमुख हुए हैं कृष्ण के प्रति आकर्षण, मतलब हरि नाम के प्रति आकर्षण, हमने पांच ए पर चर्चा की “अट्रेक्शन अटेंशन अब्जोर्पशन अटैचमेंट अफेक्शन “और कैसे हो हरि नाम से संबंध ज्ञान, संबंध ज्ञान क्या है ? मैं जीवात्मा हूं, मैं भगवान का अंश हूँ, मैं भगवान से विमुख हूं और हरी नाम चिन्मय है और मैं भी चिन्मय हूं लेकिन मैं अभी सुप्त अवस्था में हूं । जैसे ही मैं जप करके अपने आप को (जीवात्मा को) हरिनाम के संपर्क में लाता हूं मैं पुनः से जीवित हो जाता हूं और इस प्रकार से संबंध ज्ञान में स्थित होकर जप करेंगे और हम भगवान को पुकारएंगे, नहीं करेंगे तो मैकेनिकल चैंटिंग है। उसमें केवल हरि नाम का रिफ्लेक्शन रहता है छाया रहती है जो हमें कभी भी संतुष्टि नहीं दे सकती और इस प्रकार से हम भगवान के प्रति अपना आकर्षण बढ़ा सकते हैं। समय हो गया है अपना यहीं पर विराम दूंगा।
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
श्रीमान राधेश्याम प्रभुजी व्दारा,
22 मार्च 2022
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै शीगुरवे नमः।।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले,
श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।
नमस्ते सारस्वते देवेगौर – वाणी प्रचारिणे
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण!
आप लोग परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज जी के प्रेरणा से, ये झूम का मंदिर ऐसा महाराज बोला करते हैं। लगभग 1000 भक्त रोज जप मे भाग लेते हो यह बहुत प्रशंसनीय बात हैं। आज के सत्र मे, एक महत्वपूर्ण विषय के बारे मे हम लोग चर्चा करेंगे।
नारद,नारद बनने के पूर्व, अपने पूर्व जन्म में जब वे छोटे बालक थें, दासी पुत्र थें उनकों भक्तिवेदांतों कि कृपा प्राप्त हुवी। चातुर्मास के समय उनकी संग में रहकर, भागवत कथा का श्रवण करके, उसमें रुचि जगा कर वह बालक महान भक्त बना, वे लोग चातुर्मास होने के बाद चले गए उनसे नाम लिया था, उनसे कथा श्रवण की थी, उनके आदेशानुसार जब अपनी मां से गुजरने के बाद यह बालक जंगल में जाकर एक पेड़ के नीचे बैठकर, ध्यान मुद्रा में बैठकर भगवान हरि, भगवान विष्णु का ध्यान किया, भगवान का नाम लिया और भगवान की लीला के बारे में स्मरण किया अद्भुत लीला चेष्टा का स्मरण किया और ऐसे करते करते उनकी आंखों से अश्रु बहने लगे, प्रेमाश्रू बहने लगे और इस तरह कि सद्भावनाएं और अष्टविकार उनके शरीर में जब प्रकट हुए तो वह छोटा बालक सोचनें लगा विष्णूतत्व,भक्ति के प्रभाव मेरे हृदय में, मेरे शरीर पर पड़ रहा है तो मैं कितना भाग्यशाली हूंँ।
उस समय अचानक भगवान हरि का दर्शन भी हुआ उसके समक्ष, कुछ क्षणों के लिए उसने देखा भगवान हरि कितने सुंदर है चतुर्भुज रूप में नीलमणि के समान शरिर चमक रहा था, मुकुट था, कुंडल था, वह मुस्कुरा रहे थे,पितांबर पहना था, वह अनेक आभूषणों से सुशोभित थे और तेजोमय शरीर था। जो शरीर विशुद्ध सत्व मे है,जो गुणातीत है लेकिन सब दिव्य गुण संपन्न हैं। अनंतकोटि ब्रह्मांडो का स्रोत हैं।भगवान जो सर्वज्ञ है और सब जीवों के पीता हैं। ऐसे परमपुरुष भगवान का दर्शन कुछ क्षणों के लिए प्राप्त हुआँ। लेकिन उसके तुरंत बाद भगवान अप्रकट हुए, प्रस्थान हो गए तब उस लड़के के हृदय में इच्छा जग गयी गई पाप हृदय से भगवान को देखना है जैसे आपको किसी ने मिठाई दी है और वह आपको अच्छी लगी आप और एक बार पाने को मन करता है इसतरह, तो लड़के ने सोचा कि यह क्या कोई बड़ी बात हैं। ऐसे ही ध्यान मुद्रा में बैठो नाम जपो उनका चिंतन करो और वे प्रगट हो जाएंगे अभी तो मुझे टेक्निक पता चल गया इस तरह सोचकर वह लडका बैठा, नाम लिया लेकिन भगवान प्रकट नहीं हो रहे थें, उनको कारण पता नहीं चला ,बार-बार जप ने के बाद भी,ध्यान करने के बाद भी भगवान प्रकट नहीं हो रहे थें। अब वह बालक रोने लगा तो भगवान ने उस बालक के ऊपर करुणा की भावना दिखाई
हन्तास्मिञ्जन्मनि भवान्मा मां द्रष्टुमिहार्हति।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोSहं कुयोगिनाम्।।
(श्रीमद्भागवतम् 1.6.21)
अनुवाद: – भगवान ने कहा- है नारद, मुझे खेद है कि तुम इस जीवनकाल में अब मुझे नहीं देख सकोगे। जिनकी सेवा अपूर्ण है और जो समस्त भौतिक कल्मष से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं है, वे मुश्किल से ही मुझे देख पाते हैं।
ऐसा बताते हैं “हन्तास्मिञ्जन्मनि भवान्मा” हे बच्चे! इस जन्म में पुनः तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। ऐसा बोला उन्होंने, क्यों? इसका कारण क्या है?”अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोSहं कुयोगिनाम्।।” मैं दूरदर्शक हूं, मै अप्राप्त हूंँ, उन लोगों के लिए जिनके पास दो योग्यताएं नहीं हैं, ऐसा उन्होंने बोला। एक है “अविपक्वकषायाणां”जिन का चित्त अभी तक शुध्द नहीं हुआ है और जिनके चित्त में अहंकार है, काम है, क्रोध,लोभ है,जिनका ह्रदय अभी तक शुध्द नहीं हुआ है। “दुर्दर्शोSहं कुयोगिनाम्।।” जो अपनी सेवा में परिपूर्णता नहीं प्राप्त किए हैं मतलब भक्ति मार्ग में आ गए लेकिन भगवान कि सेवा भरपूर नहीं की।भगवान ने बोला कि ये दो चीजों को याद रखो! “अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोSहं कुयोगिनाम्।।”वह लोग मेरा दर्शन नहीं प्राप्त कर सकते हैं।चक्रवर्ती विश्वनाथ ठाकुर ऐसे बताते हैं कि ऐसा नहीं कि यस बालक का चित्त अशुद्ध था अगर अशुद्ध था तो भगवान का दर्शन कैसे प्राप्त हुआ उसको, जैसे कार में जो ग्लास (कांच)होता है उसके ऊपर पानी आ गया बारिश के कारण, तो उसे हम वायफर लगाकर सफाई करते हैं उसके बाद हमें मार्ग दिखता हैं। इसी तरह हमारी चित्त मे भी मल भरा हुआ है इसलिए हम भगवान को देख नहीं पाएंगे। लेकिन नाम जप कर उसके हृदय को शुद्ध कर लिया था इसलिए तो उनको भगवान हरि दिखाई दीएँ आप पूछ सकते हैं कि इसमें उस बालक की क्या गलती थी? तो भगवान ने क्यों ऐसा किया तो भगवान सोच रहे थे कि यह जो बालक है इसका प्रेम मेरे लिए कोमल है इसका प्रेम में मजबूत बनाना चाहता हूं। जैसे एक आम का तरू,तरु बनने के पहले पौधा होता है उस समय आप उसे जड़ से उखाड़ सकते हो इतना कोमल होता है आम का पौधा।
भगवान ने कहा इस तरह हिलने वाला कोमल प्रेम है इसका इसे मजबूत बनने के बाद में इसे दर्शन दूंगा मजबूत कैसे बनेगा? एक बार देख लिया उसने भगवान के सुंदर स्वरूप को बार-बार लालसा होगी उसकी भगवान के स्वरूप को देखने के लिए बार-बार उसे स्मृति आएगी एक आतुरता प्रगट होगी उस के हृदय मे पैदा हो इस तरह भगवान के ऊपर उसके हृदय मे विरह भावना जब पैदा होगी तो उसे भी भगवान का दर्शन प्राप्त हो जाएगा यह भगवान की योजना थीं और दुसरा है इस बालक ने अच्छी तरह से सेवा की थी भक्तिवेदांतों की, भक्ति वेदांतों को मां प्रसाद बना कर देती थी वह जाकर परोस कर आता था उसने उच्चिष्ट खाया और महात्माओं ने जो भी बोला यह करो, वह करो, उसने किया। उसकी सेवा में कुछ कमी नहीं थी ,इस तरह भगवान ने उन्हें इस जन्म में दर्शन नहीं दिया लेकिन भगवान ने कहा कि तुम मेरा दर्शन प्राप्त कर सकते हो। ठीक है! मंदिरों मंब जाओ!
भगवान के ऊपर चक्र है उस के दर्शन करो! उन्हें दंडवत प्रणाम करो! पुराणों को सुनो!संत महात्माओं का संग करो! उनके संग में ही भगवान की प्राप्ति हैं। और इस तरह भगवान का नाम लेते लेते तीर्थ क्षेत्रों में नहा कर इस तरह तुम तीर्थाटन करो और फिर धीरे-धीरे मैं तुम्हें प्राप्त हो जाऊंगा लेकिन अगले जन्म में तुम मेरे महान भक्त बनोगे! भगवान ने ऐसे कहा। आप लोग जानते हो अगले जन्म में वह बालक नारद मुनि बना। इधर एक महत्वपूर्ण सीख सिखाते हैं प्रभुपाद हमको, हम अगर आंतरिक रूप से जप करते हैं उस से भगवान का दर्शन प्राप्त नहीं होता है और आसानी से चित्त भी शुध्द नहीं होता आप बोलेंगे यह तो डरावनी बात हैं। हम तो सोला माला कर लेते हैं जिस तरह से होता है वहां हम कर लेते हैं लेकिन आप अगर इस तरह से बोलेंगे तो हम आंतरिक रुप से करते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कर लेते हैं वह शुद्धि के लिए नहीं होता तो इसका मतलब क्या है? थोड़ा बहुत शुद्धिकरण होता हैं। भगवान का नाम लेने से नुकसान नहीं है बल्कि भगवान का नाम लेने से लाभ ही लाभ है फिर भी हमें यह बात जानी चाहिए की आंतरिक स्तर से हम ऊपर कैसे उठे?, उसके बारे में हर एक भक्त को सोचना चाहिए। महामंत्र आंतरिक तरिके से क्यों होता है?हम अगर यह प्रश्न पूछेंगे तो इसका शास्त्रों में ही उत्तर हैं
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान् । नैवाहत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥
(श्रीमद्भागवतम 1.8.26)
अनुवाद: -हे प्रभु , आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं , लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा , जो भौतिक दृष्टि से अकिचन हैं । जो सम्मानित कुल , ऐश्वर्य , उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास लगा रहता है , वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुँच पाता ।
ऐसे बताती है कुंती महारानी कि अगर किसी का ऊंचे कुल में जन्म होता हैं उसके पास ऐश्वर्य हो, धन हो, और वह बहुत पढ़ा लिखा हो, उसका शरीर सुंदर हो, जिस का बहुत बड़े धनी खानदान में जन्म होता है, वैदिक ब्राह्मण लोग ऊंचे कुल में जन्म लेते हैं लेकिन इन सभी लोगों को भगवान प्राप्त नहीं हुए इसका कारण गर्व हैं जिसके सर के ऊपर गर्व चढ़ गया है वह भगवान को पुकार नहीं पाता हैं। फिर हे गोविंद! हे कृष्ण!हे माधव! ऐसे हृदय से, प्रेम से पुकार नहीं पाता है वह, क्योंकि उसे अपने ही बलबूते पर मैं बड़ा हुआ हूंँ, मैं श्रेष्ठ हूँ, मै ज्ञानी हूँ,मैं धनी हूंँ, मैं खूबसूरत हूंँ ऐसा विचार आता है इसलिए वह भगवान का नाम की पुकार नहीं पाता है ऐसे कहा गया हैं। ये एक कारण बताया गया हैं, और एक दूसरा श्लोक है भागवत में जिसके ऊपर आधारित मैं अभी आपको बताने जा रहा हूं आप याद रख सकते हैं Great (‘ग्रेट’) G, r, e, a, t (जी,आर,इ, ए, टी) Great (ग्रेट) इस का मतलब है हम महान भक्त कैसे बन सकते हैं? इस शब्द में उसका रहस्य हैं।यह श्लोक हैं।
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् । हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥
(श्रीमद्भागवतम 10.14.8)
अनुवाद:-हे प्रभु , जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन , वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा प्रदत्त किये जाने की प्रतीक्षा करता है , वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है ।
यह महान भक्तों के बारे में बताया गया है ‘तत्तेऽनुकम्पां’ यह आपकी अनुकंपा हैं भगवान, ‘सुसमीक्षमाणो’ भगवान हमेशा मैं आपकी राह देखते रहूंगा ।कब आप प्राप्त होंगे और’एवात्मकृतं विपाकम्’ जो भी मेरे जीवन में तकलीफ भी आती है उनको मैं निकाल लूंगा स्विकारुंगा,क्योंकि मेरे ही गलत कार्यों का कर्म फल है ‘हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते’ बार-बार मैं काया वाचा मनासा आपको दंडवत प्रणाम करूंगा,आपके श्री चरणो में। ‘जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥’ऐसे व्यक्ति को हक है मुक्त होकर भगवत धाम रोकने के लिए। जो ग्रेट है उसमें जी क्या है पहले Gratitude ग्रिटीट्यूड इसका मतलब कृतज्ञता किसके ह्रदय में कृतज्ञता है कुंती महारानी कृतज्ञता प्रगट करतीं हैं।
इमे जनपदा: स्वृध्दा: सुपव्कौषधिवीरुध:।
वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितै:।
( श्रीमद्भागवतम 1.8.40)
अनुवाद: – यह सारे नगर तथा ग्राम सब प्रकार से संमृध्द हो रहे हैं, क्योंकि जड़ी बूटियों तथा अन्नो की प्रचुरता है, वृक्ष फलों से लदे है, नदियां बह रही हैं, पर्वत खनिजों से तथा समुद्र संपदा से भरे पड़े हैं और यह सब उन पर आपकी कृपा दृष्टि पडने से ही हुआ हैं।
वह कहती है कि इस प्रकृति में जो हरियाली आई है फल है फूल है पानी है सब कुछ है सब लोग खुश हैं यह आपका है वह कृतज्ञता प्रकट करती है वह भगवान को धन्यवाद देती हैं। लेकिन इतने भी बढ़कर कृतज्ञता क्या है? यदि हम लोग किसी तकलीफ में है और हम भगवान को धन्यवाद प्रकट करते हैं
विषान्महाग्ने: पुशरुषाददर्शना-
दसत्सभाया वनवासकृच्छृत:।
मृधे मृधेSनेकमहारथास्त्रतो
द्रौण्यस्त्रतच्श्रास्म हरेSभिरक्षिता:।।
( श्रीमद्भागवतम 1.8.24)
अनुवाद: – हे कृष्ण, आपने हमें विषाक्त भोजन से, भीषण अग्निकांड से, मानव भक्षियों से, दुष्ट सभा से, वनवास-काल के कष्टों से तथा महारथियों द्वारा लड़े गए युद्ध से बचाया है और अब आपने हमें अश्वत्थामा के अस्त्र से बचा लिया है।
वह भगवान को धन्यवाद देती है कि आपने हमें किन किन परिस्थितियों से बचाया है वह एक लंबी लीस्ट देती है आप कठिन परिस्थितियों में हमारे साथ रहे हो इसीलिए किसी भी कठिन परिस्थितियों से नहीं डरती नहीं क्योंकि जब कठिनता आती है तो हम आपका स्मरण करते हैं और आप आ जाते हैं। इसलिए आप अनेक कठिनाइयां भेजो हमारे जीवन में और आप भी आ जाइए और हमारे साथ में रहिए ऐसे भगवान से कहती है यह कृतज्ञता पहली वाली कृतज्ञता से बढ़कर है। और इससे भी बढ़कर क्या है अगर कोई हमें तकलीफ देता है उसको कृतज्ञता प्रगट करना धन्यवाद बोलना। यह कौन है आप जानते हैं 20800 राजाओं को जरासंध ने अपने कारागृह में रखा था उसने बली देने के लिए उनका शरीर क्षीण हो गया,उनके कपड़े मैले हो गए, सालों साल रखा था उसने और जब उन लोगों ने द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण को खत लिखा। आप हमें बचाइएं और भगवान श्री कृष्ण आ गए जैसे ही कारागृह का दरवाजा खुला तो सब लोगों ने भगवान श्री कृष्ण का सुंदर स्वरूप देखा,सभी ने दंडवत प्रणाम किया। उस समय एक शब्द बोलते हैं वह लोग
नैनं नाथानुसूयामो मागधं मधुसूदन।
अनुग्रहो यभ्द्रवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो।।
( श्रीमद्भागवतम 10.73.9)
अनुवाद: – हे प्रभु मधुसूदन,हम इस मगधराज को दोष नहीं देते क्योंकि वास्तव में यह तो आपकी कृपा है कि हे विभु,सारे राजा अपने राजपद से नीचे गिरते हैं।
हम मगधराज जरासंध से ईर्ष्या नहीं करते उन को धन्यवाद देना चाहते हैं क्योंकि वह बताते हैं अगर वह हमें इस कारागृह में नहीं रखता था हम घर में रहते तो हम इधर उधर झगड़ा करते थे क्योंकि उस ने हमें पकड़कर इस जेल में लाकर रखा अब हमें आपका दर्शन प्राप्त हो रहा है इसलिए मगद इंद्र जरासंध हमारा मित्र है क्यों मित्र हैं? बाकी लोग बोलेंगे कि वह हमारा दुश्मन है लेकिन हम उसे मित्र समझते हैं उनके कारण हमें आपका दर्शन प्राप्त हुआ इसलिए हमें तकलीफों को झेलना और तकलीफ को देने वाले को भी धन्यवाद कहना क्योंकि वह हमें कृष्णभावना अमृत के साथ जोड़ती हैं। यह है Gratitude (गैटीट्युड) कृतज्ञता दूसरा है आर repentance हमारे अंदर पश्चाताप की भावना होनी चाहिए। एक बार प्रवचन के बाद एक संन्यासी से एक माताजी ने कहा पश्चाताप करने की क्या आवश्यकता है मैं एकदम ठीक हूं हमको क्या पछताना है।जो पापी है वही पछताएगां, हम क्यों पछताएंगे ऐसा बोले वह नाराज हो गई थोड़ा लेक्चर सुनकर तो महाराज बोल रहे थे एक असली भक्त कभी भी नहीं सोचता कि मैं श्रेष्ठ हूंँ, महान हूंँ, मैंने बहुत कुछ किया है, मैं लिस्ट दिखा दूंगा मैंने क्या-क्या किया है इस तरह कभी नहीं सोचता एक आदर्श भक्त बल्कि अगर मैं शुद्ध हूंँ, महान हूंँ तो मेरे आंखों से आंसू आने चाहिए।
‘गौरांग’ बलिते हबे पुलक-शरीर।
‘हरि हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर।।
(लालसामयी प्रार्थना–नरोत्तमदास ठाकुर लिखित)
अनुवाद: – ऐसा दुर्लभ अवसर कब आएगा जब ‘गौरांग’ बोलते ही शरीर पुलकित हो उठेगा, तथा ‘हरी, हरी’ बोलने पर नैनों से नीर बहने लगेगा।
प्रभुपाद कहते हैं कि अगर तुम गौरांग बोलो तो तुरंत तुम्हारे रोम खड़े होने चाहिए और हरी हरी बोलो तो आंखों से प्रेमाश्रू बहने चाहिए, अगर यह होता नहीं तो तुम अपराधी हो।
तदश्मसारं हृदयं बतेदं यद् गृह्यमाणैर्हरिनामधेयै:।
न विक्रियेताथ यदा विकारो नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्ष:।।
( श्रीमद्भागवतम 2.3.24 )
अनुवाद: – निश्चय ही वह हृदय फौलाद का बना है, जो एकाग्र होकर भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करने पर भी नहीं बदलता;जब हर्ष होता है,तो आंखों में आंसू नहीं भर आती और शरीर के रोम-रोम खड़े नहीं हो जाते।
इस तात्पर्य में प्रभुपाद बताते हैं जिस व्यक्ति के शरीर में नाम लेने के बाद भी अश्रू नहीं बहते है तो वह अपराधी है। उसने अपराध किए होते हैं इसलिए तो उस माता को पता नहीं है वह गर्वित होकर सोचती है कि मेऐ साथ सब कुछ ठीक हैं। लेकिन हम पूर्व जन्म
में किए गए पाप के कारण हम इस जन्म में दु:ख भोंकते हैं और इस जन्म में भी हमने कभी अनजाने में कभी जानबूझकर किसी को दुखी किया है
अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा।
संरम्भी भिन्नद्दग्भावं मयि कुर्यात्स तामस:।।
( श्रीमद्भागवतम 3.29.8)
अनुवाद: – ईर्ष्यालु अहंकारी हिंस्त्र तथा क्रोधी और पृथकतावादी व्यक्ति द्वारा की गई भक्ति तमोगुण प्रधान मानी जाती है।
भागवत में कहते हैं तामसिक भक्ति का मतलब है हम दंभ करते हैं दूसरे भक्तों को, अहंकार के वश में आकर दंभ करते हैं। क्रोध करते हैं, हम हट कर के मनमानी करते हैं। मस्सर करते हैं, दुसरो के उत्कर्ष को सहन नहीं कर पाते यह सभी एक प्रकार का पाप ही है जैसे एक गीत में गाते हैं।
आमार जीवन, सदा पापे रत,
नाहिक पुण्येर लेश।
परेरे उद्वेग दियाछि ये कत,
दियाछि जीवेरे क्लेश।।
अनुवाद:-मेरा जीवन सदा पापपूर्ण कार्यो में वयतीत हुआ, अतएव मुझमें पुण्य लेशमात्र भी नहीं है। मैंने दूसरों को अत्यधिक क्लेश दिया है। वस्तुतः मुझे लगता है कि मैंने समस्त जीवों को कष्ट पहुँचाया है।
हमें अपने पाप गुणों के बारे में सोचना चाहिए कि हम ऊपर कैसे उठे यह सोचना चाहिए और माफी मांगनी चाहिए भगवान से ,इसका मतलब ऐसा है कि हे भगवान मैंने सजन जाने या जानबूझकर भक्तों को मैंने इसी किया है उसके लिए मैं पश्चाताप करता हूं और मैं सद्गुणों को प्राप्त करना चाहता हूं और भक्तों के बीच में रहकर मैं किसी से अपराध ना करूं इस तरह से प्रार्थना करनी चाहिए यह एक खास तरह की प्रार्थना हैं भूतकाल में जो भी हुआ है उन पापों से मुक्त होने के लिए हमें भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए आप सब कुछ जानते हैं मेरे बारे में मैं आपका बालक हूं हमारे चित्त को शुद्ध कीजिए यह शक्ति आपके ही हाथ में है भक्ति विनोद ठाकुर की यह वैष्णव के गीतों में बहुत लाभ हैं। भावना पूर्वक कोई इन गीतो को गाने से, जो इनके अनुवाद को भी समझ कर पड़ेगा तो उसके मन में सद्भावना उठेगी,पश्चाताप करने से आंखों से गर्म आंसू निकलना चाहिए। हे भगवान! मैं महापापी हूं जैसे रूप सनातन मैं बोला जगाई मधाई भी श्रेष्ठ है हमसे क्योंकि उन लोगों ने कभी अपराध नहीं किया हैं, लेकिन हमने गौ मांस खाने वाले कि सेवा कि है इसलिए हम उनसे भी पतित हैं।ऐसे अपने बारे में बोला, एक श्लोक में बताते हैं।
नीच जाति, नीच-संग्ङी, पतित अधम।
कुविषय-कूपे पड़ि’ गोङाइनु जनम!
(श्रीचैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, 20.99)
अनुवाद: – मै निम्न परिवार में जन्मा था और मेरे संगी भी निम्न में वर्ग के लोग हैं। मैं स्वयं पतित और अधम हूंँ। निस्संदेह, मैंने अपना सारा जीवन तापमान भौतिकता के लिए भौतिकता के कुएं में गिरकर बिताया है।
हम अधम है, पतित है, नीच जाती है, हम अंधकूप में गिर गए हैं, हम लोगों ने अपना जीवन गवा दिया देखिए रुप-सनातन ने मुसलमान राजा के अन्तर्गत काम किया लेकिन उन्होंने अपने महल के पिछे एक गुप्त वृंदावन भी बनाया था। वे महानपुरुष थे लेकिन अपने आप को पतित समझ रहे हैं। Repentance (रिपैंडन्स)
इसकी जरूरत हैं।
तिसरा है (ई ) E – Expectation मतलब हमारे हृदय में होनी चाहिए कि हे भगवान मै आपकोे कब प्राप्त करुंगा आप कब हम से प्रसन्न होंगे और मैं क्या कर सकता हूं आपकी प्रसन्नता के लिए इसे लालसामयी प्रार्थना करते हैं।
राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर।
जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥1॥
अनुवाद:-युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है।
मैं क्या कर सकता हूं आपकी प्रसन्नता के लिए ,इसे कहते हैं लालसामयी प्रार्थनाएँ।
ललिता विशाखा आदि यत सखीवृन्द।
आज्ञाय करिब सेवा चरणारविन्द॥5॥
अनुवाद: -ललिता और विशाखा के नेतृत्वगत सभी सखियों की आज्ञा से मैं श्रीश्रीराधा-कृष्ण के श्री चरणों की सेवा करूँगा।
नरोत्तमदास कह रहे हैं कि कब ऐसा समय आएगा जब मैं ललिता विशाखा जी के बाजू में खड़े रहकर उन्हें पूजा की सामग्री देते रहेंगे और वह गोपियाँ कब आपकी पूजा- आराधना करेंगे इस तरह से आचार्य अपने हृदय मे लालच उत्पन्न करते हैं। इसी तरह हम लोग तुलसी महारानी कि आरती गाते है।
नमो नमः तुलसी कृष्णप्रेयसी।
राधा-कृष्ण-सेवा पाब एइ अभिलाषी॥1॥
वह भी लालसामयी प्रार्थना हैं। इसी तरह हमारे ह्रदय में लालसा होनी चाहिए भगवान को प्राप्त करने के लिए। दुर्भाग्यवश आज कल लोग समझते हैं कि हम एक दिन मंदिर चले गए, बाकी के दिन घर मे व्हाट्सएप न्यूज देखते हैं, टीवी देखते हैं, न्यूज़पेपर देखते हैं, कार्टून देखते हैं,और बोलते हैं कि बच्चों के लिए कार्टून चाहिए इसलिए हम टीवी चलाते रहते हैं और खुद भी कार्टून देखते हैं हम देखते हैं कि लोग थोड़ा ठंडे पड़ जाते हैं अगर हम ठंडे पड़ जाते हैं तो हमारे अंदर आतुरता नही है, तत्व जिज्ञासा नहीं है, अपेक्षा नहीं है। भगवान कैसे प्राप्त होंगे?लालसा होनी चाहिए,भगवान को प्राप्त करने के लिए। अगर एक विद्यार्थी को आईआईटी में सीट प्राप्त करनी हो पहले उन दिनों में लोग 11वां 12वां कक्षा में पढ़ते थे उसके बाद में आठवीं नौवीं में शुरू हो गई आईआईटी के लिए पढ़ाई, अभी तो लोग छटा कक्षा में शुरू कर देते हैं आईआईटी का अभ्यास। पांचवी कक्षा के बाद छठी कक्षा में,इतनी लालसा है उन्हें सोचते हैं कि आईआईटी में घुसना ही घुसना है उनको। दिन रात भर पढ़ते हैं चाय पीते हैं कॉफी पीते हैं रात भर जागरण करते हैं सोते नहीं है रात भर ।
इतनी अपेक्षाओं के साथ,अगर भगवान को भी प्राप्त करना है तो हमें भी कुछ अभ्यास करना पड़ेगा जैसे हम लोग हमारे बचपन में मार्गशीर्ष महीने में जो पूरा महीना मंदिर जाता है उसे भगवान प्राप्त होते हैं मैंने एक बार मां से पूछा भगवान का दर्शन किस को प्राप्त होता है ? तो मां ने कहा मार्गशीर्ष महीने में तुम्हें रोज उठना पड़ेगा एक भी दिन तुम्हें सुबह सोना नहीं हैं। हम सभी बच्चे सुबह उठ जाते थे 3:30 बजे उठकर 4:00 बजे तक हम रेडी (तयार) हो जाते थे फिर घर के बाहर जाकर देखते थे कि कौन-कौन बाहर आ गया जो उठ गया हैं। उस वक्त हम सब लोग मंदिर जाते थे और सड़क में देखते थे तो इतना धीरे-धीरे करके इतनी भीड़ बढ़ती थी विष्णु के मंदिर में जाने के लिए मार्गशीर्ष महीने में सभी लोग मंदिर जाते थे भगवान को फूल अर्पण होता था हमने देखा कि सुबह 4:00 – 4:30 बजे सब लोग मंदिर में जमा हो जाती थे और भगवान का गुणगान करते हैं पहले ऐसी संस्कृति होती थीं, आजकल सब लोग आलसी हो गए आज कल हम हरिनाम में जाते हैं सुबह 7:30 तो सभी लोग मुंह में ब्रश लेके हमें देखते हैं कौन है? क्या है? हमे देखने के लिए, लोग 8:00 बजे उठते हैं। हमें दिखाना चाहिए भगवान को कि मैं आपके पीछे हूं ,आपको छोड़ने वाला नहीं हूं आप लाथ भी मारोगे तो आपके पांव पकड़कर रहेंगे छोड़ेंगे नहीं, आप डंडा भी मारो, लात भी मारो, भक्ति करने में जितनी भी तकलीफ होती है लेकिन हम आपको छोड़ने वाले नहीं हैं। भगवान मुड़-मुड़ कर देखेंगे, अरे छोड़ता नहीं कब से लगा है मेरे भक्ति में, भगवान अपने आप को दे देते हैं ऐसे भक्तों को। तो यही है expectation।
A – Agree with the plan of Lord’ ( एग्री वीथ द प्लैन औफ लौड) ए का मतलब क्या है Agree with the plan of Lord’ (एग्री वीथ द प्लैन औफ लौड) कभी-कभी हम सोचते हैं कि हमें ऐसा करना चाहिए लेकिन भगवान का दूसरा प्लैन होता है जैसे पृथू महाराज ने सोचा था 100 यज्ञ मैं करूंगा लेकिन भगवान का प्लान दूसरा था उन्होंने 99 मे रुकने के लिए कहा। हमें भगवान के प्लान के साथ सहमति होनी चाहिए। दूसरा अर्जुन को भी लड़ाई करने की इच्छा नहीं थी वे भगवान के उपदेश सुनकर सहमत हो गए। ठीक है!अगर आपकी इच्छा हो।
अर्जुन उवाच
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.73)
अनुवाद: – अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आप के अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं स़शयरहीत तथा हृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।
‘करिष्ये वचनं तव’ ऐसे वचन बोलकर वहां रुक गए, और जोर युध्द करने के लिए बहुत ही इच्छा थी,जोश था,कि इन यक्षों को मैं मिटा दूंगा छोडूंगा नहीं, एक भी यक्षों को मैं छोडूंगा नहीं। किसी को जींदा नहीं छोडूंगा यक्षों के कुल को जिंदा नहीं छोडूंगा लेकिन स्वयं भगवान ने उपदेश दिया कि भगवान की इच्छा है तूम मारो मत तो अर्जुन मान गए हम अपने जीवन में अहंकार को त्याग कर भगवान कि इच्छा की पूर्ति करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।अगर आपका दूसरे भक्तों के साथ झगड़ा हो गया तो आप उस भक्तों को बोलते हैं मैं जीवन भर तुम्हारे चेहरे को नहीं देखूंगा चले जाओ! ऐसा बोलते हैं उसको फिर आप बोलते हैं , लेकिन बाद में गुरु बोलते है अरे आप दोनों को मिलकर एक साथ आकर एक कार्य करना हैं। आप दोनों बड़े बुद्धिमान हो ऐसा गुरु कहते हैं,तो गुरु कि इच्छा को पूर्ण करने के लिए हमें तैयार हो जाना चाहिए यह भक्तों का लक्षण है एग्री टू द प्लैन ऑफ गुरु एंड गौरंग! यह है ‘A’
और अंत मे है ‘T’ – Tolerance (टॉलरेंस) एक भक्त के अंदर सहिष्णुता की बहुत जरूरत हैं।
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, अंत लीला 20.21)
अनुवाद “ जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ‘
यहां सहिष्णु पेड़ का क्यों उदाहरण दिया गया है? भगवान कृष्ण एक दिन अपने मित्रों को वृंदावन के जंगल में लेकर गए भगवान ने उनको दिखाया।
हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन्सुबलार्जून।
विशाल वृषभौजास्विन्देवप्रस्थ वरुथप।। 31।।
पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान्।
वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति न:।। 32।।
(श्रीमद् भागवतम् 10.22.31-32)
अनुवाद: – भगवान कृष्ण ने कहा, हे
स्तोककृष्ण तथा अंशु,हे श्रीदामा, सुबल तथा अर्जुन, हे वृषभ, ओजस्वी, देवप्रस्थ तथा वरुथप, जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो जिनके जीवन की अन्य के लाभ हेतु समर्पित है। वे हवा, वर्षा, धुप तथा पाले को सहते हुए भी इन तत्वों से हमारी रक्षा करते हैं।
हे स्तोककृष्ण तथा अंशु,हे श्रीदामा, हे सुबल तथा अर्जुन,सभी आओ इधर
पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान्।
वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति न:।। 32।।
पेड़ को दिखाते हैं अरे पेड़ जीता है दूसरों के लिए खुद के लिए नहीं, सहन करता है क्या क्या? ठंडी, गर्मी, बारीश यह सब सहन करके अपने नीचे दूसरों जीवों को आश्रय प्रदान करता हैं, इतना ही नहीं पेड़ से फल, फूल प्राप्त होते हैं लकड़ी, काष्ट भी प्राप्त करते हैं चूल्हे में इस्तेमाल करने के लिए और पेड़ के मृत्यु के बाद भी उसे काटकर टेबल, कुर्सी बनाते हैं कभी-कभी एक ऐसा पंछी हैं जो पेड़ में छिद्र बनाता है टॉक टॉक टॉक टॉक करके पेड़ को मार मार कर पेड़ को पता है कि यह मुझे मार रहा है फिर भी उसी को पेड़ अपने अंदर बैठने के लिए स्थान देता हैं। एक भक्त को भी ऐसा होना चाहिए। आपको कोई दुख दे रहा है तकलीफ दे रहा है मार मार के हमको प्रभुपाद कि सेवा से जोड़ रहा है, हमें सेवा दे रहा है उस से सहन करके सेवा लो इस तरह कि हमें आदत होनी चाहिए। एक पत्थर लेकर आप आम के पेड़ को मारो आप एक पत्थर मारो वह चार आम देगा आपको,ऐसे भक्तों की आदत ऐसी होनी चाहिए तकलीफों को देखते हुए दूसरों की भलाई करते जाना चाहिए।
G – Gratitude।
R – Repentance
E – Expectation
A- Agree with the plan of Lord
T – Tolerance
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् । हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥
(श्रीमद् भागवतम् 10.14.8)
हे प्रभु , जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन , वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा प्रदत्त किये जाने की प्रतीक्षा करता है , वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है ।
इस का मतलब है सहिष्णुता, सहनशीलता।
जो भी हमारे जीवन में तकलीफ होती है उसे भगवान की अनुकंपा समझकर स्वीकार करना चाहिए। अपेक्षा करना कि भगवान आप मेरे जीवन में कब आयेंगे। पाप तो मेरा है इसलिए मैं दु:ख भोग रहा हूँ। काया, वाचा, मनसा भगवान को दंडवत प्रणाम करना और हमें सहन करना ओर भगवान के आदेशों का पालन करना चाहिए। इस के लिए हमें सहनशील होना चाहिए, लोग कहेंगे कि कितना सहन करें ऐसे लोग पुछते है, नहीं हमें ऐसा नहीं पुछना चाहिए, हम भगवान का प्रेम प्राप्त करना चाहते हैं यह राजमार्ग है, यह प्रेम का मार्ग है, इसमें गुरु और कृष्ण कि प्रीति और उनका सुख और उनका सुख ही हमारा सुख है “जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक्” ऐसे व्यक्ति के लिए आशीर्वाद है यह जरूर ऐसे व्यक्ति को जरूर भगवत प्राप्ति हो ही जाएगी आज मैंने 5 गुणों के बारे में बताया और इसके पहले मैंने गर्व के बारे में बताया, गर्व और अहंकार हम दोनों को मिटा दें और उसके साथ साथ हम पाच गुणों को भी हासिल करें और हमारा जप यांत्रिक नहीं होगा जरूर हमारे जब मैं कुछ भावनाएं उठेंगे भगवान को पुकार के समय।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।बहुत-बहुत धन्यवाद!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*दिनांक 19.03.22*
हरे कृष्ण!!!
कृष्ण जन्माष्टमी के दूसरे दिन नंद महाराज ने उत्सव मनाया । श्रीकृष्ण का प्रथम प्राकट्य दिवस नवमी को मनाया गया। भगवान् अष्टमी को प्रकट हुए, नवमी पर उत्सव हुआ। भगवान् आधी रात को प्रकट हुए, अगली सुबह उत्सव हुआ।
*नंद के घर आनंद भयो जय कन्हैया लाल की*….
ब्रज मंडल के सभी निवासी गोकुल दौड़ रहे हैं इसी तरह कृष्ण के प्राकट्य और चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य में समानता है। गौरांग भी गौर पूर्णिमा की रात में प्रकट हुए। एक और समानता है। जैसे कृष्ण के प्रकट होने पर सभी देवताओं का आगमन हुआ था, वे आकाश में एकत्रित हो कर गा रहे हैं … सुस्वागतम कन्हैया …
*यं ब्रह्मा वरूणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-वैदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः। ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः।।*
(श्रीमद् भागवतम 12.13.1)
अनुवाद:-
सूत गोस्वामी ने कहा: ब्रह्मा, वरुण, इंद्र, रुद्र तथा मरुतगण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद- क्रमों तथा उपनिषदों समेत बांचकर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने आपको समाधि में स्थिर करके और अपने आपको उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता- ऐसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को मैं सादर नमस्कार करता हूँ।
(आप लोग भी सुन रहे हो? मैंने सोचा कि मैं यहां के भक्तों को सुना रहा हूँ जो मेरे समक्ष यहां उपस्थित है लेकिन आप भी सुन रहे हो। डॉ श्याम सुंदर भी सुन रहे हैं सभी सुन ही रहे हैं, मुझे पता नही था) मैं अभी मायापुर में हूं और कुछ क्षणों में मुझे नागपुर के लिए प्रस्थान करना है।
जाते-जाते मैं कुछ .. मैं पिछली रात महा अभिषेक, पुष्प अभिषेक के विषय में सोच रहा था। लगभग 500 वर्ष पहले देवी देवताओं ने भी किया था। देवी देवता प्रार्थना और अभिनंदन करने में व्यस्त थे। उन्होंने फूलों की वर्षा की थी, उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए हमनें भी कल रात पुष्प अभिषेक किया। नवद्वीप में 9 आइलैंड है, मध्य में अन्तरद्वीप है। यहाँ नवद्वीप के निवासी मायापुर योगपीठ में एकत्रित हुए। एक बहुत बड़ा उत्सव हुआ। गौड़ीय वैष्णव भक्त आज बहुत बड़ा उत्सव मना रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! जय शची नंदन जय शचीनन्द… जय शचीनन्दन गौर हरि।
जय निमाई! शची माता की जय! शची माता प्राण धन गौर हरि..
आप जो फ़ोटो देख रहे हैं यह शची माता और निमाई की कुटीर है। निमाई बाएं है और सामने जगन्नाथ मिश्र खड़े हुए है। जगन्नाथ के साथ जो छोटे बालक खड़े हैं, वह विश्वरूप है। विश्वरूप निमाई के बड़े भाई हैं। हरि हरि! गौर प्रेमनन्दे हरि हरि बोल!
हरे कृष्ण
जप चर्चा
परम् पूज्य श्रील भक्ति आश्रय वैष्णव स्वामी महाराज द्वारा
हरे कृष्ण!!!
सभी भक्तों को मेरा सादर प्रणाम!
अभी-अभी परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराज आप सभी को नवद्वीप मंडल परिक्रमा के विषय में बता रहे थे और मायापुर से जगन्नाथ मिश्र का घर भी दिखा रहे थे। कल श्रीचैतन्य महाप्रभु की फाल्गुन पूर्णिमा सन्ध्या समय में सु- आविर्भाव तिथि थी। क्योंकि कल संध्या था और चंद्र ग्रहण था, दिन से ही जगन्नाथ मिश्र के घर में देव और मनुष्य दोनों की भीड़ शुरू हो गई थी। संध्याकाल था, तब उस समय नवद्वीप में इलेक्ट्रिसिटी नहीं थी। स्ट्रीट लाइट या ऐसी कोई व्यवस्था नही थी। दीप आदि प्रज्वलित करके दूसरे दिन मतलब आज के दिन अर्थात प्रतिपदा के दिन श्री जगन्नाथ मिश्र ने पुत्र प्राप्ति पर अपना उत्सव किया। उन्होंने भी आनंद उत्सव इस प्रकार से किया जैसे श्री धाम वृन्दावन में नंद महाराज ने किया था जब कृष्ण मध्यरात्रि के बाद प्रकट हुए थे, किसी को पता नहीं चला था। दूसरे दिन सुबह पुत्र प्राप्ति का पता चला तब उन्होंने फिर नवमी तिथि को नंद महोत्सव किया। वैसे ही वहीं नंद नंदन भगवान कृष्ण शचीनन्दन के रूप में श्री मायापुर धाम में प्रकट हुए और आज प्रतिपदा तिथि में उनका भी उत्सव श्री जगन्नाथ मिश्र और शची माता परम आनंद के साथ आनंद उत्सव करेंगे। उसे जगन्नाथ आनन्द उत्सव कहते हैं। श्रीमान चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान हैं। वह हमारी तरह से जन्म नहीं लेते हैं। उनका जन्म तो लीला मात्र है। हम लोगों के कल्याण के लिए है, वे प्रेम वर्ष लीला करते हैं। हम कर्म वश करते हैं और वे प्रेम वश। वे प्रकट हुए, ऐसा वर्णन आता है कि प्रकट समय में उनका सौंदर्य इतना सुंदर था…, जैसे साधारणतया हम संसार में देखते हैं कि कोई भी संतान चाहे बालक हो या बालिका जब लगभग 7-8 महीने या एक साल तक का हो जाता है तब वह बहुत ही आकर्षित लगता है। वही आकर्षक चेहरा भगवान के आविर्भाव के समय में था। अंधकार में, डिलीवरी वार्ड में कोई ज्यादा देख नहीं पाया था। यद्यपि ब्रह्मा आदि देवताओं ने गर्भ स्तुतियां की थी।
दूसरे दिन सुबह सभी को पता चला और सभी ने दर्शन किया। बालक का इतना सुंदर रूप था, उसको देखने के लिए आसपास की जितनी भी स्त्रियां थी, बालक को देख बहुत ही प्रसन्न व आकर्षित हो गयी। केवल इतना ही नहीं, देवता लोक से समस्त देवियां व नवद्वीप के आसपास जितनी भी स्त्रियां थी, वे सब गयी…बहुत बड़ी भीड़ लगी थी। वे भेंट ला रही थी। भगवान् का दर्शन खाली हाथों से नहीं करते हैं। सन्त व महापुरुष के पास कुछ भेंट दक्षिणा लेकर आना पड़ता है। जगन्नाथ मिश्र के घर में अनेक सामग्री आने लगी। ऐसा वर्णन आता है कि शांतिपुर से अद्वैत आचार्य ने अपनी धर्म पत्नी सीता ठकुरानी को आदेश दिया कि आप जाओ और उनके दर्शन करो। आप अनुभवी हो, उनकी सहायता करो कि उनको क्या क्या आवश्यकता है। सीता ठकुरानी ने आचार्यों की अनुमति से विभिन्न विभिन्न प्रकार के द्रव्य जो जात संस्कार के लिए आवश्यक होते हैं और जात संस्कार के बाद के उत्सव के लिए भी आवश्यक होते हैं, उन सब नाना प्रकार के द्रव्यों, अलंकारों, वस्त्रों, पूजा सामग्री, विभिन्न विभिन्न प्रकार के द्रव्य लेकर जगत पूजिता आर्या श्री सीता ठकुरानी आई अर्थात उस ज़माने में पूरे नवद्वीप की सबसे ज्यादा सम्मानित महिला, भगवती सीता देवी अनेक नाना प्रकार की सामग्रियों के साथ वहां पधारी। उनका स्वागत किया गया। वे भगवान् के दर्शन करके प्रसन्न होती हैं।
श्री मालिनी देवी, आचार्य रत्न की पत्नी सीता ठकुरानी बहुत ही अनुभवी महिलाएं थी, उच्च कोटि की भक्त थी। उन लोगों ने मिलकर विधि पूर्वक मिलकर यह जात संस्कार, पूजा इत्यादि किया। दूसरे दिन जगन्नाथ मिश्र अत्यंत प्रसन्न चित्त, अत्यन्त आनंद से इस उत्सव को मनाना चाहते थे। हम जानते हैं कि उत्सव में तीन काम होते हैं। उत्सव में भोजन आवश्यक होता है। गाना, नाचना और खाना यही उत्सव होता है। जगन्नाथ मिश्र इतने उदार और आनंदित थे कि वह दान करना चाहते थे। किसी विशेष उत्सव में कल्याण कामना के लिए ब्राह्मण आदि को कुछ दान किया जाता है। जगन्नाथ मिश्र यद्यपि दरिद्र ब्राह्मण थे क्योंकि भगवान स्वयं उनके घर में प्रकट हुए थे, इसलिए लक्ष्मी देवी भी आ गयी। भगवान् आए तो लक्ष्मी आएगी ही। जब लक्ष्मी उनके घर में आ चुकी इसलिए इतनी भेंट सामग्री आदि उनके घर में आई थी कि जगन्नाथ मिश्र ब्राह्मणों को दान करने लगे। पूरे नवद्वीप में जितने गायक पार्टी, कीर्तन पार्टी थी, वे सब बिना निमंत्रण के आ गई और आकर अपना अपना परफॉर्मेंस करने लगी। यद्यपि वे बिना किसी आशा के परफॉर्मेंस करने आए थी लेकिन जगन्नाथ मिश्र ने उन सबको, उनके मन के हिसाब से विशिष्ट दान दिया। वे सभी दान लेकर, प्रसन्न होकर गए। जगन्नाथ मिश्र ने उनको प्रचूर दान दिया। यह नियम है कि दान दक्षिणा होना चाहिए। आजकल किसी के घर में पुत्र का जन्म होता है तब उसका जन्मदिन मनाया जाता है। हम उसमें देखते हैं कि दूसरे लोग उल्टी सीधी बर्थडे गिफ्ट लेकर आते हैं लेकिन उस दिन कम से कम उनके घर वालों को तो देना ही चाहिए जिस प्रकार जगन्नाथ मिश्र ने दिया। इस प्रकार बहुत बड़ा आयोजन किया गया। भगवान् में पहले हरि नाम को भेजा। महाप्रभु जब हुए , तब वे रोने लगे, किसी प्रकार से कोई भी उनको शांत नहीं कर पाया। तब भगवान् का हरिनाम सुन कर शांत हो गए। उनका रोना बंद हो गया। तब सब समझ गए कि बालक निमाई को यदि रोने से रोकना हो, प्रसन्न करना हो तो हरि नाम कीर्तन करना ही पड़ेगा। भगवान रो रो कर दूसरे के मुख से हरि नाम बुलवाते थे। सीता ठुकरानी शची नंदन के अभूतपूर्व सौंदर्य को देखकर आशा करती है कि इतनी सुंदरता, कहीं किसी का दोष नजर ना लग जाए, कोई डाकिनी-शाकिनी आकर कोई दुष्टता न कर दें।
इसलिए नाना प्रकार की अलंकार विधि उसने की थी। कहीं किसी का नजर ना लगे। इसलिए उन्होंने नामकरण किया, सीता ठुकरानी ने नामकरण किया। सीता ठुकरानी ने सोचा कि किसी की नज़र न लगे इसलिए कड़वा नाम होना चाहिए। सीता ठकुरानी ने निमाई नाम दिया। यद्यपि जगन्नाथ मिश्र के ससुर नीलांबर चक्रवर्ती प्रसिद्ध ज्योतिष आचार्य थे और नवद्वीप में जितने बड़ें ज्योतिषाचार्य थे, सब से बात करके इतने सुंदर बालक को नाम विशम्भर दिया। पर यह नाम चला नहीं, फेमस नहीं हुआ। सीता ठकुरानी द्वारा प्रेम पूर्वक दिया गया निमाई नाम वही सबसे प्रसिद्ध है। केवल उसी समय ही नहीं, आज इतने वर्षों बाद भी निमाई नाम प्रसिद्ध है। नामकरण भी हुआ और जगन्नाथ मिश्र के घर में पूरे नवद्वीप से जितने प्रकार के कीर्तन, नर्तक, दक्ष आए थे उन सभी ने अपना अपना परफॉर्मेंस किया और जगन्नाथ मिश्र ने सभी को दक्षिणा , भेंट दान इत्यादि देकर पुत्र के जन्म के आनंद के महोत्सव के लिए बहुत बड़ें भंडारे भोज का आयोजन किया। आसपास के जितने भी ब्राह्मण वैष्णव इत्यादि लोग आए थे, सभी को विशेष भोज दिया गया। किसी भी उत्सव का अंतिम प्रयास भोजन होता है। भोजन के बिना कोई सिद्धि नहीं होगा। जगन्नाथ मिश्र ने शचीनन्दन भगवान गौर हरि के प्राकट्य उत्सव के उपलक्ष्य में उनकी प्रसन्नता के लिए, संपूर्ण जगत के कल्याण के लिए, भगवत कृपा के लिए, जिस फीस्ट का आयोजन किया था। जितने भी गौड़ीय वैष्णवगण है, सभी ने कल के दिन व्रत धारण किया था। वे आज बदला लेंगे। आज सुंदर सुंदर व्यजंन नाना प्रकार के खाद्य सामग्री, भगवान् शचीनन्दन गौर हरि को जो कि हमारे इष्टदेव भगवान् गौर हरि हैं, को अर्पित करें। हम लोगों का कर्तव्य है कि आज यथाशक्ति जितने सुंदर सुंदर पकवान लेकिन अपने पसंद से नहीं अपितु भगवान् को कौन सा सामग्री पसंद है, इस प्रकार की सामग्री तैयार करके भोग लगाए व जितने भी भक्त हो, उनमें वह प्रसाद वितरण करना चाहिए।
जगन्नाथ मिश्र के महोत्सव का मुख्य अंग है- महाप्रभु जन्म उत्सव के लिए फीस्ट। शची माता, सीता ठुकरानी आदि आदि ये जितनी भी शुभ महिलाएं स्त्रियां थी, उन्होंने बंगाल में प्रसिद्ध खाद्य सामग्री हुआ करती थी अर्थात जो सबसे आकृष्ट वस्तु थी, वे उन्होंने तैयार की थी। उस जमाने में गैस चूल्हा नहीं था, हाई टेक किचेन इत्यादि नहीं था। मिट्टी के बर्तन में, लकड़ी के चूल्हे पर सामग्री तैयार करते थे। भगवान की सबसे प्रिय सामग्री है- साग! हरी पत्ते वाली सब्जी। जो आजकल हम किसी फीस्ट में मेनू करते ही नहीं है। आजकल के फीस्ट का मेनू एकदम अलग होता है। वह भगवत प्रसन्नता के लिए तो होता ही नहीं है। यह हम लोगों की प्रसन्नता के लिए होता है। यद्यपि यदि भगवान को प्रसन्न करने के लिए, भगवान के भक्तों को प्रसन्न करने के लिए श्रीजगन्नाथ मिश्र जिस प्रकार से भोजन सामग्री तैयार किए। हमें भी वैसे ही करना चाहिए। हम श्रीचैतन्य लीला में पढ़ते हैं कि श्री अद्वैत आचार्य, श्री सारभौम भट्टाचार्य, श्री राघव पंडित, मालिनी देवी, श्रीवास आचार्य जो भी भगवान के परम वैष्णव थे, वे चैतन्य महाप्रभु के लिए भोजन बनाते थे। वे जो जो भी भोजन/ आइटम सामग्री बनाते थे, वह सामग्री हमें सीखना चाहिए। वही सामग्री हमें भगवान की प्रसन्नता के लिए अर्पित करनी चाहिए।
आजकल हम फास्ट फूड खाते हैं, हम साग खाना तो बिल्कुल पसंद ही नहीं करते। भगवान् चैतन्य महाप्रभु की प्रिय फीस्ट नीम के मुलायम कोमल नूतन पत्ते होते हैं। नीम के मुलायम पत्तों और फूलों से जो साग सामग्री बनती है, वह भगवान को बहुत प्रिय है। नीति शास्त्र में कहा गया है कि नाना प्रकार के विकार पित, काफ, विकार से बचने करने के लिए, कड़वा भोजन ग्रहण करना चाहिए, साथ में करेला जैसे पदार्थ लेने चाहिए। भगवान का जन्म फाल्गुन पूर्णिमा को हुआ था। उस समय नीम, परवल की कई सामग्रियां बनाई गई थी लेकिन आजकल तो लड़के लड़कियां नीम, करेले का नाम लेना ही पसंद नहीं करते । भगवान को कौन कौन सामग्री प्रिय है, वह अवश्य होना चाहिए। भगवान् उस सामग्री को अवश्य स्वीकार करते हैं। जगन्नाथ मिश्र ने महान विशेष महोत्सव किया था। प्रायः सभी मंदिरों में गौरांग महाप्रभु की प्रसन्नता के लिए विशेष भोज का आयोजन किया जाता है। श्री जगन्नाथ मिश्र के उत्सव के उपलक्ष में आज के दिन स्वयं भेंट स्वीकार करना और भेंट देना यह प्रीति का उत्सव है। बड़े आनंद का उत्सव है। प्रीति लक्षण में हमारे आचार्य गोस्वामी कहते हैं-
*ददाति प्रतिगृह्णति गुह्यमाख्याति पृच्छति। भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीति-लक्षणम्।।*
( उपदेशामृत श्लोक ४)
अर्थ:- दान में उपहार देना, दान- स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
एक दूसरे से प्रेम करने का, एक दूसरे को प्रसन्न रखने का भाव मेंटेन करने की 6 विधियां है। षड्विधं प्रीति-लक्षणम् के विषय में आप जानते होगे? श्रील रूप गोस्वामी ने उपदेशामृत में कहा है उनमें से एक है- भुङ्क्ते भोजयते चैव आपको उन्हें कुछ देना पड़ेगा और उनसे कुछ लेना पड़ेगा। यह लेनदेन- उपहार देना और उपहार स्वीकार करना, यह प्रीति के लक्षण हैं। जगन्नाथ मिश्र के घर में जो भी आते थे, वे उनको भेंट देते थे और दान भी देते थे। जिनको हम पसंद करते हैं, जो मित्रवत है हमें उनको कुछ देना चाहिए उनको भी हमें कुछ देना चाहिए। इससे प्रेम का व्यवहार बढ़ता है।
उसके पश्चात गुह्यमाख्याति पृच्छति अर्थात जब वे आते हैं, तब हम उनसे पूछेंगे कि कैसे हैं आप? वो भी कुशल प्रश्न करेंगे। हम भी उनको प्रश्न करेंगे। हमारी समस्या क्या है ? हमारे अंदर ऐसी समस्याएं हैं जिसको हम प्रायः किसी को बोल ही नहीं सकते। जो अपने अत्यंत घनिष्ठ व्यवस्था व्यक्ति हो, जिसके साथ आपका प्रेम संबंध हो, आप केवल उसी को ही बोल सकते हैं। जिस पर विश्वास होगा कि यह मुझे सहायता करने के लिए विशेष रूप से सही उपाय बताएगा। इस प्रकार से हमें अपनी सारी अंदर की गुह्यतम् समस्या उनके सामने खोल कर बतानी चाहिए और फिर पूछना चाहिए? क्या करूं, बताओ? इस प्रकार प्रेम से मिलन की यह भी विधि है। तीसरी विधि है भुङ्क्ते भोजयते चैव- उनके घर में उत्सव हो और कभी बुलाए तो जाना चाहिए। उनके घर में प्रेम से प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। यदि आपके घर में कुछ ऐसा आंनद उत्सव आदि हो तो आपको भी प्यार से आमंत्रित करना चाहिए। उन को भोजन कराना चाहिए। आजकल हम कुछ देखें या नही लेकिन एक चीज देखते हैब कि बड़े बड़े बिजनेसमैन आदि सब लोग होटल में या इधर उधर पार्टी करते हैं। यह पार्टी प्रीतिभोज ही तो है घर में खिलाते नहीं हैं, होटल में ख़िलाते हैं। लेकिन वो भोजन वास्तविक नहीं होता, डुप्लीकेट होता है।
भोजन का मतलब अपने घर में भोजन बनाकर बुलाना और उनको खिलाना। वो भी आकर देखेंगे कि हमारा रहन- सहन बोली कैसी है। आप किस प्रकार बनाते हैं? क्या कमी है, क्या अच्छा है। बाहर रेंटेड जगह पर कोई और बनाए, यह नहीं, यह प्रीति के लक्षण नहीं। जगन्नाथ मिश्र ने किसी होटल में भोजन लाकर व्यवस्था नहीं की। जो भी स्त्रियां घर में थी, सीता ठकुरानी की अध्यक्षता में नाना प्रकार की सामग्री बना कर प्रस्तुत की गई। इसलिए हर स्थिति में अपने घर में, घर के सदस्यों के साथ मिलकर भोग प्रसाद रंधन कर, नैवैद्य अर्पण कर दान वितरण करना चाहिए। जिसके घर में व्यवस्था है, वहां पर भी जा सकते हैं, वह भी बहुत अच्छा है। भुङ्क्ते भोजयते चैव, जगन्नाथ मिश्र ने इस प्रकार से भोजन और बालक के जन्म पर दान दक्षिणा दिया। यही जगन्नाथ मिश्र के उत्सव का मुख्य अंग था। निश्चित ही भगवान् को देखने के लिए, प्रसाद पाने के लिए, केवल इस धरती के मनुष्य गण ही नहीं, अपितु स्वर्ग से समस्त देवगणों सबने भाग लिया क्योंकि वे जानते थे कि यह बालक कौन है?
इसलिए अपने आप को धन्य मानना चाहिए क्योंकि शची नंदन गौर हरि परमेश्वर भगवान थे। उनका रूप,उनके चरण कमल सब मंगल चिन्हों को जान करके सभी परम खुश थे। लेकिन किसी को पता नहीं था कि हम इतना खुश क्यों हो रहे हैं?
ऑटोमेटिक सभी खुश हो गए। सबके हृदय में आनंद, प्रसन्नता भर गया था, इसलिए सभी बढ़ चढ़ कर भाग लेने के लिए आए। जो बड़ें थे, सभी ने आशिर्वाद दिया, कीर्तन, नृत्य, फिस्टिंग और कुछ कुछ उपहार देना और उपहार स्वीकार हुआ। याद रहेगा कि हम शचीनन्दन के जन्म उत्सव में गए थे और हमें यह मिला था। इस प्रकार से जगन्नाथ मिश्र ने महोत्सव मनाया। रघुनाथ दास गोस्वामी पूरे डिटेल में उसको बधाई गान के रूप में वर्णन करते हैं कि किस प्रकार सब, कौन कौन सी सामग्री लेकर आए थे, क्या किया था।
*मिश्र- वैष्णव, शांत, अलम्पट, शुद्ध, दान्त, धन- भोगे नाहि अभिमान। पुत्रेर प्रभावे य़त, धन आसि’ मिले,तत, विष्णु- प्रीते द्विजे देन दान।।*
( चैतन्य चरितामृत आदि लीला १३.१२०)
अर्थ:- जगन्नाथ मिश्र एक आदर्श वैष्णव थे, वे शांत, इन्द्रीयतृप्ति में संयमित, शुद्ध तथा संयमी थे। अतएव उनमें भौतिक ऐश्वर्य भोगने की कोई इच्छा नहीं थी। जो भी धन उनके दिव्य पुत्र के प्रभाव से आया, उसे उन्होंने विष्णु की तुष्टि के लिए ब्राह्मणों को दान में दे दिया।
यहां जगन्नाथ मिश्र के गुण बताए हैं कि वे शांत थे, वैष्णव थे, अलम्पट थे, शुद्ध थे, इसलिए जितना भी धन सम्पति उनके पास आया, सब विष्णु की संतुष्टि के लिए ब्राह्मणों को दान में दे दिया।
*लग्न- गणि’ हर्षमति, नीलाम्बर चक्रवर्ती, गुप्ते किछु कहिल मिश्रेरे। महापुरुषेर चिन्ह, लग्ने अङ्गे भिन्न- भिन्न, देखि- एइ तारिबे संसारे।।*
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला १३. १२१)
अर्थ:-
श्रीचैतन्य महाप्रभु की जन्म घडी की गणना करके नीलांबर चक्रवर्ती ने जगन्नाथ मिश्र से एकांत में कहा कि उन्होंने बालक के शरीर तथा जन्म घड़ी दोनों में ही महान व्यक्ति के विभिन्न लक्षण देखे हैं। इस प्रकार वे समझ गए कि यह बालक भविष्य में तीनों लोकों का उद्धार करेगा।
नीलांबर चक्रवर्ती ने सुबह जब आकर दर्शन किया और उनके राशि नक्षत्र के हिसाब से गणना की तो जगन्नाथ मिश्र को बुलाकर बोले, अद्भुत लक्षण वाला बालक है, उनके द्वारा संसार का उद्धार होगा।
*ऐछे प्रभु शची- घरे, कृपाय कैल अवतारे, ये़इ इहा करये श्रवण। गौर- प्रभु दयामय, त़ारे हयेन सदय, सेइ पाय ताँहार चरण।।*
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला 13.122)
अनुवाद:-
इस तरह चैतन्य महाप्रभु अपनी अहैतु की कृपा वश शचीदेवी के घर में अवतरित हुए। चैतन्य महाप्रभु उस किसी भी व्यक्ति पर अत्यंत कृपालु होते हैं, जो उनके जन्म के इस वृतान्त को सुनता है।
इस प्रकार शची और जगन्नाथ के घर में भगवान चैतन्य महाप्रभु का जन्म लीला/ अवतार हुआ। जो भक्त इसका श्रवण करता है, गौरांग महाप्रभु दया करके उसे अपने श्री चरणों की प्राप्ति कराते हैं।
*पाइया मानुष जन्म, ये ना शुने गौर- गुण, हेन जन्म तार व्यर्थ हैल। पाइया अमृत धूनी , पिये विष- गर्त पानि, जन्मिया से केने नाहि मैल।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला १३.१२३)
अर्थ:-
जो व्यक्ति मनुष्य का शरीर पाकर भी श्री चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय को ग्रहण नहीं करता, वह अपने सुअवसर को खो देता है।अमृतधुनी भक्तिरूपी अमृत की प्रवाह मान नदी है। यदि मनुष्य शरीर पाकर कोई ऐसी नदी का जल पीने के बदले भौतिक सुख रूपी विषैले गड्ढे का जल पीता है, तो अच्छा यही होता कि वह जीवित रहने के बजाय बहुत पहले ही मर गया होता।
मनुष्य जन्म पाकर जो गौरांग महाप्रभु की जन्म लीला श्रवण नहीं किया, उनका मनुष्य जन्म व्यर्थ है।
*श्री चैतन्य- नित्यानंद, आचार्य अद्वैतचंद्र, स्वरूप- रूप- रघुनाथ दास। इँहा- सबार श्री चरण, शिरे वंदि निज धन, जन्म लीला गाइल कृष्णदास।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 13.124)
अर्थ:- मैनें कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने, श्री चैतन्य महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु, आचार्य अद्वैतचंद्र, स्वरूप दामोदर, रूप गोस्वामी तथा रघुनाथ दास गोस्वामी के चरण कमलों को अपनी सम्पति समझकर अपने सिर पर धारण करके श्री चैतन्य महाप्रभु के अविर्भाव का वर्णन किया है।
अमृत के धार पा कर भी … मनुष्य जन्म को व्यर्थ गवां अथवा मर रहे है।
*ऐछे शची जगन्नाथ, पुत्र पाञा लक्ष्मीनाथ, पूर्ण हइल सकल वाञ्छित। धन धान्ये भरे घर, लोकमान्य कलेवर, दिने दिने हय आनंदित।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 13.119)
अर्थ:-
इस प्रकार लक्ष्मीपति को पुत्र रूप में पाकर माता शची देवी तथा जगन्नाथ मिश्र की सारी मनोकामनाएं पूरी हो गयी। उनका घर सदैव धन- धान्य से भरा रहने लगा। वे ज्यों- ज्यों श्रीचैतन्य के प्यारे शरीरको देखते, दिन प्रतिदिन उनका आनंद बढ़ता जाता था।
इस प्रकार जगन्नाथ मिश्र परम आनंद से श्रीशची कुमार गौर हरि के लिए यह सब व्यवस्था करते थे और आज भगवान के साक्षात इस उत्सव को मनाते हैं उसमें कोई कंजूसी नहीं करते हैं । किसी को दान देने में , भोजन देने में, वस्त्र आदि किसी में कोई कसर नहीं छोड़ कर के यथाशक्ति धन सम्पति जुटाकर इस उत्सव को बहुत सुंदर व आकर्षक बनाते हैं। इस प्रकार से जगन्नाथ मिश्र भगवान के पिता, जिनमे राजा दशरथ, नंद महाराज, वसुदेव, कश्यप सारे ही समाहित थे तो उन्होंने अपने श्री पुत्र भगवान गौर हरि जो साक्षात भगवान हैं, जिनमें अन्य समस्त भगवत स्वरूप निहित थे। उनकी जन्म लीला के जन्म उत्सव को मनाते हैं इसलिए हम सभी जो श्रोता व भक्त गण हैं बड़ी श्रद्धा से भगवान् का दिया हुआ नाम जप करते हैं। भगवान की कथा सुनते हैं। कल महाप्रभु की प्रसन्नता के लिए अवश्य ही व्रत धारण किए होगा। भिन्न भिन्न प्रकार से आपने महाप्रभु का उत्सव अभिषेक किज होगा। एकादशी प्रसाद या फलाहार लिया होगा। आज दिल खोल कर भगवान को प्रसन्न कीजिए। सुंदर-सुंदर खाद्य सामग्री प्रस्तुत करके सभी भक्तों को भोजन कराइए , उसके बाद स्वयं भोजन कीजिए । उसके साथ साथ आनंद मंगल हरि नाम कीर्तन का नृत्य हर भक्त को अवश्य करना चाहिए । इसके साथ साथ जगन्नाथ मिश्र व शचीदेवी कितने प्रसन्न हुए , जन्म की उन सब लीलाओं को ढंग से प्रमाणिक सूत्रों से सुनना चाहिए। इस प्रकार से जगन्नाथ मिश्र ने इस प्रकार उत्सव किया था। हम इस को पढ़ सुनकर आशिर्वाद ले सकते हैं।
श्री शची नंदन गौर हरि की जय।
समवेत भक्त वृंद की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
18 मार्च 2022,
मायापुर धाम.
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उत्सवों में पर्वों में सर्वोपरि उत्सव, पर्व है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव की जय! जन्माष्टमी सर्वोपरि उत्सव है, इसमें कोई दोराह नहीं है आज तक। गौर पूर्णिमा महोत्सव श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव से बिल्कुल कम नहीं है। यह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी जैसी ही है या कुछ अधिक ही है। जो श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन प्रकट हुए। वह बन गए श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु और वह प्रकट हुए गौर पूर्णिमा के दिन मतलब आज के दिन। गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! आज गौर पूर्णिमा है। फाल्गुन पूर्णिमा भी है और भी क्या क्या नाम है। और भी नाम है लेकिन ढोल यात्रा भी है, आपकी भाषा में बंगाल में और होली यात्रा भी है। होली भी है कुछ स्थानों पर। मैं कहते रहता हूं, तुम कहो तो अच्छा ही है यहां सब बातें। 536 वर्ष पूर्व आज के दिन, आज के दिन लेकिन दिन में नहीं सायंकाल के समय सूर्यास्त और चंद्रोदय के समय, एक और सूर्यास्त हो रहा था पश्चिम में पूर्व दिशा में चंद्रोदय होने जा रहा था। उस क्षण इसी धाम में इसी धाम में मैं इसलिए मैं कह रहा हूं कि मैं धाम में हूं इस समय। और मैं आपसे वार्तालाप कर रहा हूं। जो सुन रहे हैं, मुझे विश्वभर के भक्त देशभर के भक्त उनके लिए। मैं उस स्थान से बात कर रहा हूं, या उस कक्ष से मैं बात कर रहा हूं, जिस कक्ष के खिड़की से में योगपीठ जन्मस्थान चैतन्य महाप्रभु के जन्मस्थान का मंदिर का शिखर मुझे यहां से दिखाई देता है। इतने निकट मैं भी हूं और आप भी हो जो यहां मेरे समक्ष उपस्थित हैं। और आज तो क्या कहना इतनी बड़ी संख्या में गौर भक्त ही कहना होगा उनको जो आज पधारे हैं और दिन भर में पधारने वाले हैं। उसी स्थान से यह वार्तालाप हो रहा है आपके साथ। यहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। हरिबोल!!
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे ।
तोम बिन के दयालु जगत् संसारे ॥
पतित पावन हेतु तव अवतार ।
मोसम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥
बस इतना ही कहने की आवश्यकता है। चैतन्य महाप्रभु को संबोधित करते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोर और आप कहोगे दिल से कहोगे, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दया करो मोरे तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आप पर दया करेंगे। बस इतना कहने कि आवश्यकता है। आज जन्म दिवस है। महाप्रभु का जन्म दिवस है कल बर्थडे पार्टी है। गौरांग! गौरांग! गौरंगा! जब बर्थडे पार्टी होती है किसी की, कुछ भेज उपहार लेकर जाते हैं, बर्थडे गिफ्ट। पता नहीं आप कोई गिफ्ट लाए हो या लाने वाले थे पता नहीं लेकिन, मैं यही सोच रहा था कि, सबसे अच्छा उपहार दो तो यह है कि, आप स्वयं ही स्वयं को लाकर आत्मनिवेदन करो। स्वयं को अर्पित करो। त्वदीयवस्तु गोविंद तुभ्यं एव समर्पये और हम में वैसे वस्तु भी नहीं है हम तो जीवात्मा है। हमारा एक वचन है कि, भगवान सारी वस्तुएं आपकी है या हमारा पास जो भी है आपका है।तुभ्यं एव समर्पये लेकिन कई बार हम वस्तुएं तो अर्पित करते हैं लेकिन स्वयं को अर्पित नहीं करते है। यह ले लो, यह उपहार ले लो, हमारे पास जो वस्तु है, आपके हैं। पत्रं पुष्पं फलं तोयम या यत्करोसी यतज्ञासि…. चैतन्य महाप्रभु के बर्थडे के उपलक्ष्य में अगर हम बेस्ट गिफ्ट यही होगा, स्वयं को ही समर्पित करेंगे। तो, इस बर्थडे पार्टी का यह भी वैशिष्ट्य विशेषता है कि जिसका बर्थडे हैं वह भी आपको गिफ्ट देंगे। हरि बोल! आप दे या ना दे, देना तो चाहिए हमारी ओर से भी, बेस्ट गिफ्ट तो हम स्वयं को ही दे दे। निसंकोच हम स्वयं को दे सकते है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी हम को गिफ्ट देंगे और वह गिफ्ट वस्तु है जिसको श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गोलोक से जब आज के दिन प्रकट हो रहे थे, आज के दिन गोलोकंच परित्यज लोकानाम त्रानकारणात, आते आते श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभुने गोलोक की जो मूल्यवान वस्तु है या भेंट है उसकों लेकर आए। उन्होंने सोचा ही होगा कि, मैं जब यहां पर आऊंगा मुझे मिलने के लिए, कुछ भेट वस्तु दे देंगे तो मुझे उसके बदले कुछ देना होगा। कुछ भेट वस्तु देना होगा और वह भेट है गोलोकेर प्रेमध हरिनाम संकीर्तन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गोलोक वृंदावन से, गोलोक वृंदावन कि जो सबसे मूल्यवान भेंट वस्तु है वह लेकर आए। और वहां मूल्यवान वस्तु है,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। और समझने की बात यह है कि, हमने तो समर्पित किया स्वयं को भगवान को समर्पित किया। उसके बदले में हम तो कह रहे हैं कि हम को गिफ्ट देंगे। मंत्र देंगे महामंत्र देंगे हरिनाम देंगे, मतलब क्या दिया, भगवान ने महामंत्र दिया मतलब क्या दिया सोचने की बात है। क्या दिया, भगवान ने गिफ्ट तो दिया यह तो बहुत अच्छी बात है आपने स्वयं को दिया महाप्रभु को। महाप्रभु भी स्वयं को आपको देंगे। हरि बोल! क्योंकि कलीकाले नामरुपे कृष्णावतार जहां हरे कृष्ण हरे कृष्ण नाम क्या है? यह अवतार है। और वैसे उस दिन 536 वर्ष पुर्व सायंकाल में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। निमाई, निमाई, निमाई प्रकट हुए सायंकाल मे लेकिन, दिन में भगवान प्रकट हो रहे थे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। महामंत्र के रूप में, चैतन्य महाप्रभु दिनभर अवतार ले रहे थे। उस दिन चंद्र ग्रहण का दिन था। तो जब चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण होता है। उस दिन लोग क्या करते हैं, गंगा जमुना यहां वहां या गंगा सागर है और तीर्थ बार-बार गंगा सागर एक बार ऐसा भी कहते हैं। लोग जाते हैं। जहां तीर्थ हैं या कुंड है वहां जाकर स्नान करते हैं। जिस दिन चैतन्य महाप्रभु प्रकट होने वाले थे उस दिन हजारों लाखों लोग चैतन्य भागवत में वर्णन किया है वृंदावनदास ठाकुरने। दिन में लोग स्नान करते हुए, हरिबोल! हरिबोल! हरिबोल! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। नाम ले रहे थे। मतलब भगवान स्वयं को उन जप कर्ताओं को, कीर्तन कर्ताओं को, कीर्तनकार कीर्तन करने वालों को स्वयं को दे रहे थे, या लेना-देना चल रहा था। आपने मुझे दे दिया। अब मैं आपको दे देता हूं। कुछ इस तरह का यह लेनदेन है। आपने स्वयं को मुझे 100% दे दिया।
ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
ऐसा भी श्रीकृष्णा वचन दिए हैं भगवदगीता में। आप जितना शरण देते हैं वैसा ही उतना ही आत्मा को प्रकट होता हूं तांस्तथैव भजाम्यहम् यह तो कहना कठिन है लेकिन, समझना कठिन है जो जितनी मेरे शरण लेता है उस व्यक्ति का में भजन करता हूं। भगवान भजन करते हैं।
हरि हरि, मेरी ओर से भी आप सभी को गौर पूर्णिमा महोत्सव की शुभकामनाएं। आप सबको गौरांग महाप्रभु के जन्मदिन की शुभकामनाएं देता हूं। आप भी आनंदी हो जाओ, इस बर्थडे पार्टी में सम्मिलित होकर और अनुभव करके। चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव प्राक़ट्य दिन गौर पूर्णिमा महोत्सव। आप आज के दिन वैसे कई सारे असंख्य लोग हैं, जिनको गौर पूर्णिमा वह क्या होती है? हजारों लाखों को यह पता नहीं है। ना तो उनको नवद्वीप मायापुर पता है। मायापुर, हम जब पदयात्रा करते हुए आ रहे थे 1976 की बात है। वृंदावन से मायापुर आ रहे थे. रास्ते में लोग पूछते महाराज महाराज कहां जा रहे हो। हम जब कहते कि हम मायापुर जा रहे हैं तब महाराज होकर भी मायापुर जा रहे हो। माया का पुर, माया की नगरी है, महाराज माया की नगरी जा रहे हैं। लोग नहीं जानते थे मायापुर कहां है, क्या है। और अब तक पता नहीं है लेकिन, महाप्रभु की कृपा से श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील प्रभुपाद मोर सेनापति भक्त।
चैतन्य महाप्रभु की सेनापति भक्त श्रील प्रभुपाद और हमारी परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हुए, श्रील प्रभुपाद ने श्रील भक्तिविनोद ठाकुर, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर, भक्तिवेदांत श्रील प्रभुपाद की जय! उनकी योजना से सारे संसार। और आज का उत्सव केवल मायापुर में ही नहीं, जहां पर भी आप उपस्थित हो लगभग दो हजार भक्त सुन रहे हैं जप भी किया उन्होंने और भी सुन रहे हैं तो उन सब थानों पर गौर पूर्णिमा उत्सव मनाया जाएगा। आप इस्कॉन मतलब यहां इंटरनेशनल सोसायटी इंटरनेशनली ग्लोबली संपूर्ण विश्व मैं आज गौर पूर्णिमा उत्सव मनाया जाएगा। यह धीरे-धीरे एक दिन आएगा उसमें कुछ 8-9 हजार वर्ष लगेंगे तब तक क्या होगा, यह सुवर्णकाल है। कलयुग का यह सुवर्णकाल इस सुवर्ण काल में क्या होगा पृथ्वीते आछे नगरादिग्राम सर्वत्र प्रचार होइबो मोर नाम, मेरा नाम इस पृथ्वी पर जितने भी नगर हैं, ग्राम है, उन नगरों में ग्रामों में मेरे नाम का प्रचार होगा। एक दिन ऐसा भी आने वाला है। अच्छे दिन आएंगे एक सरकार कहती रहती है। ऐसे दिन आने वाले हैं। और वह दिन अच्छे होंगे सभी नगरों में ग्रामों में सारे पृथ्वी पर हरिनाम होगा। हरिनाम पहुंचेगा। तो उस समय इस पृथ्वी के हर नगर में हर ग्राम में गौर पूर्णिमा महोत्सव भी मनाया जाएगा। हरिबोल! अब तो हम ऐसा नहीं कह सकते हैं कि, हर नगर में हर ग्राम में हो रहा है लेकिन, हजार हजारों लाखों ग्रामों में पहुंच चुका है यह हरिनाम। जहां जहां हरिनाम पहुंचता है तो वहां वहां सबको पता चलता ही है। महाप्रभु का पता चलता है और मायापुर का पता चलता है। और फिर मैं कहते ही रहता हूं, नाम से धाम तक, नाम से धाम तक और फिर नाम ही उन जीव को धाम तक ले आता है या तो फिर वहां गौर पूर्णिमा महोत्सव में आते हैं। जाते हैं। आएंगे जाएंगे, आएंगे जाएंगे, हर साल आएंगे या बीच-बीच में आते जाएंगे। और फिर उनका क्या होगा, त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति फिर मामेति
फिर आ गए तो, फिर आ ही गए सदा के लिए यही रह जाएंगे। नाम से धाम तक। नाम लीजिए नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन, भक्तिविनोद ठाकुर का भजन। नामाश्रय करी जतन तुम्ही ताकह आपन काज नाम का आश्रय लो। पुनः नाम का आश्रय मतलब किसका आश्रय, नाम का आश्रय मतलब भगवान का आश्रय क्योंकि, अभिन्नत्व नामनाम्नि नाम और नामी अभिन्नोत्व।
ठीक है।
धन्यवाद।
गौरांग! जय निमाई! जय निताई!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जपा टॉक- 17/03/2021*
*विषय- अपने मिशन को पूरा करने के लिए महाप्रभु की दक्षिण भारत यात्रा*
हरे कृष्णा। जपा टॉक में आपका स्वागत है। इस समय हमारे साथ 764 से अधिक स्थानों से भक्त नामजप कर रहे हैं। हम गौर कथा सुन रहे हैं। गौर पूर्णिमा नजदीक आ रही है। मायापुर में कीर्तन मेला भी चल रहा है। आज आखिरी दिन है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानंद।
जय अद्वैतचंद्र जय गौर-भक्त-वृंद।।
अनुवाद: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान श्री नित्यानंद की जय! अद्वैतचंद्र की जय, और भगवान गौरांग के भक्तों की जय!
कल हमने संक्षेप में आदि लीला सुनी। मैं सभी लीलाओं का विस्तार से वर्णन नहीं कर रहा हूं। लेकिन मैं लीलाओं का क्रम बता रहा हूं। इससे हमें महाप्रभु के स्मरण को विकसित करने में मदद मिलेगी। स्मरण श्रवण का परिणाम है। जब हम किसी के बारे में सुनते हैं तभी हम उस व्यक्तित्व को याद कर सकते हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
अनुवाद: भगवान विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रुप, साज- सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान के चरणकमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान से प्रार्थना करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) – शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियां स्वीकार की गई है। [S.B. 7.5.23]
हम उनकी लीला गाएंगे। शची माता के पुत्र प्रभु, आपके हृदयों में सदैव उदय हों।
सदा हृदय-कंदरे स्फुरतु व: शचि-नंदन:।
अनुवाद: – श्रीमती शची देवी के पुत्र के रूप में जाने जाने वाले सर्वोच्च भगवान, आपके हृदय के अंतरतम में स्थित हों। [सीसी अंत्या 1.132]
जब ऐसा होगा तो यह कृष्ण भावनामृत का उदय है। यही हमारा जीवन है। हम मध्य लीला से सुन रहे थे कि जब महाप्रभु अपने दक्षिण भारत दौरे पर थे। वे चतुर्मास में श्री रंगम में वेंकट भट्ट के यहाँ निवास करते थे। वह वहाँ चार महीने तक रहे और जब वह जा रहे थे तो वेंकट भट्ट और गोपाल भट्ट भी उनके साथ आना चाहते थे। गोपाल भट्ट तब बच्चे थे और अभी तक गोस्वामी नहीं बने थे। वेंकट भट्ट ने उनसे रुकने की गुहार लगाई लेकिन महाप्रभु ने उन्हें सांत्वना दी और आगे बढ़ गए।
आगे मध्य लीला में उल्लेख आता है कि महाप्रभु परमानंद पुरी से मिले थे। महाप्रभु ने उनसे 3 दिनों तक चर्चा की थी। वे कृष्ण के बारे में चर्चा कर रहे थे।
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः । तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
अनुवाद: – शुद्ध भक्तों की संगति में श्री भगवान की लीलाओं तथा उनके कार्यकलापों की चर्चा कान तथा हृदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाली होती है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन से मनुष्य धीरे- धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात मुक्त हो जाता है और उसका आकर्षण स्थिर हो जाता है। तब असली समर्पण तथा भक्ति योग का शुभारंभ होता है। [एसबी 3.25.25]
कपिल मुनि ने कहा कि जब शुद्ध भक्त या संत एक साथ आते हैं तो क्या होता है? सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो
इसका मतलब है कि वे मेरे अद्भुत सौंदर्य के बारे में चर्चा करते हैं।
परमानंद पुरी नीलाचल जा रहे थे और महाप्रभु नीलाचल से ही आ रहे थे। महाप्रभु ने कहा कि मैं सेतु बंध तक जाऊंगा फिर रामेश्वरम से नीलाचल लौट जाऊंगा। फिर हम नीलाचल में मिल सकते हैं। हालांकि महाप्रभु ने कहा कि हम रामेश्वरम से नीलाचल लौट आएंगे लेकिन वास्तव में महाप्रभु रामेश्वरम से आगे निकल गए। और फिर अंततः उन्हें जगन्नाथ पुरी आना पड़ा। आगे महाप्रभु श्री शैल नामक पर्वत पर गए। वहाँ भगवान शिव और पार्वती ने एक ब्राह्मण जोड़े के वेश में, महाप्रभु को प्रसादम के लिए आमंत्रित किया। शिव और पार्वती को महाप्रभु की व्यक्तिगत संगति मिली। पहले उनकी मुलाकात परमानंद पुरी से हुई फिर भगवान शिव और पार्वती से।
उसके बाद महाप्रभु मदुरई चले गए। वहाँ उनकी भेंट एक ब्राह्मण से हुई। ब्राह्मण यह पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ कि रावण ने सीता का हरण किया था। ब्राह्मण ने सोचा, “मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता, इस राक्षस ने माता सीता का हरण किया था।” ब्राह्मण ने अपनी स्थिति व्यक्त की और कहा, “मैं आग में प्रवेश करना चाहता हूं।” महाप्रभु ने उनसे मुलाकात की और उन्हें समझाया और सांत्वना दी। तब महाप्रभु रामेश्वरम गए। वहां बहुत से विद्वान ब्राह्मण थे और रामायण पर चर्चा चल रही थी। वहाँ महाप्रभु ने शास्त्रों से सुना कि रावण ने छाया सीता ली थी न कि मूल सीता को। तो महाप्रभु उस शास्त्र की प्रति लेकर मदुरई लौट आए। तब महाप्रभु ने ब्राह्मण को यह समझाया कि रावण धोखा खा गया। उसने ब्राह्मण को सत्य समझाया और ब्राह्मण को शांत किया। यहां से महाप्रभु कन्या कुमारी के पास गए। मैं जिस भी जगह की बात कर रहा हूं, मैं वहां दक्षिण भारत पदयात्रा के दौरान रहा हूं।
हमने 1984 में शुरुआत की और गौर पूर्णिमा की 500वीं जयंती पर,1986 को मायापुर पहुंचे। इस दौरे को पूरा करने में 18 महीने लगे। हम मायापुर1986 में पहुंचे और हमने महाप्रभु की 500वीं जयंती मनाई। हम हर उस जगह गए जहां महाप्रभु गए थे और हमने निताई गौरसुंदर और श्रील प्रभुपाद को भी लिया। हमने अपनी पदयात्रा द्वारका से कन्याकुमारी होते हुए मायापुर तक शुरू की। हमने चैतन्य चरितामृत का उल्लेख किया और उन सभी स्थानों पर गए। यही हमारी पदयात्रा का मुख्य उद्देश्य था। हमने यह यात्रा श्रील प्रभुपाद और महाप्रभु की कृपा से पूरी की। तो कन्या कुमारी में विष्णु का मंदिर है। देवता श्रीरंगम की तरह सो रहे हैं। उनका नाम आदि केशव है। हम आदि केशव के सुंदर रूप को देखते हैं।भगवान वहाँ सो रहे हैं।
भुक्तम मधुरम सुप्तम मधुरम
मधुर-आदिपतेर अखिलम मधुरम।
अनुवाद:- उनका खाना मीठा है, उनकी नींद मीठी है। मिठास के भगवान के बारे में सब कुछ पूरी तरह से मीठा है। [मधुराष्ट्रकम श्लोक 4]
वहाँ महाप्रभु को ब्रह्म संहिता का एक अध्याय प्राप्त हुआ। 100 अध्यायों वाली ब्रह्म संहिता खो गई थी। उन्हें एक अध्याय मिला और उसकी एक प्रति मिली। वह भारत के पूर्वी तट पर दक्षिण की ओर जा रहे थे। महाप्रभु उड़ीसा से आंध्र और वहां से तमिलनाडु गए। कन्या कुमारी सबसे दक्षिणी छोर है, जहां से उन्होंने यू टर्न लिया। अब वह पश्चिमी तट पर जाएंगे। वे तिरुवनंतपुरम के श्री पद्मनाभ मंदिर गए। यह मत भूलो कि कीर्तन शगल हमेशा चलता रहता था। वह हमेशा हर जगह और हर कदम पर कीर्तन करते थे। वह बिना गाए और जप के एक भी कदम नहीं बढ़ाते थे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
खैते शुइते यथा तथा नाम लय
काल-देश-नियम नाही, सर्व सिद्धि हय।
अनुवाद:- समय या स्थान की परवाह किए बिना, जो भोजन या सोते समय भी पवित्र नाम का जप करता है, वह सभी पूर्णता को प्राप्त करता है। [सीसी अंत्य 20.18]
अब आगे वे केरल में जनार्दन के दर्शन करते हैं। यह समुद्र के किनारे एक प्रसिद्ध मंदिर है। फिर वह उत्तर की ओर बढ़े – बंगलौर से उडुपी। बीच में रास्ते में वे शंकराचार्य की “शारदा पीठ” नामक पीठ के पास गए उसके बाद वे उडुपी गए। उडुपी कृष्ण मंदिर है जहाँ कृष्ण की पूजा मध्वाचार्य ने की थी। वह नर्तका गोपाल (नृत्य गोपाल) के सुंदर दर्शनों को निहारते है। तत्ववादी कहे जाने वाले मध्वाचार्य के अनुयायियों ने महाप्रभु को देखा। उन्होंने महाप्रभु के साथ चर्चा शुरू की। महाप्रभु ने कहा, प्रेम पुमर्थो महान: भगवान के प्रेम को प्राप्त करना जीवन की सर्वोच्च पूर्णता है। वहाँ महाप्रभु ने मध्वाचार्य के अनुयायियों के साथ कई चर्चाएँ कीं। उन्होंने महाप्रभु को मायावादी आचार्य समझ लिया। बाद में, श्री चैतन्य महाप्रभु को हर्षित प्रेम में देखने के बाद, वे आश्चर्य से चकित हो गए। उन्होंने महसूस किया कि महाप्रभु मायावादी नहीं बल्कि एक शुद्ध भक्त थे।
प्रभु कहे,–“मायावादी कृष्णे अपराधी
‘ब्रह्म’, ‘आत्मा’ ‘चैतन्य’ कहे निर्वधि
अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “मायावादी निर्विशेषवादी भगवान कृष्ण के महान अपराधी हैं, इसलिए वे केवल ब्रह्म, आत्मा और चैतन्य शब्दों का उच्चारण करते हैं। [सीसी मध्य 17.129]
उन्होंने सोचा, “मायावादी अवैयक्तिक होकर भगवान को नाराज करते हैं और मानते हैं कि भगवान में कोई गुण नहीं है लेकिन यह संन्यासी भगवान को बहुत प्यार से देख रहा है। इसलिए वह मायावादी नहीं हो सकता। वह भगवान के नाम, रूप, गुणों और पवित्र स्थान में इतना विश्वास रखते हैं। इसलिए वह मायावादी नहीं हो सकते। महाप्रभु गए और उनसे मिले। महाप्रभु ने देखा कि उनमें गर्व की भावना है इसलिए महाप्रभु ने सेवक होने के विषय पर निर्देश दिया।
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना ।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥ ३ ॥
अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए [शिक्षाष्टकम श्लोक 3]
फिर महाप्रभु कर्नाटक से चले गए और अब महाराष्ट्र में प्रवेश कर गए। मैंने सोचा कि प्रत्येक आदि लीला, मध्य लीला और अंत्य लीला पर एक कक्षा दे जहाँ हम उनकी संक्षेप में चर्चा करेंगे। लेकिन हम काफी पीछे हैं।
फिर वे कोल्हापुर में जहां महालक्ष्मी मंदिर है वहां गए। महालक्ष्मी विष्णु से परेशान होकर वैकुंठ से अवतरित हुईं। इसलिए वह कोल्हापुर आ गई। ये लीलाएं हैं। इन्हें पढ़ना, सुनना और समझना चाहिए। वह यहाँ कैसे आई? उन्हें क्या हुआ? हमें पूछताछ करनी चाहिए। मैं संक्षेप में वर्णन कर रहा हूं फिर आप अधिक विस्तार से जानने का प्रयास कर सकते हैं।
तब महाप्रभु पंढरपुर गए। रास्ते में महाप्रभु भी गरीबों के इस गांव – अरवड़े आए। उस समय यह मेरा नहीं था। यह अभी भी मेरा नहीं है लेकिन क्योंकि यह मेरा जन्मस्थान है, मैं दावा करता हूं कि यह मेरा है- “मेरा जन्मस्थान”।
वह अरवडे से गुजरे, उन्होंने कीर्तन किया। अरवडे से लगभग 2 किमी दूर गौर गाँव नामक एक गाँव है। गौरांग महाप्रभु ने वहां कीर्तन किया होगा, इसलिए उसका नाम उनके नाम पर रखा गया है। इसलिए हमने अरवडे में महाप्रभु के चरण कमलों को स्थापित किया। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने भी दक्षिण भारत में विभिन्न स्थानों पर महाप्रभु के चरण कमलों को स्थापित किया। 1984 में जब पदयात्रा आई तो हमने अरवड़े और पंढरपुर में स्थापित किया। रास्ते में महाप्रभु भी तिरुपति गए, मैं उल्लेख करना भूल गया। और भी कई जगह हैं जैसे वह मंगल गिरी गए थे।
तो अब महाप्रभु पंढरपुर आ गए हैं। उन्होंने चंद्रभागा नदी में स्नान किया और श्री विट्ठल के रूप को देखा। उन्होंने कीर्तन किया और मंदिर प्रांगण में नृत्य किया। फिर पंढरपुर में उनकी मुलाकात श्री रंगा पुरी से हुई। वे दिन-रात कृष्ण कथा की चर्चा में लीन रहते थे। इन चर्चाओं के दौरान महाप्रभु को पता चला कि उनके बड़े भाई शंकरारण्य स्वामी पंढरपुर आए हैं और उन्होंने अपना शरीर वहीं छोड़ दिया। जब महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी से अपनी यात्रा शुरू की, तो उनके करीबी सहयोगी नहीं चाहते थे कि वे चले जाएं। कृष्णदास कविराज गोस्वामी कहते हैं कि महाप्रभु ने एक बहाना बनाया कि वह अपने बड़े भाई की तलाश करना चाहते हैं। क्योंकि जब उन्होंने जगन्नाथ पुरी से विदा लेना चाहा और कहा कि मैं विश्वरूप की तलाश करना चाहता हूं, तो उन्हें पता था कि उनका बड़ा भाई पहले ही इस दुनिया से गायब हो चुका है। क्योंकि आखिर वे सर्वज्ञ हैं, सब कुछ जानने वाले हैं। वह जानते थे लेकिन फिर भी उन्होंने एक बहाना बनाया। क्योंकि उन्हे करना था,
धर्म-संस्थापन-अर्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
अनुवाद:- धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में बार-बार अवतार लेता हूँ। [बीजी 4.8]
वह वास्तव में धर्म की स्थापना करना चाहते थे। और महाप्रभु हरिनाम का प्रचार भी करना चाहते थे। वह अपनी भविष्यवाणी को सिद्ध करना चाहते थे।
पृथिविते अच्छेे यात नगरादि ग्राम।
सर्वत्र प्रसार हैबे मोरा नामा।।
अनुवाद:- “हर कस्बे और गाँव में मेरे नाम का जप सुनाई देगा।” [सीबी अंत्य-खास 4.126]
यही उनका मुख्य मकसद था।
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार
हरे कृष्ण नाम गौरा कोरिला प्रसार
अनुवाद:- राधा अपने प्रेम में जिस आनंद का अनुभव करती हैं, उसका स्वाद चखने के लिए, उन्होंने अब यहाँ भगवान गौर के रूप में अवतार लिया है। भगवान गौर के रूप में वे हरे कृष्ण के पवित्र नामों के मंत्र के जाप का उपदेश देते हैं। [वासुदेव घोष का गीत जय जया जगन्नाथ]
महाप्रभु भगवान के पवित्र नामों का प्रचार और गायन करना चाहते थे। इसलिए वह दक्षिण भारत के दौरे पर जाना चाहते थे। और वह हर जगह कीर्तन कर रहे थे। वह सभी को कृष्ण प्रेम पहुंचा रहे थे। कृष्ण-प्रेम प्रदायते- आप व्यापक रूप से कृष्ण के शुद्ध प्रेम का वितरण कर रहे हैं।
तो यहां पंढरपुर में, उन्हें माधवेंद्र पुरी के शिष्य और श्री ईश्वर पुरी के गॉडब्रदर श्री रंगा पुरी से यह खबर मिली। श्री रंगा पुरी वहां से चले गए। लेकिन महाप्रभु वहां 3-4 दिन रहे। करीब 7 दिनों तक दोनों के बीच चर्चा हुई। महाप्रभु करीब 11 दिन पंढरपुर में रहे। महाप्रभु ने पंढरपुर में बहुत दिन बिताए। वह आमतौर पर ज्यादातर जगहों पर इतने लंबे समय तक नहीं रहते थे। वह केवल कुछ चुनिंदा स्थानों पर ही अधिक समय तक रहे। उस जगह में से एक गोदावरी नदी के पास कोहूर है जब वह रामानंद राय से मिले। फिर श्री रंगम में 4 महीने (चतुर्मास) और फिर पंढरपुर (11 दिन)। बहुत कम ऐसे स्थान थे जहां महाप्रभु ने इतने दिन बिताए थे। नहीं तो वह एक ही जगह रात गुजारते या कभी-कभी आधी रात में ही उस जगह को छोड़कर आगे बढ़ जाते। उन्होंने पंढरपुर में अधिक दिन बिताए। उन्होंने पंढरपुर की महिमा को बढ़ाया और गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के साथ पंढरपुर का संबंध स्थापित किया। पंढरपुर सोलापुर जिले में है।
वहां से वह सतारा चला गए। सतारा एक और जिला है। कृष्ण और वेणवा नदियों का संगम सतारा में है। महाप्रभु ने नदी में जाकर स्नान किया। यहाँ उन्होंने वैष्णव ब्राह्मणों से बिलवामंगल द्वारा लिखित एक पुस्तक कृष्ण-कर्णमृत एकत्र की। महाप्रभु इस पुस्तक से बहुत प्रभावित हुए और इसलिए उन्होंने बिलवा मंगला ठाकुर की इस पुस्तक की एक प्रति ली। पहले उन्होंने आदि केशव मंदिर में ब्रह्म-संहिता की प्रति ली और दूसरी, बिलवा मंगल ठाकुर द्वारा कृष्ण-कर्णमृत की प्रति। बिलवा मंगल ठाकुर एक महान आचार्य थे और उन्होंने कृष्ण-कर्णमृत की रचना की। जब वे पुरी जाएंगे तो इसके बारे में पढ़-सुन सकेगे। वह विभिन्न विषयों पर चर्चा करेंगे। जैसे कैंडि दास, गीत-गोविंद या श्रीमद्भागवतम या जगन्नाथ के नाटक के गीत। उनमें से एक जगन्नाथ पुरी में गंभीरा में कृष्ण-कर्णमृत भी है।
इसलिए वह इसकी प्रति साथ ले गए और गोदावरी के पास नासिक चले गए। उन्होंने कीर्तन किया और नदी में स्नान किया। नासिक में हर कोई विश्वास कर रहा था कि भगवान राम वापस आ गए हैं। पास ही पंचवटी है। यह वह स्थान है जहाँ सीता, राम और लक्ष्मण पंचवटी में ठहरे थे। यहीं से सीता का अपहरण हुआ था। इसे महाप्रभु कीर्तन में गाते थे।
कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे
कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे
कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! रक्षा मां
कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! पाही मां
राम! राघव! राम! राघव! राम ! राघव! रक्षा मां
कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! पाही मां
अनुवाद:-“हे भगवान कृष्ण, कृपया मेरी रक्षा करें और मुझे बनाए रखें। हे भगवान राम, राजा रघु के वंशज, कृपया मेरी रक्षा करें। हे कृष्ण, हे केशव, केशी राक्षस के हत्यारे, कृपया मुझे बनाए रखें।” [सीसी मध्य 7.96]
दशकारण्य वन के भीतर श्री चैतन्य महाप्रभु ने सप्तताल नामक स्थान का दौरा किया। वहाँ के सात खजूर के पेड़ बहुत पुराने, बहुत भारी और बहुत ऊँचे थे। सात ताड़ के पेड़ों को देखकर, श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें गले लगा लिया। परिणामस्वरूप, वे सभी वैकुण्ठलोक, आध्यात्मिक दुनिया में लौट आए। वे चार भुजाओं में प्रकट हुए और वैकुंठलोक के लिए विदा हुए। वे भक्त थे, भगवान नहीं। वैकुंठ ग्रहों में, भक्तों को भी भगवान के समान चार भुजाएँ और ऐश्वर्य मिलते हैं। वैकुंठ में केवल भगवान ही चार भुजाओं वाले नहीं होते हैं बल्कि भक्त भी चार भुजाओं वाले उपस्थित होते हैं। तो नंद महाराज के घर के प्रांगण में यमलार्जुन के पेड़ों की तरह इन पेड़ों की आत्माएं मुक्त हो गईं। वे यमलार्जुन वृक्ष वास्तव में कुबेर के पुत्र थे। जब कृष्ण अपना बचपन का खेल खेल रहे थे। उन्होंने इन पेड़ों को जड़ से उखाड़ दिया। यद्यपि बाल कृष्ण लकड़ी के गारे से बंधे हुए थे, फिर भी वे जुड़वाँ वृक्षों की ओर बढ़ने लगे। फिर वह दो पेड़ों के बीच के रास्ते से आगे बढ़े। यद्यपि वह मार्ग से गुजरने में सक्षम थे, लकड़ी का बड़ा उखल पेड़ों के बीच क्षैतिज रूप से फंस गया। इसका फायदा उठाकर भगवान कृष्ण ने बड़ी ताकत से उस रस्सी को खींचना शुरू किया, जो उखल से बंधी थी। जैसे ही उन्होंने खींचा, दो पेड़, उनकी सभी शाखाओं और अंगों के साथ, एक महान ध्वनि के साथ गिर गए। नल कुवर और मणिग्रीव प्रकट हुए और भगवान की महिमा गाई। वे भी वापस वैकुंठ चले गए। इस प्रकार ये सात ताड़ के पेड़ मुक्त हो गए। पेड़ नहीं बल्कि वास्तव में पेड़ों के अंदर की आत्माएं मुक्त हो गईं।
अब यहाँ से महाप्रभु वापस पुरी जाएंगे।वह पुरी कैसे गए, इसके बारे में हमें अधिक जानकारी नहीं है। वह अवश्य ही वापस चले गए होंगे। उन्होंने जगन्नाथ पुरी के लिए उड़ान नहीं भरी। लेकिन हम पाते हैं कि वह फिर से आंध्र प्रदेश गए और रामानंद राय से मिले। इससे पहले उन्होंने रामानंद राय से वादा किया था कि वे वापस आएंगे और उनके साथ रहेंगे जब रामानंद राय चाहते थे कि वे 10 और दिनों तक रहें। महाप्रभु ने कहा, “दस दिनों के लिए और कुछ नहीं कहना, जब तक मैं जीवित हूं, मुझे आपकी कंपनी को छोड़ना असंभव होगा। आप और मैं जगन्नाथ पुरी में एक साथ रहेंगे। हम आनंद में अपना समय एक साथ बिताएंगे, कृष्ण के बारे में बात करते हुए और उनकी लीलाएँ के बारे में। ” श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा, “सभी भौतिक कार्यों को छोड़ दें और जगन्नाथ पुरी में आएं। मैं अपनी यात्रा और तीर्थयात्रा समाप्त करने के बाद बहुत जल्द वहां लौटूंगा। हम दोनों जगन्नाथ पुरी में एक साथ रहेंगे और खुशी-खुशी अपना समय कृष्ण पर चर्चा करेंगे।”
तो रामानंद राय ने कहा कि आप आगे बढ़ो और मैं जल्द ही आऊंगा। तो महाप्रभु पुरी लौट आए। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “केवल इसी उद्देश्य से मैं लौटा हूं। मैं आपको अपने साथ जगन्नाथ पुरी ले जाना चाहता हूं।” रामानंद राय ने कहा, “मेरे प्रिय भगवान, यह बेहतर है कि आप अकेले जगन्नाथ पुरी के लिए आगे बढ़ें क्योंकि मेरे साथ कई घोड़े, हाथी और सैनिक होंगे, सभी गरजते हुए होंगे। मैं दस दिनों के भीतर व्यवस्था कर दूंगा। आपका अनुसरण करते हुए, मैं बिना देर किए नीलाकला जाऊँगा।” इसलिए महाप्रभु अकेले ही पुरी लौट आए।
वापस पुरी के रास्ते में, वह कई भक्तों से मिले, जिनसे वह रास्ते में मिले थे। उनकी यात्रा अलारनाथ से शुरू हुई थी। इसलिए उन्होंने दक्षिण भारत के दौरे के लिए सभी को अपने साथ आने के लिए रोक दिया था और उन्होंने केवल कृष्णदास को अपने साथ आने दिया था। इसलिए जब पुरी में भक्तों को खबर मिली कि महाप्रभु पुरी लौट रहे हैं, तो वे महाप्रभु के स्वागत के लिए अलारनाथ आए।
राजा प्रतापरुद्र भी महाप्रभु से मिलना चाहते थे। इससे पहले सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनके ठहरने की व्यवस्था की थी। अब राजा प्रतापरुद्र ने काशी मिश्र भवन में व्यवस्था की, जहां महाप्रभु अपनी लीला समाप्त होने तक रहे। इस स्थान को गंभीर कहा जाता है। चैतन्य महाप्रभु यहां गंभीर में रहेंगे, जब तक वे इस दुनिया से गायब नहीं हो जाते। तो यह पहली बार था जब महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी को दौरे के लिए छोड़ा था। और एक बार और, वह पुरी छोड़ देंगे। वह दो बार पुरी से प्रस्थान करेंगे और दो बार पुरी पहुंचेंगे। महाप्रभु दो बार पुरी से निकलेंगे और कुछ यात्रा के बाद वापस पुरी आएंगे। तो हम कल दूसरी यात्रा के बारे में चर्चा करेंगे। तो उसके बाद मध्य लीला समाप्त होगी। तो अब हम यहीं रुकेंगे। आप चैतन्य चरितामृत पढ़ सकते हैं। एक दूसरे के साथ पढ़ने, याद रखने और चर्चा करने का प्रयास करें। प्रभु के नियमों के बारे में अधिक जानने का प्रयास करें, न कि केवल देश के कानूनों के बारे में। हम संक्षेप में जा रहे हैं, आप इन लीलाओं को विस्तार से पढ़ सकते हैं।
निताई गौर प्रेमानंदे।
हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा* – *16 -03 -2022*
(गौर कथा लीला)
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद, जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद*
इस गौर कथा श्रंखला को आगे बढ़ाते हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय ! गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय ! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता के विषय में यहां आप सब सुन चुके हो और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की आदि लीला मतलब मायापुर नवद्वीप में लीला का भी वर्णन सुना है और यह सब संक्षिप्त में भी सुना है कुछ उल्लेख तो हुआ है कि अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लिया है और अगले 6 महीनों तक अब उनकी मध्य लीला संपन्न होगी।
*श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।।4।।*
(वैष्णव भजन जय जय जगन्नाथ वासुदेव घोष )
अर्थ – अब वही भगवान श्रीकृष्ण राधारानी के दिव्य भाव एवं अंगकान्ति के साथ श्रीगौरांग महाप्रभु के रूप में पुनः अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने चारों दिशाओं में “हरे कृष्ण” नाम का राधा भाव अपनाए हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* इस महामंत्र का प्रचार उन्होंने 6 सालों तक किया। दक्षिण भारत की यात्रा हुई , पूर्व भारत बंगाल की ओर आए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और फाइनली झारखंड के जंगलों से होते हुए वृंदावन गए। आज हमें श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के वृंदावन टूर या परिक्रमा के बारे में कहना ही उचित होगा। उन्होंने ब्रजमंडल की परिक्रमा की, जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन पहुंचे।
*आराध्यो भगवान् ब्रजेश तनय: तद्धाम वृन्दावनं रम्यकाचिद उपासना व्रज-वधु वर्गेण या कल्पिता श्रीमदभागवतम प्रमाणमलम प्रेम पुमर्थो महान श्री चैतन्य महाप्रभोर मतम इदं तत्र आदरो न: पर:* (चैतन्य मञ्जुषा)
अनुवाद:- भगवान बृजेंद्र नंदन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृंदावन आराध्य वस्तु है। व्रज वधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही पुरुष पुरुषार्थ है- यही श्रीचैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम आदरणीय है।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मत भी है या उन मतों में से एक मत यह भी है भगवान की आराधना करनी चाहिए और साथ ही साथ वृंदावन आराधनीय है। वृंदावन धाम की जय ! वृंदावन धाम की भी आराधना होनी चाहिए , धाम भगवान से अभिन्न है यह सिद्धांत ही है। धाम भी भगवान है तो धाम की भी आराधना है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां जाकर वहां पहुंचकर वृंदावन की आराधना करना चाहते थे। महाप्रभु ने अपना वृंदावन से जो प्रेम है वह कई बार दर्शाया था। महाप्रभु की दीक्षा हुई, कहां पर? गया में, तो उनको जैसे महामंत्र प्राप्त हुआ जैसे ईश्वर पुरी ने कहा
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामेव केवलम् ।कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा* ॥21॥
अनुवाद- इस कलियुग में आत्म-साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है।”
तुम कीर्तन करो जप करो, हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण करते ही पूरा प्रेम उदित हुआ और उसी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन की ओर दौड़ने लगे। बड़ी मुश्किल से उनको रोका और उनको नवद्वीप ले आए और फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की सन्यास दीक्षा हुई।
सन्यास मतलब सन्यासी ,
श्रीभगवानुवाच
*काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: | सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||* (श्रीमद भगवद्गीता 18.2)
अनुवाद – भगवान् ने कहा-भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं ।
कामवासना से मुक्त हो गए तो मुक्त होते ही दीक्षा के समारोह के मध्य में ही उन्होंने कहां जाने का सोचा ? वृंदावन, वृंदावन की ओर जा ही रहे थे किंतु फिर उनको रोका भी गया शांतिपुर ले आए और शची माता ने उनको जगन्नाथपुरी जाने के लिए कहा, जगन्नाथपुरी रहने के लिए कहा तो आ गए और कुछ समय के लिए रहे फिर यात्रा प्रारंभ हुई। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यात्रा के अंतर्गत वृंदावन की यात्रा जरूर करना चाहते थे। जब से बंगाल आए यह कहते कहते ही हम वृंदावन नहीं पहुंचेंगे रामकेली गए, रूप सनातन की दीक्षा हुई और सनातन को उन्होंने कहा भी कि मैं वृंदावन जा रहा हूं तुम भी पीछे से आ जाओ मुझे वृंदावन में मिलो। जैसे ही लोगों को पता चला कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं सारा बंगाल ही उनके साथ जाने लगा, हजारों लाखों लोग चैतन्य महाप्रभु के पीछे पीछे जाने लगे, चैतन्य महाप्रभु इतनी बड़ी संख्या के साथ नहीं, अकेले ही जाना चाहते थे। भीड़भाड़ के साथ नहीं जाना चाहते थे तब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट आए। प्रस्ताव तो रख रहे थे कि मुझे वृंदावन जाना है मुझे वृंदावन जाना है। सभी जगन्नाथपुरी में कहने लगे कि अभी वहां बहुत ठंड है। ठीक है, मैं अब जाना चाहता हूं तो फिर वह कहते अभी तो ढोल यात्रा है ना उसमें आपको सम्मिलित होना होगा। अब जगन्नाथ यात्रा है तो आप वृंदावन कैसे जा सकते हो? ऐसे ऐसे वह टाल रहे थे किंतु फिर चैतन्य महाप्रभु ने परवाह नहीं की उन्होंने कहा कि नहीं मुझे जाना ही है, मुझे जाने दो। वृंदावन धाम की जय ! फिर अब चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं वहां की झारखंड की लीला मुझको स्मरण आ रही है महाप्रभु ने जंगल में किया मंगल और सारे पशु पक्षियों को कीर्तन और नृत्य करते हुए देखा। कैसे शेर और एक हिरण एक दूसरे के बगल में चल रहे हैं कंधे से कंधा लगाते हुए और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह भी देखा कि हिरण और बाघ एक दूसरे को आलिंगन दे रहे हैं और आलिंगन ही नहीं चुंबन भी दे रहे हैं। चुंबन हो रहा है किसका? शेर और हिरण का, जैसे ही यह दृश्य चैतन्य महाप्रभु ने देखा तो वह कहने लगे वृंदावन !वृंदावन !वृंदावन ! वृंदावन धाम की जय ! वह कहने लगे यही तो वृंदावन है जहां पर ईर्ष्या या द्वेष नहीं है, क्रूरता नहीं है जहां के भक्त एक दूसरे को गले लगाते हैं।
*वांछा-कल्पतरूभयशच कृपा-सिंधुभय एव च । पतितानाम पावने भयो वैष्णवे नमो नमः ॥*
अनुवाद – मै अनंत कोटि वैष्णव भक्त वृंदों के चरणों में प्रणाम करता हूँ जो की समस्त वांछाओं को पूर्ण करने कल्पवृक्ष के समान हैं कृपा के सागर हैं एवं पतितों उद्धार करने वाले हैं।
होता है *नामें रुचि जीवे दया वैष्णव सेवन* ,वैष्णव की सेवा करते हैं और ऑफ कोर्स कीर्तन भी करते हैं कीर्तन करके ही मन की स्थिति या भावना को प्राप्त करते हैं। इस तरह चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कि यही तो वृंदावन है। चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े वृंदावन की ओर दूर से जैसे ही उन्होंने मथुरा या हो सकता है वह कुछ मंदिरों की शिखर देख रहे हो, कोई पताका देख रहे हो, चक्र देख रहे हैं उसको देखते ही साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और फिर वहीं पे लोटने लगे कई सारे अधिक भाव उदित होने लगे, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने वैसे टीका किया है श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में रहा करते थे उससे पहले जहां भी रहा करते थे मायापुर में भी थे जगन्नाथपुरी में थे वृंदावन का नाम सुनते ही, चर्चा हो रही हो वृंदावन के विषय में, वृंदावन के नाम का उच्चारण हो रहा हो उसी के साथ चैतन्य महाप्रभु की जो नॉर्मल भाव है उसी के 100 गुणा भाग उदित होते या प्रकट होते हैं जगन्नाथपुरी में, फिर लिखा है जब वे वृंदावन मथुरा के रास्ते में थे तब वृंदावन के भक्ति के भाव 1000 गुणा अधिक बढ़ गया और जैसे ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मथुरा वृंदावन पहुंच गए और धीरे-धीरे वे द्वादश कानन की या 12 वनों की यात्रा करने वाले हैं। उस समय श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की के भाव 100000 गुना अधिक मल्टीप्लाई बाय हंड्रेड थाउजेंड हो गए। फिर कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने यह भी लिखा हैं यह मध्य लीला सप्तदश परिच्छेद, सेवंथ चैप्टर अध्याय और फिर अट्ठारह इन 2 अध्यायों में ,चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन यात्रा का वर्णन किया है। लेकिन कहते हैं कि मुझे क्षमा करें, मेरी बस इतनी ही लिखने की क्षमता है सारी लीलाएं या कुछ लीलाओं की संख्या हो सकती है उन के दरमियान जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के जो भाव और महा भाव का और उसका उद्वेग उसका जो जो हाल हुआ, मन की स्थिति हुई कई सारे विकार जो उत्पन्न हुए अष्ट सात्विक विकार भी कहते हैं वह सारे विकार सारे भाव उस भक्ति का वर्णन मैं नहीं कर सकता और कोई कर सकता है तो वह अनंत शेष ही कर सकते हैं। अनंत शेष को करने दो और वह कहते हैं उन्होंने तो 2 अध्यायों में वर्णन किया है जबकि कोटि-कोटि ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन यात्रा का वर्णन कितने ग्रंथों में मिलियंस ऑफ स्क्रिप्टर्स बुक्स या प्रिंट में वर्णन हो जाएगा। फिर जैसे प्रभुपाद लेक्चर देते थे और अन्य ट्रांसक्राइब करते थे इस प्रकार अनंतशेष ने कहा तो किसी ने रिकॉर्डिंग की, ट्रांसक्रिप्शन और फिर प्रिंटिंग को भेजा जाएगा। इस प्रकार असंख्य ग्रंथ बन सकते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विश्राम घाट पहुंचे जमुना मैया की जय! हम देखते भी हैं किंतु फिर भी समस्या है हम जमुना मैया कहते हैं किंतु हम को ज्यादा कुछ होता नहीं, कुछ कुछ होता है ,ज्यादा कुछ नहीं होता। हम लोग जय राधे कहते रहते हैं , ऐसे खींचते हुए रा ….. धे ! क्या हुआ ज्यादा कुछ नहीं होता लेकिन शुकदेव गोस्वामी ने भी ऐसे राधा के नाम का सीधे उच्चारण नहीं किया, राधा का नाम कहना या राधिका अगर प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने कुछ कहा, क्योंकि वह जानते थे पूरा राधा का नाम लेंगे तो गए काम से कथा वहीं ठप हो जाएगी वह मूर्छित हो जाएंगे यदि शुकदेव गोस्वामी का भी ऐसा हाल होता रहा शुक देव गोस्वामी की इच्छा है। राधा रानी का एक नाम है शुकेष था शुकेश्ठा हर एक के इष्ट होते हैं शुकदेव गोस्वामी की राधा रानी इष्ट हैं। यदि यह हाल उनका का है तो श्रीकृष्ण दास कविराज गोस्वामी का क्या कह सकते हैं। उन्होंने जमुना को देखा और जय जमुना मैया की ऐसा कहा होगा, उस समय कितने सारे संचारी भाव कहते हैं कितने सारे लहरें तरंगे उसका आंदोलन उन भावों का सुनामी कहो, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विश्राम घाट पर स्नान कर रहे हैं और फिर उनका डेस्टिनेशन है पहला लक्ष्य है कृष्ण जन्म स्थान । कीर्तन और नृत्य करते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जन्म स्थान पहुंचे हैं और वहां प्रसिद्ध मंदिर है श्रीकृष्ण के प्रपोत्र वज्रनाभ के द्वारा स्थापित किए हुए कई सारे वृंदावन में उनको देव कहते हैं। उसमें श्री केशव देव का मंदिर, कृष्ण जन्म स्थान पर है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां पहुंच गए, रास्ते में बहुत कुछ हुआ है लोग दर्शन कर ही रहे थे, देख रहे ही थे सन्यासी को किंतु यह सन्यासी का दर्शन कुछ अद्भुत था उसमें कुछ विशेष प्रभाव था तेजस्वी ओजस्वी तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मथुरा में उपस्थिति थे और जब वे जा रहे हैं जन्म स्थान की ओर, कुछ ही क्षणों में मथुरा में बात फैल गई चैतन्य महाप्रभु केशव देव पहुंचे हैं साष्टांग दंडवत प्रणाम हुआ है पुजारी ने माल्यार्पण की केशव देव की माला ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को पहनाई है।
*लोक ‘हरि’ ‘हरि’ बले, कोलाहल हैल।’केशव’-सेवक प्रभुके माला पराइल ॥* 160॥
अनुवाद- तब सारे लोग “हरि! हरि!” उच्चारण करने लगे और वहाँ बहुत कोलाहल होने लगा। भगवान् केशव की सेवा में लगे पुजारी ने महाप्रभु को लाकर एक माला भेंट की।
केशव के सेवक ने महाप्रभु को माला पहनाई और फिर उसी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन और नृत्य स्वागत हुआ गायन और नाच हो रहा है, उदंड कीर्तन हो रहा है और कुछ समय तक बहुत बड़ी संख्या में मथुरा वासी वहां पहुंचे हैं और यह सब दृश्य देख रहे हैं। दर्शनीय अगर कोई व्यक्ति है तो स्वयं महाप्रभु हैं या गौर सुंदर हैं लेकिन सभी अनुभव कर रहे हैं कि नहीं नहीं यह हमारे गौर सुंदर श्याम सुंदर हैं। वहां के उन लोगों को चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता पर प्रवचन देने की आवश्यकता नहीं थी।
*सर्वथा-निश्चित-इँहो कृष्ण-अवतार।मथुरा आइला लोकेर करिते निस्तार ॥* 163 ॥
अनुवाद- “निश्चय ही श्रीचैतन्य महाप्रभु सभी तरह से भगवान् कृष्ण के अवतार हैं। अब वे हर एक का उद्धार करने मथुरा आये हैं।”
*श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नाही अन्य* जैसा कि हम लोग सुन रहे थे कई पुराणों के शास्त्रों के प्रमाणों के द्वारा, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्री कृष्ण हैं, स्वयं हमको बताना पड़ता है क्योंकि वहां उपस्थित थे। मथुरा के भक्त ऑन द स्पॉट उनको साक्षात्कार हुआ यह साक्षात्कार तो कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने लिखा ही है। सभी ने मान लिया कि यह कृष्ण अवतार है यह हमारे श्याम सुंदर हैं उनका फर्स्ट एंड एक्सपीरियंस रहा। चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य में सभी ने ऐसा अनुभव किया जब कीर्तन और नृत्य हो रहा था और मथुरा वासी भी कीर्तन कर रहे थे, वैसे एक व्यक्ति श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बिल्कुल सामने ही नृत्य कर रहा था और वह थोड़ा भाव भंगी कहो, कुछ और उसे अधिक प्यारी भी लगी, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने धीरे-धीरे और बहुत समय के उपरांत जब कुछ कीर्तन को विश्राम दिया। वह जो नृत्य कर रहे थे चैतन्य महाप्रभु के बिल्कुल सामने उन्होंने अपने घर पर प्रसाद के लिए बुलाया ऐसा कई स्थानों पर वर्णन है। पंढरपुर में भी कीर्तन हो रहा था चैतन्य महाप्रभु वहां गए तो एक ब्राह्मण ने अपने घर पर बुलाया था प्रसाद के लिए और यहां गोदावरी के तट पर भी जहां रामानंद राय से मिले उस मिलन के उपरांत एक ब्राह्मण पहुंच ही गया, कृपया आइए, ऐसा कई स्थानों पर वर्णन है, उसे अपने घर ले आए वार्तालाप हो रहा था चैतन्य महाप्रभु ने नोट किया सोच रहे थे इस व्यक्ति का कोई गौड़ीय संप्रदाय से संबंध होना चाहिए नहीं तो इतनी भक्ति यह प्रेम तो संभव नहीं है। उन्होंने अपना परिचय दिया उन्होंने यह भी कहा कि मेरे घर पर माधवेंद्र पुरी आए थे माधवेंद्र पुरी को मैंने बुलाया प्रसाद के लिए भिक्षा के लिए और मेरी भिक्षा स्वीकार करने से पहले उन्होंने मुझे दीक्षा दे दी और फिर प्रसाद ग्रहण किया सनोडिया ब्राह्मण करके उल्लेख हुआ है। वे सनोडिया ब्राह्मण थे। जो ब्राह्मण अलग-अलग कुल या परंपराएं जाति कहो, ब्राह्मणों में भी तो सनोडिया ब्राह्मण कोई ज्यादा उच्च कुलीन नहीं माने जाते तो भी यह सनोडिया ब्राह्मण कह रहे थे माधवेंद्र पुरी ने मुझ पर कृपा कि मुझे दीक्षा दी इस प्रकार से मेरा उद्धार किया। वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा, ठीक ही किया उन्होंने जो भी किया, यह कहकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ध्यान की बात कह रहे हैं। धर्म स्थापना हेतु साधुर व्यवहार कहते हैं। साधु का हर व्यवहार वैसे धर्म की स्थापना के लिए ही होता है। माधवेंद्र पुरी ने तुम्हारे साथ में जो व्यवहार किया यह धर्म की स्थापना के लिए ही है जो भी किया उन्होंने उचित की किया और कोई भी किसी का भी या स्पेशली कलयुग में सभी पतित हैं।
*धर्म-स्थापन-हेतु साधुर व्यवहार ।परी-गोसाजिर ये आचरण, सेइ धर्म सार॥* 185॥
अनुवाद-“भक्त के आचरण से धर्म के वास्तविक प्रयोजन की स्थापना होती है। माधवेन्द्र पुरी गोस्वामी का आचरण ऐसे धर्मों का सार है।”
पहले कोई शूद्र हो सकता है वह चांडाल हो सकता है , भागवत में पूरा श्लोक वर्णन है तो जो भी गौड़िये वैष्णव का आश्रय लेगा या उनका पाद आश्रय लेगा उसका उद्धार निश्चित है तो वैसा ही किया माधवेंद्र पुरी ने और जैसे ही चैतन्य महाप्रभु को पता चला कि यह सनोडिया ब्राह्मण माधवेंद्र पुरी के शिष्य हैं तब चैतन्य महाप्रभु सोचने लगे, मैं तो माधवेंद्र पुरी के शिष्य का शिष्य हूं लेकिन यह तो माधवेंद्र पुरी के शिष्य हैं । आप मेरे गुरु हो आप मेरे गुरु हो ऐसा कहकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनके चरण स्पर्श के लिए आगे बढ़ने लगे। इस ब्राह्मण को बडा अजीब सा लगने लगा वह लज्जित हो रहे थे हरि हरि ! यह सब हो ही रहा था यह संवाद यह भिक्षा देना प्रसाद ग्रहण करना सनोडिया ब्राह्मण के घर, तो तब तक वैसे चैतन्य महाप्रभु गौर सुंदर श्याम सुंदर के रूप में ही जो वहां पहुंचे थे या जैसा कि सभी ने समझा, रूप तो वही था लेकिन गौर सुंदर का रूप था , लेकिन सभी ने समझा श्यामसुंदर हैं। यह समाचार सभी में फैल गया , संभावना है कि चैतन्य महाप्रभु जन्म स्थान मंदिर में, केशव देव मंदिर में दर्शन नहीं कर पाए होंगे।
*लक्ष-सङ्ख्य लोक आइसे, नाहिक गणन। बाहिर हञा प्रभु दिल दरशन ॥* 188॥
अनुवाद-लोग लाखों की संख्या में आये, जिनकी गणना कोई नहीं कर सकता था। अतः श्री चैतन्य महाप्रभु लोगों को दर्शन देने के लिए घर से बाहर आये।
वे सभी सनोडिया ब्राह्मण के घर की ओर दौड़े और लाखों लोगों ने वहां आकर घेराव किया सनोडिया ब्राह्मण के घर के इर्द-गिर्द हो सकता है कुछ छत पर चढ़े होंगे, कोई खिड़की में से यह दरवाजा खटखटा रहे हैं और सभी की मांग है वी वांट दर्शन हमें दर्शन करना है दर्शन करना चाहते हैं *अखियां प्यासी रे दर्शन दो* , प्रभु लीला दर्शन फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु क्या कर सकते हैं इतनी डिमांड है तो सप्लाई करना होगा , चैतन्य महाप्रभु बाहर आए , प्रभु बोले
*बाहु तुलि’ बले प्रभु ‘हरि-बोल’-ध्वनि ।प्रेमे मत्त नाचे लोक करि’ हरि-ध्वनि ॥* 189॥
अनुवाद- जब लोग एकत्र हो गये, तो श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने हाथ उठाकर जोर से कहा, “हरि बोल!” लोगों ने महाप्रभु के साथ नामोच्चारण किया और प्रेमाविष्ट हो गये। वे उन्मत्त की तरह नाचने तथा “हरि!” की दिव्य ध्वनि का उच्चारण करने लगे।
चैतन्य महाप्रभु बाहर आए और हरि बोल उनका ऐसे कहते हैं सभी ने हरी ध्वनि की है और सभी उछलने कूदने लगे और पुनः कीर्तन हुआ है नृत्य हुआ है और नृत्य होता ही रहता है महाप्रभु का फिर सनोडिया ब्राह्मण मथुरा का दर्शन कराना चाहते थे। मथुरा के दर्शनीय स्थल, वह जो दर्शन कर रहे थे जब हम ब्रजमंडल परिक्रमा में जाते हैं तो 1 दिन मथुरा मंडल की अथवा नगरी की परिक्रमा करने का लक्ष्य लिया है। चैतन्य महाप्रभु के मन में भी इच्छा जगी कि मैं मधुवन तालवन कुमुदवन बहुलावन
*वन’ देखिबारे यदि प्रभुर मन हैल। सेइत ब्राह्मणे प्रभु सङ्गेते लइल ॥* 192॥
अनुवाद- जब श्री चैतन्य महाप्रभु को वृन्दावन के विविध वनों को देखने की इच्छा हुई, तो उन्होंने उसी ब्राह्मण को अपने साथ ले लिया।
*मधु-वन, ताल, कुमुद, बहुला-वन गेला। ताहाँ ताहाँ स्नान करि’ प्रेमाविष्ट हैला ॥* 193।।
अनुवाद- श्रीचैतन्य महाप्रभु ने विभिन्न वन देखे, जिनमें मधुवन, तालवन, कुमुदवन तथा बहुलावन सम्मिलित हैं। वे जहाँ जहाँ गये, उन्होंने अत्यन्त प्रेमपूर्वक स्नान किया।
और वनो की यात्रा या मथुरा की यात्रा हो गई, ब्रजमंडल की यात्रा करने की इच्छा है महाप्रभु की, उसी के लिए सनोडिया ब्राह्मण तैयार हैं वैसे साथ में चैतन्य महाप्रभु के असिस्टेंट भी जा रहे हैं बलभद्र भट्टाचार्य एक ही असिस्टेंट को साथ में लाए थे। वह भी हैं और साथ में सनोडिया ब्राह्मण या वैष्णव हैं। गाइड करना चाहते हैं और फिर आप पूरे ब्रज मंडल परिक्रमा जो मथुरा से प्रारंभ हुई मधुवन और तालवन बहुला वन, वृंदावन यह पांचवीं क्रमांक में वृंदावन का नाम आता है फिर वहां से आगे बढ़े हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु खदिर वन गए हैं काम्य बन गए हैं और इसी के साथ चैतन्य महाप्रभु की जमुना के पश्चिमी तट पर जो वन है यात्रा पूरी होती है। जमुना को क्रॉस किया भद्र वन, भांडीरवन जो लक्ष्मी का वन , और फिर महावन , जमुना मैया की जय! मथुरा धाम की जय और विश्राम घाट की जय ! इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने द्वादश कानन की यात्रा की।
*ढुले ढुले गोराचाँद हरि गुण गाइ आसिया वृंदावने नाचे गौर राय।।1।।*
*वृंदावनेर तरुर लता प्रेमे कोय हरिकथा निकुञ्जर पखि गुलि हरिनाम सुनाई।।2।।*
1. चंद्र सदृश श्रीगौरांग महाप्रभु भावविभोर होकर श्रीहरि का गुणगान एवं नृत्य करते हुए वृन्दावन में प्रवेश करते हैं।
जब हम ऐसा गीत गाते हैं उसमें भी कुछ संकेत हुआ है। क्या क्या हुआ”
वृंदावन में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन और नृत्य किया है वृंदावन जमुना के तट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पहुंचे और वहीं पर कीर्तन कर रहे हैं। जमुना ने नोट किया मेरे प्रभु आए हैं पहले भी आए थे समझ गई जब जन्म लिया तो गोकुल जाते समय भी पहुंचे थे जमुना के तट पर, उनको क्रॉस कराना था जमुना को जन्मदिन या जन्म रात्रि के समय तो वही प्रभु अब पुनः आए हैं मेरे तट पर खड़े हैं यह जो देखा और सुना भी उनको हरि हरि कहते हुए। जमुना आगे बढ़ती है और आगे बढ़ते बढ़ते वहां कुछ कमल के पुष्प भी तोड़ती है उसका चयन करती है हाथ में लिए हुए और महाप्रभु के चरण धोकर पाद प्रक्षालन किया उसने जल्दी से महाप्रभु के चरण छुए हैं और पत्रं पुष्पं अर्पित किए हैं। सुस्वागतम गौरंगा का स्वागत करती है हरि हरि ! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब जा रहे हैं एक स्थान पर उन्होंने गायों को चरते हुए देखा तो उनको थोड़ा आगे बढ़कर आलिंगन देते हैं। गायों ने जैसे ही देखा गौरंगा और शयाम सुंदर को तो गाय दौड़ पड़ी हैं उन्हें घेर लिया है उन्हें चाट रही हैं। गौरांग महाप्रभु का ऐसा वात्सल्य संबंध है गायों के लिए यह बाल गोपाल है, मतलब गाय माताएं हैं और यह उनका बछड़ा जैसा ही है अपत्य है, ऐसा संबंध है ,तो प्रदर्शन कर रहे हैं वह गायों को खुजला रहे हैं, ऐसा चलता रहा। श्री चैतन्य महाप्रभु और आगे बढ़े तो वहां के पक्षी उच्च स्वर में कलरव कर रहे हैं , उड़ान भरते हुए जैसे यहां लिखा है गौर बोले हरि हरि, शारि बोले हरि हरि , मुख्य भजन पक्षी गा रहे हैं ,मयूर नृत्य कर रहे हैं चैतन्य महाप्रभु की प्रसन्नता के लिए और आगे बढ़ रहे हैं वहां के जो वृक्ष हैं। उन्होंने सोचा , यहां पर लिखा है कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने एक मित्र जब वह अपने दूसरे मित्र से बहुत समय के उपरांत मिलता है तब वैसे भी कुछ भेंट देना चाहता है वृक्ष सोच रहे हैं इस मित्र को हम क्या भेंट दे सकते हैं वहां के वृक्ष अपनी शाखाओं को हिलाने लगे उसी के साथ क्या हो रहा है वृक्ष पुष्प वृष्टि कर रहे हैं , अभिषेक हो रहा है उन्होंने सिंगापुर या दुबई से पुष्प को एक्सपोर्ट नहीं किया है दुबई तो भूल जाओ वहां तो केवल रेत ही है । अलग-अलग भिन्न भिन्न प्रकार के जिन वृक्षों के पास फल है वह भी दे रहे हैं अलग अलग फल अर्पित किए जा रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का इन वृक्षों के प्रति उनका प्रेम जगा ,चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े वृक्ष को आलिंगन दिए यह भी भक्त है, ऋषि मुनि है और जब अन्य वृक्षों ने देखा कि चैतन्य महाप्रभु ने एक वृक्ष का आलिंगन किया और भी कहने लगे मि टू , मि टू , चैतन्य महाप्रभु एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष से तीसरे चौथे दसवें हजार में हंड्रेड थाउजेंड विद्युत की तरह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष फिर तीसरे वृक्ष जाते रहे या यह भी संभव है इतने हैं उतने महाप्रभु बन गए और एक ही साथ सारे वृक्षों को उन्होंने आलिंगन दिया। भगवान के लिए कुछ भी असंभव नहीं है एक हिरण को भी गले लगाया चैतन्य महाप्रभु ने और वे रो रहे हैं उसके गले को पकड़े हुए हाथों से और आगे बढ़ते हैं और एक शुक और सारिका को देखते हैं दोनों एक ही शाखा पर बैठे हुए हैं और आपस में कुछ संवाद हो रहा है चैतन्य महाप्रभु के मन में इच्छा जगी कि क्या मैं सुन सकता हूं इनके संवाद को, यह लोग क्या बात कर रहे हैं। ऐसे चैतन्य महाप्रभु के मन में इच्छा जगते ही वह दोनों शुक और सारिका ने वहां से उड़ान भरी, चैतन्य महाप्रभु की ओर आगे बढ़े चैतन्य महाप्रभु ने अपने दोनों हाथों को आगे बढ़ाया और शुक और सारिका एक एक हाथ पर बैठ गए और उनका संवाद शुरू हो गया , अब पास में आ गए, वहां जो बोल रहे थे उनके पास कोई लाउडस्पीकर वगैरह नहीं था। पास में आने पर चैतन्य महाप्रभु ने उनका संवाद सुना और वह संवाद गोविंद लीला में कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने ही लिखा है यह दूसरी रचना है उनकी गोविंद लीलामृत , उसी संवाद को यहां पर भी उन्होंने दोहराया है शुक बने हैं कृष्ण के एडवोकेट और सारिका कर रही है राधा रानी की वकालत, मेरे कृष्ण ऐसे हैं। शट अप ! तुम नहीं जानती हो कि मेरी राधा कैसी है मेरे कृष्ण तो मदन मोहन हैं नहीं नहीं मेरी राधिका तो मदन मोहन मोहिनी है। हमारे मोहन जो मनमोहन या मदन मोहन है मदन को मोहन करने वाले ,
*वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्। कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभम् गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।* 3।।*
अर्थ -मैं आदि पुरुष उन श्रीगोविन्द भगवान् का भजन करता हूँ, जो अपने नित्य वृन्दावन धाम में सदैव वेणु बजाते रहते हैं, जिनके नेत्र कमलदल के समान विशाल हैं जो मोरमुकुट धारण करते हैं, जिनका श्रीविग्रह श्याम मेघ के समान मनोहर है एवं जिनकी शोभा करोड़ों कामदेवों की अपेक्षा भी विशेष मनोहर है।
लेकिन इस प्रकार यह बहुत ही रसीला संवाद रहा और फिर हमारे चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ते हैं उन्होंने वहां एक मयूर को देखा मयूर की जो गर्दन होती है उसकी ओर थोड़ा गौर से देख रहे थे। उनको कृष्ण का स्मरण हुआ , नहीं वह भूले तो थे नहीं लेकिन उसकी गर्दन पर जो पंख होते हैं वह कृष्ण के रंग से और भी अधिक मिलते जुलते रहते हैं, उसको देखते ही चैतन्य महाप्रभु मूर्छित हुए। बाह्य ज्ञान नहीं रहा और धड़ाम करके गिर गए और लोटने लगे लोटते लोटते कहीं दूर तक जाते हैं और फिर वापस आते , फिर उधर जाते और जहां यह लोटांगन चल रहा था वहां पर कोई पंखुडिया नहीं बिछाई थी पुष्पों की, कई गड्ढे भी थे कंकड़ भी थे कांटे भी थे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सर्वांग में कई सारी क्षति पहुंच रही थी, चोट आ रही थी वैसे यह दोनों प्रभु चैतन्य महाप्रभु को पकड़ने के लिए प्रयास कर ही रहे थे लेकिन इन बेचारों की क्षमता तो सीमित ही है। ऐसे बहुत समय तक चलता रहा चैतन्य महाप्रभु का यह महा भाव का प्राकट्य, वृंदावन धाम की जय ! वृंदावन में हो रहा है ये विप्रलंब अवस्था को प्राप्त किया और फिर इस अवस्था में राधा रानी तो रहती ही हैं। वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु भी यहां श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य हो, राधा रानी भी है। राधा के भाव ही यहां पर प्रकट हो रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु के सर्वांग में या संभोग मिलन और विप्रलंब यह दो ही मन की मुख्य स्थितियां या भाव है एक मिलन का आनंद और फिर विरह की व्यथा, लेकिन विरह की व्यथा भी आनंद ही होता है। विप्रलंब अवस्था में वैसे अधिक आनंद है इसका अनुभव भक्त और राधा रानी करती हैं। यह सब वहां हो रहा था तब मुश्किल से इन दोनों ने बलभद्र भट्टाचार्य और सनोडिया ब्राह्मण ने चैतन्य महाप्रभु को फाइनली पकड़ लिया,अपनी गोद में पकड़ के रखा है और फिर कुछ जल लाए हैं छिड़काया है। धीरे-धीरे कुछ शीतलता का अनुभव कर रहे हैं कुछ ठंडे हो रहे हैं कुछ शांत हो रहे हैं तो भी कुछ बाह्य ज्ञान नहीं है फिर जोर जोर से वह हरी गुणगान करने लगे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* उच्चारण जोर से करते रहे और फिर उसका परिणाम यह हुआ महाप्रभु छलांग मार के हरि हरि !हरि बोल ! हरि बोल !और फिर कीर्तन और नृत्य आगे बढ़ा नेक्स्ट फॉरेस्ट और हर फॉरेस्ट में यह सब रिपीट होता ही गया हर क्षण वे मूर्छित हुआ करते थे फिर उनको पुनः ज्ञान में पहुंचाया जाता था और अगले क्षण नॉर्मल या अब नॉर्मल कहो इसीलिए कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि मैं इतना सारा नहीं लिख सकता हूं। चैतन्य महाप्रभु के जो भाव
*एड-मत प्रेम-यावत्भ्रमिल ‘बार’ वन ।एकत्र लिखिलँ, सर्वत्र ना याय वर्णन ॥* 230॥
अनुवाद-इस तरह मैंने महाप्रभु के प्रेम का वर्णन किया है, जो वृन्दावन के बारह वनों में भ्रमण करते समय उन्होंने एक स्थान पर प्रकट किया। सभी स्थानों पर उन्होंने क्या अनुभव किया इसका पूरा-पूरा वर्णन कर पाना असम्भव होगा।
इसका वर्णन 12 वनों की यात्रा के समय यह सब हर्षण यह मिलन का आनंद फिर संभोग और फिर विप्रलम्ब ऐसी स्थिति क्षण क्षण आती रहती थी।
*वृन्दावने हैल प्रभुर यतेक प्रेमेर विकार।कोटि-ग्रन्थे ‘अनन्त’ लिखेन ताहार विस्तार ॥* 231॥
अनुवाद-वृन्दावन में श्रीचैतन्य महाप्रभु को प्रेम-विकार की जो अनुभूति हुई, उसका विशद वर्णन करने के लिए भगवान् अनन्त लाखों ग्रन्थों की रचना करते हैं अनुच्छेद अनुषण आती रहती थी
इस पर तो कोटि-कोटि ग्रंथ लिखे जा सकते हैं और यह अनंतशेष सहस्त्र बदन इनके हजार मुख हैं। अनंत शेष के और हजारों से हरी गुणगान गाते रहते हैं। हर मुख से अलग-अलग हरी गुणगान गाया जाता है एक ही साथ हजार प्रकार की कथाएं , लीला नाम रूप गुण, धाम का वर्णन, अलग-अलग वर्णन, धाम टॉपिक ले लिया तो 1000 एंगल से दृष्टिकोण से कहो अनंत से शास्त्र बदन वर्णित करते हैं। कोई लीला कह रहे हैं तो फिर कृष्ण की लीला हजार प्रकार की लीला या फिर कुछ और अवतार भी असंख्य हैं। नरसिंह भगवान की लीला का हजारों मुख से वर्णन कर रहे हैं और वह कब से कर रहे हैं वर्णन ,लेकिन यह वर्णन पूरा नहीं हो रहा है, उसका समापन नहीं हो रहा है। वैसे अनंत शेष दो कार्य करते हैं एक भगवान का गुणगान और साथ ही साथ अपने फनों के ऊपर इतने सारे ब्रम्हांड और प्लैनेट्स को धारण करते हैं। जब वे धारण कर रहे थे उन्होंने कहा था कि कब तक मुझे धारण करना होगा ? उनको कहा गया कि ज्यादा समय के लिए नहीं कितना समय? उनको बताया था कि जब भगवान की लीला कथा रूप गुण धाम जो है ना इसका आप वर्णन पूरा कर दो , अब कुछ कहना बाकी नहीं है तो फिर आपसे एक दो यह सब प्लैनेट और ब्रह्मांड आपको ढ़ोने की जरूरत नहीं , उसके बाद अनंत शेष ने कहा ठीक है, मेरे पास वैसे भी 1000 मुख हैं मैं इन मुखो से अलग-अलग कथा लीला बोलने वाला हूं और बहुत जल्दी समाप्त कर दूंगा। ऐसा सोचकर प्रारंभ किया तो सदियां बीत गई युग आए और गए चतुर्मुखी ब्रह्मा के दिन और महीने वर्ष बीते जाते हैं लेकिन यह कथा का कोई अंत नहीं है इसीलिए भगवान का 1 नाम अनंत भी है और फिर ऐसी लीला कथा वृंदावन में भी हुई चैतन्य महाप्रभु की संबंध में कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिख रहे हैं कि मुझे माफ करो हम इतना ही लिख सकते हैं, फिर उन्होंने आगे लिखा भी है हर पक्षी का, चिड़िया अपने स्तर पर हाइट पर मकान बनाती है दूसरा कोई पक्षी है गरुड़ है तो और थोड़ा और हाइट, तो मैं भी एक पक्षी हूं तो मेरा लेवल है मेरी हाइट है उसमें ही बोल सकता हूं ज्यादा नहीं बोल सकता। अतः मैंने जो भी बोला है लिखा है उसे स्वीकार कीजिए हरि हरि !मेरी भी क्षमता है समय की भी पाबंदी है। अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं, आप सुनते जाइए, पढ़ते जाइए चैतन्य चरितामृथम चैतन्य भागवत और जो कथाएं लीलाएं प्रभुपाद ने भी सुनाई हैं लिखी हैं। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने लिखा है, वृंदावन दास ठाकुर ने लिखा है, मुरारी गुप्ता ने लिखा है आप चाहिए मग्न रहिए गोते लगाइए गौर रसे मगनम गौर रस में गोते लगाइए।
गौरंगा !
हरि हरि बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
15 मार्च 2022
श्रीमान अमरेंद्र प्रभुजी
हरे कृष्णा
धन्यवाद पद्ममाली प्रभु
परम पूज्यपाद श्री लोकनाथ महाराज के चरण कमलों मे मैं दंडवत अर्पित करता हूँ, सभी वैष्णव वैष्णवी वृंद को पूर्ण रूप से नतमस्तक होकर उनके चरणों को स्पर्श करके कृपा याचना की भीख मांगता हूँ | आज जैसा की प्रभु जी कह रहे थे कि महाराज जी कथा करने वाले थे, पर उनकी आदेशानुसार सेवा के लिए मैं यहाँ उपस्थित हूँ | आप सब से मैं यही अनुरोध करूंगा कि आप कृपा करके प्रार्थना करें, मुझे आशीर्वाद प्रदान करें ताकि सही समय पर सही शब्दों के प्रयोग से सही भाव से भगवान की स्तुति हो सके, हम सबकी कर्म इंद्रियों को संतुष्टि प्रदान हो, हमारे अंतः करण का शुद्धिकरण हो, प्रभु के चरणों मे हमारा मन लगा रहे, यही अभिलाषा है, यही अपेक्षा है, यही हमारा उद्देश्य और लक्ष्य है | तो आप सब को मेरा नमन |
गौर पूर्णिमा महा महोत्सव की जय
गौरांग महाप्रभु की जय
शची नंदन गौर हरि की जय
गौर पूर्णिमा गौरांग महाप्रभु के आविर्भाव के उपलक्ष्य में आज हम श्री चैतन्य महाप्रभु के विशेष अपरंपार अतुल्य महिमा के विषय में चर्चा करेंगे |
शास्त्र में कई सारे श्लोक प्रमाण के तौर पर स्थापित करने के लिए हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु साक्षात भगवान श्री कृष्ण के अभिन्न स्वरूप है |
यह कोई इस्कॉन का या गौड़ीय परंपरा का कोई मत नहीं है|
यह सत्य है, हम सत्य के पथ पर चलकर इस सत्य सार बात को ग्रहण करते हुए श्रीमन महाप्रभु को हमारा इष्ट देव मानते हैं | ऐसा नहीं है कि यह किसी का मत है| ऐसा नहीं है कि यह गौड़ीय परंपरा के कोई आचार्य या कोई समाज का एक सामूहिक विचार है | यह सभी शास्त्रों का निचोड़ है, सभी शास्त्रों का सार है |
kaleh prathama-sandhyayam laksmi-kanto bhavisyati
daru-brahma-samipa-sthah sannyasi gaura-vigrahah
महाप्रभु कहते हैं कि कली काल के प्रारंभ में अर्थात पहले 5000 वर्ष में मैं अवतरित होऊंगा, मैं अवतार लूंगा | कलिकाल में शची माता के पुत्र के रूप में |
और कहाँ वास करूंगा?
दारू ब्रह्म समीपस्थ |
पूर्ण रूप से यहां वर्णन है| दारुब्रह्म कौन है?
हम सब जानते हैं दारुब्रह्म प्रभु जगन्नाथ देव का नाम है – दारू का अर्थ है लकड़ी और ब्रह्म का अर्थ है भगवान |
लकड़ी के रूप में प्रभु अवतार लेते हैं उनको कहते है दारू ब्रह्म |
दारुब्रह्म समीपस्थ – समीप का अर्थ है पास निकट और स्थ का अर्थ है स्थित | मैं स्थित रहूंगा | मैं अपने आप को स्थित कराऊंगा किनके चरणों में?
प्रभु जगन्नाथ देव के चरणों में |
इसका अर्थ क्या हुआ?
हम सब जानते है कि श्री चैतन्य महाप्रभु की लीला में 48 वर्ष तक जो प्रदर्शित किया उसमे अंत के जो 18 वर्ष है महाप्रभु के संन्यास के पश्चात वह जगन्नाथपुरी में उन्होंने अपना जीवन निर्वाह किया और लीलाओं को प्रदर्शित किया | जगन्नाथ पुरी ही दारूब्रह्म समीपस्थ है | जगन्नाथ देव ही दारूब्रह्म है और उनके निकट महाप्रभु 18 वर्ष रहे हैं | और सन्यासी गौर विग्रह – सन्यास लिया | उनका विग्रह यानी कांति किस प्रकार थी? गौर विग्रह यानी गौर वर्णिय थी |
ये श्लोक पुराणों से आता है और ऐसे अनंत श्लोक हैं | भागवत में भी कई सारे प्रमाण है | एक बहुत प्रसिद्ध श्लोक है जो हम सब सुने हैं और इसकी चर्चा हम बाद में कभी करेंगे, पर अभी संक्षिप्त में इसका सार जान लेंगे |
11वे स्कंध में जब प्रश्न पूछा गया नव योगेंन्द्रो से चार युग कौन से, और उनमे विशेष करके युगधर्म आप कृपया करके विस्तार से वर्णन कीजिए, उल्लेख कीजिये कि कौन सा धर्म अवलंबन करने से प्रभु की प्राप्ति होगी, इन चारों युग में प्रभु के कौन से विग्रह या मूर्ति इष्ट के रूप में पूजनीय रहेंगे और उनके गुण और विशेष रूप के लक्षण के विषय में कुछ बताइए |
सतयुग त्रेता युग द्वापर युग में तो निमि महाराज को तो वर्णन कर ही लेते हैं, फिर उसके बाद जब कली काल का समय आया तो नव योगेंद्र जी लिखते हैं और वर्णन करते हैं
krishna-varnam tvishakrishnam sangopangastra-parshadam
yajnaih sankirtana-prayair yajanti hi sumedhasah SB 11.5.32
कृष्ण स्वयं अवतार लेंगे किंतु इस बार तवीषा अर्थात त्वचा उनकी रूप कांति अकृष्ण रहेगी | शब्द कृष्ण के कई सारे अर्थ है |
Mahabharata (Udyoga-parva) 71.4-
krsir bhu-vacakah sadbo, nas ca nirvrti-vacakah
tayor aikyam param brahma, krsna ity abhidhiyate
श्रील जीव गोस्वामी वर्णन करते है और चैतन्य चरितामृत मे प्रभुपाद जी उसका भाषांतर करते है, कविराज गोस्वामी ने उसको लिपिबद्ध किया है |
तो कृष्ण शब्द के कई सारे अर्थ है और उसमें प्रमुख अर्थ तो वही है कि वह सर्व आकर्षक हैं सबके मन को हर लेते हैं |
vraje prasiddhaḿ navanīta-cauraḿ
gopāńganānāḿ ca dukūla-cauram
aneka-janmārjita-pāpa-cauraḿ
caurāgragaṇyaḿ puruṣaḿ namāmi -by Bilvamangal Thakur
इतने आकर्षक है कि बाजु के घर की जो मटकी है उसमे माखन है वो माखन भी आकृष्ट होकर इनके पेट में चला जाता है, ये चोरी करते नहीं है, इतने आकर्षक हैं कि पास वाले घर में जो माखन रखा है, नवनीत रखा है, वह नवनीत भी आकृष्ट हो जाता है और प्रभु के मुख में चला जाता है | कभी चीरहरण मे वस्त्र की चोरी करते है | तो कभी कांति की चोरी करते हैं, द्वापर युग मे मेघ नव स्थल मे है उनकी कांति चुराते है | भाव की कांति चुराते हैं त्रेता युग में | और कलिकाल मे तो राधारानी की ही कांति चुरा लिए |
rādhā-bhāva-dyuti-suvalitaṁ naumi kṛṣṇa-svarūpam
CC adi 1.5 and 4.55
तो अब कलिकाल के महाप्रभु जो युगावतर है,इनके वर्णन में कहा गया :-
कृष्ण वर्णम त्विषा अकृष्णम
वर्ण कौन है?
वर्ण का अर्थ है जैसे हम संस्कृत मे या हिंदी मे कहते हैं यह प वर्ग है प फ ब भ म। यह क वर्ग है क ख ग घ इत्यादि। वर्ण या वर्ग कहते हैं क्लास को। इस परिस्थिति को इस धरा को। तो कृष्ण वर्ण अर्थात कृष्ण के स्तर पर रहेंगे और तो कृष्ण के स्तर पर तो ओर कोई है नहीं, केवल कृष्ण है। इसका अर्थ यह हुआ कि कृष्ण स्वयं आएंगे और किस वर्ण से आएंगे, किस कांति से आएंगे, त्वचा कैसी होगी अकृष्ण। तो कृष्ण का एक अर्थ है सर्वआकर्षक और कृष्ण का दूसरा अर्थ है रंग से काले य सावले । तो अकृष्ण का अर्थ हुआ जो काले नहीं है। जो हेम वर्ण के है।
suvarṇa-varṇo hemāṅgo
varāṅgaś candanāṅgadī
sannyāsa-kṛc chamaḥ śānto
niṣṭhā-śānti-parāyaṇaḥ- CC Ādi 3.49, Mahābhārata (Dāna-dharma, Viṣṇu-sahasra-nāma-stotra)
देखिए यह जो एक पंक्ति है भागवत में, महाप्रभु कहते हैं प्रति श्लोके प्रति शब्दे नाना अर्थे।
prati-śloke prati-akṣare nānā artha kaya CC Madhya 24.318
pārāpāra-śūnya gabhīra bhakti-rasa-sindhu
tomāya cākhāite tāra kahi eka ‘bindu CC Madhya 19.137
महाप्रभु रूप गोस्वामी से कहते है कि भागवत इतना विशाल है, इतना भव्य है, ना ये तट है ना वो तट है, ना इस तरफ तीर है ना उस तरफ तीर है, पार अपार गभीर शून्य। कोई महासागर में चले जाओ तो एक प्रारंभ तट होगा और 1 अंतिम तट होगा, उनके बीच मे पानी होगा | और गहराई तक चले जाओ तो फिर एक स्थान आता है, जहां पानी नहीं है मतलब जितना भी गहरा क्यों ना हो परंतु भागवत इतना विशाल सागर है, ना यहां पार है ना वहां पार है और इस महासागर में डूबने लगो तो जितना डूबो उतना रत्न है। तो पार पार गभीर शून्य भक्ति रस सिंधु। भक्ति रस का सिंधु है यह भागवत और वहाँ से वे कहते है कि भागवत का प्रत्येक वाक्य हर एक श्लोक हर एक पंक्ति हर एक चरण हर एक शब्द के हर एक अक्षर में नाना अर्थ है, तो ये श्री कृष्ण वर्णम तविषा अकृष्णम के कितने अर्थ हो सकते हैं, एक अर्थ तो यह हुआ कि कृष्ण वर्ण अर्थात जिस धरा जैसे प वर्ण य प वर्ग क वर्ग तो कृष्ण की धरा से, कृष्ण की स्थिति से, कृष्ण के लेवल से कोई आने वाला है | तो कृष्ण की स्थिति से कौन है? केवल कृष्ण है | तो कृष्ण वर्ण का अर्थ यह हुआ कि कृष्ण ही आने वाले हैं | परंतु इस अवतार मे वो मेघश्याम नव जलधर श्याम की कांति से नहीं आएंगे, इनकी त्वचा कांति कैसी होगी? अकृष्ण रहेगी | अर्थात वे काले नहीं होंगे, सावले नहीं रहेंगे, मेघ समान नहीं रहेंगे | परंतु हेमांग राधा रानी की कांति से, तप्त कांचन गौरांगी नहीं, अब है तप्त कांचन गौराँग | कांचन को तप्त करते हुए गौरांग महाप्रभु के रूप में कलिकाल मे अवतरित होंगे |
अब दूसरा अर्थ इसी एक पंक्ति का कृष्ण वर्ण – वर्ण जो शब्द है संस्कृत में एक ओर अर्थ इसका है वर्णयति अर्थात वर्णन करना | तो कृष्ण वर्ण तविषा कृष्णम का अर्थ ये हुआ ऐसे एक अवतार आने वाले हैं जो हमेशा सदा सर्वदा नित्यम सततम कृष्ण का ही वर्णन करते रहेंगे |
śunite śunite prabhura santoṣa apāra
‘bala, bala’ bali’ prabhu bale bāra bāra CC Madhya 14.9
महाराजा प्रताप रूद्र गोपी गीत का वर्णन करने लगे महाप्रभु हर्षोल्लास से प्रफुल्लित होकर विस्फोट के समान छलांग लगाकर उनको अपनी बाहों में भर लिए | महाप्रभु श्रवण और कीर्तन केवल कृष्ण नाम का करते थे | अन्य कोई वार्ता करनी हो तो कहते थे, बोलना है तो केवल कृष्ण कथा बोलो वरना रहने दो |
परम पूज्य पाद श्रील राधानाथ स्वामी महाराज कहते है
“Silence is Golden”.
महाराज जी कहते हैं इसका अर्थ क्या है?
कुछ लोग अर्थ निकालते है कि चुप रहना यही ठीक है, कुछ बोलने से अच्छा चुप रहना ठीक है | परंतु महाराज जी इसका अर्थ करते हैं
Silence means to only speak of the Golden Avtaar.
केवल गोल्डन अवतार महाप्रभु के वर्णन में लगना ही यही वास्तविक मौन है |
महाप्रभु कहते है कृष्ण वर्णम, अर्थात केवल कृष्ण का वर्णन करते हैं |
मुखे हरि बोल भाई ऐई मात्र भिक्षा चाई
सन्यास अवतार लेकर हर घर जाकर खटखटा कर कहते थे केवल कृष्ण नाम जपो कृष्ण नाम रटो, कृष्ण नाम बोलो |
प्रभु आज्ञाय भाई मांगी ऐई भिक्षा
बोलो कृष्ण भजो कृष्ण कर कृष्ण शिक्षा
कृष्ण माता कृष्ण पिता कृष्ण धन प्राण
– from nadiya-godrume by Bhakti Vinod Thakur
कृष्ण का ही वर्णन करते हैं, कीर्तन भी करते हैं तो
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण,
कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे CC Madhya 7.96
महाप्रभु कृष्ण नाम कृष्ण रूप कृष्ण गुण कृष्ण लीला का श्रवण कीर्तन करने वाले अर्थात कृष्ण वर्णम, लेकिन त्वचा तविषा कैसी है – अकृष्णम |
यह एक अर्थ हुआ |
अब तीसरा अर्थ आचार्य गण करते है वर्ण का एक अर्थ है नाम | नाम के अक्षर इसलिए तो संस्कृत में वर्णमाला कहते हैं स्वर व्यंजन इत्यादि | इसका अर्थ यह है कि यह जो अवतार रहेंगे इनके नाम में कृष्ण नाम होगा | अब कौन बताएगा?
हम सब स्मरण कर रहे हैं महाप्रभु के कई सारे नाम है निमाई, विश्वमभर, गौरांग इत्यादि |
किन्तु संन्यास के पश्चात उनको जो नाम केशव भारती महाराज ने प्रदान किये और उनका नाम जो ऐतिहासिक तौर पर अंकित हुआ वह है श्री कृष्ण चैतन्य | अर्थात कृष्ण वर्ण का ये अर्थ है कि इस आचार्य स्वरुप इस कलिकाल के अवतार स्वरुप के नाम मे ही कृष्ण नाम होगा |
तो देखिये तीन अर्थ बताये
एक अर्थ तो कृष्ण के स्तर से कोई आएगा और कृष्ण के स्तर से केवल कृष्ण है औऱ कोई है नहीं |
दूसरा अर्थ है ये आएंगे तो कृष्ण का वर्णन करते रहेंगे नाम रूप गुण लीला इत्यादि |
अब तीसरा अर्थ ये है कि वो रहेंगे जिनके नाम मे ही कृष्ण नाम होगा |
तो ये अर्थ हुआ कृष्ण वर्ण तविषा अकृष्णम का |
तो इस प्रकार हर अक्षर इस श्लोक का विस्तार करने पर ये हम निश्चित तौर पर जान सकते है कि भागवतम संकेत करता हैं तो केवल शचीनन्दन गौरहरि के चरनकमल के प्रति |
dhyeyaṁ sadā paribhava-ghnam abhīṣṭa-dohaṁ
tīrthāspadaṁ śiva-viriñci-nutaṁ śaraṇyam
bhṛtyārti-haṁ praṇata-pāla bhavābdhi-potaṁ
vande mahā-puruṣa te caraṇāravindam SB 11.5.33
आगे वो लिखते है उसी भागवत के सन्दर्भ मे आता है आप सब पढ़ सकते है 11 सकन्ध के 5th अध्याय का 32,33,34 श्लोक मे | इन तीनो श्लोक मे श्री चैतन्य महाप्रभु का बहुत सुन्दर वर्णन है | कहते है श्री चैतन्य महाप्रभु कौन है वन्दे महापुरुषते चरणरविंदम, मैं उन महापुरुष के चरण कमल के प्रति नतमस्तक होता हूँ | कौन कह रहे है?
नव योगेंद्र जी कह रहे हैं |
अब कोई पूछ सकता है कि ये महापुरुष कौन है, कौन है महापुरुष?
देखिये अब ये महापुरुष शब्द के कई अर्थ है|
एक अर्थ ये है मुंडक उपनिषद मे वर्णन आया है, महापुरुष की परिभाषा कैसे होती है? वो व्यक्ति जिनके दर्शन मात्र करने से कृष्ण की स्मृति हो जाये वो महापुरुष है, जिनको देखने मात्र से कृष्ण का स्मरण हो जाये, जिनको देखने मात्र से कृष्ण नाम स्फुरित हो जाये वो व्यक्ति है महापुरुष | अब महाप्रभु के विषय मे, शचीनन्दन गौरहरि के विषय मे क्या ये सत्य है? अवश्य ये सत्य है | कविराज गोस्वामी तो कहते है
एमन दयाल प्रभु नाही त्रिभुवने
कृष्ण प्रेम होय जार दूरदर्शने
ऐसा वर्णन आता है कि हमारे महाराज प्रताप रूद्र जी जो जगन्नाथ पुरी के राजा थे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरण कमल के प्रति इतनी आस्था और इतनी प्रगाढ श्रद्धा रखते थे कि उन्होंने नियम बना दिया था जहां भी महाप्रभु यात्रा के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान प्रस्थान करें, हर एक स्थान में एक छोटी सी मूर्ति लगानी चाहिए या एक खम्बा स्थापित करना चाहिए यह बताने के लिए जगत को कि यह वही स्थान है जहां पर महाप्रभु में चरण कमल को स्थित किया था, यहाँ पर वो बैठे थे, यहां गायत्री किये थे और जिन जिन तीर्थ, जिन जिन कुंड, जिन जिन नदी मे महाप्रभु स्नान करते है, उन सभी नदियों के तट पे कोई एक स्मरणीय बात होनी चाहिए जैसे कोई आकर पढ़ले कि यहाँ श्रीमन महाप्रभु आये थे | फिर उन्होंने एक घोषणा की थी कि हर गांव से जहाँ महाप्रभु यात्रा कर रहे है, उस हर गांव मे जगन्नाथ जी का प्रसाद पहुंच जाना चाहिए | जैसे महाप्रभु जब कटक आये तो महाराज प्रतापरूद्र नियम बनाये, जगन्नाथ पूरी के जगन्नाथ देव का जो महाप्रसाद है, वो पहुंच जाना चाहिए, जहाँ भी महाप्रभु चले महाप्रसाद पहुंच जाना चाहिए ये था दूसरा नियम | अब तीसरा नियम है कि जहाँ भी महाप्रभु शयण करने की इच्छा रखे, गृहस्थ को सबको घर खाली करके वो घर महाप्रभु को सौंपना चाहिए ताकि महाप्रभु वहां शयन करें | महाप्रभु विरक्त शिरोमणि थे, वे तो बृक्ष के निचे शयन करते थे | पर राजा महाराज प्रतापरूद्र ने ये नियम बनाया था | अब चौथा नियम बनाया था जब भी महाप्रभु कोई नदी को पार करने की इच्छा रखे, वहां नौका तैयार होनी चाहिए, व्यक्ति तैयार होना चाहिए और स्वागत होना चाहिए कि हे महाप्रभु आप इस नदी को पार कर सकते है | अच्छा बताइये मुझे, महाप्रभु जब नौका मे बैठते है औऱ नदी को पार करते है, क्या वो वास्तविक नदी को पार कर रहे है? अरे नही, वो नदी को तो पार नही कर रहे है, जो व्यक्ति नदी में बिठाकर महाप्रभु को नदी पार करा रहा है, उस व्यक्ति को भवसागर पार करा रहे हैं, वह व्यक्ति महाप्रभु को नदी पार नहीं करा रहा, बल्कि महाप्रभु सेवा का सौभाग्य देकर उस व्यक्ति नदी नहीं, सागर महासागर भावसागर दुखसागर से पार करा रहे है | तो महाराज प्रतापरूद्र ने ये नियम बनाया, सभी हर्ष उल्लास से प्रफुल्लित हो गए, सब भक्त आ गए, एकत्रित हो गए, हर स्थान पर रुक रुक कर के दर्शन करते थे | परंतु जो स्त्रिया थी, जो अलग-अलग पटरानियाँ थी, वो तो सन्यासी के पास जाकर महाप्रभु का दर्शन नही कर पाती थी, तो महाराज प्रतापरूद्र ने क्या किया, एक योजना बनाई, उन्होंने उस राजमहल की जो भी रानियाँ पटरानियाँ थी, उन प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक हाथी रखा, हाथी के ऊपर बैठते थे औऱ एक पालकी होती थी, जिसमे पर्दा लगता था, परदे को हटा कर वे स्त्रियां देखती थी महाप्रभु को दूरदर्शन से, क्योकि सन्यासी के पास तो अब नही जा सकते तो दूर से वे दर्शन करती थी | उस संदर्भ मे कविराज गोस्वामी लिखते है जब वो स्त्रियां हाथी के ऊपर बैठकर पालकी के परदे को हटाकर दूर से देखती थी, महाप्रभु जानते थे कि ये सब भक्त है औऱ महाप्रभु केवल कृपा दृष्टि प्रदान करते थे, उस दृष्टि पात मात्र से वे स्त्रियां बधिर जाती थी, उनको लगता नही था प्रेमावेश मे
CC Antya 20.36
nayanaṁ galad-aśru-dhārayā
vadanaṁ gadgada-ruddhayā girā
कंठ अवरुद्ध हो रहा है, गंगा जमुना प्रेम अश्रु प्रवाहित हो रहा है, पूरा शरीर रोमांच से भर रहा है, अष्ट सात्विक विकार उत्पन्न हो रहे है, कविराज गोस्वामी लिखते है
emana kṛpālu nāhi śuni tribhuvane
kṛṣṇa-premā haya yāṅra dūra daraśane CC Madhya 16.121
ऐसा दयालु पुरे जगत ने नही देखा, कैसा दयालु, दया की क्या सीमा है?
कृष्ण प्रेम होय जार दूरदर्शन
बहुत सरल है, जिनके दूरदर्शन मात्र से कृष्ण प्रेम की प्राप्ति होती है| भला सत्य, त्रेता, द्वापर युग मे तो ये सुना ही नही, कोई घनघोर वन मे बैठेगा, पदमासन मे बैठेगा, जैसे भागवत गीता मे भगवान कहते है एक पवित्र स्थान मे स्थित रहकर नाशाग्रे अर्थात नाशिका के अग्र भाग मे ध्यान लगा कर नेत्र थोड़े खुले थोड़े बंद है औऱ ऐसे ध्यान अवस्था मे पूर्ण रूप से समाधि स्थित करके जो बैठते है, उनको क्या प्राप्त होता है? परमात्मा का साक्षातकार बस, भगवान का दर्शन नही, परमात्मा का साक्षातकार अंदर ही अंदर, लीला मे प्रवेश नही, कृष्ण प्रेम तो दूर की बात है | औऱ यहाँ कलिकाल मे घनघोर वन मे जाने की आवश्यकता नही,
नाचो गावो भक्त संगे करो संकीर्तन
अति रत पाबे तुमी कृष्ण प्रेम धन CC Adi 7.92
अरे घर बैठो, भक्तो के साथ एक समुदाय समाज मे मिल जुलकर कीर्तन करो, श्रवण मे लग जाओ, नाम जप करो औऱ प्रसाद का सेवन करो ऊंचे कंठ से
प्रभु कहे वैष्णव सेवा नाम संकीर्तन
जोई करे शीघ्र पाबे कृष्णेर चरण
prabhu kahe, — “vaiṣṇava-sevā, nāma-saṅkīrtana
dui kara, śīghra pābe śrī-kṛṣṇa-caraṇa” CC Madhya 16.70
नाम संकीर्तन करते करते वैष्णवो की सेवा करो, शीघ्र अति शीघ्र कृष्ण चरण की प्राप्ति होगी | तो कविराज गोस्वामी कहते है महाप्रभु इतने दयालु है
श्री चैतन्य महाप्रभु दयार करीह विचार
विचार कइले चित्ते तुमि पाबे चमत्कार
śrī-kṛṣṇa-caitanya-dayā karaha vicāra
vicāra karite citte pābe camatkāra CC Ādi 8.15
बंगाली काव्य का एक अलग ही नशा है, कविराज गोस्वामी कहते हैं, महाप्रभु की दया की सीमा का विचार करके तो देखो, विचार करने पर तुम चित्त में चमत्कार का अनुभव करोगे | यदि जगत में दांत में दर्द हो रहा है या पेट में दर्द है, कहीं सिर में दर्द है, कोई व्यक्ति आकर औषधि प्रदान करें, वैद्यराज के पास ले जाए और वह वैद्यराज हमें ठीक कर दे तो कृतज्ञ भाव से कहेंगे कि मेरे दांत में इतना दर्द था, पेट में इतना दर्द था, शरीर में इतना कष्ट था, मैं झुक जाता हूँ कृतज्ञ भाव से आपने मुझे ठीक किया, हम तो झुक जायेंगे, परन्तु वैद्य राज तो धन मांगता है, ठीक करने का पैसा लेता है | यदि सोचिये कोई ऐसा व्यक्ति हो औऱ कहे अरे अरे मैं तो ये सेवा के तौर पर करता हूँ, आप सिर्फ मुझे आशीर्वाद दीजिये, तो कृतज्ञता बढ़ेगी, क्योकि हमें अभी पता चलेगा कि ये निस्वार्थ भाव से सेवा कर रहे है| ये तो हम दांत दर्द औऱ सर दर्द की बात कर रहे है कोई व्यक्ति अगर ऐसा हो जो हमें मृत्यु से बचा लेंगे, मृत्यु सबसे बड़ी पीड़ा है, कोई व्यक्ति ऐसा हो जो मृत्यु से हमें पार करा दे, ऐसा कहे कि मेरे पीछे छिप जाओ तुम नही मरोगे तो हम पूछेंगे सामने से क्या लेंगे?
वो व्यक्ति कहेगा नही नही बस निस्वार्थ भाव से सेवा के लिए कर रहा हूँ, तो हम कितना झुक जायेंगे ऐसे व्यक्ति के सामने, इतना प्रेम करते है मुझसे, मैं सामने से कुछ दे भी नही सकता औऱ देने की इच्छा रखू तो भी वो लेते नही, वे निस्वार्थ भाव से मृत्यु से पार करा रहे है, परन्तु मृत्यु से पार करा के कहा रख दिये स्वर्ग मे रख दिये, ये भी बड़ी बात है, परन्तु यदि कोई ऐसा व्यक्ति हो जो आकर कहे स्वर्ग नही, मैं जन्म मृत्यु जरा व्याधि से मुक्त कराकर तुम्हे वैकुंठ दे दूंगा, वैकुंठ मे तुम्हे प्रवेश करा दूंगा, तो हम सामने से कहेँगे- मुझे क्या करना होगा?
तुम कुछ मत करो, तुम क्या कर सकते हो, मुझे क्या दे सकते हो, कुछ मत दो, मैं निस्वार्थ भाव से केवल तुम्हारे संतोष के लिए कर रहा हूँ तो ओर कृतज्ञता बढ़ जाएगी | औऱ यदि व्यक्ति ऐसा कहे, घर आकर खटखटा कर कहे, तुम एक काम करो घर में बैठो, वन जाने की आवश्यकता नहीं, कोई पूजा पाठ करने की आवश्यकता नहीं, तुम गृहस्थ बनो, विरक्त बनने की भी आवश्यकता नहीं, भोजन पाना पसंद है तो प्रसाद खाओ, कोई बात नहीं, तुम्हें नाचना पसंद है चलो नाचो, गाना पसंद है चलो गाओ, एकांत में वास करने की आवश्यकता नहीं, सब से मिलना जुलना पसंद है चलो भक्तों के समुदाय में रहो, जो करना है करो, और ऐसा भी नहीं कि एकांत भाव सिर्फ 24 घंटे, बीच में बच्चे होंगे पारिवारिक कर्तव्य उत्तरदायित्व होगा उसके बीच में नौकरी व्यवसाय धंधा इसमें भी चलते रहो, अर्थ भी कमाओ परमार्थ भी कमाओ, करते रहो और व्यक्ति कहे तुम्हें जो अच्छा लगे वह करते रहो और मैं तुम्हें बैकुंठ नहीं गोलोक में श्रीमती राधारानी की सखी बनाने को तैयार हूँ, मैं वृंदावन ले जाकर तुम्हें निकुंज में अष्ट सखी के चरणों में अर्पित करने को तैयार हूँ, मैं तुम्हें राधा कृष्ण की लीला दर्शाने को तैयार हूँ, यमुना महारानी के तट पर वंशीवट के छाया तल पर पूर्ण चंद्रमा की चंद्रिका के बीच रास स्थली में प्रवेश कराने को तैयार हूँ, बस तुम जो कर रहे हो भजन करते रहो, ये गारंटी मैं लेता हूँ, ऐसे व्यक्ति से कोई अधिक दयालु होगा? यह है महाप्रभु | यह है हमारे सचिनंदन गौर हरि | सामने से हम क्या दे सकते हैं, क्या दे सकते हैं |
premanam adbhutartha sravana pathagatah kasya namnam mahimnah ko vetta kasya vrndavana vipina mahamadhurisu pravesah ko va janati radham parama rasa chamatkar madhurya seema mekas Caitanyacandrah parama karunaya sarvamaviscakar- Sri Caitanya Candravali
श्रीपाद प्रबोधानंद सरस्वती चैतन्य चंद्रामृत ग्रंथ मे लिखते है यह चार अक्षर कृष्ण प्रेम जगत ने सुना तक नहीं, ऐसी जगह है जहां भक्ति यह दो अक्षर सुनाई नहीं देते हैं, भक्ति की पराकाष्ठा परिपक्व अवस्था है प्रेम और प्रेम की पराकाष्ठा या परिपक्व अवस्था है भाव या महाभाव, यह सब किसने सुना कौन जानता था, जाने नहीं तो फिर इच्छा कौन करें, इन चार अक्षर कृष्ण प्रेम को जगत में प्रकाशित और वह भी केवल नाम के रटन मात्र से, यह महाप्रभु की देन है | पहली भेंट है |
चार अक्षर वृंदावन किसने सुना, कौन सुना था यह चार अक्षर वृंदावन, वृंदावन के विषय में क्या कहा जाए, राधा कुंड और श्याम कुंड जो राधा और कृष्ण के नित्य लीला, नित्य क्रीड़ा स्थली है, नित्य विलास स्थली है यह अप्रकट हो चुका था, जगत तो राधा कुंड और श्याम कुंड को जाने बिना काली खेत और गोरी खेत बुलाते थे उस स्थान को, वहां चावल उगाते थे, ऐसा स्थान था खेत मानते थे उसे, जब महाप्रभु आए, पूरे जगत के समक्ष इस बात को प्रदर्शित किए प्रकट किए कि यह कोई खेत नहीं, यह कोई चावल की भूमि नहीं यह तो प्रेम की भूमि है, यह शरीर के अन्न की भूमि नहीं है, यह आत्मा को संतुष्ट करने वाली अन्न प्रदान करने वाला क्षेत्र है, यह राधा कुंड और श्याम कुंड है, यह राधा और कृष्ण की बहुत सुंदर प्रेममयी द्रवित स्वरूप है, तो यह महाप्रभु की भेंट है वृंदावन धाम, प्रबोधानंद सरस्वती जी लिखते हैं जितना आश्चर्यजनक बात यह है कि कृष्ण प्रेम ये चार अक्षर जगत ने सुना नहीं परंतु उन चार अक्षर को इस जगत में प्रकट करके भेंट स्वरूप दान देने वाले महाप्रभु वह भी नाम के रटन मात्र से उन्हीं महाप्रभु ने दूसरी भेंट दी, वह क्या? वृंदावन धाम को प्रकाशित किया |
kālena vṛndāvana-keli-vārtā
lupteti tāṁ khyāpayituṁ viśiṣya
kṛpāmṛtenābhiṣiṣeca devas
tatraiva rūpaṁ ca sanātanaṁ ca CC Madhya 19.119
रूप और सनातन गोस्वामी को निमित्त बनाकर 5000 मंदिर स्थापित किये, भिन्न-भिन्न गौड़ीय ग्रंथों को रस स्वरूप लिखाया और रुप सनातन गोस्वामी को निमित्त बनाकर वैष्णव सदाचार को इस जगत के समक्ष दर्शाया, उन महाप्रभु ने वृंदावन को केवल प्रकट नहीं कराया उनमें वृंदावन की लीलाओं में हमें प्रवेश कराने का अधिकार भी प्रदान किया, हममें से कौन अधिकार रखता है राधा कृष्ण की लीलाओं में प्रवेश कराने का, ब्रह्मा जी 120000 साल भजन करते हैं ताकि बरसाना में उनके चार मुख् चार पर्वत बन जाए, शिव जी हर द्वार पर द्वारपाल के रूप में बैठे हैं ताकि रास स्थली में उनका प्रवेश हो, नारद मुनि स्वयं वीना को छोड़कर नारदी गोपी बनने को तैयार हैं ताकि रास स्थली में प्रवेश हो, और वृहस्पति के शिष्य वर, सर्वश्रेष्ठ शिष्य उद्धव जी वृंदावन में लता बनने को तैयार है,
āsām aho caraṇa-reṇu-juṣām ahaṁ syāṁ
vṛndāvane kim api gulma-latauṣadhīnām ŚB 10.47.61
बड़े-बड़े दिग्गज 33 करोड़ देवी देवता भजन कर रहे हैं लीला में प्रवेश करने के लिए और यहां महाप्रभु हमें घसीट घसीट कर राधा कृष्ण की लीलाओं में प्रवेश करा रहे है, पहली बात प्रेम जगत ने सुना नहीं, उस प्रेम को दान दिया केवल नाम रटन से, दूसरी बात वृंदावन जा अप्रकट हो चुका था उसको प्रकट किया और अधिकार दे दिया पूरे जगत को ताकि लीलाओं में प्रवेश हो जाए, और तीसरी बात
यदि महाप्रभु नहीं आए होते तो यह दो अक्षर रा औऱ धा जगत ने सुना नहीं होता, राधा नाम राधा रूप राधा गुण राधा लीला राधा धाम राधा सेवा राधा परिकर राधा रानी के विषय में महिमा माधुरी का विशेष जगत में प्रचार श्रीमन महाप्रभु ने किया, श्री महाप्रभु सचिनंदन गौर हरि प्रकट होने से पूर्व सभी विग्रह केवल कृष्ण खड़े थे, गोविंद जी खड़े थे गोपीनाथ जी खड़े थे, अन्य संप्रदाय के विग्रह देख लीजिए केवल कृष्ण खड़े थे, हमारे महाप्रभु ने आकर जो अकेले-अकेले कृष्ण खड़े हैं सबको राधा रानी के साथ मिला दिया तो अब हो गए राधा माधव राधा गोविंद राधा गोपीनाथ| श्री सचिनंदन गौर हरि की जय | राधा रानी को भेंट दिए, वैसे तो महाप्रभु है राधा रानी पर भक्त भाव में हम कह रहे हैं आचार्य स्वरूप मे हम कह रहे हैं, उन्होंने प्रत्येक विग्रह प्रत्येक मंदिर मे जो कृष्ण अकेले खड़े थे, उनको जाकर राधा रानी सौप दिये इसीलिए तो गीत में आया है
yadi gaura na ha’ta tabe ki ha-ita
kemane dharitam de
radhara mahima, prema-rasa-sima
jagate janata ke?(Srila Vasudev Ghosh Thakur)
यदि गौरांग महाप्रभु प्रकट नहीं हुए होते, तो राधा रानी के विषय में इतनी विशेष चर्चा राधा रानी की लीलाएं जो भी कृष्णदास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरित्रामृत में लिखे हैं, रूप गोस्वामी रघुनाथ दास गोस्वामी राधा रानी के विषय में लिखे हैं यह सब नहीं प्रकट हुआ होता जगत नहीं सुना होता, हमारे रघुनाथ दास गोस्वामी एक श्लोक लिखे हैं
bhajami radham aravinda-netram | smarami radham madhura-smitasyam || vadami radham karuna-bharardram | tato mamanyasti gatir na kapi ||
इसका अर्थ यह है श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी कहते हैं मैं भजन करता हूँ राधा रानी के कमल नेत्र का, और मैं स्मरण करता हूँ राधा रानी की मंद मंद मुस्कान, बहुत सुंदर मुख कमल में जो मुस्कान है उसका मैं स्मरण करता हूँ, और हर जगह जाकर छाती ठोक कर मैं जोर-जोर से घोषणा करता हूँ कि कितनी करुणा की मूर्ति मती है श्रीमती राधा रानी, रघुनाथ दास गोस्वामी कहते हैं राधा रानी के चरणों के अतिरिक्त मेरी दूसरी कोई गति नहीं है इसलिए मेरी वाणी केवल राधानाम रटती है, नेत्र केवल राधा मुख देखती है, और कान केवल राधा रानी के गुण माधुरी का श्रवण करता है, यह सब जो श्लोक है जो रूप गोस्वामी और रघुनाथ दास गोस्वामी लिखे है इनका स्रोत कहां है उद्गम स्थान कहां है यह सब कहां से प्रकट होता है, यह सब श्री महाप्रभु के हृदय से विस्फोट हो रहा है, जो रूप गोस्वामी और रघुनाथ दास गोस्वामी की वाणी ने लिखा, इसका है राधा नाम राधा रानी की विशेष मधुरिमा विशेष प्रचार श्री सचिनंदन गौर हरि ने किया, इसीलिए तो हमें गाड़ियां कहते हैं | परम पूज्य पाद भक्ति चारू स्वामी महाराज कहते थे जो विष्णु की आराधना करते हैं वे वैष्णव है, विष्णु की आराधना करने वाले वैष्णव, जो कृष्ण की आराधना करें उनको कार्ष्णेय कहते है, और जो राधा रानी की आराधना करें राधा रानी का एक नाम है गौरी, जो परम गौरी राधा रानी के चरण आश्रित हो जाए एकांत भाव से वह है गौड़ीय परंपरा, हमारी परंपरा के महाप्रभु प्रथम आचार्य यह जगत में राधा और कृष्ण के प्रेम को प्रदान करने आए हैं | तो हमारे प्रबोधानंद सरस्वती जी लिखते है यह तीन प्रमुख भेंट है श्रीमन महाप्रभु की, पहली कृष्ण प्रेम जो जगत ने सुना नहीं इसको भेज दिया केवल नाम अक्षर रटन मात्र से, दूसरी भेंट वृंदावन धाम जो अप्रकट हो चुका था इसको प्रकट कराया, पुनर्दर्शित कराया, लीला स्थली लुप्त हो गए थे और थोड़े लीला स्थली गुप्त हो गए थे, महाप्रभु ने सबको प्रकट कराया और उन लीलाओ में प्रवेश करने का अधिकार प्रदान किया और तीसरी भेंट राधा तत्व को इस जगत में प्रकाशित किया,
ekas chaitanya-chandrah parama-karunaya sarvam avischakara
(Sri Chaitanya-chandramrta, 10.130)
प्रबोधानंद सरस्वती गदगद होकर कहते हैं एक महाप्रभु ने करुणा के भाव से द्रवित होकर इतना कुछ अकेले किया, फिर वो आगे लिखते हैं इतनी मधुरिमा महाप्रभु की गाकर फिर कहते हैं
Caitanya-candramrta, Text 46:
vancito smi vancito smi
vancito smi na samsayah
visvam gaura-rase magnam
sparso’pi mama nabhavat
अरे पूरा जगत तो गौर रस में मगन हो गया, डूब गया, मत चित हो गया, पूरा जगत राधा कृष्ण प्रेम के इच्छुक हो गया, पूरा जगत वृन्दावन के इच्छुक हो गया, पूरा जगत अब राधा रानी के चरण आश्रित हो गया, पूरा जगत अब नाम रटने लगा और प्रबोधानंद सरस्वती कहते हैं कि मेरा दुर्दैव ऐसा है दुर्भाग्य ऐसा है कि उस गौर रस की अपरंपार कृपा करुणा दया का एक बूंद भी स्पर्श मेरे हृदय में नही हुआ, क्या यह सत्य है? यह सत्य नहीं परंतु वे इतने नम्र है, प्रेम का यह स्वभाव है
tava kathāmṛtaṁ” śloka rājā ye paḍila
uṭhi’ premāveśe prabhu āliṅgana kaila CC Madhya 14.10
प्रेम का यह स्वभाव है प्रेम का यह लक्षण है कि जितना प्रेम हृदय में अर्जन हो उतना ही व्यक्ति को लगता है अरे मैं तो दीन हीन अकिंचन हूँ, क्योंकि जो वृक्ष फलीभूत होता है फलों से पूरा सज जाता है वही तो वृक्ष झुकता है, जिस वृक्ष में पहले लगते हैं वही तो वृक्ष झुकता है, फल के भार से झुकता है और जो वृक्ष से फल हीन है वह घमंड से खड़ा रहता है, तो वृक्ष रुपी चित्त जब प्रभु के प्रेम रूपी फल से भर जाता है, उसी भार से वह नम्र हो जाता है और अगर भक्ति हीन चित्त हो, वह घमंड से खड़ा रहता है मैं इतने श्लोक जानता हूँ इतना कुछ करता हूँ मैं यह करता हूँ मैं वह करता हूँ, अरे अब तक प्रभु के चरण आश्रित तो हुए नहीं तो यह सब व्यर्थ चला गया,
notpādayed yadi ratiṁ
śrama eva hi kevalam ŚB 1.2.8
प्रबोधानंद सरस्वती लिखते हैं पूरा जगत गौर रास मे आप्लावित हो गया और अरे मेरा दुर्भाग्य ऐसा है कि मेरे चित्त को एक बूंद भी स्पर्श नहीं हुआ, अरे मैं वंचित रह गया, मैं वंचित रह गया, मैं वंचित रह गया, मेरा मानव शरीर कट गया, मेरा समय व्यर्थ चला गया, ब्रह्मा जी ने मुझे मानव तन दिया, कलिकाल में जन्म हुआ, महाप्रभु के बाद इतने लोगों को भक्ति मिली, महाप्रभु के समय और उनके बाद भी इतने लोगों को प्रेम स्पर्श हुआ और मुझे सिंधु क्या एक बिंदु भी स्पर्श नहीं हुआ, यह है प्रबोधानंद सरस्वती की वाणी |
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी कहते हैं कि केवल दूरदर्शन से महाराज प्रताप रूद्र की स्त्री और जो भी अन्य पटरानी थी वह दूर से दर्शन किए हैं उस दृष्टिपात से वान की तरह महाप्रभु के नेत्रों से कृष्ण प्रेम छूट गया और वे सब प्रेम मगन हो गई | तो यह हम इसलिए विस्तार से चर्चा कर रहे थे क्योंकि हमारा विषय था महाप्रभु, यह शब्द जो है महाप्रभु महापुरुष शब्द पर व्याख्या मुंडक उपनिषद में वर्णन है कि जिनको देखने मात्र से कृष्ण का स्मरण हो, वह महापुरुष है| अब बोलिए महाप्रभु महापुरुष है कि नहीं, अरे स्मरण ही नहीं, कृष्ण का दर्शन हो रहा है साक्षात | महापुरुष का एक ओर अर्थ है, महा का अर्थ है महा भाव जो राधा रानी का भाव है, और पुरुष का अर्थ गोविंदम आदिपुरुषम अर्थात कृष्ण, महा का अर्थ है महा भाव स्वरूपिणी राधा रानी और पुरुष का अर्थ है गोविंदम आदिपुरुषम श्री कृष्ण, और राधा कृष्ण एक तन मे आ गए तो महा भाव स्वरूपिणी और रसराज आदि गोविंद श्री कृष्ण आदि पुरुष आ गए तो महाप्रभु का नाम हो गया महापुरुष |
महा का एक और अर्थ है महामंत्र प्रदान करने वाले दाता, यह एकमात्र भगवान के ऐसे पुरुष अवतार है, जो महामंत्र प्रदान करने आते हैं |
इमोन दोयल प्रभु
महा का एक ओर अर्थ है महावदान्य स्वरूप, भगवान के सबसे अधिक सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि सर्व उत्कृष्ट दयावान कृपावान कृपालु दयालु महाप्रभु का है, महावदान्य से शब्द आया महा, और भगवान कृष्ण तो है पुरुष, वे एकमात्र पुरुष है हम सब प्रकृति है, जो पुरुष भगवान कृष्ण अपने महावदान्य में स्वरूप में आते हैं तो उनका नाम हो जाता है महापुरुष |
इस प्रकार आचार्यों ने बहुत सुंदर टिकाए लिखी हैं, एक ओर अर्थ करते है कि पहले की संस्कृति में एक बात थी कि जिनका वर्ण जिनकी कांति हेम वर्ण की होती थी, कोई हम रंग के विषय में नहीं कह रहे है, हम भजन के प्रभाव के विषय में कह रहे है, जो तेजस्वी महापुरुष होते थे उन सब को महापुरुष कहा जाता था, जिनके चेहरे में तेज होता था, जिनके भजन प्रभाव से भजन के तेजस ओजस शक्ति से पूरा शरीर मानो एक प्रज्वलित भाव से हेमांग कांति से तेजस्वी भाव से दिखता था ऐसे व्यक्ति को भी महापुरुष कहते है, तो महाप्रभु तो तप्त कांचन गौरांग है, उनको कोई भजन प्रभाव के तेज की आवश्यकता नहीं, वह तो है गौरे वर्ण के, स्वर्ण वर्ण के, उसके साथ साथ एक प्रथा होती थी जो बड़े दिग्गज ब्राह्मण कुल के होते थे और केवल कुल की बात नहीं जो ब्राह्मणत्व का निर्वाह भी करते थे उनको भी महापुरुष कहा जाता था, महाप्रभु तो ब्राह्मण श्रेष्ठ जगन्नाथ मिश्र के सुपुत्र है, तो उस स्तर से भी देखा जाए परिभाषा से महापुरुष है | इस प्रकार भागवत के एक शब्द से देखिए आचार्यों ने कितनी कुछ वाणी लिखी है |
इस प्रकार श्री महाप्रभु पर आस्था रखना यह हमारा सर्वश्रेष्ठ उत्तरदायित्व है कर्तव्य है उनके चरणों में पूर्ण रुप से शरणागत होना और समर्पित होना यह गौड़ीय वैष्णव के लिए सर्वश्रेष्ठ सर्वप्रथम यह कार्य है कई बार शंका हो जाती है कि ये है कि नहीं, भगवान है कि नहीं, वास्तविक राधा-कृष्ण है कि नहीं, इसलिए नवदीप धाम महात्मय में भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं शिव जी के हाथ में त्रिशूल है, क्यों त्रिशूल रखते हैं शिव जी? तो भक्ति विनोद ठाकुर बहुत सुंदर व्याख्या लिखते है, यह त्रिशूल इसलिए है, पहली शूल इसलिए है कि यदि कोई संदेह करें कि महाप्रभु भगवान है कि नहीं, तो उनको दंड देने के लिए पहली शूल है और दूसरी किसके लिए, कोई मानेगा कि हां यह भगवान अवश्य है पर यह राधा कृष्ण के स्वरूप हैं यह थोड़ा शंका की बात है तर्क का विषय है, तो यह दूसरी शूल जो है शिव जी के हाथ में, यह उन लोगों को दंड देने के लिए, और तीसरी शूल किसके लिए है त्रिशूल में, जो लोग कहते हैं कि वृंदावन धाम तो वृंदावन है, नवदीप धाम तो पता नहीं, कई लोग कहते हैं कि नवदीप भी वृंदावन के समान है, जो यह शंका रखते हैं यह दुविधा में फंसते हैं इस बात का तर्क वितर्क करते हैं तीसरी शूल उनके लिए है, पहली उन लोगों के लिए जिनको शंका होती है कि महाप्रभु भगवान है कि नहीं, दूसरी उन लोगों के लिए जो मानते हैं कि भगवान है किंतु राधा कृष्ण के अभिन्न स्वरूप है कि नहीं और तीसरी पहली दो बात मानते हैं परंतु यह सोचते हैं कि वृंदावन धाम तो बड़ा ऊंचा धाम है और नवदीप धाम तो ऐसे लोगों को दंड देने के लिए शिवजी खड़े हैं त्रिशूल लेकर, भागने के लिए उनके पीछे, ऐसा भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं |
इस प्रकार हम देखते हैं पुराणों की भी बात है, हमारा भागवत जो सर्व वेदांत पुराण का निचोड़ है इनकी भी वाणी यही है इनका भी निष्कर्ष यही है कि महाप्रभु हमारे सर्वश्रेष्ठ अपरंपार सर्व शिरोमणि भगवान के ही अभिन्न स्वरूप है और इसके साथ साथ हम देखते हैं विष्णु सहस्त्रनाम में भी वर्णन है विष्णु देव अपनी मृत्यु सैया में मरणासन्न अवस्था में बान की सैया में लेटे लेटे विष्णु सहस्त्रनाम को उदित कर रहे हैं भीष्म देव द्वारा बोली गई जो एक महाजन है और भगवान कृष्ण के समक्ष उपस्थिति में होकर यह बात श्लोक बोल रहे हैं और यह वेदव्यास जी ने रचना करके बद्ध करके महाभारत में प्रस्तुत किया तो वहाँ श्लोक ऐसा आता है
suvarna-varno hemango varangas candanangadi sannyasa-krc chamah santo nistha-santi-parayanah
वहां हमारे श्री महाप्रभु का वर्णन करते करते ये वाणी आई है कि उनका वर्ण कैसा होगा हेमंग तप्त कांचन गौरांग एकदम तपे हुए सुवर्णकांति में रहेंगे और उनके शरीर का आकार दीर्घ होगा, अर्थात बहुत ऊंचे रहेंगे, बड़े-बड़े हाथ घुटनों तक और बहुत सुंदर उनके प्रत्येक अंग बहुत सुंदर होगा, चंदन से लेपित रहेगा, सन्यास लेंगे, स्वयं शांत रहेंगे, सहिष्णुता का भाव रखेंगे, बहुत दया नम्र भाव स्वभाव रहेगा, पूरे जगत में शांति का एकमात्र जो मार्ग है नाम संकीर्तन इसीका प्रचार प्रसार करेंगे | इस प्रकार हम देखते हैं सभी शास्त्रों में भिन्न भिन्न प्रकार के प्रमाण पाए जाते हैं श्री चैतन्य महाप्रभु और श्री नित्यानंद प्रभु के भगवता का और उनके अवतार लेने से पूर्व ही इसकी घोषणा भविष्यवाणी की गई है| इस प्रकार पूरी निष्ठा से पुरे हृदय से पूरे मन से संकोच रहित संदेह रहित हमें महाप्रभु का भजन करना है इस प्रकार श्रवण कीर्तन स्मरण मात्र करने से प्रभु को हम हमारे हृदय रूपी उखल थोड़ा दामोदर लीला का प्रेम की डोरी लेकर हम महाप्रभु काफी दामोदर लीला करा सकते हैं केवल श्रवन कीर्तन मात्र से |
पतित पावन श्रील प्रभुपाद की जय |
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*सुंदर चैतन्य स्वामी महाराज द्वारा*
*दिनांक 12 मार्च 2022*
हरे कृष्ण!!!
*नम: ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले । श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नम: ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले । श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
मैं सबसे पहले अपना आभार प्रकट करता हूँ कि मुझे इस गौर कथा श्रृंखला में कुछ कहने का अवसर प्राप्त हुआ है। हम विशेष रूप से चैतन्य महाप्रभु की मुकंद दत्त, गदाधर पंडित और केशव कश्मीरी आदि भक्तों के जो लीला सम्पन्न हुई ,उसके विषय में बताएँगे।
श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने विद्या विलास को निमाई पंडित के रूप में नवद्वीप में प्रकाशित किया है। उन दिनों में नवद्वीप, विद्या का मूल स्थान था, जहां पर लोग दूर-दूर से विद्या अर्जन करने के लिए आते थे। संपूर्ण जगत से बड़े-बड़े विद्वान, ब्राह्मण, पंडित आदि विद्या अर्जन के लिए यहां पर आते थे। समस्त विद्वान, ब्राह्मण भौतिक जीवन का परित्याग करके, भगवान के चरण कमलों में आसक्त होने के लिए नवद्वीप में वास कर रहे थे। वहां अलग-अलग भक्त जो विद्या अर्जन कर रहे थे उनमें चैतन्य महाप्रभु के एक भक्त मुकुंद दत्त भी थे। मुकुंद दत्त को सभी भक्त प्रेम करते थे। उनके कीर्तन के द्वारा किसी भी भक्त का हृदय द्रवीभूत हो जाता था। अद्वैत आचार्य और अन्य भक्तों के साथ मिलकर वह सदैव बहुत सुंदर सुंदर भजन का गान किया करते थे। जब मुकुंद दत्त कीर्तन का प्रारंभ करते थे तब भक्तगण अपनी ब्राहय अवस्था को भी विस्मरण करके उच्च स्वर में कीर्तन व नृत्य करते थे। उच्च स्वर में कीर्तन करते हुए, क्रंदन करते थे, नृत्य करते थे और कई लोग अपनी बाहरी सुध को भूल जाते थे। तत्पश्चात दिव्य आनंद का अनुभव करते हुए वे जमीन पर लौटने लगते थे। कई भक्त जोर-जोर से तालियां बजाते थे और कई भक्त जोर-जोर से सिंह की तरह गर्जन करते थे। वहां का संपूर्ण वातावरण एकदम आध्यात्मिक आनंद से परिपूर्ण हो गया था। समस्त भक्तगण अपने समस्त पूर्व क्लेशों को भूल चुके थे। महाप्रभु विशेष रूप से मुकुंद दत्त से बहुत प्रसन्न रहते थे। परंतु कई बार महाप्रभु मुकुंद पंडित को चिढ़ाते भी थे। कई बार मुकुंद अपनी सफाई देने का प्रयास भी करते थे। महाप्रभु कभी कभी शास्त्रार्थ में उनको परास्त कर देते थे और सिद्ध करते थे कि वे कैसे गलत है। इस प्रकार महाप्रभु शास्त्रार्थ करके मुकुंद के साथ तर्क किया करते थे। इस तरह महाप्रभु के साथ शास्त्रार्थ करके मुकुंद दत्त बहुत अच्छे सम्माननीय विद्वान बन गए। महाप्रभु मुकुंद के साथ छह प्रकार के प्रेममय आदान-प्रदान का आस्वादन किया करते थे। इसी प्रकार महाप्रभु निमाई पंडित के रूप में श्रीवास ठाकुर के साथ भी वाद-विवाद करते थे परंतु अधिकांश वैष्णवगण इस तरह के अनावश्यक शास्त्रार्थ को टालते थे क्योंकि वह इसे अपने समय की बर्बादी समझते थे। वैष्णवगण सदैव आध्यात्मिक आनंद में डूबे रहते हैं। भौतिक सुख के प्रति विचार नहीं करते। वे श्रीकृष्ण कथा को छोड़कर अन्य किसी विषय पर वार्ता पसंद नहीं करते। एक दिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ रास्ते पर चल रहे थे अचानक सामने से मुकुंद आते दिखाई दिए। जैसे ही मुकुंद ने महाप्रभु को देखा, तुरंत ही वह अपना रास्ता पलटने का प्रयास करने लगे। महाप्रभु ने गोविंद से पूछा कि मुकुंद मुझे देखकर दूर क्यों भाग रहा है, वह मुझसे दूर क्यों जा रहा है। गोविंद ने कहा- मुझे नहीं पता। शायद उसे और कुछ काम याद आ गए होंगे इसीलिए वह जा रहा होगा। तब महाप्रभु ने गोविंद से कहा कि हां, मैं जानता हूं कि वह क्यों भाग रहा है क्योंकि मुकुंद भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कभी भी सांसारिक बातों पर चर्चा करना पसंद नहीं करता है क्योंकि उसने केवल भक्तिमय शास्त्रों का अध्ययन किया है परन्तु मैं अधिक समय संस्कृत, व्याकरण, अलंकार, ज्योतिष आदि में अपना समय व्यतीत करता हूं। मैं भगवान् श्रीकृष्ण के बारे में बात नहीं करता हूं इसलिए वह मुझसे दूर भागता है। इस प्रकार से महाप्रभु, मुकुंद के साथ में ऐसा आदान-प्रदान किया करते थे। वास्तव में देखा जाए तो मुकंद दत्त, निमाई पंडित के सहपाठी थे। वे दोनों एक ही कक्षा में थे। वहीं मुकुंद आगे चलकर, श्रीचैतन्य महाप्रभु की जगन्नाथपुरी की लीला में भाग लेते हैं। आगे चलकर हम देखते हैं, जब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास आंगन में महाप्रकाश लीला की, उन्होंने केवल मुकुंद को छोड़कर समस्त भक्तों पर कृपा की क्योंकि मुकुंद कभी-कभी अपनी चर्चाओं में भक्ति को ज्ञान और कर्म को एक साथ में, एक ही स्तर पर रखने लगे थे। मुकंद जब भक्तों के बीच में रहते हैं, तब भक्ति के गुणों का वर्णन करते थे। निर्विशेषवादियों के साथ में ज्ञान, योग विशिष्ट आदि की चर्चा करते थे। इसलिए महाप्रभु ने उनका परित्याग किया। समस्त भक्तों ने मिलकर महाप्रभु से पूछा कि हे महाप्रभु! मुकुंद को आपकी कृपा कब प्राप्त होगी। तब महाप्रभु ने कहा लाखों-करोड़ों जन्म के बाद में मुकुंद को मेरी कृपा प्राप्त होगी। जैसे ही मुकुंद को यह समाचार प्राप्त हुआ कि करोड़ों जन्म के बाद महाप्रभु उस पर कृपा करेंगे, वह आनंद के मारे नाचने व झूमने लगे कि करोड़ों जन्म के बाद मुझे कृपा मिलेगी। मुझे कृपा मिलेगी। लाखों वर्ष के बाद मुझे कृपा मिलेगी, ऐसा वे बार-बार कह कर आनंदित हो रहे थे। यह मुकुंद की निष्ठा थी जिसे देखकर महाप्रभु का हृदय द्रवीभूत हो गया। चूंकि मेरे शब्दों के प्रति, तुम्हारा इतना दृढ़ निष्ठा और विश्वास है। इस विश्वास के कारण तुम्हारे द्वारा पूर्व में भी जितने भी अपराध हुए हैं। वे समस्त मैंने माफ कर दिए हैं, चैतन्य महाप्रभु ने क्षण मात्र में ही समस्त अपराधों को माफ कर दिया। भक्ति के प्रति उनकी दृढ़ निष्ठा को देखकर सब अपराधों को माफ कर दिया। हालांकि देखा जाए तो लाखों वर्ष नहीं कहा गया था, लाखों जन्म कहा गया था परंतु फिर भी मुकुंद की जो निष्ठा थी कि कम से कम लाखों जन्मों के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब भगवान मुझ पर कृपा करेंगे। इसी एक शब्द से उन्हें आनंद प्राप्त हुआ। वही मुकुंद, श्रीकृष्ण की लीला में मधुकंठ नाम के एक गोप है। मधुकंठ, उन्हें इसीलिए कहा जाता है क्योंकि मधु का मतलब शहद होता है, वैसे ही मधु कंठ वह है जिसका कंठ शहद की तरह मीठा है।
एक दिन मुकुंद, गंगाधर पंडित के पास गए और फिर उन्होंने कहा कि आज मैं आपको बहुत अच्छे वैष्णव से मिलवाऊंगा। गदाधर पंडित ने जब मुकन्द से सुना तो वे बहुत बहुत प्रसन्न हो गए। गदाधर पंडित ने जब सुना कि बहुत महान वैष्णव से मिलना है, वे बहुत प्रसन्न हुए। गदाधर पंडित कहने लगे कि कृष्ण! कृष्ण!
तत्पश्चात मुकुंद, गदाधर पंडित को पुंडरीक विद्यानिधि के स्थान पर ले कर गए। उस समय पुंडरीक विद्यानिधि अपने कक्ष में शयन कर रहे थे। तब मुकुंद ने उन्हें प्रणाम किया, उस समय पुंडरीक विद्यानिधि ने मुकन्द से पूछा कि यह जो नए भक्त को लेकर आए हो, उनका क्या नाम है? तब मुकुंद ने कहा कि इनका नाम गदाधर है। गदाधर की विशेषता यह थी कि इन्हें बाल्यावस्था से ही किसी भी सांसारिक भौतिक विषयों में कोई भी रुचि नहीं रही हैं। गदाधर पंडित भी सभी भक्तों को बहुत प्रिय थे। वह केवल और केवल भक्ति योग का अनुशीलन कर के केवल भक्तों के संग में ही सदैव रहते थे। जब इन्होंने आपका नाम सुना तो आप से भेंट करने के लिए यहां पर आए हैं। तब पुंडरीक विद्यानिधि बहुत ही मधुर वचन में गदाधर पंडित से बात करने लगे परंतु उस समय गदाधर को ब्राह्य रूप से पुंडरीक विद्यानिधि का भौतिक विलासमय वेश ही दिखा। वे बड़े महंगे वस्त्रों व बड़े महंगे बिस्तर पर लेटे हुए थे। सामने एक ट्रे में सुपारी रखी हुई थी और वे सुपारी खाते हुए मुस्कुरा रहे थे। उनके पीछे कुछ सेवक थे,जो मोर पंख से उनको हवा दे रहे थे। उनके मस्तक पर बहुत सुंदर वैष्णव तिलक था।पुंडरीक विद्यानिधि के केश बहुत ही सुंगंधित अम्लाकी तेल से सुशोभित थे। जैसे किसी राजा का विलासमय जीवन होता है, वैसे ही वे राजसी वेश में ठाट बाट पर वहां उच्च आसन पर बैठे हुए थे। प्रारंभ से अथवा जन्म से गदाधर पंडित ने विरक्त ब्रह्मचारी जीवन का पालन किया था। उनके मन में पुंडरीक विद्यानिधि के बाह्य वेश को देखकर थोड़ा संशय आ गया।
हालांकि पुंडरीक विद्यानिधि बहुत ही महान भक्त थे। भक्ति की बहुत उच्च अवस्था में थे परंतु ब्राह्य रूप से वे बहुत भौतिकवादी विलासी व्यक्ति के समान प्रतीत हो रहे थे। ऐश्वर्यमय और भोग विलास आदि में लगे हुए थे । उनकी ऐश्वर्यमय वेशभूषा थी। गदाधर पंडित ने पुंडरीक विद्यानिधि का जब पहले नाम सुना था तो उनके प्रति कुछ श्रद्धा थी लेकिन उनकी वेशभूषा देखकर उनका श्रद्धा और विश्वास कम होने लगा। मुकुंद तुरंत समझ गए कि गदाधर पंडित के मन में पुंडरीक विद्यानिधि को लेकर मन में कुछ संशय उठ रहा है। तुरंत मुकंद ने ऐसा कुछ विशेष कार्य किया जिससे पुंडरीक विद्यानिधि की उच्च कोटि की भक्ति का प्रकाश गदाधर पंडित के समक्ष हो सके। उस समय मुकन्द ने तुरंत श्रीमद्भागवत के श्लोकों का गान प्रारंभ किया। मुकंद ने श्रीमद्भागवत का प्रसिद्ध श्लोक गाया जिसके अंदर कहा जाता है किस प्रकार पूतना राक्षसी अपने स्तनों पर कालकूट विष लगाकर श्रीकृष्ण को मारने आई थी। ऐसे पूतना को भी जो श्रीकृष्ण को विषपान कराने आई थी, उनको भी श्रीकृष्ण ने अपनी माता की गति प्रदान की। कितनी अद्भुत लीला है कि पूतना जो कि बकासुर की बहन है, वह अपने स्तनों पर विष लगा कर श्रीकृष्ण को मारने के लिए आई थी परंतु श्रीकृष्ण ने उस पर भी कृपा की। जब यह श्रीकृष्ण की दयालुता, भक्त वत्सलता का वर्णन पुंडरीक विद्यानिधि ने सुना। तब भगवान की महिमा का वर्णन सुन कर वे जोर जोर से क्रन्दन करने लगें, तुरंत ही पुंडरीक विद्यानिधि के नेत्रों से उस समय आनंदमय अश्रुओं की बौछार होने लगी। वे झूमने लगे, आनंदित होकर नाचने व गाने लगे। सभी प्रकार के अष्ट सात्विक विकार उत्पन्न होने लगे। रोने लगे, कंपन होने लगा, रोमांचित व स्तंभित होने लगे। मुकुंद से कहने लगे कि मुझे श्रीकृष्ण के विषय में और कहो, और कहो, और कहो। उस समय वह जमीन पर लौटने लगे, जितनी भी महंगी वस्तुएं थी सभी को लात मारकर तोड़ने लगे।
कोई भी उनके इस भाव को रोक नहीं पा रहा था।जितने भी सोने चांदी के महंगे बर्तन इत्यादि थे,उनको दूर-दूर फेंक दिया। जिससे वे टूट गए। यहां तक कि वह जिस सिंहासन पर बैठे थे, वह सिंहासन भी नीचे गिर गया। इतना ही नहीं श्रीकृष्ण के प्रति ऐसा भावावेश आया कि अपने हाथों से ही जो अपने महंगे रेशमी वस्त्र आदि पहने हुए थे, वे उन सबको फाड़ने लगे। उस समय में जमीन पर लौटने लगे। सुगंधित तेल से उन्होंने अपने केशों को सुशोभित किया था, वे केश पूरी तरह से बिखर गए। वे जोर जोर से चिल्लाने लगे- कृष्ण! मेरे प्राण धन! कृष्ण! मेरे जीवन! उस विशेष विरह अवस्था में वे जोर जोर से कृष्ण के लिए रोने लगे। केवल भागवत के श्लोक का श्रवण करने मात्र से पुंडरीक विद्यानिधि की ऐसी अवस्था हो गई। इतना ऊंचा उठने का भाव था कि दस दस बलवान व्यक्ति मिलकर पुंडरीक विद्यानिधि को पकड़ने का प्रयास कर रहे थे लेकिन वे अपने प्रयास में असफल हुए। उस समय वहां जितने भी बर्तन आदि वस्तुएं रखी थी, हवा में फैकें जाने लगी। इस प्रकार से उन्होंने अपनी दिव्य अवस्था का प्रकाश किया। अत: वे अचेतन अवस्था में गिर पड़े। कोई भी बाह्य जीवन के लक्षण उनमें प्रतीत नहीं हो रहे थे क्योंकि पुंडरीक विद्यानिधि आनंद के समुंदर में पूरी तरह निमग्न हो चुके थे। जब ऐसा भक्ति का प्रकाश देखा तो गदाधर पंडित आश्चर्यचकित और विस्मित हो गए। उस समय गदाधर पंडित ने मन में विचार किया कि मन में ही चाहे, पर इतने उच्च कोटि वैष्णव के प्रति मैंने मन में गलत भावना लेकर बहुत बड़ा वैष्णव अपराध किया है।
फिर गदाधर पंडित, आनंद का अनुभव करते हुए मुकुंद का आलिंगन करते हैं और कहते हैं कि हे मुकुंद! आज तुमने सही वास्तविक मित्र की भूमिका निभाई है। केवल तुम्हारे कारण ही मैं आज समझ पाया हूं कि पुंडरीक विद्यानिधि किस उच्च कोटि के महान भक्त हैं। त्रिभुवन में तीनों लोकों में पुंडरीक विद्यानिधि जैसा वैष्णव कोई नहीं है। आज तुम्हारी कृपा से ही मुझ से जो एक बहुत बड़ा अपराध वैष्णव के प्रति होने वाला था, उससे मैं बच गया। प्रारंभ में मैंने विचार किया था कि ये इंद्रिया तृप्ति के प्रति आसक्त हैं परंतु तुमने वास्तव में मुझे पुंडरीक विद्यानिधि की उस दिव्य अवस्था को दर्शाया है।
मैंने पुंडरीक विद्यानिधि के चरणों में बहुत बड़ा अपराध किया है। अब मुझे उस अपराध का निवारण करना ही होगा। मेरे अभी तक कोई गुरु नहीं है। मैं पुंडरीक विद्यानिधि को अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्वीकार करता हूं और मैं उनसे मंत्र स्वीकार करूंगा। अगर मैं उनका शिष्य बन जाता हूं तो ही मेरे अपराध का खंडन हो सकता है। उस समय गदाधर पंडित ने अपनी इच्छा प्रकाशित की कि मैं पुंडरीक विद्यानिधि से दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूं। अतः मुकन्द ने कहा – साधु साधु! साधु! साधु! बहुत सुंदर !बहुत सुंदर!
पुंडरीक विद्यानिधि जो अपनी बाह्य चेतना को भूल चुके थे, वह मूर्छित हो गए थे। 6 घंटे बाद उनकी मूर्छा वापिस आई और वे बाह्य चेतना में आए, वे अत्यंत आनंदित थे। तब मुकुंद ने पुंडरीक विद्यानिधि को बतलाया कि आपके बाह्य अवस्था को देखकर गदाधर पंडित के मन में पहले कुछ अपराध भावना आई थी परंतु आप के भक्ति प्रकाश को देखकर वह अपने अपराध का निवारण करना चाहते हैं और आपके द्वारा मंत्र प्राप्त करके, दीक्षा लेना चाहते हैं।
तब मुकुंद ने कहा कि पुंडरीक विद्यानिधि और गदाधर पंडित, गुरु और शिष्य की बहुत ही अच्छी जोड़ी है। मुकुंद की यह बहुत सुंदर लीला है कि कैसे गदाधर पंडित पुंडरीक विद्यानिधि के शिष्य बने हैं।
साथ में ही हम केशव कश्मीरी के विषय में थोड़ा सा कुछ श्रवण करेंगे।
पुंडरीक विद्यानिधि ने गदाधर पंडित को स्वीकार कर लिया। पुंडरीक विद्यानिधि कहते हैं कि मेरे कई जन्मों का स्वीकृति या पुण्य है, जिसका फल है कि मुझे आज गदाधर पंडित जैसा शिष्य प्राप्त हुआ है।
नवद्वीप संपूर्ण विश्व में विद्वान पंडितों के लिए विख्यात था। वहां पर कई ऐसे भक्त भी थे जो चैतन्य महाप्रभु से विद्या अर्जित कर आनंद का भी आस्वादन कर रहे थे।
उस समय एक उच्च विद्वान थे जो नवद्वीप में आए जिन्हें दिग्विजय भी कहा जाता है क्योंकि वह समस्त दिशाओं में जाकर अपनी विद्वत्ता को स्थापित कर रहे थे। वे देवी माता सरस्वती के महान भक्त थे। वे सरस्वती देवी के मंत्र का जप करते थे। उन्होंने देवी सरस्वती की कृपा को प्राप्त किया था। माता सरस्वती वैसे लक्ष्मी का ही एक स्वरूप है, लक्ष्मी माता सदैव भगवान नारायण के वक्षस्थल पर विराजमान रहती है। लक्ष्मी देवी संपूर्ण जगत की जननी है और भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप है। माता सरस्वती दिग्विजय की आराधना से प्रसन्न हुई थी और उसके सामने प्रकट होकर वरदान दिया था कि संपूर्ण तीनों लोकों में सदैव तुम्हें विजय प्राप्त होगी। माता सरस्वती से वर प्राप्त कर के वह भिन्न-भिन्न स्थानों पर भ्रमण करने लगा व लोगों को परास्त करने लगा। समस्त शास्त्र उसकी जिव्हा पर थे। कोई भी उसे चुनौती नहीं दे सकता था। अलग-अलग स्थानों पर जाकर उन्होंने कई बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया था।
अंततः दिग्विजय ने नवद्वीप की महिमा को भी सुना। दिग्विजय बहुत बड़े ऐश्वर्य के साथ में नवद्वीप में पहुंचे, घोड़े- हाथी सभी उनके साथ में थे। उस समय नवद्वीप के ब्राह्मण थोड़े चिंतित है क्योंकि इस दिग्विजय ने समस्त दिशाओं में सभी स्थानों को जीत लिया था और अब वह नवद्वीप को परास्त करने आया था। वह अपने साथ विजय पत्र अर्थात प्रमाण पत्र लेकर घूम रहा था। वैसे नवद्वीप भी अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध था। नवद्वीप ने भी कई स्थानों के लोगों को परास्त किया था। यदि यह दिग्विजय, नवद्वीप के पंडितों को भी परास्त कर देता तो फिर नवद्वीप की महिमा धूमिल हो जाती क्योंकि दिग्विजय को सरस्वती माता ने अपना वरदान प्रदान किया था। सरस्वती स्वयं जिसकी जिव्हा पर वास करती हो, संसार का कौन व्यक्ति उसे परास्त कर सकता है। इसलिए नवद्वीप के जो पंडित थे, उनके हृदय में चिंता होने लगी। कई विद्यार्थियों ने आकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को दिग्विजय के बारे में बताया। महाप्रभु ने कहा – सुनो! सुनो! पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कभी भी किसी व्यक्ति के अभिमान को सहन नहीं करते।
यदि किसी भी व्यक्ति में अहंकार आ जाता है तो भगवान उसके अंहकार का नाश करते हैं। जिस प्रकार से एक वृक्ष फलों से भरा रहने पर स्वाभाविक रूप से झुक जाता है वैसे ही सद्गुणों से युक्त व्यक्ति नम्र होता है।
तब महाप्रभु ने पूर्व के रावण आदि राजाओं के कई उदाहरण दिए, जिन्होंने समस्त दिशाओं को जीत लिया था। उनका अहंकार चकनाचूर हो गया, भगवान कभी भी किसी अहंकार को रहने नहीं देते।
आप देखोगे कि शीघ्र ही भविष्य में इस पंडित का अहंकार भी भगवान कैसे दूर करेंगे।
उसी समय दिग्विजय सामने से आने लगा बहुत ही शीघ्रता से, बहुत ही विद्वतापूर्ण शब्दों से वह कहने लगे कि इस संसार के किसी व्यक्ति में सामर्थ्य है जो दिग्विजय के शब्दों को भी पकड़ ले। जैसे बिजली का वेग होता है वैसे ही उनके जिव्हा से काव्य स्फुरित होने लगा। किस मनुष्य में सामर्थ्य था कि दिग्विजय के शब्दों में कोई दोष और त्रुटि देख सके।
उनमें दोष देखना तो दूर की बात रही, उनको समझने का भी सामर्थ्य साधारण मनुष्य में नहीं था। वहां पर हजारों की संख्या में जितने विद्यार्थी थे, वह उस दिग्विजय पंडित की बातों को सुनकर विस्मित हो गए। कुछ तो ऐसा कहने लगे क्या किसी साधारण मनुष्य में इतना सामर्थ्य है जो ऐसी बातों को कह सके। शब्द, अलंकार, व्याकरण से युक्त इतनी सुंदरमय रचना कोई भी साधारण मनुष्य नहीं कर सकता।
धाराप्रवाह, अखंडित रूप से दिग्विजय 3 घंटे ऐसे बोलते रहे। उस समय जैसे ही दिग्विजय ने विराम दिया, उसी समय श्री चैतन्य महाप्रभु मुस्कुराने लगे और चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि आपने जो कुछ कहा है, आप उसे भली-भांति अवश्य अच्छे से समझाइए। जब दिग्विजय पंडित बोलना प्रारंभ ही कर रहे थे तभी उसी समय महाप्रभु ने उन्हें बीच में टोक दिया।
उन्होंने कहा आपकी इस रचना में तीन दोष हैं। प्रारंभ में एक है, मध्य में एक है, अंत में एक है। अब आपके पास उसका क्या उत्तर है?
जब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने वह दोष बताएं तब ब्राह्मण एकदम अचंभित हो गया। आज तक पूरे संसार में उनके जीवन में कभी किसी ने उनका खंडन नहीं किया था, किसी ने टोका नहीं था। वहां पर उस समय जब गंगा नदी के तट पर चर्चा हो रही थी तब श्रीचैतन्य महाप्रभु उन्हें और अधिक लज्जित नहीं करना चाहते थे। गंगा नदी के तट पर वास्तविक रूप से दिग्विजय पंडित ने गंगा माता की महिमा का बखान करने के लिए हजारों श्लोकों की तत्क्षण रचना की थी। बहुत ही तीव्रता अर्थात बहुत ही तेजी से उन्होंने कई श्लोकों में गंगा माता की महिमा को गाया था। महाप्रभु ने कहा 56 नंबर की संख्या का जो श्लोक है, उसमें कुछ त्रुटि है।
दिग्विजय एकदम आश्चर्यचकित हो गए। मैनें इतनी तेजी से कहा कि मुझे भी ध्यान नहीं रहा, कौन सी संख्या कौन सा श्लोक था। इस व्यक्ति ने इतनी जल्दी श्लोक की संख्या को कैसे पकड़ लिया।
56 नंबर के श्लोक में शिवजी को सम्बोधित करते हुए एक शब्द आया था-भवानी भर्तु:। भवानी, भव का अर्थ शिवजी और शिवजी की पत्नी मतलब पार्वती, पार्वती को संबोधित करते हुए भवानी शब्द आता है। भर्तु: का अर्थ होता है पति, ऐसा प्रतीत होता है कि शिवजी की पत्नी का पति। ऐसा लग रहा है जैसे दो अलग-अलग पति हैं।उस शब्द का अर्थ हुआ- शिव की पत्नी का पति।
उस शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि पार्वती के दो पति हैं। अलंकार में काव्य रचना में भी ऐसे शब्दों का पुनरावृति नहीं की जाती। चैतन्य महाप्रभु व्याकरण के एक साधारण से पंडित थे क्योंकि वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान थे। कौन था जो भगवान को प्राप्त कर सकता था। दिग्विजय पंडित अचंभित हो गए, आश्चर्यचकित हो गए। निशब्द हो गए उनके मुख से एक भी शब्द नहीं निकल रहा था। महाप्रभु ने उसके अहंकार को चकनाचूर कर दिया।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हमें समय के अभाव में इस लीला को पूर्ण नहीं कर पा रहे परंतु आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*09 -03 -2022*
*भगन्नाम की महिमा*
(श्रीमान अनंत शेष प्रभु द्वारा)
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हरे कृष्ण सर्वप्रथम में गुरु महाराज के श्री चरणों में दंडवत प्रणाम करता हूं तथा समस्त वैष्णव भक्तों के चरणों में दंडवत प्रणाम करता हूं। जैसा कि सभी भक्त नवद्वीप का दर्शन कर ही रहे थे। जैसे कि श्री गौरांग महाप्रभु की महिमा का वर्णन हम कल कर ही रहे थे तो उसी के अंतर्गत हम आगे की चर्चा को करेंगे। देखते हैं समय के अनुसार कितना कवर कर पाते हैं। कल जहां हमने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता के विषय में जो श्रवण किया कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं राधा कृष्ण का ही जुगल रूप है और प्रछन्न अवतार है। भक्ति तथा शास्त्र प्रमाण के विषय में हमने चर्चा की थी कैसे उन्होंने बाल रूप में चिन्हों को प्रकट किया लीला प्रमाण और अंततः शास्त्र प्रमाण को हम देख रहे थे उसके अंतर्गत अंतिम जो भाग शेष रहा था चैतन्य महाप्रभु के विषय में केवल नाम ही नहीं बल्कि उनकी जन्मतिथि के विषय में भी शास्त्रों में वर्णन होता है विश्वसार तंत्र में दिया गया है।
*गंगाया दक्षीणे भागे नवद्वीपे मनोरमे कलि पापे विनाशये शचि गर्भे सनातनि*
कली के पापों का नाश करने के लिए गंगा के दक्षिण भाग में नवदीप में भगवान प्रकट होंगे जगन्नाथ मिश्र के निवास स्थान पर फाल्गुन पूर्णिमा की तिथि को तो इसी तरह के कई प्रमाण हैं और भी वायु पुराण में भी इस बात को बताया गया है कि ब्राह्मण के रूप में वे जन्म लेंगे। उनके घर में सन्यास रुप को धारण करेंगे और उनका नाम होगा श्रीकृष्ण चैतन्य। भगवतम के ही एकादश स्कंध का यह प्रसिद्ध श्लोक है तीन आचार्यों ने इसकी तीन प्रकार से व्याख्या की है।
*त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मी धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् । मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद् वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥*
(श्रीमद भागवतम ११.५.३४ )
अनुवाद – हे महापुरुष, मैं आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ। आपने लक्ष्मी देवी तथा उनके सारे ऐश्वर्य का परित्याग कर दिया, जिसे त्याग पाना अतीव कठिन है और जिसकी कामना बड़े बड़े देवता तक करते हैं। इस तरह धर्मपथ के अत्यन्त श्रद्धालु अनुयायी होकर आप ब्राह्मण के शाप को मान कर जंगल के लिए चल पड़े। आपने मात्र अपनी दयालुतावश पतित बद्धजीवों का पीछा किया, जो सदैव माया के मिथ्या भोग के पीछे दौड़ते हैं और उसी के साथ अपनी वांछित वस्तु भगवान् श्यामसुन्दर की खोज में लगे भी रहते हैं।
एक श्लोक की व्याख्या को बतलाया जाता है यह जो वंदना है यह प्रभु रामचंद्र के लिए की गई है। दूसरा अर्थ जो बतलाया गया है वह भगवान श्रीकृष्ण के लिए बताया गया है और तीसरा अर्थ वह श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में है उन महाप्रभु के चरणों में हम वंदना करते हैं। त्यक्त्वा जिन्होंने त्याग किया, किस का त्याग किया है ? *सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मी* जो अत्यंत कठिन है, कौन सा? राज्य लक्ष्मी का अर्थ यहां पर बतलाया जाता है नवद्वीप धाम, यह नवद्वीप धाम सुरेप्सित मतलब देवतागण, देवता जिस धाम में वास करने के लिए लालायित होते हैं उस धाम का त्याग किया। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने धर्मिष्ठ, धर्मिष्ठ मतलब कलयुग का युग धर्म हरि नाम संकीर्तन उन्होंने पालन किया और आर्यवचसा मतलब ब्राह्मण के वचन का पालन करते हुए, जहां प्रभु श्री रामचंद्र के अर्थात दशरथ के विषय में और चैतन्य महाप्रभु के विषय में जब श्रीवास के आंगन में महाप्रभु संकीर्तन कर रहे थे तब बताया जाता है कि एक ब्राह्मण को जब प्रविष्ट नहीं हुआ तो उन्होंने कहा कि यह शचिनंदन गौर हरी है यह अपने संकीर्तन में प्रविष्ट नहीं होने देता। मैं इसे श्राप देता हूं कि यह भौतिक जीवन गृहस्थ जीवन से विहीन हो जाए तो बताया जाता है कि उन्हीं शब्दों का पालन करते हुए और एक अर्थ में अद्वैत आचार्य ने बतलाया यहां अरण्य मतलब जगन्नाथपुरी जो वृंदावन धाम से अभिन्न है उसको यहां पर अरण्य कहा गया है मतलब श्रीचैतन्य महाप्रभु उस देवताओं के धाम अर्थात नवद्वीप का त्याग करते हुए भक्तों के कहने पर नीलांचल में जगन्नाथ पुरी में वास किया किसलिए *मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्* मायामृगं मतलब कलयुग के वे जीव जो बद्ध हैं उनके ऊपर दया दिख लाने के लिए उनके पीछे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दौड़ पड़े हैं ऐसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणो में वंदना करते हैं। अंततः इन श्लोकों के तात्पर्य में यह बतलाया जाता है क्योंकि चैतन्य महाप्रभु श्री रामचंद्र और भगवान श्रीकृष्ण यह तीनों को इंगित करता है लेकिन षड्भुज गौरांग जोकि चैतन्य महाप्रभु का रूप है उनकी वंदना के रूप में भी इसे कहा जाता है
उर्धव मानव संहिता के अनुसार ,
यह कहा गया है वयोवस पतान्तते ब्राह्मण कली के प्रारंभ में गंगा तीर्थ पर ब्राह्मण परिवार में श्रीचैतन्य महाप्रभु प्रकट होंगे हरि नाम तदा दत्वा हरि नाम को प्रदान करेंगे लाखों लोगों को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य चांडाल सभी का उद्धार करेंगे उनका स्वर्ण कलेवर होगा और वे सभी का उद्धार करेंगे और अंत में बताया गया है कि वह सन्यास को धारण करेंगे यहां पर एक कांचन ग्राम है नीलांचल के लिए कांचन ग्राम बताया गया है शायद एक बार कह रहे थे।
गरुड़ पुराण के अनुसार –
एक बहुत सुंदर वर्णन है उन चैतन्य महाप्रभु के विषय में बताया गया है जो वृंदावन में गोपियों के साथ विहार करते हैं हे भगवान जिन्होंने कंस का संहार किया और पांडवों के सखा बनके और उनके विरुद्ध उन्होंने युद्ध किया युद्ध भूमि पर वही भगवान जिन्होंने वृंदावन में गोपियों के साथ विहार किया, जिन्होंने कंस का संहार किया और जो पांडवों के सखा के रूप में पार्थ सारथी बने हैं वही भगवान वैष्णव दंड कौन सा आभूषण है उनका, वैष्णव दंड को उन्होंने धारण किया है।
वही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में धरातल पर प्रकट हुए हैं
गौरी क्यों कहा जाता है गौरी प्रिया श्रीमती राधारानी है और हरी कृष्ण का ही नाम है तो जब राधा और कृष्ण युगल रूप में आए हैं इसलिए उनको गौर हरी कहा जाता है श्री शचि नंदन गौर हरि की जय ! क्या करेंगे भगवान ?
चैतन्य उपदेशामृत के अनुसार
*स्वनाम मूल सर्वेण सर्वं आल्हाद विभू* अपने नाम के मूल रूप में वे आल्हादित करेंगे सिर्फ भगवान उस मंत्र का जप करेंगे, यह कौन सा मंत्र होगा हरि इति कृष्ण इति राम इति हरे कृष्ण और राम यह तीन मंत्रों से वह अपने नाम का जप करेंगे जीव गोस्वामी का यह प्रसिद्ध श्लोक है जो इस संदर्भ में उद्धृत करते हैं अंतः कृष्ण बहिर गौर यह आपने कई बार गुरु महाराज के मुख से श्रवण किया होगा जो की भीतर से कृष्ण हैं और बाहर से गौर स्वरूप में है और कलयुग में संकीर्तन के द्वारा हम उनका आश्रय ग्रहण करते हैं।
*राधा-कृष्ण एक आत्मा, दुइ देह धरि । अन्योन्ये विलसे रस आस्वादन करि’ ।।* (चैतन्य चरितामृत )
अनुवाद- राधा तथा कृष्ण एक ही हैं, किन्तु उन्होंने दो शरीर धारण कर रखे हैं। इस प्रकार वे प्रेम-रस का आस्वादन करते हुए एक-दूसरे का उपभोग करते हैं।
यहां कृष्णदास कविराज गोस्वामी के श्लोक की व्याख्या में बतलाया जाता है कि राधा कृष्ण एक ही हैं किंतु रसविलास के लिए वह दो का रूप धारण करते हैं और वही आगे चलकर
*सेइ दुइ एक एबे चैतन्य गोसाइं। रस आस्वादिते दोंहे हैला एक-ठाङि ।।* (चैतन्य चरितामृत )
अनुवाद- अब वे रसास्वादन हेतु श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में एक शरीर में प्रकट हुए हैं।
पहले एक से वह दो हुए फिर पुनः वह चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होकर वह एक हुए इस तरह का प्रमाण कविराज गोस्वामी बतला रहे हैं यह प्रसिद्ध है। जब मीराबाई का आगमन हुआ था वृंदावन में जीव गोस्वामी से जब उनकी भेंट हुई तब उस समय में ही यह बताया जा रहा है उन्होंने जब श्रीचैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का श्रवण किया जीव गोस्वामी से तब उन्होंने अपने साक्षात्कार इस पद में लिखे हैं।
*अब तो हरि नाम लौ लागी,
सब जगको यह माखनचोरा, नाम धरयो बैरागी॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी।
मड़ू मड़ुाइ डोरि कटि बांधी, माथेमोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन-कारन, बांधेजाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चतैन्य जाको नांव॥
पीतांबर को भाव दिखावे, कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बस॥
वह समझ गई की वही गिरधारी गिरिराज जी जिन को कहते हैं श्याम सुंदर हैं जिन्होंने वैरागी रूप धारण किया है। समझ लो मुरली को त्याग दिया है और गोपियों के साथ विहार भी त्याग दिया और अपना सिर मुंडन करके वे सन्यास को धारण किए हैं यशोदा मैया जिनको माखन के कारण ऊखल से बांधती हैं वही अभी गौर बने हैं और उनका नाम चैतन्य हुआ है जो पीतांबर धारण करते हैं वृंदावन में वही श्रीकृष्ण अभी संन्यास वेश को धारण किए हैं।
ऐसा ही चैतन्य चंद्राव्रत के अनुसार – जहां पर वह कहते हैं पहले जो यमुना नदी के तट पर वृंदावन में विहार करते थे वही उस स्थान को त्याग कर अब कहां आए हैं लवणम बुद्धिम मतलब, समुद्र के तट पर श्री जगन्नाथ पुरी में उस नीलांचल में वे वास कर रहे हैं। जो पीतांबर का त्याग किए हैं अरुणपट अरुण मतलब लालिमा युक्त पट मतलब वस्त्र , उन्होंने संन्यास वेश को धारण किया है और उन्होंने अपने रूप को तिरोहित किया है मतलब श्याम सुंदर रूप को तिरोहित करके गौरी, गौरी मतलब श्रीमती राधारानी के रूप को प्रकाशित किया है। वर्ण को प्रकाशित किया है चैतन्य चरितामृत में भी ऐसे ही भाव को वर्णित किया है और साथ में जब चैतन्य महाप्रभु प्रकट हो गए तब चैतन्य महाप्रभु एक ही रूप में प्रकट नहीं होंगे बल्कि तीन रूपों में प्रकट होकर कलि काल के बद्ध जीवों का उद्धार करने के लिए हुए, उसको चैतन्य भागवत में भी वर्णन किया जाता है स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब सन्यास लिया और अंततः जब वे अपनी मां से मिले हैं बताया जाता है कि वहां पर भी इस बात को कहा है
*एइ माता तुमि अमारा माता जन्मे जन्मे। तोमार अमारा कबहुँ त्यागा नाही मर्मे।।* (चैतन्य भगवत मध्य) 27.49
हे माता आपका और मेरा संबंध तो नित्य है शाश्वत है हम कभी अलग नहीं होते जब मैं राम के रूप में आया तब आप कौशल्या के रूप में आई जब मैं कृष्ण के रूप में आया तब आप यशोदा के रूप में आयी हैं और कलिकाल में बता रहे हैं।
*मोर अर्चा मूर्ति तुमि से धरणी जिह्वा रूपा तुमि माता नामेरा जननी* (चैतन्य भगवत मध्य) 27.48
आपको शोक हो रहा है कि मैं संन्यास लेकर आपसे दूर जा रहा हूं परंतु मैं और जो 2 अवतार यहां पर ले रहा हूं जिन 2 अवतारों में मैं सदैव आपके साथ रहूंगा। कौन से दो अवतार हैं ? एक है विग्रह अवतार श्रीचैतन्य महाप्रभु का “विग्रह अवतार” और दूसरा है “नाम अवतार” कलयुग में कलि काले नाम रुपे कृष्ण अवतार गौरांग महाप्रभु नाम के रूप में और विग्रह के रूप में विराजमान रहते हैं। भगवान जो विग्रह के रूप में आते हैं तो विग्रह को जहां स्थापित किया जाता है वह शचि माता का स्वरूप कहां गया है और जिस जिव्हा पर गौरांग महाप्रभु का नाम उच्चारित किया जाता है वह जिव्हा को भी सच्ची माता का स्वरूप कहा जाता है। हे माता इस दो रूपों में संकीर्तन आंदोलन का जब प्रारंभ होगा तब मैं इन दो रूपों में सदा आपके साथ रहूंगा आप बिल्कुल शोक ना करें।
*करो दुइ जन्मा एइ संकीर्तनारम्भे हाइबा तोमार पुत्र अमि अविलम्बे* (चैतन्य भगवत मध्य) 27.47
हम देखते हैं श्रील प्रभुपाद के अनुग्रह से संपूर्ण जगत में हम श्री गौर निताई गौरांग महाप्रभु के विग्रह जहां-जहां प्रकट हो रहे हैं और चैतन्य महाप्रभु के नाम का भी सर्वत्र नाम प्रकट हो रहा है और यह जो वास्तविक नाम प्रकट हुआ है या अवतार लिया है तो यह कहां से प्रकट हुआ है ?
लघु भागवतामृत में कहते हैं श्रीचैतन्य महाप्रभु का अवतार जो इस कलिकाल में हुआ है एक विशेष महामंत्र है जैसा कि कल हम इस बात को कह रहे थे। यह ध्यान में रखना चाहिए विशेष रूप से आप भारत में देखते हैं यह मंत्र भले ही उल्टे प्रकार से लिया जाए *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* ऐसे लेते हैं परंतु भारत में महाराष्ट्र में यह मंत्र बहुत प्रचलित है लगभग महाराष्ट्र में तो प्रत्येक आरती के अंत में इस महामंत्र को कहा जाता है परंतु उस मंत्र में और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन के इस मंत्र में बहुत बड़ा अंतर है क्योंकि यहां जो मंत्र है हरे कृष्ण महामंत्र यह चैतन्य महाप्रभु के मुख से प्रकट हुआ है और इसकी विशेषता क्या है ?चैतन्य महाप्रभु के मुख से जो प्रकट हुआ है, महामंत्र है समस्त जगत को कृष्ण प्रेम में डुबो देता है यह विशेषता है इस महामंत्र की और व्यवहारिक रूप से यह देखा भी गया है। इस मंत्र का उच्चारण करने के लिए कई होते हैं परंतु सभी का अनुभव है जब हरे कृष्ण भक्त महामंत्र का कीर्तन करते हैं तो उनमें जो भाव प्रकाशित होते हैं उन्हें जो भक्ति का वर्धन होता है अन्यत्र पाया नहीं जाता है, इस तरह से यह हरे कृष्ण महामंत्र प्रकट होता है। यहां तक हमने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता के विषय में सुना है परंतु स्वयं भगवान भी “मैं चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होऊंगा इस बात की उन्होंने घोषणा की थी। ऐसे कौन से प्रमाण हैं तो यह वास्तव में चैतन्य मंगल में प्राप्त होते हैं जहां पर नारद मुनि जब द्वारका में जाते हैं और वहां पर जब माता रुक्मणी और द्वारकाधीश का दर्शन करते हैं और द्वारका में रुकमणी किस प्रकार से राधा रानी के भाव के रूप को बतलाती हैं कि वास्तव में राधा रानी के भक्तों का जो भाव होता है आपके लिए विरह में व्याकुल हो जाते हैं यह आप समझ नहीं सकते और उस समय जब नारद मुनि वहां पर आए तो तुरंत श्रीकृष्ण ने वहां पर घोषणा की, यह जो प्रेम का सुख मेरे भक्त लेते हैं वृंदावन के भक्त हैं मैं स्वयं भी उसका आस्वादन करूंगा और जगत को भी उसका आस्वादन करवाऊंगा। दैन्य भाव प्रकाश मैं वैष्णव के दैन्य भाव को प्रकाशित करूंगा। इस कलयुग में क्या कह रहे हैं द्वारकाधीश श्रीकृष्ण कि मैं भक्तों को साथ में लेकर भक्ति करूंगा अपने प्रेम को ईश्वर होते हुए भी मैं स्वयं वितरण करूंगा निज नाम संकीर्तन प्रकट करिबो और संकीर्तन को प्रकट करूंगा *नवद्वीप शची गृहे जन्म लगिभो शची माता के गृह* में मैं जन्म लूंगा बंगाली शब्द जब आप धीरे-धीरे पढ़ते हैं तो हिंदी और मराठी मैं जिस प्रकार समानता है उसी प्रकार यह समझे जा सकते हैं इसीलिए मैंने सभी के अनुवाद को यहां पर प्रकट नहीं किया है और कैसा उनका रूप रहेगा । श्रीकृष्ण कह रहे हैं मैं गौर वर्ण में रहूंगा दीर्घ कलेवर ऐसा प्रकांड मेरा शरीर होगा और अजान बाहू मेरे होंगे एकदम सुमेरु पर्वत की तरह, तेजस्वी मेरा सुंदर अति अनुपम रूप रहेगा और जैसे ही श्रीकृष्ण कहने लगे तत्क्षण क्या देखा नारद मुनि ने उसी क्षण श्रीकृष्ण ने पहली बार इस पृथ्वी पर भूतल पर श्रीकृष्ण ने तुरंत गौरांग महाप्रभु के रूप को प्रकट किया है, नारद मुनि अत्यंत आनंदित हुए हैं यह प्रथम महाप्रभु का प्रकाट्यी करण हुआ है द्वापर के अंत में। यहां पर भी हम देखते हैं कि श्रीकृष्ण प्रतिज्ञा लिए हुए थे कि मैं कलयुग में प्रकट हूंगा आगे चलकर यह प्रसिद्ध कथा है। कथा का जो मैंने अंतिम भाग लिया है जहां पर शिवजी नारद मुनि और कात्यायनी का जो प्रसंग है। महाप्रसाद की कथा, जो कि आप जानते होंगे नारद मुनि को प्रसाद प्राप्त हुआ और उन्होंने शिव जी को दिया और अंततः कात्यायनी देवी को जब प्रसाद प्राप्त हुआ तब उन्होंने तपस्या की और यह संकल्प लिया की कलि काल में समस्त जीवों को मैं भगवान नारायण का प्रसाद दिलवा दूंगी। वहां पर बतलाया जाता है कि नारायण अत्यंत प्रसन्न हुए हैं और भगवान प्रकट हुए हैं कात्यायनी देवी के सामने और उस वक्त जो वचन थे उसमें से एक भाग है कि मैं पृथ्वी पर प्रकट होऊंगा और विशेष लीला करके मैं करुणा को प्रसारित करूंगा। *कलि युगे विशेष्य* कलयुग में मैं संकीर्तन को प्रकट करूंगा मनुष्य रूप में प्रकट होकर *तनु हवे गोरा* मेरा गौर वर्ण रहेगा और तुम्हारी जो प्रतिज्ञा है प्रसाद का वितरण, जगन्नाथ पुरी धाम में प्रसाद का भी वितरण करवाऊंगा और उच्च कोटि के माधुर्य प्रेम का जो प्रचार है वह मैं करूंगा। मेरे हृदय की बात “हे कात्यायनी मैं तुम्हें बता रहा हूं” कृपया इस बात को अपने मन में छुपा कर रखना।
*सर्व अवतारा सार गौरा कली अवतार निस्तरीब लोक निज गोपनीय*
समस्त अवतारों का सार गौर अवतार है कलयुग में जो अपने गुणों के द्वारा समस्त जीवों का उद्धार करेंगे। यह कहां पर प्राप्त होता है >तो लोचन दास ठाकुर का संदर्भ भी दिया हैं। ब्रह्म पुराण केअनुसार –
विष्णु कात्यायनी में यह संवाद आता है महाराज प्रताप रूद्र ने उस समय 500 वर्ष पूर्व इसकी प्रतियां बनाई थी जो यह ब्रह्म पुराण संवाद है उत्कल खंड का जहां पर जगन्नाथ जी के प्रसाद का वितरण हुआ और श्री चैतन्य महाप्रभु प्रकट होंगे इसकी उन्होंने प्रतियां बनाकर वितरित की थी. ऐसा लोचन दास ठाकुर कह रहे हैं पहला प्रमाण चैतन्य मंगल से देखा जहां स्वयं द्वारकाधीश ने नारद मुनि को कहा दूसरा यहां विष्णु ने कात्यानी देवी से कहा है। वैसे ही जब गौरांग महाप्रभु प्रभु का दर्शन किया अंत में नारद मुनि ने तो वहां पर गौरांग महाप्रभु भी स्वयं इस बात को कहते हैं जब आध्यात्मिक जगत में पहुंचे जहां जहां पर उनका अभिषेक हो रहा था हे नारद मुनि ! जान लो मेरे हृदय में अभी प्रेम का जो प्रवाह उमड़ पड़ा है और मैं तुरंत जन्म लूंगा अपने प्रेम को देने के लिए, कैसा प्रेम दूंगा? मैं अत्यंत दुर्लभ इस प्रेम भक्ति को कलयुग के जीवो को देने वाला हूं और वहां पर भी वह कहते हैं चैतन्य महाप्रभु गंगा के तट पर जगन्नाथ मिश्र के घर पर मैं शचि माता के गर्भ से प्रकट होऊंगा , क्या विशेषता है ? अभी बहुत सुंदर श्री चैतन्य महाप्रभु का अन्य समस्त अवतारों से एक विशेष गुण यहां पर बतला रहे हैं गया है जो आगे भी मैं कुछ वर्णन करूंगा समय अगर रहा तो । अन्य अवतारों जैसा ही ये अवतार नहीं है अन्य सारे अवतार क्या करते हैं ?इस पृथ्वी पर आकर असुरों का संहार करते हैं अर्थात पहले कैसा वातावरण रहता था। पहले जो महाकाय महा असुर होते थे और उनके अस्त्र होते थे तब मैं भी अपने अस्त्र को धारण करता था और युद्ध भूमि पर उनका संघार किया जाता था परंतु कलयुग की क्या दुर्दशा है कलयुग में क्या है केवल असुर बाहर से नहीं है बल्कि वह सभी जीवो के हृदय में बैठ चुका है। अभी सुदर्शन चक्र और मेरी गदा काम नहीं करेंगी और युद्ध भूमि भी कहां रही , अब तो सर्वत्र असुर हो चुके हैं कौन सा उपाय है? तब चैतन्य महाप्रभु आगे कहते हैं।
नाम गुणों संकीर्तन वैष्णवर शक्ति प्रकाश करीबो आमि निज प्रेमी भक्ति
मैं ,नाम ,गुण, संकीर्तन ,भक्तगण, यह मेरे अस्त्र रहने वाले हैं और मैं कलिकाल में अपनी प्रेमा भक्ति को प्रकट करूंगा। अच्छा चैतन्य महाप्रभु अब असुरों का संहार कैसे करेंगे यह बड़ा प्रश्न है। नारद मुनि कह रहे हैं कि आप सभी देवताओं को लेकर के आगे प्रकट हुए है। अधिक विचार ना कीजिए यहां पर हम सदैव श्रील प्रभुपाद जी की वाणी सुनते हैं। सूत्र खंड में आता है चैतन्य मंगल में जहां पर स्वयं महाप्रभु कह रहे हैं। संकीर्तन रूपी तीक्ष्ण तलवार को मैं धारण करूंगा और अंतर में यह जो असुर है ह्रदय में जो वास करने वाला असुर है उनका मैं विनाश करूंगा। प्रश्न है कि जब चैतन्य महाप्रभु ने असुरों का विनाश किया ऐसे कई जीव हैं जो उस कृपा से वंचित हो गए जो चैतन्य महाप्रभु की कृपा के क्षेत्र से बाहर थे चैतन्य महाप्रभु की कृपा क्षेत्र के बाहर हो जो गुजरात में है जो महाराष्ट्र में है जहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कृपा पहुंच नहीं पाई ऐसे सभी जीवो के लिए कह सकते हैं क्या होगा मेरा सेनापति भक्त वहां पर जाएगा और इस नाम संकीर्तन को पहुंचाएगा। और क्या होगा वहां श्रील प्रभुपाद पहुंचेंगे तो सेनापति भक्तों के पहुंचने पर और ऐसा समय आने वाला है कि पूरा ब्रह्मांड जो है इस माधुर्य प्रेम में डूब जाएगा , हरि बोल ! फिर कोई दुख और शोक किंचित मात्र भी नहीं रहेगा किन को मैं डुबाउंगा केवल मनुष्यों को ही नहीं स्थावर जंगम और देवगढ़ भी इस प्रेम में डूब जाएंगे इस कलिकाल में, हरि बोल ! लोचन दास ठाकुर ने यह सुनकर आनंदित हो रहे हैं हरि बोल ! यह वार्ता तो तीनों लोकों में प्राप्त नहीं हो सकती वृंदावन धाम में प्रकाशित हो ,क्या करेंगे चैतन्य महाप्रभु ?कलयुग में वृंदावन का धन ब्रज का प्रेम सभी जीवो को देने वाले हैं। कैसा प्रेम है, जिसके विषय में लोचन दास ठाकुर कहते हैं शिव ब्रह्मा भी जिस प्रेम के लिए लालायित होते हैं याचना करते हैं कलयुग के एकदम अधम से अधम जीवो को भी जो ब्रह्मा और शिव भी जिस प्रेम का आस्वादन नहीं कर पाए बड़े से बड़ा भक्त भी पूर्व में जिस प्रेम का आस्वादन नहीं कर पाया वह कलयुग के अधम जीवो को मैं देने वाला हूं। यह चैतन्य महाप्रभु ने घोषणा की इसीलिए यहां पर लोचन दास ठाकुर कहते हैं अब मैं समझ गया हूं कि कलयुग तो सबसे बड़ा भाग्यशाली है जितना भाग्यशाली कलयुग हुआ है चैतन्य महाप्रभु के होने से इतना भाग्यशाली कोई युग नहीं था हरि बोल ! अन्य युग में युग धर्म का आचरण अत्यंत कठिन है परंतु कलयुग में केवल हरि नाम ही है जिसमें हरि नाम युग के धर्म का पालन करके जिस सहजता से चैतन्य महाप्रभु की कृपा प्राप्त कर सकता है। क्यों संकीर्तन करना है और नृत्य करना है ? जो बद्ध है वह मुक्त हो जाएगा और नाम संकीर्तन के अंदर तो भक्तों से यमराज भी भयभीत होकर दूर भाग जाते हैं हरि बोल ! इस प्रकार हमने चैतन्य महाप्रभु की भागवत लीला में तीन भागों में देखा शास्त्र प्रमाण से और स्वयं चैतन्य महाप्रभु ने भी इस बात की भविष्यवाणी की कि मैं कलिकाल मंक प्रकट होने वाला हूं संकीर्तन नाम से ,हम गौड़िये वैष्णव को यह समझ में आता है कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जैसा कोई नहीं है मुझे स्मरण है विशेष रूप से एक समय में कथा श्रवण कर रहा था परम पूजनीय श्री राधा गोविंद महाराज जी से उन्होंने मुझसे कहा कि यदि मुझे चॉइस दी जाए या दोनों में से एक चीज कीजिए। राधा गोविंद महाराज जी आप जानते ही हैं कि श्रीमद्भागवत और भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का बहुत सुंदर आस्वादन करते हैं और जगत को आस्वादन करवाते हैं उ.न्होंने जब कहा कि मुझे चॉइस मिले तो मैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को चुनूंगा। श्री कृष्ण को नहीं चुनुँगा। क्या विशेषता है चैतन्य महाप्रभु की, कुछ शब्दों को हम यहां पर सुनेंगे चैतन्य चरित्रामृत का यह बहुत सुंदर शब्द है। मैं उन चैतन्य महाप्रभु की स्तुति कर रहा हूं किन चैतन्य महाप्रभु की पहले भी तो अवतार हुए चैतन्य महाप्रभु की विशेषता क्या है पहले के अवतारों में क्या-क्या है ?दैत्यों का संघार किया। यह कौन सी बड़ी बात है हमने सुना राम अवतार में वरहा अवतार में नरसिंह अवतार में तो यह कौन सी बड़ी बात है और हमने सुना कि भगवान कपिल देव के रूप में आए और उन्होंने योग आदि सांख्य का प्रकाशन किया है क्या यह भगवान की भगवता की श्रेष्ठता है। भगवान सृष्टि पालन संघार करते हैं यह भगवान के गुण अवतार में क्या यह भगवान की महत्वता है। नहीं !पृथ्वी का उद्धार किया, पृथ्वी का कौन से रूप में, वराह रूप में ,क्या यह बहुत बड़ी बात है। नहीं ! इस प्रेम रूपी ज्वाला को प्रकाशित करके सभी को महान भक्ति का वर्तन मतलब महान भक्ति के मार्ग को जिन्होंने बताया है वह चैतन्य महाप्रभु से श्रेष्ठ वास्तविक कोई नहीं। इसी के संदर्भ में जैसे चैतन्य भागवत में भी वर्णन किया जाता है जब चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु के आग्रह पर जगाई मधाई का उद्धार किया उस प्रसंग को मैं देख रहा था जहां पर जगाई मधाई ने बहुत सुंदर स्तुति की और वहां पर बताया जाता है कि वास्तव में इस जगत में भगवान आपने तो कई अवतार लिए किंतु वास्तव में तो आज आपकी जो कृपा आप का उद्धार करने की क्षमता है उसकी पूर्णता को आप ने प्राप्त किया है। वहां पर वे कहते हैं
*अमि दुइ पातकिया देखिया उद्धारा अल्पत्वा पाइला पूर्व महिमा तोमार* (चैतन्य भागवत मध्य 13.260)
आज आपने जो हमारा उद्धार किया तो वास्तव में आपने इस पूर्णता को प्राप्त किया है। कैसे ? वहां पर कुछ दृष्टांत दिए हुए हैं वह हम पूरा तो नहीं पढेंगे किंतु चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता के विषय में बताया जा रहा है कि पहला उदाहरण/ दृष्टांत दिया जगाई मधाई कहते हैं कि हमने सुना है कि आपने अजामिल का उद्धार किया इसमें कौन सी बड़ी बात हो गई।
*अजामिल उद्धारेरा एतेका महत्त्वा अमरा उद्धारे सेहो पाइला अल्पत्वा* (चैतन्य भागवत मध्य 13.261)
इसमें आपकी कोई बहुत बड़ी महत्वत्ता नहीं है क्योंकि अजामिल जो था अंततः उसने आपके नाम का उच्चारण किया है।
*नारायण नामे सुनि अजामिल मुखे करि महाजने अइला सेइ जाना देखे* (चैतन्य भागवत मध्य 13.268)
पहली बात है कि उसने नारायण नाम का उच्चारण किया है तो वह महिमा आपकी नहीं आपके नाम की हुई। यह पहला दृष्टांत दिया, उन्होंने अजामिल का उद्धार कोई बड़ी बात नहीं है। अच्छा भगवान आप ने पूर्व में कुछ असुरों का संहार करके उनका उद्धार किया था जैसे कंस जरासंध इत्यादि दैत्य गण इसमें भी कौन सी बड़ी बात है।
*यदि बाला कंसा अदि दैत्या गण तहारे ो द्रोह करि पाइला मोचन* (चैतन्य भागवत मध्य 13.273)
वह तो आपके शत्रु थे और आपने उनका उद्धार किया तो कैसे माने वास्तविक में उनकी कुछ विशेषता थी। क्या वो तीन विशेषताएं हैं जो जगाई मधाई कहते हैं पहली चीज कि वह आपका प्रत्यक्ष दर्शन कर रहे थे दूसरी चीज वे निरंतर आपका चिंतन कर रहे थे तीसरा वह अपने क्षत्रिय धर्म का पालन कर रहे थे युद्ध किया कंस और जरासंध आदि ने तो उन्होंने क्षत्रिय धर्म का पालन किया, उन्होंने आपका प्रत्यक्ष दर्शन किया हमने तो आपका दर्शन भी नहीं किया था और वह निरंतर आप का चिंतन करते थे उनका उद्धार हुआ तो कौन सी बड़ी बात हुईऔर कहते हैं कि गजेंद्र का आपने उद्धार किया है
*महाभक्त गजराजा करिला स्तवन एकांत सराणा देखि करिला मोचना* (चैतन्य भगवत मध्य 13.280)
जब तक वह एकांतिक रूप से पूर्ण रूप से आपकी शरण मैं नहीं आए तब तक तो आपने उनका उद्धार नहीं किया। गजेंद्र ने जब पूर्ण समर्पण किया है, आर्त भाव से पुकारा है तब आप दौड़े हैं। अच्छा अन्य असुरों का आपने उद्धार किया है कौन हैं पूतना है, अघासुर है, बकासुर आदि इनके विषय में तो स्पष्ट रूप से बताते हैं कि मैंने उद्धार किया तो कैसे उद्धार किया असुरों को आपने मृत्युदंड दिया अर्थात मार दिया है मर गए हैं और शास्त्र कहता है कि उनका उद्धार हुआ किसने देखा मरने के बाद उद्धार हुआ? तो महाप्रभु कह रहे हैं ।
*ये करिला ऐइ दुइ पातकी सरीरे सकसते देखिला इहा सकल संसारे* (चैतन्य भगवत मध्य 13.283)
जो जितने पापी गण हैं उन्होंने शरीर छोड़ दिया और उनको दिव्य गति प्राप्त हुई वेदों को छोड़कर किसकी कितनी शक्ति और सामर्थ्य है।
*छाड़िया से देहा तारा गेला दिव्यगति वेद वाणी तहा देखे कहरा सक्ति* (चैतन्य भगवत मध्य 13.282 )
किसको पता, कहां हमने देखा, उनको दिव्य गति प्राप्त होते हुए और दूसरी बात यहां कहते हैं जरासंध और कंस यह जब मरे हैं जरासंध का जब वध हुआ है वहां पर किसी महान वैष्णव ने आकर उनका आलिंगन किया था, नहीं ऐसे किसी भी असुर का वर्णन कीजिए जिनका केवल उद्धार ही नहीं हुआ बल्कि उनको कृष्ण प्रेम भी प्राप्त हुआ है, कोई नहीं है ऐसा असुर इसीलिए यहां पर जगाई मधाई इस बात को कहते हैं। हे भगवान आपने हमारा जो उद्धार किया वह केवल हमारा उद्धार ही नहीं किया हमारे पापों का भी हरण किया और तत्क्षण सर्वोच्च प्रेम प्रदान किया है। जिस प्रकार नित्यानंद प्रभु कहते हैं जगाई मधाई ऐसे थे जिनकी छाया पडने पर लोग वस्त्रों समेत गंगा में स्नान करते थे और आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु के पास जगाई मधाई इतने पवित्र हो गए दर्शन मात्र से गंगा स्नान का फल प्राप्त होता था। हरि बोल ! चैतन्य महाप्रभु की जय ! चैतन्य महाप्रभु की अद्वितीय क्या है ? श्रीचैतन्य महाप्रभु कभी भी किसी का पास्ट रिकॉर्ड नहीं देखते।
*पात्रापात्र-विचार नाहि, नाहि स्थानास्थान।
येइ याँहा पाय, ताँहा करे प्रेम-दान*
(सी सी आदि 7.23 श्लोक)
अनुवाद– भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्रीचैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है, इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं। उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी। जहाँ कहीं भी अवसर मिला, पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का
वितरण किया।
कभी भी इसी योग्यता को विचार नहीं करते चैतन्य चंद्रावली के शब्दों में कहा जाए तो पात्र अपात्र का विचार नहीं करते। कौन मेरा है, कौन पराया है यह भी श्रीचैतन्य महाप्रभु नहीं देखते ऐसा भेद भी नहीं है कि कौन देने लायक है और कौन नहीं देने लायक है, कौन सा सही समय है और कौन सा सही समय नहीं है यह भी विचार नहीं करते और श्रवण दर्शन प्रणाम ध्यान जो नवधा भक्ति के द्वारा भी प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है, श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्रति जिनकी निष्ठा हो जाती है उन्हें तुरंत वहां सर्वोच्च माधुर्य प्रेम महाप्रभु प्रदान करते हैं हरि बोल ! और पूर्व में कोई भी योग्यता नहीं है पुनः उन्हें यहां कहते हैं। ऐसे भी चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन में कृपा प्राप्ति वाले जीव हैं जिनके जीवन में पहले कभी कोई योग नहीं किया, ना ध्यान आप में से पहले कोई योग करके आए हैं यहां अपने कभी ध्यान किया है? कि हम तो इससे पहले कभी भी किसी भी एंगल से भक्त बनने के योग्य थे ही नहीं केवल श्रील प्रभुपाद का अनुग्रह है न योग न ध्यान न जप न तप न त्याग न नियम जो भगवत मार्ग में भगवान को प्राप्त करने के लिए नियम अंगो का पालन करना होता है वहां वैसे कोई भी नियम नहीं दिए। न वेद न शास्त्रों का ज्ञान न आचार कोई भी शास्त्र युक्त आचरण भी हमारा नहीं था इतना ही नहीं शास्त्र के विरुद्ध भी जो आचरण है उसमें भी हमारा मन मुक्त नहीं हुए थे मतलब पापमय क्रियाओं में लिप्त थे। श्रीचैतन्य महाप्रभु जब कलिकाल में अवतरित हुए पुरुषार्थ में जो शिरोमणि क्या है ? प्रेम पुरुषार्थ कृष्ण प्रेम है ऐसे जीव जिनकी कोई योग्यता नहीं थी ऐसे जीव चैतन्य महाप्रभु की कृपा से उस सर्वश्रेष्ठ प्रेम को प्राप्त करेंगे हरि बोल ! और विशेष रूप से राधा गोविंद महाराज की कथा में हमने सुना था श्रीकृष्ण के माधुर्य से श्रेष्ठ है चैतन्य महाप्रभु का एक विशिष्ट गुण औदार्य कहा जाता है। चैतन्य महाप्रभु को महावदान्याय क्यों कहा जाता है? उसका बहुत सुंदर अर्थ आचार्यों ने बतलाया है महावदान्याय इसलिए कहते हैं कि अन्य समस्त अवतारों में उन्होंने अपनी दयालुता को प्रकाशित किया है। जीवों का उद्धार किया है। कैसे उद्धार किया है ?चैतन्य महाप्रभु को महावदान्याय इसलिए कह रहे हैं कि जीवन में चैतन्य महाप्रभु केवल पापों का नाश नहीं करते बल्कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपनी प्रेम भक्ति भी प्रदान करते हैं, इसीलिए इसे महावदान्यय कहा गया है। एक बहुत सुंदर उदाहरण देखा था कि जब जीव भगवान से कैसे आकर्षित होता है उनकी दयालुता और दयालुता की पराकाष्ठा को देखकर वह माधुर्य से आकर्षित नहीं होता जैसे मान लीजिए किसी व्यक्ति को चोट लगी है और उसके हाथ में खून बह रहा है प्रश्न है कि उस समय यदि आप उसको गुलाब जामुन देंगे तो उसको पसंद आएगा या उस समय आप उसके हाथ को बैंडेज लगाएंगे तो उसको पसंद आएगा। स्वाभाविक है कि उस समय गुलाब जामुन के स्वाद का आस्वादन नहीं कर पाएंगे उस समय आवश्यक क्या है कि उसके कष्ट का निवारण हो। कलियुग के जीवों का जो कष्टों से पीड़ित हो चुके हैं श्रीचैतन्य महाप्रभु की उदारता ही जीवों को आकर्षित करती है। यहां पर चैतन्य महाप्रभु की अद्वितीय क्या है कि चैतन्य महाप्रभु की भक्ति करके वृंदावन की कृपा प्राप्त होती है विशेष रूप से जो नरोत्तम दास ठाकुर का भजन है
*गौरंगा दुति पद , जार धन सम्पदा , से जाने भक्ति- रस -सार , गौरांगेरा मधुरा-लीला जार करणे प्रवेसिला, हृदय निर्मल भेलो तार,गौरा -प्रेमा-नावे ,से तरंगे जेबा डूबे , से राधा -माधव -अन्तरंगा।*
( नरोत्तम दास ठाकुर )
उसमें पुन: बात बताते हैं और प्रेम में गौर भक्ति में अपने आप को डुबो देते हैं वह राधा माधव की अंतरंग सेवा प्राप्त करते हैं। भक्ति विनोद ठाकुर के शब्दों में कहा जाए वृंदावन के भक्तों में और नवदीप के भक्तों में उन्हें कभी भेद नहीं देखना चाहिए जब आपको नवदीप और वृंदावन के भक्त एक जैसे ही हैं यह समझ में आ जाएगा तो आपको ब्रज निवास प्राप्त होगा । हरि बोल ! और धाम में आपका जो मुख्य रूप प्रकट होगा और श्रीमती राधारानी का दासत्व प्राप्त होता है। एक बहुत सुंदर उदाहरण जो मैं सुन रहा था कल्पना कीजिए कोई हिंद महासागर के अंदर प्रवेश करता है स्नान करने के लिए और निकला तो क्या देखा कि वह प्रशांत महासागर में बाहर निकला। प्रवेश हुआ हिंद महासागर में और निकला है वह प्रशांत महासागर से , वैसे ही चैतन्य महाप्रभु के भी नाम में जब डूबते हैं तब आपको राधा कृष्ण की लीला में प्रवेश प्राप्त होता है हरि बोल !जितना अधिक आप चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन में सेवा करते हैं इसका मतलब क्या हुआ कि आप श्रीमती राधा रानी के चरणों में सेवा प्राप्त करते हैं और यह भी कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन में जब तक आप चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की सेवा नहीं करते तब तक आप को वृंदावन में प्रवेश नहीं मिल सकता। धर्म का आचरण कोई कर रहा है विष्णु की अर्चना कर रहा है तीर्थों में यात्रा कर रहा है और वेदों का भी पाठ कर रहा है जब तक गौर प्रिय चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की सेवा नहीं की वेदों में भी जो दुर्लभ है, वृंदावन वह नहीं जा सकता है। धर्म का भी पालन करता है विष्णु की भी सेवा करता है तीर्थों में पर्यटन करता है और वेद में पारंगत हो जाता है परंतु वह बृज तत्व को तब तक नहीं समझ सकता जब तक गौर भक्तों का आश्रय नहीं लेता है। इस प्रकार से यहां पर चैतन्य महाप्रभु की अधिकता के विषय में कहा गया है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हरे कृष्ण !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
श्रीमान अनंतशेष प्रभु जी व्दारा,
8 मार्च 2022
हरे कृष्ण..!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले।
स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।
वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपद – कमलं श्रीगुरुन् वैष्णवांश्च
श्रीरूपं साग्रजातं सहगण – रघुनाथान्वितं तं सजीवम्
साद्वैतं सावधूतं परिजन सहितं कृष्ण – चैतन्य – देवम्
श्रीराधा – कृष्ण – पादान् सहगण – ललिता – श्रीविशाखान्वितांंश्च।।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण..!
सर्व प्रथम गुरु महाराज और समस्त वैष्णव चरणों में सादर दंडवत प्रणाम हैं। यह विषय हम सदैव गुरु महाराज के मुखारविंद से श्रवण किए हैं परंतु महाराज जी का कृपा आशीर्वाद है कि गुरु महाराज चाहते हैं उसके ऊपर हम कुछ कहें इसलिए तो श्रीगौर पूर्णिमा पूर्व यहां पर हम आने वाले कुछ दस दिनों में श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में विभिन्न विषयों पर श्रवण करने वाले हैं। सर्वप्रथम यहां पर जो भक्तगण हरे कृष्ण महामंत्र का जप कर रहे हैं जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन का आश्रय लिए हुए हैं या जो अपने आपको गौड़िय वैष्णव कहते हैं उनके लिए नितांत आवश्यक है यह विषय वस्तु को समझना कि चैतन्य महाप्रभु का जो परिचय हैं,श्रीचैतन्य महाप्रभु का जो तत्व है जीसे गौर तत्व कहते हैं, उसी के अंतर्गत यह एक बात हम श्रवण करेंगे। श्रीचैतन्य महाप्रभु के विषय में जिस प्रकार कविराज गोस्वामी कहते हैं।
श्री कृष्णचैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य।
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- भगवान चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन् श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
गुरु महाराज इस बात को अनेक बार दोहराते हैं बाल्यावस्था में गुरु महाराज इतिहास के पुस्तक में पढ़ते थें महाराष्ट्र में तुकाराम, राजस्थान में मीराबाई, गुजरात में नरसिंह मेहता, उत्तर भारत मैं गुरु नानक हुए और तुलसीदास हुए वैसे ही बंगाल में एक संत हुएं जीनका नाम है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो दुर्भाग्यवश बहुत कम लोग श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान श्रीकृष्ण है इस बात को जानते हैं समझते हैं,यहां तक के हरे कृष्ण महामंत्र का जप कर रहे हैं वह भी पूर्ण रूपेन इस बात का ज्ञान नहीं रखते है,उसी बात को जैसे यहां कविराज गोस्वामी कहते हैं।
सेइ कृष्ण अवतारी व्रजेन्द्र-कुमार।
आपने चैतन्य- रुपे कैल अवतार।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 2.109)
अनुवाद: – वह भगवान श्री कृष्ण ही व्रजराज के पुत्र कहलाते हैं, जो समस्त अवतारों के स्त्रोत हैं।वे स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं।
जिस प्रकार हम गुरु महाराज से सुने थे कि एक समय श्रील प्रभुपाद प्रवचन दे रहे थे उन्होंने भक्तों से पूछा कि चैतन्य महाप्रभु कौन है?तो एक भक्त ने हाथ उपर कर के बोला कि श्रीचैतन्य महाप्रभु एक कृष्ण के अवतार हैं। जैसे ही श्रील प्रभुपाद ने सुना तो उन्होंने कहा कि गलत है श्री चैतन्य महाप्रभु अवतार नहीं है वह अवतारी हैं। जिस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण के बारे में श्रील व्यास सदैव कहते हैं।
कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
(श्रीमद्भागवत 1.3.28)
अनुवाद:-उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । इसीलिए महाप्रभु को अवतार नहीं कहते अवतारी कहते हैं अवतारी का अर्थ होता है समस्त अवतारों का उद्गम जहां से हो इसी प्रकार वही श्री कृष्ण
सेइ कृष्ण अवतारी व्रजेन्द्र-कुमार।
आपने चैतन्य- रुपे कैल अवतार।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 2.109)
अनुवाद: – वह भगवान श्री कृष्ण ही व्रजराज के पुत्र कहलाते हैं, जो समस्त अवतारों के स्त्रोत हैं।वे स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं।
विषेश रूप से ध्यान रखना चाहिए यह जो कलयुग है या कलिकाल है जो ब्रह्माजी के एक दिन में एक बार जिस प्रकार से 71 चतुर योग से एक मन्वंतर होता है और जब 14 मन्वंतर होते हैं तो ब्रह्मा जी के 12 घंटे होते हैं। मतलब ब्रह्मा जी का एक दिन कहा जाता हैं। शास्त्र में बतलाया जाता है यह जो 14 मन्वंतर जो सातवां मन्वंतर और उस साथ में मन्वंतर के अट्ठाविसवा जो चतुर्युग होता है उस अट्ठाविस वे चतुर्युग में जब द्वापर युग आता है वह विशेष द्वापर युग होता हैं। ध्यान रखिए 14 मन्वंतर में सातवां मन्वंतर और अट्ठाविसवा जो चतुर्युग है उसके अंतर्गत जो द्वापर युग है विषय द्वापर युग वो कौन सा द्वापर युग है?जिस व्दापर युग मे जो स्वयं ब्रजेंद्र नंदन श्री कृष्ण आपने वृंदावन की लीला को प्रकाशित करने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं, अन्य समस्त व्दापर युग में स्वयं वृंदावन श्रीकृष्ण न आकर श्री वासुदेव कृष्ण आते हैं जो माधुर्य को प्रकाशित करते हैं वह ब्रह्मा जी के एक दिन में एक ही बार होता है उसी प्रकार से बताया जाता है कि श्रीकृष्ण अवतारी ब्रजेंद्र कुमार जिस प्रकार इस द्वापर युग के अंत में आते हैं उसी द्वापर युग के पूर्व होने पर जब कलयुग का प्रारंभ होता यही राधा-कृष्ण दोनों एकत्र होकर श्री चैतन्य महाप्रभु ये विशेष चैतन्य महाप्रभु ध्यान रखिए जैसे मैंने कहा कि प्रत्येक द्वापर युग में श्री कृष्ण आते है वैसे ही प्रत्येक कलयुग में भी चैतन्य महाप्रभु आते है परंतु अंतर होता है उस में ,प्रत्येक कलयुग में जो चैतन्य प्रभु आते हैं उन्हें गौर भगवान कहां जाता है या गौर नारायण कहते हैं जो कलयुग का युग धर्म है हरिनाम संकीर्तन को करते हैं।परंतु विशेष चैतन्य महाप्रभु जो भगवान श्रीकृष्ण बृजेंद्र नंदन श्री कृष्ण इस व्दापर युग में आते हैं तो इस कलयुग का विशेष गुण है कि इस कलयुग में ही स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु आए हैं जिन के विषय में सार्वभौम भट्टाचार्य प्रताप रूद्र महाराज को कहते हैं।
ऐछे प्रेम, ऐछे नृत्य, ऐछे हरि ध्वनि।
काहाँ नाहि देखि, ऐछे काहाँ नाहि शुनि।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, 11.96)
अनुवाद: – मैंने न तो कभी ऐसा प्रेमभाव देखा है,न भगवान के नाम का इस तरह कीर्तन होते सुना है, न ही संकीर्तन के समय इस प्रकार का नृत्य होते देखा हैं।
जब प्रताप रूद्र महाराज ने देखा श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों को जो विशेष संकीर्तन कर रहे थे और उन विशेष संकीर्तन में ऐसे भाव प्रदर्शित किए गए जिसका ना तो शास्त्रों में कहीं वर्णन किया गया है और ना ही तो उतने उच्च कोटि के भाव कहीं देखे गए हैं और उस समय सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा
भट्टाचार्य कहे एइ मधुर वचन।
चैतन्येर सृष्टि–एइ प्रेम-संकीर्तन।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, 11.97)
अनुवाद: – सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, “यह मधुर दिव्य ध्वनि महाप्रभु की विशेष दृष्टि है, जो प्रेम-संकीर्तन कहलाती है।”
यह कली काल के संकीर्तन को कहां गया है प्रेम संकीर्तन जो विशेष रूप से चैतन्य महाप्रभु ने लाया है तो आगे यहां पर हम सुनेंगे
Adi 4.37
एइ मत चैतन्य-कृष्ण पूर्ण भगवान्।
युग-धर्म-प्रवर्तन नहे ताँर काम।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 4.37)
अनुवाद: -जिस प्रकार यह इच्छाएं श्री कृष्ण के प्राकट्य की मूल कारण है और असुरों का वध मात्र प्रासंगिक आवश्यकता होती है, उसी प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण चैतन्य द्वारा युग धर्म का प्रवर्तन प्रासंगिक है।
चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण है पूर्ण भगवान हैं। वास्तव में युगधर्म हरिनाम संकीर्तन तो केवल आनुषंगिक कार्य है मूलतः इस माधुर्य प्रेम संकीर्तन को देने के लिए चैतन्य महाप्रभु कलीकाल में आए हैं। क्या प्रमाण है? विशेष रूप से कलयुग में एक दोष है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको भगवान मनवाने लगता है प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को भगवान कहता है परंतु कैसे हम जान सकते हैं क्योंकि कि किसीको भ्रम हो सकता है आप हरे कृष्ण वाले है इसीलिए आप चैतन्य महाप्रभु को भगवान मानते है दूसरे पंथ वाले अपने गुरु को भगवान कहते हैं हर एक किसी संत को कोई भगवान के रूप में पूजा जाता हैं। ‘कल का स्वामी आज का नारायण बन जाता है’ तो ऐसे ही कोई होंगे यह चैतन्य महाप्रभु भी, तो यह हरे कृष्ण वालों के व्दारा चैतन्य महाप्रभु भगवान के रूप में घोषित हुए तो यह कैसे समझे तो इसीलिए यहां पर बताया गया है
Adi 3.84
भागवत, भारत-शास्त्र, आगम,पुराण।
चैतन्य- कृष्ण- अवतारे प्रकट प्रमाण।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 3.84)
अनुवाद: -श्रीमद्भागवत, महाभारत, पुराण तथा अन्य वैदिक साहित्य यह सिद्ध करने के लिए प्रमाण देते हैं कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के अवतार हैं।
आगम पुराण आदि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के ही अवतार है यह प्रगट प्रमाण प्राप्त होता है और क्या हैं?
प्रत्यक्षे देखह नाना प्रकट प्रभाव।
अलौकिक कर्म, अलौकिक अनुभाव।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत,आदि लीला, 3.85)
अनुवाद: – कोई भी व्यक्ति भगवान चैतन्य के प्रकार प्रभाव को उनके असाधारण कार्यों तथा असामान्य कृष्ण- भावानुभूति से भी प्रत्यक्ष देख सकता हैं।
और प्रत्यक्ष चैतन्य महाप्रभु ने भी इस जगत में लीलाएं की प्रकट रूप से भाव दिखाई दिए जिस प्रकार से सूर्य को आप कितना ही किसी भी प्रकार से छुपाए लेकिन सूर्य का प्रकाश छुप नहीं सकता। वैसे हालांकि चैतन्य महाप्रभु ने अपने प्रकाशित नही किया परंतु अलौकिक कर्म और अलौकिक अनुभाव उनकी कुछ ऐसी अद्भुत और अतिमाननीय लीलाएं हुई जिन्हें उनकी भगवत्ता प्रकाशित कि।
देखिया ना देखे यत अभक्तेर गण।
उलूके ना देखे येन सूर्येर किरण।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 3.86)
अनुवाद: – किंतु श्रद्धाविहीन अभक्त लोग स्पष्ट दिखाई देने वाली वस्तु को भी नहीं देखते जिस तरह उल्लू सूर्य की किरणों को नहीं देखते।
अभक्तगण देख कर भी नहीं देख पाते हैं चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता को इसकी तुलना कि है जिस प्रकार से उल्लू होता है उल्लू से कहा जाए कि आपने कभी सूर्य को देखा है? हमारे राधा गोविंद महाराज कहते हैं,उल्लू कहेगा सूर्य किस चिड़िया का नाम है क्योंकि उल्लू ने कभी सुर्य को देखा ही नहीं तो ऐसे ही अल्पज्ञ लोग चैतन्य महाप्रभु कि भगवत्ता को नहीं समझ पाते हैं। आगे यहां पर कविराज गोस्वामी चैतन्य निष्ठा के बारे में बताते हैं।
पूर्वे यैछे जरासन्ध-आदि राज-गण।
वेद-धर्म करि’ करे विष्णुर पूजन।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 8.8)
अनुवाद: – प्राचीन काल में जरासंध (कंस का ससुर) जैसे राजाओं ने वैदिक अनुष्ठानों का कड़ाई से पालन किया और इस तरह विष्णु की पूजा की।
पूर्वकाल में क्या हुआ जिस प्रकार से जरासंध जैसे राजागण थें, जो “वेद-धर्म करि’ करे विष्णुर पूजन” ऐसे आप रावण के विषय में सुनते हैं जरासंध के विषय में कहा जाता है जो वेदों को जानते थे। वेद धर्म के अनुसार कार्य करते थे यहां तक के विष्णु की पूजा भी करते थे, परंतु जरासंध का दोष क्या था? वह श्रीकृष्ण को नहीं मानते थें। विष्णु कि पूजा करेंगे, वेदों का पालन करेंगे किंतु कृष्ण कि भगवत्ता को नहीं मानेंगे कृष्ण कि भगवत्ता को नहीं मानते थे इसलिए उन्हें क्या कहा गया है? “दैत्य करि’ मानी” श्री कविराज गोस्वामी कहते हैं जो श्रीकृष्ण को नहीं मानता है उसकी गणना दैत्य में की जाती है।
कृष्ण नाहि माने,ताते दैत्य करि’ मानि।
चैतन्य ना मानिले तैछे दैत्य तारे जानि।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 8.9)
अनुवाद: – जो कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नहीं स्वीकार करता, वह निश्चित ही असूर है। इसी तरह जो श्री चैतन्य महाप्रभु को उन्हीं भगवान कृष्ण के रूप में नहीं स्वीकार करता उसे भी असुर ही समझना चाहिए।
उसी प्रकार से ” चैतन्य ना मानिले तैछे दैत्य तारे जानि।।” जो चैतन्य महाप्रभु के नहीं मानता उसकी गणना भी दैत्य में कि गई हैं।
हेन कृपामय चैतन्य ना भजे येइ जन।
सर्वोत्तम इहलेओ तारे असुरे गणन।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 8.12)
अनुवाद:-जो व्यक्ति दयालु भगवान्, चैतन्य महाप्रभु का सम्मान नहीं करता या उनकी पूजा नहीं करता, उसे असूर समझना चाहिए, भले ही उसे मानव समाज में कितना ही प्रतिष्ठित क्यों न माना जाता हो।
सबसे श्रेष्ठ समस्त गुणों से श्रेष्ठ व्यक्ति क्यों ना हो लेकिन यदि चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ना ले पाए कलयुग में उसकी गणना कविराज गोस्वामी के अनुसार असुरों में की जाती हैं। सलिए हमारे लिए आवश्यक है हम भलीभांति इस बात को समझ सकें कि चैतन्य महाप्रभु भगवान हैं।
इस के लिए कविराज गोस्वामी कहते हैं।
सकल वैष्णव, शुन करि’ एक-मन।
चैतन्य-कृष्णेर शास्त्र-मत-निरूपण।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला,1.31 )
अनुवाद:-मैं अपने समस्त वैष्णव पाठकों से प्रार्थना करता हूंँ कि वह प्रामाणिक शास्त्रों में निरूपित श्री कृष्ण चैतन्य की इस कथा को ध्यान से पढ़ें और सुने।
हे वैष्णव! एकाग्र चित्त होकर चैतन्य महाप्रभु की कथा को सुनो! चैतन्य महाप्रभु का शास्त्रों में जो निरूपण किया गया है चैतन्य महाप्रभु की भागवत्ता हम किस आधार पर समझ सकते हैं। तीन आधार पे। चैतन्य महाप्रभु भगवान है यह हम क्यों नहीं समझ पाते उस में से एक है जो प्रल्हाद महाराज स्वयं भागवत में यह बताए हैं यह उसकी अंतिम पंक्ति हैं।
“छन्न: कलौ यद्भवस्त्रियुगोथ स त्वम्।।”
इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारै- र्लोकान्विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान्।
धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्न: कलौ यद्भवस्त्रियुगोथ स त्वम्।।
(श्रीमद्भागवत 7.9.38)
अनुवाद: – हे प्रभु इस प्रकार आप विभिन्न अवतारों में जैसे मनुष्य,पशु, ऋषि, देवता,मत्स्य या कश्यप के रूप में प्रगट होते हैं और इस प्रकार से विभिन्न लोंको में संपूर्ण सृष्टि का पालन करते हैं तथा असुरी सिद्धांतों को नष्ट करते हैं। हे भगवान! युग के अनुसार आप धार्मिक सिद्धांतों की रक्षा करते हैं। किंतु कलयुग में आप स्वयं को भगवान के रूप में घोषित नहीं करते, इसलिए आप ‘त्रियुग’ कहलाते हैं, अर्थात तीन युगों में प्रकट होने वाले भगवान्।
जहां पर नरसिंह भगवान को संबोधित करते हैं प्रल्हाद महाराज ने एक शब्द का उपयोग किया “त्रियुग” हे भगवान आपको “त्रियुग” कहा जाता है क्यों कहा जाता है क्योंकि “छन्न: कलौ”आप कलयुग में अपने आप को प्रकाशित नहीं करते हैं इसलिए भगवान का एक नाम हो गया “त्रियुग” कलयुग में आकर भी भगवान अपनी भगवत्ता को प्रकाशित नहीं करते है,तो यही कारण है चैतन्य महाप्रभु को “प्रच्छन्न” अवतार या च्छन्न अवतार कहते हैं।भगवान तो है लेकिन वह अपने आप को छुपा लिए हैं भगवान अपनी भगवत्ता को प्रकाशित नहीं कर रहे हैं जिस प्रकार गुरु महाराज कहते हैं कलयुग कि विशेषता है कि कलयुग में प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को भगवान समझता है अपने आप को भगवान बनाने के लिए अत्याधिक प्रयत्न करता है लेकिन कलयुग की यह विशेषता है कि भगवान अपने आप को भक्त बनाने की कोशिश करते हैं।
कौन-कौन से प्रमाण है?तीन प्रकार के प्रमाण हैं। प्रथम प्रमाण चैतन्य महाप्रभु के उनके कुछ चिन्न लक्षण वर्णित किए हैं ।दुसरा प्रमाण लीला प्रणाम, जिन लीलाओ में भगवान की अतिमानवीय कुछ लीलाएं प्रकाशित हुई है और तीसरा यहां पर शास्त्र प्रमाण। प्रथम प्रमाण चैतन्य भागवत के आदि खंड में वृंदावन दास ठाकुर लिखते हैं जब श्रीचैतन्य महाप्रभु शची माता और जगन्नाथ मिश्र के आंगन में थें। जगन्नाथ मिश्र ने बालक को कहा है
एक दिन डाकिया बोले मिश्र-पुरन्दर।
आमार पुस्तक आन वाप विश्वम्भर!।।
(श्रीचैतन्य भागवत 3.144)
अनुवाद: – एक दिन श्री जगन्नाथ ने निमाई को बुलाया और कहा बेटा विश्वंभर मेरी पुस्तक उठा लाओ।
कृपया मेरा ग्रंथ लेकर आओ यहां पर बताया जाता है कि छोटा सा निमाई था जो लगभग दिगंबर अवस्था में था ना तो कोई आभूषण थे और ना कोई वस्त्र था, एकदम छोटा सा शिशु था और तुरंत दौड़कर गए पुस्तक को लाने के लिए और जगन्नाथ मिश्र देने के लिए उसी समय अचानक जगन्नाथ मिश्र ने क्या सुना?
वापेर बचन सुनि घरे धाइ जाये।
रुनुझुनु करिये नूपुर बाजे पायें।।
(श्रीचैतन्य भागवत 3.145)
अनुवाद: – पिताजी के वचन सुनकर श्रीनिमाई भाग कर दूसरे कमरे में गए। उनके चरणों में रुनक- झुनककर नूपुर बजने लगे।
एक नन्हा सा बालक है जिसके शरीर पर कोई आभूषण नहीं है जैसे ही नन्हा बालक दौड़ने लगा जगन्नाथ मिश्र को तुरंत नूपुर की ध्वनि सुनाई देने लगी वह अचंभित होने लगे।
आमार पुत्रेर पाये नाहिक नूपुर। कोथाय बाजिल वाद्य नूपुर मधुर।।
(श्रीचैतन्य भागवत 3.147)
अनुवाद: – वे कहने लगे-‘हमारे पुत्र के चरणों में तो नूपुर नहीं है कहां से यह मधुर ध्वनि आई?’क्या आश्चर्य है?
मेरे पुत्र के चरणों में तो कोई नुपुर नहीं हैं, ऐसे मधुर नूपुर की ध्वनि कहां से आ रही है अगले क्षण उन्होंने जब वह पुत्र आया तो विशेष क्या बात देखी? नन्हा सा बालक निमाई जब दौड़ कर गया और जब दौड़कर आया तो उसका परिणाम क्या हुआ पूरे उस घर के आंगन में सर्वत्र..
सब गृहे देखे अपरुप पद-चिह्न।
ध्वज, वज्र, पताका, अंकुश भिन्न-भिन्न।।
(श्रीचैतन्य भागवत 3.150)
अनुवाद: – शची-जगन्नाथ जी ने एक आश्चर्य देखा कि सब घर में अद्भुत पद चिन्ह हैं।ध्वज, वज्र,पताका,अंकुश सब अलग-अलग स्पष्ट दिख रहे हैं।
क्या देखा? शची माता और जगन्नाथ मिश्र ने, संपूर्ण आंगन में जब निमाई बालक चलने लगे तो चिन्ह अंकित हुए ध्वज, वज्र, पताका, अंकुश आदि जिसको देखकर वह बहुत आनंदित हुए इसके पूर्व भी वृंदावन दास ठाकुरजी ने बताया है, निमाई बालक जब चलता था तो जहां जहां उसके चरण रहते थे वहां पर लाल लाल ऐसा चरण चिन्ह बन जाता था शची माता को कभी-कभी लगता था कि निमाई बालक के चरणों से कोई खून तो नहीं निकल रहा वह एकदम भयभीत हो जाती थीं।
आनन्दित दोंहे देखि अपूर्व- चरण।
दोंहे हैला पुलकित सजल- नयन।।
(श्रीचैतन्य भागवत 3.151)
अनुवाद: -पदचिन्हों को देखकर दोनों अति आनन्दित हुए, दोनो पुलकित हो उठे, दोनों के नयन भर आए।
दोनों बहुत आनंदित हुए और मन ही मन विचार करते हैं कि यह भगवान की हम पर कृपा हैं। यह प्रथम प्रमाण चरणों का और दूसरा प्रमाण है लीलाओं का,लीलाओं में भी बाल लीला, यौवन लीला और फिर सन्यास के उपरांत की लीला। तीनों लीलाओं में हम देखते हैं कई लीलाओं में भगवान कि भगवत्ता प्रकाशित हुई विशेष रूप से बालक निमाई को एक बार चोर आए थे जो निमाई के आभूषण देखकर बालक निमाई को उठाकर ले गए थे बहुत दूर, लेकिन इन चोरों को बालक निमाई ने कैसे पथभ्रमित किया। वह चलते गए चलते गए और बहुत दूर गए फिर उन्होंने अंततः उन्होंने देखा कि वे जगन्नाथ मिश्र के घर के सामने ही पहुंचे थें। जहां से निकले थे वहां पर ही पहुंच गए थें।ऐसी अद्भुत लीला हुई कि चोर भी अचंभित हो गए कि क्या हो गया? हम लीलाओं में भी देखते हैं कि यहां पर बालक निमाई की भगवत्ता प्रकाशित हुई।
ऐतिक ब्राम्हण की लीला भी प्रकाशित हुई वह एक ब्राह्मण था वह जगन्नाथ मिश्र के घर में आता है और वहां आकर उसे शची माता और जगन्नाथ मिश्र आग्रह करते हैं कि कृपया आप भोग बनाइए और पुनः पुनः बालक निमाई आकर उस भोग को झूठा कर देते हैं तब अंत: श्रीचैतन्य महाप्रभु है,निमाई बालक है, विश्वंभर है वह क्या करता है अष्टभुज रूप प्रकाशित करता हैं। आज भी आप आज योगपीठ जाते हैं तो वहां दीवार पर देखिए तो अष्टभुज रूप का चित्र कभी दर्शन आपको होता है जिसमें बालकृष्ण के रूप में दो हाथों में वह माखन खा रहे हैं। दो हाथों से बांसुरी बजा रहे हैं और चार हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए हैं ऐसा वह अष्टभुज रूप है वह प्रकट किया उस ब्राह्मण के समक्ष बालक निमाई ने ।एकादशी लीला तो हम गुरु महाराज के मुख से श्रवण करते ही हैं।जहां पर किस प्रकार से हिरण्य पंडित और हिरण्य जगदीश पंडित वह बहुत दूर रहते थे शची माता और जगन्नाथ मिश्र के भवन से, योग पीठ से उनके घर में एकादशी के दिन क्या भोजन बना है यह इस नन्हेसे बालक निमाई ने बता दिया।आगे यौवन लीलाओं के अंतर्गत बहुत सी लीलाएं हैं। अभी कुछ लीलाओं का मुझे तुरंत स्मरण हुआ तो मैंने उन्हें ले लिया तपन मिश्र की लीला हम देखते हैं जब चैतन्य महाप्रभु पूर्व बंगाल गए थे तपन मिश्र ने बहुत अधिक शास्त्रों का अध्ययन किया था परंतु शास्त्र का अध्ययन करके भी अंत में शास्त्र का निष्कर्ष क्या है वह समझ नहीं पा रहे थे वह प्रार्थना कर रहे थे और उस समय बतलाया जाता है कि एक ब्राह्मण ने सपने में उसे बताया कि स्वयं भगवान आने वाले हैं और वह आपको शास्त्रों का निरूपण बनाएंगे। अगले दिन ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने आकर उन्हें हरे कृष्ण महामंत्र के विषय में और हरि नाम संकीर्तन के विषय में बतलाते हैं। केशव काश्मीरी के विषय में भी हम देखते हैं कि कैसे केशव काश्मीरी संपुर्ण भारत में दिग्विजय पंडित के रूप में अपने आप को सिद्ध करना चाहता था। वह जब चैतन्य महाप्रभु से निमाई पंडित से शास्त्रार्थ करना चाहता था जिन्हें सरस्वती माता ने स्वयं वरदान दिया था कि सदैव उनके जीव्हा पर विराजमान रहेगी, वे सरस्वती माता का प्रभाव वहा पर तुरंत समाप्त हो गया क्षीण हो गया, निमाई पंडित के सामने तब अंततः केशव काश्मीरी क्रंदन करने लगे और आखिरकार सरस्वती माता से प्रार्थना करने लगे, आपने तो मुझे वचन दिया था तो फिर आपने मेरा साथ क्यों नहीं दिया वहां पर बताया जाता है स्वयं सरस्वती माता प्रकट होकर श्री चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता को प्रमाणित करता करती हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु कैसे मेरे स्वामी है, और मैं उनकी दासी हूंँ इस बात को वह बतलाती हैं।
आगे चलकर जब चैतन्य महाप्रभु भक्त बने और संकीर्तन लीला को प्रकाशित किया उस समय की तो बहुत सारी लीलाएँ हैं।अव्दैत आचार्य के समक्ष चैतन्य महाप्रभु ने वहीं विराट रूप श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युध्द भुमी में अर्जुन के समक्ष प्रकाशित किया था। श्री चैतन्य महाप्रभु प्रभु ने अद्वैत आचार्य के समक्ष उस विराट रूप को प्रकाशित किया। श्रीनिवास पंडित के समय भी श्रीनिवास पंडित बहुत भयभीत हो गए थे और उनके भय का विनाश करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु नृरसिंह रूप में प्रकट हुए। जिस प्रकार हम जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण समस्त अवतारों उद्गम है उसी प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु समस्त अवतारों के उद्गम हैं यह भी प्रदर्शित होता है।आप यह नहीं देख पाते हैं कि अन्य किसी अवतार में जैसे नरसिंह भगवान अन्य समस्त अवतारों को अपने साथ प्रकट कर रहे हैं,भगवान श्रीराम अन्य अवतारों को प्रकट कर रहे हैं ऐसा कभी देखा नहीं गया हैं, परंतु श्रीचैतन्य महाप्रभु कि विशेष लीला यह बतलाती है कि समस्त अवतारों के उद्गम श्रीकृष्ण ही चैतन्य महाप्रभु के रूप में आए हैं इसलिए श्रीनृरसिंह रूप को प्रकट किया हैं। मुरारी गुप्त के समक्ष एक बार वहां उन्होंने वराह रूप को प्रदर्शित करके दांतों के ऊपर एक घड़े को उठाकर उन्होंने मुरारी गुप्त से कहा कि तुम स्तुति करो और मुरारी गुप्त ने वहां पर बहुत सुंदर प्रार्थना की हैं। प्रत्येक लीला बहुत सुंदर है मैं केवल प्रणाम के रूप में इसलिए बता रहा हूं और जब नित्यानंद प्रभु कि पूजा कि थी चैतन्य महाप्रभु ने तो वहां पर भी बतलाया जाता है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु के समक्ष षड्भुज रूप में प्रकट हुएं,यह षड्भुज रूप सार्वभौम भट्टाचार्य के समक्ष जो षड्भुज रूप प्रगट हुआ था उससे भिन्न है क्योंकि यहां पर श्री कृष्ण के रूप मे इस लीला को देखते हैं क्योंकि इस लीला के समय चैतन्य महाप्रभु ने सन्यास नहीं लिया था इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने कौन सा रूप प्रकट किया था, दो हाथों से बांसुरी बजा रहे थे और चार हाथों में शंख, चक्र,गदा, पद्म को धारण किया था ,ऐसा यह रूप कृष्ण और नारायण दोनों एक हैं। यह उन्होंने प्रकाशित किया नित्यानंद प्रभु के समक्ष। और वर्णन किया जाता है कि शची माता के समक्ष जब वह अपने घर में कृष्ण-बलराम कि रचना करती थीं तो उन्होंने अचानक देखा कि वह कैसे गौर निताई के रूप में प्रकट होते थें और पुनः कृष्ण-बलराम के रूप में प्रकट होते थें ऐसेही एक सुंदर लीला हैं। कृष्ण-बलराम के रूप में भी गौर निताई ने दर्शन दिए हैं। महाप्रकाश लीला में तो उन्होंने सभी भक्तों को उनके-उनके भाव के अनुसार, भगवान ने सभी रूप प्रकाशित किए हैं।चाँद का जी के समक्ष नृरसिंह रूप प्रकाशित किया, जगाई-मदाई के सामने चैतन्य महाप्रभु ने सुदर्शन को प्रगट किया, इस लीला को चैतन्य मंगल में भी बताया गया है जो गुरु महाराज नवदीप मंडल में परिक्रमा में सुनाते हैं। एक रोज सभी भक्त संकीर्तन कर रहे थे और उन्हें अचानक भूख लग गई तो चैतन्य महाप्रभु ने क्या किया? एक आम कि गुठली थी उन्होंने उसे जमीन पर बो दिया और उसी क्षण वहां पर एक आम का वृक्ष प्रगट हो गया। उस लीला में भी चैतन्य महाप्रभु कि भगवत्ता प्रकाशित हुई ऐसा अतिमानवीय कुछ क्रिया है और एक समय चैतन्य मंगल में वर्णन आता है कि चैतन्य महाप्रभु समस्त भक्तों के साथ संकीर्तन कर रहे थे और अचानक वहां जोर-जोर से काले बादल आ गए और बिजली कड़कड़ाती लगी भक्त भयभीत हो गए कि संकीर्तन हम कर रहे हैं रास्ते मे हम चल रहे है और अचानक यह बारिश क्यों हो रही है? तुरंत चैतन्य महाप्रभु ने हाथ में करताल लिया और जोर से करताल बजाते हुए क्रोध भरी दृष्टि से आकाश की ओर देखने लगे मानो वे देवताओं पर कुपित हो रहे हैं तक्षण वहां पर बतलाया जाता है कि पूरे बादल हट गए और वहां पर सुंदर चंद्रोदय हो गया। हरि बोल!
ऐसी महाप्रभु कि सुंदर लीलाएं हैं और एक ज्योतिष की भी लीला है एक ज्योतिष आया और गौरहरी सचिनंदन जब नवदीप में भ्रमण कर रहे थें, वह चैतन्य महाप्रभु के समक्ष आया तब महाप्रभु कहने लगे कि बताओ मेरे विषय में, मैं पूर्व जन्म में कौन था? जैसे ही वह चैतन्य महाप्रभु के पूर्व भुत को देखने लगे तो वह भ्रमित हो गया। कभी उनके सामने नारायण रूप प्रकट हो रहा था,कभी बांसुरी वाला श्यामसुंदर रूप प्रगट हो रहा था, कभी राम रूप प्रगट हो रहा था इस तरह वह ज्योतिष बहुत भ्रमित हुआ और फिर चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि तुम मूर्ख हो! तुम नहीं जानते वास्तविक पिछले जन्म में मैं एक ग्वाले का पुत्र था,मैं ग्वाला था,इस तरह से बतलाते हैं और फिर श्रीनिवास आंगन में संकीर्तन के अंतर्गत जब श्रीनिवास आंगन के पुत्र कि मृत्यु हुई तब हम देखते हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु के कहने मात्र से तुरंत वह मृत बालक भी जीवित हो गया और चैतन्य महाप्रभु की कृपा को उसने प्राप्त किया। इस प्रकार यह संकीर्तन लीला भी है और संन्यास के पश्चात की भी कोई सारी लीलाएं हैं जब सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार हुआ तो उस समय चैतन्य महाप्रभु राम-कृष्ण और चैतन्य वे तीनों एक ही है ऐसा षड्भुज दर्शन उन्होंने कराया ।वासुदेव विप्र को जब दक्षिण भारत की यात्रा के समय जिनका शरीर कुष्ठ रोग से पूरी तरह से गलित हो गया था चैतन्य महाप्रभु की आलिंगन मात्र से उसका कुष्ठ रोग पूरी तरह से दूर हो गया और लगभग चैतन्य महाप्रभु की तरह से अद्भुत शरीर सौंदर्य और गौर वर्ण उन्हें प्राप्त हुआ,ऐसा वर्णन आता हैं। श्रीरंगम में जब वे गए तो एक प्रसिद्ध कथा है जो गुरु महाराज से हमने सुनी हैं।एक ब्राह्मण था जो गीता को पढ़ता था हालांकि वह पढ़ नहीं पाता था वह गीता को पढ़ने लगा और अंततः उसने कहा कि मुझे एक गीता में साक्षात भगवान कृष्ण का दर्शन हो रहा है चैतन्य महाप्रभु उस से प्रसन्न हुए जैसे ही चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न हुए तो उस ब्राम्हण को ऐसा अनुभव जिस श्याम सुंदर श्रीकृष्ण का मैं पार्थसारथी के रूप में दर्शन करता हूंँ, स्मरण करता हूंँ वह पार्थसारथी ही मेरे समक्ष इस रूप में खड़े हैं तो वे इस सत्य को जान गए कि पार्थसारथी कृष्ण ही गौरहरी के रूप में आएं हैं।आगे चलकर वेंकट भट्ट के घर में जब चैतन्य महाप्रभु चातुर्मास में रहे तो अंत में बताया जाता है कि किस तरह गौड़ीय वैष्णव कि महत्ता,उत्कृष्टता श्रीवैष्णव से उन्होंने सिद्ध किया और चैतन्य महाप्रभु साक्षात श्री कृष्ण के रूप में दर्शन दिए श्री वेंकट भट्ट को और रामानंद राय के समक्ष भी श्री चैतन्य प्रभु ने राधा-कृष्ण इस युगल रूप में दर्शन दिया।
अंततः शास्त्र प्रमाण भी बहुत अधिक से प्राप्त होते हैं तो कविराज गोस्वामी कहते हैं।
उप-पुराणेह शुनि श्री-कृष्ण-वचन।
कृपा करि व्यास प्रति करियाछेन कथन।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला,3.82)
अनुवाद: – ऊपरपुराणों में हम श्रीकृष्ण को व्यासदेव पर यह कहकर अपनी कृपा प्रदर्शित करते सुनते हैं।
एक उप-पुराण है,जिसमें स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने श्रील व्यास देव को यह कहा, क्या कहा?
अहमेव क्वाचिब्रह्मन्सन्न्यासाश्रममाश्रित:।
हरि-भक्तिं ग्राहयामि कलौ पाप-हतान्नरान्।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला,3.83)
अनुवाद: – हे विद्वान ब्राम्हण, कभी-कभी मैं कलयुग के पतित लोगों को भगवद्भक्ति के लिए प्रेरित करने हेतु सन्यास आश्रम ग्रहण करता हूंँ। मैं कलिकाल में एक ब्राह्मण के रूप में जन्म लूंगा और सन्यास आश्रम को धारण करूंगा।
“हरि-भक्तिं ग्राहयामि” मैं हरीभक्ति को ग्रहण करुंगा “कलौ पाप-हतान्नरान्।।” कलयुग के समस्त जीवो के पापों का मैं हरण करूंगा ।आगे चलकर आदि पुराण एवं बृहन्नारदीय पुराण का उदाहरण है यह बहुत जानना आवश्यक है क्योंकि श्रील प्रभुपाद जी ने इस बात को बताया है क्योंकि इस संसार में कोई भी भक्त व्यक्ति अपने आप को भगवान कहता है तो सबसे पहले आवश्यक है कि शास्त्रों का प्रमाण होना चाहिए। चैतन्य महाप्रभु के कई प्रमाण प्राप्त होते हैं।
अहमेव व्दिजश्रेष्ठो नित्यं प्रच्छन्नवीग्रह:।
भगवत्भक्तरूपेण लोकं रक्षामि सर्वदा।।
( आदि पुराण एवं बृहन्नारदीय पुराण)
अनुवाद: – भगवान कहते हैं कि मै ही नित्य प्रच्छन्न विग्रह ब्राह्मण श्रेष्ठ होकर भगवद्भक्त रुप से निज भक्तजनों की सदा रक्षा करता हूँ।
“अहमेव व्दिजश्रेष्ठो” पुन: यहां पर भगवान कह रहे हैं मैं व्दिजश्रेष्ठ के रूप में जन्म लूंगा। “नित्यं प्रच्छन्नवीग्रह:।” परंतु मैं अपने आप को अवरुत्त रखूगा मैं अपनी भगवत्ता को प्रकाशित नहीं करूंगा। “भगवत्भक्तरूपेण लोकं रक्षामि सर्वदा।।” एक भक्त के रूप में आकर मै समस्त लोगों का रक्षण करूंगा संकीर्तन के द्वारा और यह भागवत का प्रसिद्ध श्लोक है गर्गाचार्य श्रीकृष्ण का नामकरण करते हैं उस समय उन्होंने भगवान के भिन्न-भिन्न वर्णों का वर्णन किया हैं।
आसन्वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनूः । शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥
(श्रीमद्भागवत 10.8.13)
अनुवाद:-आपका यह पुत्र कृष्ण हर युग में अवतार के रूप में प्रकट होता है । भूतकाल में उसने तीन विभिन्न रंग- गौर , लाल तथा पीला- धारण किये और अब वह श्याम ( काले ) रंग में उत्पन्न हुआ है [ अन्य द्वापर युग में वह शुक ( तोता ) के रंग में ( भगवान् रामचन्द्र के रूप में ) उत्पन्न हुआ । अब ऐसे सारे अवतार कृष्ण में एकत्र हो गये हैं ।
हे नंदमहाराज ! आपका जो यह पुत्र है वह यह भिन्न-भिन्न ने युग में भिन्न-भिन्न वर्ण, वर्ण मतलब रंग, धारण करता है कौन-कौन से,”शुक्लो रक्तस्तथा पीतो” सतयुग में शुक्ल वर्ण त्रेता युग में रक्त वर्ण या आप श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध को जब पढ़ेंगे तो वहां पर भिन्न-भिन्न युगों के भगवान के भिन्न भिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन किया गया है वहां पर आप वहां पर आप देख सकते हैं सतयुग में शुक्ल वर्ण त्रैतायुग रक्त वर्ण अब द्वापर युग में “कृष्णतां गतः” कृष्णतां वर्ण रूप में तो यहां पर रुप गोस्वामी ने कहां है कृष्णतां वर्ण भगवान का मूल रूप हैं। वहां पर एक शब्द आता है पीत वर्ण, कलयुग के लिए पीत वर्ण में है श्री चैतन्य महाप्रभु का वर्ण पीत हैं महाभारत का विष्णु सहस्त्रनाम श्लोक हैं।
सुवर्णवर्णो हेमांगो वरांगश्चन्दनांगदी।
संन्यासकृच्छम: शान्तो निष्ठा शान्ति: परायणम्।।
( महाभारतीय अनुशासनपर्व दानधर्म पर्व, 148 अ. विष्णुसहस्त्रनामस्त्रोत्र)
इस श्लोक में ऊपर की दो पंक्ति है वह नवदीप की लीला का वर्णन करती है और नीचे की दो पंक्ति नीलांचल लीला मतलब सन्यास पूर्व का जो रुप है उस का वर्णन किया है प्रथम दो पंक्तियों में किया है और नीचे की दो पंक्तियों में जगन्नाथ पुरी की लीलाओं का महाप्रभु जीस स्वरूप में है उस स्वरूप का वर्णन हैं। पहला कैसा रूप है “सुवर्णवर्णो हेमांगो” सोने कि कांति वाले “वरांगश्चन्दनांगदी” वरांग मतलब उनका प्रत्येक अंग अत्यंत सुंदर हैं “श्चन्दनांगदी” चंदनआदि से उनको श्रृंगारित किया जाता है महाप्रकाश लीला आदि में
“संन्यासकृच्छम: शान्तो निष्ठा शान्ति: परायणम्।।” परंतु वह आगे चलकर सन्यास धारण करते हैं शान्तो मतलब वह किसी प्रकार से विचलित नहीं होते निष्ठा का अर्थ वहां पर आचार्य ने बतलाया है विशेष रूप से संख्या पूर्वक नाम गान मैं पढ़ रहा था प्रात:काल श्री चैतन्य महाप्रभु संख्या पूर्ण नाम जप करते थे यह उनकी निष्ठा हैं। शांति परायण। हरि नाम संकीर्तन द्वारा इस जगत में शांति प्रस्थापित करते हैऔर एकादश स्कंध में कलयुग में भगवान के स्वरूप का वर्णन यह प्रसिद्ध श्लोक लगभग सभी लोग जानते हैं
कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ॥श्री
(श्रीमद्भागवत 11.5.32)
अनुवाद:-कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है ।
इसकी अधिक व्याख्या करने कि आवश्यकता नहीं है लगभग सभी को यह पता है, परिचित होंगे यजंती मतलब अर्चना करेंगे वहां पर यह बताया गया है कि कौन-कौन से युग में कौन-कौन से रूप रहेंगे और उनकी किस प्रकार से पूजा होगी यह प्रश्न पूछा गया था नव योगेंद्र से तो वहां पर बताया गया कलयुग में सुमेधा मतलब जिनकी बुद्धि पवित्र हो चुकी है वह पूजा करेंगे किन भगवान कि करेंगे? कैसे करेंगे?तो कौन से भगवान है? “कृष्ण वर्ण”,इसके दो अर्थ है कृष्ण यह जो दो वर्णमाला है क ख ग घ ‘कृष्ण’ यह दो वर्ण जिनकी जीव्हा पर सदैव विराजमान रहते हैं। काली काल में जब भगवान प्रगट होंगे तो उनकी जीव्हा पर निरंतर कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे! इस प्रकार से कृष्ण यह दो वर्ण जिनके जीव्हा पर सदैव विराजमान होते हैं और एक अर्थ होता है कृष्ण के विषय में वर्णन जो करेंगे। “त्विषा” मतलब वर्ण। वर्ण कैसा है?अकृष्ण। कृष्ण मतलब काला होता है तो अकृष्ण रंग मतलब गौर वर्ण और साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् मतलब श्री चैतन्य महाप्रभु पंचतत्व को लेकर नित्यानंद अव्दैत गदाधर आदि को लेकर आएंगे और हरि नाम संकीर्तन अस्त्र है उनका और कैसे इन भगवान की अर्चना की जाती है काली काल में संकीर्तन यज्ञ करके हम श्री चैतन्य महाप्रभु कि आराधना करते हैं। अब आगे अथर्ववेदीय चैतन्योपनिषदि में वर्णन किया गया है।इन शब्दों को अगर आप ध्यान से पढ़े हो तो आप समझ सकते हैं
जान्हवीतीरे नवव्दीपे गोलोकारण्ये धाम्नि गोविन्दो व्दिभुजो गौर: सर्वात्मा महापुरुषो महात्मा महायोगी त्रिगुणातीत सत्त्वरुपो भक्तिं लोके काश्यति।। 6।।
(अथर्ववेदीय चैतन्योपनिषदि)
अनुवाद: -भगवती भागीरथीके तट पर विद्यमान गोलोक नामसे प्रसिद्ध नवव्दीप धाम में सर्वान्तर्यामी, महापुरुष महात्मा, महायोगी, त्रिगुणातीत, शुध्दसत्त्वस्वरुप, षड़्ऐश्वर्य पूर्ण श्री गोविन्द भगवान व्दिभुज श्रीगौरांग रुप से अवतीर्ण होकर लोक में भक्ति का प्रकाश करेंगे।
जान्हवीतीरे मतलब गंगा नदी के तटनवव्दीपे नवद्वीप में गोलोकारण्ये धाम्नि गोविन्दो जो गोलोक नाम से प्रसिद्ध है उस धाम को,व्दिभुजो गौर: व्दीजरूप में गौर वर्ण में,सर्वात्मा महापुरुषो महात्मा महायोगी त्रिगुणातीत सत्त्वरुपो भक्तिं लोके काश्यति।। तो अनुवाद नीचे दिया गया है सर्व आत्मा महापुरुष श्री गोविंद ही गौरांग रूप में प्रकट होकर भक्ति का प्रसार करेंगे। कुर्म पुराण और गरुड़ पुराण के लगभग एक जैसे शब्द है इसलिए मैंने एक साथ लिया उनको..
कलिना दह्यमानानामुध्दाराय तनूभृताम।
जन्म प्रथमसंध्यायां भविष्यति व्दिजालये।। (कूर्मपुराण)
कलिना दह्यमानानां परित्राणाय तनूभृताम्।
जन्म प्रथमसन्ध्यायां करिष्यामि व्दिजातिषु।। ( गरुड़ पुराण)
अनुवाद: -कलिरुप दावानल से जलते हुए भक्तों के उध्दार के लिए कलि की प्रथम सन्ध्या में भूतल पर ब्राह्मणों के कुल में अवतीर्ण होऊंगा।
कलयुग में जो लोग जल रहे हैं झुलस रहे हैं उनके उध्दार के लिए ही भगवान जो इस कलिकाल का प्रारंभ है उसको संध्याकाल कहते हैं दो युगों के एकदम बीच का जो समय होता है जो द्वापर का अंत और कली का प्रारंभ है उसे संध्या कहते हैं तो यह प्रथम संध्या है उस प्रथम संध्या मे ब्राह्मण के कुल में भगवान अवतरित होंगे भक्तों का उध्दार करने के लिए,मायापुर नवद्वीप मे प्रकट हुंँगा।
अहं पूर्ण भविष्यामि युगसन्धौ विशेषत:।
मायापुरे नवव्दीपे भविष्यामि शचीसुत:।।
कले: प्रथमसन्ध्यायां लक्ष्मीकान्तो भविष्यति।
दारुब्रह्मसमीपस्थ: संन्यासी गौरविग्रह:।। (गरूड पुराण)
अनुवाद: – मैं कलियुग की प्रथम सन्ध्या मे श्री मायापुर नवव्दीप में शचीनंदन रुप से पूर्णावतार धारण करूंगा।
यह गरुड़ पुराण के शब्द है कई बार लोगों को लगता है कि यह चैतन्य चरितामृत में कहां लिखा है सबसे महत्वपूर्ण क्या है शचीसुते भविष्यमि शची माता के पुत्र के रूप में माता का नाम क्या होगा
शची माता कि जय..!
शची माता के पुत्र के रूप में नवव्दीप मायापुर में यह प्रगट होंगे और लक्ष्मी प्रिया के पति होंगे और फिर आगे क्या करेंगे दारुब्रह्मसमीपस्थ:जगन्नाथपुरी में वह निवास करेंगे किस रूप में “संन्यासी गौरविग्रह:।।” किस रूप में सन्यासी रूप में वह जगन्नाथपुरी में रहेंगे। यह स्पष्ट रुप में गरुड़ पुराण में दिया गया हैं।और नृरसिंह पुराण में बताया गया है सतयुग में जिन्होंने हिरण्यकशिपु विनाश किया नृरसिंह रुप में, त्रेता युग में रावण का विनाश किया है राम रूप में और द्वापर युग में ग्वालों का और वृंदावन के भक्तों का जिन्होंने रक्षण किया है जो त्रिभुवन को मोहित करते हैं वही ब्रजेंद्र नंदन वही कलियुग में संकीर्तन प्रिय श्रीगौरांगदेव चैतन्य नाम से कलिकाल में प्रकट होंगे
सत्ये दैत्यकुलाधिनाशसमये सिंहोर्ध्वमर्त्याकृति-स्त्रेतायां दशकन्धरं परिभवन् रामेति नामाकृति:।
गोपालान् परिपालयन् व्रजपुरे भारं हरन् व्दापरे गौराँग: प्रियकीर्तन: कलियुगे चैतन्यनामा प्रभु:।।
(नृसिंहपुराण)
अनुवाद: – सतयुग में जो प्रभु हिरण्यकशिपु का विनाश करने के समय नृसिंहाकृति से अवतीर्ण हुए, त्रेतायुग में रावण का तिरस्कार करते हुए परम मनोहर राम नामक श्रीविग्रह से प्रकट हुए और व्दापर में पृथ्वी का भार उतारने के लिए ग्वाल बालों की रक्षा करते हुए त्रिभुवन मोहन रुप से श्रीव्रजधाम में विराजे, वे ही प्रभु कलियुग में संकीर्तन प्रिय श्रीगौरांगदेव श्रीकृष्ण चैतन्य नाम से विख्यात होंगे।
बृहद नारायण नारद पुराण में कहा गया है
अहमेव कलौ विप्र नित्यं प्रच्छन्नाविग्रह:।
भगवद् भक्तरुपेण लोकान् रक्षामि सर्वदा।।
दिविजा भुवि जायध्वं जायध्वं भक्तिरुपिण:।
कलौ संकीर्तनारंभे भविष्यामि शचीसुत:।।
(बृहन्नारदीयपुराण)
अनुवाद: – हे विप्रवर! कलियुग में मै अपने स्वाभाविक श्यामल विग्रह को श्रीमती राधिकाजी के भाव एवं कान्ति से आच्छादित कर भक्तरुप से श्रीहरिनाम रुप परमास्त्र व्दारा भक्तजनों की सदा सर्वदा रक्षा करता हूँ। अतः हे देवताओं! तुम सबसे भी मेरा यही कहना है कि तुम सभी अब पृथ्वी लोक मे भक्तरुप से प्रकट हो जाओ, कारण कि कलियुग में नाम संकीर्तनारंभ के समय मै भी श्रीशचीपुत्ररुप से प्रकट होऊंगा
इस श्लोक में कहा गया है कलयुग में मैं प्रच्छन्न रूप से आऊंगा भक्त रूप में आऊंगा और भक्ति को प्रकाशित करूंगा और कलीयुग संकीर्तन का आरंभ करते समय मैं शचीसुत के रुप में प्रकट हुँदा। कैसा उनका आभूषण होगा?
आनन्दाश्रु कलारोम-हर्षपूर्ण तपोधन।
सर्वे मामेव द्रक्ष्यन्ति कलौ संन्यासिरुपिणम्।।
(भविष्यपुराण)
हे तपोवन! कलियुग में सब भक्तजन मुझको आनन्दाश्रु कलाओं से रोमहर्षसे परिपूर्ण वपु संन्यासवेष में देखेंगे।
तात्पर्य -ये सब प्रेमके अष्टसात्विक विकार संन्यासी रुपधारी श्रीगौरहरि में अनभूत हुए है, अत: उसी अवतार का संकेत है।
सब मुझे देखेंगे,महाप्रभु का दर्शन करेंगे,कैसे? सन्यास रूप में दर्शन करेंगे। कैसे ? “आनन्दाश्रु कलारोम-हर्षपूर्ण तपोधन” यह सभी महाप्रभु के आभूषण हैं। सर्वे मामेव द्रक्ष्यन्ति कलौ संन्यासिरुपिणम्।। सन्यासरुप का वर्णन करते हुवे कविराज गोस्वामी कहते हैं कांचन सदृश्य देह संन्यास वेष धारण किए हैं, अश्रु धारण करते हैं रोमांच तुलक जो अन्य भिन्न भिन्न अष्ट सात्विक विकार है सभी चैतन्य महाप्रभु के अंग में प्रकाशित होते रहते हैं। वायु पुराण के शब्द भी लगभग समान ही हैं।
कलौ संकीर्तनारंभे भविष्यामि शचीसुत:।
स्वर्णद्द्युतिं समास्थाय नवव्दीपे जनाश्रये।।
शुध्दो गौर: सुदीर्घांगो गंगातीर समुभ्दव:।
दयालु: कीर्तनग्राही भविष्यामि कलौ युगे।।
(वायुपुराण)
अनुवाद: – काली काल में संकीर्तन का प्रारंभ करने के लिए नवद्वीप नामांक पूरी में स्वर्ण कांति ग्रहण कर शची पुत्र रूप में प्रकट होऊंगा ।हे देवताओं! कलयुग में गंगा जी के तीरस्थ श्री मायापुर नवदीप में प्रकट होकर सर्वसाधारण पापी-तापी जीवो को नाम संकीर्तन की परिपाटी सिखाऊंगा।उस समय के जीवो की दृष्टि में मैं मुंडीत केश, गौरवर्ण विशिष्ट, अजानुलंबित भुजादि से दिर्घाग एवं पात्रापात्र विचाराधिकार भूमिकासे परे उच्चकोटि के परम दयालु रुप से अनुभूत होऊंगा।
संकीर्तन आरंभ करने के लिए शची माता के पुत्र आएंगे नवद्वीप के भक्तों का उद्धार करेंगे और गंगा नदी के तट पर कीर्तन करेंगे ऐसे कुछ शब्द यह गुरु महाराज के मुख से हम कई बार सुनते हैं मार्कण्डेय पुराण के शब्द हैं।
गोलोकं च परित्यज्य लोकानां त्राणकारणात्।
कलौं गौरांगरूपेण लीलालावण्यविग्रह:।।
(मार्कण्डेय पुराण)
अनुवाद: – मैं अनेक लीलाओं के संपादन के लिए परम मनोहर विग्रह धारण करने वाला होकर भी कलयुग में भक्त जनों की रक्षा के हेतु गोलोक का त्याग कर श्री गौरांग रूप से अवतीर्ण होऊंगा।
हम सब जीवों का उद्धार करने के लिए उध्दार मतलब हमें माधुर्य प्रेम प्रदान करने के लिए। अगर कल समय मिलेगा तो देखेंगे और किस तिथि को आएंगे वह भी स्पष्ट रूप से दिया गया है और
पौर्णमास्यां फाल्गुनस्य फाल्गुनीऋक्षयोगत।
भविष्ये गौररुपेण शचीगर्भे पुरन्दरात्।।
अनुवाद: -भगवान स्वयं कहते हैं – हे देवताओं!उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग से युक्त फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन विजेंद्र पंडित श्री जगन्नाथ (मिश्र पुरंदर ) द्वारा श्रीशची माता के गर्भ से गौरांग रूप से अवतीर्ण होऊंगा।
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को जगन्नाथ मिश्र और शची माता के पुत्र के रूप में आएंगे।
ठीक है!
हम शेष भाग कल देखेंगे,
हरे कृष्ण..!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*दिनांक 05.03.2022*
*धर्मराज प्रभु द्वारा*
हरे कृष्ण!!!
गुरू महाराज:-
वृंदावन धाम,चिंतामणि धाम है।
*चिन्तामणिप्रकरसद्यसु कल्पवृक्ष- लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥*
( ब्रह्म संहिता 5.29)
अनुवाद-
जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुष की सेवा कर रही हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
ब्रह्मा जी ने कहा ही है, वृंदावन चिंतामणि धाम है। नवद्वीप भी वृंदावन ही है, वृंदावन गोलोक का एक विभाग है। वृंदावन चिंतामणि है तो उसी का अंग नवद्वीप भी चिंतामणि होना ही चाहिए और है भी।
*गौर मंडल भूमि येब जाने चिंतामणि तार हय व्रजभूमि वास।*
(श्रील नरोत्तम दास ठाकुर)
जो जानेंगे समझेंगे कि नवद्वीप धाम भी चिंतामणि धाम है। वे ब्रजभूमि का वास/ वृंदावन का वास को प्राप्त करेंगे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
योगपीठ, जहां परिक्रमा के भक्त इकट्ठे हुए हैं। यह गोकुल है, वृंदावन का गोकुल , नवद्वीप का योगपीठ है।
शचि माता ही यशोदा माता है और नंदबाबा, जगन्नाथ मिश्र है।
जय शचीनन्दन!
शचीनन्दन कहिए या यशोदा नंदन कहिए, एक ही बात है।
*ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ।*
*दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, तार साक्षी जगाइ-मधाइ॥*
अर्थ:-
जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
जो नंदनंदन हैं, वही शचीनन्दन के रूप में प्रकट हुए। जय शचीनन्दन जय शचीनन्दन जय शचीनन्दन गौर हरि।
शचीनन्दन गौर हरि की जय!
योगपीठ की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
शचीनन्दन गौर हरि की जय!
ठीक है। मैं अभी यहीं विराम कर देता हूं । मैं योगपीठ के लिए प्रस्थान करूँगा।
जप चर्चा
धर्मराज प्रभु द्वारा
हरे कृष्ण!!!
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
सर्वप्रथम में श्री गुरु महाराज के चरण कमलों में सादर दंडवत अर्पण करता हूं और सभी उपस्थित वैष्णव के चरणों में भी दंडवत प्रणाम।
गुरु महाराज ने बोलना प्रारंभ कर दिया था। ऐसा लग रहा था कि मैं गुरु महाराज से ही जप टॉक सुनूँ।
एक तो गुरु महाराज मायापुर में हैं। जब नवद्वीप का दृश्य देख रहे थे, मानसिक रूप से योगपीठ पहुंच गए थे। लग रहा था कि महाराज जी जारी रखेंगे तो अच्छा होगा। लेकिन शायद आपका और मेरा भी इतना सौभाग्य नहीं।
क्षमा चाहता हूं। मैं आपको कुछ बताने का प्रयास करूंगा परंतु मैं अपने आपको योग्य नहीं समझता लेकिन वैष्णवों और गुरु महाराज की कृपा से प्रयास करूंगा। कल जो हमारी चर्चा हुई, उसमें हमने देखा कि कल हमने गुरु से दीक्षा लेने की महिमा के विषय में सुना। चैतन्य महाप्रभु ने किस प्रकार सन्यास दीक्षा ली और नित्यानंद प्रभु ने भी पंढरपुर में ही दीक्षा ली। हमनें यह भी देखा कि ब्रह्मा जी किस प्रकार दीक्षित हुए। वसुदेव और देवकी के प्रसंग में भी हमने सुना। आज हम चर्चा करेंगे कि गुरु से हरि नाम तो प्राप्त हो जाता है..। यह भी हमने सुना कि हरि नाम ही हरि है। जैसे कि पदम् पुराण में वर्णन आता है-
*नाम चिंतामणिः कृष्णश् चैतन्य-रस-विग्रहः। पूर्ण: शुद्धो नित्य- मुक्तोअभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः।।*
( पदम् पुराण)
अर्थ:-
कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंद में है, यह सभी प्रकार के अध्यात्मिक वरदान देने वाला है।
क्योंकि यह समस्त आनंद का आगार अर्थात स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृष्ण- नाम और स्वयं कृष्ण अभिन्न है।
कृष्ण का नाम ही चिंतामणि है, भगवान का नाम ही चैतन्य रस विग्रह है। जब हम भगवान का नाम लेते हैं तब भगवान का रूप ही प्रकट होता है, उसको थोड़ा समय लगता है। हमने यह गुरु महाराज के मुख से बार-बार सुना है। नाम से धाम तक की चर्चा होती ही रहती है। नाम जो है वह धाम तक पहुंचा देता है और साथ ही साथ यह भी समझना है कि जब कोई जीव या भक्त भगवान का नाम लेता है तब भगवान उसके सामने नाम के माध्यम से अपना धाम भी प्रकाशित कर देते हैं। भगवान् के नाम में इतनी महिमा है, इतनी शक्ति है। हरि नाम प्रभु कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। हरि नाम प्रभु स्वयं कृष्ण ही हैं। हम फिर हरिनाम प्रभु ही क्यों कहते हैं? कृष्ण क्यों नहीं कहते। हरि नाम प्रभु कृष्ण ही है लेकिन एक दृष्टि से हरिनाम प्रभु ने अपने आप को छुपा कर रखा है। जो साधक अथवा भक्त है उसकी तीव्रता के अनुसार वह अपने अपने आप को धीरे धीरे प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार भागवतम में जो 12 स्कंध हैं, वह तो पूरे कृष्ण ही हैं। भगवान के चरण कमल मतलब भागवतं के पहले दो स्कन्ध हैं। इस प्रकार पूरा भागवतम भगवान् की वांग्मय साक्षात मूर्ति हैं।
भागवत ही भगवान् है, हम तुरंत एकदम शास्त्रों को लेकर नहीं पढ़ सकते। हम धीरे-धीरे क्रमश: चरणों से प्रारंभ करते करते मुख पहुंचते हैं। इसी प्रकार जब हम भगवान का नाम लेने लगते हैं। हरि नाम प्रभु स्वयं कृष्ण ही हैं, वे धीरे धीरे अपने आप को प्रकाशित करते हैं। यह हमारे ऊपर है कि हम कितनी तीव्रता से हरि नाम का उच्चारण करते हैं। यह हमारे ऊपर ही नहीं केवल अपितु गुरुजनों और वैष्णवों की कृपा के ऊपर निर्भर है। अगर हम पूर्ण रूप से समर्पित भाव से नामजप कर रहे हैं। जैसे एक बार श्रीमान जननिवास प्रभु से मायापुर में कुछ वर्ष पूर्व बात हो रही थी, मैंने उनसे कुछ प्रश्न किए। उन्होंने कहा कि हम सब हरिनाम के सेवक हैं। हम जप और कीर्तन करके उनकी सेवा करते हैं। उन्होंने कहा कि हमारे अंदर बहुत सारे दुर्गुण या अनर्थ हैं, हरि नाम ही स्वयं अपने आप को प्रकाशित करते हुए हमारे अंदर दिव्य गुणों को प्रकट करेंगे। इसलिए हमें चिंता नहीं करनी है, नाम ही चिंतामणि है। हमें चिंता नहीं करनी है, चिंतामणि मतलब हमारी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला नाम है। इसलिए हरिनाम प्रभु तभी अपने आप को प्रकाशित करेंगे जब कोई साधक बहुत तीव्रता से उनका स्मरण करेगा, उनकी सेवा करेगा। यह तभी होगा, जब नाम का उच्चारण पूर्ण आदर के साथ और श्रद्धा के साथ उसका उच्चारण किया जाएगा। जैसे जैसे रूप गोस्वामी उपदेशामृत में बताते हैं
*स्यात्कृष्णनामचरितादिसिताप्यविद्या पित्तोपतप्सरसनस्य न रोचिका नु किन्त्वादरादनुदिनं खलु सैव जुष्टा स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्गदमूलहन्त्री ॥*
(उपदेशामृत ७)
अनुवाद:-
कृष्ण का पवित्र नाम, चरित्र, लीलाएं तथा कार्यकाल सभी मिश्री के समान आध्यात्मिक रूप से मधुर हैं । यद्यपि अविद्या रूपी पीलिया रोग से ग्रस्त रोगी की जीभ किसी भी मीठी वस्तु का स्वाद नहीं ले सकती, लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि इन मधुर नामों का नित्य सावधानी पूर्वक कीर्तन करने से उसकी जीभ में प्राकृतिक स्वाद जागृत हो उठता है और उसका रोग धीरे – धीरे समूल नष्ट हो जाता है ।
श्री रूप गोस्वामी बताते हैं कि हमारा भगवान् के नाम, रूप, गुण लीला में वास्तविक रूप से अनुराग उत्पन्न होना चाहिए लेकिन पित्तोपतप्सरसनस्य न रोचिका नु अर्थात हमारे अंदर जो पित्त रोग अर्थात पीलिया है, उसके कारण हमारी नाम में रुचि उत्पन्न नहीं हो रही है। वास्तव में नाम में बहुत मिठास है। नाम बहुत मीठा है लेकिन हमारी इतनी श्रद्धा या रुचि नहीं है, इसलिए नाम में हमारी रुचि नही है लेकिन हमें नाम लेते रहना है। हमें नाम आदर पूर्वक नाम लेना है, श्रद्धा के साथ लेना है। जैसे हमने सुना है नाम ही भगवान है, नाम और भगवान में कोई अंतर नहीं। अगर हम उस भाव से जप करते हैं तब भगवान बड़े प्रसन्न होते हैं। अनुदिनं। यह एक-दो दिन की बात नहीं है। हर दिन करना है। एक बार एक भक्त था, उसने अपने हाथ में जपमाला अथवा जप थैली रखी थी। फिर एक चोर आ गया, चोर ने देखा कि भक्त के हाथ में एक थैली है।
उसने सोचा थैली में क्या होगा ? शायद कुछ खजाना होगा। चोर चोरी करने के लिए तुरन्त ही जप थैली लेने लगा। चोर जप थैली खींचने लगा। तब भक्तों को पता लगा वह चिल्लाने लगा, कहा कि क्यों चोरी कर रहे हो? इसमें कुछ नहीं है। यह क्यों चोरी कर रहे हो। चोरी करने के लिए और भी चीज़े हैं। इसमें तो मेरी माला है लेकिन चोर ने फिर भी छीन ली। चोर ने कहा कि मुझे पता है कि यह जो जप की थैली है, इसमें आप माला रखते हो लेकिन साथ ही साथ बहुत सारी चीजें इसमें होती है। इसमें मोबाइल भी होता है, पैसे भी होते हैं, आधार कार्ड भी होता है। सब कुछ इसमें रखा होता है। इसलिए मैं आजकल इधर-उधर चोरी नहीं करता हूं। आप जैसे भक्त माला लेकर घूमते रहते हैं।आसानी से मैं उनकी जपथैली छीन लेता हूँ। बहुत बार इसमें माला भी नहीं होती, इस प्रकार मुझे आसानी हो जाती है कि कोई ज़्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता। रात में ताला तोड़कर यह करो, वह करो उससे अच्छा है कि जपथैली ले लो। मुझे हरे कृष्ण भक्त बहुत अच्छे लगते हैं।
इसलिए नहीं कि वे जप करते हैं अपितु इसलिए कि वे जप थैली में सारी चीजें रखते हैं और मेरा आसानी से गुजारा हो जाता है। देखिए! भक्तों की उन पर कितनी कृपा है। यह आदरार्थ अर्थात आदर के साथ नहीं हुआ है। आजकल माला की जप थैली में चैन भी लगी होती है। पहले इसमें चैन नहीं हुआ करती थी लेकिन अब इसमें चैन हुआ करती है। हम इसमें बहुत कुछ रख सकते हैं, अलग से जेब रखने की जरूरत नहीं है। जप थैली की चैन में रखेंगे तो लगता है कि सुरक्षित है। लेकिन उससे माला के प्रति जो आदर की भावना होनी चाहिए, वह नहीं रहती है। आजकल अलग-अलग प्रकार के जप भी होते हैं जैसे मोबाइल जप, टी.वी. जप आदि। उसका भी रिसर्च होता ही रहता है। आदर की जो बात हो रही है, अगर उसकी दृष्टि से देखा जाए तो जपमाला पवित्र है। तुलसी की माला की (अगर दीक्षित भक्त हैं) बाहर जो थैली है, बहुत बार देखा गया है, उसको साफ नहीं किया जाता है। कपड़ें साफ सुथरे पहन लेते हैं लेकिन बीड बैग इतना साफ सुथरा नहीं रहता है। मैंने देखा है कि कुछ भक्त उसको प्रतिदिन चेंज करते रहते हैं। जैसे तुलसी को हर दिन ड्रेस पहनाई जाती है और उसी तरह वो थैली हमारी जपमाला की ड्रेस ही है। यदि उसको बदलेंगे नहीं या गंदा रखेंगे तो हम में आदर के साथ जप करने की भावना इतनी नहीं आएगी, इसलिए जप थैली को भी साफ सुथरा रखना चाहिए। इससे एक आदर की भावना बढ़ने में सहायता होगी। दूसरा हमें अनुदिनम प्रतिदिन करना है। ऐसा नहीं है कि कभी कभी माला और कभी नहीं। ऐसे नहीं अपितु प्रतिदिन करना है। आज किया है तो कल भी करना है, प्रतिदिन करते रहना है। एकांत में जप करना .. एकांत शब्द के दो अर्थ है।
एकान्त शब्द के दो अर्थ हैं। एक- जहां कोई भी न हो, वहां एकांत है। निश्चित ही यह ध्यान योग के लिए कहा जा सकता है लेकिन असली भक्ति योग में भक्तों के लिए एकांत अर्थात एक अंत। ऐसे लोग जिनका एक ही अंत या एक ही उद्देश्य है। कृष्ण प्रेम प्राप्त करना, भगवान् को प्राप्त करना। उस दृष्टि से भी भक्तों के सङ्ग में जप करना ही एकांत है। बहुत बार क्या होता है कि एकांत स्थान में जाकर बैठेंगे, भक्त तो वहां पर हैं लेकिन हम अकेले कही पर जप करते हैं। उससे भक्तों के प्रति हमारे अंदर आदर की भावना कम होने लगती है। हमें लगता है कि मुझे इनकी कोई आवश्यकता नहीं, मैं अकेले में भी जप कर सकता हूँ। लेकिन वह हम साधकों के लिए नहीं बताया गया है। हरिदास ठाकुर हैं, उनकी बात अलग है। वे तो ऊंचे स्तर के हैं, हमें नकल नही करनी चाहिए। हम देखते हैं कि गुरु महाराज बार बार ज़ूम पर पूछते रहते हैं कि वो नहीं आया, वो कहां है? हमें बार बार दिखाते रहते हैं, स्वयं देखते हैं। हमें स्क्रीन पर दिखाते रहते हैं जिससे सब भक्तों को भी पता लगता है कि यह भक्त जप कर रहा है। इससे गुरु महाराज की कृपादृष्टि व कृपा वृष्टि दोनों हो जाती है। इसलिए हमें ज़ूम में आकर जप करना बहुत जरूरी है। विशेष रूप से यह गृहस्थों के लिए और भी वरदान है क्योंकि देखते हैं कि हर घर में जप करने वाला होता ही है। कुछ जप करते हैं, कुछ नहीं करते हैं। कुछ जप तो कुछ गप करते रहते हैं। इसलिए अगर वे ज़ूम के साथ हैं, तब वो जप करेंगे। ज़ूम पर नही करेंगे, तब झूमते हुए जप करेंगे, वह अच्छा नहीं है।इसलिए ज़ूम पर जप करना बहुत जरूरी है, इससे गुरु महाराज बड़ें प्रसन्न हो जाते हैं। देखिए अभी भी उन्होंने कहा कि मैं जा रहा हूँ लेकिन आप अभी यहां रहो और जप करते रहो। गुरु महाराज को यह अच्छा नहीं लग रहा है कि मैं यहां नही हूँ तो ये जप नहीं कर रहे हैं।
जब गुरू महाराज का स्वास्थ्य अच्छा नही था, तब गुरू महाराज कहते थे कि मैं प्रसन्न तभी हूंगा जब मैं वहां नहीं हूं तब भी आप जप कर रहे हो। भक्तों के सङ्ग की महिमा विशेष है, भक्तों के सङ्ग में लाभ क्या होता है। अन्य भक्तों की जो शुद्धता है, उसका हमें भी लाभ होता है। हमारी भी प्रगति होती है, हमारा एडवांसमेंट होता है। इसलिए बहुत जरूरी है कि भगवान् के भक्तों के सङ्ग में भगवान् और भक्तों की प्रसन्नता के लिए जप करना, इससे हमारे ऊपर हरि नाम प्रभु की विशेष कृपा होती है। जैसे जो प्रचेता गण जो राजा दक्ष के दस पुत्र थे, उनका एक ही नाम था प्रचेता क्योंकि जो दस के दस भाई थे, वह हर समय साथ रहते थे। केवल साथ ही नहीं रहते थे अपितु उनके विचार, उनका भक्ति भाव भी एक ही जैसा था। उन पर शिवजी की विशेष कृपा हो गई। शिव ने मंत्र दिया और मंत्र का उच्चारण करके वे पानी में तपस्या भी कर रहे थे, नाम जप भी कर रहे थे। उन्होंने यह सब एक साथ किया। ऐसा नहीं था कि मैं इधर बैठूंगा, मैं उधर बैठूंगा। सभी साथ में थे। सभी साथ में बैठकर भगवान के नामों का उच्चारण करते, तपस्या करते, भगवान् के नाम का चिंतन कर रहे थे। शिव जी ने कहा भी था कि जो मंत्र मैंने दिया उसका उच्चारण करने से बहुत जल्दी ही आपको भगवान के दर्शन होंगे और ऐसा हुआ भी। भगवान, अष्टभुजा विष्णु का रूप धारण करके गरुड पर सवार होकर वहां पर प्रेचताओं के सामने आ गए। प्रेचताओं ने उन्हें दंडवत किया। विष्णु भगवान उन से बहुत प्रसन्न थे। भागवत में वर्णन है:-
श्रीभगवानुवाच
*वरं वृणीध्वं भद्रं वो यूयं मे नृपनन्दनाः । सौहार्देनापृथग्धर्मास्तुष्टोऽहं सौहृदेन वः ॥*
( श्रीमद भागवतं 4.30.8)
अर्थ:- भगवान् ने कहा है- राजपुत्रो, मैं तुम लोगों के परस्पर मित्रतापूर्ण सम्बन्धों से अत्यधिक प्रसन्न हूँ । तुम सभी एक ही कार्य- भक्ति – में लगे हो । मैं तुम लोगों की मित्रता से इतना अधिक प्रसन्न हूँ कि मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ अब तुम जो वर चाहो माँग सकते हो ।
भगवान दो बार सौहृद शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। आपके बीच में मित्रता या प्रेम का व्यवहार है, मैं उससे ज्यादा प्रसन्न हूं। आपने मेरी भक्ति की इसके लिए तो मैं प्रसन्न हूं ही उसमें कोई संदेह नहीं लेकिन आप सब जो मिलकर एक साथ मेरी भक्ति कर रहे हो, इससे मैं ज्यादा प्रसन्न हूं। इसलिए भगवान वरदान देते हंँ जोकि हम सभी के लिए वरदान है। भगवान कहते हैं जो कोई प्रतिदिन संध्या के समय आपका स्मरण करता है, वह भी आपकी तरह ही अन्य भक्तों के साथ मिलजुल कर रह सकता है। इसलिए प्रतिदिन शाम को प्रेचताओं का स्मरण करने से हम अन्य भक्तों के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार कर सकते हैं। इसलिए बहुत जरूरी है।
कभी-कभी अकेले कहीं बैठे हैं और भक्तों का समय भी नहीं है, ज़ूम का समय भी नहीं है। सुबह का जप पूरा नहीं हुआ है। कुछ मालाएं शेष हैं, उस समय कहा भक्तों को बुलाएंगे। ज़ूम का तो दुबारा सेशन नहीं होता है। आपने परम पूज्य भक्ति विशंभर माधव स्वामी महाराज का नाम सुना होगा। वह हर समय तुलसी के विषय में ही बताते रहते हैं, जब मैं मायापुर में था कुछ साल पहले, उनके एक शिष्य थे।उनका कुछ नाम शायद तुलसी सुदामा भजन था। उनके नाम के साथ भी तुलसी लगा हुआ था लेकिन बता रहे थे मेरे गुरु महाराज बताते हैं कि अगर तुलसी वहां पर नहीं है अगर आप गायत्री या जप कर रहे हो। तुलसी का उच्चारण आप तीन बार करोगे- तुलसी! तुलसी! तुलसी! तब तुलसी वहां प्रकट हो जाती है। हम देख नहीं पाते लेकिन वहां प्रकट होती है। फिर वहां मन ही मन प्रणाम करके तो अगर जप करते हैं तो हमें तुलसी का सानिध्य भी प्राप्त होता है। जैसे परम पूज्य जयपताका स्वामी महाराज जी बता रहे थे कि एक बार अगर हम गंगा जी में स्नान नहीं कर पाते हैं हर रोज या हम गंगाजल से बहुत दूर हैं तो केवल गंगा! गंगा! गंगा !तीन बार कहने से स्नान करते हैं तो हमें गंगा में स्नान करने का लाभ मिल जाता है। इतना सब हमें दिया गया है। यह जो तुलसी है यह 8400000 योनियों में से एक पौधा नहीं है। यह दिव्य है, भगवान के धाम से आई हुई है। उनके सङ्ग में भी जप कर सकते हैं, देखिए तुलसी की महिमा कितनी है। एक बार भगवान वामन जब बलि महाराज और प्रह्लाद महाराज आए थे बलि महाराज को सूतल लोक में भेज दिया। भेजने के पश्चात वामन भगवान शुक्राचार्य के पास गए। जो कई लोगों के बीच बैठे थे। भगवान! उनसे पूछते हैं आपने जो बलि महाराज को श्राप दिया बताइए उनकी क्या गलती थी और गलती को सुधार करने के लिए क्या किया जा सकता है। कोई यज्ञ आदि कर सकते हैं जिससे उनकी गलती सुधारी जा सकती है, सबको पता ही है कि बलि महाराज की कोई गलती नहीं थी। गलती यह थी कि उन्होंने शुक्राचार्य का पक्ष नहीं लिया। वामन भगवान् का पक्ष लिया। भगवान् ने जब पूछा तब शुक्राचार्य ने कहा-
श्रीशुक उवाच
*कुतस्तत्कर्मवैषम्यं यस्य कर्मेश्वरो भवान् । यज्ञेशो यज्ञपुरुषः सर्वभावेन पूजितः ॥*
( श्रीमद भागवतम 8.23.15)
अर्थ:-
शुक्राचार्य ने कहा हे प्रभु ! आप यज्ञ के भोक्ता हैं और सभी यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले हैं । आप यज्ञपुरुष हैं अर्थात् आप ही वे पुरुष हैं जिनके लिए सारे यज्ञ किये जाते हैं । यदि किसी ने आपको पूरी तरह संतुष्ट कर लिया तो फिर उसके यज्ञ करने में त्रुटियों अथवा दोषों के होने का अवसर ही कहाँ रह जाता है ?
शुक्राचार्य ने कहा कि हे प्रभु आप यज्ञ के भोक्ता हैं और सभी यज्ञ को संपन्न कराने के लिए विधि प्रदाता हैं, आप यज्ञपुरुष हैं। आप ही वे पुरुष हैं, जिनके लिए सारे यज्ञ किए जाते हैं। यदि किसी ने आपको पूरी तरह संतुष्ट कर दिया है फिर उसके यज्ञ करने में त्रुटियों व दोषों के रहने का अवसर ही कहां रह जाता है। भगवान का एक नाम यज्ञ है जो भगवान् को प्रसन्न करता है तब सारे अपने आप प्रसन्न हो जाते हैं। अगले श्लोक में और भी स्पष्ट बता रहे हैं। बहुत सुंदर श्लोक हैं
*मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः । सर्वं करोति निश्छिद्रमनुसङ्कीर्तनं तव ॥*
( श्रीमद भागवतम 8.23.16)
अर्थ:- मंत्रों के उच्चारण तथा कर्मकाण्ड के पालन में त्रुटियाँ हो सकती हैं देश काल , व्यक्ति तथा सामग्री के विषय में भी कमियाँ रह सकती हैं। किन्तु भगवन् ! यदि आपके पवित्र नाम का कीर्तन किया जाए तो हर वस्तु दोषरहित बन जाती है ।
मंत्रों के उच्चारण और कर्मकांड के पालन में त्रुटियां हो सकती हैं। सही मंत्र का उच्चारण नहीं हुआ या गलती हो गई। फिर से क्या करना पड़ता है? गलती हो गई तो दोबारा करना पड़ेगा लेकिन बता रहे हैं देशकाल, व्यक्ति, सामग्री के विषय में भी कमियां रह सकती हैं। सामग्री ठीक नहीं है शुद्ध नहीं है। घी नकली है। गाय का लिखा लेकिन गाय का नहीं है। भैंस का मिला हुआ है आदि लेकिन हे भगवन! यदि आप के पवित्र नाम का कीर्तन किया जाए तो हर वस्तु दोष रहित बन जाती है। वे स्वीकार कर रहे हैं कि बलि महाराज की कोई गलती नहीं है। प्रभुपाद तात्पर्य में लिखते हैं कि वास्तव में शुक्राचार्य स्वीकार कर रहे हैं कि मुझे शाप नहीं देना चाहिए था। मैंने गलती से शाप दिया है। गलती मेरी है। बलि मेरा ही शिष्य था, उसकी कोई गलती नहीं थी। आपका नाम लेने से क्या हो जाता है जहां कोई छिद्र बने हुए हैं, त्रुटियां हैं, वह मिट जाती है। इसलिए भगवान के नामों का उच्चारण करना बहुत जरूरी है। हमारा बड़ा सौभाग्य है कि हम ऐसे गुरु शिष्य परंपरा से जुड़े हुए हैं जो भगवान से परम्परा निकलती है। ब्रह्म मध्व गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय। हमें ऐसे गुरु महाराज प्राप्त हुए हैं जो हर समय विश्व में हरिनाम की ध्वजा को फहराते रहते हैं। हरिनाम की कितनी महिमा और हजारों भक्तों के संग में जप करते हैं, अपना संग प्रदान करते हैं। आज के कलियुग के समय में यह चीज मुश्किल है। गुरु महाराज अपना सङ्ग स्वयं प्रदान करते हैं, उनके संग में जप करने का हमें एक विशेष लाभ प्राप्त होता है। जैसे गीता में भगवान बताते हैं
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||*
अर्थ:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
सारे धर्मों का त्याग कर मेरे अखिल की शरण में आओ। मामेकं है, यह कलयुग के लिए क्या हो जाएगा? वैसे हमें चेंज करने का अधिकार नहीं है। मामेकं का मतलब नामेंकं नाम का ही आश्रय अर्थात भगवान का आश्रय। भगवान का आश्रय या नाम का आश्रय कुछ अलग है क्या? वही है- अभिन्नत्वान्नाम- नामिनोः अर्थात नाम और नामी में कोई अंतर नहीं है। इसलिए कहते हैं कि हमें नाम का आश्रय लेना चाहिए। भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं कि
*जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥*
अर्थ:-निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान् के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक व्यवहार करो।
आपको जो नाम का आश्रय प्राप्त हुआ है उसको अच्छी तरह से रखो। जैसे कोई कीमती वस्तु होती है, हम उसको कितना हिफाजत से रखते हैं ना? इसी प्रकार यह नाम कोई साधारण नाम नहीं है। यह नाम गोलोक वृंदावन से आया है। पंच तत्व- चैतन्य महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु, अद्वैत आचार्य, गदाधर पंडित श्रीवास ठाकुर इसको कहां से लेकर आए।
*सेइ पञ्च- तत्त्व मिलि’ पृथिवी आसिया। पूर्व- प्रेमभाण्डारेर मुद्रा उघाड़िया।।*
*पाँचे मिलि लुटे प्रेम, करे आस्वादन।य़ते य़त पिये, तृष्णा बाढ़े अनुक्षण।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 7.20-21)
अनुवाद:- कृष्ण के गुण दिव्य प्रेम के आगार माने जाते हैं। जब कृष्ण विद्यमान थे, तब यह प्रेम का आगार निश्चय ही उनके साथ आया था, किन्तु वह पूरी तरह से सीलबंद था। किंतु जब श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने पंचतत्व के संगियों के साथ आये, तो उन्होंने दिव्य कृष्ण- प्रेम का आस्वादन करने के लिए कृष्ण के दिव्य प्रेमगार की सील तोड़कर उसे लूट लिया। वे ज्यों ज्यों उसका आस्वादन करते गए, त्यों त्यों और अधिक आस्वादन करने की उनकी तृष्णा बढ़ती ही गई।
यह जो पंचतत्व है, गोलोक वृन्दावन में पहुंच गए और उन्होंने कृष्ण प्रेम का भंडार ढूढं निकाला। ताला तोड़कर कृष्ण प्रेम को उन्होंने लूटा, आस्वादन करके पूरी पृथ्वी पर फैला दिया। हम भी उनमें से एक हैं जिन्हें यह हरिनाम प्राप्त हुआ है। हमें हरिनाम प्राप्त है और हरिनाम ही कृष्ण प्रेम है, लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि जो इसका अनुभव है, वह हमें नहीं हो पा रहा है क्योंकि हम अनादि काल से भगवान् से बिछड़े हुए हैं।
जैसे गुरु महाराज बार बार बताते रहते थे।मुझे स्मरण हो रहा है कि महाराष्ट्र में एतरगंज नामक एक स्थान है। वहां पर एक हनुमानजी का मंदिर है, वहां गुरु महाराज का प्रवचन हो रहा था। पहली बार श्री गुरु महाराज के मुख से सुना कि हरे कृष्ण महामन्त्र ही भगवान् है। पहली बार उनके मुख से सुना कि महामन्त्र ही भगवान् है। जैसा कि थोड़ा समय पहले हमने कहा कि आदर के साथ जप करने के लिए यह बहुत सहायता होती है कि हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् ही है।
हम में एक आदर की भावना उत्पन्न होती है। कुछ दिन पहले मायापुर में किसी फ़ोन मोबाइल कंपनी के बड़ें पोस्टर लगे हुए थे, वहां उन्होंने उसमें हरे कृष्ण महामन्त्र लिखा था, उसमें राधा कृष्ण का चित्र था, फिर हरे कृष्ण का चित्र था। फिर राधा माधव.. भक्ति के जो मार्ग हैं, वे पूरे मार्ग थे। भक्ति विनोद ठाकुर का जो गोद्रुम द्वीप में स्थान है, वहां गुरु महाराज प्रवचन कर रहे थे। गुरु महाराज ने कहा कि आपने देखा है, जो पोस्टर वहां लगे थे, उसमें महामन्त्र था और राधा कृष्ण थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह हरे कृष्ण महामन्त्र है, वही राधा कृष्ण है। जो राधाकृष्ण है, वही हरे कृष्ण महामन्त्र है। इंग्लिश में बता रहे थे, हरे कृष्ण महामन्त्र इज नोट डिफरेंट फ्रॉम राधा कृष्ण।
हरे कृष्ण महामन्त्र का उच्चारण कर रहे हैं, उसका अर्थ है कि हमें राधा कृष्ण का भी सानिध्य व सङ्ग प्राप्त हो रहा है, वह अभिन्न है। बाद में जब गुरु महाराज पंढरपुर में आये थे। उस समय चलते चलते कहा कि हरे कृष्ण महामन्त्र ही कृष्ण प्रेम है। हम हरिनाम का उच्चारण कर रहे हैं, एक दृष्टि से हमें प्रेम प्राप्त हुआ लेकिन प्रेम अंदर है। वो बाहर नहीं आ रहा है। बाहर प्रकट नहीं हो रहा है, यह प्रेम का संकीर्तन है, यह प्रेम नाम है, प्रेम देने वाला नाम है। इसके सन्दर्भ में मैं कुछ एक दो मिनट में ही बताउंगा। समय बहुत हो रहा है।
एक बार राजा प्रताप रुद्र, जगन्नाथ पुरी में अपने महल में थे। उसी समय सार्वभौम भटटाचार्य वहां पर आ गए। उनकी वहां आपस में बातचीत हो रही थी। कुछ समय बाद गोपीनाथ आचार्य वहां पर आ गए।
गोपीनाथ आचार्य ने उनको सन्देश दिया कि अभी जो बंगाल से भक्त आए हैं, वे अथराहनाथ तक पहुंच गए है। वहाँ से थोड़ी देर में यहां पर भी आएंगे। राजा ने सार्वभौम भटटाचार्य से कहा मैं उन भक्तों को नहीं जानता पर मेरी इच्छा है कि उनका नाम जानू। अच्छा होगा कि उनसे मेरी पहचान हो जाए। सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा कि मुझ से अच्छा तो गोपीनाथ आचार्य है, जो उन सबको अच्छे से जानते हैं क्योंकि वे वहां से आए हैं। गोपीनाथ आचार्य ने कहा- ठीक है, हम छत पर जाएंगे। वे फिर महल की छत पर पहुंच गए। तत्पश्चात राजा प्रताप रुद्र पूछने लगे कि यह कौन है? यह कौन दिख रहा है? गोपीनाथ ने कहा कि यह स्वरूप दामोदर है, यह गोविंद है। बहुत सारे भक्त थे, सबके नाम बताए, गोपीनाथ ने कहा कि इतने सारे भक्त, यह पूरा भक्तों का मेला है। मैं किन किन का नाम बताऊं आपको। राजा सबको देख रहे थे। तब राजा ने कहा-
*कोटि सूर्य सम सब उज्ज्वल- वरण।कभू नाहि शुनि एइ मधुर कीर्तन।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ११.९५)
अर्थ:- सचमुच, उनका तेज करोडों सूर्यो के समान है। न ही मैंने इसके पूर्व कभी भगवन्नाम का इतना मधुर कीर्तन होते सुना है।
इनका जो वरण है, इतना उज्जवल दिख रहा है। करोडों सूर्य की जो प्रभा है, वो भी इनके तेज के सामने फीकी पड़ रही है। फिर वे कहते हैं कि ऐसा मधुर कीर्तन तो मैंने सुना ही नहीं।
*ऐछे प्रेम, ऐछे नृत्य, ऐछे हरि- ध्वनि।काहाँ नाहि देखि, ऐछे काहाँ नाहि शुनि।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 11.96)
अर्थ:- मैंने न तो कभी ऐसा प्रेमभाव देखा है, न भगवान् के नाम का इस तरह कीर्तन होते सुना है, न ही संकीर्तन के समय इस प्रकार का नृत्य होते देखा है।
ऐसा नृत्य, ऐसा प्रेम!! राजा कहते हैं कि मैंने बहुत सारे स्थानों में कीर्तन सुना है पर ऐसी मधुर ध्वनि मैनें कभी नहीं सुनी।
तब भट्टाचार्य कहते हैं कि
*भट्टाचार्य कहे एइ मधुर वचन। चैतन्येर सृष्टि- एइ प्रेम- संकीर्तन।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 11.97)
अर्थ:- सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, यह मधुर दिव्य ध्वनि महाप्रभु की विशेष सृष्टि है, जो प्रेम-संकीर्तन कहलाती है।”
उन्होंने बड़ी मधुरता से कहा यह कोई साधारण जगत नही है। यह चैतन्य महाप्रभु की दुनिया है। यह जो कीर्तन मंडली है, यह सब उनकी सृष्टि के लोग हैं। यह प्रेम संकीर्तन है, भगवान् का नाम क्या है- जो हमें गुरु शिष्य परंपरा से प्राप्त होता है। यह कोई साधारण नाम नही है, यह प्रेम नाम है, यह प्रेम संकीर्तन है। इसलिए जैसे जैसे कोई गम्भीरता से नाम लेता है, उसे भी वह प्रेम प्राप्त होगा जो प्रेम सभी जीवों को प्राप्त हुआ है। चैतन्य महाप्रभु ने सबको प्रेम बांटा, उन्होंने पहले ही बांट कर रखा है। हमें वह मांगना चाहिए, हमें एक भिक्षुक बनना चाहिए कि आपने सब को प्रेम बांटा लेकिन हम क्यों अभी तक वंचित हैं। आप तो पतित पावन हैं, इसलिए आप इस प्रेम को हमें प्रदान कीजिए जिससे आपका पतित पावन नाम और भी ज़्यादा उजागर हो जाए। जो व्यक्ति योग्य नहीं था, आपने फिर भी प्रेम दिया अर्थात आप वास्तव में पतित पावन हैं। ऐसे में वैष्णवों के चरणों में, गुरु के चरणों में प्रार्थना करनी चाहिए जिससे इसका जो स्वाद है, उसका हम वास्तव में अनुभव कर सकें।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
आप सभी का धन्यवाद।
आपने ध्यान से सुना।
हरे कृष्ण। दण्डवत प्रणाम!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
3 मार्च, 2022
मायापुर धाम से
नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले,
श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामिन इति नामिने ।
नमस्ते सरस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे,
निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ।।
श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,
श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आप सब का स्वागत है। मायापुर धाम की जय। मैं सोच रहा था कि मैं मायापुर में जप कर रहा हूँ और आप भी मेरे साथ जप कर रहे थे मतलब आप भी मायापुर में ही जप कर रहे थे। यू चेटिंग विथ मी, मैं जहां हूँ आप भी वहां जप कर रहे थे या अभी आप मायापुर में ही हो। मुझे अगर आप देख रहे हो या सुन रहे हो, मायापुर से मैं आपके साथ वार्तालाप कर रहा हूँ। जप कर रहा था अब कुछ वार्ता होगी वार्ता मतलब न्यूज़। मैं यहां मायापुर उत्सव में सम्मिलित होने के लिए पहुंचा हूँ। मैं फोर्टी नाईन्थ टाइम यह मेरी मायापुर की उनचास वीं भेंट है। श्रील प्रभुपाद और गौरांग महाप्रभु की अहेतु की कृपा का ही फल है कि मुझे भगवान और श्रील प्रभुपाद बारंबार मायापुर ले आते हैं। मायापुर धाम की जय।
श्री गौड़ मंडल भूमि, जेबा जाने चिंतामणि
तार होए ब्रज भूमे वास (भजन – नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा कृत)
अनुवाद – श्री गौर मंडल भूमि को जो चिंतामणि के रूप में जानता है, वह ब्रजभूमि में वास करता है।
ऐसा कहा गया है यह चिंतामणि धाम है, वृंदावन चिंतामणि धाम है। यह धाम वृंदावन से अभिन्न है। यह भी चिंतामणि धाम है, नाम चिंतामणि। नाम भी चिंतामणि का बना हुआ है।
नाम चिंतामणि कृष्णस्य,चैतन्य रस विग्रह।
पूर्ण शुद्धो नित्य मुक्तो,अभिन्न त्वान्नाम नामिनोह।। ( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133)
अनुवाद – कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंदमय है । यह सभी आध्यात्मिक आशीर्वाद प्रदान करता है, क्योंकि यह स्वयं कृष्ण हैं, सभी सुखों के भंडार हैं। कृष्ण का नाम पूर्ण है, और यह सभी दिव्य मधुरों का रूप है । यह किसी भी परिस्थिति में भौतिक नाम नहीं है, और यह स्वयं कृष्ण से कम शक्तिशाली नहीं है । चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से दूषित नहीं है, इसलिए इसके माया के साथ शामिल होने का कोई सवाल ही नहीं है । कृष्ण का नाम हमेशा मुक्त और आध्यात्मिक है; यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा वातानुकूलित नहीं होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृष्ण और कृष्ण के नाम स्वयं समान हैं ।
यहां पर इस वर्ष राधा माधव गोल्डन फेस्टिवल मनाया जा रहा है, स्वर्ण महोत्सव। यह इस्कॉन का पचासवां हरे कृष्ण उत्सव है। 1972 में श्रील प्रभुपाद पहले भी मायापुर आए थे लेकिन अपने विश्व भर के शिष्यों को लेकर पहली बार यहां आए थे गौर पूर्णिमा महोत्सव संपन्न करने के लिए। सारे संसार को या नवद्वीप मायापुर वासियों को और उनके गुरु बंधुओं को यह दर्शाने, दिखाने के लिए कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी सच हो चुकी है।
पृथिवीते आचे यता नगरादि-ग्राम
सर्वत्र प्रचार होइबे मोरा नाम (चैतन्य भागवत अंत्य खंड 4.126)
अनुवाद – दुनिया की सतह पर जितने कस्बे और गांव हैं, वहां सभी जगह मेरा नाम प्रसारित किया जाएगा।
यह जो भविष्यवाणी श्रीमन महाप्रभु कि देख लो यह अमेरिका से है, यह जापान से है, यह ऑस्ट्रेलियन भक्त है, यह अफ्रीका के हैं और इसी धाम में गौर नित्यानंद प्रभु ने जगाई मधाई का उद्धार किया था।
श्रील प्रभुपाद दर्शा रहे थे अमेरिकन, यूरोपियन, ऑस्ट्रेलियन, कैनेडियन और जगाई मधाई एक समय के अब जगाई मधाई नहीं रहे अब वे वैष्णव बन चुके हैं।
ब्रजेन्द्र नंदन जेई, शची सुत होइलो सेई, बलराम होइलो निताई।
दीन हीन जत छिलो, हरिनाम उद्धारिलो टार शाक्षी जगाई मधाई ।। (भजन – नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा कृत)
अनुवाद – जो ब्रजेन्द्र नंदन कृष्ण थे वे ही शची माता के पुत्र (चैतन्य महाप्रभु ) बन गए और बलराम निताई बन गए है। हरिनाम ने दीन हीन सबका उद्धार किया। जगाई और मधाई नाम के दो महापापी इसका प्रमाण हैं।
दीन हीन पतितों को हरी नाम पावन बनाता है। तार साक्षी उस गीत में तो कहा है इस के साक्षी जगाई मधाई लेकिन श्रील प्रभुपाद और बहुत सारे गवाह या साक्षी हैं कि हरि नाम दीन हीन पतितों को पावन पवित्र बनाता है, वैष्णव बनाता है। इसका प्रूफ क्या है? यह इसका प्रूफ है। प्रभुपाद मानों दिखा रहे थे, दर्शा रहे थे। हरि नाम का
नाम्नामकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः ।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।। (चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.16)
अनुवाद- हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है, अत: आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द, जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं। आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं। हे प्रभु, यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं, किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हैं, अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है।
हरि नाम में जो शक्ति है और हरी नाम कैसे उद्धार कर सकता है? और प्रभु नित्यानंद ने जगाई मधाई का इसी धाम में उधार किया तो उन्हीं का यह आंदोलन इस्कॉन श्री कृष्ण अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ सारे विश्व में विश्व भर के जगाई मधाई का उद्धार कर रहा है। इसका दर्शन, प्रदर्शन प्रभुपाद मानो 1972 में कर रहे थे, हरि हरि। उसी समय ऑफिशियली श्रील प्रभुपाद ने उस उत्सव को संपन्न करते हुए नवद्वीप मायापुर धाम का लोकार्पण या जगत अर्पण किया सारे संसार को इंटरड्यूज कराया, परिचय कराया। नवद्वीप धाम की जय। । धीरे-धीरे प्रभुपाद भी यहां इस्कॉन के हेड क्वार्टर की स्थापना करेंगे और संसार भर के देश विदेश के भक्तों को यहां आमंत्रित करेंगे। मायापुर उत्सव के समय और भी समय आ सकते हैं। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद ने यह धाम का जो रहस्यमई है इस रहस्य का उद्घाटन किया, इस धाम का परिचय दिया सारे संसार को और उसी उत्सव में राधा माधव विग्रह की आराधना भी प्रारंभ हुई। यह एनिवर्सरी या वार्षिक उत्सव 50 वां वार्षिक उत्सव मनाया जा रहा है। राधा माधव गोल्डन माधव महोत्सव यहां राधा माधव भी पधारे उनकी आराधना प्रारंभ हुई, उसका भी उत्सव है और तब से कई भक्तों ने धाम की सेवा में अपना सब कुछ न्यौछावर किया है, मायापुर प्रोजेक्ट की सेवा में तो उनका भी स्मरण किया जा रहा है और उनकी भी गौरव गाथा गाई जा रही है जैसे – जय पताका स्वामी महाराज डे वन से या उत्सव नंबर एक से वे यहीं है। उससे पहले वे कोलकाता में थे इस्कोन कोलकाता के टेंपल प्रेसिडेंट थे। जब मायापुर में इस्कॉन की स्थापना हुई तो उनको यहां ट्रांसफर किया गया और जय पताका महाराज तब से ‘मैं तुमको यह आध्यात्मिक जगत दे रहा हूँ आई एम गिविंग यू किंगडम ऑफ गॉड यहां और विकास करो इसको सजाओ’ ऐसा आदेश प्रभुपाद ने जय पताका महाराज को दिया। जन निवास प्रभु श्री राधा माधव के पहले पुजारी रहे और अब तक वे पुजारी है ही तो पिछले 50 वर्षों से जन नीवास प्रभु राधा माधव की आराधना अर्चना कर रहे हैं, और भी सारे भक्त, अधिक तो भक्त नहीं थे संख्या कम ही थी 50 वर्षों से जो इस धाम के साथ, धाम की सेवा में जुड़े हुए हैं। मेरा संबंध तो थोड़ा फेस्टिवल लिमिटेड ही रहा, उत्सव से मर्यादित ही रहा।
1972 का जो पहला उत्सव प्रभुपाद ने मनाया वह तो मैंने मिस किया, वैसे मिस नहीं किया क्योंकि श्रील प्रभुपाद ने यहां उत्सव मनाया 1972 में मायापुर में गौर पूर्णिमा के समय ये गौर पूर्णिमा उत्सव ही मनाया जा रहा था और फिर श्रील प्रभुपाद यहां से उस साल 29 फरवरी 1972 को गौर पूर्णिमा थी तो उसके उपरांत मार्च में श्रील प्रभुपाद बम्बई आये और बम्बई में उन्होंने हरे कृष्ण फेस्टिवल मनाया। जिस फेस्टिवल को मैंने जॉइन किया उस समय तो मैं रघुनाथ भगवान पाटील ही था, मैं कॉलेज स्टूडेंट ही था, तो मिस किया और नहीं भी किया यहां अटेंड नहीं किया लेकिन हरे कृष्ण उत्सव 1972 में बम्बई में जुहू में रहा तो इस प्रकार 49 उत्सव यह और पहला बम्बई में इस प्रकार 50 उत्सव मैंने भी अटेंड किए हुए हैं तो मुझे भी कल पुरस्कार दिया गया। मुझे भी मेडल दिया गया। जो जो विजेता रहे या प्रारंभ से इस प्रोजेक्ट के साथ जुड़े रहे या उत्सव में सम्मिलित होते रहे उन्हें भी पुरस्कार दिए गए। मैं उनका आभारी हूँ , यहाँ की फेस्टिवल कमेटी का भी मैं आभारी हूँ। जय पताका महाराज के साथ को-चेयरमैन हूँ तो वह सेवा मैं मायापुर फेस्टिवल में करते रहता हूँ, मतलब यही वैष्णवों की सेवा, धाम की सेवा, नाम की सेवा इस धाम में करने का अवसर मुझे 49 वीं बार, फोर्टी नाईन्थ टाइम प्राप्त हो रहा है। यह गुरु और गौरांग की अहेतु की कृपा ही है। आप ऑनलाइन देखते जाइए पदममाली प्रभु शायद आपको बता सकते हैं या मायापुर टीवी पर प्रसारण हो रहा है। दिन भर उत्सव संपन्न होते रहते हैं। बहुत सारी बातें और भी है श्री राधा माधव मैं कह ही देता हूँ राधा माधव की सेवा भी मुझे 1973 में जब पहली बार यहां आया तब मैं राधा रासबिहारी का पुजारी था। श्रील प्रभुपाद ने मुझे बम्बई में राधा रासबिहारी का पुजारी और फिर धीरे-धीरे हेड पुजारी बनाया। जन नीवास प्रभु ने मुझे आमंत्रित किया और मैं और जन नीवास प्रभु 1973 में हम राधा माधव की सेवा वे माधव की सेवा करते थे और मुझे राधा रानी की सेवा करने का मौका दिया तो राधा रानी के चरणों की सेवा और सर्वांग की सेवा और उनकी अर्चना, उनका अभिषेक, उनका श्रृंगार इत्यादि इत्यादि सेवा 1973 में मैं कहूँगा जन निवास प्रभु यहां के हेड पुजारी उनकी कृपा से मिला। हम जब राधा माधव की अर्चना में व्यस्त रहते थे। यह मुझे याद है उसी समय श्री प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक पर जाया करते थे।
इस प्रोजेक्ट के सामने भक्ति सिद्धांत रोड इस रोड का नाम उसी मार्ग पर श्रील प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक पर जाते थे और प्रभुपाद लौटते तब राधा माधव के श्रृंगार दर्शन करते। मैं तो राधा रानी की सेवा करते करते श्रील प्रभुपाद का खूब स्मरण किया करता रहता था कि प्रभुपाद वहां होंगे, वहां पहुंचेंगे होंगे, ब आते ही होंगे फिर भक्त लोटस बिल्डिंग उस समय एक ही बिल्डिंग थी इसका नाम लोटस बिल्डिंग था। 1972 में तो प्रभुपाद कुटीर में ही रहा करते थे। प्रभुपाद कुटीर वही उत्सव संपन्न हुआ लेकिन 1973 में जब हम आए फेस्टिवल के लिए तो प्रभुपाद लोटस बिल्डिंग में सेकंड फ्लोर पर रहते थे। इस बिल्डिंग के सामने भक्त कीर्तन करके श्रील प्रभुपाद का का स्वागत किया करते थे जिससे मैं जान जाता था कि प्रभुपाद पहुंच गए है। हम लोग और फटाफट, जल्दी-जल्दी, झटपट बचा हुआ जो श्रृंगार होता उसे पूर्ण करते हुए श्रृंगार दर्शन की तैयारी किया करते थे। श्रील प्रभुपाद बिल्कुल समय पर या समय से पहले पहुंचकर राधा माधव के दर्शन की प्रतीक्षा करते थे, पर्दा खुलते ही जन निवास प्रभु शंख बजाते थे प्रभुपाद पर्दा खोलते थे। प्रभुपाद दंडवत प्रणाम किया करते थे। वृद्धावस्था में भी मैंने तो कभी नहीं देखा कि प्रभुपाद ने विग्रह के सामने कभी पंचांग प्रणाम किया, हमेशा पूरा साष्टांग दंडवत प्रणाम। तीन ऑल्टर हैं तो हर ऑल्टर के समक्ष दंडवत प्रणाम किया करते थे। आज जगन्नाथ दस बाबाजी का तिरोभाव तिथि महोत्सव भी है । आज के दिन वे समाधिस्थ हुए और वो समाधि है नवद्वीप एक टाउन भी है, नगर भी है गंगा के उस पार वहां उनकी समाधि हैं। वे 1894 में समाधिस्थ हुए। श्रील प्रभुपाद के जन्म के 2 वर्ष पूर्व जगन्नाथ दास बाबाजी का तिरोभाव या डिसअपीरियंस उस साल भी संपन्न हुआ और हर साल संपन्न होता है और इस साल भी हो रहा। गौडिय वैष्णव जगत स्मरण कर रहा है और उनके गौरव गाथा सारे विश्व भर में गाई सुनी जा रही है।
गौराविर्भाव भूमेस्त्वं निर्देष्टा सज्जन प्रियः।
वैष्णव सार्वभौमः श्रीजगन्नाथाय ते नमः।। ( जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज प्रणाम मंत्र)
अनुवाद – मैं उन जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज को सादर नमन करता हूँ जो समस्त वैष्णव समुदाय द्वारा सम्मानित हैं तथा जिन्होंने गौरांग महाप्रभु की आविर्भाव भूमि की खोज की थी।
वैष्णवों में वे सार्वभौम, श्रेष्ठ थे। यह प्रणाम मंत्र भी हम उनके चरणों में करते हैं। इस समय वे वृंदावन में साधन भजन कर रहे थे । वैसे वह साधन सिद्ध थे, सिद्ध महात्मा, साक्षात कार्य पुरुष थे। राधा कुंड के तट पर वे अष्ट कालीय लीला स्मरण, लीला प्रेम में तल्लीन रहा करते थे। वृंदावन से वे मायापुर नवद्विप आ जाते हैं नॉर्मली तो मायापुर से वृंदावन जाना होता है या जाते हैं लेकिन वह वृंदावन से मायापुर आ गए। गौर किशोर दास बाबा जी महाराज वृंदावन में पहले रहा करते थे, अपना साधन भजन किया करते थे। अब वे भी मायापुर आए थे। जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के शिक्षा गुरु रहे या भक्ति विनोद ठाकुर को यदि आप अगर हल्का सा जानते हो, उनकी महिमा जानते हो तो वे उनके गुरु हैं जिनको उन्होंने इनके चरणों का जिन्होंने आश्रय लिया वे श्री जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज कितने महान होंगे? 1891 में जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जब बंगाल आए तो अंग्रेजों के जमाने कि बात है, आप याद रखें 1891 की बात है। भक्ति विनोद ठाकुर जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज से पहले 1880 में मिले थे। अब उनकी मुलाकात वर्धमान नाम का बंगाल में एक जिला है वही हुई थी। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर उस समय वे केदारनाथ दत्त ही थे वे एकादशी के दिन वर्धमान गए और एकादशी की रात्रि जगन्नाथ दास बाबा जी के सानिध्य में बिताई, हरि कीर्तन और हरि कथा में मग्न जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज का अंग संग उस रात्रि को उनको प्राप्त हुआ। एकादशी का दिन था हरि वासर कहते हैं, हरि वासर वासर मतलब वा या दिन जैसे सोमवार को सोमवासर, रविवार या रविवासर, एक हरी वासर भी है एकादशी तो हरि वासर भी कहते हैं। भक्ति विनोद ठाकुर जगन्नाथ दस बाबाजी के महाराज के सानिध्य में रात बिताई और फिर दूसरे दिन प्रभात फेरी या नगर संकीर्तन जो हो रहा था तो उसका नेतृत्व भी जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज ही कर रहे थे, तो उस कीर्तन में भी, रात्रि में भी उन्होंने अनुभव किया ही था।
साधु-संग, ‘साधु-संग – सर्व-शास्त्रे काया ।
लावा-मात्रा साधु-संगे सर्व-सिद्धि हया ।। ( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.54)
अनुवाद – सभी प्रकट शास्त्रों का निर्णय यह है कि शुद्ध भक्त के साथ एक क्षण की भी संगति करने से व्यक्ति सभी सफलता प्राप्त कर सकता है।
इतना सारा संग श्रील भक्ति विनोद ठाकुर को प्राप्त हुआ और नगर संकीर्तन के समय जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज के साथ थे। स्पेशली उस नगर संकीर्तन में जगन्नाथ दास बाबाजी के हाव भाव, उनका कीर्तन, नृत्य और उनके द्वारा किया हुआ उद्दंड कीर्तन। उस समय जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज की आयु 120 साल थी। उस अवस्था में जगन्नाथ दास जी महाराज ऐसे नृत्य कर रहे थे, कभी जमीन पर लोट जाते लोटांगन होता, अपनी विरह व्यथा को प्रकट करते।
हे राधे व्रजदेविके च ललिते हे नन्दसूनो कुतः।
श्री गोवर्धन कल्पपादन तले कालिन्दवने कुतः ।। ( श्रीनिवास आचार्य कृत षड गोस्वामी अष्टकम)
अनुवाद – हे व्रज की पूजनीय देवी राधिके आप कहाँ हो? हे ललिते आप कहाँ हो? हे ब्रजराजकुमार आप कहाँ हो? श्री गोवर्धन के कल्पवृक्षों के नीचे बैठे हो अथवा कालिंदी के कमनीय कूल पर विराजमान वन समूह में भ्रमण कर रहे हो?
यह गौडीय वैष्णवों का वैशिस्ठय है। वे मिलन आनंद का उल्लेख कम ही करते है। मिलन आनंद, दर्शन आनंद, विरह आनंद या व्यथा वो आनंद ही होता हैं उसी को व्यक्त करते रहते है। विप्रलम्भ अवस्था,
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने ऐसा दर्शन कभी व कहीं पर नहीं किया था। उनसे भक्ति विनोद ठाकुर और भी अधिक प्रभावित व लाभान्वित हुए। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज को कीर्तन और सत्संग के लिए गौद्रुम द्वीप में सरस्वती नदी के तट पर स्वानन्द सुखद कुञ्ज नामक जो स्थान जहाँ उनका घर या जहाँ उनकी समाधी हैं, वहां आमंत्रित किया। उन दिनों का वैशिस्ठय ये भी आप नोट कीजिये मैं उल्लेख करता रहता हूँ , ऐसा भी समय था जब भक्ति विनोद ठाकुर के घर में एक ही साथ वहां सत्संग में जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज, भक्ति विनोद ठाकुर, गौर किशोर दास बाबाजी महाराज और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर एक ही बैठक में, एक ही संग में वह एकत्रित रहते थे। ये कुछ वर्षों के लिए चलता रहा । श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को हम लोग सप्तम गोस्वामी कहते है। वृन्दावन में जैसे षड गोस्वामी एकत्रित होकर
nana-sastra-vicaranaika-nipunau sad-dharma-samsthapakau
lokanam hita-karinau tri-bhuvane manyau saranyakarau
radha-krishna-padaravinda-bhajananandena mattalikau
vande rupa-sanatanau raghu-yugau sri-jiva-gopalakau- Sad Gosvami astakam-2 by Srinivas Acarya
नानाशास्त्रविचारणैकनिपुणौ सद्धर्मसंस्थापकौ
लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ शरण्याकरौ ।
राधाकृष्णपदारविन्दभजनानन्देन मत्तालिकौ
वन्दे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीवगोपालकौ || ( श्रीनिवास आचार्य कृत षड गोस्वामी अष्टकम)
अनुवाद – मैं छह गोस्वामी, अर्थात् श्री रूप गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्री रघुनाथ दास गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी और श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी को सम्मानपूर्वक प्रणाम करता हूं, जो सभी प्रकट शास्त्रों की जांच में बहुत विशेषज्ञ हैं। सभी मनुष्यों के लाभ के लिए शाश्वत धार्मिक सिद्धांतों की स्थापना के उद्देश्य से। इस प्रकार उन्हें तीनों लोकों में सम्मानित किया जाता है और वे आश्रय लेने के लायक हैं क्योंकि वे गोपियों की मनोदशा में लीन हैं और राधा और कृष्ण की पारलौकिक प्रेमपूर्ण सेवा में लगे हुए हैं।
ऐसे उद्देश्य से षड गोस्वामी वृंद वृन्दावन में या राधा दामोदर के परिसर में एकत्रित हुआ करते थे वैसी ही बैठक या सत्संग नवद्वीप मायापुर में भक्ति विनोद ठाकुर के निवास पर हमारे संप्रदाय के जो चार आचार्य हैं, एकत्रित हुआ करते थे । इनका मुख्य सहयोग जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज प्रसिद्ध है, भक्ति विनोद ठाकुर चैतन्य महाप्रभु की लीला स्थलियों को ढूंढ रहे थे उनका निर्धारण चल रहा था। उन दिनों में समस्या यह थी कि चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थान है वो कहाँ है? गंगा के पश्चिमी तट पर है या पूर्वी तटपर है? जहाँ इस्कोन है, मायापुर पूर्वी तट पर है। इस प्रकार कई मत मतान्तर चल रहे थे । भक्ति विनोद ठाकुर इस पर रोकथाम लगाना चाहते थे, बस कोई यहाँ कहता हैं, कोई कहता वहां पर है । भक्ति विनोद ठाकुर को थोडा सा अंदाजा था । वे इस पर काफ़ी रिसर्च कर रहे थे । एक दिन उन्होंने जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज से सहायता की मांग करी और कहा आप चलिए मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता है । जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज के लिए चलना मुश्किल था वे उठ भी नहीं सकते थे । बिहारी दास बाबा जो जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज को टोकरी में वृन्दावन से लेकर आये थे, उस दिन भी वे उन्हें टोकरी में बिठाकर यहाँ वहां लेकर जा रहे थे, औ रफिर जैसे ही भक्ति विनोद ठाकुर और भी मंडली साथ में थी वे जहाँ योग पीठ हैं जैसे ही वहां पहुचे जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज उस टोकरी में से छलांग मार कर गौरंगा- गौरंगा ऐसे पुकार रहे थे, उनका उद्दंड नृत्य वा कीर्तन उस टोकरी में ही होने लगा । श्रील भक्ति विनोद ठाकुर हर्षित हुए और सहमत भी हुए कि चैतन्य महाप्रभु की जन्म स्थली यही होनी चाहिए ।
गौर महाप्रभु का जन्म भूमि या स्थल को निर्देशित करने वाले जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज की जय । वे इस बात के लिए विशेष रूप से प्रख्यात है, अन्यथा हमें इस बात का अभी तक पता भी नहीं चलता कि चैतन्य महाप्रभु कि जन्म स्थली कौन सी हैं? जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज को उस स्थान को ढूंढने, स्थापना करने का सारा श्रेय जाता है, घोषणा तो बाद में भक्ति विनोद ठाकुर ने करी और फिर भक्ति विनोद ठाकुर ने उसी स्थान पर जहाँ वर्तमान में मंदिर विद्धयमान है, वहां नीम भी हैं वहां स्थापना का कार्य प्रारंभ किया और भक्ति सिद्धांत ठाकुर के कर कमलों से उस कार्य को पूरा किया या समापन किया, और सारे संसार को योग पीठ प्राप्त हुई । सभी आचार्यों को हमारा दंडवत प्रणाम, श्रील प्रभुपाद, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर, गौर किशोर दस बाबाजी महाराज, भक्ति विनोद ठाकुर और स्पेशली आज के दिन जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज के चरणों में हमारे बारंबार प्रणाम और प्रार्थना भी कि हम सभी को वह शक्ति, बुद्धि, सामर्थ्य दे ताकि यह प्रचार का कार्य है, हरि नाम प्रचार का कार्य अब हमारी बारी है प्रचार करने की इस कार्य को हम सफलतापूर्वक आगे बढ़ाएं ।
कलि-कालेर धर्म —कृष्ण-नाम-सड़्कीर्तन।
कृष्ण- शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन।। (श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 7.11)
अनुवाद: – कलयुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
कलयुग का धर्म है नाम संकीर्तन और कृष्ण शक्ति के बिना इसका प्रचार प्रसार संभव नहीं है तो कृष्ण शक्ति हमको आचार्यों के माध्यम से प्राप्त होती है । आचार्य हमें कृष्ण की शक्ति देते हैं, हमको शक्तिमान या बुद्धिमान या समर्थ बनाते हैं और यह प्रचार प्रसार का कार्य तभी संभव है । आइए हम पुनः पुनः प्रार्थना करते हैं जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज के चरणों में कि वह हमें ऐसी शक्ति दे ताकि उन्हीं के कार्य को हम आगे बढ़ा सके । श्रील प्रभुपाद की जय, जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज तिरोभाव तिथि महा महोत्सव की जय
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*02-03-2022*
*भगन्नाम की महिमा*
(श्रीमान वेदांत चैतन्य प्रभु द्वारा)
हरे कृष्ण सबसे पहले मैं परम पूजनीय गुरु महाराज के चरणों में दंडवत प्रणाम करता हूं और उसके पश्चात उपस्थित समस्त वैष्णव भक्तों के चरणों में दंडवत प्रणाम करता हूं। आज के दिन पदमालि प्रभु ने जपा के विषय में ही चर्चा करने के लिए आज्ञा दी है तो आज हम जप के विषय में ही कुछ बातें करेंगे।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
आज अपराधों से बचने के लिए ही चर्चा करने के लिए हमें बताया गया है किस प्रकार हम जप में अपराधों से बच सकते हैं। आचार्य हमेशा हमें बताते ही हैं कि हमें किस प्रकार का जप करना चाहिए। *अपराध शून्य होए लहो कृष्ण नाम* भगवान का नाम अपराध शून्य हो कर लेना चाहिए। इस प्रकार से 10 प्रकार के नाम अपराध के विषय में तो सब लोग जानते ही हैं और इन 10 नाम अपराधों का जो मूल है वो बे ध्यान नाम जप है। इस बे ध्यान नामजप के कारण ही अन्य अपराध होने लगते हैं। तो किस प्रकार से हम इस मूल बे ध्यान नाम जप से बच सकते हैं इसके विषय में हम बताएंगे क्योंकि यदि नाम लेते वक्त व्यक्ति नाम जप ध्यान से करे तो बाकी समय पर भी वह अपने समस्त कार्यों को ध्यान पूर्वक कर सकेगा। अपराधों से अपने आप को बचाते हुए इसलिए ध्यान पूर्वक जप करने के विषय में बहुत ज्यादा जोर दिया जाता है और इसी ध्यान पूर्वक जप के संदर्भ में चर्चा करना है। वैसे ध्यान पूर्वक जप करना इसके विषय में हम कई प्रकार के सेमिनार सुनते हैं, लोग कई प्रकार के प्रयास करते हैं, कोई भगवान के चित्र को देखकर ध्यान पूर्वक जप करने का प्रयास करता है, कोई हरे कृष्ण महामंत्र लिखा हुआ है एक पर्चे को लेकर फिर उसे देखकर जप करने का प्रयास करता है प्रकार अलग-अलग तरह से लोग प्रयास करते हैं। लेकिन बात यह है भगवत गीता के अंदर स्वयं भगवान यह बताते हैं कि ध्यान पूर्वक जप करना असंभव है। क्यों ? बद्ध अवस्था में यह असंभव है क्योंकि भगवत गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कहते हैं।
*भोगैश्र्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता २. ४४ )
अनुवाद- जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्र्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में भगवान् के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता |
समाधि नहीं लगने वाली है जब तक भोग और ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति रहेगी और हमारी आसक्ति ही हमारे ध्यान को डायवर्ट करती है क्योंकि आपकी किस चीज के प्रति आसक्ति है यह आपको कैसे पता लगेगा? जब भी आप भगवान का नाम जप करने लगते हो तो जहां जहां आपका मन जा रहा है वहां वहां आपकी आसक्ति है। इस प्रकार से हमारी आसक्ति हमारा ध्यान नहीं लगाने देगी और जब तक आसक्ति रहेगी तब तक व्यक्ति ध्यान पूर्वक जप नहीं कर सकता। फिर ऐसी अवस्था में हम क्या करें ? जब तक हम ध्यान पूर्वक जप नहीं करेंगे तब बाकी अपराध होने लग जाएंगे और जब बाकी अपराध होंगे तो नाम के प्रति इतनी रुचि नहीं बढ़ेगी। इस अवस्था में हमें क्या करना चाहिए ध्यान पूर्वक जप करना तो संभव नहीं है किंतु ध्यान पूर्वक जप करने का प्रयास करना यह हमारे लिए संभव है और यही बात हमारे लिए है। अर्थात “प्रयास” हमारे लिए है और वह भी यदि व्यक्ति नहीं करता है फिर उसे नाम अपराध माना जाता है। एक जपा रिट्रीट के अंदर महात्मा प्रभु बताते हैं महात्माओं को, यदि आपको पता चलने के बाद भी आपका ध्यान पूर्वक जप नहीं हो रहा है और इस बात का पता चलने पर भी यदि व्यक्ति ध्यान पूर्वक जप करने का प्रयास भी नहीं कर रहे हैं तब यह सच में नाम अपराध है।
निरंतर प्रयास करते हुए भगवान के नाम के जप का पालन करना, निरंतर प्रयास, इसी को साधना कहा जाता है। यदि व्यक्ति इस प्रकार का प्रयास ही नहीं कर रहा है तो वह साधना कर क्या रहा है. इसलिए हम अपने प्रयास को जारी रखने के लिए बार-बार जप के बारे में सुनते हैं तब हमें अनेक प्रकार की टिप्स इत्यादि मिलती रहती हैं। यदि हम इस प्रकार से करते हैं तो इससे हमारा नाम में और अधिक ध्यान लगेगा और ये और अधिक बेहतर होगा। इस प्रकार की बातों को हम अपने जपा के अंदर इंक्लूड करने लगेंगे तब फिर भगवान यह देखने वाले हैं कि हम कितना अधिक गंभीर हैं अपने प्रयासों में, क्योंकि ध्यान पूर्वक जप बद्ध अवस्था में संभव ही नहीं है। केवल हमारी गंभीरता ही हम दिखा सकती है और इसी गंभीरता के विषय में ही एक बार भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज इस प्रकार से कहते हैं आप केवल भगवान के नाम को अपनी जिह्वा से कहकर पकड़ नहीं सकते और हमारे नाम के प्रति हमारी सेवा भावना देखकर नाम अपने आप प्रकट हो जायेगा अर्थात आपकी जिह्वा भगवान के नाम को नहीं पकड़ सकती किंतु भगवान का नाम हमें पकड़ सकता है। इस प्रकार की गंभीरता के प्रयासों को जब हम करेंगे जिससे भगवान यह देखेंगे और समझेंगे कि वास्तव में यह व्यक्ति बहुत गंभीर है और बहुत प्रयास कर रहा है नाम जप करने के लिए तब फिर मैं प्रकट होता हूं। हमारी सेवा और भावना को देखकर ही भगवान उस नाम में फिर प्रकट होंगे क्योंकि बद्ध अवस्था में रूप गोस्वामी भक्तिरसामृत सिंधु के अंतर्गत इस प्रकार से कहते हैं “मै इंद्रियों की ग्रहण करने की वस्तु नहीं हूं” यह भगवान का नाम भगवान की कथा इत्यादि हमारी भौतिक इंद्रियों जो कि कल्मषों से भरी हुई है वह ग्रहण नहीं कर पाएगी। भक्ति की परिभाषा के अंदर भी इस बात को कहा जाता है।
*सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।।* (चैतन्य चरितामृत मध्य १९. १७०)
अनुवाद: – भक्ति का अर्थ है समस्त इंद्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् कि सेवा करता है तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् कि सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं।
इंद्रियों के निर्मल होने के बाद ही भक्ति शुरू होती है तब जाकर वह भगवान के नाम को सुन पाएगें। तब तक हमें अपनी ओर से गंभीरता से प्रयास जारी रखना चाहिए क्योंकि वह प्रयास ही भगवान देखेंगे और हमारी तरफ से वही भक्ति है। इस प्रयास के संदर्भ में हम आपसे महत्वपूर्ण चर्चा करना चाहेंगे भगवान भगवत गीता के छठे अध्याय के अंतर्गत योगी के विषय में चर्चा करते हैं अष्टांग योग के संदर्भ में ध्यान योग और 7 वे अध्याय से भक्ति योग के विषय में चर्चा शुरू होती है। हम जब जप करेंगे और जब तक व्यक्ति एक योगी की तरह जप करने लगेगा तब तक योग में जितने भी प्रकार के कष्ट का अनुभव होता है अपने मन को संलग्न करने में, उन सभी समस्याओं को हमें अपने जप के अंतर्गत भी देखना पड़ेगा। किंतु जब व्यक्ति भक्त की तरह जप करेगा तब वह उतना मुश्किल नहीं होगा क्योंकि ज्यादातर देखा गया है कि भक्त लोग एक योगी की तरह जप करने का प्रयास करते हैं। योगी मतलब एक व्यक्ति जो जप को केवल मशीनी या मैकेनिकल तौर पर नहीं बोल रहे हैं और सुनने का प्रयास कर रहे हैं और जहां जहां पर मन भाग रहा है वहां वहां से मन को उठाकर ले आता है। कहीं भाग गया मन तो फिर वहां से उठा कर ले आए, कहीं और भाग गया तो वहां से उठा कर ले आए, इस प्रकार से योगी के विषय में भी चर्चा करते हुए भगवान यही बात कहते हैं।
*यतो यतो निश्र्चलति मनश्र्चञ्चलमस्थिरम् |ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता ६. २६)
अनुवाद-मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए |
जहां जहां पर मन भाग जाता है वहां वहां से मन को उठाकर वापस ले आना, व्यक्ति जब इस प्रकार से एक योगी की तरह जप करता है और हमेशा यही प्रयास करता रहता है कि जहां पर भी मन भाग जाता है उसे वहां से उठाकर ले आना है। भगवान के नाम में लगाने का प्रयास करना है। किंतु यहां पर उनके प्रयासों में प्रॉब्लम यही आएगी आप चाहे जितना भी प्रयास करो मन भागता ही रहेगा। किंतु जब भक्तों की तरह से जप करने का डिवोशन होता है, दूसरे अध्याय से छठे अध्याय तक भगवान बताते हैं कि इस भौतिक जगत से किस प्रकार से अपने आप को विरक्त करना है। इसी के विषय में और आत्मज्ञान के विषय में भगवान चर्चा करते हैं। किंतु सातवें अध्याय से भक्ति योग के विषय में चर्चा शुरू होती है इसीलिए दूसरे अध्याय से छठवे अध्याय तक ज्यादातर हमें बहुत विरले ही यह माम मयी इन शब्दों को हम सुन पाते हैं। मुझे समर्पण करो या मेरी भक्ति करो या मेरे ऊपर ध्यान लगाओ या मुझ में मन लगाओ, इस प्रकार की बातें हमें बहुत ही विरले ही सुनने को मिलती है किंतु सातवें अध्याय से 12 वे अध्याय के बीच में हम देख सकते हैं कि लगभग हर श्लोक में यह माम मयि शब्दों का प्रयोग भगवान ने किया है और सातवें अध्याय के पहले इस श्लोक में हम देखते हैं उसमें हमें कैसे जप करना चाहिए। वहां से हमें एक बहुत सुंदर विचार मिलेगा वहां पर भगवान कहते हैं।
” श्रीभगवानुवाच
*मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः | असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ||* (श्रीमद्भगवद्गीता ७. १)
अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो ।
यहां पर आप योग का अभ्यास करो, कैसे? दो योग्यताओं के साथ, मय्यासक्तमनाः और मदआश्रय : ,
*मय्यासक्तमनाः* मतलब मुझमें आसक्ति लगाओ, आपके मन को मेरे प्रति आसक्ति के साथ और *मदआश्रय:* मतलब आप की चेतना को मेरे ऊपर लगाकर और आपके मन को मेरे प्रति आसक्ति के साथ किसी भी व्यक्ति को भक्ति योग का अभ्यास करना चाहिए, तो जब यह दो चीजें जप के अंतर्गत जुड़ जाती हैं तब फिर व्यक्ति का मन बहुत आसानी से भगवान के नाम में लग जाता है। इन दोनों चीजों को अपने जप के अंदर कैसे लाना है ? उसके विषय में भी अभी आगे चर्चा करेंगे, किंतु वास्तव में यही दो महत्वपूर्ण योग्यताएं हैं जो कि भक्ति योग को प्राधान्य करती हैं बाकी अन्य योगों से भक्ति योग में यही विलक्षण है कि यह दोनों ही योग्यताएं भक्ति के अंतर्गत आती हैं। भगवान के प्रति आसक्ति के साथ और चेतना को पूर्ण रूप से भगवान के ऊपर संलग्न करना तभी भक्ति योग है नहीं तो भक्ति नहीं है। इस प्रकार से चर्चा करने के उपरांत तो यह बताया जाता है कि यदि एक बूंद के बराबर भी हमारे अंदर गंभीरता होती है तब भगवान उस बूंद को ही ग्रहण करते हैं चाहे हमारे अंदर समुद्र के बराबर भी दोष क्यों ना हो किंतु फिर भी वह बूंद के बराबर हमारी उस गंभीरता को ग्रहण करने के लिए आते हैं। इस जप के दौरान हमें यही भगवान को दिखाना चाहिए कि हम कितने अधिक गंभीर हैं भगवान के नाम जप को लेकर, क्योंकि पूतना के केस में भगवान ने यही देखा। हालांकि पूतना भगवान को विष पिलाने के लिए आई किंतु भगवान ने केवल इसी बात को ग्रहण किया कि “पूतना एक मां की तरह मुझे अपना दूध पिला रही है” इसीलिए तुरंत ही भगवान ने उसे अपनी धात्री की गति प्रदान की।
*अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥*
(श्रीमदभागवतम ३. २. २३)
अनुवाद -ओह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उस असुरिनी ( पूतना ) को माता का पद प्रदान किया , यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था ?
इसी प्रकार की गंभीरता कि हम यहां पर भी चर्चा करते हैं। इस विषय में दसवें अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान जहां पर चतुश्लोकी भगवत गीता के विषय में बताते हैं वहां से एक बहुत सुंदर बात आती है। किस प्रकार से हम इन दोनों को जोड़ सकते हैं सातवां अध्याय पहला श्लोक और दसवां अध्याय का आठवां श्लोक उसमें भगवान कहते हैं।
*अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता १०. ८)
अनुवाद- मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं |
जिस प्रकार मूढ़ मतलब मूर्ख होता है बुद्धा मतलब बुद्धिमान उस प्रकार का बुद्धिमान व्यक्ति मेरे विषय में जो संबंध ज्ञान है, जानते हैं कि मैं किस प्रकार से सभी चीजों का स्त्रोत हूं। भावसमन्विता अपने पूर्ण ह्रदय के साथ वह मेरे भजन में लग जाएगा। जो व्यक्ति मेरे विषय में संबंध ज्ञान को जानता है, इस प्रकार से व्यक्ति अपना ह्रदय लगा कर के जब नाम जप करेगा, अपना हृदय लगाने का मतलब यह है कि व्यक्ति मेकेनिकल तौर पर केवल अपने मन को जो बार-बार कहीं भी जाता है वहां से उठाकर ले आने का प्रयास ही नहीं करेगा। एक जप् रिट्रीट के अंदर महात्मा प्रभु यह बात कहते हैं जब तक भावनात्मक तौर पर जुड़ाव नहीं होगा तब तक यह लगने वाला नहीं है। केवल मन से यह नहीं होने वाला है अर्थात जब तक हम भावनात्मक तौर पर भगवान से जुड़ने वाले नहीं हैं तब तक हमारा मन भगवान में संलग्न होने वाला नहीं है। उस जप के अंतर्गत केवल योगी की तरह प्रयास ही है। जब तक जप के अंदर भक्ति का मिश्रण नहीं हो जाता तब तक उसमें भक्ति नहीं होती है। फिर भक्ति योग की जो योग्यताएं हैं वह हमको प्राप्त होने वाली नहीं है। भक्ति योग की विशेषता यही है कि व्यक्ति बहुत आसानी से अपने मन को भगवान में लगा लेता है और यह आसानी से तभी संभव हो पाएगा जब हम अपने जप में भावनाओं के साथ भक्ति को इंवॉल्व करें और यदि भक्ति को इंवॉल्व नहीं करेंगे तब हम बार-बार ऐसे ही प्रयास करते रह जाएंगे मन को पुनः कंट्रोल करने में बहुत दिक्कत होगी। इसीलिए इमोशनल कनेक्ट के विषय में भी या भावनात्मक तौर पर जुड़ने के लिए भी आठवे श्लोक में भगवान कहते हैं भावसमन्विता जिनके अंदर सही में संबंध ज्ञान प्रकट है। *अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते* यदि इस संबंध ज्ञान का व्यक्ति के अंदर पूरी तरह से ज्ञान है तब निश्चित रूप से उनके अंदर इस प्रकार की भावना आनी ही चाहिए क्योंकि तभी जाकर व्यक्ति पूरी तरह से भाव् समन्विता अपने हृदय को भगवान में लगा पाएगा। बाइबल के अंदर भी जीसस क्राइस्ट यह बात कहते हैं। इसी प्रकार से श्रील प्रभुपाद भी इस बात को कहते हैं कि हम अपनी भावनाओं को भगवान के साथ जोड़ेंगे ।
कैसे इसका क्या तरीका है जिससे कि हम अपनी भावनाओं को भगवान के साथ जोड़ पाए ? इसमें दो बातें होती हैं एक तो सेंटीमेंटल और दूसरा सेंटीमेंट्स, सेंटीमेंटल का अर्थ है व्यक्ति के अंदर किसी भी प्रकार का संबंध ज्ञान नहीं है केवल ऊपरी तौर पर ही वह अपनी भावनाओं को जोड़ने का प्रयास करता है तब यह टिकने वाला नहीं है वह केवल भावुकता है उसको सेंटीमेंटल कहा जाता है, वैसा भावुकता का प्रदर्शन नहीं है। भक्ति में प्रेम का मतलब है कि सेंटीमेंट्स होना ही है क्योंकि उन्हीं सेंटीमेंट्स के कारण ही व्यक्ति अपने प्रेम को प्रकट करता है। जैसे उदाहरण के लिए वैदिक संप्रदाय में एक पत्नी तब तक नहीं खाती थी जब तक पति नहीं खा लेता था यदि मान लीजिए पति को रात में आने में बहुत अधिक लेट हो गया तब तक पत्नी रुकी रहेगी जब तक कि उसका पति भोजन नहीं कर लेता और उसके उपरांत ही वह ग्रहण करेगी। पति को खिला कर फिर अंत में पत्नी खाएगी, इसमें यदि लॉजिकल तौर पर या इंटेलेक्चुअल तौर पर पत्नी को देखें तो इसमें कोई लॉजिक ही नहीं बनता है इनको रुकने की क्या जरूरत पड़ी, खाना बन गया तो परोस कर खा लीजिए। पति जब बाद में आएंगे तब वह अपना खाना परोस करके खा लेंगे इसमें क्या, किंतु यह जो सेंटीमेंट है इससे दोनों के बीच में इमोशनल बॉन्डिंग बनता है और वह बॉन्डिंग ही दोनों के बीच में महत्वपूर्ण है। इस प्रकार से ही सेंटीमेंट्स होते हैं।
जबकि सेंटीमेंटल जो होता है उसका कोई आधार नहीं होता वह केवल भावुकता है किंतु सेंटीमेंट का अर्थ यह है जो कि पूर्ण रूप से संबंध ज्ञान के ऊपर आधारित है जब संबंध ज्ञान के आधार पर व्यक्ति अपना संबंध भावनात्मक तौर से भगवान के साथ में बनाएगा तभी यह संभव हो पाएगा जो मैंने कहा, मय्यासक्तमनाः,मदाश्रयः , इस प्रकार से संबंध ज्ञान के आधार पर जुड़ने का क्या महत्व होता है। क्योंकि कई बार लोग सोचते हैं कि इस नाम जप में हमें क्या करना है हमें तो केवल बोलना ही है , लेकिन प्रभुपाद ने केवल इतना ही नहीं कहा, बल्कि प्रभुपाद ने हमको भावनाओं के विषय में भी बताया है जैसे उदाहरण के लिए नाम जप हमें किस प्रकार से करना चाहिए। जैसे कि एक छोटा बच्चा जो है वह अपनी मां को पुकारता है जो अपनी मां को खो चुका है अथवा उसके लिए रोता है उसी प्रकार से व्यक्ति को भी भगवान का नाम पुकारन चाहिए , किंतु प्रश्न फिर यह उठता है कि बच्चा रोएगा कब, अगर उनको यह नहीं पता कि मां के साथ क्या संबंध है? यदि किसी मां के साथ संबंध के विषय में ही जानकारी नहीं है तो वह क्या ऐसी मां के लिए के लिए रोएगा ? कभी कोई भी स्त्री के लिए तो फिर रोने वाला नहीं है। बल्कि जिनके साथ वह अपने मां के संबंध को पहचानते हैं उसी के लिए रोयेगा उसी प्रकार से ही जब तक हमें यह संबंध ज्ञान क्लियर नहीं है तब तक यह रोना नकली ही है।
यह सुपरफिशियल होगा क्योंकि वह संबंध को पहचान ही नहीं पा रहे इसीलिए अपने आपको संबंध ज्ञान के ऊपर आधारित करना और अपने पूर्ण ह्रदय के साथ में भगवान के साथ स्वयं को जोड़ना, तभी संभव हो पाएगा। इसीलिए यह रोना असलियत में तभी संभव हो पाएगा जब हम को संबंध ज्ञान पूरी तरह से क्लियर होगा। इसीलिए प्रार्थनाओं के विषय में प्रभुपाद जी भी कहते हैं किसी भी व्यक्ति को कि उसका भगवान के साथ में क्या संबंध है इसके विषय में उसको पूर्ण जानकारी होनी चाहिए उसी के आधार पर व्यक्ति अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है। उसी को प्रार्थना कहा गया है वह हवा में नहीं होता। फिर आगे प्रभुपाद जी कहते हैं कि यह जो भावनाएं हैं वह बहुत अधिक गहरी अथवा गंभीर होनी चाहिए और यह स्वाभाविक होता है यह कोई ऊपरी तौर से दिखावे के लिए नहीं है। इसको कहीं बाहर से उठाकर नहीं लाया जा सकता और हमारी स्थिति क्या है इस विषय में चैतन्य महाप्रभु कहते हैं।
*जीवेर ‘ स्वरुप ‘ हय-कृष्णेर ‘ नित्य-दास ‘ । कृष्णेर ‘ तटस्था-शक्ति ‘ ‘ भेदाभेद-प्रकाश ‘ ।।* (चैतन्य चरितामृत 20.108)
अनुवाद : कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिती है , क्योंकि जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय अभिन्न और भिन्न है ।
इस प्रकार जब व्यक्ति अपने संबंध ज्ञान के माध्यम से अपनी भावनाओं को बहुत गंभीरता के साथ भगवान के समक्ष रखता है तब उसी को प्रार्थना कहा जाता है और जब यह प्रार्थना हमारी नाम जप के साथ में जुड़ती है तब जाकर हमारा भगवान के नाम जप के साथ भावनात्मक संबंध बनता है। उसी संबंध के आधार पर व्यक्ति का मन स्वत: ही लगेगा और जब आप उन प्रार्थनाओं के साथ में भगवान के नाम का जप करेंगे तो काफी देर तक आप अपने मन को भगवान के नाम के साथ में लगाकर कर सकते हैं अर्थात यदि संबंधित ज्ञान क्लियर नहीं है और भावुकता के आधार पर व्यक्ति जप करने लगता है तब आप देखते हैं की भावनाएं तो होती हैं किंतु मन नहीं लगने वाला। तब नाम आपको सुनाई नहीं देगा, नाम आपको केवल तभी सुनाई देगा जब संबंध ज्ञान के आधार पर जब हम अपनी भावनाओं को जोड़कर प्रार्थनाओं के साथ में नाम जप करते हैं। जो कि साधना कह लाएगी जैसे कि कई बार लोग कहते हैं कि वे प्रार्थना तो करते हैं लेकिन उन्हें नाम ही नहीं सुनाई देता। लेकिन जो बेसिक बातें प्रभुपाद ने हमको बतायी हैं जो कि श्रवण करना बहुत अधिक आवश्यक है।
श्रवण करने में ही, यह प्रार्थना, हमें मदद करनी चाहिए। हमारी प्रार्थना हमें भगवान के नाम को सुनने मैं मदद करने के लिए होनी चाहिए। तब जाकर वह प्रमाणिक माना जाता है नहीं तो वह केवल भावुकता ही होगी। इस प्रकार से जब व्यक्ति करता है तब उसका नाम जप में मन लगता है। इसलिए प्रभुपाद जी भी यह बात कहते हैं जब हम भावनात्मक तौर पर अपना संबंध बना पाएंगे तब हमारे मन के विचलित होने की बहुत ही कम संभावना होगी और उस अवस्था में आपको भगवान का नाम भी बहुत अच्छी प्रकार से सुनाई पड़ेगा। इस प्रकार से जब व्यक्ति नाम जप करेगा तो उनका नाम जप बहुत अधिक बेहतर होने की संभावना रहेगी। इसीलिए हमारे आचार्यों ने भी हमें अनेक प्रकार की प्रार्थनाएं दी हैं। तभी तो भक्ति विनोद ठाकुर भी यह बात कहते हैं ना कि *मंत्र अर्थ चिंतन, नाम जप करने के दौरान मंत्र अर्थ चिंतन करना चाहिए यह अर्थ क्या है तब गोपाल गुरु गोस्वामी भी यह बताते हैं कि हमने अर्थ दिया है भगवान के नाम पर रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने दिया है जीव गोस्वामी ने दिया है इस प्रकार से अनेक आचार्य ने नाम के अर्थ के विषय में बताया है और यह अर्थ यही प्रार्थना है। जब इस प्रकार के अर्थ पर मनन करते हुए व्यक्ति जप करता है तभी ठीक है,
अन्यथा यह अर्थ भी कोई मैकेनिकल तौर पर नहीं है यह भी स्वाभाविक और गंभीरता से ही होती है और यह कैसे होगा? इसके विषय में भी जब हम उस प्रार्थना को अपने जीवन के साथ में जोड़ कर देख पाएंगे और जब उस रिलेशन के साथ, संबंध के साथ, व्यक्ति उस प्रार्थना को व्यक्त करेगा तभी उसमें वह बॉन्डिंग आ पाएगी नहीं तो, वह भी एक मैकेनिकल प्रोसेस बन जाएगा। इस स्थिति में कभी भी कोई जप संभव नहीं है क्योंकि उसमें भक्ति नहीं है। प्रभुपाद जी कहते हैं कि हम जब यह प्रार्थना करते हैं वह भाषा भी या भावनाएं भी अप्रमाणिक नहीं होनी चाहिए। वह भी प्रमाणिक होनी चाहिए जो कि हमारे आचार्यो के द्वारा पहले ही दी जा चुकी हैं जबकि यहां प्रभुपाद, उसे स्वाभाविक बता रहे हैं किंतु वह यह भी कह रहे हैं कि वह हमारे आचार्य के द्वारा पहले से ही दी गई है। इसीलिए हमें ऐसी प्रार्थनाओं को ढूंढना चाहिए जो बहुत निकट से हमारी वास्तविक स्थिति से संबंधित या हमारी वर्तमान स्थिति से संबंधित हो।
जैसे उदाहरण के लिए कोई सोचे कि एक भजन है राधा कृष्ण प्राण मोरा युगल किशोर उस भजन को भक्त इस प्रकार से गाते हैं “चामर ढुलाए हरि मुखे चन्द्र” मुझे कब इस प्रकार का सौभाग्य प्राप्त होगा मुझे आप का मुख चंद्र देखने को प्राप्त होगा किंतु यह हमारे लिए बहुत अधिक रिलेवेंट नहीं है क्योंकि हमारी स्थिति क्या है ?क्योंकि वहां पर तो नरोत्तम दास ठाकुर रो रहे हैं उनको इस प्रकार का मौका चाहिए ऐसा करके वह रो रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं। हम भी रोते हैं किंतु हम इसलिए रोते हैं अरे मुझे क्यों पकड़ा दिया इस प्रकार से चामर ढूलाने के लिए, इसकी सेवा मुझे क्यों दे दी गई है और कोई नहीं मिला क्या, मुझे ही पकड़ा दी गई है। हम इस प्रकार से रोएंगे तो हम लोग रिलेट नहीं कर पाएंगे। हमारे लिए इस प्रकार से जैसे “जानिए शुनिया विष खाइनु” मैं जानबूझकर इसके विषय में जानते हुए भी और बार-बार सुनने के बाद भी विष खा रहा हूं भगवान और इस प्रकार से विष में लुप्त होने के कारण मैं आपका नाम जप नहीं कर पा रहा हूं। जब की आपने अपने नामों के अंदर ही अपनी सारी शक्ति को समाहित कर दिया है किंतु फिर भी मैं नहीं कर पा रहा हूं।
*नाम्नामकारि बहुधा निज – सर्व – शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।।*
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.१६)
अनुवाद ” हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं, किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ, अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।
इस प्रकार से व्यक्ति को अपने स्तर की बातों को उठाना होगा, इस प्रकार की प्रार्थना को जोड़कर जब व्यक्ति नाम जप करेगा तो निश्चित रूप से वह बहुत आसानी से अपने मन को संलग्न कर पाएगा अन्यथा इस प्रकार का सही एटीट्यूट अथवा मूड नहीं है तो फिर यह संभव नहीं है। अब हम यही पर समाप्त करना चाहेंगे।
हरे कृष्ण !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
01 मार्च 2022
श्रीमान उद्धव प्रभु
हरे कृष्णा। मैं आप सभी वैष्णव भक्तों को सादर दंडवत प्रणाम करता हूँ । श्री गुरु महाराज के चरणो में सादर वंदन करता हूँ । महाशिवरात्रि के इस पर्व पर श्रीमान पदम्माली प्रभु की कृपा से मुझे भगवान शिव जी के विषय में चर्चा चिंतन करने का यह शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ है उसके लिए मैं आप सब का ह्रदय पूर्वक धन्यवाद देता हूँ | आप सभी भक्तों को भी महाशिवरात्रि की बहुत-बहुत हार्दिक शुभेच्छा | जो मैंने शास्त्रों के माध्यम से पड़ा है और वैष्णव के माध्यम से सुना है उसे ही आप सभी के चरणो में गुरु महाराज की प्रसन्नता के लिए निवेदित करने का प्रयास करूंगा |
भागवत में एक बड़ा ही प्रसिद्ध श्लोक हैं जिसे आप सभी भक्तों ने सुना होगा | श्रीमद्भागवत की महिमा अंत अंत में जहां गाई गई है उसी प्रसंग में बड़ा प्रसिद्ध एक श्लोक है जिसमें भगवान शिव जी के लिए स्तुति भागवत के अनुरूप की गई है ।
12.13.16
निम्नगाना यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा ॥१६
जिस तह गंगा समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है भगवान् अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान् शम्भु ( शिव ) वैष्णवों सबसे बड़े हैं , उसी तरह श्रीमद्भागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है ।
जहां कहां गया है जैसे नदियों में गंगा जी श्रेष्ठ है सर्वश्रेष्ठ है, निम्न कहते हैं जो नीचे से प्रवाहित होती है ऐसे नीचे प्रवाहित होने वाले में जिस प्रकार गंगा जी श्रेष्ठ है वैसे ही देवानाम अच्युता अर्थात ऐसा कहा जा सकता है कि देवी देवताओं मे भगवान की गिनती की गई है पर वैसा नहीं है संस्कृत में देव शब्द का अर्थ होता है देने वाले, बहुत सारे देवी देवता जब प्रकट होते हैं तो कुछ न कुछ वर देते हैं जो देता है उसे देव कहते हैं। सर्वश्रेष्ठ देने वाले देव जो हैं वह भगवान ही हैं उन से बढ़कर कोई भी किसी वस्तु का दान नहीं कर सकता और भगवान की उपलब्धि यह है कि उनका इतना मुकुंद है “मुक्ति ददाति स मुकुंद ” कि संसार में भगवान के अलावा कोई मुक्ति नहीं दे सकता इसलिए सभी देने वालों में अर्थात देवो में भगवान अच्युत श्रेष्ठ है। क्योंकि वह कभी भी अपने पद से च्युत नहीं होते अर्थात गिरते नहीं है अपनी स्थिति से “देवानाम अच्युतो यथा ” | उसी प्रकार से “वैष्णवानाम यथा शंभू” जितने भी महान वैष्णव है भक्त हैं विशेष है किसी भी संप्रदाय से जुड़े हुए हो, पौराणिक काल में हुए हो वैदिक काल में हुए हो मध्यकाल में हुए हो रीति काल में हुए हो या भविष्य में होने वाले हो जितने भी सभी वैष्णव में सर्व अग्रणी या शिरोमणि जिसे कहते हैं अर्थात श्रेष्ठ वैष्णव भगवान शंकर है शिवजी हैं | “वैष्णवानाम यथा शंभू पुराणानाम इदम तथा ” | उसी प्रकार से पुराणों में भागवत सर्व श्रेष्ठ है महान है दिव्य ग्रंथ है, चाहे जितने भी पुराण हो पर भगवत महापुराण है और भागवत की तुलना जो है साक्षात भगवान से ही की जाती है। भगवान का यह शाब्दिक स्वरूप माना जाता है। वांग्मय वाक्यमय साक्षात मूर्ति है भगवान की” इन्हें साक्षात
वाक्य मूर्ति ”
भागवत जो है दिव्य ग्रंथ है और भागवत की महिमा हमने काफी बार सुनी है महाराज जी के मुखारविंद से भी । जब महाराज जी प्रचार किया करते थे नारद भारत पार्टी के अंतर्गत तो प्रभुपाद जी से उन्होंने पूछा कि हम भक्त हैं भगवान को भोग लगाकर प्रसाद पाना चाहिए तो आप आदेश दे तो हम कोई छोटे विग्रह हम हमारे साथ रख सकते हैं उनको भोग लगा सकते हैं तो प्रभुपाद जी ने कुछ क्षण भी नहीं लगाते हुए जबाब दिया महाराज जी से कहा कि जब आपके साथ साक्षात भागवत है जो भगवत स्वरूप ग्रंथ है तो अन्य किसी विग्रह की क्या आवश्यकता है। हम भागवत को ही भोग लगाकर प्रसाद पा सकते हैं। भागवत जो है भगवान के अभिन्न हैं। वांग्मय मूर्ति प्रत्यक्षयाम हरी वरतते। भागवत जो है साक्षात भगवान ही है। काफी विद्वानों के द्वारा आचार्यों के द्वारा भागवत के जो अन्य अन्य सकन्ध खंड है उनके उपमा भगवान के विभिन्न अंगों से भी की जाती हैं। तो आपने सुना होगा | इसी प्रसंग में भगवान शिव जी का जहां उल्लेख आया है वहां उनको सर्वश्रेष्ठ वैष्णव कहां गया है तो शिवजी काफी विशेष हैं किसी भी संप्रदाय से जुड़े हुए भक्त हो जो भी किसी भी संप्रदाय से जुड़कर भगवान की भक्ति कर रहे हैं तो सबके लिए आदरणीय वंदनीय सबसे श्रेष्ठ आदर्श भगवान शिव जी का सबके लिए चरित्र है। और आज जो यह तिथि है महाशिवरात्रि बहुत ही विशेष तिथि है। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है पर यह जो फागुन मास की कृष्ण पक्ष के अंतर्गत जो यह त्रयोदशी चतुर्दशी की जो रात्रि होती है वह बहुत ही विशेष होती है महाशिवरात्रि जिसको कहा जाता है और शिवजी के संबंध में यह तिथि है और महाशिवरात्रि का उल्लेख काफी पुराणों में आया है और जब मैं शास्त्रों को देख रहा था तो बहुत सारी लीला इस संदर्भ में हुई है लेकिन प्रमुख रूप से भगवान शिव जी का विवाह आज के दिन हुआ था इसलिए महाशिवरात्रि काफी प्रसिद्ध है। और महाशिवरात्रि के दिन भक्त प्रसन्नता पूर्वक भगवान शिव जी को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं और भगवान शिव जी की कृपा प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। ताकि हमारी जो भक्ति है वह भगवान के प्रति आबादीत रहे उत्तरोत्तर इसकी प्रगति होती रहे शिव जी की कृपा से।
मैं पढ़ रहा था तो हरि भक्ति विलास से उद्धृत एक श्लोक था जहां पर गोपाल भट्ट गोस्वामी सनातन गोस्वामी की दिग्दर्शन टीका ओर गौतमी तंत्र नामक ग्रन्थ से बता रहे थे कि भगवान कृष्ण की प्रसन्नता के लिए वैष्णव जो हैं आज के दिन उपवास भी रखते हैं और उसी प्रसंग में कहा गया है कि कुछ भक्त तो निर्जला तक उपवास करते हैं ताकि शिव जी की कृपा प्राप्त हो लेकिन वहां उल्लेख है कि भगवान श्री कृष्ण की प्रसन्नता के लिए। वरना हम देखते हैं कि शिवजी जो है वह भगवान की भक्ति में इतनी तीव्रता से लगे रहते हैं कि जैसे ही हम कोई भौतिक आकांक्षा करें शिव जी तुरंत ही प्रसन्न होकर उसे प्रदान करते हैं शायद इसलिए उनका नाम आशुतोष है और आप भागवत जब पढ़ते हैं तो एक विशेष अध्याय में जिसकी शुरुआत ही राजा परीक्षित शुकदेव गोस्वामी से यह प्रश्न पूछ कर करते हैं कि हे शुकदेव गोस्वामी ऐसा देखा गया है कि महालक्ष्मी के पति भगवान नारायण के भक्त होते है लक्ष्मीपति भगवान के भक्त होते हुए भी वे प्राय: निर्धन पाए जाते हैं निश्चिंकिंचन पाए जाते हैं गरीब देखे जाते हैं लेकिन उसके ठीक उसके विपरीत जो भगवान शंकर की उपासना करता है उसके पास बहुत कुछ होता है चाहे वह रावण जैसा अकराल विककराल राक्षस ही क्यों ना हो उसके पास प्रचुर मात्रा में धनराशि देखी जाती है तो ऐसा क्यों है। इसी संदर्भ में वृकासूर की कथा सुनाते हुए शुकदेव गोस्वामी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भगवान जब तक टटोलते नहीं, देखते नहीं, परीक्षा नहीं कर लेते कि यह व्यक्ति बली महाराज जैसे बड़े से बड़े साम्राज्य को संभालने की क्षमता रखता है तब तक उसको किसी भी प्रकार का धन प्रदान नहीं करते हैं किसी भी प्रकार का भगवान धन प्रदान नहीं करते क्योंकि भगवान हमारे परम हितेषी है लेकिन भगवान शिव जी के संदर्भ में ऐसा नहीं है भगवान शिव जी आगे पीछे का विचार किए बिना सामने वाला व्यक्ति जो भी मांगता है उसे देकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं आप ऐसा कह सकते हैं कभी-कभी अपना वरदान देकर वह खुद भी संकट में पड़ते हैं। तो शुकदेव स्वामी हंसते हुए इस श्लोक को कहते हैं कि कभी-कभी शिवजी का जो वचन है वरदान है उनको भी कभी-कभी बहुत तकलीफ देता है। तो उसी प्रसंग में उन्होंने वृकासूर की कथा सुनाई, वृकासूर नाम का राक्षस था जिसको उन्होंने आशीर्वाद दिया कि वह जिसके भी सिर पर हाथ रखेगा वह जल जाएगा तो वह परीक्षा करने के लिए शिवजी के ही पीछे भागा तब भगवान एक बटु ब्राह्मण का रूप लेकर आए और उन्होंने और उसे अपनी सुमधुर वाणी में मोहित करके उस राक्षस का उन्होंने सर्वनाश किया। उसे अपने सिर पर हाथ रखने के लिए बाध्य किया और वह राक्षस जो वृकासूर था वह भस्मासुर बन गया वह भस्म हो गया। तो इस प्रकार से हम देखते हैं कि जब कोई शिवजी से भौतिक कामना करते हैं तो वह भी झट से उसे प्रदान करते हैं लेकिन भगवान शिव जी के बारे में यह देखा गया है कि जब कोई व्यक्ति प्रमाणिकता से चाहे उनकी ही भक्ति क्यों ना कर रहा हो जब देखते हैं कि वह योग्य व्यक्ति है सही कैंडिडेट है, काफी सारे उदाहरण ऐसे मिलेंगे जहां भगवान शिव जी जो है भक्तों को भगवान के चरणों में लाकर छोड़ते हैं कि ये तो मेरी नहीं भगवान की भक्ति करने योग्य हैं। बड़ी प्रसिद्ध कथा आप देखते हैं वृंदावन में सनातन गोस्वामी के संदर्भ में |
चक्ररेश्वर महादेव के पास सनातन गोस्वामी की कुटीर है | वहां की एक प्रसिद्ध लीला है कि एक व्यक्ति भगवान शिव जी का बहुत बड़ा भक्त था तो जब शिवजी ने देखा कि यह व्यक्ति भगवान की भक्ति बहुत अच्छी कर सकता है तो उन्होंने उस भक्त से कहा कि आप सनातन गोस्वामीजी की शरण में जाइए, उनके पास संसार की सबसे बढ़िया वस्तु है तो उन्होंने जब सनातन गोस्वामी से पूछा तो उन्होंने कहा कि ठीक है मेरे पास एक चिंतामनी है जो मैं आपको दे सकता हूँ उससे आप सोना बनाइए। तो जब उन्होंने देखा कि चिंतामणि एक कचरे के डिब्बे में पड़ी हुई थी और उसको लेकर प्रसन्न होकर भाग रहे थे तो अचानक क्लिक हुआ कि यदि यह चीज अगर इतनी महत्वपूर्ण है तो उसको कचरे के डब्बे में क्यों रखा गया था तो फिर से वापस आया बड़ा चालाक व्यक्ति था उसने कहा कि आपने मुझको फसाया है कोई भी व्यक्ति अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीज एकदम संजोकर रखता है बढ़िया से सुरक्षित तौर पर और आपने तो इसे कचरे के डब्बे में रखा था इसका अर्थ यह है कि आपके पास इससे भी बढ़िया कोई चीज हो सकती है। तो सनातन गोस्वामी ने कहा हाँ मेरे पास इस चिंतामणि से बढ़कर भी एक चिंतामणि है। लेकिन सर्वप्रथम मानसी गंगा में आपको इसे बहाना होगा शुद्ध होकर आना पड़ेगा | तो जैसे ही मानसी गंगा में उसे प्रवाहित किया डुबकी लगाई तो मन शुद्ध होकर सनातन गोस्वामी के पास आए तो उन्होंने हरि नाम का चिंतामणि देकर उन्हें भगवान का भक्त बनाया। तो इस प्रकार से हम देखते हैं कि रामायण में भी एक कथा आती है जिसमें काग भुसुंडि नामक एक भक्त है प्रसिद्ध भक्त थे जो ब्रांच कौवे के रूप में रहते थे, निवास करते हैं और रामायण के सरस प्रवक्ता है और आप भक्तजन यह जानकर आश्चर्य चकित रह जाएंगे की उनसे कौन भागवत सुन रहा है और राम कथा सुन रहा है साक्षात यज्ञेश वाहन जो भगवान के वाहन है गरुड़ देव। वे चरणों में बैठकर उस कौवे से ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। तो उत्तर रामायण में यह कथा आती है कि पूछा गया उनसे कि आप इतने महान योगी इतने महान भक्त होते हुए भी इस शूद्र चांडाल के स्वरूप में आप क्यों रहते हैं तो काक भूसुंडी जी ने बिना संकोच किए एकदम स्पष्ट रूप से कहा मैं भगवान शिव जी का बहुत बड़ा भक्त था लेकिन उनकी भक्ति करने के साथ-साथ मैं वैष्णव की बहुत निंदा किया करता था |
एक दिन एक वैष्णव को शिवजी के मंदिर में ही शिवजी के समक्ष ही मैं बहुत झाड़ रहा था डांट फटकार लगा रहा था तो शिवजी को सहन नहीं हुआ और वह लिंग से स्वयं प्रकट हो गए हैं और उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जा तू वैष्णव की निंदा करता है वैष्णव अपराध करता है तो तू चांडाल पक्षी कौवा बन जा और कांव कांव कांव करता रह । जब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ तो मैंने क्षमा याचना की तो शिव जी तो बड़े दयालु है उन्होंने कहा कि कोई हर्ज नहीं, यही वैष्णव कि जब तुम पर कृपा हो जाएगी तो उसी कौवे शरीर में तुम्हें राम चरित्र की अनुभूति होगी राम भक्ति का महत्व पता चलेगा और बहुत बड़े राम भक्त बनोगे। भगवान के भक्त बनोगे। जब गरुड़ जी पूछा कि अब आप यह शरीर क्यों नहीं छोड़ते तो उसका कारण उन्होंने बताया कि इसी छुद्र देह में इसी कौवे के शरीर में भगवान की भक्ति प्राप्त हो गई है तो कितने भी संकट और कितनी भी परेशानी मुझे इस शरीर से होती हो लेकिन मुझे यह शरीर अति प्रिय है इसलिए मैं इस शरीर में रहता हूँ ।
तो वहां आप देख सकते हैं शिवजी जो है बहुत बड़े भक्त हैं वैष्णव हैं और साथ ही साथ काफी बार शिव जी को भगवान के स्वरुप में भी देखा जाता है यदि हम शास्त्रों का सन्दर्भ लेते हैं तो हमें पता चलता है कि प्रथम चतुर् व्यूह है वासुदेव संकर्षण प्रद्युम्न अनिरुद्ध, उसी चतुरव्यू के अंतर्गत संकर्षण भगवान है उनसे ही स्वयं शंकर भगवान प्रकट होते हैं जो कि भगवत स्वरूप माने गए हैं | इन 3 देवो में से भगवान रूद्र जो है शंकर जो है हम जैसे देखते हैं कि ब्रह्मा विष्णु महेश, जैसे कहते हैं कि गुण अवतार माने जाते हैं भगवान के। उस दृष्टि से भी देखा जाए तो भगवान का वह तमो गुण का अवतार है। शिवजी में और भगवान में काफी सारे साम्य पाए जाते हैं तो भगवत स्वरूप शिव जी को भी माना जाता है भगवान की विशेष शक्ति अनिश्चित हैं और उसी तरह भगवान की भक्ति के लिए उत्तरोत्तर प्रगति के लिए उनकी शरण ग्रहण करते हैं तो भगवान शिव जी से बढ़कर कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो दृढ़ता पूर्वक हमें भगवान की भक्ति में लगा सके | भगवान शिव जी की यही विशेषता है कि एक दृष्टि से देखा जाए तो ब्रह्मा जी के यह पुत्र है भागवत के तीसरे स्कंध में इसका वर्णन आता है कि भृकुटी से रोते-रोते प्रकट हुए इसलिए इनका नाम रूद्र रखा गया लेकिन जहां भक्ति का वर्णन किया गया है वहां इनका उल्लेख मिलता है कि शिवजी ब्रह्मा जी से भी बढ़कर श्रेष्ठ भक्त माने जाते हैं यदि भक्ति के प्रसंग से देखा जाए तो |
क्योंकि हम देखते हैं कि ब्रह्मा जी ऐसे कामों में व्यस्त दिखाई देंगे जो व्यवहारिक है और आप देख सकते हैं कुछ राजकीय कार्य हैं ब्रह्मांड की निवृत्ति कहो या उसका व्यवस्थापन कहो उसने व्यस्त दिखाई देते हैं पर शिवजी का चरित्र यदि टटोलेंगे तो ध्यान से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि पूर्णत: वह भगवत भक्ति विहित जीवन यापन करते हैं, न केवल खुद बल्कि अपने परिवार सहित भगवान भक्ति में लगे रहते हैं और इसीलिए शिवजी को आचार्य की भी पदवी दी गई है। शिव जी बहुत बड़े आचार्य हैं भक्ति मार्ग के बहुत बड़े पथ प्रदर्शक हैं और सभी वैष्णव के आराध्य स्वरूप हैं जो हमें निष्ठावान भक्ति करने का साहस कहिए, मार्गदर्शन कहिए प्रदान करते हैं। तो जैसे मुख्य रूप से चार संप्रदाय है -ब्रह्म संप्रदाय, कुमार संप्रदाय,श्री संप्रदाय और एक रुद्र संप्रदाय भी है जहां पर भगवान ने अपने चार प्रमुख वैष्णव को निर्धारित किया कि इन के माध्यम से इस श्रृंखला भक्ति की आरंभ करूंगा तो उन चार आचार्यों में जहां ब्रह्मा जी हैं चार कुमार है महालक्ष्मी जी हैं तो वहां पर उन्होंने भगवान रुद्र के माध्यम से एक रुद्र संप्रदाय आरंभ किया जिसके मुख्य आचार्य विष्णु स्वामी जी है और इसी संप्रदाय में आगे चलकर हम देखते है कि वल्लभ आचार्य जैसे बहुत बड़े-बड़े महान भक्त बने हैं। वात्सल्य संप्रदाय माना जाता है भगवान शिव जी का भगवान विष्णु के प्रति वात्सल्य भाव भी है तो शिवजी एक रुद्र संप्रदाय जैसे महान संप्रदाय के आचार्य हैं, प्रणेता है, आरंभ कर्ता है जिनको भगवान के द्वारा ज्ञान प्राप्त हुआ है। तो काफी सारी लीलाएं हैं भगवान शिव जी के संदर्भ में लेकिन हम मुख्य रूप से शिवजी को एक आचार्य के रूप में देखते हैं इसलिए आप महान वैष्णव के सानिध्य में भगवान शिव जी की दिव्य भक्ति का उनके आचार्यत्व का या उनके वैष्णवत्व का चिंतन करना योग्य लगता है। तो हम देखते हैं कि भगवान शिव जी के बारे में कथा सुन रहा था |
एक दो तीन भक्त ही ऐसे हैं जो भगवान की सेवा अलग-अलग भावों में करते हैं तो हम देखते हैं कि उन गिने-चुने भक्तों में से केवल शिव जी भी ऐसे भक्त हैं जो भगवान के विविध रूपों में वैसे तो अलग-अलग रस बताए गए हैं भगवान की उपासना के, उस संदर्भ में यह जो पांच मुख्य रस है भाव है जिसमें शांत रस है दास्य रस है साख्य रस है वात्सल्य और माधुर्य। शिवजी एक ऐसे भक्त हैं मतलब यह एक अद्वितीय उपलब्धि है कि वह पांचों रसों में अगर आप ध्यान से देखेंगे पांचों रसो में भगवान की सेवा करते हैं । शांत रस के दिव्य भक्त हैं, दास्य रस के भक्त हैं, साख्य रस के भक्त हैं,माधुर्य रस के भक्त हैं, वात्सल्य रस के भक्त है। संक्षिप्त रूप में हम कुछ विशेष उदाहरण देखेंगे जैसे भगवान शिव जी शांत रस के भक्त हैं इसका ज्वलंत प्रमाण है कि भगवान नंदेश्वर महादेव के रूप में नंद गांव में रहते हैं जैसे पर्वत के रूप में रहते हैं नंदेश्वर पर्वत जो हैं जिसके ऊपर कृष्ण बलराम जी का मंदिर आज भी आप देख सकते हैं। तो वह जो पहाड़ है वह भगवान शिव जी का स्वरुप माना गया है। आप अगर उसका आकार भी देखेंगे तो वह शिवलिंग के जैसा आकार है। अगर आप बरसाने की तरफ से जाएंगे तो लंबा वाला भाग है और बीच में चढ़ाई दोनों तरफ आप देख सकते हैं और शिवलिंग के जैसा स्वरूप है। ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों गए थे शिव जी से प्रार्थना करने कि हमें भी आपकी इस लीला में प्रवेश पाना है सेवा करनी है तो भगवान शिव जी ने कहा कि फिर व्यवस्थापन कौन देखेगा इस संसार का तो उन्होंने कहा कि हम कुछ व्यवस्था कर देंगे फिर भगवान ने बहुत सोचने के बाद कहा कि आपको किस तरह का स्वरूप दिया जाए आप क्या करेंगे इस लीला में आप फिट नहीं हो रहे हैं तो उन्होंने कहा कि ठीक है आप तीनों पहाड़ बन जाइए। और आप लीला दर्शन कर सकते हैं तो इससे बहुत प्रसन्न हो गए ब्रह्मा विष्णु महेश। तो जो ब्रह्मा जी हैं वह बरसाना के पहाड़ हैं जिसमे लाडली जी का मंदिर है उसमें चार मुख आपको दिखाई देंगे ब्रह्मा जी के। चतुर्मुख ब्रह्मा जी के। तो बरसाना में एक पर्वत है जिसमें चार मुख हैं दानगढ़ भानगढ़ मानगढ़ और विशालगढ़। आप राधा रानी के मंदिर के गैलरी में आएंगे तो आपको वह चारों के चारों पर्वत एक साथ आप देख सकते हैं। जो ब्रह्मा जी का स्वरुप है। और जो गिरिराज महाराज हैं गोवर्धन जो साक्षात भगवान विष्णु का स्वरूप है। और यह जो नंदेश्वर पर्वत है जिस पर नंद गांव का मंदिर स्थित है वह भगवान शंकर है। तो इस प्रकार पहाड़ के रूप में शांत रस से भगवान की सेवा कर रहे हैं। तो यह हो गया शांत रस में शिव जी का भगवान की सेवा करने का उदाहरण।
दास्य रूप में अगर आप देखेंगे तो पता चलेगा की हनुमान जी का रूप 11 रुद्र का ही अवतार माना जाता है। हनुमान जी जो है वह प्रभु रामचंद्र की सेवा में इतने तल्लीन है कि जहां सेवा का विषय आता है जैसे हम देखते हैं कि नवधा भक्ति है उसमें से सेवा भी एक भक्ति हैं तो उस भक्ति के आचार्य हनुमान जी को ही बनाया गया है। सेवा भक्ति के आचार्य हनुमान जी ही है। जो भगवान शिव जी का ही एक अंश अवतार हैं। तो आप देख सकते हैं कि भगवान महादेव शंकर हनुमान जी के रूप में रामचंद्र की सेवा करते हैं। और तल्लीन है काफी बार यह बताया गया है कि राम दरबार का यह भाग होते हुए भी जितने भी आप देखेंगे राम जी के अगल-बगल में सीता जी लक्ष्मण जी दर्शकों की ओर मुंह करके खड़े हैं लेकिन आप देखेंगे कि विरासन में बैठे हनुमान जी का मुंह राम जी की और है | जब उनसे पूछा गया कि वह ऐसे क्यों बैठे हैं तो उसका उत्तर ऐसे दिया जाता है कि वे राम जी की सेवा ऐसे करना चाहते हैं कि उनको कुछ बोलना भी ना पड़े केवल आंखों के इशारे से समझ जाए बड़े आराम से सुखासन में नहीं बल्कि विरासन में ऐसे बैठे हुए हैं ताकि उठने में भी ज्यादा समय ना लगे। इस प्रकार से इतनी तत्परता से इतनी तल्लीनता से हनुमान जी भगवान की सेवा करते हैं तो जहां सेवा का विषय आता है हम हनुमान जी के अलावा किसी और का चिंतन कर ही नहीं सकते सर्वश्रेष्ठ सेवक हनुमान जी है जो शिवजी का ही एक अंश अवतार है। और जब आगे बढ़ते हैं सखा रस में तो इसमें तो इतने सारे उदाहरण है कि हम देखते हैं भगवान शंकर और भगवान विष्णु आपस में काफी सारे लीलाओं का आदान-प्रदान हुआ है जो एक दूसरे के प्रति अपना बहुत प्रेम व्यक्त किया है बहुत सारी लीलाओं में सहायता की है।
शिव जी की लीला में भगवान ने और भगवान की लीला में शिव जी ने सहायता की। और खास करके जब हम देखते हैं आज शिव जी की विवाह का प्रसंग चल रहा था, मैं चिंतन कर रहा था तो बड़ी प्रसन्नता हो रही थी कि भगवान कितना हंसी मजाक करते हैं | ऐसा भी वर्णन रामायण में आता है कि भगवान शिव जी की जब बारात जा रही थी तो सारे देवी देवता गण खड़े थे अगल-बगल में। शिवजी नंदी के ऊपर बैठे हुए हैं बगल में भगवान विष्णु चल रहे हैं। और अचानक ही भगवान विष्णु को ऐसा सुझा कि कुछ मजा नहीं आ रहा है इस बारात में तो उन्होंने ब्रह्मा जी से कह के यह कहलवाया कि शिव जी की जो बारात है वह उनके अनुरूप नहीं लग रही है क्योंकि यह भूतनाथ है तो इनके अगल-बगल में ऐसे सभ्य देवी देवता बड़ी शांति से अच्छे वस्त्र पहन कर सेंट वेंट लगाकर चल रहे हैं। यह उतना जम नहीं रहा कुछ मजा नहीं आ रहा तो भगवान विष्णु ने मैनेजमेंट में थोड़ा हस्तांतरण करते हुए दखल देते हुए उन्होंने सारे देवी देवता से कहा कि आप शिवजी के पीछे चलीए। और जब शिवजी के पीछे मुरझाए हुए शिवजी के भूत गण जब पीछे जा रहे थे ऐसे लटका हुआ उनका मुह था स्वरूप था कि हमारे स्वामी की यात्रा चल रही है और हमारा ही कोई महत्व नहीं है तब भगवान ने सब भूतों से प्रेतों से विनायक से कहा कि आप शिव जी के बगल में चलिए तो भूत भी इतने प्रसन्न हो गए आनंदित हो गए कि वह शिवजी के आगे पीछे नाचने लगे तब शिवजी भी बड़े प्रसन्न हो गए कि मेरे गण अब सामने आ गए। और जैसे ही वह अपने ससुराल के चौखट पर पहुंचे तो मैना जी आई थी आरती करने के लिए तो भूत पिसाचो को देखा तो आरती करना रह गया बल्कि वह बेहोश होकर गिर गई और यह कैसी विचित्र बारात मैंने जिंदगी में देखी ऐसे ऐसे लोग इसमें दिखाई दे रहे हैं किसी का पेट है तो पीठ नहीं,मुंह है तो आंख नहीं,हाथ है तो पैर नहीं। तो इस तरह की लीला करते हैं भगवान बहुत बार।
हरीभक्ति विलास में भी मैंने समान श्लोक एक बार देखा है जो शिवजी से द्वेष करता है वह भगवान कृष्ण को कभी भी प्रिय नहीं हो सकता और ऐसी ही चौपाई हम रामचरितमानस में देखते हैं जिसमें साक्षात राम जी के मुंह से निकली हुई जहां राम जी यह कहते हैं के “शिव द्रोही मम दास कहावा, सो जन मोहे सपनेहूं नहीं पावा ” यह भगवान राम जी का वचन है जहां राम जी ये कहते है कि शिव द्रोही जो व्यक्ति शिवजी से द्वेष करता है शिवजी से द्रोह करता है और अपने आपको राम जी का बहुत बड़ा भक्त मानता है मेरा बहुत बड़ा भक्त मानता है शिव द्रोही मम दास कहावा सोजन मोहे सपने हूं ना पावा ऐसे लोग मुझे स्वप्न में भी प्राप्त नहीं कर सकते श्री राम जी कहते है। और शिवजी जो है वैष्णवा यथा शंभू, वैष्णव में अग्रणीय है तो जहां शिवजी आते हैं वहां ऑटोमेटिक वैष्णव समझना चाहिए | जो लोग यह सिद्धांत प्रतिपादित होता है जैसे ही हम वैष्णव अपराध करते हैं वैष्णव की निंदा करते हैं वह व्यक्ति भगवान को प्राप्त नहीं कर पाएगा नहीं कर सकता है बहुत कठिन है जटिल हो जाता है ”
हरी स्थाने अपराधे तारे हरि नाम
तुम स्थाने अपराधे नाही परित्राण
भगवान कहते हैं कि चाहे मेरे चरणों में एक बार अपराध कर लो हो जाएगा हरि नाम जपने से उसका भी कल्याण हो जाएगा लेकिन आचार्य कहते हैं कि जहां वैष्णव की और उसमें भी शिवजी जैसे महान वैष्णव की चरणों में अपराध किया जाता है व्यक्ति को किसी भी प्रकार का त्रान प्राप्त नहीं हो सकता उस व्यक्ति को नहीं प्राप्त हो सकता वह नहीं बच सकता उस वैष्णव अपराध से इसलिए उसको हाथी माथा अपराध कहा गया है बहुत बड़ा अपराध कहां गया वैष्णव अपराध सर्वश्रेष्ठ अपराध जो आपकी भक्ति लता बीज को समूल नष्ट करने की क्षमता रखता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों सख्य भाव है | दक्षिण भारत में जब राम जी जा रहे थे तो उन्होंने शिवलिंग की स्थापना की और जब नाम रखने की बारी आई तो लोगों ने पूछा कि क्या नाम रखा जाए तो राम जी ने कहा की रामेश्वरम नाम रख दीजिए तो लोगों ने पूछा कि रामेश्वरम का क्या अर्थ है तो राम जी ने कहा कि रामेश्वरम का अर्थ है बड़ा सामान्य अर्थ है क्या आप संस्कृत नहीं जानते राम का जो ईश्वर है वो रामेश्वर है। तो यह वाला जो अर्थ है वह शिवजी को हजम नहीं हुआ और उस लिंग से शिव जी प्रकट होकर कहां की व्याकरण का जो स्रोत है पाणिनि व्याकरण, जो पाणिनि ऋषि को मैंने ही व्याकरण के माहेश्वर सूत्रों को प्रदान किया है और उस व्याकरण का मूल आचार्य मैं हूँ और प्रभु आप जो इसका अर्थ कर रहे हैं यह अर्थ सही नहीं है रामयश ईश्वरह: रामेश्वर:। तो उन्होंने कहा रामेश्वरम का सही अर्थ है राम जिसके ईश्वर है वह रामेश्वर। मतलब मैं आपका इश्वर कैसे हो सकता हूँ आप मेरे ईश्वर हैं | इसलिए इसको रामेश्वर कहा जाता है तो इस प्रकार से इसमें बहुत सारी लीला आप देख सकते हैं जहां शिव जी का भगवान के प्रति और भगवान का शिव जी के प्रति सखा भाव प्रकट हो जाता है।
और जहां वात्सल्य भाव की बात की जाती है, भगवान शिव जी भगवान के बाल रूप के बहुत बड़े भक्त हैं। ये रामचरितमानस की जो प्रसिद्ध चौपाई है जहां पर वे कहते हैं कि
” मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अजर बिहारी”
मंगल के अमंगल को नष्ट करने वाले वे बाल राम मुझ पर प्रसन्न हो जो दशरथ के अजीर अर्थात आंगन में घुटने के बल पर चलने वाले जो भगवान है बाल राम है वह मुझ पर द्रविभूत हो प्रसन्न हो यह मैं आकांक्षा करता हूं यह भगवान शिव जी के मुंह से निकली हुई चौपाई है। जहां वे कहते हैं द्रवहु सुदसरथ अजर बिहारी। दशरथ महाराज के अजीर मतलब आंगन में बिहार करने वाले जो प्रभु हैं वे बाल राम मुझ पर प्रसन्न हो। तो बाल स्वरूप के बहुत बड़े भक्त हैं। और यही प्रसंग आप कृष्णलीला में भी देख सकते हैं कि भगवान शिव जी आए थे नंद गांव में भगवान के बाल रूप का विशेष दर्शन करने के लिए लेकिन उनके अकराल विकराल स्वरूप को देखकर माता यशोदा डर गई थी। अभी कुछ समय पहले जहां पर भगवान ने पूतना राक्षसी का वध किया था और राक्षसी भगवान को उड़ा कर ले गई थी तो मैया थोड़ी ज्यादा ही सावधान थी किसी भी चित्र विचित्र व्यक्ति को पास नहीं आने देती थी तो मैया ने शिवजी को मना कर दिया था| शिव जी ने कहा कि प्रभु मैं आपके दर्शन की आशा ऐसे नहीं छोड़ने वाला वहीं पर पास में जाकर आशीश्वर महादेव जहां आज है वहां बैठकर शिवजी व्रत करने लगे ध्यान धारणा करने लग गए भगवान को प्रसन्न करने का प्रयास करने लगे। तो फिर भगवान रोने लगे,भगवान ने एक बड़ी विचित्र लीला की यशोदा मैया ने देखा कि भगवान का हर प्रकार से प्रयास करने पर भी रुदन जब बंद नहीं हो रहा तो पूर्णमासी ने कहा कि किसी वैष्णव का अपराध हो गया है कोई साधु बाबा आया था क्या जिसका आपने दर्शन नहीं करने दिया तो कहा कि हां आया तो था फिर नंद बाबा ने हर जगह अपने मित्रों को भेजा कि आप ढूंढ कर लाइए और जब पता चला कि वह बाबा यहां पेड़ कदम्ब के पास आकर बैठ कर भजन कर रहे थे तो फिर नंद बाबा यशोदा मैया को लेकर उनके चरणों में गए और बालकृष्ण का दर्शन भगवान को कराया। भगवान एकदम प्रसन्न हो गए और भगवान शंकर ने उनकी स्तुति कि भगवान के चरणों को स्पर्श किया भगवान को नमन किया और तृप्त होकर के अपने कैलाश लोग लौट गए तब भगवान कृष्ण शांत हो गए। तो वहां अब देखते हैं कि भगवान शिव वात्सल्य रूप में भी भगवान की सेवा करते हैं।
और जहां माधुरी रस की बात है ब्रज मंडल परिक्रमा में जब आप जाते हैं पूर्व तट की ओर जब आप जाते हैं तो मानसरोवर नामक एक ही स्थान आता है तो वहां की भी एक लीला सुनने में आती है कि जब भगवान शिव जी की इच्छा हुई कि भगवान की दिव्य रासलीला में मैं भी सहभागी हूं मानसरोवर में जब गोता लगाया तो वह भी गोपी का स्वरूप प्राप्त करके भगवान की रासलीला में भाग लिया तो यह ऐसे विचित्र आचार्य है जो हर रस में भगवान के साथ आदान प्रदान करते हैं भगवान शिव बहुत बड़े वैष्णव हैं बहुत बड़े भक्त हैं और हमें उनके चरणों में यह निवेदन करना चाहिए और जहां तक आप शिवजी की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं और इस आशा से कि शिवजी जब मुझ पर द्रवीभूत हो जाए प्रसन्न हो जाए और उत्तरोत्तर मुझे भगवान की भक्ति में अग्रसर होने का लाभ प्राप्त हो तो उसमें कोई दोष नहीं है हां लेकिन सामान्य तौर पर देवी-देवताओं के तौर पर शिवजी का सामान्य रूप में भजन करते हैं या फिर किसी भौतिक वस्तु की आकांक्षा से करते हैं तो वहां पर अपराध बन जाता है। तो हम देखते हैं कि शिव जी को हमें वैष्णव के रूप में ही देखना चाहिए भगवान के जितने भी लीलाएं हैं पूरे विश्व में कहीं भी प्रसिद्ध चरित्र हो वहां आप देखेंगे कि किसी न किसी लीला में शिव जी का सानिध्य प्राप्त होगा शिवजी का उल्लेख किया यह शिव जी की कोई ना कोई लीला आपको देखने जरूर मिलेगी आप यह बड़े-बड़े चारों धाम को भी देखेंगे तो बद्रीनाथ के बगल में केदारनाथ जी हैं और जगन्नाथ पुरी के बगल में भुवनेश्वर धाम है और रामेश्वरम जहां है वहां भगवान रामनाथ के साथ शिव जी का भी स्वरूप आपको देखने मिलेगा सोमनाथ जी के रूप में है द्वारका जी के पास में । यह तो बड़े-बड़े तीर्थ स्थल हो गए।
वृंदावन में भी हम देखते हैं कि भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र व्रजनाभ जी ने जब विग्रहो की मुख्य रूप से स्थापना की तो स्थापनाओं मे हम देखते हैं कि उन्होंने चार देव चार महादेव और एक देवी की स्थापना की। चार देव जो ब्रजनाभ जी के द्वारा प्रस्तावित हैं वृंदावन में गोविंद देव हैं मथुरा में केशव देव हैं गोवर्धन में हरिदेव हैं और दाऊजी में बलदेव हैं यह 4 देव है।और इन्हीं के साथ चार महादेव की भी स्थापना की गई जैसे वृंदावन में गोपेश्वर है मथुराजी में भूतेश्वर है या चक्रेश्वर महादेव जी के रूप में गिरिराज जी में बैठे हुए हैं और कामेश्वर महादेव, इन चार महादेव की स्थापना भी भगवान के प्रपौत्र ने की ताकि यह धामेश्वर प्रभु है जो धाम की सुरक्षा करते हैं जो किसी भी अनावश्यक वस्तु व्यक्ति को धाम में प्रवेश करने से रोकने का कार्य करते हैं ताकि धाम स्थित भक्तों के भक्ति में किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न ना हो। और केवल एक देवी की स्थापना की गई है वह वृंदा देवी है।
तो इस प्रकार से भगवान शिव जी एक बहुत ही महान भक्त हैं और आज के इस पावन पर्व पर जो महाशिवरात्रि है शिव जी अति _प्रसन्न है तो आज हम भगवान शिव जी की प्रसन्नता के लिए कार्य कर सकते हैं उपवास कर सकते हैं और शिव जी जब_ प्रसन्न हो आशुतोष है निश्चित रूप से प्रसन्न होंगे शीघ्र अति शीघ्र प्रसन्न होंगे और उनसे भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का ही वरदान हमें प्राप्त करना चाहिए।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
एक छोटी सी चौपाई है जो जग प्रसिद्ध चौपाई है उसको बता कर मैं रुकता हूँ । वह अपनी पत्नी से कहते हैं
“उमा सुनो कहूं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना”
हम देखते हैं कि शंकर जो है यह जपा टॉक है क्योंकि वह जपा के बहुत बड़े जपी है और उन्होंने नाम जप का हर जगह उन्होंने समर्थन पाया आप सैकड़ों रामचरितमानस की चौपाइयां देखेंगे
” जा सुमिरत नाम एकबारा उत्तरही नर भव सिंधु अपारा ”
यह शिव जी के मुख से निकली हुई चौपाइयां है हर हर जगह उन्होंने नाम निष्ठा के बारे में बताया है कि हे उमा हे मेरी प्रिय पत्नी सुनो यह मेरा अनुभव है साक्षातकार है इस संसार में केवल एक मात्र सत्य बात यह है कि यह राम का नाम केवल राम नाम ही सत्य है और बाकी सारा संसार सपना है। संसार में केवल भगवान का भजन ही सत्य है बाकी सब सपनत्व है जैसे सपने मैं किसी को राज्य प्राप्त हो बड़ा प्रसन्न हो और हंसते हंसते जाग जाएं और पता चले कि वह झोपड़ी में लेटा हुआ है और कोई व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है सपने में एक शेर पीछे लग गया और जब जैसे खाने ही वाला है तब जाग जाए और देखे कि शेर नहीं है। तो सपने में प्राप्त की गई कोई वस्तु सच नहीं होती उसी प्रकार संसार भी नश्वर है अनित्य है झूठा है आज है कल नहीं है केवल भगवान का नाम ही एकमात्र ऐसी संपदा है संपत्ति है जो आपके साथ हमेशा रहेगी इसलिए हर एक व्यक्ति को भगवान के नाम में तल्लीनता से लगना चाहिए यह अपना अनुभव महान वैष्णव शिवजी हमसे साझा कर रहे हैं इसलिए आज के पवित्र अवसर पर शिव जी के चरणों में प्रणाम करते हुए प्रसन्नता की कामना करते हुए भगवद भक्ति में प्रगति करने की आशा से उनसे वरदान मांगते हुए। मैं अपने वचनों को यहां रुकता हूं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Visitor Counter











