Chant Japa with Lokanath Swami is an open group, for anyone to join. So if you wish to experience the power of mantra meditation or if you wish to intensify your relationship with the Holy Names, join us daily from 5.15 - 7.30 am IST on ZOOM App. (Meeting ID: 9415113791 / 84368040601 / 86413209937) (Passcode: 1896).
To get latest updates of His Holiness Lokanath Swami Maharaja Join What’s App Community: https://chat.whatsapp.com/Hdzzfn6O4ed1hk9kjV5YN5Current Month
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
28 फरवरी 2022
श्री कृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज द्वारा
हरे कृष्णा,
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंदा
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले ।
स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।
नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने
नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे
निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ।
वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद..श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गोर भक्त वृंदा
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्णा, कृपया सभी मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिए। आज बहुत महत्वपूर्ण दिन हैं, आज श्रील ईश्वर पुरी तिरोभाव तिथि महोत्सव हैं। तो आज मैं चैतन्य चरित्रामृत में से एक श्लोक पढ़ना चाहूंगा।
चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला 9.11
śrī-īśvarapurī-rūpe aṅkura puṣṭa haila
āpane caitanya-mālī skandha upajila
श्रील प्रभुपाद इसका अनुवाद करते हैं कि.. आगे चलके उस भक्ति लता बीज का ईश्वर पुरी के रूप में विस्तार हुआ और उस बीज का जो विस्तार हुआ आगे चलकर, उस भक्ति लता वृक्ष का जो मुख्य तना हैं,वह स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु बनें।
तात्पर्य-श्रील भक्ति सिद्धांत अपने अनुभाष्य में इस प्रकार से बताते हैं, श्रील ईश्वर पुरी कुमारहट नामक स्थान के निवासी थे।
जहां आज के समय में एक रेलवे स्टेशन हैं, कुमार हट के नाम से और उसके समीप भी एक रेलवे स्टेशन हैं, जिसका नाम हलि सहारा जोकि कलकत्ता के ईस्टर्न भाग के अंतर्गत आता हैं। ईश्वर पुरी एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और वह माधवेंद्र पुरी के प्रिय शिष्य थे। चैतन्य चरितामृत अंतः लीला 8.28-31 में यह बताया गया हैं कि
विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने अपने गुरुवाष्टक मे लिखा है
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥ (गुरूवाष्टक)
जैसा कि हमने यह श्लोक पहले ही सुना हैं, कि गुरु की कृपा के बिना कृष्ण की कृपा प्राप्त नहीं होती। भगवान की कृपा हमें गुरु की कृपा से प्राप्त होते हैं।गुरु की कृपा के बिना कोई भी अध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता या अध्यात्मिक गुरु की दया से ही व्यक्ति पूर्ण हो जाता हैं। यह यहां स्पष्ट रूप से बताया गया हैं।एक वैष्णव भक्त हमेशा भगवान द्वारा संरक्षित रहता हैं।
लेकिन अगर ऐसा प्रतीत होता हैं कि वह ठीक नहीं हैं, तो यह केवल इसलिए होता है ताकि उनके शिष्य उनकी सेवा कर सके। उनके शिष्यों को सेवा का मौका प्रदान करने के लिए होता हैं। ईश्वर पुरी ने अपनी सेवा द्वारा अपने अध्यात्मिक गुरु को प्रसन्न किया और अपने आध्यात्मिक गुरु की कृपा द्वारा वह एक बहुत ही महान व्यक्तित्व बन गए कि स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्वीकार किया। श्रील ईश्वर पूरी चैतन्य महाप्रभु के आध्यात्मिक गुरु थे, लेकिन भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु को दीक्षा देने से पहले वह नवद्वीप गए और गोपीनाथ आचार्य के घर में कुछ महीनों तक उन्होंने वास किया। उस समय उनका भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु से परिचय हुआ और चैतन्य महाप्रभु समझ गए कि ईश्वर पुरी ने उनकी पुस्तक कृष्णा लीलामृत का पाठ करके श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा की हैं। यह चेतनय भागवत आदि लीला अध्याय 11 में समझाया गया हैं ताकि सभी को उदाहरण द्वारा यह समझाया जा सके कि कैसे अपने आध्यात्मिक गुरु के विश्वसनीय और इमानदार शिष्य बनाया जा सकता हैं या अच्छा शिष्य बना जा सकता हैं। चैतन्य महाप्रभु ईश्वर पुरी के जन्म स्थान कुमारहट पर गए और वहां से कुछ भूमि या वहां की कुछ माटी एकत्रित की। इसे वह बहुत ही सावधानी से रखते थे और इसका छोटा सा अंश प्रतिदिन खाते थे। यह चैतन्य भागवत आदि लीला अध्याय 17 में बताया गया हैं और अब यह प्रथा बन गई हैं कि भक्त वहां जाए और वहां जाकर कुछ मिट्टी एकत्रित करके लाएं।यहां हमने कुछ महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की, जिससे कि हम ईश्वर पुरी की महिमा को समझ पाए और हमने माधवेंद्र पुरी और ईश्वर पुरी के बीच में भी जो घनिष्ठ संबंध था उसके विषय में भी सीखा और समझा। माधवेंद्र पुरी ही भक्ति लता वृक्ष के मुख्य बीज हैं। वह ईश्वर पुरी के आध्यात्मिक गुरु हैं। ईश्वर पुरी की तुलना जो वृक्ष या बीज से एक छोटा सा तना उत्पन्न होता हैं, उससे की गई हैं और पुनः समझा रहे हैं कि जिस प्रकार से माधवेंद्र पुरी एक बीज हैं और ईश्वर पूरी एक छोटा सा तना हैं और जब वह पूरी तरह से बड़ा होकर फलित होता हैं तो विशाल वृक्ष बन जाता हैं। उसका मुख्य तना स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु हैं और जो शाखाएं हैं,वह अद्वैत आचार्य प्रभु और नित्यानंद प्रभु और अन्य महाप्रभु के पार्षद हैं। उस प्रकार शाखा उपशाखा बनके आज हमारे पास एक भक्ति का बड़ा वृक्ष हैं और जब माधवेंद्र पुरी काफी वृद्ध अवस्था में थे और चलने फिरने में असमर्थ थे तब इस अवस्था में उनके शिष्य ईश्वर पूरी उनकी बहुत अच्छे से सेवा कर रहे थे। वह हमेशा उनके पास रहकर हरे कृष्ण महामंत्र का जप करके उन्हें सुनाया करते थे और वह वृंदावन में राधा कृष्ण की जो लीलाएं होती हैं, उनका भी पठन करते थे। वह लगातार माधवेंद्र पुरी को राधा कृष्ण की नित्य लीलाओं का स्मरण करा रहे थे और जिससे माधवेंद्र पुरी का हृदय राधा कृष्ण के विरह भाव भरे प्रेम में भर जाता था और माधवेंद्र पुरी विरह में विलाप करते हुए अपने बिस्तर में ही पुकारते रहते थे कि, मुझे मथुरा नहीं मिला, मुझे मथुरा नहीं मिला, मुझे मथुरा नहीं मिला, मैंने मथुरा की प्राप्ति नहीं की। मथुरा ना पाईनु… मथुरा ना पाई नु.. मुझे मथुरा की प्राप्ति नहीं हुई. मुझे मथुरा प्राप्त नहीं हुई और इस तरह से उनका हृदय राधा कृष्ण के विरह प्रेम से अभिभूत हो जाता था।
ईश्वर पुरी इस प्रकार से अपने गुरु महाराज की वपू सेवा करते थे। प्रतिदिन उन्हें राधा-कृष्ण की नित्य लीलाओं का स्मरण करा कर और उनके हृदय में अल्लहाद उत्पन्न कर के वह अपने गुरु महाराज की वपू सेवा किया करते थे और देखा जाए तो उन्होंने अपने गुरु महाराज की बहुत ही तुच्छ स्तर की वपू सेवा भी की हैं। उन्होंने वाणी और वपू दोनों सेवा की हैं। ईश्वर पुरी माधवेंद्र पुरी के प्रति इतने समर्पित थे कि उन्होंने स्वयं उनके मल मूत्र को साफ किया हैं और नित्य प्रतिदिन किया करते थे और वह जो भी सेवा माधवेंद्र पुरी की कर रहे थे, उसके बदले में उन्हें माधवेंद्र पुरी की कृपा प्राप्त हो रही थी, उनका आशीर्वाद प्राप्त हो रहा था।श्रील प्रभुपाद जी अपने तात्पर्य में लिखते हैं कि माधवेंद्र पुरी ने ईश्वर पुरी से यह कहा कि मेरे प्रिय पुत्र, में केवल कृष्ण से यह प्रार्थना कर सकता हूं कि वह तुमसे प्रसन्न हो जाएं और वह आपसे सदैव प्रसन्न रहें। यह वास्तव में अति उत्तम आशीर्वाद हैं और हमें भी इस प्रकार से कार्य करना चाहिए,यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे गुरु भी हम से प्रसन्न होकर हमें इस प्रकार का ही आशीर्वाद दें और हमारे गुरु कृष्ण से प्रार्थना करते हुए यह कहे कि हे मेरे कृष्ण, कृपया आप मेरे इस शिष्य से प्रसन्न हो जाइए। हमें इस प्रकार से अपने गुरु महाराज की सेवा करनी चाहिए कि हमारे गुरु महाराज हम से प्रसन्न होकर बार-बार कृष्ण से प्रार्थना करें कि कृपया कृष्ण
,कृपया कृष्ण मेरे शिष्य से प्रसन्न हो जाइए।तो आप में से कौन यह चाहता हैं कि गुरु महाराज भगवान से यह प्रार्थना करें कि हे कृष्ण आप मेरे शिष्यो से प्रसन्न हो जाइए?
इसी प्रकार से हमें भी यही भाव रखना हैं, कि हमारे गुरु महाराज भी हम से प्रसन्न होकर हमें यही आशीर्वाद दें और जब हमारे आध्यात्मिक गुरु या गुरु महाराज हमें आशीर्वाद देते हैं तो भगवान अपने आप प्रसन्न हो जाते हैं और इसी बात को और गहराई से बताने के लिए श्रील प्रभुपाद श्रीला विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के कोटेशन से बताते हैं
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥
जब हम कृष्ण को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं, लेकिन जब हम अपने आध्यात्मिक गुरु को अप्रसन्न करते हैं, तब कृष्ण भी हम से प्रसन्न नहीं होते, अप्रसन्न हो जाते हैं। हम यहां देख सकते हैं कि ईश्वर पूरी को अपने गुरु माधवेंद्र प्रभु की इतनी कृपा प्राप्त हुई कि उनकी सेवा का यह फल प्राप्त हुआ कि उन्हें स्वयं भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के दीक्षा गुरु बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को व्यक्तिगत रूप से दीक्षा प्रदान की। जब चैतन्य महाप्रभु के पिता ने अपना देह त्याग किया था या इस जगत का त्याग किया था तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पिंडदान करने के लिए गया गए थे और वहां चैतन्य महाप्रभु ईश्वर पुरी से मिले। वहां ईश्वर पुरी ने उन्हें यह मंत्र दिया और कहा कि यह मंत्र सबसे शक्तिशाली मंत्र है और शायद आप सभी यह मंत्र जानते हैं। अगर आप सभी यह मंत्र जानते हैं तो कृपया मेरे साथ इसका जप कीजिए। क्या आप तैयार हैं ?हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।ईश्वर पुरी से इस मंत्र को प्राप्त करने के बाद निमाई पंडित पुण: नवद्वीप वापस लौट आए
और नवद्वीप में वह शुद्ध भक्ति के अष्ट विकार प्रकट करने लगे। वह राधा और कृष्ण के अलावा कुछ भी याद नहीं रख पाते थे। लोगों को लगता था कि यह पागल हो गए हैं। निमाई पंडित अपने व्याकरण सीखने वाले छात्रों से मिले और वह निमाई पंडित से व्याकरण से संबंधित बहुत कठिन प्रश्न पूछते थे, लेकिन निमाई पंडित हर उत्तर में केवल राधा और कृष्ण की लीलाओं के बारे में ही बताते थे। उनका हर उत्तर राधा और कृष्ण से ही संबंधित होता था।कृष्ण हर एक वस्तु की जड़ हैं।
अहम सर्वस्य प्रभवो: ..
भगवान सभी के कारण हैं और कुछ 5 घंटों के बाद में निमाई पंडित अपनी समाधि से बाहर आते और अपने छात्रों से पूछते कि मैंने तुम्हें क्या बताया था? मुझे कुछ भी याद नहीं और उनके छात्र उन्हें बताते कि आपने पिछले 5 घंटों से केवल राधा कृष्ण के बारे में ही बात किया। हमें केवल राधा कृष्ण के बारे में ही बताया।तब निमाई पंडित कहते हैं कि मैं पागल हो चुका हूं। कृपया मुझे माफ कीजिए। मैं पागल हूं और वह उनसे कहते कि कृपया आप अपनी पुस्तके यहां से ले जाइए और व्याकरण किसी और से जाकर सीखिए। परंतु उनके छात्र कहते कि नहीं, हम किसी भी और को अपने शिक्षक के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। हमारे शिक्षक केवल आप ही हैं। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण,जो कि स्वयं भगवान हैं।
लेकिन उन पर भी वह कृपा तब हुई जब उनके गुरु महाराज ने उन पर कृपा करके उन्हें यह मंत्र प्रदान किया, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे.. एक समय पर श्री चैतन्य महाप्रभु श्री ईश्वर पुरी के जन्म स्थान पर गए जो कि कुमारहट मे हैं। महाप्रभु अपने गुरु महाराज के लिए इतना समर्पित हैं कि वहां से उन्होंने कुछ मिट्टी उठाई और अपने पास एक डिब्बे में डाल कर रख ली और हर एक बार भोजन पाते हुए वह अपने भोजन के साथ उस मिट्टी को भी ग्रहण करते थे जो कि उन्होंने कुमारहट से उठाई थी। तो ऐसे ही एक बार मैं अरावड़े में था, जो कि गुरु महाराज जी का गांव हैं। मैंने भी वहां से कुछ मिट्टी अपने पास रख ली और मैं भी अपने खाने के साथ उस धूल को थोड़ा-थोड़ा करके खाता हूं। आप में से कौन उस धूल को या मिट्टी को ग्रहण करना चाहेगा? उस मिट्टी को जो कि गुरु महाराज के जन्म स्थान अरावड़े की हैं। आध्यात्मिक गुरु के जन्म स्थान की धूल बहुत ही पवित्र होती हैं, क्योंकि उसमें गुरु महाराज के चरण चिन्ह अंकित होते हैं। सही मायनों में जब हम कहते हैं कि श्रील गुरु महाराज के चरण कमलों की धूल लेना या उसे अपने सर पर लगाना इसका सही भाव यह हैं कि हम अपने गुरु महाराज के आदेशों का या उनकी वाणी का पालन करें और पिछली रात्रि जब मैं गुरु महाराज के साथ था, तब गुरु महाराज यानी कि परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज जी बता रहे थे कि किस प्रकार से वह अपने गुरु महाराज अर्थात श्रील प्रभुपाद की वाणी और वपू सेवा करते हैं और गुरु महाराज श्रील प्रभुपाद के मस्तक पर, कपाल में चंदन का लेप लगाते थे। श्रील प्रभुपाद जी को चरणामृत भेंट करते थे और वह प्रभुपाद जी को जुहू में प्रसाद वितरण में मदद करते थे। परंतु गुरु महाराज बता रहे थे कि मुख्य रूप से मैंने अधिकतर वाणी सेवा की हैं। मैंने केवल श्रील प्रभुपाद के निर्देशों की सेवा की हैं, निर्देशों का पालन किया हैं और वाणी सेवा या गुरु महाराज के आदेशों का पालन करना सबसे मुख्य सेवा हैं। हम बहुत ही भाग्यवान हैं कि हमें यह प्रतिदिन अवसर मिल रहा हैं कि हम गुरु महाराज परम पूज्य लोकनाथ स्वामी के मुखारविंद से श्रवण कर सकें और गुरु महाराज की कृपा से बहुत से श्रेष्ठ वैष्णवो के द्वारा सुन सकें और उनसे सुनकर हम उनकी वाणी सेवा कर पा रहे हैं और उन से सुनना और उनके आदेशों का पालन करना इसी समान हैं, जिस प्रकार हम उनके जन्म स्थान से धूल लेकर उसे ग्रहण करें और आज के समय में हम जब तकनीक का प्रयोग करके हम दूर दूर से कहीं से भी एक दूसरे से जुड़ कर इस प्रकार से श्रवण करते हैं, तो यह अद्भुत हैं। कल ही गुरु महाराज एक व्हाट्सएप ग्रुप में लिख रहे थे कि हां तकनीक बहुत अच्छे से, अद्भुत तरीके से काम करती हैं। हम इसे कृष्ण की सेवा में प्रयोग कर सकते हैं ।मुझे आपको यह बताते हुए बहुत अधिक प्रसन्नता हो रही हैं कि हमारा जो यह लोक स्टूडियो, जो पंढरपुर धाम में,महाराष्ट्र भारत में हैं, वह पूरी तरह से कार्यरत होने के लिए तैयार हैं और यहां लोक स्टूडियो में जो भी गतिविधियां होंगी वह हम आप सभी के साथ साझा करेंगे और मेरे साथ यहां पर मेरे प्रिय गुरु भाई स्वरूपानंद प्रभु भी हैं, जो कि ग्रेटर नोएडा यूपी से हैं।वह इस लोक स्टूडियो को बनाने में एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग रहे हैं और हम आप सभी से आशीर्वाद चाहते हैं कि हम गुरु महाराज की वाणी की इस लोक स्टूडियो के रूप में सेवा कर सके और आप सभी के साथ इस वाणी को बांट सके जो कि महाराज के जन्म स्थान की धूल के समान ही हैं। श्रील ईश्वर पुरी तिरोभाव तिथि महा महोत्सव की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। श्रील गुरु महाराज की जय। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा १६ .०२.२०२२ ,पंढरपुर धाम*
आप सभी जप करने वाले भक्तो का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन’आज की चर्चा हम करते है प्रयास करते है
_ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:_
नित्यानद प्रभु की। … आज नित्यानन्द प्रभु का समरण हो रहा है कुछ दिन पहले हम नित्यानंद त्रयोदशी महोत्सव सम्पन किये नित्यानंद त्रयोदशी की लीला कथा’ सुने सुनाये सर्वत्र कथा हो रही थी मेने भी की और या सरे या सारे विश्व भर नित्यानंद प्रभु की कथा गायी जा रही थी नित्यानंद प्रभु एकचक्रा ग्राम में प्रकट हुए और उनकी बाल लीला वही सम्पन हुई १२ साल एकचक्रा ग्राम में रहे जो बंगाल में है और तत्पश्चात हम सुने है उन्होंने अगले २० वर्षो तक वे भारत का ब्रह्मण करेंगे किये और वैसा ही ब्रह्मण किये जैसे बलराम ५००० वर्ष पूर्व ब्रह्मण किए थे वैसा ही क्यों ? क्युकी बलराम होईलो निताइ! बलराम ही तोह नित्यानंद प्रभु है तोह ब्रह्मण करते करते या ब्रह्मण के दरमियान
वे पंढरपुर पहुंचे पंढपुर धाम की तोह पंढरपुर में जो उन्होंने लीला रची उसका हम सब समरण करेंगे नित्यानंद प्रभु यहाँ दीक्षित हुए या उन्होंने ऐसी रचना रची की वे यहाँ दीक्षित हो जाये या उसी के साथ पहले ही कहना चाहते है उन्होंने पंढरपुर धाम का महिमा बताया है तोह जब नित्यानंद प्रभु जय नित्यानंद! प्रभु पंढरपुर में थे वैसे बलराम ही पंढरपुर आये थे ऐसा उल्लेख मिलता है और इतना ही नहीं विठल मंदिर में एक बलराम मंदिर भी है बड़ीदादा मराठी में तोह बड़ीदादा बलराम का मंदिर विग्रह भी है तोह नित्यानंद प्रभु जब यहाँ आये पंढरपुर और यहाँ रहे तोह ऐसे कहना ही पड़ेगा की पंढरपुर भी उन्ही का धाम है तोह एक ब्राह्मण के अतिथि बन जाते है वह आवास और निवास की व्यवस्था हो चुकी थी जिस ब्राह्मण के घर पर उसी ब्राह्मण के घर पर पधार गए लक्ष्मीपति तीर्थ जो मध्वाचार्य संप्रदाय के तत्कालीन आचार्य थे जो उद्दीपि से आये होंगे उनका जो की उद्दीपि मध्वाचार्य का स्थान है उद्दीपि तोह उद्दीपि से वे पंढरपुर आये थे तोह यहाँ आचार्य आया करते थे तोह भगवन भी आये और रहे और आचार्य भी तोह ये लक्ष्मीपति तीर्थ उसी निवास में रहने लगे जिस निवास में नित्यानद प्रभु का निवास था लेकिन एक दूसरे से मिले नहीं थे अभी अभी आये थे लक्ष्मीपति तीर्थ तोह उन्होंने कहा अपने यजमान से वैसे में पहले भी यहाँ आया था पंढरपुर और आपके निवास पे रहा था लेकिन इस समय में विशेष कुछ अनुभव कर रहा हूँ मंगलमय वातावरण है यहाँ |
यहाँ के मांगल्या और पवित्रता का कोई ठिकाना ही नहीं इस समय क्या बात है ? तोह उन्होंने कुछ यजमान ने उत्तर वगैरह तोह नहीं दिया तोह ये मंगलमय वातावरण नित्यानंद प्रभु की उपस्तिथि के कारण ही बन चूका था तोह उस दिन, दिन में नित्यानंद प्रभु नित्यानंद बलराम की रचना लीला लीला शक्ति उनकी योगमाया कार्यरत है वो दीक्षा लेना चाहते है नित्यानंद प्रभु दीक्षा लेना चाहते है लक्ष्मीपति तीर्थ से तोह दिन में जब वो अकेले बैठे थे लक्ष्मीपति तीर्थ तोह उनको ऐसे ही स्फूर्ति होने लगी तोह बलराम का समरण होने लगा और भगवन बलराम को वो प्राथना करने लगे मेरा उद्धार कीजिये कृपा कीजिये इत्यादि इत्यादि भाव व्यक्त करने लगे ऐसे भाव विभोर हुए थे वे तीर्थ बलराम नित्यानद प्रभु की कृपा थी उन पर तोह बलराम याद आरे थे जय बलराम! जय बलराम! तोह ये सब स्मरण चल रहा था बलराम की याद बलराम भाव और ऐसे अश्रुधारा भहा रहे थे और लोटांगण हो रहा था और अपना मस्त थे वे और उसी भाव में वैसे थोड़ी निद्रा आगयी उनको उनकी भी योगमाया की व्यवस्था हो रही है और जब निद्रा की अवस्था में थे तोह बलराम का दर्शन किए नीलमम्बर वस्त्र पहने हुए बलराम बलवान बलराम जिनके अंग की कांति शुक्ल वर्ण के बलराम चांदी होती है ना जो सिल्वर वैसे बलराम के अंदर से कांति निश्चित हो रही थी कुण्डल पहने थे कुण्डल ऐसे खेल रहे थे कमल नयनी बलराम तोह सुन्दर सर्वांग सुन्दर बलराम का दर्शन कर रहे थे और बलराम से वार्तालाप भी प्रारम्भ किये और कुछ आदेश भी दे रहे है लक्ष्मीपति तीर्थ को उन्होंने कहा की कल एक विशेष व्यक्ति का आगमन होगा और तुम से मिलन होगा उनको तुम दीक्षा दो और इतना ही नहीं बलराम कहे ये मंत्र ये मंत्र उनको देना कल जब दीक्षा दोगे तोह िश मंत्र से दीक्षित करो ुष विशेष व्यक्ति को तोह क्या कर रहे है आप समझ रहे हो क्या तोह बलराम ने लक्ष्मीपति तीर्थ को दीक्षा दी हुई है अपना मंत्र कान में फूका है और वही मंत्र अब दूसरे दिन एक विशेष व्यक्ति को और पहले उनके पास आएंगे और दीक्षा दीजिये दीक्षा दीजिये तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || उपदेक्ष्यन्ति ते तुम दीक्षा दो तोह फिर दूसरे दिन जब दूसरा दिन आ पहुंचा लक्ष्मीपति तीर्थ अब प्रतीक्षा कर रहे थे तोह जैसे बताया था हुआ विशेष व्यक्ति का आगमन उन्होंने दीक्षा की मांग की और बलराम के आदेश अनुसार लक्ष्मीपति तीर्थ ने इस व्यक्ति को मन्त्र दिया दीक्षित किया अनुष्ठान दीक्षा अनुष्ठान सम्पन हुआ और इसके उपरांत लेटस सी व्हाट्स मोरे तोह दीक्षा तोह दीक्षित हुए वो कौन थे नित्यानंद प्रभु ही थे तोह नित्यानन्द प्रभु को लक्ष्मीपति तीर्थ ने दीक्षा दी और दीक्षा के उपरांत नित्यानद प्रभु प्रस्थान भी किये क्युकी वो ब्रह्मण चल ही रहा था तोह पंढरपुर से वो और तीर्थ छेत्र के लिए आगे बढ़े और फिर उस दिन या उस रात्रि को जब लक्ष्मीपति तीर्थ पुनः विश्राम कर रहे थे तोह नित्यानंद प्रभु प्रकट होते है जिनको दीक्षा दी थी अपने शिस्य को वो शिस्य पुनः दर्शन देते है उनकी निद्रा की अवस्था में स्वपन अवस्था में और कुछ ही समय के उपरांत नित्यानद प्रभु बलराम बन जाते है तोह ये इसी के साथ समझ रहे है की जिनको दीक्षा दी वे नित्यानंद प्रभु स्वयं बलराम ही तोह है तोह फिर उस स्वपन अवस्था से जब जगे तोह जागृत अवस्था में तोह एक तोह उनको विरहा की इतनी व्यथा से वे रसित है बलराम चले गए नित्यानंद प्रभु चले गए एक तोह ये समझ आया जिनको दीक्षा दी वे स्वयं बलराम ही तोह थे भगवन ने मुझसे दीक्षा ग्रहण की भगवन ने मुझसे एक प्रकार से वाज़ नॉट वैरी स्ट्रैट फॉरवर्ड सीधा आके कहते में कौन हु मुझे दीक्षा दो तोह छल कपट के साथ ही दीक्षा का व्यवस्था किये तोह लक्ष्मीपति तीर्थ पछताने लगे मुझसे भगवन को दीक्षा में कौन होता हु देने वाला और वे मुझे छोड़ के चले भी गए यहाँ से प्रस्थान किये अगर यही होते उनके चरणों में कुछ क्षमा याचना मांगता मुझसे अपराध हुआ हरी हरी ! दीक्षा तोह हो चुकी थी तोह इस प्रकार नित्यानंद प्रभु या इससे ये पता चलता है की बलराम होईलो निताई बलराम और नित्यानंद प्रभु में अंतर नहीं है बलराम जी थे और है नित्यानद प्रभु और ये लीला उन्होंने पंढरपुर में खेले नित्यानद प्रभु पंढरपुर में दीक्षित हुए पंढरपुर धाम की.. और वैसे वो है तोह भगवन है
बलराम है नित्यानंद प्रभु है लेकिन है तोह बलराम नित्यानद प्रभु का आदि गुरु है तोह गुरु को गुरु की आवयसकता तोह नहीं है तोह आदि गुरु है ओरिजिनल स्पिरिचुअल मास्टर लेकिन यहाँ एक तोह नित्यानंद प्रभु भी भक्त बने है जैसे गौरंगा महाप्रभु भक्त बने है नित्यानंद प्रभु भक्त बने है वैसे अद्वैत आचार्य भक्त बने है श्रीवास ठाकुर तोह भक्त तोह थे ही गदादर पंडित भक्त बने है गदादर पंडित तोह राधारानी ही थे तोह वे तोह भक्त है ही तोह ये सरे पंचतत्त्व भगवन पांच तत्वों में प्रकट हुए पंचा तत्त्व तोह ये सब भक्त बने है तोह भक्त को दीक्षा देनी चाहिए ये उपदेश आदेश भगवान् ने ही दिए है गीता में तोह नित्यानंद प्रभु बलराम या अदि गुरु होते हुए भी एक आदर्श रखे है तस्मात् गुरु प्रपदिता चॉइस ही नहीं है तस्मात् गुरुम प्रभुपाद से यू मस्ट स्वीकार करना चाहिए गुरु को स्वीवकार करना चाहिए गुरु पादाश्रय रूपा गोस्वामी प्रभुपाद जो ६४ भक्ति के अंगो उल्लेख करते हैं भक्ति रसामृत सिंधु में पहला तो गुरु पाद आश्रय तो यह शिक्षा भी नित्यानंद प्रभु दे रहे हैं तो यत यात आश्रयसि श्रेष्ठा जो श्रेष्ठ होते हैं उनका और आचरण करते हैं तो नित्यानंद प्रभु श्रेष्ठ हैं स्वयं भगवान है श्रेष्ठ भक्त के रूप में भी लीला खेल रहे हैं नित्यानंद प्रभु के रूप में तो वे ही दीक्षित नहीं होंगे गुरु पाद आश्रय नहीं लेंगे तो दुनिया या जनता क्यों लेगी तोह नित्यानंद प्रभु ने यह आदर्श भी समाज के समक्ष या मानव जाति के समक्ष ऐसा आदर्श भी रखा है हरी हरी तोह जब ये ब्रह्मण हो रहा था तो नित्यानंद प्रभु वैसे माधवेंद्र पुरी के साथ भी मिलते हैं और माधवेंद्र पुरी का अंग संग भी प्राप्त होता है नित्यानंद प्रभु को तो यह माधवेंद्र पुरी जो हमारे गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के एक दृष्टि से फाउंडर आचार्य हैं हम लोग गौड़ीय मधवा संप्रदाय को बिलॉन्ग करते हैं तो मधवा तो ठीक है लक्ष्मीपति तीर्थ से दीक्षा लिए माधवेंद्र पुरी और यहां नित्यानंद प्रभु भी उन्हीं से दीक्षा लिए हैं लेकिन जो गौड़ीय वैष्णवता जो है जिससे गौड़ीय वैष्णव की पहचान होती है वे सिद्धांत वह भाव वह भक्ति गौड़ीय वैष्णव की वह सिद्धांत की स्थापना और उसका आचरण करने वाले प्रथम आचार्य माधवेंद्र पुरी रहे जिन्होंने दीक्षा ली थी लक्ष्मीपति तीर्थ से ही तोह
नित्यानंद प्रभु माधवेंद्र पुरी या कहीं पर उल्लेख मिलता है कि वे ही वाज़ इनिसिएटेड disciple ऑफ माधवेंद्र पुरी के वे शिष्य थे नित्यानंद प्रभु तोह चैतन्य भागवत में लिखा है कि माधवेंद्र पुरी तो नित्यानंद प्रभु को अपना मित्र मानते थे दोस्त वह मेरे दोस्त हैं लेकिन नित्यानंद प्रभु माधवेंद्र पुरी को अपना गुरु मानते थे शिक्षा गुरु तो मानते ही थे तोह औपचारी दृष्टि से नित्यानंद प्रभु ने माधवेंद्र पुरी से दीक्षा नहीं ली लेकिन उनका संघ और उनसे शिक्षा तो जरूर ली और उसी के साथ वह भी नित्यानंद प्रभु भी गौड़ीय वैष्णव भगवान है तोह यह सब कहना उचित भी नहीं गौड़ीय वैष्णव बोले लेकिन जो गौड़ीय वैष्णव धर्म का स्थापना करना है तो नित्यानंद प्रभु भी माधवेंद्र पुरी से गौड़ीय वैष्णवता को लिए होंगे सीखे समझे होंगे उन से शिक्षा ग्रहण किए होंगे तो माधवेंद्र पुरी यह गौड़ीय वैष्णवता का जो वशिष्ठ है या कुछ कुछ ही शब्दों में कहा जा सकता है माधवेंद्र पुरी अपने अंतिम दिनों में रमुना खीराचोरा गोपीनाथ मंदिर मैं ही रहे या मंदिर के पास रहे और ईश्वर पुरी उनके शिष्य उनकी सेवा किया करते थे तोह माधवेंद्र पुरी वैसे उन दिनों में भी और पहले भी एक विशेष वचन का वह पुन: पुन: उच्चारण किया करते थे आई दीन दया नाथ है! मथुरा नाथ कदा अवलोकसे और भी है तो यह वचन पुनः पुनः कहते थे यह भाग पुन: पुन: व्यक्त करते थे वैसे यह भाव तो राधा रानी का ही है तोह जब श्री कृष्णा ____________ तो गोपियों को राधा रानी को वृंदावन में छोड़ के जब भगवान मथुरा जाते हैं तो उस समय के भाव जो राधा रानी के भाव थे गोपियों के भाव थे और ऐसे ब्रज वासियों के भाव थे विराह की जो व्यथा थी वह व्यक्त होती है यहां दीन दया नाथ है! मथुरा नाथ अब तो तुम मथुरा नाथ बन गए वृंदावन नाथ वृंदावन पति के बजाय तुम मथुरा मैं जा कर बैठे हो और तुम मथुरानाथ बने हो हे मथुरा नाथ हे दया दीनानाथ ये सब हरी हरी राधा रानी कह रही है तो यहां माधवेंद्र पुरी कह रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हमको भक्ति सिखाई है रम्या का चित उपासना वधुवरगेनया कल्पिता ऐसे भक्ति करो जैसे राम्या ब्रज वर्गेण वधुवरगेन कया कल्पिता गोपाङ्गनाय गोपिया राधा रानी का जो भाव भक्ति थी ऐसी भक्ति करो चैतन्य महाप्रभु मातम इदं तोह माधवेंद्र पुरी ने ऐसी भक्ति सिखाई तोह दया अगर आग्र भगवान को जब आती है दया आती है दया आती है तोह दयाआग्र दया अग्रता उनके हृदय में आग्रता उनका हृदय पिघल जाता है और द्रवीभूत होता है दयाग़र नाथ और कदाकी लोकस्य कब दर्शन दोगे हे राधे ब्रज____ हे नन्द सुनो कहा ये सड गोस्वामी वृंदावन के विभाग हैं कहां हो कहां हो कहां मिलोगे इस वक्त कहां होंगे यह जो विराह की व्यथा है विराह भाव जो है यही तो वशिष्ठ है गोपियों के भावो का या भक्ति का या राधा रानी का हो मिलन की बात नहीं कर रहे संभोग की बात नहीं एक संभोग होता है मिलन होता है मिलन आनंद संभोग और विप्रलम्भा वियोग में विरह में तोह कब मिलेंगे कहां मिलोगे यह भाव है नहीं मिल रहे हैं यह जो भाव है माधवेंद्र पुरी हमारे संप्रदाय के गौड़िये गौड़िये गौड़ीय संप्रदाय ऐसे प्रारंभ होता है माधवेंद्र पुरी से प्रारंभ होता है तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ही सेटिंग द सीन मंच बनाना है ताकि उस मंच पर या उसी परंपरा में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी जाएंगे आगे उस परंपरा में दीक्षित होंगे तोह कृष्ण चैतन्य महाप्रभु माधवेंद्र पुरी के शिष्य ईश्वर पुरी के शिष्य बने माधवेंद्र पुरी के शिष्य थे ईश्वर पुरी ईश्वर पुरी के शिष्य बने चैतन्य महाप्रभु तोह केवल ब्रह्मा संप्रदाय से दीक्षित बना एक बात है और फिर ब्रह्मा मध्वा मध्वा संप्रदाय में दीक्षित होना एक बात ऑल मध्वा गौड़िये संप्रदाय में दीक्षित होना और बात है कुछ खास बात है और यही है ये अंतर्राष्ट्रीय श्री कृष्ण भावना यह गोपी का भाव राधा भाव अनारतीथ चरणचिरा तारुण्य ावती कहाकालो समर्पयितं उन्नत उज्ज्वला रसा म स्वभक्तिम श्रियम चैतन्य महाप्रभु ऐसे प्रकट हुए और अनर्पिता बहुत समय से ऐसी बात प्रकट किया गया प्रकाशित नहीं किए थे ऐसे भाव भक्ति और वह है उन्नत उज्जवल रस मतलब माधुरी उज्जवल उन्नत रसाम सुभक्ति श्रृया ये उन्नत उज्जवल रस माधुर्य रस यह माधुर्य भक्ति का रस राधा रानी भाव और रस का स्वयं आस्वादन करने भी चैतन्य महाप्रभु ने आस्वादन भी किया और इसका वितरण भी किआ और यह रसास्वादन जुड़ी हुई है िश महामंत्र के साथ कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह भी है उन्नत उज्जवल रसिया भक्ति का रस या प्रेम का रस और इसीलिए यह प्रेम धन भी है यह महामंत्र प्रेम धन है इसीलिए हम इस महामंत्र से दीक्षित होते हैं जब दीक्षा दी जाती है तो यह महामंत्र दिया जाता है तोह उसी के साथ फिर दीन दया नाथ है! मथुरा नाथ कदा कदा अवलोकसे ये जो भाव है यह भावों से ही हम दिक्षित होते हैं या यह भाव को प्रकट करने हैं जागृत करने हैं उतित करने हैं हरी हरी और फिर हम महामंत्र को प्राप्त करते हैं दीक्षा में हमारी भी दीक्षा होती है नित्यानंद प्रभु की भी दीक्षा हुई दीक्षा होती है उसी परंपरा में ओके टाइम इज़ अप नित्यानंद प्रभु की जय गौरंगा गौरंगा नित्यानंदा माधवेंद्र पुरी की जय ईश्वर पुरी की जय और लक्ष्मीपति तीर्थ की भी जय भी जय पंढरपुर धाम की जय निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
25 फरवरी 2022,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण, आप सभी जप करते रहते हो। जप करने का अभ्यास कर रहे हैं। अधिक समय नहीं लेते हुए परिचय में, आपके साथ एक रिकॉर्डिंग साझा करना चाहता हूं। मैं नहीं बोलूंगा यह रिकॉर्डिंग ही बोलेगा। जप हमको ध्यान भी कहते हैं। ध्यानपूर्वक जप करो। मुझे एक रिकॉर्डिंग प्राप्त हुआ, योग निद्रा करने के लिए योग के लिए। मुझे पसंद आया फिर सोचा कि आप के साथ इसे साझा करूं। जप करते हैं तो हम प्रार्थना करते हैं कि, नाम दर्शये नाम हमे दर्शन दीजिए। मांगी क्रत्य अपना अंग संग दीजिए। मास्वीकरोतू मेरा स्वीकार कीजिए। यह भाव तो महामंत्र के जप के साथ जुड़े हैं ही। कृष्ण इनका ध्यान और इनका सानिध्य। हरि हरि, तो आप सुन ही लीजिए इसको। यह कुछ समय चलेगा ध्यानपूर्वक सुनना है। देखिए कैसे ध्यान का भी उपयोग हम जप के लिए कर सकते हैं या जप के समय कर सकते हैं।
मेरे सन्मुख मेरे जुगल सरकार विराजमान है कपिलदेव विधा को ध्यान की विधि बता रहे हैं। हम भी थोड़ी देर ह्रदय को स्थित करके इस ध्यान की विधि का अनुशिलन करे यह भावना करो। वृंदावन में यमुना तट पर युगल सरकार विराजमान है। दिव्य यमुना बह रही है। वंशीवट के नीचे प्रिया प्रियतम गलधिन है यह देखकर अष्टसखीयोंसे प्रेरित होकर दिव्य कमल पर सुशोभित हो रहे हैं। श्यामसुंदर के सुंदर चरणकमलो का ध्यान करो। सबसे पहले अपने नाम जप को प्रबंध करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रीकृष्ण के चरणकमलों मे जो चिन्ह है उनका ध्यान करो। सचिन्ह का यह भगवत चरणारविंदम वज्र अंकुश ध्वज सरोरद लांछन ….. सनाधि आहत महत्त ह्रदय अंधकारम उन चरण कमलों का ध्यान करो। जब यह चरणकमल आपके ह्रदय में उदय होंगे तो आहत ह्रदय महत्त्व अंधकार हम वहां आपके ह्रदय के अंधकार का नाश कर देंगे। ऐसे चरत चिन्हों का ध्यान करो। श्रीकृष्ण के चरणों में 24 चिन्ह है और जो श्यामसुंदर के बाये चरण चिन्ह है वह राधारानी के दाहिने चरणचिन्ह है। और दूसरे दाहिने चरण में है वहां राधारानी के बाये चरण में है। और 24 चिन्हों में 5 चिन्ह है। पहला चिन्ह वज्र का है वज्र अंकुश। वज्र अंकुश ध्वजा सरोरदा वज्र चिन्ह का ध्यान करो। यह वज्र यह आयुध है। जिसको इंद्र अपने हाथ में लिए रहते हैं। यह वज्र चिन्ह भगवान के चरणों में हैं। जिससे वज्र के द्वारा बड़े-बड़े राक्षस समूह का निर्मूलन होता है। ऐसे भगवान के चरणों में वज्र का चिन्ह ध्यान लगाने से आश्रित के पाप समूह का नाश होता है। दूसरा चिन्ह अंकुश, यह अंकुश ऐसा चिन्ह है हाथी चलाने वाला महावत अपने हाथ में एक नोकदार छोटी छड़ी लिए हुए हैं। जिसको अंकुश कहते हैं। वह हाथी के कान के पास 1 स्थान पर खिंचता रहता है। जिससे इतना बड़ा मदमत्त हाथी उस महावत के वश में हो जाता है। प्रभु के चरणों में अंकुश के चिन्ह का ध्यान करो। जैसे अंकुश से हाथी वश में हो जाता है। ऐसे भगवान के चरणों में अंकुश का ध्यान करने से यह मनरूपी हाथी जो अनंत जन्मों से जीव को दुख दे रहा है, धीरे धीरे यह मनरूपी हाथी वश में होने लगता है। तीसरा चिन्ह श्रीकृष्ण के चरणों में कमल का है। इस कमल के चिन्ह का ध्यान करो। प्रभु को कमल बहुत प्रिय है।
नमो पंकजनाभाय, नमः पंकज मालिने।
नमः नेत्राय, मस्ते पंकजांग्रे।।
भगवान के नेत्र कमल जैसे हैं। भगवान के चरणों में कमल का चिन्ह है। भगवान गले में भी कमल की माला धारण करते हैं। प्रभु अपने हाथ में कमल ही लेते हैं। प्रभु के सब अंगों की उपमा कमल से की जाती है। भगवान को कमल इतना क्यों प्रिय है, इसीलिए एक कमल पैदा कीचड़ में होता है लेकिन कीचड़ में सढ़ता नहीं है। 1 दिन कोई माली आता है और उस कमल को प्रभु के चरणों में चढ़ा देता है। श्रीकृष्ण के चरणों में कमल का ध्यान करने से, एक दिन यह मन भी कमल के जैसा निष्पाप हो जाता है। वह साधक जो रहता है इस संसार के कीचड़ में पर, कमल के समान उसका मन इस संसार के कीचड़ में लिप्त नहीं होता है। और फिर नंदनंदन के चरणकमलों को पाकर वह धन्य हो जाता है। चौथा चिन्ह ध्वजा का है। ध्वजा का ध्यान करने से जैसे ध्वजा मंदिर के महल के सबसे ऊपर के शिखर पर लहराता ऐसे भगवान के चरणों में ध्वजा का ध्यान करने से उस साधक की भक्ति ध्वजा जगत में सबसे ऊपर लहराती है। कलयुग में दिव्य हवा जी उस ध्वजा को गिरा नहीं पाती है।
आगे भगवान के चरणों में मछली का चिन्ह है। मत्स्य के चिन्ह का ध्यान करो। मछली के चिन्ह ध्यान करने से क्या होगा, जैसे मछली की जल में आसक्ति होती है, जल के बिना मछली जी नहीं पाती है, ऐसे भगवान के चरणों में मत्स ध्यान करने से वह धीरे-धीरे श्रीकृष्ण के नाम रूप पर लीला धाम के ऊपर साधक की इतनी आसक्ति हो जाती है कि, वह नाम, रूप, लीला, धाम के बिना रह नहीं पाता है।
भगवान के चरणों में स्वास्तिक का चिन्ह है। उस स्वास्तिक के चरणों का ध्यान करो। स्वास्तिक
संतुलन का प्रतीक है। स्वास्तिक का ध्यान करने से धीरे-धीरे चित्त के भीतर संतुलन आएगा। तो फिर जो चित्त अभी जगत विषयों के ओर आकृष्ट हो रहा है, वह धीरे-धीरे नंद नंदन के चरणों की ओर आसक्त होगा। उन दिव्य चरणचिन्हों का ध्यान करो।
अब धीरे-धीरे अपने मन को ऊपर ले जाओ कैसे श्रीकृष्ण के वो दोनों चरण कमल है। श्रीकृष्ण के सांवले रंग के चरण है और श्री राधा के गौर वर्ण के चरण है लेकिन, दोनों तलुआ लाल है। नंदनंदन के चरणों का ध्यान करो कैसे सुंदर नक्ष सुशोभित हो रहे हैं।
उतंग रक्तविलसंग नखचक्रवाल जुसुवाधिन
आहत महत हृदय अंधकाराम, भगवान के श्रीचरणों से अलगसे जो प्रकाश निकल रहा है, उसका अनुभव करो। श्यामसुंदर के चरणकमलों के नखोंके प्रकाश हमको प्रकाशित करें। उन नखों के प्रकाश का ध्यान करो। उन नखों में बड़े-बड़े योगी और ज्ञानी विलय प्राप्त हो जाते हैं। कैसे सुंदर प्रभु के चरणकमल हैं। जिनमें दिव्य नूपुर विराजमान है। उस दिव्य पायल को देखो। यह पायल कोई और नहीं। पायल में घुंघरू कोई और नहीं। जितने भी भगवान की दास्य रस के भक्त हैं वह श्रीकृष्ण के चरणों की पायल के नूपुर बन गए हैं।
धीरे धीरे अपने चित्त को उन चरणों से जोड़ो। अब अपने मन को ऊपर ले जाओ। देखो प्रभु ने कितनी सुंदर पितांबरी पहनी है। कितनी सुंदर कमर में काचंनी धोती बनी है। पीले रंग की चमचमाती हुई धोती विराजमान है। जिसकी केसरिया किनारी है। उस पितांबरीसे कैसा प्रकाश निकल रहा है। उसका दर्शन करो। मदल मदल हवा के झोंकों से भगवान के वस्त्र उड़ रहे हैं। दर्शन करो।
अब धीरे-धीरे मन को ऊपर लेकर जाओ। श्रीकृष्ण के चरणों में कितने सुंदर करधनी बंधी हुई है। आहाहा! यह करधनी कौन है और बाजू के बाजूबंद। भगवान के जितने साख्य रस के भक्त हैं, वह ठाकुरजी के कमर के करधनी के घुंघरू बन गए हैं। बाजू के बाजूबंद बन गए हैं। उस करधनी को निहारो। कैसे सुंदर लग रहे हैं। कैसे सुंदर घुंगरू सुशोभित हो रहे हैं। निहारो।
अब धीरे-धीरे अपने नेत्रो को ऊपर ले जाओ। कैसे सुंदर भगवान के लंबी नाभि है। कभी इसी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ था। उत नाभि का दर्शन करो। उदर का दर्शन करो।
अब भगवान के दिव्य विशाल वक्षस्थल का दर्शन करो। आहाहा! कैसा सुंदर वक्षसल वक्षस्थल है। जिसके ऊपर भृगुलता का चिन्ह है। यह हम भृगुलता का चिन्ह और यह वत्सचिन्ह रेखा कोई और नहीं। जो स्वर्णिम रोमावली के रेखा है यह इसी वत्स चिन्ह है। इस स्वर्णिम रोमावली के रूप में साक्षात श्रीजी ही श्यामसुंदर की वक्षविलासिनी होकर विराजमान होकर विराजमान है। दर्शन करो।
प्रभु के गले में बड़े-बड़े हार है। यह हार कौन हैं, यह जो बड़े-बड़े हार हैं जो कभी हिलते दुलते नहीं यह सब भगवान के शांत रस के भक्त हैं। जो भगवान के ह्रदय देश में रहते हैं। उन दिव्य हारो को निहारो।
प्रभु के गले में सुंदर वनमाल विराजमान है। जरा इस वनमाल को देखो, इस वनमाल में पांच प्रकार के पुष्प गुथे है तुलसी, कुंद, मंदार, पारिजात, सरोरूही। पंचभिल ग्रंथामाला वनमाला प्रकिर्तितान इसमें तुलसी, कुंद, मंदार, पारिजात और कमल पांच रंग के पुष्प है। इन पांच रंगों के पुष्पों में भी पांच प्रकार के भक्तों की भावना हैं। जो श्वेत रंग के पुष्प है, वह शांत रस के भक्त हैं। जो सुंदर पीले रंग के पुष्प है वह वात्सल्य रस के भक्त हैं। जो नीले रंग के पुष्प है वह दास्य रस के भक्त हैं, क्योंकि उनकी आंखों में हमेशा नील रंग श्याम सुंदर समाए रहते हैं। जो हरे रंग के पुष्प है वह सख्य रस के भक्त हैं क्योंकि इन सख्य रस के भक्तों को तो निरंतर हरा ही हरा दिखता है। और जो लाल रंग के पुष्प है, जो सबसे गहरे रंग के पुष्प है यही मधुर रस के भक्त हैं। जिस रंग में सारे रंग समाहित होते हैं। इस विदग्ध वनमाला का दर्शन करो, इन में विराजमान भक्तों को निहारो। अब धीरे-धीरे अपने मन को ऊपर ले जाओ। कैसी भगवान की दिव्य ग्रीव्हा है और भगवान की दिव्य लंबी-लंबी भुजाओं का ध्यान करो। आ हा हा… प्रभु के बाजू में बाजूबंद सुशोभित है। इन भुजाओं का दर्शन करो, जिसमें दिव्य करोला कंगन विराजमान है। यह वही भुजाएं है, जिन्होंने गिरिराज जी को धारण किया हैं। इन्हीं भुजाओं ने डूबते गजराज को उभारा है। इन्हीं भुजाओ ने डूबते हुए को संभाला है। इन भुजाओं का दर्शन करो। यह भुजाएं ही भक्तों को आश्रय देने वाली है। धीरे धीरे दिव्य भुजाओं का दर्शन करते हुए अब प्रभु के दिव्य हस्तकमल का दर्शन करो। आ हा हा… कितने सुंदर हस्तकमल है। कैसे सुंदर हस्तकमल में चिन्ह हैं। इन हस्तकमल का ध्यान करो। यह हस्तकमल तो चरण कमलों से भी ज्यादा दयालु है। चुंकि चरणों के पास तो साधक को जाना पड़ता है, पर यह हस्तकमल तो स्वयं उठकर के आश्रित के शीश पर विराजमान हो जाते हैं। इन हस्त कमल का ध्यान करो। देखो इन हस्त कमल में सुंदर वंशी विराजमान है। श्यामसुंदर के अधर कमलों पर यह वंशी कैसी शोभा दे रही है। मानो इस वंशी महारानी की श्यामसुंदर सेवा कर रहे हो। मानो हाथों का पलंग बिछाया हो, अधरों का तकिया लगाया हो। उंगलियों से इस वंशी महारानी के चरण दबा रहे हो। मानो भगवान के माथे का मोर पंख इस वंशी देवी को बीजना कर रहा हो। इस वंशी के ध्वनी को सुनो, जगत के शब्दों से उदासीन हो जाओ। श्यामसुंदर की वंशी बज रही है उसमें अपने चित्त को तन्मय करो। और कोई शब्द जीवन में ना रह पाए एकमात्र श्याम सुंदर की वंशी है। इस चित्त को मगन करो। आ हा … हस्त कमल में वंशी लिए गोविंद कैसे लग रहे हैं ओहो..। मुरली कौन है तप तु कियो।
रेहत गिरीधर मुख तु लागी अधर को रस पियो। नंदनंदन पानी परस के तोये सबरस दियो।
सुरश्री गोपाल वशभरे जगत मे यश लियो।
वंशी कौन तप तु कियो।
इस वंशी का ध्यान करो और धीरे-धीरे अपने मन को ऊपर ले जाओ। कैसी सुंदर भगवान की ग्रीव्हा है, कैसी सुंदर भगवान के चिबुक है। आ हा हा.. जिस थोरी पर हीरा दमक रहा है। कैसे सुंदर कमल के पंखुड़ी के समान अधर कमल है। और कैसी भगवान की दिव्य उन्नत नासिका है। ओ हो… कैसी सुंदर कपोल और कैसी सुंदर नासिका में वह गुलाक विराजमान है। कानों में कुंडल विराजमान है यह गुलाक और यह कुंडल कोई और नहीं श्यामसुंदर के जो मधुर रस के भक्त हैं वही श्रीकृष्ण के नासिका के गुलाक और कानों के कुंडल बन गए हैं। जो श्याम सुंदर के अधरों का और कपोलो का चुंबन करते हैं। उस गुलाक को निहारो, उन कुंडलो को निहारो। आ हा..कैसे सुंदर कपोल, कैसी सुंदर नासिका। अब धीरे धीरे धीरे अपने मन को उपर ले जाओ, भगवान के कैसे सुंदर दोनों नेत्र कमल है। आ हा… कमल जैसे बड़े-बड़े नेत्रों को निहारो, जो नेत्र सजल है। यह जो नेत्रों में जल भरा है यह कोई और नहीं, यही करुणा का समुद्र है। श्यामसुंदर में अपने मन को लगाओ, प्रार्थना करो। हे कमलनयन एक बार मेरी ओर निहारलो। हे श्यामसुंदर मैं तुमको प्राप्त करना चाहता हूं लेकिन मेरे में कोई बल नहीं। मुझमें कोई साधन नहीं। तुम्हारी माया बार-बार मेरी चित्त को भ्रमित कर देती है। मैं बार-बार उद्विग्न हो जाता हूं। हे गोविंद यह कृतार्थ की ज्वाला मुझे जला रही है, ना ना प्रकार के दुख मुझे सता रहे हैं। मैं दुखों का पार नहीं पा सक रहा हूं। हे नंदनंदन आसक्ति के बंधन मुझे जकड़े हैं, मैं चाह कर भी तुम्हारी और एक पैर नहीं बढा पा रहा। हे करुणामाय एक बार सिर्फ एक बार नेत्रों से मेरी ओर देख लो, मेरी दुर्दशा को निहार लो। तुम्हारे निहारने मात्र से मेरा कल्याण हो जाएगा। हे नाथ एक बार करुणा भरी दृष्टि से मुझे देख लो। हे श्यामसुंदर मैं तुम्हारी हूं, मैं तुम्हारी हूं। इन नेत्रों को निहारो। कैसे कमल जैसे यह दिव्य नेत्र है। आ हा.. इनका ध्यान करो, धन्य है। धीरे धीरे धीरे अपने चित्त को ऊपर लेकर जाओ। कैसा सुंदर भृकुटि के बीच तिलक विराजमान है, कैसी सुंदर ललाट कि शोभा है। प्रभु के शीश पर सुंदर मोर मुकुट विराजमान है, शीरपेच विराजमान है। उस शीश के आभूषण को निहारो। यह शीश के आभूषण भी कोई और नहीं जितने प्रभु के वात्सल्य रस के भक्त हैं, वह भगवान के शीश के आभूषण बन गए हैं। इनको निहारो। मोरपंख, मोर मुकुट, शीरपेच, सेज फूल सब कुछ कितना दिव्य है उसको निहारो। आ हा.. जहा जितनी देर तक चित्त अटका है अटकाए रखो, उलझाए रखो। जगत की आसक्ति ही बंधन है। यह आसक्ति जब श्री कृष्ण के नाम और रूप में हो जाती है तो वहीं सर्वश्रेष्ठ भक्ति है। श्री कृष्ण के श्री अंग में रूप में अपने चित्त को लगाना। जितनी देर चित्त स्थिर रहे तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् मुझ में मन को स्थिर करो। आ हां हां..। अब चढ़े तो श्रीकृष्ण की ओर से थे अब उतरना श्रीजी की ओर से है। श्यामसुंदर के मुकुट से अब श्रीजी के चंद्रिका तक आ जाओ आ हा ..। राधा रानी के मस्तक पर कैसी चंद्रिका सुशोभित हो रही है। प्रिया प्रीतम के सिर आपस में मिले हैं। मुकुट चंद्रिका एक दूसरे का मानो चुंबन कर रहे हैं। तो यह प्रिया प्रीतम कैसी मौज से विराजमान है। उन श्रीजी के अब दिव्य मुखारविंद को निहारो चंद्रिका, मांगपट्टी, शीशफूल, सिंदूर टीका माथे पर दिव्य सिंदूर की बिंदी विराजमान है। ओ हो… ललाट के ऊपर सखियों ने कैसी केसर चंदन से चित्रावली की है, पत्रावली की है। उसको निहारो। अब करुणामई के नेत्रों की ओर देखो आ हा.. हे करुणामई, हे मेरी स्वामिनी, हे मेरी भजन की धन, हे बरसाने वाली, हे वृषभानु दुलारी निहार लो हे करुणामई निहार लो। मुझ को निहार लो एक बार बस निहार लो। करुणामई की नेत्रों की ओर निहारो। यह करुणा की देवी जिसे देख लेगी, उसका उद्धार हो जाएगा, वह भागवत प्रेम में डूब जाएगा। एक क्षण में अत्यंत्यिक दुख निवृत्ति हो जाएगी। परम सेवा, सुख की प्राप्ति हो जाएगी। निहारो इन करुणामई की नेत्रों की ओर निहारो। जो सदा प्रेम में डबडबाए रहते हैं आ हां..।
यह कैसे नेत्र कमल है। दिव्य नासिका दिव्य कर्ण कमल, कपोल, चिबुक। श्री अंग का दर्शन करते हुए श्री जी की हस्त कमल की और देख लो। एक हाथ में श्रीजी कमल लिए, एक हाथ में वरद मुद्रा धारण किए विराजमान है। आ हा.. निहारो प्रार्थना करो है प्रिया जी एक बार मेरी शीश पर अपना हस्त कमल विराजमान कर दिजिए। तभी यह मेरी कुबुद्धि सुबुद्धि हो पाएगी। मैं आपको विसार के बहुत दुख पा रहा हूं। लेकिन फिर भी यह कपटी मन, यह अहंकारी मन आपके चरणों को छोड़कर बार-बार जगत में चला जाता है। हे बरसाने वाली एक बार जिन दोनों हस्त कमल में मेहंदी रची है, जिन बाजूओ में कोहनी कोहनी तक चूड़ी विराजमान है, जिन हस्त कमल की उंगलियों में दिव्य दिव्य मुद्रिकाए धारण की है। हे स्वामिनी, हे अटल सुहागन किशोरी जी एक बार एक बार मेरे इस शीश पर अपने दोनों हस्त कम धर दो। मैं तुम्हारी शरण में हूं। हस्त कमल को निहारो, श्रीजी के दिव्य वस्त्रों को देखो। कैसी सुंदर नील साड़ी श्रीजी ने पहनी है, पचरंगी ओढ़नी पहनी है। श्याम सुंदर की पितांबरी पीले वस्त्र और श्री जी के नीले वस्त्र ही क्यों है? श्याम सुंदर का वर्ण नील वर्ण है, इसीलिए श्रीजी नीलवर्ण की साड़ी पहनती है। और श्री जी का अंग वर्ण पीत है पीला है तो श्यामसुंदर पितांबर धारण करते हैं। अर्थ क्या है? मानो श्यामसुंदर के पितांबर के रूप में राधारानी ही अपने प्रियतम को आलिंगन दिए रहती है। और राधा रानी की नील साड़ी के रूप में मानो नंदनंदन ही अपने प्राणवल्लभा को अंकमाल दिए रहते हैं। इस दिव्य नील साड़ी को निहारो और धीरे धीरे धीरे अपने चित्त को नीचे लाओ। कैसे सुंदर चरण कमल है। आ हा.. उन चरण कमलों को निहारो। कैसे सुंदर चरण कमल है जिनमें महावर लगी है, सुंदर केसर की रचना हो रही है। सुंदर चरणों में पायल, पांग फूल, आठो उंगलियों में बिछुआ, अंगूठो में अनवट विराजमान है। आ हा.. उन चरणों को निहारो।
धन धन राधिका के चरन
सुभग शीतल अतिही कोमल कमल के से वरन
नन्द सुत मन मोद कारी, विरह कातर तरन
दास परमानन्द छिन-छिन श्याम जिनकी शरन
धन धन राधिका के चरन
आ हा.. इन चरण कमलों को निहारो। यह जो श्रीजी के चरणों की पायल है इसमें जितने नूपुर कोई और नहीं, सखिया ही श्रीजी के चरणों की पायल बन गई है। जितने नूपुर हैं, उन नुपूरो मे ही सब जीवों के भाग्य की कुंजी लगी है। जो श्रीजी के चरण का आश्रय लेते हैं उन्हीं के भाग्य की कुंजीओ को प्राप्त होती है, सौभाग्य प्राप्त होता है, अमंगल का नाश होता है, मंगल भवन अमंगल हारी की प्राप्ति होती है। उन चरणों को निहारो। अब धीरे धीरे धीरे अपने शीश को उन चरणों के ऊपर विराजमान कर दो। आ हा… मेरा सिर युगल सरकार के चरणों पर रखा है, वे मेरे सिर पर हाथ फेर रहे हैं। अब कहना है तो कह लीजिए, रोना है तो रो लीजिए।
हां राधे
देखत-देखत दिन सब बीते,
तुम अटूट अनुराग की दाता ,हम अजहूँ रीते के रीते,,
हृदय न प्रेम न नेम नाम कौ,साधन सकल तजे अबहीते,
बिनु पद पंकज “भोरी” स्वामिनी कितहूँ ठौर न ठीक सुभीते,
हे करुणामई चरणों पर सिर को रखे रहो। युगल मेरे सिर पर हाथ फेरे हैं। अष्ट सखियां युगल सरकार को घेरकर विराजमान है। प्रिया जी के चरणों का चिंतन करो। अपने मन को बार-बार युगल के चरणों में लगाना है। यह एक दिन का अभ्यास नहीं। धीरे धीरे धीरे यह अभ्यास सिद्ध होगा। नाम जपते जपते रूप का, लीला का, ध्यान का ध्यान करना है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा २४.०२.२०२२
प्रवक्ता – अनंतशेश प्रभुजी
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:। नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले । श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामिन इति नामिने ।। नमस्ते सरस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे ।
निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ।। वांछा-कल्पतरूभयशच कृपा-सिंधुभय एव च
पतितानाम पावने भयो वैष्णवे नमो नमः जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द:
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
सर्वप्रथम प्रणाम श्री गुरु महाराज समस्त वैष्ण्व जान को सादर प्रणाम यहाँ पर हम सभी परिजन प्रातकाल इस मंगल बेला में सभी एकत्रित होकर गुरु महाराज के साथ नाम जप कर ले और विशेष रूप से श्रील प्रभुपाद जी के द्वारा प्रस्तावित यह प्रातकाल कार्यक्रम इसके विषय में कुछ मन में विचार है कुछ समय पूर्व हमारे जो काउंसलिंग सेशंस की रिट्रीट हुआ था उष समय भी हम ईश विषय में चर्चा किये थे कुछ सिमित भक्तो के लिए’श्रीमद भागवतम प्रथम सकन्ध के प्रथम अध्याय श्लोक संख्या ५ से हम प्रारम्भ करेंगे जहा पर श्री व्यासदेव वर्णन है नैविसरण्या का जो दृश्य है यहाँ पर बता दें एक समय की बात है एक दिन एक दिन प्रात: काल में यज्ञ आदि की जो क्रिया है उसको सम्पन करने के पश्चात __ जो ऋषि मुनि है उन्होंने अत्यंत आदरपूर्वक रूप गोस्वामी को आसान प्रदान किआ __ यहाँ श्रीला प्रभुपाद कहते है प्रातकालीन जो समय होता है आध्यात्मिक कार्यो के लिए सर्वक्रिस्ट काल होता है यहाँ प्रथम वाकया था बाकी तात्पर्य को स्पष्ट रूप से परंतु इसी वाक्य को लेकर मैं विचार किया आध्यात्मिक क्रियाओं के लिए सर्वक्रिस्ट काल जिसे प्रभुपाद कहे तोह श्रीला प्रभुपाद के शब्दों को पढ़ने का विचार किए हुए हैं इस विषय में श्रीला प्रभुपाद _ और इस आंदोलन को प्रस्थापित करके श्रील प्रभुपाद ने विश्व अभियान
गतिविधियां प्रारंभ की जहां तक मुझे स्मरण है अन्य भक्त इसमें सुधार कर सकते हैं लगभग 1970 का समय था शायद स्मरण है एक 2 वर्ष बाद या पहले का हो सकता है जब श्रीला प्रभुपाद ने यहां मॉर्निंग प्रोग्राम इंट्रोड्यूस किया था वैसे भी जब श्रील प्रभुपाद थे तोह उस समय तोह पस्चात्य जगत के लोग जिनके जीवन में सात्विकता नहीं थी और जिनके जीवन में भीं भीं प्रकार के व्यसन आदि थे तोह उनको नाम आदि प्रदान किया श्रील प्रभुपाद स्ट्रिक्ट स्टैण्डर्ड सेट नहीं किये थे ततपश्चात क्रमश: श्रील प्रभुपाद ने यह प्रात कालीन कार्यक्रम इस्कॉन में मॉर्निंग प्रोग्राम के नाम से काफी प्रसिद्ध है लगभग प्रातकाल 4 से लेकर ९ बजे का समय प्रभुपाद ने भिन्न-भिन्न जो मंगला आरती से लेकर नाम जप है नरसिंह आरती तुलसी आरती शिक्षा अष्टकम भागवतम का श्रवण गुरु पूजा गुरु वंदना आदि कार्यक्रम बनाएं यह जो प्रातः काल का समय है इसके विषय में प्रभुपाद का कहीं और भी हमने पढ़ा मॉर्निंग इज द बेस्ट टाइम टू होल्ड टो डा स्प्रिटिकल सर्विसेज आध्यात्मिक क्रियाओं के लिए सबसे श्रेष्ठ काल जिसे कहा गया है यहाँ पे तोह काल का दो , दो तीन विषय को में एक साथ विचार कर रहा था तोह देखते है एक सत्र में हम कितना कुछ कर पाएंगे पदमालि प्रभु की विशेष करुणा है उनका भी उनका भी एक सत्र की सम्भवना रहेगी तोह देखते है तोह कब होगा देखते है तोह प्रथम था की शास्त्रीय दृष्टि से और संसारीक दृष्टि से िश प्रातकाल का जो महत्व है जिस समय हम अपना नाम रहे है इसकी महत्ता को स=जब समझते है श्रील प्रभुपाद के शब्दों में प्रभुपाद कितना अधिक इन शब्दों पर जोर दिए हैं और तत्पश्चात फिर कैसे हम लाभ प्राप्त कर सकते हैं _ दृष्टि से तोह जैसा प्रभुपाद ने कहा है प्रातकाल का जो समय है तोह काल समय विशेष प्रभाव करता है किसी भी क्रिया में किसी भी स्थान पर और किसी भी वस्तु पर काल का प्रभाव बहुत अधिक रहता है सर्वत ही कॉल का प्रभाव है भगवान ही काल रूप में है परंतु समय किसी भी स्थान को किसी भी कार्य को वास्तु आदि को सिद्ध करने के लिए जिस तरह से भागवतम में भी कलि काल के विषय में भी जब बताया जाता था शाम दिनम धर्मा सत्यम शौचं क्षमा दया कलेना बलिना राजन नकसंती आयु बलन स्थिति तोह ये काल ही है
कलयुग जो समय है काल के प्रभाव से कलेना बलिना राजन नकसंती,नकसंती नाश होता है किसका सत्य का शौच का दया का और आयु का नाश होता है बल का नाश होता है और स्मृति का नाश होता है वही पर आगे फिर सिद्ध गोस्वामी कहते है पुंसां कालीकृतां दोसँ द्रव्य दशवतं सम्भावन ये काली काल का विशेष प्रभाव क्या है दूषित करेगा दोष आजाएंगा किस्मे आएगा द्रव्य में कोई भी वस्तु हो यहाँ पे वस्तु में दूसन आता ही है जैसे फ़ूड pollution कहे सभी वस्तु में दूषण आता है तोह द्रव्य देश स्थान पर भी दूषण होता है और आत्मसम्भावन व्यक्ति का स्वाभाव भी दूषित हो रहा है जिस प्रकार से और एक दृश्टांग दिया जाये जिस प्रकार से काल होते है ऋतु होती है वर्षाऋतु तोह वर्षा ऋतु का अपना एक प्रभाव होता है वर्षा ऋतु में नदी का जल मेला हो जाता है कीचड़ होने लगता तोह तुरंत स्थान प्रभावित करने लगते हैं बहुत अधिक शीत आई तो व्यक्ति का स्वभाव भी कभी-कभी प्रभावित हो जाते हैं तोह केवल उस वर्षा ऋतु में आप रहेंगे तो आप भीग जाते हैं जब शीतकाल में रहेंगे तो उसका भी प्रभाव होता है तो ऐसे ही काल का इस कलिकाल का एक प्रभाव है जब कलिकाल में रहता है उसकी आयु का बल का उसकी स्मृति का उसकी पवित्रता का उसकी सत्यता का नाश हो जाता है तोह काल बहुत अधिक प्रभावित करता है हमें तोह कई ऐसे काल है दुस्टांग है ग्रहण होता है जैसे आप देखते है तोह उसमे भी दोष आते है
स्त्रियों का भी विशेष काल होता है अपवित्रता स्वाभाविक आजाती है आप ज्योतिष के पास जाते हैं तोह भी सबसे पहला प्रशन होता है सही मुहूर्त बताइए किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिए एक मुहूर्त तोह मुहूर्त जैसे २४ घंटे को लगभग ३० मुहूर्त कहे जाते हैं ४८ मिनट का एक मुहूर्त होता है ३० मुहूर्त के २४ घंटे होते हैं तोह मुहूर्त भी कॉल पर प्रभाव करता है वैसे ही जो आध्यात्मिक पथ पर प्रयास कर रहे हैं जो भगवत प्राप्ति करना चाहते हैं जिन भगवन के लिए अर्जुन सम्बोधन देते है परब्रह्मा परम धाम पवित्रम परममा भव: वो परब्रह्म जो है उन परब्रह्म की प्रय्तक्ष अनुभूति जो है इसी जीवन में करना चाहता हु उस परब्रह्म की कृपा को अनुभव करना चाहता हु उसके लिए विशेष काल को ही रखा जाता है और उसको ब्रह्ममुहूर्त कहा जाता है लगभग जितने भी आध्यात्मिक पथ हैं केवल भक्ति मार्ग में नहीं चाहे ज्ञान मार्ग हो या अस्टांग योगी का जो पालन करते हो या ज्ञानी हो ध्यानी हो या किसी भी पंथ के हो लगभग मैं चेक कर रहा था केवल मनुसंहिता में ही नहीं समस्त स्थानों पर इस समय को इस समय को बहुत अधिक जोर दिया गया है अगर आप देखना चाहे तोह गूगल पे ब्रहमुहर्त आप टाइप करेंगे तोह इतने लोग िश संसार में िश विषय पर चर्चा कर रहे है जैसे आपकी जानकारी में नरेंद्र मोदीजी हमारे प्रधानमंत्री हमने सुना है वे भी प्रातकाल ३ बजे उठते है और फिर सांसारिक लोगो में और भी दृशंत हम देते है जैसे अक्षय कुमार आदि कुछ सांसारिक लोग है जो िश समय को बहुत अधिक ज़ोर देते है आयुर्वेद की भी दृष्टि से देखा जाये तोह ब्रह्ममुहार्त का काल ब्रह्ममुहार्त याने विशेष रूप से सूर्योदय से लगभग १:३० घंटा पहले दो मुहर्त को ब्रहमुहर्त कहते है मतलब कितने ५६ मिनट हो गए तोह लगभग वो जो काल होता है हमारी दृष्टि से ४:३० से लगभग सवा ४ का जो काल होता है जय्दा स्पश्ट कहा जाये तोह जैसे ३ से ६ का समय बतया गया है मैं सुन रहा था एक बार बता रहे थे जहां तक मुझे स्मरण है गौर किशोर दास बाबा जी महाराज और जग्गनाथ दास बाबा जी महाराज के बीच इस विषय पर चर्चा हुई मंत्र सिद्ध का काल कौन सा होता है तोह उन्होंने कहा कि यह जो विशेष बेला होती है ३ ३ से ४ का समय ३ से ७ तक का लगभग ६ तोह वैसे ही प्रभा होता है तोह ३ से ७ का जो समय होता है को मंत्र सिद्ध कहा जाता है ब्रह्म मुहूर्त विशेष समय है जब सूर्य उदय के पूर्व अरुणा उदय होता है और अरुणा उदय प्रथम किरण क्षितिज को स्पष्ट करती हैं गुस्सा में ब्रह्मांड की ऐसे मतलब कई योग आदि पतंजलि में इसकी चर्चा की गई है ब्रह्मांड की समस्त जो दिव्य शक्तियां है एक साथ उस समय प्रवेश करती है स्पर्श करती है पृथ्वी को बहुत अधिक शुद्ध सात्विक तत्काल में होती है भी प्रकार की तामसिकता नहीं रहती जो पाप प्रित का कार्य करते हैं अधिकांश से रात्रि के समय करते हैं प्रात का जो काल होता है और इसका अभी मुझे शास्त्रीय रेफरेंस से श्लोक मिला नहीं है मनुसंहिता से चेक करा रहा था परन्तु यह कई बार कई स्थानों पर सुनने में मिला है की रात्रि के चार विभाजन जिसे कहा जाता है रौद्र काल राक्षस काल गनतत्व काल और मनोहर काल कहा जाता है संध्या से सूर्यास्त के पश्चात जो समय होता है लगभग मान लीजिए ६ से ९ का उसको रौद्र काल कहा जाता है तत्पश्चात ९ से १२ उसको राक्षस काल कहते हैं उसके पश्चात १२ से ३ का जो समय है उसको गनतत्व काल कहते हैं और फिर ३ से ६ उसको हम कहेंगे यहां मनोहर काल कहलाता है और इसको अमृतवेला कुछ पंथ में इस समय को अमृतवेला ३ का जो समय हैं ३ के बाद अमृतवेला कहा जाता है तोह िश समय विचारो की शुद्धता प्रकृति में भी एक स्वाभविक शुद्धता को देखा जाता है और बताया जाता है की मानुसाहिता के अनुसार माणूसहिंता के जो समर्निश लोग है उसमे बताया जाता है की ब्रह्म मुहर्ते स्तिया निद्रा सर्व पुण्य स्वकर्णी समस्त पुण्य स्वकर्णि ब्रह्ममुहृते हैमतलब जो व्यक्ति केवल एक क्रिया करता है कौनसी जो व्यक्ति सो जाता है ुष समय और कुछ न करे केवल सो जाता है ब्रह्म मुहर्ते स्तिया निद्रा समस्त सर्व पुण्य स्वकर्णी कहा गया है समस्त मतलब कितना पुण्य तोह ये मतलब पूरे जीवन का हो अभी तक का जितना पुण्य अर्जन हुआ है ब्रह्ममुहार्त के काल में कोई व्यक्ति यदि कोई सो जाता है सोवत है सो जाता है तोह जितना उसने पुण्य अर्जन किया है समस्त पुण्य शंड़ मात्र में स हो जाता है ुष समय जो व्यक्ति अगर सो जाता है तोह यहाँ वाकया एक साधु के लिए बहुत गंभीर वाकया है प्रभुपाद के शब्दो से देखंगे इसे तोह ुष समय मनुस्मृति में एक श्लोक है विशेष रूप से में कल ही थोड़ा कथा में व्यस्त थे तोह मिल नहीं पाए हलाकि विसहर था की पावर पॉइंट प्र्रेसेन्टेशन के साथ प्रस्तुत करे समस्त श्लोको के साथ श्लोक है मनुस्मृति में जहा पर बताया है की ब्रह्ममुहृत के काल में जैसे कोई उठता है तोह रौद्र काल राक्षस काल गनतत्व काल और मनोहर काल कहा जाता है तोह रौद्र काल वो समय जिस समय सोना नहीं सोना चाहिए कभी भी जैसे भगवत में भी वर्णन है जैसे शिवजी और उनके गण विचरण करते है ुष समय शिव से प्राथनाए मंत्र आदि उच्चारण होने चाहिए रौद्र काल में कीर्तन होना चाहिए संकीर्तन आदि मन्त्र जाप और कुछ श्लोको का उच्चारण रौद्र काल में होता है राक्षक काल में भूल कर भी जागना नहीं चाहिए कहते है ९ से १२ का जो काल होता है क्युकी राक्षक की प्रवत्ति बहुत अधिक प्रबल हो जाती है ुष काल में जितने भी भोग विलास आदि करने में जो प्रवृत लोग जो होते है संसारी लोग िश काल में ही अधिक पाप होना चोरी होना डकैती होना ये समय अधिक पप्रोमिनेन्ट रहता है गनतत्व काल तत्पश्चात १२ से ३ का रौद्र काल हुआ समय जिस समय रोगी सोते है राक्षक काल वह है जिस समय भोगी जागते है और गनतत्व काल ऐसे योगियों के लिए बताया जाता है जो योगी होते है सिद्धजन होते है वो विशिस्ट काल है जिस समय विशिस्ट अनुभूतिया करते है दिव्यासाक्षस्कार जैसे हम देखते है श्रील प्रभुपाद जी है श्रील भक्तिविनोद ठाकुर है श्रील हरिदास ठाकुर है ऐसे कई आचार्य गण जो निद्रा आहार आदि पर विजय प्राप्त किये हम इसको अनुकरण नहीं कर सकते पांच ुष विशिष्ट काल में जब सम्पूर्ण सृष्टि एकदम जब शांत हो जाती है ुष समय वो ग्रंथो का लेखन करते थे जिसको अब हम कहते है प्रभुपाद के भक्तिवेदांत तात्पर्य क्या है अर्ली मॉर्निंग एक्स्टसी जिसको कहा जाता है ___ ३ से ६ लगभग सूर्योदय का जो काल होता है िश समय कोई यदि ३ के पूर्व यदि जाग जाता है तोह बतलाया जाता है तोह सौंदर्य तेज़ आयु आरोग्य बुद्धि बल विद्या और सौभाग्य वृद्धि लक्ष्मी जैसे लगभग मनु महाराज के कई चीज़ बताई है इन सभी का तिवत्रा से इसका वर्धन होता है सौंदर्य का तेज़ का बुद्धि का वर्धन होता है और फिर मेडिकल साइंस में भी ऐसे कुछ कुछ अलग अलग रेफ़्रेन्स दिए गए है की न्यूरॉन पैटर्न हमारा कुछ बनता है जो की मस्तिस्क का विकास िश समय में होता है किसी तरह का नकारात्मक ऊर्जा का मतलब वायुमंडल में नकारत्मक ऊर्जा है वायु मंडल में बहुत सकारत्मकता रहती है और ऑक्सीजन प्योर होता है ुष समय का ऐसा बतया गया है बहुत हाई क्वालिटी का जो ऑक्सीजन है जो मेडिकल की दृष्टि से जो लंग्स के लिए हमारे और ब्रेन के लिए और शांत मन के लिए जो अव्यसक है जिस प्रकार की वायु वह सुद्ध सात्विकता ुष वायुमंडल में होती है इसीलिए कहा गया है जो कुंडली है प्राणायाम आदि जो करते तोह वो उसी विशिष्ट काल को बहुत अधिक महत्व देते है तोह यह तोह मतलब मेडिकल की दृष्टि से कहा है शार्प मेमोरी इम्मेडिएटली पावर बढ़ता है एनर्जेटिक होता है स्वस्थ की दृष्टि से भी इसका बहुत एक बताया गया है सूर्य की ऊर्जा सकती जो समाय प्रकट होने लगती है तोह ुष समय बतया गया है की जैसे कोई उठ जाता है तोह सूर्य की समस्त ऊर्जा उसे प्राप्त होती है और सूर्योदय के समय कोई सोता रहे तोह सूर्य उसकी समस्त ऊर्जा को ग्रहण कर लेता है इसीलिए देखा गया है सूर्योदय के पस्चात जो लोग उठते है उनमे बहुत अधिक आलस होता है प्रमाद होता है तामसिकता होती है उनके चेहरे पर तेज़ का आभाव होता है और बुद्धि थोड़ी ऐसे एक्टिव नहीं होती उनकी तोह िश तरह से बतलाया जाता है तोह यहाँ तोह सांसारिक दृष्टि से भी हमने चर्चा की परन्तु अगर आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये ब्रह्ममुहृत सब्द से जो हमने प्रारम्भ किया था ब्रह्ममुहृत मतलब एक तरह से विशेस समय है जब ब्रह्म की अनुभूति हो सकती है ब्रह्म साक्षात्कार के लिए जो समय रखा गया है जिस तरह से कहा जाये जैसे संस्कार के लिए भी बताते है जैसे मानव जीवन में बाल्यावस्था में जो संस्कार जिसको कौमार अवस्था कहा जाता है कौमार अवस्था में जो संस्कार होते है उसका प्रभाव सम्पूर्ण जीवन भर बना रहता है वैसे ही सम्पूर्ण दिवस की जो चेतना है उसकी बालावस्था होती है ब्रह्ममुहृत ब्रह्ममुहृत एक तरह से स्पंज होता है न स्पंज स्पंज को जब आप पानी में डूबते हो स्पंज जो है पानी सोक लेता है उसी तरह से एक विशिष्ट काल होता है जिस समय चेतना संसार के समस्त विसयो को तुरंत सोक लेती है सब्द रूप स्पर्श गंध ुष काल में आप जो देखते है ुष काल में जो आप मंत्र शब्द ुचाहरण करते है शब्द सुनते है पूरी तरह से गहरे आपके चित में बना लेते है और इसीलिए विशेश रूप से ुष समय जो काल होता है ब्रह्ममुहृत भगवन की प्रथम दृष्टि जिसको कौशलया सुप्रभातम कहते है िश बात को त्रैलोक्यं मंगलम कुरु उठिस्ता उठिस्ता गोविंदा भगवन उठते है भगवन की प्रथम दृष्टि होती है जिसको हम मंगलादर्शन कहते है मंगलादर्शन क्यों कहा जाता है भगवन तोह पूरा दिन दर्शन देते है परन्तु भगवान् आँख खोलके जब सबसे पहले जगत को देखते है भगवान् की ुष दृष्टि में जो आजाते है उनके जीवन में फिर मंगलया आता है कहा जाता है जैसे __ पुनः पुनः कहते है कई बार जो करे मंगला वो न रहे कंगला ऐसा कहते है इसीलिए आप देखिये प्रातः काल मंगला आरती में जब हम जाते है तोह क्या होता है समस्त लाइट्स सभी लाइट्स बंद कर दिए जाते है क्यों किये जाते है ऐसा नहीं है हमको कुछ स्पेशल इफेक्ट्स देने है इसका काफी गहरा कारन है ुष काल में पूरी तरह से आपका चित केंद्रित होना चाहिए ुष समय जो आप रूप देख रहे है जो शब्द बोल रहे है प्रय्तेक एक एक सेकंड ीज़ लाइक गोल्डन मोमेंट कहा जाता है जैसे मेने अभी कहा कार्य जो है काल के अनुसार सिद्ध होता है जैसे बिसनेस का भी एक सीजन होता है मान लीजिये की बहुत बड़े बिस्नेसस्मन है उनको बोलिये शाम के समय आप सत्संग में आईये वो बोलेंगे प्रभुजी ुष समय हमारा बिसनेस का टाइम है ुष समय कमाई होती है हमारी उसको कभी कोम्प्रोमाईज़ नहीं करेंगे जो बिस्नेसस्मन लोग होते है धनि लोग होते है वो कभी अपने बिसनेस टाइम को किसी भी सहीज़ में कोम्प्रोमाईज़ नहीं करेंगे न शादी के लिए न सत्संग के लिए कोई कार्य नहीं करते जब बिसनेस टाइम होता है वैसे ही आध्यात्मिक मार्ग में जो प्रेम प्राप्त करना चाहता है उसके लिए ये बिज़नेस टाइम है टू ार्न द मैक्सिमम प्रॉफिट सबसे अधिक अगर वो लाभ प्राप्त काना चाहता है तोह वो सबसे श्रेष्ठ काल जो बताया गया है ुष ब्रह्ममुहृत को कहा गया है जब विषेश रूप से कुछ तारे आकाश में रहते है ुष समय तारागण रहते है आकाश में और ुष समय बताया जाता है सत्यपीठ की स्थापना होती है सुध स्तव उस समय वह सिद्ध रहता है और समय केवल भगवान् की प्रथम दृष्टि नहीं पढ़ती ुष समय जितने भी अप्रकट और प्रकट जितने भी दिव्या शक्तिया है जैसे जितने वैष्णव गण है नारद मुनि समस्त आचार्य गण है उनकी भी दृष्टि ुष समय होती है एक स्थान पर हम सुन रहे थे िश बात को तोह सभी की दृष्टि उस समय एक साथ पढ़ती है जिव पर जो िश प्रातकाल के विलम्भ उठकर भगवान् की आराधना में भगवान् के जप में लगता है िश तरह से बताया जाता है तोह ब्रह्मुहृत समस्त निद्रा समस्त पुण्य सहकारिणी तोह जिस तरह से आप देखते क्रिकेट मैच है पता नहीं आप खेले है की नहीं क्रिकेट मैच में दो अलग-अलग परफॉर्मेंस होते हैं एक को कहा जाता है नेट प्रैक्टिस चारो तरफ नेट लगाया जाता है और केवल प्रैक्टिस किया जाता फेका जाता है और केवल वो अभ्यास करते है उसको नेट प्रैक्टिस कहा जाता है नेट प्रैक्टिस के बाद में मेंन होता है वर्ल्ड कप मैच में जो खेला जाता है तोह दो प्रकार के होते हैं एक नेट प्रैक्टिस होता है और एक मेन होता है जो वर्ल्ड कप मैच में खेला जाता है आपकी सफलता जो वर्ल्ड कप मैच में है जो सचिन तेंदुलकर है जैसे कोई व्यक्ति जब खेल रहा है जब अच्छा खिलाड़ी कोई खेल रहा है उसकी वर्ल्ड कप परफॉर्मेंस सभी के सामने दिखाई देती है उसने सालों साल जो नेट प्रैक्टिस की है वह कभी दिखाई नहीं देती है बाद में जब सिनेमा बनता है उसके ऊपर तब दिखाते हैं वह कि १५ साल कैसे उन्होंने कठोर तपस्या की हो की नेट प्रैक्टिस की बारिश आंधी तूफान खेलते रहे तब जाकर वर्ल्ड कप में इतना अच्छा वह परफॉर्मेंस दे पाए हैं एक होता है हमारी बाहरी क्रिया जो संसार में प्रदर्शित होती है ऐसे विशेष रूप से हम प्रचार आदि कर रहे हैं सेवाएं कर रहे हैं जो भी हम अपना दैन्य जीवन जो जी रहे है वह है जो संसार के समक्ष दिख रहा है परंतु एक है जो हमारा अलग से जीवन है जो संसार के सामने दिखाई नहीं देता परंतु वर्ल्ड कप की जो परफॉर्मेंस होती है वह किस पर निर्भर करती है अच्छी कहते हैं नेट प्रैक्टिस जितनी अच्छी हो इसके आधार पर वह निर्भर करती है उसी तरह से पूरा दिन जो आप कार्य करते हैं आपका परफॉर्मेंस है परंतु अगर आपकी नेट प्रैक्टिस अच्छी नहीं है तो आपका परफॉर्मेंसभी फैल जाएगा वैसे ही ब्रह्म मुहूर्त काल समझ लो आपका नेट प्रैक्टिस है उस समय विशेष रूप से आप अपने आप को तैयार करते हैं पूर्णता साधना आदि के द्वारा और वहां समय आपने किंचित मात्र भी व्यर्थ गंवा दिया इन सारी बातों में संसारी चर्चाओं में या सोने आदि में तोह पूरी तरह से उस दिन का सैय जाता है ुष दिन का आध्यात्मिक बल सीड़ हो जाता है और दूसरा पुनः इसी उद्धरण को लिया जाये तोह एक मैंने कहा नेट प्रैक्टिस होती है और दूसरी वर्ल्ड कप मैच होती है इनाम किस पे मिलता है नेट प्रैक्टिस आपने कितनी भी साल की हो उस पर इनाम नहीं मिलता इनाम मिलता है जब आप वर्ल्ड कप मैच में अच्छा परफॉर्मेंस करते हो नेट प्रैक्टिस में आपने बहुत खेला होगा पर वर्ल्ड कप में आप पहली बॉल पर ही क्लीन बोल्ड हो गए तोह लाभ क्या रहा उस नेट प्रैक्टिस का तो एक दृष्टिकोण से हमने इस उदाहरण को समझा जैसे ब्रह्म मुहूर्त को हमने नेट प्रैक्टिस किया है अगर शदूसरे दृष्टिकोण से इसी उदाहरण को लिया जाए तोह पूरा दिन आपकी नेट प्रैक्टिस है और बीन परफॉर्मिंग जो है वह ब्रह्म मुहूर्त है जैसे हमारे गुरु महाराज भी इस बात को कहीं है कहीं बार आप 22 घंटे जो क्रिया करते हैं आपके प्रातकाल की जो साधना है उसको तैयार करने के लिए होती है वाटेवर यू सी वाटेवर यू हेअर ये एकसाथ बनता है तैयार होते रहता है तोह यहाँ पर कहा जाता है ब्राह्मी मुहर्त उत्रीसे स्वस्थो रक्षात आयुष: तत्र सर्वारत संत्या तम उच्चैन मधुसूधनाम यहाँ मनुसंहिता से जहा है की ब्राहमिमुह्रत में तुरनत उठ जाना चाहिए ब्राहमिमुह्रत काल में स्वस्थो रक्षात आयुष: जो अपना आयुष स्वस्थ रखना चाहता है आयु का वर्धन करना चाहता हो क्योंकि सूर्योदय के पश्चात जितना आप सोते हैं तो कहा जाता है उतनी आयु का नाश होता है तो अगर उस दृष्टि से देखा जाए तो यह कॉल आयु के लिए आयुर्वेद में भी हमने सुना है हालांकि श्लोक तो अभी हमें प्राप्त नहीं हुआ उसने कहा जाता है बचपन मैंने सुना था मैंने रात्रि को १० के बाद यदि कोई जगता है और प्रातः ४ के बाद सोता है मान लीजिये तोह समस्त प्रकार के जितने रोग है समस्त रोग उसी को होते है कफ पिट आदि यानी प्रकृति के साथ जब आप रहते है एक विशेष बात में सुन रहा था की प्रकृति में कोई भी ऐसा जिव है जो अलार्म क्लॉक लगा कर उठता हो सभी जो है प्रकृति के अनुसार ही सोते है उसके विपरीत जो व्यक्ति होता है उसको अलार्म क्लॉक पड़ती है परन्तु प्रकृति के साथ रहे जो प्रकृति जब सो जाती है प्रकृति के अनुसार जो सोता है उसमे समस्त दिव्या समर्थ और शक्तिया प्रकाशित होने लगती है साथ ही में जिस तरह से मेने कहा यहाँ प्रात: काल की जो बेला है हमारे संस्कार निर्माण का काल कहा जाता है इसे जिस तरह से कोई व्यक्ति कंस्ट्रक्शन कर रहा है कंस्ट्रक्शन का गीला सीमेंट होता है और गीले सीमेंट के ऊपर अगर आपने पैर रख दिया तो समझ जाइए कि उसका निशान बन जाता है उसको मिटा नहीं सकते तोह ब्रह्म मुहूर्त वह काल है जिस समय आपकी इंप्रेशंस बनते हैं वह समय जब आप की आध्यात्मिक साक्षात्कार तैयार होती है उस समय किंचित मात्र आप जो देखते हैं किंचित मात्र शब्द जो सुनते हैं वह तुरंत गहरी छाप छोड़ देता है आप पर तोह इसीलिए इट्स लाइक आ फौंडेंशन ऑफ़ व्होल डे स्प्रिचुअल कॉशसनेस अब समय तोह रहा नहीं प्रभुपाद के कुछ कोट्स काफी है जिसमे प्रभुपाद कहते है देयर इज न्यू क्वेश्चन ऑफ स्प्रिचुअल लाइफ इफ यू कैन नॉट वेक अप अर्ली इन द मॉर्निंग प्रभुपाद का वाकया काफी हैवी है बैकबोन ऑफ़ स्प्रिचुअल लाइफ मतलब आध्यातिमक में प्रस्सन ही नहीं उठता है प्रात काल की समय को अगर गवा देता है तो इसीलिए फाउंडेशन रहता है हमारी आध्यात्मिक जीवन का पर सभी और विशेष रूप से हमारे भक्ति के जो ६४ अंग है ६४ अंग क्रियान्वित होने लगते है जैसे सिम है सिम एक्टिवटे होता है आपका आपकी भक्ति का कोई भी काम तुरंत एक्टिवेट होता है जब प्रात काल की आप साधना करते हैं व्यवहारिक अनुभव या देखिए जो लोग मंदिर में रहते हो या जो लोग मॉर्निंग प्रोग्राम अटेंड करते हैं अनुभव यह है प्रातकाल मंगला आरती करते हो और गुरु महाराज के साथ जप करते हो उसके बाद में अगर भागवत पड़ेंगे और भगवान का दर्शन करेंगे तोह अनुभूति भिन्न रहेगी उसके बजाय आप ऐसा कीजिए आप ७ बजे तक सोते रहिए और फिर उठ जाइए और फिर भगवान के सामने खड़े होइए तोह जो दिव्यता आप मंगला आरती किए नाम जप किए 2 घंटे या गुरुमहारज के साथ कुछ कथा श्रवण किये ुष समय जो दर्शन में भाव आ रहा है और बिना कुछ साधना के आप दर्शन कीजिए भाव नहीं आता तो उस समय भागवत को पढ़ेंगे तो भागवत का प्रत्येक शब्द जो है विशेष अनुभूति आपकी जीवन में लाएगा उस समय अगर अच्छी साधना और मॉर्निंग प्रोग्राम स्ट्रांग होता है प्रसाद भी ग्रहण करने लगते हैं आपकी भावना भिन्न होती है तोह वहां पर बताया है भक्ति के ६४ अंग क्रियान्वित हो जाते हैं जब आपकी ब्रह्म मुहूर्त की साधना होने लगती है दूसरा है सिर्फ क्रियान्वित नहीं होते उसको आप धारण कर सकते हैं जैसे आपको जल लेना है तो जल के लिए पात्र आवश्यक है पात्र ना हो तो आप जल को ग्रहण नहीं कर सकते आपको रुमाल दिया जाएगा उसमें आप जल डालेंगे तो जल लिक हो जाता है वैसे ही जिसका मॉर्निंग प्रोग्राम स्ट्रांग ना हो तो भक्ति के जितने अंग वह करता है वह लिक हो जाते हैं उसके मतलब उसकी अनुभूति मतलब भक्तिमय सेवा जो आपने की उसकी जो अनुभूति होनी है वह अनुभूति हो नहीं पाती है श्रील प्रभुआपाद ९ नवंबर १९७५ में सुकदेव प्रभु को एक पत्र लिखे जिसमे श्रील प्रभुपाद िश बात को कह रहे है तुम्हे देख रहा हूँ की तुम्हारी ज़िम्मेदारी है की सभी भक्त अपने नियमो का सकती से पालन कर रहे हो विशेष रूप से प्रात: कल ४ बजे उठना कम से कम १६ माला का जप ४ नियमो का पालन भगवत कक्षा और अन्य कार्यक्रम आपको िश पर भक्तो को व्याख्यान देना चाहिए जैसे हम अभी हम चर्चा कर रहे है मतलब यू शुड ये जो इम्पोर्टेंस है मॉर्निंग प्रोग्राम का ये आप समझाइये आध्यात्मिक जीवन में उनकी प्रगति के लिए यह आवश्यक है अन्यथा वह फिर से माया के बहकावे में आ जाएंगे यह प्रभुपाद कह रहे हैं अगर यह चीज छूट गई तो माया के बहकावे में चले जाएंगे फिर श्रीला प्रभुपाद का बहुत प्रसिद्ध पत्र है१६ जनवरी १९७५ में अभिराम प्रभु हमारे अरावड़े वाले नहीं प्रभुपाद के जो शिष्य हैं उनके लिए जो पत्र लिखें उसमें श्रील प्रभुपाद विशेष रूप से कह रहे हैं आपको यह सुनिश्चित करना होगा सभी भक्तों आई थिंक ही वाज़ डी मैनेजर की जितने भक्त है सभी नियमों का अच्छी तरह पालन कर रहे हो सभी को जल्दी उठना चाहिए प्रभुपाद के वाक्य को थोड़ा ध्यान से सुने सभी को जल्दी उठना चाहिए स्नान करना चाहिए मंगला आरती में भाग लेना चाहिए कम से कम १६ गुड राउंड्स ही शुड चांट एटलीस्ट १६ गुड राउंड्स मतलब अचे गुणवत्ता के अनुवाद जप करना चाहिए भागवत कक्षा में भाग लेना चाहिए और 4 नियमों का पालन करना चाहिए उसके बाद का वाक्य बहुत महत्वपूर्ण है िफ़ एनीथिंग लैक्स मतलब ढिलाई अगर इन क्रियाओं में किंचित मात्र भी दिलाई हो तोह आध्यात्मिक जीवन का प्रश्न ही नहीं उठता िफ़ एनीथिंग लैक्स देन डेरे ीज़ नो क्वेश्चन ऑफ़ स्प्रिचुअल लाइव और प्रातकाल में ऐसे मॉर्निंग प्रोग्राम करते है तोह इसका मतलब ये नहीं आपको भगवत प्रेम प्राप्त होगया है भक्ति में सिद्ध हो गए जस्ट इनिशियल स्टार्ट जैसे आप गाडी चला रहे हो तोह गाडी में पहला गियर होता है न फिर गाडी आगे स्पीड पकड़ती है तोह आप अनुभव करेंगे जब आप नियमित रूप से साधना करते है तोह मॉर्निंग में साधना न हो तो पूरा दिन आपको डल लगता है मॉर्निंग प्रोग्राम ीज़ लाइक ा बुलेट प्रूफ जैकेट बताते है जैसे एक आवरण आपके ऊपर बन जाता है की माया का प्रभाव ुष दिन नहीं हो पाता है और जिस दिन आपने मॉर्निंग प्रोग्रॅम नहीं किया अनुभव क्या रहता है कहा जाता है किसी व्यक्ति को पिंजरे के अंदर दाल दिया जाये जहा पर भूखा खूंखार शेर है कितनी संभावना है की व्यक्ति बच सकता है तोह वैसे ही जिस दिन आपका मॉर्निंग प्रोग्राम मिस हुआ मतलब आप माया के पिंजरे में चले गए मतलब उस दिन निश्चित रूप से कुछ ना कुछ माया का वार होता है तोह इसीलिए यहां पर प्रभुपाद कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन का प्रश्न ही नहीं है जो कोई भी इन बातों को दृढ़ता से स्वीकार नहीं करेगा एनीवन विल नॉट एक्सेप्ट थिस स्ट्रॉन्ग्ली कोई अगर दृढ़ता से स्वीकार नहीं करेगा तोह प्रभुपाद कहते है की ही मस्ट फॉल डाउन शुड भी नहीं कहा है मस्ट कहा है तोह उसे निचे गिरना ही है और फिर प्रभुपाद कहते है अपने व्यक्तिगत उद्धरण से सभी को इन बातों को सिखलाइये अगर इन बातों में ढिलाई रही तोह सभी लोग ढीले हो जायेंगे आगे श्रील प्रभुपाद एक पत्र लिखे है धनञ्जय प्रभु को ३१ दिसंबर १९७२ में वह प्रभुपाद कहते है यहाँ जो मॉर्निंग प्रोग्राम बना है वह क्या है श्रील रूप गोस्वामी द्वारा शिक्षाओ पर आधारित है आपकी जानकारी के लिए श्रील रूप गोस्वामी भक्ति रसामृत सिंधु में भक्ति की ६४ अंगो का वर्णन किये है और आपको जानके प्र्सनता होगी की श्रील प्रभुपाद द्वारा दिया गया मॉर्निंग प्रोग्राम भी इसके विकलप है ४ से ९ बजे तक का जो कार्यकर्म है मंगला आरती आदि जो करते है भगवत का श्रावण करते है नाम जप करते है तोह एक भक्त बता रहे थे केवल अगर मॉर्निंग प्रोग्राम किया जाये तोह न जानते हुए भी भक्ति के ६४ अंगो में से ५० अंगो का हम पालन करते है व्यक्ति बहुत ज्यादा स्ट्रांग बन जाता है कई बार कुछ भक्त कहते भी है की प्रभुजी आप आईये प्रभुजी ब्रह्मचारी प्रभुजी को आप आइये आपके लेक्चर से इफ़ेक्ट होगा हमारे लेक्चर से उतना इफ़ेक्ट नहीं होता है तोह ब्रह्मचारी से क्या इफ़ेक्ट होता है सींग लगे होते है क्या उनके तोह उनसे जो इफ़ेक्ट होता है क्या इफ़ेक्ट होता है तोह एक भक्त बताये थे ब्रह्मचारी इफ़ेक्ट जो होता है वह क्या होता है जैसे मंदिर के जीवन में जब कोई रहता है तोह एक बहुत ही डिसिप्लिन लाइफ होती है अनुसासन जीवन होने लगता है तोह न चाहते हुए भी जबरदस्ती अनिच्छा पूर्वक भी उनके उस कायकर्म में ुपथस्तीत रहना ही पड़ता है और केवल ुष कार्यकर्म में उपस्थित रहने मात्र से ही आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है यहाँ सभी को जानना चाहिए में कह रहा था िश विषय में तोह एक भक्त ने कह दिया congregation में से प्रभुजी मंगला आरती तोह ब्रह्मचारियों के लिए होती है तोह मतलब गृहस्त वालो ने क्या ६ – ७ बजे तक सोने का क्या ठेका लेके रखा है वास्तविक जो आध्यात्मिक पथ में है सभी के लिए अव्यस्क है प्रभुपाद लिख रहे है धनञ्जय प्रभु को रूप गोस्वामी के द्वारा भक्ति के जितने सिद्धांत बनाये गए है वे सब हम िश प्रणाली के द्वारा पालन कर रहे है मंगला आरती करना प्रांत काल में उठना १६ माला जप करना ग्रंथो का अध्यन करना प्रसाद स्वीकार करना ये सभी हमे हमेसा उत्साही बनाकर माया के हमले से बसाहने के लिए है प्रभुपाद कह रहे है कीप उस ऑलवेज एनर्जेटिक एंथूज़िआस्टिक और माया के हमले से बचाएगी यदि हम प्रभुपाद लिख रहे है यहाँ पे यदि हम इन सिधान्तो का सकती से पालन करते है तोह हम हमेसा उत्साही रहेंगे ये सीक्रेट है कई बार कई लोग बोलते है प्रभुजी उत्साह कैसे आएगा भक्ति में ? उनको कोशिस करनी पड़ेगे उत्साह लाने के लिए मतलब कहीं न कहीं उनकी ढिलाई है जैसे कोई भोजन अचे से कर लेता है तोह उसके चेहरे पे दिखता है कहते पिटे घर का है ये वैसे ही जब कोई पेट भर का मॉर्निंग प्रोग्राम करता है अच्छे से तोह उसका सहज स्वाभाविक उत्साह प्रकाशित होने लगता है ये स्त्रोत है कृष्णा की हमारी सेवा के उत्साह को बनाये रखने वाले है जैसे ही कोई नियमित रूप से उनका पालन नहीं कर रहा है यह निश्चित हो सकता है कि उसका उत्साह धीरे-धीरे गायब हो जाएगा यहाँ प्रभुपाद लिख रहे है इसीलिए यहाँ अनुरोध है सभी परिस्थति में आप प्रभुपाद का वाकया देख रहे हैं सभी परिस्थिति मैं आप बिना असफल हुए इन सिधान्तो पर टिके रहे यहाँ निश्चित करे जितने भक्त है वह उसको बिना कोम्प्रोमाईज़ करे बिना करे फिर प्रभुपाद यशोमतीनन्दन प्रभुजी को पत्र लिखे थे ९ जनवरी १९७६ में उसमे कहे प्रभुपाद अगर खुद को सुध रखना चाहते हो तोह इन सिधान्तो का सख्तीपूर्वक पालन करना चाहिए अन्यथा आजकल विशेष रूप से देखा जा रहा है भगवान् के नाम पर कई स्प्रिचुअल ऑर्गेनाइजेशन तैयार होते जा रहे हैं और केवल क्षण मात्र ही है हमें सावधान रहना होगा कि दूसरों की तरह हम भी दरवदुहिये है ना बन जाए हमारी ताकत निर्भर करती है हमारे प्रात कालीन प्रोग्राम पर प्रभुपाद कह रहे है स्ट्रेंथ श्रील प्रभुपाद ने यशोमती नंदन प्रभु को लिखा था आगे प्रभुपाद रेवती नंदन स्वामी १५ दिसंबर १९७४ को पत्र लिखा है उसमे प्रभुपाद पुनः ये सब डिटेल बताये है मैं वाकया में केवल पढता हु जैसे कोई नियामक सिद्धांत हो जैसे की प्रात: काल उठान ४ नियम आदि कत्र्ता से पालन करना बंद कर देता है तोह उसकी आध्यत्मिक जीवन में बाधा आती है प्रभुपाद कह रहे है हर्डल्स और एक मौका है कि वह माया का शिकार कभी भी हो सकता है प्रभुपाद यहां लिखे हैं तत्पश्चात जयतीर्थ प्रभु को प्रभुपाद एक शिष्य है प्रभुपाद जी लिख रहे है १ मई १९७४ को की ये आवश्यक है की िश कार्यकर्म में भाग ले अगर हम इसका पालन करते हैं तो हम आदर्श बन जाएंगे वी विल बिकम दी रोल मॉडल मतलब हम आदर्श बनेगे समाज के समक्ष अन्यथा इस मिठाई लाई हुई तो वह कंचक और कामिनी के शिकार बन जाएंगे दे विल बिकम प्रेत आगे वो लिखते है रूद्र दस और राधिका देवी दासी को लिखे थे २० फरवरी १९७२ में उसमें प्रभुपाद लिखे कभी भी किसी कारण से यह प्रोग्राम उपेक्षित ना हो एक भी मैं वाक्य सुना हूं अभी मुझे प्राप्त नहीं हुआ मैं सुना हूं कि प्रभुपाद ने कहा खैर हम बहुत वाक्य कहते हैं प्रभुपाद के उसने कहा है वेन यू कॉम्प्रोमाइज वेकिंग अर्ली इन द मॉर्निंग कब कंप्रोमाइज कर सकते हैं व्हेन यू आर डेड व्हेन यू आर डेड दें ओनली यू कैन कंप्रोमाइज मुझे अभी स्मरण है हम गुरुमहारज के साथ पिछले महीने ही थे जब मुंबई में तब गुरुमहारज स्मरण कर रहे कई भक्त ___________ तो वह महाराज की विनम्रता है कि हम उस अवस्था में नहीं है हमको आवयसकता लगती है नींद की परन्तु जो भी हो यहाँ पर क्या कहा जरा है की कभी उपेक्षा न की जाये मतलब कभी कभी होता है विशिष्ट कार्य आ गया की आप यात्रा कर रहे हो रात तक आप देर तक जगे रहे यू शुड नॉट गिव डी एक्सक्यूज़ कभी भी प्रभुपाद का वाकया कभी भी किसी भी कारण से __ िश तरह आपकी सफलता निश्चित है (४३:०१)
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*23 -02 -2022*
*भगवन नाम महिमा*
(श्रीमान राधे शयाम प्रभु द्वारा)
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम : ।।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
श्रील प्रभुपाद की जय ! लोकनाथ स्वामी महाराज की जय!
मेरे पिछले सत्र में हम लोग दो विषयों के बारे में सुन रहे थे।
*रसिक-शेखर कृष्ण परम-करुण। एइ दुइ हेतु हैते इच्छार उद्गम ॥4.16॥* (चैतन्य चरितामृत आदि लीला)
अनुवाद- अवतार लेने की भगवान् की इच्छा दो कारणों से उत्पन्न हुई थी-वे भगवत्प्रेम रस के माधुर्य का आस्वादन करना चाह रहे थे और वे संसार में भक्ति का प्रसार रागानुगा (स्वयंस्फूर्त) अनुरक्ति के स्तर पर करना चाहते थे। इस तरह वे परम प्रफुल्लित (रसिकशेखर) एवं परम करुणामय नाम से विख्यात हैं।
ऐसा कृष्णदास कविराज गोस्वामी एक श्लोक में बताते हैं भगवान श्री कृष्ण की ओर आकर्षण जीवो में दो कारणों से होता है एक कारण है कि भगवान रसिक शेखर हैं। मतलब भगवान की लीला चेष्टाएं है और भगवान की शरणागति, भगवान की खूबसूरती, भगवान कैसे प्रेम के भंडार हैं और किस तरह व्यवहार करते हैं। इस तरह की चीज देखकर जीव में भगवान की ओर आकर्षण जग जाता है। जैसे वृंदावन में एक दिन जामुन बेचने वाली आवाज करते हुए सड़क में से निकली और बुलाया कि किसी को जामुन चाहिए जामुन चाहिए तब कृष्ण ने नंद भवन को छोड़कर बाहर आकर देखा उन्होंने उन्हें बहुत पसंद था जामुन, उनको मालूम था कि यदि जामुन खरीदना है तो उसके बदले में कुछ देना पड़ेगा। उन्होंने इधर उधर मुड़ कर देखा पड़ोस में एक गोपी घर के बाहर आकर रंगोली बना रही थी तो कृष्ण सीधा उसके पास पहुंच गए और उसके हाथ से कंकड़ों को बाहर निकाल लिया और अपने घर में आकर उस जामुन वाली को दे दिया और अपने दोनों हाथों में जामुन भर के ले लिया तो उस गोपी ने जाकर अन्य गोपियों को दिन में बताया कि आज सुबह यह हुआ मेरे साथ जिसको सुनकर सभी गोपियां हंसने लगी , उनमें से एक गोपी ने कहा ऐसा कैसे कान्हा कर सकता है तुम्हारे साथ तुम से बिना पूछे , तभी उनमें से कुछ गोपियां कहने लगी काश हमारे हाथ से भगवान कंकड़ ले लेते तो कितना अच्छा होता। इस प्रकार गोपियों के बीच में जो प्रजल्प हुआ वह दिव्य था क्योंकि उसका केंद्र बिंदु कृष्ण ही थे। इस प्रकार कृष्ण वृंदावन में शरारते करते हैं और समस्त जीवों के चित्त को चोरी करते हैं आकर्षित करते हैं। भगवान “रसिक-शेखर कृष्ण परम-करुण ” तो यह पहली चीज है कि रसिक शेखर होकर भी आकर्षित करते हैं दूसरी है परम करुणा उसके बारे में आज थोड़ा और बताएंगे उससे पहले मैंने पांच ए के बारे में बताया था पहला है अट्रैक्शन दूसरा है अटेंशन, अटैचमेंट, अब्जॉर्प्शन, अफेक्शन, उसके बारे में पिछली बार हमने सुना था यह अट्रैक्शन प्रिंसिपल हो गया लेकिन आज हम करुणा के बारे में बताएंगे परम करुणा, भगवान की करुणा भरे हृदय के बारे में, जीव को सोचना चाहिए जब हमारे हृदय में भगवान की अनुकंपा देखकर हम उससे प्रभावित होते हैं तब हमारी मती में एकाग्रता आएगी, क्योंकि आप देखेंगे जो योगी होता है छठे अध्याय में हम भगवत गीता में पढ़ते हैं उसको अपने मन की गति को देखना चाहिए मन क्या कर रहा है , किधर जा रहा है, किन विषयों के बारे में सोच रहा है, मन की सोच विचार क्या है? मन के बारे में सभी भक्तों को सोचना चाहिए। कभी-कभी हम अंग्रेजी में बोलते हैं माइंड लैस इंडोवर इसका मतलब है रक रक रक रक रक करके जप करना *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे* ,फटाफट जप कर देना, ऐसा कुछ लोग करते हैं। लेकिन हमें देखना चाहिए कि मन में क्या चल रहा है मन के तीन कार्य हैं “थिंकिंग, फिलिंग, विलिंग” थिंकिंग का मतलब सोचना फ़ीलिंग का मतलब है अनुभव करना विलिंग का मतलब है कुछ कार्य करना, अभी हमारी थिंकिंग सोचना, कैसे होना चाहिए जैसे मन में भगवान का गुणगान उठता है। भगवान के महान भक्तों के हृदय में कि भगवान का नाम कितना श्रेष्ठ है जैसे बहुत से लोग भागवत में बताते हैं विष्णु दूत हरि नाम का गुणगान करते समय,
*म्रियमाणो हरेर्नाम गृणन्पुत्रोपचारितम् । अजामिलोऽप्यगाद्धाम किमुत श्रद्धया गृणन् ॥* श्रीमद भागवतम
अनुवाद- अजामिल ने मृत्यु के समय कष्ट भोगते हुए भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण किया और यद्यपि उसका यह उच्चारण उसके पुत्र की ओर लक्षित था फिर भी वह भगवद्धाम वापस गया। इसलिए यदि कोई श्रद्धापूर्वक तथा निरपराध भाव से भगवन्नाम का उच्चारण करता है, तो वह भगवान् के पास लौटेगा इसमें सन्देह कहाँ है?
ऐसा यमराज ने अपने दूतों को बोला यमदूत देखो हरी नाम की महिमा को देखो यमलोक आने वाले अजामिल को उसका पाश कट गया उसको भगवत धाम लौटने का मौका मिला केवल हरि नाम मात्र के उच्चारण से ,
*नामोच्चारणमाहात्म्यं हरेः पश्यत पुत्रकाः । अजामिलोऽपि येनैव मृत्युपाशादमुच्यत ॥* श्रीमद भागवतम
अनुवाद- हे मेरे पुत्रवत् सेवकों! जरा देखो न, भगवन्नाम का कीर्तन कितना महिमायुक्त है! परम पापी अजामिल ने यह न जानते हुए कि वह भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण कर रहा है, केवल अपने पुत्र को पुकारने के लिए नारायण नाम का उच्चारण किया। फिर भी भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण करने से उसने नारायण का स्मरण किया और इस तरह से वह तुरन्त मृत्यु के पाश से बचा लिया गया।
कट गया पाश और प्राप्त हुआ बैकुंठ वास, अजामिल का भाग्य देखो उसके भाग्य की सीमा नहीं है सिर्फ हरि नाम मात्र करने से। इस तरह से यमराज हरि नाम का गुणगान कर रहे हैं और विष्णु दूतों ने भी अनेक प्रकार से हरि नाम का गुणगान किया।
इसी तरह, भगवन्नाम के कीर्तन के महत्त्व को न जानते हुए भी यदि कोई व्यक्ति जाने या अनजाने में उसका कीर्तन करता है, तो वह कीर्तन अत्यन्त प्रभावकारी होगा।
*यथागदं वीर्यतममुपयुक्तं यदृच्छया । अजानतोऽप्यात्मगुणं कुर्यान्मन्त्रोऽप्युदाहृतः ॥*
श्रीमद भागवतम
अनुवाद- यदि किसी दवा की प्रभावकारी शक्ति से अनजान व्यक्ति उस दवा को ग्रहण करता है या उसे बलपूर्वक खिलाई जाती है, तो वह दवा उस व्यक्ति के जाने बिना ही अपना कार्य करेगी, क्योंकि उसकी शक्ति रोगी की जानकारी पर निर्भर नहीं करती है।
हरि नाम की महिमा को एक दवाई की शक्ति से उसकी तुलना की गई है एक डॉक्टर जब हमको हरे पीले काले रंग की दवाई देता है तब हमको मालूम ही नहीं होता कि अंदर क्या है नाम भी याद रखना मुश्किल होता है क्योंकि एलोपैथी का नाम जब सुनते हैं तो वह बहुत लंबा लंबा नाम होता है। लेकिन जब हम उस दवाई को खा लेते हैं तो हमारा बुखार मिट जाता है, बच्चा क्यों ना हो या बूढ़ा भी क्यों ना हो कोई भी उस दवाई को खाता है तो उस दवाई का असर होता ही है। इसी तरह हरि नाम का उच्चारण करने वाले व्यक्ति को लाभ अवश्य होता है। पाश्चात्य देश के लोगों ने कभी भी हरि नाम सुना ही नहीं था अपने जीवन में कृष्ण कौन हैं? या राम कौन हैं? उनकी लीला क्या है? उनका गुण क्या है? उनका चरित्र क्या है उन्होंने क्या किया कुछ भी उनको मालूमात नहीं था, फिर भी वह *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह नाम लेकर उनका चित्त शुद्ध हुआ और उन्होंने प्रगति की। इस प्रकार विष्णु दूत हरि नाम का गुणगान कर रहे हैं।
*गुरूणां च लघूनां च गुरूणि च लघूनि च । प्रायश्चित्तानि पापानां ज्ञात्वोक्तानि महर्षिभिः ॥* श्रीमद भागवतम
अनुवाद- प्राधिकृत विज्ञ पंण्डितों तथा महर्षियों ने बड़ी ही सावधानी के साथ यह पता लगाया है कि मनुष्य को भारी से भारी पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए प्रायश्चित की भारी विधि का तथा हल्के पापों के प्रायश्चित्त के लिए हल्की विधि का प्रयोग करना चाहिए।
किन्तु हरे कृष्ण-कीर्तन सारे पापकर्मों के प्रभावों को, चाहे वे भारी हों या हल्के, नष्ट कर देता है। यदि बड़ा पाप हो तो उसके लिए बड़ा प्रायश्चित करना पड़ता है और यदि छोटा हो तो उसके लिए छोटा प्रायश्चित या प्रेयर करना पड़ता है लेकिन हरि नाम करने वालों के लिए और दूसरा कुछ करना ही नहीं है क्योंकि हरिनाम करते जाओ तो बड़ा छोटा सब पापों को मिटा देने की क्षमता हरि नाम में है। हम जब हरि नाम चालू करते हैं वह चिंगारी की भांति है एक चिंगारी के ऊपर यदि भूसे को डाल दिया जाए तो सारा भूसा जलकर राख हो जाता है, इसी प्रकार पाप चाहे कितनी भी बड़ी मात्रा में क्यों ना हो वह भी समाप्त हो जाता है। इस तरह विष्णु भगवान के नाम की महिमा का गान गाते हैं जब अजामिल को यमदूत ले जाने वाले थे विष्णु दूत अलग-अलग सुंदर श्लोकों से वह गुणगान करते हैं। हम लोगों के मन में भगवान के नाम रूप गुण लीला इत्यादि का उदय होना चालू हो गया है, इसका मतलब उसको उत्तम श्लोक बोलते हैं। उत्तम श्लोक का मतलब है , जब महान शुद्ध भक्त जैसे कुंती महारानी जैसे पांडव, जैसे ब्रह्मा जी, जैसे प्रल्हाद महाराज, गजेंद्र, ध्रुव महाराज इस तरह अलग-अलग पुरुषों के हृदय से उठने वाली प्रार्थना को उत्तम श्लोक बोलते हैं। उत्तम का मतलब है तम से ऊपर, कौन है इस तम के ऊपर या दुनिया के अंधकार से ऊपर भगवान श्रीकृष्ण। उनके संबंध में जब ह्रदय में प्रेरणा जगती है तब भगवान का गुणगान उत्पन्न होता है। भगवान से इस प्रकार की प्रार्थना वह कर पाते हैं भगवान जिनको शक्ति देते हैं और फिर वे भगवान का गुणगान करते हैं। हम लोगों को इतना ही करना है कि हमें वैष्णव गीतों को पढ़ना है और भगवान की दी हुई प्रार्थनाओं को भागवत में पढ़कर यदि हम, हमारे हृदय में, प्रभावित होते हैं और इस तरह प्रभावित होकर वही इस हृदय को कोमल कर देते हैं। इस तरह की थिंकिंग, फीलिंग, विलिंग जो होता है उसमें भगवान के गुणवान के विषय में हमको सोचना चाहिए और विलिंग का मतलब है अपने अंदर भगवान को महसूस करना और अपने दोषों को देखना और पश्चाताप करना और अपने पहले किए हुए पाप कर्म के बारे में सोच कर पछताना और भगवान से याचना करना और भगवान के श्री चरणों में गिर पड़ना इस तरह की भावना भक्तों के हृदय में उठना चाहिए।
*नाम्नामकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः ।एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ॥*
अनुवाद- “हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है, अतः आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द, जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं। आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं। हे प्रभु, यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं, किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ, अत: मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है।’
आप अपने अनेक नामों के रुप में आते हो और अनेक नाम में शक्ति है लेकिन मैं इतना मूर्ख हूं कि नामों में रुचि नहीं आती और मेरा मन सारी दुनिया में भटकता है। इस तरह से एक भक्त को पछताना चाहिए और विलिंग का मतलब है देखना चाहिए कि क्या मेरे मुंह से भगवान का नाम निकल रहा है यह क्या मैं सो तो नहीं गया और मेरे हाथ या उंगली सही ढंग से माला को घुमा रहे हैं या नहीं तो कभी-कभी माला गिर जाती है या एक मंत्र में हम तीन चार मणि को आगे कर देते हैं । इस तरह से देखना चाहिए कि विलिंग कंपोनेंट, सही ढंग से हम सीधा बैठे हैं क्या हम जागृत अवस्था में है या माला घूम रही है सही ढंग से और एक माला करने के लिए कितना टाइम लगा। अगर एक माला के लिए 10/15 मिनट लगता है तो सो गये क्या, अगर एक माला 5 मिनट में होता है तो हम जल्दी बाजी कर रहे हैं। इस तरह से 7 मिनट में एक माला हो रही है तो ठीक है अर्थात ये सब हमें देखना होगा। ये विलिंग कंपोनेंट है। थिंकिंग, फीलिंग, विलिंग तो यह जो पहले वाला है उसमें थिंकिंग और दूसरे वाला है इन दोनों को सही ढंग से करने के लिए हम लोगों को भगवान की मालूमात या जानकारी होना आवश्यक है। उसमें से एक है रसिक शेखर श्रीकृष्ण परम करुणा, जिसके विषय में मैं पिछले सत्र में बता चुका हूं तो आज हम बता रहे हैं परम करुणा भगवान अति कृपालु और दयालु हैं उनकी कृपा का अनुभव हम कैसे कर सके। जैसे बच्चा माता की करुणा भावना जानता है इसलिए वह मां की ओर आकर्षित होता है नहीं तो हम आकर्षित नहीं होंगे, इस दुनिया में जब हम मुड़कर देखते हैं हर स्तर पर भगवान की करुणा का प्राकट्य हमको देखने को मिलता है। जैसे भगवान अपने धाम में लीला करते हैं लेकिन अपने धाम को छोड़कर जो जीव भौतिक दुनिया में भटकना चाहता है उसके साथ आने के लिए भगवान बद्ध जीव के लिए व्यवस्था करते हैं महा विष्णु के रूप में और महाविष्णु से ही अनंत कोटी ब्रम्हांड निकलता है।
*यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब् जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो गोविन्दमादिपुरुषंतम् अहं भजामि।।*
इस तरह से उनके शरीर के रोम छिद्रों से अनेक ब्रह्मांड निकलते हैं उन ब्रमाण्डो को भगवान ने क्यों तैयार किया है? हम लोगों के लिए वह जानते थे कि यह जीव भगवत धाम में रहना नहीं चाहता बाहर घूमना चाहता है तो घूमने के लिए व्यवस्था की है। खुद ही आते हैं इतने बड़े विशाल शरीर को धारण करते हैं अपने आप को स्थापित करके विश्वरूप में लेटे हैं भगवान, यह कारण सागर में और उतना ही नहीं हर एक ब्रह्मांड के अंदर गर्भ दक्षायी विष्णु रहते हैं और 14 भुवन का निर्माण करके उसके अंदर ब्रह्मा जी को जिम्मेदारी सौंप आते हैं कि तुम 8400000 योनियों में जीवों की व्यवस्था करो, जैसे हम बोलते हैं रोटी कपड़ा और मकान। रोटी का आयोजन कैसे किया है उन्होंने जैसे सूर्य से बारिश होता है और उससे अनाज पैदा होते हैं तरकारी पैदा होती है तरह-तरह की मसाले पैदा होते हैं और फल फूल इत्यादि पैदा होते हैं इस प्रकार 8400000 योनियों के जीवों का अलग-अलग तरीके का भोजन है और उनके लिए व्यवस्था की गई है। कपड़ा मतलब 8400000 योनियों के जीवों का यह शरीर ही कपड़ा है। पंचमहाभूतो से बनाया हुआ यह कपड़ा वह भी दिया है उन्होंने, यदि किसी जीव को ध्रुव के निकट रहना हो बहुत ठंडी हो तब उनके लिए भगवान ने एक दूसरा कपड़ा दिया है फर या वुल से बना हुआ जिससे उनको ठंडक महसूस नहीं होगी ऐसे ही आप देखेंगे इस दुनिया में जैसे पानी में रहने वाले जल चर जीव होते हैं। उनके लिए इतना ठंडी जगह, पानी में तो उसके लिए भगवान ने क्या व्यवस्था की है, ठंड के मौसम में पाश्चात्य देश में हम देखते हैं पानी के ऊपर बर्फ बनता है क्योंकि बर्फ बनने से, बाहर की ठंडी का उनके ऊपर फर्क नहीं पड़ता। बर्फ बनते समय ही वह गर्मी छोड़ता है। ऐसे ही नदी का पानी जिस प्रकार हम लोग गीजर में पानी गर्म करते हैं वैसे ही हो जाता है और जो जलचर हैं उनको उस पानी में तब बहुत अच्छा लगता है इस तरह भगवान ने उनको रहने के लिए अच्छी व्यवस्था की है उनको गर्म पानी चाहिए ठंड के मौसम में तो गर्मी मिल जाती है, उनको बाहर की ठंडी का असर भी नहीं पड़ता। आप पूछेंगे कि अरे इस तरह से बंद कर दिया और ऑक्सीजन नहीं मिलेगा तो सब मर जाएंगे, कैसे जिएंगे ?लेकिन बर्फ बनते बनते वह गर्मी भी छोड़ता है और ऑक्सीजन भी छोड़ता है, अंदर हवा भी आ जाती है उनको पानी में, अतः जलचर को ऑक्सीजन और गर्मी दोनों ही है। इसको हम ऐसे समझ सकते हैं जैसे एक पिताजी बेटे को कमरे में बंद कर दें उसको सील कर दिया और अंदर ऑक्सीजन सिलेंडर रख दिया साथ ही साथ उनके लिए पंप भी रख दिया तो यह एक उदाहरण दिया मैंने इस प्रकार और भी अनेक उदाहरण हैं। जैसे भूमि के ऊपर ओजोन आवरण भी बोलते हैं तो एक आवरण भगवान ने बनाया है इस प्रकार ताकि मेरे जीवों को तकलीफ नहीं होना चाहिए। सूर्य से जो अल्ट्रावॉयलेट रेडिएशन निकलता है वह भूमि के ऊपर नहीं जाना चाहिए इस प्रकार से भगवान ने एक कवरिंग बनाया है किंतु मूर्ख जीव् ऑटोमोबिल चलाकर उससे जो कार्बन मोनोऑक्साइड पैदा होता है वह जाकर ओजोन लेयर को तोड़ता है। अंदर अल्ट्रावॉयलेट रेज आते हैं और जीवों को व्याधि होता है। अतः व्याधि को पैदा करने वाले मूर्ख जीव ही हैं। भगवान ने जो आयोजन किया है उसको छोड़ कर देखो अपना नुकसान करते हैं जीव् जैसे कि आप देख सकते हैं भगवान ने गोबर बनाया, गोबर एक खाद है सब धान को पैदा करते समय गांव में डालते हैं आपने देखा होगा लेकिन गोबर के बगैर आजकल इतना रसायन पैदा करता है इंसान, पेस्टिसाइड्स रसायन डालकर जो तरकारी खाते हैं लोग उससे इतनी व्याधि होती है शरीर में। इस प्रकार दुख देने वाले, व्याधि देने वाले भगवान नहीं हैं हम खुद ही कुल्हाड़ी लेकर अपने पांव में मार रहे हैं इस प्रकार हम देख सकते हैं कि भगवान के आयोजन में भगवान की हर सृष्टि में सुरक्षा की व्यवस्था है। जैसे ही हम आग को छूते हैं तो तुरंत ही हमें अनुभव होता है कि आग , ज्यादा टाइम तक उस को छू नहीं पाएंगे क्यों ऐसा किया है भगवान ने ? क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया तो हम आग के अंदर हाथ डालेंगे ज्यादा समय तक, तो हमारा हाथ जल जाएगा। यदि हमें ताप का अनुभव नहीं होता इसीलिए ताप रखा है। इसी तरह जब पहाड़ के ऊपर खड़े होकर नीचे देखते हैं तब हम को डर होता है क्यों ? यदि हमें डर नहीं होगा तो हम ऐसे ही कूद जाएंगे और कूदकर मरेंगे इसीलिए हम देख सकते हैं कि भगवान की सृष्टि में सुरक्षा की कितनी व्यवस्था है पग पग पर। इतना ही नहीं भोजन की व्यवस्था बोला मैंने, लेकिन साथ ही साथ रहने की व्यवस्था 14 भुवन दिया और
*ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः | जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ||*
(श्रीमद भगवद्गीता १४. १८)
अनुवाद -सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।
हर एक जीव के मनोभाव के अनुसार रहने की व्यवस्था है जैसे यदि आप एक बिल्डिंग में जाकर देखते हो कि आप ग्राउंड फ्लोर में एक बीयर बार है, कैबरे डांस चल रहा है कुछ लोग उस तरफ जाना चाहते हैं उनकी मति ऐसी ही है वह उनके लिए ही बनाया गया है। इसी तरह ऊपर वाले माले में देखना है उधर जिम है जिम में सब लोग एक्सरसाइज कर रहे हैं अपने शरीर की तंदुरुस्ती के लिए कोई रॉक म्यूजिक सुन रहा है। कोई अपना बड़प्पन बता रहा है इस तरह उसके भी ऊपर देखिए सतोगुणी लोग हैं। जहां वहां एक मंदिर है लोग जपा कर रहे हैं, हरि नाम चल रहा है, गीता भागवत चल रही है, कोई पढ़ाई चल रही है या कोई सत्र चल रहा है तो अलग अलग व्यक्ति अपनी मती के अनुसार या तो ग्राउंड फ्लोर में फर्स्ट फ्लोर में या सेकंड फ्लोर में जाएगा। इसलिए भगवान ने 14 भुवन बनाए हैं और रजोगुण लोगों को नीचे रखो और तमोगुण लोगों को नीचे के लोको में भेजो। इस तरह से रहने के लिए भी व्यवस्था की है। भगवान ने ब्रह्मा जी को बोला डाल दो अलग-अलग जीवों को अलग-अलग योनियों में, पहले उनको शरीर दो, शरीर मतलब कपड़े उनके लिए शरीर रूपी कपड़ा दे दो और भोजन की व्यवस्था की है और उनको अलग-अलग अकोमोडेशन दे दो। इस प्रकार से रोटी कपड़ा और मकान की व्यवस्था की है। उन्होंने इस दुनिया में इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कोई भी अपने बेटे को इंजीनियरिंग या मेडिकल कुछ पढ़ाना हो तो पैसा भेजता है, लेकिन पिता बोलेगा देखो तुम को पैसा चाहिए तो मेरे मत के अनुसार चलना चाहिए ,अच्छी तरह पढ़ाई करो अच्छे मार्क्स लाओ इंजीनियर बन कर मेरे बिजनेस में ज्वाइन करो। अगर कोई बेटा पढता नहीं मनमानी करता है, बाइक में घूमता है, शराब पीता है, नशा करता है, एग्जाम में फेल होता है तो कोई पिता पैसा भेजेगा क्या? लेकिन आप देख रहे हैं कि भगवान नास्तिक जीवों को भी सब चीजें भेज रहे हैं रोटी कपड़ा और मकान इसलिए साधारण पिता से भी श्रेष्ठ है भगवान। क्योंकि साधारण पिता आपको तब सपोर्ट करेंगे जब आप उनकी इच्छा के अनुसार चलते हो लेकिन भगवान की इच्छा के विरुद्ध चलने वाले जीव को भी भगवान सब सुविधाएं प्रदान करते हैं यह उनकी अनुकंपा है। उनको मालूम है कि वह मनमानी कर रहा है, गलत करने लगा है फिर भी अंततोगत्वा वह मेरा बच्चा ही है और उसको देना ही पड़ेगा ऐसा सोचकर भगवान उसको देते हैं, व्यवस्था करते हैं। इतना ही नहीं यह जीव इतना मूर्ख होता है, उसे यह नहीं पता कि वह जब सूअर की योनि में या अन्य योनियों में भी होता है तब भी भगवान उसके साथ जाते हैं। भगवान कहते हैं कि मैं अंतर्यामी परमात्मा के रूप में तुम्हारे साथ आऊंगा इस प्रकार भगवान उनके साथ जाते हैं।
*तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्। क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥* ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता 16.19)
अनुवाद- उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ
*आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥*
(श्रीमद्भगवद्गीता 16.20)
अनुवाद- हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं ॥
यह जीव भगवान का विरोध करते हुए भगवान को मारना चाहता है जैसे हिरण्यकशिपु , रावण बन कर और हम बोलेंगे कि नहीं !नहीं ! हम तो ऐसे नहीं हैं। किंतु हम भगवान की बात को ना मानकर और भगवान के दिए हुए शास्त्रों को ना पढ़कर जीव इंद्रियों के पीछे जब भागते हैं तो भगवान भी दुखी होते हैं अपने ह्रदय में। जो बताया गया है भगवत गीता में, भगवान देखते हैं कि मेरा बच्चा सीधा सरल मार्ग को पकड़कर मेरे पास आ सकता है चलो मैं भी उसके पास जाता हूं और धीरे-धीरे लेकर आता हूं । हम जब दक्षिण भारत के मंदिर में गए थे तो वहां एक गांव था कुलशेखर जी का । एक मंदिर में ग्राउंड फ्लोर, फर्स्ट फ्लोर, सेकंड फ्लोर भगवान विष्णु इधर खड़े थे पहले फ्लोर में वह बैठे थे और दूसरे फ्लोर में वह लेटे हुए थे । हमने पूछा पुजारी को, कि भगवान क्यों इस तरह से अलग-अलग पोज दे रहे हैं तो वह बताते हैं यदि आपको किसी ने कर्जा दिया है आपके घर के दरवाजे पर आकर खड़ा रहेगा, बोलेगा कि कर्जा वापस लौटा दो अगर आप नहीं दोगे तो वह बैठ जाएगा फिर भी यदि आप वापस नहीं देते तो वह क्या करेगा वह लेट जाएगा जब तक आप पैसा नहीं दोगे वह निकलने वाला नहीं है। इसी प्रकार भगवान भी जीव को बुलाने के लिए आए हैं। मेरे प्रिय बच्चों आ जाओ भगवत धाम, खड़े होकर परमात्मा के रूप में वह बुला रहे हैं जब हम नहीं सुनते तो वह बैठ जाते हैं, फिर भी हम नहीं आते तो लेट कर बुला रहे हैं, ठीक है मैं वेट करूंगा आ जाओ ऐसा बोल कर के भगवान अनंत में लेटे हैं। इसलिए कहते हैं कि भगवान इतनी अनुकंपा दिखा रहे हैं तो तुम भी अनुकंपा दिखाओ उनके ऊपर, वह आए हैं बुलाकर भगवत धाम वापस ले जाने के लिए तो चलो लौट जाओ ऐसा बताया है इस प्रकार भगवान ने अपनों को कितना फ्रीडम भी दिया है सुख सुविधा भी प्रदान की है। हम देख सकते हैं और ब्रह्मा जी को भगवान ने बोला कि 8४ लाख योनियों के जीवों को सुविधा प्रदान करो, हर एक योनि जो है वह एक-एक की इच्छा को पूर्ति करने के लिए है। किसी को उड़ने की इच्छा है, किसी को खाने की इच्छा है तो हाथी टन में खाता है वह, मैथुन जीवन में जैसे कबूतर होता है 1 घंटे में दर्जनों बार वह मैथुन करता है, इस प्रकार अलग-अलग योनियों में जो जीव जन्म लेता है उसके लिए अलग-अलग योनियों में इच्छाएं पूर्ति करने के लिए भगवान ने व्यवस्था की है। बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है बेटा तुम टेंशन मत लो अलग-अलग योनियों में जाओ और अपनी इच्छा की पूर्ति कर लो जब तृप्त हो जाओगे तो वापस आ जाना मेरे पास। उन्होंने सुविधा दी है इस प्रकार से इतना ही नहीं आप देखेंगे कि ब्रह्मा जी सब जीवों को शरीर देने के उपरांत जीव शांति से नहीं जीते हैं एक दूसरे के साथ झगड़ा करते हैं। जानवर के शरीर में तो एक दूसरे को पकड़ कर खाते हैं आप जानते ही हो लेकिन मनुष्य में भी देखा जाता है मनुष्य मनुष्य में, परिवार परिवार में, देश देश में, लेकिन एक देश में भी आपस में भी झगड़ा है एक जाति के लोगों के अंदर भी झगड़ा है। जगह-जगह दुनिया में ऐसे लोगों को कैसे शांत किया जाए, भगवान ने तुरंत बोला कि वेदों को ले लो मैंने ब्रह्मा को दे दिया है।
*ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञ: स्वराट तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥*
(श्रीमद भागवतम 1.1. 1 )
अनुवाद- हे प्रभु, हे वसुदेव-पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान्, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं। अत: मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं।
भगवान ने तुरंत दे दिए और ब्रह्मा को बोले कि सब जीवों को प्रदान करें और उसको पढ़ कर तुरंत शांत हो जाएं , भगवत धाम लौटने के लिए मार्ग बना लेंगे इसलिए बताया गया है। वेद और पुराण दिए हैं जिससे हमारी चित्त शुद्धि हो सकती है और पढ़ने के बाद ही भगवान बताते हैं
*मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि | अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 18.58)
अनुवाद – यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को लाँघ जाओगे | लेकिन यदि तुम मिथ्या अहंकारवश ऐसी चेतना में कर्म नहीं करोगे और मेरी बात नहीं सुनोगे, तो तुम विनष्ट हो जाओगे |
अर्जुन यदि तुम मेरी बात मान कर चलोगे, वेदों में जो मैंने दिया है तो तुम सब तरीके की तकलीफों से ऊपर उठ जाओगे, सब बाधाओं को मैं हटा दूंगा तुम्हारे मार्ग से, और मेरी कृपा से तुम मेरे धाम को आ जाओगे। लेकिन मेरी बात ना मानकर तुम मनमानी करोगे तो क्या होगा? तुम्हारा विनाश होगा। इसलिए मेरी बात मानो कि भगवान वेद पुराण देते हैं और फिर नदियों को देते हैं ताकि हम गंगा यमुना कावेरी में नहा कर हमारे पापों को मिटा सकते हैं। भगवान अपने भक्तों को भेजते हैं, दिव्य ग्रंथों को देते हैं, दिव्य नाम को दिया है, दिव्य प्रसाद को दिया है, दिव्य धामों को दिया है जैसे वृंदावन द्वारका मथुरा रामेश्वरम बद्रीनाथ, ऐसे इस प्रकार भगवान ने अलग-अलग व्यवस्था की है। भक्तों को देखना चाहिए किस प्रकार की कृपा भगवान हमको देते हैं शरीर के लिए भी और मन के लिए भी अनेक प्रकार की मनोरंजक चीजें हम को भगवान ने दी हैं, शब्द स्पर्श रूप रस गंध इस प्रकार हर एक की तुष्टि के लिए भगवान ने दिया है। बुद्धि की पुष्टि के लिए भगवान ने कितने ही सब्जेक्ट दिए हैं, यदि भगवान के ऊपर जीव को इंटरेस्ट नहीं है तो भगवान ने हमें केमिस्ट्री बायोलॉजी मैथमेटिक्स दिए। कुछ लोगों को भगवान को भूल कर अच्छा लग रहा है इसलिए भगवान ने आयोजन किया है कि ठीक है तुमको जितना ही समय उछलना कूदना है या मनोरंजन करना है दुनिया में खेलो कूदो जब तुम तैयार हो जाओगे तो मैं तुमको गीता और भागवत देकर वापस लौटा लाऊंगा। इस प्रकार से उन्होंने व्यवस्था की है सब् अलग-अलग योनियों में खाना पीना सोना मैथुन करना यह सब करते जाते हैं और उसके बाद प अनेक जन्मों को काटने के बाद जब वे थक जाते हैं तब वे भगवान की ओर मुड़ते हैं। जैसा कि बताया गया है दो पक्षी यहां पर बैठे हैं एक पेड़ पर एक आत्मा और दूसरा परमात्मा । जब वह भगवान की ओर मुड़ता है तब भगवान उनको वापस लौटाने के लिए बुलाते हैं। ऐसे भगवान की अनुकंपा कहीं नहीं है. देखिए भगवान असुरों के लिए भी अपने धाम के दरवाजे बंद नहीं करते हैं। असुर भगवान को ही काटना चाहते हैं, मारना चाहते हैं, भगवान का विरोध करते हैं, वे उनको भी बोलते हैं ठीक है नो प्रॉब्लम तुम सुधर कर आओ दरवाजा तुम्हारे लिए खुला है। उनके लिए भी वह खोल कर रखते हैं और ऐसे असुरो को भी चांस देते हैं। सत्य त्रेता द्वापर और कली इन चार युगों में यदि किसी ने सुधार नहीं किया तो कल्कि अवतार के रूप में आकर उनको वध करके उनका उद्धार करते हैं ताकि अगले सतयुग में जब आएगा, उसको आगे बढ़ने के लिए मौका मिलेगा। इस तरह से आप देखेंगे चार चार साल तक फेल होकर बैकबेंचर्स होकर जीव जीते हैं दुनिया में फिर भी भगवान उनको सुविधाएं देते हैं और एक बार सत्य त्रेता द्वापर और कली ऐसे गोल्डन एज सिल्वर एज ब्रॉन्ज एज आयरन एज तो हर एक व्यक्ति को भगवान की अनुकंपा के बारे में देखना चाहिए और भागवत में एक श्लोक आता है।
*अहो बकी यं स्तन-काल-कूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी। लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालु शरणं व्रजेम॥*
अनुवाद- “यह कैसा अद्भुत है कि बकासुर की बहन पूतना अपने स्तनों में घातक विष का लेप करके और स्तनपान कराकर कृष्ण को मारना चाहती थी। फिर भी भगवान् कृष्ण ने उसे अपनी माता के रूप में स्वीकार किया और इस तरह उसने कृष्ण की माता के योग्य गति प्राप्त की। तो मैं उन कृष्ण के अतिरिक्त और किसकी शरण ग्रहण करूँ, जो सर्वाधिक दयालु हैं?”
मैं किस व्यक्ति की शरण ले सकता हूं कृष्ण को छोड़कर क्योंकि कृष्ण ने ऐसे एक क्रूर बालघात पूतना नाम की राक्षसी जो अपने स्तन में विष का लेपन लगा कर आई थी कृष्ण को मारने की योजना बनाकर, कृष्ण के पास घृणा के साथ आई थी तो भी भगवान ने एक धात्री की तरह उसका उद्धार किया और उसका सम्मान किया। ऐसे कृष्ण से ज्यादा कृपालु और कौन हो सकता है। यह कोई भी भेदभाव नहीं करते हैं कि कौन असुर है भगवान असुरों को भी अपना बना लेते हैं। जब वह लोग जैसे प्रल्हाद को भी अपने गोद में बिठा लिया भगवान ने। भगवान बली महाराज के द्वारपाल बने, लेकिन अपना ही पुत्र जो भौमासुर था भगवान ने देखा कि वो वैदिक संस्कृति के विरुद्ध है सभी जीवों का उद्धार करने के विरुद्ध है। इसीलिए भगवान ने उसको अपना बेटा होने के बावजूद भी मिटा दिया अर्थात भगवान यह नहीं देखते हैं कि कोई असुर है या कोई देवता है जो वैदिक संस्कृति को अपनाकर भगवत धाम लौटने की प्रक्रिया में लगता है तो भगवान यह परवाह नहीं करते कि उसने किस जाति और कुल में जन्म लिया है। इस प्रकार भगवान अलग-अलग जीव् अन्य योनियों में भी मौका देते हैं चाहे वे वानर भी क्यों ना हो हनुमान जैसे, चाहे गिद्ध भी क्यों ना हो जैसे जटायु और एक नीच कुल में जैसे निषाद ही क्यों ना हो, ऐसे लोगों को भी भगवान ने अपना भक्त बना लिया है। ऐसे भगवान की सहनशीलता जैसे वृंदावन में भी भगवान वानरों के साथ मोरों के साथ कोयल और अन्य पंछियों के साथ गाय बछड़ों के साथ, हिरणो के साथ जुड़ते हैं। इस तरह भगवान सबको अपनी कृपा प्रदान करते हैं। शिशुपाल को सौ अपराध करने के बाद ही उनका गर्दन काटा, लोग सोचेंगे कि शायद भगवान सहन नहीं कर पाए इतने इतना अपराध कर दिया है लेकिन शास्त्र बताते हैं कि उन्होंने क्यों उसकी गर्दन को काटा। क्योंकि यदि उसको छोड़ देते तो वह और अपराध करते करते घोर नरक में जाता इसलिए उसको बचाने के कारण भगवान ने उसका उद्धार कर दिया। आप देख सकते हैं इस प्रकार भगवान ने असुरों के ऊपर भी अपनी कृपा दिखाई। इस प्रकार से भगवान की कृपा के विषय में स्मरण करना बहुत आवश्यक है। जैसे प्रभु रामचंद्र बोलते हैं रावण को, वह रावण को मारने ही वाले थे और उन्होंने बोला एक गीत तमिल भाषा में है। हे रावण तुम आज चले जाओ कल वापस लौट आना कहते हैं क्यों? तो एक चांस देता हूं तुमको, अगर आज जाकर तुम सुधर जाओगे और कल आकर मुझे सीता को वापस दे दोगे तो मैं तुम्हें मारूंगा नहीं तुम्हें जिंदा छोडूंगा तुम लंका नरेश रहो ऐसा बताते हैं। देखिए कितनी कृपा है उनके हृदय में, वह लास्ट मिनट में भी सोचते हैं कि यदि वो सुधर जाए तो मुझको उसको दंड नहीं देना पड़ेगा। यदि हम भौतिक जीवन में एक इंजीनियरिंग कॉलेज में एक पेपर में भी फेल हो गए आपको डिग्री नहीं मिलेगी 50 का पेपर है 49 पास हो गया , एक पेपर इंजीनियरिंग ड्राइंग और मैथमेटिक्स में फेल हो गए तो क्या डिग्री मिलेगा ? नहीं मिलेगा। इसी प्रकार जटायु फेल हो गए रावण के साथ लड़ाई करते हुए, रावण ने एक शुभ मुहूर्त में सीता को उठाकर ले जाने के लिए प्रयास किया था, लेकिन उस शुभ मुहूर्त को मैंने टाल दिया ताकि वह सीता को उस समय में लेकर नहीं जा पाएगा मैंने जान दे दी। इसके लिए मैं खुश हूं क्योंकि रावण विजय ही नहीं होगा, सीता को ले जाने में । भगवान ने जटायु की गति देखकर आंसू बहाया और अपनी गोद में लिया और जटायु को बोले कि जटायु मेरी सीता को बचाने के लिए तुमने प्राण दे दिये, अभी मैं तुमको बैकुंठ में भेज दूंगा। रावण के युद्ध में फेल होने के बाद भी भगवान ने उसको बैकुंठ प्रदान किया उसके ऊपर कृपा की इसीलिए कृपा निधि ऐसा कहकर सीता माता उनको बुलाती हैं। अनेक प्रकार से चीजें हम बोल सकते हैं लेकिन समय की पाबंदी है। आप लोग तो भक्त हो आप लोग अनेक उदाहरणों को इन चीजों को जोड़ कर देख सकते हो। भगवान की कृपा के बारे में, ध्यान करने से हमारा नाम जप अच्छे से निकलता है और हम अच्छे से नाम का उच्चारण कर पाएंगे।
श्रील प्रभुपाद की जय !कृष्ण भगवान की जय !
हरे कृष्ण !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
श्रीमान अमोघ लीला प्रभुजी व्दारा,
22 फरवरी 2022
परम पूज्य श्रील लोकनाथ स्वामी महाराज कि जय…!
वांच्छा कल्पतरुभ्यश्र्च कृपासिन्धुभ्य एव च।
पलिताना पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
परम पूज्य श्रील लोकनाथ स्वामी महाराज कि जय…!
हमने पहले हफ्ते मे चर्चा की थी कि हमें अंदर घुसना है हमे अगर अंदर जाना है तो हमे हृदय तक जाने के दरवाजे कि चर्चा कि थी हमने लय कि चर्चा की थीं। लय का मतलब होता है नींद। हम अभी आगे बढ़ते हैं आज दूसरा दरवाजा खोलने का प्रयत्न करेंगे, वह है विक्षेप पहले हम प्रार्थना करेंगे
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले
स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।
वांच्छा कल्पतरुभ्यश्र्च कृपासिन्धुभ्य एव च।
पलिताना पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*।।
हरे कृष्ण!
श्रील प्रभुपाद कि जय..!
श्रील लोकनाथ स्वामी महाराज कि जय..!
वैष्णव भक्तवृंद कि जय..!
हरे कृष्ण महामंत्र कि जय..!
हरिनाम प्रभु कि जय..!
पिछली बार हम चर्चा कर रहे हैं, थे भगवान हमारे हृदय के अंदर हैं। अब हमें वहां पहुंचना है तो हमें पांच दरवाजे पार करने पड़ेंगे,वह पांच दरवाजों में एक कुंडी अंदर से है, एक कुंडी बाहर से है और यह कुंडीयां खुलते रहेंगे और इस से दरवाजे खुलते रहेंगे तो हम अंदर जाते रहेंगे, जाते रहेंगे,जाते रहेंगे और हम कृष्ण से मिल सकेंगे। पिछली बार हमने लय के विषय में चर्चा कि थीं नाम जप में पहला जो अवरोध आता है वह है लय वैसे तो सारे अब अपराधों को दूर करने के लिए है नाम जप लेकिन हम कलयुग के महान लोग हैं इसलिए अवरोध दूर करने के लिए भी हमारे बहुत सारे अवरोध हैं। अवरोध दूर करने के लिए भी हमें प्रयास करना पड़ेगा। आज हम दूसरे अवरोध की चर्चा करेंगे दूसरा जो अवरोध है वह नामजप मे आता है वह है विक्षेप। निक्षेप का अर्थ होता है मन का भटकना और यह बहुत ही सामान्य समस्या हैं मन का भटकना, और कलयुग के अंदर वैसे ही हमारे मन भटके हुए हैं पर जो लय हैं वह तमोगुण के वजह से होता हैं। अगर आप की चेतना में तमोगुण की प्रधानता है तो उसकी वजह से आपको जप करते वक्त नींद बहुत आएगी और अगर रजोगुण कि प्रधानता है तो आपका मन बहुत भटकेगा और नाम जप करते वक्त तो मन कहां-कहां जाता है व्यक्ति खुद हैरान हो जाता है हे..भगवान..!
अच्छे से अच्छे विचार या कल्पनाएं कब आती हैं, नामजप करते हुए ।इसीलिए नामजप करते वक्त लोग कहते हैं कि प्रभुजी मन बहुत भटकता है मन यहां-वहां भागता है हम क्या करें? लेकिन यह चुनौतियां तो रहेगी जब तक रजोगुण कि प्रधानता है चेतना के अंदर तब तक यह अवरोध की समस्या तो रहेगी हमें इस से लड़ना पड़ेगा। इस से लड़ना बहुत अधिक आवश्यक है यह बड़ी सामान्य समस्या हैं मन का भटकना। बड़े बड़े भक्त है इससे आज भी लड़ रहे हैं और लड़ना बनता भी है यह बहुत ही महत्वपूर्ण लड़ाई हैं। किस प्रकार से हम यह लड़ाई लड़ सकते हैं? और किस प्रकार से हम दूसरा दरवाजा खोल सकते हैं? इस बारे में हम चर्चा करेंगे। इस दरवाजे में दो कुंडी है एक अंदर से है और एक बाहर से भी है, तो हमें भी कुछ प्रयास करना पड़ेगा और लड़ने के लिए भगवान की भी कृपा आवश्यक है, लेकिन साथ में हमें भी कुछ प्रयास करने पड़ेंगे यह आवश्यक है हमें अवरोधों से बचने के लिए कुछ करना चाहिए हम क्या कर सकते हैं? जप करने का एक सही समय होता है और एक सही स्थान होता है तो पहले देखते हैं सही समय सबसे बेहतरीन समय जो होता है वह सुबह सुबह का होता है सुबह ही हमें नाम जप करना चाहिए दोपहर का समय रजोगुण का होता है और रात का समय तमोगुण का होता है अगर आप सुबह जप करते हैं तो आपको जप करने में आसानी होंगी आप को पवित्र समय और पवित्र स्थान कि आवश्यकता होती है तो पवित्र समय है सुबह का 16 माला जप 16 राउंड चैटिंग, हम सुबह करते हैं उसको बोलते हैं राउंड उसके बाद जो कुछ जप होता है वह राउंड नहीं होता बस ट्रायंगल, स्क्वेयर, रैक्टेंगल, हाइपर गोला, पैरा गोला लेकिन राउंड राउंड तो होता है सिर्फ मॉर्निंग समय पर इसलिए अगर आप चाहते हैं कि आपका 16 राउंड इन चैटिंग हरे कृष्ण महामंत्र हो तो ना सिलेंडर,ना हायपर गोला, ना पैरागोला जस्ट राउंड और यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है जब मै काम पे जाता था, जिस दिन मैंने थोड़ा आलस किया कि सूर्योदय हुआ तो क्या आराम से जाएंगे और इस तरह से आलस करके 2-4 माला करके निकल गए दफ्तर कि ओर और जब मैं ऐसे दफ्तर जाता था तो मुझे बहुत संघर्ष करना पडता था, दफ्तर में अपनी चेतना को बचाए रखने में और काम भी नहीं होते थे जितने कि मैं जब 16 माला करके जाता था तो इसलिए जितने भी गृहस्थ भक्त है सभी के लिए जरूरी है विशेष करके गृहस्थ भक्तों के लिए तो मॉर्निंग प्रोग्राम बहुत बहुत बहुत आवश्यक हैं, क्योंकि उनको इतनी सारी दुनिया की समस्याएं होती है असत्त-संग,बुरी संगति इसीलिए भी सुबह-सुबह कवच पहनना चाहिए हमें भगवान के नाम का, हमें रोज सुबह जप करना चाहिए एक पवित्र समय पर और पवित्र स्थान पर। एक ऐसा स्थान जहां आपका मन कम से कम भटके। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने नवद्वीप में अपने घर में अगर आप देखेंगे तो उनका छोटा सा कमरा है इतना छोटा है कि वह 2 लोग खड़े नहीं हो सकते एक व्यक्ति बैठ सकता है बस, एक छोटा सा कमरा है उनका वहां बैठकर वह हरे कृष्ण का जप करते थें।
यानी कि जितना बड़ा कमरा होगा आपके सामने कोई बैठ रहा है, कोई बातचीत कर रहा है, कोई आ रहा है, कोई जा रहा है, पकौड़े-शकौडे खा रहे हैं, छोले-भटूरे खा रहे हैं तो आप का भी मन करेगा कि भाई एक भटूरा हमारे लिए भी चाहिए या जहा पर दूरदर्शन चल रहा हो बहुत सारे लोग दूरदर्शन के सामने बैठकर हरे कृष्ण का जप करते हैं
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।जब ब्रेक( मध्यांतर ) आता है तब कौज कर लेते हैं और ब्रेक चला जाता है तो हरे कृष्ण महामंत्र शुरू हो जाता हैं यह अच्छी बात नहीं हैं, इसलिए जितना छोटा कमरा हो उतना अच्छा। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी का छोटा सा कमरा था तो हमारे घर में अगर एक बालकनी होंगी तो उसे किसी चीज़ से आच्छादित कीजिए खुली बालकनी में आपका मन भटकेगा इसीलिए अगर एक छोटा सा कमरा आप तैयार कर सकते हैं तो अच्छी बात है और इसमें आप एक छोटा सा कोना तय कीजिए आप जिससे आपका मुंह दीवार के तरफ हो और वहां एक राधाकृष्ण कि सुंदर तस्वीर लगाइए और हरे कृष्ण का महामंत्र लिखा हो और उस कोने में बैठकर आज जप करिए। अगर इस तरह हम रोज एक ही स्थान पर बैठकर जप करते हैं तो उससे हमें स्थान सिद्धि प्राप्त होती हैं। स्थान सिद्धि याने के वह स्थान आपको सिद्धि को प्राप्त करने में मदद करता हैं। स्थान सिद्धि का मतलब होता है एक ही स्थान पर बैठकर हररोज जप करना यह बहुत जरूरी है तो एक पवित्र समय और एक पवित्र स्थान, एक पवित्र स्थान और एक पवित्र समय यह होना बहुत जरूरी हैं। इस से हम अपने अवरोध से बचने में सफल हो पाते हैं नहीं तो हमारा मन भटकेगा ही भटकेगा जितने विषयवस्तु आपके पास रहेंगे उतना ही मन भटकता है जैसे मोबाइल फोन हैं। मोबाइल फोन को लेकर ना कहीं ऊपर डाल देना चाहिएं, किसी अलमारी के ऊपर रख देना चाहिए वह आपकी आंखों के सामने नहीं रहना चाहिए नहीं तो आप उससे आप अशांत या परेशान होंगे नोटिफिकेशन (अधिसूचना) आ गया
ट्रिडिंग..टुडींग..ट्रिडिंग..टुडींग.. कुछ लोग ऐसा करते हैं हरे कृष्ण हरे राम..और इधर ट्रिडिंग..टुडींग..राम राम..शुरू रहता यह आपको भटकाता है इसलिए मोबाइल को स्विच ऑफ करके कई अंदर डाल देना चाहिए और कहना चाहिए ओ..भाई मेरे! तू अंदर रह ले बस। अगर आपकी आंखों के सामने अप्सरा नाचती रहेंगी मोबाइल फोन नामक अप्सरा तो फिर आपका तो तक धिना..धिन ताक..धिना धिन..! हे जानू !हे जानेमन! आजा मुझे देख लो! मुझे खोल दो! और मेरे अंदर व्हाट्सएप देख लो! फेसबुक देख लो! नोटिफिकेशन देख लो! इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि जितने भी अवरोध है उनसे दूर रहा जाए। आप और आपकी जप माला, जप माला और आप, आप और जप माला बस..!यही होना चाहिए, मैंने पिछली बार कहा था हमें तो हरिनाम के साथ डेट मारनी चाहिए। डेट का मतलब क्या होता है? जिन्होंने कभी डेट की होंगी। आप तो संत लोग हैं महात्मा लोग हैं जो लोग कभी डेट पर गए हैं डेट पर कैसे जाते हैं?आप और मैं, मैं और आप और कोई नहीं!मैं और आप, आप और मैं और कोई नहीं!उसको बोलते हैं डेट मारना तो सुबह-सुबह भगवान के नाम के साथ हमें डेट माननी चाहिए। हरे कृष्ण महामंत्र आप और मैं, मैं और आप और कोई नहीं! मैं और आप, आप और मैं और कोई नहीं! यही पवित्र हरिनाम के साथ डेट है अवरोधों से बचने के लिए हमारे उच्चारण स्पष्ट होने चाहिए अगर आप जप रगड़ा मार के करते हैं तो आपका मन भटकता हैं हो गया जी? भाई साहब! इतना सुंदर जप शुरू है और आप हरे राम.. राम..रा रा रा र..र..ब..ब.ब हो गया जी, वाह क्या बात है!जप मैं प्रत्येक शब्द का स्पष्ट उच्चारण होना चाहिए मन एकाग्र करने के लिए स्पष्ट उच्चारण आवश्यक हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
स्पष्ट उच्चारण आपके लिए बहुत आपको बहुत मदद करेगा और उसके साथ साथ ऊंची आवाज में जप करना चाहिए। ऊंची आवाज में जप करते वक्त आप अन्य भक्तों के साथ नहीं बैठ पाएंगे इसलिए आपको थोड़ा सा दूर बैठकर जप करना पड़ेगा। जिस से भक्तों के जप में व्यत्यय ना पड़े और आपका भी जप अच्छी तरह से हो। अगर आप धीरे-धीरे जप करते हैं तो उससे नींद आती हैं। एक्सीडेंट हो गया रब्बा रब्बा! यह तभी होता है जब आप जप करते हुए धीरे-धीरे जप करते हैं तो ऐसा अपघात हो जाता है मध्यम आवाज में जप करना चाहिए यह उत्तम है अगर आपके कमरे में और कोई नहीं है तो आप को ऊंची आवाज में जप करना चाहिए। ऊंची आवाज में जप करने से बहुत फर्क पड़ता है साथ ही साथ हमें मंत्र का ,जप का ध्यान करना चाहिए। हमें मंत्र के नाम का अर्थ का चिंतन करना चाहिए उससे भी मन कम भटकता हैं। अच्छा मंत्र का अर्थ क्या है? पता है आपको? मंत्र का यह अर्थ है, हे कृष्ण आप सब से आकर्षक है लेकिन आपका आकर्षण है इसलिए तो आप आए हैयहां पर ,लेकिन मेरे साथ बहुत गड़बड़ है, इसीलिए हे प्रभु मेरा आपसे आकर्षण हो जाए ।इसके बाद क्या आता है? आनंद! में राधा कृष्ण का आनंद का भाव जो हमारे मन के अंदर होगा फिर उसके बाद हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे और मुझे आपकी सेवा में लगाइए पहले मुझे आपके लिए आकर्षित कीजिए उसके बाद एंजॉय बाय यू इसके बाद जब हम मंत्र का जप करते हैं तो इससे मन का भटका कम होता है इसके बाद और एक आता है उसे कहते हैं प्रोवो-के-ट्यूब प्रैक्टिस इस प्रैक्टिस से भी आपका मन कम भटकता हैं। जैसे हरे मतलब श्रीमती राधारानी! जब हरे कहेंगे तो मन में कहिए हे राधे! और जब कहेंगे कृष्ण तो मन मे कहिए हे कृष्ण! और जब राम कहेंगे तो मन में कहिए हे राम! तो आप जप करेंगे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
बोलते वक्त लेकिन हृदय के अंदर हे राधे! हे कृष्ण! हे कृष्ण!हे राधे! हे राधे हे कृष्ण! हे राधे !हे राधिकारमन! हे राधिकारमन !
इसे कहते हैं प्रोवो-के-ट्यूब प्रैक्टिस तो इससे बुद्धि को एक इंगेजमेंट (व्यस्तता)मिलती है जुबान लगी है बोलने में और यह यह भाई साहब लगे हैं सुनने में तो फिर मेरा काम क्या है? तो हम चलते हैं जी ओके! बाय बाय! हम चले! नहीं नहीं भाई साहब आपके लिए भी सेवा है आपको हम सेवा देते हैं एक तो आप मन में चिंतन करिए दूसरा थोड़ा प्रोवो-के-ट्यूब प्रैक्टिस कीजिए इस प्रैक्टिस से भी बहुत फर्क पड़ता है तो जप करते वक्त हमारा ध्यान कम भटकता है और एक तरीका है अगर आप करना चाहते होंगे तो इससे भी मन थोड़ा कम भटकता है हरे कृष्ण महामंत्र के अंदर 8 है जोडी या है हरे कृष्ण-हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे,हरे राम-हरे राम, राम-राम, हरे- हरे। तो यह 8 जोड़ियां है पहली बार कहिए
*हरे कृष्ण* हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
अगली बार..
हरे कृष्ण *हरे कृष्ण* कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
उस से अगली बार..
हरे कृष्ण हरे कृष्ण *कृष्ण कृष्ण* हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
उस से अगली बार..
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण *हरे हरे*। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
उस से अगली बार..
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। *हरे राम* हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस तरीके से करते रहिए
मैं जब अगले अक्षर के तरफ जाता हूं तो मैं थोड़ा ऊंचा बोलता हूँ उसका उच्चारण ऊंचा करता है इस तरह से मन को व्यस्तता मिल जाती है जिससे वह मुझे अब यह ऊंचा बोलना है उसके बाद मुझे यह ऊंचा बोलना है इसतरह आप हरिनाम को सुन पाते हो। मन तो बोलता है कि मेरे पास कुछ काम धाम है नहीं मैं थोड़ा घूमता फिरता हूं कुछ आपके लाइफ के बारे में सोचता हूं कुछ आपके भविष्य के बारे में सोचता हूं ऐसा कुछ काम कर लेता हूँ। तब हमें मन को कहना हैं एसक्यूज मी! हरे कृष्ण! माइंड भाई साहब! आपके पास एक काम है आपको हम सेवा दे रहे हैं इस सेवा को आप करिए।अब यह देखो कि हमें कौन सा शब्द ऊंचा बोलना है उसको एक व्यस्तता दीजिए। बच्चों को अगर कुछ काम नहीं देंगे तो वह तो भाई इधर उधर सारे फितूरी वाले काम करेंगे इसलिए अवरोधो से बचने के लिए आप इस तरह से हरे कृष्ण महामंत्र ऊंचे आवाज में कह सकते हो। आप हरे कृष्ण महामंत्र का कार्ड अपने पास रखिए आपकी जो जप थैली से उंगली बाहर निकलती है उसे आप उस महामंत्र पर घूमाते रहिए। इस तरह से आपने उसे एक एक्टिविटी दे दी महामंत्र की। जब एक्टिविटी रहती है तो मन का भटकाव नहीं रहता। उसके साथ-साथ आप बीच-बीच में भगवान के नाम की महिमा बोल सकते हैं तो आप पूछ सकते हैं कि हमारे आचार्यों ने में से किसी ने ऐसा किया है? जी हां श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ऐसा ही करते थें। वह हरे कृष्ण महामंत्र बोलते बोलते 20-25 के बाद बोला तो एक बार भगवान के नाम कि महिमा बोल ते थें। जैसे
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव एक केवलम् ।
कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ऐसा 15-20-25 बार बोला फिर आपने कुछ मंत्र बोल दिया ।भगवान का भजन करना चाहिए प्रिति पूर्वक करना चाहिए। फिर..
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस तरह से भगवान के नाम के बीच में 20-25 बार नाम लेने के बाद बीच में दो बातें बोली एक नाम ऐसा नहीं कि आप कुछ बोले ऐसा नहीं कि आप संस्कृत मे ही बोले, आप हिंदी में भी बोल सकते हो, वह बंगाली भी हो सकती हैं। लेकिन नाम के प्रति कोई महिमा हो, नाम के प्रति कोई प्रार्थना हो ऐसा सोच कर के आप अगर जप करते हैं तो उससे भी बहुत फर्क पड़ता हैं।मन का भटकाव रोकने के लिए प्रार्थनाएं भी कह सकते हैं जैसे “शिक्षाष्टकम” हैं। ऐ मेरे मन तू तृण के समान विनम्र हो जा और भगवान का नाम ले।हरे कृष्ण हरे कृष्ण इस प्रकार से यदि हम जप करेंगे तो हमारा मन नहीं भटकेगा।दूसरी बात यह है कि जप करते वक्त अगर आपकी आंखें बंद है तो आपको नींद आ जाती है कई बार मैंने देखा है कि भक्त आंखें बंद करके जप करते हैं और जप करते-करते सो जाते हैं। आंखें बंद होगी तो आप सो जाएंगे, आंखें खुली रहेंगी तो आपका मन यहां वाह भटकेगा। इसको देखना, उसको देखना ,यह जा रहा है, वह जा रहा है, यह कौन सी साड़ी पहन के आई है, यह गोपी ड्रेस पहन के आई है ,यह कौन सा धोती कुर्ता पहन कर आया, अरे यह तो सो ही गया भाई, ओए ले..! हमारा इधर उधर ध्यान भटकेगा क्योंकि हमारी आंखें एकदम खुली है तो आंखें एकदम खुली होंगी तो उससे आपका मन भटकेगा, आंखें बंद होगी तो आप सो जाएंगे तो मन के भटकाव को रोकने के लिए हमें आंखें आधी खुली रखनी चाहिए आधी खुली आदि बंद, बस आपको यही करना होगा, उससे बहुत फर्क पड़ता है साथ ही आपके पास कोई पोस्टर है उस से भी मन कम भटकता हैं।
मैंने कई भक्तों को देखा है कि वह सुबह सुबह वॉकिंग करते हैं मॉर्निंग वॉक करते करते जप करते हैं, करते रहते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण वह चलते हुए नाम लेते रहते हैं जिनको हार्ट का प्रॉब्लम है और जो बूढ़े हो गए उनको चलने की एक्सरसाइज करनी पड़ती हैं। अरे वाह!जरूरी भी है, लेकिन हमें हम सबको बैठकर ही ध्यान लगाना चाहिए पहले के जमाने में जो योगी हुआ करते थे या हिमालय में जो योगी है यह जप कैसे करते हैं यह क्या हिमालय में चलते फिरते जप कर रहे हैं ध्यान लगाते हैं नहीं, वे बैठकर ध्यान लगाते हैं। आपकी पीठ सीधी होनी चाहिए। सीधा बैठकर जप करना चाहिए और चलते फिरते जप मत कीजिए अगर बैठे-बैठे आपके पैरों में दर्द हो रहा है तो थोड़ी देर के लिए खड़े हो जाइए उसे थोड़ा ट्रेस कर लीजिए और फिर जाकर बैठीए और जप कीजिए। जब हम पलकट मारते हैं तो इससे बहुत सारी पॉजिटिव एनर्जी अट्रैक्ट होती है इससे भी हमें मदद होती है कि हम ध्यान पूर्वक जप करें हमें अल्टी पलटी मार कर बैठना चाहिए और जप करना चाहिए, अगर आपको पैरों का प्रॉब्लम है तो आप कुर्सी पर बैठकर जप कर सकते हैं, लेकिन बैठकर जप करना आवश्यक है यह जो चलते-फिरते जप है इसको देखा, उसको देखा, यहां देखा, वहां देखा, ऐसा देखा, वैसा देखा,चींटी को देखा ,आसमान को देखा, बिल्डिंग को देखा ।
यह ठीक नहीं है इसलिए बैठकर जप करना चाहिए। जब आप सुखासन में बैठते हैं वह ठीक है और एक होता है पद्मासन। पद्मासन में बैठते हैं तब आप की रीड की हड्डी सिधी हो जाती हैं, उससे आपको नींद नहीं आती और जप करने में मदद मिलती है कुछ लोग पद्मासन नहीं लगा पाएंगे तो उनको कुर्सी पर बैठना चाहिए लेकिन अगर जब आप पद्मासन में बैठते हैं तो आपका ध्यान एकाग्र होता हैं। पद्मासन में नहीं बैठ सकते तो सुखासन में बैठीए और पीठ की रीड को सीधा रखें हिमालय में जो योगी बैठे होते है उनसे आप पूछिएं कि आप योगासन करते हो क्यों करते हो? तो वह कहेंगे हमें तो निराकार ब्रह्म में प्रवेश करना हैं। निराकार में प्रवेश करने वाले ईतनी मेहनत करनी पड़ती है और हमें तो कृष्ण प्रेम चाहिए तो चलते फिरते ,यहां वहां ,बातें करते करते, हरि बोल, हरे कृष्ण, हरि बोल ऐसी बातें करते करते यह तो ठीक नहीं है हमें जप करते वक्त बहुत ही गंभीर होना चाहिए हमें सुखासन या पद्मासन में बैठना चाहिए पेट की रेट रखनी चाहिए और आज मैं मेरे जीवन का बेहतरीन जप करूंगा और मेरे गुरुदेव को अर्पित करूंगा फिर गुरुदेव आगे महाप्रभु को अर्पित करेंगे आज के दिन मै अपने जीवन का सर्वोत्तम जप करूंगा ऐसा संकल्प करके फिर जाप बैग में हाथ डालना चाहिए। हमें अपनी चेतना को रप्रिपेयर करना चाहिए जप करने के पहले उतना ही आपका मन कम भटकता हैं। अगर आप बीना संकल्प से जप करना शुरू कर देंगे तो आपका मन भटकेगा। आप तैयार हो जाओ और फिर हमें जप करने की शुरुआत करनी चाहिए। अपनी चेतना को तैयार करिए कि मैं हरी नाम का स्वागत करूंगा। गुरुदेव! कृष्ण! आज मैं मेरे जीवन का सर्वोत्तम जप करूंगा और उसको आपको अर्पित करूंगा और फिर यह सोच कर के हमें सुबह जप में बैठना चाहिए।
हरे कृष्ण!
मैं यहां से ही विराम देता हुँ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
गुरु महाराज द्वारा,
21 फरवरी 2022
श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद आविर्भाव दिवस
गोरांगा
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम :।।*
*श्री-व्रश भानवी देवी-दयिताय कृपा बधये*
*कृष्णा-संबंध-विज्ञान:-दायिने प्रभवे: नमः*
यह भी एक प्रणाम मंत्र हैं।श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद का प्रणाम मंत्र।
आज एक महान दिन हैं या कृष्णभावना में एक से एक महान दिन आते रहते हैं,तो आज का दिन एक विशेष दिन हैं।श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जन्मोत्सव की जय।मतलब श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद की आज व्यास पूजा हैं। हमारे लिए यह व्यास पूजा दिन हैं।1874 में आज ही के दिन जगन्नाथपुरी में भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का जन्म हुआ था या वह प्रकट हुए थे। वह भक्ति विनोद ठाकुर के पुत्र के रूप में जन्मे थे और उनका जन्म का नाम बिमला प्रसाद हैं।श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने उनका नाम विमला प्रसाद रखा।उन्होंने यह अनुभव किया कि यह जगन्नाथ के प्रसाद के रूप में मुझे मिला हैं या जगन्नाथ की शक्ति का प्राकट्य करण हो रहा हैं। विमला नाम की जो शक्ति हैं उनके प्रसाद के रूप में यह मिला हैं।
Śakti-śaktimator abhedaḥ (ब्रह्मा सूत्र)
शक्ति और शक्तिमान में भेद नहीं हैं। इसलिए उनका नाम विमला प्रसाद रखा। आज मैं उनका जन्म चरित्र तो स्मरण नहीं करूंगा, आज मैं बल्कि यह बताना चाहूंगा कि इस साल इस्कान यह विशेष उत्सव किस प्रकार से मना रहा हैं। वैसे यह एक ऐतिहासिक घटना हैं। यह घटना आपने सुनी ही होगी।श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के साथ अभय बाबू का मिलन। जोकि भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के रूप में प्रसिद्ध हुए, उनका अपने गुरु के साथ सर्वप्रथम मिलन 1922 में हुआ और यह वर्ष कौन सा चल रहा हैं? 2022। आज से 100 साल पहले यह पहली मुलाकात हुई। दो विशेष आत्माओं के बीच में यह पहली मुलाकात आज से 100 साल पहले हुई। भक्ति वेदांत और भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का मिलन की बेला का उत्सव मनाया जा रहा हैं। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद की व्यास पूजा के दिन इस्कान इनके मिलन की 100 वीं वर्षगांठ मना रहा हैं। इन दोनों आचार्यों के प्रथम मिलन की 100 वीं वर्षगांठ। यह प्रथम मिलन कोलकाता में हुआ। तो कोलकाता में एक उल्टाडांगा रोड नाम का स्थान था, आज से 100 साल पहले। वहां पर भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने 1918 से रहना प्रारंभ किया। और भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का जो कोलकाता में हेड क्वार्टर था या कोलकाता में जो गोडिय मठ था वह इसी स्थान पर था। इसकी छत पर अभय बाबू श्रील प्रभुपाद से मिले और अभय बाबू प्रणाम करके बैठने ही जा रहे थे, अभी ठीक से बैठे भी नहीं थे। इतने में ही भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने कहा कि तुम… पाश्चात्य देश में जाकर भागवत धर्म का, गौरवाणी का..अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो।इस आदेश का पालन भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने किया।वह जीवन भर तैयारी कर रहे थे और 1966 में उन्होंने इस्कॉन की स्थापना न्यूयॉर्क में की।इस्कॉन की स्थापना की परिकल्पना के बीज यही उल्टाडांगा रोड की छत पर बोए गए थे। इस्कॉन ने बड़े ही प्रयास से और बड़ी मुश्किलों के साथ इस स्थान को अब ले लिया हैं। यहां श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद 14 साल तक रहे और यह उनका हेड क्वार्टर था। वह सब समय तो नहीं रहे लेकिन जब जब कोलकाता आते थे, तब यह उनका प्रचार केंद्र था। यहां गोडिय मठ था। बाद में रीलोकेट हुआ। तब से यह स्थान खाली ही पड़ा था, कोई भी इस स्थान पर ध्यान नहीं दे रहा था और इस स्थान का दुरुपयोग हो रहा था.. इत्यादि इत्यादि। इस्कान ने इसका कानूनी रूप से अधिकार लिया हुआ हैं। और इस को उस समय की असली तस्वीरें प्राप्त करके पुनः उसी रूप में बनाया हैं जैसे यह 100 साल पहले था। बड़े ही सावधानी से अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए इस स्थान का रिनोवेशन किया हैं। आप इसे देख ही सकते हैं।
इसका चेहरा ही बदल गया हैं, नहीं चेहरा बदल गया ऐसा तो नहीं कहेंगे, क्योंकि यह जैसा था वैसा ही बना दिया गया हैं। जैसा यह 100 साल पहले था, वैसा ही अब बना दिया गया हैं और आज के दिन इस स्थान का उद्घाटन हो रहा हैं। यह श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर और भक्तिवेदांत प्रभुपाद को समर्पित किया जा रहा हैं, डेडीकेट किया जा रहा हैं और संसार भर के भक्तों की सेवा में समर्पित किया जा रहा हैं।भक्त इस स्थान का दर्शन कर सकते हैं, इस स्थान से स्पूर्ति ले सकते हैं।
केवल अंग्रेजी भाषा में ही नहीं संसार की सभी भाषाओं में प्रचार कर सकते हैं। तो इस स्थान का आज उद्घाटन हो रहा हैं। इस्कॉन के एक मंदिर के रूप में भी इसका नामकरण हो रहा हैं। इस्कॉन उल्टाडांगा मंदिर की जय।आज मंदिर की ओपनिंग हैं। इस स्थान पर एक समय पर मंदिर था या श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का गोडिय मठ था।इसको इस्कान ने प्राप्त किया हैं और इसकी ओपनिंग आज कोलकाता में उल्टाडांगा रोड पर हो रही हैं। पूरे दिन वहां समारोह होगा और सायं काल को कथा भी हैं या इस ऐतिहासिक घटना का संस्मरण भी होगा।यह ऐतिहासिक स्थल हैं और श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का जो आदेश अभय बाबू को मिला था,यह भी ऐतिहासिक हैं। इसका पूरा संस्मरण दिलाया जा रहा हैं या उन आदेशों की स्थापना की जा रही हैं या उनको अमर बनाया जा रहा हैं।
उन उपदेशों को अमर किया जा रहा हैन और यह स्थान भी अमर रहे इसलिए इस स्थान का इस प्रकार से रिनोवेशन किया हैं, ताकि यह अमर रहे।इसे बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से से किया गया हैं, ताकि यह वास्तु बहुत समय के लिए या आने वाले 10000 वर्षों के लिए बना रहे। हालांकि आने वाले समय में भी इनको इसका रिनोवेशन करते रहना पड़ेगा, लेकिन यह प्रचार जैसे-जैसे इस पृथ्वी के हर ग्राम हर नगर में पहुंचेगा तो वहां के गोडिय वैष्णव भक्तों को यह स्थान उस प्रचार प्रसार के प्रारंभ का स्मरण दिलाएगा या यहां दिए हुए उपदेश के फलस्वरूप इस्कॉन की स्थापना हुई और इस्कॉन का प्रचार प्रसार बढ़ा,तो यह स्थान एक स्रोत हैं इस्कॉन का, यह स्थान इस्कॉन की नींव हैं या यहां पर इस्कॉन का बीजारोपण हुआ।इस स्थान पर भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को बीज मिला और उसी बीज का यह अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत वृक्ष बना और उस वृक्ष की शाखाएं अर्थात केंद्र विश्व भर में फैल रहे हैं और एक समय हर नगर हर ग्राम में इस वृक्ष की शाखा पहुंच जाएगी।
तो इस प्रचार प्रसार की शुरुआत जहां से हुई वह स्थान हैं यह एक उल्टाडांगा जंक्शन रोड कोलकाता। इसका आज उद्घाटन हो रहा हैं। वैसे उनके फंक्शन में मुझे आज शाम को भी बोलना हैं। यह बस ओपनिंग के लिए तैयार हैं। इसका एक छोटा सा वीडियो देखते हैं, आपको इसका दर्शन दिखाते हैं। वैसे इस्कॉन के हर फॉलोअर को चाहे वह कहीं का भी हो उसको अपने जीवन में एक बारी यहा जरूर आना चाहिए। मैं यह भी चाह रहा था कि इस उपलक्षय में आप में से कुछ भक्त अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करना चाहे तो करें। यह बहुत अच्छा अवसर हैं, अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करने का। मंदिर का उद्घाटन हैं और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद का आविर्भाव दिवस भी हैं और जो आदेश भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने अभय बाबू को दिए उसकी सो वी वर्षगांठ भी हैं। इस उपलक्ष्य में आप में से कुछ भक्त एक-एक मिनट में कुछ उद्गार कहिए। कोलकाता के इस प्रयास का अभिनंदन कीजिए या जो भी आपके मन में विचार आ रहे हो प्रकट कीजिए। पहले वीडियो देख लीजिए, उसके बाद जो बोलना चाहे वह अपने हाथ उठा सकते हैं। हरे कृष्णा।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*लाल गोविन्द प्रभु द्वारा*
*दिनांक 19 फरवरी 2022*
हरे कृष्ण!!!
*श्रीमद्भगवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते। तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्टंकृतं तच्छृण्वन् सुपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नर: ।।*
( श्रीमद् भागवतम १२.१३.१८)
अनुवाद:-
श्रीमद-भागवतम् निर्मल पुराण है। यह वैष्णवों को अत्यंत प्रिय है क्योंकि यह परमहंसों के शुद्ध और सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन करने वाला है। यह भागवत समस्त भौतिक कर्म से छूटने के साधन के साथ ही दिव्य ज्ञान, त्याग और भक्ति की विधियों को प्रकाशित करता है। जो कोई भी श्रीमद-भागवतम को गम्भीरतापूर्वक समझने का प्रयास करता है, जो समुचित ढंग से श्रवण करता है और भक्तिपूर्वक उसे कहता है, वह पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है।
हरे कृष्ण!!!
पुनः एक बार आप सभी भक्तों का स्वागत है। आप सभी भक्तों के चरणों में प्रणाम करते हुए परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराज जी के चरणों से आशीर्वाद मंगल कामना लेते हुए दूसरे सत्र की ओर हम सब आगे बढ़ते हैं।
जैसे कि श्रीरामचंद्र प्रभु ने कहा था कि आपको भागवत महिमा के ऊपर बोलना है। गत्र सत्र में हमनें श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध से भागवत प्राकट्य की कथा के द्वारा भागवत की महिमा का श्रवण किया था ।श्री श्रीमद्भागवत के प्राकट्य की बात जब सूत जी ने कही, तब नैमिषारण्य के ऋषि-मुनियों ने बहुत सुंदर प्रश्न पूछा जो समझने लायक है। नैमिषारण्य के शौनक आदि ऋषि कहते हैं कि एक बात हमें समझ में नहीं आती है कि शुकदेव गोस्वामी परम विरक्त थे। शुकदेव गोस्वामी को विरक्त चूड़ामणि कहा जाता है। मुनिनाम गुरू: , सबसे उत्तम, विरक्त थे। इतनी विरक्ति कि जब किसी बालक का जन्म होता है तब जन्म से उसे मां चाहिए होती है। हम सब का अनुभव है। जिस बालक का जन्म हुआ हो, उस बालक को और कुछ ना मिले, चलेगा, लेकिन उसे मां तो चाहिए। मां थोड़ी देर के लिए ही दूर होती है तो बालक रोने लगता है। शौनक आदि ऋषियों ने पूछा कि जो सूत गोस्वामी परम विरक्त थे, जिन्होंने जन्म लेते ही अपनी मां को छोड़ दिया, अपने बाबा को छोड़ दिया, अपना घर, समाज संसार सब कुछ छोड़कर वन में चले गए, ऐसे परम विरक्त चूड़ामणि ने श्रीव्यास मुनि के चरणों में बैठकर भागवत क्यों सुना?
श्री शुकदेव गोस्वामी ने भागवत सुना ही नहीं अपितु भागवत को पढ़ा, भागवत को लिखा, उस भागवत के श्लोकों के ऊपर बड़ा मंथन एवं मनन किया। इतना बड़ा विरक्त आदमी यह पढ़ने लिखने की फजीहत में क्यों फसा? जो सब कुछ छोड़ छाड़ कर निकल चुका था, उसे यह सब मगजमारी करने की क्या जरूरत थी। भागवत को पढ़ना, लिखना, स्मरण करना, मंथन करना आखिर क्यों? तब इसका उत्तर देते हुए सूत जी कहते हैं- यह बात सत्य है कि शुकदेव गोस्वामी परम विरक्त हैं लेकिन दूसरी ओर श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण के गुण, रूप, लीला की चर्चा की गई है। श्रीमद्भागवत में बताए हुए भगवान श्रीकृष्ण के गुण, रूप, लीला इतनी मधुर हैं, इतनी दिव्य है कि इस दुनिया का कोई भी आदमी श्रीमद्भागवत से आकृष्ट हुए बिना रह नहीं सकता।
सूत उवाच
*आत्मारामाश्र्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।*
( श्रीमद् भागवतम १.७.१०)
अर्थ:-
सूत गोस्वामी ने कहा: जो आत्मा में आनंद लेते हैं, ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर स्थापित हो चुके हैं, ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बंधनों से मुक्त हो चुके हैं। फिर भी भगवान की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ है कि भगवान में दिव्य गुण हैं, अतएव वे मुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकर्षित कर सकते हैं।
जो हरि हैं, यह जो कृष्ण हैं, उनके गुण ही कुछ ऐसे हैं, उनकी लीला ही कुछ ऐसी है कि दुनिया का कितना भी वैरागी आदमी क्यों ना हो, जब उन कृष्ण की लीला को सुनता है, पढ़ता है तो वह आकृष्ट हो ही जाता है। नहीं तो शुकदेव गोस्वामी … यह भी शुकदेव गोस्वामी की लीला थी। शुकदेव जी, आध्यात्म जगत के राधा रानी के निकटतम पार्षद हैं लेकिन शुकदेव गोस्वामी लीला के अनुसार जन्म से ब्रह्मवादी थे। ब्रह्मवादी अर्थात शुकदेव जी अपना घर बार सब छोड़कर वन में चले गए और ब्रह्मनंद में मगन हो गए। निराकार ब्रह्म में आसक्त हो गए। ब्रह्म समाधि का परम आनंद ले रहे थे लेकिन उस समय जब उनके कान में भागवतम के दो श्लोक पड़े
*बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रद्वास: कनककपिशं वैजयंती च मालाम् ।*
*रंध्रान्वेणोरधरसुधया पुरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति: ।।*
( श्रीमद् भागवतम १०.२१.५)
अनुवाद:-
अपने सिर पर मोर-पंख का आभूषण, अपने कानों पर नीले रंग के कर्णिकारा फूल, सोने के समान चमकीले पीले वस्त्र, और वैजयंती माला धारण किये हुए, भगवान कृष्ण ने सबसे महान नर्तक के रूप में अपने दिव्य रूप को प्रदर्शित करते हुए वृंदावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीक बना दिया। उन्होंने अपने होठों के अमृत से अपनी बांसुरी के छिद्रों को भर दिया और ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया।
कृष्ण के रूप का वर्णन शुकदेव गोस्वामी के कान में गया। एक श्लोक भगवान श्री कृष्ण के गुण का वर्णन
*अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी। लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥*
( श्रीमद भागवतं ३.२.२३)
अनुवाद:-
अहो, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा, जिन्होंने एक राक्षसी [पूतना] को माँ का स्थान दिया, हालाँकि वह विश्वासघाती थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक जहर तैयार किया था?
जो राक्षसी पूतना कृष्ण को जान से मारने के लिए आई थी, उस राक्षसी को कृष्ण ने अपनी मां बना लिया और धात्री की गति प्रदान कर दी।’कं वा दयालु’ इनसे बड़ा दयालु इस जगत में कौन हो सकता है। ऐसे सुंदर सुंदर भगवान श्री कृष्ण के गुण और रूप श्रीमद्भागवत में वर्णित है। इसीलिए शुकदेव जैसे परमानंद में स्थित व्यक्ति भी भागवत से आकृष्ट हो गए।
कहते हैं आत्मारामाश्र्च मुनयो। आत्माराम समझते हैं? जिसको बाहर से किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, जो अपने आप में ही संतुष्ट है, जो अपने आप में ही प्रसन्न हैं। खुश हैं। हमारा क्या है? हमें जब तक बाहर से कोई वस्तु ना मिले तब तक हम सुखी नहीं होते। हमें बाहर से कुछ भोजन चाहिए, कुछ ना कुछ बाहर से चाहिए लेकिन आत्माराम का अर्थ होता है जो अपनी आत्मा में ही संतुष्ट है। अपनी आत्मा में ही रमण करता है। ऐसे आत्माराम मुक्त काम जीव भी जब कृष्ण के बारे में सुनते हैं तो कृष्ण के पीछे पागल हो जाते हैं। ऐसा ही हुआ श्री शुकदेव गोस्वामी के साथ जो विरक्त थे लेकिन कृष्ण की रूप, गुण, लीला भागवत के इस वचन को सुनकर शुकदेव जी आसक्त हो गए। पुनः व्यास मुनि के पास आए और बहुत अच्छे से शुकदेव गोस्वामी ने इस भागवत को पढ़ा, सुना और आत्मसात किया। इसलिए बहुत सुंदर भागवत महात्मय के अंदर कहा जाता है।( आप श्लोक नीचे देख सकते हैं)
*स्वर्गे सत्ये च कैलासे वैकुण्ठे नास्त्ययं रसः। अतः पिबन्तु सद्भाग्या मा मा मुञ्चत कर्हिचित् ।*
यह भागवत महात्म्य का बड़ा दुर्लभ श्लोक है। इसीलिए कहते हैं कि भागवत का जो रस है, यह भागवत रस स्वर्ग में भी नहीं है। यह भागवत का रस ब्रह्मलोक में भी नहीं है। हमारी पृथ्वी पर, इस धरती पर, विशेष कर करके श्रील प्रभुपाद जी की कृपा से हमारे इस्कॉन में, हमारे पवित्र ब्रह्म गौड़ीय मतधारा में जिस प्रकार से शुद्ध विशुद्ध भागवत को समझा जा सकता है और समझाया जाता है, यह रस दुनिया में कहीं नहीं है। अरे! दुनिया छोड़ो, स्वर्ग में भी नहीं है। इसलिए भागवत के पंचम स्कंध में स्वर्ग के देवता भगवान से स्तुति करते हैं कि हे प्रभु, हम तो देवता बनकर घाटे में पड़ गए हैं। खाली फोकट हम देवता बने। वास्तव में यदि आप हम पर कृपा करो तो हमें दूसरा जन्म पृथ्वी पर चाहिए। हमें मनुष्य बनना है और मनुष्य बनकर आप की कथा सुननी है। हमें भागवत सुनना है। बहुत सुंदर यहां सूत जी कहते हैं स्वर्गे, सत्ये अर्थात ब्रह्मलोक में, च कैलासे अर्थात कैलाश लोक में, वैकुंठे अर्थात वैकुंठ में भी नास्त्ययं रसः यह जो मेरे सामने भागवत है ना, यह भागवत का रस ना स्वर्ग में है, ना सत्ये में हैं, ना कैलाश में है, ना बैकुंठ में है। भागवत का रस वैकुंठ में भी नहीं है। वैकुंठ भी घाटे में रह जाएगा। मुझे तत्कालीन कबीर जी की घटना याद आती है। एक बार क्या हुआ कि कबीर दास जी को लेने के लिए भगवान के पार्षद आए। शंख, चक्र, गदा,पदम्, पीतांबर धारण किए हुए भगवान के पार्षद कबीर दास जी के सामने आए और कहा- चलो, विमान में बैठो । हम आपको वैकुंठ ले जाने आए हैं।
कबीर दास जी रोने लगे। ऐसा वर्णन है कि कबीरदास रोने लगे। राम बुलावा, भेजिया, दिया कबीरा रोय…
कहते हैं कि राम बुलावा भेजिया,दिया कबीरा रोय। भगवान के पार्षदों को देखकर कबीर दास जी रोने लगे। भगवान के पार्षद कहते हैं कि कबीर दास जी आप रोए मत। हम आपको नरक में ले जाने के लिए नहीं आए अपितु हम आपको वैकुंठ ले जाने के लिए आए हैं। आपकी उर्ध्वगति हो रही है, आप वैकुंठ में जा रहे हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि इसलिए तो रोना आ रहा है। पार्षद बोले- क्यों? तब कबीरदास जी कहते हैं- राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय.. जो सुख है सत्संग में, सो वैकुंठ में न होय।
जो सुख है सत्संग में, सो वैकुंठ में न होय।
वैकुंठ में नहीं होय।
वह तो बैकुंठ में भी नहीं मिलेगा। इसलिए कबीर रोते हैं। इसीलिए इस श्लोक में यही कहा जा रहा है- यह भागवत का जो रस है, *स्वर्गै नास्ति, ब्रह्मलोके नास्ति, वैकुंठे नास्ति, कैलासे नास्ति*.. इसीलिए अतः पिबन्तु सद्भाग्या हे सद्भागियों! श्रील प्रभुपाद यहां अनुवाद करते हैं- ‘वेरी वेरी फार्च्यूनेट पर्सन’
हम लोग बहुत भाग्यशाली हैं क्योंकि जो रस स्वर्ग में नहीं है, सत्य में नहीं है, कैलाश व बैकुंठ में नहीं है, वो रस हमें प्रभुपाद जी की कृपा से प्रतिदिन रोज इस्कॉन संस्था में प्राप्त होता है। इसलिए हे भाग्यशालियों, हे सद्भाग्य! अतः पिबन्तु.. इस भागवत रस को पी लीजिए। हे भाग्यशालियों! इस रस को पी लीजिए।
*मा मा मुञ्चत कर्हिचित्।*
संस्कृत में मां मतलब नहीं। कर्हिचित् अर्थात कभी भी इस रस को मत छोड़िए। चाहे कुछ भी हो जाए, जीवन में सारे कार्य छोड़ने पड़े लेकिन भागवत रस को मत छोड़िए। इस प्रकार से श्रीमद्भागवत के रस की महिमा वर्णित होती है। आज हमनें श्रीमद्भागवत के बारहवें स्कंध का तेरवहें अध्याय का 18 नंबर श्लोक लिया है। इस श्लोक में सूतजी कहते हैं-
*श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं यस्मिन पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते। तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं तच्छृण्वन् सुपठन् विचारणपरो भक्तया विमुच्येन्नरः।।*
भागवत की बड़ी सुंदर महिमा है। यह भागवत कैसा है? ‘श्रीमद्भागवतं पुराणममलं’एक एक शब्द को थोड़ा सा समझने का प्रयास करें तो सबसे पहला शब्द है श्रीमद्भागवतं । मत अर्थात युक्त। यह भागवत कैसा है? श्री से युक्त। वेद व्यास मुनि ने असंख्य शास्त्र लिखे हैं लेकिन मैं आपको प्रश्न पूछूं कि उस व्यास मुनि के द्वारा लिखे हुए असंख्य शास्त्रों में यह श्रीमद् शब्द जो है इसे केवल दो ग्रंथ के आगे लगाया गया है। यह श्रीमद् शब्द व्यास मुनि के असंख्य ग्रंथ, असंख्य शास्त्रों में रचना में केवल दो ग्रंथों में श्रीमद् शब्द है। वे दो ग्रंथ हैं- श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवतं । देखिए! शिव पुराण केवल शिव पुराण है। उसे श्रीमद् शिव पुराण नहीं कहते या गरुड़ पुराण को श्रीमद् गरुड़ पुराण नहीं कहते। सब केवल पुराण हैं लेकिन दो ग्रंथ ऐसे हैं जिनके आगे श्रीमद् शब्द लगाया गया है और हमारा सौभाग्य श्रील प्रभुपाद जी ने ये दोनों ग्रंथ प्रतिदिन हमारे इस्कॉन मंदिरों में प्रतिस्थापित कर दिया। सुबह श्रीमद्भागवत और शाम को भगवत गीता। अच्छा इन दोनों ग्रंथों के आगे श्रीमद् शब्द क्यों लगाया गया?
श्रीमद् शब्द इसलिए क्योंकि इन सारे ग्रंथों में दो ग्रंथ ऐसे हैं जो श्री के मुख से निकले हैं। श्री मतलब भगवान के मुख से निकले हैं। बाकी सभी ग्रंथ ऋषि मुनियों के मुख से, साधु-संतों के मुख से निकले हैं। लेकिन यह दो ग्रंथ स्वयं भगवान् के मुख से निकले हैं।
*गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता।।*
हमें गौरव होना चाहिए। हमें प्राउड फील करना चाहिए कि हमने जिस ग्रंथ का आश्रय लिया है ना, इस ग्रन्थ के वक्ता डायरेक्ट भगवान कृष्ण हैं। यह भागवत कुछ और नहीं, यह भगवान का अधरामृत है। जैसे गोपी गीत में गोपियों ने मांग की है कि अपने अधरामृत का पान कराइए, वह अधरामृत और कुछ नहीं, श्रीमद्भागवत और गीता ही श्रीकृष्ण का का अधरामृत है। क्योंकि यह स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से प्रकट हुआ है। भगवत गीता के विषय में आप सब जानते ही हैं कि कुरुक्षेत्र के प्रांगण में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई थी। श्रीमद्भागवतं भी स्वयं सर्वप्रथम भगवान ने अपने मुख से प्रकट की। बहुत सारे आचार्यों ने श्रीमद्भागवतं के बहुत सारे अर्थ किए हैं। श्री अर्थात सौभाग्य, श्री अर्थात सुंदरता। श्रीमद्भागवतं को सुनने वाला व्यक्ति सौभाग्यशाली हो जाता है। सुंदर हो जाता है, कीर्तिमान/ यशोमान हो जाता है। अब थोड़ा आगे बढ़ते हैं। यह श्रीमद्भागवत कैसा है? पुराणतिलकं। पहले भागवत का अर्थ क्या है? यह भी समझ लीजिए। श्रीमद् का अर्थ समझा। भागवत में से भ के बाद मात्रा निकाल देंगे तो बचेगा भगवत। भगवत अर्थात भगवान। यदि उसमें मात्रा जोड़ देते हैं तब भागवत हो जाता है। भागवत अर्थात भगवान के या भगवान् का। जैसे हम कहते हैं वसुदेव। वसुदेव मतलब कृष्ण के पिता। वासुदेव अर्थात वसुदेव के पुत्र। ऐसे ही भगवत अर्थात भगवान्। भागवत अर्थात भगवान् का। भागवत अर्थात यह जो ग्रंथ है, यह भगवान का ग्रंथ है। इस ग्रंथ में भगवान के जितने भी भक्त हैं, उन भक्तों के चरित्रों का वर्णन है। ‘श्रीमद्भागवतं पुराणतिलकं’ यह भागवत कैसा है? सारे पुराणों का तिलक है। व्यासमुनि ने 18 पुराण लिखें। उन 18 पुराणों का मुकुट मणि सरताज यदि कोई है तो श्रीमद्भागवतं है। व्यास मुनि ने सारे ग्रंथ, सारे पुराण लिखंश और भागवत जब उन्होंने लिखा तो उन्होंने कलम छोड़ दी। आपकी जानकारी के लिए भागवतं लिखने के बाद श्रीलव्यास देव जी ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यह अल्टीमेट ग्रंथ है। इस ग्रंथ के बाद किसी ग्रंथ को लिखने की आवश्यकता ही नहीं रही। अंत में व्यास मुनि ने एक श्लोक धर दिया। यह समझना बड़ा जरूरी है। श्रील व्यास मुनि कहते हैं कि अब तक आप बहुत सारे वेद, पुराण पढ़ते थे। वह ठीक था लेकिन अब आपको किसी भी अन्य वेद पुराणों को पढ़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि अब भागवत प्रकट हो चुका है। अब जब भागवत प्रकट हो चुका है तो अन्य वेद पुराण मत पढ़िए। यदि पढ़ोगे तो स्वयं व्यास मुनि पदम पुराण में लिखते हैं भागवत को छोड़कर अन्य पुराण पढ़ोगे तो बुद्धि भ्रमित हो जाएगी। भक्तों हमें भी इसका अनुभव है। हमनें तो अभ्यास के लिए इन पुराणों को पढ़ा है। आप किसी भी पुराण को पढ़ेगें केवल संशय और भ्रम पैदा होगा। स्वयं व्यास मुनि इस बात का इजहार करते हैं किं अन्य पुराणों को पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि अब भागवत प्रकट हो चुकी है। भागवतं के प्रारंभ में वेदव्यास जी ने स्वीकार भी किया। वे कहते हैं
*धर्म: प्रोज्तकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम्। श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वर: सद्यो हृद्यवरुध्यतेअत्र कृतिभि: शुश्रूषुभिस्तत्त्क्षपणात्।।*
( श्र मदभागवत 1.1.2)
अनुवाद:-
भौतिक रूप से प्रेरित सभी धार्मिक गतिविधियों को पूरी तरह से खारिज करते हुए, यह भागवत पुराण उच्चतम सत्य को प्रतिपादित करता है, जो उन भक्तों द्वारा समझा जा सकता है जो पूरी तरह से शुद्ध हैं। सर्वोच्च सत्य सभी के कल्याण के लिए भ्रम से अलग वास्तविकता है। ऐसा सत्य त्रिगुणात्मक दुखों का नाश करता है। महान ऋषि व्यासदेव [उनकी परिपक्वता में] द्वारा संकलित यह सुंदर भागवतम, ईश्वर प्राप्ति के लिए अपने आप में पर्याप्त है। किसी और शास्त्र की क्या जरूरत? जैसे ही कोई ध्यान से और विनम्रता से भागवतम के संदेश को सुनता है, ज्ञान की इस संस्कृति के द्वारा सर्वोच्च भगवान उसके हृदय में स्थापित हो जाते हैं।
मैंने अब तक जितने भी ग्रंथ लिखे, उनमें कपट धर्म का वर्णन किया है लेकिन अब जो भागवत लिखने जा रहा हूं, उसमें कपट धर्म का वर्णन नहीं है। कैतव धर्म का वर्णन नहीं है। मैं आत्म धर्म का वर्णन करने जा रहा हूं। श्रीमद्भागवतं पुराणममलं। आगे क्या कहते हैं यद्वैष्णवानां प्रियं। यह भागवत समस्त वैष्णवों का धन है। भक्तों! हम सब वैष्णव हैं और हम सब वैष्णव का वास्तविक धन श्रीमद्भागवतं है। यदि भागवत ना हो तो हम सब कंगाल हैं। अब ज़्यादा क्या बताऊं? इसमें तो बहुत कुछ बोला जा सकता है लेकिन कुछ दिन के बाद महाशिवरात्रि का पर्व है। देवाधिदेव महादेव सजने वाले हैं। महाशिवरात्रि का पर्व हो और वैष्णव की चर्चा हो तो आप देख सकते हैं प्रथम लाइन में वैष्णव नाम धनं। दुनिया में लोग शिव जी का परिचय गांजा पीने वाले, भांग पीने वाले, धतूरा लेने वाले यह सब सांसारिक परिचय हैं लेकिन भागवती परिचय, शिवजी का परिचय क्या है?
*निम्नगानां यथा गंङ्गा देवानामच्युतो यथा। वैष्णवानां यथा शंभु: पुराणानामिदं तथा।।*
( श्रीमद् भागवतम १२.१३.१६)
अनुवाद:-
जिस तरह गंगा, समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान् अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान् शम्भु ( शिव) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं, उसी तरह श्रीमद्भागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है।
जैसे भारत में अनेकों नदियां हैं, उन सभी में नदियों में श्रेष्ठ गंगा है। 33 करोड़ देवी देवता हैं, उन सभी देवताओं में श्रेष्ठ विष्णु हैं। अठारह पुराणों की संख्या है लेकिन सभी पुराणों में श्रेष्ठ भागवत है। ठीक उसी प्रकार इस दुनिया में करोड़ों करोड़ों वैष्णव है उन सभी वैष्णव के सिरमोर श्री वैष्णवानां यथा शम्भुः। श्रीदेवाधिदेव महादेव सभी वैष्णवों में श्रेष्ठ अथवा सिरमोर है। यहां पर कहा गया है
*श्रीमद्भागवतं पुराणतिलकं यद्वैष्णवानां प्रियं*। यह भागवत वैष्णवों का धन है। सभी वैष्णव के शिरोमणि कौन है? देवाधिदेव महादेव। अब महादेव के जीवन में देख लीजिए। रामायण में लिखा है कि रात दिन शिवजी श्रीमद्भागवतं का आश्रय किए हैं। भक्तों! कल के इतिहास का मुझे तत्कालीन एक बिंदु याद आ रहा है कि हमारे दक्षिण भारत में बहुत सुंदर भक्त हुए। उस भक्त का नाम था पुनथानंद। आपने कभी सुना होगा, यह पुनथानंद दक्षिण भारतीय भक्त थे । यह राधा कृष्ण के भक्त हुए। पुनथानंद, भागवत को बहुत सुंदर गाते थे, बहुत सुंदर भागवत को पढ़ते थे। उनके साथ हमेशा भागवत होता था। वे जब भागवत का पाठ करते तो लोग झूमने लगते थे। विचरण करते करते वे उत्तर केरल कोटियूर में पहुंचे। केरल में एक स्थान कोटियूर है। वहां पर शिव जी का बहुत सुंदर मंदिर है। वह मंदिर साल में एक या दो महीने के लिए ही खुलता है। फिर साल भर वह मंदिर बंद रहता है। यह विचरण करते करते केरल में कोटियूर में पहुंचे। उन दिनों में यह शिव जी का मंदिर खुला था। ये उस मंदिर में पहुंचे और हाथ में भागवत थी। भागवत पढ़ने लगे, वहां पर जो लोकल भक्त थे, वे कहने लगे यह तो बहुत अच्छा भागवत पढ़ते हैं। उन्होंने कहा- पुनथानंद जी, आप जब तक यहां पर हो। तब तक आप यहां भागवत पढ़िए, अब पुनथानंद जी भागवत पढ़ने लगे। भक्तों! भागवत पढ़ते-पढ़ते वे भागवत के दशम स्कंध में पहुंचे। दशम स्कंध में एक लीला है- द्वारिका लीला में भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ एक दिन कमरे में बैठे हैं और कृष्ण रुक्मिणी से थोड़ा सा प्रेम कलह करते हैं। रुक्मिणी बेड पर बैठी हैं। कृष्ण बेड से खड़े होकर थोड़ा आगे चलने लगे। कृष्ण कहते हैं कि रुक्मिणी मुझे ऐसा लगता है कि तुमने बहुत बड़ी गलती कर दी है। तब रुक्मिणी बेड से खड़ी हो जाती है, बोलती है कि आपको ऐसा क्यों लगता है? कृष्ण ने कहा कि रुक्मिणी तुमने मुझे पत्र लिखा। पत्र लिखने से पहले कुछ सोचा भी नहीं। तुमने मेरे साथ विवाह किया, मेरे में ऐसा क्या है, तुम सोचती हो कि मैं बहुत सुंदर हूं पर मैं तो काले रंग का हूं। कोई गोरे चिट्टे रंग के लड़कें के साथ शादी करती। एक काले के साथ शादी कर ली। तुमने ऐसा सोचा कि मेरा बैकग्राउंड बड़ा अच्छा है, तुम कम से कम मेरा बैकग्राउंड तो चेक करती। मैंने चोरी के अलावा कुछ नहीं किया, बचपन में माखन की चोरी की, बड़ा हुआ तो गोपियों का चीर चुराया, मेरा तो बैकग्राउंड भी कोई ठीक नहीं है। मेरा रूप भी काला है, तुम अगर ऐसा सोचती हो कि मेरा फ्रेंड सर्कल अच्छा होगा। यह रुक्मिणी सुन रही है, कृष्ण धीरे-धीरे आगे चलते हुए कह रहे हैं-“तुम सोचती हो, मेरा फ्रेंड सर्कल बहुत अच्छा होगा। फिर हम पार्टी करेंगे, इंजॉय करेंगे, मेरा फ्रेंड भी घूम फिर कर पोरबंदर का सुदामा है, वो भी भिखारी कंगाल आदमी है। ना तो मेरा फ्रेंड सर्कल ठीक है और मेरा रूप भी काला है, मेरा बैकग्राउंड नहीं है। रुक्मिणी अब शादी की है तो कल बच्चे भी होंगे। जब बच्चे बड़े होंगे तो मामा के घर पर जाना चाहेंगे। मामा अच्छे लगते हैं ना! हमारे बच्चों को मामा से कुछ लेना-देना ही नहीं क्योंकि मेरी तेरे भाई रुक्मी के साथ दुश्मनी है। इसलिए बच्चे बेचारे मामा के घर पर भी नहीं जा पाएंगे। उससे अच्छा है रुक्मिणी एक काम करो। अभी भी ज्यादा समय नहीं हुआ है, मैं तुम्हें वापस कौंडिन्यपुर छोड़ आता हूं। जब इस प्रकार कृष्ण ने कहा- पीछे धड़ाम करके आवाज आई। कृष्ण मुड़कर देखते हैं कि रुक्मिणी पीछे मूर्छित होकर गिर गई है। कृष्ण दौड़ कर गए, रुक्मिणी के ऊपर जल छिड़का और रुक्मिणी को कहा- अरे! रुक्मिणी! मैं तो मजाक कर रहा था। जैसे तैसे रुक्मिणी को होश आया और कहा कि आज के बाद ऐसा मजाक मत करना। तब कृष्ण ने कहा-‘हे रुक्मिणी! गृहस्थ जीवन के दो तो आनंद है।’ यह भागवत के वचन बोल रहा हूं।’ एक तो छोटे-छोटे बच्चों की तोतली बोली सुनना।’ चाचा, मामा, पापा बच्चे बोलते हैं ना। दूसरा है- ‘रूठी हुई पत्नी को मनाना।’ गृहस्थों का यही तो आनंद है। मैं कुछ आनंद करने जा रहा था, तुम तो मूर्छित होकर ही गिर गई। इस प्रकार भागवत की कथा पुनथानंद उस केरल के कोटियूर शिव जी के मंदिर में सुना रहे थे। जब उन्होंने इस अध्याय को पूर्ण किया।
उन्होंने कहा- आज का दिन समाप्त हुआ। तब वहां के पंडितों ने कहा कि “एक काम करो, भागवत यहीं पर रख दो। कल तुम्हें यहीं पर आना है। यहां पर एक बुकमार्क रख दो। कल आकर यहां से आगे 61वें अध्याय से शुरू कर देना। पुनथानंद ने कहा- ठीक है। भागवत रख दी और घर पर गए, अब दूसरे दिन सुबह आए, सारे श्रोता बैठे हैं। वह जो बुकमार्क था- जो हमनें रुक्मिणी की कथा सुनी थी, वह पूर्ण हो चुकी थी लेकिन वह बुकमार्क किसी ने आगे कर दिया था। पुनथानंद समझ नहीं पाए कि मैंने तो यह अंत में रखा था। आगे बुकमार्क कैसे आ गया। सोचा कि चलो जो भी है, जहां बुकमार्क है, वहीं से शुरू करते हैं, ऑल गोइंग फॉर मेकअप कर लिया फिर से यह रुक्मिणी की कथा शुरू हुई। किस प्रकार से रुक्मिणी रूठी और कृष्ण ने जाकर मनाया। तत्पश्चात पूरा दिन समाप्त हो गया। कथा समाप्त हुई, बुकमार्क रखा, बंद करके घर पर गए। अगले दिन आए तो फिर से बुकमार्क आगे आ गया था, एक महीने तक निरन्तर यह चलता रहा। कोटियूर के उस शिवजी के मंदिर में एक महीने तक एक ही कथा होती रही अर्थात एक ही अध्याय की कथा चली। अब मंदिर बंद होने वाला था। मंदिर का लास्ट दिन था। अब मंदिर एक साल के बाद खुलेगा। सब लोग ने तैयारी कर दी। साफ सफाई कर दी। मंदिर बंद कर दिया, सब लोग बाहर निकले। पुनथानंद बाहर निकला, नदी पार करके उस पार पहुंचा। तब पता चला- अरे बाप रे! एक महीने तक मैं भागवत साथ नहीं लेता था क्योंकि दूसरे दिन मुझे मंदिर में जाना होता था लेकिन कल तो मंदिर जाना नहीं है। एक साल के बाद मंदिर खुलेगा, मेरा भागवत मंदिर में छूट गया। पुनथानंद ने नदी पार की और दौड़कर मंदिर में आया, देखा तो मंदिर बंद। अध्यक्ष के पास गए, मैनेजमेंट के पास गए, टेंपल कमांडर सबको एकत्रित किया कि मेरा भागवत अंदर है। सब ने बोला- मंदिर नहीं खुलेगा। पुनथानंद ने कहा- एक महीने हमने सेवा की है तो इतना तो कर दो, भागवत तो हमें बाहर दे दो।
मेरा जीवन यद्वैष्णवानां प्रियं। हमारा धन ही तो भागवत है, हमें भागवत वापस कर दो। यह सब लोग जब मंदिर खोलने गए तब अंदर देखा कि कुछ आवाज आ रही है। टेंपल कमांडर, अध्यक्ष सबने देखा कि कुछ आवाज आ रही है। जहां की होल होता है ना अर्थात जहां चाबी डाल कर खोलना होता है। वहां छोटा सा जो छिद्र होता है। उन लोगों ने देखा अद्भुत दृश्य।( मैं किस बिंदु पर बोल रहा हूं।) *यद्वैष्णवानां प्रियं धनं* वैष्णवों का धन भागवत है। उस छिद्र से क्या देखा? देवाधिदेव महादेव शिव जी प्रकट हो चके हैं, शिवजी के बाजू में पार्वती बैठी हैं। उनकी गोद में गणेश जी बैठे हैं, उनके बगल में कार्तिकेय बैठे हैं व सारे शिव जी के गण बैठे हैं और शिव जी भगवतकथा बोल रहे हैं। एक महीने तक तो पुनथानंद ने कथा सुनाई। महीने के बाद जब भागवत सुननी थी तो सुनाने वाला कोई नहीं तो शिवजी बैठ गए। शिवजी कथा सुनाने लगे। ( यह लोग देख रहे हैं।) कथा समाप्त हुई। शिव जी ने कहा- श्रीमद्भागवत पुराण की जय!
बताओ! पार्वती, आपको कैसा लगा? तब पार्वती कहती हैं- पतिदेव! वैसे तो ठीक है। कथा बहुत अच्छी लगी लेकिन पुनथानंद ने जैसी कथा कही, ऐसा आपने जमाया नहीं।
शिव जी ने कहा- ऐसे कैसे? मैं तो वैष्णवानां यथा शम्भुः। मैं तो वैष्णवों में भी शिरोमणि हूं। पार्वती ने कहा- गणेश से पूछ लो। मेरी गोद में बैठा है (मेजॉरिटी वोटिंग होता है ना, जब इस प्रकार से संशय होता है) बच्चे भी मां के पक्ष में ही होते हैं। ध्यान रखना, अपने घर में वालों में जब मां-बाप का युद्ध होता है ना, बच्चे मां के साथ चले जाते हैं।
गणेश जी ने कहा- पापा! पापा! मम्मी बराबर कह रही है। यह कथा जो एक महीने से पुनथानंद सुना रहा था, ऐसी कथा आप नहीं सुना रहे हैं। कार्तिकेय से पूछा, शिव गणों ने भी कहा- नहीं महाराज! बात तो सही है। कल तक जो उसने सुनाया, बड़ा आनंद आ रहा था। आप सुना रहे हैं लेकिन ठीक-ठाक हो रहा है। फिर तो बहुत सुंदर प्रसंग है, सारे भक्तों की आंखों से आंसू आ गए। वहां पर साबित हुआ कि शिव जी का प्राण धन श्रीमद् भागवतम है। शिवजी निरंतर श्रीमद्भागवत सुनते हैं। वह जो बुकमार्क का चक्कर था ना- शिवजी को भागवत का यह प्रसंग बहुत पसंद था। इसलिए शिवजी पुनथानंद जी जब कथा समाप्त करके बुकमार्क रखते थे तो रात को शिवजी उठाकर उसे आगे रख देते थे ताकि एक ही कथा को वो एक महीने तक सुन सके।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत पुराण तिलकं यद्वैष्णवानां धन। मैं 2 मिनट में यह श्लोक पूर्ण कर दूं।
*यस्मिन पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते।*
श्रीमद्भागवतं में बड़े-बड़े परमहंस… । (आप परमहंस जानते हैं? परमहंस उसे कहते हैं जो सत् और असत् का भेद जानता है। सत् क्या है? असत् क्या है? उस में अंतर क्या है? उसका भेद जानते हैं। उसे परमहंस कहते हैं।)बड़े-बड़े परमहंसों के लिए जो ग्रहणीय ज्ञान होता है। वह ज्ञान श्रीमद्भागवतं में वर्णन किया गया है। इतना ही नहीं तत्र ज्ञान विराग भक्तिसहितं.. इस भागवत में ज्ञान, वैराग्य और भक्ति है। यह भागवत जब हम सुनते हैं तो भक्ति, ज्ञान, वैराग्य नाचने लगते हैं और यह प्रसंग भागवत महात्म्य में है कि किस प्रकार से भक्ति महारानी बूढ़ी हो गई। ज्ञान वैराग्य रुद्ध हो गए थे और कोई उपाय नहीं बचे। सारे वेद का पाठ किया फिर भी कुछ नहीं हुआ। तब नारद मुनि ने आयोजन किया, सनकादि ने कथा कही और भागवत के द्वारा भक्ति, ज्ञान, वैराग्य तृप्त हुए और बिल्कुल जवान हो गए। हम और आप यदि भागवत पढ़ेंगे, सुनेंगे तब हमारे जीवन में भक्ति, ज्ञान, वैराग्य बढ़ जाएगा।।
‘नैष्कर्म्यमाविष्कृतं’ श्रीमद्भागवत को पढ़ने से धीरे धीरे सारी कामना/ वासना दूर हो जाएगी। हम साधक भक्तों के लिए चौथी लाइन बड़ी महत्वपूर्ण है। हम लोग एक पॉइंट में बहुत मार खाते हैं। वो है कि श्रीमद्भागवत को कैसे स्वीकार करना है। कहते हैं कि
*तच्छृण्वन्* भागवत को सुनना है।
सबसे पहले सुनना है। कई बार कुछ लोग होते हैं ना, भागवत को सुनते हैं और नोट्स बनाते हैं। नहीं!
देखिए जब भागवत बोलने वाला बोलता है, वह शब्द सीधा दिल में आ रहा है। जो शब्द दिल में जा रहा है उसे पेपर पर मत लो। पेपर में लोगे तो पेपर में ही रह जाएगा, सबसे पहले सुनो, ध्यान पूर्वक सुनो। सब कुछ छोड़छाड़ कर उस रस का आस्वादन करो। जब तक हम रस नहीं पिएंगे तो हम दूसरों को नहीं पिला पाएंगे। इसलिए बहुत अच्छे से ‘श्रृण्वन’ सुनो। अच्छे से भागवत को सुनो, तत्पश्चात सुपठन अर्थात पढ़ो। अब लिखने की बात आ रही है, एक बार सुन लिया। अब तो माया देवी की कृपा है। ये रिकॉर्डिंग का जमाना है। एक बार अच्छे से सुन लिया। तब नोट बनाए, फिर लिखे पढ़े, वह सेकंड टाइम में होता है। पहले टाइम तो केवल सुनो, आनंद से सुनो। सुनना है आनंद लेना है। तच्छृण्वन् सुपठन। केवल पठन् नहीं लिखा है। चौथी लाइन में देख सकते हैं सुपठन लिखा है, बहुत अच्छे से भागवत को पढ़ना चाहिए। स्कूल में जैसे सब्जेक्ट पढ़ते हैं। जैसे हमारे जीवन में, मैं तो ऐसे ही करता हूं। हमारी दैनिक जीवन में एक श्रवण का सब्जेक्ट होना चाहिए, केवल सुनेंगे। दूसरा कुछ एक डेढ़ घंटा सुपठन अर्थात केवल पढ़ेंगे। पढ़ने का टाइम अलग होता है, सुनने का अलग होता है। हम जहां मार खाते हैं ना, वह तीसरे पॉइंट पर है। हम लोग भागवत सुन भी लेते हैं। इनमें से जो प्रचारक हैं जो प्रचार करते हैं वे भागवत को पढ़ भी लेते हैं लेकिन मार कहां खाते हैं। विचारणपरो। हम इस पर विचार नहीं करते हैं। हमने सुना पढ़ा। नोट्स बनाएं और फिर प्रचार। सुना, पढ़ा और प्रचार। हमारा यह चल रहा है लेकिन उसके बीच हम लोग एक चीज मिस कर रहे हैं। वह जो मिस कर रहे हैं, वह है विचारणपरो। विचार, हम जो भागवत सुनते हैं, पढ़ते हैं, उस पर विचार होना चाहिए। उस पर मन में मंथन होना चाहिए। जितना हम विचार करेंगे ना, भक्तों ! वह सब्जेक्ट उतना ही क्लियर होगा। उतना रस और आनंद आप स्वयं को आएगा। उतना ही रस और आनंद हम दूसरों को दे सकते हैं। हमारे षड् गोस्वामीगण यही करते थे, विचार करते थे। हम लोग खासकर मैं मेरे जैसों की बात कर रहा हूं। सुनते हैं, पढ़ते हैं और सीधा बोल देते हैं लेकिन उस बीच में विचार। इसे रसास्वादन कहते हैं।
श्रीमद्भागवत का स्वयं रसास्वादन करना है। भागवत का आस्वादन करना है। यदि भक्त लोग ऐसा करेंगे तो अंतिम शब्द है विमुच्येन्नरः अर्थात विशेष रूप से मुच्यत। विशेष रूप से मुच्यत का अर्थ होता है कि हमारा जो स्वरूप है, हम अपने स्वरूप में आ जाएंगे।
*मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितः।*
( श्रीमद्भागवतं २.१०.६)
अनुवाद:-
परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति मुक्ति है।
हम अपने स्वरूप में स्थित हो जाएंगे अर्थात भगवान के साथ संबंध जुड़ जाएगा और उस संबंध के अनुसार हमारा स्वरूप प्रकट हो जाएगा। उस सेवा में लग जाएंगे। भगवत प्रेम और भगवत धाम प्राप्त हो जाएगा। यह संक्षिप्त में श्रीमद् भागवत जी की महिमा है। जितना भी हमारे पास समय था, सामर्थ्यता थी। हमने आप सबके बीच में प्रस्तुत किया। आप सभी भक्त/ बड़े साधक भक्त साधना करके तुरंत हम जो भी सुनते हैं, वह बड़े अच्छे से समझ में आता है और याद भी रह जाता है। आप सब प्रतिदिन इस प्रकार से भागवत सुनते हैं, आप सब बड़े सौभाग्यशाली हैं। मैं विशेष धन्यवाद करूंगा जो इस कार्यक्रम को चलाते हैं। सारे ऑर्गेनाइजर को और साथ ही साथ परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराजश्री को। महाराज श्री की हम पर बड़ी कृपा है। वास्तव में परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराज ने हमें भागवत सेवा में लगाए रखा है। वह हमें अनेकों जगह पर भेजते हैं, आप यहां कथा कीजिए। यहां कथा कीजिए। जीवन में कभी उत्साह कम होता है, तब महाराज श्री से मिलते हैं। महाराज जी के चंद वचन हमें उत्साह से भर देते हैं। एक दिन मैं महाराज जी से मिला और मैंने कहा, महाराज जी! आप इतना ट्रेवल कर रहे हैं, इतना घूम रहे हैं। इतना कोई नहीं करता। आप रेस्ट कीजिए। अब हम लोग थोड़ा तैयार हो गए हैं, अब हम लोग प्रीचिंग करेंगे। आप आराम कीजिए, तब महाराज जी ने इतना ही कहा- ध्यान से सुनियेगा। आराम तो अब गोलोक वृंदावन जाने के बाद ही होगा। इस जीवन में आराम नहीं होगा। ऐसे ऐसे शब्द जो है ना। इससे उत्साह बढ़ता है, पावर बढ़ता है। गुरु महाराज की कृपा बनी रहे और इसी प्रकार हरि नाम और भागवत के आश्रय में बने रहे। ऐसे प्रभुपाद और भगवान के चरणों में कामना करते हुए यहीं पर वाणी को विराम देता हूं।
ग्रंथराज श्रीमद्भागवतं महापुराण की जय! जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद की जय!
परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराज की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*16 -02 -2022*
*श्रील नरोत्तम दास ठाकुर आविर्भाव दिवस*
*श्रीमान अनन्तशेष प्रभु द्वारा*
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हरे कृष्ण ! गुरु महाराज एवं समस्त भक्तों के चरणों में सादर प्रणाम है।
आज अत्यंत पावन तिथि माघ पूर्णिमा जो कि श्री कृष्ण मधुर उत्सव के नाम से भी जाना जाता है। जिस तरह भगवान श्रीकृष्ण शरद पूर्णिमा के समय महारास करते हैं उसी प्रकार यह माघ मास में वसंत ऋतु के अंतर्गत जो पूर्णिमा आती है इस पूर्णिमा को भी भगवान श्रीकृष्ण विशेष रूप से रास करते हैं। वैसे तो हर पूर्णिमा पर रास करते हैं किंतु यह माघ पूर्णिमा विशेष है जिस प्रकार शरद पूर्णिमा का उत्सव विशेष रूप से वृंदावन आदि स्थानों पर मनाया जाता है। वैसे ही बंगाल में यह माघ पूर्णिमा है इसे विशेष रूप से मनाते हैं। इस विशेष तिथि पर ब्रम्ह मध्व गौड़िय सम्प्रदाय के एक विशेष आचार्य श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का आज आविर्भाव दिवस है। श्रील प्रभुपाद नरोत्तम दास ठाकुर के विषय में विशेष रूप से कहते हैं उनके भजन अत्यंत प्रसिद्ध एवं प्रचलित हैं। प्रतिदिन प्रातः काल जब हम श्री गुरु की वंदना करते हैं *श्री गुरु चरण पद्मा केवल भक्ति सदम* यह जो भजन है यह श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की रचना है जो कि प्रेम भक्ति चंद्रिका के अंतर्गत आता है और जैसा कि हमने गुरु महाराज के मुख से भी श्रवण किया जब श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज से पूछा गया कि किस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम प्राप्त हो सकता है तब उन्होंने कहा था कि दो आने में भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम प्राप्त किया जा सकता है। किस प्रकार से? उन्होंने बताया, उस समय जाकर बाजार में दो आने में “प्रेम भक्ति चंद्रिका” तथा प्रार्थना इन दो ग्रंथों को लेकर यदि आप सदैव अपने साथ में रखकर इसको श्रवण करें, इसका पठन करें, इसका मनन चिंतन करें तो निश्चित रूप से आपके प्रेम भाव में वृद्धि होती है। श्रील गौर किशोर दास बाबाजी महाराज की एकमात्र संपत्ति इसे कहा जाता है। एक उनकी अपनी निजी जपमाला थी और साथ में प्रेम भक्ति चंद्रिका और प्रार्थना यह दो पुस्तक, जो उनकी निजी संपत्ति थी। यदि श्रील प्रभुपाद के शब्दों में कहा जाए वो कहते थे *श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के वचन वह वास्तव में वैदिक ग्रंथों का निष्कर्ष है या उसका विस्तार है उसी को प्रकाशित करते हैं*। वेदों, उपनिषदों और पुराणों को पढ़ना जितना विशेष है हमको ज्ञान प्रदान करता है तत्व भाव प्रदान करता है, वैसे ही भाव और तत्व श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के वचनों के द्वारा प्राप्त होता है। आज उनका आविर्भाव है। अतः कई भिन्न-भिन्न विचार मन में आ रहे थे श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के विषय में बहुत ही विस्तृत रूप से लिखा गया। “प्रेम विलास” नामक ग्रंथ है जिसमें संपूर्ण श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की जीवनी को वर्णित किया गया है और उनकी वंदना करते हुए 8 श्लोक भी लिखे गए हैं जिसको नरोत्तम प्रबोध अष्टकम कहा गया है। जिसके अंतर्गत कहा जाता है।
*श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर श्रीकृष्ण नमामृता वर्षी- वक्त्र चंद्र प्रभा ध्वस्त तमो भराया गौरंगा देवनुचार्य तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाया।।* (श्रील नरोत्तम प्रभोर अष्टकं)
इसके अंतर्गत वो कहते हैं श्रीकृष्ण नमामृता वर्षी- वक्त्र, जिनके मुख चंद्र से सदैव श्रीकृष्ण नाम अमृत की वर्षा होती है कैसी वर्षा है चंद्र प्रभा ध्वस्त तमो भराया, जिस प्रकार से अंधकार का नाश होता है वैसे ही जीव के अज्ञान, अंधकार का नाश होता है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के मुख से कीर्तन के द्वारा, इस गौड़िए वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत जो कीर्तन शैली विशेष रुप से भक्त जानते होंगे मृदंग कीर्तन करताल का जो संकीर्तन करते हैं ,यह भिन्न भिन्न प्रकार की शैली होती है। उसमें सबसे प्रमुख जो शैली है उसे नरोत्तम दास ठाकुर के द्वारा स्थापित किया गया है। *गौरंगा देवनुचार्य तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाया* श्रील चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख परीकरों , एक बार मुझे पढ़ने में आया था कि प्रमुख आचार्य रूप सनातन जब इस धरातल से अप्रकट हुए तब श्रील जीव गोस्वामी भी रहे और श्रील जीव गोस्वामी के निर्देशन में प्रमुख आचार्यो ने जो शिक्षा प्राप्त की और इस गौड़िय संप्रदाय को पुनः जो आगे बढ़ाया है वह प्रमुख रूप से तीन आचार्य हैं श्रील नरोत्तम दास ठाकुर, श्रील श्रीनिवास आचार्य और श्रील श्यामा नंद पंडित। मैंने कहीं पढ़ा था अभी मुझे स्मरण नहीं हो रहा, यदि आप में से किसी भक्त को स्मरण हो तो अंत में स्मरण करा सकते हैं। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर श्रीनिवासाचार्य और श्यामानंद पंडित और कोई नहीं, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीनित्यानंद प्रभु और श्रीअद्वैत आचार्य की शक्ति का प्रकाश कहा जाता है और उनके विषय में आगे कहा जाता है।
*संकीर्तनानन्दजा मंदा हस्या दंता द्युति द्युतिता दिङ्मुखय सवेदश्रु धारा स्नापित्या तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाया*
श्रीकृष्ण संकीर्तन के आनंद में सदा मंद मंद स्तिथ हास्य उनके मुख मंडल पर रहता है और प्रेम विकार से विशेष रूप से अश्रु कंपा श्वेत आदि से स्वत जिनका अंग विभूषित होता है वह है श्रील नरोत्तम दास ठाकुर और उनके संकीर्तन के विषय में आगे कहा जा रहा है।
*मृदंगा नादा श्रुति मात्र चान चाट पदाम्बुजा मंदा मनोहराया सदः समुद्यत पुलकाय तस्मै नमो नमः श्रील नरोत्तमाया*
जिनके चरण अत्यंत चंचलता से युक्त हो जाते हैं मतलब मृदंग वाद्य को सुनकर जिनके चरण नृत्य करने के लिए प्रबुद्ध हो जाते हैं और जिनका संकीर्तन और नृत्य समस्त जीवों के मन को आकर्षित कर लेता है। ऐसे श्रील नरोत्तम दास ठाकुर को हम बारंबार प्रणाम करते हैं। वैसे इन 8 श्लोकों में बहुत सुंदर तरह से नरोत्तम दास ठाकुर के भावों को बताया गया है यह जो नरोत्तम दास ठाकुर हमें आचार्यों का आविर्भाव और तिरोभाव दिवस मनाते हैं विशेष रुप से जिस तरह से वृंदावन दास ठाकुर के शब्दों में कहा जाए, भगवान श्रीकृष्ण के आविर्भाव तिथि का या प्राकृटय दिवस का जैसे महत्व है वैसे ही आचार्यों के आविर्भाव एवं तिरोभाव भी महत्व रखते हैं क्योंकि उस दिन आचार्यों की विशेष कृपा हम प्राप्त कर सकते हैं और कैसे प्राप्त की जाती है? जब इन आचार्यों की तिथियों पर हम श्रवण करते हैं जिस तरह से श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं।
*उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् ।सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति ॥*
(उपदेशामृत ३) ॥
अनुवाद- भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्-कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
भक्ति में आप बहुत अधिक अपने जीवन में प्रगति कर सकते हैं तो सत्तो वृत्ति के विषय में एक भक्त ने बतलाया की पूर्ववर्ती आचार्य जो हैं इनके जीवन या इनके चरित्र का श्रवण किया जाए, चिंतन मनन किया जाए और भाव यह हो कि हम इसे कैसे जीवन में आत्मसात कर सकें, वास्तव में इस प्रकार से, उस तिथि में जिस प्रकार से कहा जाता है वी बिकम कृष्ण कॉन्शसनेस ऑन जन्माष्टमी, वी बिकम प्रभुपाद कॉन्शसनेस ऑन श्रील प्रभुपाद व्यास पूजा, वी बिकम गुरुदेव कॉन्शियस ऑन गुरुदेव व्यास पूजा। कृष्ण जन्माष्टमी पर कृष्ण भावना बहुत अधिक रहती है श्रील प्रभुपाद की व्यास पूजा में प्रभुपाद कॉन्शसनेस की भावना होती है और गुरुदेव की व्यास पूजा में गुरु की भावना होती है। ऐसे ही जब आचार्यों की तिथि होती है कम से कम उस तिथि में तो आचार्यों की भावना को आत्मसात करना अत्यंत आवश्यक है, और यदि पद्मपुराण के शब्दों के अनुसार कहा जाए तो आचार्यों की जीवनी को जब बहुत अधिक समय तक चिंतन मनन किया जाता है और जब आपके हृदय में आचार्यों के प्रति आत्मीयता आने लगती है और जब हृदय से आचार्य से प्रार्थना की जाती है तब बताया जाता है कि इन आचार्यों के जो विशेष दिव्य गुण हैं उसका अंश मात्र भी आपके जीवन में स्वत: प्रकाशित हो जाता है आप लोग सुनते भी होंगे
*यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः ॥१२॥*
अनुवाद -जो व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव के प्रति शुद्ध भक्ति उत्पन्न कर लेता है उसके शरीर में सभी देवता तथा उनके महान् गुण यथा धर्म, ज्ञान तथा त्याग प्रकट होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति भक्ति से रहित है और भौतिक कर्मों में व्यस्त रहता है उसमें कोई सद्गुण नहीं आते। भले ही कोई व्यक्ति योगाभ्यास में दक्ष क्यों न हो और अपने परिवार और सम्बन्धियों का भलीभाँति भरण-पोषण करता हो वह अपनी मनोकल्पना द्वारा भगवान् की बहिरंगा-शक्ति की सेवा में तत्पर होता है। भला ऐसे पुरुष में सद्गुण कैसे आ सकते हैं?
उसके भाव में एक भक्त बतला रहे थे कि जिनके अंदर दैवी गुण हैं उनको यदि हम हृदय में आत्मसात करते हैं तब यह देवी गुण हमारे अंदर प्रकाशित होते हैं। ऐसे ही श्रील नरोत्तमदास ठाकुर और कोई नहीं भगवान श्रीकृष्ण ( राधा कृष्ण) की जो नृत्य लीला है उसमें जो अष्ट सखियां होती हैं उन अष्ट सखियों के अंदर, रूप सनातन आदि जो हैं गोस्वामी जो कि रूपमंजरी हैं और रूपमंजरी की दो प्रमुख सहायिका हैं जिनका नाम है चंपक मंजरी। चंपक मंजरी, जो भगवान श्रीकृष्ण की लीला में राधा कृष्ण की नित्यसेवा करती है वही चंपक मंजरी श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के रूप में इस धरा पर माघ पूर्णिमा, जो आज की तिथि है उनका आविर्भाव खेचुरी ग्राम, (जो वर्तमान में बांग्लादेश कहते हैं ) बांग्लादेश में प्रमुख स्थान है जहां पर श्रील नरोत्तम दास ठाकुर अवतरित हुए। जिन के विषय में भक्ति रत्नाकर में कहा जाता है।
*माघ पुर्णिमाय जन्मिलेन नरोतम । दिने दिने वृद्धि हइलेन चन्द्रसम ।।* (भक्तिरत्नाकर 1/281)
माघ पूर्णिमा पर श्रील नरोत्तम दास ठाकुर अवतरित हुए और दिन प्रतिदिन जिस प्रकार से चंद्रमा की वृद्धि होती है वैसे ही इनका विकास हुआ है इनकी प्रमुख रूप से कई लीलाए हैं। अभी कुछ दिन पहले कथा में हमें अवसर प्राप्त हुआ था तो तीन-चार दिन श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की कथा हुई थी, कुछ शब्दों में हम कुछ कह भी नहीं पाएंगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला में महाप्रभु के सन्यास के पश्चात रूप सनातन पर कृपा करने के लिए जब वे रामकेली पहुंचे थे तो वहां पर बताया जाता है जब महाप्रभु नित्यानंद, अद्वैत आचार्य, हरिदास ठाकुर सबके साथ कीर्तन करने लगे, कीर्तन करते करते तुरंत
*श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानन्दाद्वैतगणे ।करये विज्ञप्ति अश्रु झरे दुनयन ।।*
(भक्तिरत्नाकर 1/285)
श्री चैतन्य अद्वैत और नित्यानंद जब संकीर्तन कर रहे थे और संकीर्तन करते करते जब बहुत विशेष भाव प्रकाशित होने लगे और आंखों से अश्रु की धाराएं प्रवाहित होने लगी, उसी समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने जोर से उच्चारण किया नरोत्तम! नरोत्तम! समस्त उपस्थित भक्तगण वहां ये सुनने लगे और वहाँ बताया जाता है कि सभी भक्त तुरंत ही विचार करने लगे यह नरोत्तम ! नरोत्तम !क्यों कह रहे हैं वैसे भगवान का भी एक नाम नरोत्तम कहा जाता है किंतु चैतन्य महाप्रभु की लीला में उस समय कोई नरोत्तम नहीं थे। उसी समय सभी भक्त लोग विचार करने लगे नरोत्तम क्यों कहा जा रहा है। एक भक्त ने कहा, हो ना हो यह नरोत्तम कोई विशेष भक्त है जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अत्यंत प्रिय है। शायद अभी वर्तमान में ना हो किंतु भविष्य में अवतरित होने वाला है। फिर किसी ने विचार किया और आपस में ही भक्तों में चर्चा होने लगी, एक भक्त ने कहा कैसे सौभाग्यशाली माता पिता होंगे जिन्हें वह पुत्र प्राप्त होगा जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के स्मृति पटल में प्रकट हो रहा है। एक अन्य भक्त ने कहा जो स्त्री ऐसा गर्भधारण करेगी वह कैसी माता होगी, निश्चित रूप से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कार्य के लिए कोई विशेष भक्त आने वाला है। तुरंत उसी समय श्रीनित्यानंद प्रभु पूछने लगे हे श्रीमान महाप्रभु आप नरोत्तम नरोत्तम क्यों कह रहे हैं? तब चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु से कहते हैं हे “श्रीपाद” (चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद को संबोधित करते हुए श्रीपाद कहते थे) तो वहां चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु से कहते हैं हे श्रीपाद वास्तव में आप की महिमा को कौन समझ सकता है आप जानते हैं जब आप मेरे साथ निलाचल की ओर प्रस्थान कर रहे थे और नीलाचल जाते हुए आप भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए आतुर हो चुके थे आपके नेत्रों से अश्रु धाराएं प्रवाहित हो रहे थे और आप बहुत अधिक प्रेम के उच्च भाव को प्रकाशित कर रहे थे आप जानते हैं उस समय आप के नेत्रों से अश्रु धाराएं बहने लगी मैंने उन अश्रु धाराओं को एकत्रित कर लिया, महाप्रभु कह रहे हैं और उसे मैंने संजो कर रखा है और कुछ नहीं वह प्रेम है। श्रीकृष्ण का विशेष प्रेम है और आपकी जानकारी के लिए समीप ही एक स्थान है जिसको कहते हैं पद्मा नदी, आप के नेत्रों से प्रवाहित जो विशेष प्रेम है उसे मैं पद्मा नदी में संजो कर रखूंगा और शीघ्र ही एक विशेष भक्त यहां पर आने वाला है जिसे मैं यह प्रेम प्रदान करने वाला हूं। ऐसा कहते हुए चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु और अद्वैत आचार्य के साथ संकीर्तन करते हुए पद्मा नदी के निकट पहुंचते हैं वहां पर एक स्थान था कुतुबपुर , वहां पर चैतन्य महाप्रभु आए और फिर नृत्य करने लगे संकीर्तन करने लगे और भावविभोर हो गए और फिर तुरंत उन्होंने पद्मा नदी में प्रवेश किया। जैसे ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों का स्पर्श पद्मा नदी में हुआ तुरंत ही उसमें बहुत बड़ा उछाल आ गया जैसे उसने अपनी बाउंड्री क्रॉस कर दिया हालांकि कोई वर्षा नहीं हुई थी किंतु अचानक से पद्मा नदी में बाढ़ आ गई क्योंकि उसमें अष्ट सात्विक विकार आने लग गए थे और उसी समय जब चैतन्य महाप्रभु संगीत और नृत्य के साथ भावविभोर होकर स्नानादि करने लगे तुरंत उन्होंने देखा कि पद्मा नदी एक देवी रूप में वहां प्रकट हुई और चैतन्य महाप्रभु उनसे कहते हैं कि कृपया इस प्रेम को स्वीकार करो यह जो मेरा कृष्ण प्रेम है इसे स्वीकार करो और शीघ्र ही मेरा भक्त आने वाला है नरोत्तम कृपया इस प्रेम को तुम्हे उसको प्रदान करना है। जैसे ही सुना, पद्मा नदी वहां पर कहने लगी हे प्रभु ! मैं कैसे पहचान लूंगी कौन नरोत्तम है ? उस समय श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि जिस प्रकार से मेरे स्पर्श मात्र से तुम्हें भाव प्रकाशित हुए तुम्हारा जल बाहर निकलने लगा उछलने लगा वैसे ही उस नन्हे बालक के स्पर्श मात्र से ही तुम्हारा जल पुनः ऊपर उछलने लगेगा।
*याहार परशे तुमि अधिक उछलिवा ।सोई नरोतम प्रेम तारे तुमि दिवा* (भक्तिरत्नाकर)
तो क्या कहते हैं चैतन्य महाप्रभु, जिनके स्पर्श मात्र से उछलने लगोगी वही नरोत्तम होगा। कृपया उसे इस प्रेम को प्रदान करना, वहां पर यह बताया जाता है कि इस प्रकार जब नरोत्तम आगे जाकर प्रकट हुए हैं खेचुरी ग्राम में उनके पिता का नाम श्री कृष्ण नंद दत्त और माता का नाम नारायणी देवी था। कृष्ण नंद दत्त के घर में जब उन्होंने जन्म लिया बहुत विस्तृत रूप से उस प्रेम विलास ग्रंथ में लिखा गया है माता को कैसा आनंद हुआ, लगभग जैसे भगवान श्रीकृष्ण के रूप माधुर्य जैसे, श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप माधुर्य जैसे , समस्त जीवो को जो अपने प्रति आकर्षित करते थे। बताया जाता है कि नरोत्तम दास ठाकुर का ऐसा अनुपम सौंदर्य था कि समस्त ग्राम वासी आकर्षित होते थे उनसे, परंतु विशेषता क्या थी इस बालक की इस बालक का बचपन से ही सहज रूप में भगवान से लगाव था प्रेम था। आगे चलकर यह बताया जाता है जब ये बालक 12 वर्ष का हुआ दिन-ब-दिन बढ़ने लगा उसकी विद्वता का ज्ञान, उनका वैराग्य सभी और प्रकाशित होने लगा, तब स्वयं श्रीनित्यानंद प्रभु इस बालक के स्वप्न में आए और स्वप्न में आकर उन्होंने बताया कि किस प्रकार से श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं आए थे और चैतन्य महाप्रभु अपना प्रेम, जिस के लिए क्या कहा जाता है।
*अनर्पित-चरी चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्। हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितः सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः ।।*
( चैतन्य चरितामृत आदि १. ४)
अनुवाद- श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यन्त उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए।
हालांकि यदि देखा जाए तो इनके कुल के अनुसार यह राज् पुत्र थे। जिस प्रकार से हम इनके ऐश्वर्य का वर्णन भी सुनते हैं इनका ऐश्वर्य भी बहुत विशेष था, तो भी दौड़ पड़े वहां पर आर्त भाव में, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का स्मरण करते हुए निरंतर क्रंदन करते हुए दौड़े जा रहे हैं दौड़े जा रहे हैं, ना तो शरीर की सुध है, ना दिन है ना रात है, ना भूख है ना प्यास है और शरीर में अर्थात पैरों में भी कोई चप्पल नहीं थी नंगे पांव में दौड़ रहे हैं। मतलब कई कई दिनों तक रुके ही नहीं सुबह हो गई थी या रात थी उनको पता ही नहीं बस वे दौड़ रहे थे ना तो कोई अन्न ले रहे थे ना ही कोई जल ले रहे थे। कैसा वह भाव था उनका परिणाम क्या हुआ कि ऐसे लगभग 10 दिनों तक दौड़ते हुए उनका शरीर जब थोड़ा क्षीण हो गया था तभी अचानक मूर्छित होकर गिर पड़े और जैसे ही वह मूर्छित होकर गिर पड़े वैसे ही अचानक वहां पर गौर वर्ण का बहुत ही अकर्षज ब्राह्मण वहां पर एक दुग्ध पात्र लेकर आया और उसने अपनी मधुर भाषा में उनसे कहा हे नरोत्तम कृपया इस दूध को पी लो ताकि तुम्हारे समस्त कष्टों का हरण हो जाएगा। इतना कहते-कहते वह ब्राह्मण उस पात्र को वहां रखते हुए जब उनकी दृष्टि से ओझल हुए , कहा जाता है कि पुनः नरोत्तम की आंखें वहां बंद हो गई, मतलब वहां पर निद्रा जैसी लग गई और जैसे ही नरोत्तम की निद्रा वहां पर लगी वह जमीन पर पड़े हुए सोए हुए थे उस समय स्वयं रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी वहां पर प्रकट हुए और तुरंत ही उस नन्हे बालक को उठाकर अपने सीने से लगा लिया उस बालक को अपनी गोद में रखा और श्रील रूप गोस्वामी ने उस पात्र को अपने हाथों से उठाया और बताया जाता है कि वह गौर वर्ण का बालक ब्राह्मण कोई और नहीं स्वयं गौरांग महाप्रभु थे गौरांग महाप्रभु तुम्हारे लिए दुग्ध लेकर के आए हैं। जैसे ही नरोत्तम को रूप गोस्वामी ने अपने हाथों से दूध पिलाया तो वैसे ही उनके पैरों में जितने काटे थे जितने भी जख्म थे या निशान थे वह सब के सब समस्त शरीर का जो दुख था वह पूरी तरह से नष्ट हो गया। इस तरह से बतलाया जाता है कि माघ पूर्णिमा को श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का आविर्भाव हुआ कार्तिक पूर्णिमा वह तिथि है जब नरोत्तम दास ठाकुर अपने ग्रह का त्याग किए थे और तत्पश्चात जब वृंदावन में पहुंचे। विशेष रुप से नरोत्तम दास ठाकुर नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे।
*श्रीनरोतमेर क्रिया कहिते कि पारि ।सर्वतीर्थदर्शी आकुमार ब्रहमचारी ।” आकुमार ब्रहमचारी सर्वतीर्थदर्शी । परमभागवतोतम: श्रील नरोतमदास: ।।”*
(भक्तिरत्नाकर 1/255-256 or 1.278-279)
नरोत्तम दास ठाकुर उनके गुरु के विषय में बहुत गहरा भाव बताया जाता है कि किस प्रकार से नरोत्तम दास ठाकुर ने गुरु का आश्रय प्राप्त किया यह बहुत ही महत्वपूर्ण शिक्षा है इसके अंतर्गत नरोत्तम दास ठाकुर किस प्रकार से बहुत ही दैन्य भाव से अपने गुरु के पास में गए हैं। श्रील लोकनाथ गोस्वामी के समीप इसीलिए मुझे नरोत्तम दास ठाकुर से बड़ा निकटतम भी लगता है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के गुरु महाराज श्रील लोकनाथ गोस्वामी और हमारे गुरु महाराज भी श्रील लोकनाथ गोस्वामी हैं। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का जन्म माघ पूर्णिमा मैं होता है और इस शरीर का जन्म भी माघ पूर्णिमा में ही है। इस दृष्टि से बार-बार श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के प्रति आकर्षण बना रहता है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर जब ब्रज मंडल में रहने लगे, तो श्रील लोकनाथ गोस्वामी का जो वैराग्य था कि कभी भी वो मान की अपेक्षा नहीं करते थे हालांकि जब कविराज कृष्णदास गोस्वामी उनसे आश्रय प्राप्त करने के लिए आए कि मैं चैतन्य चरितामृत की रचना करना चाहता हूं।
जो प्रेम का आस्वादन करके स्वयं महाप्रभु इस संसार के जीवों को जो देना चाहते थे स्वयं उस प्रेम को नरोत्तम दास ठाकुर को देना चाहते हैं और नित्यानंद प्रभु ने कहा कि तुम्हारे समीप ही पद्मा नदी है तुम जाकर उस प्रेम को वहीं पर प्राप्त कर सकते हो। और जैसे ही रात्रि में नित्यानंद प्रभु का दर्शन और आनंद था, सपना टूटने पर पहले तो उनकी नजर में बहुत विलाप हुआ कहां गए हुए नित्यानंद, कहां गए नित्यानंद उनकी आंखों से यह कहते हुए अश्रु निकलने लगे किंतु जब उन्होंने नित्यानंद प्रभु के आदेश का स्मरण किया और वे तुरंत ही प्रात:काल भोर में ही उस नदी की ओर पद्मा नदी की दिशा में दौड़ पड़े और जैसे ही पद्मा नदी के पास पहुंचे और उन्होंने उसका स्पर्श किया तो तुरंत ही वह जल बाहर उछलने लगा पूरी तरह से अपनी सीमाओं को उसने लांग दिया और पद्मा नदी को यह समझने में समय नहीं लगा कि यही वह बालक नरोत्तम है। बताया जाता है कि तुरंत ही पद्मा नदी ने चैतन्य महाप्रभु का जो प्रेम था वह श्रील नरोत्तम दास ठाकुर को प्रदान किया और जैसे ही श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने चैतन्य महाप्रभु के उस माधुर्य प्रेम को प्राप्त किया तुरंत ही उनका वर्ण परिवर्तित हो गया, उनके भाव परिवर्तित होने लगे और उच्च विकार के प्रेम अवस्था बालक काल मैं ही प्रकाशित होने लगे। 12 वर्ष की आयु में ही, अब तो शरीर की कोई सुध ही नहीं रहती थी और निरंतर नेत्रों से अश्रु धाराएं प्रवाहित होने लगी। जब माता-पिता ने उन्हें ऐसे देखा कि पहले जब आए तो उनका वर्ण बदल गया और गांव में चर्चा का विषय बन गया। नरोत्तम एक तो वर्ण बदल चुका है और इतना ही नहीं उसके भाव भी बहुत विशेष प्रकाशित हो रहे हैं माता-पिता थोड़ा भयभीत भी हो जाते हैं जब बालक बहुत अधिक भक्ति भाव और वैराग्य प्रकाशित करने लगे। बताया जाता है कि जिस प्रकार से कोई मदिरापान करने के बाद बहुत अधिक उन्मत्त रहने लगता है वैसे ही श्रीचैतन्य नित्यानंद प्रदत प्रेम के कारण नरोत्तम सदैव उन्मत्त रहने लगे और फिर उनको गृह का बंधन भी रोक नहीं पाया और समय मिलते ही या अवसर पाते ही घर से दौड़ पड़े। इस बाल्यावस्था लगभग 12 – 13 वर्ष में ही सीधे वृंदावन की ओर तब उस समय एक शर्त के साथ लोकनाथ गोस्वामी ने कहा कि ठीक है कहीं पर किसी भी स्थान पर मेरा नाम नहीं आना चाहिए। यह भक्तों का विशेष भाव होता है कभी भी अपना नाम,
*सम्मानम विष्यति घोरा तरलं निच अपमानं सुधा* (प्रेम विलास)
प्रेम भक्ति के मार्ग में बतलाया जाता है कि कौन सा टॉनिक है और कौन सा विष है कहा जाता है निच अपमानं सुधा, इस संसार में जब हमारा अपमान होने लगे जब इस संसार में कष्ट प्राप्त होने लगे तब भक्त उसे अमृत के रूप में ग्रहण करता है कृपा के रूप में ग्रहण करता है और यदि मान हो रहा है अर्थात आदर सम्मान हो रहा है तब भक्त समझता है कि बहुत बड़ा कुछ मुझसे अपराध हुआ है। भगवान मुझे कुछ दंड देना चाहते हैं इसीलिए मुझे यह सम्मान आदर प्राप्त हो रहा है वहां पर शब्द है सम्मानम विष्यति घोरा तरलं, सबसे भयानक विष के समान है सम्मान एक भक्त के लिए, लोकनाथ गोस्वामी कभी भी कोई आदर सम्मान नहीं चाहते थे। कभी किसी को अपने अनुयाई शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया और उस समय बताया जाता है कि नरोत्तम वहां पर गया जो राजकुमार है, राजा का पुत्र था किंतु दैन्य भाव में वहां रहकर वह लोकनाथ गोस्वामी से प्रार्थना करने लगा, उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि मेरा संकल्प है कि मैं किसी भी शिष्य को स्वीकार नहीं करूंगा। लोकनाथ गोस्वामी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया किंतु इन्होंने संकल्प लिया कि मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है कि मैं श्रील लोकनाथ गोस्वामी के चरणों का आशीर्वाद प्राप्त करूं ,भले ही उन्होंने उन्हें स्वीकार नहीं किया किंतु फिर भी वह वहीं पर रहने लगे। आज भी हम वहां उस स्थान पर जाते हैं जिसको खादिर वन कहते हैं जो नंदग्राम और बरसाना के बीच में आता है, जहां पर लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ गोस्वामी की भजन स्थली है। बताया जाता है कि वे वहां पर आते थे और प्रतिदिन मध्य रात्रि के समय जब लोकनाथ गोस्वामी प्रातः अपने शौच क्रिया आदि के पूर्व मध्य रात्रि में जिस स्थान पर जाते थे उस स्थान पर आकर वो उसको स्वच्छ करते थे उसको झाड़ते थे और गोबर से पूरी तरह से लीपा करते थे और हाथ को धोने के लिए एक जल का पात्र रखा जाता था और फिर साफ मिट्टी एक अलग पात्र में रखी जाती थी। हाथों का प्रक्षालन करने के लिए ,
*ये स्थाने गोसाई जीउ यान बहिर्देश । सेई स्थान याई करेन संस्कार-विशेष ।। मृतिकार शौचेर लागि माटि छानि आने । नित्य नित्य एइमत करेन सेवने ।। झाटागाछि पुति राखे माटिर भितरे । बाहिर करि’ सेवा करे आनन्द अन्तरे ।। आपनाके धन्य माने , शरीर सफल । प्रभुर चरण प्राप्त्ये एई मोर बल ।। कहिते-कहिते काँदे झाटा बुके दिया । पाँच सात धारा वहे हृदय भासिया ।।* प्रेमविलास ग्रन्थ:-
ये संस्कार नरोत्तम दास ठाकुर करते थे। मृतिकार शौचेर लागि माटि छानि आने शौच के लिए मिट्टी लगती थी उसे छानकर अच्छी तरह से साफ करके लाते थे नित्य नित्य एइमत करेन सेवने, नित्य सेवा करते थे और विशेष गुण मैं आपको यह बताना चाहता हूं जिसको अलक्षित सेवा कहा जाता है अलक्षित, हम सदैव सेवा करते हैं , हमारे अंदर भावना होती है कि कोई हमें देख ले पता तो चले, जैसे गुरु महाराज कई बार जपा टॉक में भी कहते हैं स्पॉटलाइट, इसका मतलब यह नहीं कि गुरु की दृष्टि आपके ऊपर नहीं थी इससे पहले आपको ऐसा एहसास हुआ कि गुरु हमको देख रहे हैं तब भक्त भी भावविभोर हो जाते हैं और दंडवत प्रणाम करने लगते हैं। क्या करें झूमने लगते हैं हाथ ऊपर करने लगते हैं हालांकि पांच दस सेकंड के लिए ही गुरु महाराज उनको स्पॉटलाइट करते हैं, जो भी हो जब हम को पता चलता है कि गुरु हमें देख रहे हैं तो तुरंत ही आल्हाद होता है परंतु वास्तव में गुरु की दृष्टि सदैव होती है और और भक्तों का भाव होता है कि जब हम सेवा करें उसे कभी भी प्रकाशित ना किया जाए जिस तरह से कहा जाता है यदि आपको सेवा करनी है और सेवा करने के पश्चात किसी को कहकर बताया, क्या कह कर बताया कि प्रभु जी मैंने यह सेवा की है या मैंने यह प्रचार किया है जैसे ही आप ने यह कहा, उसके अंदर उस सेवा के द्वारा आपको जो प्रेम प्राप्त होने वाला था वह तुरंत ही नष्ट हो जाता है। आप सेवा जब करें तो किसी को पता भी ना चले कि सेवा आपके द्वारा हुई है जब ऐसा भाव जैसा कि नरोत्तम दास ठाकुर का था वह दिन प्रतिदिन सेवा करते थे और लोकनाथ स्वामी महाराज प्रतिदिन देखते थे कि वह स्थान फिर से निर्मल हो चुका है, दुर्गंध रहित हो गया है, तो आश्चर्यचकित होते थे यह दुर्गंध रहित कैसे हो जाता है, यह स्वच्छ कैसे हो जाता है, किंतु पता ही नहीं चल रहा था। ऐसी सेवा जब नरोत्तमदास ठाकुर ने की तो उसका परिणाम क्या हुआ, मृतिकार शौचेर लागि माटि छानि आने, नित्य नित्य एइमत करेन सेवने, नित्य प्रति वैसी ही सेवा करने लगे परिणाम क्या हुआ, झाटागाछि पुति राखे माटिर भितरे, झाड़ू से हटाने के बाद उसको पोत लेते थे और फिर वहां पर भी मिट्टी रखते थे यह सेवा करते हुए इनके जीवन में क्या परिणाम हो रहा है बाहिर करि’ सेवा करे आनन्द अन्तरे, सेवा कर रहे हैं और उसका परिणाम क्या हो रहा है अभी बताना नहीं चाहते गुरु महाराज को तो बिना बताए जब उस सेवा का परिणाम उन्हें जो भी आनंद का अनुभव हो रहा है झाटागाछि पुति राखे माटिर भितरे । बाहिर करि’ सेवा करे आनन्द अन्तरे ।। आपनाके धन्य माने , शरीर सफल । प्रभुर चरण प्राप्त्ये एई मोर बल ।। कहिते-कहिते काँदे झाटा बुके दिया । पाँच सात धारा वहे हृदय भासिया मृतिका राशि अक्षर लागी माटी छानी आने नित्य नित्य करी मने यहीं से बने नित्य प्रति वैसी ही सेवा करने लगे परिणाम क्या हुआ इसका जाटा घाटी होती माटी रो भी तारे झाड़ू से हटाने के बाद उसको पूछ लेते थे और फिर वहां पर भी मिट्टी रखते थे यह सेवा करते हुए इनके जीवन में क्या परिणाम हो रहा है बाहर करी सेवा करें आनंद अंतरे बाहर से सेवा कर रहे हैं और उसका परिणाम क्या हो रहा है अभी बताना नहीं चाहते गुरु महाराज को तो बिना बताए जब उस सेवा का परिणाम उन्हें जो भी आनंद का अनुभव हो रहा है
*आपनाके धन्य माने , शरीर सफल । प्रभुर चरण प्राप्त्ये एई मोर बल* क्या विचार कर रहे हैं कि मैं तो धन्य हो गया कि मैं कुछ निमित्त बन सका गुरु की सेवा अर्पण करने के लिए, एक तो बस यही है गुरु के चरण की प्राप्ति कैसे हो सकती है जब मैं ऐसी गुरु की सेवा कर सकूं , कैसे-कैसे अर्थ कहिते-कहिते काँदे झाटा बुके दिया, पाँच सात धारा वहे हृदय भासिया, झाड़ू जिससे वह शौच आदि को झाड़ रहे थे इतना भाव विभोर हो गए कि उस झाड़ू को उन्होंने अपना आलिंगन कर लिया नरोत्तम दास ठाकुर ने झाड़ू को उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया, आंखों से अश्रु धारा बहने लगी। आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आप सेवा कर रहे हैं आप झाड़ू लगा रहे हैं और अश्रु धारा बह रही हो आप आरती कर रहे हैं और अश्रु बहने लगे। वास्तव में जो हमारे अंदर कृतज्ञता का भाव उदित होगा तब प्रत्येक सेवा ही उस भाव को उदित कर सकती हैं। 5,7 अश्रु की धाराएं नरोत्तम दास ठाकुर की आंखों से बहने लगी केवल झाड़ू लगाने मात्र से क्या कहें और इसी का परिणाम हम क्या देखते हैं अंतत: भगवान की सेवा में प्रवेश प्राप्त हो जाता है। भक्ति रत्नाकर में मानसिक सेवा से संबंधित है
*एक दिना राधाकृष्ना सखीगण संगे, विलसाये निकुंजे परमा प्रेमा रंगे, श्री राधिका कौतुके कोहोये सखी प्रति ;एथा भक्ष्या द्रव्य शीघ्र कोरो सुसंगति’*
*ललितादि सखी महा ुलसिता होइया बक्षाणा सामग्री सबे कोरे यत्न पाइया , नरोत्तम दासी रुपे अति यत्न मते ,दुग्धा आवर्तन कोरे सखीरे िह्गिते* (170 171)
*उठलीह पराये दुग्ध देखि व्य्स्त होइला ,कुल्ली होइते दुग्धा पात्र हसते नामाइला, हसते दग्धा होईलो -तहा कीचु स्मृति नहि ,दुग्ध आवर्तन कोरी,दिला थाई ,मनेरा आनन्दे राधा -कृष्ण भुंजाईलो ,आवसेना लाभ्या मात्रे बाह्य जनाना होईलो*
. (172 174)
एक दिन राधा कृष्ण समस्त गोपियों के साथ में निकुंज में विलास कर रहे थे श्रीमती राधिका ने अपनी सखी ललिता और विशाखा को क्या कहा ;एथा भक्ष्या द्रव्य शीघ्र कोरो सुसंगति, तुरंत कुछ भोजन की व्यवस्था करो मेरे लिए और श्याम सुंदर के लिए, ललिता और विशाखा सखियां बहुत ही प्रसन्न हुए श्रीमती राधारानी हमको कुछ सेवा के लिए कह रही हैं। तुरंत ही वहां पर वह भोजन की सामग्री को एकत्रित करने लगी और उस समय ललिता सखी ने आदेश दिया, किसे ? नरोत्तमदास ललिता सखी के आदेश पर तुरंत ही नरोत्तम दास ठाकुर जो कि ललिता की सहायता के रूप में वहां उपस्थित थे, यह मानसिक सेवा चल रही थी उन्होंने आदेश दिया कि कृपया आप तुरंत ही दूध को गर्म कीजिए और जब वह दूध को गर्म करने लगे तो तुरंत ही और जैसे ही दूध में उफान आ गया नरोत्तम ने ही देखा सखी के रूप में, कि वहां दूध में उफान आ गया तो उन्हें अपने शरीर का भान भी ना रहा और तुरंत ही वह जो गर्म गर्म बर्तन था चूल्हे पर रखा हुआ था उसे उठाकर उन्होंने नीचे रख दिया। जैसे ही उन्होंने उठाया तो क्या हुआ हस्त दग्ध हाथ जल गए उनके, परंतु उनको उसका भान ही ना रहा। दूध गर्म हुआ था उसका व्यंजन बनाकर उन्होंने ललिता सखी को दिया और राधा कृष्ण ने जब उसको प्राप्त किया तो राधा कृष्ण का वो उच्छिष्ट नरोत्तम को मिला। राधा कृष्ण के उस अवशेष को उन्होंने प्राप्त किया और नरोत्तम दास ठाकुर के द्वारा उसको प्राप्त करने के बाद जब वे बाह्य चेतना में आए तब उन्होंने क्या देखा उनके हाथ पूर्णता जल चुके थे। हरे कृष्ण !
इस प्रकार से नरोत्तम दास ठाकुर की बहुत सुंदर कथाएं हैं। कहा जाता है बंगाल बांग्लादेश और उड़ीसा वहां पर प्रचार का मुख्य उत्तरदायित्व लोकनाथ गोस्वामी ने नरोत्तम दास ठाकुर को बांग्लादेश और फिर श्रीनिवासाचार्य को बंगाल में और श्यामानंद पंडित ने उड़ीसा में वहां पर प्रचार किया। हमारे संप्रदाय में इन तीनों का विशेष योगदान है तो आज हम नरोत्तमदास ठाकुर के चरणों में प्रार्थना करते हैं संभव हो तो आप इस ग्रंथ को जो बहुत ही सुंदर है, आसानी से आप गूगल में सर्च करेंगे तो आप उसे प्राप्त कर सकते हैं आप अवश्य पढ़िए। नरोत्तम दास ठाकुर की जीवनी को
श्रील नरोत्तम ठाकुर आविर्भाव दिवस की जय !
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
श्रीमान सम्यक ऋषि प्रभुजी
15 फ़रवरी 2022
हरे कृष्णा
कई बार हमें न्यू वृंदावन में महाराज का कीर्तन, महाराज का नृत्य, महाराज का प्रवचन सुनने को मिलता है और ऐसी कई जगह हैं जैसे देहु मे | मैं महाराज का बहुत-बहुत आभारी हूँ उन्होंने मुझे हमेशा मार्गदर्शन दिया | उन्होंने ही मुझे कहा था कि प्रभुपाद की गुरु के रूप में सेवा कीजिये | यह उन्हीं की कृपा है कि मैं इतनी सेवा इस्कॉन में दे सका | मैं बार-बार उनसे मार्गदर्शन लेता रहा | वे बहुत ही सुतीक्ष्ण हैं और बहुत ही दयालु है | अपने भक्तों की अच्छी तरह से देखभाल कर रहे हैं, यहां भी महाराज जी के कई शिष्य हैं जो उनके प्रोग्राम को आगे बढ़ाने में लगे हैं | यह सेवा भाव महाराज ने ही उनके अंदर कूट-कूट कर भरी हुई है | और इस प्रकार के इस्कॉन में अपनी सेवाएं दे रहे हैं |
मैं यहाँ के इस्कॉन टेंपल के लिए आप सबको आमंत्रित कर रहा हूँ, आज 15 फरवरी है और 19 और 20 फ़रवरी को यहाँ कार्यक्रम है | आप के स्थान से यह ज्यादा दूर नहीं है आप ट्रेन या बस से यहाँ आ सकते हैं | कृपया यहाँ आइए और हमें अपना आशीर्वाद दीजिए | मैं महाराज जी से भी निवेदन करूंगा कि जब उनकी तबीयत ठीक हो जाए तो यहाँ पर आएं और अपने प्रवचन और अपने कीर्तन के द्वारा लोगों को मंत्रमुग्ध करें ताकि ओर अधिक से अधिक लोग जुड़ सके |
मैं कुछ शब्द जो यहाँ मंदिर प्रभुपाद जी की कृपा से बन रहा है उसके बारे मे कहता हूँ | गांव गांव में हरिनाम फैले, लोग चैतन्य महाप्रभु को जाने, महाप्रभु की शिक्षाओं को ले|
प्रभुपद जी की कृपा से ही गांव गांव में गली गली में प्रचार हो रहा है|
पृथ्वी ते अच्छे जत नगर आदि ग्राम
सर्वत्र प्रचार होईबे मोर नाम
चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी है कि हर गांव गांव और गली गली में उनका नाम फैलेगा तो हम निमित्त बन कर उनकी सेवा करें | यहां आस-पास में हजार से भी ज्यादा मध्यप्रदेश में ट्राइबल एरियाज है, यहां हम प्रचार करेंगे तो इस प्रकार प्रभुपाद का मूवमेंट बढ़ेगा, देश विदेश में हरि नाम लोग ले रहे हैं लेकिन कई जगह अभी भी गांव में आंदोलन इतना प्रचार प्रसारित नहीं हुआ है, शहरों में तो कृष्ण भावनामृत का प्रचार हुआ है सब लोग जानते हैं लेकिन इस्कॉन को प्रभुपाद को चैतन्य महाप्रभु को इस क्षेत्र में लोग नहीं जानते हैं इसी को ध्यान में रखकर| मेरा जन्म पास के ही गांव में हुआ है तो मैंने सोचा कि यहां मंदिर क्यों ना बनाया जाए | शहरों में तो सभी जाते हैं परंतु यह गांव का मंदिर है| इस मंदिर के बारे में मैं आपको कुछ बताऊंगा | अभी आपको राधा गोपीनाथ मंदिर स्क्रीन में दिखलाएंगे कि मंदिर कैसा है | यह मंदिर इंदौर से करीब 140 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में है | 19 और 20 फरवरी को इसका उद्घाटन है, मैं उसका समय भी आपको बताऊंगा | इनका नाम राधा गोपीनाथ इसलिए दिया गया है क्योंकि भगवान को गोपियों का संग बहुत प्यारा है और दूसरा पास ही इंदौर में राधा गोविंद जी हैं और उज्जैन में राधा मदन मोहन जी हैं | तो हमने सोचा क्यों ना इन तीन संबंध, अभीदेय और प्रयोजन के जो देवता हैं उनमें से गोपीनाथ जो हमारा लक्ष्य है, लोगों को पता नहीं रहता है कि हम कहां जा रहे हैं किस तरफ जा रहे हैं क्यों जा रहे हैं राधा गोपीनाथ के द्वारा राधा गोपीनाथ जी की कृपा से यह मंदिर बना है और लोगों को कृष्ण भावना से जोड़ने में सहायता कर रहा है | अभी हम प्रत्येक रविवार को प्रोग्राम पिछले 2 साल से कर रहे हैं जिसमें 500 से 1000 लोग आ रहे हैं और प्रसादम ग्रहण करते हैं | मध्यप्रदेश में ट्राईबल कम्युनिटी यहां है और यह स्थान सेंट्रल इंडिया का ह्रदय है | यहां पर कई उद्यान लगाए गए हैं जिनमें ऑर्गेनिक फार्मिंग हैं, कम्युनिटी के द्वारा बसाया गया है |
यह भोपाल के थोड़े साउथ और वेस्ट में है | कुंदा नदी पास में है और साथ ही महेश्वर जो नर्मदा नदी के किनारे हैं यह काफी प्रसिद्ध है इसी स्थान पर है साथ ही ओमकारेश्वर वह भी पास ही है | यहां की फास्ट ग्रोइंग कम्युनिटी है | यहां की आबादी सवा दो लाख के करीब हो चुकी हैं | और यहां हजारों गांव है | जहां की कुल जनसंख्या 4 से 5 लाख होगी| और इंदौर भारत का सबसे साफ सुथरा शहर है यहां कोई इंडस्ट्री नहीं है इस कारण यहां प्रदूषण नहीं है | मैं आप सब को आमंत्रित करता हंप कि आप सभी यहां आइए हमें भी नए मंदिर होने के कारण आप सब की सहायता चाहिए | आराम से आप इंदौर एयरपोर्ट से यहां आ सकते हैं| मुंबई और दिल्ली से 1 घंटे में हम फ्लाइट से यहां आ सकते हैं | वृंदावन यहां से ट्रेन से जाया जा सकता है | यह मैंने आपको लोकेशन के बारे में बताया यह हाट ऑफ इंडिया में स्थापित है और इजीली कम्युनिकेबल है | ओंकारेश्वर, उज्जैन, इस्कॉन उज्जैन, इंदौर आस पास ही है, नर्मदा नदी यहां से 20 किलोमीटर है, यहां से बहुत ही आसानी से वहां जा सकते हैं | अभी वृंदावन से 50 लोग यहां आने वाले हैं उन लोगों को हम टूर भी कराने वाले हैं |
यहां से ओम्कारेश्वर फिर महेश्वर इस्कॉन अवंतीपुर यानी उज्जैन के 5 भव्य ऑल्टर जिन्हें भक्ति चारु महाराज ने बनाया है महाकाल के दर्शन सांदीपनि मुनि का आश्रम , इस्कॉन इंदौर आदि ले जाया जाएगा | ओमकारेश्वर यहां से डेढ़ 2 घंटे की दूरी पर है जहां भगवान शंकर का ज्योतिर्लिंग है | यहां नर्मदा नदी पर एक द्वीप है लोग उसकी परिक्रमा भी करते हैं | पूरी नर्मदा की भी परिक्रमा की जाती है | नर्मदा में स्नान करते वक्त मानसिक रूप से सब नदियों का आवाहन करके जितने भी वैष्णव गन है उनका आशीर्वाद लेते हैं माहिष्मती पुरी को वाराणसी ऑफ इंडिया भी कहा जाता है ओमकारेश्वर भगवान शिव को समर्पित है | इस्कॉन मंदिर 6 एकड़ में बनाया गया है | यहां पर पुष्टिमार्गीय वैष्णव ज्यादातर है | वे लोग बाल गोपाल की ज्यादातर पूजा करते हैं, साथ ही श्रीनाथ जी और हरदेव राय उनका भी मंदिर भविष्य में बनाया जाएगा | यहां गोवर्धन पहाड़ के रूप में बनाया जाएगा जिसके नीचे श्रीनाथजी का विग्रह रहेगा और भगवान अपनी उंगली से गिरिराज जी को उठाते हुए दिखाई देंगे | भक्तों को यहां गिर्राज और उनकी परिक्रमा का मिनी फॉर्म मिलेगा | पीछे वाली बिल्डिंग में तीन सो रूम अभी है और तीन सो रूम बनने वाले हैं | यहा नेचुरोपैथी आयुर्वेदिक मेडिसिन का सेंटर है | जहां कोई भी जाकर दवाइयां ले सकते हैं| और अपने स्वास्थ्य की देखभाल कर सकते हैं |
यह मंदिर बिल्डिंग 35000 स्क्वायर फीट में फैला हुआ है जो 3 फ्लोर में है | लाइब्रेरी भी बनाई है जहां कोई भी आकर पढ सकता है | शिखर 108 फीट ऊपर है | जय विजय आजकल में आने ही वाले हैं | जिनकी ऊंचाई 18 फीट की है| नरसिंह भगवान और गरुड़ जी भी हैं | जैसे जैसे लोगों ने सलाह दी है और जैसे-जैसे भगवान ने हमें प्रेरणा दी है गाइड किया है गाइड करने वाले तो स्वयं नित्यानंद प्रभु है जिनकी कृपा से हुआ है इसकी ग्रैंड ओपनिंग में मैं आप सबको आवाहन करता हूँ कि आप लोग आइए हम सबको इस से प्रोत्साहन मिलेगा | वृंदावन के पुजारी यहां आकर विग्रह को स्थापित करेंगे | परम पूज्य गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज हमारे मुख्य अतिथि हैं | और मैं आशा करता हूँ कि लोकनाथ स्वामी महाराज भी यहां पर आएं और चीफ गेस्ट के रुप में हमारे ओपनिंग में रहे | वैसे भी हृदय में तो वे हैं ही | अब मैं आपको शेड्यूल बताता हूँ, 19 तारीख शनिवार 08:30 बजे को गुरु पूजा है, 10 बजे सुदर्शन होम, 11:30 बजे सुदर्शन अभिषेक स्थापना प्रतिष्ठा, फिर प्रसाद और रेस्ट, नेत्र मिलन अधिवास 6:00 बजे है मंदिर में खुशबूदार रूम में भगवान आराम लेंगे रविवार को सुबह 6:00 बजे से प्रोग्राम होगा जागरण सेवा प्रभुपाद पूजा महाराज जी वगैरह की क्लास होगी 10:00 महा अभिषेक प्राण प्रतिष्ठा पुष्प अभिषेक और 1:00 बजे दर्शन और महा आरती और 2:00 से प्रसाद | हमने सब के लिए प्रसाद की व्यवस्था की है हो सकता है 10,000 से लेकर 100000 तक लोग आ सकते हैं |
रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम और परम पूज्य गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज और लोकनाथ महाराज की छोटी सी क्लास भी होगी | कुछ लोग यहां बाहर से आ रहे हैं तो वृंदावन वालों के लिए तो हमने यात्रा का इंतज़ाम किया है | भगवान के विग्रह और भगवान में कोई अंतर नहीं है | भगवान के नाम और भगवान के विग्रह में कोई अंतर नहीं है| रूप गोस्वामी लिखते हैं कि यदि सांसारिक चीजों में आपका आकर्षण है, आप कभी केसी घाट पर मत जाइए क्योंकि केसी घाट पर भगवान त्रिभंगी मुद्रा में है और वह आपको सांसारिक वासना से छुड़ा लेंगे | लेकिन हमारे साथ ऐसा होता है क्यों नहीं है हम अभी भी केसी घाट जाते हैं भगवान का दर्शन करते हैं राधा कृष्ण का दर्शन करते हैं क्योंकि चिन्मय वस्तु को धारण करने के लिए हमारी इंद्रियां भी चिन्मय होनी चाहिए और इंद्रियों को चिन्मय करने के लिए हमें हरे कृष्ण महामंत्र का जप, भक्तों का संग और प्रसाद अति आवश्यक है | भक्तों की सेवा करना अति आवश्यक है | भगवान हमारे हृदय में है और जब भगवान देखेंगे कि इसका हृदय मुझे पाना चाहता है और भगवान अपने भक्तों की इच्छा पूरी करते हैं | धीरे-धीरे भगवान हमें बुद्धि देते हैं ताकि हम भगवान की तरह मुड़ सके | यह साधारण मूर्तियां नहीं है | परम पूज्य लोकराज महाराज गोपाल कृष्ण महाराज ने कितने कितने मंदिर बनाए है और कितने लोग उनसे फायदा उठा रहे हैं इसी को ध्यान में रखते हुए यह गांव के लोग इससे जुड़े और ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाएं| इन मूर्तियों को प्रतिमा मानना एक तरह का अपराध है |
Sei aparādhe tāra nāhika nistāra
ghora narakete paḍe, ki baliba āra CC Ādi 5.226
चैतन्य चरित्रामृत में दिया है कि जो यह अपराध करते हैं नरक में गिरते हैं |
भगवान स्वयं कहते हैं
alaṅkurvīta sa-prema
mad-bhakto māṁ yathocitam ŚB 11.27.32
भागवतम में भगवान स्वयं कहते हैं कि यह जो मेरे विग्रह हैं मैं स्वयं हूँ तो मूर्ति में और भगवान में कोई भेद नहीं है| तो कुछ लोग कहेंगे कि जो मूर्तियां स्वयं प्रकाश होती हैं उनमें यह बात होती है | ऐसा नहीं है | स्वयं प्रकाशित मूर्तियां वृंदावन में है | सारी मूर्तियां भगवान स्वयं ही हैं | वे अपनी शक्ति से अपनी इच्छा से मूर्ति में भी प्रकट हो सकते हैं| जब भक्त पुकारते हैं मूर्ति में, तो वे प्रकट हो जाते हैं| एक कथा है | एक व्यग्र शिकारी के वाण से घायल होकर गिर गया, एक कुत्ता उसे मुंह में लेकर चारों ओर मंदिर मे घूमता रहा, क्योकि उसने मंदिर में विग्रहो की परिक्रमा की तो उसकी मुक्ति हो गई | एक बार एक चूहा दिए में घी खाने के लिए चला तो उसे घी की बत्ती थोड़ी ऊपर हो गई उससे मंदिर में प्रकाश ज्यादा हो गया, तो उसे दीपदान का फल मिला और उसकी भी मुक्ति हो गई | भगवान के दूत आए और उसे भगवत धाम में ले गए | सबसे अच्छा प्रमाण की भगवान के विग्रह में भगवान साक्षात है, गौरी दास पंडित के सेवित गौर निताई के विग्रह से पता चलता है | एक बार गौरांग महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु अंबिका कलना में आए और सूर्यकांत उनके छोटे भाई हैं जो नित्यानंद प्रभु के ससुर जी हैं, उनका महोत्सव काफी अच्छा रहा | बाद में जब भी जाने लगे तुमसे कहा कि आप जाइए मत | तब अंत में भगवान ने अपनी मूर्तियां उनको दी और कहां इनको रखो, गौरी दास पंडित ने कहा नहीं हम आपको रखेंगे| भगवान स्वयं विग्रह हो गए| पूछा जाएगा कि भगवान मूर्ति में अवत्तीर्ण क्यों होते हैं | यह भगवान की अहैतु की कृपा है, हम जीव भगवान की सेवा करके इस भवसागर से पार हो सकते हैं, इसका इससे ज्यादा और कोई आसान तरीका नहीं है | तो भगवान मूर्ति में प्रकट होकर के हमारी सेवा ग्रहण करते हैं | हम और पर निर्भर रहते हैं उन्हें कब खाना देना है कब सुलाना है कब जगाना है | मौसम के अनुसार कपड़े पहनाये जाते हैं | भगवान मौन धारण किए रहते हैं और हम भक्तों की परीक्षा लेते रहते हैं | सेवा करते करते हमारी दोष दृष्टि दूर हो जाती है | पर इसके अलावा भगवान अपने भक्तों से आदान-प्रदान करते हैं | यह सिर्फ हमारी गरज नहीं है कि भगवान हमें मिले यह भगवान की भी गरज है कि भक्त उन्हें मिले| भगवान भी आनंद लेते हैं कई रूपों में आकर| भक्त आते हैं उन्हें मालिश करते हैं, खिलाते हैं, प्यार करते हैं , भगवान बहुत आनंदित होते हैं भगवान कई तरह से रस लेना चाहते हैं | विग्रह से भगवान एक प्रकार का रस लेते हैं | यह भी एक तरह का द्वीप है | बंगाल में लाला बाबू थे, नदी के किनारे टहल रहे थे, मछुआरे की लड़की ने कहा कि बाबा दिन ढल रहा है, चलिए घर चले तो लाला बाबू को लगा कि यह कह रही है कि मेरी उम्र ढल रही है मेरा भी अंतिम समय आ रहा है और मुझे अपने वास्तविक घर गोलोक वृंदावन जाना है और वह सब कुछ त्याग कर के वृंदावन चले आए | और हम सब का भी दिन ढल रहा है इसलिए हमें हमेशा ही कृष्ण भावना में रहना चाहिए, भगवान की सेवा में उन्हीं की याद में उन्हीं के लिए सब कुछ करने का प्रयत्न करना चाहिए | वृंदावन में लाला बाबू के मंदिर नाम से मंदिर है जहां उन्होंने राधा कृष्ण की स्थापना की | प्राण प्रतिष्ठा के बाद उनके मन में आया कि भगवान यहां आए हैं कि नहीं | तो उन्होंने मक्खन का टुकड़ा भगवान के सर पर रखा और मक्खन पिघल कर गिरने लगा | भगवान के शरीर के ताप से वह पिघल गया | एक माताजी पिसीमा का मंदिर वृंदावन में बनखंडी महादेव के पास है यह मुरारी गुप्त द्वारा सेवित है | यहां अभी भी गौर निताई के विग्रह हैं, पिसीमा वृद्धावस्था को प्राप्त हुई तो गोपेश्वर गोस्वामी को योग्य पात्र समझकर के सेवा करने के लिए प्रदान कर दिया | एक दिन उन्होंने ठाकुर जी को ठंडे पानी से स्नान करा दिया गर्म पानी नहीं था माताजी को जब पता चला मेरे इष्ट देव को या मेरे बेटों को तुमने आज कष्ट दिया है, उन्होंने कहा भगवान मेरे बच्चे हैं और भगवान भी उसी प्रकार से आदान-प्रदान करते हैं
ye yathā māṁ prapadyante
tāṁs tathaiva bhajāmy aham
mama vartmānuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ- BG 4.11
और उनके विग्रह गौर निताई को बुखार हो गया | उन्हें दिखता भी नहीं था | उन्होंने कहा आपने ठंडे पानी से भगवान को नहलाया ठीक नहीं किया, मेरे बालकों को ठंड लग रही है, उन्हें सर्दी लग गई है, गोपेश्वर प्रभु को यह विश्वास नहीं हुआ, माताजी ने अपनी साड़ी के पल्लू से कहा कि बेटा जरा नाक अपनी छीको, दोनों गौर निताई की नाक निकल पड़ी, विग्रह को ठंड भी लगती है सर्दी भी लगती है, गर्मी भी लगती है, हमें उनकी उसी प्रकार से बात करनी चाहिए भगवान तो चराचर जगत अनंत ब्रह्मांड के मालिक हैं उन्होंने ही बनाया है उन्हीं की शक्ति से सब कुछ हो रहा है हमें यह नहीं कभी सोचना चाहिए कि मैंने यह किया है हमारी ये भावना नहीं होनी चाहिए, फिर गोपेश्वर प्रभु समझ गए कि मैंने जो किया है वह सही नहीं है | भगवान सिर्फ जीवो पर दया करने के लिए विग्रह रूप मे प्रकट ही नहीं होते हैं, बल्कि भगवान की खुद की गरज भी है| वे प्रेम का स्वरूप है अतृप्ती, प्रेम कभी भी तृप्त नहीं होता चाहे कितना भी प्रेम हो | प्रेम जितना अधिक होता है उतना ही उसे अपना अंतर खाली लगता है | वह उसमें और अधिक प्रेम भरने के लिए व्याकुल होता है | परंतु भगवान का प्रेम अनंत है | उन्होंने जीवन की रचना की है इतने ब्रह्मांड भर दिए हैं | आध्यात्मिक लोक भौतिक लोक | भगवान का प्रेम अनंत है | मूर्ति रूप में प्रकट होकर अनंत भक्तों के प्रेम को स्वीकार करना उनकी मनोवृत्ति के अनुकूल व्यवहार करना उनको शुद्ध करना यह उनका अनंत प्यार है | यह कोई किसी पर एहसान नहीं करता है भगवान अपने भक्तों से प्यार करते हैं और भक्त अपने भगवान से | दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं और एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते हैं | भक्त भगवान को अपना सब कुछ समर्पण कर देता है | और भगवान भी अपने भक्तों को सब कुछ समर्पण कर देते हैं | छोटी छोटी चीजों के लिए इतना लालायित रहते हैं भगवान हमारे पिता है भगवान का धाम हमारे लिए खुला है और सब चीजें भगवान की है | हमारा अधिकार है पिता की संपत्ति पर परंतु हमें वह कब मिलेगा जब हम पिता को संतुष्ट करेंगे | पिता की सेवा में लगे रहेंगे| सब तरह से उनकी सेवा करते रहें | पिता तो अपना धन संपत्ति बच्चे को दे ही देंगे | उसी प्रकार भगवान भी हमारे परम पिता है | जो भी है गोलोक वृंदावन में है या अन्य स्थानों पर है वह सब भक्तों के लिए ही है | भक्तों को सब कुछ अपना नहीं मान कर रखना चाहिए, यह मानना चाहिए कि सब कुछ भगवान का है और भगवान की सेवा के लिए | भगवान अपने अनंत ऐश्वर्य को त्याग करके भक्तों के लिए अपने बन जाते हैं | भक्त जैसे रहता है भगवान भी वैसे ही रहते हैं | भक्त जो खिलाता है वही भगवान खाते हैं | जब सुलाता है तब सोते हैं जब जगाता है तब जागते हैं | भक्तों की इच्छा अनुसार ही वे उठते और बैठते हैं | इसी तरह से भगवान हमारे हृदय में भी परमात्मा के रूप में है | और कोई हमारा शुभेच्छु नहीं है |
Bg. 5.29
bhoktāraṁ yajña-tapasāṁ
sarva-loka-maheśvaram
suhṛdaṁ sarva-bhūtānāṁ
jñātvā māṁ śāntim ṛcchati
गोपाल भट्ट गोस्वामी के पास शालिग्राम थे, वह नेपाल गए थे तो वहां से शालिग्राम लाये थे | वृंदावन में उनकी सेवा करते थे | नेपाल में बार-बार उनकी कमंडल में शालिग्राम आ रहे थे | एक भक्त कई प्रकार की श्रृंगार पोशाक की सामग्री देखकर सभी मंदिरों में गए थे, गोपाल भट्ट गोस्वामी ने बहुत सोचा कि मैं अपने भगवान को कैसे पहनाउ, तो भगवान रात को ही त्रिभंगी मुद्रा में खड़े हो गए, और उन्होंने उनको वस्त्र आभूषण पहनाये, राधा रमन मंदिर आज आप भी देख सकते हैं | उसमें तीनों संबंध अभिधेय प्रयोजन के भगवान के रूप हैं | इसी प्रकार पूरी के निकट साक्षी गोपाल का मंदिर है | पूरी के एक रानी थी और उनके पास बहुमूल्य मुक्ता था | वो सोचती थी इससे मैं भगवान की नथनी बनवाती अगर भगवान के नाक में छिद्र होता , भगवान उसे सपने में कहां देखो मेरे नाक में छेद है, इस प्रकार भगवान ने उन्हें भक्तों के लिए नाक में छिद्र करवा लिया | भगवान भक्तों की सेवा मूर्ति रूप में ग्रहण ही नहीं करते, बल्कि सेवा ग्रहण करके सुखी भी होते हैं | भगवान भी भक्तों की सेवा करते हैं | माधवेंद्र पुरी को गोविंद कुंड पर गोपाल मूर्ति ने दर्शन दिए, उन्हें दूध भी पिलाया, फिर बाद में उन्होंने सपने में कहा मुझे निकालो मैं यहां हूँ | इस प्रकार माधवेंद्र पुरी की कृपा से श्रीनाथ जी बाहर आए और उन्होंने उनके लिए मंदिर बनाया | बाद में सपने में फिर आए और कहा इतने दिनों में पहाड़ के नीचे था वहां बहुत गर्मी थी, मैं गर्मी से जल रहा हूँ मुझे जगन्नाथ पुरी का मलय चंदन लाकर लगाओ | वे गए और रास्ते में उड़ीसा में गोपीनाथ जी का मंदिर था वहां रुके और वहां की सेवा पद्धति देखें | और आपको पता है कि किस प्रकार की गोपीनाथ ने माधवेंद्र पुरी के लिए एक कटोरा खीर अपने पीछे छुपा लिया था | माधव दास बाबा जी बहुत ही सुंदर भक्तों से और उनको भक्तों ने अलग कर दिया था वह बहुत ही कमजोर हो गए थे, भगवान सिंह आकर कपड़े लंगोटी वगैरह देते थे और उनकी सफाई करते थे, एक बार उन्होंने भगवान का हाथ पकड़ लिया और कहा कि प्रभु सब कुछ आपके हाथ में हैं इस तरह से क्यों आप निकृष्ट कार्य करते हैं, मेरे जैसे तुच्छ जीव के लिए आप यह काम करते हैं आप तो मेरी बीमारी ही ठीक कर सकते हैं तो भगवान ने कहा कि मैं भक्तों की सेवा करके भक्तों को संभाल करके आनंदित होता हूँ | इस प्रकार कई तरह से मूर्तियों की सेवा होती है | 8 तरह की मूर्तियां कास्ठ से निर्मित, शीला से निर्मित, संगमरमर से बनी, धातु से बनी, मिट्टी से बनी, चंदन से बनी, बालू से बनी, चित्रपट, मनोमयी मन में भगवान की मूर्ति होती हैँ | शालिग्राम शिला तो स्वयं भगवान ही है | जहां शालिग्राम है वहां भगवान स्वयं है ही है | दीक्षित होते हैं तो उनके हृदय में प्रेम होता है वे भगवान को ज्यादा समझते हैं| इसलिए दीक्षित लोगों को भगवान की सेवा करनी ही चाहिए | परंतु घर में आप कभी भी शुरू कर सकते हैं | किसी गुरु के निर्देशन में विधि सीख लेनी चाहिए | जिनके पास संपत्ति है उन्हें बड़ा मंदिर बनाना चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग आ सके और वैसे घर को भगवान का ही घर माना जाएगा भगवान सेंटर में रहेंगे और सारे कार्य उनके इर्द-गिर्द होते रहेंगे| कमाओ भगवान के लिए, घर परिवार चलाओ भगवान के लिए, बच्चे पैदा करना है भगवान के लिए, बाजार में शॉपिंग करना है भगवान के लिए | ऐसा सोचना चाहिए कि यह पत्नी बच्चा जो भगवान ने दिया है वह मेरे सुपुर्द किया है मुझे उनकी देखभाल करनी चाहिए | तो भगवान को हमेशा मंदिर में रखना ही चाहिए | जो व्यक्ति जितना खाता है उसी तरह उतनी क्वांटिटी में भगवान को खिलाना चाहिए | सनातन गोस्वामी ने कहा है कि लोक व्यवहार में अपने बंधु को हम वही खिलाते हैं जो उसे पसंद होता है | उसी प्रकार भगवान को जो भी निवेदन किया जाए प्रीति पूर्वक निवेदन करना चाहिए |
patraṁ puṣpaṁ phalaṁ toyaṁyo me bhaktyā prayacchatitad ahaṁ bhakty-upahṛtamaśnāmi prayatātmanaḥ BG 9.26
भक्ति से लबालब भोग भगवान को अर्पण करना चाहिए, भगवान प्रेम के भूखे हैं | भगवान ने दुर्योधन के छप्पन भोग छप्पन क्या कई भोग छोड़कर विदुर जी के घर में आए | भगवान प्रीति के भूखे हैं द्रव्य के नहीं| जो कुछ दिया जाता है भगवान उसे प्रेम से खाते हैं | मूर्ति पूजा में किसी जाति वर्ण का विचार नहीं है| ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र आदि सभी उसके अधिकारी हैं | कोई भी भगवान की सेवा अपने भाव में कर सकता है | मंदिरों में विशेष कर दो दीक्षित भक्त हैं उन्हें सेवा करने का अवसर दिया जाता है | भगवत दीक्षा के प्रभाव से शूद्र आदि भी शुद्ध हो जाते हैं | और विधि भगवान की पूजा कर सकते हैं| यह विचार गलत है कि इसमें इस परिवार में जन्म लिया है| भगवान के नाम स्मरण से शुद्धता आती है | कल उसे चेतना हमारे ह्रदय से निकल जाती है और कोई भी भगवान की पूजा का अधिकारी बन सकता है | इस प्रकार मैंने मंदिर के बारे में और क्यों विग्रह पूजा करनी चाहिए यह बताएं | प्रभुपाद जी ने भी कहा है कि अगर आपके पास पैसा है तो मंदिर बनवाओ बुक छपवा कर बाटो सब को भगवान की सेवा में लगाओ जप करवाओ यह करने से हम स्वयं भी पवित्र होंगे और सामने वाले को भी पवित्र कर देंगे| इस प्रकार हम उन्हें ऊंचा उठा सकते हैं | संसार की जो तकलीफ है वह इसीलिए हैं क्योंकि हम यह बातें नहीं समझ रहे हैं | मैं भी अमेरिका गया था 1971 में | इस आंदोलन से मैं जुड़ा 1972 में | दीक्षा मैंने 1977 में ली | मैं मेडिकल प्रैक्टिस करता था लेकिन भक्तों का संग, कई बार भक्तों को घर में बुलाना मंदिर जाना | पास ही में गुरुकुल था तो मैं भक्तों को कॉल करके उन्हें दवाइयां प्रिसक्रिप्शन देना करता था | प्रभुपाद की कृपा से मुझे उन भक्तों का संग प्राप्त हुआ | मैं आप सब से प्रार्थना करता हूँ कि यह जो सेंटर बन रहा है इसे अधिक से अधिक लोगों को जोड़कर उन्हें भगवान से जोड़ा जाए | लोग भक्त बने भक्त बन कर अपने जीवन को पवित्र करें और गांव गांव में जाकर के भक्ति को वितरित करें | जैसे महाप्रभु एक धोबी के पास आए तो धोबी को लगा कि इन्हे कुछ कपड़े धुलवाने हैं परंतु महाप्रभु ने कहा कि हरि नाम बोलो उससे हरे कृष्ण मंत्र जाप करवाया वह तो बिल्कुल पागल हो गया और उसकी पत्नी रोटी लेकर आई तो वह भी हरि नाम में उन्मत्त हो गई | प्रभुपाद मात्र 3 दिन के लिए रसिया में गए थे और आज रसिया में लाखों-करोड़ों भक्त हो गए हैं | मैं लोकनाथ महाराज से प्रार्थना करता हूं कि वह हमें प्रेरणा और आशीर्वाद दें ताकि हम गांव गांव में हरि नाम को फैला सकें और उनके पद चिन्हों पर चल सके |
अगर वह आ सके तो हम उनके अनुग्रहित रहेंगे, उनका जैसा सरल है कम ही देखने को मिलता है, उनसे मैंने बहुत मार्गदर्शन लिया है|
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 13 फरवरी 2022*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 1067 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। हरे कृष्ण!
आपका स्वागत है। यू आर वेलकम।
*माधव-तिथि, भक्ति जननी, यतने पालन करि। कृष्ण वसति, वसति बलि, परम आदरे बरि॥2॥*
( वैष्णव भजन..)
एकादशी तिथि को माधव तिथि भी कहते हैं। माधव की तिथि, भगवान की तिथि। कोई विशेष प्रसंग, विशेष उत्सव जब संपन्न होते हैं, उसको माधव तिथि कहते हैं। विशेष रूप से यह एकादशी माधव तिथि के नाम से जानी जाती है। माधव तिथि कैसी है? भक्ति जननी अर्थात यह भक्ति की जननी है। माधव तिथि मतलब माधव का कोई उत्सव। आज एकादशी महोत्सव है। इसका पालन करने से हमें अधिक भक्ति प्राप्त होती है। हम अधिक भक्तिमान बनते हैं।
अभी अभी हम कीर्तनीय सदा हरि कर रहे थे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
अब हम थोड़ा नित्यम भागवत सेवया करते हैं। कुछ भागवत कथा का श्रवण करते हैं। हम चैतन्य भागवत से एक कथा का श्रवण करेंगे जो कथा या लीला एकादशी के दिन संपन्न हुई थी। जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिशु ही थे अथवा बालक ही थे या निमाई ही थे, एकादशी के दिन जब उनको शची माता ने जगाया होगा
उठी उठी गोपाला….
यह कृष्ण कन्हैया लाल ही हैं। यह मायापुर गोकुल से अभिन्न हैं। कृष्ण ही श्री कृष्णचैतन्य या निमाई बने हैं, यशोदा शची माता बनी है। जैसे बालक, बालकृष्ण को यशोदा जगाती थी तो वैसे ही बाल निमाई को भी शची माता या यशोदा ने जगा दिया और जगते ही निमाई ने रोना प्रारंभ किया ‘ही स्टार्टड क्राइंग’
कीर्तन करो। कीर्तन करो। चलो हम भी कीर्तन करते हैं। शची माता यह जानती थी कि निमाई जब कभी रोता है तब कीर्तन करने से वह चुप हो जाता है। इसलिए वह कहने लगी कि तुम भी कीर्तन करो। तुम भी कीर्तन करो। नाचो निमाई। नाचो कीर्तन करो। निमाई रोना बंद नहीं करता है। उसका क्रंदन चल ही रहा है। तब फिर निमाई सोचते हुए कहता है कि मैं कीर्तन करते-करते, रोते-रोते जान दे दूंगा। आई विल गिव अप माय लाइफ। अगर आप मुझे बचाना चाहती हो तो कीर्तन नहीं। आज मुझे प्रसाद ग्रहण करना है। मुझे अन्न प्रसाद चाहिए। शची माता के साथ जगन्नाथ मिश्र भी हैं। दोनों ही समझाने बुझाने का प्रयास करते हैं। मत रो! मत रो निमाई! निमाई कहता है कि नहीं, मुझे अन्न प्रसाद चाहिए। मुझे भोग चाहिए नैवेद्य चाहिए। आज तो एकादशी है। एकादशी के दिन अन्न ग्रहण नहीं होता। बेटा! ऐसी शास्त्र में उक्ति नहीं है या वेद प्रमाण नहीं है। एकादशी के दिन अन्न ग्रहण करना वर्जनीय है।
निमाई ने कहा- नहीं! नहीं! मैं नहीं जानता। मुझे अन्न चाहिए। मुझे भोग चाहिए। मुझे भोग चाहिए।
उनके पिता ने कहा-
कहां से लाए, तुम्हारे लिए भोग? तत्पश्चात निमाई ने कहा वह जो जगदीश पंडित, हिरण्य भागवत है ना, उनके घर में आज विशेष पकवान या छप्पन भोग बने हैं। वो मुझे लाकर दो। शची माता और जगन्नाथ मिश्र ने यह बात सुनी तो बोले क्या… क्या उनके घर में अन्न प्रसाद बना हुआ है! विशेष नैवेद्य तैयार है! यह तुमको कैसे पता? उन्होंने सोचा कि यह ऐसे ही कह रहा है। वहां कोई अन्न प्रसाद नहीं होगा। निमाई जब हठ लेकर बैठा ही है। उसका रोना चल ही रहा है।
तब जगन्नाथ मिश्र जाते हैं, जगदीश पंडित और हिरण्य भागवत उनके मित्र ही थे लेकिन बहुत दूर रहते थे। वहां वह जब चल कर गए,पता लगवाया तो सचमुच उन्होंने उस दिन कुछ विशेष पकवान बनाए थे
एकादशी होते हुए भी। वैसे एकादशी का व्रत तो हम साधकों के लिए है। भगवान के लिए तो नहीं है भगवान एकादशी का उपवास नहीं करते। अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए यह जो नियम है, अन्न ग्रहण वर्जनीय है। यह नियम भगवान के लिए लागू नहीं होता। वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु या निमाई उस एकादशी के दिन यह कुछ सिद्ध करना चाह रहे थे या इस बात का थोड़ा सा खुलासा करना चाह रहे थे कि वे कौन हैं? वे स्वयं भगवान हैं, इस बात को छिपाने का प्रयास तो करते ही थे लेकिन कुछ ऐसी लीलाएं/ घटनाएं घटती जिससे पता चल ही जाता और यह बात लीक हो जाती कि ये स्वयं भगवान हैं। जब यह मांग की कि एकादशी के दिन मुझे अन्न प्रसाद चाहिए और उनको पता भी कैसे चला।
जब वे जगदीश पंडित और हिरण्य भागवत के यहां पहुंचे तो इन दोनों को भी बड़ा अचरज हुआ कि आपका घर इतना दूर है। निमाई अभी-अभी तो जगा है और उसको आज पता भी कैसे चला कि आज एकादशी है … उसने कोई घोषणा या अनाउंसमेंट तो नहीं सुनी। न तो वह कोई पंचांग पढ़ता है लेकिन उसको पता कैसे चला कि आज एकादशी है? इतना ही नहीं, आपका घर कई मील दूरी पर है और हमारे घर में और ऐसा विशेष अन्न प्रसाद बना है या भोग बने हैं नैवेद्य तैयार है,यह निमाई को कैसे पता चला? इसी के साथ उनके हृदय प्रांगण में यह बातें प्रकट हो रही हैं। उनको यह साक्षात्कार हो रहा है कि यह जो निमाई है, निमाई स्वयं भगवान हैं। भगवान सर्वज्ञ होते हैं। यह बात छिपी नहीं रह सकती कि हमारे घर में कुछ विशेष भोजन की व्यवस्था हुई है। हमनें कहा कि जब भागवत कथा सुनते हैं तो हम चैतन्य भागवत के आदि खंड के छठवें अध्याय में से यह लीला सुना रहे हैं। चैतन्य भागवत में यह लीला विस्तार से सुनाई है। वैसे चैतन्य चरितामृत में तो एक ही श्लोक या एक ही पयार श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने लिखा है किंतु निमाई की बाल लीला का विस्तार से वर्णन तो वृंदावन दास ठाकुर ने अपने चैतन्य भागवत में किया है। यहां पर हिरण्य और जगदीश कहने लगे
*भुझीलान ए शिशु परम् रूपवान, जानिएही एह देहे गोपाल अधिष्ठान*
( चैतन्य भागवत आदि लीला ६.३०)
आपका जो यह निमाई बालक है, एक तो रूपवान है, बहुत सुंदर है। गौर सुंदर! और यह स्वयं गोपाल है। इसमें गोपाल का अधिष्ठान है या तुम्हारे निमाई में गोपाल की प्रतिष्ठा हुई है।
*ए शिशुर देहे क्रीडा करे नारायण ह्रदय वसिया ये बोलाए वचन।।*
( चैतन्य भागवत आदि लीला ६.३१)
इस शिशु निमाई के हृदय प्रांगण में पूरा हृदय ही नहीं पूरा व्यक्तित्व ही भगवान् है, हृदय से ये वचन निकल रहे हैं। ये मांग कर रहा है मुझे अन्न प्रसाद चाहिए अन्न प्रसाद चाहिए। यह हिरण्यगर्भ व जगदीश पंडित कह रहे हैं
*ए शिशुर देहे क्रीडा करे नारायण*
इस शिशु के देह अथवा निमाई के रूप में नारायण ही लीला खेल रहे हैं।आज एकादशी के दिन अन्न मांग रहे हैं। यह नारायण की मांग है, यह भगवान चाहते हैं।
*द्वि विप्र बोले बाप खाओ, उपहार सकल कृष्ण स्वार्थ हलए हमार*
( चैतन्य भागवत आदि लीला ६.३२)
ले जाओ, ले जाओ, यह सारे उपहार या पकवान जो हमने बनाए हैं, ले जाओ। निमाई को खिलाओ। इससे हमारा जीवन कृतार्थ होगा।
वे यह भी कहते हैं-
*भक्ति विना चैतन्य गोसाई नहीं जानि अनंत ब्रह्मांड यारलोमे कूपे गनि*
( चैतन्य भागवत आदि लीला ६.३५)
जिनके रोम रोम से ब्रह्मांड उत्पन्न होते हैं।.. भगवान तो अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक कहलाते हैं। नायक बनने से पहले उसकी उत्पत्ति भी तो भगवान से ही होती है। भगवान के रोम-रोम से, महाविष्णु के रोम-रोम से एक एक ब्रह्मांड उत्पन्न होता है। हमारे रोम रोम से.. जब हम कभी परिश्रम करते हैं, कुछ दौड़ते हैं तब उस परिश्रम के बिंदु या कुछ स्वेद बिंदु, कुछ जल के बिंदु जैसे हमारे शरीर से उत्पन्न होते हैं जिसको हम पसीना कहते हैं। भगवान के रोम-रोम से ब्रह्मांड उत्पन्न होते हैं। अनंत कोटी ब्रम्हांड। जिन दो भक्तों के घर में अन्न प्रसाद बना था। वे कह रहे हैं, ये तो अनंत कोटी ब्रम्हांड नायक हैं या ये वैकुंठ नायक हैं। यह तुम्हारा है निमाई! कृपया ले जाइए! निमाई को खिलाइए, हमारा जीवन कृतार्थ होगा। जगन्नाथ मिश्र ने वैसा ही किया घर पर जब प्रसाद पहुंचा दिया। प्रसाद तो नहीं कह सकते। भगवान् को भोग लगने के बाद प्रसाद होता है। यह भोग ही है, जब वहां भोग पहुंचाया। निमाई को भोग लगाया। उस भोग को देखते ही निमाई नाचने लगे, कीर्तन करने लगे। प्रसाद को देखते ही उनका मूड चेंज हुआ। रोना बंद और कीर्तन प्रारंभ। साथ में नृत्य हो रहा है-
*कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥*
अर्थ:-
भगवान् कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादम दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।
अब अन्नामृत का पान भी करने वाले हैं। उन्होंने राधा कृष्ण का गुणगान भी प्रारंभ किया। केवल अकेले नहीं, जब सारा नैवेद्य, सारा भोग वहां जगन्नाथ मिश्र भवन, मायापुर में पहुंच गया। तब निमाई ने अपने कई सारे मित्रों को इकट्ठा किया और सभी मिलकर यह प्रसाद या भोग ग्रहण कर रहे हैं । यह लीला ऐसी ही हुई जैसे कृष्ण अपने मित्रों के साथ, ग्वाल बालकों के साथ, यमुना के तट पर कृष्ण लीला में भोजन अपने मित्रों के साथ किया करते थे। स्वयं भी खाते व औरों को भी खिलाते थे, उनके मित्र भी उनको खिला रहे हैं। यह सारा प्रसाद ग्रहण करने का उत्सव या फीस्ट फेस्टिवल है। कीर्तन और गान भी हो रहा है। नृत्य करते-करते वे खा रहे हैं, खिला रहे हैं । कुछ पकवान एक दूसरे के ऊपर फेंक भी रहे हैं।
कुछ उनके शरीर पर मल रहे हैं या मुख में डाल रहे हैं। छोटे बच्चे कुछ खाते हैं, कुछ फेंकते हैं। कुछ अन्न के साथ क्या करते हैं, कुछ क्या करते हैं। वही यहां हो रहा था इस महाप्रसादे गोविंदे..
जब महाप्रसाद का भक्षण निमाई ने अपने मित्रों के साथ किया। एक बड़ा बड़ा उत्सव ही बना। सब बुजुर्ग लोग इस उत्सव को देख रहे थे। शची माता, जगन्नाथ मिश्र और भी पड़ोसी वहां पहुंचे हैं। यह जो क्रीडा प्रसाद या अन्न ग्रहण करने की जो क्रीड़ा है। निमाई बांट रहे हैं। उसके साथ खेल रहे हैं। नाच रहे हैं। एवरीथिंग इज गोइंग ऑन। आज एकादशी है तो एक एकादशी के दिन निमाई ने मायापुर में इस प्रकार की लीला खेली।
*श्री कृष्णचैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य।*
( चैतन्य भागवत)
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान हैं। उन्होंने अपनी भगवत्ता का प्रदर्शन इस लीला के माध्यम से कराया। हमें भी समझना चाहिए या हमें समझाने के लिए यह लीला हो रही है। यह जो नियम है कि एकादशी के दिन अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए, यह हम साधकों के लिए नियम है। वैसे भी मंदिर के या आपके भी विग्रह हैं, उनके लिए नियम नहीं है। आज अन्न ग्रहण नहीं होगा, हे पंढरीनाथ! हे राधा पंढरीनाथ! या हे गोपीनाथ! हे जगन्नाथ! वैसे जगन्नाथपुरी में, वहां के जो पंडा है, वे भी अन्न ग्रहण करते हैं। वे एकादशी का पालन नहीं करते। वे समझते हैं, वैसे यह नियम वैकुंठवासियों और गोलोक वासियों के लिए भी नहीं है। एकादशी है तो अन्न ग्रहण नहीं करना है। जगन्नाथ पुरी के जो पंडा, पुजारी हैं; वह भी खूब…
“जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ।” वे जगन्नाथ का भात, आज के दिन में भी खाते हैं। वे कहते हैं कि नहीं! यह नियम हमारे लिए नहीं है। यह तो साधकों के लिए है। हम तो सिद्ध महात्मा हैं, हम पहुंचे हुए हैं। हम तो भगवान के साथ हैं हम उनके धाम में हैं। ऐसे भावों व विचारों के साथ इस जगन्नाथपुरी में भी, वे जगन्नाथ का प्रसाद/ जगन्नाथ का भात खाते रहते हैं। हरि! हरि! लेकिन हम नहीं खाते। हम तो पालन करेंगे। पहली बात तो हम क्या सोचते हैं, उसकी इस्कॉन के हर मंदिर में अनाउंसमेंट होती है। अनुस्मारक होता है, नो ग्रेन अर्थात आज अन्न ग्रहण नहीं होगा। उसका कारण भी है कि हम अन्न ग्रहण क्यों नहीं करते। सारे संसार भर का पाप एकादशी के दिन उस अन्न में निवास करता है। इसीलिए हम उससे दूर रहते हैं लेकिन वैसे उपवास मतलब फास्टिंग ही नहीं है। उपवास का भावार्थ तो यह है- उप मतलब पास, वास मतलब निवास। भगवान के अधिक पास। भगवान के अधिक निकट। अधिक निकट निकटतर तत्पश्चात संभव है तो निकटतम पहुंचना मतलब भगवान के पास पहुंच गए, तब निकटतम हुआ। कम से कम निकट या निकटतर अर्थात अधिक अधिक निकट पहुंचने का यह दिन है। इसको उपवास कहते हैं। भगवान के पास पहुंचने/अधिक निकट जाने का दिन है। आइए तो हम तो फास्टिंग अर्थात उपवास करेंगे। अन्न ग्रहण नहीं करेंगे या कम अन्न ग्रहण करेंगे अर्थात दूसरा प्रसाद भी हम थोड़ा कम ही खाएंगे। अधिक क्या करेंगे? अधिक होगा- श्रवण, कीर्तन।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह अधिक करने का.. मोर चैंटिंग, अधिक श्रवण, कीर्तन, अधिक नित्यम भागवत सेवया… अधिक साधु संग, भक्तों का सङ्ग करने का यह दिन है। एकादशी के दिन कुछ विशेष विग्रह आराधना/ कुछ विशेष ड्रेसिंग/ श्रृंगार इत्यादि भी होता है। भक्त करते हैं। हमारा जो देहात्मबुद्धि का कंसेप्ट जो है, उसको घटाने अथवा कम करने का … देह ही आत्मा है। ऐसा मानने वाले को देहात्माबुद्धि वाला कहते हैं।
*यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥*
( श्रीमद् भागवतं 10.84.13)
अर्थ:- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता, उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता – ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है
देह ही आत्मा है। ऐसी संसार भर के अधिक लोगों की मान्यता है। देह ही आत्मा है लेकिन नहीं यह झूठ है। यह सच नहीं है। उल्टे है क्या?
*जीवेर ‘ स्वरुप ‘ हय-कृष्णेर ‘ नित्य-दास ‘ ।* *कृष्णेर ‘ तटस्था-शक्ति ‘ ‘ भेदाभेद-प्रकाश ‘ ।।*
(चैतन्य चरितामृत 20.108)
अनुवाद : कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिती है , क्योकि जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय अभिन्न और भिन्न है ।
हम जीव हैं और कृष्ण के दास हैं, नित्य दास है। आज जो शरीर की मांगे हैं, उन मांगो को कम करने का और आत्मा की मांग.. आत्मा की पुकार… आत्मा को कौन चाहिए? आत्मा को भगवान चाहिए। शरीर को मिट्टी चाहिए, यह संसार चाहिए। लेकिन आज के दिन अधिक से अधिक इस बात को ध्यान में रखते हुए कि हम आत्मा हैं। आत्मा की जो मांग है वैसे आत्मा की मांग तो भगवान ही हैं। जब तक यह भगवान प्राप्त नहीं होते, भगवान की पूर्ति नहीं होती। सप्लाई नहीं होती। तब तक हम को रोते ही रहना चाहिए जैसे निमाई रो रहा था। उसकी जो मांग थी- नहीं, मुझे वो भोजन चाहिए। जगदीश के घर में जो भोजन बना है, वो चाहिए। तब तक निमाई रोता ही रहा, जब तक उन्हें भोजन नहीं मिला। वैसे ही जब तक हमें भी कृष्ण प्राप्त नहीं होते, आत्मा को परमात्मा भगवान प्राप्त नहीं होते तब तक हमें भी रोते ही रहना चाहिए। रोते ही रहना चाहिए। हम कैसे रोते हैं-
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह कहते हुए रोना है। जैसे श्रील प्रभुपाद कहा करते थे- चैटिंग लाइक ए क्राइंग बेबी। जैसे बालक का क्रंदन या रोना होता है। जैसे बालक मां के लिए रोता है या हो सकता है उसको कोई और खिलौना चाहिए। जब तक उसे नहीं मिलता तब तक वह रोता ही रहता है। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे, जप कैसा होना चाहिए? जप कैसा होना चाहिए? क्राइंग ऑफ द बेबी अर्थात जैसे बच्चों का रोना होता है। तो रोते रहिए। गाते रहिए।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
जब रोते-रोते हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हुए शरीर में रोमांच और
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।*
*यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।*
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
*अनुवाद :* जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य हैं तथा समस्त गुणों के स्वरूप हैं। ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष हैं मैं उनका भजन करता हूं ।
हम जप कर रहे हैं, कीर्तन कर रहे हैं मतलब रो रहे हैं। क्रंदन कर रहे हैं। आंसू बहा रहे हैं तो फिर *सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।*
वैसे बच्चा जब रोता है तो बड़ा फोकस रहता है। वह सोचता है कि मम्मी, मम्मी कहां है। वह रो भी रहा है और मम्मी को याद भी कर रहा है या हो सकता है कि कुछ खिलौना चाहिए या कुछ मिठाई चाहिए। उसका स्मरण भी करता होगा। वह मिठाई, वह लड्डू, वह खिलौना.. उसको याद करते करते वह रोता रहता है। जब तक प्राप्त नहीं होता, मां आकर, उसको उठाकर गोद में लेटा नहीं लेती हैं या कुछ खिलौना नहीं देती। तब तक वह रोता ही रहता है। वैसे ही हमें भी … कीप चैटिंग एंड चैटिंग एंड चैटिंग ….इसलिए कहा है-
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥*
( चैतन्य चरितामृत आदि लीला 17.21)
अनुवाद:-
” इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है । ”
तीन बार कहा है। जोर दिया है। जप या कीर्तन करते रहिए। जप कीजिए, कीर्तन कीजिए।
*तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥*
( चैतन्य चरितामृत आदि लीला 17.31)
अनुवाद: जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है। जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।”
एकादशी के दिन किए हुए जप, कीर्तन और साधना का अधिक फल है या सफल। भगवान प्राप्त होंगे या भगवान के अधिक निकट हम पहुंच सकते हैं। अधिक गति से। आज की हुई साधना भक्ति के कारण कुछ स्पीड बढ़ेगी इट इज द बूस्ट। इसलिए माधव तिथि भक्ति की जननी है। एकादशी का सदुपयोग करना चाहिए। पूरा लाभ उठाना चाहिए। भक्ति करने का सीजन है- वनडे। सीजन तो कुछ समय के लिए होता है या कुछ वीक्स या मंथ्स। वैसे ही यह 1 दिन का सीजन है। इसलिए पूरा फायदा उठाइए। हरि! हरि! जहां हम स्थित हैं। पंढरपुर धाम की जय!
वैसे हर एकादशी को पंढरपुर में उत्सव होता है। हर एकादशी को उत्सव होता है और हर एकादशी को कई सारे भक्त कीर्तन करते हुए, चलते हुए पदयात्रा करते हैं ।(उसको दिंडी कहते हैं।) यहां आते हैं। उन एकादशियों में कुछ एकादशी या तो विशेष हैं जैसे कि आज की माघ। माघ एकादशी या मागवरी कहते हैं। वारी मतलब बारंबार आना। जो बारंबार आते हैं, उनको वारकरी भी कहते हैं। आज यहां लाखों लाखों लोग या वारकरी या विट्ठल भक्त पहुंचे हैं। यह धाम वैसे नाद ब्रह्म के लिए प्रसिद्ध है। नादब्रह्म, भगवान के नाम का कीर्तन यहां खूब होता है। पूरी रात भर चल ही रहा था और आज यहां पूरे दिन भर होगा। चंद्रभागा में स्नान होगा। सब उन्हीं की सुविधा के लिए हमनें यहां प्रभुपाद घाट बनवाया है। इस्कॉन की जो प्रॉपर्टी नदी के तट पर ही है।(आप आए होंगे तो देखा होगा।) उस प्रभुपाद घाट पर इतनी भीड़ है। इस समय कुम्भ मेले जैसा ही वातावरण यहां बन चुका है। हजारों गांव से, नगरों से यात्री यहां पहुंचे हैं। प्रभुपाद घाट और इस्कॉन पंढरपुर की यात्रा भी चल रही है। यात्री राधा पंढरीनाथ के भी दर्शन कर रहे हैं और घाट पर विट्ठल रुक्मणी का दर्शन। प्रभुपाद घाट पर और लोग बड़ी संख्या में स्नान भी कर रहे हैं। यह विशेष त्योहार है, वैसे अब तक पिछले एक-दो साल से लॉकडाउन ही चल रहे थे। शायद यह पहली मुख्य एकादशी होगी जब लॉक डाउन नहीं है। इसलिए इसका फायदा उठाते हुए कुछ अधिक यात्री आ पुहंचे हैं। निश्चित ही, उनका लक्ष्य तो विट्ठल भगवान का दर्शन भी करना होता है। लंबी कतारों में यात्री खड़े हैं और विट्ठल भगवान की ओर आगे बढ़ रहे हैं। हम आपको जपा सेशन में विठ्ठल और रुक्मणी के दर्शन दिखा रहे थे।
*सुन्दर ते ध्यान उभे विटेवरी| कर कटावरी ठेवलो* ||1||
*तुशीहार गा कासे पांंबर |अवध निरंतरता हेचि ध्यान* ||2||
*मकर केण्डे तपती श्रावण | कंठी कौस्तुभमणी विराजित*||3||
*तुका म्हने मझे हेचि सर्व सुख* *| पाहिन श्रीमुख आवडीने* | |4||
— संत तुकाराम महाराज
ये तुकाराम महाराज का प्रसिद्ध अभंग है जिसको सभी पंडालों में सभी वारिकरी गा रहे हैं। देखिए! वारिकरी! इस्कॉन पंढरपुर मंदिर में भी आ जा रहे हैं। अच्छा होता है कि हम आपको प्रभुपाद घाट का दृश्य दिखाते लेकिन हमनें ऐसी व्यवस्था तो नहीं की । शायद कल भी दिखा सकते हैं वीडियो या कोई फुटेज। ठीक है।
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
10 फरवरी, 2022
हरे कृष्ण हरि हरि बोल। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। वन थाउजेंड वन हंड्रेड सिक्सटिन स्थानों से जप कर रहे हैं। हरि बोल स्वागत है। आप जप करते जाइये, नॉट नाउ अभी नहीं प्रतिदिन, भगवान का पीछा करते रहिए और अपने जीवन में, अपने मन में, हृदय प्रांगण में हरि नाम की स्थापना कीजिए।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || (श्री मद्भगवत गीता 4.8)
अनुवाद – भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ|
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इसी हरि नाम धर्म की स्थापना के लिए प्रकट हुए।
नाम बिना किछु नाहिक आर
चौदह भुवन माझे (श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कृत गीतावली से)
अनुवाद – इन चौदह भुवनों में हरि नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भी कहा करते थे, अपने गीत में उन्होंने गाया भी है। इस हरि नाम भगवान को संभाल कर रखिए। जतन के साथ संभाल कर रखिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
भक्ति विनोद ठाकुर का कहना था कि इन चौदह भुवनों में नाम के बिना और कुछ नहीं है। हरि नाम प्रभु की जय। नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन – नाम नाचता है। हम नाम का उच्चारण करते हैं तो नाम नाचता है। नाम नाचता है मतलब नाम भगवान है भगवान नाचते हैं या नामी नाचते हैं। जीव नाचे और उसके साथ फिर जीव भी इस नाम का उच्चारण करने वाला जीव भी नाचता है। हरिनाम प्रभु की जय। ये जपा कॉन्फ्रेंस चला रहे हैं और जपा टॉक भी है तो इसके पीछे का उद्देश्य हरि नाम की आराधना ही है। हरि नाम का सानिध्य हरि नाम का पीछा किसी भी हालत में नहीं छोड़ना है।
गृह थाको वने थाको, सदा हरि बले डाको।
सूखे दुःखे भूलो नाको, वदने हरिनाम कोरो रे।। (श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कृत गीतावली से)
अनुवाद – हे भाइयों, आप लोग भी घर में रहें या वन में (अर्थात गृहस्थाश्रम में रहें या त्यागी आश्रम में) अथवा सुख में रहें या दुःख में, सदैव भगवान का कीर्तन करें।
सुख में दुःख में हरि नाम को मत भूलिए। वैसे आज एक महान दिन भी है श्री माधवाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय। आप समझ ही गए तिरोभाव तिथि डिसअपीरियंस डे। माधवाचार्य ब्रहम मध्व गौड़ीय संप्रदाय, हम भी मध्व संप्रदाय के ही हैं। हमारे संप्रदाय के आचार्य माधवाचार्य जिसके प्रथम आचार्य हैं ब्रह्मा और कलयुग में ब्रह्मा प्रकट हुए तो उन्होंने भी नाम जप भी किया और बन गए वे नामाचार्य ब्रह्म हरिदास ठाकुर। ब्रह्मा की परंपरा में यह भगवान की व्यवस्था है चार संप्रदाय या परंपराएं भगवान ने स्थापित की है। सृष्टि के प्रारंभ से ही चलती आ रही है। संप्रदाय कहिए या परंपरा कहिए एक ही बात है। कृष्ण ने कहा है –
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप|| (श्री मद्भगवत गीता 4.2)
अनुवाद – इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत: यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
ज्ञान को प्राप्त करना है तो परंपरा में प्राप्त करना चाहिए यही भगवान की व्यवस्था है और पद्म पुराण में लिखा है –
सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः। (पद्म पुराण)
अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फल है।
संप्रदाय के बाहर या विपरित विरोध में कोई मंत्र है तो विफल है, एक सफला एक विफल सफल विफल। इन परंपराओं का संप्रदायों का बड़ा ही महत्व है। कर्म के सिद्धांत को बनाए रखना या पुनः उनकी स्थापना करना।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप – कल के प्रभाव से कुछ दोष या बदलाव आता रहता है। काल बलवान है तो पुनः सुव्यवस्था या परंपरा के सिद्धांतों की पुनः स्थापना के लिए आचार्य समय-समय पर प्रकट होते रहते हैं- जैसे मधवाचार्य कुछ 800 वर्ष पूर्व प्रकट हुए। आचार्य हो तो मधवाचार्य जैसे आचार्य हो। मधवाचार्य उडुपी के थे उडुपी आप जानते हैं कर्नाटक उडुपी नामक प्रसिद्ध और वहां पर उडुपी कृष्ण भी कहते हैं। और वहां के उडुपी कृष्ण भी प्रसिद्ध है। जिस कृष्ण की स्थापना करने वाले मधवाचार्य ही रहे। मधवाचार्य का जन्म तो उडुपी से कोई 8 किलोमीटर दूर हुआ था। उनके पिता का नाम श्री मध्यगेह था। यह प्रतिदिन उडुपी जाया करते थे। भगवान से प्रार्थना करने के लिए कि मुझे विशेष पुत्र रत्न प्राप्त हो। भगवान ने उनकी प्रार्थना सुनी। एक दिन एक भक्त मंदिर के प्रांगण के व्रज स्तम्भ पर चढ़े और वहां से घोषणा करी कि स्वयं वायु देवता किसी प्रदेश में या उडुपी प्रदेश में जन्म लेंगे, प्रकट होंगे। धर्म की पुनः या धर्म के सिद्धांत की पुनः स्थापना करेंगे। ऐसी घोषणा हुई सभी ने सुनी मध्य गेह ने भी सुनी तो उन्होंने मान लिया कि जिस पुत्र के सम्बन्ध में घोषणा हुई यह मेरा ही पुत्र होगा और वैसा ही हुआ। उनका नाम उन्होंने वसुदेव रखा। वसुदेव कृष्ण पांच साल के थे तो इनकी दीक्षा हुई हमें यहां आठ साल रुकना पड़ता है उपनयन होता है गायत्री मंत्र प्राप्त होता है। यह बालक पांच साल का था तो दीक्षित हुए और शिक्षा प्राप्त करने लगे। अच्युत प्रेक्ष नाम के एक महान विद्वान या संत उडुपी के उन से शिक्षा ग्रहण करने लगे और वे कोई ग्यारह साल के ही थे तो वे वैराग्य वान बने, न्यान से ही वैराग्य भी प्राप्त होता है।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ ( श्री मद भागवतम 1.2.7)
अनुवाद – भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहेतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।
इस सिद्धांत के अनुसार अच्युत प्रेक्ष गुरु महाराज की कृपा से हृदय प्रांगण में या जीवन में भक्ति उदित हुई। भक्ति का फल ज्ञान और वैराग्य भी है। ग्यारह साल की अवस्था में वसुदेव ने सन्यास लिया। हम इकहत्तर साल के भी हो जाते हैं तो भी सन्यास का नाम नहीं लेते हैं। वे ग्यारह साल के थे तब सन्यासी बने। नाम हुआ पूर्णप्रज्ञ अच्युत प्रेक्ष ने नाम दिया अपने शिष्य को सन्यासी शिष्य को पूर्णप्रज्ञ न्य मतलब ज्ञान पूर्णज्ञान। हमें यह समझ आना चाहिए कि उन्हें कितना ज्ञान प्राप्त हुआ। वे केवल नाम के ही पूर्णप्रज्ञ नहीं थे। पूर्ण ज्ञानवान हुए और जब वे चालीस दिन के सन्यासी थे तो उन्होंने उडुपी में एक उस समय के प्रकांड विद्वान किंतु वे परंपरा से जुड़े नहीं थे, से शास्त्रार्थ करना चाहते थे। तीन दिनों तक बहुत बड़ी सभा एकत्रित हुई। उस जमाने के क्षेत्र के सभी विद्वान वहां उपस्थित थे और तीन दिनों तक यह विद्वान शास्त्रार्थ करना चाहते थे, अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर रहे थे। तीन दिनों के उपरांत उन्होंने कहा – आप में से कोई है जो मेरी बातों का खंडन करें या विरोध करें। पूर्णप्रज्ञ ने कहा – हाँ मैं हूँ। तो ये मधवाचार्य पूर्णप्रज्ञ उनका नाम, सन्यास दीक्षा का नाम। उनकी विद्वता का क्या कहना, पूर्णप्रज्ञ तो नाम भी मिला और पूर्णप्रज्ञ तो वे थे ही। उसी के साथ वे श्रुति धर्म भी थे तो उस व्यक्ति ने, विद्वान ने जो तीन दिनों तक जो कहते ही रहे, कुछ बकते ही रहे मधवाचार्य को उनकी एक एक बात को दोहराते तीन दिन पहले जो बातें कही थी, दो दिन पहले कल जो बातें कहीं एज इट इज उन बातों को वे कहते मधवाचार्य और उस बातों का खंडन करते मुंडन करतेपरास्त करते। मधवाचार्य विजय घोषित किए गए। मधवाचार्य की ख्याति सर्वत्र फैल गई। ग्यारह साल का बालक इतना प्रकांड विद्वान और उन्होंने उस विद्वान को परास्त किया। उसके उपरांत अच्युतप्रेक्ष उनके गुरु महाराज ने उनका नाम आनंदतीर्थ रखा। पूर्णप्रज्ञ हुए आनंदतीर्थ। यह मधवाचार्य के अलग-अलग नाम है। बेसिकली मधवाचार्य के प्राकट्य का उद्देश्य अद्वैतवाद का खंडन करना था, शंकराचार्य का मत। वैसे यहां शंकराचार्य कुछ आठ पीढ़ी शताब्दी में हुए। रामानुजाचार्य से पहले एक हजार वर्ष पूर्व इस धरातल पर थे। शंकराचार्य ने कहा है-
मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौधमुच्यते। (पद्म पुराण)
अनुवाद – मायावाद आदि असत शास्त्र को प्रच्छन्न बौध कहते है।
मायावाद एक असत शास्त्र है ऐसा प्रभुपाद ने कहा है। ऐसे श्री शंकर ने ही कहा है मायावाद असत शास्त्र है, शंकर पार्वती से कह रहे है कि कलयुग में प्रकट होकर मायावती नाम के सिद्धांत का प्रचार करूंगा। इस मायावाद, निर्गुणवाद, को परास्त करने के उद्देश्य से भी, भगवान ने चारों संप्रदाय के आचार्य प्रकट करवाएं हैं और उनसे यह कार्य करवाए हैं। रामानुजाचार्य, मधवाचार्य, निंबार्काचार्य, विष्णु स्वामी। इनके प्राकट्य का या प्रचार का एक उद्देश्य मायावाद का खंडन करना है, मायावाद के संबंध में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा है-
जीवेर निस्तार लागि” सुत्र कैल ब्यास।
मायावादि-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 6.169)
अनुवाद – श्रील व्यासदेव ने बद्धजीवों के उद्धार हेतु वेदान्त-दर्शन प्रस्तुत किया, किन्तु यदि कोई व्यक्ति शंकराचार्य का भाष्य सुनता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है।
मधवाचार्य ने पूरे भारत का भ्रमण किया, जहां भी गए वहां पर अद्वैतवाद का खंडन किया। जैन और बौध तो नास्तिकवाद है, ये भगवान को मानते ही नहीं, शायद आपने सुना या समझा होगा की नहीं। ये नास्तिक है। जैन और बुद्ध भगवान नामक कोई सत्ता है नहीं मानते है। इनको भारत भर में परास्त करते हुए मधवाचार्य बद्रिकाश्रम तक पहुँच जाते है। बद्रिकाश्रम में श्रील व्यास देव के उनको दर्शन होते है। आप जानते हो बद्रिकाश्रम श्रील व्यास देव का धाम हैं, वहां गुफा है जहाँ वे निवास करते है। वहां उनको साक्षात् दर्शन हुए, व्यास देव के साथ मुलाकात हुई, वार्तालाप हुआ। उनको केवल दर्शन ही नहीं हुए उनका श्रील व्यासदेव के साथ सम्भाषण भी हुआ। मधवाचार्य के परंपरा का नाम क्या है? ब्रह्म, व्यास, मध्व और फिर गौडीय, हम लोग गौडीय वैष्णव संप्रदाय के ।
मधवाचर्या को श्रील व्यास देव ने दर्शन दिए। श्रील व्यास देव जो भगवान के अवतार, सभी शास्त्रों के रचीयता और मधवाचार्य की भगवत गीता का जो भाष्य है उसको श्रील व्यास देव ने मान्यता दी, उसको स्वीकार किया। मधवाचार्य कि भगवत गीता की कॉमेंट्री प्रसिद्ध है जिसे व्यास दैव ने मान्यता दी है। मधवाचार्य बड़े बलवान थे वे वायु के अवतार हैं। इस सृष्टि में बलवानों में वायु बलवान है और मधवाचार्य बड़े बलवान थे। वे ज्ञान वान भी थे और बलवान भी थे। वे शारीरिक दृष्टि से बलवान थे। एक समय एक बाघ ने मधवाचार्य के सन्यासी शिष्य पर हमला किया। मधवाचार्य वहीं पर थे वे आगे बढ़े और बाघ और शिष्य के बीच में भी आए। वे बाघ के साथ में लड़े और बाघ वहां से पलायन कर गया। जब कुत्ते आपस में लड़ते हैं तो परास्त कुत्ता अपनी पूंछ को पीछे के पैर में दबाते हुए भाग जाता हैं ठीक उसी की तरह बाघ भी वहां से चला गया। एक समय की बात है इसमे उनके शक्ति सामर्थ्य का प्रदर्शन हैं एक बोट अरब सागर में द्वारका से उडुपी की ओर आ रही थी। मधवाचार्य समुद्र के तट पर थे लेकिन उस समय अचानक आंधी तूफान शुरू हुआ और यह नौका डगमग हो रही थी। आप लोग कल्पना कर सकते हो और डूबने की स्थिति में थी तो जो सामान ढोकर ला रहे थे वे बचाओ बचाओ पुकारने लगे तो मधवाचार्य ने मदद करी मधवाचार्य जो वायु देवता प्रकट हुए आचार्य के रूप में आंधी तूफान जो चल रही थी उसको उन्होंने शांत किया। इससे सभी को आश्वस्त और प्रसन्नता भी हुई। उन्होंने मधवाचार्य को जहाज में रखे आइटम में से एक भेंट दी। उन्होंने कहा धन्यवाद और उस भेंट को सिर पर ढोकर ले आए और खोलकर देखते हैं तो उसमें कृष्ण के विग्रह है। उसी कृष्ण की उन्होंने उडुपी में स्थापना करी और वे श्री कृष्ण, उडुपी कृष्ण के नाम से प्रसिद्ध हुए। मधवाचार्य ने इस विग्रह कि खूब अर्चना, आराधना करी विधि विधान के साथ लगन के साथ उडुपी कृष्ण की आराधना करते। इस बात से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी प्रसन्न थे। आप जानते हो कि चैतन्य महाप्रभु के अनुसार चार संप्रदाय है हर संप्रदाय से दो – दो जो अच्छे गुण हैं उनको स्वीकार किया है तो चैतन्य महाप्रभु ने मधवाचार्य संप्रदाय से एक तो अर्चना- विग्रह की आराधना को आदर्श रहा उसको स्वीकार किया और दूसरा है मायावाद का खंडन। मधवाचार्य का जैसे हम चित्र देखते हैं या दर्शन करते हैं उनकी दो उंगलियां या तो विक्ट्री भी कहिए उसको मायावाद को डिफीट किया तो विक्ट्री का ही प्रदर्शन है या वह कह रहे हैं कि एक नहीं दो – दो जीवात्मा है। भगवान है और दोनों सास्वत है इस बात के साथ उन्होंने द्वैतवात सिद्धांत की स्थापना करी। यदि वे ऐसा कार्य नहीं करते तो हमारा पूरा भारत वर्ष मायावाद से ग्रस्त अभी कुछ है बचा हुआ है लेकिन मधवाचार्य के समय रामानुजाचार्य के समय हाल बहुत बुरा था। इन चारों आचार्यों ने मधवाचार्य द लीडर मायावाद के खंडन की बात है मायावाद को परास्त करने की बात है तो इन चारों आचार्य ने संप्रदाय के चारों आचार्य ने मधवाचार्य इज द बेस्ट। मधवाचार्य लीडिंग आचार्य जब मायावाद के खंडन की बातें आती है इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने मायावाद की खंडन की बातों को अपने संप्रदाय में मतलब गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय में स्वीकार किया और हम भी ऐसा ही करते हैं। परंपरा में मायावाद भाष्य से दूर रहते हैं ।
तुकाराम महाराज अपने अभंग में कहते हैं –
‘अद्वैत अति वाणी, न को माझा काणी’
अनुवाद – अद्वेत की जो वाणी हैं, वचन है वह मैं अपने कान से नहीं सुनना चाहता हूं।
श्रील प्रभुपाद भी अपने तात्पर्य में अपने प्रवचन में कहते ही रहते हैं। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर वे सिंह गुरु कहलाते थे, किसलिए ? वे भी मायावाद को परास्त करते रहे । अपने यात्रा और प्रचार में वे मायावाद को टारगेट करते थे इसीलिए वे सिंह गुरु कहलाए। ऐसे मधवाचार्य और भी ऐसी कई बातें हैं। आज पूरा संसार मधवाचार्य संप्रदाय और गौडीय संप्रदाय संसार भर में मधवाचार्य के तिरोभाव तिथि उत्सव मना रहे हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि उन सभी को शक्ति, बुद्धि दे। उनके दिए हुए सिद्धांत को हम भी कुछ समझ सके और यथासंभव उनका प्रचार प्रसार करते रहे ऐसा प्रमेय रत्नावली नामक ग्रन्थ बलदेव विद्याभूषण लिखते है कि गौडीय वैष्णव संप्रदाय और मधवाचार्य संप्रदाय दोनों अलग अलग सिद्धांत हैं दोनों भिन्न भी हैं। हम गौडीय हैं । दो सिद्धांत दोनों में एक हैं। मध्वाचार्य संप्रदाय के आचार्य लक्ष्मीपति तीर्थ, माधवाचार्य व रामानुजाचार्य में डेढ़ सौ दो सौ वर्षों का अंतर हैं। माधवाचार्य के बाद सात आठ आचार्य रहे होंगे। लक्ष्मी तीर्थ के शिष्य बने माधवेन्द्र पूरी, माधवेन्द्र पूरी के साथ माधवाचार्य संप्रदाय की एक और शाखा बनी और उस शाखा का नाम हुआ ब्रह्म मध्व गौडीय संप्रदाय।
माधवेंद्र पुरी के शिष्य हुए ईश्वर पुरी और ईश्वर पुरी के शिष्य हुए भगवान श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु बने और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ब्रह्मा मध्व गौड़ीय संप्रदाय में प्रकट होकर गौडीय संप्रदाय का प्रचार किया। हमारे यह सिद्धांत हैं जो विशेष हैं और चारों संप्रदायों
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं
रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।। (चैतन्य मंज्जुषा)
अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है।
इस मंत्र में श्लोक में चैतन्य महाप्रभु का मत है, गौडीय वैष्णव का सिद्धांत है। इन सिद्धांतों के कारण हम बन गए ब्रह्म मध्व गौडीय वैष्णव। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि परंपरा में आने वाले वैष्णव। उनके चरणों में प्रार्थना हैं कि हम भी विचार करें जो बातें उन्होंने संसार को सिखाई, समझाई । चेतन महाप्रभु ने दो बातों को स्वीकार किया मायावाद का खंडन, विग्रह आराधना। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*09 -02 -2022*
(भीष्म अष्ठमी के उपलक्ष्य में )
(श्रीमान धमर्राज प्रभु द्वारा)
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हरे कृष्ण ! सर्वप्रथम मैं अपने आदरणीय गुरु महाराज के श्री चरणों में दंडवत प्रणाम अर्पण करता हूं और साथ ही साथ जो वैष्णव भक्त वृन्द हैं उनके चरणों में भी मैं अपना प्रणाम अर्पित करता हूं। आज भी कल की तरह ही जो की भीष्म अष्टमी थी तो आज भी हम यह 2 दिन का सत्र जारी रखेंगे। कल जैसे कि भीष्म देव क्या थे ?अपने पूर्व जन्म में वसु थे और किस प्रकार उन्होंने वशिष्ठ मुनि की नंदिनी गाय की चोरी की, बाद में श्राप के रूप में या सजा के रूप में उनको इस भूमि पर जन्म लेना पड़ा और फिर बाद में किस प्रकार का जीवन रहा यह हमने देखा। आज मुझे कहा गया है कि भीष्म देव किस प्रकार अपने जीवन के द्वारा क्या शिक्षा एक साधक के रूप में हमको देते हैं। जैसे हम लोग एक भक्त हैं इस्कॉन के भक्त हैं तो हम लोगों को क्या शिक्षा उनसे प्राप्त होती है हमें आज उसकी चर्चा करनी है। यह महत्वपूर्ण है कि जैसे ही हम भीष्म देव का नाम सुनते हैं तो उनकी भीषण प्रतिज्ञा हम को ध्यान में आती है या जिन्होंने एक निश्चय के साथ अपनी प्रतिज्ञा को निभाया बहुत ही सरल भक्तिमय जीवन में क्योंकि श्रील रूप गोस्वामी उपदेशामृत में बताते हैं।
*उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति ॥*
(उपदेशामृत – 3)
अनुवाद- भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना
(२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्–कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
वह बताते हैं की भक्ति में उत्साह निश्चय और दृढ़ता बहुत जरूरी है और पूरे जीवन का यदि हम उनका चरित्र पढ़ते हैं सुनते हैं यह समझते हैं तब निश्चित रूप से यह स्वीकार करना ही चाहिए भीष्म देव अपने पूरे जीवन के प्रवास में अपने सफर में बहुत ही फाइन कार्य करते हैं क्योंकि भीष्म देव भगवान विष्णु के भक्त जो कि एक महाजन भी हैं उनमें यह उत्साह हर समय पाया जाता है और जो निश्चय था उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी की आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा। उस प्रतिज्ञा को निभाने के लिए उनका जो दृढ़ निश्चय था तो बहुत ही उसकी सराहना की जाती है और एक विशेष गुण पाया जाता है त्याग की भावना, वैसे देखा जाए शांतनु महाराज के सबसे बड़े पुत्र होने के नाते वे राजा बनने वाले थे। कितना सुनहरा अवसर था गोल्डन अपॉर्चुनिटी, उनके लिए किंतु फिर भी उन्होंने अपने पिता को प्रसन्न करने के लिए क्या किया? उन्होंने इस का त्याग कर दिया कि मुझे भविष्य में राजा नहीं बनना है उस विचार को भी उन्होंने त्याग दिया और उन्होंने पूर्ण रूप से इसे स्वीकार किया कि मुझे क्या करना है बस यहां पर जो मैंने स्वीकार किया है ब्रह्मचारी व्रत का, उसका मुझे आजीवन पालन करना है। इसी प्रकार से जो त्याग है। मंदिर में भक्त हैं वह देखते हैं कभी-कभी जैसे कोई पद मिल जाता है ऐसी स्थिति में आज हमारे पास पद हो या ना हो हमें क्या करना चाहिए यदि हमारे पास में पद हो तो हमें उसका त्याग भी करना पड़ता है या पद हमारे पास होता भी नहीं है ऐसे हर स्थिति परिस्थिति में हमें भगवान की भक्ति में लगे रहना चाहिए। आज हमें यह मिलेगा कल हमें वह मिलेगा या कुछ मिलेगा भी नहीं जैसे एक कहावत भी है “कभी गाली कभी थाली दोनों प्रेम से खाली” कोई भी स्थिति हो हमें हर समय भक्ति में लगे रहना है।
भीष्म देव के इस उदाहरण से हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए, भीष्म देव किसी भी परिस्थिति में हों हर समय संतुष्ट रहते थे। दूसरा उदाहरण है जैसे जब वो बाण शैया पर थे और वे बहुत अधिक किसी सुखासन में नहीं थे चलो आराम से लेटे हैं, वे बहुत ही कठिन परिस्थिति में थे और ऐसी कठिन परिस्थिति में मिलने के लिए जब उनसे ऋषि मुनि आने लगे, क्योंकि उनको पता लगा कि भीष्म देव अभी अपना प्राण त्यागने वाले हैं इसलिए उनसे मिलने के लिए और उनका दर्शन करने के लिए लोग अलग-अलग स्थानों से आ रहे थे ऐसी विशेष स्थिति में भी उन्होंने भागवत में एक श्लोक आता है
*तान् समेतान् महाभागानुपलभ्य वसूत्तमः । पूजयामास धर्मज्ञो देशकालविभागवित् ॥* ॥ (श्रीमदभागवतम १. ९. ९ )
अनुवाद- आठ वसुओं में सर्वश्रेष्ठ भीष्मदेव ने वहाँ पर एकत्र हुए समस्त महान् तथा शक्तिसम्पन्न ऋषियों का स्वागत किया , क्योंकि भीष्मदेव को देश तथा काल के अनुसार समस्त धार्मिक नियमों की भलीभाँति जानकारी थी ।
यह बताते हैं कि अलग-अलग स्थिति में भी अर्थात उस स्थिति में भी भीष्म देव ने उनका स्वागत किया जबकि वह हाथ भी नहीं जोड़ सकते थे किसी को प्रणाम भी नहीं कर पाते थे ऐसी स्थिति होने के बाद भी उन्होंने भली-भांति सबका स्वागत किया। कैसे स्वागत किया? श्रील प्रभुपाद बताते हैं कि उनके स्वागत करने का तरीका क्या था “मृदु वचन” प्रभुपाद बताते हैं कि जब हमारे यहां कोई अतिथि आते हैं उनका स्वागत करने के लिए हमें क्या करना चाहिए ? उनको प्रणाम करना चाहिए और मृदु वाणी से बोलना चाहिए और फिर बाद में उनको आसन देना चाहिए, जल देना चाहिए, उसको कुछ खिलाना चाहिए यहां तक कि श्रील प्रभुपाद बताते हैं कि हमारी वैदिक संस्कृति में यह भी बताया गया है यदि हमारे घर में शत्रु भी आ जाए ,उसका भी हमें इस प्रकार से स्वागत करना चाहिए कि शत्रु भी शत्रुता भूल जाए। यहां पर भी सुनते वह सारी चीजों को करने में समर्थ नहीं थे फिर भी उन्होंने क्या किया, धर्मज्ञो देशकालविभागवित् उन्हें पता था कि यदि इस वक्त स्वागत करना है तो मधुर वचन के द्वारा उन्होंने सभी का स्वागत किया। यहां तक कि जब भगवान श्रीकृष्ण भी आए , उन्होंने वहां पर उनको दंडवत प्रणाम नहीं किया अपितु बहुत ही सुंदर मुस्कान उनके मुख पर थी और वहां पर लिखा है कि उन्होंने विधिवत पूजा की, अब देखिए विधिवत यहां पर उस वक्त यह नहीं कि उनकी आरती करनी चाहिए यह पूजा करनी चाहिए, यहां पर विधिवत कहा गया है कि उन्होंने हृदय से जिसमें अत्यधिक तीव्र भाव था उनका स्वागत करने का, इसीलिए उन्होंने क्या किया ? उन्होंने सभी चीजें अपने ह्रदय से ही अर्पित की भगवान के चरणों में और ऋषि-मुनियों के साथ में भी, उन्होंने ऐसा ही किया सबका स्वागत किया इसीलिए हम देख सकते हैं कि उनमें विशेष गुण हैं “मानद” जैसे कि 26 गुण हैं तो उनमें से एक है मानद अर्थात सब को सम्मान देना, इसी प्रकार जब हम देखते हैं कि हम मंदिर में रह रहे हैं और अलग-अलग प्रकार से भक्त आ रहे हैं उनका भी हमें समुचित तरह से स्वागत करना चाहिए और जो घर में रहने वाले भक्त हैं उनको भी चाहिए कि जैसे कि कोई अतिथि आता है तो अतिथि देवो भव: कहा है। पहले कोई मैसेज नहीं दे सकते थे और ऐसे ही आ जाते थे। अब मैसेज दे कर आते हैं तो हम कह देते हैं कि अभी तो हम यहां पर नहीं हैं जबकि होते वही हैं लेकिन फिर भी कहते हैं कि आज हम आउट ऑफ स्टेशन है।
लेकिन आपने जैसा कि सुना भी होगा शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज को भागवतम के पांचवे स्कंध के अंत में नरकों का वर्णन करते हैं। उसमें एक ऐसा भी नर्क है यदि कोई अतिथि घर पर आता है तो उसको अच्छी तरह से मतलब स्वागत में हंसी भी नहीं, बल्कि कुटिल दृष्टि डालते हैं। तो उन्हें ऐसे नर्क में जाना पड़ता है जहां पर अलग-अलग प्रकार के पक्षी होते हैं और वह क्या करते हैं उनकी आंखों को निकाल लेते हैं क्यों ?क्योंकि वह कहते हैं कि तुम्हारी यह वही आंखें हैं जिन्होंने अतिथियों पर वक्र दृष्टि या कुटिल दृष्टि डाली थी। इस प्रकार से हम समझ सकते हैं कि भीष्म देव यह कह सकते थे कि मैं किस प्रकार अभी स्वागत कर सकता हूं इस अवस्था में, मैं तो पडा हुआ हूं मैं अभी वयोवृद्ध हूं और मृत्यु शैया पर हूं और वह भी साधारण नहीं है बाणो की शैया है किंतु फिर भी उन्होंने क्या किया, उन सभी का विशेष रूप से स्वागत किया और उनसे कुछ अपेक्षा नहीं की, हमें भी वैष्णव के प्रति, गुरुजनों के प्रति अथवा जो अन्य नए लोग हैं उनके प्रति हर समय सम्मान की भावना रखना बहुत आवश्यक है।
हमें एक और भी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए भीष्म देव जब स्वयं ही इतनी कष्ट स्थिति में हैं तभी उन्होंने युधिष्ठिर महाराज से क्या कहा, कि आप बहुत कष्ट पूर्ण स्थिति में हो और बहुत दुख झेल रहे हो आप सभी लोगों ने बहुत ही दुख का अनुभव अपने संपूर्ण जीवन में किया, कुंती महारानी ने भी अपने संपूर्ण जीवन में दुख का अनुभव किया, आप पांडवों को हर समय कष्ट मिला। लेकिन हमें क्या करना चाहिए हमें हर समय सहन करना चाहिए और साथ ही साथ सांत्वना भी दे रहे हैं कह रहे हैं कि भगवान की अचिन्त्य योजना के कारण यह सब कुछ हुआ है इसीलिए किसी पर उंगली नहीं उठा रहे हैं किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा रहे हैं स्वयं को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
जैसे श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों को बताते हैं कि किस प्रकार से सब्जी कटिंग करना है वह सिखा रहे थे कि किचन में, नए-नए दिनों में एक शिष्य की उंगली कट गई , उसने पूछा श्रील प्रभुपाद यह कैसे हो गया मेरी उंगली कट गई क्यों ? जब की आपने जैसे बताया था मैं तो वैसा ही कर रहा हूं मैं तो नाम जप कर रहा हूं तो फिर ऐसे कैसे हुआ ? प्रभुपाद ने कहा कि आप नाम जप कर रहे हो इसीलिए केवल उंगली ही कटी है वास्तव में तो आज आप का गला कटने वाला था। इस प्रकार से श्रील प्रभुपाद हमें बताते हैं कि हमें किस प्रकार सहिष्णु होना चाहिए, किस प्रकार वह हमें बताते हैं कि हर चीज के पीछे भगवान की योजना है,भगवान की अचिंत्य योजना है, हमें यह स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार भीष्म देव ने हमें यह शिक्षा प्रदान की हमारे जीवन में कुछ ना कुछ उतार-चढ़ाव होते ही रहते हैं फिर भी हमें डटे रहना चाहिए चलो यह तो भगवान की योजना ही है भगवान जो चाहते हैं वही होता है उसके बाद भीष्म देव युधिष्ठिर महाराज को यह बताते हैं जो तुम्हारे साथ में खड़े हुए हैं कृष्ण, यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है जिनको अपना सगा संबंधी या अलग-अलग रिश्ते से देख रहे हो, यह स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। अर्थात उनको भ्रम में नहीं डाला बल्कि स्पष्ट रूप से उन्होंने बताया यह तत्व वेता हैं। इसलिए हमें भी घुमा फिरा कर नहीं बताना चाहिए कि यह हो सकता है वह हो सकता है श्री कृष्ण दास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरित्रामृत में बताते हैं।
*सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।।* ( चैतन्य चरितामृत 2 .117)
अनुवाद-निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को विवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है।
हमें कृष्ण के सिद्धांत के तत्व को समझने के लिए अलग नहीं करना चाहिए हमें क्या करना चाहिए हर स्थिति में तत्व को समझने के लिए लालायित रहना चाहिए जिससे कि हमारा मन कृष्ण में शुद्ध रूप से स्थापित हो जाएगा। इसीलिए श्रील प्रभुपाद भी जब भी अवसर मिलता था तुरंत ही शास्त्रों से प्रमाण देते थे श्लोक का उच्चारण करते थे। विदेशों में भी सब लोग आश्चर्यचकित होते थे। एक बार श्रील प्रभुपाद जा रहे थे एयरपोर्ट में थे तो वहां पर एक कैप्टन मिला उसने पूछा कि भगवान कौन हैं? फिर प्रभुपाद ने तुरंत ही बताया
*ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः । अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥*
(ब्रम्हसंहिता ५. १)
अनुवाद – सच्चिदानन्दविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं वे अनादि, सबके आदि और समस्त कारणोंके कारण हैं
तुरंत ही उन्होंने श्लोक बताया और फिर अनुवाद बताया, फिर प्रभुपाद ने कहा कि हमारी संस्था का नाम क्या होगा “इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कॉन्शसनेस” किसी ने कहा श्रील प्रभुपाद हम कृष्ण का नाम लेने की जगह है गॉड कॉन्शसनेस कहेंगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा सभी को अच्छा लगेगा। श्रील प्रभुपाद ने कहा, नहीं ! नहीं! गॉड तो कृष्ण हैं। कृष्ण ही सुप्रीम पर्सनैलिटी ऑफ गॉड हेड हैं। जब गॉड कृष्ण ही हैं तो हम कृष्ण का नाम ही क्यों ना लें। घुमा फिरा कर बताने की जरूरत ही क्या है कृष्ण है और वही बताना है। इस प्रकार से हम सीख सकते हैं यदि हमें कहीं ज्ञान देना है या बताना है कृष्ण ही भगवान हैं।
*एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥*
(श्रीमद भागवतम १. ३ २८)
अनुवाद- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
यहां तक की शुकदेव गोस्वामी ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि कृष्ण ही भगवान हैं और भीष्मदेव इतने दयालु हैं कि कह रहे हैं इतने कष्ट में आपने रखा है तो कैसे आप दयालु हो सकते हैं ? लेकिन नहीं उन्होंने कहा बहुत दयालु हैं और मुझ पर कृपा करने के लिए यहां भी पहुंच गए और देखिए देखते हैं विदुर के संवाद में उद्धव कहते हैं विदुर जी से कृष्ण इतने दयालु हैं
*अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥*
(श्रीमद भागवतम ३. २. २३)
अनुवाद- ओह , भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उस असुरिनी ( पूतना ) को माता का पद प्रदान किया , यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था ?
और कौन दयालु हो सकता है कृष्ण के अलावा, क्यों? क्या खासियत है उनमें? तो बताते हैं कि जो पूतना अपने स्तन में कालकूट का जहर लगा कर आई है कृष्ण को मारने के उद्देश्य से, कृष्ण ने यह नहीं देखा कि यह जहर लगा कर आई है उन्होंने यह देखा कि अरे यह तो मुझे स्तनपान करा रही है। यह तो मेरी मां है धात्री है। धात्री का स्थान दिया और इस प्रकार कहा कि इससे दयालु और कौन है जिसकी मैं शरण ग्रहण करू, हर तरह से उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिए हमें और उनकी शरण में रहना चाहिए। जैसे ब्रह्मा जी स्तुति करते हुए कहते हैं भगवान की
*तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् । हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥* (श्रीमदभागवतम १०. १४. ८)
अनुवाद- हे प्रभु जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन, वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा प्रदत्त किये जाने की प्रतीक्षा करता है , वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है ।
ब्रह्मा जी कहते हैं कि कृष्ण आपके जो शुद्ध भक्त हैं वह क्या करते हैं हर समय तत्तेऽनुकम्पां कितना भी दुख क्यों ना आए कितना भी संघर्ष क्यों ना हो क्या सोचते हैं कि आपकी कृपा है, वह क्या करते हैं बड़े धैर्य के साथ में सहन करते हैं और कहते हैं कि यह सब कुछ जो भी हो रहा है वह सब कुछ मेरे ही कर्मों के कारण मुझे कष्ट हो रहा है और इतना ही कह कर नहीं छोड़ते बल्कि कहते हैं अपने हृदय से वाणी से और शरीर से, भगवान की स्तुति उनकी सेवा जारी रखना छोड़ते नहीं हैं। ऐसी स्थिति में क्या है जीवेर मुक्ति, ऐसी स्थिति में जो ऐसा सोचता है वह बताते हैं कि ऐसा व्यक्ति आपके धाम में जाने का अधिकारी बन जाता है। जिस प्रकार पिता की संपत्ति पुत्र को मिल ही जाती है इसी प्रकार आप के धाम में जाने का क्या होता है दाये भाक उसका अधिकार बन जाता है क्योंकि वह पुत्र है आपका और पुत्र अपने पिता की संपत्ति को प्राप्त करने का अधिकारी होता है। किंतु कौन सा पुत्र ?जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा का पालन करता है पिता जो कहते हैं उसको सुनता है। इसी प्रकार आपका जो शुद्ध भक्त है वह भी हर प्रकार से कष्ट को सहते हुए आपकी ही भक्ति करता है आप की शरण में रहता है। यह हमें भीष्म देव के उदाहरण के द्वारा देखने को मिलता है। हमारे जीवन में भी ऐसे प्रसंग आए होंगे आ रहे होंगे या आएंगे भी, भविष्य में भूत वर्तमान भविष्य कब कौन सा फल उदित हो जाए, पता नहीं होता। ऐसी हर स्थिति में हम को भगवान की शरण में रहना चाहिए उनका नामों का उच्चारण करते हुए और युधिष्ठिर महाराज ने उनसे पूछा भीष्म देव, जो विभिन्न धार्मिक कृत्य हैं उनके जो अनिवार्य सिद्धांतों के बारे में पूछ रहे थे उनको बताते हैं सभी मनुष्यों की जो अलग-अलग प्रकार की योग्यताएं हैं सही में विशेष रुप से क्या योग्यता होनी चाहिए ? उसका भी वर्णन करते हैं और जिन योग्यताओं का वर्णन करते हैं वह सभी योग्यताएं भीष्म देव् में स्वयं भी हैं इसीलिए वह बताते हैं कि क्या योग्यता होनी चाहिए। उसमें से एक है सत्य बोलना चाहिए।
भगवान ही सत्य हैं यह मानना चाहिए सत्य वचन ही बोलना चाहिए। कभी-कभी सत्य को अलग-अलग रूपों में लिया जाता है किंतु यहां पर जो बताया गया है विशेषकर परम भगवान के विषय में है कि उनके विषय में वास्तविक रुप से सत्य बताना चाहिए लोगों को और दूसरा उन्होंने कहा क्षमा करना, वैष्णव का बहुत विशेष गुण माना जाता है और श्रील प्रभुपाद भी बताते हैं कि क्षमा करना ब्राह्मणों या वैष्णव का गुण है क्योंकि क्षमा वही कर सकता है जो कि सहनशील है यदि सहनशील है तभी वह सहन करता है वह अपने मन में कुछ नहीं रख सकता इसीलिए क्षमा कर देता है। एक बार मुझे स्मरण हो रहा है बहुत वर्षों पहले की बात है अब गुरु महाराज और हमारी मीटिंग हो रही थी अलग-अलग भक्त बैठे हुए थे और एक भक्त उनमें से ऐसा था जो कि किसी कारण से छोड़कर चला गया था इस्कॉन छोड़ कर गया था ऐसा ही शायद कुछ था तो हम सभी कह रहे थे कि क्या करना चाहिए। इतना अनुकूल भाव से चर्चा नहीं हो रही थी हम सब की, तब गुरु महाराज जो कि हम सब की बातें सुन रहे थे उन्होंने कहा कोई बात नहीं यदि उसने छोड़ दिया है जो भी है चाहे वह मुझे छोड़ दे किंतु मैं उसे हर समय अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लूंगा ऐसा गुरु महाराज बात करते हैं। हम यह सोच भी नहीं सकते हैं कि किस प्रकार गुरु महाराज ने उसे सहन किया और क्षमा किया, भले क्यों ना उसने दुर्व्यवहार किया शिष्य के रूप में, उन्होंने उसे हर समय स्वीकार किया अतः क्षमा करना यह बहुत ही आवश्यक है।
क्षमा करने से जैसा कि कहा गया है कि यह कनिष्ठ अधिकारी है मध्यम अधिकारी है या उत्तम अधिकारी है उसमें जो कनिष्ठ स्तर के भक्त हैं वह मध्यम स्तर तक तभी पहुंच सकते हैं जब उनमें एक क्षमा नाम का गुण आ जाता है। क्यों क्षमा गुण इतना महत्वपूर्ण है क्योंकि जब हम क्षमा करते हैं तब हम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते उसके बारे में,अलग से अर्थात कोई भी गलत धारणा रखता है तो वह सदैव कनिष्ठ स्तर पर ही रहता है क्योंकि गलत धारणा मन में भी है तो वह उसके मुख से भी निकलेगी उसके व्यवहार से भी आएगी इस प्रकार से चर्चा होगी, तो क्या होगा वह कुछ कंप्लेन करेंगे यह सब कनिष्ठ भक्तों का लक्षण है। किंतु जो मध्यम अधिकारी होता है वह क्या करता है उस भक्तों को क्षमा कर देता है। उससे क्या होता है कि उसके मन में किसी भी प्रकार की दुर्भावना या बदले की भावना से नहीं जुड़ा होता है यह सब कुछ नहीं होता फिर धीरे-धीरे भगवान से प्रेम करता है जो नए लोग हैं उन पर कृपा करता है और जो भक्त हैं उन पर कृपा करता है ऐसे स्तर पर पहुंचता है। हमें एक लिस्ट बनानी चाहिए हमें देखना चाहिए कि भीष्म देव उनमें इतने सारे जो गुण हैं उनके जीवन में कितने सारे उतार-चढ़ाव भी आए, शुरुआत में उन्होंने पिता की संतुष्टि के लिए प्रतिज्ञा ली कि मुझे विवाह नहीं करना है तो उसका पालन करने में भी बहुत सारे व्यवधान आ गए। कल हमारी पूरी चर्चा हुई थी जबकि साथ ही साथ में एक राजा बनने के योग्य थे किंतु फिर भी जो दूसरे राजा बने उनकी बात उनको सुननी पड़ती थी धृतराष्ट्र की, फिर बाद में भरी सभा में द्रोपदी का जब वस्त्र हरण हो रहा था तब भी वे कुछ नहीं कर पाए, अलग-अलग बहुत सारे प्रसंगों में भी उनको विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, सबको क्षमा किया और इसीलिए जब उनको इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त हुआ तो उस समय जो जो लोग वहां पर आए थे उन सभी का स्वागत किया और उनके मन में यह भावना थी कि यह जो अलग-अलग तत्व बता रहे हैं। भीष्म ने क्या किया, उन सबको अपने अंदर ही धारण किया, वह केवल ऐसे बोल ही नहीं रहे जैसे तोता बोलता है अपितु अंदर से सभी चीजों को उन्होंने प्राप्त किया है जिससे उन उपलब्धियों या गुणों की नारद मुनि भी कहते हैं कि भक्त होता है
*यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः ॥* (श्रीमदभागवतम ५. १८. १२)
अनुवाद- जो व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव के प्रति शुद्ध भक्ति उत्पन्न कर लेता है उसके शरीर में सभी देवता तथा उनके महान् गुण यथा धर्म , ज्ञान तथा त्याग प्रकट होते हैं । इसके विपरीत जो व्यक्ति भक्ति से रहित है और भौतिक कर्मों में व्यस्त रहता है उसमें कोई सद्गुण नहीं आते। भले ही कोई व्यक्ति योगाभ्यास में दक्ष क्यों न हो और अपने परिवार और सम्बन्धियों का भलीभाँति भरण – पोषण करता हो वह अपनी मनोकल्पना द्वारा भगवान् की बहिरंगा – शक्ति की सेवा में तत्पर होता है । भला ऐसे पुरुष में सद्गुण कैसे आ सकते हैं।
भगवान के शुद्ध भक्त या अनन्य भक्त हैं वह भगवान की भक्ति करते हैं सभी दैवीय गुण हैं उसके अंदर प्रकट हो जाते हैं अलग से विशेष प्रयास नहीं करना होता। गुरु महाराज एक बार बेलगांव के प्रवचन में बता रहे थे कि आत्मा में सारे गुण हैं जैसे नम्रता यह पहले से ही है किंतु यह सभी गुण छुपे हुए हैं किंतु जब हम भगवान की अनन्य भाव से भक्ति करेंगे तब यह सारे गुण धीरे-धीरे प्रकट हो जाएंगे और फिर जो भक्त नहीं हैं वह मन रूपी रथ पर भ्रमण कर रहे हैं उनके अंदर कुछ भी अच्छे गुण दिखाई नहीं देते और एक और भी बताते हैं कि किसी के प्रति शत्रुता का भाव भी नहीं रखना चाहिए। जैसे उसके लिए कहा जाता है अजातशत्रु, अजातशत्रु के अंदर यह गुण होता है वह यह सोचता है कि मेरा कोई शत्रु ही नहीं है वह शत्रु को भी अपने शत्रु के रूप में नहीं देखता है वह सोचता है कि यह सारे तो मेरे अपने हैं ,मेरे अपने अर्थात मेरे भगवान के हैं, सब लोग कृष्ण के, मैं भी कृष्ण का हूं और यह सभी भी कृष्ण के ही हैं। इस प्रकार ये सभी भी मेरे अपने ही हैं। इसीलिए उनसे शत्रुता नहीं होती। जैसे युधिष्ठिर महाराज अजातशत्रु थे और भीष्म देव महाराज भी अजातशत्रु थे।
शत्रुता के रूप में उन्होंने पांडवों के जो शत्रु थे कौरव उनके साथ वे रह रहे हैं इसीलिए हम समझ सकते हैं, हो सकता है कि कोई हमारी ि नंदा कर रहा है यह हमारे साथ कोई अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा है और हम क्या करते हैं कि तुरंत ही उनके विषय में कुछ बोलना शुरू कर देते हैं उनसे दूर रहते हैं। वह आते हैं तो भी उनकी तरफ हम नफरत की दृष्टि से देखते हैं। जब इतना है तो उनके साथ रहना कितना मुश्किल है किंतु फिर भी बीच में क्या कर रहे हैं भीष्म देव, वह उनके साथ ही रह रहे हैं अर्थात कौरवों के और साथ रहते हुए भी उनको शत्रु के भाव से कभी नहीं देख रहे हैं। जैसे पांडवों के प्रति उनका ज्यादा स्नेह था किन्तु उन्होंने कौरवों के प्रति फिर भी शत्रुता के भाव से कुछ नहीं किया इसीलिए हम समझ सकते हैं कि हर समय उन्होंने यह गुण अपने अंदर धारण किया हुआ था और बताते हैं कि हमें सरल होना चाहिए। भीष्म देव ने हमें सिखाया जो वैष्णव है वह सरल होता है। श्रील प्रभुपाद से पूछा कि वैष्णव कौन है उसे कैसे समझना चाहिए? प्रभुपाद जी ने कहा ही मस्ट बी ए परफेक्ट जेंटलमैन, वह सभी व्यक्ति, वैष्णव सरल है सभ्य है वह कुटिल नहीं है। अंदर से और बाहर से स्पष्ट है। जैसे अंदर एक होता है ना, दिखाने के दांत और खाने के साथ अलग, किंतु वैष्णव दोनों तरफ से एक सा ही है। भीष्म देव जब अंतिम समय में भगवान की स्तुति कर रहे थे। बहुत ही विशेष स्थिति है पूरे सारे श्लोक तो नहीं लेकिन कुछ ही ले रहे हैं इसमें बताते हैं यह पहले स्कंध के नवे अध्याय में जहां पर कृष्ण की उपस्थिति में भीष्म देव का देह त्याग उस का 38 वां श्लोक है
*शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे । प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥*
( श्रीमदभागवतम १. ९. ३८)
अनुवाद- भगवान् श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं , वे मेरे अनन्तिम गंतव्य हो । युद्ध क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया , मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों । उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था ।
भगवान श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं जो मेरे अंतिम गंतव्य होंगे युद्ध क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया मानो मेरे पहले बाणो के घाव के कारण क्रुद्ध हो गए उनका कवच छिद्र गया और खून से सन गया था। वह बता रहे हैं कि देखिए भगवान को किस रूप से देखना चाह रहे हैं।
*विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये । भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षो र्यमिह निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम् ॥*
(श्रीमदभागवतम १. ९. ३ ९ )
अनुवाद- मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति हो । मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ , जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यंत सावधान थे । जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया
मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हो। अब कैसे दर्शन की कामना कर रहे हैं देखिए मैं अपना ध्यान अर्जुन के सारथी पर आकर्षित करता हूं जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए हुए थे और बाएं हाथ में लगाम की रस्सी थी और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने में लगे थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र में उनका दर्शन किया उन सबों ने मृत्यु के उपरांत अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया। यहां पर एक गोपनीय बात भी बता रहे हैं जिन्होंने दर्शन किया लोग कहते हैं, कि क्या फायदा हुआ कुरुक्षेत्र में ,जब श्रीकृष्ण इतना युद्ध किया उनको शांति स्थापित करनी चाहिए थी, क्या यह शांति थी ? अरे शांति नहीं, परम शांति प्राप्त हुई उन लोगों को, केवल जो लोग देख रहे थे उनको भी भगवान के धाम की प्राप्ति हुई। तो जो लोग उनका चिंतन स्मरण करते हैं उनको क्यों नहीं होगी। इसीलिए ऐसे पार्थसारथी भगवान का दर्शन करते करते वह क्या कर रहे हैं अपना प्राण त्याग रहे हैं और एक और श्लोक लेता हूं यह चालीसवां श्लोक है।
*ललितगतिविलासवल्गुहास प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः ।*
*कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धा : प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥*
(श्रीमदभागवतम १. ९. ४०)
अनुवाद- मेरा मन उन भगवान् श्रीकृष्ण में एकाग्र हो , जिनकी चाल तथा प्रेम भरी मुस्कान ने व्रजधाम की रमणियों ( गोपियों ) को आकृष्ट कर लिया । [ रास लीला से ] भगवान् के अन्तर्धान हो जाने पर गोपिकाओं ने भगवान् की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया ।
देखिए कितने समझने की बात है बीच में ऐसा ही नहीं हुआ कि वह सोचे कि चलो मैं पार्थसारथी रूपों का ध्यान करता हूं इसीलिए गोपियों के साथ में कृष्ण की जो लीला है वह तुच्छ है ऐसा नहीं है, उनकी भी सराहना कर रहे हैं बल्कि यही भक्तों का एक विशेष लक्षण होता है कि वह अपनी सेवा में हर समय रहता है अपने विशेष रस के द्वारा भगवान के साथ संबंध स्थापित करता है। किंतु अन्य जो भक्त हैं या अन्य जो सेवा कर रहे हैं उनकी किसी भी स्थिति में चाहे थोड़ी ज्यादा जो सेवा कर रहे हैं उनका हर समय भक्त सराहना करता है। इसीलिए भीष्म देव का जीवन चरित्र है उनकी जो सारी स्तुतियाँ हैं भगवान के प्रति उनसे हम ही सीख सकते हैं कि वह भगवान के हर समय चिंतन और स्मरण में हीं रहते थे और कभी भी अन्य जो जीव हैं या जो वैष्णव हैं उनको कभी उन्होंने कम नहीं देखा कि मैं इतना बड़ा चढ़ा हूं या इतना बड़ा ब्रहमचारी हूं , मैं कौरव के बीच में रहते हुए भी शत्रुओं के बीच में रहते हुए भी उनकी स्तुति कर रहा हूं। ऐसा उन्होंने कभी नहीं किया उन्होंने क्या किया स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पित करते हुए भगवान के धाम में लौट गए।
हरे कृष्ण !
भीष्म अष्टमी महोत्सव की जय!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
श्रीमान धर्मराज प्रभु जी व्दारा,
8 फरवरी 2022
हरे कृष्ण!
गंगाजी और शांतनु जी का विवाह हुआ गंगा जी ने शर्त रखी की मै विवाह करुंगी लेकिन यह मेरी शर्त है की जैसे ही मेरे पुत्र होंगे तो मैं उनका जो कुछ भी करूंगी आप मुझे कुछ नही पूछेंगे, जैसे ही आप मुझ से कुछ पूछेंगे या मुझे रोकेंगे उसी क्षण मै चली जाऊंगी,रुकूँगी नहीं। शांतनु जी इतने मोहित हो गए थे गंगा जी के सौंदर्य पर उन्होंने कहा कि ठीक है! जो तुम कहोगी,उसे मै स्वीकार करता हूंँ। सबसे पहले पुत्र का जन्म हुआ तो गंगा जी ने गंगा जी में ही,अपने ही जल में बहा दिया। शांतनु कुछ बोल नहीं पाए क्योंकि शर्त जो रखी थीं। इसी तरह पहला,दूसरा,तीसरा,सात के सातों पुत्र गंगा जी ने पानी में बहा दिए शांतनु ने कुछ नहीं कहा लेकिन जो आठवां पुत्र था उस वक्त शांतनु ने उन्हें कहा रुको! यह क्या कर रही हो तुम? एक मां होकर अपने पुत्रों को इस तरह नदी में बहा देती हो?उन्होंने कहा कि ठीक हैं!, और शर्त के अनुसार गंगा जी चली गई और उस पुत्र को वहा रख दिया लेकिन बाद में कुछ परिस्थितियां ऐसी हो गई, गंगा जी तो चली गई थीं। शांतनु जी ने भ्रमण करते हुए वहां पर सत्यवती को देखा और सत्यवती को देखते ही उन्हें उस से प्रेम हो गया और उसने सोचा कि अब मैं विवाह इसी से करूंगा लेकिन उनके पिताजी ने शर्त यह रखी कि आपका विवाह तो होगा लेकिन मेरे पुत्री का ही पुत्र राजा बनेगा ऐसा सुनते ही शांतनु वापस आ गए और उन्होंने यह सोचा कि यह तो संभव नहीं है यह कैसे हो सकता है?क्योंकि एक तो मेरा पुत्र बड़ा है और नियम के अनुसार वही राजा बनेगा।आप ऐसे कैसे कह सकते हैं?और वे वापस आ गए।
उन्होंने किसी को अपनी बात नहीं बताई लेकिन वह बहुत दुखी रहने लगे और जो गंगा जी का पुत्र था जिसे गंगा लेकर नहीं गयी थी, पानी में नहीं फेंका था,उसका नाम देवव्रत था। देवव्रत ने सोचा कि मेरे पिता जी आजकल गुमसुम क्यों रह रहे हैं? कुछ बात नहीं कर रहे क्यों क्या कारण है? ऐसा सोच रहे थे जब उन्हें पता चला कि उनके पिता की इच्छा सत्यवती से विवाह करने की हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें विवाह करना है तो मेरा जो सत्यवती से पुत्र होगा वही राजा बनेगा,ऐसी शर्त रखी हैं। देवव्रत ने कहा कोई बात नहीं है आप बता दीजिए कि उनका ही पुत्र राजा बनेगा। उन्होंने कहा कि आप ऐसा आज कह रहे हो लेकिन बाद में क्या होगा किसे पता है? जैसे ही इस बात को देवव्रत ने कहा तो उन्होंने कहा कि ठीक है!मैं विवाह नहीं करूंगा, मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा। जैसे ही उनके मुख से वह शब्द निकले तो सारे देवता संतुष्ट हो गए और ऊपर से पुष्पवृष्टि करने लगे, नगाड़े बजने लगे, शंख बजने लगे और क्या उच्चारण करने लगे।भीष्म..!भीष्म..!ऐसा कहने लगे। भीष्म मतलब भीषण प्रतिज्ञा, साधारण प्रतिज्ञा नहीं है यह भीष्म प्रतिज्ञा है भीषण प्रतिज्ञा हैं।
इसलिए उन्होंने भीष्म कहाऔर कितनी विशेष बात है एक तो ब्रह्मचारी के रूप में और एक तो द्वादश महाजनों में से एक है और राजकुल में रह रहे हैं और वहां से भी विवाह नहीं करेंगे ऐसी शपथ भी ली है और आगे ऐसा भी हुआ कि सत्यवती से विवाह हुवा शांतनु का और उनसे जो पुत्र हुए विचित्र वीर्य और चित्रांकन उनके भी विवाह के समय उन्होंने स्वयं जाकर अंबा, अंबिका,अंबालिका इन तीनों राजकुमारियों का हरण करके उन्हें लेकर आए थे और इन दोनों का विवाह करवाया और अंबालिका ने कहा आप मुझे लेकर आए हो आपने मुझे स्पर्श किया हैं। पहले किसी स्त्री और पुरुष का स्पर्श करना भी विवाह जैसे होता था।अगर स्त्री का किसी पुरुष से स्पर्श होता था तो वह किसी और दुसरे पुरुष से विवाह नहीं कर सकती थी उन्होंने कहा कि अब मैं क्या करूं? भीष्म ने कहा कि मैंने तो ब्रह्मचारी व्रत धारण किया हैं।अंबालिका ने कहा कि आप मुझे फिर कैसे लेकर आए?आप ने मुझे स्पर्श क्यों किया? देखिए आप समझ सकते हैं कि जो भीष्म है वह भीष्म पितामह हैं वह इतने सॉलिड ब्रह्मचारी थे की वह राजकन्याओं को लेकर आने के बावजूद भी वह बिल्कुल उन पर आसक्त नहीं थे वह इतने अविचलित थे और भगवान के प्रति उनकी इतनी अनन्य भक्ति थी वैसे देखा जाए तो उन्होंने अपनी भक्ति का प्रदर्शन कभी बाह्य रूप से सभी के सामने नहीं दर्शाया क्योंकि वह कौरवों के साथ रहते थें, धृतराष्ट्र वगैरा उनके साथ रहते थे फिर भी उन्होंने अपनी भक्ति को कभी कम नहीं किया।वे सदैव अनन्य भक्ति मे रत रहें। उनका जीवन चरित्र बहुत विशेष हैं,केवल जीवन ही नहीं है, केवल आर्ट ऑफ लिविंग नहीं है बल्कि आर्ट आफ डाईंग भी है कैसे जीना सिखना है उसके साथ कैसे मारना है यह भी सीखना हैं। मरना सीखना है,कैसे मारना? मतलब खुद खुशी, आत्महत्या करना यह नही सिखाते कैसे मरना है
भगवान का स्मरण करते मरना चाहिए। मराठी में कहावत है “मरावे परी कीर्ति रुपें उरावें” मतलब मृत्यु के बाद भी वह व्यक्ति वहां पर नहीं रहता लेकिन उसकी कीर्ति इतनी फैल जाती है कि आप समझ सकते हैं कि यह व्यक्ति अभी भी जीवित हैं, उसके कीर्ति के माध्यम से। भीष्म देव के बारे में हमने सुना है कि वशिष्ठ मुनि ने कहा था कि इन को इच्छा मृत्यु प्राप्त होगी तो इच्छा मृत्यु मतलब वे कभी भी मर सकते हैं जब तक उनकी इच्छा ना मरने की हो,वैसा भी कर सकते थे लेकिन उन्होंने अपने जीवन में यह आदर्श स्थापित किया की मृत्यु के समय ऐसे घड़ी का इंतजार कर रहे थे एक तो बाह्यरूप से उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थें। उत्तरायण मतलब सूर्य जब मकर राशि में प्रवेश करता है तब मकर संक्रांति शुरू होती है और वहां से उत्तरायण का प्रारंभ होता हैं। वे उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थें। वह बाणों की शय्या पर लेटे थे ऐसा नहीं था कि जैसे हम अपने घर में शय्या के ऊपर आराम से लेटे हैं।
ऐसे आराम से नहीं वहा कोई सुखासन नहीं था कि ऊपर से बढ़िया स्पंज लगाया ऐसा नही था जैसे धारावाहिक में दिखाते है उनको पहले क्या किया था फाइबर से कुछ बनाकर नीचे से लगा लिया था और अंदर से स्पंज और वे आराम से लेटे थे शायद उनको नींद भी आई होंगी उस शय्या पर लेकिन पितामह भीष्म ऐसे नहीं थे उन को वेदनाए, तकलीफ हो रही थी फिर भी उन्होंने उसे सहते हुए उस क्षण की प्रतीक्षा की, जब कृष्ण उनके सामने आएंगे। उनका दर्शन करते हुए, उनका गुणगान करते हुए ,उनकी स्तुति करते हुए, उन्हें इस देह का त्याग करना था। आर्ट ऑफ डायिंग इसी तरहा का उदाहरण श्रील प्रभुपाद के जीवन मे भी दिखता है। श्रील प्रभुपाद जादा समय भी रह सकते थें, लेकिन उन्होंने देखा की अब उचित समय आ गया है वह निरंतर नियमित स्मरण भगवान का कर रहे थे लेकिन वृंदावन में आए थे और कृष्ण बलराम का निरंतर स्मरण करते हुए, और साथ ही साथ भागवान के भागवतम् का भाषांतरण भी जारी था भागवतम् का भाषांतरण या उच्चारण या पठन मतलब भगवान का दर्शन, भगवान की स्तुति वह पूरा भगवान के भक्तों द्वारा भगवान की स्तुतियों से भरा हुआ हैं। ऐसे करते-करते ही श्रील प्रभुपाद ने अपने देह को विराम दिया। वैसे तो वृंदावन आध्यात्मिक जगत है साधारण स्थान नही है लेकिन बाह्यरूप से भौतिक जगत ,उन्होंने अपनी सांसो को वही रोका और वही से भगवान की नित्य लीला में उन्होंने प्रवेश किया। हम समझ सकते है की श्रील प्रभुपाद ने हमें शिक्षा प्रदान की कि हमें ना केवल जब हम जीवित हैं तभी भगवान का नाम स्मरण करना चाहिए बल्कि मृत्यु के समय भी हमें भगवान का नाम स्मरण करना चाहिए।
” अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 8.5)
अनुवाद: – और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है | इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है |
क्योंकि भगवान जानते हैं कि भौतिक जगत के सभी लोग क्या करते है बडे संशयी हैं।हर पल संशय मे रहते है।भगवान कहते है की संशय मत करो ऐसे बहुत सारे उदाहरण है, जिन्होंने मृत्यु के समय मेरा स्मरण करते हुए इस शरीर को त्याग दिया है और मेरे पास वापस आ गए। भीष्म पितामह तो इसका विशेष उदाहरण है और उनके ब्रह्मचारी जीवन मे भी देखा जाता है की एक तो अंबा, अंबिका,अंबालिका का और बाद मे जब उनकी सौतेली माँ सत्यवती उनकी सेवा इतने प्रेम भाव से करते थे लेकिन एक बार उनके सौतेले भ्राता विचित्र वीर्य वे दूर खिडकी से देख रहे थे की भीष्म-देवव्रत ने जो ब्रम्हचर्य का व्रत लिया है तो देख तो लू माँ कि कैसे सेवा करता है तो उसने दूर से खिड़की से देखा कि उन्होंने सत्यवती को कभी स्पर्श नही किया तो समझिये की वे कोई साधारण मनुष्य नही है। इतने कढ़ाई से ब्रम्हचर्य का पालन करते है वह भी एक राजमहल मे रहते हुए, वे एक योध्दा भी है ऐसे नही के वह हसकर तलवार चलाते थें, उन मे क्रोध हैं। ऐसे परिस्थिति मे भी वे ब्रम्हचर्य का पालन करते है उनका नाम पितामह भिष्म जो भिषम प्रतिज्ञा करते वही पितामह भिष्म आश्यर्यचकित भी है एक महाजन भी है, महान भक्त भी है भगवान का स्मरण चिंतन करते है फिर भी ये कौरवों के पक्ष मे क्यों है? वह पांडवों के पक्ष मे भी रह सकते थे और साथ-साथ उन्होंने युध्द किया पांडवों पर आक्रमण भी किया ऐसा नही की बाह्य रूप से युद्ध मे थे बल्कि उन्होंने आक्रमण भी किया यहा तक की उन्होंने कृष्ण पर भी आक्रमण किया कृष्ण पर बाणों की वर्षा की कृष्ण का शरिर लहुलुहान हो गया, शरीर से खुन बह रहा था।
आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? और इतना होने के बाद युध्द के पश्चात कृष्ण चाहते थे की भिष्म देव से सांत्वना मिले युधिष्ठिर महाराज को, क्योकि युधिष्ठिर बड़े दुखी थे वे सोच रहे थे कि इतना कुछ हो जाने पर इतना युद्ध होने पर मैं राजा बनूंगा इसके बदले मैंने इतने हजारों लाखों लोगों का क्या किया है? उनका कत्ल किया है उनकी हत्या की है। खून की नदियां बह रही है बहुत सारे सैनिकों के हाथ कटे हुए सिर कटे हुए कान के टुकड़े एक इदर गिरा एक उधर गिरा हैं। यह सब देख कर इतने दुखी हो गए थे युधिष्ठिर महाराज उन्होंने सोचा कि मुझे भी कुछ प्रायश्चित करना होगा। कृष्ण ने उन्हें समझाया कि ऐसी बात नहीं है फिर भी वह मान नहीं रहे थें। कृष्ण की इच्छा थी कि भीष्मदेव उन्हें उपदेश दे वे ही उन्हें समझाएं, सांत्वना दे। कृष्ण ने ऐसा आखिर क्यों किया? भीष्मदेव ने हमला किया है कृष्ण पर इतना बड़ा हमला किया फिर भी वे उनको बोल रहे हैं सांत्वना देने के लिए ऐसा क्यों कर रहे हैं? इस का बहुत विशेष कारण हैं क्योंकि हमें समझना चाहिए भीष्म देव जो है एक तो वे द्वादश महाजनों में से एक है और उनकी विशेषता यह है कि अन्य महाजनों की तुलना मे अन्य महाजन भक्ति करते हैं हुए दिखते है।लेकिन पितामह भीष्म भक्ति करते हुए दिखाई नहीं देते और वह साथ ही साथ भगवान और भक्तों के साथ भी युद्ध करते है, यह तो अभक्तों का लक्षण हो गया। यह तो अभक्तो का लक्षण है, अभक्त क्या करते हैं? भगवान से लड़ते हैं और भक्तों से लड़ते हैं हर समय जैसे कौरव कर रहे थे हर समय ऐसा लगता है कि यह कैसे भक्त है? गोपनीय बात यह है कि जिस प्रकार सभी भक्तों का भगवान से अलग-अलग प्रकार से रस के व्दारा भगवान से आदान-प्रदान होता है वैसे हर रस मे होता हैं। दास्य, शांत, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य यह सभी रस है तो जो भीष्म पितामह है वे वीर रस के द्वारा उनका आदान-प्रदान हो रहा हैं। वीर रस का आस्वादन ऐसा नहीं की केवल भक्त ही कर सकता है भगवान भी उसे रिस्पांस देते हैं।
“ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||”
( श्रीमद्भगवद्गीता 4.11)
अनुवाद: -जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |
सामने वाला भक्त अगर वीर रस के व्दारा भगवान से आदान-प्रदान करना चाहता है तो भगवान भी वैसा ही करेंगे उसके साथ।अगर वीर रस का आस्वादन भीष्म देव को करना है तो अगर वे पांडवों के पक्ष मे रहते तो वीर रस का कैसे आस्वादन करते भगवान के साथ कैसे युद्ध करते।युद्ध करना है तो प्रतिपक्ष में नही रहना पड़ेगा सामने वाला जो विरोधी पक्ष है वहां रहना होगा तभी तो संभव है और फिर अगर युद्ध करना है उन्होंने कैसे किया उन्होंने अलग तरीका अपनाया है भीष्म देव को जब पता लगा की कृष्ण युद्ध में है लेकिन युद्ध नहीं करने वाले, युद्ध में है लेकिन कोई अस्त्र शस्त्र नहीं उठाने वाले है, उनकी जो नारायणी सेना है वह युद्ध करेगी लेकिन वह तो दुर्योधन के पास है अगर कृष्ण को युद्ध के लिए प्रेरित करना है तो क्या करना होगा? मुझे अर्जुन को पहले कुछ करना होगा अर्जुन को तो कृष्ण जरूर बचाएंगे और अपनी प्रतिज्ञा जरूर तोड़ेंगे और मैं देखना चाहता हूंँ की कृष्ण अपनी प्रतिज्ञा जरूर तोड़ेंगे और मै चाहता हूँ की कृष्ण अपनी प्रतिज्ञा तोड दे फिर भीष्म देव ने ऐसी युक्ति की, वे अर्जुन पर इतने बाण छोड़ने लगे कि कृष्ण को लगा कि अर्जुन मर ही जायेगा और मैं यहां हूंँ और मेरे होते हुए अगर मेरा भक्त मर जाएगा तो मैं कैसे सह सकता हूंँ तो कृष्ण ने क्या किया अंदर से तो भगवान समझ रहे थे कि भीष्म देव आदान-प्रदान करना चाहते भगवान भी बड़े लालायीत थें, इस रस का आदान-प्रदान करने मे रसास्वादन करने के लिए फिर उन्होंने क्या किया उन्होंने भीष्म देव को रोकने के लिए क्या किया? वहां एक रथ का पहिया था जिस रथ में थे उस रथ का नहीं निकाला पहिया आप लोग सोचो गे तो गड़बड़ हो जाएगा।
उसका नहीं निकाला था एक रथ गिर गया था उसका पहिया था। भगवान का नाम क्या रखा “रथांगपानी” बाद में भीष्म देव नाम देते हैं। भिष्मदेव जब स्तुति करते हैं भगवान की तब, वे कहते है आपने क्या किया था मुझे स्मरण हो रहा है वह समय जब आपने रथ का पहिया उठाया और मेरे पास आ रहे थें। कृष्ण कह रहे थे की,भीष्म अर्जुन को मार रहा है यह हो ही नहीं सकता मेरे होते हुए उन्होंने तुरंत उस रथ का पहिया उठाया और भागने लगे किन की और भीष्म की ओर मैंने मायापुर में एक बार श्रीमान जगन्निवास प्रभु का प्रवचन सुना था कृष्ण ने रथ का पहिया उठाया और भगवान कहने लगे भीष्म मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा..!मै तुम्हे जान से मार डालूंगा..!
ऐसे जगन्निवास प्रभु जी हमें बता रहे थे कृष्ण को रोकने के लिए बीच में इतने बान मारे इतने बान मारे कि पूरे शरीर से खून निकल रहा है और फिर भी जब देखा उन्होंने की कृष्ण ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी है, खुन निकल रहा है और रथ का पहिया उठाकर भगवान मेरी ओर आ रहे हैं बस यही तो मैं चाहता था। वैसे देखा जाए तो भगवान के शरीर में खून नहीं होता है धमनिया और नसे नहीं होती है फिर भी भगवान लीला कर रहे हैं,यौध्दा के रुप मे,खून बह रहा है और फिर भीष्म देव बानो के प्रहार कर रहे हैं मानों वे कैसे कर रहे है भिष्म देव को लग रहा है कि वह भगवान को फूलों की माला दे रहे हैं। उनका वह तरीका है उनके ऊपर फूलों की वर्षा कर रहे हैं और जब भगवान के शरीर से खून निकल रहा है तो भिष्म इतना प्रसन्न हो रहे हैं। क्या सुंदर लग रहे है भगवान, क्या सुंदरता है भगवान की इतना खून बह रहा है भगवान के शरीर से और भगवान क्या कर रहे हैं हाथ में रथ का पहिया लेकर आ रहे हैं और आते आते क्या हुआ है उन्होंने जो उत्तरिय लिया है, वह आतें- आतें उत्तरिय नीचे गिर गया, उनको पता भी नहीं कि उत्तरिय नीचे गिर गया इतने भाव में आवेश में आए भगवान और फिर उनको लगा की इसी दृश्य का इंतजार या प्रतीक्षा कर रहा था बस मेरा जीवन सफल हो गया है भगवान ने मेरे लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। कुछ लोग कहते हैं कैसे भगवान है ये अपनी प्रतिज्ञा तोड़ते हैं अपनी तो फिर हमारी जो प्रतिज्ञा है उसका क्या होगा? भगवान जानते हैं इस बात को वे अर्जुन से कहते हैं अर्जुन तुम घोषणा करो!अर्जुन ने कहा क्यों, क्यों? मैं क्यों कहूं आपकी बात सुनेंगे मेरी क्यों सुनेंगे? भगवान कहते हैं नहीं अर्जुन मैं प्रतिज्ञा करता हूं तो लोग कहते हैं कि यह बदल सकता है गड़बड़ कर सकता है अपने भक्तों के लिए यह बदल सकता हैं भगवान भक्तवत्सल हैं। अपने भक्तों के लिए प्रतिज्ञा तोड़ सकते हैं। भगवान क्या है भक्तवत्सल। भगवान कहते हैं
“क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्र्वच्छान्तिं निगच्छति |
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ||”
(श्रीमद्भगवद्गिता9.31)
अनुवाद: -वह तुरन्त धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शान्ति को प्राप्त होता है | हे कुन्तीपुत्र! निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता है |
मेरे भक्तों का कभी नाश नहीं होता चाहे मैं मेरे भक्तों के लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड़ सकता हूं लेकिन मेरे भक्तों कि मैं रक्षा करता हूंँ। इसीलिए भिष्म देव बड़े प्रसन्न हो गए कि मेरे लिए भगवान ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी और भगवान का जो सुंदर रूप था पार्थसारथी रुप। भिष्म देव भगवान को पार्थसारथी रूप में देखना चाहते थें। उस रूप में उनका दर्शन करना चाहते थे और इसलिए वे प्रसन्न हो गए। हरे कृष्ण! समय हो गया है यहीं पर विराम देंगे अगली चर्चा बाद में करेंगे जैसा श्रीमान पद्ममाली प्रभु जी बताएंगे। पद्ममाली प्रभु का भी धन्यवाद जो उन्होंने मुझे अवसर प्रदान किया और विशेष रूप से गुरु महाराज जी का विशेष धन्यवाद देना चाहता हूंँ उन्हें कितनी बार करोड़ों बार धन्यवाद दूंगा तो भी कमी पढ़ेंगे क्योंकी पूरे जीवन भर का मेरे लिए वही सब कुछ है उनकी कृपा से मैं मेरा भक्तिमय जीवन बिता रहा हूंँ और भगवत धाम में भी जाऊंगा तो उन्हीं की कृपा से उनके चरणों में दंडवत प्रणाम अर्पित करता हूंँ और फिर भक्तों का भी बहुत-बहुत धन्यवाद आपने गंभीरता से सुना और कुछ त्रुटि हो गई होंगी तो आप जरूर क्षमा करेंगे ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास हैं। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
7 फरवरी 2022
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।*
आप सभी की प्रार्थनाओं के लिए धन्यवाद आप सभी की प्रार्थनाओं का ही यह फल हैं कि मैं लगभग ठीक हो चुका हूं। आप सभी का धन्यवाद। और एक और कारण से मैं आपका धन्यवाद करना चाहता हूं कि आप सब जुड़े रहे। मुझे यह चिंता थी कि मेरी अनुपस्थिति के कारण हो सकता हैं कि आप सब तितर-बितर हो जाएगे, आप सब पथभ्रष्ट हो जाएगे, मुझे लग रहा था कि आप लोग इस जप चर्चा को ज्वाइन नहीं करोगे या संख्या में कमी हो सकती हैं, परंतु ऐसा तो बिल्कुल नहीं हुआ हैं। संख्या घटने की बजाय संख्या बढ़ गई हैं। मैं इस बात से प्रसन्न हूं कि आपकी हरि नाम में श्रद्धा,रुचि या आसक्ति बढ़ चुकी होगी,इसी का ही तो यह परिणाम हैं कि आप हरि नाम को नहीं छोड़ रहे हो या इस जप चर्चा को नहीं छोड़ रहे हो।लगे रहि। भगवान ने स्वयं को इस हरि नाम में प्रकट किया हैं और जो गोडिय वैष्णव परंपरा से जुड़ रहे हैं, उनको यह
M 17.133
नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य – रस – विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य – मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम – नामिनोः ।। 133 ।।
अनुवाद ” कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनन्दमय है । यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वर देने वाला है , क्योंकि यह समस्त आनन्द के आगार , स्वयं कृष्ण है । कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है । यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है । चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता , अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है , यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता । ऐसा इसीलिए है , क्योंकि कृष्ण नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं ।
यह नाम प्राप्त हो रहा हैं। आप सभी को यह नाम प्राप्त हो चुका हैं। हरि हरि। इस हरि नाम के साथ जो कि स्वयं हरि ही हैं, अपना संबंध स्थापित करते जाइए और अधिकाधिक अनुभव कीजिए कि हरि नाम ही स्वयं हरि हैं, जिन्होंने हमें यह हरि नाम दिया उन चैतन्य महाप्रभु की जय।लेकिन चैतन्य महाप्रभु को भी हमें देने वाले अद्वैत आचार्य प्रभु की जय। चैतन्य महाप्रभु को देने वाले अद्वैत आचार्य रहे हैं।
सीतापति अद्वेता झारे गोसाई तब कृपा बल्ले पाए चेतन( वैष्णव भजन)
अद्वैत आचार्य का एक नाम सीतापति भी हैं, क्योंकि उनकी भार्या का नाम सीता ठकुरानी हैं, इसलिए उन्हें सीतापति भी कहा जाता हैं। हमें चैतन्य महाप्रभु को प्रदान करने वाले ऐसे अद्वैत आचार्य प्रभु का आज आविर्भाव दिवस हैं। संसार ऐसी रहस्यमई बातें नहीं जानता हैं। इस रहस्य का उद्घाटन करने वाला भी हमारा अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना भावित संग ही रहा या फिर हमारी गोडिय वैष्णव परंपरा यह कर रही हैं। अद्वैत आचार्य स्वयं भी भगवान हैं, इसीलिए उनका नाम हैं- अद्वैत, अर्थात दो नहीं हैं, एक ही हैं या ऐसा कहा जा सकता हैं कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु या अद्वैत आचार्य प्रभु यह दो अलग अलग नहीं हैं, एक ही हैं। तो इसलिए अद्वैत आचार्य भी भगवान हैं या भगवान के अवतार हैं। वह भगवान के अवतारों का एक प्रकार हैं। उनको पुरुषाअवतार कहते हैं। और यह तीन विष्णु हैं। जो पुरुष अवतार हैं। उनमें एक हैं, महाविष्णु जो सभी ब्रह्मांडो के स्त्रोत हैं। उन्हें अनंत कोटी ब्रह्मांड नायक कहते हैं। वैसे अद्वैत आचार्य महा विष्णु हैं।तो यही महाविष्णु आज के दिन अद्वैत आचार्य के रूप में प्रकट हुए। तो यह आज से 500 वर्ष पूर्व चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पहले प्रकट हुए। अगर अद्वैत आचार्य प्रकट नहीं होते तो चैतन्य महाप्रभु कहां प्रकट होने वाले हैं, अद्वैत आचार्य ही चैतन्य महाप्रभु को प्रकट कराएंगे। चेतनय महाप्रभु के प्राकट्य के 50 वर्ष पूर्व अद्वैत आचार्य प्रकट हुए।अद्वैत आचार्य प्रभु चैतन्य महाप्रभु के पिताजी जगन्नाथ मिश्र के समकालीन रहे और माधवेंद्र पुरी ईश्वर पुरी,अद्वैत आचार्य और हरिदास ठाकुर, यह सब समकालीन रहे। क्योंकि यह चैतन्य महाप्रभु से भिन्न नहीं हैं, इसलिए इनका अद्वैत नाम हैं और आचार्य अर्थात अपने आचरण से स्वयं सिखाते हैं।
M 1.22
अष्टादश – वर्ष केवल नीलाचले स्थिति । आपनि आचरि ‘ जीवे शिखाइला भक्ति ॥२२ ॥
अनुवाद -श्री चैतन्य महाप्रभु अठारह वर्षों तक लगातार जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने अपने खुद के आचरण से सारे जीवों को भक्तियोग का उपदेश दिया ।
वह आचार्य थे,उन्होंने आचार्य की भूमिका निभाई और शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन भी खूब किया करते थे। वह अध्यात्म विद्या पढ़ाते थे
BG 10.32
“सर्गाणामादिरन्तश्र्च मध्यं चैवाहमर्जुन |
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् || ३२ ||”
अनुवाद
हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ | मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ |
इनका प्राकट्य तो आजकल के बांग्लादेश में हुआ,किंतु जैसे चैतन्य महाप्रभु के बाकी परिकर जन्में तो बांग्लादेश में थे, लेकिन स्थानांतरित हुए।वैसे ही अद्वैत आचार्य प्रभु शांतिपुर में स्थानांतरित हुए।शांतिपुर धाम की जय।शांतिपुर गंगा के तट पर हैं।जब हम कोलकाता से मायापुर नवदीप जाते हैं, तो रास्ते में शांतिपुर आता हैं और जब शांतिपुर से आगे बढ़ते है, तो मायापुर पहुंच जाते हैं। अद्वैत आचार्य वहां के निवासी बने और जब वह प्रकट हुए तो उन्होंने अनुभव किया,क्या अनुभव किया?
BG 4.7
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || ७ ||”
अनुवाद
हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
कि संसार में धर्म की ग्लानि हुई हैं और अधर्म फैल रहा हैं।उन्होंने इसका अनुभव किया और इसका निरीक्षण परीक्षण किया और ऐसी परिस्थिति में ही तो भगवान प्रकट होते हैं। ऐसा भगवान ने भगवद्गीता में वादा किया हैं। ऐसी परिस्थिति में अद्वैत आचार्य विचार करने लगे,वैसे तो वह स्वयं ही महाविष्णु हैं, लेकिन व सोच रहे थे कि ऐसी परिस्थिति में तो
1.3.28
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८ ॥
उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
स्वयं भगवान को प्रकट होना होगा,तभी इस संसार का कुछ कल्याण होगा,तभी धर्म की स्थापना होगी। अद्वैत आचार्य शांतिपुर में गंगा के तट पर अपने शालिग्राम शिला की तुलसीदल से और गंगाजल से पूजा आराधना करने लगे और बड़े हुंकार और पुकार के साथ वह निवेदन करने लगे कि प्रभु आपको तो आना ही होगा। हरि हरि और यह महा विष्णु की पुकार भगवान ने सुनी और वैसे यह पुकार तो पृथ्वी की भी पुकार थी। पृथ्वी माता भी परेशान थी। तो सब दुनिया वालों की पुकार और धरती वालों की सबकी पुकार अद्वैत आचार्य ने भगवान तक पहुंचाई और उनकी पुकार ब्रह्मांड का भेदन छेदन करते हुए गोलोक तक पहुंच गई।और चैतन्य महाप्रभु को प्रकट होना पड़ा।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय।अभी चैतन्य महाप्रभु शचि माता के गर्भ में ही थे, जब अद्वैत आचार्य मायापुर आया करते थे और शचि माता की प्रदक्षिणा करते थे और माता को साक्षात दंडवत करते थे और उनका लक्ष्य तो उनके गर्भ में जो हरि हैं या चैतन्य चंद्र जो माता के गर्भ में प्रकट हुए हैं उनहे प्रणाम करना था।जब अद्वैत आचार्य इस बात से अवगत हुए तो गर्भस्थ शचि पुत्र को वह दंडवत किया करते थे और जब गौरांग गौर पूर्णिमा के दिन प्रकट हुए तो सबसे पहले इस बात को जानने वाले अद्वैत आचार्य ही थे। नाम आचार्य श्री हरिदास ठाकुर,यह दोनों एक नाम के आचार्य और एक अद्वैत आचार्य दोनों शांतिपुर में कीर्तन के साथ हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे से उनका स्वागत कर रहे थे। वैसे उस दिन गंगा के तट पर भी लोग एकत्रित होकर हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन कर रहे थे ।लेकिन जब चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का अद्वैत आचार्य को पता चला तो वह शांतिपुर में नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के साथ नाचते हुए,हर्ष उल्लास के साथ स्वागत कर रहे थे।
स्वागतम निमाई सुस्वागतम निमाई और अपना आभार व्यक्त कर रहे थे कि आपने मेरी पुकार को सुना और अब आप प्रकट हो चुके हो तो आपका बहुत-बहुत स्वागत हैं। धन्यवाद। तो चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के कारण अद्वैत आचार्य ही बने ।उनकी और भी कई सारी महिमा की बातें हैं। लेकिन यह सबसे बड़ी महिमा हैं यह अद्वैत आचार्य का वैशिष्ठय हैं। हरे कृष्ण आंदोलन का नेतृत्व करने वाले पांच व्यक्तित्व रहे या पांच तत्व रहे जिन्हें पंचतत्व कहते हैं।
Ad 1.14
पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्त – रूप – स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त -शक्तिकम् ॥ 14
अनुवाद मैं उन परमेश्वर कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ , जो अपने भक्तरूप ,भक्तस्वरूप ,भक्तावतार , शुद्ध भक्त और भक्तशक्ति रूपी लक्षण से अभिन्न हैं
श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गोर भक्त वृंद
इसमें जो अद्वैत आचार्य हैं,
*जय-जय श्री चैतन्या जय नित्यानंद जय अद्वेत चंद्र जय गोर भक्त* *वृंद*
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी तो अपने हर अध्याय को इसी प्रकार से प्रारंभ करते हैं। पंच तत्वों में से यह एक तत्व हैं। अद्वैत आचार्य तत्व जो कि स्वयं महाविष्णु हैं ।जो कि इस हरे कृष्ण आंदोलन या परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम, संकीर्तन आंदोलन का नेतृत्व करने वाले चैतन्य नित्यानंद और आप जानते हो कि चैतन्य श्री कृष्ण हैं और नित्यानंद बलराम है, अद्वैत आचार्य महाविष्णु हैं और श्रीवास नारद मुनि हैं और गदाधर राधा रानी के अंश हैं या राधारानी ही गदाधर के रूप में हैं ,तो इस प्रकार की टीम रही और इन सभी ने मिलकर हम सबको या सभी को ही पूरी दुनिया को हरे कृष्ण आंदोलन दिया हैं या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे या इन गौर भक्त वृंद ने मिलकर या चैतन्य महाप्रभु के समय तो सारा दिव्य जगत ही प्रकट हो चुका था सारे ही गोलोक के निवासी यहां धरती पर प्रकट हुए थे और वैसे नवद्वीप मायापुर वृंदावन से अभिन्न हैं या गोलोक के निवासी स्वयं भगवान के अलावा और भी निवासी प्रकट हुए हैं। उसमें यह महा विष्णु के अवतार अद्वैत आचार्य भी रहे और इन्हीं की कृपा से हमको चैतन्य महाप्रभु मिले।
चेतनय चरित्र्मृत के आदि लीला के षष्ठ परीक्षित अर्थात छठवां अध्याय जिसमें अद्वैत आचार्य का निरूपण हुआ हैं, अद्वैत आचार्य पंचतत्व में से एक तत्व हैं, आदि लीला छठवां अध्याय आप पढ़ सकते हैं।
इसमें अधिक विवरण दिया गया हैं। इसे आप स्वयं पढिएगा और चेतनय भागवत में और कई सारे ग्रंथों में उनकी लीलाएं, उनके कार्यकलाप और उनके नेतृत्व और चैतन्य महाप्रभु के साथ इनका योगदान का वर्णन हैं। संकीर्तन आंदोलन प्रारंभ ही श्रीवास ठाकुर के प्रांगण में ,श्रीवास आंगन में हुआ हैं। ऐसा भी एक समय आता हैं, जब अद्वैत आचार्य ने अपना एक भवन मायापुर में भी बनाया, जिसको अद्वैत भवन कहते हैं। यह श्रीवास आंगन के पास में ही हैं। तो उनका एक निवास स्थान शांतिपुर में हैं, फिर शांतिपुर से स्थानांतरित होकर मायापुर में रहने लगे।शांतिपुर से स्थानांतरित होकर मायापुर में अद्वैत भवन में रहने लगे, आप वहां गए होंगे या नहीं गए तो जरूर जाइए।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीवास आंगन में पंच तत्वों के साथ हैं, जिसमें अद्वैत आचार्य का कीर्तन विशेष हैं और एक हुंकार के साथ या चपलता के साथ वह
कीर्तन किया करते थे,उसके लिए वह प्रसिद्ध हैं। हरि हरि। चांद काजी की कुटी पर जब नित्यानंद प्रभु ने नॉन कोऑपरेशन मूवमेंट किया तो उसमें भी अद्वैत आचार्य चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे। ऐसे कई सारी लीलाएं हैं और फिर जब चैतन्य महाप्रभु सन्यास लेने के बाद जब जगन्नाथपुरी गए तो अद्वैत आचार्य उनको मिलने जरूर जाया करते थे और पूरे चतुर्मास में वह नवद्वीप में रहा करते थे।तो उनकी लीलाएं मायापुर में जगन्नाथपुरी में भी हैं। उन्होंने वृंदावन को भी एक भेंट थी। अद्वैत आचार्य बट करके भी एक स्थान हैं, वृंदावन में।
इस स्थान को अद्वैत आचार्य ने वृंदावन को भेट किया और कई जगहों की परिक्रमा भी की। जैसे चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन की परिक्रमा की वैसे ही अद्वैत आचार्य ने भी परिक्रमा की हैं।वह अद्वैत हैं, भगवान से अभिन्न हैं, इसलिए उनके कई सारे कार्यकलाप चैतन्य महाप्रभु के जैसे ही रहे। हरि हरि।अद्वैत आचार्य तिथि महा महोत्सव की जय और बिल्कुल संक्षिप्त में मैं आपको यह भी कहना चाहता हूं कि अद्वैत आचार्य प्रभु के आविर्भाव तिथि के उपलक्षय में ही 19 साल पहले इस्कॉन बीड की स्थापना हुई। महाराष्ट्र में एक स्थान हैं, सोलापुर और औरंगाबाद के बीच में एक बीड़ नाम का स्थान हैं, 19 साल पहले,अद्वैत आचार्य प्रभु के आविर्भाव तिथि के के दिन ,इस संसार की या महाराष्ट्र की स्थिति को देखते हुए मैंने भी देखा कि वहां धर्म की ग्लानि हो रही हैं और अधर्म बढ़ रहा हैं प्रभुपाद की ओर से आज के दिन मैंने प्रार्थना की और भी कई सारे भक्त थे उस दिन। मेरे गुरु भ्राता राधा कुंड प्रभु भी थे और भी कई सारे भक्त थे। बहुत बड़ा उत्सव संपन्न हुआ। भगवान राधा गोविंद देव की जय। राधा गोविंद के रूप में भगवान बीड़ में प्रकट हुए।तब से राधा गोविंद देव क्या कर रहे हैं?
BG 4.8
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||”
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
बीड प्रदेश में राधा गोविंद देव प्रकट होकर धर्म की स्थापना कर रहे हैं या संकीर्तन आंदोलन की स्थापना कर रहे हैं। बड़े ही सुंदर सुकुमार राधा गोविंद देव प्रकट हुए और वहां खूब प्रचार-प्रसार हो रहा हैं। शुरुआत में मंदिर थोड़ा छोटा था, आज उसे बड़ा आकार दिया जा रहा हैं, इसके लिए मैं शारदा जी का आभारी हूं कि 19 साल पहले उन्होंने पूरा मंदिर बनाकर ही दे दिया और प्राण प्रतिष्ठा का भी जो खर्चा था उन्होंने उठाया और जब देखा कि भक्तों की गतिविधियां बढ़ रही है और मंदिर छोटा पड़ रहा हैंं तो अब इस समय पर मंदिर के दर्शन मंडप को विस्तारित कर रहे हैं और प्रसादम हाल और मल्टी परपज हॉल और गेस्ट हाउस का नवनिर्माण हो रहा हैं और सारा नवनिर्माण राधा गोविंद देव और वहां के भक्तों की प्रसन्नता के लिए किया जा रहा हैं और मैं भी इस्कॉन बीड़ की गतिविधि और प्रचार-प्रसार से प्रसन्न हूं। मंत प्रतिवर्ष वहां जाया करता था, लेकिन अब नहीं जा पा रहा हूं। तो दूर से ही दर्शन करूंगा। देखते हैं दर्शन भी करेंगें और आप सब को भी करवाएंगे। बने रहिए। इस्कॉन बीड़ की जय। राधा गोविंद देव की जय। श्रील प्रभुपाद की जय।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*श्रीमान आमरेंद्र प्रभु द्वारा*
*दिनांक 05 फरवरी 2022*
हरे कृष्ण!!!
परम पूज्यपाद लोकनाथ स्वामी महाराज के चरणकमलों में दंडवत प्रणाम अर्पित करते हुए मैं प्रारंभ करने का प्रयास कर रहा हूं। सभी एकत्रित वैष्णव वैष्णवी वृन्द के चरणकमलों में दंडवत अर्पण है।
*वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।*
प्रारंभ करने से पूर्व, महाराज जी आपसे अनुमति चाहता हूं कि मैं आपके आशीर्वाद से कुछ बोल पाऊं।
( महाराज- तुम्हारा स्वागत है)
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।। नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
आज हम सब एकत्रित होकर बहुत सुंदर उत्सव मनाने का प्रयास कर रहे हैं। गौड़ीय दिन दर्शिका के अनुसार आज बसंत पंचमी का महा महोत्सव है। कई बार हम सोचते हैं कि वर्ष में तीन या चार ऋतु हैं परंतु हमारे ब्रज के दृष्टिकोण के अनुसार और विशेषकर वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार छह ऋतु प्रसिद्ध हैं। बसंत ऋतु जिसको अंग्रेजी में स्प्रिंग कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु जिसको समर कहते हैं, उसके बाद वर्षा ऋतु जिसे मॉनसून कहते हैं। तत्पश्चात शरद ऋतु, जिसको ऑटम कहते हैं। फिर हेमंत ऋतु, शरद ऋतु (प्री विंटर एंड विंटर) इस प्रकार ब्रज के दृष्टिकोण से छह ऋतु प्रसिद्ध हैं और इसमें भी विशेषकर वसंत ऋतु का बहुत महत्व है। बसंत ऋतु मानो ब्रज में एक उत्सव इसलिए है क्योंकि बहुत शिशिर और हेमंत के बाद, ठंड के बाद ब्रज के वृक्षों में कई सारे पत्ते कई सारे पल्लव, कई सारे पुष्प, फल पकने लगते हैं और लीला के लिए बहुत अनुकूल वातावरण बनने लगता है। इसलिए हम देखते हैं, हरे भरे पत्ते तो बाद में बनते हैं, पहले पीले पत्ते बनते हैं। इसीलिए हर मंदिर के उत्सव में हम देखते हैं कि बसंत पंचमी के उत्सव में राधा कृष्ण के श्रीअंग की सेवा, गहने, मालाएं, वस्त्र और कई जगह पर जो पकवान भी बनाए जाते हैं अथवा भोग पदार्थ भी जो अर्पित होता है सब पीले रंग का होता है। अधिकांश हम सब ने देखा ही होगा। राधा कृष्ण के अलग-अलग मंदिरों में खासकर हमारे इस्कॉन मंदिरों में वस्त्र भी, हार भी और ठाकुर को मिठाइयां भी पवाई जाती हैं, वह भी पीले रंग की होती हैं।
वृंदावन में वसंत का एक बहुत सुंदर वातावरण छा जाता है। यह पंचमी इसलिए है क्योंकि चंद्रमा के शुक्ल पक्ष के दृष्टिकोण से यह पांचवा दिन है, इसलिए यह पंचमी है। ऋतु बसंत का है इसलिए बसंत पंचमी है। राधा कृष्ण की कई सारी लीलाएं प्रसिद्ध हैं। जिस प्रकार से शरद काल का शरद पूर्णिमा के दिन रासलीला प्रसिद्ध है। उसी प्रकार वसंत ऋतु का भी रासलीला बहुत प्रसिद्ध है। केवल स्थान का भेद है। शरदकालीन रासलीला यमुना के तट पर प्रसिद्ध है। हम सब ने इसके विषय में सुना है। कार्तिक मास की प्रारंभिक तिथि को हम शरद पूर्णिमा के भाव से इसको मनाते हैं और उसी प्रकार बसंत पंचमी के दिन राधा और कृष्ण बहुत सुंदर रासलीला का रसास्वादन करते हैं। स्थान भेद हम इसलिए कह रहे हैं कि शरद कालीन रासलीला यमुना के तट पर होती है और वसंत ऋतु का रास लीला गोवर्धन पर चंद्र सरोवर के तट पर होती है। इस प्रकार कई सारी अद्भुत लीलाएं हैं। इसके अतिरिक्त दिन दर्शिका के अनुसार बसंत पंचमी के दिन श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का तिरोभाव दिवस भी है। कल की बैठक में हमनें, इसका विस्तार से तो नहीं कहेंगे पर संक्षिप्त में चर्चा की। इसके साथ श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी का आविर्भाव दिवस है। रघुनाथ दास गोस्वामी कौन हैं? हमारी गौड़ीय संप्रदाय के रस और तत्व सिद्धांत के अनुसार सबसे सर्वश्रेष्ठ जो साध्य है, वो है- राधा कृष्ण की प्रेम प्राप्ति। इसको प्रयोजन माना गया है। श्री चैतन्य महाप्रभु की वाणी के अनुसार- कृष्ण संबंध, भक्ति अभिदेय, प्रेम- प्रयोजन। राधा कृष्ण के चरण प्राप्ति और प्रेम सेवा को स्पष्ट रूप से गीत के माध्यम से, श्लोकों के माध्यम से, प्रार्थना के माध्यम से इस जगत में प्रकाशित करने वाले प्रयोजन तत्व आचार्य हैं श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी। राधा कुंड के तट पर बैठकर उन्होंने 50 साल भजन किया। उनके विषय में कई सारी लीलाएं हैं। ये सब महानुभाव, इतने महानुभाव हैं कि इन सब यदि सात सात दिन भी कथा हो, फिर भी बोलने के लिए बहुत बच जाएगा क्योंकि हम सब बहुत छोटे हैं। हम छोटे जीव हैं और इनकी महिमा अपरंपार है। हम इनकी गणना नहीं कर सकते। रघुनाथ दास गोस्वामी फुदक फुदक कर राधा रानी के विप्रलम्भ भाव अग्नि में दग्ध होकर ऐसे रोते थे कि राधा कुंड के जो भी साधु होते थे, वह रो रो कर राधा रानी से यह प्रार्थना करते थे कि हे राधा रानी! आप हमें मिलो या ना मिलो, इस बाबा को मिल जाओ क्योंकि इतने विरह के भाव में यह रो-रो कर पुकारते थे।
हे राधे! ब्रज देविके! ललिते नंदसूत, रघुनाथ दास गोस्वामी के विषय में कहने के लिए तो बहुत कुछ है। इसके साथ साथ आज एक और बहुत बड़ी हस्ती, एक और नित्य परिकर, नित्य पार्षद का आविर्भाव दिवस है। वह कौन है? वह श्रीचैतन्य महाप्रभु की अर्धांगिनी श्रीमती विष्णुप्रिया देवी हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का विवाह श्रीमती श्रीविष्णु प्रिया के साथ हुआ। विष्णु प्रिया देवी साक्षात नारायण की शक्ति, राधा कृष्ण की शक्ति रूप आविर्भूत हुई। तत्व के अनुसार देखा जाए तो नारायण की विशेषकर तीन शक्तियां हैं।
एक श्रीशक्ति अर्थात जो लक्ष्मी देवी हैं, एक लीला शक्ति जो लीलाओं को परिपूर्ण करती है और एक भू शक्ति हैं। यह तीनों शक्तियां महाप्रभु की लीलाओं में अवतरित हुई। श्री शक्ति, लीला शक्ति और भू शक्ति। यह तीनों अवतरित हुई- लक्ष्मी प्रिया, नवद्वीप धाम और विष्णु प्रिया के माध्यम में। आज विष्णुप्रिया देवी का भी आविर्भाव दिवस है। महाप्रभु की अर्धांगिनी है -लक्ष्मी प्रिया देवी। वह भी अर्धांगिनी है, कैसे जाना जाए? चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं में यह वर्णन है कि जब चैतन्य महाप्रभु का विवाह लक्ष्मी प्रिया देवी से हुआ। उसके बाद महाप्रभु बांग्लादेश में यात्रा करने गए। आज के काल में बांग्लादेश जोकि नदिया से दूर है, महाप्रभु दूर बांग्लादेश गए। तब लक्ष्मी प्रिया देवी का देहांत हुआ। वे अपनी लीलाओं को संपन्न करके गोलोकधाम अंतर्ध्यान हो गई। लीला कथा के अनुसार ऐसे वर्णन आता है कि सर्प के डसने से उनकी मृत्यु हुई या उनका तिरोभाव हुआ पर यह कोई सामान्य सर्प नहीं था। वृंदावन दास ठाकुर चैतन्य भागवत में कहते हैं कि महाप्रभु से बिछड़ने का विरह ही विप्रलम्भ सर्प रूप में आकर डसने लगा। मानो कोई सर्प के डसने से मृत्यु नहीं हुई। यह सर्प कौन है? यह कोई जगत का सर्प नहीं था। उनके हृदय में उभरते हुए महाप्रभु के विरह विप्रलम्भ भाव ही सर्प रूप में अवतार लेकर उनको डरने लगा। ऐसा कहते हैं कि सर्प के डसने के कारण उनकी मृत्यु हुई या उनका तिरोभाव हुआ। वास्तविकता में वह सर्प विप्रलम्भ सर्प था। अब यह होने के बाद महाप्रभु तो लौट गए। महाप्रभु लौटे तब शची माता ने कहा कि “जब तुम चले गए तो लक्ष्मीप्रिया देवी का देहांत हुआ” महाप्रभु बहुत गंभीर हो गए। क्यों गंभीर हो गए? हम सब को यह शिक्षा देने के लिए कि इस जगत में कोई भी ऐसा रिश्ता नहीं, कोई भी ऐसा संबंध नहीं जो स्थाई हो, जो शाश्वत हो। सब कुछ क्षणिक है। सब कुछ क्षण भंगुर है। आज है तो कल नहीं। जहां भी प्रीति होती है, जहां भी आसक्ति होती है, वहां काल के चक्र के अनुसार धोखा होता है। आज जन्म है तो कल मृत्यु है। आज किसी से मिलते हैं तो कल बिछड़ते हैं। कई बार माता-पिता छोड़ कर चले जाते हैं और कई बार पुत्र जिंदा होकर भी अलग देश में रहता है। जहां संयोग है वहां वियोग अनिवार्य है। यह दर्शाने के लिए, यह शिक्षा पूरे जगत को देने के लिए महाप्रभु के जीवन में जब लक्ष्मी प्रिया के साथ बिछड़ने की लीला का वर्णन हुआ तब महाप्रभु गंभीर हो गए। गम्भीरचित से प्रभु का स्मरण करने लगे। महाप्रभु तो ऐसा कर सकते हैं पर शची माता, मां का हृदय तो नवनीत के समान होता है। पुत्र के जीवन में यदि थोड़ी भी अग्नि रूपी दुख आ जाए तो मां का नवनीत रूपी चित पिघलने लगता है। शची माता सोचने लगी, चैतन्य महाप्रभु अकेले हो गए। हमारे निमाई पंडित, हमारे विश्वम्भर मिश्र अकेले हो गए। क्यों? इसमें दुविधा क्या है? दुविधा ऐसी है कि शची माता के हृदय में पीड़ा अथवा दुख प्रदायक विचार यह है कि उनके जो पहले पुत्र थे, उनका नाम था विश्वरूप। विश्वरूप ने अकस्मात (अचानक) संन्यास ले लिया। उसके बाद शची माता कभी अपने पुत्र को देख नहीं पाई। आज के सत्र में जो एकत्र माताएं हैं वह शायद इस बात को और अधिक गहराई से समझ पाएगी। मैं तो बस मुख से बोल रहा हूं लेकिन मां का जो हृदय होता है, वही इस बात को समझ पाएगा। शची माता का एक पुत्र विश्वरूप ने, उनको छोड़कर सन्यास ले लिया। तत्पश्चात कभी लौटकर फिर घर वापस नहीं आए, संन्यास लेने के बाद। शची माता ने, यदि देखने की इच्छा रखी भी तो भी देख नहीं पाई। अब ह्रदय में यह बात उमड़ने लगी कि हमारे छोटे बेटे शचीनन्दन गौर हरि, अभी तक तो विवाहित थे तो मुझे चिंता नहीं थी। अब अकेले हो गए। लक्ष्मी प्रिया देवी अब छोड़ कर चली गई, प्राण छोड़ कर चली गई। अपनी लीलाओं को संपन्न करके गोलोकधाम प्रस्थान हो गई। अब यह अकेले हैं। शास्त्र वगैरह सब कुछ तो जानते हैं, शास्त्र का सार, निचोड़, न्याय, व्याकरण, तत्व, रस, सिद्धांत सब कुछ ग्रहण करके बैठे हैं। वैसे तो भगवान हैं परंतु उनकी नरवत लीला में भी पंडित शिरोमणि हैं और सब कुछ जानते हैं। शास्त्र का सार क्या है? जगत से विरक्ति। हर छोटे भाई से अपेक्षा यही होती है कि वह सज्जन बड़े भाई जो हैं, उनके पद चिन्हों पर अनुगमन किया जाए। यदि हर दृष्टिकोण से देखा जाए तो मां के हृदय में यह दुख या यह सन्देह या यह विचार अंदर से उनके सुख को खा रहा था कि कहीं विश्वरूप के पीछे पीछे विश्वम्भर भी संन्यास ना ले ले। यदि संन्यास लेने से पहले पुनः इनका विवाह करा दूं तो यह गृहस्थ जीवन में सुखी रहेंगे। यह मेरे निकट रहेंगे। ये सुखी तो मैं भी सुखी। ऐसा मां सोच रही थी। अब क्या करें? इनके विवाह के लिए पुत्री ढूंढनी होगी? शची माता, रोज गंगा के तट पर जाकर गंगा मैया की आराधना किया करती थी। नवद्वीप में है तो गंगा के तट पर वास है। जब वह जाती थी, तो एक बहुत सुंदर, एक बहुत सुकोमल, सुशील, बहुत सुंदर लक्ष्मीवती स्त्री का दर्शन करती थी। जिनका नाम था विष्णुप्रिया। विष्णुप्रिया कौन हैं? विष्णुप्रिया देवी, सनातन मिश्र नाम के एक बहुत बड़े विद्वान प्रकांड नवद्वीप में थे, वह इतने बड़े विद्वान थे कि वह सभी ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ हैं, सभी श्रीमंत धनाढ्य व्यक्तियों में शिरोमणि, चूड़ामणि और सर्वश्रेष्ठ थे, उनका सर्वोपरि स्थान था, सनातन मिश्र की पुत्री अथवा कन्या विष्णुप्रिया देवी थी। विष्णुप्रिया देवी हर दृष्टिकोण से सर्वसंपन्न थी। हैं लक्ष्मी, भगवान की नित्य अर्धांगिनी, ऐसा नहीं कि अभी विवाह हो रहा है। शाश्वत, सर्वदा, सर्वकाल के लिए संयोगित हैं। ऐसी लक्ष्मी हैं, जो कभी बिछड़ती नहीं।अब यहां लक्ष्मी प्रिया, विष्णु प्रिया बिछड़ने का संयोग.. यह लीलाएं तो भूतल पर नरवत लीला होती हैं परंतु यदि नित्यधाम की बात करें, प्रभु और अपनी शक्ति
शक्ति शक्तिमतयो अभेदः
वह अभेद भी है और उनमें काल और स्थान का प्रभाव होकर बिछड़ने की लीला वहां नहीं होती। वो वियोग और विप्रलम्भ की लीलाएँ तो यहां दर्शाने के लिए होती हैं ताकि पत्थर रूपी चित्त को पिघलाकर प्रभु की लीलाओं में, प्रभु के गुणों में, प्रभु के रूपों में, हम भी भावविभोर हो सके। इसीलिए विरह की लीला यहां हमारे लिए दर्शाई जाती है किन्तु नित्य धाम, श्वेत दीप नवद्वीप जो आध्यात्मिक जगत हैं । वहां तो संयोग है, नित्य है, नित्य अर्धांगिनी है। सनातन मिश्र की सुकन्या/ सुपुत्री विष्णु प्रिया देवी, वो भी सभी शास्त्रों में कुशलिनी, निपुण, रूप सौंदर्य की दृष्टिकोण से अतुल्य, चित्त के शुद्धिकरण के अनुसार सुशीला, हर दृष्टिकोण से, हर गुण से देखकर परखने पर भी कहीं कोई दोष नहीं क्योंकि नित्य शक्ति है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो बहुत बड़ी तपस्विनी, दिन में तीन बार गंगा स्नान करती थी। गंगा की आराधना, तुलसी की आराधना, नारायण की आराधना, निर्जला एकादशी व्रत करती थी और जो सभी बड़े वरिष्ठ हैं, विष्णु प्रिया उनके सामने नम्रभाव में झुकती थी। हर दृष्टिकोण से परफेक्ट( जो कहते हैं ना एकदम परफेक्ट) शची माता जब विष्णुप्रिया को देखती थी, हृदय द्रवित होता था, पिघलने लगता था। एक बार विष्णुप्रिया देवी ने चरण स्पर्श करके दंडवत किया/ पंचांग नमस्कार किया, शची माता ने आशीर्वाद दिया- हे विष्णुप्रिये! मैं आशीर्वाद देती हूं कि तुम्हें सबसे उत्तम पति मिले। सबसे उत्तम पति जो सभी शास्त्रों में निपुण हो। सभी दृष्टिकोण से उत्तम हो। जिनके ऊपर तो भूल जाओ, जिनके आसपास भी कोई ना हो। योग्यतानुसार आशीर्वाद तो दे दिया। विष्णुप्रिया देवी ने मंद मंद मुस्कुराकर आशीर्वाद ग्रहण कर लिया। तत्पश्चात शची माता गंगा के तट से निकलकर चलते-चलते घर की ओर पहुंच रही थी। तब यह विचार आया कि एक मिनट, मैंने तो विष्णुप्रिया को आशीर्वाद दिया कि सर्वश्रेष्ठ पति मिले, ऐसा हो जिसके ऊपर कोई ना हो, सर्वगुण संपन्न हो। यह कोई मां का दिल नहीं कह रहा। यह तो सब जानते हैं कि पूरे नवद्वीप में/ पूरे नदिया में सर्वश्रेष्ठ तो निमाई पंडित है। शची माता का हृदय अब तो आनंद और उल्लास से फटने लगा। यह आतुरता होने लगी, व्याकुलता बढ़ने लगी कि अगर निमाई पंडित, विश्वम्भर मिश्र का विवाह यदि विष्णुप्रिया देवी से हो, ओ हो हो… यह तो बस मानो कि मेरे जीवन की सबसे सर्वश्रेष्ठ पूर्ति होगी पर बात कैसे छेड़ी जाए। देखिए उस समय में ऐसा नहीं होता था कि कोई लड़का लड़की से मिले और बात करें। परिवार भी परिवार से मिलकर विवाह संबंधी बात नहीं करते थे। ऐसा होता था कि हर गांव में एक ब्राह्मण होता था जो विवाह का आयोजन करने में सक्षम होता था। उस को अंग्रेजी में मैचमेकर कहते हैं अर्थात जो भी विवाह आयोजन करने योग्य जो भी बातें हैं, वह सब जानने वाले पंडित हैं। पंडित जानते थे कि गांव में कौन-कौन से लड़के हैं जो जो शादी करने के लिए तैयार हैं। कौन-कौन सी लड़कियां हैं जो शादी करने के लिए तैयार हैं। विवाह करने के लिए तैयार हैं। उनकी आयु में क्या भेद है। कौन ब्राह्मण है, कौन क्षत्रिय है, शास्त्र के अनुसार क्या प्रतिकूल है? क्या अनुकूल है? ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कितने गुण मिलते हैं? सब जानने वाले ब्राह्मण थे। नवदीप में भी ऐसे ब्राह्मण थे, उनका नाम था काशिश्वर पंडित। शची माता, तत्क्षण उसी दिन काशिश्वर पंडित से मिली और कहने लगी। मैं कुछ कहना चाहती हूं। काशिश्वर पंडित ने कहा- हा मैया, आप तो जगत माता हो। कहिए! क्या आज्ञा है? शची माता कहने लगी कि ह्रदय में एक इच्छा जागृत हुई है। मेरे पुत्र का विवाह यदि सनातन मिश्र की पुत्री विष्णु प्रिया से हो सके तो … मुझे पता है, यह छोटे मुंह बड़ी बात है। मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि सनातन मिश्र का जो स्थान है, वह जगन्नाथ मिश्र से भी ऊपर है। पांडित्य अनुसार, श्रीमन्त धनाढ्य धन के अनुसार, सामाजिक दृष्टिकोण से जो स्तर है, उसके अनुसार और ब्राह्मणत्व में भी दोनों मित्र हैं। सनातन मिश्र भी मिश्र हैं, जगन्नाथ मिश्र भी मिश्र हैं। पर फिर भी जाति में भी उपजाति होता है। उस दृष्टिकोण के अनुसार भी सनातन मिश्र की जाति वह और ऊपर है। मानो या छोटे मुंह बड़ी बात, शची माता कह रही है परंतु फिर भी इच्छा करने में क्या है। मुझे लगता है यदि मेरे पुत्र विश्वम्भर मिश्र का विवाह सनातन मिश्र की पुत्री विष्णुप्रिया से हो तो मेरी सर्वश्रेष्ठ इच्छा की पूर्ति इसी से हो जाएगी। काशिश्वर पंडित ने कहा-‘ अरे! मैं तो रुका था, उस दिन के लिए, जब आप आकर यह बात छेड़ेगी। मैं अकेले आकर कैसे बात करूं, मैया! आप यदि इस बात से प्रेरित हो जाए तो तब हम जाकर आगे कहें। मेरे हृदय में भी यह बात उमड़ रही थी लेकिन मैं…यदि दो परिवार ना बोले… मैं क्या बीच में बोलूं पर आपने यह बात कह दी .. ओह्ह ओह्ह.. मानो आपने मेरे हृदय की बात छीन ली हो। शची माता ने कहा… पर हमें तो फिर ज्योतिष शास्त्र के अनुसार देखना पड़ेगा। काशिश्वर पंडित ने कहा कि अरे! हम पहले से सब देख चुके हैं। सब सही है। मैंने तो पहले से तुलना कर ली। सब ठीक है। तो अब क्या करें ? मैं जाकर बात करूं सनातन मिश्र से? शची माता ने कहा- ‘हां! बस यही इच्छा थी कि अगर आप जाकर बात कर ले। यह हमारी इच्छा है तो फिर दो परिवार जाकर बाद में मिल लेगें। काशिश्वर पंडित ने कहा कि ठीक है!
अब उस पक्ष में देखते हैं। सनातन मिश्र जी अपने घर में नारायण की सेवा करते थे। उनके पास नारायण विग्रह थे। रो-रो कर सेवा करते थे। सनातन मिश्र की पत्नी ने पूछा-‘आपसे, मैं कुछ पूछना चाहती हूं। आप रोज नारायण की इतनी भाव विभोर होकर रो रो कर आप नाम पुकार पुकार कर आप सेवा करते हो। क्या हृदय में कोई अपूर्ण इच्छा की पूर्ति हेतु करते हो ? कोई इच्छा है क्या आपके हृदय में? सनातन मिश्र ने अपनी पत्नी से कहा- ‘अब तुमसे क्या छुपाऊं। मैं देखता हूं कि हमारी बेटी बड़ी हो रही है। इसलिए पिता के हृदय में चिंता है कि अब कोई अच्छा लड़का मिले।’ तुम पूछ रही हो, इसलिए मैं कह रहा हूं।’ सनातन मिश्र अपनी पत्नी से कहते हैं। अगर हमारी पुत्री विष्णुप्रिया को शची माता और जगन्नाथ मिश्र के जो पुत्र हैं निमाई पंडित, वह मिल तो नहीं सकते। मुझे पता है। निमाई पंडित बहुत बड़े पंडित हैं, उनके जैसा कोई लड़का अगर मिल जाए तो विष्णुप्रिया का जीवन तो सफल हो जाएगा। उनकी पत्नी ने कहा- ‘उनके जैसे तो केवल वही हैं। दूसरा कोई नहीं है।’ सनातन मिश्र ने कहा- ‘यही तो हृदय की बात है। मैं नारायण की सेवा इसीलिए करता हूं कि अगर वो दिन आ जाए जब हमारी पुत्री विष्णुप्रिया का विवाह जगन्नाथ मिश्र और शची माता के पुत्र विश्वम्भर मिश्र, श्रीमन महाप्रभु शची नंदन गौर हरि के साथ अगर विवाह निश्चित हो जाए तो मेरा पिता होने का सर.. मैं उस भाव से कह रहा हूँ । मेरा जीवन तो सफल हो जाएगा। जब ऐसे माता-पिता विष्णुप्रिया के विषय में बात कर ही रहे थे, तब काशिश्वर पंडित दरवाजा खटखटाते हैं। काशिश्वर पंडित जी आते हैं और कहते हैं- ‘सनातन मिश्र जी, आपसे बात कहनी थी।’ सनातन विष्णु जी ने कहा- ‘आप तो जिनके भी घर जाते हो, आप तो जीवन सँवारने की बात ही करते हो। बताइए।’
काशिश्वर पंडित ने कहा- ‘आपकी बेटी विष्णुप्रिया देवी के विवाह के लिए बहुत बहुत अच्छा आयोजन आया है।’ सनातन मिश्र ने कहा- ‘बताइए।’ काशिश्वर पंडित ने कहा- शची माता और जगन्नाथ मिश्र के विषय में तो आपने सुना ही होगा। हां! हां! उनके बारे में किसने नहीं सुना है?’ काशिश्वर पंडित ने कहा- उन्हीं के पुत्र, विश्वंभर मिश्र हमारे श्रीमन महाप्रभु शचीनन्दन गौर हरि के लिए हम विष्णु प्रिया का हाथ मांगने आए हैं। यदि आप ठीक समझो तो मैं जाकर शची माता को हाँ कह दूं।’
जब जैसे ही काशिश्वर पंडित ने कहा- सनातन मिश्र और उनकी पत्नी सीट से खड़े हो गए। जोर से चीख चीख कर चिल्लाने लगे। हे प्रभु! हे नारायण !आपकी जय हो! सभी आराधना, सभी आरती, सभी पूजा सफल हो गई। हमने जो हृदय से प्रार्थना मांगी जो कृपा याचना की, प्रभु! आपने उसकी पूर्ति कर दी।’
बस यदि विष्णुप्रिया का विवाह शचीनन्दन से निश्चित हो जाए तो हमारा जीवन सफल है। काशिश्वर पंडित ने कहा- ‘यदि बात आपके पक्ष से पक्की है तो शची माता को जाकर बता दूं?’ तब सनातन मिश्र जी ने कहा – तत्क्षण, अभी जाकर बता दीजिए।’ सनातन मिश्र के घर से काशिश्वर पंडित भावविभोर होकर, गदगद होकर भाग भाग कर शची माता के पास आए और कहने लगे- शची माता! आपकी बात बन गई। सनातन मिश्र और उनकी पत्नी ने हां कर दी। अब आपके पुत्र निमाई पंडित का विवाह विष्णुप्रिया देवी से निश्चित है।’
अब तक हमारे महाप्रभु को कुछ भी नहीं पता। देखिए, वैदिक संस्कृति के अनुसार विवाह ऐसे होता था। महाप्रभु को अभी तक पता नहीं है। शची माता, बहुत खुश। सब खुश। इस लीला के पीछे बहुत बड़ा रहस्य छुपा है। क्या रहस्य है? देखिए! विष्णुप्रिया देवी जो महाप्रभु की अर्धांगिनी है। कृष्ण लीला में यही सत्यभामा देवी है। सत्यभामा देवी जो द्वारिका में कृष्ण की अर्धांगिनी हैं, वहीं सत्यभामा देवी विष्णुप्रिया है। विष्णु प्रिया के पिता सनातन मिश्र जी किसके अवतार हैं? सत्यभामा के पिता सत्राजीत के अवतार हैं। सत्राजीत जैसे अपनी पुत्री सत्यभामा का हाथ भगवान श्रीकृष्ण के हाथ देने वाले थे ,वैसे ही अब सत्राजीत के अवतार सनातन मिश्र जी अपनी पुत्री अपनी कन्या विष्णु प्रिया का हाथ शचीनन्दन गौर हरि के हाथ में देने वाले हैं।
कृष्ण लीला में एक और बात सिद्ध है। सत्राजीत, जब कृष्ण और सत्यभामा के विवाह के विषय में चर्चा हो रही थी। उन्होंने एक ब्राह्मण से इस विषय में कहा कि तुम जाकर कृष्ण से कह देना, यह इच्छा है। वहीं ब्राह्मण गौरलीला में काशिश्वर पंडित के रूप में अवतरित हुए।
एक पक्ष में हैं सत्राजीत जो बन गए सनातन मिश्र फिर उनकी पुत्री सत्यभामा जो बन गई विष्णुप्रिया देवी। इस पक्ष में कृष्ण हैं, जो बन गए शचीनन्दन गौर हरि। जो कृष्ण लीला के ब्राह्मण हैं अर्थात कुलगुरू, वही नवद्वीप में अवतरित हुए। जिनका नाम काशिश्वर पंडित था। अब शची माता से काशिश्वर पंडित कहने लगे कि विवाह के लिए जो भी आयोजन है तत्क्षण शीघ्र अति शीघ्र हमें यह आयोजन करना चाहिए। जो भी शुभ है वह तत्क्षण करें और जो भी अशुभ है उसे सौ बार विचार विचार करके और फिर भी यदि विवेक बुद्धि से सिद्ध है तो करें लेकिन शीघ्र नहीं करना। जो सुख प्रदायक है, उसको शीघ्र करना है। अब उनके विवाह का आयोजन हुआ। (मैं 5 मिनट का और ऊपर समय लूंगा।
मुझे पता है कि समय ऊपर जा रहा है।)
आयोजन किया गया, अब विवाह बहुत बहुत सुंदर तरीके से आयोजन होने वाला था। अब विवाह के लिए खर्चा भी होगा। धन कहां से आएगा बहुत ख़र्चा होगा । नवद्वीप में एक बहुत धनाढ्य व्यक्ति थे जिनका नाम बुद्धिमंत खान था। बुद्धिमंत खान ने कहा कि देखो धन का तो सुदुपयोग होना चाहिए। ये पूरे विवाह के आयोजन का जो भी खर्चा है, वह बुद्धिमंत खान उठाएगा। मैं उठा लूंगा, अब बुद्धिमंत खान के पास एक व्यक्ति आए। जिनका नाम मुकुंद संजय था। मुकुंद संजय के पास भी धन था लेकिन इतना नहीं। मुकुंद संजय वही थे जिनके प्रांगण में निमाई पंडित अपने शिष्यों को व्याकरण सिखाते थे। मुकुंद संजय ने सोचा- ‘अरे! मेरे प्रांगण में निमाई पंडित अपने शिष्यों को सिखाते हैं तो मेरा भी कर्तव्य बनता है कि मैं भी कुछ धन का दान देकर इस विवाह समारोह में कुछ आयोजन करू। वह बुद्धिमंत खान के पास आए और कहने लगे कि मैंने सुना है कि आप धन दान देकर आयोजन करने वाले हैं। आप चिंता ना करें मैं भी योगदान करूंगा। बुद्धिमन्त खान बोले, “अरे! मुकुंद संजय! यह कोई धनहीन ब्राह्मण का विवाह नहीं होने वाला है कि तुम अपना हाथ डाल रहे हो। यह बहुत, सबसे विशाल, सबसे भव्य सबसे सुंदर विवाह होने वाला है। राजा या राजकुमार का विवाह जिस प्रकार होता है। नवद्वीप ने ऐसा विवाह कहीं नहीं देखा। अरे!नवद्वीप की बात तो छोड़ दो। स्वर्ग के राजा इंद्र ने भी ऐसा विवाह नहीं देखा। ऐसा विवाह समारोह, ऐसा आयोजन बुद्धिमंत खान करेगा। शचीनन्दन और विष्णु प्रिया के बीच जब इस विवाह की बात मुकुंद संजय ने बुद्धिमन्त खान के मुख से सुनी तो उन्होंने कहा- अच्छा!अच्छा! आप कर लीजिए। यदि कोई सहयोग करने का मुझे अवसर मिले तो मैं अपने जीवन को कृतार्थ समझूंगा। अब विवाह तो कोई एक-दो घंटे की बात नहीं है। कई दिनों की प्लानिंग/आयोजन के पश्चात सोच समझकर कई दिन लगकर इस विवाह का आयोजन हुआ। पहले दिन शचीनन्दन गौर हरि, सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित करके, स्वागत करके, सबके चरण स्पर्श करके, चरण धोकर चरणामृत पीकर, सबको चंदन का लेप कर, सबको हार चढ़ा रहे थे
व सबको भेंट दे रहे थे। कई ब्राह्मण तो चैतन्य महाप्रभु के रूप सौंदर्य से आकृष्ट होकर बारंबार आकर लाइन में खड़े हो जाते। उनको एक बार तो चंदन का लेप महाप्रभु ने लगा दिया और हार चढ़ा दिया। फिर वे जाते थे उस लेप को धोकर हार रख कर पुनः आकर लाइन में खड़े हो जाते थे ताकि निकटतम स्थान से शचीनन्दन को देख सकें। महाप्रभु करोड़ों कन्दर्प को जीतने वाले शरीर में ऐसी सुंदरता रखते थे। बहुत सुंदर, सर्वगुण संपन्न, दिव्य गुणों की खान थे। श्रेष्ठ उद्गम स्थान थे, स्तोत्र थे। अब दूसरे दिन ऐसा आयोजन हुआ कि निमाई पंडित को पालकी में ले जाकर जगन्नाथ मिश्र भवन से सनातन मिश्र के घर की ओर प्रस्थान का पूरा आयोजन किया गया। महाप्रभु उस पालकी में चढ़े। उस पालकी में निमाई पंडित बैठ गए। बाए, दाएं तरफ, आगे पीछे, हर जगह गायक हैं, नृत्यकार है, ब्राह्मण बहुत सुंदर स्वस्ति वाचन उच्चारण कर रहे हैं। मंत्रों का उच्चारण हो रहा है। कहीं सारे गीत गाने वाले गंधर्व उतर गए। अप्सरा नृत्य करने के लिए उतर गयी। इसके साथ-साथ हर जगह रंगोली लगी है। आम के पत्तों का तोरण लगा है। हर जगह शंख बज रहा है। श्रीचैतन्य महाप्रभु पालकी पर चढ़ गए। चढ़ कर फिर इस गीत और मंत्र की बहुत सुंदर यात्रा से सनातन मिश्र के भवन पहुंच गए। सनातन मिश्र जी ने अपनी खिड़की से देखा। हरि नाम की गूंज चल रही है, हर जगह नृत्य हो रहा है, गीत वाद्य यंत्र बज रहे हैं। अवश्य अवश्य निमाई पंडित आए हैं। उन्होंने दरवाजा खोल दिया। निमाई पंडित का हाथ भर के स्वागत किया। उनको बहुत सुंदर स्थान देकर बैठा कर सनातन मिश्र जी ने चरण धोए। आरती की फिर उन्हें यज्ञ मंडप की ओर ले गए। वहां यज्ञ मंडप में बहुत सुंदर कुंड बना था। जहां पर विवाह का यज्ञ होगा, विष्णुप्रिया देवी बाहर आई। उनका मुख्य आच्छादित था, कवर किया गया था। वह देख नहीं रही थी, छिपा कर आई थी। उन्होंने निमाई पंडित को नमस्कार किया। तत्पश्चात सात परिक्रमा लगाई। हम जैसे परिक्रमा लगाते हैं ठाकुर जी की या तुलसी जी या गुरु की। हम परिक्रमा लगाते हैं कैसे लगाते हैं? हम ऐसे जाते हैं कि ताकि जो हमारे इष्ट हैं, वे हमारी दाई तरफ हो। ऐसी ही परिक्रमा लगाते हैं ना? इष्ट हमारे दाई और होते हैं। हम फिर उस तरह घूमते हैं परंतु विष्णु प्रिया देवी ने उल्टी परिक्रमा लगाई क्योंकि जब हम सीधी परिक्रमा लगाते हैं उसका भाव यह होता है कि मुझे मुक्ति मिले लेकिन विष्णुप्रिया देवी उस विवाह से मुक्ति नहीं चाहती थी। उल्टी परिक्रमा इसलिए लगा रही थी ताकि अपने इष्ट नंदन गौर हरि के साथ सात जन्म का का बंधन बधे। वह कोई मुक्ति की चाह नहीं कर रही थी। वह शचीनन्दन के साथ बंधन में बंध रही थी। इसलिए उन्होंने सात उल्टी परिक्रमा लगाई ताकि सात जन्मों के लिए शचीनन्दन और विष्णुप्रिया साथ रहे। वैसे तो वे अनंत काल से अनंत काल तक साथ हैं। नरवत लीला प्रदर्शित करने के लिए, जनसामान्य के दृष्टिकोण से प्रकाशित करने के लिए ऐसी लीला रचाई गयी। फिर बहुत सारे कार्यक्रम हुए। बहुत सुंदर सुंदर कार्यक्रम हुए। विष्णुप्रिया देवी के हाथ में हार दिया गया। विष्णुप्रिया देवी बहुत शरमा शरमा के नीचे देख रही थी। उन्होंने हार चढ़ाया नहीं। उन्होंने उस हार को शचीनन्दन गौर हरि के चरणों में अर्पित कर दिया। हार रूपी ह्रदय को आपके चरणों में सेवा भाव से अर्पित कर रही हूं। वैसे तो वह गले में चढ़ाना था। उन्होंने शरमाकर वह हार शचीनन्दन गौर हरि के चरणों में अर्पित कर दिया। शचीनन्दन गौर हरि ने क्या किया? उस हार को उठाकर उन्होंने विष्णुप्रिया देवी को अर्पित कर दिया। दूसरा हार विष्णु प्रिया देवी को मिला। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु को अर्पित कर दिया। सब माताएं वहां हू ल्लू लू की बहुत सुंदर शुभ संकेत से इस विवाह की घोषणा करने लगी। शंख बज रहे हैं, मृदंग बज रहे हैं, करताल बज रहे हैं। ओ हो हो हो। अभी तक विष्णुप्रिया देवी ने निमाई पंडित को देखा नहीं है। वह भी वस्त्र से आच्छादित है। अब पंडितों ने आदेश दिया कि शचीनन्दन और विष्णुप्रिया देवी एक दूसरे को देखें क्योंकि यह एक विधि है परंतु विष्णुप्रिया देवी इतनी सांस्कृतिक थी तभी भी शरमा रही थी कि मैं सबके सामने कैसे देखूं। पंडितों ने क्या किया? एक कपड़ा लिया और हर तरफ से आच्छादित कर दिया ताकि और कोई ना देखें। सिर्फ शचीनन्दन और विष्णुप्रिया। आसपास से पूरा एक कपड़ा ढक दिया। तब विष्णुप्रिया देवी ने अपना मुख आच्छादित कपड़े को निकाला। पहली बार विष्णुप्रिया देवी और शचीनन्दन गौर हरि ने कृपा कटाक्ष नहीं प्रेम कटाक्ष से परस्पर स्वीकारा। इस प्रकार बहुत सुंदर तरीके से शचीनन्दन गौर हरि और सनातन मिश्र की सुपुत्री विष्णु प्रिया देवी का विवाह संपन्न हुआ। इसके बाद सनातन मिश्र जी ने बहुत भेंट दी। सभी ब्राह्मणों को भेंट दी,अलंकार दिए, वस्त्र दिए, भूषण आवरण सब कुछ दिया। सभी ब्राह्मण भी इतने खुश हो गए। वे भेंट लेने के बाद बारंबार आकर लाइन में खड़े हो जाते। भेंट को रखते थे फिर वापस आकर… ताकि बार बार मिलें। सनातन मिश्र जी ने बहुत भेंट दी। श्रीचैतन्य महाप्रभु पालकी में चढ़ गए पर इस बार अकेले नहीं, उनके पास विष्णुप्रिया देवी भी बैठी थी। अब उसी प्रकार जैसे महाप्रभु जगन्नाथ मिश्र भवन से सनातन मिश्र भवन की ओर पालकी में आए थे, अब सनातन मिश्र भवन से लेकर जगन्नाथ मिश्र भवन की ओर इस पालकी में श्रीचैतन्य महाप्रभु और उनकी अर्धांगिनी विष्णुप्रिया देवी दोनों विराजमान होकर अपने घर लौटे। इस प्रकार बहुत सुंदर लीलाओं का वर्णन है। हमारी वाणी कहां तक जा सके। प्रभु की अनंत लीलाओं का वर्णन करते करते करोड़ों जीवन भी बीत जाएं फिर भी कई ऐसी बातें हैं जो छूट जाएगी। मैं तो बहुत छोटा पक्षी हूं। यह लीला बहुत विशाल, भव्य है, आकाश है। मैं अपने जिव्हा रूपी पंख को कितना भी फड़फड़ाऊं फिर भी यह भव्य आकाश रूपी नभस्थल रूपी लीलाओं का सविस्तार वर्णन मैं नहीं कर सकता। इसी भाव से कृतज्ञता कर आप सब ने मुझ बहुत सुंदर अवसर दिया। महाप्रभु और विष्णुप्रिया देवी के गुणगान कर अपने जीवन, जिव्हा और हृदय को पवित्र करने का। इसलिए कृतज्ञता भाव से मैं आप सबको धन्यवाद देता हूं। सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ दंडवत प्रणाम मैं परम पूज्य पाद श्री लोकनाथ महाराज के चरण कमलों में जिन्होंने बहुत कृपा करके मुझे यह सेवा का अवसर दिया। सभी वैष्णव वैष्णवी वृन्द को मेरा दण्डवत प्रणाम।
*वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।*
पदमाली प्रभु को विशेष कृतज्ञता कि उन्होंने संपर्क जोड़ कर मुझे यह सेवा का अवसर प्रदान किया। जो भी त्रुटि हुई हो आप सब मुझे क्षमा करें। यदि प्रभु प्रेरित बात उतरित तो जिससे आपको संतुष्टि प्राप्त हुई हो तो बिना भूले आप सब मुझे आशीर्वाद प्रदान करें।
श्रील प्रभुपाद की जय!
परम पूज्य पाद श्री लोकनाथ महाराज की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
4 फरवरी 2022,
श्रीमान अमरेंद्र प्रभुजी,
विषयः श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर
हरे कृष्ण, मुझे ऐसे लग रहा है, जैसे कोई छोटा बच्चा है और उसका कोई मनोभिष्ठ पूरा हो रहा हो। महाराजजीको स्क्रीन पर देख कर मुझे इतना संतुष्ट हो रहा हूं। एक छोटासा संस्कृत श्लोक मुझे याद आ रहा है। उसके पीछे एक छोटी सी कथा है। एक बार एक भिकारी जिस जमीन पर बैठकर भीख मांग रहा है, रास्ते पर भीख मांगता था। उसकी तरफ कोई नहीं देखता था पर, उस राज्य के जो राजा थे उनकी नजर उस पर गयी। दृष्टिपात हुआ इस भिकारी पर। भिकारी को बुलाए, पास बुलाए और बोले कि अपने बारे में कुछ बताओ। वह भिकारी हड़बड़ा गया और बोला कि, आप में और हम में एक समानता है। तो राजा ने कहा, “अरे मैं तो राजा हूं और तुम भिखारी हो हमने और तुम में क्या समानता है।” तो उस भिकारी ने कहा
अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथावुभावपि । बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरुषो भवान् ॥ राजा ने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। तो उस अधिकारी ने कहा, आप तो लोगों के नाथ हैं। आप सब के स्वामी हैं। इसलिए आप लोकनाथ हो। और मैं भिकारी सभी लोग मेरे नाथ है इसलिए मैं लोकनाथ हूं। मैं उन्हीं की कृपा, उन्हीं की धन, उन्हीं की असीम अनुकंपा के पात्र होने की अभिलाषा रखता हूं। तो फिर उस भिकारी ने कहा, आप भी लोकनाथ मैं भी लोकनाथ। आप लोकनाथ इसलिए है राजा क्योंकि, आप लोगों के नाथ हैं और मैं लोकनाथ इसलिए हूं राजा क्योंकि, लोग मेरे नाथ है।
मुझे भी वैसा ही लग रहा है आज क्योंकि, महाराजजी तो लोकनाथ है लोगों के नाथ है। राजा है और मैं भिकारी हूं। तो मुझे आज बहुत सौभाग्य मिला है। इसके लिए मैं धन्यवाद मानता हूं।
नमः ओम विष्णु पादाय कृष्ण प्रेष्ठाय भूतले, श्रीमते भक्तिवेदांत स्वामिनी इती नामिने।
नमस्ते सरस्वते देवी गौरवाणी प्रचारिणी,
निर्विशेष शुन्यवादी पाश्चात्य देश तारिणे।।
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअव्दैत श्रीवास आदि गौर भक्तवृंद।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कुछ बोलने से पुर्व में सभी भक्तों के चरणो में नतमस्तक होकर कृपा याचना मांगता हूं। सर्वप्रथम श्री परमपूज्यपाद लोकनाथ स्वामी महाराज के श्री चरणों में नतमस्तक होकर पूर्ण रूप से साष्टांग दंडवत अर्पण कर कर कृपा याचना मांगता हूं। और सभी वरिष्ठ वैष्णव वैष्णवी की भी मैं कृपा अभिलाषा करता हूं। आप कृपा करें ।मेरे लिए प्रार्थना करें ताकि, सही समय पर सही शब्दों से सही भाव से प्रभु की स्तुति हो सके। और हमारे अंतःकरण की शुद्धि हो। जैसे प्रभु जी ने कहा परसों हमारे वैदिक कैलेंडर के अनुसार बहुत प्रमुख दिन है। वसंत पंचमी का महामहोत्सव। जो वसंत का महीना है वृंदावन के ब्रज वासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह पहला दिन है, कह नहीं सकते। यह हमारा कल का विषय है परंतु, आज जिस विषय पर हम चर्चा कर रहे हैं, करने का प्रयास कर रहे हैं वह है वैष्णव चरित्र। वसंत पंचमी के दिन कई सारे भक्तों विशेष करके हमारे गौड़ीय संप्रदाय के आचार्य के आविर्भाव और तिरोभाव मनाए जाते हैं। और उनमें से एक उत्कृष्ट ऐसे महानुभवी वैष्णव गौडीय सिद्धांत के इतने बड़े रक्षक, इतने बड़े पालक, हमारे प्रिय विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर रहे। विशेष करके हमारे श्रील प्रभुपाद श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के तात्पर्य से बहुत प्रेरित रहे। और उन्होंने श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के तात्पर्य अपने भक्तिवेदांता तात्पर्य में उसको सम्मिलित किया। और बारंबार उसका उल्लेख किया। प्रभुपाद श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर भी अपने जीवन में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर विशेष आसक्त रहे। उन्होंने कहा कि विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ऐसे समय में प्रकट हुए हैं जब गौड़िय सिद्धांत के महाप्रभु के विशेष सिद्धांत को खंडित करते हुए, कई सारे संप्रदाय आविर्भूत भूत हुए।
तब चक्रवर्ती पाद जन्म लिया। अविर्भूत हुए और इंसान इन सब गौर शिक्षा प्रतिकूल जो संप्रदाय एकत्रित हुए इन सब का खंडन किया श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने अपने ग्रंथों के माध्यम से, अपनी कथा के माध्यम से, अपने जीवनशैली के माध्यम से और अपनी शिष्यपात्र श्रील बलदेव विद्याभूषण के माध्यम से गौड़ीया सिद्धांत, गौड़ीय शिक्षा रुपारूग धारा को और बहुत मान सम्मान से अपने स्थान पर प्रतिष्ठित किया। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का नाम विश्वनाथ इसलिए है, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहते हैं विश्वनाथ इसलिए है क्योंकि, उन्होंने इतनी सुंदर तरीके से ब्रजरस का विस्तार किया कि पूरे विश्व में जो भी भक्त है उन सब के नाथ हो गए बहुत सुंदर व्याख्या है। विश्वभर में जो भी भक्त उपस्थित है, रहे हैं और रहेंगे इन सबके के ह्रदय को जीत लिया। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती पादने ऐसे उन्होंने ब्रजराज विशेषकर के माधुर्य प्रेम का उन्होंने सविस्तार वर्णन किया। उसको प्रसारित किया। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लगभग आज से लेकर 10-11 पीढ़ी पहले आविर्भूत हुए। 1638 में उनका जन्म हुआ। देव नामक ग्राम में उनका जन्म हुआ नदिया में, महाप्रभु के बंगाल में है। चक्रवर्ती पाद अविर्भूत हुए एक बहुत ही सुंदर ब्राह्मण कुल में। नारायण चक्रवर्ती उनके पिता का नाम था। जोकि इतने बड़े वरिष्ठ वैष्णव थे। और नारायण चक्रवर्ती के विशेषकरके 3 पुत्र का उल्लेख है। रामभद्र, पहले पुत्र का नाम था रामभद्र चक्रवर्ती। दूसरे पुत्र का नाम था रघुनाथ चक्रवर्ती और तीसरे पुत्र का नाम हुआ श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती। विश्वनाथ चक्वर्ती ठाकुर के बारे में कहां गया, अपने बचपन से ही इतने
आसक्त थे राधा और कृष्ण के बहुत सुंदर दिव्य चरणकमलों के प्रति। वैसे तो कहां गया कि, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती नित्य परिकर, नित्य पार्षद है। राधाकृष्ण के नित्य कुंज से वह अवतरित हुए। निश्प्रपंचात प्रपन्सी अवतरती इति अवतार। व्याख्या करते हैं, अवतार शब्द निश्प्रपंचात अर्थात दिव्य धाम से, प्रपंच इस जगत में अवतरती इति अवतार। जो व्यक्ति अध्यात्मिक धाम से इस भूतल पर निर्मित होते हैं, अविर्भूत होते हैं अवतार लेते हैं जन सामान्य के कल्याण के लिए, यही अवतार है। मुझ जैसा कलि ग्रसित व्यक्ति कर्म बंधन के अनुसार 1 मां के गर्भ से दूसरे मां के गर्भ में प्रवेश करता ह। इसको जन्म कहां गया है परंतु, संत वैष्णव आचार्य जन्म नहीं लेते हैं। वह सूर्य के समान उदित होते हैं। अस्त होते हैं। और उदित होते हैं। अविर्भूत होते हैं और तिरुभावित होते हैंँ।
राधा और कृष्ण की लीला में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती का विशेष स्थान है। राधारानी के चरणों में विनोदमंजरी नामक नित्यसखी या दासी के रूप में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर विराजमान है।
बचपन से ही भागवतमें इतनी आसक्ति। उनके बड़े भाई रामभद्र चक्रवर्ती बड़े प्रवक्ता थे। भागवत में वह व्याख्या करते थे। विस्तार करते थे। श्लोकों का रटन पठन होता था घर में। और शर
श्रील विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर जन्म से लेकर ऐसे कहां गया, 3-4 साल की उम्र में जब बच्चे यहां वहां खेलते हैं। खेल खिलौनों से आसक्त रहते हैं। तब ऐसा समय रहता है,
बालवस्था क्रिडासक्तः तरूणावस्था तरूणीआसक्तः वृध्दावस्था चिंतासक्तः
परमब्रम्हे कोपिनासक्तः
आदि शंकराचार्य कहते हैं, बचपन में बच्चे क्या करते हैं, क्रीडा जो खिलौने होते हैं उनसे आसक्त रहते हैं। परंतु चक्रवर्ती पाद हमारे गौड़िया शिरोमणि रत्न विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर खेलते नहीं थे। ऐसे कहा गया है, रामभद्र चक्रवती उनके बड़े भाई भागवत बोलते थे तो, विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर उनके चरणों में बैठकर भागवत सुनते थे।
श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः । तत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥
भागवत के तीसरे स्कंध में कहा गया है कि अनंत जन्म कि, तप, यज्ञ, जप फलीभूत होते हैं। तब भागवत सुनने का, भगवान के विषय में स्मरण करने का और भगवान का जो आदान-प्रदान है इसको सुनने में आसक्ति होती है। रुचि जागृत हो जाती है। चक्रवती पादने दर्शाया की भक्ति करने के लिए कोई वृद्धावस्था को प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं। जिस प्रकार प्रह्लाद जी ने प्राप्त किया। जिस प्रकार ध्रुव जी ने प्राप्त किया। कौमारम आचरेत प्राज्ञोधर्मानि
भागवतानि दुर्लभम मानुषम
जन्म तदधि अर्थम आदृढ व्याधस्याम चरणम ध्रुवस्यचरणम गजेन्द्र कां कुब्जायानामरूपं अधिकम किं तस्य धनं वंश किं विदुरस्य यादवपते उग्रस्य का पौरूषं भक्तिरतुष्यति नच गुणे भक्ति प्रिय माधवा।।
पदावली में रूप गोस्वामी बात कहते हैं भक्ति करने के लिए यदि आप आयु की आवश्यकता होती है तो, बताइए प्रह्लाद और ध्रुव कैसे भगवत प्राप्त हो गए। चक्रवर्ती पाद बचपन से अपने
भाई के सानिध्य में बैठकर भजन-कीर्तन करते थे। हजारों के संख्या में नाम जप करते थे। इतनी आसक्ति और ब्रजनिष्ठा थी। 12 स्कंध पढ़ने के बाद रामभद्र चक्रवर्ती ने पूछा, बड़े भाई ने पूछा अच्छा विश्वनाथ बताओ 12 स्कंध पढ़ने के बाद सारांश बात क्या है? विशेष करके तुम्हें पूरे भागवत का निचोड़ क्या प्राप्त हुआ? सार बताओ। ऐसी कौन सी बात निष्कर्ष क्या है, तात्पर्य क्या है? तुमने ऐसी कौन सी बात अपनी हृदय मे ग्रहण की। फिर चक्रवर्ती पाद कहे, भैया मैंने तो सिर्फ कथा सुनी आप पूरे 12 स्कंध 33 अध्याय जो है इनका अगर सर आप एक वाक्य में पूछोगे तो, मैं नहीं जानता हूं। रामभद्र चक्रवर्ती बड़े भाई ने कहा अच्छा इतना भागवत सुनकर तुम साथ नहीं जानते जाओ एक और बार पढ़कर आओ पूरा भागवत और पहले स्कंद से लेकर 12 वे स्कंद तक चक्रवर्ती पाद वापस गए और 1 साल में, 12 महीनों में उन्होंने पुनर्अध्ययन किया। 18000 श्लोकों में, 333 अध्याय में विभाजित 12 स्कंदो को प्रकाशित श्रीमद् भागवत का उन्होंने रटन पाठन मनन चिंतन किया। फिर उत्साह पूर्ण भाव से अपने बड़े भाई के सानिध्य में आकर कहे, 1 साल के अंदर मैंने 12 स्कंद पुनः पढ़ लिए। अब बड़े भाई ने पूछा अब बताओ सार क्या प्राप्त हुआ। 12 स्कंद पढ़ने के बाद अब सार बताओ। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर मुस्कुराकर कहने लगे, सार एक ही है, भैया राधा-कृष्ण हमारे इष्ट देव हैं। हमारे प्राण प्रियतम हैं। वृंदावन धाम उनका निज महल है। उनका वास स्थली है और उसी वृंदावन धाम से आसक्त होकर बृंदावन थाम में निवास करते राधा और कृष्ण का चिंतन करके इंद्रियों से सेवा करना। उनका चिंतन करना ।यही जीवन का लक्ष्य है। यही भागवत का सार हैऋ यह प्रश्न हम पूछ सकते हैं, हम भागवत पढ़ते हैं तो, सार क्या निकलता है, पता है?
*आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं*
*रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।*
*श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्*
*श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।।*
(चैतन्य मंज्जुषा)
यदि इष्टदेव है तो श्रीकृष्ण है, यदि धाम है सबसे प्रियतम, निकटतम अगर कोई स्थान है पूरे ब्रह्मांड में हमारा जन्म स्थल नहीं। वह राधा और कृष्ण का लीला स्थली वृंदावन धाम है। सबसे बड़े भक्ति के मूर्तिमान मूर्तिमती स्वरूप प्रतीक के रूप में गोपिया है। श्रीमद्भागवत अब हमारा सबसे प्रियतम निकटतम ग्रंथ है। और पंचम पुरुषार्थ सबसे तुषार्थ शिरोमणि ब्रजवृंद है। ऐसे विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहां है। वृंदावन धाम श्रीमद् भागवत का सार है। रामभद्र चक्रवर्ती ने कह दिया, शाबाश! यही सार है, श्रीमद्भागवत का। इसीलिए चक्रवर्ती पादने जब ग्रंथों की रचना की ऐसा कहा जाता है कि, श्री विश्वनाथ चकवर्ती ठाकुर ने 40 ग्रंथों की रचना की संस्कृत में। कई सारे प्रसिद्ध ग्रंथ है। जैसे माधुरी कदंबिनी ग्रंथ है।
चमत्कार वर्तिका बहुत प्रसिद्ध ग्रंथ है। राघव रितिका बहुत प्रसिद्ध ग्रंथ है। संकल्प कलपद्रुमा बहुत प्रसिद्ध है। इसके साथ साथ हम देखते हैं श्रील विश्वनाथ चक्वर्ती ठाकुर ने कई सारे शास्त्रों पर टिका की है। भागवत के टीका का नाम है सारार्थ दर्शनी टीका। भगवतगीता के टिका का नाम है सारार्थ वर्षनि टिका। अब सारार्थ नाम क्यों दिया? क्योंकि, उनके बड़े भाई ने इतने सारे ग्रंथ पढ़ने के बाद सिर्फ एक ही प्रश्न पूछा कि पूरे ग्रंथ का सारार्थ क्या है। तो इसीलिए उन्होंने सारार्थ दर्शनी सारार्थ वर्षनी टिका ऐसे उन्होंने प्रस्तुत किया। प्रकाशित किया। इसके साथ उन्होंने श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने ब्रजरीती चिंतामणि नामक बहुत सुंदर ग्रंथ जहां वृंदावन धाम वृंदावन के विशेष स्थलीयों का राधा कृष्ण के बहुत सुंदर लीलाओं का वर्णन भी उन्होंने उस में उल्लेख किया और विस्तारित वर्णन किया। इसके साथ-साथ उन्होंने श्रील रूप गोस्वामी पाद के भक्तिरसामृत सिंधु पर उन्होंने टीका की। रूपगोस्वामी के उज्वल निलमनी पर उन्होंने टीका की। श्रील रूपगोस्वामी के लघु भागवतामृत पर टिका की। इसके साथ-साथ उन्होंने नरोत्तमदास ठाकुर के प्रेमभक्तिचंद्रिका पर टिका की।
कविकर्णपुर के ग्रंथों पर टिका की। और हम इस प्रकार से वह टिका करते थ अभी देखीए शीर्षक देख लीजिए। रूप गोस्वामीने ग्रंथ लिखा भक्तिरसामृतसिंधु इसका अर्थ है भक्तिरस अमृतमय सिंधु उन्होंने सिंधु प्रस्तुत किया और श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुरने दैन्य भाव में स्थित होकर कहां, सिंधु तो बहुत दूर की बात है। मेरी टीका को अगर नाम देना हो तो, वह सिंधु नहीं बिंदु होना चाहिए। इसीलिए उन्होंने नाम दिया भक्तिरसामृतसिंधुबिंदु रूप गोस्वामीने महासागर दिया पर, मैं तो एक कनिका दे रहा हूं बस। फिर जब रूप गोस्वामीने उज्वलनीलमणि दिया तो चक्रवर्ती पादने उसका टिका लिखते हुए शीर्षक दिया उज्वल नीलमणि किरण अर्थात भगवान श्रीकृष्ण उज्वल नीलमणि है। बहुत उज्वल प्रज्वलित नीलमणि अर्थात, बहुत सुंदर त्रिभंगा श्यामललित उनका रूप है। तो मानो एक रत्न के समान है भगवान श्रीकृष्ण दिव्य पारमार्थिक रत्न है। और हमारे विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखते हैं। मैं क्या उस रत्न का विशेष वर्णन कर सकूं, रूप गोस्वामी ने तो उस उज्वल नीलमणि का वर्णन किया। मैं तो उद्धृत होकर उस लेश मात्र किरण का मैं ही कृती करूंगा। इसलिए उन्होंने नाम रखा उज्वल नीलमणि किरण। देखीए जब रूप गोस्वामी सिंधु देते हैं तो चक्रवती पाद कह रहे हैं कि मैं बिंदु दे रहा हूं। जब रुप गोस्वामी पूरा मनी दे रहे हैं तो, चक्रवर्ती पाद कह रहे हैं कि, मैं मनी नहीं दे सकता पर, उससे उत्पन्न होने वाला एक किरण लेश मैं प्रस्तुत कर रहा हूं। और जब रूप गोस्वामीजीने भागवतामृत दीया तो, हमारे विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कह रहे हैं, भागवत का अमृत तो मैं नहीं दे सकता। मेरे टीका का नाम होगा भागवतामृतकण अर्थात भागवत अमृत का एक कण मात्रा में प्रस्तुत कर सकता हूं। इसके अतिरिक्त मेरा सामर्थ्य या क्षमता नहीं है। श्रील कविराज गोस्वामी के भजन कुटीर में वास किए विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर। राधाकुंड मैं निवास किए। वहां उन्होंने वेश के दीक्षा और वहां उनको नाम दिया गया, श्रीहरीवल्लभ। वैसे तो हम उनको श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के नाम से ही जानते हैं पर, श्री हरिवल्लभ यह भी उनका बहुत प्रसिद्ध नाम है। कई सारे ग्रंथों में उनके ग्रंथकार के नाम से श्रीहरिवल्लभ नाम से प्रसिद्ध है। एक बार जब श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर 7 बरस के थे तो, एक बहुत बड़े प्रकांड विद्वान पांडित्य शिरोमणि दिग्विजय पंडित वहां उपस्थित हुए। नदिया आए। सभी दिशाओं में उनकी कीर्ति फैल रही थी। वह आए, अपने विजयपत्र को लेकर आए। बहुत गर्विष्ठ थे। घमंडी थे।क्षजैसे कुंती देवी कहती हैं,
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान् । नैवाहत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥ २६ ॥
तो जब पांडित्य, शारीरिक सौंदर्य या धनाढ्य स्वभाव या जब हम देख सकते हैं, धन, ऐश्वर्य, शुद्ध और श्री ब्राह्मण कुल में अगर जन्म लिया हो या अगर कोई भी कारण हो गर्व के भौतिक जगत में अपने आप पाया जाता है। वह विद्वान भी बहुत गर्विष्ठ थे। उसे घमंडी भाव से वहां आया विजयपत्र दिखाते हुए कि, कितने दिग्विजय को उन्होंने पराजित किया है। उनके नाम के साथ वह पत्र प्रस्तुत किये। तब 7 बरस के विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर उनके आमने सामने बैठ कर प्रकांड पंडित से कहे वाक युद्ध करना हो शास्त्रार्थ होना हो तो चलिए। तो उन्होंने कहा तुमसे, तुम तो छोटे हो। महाराज के बैठे हैं तो थोड़ी सी मराठी निकल रही है, “मूर्ति लहान पण कीर्ति महान” विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर थे छोटे, “मूर्ति लहान पण कीर्ति महान” 7 बरस के थे। बहुत कीर्तिमान थे। 7 बरस के आयु में बैठ गए शास्त्रार्थ करने के लिए। सबके सामने उन्होंने उस दिग्विजय पंडित के गर्व को खंडित किया, भंजित किया, पूर्ण रूप से उनको फाड दियाऋ सब जय जयकार करने लगे चक्रवर्ती पाद की। और यह दिग्विजय पंडित एक कोने में बैठ कर रोने लगा। कोई भी मान सम्मान की अपेक्षा रखने वाले व्यक्ति को अगर सामाजिक तरह से अपमान हो जाए तो अच्छा नहीं लगता। अगर दैन्य स्वभाव में स्थित होता है, बहुत सुंदर श्लोक है, इस संदर्भ में। अगर कोई दैन्य स्वभाव में स्थित होता है तो, प्रभु सम्मान दें या अपमान दे वह प्रभु की कृपा प्रसाद मान कर लेता है।
क्षोनिपठित्वं अथवाएकम अंकिचनत्वम,
नित्यम दादासी बहुमानं अथापमानम।
वैकुंठवासमअथा नर्केनिवासम,
हा वासुदेव मम नास्ति गति त्वदअन्य।।
श्री संप्रदाय के एक आचार्य लिखते हैं। हे प्रभु आप मुझे वैकुंठ भेजो या नरक भेजो आप मुझे मान दो या सम्मान दो आप मुझे राजा बनाओ या प्रजा बनाओ। प्रभु आपके पास दो-दो ऑप्शन है। मेरे पास तो एक ही ऑप्शन है। आपका दास बना रहा हूं।
एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।
यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥
आप तो राजा हो हम आपके रंक है। तो वह व्यक्ति बैठ गया। मान सम्मान से पराजित होकर सरस्वती देवी से कृपा मांगने लगा के, देवी मैं तो आपकी पूजा करता हूं फिर, आपने मुझे ऐसे अपमानित क्यों होने दिया? वहा रामभद्र चक्रवर्ती आए। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के बड़े भाई। उन्होंने हाथ रखा उनके कंदों पर और कहा क्यों चिंता करते हो, तुमने जिस से शास्त्रार्थ किया लगता तो है 7 बरस का पर वहां राधा और कृष्ण और श्रीमन महाप्रभु के नित्य परिकर है उनके सामने जो भी बैठता है, पराजित होना ही है। चिंता मत करो, प्रभु के पार्षद के सामने भला कौन खड़ा हो सकता है। ऐसे कह कर उन्होंने सांत्वना दी। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर दैन्य में भाव से महाप्रभु के सिद्धांत को स्थापित करते करते, ऐसे कई सारे दिग्विजय पंडित को पराजित किए। कई लोग कहने लगे राधा और कृष्ण की लीलाएं यह अप्राकृत नहीं है। प्राकृत है। ब्रज की गोपियां यह सबसे बड़ी प्रेमकाष्ठा नहीं है। पराकाष्ठा नहीं है। ब्रजभक्त शिरोमणि नहीं है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इन सभी बातों का खंडन किया तो, जो पराजित होने वाले थे दूसरे पक्ष के व्यक्ति थे। विपक्ष और उनको बहुत बुरा लगा। यह आगे की घटना है। उन्होंने बहुत सुंदर योजना बनाई। उनके दृष्टिकोण से, वैसे तो अपराध है, वैष्णव अपराध है। लेकिन उनके दृष्टिकोण से सुंदर योजना थी। चक्रवर्ती पाद जब परिक्रमा करेंगे हम वृंदावन के निकुंज से बाहर निकलकर हत्यार लेकर, उनकी हत्या करेंगे। चक्रवर्ती निडर रहे। भजहुरे मन श्रीनंदनंदन अभय चरणरविंदरे है जो प्रभु के चरणों में स्थित होता है वह भय नहीं जानता।
अभयं सत्त्वसंश्रुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः |
दानं दमश्र्च यज्ञश्र्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||
वह अभय भाव रहता है। चक्रवर्ती पादने खंडित किया इन सभी बातों को। राधा और कृष्ण के स्वरूप, नाम, लीला, धाम, परिकर इत्यादि को स्थापित किया। इन लोगों को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने योजना बनाई थी, चक्रवर्ती पाद की हत्या होगी चक्रवर्ती पाद की हत्या होगी। चक्रवर्ती पाद परिक्रमा लगा रहे थे वृंदावन कि। यह लोग देखने लगे अरे चक्रवर्ती पाद आ रहे है। आ रहै, चलो तैयार हो जाओ। तैयार हो गए तो देखा, अरे चक्रवर्ती पाद है ही नहीं। एक बहुत सुंदर सखी बहुत आभूषणों से सुसज्जित मानो राधा कृष्ण के नित्यसखी बहुत सुंदर पाल्यदासी चल रही है। और उनके आसपास भी अनेक सखीयों का समूह चल रहा है। क्या कर रहे हैं एक छोटेसा बक्सा है उसमें फूल ले रही है। यह लोग बाहर आ गए और कहने लगे अरे सखी बताओ, तुमने अभी विश्वनाथ चक्रवर्ती को देखा। हमने अभी देखा था उनको पर, दिख नहीं रहे है। आपने देखा क्या उनको? तो उस सखी ने कहा, “विश्वनाथ चक्रवर्ती को हमने भी देखा पता नहीं कहां गायब हो गए, अब प्रकट हो गए।” इस तरह सखी के रूप को देखकर वह मोहित हो गए। और पूछने लगे, अरे सह बताओ तुम कौन हो और कहां से आई हो? वह सखी कहने लगी, मैं राधारानी की किंकरी हूं। उनकी दासी हूं। मैं यावट में रहती हूं। और राधारानी ने आदेश दिया इसलिए मैं यह फूल उनके सेवा में इस बक्से में लेकर जा रहे हुं। उन्होंने कहा, अच्छा राधारानी की सेवा में लेकर जा रहे हो। उन्होंने दंडवत दिया। और जब दंडवत दिया और उठे तो उन्होंने देखा कि, वह सखी नहीं थी।
सखियों का समूह नहीं था। उन्होंने देखा कि, वहां पर विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर माला की झोली में हाथ डालकर खड़े थे। उन सबको आश्चर्य लगा कि, वहां कोई सखी नहीं थी। वह विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर ही थे। अपने नित्य मंजरी स्वरूप में वहां प्रकट हो गए। बताने के लिए कि वह कोई सामान्य मनुष्य नहीं है। वह राधा और कृष्ण के नित्यपार्षद है। तो वह सब पुनः दंडवत करने लगे और बताने लगे कि हम आप की हत्या करने के लिए आतुर हुए थे। व्याकुल थे। आपने हमें वैष्णव अपराध से बचा लिया। अभी आप ही हमें इस भव संसार से भी बचा लीजिए। हे विश्वनाथ जी आपने जो भी राधा कृष्ण के बारे में कहा वह कोई कपोल कल्पित नहीं है। आप उनके नित्य परिकर, नित्य पार्षद हैं। इसलिए आप हमें आशीर्वाद दे, विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने उनको आशीर्वाद दिया और उनको दीक्षा देकर उनका जीवन कृतार्थ किया। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के जीवन में ऐसे अद्भुत लीलाएं प्रस्तुत है। जब और समय हमें उपलब्ध होगा तब और हम इन लीलाओं पर चर्चा करेंगे पर, आज के लिए इतना ही। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का स्मरण करने से, आचार्यों का स्मरण करनी से, कीर्ति गाने से, सुनने से, चिंतन करने से, हमारा मन शुद्ध होता है। अंतःकरण पवित्र होता है। प्रभु में मन लगने लगता है।
मैं आभार प्रकट करता हूं। बहुत सुंदर अवसर आज मुझे प्रदान किया गया ताकि, मैं अपने अंतःकरण को, अपनी जिव्हा को पवित्र कर सकूं। मैं परम पूज्यपाद लोकनाथस्वामी महाराज के चरणो में वापस नतमस्तक होकर नमस्कार करके भीख मांगता हूं। जो भी त्रुटि हो गई है, जो भी गलती हो गई हैं आप क्षमा करें। और सभी भक्तों से भी अनुरोध है साराग्राही भाव से जो भी दो चार बातें आपको प्रेरणादायक लगी हो आप हंस के रूप में दूध को ग्रहण करें और जलन रूपी त्रृटि को छोड़ दें।
वांछाकल्पतरूबैष्य कृपसिंधुभ एवच।
पतितानां पावनयोभ्य वैष्णवोंभ्य नमोनमः।।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की जय!
पतितपावन श्रील प्रभुपाद की जय!
परमपूज्यपाद लोकनाथस्वामी महाराज की जय!
समवेद भक्तवृंद की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
3 फरवरी, 2022
श्री मान उद्धव प्रभु द्वारा
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।
हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते ।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ॥
तपत-कांचन गौरांगी, राधे वृन्दावनेश्वरी ।
वृषभानु सुते देवी, प्रणमामि हरी प्रिये ॥
नमो महा – वदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते ।
कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौर – त्विषे नमः ।।
वांछा-कल्पतरूभयशच कृपा-सिंधुभय एव च ।
पतितानाम पावने भयो वैष्णवे भयो नमो नमः ॥
नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले,
श्रीमते लोकनाथ स्वामिन इति नामिने ।
नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले,
श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामिन इति नामिने ।
नमस्ते सरस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे,
निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ।।
जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,
श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्णा सभी भक्तों के चरण कमलों में दंडवत प्रणाम। आदरणीय श्री गुरु महाराज जी के चरणों में सादर दंडवत प्रणाम। मेरा परम सौभाग्य है कि आप सभी परम वैष्णव के चरणों में कुछ भगवत चर्चा करने का सुअवसर महाराज श्री के द्वारा, भक्तों के द्वारा प्रदान किया गया है, साथ ही साथ इस बात का खेद है कि इतने वरिष्ठ सन्यासी राधारमण महाराज जी उनका संग हम लोगों को प्राप्त नहीं हो पा रहा है लेकिन फिर भी उनकी अनुपस्थिति में जो भी कुछ गुरु महाराज, वैष्णवों से जो भी आस्वादन किया हैं, श्रवण किया है उसीको आप लोगों के समक्ष रखने का प्रयास करूंगा। आदरणीय परम पूज्य राधारमण स्वामी महाराज जी से ही मैं एक बार चर्चा कर रहा था तो उन्होंने बड़ा सुंदर एक प्रसंग बताया। एक बंगाली कवि थे उन्होंने ऐसी एक कृति लिखी तो उसमें भी बता रहे थे कि एक बार सूरज ने पूछा कि मैं तो अस्त हो रहा हूँ, सूर्य अस्ताचल पर जा रहे थे तो उन्होंने पूछा कि मेरी अनुपस्थिति में कौन ऐसा व्यक्ति है जो इस सारे संसार को प्रकाश देने का कार्य करेगा तो वहां पर बहुत सारे नक्षत्र, तारे गण और ग्रह इत्यादि उपस्थित थे। हर कोई सोच में डूबा हुआ था कि सूर्य की अनुपस्थिति में कौन है जो संसार को प्रकाश प्रदान करेगा तो महाराज श्री अपनी सुंदर सी मुस्कुराहट के साथ यह बात बताया करते थे कि उस भीड़ में से एक छोटा सा जो दीया है वह आगे बढ़ता है, सबको हटाता हुआ, सबको पीछे छोड़ता हुआ और आगे आकर कहने लगता है कि मैं हूं मैं हूं जब आप चले जाएँगे जब तक आप पुनः उदय नहीं होंगे तब तक इस संसार को वो दीया है वो कहता हैं कि मैं प्रकाश देने का कार्य करूंगा। अचानक से यह प्रसंग याद आ गया तो यह आप लोगों के समक्ष रख रहा हूं और ऐसी कुछ परिस्थिति अभी यहाँ पर बनी हुई है परम पूज्य श्रील गुरु महाराज जी उनका भी स्वास्थ्य थोड़ा सा अभी इतना ठीक नहीं है, उन्ही के अनुपात में या उन्ही को रीप्रजेंट करते हुए पिछले कुछ दिनों से काफी सारे भक्त अपने – अपने भावों को रख रहे हैं। उसी श्रंखला में परम पूज्य राधारमण स्वामी महाराज का मार्गदर्शन भी हमें मिलना चाहिए था लेकिन किसी कारणवश हमें वह नहीं मिल पाया तो उनकी अनुपस्थिति में ये छोटा सा दिया, मैं जो भी कुछ स्मरण आ रहा है आप लोगों के समक्ष रखने का प्रयास करूंगा। एक विशेष श्लोक है। उस श्लोक के ऊपर चर्चा करने का मैंने विचार किया। श्लोक इस प्रकार से है
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं
रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।। (चैतन्य मंज्जुषा)
अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी द्वारा रचित यह बड़ा ही सुन्दर यह श्लोक है। एक ही श्लोक में सारे वैष्णव जो रागानु मार्ग के भक्त हैं, वैष्णव भक्त हैं, राधा कृष्ण के उपासक भक्त है। उन लोगों का जो सिद्धांत है, संपूर्ण सिद्धांत इस एक श्लोक में बताया गया है। महाराज श्री के मुखारविंद से मैं यह सुन रहा था और उसी की चर्चा हम लोग यहां पर करने का प्रयास करेंगे। इस श्लोक में कहा गया है कि
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं
रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता।
इसका अर्थ है कि हम जो वैष्णव वृंद है भगवान की जो उपासना करते हैं, भक्ति करते हैं तो हम लोगों के जो आराध्य स्वरूप है जिनकी हम आराधना करते हैं, पूजा अर्चना करते हैं, वंदन अर्चन इत्यादि करते हैं तो वह हमारे जो प्रभु है ब्रजेशतनय ब्रज के जो ईश्वर है नंद बाबा उनके सुपुत्र भगवान श्री नन्द नंदन श्यामसुंदर कृष्ण जो है वह हमारे उपासक है, आराध्य है, पूज्य हैं। उनकी हम आराधना करते हैं। आराधना का स्थान क्या है तो कहते हैं धाम वृंदावन। हम वृंदावन धाम में, वैसे तो कई काफी सारे भगवान के धाम है तीर्थ है उनमें भी वृंदावन बहुत विशेष महत्व रखता है। वृंदावन धाम में स्थित होकर हम ब्रजेशतनय भगवान की हम आराधना करते हैं। स्थान यदि वृंदावन है तो हमारी पूजा की जो विधि है वह गोपियों के द्वारा प्रस्थापित विधि है। भक्ति का अवलंबन हम किनके चरणों का अनुगमन करके करते हैं। तो कहा गया है कि गोपियों के द्वारा व्रजवधू का अर्थ हैं वृन्दावन कि वधु गोपियों जो हैं उन्होंने जिस प्रकार भगवान की भक्ति की है। यह हमारी भगवान कि भक्ति करने की विधि है। प्रमाण है ग्रन्थ राज श्रीमद्भागवत महापुराण जो है यह हमारा आधारभूत ग्रंथ है। इन साडी चीजों के द्वारा हम जो पुरुषार्थ प्राप्त करना चाहते हैं वो भगवान श्री कृष्ण का प्रेम है। किसने निर्धारित किया है तो कहते हैं ये जो विधि हैं इसका अनुमोदन करने वाले व्यक्ति जो है वे श्री चैतन्य महाप्रभु है। इसलिए कहते हैं कि आप इन चीजों का अवलंबन कीजिए, आदर कीजिए। इसके अलावा और किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। ये चीजे एक वैष्णव के जीवन में बहुत अधिक महत्व रखती है। इस प्रकार से कुछ गीने चुने वाक्यों में ही हमारे सारे वैष्णव सार को, वैष्णव सिद्धांत को यहां पर हमारे आचार्य हमको बता रहे हैं। पिछली बार कुछ कथा का वर्णन किया गया था। मुझे जब मुझे सेवा करने का अवसर मिला था। इस बार मुझे लगा कुछ थोड़ा शास्त्रीय चर्चा, चिंतन किया जाए। काफी वरिष्ठ भक्त और वैष्णव यहां पर उपस्थित है।
महाप्रभु एक जगह कहते हैं कि
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।
इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।। (चैतन्य चरित्रामृत 2.117)
अनुवाद – निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को बिवादास्पद मानकर उनकी
उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति
अनुरक्त होता है।
काफी जगह पर शास्त्रों में, भागवत में भी काफी सैधांतिक चर्चा की गई है। जब सिद्धांत की बात आती है, कथा कीर्तन हर किसी को अच्छा लगता है, भगवान की लीला को श्रवण करना भी, भगवान कि लीला मधुरतम होती है। हर किसी को यह लीला रास आती है, अच्छी लगती है। सुनने में भी अच्छी लगती है, आनंद आता है। लेकिन जहां पर सिद्धांत की बात होती है तो लोग जो है थोडा आनाकानी करने लगते है। महाप्रभु कहते हैं जब सिद्धांत की बात आती है तो हमें आलस नहीं करना चाहिए क्योंकि उसका लाभ यह हैं कि जब हम सैधांतिक चर्चा करते हैऔर किसी तत्व को अच्छी तरह से जानने लगते हैं, समझने लगते हैं तो दृढ़ता के साथ हम भगवान की भक्ति कर सकते है। दृढ़ता के साथ हमारा ह्रदय, हमारा चित्त भगवान के चरणों में लग सकता है। हमारा जो मानस है वह भगवान के चरणों में लग सकता है। बताया गया है कि दो प्रकार की श्रद्धा होती है एक तो कोमल श्रद्धा और दूसरी निष्ठा होती है दृढ़ श्रद्धा। जब हम नए-नए भक्ति में आते हैं तो हमारी श्रद्धा कोमल होती है और कोमल श्रद्धा का अच्छा है जिसके कारण हम लोग भगवान की भक्ति में तो लगते हैं। हमें ज्ञान प्राप्त होता है भक्ति में जुड़ जाते हैं। लेकिन जब तक ये श्रद्धा और निष्ठा में परिवर्तित नहीं होती है तब तक भक्ति में हमें बड़ा ही अल्प लाभ मिलता है। भक्ति का यह लाभ छूटने के चांसेस होते हैं। भक्ति से विमुख होने के हमारे चांसेस होते हैं। इसलिए हमारी कोमल श्रद्धा है उसे दृढ करना, निश्चित करना यह हमारा परम कर्तव्य है। उसके लिए सिद्धांत को समझना और जानना बहुत अधिक जरूरी होता है। इसीलिए शास्त्रों में भी भागवत जैसे परम रसमय, जो ग्रंथ रस का आगार, रसमालयम कहा गया है ऐसे भागवत ग्रन्थ में भी काफी जगह आप लोग देखेंगे तो सिद्धांत की चर्चा हम लोगों को सुनने को मिलती है।
यह वैष्णवों का एकदम सरल सिद्धांत है इसको बड़ी आसानी से और बड़ी सरल भाषा में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी यहां पर बता रहे हैं। यह कुछ बातें हैं जो इस्कॉन के हर एक भक्त को, व्यक्ति को जो इस्कॉन से जुड़े हुए हैं और खास करके जो प्रचारक हैं उनको इन बातों को बड़ी ही स्पष्टता के साथ जानना, समझना बहुत अधिक अत्यधिक आवश्यक है। उसमें सबसे पहली बात यह है कि हमारे जो आराध्य स्वरूप प्रभुहै, भगवान है जिसकी हम उपासना करते हैं। वे ब्रजेशतनय नन्द नंदन श्याम सुन्दर श्रीकृष्ण है। हम भगवान कृष्ण के उपासक है
एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।
यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥ (चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला 5.142)
अनुवाद – एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते
हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
और जो सभी शास्त्र जो है, सभी शास्त्रों में इसे प्रतिपादित किया है।
भगवान श्री कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं कि
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || (श्री मद्भगवत गीता 15.15)
अनुवाद – मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
संस्कृत में वेद शब्द का अर्थ है विद धातु से ये शब्द बना है जिसका अर्थ होता है जानना । भगवान कहते कि संसार में जानने योग्य केवल मै हूं। किसी ने पूछा भगवान से कि आप यह कैसे बता सकते हैं तो भगवान ने कहा कि क्योंकि वेद का रचयिता मै हूं। ऐसा नहीं है कि मैंने रचना कर ली है तो कोई पढ़ कर समझ लिया होगा या जान लिया होगा। ऐसी भी बात नहीं है। भगवान कहते हैं ब्रह्मा जी जो आदी जीव है, भगवान के पुत्र हैं। हमारे संप्रदाय के जो बड़े आचार्य है। भागवत में ऐसा उदृत है कि ब्रह्मा जी को भी इतनी आसानी से वेद समझ में नहीं आए। उनको भी काफी बार वेदों का आवर्तन करना पड़ा तब जाकर कुछ भाग को वे समझ पाए। भगवान कहते हैं कि लिखने वाला तो मैं हूं ही, वेदों का रचयिता तो लेकिन वेदों को जानने वाला भी भगवान कहते हैं मैं ही हूं और फिर सारे वेद का सार –
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥ (श्रीमद्भागवतम 1.1.3)
अनुवाद- हे विज्ञ एवं भावुक जनों , वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमद्भागवत को जरा चखो तो । यह श्री शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है , अतएव यह और भी अधिक रुचिकर | गया है , यद्यपि इसका अमृत – रस मुक्त जीवों समेत समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था ।
मैं बता रहा हूँ कि सारे वेद इसी बात को प्रतिपादित करते हैं कि भगवान श्री कृष्ण को हमें तत्वतः जानना चाहिए।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || (श्री मद्भगवत गीता 4.9)
अनुवाद – हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
कहा गया है कि जब हम भगवान के जन्म कर्मों को जो दिव्य है, जानते है तो वही व्यक्ति भगवान कहते है कि मेरे पास आ सकता है। भगवान कहते है अच्छी तरह से जानना बहुत जरूरी है, आवश्यक है। हर एक व्यक्ति क्योंकि सभी शास्त्र इस बात को उदृत करते हैं जैसे तुकाराम महाराज जी के शब्दों में कहा जाए तो –
वेद अनंत बोलिला । अर्थ इतुकाची साधला
विठोबासी शरण जावें । निजनिष्ठे नाम गावें
तुकाराम महाराज कहते हैं कि वेद तो वेसे बहुत बात करता है लेकिन उसमें से दो बातें मूलतः इस मंथन से बाहर आती है। वेदों के मंथन से इतनासा ही अर्थ निकलता है हमको भगवान के शरण जाना है और निष्ठा भाव से हमें भगवान के नामों का आश्रय लेना चाहिए। हमारे आराध्य स्वरुप भगवान जो है वे भगवान श्रीकृष्ण है इस बात को जानना बहुत ज्यादा जरूरी है कि हम भगवान श्री कृष्ण के भक्त हैं। और इस संसार का हर एक जीव भगवान का भक्त है। किसी कारणवश को भूल चुका है बाकी एक बार गुरु महाराज कह रहे थे काफी बार आप लोगों ने भी सुना होगा, महाराज जी कहते हैं कि भक्ति जो है वह केवल कृष्ण की की जाती है अन्य किसी देवी-देवताओं की भक्ति नहीं होती है। भक्ति केवल भगवान की होती है, भगवान श्री कृष्ण की होती है। इस बात को समझना बहुत ज्यादा जरूरी है आराध्यो भगवान् व्रजेशतनय। यहां पर आचार्य बताते हैं कि उन्होंने स्पष्ट रूप से भगवान श्री कृष्ण नहीं कहा है। उन्होंने कहा कि हम उन भगवान के भक्त हैं जो ब्रज के ईश्वर नंद बाबा है, वृंदावन के ब्रजेंद्र, वृंदावन के जो राजा है – नंद बाबा उनके तनय, उनके पुत्र के हम भक्त हैं। इतना विस्तार से कहने की और इतना स्पष्टता से कहने की क्या आवश्यकता पड़ी तो आचार्य लोग इस बात को बताते हैं कि भगवान श्री कृष्ण की, भगवान के वैसे तो काफी सारे अवतार है लेकिन साक्षात भगवान श्री कृष्ण में भी आचार्यों के द्वारा अपने अपने भाव के अनुसार भगवान की लीलाओं का भी वैसे तो व्यक्ति भेद नहीं है भगवान में लेकिन लीलाओं में भेद किया गया है और अलग-अलग लीलाओं के माध्यम से अलग अलग रस के जो भक्त है वे भगवान की उपासना करते हैं। इसका यदि और भी स्पष्ट रूप से यह भी पूछा जाए कि नहीं बताइए सही मायने में आप किनके भक्त हैं, कभी कोई यदि ऐसे पूछता है तो उसका जवाब यह है कि हम श्याम सुंदर कृष्ण, जो वृंदावन वाले कृष्ण हैं, जो नंद बाबा के पुत्र हैं, यशोमती नंदन है, नंद नंदन है, ऐसे श्यामसुंदर भगवान के हम भक्त हैं। जीव गोस्वामी आदि आचार्यों के द्वारा भगवान की लीलाओं में भी अलग-अलग प्रकार का भेद किया गया है जैसे ब्रज की लीलाएं अलग होती है, मथुरा की लीलाएं अलग होती है, द्वारका की लीलाएं अलग होती है और भगवान की कुछ लीलाओं से हमें ये बात समझ में भी आती है कि इनकी लीलाओं में काफी सारा भेद है। एक बार एक आचार्य, वर्तमान आचार्य बता रहे थे कि आप देख सकते हैं कि भगवान वृंदावन में जितने भी राक्षसों का वध करते हैं क्योंकि वृंदावन में असुर वध की जो लीला हैं वह मुख्य नहीं है वह गौण है ऐसा बताया गया है। असुरों के वध की या उनके उद्धार की लीलाएं जब भगवान करते हैं वृंदावन में तो आपने देखा होगा कि किसी भी प्रकार के शस्त्र अस्त्र का प्रयोग भगवान नहीं करते हैं कितने भी राक्षसों का चाहे पूतना हो, अघासुर हो, बकासुर हो, वत्रासुर हो, धेनुकासुर हो, सभी प्रकार के असुर। अलग-अलग प्रकार से उन्होंने खेलते खेलते उनका संघार किया है, उनका उद्धार किया हैं और जैसे ही भगवान वृंदावन छोड़कर मथुरा चले जाते हैं तो उसके बाद में उन्होंने जो –
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || (श्री मद्भगवत गीता 4.8)
अनुवाद – भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
यह कार्य अपने हाथ में लेते हुए फिर चक्र धारण किया और उसके बाद में जितने भी राक्षसों का वध होता है चाहे महाभारत हो या जरासंध वध की लीला हो बहुत सारे राक्षसों का उन्होंने वध किया दन्तवक्र, विदुरज, साल्व, पोंड्रक इत्यादि बहुत सारे राक्षसों का वध भगवान नें किया यहाँ पर हम देख सकते हैं कि उन्होंने इसके लिए अलग अलग शस्त्रों का प्रयोग, इस्तेमाल भगवान ने किया। वृन्दावन में हम देखते हैं कि वृंदावन में भगवान का एक अलग ही करैक्टर होता है जैसे ही वृंदावन छोड़ कर बाहर चले जाते हैं लीला के स्तर पर तो वहां पर भगवान का एक अलग ही स्वरूप आपको देखने को मिलता है। आचार्य कहते हैं कि हम लोग भी उन भगवान श्री कृष्ण के भक्त हैं जो नंद बाबा के पुत्र हैं। बृजेश तनय है। भगवान वैसे तो षड ऐश्वर्य संपन्न है लेकिन यहां पर एक विशेष रस पूर्ण लीला का उद्घाटन भगवान इस वृंदावन धाम में करते हैं। ऐसे भगवान श्री कृष्णा और इन बातों की चर्चा आचार्यों ने भागवत के अलग-अलग प्रसंगों में जैसे भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव नंदोत्सव लीला को देखते हैं। पहला ही श्लोक है
श्रीशुक उआच
नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताहादो महामनाः ।
आहूय विप्रान्वेदज्ञानातः शुचिरलङ्कतः ॥
वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वै कारयामास विधिवत्पितृदेवार्चनं तथा ॥
(श्रीमद्भागवतम 10.5.1 & 2)
अनुवाद – शुकदेव गोस्वामी ने कहा : नन्द महाराज स्वभाव से अत्यन्त उदार थे अत: जब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके पुत्र रूप में जन्म लिया तो वे हर्ष के मारे फूले नहीं समाए । अतएव स्नान द्वारा अपने को शुद्ध करके तथा समुचित ढंग से वस्त्र धारण करके उन्होंने वैदिक मंत्रों का पाठ करने वाले ब्राह्मणों को बुला भेजा । जब ये योग्य ब्राह्मण शुभ वैदिक स्तोत्रों का पाठ कर चुके तो नन्द ने अपने नवजात शिशु के जात – कर्म को विधिवत् सम्पन्न किए जाने की व्यवस्था की । उन्होंने देवताओं तथा पूर्वजों की पूजा का भी प्रबन्ध किया ।
इस श्लोक कि टिका में श्रील जीव गोस्वामी कहते हैं कि ये जो श्याम सुन्दर कृष्ण हैं ये नन्द बाबा के अपने पुत्र हैं। आत्मज है। आत्मज का अर्थ है कि यह मेरा बेटा है यह मेरा लड़का है जैसे कि प्रत्यक्ष रूप में साक्षात रुप से नंद बाबा यशोदा मैया के गर्भ से भगवान प्रकट हुए हैं और इस लीला का उद्घाटन करते हुए जीव गोस्वामी कहते हैं कि एक साथ गोकुल अष्टमी को रात में एक साथ दो जगह पर भगवान प्रकट हुए थे एक तो नन्द गोकुल में यशोदा मैया के गर्भ से और दूसरा देवकी माता के गर्भ से। जैसे ही वहां पर वसुदेव जी भगवान को ले आते हैं और वहां पर रखते हैं तो नंद नंदन श्यामसुंदर में वासुदेव कृष्ण हैं मथुरा वाले वह मिल जाते हैं और जब अक्रूर आते हैं यहां पर अक्रूर जी जैसे ही वृंदावन की व्रज कि पारी सीमा जो है उसकी सीमा को पार करके मथुरा जाने वाले होते हैं वहां पर अक्रूर घाट आप आज भी देख सकते हैं। वहां पर स्नान करने के लिए जब वे उतरे तो उनको भगवान के दर्शन चतुर्भुज नारायण के रूप में यमुना जल में प्राप्त हुआ तो आचार्य बताते हैं कि उस स्थान पर वृंदावन वासी कृष्ण है वे पीछे ही रह गए और उनके साथ जो आगे बढ़े हैं वह वासुदेव कृष्ण हैं। जो धर्म की स्थापना करने के लिए अपने आप को समय समय पर प्रकट करते है। जन्माष्टमी को वसुदेव जी लेकर आए थे वे वाले आगे बढ़ गए। एक जगह बड़ा सुंदर श्लोक आता है जहा पर भगवान के बारे में कहा गया हैं –
वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति’
वृन्दावन को छोड़कर कृष्ण एक पग भी बाहर नहीं जाते।
भगवान श्री कृष्ण के बारे में कहा गया है कि भगवान वृंदावन को छोड़कर एक पैर भी वृंदावन के बाहर नहीं रखते हैं। हमेशा भगवान हमेशा वृंदावन में ही स्थित रहते हैं। प्रकट रूप से अप्रकट रूप से नित्य और नैमीतिक लीलाओं को भगवान करते रहते हैं और वृंदावन धाम में करते रहते हैं तो इसलिए आगे आचार्य कहते हैं बृजेश तनय जो हमारे भगवान हैं उनकी उपासना करने का जो हमारा स्थल है वह मुख्य रूप से वृंदावन ही है। हम भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं और वह भी वृंदावन धाम में करते हैं। इसको धाम निष्ठा कहते हैं। भगवान के जो रसिक भक्त हैं वो जितना आदर भगवान का करते हैंक्यों कि भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम इत्यादि में कोई भेद नहीं है। वृन्दावन के प्रति भी कई अनुरक्त भक्त आपको दिखाई देते है जिन्होंने धाम वास का प्रण लिया है, प्रतिज्ञा की है, अधिकतर धाम में ही रहते हैं। कई सारे भक्त ऐसे भी होते हैं जो एक बार आकर वृंदावन में बस जाते हैं फिर कभी वृंदावन नहीं छोड़ते हैं। इस प्रकार से धाम निष्ठा काफी सारे भक्तों में देखी जाती है। एक बड़ा ही सुंदर पद है उसमें एक रसग्य भक्त हिंदी की कविता है उसकी एक पंक्ति है कहते हैं
विपिन राज्य सीमा के बाहर हरि को नु निहार
ऐसे कहते हैं कि भगवान के धाम के प्रति भक्त इतने अनुरक्त होते हैं, इतने आसक्त होते हैं धाम में कहा गया है कि वे भगवान श्री कृष्ण के दर्शन तो करना चाहते हैं, उनकी सेवा पूजा तो करना चाहते हैं, उनकी आराधना तो करना चाहते हैं लेकिन वृंदावन में रहते हुए करना चाहते हैं। वृंदावन के बाहर जाकर वो भगवान के दर्शन तक नहीं करना चाहते। इन पंक्तियों का यह अर्थ हैं – विपिन कहते हैं जंगल को वन को और विपिन राज कहते हैं वृंदावन को क्योंकि ये वनों का राजा है। विपिन राज्य सीमा के बाहर एक वन है वृंदावन उस वन को भी वृंदावन कहते हैं और ये द्वादश कानन है, बारह वन है। अलग-अलग प्रकार के वृंदावन में मुख्य रूप से छोटे-मोटे। कोकिला वन इत्यादि उपवन भी हैं लेकिन मुख्य रूप से बारह वन है। आप सब लोग जानते हैं जैसे यमुना जी है उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है उनके दो तट है पूर्वी तथा पश्चिमी तट है। भगवान ने इन बारह वनों में मुख्य रूप से लीलाएँ की हैं। इन बारह वनों का विभाजन यमुना मैया के कारण हुआ है। पूर्वी तट पर हमें पांच वन दिखाई देते हैं और पश्चिमी तट पर सात वन है। पूर्वी तट पर जो वन है कहा जाता है कि वह दाऊ दयाल बलराम जी के वन है और पश्चिमी तट के जो सात वन है वह भगवान श्री कृष्ण के हैं। मुख्य रूप से स्मरण हुआ है तो एक बार पुनः वनों का स्मरण करेंगे जो सबसे पहला वन है उसे मधुवन कहते हैं मधुवन, ताल वन, कुमुद वन, बहुला वन और पांचवे क्रमांक पर है वृंदावन।
वृंदावन में जो आजकल नंद गांव है, बरसाना है, गोवर्धन है और आजकल का जो वृंदावन है वह सारा वृंदावन नामक जो बारह वनों के अंतर्गत एक वन है उसी वृंदावन का एक भाग है। यह पांचवा वन है। सामवन और खादिर वन यह जो सात वन है यह पश्चिमी तट के हैं और पूर्वी तट के जो वन है भद्र वन, भांडीरवन, बेल वन जहाँ पर लक्ष्मी जी या श्री वन भी कहते हैं जहां लक्ष्मी जी उपासना कर रही हैं। एक है लोहवन और महावन जहां पर गोकुल स्थित है तो इस प्रकार से इन बारह वनों को मिलकर जिसको हम ब्रिज कहते हैं ब्रज चौरासी कोस कहते हैं। इन सब को भी वृंदावन कहा जाता है। भगवान की हम उपासना करते हैं तो वृंदावन में रहते हुए करते हैं। वृंदावन के परिसीमन का परित्याग करके हम कहीं भी बाहर जाकर यदि भगवान खुद कहते हैं कि आओ मेरा दर्शन करो तभी धाम के प्रति इतने निष्ठावान भक्त होते हैं वे कहते हैं कि हम धाम छोड़कर प्रभु बाहर नहीं आएंगे हम आपका दर्शन करना चाहते हैं आपकी उपासना करना सेवा आराधना करना चाहते हैं लेकिन आपसे एक विनती है कि आप धाम के भीतर आइए। इस धाम में रहते हुए हम आपकी सेवा करना चाहते । हम इस वृंदावन की परिसीमन के बाहर जाकर हरि का भी दर्शन नहीं करना चाहते तो इस प्रकार से यह बड़ा ही सुंदर भगवान का धाम है और धाम क्या यह तो भगवान का अपना घर है। बृजेंद्र नंदन भगवान हमारे स्वामी है और हम उनकी आराधना करते हैं और वह भी वृंदावन में करते हैं। भगवान के भक्तों में सर्वोच्च क्रमांक यदि किसी का है राधा रानी सर्वश्रेष्ठ भक्त है, भक्त क्या वे तो साक्षात् भगवान का ही स्वयं प्रकाशित स्वरूप है। सनातन गोस्वामी के अनुसार व्रह्त भागवत रूप में देखते हैं तो पता चलता है कि उन्होंने भक्तों का क्रम बनाया है उसमें सबसे उच्च प्रथम क्रमांक पर जो भक्ता आती है वह गोपियां है। उनके नीचे नीचे उद्धवजी है धीरे-धीरे से क्रम आगे बढ़ता है। सबसे उच्च भक्त भगवान की गोपियां है। समय के अभाव में हम विस्तार से नहीं बता पाएंगे। आपने बड़ी प्रसिद्ध कथा सुनी होगी कि भगवान का सर दर्द हो रहा था तो नारद जी ने खूब प्रयास करने के किसी भक्त ने अपने चरणों की धूल नहीं प्रदान की वहीं पर सभी गोपियां बहुत सारी धूलि इकट्ठा करके नारद मुनि को दे रही थी ले जाइए और इसे भगवान के माथे पर लगा दीजिए ठीक हो जाएंगे तो नारद मुनि ने कहा आपके चरणों की धूलि यदि भगवान के मस्तक पर पड़ जाए तो आपको नरक यातना भोगनी पड़ेगी। वह साक्षात प्रभु है तो गोपियों ने कहा कि हमारे इस प्रयास से भगवान को किंचित क्षण के लिए यदि राहत मिलती है तो अनंतकोटी जन्मों-जन्मों तक हम लोग नर्क में वास करना स्वीकार करते हैं।
इस प्रकार की उच्च कोटि की भावना गोपियों की है जो भगवान की प्रसन्नता के लिए किसी भी प्रकार का कष्ट कहो, उनके लिए वह कष्ट की बात नहीं है उनके लिए वह प्रेम का, भक्ति का एक तरीका है जिसको यहां पर महाप्रभु अनुमोदित कर रहे हैं गोपीकाओं के द्वारा जो त्याग मार्ग का अवलंबन किया गया है, यही हमारा वैष्णवों का मार्ग है। जिसके माध्यम से हम भगवान को प्रसन्न करते हैं। श्रीमद्भागवत हमारा मूल ग्रंथ है जिसमें प्रभुपाद जी भी कहते हैं हमारे ग्रंथ ही हमारे आधार स्वरूप है। इन ग्रंथों में श्रीमद्भागवत का एक विशेष महात्म्य है क्योंकि इसको महापुराण कहा गया है क्योंकि साक्षात भगवान का ही स्वरूप ग्रंथ है। वाक्य स्वरूप भगवान की मूर्ति है वान्गमयी मूर्ति उसे कहते हैं। भागवतम हमारा आधारभूत ग्रंथ है। श्रीमद् भागवत में ज्ञान वैराग्य मिश्रित नहीं है तो यह अमल पुराण है और इसको अनुमोदित करते हैं, प्रतिपादित करते हैं साक्षात् श्री चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं राधा-कृष्ण है। इस विधि के द्वार जैसे कोई भी कार्य यदि व्यक्ति करता है तो किसी न किसी पुर्सार्थ को प्राप्त करना चाहता है तो मुख्यरूप से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को पुरुषार्थ कहा गया है यह पंचम पुरसार्थ कहा गया है। सर्वोच्च स्थिति इस मनुष्य जन्म का लाभ जो उठाना चाहता है तो उसे अपने जीवन काल में भगवान का प्रेम करना चाहिए और इस बात का अनुमान साक्षात् श्री चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं भगवान हैं करते है । इन बातों का हम को ध्यान रखना चाहिए और इन्हीं का अवलंबन करना चाहिए। इन्ही का आदर करना चाहिए और आचार्य कहते हैं और फिर पुष्टिमार्गीय देवी देवताओं की या किसी प्रकार की विधि की हमें कोई आवश्यकता नहीं है। किसी अन्य चीजों की आवश्यकता हमको भक्ति मार्ग पर नहीं है। इन्ही बातों का यदि हम अवलंबन करते हैं तो हम भी मनुष्य जीवन का प्रमोद जो लक्ष्य कृष्ण प्रेम उसको हम बड़ी आसानी से प्राप्त कर सकते है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
राधा श्यामसुंदर भगवान की जय
गौरांग महाप्रभु नित्यानंद प्रभु की जय
जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद की जय
पतित पावन श्रील गुरु महाराज की जय
समस्त वैष्णव वृन्द की जय
निताई गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*02 -02 -2022*
*(हरि नाम की महिमा)*
*(श्रीमान अमोघ लीला प्रभु द्वारा)*
हरे कृष्ण !
यह मेरा सौभाग्य है कि मैं आज आप सबके समक्ष उपस्थित हो पाया और हरि नाम के विषय में कुछ बोलने का प्रयास करूंगा। ऑफ कोर्स ऐसा नहीं है कि मेरी चैटिंग बड़ी परफेक्ट है। आई एम आल्सो स्ट्रगलर सो वी आर शेयरिंग विद सेम बोट। आप में से कुछ ऐसे डेवोटीज़ भी होते हैं जिनकी चैटिंग बहुत अच्छी चल रही है। बट आई एम स्ट्रगलर, सो आई वुड लाइक टू शेयर समथिंग व्हिच आवर आचार्य से, अबाउट द होली नेम।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।*
*वन्देऽहं श्रीगुरो: श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरुन् वैष्णवांच्श्र । श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम् ।।*
*साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं । श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखानन्वितांश्र्च ।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते । गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते।।*
*तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्र्वरी। वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये ।।*
*वाञ्छाकल्पतरुभ्यश्र्च कृपासिन्धुभय एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नाम: ।।*
*श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥*
हरे कृष्ण ! सो आई विल टॉक अबाउट चैटिंग ऑफ हरे कृष्ण महामंत्र तो हरे कृष्ण महामंत्र को लेकर बहुत ही सुंदर श्लोक जिससे मैं शुरुआत करना चाहूंगा जो कि चैतन्य चरितामृत के अंदर आता है बड़ा ही फेमस श्लोक है और साथ ही लोकनाथ स्वामी महाराज जी से हमने कई बार सुना हुआ है और भी महाराज उसको बड़े सुंदर तरीके से कहते हैं।
*अनर्पित-चरी चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम् । हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितः सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः ॥*
( चैतन्य चरितामृत आदि 1. 4)
अनुवाद- श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यन्त उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए।
उसकी जो लास्ट लाइन है जो महाराज बताते हैं सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः जो हृदय-कन्दरे हैं इसको प्रभुपाद जी ट्रांसलेट करते हैं इनर्मोस्ट चेंबर ऑफ द हार्ट। प्रभुपाद जी ट्रांसलेशन के अंदर यह बताते हैं अभी इनर्मोस्ट चेंबर ऑफ द हार्ट इसका मतलब क्या हुआ हार्ट के अंदर कई सारे चैंबर्स हैं एंड सचिनंदन गौर हरी इस मोस्ट इनर चेंबर, मतलब उसके बाहर भी कुछ चैंबर्स हैं और मोस्ट अंदर वाले चेंबर में राधा कृष्ण और श्री चैतन्य महाप्रभु रहते हैं और हम जो हैं वह चेंबर के बाहर हैं। अब हमको इन सारे चैंबर्स में से होते होते होते होते फिर अंदर पहुंचना है। बाहर एक दरवाजा है अंदर आएंगे तो एक और दरवाजा है और अंदर जाएंगे तो फिर एक दरवाजा है इस तरह से 5 दरवाजे हैं। यह जो 5 दरवाजे हैं इसके विषय में माधुर्य कादंबिनी में बताया है कि यदि कोई व्यक्ति जप करता है तो जप करते समय उसको इन 5 दरवाजों को खोलना पड़ेगा और पांच दरवाजों को खोलने के बाद फिर वह सचिनंदन गौर हरी या फिर राधा कृष्ण के दर्शन कर पाएगा। सबसे बाहर का जो दरवाजा है जब हम भगवान की ओर आना चाहेंगे या भगवान के पास आने का तरीका है वह है चैंटिंग हरे कृष्ण अर्थात सबसे पहले दरवाजा जो कि हम को पार करना पड़ेगा जिसको खोलना पड़ेगा उसका नॉब अंदर भी है और बाहर भी, अतः अंदर जहां से नॉब खोल रहे होते हैं और बाहर से जब नॉब खोल रहे होते हैं तब दोनों नॉब खुल जाते हैं और फिर हम उस में प्रवेश कर सकते हैं इस प्रकार से दूसरा भी है तीसरा भी है चौथा भी है और पांचवा भी है।
सबसे पहले जो दरवाजा है वह है स्लीप, जप के वक्त नींद आना क्या बढ़िया सुहान अल्लाह नींद आती है। एक डेवोटीज़ बता रहे थे कि प्रभु जी मेरी नाम जप में इतनी श्रद्धा क्यों है जानते है क्योंकि इसके अंदर कुछ तो है। जब कृष्ण प्रेम का बटन दबाना था तब नींद का बटन दब जाता है। नाम में कुछ तो है। नाम खाली नहीं है भाई, मैं अच्छा खासा फ्रेश बैठता हूं तरोताजा होकर माला छूते ही नींद का बटन छू जाता है। हां लेकिन यह हमने बहुत ही कॉमन ऑब्सटेकल डेवोटीज़ में देखा है जो वाकई में हरे कृष्ण जप में संघर्ष कर रहे हैं। एक बार एक और डेवोटी ने पूछा की व्हाट इज द फिलॉसफी ऑफ नाम जप, आपकी फिलॉसफी क्या है ? भक्तों ने बोला हमारी फिलॉसफी है “चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी” व्यक्ति ने पूछा आप जप कब करते हैं ? भक्त ने उत्तर दिया कि मैं मॉर्निंग में सुबह 5:15 बजे से 7:15 बजे तक करता हूं फिर वह मंदिर आया उसने मंदिर आकर भक्तों को देखा कि वह चैटिंग कर रहे हैं। सोते-सोते हरे कृष्ण हरे कृष्ण न्नन्न राममममम राम कृष्ण कृष्णन्नन्न हरे हरे उसने पूछा यह आपका चेंट हरे कृष्ण और भी हैप्पी है। बिकॉज ऑफ दिस ,चेंट हरे कृष्ण बी हैप्पी, उस भक्त ने बोला कि एक्चुअली मैंने कल जो आपको अपनी फिलॉसफी बताई थी वह अपनी फिलॉसफी की समरी बताई थी चेंट हरे कृष्ण एंड भी हैप्पी, एक्चुअली हमारी फिलॉसफी है “चेंट हरे कृष्ण दैन स्ट्रगल एंड बी हैप्पी”, अभी यह लोग संघर्ष कर रहे हैं लेकिन बहुत ही जल्दी यह लोग आनंद में आ जाएंगे। लेकिन हां स्ट्रगल का जो फेज़ होता है वह बहुत लंबा होता है भक्तों की लाइफ मे, सबसे पहला जो स्ट्रगल आता है वह है नींद का और कितनी बढ़िया नींद आती है कि इस दरवाजे को कैसे खोला जाए, मतलब एक जो कॉमन चीज है वह सभी में है कि किस प्रकार नाम में रुचि बढ़ जाए क्योंकि जब नाम में रुचि बढ़ जाएगी तो नींद भी नहीं आएगी, कुछ भी नहीं होगा, लेकिन अब यदि नाम रुचि नहीं है तब मीनवाइल क्या किया जाए पहला दरवाजा खोलने के लिए, वह है ड्रिंक कोल्ड वॉटर एक तो बहुत बड़ा कारण है कि हम जनरली पानी नहीं पीते, शहरों में यदि आप देखें यहां की आबोहवा ऐसी है कि यहां पर पानी का इंटेक बहुत कम है और हम लोग पानी भी कैसे पीते हैं दाल के रूप में कभी दूध के रूप में इसके अलावा लोग जो हैं लिक्विड ज्यादा नहीं लेते और कम पानी की इंटेक्स की वजह से क्या होता है कि लिवर थोड़ा गर्म होता है। जब लीवर गर्म होता है तब चूंकि हार्ट भी पास में ही है और वह ब्लड पंप करता है इससे वह भी थोड़ा वार्म होता है और वही वॉर्मब्लड जो गर्म होकर सर में पहुंचता है तब ब्रेन को लगता है कि यह व्यक्ति बहुत थका हुआ है इसीलिए यहां पर जो ब्लड आ रहा है वह थोड़ा गर्म आ रहा है। इसको सो जाना चाहिए। दूसरा नींद आती है बॉडी में जब वाइटल और मिनरल्स कम होते हैं जैसे कुछ लोगों को 8- 8 या 10- 10 घंटे सोना पड़ता है उसके बाद लोग थके हुए घूम रहे होते हैं एक यह भी कारण होता है नींद के ज्यादा आने का तीसरा यदि आपने रेस्ट प्रॉपर ना लिया हो जैसे कई लोग ऐसे भी हैं जो रात में 11-12 बजे सोते हैं और सुबह 4:00 बजे उठ गए कि हमें जपा करना है। यदि आपने 4 घंटे की नींद ली है, देट इज़ नॉट सफिशिएंट उसकी वजह से भी आपको जप में नींद आ जाएगी।
इसीलिए हमको प्रॉपर रेस्ट भी लेना चाहिए और हमको ऑइली फूड भी खाना कम करना चाहिए, स्पेशली शाम को 6:00 बजे के बाद कुछ मत खाइए और यदि बहुत भूख लगी है तो कुछ बहुत हल्का फुल्का अदर वाइज कुछ भी नहीं, कुछ लोग रात को खाते हैं परांठे और फिर मारते हैं खर्राटे, खाओ परांठे मारो खर्राटे, यदि इस स्लोगन के हिसाब से आप चलेंगे तो माशा अल्लाह इंशा अल्लाह आपको इतनी कमाल की नींद आने वाली है ,क्योंकि सारी ऑक्सीजन कहां चली जाती है वह चली जाती है पेट में खाने को डाइजेस्ट करने में, और फिर ऑक्सीजन जब नहीं बचती तो ब्रेन कहता है अब सो जाओ और फिर व्यक्ति आकर सो जाता है। इसीलिए शाम को 6:00 बजे के बाद कुछ नहीं खाना चाहिए। हालांकि जपा टॉक में फिल्म स्टार की बात नहीं करनी चाहिए बट इफ यू आस्क अक्षय कुमार, कैन यू प्लीज शेयर वन हेल्थ आउट ऑफ मैनी हेल्थ टिप्स, उस में से कौन सा है जो आप एक शेयर करना चाहते हैं जो सबसे अधिक इंपॉर्टेंट है। ही सैड आफ्टर 6 पी एम नॉट ईट एनीथिंग, यह बहुत ही इंपॉर्टेंट है। इसीलिए यदि आप शाम के 6:00 बजे से लेकर सुबह 9:00 बजे तक फास्टिंग कर लेते हैं 15 घंटे, आप विश्वास नहीं करेंगे यू हैव सच हेल्थ बेनिफिट्स, अमेजिंग हेल्थ बेनिफिट्स, फास्टिंग कैन रियली अमेजिंग एनीथिंग, तो शाम को 6:00 बजे से लेकर सुबह 9:00 बजे तक कुछ बहुत हल्का फुल्का ले सकते हैं।
पानी हो गया जूस ले लिया हल्का-फुल्का एलोवेरा जूस होता है आपको बहुत भूख लगी है तो ले सकते हैं। इसलिए ऑइली फूड कम खाएं रात को कुछ ना खाएं बहुत हल्का फुल्का एकदम लाइट बहुत अच्छा है और इन केस यू आर फीलिंग स्लिपी, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज कहते हैं चैंट लाउडली यानी ऊंचा ऊंचा जप करना चाहिए। यदि आप आराम आराम से भी जप करते हो तब भी बहुत नींद आती है इसके लिए थोड़ा उत्साह पूर्वक लाउडली आपको हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करना चाहिए यह बहुत जरूरी है। उसके लिए आप सब डेवोटीज़ के साथ में नहीं बैठ पाओगे। यदि आप किसी मंदिर में जाकर जप करते हैं। लेकिन हां यदि आप अकेले में हैं और आप अपने कमरे में है चैंटिंग रूम रीडिंग रूम और बालकनी जहां कहीं भी आप चैंटिंग करते हैं वहां आप तेज तेज चैंटिंग कर सकते हैं उससे भी नींद कम होती है और साथ ही आप नींद से बचना चाहते हैं। दैन पोस्चर शुड बी स्ट्रेट, जितना आप का पोस्चर लचीला होगा, यह फॉरवर्ड बैंट है और यह बैकवर्ड बैंट सो नो कॉनकेव नो कॉम बैक, ये दोनों किसी इवेंट में ठीक नहीं होते, स्ट्रेट बैठना चाहिए और यदि आप पद्मासन में बैठ सकें, ये सबसे अच्छा है। पद्मासन में क्या होता है कि एक पाव एक थाई पर आता है और दूसरा पाव दूसरी थाई पर, यदि इस प्रकार से बैठ सके, यह बहुत अच्छा है। पद्मासन में आप की रीढ़ की हड्डी अपने आप ही सीधी हो जाती है चाहे आप क्लास में हो या जपा में, यदि आपको नींद आ रही है तब आप पद्मासन में बैठ सकते हैं। लेकिन यदि आप थोड़े भारी हैं और थोड़ा मोटे हैं तो आपको पद्मासन में बैठने पर दिक्कत आएगी और यदि ऐसे कोई डिवोटी हैं जो पद्मासन लगा सकते हैं, बहुत अच्छा है सीधे बैठना, आपको यदि हल्की-फुल्की नींद आ रही है तो वह पद्मासन से घट जाती है और भारी-भरकम नींद आ रही है तब आपको दिक्कत आ सकती है इन पद्मासन, नहीं तो पद्मासन बहुत अच्छा है आपकी बैकबोन स्ट्रेट रहेगी, साथ ही यदि आपको चैंटिंग करते हुए नींद आ रही है दैन यू स्टैंड एंड चैंट, कभी-कभी अक्सर देखा जाता है कि डेवोटीज़ चैंटिंग में बैठे रहते हैं और झूलते रहते हैं राम राम राममममम रामममममम राम ऐसे करते करते 2 घंटे बिता देते हैं तब एडमिट करना चाहिए कि मुझे नींद आ रही है अमोघ लीला दास जी बिल्कुल नींद आ रही है। तब खड़े हो जाइए और फिर खड़े होकर जप करिए, अच्छा खड़े होकर भी यदि आपको नींद आ रही हो तो चलिए चल करके फिर आप जपा करिए और यदि आपको चल करके भी नींद आ रही है तो दौड़ करके जपा मत करिए, सो जाइए अपनी जप माला से कहिए हे हरि नाम प्रभु मुझे इस वक्त बहुत कमाल की नींद आ रही है इसीलिए मैं अभी आधा पौना घंटा सोने के लिए जा रहा हूं टेक गुड रेस्ट, यदि आपने दौड़ते दौड़ते जप किया और आप गिरे, क्योंकि उसमें आपको नींद आ गई, फिर आपको चोट लगेगी, फिर लोग आपसे पूछेंगे कि भाई आपको यह चोट कैसे लगी, आप बताएंगे कि वो चैंटिंग हरे कृष्ण, तो यह तो बहुत कमाल हो जाएगा और यह बहुत ही नेगेटिव ऐड हो जाएगी इसीलिए यदि आप बैठे हैं और आपको नींद आ रही हो तो आप खड़े हो जाएं और यदि आप खड़े हो जाएं उसके बाद भी आपको नींद आ रही हो तो आप पहले टहलिए , टहलना भी कैसा हो ? ऐसा नहीं, कि धड़ धड़ धड़ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कुछ लोग कहेंगे हे भगवान कैसा जप् करते हैं यह बहुत ही डिस्ट्रक्टिंग होगा तो यदि जपा में चलना भी है तो एक कोना पकड़िए जहां इधर-उधर ध्यान रखें और आप *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* इस तरह से होले होले जपा करते हुए चलें, जितना आप तेज़ चलेंगे उतना आपको जपा लो कर देना चाहिए। जितना आप स्लो चलेंगे उतना जप आपको फास्ट कर देना चाहिए। इस तरह से फर्क पड़ता है। एक और बात जो एक और तरीका है जो डेवोटीज़ करते हैं और इससे बहुत फायदा होता है व है डू नॉट क्लोज योर आइज, कई बार डेवोटीज़ आंख बंद करके जपा करते हैं अब कुछ नजर तो आ नहीं रहा है सब कुछ,काला ही काला है। आंखें बंद करने के बाद, हमको नींद आएगी ही आएगी और वह तैयारी हो चुकी है आंखें बंद, कभी भी शहीद हो सकते हैं आप इसीलिए आप चाहते हैं कि हम जगे रहे हैं तो आंखें बंद मत करिए, यहां तक की योगा प्रैक्टिस करने में भी पूरी आंखें बंद करने का प्रावधान नहीं होता या फिर आपकी आंखें पूरी खुली होनी चाहिए, आंखें यदि आपकी पूरी खुली रहेंगी तो आप यहां देखेंगे वहां देखेंगे अरे यह तो बैठ गया अरे यहां भी आ गया अरे इसकी तो बहत बढ़िया है धोती, राम राम हरे हरे और तब आप डिस्ट्रैक्टेड हो जाएंगे और यदि आपकी आंखें पूरी तरह से बंद हैं तो आप सो जाएंगे इसीलिए ना तो आंखें पूरी खुली होनी चाहिए और ना ही पूरी बंद होनी चाहिए। इट शुड बी हाफ क्लोज बस कुछ हिस्सा नजर आ रहा होता है और कुछ नजर नहीं आता। इस प्रकार से हम नींद को जीत सकते हैं और देयर आर थ्री एम जिसको हम फॉलो कर सकते हैं “मेथड मूड एंड मेलो”,मेथड तो यह है कि सीधा बैठो सामने तुलसी महारानी रखें यह बहुत अच्छा है और आंखें पूरी बंद नहीं करनी है आपको हाफ क्लोज रखनी है दूसरा एम है मूड, मूड कैसा होना चाहिए हे कृष्ण आई एम योर्स। हे कृष्ण आई एम यो, प्लीज एक्सेप्ट मी, ऐसा मोह होना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कि मेरा आकर्षण आपके प्रति हो जाए आपका तो मेरे प्रति आकर्षण है लेकिन मैं लल्लू लाल गधा आदमी हूं मेरा आपके प्रति कोई आकर्षण नहीं है। हे कृष्ण प्लीज *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* कृष्ण मुझ में अपने लिए आकर्षण पैदा करें, लेट मी बी एंजॉयड बाय यू, एक सबसे बड़ा ऑप्शन आता है ,वांट टू एंजॉय, चैंटिंग कर रहे हैं तो मजा आना चाहिए लेकिन मजा नहीं आता है, मजा नहीं आ रहा यह लोग तो ऐसा बता रहे थे कि भगवान का नाम वह तो से भी ज्यादा मीठा है जरा मिश्री लेकर आओ, अब सच-सच बताओ कि हरि नाम मीठा है या यह मिश्री, मिश्री मीठी है हरी नाम इतना मीठा नहीं है। क्या है इसके अंदर सारा मूड ही गड़बड़ कर दिया मजा आना चाहिए चैंटिंग में मजा
*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥* श्री शिक्षाष्टकम् -3
अनुवाद: स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ॥३॥
ऐसा मूड हमारा चैंटिंग के वक्त होना चाहिए आना चाहिए रोंगटे पर नहीं खड़े हो रहे हैं जबकि हम चैतन्य चरितामृत में पढ़ते हैं चैतन्य महाप्रभु ने जब कीर्तन किया उनकी आंखों से अश्रु बहने लग गए,रोंगटे खड़े हो गए, आनंद की स्थिति होती है। ऐसा मेरे साथ भी होगा, लेकिन ऐसा मेरे साथ रत्ती भर भी नहीं होता। आंखें तो रेगिस्तान हैं जी, इनमें एक बूंद भी आंसू नहीं एक बूंद भी नहीं और रोंगटे तो पूछो मत, हरे कृष्ण हरे कृष्ण अरे भाई उठ जाओ कभी रोंगटे खड़े ही नहीं होते, जी मजा ही नहीं आ रहा है मजा होना चाहिए। अरे भाई तुम फ्रूटी का टेट्रा पैक लो और पी लो मजे ले लो यदि तुम्हें बहुत शौक पड़ा है और हरी नाम इस नॉट फॉर मजा क्योंकि नाम में यह भाव होना चाहिए आय एम एन्जॉयेड एंड कृष्ण इज़ इंजॉयएर टू बी एंजॉयड, फंडा ऑफ इन चैंटिंग इज डेट यह थोड़ा-थोड़ा टंग ट्विस्टर हो गया व्हेन द एंजॉय रेडी टू बी एंजॉय इन द एंजॉयमेंट ऑफ एंजॉर दैन द एंजोएड एंजोएस मोरे दैन द एंजोयेर , इसीलिए हमें कृष्ण *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* हे कृष्ण लेट मी बी एंजॉयड बाय यू ,मैं आपके द्वारा भुक्त हो जाऊं, यह हमारा वास्तव में एटीट्यूट होना चाहिए और प्रभुपाद बोला करते थे हमारा एटीट्यूड कैसा होना चाहिए चैंटिंग करते समय? प्रभुपाद ने कहा देयर शुड बी डेसपरेशन टू सी कृष्ण, नहीं तो चैंटिंग बड़ी मैकेनिकल हो जाएगी इससे क्या होता है यदि मूड आपका गड़बड़ हो गया तब सब गड़बड़ हो जाएगा। इसलिए मेथड को भी ठीक करना है और मूड को भी ठीक करना है और मूड कैसा होना चाहिए ओ लॉर्ड *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* कृष्ण लेट मी अट्रैक्शन फॉर यू , *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* ओ लॉर्ड लेट मी बी एंजॉयड बाय यू, इंगेज में इन योर सर्विस ओ कृष्ण मुझे अपनी सेवा में लगाइए और एक दो और भी कारण है जिसकी वजह से भक्तों को नींद क्यों आती है कि हम जो है वह नाम के साथ नहीं होते हम नाम के साथ राधा कृष्ण को देखते हैं जबकि नाम स्वयं ही राधा-कृष्ण हैं प्रभुपाद जी बता रहे थे कि एक बार एक भक्त ने,( प्रभुपाद कभी-कभी कई भक्तों को मौका दिया करते थे कि तुम दो लेक्चर) उसने बोला कि कृष्ण जो है अपने नाम के अंदर रहते हैं प्रभुपाद जी बगल में बैठे हुए थे प्रभुपाद ने कहा रुको, नाम के अंदर रहते हैं कहां रहते हैं? का में रहते हैं ण मैं रहते हैं षटकोण में रहते हैं या ना के डंडे में रहते हैं कहां रहते हैं? उस भक्तों ने कभी इतना सोचा नहीं था। प्रभुपाद ने कहा इट इज नॉट द कृष्ण लिव्स इन हिज नेम, कृष्ण इज़ होली नेम , नाम और नामी के अंदर अंतर नहीं है नाम हरे कृष्ण या राधा कृष्ण स्वयं ही है इसीलिए जो हमारे गौर किशोर बाबा जी महाराज हैं, जो उन पर विग्रह थे वह क्या थे एक पत्थर पर उस पर लिखा हुआ था “हरे कृष्ण” इन्हीं के वह आरती उतारते थे इन्हीं की पूजा अर्चना करते थे। हम उस प्रेम की जो बात करते हैं , पता है वह कौन सा कृष्ण प्रेम है हरे कृष्ण महामंत्र से जो प्रेम है वही प्रेम है।
ऐसा नहीं है कि हरे कृष्ण महामंत्र से एक और एंटिटी है वह राधा-कृष्ण वह मिलेंगे, नहीं यही राधा कृष्ण है यह हरे कृष्ण महामंत्र जैसे इस बात का रिलाइजेशन होगा तब आप कभी भी चैटिंग में सोएंगे नहीं क्योंकि हमें पता होगा कि हम कृष्ण के साथ हैं एक बार एक रिपोर्टर आया उसने पूछा व्हाट इज हरे कृष्ण? भक्तों ने कहा व्हेन वी चैंट हरे कृष्ण इनडायरेक्टली, वीआर विद कृष्ण, तब प्रभुपाद ने कहा नो !
इनडायरेक्टली, डायरेक्टली वी आर विद कृष्ण। इस बात को समझ ले कृष्ण और उनके नाम में कोई अंतर नहीं है मैं कृष्ण के साथ ही हूं जब मैं यह जपा करता हूं। हमें पता है क्या चाहिए हमें यह हरे कृष्ण के प्रति प्रेम चाहिए। कृष्ण प्रेम ऐसा नहीं है हरे कृष्ण करके कोई अलग से कोई राधा-कृष्ण कोई है और उनके प्रति कृष्ण प्रेम है नहीं यही राधा कृष्ण है मेरे साथ हरे कृष्ण मतलब राधा कृष्ण इसी के प्रति मुझे प्रेम चाहिए। महामंत्र से मुझे प्रेम करना है इस भाव के साथ व्यक्ति को चेंट करना चाहिए तो मेथड के साथ जब मूड भी प्रॉपर होगा। तीसरा एम जो आता है वह मेलो यानी अमृत का आस्वादन, मेथड और मूड जब सेट हो जाएंगे तब मैलो अपने आप आएगा , मेथड मूड एंड मेलो, देयर आर मोर 3 एम , “मंत्र मीनिंग मेडिटेशन” मंत्र कौन सा है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* और मीनिंग ओ कृष्ण आई बेलोंगस टू यू प्लीज एक्सेप्ट मी, एंड मेडिटेशन मीनिंग के साथ मंत्रास के साथ चिंतन करते हुए ,इस प्रकार से जब पहला दरवाजा खुलता है जो नींद का दरवाजा है। इसीलिए हमें बहुत ज्यादा सावधान रहना चाहिए एक और भी बहुत बड़ा कारण है कि नाम लेकर के वी शुड बी रिलैक्स, रिलैक्स जैसे आप कहीं से बहुत थके हुए हैं और कोई आपकी यहां पर मसाज कर दे पता लगा वाईफ और उसने कहा अजी सुनते हो बड़ी मेहनत करते हो जी, थक गए हो, कुछ बना लाऊ , ऐसे करके जब वह मसाज करती है तब पति क्या होता है नींद आ जाएगी उसको, सिमिलरली मन के ऊपर इतना लोड पड़ा हुआ है संसार का टेंशंस का, एंजाइटी का , पाप का, दुष्कर्म का, हरि नाम प्रभु जो है उस लोड को हल्का करते हैं ऐसे कितने ही भक्त हैं जो पहले अल्प्रेक्स की गोलियां खाया करते थे नींद की गोलियां खाते थे और अब सारी नींद की गोलियां बंद हो चुकी है। कहते हैं जी अरे अब सोना बहुत ही आसान हो गया चैन की नींद मतलब चेंट हरे कृष्ण इसका मतलब यह नहीं है हरे कृष्ण महामंत्र का साइड इफेक्ट है हमें नींद आए। इट इज जस्ट बिकॉज ऑफ वी आर रिलैक्स्ड ,मटेरियल तो यह बड़ा रिलैक्स्ड है बट स्पिरिचुअली इट इज वेरी थर्स्टी, बहुत प्यास भी आनी चाहिए साथ साथ इस प्रकार पहला जो गेट है वह है नींद का, इससे बचना बहुत जरूरी है।
मैंने देखा है कई डेवोटीज़ जो है बहुत स्ट्रगल करते हैं। लेकिन आप देखोगे कि शुरू के दिनों में यह होता है किंतु धीरे-धीरे जैसे-जैसे आप का लोड कम हो जाएगा आपकी नींद भी कम होती जाएगी। मेरे ऐसे कितने डेवोटी फ्रेंड्स हैं सन 2000 में पहले मैं बहुत सोया करता था मॉर्निंग जपा में भी केवल चार या पांच मैक्सिमम सिक्स राउंड बाकि टाइम तो मेरे वहां पर जो भक्त या जो इंचार्ज थे वह मुझे फोटो भेजा करते थे कि देखो प्रभु यह आपके जपा के दिन, तब मुझे ध्यान है कि मैं भी बहुत सोया करता था पहले यह सन 2000 की बात है लेकिन उसके बाद चैंटिंग करते हुए लगभग दो दशक से ज्यादा हो चुका है। आज के दिन कृष्ण की कृपा से यदि मैं पांच घंटे भी सो जाऊं तो मुझे नींद नहीं आती। लेकिन एक समय था जब मैं बहुत सोता था मतलब मॉर्निंग में चार पांच माला बस, लेकिन अब मॉर्निंग में मैं 16 माला अट्ठारह माला कभी-कभी भगवान की दया से 20 माला भी हो जाती है। इसीलिए जो भक्त सो जाते हैं मेरी रिक्वेस्ट है प्लीज डू नॉट डिसएप्वाइंट, कि देखो मुझे नींद भी आ जाती है प्रभु जी, मैं तो शायद भक्ति के लायक भी नहीं हूं। ऐसा नहीं है भाई शुरू शुरू के दिनों में ऐसा स्ट्रगल होता है लेकिन यदि आप चैटिंग करते रहते हैं करते रहते हैं कृष्ण की मर्सी के द्वारा फ्री फ्रॉम द लोअर मोड और उसकी वजह से आपकी चैटिंग सार्थक हो जाती है और आप ज्यादा नाम जप से कनेक्ट हो जाते हैं। प्रभुपाद बोला करते थे व्हाट इज़ द डिफरेंस ऑफ माय चैंटिंग एंड योर्स ? आई लाइक माय चैंटिंग, एंड यू चैट्स, बिकॉज़ यू हैवे टू डु।
इसीलिए हम भी इस स्टेज तक प्रभुपाद की कृपा से आएंगे ताकि हम भी चैंटिंग कर सकें क्योंकि हमें वह पसंद होगा, लेकिन उससे पहले क्या है कि नींद को जीतना बहुत जरूरी है और यदि आप मॉर्निंग में, आंवला इत्यादि ले ले तो उससे भी आप अच्छे से चैंटिंग कर पाएंगे, होता क्या है कि कई डेवोटीज़ खाली पेट होते हैं उससे भी गैस बनती है, गैस ऊपर चढ़ती है उसकी वजह से नींद आना शुरू हो जाती है। इसीलिए आप आंवला ले सकते हैं और फिर आप चैंटिंग स्टार्ट कर सकते हैं इससे कभी भी गैस नहीं बनेगी और इन द मॉर्निंग यू कैन टेक हॉट वाटर, थोड़ा गर्म पानी जो होता है वह लीजिए और साथ में हरण, आंवला कैंडी, ऐसी कोई चीज मॉर्निंग में लीजिए और यू गो फॉर चैंटिंग, गैस नहीं बनती और फिर नींद नहीं आती। कई बार मैंने देखा है कि डेवोटीज़ को मॉर्निंग में बहुत भूख लग रही होती है आफ्टर मंगला आरती मतलब पीक पर होती है भूख , कुछ हल्का फुल्का ले सकते हैं मतलब है बिस्किट नमकीन वगैरा मै रिकमेंड नहीं करूंगा क्योंकि यह मरा हुआ फूड होता है इसीलिए आप वैसा कुछ कीजिए जिसमें लाइफ हो, इसीलिए आंवला कैंडी ले सकते हैं यह बहुत अच्छा है और एलोवेरा कैंडी ले सकते हैं और आंवला जूस ले सकते हैं यह सब कुछ सुबह लेने पर बहुत अच्छा है और गर्म पानी पी सकते हैं इन सब से गैस नहीं बनती है और फिर इनसे भी नींद नहीं आती है बॉडी लेवल पर साइकोलॉजी, अल्टीमेटली इंपॉर्टेंट है नाम रुचि, चैंटिंग हरे कृष्ण महामंत्र तब हम पहले दरवाजे का नॉब खोल पाएंगे और हम प्रवेश कर जाएंगे फिर अगला जो दरवाजा आता है लेकिन उसके विषय में अभी हम चर्चा नहीं करेंगे ,क्योंकि समय 7:15 बज चुके हैं ” विक्षेप” डिस्ट्रक्शन , हमारा मन क्यों भटकता है चाय करते वक्त? हमारे मन के भटकाव से हम कैसे बच सकते हैं , किसी और समय पर हम चर्चा कर सकते हैं। आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
01 फ़रवरी 2022
श्रीमान वेदांत चैतन्य प्रभुजी
हरे कृष्णा
गुरु महाराज कृपया मेरा सादर दंडवत प्रणाम स्वीकार करें | सभी भक्तों को दंडवत प्रणाम | पदममाली प्रभु ने जब मुझसे जपा टॉक देने के लिए कहा था उस वक्त मैं सोच रहा था कि मुझे जपा टॉक देना है या नहीं देना है | मैं मना कर रहा था | फिर मैंने सोचा है कि यह इतने भक्तों से आशीर्वाद मांगने का एक मौका होगा, मुझे चलना चाहिए| फिर अभी महाराज जी भी हैं और आप सभी लोगों से मैं आशीर्वाद मांगता हूँ कि मैं अपने जीवन पर्यंत गुरु महाराज और प्रभुपाद की सेवा में और इस आंदोलन में बना रहूँ | आप सब मेरे लिए ऐसी कामना कीजिए और मुझे आशीर्वाद दीजिए | विशेषकर मैं इसीलिए आया था परंतु सेवा मिली है तो मैं कुछ बताने का प्रयास भी कर लूंगा | इस संसार के किसी भी संबंध के साथ-साथ कुछ जिम्मेदारियां भी स्वतः ही आ जाती हैं | जो कोई भी इस दुनिया के अंतर्गत महत्वपूर्ण संबंध क्यों ना हो, एक मां और बेटे का क्यों ना हो, एक पति पत्नी का क्यों ना हो, उस संबंध को सही प्रकार से चलाने के लिए, बनाकर रखने के लिए कुछ जिम्मेदारियां हमें निभानी होती हैं | इस संबंध में दोनों की ही एक दूसरे के प्रति कुछ जिम्मेदारियां होती हैं |
एक मां का बेटे के प्रति और एक बेटे का मां के प्रति, एक पति का पत्नी के प्रति और एक पत्नी का पति के प्रति | और जहां पर भी इन जिम्मेदारियों में समझौता होता है, तुरंत वो संबंध फीका पड़ने लगता है | और फिर धीमे धीमे धीमे वह संबंध लुप्त होने लग जाता है | और यह जो संबंध है इसी संबंध के आधार पर ही रस प्राप्त होता है| जब हम रस तत्व के विषय में बात करते हैं, रस शब्द का यही अर्थ है कि उस संबंध के आधार पर जो हमें आस्वादन प्राप्त होता है जैसे कि वात्सल्य रस, माधुर्य रस इत्यादि | यह रस भी मिलना बंद हो जाएगा अगर संबंधों में समझौते होते हैं | अगर जिम्मेदारियों से समझौता करेंगे तो संबंध फीका पड़ेगा और फिर रस मिलना बंद हो जाता है| इसलिए किसी भी प्रकार के संबंध को अगर सही प्रकार से हमेशा के लिए अगर बना कर रखना है, सिर्फ संबंध के तौर पर जो भी हमारे कर्तव्य बनते हैं उसे सही प्रकार से समझ कर और सही भाव के साथ जिम्मेदारियों को निभाना बहुत महत्वपूर्ण है | इसलिए आज हम इसी विषय के बारे में थोड़ी सी चर्चा करेंगे जिसके अंतर्गत हम एक शिष्य का गुरु के प्रति क्या संबंध और जिम्मेदारियां होती हैं उसकी चर्चा करने का प्रयास करेंगे | किंतु उसके पूर्व मैं आपसे कुछ ओर चर्चा करना चाहूंगा |
जिसके अंतर्गत मैं आपको यह बताऊंगा गुरु और शिष्य का जो संबंध है यह संबंध बाकी जितने संबंध हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार के होते हैं उन संबंधों की तुलना में गुरु शिष्य के संबंध का क्या महत्व है | क्या इस गुरु शिष्य के संबंध को इतना खास, इतना विशेष बनाता है? पहले हम यह समझेंगे और उसके उपरांत हम जिम्मेदारियों के विषय में समझेंगे | चैतन्य चरित्रामृत में इस प्रकार से कहा गया है —
जन्मे जन्मे सभी पिता माता पाए, कृष्ण गुरु नहीं मिले भज हरि आए |
हर जन्म में हमें माता-पिता तो मिलते ही हैं चाहे हम किसी भी प्रकार का जन्म क्यों नहीं ले, चाहे कुत्ते का जन्म हो या बिल्ली का जन्म हो और चाहे मनुष्य का जन्म हो | कोई भी जन्म क्यों ना हो हमारे माता-पिता होते ही हैं | माता-पिता के बिना तो जन्म होगा ही नहीं | इसका अर्थ हमारे हर जन्म में माता-पिता के साथ जो संबंध है या बाकी अन्य प्रकार के संबंध हैं यह सारे संबंध हर जीवन में हमें प्राप्त हो ही रहे हैं | लेकिन जो गुरु और कृष्ण के साथ संबंध है, वह केवल और केवल इस मनुष्य जीवन के अंतर्गत ही मिलता है | यह एक अनोखा संबंध है जो केवल मनुष्य जन्म में ही मिल सकता हैं | साधारणतया बाकी किसी भी योनि में इस प्रकार का संबंध संभव नहीं है | यह मनुष्य जीवन का एक विशेष अधिकार है कि हमें गुरु और कृष्ण के साथ संबंध बनाने का अवसर मिलता है | इसलिए यह संबंध बहुत महत्वपूर्ण है | और दूसरी बात यह है कि बाकी जितने भी संबंध है चाहे माता पिता के साथ हो या समाज के साथ या भाई बंधुओं के साथ, मित्रों के साथ, पत्नी के साथ पति के साथ बच्चों के साथ यह सारे संबंध अशाश्वत हैं, एक मां का संबंध अपने बच्चे के साथ भी क्यों ना हो | अगर मान लीजिए एक बच्चे की उम्र 30 साल की है, 30 साल से 1 दिन पहले भी अगर मां से पूछा जाए कि क्या आप अपने बेटे को पहचान पाओगे तो वह पहचान नहीं पाएंगी | और मान लीजिए कि वह बच्चा 40 साल तक ओर रहेगा और फिर मर जाएगा | तो फिर 40 साल के 1 दिन के पहले पूछिए कि क्या आप अपने बेटे को पहचान पाओगी तो वह नहीं पहचान पाएंगी | तो जब पहचान ही नहीं हो पा रही है तो फिर संबंध क्या होगा | इसलिए यह संबंध सब अशाश्वत है | केवल गुरु के साथ यह जो संबंध होता है, वह संबंध शाश्वत होता है| तभी तो नरोत्तम दास ठाकुर श्री गुरु चरण पद्म भजन में गाते हैं
जन्मे जन्मे प्रभु जेई
चक्षुज्ञान दिलों सेइ
हर जन्म जन्म में आप मेरे प्रभु रहेंगे और मैं आपका सेवक रहूंगा | क्योंकि यह दोनों ही शाश्वत तत्व है | गुरु तत्व और गुरु सेवक तत्व यह दोनों शाश्वत तत्व हैं | यह कोई अस्थाई तत्व नहीं है | इसलिए यह संबंध हमेशा के लिए बना रहेगा | इसलिए गुरु के साथ जो हमारा संबंध है वह हमेशा के लिए है | यह भी एक कारण है जिस वजह से यह संबंध को हमें बहुत महत्व देना चाहिए, इसके प्रति जो भी जिम्मेदारियां हमारी बनती हैं उसे सही प्रकार से निभाना चाहिए | और यह भी एक ओर कारण है कि जिस प्रकार की जिम्मेदारी गुरु लेते हैं वह ओर कोई नहीं ले सकते, चाहते हुए भी नहीं ले पाएंगे | गुरु सच में जिम्मेदारियां लेते हैं | यह भी सोचना गलत है कि गुरु सबकी ही जिम्मेदारियां लेते हैं, जितने लोगों को दीक्षा दी है | क्योंकि एक समय पर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज अपने अंतिम दिनों में अपने सारे शिष्यों को अपने बिस्तर के पास बुलाते हैं और फिर उनसे कहते हैं कि आप में से कोई भी मेरा शिष्य नहीं है | सोचिए गुरु स्वयं अपने शिष्यों से कह रहे हैं कि आप में से कोई भी मेरा शिष्य नहीं है | फिर इसका कारण बताते हैं आप में से कोई भी मेरे द्वारा दी गई दिशा का, आदेशों का पालन सही प्रकार से नहीं किया, मेरी बातों को नहीं माने, मेरे बातों के हिसाब से आप लोग नहीं चले हैं, इसलिए आप लोगों में से कोई मेरा शिष्य नहीं है | जिन शिष्यों को गुरु अस्वीकार किए बिना रखते हैं उन्हें सत शिष्य कहते हैं| जिस प्रकार सतगुरु होते हैं उसी प्रकार सत शिष्य होते हैं | केवल उन शिष्यों की ही गुरु जिम्मेदारियां लेते हैं जिनको गुरु ने अस्वीकार नहीं किया है | और जब इन सत शिष्यों की जिम्मेदारी गुरु लेते हैं तब गुरु केवल उस जीवन के लिए नहीं बल्कि जन्म जन्मो तक जिम्मेदारी लेते हैं जैसा कहा भी गया है जन्मे जन्मे प्रभु सेइ | इस विषय में परम पूज्य गुरु गोविंद महाराज इस प्रकार से लिखते हैं कि जिस शिष्य को गुरु ने स्वीकार नहीं किया है इसका मतलब जो सत शिष्य है उन्हें भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी गुरु की होती है | और इस प्रकार की जिम्मेदारी को गुरु कैसे निभाते हैं?
मान लीजिए गुरु के शरीर छोड़ने के पहले शिष्य की मृत्यु हो गई है, या शिष्य के जीवित होते हुए गुरु ने शरीर छोड़ दिया है, तो उस समय फिर संबंध कैसे बना रहेगा? इसके संबंध में गौर गोविंद महाराज इस प्रकार से वर्णन करते हैं कि सद्गुरु जब शरीर छोड़ते हैं तो वे नित्य लीला प्रविष्ट होते हैं, नित्य लीला प्रविष्ट होने के बाद कृष्ण धाम में पहुंचने के बाद गुरु की नजर हमेशा अपने सत शिष्य पर रहती है | और सबसे पहले गुरु सत शिष्य के हृदय में उनको प्रेरणा देने का प्रयास करते हैं और उनके अंदर सच के प्रति या भगवान के प्रति आकर्षण जागृत करने का प्रयास करते हैं| या नहीं तो गुरु किसी न किसी साधु महात्मा के हृदय में एक ऐसी प्रेरणा देते हैं जिससे कि वह साधु उस शिष्य के पास जाकर उसे भगवान के विषय में ज्ञान दें | अगर यह भी नहीं संभव हो पाया तो कहां जाता है कि फिर गुरु स्वयं ही आ जाते हैं | गुरु स्वयं आकर उन्हें पुनः वो दिव्य ज्ञान देते हैं | इस प्रकार से गुरु अपनी जिम्मेदारी कभी छोड़ते नहीं हैं जब तक हमें श्री कृष्ण के चरण कमलों तक पहुंचा ना दें तब तक वो छोड़ते नहीं है | लेकिन सबके साथ गुरु यह नहीं करने वाले | उन्हीं लोगों के साथ करेंगे जो सत शिष्य हैं और वही व्यक्ति सत शिष्य है जो भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज ने कहा है जो गुरु के द्वारा दी गई आदेशों का सत प्रतिशत पालन कर रहा है | पूर्ण रुप से पालन करना हमारे हाथ में नहीं है | हम कह नहीं सकते | लेकिन पूर्ण रूप से इतनी तो हमारी जिम्मेदारी बनती ही है कि हमारी ओर से शत प्रतिशत प्रयास हो, किसी भी प्रकार का कोई समझौता ना हो | और अपने पूर्ण प्रयास के बाद वह हो नहीं पाया तो उसे स्वीकार किया जाएगा | परंतु यदि प्रयास ही नहीं किया किसी व्यक्ति ने, तो फिर उसे माना नहीं जाएगा | तब वह सत शिष्य नहीं कहलाएगा | इस प्रकार से गुरु जिम्मेदारी लेते हैं | एक बार परम पूज्य भक्ति रसामृत स्वामी महाराज के पास एक भक्त आए थे, उनके जीवन में एक समस्या चल रही थी, उस समस्या को लेकर वे बहुत ही परेशान थे, उन्होंने अन्य भक्तों से सुझाव मांगे थे कि मेरे जीवन में यह परिस्थिति है तो मैं क्या करूं?
हर लोग अपने अपने प्रकार से उन्हें सुझाव दे रहे थे, आप ऐसा करो, आप ऐसा करो, सभी की अपनी-अपनी समझाने की मनोवृति है और विभिन्न प्रकार से लोग उन्हें समझा रहे थे | जब वे महाराज के पास आए थे तो उन्होंने महाराज को बताया कि मैं कई लोगों से मिला और सब लोग मुझे अलग-अलग सुझाव दे रहे हैं मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मुझे क्या करना चाहिए, आप मुझे बताइए कि मैं क्या करूं | महाराज ने कहा कि देखिए आपको वही करना चाहिए जो गुरु बताते हैं क्योकि बाकी सभी लोग सलाह देकर निकल जाएंगे, कोई जिम्मेदारी नहीं लेने वाले हैं, गुरु ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जो की सलाह देने के बाद आपके उद्धार होने तक आपकी जिम्मेदारी लेंगे | इसलिए शास्त्रों में कहा जाता है कि गुरु की बातों को हमें सबसे ज्यादा महत्व देना चाहिए | इसलिए गुरु शब्द का एक यह अर्थ भी है — भारी | यदि सारी की सारी दुनिया एक बात कहे और गुरु दूसरी बात कहे, तो किनकी बात माननी चाहिए? गुरु की बात माननी चाहिए | भारी का अर्थ यही है | जिस प्रकार से गुरु हमारी जिम्मेदारी लेते हैं, हमें भी गुरु को उतना महत्व देना चाहिए | योगमाया शक्ति के प्रभाव से, उनकी सहायता के साथ गुरु हमेशा अपने शिष्यों का ख्याल या देखभाल रखते हैं चाहे शिष्य किसी भी योनि में क्यों ना हो, किसी भी जन्म में भी क्यों ना हो, गुरु अपने शिष्यों की देखभाल करते हैं, भगवान की योगमाया शक्ति इस कार्य में गुरु की सहायक बनती है | और अंत में यह भी बात है कि जो व्यक्ति गुरु के प्रति प्रेम रखता है, वेदों में हमने पढ़ा जिस प्रकार का प्रगाढ़ प्रेम हमारे अंदर गुरु के प्रति विकसित होता है, वैसा ही समान प्रेम भगवान के प्रति होता हैं | जिस प्रकार का संबंध हम गुरु के साथ विकसित कर संकेंगे, वह प्रतिबिंबित करेंगे हमारे भगवान के साथ क्या संबंध हैं। जिन व्यक्तियों का गुरु के साथ कोई अर्थपूर्ण वास्तविक संबंध नहीं बन पाया तो उनका भगवान के साथ भी संबंध नहीं हैं। क्योंकि इस प्रकार कहा जाता है कि गुरु भक्ति और कृष्ण भक्ति दोनों एक ही हैं। गुरु भक्ति के बगैर दिव्य ज्ञान प्रकट नहीं होता क्योंकि “दिव्य-ज्ञान हृदय प्रकाशित” | दिव्य ज्ञान ह्रदय में प्रकट होता है दिव्य ज्ञान केवल पुस्तकों में या प्रवचनों में ही नहीं मिलता, इसलिए गुरु के साथ संबंध को हमे उतना महत्व देना चाहिए| अगर हम कर्तव्यों की बात करें तो सबसे पहले गुरु के प्रति हमारी जो दृष्टि है या समझ है वह बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए अगर वहां पर कमी है तो उसे तत्व भ्रम कहा जाता है, उस तत्व भ्रम के कारण आगे के कर्तव्यों में भी कमी आ जाऐगी क्योंकि वहां भ्रम तत्व है, भ्रम तत्त्व व्यक्ति गुरु को लेकर सही समझ नहीं रखता हैं। इसका मतलब सही विजन(दृष्टि) क्या है?
अपराध के अंतर्गत हम कई बार यह भी कहते हैं कि गुरु को साधारण मनुष्य मानना क्योंकि जो व्यक्ति गुरु को एक साधारण मनुष्य मानने लगेगा तो वह गुरु के बातों को भी साधारण मानेगा और गुरु के कार्य को भी साधारण मानेगा | जब बातों को साधारण मानेंगे तो गुरु अवज्ञा होगी और जब कार्यों को साधारण मानेंगे तो गुरु के प्रति अपराध होगें | बातों को भी साधारण मानेगा फिर कार्यों को भी साधारण मानेगा| जब बातों को साधारण मानेगा तो अवज्ञा होगी और कार्यों को साधारण मानेगा तो गुरु के प्रति अपराध होंगे| फिर उसका हम न्याय संगत विश्लेषण करने लग जाएंगे कि यह जो कह रहे हैं वह सही है कि नहीं। शायद हो सकता है यह सही ना हो फिर उसी तरह हम उनके कार्यों को भी साधारण मानने लग जाएंगे तो उनके कार्य में भी कोई न कोई त्रुटि देखेंगे, निकालेंगे जिस प्रकार बाकी लोगों की निकालते हैं उसी प्रकार गुरु के कार्य मे त्रुटि निकालेंगे | इसलिए दृष्टि हमेशा सही रखनी होगी क्योंकि गुरु साधारण नहीं है फिर कौन है गुरु? जिन के विषय में इस प्रकार से कहा जाता है गुरु “कृष्ण-प्रिय-जन है” | मतलब कृष्ण के सन्निधि व्यक्ति है इसलिए हम कहते हैं “कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले ” मतलब बहुत ही निकट है भगवान श्री कृष्ण के| इसलिए उन्हें यहां पर भी कहा गया है कृष्ण-प्रिय-जन या “राधा- प्रिय-सखी” इस प्रकार से भी माना जाता है नहीं तो नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधि के रुप में भी माना जाता हैं। ऐसे हम श्रीगुर्वाष्टक में भी गाते हैं “साक्षाद्-धरित्वेन समस्त शास्त्रैर्” सारे शास्त्रों में बार-बार कहा जाता हैं। सभी साधु जन सारे शास्त्रों में यह बात बार-बार कहते है कि गुरु साधारण नहीं गुरु साक्षात हरि हैं। तो यहां पर साक्षात हरि होने का क्या मतलब होगा? इसे हम इशोपनिषद से समझ सकते हैं वहां श्लोकों में कहा गया है “एकम् त्वं अनुपश्चति” मतलब एक है वह | किस प्रकार से एक है गुरु और कृष्ण। इच्छा में एक हैं। गुरु का मिशन(ध्येय) और भगवान का मिशन(ध्येय) अलग अलग नहीं है गुरु के इंटरेस्ट(रुची) और कृष्ण का इंटरेस्ट(रुची)अलग अलग नहीं है, गुरु की इच्छा और कृष्ण की इच्छा अलग अलग नहीं होती। अगर अलग-अलग होते तो गुरु ही नहीं होते क्योंकि गुरु मतलब कृष्ण के प्रतिनिधि होने चाहिए जो प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रहे होते इसलिए उस सेंन्स(समझ) में दोनों एक हैं, रुचि के तौर पर इच्छा के तौर पर वह दोनों एक हैं | इसलिए गुरु के शब्दों को हमें उस प्रकार से मानना चाहिए, स्वीकार करना चाहिए जिस प्रकार से हम कृष्ण के शब्दों को मानते हैं। हम देख सकते हैं अर्जुन से किस प्रकार भगवान ने कहा
“श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन |
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.5)
अनुवाद: -श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है |
अर्जुन तुम और मैं अनेकों अनेकों जन्म लिए है परंतु सब मुझे याद है और तुमको कुछ याद नहीं है अर्जुन पूछते हैं कि भगवान में कैसे समझू कि आपने यही वाला ज्ञान विवस्वान को दिया है वहां पर अर्जुन के प्रश्न पूछने का ढंग आप देखिए वहां पर यह पता चलेगा कि अर्जुन भगवान की बात पर शंका लेकर चुनोती पुर्ण स्तर पर पूछ नहीं रहे हैं। वह इस प्रकार से पूछ रहे हैं कि भगवान आप के शब्द को मैं सत्य के रूप में मानता हूँ परंतु मैं मेरी बुद्धि की कमजोरी के कारण समझ नहीं पा रहा हूँ, यह किस प्रकार से हो सकता है तो उसका विश्लेषण करिए? वह इस भावना के साथ पूछते हैं उसी प्रकार से गुरु की बातों को मानना चाहिए कभी भी उन दोनों की इच्छाओं में और रुचि में कभी फर्क नहीं है और इस बात को स्वयं कृष्ण उद्धव गीता में भी बहुत स्पष्ट रुप से बताते हैं
आचार्य मां विजानीयान्नवमन्येत कर्हिचित् । न मत्यंबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥
(श्रीमद्भागवत 11.17.27)
अनुवाद:-मनुष्य को चाहिए कि आचार्य को मेरा ही स्वरूप जाने और किसी भी प्रकार से उसका अनादर नहीं करे । उसे सामान्य पुरुष समझते हुए उससे ईर्ष्या – द्वेष नहीं रखे क्योंकि वह सम देवताओं का प्रतिनिधि है ।
भगवान स्वयं कह रहे हैं कि आचार्य को मेरे से अभिन्न रुप मे देखना चाहिए। भगवान स्वयं बता रहे हैं अगर ओर कोई कहेगा तो सोचना पड़ेगा लेकिन भगवान स्वयं कह रहे हैं इस प्रकार से करना चाहिए। “सर्वदेवमयो गुरुः”। सारे देवों का निवास स्थान है गुरु के चरण | इस प्रकार से कह रहे हैं इसलिए श्रील प्रभुपाद जी लिखते है हमेशा गुरु को प्रणाम करते रहना चाहिए ज्यादा नहीं कह रहे हैं, हर बार नहीं कह रहे हैं बल्कि नित्य रूप से प्रणाम करना चाहिए। इसलिए एक बार श्रील प्रभुपाद जी के एक शिष्य प्रणाम नहीं कर रहे थे प्रभुपाद जी को, प्रभुपाद ने कहा अरे तुम्हें क्या दिक्कत है ? क्यों प्रणाम नहीं कर रहे हो? प्रभुपाद मुझे वह भाव नहीं आता है, करने का भाव नहीं आ रहा है इसलिए मैं नहीं कर रहा हूँ | फिर प्रभुपाद ने यह कहा आपका मन लगे या ना लगे फिर भी आप प्रणाम करो! प्रणाम करते रहने से वह भाव आएगा। प्रणाम करते रहने से प्रणाम करने का भाव अपने आप आएगा ।उसी प्रकार सदाचार के संबंध में कोई भी कार्यक्रम क्यों ना हो चाहे वह हम समझ पाए या नहीं भी समझ पाए उसे कर पाए या नहीं कर पाए उसके पीछे के सिद्धांत पता है या नहीं पता है फिर भी उसे हम अगर करते रहेंगे तो वह भावना अपने आप अंदर आऐगी, यही तो भक्ति का वैशिष्ट हैं। इस तरह से प्रणाम करना बहुत ही महत्वपूर्ण है, भाव के अंतर्गत भी भगवान प्रणाम के विषय में इतना कुछ बताते हैं भाव के संदर्भ मे जो परिभाषा सूत्र हैं।
“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता18.65)
अनुवाद: -सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
जो चार इंस्ट्रक्शन भगवान ने जो इस श्लोक में दिए हैं इसमें से एक महत्वपूर्ण यह है कि”मां नमस्कुरु” मुझे प्रणाम करो!, भाव के अन्तर्गत सबसे आखरी श्लोक में भी भगवान दो ही चीजों के बारे में बताते हैं। एक तो भगवान के नाम के विषय में और दूसरा भगवान को प्रणाम करने के विषय में, इसलिए प्रणाम हमें निश्चित रूप से और नियमित करने चाहिए चाहे हमारा मन लगे या ना लगे और हमेशा गुरु को हमें अपने ह्रदय में धारण करके चलना चाहिए क्योंकि प्रवचन में परम पूज्य राधा गोविंद गोस्वामी महाराज कहते हैं जब वसुदेव भगवान श्री कृष्ण को गोकुल लेकर जा रहे थे उस समय वसुदेव का वर्णन करते समयशुक गोस्वामी कहते हैं हे कृष्ण वाहक! कृष्ण को लेकर जा रहे हैं कृष्ण वाहक बने हैं वसुदेव कृष्ण के ही वाहन बने हैं | उसी प्रकार से गुरु का वाहन बनना होता है | एक बार श्रील प्रभुपाद जी मायापुर पहुंचते हैं वहां पर वे सीधा गौड़ीय मठ श्री कृष्ण गौड़ीय मठ जो मुख्यालय है वहां पर गौड़ीय मठ होते हुए आये, गौड़ीय मठ उतरे नही, सीधा हमारा जो मायापुर चंद्रदय मंदिर है वहां पहुंच गए और फिर अपने आवास पर चले गए |
उस समय क्या हुआ की मायापुर में बहुत बड़ी हलचल मचने लगी, फिर प्रभुपाद जी के सभी गुरु भाई आपस में गौड़ीय मठ के लोग आपस में बात करने लगे देखिए बहुत बड़े गुरु हो गए इसलिए अभी अपने गुरु का दर्शन करने के लिए भी नहीं आ रहे हैं समाधि का दर्शन ही नहीं किया सीधे चले गए यह सब वह कहने लगे आपस में फिर धीरे-धीरे यह बात प्रभुपाद जी तक पहुंची फिर प्रभुपाद जी ने कहा ऐसा कोई क्षण होता ही नहीं मेरे जीवन में जो मैं अपने गुरु से अलग रहूं। हमेशा प्रभुपाद अपने गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज को अपने हृदय में धारण करके ही चलते, तभी तो जहां तक हो अपने सारे शिष्यों को संबोधित करते हुए प्रभुपाद यही कहते हैं कि आप सभी मेरे गुरु महाराज के द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि है। मेरे गुरु महाराज के प्रतिनिधि है ऐसा मानते थें, जब की उनकी सेवा करने के लिए मेरे गुरु महाराज मुझे आप लोगों के द्वारा प्रोत्साहन दे रहे हैं। वे अपने शिष्यों के माध्यम से भी अपने गुरु का दर्शन कर पा रहे हैं। इस प्रकार प्रभुपाद जी कभी भी अपने गुरु से अलग नहीं हुए। इस प्रकार से हम चाहे एक स्थुल रुप में या व्यक्तिगत रुप में हमें संगति मिले या ना मिले फिर भी इस प्रकार से हमें हमेशा धारण करना चाहिए गुरु को धारण किया जाता हैं।
श्रील प्रभुपाद अपने डायरी में वे यह भी लिखते हैं कि उन्हें तीन चीजों ने मदद की है हमेशा उनके जीवन में कितने भी कष्ट इत्यादि चीजें आई हो उन सभी का सामना करते हुए तीन चीजों ने मदद की है,उसमें से कहते हैं कि एक तो चैतन्य चरितामृत के आश्वासन और दूसरी एक बात कहते हैं कि हमेशा मेरे गुरु के द्वारा दिये गये आज्ञाओं का पालन करने के विषय में मैं चिंतन करते रहता हूंँ। इस प्रकार मै हमेशा गुरु की आज्ञा का मे मनन करता हूंँ और यही कारण रहा है कि प्रभुपाद इतनी सारी मुश्किलों को सामना करते हुए आगे बढ़े थें।एक समय किसी ने प्रभुपाद जी को पूछा कि प्रभुपाद जी आप इतने सफल हुए हैं इस क्षेत्र में प्रचार के क्षेत्र में इसका मूल कारण क्या हैं? प्रभुपाद जी दो चीजें बताते हैं वे दो चीजों का गुण गा रहे हैं वे कहते हैं शास्त्रों का यथारूप मैंने प्रस्तुत किया, कोई छेड़छाड़ मैंने नहीं की और दूसरा कहते हैं मैंने मेरे गुरु का सटीक अनुसरण किया यही दो चीजें मेरी सफलता का रहस्य हैं। इस प्रकार प्रभुपाद जी कहते हैं ।
यही चीज अगर हम भी अपने जीवन में अपनाएंगे तो निश्चित रूप से हम भी सफल बनेंगे । कहने के लिए तो बहुत सी बातें हैं परंतु समय हो चुका है, यहां पर हम समाप्त करेंगे और हम आप सभी से प्रार्थना करते हैं। वैसे तो सारी बातें तो केवल पढ़कर ही बोलना होता है, कोई बहुत बड़ी बात नहीं है आधे घंटे पहले मैंने पढ़ लिया और अभी बोल कर बता रहा हूंँ, यह बहुत बड़ी बात नहीं है परंतु इसका पालन करने में तो जीवन-जीवन निकल जाता है अगर आप सभी वैष्णवों की कृपा हमारे ऊपर रही तो निश्चित रूप से यथाशक्ति हम इन चीजों का पालन करने का प्रयास करेंगे आप सभी कृपा करके आशीर्वाद दीजिए कि इसे हम अपने जीवन में पालन कर सकें। धन्यवाद! हरे कृष्ण!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Visitor Counter











