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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
कृष्ण भक्त प्रभु जी द्वारा,
31 जनवरी 2022
हरे कृष्णा,
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम :।।*
नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने
नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे
निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ।
जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,
श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
आप सभी भक्तो का धन्यवाद। मैं जूम जप चर्चा टीम और पदमाली प्रभु का विशेष रूप से धन्यवाद करना चाहूंगा,जिन्होंने आज मुझे यह एक विशेष अवसर प्रदान किया,कुछ चर्चा करने के लिए। आज मुझे आदेश मिला हैं,कि गुरु के आदेशों का किस प्रकार से पालन किया जाए इसके विषय में कुछ कहा जाए। यह श्रीमद्भागवत का चतुर्थ स्कंध हैं, अध्याय 20,श्लोक नंबर 13। इस अध्याय में महाराज पृथु के यज्ञ स्थल में भगवान विष्णु के प्राकटय के बारे में बताया गया हैं।अब तात्पर्य पढेंगें। मनुष्य को भगवान विष्णु के आदेशों का पालन करना होता हैं, चाहे वह प्रत्यक्ष रूप में उनसे प्राप्त हो या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि गुरु के माध्यम से प्राप्त हो। अर्जुन ने कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान श्री कृष्ण के प्रत्यक्ष सानिध्य में लड़ा। इसी प्रकार यहां पर पृथु महाराज को उनके कर्तव्यों के विषय में भगवान श्री विष्णु आदेश दे रहे हैं, हमें श्रीमद्भगवद्गीता में बताए गए नियमों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य हैं कि वह भगवान श्री कृष्ण या उनके प्रमाणिक प्रतिनिधि से आदेश प्राप्त करें और निजी स्वार्थ से तटस्थ रहकर इन आदेशों को प्राणों से भी प्रिय माने।इससे भी महत्वपूर्ण प्रभुपाद जी लिख रहे हैं कि श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि मनुष्य को इसकी तनिक भी परवाह नहीं करनी चाहिए कि वह मुक्त हो रहा हैं अथवा नहीं,उसे तो अपने गुरु से प्राप्त आदेशों का सहज भाव से पालन करते रहना चाहिए ।ऐसा करने से उसे सदैव मुक्ति का पद प्राप्त होता रहेगा। यहां पर श्रील प्रभुपाद जी श्री गुरु के आदेशों का पालन करने का मुख्य उपदेश इस तात्पर्य में लिख रहे हैं। गुरु सबसे पहले तो हमें कृष्ण नाम प्रदान करते हैं।
sampradaya-vihina ye mantras te nisphala matah
atah kalau bhavisyanti catvarah sampradayinah
(पदम पुरान)
जैसे पद्म पुराण में वर्णन हैं कि जब तक कोई भक्त आध्यात्मिक गुरु से विधिवत नाम प्राप्त नहीं कर लेता,तब तक उस नाम का हमें कोई फल प्राप्त नहीं होता और इसीलिए इस संबंध को अच्छे से स्थापित करने के लिए वर्षों से गुरु महाराज हर रोज हमे प्रातकाल: यह हरि नाम दे रहे हैं। केवल इसी संबंध को स्थापित करने के लिए। यह नाम जब हमें गुरु की कृपा द्वारा प्राप्त होता हैं, तभी यह नाम कार्यशील होता हैं। यह हमें प्रगति की ओर ले कर जाता हैं। हम इस संसार में भी देखते हैं,कि प्रत्येक व्यक्ति किसी ना किसी को प्रसन्न करने के लिए कार्य कर रहा हैं। माता पिता अपने बच्चों को प्रसन्न कर रहे हैं। बच्चे अपने माता-पिता को प्रसन्न कर रहे हैं। एक गृहणी अपने परिवार के सदस्यों को प्रसन्न करने का प्रयास कर रही हैं, एक व्यक्ति अपने बॉस को प्रसन्न करने का प्रयास कर रहा हैं। क्यों? क्योंकि महीने के अंत में उसको पगार मिलेगी और उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में भी हमारे आध्यात्मिक गुरु का एक महत्वपूर्ण स्थान होता हैं, जिसमें आध्यात्मिक गुरु हमारा कृष्ण से संबंध स्थापित करने के लिए हमें मार्गदर्शन प्रदान करते हैं और हमारा संबंध कृष्ण के साथ प्रस्थापित करते हैं।हमारी भक्ति की कोई योग्यता नहीं हैं कि हम सीधे कृष्ण के साथ संबंध स्थापित कर सकें।
वह गुरु ही हैं जो हमें अनुमति देते हैं या कृष्ण के साथ संबंध स्थापित करा देते हैं और जब कोई गुरु को समर्पित होकर गुरु के आदेशों का पालन करता हैं और केवल एक बात अपने जीवन में स्वीकार कर लेता हैं, गुरु के प्रति शरणागति जिसको श्रील रूप गोस्वामी ने समझाया है
(चैतनय चरितामृत मध्यलीला 22.115)
guru-pādāśraya, dīkṣā, gurura sevana
sad-dharma-śikṣā-pṛcchā, sādhu-mārgānugamana
भक्तिरसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी ने भक्ति के 64 नियम दिए हैं, उसका पहला नियम हैं, आदो गुरु पाद आश्रय और यह केवल गुरु के प्रति अगर समर्पित होकर भक्त सेवा करेंगा तो जैसे कि श्रील प्रभुपाद यहां पर बता रहे हैं कि उस भक्त को फिर यह भी नहीं सोचना चाहिए कि उसकी मुक्ति कैसे होगी या फिर वह भगवद्धाम जा रहा हैं या नहीं जा रहा हैं, उसको तो यदि गुरु से केवल एक आदेश प्राप्त होता हैं,और उसको यदि वह दृढ़ता,समर्पण के साथ, संकल्प के साथ, प्रामाणिकता के साथ वह पालन करने का प्रयास कर रहा हैं तो उसकी मुक्ति निश्चित होने वाली हैं और भगवद्धाम की प्राप्ति होने वाली हैं, मगर उसको उसका चिंतन करने की आवश्यकता नहीं हैं। जैसे कोई भोजन करना प्रारंभ कर देता हैं, तो तुष्टि, पुष्टि और संतुष्टि तीनों उसको प्राप्त होती हैं। उसी प्रकार यदि कोई भक्त केवल गुरु के आदेशों का पालन दृढ़ता से करने लगता हैं, तो अपने आप उसे मुक्ति प्राप्त होना निश्चित हो जाता हैं। उसके लिए उसको अलग से प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं और जब कोई भक्त केवल इस एक आदेश का पालन करता हैं
(चैतनय चरितामृत मध्यलीला 22.115)
guru-pādāśraya, dīkṣā, gurura sevana
sad-dharma-śikṣā-pṛcchā, sādhu-mārgānugamana
और गुरू के आदेशो का पालन करता हैं, तो अपने आप भक्ति के बाकी 63 नियम उसको फॉलो करने लगते हैं। गुरु से दीक्षा प्राप्त करना, गुरु के आदेशों का पालन करना ,गुरु के चरणों का अनुसरण करते हुए भक्तिमय सेवा को स्वीकारना या भक्ति में प्रगति.. यह पहले पांच और अंतिम पाच जिसमें साधु संग, नाम कीर्तन और मथुरा वास ,श्री विग्रह आराधना और भागवत श्रवण पहले पांच और यह अंतिम पांच यह 10 महत्वपूर्ण नियम, श्रील रूप गोस्वामी ने समझाएं हैं, जब कोई भक्त अपने गुरु के आदेशों का पालन करता हैं तो यह 10 तो क्या, सारे 63 नियम फॉलो करने लगते हैं, और जब गुरु हरि नाम देते हैं या मंत्र प्रदान करते हैं ,तो उस मंत्र को लेने के लिए हमें लोभी होकर, एक भिक्षुक के समान वह महामंत्र या नाम हमें गुरु से मांगना चाहिए या दीक्षा लेनी चाहिए।हमें दीक्षा के लिए भिक्षा मांगनी चाहिए
भक्ति विनोद प्रभु-चरणे पडिया
सॆइ हरिनाम मंत्र लॊइलॊ मागिया
(जीव जागो भजन-भक्ति भकति विनोद ठाकुर द्वारा)
ऐसे नहीं कि सभी भक्त ले रहे हैं ,तो दीक्षा लेना भी एक फैशन हैं, दो कंठी माला से अब गले में तीन कंठी माला हो जाएगी, हमें अब सभी वरिष्ठ मानेंगे।नही।हमें एक भिक्षुक की तरह ऋणि होकर हमें गुरु से मंत्र या भिक्षा मांगनी चाहिए। हम देखते हैं कि जब कभी रास्ते पर या अलग-अलग स्थानों पर हरि नाम संकीर्तन भी होता हैं, तो उस हरि नाम संकीर्तन में भी सभी को महामंत्र दिया जाता हैं, लेकिन उस हरि नाम संकीर्तन में दिया हुआ मंत्र या हरि नाम संकीर्तन में जो नाम प्राप्त होता हैं, वह तो केवल एक रस या बिंदु हैं, उस हरि नाम से आकर्षित होने के लिए,जो हरिनाम संकीर्तन में प्राप्त होता हैं। लेकिन जब हम गुरु से नाम की दीक्षा मांगते हैं और गुरु हमें आदेश देते हैं, गुरु के हम शरणागत होकर उनसे आदेश लेते हैं, तो तब गुरु हमें आदेश देते हैं,कि अब आप नाम ले सकते हैं या हमें जब हरि नाम प्रदान किया जाता हैं, तभी हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण या सौभाग्यशाली समय आता हैं। जिस समय हमें गुरु हरि नाम प्रदान करते हैं, तभी सचमुच में हमारा संबंध भगवान के साथ जुड़ता हैं, क्योंकि जब गुरु हमें हरे कृष्ण मंत्र प्रदान करते हैं तब नाम के साथ भगवान का रूप ,गुण, लीला माधुरी, सब कुछ हमें प्राप्त होता हैं। नाम से धाम तक.. जैसे गुरु महाराज हमेशा बताते रहते हैं, नाम से धाम तक.. जिसका अर्थ हैं, नाम, रूप, गुण, लीला, माधुरी सभी कुछ इस नाम के साथ प्रदान किया जाता हैं। आचार्य गन भी ऐसे प्रार्थना करते हैं
कृष्ण सॆ’ तॊमार, कृष्ण दितॆ पारो,
तॊमार शकति आछॆ
आमि तो’ कांगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बोलि,
धाइ तव पाछॆ पाछॆ(ओहे वैष्णव ठाकुर भजन)
हम तो कंगाल हैं, कृष्ण तो गुरु की संपत्ति हैं या कृष्ण वैष्णव की संपत्ति हैं और वही गुरु, वही वैष्णव हमें कृष्ण को प्रदान कर सकते हैं।हमारी शक्ति से अगर हम कृष्ण को प्राप्त करने की इच्छा करेंगे या हमारे बल से, हमारे ऐश्वर्या से, हमारी साधना की तपस्या से हम कृष्ण को आकर्षित नहीं कर सकते या हम कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक कि गुरु या वैष्णव हम पर कृपा नहीं करेंगे। ऐसा नहीं हैं कि बहुत सारे नाम या बहुत सारे मंत्र हमें ग्रंथों में प्राप्त होते हैं, सुनने को मिलते हैं। पुराणों में कितने मंत्र हैं, तो कोई भी मंत्र लेकर हम नाम जप प्रारंभ कर सकते हैं और भगवद्धाम की प्राप्ति हो सकती हैं, नहीं ऐसा नहीं हैं। जब तक कि वह प्रमाणिक गुरु और प्रामाणिक गुरु शिष्य परंपरा से , प्रामाणिक संप्रदाय में हमें प्राप्त ना हो। जब हमें प्रामाणिक संप्रदाय में नाम प्राप्त होता हैं, तभी वह नाम अपना कार्य या अपनी शक्ति हमें प्रदान करता हैं। जैसे कभी कभी हम देखते हैं कि कोई सामान लेने जाते हैं तो एक स्थान पर कैश काउंटर होता हैं और दूसरे स्थान पर हमें वह वस्तु प्राप्त होती हैं। ऐसा नहीं हैं कि सीधे हमें वह वस्तु प्राप्त हो जाए। पहले कैश काउंटर पर जाकर टोकन लेना पड़ता हैं, तो यदि किसी को कोई वस्तु चाहिए तो पहले टोकन लेने के बाद जहां पर वह वस्तु प्राप्त हो रही हैं, वहां पर जाना पड़ता हैं और जब हम टोकन देंगे तब हमें जो भी वस्तु चाहिए वह प्राप्त हो सकती हैं। उसी प्रकार गुरु जी हमें अध्यात्मिक टोकन देते हैं, जो हम कृष्ण के पास लेकर जाते हैं और जब वह टोकन हम कृष्ण को अर्पण करते हैं, तो वह टोकन देखकर ही हमें कृष्ण की कृपा प्राप्त होती हैं। अगर हम सीधे जाकर भगवान से याचना करेंगे तो हमें थोड़ी बहुत कृपा प्राप्त हो सकती हैं, मगर भगवान की शक्ति के साथ उनकी अहेतुकि कृपा तभी प्राप्त होती हैं, जब हम वह टोकन लेकर कृष्ण के पास जाते हैं, तभी हमें कृष्ण की कृपा पूरी तरह से प्राप्त हो सकती हैं। जब गुरु हमें नाम प्रदान करते हैं ,तब हम 4 नियमों का व्रत का संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प लेने के बाद हमें पुनः विधिवत नाम दीक्षा प्राप्त होती हैं और 4 नियमों का पालन करना, 16 माला करना, यह संकल्प लिया जाता हैं। हम सभी तो माइक में गाते हैं कि हम 4 नियमों का पालन करेंगे.. आज से 16 माला का जप करेंगे.. लेकिन उस क्षण गुरु को भी वचन लेना पड़ता हैं, भले वह माइक में ना कहें, लेकिन गुरु भी वचन लेते हैं.. अग्नि के समक्ष,वैष्णव के समक्ष, धाम और भगवान के सामने कि हे भगवान! जितने भी बद्भ जीव आज हमारी शरणागति प्राप्त कर रहे हैं, इनके सभी पाप या इनके सभी दोषपूर्ण कृत्य मुझे दे दीजिए और नाम के रूप में आप अपनी अहेतुकि कृपा इन्हें प्रदान कीजिए। तो आप सोच सकते हैं कि यह हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण बदलाव होता हैं।
मगर यदि हम गुरु को वचन देने के बाद भी नियमों का पालन नहीं करते हैं या 16 माला ठीक से नहीं कर रहे हैं, तो इसके कारण हम हमारे जीवन में भी संकट मोल ले लेते हैं और और साथ ही साथ गुरु को भी हम संकट में डाल देते हैं। श्रील प्रभुपाद जी कहा करते थे गुरु को शारीरिक कष्ट इसीलिए ही होते हैं कि जब उनके शिष्य पूर्ण तरीके से अपनी साधना या नाम जप नहीं करते हैं। जैसे कभी-कभी तीन नियम पालन किए, 3:30 नियम पालन किए, आज 4 माला रह गई.. कल कर लेंगे या भूल गए करना, हमारी बहुत सेवाएं थी। हम बहुत व्यस्त थे, यह सारे छोटे-छोटे कारणों की वजह से ही गुरु को शारीरिक कष्ट प्राप्त होते हैं और जब हम गुरु को कष्ट देंगे तो कृष्ण हमें कभी छोड़ेंगे नहीं, क्योंकि गुरु कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि हैं
हरि स्थाने अपराधे तारे हरिनाम
तोमार स्थाने अपराध नाहि परित्राण(वैष्णव भजन)
जब हम हरि नाम के प्रति या भगवान के प्रति अपराध करते हैं तो अधिक नाम लेकर हम या सेवा करके हम उस अपराध से मुक्त हो सकते हैं किंतु जब हम किसी वैष्णव के प्रति विशेष रूप से गुरु के प्रति अपराध करते हैं तो उससे हमें कोई भी नहीं बचा सकता। कृष्ण तो भक्तों के अधीन हैं तो यदि हम ऐसे भक्तों को कष्ट दे रहे हैं तो कृष्ण हमें कभी छोड़ेंगे नहीं क्योंकि कृष्ण हमारे गारंटीयर बनते हैं, हमारी तरफ से बोंड पेपर पर साइन करते हैं।जैसे बोंड पेपर होता हैं, पावर ऑफ अटॉर्नी होती हैं। सारी भूमि तो गोपाल की हैं, लेकिन कुछ समय के लिए हम उस जगह के सिक्योरिटी गार्ड बन जाते हैं। तो वह बोंड भरे जाते हैं तो गुरु महाराज हमारे लिए बॉन्ड पेपर साइन करते हैं और नाम जप करके भगवान से गुरु प्रार्थना करते हैं कि मेरे शिष्य पर आप कृपा कीजिए और हमारे ऊपर विश्वास रखकर गुरु यह बोंड पेपर साइन करते हैं, यदि हम विश्वासघात करेंगे।
तो फिर कृष्ण हमें कभी भी माफ नहीं करेंगे। मुझे अनुभव हैं कि दीक्षा लेने के लिए कितने ही भक्त आते हैं, हमें दीक्षा दे दो, हमें दीक्षा दे दो, कितने ही भक्त आते हैं।500, 600,800 एक साथ इतने भक्त आ जाते हैं। दीक्षा लेना आसान हैं, लेकिन दीक्षा लेने के बाद उन सभी नियमों का कड़ाई से पालन करना आसान नही हैं, उसके लिए तपस्या चाहिए।इसके लिए कठोर नियमों के पालन करने की आवश्यकता हैं। कुछ समय के लिए नियमों का पालन करना या कुछ समय के लिए जप करना यह तो आसान हैं। मगर दशकों तक हमारे आने वाले अंतिम सांस तक यदि किसी को इन नियमों को कड़ाई से पालन करना हैं, जप करना हैं, तो हमें बहुत ही प्रमाणिकता के साथ जिसको फैठफुल रिलेशन कहा गया है बहुत ही प्रमाणिकता के साथ गुरु के साथ संबंध स्थापित करना चाहिए। जब हम प्रामाणिकता से नियम बद्भ रूप से गुरु को प्रसन्न करते हैं ,तब जाकर हम कृष्ण के मन को आकर्षित कर सकते हैं।हमारा सौभाग्य हैं कि कृष्ण के हृदय को आकर्षित करने के लिए हमें इस ब्रह्म मधव गोडिय वैष्णव संप्रदाय में दीक्षा प्राप्त हुई हैं और यहां पर भगवान से चलकर आया हुआ, भगवान से चलकर,भगवान के बाद ब्रह्मा जी फिर नारद मुनि आगे चलकर श्रील प्रभुपाद जी, हमारे गुरु महाराज, उनके साथ हमारा संबंध स्थापित हुआ हैं,जिसके कारण हमारे सौभाग्य की कोई सीमा नहीं रही। जिस समय से हमारे संबंध गोडिय वैष्णव संप्रदाय से जुड़ा हैं, उस समय से हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग अर्थात भक्ति हमने प्रारंभ की और गुरु की कृपा से ही हम यह नाम जप और भक्ति करने का केवल प्रयास ही कर रहे हैं।
अगर कोई शुद्धता से गुरु की शरण लेकर भगवान का नाम जप ले या गुरु की आराधना करें, वैष्णवो की सेवा करें, तो यह गुरु की कृपा से ही हैं। वह अपने आदेश के साथ हमें यह कृपा भी प्रदान करते हैं। जब एक समय मैं गुरु महाराज से पूछ रहे था कि महाराज जी आप हमें इतनी बड़ी जिम्मेदारी दे रहे हैं, उसके साथ अपनी कृपा भी कीजिए तो मुझे याद हैं कि गुरु महाराज ने कहा था कि जब गुरु आदेश देते हैं या वरिष्ठ वैष्णव आदेश देते हैं तो उस आदेश को पालन करने की उसके साथ-साथ शक्ति भी प्रदान करते हैं। अपनी कृपा भी प्रदान की जाती हैं, क्योंकि हमें पता हैं कि सामने वाला व्यक्ति किस स्तर पर हैं, उसकी योग्यता नहीं हैं, फिर भी गुरु हम जैसे बद्ध जीवो का उद्धार करने के लिए स्वयं रिस्क लेते हैं। जैसे रूप गोस्वामी ने बताया कि अधिक शिष्य नहीं बनाने चाहिए।फिर भी श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्य बनाए,जो अभी आचार्य हैं। उन्होंने क्यों इतने शिष्य बनाए? रिस्क लेते हुए स्वयं के जीवन पर एक कठिन निर्णय को स्वीकार किया। हम जैसे बद्ध जीवो का उद्धार करने के लिए। जैसे आपको याद होगा कि श्री संप्रदाय में श्री रामानुजाचार्य के 5 गुरु हैं, तो जब रामानुजाचार्य की दीक्षा हुई श्रीरंगम में,ओम नमो नारायणाय मंत्र मिला।तब उनको कहा गया कि यह नाम बहुत ही गुह्य मंत्र हैं और आपको किसी को यह मंत्र नहीं देना हैं, अगर आप ऐसा करेंगे तो आप नरक में जाएंगे। तब रामानुजाचार्य मंदिर की दीवार के आगे खड़े हो गए। दीवार पर खड़े होकर जोर-जोर से घोषणा करने लगे और सभी नागरिकों को बुलाया कि आइए आइए और सभी को कहा कि मेरे पीछे दौहराइए.. ओम नमो नारायणाय और सभी नाम लीजिए। तब उनके गुरु उनसे गुस्सा होकर पूछने लगे कि कितने मूर्ख हो तुम। तुम्हें तो कहा था कि किसी को नहीं बताना।
तो वह कहने लगे कि यदि इन सारे भक्तो को कृष्ण कि प्राप्ति हो रही हैं तो उसके लिए अगर मुझे नर्क भी जाना पड़े तो मैं नर्क जाने के लिए तैयार हूं, तब उनके गुरु महाराज अपने शिष्य से प्रसन्न हुए।वह शिष्य कि बद्ध जीवो के प्रति दया भावना को देखकर बहुत प्रसन्न हुए,इसी भाव में गुरु महाराज भी अपने ऊपर रिस्क लेते हुए सेवा करते हैं। ऐसा नहीं हैं कि उन्हें केवल नाम देकर या केवल भगवान की थोड़ी बहुत सेवा देकर वो संतुष्ट हो जाते हैं, नहीं। गुरु महाराज जी ऐसी कठिन परिस्थिति में भी जब उनका शरीर उनका साथ नहीं दे रहा हैं, फिर भी वह अपने शिष्यों को नाम जप के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।अपने शिष्यों को सानिध्य देने के लिए हर रोज प्रस्तुत होते हैं और एक समय भक्ति चारू स्वामी महाराज ब्रह्मचारी आश्रम में सभी ब्रह्मचारीयो से पूछ रहे थे कि आप समझ सकते हैं कि श्रील प्रभुपाद का त्याग क्या हैं? प्रभुपाद जी ने हमारे लिए क्या-क्या किया हैं? तो सारे ब्रह्मचारी एक साथ बोले कि हां गुरु महाराज हम समझ सकते हैं, हां हम समझ सकते हैं कि प्रभुपाद जी को कितनी कठिनाइयों से गुजरना पड़ा और तब महाराज जी ने कहा कि आप कुछ नहीं समझ सकते क्योंकि आप सब अभी युवक हो। 70 साल के व्यक्ति से ही पूछना चाहिए कि उसकी परिस्थिति क्या हैं और उसकी परिस्थिति में 70 साल की आयु में, उस कठिनाई में जब उसे वह कार्य करना पड़ता हैं, तब उसे वह अनुभव हो सकता हैं।
एक 70 साल की आयु का व्यक्ति ही बता सकता हैं कि श्रील प्रभुपाद जी ने कितने कष्ट सहन किए।एक बहुत ही कठिन परिस्थिति में उन्होंने जीवन यापन किया हैं। हम यह समझ ही नहीं सकते कि हमारे वरिष्ठ वैष्णव या हमारे गुरुजन या हमारे आचार्य गण केवल हमारी भक्ति के लिए, हमारी भक्ति में प्रगति के लिए कितना कष्ट उठाते हैं।हमारे ऊपर कृपा करने के लिए कितना कठोर प्रयास हो रहा हैं। भागवत के इसी चतुर्थ स्कंध के 12वें अध्याय में एक वर्णन हैं, जब ध्रुव महाराज भगवद्धाम जा रहे थे तो वर्णन हैं कि जब ध्रुव महाराज भगवद्धाम जाने के लिए विमान में बैठ रहे थे,भगवान के विष्णु दूत नंद और सुनंद के साथ, उनके मन में विचार आया कि काश मेरी मां सुनिति जिन्होंने मुझे भगवद्धाम का रास्ता दिखाया या भगवान की प्राप्ति का मार्ग दिखाया,उनकी कृपा से ही मंा भगवद्धाम जा रहा हूं ,काश वह भी मेरे साथ चलती। तो भगवान के दूत तो अंतर्यामी हैं। उन्हें पता चला कि ध्रुव महाराज के मन में क्या चल रहा हैं, तो उसी क्षण उन्होंने कहा कि हे धुव्र चिंता मत कर,आगे जो विमान जा रहा हैं, उसमें आपकी माता सुनीति पहले ही भगवद्धाम के लिए प्रस्थान कर चुकी हैं।
इस तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद लिखते हैं कि श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद कहते थे कि मैंने जितना भी कृष्ण भावनामृत का प्रचार किया और गोडीय मठ की स्थापना की, इस सारे कृष्णभावना मृत प्रचार से यदि केवल एक भी व्यक्ति शुद्ध भक्त हो जाए तो मेरा जीवन सफल हैं। मेरा जीवन यशस्वी हैं और उसके आगे श्रील प्रभुपाद जी लिखते हैं कि परंतु मैं यह सोचता हूं कि यदि मेरे कृष्ण भावनामृत के प्रचार से यदि मेरा एक भी शिष्य भी शुद्ध भक्त बन जाए कि उसकी भक्ति की शक्ति से,जैसे यहां पर धुव्र महाराज की भक्ति की शक्ति से सुनिति भगवद्धाम जा रही हैं। तो प्रभुपाद जी लिख रहे हैं कि यदि मेरा केवल एक शिष्य भी शुद्ध भक्त बन जाए तो उसकी भक्ति की शक्ति से मैं भी भगवद्धाम जा सकता हूं। अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापक आचार्य और 10000 शिष्यों के गुरु और जिन्होंने इतने सारे ग्रंथ लिखे और कोई भी वर्तमान आचार्य श्रील प्रभुपाद जी का स्थान बदल नहीं सकते, ऐसे आचार्य लिख रहे हैं कि मेरे एक शिष्य की भक्ति की शक्ति से मैं भगवत धाम जा सकता हूं। यह हैं हमारी गोडीय वैष्णव संप्रदाय में की गई भक्ति। इसलिए हम सभी को यह प्रयास करना चाहिए कि गुरु महाराज ने जो भी आदेश हमें प्रदान किए हैं, चाहे वह व्यक्तिगत हो, जैसे कि श्रील प्रभुपाद जी लिख रहे हैं कि डायरेक्ट कृष्ण मुझे आदेश दे रहे हैं या उनके प्रतिनिधियों द्वारा आदेश प्राप्त हो रहा हैं। तो हमें सिर्फ यह नहीं समझना चाहिए कि केवल गुरु महाराज जी हमें आदेश देंगे तभी हम पालन करेंगे। गुरु महाराज हर स्थान, हर शहर, हर मंदिर नहीं पहुंच सकते। इसलिए उन्होंने अपने प्रमाणिक शिष्यों को एक प्रयास करने के लिए आदेश दिया हैं। उनको सेवा में रत किया हैं, तो उन भक्तों के द्वारा जब हमें आदेश प्राप्त होते हैं, उन आदेशों का भी हमें गुरु से प्रदत आदेशों की तरह ही पालन करने का प्रयास करना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। बहुत-बहुत धन्यवाद। श्रील प्रभुपाद की जय। ग्रंथ राज श्रीमद्भागवतम की जय।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
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*जप चर्चा*
*दिनांक 29.01.2022*
*परम पूज्य वृंदावन चंद्र महाराज द्वारा*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।*
*हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तुते।।*
*तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरिप्रिये।।*
*नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्*
*वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
कल हम लोग साधना के विषय में सुन रहे थे। बहुत कम समय था, हम तो समय का अतिक्रमण नहीं करना चाहते। कुछ भक्त लोग प्रश्न पूछ रहे थे। अच्छा तो यह होता है कि प्रश्न पहले ही लिख कर दे दिए जाएं। तब उस पर विचार कर लिया जाता है। लेकिन जो भी हो वैसे प्रश्न जिसके भी मन में हो, उसको पुछना चाहिए। प्रश्न बनाने की जरूरत नहीं है। यदि प्रश्न स्वाभाविक रूप से मन में आ रहा है तो आप पूछ सकते हैं।
प्रश्न उत्तर
प्रश्न:- महाराज जैसे हम लोग साधना में प्रतिदिन 16 माला का जप करते हैं। एकादशी के दिन हम 32 या 64 माला करने की कोशिश करते हैं लेकिन बाकी समय 16 माला से ज़्यादा हो नहीं पाता क्योंकि बहुत सारी सेवाएं रहती हैं। यदि हम सेवा के साथ साथ हरिनाम ले रहे हैं, वो ज़्यादा अच्छा है या माला में जप करना ज्यादा महत्वपूर्ण है।
महाराज:- देखिए। हरिनाम के विषय में स्पष्ट सिद्धान्त है। इसमें देश काल का बंधन नहीं है। आप शिक्षाष्टकम में सुनते हैं।
*नाम्नामकारि बहुधा निज – सर्व – शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.16)
अनुवाद:-
” हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।
भगवान् ने उसमें नाम प्रकाशित किया है। उसमें सर्व शक्ति है। जहां तक उसके उच्चारण के विषय में कोई देश व काल का नियम नही है। मुख्य चीज़ है कि भगवान् नाम का उच्चारण करना, माला तो एक सहायक चीज़ है।
अच्छा तो यही है कि ऐसा अभ्यास कर लेना चाहिए कि निरन्तर भगवान् का नाम जिव्हा पर आता रहें। अभ्यास करने से ऐसा हो जाता है, नाम का उच्चारण करना महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ एक कठिनाई है कि हम लोगों का जो मन है, वह बहुत दूषित है औऱ मन धोखा दे देता है।एक दिन तो खूब अच्छे से जप होगा। मन में आता है कि अब तो जप हो रहा है, गिनती करने की क्या आवश्यकता है लेकिन यदि हिसाब किताब नहीं रखेंगे, गिनती नहीं रखेंगे। बहुत सम्भावना है कि वह धीरे धीरे कम हो जाएगा। थोड़ी देर नाम बोलेगें तब उसी में मन कहेगा कि बहुत बोल लिया, अब आगे देखा जाएगा। मन पर विश्वास नहीं करना चाहिए और माला से जप करना चाहिए। जब सेवा का समय है तो उस समय भी जप कीजिए लेकिन जो अपना नियम है, उसको रखना चाहिए। नियम का त्याग करेंगे तो धीरे धीरे साधना से विचलन होने लगता है।अतः जो 16 माला का नियम है, उसको माला पर जप करना चाहिए।बाकी आपको जितना समय मिले , भगवान् का नाम बोलते रहिए, उसमें कोई अंतर नही है। माला पर बोले या बिना माला से बोले, उससे बहुत अंतर नहीं होता है। अंतर दूसरे दूसरे फैक्टर में है। जब तैयारी के साथ बैठकर माला के साथ जप करते हैं, माला के चलते भावना भी बंधती है। आप तब नाम का आस्वादन भी अच्छे से कर पाते हैं। नाम बोल रहे हैं, यह अपने आप में पूर्ण है। लेकिन यदि नाम का चिन्तन कर रहे हैं, उसका श्रवण कर रहे हैं, उसका ध्यान कर रहे हैं तब निश्चित रूप से चित्त में एक सुखद अनुभूति होगी। हमारा चित्त जल्दी ही आनंद का अनुभव करने लगेगा और अपने स्वरूप की स्थिति में जल्दी आएगा।
सार यह है कि नाम किसी तरह लीजिए। बहुत अच्छा है लेकिन फिर भी जो अपना नियम है 16 माला का, अच्छा होगा कि उसको आसन पर बैठकर ध्यान पूर्वक नाम का चिंतन करते हुए जप करना चाहिए।
प्रश्न:- कल हमनें एक पॉइंट (बिंदु ) यह सुना था कि कभी कभी भक्त अपनी साधना करते हुए उसे इतना सुख आने लगता है कि वह अपने साध्य को भी भूल जाता है। क्या यह भक्त के लिए सही परिस्थिति है? इसे कैसे समझा जाए।
महाराज:- यदि वह साध्य को भूल जाता हैं, तो इसमें आपको क्या कठिनाई हो रही है? वहां पहुंचेगा ही नहीं। अपने साध्य को भूल जाता है, इसमें आपको क्या कठिनाई लग रही है।
देखिए, हम लोग अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए साधना कर रहे हैं। कल मैंने कहा कि प्रारंभ में बहुत ज़ोर लगाना पड़ता है क्योंकि अविद्या का प्रभाव है। अविद्या का स्तर जैसे जैसे घटता जाता है तो साधना में रुचि बढ़ती जाती है। एक स्थिति आ जाती है, व्यक्ति को साध्य का ध्यान नहीं रहता है। आपके प्रश्न से लग रहा है कि साध्य तक पहुंचेगे ही नहीं। अगर वो भूल ही गया तो क्या होगा। एक चीज़ ध्यान रखना चाहिए साध्य और साधन में बहुत भारी अंतर नहीं है। क्योंकि यह जो साधना है, यह भी भक्ति ही है। लेकिन जो सिद्धि है, वह भी भक्ति ही हैं, इसी से भक्ति का विभाजन किया गया है। साधन भक्ति, भाव भक्ति और प्रेम भक्ति। लेकिन यह संशय (कंफ्यूजन) नहीं होना चाहिए कि भक्ति तीन है। भक्ति तो एक ही है, उसके स्तर का भेद है, आस्वादन का भेद है। स्वरूप भी भिन्न दिखता है। एक उदाहरण से हम इस बात को समझ सकते हैं जैसे कोई आम का फल है। आम का फल सब लोगों ने देखा है। सब का अनुभव है। एक अवस्था ऐसी होती है जिसमें आम इतना खट्टा होता है कि खाने में दांत भी खट्टे हो जाते हैं। अरे! खाने की बात तो दूर है, कभी-कभी लगता है कि दूसरा व्यक्ति खा रहा है तो अन्य पर भी असर आ रहा है। ऐसा बच्चों में देखा जाता है। आम खट्टा है लेकिन अब कुछ समय के पश्चात उसका रस पुष्ट हो जाता है। एक अवस्था ऐसी आ जाती है कि अब आम खट्टा मीठा दोनों हो जाते हैं। कुछ खट्टा भी लगता है और कुछ मीठा भी लगता है। एक अवस्था ऐसी आ जाती है कि पूरा का पूरा मीठा हो जाता है। अब उसमें खट्टापन नहीं रह जाता। अगर रह भी जाता है तो बहुत स्वादिष्ट हो जाता है, आम के तीन स्तर दिख रहे हैं ना? आम 3 है या एक है? वह आम 3 नहीं हैं, आम की अवस्थाएं तीन हैं। उसी प्रकार भक्ति तो भगवान की अंतरंगा शक्ति की वृत्ति है। भक्ति सदैव सुख स्वरूप है और इसके अनुभव में अंतर होता है। जो भक्ति का विभाजन किया गया है, इसके गुण के प्रकाशन के स्तर से भेद दिया जाता है। भक्ति में भेद नहीं है। वास्तव में साधन भक्ति ही भाव भक्ति में परिणत हो जाती है अंतत, प्रेम भक्ति में परिणत हो जाती है। जब साधना में ही इतना सुख मिलने लगे तो व्यक्ति लक्ष्य अर्थात अपने साध्य को भी विस्मरण कर देता है। इसमें दो चीजें समझनी चाहिए कि एक तो साध्य के नजदीक पहुंच गया। मान लीजिए कि हम अपने साध्य को भूल जाएं फिर जो हम साधना कर रहे हैं तो साधना के प्रभाव से साध्य तक जाएंगे ही ना। मान लीजिए कि हम ट्रेन में सवार हैं और यह विस्मरण हो जाए कि हम ट्रेन में बैठे हैं, हमारे विस्मरण से ट्रेन की स्पीड में कोई कमी नहीं आएगी। हम अपने गंतव्य तक पहुंच ही जाएंगे। अब हम आपसे प्रश्न करेंगे कि मान लीजिए कि आपको कहीं जाना है और रास्ते में आप भूल गए कि हम ट्रेन पर हैं और हमको वहां तक जाना है, तो भूल जाने से क्या कठिनाई आएगी? ऐसे तो उदाहरण में कहा जायेगा कि किस स्टेशन पर उतरना है, वहां नहीं उतर पाएंगे। मान लीजिए एकदम लास्ट स्टेशन पर जाना है तो भूलने से कोई कठिनाई नहीं आएगी, यह सब स्वभाविक है कि व्यक्ति भूल जाता है। अपनी साधना में खो जाता है। इतना सुख मिलने लगता है कि अब उसको दूसरी चीज का स्मरण नहीं रहता। वह उसी को चाहता है। यह एक लक्षण है। जो व्यक्त कर रहा है कि वह अपने लक्ष्य तक पहुंच रहा है, अपनी सिद्धि को प्राप्त कर रहा है। सिद्धि के नजदीक चला गया है और सिद्धि को प्राप्त किया है। मान लीजिए अभी तो साधन और साध्य का भेद कर रहे हैं लेकिन साध्य को प्राप्त कर लें अर्थात यदि भगवान के प्रेम को प्राप्त कर लें, उसमें भी तो ऐसा नहीं है, कई स्तर हैं। प्रेम के भी तो बहुत बहुत स्तर हैं ना!! प्रेम, स्नेह, मान, राग, अनुराग भाव, महाभाव। साधक महाभाव तक तो नहीं जा सकता। वह तो नित्य परिकरों का ही अधिकार है। लेकिन इसमें भाव का यही लक्षण दिया गया है वह स्वसंविदय हो जाता है। उस स्तर पर साधक को ना तो अपना ख्याल रहता है और ना ही अपने विषय का। केवल सुख की अनुभूति होती है। सार वक्तव्य हमारा यह है कि साधन कर रहे हो उसी में सब इतना अभीष्ट हो गया है कि सिद्धि की तरफ ध्यान भी नहीं है । यह एक शुभ लक्षण है लेकिन साधना के अभिनिवेश से ऐसा हो रहा है तब यदि किसी दूसरे अभिनिवेश से कोई अपने सिद्धि अर्थात साध्य को ही भूल जाए। यह तो बहुत खतरनाक है। यदि साधना के अभिनिवेश से यह हो रहा है तो यह बहुत शुभ लक्षण है।
प्रश्न:- जब हम हरि नाम करते हैं तो कभी-कभी ऐसी परेशानियां आ जाती हैं। जहां हम जॉब करते हैं तब व्यस्त शेड्यूल रहता है। उस समय जो श्रवण पठन भी करते हैं लेकिन वह पूरा रूटीन डिस्टर्ब हो जाता है और ऐसा होता है कि जिसमें हमें रुचि भी नहीं है। वह काम हमें जबरदस्ती करना पड़ता है। महाराज! हम उस परिस्थिति को कैसे सोचे और उस परिस्थिति में कैसे निरंतर अपनी साधना को कर सकते है?
उत्तर:- क्या आप मिलिट्री में सेवा करते हैं? देखिए, ऐसी तो बहुत कम जगह है, जहां जबरदस्ती कार्य करना पड़ता है और वहां भी बहुत जबरदस्ती नहीं है। जो मिलिट्री में ट्रेनिंग लेता है, उसको घर नहीं जाने देते लेकिन यदि वह घर जाना चाहे तो उसको भी नहीं रोकते हैं। वे कुछ अपनी फीस लेते हैं, उस पर अपना ध्यान रखते हैं। आप जो यह कह रहे हैं कि जबरदस्ती कराया जाता है या करना पड़ता है तो ऐसी स्थिति तो हमें नहीं दिख रही है। किसी भी जॉब में अगर कोई व्यक्ति है तो उसने खुद ज्वाइन किया है। ऐसा नहीं है कि वह रिजाइन कर ही नहीं सकता है। कुछ विषम परिस्थिति आ जाती है तो वह छुट्टी ले लेता है या रिजाइन भी कर देता है। वह बाध्य नही है, व्यक्ति ने खुद अपने से चुना है। यह उसका अपना डिसीजन होगा कि वह क्या करें। अब भक्ति बाधित हो रही है, बहुत सारे भक्त हैं, जो काम का त्याग कर देते हैं। बहुत सारे भक्त हैं जो उसी में एडजस्ट करके चलते हैं। इसी से वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था है। व्यक्ति की ऐसी चेतना है कि वह भोग का त्याग नहीं कर सकता है। भोग का त्याग नहीं कर सकते हो तो बैलेंस जीवन जियो। कुछ भक्ति करो, कुछ भोग भी करो। इसी से वर्णाश्रम की व्यवस्था है। नहीं तो जहां तक भक्ति की बात है
*लोक – धर्म , वेद – धर्म , देह धर्म , कर्म लज्जा , धैर्य , देह – सुख , आत्म – सुख – मर्म ॥*
*दुस्त्यज आर्य – पथ निज परिजन ॥ स्व – जने करये व्रत ताड़न – भर्सन ॥*
*सर्व – त्याग करि करे कृष्णेर भजन । कृष्ण – सुख हेतु करे प्रेम सेवन ॥*
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 4.167 – 168 -169)
अनुवाद:- सामाजिक रीतियाँ शास्त्रीय आदेश शारीरिक आवश्यकताएँ, सकाम कर्म , लज्जा , धैर्य , शारीरिक सुख इन्द्रियतृप्ति तथा वर्णाश्रम धर्म का वह मार्ग , जिसे छोड़ पाना कठिन है – गोपियों ने अपने परिवार के साथ साथ इन सबको त्याग दिया है और अपने परिजनों के दण्ड तथा फटकार को सहा है । यह सब उन्होंने भगवान् कृष्ण की सेवा के लिये किया । वे उनके ( कृष्ण के ) आनन्द के लिए उनकी प्रेममयी सेवा करती है।
सार यह है कि सब कुछ त्याग कर वृंदावन में रहकर एकांत में भक्ति संपादन करना चाहिए। आदर्श तो यह है लेकिन कौन कर पाएगा? इसका भी एक जजमेंट करना होता है। ऐसा नहीं है कि सब लोग त्याग करेंगे और वृंदावन में आ जाएंगे और केवल भक्ति में ही लग जाएंगे। भगवान ने गीता का उपदेश दिया है क्योंकि लोगों की चेतना का स्तर भिन्न-भिन्न है। कुछ की कर्म में प्रवृत्ति है, कर्म करते हुए शुद्ध होगा। कुछ लोग ऐसे हैं कि वे कर्म करें या ना करें। कोई अंतर नहीं पड़ता है, इसलिए अपनी चेतना का स्तर बढ़ाना चाहिए। जितना भक्ति कर सकते हैं, उतना भक्ति को एडजस्ट करके, करना चाहिए। नहीं तो, यदि आपको बहुत खराब लगने लगे और एकदम खराब लगने लगे। हमें ऐसा नहीं लगता है कि यदि कोई अपनी जॉब से रिजाइन कर देगा तो उसको पुलिस पकड़ने आएगी कि क्यों ऐसा कर दिया। एक दो साल का समय भले ही लग सकता है। ऐसा तो हमें समझ में नहीं आ रहा है कि कोई जबरदस्ती करवा रहा है। अपना मन जबरदस्ती कराता है ।
अर्जुन ने कहा है-
अर्जुन उवाच
*अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 3.36)
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो |
हम तो ऐसा अनुभव कर रहे हैं कि हमको जबरदस्ती लगाया जा रहा है लेकिन जबरदस्ती लगाने वाला हमारा अपना मन है। इसलिए मन को प्रशिक्षण देने की जरूरत है, यदि वास्तव में मन उसको बिल्कुल भी पसंद नहीं कर रहा है।
वैसे काम करने की क्या जरूरत है। जो भगवान की भक्ति के लिए त्याग करेगा, उसका भरण पोषण भगवान करेंगे, ऐसा नहीं है कि कोई नौकरी से ही जी रहा है। जिलाने वाले भगवान हैं। भगवान ने ऐसी सृष्टि की है कि किसी व्यक्ति को कहीं भी जिला लेंगे लेकिन अपने मन का स्तर जानना चाहिए। जब तक मन सुख चाह रहा है, पुत्र परिवार का ध्यान रख रहा है। तब तक जैसी भी नौकरी है उसे करना ही पड़ेगा। प्रयास करना चाहिए कि कम से कम वैसे कार्य और जो भी दूषित कार्य हैं, भगवान् का भरोसा करके उसका त्याग कर देना चाहिए। जीवन का मुख्य उद्देश्य भक्ति है। यह सब कैसा नौकरी है, कैसा पेशा है।किसी का कोई व्यक्तिगत केस है उसका कोई काउंसलर है, गुरु है, वह कुछ जजमेंट करके निर्णय दे सकता है। एक व्यक्ति की परिस्थिति से इस पर कोई सार्वभौमिक निर्णय नहीं दिया जा सकता। जहां तक निर्णय की बात है, भक्ति के लिए तो बस स्थिति यही है कि सब कुछ त्याग करके भक्ति करना चाहिए। ऐसा नहीं कर सकते हैं तो जितना त्याग कर सकते हैं, उतना त्याग करना चाहिए। भक्ति का त्याग नहीं करना चाहिए। कुछ भी नहीं त्याग कर सकते तो सब करते हुए भक्ति कीजिए। जिस स्थिति में भक्ति को करना है, किसकी क्या स्थिति है इस पर व्यक्तिगत रूप से विचार किया जा सकता है।
प्रश्न:- कहते हैं कि हम मन के पीछे दौड़ते हैं लेकिन पुरंजन की कथा में भागवत में लिखा है कि जो आत्मा है वह बुद्धि के पीछे पीछे भागती है और इंद्रिय भोग करती है इस पर थोड़ा सा प्रकाश डालिए कि मन या बुद्धि किस के पीछे भागते हैं?
महाराज :- मन और बुद्धि में क्या अंतर है इसको आप बतलाइए?
प्रभु:- मन तो इंद्रिय है लेकिन पुरंजन कथा में पुरंजन का जो रूपक है, वह बुद्धि के पीछे पीछे भागता है।
महाराज:- वो तो ठीक है, लेकिन मन क्या है? बुद्धि क्या है? पहले आप इसको बतलाइए तब मैं अपना उत्तर दूंगा।
प्रभु:- मन तो इन्द्रिय है।
महाराज:- और बुद्धि?
प्रभु:- बुद्धि तो शायद सारथी है।
महाराज:- देखिए, आप मन और बुद्धि के अंतर को इतना स्पष्ट समझ ही नहीं रहे हैं, तो कैसे उत्तर समझ पाएंगे। आपने ऐसा प्रश्न कर दिया तो पहले बतलाइए कि इंद्रियां कितनी है? इन्द्रियों की संख्या बतलाइए।
प्रभु:- ११ इंद्रियां हैं।
महाराज:- उसका भेद, उसका विभाजन कैसे करेंगे।
प्रभु:- 5 ज्ञानेद्रियां,5 कर्मेन्द्रियाँ।
महाराज :- और एक?
प्रभु:- गीता में भगवान् ने बोला है:- मन: षष्ठी इन्द्रियाणि कर्षिति।।
महाराज :- ठीक है, छः है। कर्षिति छः। छह सब एक जाति का है या उसमें कुछ अंतर है?
प्रभु:- सूक्ष्म इंद्रियां और स्थूल इन्द्रियों का अंतर है।
महाराज:- देखिए! इंद्रियां स्थूल नहीं हैं, इंद्रियां सूक्ष्म ही हैं लेकिन अंतर किया जाता है। दस इंद्रियां बाहरी हैं और एक अंतःकरण है। अंतःकरण का अर्थ हुआ कि भीतर की इंद्रिय। अंतःकरण कितने रूप में लक्षित होता है? आपको अंतःकरण की धारणा पता है? पुरंजन कथा पढ़ रहे हैं, उससे पहले द्वितीय स्कंध में सृष्टि का प्रकरण भी आपने पढ़ा होगा। जहां पर अंत: इंद्रिय की बात है। चतुर्थ लक्ष्यते – चार रूप में लक्षित होता है। मन, बुद्धि, अहंकार और चित या चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार । वास्तव में एक दृष्टि से देखा जाए, यह चारों एक हैं। केवल उनके वृत्ति के भेद से अंतर किया जाता है। उनके कार्य के भेद से अंतर किया जाता है। चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार यह चार नहीं हैं। यह एक ही है लेकिन एक ही इंद्रिय अनुसंधान का कार्य करती है तो उसको चित्त कहते हैं। संकल्प, विकल्प होता है, उसको मन कहते हैं। जहां निर्णय है उसको बुद्धि कहते हैं। जहां क्रिया का उन्मेष है, उसको अहंकार कहते हैं। मन और बुद्धि एक दृष्टि से कहा जाए, वे भिन्न-भिन्न नहीं हैं। वृत्ति भिन्न भिन्न है, अब आपका प्रश्न कि व्यक्ति मन के पीछे भाग रहा है या बुद्धि के पीछे भाग रहा है। तो भाई, दोनों के पीछे भाग रहा है क्योंकि जो माया है, उसका प्रभाव दोनों पर है। वह तदात्म्य कर लिया है। अब मन को ही मानता है कि मन ही है लेकिन फिर आप और सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो मन के ऊपर बुद्धि का नियंत्रण है। अब व्यक्ति बुद्धि के पीछे जाने लगा तो अब तो मन को नियंत्रण में करना एकदम कठिन है। अभी मन के पीछे चल रहा है तो बुद्धि से कंट्रोल कर सकता है। अब जिसका बुद्धि पर ही कंट्रोल नहीं है, बुद्धि का तदात्मय कर लिया और उसी का अनुगामी हो गया। अब मन के पीछे तो रहेगा ही। यह केवल एक स्टेप का भेद है। जो बुद्धि के पीछे है या मन के पीछे है। कुछ लोग मन के पीछे हैं तो बुद्धि से कंट्रोल कर सकते हैं और जो लोग बुद्धि से पीछे हो गए तो उनको मन से तो नियंत्रण नहीं किया जा सकता। आपका जहां तक है, मन बुद्धि ये दोनों दूषित है। दोनों के पीछे व्यक्ति भाग रहा है इसमें बहुत अंतर नहीं है।
प्रश्न:- क्या भक्त अपनी साधना में संतुष्टि पाता है और यह कैसे पता चलेगा कि हमारी भक्ति का स्तर क्या है?
महाराज:-
साधना ठीक चलेगी तो संतुष्टि तो आएगी ही। भोजन ठीक है तो उससे कुछ संतुष्टि की प्राप्ति होती है ना। वैसे ही भक्ति करने से भगवान का अनुभव होता है। भगवान तो चितघन हैं, आनंददायी हैं। उनका अनुभव होने से सुख का तो अनुभव होगा ही। उदाहरण दिया गया है कि भोजन करने से संतुष्टि भी होती है। भूख का ह्रास भी होता है। भूख का समापन होता है और बल भी मिलता है। वैसे ही साधना करने से संतुष्टि आती ही है। मान लीजिए जिस के चित्त पर बहुत माया का प्रभाव है। अभी वह सुख का अनुभव नहीं कर पाता है, जैसे देखा जाता है कभी-कभी तार को कनेक्ट कर देते हैं लेकिन तार पर कार्बन है। गांठ लगाने के बाद भी बिजली का प्रवाह नहीं हो पाता। साधना करने से भगवान से संपर्क बनता है तो हमें सुख का अनुभव होगा ही। अभी अनुभव नहीं कर रहे हैं तब इसका मतलब अभी इंद्रियां अत्यधिक दूषित है। कल तो उदाहरण दिया गया था। मिश्री खाने पर भी कड़वा लगता है किंतु खाते खाते फिर ठीक हो जाता है। जहां तक साधना में हमारा क्या स्तर है इसको जांचने के लिए तो लेबोरेटरी में जाना पड़ेगा ना। जो भी विज्ञ भक्त हैं, डायग्नोसिस जानते हैं। वही जांच पाएंगे, वे जांच लेते हैं। मान लीजिए कि आपको अपने से ही जांचने की इच्छा है कि हम खुद ही जांच लें कि हमारा क्या स्तर है ? उसके लिए आपको पढ़ाई करनी होगी ना, कि क्या-क्या स्तर होते हैं तो पढ़ाई करके अपने आप को जांच लीजिएगा। माधुर्य कादंबिनी एक ग्रंथ है। उसमें साधना के स्तर की 8 सीढ़ियां बतलाई गई हैं, सबके लक्षण दिए गए हैं। उस ग्रंथ का आप खूब अच्छे से अध्ययन करके अपनी स्थिति को जांच सकती हैं। अगर अपनी क्षमता नहीं है तो जो भी विज्ञ वैष्णव हैं अर्थात सिद्धांत को जानने वाले हैं, वह आपके स्तर का निर्धारण कर सकते हैं।
प्रश्न:- महाराज! आपने भक्ति की महिमा बताई, उसके बाद हमारी स्थिति यह होती है यदि हमें कोई बहुत जघन्य प्रताड़ित करता है लेकिन हम उनको श्राप देने का प्रयत्न करते हैं लेकिन हम उन्हें श्राप दे नहीं पाते। हम उसको अच्छे से दंडित भी नहीं कर पा रहे हैं। क्या यह अपने कर्तव्य से पलायन है? क्या हम डरपोक हैं?
महाराज:- देखिए, वह टॉर्चर कर रहा है, उत्पीड़न दे रहा है। यदि वह हमें उत्पीड़न दे रहा है और हम उसको सहन कर रहे हैं या हम कुछ प्रतिकार नहीं कर रहे हैं। यह तो पलायन नहीं है, यह तो बहुत अच्छी बात है। उत्पीड़न सह लेना यह तो बहुत अच्छी बात है क्योंकि इससे हमारी भक्ति की क्षति नहीं होगी। उत्पीड़न सहने की प्रवृत्ति आ गई और उत्पीड़न सहते जा रहे हैं तो एक ऐसी स्थिति आ जाएगी जो उत्पीड़न दे रहा है, वह ही बदल जाएगा और उत्पीड़न देना ही छोड़ देगा। उसका कुछ असर ही नहीं आ रहा है तो क्यों फालतू का उत्पीड़न देगा। यदि कोई किसी दूसरे भक्त को उत्पीड़न दे रहा है तो उस समय कर्तव्य यहीं होता है कि अपनी क्षमता के अनुसार उसका प्रतिकार करना चाहिए। यदि प्रतिकार नहीं कर सकते हैं तो पलायन कर जाना चाहिए या उस स्थान का त्याग कर देना चाहिए। वह अपना स्वार्थ है। इस अर्थ में यदि ऐसा नहीं करते हैं तो आपकी भक्ति का ह्रास होगा। कोई गुरु के विषय में कुछ बोल रहा है, वैष्णव के विषय में बोल रहा है, भगवान के विषय में बोल रहा है, उसको सहन नहीं करना चाहिए ।अपनी क्षमता हो तो प्रतिकार करना चाहिए। क्षमता नहीं हो तो वहां से हट जाना चाहिए। इससे हमारी भक्ति सुरक्षित रहती है। नहीं तो हमारी भक्ति का ह्रास होगा। हम पर कोई अपना उत्पीड़ित कर रहा है उसको जितना सह लेंगे, उतना ही अच्छा है। यदि मन में भी कोई क्षुब्ध ना हो तो बहुत शीघ्र आप भक्ति ही उच्चतर अवस्था को प्राप्त कर लेंगे।
प्रश्न:- साधना के कुछ स्टैंडर्ड होते हैं जिस पर हमें चलना पड़ता है। जिससे कुछ लक्ष्य की प्राप्ति होती है लेकिन हम जिस भौतिकवादी जीवन में जीते हैं तो हम कुछ लोगों की असंगति में भी आते हैं। जैसे हम लोग व्यवसाय में हैं तो व्यवसाय को बढ़ाने के लिए, व्यवसाय को टिकाए रखने के लिए ऐसे लोगों की संगति करनी पड़ती है या व्यवसाय की जानकारी लेने के लिए ऐसे लोगों की संगति लेनी पड़ती है। ऐसे लोगों की चेतना का प्रभाव हम पर पड़ता है उससे हमारी साधना प्रभावित होती है। ऐसे समय में क्या करना चाहिए?
महाराज:- यह तो आपका निर्णय होगा ना। आप साधना को बढ़ाना चाहते हैं तो उस असंगति, उस असत सङ्ग का त्याग करना होगा। त्याग तो आप ही कर पाएंगे ना। आपके लिए कोई दूसरा त्याग नहीं करेगा। जिस व्यक्ति को कठिनाई आ रही है तो वह अपना निर्णय खुद लेगा कि क्या करना है। त्याग नहीं कर सकता है और साधना को सुरक्षित रखना है तो फिर कुछ ऐसा करना चाहिए, कुछ ऐसा संग भी रखना चाहिए जिससे वह कुछ मार्जित हो जाए। यह जो आप प्रश्न पूछ रहे हैं, इसी नेचर का एक प्रश्न पहले भी आया था कि जबरदस्ती कुछ कार्य करना पड़ता है। दोनों प्रश्नों का नेचर एक जैसा है।
ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि नहीं कि साधना भले ही प्रभावित हो रहा है, उस कार्य का त्याग मत कीजिए। आप किस पॉइंट पर अपने को एडजस्ट कर सकते हैं। वह आपको विचार करना होगा, वह आपको देखना होगा।
प्रश्न:- कभी हमारे हृदय में राधा रानी और कृष्ण के प्रति वियोग की भावना आती है। आंखों से अश्रु बहते हैं और कभी इतना वियोग होता है कि उनकी याद में हम एकदम तरसते हैं और कभी-कभी यह चेतना निकल जाती है। कभी आती है और कभी निकल जाती है। कभी हम रेगुलर काम करते हैं और कभी हम में अचानक इतनी अच्छे से चेतना आ जाती है। तो ऐसा क्यों होता है।
महाराज:- आपका जो प्रश्न है, बहुत अच्छा प्रश्न है। देखिए!
अपने चित्त पर अपने ही संस्कार का प्रभाव आता है। हमारे पूर्व के बहुत-बहुत संस्कार हमारे साथ जुड़े हुए हैं। सिद्धांत समझना चाहिए।
*शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः |गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाश्यात् ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 15.8)
अनुवाद:-
इस संसार में जीव अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, जिस प्रकार वायु सुगन्धि को ले जाता है । इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है ।
जैसे हवा का प्रवाह अर्थात हवा चल रही है। जिधर से हवा जाएगी, उधर से गंध को ग्रहण कर लेगी। केवल गंध को ग्रहण करती है। जैसे कोई बगीचा गार्डन है उस में जाती है तो फूल की गंध को ग्रहण करेगी, फूल को नहीं ग्रहण करेगी। मान लो यदि किसी गंदे स्थान से हवा बह रही है, उसकी दुर्गंध को ग्रहण कर लेगी और आगे बढ़ेगी। उसी तरह हम लोग जो भी शरीर धारण किए हैं, उसको लेकर आगे बढ़ते हैं। इस अर्थ में उस शरीर में जो भी संस्कार हैं फिर लेकर के चलते हैं। हमारी इंद्रियों का किसी विषय से संजोग होता है तो उसका संस्कार आ जाता है। ऐसा नहीं है कि किसी विषय को ग्रहण करें और उसका त्याग कर दें और हम पर कोई प्रभाव नहीं आएगा। इसका प्रकट उदाहरण दिया जाता है कि जैसे कोई पशु शौच करता है। जैसे गाय गोबर करती है और वह गोबर भूमि पर गिरता है। गोबर एक बार भूमि पर गिरा तो कितना भी बारीकी से गोबर हटाइए, वह कुछ ना कुछ मिट्टी का अंश जरूर ग्रहण कर लेगा। जो गांव देहात की होंगे, वही इसका अनुभव कर सकते हैं। जब भूमि पर गोबर आया तो आप कितना भी बारीकी से गोबर को उठाइए, कुछ ना कुछ उसमें मिट्टी का अंश आएगा।
उसी तरह हमारी इंद्रियों का संजोग विषय से हुआ, उसका प्रभाव या संस्कार लेकर लौटते हैं। ये अनंत जन्म का संस्कार संचित है। कुछ संस्कार बहुत अच्छे हैं और कुछ संस्कार बहुत बुरे हैं। जब अच्छे संस्कार एक्टिव होते हैं तो वे प्रभाव डालते हैं। हमारे चित्त में अच्छी भावना आती है और हम राधा रानी का वियोग अनुभव करने लगते हैं। कृष्ण का वियोग अनुभव करने लगते हैं और कभी बुरा संस्कार एक्टिव हो गया, उसका प्रभाव आया तो इन सब चीजों को हम भूल जाते हैं। हमारे चित्त में यदि भक्ति की भावना आ रही है और इसमें स्थिरता नहीं है तो उसके पीछे एक कारण तो यह है कि हमारा अपना संस्कार है। कभी कभी दूसरे की भक्ति का प्रभाव हमारे चित्त पर आ जाता है। कभी देखा जाता है कि भक्त का स्तर बहुत निम्न है। वह नया नया भक्ति में आया है, वह भी विरह का अनुभव करने लगता है। वह भी कृष्ण के वियोग में रोने लगता है। कांपने लगता है। उसका चित्त भी शीतल हो जाता है। इस स्थिति में ऐसा जानना चाहिए कि संगति के प्रभाव से किसी दूसरे भक्त के भक्ति के स्तर का प्रतिबिंब पड़ रहा है या छाया पड़ रही है। देखिए! इस एक उदाहरण से आप इस बात को समझ सकते हैं कि कभी-कभी सूरज का प्रतिबिंब दीवार पर दिखने लगता है। आपने अनुभव किया ना, सूरज तो आकाश में है लेकिन प्रतिबिंब दीवार पर दिख जाता है। उसी तरह कोई कोई भक्त है जो निरंतर कृष्ण का वियोग अनुभव कर रहे हैं। उनका स्तर बहुत उन्नत है। लेकिन उसका प्रतिबिंब किसी भाग्यशाली जीव के हृदय में आ जाता है। यह प्रतिबिंब है यह छाया है। यह वास्तविक भाव नहीं है। जहां वास्तविक भाव भक्ति की चर्चा है, वहां उसका भेद किया गया है। एक तो वास्तविक भाव उदित होता और कभी कभी किसी भक्त के हृदय के भाव का प्रतिबिंब या छाया आ जाती है लेकिन जो भी हो। जब दूसरे भक्त की छाया आ रही हो या दूसरे भक्त का प्रतिबिंब आ रहा है। तो वह भी बहुत अच्छा है। कभी-कभी वह भी सच्चाई में बदल जाता है। अब यदि किसी एक विशेष व्यक्ति की बात है, आपको अपने चित्त की स्थिति जाननी है। तो आपको अपने पीछे का रिकॉर्ड देखना चाहिए कि किस परिस्थिति में यह सुखद भावना में यह विरह की भावना आती है, (यह भी बहुत सुखद बात है ऊपर से देखने में यह बहुत दुखद है लेकिन वास्तविक रूप से यह भी बहुत सुखद है।) यह देखना है कि किस परिस्थिति में वह भावना आ रही है। तो उसी परिस्थिति को जुटाने का प्रयास करना चाहिए। उसी परिस्थिति में अपने को रखने का प्रयास करना चाहिए। यदि किसी दूसरे के हृदय का प्रतिबिंब आ रहा है तो राधा रानी से प्रार्थना करना चाहिए तो इसी स्थिति को सदा सर्वदा के लिए कायम रखें। कभी-कभी व्यक्ति अपने से कुछ करने में असक्षम है तो दूसरे का सहायता लेना पड़ता है। कुरुक्षेत्र में जब गोपियां कृष्ण से मिली। कृष्ण का दर्शन पाकर उन्हें आनंद हुआ, उन्होंने अपने हृदय में आँखों से रह करके अपने हृदय में गाढ़ा आलिंगन किया। बहुत सुख अनुभव किया। कृष्ण से बातचीत करके बहुत सुख का अनुभव किया लेकिन गोपियां कह रही हैं यहां तो हमने सुख अनुभव किया लेकिन अभी तो हमें घर गृहस्थी में जाना होगा तो कृष्ण से प्रार्थना करने लगी
*आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं योगेश्वरैर्हदि विचिन्त्यमगाधबोधैः । संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं गेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा नः ॥*
( श्रीमद भागवतम 10.82.48)
अनुवाद:-
गोपियाँ इस प्रकार बोलीं : हे कमलनाभ प्रभु , आपके चरणकमल उन लोगों के लिए एकमात्र शरण हैं जो भौतिक संसाररूपी गहरे कुएँ में गिर गये हैं । आपके चरणों की पूजा तथा ध्यान बड़े बड़े योगी तथा प्रकाण्ड दार्शनिक करते हैं । हमारी यही इच्छा है कि ये चरणकमल हमारे हृदयों के भीतर उदित हों , यद्यपि हम सभी गृहस्थकार्यों में व्यस्त रहने वाली सामान्य प्राणी मात्र हैं ।
गोपियां कह रही है कि हे पद्मनाभ! आपके चरण कमल का चिंतन, बड़े-बड़े योगी लोग हृदय में करते हैं। जिनका ज्ञान अगाध है, वे जिन चरण कमल का चिंतन अपने हृदय में करते हैं। जो व्यक्ति संसार कूप में गिर गया है। घर गृहस्थी में पड़ गया है, जन्म मृत्यु में पड़ गया है। इससे बाहर निकलने का एकमात्र अवलंबन…, बिना किसी अवलंबन से हम बाहर नहीं निकल सकते। देखिए, जिन लोगों ने कुआँ देखा होगा। उसमें किसी व्यक्ति को पड़ा हुआ देखा होगा, वे लोग समझ सकते हैं कि कुएं में एक बार व्यक्ति गिर गया तो बिना सहारे के नहीं निकल सकता। कोई ना कोई सहारा चाहिए। चाहे रस्सी का सहारा हो, बांस का सहारा हो, सीढ़ी का सहारा हो। कुएं में गिर गया तो बिना सपोर्ट के अपने आप नहीं निकल सकता। कुएं से निकलने के लिए कई एक विकल्प हैं। लेकिन जो संसार रूपी कुएं में गिरा है। उसमें निकलने का एक ही विकल्प है। भगवान के चरण कमल। कह रहे हैं *संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं* अर्थात जो संसार कूप में गिर गए हैं तो उससे निकलने का एकमात्र अवलंबन *गेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा नः।* गोपियाँ कह रही हैं, यहां तो हम प्रकट दर्शन कर रहे हैं। बहुत सुख मिला लेकिन जब हम अपने घर गृहस्थी में जाएंगी। यही प्रार्थना है कि आपके चरण कमल उस समय भी हमारे हृदय में उदित हो। भगवान से प्रार्थना करने से भगवान् हृदय में भी अपने चरण कमल को प्रकाशित कर देते हैं। जो सुखद स्थिति है, यहां कृष्ण के विरह का अनुभव हो रहा है तो भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए, गुरु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे चित्त की यही स्थिति बनी रहे। कल भी एक माताजी ने प्रश्न किया था कभी हम लोगों का संकल्प फेल हो जाता है, विफल हो जाता है। कभी तो भक्ति में जग पाते हैं, कभी नहीं जग पाती हूँ। कोई ना कोई बाधा आ जाती है। तीन व्यक्ति का स्मरण करने से हमारा बाधा समाप्त होती है। गुरु का स्मरण, वैष्णव का स्मरण, भगवान का स्मरण। जब इन तीनों का स्मरण करने से कोई कार्य प्रारंभ करते हैं तो कार्य की बाधा समाप्त हो जाती है। भक्तों को भी, साधना में गुरु, वैष्णव, भगवान का स्मरण करके लगना चाहिए।इससे साधना की बाधा समाप्त हो जाती है, साधना में बाधा नहीं आती या कम हो जाएगी। जो साधना कर रहे हैं गुरु, वैष्णव और भगवान का अवलंबन रखना चाहिए। उनका स्मरण करना चाहिए। यदि उनका स्मरण रखेंगे तो हमारी साधना की बाधा समाप्त हो जाएगी। जो हमारे हृदय के अवरोधक तत्व हैं वह हृदय से निकल जाएंगे।
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा 28 जनवरी 2022
वक्ता – श्रीमान परम पूज्य वृंदावन चंद्र दास गोस्वामी महाराज जी
वृंदावन धाम से
विषय: साधना
1. ‘साधना’ का महत्व।
2. ‘साधना’ का स्वाद कैसे लें।
3. ‘साधना’ अज्ञान को थोड़ा-थोड़ा करके नष्ट कर देती है।
4. पवित्र नाम का जप सर्वोत्तम ‘साधना’ है।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
आप सभी इसका प्रतिदिन लाभ उठाएं। यह पहली बार है जब मुझे आपके साथ बैठने का मौका मिला है जिसके लिए मैं आभारी हूं। आज हम साधना के बारे में कुछ चर्चा करेंगे। जैसा कि पहले से ही तय किया गया है कि साधना का क्या लाभ है और इसे प्रतिदिन कैसे करना हमें कृष्ण भावनामृत में प्रगति में मदद कर सकता है।
साधना क्या है? इस विषय में हमें यह याद रखना चाहिए कि श्रीपाद रूप गोस्वामी ने भक्ति रसामृत सिंधु में साधना की स्पष्ट परिभाषा दी है।
कृति-साध्या भावे साधना-भव सा साधनाभिधा
नित्य-सिद्धस्य भाव्य प्राकतं हरदी साध्याता
अनुवाद: जब दिव्य भक्ति सेवा जिससे कृष्ण प्रेम प्राप्त होता है इंद्रियों द्वारा किया जाता है, इसे साधना-भक्ति, या भक्ति सेवा का नियामक निर्वहन कहा जाता है। ऐसी भक्ति प्रत्येक जीव के हृदय में सदा विद्यमान रहती है। इस शाश्वत भक्ति का जागरण ही व्यवहार में भक्ति सेवा की क्षमता है। [भक्ति रसामृत सिंधु 1.2.2]
“साधना-अभिधा” हम इसे साधना कब कहते हैं? रूप गोस्वामी ने दो चीजें दी हैं, “कृति-साध्य”, जिसे हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से करते हैं और “साध्य-भव”, जिसका उद्देश्य भक्ति प्राप्त करना है। तब वह साधना की अपनी परिभाषा को पूरा करेगा। हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से बहुत काम कर रहे हैं और इन इंद्रियों के साथ हम कृष्ण की भक्ति भी करते हैं, हम कृष्ण का अनुसरण करते हैं। विभिन्न तरीकों से, हम कृष्ण का अनुसरण कर रहे हैं । यह बहुत अच्छा है। लेकिन हर तरह से जिसके द्वारा हम कृष्ण का अनुसरण करने की कोशिश कर रहे हैं, उसे साधना नहीं कहा जाएगा । यह महत्वपूर्ण है कि इसका उद्देश्य कृष्ण के प्रति भक्ति और प्रेम प्राप्त करना होना चाहिए। अपनी इंद्रियों से, हम जिस तरह से कृष्ण के निर्देशों का पालन कर रहे हैं, हम भक्ति कर रहे हैं, वह साधना कहलाएगी । साधना साध्य नहीं है, भीतर है। फिर प्रश्न यह है कि भाव कैसे प्राप्त करें या कहाँ से प्राप्त करें? इसके लिए लिखा है, नित्य-सिद्धस्य भाव्य प्राकतं हरदी साध्याता – भाव या भक्ति को कहीं और से लाने की आवश्यकता नहीं है। वह हृदय में है।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय।
श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।CC2.22.107॥
अनुवाद: “कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी बस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”
हमें शाश्वत भक्ति लाने या बाहर से आयात करने की आवश्यकता नहीं है। साधना की महिमा क्या है? इसे कहते हैं नित्य-सिद्धस्य भाव्य प्राकतं हरि साध्याता। यह नित्य भाव और प्रेम हमारे हृदय में प्रकट और प्रकाशित है, जिसे प्राप्त करने योग्य कहा गया है। यह हमारा एकमात्र कार्य है जहाँ भाव जाग्रत हो जाये। श्रील प्रभुपाद ने इसे एक उदाहरण के साथ समझाया है। जैसे कोई बच्चा है जिसमें चलने की क्षमता पहले से है। लेकिन फिर भी उसे अभ्यास की जरूरत होती है और उसके माता-पिता उसकी मदद करते हैं और योग्यता दिखाई देती है। जब वह उंगली पकड़कर चलना सीखता है तो पहले वह मदद से चलता है। जैसे बच्चा बाहर से चलने की क्षमता नहीं लाया, उसने प्रकट करने के लिए कुछ प्रयास किए, उसी तरह, हमारे हृदय में कृष्ण के लिए शाश्वत प्रेम है, जिसे साधना से जगाया और प्रकाशित किया जा सकता है।
साधना की ओर झुकाव अभ्यास से आता है – नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कबू नया: – लेकिन जब हम कृष्ण के बारे में सुनते और कीर्तन करते हैं, तो यह हमारे दिल को शुद्ध करता है। यह जागता है और अभौतिक हो जाता है। समस्या यह है कि साधना के प्रति हमारा स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है। कुछ भाग्यशाली लोग इसे करना पसंद करते हैं लेकिन यह स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है। इसलिए शास्त्र कहते हैं कि हमारा प्रवृत्ति हो या न हो, हमें साधना करनी चाहिए। शास्त्रों के आदेश के साथ हमें अपने आप को साधना के लिए समर्पित करना चाहिए। और धीरे-धीरे हमारी साधना के प्रति अभिरुचि बढ़ती है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमें साधना पसंद है या नहीं। सवाल यह है कि क्या यह साधना अच्छा नहीं है या स्वादिष्ट नहीं है, क्या यह आसान नहीं है कि हमें यह पसंद नहीं है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि हम भक्ति करते हैं साधना करते हैं, भक्ति कृष्ण की आंतरिक शक्ति का चित्रण है। इस प्रकार यह स्वाभाविक रूप से सरल और आनंदमय है। कोई पूछ सकता है कि हमें खुशी क्यों नहीं मिलती? हमारा प्रवृत्ति इसके प्रति क्यों नहीं है? अगर कोई चीज आनंदमय है तो उसके प्रति स्वाभाविक प्रवृत्ति महसूस करना चाहिए। उपदेशामृत में रूपा गोस्वामी ने स्पष्ट रूप से यह कहा है, वे कहते हैं
स्यात्कृष्णनामचरितादिसिताप्यविद्या पित्तोपतप्सरसनस्य न रोचिका नु
किन्त्वादरादनुदिनं खलु सैव जुष्टा स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्गदमूलहन्त्री ॥ ७ ॥
अनुवाद: कृष्ण का पवित्र नाम , चरित्र , लीलाएं तथा कार्यकाल सभी मिश्री के समान आध्यात्मिक रूप से मधुर हैं। यद्यपि अविद्या रूपी पीलिया रोग से ग्रस्त रोगी की जीभ किसी भी मीठी वस्तु का स्वाद नहीं ले सकती, लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि इन मधुर नामों का नित्य सावधानी पूर्वक कीर्तन करने से उसकी जीभ में प्राकृतिक स्वाद जागृत हो उठता है और उसका रोग धीरे – धीरे समूल नष्ट हो जाता है। [7]
अज्ञान से हमारी इन्द्रियाँ अविद्या से इतनी दूषित हो गई हैं हमारी चेतना ही दुषित है संस्कार दुषित हो गया है। तो भक्ति भले ही आनंदमय हैं लेकिन फिर भी हम लोग सुख का अनुभव नहीं कर पाते हैं । लेकिन जैसे जो व्यक्ति मिश्री निरंतर खाता रहता है दवा समझ करके वह दिन आता है जब मिश्री के प्रभाव से उसका पीलिया रोग ठीक हो जाता है। अब वह मिश्री का स्वाद ले सकता है अनुभव कर सकता है। साधना के मामले में सिद्धांत समान हैं। यदि हम नियमित रूप से साधना करते हैं, तो हमारा अविद्या नष्ट हो जाता है और धीरे-धीरे हमें भगवान की आंतरिक शक्ति का प्रभाव अनुभव होने लगता है। और फिर एक समय आता है, जब हम साधना के अभाव में बेचैन अनुभव करते हैं। हम भक्ति में इतने आसक्त हो जाते हैं कि यदि कोई बाधा आती है या हम उसे करने में असमर्थ पाते हैं, तो हम बेचैन हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति साधना का आनंद लेने लगता है तो वह अपने उद्देश्य को भूल जाता है। साधना में उसे इतना संतोष मिलता है कि उसे किसी और चीज की आवश्यकता ही नहीं रहती। श्रीमद्भागवत में, वेद स्तुति में, श्रुति कह रही हैं,
दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनोश् चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः
न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर ते ।
चरणसरोजहंसकुलसङ्गविसृष्टगृहाः ॥ 10.87.21 ॥
अनुवाद: भाग्यशाली आत्माओं ने आपकी उन लीलाओं के विस्तृत अमृत सागर में गोता लगाकर भौतिक जीवन की थकान से मुक्ति पा ली है, जिन लीलाओं को आप अगाध आत्म तत्त्व का प्रचार करने के लिए साकार रूप धारण करके सम्पन्न करते हैं। ये विरली आत्माएँ, मुक्ति की भी परवाह न करके घर बार के सुख का परित्याग कर देती हैं, क्योंकि उन्हें आपके चरणकमलों का आनन्द लूटने वाले हंसों के समूह सदृश भक्तों की संगति प्राप्त हो जाती है। [10.87.21]
वर्तमान समय में एक भक्त की प्रवृत्ति यह हो सकती है कि उसका मन साधना के स्थान पर भौतिक वस्तुओं की ओर चला जाए लेकिन साधना इतनी आनंदमय है कि आनंद का विशाल समुद्र है और जो लोग इस साधना में व्यस्त रहते हैं, अनुभव ऐसी है कि वे खुश रहते हैं और अधिक की इच्छा नहीं करते। हे भगवान! आप सब कुछ देने में सक्षम हैं लेकिन कुछ लोग साधना में इतने प्रसन्न होते हैं कि उन्हें किसी चीज की लालसा नहीं होती। भौतिक वस्तुओं की क्या बात करें, वे कभी मुक्ति की इच्छा नहीं रखते। मुक्ति का सुख भी उन्हें बहुत छोटा लगता है। कोई पूछ सकता है कि अगर मैं साधना करता हूं और मुझे आनंद की अनुभूति होने लगती है तो मैं मुक्ति के लिए नहीं बल्कि भौतिक सुख की लालसा करता हूं, जो पहले से ही है, उसमें हमारा मन लगा सकता है। जब हमें भक्तों का संग मिलता है और हम समूह में साधना करते हैं, तो इसका एक प्रभाव यह होता है कि भक्तों की संगति के कारण, जो कुछ भी पहले से मौजूद चीजों का आनंद लेने की आकांक्षाएं हैं, वे भी चली जाती हैं और हमें और अधिक की आकांक्षा नहीं होती है और हमारा मन भी उन चीजों की ओर नहीं जाता है जो हमारे पास पहले से हैं। इसका कारण यह है कि साधना करते समय सुख इतना श्रेष्ठ होता है कि मन किसी और चीज की ओर नहीं जाता। लेकिन एक बात याद रखनी है कि यह अचानक नहीं होता है और यह स्थिति ऐसी होती है कि कुछ लोगों को साधना में इतना आनंद आने लगता है कि उन्हें किसी चीज की इच्छा ही नहीं होती। आवश्यकता इस बात की है कि हम नियमित रूप से अपनी साधना में लगे रहें। कारण यह है कि यह स्थिति अपने आप नहीं आती। हम अनादि काल से अज्ञान से ग्रस्त हैं। और हमारे दिल पर कई बुरे संस्कार प्रभाव करते हैं।
उन बुरे संस्कार को मिटने या मिटाने में समय लगता है। जब कोई साधना करता है तो कभी-कभी कुछ भक्तों के मन में एक दुखद भावना आने लगती है कि वे लंबे समय से अभ्यास और जप कर रहे हैं लेकिन किसी चीज का प्रभाव नहीं देख सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि प्रभाव आ रहा है चाहे हम देखें या नहीं। संतों का कहना है कि अगर हम एक विशाल तालाब से एक गिलास जल निकाल दें, तो किसी को भी जल की कमी महसूस नहीं होगी। लेकिन सिद्धांतों के मुताबिक जल कम हो गया है। और अगर हम निरंतर जल निकलते रहेंगे तो जरूर दिखाई देगा की जल कम हो गया है। भक्ति करने से हमारा अविद्या नष्ट हो जाता है। अविद्या दूर होता है भगवान के नाम मधुर लगाने लगते हैं, लेकिन फिर भी हम उसका आनंद नहीं उठा सकते। जैसे मिश्री को औषधि के रूप में सेवन करने वाला व्यक्ति पीलिया से ठीक हो जाएगा और मिश्री की मिठास का स्वाद चखना शुरू कर देगा। पीलिया की शुरुआत में मिश्री का स्वाद अच्छा नहीं लगता लेकिन धीरे-धीरे इसे नियमित रूप से खाने से यह स्वादिष्ट लगती है। और क लेकिन क्युकी अविद्या गहरा है और संस्कार बहुत प्रबल है, इसलिए इसमें समय लगता है। यदि कोई नियमित रूप से भक्ति में संलग्न रहता है, तो एक दिन स्थिति यह होगी कि वह भगवान को प्राप्त कर सकेगा। लेकिन उस लक्ष्य तक पहुंचने में समय लगता है। कार चलाते समय, आप लगातार चलाते हैं और फिर आपको एक मील का पत्थर मिलता है जो आपको तय की गई दूरी बताता है। और फिर, अगर हम इसे आगे बढ़ाते हैं, तो हम अपनी गंतव्य तक पहुँच जाते हैं। इसी तरह नियमित रूप से साधना में संलग्न होकर हम उस मील के पत्थर की ओर बढ़ रहे हैं जो तय हो चुका है।
रूपा गोस्वामी विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर से चरण के बारे में बात करती हैं कि हम धीरे-धीरे और धीरे-धीरे उस गंतव्य तक पहुंचेंगे। साधना की यही विशेषता है कि एक साथ कई चीजें हो रही हैं। जब हम भक्ति का अभ्यास करते हैं, तो हमारा मन संसार से विरक्त हो जाता है। हम भगवान का अनुभव करने लगेंगे। जब हम भगवान का अनुभव करने लगेंगे तो हमें इतनी खुशी का अनुभव होगा कि हमारा मन भौतिक चीजों की ओर नहीं जाएगा। हम भक्ति की सुख से खींचे जाएंगे। और एक अवस्था आती है कि हमें साधना के लिए अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता है। यह अपने आप होता है। और उस अवस्था को भाव-भक्ति के रूप में जाना जाता है। यदि हम भाव-भक्ति तक पहुँच जाते हैं, तो साधना करने की आवश्यकता नहीं है, यह स्वतः ही, स्वतः हो जाता है। लेकिन शुरुआत में अपने प्रयास करने होंगे। और जैसे-जैसे हम अपनी साधना करते हैं, हमारी अज्ञानता कम होती जाती है। और हम भगवान को महसूस करने और अनुभव करने लगते हैं। एक बार जब कोई व्यक्ति भगवान का अनुभव करने लगता है तो वह उसकी ओर आकर्षित या खिंचने लगता है। यही है साधना का महत्व। यदि कोई नियमित रूप से संलग्न होता है, तो धीरे-धीरे अपने गंतव्य तक पहुंच रहे हैं। इसलिए एक भक्त के जीवन में कोई निराशा नहीं होती है। हमें सफलता अवश्य मिलेगी। एक और प्रश्न हो सकता है: साधना कितने प्रकार की होती है? साधना के कई लाख और लाखों प्रकार हैं लेकिन श्रीपाद रूप गोस्वामी ने उन्हें 64 भाग में विभाजित किया है। लेकिन उन 64 प्रकारों में भी, नवधा-भक्ति (भक्ति की नौ गुना प्रक्रिया) सभी साधनाओं में सबसे मजबूत है। चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को बताया है
भजनेरा मध्ये श्रेष्ठ नव-विधा भक्ति:
‘कृष्ण-प्रेम’, ‘कृष्ण’ दिते धरे महा-शक्ति:
अनुवाद: भक्ति सम्पन्न करने की विधियों में नौ संस्तुत विधियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं , क्योंकि इन विधियों में कृष्ण तथा उनके प्रति प्रेम प्रदान करने की महान शक्ति निहित है । [CC अंत्या 4.70]
नवधा -भक्ति की महिमा यह है कि इसमें भगवान या स्वयं भगवान के लिए प्रेम का आशीर्वाद देने की शक्ति है। यह सबसे शक्तिशाली साधना है और इसे निरंतर करना चाहिए। कोई अभी भी पूछ सकता है कि इन नौ प्रक्रियाओं में से कौन सबसे अच्छा है। तो सरलता और सुगमता को ध्यान में रखते हुए चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि इनमें से सबसे अच्छा भगवान के पवित्र नामों का जप है।
तारा मध्ये सर्व-श्रेष्ठ नाम संकीर्तन:
निरापराधे नाम लैले पाया प्रेमा-धन:
अनुवाद: “भक्ति की नीं विधियों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है भगवान् के पवित्र नाम का सदैव कीर्तन करना। यदि कोई दस प्रकार के अपराधों से बचते हुए ऐसा करता है, तो वह आसानी से भगवान् के अमूल्य प्रेम को प्राप्त कर लेता है” [CC अंत्या 4.71]
कीर्तन दो प्रकार का होता है, एक वाद्य यंत्रों के उपयोग के साथ होता है और दूसरा संख्यात्मक (सांख्य पूर्वक) कीर्तन होता है जहां कोई भगवान का नाम गिनता है और लेता है। इसे सांख्य कीर्तन के नाम से जाना जाता है। और हमारे आचार्यों ने इसे बहुत महत्व दिया है। वे संख्यात्मक रूप से भगवान के पवित्र नामों का जाप करते थे। माला पे जप करना है पर भगवान के पवित्र नामों का जप साधना का सबसे अच्छा रूप है क्योंकि एक व्यक्ति इसे कहीं भी और कभी भी कर सकता है। इस प्रकार हमें प्रतिदिन जप करना चाहिए। इसका प्रभाव आएगा और व्यक्ति भगवान का साक्षात्कार हो जायेगा और उसके बाद जीवन बहुत सुखी हो जाएगा।
हरे कृष्ण!
सवाल और जवाब
1. पिछले जन्मों में हमने जो अपराध किए हैं, उनकी नीयत से भी हम साधना ठीक से नहीं कर पा रहे हैं, उसका समाधान क्या हो सकता है?
उत्तर: साधना करने की प्रवृत्ति को दो स्थानों से नियंत्रित किया जाता है – एक यह कि हम भक्ति करते हैं और इस भक्ति के प्रभाव से हमारे अनर्थ दूर हो जाते हैं। भक्ति करने से साधना करने से अनर्थों का नाश होता है। एक बार जब अनर्थ नष्ट हो जाते हैं, तो हमारी भक्ति में रुचि बढ़ जाएगी। हमारे पिछले जन्मों के संस्कार (बुरे प्रभाव) हमारे अनर्थों का एक और हिस्सा हैं, जिसे दुष्कृतान-अर्थ कहा जाता है। अनर्थ की जड़, जो अज्ञान है, नष्ट हो जाती है। एक उदाहरण दिया गया है कि मिश्री का स्वाद कड़वा होने के कारण व्यक्ति को मिश्री खाना पसंद नहीं होता लेकिन इसे नियमित रूप से लेने से रोग ठीक हो जाता है। साधना करने से भक्ति के विघ्न कम होते हैं। यही सिद्धांत है। एक और बात यह है कि उन्नत भक्त जिनकी चेतना उन्नत है और वे अपनी साधना को उत्कृष्ट रूप से कर रहे हैं, यदि उनके मन में यह इच्छा आती है कि विशेष भक्तों, साधना में सुधार होना चाहिए, तो ऐसी इच्छा का प्रभाव हमारी साधना को भी दर्शाता है। वह संकल्प किसी के हृदय में भक्ति लाएगा। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है प्रह्लाद महाराज राक्षसों के समाज के बीच रह रहे थे। लेकिन नारद मुनि की कृपा से उनकी चेतना बिल्कुल शुद्ध हो गई। और वह हमेशा भगवान का अनुभव कर रहा था। हमारी साधना भी प्रभाव उत्पन्न करती है। और एक उन्नत भक्त की दया का प्रभाव भी होता है। हम दया को महसूस कर सकते हैं और हम उसके क्रोध को महसूस कर सकते हैं।
लेकिन अगर हम एक उन्नत भक्त के मन में नकारात्मक प्रभाव पैदा कर रहे हैं तो यह हमारी भक्ति के प्रभाव को नीचे ले जाएगा और शुद्ध विचार विकसित नहीं होंगे, केवल अशुद्ध विचार ही वहां रहेंगे। आनंद लेने की प्रवृत्ति विकसित होने लगेगी। आप जानते हैं कि जया और विजया भगवान की सेवा में लगे हुए थे, लेकिन सनकदि चार कुमारों के श्राप के कारण उनके मन में बुरे विचार आने लगे। वे ब्रह्मा के नियम को बदलना चाहते थे। उनके नाम उनके स्वभाव के प्रमाण हैं। ‘हिरण्याक्ष’, जिसकी दृष्टि सोने पर है (एक जो सोने की तलाश में है) और दूसरा, जिसका बिस्तर सोने से बना है। ये भौतिक लगाव के लक्षण हैं। लेकिन वैष्णव के क्रोध से सावधान रहना चाहिए अन्यथा भक्ति करने की प्रवृत्ति बाधित होती है। उन्नत भक्तों की कृपा प्राप्त करनी चाहिए। जब एक उन्नत भक्त अच्छा महसूस करता है, तो एक भक्त के हृदय में दया का अनुभव होता है। आपका प्रश्न यह है कि पिछले जन्मों द्वारा बनाए गए बुरे प्रभावों को कैसे दूर किया जाए। संक्षेप में मैं यही कहूंगा कि प्रयास लगाकर हमारी साधना को बढ़ाना चाहिए। इससे बाधा का नाश होता है और उन्नत भक्तों को प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिए। उनकी खुशी का असर हमारे दिलों में खुशी लाता है। बल द्वारा अधिक सेवा करने से वह प्रभाव आएगा या नहीं कहा नहीं जा सकता। कभी-कभी भक्ति के नाम पर लोग बहुत चिढ़ते हैं। फिर असर आएगा या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। जैसे लोग भक्तों को खाना खिलाने के नाम पर करते हैं। उन्नत भक्तों की इच्छा के अनुसार कार्य करना चाहिए और उन्हें मजबूर नहीं करना चाहिए। जब उन्हें अच्छी भावना मिलती है, तो भक्ति के लिए हमारी बाधाएं दूर हो जाती हैं। श्रीमद्भागवत में सातवें स्कंद के आरंभ में यही सिद्धांत दिया जा रहा है।
2. इसे हम कैसे देखें कि चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को 64 प्रकार की साधनाएं बताई हैं और उसके बाद वे कहते हैं कि इन पांचों में सर्वश्रेष्ठ हैं। फिर श्रीमद्भागवत के अनुसार नवधा भक्ति भी एक प्रकार की साधना है। तो हमें मतभेदों को कैसे समझना चाहिए?
उत्तर: अंतर गौण है। एक अंतर है और दूसरा बाहर से अलग नहीं लगता लेकिन अंदर से अलग है। जैसे हमारे पास नवधा-भक्ति और पंच-महासाधन है। जब आप उत्तम साधना की बात करते हैं, तो उत्तर नहीं बदलना चाहिए। जैसे कीर्तन और जप इन दोनों में है। कम से कम यहां तो कोई अंतर नहीं है। और आप जिन अंतरों की बात कर रहे हैं, वे बहुत बड़े नहीं हैं। नौ प्रक्रियाओं को पांच में संघनित किया जा सकता है। नौ सिद्धांतों में से कौन पांच सिद्धांतों से परे जा रहा है? कोई मतभेद नहीं हैं।
3. भक्त संकल्प करके भक्ति कैसे कर सकती हैं? जैसे जब मैं सुबह जल्दी उठने का ठान लेता हूं तो उसका पालन नहीं कर पाता हूं।
उत्तर: भक्ति का संकल्प लेना चाहिए। भक्ति के साथ, किसी को गुरु और कृष्ण और राधारानी के प्रति समर्पण करना चाहिए। वहीं से बल मिलता है। केवल अपने दृढ़ संकल्प पर भरोसा नहीं करना चाहिए। यदि कोई गुरु, वैष्णव और कृष्ण को याद करके दृढ़ संकल्प करता है, तो वह निश्चित रूप से सफलता प्राप्त करेगा। कभी-कभी सफलता न मिलने की स्थिति में परेशान होने से कोई लाभ नहीं होगा। यदि एक दिन के लिए भी सफलता प्राप्त नहीं होती है, तो उसके बारे में सोचकर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। अगले दिन के लिए संकल्प करना चाहिए। हम माया में हैं और इसके प्रभाव में हैं और हम हार जाते हैं। लेकिन बार-बार प्रयास करने से माया को परास्त किया जा सकता है। जैसे एक शिशु जब खड़ा होने की कोशिश करता है तो फिसल कर गिर जाता है, लेकिन वही बच्चा प्रयास करता रहता है और एक दिन वह न केवल चलना सीखता है बल्कि दौड़ना भी सीखता है। इसी तरह अगर हम एक बार असफल हो जाते हैं तो हमें अपने संकल्प को जगाना होगा। और गुरु, वैष्णव और कृष्ण से शक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। धीरे-धीरे हम सक्षम हो जाएंगे। यह माया का प्रभाव है। किसी को निराश नहीं होना चाहिए। अगर आप आज जल्दी नहीं उठ सके तो कल के लिए प्रयास करें। यही हम कर सकते हैं। बार-बार संकल्प करने के बाद हम संकल्प में स्थिर हो जाते हैं। जब गुरु, वैष्णव और कृष्ण शक्ति देते हैं, तो हमारा संकल्प दृढ़ हो जाता है।
हरे कृष्ण!
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जप चर्चा – 27 जनवरी 2022
वक्ता – श्रीमान उद्धव प्रभु
1. भक्ति में ‘सतर्कता’ का अत्यधिक महत्व।
2. आध्यात्मिक गुरु के चरण कमलों को कभी न छोड़ें!
3. शुद्ध भक्तों के चरण कमलों की शरण लें।
विषय: अभिवादन।
हरे कृष्णा!
सभी वैष्णवों को दंडवत प्रणाम। दंडवत प्रणाम गुरु महाराज के चरण कमलों को। मैं यहां उपस्थित भक्तों के सामने बोलने के योग्य नहीं हूं, लेकिन फिर भी गुरु महाराज के निर्देशानुसार सेवा करने के लिए, हम श्रीमद्भागवतम् से एक छोटी सी लीला पर ध्यान करने का प्रयास करेंगे। मैं भक्तों से अनुरोध करता हूं कि कृपया मुझ पर दया करें और मुझे आशीर्वाद दें ताकि मैं इस सेवा के साथ न्याय कर सकूं।
श्रीमद्भागवतम के दसवें स्कंद में रास नृत्य के तुरंत बाद छोटी सी लीला आती है । यह दसवें स्कंद के प्रथम भाग का 34वां अध्याय है। यहाँ भगवान अपने बहुत से चरवाहों और नंद महाराज के साथ अम्बिका वन की यात्रा करते हैं। यहां कई भक्तों ने इस लीला को पहले भी सुना होगा। हमें शुरू करते हैं।
श्रीशुक उवाच
एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुका: ।
अनोभिरनडुद्युक्तै: प्रययुस्तेऽम्बिकावनम् ॥ [10.34.1]
अनुवाद: शुकदेव गोस्वामी ने कहा एक दिन भगवान् शिव की पूजा हेतु यात्रा करने के उत्सुक ग्वाले बैलगाड़ियों द्वारा अम्बिका वन गये ।
एक दिन की बात हुई, गोपाल जाट-कौटुक: यहाँ गोपाल का अर्थ बहुवचन में है, जिसका अर्थ है कि कई ग्वाल बाल एक बार अम्बिका वन की यात्रा करना चाहते थे जहाँ वे माँ अम्बिका और पशुपतिनाथ , जो भगवान शंकर हैं, के दर्शन कर सके। आचार्यों के अनुसार, एकदा शब्द शिवरात्रि को इंगित करता है महा शिवरात्रि का पर्व था की ओर और सभी की इच्छा हुई कि हम भगवान शंकर के दर्शन करने जाएं।
गोपाल जटा-कौटुक: गोपाल भी भगवान कृष्ण का नाम है। यहाँ इसका अर्थ है कि भगवान कृष्ण ने भी उस समय कहा था कि सभी को भगवान शिव के दर्शन करना चाहिए। जाट-कौटुका शब्द यह भी इंगित करता है कि हर महा शिवरात्रि के पर्व पर भगवान शिव के दर्शन के लिए नहीं जाते थे । यहां ‘एक दिन’ का अर्थ है कि उस दिन वे भगवान शिव के दर्शन करने के लिए उत्सुक हो गए और इसी भावना के साथ उन्होंने जाने का फैसला किया। यहां देवताओं के भजन करने की अनुबोधन नहीं करा गया है। यह एक बार वे उत्सुक हुई और चले गए। अनोभिरनडुद्युक्तै: प्रययुस्तेऽम्बिकावनम् बहुत सारी बैलगाड़ियों में, बहुत सारी बेलो को जोत कर बहुत सारी आवश्यक सामग्री लेकर वे वहाँ रहने की योजना के साथ जा रहे हैं। भाव यह है कि यह एक लंबी यात्रा है, इसलिए वे वहां एक रात रुकेंगे, और फिर अगली सुबह वे अपने स्थान पर वापस चले जाएंगे। तो जैसे वे वहां अम्बिका वन में पहुँचते हैं
तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देवं पशुपतिं विभुम् ।
आनर्चुरर्हणैर्भक्त्या देवीं च नृपतेऽम्बिकाम् ॥ [10.34.2] ॥
अनुवाद: हे राजन् , वहाँ पहुँचने के बाद उन्होंने सरस्वती नदी में स्नान किया और तब विविध पूजा सामग्री से शक्तिशाली शिवजी तथा उनकी पत्नी देवी अम्बिका की भक्तिपूर्वक पूजा की । [10.34.2]
अम्बिका वन में पहुँचते ही उन्होंने सरस्वती नदी में स्नान किया। हम जिस भी तीर्थ स्थान पर जाते हैं, वहां तीर्थ यात्रियों के स्नान करने की व्यवस्था होती है, चाहे वह पवित्र तालाब हो या नदी। देवं पशुपतिं विभुम् – शिव के कई नाम हैं, लेकिन यहां शुकदेव गोस्वामी ने उन्हें पशुपतिं कहने के लिए चुना है। इसका कारण यह है कि गोपाल लोग गायों का पालन करते हैं और ‘पशु’ नामक अन्य जानवरों की सेवा करते हैं। इसके पीछे भाव है- शिवजी ‘पति’ हैं या जो गायों या ‘पशु’ के पालन-पोषण का ख्याल रखते हैं; हम लोग भी पालन करते हैं और शिवजी हमारे विभूम या भगवान हैं; इसलिए हम शिवाजी का दर्शन करने के लिए आए हैं क्योंकि हम लोग भी ‘पशु’ पालक है। और अलग अलग प्रकार से
आनर्चुरर्हणैर्भक्त्या वे कई तरह से शिवाजी की पूजा आराधना की है अर्चना की हैं । इसके साथ ही देवीं च का अर्थ है कि माता अम्बिका की पूजा अर्चना आराधना की हैं। जैसे ही पूजा समाप्त हुई, उन्होंने योग्य ब्राह्मणों को बहुत दान दिया है।
गावो हिरण्यं वासांसि मधु मध्वन्नमादृता: ।
ब्राह्मणेभ्यो ददु: सर्वे देवो न: प्रीयतामिति ॥ [10.34.3] ॥
अनुवाद: ग्वालों ने ब्राह्मणों को गौवें स्वर्ण , वस्त्र तथा शहदमिश्रित पक्वान्न की भेंटें दान में दीं । तत्पश्चात् उन्होंने प्रार्थना की , ” हे प्रभु हम पर आप प्रसन्न हों । ” [10.34.3]
उन सभी ने क्या दान किया? शुकदेव गोस्वामी कहते हैं गावो हिरण्यं वासांसि बहुत सी गायें, ढेर सारा सोना और कपड़े, और भी बहुत कुछ । उन्होंने लोगों को ढेर सारा अनाज भी खिलाया; ऐसा नहीं था कि साधारण अन्न चढ़ाया जाता था। यहाँ यह कहा गया है मधु मध्वन्नमादृता: । जब हम किसी महत्वपूर्ण पर्व के लिए मिठाई तैयार करते हैं, तो हम आम तौर पर चीनी या गुड़ का उपयोग करते हैं। लेकिन यहां मिठाई बनाने के लिए उन्होंने मधु का इस्तेमाल किया, जो कि शहद है। ऐसी मिठाइयों को माधव-अन्नम कहा जाता है। ऐसी मधु निर्मित मिठाई और भोजन वहां आने वाले तीर्थ यात्रियों को नन्द बाबा और ग्वालों द्वारा कराया गया । और उन्होंने किसको दान दिया? यहाँ यह कहा गया है। ब्रह्मणेभ्यो ददु: – जो सुयोग्य है पात्र है । हमें यह भी सिखाया जाता है कि दान देना चाहिए और यह आवश्यक है, लेकिन हमें यह जानने की जरूरत है कि जिसको हम दान दे रहे है क्या वो सुपात्र है। यहां ब्राह्मण शब्द इंगित करता है कि ऐसे लोगो को दान दिया गया जो सुयोग्य है सुपात्र है और उन लोगों को भी जो भगवान पर निर्भर है ।
आगे यह भी बताया गया है कि वे यह सब क्यों करते हैं? देवो न: प्रीयतामिति
उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि भगवान शिव प्रसन्न हों। चूंकि वे अम्बिका वन में आए थे, इसलिए उन्हें माता अम्बिका को प्रसन्न करने के लिए कुछ करना चाहिए था। यहां दो कारण बताए गए हैं। पहले यह महा शिवरात्रि का पर्व था। इसलिए वे भगवान शिव को प्रसन्न करना चाहते थे। और दूसरा कारण कृतज्ञता से भरा हुआ है – माताओं का अपने बच्चों के लिए बहुत सहज प्रेम होता है। माताओं को प्रसन्न करने के लिए विशेष प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन एक पिता को खुश करने के लिए हम सभी देखते हैं कि बहुत मेहनत करनी पड़ती है। नन्द बाबा और ग्वालों की यह दूसरी वजह या भावना थी। माता तो प्रसन्न हो जाएगी लेकिन पिता को प्रसन्न करना है तो कुछ कार्य करना होगा। जब पिता देखते है की उनको बच्चे उनको प्रसन्न करने के लिए इतने प्रयास करते, तो वह स्वतः प्रसन्न हो सकता है। देवो न: प्रीयतामिति हम जो भी प्रयास कर रहे हैं, हे भगवान शिव, हम आपको प्रसन्न करने के लिए कर रहे हैं; आप कृपया प्रसन्न हों, और हमें दया और आशीर्वाद दें। इसके अलावा, चूंकि आप ‘पशुपति’ हैं, कृपया हमारी गायों की रक्षा करें और उन्हें अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करें क्योंकि वे हमारी संपत्ति हैं।
ऊषु: सरस्वतीतीरे जलं प्राश्य यतव्रता: ।
रजनीं तां महाभागा नन्दसुनन्दकादय: ॥ 10.34.4 ॥
अनुवाद: नन्द , सुनन्द तथा अन्य अत्यन्त भाग्यशाली ग्वालों ने वह रात सरस्वती के तट पर संयम से अपने अपने व्रत रखते हुए बिताई । उन्होंने केवल जल ग्रहण किया और उपवास रखा । तात्पर्य : श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि सुनन्द नन्द महाराज के छोटे भाई थे । [10.34.4]
जैसे ही पूजा और अन्य गतिविधियाँ पूरी हुईं, नंद बाबा और ग्वाल बाल वापस सरस्वती नदी के तट पर आ गए और वहीं अपने शिविर में सो गए। आमतौर पर, जब कोई तीर्थ यात्रा पर जाता है, तो उसे तपस्या करनी होती है। यह भावना यहाँ इंगित की गई है जलं प्राश्य यतव्रता: । सभी ग्वाल बाल ने उपवास किया था और इसलिए उन्होंने कुछ पानी लिया और फिर सरस्वती नदी के तट पर अपने शिविरों में सो गए।
रजनीं तां महाभागा नन्दसुनन्दकादय: नंद बाबा, सुनन्द, और ग्वाल बाल बहुत भाग्यशाली थे कि उन्हें इस तरह की तीर्थ यात्रा करने का अवसर मिला, और वह भी गोपाल, भगवान कृष्ण की दिव्य संगति में।
कश्चिन्महानहिस्तस्मिन् विपिनेऽतिबुभुक्षित: ।
यदृच्छयागतो नन्दं शयानमुरगोऽग्रसीत् ॥ 10.34.5 ॥
अनुवाद: रात में एक विशाल एवं अत्यन्त भूखा सर्प उस जंगल में प्रकट हुआ । वह सोये हुए नन्द महाराज के निकट अपने पेट के बल सरकता हुआ गया और उन्हें निगलने लगा। [ 10.34.5]
चूँकि रात थी और घना जंगल था, उन्होंने अपने शिविरों के चारों ओर आग लगा दी थी ताकि जंगल के जानवर उनके शिविर के आसपास न आएँ। वे आग के पास सो रहे थे। आधी रात को वहां एक बहुत बड़ा और खतरनाक अजगर सांप आया। वह क्यों आया? शुकदेव गोस्वामी कहते हैं कश्चिन्महानहिस्तस्मिन् विपिनेऽतिबुभुक्षित: ।
कोई एक साप वह पे आया । वह क्यों आया? तो कहते हैं कि सांप बहुत देर से भूखा था।
महान अहि का अर्थ है सांप। यहाँ प्रयुक्त विशेषण का अर्थ है ‘महान’ साँप। दो अर्थ विशेषण ‘महान’ की व्याख्या करते हैं। पहला बड़ा है। आमतौर पर विशाल सांप अजगर होते हैं। वे जहरीले नहीं होते हैं लेकिन वे पीड़ितों को निगलने में सक्षम होते हैं। यहाँ प्रयुक्त विशेषण का दूसरा कारण यह है कि अजगर किसी तीर्थ स्थान पर ठहरा हुआ था। चूँकि अजगर यहाँ दिन बिता रहा था और हमेशा ब्रज की धूल के संपर्क में रहता था, इसलिए शुकदेव गोस्वामी यहाँ इस तुच्छ जीव के लिए विशेषण ‘महान’ का प्रयोग कर रहे हैं।
आमतौर पर जंगल के जानवर आग के पास नहीं आते। लेकिन चूंकि यह अजगर बेहद भूखा था, इसलिए उसने आग से जलने का ना सोचते हुए वही आ गया खाने के लिए। और जब वह आया, तो उसने किसको निगल लिया? उन्होंने नंद बाबा को निगल लिया। यहाँ शुकदेव गोस्वामी कहते हैं यदिचयागतो नंदम शायनं उर-गो ग्रासीत । उरा-गो शब्द का अर्थ है छाती। सांपों के हाथ पैर नहीं होते, वे अपनी छाती से रेंगते हैं। सांप अपनी छाती का उपयोग करके रेंगता रहा और उसने नंद: शयनम – सोते हुए नंद बाबा को निगल लिया।
आध्यात्मिक ज्ञान के आचार्य कहते हैं कि हमें कुछ सीखने को मिलता है। नंद बाबा और ग्वाले ब्रज में रह रहे हैं और अपने प्रवास के दौरान, उन्होंने देवताओं की पूजा की, तपस्या की और योग्य ब्राह्मणों को दान दिया। उन्होंने सरस्वती नदी में स्नान भी किया। सरस्वती ज्ञान की देवी हैं। इसलिए आचार्य कहते हैं कि वे शास्त्रों के ज्ञाता हैं। भक्ति करने के लिए आवश्यक सभी तत्व नंद बाबा में मौजूद थे और वे वहां भगवान के साथ थे। इन सब गुणों के बावजूद नंद बाबा सो गए। यहां सोने को आलस्य या अज्ञानता के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है। एक कहावत है, जो सोया वो खोया जिसमें कहा गया है कि जो सोता है वह हारता है, जबकि जो जागता है वह लाभ करता है।
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥ 1.2.6 ॥
अनुवाद: सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति ( धर्म ) वही है जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा – भक्ति प्राप्त कर सकें । ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तट हो सके ।
भक्ति मार्ग में यदि कोई आलसी या लापरवाह हो जाता है, तो भक्ति बाधित हो जाती है। भक्ति इच्छाओं के बिना और निर्बाध होनी चाहिए। शास्त्र कहते हैं कि भक्ति तेल के प्रवाह के समान होनी चाहिए – निर्बाध। लेकिन आलस्य के कारण जब हम भक्ति को हल्के में लेना शुरू कर देते हैं – कभी-कभी जल्दी उठना बंद कर देते हैं या निर्धारित माला का जप करना बंद कर देते हैं, शास्त्र पढ़ना बंद कर देते हैं, या भक्तों के साथ जुड़ना बंद कर देते हैं, तब सर्व-भक्षण करने वाला काल रूपी महान सांप या अजगर के रूप में हमें निगल जाता है
स चुक्रोशाहिना ग्रस्त: कृष्ण कृष्ण महानयम् ।
सर्पो मां ग्रसते तात प्रपन्नं परिमोचय ॥ 10.34.6 ॥
अनुवाद: साँप के चंगुल में फँसे नन्द महाराज चिल्लाये , “ कृष्ण ! बेटे कृष्ण !, यह विशाल सर्प मुझे निगले जा रहा है । मैं तो तुम्हारा शरणागत हूँ । मुझे बचाओ ।”
जब अजगर नानद महाराज को निगल रहा है, वह जोर से चिल्लाता है हे कृष्ण! हे कृष्ण! कृष्ण !! आप अंदाजा लगा सकते हैं कि चूंकि नंद महाराज जोर-जोर से चिल्ला रहे थे, तो अजगर ने उन्हें अपने पैरों से निगलना शुरू कर दिया होगा। जब अजगर ने नंद बाबा के शरीर का लगभग आधा हिस्सा निगल लिया था, नंद बाबा जोर-जोर से चिल्ला रहे हे कृष्ण! हे कृष्ण! बचाओ बचाओ । कृष्ण को पुकारते समय उन्होंने जो शब्द इस्तेमाल किए, वे बहुत प्यारे थे। उन्होंने कृष्ण को तात के रूप में संबोधित किया । वह प्रपन्नं शब्द का भी प्रयोग करता है जिसका अर्थ है समर्पण। वह कहते हैं परिमोचय जिसका अर्थ है ‘मुझे बचाओ’।
हम कल्पना कर सकते हैं कि इस लीला के समय भगवान कृष्ण बहुत छोटे थे। वह लगभग 5-6 वर्ष का था। लेकिन जब इतने सारे लोग आसपास थे उसके बाद भी नंद बाबा ने भगवान कृष्ण को बुलाया – कृष्ण! कृष्ण !! जब कोई शब्द संस्कृत में लगातार दो बार दोहराया जाता है, तो यह समझना चाहिए कि इसे बार-बार दोहराया गया था।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा
कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे
आम तौर पर, यदि किसी व्यक्ति को अजगर निगल रहा है, तो एक पिता अपने छोटे लड़के को भाग जाने के लिए कहता है। वह चाहते हैं कि उनका बेटा अपनी जान बचाए। लेकिन यहाँ नंद बाबा कृष्ण को बचाने के लिए बुला रहे हैं । आचार्यों द्वारा दिया गया कारण यह है कि गर्गाचार्य ने कृष्ण के जन्म के समय नंद बाबा से कहा था कि वह कोई साधारण बालक नहीं है।
तस्मान्नन्दात्मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः ।
श्रिया कीर्त्यानुभावेन गोपायस्व समाहितः ॥ 10.8.19॥
अनुवाद: अतएव हे नन्द महाराज , निष्कर्ष यह है कि आपका यह पुत्र नारायण के सदृश है । यह अपने दिव्य गुण, ऐश्वर्य, नाम, यश तथा प्रभाव से नारायण के ही समान है । आप इस बालक का बड़े ध्यान से और सावधानी से पालन करें ।
वह एक विशेष रूप से सशक्त और शक्तिशाली मजबूत बालक है। उन्होंने नंद बाबा को यह भी सलाह दी कि अगर उन्हें खतरा है, तो उन्हें कृष्ण की शरण लेनी चाहिए। इसलिए, नंद बाबा ने भगवान कृष्ण को बुलाया । यहाँ, आचार्य हमें शब्दों के उपयोग के बारे में सिखाते हैं। जब कोई अजगर निगल रहा हो, तो वह इतने प्यार से तात शब्द का प्रयोग नहीं करेगा। वह केवल चिल्लाएगा और मदद मांगेगा। इसका तात्पर्य यह है कि नन्द बाबा इस समय भी भयभीत नहीं हैं।
जैसे ही कोई भक्त भक्ति मार्ग में प्रवेश करता है, पहला गुण जो प्राप्त होता है वह है निर्भयता का।
श्रीभगवानुवाच |
अभयं सत्त्वसंश्रुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः |
दानं दमश्र्च यज्ञश्र्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् || 16.1 ||
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् |
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् || 16.2 ||
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता |
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत || 16.3 ||”
अनुवाद
भगवान् ने कहा – हे भरतपुत्र! निर्भयता, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म-संयम, यज्ञपरायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधविहीनता, त्याग, शान्ति, छिद्रान्वेषण में अरुचि, समस्त जीवों पर करुण, लोभविहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या तथा सम्मान की अभिलाषा से मुक्ति – ये सारे दिव्य गुण हैं, जो दैवी प्रकृति से सम्पन्न देवतुल्य पुरुषों में पाये जाते हैं | श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप श्लोक 16.1 – 3
नंद बाबा निडर थे, लेकिन वे अजगर के लिए डर रहे थे। इसे ध्यान में रखते हुए, हमें आश्चर्य हो सकता है कि प्रपन्नं शब्द का प्रयोग समर्पण के अर्थ के रूप में क्यों किया गया था। दरअसल, नंद बाबा बोल बोल रहे थे कि यह अजगर उनकी शरण में आया है। इसलिए, वह कृष्ण से अजगर का उद्धार करने का अनुरोध कर रहे है। इस विचार को पुष्ट करने के लिए यह समझाया गया है कि अगर अजगर इतना भूखा होता, तो वह अपने पैरों के बजाय सिर से नंद बाबा को निगल जाता। इससे नंद बाबा ज्यादा शोर नहीं मचा पाते। लेकिन वह अजगर साधारण नहीं था; उनका जन्म ब्रज में हुआ था और वे अपने शरीर पर ब्रज की धूलि लोट पोत किया करता था । वह एक शापित जीव था जो जानता था कि जब वह किसी शुद्ध भक्त के चरणों की शरण लेगा, तो उसे भगवान निश्चित कृपा प्राप्त होगी।
अजगर खुद भगवान को निगल सकता था या किसी अन्य ग्वाले को निगल सकता था। उसने नंद बाबा को इसलिए चुना क्योंकि वह जानता था कि वह सबसे योग्य व्यक्ति है क्योंकि वह गुरु का काम कर रहा था। उसने सोचा कि ऐसे गुरु के चरण कमलों कि शरण को लेने से उसे निश्चित रूप से भगवान की दया प्राप्त करने में मदद मिलेगी। भगवान कहते हैं कि जब कोई मेरे दास दासानुदास बन जाएगा तो मुझे प्रसन्नता होगी.. इसलिए, अजगर ने नंद बाबा को अपने पैरों से निगलना शुरू कर दिया। वह सांप की प्रजाति से मुक्त होना चाहता था। ये अजगर की भावनाएँ थीं और इसलिए यह नंद बाबा के चरणों तक पहुँच गया। और नंद बाबा, जैसे एक गुरु ने प्रार्थना की और भगवान से आत्मसमर्पण करने वाले शिष्य की भक्ति सेवा को स्वीकार करने का अनुरोध किया। उन्होंने प्रार्थना की कि अजगर बहुत भूखा है लेकिन फिर भी उसने मेरी शरण ली है। इसलिए, उन्होंने भगवान से अजगर को छुड़ाने का अनुरोध किया।
सर्पो मां ग्रसते तात प्रपन्नं परिमोचय और उसका उद्धार करने की प्राथना करी।
तस्य चाक्रन्दितं श्रुत्वा गोपाला: सहसोत्थिता: ।
ग्रस्तं च दृष्ट्वा विभ्रान्ता: सर्पं विव्यधुरुल्मुकै: ॥ 10.34.7 ॥
अनुवाद: जब ग्वालों ने नन्द की चीखें सुनीं तो वे तुरन्त उठ गये और उन्होंने देखा कि नन्द को तो सर्प निगले जा रहा है । अत्यन्त विचलित होकर उन्होंने जलती मशालों से उस सर्प को पीटा । [10.34.7]
जब नन्द बाबा की पुकार सुनकर सभी ग्वाले उठ खड़े हुए। उन्होंने देखा कि अजगर नन्द बाबा को निगल रहा है। तब उन्होंने आग से जलती हुई डंडियों को पकड़ लिया और अजगर को बड़ी ताकत से पीटने लगे। सांप आग से डरते हैं और वे गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसलिए अजगर बहुत मुश्किल में था और आगे कहते है
अलातैर्दह्यमानोऽपि नामुञ्चत्तमुरङ्गम: ।
तमस्पृशत्पदाभ्येत्य भगवान्सात्वतां पति: ॥ 10.34.8 ॥
अनुवाद: लुकाठों से जलाये जाने पर भी उस साँप ने नन्द महाराज को नहीं छोड़ा । तब भक्तों के स्वामी भगवान् कृष्ण उस स्थान पर आये और उन्होंने उस साँप को अपने पाँव से छुआ। [10.34.8]
अलातैर्दह्यमानोऽपि उस जलती हुई लकड़ियों से जलने के बाद भी नामुञ्चत्तमुरङ्गम: इतना परेशान होने के बाद भी अजगर ने नंद बाबा को नहीं छोड़ा। आचार्य हमें शिक्षा देते हैं कि जैसे ही हम भक्तिमय जीवन की शुरुआत करते हैं, हमारे मार्ग में रुकावटें आने की प्रबल संभावना रहती है। ऐसी स्थिति में हमें अपने प्रिय गुरु महाराज के चरणकमलों की शरण नहीं छोड़नी चाहिए और भक्ति सेवा जारी रखनी चाहिए। और जब भी हमें बाधाओं का सामना करना पड़े, हमें अपनी भक्ति सेवा की तीव्रता को बढ़ाना चाहिए। यहाँ के अजगर से हमें यही सीखने को मिलता है कि जब तक हमारा उद्धार नहीं हो जाता, तब तक हमें प्रेम मयी भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए। इतनी बड़ी मुसीबत में होने के बाद भी अजगर ने नंद बाबा के पैर नहीं छोड़े। भगवान ने देखा कि अजगर नंद बाबा को नहीं छोड़ रहा है। इसलिए वे दौड़ते हुए आए और उन्होंने अपने चरण कमलों से अजगर को छुआ।
तमस्पृशत्पदाभ्येत्य भगवान्सात्वतां पति:
यहाँ भगवान के लिए प्रयुक्त विशेषण सात्वतां पति: है। इसका अर्थ यह है कि जो लोग भगवान के पास जाते हैं और पूरी तरह से उनके चरण कमलों में आत्मसमर्पण कर देते हैं, भगवान उनकी रक्षा करते हैं, उद्धार करते हैं और उनकी पूरी देखभाल करते हैं। यह भगवान कि जिम्मेदारी बन जाती है। यहाँ पति शब्द का अर्थ है रक्षा और पालन-पोषण करने वाला। भगवान ऐसे भक्तों के लिए यह जिम्मेदारी लेते हैं। इसलिए भगवान अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए आए और अजगर को अपने पैरों से मारने लगे।
कोई आश्चर्य कर सकता है, जब अजगर को जलती हुई डंडों से पीटा जा रहा था, तो उसने नंद बाबा को नहीं छोड़ा। फिर एक छोटे बालक के लिए यह कैसे संभव था कि वह उसे अपने नन्हे पैरों से पीट रहा हो और नन्द बाबा को छुड़ा ले? आचार्यों का कहना है कि भगवान के चरणों में कई शुभ प्रतीक हैं। उनमें से एक वज्र का प्रतीक है। भगवान ने अजगर को वज्र से पीटने का विचार किया ताकि वह नंद बाबा को छोड़ सके।
आचार्यों का एक और विचार है। भगवान ने सोचा कि अजगर निगलने से पहले ही नन्द बाबा को जहर से बुरी तरह नुकसान पहुंचा सकता है। भगवान के चरण कमलों में अमृत कलश नामक अमृत कलश का प्रतीक है। भगवान ने अजगर को अपने पैरों से मारने की योजना बनाई और इस प्रक्रिया में नन्द बाबा को भी एक या दो बार छुआ, ताकि उनके चरण कमलों पर अमृत कलश के स्पर्श से अजगर निगलने के किसी भी बुरे प्रभाव से छुटकारा मिल सके।
स वै भगवत: श्रीमत्पादस्पर्शहताशुभ: ।
भेजे सर्पवपुर्हित्वा रूपं विद्याधरार्चितम् ॥ 10.34.9 ॥
अनुवाद: भगवान् के दिव्य चरण का स्पर्श पाते ही सर्प के सारे पाप विनष्ट हो गये और उसने अपना सर्प – शरीर त्याग दिया । वह पूज्य विद्याधर के रूप में प्रकट हुआ । [10.34.9]
जैसे ही भगवान ने अपने पैरों से अजगर को छुआ, वह तुरंत सांपों की प्रजाति से मुक्त हो गया, और उसके शरीर से एक विद्याधर प्रकट हुआ, जिसका नाम सुदर्शन था। उसने भगवन की स्तुति की है । भगवान ने उससे पूछा कि वह कौन था और उसे इतनी कठिन प्रजाति कैसे मिली।
तमपृच्छद् धृषीकेश: प्रणतं समवस्थितम् ।
दीप्यमानेन वपुषा पुरुषं हेममालिनम् ॥ 10.34.10 ॥
को भवान् परया लक्ष्म्या रोचतेऽद्भुरतदर्शन: ।
कथं जुगुप्सितामेतां गतिं वा प्रापितोऽवश: ॥ 10.34.11 ॥
अनुवाद: [ भगवान् कृष्ण ने कहा ] महाशय , आप तो अत्यधिक सौन्दर्य से चमत्कृत होने से इतने अद्भुत लग रहे हैं । आप कौन हैं ? और आपको किसने सर्प का यह भयानक शरीर धारण करने के लिए बाध्य किया ?
तब उन्होंने कहा
सर्प उवाच
अहं विद्याधर: कश्चित्सुदर्शन इति श्रुत: ।
श्रिया स्वरूपसम्पत्त्या विमानेनाचरन् दिश: ॥ १२ ॥
ऋषीन् विरूपाङ्गिरस: प्राहसं रूपदर्पित: ।
तैरिमां प्रापितो योनिं प्रलब्धै: स्वेन पाप्मना ॥ १३ ॥
अनुवाद: सर्प ने उत्तर दिया : मैं सुदर्शन नामक विख्यात विद्याधर हूँ मैं अत्यन्त सम्पत्तिवान तथा सुन्दर था और अपने विमान में चढ़कर सभी दिशाओं में मुक्त विचरण करता था । एक बार मैंने अंगिरा मुनि की परम्परा के कुछ ऋषियों को देखा । अपने सौन्दर्य से गर्वित मैंने उनका मजाक उड़ाया और मेरे पाप के कारण उन्होंने मुझे निम्न योनि धारण करने के लिए बाध्य कर दिया ।
उसने भगवान को उत्तर दिया कि उसका नाम विद्याधरं था और मुझे बहुत गर्व था। मैं आकाश में अपने विमान से यात्रा करता था और बदसूरत दिखने वाले लोगों पर हंसता था। एक बार मैंने अंगिरा मुनि और उनके साथियों का अपमान किया। उन्होंने क्रोधित होकर मुझे इस सर्प की योनि में भेज दिया। कुछ बहुत अच्छे श्लोक हैं, लेकिन मैं एक सुंदर श्लोक को कवर करूंगा और फिर आज के लिए विराम दूंगा।
इस प्रसंग में सर्प ने कहा कि मुझे इस योनि से मुक्त करने के लिए, आपके चरणों का स्पर्श आवश्यक नहीं था। मैं केवल आपको देखकर ब्राह्मणों के दंड से तुरंत मुक्त हो गया। आपको देखकर ही मुझे राहत मिली, लेकिन मैं आपकी दया प्राप्त करना चाहता था।
ब्रह्मदण्डाद्विमुक्तोऽहं सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात् ।
यन्नाम गृह्णन्नखिलान् श्रोतृनात्मानमेव च ।
सद्य: पुनाति किं भूयस्तस्य स्पृष्ट: पदा हि ते ॥ 10.34.17 ॥
अनुवाद: हे अच्युत , मैं आपके दर्शन मात्र से ब्राह्मणों के दण्ड से तुरन्त मुक्त हो गया । जो कोई आपके नाम का कीर्तन करता है , वह अपने साथ – साथ अपने श्रोताओं को भी पवित्र बना देता है । तो फिर आपके चरणकमल का स्पर्श न जाने कितना लाभप्रद होगा ? [10.34.17]
उन्होंने कहा कि जब कोई आपका दिव्य नाम लेता है, तो न केवल वह मुक्त हो जाता है बल्कि उन नामों को सुनने वाले भी मुक्त हो जाते हैं। फिर जो आपके चरण कमलों का स्पर्श प्राप्त करता है, उसके बारे में क्या कहें।
सुदर्शन बहुत खुश हुआ। उन्होंने कहा कि वह मुक्त नहीं होना चाहते हैं। अभी तक मैं सर्पों में घूम रहा था, अब मैं तीनों लोकों में आपके रूप, गुणों और लीलाओं की महिमा का कीर्तन गुणगान करना चाहता हूं। इस तरह उन्होंने कहा कि जो कोई भगवान का नाम लेता है वह शुद्ध हो जाता है और जो भगवान की महिमा को सुनता है वह भी शुद्ध हो जाता है। फिर जो आपके चरण कमलों का स्पर्श प्राप्त करता है, उसके बारे में क्या कहें।
इस प्रकार वह भगवन से आज्ञा लेता है ।
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं परिक्रम्याभिवन्द्य च ।
सुदर्शनो दिवं यात: कृच्छ्रान्नन्दश्च मोचित: ॥ 10.34.18 ॥
अनुवाद: इस प्रकार भगवान् कृष्ण की अनुमति पाकर सुदर्शन ने उनकी परिक्रमा की , उन्हें झुककर नमस्कार किया और तब वह स्वर्ग के अपने लोक लौट गया । इस तरह नन्द महाराज संकट से उबर आये। [10.34.18]
इस तरह भगवान ने नंद बाबा की रक्षा की और उन्हें छुड़ाया। भगवान की परिक्रमा करने के बाद, सुदर्शन नामक यह विद्याधारा स्वर्ग लोक में चला गया । सुखदेव गोस्वामी कहते हैं कि इस तरह नंद बाबा मुक्त हो गए।
इस प्रकार इस समय में, हमें यह सीखने को मिलता है कि हमें अपनी भक्ति सेवा अत्यंत सावधानी और सतर्कता के साथ करनी चाहिए, गुरु महाराज के चरण कमलों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, और निरंतर भगवान के दिव्य नाम लेने चाहिए।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा
कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे
सभी वैष्णवों को धन्यवाद!
जगत गुरु श्रील प्रभुपाद की जय!
पतित पवन गुरु महाराज की जय!
निताई गौर प्रेमानंद… हरि-हरि बोल!
हरे कृष्णा !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*26 -01-2022*
*पंढरपुर धाम से*
हरे कृष्ण !
राधे गोपाल की जय !
वैसे मैं दिन में बोलने का प्रयास करने वाला हूं मराठी में होगा शेड्यूल में मेरा भी नाम है इसीलिए ठीक है। ऑनलाइन भी मैं कुछ कहना चाहता हूं। से फ़्यू वर्ड्स और अन्य शायद उस समय भी सुन सकते हैं और वैसे आप सभी सादर आमंत्रित हो आप को आमंत्रण दिया हुआ है कैजुअल भी है। इसको अरावडे ऑन लाइन फेसबुक ,भी देख सकते हो। स्टार्टिंग फ्रॉम राइट नाउ, टिल लेट नाइट प्रोग्राम चलते रहेंगे। आप सभी साक्षी बन सकते हो यू कैन विजिट, सुनो देखो, हरि हरि ! राधा गोपाल का आज प्राकट्य दिवस है। आप समझ गए ना “ब्रम्ह महोत्सव” आज के दिन 2009 में वैसे नित्यानंद की त्रयोदशी का दिन था आज के दिन राधा गोपाल प्रकट हुए। हैप्पी बर्थडे टू यू। आज हमारे राधा गोपाल का बर्थडे है विग्रह का प्राकट्य या विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के साथ भगवान उस रूप में प्रकट होते हैं या फिर हम कह सकते हैं वह तो होता ही रहता है।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||* (श्रीमद भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
हर युग में भगवान अवतार लेते हैं और मैं तो कहूंगा कि आज के दिन 2009 में भगवान संभवामि भगवान प्रकट हुए राधा गोपाल के रूप में अरावडे में, यह प्राकट्य दिन है। तो क्या कहें, हम कौन हैं? भगवान ही हैं भगवान की कृपा से भगवान आज प्रकट हुए। हमने आज के दिन अपने गांव को ही नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र को ही एक भेंट दे दी गिफ्ट दे दिया। राधा गोपाल के रूप में हमारे गांव को या उस परिसर को, क्षेत्र को, हमने कृष्ण को दे दिया, ले लो, ले लो कृष्ण ! राधा गोपाल ले लो। यह तो प्रभुपाद की कृपा से ही संभव हुआ। जैसा आप सुन रहे थे आईडिया प्रभुपाद ने ही मुझे दे दिया। अरावडे मैं इस्कॉन होना चाहिए। उस किसान को हमारे गांव में इस्कॉन का प्रतिनिधि बनाओ। एक पर्चे में ऐसा प्रभुपाद ने मुझे लिखा था तब मुझे आईडिया आ गया। उसी के साथ आज के दिन फाइनली 2009 में हमारे इस्कॉन की स्थापना हुई। विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के साथ और वैसे नंद के घर आनंद भयो रे, भगवान नंद महाराज के घर में प्रकट हुए और सारे गोकुल निवासी वहां पहुंचे थे उनका अभिवादन करने या उनको आशीर्वाद देने, आयुष्मान भव ! वैसे ही जब राधा गोपाल प्रकट हुए तो उस क्षेत्र के हजारों लाखों लोग वैसे ही अभी आप सुन ही रहे थे इस्कॉन के देश विदेश के डेवोटीस , लीडर्स , जीबीसी सन्यासी, प्रभुपाद डिसाइपल्स की उपस्थिति में, इस प्रकार यह संपन्न हुआ। डॉ श्याम सुंदर शर्मा जी भी थे और भी कई थे आप जानते हो, स्वागत किया सब फेस्टिवल को संभाल रहे थे। आप में से कुछ भक्त तो साक्षी भी हो उस दिन के हरि हरि !
*भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥* चैतन्य चरितामृत अदि 9. 41
अनुवाद- जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।”
भारत में जन्मे हो तो जन्म को सार्थक करो। कैसे करोगे जन्म को सार्थक? करी कर पर उपकार, यह अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्ण भावनामृत संघ , इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कॉन्शसनेस संघ के इस्कॉन के संस्थापक आचार्य श्रील प्रभुपाद की जय ! श्रील प्रभुपाद रहे हैं और रहेंगे भी, यह इस्कॉन पर उपकार का काम कर रहा है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा करी कर पर उपकार, जन्म सार्थक कैसे करोगे ? तो इस मंदिर की ओपनिंग के साथ कुछ परोपकार का कार्य करने का एक प्रयास हुआ और फिर वह एक सफल प्रयास, मंदिर और यह सब कार्य भगवान का ही है। इस्कॉन का कार्य श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कार्य है और भगवान ही स्वयं को दे रहे हैं। देट इज़ व्हाट इज हैपनिंग, भगवान कार्य कर रहे हैं या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कार्य कर रहे हैं। क्या कार्य कर रहे हैं ?स्वयं को दे रहे हैं मुझे ले लो, मुझे ले लो, कॉज एंड इफेक्ट, सर्वकारणकारणम्,
*ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः । अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥*
श्लोक1 ब्रम्हसंहिता
अनुवाद – सच्चिदानन्दविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं वे अनादि , सबके आदि और समस्त कारणों के कारण हैं ॥१ ॥
भगवान सर्व कारण कारणम और इफेक्ट क्या है या जो उसका परिणाम है वह भगवान है। कॉज एंड इफेक्ट कार्य और कारण दोनों भगवान ही हैं। आज के दिन भगवान ने स्वयं को दे दिया अरावड़े में और इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु स्वयं को दे रहे हैं दुनिया वालों को या कृष्ण को दे रहे हैं।कृष्ण नो मोर इंडिया लिमिटेड, हो ही नहीं सकते। ही इज अनलिमिटेड हरि हरि ! यह जो कृष्ण भावनामृत संघ का कार्य है इसका हमको पार्ट एंड पार्सल बनना चाहिए। ऐसा करेंगे और हम समर्पित होंगे इसी को भगवान ने कहा है।
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||*
(श्रीमद भगवद्गीता १८.६६)
अनुवाद- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
सारी दुनियादारी या माया देट एंड, बस हो गया। स्टॉप, नॉनसेंस ! भगवान की शरण में आओ, राधा गोपाल की शरण में जाओ, राधा गोपीनाथ या भगवान के कितने सारे नाम हैं और भगवान सर्वत्र प्रकट हो रहे हैं उनकी शरण में जाओ और मुक्त हो जाओ,सुखी हो जाओ और यह कार्य कृष्णभावनामृत के प्रचार प्रसार का कार्य इसको प्राधान्य मिलना चाहिए। ऐसा श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी कहा, अभय बाबू को 1922 में, जब अभय बाबू गांधीवादी बन रहे थे, देश को स्वतंत्र करना है तब श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा वी कैन नॉट वेट, पहले देश को स्वतंत्र करेंगे और फिर बाद में कृष्ण भावना मृत का स्वीकार करेंगे या प्रचार प्रसार या आचार विचार हो , नो ! कृष्ण कॉन्शसनेस कैन नॉट वेट , तो इंडिपेंडेंस का आज के दिन के साथ में कोई संबंध है देश को स्वतंत्र करना है। रिपब्लिक डे ऑफ इंडिया पता नहीं हरि हरि !
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार, चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कृष्ण भावनामृत को स्वीकार करो और इस विचार के बनो ,ऐसा ही आचरण रखो और इसका प्रचार करो , फिर हम इंडिपेंडेंट हो जाएंगे, मतलब जब तक हम लोग भगवान पर डिपेंड नहीं करते, अर्थात भगवान पर डिपेंड करना होगा तभी हम लोग मुक्त होंगे, माया से मुक्त होंगे, अदर वाइज ऑल डिपेंडिंग ऑन माया, माया पर ही सब डिपेंड है। माया के भरोसे चल रहा है। रियल डिपेंडेंस तो तब होगा जब हम भगवान पर डिपेंड करना सीखेंगे या शुरू करेंगे। कृष्ण भावना यही सिखाती है। यही शिक्षाएं हैं जो इस देश की शिक्षाएं हैं हरि हरि !ठीक है इंडिपेंडेंट होने का संकल्प लो इन ट्रू सेंस हम लोग आज भी इंडिपेंडेंट नहीं हुए हैं। 75 साल तो हो गए। इस देश ने तथाकथित स्वतंत्रता को प्राप्त किया लेकिन अब भी हम माया के गुलाम हैं या विदेश के आचार विचारों से प्रभावित हैं। वेस्टर्न लाइफ़स्टाइल अभी हम इस पर निर्भर हैं।
अंग्रेजों ने हमको चाय पिलाना सिखाया यू आर ड्रिंकिंग टी, यू आर नॉट इंडिपेंडेंट अंग्रेजों ने ऐसा ब्रेनवाशिंग कर दिया इंडियंस का और वह ब्रेनवाशिंग अब तक और ब्रेन डर्टी हमारे गंदे विचार नीच विचार हमारी खोपड़ी में हमने डाल दिए। अब उन्हीं को हम उच्च विचार मानते गए और मान रहे हैं यह बहुत दुर्भाग्य की बात है। यदि इस देश को किसी ने स्वतंत्र किया है या करने का प्रयास हो रहा है तो वह प्रयास है गौड़ीय वैष्णव आचार्यों के, उनके संतों के जो प्रयास रहे लाभकारी हैं। उसी से हम स्वतंत्र होंगे। पहले समझना भी तो चाहिए कि स्वतंत्र किससे होना है? (इंडिपेंडेंस फ्रॉम व्हाट द फर्स्ट क्वेश्चन) किस से स्वतंत्र होना है? श्रील प्रभुपाद ने वह कार्य प्रारंभ किया परंपरा से गौड़ीय वैष्णव परंपरा यह कार्य पिछले 500 वर्षों से कर रही है। तो ज्वाइन दिस मूवमेंट। छोड़ो भारत नहीं, छोड़ो माया, धन, यू आर इंडिपेंडेंट। हरि हरि !ठीक है।
अब हम यही विराम देते हैं।
निताई गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल !
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जप चर्चा,
भक्तिप्रेम स्वामी महाराज व्दारा
25 जनवरी 2022
आज जप चर्चा में 857 स्थानों से भक्त उपस्थित हैं।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।*
*वाच्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च ।*
*पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
*नमो महा – वदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते ।*
*कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौर – त्विषे नमः ।।*
(श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.53)
अनुवाद ” हे परम दयालु अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं , जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमस्कार करते हैं ।
हरे कृष्ण! चैतन्य महाप्रभु परम करुणामय अवतार हैं। उनका अपना मंत्र है *नमो महा – वदान्याय।* महा-वदान्याय.. सच्चे वरदाता हैं। क्यों? क्योंकि उन्होंने सबसे कीमती वस्तु दान की है। कीमती वस्तु क्या है?कृष्ण प्रेम प्रदाय ते।उन्होंने कृष्ण दिये और वो भी फ्री में दिया है, इसलिए उन्हें..*नमो महा – वदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते।* किस प्रकार कृष्ण दे सकते हैं? क्योकि वे स्वयम कृष्ण है। *कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य।* केवल शरीर का रंग अलग हैं,*गौर – त्विषे ।* यह चैतन्य महाप्रभु कृष्ण प्रेम देने के लिए आये है और इसीलिए उन्हें महा-वदान्याय कहा गया हैं। सच्चा दान हरिनाम हैं। यह हरिनाम गोलोक का प्रेम धन है गोलोक धाम का नाम चिंतामणि है, वहाँ की धूल भी चिंतामणि है वहां का धन हरिनाम है और यह हरिनाम फ्रि में बांटना चैतन्य महाप्रभु चाहते थें इसलिए उनका नाम महा-वदान्याय हैं और ये हरिनाम करने के लिए महाप्रभु कलीकाल में आए। महाप्रभु चाहते थे *परं विजयते श्री-कृष्ण-सड़्कीर्तनम्।*
हरिनाम की परम विजय हो परंतु विजयते का अर्थ क्या है? जिस तरह हमारे देश में लोकसभा की 540 सीटें हैं कोई हरे कृष्ण पार्टी की परं विजय होने के लिए 540 सीटे उनकाे मिलनी चाहिए।हरिनाम की परं विजय के लिए हर व्यक्ति को हरिनाम ग्रहण करना चाहिए, यही चैतन्य महाप्रभु की इच्छा हैं।
*पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम । सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।*
( चैतन्य भागवत अन्त्य – खण्ड ४.१.२६ )
अनुवाद:-पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
सारे गाँव, सारे नगर मे हरिनाम संकीर्तन होना चाहिए। सारे नगर मे यदि होगा तो हम को तो करना ही है। श्रील प्रभुपाद लिखते हैं कि मेरे गुरुमहाराज श्रील भक्ति सिध्दांत सरस्वती ठाकुर की इच्छा है
*ताँर इच्छा बलवान पाश्चात्येते थान थान*
*होय जाते गौरांगेर नाम।*
*पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी*
*सकलेइ लोय कृष्ण नाम॥*
(प्रभुपाद व्दारा लिखित भजनकृष्ण तब पुण्य हबे भाइ।)
अनुवाद: -उनकी बलवती इच्छा से भगवान् गौरांग का नाम पाश्चात्य जगत के समस्त देशों में फैलेगा। पृथ्वी के समस्त नगरों व गाँवों में, समुद्रों, नदियों आदि सभी में रहनेवाले जीव कृष्ण का नाम लेंगे।
मेरे गुरुमहाराज श्रील भक्ति सिध्दांत सरस्वती ठाकुर कि इच्छा हैं
*पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी*
*सकलेइ लोय कृष्ण नाम॥*
केवल नगर नहीं है समस्त समुद्र, नदी, वन जंगल यहाँ पर जितने जीव है वह सभी हरिनाम लेंगे। यह है श्रील भक्ति सिध्दांत सरस्वती ठाकुर की इच्छा क्योंकि ये चैतन्य महाप्रभु की इच्छा हैं। ये हरिनाम की क्यों परम विजय होनी चाहिए क्योंकि हमें जो कुछ चाहिए वह सब यहीं से मिलता है महाप्रभु कहते हैं चैतन्य भागवत में वर्णन है।
*प्रभु बोले ‘कहिलाड एइ महामन्त्र।*
*इहा गिया जप सभे’करिया निर्वन्ध।।*
(श्रीचैतन्य भागवत मध्य खंड23.76)
अनुवाद: – आप सब जाकर हरे कृष्ण इस महामंत्र का निर्वन्ध-पूर्वक अर्थात अभिनिवेश या गाढ़ मनोयोग पूर्वक जप करें।
यह मंत्र नहीं है, यह महामंत्र हैं। ‘कहिलाड एइ महामन्त्र यह जप सभी को निर्बंध संख्या पूर्वक करना चाहिए क्योंकि यह करने से सब मिलेगा तो दूसरा करने की जरूरत ही क्या है और जो करते हैं उनका ही नहीं, इससे सभी का भला होगा। अच्छा इतना अच्छा है तो कैसे करना है ? यह करने के लिए कोई विधि निषेध नहीं है कोई भी कर सकता है खाते समय, सोते समय, चलते समय कभी भी। शिक्षाष्टक मे चैतन्य महाप्रभु कहते हैं।
*नाम्नामकारि बहुधा निज – सर्व – शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।।*
(श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य लीला 20.16)
अनुवाद: -” हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हैं , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।
*नियमित: स्मरणे न काल:* नियमित स्मरण, भगवान का नाम लेने के लिए कोई काल आदि विचार कंडिशन नहीं है और जब भी समय मिलता है इस तरह नहीं सब काम छोड के नाम लो ऐसा नहीं है, काम के साथ-साथ करना पड़ता हैं। पाच दस आदमी साथ मे बैठते है तो क्या करना चाहिए? घर मे बैठ कर कीर्तन करना चाहिए। मृदंग करताल बजाते हुए कीर्तन करना चाहिए, मृदंग, करताल नही है तो ताली बजाते हुए करना चाहिए। कोई कठिन काम नहीं है, यह हरिनाम कैसे लेना चाहिए कोई कंडीशन नहीं है लेकिन हरिनाम चिंतामणि में भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं।कोई नियम नहीं है फिर भी हरिदास ठाकुर कहते हैं, “हे भगवान! कोई नियम नहीं है लेकिन आप मुझ पर कृपा कीजिए मेरा मन आपके भाव में लगे यही एक नियम है, मैं आपका नाम स्पष्ट और भाव से ले सकूं” किस से मांग रहे हैं नाम? भगवान के शरण में है, नाम भगवान के शरण में है और व्याकुल भाव से, व्याकुल क्रंदन, स्पष्ट रूप से स्पष्ट अक्षर और यह आदर के साथ लेना चाहिए। अक्षर का आदर करना चाहिए जिस प्रकार खाने का आदर करते हैं शब्द का आदर करना है, अक्षर का आदर करना है लिख कर शब्द का आदर, ठीक सेसुन कर तो हरिनाम का आदर करना है तो ठीक से सुनना है ठीक से सुनने के लिए पहले क्या करना चाहिए? ठीक से सुनने के लिए स्पष्ट उच्चारण करना चाहिए। स्पष्ट उच्चारण नहीं होगा तो ठीक से सुन नहीं सकती तो ठीक से उच्चारण करना और सुनना यह बहुत जरूरी है अनुदिनम नियमीत यह स्पष्ट उच्चारण करने के लिए हमारी पूर्ववर्ती आचार्य ने बहुत ही अच्छे अच्छे सुझाव दिये। श्री श्री परम पूज्य लोकनाथ स्वामी गुरु महाराज ने एक पुस्तक लिखी है *संस्कृत उच्चारणम्* इतना उसमे सुंदर वर्णन किया है कि हरिनाम किस तरह उच्चारण करना चाहिए कृष्ण नाम में कृष्ण… इंग्लिश में पांच अक्षर में तीन अक्षर के बीच में बिंदी लगा दिया है एक बिंदी लगाए तो दूसरा अक्षर है इसका अर्थ है इंग्लिश में 26 अक्षर है संस्कृत में 50 अक्षर है तो 26 अक्षर के 50 अक्षर बनाने के लिए मार्क देना पड़ता है तो के.आर. एस. ए यह अक्षर एक नहीं है अलग है संस्कृत में अलग है और उच्चारण भी अलग-अलग है संस्कृत में मुर्धवर्ण है मुर्धवर्ण कखगघ ये कंठवर्ण है।चछजझ ये तालगुवर्ण है। टठडढ ये मुर्ध वर्ण यह है। तथदध ये दान्त वर्ण है और पफबभम ये पुष्टवर्ण है। महाराज जी ने इसमें सुंदर वर्णन किया है जब हम कृष्ण उच्चारण करते हैं मुर्धन श मुर्धन न इसमें बीच में ऋ यह सब मुर्ध वर्ण है इसलिए मुर्ध वर्ण उच्चारण करना चाहिए। यह मुर्ध कहां रहते हैं इसका वर्णन भी किया है यह पुस्तक आप पढ़िए यह मुर्ध हमारे ब्रह्मारंध्र मे रहते है जब हम जन्म लेते हैं तो जो नरम जगह रहती है उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं और जो भी इसका उच्चारण करते हैं ब्रह्मरंध्र में करते हैं महाराज जी ने इस पुस्तक में इतना सुंदर वर्णन किया है जब भक्त जप करते हैं तो वह मुर्धवर्ण उच्चारण करते हैं तो हमारे हरिनाम उच्चारण से फल हमें मिलता है क्योंकि हरिनाम करने से जिह्वा उस जगह पर स्पर्श करती है वह जो ब्रह्मरंध्र में भेद करना चाहते हैं। यह पुस्तक पढ़ने के पहले हरिनाम ऐसा उच्चारण करना चाहिए, ये हमे पता नहीं था। महाराज जी ने उस पुस्तक में इसका भी सुंदर वर्णन किया है | वैदिक शास्त्र में वर्णन किया है प्रणव है *ऊं* और हरे कृष्ण महामंत्र में *ऊं* शब्द है। ओ..म.. अक्षर का उच्चारण करते वक्त अ से शुरू करके म तक स्पर्श वर्ण का अंतिम अक्षर है, इस हरे कृष्ण महामंत्र के अंदर सब हैं। राम में म आता हैं। इस पुस्तक को आप पढ़ेंगे तो आपको बहुत लाभ होगा, हमें किस तरह उच्चारण करना चाहिए। ये हरिनाम करने के लिए सारे आचार्यों ने हमें सुझाव दिया है। आज लोचन दास ठाकुर जी का तिरोभाव हैं। उन्होंने हमें कहा है ये हरिनाम नाव की तरह है, नाम के लिए हमें नाव में आश्रय लेना चाहिए ,उन्होंने कहा हैं।
हरिनामेर नौकाखानि श्रीगुरु काण्डारी।
संकीर्तन कोरोयाल दुइ बाहु पासारि॥
अनुवाद:-स्वयं गुरुजी इसके नाविक हैं, जो हरिनाम संकीर्तन रूपी चप्पू (नाव चलाने वाला डण्डा) हाथ में लिए हुए हैं। इस घट पर जड़ अन्धा तथा कातर जो कोई भी क्यों न हो, उसे निःशुल्क ही पार कराया जाता है।
इसलिए उन्होंने भजन में लिखा है।
हरिनाम नाव की तरह है और गुरुदेव कंण्डारी की तरह है इसलिए उन्होंने गीत में लिखा हैं।
के जाबे के जाबे भाइ भवसिन्धुपार।
धन्य कलियुगेर चैतन्य अवतार॥1॥
अनुवाद:-अरे भाई! भवसागर से पार कौन जाएगा? यह कलियुग धन्य है क्योंकि स्वयं भगवान् श्रीचैतन्यमहाप्रभु अवतरित होकर हरिनामरूपी नाव लेकर अवतरित हुए।
हे भाई साहब आप कौन जाना चाहते हैं भवसिंधु पार,वास्तव में कृष्ण भक्ति में कौन आते हैं? कृष्ण भक्ति में वही जाते हैं जो भवसिंधु पार करना चाहते हैं। इसका अर्थ क्या है? वह समझ गया है कि यह भौतिक जगत बहुत दु:ख पूर्ण हैं। प्रभुपाद कहते हैं जब कोई इस तरह भौतिक जगत मे हताश होता है, नही यह भौतिक जगत अच्छा नही है, हमें भगवत धाम वापस जाना चाहिए। वही व्यक्ति भगवत धाम जा सकता हैं। प्रभुपाद भागवद् गीता के भुमिका में लिखते हैं, भगवद् गीता का उद्देश्य क्या है? अंधकार में डूबे हुए मनुष्यों को प्रकाश में लाने के लिए भगवद् गीता हैं। इसीलिए भगवद् गीता हमें समझना चाहिए हम अंधकार में डूबे हुए हैं इसी तरह हमें भौतिक संसार में भवसिंधु भव अर्थात जिस तरह दुग्ध सागर है दूध का सागर उसी तरह नमक सागर है तो भवसिंधु का अर्थ क्या है जहाँ भव है, भव का अर्थ है होना, जन्म मृत्यु जरा व्याधि ,जन्म मृत्यु जरा व्याधि इस सिंधु में केवल जन्म मृत्यु जरा व्याधि, जन्म मृत्यु जरा व्याधि उसका नाम भव सिंधु है, कोई इस सिंधु में नहीं रहना चाहता, सभी पार होना चाहते हैं, कोई समझ नहीं पाता वह अलग बात है लेकिन अगर कोई बुद्धि से विचार करेंगे तो
*के जाबे के जाबे भाइ भवसिन्धुपार।*
*धन्य कलियुगेर चैतन्य अवतार॥*
लोचन दास ठाकुर लिखते हैं कलयुग में चैतन्य महाप्रभु आए हैं और यह कलयुग साधारण कलयुग नही है धन्य कलयुग हैं। कलयुग के भी अंदर विभाग है धन्य कलयुग इसका मतलब है ब्रह्मा का एक दिन में एक हजार बार चतुरयुग होतें हैं, मतलब एक हजार बार कलयुग आते हैं जिस कलयुग में चैतन्य महाप्रभु आते हैं उस कलयुग का नाम है धन्य कल युग। चैतन्य महाप्रभु ब्रह्मा के 1 दिन में आते हैं। उसी कलयुग में हम भी आए हैं यदि हम अभी भी फायदा नहीं उठाएंगे तो हम स्वर्ग में जायेंगे अलग-अलग भोग करेंगे बाद मे यही आऐंगे और फिर हजार चतुरयुग प्रतीक्षा करनी पड़ेगी धन्य कलयुग के लिए। इसलिए हे भाई साहब!जो जो भव सिंधु पार होना चाहते हैं वह बहुत अच्छी बात है यहां एक तो धन्य कलयुग है और चैतन्य महाप्रभु भी साथ में है चैतन्य महाप्रभु किस प्रकार पार करा रहे हैं
*आमार गौरांगेर घाटे अदान खेया बय।*
*जड अन्ध आतुर अवधि पार हय॥2॥*
अनुवाद: -अतः जो इस भवसागर से पार जाना चाहता है, वे सब मेरे गौरसुन्दर के घाट पर आ जाओ, जहाँ पर नामरूपी नौका तैयार खड़ी है।
यह भवसागर चैतन्य महाप्रभु जिस घाट से पार करवाते हैं उस घाट का नाम है गौरांगेर घाट। आजकल आप देखेंगे गाड़ी में चलते वक्त टोलगेट रहते हैं, 500 साल पहले बंगाल में बहुत नदीयां थी, बहुत सारी नदीयां थी । नदी पार करने के लिए घाट रहते है। पहले सरकार का इतना वर्चस्व नहीं था तो जो वहा के रहने वाले लोग ही नाव चलाते थे सब के घाट के अलग-अलग नाम होते हैं जो व्यक्ति चलाते हैं उनके नाम से उस घाट का नाम रहता है घाट शे एक पार से दूसरे पार नाव से लेकर जाते हैं उसे घाट कहते हैं तो चैतन्य महाप्रभु इस घाट से सभी को पार कराते हैं इसलिए इस घाट का नाम गौरांगेर घाट हैं।
*आमार गौरांगेर घाटे अदान खेया बय।*
अदान अर्थात दान देना नहीं पड़ता चैतन्य महाप्रभु इस घाट से सभी को पार करा रहे हैं खेया बय अर्थात नाव चलाना ।अदान मतलब पार कराने के बाद दान नहीं लेते।
*जड अन्ध आतुर अवधि पार हय॥*
जड़ अंध आतुर तक पार हो जाते है | वास्तव में नाव में उठना सरल नहीं है | जो लोग मायापुर गए हैं मायापुर में कूलर घाट से नवदीप घाट जब जाते हैं स्वरूपगंज घाट जाते हैं नाव में उठना मुश्किल होता है और सब लोग उठ नहीं पाते है | आपको यह भी पता है कि जब चैतन्य महाप्रभु जा रहे थे तब शिवानंद के कुत्ते को नहीं ले रहे थे | तो नाव मे उठना मुश्किल है, नाव हिलती है, नाव में व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं है | लेकिन महाप्रभु की नाव इतनी अच्छी है जड़ अंध आतुर अवधि अवधि अर्थात यहां तक, जड़ अर्थात जो चल नहीं पाते है, अंध अर्थात जो अंधे हैं, आतुर अर्थात जो रोग ग्रस्त हैं, ऐसे व्यक्ति भी पार हो सकते हैं उनके लिए स्ट्रेचर एंबुलेंस व्हीलचेयर सारी व्यवस्थाएं हैं | चैतन्य महाप्रभु ने इतनी अच्छी व्यवस्थाएं कर दी हैं कोई भी व्यक्ति के लिए नाव में चढ़ना असंभव नहीं है कोई समस्या नहीं है | महाप्रभु ने घाट में इतनी व्यवस्था कर दी है कि सब आसानी से पार हो सकते है | उस नाव का नाम क्या है?
हरि नाम की नौका |
हरिनाम उस नाव को लेकर जा रहा है और नाव को चलाने वाले श्री गुरुदेव है | उन्होंने संकीर्तन कराया है | भागवत में एक श्लोक है —
11.20.17
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् । मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान्भवाब्धि न तरेत्स आत्महा ॥ १७ ॥
जीवन का समस्त लाभ प्रदान करने वाला मानव शरीर प्रकृति के नियमों द्वारा स्वतः प्राप्त होता है यद्यपि यह अत्यन्त दुर्लभ है । इस मानव शरीर की तुलना उस सुनिर्मित नाव से की जा सकती है , जिसका माँझी गुरु है और भगवान् के आदेश वे अनुकूल हवाएँ हैं , जो उसे आगे बढ़ाती हैं । इन सारे लाभों पर विचार करते हुए जो मनुष्य अपने जीवन का उपयोग संसाररूपी सागर को पार करने में नहीं करता उसे अपने ही आत्मा का हन्ता माना जाना चाहिए ।
यह मनुष्य शरीर सुलभम और सुदुर्लभम है | लभ दुर्लभ सुदुर्लभ है | लेकिन पता नहीं हमें कैसे मिला है? यह हमारा मनुष्य शरीर एक नाव की तरह है, कल्प अर्थात परिकल्पना, सुकल्प अर्थात बहुत सारी चिंता भावना करके वेल प्लानड करके भगवान ने इस मनुष्य शरीर को बहुत अच्छी तरीके से बनाया है और वहां साक्षात कर्णधार गुरु को भी दिया है, भगवान कितने कृपालु है | जीवात्मा भौतिक सागर में गिर गई है और वहां पर 84 लाख नाव आ गई है, इनमें से सबसे अच्छी नाव है मनुष्य शरीर रूपी नाव, और हमें सबसे अच्छी नाव मिल गई है | और केवल इतना ही नहीं वहां कंडारी के रूप में गुरु भी मिल गए हैं | और इतना ही नहीं वहां पर अनुकूल हवा भी मिली है | अनुकूल हवा की क्या जरूरत है? नाव जब नदी पार होती है तब मशीन चलती है लेकिन नदी में पेट्रोल पंप नहीं मिल सकता इसलिए नाव पाल से हवा से चलती है तो नाव चलाने के लिए हवा चाहिए, पाल में हवा लगती है तो नाव चलती है तो यह माया अनुकूलेन है | ये हवा भगवान की कृपा है | हरि नाम, भगवत गीता, इस्कॉन, इस्कॉन की जितनी सुविधाएं हैं, भक्त संग है, सब अनुकूल वायु है | हम जब नाव में चढ़ते हैं, नाव में चढ़ने से नदी पार होने से हमें नाव के भीतर रहना है लेकिन हमें अनुकूल वायु का सहारा लेना पड़ता है अनुकूल वायु के सहारे से ही नाव पार होती है तो यह अनुकूल वायु है प्रभुपाद के ग्रंथ, हरि नाम, भक्तों का संग | हरि नाम उनमें से सबसे अच्छा है | इसलिए हवा के लिए पाल उठाना पड़ता है इसलिए लोचन दास ठाकुर कहते हैं, महाप्रभु नौका में आकर कहते हैं, हाथ उठाओ, हरि नाम करो तो पाल में हवा लगेगी, सबसे दो हाथ उठाकर संकीर्तन करवाया | सबसे हरे कृष्ण महामंत्र करवाया | इस चित्र मे नवदीप मंडल परिक्रमा है महाराज उसका नेतृत्व करते हैं | लोचन दास ठाकुर अंत में आक्षेप करके कहते हैं
सब जीव होइलो पार प्रेमेर बातशे
पड़ीया रहीलो लोचन आपनार दोषे
बाताश शब्द हिंदी में नहीं है जिसका अर्थ होता है हवा | यहां अनुकूल वायु क्या है हरि नाम कृष्ण प्रेम | प्रेम हरि नाम है | सारे जीव हरि नाम रूपी हवा का सहारा लेकर इस भवसागर से पार हो जाते है | लोचन दास ठाकुर कितने विनम्र हैं | वे लिखते हैं कि मैं कितना दूर्भागा हूँ मैंने हरि नाम का सहारा नहीं लिया है मैं इधर ही पड़ा रह गया क्योंकि मैंने हरि नाम रूपी नाव का आश्रय नहीं लिया हरि नाम और कृष्ण प्रेम का आश्रय नहीं लिया यह मेरा ही दुर्भाग्य है क्योंकि महाप्रभु तो हरिनाम लेकर आएं बिना किसी दान के पार करवाएं | इसी प्रकार श्रील प्रभुपाद ने इस्कॉन बनाया सारी दुनिया में भ्रमण किया, लॉकडाउन के वक्त भी भक्त लोग ऑनलाइन में कितना प्रचार कर रहे हैं, 2 साल से महाराज ने यह दो घंटा की हरि कथा और जप, सुबह के कीमती समय में सब को एक साथ बैठा कर जप कराना और भक्त बनाना यही चैतन्य महाप्रभु और श्रील प्रभुपाद की शिक्षा है तो इतनी सुविधाएं हैं सारे आचार्य शिक्षा दे रहे हैं एक तरफ हरि नाम के महत्व का वर्णन भी कर रहे हैं और साथ में बैठकर हरि नाम भी करवा रहे हैं उसके बाद भी यदि हम यह फायदा नहीं उठाते हैं तो हम कितने दुर्भाग्यशाली हैं | महाप्रभु का भी यही आंदोलन है हरिनाम करो और हरिनाम दूसरे को कराओ और महाराज भी यही काम कर रहे हैं साथ में बैठकर कोई भी रूटीन में सुबह उठकर रोज एक साथ बैठकर जप कराना, हरि नाम का महत्व बताना ताकि हम अच्छे से हरि नाम कर सकें मैं सौभाग्यशाली हूं कि आज मुझे महाराज और उनके भक्तों की कृपा मिली है अंत में ये कुछ गाकर खत्म करता हूँ |
हरि नाम प्रभु की जय
पतित पावन श्रील प्रभुपाद की जय
लोकनाथ स्वामी महाराज की जय
समस्त भक्त वृंद की जय
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जपा टॉक – २४ जनवरी २०२२
१ . भगवान जगन्नाथ जयदेव गोस्वामी को देखना चाहते थे
२ . गीत-गोविंद के श्रद्धेय संगीतकार
३ . शास्त्रों के माध्यम से श्रील जयदेव गोस्वामी की महिमा का अनुभव करना।
[ प्रवक्ता : परम पूज्य भक्ति प्रेमा स्वामी महाराज]
अवसर: जयदेव गोस्वामी तिरोभाव
विषय : परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज की महिमा।
मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि महाराज का मुझ पर स्नेह रहा है। अगर किसी व्यक्ति को शुद्ध भक्त का प्यार और स्नेह मिलता है, तो उसका जीवन सफल हो जाता है। श्रील प्रभुपाद ने संपूर्ण विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रेरणा ली। श्री चैतन्य महाप्रभु ने अकेले श्रील प्रभुपाद को नहीं भेजा। उनके साथ भेजे गए व्यक्तियों में से एक परम पूजय लोकनाथ स्वामी गुरु महाराज थे। वह चैतन्य महाप्रभु के बहुत करीब हैं। हम बहुत भाग्यशाली हैं कि जो महाप्रभु का संदेश फैला रहा है वह हमें व्यक्तिगत रूप से जानता है और हमसे प्यार करता है। हम अपने जीवन में और क्या चाहते हैं?
चैतन्य महाप्रभु का आंदोलन हरिनाम है। चैतन्य महाप्रभु पवित्र नाम का प्रचार-प्रसार करने आए और श्रील प्रभुपाद ने पद-यात्रा के माध्यम से हरिनाम का प्रचार-प्रसार किया जिसके लिए उन्होंने अधिकार दिया और गुरु महाराज को जिम्मेदारी दी। और हम देख सकते हैं कि वह वास्तव में कितना सशक्त है, जिसके माध्यम से उसने हरिनाम को पूरी दुनिया में फैलाया है। वह अकेले नहीं हैं। वह कीर्तन के लिए दुनिया में मशहूर हैं। इसके अलावा, जिस तरह से उन्होंने पद-यात्रा के माध्यम से कृष्ण भक्ति और हरिनाम का प्रचार-प्रसार किया है, ऐसा लगता है कि उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा विशेष रूप से सशक्त किया गया है। निश्चय ही वे चैतन्य महाप्रभु के सहयोगी हैं। उन्हें एक ऐसी आवाज का उपहार दिया गया है कि उन्होंने अपने कीर्तन से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया है। पूरी दुनिया उसे देखने के लिए बेताब है। हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमें उनसे सुनने का अवसर मिलता है और हमें उनके कीर्तन पर नृत्य करने का अवसर मिलता है। हमें अक्सर यह सोचकर दुख होता है कि गौर निताई के साथ डांस करना कितना अद्भुत होता और हमारा वह संग नहीं है। अब हम बहुत भाग्यशाली हैं कि हमें श्रील प्रभुपाद के एक सहयोगी के साथ कीर्तन करने का अवसर मिला। मैं बस यही सोचता हूं कि मेरा जीवन धन्य है कि उसका दयालु और आनंदमय हाथ मेरे सिर पर है। वह हमेशा मेरे बारे में पूछताछ करता है। मैं आध्यात्मिक रूप से सुरक्षित हूं।
विषयवस्तु : शास्त्रों के माध्यम से श्रील जयदेव गोस्वामी की महिमा का अनुभव करना।
महाराज के आदेश के अनुसार, मैं जयदेव गोस्वामी के लापता होने के बारे में बात करूंगा। भक्तिविनोद ठाकुर ने अपनी पुस्तक श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य में जयदेव गोस्वामी की लीलाओं के बारे में बहुत ही सुन्दर ढंग से लिखा है, जो महाराज जी की भी प्रिय है, जिससे मैं कुछ पंक्तियाँ पढ़ूँगा…
श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य – अध्याय ११ में कहा गया है कि :
ये काले लक्ष्मण-सेना नादियार राजा: जयदेव नवद्वीप हन तार प्रजा:
अनुवाद: जब लक्ष्मण सेन नादिया के राजा थे, जयदेव गोस्वामी नवद्वीप में उनके विषयों में से एक थे। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .९१ ) वर्ष १२०६ में, राजा लक्ष्मण को हराने के बाद, मुस्लिम राजा ने बंगाल पर कब्जा कर लिया। यह वर्ष १२०६ से पहले की बात है, जब लक्ष्मण सेन राजा थे, तब जयदेव गोस्वामी थे।
बल्लाल- दुर्घिका-कुले बंधिया कुश्रां पद्मा-साह वैसे तथा जयदेव धीरं
अनुवाद: बुद्धिमान जयदेव ने बल्लाल दिर्गिका के तट पर एक झोपड़ी का निर्माण किया और वहां अपनी पत्नी पद्मावती के साथ निवास किया। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .९२ )
वह स्थान आज भी मायापुर में बल्लाल दिर्गिका है जहाँ जयदव गोस्वामी अपनी पत्नी पद्मावती के साथ रहते थे।
दशा-अवतार स्तव रचिला तथाय: सेई स्तव लक्ष्मणेर जल्दबाजी कबु यया:
अनुवाद: वहाँ रहते हुए, उन्होंने दशा-अवतार-स्तोत्रम लिखा, और यह कविता एक बार लक्ष्मण सेन के हाथ में आई। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .९३ )
बल्लाल दिर्गिका में बैठकर जयदेव गोस्वामी ने दशावतार स्तोत्र की रचना की जो बहुत प्रसिद्ध है और यह इतना सुंदर है कि इसे देखकर राजा लक्ष्मण हैरान रह गए। उन्होंने महसूस किया, “क्या कोई इस तरह लिख सकता है! वह कितने शुद्ध भक्त हैं।”
परम आनंद स्तव करिला पहन: जिज्ञासाशील राजा, ‘स्तव कैला को जाना’
अनुवाद:राजा ने बड़े आनंद से कविता पढ़ी और फिर पूछा, ‘यह किसने लिखा है?’ (श्री नवद्वीप-धर्म-महात्म्य ११ .९४)
गोवर्धन आचार्य राजारे तबे काय: ‘महाकवि जयदेव रचयता हय’
अनुवाद:गोवर्धन आचार्य ने राजा से कहा, ‘महान कवि जयदेव ने इसे लिखा था।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .९५ )
‘कोठा जयदेव कवि’ जिज्ञासासे भूपति: गोवर्धन बाले, ‘एई नवद्वीप स्थिति’
अनुवाद:राजा ने पूछा, ‘यह कवि जयदेव कहाँ है?’ गोवर्धन ने उत्तर दिया, ‘वह नवद्वीप में रहता है।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .९६ ) लक्ष्मण ने उत्सुकता से पूछा कि वह कहां मिल सकता है। तब गोवर्धन आचार्य ने उत्तर दिया कि वह और कहीं नहीं बल्कि नवद्वीप हैं।
सुनिया गोपने राजा क्रिया संधान:रात-योग आयला तबे जयदेव-स्थान:
अनुवाद:यह सुनकर राजा ने चुपके से जयदेव के घर की तलाशी ली और फिर शाम को वहाँ आ गए। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .९७ )
वैष्णव-वेशेते राजा कुशीरे प्रवेश: जयदेव नाति कारी ‘बैसे एक-देसी
अनुवाद: राजा वैष्णव के वेश में कुटिया में दाखिल हुआ। उन्होंने जयदेव को प्रणाम किया और एक ओर बैठ गए। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .९८ )
राजा जानता था कि वैष्णव राजा से नहीं मिलते। यद्यपि वह एक राजा था, वह स्वयं एक वैष्णव की पोशाक में रात में उससे मिलने गया था।
जयदेव जनिलेना भूपति ए जन: वैष्णव-वेशते ऐला हय अकिंचन:
अनुवाद:जयदेव समझ गए कि यह आदमी राजा था और वह वैष्णव के वेश में एक भिखारी के रूप में उनके पास आया था। (श्री नवद्वीप-धर्म-महात्म्य ११ .९९ )
जयदेव गोस्वामी समझ गए कि यह एक राजा था जो एक बेसहारा के रूप में तैयार हुआ है।
अल्पा कृष्णे राजा तबे दिया परिचयः जयदेव याचे याते अपना आलय [ १०० ]
अनुवाद:कुछ ही देर में राजा ने अपना परिचय दिया और जयदेव से अपने महल में जाने का अनुरोध किया। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१०० ) राजा ने अपना परिचय दिया और उसे अपने महल में आमंत्रित किया।
अत्यंत विरक्त जयदेव महामती:विश्वि-घेते येते न करे सम्मति:
अनुवाद: ज्ञानी जयदेव अत्यंत विरक्त थे, और वे किसी भौतिकवादी के घर जाने को राजी नहीं थे। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१०१ ) जयदेव गोस्वामी ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे नहीं जा सकते क्योंकि वैष्णव भौतिकवादी लोगों के घर नहीं जाते हैं।
कृष्ण-भक्त जयदेव बालिला तखाना ‘तव देस छै’ अमी करिबा गमन:
अनुवाद: कृष्ण के महान भक्त जयदेव ने तब कहा, ‘मैं तुम्हारा प्रांत छोड़कर कहीं और चला जाऊंगा।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१०२ )जयदेव गोस्वामी ने कहा कि अगर उन्होंने ऐसा कहा तो वह अपना राज्य छोड़ देंगे और चले जाएंगे।
विश्वि-संसर्ग कबु न देया मंगल: गंगा पारा हय याब यथा नीलाचल’
अनुवाद: ‘भौतिकवादियों के साथ संगति से कभी भी सौभाग्य की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए मैं गंगा पार कर नीलाचल जाऊँगा।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१०३ )
‘भौतिकवादी लोगों के साथ रहना अच्छा नहीं है। मैं गंगा पार करूंगा और नीलाचल चला जाऊंगा।’
राजा बाले, ‘सुन प्रभु अमर वचन: नवद्वीप त्याग नहीं कर कदाचन:
अनुवाद: राजा ने कहा, ‘हे स्वामी, मेरी बात सुन। कृपया नवद्वीप को कभी न छोड़ें। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१०४ ) राजा ने ऐसा न करने और नवद्वीप को न छोड़ने की भीख माँगी।
तवा वाक्या सत्य हबे मोरा इच्छा राबे: हेना कार्य कारा देवा अधिक कृपा याबें
अनुवाद: कृपया मुझ पर दया करें और ऐसा व्यवहार करें कि आपकी बात सच हो जाए और मेरी इच्छा भी पूरी हो जाए। (श्री नवद्वीप-धर्म-महात्म्य ११ .१०५ )
गंगा-पारे चंपाहंस स्थान मनोहर:से स्थान थाका तुमी दू एक वत्सरं
अनुवाद:गंगा के दूसरी ओर एक खूबसूरत जगह है जिसे चंपा हट्टा के नाम से जाना जाता है। कृपया वहां दो साल तक रहें। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१०६ )
नवद्वीप परिक्रमा में एक स्थान है और इसे चंपा-हट्टा के नाम से जाना जाता है। अगर आप यहां नहीं रहना चाहते हैं तो आप चंपा हट्टा में रुक सकते हैं। इस तरह आपकी दोनों मनोकामनाएं पूरी होंगी। तुम गंगा के दूसरी ओर होगे और तुम नवद्वीप में होगे।
मामा इच्छा-मते अमी तथा ना याइबांतवा इच्छा हले तवा चरण हरिबा’
अनुवाद:मैं अपक्की इच्छा के अनुसार वहां न जाऊंगा; जब तुम चाहो तो मैं तुम्हारे चरण देखने आऊंगा।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१०७ ) डरो मत कि मैं तुम्हारी आज्ञा के बिना कभी तुम्हारे यहाँ आऊँगा। मैं तभी आऊंगा जब आप मुझे अनुमति देंगे।
रायरा वचन सुनि’ महाकवि-वर: समता हा-इया बाले वचना सतवर:
अनुवाद:राजा की बातें सुनकर महान कवि ने तुरंत सहमति में उत्तर दिया। (श्री नवद्वीप-धर्म-महात्म्य ११ .१०८ )
‘यद्यपि विशायी तुमि ए राज्य तोमरं’ कृष्ण-भक्त तुमि तव नाहिका संसार:
अनुवाद: ‘यद्यपि आप भौतिकवादी हैं और यह राज्य आपका है, आप कृष्ण के भक्त हैं और आपको कोई भौतिक लगाव नहीं है। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१०९ ) जयदेव गोस्वामी यह सुनकर प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि आप भौतिक लोगों की तरह नहीं हैं। वैष्णव भौतिकवादी नहीं हो सकता।
परीक्षा कराटे अमी विषययि बलिया: संभातीषु तब्बू तुमी सहिले सुनिया:
अनुवाद: ‘मैंने आपकी परीक्षा लेने के लिए आपको भौतिकवादी कहा, लेकिन आपने इसे सुना और इसे सहन किया। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .११० )
अतएव जनिलमा तुमि कृष्ण-भक्त: विषय ला-इया फिर हय अनासक्त [१११ ]
अनुवाद: ‘मैं अब समझ गया हूँ कि तुम कृष्ण के भक्त हो। आप भौतिक मामलों में संलग्न रहते हैं लेकिन अलग रहते हैं।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१११ ) इसलिए, यह इस बात का प्रमाण है कि आप एक शुद्ध भक्त हैं। यद्यपि आप भौतिक संपत्ति के बीच रह रहे हैं, फिर भी आप अनासक्त हैं।
चंपका-हतेते अमी किछु-दिन रबांगोपने असिबे तुमी छनिया वैभव’
अनुवाद:’मैं कुछ समय चंपाका हट्टा में रहूंगा। गुप्त रूप से, अपने ऐश्वर्य को पीछे छोड़ते हुए, आप मुझसे मिलने आ सकते हैं।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .११२ ) जैसा कि आपने बताया, मैं चंपा-हट्टा में रहूंगा। आप कभी-कभी मुझसे मिलने आ सकते हैं लेकिन वैष्णव की पोशाक में।
हृ चित्त हय राजा अमात्य द्वारायं चंपक-हंसते गृह निर्माण कार्य:
अनुवाद:राजा ने अपने एक मंत्री के माध्यम से चंपक हट्टा में खुशी-खुशी एक घर बनवाया। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ ११३ ) खुशी-खुशी राजा ने चंपा-हट्टा में घर बना लिया।
तथा जयदेव कवि रहे दिन कटां श्री-कृष्ण-भजन करे राग-मार्ग मात:
अनुवाद:कवि जयदेव कुछ समय वहाँ रहे और दिव्य प्रेम के मार्ग के अनुसार श्री कृष्ण की सेवा की। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .११४ ) जयदेव गोस्वामी अपनी पत्नी के साथ वहीं रहे और भक्ति की।
पद्मावती देवी अने चंपकेरा भरा:जयदेव पूजे कृष्ण नंदरा कुमार:
अनुवाद:पद्मावती देवी चंपक के फूलों का भार लाएगी, और जयदेव ने उनके साथ नंद के पुत्र कृष्ण की पूजा की। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .११५ ) पद्मावती देवी फूल तोड़ती थीं और जयदेव उनकी पूजा करते थे। उस जगह को चपा हाटी के नाम से जाना जाता है क्योंकि यहाँ बहुत सारे चंपा फूल उगते हैं। यहां तक कि ललिता सखी भी यहां से चंपक के फूल लेती थीं। पद्मावती फूल तोड़ती थी और जयदेव कृष्ण की पूजा करते थे।
महाप्रेमे जयदेव करे पूजन: देखिला श्री-कृष्ण हैला चंपक-वाराण:
अनुवाद:जयदेव ने गहन प्रेम से पूजा की, और अंततः उन्होंने श्री कृष्ण को चंपक के फूल के रूप में उनके सामने प्रकट होते देखा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .११६ )
एक दिन जयदेव ने एक फूल उठाया। चंपक के फूल विभिन्न प्रकार के होते हैं। इन्हीं में से एक है स्वर्ण चंपा जो सोने की तरह दिखती थी। जब वे उस फूल से पूजा कर रहे थे, कृष्ण के शरीर में परिवर्तन हुआ और यह सोने जैसा हो गया, जैसे श्री चैतन्य महाप्रभु।
पुराण-सुंदर-कांटी अति मनोहर: कोसी-चंद्र-निन्दी मुख परम सुंदर:
अनुवाद:भगवान की सुंदर, सुनहरी चमक पूरी तरह से मंत्रमुग्ध कर देने वाली थी, और उनके अत्यंत सुंदर चेहरे ने लाखों चंद्रमाओं को छोटा कर दिया। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .११७ )
यह श्री चैतन्य महाप्रभु का इतना सुंदर रूप था।
चंचर चिकुरा शोभा गले फूला-माला:दर्घा-बहू रूपे आलो करे परणा-शाला:
अनुवाद:उसके लहराते बाल, लंबी भुजाएँ और गले में एक सुंदर फूलों की माला थी। उनके शरीर ने जयदेव की फूस की कुटिया को प्रकाशित किया। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .११८ )
श्री चैतन्य महाप्रभु के बहुत सुंदर घुंघराले बाल, एक फूल की माला और एक विशाल हाथ था।
देखिया गौरांग-रूप महाकवि-वर: प्रेमे मिर्च यया चाक्शे अरु झारं
अनुवाद: गौरांग का रूप देखकर श्रेष्ठ कवि जयदेव दिव्य प्रेम में मूर्छित हो गए और उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .११९ )
इस रूप को देखकर जयदेव गोस्वामी प्रेम से भर गए और वे मूर्छित हो गए।
पद्मावती देवी सेई रूप निरखिया: ह-इला चैतन्य-हिन भीमेते पानिया:
अनुवाद: भगवान का रूप देखकर पद्मावती देवी मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ीं। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२० )
पद्म-हस्त दीया प्रभु तोले दो जाने: कृपा कारी ‘बले तबे अमिय-वचन:
अनुवाद: भगवान ने उन दोनों को अपने कमल के हाथों से उठाया और फिर दयापूर्वक अमृत वचन बोले। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२१ )
‘तुम दोहे मामा भक्त परम उदारं’ दर्शन दते इच्छा ह-इला अमरं
अनुवाद:’आप दोनों मेरे परम भक्त हैं, और मैं अपने आप को आपके सामने प्रकट करना चाहता था। (श्री नवद्वीप-धर्म-महात्म्य ११ .१२२ )
अति अल्पा-दिन ए नादिया नगरीजन्म ला-इबा अमी शचिरा उदारें
अनुवाद:’बहुत जल्द मैं नदिया में शाची देवी के गर्भ से जन्म लूंगा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२३ )
३०० साल बाद चैतन्य महाप्रभु ने मां शची के गर्भ में जन्म लिया।
सर्व-अवतार सकल-भक्त समझदार श्री-कृष्ण-कीर्तन वितारिबा प्रेमा-धने
अनुवाद: ‘मेरे पिछले सभी अवतारों के सभी भक्तों के साथ, मैं श्री कृष्ण-कीर्तन के माध्यम से दिव्य प्रेम के धन का वितरण करूंगा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२४ )
मैं अपने विभिन्न अवतारों के सभी भक्तों को लेकर एक साथ कीर्तन करूंगा।
छब्बीश वत्सरे अमी करिया सन्यास:करिबा अव्यय नीलाचलेते निवास:
अनुवाद:’चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास लूंगा और फिर नीलाचल में रहूंगा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२५ )
मैं २४ साल की उम्र तक अपनी लीला करूंगा और फिर जगन्नाथ पुरी जाऊंगा। आप वहां रह सकते हैं।
तथा भक्त-गण संग संगे महाप्रेमवेषीश्री-गीता-गोविंदा अश्वदिबा अवशेषी
अनुवाद: ‘वहां, गहन दिव्य प्रेम में डूबे हुए, मैं अपने भक्तों के साथ आपके श्री गीता-गोविंद का गहरा आनंद उठाऊंगा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२६ ) जब मैं जगन्नाथ पुरी में रहूंगा, तो मैं अपने भक्तों के साथ आपकी रचना, गीत गोविंदा का आनंद लूंगा।
तव विराचिता गीता-गोविन्द अमर: अतिशय प्रिया-वास्तु कहिलाम सारं
अनुवाद: ‘मैं तुमसे सच कह रहा हूं: तुम्हारा गीता-गोविंदा मुझे अत्यंत प्रिय है। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२७ )
प्रिय जयदेव, आपके द्वारा रचित गीता गोविंद मुझे बहुत प्रिय है।
एइ नवद्वीप-धाम परम चिन्मय:देहंते असिबे हीथा कहिनु निश्चय [१२८ ]
अनुवाद: ‘नवद्वीप धाम आध्यात्मिक और सर्वोच्च है; मैं आपसे वादा करता हूं कि आप शरीर छोड़कर यहां आएंगे। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२८ )
एबे तुमी दोहे याओ याथा नीलाचल: जगन्नाथ सेवा जिया पाबे प्रेमा-फला’
अनुवाद: ‘अभी के लिए आप दोनों नीलाचल जाएंगे। वहाँ जगन्नाथ की सेवा करो, तो तुम्हें दिव्य प्रेम का फल प्राप्त होगा।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१२९ ) अब, तुम दोनों पति-पत्नी, नीलाचल जाओ और भगवान जगन्नाथ की सेवा करो।
एता बलि ‘गौरचंद्र हैला आदर्शन: प्रभुरा विच्छेड़े मुर्छा हया दुई-जन:
अनुवाद: यह कहकर गौरचंद्र गायब हो गए। भगवान से अलग होने पर जयदेव और पद्मावती बेहोश हो गए। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३० )
मिर्चछा-शेष अनारगला कांडिते लागिल: कांडित कांदिते सबा निदान कैला:
अनुवाद: होश में आने पर वे जोर-जोर से रोने लगे। रोते-बिलखते उन्होंने नमाज़ अदा की। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ १३१ )।
हया किबा रूप मोरा देखानु नयने:केमाने वाचिबा एबे तास्त्रा अदरणी
अनुवाद:’काश! हमने क्या रूप देखा है! अब हम उससे अलग कैसे रहेंगे? (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३२ )
नादिया छोटेते प्रभु केन आज्ञा कैला: बूझी ए धाम किच्छु अपराधा हैला:
अनुवाद: ‘प्रभु ने हमें नादिया छोड़ने का आदेश क्यों दिया? हम समझते हैं कि हमने यहां कुछ अपराध किया होगा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३३ )
एइ नवद्वीप-धाम परम चिन्मय: छोटे मनासा एबे विकल्पिता हया:
अनुवाद: ‘नबद्वीप धाम आध्यात्मिक और सर्वोच्च है, और जाने के विचार से हमारे दिल निराश हैं। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३४ )
भला हैता नवद्वीप पाशु पाकी हय:तकिताम चिरा-दीना धाम-चिंता ले:
अनुवाद: पशु या पक्षी बनकर धाम का ध्यान करते हुए सदा यहीं रहना अच्छा होगा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३५ ) यहां नवद्वीप में रहने वाला जानवर या पक्षी होता तो बेहतर होता। मैं इस जगह को कैसे छोड़ सकता हूं?
पारणा छोटे परी तब्बू ए धाम: छोटे न परी ए गृह मनस्कम:
अनुवाद: ‘हम अपनी जान दे सकते हैं, लेकिन हम धाम को नहीं छोड़ सकते, हमारा लगाव इतना तीव्र है। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३६ )मैं अपनी जिंदगी छोड़ सकता हूं लेकिन मैं इस जगह को नहीं छोड़ सकता।
हे प्रभु श्री-गौरांग कृपा वितारिया: राखा अमा दोहे हेथा श्री-चरण दीया’
अनुवाद: ‘हे भगवान! श्री गौरांग! दयालु बनो और हमें यहाँ अपने पवित्र चरणों में रखो।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३७ )
बालिते बालिते दोहे कांड उच्चचार्यं दैव-वान सेई-कृष्णे सुनिबरे पया:
अनुवाद:इस प्रकार बोलते-बोलते वे ऊँचे स्वर से रोए, और फिर उन्हें एक दिव्य वाणी सुनाई दी। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३८ )
दुख नहीं कर दोहे याओ नीलाचल: दुई कथा हबे चित्त न कारा चंचला
अनुवाद: ‘नीलाचल में जाओ, और मन से उदास या अस्थिर मत हो। मैं आपको दो बातें बताऊंगा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१३९ ) उदास मत हो। वहां पहुंचने के बाद दो कार्य किए जाएंगे। इसलिए अपने आप को शांत रखें और बेचैन न हों।
किछु-दिन पूर्व दोहे करिले मानस: नीलाचले वास करी कटक दिवस:
अनुवाद: ‘कुछ समय पहले तुम दोनों कुछ दिन नीलाचल में रहना चाहते थे। (श्री नवद्वीप-धर्म-महात्म्य ११ .१४० )
सेई वंछा जगबंधु परैला तवंजगन्नाथ चाहे तव दर्शन संभव:
अनुवाद: ‘जगन्नाथ ने तुम्हारी यह इच्छा पूरी की है, और वे तुम्हें देखना चाहते हैं। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१४१ ) आपके शब्दों को भगवान जगन्नाथ ने स्वीकार कर लिया है और इसलिए वे अब आपसे मिलना चाहते हैं।
जगन्नाथ तुशी ‘पुणं छनिया शारिरं नवद्वीप दुई जाने नित्य हबे स्थिरा’
अनुवाद: ‘आप दोनों जगन्नाथ को प्रसन्न करेंगे, फिर से अपने शरीर को छोड़ देंगे, और फिर हमेशा के लिए नवद्वीप में निवास करेंगे।’ (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१४२ )
दैव-वां सुनी’ दोहे चले टाटा-कृष्ण: पाछे फिरी नवद्वीप करीना दर्शन:
अनुवाद: दिव्य वाणी सुनते ही जयदेव और पद्मावती तुरन्त चले गए और कुछ देर बाद मुड़कर नवद्वीप की ओर देखने लगे। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१४३ )
छला छला करे नेत्र जलाधर वहींनवद्वीप-वासी-गणे दिन्य-वाक्य कहे:
अनुवाद: वे रो पड़े और उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े। उन्होंने नम्रतापूर्वक नवद्वीप के निवासियों से बात की। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१४४ )
तोमर करिया कृपा एई दुई जाने:अपराधा करियाछी करहा मरजाने’
अनुवाद: ‘कृपया इन दोनों आत्माओं पर दया करें। हमारे द्वारा किए गए अपराधों के लिए कृपया हमें क्षमा करें।’ (श्री नवद्वीप-धर्म-महात्म्य ११ .१४५ )
अष्ट-दल पद्म-सम नवद्वीप भाय: देखे देखे दोहे काटा-दिरे यया:
अनुवाद: वे चले गए, नवद्वीप के आठ पंखुड़ियों वाले कमल को बार-बार देखा। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य 11.146)
धीरे गिया नवद्वीप नहीं देखे अरंकांडिते कांदिते गौड़-भूमि हया पर:
अनुवाद:वे आगे बढ़े और अंततः नवद्वीप को और नहीं देखा। रोते-रोते वे गौड़ प्रदेश के बाहर निकल गए। (श्री नवद्वीप-धाम-महात्म्य ११ .१४७ )
कटा-दिन नीलाचले पौछिया दो जाने: जगन्नाथ दर्शन कैला हृ-मने:
अनुवाद: कुछ समय बाद, वे नीलाचल पहुंचे और जगन्नाथ को हर्षित मन से देखा। (श्री नवद्वीप-धर्म-महात्म्य ११ .१४८ )
उसके बाद वे जीवन भर जगन्नाथ पुरी में रहे और आज इस शुभ दिन पर जयदेव गोस्वामी इस दुनिया से गायब हो गए। पश्चिम बंगाल में, केंडुला जयदेव गोस्वामी का जन्मस्थान है जहां अभी भी उत्सव आयोजित किए जाते हैं। आज जयदेव गोस्वामी जो भगवान के बहुत प्रिय सहयोगी हैं, जिनकी दया गीता गोविंद और दशावतार स्तोत्र के रूप में जीवों पर विशेष रूप से है। वह महाप्रभु को बहुत प्रिय हैं। चैतन्य चरितामृत में इसका उल्लेख है
विद्यापति जयदेव चंडी दसेर गीत असदना रामानंद स्वरूपा संहिता
चैतन्य महाप्रभु रामानंद और स्वरूप के साथ जयदेव की रचनाओं को सुनते और पसंद करते थे। हम बहुत भाग्यशाली हैं कि जयदेव गोस्वामी के वियोग के दिन हमने उनके गुणों और लीलाओं के बारे में सुना। हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि हम चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आंदोलन में शामिल हों। मेरे प्रति अपना स्नेह दिखाने के लिए मैं गुरु महाराज जी को धन्यवाद देना चाहता हूं।
हरे कृष्णा!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
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*जप चर्चा*
*श्रीमान अनंत शेष प्रभु द्वारा*
*दिनांक 22 जनवरी 2022*
हरे कृष्ण!!!
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे*
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
सर्वप्रथम गुरु महाराज और यहां उपस्थित समस्त भक्तों को दण्डवत प्रणाम।
थोड़े विलम्ब के लिए क्षमा चाहता हूं।
आज मुझे विशेष रूप से नाम जप के विषय में बताने के लिए कहा गया है।
हम सब का सौभाग्य है जो हम सभी भक्त गुरु महाराज के पावन सन्निध्य में एकत्रित होकर नाम जप करते हैं।
वास्तविकता में हमें जो प्राप्त हो रहा है, इसकी महिमा हमें स्मरण रहनी चाहिए। जैसा कि मैं कुछ दिन पूर्व कह रहा था कि ऐसा सौभाग्य…, लगभग कह सकते हैं और यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि लभभग सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल अथवा सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा सौभाग्य किसी औऱ भक्त को प्राप्त नहीं हुआ होगा, जो हमें प्राप्त हो रहा है कि हम नित्य प्रति गुरु महाराज के सान्निध्य में नामजप कर रहे हैं। उसी के विषय में मैं थोड़ा कुछ कहना चाहता था।हालांकि नाम की महिमा तो अनंत है। जिस प्रकार से स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने ही आदि पुराण में अर्जुन से कहा था।
*न नाम-सद्रसम ज्ञानम्*
*न नाम-सद्रसम व्रतम*
*न नाम सद्रसम ध्यानम्:*
*न नाम सद्रसम फलम*
*न नाम सद्रसम त्याग:*
*न नाम सद्रसम क्षमा:*
*न नाम सद्रसम पुण्यम:*
*न नाम सद्रसी गति:*
*नामैव परम: मुक्ति:*
*नामैव परम: गति:*
*नामैव परम: शांति:*
*नामैव परम: स्थिति:*
*नामैव परम: भक्ति:*
*नामैव परम: मति:*
*नामैव परम: प्रीति:*
*नामैव परम: स्मृतिः*
*नामैव कार्णम जंतोर*
*नामैव प्रभु एव च*
*नामैव परमराध्याम्:*
*नामैव परमः गुरु:*
(आदि पुराण)
अर्थः-
पवित्र नाम के जप के समान कोई व्रत नहीं है, उससे श्रेष्ठ कोई ज्ञान नहीं है, कोई ध्यान नहीं है जो उसके निकट कहीं भी आता हो और वह सर्वोच्च फल देता है। इसके समान कोई तपस्या नहीं है और पवित्र नाम के समान शक्तिशाली कुछ भी नहीं है।
जप पवित्रता का सबसे बड़ा कार्य और सर्वोच्च शरण है। यहां तक कि वेदों के शब्दों में भी इसकी परिमाण का वर्णन करने के लिए पर्याप्त शक्ति नहीं है, जप मुक्ति, शांति और शाश्वत जीवन का सर्वोच्च मार्ग है। यह भक्ति का शिखर है, हृदय की हर्षित प्रवृत्ति और आकर्षण सर्वोच्च भगवान के स्मरण का सर्वोत्तम रूप है। पवित्र नाम पूरी तरह से जीवों के लाभ के लिए उनके भगवान और गुरु, उनकी सर्वोच्च पूजा की वस्तु और उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शक और गुरु के रूप में प्रकट हुआ है।
आदि पुराण में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्वयं कहा कि नाम से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं, नाम से बढ़कर कोई व्रत नहीं, नाम से बढ़कर कोई ध्यान नहीं है। नाम से बड़ा कोई फल नहीं है। नाम से बढ़कर कोई श्रेष्ठ त्याग नहीं है। नाम से श्रेष्ठ कोई पुण्य नहीं हैं। नाम से बढ़कर कोई स्थिति नहीं। नाम से बड़ी कोई गति नहीं, नाम से बड़ी कोई शांति नहीं। नाम से बढ़कर कोई भक्ति नहीं है। नाम से बड़ी कोई स्थिति नहीं है। नाम से बढ़कर कोई स्मृति नहीं है। वास्तविक नाम से बड़ा कोई प्रभु नहीं है। नाम ही सबसे श्रेष्ठ आराध्य है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के कुछ वचन मुझे स्मरण हो रहे थे कि नाम ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। हमनें यह कुछ दिन पहले परम् पूज्य श्रीमान मुरली मनोहर प्रभु के मुख से भी श्रवण किया था।
परंतु यह नाम कैसे प्रकाशित होता है? नाम किस प्रकार से हमारे जीवन में प्रकट होता है। इस विषय में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर अपने भजन में कहते हैं कि नाम जप का लाभ कैसे मिलेगा। उन्होंने वहां पर जो प्रथम बात कही है, वैसे अन्य भी कई बातें कही है परंतु सबसे प्रथम बात जो कही गयी है, वह यह है कि
*नाम चिंतामणि: कृष्णश्र्चैतन्य- रस- विग्रह: पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तो अभिन्नत्वान्नाम- नामिनोः।।*
( पदम् पुराण)
अर्थ:- कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंद मय है। यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वरदान देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनंद का आगार अर्थात स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, वह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि कृष्ण नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न है।
भगवान् श्रीकृष्ण का नाम और भगवान् अभिन्न है। भक्ति विनोद ठाकुर के शब्दों में यह बात जब स्वीकार करते हैं और इस बात की स्वीकृति होने के साथ जब नाम जप किया जाता है, तब नाम जप के समय यह अनुभूति हो कि साक्षात भगवान् ही हमारे साथ हैं, तब वास्तविक नाम जप प्रारंभ होता है। जब तक यह धारणा आप ह्रदय में स्वीकार न करें तब तक अनुभव रहता है कि नाम जप यांत्रिक ही रहता है। नाम स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं, यह बतलाया जाता है और भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं। जिस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण भी इस धरातल पर अवतरित हुए थे।
*अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोऽपि सन् | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ||*
( श्रीमद भगवतगीता 4.6)
अनुवाद:-
यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |
भगवान् अपनी स्वेच्छा से इस धरातल पर अवतरित होते हैं। विशेष रूप से जब भक्तों के द्वारा आह्वाहन किया जाता है। जब समस्त भक्तगण मिलकर आह्वाहन करते हैं। भगवान् रामचंद्र इस धरातल पर अवतरित हुए। भगवान् श्रीकृष्ण इस धरातल पर अवतरित हुए। समस्त देवताओं ब्रह्मा, शिव आदि ने मिलकर भगवान् का आह्वाहन किया। भगवान् को आमंत्रण दिया। तब भगवान् प्रकट हुए। साथ में ही हम देखते हैं कि जब हम भगवान् की अर्चावतार के रूप में अर्चना करते हैं।
अर्चा विग्रह भी कैसे अवतरित होता है? यह बतलाया जाता है कि आचार्य आह्वाहन करते हैं। अन्य शब्दों में मैं दोनों दृष्टांत देकर बतलाना चाहता था कि जिस तरह से भगवान् अपने लीला अवतार या अर्चा अवतार तब लेते हैं, जब सब भक्त मिलकर आह्वाहन करते हैं। जैसे भगवान् अवतरित होते हैं, वैसे ही भगवान नाम के रूप में हमारे जीवन में कैसे प्रकट होते हैं? जब उसे भी गुरु, साधु मिलकर आह्वाहन करते हैं। जैसे श्री जगदानंद पंडित प्रेम विवर्त में कहते हैं-
*असाधु-संगे भाई कृष्ण-नाम नहीं हय नामक्षर बहिरय बते तबू नाम कबू नये*
अर्थ:-
कभी-कभी नाम का आभास होता है, लेकिन नाम के प्रति अपराध हमेशा होते हैं। इन दोनों को जानो, भाई, कृष्ण भक्ति में बाधक बनना।
असाधु की संगति में वास्तविक नाम कभी प्रकट नहीं होता है। नामक्षर बहिरय बते नाम नहीं हय। वहां अक्षर मात्र रहते हैं। परंतु आवश्यक नहीं नाम प्रभु साक्षात नाम के रूप में हमारी जिव्हा पर प्रकट होंगे। वैसे असत्संगति तो कई हैं परंतु सबसे मुख्य असाधुता जो बतलाई जाती है, वह हमारा मन है। मन ही सबसे बड़ा असाधु है। जहां तक मुझे स्मरण है, ध्यान चंद्र गोस्वामी ने गोपाल गुरु गोस्वामी की महामन्त्र टीका में इस बात को बतलाया है। अनेक जन्मों की भक्ति उन्मुख स्वीकृति के बल से…, भक्ति उन्मुख स्वीकृति कैसे प्राप्त होती है? बतलाया जाता है कि जब हमारे जीवन में किसी साधु या गुरु का सङ्ग होता है। उस साधु गुरु के सङ्ग से भक्ति उन्मुखी स्वीकृति होती है। भक्ति उन्मुखी स्वीकृति से व्यक्ति श्रद्धा को प्राप्त करता है। जब श्रद्धा प्राप्त होती है तब बतलाया जाता है कि वह गुरु का आश्रय प्राप्त करता है। यहां पर कह रहे हैं कि कई जन्मों में अर्चना करने के पश्चात उसे श्रद्धा प्राप्त होती है। कौन सी श्रद्धा? नाम की श्रद्धा, जब नाम की श्रद्धा आती है तो वहां साधु सङ्ग से वह नाम जप को करता है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा-
साधु सङ्गे, भजन क्रिया.. भजन प्रारंभ कब होता है, जब साधु का सङ्ग हो। प्रारंभ में जिस साधक को कृष्ण नाम में श्रद्धा होती है, उनके लिए बतलाया जाता है कि वह तत्व विद गुरु का आश्रय ग्रहण करता है। ऐसे तत्वविद जो नाम को तत्व से जानते हैं उनका आश्रय लेकर वह उनके सङ्ग में नाम- कीर्तन करता है। ऐसा नाम- कीर्तन करने से अल्प समय में उसका चित पवित्र होने लगता है और अविद्या का नाश होता है।अविद्या का नाश मतलब हमारी भगवान् श्रीकृष्ण जो विस्मृति हुई है,उसका नाश होता है। सम्बंध ज्ञान बहुत शीघ्र जागृत होने लगता है। यहां जो मैं पढ़ रहा था, ये ध्यान चन्द्र गोस्वामी के वचन है।
साथ ही हरिनाम चिंतामणि में वर्णन है.., हालांकि मेरा कुछ प्रेजेंटेशन दिखाने का विचार था, परंतु वह यहां चलते हुए नहीं बताया जा सकता। हरिनाम चिंतामणि में जहां पर 10 नाम अपराधों का वर्णन श्री हरिदास ठाकुर ने किया है । दस नाम अपराधों के अंतर्गत असावधानीपूर्वक नाम जपना अर्थात ध्यानपूर्वक नाम जप ना करना है, जो समस्त अनर्थों, समस्त दोषों व समस्त अपराधों का मूल कहा गया है। उसमें भी तीन बताए गए हैं, उदासीनता मतलब नाम के प्रति रस न प्राप्त होना। नाम के प्रति कोई आकर्षण ना होना। दूसरा लय बताया गया है अर्थात नाम जप करते समय नींद आना। तीसरा विक्षेप बताया गया था अर्थात मन की चंचलता। मन कृष्ण को छोड़कर अन्य विषयों में भटकना। तीन जो दोष बताए गए हैं, मैं वहां तीनों दोषों के उपाय हरि नाम चिंतामणि में पढ़ रहा था। (अभी समय का अभाव भी है) वैसे इसका हमने विस्तृत रूप से अलग एक सेमिनार भी किया था। इन तीनों के उपाय में वहां बताया जाता है कि गुरु साधु के आश्रय में बैठकर जब उस नाम का जप किया जाता है तब तीनों दोष बहुत शीघ्र ही चित से निकलने लगते हैं। जिस प्रकार से इसके पूर्व एक चर्चा में एक जप टॉक में मैंने बताया भी था। एक पुराण के श्लोक में आता है (अभी श्लोक मेरे पास उपलब्ध नहीं है।) कि मंत्र का प्रभाव स्थान के हिसाब से अपने आपको प्रकाशित करता है। जैसे भगवान भगवद्गीता में कहते हैं –
*नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः |मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 7.25)
अनुवाद
मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ | उनके लिए तो मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ ।
“जैसे मैं सहजता से अपने आप को प्रकाशित नहीं करता, वैसे नाम भी सर्वत्र प्रकाशित नहीं होता। “वहां ऐसा बतलाया जाता है कि जब नाम को अपने घर में बैठकर उच्चारित करते हैं तो नाम का एक फल प्राप्त होता है और उसी नाम को जब आप गौशाला (जहां पर गाय रखी जाती है। गाय के शरीर में समस्त देवों व समस्त तीर्थों का वास होता है) में गाय के सानिध्य में नामजप किया जाए तो उसका दस गुना फल बताया गया है। वहैं फिर जब तुलसी के सानिध्य में नाम जप किया जाता है तब उसका शत गुणा फल बतलाया जाता है। उसके ऊपर उन्होंने बहुत अधिक विशेष जोर दिया है। तुलसीदास ठाकुर स्वयं भी तुलसी के सानिध्य में जप करते थे। बताया जाता है कि जब नाम जप करते हैं, विशेष रूप से जब हम भोग लगाते हैं तब भोग लगाते समय तुलसी का पत्र रखते हैं ताकि वह भोग भगवान श्रीकृष्ण के ग्रहण करने योग्य बन सके। बिन तुलसी भगवान कोई भोग स्वीकार नहीं करते। वैसे गुरु क्या करता है? गुरु तुलसी प्रदान करता है। गले के लिए कंठी भी देते हैं और हाथ में माला भी प्रदान करते हैं। तब हम वास्तविक रूप से भगवान के द्वारा स्वीकार करने योग्य बनते हैं। वहां पर बतलाया जाता है कि श्रील हरिदास ठाकुर वहां पर काफी जोर दिया हैं एक तो तुलसी के सानिध्य में जप करना और साथ में जो तुलसी की माला पर जप करते हैं, उन्हें सदैव यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि तुलसी भगवान की नित्य संगिनी है। भगवान की सेविका है। यह कोई जड़ पदार्थ नहीं है। कभी-कभी हम दोष के कारण विचार करते हैं कि तुलसी की माला कोई लकड़ी या कोई मणि है। हमने वास्तव में ऐसे-ऐसे भक्तों की कथाओं का श्रवण किया है, जिन्होंने श्री विग्रह का अनुभव किया है। कुछ कथाओं में बताया जाता है, किस प्रकार विग्रह रूप में जैसे साक्षी गोपाल या अन्य विग्रह रूप में भगवान भक्तों के साथ आदान प्रदान करते हैं। वैसे ही कथाएं प्राप्त होती हैं। जब जब तुलसी की माला भी हमारे भाव को सुनती है। तुलसी की माला भी आदान प्रदान करती है। कई बार बहुत उच्च कोटि के भक्तों की कथाओं में सुनते हैं कि आज माला रुष्ट हो चुकी है, आज माला अधिक प्रसन्न है। वहां पर बतलाया जाता है कि जब माला गुरु से प्राप्त होती है , उसके प्रति कैसा भाव होना चाहिए? जैसा श्रीविग्रह के प्रति भाव होता है, हमें वैसा ही भाव रखकर उसकी आराधना करनी चाहिए।
कभी भी किसी भी अवस्था में अपनी माला को किसी को दिखानी नहीं चाहिए। कहा जाता है कि कभी किसी अन्य व्यक्ति की दृष्टि आप की माला पर पड़ जाती है तो आपके जप का जो फल है,उसका कुछ प्रतिशत उसको प्राप्त होने लगता है। माला को सदैव आदरपूर्वक रखा जाना चाहिए। कई भक्त उसको बहुतअच्छी तरह से रखते हैं। जैसे आपकी पूजा की वेदी होती है। वहां पर उस माला को रखा जा सकता है। एक बहुत सुंदर उपाय मैंने सुना था कि जो नाम जप अच्छे से करना चाहता हो,वह रात्रि को सोने से पूर्व कुछ जप करें और जप करने के पश्चात अपनी माला को प्रणाम करें। माला को प्रणाम करके प्रार्थना करें कि वह उसे नाम रुचि प्रदान करें। प्रातः काल जैसे ही आंख खुलती है। दो कार्य महत्वपूर्ण बताए गए हैं कि आंख खुलते ही मुँह भी न धोये और हाथ भी ना धोये, उठते ही दो कार्य बताए गए हैं कि माला को प्रदान करने वाले गुरु को और माला को, दोनों को तुरंत प्रणाम करना चाहिए। यह जैसे ही करते हैं, आपकी नाम रुचि बहुत अधिक बढ़ने लगती है। क्योंकि माला कृपा करती है तो मंत्र बहुत शीघ्रता से होता है। इसलिए उस तुलसी के सानिध्य में किए गए जप के फल को शतगुणा कहा गया है। तत्पश्चात उसे ही जब किसी तीर्थ क्षेत्र जैसे गंगा, यमुना जैसी नदियों के तट पर जप किया जाता है तब उसका सहस्त्र गुणा फल बताया गया है अर्थात यदि नदियों पर लगभग सात हाथ के अंतर में जब जप किया जाता है तब सहस्त्र गुणा फल मिलता है। यदि भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थली जैसे वृंदावन, गोवर्धन, काम वन आदि जैसे स्थानों पर जप किया जाता है तब लगभग उसका लक्ष्य गुणा फल कहा गया है, इन्हें मन्त्र सिद्ध स्थली भी कहा जाता है।
जहां पर रूप गोस्वामी व सनातन गोस्वामी आदि की भजन कुटीर है। जहां पर उन्होंने मंत्र का जप किया। जहां जप करके उनका मन्त्र सिद्ध हुआ। नाम के साथ रूप, गुण, लीला आदि को भी उस स्थान पर प्रकाशित किया। वहां पर जो व्यक्ति भजन व जप करता है…। नाम जप के परमाणु चारों तरफ सदा उस स्थान पर बने रहते हैं। कुछ भक्तों का ऐसा अनुभव होता है कि जब हम धाम में जाते हैं, गोवर्धन परिक्रमा करते हैं, आचार्यों के स्थान, व उनकी समाधि ,उनके भजन कुटीर, पर जाते हैं। पहली बात कि हमें अधिक नाम जप की इच्छा होने लगती है। दूसरा अनुभव देखा गया है कि अति शीघ्रता से नाम जप होने लगता है। वहां पर बतलाया गया है कि ऐसे स्थानों पर यदि नाम जप को किया जाए तो 10 लक्ष्य गुणा फल बताया गया है। उसी नाम को यदि जिन गुरु ने मंत्र प्रदान किया है, उन गुरु के सानिध्य में यदि उस मंत्र का जप किया जाता है तो बतलाया जाता है कि उसका फल फिर अनंत गुणा प्राप्त होता है। हरि बोल !!! (मेरा समय तो लगभग हो चुका है)
प्रथम बात जो मैंने बताई कि गुरु के सानिध्य में नाम जप किया जाता है परंतु जब हम वहीं गुरु के सानिध्य में नाम जप करते हैं तो गुरु की कृपा दृष्टि पड़ती है। वास्तविक जब हम गुरु के दृष्टि पथ में आते हैं तब किस प्रकार से भक्ति प्राप्त होती है यह हमारा अनुभव जो है इस जगत में।
*भक्तिस्तु भगवद भक्त संगीता परिजायते सत-संग-प्रपयते पुंभिः सुकृतैः पूर्व संहिताः।।*
(ब्रह्म नारदीय पुराण 4.33)
“भक्ति भगवान के भक्तों की संगति से प्रकट होती है। भक्तों की संगति पिछले संचित पवित्रता से प्राप्त होती है।”
कैसे हम भक्ति मार्ग में आए, वहां बतलाया जाता है कि जब हम किसी साधु के संकल्प में आते हैं।
कोई भक्त हमसे मिला। किसी भक्त के मन में इच्छा हुई कि यह व्यक्ति भक्त बनना चाहिए। जिस प्रकार से चैतन्य भागवत में वर्णन आता है कि नित्यानंद और हरिदास संकीर्तन कर रहे थे। नित्यानंद प्रभु की दृष्टि जगाई, मधाई पर पड़ी, तुरंत उस समय जब नित्यानंद प्रभु को पता चला कि यह बहुत बड़े पापी हैं। उनके मन में आया कि अगर यदि इनको श्री महाप्रभु की कृपा मिलेगी तो वास्तविक रूप से चैतन्य महाप्रभु का नाम पतित पावन प्रसिद्ध हो जाएगा। तुरंत उसी समय हरिदास ठाकुर कहते हैं कि हे नित्यानंद यदि आपके संकल्प में आ चुका है कि यह भक्त बने तो निश्चित रूप से इनका उद्धार हो गया। जिस तरह से श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं-
*वैष्णवेर आवेदन कृष्णः दयामय एहे न पामर*…. यदि हम वैष्णव की दृष्टि में आते हैं, वैष्णव के संकल्प में आते हैं तो तुरंत हम में भक्ति की श्रद्धा जागृत होती है। वहां पर बतलाया जाता है कि दो मार्ग है – वैधी मार्ग और रागानुगा मार्ग। श्री शचीनन्दन महाराज अपने ग्रंथ हार्ट ऑफ ट्रांसफॉर्मेशन अर्थात ह्रदय के परिवर्तन में बताते हैं कि हम जो नाम जप कर रहे हैं, हम जो साधना कर रहे हैं, हम जो कथा श्रवण करते हैं, हम जो विग्रह की अर्चना आदि करते हैं। इन समस्त कार्य को वैधी भक्ति कहा जाता है। वैधी भक्ति अर्थात जब आपका मन भगवान में ना लगा हो, भगवान के प्रति सहज स्वाभाविक आकर्षण ना होते हुए भी शास्त्र के निर्देश में आप अपनी इंद्रियों को भगवान की सेवा में लगाते हैं। इसको वैधी भक्ति कहा जाता है। एक बहुत सुंदर बात वहां पर शचीनन्दन महाराज बतलाते हैं। जब आप वैधीभक्ति करते हैं। व्यक्ति वैधी भक्ति कितनी भी करें ,आप कितना भी समय करते रहे, वैधी भक्ति में वह सामर्थ्य नहीं है कि आपको रागानुग भक्ति में लेकर जाए। जिस प्रकार से नवद्वीप धाम महात्म्य में भी आता है कि नित्यानंद प्रभु और श्री जीव गोस्वामीपाद संवाद में बताया गया है कि *कोटि वर्ष करि यदि श्री कृष्ण भजन कभु ना पाए कृष्ण नाम प्रेम धन।।*
करोड़ों वर्ष भी श्रीकृष्ण का भजन किया जाए फिर भी नाम के प्रति रुचि नहीं प्राप्त हो सकती। फिर प्रश्न आता है कि वैधी भक्ति से राग भक्ति में कैसे जाया जा सकता है? वहां पर शचीनन्दन महाराज बताते हैं कि जब आप वैधी भक्ति करते हैं। वैधी भक्ति करते हुए गुरु के प्रति पूरा समर्पण आ जाता है, आप पूर्णतया से गुरु को समर्पित होते हैं। गुरु की इच्छा के अनुसार गुरु के अनुकूल बनकर जब अपने आपको उनको अर्पित करते हैं। वहां पर शब्द का प्रयोग किया है कि उनको कृत दास कहा जाता है। कृत दास मतलब पूर्णतया से विदाउट एनी रिजर्वेशन कमिंग आउट ऑफ द कंफर्ट जोन। जो अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकलकर गुरु को प्रसन्नता देने के लिए कष्ट को स्वीकार करता है। यह कार्य होने से क्या होता है। गुरु के चित में आह्लाद आता है। गुरु प्रसन्न होते हैं। गुरु के मुख मंडल सुमित हास्य आता है, वहां पर बताया गया है कि जब हमारे ऐसे कार्य से गुरु के ह्रदय में आह्लाद आता है और गुरु हमारा प्रसन्नतापूर्वक स्मरण करने लगते हैं।
अभी तो हमारी ऐसी दशा है कि अभी गुरु हमें सहन करते हैं। गुरु हम से प्रसन्न नहीं होते। गुरु प्रसन्न हो जाएं और गुरु के चित्त अथवा गुरु की स्मृति में जब हम आने लगते हैं तो उसका परिणाम क्या होता है। तब बतलाया जाता है कि अब जो वैधी मार्ग में है। तुरंत आपको रागानुगा भक्ति का जो रस है, वह बूंद बूंद करके प्राप्त होने लगता है। अन्य शब्दों में कहा जाए बहुत सुंदर बात आचार्यगण बतलाते हैं कि हम जब गुरु का स्मरण कर रहे हैं..। प्रातः काल गुरु का स्मरण करना बहुत पवित्र होता है। कल हम श्रीमद् भागवतं के चुर्तथ स्कन्ध का श्रवण कर रहे थे, जहां पर दक्ष प्रजापति द्वारा शिवजी के दर्शन का वर्णन है। शिवजी के दर्शन करने मात्र से ही उनका ह्रदय का कल्मष दूर हो गया था। इसी तरह से भागवतम के प्रथम स्कंध में भी कहा गया है
*येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः । किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभिः ॥*
( श्रीमद भागवतम 1.19.33)
अनुवाद:-
आपके स्मरण मात्र से हमारे घर तुरन्त पवित्र हो जाते हैं । तो आपको देखने स्पर्श करने, आपके पवित्र चरणों को धोने तथा अपने घर में आपको आसन प्रदान करने के विषय में तो कहना ही क्या ?
आप जब गुरु का स्मरण करते हैं तो आपके हृदय का कल्मष निकल जाता है, इसे अनर्थ निवृति कहते हैं। आप जब गुरु का स्मरण करेंगे तो अनर्थ निवृत्ति होती है लेकिन जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो अब अर्थ प्रवृत्ति होती है। आप जब गुरु का स्मरण करते हैं तो वैधी भक्ति प्रारंभ होती है। जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो रागानुगा भक्ति प्रारंभ होती है। आप जब गुरु का स्मरण कर रहे हैं तो आप के चित्त से संसार की इच्छाएं निकलने लगती है लेकिन जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो आपके अंदर भगवत लालसा जन्म लेती है। जब आप गुरु का स्मरण करते हैं तो संसार हृदय से निकलता है जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो भगवान श्रीकृष्ण हृदय में प्रवेश करते हैं। जब आप गुरू का स्मरण करते हैं तो भगवान् के नाम के प्रति निष्ठा आने लगती है लेकिन गुरु का स्मरण करने से नाम की पकड़ आती है। कुछ दिन पहले मैं सुन रहा था कि यदि गुरु की कृपा ना हो, नाम जप करना तो दूर की बात है, एक नाम भी मुख से नहीं निकलेगा। देखा जाता है कि जब गुरु अप्रसन्न हो जाए तो मुख से नाम भी निकलना बंद हो जाता है। गुरु का स्मरण करने से आपके नाम में पकड़ आती है मतलब आप हरि नाम को पकड़ते हैं परंतु गुरु आपका स्मरण करने लगे तो हरि नाम आप को पकड़ने लगता है। आप जब गुरु का स्मरण करते हैं तो आप की बहिर्मुखता चली जाती है मतलब आप कृष्ण उन्मुख हो जाते हैं और गुरु का स्मरण करने से आप कृष्ण उन्मुख होते हैं। आपका ध्यान कृष्ण की ओर जाने लगता है। आप कृष्ण की ओर देखने लगते हैं। कृष्ण में आपका चिंतन होने लगता है परंतु जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो कृष्ण आपका चिंतन करने लगते हैं। हम जब गुरु का स्मरण करते हैं भक्ति की इच्छा…
भगवान की प्राप्ति कैसे होती है? बतलाया जाता है कि सर्वाधिक आवश्यक है कि भगवान की प्राप्ति की इच्छा हो। गुरु के स्मरण से वह इच्छा जागृत होती है। गुरु का स्मरण करने से भक्ति की इच्छा जागृत होती है परंतु जब गुरु हमारा स्मरण करते हैं, वहां बतलाया जाता है कि हम भगवान की इच्छा करना तो और बात है, भगवान हमारे सानिध्य की इच्छा करने लगते हैं। इस तरह की बहुत सारी बातें हैं। जितना मुझे स्मरण हुआ। वैसे एक अन्य प्रेजेंटेशन था उसमें बहुत विस्तृत रूप से बताया गया है। एक श्लोक भी आता है अभी मेरे समक्ष वह श्लोक नहीं है। जिसे गुरु दिव्य दृष्टि कहा जाता है। बहुत बड़ी महिमा है यदि आप गुरु की दृष्टि में आ जाते हैं, गुरु के संकल्प में आ जाते हैं…। जिस प्रकार से श्रील रूप गोस्वामी उपदेशामृत में कहा है कि समस्त भौतिक जगत से श्रेष्ठ वैकुंठ है, वैकुंठ से श्रेष्ठ मथुरापुरी कहा गया है क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण जहां स्वयं प्रकट हुए। मथुरा से श्रेष्ठ वृंदावन को बतलाया जाता है क्योंकि श्रीकृष्ण की नित्य लीला वहां पर हुई है। वृंदावन से श्रेष्ठ गोवर्धन है क्योंकि श्रीकृष्ण उसे अपने कर कमलों पर धारण करते हैं। गोवर्धन से श्रेष्ठ राधाकुंड को बतलाया जाता है क्योंकि वहां पर राधा कृष्ण नित्य विहार करते हैं परंतु कुछ भक्त बतलाते हैं कि राधा कुंड से भी श्रेष्ठ स्थान गुरु का हृदय है। जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि क्या है? जब आप गुरु के चित्त में अथवा गुरु के हृदय में आ जाए। वास्तविक रूप से हम नहीं जानते और जाने-अनजाने में भले ही यह यांत्रिक रुप से दिखाई दे रहा है कि हम मशीन/ मोबाइल के सामने बैठे हैं परंतु वास्तविकता में प्रातः काल का जो ब्रह्म मुहूर्त का काल है, ब्रह्म मुहूर्त के काल में वे गुरु जिनके हृदय में राधा-कृष्ण का चिंतन होता है,..।
जब हम कृष्ण प्रेष्ठाएं कहते हैं। कृष्ण प्रेष्ठाएं का अर्थ क्या होता है? आप समझते हैं? कृष्ण प्रेष्ठाएं वे हैं जो कृष्ण का चिंतन नहीं करते अपितु कृष्ण जिनका चिंतन करते हैं, कृष्ण जिनका स्मरण करते हैं। इसलिए उनको कृष्ण प्रेष्ठाएं कहा गया है अर्थात जो कृष्ण को अति प्रिय है। कृष्ण जिनको याद करते हैं। वे गुरु जिनको कृष्ण स्मरण कर रहे हैं, जिनके हृदय में राधा कृष्ण नित्य वास करते हैं। ऐसे गुरु के सामने जब हम आ जाते हैं और वे गुरु हमारा स्मरण करते हैं। व्यवहारिक अनुभव में देखा जाता है ( क्षमा चाहता हूं बहुत समय ले लिया) कि कई भक्त जो नियमित रूप से दो-तीन सालों से जप कर रहे हैं। केवल गुरु महाराज के सानिध्य में जप करने से उनके जीवन में बहुत बड़ी आध्यात्मिक क्रांति आई है। जल्दी उठने की आदत बनना, वह तो एक अलग बात है लेकिन कई भक्तों का अनुभव हुआ है कि जब महाराज उन्हें देखकर प्रसन्न होते हैं और जब महाराज देखते हैं कि अधिक से अधिक भक्त नाम जप कर रहे हैं तो परिणाम यह हुआ है कि उनकी नाम रुचि, नाम के प्रति निष्ठा, भक्तिमय जीवन में जो स्थिरता है, वह बहुत तेजी से हो रही है। कहीं भक्त नाम जप में बहुत अधिक गंभीर हो चुके हैं। कई भक्तों का नाम जप बहुत अधिक बढ़ा है।
क्रमश: हमारा यह विचार था और लगभग यह चर्चा भी हुई थी, जब हम पंढरपुर में थे। आपकी जानकारी के लिए महाराज जी के पूरे विश्व में लगभग 7000 से अधिक शिष्य हैं परंतु यहां पर लगभग दो-तीन हजार भक्त ही दिखाई देते हैं। पता नहीं क्या कारण है, जो भी कारण हो अन्य भक्त दिखाई नहीं देते परंतु धीरे-धीरे दीक्षा के नियमों में भी इस बात को लाया जा रहा है कि जो भी दीक्षा लेने वाले भक्त है, पदमाली प्रभु बता रहे थे कि उनके लिए कम से कम 500 जपा टॉक अर्थात कम से कम एक से डेढ़ वर्ष नियमित रूप से महाराज के सानिध्य में नाम जप करें। यह अपने आप में बहुत शक्तिशाली ट्रेनिंग है। जो तुरंत सभी भक्तों को भक्ति की उच्चतम अवस्था में ले जा सकती है। जब हम यह चर्चा कर रहे थे तो हमारे पदमाली प्रभु कह रहे थे कि कम से कम हजार भक्त तो होना चाहिए तब हम कह रहे थे हजार नही अपितु हमें महाराज जी के लिए कम से कम 5000 पार्टिसिपेंट्स वाला ग्रुप तो लेना चाहिए। इसलिए सभी भक्तों से अनुरोध है और आशा करते हैं की जो भी भक्त सुन रहे है, आप सभी अधिक से अधिक अपने अपने क्षेत्र में एक संस्कृति या कल्चरल विकसित करें कि जितने भी भक्त प्रचार कर रहे है या जितने भी भक्त नाम जप कर रहे हैं या जितने भी भक्त महाराज के सानिध्य में है, आवश्यक नहीं है कि वे महाराज के शिष्य हो। अन्य भी किसी गुरु के शिष्य हो सकते हैं। सभी को उत्साहित करें ताकि यह जो मन में भावना थी कि हम 1000 वाला नहीं अपितु हम एक दो या तीन, चार हजार वाला ग्रुप नहीं अपितु 5000 पार्टिसिपेंट वाला ग्रुप ले सके। तब हमारा वह संकल्प पूर्ण होगा और हम अधिक से अधिक इस नाम की कृपा को प्राप्त कर सकेंगे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
( अधिक समय के लिए क्षमा चाहते हैं)
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
21 जनवरी 2021,
श्रीमान ब्रज विलास प्रभुजी.
ओम अज्ञानं तिमिरंधास्ञ ज्ञानांजन शलाकय।
चक्षुरन्मिलितन्मेन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
हे कृष्ण करुणासिंधु दीनबंधु जगत्पते गोपेश, गोपीकाकांत राधाकांत नमस्तुते।
तप्तकांचन गौरांगी राधे वृंदावनेश्वरी,
वृषभानोसुतेदेवै प्रणमामि हरिप्रिये।।
नमो विष्णुपादाय कृष्णप्रेष्ठाय भुतले।
श्रीमते लोकनाथ स्वामीने इति नामिने।।
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद,
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौरभक्त वृंद।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण, सर्वप्रथम मैं अपने परमपूज्य गुरुमहाराज श्रील लोकनाथ स्वामी गोस्वामी महाराज के श्री चरणों में प्रणाम करते हुए, आप सभी गुरु भाई और गुरु बहनों को भी नमस्कार करता हूं। और कुछ विशेष प्रार्थना में करना चाहूंगा क्योंकि, बात यह है कि हजारों गुरु भाई और गुरु बहनों को कुछ कहने का अवसर हमें मिला है। यह हमारे सौभाग्य की बात है। मैं संक्षिप्त रूप में कहूंगा। यह केवल जप चर्चा है। गुरुमहाराज जी की विशेष कृपा है। जब महाराजजी ने अपनी शिष्यों के ऊपर कृपा करने के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया क्योंकि, यह कहां गया है कि, वास्तव में सच्चे गुरु वही है
गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात् । दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम् ॥
यानी भगवान ऋषभदेव ने कहा जो अपने शिष्यों को जन्मा मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने का प्रयास ना करें, वह वास्तव में गुरु नहीं है। वही माता-पिता के बारे में कहा वही इष्टदेव के बारे में कहा वास्तव में हम देख रहे हैं कि हमारे जो गुरु महाराज है वह कितने परम कृपालु और कितने दयालु है। जो हमें जन्म मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने का ही प्रयास कर रहे हैं क्योंकि, वास्तव में सच्चे साधु का यही कर्तव्य है जो, हमारे गुरुदेव कर रहे हैं। यह कहावत कही गई है, “वृक्ष कभी फल न ढके नदी न संचे नीर, करूणा रथ के कारण साधु ने धरा शरीर” कहते हैं वृक्ष कभी अपने फलों को नहीं खाते। फलों का बोझ सहन करते हैं लेकिन, अपने फल का रसास्वादन नहीं करते। दूसरे लोगों के लिए वृक्ष इतना फल धारण करते हैं। नदियां भी कितना जल लेकर चलती है लेकिन, वह स्वयं के लिए नहीं करती दुसरे लोगों के कल्याण के लिए ही वह करती हैं। उसी प्रकार करुणा रथ के कारण साधु धरा शरीर दूसरों के कल्याण के लिए जो साधु शरीर धारण करते हैं। भले ही कष्ट हो, तकलीफ हो फिर भी वह सभी के कल्याण के लिए लगे ही रहते हैं। गुरु महाराज की बड़ी कृपा है क्योंकि, हरिनाम जप के कारण है हमारे अंतःकरण की शुद्धि होती है। हमारा मन पवित्र हो जाता है। और जब मन पवित्र होता है तभी ही हमारा चित्त श्रीकृष्ण के चरणों में लग जाता है क्योंकि, सारा खेल तो मन का ही है।”मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।।” सारा खेल मन का है। इसीलिए भगवान कपिल देव ने माता से कहां मां यह मन ही जीव के बंधन का कारण है और मन है मोक्ष का कारण है।
चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् । गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये।।
भगवान कपिल देव कहते हैं मां यह मन ही बंधन का कारण है यह मन मोक्ष का कारण है, कैसे? गुणेषु सक्तं बन्धाय यह मन है बंधन का कारण है कैसे, यह मन प्रकृति के तीनो गुणो में आसक्त हो जाता है तो यह मन बंधन का कारण हो जाता है। रतं वा पुंसि मुक्तये परम कृष्ण भगवान के चरणों में जब इस रति आसक्त हो जाते हैं प्रेम होता है तब यह मन मुक्ति का कारण हो जाता है। इसीलिए भक्तों का साधक का सर्वप्रथम कर्तव्य यही है अपने मन को निर्मल बनाएं। मन को शुद्ध बनाएं। भगवान ने कहा भी है।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥ भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥
भगवान ने कहा है जिसका मन निर्मल है वही मुझे प्राप्त कर सकता है। जिसके मन में थोड़ा भी कुछ छल है, कपट है, राग द्वेष क्रोध काम है इत्यादि सारे विकार भरे हुए हैं वह मुझे कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता। मन को शुद्ध करने के लिए हमारे गुरु महाराज ने बड़ा ही सुंदर कार्यक्रम शुरू किया है। नित्य प्रति गुरु महाराज के सानिध्य में जप करते हैं। जिससे मन शुद्ध होगा और जब मन शुद्ध होगा तो निश्चित रूप से कन्हैया हमारे मन में आकर विराजमान हो जाएंगे। भगवान गीता में कहां हैं
” मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेश्य |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || ८ ||”
भगवान कहते हैं तुम अपने मन को मुझे दे दो। अर्थात अपने मन को मुझ में स्थित करके अपनी सारी बुद्धि मुझ में लगा दो। और ऐसा करोगे तो निश्चित रूप से मयि निवेश्य |
निवसिष्यसि मुझ में ही निवास करोगे। हम अपने मन को शुद्ध भाव से भगवान के चरणों में ले सकते हैं। तब भी हम भगवान के चरणों में स्थान प्राप्त कर सकते हैं। हमारे पूर्व आचार्य है रूप गोस्वामी इसलिए हम रूपानुग हैं। परमपूज्य लोकनाथ स्वामी कहते हैं कि, हम प्रभुपादानुग रूपानुग है। तो रूप गोस्वामी ने बहुत ही सुंदर गीत गाया है। थोड़ा इसे गाऊंगा उसके भी इच्छा हुई है। उन्होंने प्रार्थना की है और मन के लिए ही। प्रार्थना की है, कृष्ण देव! भवन्तं वन्दे
मन्मानसमधुकरमर्पय निजपदपङ्कजमकरन्दे।
अर्थात रूप गोस्वामी कहते हैं कि, हे कृष्ण, हे प्रभु मैं आपके चरणकमलों की वंदना करता हूं। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, कृपया मेरे मन में मधुकर को मना रूपी भ्रमर को अपनी चरणकमलो रुपी मकरंद में इसे लगा लीजिए। अर्थात अपने चरणारविंद का रस इसे चखा दीजिए। जिससे यह मन तो कभी संसार रूपी विषय में न जाए।
यद्यपि समाधिषु विधिरपि पश्यति न तव नखाग्रमरीचिम्
इदमिच्छामि निशम्य तवाच्युत! तदपि कृपाद्भुतवीचिम्
रूप गोस्वामी कहते हैं, हे प्रभु यद्यपि ब्रह्मजी भी समाधि लगा करके ही आपके चरणनखों की ज्योति के भी एक तिनका भी नहीं देख पाते यानी ब्रह्मा जी भी समाधिस्थ होकर भी आपके चरणनखो की एक किरण को भी नहीं देख पाते है। फिर भी प्रभु मैंने सुना है कि, आपकी जो कृपा है बड़ी अद्भुत, आपकी कृपा है। तो आपकी जो कृपा है उस कृपा की तारीफ को सुनकर के कि, आपकी कृपा की परम मोहिनी अपार हैं। आपकी कृपा की तरंग को सुनकर की है मैंने यह हिम्मत की है कि, आपके पद चरणों में आप अपने मन को स्थिर करूं। अपने मन को आपके चरणों में अर्पित करूं।
भक्तिरुदञ्चति यद्यपि माधव! न त्वयि मम तिलमात्री
परमेश्वरता तदपि तवाधिकदुर्घटघटनविधात्री
रूप गोस्वामी कहते हैं, हे प्रभु यद्यपि आपकी चरणों में मेरी भक्ति बिल्कुल नहीं है। फिर भी आपकी जो परमेश्वरता है। आपकी परमेश्वरता को सोचकर के मैं यह हिम्मत करता हूं की, मेरे मन को आपके चरणकमलों में स्वीकार कर ही लेंगे। और आगे कहते हैं,
अयमविलोलतयाद्य सनातन! कलिताद्भुतरसभारम्
निवसतु नित्यमिहामृतनिन्दिनिविन्दन् मधुरिमसारम्
रूप गोस्वामी कहते हैं, प्रभु आपके जो श्रीचरणकमल है, अमृत से भी अत्यंत मधुर है। इसलिए हे प्रभु मैं आपसे यही विनती करता हूं, प्रार्थना करता हूं कि, मेरे इस मन को आपके चरणकमलों में हमेशा के लिए रख ले। जिससे यह मन संसार के विषयों में डूबता नहीं जाए। तो यह मन को भगवान के चरणों में समर्पित करने के लिए हमें प्रयास करता हुं। और मन जब पवित्र हो जाएगा तभी हम मन को भगवान के चरण कमलों में अर्पित कर सकते हैं। मन पवित्र होने का जो साधन है वह हम भगवान का जप करते हैं। हरिनाम का जप करते रहे तो हमारा मन शुद्ध हो जाएगा। और संसार के विषयों से हमारा मन जितना जितना हटता जाएगा उसमें ही उतना हम भगवान के श्रीकृष्ण के नजदीक होते जाएंगे। जितना जितना हम संसार के भौतिक वस्तुओं से इस संसार के भौतिकता संसार के भौतिक जनों से या संसार के भौतिक वस्तु से जितना जितना हम दूर हटेंगे उतना ही कन्हैया के नजदीक जाएंगे, नजदीक पहुंचते जाएंगे, संसार के भौतिक वस्तुओं से भौतिकता से हमें हटना होगा। और हम तभी हट सकते हैं जब हमारे मन में कृष्ण बैठ जाएंगे।*ज्ञान वैराग्य…….. फिर भगवान श्रीकृष्ण के भक्ति करने से हरिनाम जप करने से, वैराग्य का और ज्ञान वैराग्य का अहैतुकी ज्ञान निश्चय होगा। तो मन की भारी आवश्यकता है शुद्ध करने की क्योंकि, मन इतना चंचल है कि, यह हमेशा भागता रहता है। इंद्रियों के विषय में भागता रहता है। इतनी परमभक्त कुंतीदेवी जब भगवान से प्रार्थना की। भगवान श्रीकृष्ण कौरव पांडव के युद्ध के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका जा रहे थे। तैयार हो रहे थे। तब कुंतीदेवी आई तो, उन्होंने बहुत सुंदर प्रार्थना की। पर यह विषय अलग हो जाएगा। तो मेरे कहने का तात्पर्य यह है, भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि, तुम मुझे इतनी प्रार्थना करती हो बुआ। इतना तुम हमको यहां बार-बार भगवान ही बता रहे हो। तो कुछ वरदान मांगो। कुंतीदेवी ने मांगा कि, ठीक है दुनिया भर के दुख हमारे झोली में डाल दो।
विपदः सन्तु ताः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । जितने भी दुख है हमारे झोली में डाल दो। भगवान ने कहा बुआ मैं इससे संतुष्ट नहीं हूं, कुछ और मांगो। कुंतीदेवी भी आपने बात पर अडी रही। तो भगवान ने कहा, आपने तो बहुत दुख झेले हैं अपने जीवन में, कुछ और मांगो। कुंतीदेवी ने कहा, प्रभु जब आप की प्राप्ति हो गई तो फिर और कोई भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। सब मुझे मिल गया। तो वह बोले, नहीं नहीं मेरे संतुष्टि के लिए कुछ मांगो। तो कुंतीदेवी ने जो वरदान मांगा है, इसे हम सब भी मांग सकते हैं। नित्य प्रतिदिन प्रार्थना करें, जो कुंती देवी ने लिखी है। श्रील प्रभुपाद कहते हैं, जो व्यक्ति नित्य प्रतिदिन भगवान से प्रार्थना करता है। भगवान बहुत प्रसन्न होते हैं। और कोई अलग से प्रार्थना नहीं करनी हैं। जो हमारे आचार्य ने और भागवत में बड़े-बड़े ब्रह्माजी ने की है और कई लोगों ने स्तुति की है। भगवान शिव ने की है स्तुति। भागवत में रुद्रगीत है। जितनी हम प्रार्थना करें भगवान बहुत प्रसन्न होते हैं। कुंतीदेवी ने क्या प्रार्थना की है, क्या मांगा है, आप सब लोग पढ़ सकते हो और रोज बोल सकते हो।
त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् । रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥
कुंतीदेवी ने कहा, हे प्रभु वैसे तो मुझे वरदान की आवश्यकता नहीं है लेकिन, यदि आप देना ही चाहते हो, तो मैं यह चाहती हूं कि मेरा मन आपके चरणों को छोड़ कर के संसार के अन्य किसी भी विषय में ना रहे। मेरी मति आपके चरणों को छोड़ कर संसार के अन्य किसी किसी विषय में भी ना रहे। मैं यह मांगती हूं कि मेरा मन आपके चरण कमलों में स्थिर डटा रहे। इस तरह मेरा मन आपके चरणों की ओर बढ़ता रहे। जिस तरह गंगा की अखंड धारा समुद्र की ओर की दौड़ती रहती है। उसका लक्ष्य कहीं नहीं होता केवल समुद्र की ओर दौड़ती है। उसी तरह मेरा मन आपके चरणों की और दौड़ता रहे। आपके चरणों में लगा रहे। यही मैं आपसे प्रार्थना करती हूं। कहने का तात्पर्य यह है हमारा मन ऐसा शुद्ध बने जो केवल और केवल भगवान का ही चिंतन करें। भगवान भगवदगीता में कहते हैं,
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||
भगवान ने कहा है कि, जब मनुष्य अपने मनोधर्म से उत्पन्न होने वाले सारी कामनाओ को त्याग करता है। जो इंद्रियों की कामना है। इतनी कामना है इंद्रिय तृप्तिकि सारी कामनाएं त्याग कर अपने मन को मेरे चरणों में लगाता है। तो वही व्यक्ति अपने मन को मुझ में स्थित कर पाता है। नहीं तो मन दुनिया भर में भागता ही रहता है। स्वयं चैतन्य महाप्रभु ने कहा है जो साक्षात भगवान है। दुर्वार इन्द्रिय करे विषय ग्रहण दारवी प्रकृति हरे मुनेरपि मन, चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, इंद्रिय इतने बलवत है यह हमेशा अपने अपने विषयों की और बढ़ती है। प्रत्येक इंद्रियां अपने विषयों की ओर बढ़ते रहते हैं। यहां तक कहा है चैतन्य महाप्रभु ने सिर्फ लकड़ी की बनी हुई जो मूर्ति होती हैं। जैसे कि लोग शोरूम में लगाते हैं कपड़े वाले। जो लकड़ी की बनी हुई स्त्री की जो मूर्ति रहती है। लकड़ी की बनी हुई स्त्री की मूर्ति बड़े-बड़े मुनियों के मन को मोह लेती है। मुनीरअपि मन
“यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्र्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः || भगवान कहते हैं कि यह इंद्रियां इतनी बलवति होती है कि, जो व्यक्ति इन इंद्रियों को और मन को वश में करने का प्रयत्न कर रहा होता है। बड़ा भारी प्रयास कर रहा होता है। ऐसे विवेकशील, जो विवेकशील व्यक्ति के मन को भी यह इंद्रिय हर लेती है। इसलिए इस मन को वश में करना बहुत जरूरी है क्योंकि, मन बहुत चंचल है। शुकदेव गोस्वामी तो कहते हैं यहां भागवत में,
तथा चोक्तम् न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते । यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ॥
शुकदेव गोस्वामी यहां पर कह दिया कि परीक्षित इस चंचल मन के दृष्टता को कभी किसी को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। कहां कह दिया इन्होंने जब भगवान ऋषभदेव एकदम जब अवधूत रूप में हुए थे। पागलों की तरह घूम रहे थे ऋषभदेव। ऋषभदेव के पास सारी रिध्दिया सिद्धियां हाथ जोड़कर खड़े रहते थे कि, प्रभु हमको स्वीकार करो। शुकदेव गोस्वामी कहते हैं, अपने आप रिद्धिया और सिद्धिया ऋषभदेव के पास आए और कहती है कि प्रभु हम को स्वीकार करो। और ऋषभदेवने एक को भी स्वीकार नहीं किया। सबको कह दिया जाओ यहां से। महाराज परीक्षित को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह कहते हैं कि, रिद्धि और सिद्धि को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े योगी पूरा जीवन लगा देते हैं और वह सारी रिद्धि और सिद्धि या उनके पास होती है तो उन्होंने स्वीकार नहीं की। और फिर वह तो कोई साधारण व्यक्ति नहीं है कि चलो रिध्दिया सिद्धियां स्वयं उनके पास आ गई तो उनको अहंकार हुआ और कह दिया कि जाओ यहां से। ऐसा हो नहीं सकता। शुकदेव गोस्वामी कहते हैं जानते हो, जो श्रेष्ठ पुरुष होते हैं। जो महान पुरुष होते हैं अपने आचरण के द्वारा लोगों को शिक्षा देते हैं। तो उन्होंने यह शिक्षा दी कि, किसी भी साधक के लिए चाहे कितनी भी बड़ी व्यवस्थाए पहुंच जाए उनके पास लेकिन इस चंचल मन का भरोसा कभी भी किसी को नहीं करना चाहिए।
न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि जहां मन चंचल है इस चंचल मन का भरोसा किसी भी साधक को कभी भी किसी को भी नहीं करना चाहिए। चाहे कितनी बड़ी सिद्ध अवस्था हो क्यों क्योंकि भरोसा किया तो बाबा सोबरी मुनि जल के अंदर तपस्या करते थे। यमुना के जल के अंदर मुनि को अपने मन के ऊपर विश्वास था। लेकिन बिल्कुल सिध्दावस्था आने ही वाली थी। एक मछली अपने मच्छसंग को देखकर के बाबा को भी संग का ध्यान हुआ और बाबा का ध्यान टूट गया। ध्यायतो विषयांपुंसा संगस्ते उपजायते भगवान कह रहे हैं कोई व्यक्ति अगर विषयों का ध्यान कर रहा है तो उसे वह संग करने का प्राप्त करने का प्रयास करता है। तो वहीं उन्होंने किया और बेचारे फंस गए। एक नहीं 50 -50 राजकुमारियों के साथ विवाह किया। भरोसा था कि, भगवान शिव को अपने मन का अपने यहा तक कि, कामदेव को भी उन्होंने बस में ही किया था एक बार। लेकिन फिर भी भगवान भोलेनाथ भी मोहिनी रूप को देख कर के उनका भी सारी तपस्या शुद्ध हो गई सोबरी मुनि जैसे भगवान शिव जैसे अपने अपने मन के वशीभूत हो गए। हम और आप किस खेत की मूली है। इसीलिए कहा है कि, इस चंचल मन का भरोसा कभी भी किसी को भी नहीं करना चाहिए। और बड़ी सावधानी पूर्वक गुरु के निर्देशन में अपनी साधना को दृढ रखना चाहिए। और प्रयास करते रहिए भगवान से प्रार्थना करते रहिए की हे प्रभु हमारे मन को अपने चरणों में लगा दो। हमारे अंदर इतनी शक्ति नहीं, इतनी भक्ति नहीं जो अपने प्रयास से अपने मन को अपने वशीभूत कर सके। हे प्रभु हम बस आप से प्रार्थना करते हैं कि हमारे मन को अपने चरणों में लगा दो। हे प्रभु बस अन्य विषयों में मन जाकर के बस आपके ही चरणों में लगा रहे। यही हम आप से प्रार्थना करते हैं. यह सब भजन साधन से ही होगा। जितना जितना हम भजन साधन करेंगे उतना ही निखार आता जाएगा क्योंकि, तपने से निखार आ जाता है। स्वर्ण को कितना तपाएंगे उतना ही वो निखरता जाता है। जितना हम इस पद्धति को अपनाएंगे भजन साधन कराएं करेंगे उतना ही निखरते जाएंगे।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥ भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥
जिसका मन निर्मल होता है वही मुझे प्राप्त कर सकता है। यही बोल कर अपनी वाणी को विराम देता हूं। कोई किसी का प्रश्न हो तो वह प्रश्न पूछ सकते हैं। हरे कृष्ण।
प्रश्नः हरे कृष्ण प्रभुजी मेरा सवाल आज के विषय में नहीं है किंतु, मेरा प्रश्न है कि जब हम भक्ति करते हैं, कैसे जानेंगे कि हम सहजिया के तरफ जा रहे हैं कि शुद्ध भक्ति की तरफ जा रहे हैं?
ब्रज विलास प्रभुजीः बहुत सुंदर आपका प्रश्न है। देखिए ब्रह्माजी ने कहा है जो कोई व्यक्ति भोजन करता है तो, तुष्टि पुष्टि संतुष्टि इन तीन चीजों का सेवन अनुकरण करता है। वह जब भोजन करता है। भोजन करता है एक निवाला आएगा आहाहा बड़ी तुष्टि है। इच्छा थी भोजन, प्रसाद मिले। बढ़िया से उसे भोजन खिला दिया तुष्टि होगी पुष्टि फिर संतुष्टि तुष्टि उसी वक्त होगी फिर पुष्टि फिर संतुष्टि। तो उसी प्रकार जैसे हम अपने प्रसाद को खाते हैं। हमारे प्रसाद की तुष्टि पुष्टि संतुष्टि हुई है यह किसी दूसरे से पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती। हमें स्वयं ही अनुमान लगता है। उसी प्रकार जो हम अपनी भजन साधना करते हैं, शरीर के लिए भोजन करते हैं आत्मा के लिए भजन साधना करते हैं। आत्मा की भजन के द्वारा तुष्टि संतुष्टि पुष्टि हो रही है। यह आत्मा हमें और किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, हम स्वयं ही जान जाएंगे। इस बात के लिए हम स्वयं ही जान जाएंगे। हमारे भक्ति के लिए अब हम कहां तक है और कैसे हैं हमारी भक्ति नीचे गिर रही है। ऊपर है। हमसे कोई अपराध हुआ है या हमसे कोई पाप हुआ है क्या, हमारी भक्ति आगे क्यों नहीं बढ़ रही है, हम पहले जप करते थे, करते-करते आंखें गीली हो जाती थी अब क्यों नहीं हो रही है, स्वयं भी इसका अनुभव होगा हमें किसी की पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती। ठीक है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
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*जप चर्चा* 19 -01-2022
*भगवन्नाम की महिमा*
(मुरली मोहन प्रभु द्वारा )
हरे कृष्ण !
हम सब यहां गुरु महाराज और श्रील प्रभुपाद के अन्य शिष्यों के स्वास्थ्य के लिए सारे ग्रुप मिलकर बहुत सारा जप कर रहे हैं। यह बहुत सुंदर सेवा का अवसर हमें प्राप्त हुआ है।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥*
*श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते लोकनाथ -स्वामिन् इति नामिने ।*
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥*
हरे कृष्ण ! तो आज मुझे हरि नाम के विषय में या नाम की महिमा के विषय में चर्चा करने के लिए कहा गया है इसलिए आज हम हरि नाम की महिमा के विषय में चर्चा करेंगे।
*वन्दे श्री कृष्ण चैतन्य – देवं तं करुणार्णवम् । कलावण्प्यति गूढ़ेयं भक्तिर्येन प्रकाशिता ॥*
(चैतन्य चरितामृत मध्य 22.1)
अनुवाद मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ । वे दिव्य करुणा के सागर हैं । वे यद्यपि भक्ति का विषय अत्यन्त गुह्य है , फिर भी उन्होंने इस कलह के युग कलियुग में भी उसे इतनी सुन्दरता से प्रकट किया है ।
चैतन्य महाप्रभु जो श्रीराधा कृष्ण के अवतार हैं देवं तं करुणार्णवम् है करुणा से भरे हुए हैं करुणा अवतार हैं कि वह हमें कलावण्प्यति गूढ़ेयं अर्थात जो बहुत ही कॉन्फिडेंशियल है, रसमय भक्ति जिसे उन्होंने माधुर्य रस हो या रस से भरी हुई भक्ति इसको हमें प्रदान किया है और कर रहे हैं। वह भी अत्यंत सुलभ वृत्ति से, किस प्रकार ऐसी भक्ति को प्राप्त किया जा सकता है ? ऐसी यह प्रार्थना है सनातन गोस्वामी उनके चरणों में दंडवत प्रणाम करते हैं चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को श्री हरि नाम की महिमा, चैतन्य चरितामृत जो पूर्ण रूप से अनेक जगह भरा हुआ है , सनातन गोस्वामी को अनेक प्रकार के भक्ति के अंग को समझा रहे हैं।
*विविधाङ्ग साधन – भक्तिर बहुत विस्तार । सङ्क्षेपे कहिये किछु साधनाङ्ग – सार ।।* (चैतन्य चरितामृत मध्य 22.114)
अनुवाद – मैं भक्ति के विविध साधनांगों के विषय में कुछ कहूँगा, जिनका विस्तारअनेक प्रकार से हुआ है। मैं मुख्य साधनांगों के विषय में संक्षेप में कहना चाहता हूँ ।
अनेक प्रकार की साधना भक्ति के अंग हैं और उसमें भी उप अंग हैं विस्तार रूप से जो फैला हुआ है फिर भी “सङ्क्षेपे कहिये किछु साधनाङ्ग – सार “, चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को कहते हैं कि मैं तुम्हें संक्षेप रूप में साधना के अंगो का सार कहूंगा और यह संक्षेप भी जो है आप समझ सकते हैं क्योंकि सार रूप में कह रहे हैं तो संक्षेप या सार रूप में भी जो है वह 64 अंग हैं। जो बहुत ही कम लोग, इसे अपना सकते हैं। लेकिन चैतन्य महाप्रभु की जो दया कृपा है वह अंत में कहते हैं 64 अंगों में भी जो पांच अंग हैं वह बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है जो हम जानते हैं साधु संग, नाम कीर्तन, भागवत श्रवण, मथुरा वास (धाम वास) और श्रद्धा पूर्वक विग्रह की सेवा, यह पांच अंग हैं।
*सकल साधन श्रेष्ठ एइ पञ्च अङ्ग, कृष्ण प्रेम जन्माय एड पाँचेर अल्प सङ्ग ॥* (चैतन्य चरितामृत मध्य 22. 129)
अनुवाद ” भक्ति के ये पाँच अंग सर्व अंगों में श्रेष्ठ हैं । यदि इन पाँचों को थोड़ा सा भी सम्पन्न किया जाए , कृष्ण प्रेम जाग्रत होता है ”
यह अल्प संग बहुत महत्वपूर्ण है जो थोड़ा भी इन पांच अंगो का संग करेंगे साधु संग कहो, नाम कीर्तन कहो, भागवत श्रवण कहो, या भगवान की सेवा कहो या धाम वास कहो, थोड़ा भी संग हम प्राप्त करेंगे तो कृष्ण प्रेम जन्माय, कृष्ण प्रेम का उदय होता है। ऐसा चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं अर्थात हम देखते हैं कि इतने सालों से जप कर रहे हैं, संग कर रहे हैं, भागवत श्रवण कर रहे हैं, अनेक अंग को अपना रहे हैं फिर भी यहां पर कहा गया है अल्प संग, थोड़ा भी अगर संग करते हैं तो कृष्ण प्रेम जन्माय , पर यह कृष्ण प्रेम हमारे हृदय में जन्म नहीं रहा, उदय नहीं हो रहा है इसका कारण क्या है ? आगे चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में आते हैं उस समय वह कहते हैं।
*तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ नाम – सङ्कीर्तन | निरपराधे नाम लैले पाय प्रेम – धन ॥*
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य 4.71)
अनुवाद “ भक्ति की नौं विधियों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है भगवान् के पवित्र नाम का सदैव कीर्तन करना । यदि कोई दस प्रकार के अपराधों से बचते हुए ऐसा करता है तो वह आसानी से भगवान् के अमूल्य प्रेम को प्राप्त कर लेता है । ”
अनेक अंगों में से नवधा भक्ति भी समझाया है और उसमें कहते हैं “तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ नाम – सङ्कीर्तन | निरपराधे नाम लैले पाय प्रेम – धन”, निरपराध की बात हो रही है। हम जानते हैं कि अपराध कितने प्रकार के हैं। कनिष्ठ अधिकारी अपराध में जप करता है फिर धीरे-धीरे थोड़ा उठता है और उसे नाम आभास होता है। शुद्ध नाम तो अंतिम स्टेज है जिससे कृष्ण प्रेम प्राप्त होता है। शुद्ध नाम जप करने से कृष्ण प्रेम प्राप्त होता है लेकिन हमें कृष्ण प्रेम तो क्या नाम आभास भी हो रहा है इसका भी डाउट है। क्योंकि हम निरंतर अपराधों में जप कर रहे हैं क्योंकि यहां कहा गया है नाम जो है वह भगवान का स्वरूप है भगवान स्वयं है भगवान का अवतार है नाम स्वरूप, हालांकि नाम और कृष्ण में भेद नहीं है।
*कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार।नाम हइते हय सर्व जगत निस्तार ।।*
(चैतन्य चरितामृत 1.17.22)
अनुवाद:- मनुष्य उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है । इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् कृष्ण का अवतार है । केवल पवित्र नाम के कीर्तन से भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है । जो कोई भी ऐसा करता है।
अर्थात नाम के माध्यम से हमे सभी से मुक्त होना चाहिए अपराधों से कहो या भौतिक इच्छाओं से कहो या भौतिक जगत में जो दुख है ताप है इनसे कहो इन सब से मुक्त होना चाहिए। इस तरह से कहा जा रहा है शुद्ध नाम तो बहुत दूर की बात है नाम आभास होने से भी हम सारी चीजों से मुक्त होते हैं। यहां परीक्षाओं से भी मुक्त नहीं हो रहे और ना ही अनेक प्रकार के ताप और दुखों से मुक्त हो रहे हैं इसका मतलब वी आर कंटिनयसली चैटिंग अपराध में जप , श्रीवास आचार्य के उदाहरण से हम समझ सकते हैं किस तरह से सदा नाम लेने से भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो सकते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन आंदोलन की शुरुआत श्रीवास आंगन के घर से, उनके आंगन से की। हम सब जानते हैं कि चैतन्य महाप्रभु 1 साल तक श्रीवास आंगन में संकीर्तन करते रहे। आंदोलन वहां से शुरू हुआ क्योंकि श्रीवास आचार्य चैतन्य महाप्रभु के बहुत ही प्रिय भक्त थे। हम जानते हैं कि श्रीवास आचार्य कौन हैं ? पंच तत्व के एक तत्व हैं “श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द श्रीवास आचार्य जो है चैतन्य महाप्रभु के बहुत ही निकट के और प्रिय भक्त हैं और वह गृहस्थ भी हैं उनका बड़ा परिवार है उनके बच्चे हैं सगे संबंधी हैं और यह सभी लोग श्रीवास आचार्य के ऊपर निर्भर थे वैसे श्रीवास आचार्य किसी काम के लिए बाहर नहीं जाते थे (ही इज़ नॉट हेविंग जॉब एंड ही नेवर वेंट फॉर ए जॉब) ना ही उनका बिजनेस था धंधा था जिसके कारण कुछ आमदनी हो, सिर्फ सदा सर्वदा भगवान के चिंतन, भगवान के नाम में रहते थे। एक बार चैतन्य महाप्रभु श्रीवास आचार्य के घर में आते हैं। श्रीवास तुम्हारा तो बहुत बड़ा परिवार है बच्चे हैं पुत्र पुत्री हैं, पत्नी हैं कई सारे परिवार हैं तुम्हें बाहर काम करना चाहिए आमदनी की कोई सुविधा कर लेनी चाहिए इस तरह से चैतन्य महाप्रभु ने कहा, श्रीवास आचार्य सोचने लगते हैं बाहर काम में जाऊंगा काम करने लगूंगा तो माया का दास बनूंगा किन्तु मुझे तो कृष्णदास बनना है, कृष्ण के भक्तों का दास बनना है। बाहर काम करूंगा नौकरी करूंगा क्या कमा लूंगा, माया का दास बनना पड़ेगा इस तरह सोचते हैं और इस तरह चैतन्य महाप्रभु के कहने पर वो तीन तालियां बजाते हैं। चैतन्य महाप्रभु समझ नहीं पाते 3 तालियों का अर्थ क्या है ? तब श्रीवास आचार्य को महाप्रभु पूछते हैं इसका क्या अर्थ है ? श्रीवास कहते हैं पहली ताली 1 दिन यदि भगवान सुविधा नहीं करेंगे हमारा पालन-पोषण करने का, मेरा परिवार है (वैसे श्रीवास आचार्य इस परिवार को मेरा परिवार ऐसा नहीं समझते हैं यह मेरी पत्नी है यह मेरे बच्चे हैं यह मेरी पुत्री है या मेरा लड़का है या मेरे मां-बाप हैं या मेरा घर है) श्रीवास आचार्य कभी ऐसा नहीं समझते थे वह यह समझते थे यह कृष्ण का परिवार है मैं भी कृष्ण का हूं और यह स्त्रियां यह मेरी पुत्री है मेरे बच्चे यह सब कृष्ण का परिवार हैं और कृष्ण का परिवार है तो निश्चित रूप से कृष्ण ही इसे संभालते हैं। जब हम यह समझते हैं कि मेरा परिवार है मेरे बच्चे हैं मेरा घर है तो मेंटेन करने के लिए हमें प्रयास करना पड़ता है। किन्तु जब हम यह समझते हैं कि यह परिवार जो है कृष्ण का परिवार है मेरी पत्नी जो है वह भी कृष्ण के परिवार की है मेरे बच्चे यह सब कृष्ण के परिवार के हैं उनकी सेवा में लगे हुए हैं इस प्रकार बहुत ही सुंदर रूप से सारे परिवार को श्रीवास कृष्ण की सेवा में लगाते थे और कहते हैं परिवार तो कृष्ण का है और कृष्ण यदि पहले 1 दिन नहीं देंगे तो हम टॉलरेट करेंगे, सह लेंगे, यदि खाने की सुविधा यदि कोई या फिर कोई और सुविधा जो जरूरतमंद है परिवार के लिए 1 दिन नहीं आ रहा है उसे हम सह लेंगे।
*तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥* (चैतन्य चरितामृत आदि लीला17.31)
अनुवाद -जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु हैं और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता फिर भी दसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।”
जैसे माली यदि पेड़ में पानी नहीं डालता है तो पेड़ सह लेता है पेड़ में पानी डालने के बाद ही उसकी पुष्टि होती है। इस तरह से पेड़ में जो सहनशीलता है वैसे हम सह लेंगे पहले दिन अगर दूसरे दिन भी नहीं आता है फिर भी टॉलरेट करेंगे , सह लेंगे तीसरे दिन नहीं आता है तो भी सह लेंगे और यदि चौथे दिन नहीं आता है तो गंगा के तट पर पूरा परिवार हम जाएंगे और डुबकी लगा कर के हमारा पूरा परिवार इस देह को त्याग देंगे। चैतन्य महाप्रभु इस भाव से इतना संतुष्ट होते हैं कि कितना विश्वास है श्रीवास को, भगवान के ऊपर, भगवान के नाम में कि निश्चित रूप से कृष्ण पोषण करते हैं।
*सदा नाम लइब , यथा – लाभेते सन्तोष । एइत आचार करे भक्ति – धर्म – पोष ।।* (चैतन्य चरितामृत आदि लीला 17. 30)
अनुवाद “ मनुष्य को सदा नाम – कीर्तन करने के सिद्धान्त का दृढ़ता से पालन करना चाहिए और उसे जो कुछ आसानी से मिल जाए उसी से सन्तुष्ट होना चाहिए । ऐसे भक्तिमय आचरण से उसकी भक्ति सुदृढ़ बनी रहती है । ”
सदा नाम लेने से सैटिस्फैक्शन मिलता है आत्मा को, जीवात्मा का ऐसा आचरण करने से भगवान स्वयं भक्तों का पोषण करते हैं ताकि उनकी भक्ति जारी रहे, धार्मिक बने, इसलिए कृष्ण स्वयं पोषण करते हैं। *एइत आचार करे भक्ति – धर्म – पोष*, मतलब पोषण भक्ति धर्म को पोषण करने के लिए कृष्ण स्वयं उनका पालन करेंगे ऐसा यहां पर कहा गया है। जैसा सदा नाम लइब , यथा हमेशा हमें नाम लेते रहना चाहिए। 24 आवर्स, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर हरी नाम चिंतामणि में कहते हैं आवहिश्रान्ते, इसका अर्थ है बिना विश्राम किए, हमारे आचार्य समझाते हैं बिना विश्राम किए लगे रहे, निश्चित रूप से सोना पड़ता है या आराम करना पड़ता है 24 घंटे, यदि ६ /७ घंटे सो भी लेते हैं तो सोने के बाद जब उठ जाते हैं तो सदा भगवान का नाम लेना चाहिए। ऐसा लेने से होता क्या है ? नाम अपराध जाए, दूर भाग जाता है या नाम अपराध करने की इच्छा या जाने अनजाने में जो हम करते रहते हैं, इसीलिए अभी तक हम कृष्ण प्रेम नहीं प्राप्त कर पाए , ना ही दुखों से मुक्त हुए हैं ना ही भौतिक इच्छाओं से मुक्त होते हैं। नाम आभास से और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होते हैं तब शुद्ध नाम जाप श्रीकृष्ण प्रेम प्राप्त होता है। इसका अर्थ है कि हम सदैव नाम अपराध या अपराध में जप कर रहे हैं। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं कि नाम अपराध में यदि जप से मुक्त होना है या छुटकारा पाना है तो आवहिश्रान्ते , नाम अपराध जाए, फिर अपराध की भावना जो है हमारे दिमाग में, हमारे हृदय में कोई स्थान ही नहीं होगा। सदैव हमें भगवान के नाम का उच्चारण करना चाहिए। चलो यदि हम अभी निरपराध जप करते भी हैं फिर भी भगवान का प्रेम प्राप्त नहीं हो रहा है क्या कारण हो सकता है ?हम कई लोग जो हैं कई बार सुनते हैं कि अपराधमय जप मत करो निरपराध जप करो, फिर भी हमें कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं होता है। आगे स्वयं चैतन्य महाप्रभु कहते हैं। दीवा रात्र नाम लय, दिवा रात्र मतलब दिन रात भगवान का नाम लेना चाहिए लेकिन एक इनग्रेडिएंट उसमें ऐड करो 1 गुण जो है उसमें हमें ऐड करने से वह क्या है अनुत्ताप करें, दिवा रात्र जाप करें अनुत्ताप करें, अनुत्ताप मतलब क्या कहते हैं उसको रिपेंटेंट हाय हाय ! पश्चाताप करना ! हाय हाय मैंने कितने बड़े अपराध किए हैं अपराध ही नहीं मैंने कई प्रकार के पाप भी किए हैं। ऑफ कोर्स पाप और अपराध में बहुत अंतर है पाप जो लागू होता है वह भौतिक लोगों पर लागू होता है और अपराध जो है जो आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करना चाहते हैं या किए हुए हैं उनको अपराध लागू होता है।
*एक कृष्ण – नामे करे सर्व पाप क्षय नव -विधा भक्ति पूर्ण नाम हैते हय ॥* (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 15. 107)
अनुवाद “ कृष्ण के पवित्र नाम का एक बार कीर्तन करने मात्र से मनुष्य सारे पापी जीवन के सारे फलों से छूट जाता है । पवित्र नाम का कीर्तन करने से मनुष्य भक्ति की नवों विधियों को पूरा कर सकता है ।
सारे पाप नष्ट होंगे सरल है। भगवान स्वयं भी भगवत गीता में कहते हैं
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||* (भगवद्गीता १८. ६६ )
अनुवाद- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
सारे पापों को नष्ट करता हूं और सरल है पापों को नष्ट होना यह बहुत कठिन है ऐसा नहीं है। भगवान का नाम लेने से पाप नष्ट हो जाते हैं लेकिन अपराध नहीं होते, अपराध को नष्ट करना बहुत कठिन है फिर भी चैतन्य महाप्रभु की कृपा से वो अपराधों को भी नष्ट करना या निरपराध जप करना सुलभ बनाते हैं और वह हैं अनुत्ताप ! पश्चाताप करते करते आपको जप करना चाहिए। हाय हाय ! भगवान मैं इतना जप कर रहा हूं फिर भी मेरे हृदय में दया की भावना क्यों नहीं है क्यों आपका प्रेम प्राप्त नहीं हो रहा है या मेरे हृदय में भक्तों के प्रति क्यों प्रेम या दया उत्पन्न नहीं हो रही है। इससे यहां चैतन्य महाप्रभु इस तरह से कह रहे हैं दीवा रात्र नाम लय, अनुत्ताप करें, पश्चाताप करते करते, हम देखते हैं श्रीमद भगवतम के अजामिल के एपिसोड में या उस कथा में देखते हैं कि किस तरह से अजामिल ने धाम को प्राप्त किया, कृष्ण प्रेम प्राप्त किया, ऐसे तो भगवान भौतिक लोगों के लिए कहते हैं।
*येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् | ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ||*
(भगवद्गीता ७. २८)
अनुवाद- जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं |
दृढ़ता पूर्वक लेकिन यह भौतिक लोगों के लिए है। वे कहते हैं जिनका पाप नष्ट हुआ है पुण्य कर्म इकट्ठा हुआ है और द्वंद से मुक्त हैं ऐसे व्यक्ति दृढ़ता पूर्वक मेरा आश्रय ग्रहण करता है। मुझे पता है दृढ़ता जो है इसके लिए योग्यता दूसरी तरह से लागू होती है। जो हम अजामिल की कथा से समझ सकते हैं। यहां पर यदि भक्ति में दृढ़ता प्राप्त करनी है तो सबसे पहले है पश्चाताप भाव, हमे अपने आप में पश्चाताप करना चाहिए कि हाय मैंने कितने पाप किए हैं और भगवान का आश्रय प्राप्त करने के बाद भी, नाम का आश्रय लेने के बाद भी, मैं अपराध कर रहा हूं हाय हाय! इसके उपरांत जो है आता है जागरूक अवस्था, पश्चाताप के बाद ऐसा करने से मेरा ऐसा हुआ यह मैंने किया इसलिए यह सारी आपत्ति और यह सारे दुख मुझे आए हैं और ना ही मैं कृष्ण प्रेम प्राप्त कर रहा हूं इसकी जागरूकता, हम जानते हैं अजामिल की कथा में जब यमदूत आते हैं और अजामिल नारायण का नाम लेता है अपने पुत्र को संबोधित करके, लेकिन साक्षात नारायण के विष्णुदूत आ जाते हैं और उस रस्सी को काटते हैं। अजामिल सब कुछ देख रहा होता है किस तरह से यह विष्णुदूत आए और मुझे यमदूतों से बचाया और उनका जब संवाद चल रहा था यमुदुतो और विष्णु दूतों का, अपने जीवन को माप रहा था कि मैंने क्या-क्या किया जिसके कारण यमदूत आए और क्या और क्या किया जिसके कारण विष्णु दूत आए और यमदूत से उसे मुझे बचाया, मतलब सारे नियमों को तोड़ दिया था। 4 नियम तो दूर की बात है बाकी अन्य सारे धार्मिक नियमों को भी उन्होंने तोड़ दिया था वैश्या से विवाह किया था, 80 साल की उम्र में उन्होंने पुत्र को जन्म दिया था इत्यादि इत्यादि, उसके प्रति वह पश्चाताप कर रहा है कि मैंने क्या किया था जिसके कारण मुझे यह भोगना पड़ा, समाज से मुझे बाहर निकाला गया अनेक प्रकार के ताप आए फिर संवाद चलते समय जो बातें चल रही थी उसके प्रति वह जागरूक हो गया कि मुझे यह नहीं करना चाहिए था जिसके कारण मुझे यह हुआ तो पहली अवस्था पश्चाताप और दूसरी अवस्था जो है वह जागरूकता अपने आप में प्रकाश लाना यह करने से यह होता है और मुझे त्यागना चाहिए और ऐसी भक्ति करने से ही मैं आगे बढूंगा। निर अपराधी भक्ति कहो।
ऐसी भक्ति करने से इस जागरूक अवस्था में हमें आना चाहिए। जैसे अजामिल आया, उसके उपरांत जो है जागृत अवस्था के बाद विष्णु दूतों के प्रति उनके हृदय में कृतज्ञता जागृत हुई। ग्रिटीट्यूड, इनके कारण मैं बच गया इन्होंने मुझे यमदूतों के हाथों से बचाया। (ही फेल्ट ग्रिटीट्यूड टुवर्ड्स विष्णु दूत ) जब हम भक्ति में आ जाते हैं हमें कई लोग भक्ति में लाते हैं और भक्ति में हमें पोषण करते हैं उनके हमारा ग्रिटीट्यूड उत्पन्न होना चाहिए कृतज्ञता उत्पन्न होना चाहिए और इसके उपरांत नहीं रुकना है, आगे प्रशंसा है। अजामिल विष्णु दूतों की प्रशंसा करने लगे हर जगह जहां भी वे जाते हैं इनके कारण मैं बचा, इनके कारण में भक्ति में आया, इनके कारण ही मैं यहां पर भक्ति कर रहा हूं। यह सब प्रशंसा ग्लोरीज ऑफ द डेवोटीज़ , प्रशंसा इसके उपरांत फिर भक्ति में दृढ़ता आ जाती है। यह चार स्टेज हैं बहुत महत्वपूर्ण है सबसे प्रथम स्टेज, वह है पश्चाताप, उसके उपरांत जागरूकता, यानी वापस ऐसे कार्य ना हो जिसके कारण हम भक्ति से विलग हो जाएं और जो हमें भक्ति में लाएं हैं उनके प्रति कृतज्ञता, जो पोषण कर रहे हैं, भक्ति में लाए हैं, भक्ति में आगे बढ़ा रहे हैं, उनके प्रति कृतज्ञता और उनके गुणगान ऐसा करने से भक्ति में दृढ़ता आती है। यह सब भक्तों पर लागू है हालांकि भगवान सभी लोगों के लिए कह रहे हैं।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् , सभी पाप नष्ट होकर जब पुण्य इकट्ठा हो जाते हैं और द्वन्द से मुक्त हो जाता है दृढ़ता पूर्वक वह मुझे भजता है। लेकिन भजन करने के बाद दृढ़ता का डेफिनेशन बदल जाता है जो हम अजामिल की कथा से समझते हैं। दृढ़ता कैसी है ? पश्चाताप , कहो यदि हमने कोई अवैध संग किया तो किसी को बोल नहीं सकते अरे मैंने यह किया वह किया, शर्म आती है लज्जा आती है, भक्त होने के बाद भी हम फिर अवैध स्त्री संग या कुछ अन्य नियमों को भंग कर दिया, लेकिन भगवान को जरूर बोलना चाहिए कि भगवान मुझसे यह बहुत बड़ा अपराध हुआ है वापस मैं नहीं करूंगा, भगवान को तो हम सब कुछ कह सकते हैं। क्योंकि भगवान परमात्मा रूप में हमारे हृदय में रहते हैं और वह जानते तो हैं ही हमने क्या-क्या किया है। कैसे-कैसे कार्य किए हैं, हल्के हल्के कार्य किए हैं। भगवान को बताने में क्या है? जिसके कारण हमें पश्चाताप हो, पश्चाताप का सिस्टम है भगवान को बताना मुझे पश्चाताप हो रहा है कृपा करके मुझे इससे बचाइए तब भगवान भक्तों की व्यवस्था करते हैं और हमें बचाते हैं। हमें उन भक्तों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए और फिर बाद में उनकी प्रशंसा उनके गुणगान, जिसके कारण हम भक्ति में दृढ़ता पूर्वक रह सकते हैं। आगे यहां पर कहा गया है जैसे ही अपराध चला जाता है शुद्ध नाम का उदय होता है जब अपराध नष्ट होंगे तो शुद्ध नाम का उदय होता है। जैसे मैंने कहा है कि हम निर अपराध जप तो कर रहे हैं लेकिन साथ में 1 गुण ऐड करना चाहिए वह अनुत्ताप ऐड करके यदि हम सदा नाम लेते हैं तो अपराध के लिए कोई जगह ही नहीं रहेगी, अपराध नष्ट हो जाते हैं और फिर शुद्ध नाम का उदय होता है। शुद्ध नाम भावमय और प्रेम मय शुद्ध नाम का उदय हो जाता है फिर उसी प्रकार का भाव उत्पन्न होता है और भाव के बाद प्रेम उत्पन्न होता है।
ऐसा श्रील भक्ति विनोद ठाकुर बताते हैं और यदि हम देखेंगे तो भक्ति विनोद ठाकुर के अनेक भजनों में त्रिनादपि के अनेक भजन उन्होंने लिखे हैं सबसे पहले उन्होंने पश्चाताप पर भजन लिखा है कई भजन लिखे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि भक्तों ने स्वयं ही कुछ ऐसे कार्य किए हैं जिसकी वजह से वह पश्चाताप कर रहे हैं। भगवान के प्रति हमारा जीवन सदा पापी रथ नहीं वह हमें सिखाने के लिए अपना उदाहरण व्यक्त करते हैं फिर धीरे-धीरे जागरूक अवस्था फिर गुणगान ग्रिटीट्यूड यह सब यहां पर दिखते हैं। हम बहुत लंबे समय तक अपराध करते हैं लेकिन उनसे जाकर क्षमा मांगना बहुत कठिन लगता है तो चैतन्य महाप्रभु बताते हैं सदा नाम दिवा रात्र और आविश्रांत इस तरह से धीरे-धीरे नाम लेने से अपराध नष्ट हो जाते हैं। हममें ऐसा परिवर्तन होता है उस भक्तों से हम अपराध के कारण जाकर क्षमा मांगते हैं फिर भक्तों में शुद्ध नाम का उदय होने लगता है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज के समय तक 64 माला जप का, जो सदा कि जप की बात हो रहा है वह करने की विधि तब उस समय पर थी। प्रभुपाद की कृपा से हमें 16 माला तक कहा गया है। मिनिमम कम से कम 16 माला जप करो, ऐसा कहा गया है भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज तक तो 64 माला की विधि थी 64 माला जप करोगे तो भगवत प्रेम प्राप्त होगा, तभी आविश्रांत नाम होगा, दिवा रात्र नाम होगा या सदा नाम होगा, लेकिन एक बार क्या हुआ कि भक्ति सिद्धांत महाराज के शिष्य कंप्लेंट लेकर के आए प्रभुपाद! प्रभुपाद ! यह भक्त केवल 16 माला जप करता है हालांकि 64 माला का आदेश आपने दिया है तब भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज कहते हैं कि वो प्रचार कर रहा है इसलिए वह 64 माला का जाप नहीं कर सकता, लेकिन आप प्रचार नहीं कर रहे हो आपको करना है। इस आधार पर जब शिष्य प्रभुपाद के पास गए कि हम 64 माला का जप कैसे करेंगे समय नहीं है। तब प्रभुपाद 64 माला से 48 माला तक आ गए 48 माला से 32 माला तक आ गए, तब फिर प्रभुपाद को बोला इतना भी नहीं हो पाएगा हमसे इतनी सारी माला कैसे कर पाएंगे ? प्रभुपाद ने लास्ट में आकर कहा 16 माला से कम नहीं यहां पर स्टॉप कर दिया इसकी वजह क्या है क्योंकि हमारा मिशन जो है वह प्रचार का मिशन है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज ने कहा ही इज़ प्रीचिंग, तो प्रभुपाद ने इस आधार पर हमारे मूवमेंट को प्रचार का मूवमेंट बनाकर सबको १६ माला करने की विधि दी है और प्रभुपाद के सभी शिष्यों ने इस साधना से सिद्धि प्राप्त की है। प्रभुपाद के प्रति प्रेम प्राप्त किया है।
गुरु का आदेश जो है, जैसे सारे वेदों का सार है भगवत गीता, भगवत गीता का सार है शिक्षा अष्टकम, शिक्षा अष्टकम का सार है हरी नाम, और हरी नाम का सार जो है वह गुरु सेवा, गुरु के प्रति सेवा, वैष्णव के प्रति सेवा, भगवान के प्रति सेवा, क्योंकि महामंत्र के जप का अर्थ ही है कि हे राधा रानी हमें भगवान की सेवा में लगाओ, वैष्णव की सेवा में हमें लगाओ, जिसके कारण मुझे शुद्ध नाम प्राप्त हो या सद्भाव प्राप्त हो प्रेम प्राप्त हो, ऐसे बहुत सुंदर उदाहरण हैं जिसमें से अभी कुछ दिन पहले ही मैं पढ़ रहा था कि किस प्रकार गुरु के प्रति सेवा करने से और निष्ठा करने से अंतिम सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात कृष्ण प्रेम को प्राप्त कर सकते हैं। जगन्नाथ दास बाबाजी के एक शिष्य थे जिनका नाम बिहारी बाबू , हम सभी जानते हैं यह जो बिहारी बाबू हैं यह जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज को टोकरी में उठाकर लेकर जाते थे उनको जहां भी जाना होता था। उस वक्त जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज 147 वर्ष के थे उन्होंने इतना लंबे समय तक जीवन जिया और यहां तक की उनकी जो पलकें थी उनको किसी को देखना होता था तो उसको उठाने के लिए भी किसी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती थी। हाथों से पलकों को उठाना पड़ता था इतने वृद्ध थे। ऐसी अवस्था में बिहारी बाबू जो कि उनके शिष्य थे इतने सुंदर ढंग से उनकी सेवा की थी एक बार जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज कीर्तन के लिए किसी के घर जाते हैं। वहां पर बिहारी बाबू को कहते हैं कि मृदंग बजाओ, बिहारी बाबू कहते हैं कि मैं मृदंग तो क्या करताल भी नहीं बजा सकता और आप मुझे मृदंग बजाने के लिए कह रहे हो। नहीं नहीं ! तुम मृदंग हाथ में ले लो, गुरु के आदेश के अनुसार , गुरु के आदेश का पालन करते हुए उन्होंने मृदंग लिया और ऐसा मृदंग उन्होंने बजाया कि एक प्रोफेशनल व्यक्ति भी नहीं बजा सकता। इतना सुंदर मृदंग बजाया। गुरु का आदेश, मृदंग नहीं आता तो भी उस सेवा को ले लिया और एक बार और एक सुंदर घटना है जब वह क्लास दे रहे थे तो चैतन्य चरितामृत में से बिहारी बाबू को पढ़ने के लिए कहा, बिहारी बाबू तुम पढ़ो, उन्होंने कुछ अध्याय दे दिया और बोला कि अध्याय पढ़ो , बिहारी बाबू कहते हैं वृंदावन के थे और बंगाली नहीं जानते थे और चैतन्य चरितामृत बंगाली है। उन्होंने कहा कि महाराज में कैसे पढ़ लूंगा मुझे तो बंगाली का एक शब्द भी नहीं आता आप मुझे चैतन्य चरितामृत पढ़ने के लिए कह रहे हो। आप चैतन्य चरितामृत खोलो, गुरु के आदेश के अनुसार उन्होंने चैतन्य चरितामृत को खोला और बंगाली पढ़ना शुरू किया हालांकि उनको बंगाली का एक शब्द भी नहीं आता था फिर भी उन्होंने पढ़ना शुरू किया, सारे लोगों को आश्चर्य हो गया, तो क्या है गुरु का आदेश, मेरी योग्यता नहीं है तो भी मुझे गुरु के आदेश का पालन करना चाहिए। चाहे टूटा फूटा ही क्यों ना हो, ठीक से कर भी ना पाए तो भी कोई दिक्कत नहीं है फिर भी हमें करना चाहिए।
प्रभुपाद के गुरु हैं श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज उन्होंने दो आदेश दिए जैसे ही पैसा मिलता है ग्रंथ लिखो, ग्रंथों को प्रिंट करो और उसका वितरण करो, और तुम अंग्रेजी अच्छी तरह से जानते हो इसलिए पाश्चात्य देश में उसका प्रचार करो। अभी सोचो तो यह बहुत बड़ा कार्य है कई लोग ग्रंथ लिखते हैं और उसका वितरण भी करते हैं कई लोग अंग्रेजी भी जानते हैं और उसका प्रचार भी करते हैं प्रभुपाद के जाने से पहले भी कई गौड़िये भक्त गए थे लेकिन असफल हो कर के आए क्योंकि उन्हें अपने गुरु के प्रति निष्ठा नहीं थी लेकिन प्रभुपाद ने यह दो कार्य इसको इस प्रकार से किया कि उन्होंने इसे पूरे जगत में फैलाया, इतने बड़े व्यक्ति बने, प्रभुपाद का नाम सब जगह हुआ क्योंकि गुरु के प्रति उनकी निष्ठा थी और देखो कितने निस्वार्थ भाव से प्रभुपाद जी ने यह कार्य किया। ऐसे ही जगन्नाथदास बाबा जी भी अपने अंतिम समय में जाते जाते बिहारी बाबू को कहते हैं उनकी परीक्षा लेना चाहते हैं वह पूछते हैं बिहारी बाबू तुमने बहुत सुंदर रूप से मेरी सेवा की किंतु मैं तुम्हें कुछ दे नहीं पाया तुम मांगो तुम्हें क्या चाहिए ? बिहारी बाबू कहते हैं कि महाराज आपके पास क्या है आपके पास ना तो धन है ना कुछ है आप मुझे क्या देंगे? मैं सिर्फ यह चाहता हूं कि आप मेरे साथ रहो वह जा रहे थे अंतिम समय था , जगन्नाथदास बाबा जी महाराज यहां तक भी वे कहते हैं की बोलो तो मैं चैतन्य महाप्रभु को कहकर 5 बैलगाड़ी सोने के सिक्के से भरवा कर तुम्हारे घर भिजवा दूं बिहारी बाबू ने कहा मुझे यह सब नहीं चाहिए मुझे माया में जाना ही नहीं है बस मेरी इच्छा यही है। जा ही रहे हो तो आप हर समय मेरे साथ रहना इस तरह से कहा बिहारी बाबू ने तो जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज उनको आशीर्वाद देते हैं कि हां मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा और तुम्हारी भक्ति से संबंधित जो भी इच्छा है उसकी मैं पूर्ति करता रहूंगा ऐसा आशीर्वाद दिए इतना प्रेम जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज ने बिहारी बाबू से किया उसी तरह से श्रील प्रभुपाद ने गुरु का आदेश पालन करते करते पूरे जगत में विख्यात हुए हम सब जानते हैं कि प्रभुपाद जी ने कितनी मेहनत की है। हरि नाम का प्रचार किया है कहने का तात्पर्य यह है कि हरि नाम का सार जो है यह गुरु की आज्ञा का पालन करना होता है। गुरु जो इंस्ट्रक्शंस देते हैं उसका पालन करना।
वेदों का सार भगवत गीता है भगवत गीता का सार शिक्षष्टकम है शिक्षा अष्टकम का सार हरि नाम है और हरी नाम का सार गुरु की सेवा, यदि शुद्ध नाम प्राप्त करना है तो सदा नाम लेना है ऐसा कहा गया है। हम श्वास लेंगे या भगवान का नाम लेंगे कृष्ण राम ऐसा करते रहेंगे , बाकी के कार्य भी नहीं होंगे , हम पूरे दिन में कितने श्वास लेते हैं आपको पता है कितने लेते हैं 23000 से 27000 श्वास लेते हैं हम पूरे दिन में अर्थात हमें 23000 से 27 हजार बार तक भगवान का नाम जप करना चाहिए, प्रत्येक श्वास के साथ भगवान का नाम हो, वो समय यह क्षण जो है वह हमें भगवत प्रेम देता है वरना भौतिक जगत हमें बाध्य कर देता है। जो श्वास भगवान के साथ नहीं है उतना समय के लिए हम भौतिक स्थिति के लिए बाध्य हो जाते हैं या भौतिक अवस्था में गिर जाते हैं। हरे कृष्ण महामंत्र में 16 बार भगवान का नाम आता है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* षोडश इति नाम नामिनो , 16 शब्दों वाला नाम और इसको हम 16 बार जप करते हैं 108 का माला है और जिसकी संख्या होती है 1700 से भी ज्यादा बार भगवान का नाम हम लेते हैं और 16 माला जप करते हैं मतलब 27600 से भी ज्यादा बार भगवान का नाम लेते हैं अर्थात प्रत्येक श्वास के साथ भगवान का नाम लिया जा रहा है। 27000 बार श्वास वह लेता है जो बहुत दौड़ भाग करता है और आराम से जो ऐसी में बैठता है वह 23 हजार से ज्यादा श्वास नहीं लेता लेकिन जब हम यहां पर जप करते हैं तब 27600 बार से ज्यादा भगवान का नाम जप करते हैं 16 माला जप कर जब हम भगवान की सेवा करते हैं तब निश्चित रूप से भगवत प्रेम प्राप्त होना चाहिए। प्रभुपाद तथा गुरुजनों की आज्ञाओ पर हमें पूरा विश्वास होना चाहिए कि उन्होंने हमें जो आदेश दिए हैं निश्चित रूप से हमें भगवान का नाम हम सदा ले सकते हैं।
भगवत प्रेम शुद्ध नाम जप का फल है कृष्ण प्रेम, ये नाम की महिमा है हम निर अपराध और पश्चाताप से और जागरूक अवस्था में आ जाएं और फिर उसके बाद उन भक्तों के प्रति कृतज्ञता और फिर बाद में उनके गुणगान , इससे निश्चित रूप से डिटरमिनेटली दृढ़ता पूर्वक हम भगवान का शुद्ध नाम जप कर सकते हैं और भगवान का प्रेम प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार से प्रभुपाद ने भी बहुत कृपा करके 16 माला के माध्यम से नाम का जाप हम कर सकते हैं और वैसे भी यह प्रभुपाद की 125 वीं सालगिरह है जिसमें हमने कई प्रकार के संकल्प किए थे। जो हमने 125 गांव में पदयात्रा का जो संकल्प था हमारा, प्रभुपाद के जो शिष्य हैं उनके लिए उनका स्वास्थ्य अच्छा रहे , यह भी हमने संकल्प किया था कि एक लाख 25,000 एक्स्ट्रा नाम माला जप करेंगे। इस तरह से बहुत ही जल्दी यह संकल्प भी पूर्ण होगा। इस माध्यम से भी क्यों ना हो हम भगवान का नाम ज्यादा ले सकते हैं। महाराज के स्वास्थ्य के लिए भी कई भक्त कह रहे हैं कि नाम का जप करो, माला करो, यह प्रार्थना है महामंत्र का जप करना उन भक्तों के लिए उन वैष्णव के लिए यह प्रार्थना ही है। इस प्रकार से भगवान के नाम का जप और प्रार्थना करते रहेंगे । ऑफ कोर्स जिसके लिए हम कर रहे हैं एक भक्त को यदि मैं उनकी सहायता करता हूं तो मेरी आपत्ति में वह भक्त मेरी सहायता करेगा यह निश्चित है यह नेचुरल है इसीलिए प्रभुपाद के जो शिष्य हैं जो वरिष्ठ गण हैं उनके अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमे ज्यादा जप करते हैं तब निश्चित रूप से उनकी कृपा हमें प्राप्त होती है। शुद्ध नाम प्राप्त होता है। इस तरह से संबंध अभिदेय और प्रयोजन, कृष्ण प्रेम चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को समझाते हैं और वह कहते हैं कि भगवान से भी ज्यादा भक्तों के प्रति जो प्रेम होता है तब भगवान बहुत संतुष्ट होते हैं और आसानी से अपना प्रेम दे देते हैं उस भक्त को , यह नाम की महिमा है।
जगतगुरु श्रील प्रभुपाद की जय !
परम पूज्यनीय लोकनाथ स्वामी महाराज की जय !
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
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जप चर्चा
18 जनवरी 2022
श्रीमान राधेश्याम प्रभु जी
हरे कृष्णा
सर्वप्रथम मैं परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज जी के श्री चरणों में सादर दंडवत प्रणाम अर्पित करता हूँ एवं सम्मिलित हुए सब श्रद्धालु भक्त वृंद के श्री चरणों में भी दंडवत प्रणाम अर्पित करता हूँ | हम सबलोग रोज हरे कृष्णा जप ध्यान पूर्वक करना चाहते हैं और परम सिद्धि कृष्ण प्रेम को प्राप्त करना चाहते हैं | मैं आज दो विषयों के बारे में संक्षिप्त रूप मे बताऊंगा | ऐसा बताया गया है कि
Attention
Attraction
Attachment
Absorption
Affection
यह पांच है | अगर हम अपने नाम जप में इन पाँच की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं तो हम सही दिशा में है और हम जल्द ही जल्द कृष्ण प्रेम को जगायेंगे |
Attraction का मतलब है किसी भी विषय के ऊपर हमारा थोड़ा भी आकर्षण का होना | उस विषय में हमारा मन ध्यान देता है यानी Attention | अगर Attraction नहीं है तो उसके ऊपर ध्यान नहीं बैठता | उदाहरण के लिए अगर मैं बैठकर नाम जप कर रहा हूँ और कुछ दूसरे विषय के ऊपर आकर्षण Attraction हो रहा है तो मेरा Attention उधर जाता है उसे ही कहते हैं Distraction | Distraction यानी Alternative Attraction | इस प्रकार के Attraction मे हरि नाम के ऊपर मन का ध्यान हटकर दूसरे विषय के ऊपर जाता है | इस तरह हमारे ध्यान को Attract करने वाले दो चीज़ें होती हैं — एक है आँख के विषय और दूसरा है कान के विषय | यह दो चीजें हमें दूसरे Attraction प्रदान करती हैं | आप देख सकते हैं अगर मैं नाम जप रहा हूँ और अगर Phone की Beep करके कुछ आवाज आती है तो तुरंत Attraction उधर जाता है | क्योंकि कान में आवाज सुनाई दी और हमारा Attraction उधर गया | और Alternative Attraction आ गया | हरिनाम के ऊपर से ध्यान हट कर दूसरे विषय पर चला गया | इसलिए थोड़ा बहुत यदि हरि नाम के ऊपर Attraction हो उसके बाद उसके ऊपर Attention आता है | और हरि नाम के ऊपर Attraction आने के लिए प्रथम चीज है कि हमारे मन को भी कृष्ण को चाहना चाहिए | अगर मैं मन से किसी विषय को चाहता हूँ तो उसके लिए Logic Reason आदि चीजों की जरूरत भी नहीं पड़ती | अगर मन से मैं किसी चीज को पसंद करता हूँ उदाहरण के लिए पकोड़ा गुलाब जामुन और भजिया है उनके बारे में सोचते हैं क्योकि वो हमें पसंद है अगर हम किसी विषय को पसंद करते हैं तो उसकी तरफ मन आसानी से जाता है | मन में ही उसकी तरफ आकर्षण Attraction है | तो अभी हम बद्ध अवस्था में कृष्ण की ओर उतने आकर्षण का अनुभव नहीं कर पाते हैं उसका कारण क्या है? जैसे एक लोहे के ऊपर यदि जंग लगा हो, मिट्टी पड़ी हो तो चुंबक को निकट लाने के बावजूद भी आकर्षण नहीं होता है क्योंकि उसके ऊपर एक आवरण है | और मिट्टी और जंग को निकालने के बाद वो ठक कर के चुंबक से चिपक जाएगा | उसी प्रकार मनन की शुद्धिकरण करने के लिए कृष्ण की सहायता चाहिए, कृष्ण की सहायता के द्वारा ही हमारा शुद्धिकरण होता है | इसलिए हमें हमारे आचार्य गणों ने बताया है
उपदेशामृत
श्लोक ७ स्यात्कृष्णनामचरितादिसिताप्यविद्या पित्तोपतप्सरसनस्य न रोचिका नु किन्त्वादरादनुदिनं खलु सैव जुष्टा स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्गदमूलहन्त्री ॥ ७ ॥
अनुवाद कृष्ण का पवित्र नाम , चरित्र , लीलाएं तथा कार्यकाल सभी मिश्री के समान आध्यात्मिक रूप से मधुर हैं । यद्यपि अविद्या रूपी पीलिया रोग से ग्रस्त रोगी की जीभ किसी भी मीठी वस्तु का स्वाद नहीं ले सकती , लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि इन मधुर नामों का नित्य सावधानी पूर्वक कीर्तन करने से उसकी जीभ में प्राकृतिक स्वाद जागृत हो उठता है और उसका रोग धीरे – धीरे समूल नष्ट हो जाता है ।
रूप गोस्वामी पाद बताते हैं कि यदि आकर्षण ना होने के बावजूद भी हम बार-बार हरि नाम का जप करेंगे, प्रयत्न करेंगे, प्रयत्नशील होंगे, तो उससे भगवान हमारे ऊपर अनुकंपा दिखाकर हमारे चित्त में जो भी मल पड़ा है, उसको शुद्ध करते हैं और शुद्ध होने के कारण आकर्षण धीरे-धीरे बढ़ जाता है | जैसे मेरा भी अनुभव है | कॉलेज के दिनों में मुझे जॉन्डिस हुआ था | उस समय गन्ने का रस बहुत कड़वा लगता था लेकिन पीते पीते पीते पीते धीरे-धीरे गन्ने का रस मे मिठास आ गयी | मिठास तो उसमें पहले से है ही लेकिन हमारा चित्त उसमें लगने के बाद मिठास का असली अनुभव हमें प्राप्त होता है | ऐसा रूप गोस्वामी हमें बताते हैं | उसी पथ में हम लोग अभी लगे है ताकि धीरे-धीरे आकर्षण बढ़े |
दूसरी चीज हमारे आकर्षण को क्या बढ़ाती है?
नाम जप तो हम रोज कर रहे हैं इसलिए धीरे-धीरे भगवान कृपा करके चित्त शुद्ध करेंगे, धीरे-धीरे आकर्षण बढ़ेगा | दूसरी चीज आकर्षण बढ़ाने के लिए चैतन्य चरितामृत में बतायी गयी है
आदि लीला 4.15 – 4.16
प्रेम रस नियस करिते आस्वादन । राग – मार्ग भक्ति लोके करिते प्रचारण ॥ 15 ।। रसिक शेखर कृष्ण परम – करुण एइ दुइ हेतु हैते इच्छार उद्गम || 16 ||
अनुवाद अवतार लेने की भगवान् की इच्छा दो कारणों से उत्पन्न हुई थी वे भगवत्प्रेम रस के माधुर्य का आस्वादन करना चाह रहे थे और वे संसार में भक्ति का प्रसार रागानुगा ( स्वयंस्फूर्त ) अनुरक्ति के स्तर पर करना चाहते थे । इस तरह वे परम प्रफुल्लित ( रसिकशेखर ) एवं परम करुणामय नाम से विख्यात हैं ।
चैतन्य चरितामृतम में बताया गया है कि भगवान श्री कृष्ण के पास दो खास चीजें हैं जो जीव के हृदय में आकर्षण को जगाते हैं | एक है रसिक शेखर कृष्ण अर्थात कृष्ण beautiful, playful, sportive, naughty, joyful, cheerful है, ऐसा बताया गया है कि भगवान कृष्ण बहुत खूबसूरत हैं, वे अपनी माता यशोदा के साथ, वृंदावन वासियों के साथ बहुत शरारते करते हैं | वे त्रिभंग ललित के रूप में खड़े रहते हैं, नाचते हैं, गाते हैं | इन चीजों को देखकर भक्तों के हृदय में एक तरह का विस्मय उत्पन्न होता है, उनके अंदर भगवान से मिलने की उत्सुकता आती है | क्योंकि साधारणतः परमात्मा शंख चक्र गदा पद्म लेकर खड़े रहते हैं वे Neutral है, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण neutral नहीं है | वे वृंदावन में भक्तों के साथ बहुत Actively आदान प्रदान करते हैं | उनकी लीला कथा आदि हमें श्रवण करने से हमारे मन में एक प्रकार की उत्सुकता होती है कि इस व्यक्ति के साथ मुझे प्यार करना चाहिए, ये व्यक्ति बहुत अच्छे हैं | यदि हम दसवां स्कंध 15 वा अध्याय पढ़ेंगे तो उसमे बताया गया है कि जब भगवान श्री कृष्ण बलराम जी के साथ गोचरण लीला में वृंदावन में प्रवेश करते हैं तो उस समय कोयल कुहू करके भगवान का स्वागत करती है, बहुत सुंदर मधुर मीठी आवाज में भगवान का स्वागत करती है, और मोर नाच नाच कर भगवान का स्वागत करते हैं, और हिरन बहुत ही प्रेम अवलोकन के साथ भगवान का स्वागत करता है, और पेड़ फल और फूल इत्यादि को अपने डालियों के द्वारा भगवान को अर्पित करते हैं, भगवान से कहते हैं कि मैं इतना भाग्यशाली नहीं हूँ जितना भ्रमर भाग्यशाली है क्योंकि भ्रमर आपके साथ वन में जा रहा हैं लेकिन मैं नहीं आ पाऊंगा, पेड़ आंखों से आंसू बहाते हुए ऐसा कहते हैं इस प्रकार फूल और फलों को अर्पित करते हैं, और बहुत तेजी से बहने वाली यमुना मंद गति से बहना चालू कर देती है हालांकि वो यमराज की बहन है उनके अंदर एक बहुत वेग और जोश भी है | फिर भी कृष्ण के संपर्क में आने वाले भक्त सब मृदु स्वभाव के हो जाते हैं, यही श्री कृष्ण का स्वभाव है | कृष्ण के श्री चरणों की धूल ही प्राप्त करके यमुना भी एकदम कोमल हो जाती है | और यमुना कमल लेकर श्री कृष्ण की ओर चरण कमलों में सेवा के रूप में फेंकती हैं | इस प्रकार हम पढ़ते हैं कि वृंदावन के सभी प्राणी कृष्ण की ओर आकर्षित होते हैं | ऐसा पढ़ते हैं कि जब गाय के बछड़े दूध पी रहे होते हैं लेकिन जब कृष्ण की मुरली की आवाज सुनते हैं तो उनका दूध पीना रुक जाता है | मुंह से एक स्वादिष्ट चीज दूध अंदर जा रही है और कान से भी एक स्वादिष्ट चीज कृष्ण की मुरली की आवाज अंदर जा रही है | बछड़ा सोच रहा है दोनों में से किसे पहले पीउ | तो वो दूध को रोक देता है | क्योंकि उसे मुरली की आवाज का पान दूध से भी ज्यादा मीठा लगता है | ऐसी है कृष्ण की मुरली की आवाज | उसे सभी सुनना चाहते हैं | उस बछड़े की मां जो है, वह गाय घास खा रही है परंतु कृष्ण की मुरली की आवाज को सुनकर उसके कान खड़े हो जाते हैं वह भी मुरली की आवाज सुनना चाहती है घास उसके मुंह में ही रह जाती है अंदर नहीं जाती | उसी अवस्था में वह मुरली की आवाज सुनती हैं | पेड़ों में पंछी बैठकर आंख बंद करके ध्यान मुद्रा में बैठकर मुरली की आवाज सुन रहे हैं मानो वे पूर्व जन्म में योगी थे | आसमान में उड़ने वाले देवी देवता लोग जो जा रहे होते हैं, वह मुरली की आवाज सुनकर नीचे उतर आते हैं, वे कहते हैं चलो अभी वृंदावन में कुछ दिन रहते हैं, कृष्ण की मुरली की आवाज सुनते हैं, वे भी नीचे उतर आते हैं | ब्रह्मा जी अपने सत्यलोक में पूजा करने के लिए जा रहे होते हैं, मुरली की आवाज सुनकर पूजा नहीं कर पाते हैं, पूजा छोड़कर वृंदावन आ जाते हैं | योगी लोग जंगल में गुफा के अंदर बैठकर जो ध्यान करते हैं वे ओम का उच्चारण नहीं कर पाते हैं उनका मन विचलित हो जाता है वे ओम का उच्चारण बंद करके मुरली की आवाज सुनने के लिए आ जाते हैं | इस तरह यह कृष्ण का आकर्षण है, कृष्ण की और आकर्षण के बारे में हम पढ़ेंगे तो हमारे अंदर भी आकर्षण उत्सुकता बढ़ जाती है | हमें भी लगता है कि यह सब कितने भाग्यशाली हैं | गोपियां कह रही है कि देवता लोगों को भी कृष्ण की मुरली की आवाज सुनने के लिए अनुमति है, जानवर भी उनकी लीला में भाग ले रहे हैं, हम एकमात्र अभागी गोपियां हैं, हमें कृष्ण के साथ गोचरण लीला में जुड़ने के लिए अनुमति नहीं है, गोपियां अपने आप को अभागन कह रही हैं | और गोपिया कह रही है कि इस मुरली ने क्या भाग्य पाया है कि कृष्ण कभी इसे कमर में रखते है, कभी इसे बजाते है, हमेशा अपने हाथ में रखते है, सोते है तो भी इसे निकट रखते है | तो मुरली गोपियों से कहती है कि हे गोपियों मुझे देखकर आप ईर्ष्यालु मत हो जाइए, मैं कारण बताती हूँ कि मुझे कृष्ण इतना क्यों पसंद करते हैं | देखो मेरे पास छुपा कर रखने के लिए कुछ भी नहीं है | जैसे वीणा और सितार है यह वाद्य यंत्र लंबे हैं और इसके एक सिरे पर काफी बड़ी जगह है इसके अंदर क्या है हमें नहीं पता, हो सकता है कुछ छुपा कर रखा हो अंदर | किन्तु मेरे पास छुपा कर रखने के लिए कुछ भी नहीं है | मुरली में अंदर से बाहर कोई भी देख सकता है | मुरली कहती है कि मैं सरल हूँ, निष्कपट हूँ, मेरे पास छुपा के रखने के लिए कुछ नहीं है, यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण मुझे पसंद करते हैं | इतना ही नहीं देखो बांस को लेकर उसमें छिद्र करके मुझे बनाया जाता है, उन छिद्रो को बनाते वक्त मैंने चिल्लाया नहीं रोया नहीं | इसी प्रकार जो भक्त भक्ति मार्ग में तकलीफों को झेलने के लिए तैयार है उसके लिए रस इंतजार कर रहा है | भक्तों के बीच में रहते समय कुछ लोगों में झगड़ा होता है, कुछ लोग भाग जाते हैं, सहन नहीं कर पाते हैं तो उनको यह रस नहीं मिलता है | उन्हें माया का रस मिलता है | माया के रस का अर्थ लात है | वे लोग लात ही खाते हैं | लेकिन जो लोग भगवान के भक्तों के झुंड में जुड़ कर रहते हैं, भगवान के श्री चरणों में रहते हैं, उन लोगों को आध्यात्मिक जगत प्राप्त होता है| मुरली कहती है कि छिद्रो के बाद भी में भगवान के साथ ही रही | कृष्ण वृंदावन में एक Ecofriendly environment में रहते हैं, पेड़ पौधों के बीच में रहते है, जानवर के बीच में रहते है, जंगल में रहते है, वृंदावन एक वन ही है | उसमे मुरली जंगल में बांस से बनती है भगवान की सरलता में भगवान की सेवा में बांस भी लग गया है बांस कहता है मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ इसलिए भगवान के साथ रह पाता हूँ | इस तरह की लीलाओं को यदि हम पढ़ेंगे तो हमारे मन में कृष्ण के प्रति आकर्षण जरूर बढ़ेगा | इसलिए प्रभुपाद ने बोला कि मैंने आपको कृष्ण बुक दी है
Krishna book is a solace for the devotees who are feeling separation from Krishna.
जो लोग कृष्ण से विरह का अनुभव कर रहे हैं उन को तृप्त करने के लिए यह कृष्ण पुस्तक मैंने दी है ऐसा प्रभुपाद कहते है | ताकि हमारे में कृष्ण की अनुभूति बढ़े | कृष्ण त्रिभंग ललित रूप में क्यों खड़े हैं? अगर हम ऑफिस में जाते हैं तो सामान्य रूप से खड़े रहते हैं जैसे विष्णु शंख चक्र गदा पद्म लेकर खड़े रहते हैं जैसे प्रधानमंत्री पार्लियामेंट में रहते हैं उसी प्रकार भगवान विष्णु हैं | लेकिन जब वही प्रधानमंत्री घर में होते हैं तो अपनी मां के चरणों में झुकते हैं, या फिर आराम से बैठ कर बात करते हैं उसी प्रकार भगवान भी आराम से मुरली बजाते हैं | साथ ही साथ भगवान अपने पांव को जब ऐसे रखते हैं विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहा है कि विष्णु और रामचंद्र जी के पांव जमीन पर रहते हैं भगवान कृष्ण के पाव त्रिभंग ललित रूप में हमें दिखाई देते हैं भगवान के पैरों में जो 16 दिव्य चिन्ह हैं भगवान ने उन चिन्हों को activate कर दिया है | भगवान विष्णु और रामचंद्र के चरणों में हमें बहुत झुकना पड़ेगा उनके पास जाना पड़ेगा तभी हमें उनका लाभ मिलेगा परंतु भगवान कृष्ण त्रिभंग ललित रूप में अपने चरणों के चिन्हो के दर्शन हमें देते हैं उनके सारे चिन्ह जैसे वज्र कमल छतरी मछली दिव्य है | ब्रह्मा जी पद्म पुराण में कहते हैं कि उनके कुछ कुछ अवतारों में मैंने चार आठ बारह चिन्ह देखे हैं लेकिन कहीं भी मैंने कृष्ण के श्री चरणों को छोड़कर 16 चिन्ह नहीं देखे हैं सिर्फ कृष्ण के ही चरणों में 16 चिन्ह है | कृष्ण के श्री चरणों में 16 चिन्ह आसानी से प्राप्त होने के कारण सारे भक्त इन्ही श्री चरणों की ओर आकर्षित होते हैं |
10.31.7
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् । फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७ ॥
आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वाले हैं । वे ही चरण गाँवों के पीछे पीछे चरागाहों में चलते हैं और लक्ष्मीजी के दिव्य धाम हैं । चूँकि आपने एक बार उन चरणों को महासर्प कालिय के फनों पर रखा था अतः अब आप उन्हें हमारे स्तनों पर रखें और हमारे हृदय की कामवासना को छिन्नभिन्न कर दें ।
गोपियां बताती है कि आपके श्री चरणों में शरणागत भक्तों के पूर्व जन्म का पहाड़ जैसे पाप कर्म का जो बौझ है उसे आप चुर चुर कर देते हैं और हम देखते हैं कि वही श्री चरण तृण को चरने वाली गायों के पांव के पीछे पीछे चलते हैं जब आप गोचारण लीला में जाते हो तब हम यह देख पाते हैं| और कालिया नाम के जहरीले सर्प के हजारों फनो के ऊपर यही चरण नाचते हैं और उस चरणों की धूलि को प्राप्त करके कालिया का चित्त शुद्ध हो जाता है उसका विष मिट जाता है और कालिया भी अपनी धर्म पत्नियों की तरह भगवान का भक्त बन जाता है | इस तरह भगवान के श्री चरणों की महत्ता बताई जाती है | अगर हम लोग कृष्ण की खूबसूरती, कृष्ण की शरारती, कृष्ण के श्री चरणों का महत्व, कृष्ण के श्री चरणों की धूल का महत्व इत्यादि और वृंदावन के माहौल के बारे में नियमित रूप से सुनते हैं तो धीरे-धीरे हमारा भगवान कृष्ण की और आकर्षण बढ़ता है |
दो चीज हमें भगवान कृष्ण की ओर खींचती है | एक रसिक शेखर कृष्ण जिसके बारे में अभी तक मैंने वर्णन किया |
इसी बात ने शुकदेव गोस्वामी को भी आकर्षित किया था | जब शुकदेव गोस्वामी जन्म लेते ही जंगल में चले गए थे, वे ज्ञानी पुरुष थे | कुछ स्त्रिया तालाब में नहा रही थी, वे कपड़े नहीं पहनी हुई थी फिर भी शुकदेव गोस्वामी तो उनके प्रति लेश मात्र भी आकर्षण नहीं हुआ क्योंकि इसका कारण था कि उनके ज्ञान चक्षु जागृत हो गए थे, वे सिर्फ आत्मा को ही देखते थे, हर दिशा में आत्म तत्व को ही देखते थे | कभी उन्होंने स्त्री पुरुष इत्यादि में फर्क नहीं देखा आत्मा और शरीर के बीच में फर्क देखते थे वे इस प्रकार के महात्मा पुरुष थे जो जन्म लेते ही जंगल की ओर चल पड़े |
1.2.2
सूत उवाच यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥२ ॥
श्रील सूत गोस्वामी ने कहा : मैं उन महामुनि ( शुकदेव गोस्वामी ) को सादर नमस्कार करता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं । जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करने चले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग के भय से आतुर होकर चिल्ला उठे , ” हे पुत्र , ” उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे , केवल ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया ।
इस श्लोक में सूत गोस्वामी अपने गुरु शुकदेव गोस्वामी का गुणगान कर रहे हैं | उन्होंने यज्ञोपवीत धारण नहीं किया है, उनका कोई संस्कार वगैरह भी नहीं हुआ है, जन्म लेते ही वे ज्ञानी पुरुष जंगल में पहुंच गए लेकिन जंगल में उन्होंने अद्भुत गीत सुना | वो गीत कृष्ण के बारे में था और वह गीत बहुत आकर्षक था | उस गीत को सुनने के कारण इनके अंदर आकर्षण जग गया था |
वह क्या गीत था?
10.21.5
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकार बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् । रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः ॥५ ॥
अपने सिर पर मोरपंख का आभूषण , अपने कानों में नीले कर्णिकार फूल , स्वर्ण जैसा चमचमाता पीला वस्त्र तथा वैजयन्ती माला धारण किये भगवान् कृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ नर्तक का दिव्य रूप प्रदर्शित करते हुए वृन्दावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीक बना दिया । उन्होंने अपने होंठों के अमृत से अपनी वंशी के छेदों को भर दिया और ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया ।
भागवत के दशम स्कंध में यह गीत हैं | शुकदेव गोस्वामी हमें गोपियों के अंदर के भाव को बता रहे हैं | गोपियां कह रही है कि कृष्ण कितने खूबसूरत हैं, वे मोर पंख पहने हैं, वैजयंती माला पहने हैं, बहुत ही सुंदर चमकने वाले पीतांबर पहने हैं, उनके इर्द-गिर्द गाय बछड़े और गोप बालक हैं, हाथ में एक मुरली लेकर मुरली बजाते हुए मुरली के अंदर नाद को भर देते हैं, मुरली की आवाज को सुनकर भगवान के जंगल में प्रवेश करने के पहले वृंदावन के सभी लोग एकत्रित हो जाते हैं | गोपियां वर्णन करती हैं कि भगवान के निकट खड़े गोप बालक सब भगवान का गुणगान कर रहे है, ऐसे गीतों के द्वारा गीत कीर्ति गा रहे है, इस तरह गोपियों के द्वारा जो भगवान का वर्णन है वह जब शुकदेव गोस्वामी ने सुना तो वे एकदम आश्चर्यचकित हो गए | यहां एक चर्चा आती है कि शुकदेव गोस्वामी जंगल छोड़कर घर वापस क्यों लौट आए क्या उन्हे जंगल में शेर बाघ इत्यादि जानवरों से डर था? नहीं वह ज्ञानी पुरुष थे, ज्ञानी पुरुष को किसी का डर नहीं लगता | ज्ञानी लोग डरते नहीं है वे अभय होते हैं | क्या जंगल में उन्हें विवाह करने की इच्छा हुई? बिल्कुल नहीं उन्हें विवाह की इच्छा क्या किसी प्रकार की भी इच्छा नहीं हुई उनके अंदर दुनिया की कोई भी इच्छा नहीं थी | वे सभी जीवो को जीव के स्तर पर देखते थे | तो क्या जंगल में पढ़ाई लिखाई का अभाव था? यह बात भी नहीं थी शुकदेव गोस्वामी को वेदांत के ज्ञान का भी साक्षात्कार हो चुका था | वे मुक्त पुरुष थे मुक्त अवस्था मे थे इसलिए उन्हें ओर कुछ पढ़ने की आवश्यकता नहीं थी | तो फिर जंगल छोड़ कर घर वापस आने का क्या कारण था? क्या माता पिता के प्रति आसक्ति हो गई? क्या उन्हें माता-पिता की याद आ गई? क्या वे रोते हुए वापस आ गए? बिल्कुल नहीं आसक्तियों से पहले ही वे छूट चुके थे, वे इन सब आसक्तियों से ऊपर थे | एकमात्र कारण बताया गया है कि क्यों वह जंगल छोड़कर घर वापस लौट आए |
1.7.10
सूत उवाच आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकों भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥ १० ॥
जो आत्मा में आनन्द लेते हैं , ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म – साक्षात्कार के पथ पर स्थापित हो चुके हैं , ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं , फिर भी भगवान् की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् में दिव्य गुण हैं , अतएव वे मुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकते हैं ।
एक ही कारण है कि भगवान कृष्ण सभी जीवो को अपनी और आकर्षित करते हैं, और खास करके जो आत्माराम पुरुष होते हैं जो लोग इस भौतिक दुनिया के भवसागर से ऊपर उठ गए हैं ब्रह्म भूत स्तर पर आ गए हैं | हम लोगों को जीव भूत कहा गया है क्योंकि हम पंचमहाभूत के शरीर के अंदर स्थित है और तीन गुणों के प्रभाव में आकर विषय भोगों को भोगने के कारण इस दुनिया में भटक रहे हैं लेकिन जो लोग गुनातीत हो गए हैं उनके अंदर किसी भी प्रकार का काम क्रोध मोह लोभ मद मत्सर का प्रभाव नहीं है वे लोग ब्रह्म भूत स्तर पर आ गए हैं | ब्रह्म भूत स्तर के बाद अंदर भगवान के प्रति आकर्षण जगता है | जैसे इस प्रकार के ज्ञानी पुरुषों के बारे में भगवान कृष्ण बताते हैं
2.71
“विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्र्चरति निःस्पृहः |
निर्ममो निरहङकारः स शान्तिमधिगच्छति || ७१ ||”
अनुवाद
जिस व्यक्ति ने इन्द्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक को शान्ति प्राप्त कर सकता है |
ज्ञानी पुरुष सभी इच्छाओं को त्याग कर इस दुनिया में निर इच्छा होकर चलता है वह कभी भी किसी भी विषय के ऊपर स्वामित्व नहीं जमाता है वह देह और देह से जुड़ी हुई पदार्थों में अहंकार नहीं रखता है | वह इन सब चीजों से ऊपर उठ जाता है वह शांत हो जाता है उसका मन एक शाम समुंद्र के समान हो जाता है |
2.70
” आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् |
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी || ७० ||”
अनुवाद
जो पुरुष समुद्र में निरन्तर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरन्तर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शान्ति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्ठा करता हो |
जैसे समुद्र के अंदर नदियां आकर मिल जाती हैं लेकिन समुद्र विचलित नहीं होता हमेशा शांत अवस्था में रहता है | ज्ञानी पुरुष भी वैसे ही है शुकदेव गोस्वामी ऐसे ही थे लेकिन ऐसे समुद्र मे भी पूर्णिमा के दिन बड़ी-बड़ी लहरें उठती हैं | जिस प्रकार शुद्ध भक्तों का हृदय शांत है किंतु राधा वृंदावन चंद्र के पूर्णिमा जैसे सुंदर चेहरे को देखकर भक्तों के हृदय में प्रेम आवेश में लहरें उठती है, बहुत बड़ी बड़ी तेजी से लहरें उठती हैं | शुकदेव गोस्वामी के साथ भी यही हुआ, वे ज्ञानी पुरुष थे, वे विचलित नहीं होते थे, कोई स्त्री पुरुष का आकर्षण नहीं था किंतु भगवान के चेहरे का वर्णन सुनकर उनके अंदर भी भगवान के प्रति आकर्षण जग गया तो अभी तक मैंने आकर्षण के बारे में बताया |
Attraction से Attention आता है | एक लकड़हारे ने यह गीत गाया था रसिक शेखर कृष्ण | तो दूसरे लकड़हारे ने गाया
3.2.23
अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥ २३ ॥
ओह , भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उस असुरिनी ( पूतना ) को माता का पद प्रदान किया , यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था ?
दूसरे विषय के बारे में आज मैं ज्यादा बोल नहीं पाया परंतु दूसरा विषय है जो की भगवान के प्रति आकर्षित करता है वह है भगवान की अनुकंपा, जीवो के हृदय में भगवान की अनुकंपा | भगवान का हृदय करुणा से भरा है | भगवान का ह्रदय अपने भक्तों को देखकर जल्दी द्रवित हो जाता है पिघल जाता है | इसको देखकर अनेक भक्त भगवान के प्रति आकर्षित होते हैं | इसमें पूतना का उदाहरण आता है पूतना जो राक्षसी थी और घोर चुड़ैल थी, स्तन मे विष लगा कर आई थी भगवान को मारने के लिए | ऐसी पूतना का भी उद्धार करके भगवान ने उसे धात्री का स्थान दिया | यह सुनकर शुकदेव गोस्वामी बेहोश होकर गिर पड़े इतने अधिक कृपालु परम दयालु कौन हो सकता है दुनिया में?
तो प्रिय भक्तों आप अपने जीवन में देखेंगे कि दो चीज से आप कृष्ण के प्रति आकर्षित होंगे |
पहली चीज के बारे में आज मैंने विस्तार पूर्वक बताया | और दूसरा कारण है कृष्ण की अनुकंपा को देखकर, कृष्ण की दया से हम आकर्षित होते हैं | कृष्ण की दया इस दुनिया में भी प्रकट होती है | सूर्य और चंद्र भगवान की दो आंखें हैं, दाहिने आँख से बारिश फल फूल मसाले सब कुछ भगवान तैयार करते हैं, बाये आँख से उसके अंदर 6 तरह के रस को भर देते हैं |
Sweet, Sour, Bitter etc.
यह दो आंखें भगवान की हमारी दुनिया की सुख सुविधाओं का कारण बनती है यह देख कर हमारे हृदय में भगवान के प्रति कृतज्ञता जग जाती है
To see the compassionate nature of Krishna’s creation
यह दो बातें बहुत ही आवश्यक है
भगवान की सृष्टि को देखकर भगवान के अनुकंपा को देखना
और कृष्ण के अंदर पूतना के प्रति जो उन्होंने अनुकंपा दिखायी उसे देखना | यह दो चीज देखकर भगवान के अनुकंपा के प्रति हम बहुत आकर्षित होते हैं |
Attraction से Attention आता है, Attention से Attachment आ जाता है, Attachment से Absorption आ जाता है, Absorption नाम जप में सबसे महत्वपूर्ण है, Absorption से पागल हो जाता है भक्त जिसे Affection बोलते हैं |
ये पांच A बताए गए हैं हम जो शास्त्र पढ़ते हैं उसका मूलभूत उद्देश्य है कि हमारा हृदय द्रवित हो, ताकि हम नाम जप मे बाकी चीजों को भूल जाए, कृष्ण के श्री चरण ही हमारे लिए सब कुछ हो जाएंगे, नाम पुकारते समय मैं कृष्ण को पुकार रहा हूँ, राधा रानी को पुकार रहा हूँ, उनका आश्रय मांग रहा हूँ, उनसे प्रार्थना कर रहा हूँ, आप मुझे उठाइए मुझे उठा ले मुझे अपना बना लीजिए, मुझे अपने पास रखिए, कहीं दुनियादारी की चीजों में हम फस ना जाए | इस तरह की प्रार्थनात्मक भावना जब जगती हो हमारे ह्रदय में तब नाम जप में रुचि भी मिलेगी | जैसे फोम को पानी में डालने से वह पानी को चूस लेता है, उसी तरह मेरा हृदय भी पूरा कृष्ण के स्मरण में डूब जाएगा |
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
धर्मराज प्रभु जी द्वारा,
17 जनवरी 2022
हरे कृष्णा
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम :।।*
नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते लोकनाथ -स्वामिन् इति नामिने ।
नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने
नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे
निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ।
जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,
श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥
सभी भक्तों के चरणों में दंडवत प्रणाम और गुरु महाराज जी के चरणों में दंडवत प्रणाम।आज मुझे इस जप चर्चा को करने की सेवा गुरु महाराज की ओर से पदमाली प्रभु जी द्वारा दी गई हैं, तो मैं उनका भी धन्यवाद करना चाहूंगा
कपिल भगवान और माता देवहूति के बीच में जो संवाद हुआ हैं, वह बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और हम भक्तों के लिए उसमें बहुत कुछ हैं। हम भक्तों को उसमें बहुत सी शिक्षाएं प्राप्त होती हैं। जब माता देवहूति ने अपने पुत्र कपिल भगवान से पूछा कि हे पुत्र,मैं इस भौतिक जगत से बहुत आसक्त हूं या इस भौतिक जगत में, अपने घर परिवार में ही मेरी बहुत आसक्ति हैं। मैं इस भौतिक जगत का ही चिंतन करती रहती हूं। मेरी घर परिवार में,इस संसार में आसक्ति हैं। मैं इस आसक्ति से छूटना चाहती हूं।तो कपिल भगवान कहते हैं कि हे मां! आपको अगर इस आसक्ति से छूटना हैं,तो आपको एक अलग आसक्ति से आसक्त होना होगा। तो देवहूति माता कहती हैं कि, हे पुत्र! तुम कैसी बातें कर रहे हो? मैं तो पहले ही इन आसक्तियों से छूटना चाहती हूं और तुम कह रहे हो कि एक और आसक्ति से आसक्त होना होगा। तो कपिल भगवान कहते हैं कि आपने बिल्कुल सही सुना। अगर आपको इस संसार की भौतिक आसक्ति से अनासक्त होना हैं, तो आपको ऐसे साधुओं से आसक्त होना होगा जो बिल्कुल अनासक्त हैं, उनमें आसक्ति होने से इस भौतिक जगत की आसक्ति से पूर्ण रूप से छोटा जा सकता हैं। तो फिर देवहूति माता पूछती हैं कि फिर साधु ऐसे कौन है? ऐसे साधुओं के क्या लक्षण हैं? तब कपिल भगवान कहते हैं-
3.25.21
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥ २१ ॥
साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भाव
रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है
और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।
भगवान कहते हैं कि ऐसे तो साधुओं के बहुत सारे लक्षण हैं, फिर भी कुछ लक्षणों को भगवान बता रहे हैं। भगवान कहते हैं कि वह बहुत ही सहनशील हैं। उनके हृदय में अन्य जीवो के प्रति करुणा भरी हुई हैं। जो अन्य जीवो को अपना मित्र मानते हैं। उनके शत्रुओं ने कभी जन्म ही नहीं लिया हैं। जो सदैव शांत रहते हैं और जो शास्त्रों में बताए गए विधि-विधानो के अनुसार आचरण करते हैं और यही उनके आभूषण हैं।साधुओं को अलग से कुछ गहने पहनने की आवश्यकता नहीं हैं। यही उनके आभूषण हैं। अगर हम सहनशीलता के गुण की बात करते हैं तो हमें एक तो लगता हैं कि कोई हमें कुछ बोल रहा हैं और बदले में हम कुछ नहीं बोल रहे हैं,तो वह भी सहनशीलता हैं। लेकिन जब हम देखते हैं कि हमारे पीछे से कोई निंदा कर रहा हैं, तो हम भी फिर बुरा मान कर तलवार निकाल लेते हैं।हम भी गुस्सा करने लगते हैं। लेकिन यहां ऐसे लोगों की बात नहीं हो रही हैं। साधु तो ऐसे होते हैं, कि अगर कोई उनकी निंदा भी कर रहा हैं, तब भी बुरा नहीं मानते हैं। तब भी गुस्सा नहीं होते हैं।वह हर समय सहनशील रहते हैं या फिर ऐसा भी होता है कि उन्हें जब पता चलता हैं, कोई हमारी निंदा कर रहा हैं, तो वह बल्कि सामने वाले के अच्छे गुणों पर ही जोर देते हैं। यह साधु का लक्षण हैं। जैसे उपदेशामृत के पांचवें श्लोक में श्रील रूप गोस्वामी बताते हैं
Noi 5
श्लोक ५ कृष्णोति यस्य गिरि तं मनसाद्रियेत दीक्षास्ति चेत्प्रणतिभिश्च भजन्तमीशम् । शुश्रूषया भजनविज्ञमनन्यमन्य निन्दादिशून्यहृदमीप्सितसङ्कलब्ध्या ।। ५ ।।
अनुवाद मनुष्य को चाहिए कि जो भक्त भगवान कृष्ण के नाम का जप करता है , उसका मन से द करे ; उसे चाहिए कि वह उस भक्त को सादर नमस्कार करे , जिसने आध्यात्मिक दीक्षा ग्रहण कर ली है और जो अर्चाविग्रह के पूजन में लगा हुआ है एवं उसे चाहिए कि वह उस शुद्ध भक्त की संगति करे और श्रद्धा पूर्वक उसकी सेवा करे , जो अनन्य भक्ति में आगे बढ़ा हुआ है और जिसका हृदय दूसरों की आलोचना ( निंदा ) करने की प्रवृत्ति से सर्वथा विमुख है ।
रूप गोस्वामी भक्तों के तीन अलग-अलग लक्षण बताते हैं, जिसके जिव्हा पर भगवान कृष्ण का नाम हैं। उनको हमें मन से प्रणाम करना चाहिए और जिसने दीक्षा प्राप्त की हैं, उसको प्रणाम करना हैं और विशेषकर उसमें यह बताते हैं कि जो भगवान की अनन्य भक्ति में लगा हैं और निंदा से शुन्य हैं, उनको प्रणाम तो करना चाहिए,परंतु वरन उनकी सेवा भी करनी चाहिए।उनकी सेवा भी करनी चाहिए और उनका संग प्राप्त करना चाहिए।यह बहुत महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि ऐसे साधु तो बहुत हैं। जैसे मैं एक घटना बताता हूं। एक बार मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। मेरे पास वेटिंग टिकट था। मेरे पास कंफर्म टिकट तो नहीं था, तो मैंने टीटी से निवेदन किया कि क्या मुझे कंफर्म टिकट मिल सकता हैं, क्योंकि रात भर सफर करना हैं।अगर मुझे कंफर्म टिकट नहीं मिलेगा तो परेशानी हो जाएगी। उन्होंने कहा कि ठीक हैं, मैं टिकट तो दे दूंगा लेकिन आपको मेरे प्रश्न का उत्तर देना होगा। मैं भी सोच रहा था पता नहीं क्या प्रश्न होगा। उन्होंने पूछा कि क्या साधु लोग कभी युद्ध करते हैं या लड़ते हैं?तो मैंने कहा कि नहीं साधू तो वह है जो सहनशील हैं। वास्तविक साधु तो वह हैं, जो सहनशील हैं। जो तलवार निकाले वह कैसा साधु हो सकता हैं। तो उन्होंने कहा कि ठीक हैं। मैं आपको कंफर्म टिकट दे देता हूं। तो उन्होंने दे दिया लेकिन फिर मैं सोच रहा था कि मैं अपने गुरु में लगातार इन गुणों को देखता रहता हूं कि कितने लोग कितनी चीजें बोलते हैं लेकिन मैंने अपने गुरु महाराज को कभी भी किसी की निंदा करते हुए नहीं देखा हैं, उल्टा गुरु महाराज उनका गुणगान ही करते रहते हैं और ऐसे साधुओं का जब हम संग करते हैं,उनकी सेवा करते हैं, उनके बारे में स्मरण करते हैं तो हम भक्ति में लाभान्वित ही होते हैं।
20 साल पहले की बात हैं, जब मैं अरावड़े में था तब गुरु महाराज की मां भी इस भौतिक धरातल पर वहां पर मौजूद थी।उनका अंतिम समय था। तो गुरु महाराज जी वहां पर आकर अपनी मां से मिले और फिर पंढरपुर और सोलापुर में थे गुरु महाराज और कहा कि मैं पास में ही हूं।कुछ हो तो मुझे बुला लेना और फिर रामनवमी का उत्सव था, तो गुरु महाराज पहले पंढरपुर में आए थे, फिर सोलापुर में आए और फिर तब क्या हुआ कि रामनवमी भी हो गई,दशमी भी हो गई और एकादशी भी हो गई और एकादशी के दिन गुरु महाराज की माता ने कहा कि मैं अन्न,जल कुछ नहीं लूंगी। मैं निर्जल व्रत करूंगी।उनके साथ जो भी सेवा कर रहे थे, उनको उन्होंने यह कहा और एकादशी के दूसरे दिन हीं गुरु महाराज की मां उन्हें इतना स्मरण कर रही थी कि महाराज कहां हैं, हर समय महाराज महाराज, महाराज को बुला दो। तो मैं वहां उनके साथ,पास ही था तो मैं देख रहा था कि गुरु महाराज की मां हर समय महाराज का स्मरण कर रही हैं और महाराज का स्मरण करते करते उनकी माता ने अपनी देह को छोड़ दिया। तब गुरु महाराज ने मुझे फोन किया कि मां मैं तो चली गई,अब क्या करना हैं।आप आइए। तो इससे हमें देखने को मिलता हैं कि शुद्ध भक्तों का स्मरण करने मात्र से ही हमारे सारे भव बंधन टूट जाते हैं। एक बार की बात हैं, जब श्रील प्रभुपाद इस धरातल पर थे तो उनके शिष्या ने श्रील प्रभुपाद को एक पत्र लिखा था, तब श्रील प्रभुपाद भारत में थे और इनकी शिष्या विदेश में थी।तब उन्होंने प्रभुपाद को पत्र लिखा कि श्रील प्रभुपाद आप भारत में हैं और इतने समय से यहां पर आए नहीं हैं और हमें आपका विरह सता रहा हैं
तब प्रभुपाद जी ने एक बहुत अच्छा उत्तर दिया कि यह बहुत अच्छी बात हैं कि एक शिष्य को अपने गुरु के विरह का अनुभव होना ही चाहिए। जब तक हमें अपने गुरु के विरह का अनुभव नहीं होता तब तक हम भगवान के विरह का अनुभव कैसे कर सकते हैं?तो मैं ऐसा सोच रहा था कि हमें प्रतिदिन जप चर्चा में गुरु महाराज का प्रातकाल: में दर्शन होता ही हैं। तो हम बद्ध जीव हैं। कभी-कभी हम हल्के में ले लेते हैं कि हमें तो गुरु महाराज का प्रतिदिन दर्शन होता ही हैं, कौन सी बड़ी बात हैं। इसे बहुत सस्ते में ले लेते हैं। लेकिन भगवान ने अब कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी हैं कि अब गुरु महाराज की रिकॉर्डिंग तो देख रहे हैं लेकिन प्रतिदिन दर्शन नहीं हो पा रहा हैं या फिर हमारे ऊपर जो कृपा दृष्टि डालते थे,जुम पर ही सही हमें देखते थे,वह नहीं हो पा रहा हैं। यह अलग ही अनुभव हैं। इसका अनुभव कुछ दिनों से नहीं हो रहा हैं। तो अगर भक्तों के मन में विरह का अनुभव या ऐसा भाव उत्पन्न होता हैं, तो यह बहुत अच्छी बात हैं, कि कब गुरु महाराज के दर्शन होंगे क्योंकि गुरु महाराज का विरह आएगा तभी हम अनुभव कर सकते हैं कि भगवान से विरह का क्या अनुभव होता हैं। इसलिए प्रभुपाद जी ने कहा कि यह बहुत अच्छी बात हैं। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि मैं तुम्हारा आध्यात्मिक पिता हूं और कृष्ण तुम्हारे आध्यात्मिक पति हैं।इसलिए दोनों का विरह होना बहुत जरूरी हैं। इसलिए श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी अपने मनह: शिक्षा में लिखते हैं
कि हमारा गुरु के साथ एक विशेष संबंध स्थापित होना चाहिए ,जिससे हमें हर समय महसूस होना चाहिए कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वह गुरु की कृपा से कर रहा हूं।जिस प्रकार से प्रभुपाद ने यह स्थापित किया, यह हमें बताया कि क्योंकि मैं अपने गुरु महाराज जी की आज्ञा का पालन कर रहा हूं,इसलिए मुझे कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि वह मेरे साथ नहीं हैं।मुझे हमेशा महसूस होता हैं कि वह मेरे साथ हैं। जबकि उनके गुरु महाराज श्रील प्रभुपाद से पहले ही भगवद्धाम जा चुके थे। फिर भी प्रभुपाद जी कहते हैं कि मुझे ऐसा कभी भी अनुभव नहीं हुआ कि मेरे गुरु महाराज मुझसे दूर हैं या मेरे साथ नहीं हैं। मुझे हमेशा ऐसा लगा कि वह मेरे साथ हैं क्यों?क्योंकि उनकी वाणी का संग मिल रहा हैं। उन्होंने जो आदेश दिया था मैं उसका पालन कर रहा हूं। इसीलिए गुरु महाराज ने कहा कि मैं जप चर्चा कुछ समय तक नहीं कर पा रहा हूं फिर भी आप जपचर्चा में जरूर रहो। कुछ भक्तों को लगता हैं कि क्या फर्क पड़ता हैं? रिकॉर्डिंग तो हैं ही। लेकिन नहीं।गुरुमहाराज आज यहां हैं और हमें अपने आदेशो के द्वारा अपना संग प्रदान कर रहे हैं।
बहुत साल पहले जब मैं बहुत ही नया था, अभी भी कुछ ज्यादा पुराना नहीं हुआ हूं,लेकिन कुछ साल पहले मैंने एक प्रभु जी से उस समय एक प्रश्न पूछा था तो एक प्रोग्राम हो रहा था वहां पर गुरु की तस्वीर लगी थी। तो मैंने पूछा कि भगवान की तस्वीर लगाने से ,भगवान का दर्शन करने से उन्हें प्रार्थना करने से भगवान वहां आ जाते हैं। तो क्या गुरु का भी दर्शन ऐसे, इस प्रकार से करने से, इस प्रकार से उनकी प्रार्थना करने से क्या वह सुनते हैं? क्या उनकी प्रतिमा रखकर उनको प्रार्थना करने से क्या वह स्वीकार करते हैं? उन्होंने कहा क्योंकि गुरु भगवान के प्रतिनिधि हैं, तो उनकी तस्वीर उससे भी प्रार्थना करने से वह स्वीकार करते हैं। एक वरिष्ठ भक्त बता रहे थे कि जब भी कठिनाई आती हैं, तो हम क्या करते हैं? भगवान से प्रार्थना करते हैं।लेकिन भक्त क्या करता है? भक्त तो सबसे पहले गुरु से प्रार्थना करता हैं, क्योंकि गुरु भगवान से प्रार्थना करेंगे कि यह जो मेरा शिष्य हैं, यह भक्ति में कमजोर हैं। कृपया इसे ऊपर उठाने के लिए आप इस पर और अधिक कृपा बरसाईए।अक्सर ऐसा पूछा जाता हैं कि गुरु महाराज तो शुद्ध भक्त हैं, तो आप उनके लिए प्रार्थना क्यों कर रहे हैं? उनके लिए प्रार्थना करने के लिए क्यों कहा जा रहा हैं, लेकिन हम भले क्या प्रार्थना कर सकते हैं,गुरु महाराज के लिए। वह तो शुद्ध भक्त हैं। लेकिन यहा इसमें यह समझने वाली बात हैं, जब ध्रुव महाराज अपनी माता सुरुचि के पास बहुत ही प्रताड़ित हुए, उन्हें क्या कहा गया था कि तुम्हें अगर अपने पिता की गोद में बैठना हैं, तो तुम्हें मेरी कोख से जन्म लेना होगा, मेरे पुत्र बनोगे तभी तो यह संभव हैं कि तुम अपने पिता की गोद में बैठ सकते हो।इसके लिए तुम्हें क्या करना होगा?इसमें तो नारायण भगवान ही कुछ कर सकते हैं। उन्हीं के पास जाओ। तो जब वह रोते-रोते अपनी मां के पास गए बहुत ही रो रहे थे।तो उनकी मां सुनिति ने कहा कि देखो पुत्र कभी भी तुम किसी के प्रति बदले की भावना मत रखना। लेकिन तुम एक काम कर सकते हो, जो तुम्हारी मां ने कहा उसका पालन करो।सुरुचि ने जो कहा उसका पालन करो।तुम जंगल में जाओ और जंगल में जाकर भगवान के लिए तपस्या करो और भगवान तुम्हें विशेष कृपा प्रदान करेंगे। तो वहां शास्त्र में प्रभुपाद जी ने कहा हैं कि कोई सोच सकता हैं कि यह कैसी मां हैं? अपने छोटे से 5 साल के बेटे को जंगल में भेज रही हैं। इसको क्या इतनी भी समझ नहीं हैं कि वहां शेर होंगे, जंगली जानवर होंगे। लेकिन नहीं। सुनिति उसे भेजने के बाद क्या कर रही हैं? उनके जंगल में जाने के बाद लगातार भगवान से ध्रुव महाराज के लिए प्रार्थना कर रही हैं। जबकि ध्रुव महाराज देखने में तो बालक थे लेकिन वे स्वयं महा भागवत ही हैं, कोई बालक नहीं हैं। लेकिन उनके लिए प्रार्थना कर करके सुनीति इतनी शुद्ध हो गई कि ध्रुव महाराज जब भगवद्धाम जा रहे थे,तो उन्होंने सोचा कि मेरी मां का क्या होगा?कुछ कहा नहीं,लेकिन केवल विचार किया और विष्णु दूत समझ गए और इशारा करके दिखाया। उन्होंने देखा कि उनकी मां भी भगवद्धाम जा रही हैं। तो प्रभुपाद ऐसा वहां लिखते हैं कि मेरा कोई शिष्य ऐसा शुद्ध भक्त बन गया तो वही मुझे भगवद्धाम लेकर जा सकता हैं। यह प्रभुपाद की विशेषता हैं। तो हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि हम गुरु महाराज के लिए प्रार्थना करके हम उन्हें भगवद धाम जाने के लिए सहायता करेंगे। इस भाव से नहीं करना चाहिए। बल्कि इस भाव से करना चाहिए कि मैं उनके लिए प्रार्थना इसीलिए करूंगा कि मैं भी सिद्ध हो जाऊंगा और भगवान जब देखेंगे कि यह मेरे भक्तों के लिए प्रार्थना कर रहा हैं, तो भगवान मेरे ऊपर विशेष कृपा बरसाएंगे तो देखिए वहां प्रसंग में प्रभुपाद जी एक विशेष बात बता रहे हैं प्रभुपाद जी बता रहे हैं कि सुनीति बार-बार ध्रुव से कह रही हैं, कि है ध्रुव मैं तो अकेली एक मां हूं, मैं तुम्हें क्या प्रेम दे सकती हूं। लेकिन भगवान क्या हैं? भगवान तुम्हें लाखो माता का प्रेम दे सकते हैं। मुझ एक मां के बदले तुम्हें अगर लाखों माता का प्रेम मिल सकता हैं तो तुम जाओ वहां पर,उनके लिए तपस्या करो और उन्हें प्रसन्न करो तो हम भी कितने भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसी लाखों माता का प्रेम प्राप्त करवाने वाले ऐसे साधु गुरु महाराज का संग हमें प्राप्त हो रहा हैं, हमें प्राप्त हुआ है और होगा भी। इसलिए कितनी करुणा हैं।
3.25.21
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥ २१ ॥
साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भाव
रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है
और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं। यह शुद्ध भक्तों की विशेष करुणा हैं। वह स्वयं का जीवन न्यौछावर करके सभी जीवो को भगवान से जोड़ते हैं। जो भगवान लाखों माताओं का प्रेम देने वाले हैं।ऐसी चर्चा हम मीडिया में देखते हैं कि वह कहते हैं कि इस्कान वालों ने क्या किया। देखो माता-पिता से छुड़वा दिया।उनको पता नहीं हैं कि एक माता-पिता, घर छूडवा भी रहे हैं,तो लाखों माता-पिता का प्रेम देने वाले भगवान कृष्ण से जोड़ रहे हैं। मराठी में एक कहावत हैं कि जो गधा हैं
उसको अगर गुड देंगे तो उसको क्या पता चलेगा कि उसकी क्या मिठास हैं। इसलिए हम जब अपने गुरु को या साधुओं के प्रति समर्पित होते हैं तो भगवान उससे विशेषतः प्रसन्न होते हैं। एक बार गौर गोविंद स्वामी महाराज से उनके शिष्य ने पूछा कि महाराज यह 16 माला करने का क्या लाभ होता हैं? तो उन्होंने कहा कि इतना ही याद रखो कि 16 माला करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।तो भगवान कैसे प्रसन्न होंगे जब भगवान देखते हैं कि श्रील प्रभुपाद जी का,अपने गुरु महाराज के आदेश का पालन करके सोलह माला का जप कर रहे हैं। इसलिए भगवान प्रसन्न हो जाएंगे। लोग सोचते हैं कि 16 माला ही क्यों?किस किताब में लिखा हैं कि सोलह माला करनी हैं। किसी किताब में नहीं लिखा हैं। यह भगवान ने प्रभुपाद जी से कहा कि आप ऐसा करवाइए। तो प्रभुपाद जी का प्रमाण, भागवत प्रमाण को हमें स्वीकार करना चाहिए।इसको करने से गुरु और वैष्णव प्रसन्न होंगे,जिससे कि भगवान प्रसन्न होंगे।कई लोग पूछते हैं कि हम तो आरती में भगवान की आरती गाते हैं, लेकिन आपके यहां तो गुरु का गुणगान होता हैं। वंदे गुरु श्री चरणारविंद, ऐसे क्यों होता हैं। तो ऐसा इसलिए होता हैं, क्योंकि गुरु को प्रसन्न करने से, गुरु के माध्यम से ही हम भगवान तक पहुंच सकते हैं। क्योंकि गुरु ही भगवान के प्रतिनिधि हैं।गुरु सेवक भगवान हैं और भगवान सेव्य भगवान हैं। इसलिए सेवक भगवान के माध्यम से ही हम सेव्य भगवान तक पहुंच सकते हैं। यही सही तरीका हैं। और श्रील प्रभुपाद जी परंपरा के बारे में बताते हैं कि परंपरा से जुड़े रहना बहुत जरूरी हैं। इस परंपरा से अगर हम जुड़े रहेंगे तो भगवान तक पहुंच पाएंगे। बृहद भागवत में गोप कुमार की कथा आती हैं कि वहां पर जब उन्होंने गुरु से मंत्र प्राप्त किया तो गुरु अलग-अलग परिस्थिति में उनको मार्गदर्शन करते थे कि आपको ऐसे करना हैं,ऐसे जाना हैं। भगवद्धाम जाने तक गुरु जिम्मेदारी ले लेते हैं। फिर प्रभुपाद ने कहा कि जब तक मेरे सारे शिष्य भगवद्धाम नहीं जाएंगे तब तक मैं उन्हें बार-बार लेने आऊंगा। उसी प्रकार जो गुरु हैं, साधु हैं, उनका जीवन ही परोपकार के लिए हैं। जैसे हम कहते हैं ना जो नदी हैं, या वृक्ष हैं, वह क्या करते हैं? क्या कभी किसी ने वृक्ष को अपनी स्वयं का फल खाते देखा हैं?नहीं कभी नहीं। उसी प्रकार जो नदी हैं, नदी कभी भी अपना पानी नहीं पीती हैं। बल्कि दूसरों को पिलाती हैं। दूसरों के लिए कार्य करती हैं। उसी प्रकार गुरु या साधु दूसरों के लिए कार्य करते हैं। अन्य का उधार चाहते हैं। एक बार ब्रह्मा जी ने ऊपर से देखा कि उन्होंने जो ब्रह्मांड बनाया हैं, उसमें उन्होंने दो सूर्य देखे।तो उन्होंने सोचा कि मैंने तो दो सूर्य नहीं बनाए एक ही सूर्य बनाया था और उन्होंने देखा कि दो सूर्य ऐसे स्थान पर हैं, जो स्थान उनके अपना बनाया हुआ नहीं था। तो उन्हें पता चला कि वह दो सूर्य कौन थे। वह एक थे चैतन्य महाप्रभु और दूसरे थे नित्यानंद प्रभु
*वन्दे श्री कृष्ण चैतन्य नित्यानन्दो सहोदितो।*
*गौडोदये पुष्पवन्तो चित्रो शब्दो तमो नदौ।।*
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.2)
अनुवाद : मैं सूर्य तथा चंद्र के समान श्री कृष्ण चैतन्य तथा भगवान नित्यानंद दोनों को सादर प्रणाम करता हूं वह गौड़ के क्षितिज पर अज्ञान के अंधकार को दूर कराने तथा आश्चर्यजनक रूप से सब को आशीर्वाद प्रदान करने के लिए एक साथ जुड़े हुए हैं ।
इसका अर्थ है कि गौड देश यानी कि बंगाल में दो चंद्र चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु उदित हुए। किस लिए उदित हुए?हमारे अंदर जो अहंकार हैं, उसको मिटाने के लिए उदित हुए।दोनों चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु गा रहे थे,भ्रमण कर रहे थे। तो उन्हें ब्रह्मा जी ने जब देखा वहां पर एक साधु का आश्रम था। तो महाप्रभु नित्यानंद प्रभु तो भगवान हैं। लेकिन हमें शिक्षा देने के लिए कि हमें साधु के पास जाना चाहिए और साधु के आश्रम में पहुंच गए।साधु वहां बैठे थे। दोनों ने दंडवत किया।भगवान ने दंडवत किया, जो की अनंत कोटि ब्रह्मांड के नायक हैं। जो कि जगतगुरु हैं। वही प्रणाम कर रहे हैं।तो प्रणाम करके उन साधु ने आशीर्वाद दिया कि आपको धन मिलेगा।आपको बहुत ही सुख समृद्धि मिलेगी
उन्होंने कहा कि हमें ऐसा आशीर्वाद चाहिए कि हमारी मती, हमारा मन सदैव कृष्ण में लगा रहे। हमें केवल यही आशीर्वाद चाहिए। सच्चे साधु केवल ऐसा ही आशीर्वाद देते हैं। इसीलिए हम देखते हैं कि गुरु महाराज हमें हर समय भगवान की भक्ति में लगाए रखना चाहते हैं, इसलिए जपा टॉक भी शुरू किया। यह मेरा स्वयं का भी अनुभव हैं कि जब भी मैं गुरु महाराज को जपा टॉप में देखता हूं ,उनका दर्शन करता हूं तो एक अलग ही अनुभव होता हैं। हम गुरु महाराज से यही प्रार्थना करेंगे कि हमें उनका संग, उनकी सेवा मिलती रही हैं। उनके आदेशों का पालन करने के लिए विशेष शक्ति प्राप्त होती रहे,क्योंकि जब तक हम उनकी करुणा को नहीं समझेंगे कोई फायदा नहीं हैं।
उन्होंने हमें जो एक स्थान दिया हैं, वहां पर रहकर हमें उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करेंगे तो भगवान जरूर प्रसन्न होंगे।हो सकता है कि हमें वह संग अच्छा लगे ना लगे लेकिन फिर भी जब हमें शक्ति प्रदान करते हैं तो हम वह कार्य आसानी से कर सकते हैं। तो थोड़ी देर पहले मैं जो बता रहा था कि जब हम संसार दावानल गाते हैं, इसका जो पहला पद हैं, जब हम इस पर विचार करते हैं तो हम समझ सकते हैं कि हम सारे संसार रूपी अग्नि में जल रहे हैं, एक बार की बात हैं, गुरु महाराज और मैं पंढरपुर से आ रहे थे।गुरु महाराज और मैं आगे बैठे थे और कुछ भक्त पीछे बैठे थे।केशव प्रभु को थोड़ी नींद आ रही थी,क्योंकि वह थके हुए थे। तो गुरु महाराज ने कहा कि केशव क्या हो रहा हैं? उन्होंने कहा कि गुरु महाराज थोड़ी ठंडी हवा लग रही थी इसलिए नींद आ गई। तो गुरु महाराज ने कहा कि आपको ठंडी हवा लग रही हैं? संसार दावानल भूल गए?इतनी गर्मी हैं। इतना सब जल रहा हैं। तो आप को ठंडक कैसे मिल रही हैं? तो गुरु महाराज हमें बार-बार याद दिलाते रहते हैं कि भौतिक जगत पूरा जल रहा हैं और केवल यह कहकर कि जल रहा हैं, हमको केवल डराते नहीं हैं। बल्कि हमें विशेष कृपा प्रदान करते हैं।एक समय मैं बहुत ही डरावना सपना देख रहा था।मैं गुरु महाराज से प्रार्थना कर रहा था और मेरा मन शांत हो गया। मैं समझ गया कि गुरु महाराज ने मेरी रक्षा की हैं।वैसे तो कुछ होने वाला नहीं था फिर भी मन हैं ना,स्वप्न में लगता है कि कुछ होने वाला हैं। यह विश्व भी एक स्वप्न हैं और स्वप्न से हमको असली स्थान पर ले जाने वाले हमारे गुरु महाराज जी हैं।इसलिए मैं आप सभी से प्रार्थना करता हूं कि मेरे लिए या मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं गुरु महाराज की चरणों की सेवा में लगा रहा हूं और उनके आदेशों का पालन करता रहा हूं और यही मेरा जीवन हो। हरे कृष्ण। गुरु महाराज की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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*जप चर्चा*
अनंत शेष प्रभु द्वारा
*दिनांक 15 जनवरी 2022*
हरे कृष्ण!!!
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।*
*नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।*
हरे कृष्ण!!!
यह शब्दार्थ कहना उचित नहीं होगा, अनुचित ही है यदि हम कहें कि हर्ष का विषय है कि आप सभी उपस्थित हैं।
भगवान करें, कभी ऐसा अवसर ना आए। हालांकि महाराज जी सदैव चाहते हैं। महाराज जी का अपने शिष्यों के प्रति विशेष वात्सल्य भाव है। जैसे माता अपने बालक को चलते हुए देखकर प्रसन्न होते हैं, वैसे ही महाराज जी अपने शिष्यों को बहुत अधिक प्रोत्साहित करते हैं परंतु हम विकल्प नहीं है। हम चाहते हैं कि हम सदैव गुरु महाराज के मुख से ही श्रवण करें और सदैव उनका सानिध्य प्राप्त करें। चूंकि गुरु महाराज की इच्छा अथवा उनका आदेश है। हालांकि यहां पर कई वरिष्ठ वैष्णव हैं। उनके बीच में मुझे कहा जाना। मंी इसको बार-बार टाल रहा था किंतु महाराज का आदेश है इसलिए हम भगवद गीता महात्म्य के विषय में थोड़ा श्रवण करेंगे। जिस प्रकार से श्रीमद् भागवत पुराण का महात्म्य पदम पुराण व स्कंध पुराण में आता है। जैसे ही गीता का महात्म्य पदम् पुराण में सर्वविदित है। वैसे ही भगवत गीता का एक महात्म्य वराह पुराण के अंदर भी आता है।
हालांकि देखा जाए कि गीता के महात्म्य के विषय में कहा जाता है कि
*कृष्णो जानाति वै सम्यक किश्चित कुंती सुतह फलम् व्यासो वा व्यासपुत्रो वा याज्ञवल्क्यो था मैथिलाः*
अर्थ:- निश्चित रूप से भगवान श्रीकृष्ण उन महिमाओं के पूर्ण ज्ञान में हैं; और इसलिए कुंती का पुत्र अर्जुन उनके बारे में जानता है; और व्यासदेव, शुकदेव, याज्ञवल्क्य और संत राजा जनक भी।
प्रश्न पूछा गया कि गीता के महत्व को कौन जानता है? क्या हम गीता के महत्व को जानते हैं। नहीं।
कृष्णो जानाति वै सम्यक किश्चित कुंती सुतह फलम् व्यासो वा व्यासपुत्रो वा याज्ञवल्क्यो था मैथिलाः
वास्तविकता में कृष्ण ही हैं जो गीता के महत्व को जानते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता और कुछ नहीं हैं, स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के ह्रदय के भाव हैं। जिस प्रकार हम हमेशा गुरु महाराज के ह्रदय की भावनाओं को सुनते हैं। इसे मन की बात कह सकते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्तों से प्रेम करते हैं। भगवान् का अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य है। यह जो भक्त वत्सलता है अर्थात भगवान् अपने भक्तों के गुणों को जिसमें महिमान्वित करते हैं, वह भगवद्गीता है। भगवद्गीता और कुछ नहीं है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो भगवान् श्रीकृष्ण का भक्तों के प्रति जो प्रेम है, वह भगवद्गीता है। भक्तों के ह्रदय में भगवान् के प्रति जो प्रेम होता है, वह भागवत है। श्रीकृष्ण का भक्तों के प्रति जो प्रेम है, वह गीता है। भक्तों के ह्रदय में भगवान् के प्रति जो प्रेम है वह भागवत है। उन समस्त भक्तों में जो सर्वश्रेष्ठ है, वह श्रीमती राधारानी है। श्रीमति राधारानी के ह्रदय में जो प्रेम है, वह चैतन्य चरितामृत है। इस प्रकार से इन तीन ग्रंथों के विषय में कहा जाता है। यहां पर सूत शौनक उवाच अर्थात सूत शौनक संवाद में कहा जा रहा है।
कृष्णो जानाति वै सम्यक किश्चित कुंती एव च।
वास्तविक रूप से देखा जाए तो भगवान् श्री कृष्ण इस गीता के महत्व को जानते हैं। कुछ प्रमाण में देखा जाए तो अर्जुन भी जानते हैं। व्यासो वा व्यासपुत्रो वा याज्ञवल्क्यो था मैथिलाः
श्रील व्यासदेव जानते हैं और श्रील व्यासदेव के पुत्र श्री शुकदेव गोस्वामी जानते हैं। याज्ञवल्क और मिथलेश अर्थात राजा जनक जानते हैं।
*अन्ये श्रवणताः श्रुत्व लौके संकीर्तयन्ति च तस्मात किंचित वाद्धमयत्रय व्यासेव स्यन माया श्रुतम्*
( 4)
अर्थ:-
औरों ने भी, जिन्होंने श्रीगीता की थोड़ी-सी महिमा सुनी है, वे उन्हें गाने में लगे हुए हैं। इसलिए अब मैं श्री गीता की महिमा के बारे में बात करूंगा जैसा कि मैंने उन्हें व्यासदेव से सुना था:
*तस्मात किंचित वाद्धमयत्रय व्यासेव स्य मयन क्षुत्रुम।*
सूत गोस्वामी यहां पर कह रहे हैं कि अन्य श्रवन्तः क्षुत्रुवा अर्थात सुनी सुनाई बात जिसे कहा जाता है। अन्य भक्त सुन सुन कर इसका वर्णन करते हैं। जैसा कि हम कर रहे हैं।(अतएव कौन जानते हैं। )श्रील व्यासदेव जो जानते हैं, वहीं श्रेष्ठ प्रमाण कहा गया है।
उन्हीं के शब्दों में वराह पुराण में भगवान् और पृथ्वी माताजी के बीच जो संवाद हुआ है, वहां पर भी गीता महात्म्य के विषय में बतलाया गया है। वहां वर्णन आता है कि पृथ्वी माता, भगवान् नारायण से प्रश्न पूछती है
गीता माहात्म्यं
धरो उवाच
*भगवान परमेसन भक्तिर अव्यभिचारिणी प्रारब्धं भुज्यमानस्यकथं भवति हे प्रभो*
धरा अर्थात पृथ्वी माता भगवान् से पूछती हैं- हे परम् भगवान् आपकी अनन्य भक्ति हम कैसे कर सकते हैं।
( विशेष रूप से किनके लिए पूछा जा रहा है? )
इस संसार में जो अपने प्रारब्ध का भोग, भोग रहे हैं, ऐसे लोग कैसे वास्तविक भगवान् की अनन्य भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। यह स्वयं भगवान् के अपने वचन हैं। इससे श्रेष्ठ कौन महिमा बता सकता है।
श्री विष्णु उवाच
भगवान् विष्णु कह रहे हैं:-
*प्रारब्धं भुजोमान्य हि गीता अभ्यासे रत्तासदा: स: मुक्त सुखी लोके कर्मणा न उप लिप्यते।*
(कितने सुंदर वचन हैं।) प्रारब्धं भुज्जोमान्य अर्थात अपने प्रारब्ध को भोगते हुए आपको एक विशेष कार्य करना है। यहां गीता के साथ तीन शब्द जुड़ गए है। गीता अभ्यास रत:सदा। यहां केवल गीता नहीं कहा है, गीता को केवल पढ़ना नहीं है, गीता का अभ्यास कहा गया है। जब आप उसको अच्छी प्रकार से आत्मसात करते हुए गंभीरतापूर्वक पढ़ते हो जिस प्रकार से एक विद्यार्थी अपने पाठ्य क्रम को पढ़ता है। वैसे ही जब आप भगवद्गीता को पढ़ते हो अथवा अभ्यास रत: होते हो। रत: शब्द का अर्थ होता है आसक्त होना। जैसे इस संसार में कोई पुरुष व स्त्री के बीच तथाकथित प्रेम हो जाता है। पुरुष स्त्री से या स्त्री पुरष से इतना आसक्त हो जाता है कि यदि उसका विछोह हो जाए तो प्राण त्यागने के लिए तैयार हो जाता है। वैसे ही यदि जब जीवन में गीता अभ्यास इतना अधिक होने लगे। यदि गीता अभ्यास ना हो तो जैसे जल के बिना मछली व्याकुल हो जाती है, वैसे ही हमारी व्याकुलता हो जाये, उसको रता: कहा गया है। गीता अभ्यास रत:सदा, जो सदा भगवद्गीता के अभ्यास में आसक्त होते हैं। अगर आपने यह गुण प्राप्त कर लिया तो परिणाम क्या है – स: मुक्त:
पहला शब्द भगवान् ने जो कहा कि वो मुक्त है। जीते जी वो अपने जीवन में मुक्त हो जाता है। वह मुक्त भी है और प्रारब्ध भोगते समय प्रारब्ध का प्रभाव भी उस पर नहीं पड़ता।
*स: मुक्ता सः सुखी लोके कर्मणा न उपलीप्यते महा पापति पापानि गीताध्यायी करोति चेत न किंचित स्पृश्यते तस्य नलिनी दलम अंभासा*
अर्थ:-वह मुक्त है, वह प्रसन्न है। वह अपने कार्यों से कभी नहीं फंसा है। संभावना है कि गीता का अध्ययन करने वाला व्यक्ति भयानक पाप करता है, वह कमल के पत्ते के समान अप्रभावित रहता है जो पानी की एक बूंद से भी अछूता रहता है।
कर्मणा न उपलीप्यते अर्थात कर्म का बंधन उसे कभी भी नहीं लगेगा।
कितनी विशेष महिमा है। ऐसे कई वचन हैं।
महा पापति पापानि गीताध्यायी करोति चेत न किंचित स्पृश्यते तस्य नलिनी दलम अंभास
भगवान दृष्टांत देकर बतलाते हैं कि जिस प्रकार कमल का पुष्प जल में रहता है अर्थात कमल का जो पत्ता होता है, वह जल को स्पर्श नहीं करता। उसी प्रकार यदि शब्दों को ध्यान से समझा जाए तो भाव को आप समझ सकते हो पहले हमनें समझा कि गीता अभ्यास: रत: सदा अर्थात सदा गीता के अभ्यास में आसक्त हो। दूसरा शब्द यहां पर है- गीता ध्यानम पहले तो अभ्यास कहा गया है दूसरा गीता पर आपका ध्यान? अर्थात जब गीता चिंतन का विषय बन जाए। गीता में जो भगवान् के वचन हैं जब आप उसका ध्यान करने लगते हैं- महापापा पापति पापानि चेत न किंचित स्पृश्यते तब बड़े से बड़ा पाप स्पर्श नहीं करता। कितने सुंदर शब्द हैं। गीता का ध्यान आपके जीवन में बुलेटप्रूफ़ जैकेट बन जाता है। गीता का ध्यान करने से पहली बात, जीव मुक्त हो जाता है। दूसरा वह सुखी रहता है, वह कर्म से लिप्त नही होता। आगे कहा जाए उसको पाप स्पर्श नहीं कर पाते। जिस घर में नियमित रूप से भगवद्गीता रखी जा रही है, भगवद्गीता पढ़ी जा रही है, उस घर उस स्थान की महिमा क्या है?
*गीता पुस्तकं यत्र नित्य पाठस च वर्तते
तत्र सर्वाणी तीर्थनि प्रयागदिनी भुतले
अर्थ:-
जहां भी गीता की पवित्र पुस्तक मौजूद है और लगातार गाया जाता है, वहां इस दुनिया के सभी पवित्र स्थान, जैसे प्रयाग और अन्य, सभी मौजूद हैं।
यदि घर पर भगवद्गीता को रखा जाता है और नियमित रूप से पाठ किया जाता है। हमनें पहले दो बिंदु समझे एक आसक्ति के साथ रत, दूसरा ध्यान अगर इतना नहीं तो कम से कम पाठ तो करें। केवल गीता का पाठ जिस घर में होता है, तत्र सर्वाणि तीर्थानि। सारे ब्रह्मांड के तीर्थ एक साथ उस घर में वास करते हैं। वो कितना पवित्र स्थान बन जाता है। केवल इतना ही नहीं, पाठ नहीं तो कम से कम गीता रख तो दो। केवल रखने से उसका परिणाम…
*निवसन्ति सदा देहे, देहे- सीसा पी- सर्वदा सर्वे देवा: च रसयो, योगिना देह: रक्षक:।।*
अर्थ:-
जो लगातार गीता का अध्ययन करता है, उसके लिए देवता, ऋषि और योगी सभी मृत्यु के समय भी शरीर में संरक्षक के रूप में रहते हैं
*गोपालो बाल कृष्ण पि नारद ध्रुव परसादैह साहयो जायते शीघ्रम यत्र गीता प्रवर्तते*
अर्थ:-
जहाँ भी गीता गाई जाती है, कृपालु चरवाहे श्रीकृष्ण अपने साथियों नारद, ध्रुव और अन्यों के साथ एक मित्र के रूप में तेजी से प्रकट होते हैं।
जो संस्कृत जानते हैं, वे थोड़ा बहुत समझ गए होंगे। यत्र गीता प्रवर्तते अर्थात जहां पर गीता केवल विराजमान की जाती है। साहयो जायते शीघ्रम अर्थात वहां पर उस जीव को मदद करने के तुरंत सभी देव, ऋषि, योगी, समस्त नाग, साक्षात गोपाल बाल कृष्ण आ जाते हैं। भगवान् के समस्त भक्त गण उस जीव की सहायता करने के लिए तैयार हो जाते हैं। जो केवल अपने घर में गीता को विराजमान करते हैं।
अब यहां पर प्रश्न आता है कि भक्त लोग गीता का इतना प्रचार भी कर रहे हैं। इसके विषय में भगवान् ने कुछ कहा है। हाँ। भगवान् ने कहा है –
*यत्र गीता विचारस्य च पठनम, पाठनम तत्र मोदते तत्र श्रीकृष्ण भगवान राधाय सह।*
अर्थ:-
जहाँ भी गीता शास्त्र की चर्चा, अध्ययन
और शिक्षा की जाती है, वहाँ परम भगवान श्रीकृष्ण, श्रीमती राधारानी के साथ, बहुत खुशी के साथ आते हैं।
जहां पर गीता पर विचार किया जाता है। गीता के शब्दों पर विचार जैसे यहां आपस में चर्चा हो रही है। जैसे भगवान् कहते हैं
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||*
(श्रीमद भगवतगीता १०.९)
अर्थ:-
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
पठनम/ पाठनम। जैसे भक्ति शास्त्री कोर्स इत्यादि होते हैं, जहां पर गीता का विचार किया जा रहा है। गीता को पढ़ा जा रहा है। गीता को पढ़ाया जा रहा है। सब भक्त बैठ कर गीता को सुन रहे हैं। भगवान् नारायण स्वयं पृथ्वी से कह रहे हैं कि
हे पृथ्वी
*तत्र अहम निश्चितं निवासामि सदैव अर्थात मैं सदा वहां पर रहता हूँ, जहाँ पर गीता का प्रचार होता है। श्रीमद्भगवतगीता की जय!!!*
हे पृथ्वी और मैं क्या कहूँ। गीता आश्रय अहम तिष्ठामि। वास्तविक रूप से मैं स्वयं भगवद्गीता का आश्रय लेता हूँ। गीता मे च उत्तम ग्रहम। ग्रहम मतलब घर होता है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा सबसे अच्छा घर कौन सा है। भगवद्गीता ही मेरा घर है।
*गीताज्ञानम उपाश्रित्य त्रिलोके पालयम अहम।*
इस गीता के ज्ञान का आश्रय लेकर मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ। आगे वे कह रहे हैं कि थोड़ा भी यदि कोई इन गीता के शब्दों को नियमित रूप से पढ़ता है।
*यो अष्टदश: जपेन नित्यम नरो निश्चल मनास: ज्ञान सिद्धिम् सा लभते ततो यति परम पदम्*
अर्थ:-
जो व्यक्ति चंचल मन से नियमित रूप से इन गोपनीय पवित्र नामों का जप करता है, दिव्य ज्ञान में पूर्णता प्राप्त करता है और अंत में सर्वोच्च गंतव्य को प्राप्त होता है।
जो लोग इस भगवत गीता के 18 अध्यायों का जपा नित्यम करते हैं। केवल हरे कृष्ण भक्त ही नहीं, अपितु बाहर के भी लोगों को भी देखें उनकी नियम साधना में होता है। वे अठारह अध्यायों का पाठ करते हैं। नियमित पाठ करने में बहुत अधिक समय नहीं लगता। लगभग 1-1/2 घंटे में ही कुछ भक्त कर लेते हैं। जो निश्चल मन से गीता के 18 अध्यायों का पाठ करता है। ज्ञान सिद्धिम सुलभयते अर्थात उसे ज्ञान की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ज्ञान की सिद्धि क्या है?
*बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||* ( श्रीमद भगवतगीता ७.१९ )”
अनुवाद
अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |
भगवान, भगवत गीता में कहते हैं कि ज्ञान की सिद्धि यह है कि श्रीकृष्ण ही सर्वस्य हैं।यह जान लेना।
यदि कोई पूरा पढ़ नहीं पाता है। वह अट्ठारह अध्यायों की बजाय केवल 9 अध्याय ही पढ़ लेता है तो…
*पथे समर्थः संपूर्णने तद अर्धम पथम् आचरेत् तदा गोदाना जम् पुण्यम लभ्यते नेत्र संशयः*
अर्थ:-
अगर कोई पूरी गीता नहीं गा सकता है, तो उसका आधा गाना गाया जाना चाहिए। तब निःसंदेह गायों का दान करने से प्राप्त पुण्य की प्राप्ति होगी।
अगर पूरा पाठ ना करके आधे ही पाठ कर ले तो उसे गोदान के बराबर फल प्राप्त होता है। यदि 9 अध्याय भी नहीं हो पा रहे हैं तो उसको तीन तीन भागों में बाँट ले 6-6-6 अर्थात पहले दिन आपने छह अध्याय किए दूसरे दिन छह तत्पश्चात तीसरे दिन 6 अध्याय। यदि इतना भी आप पढ़ लेते हैं।
*त्रिभागम् पठमनस तू, सोम यज्ञ फलम् लभेत। सदांसं जपमानस तू गंगा स्नान फलम् लभ्येत।।*
अर्थ:-
एक तिहाई गीता के जप से सोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है और एक छठा भाग जप करने से गंगा में स्नान करने के फल की प्राप्ति होती है।
उतना भी आपने कर लिया तो हरिद्वार में जाकर गंगा में स्नान करने का फल प्राप्त होता है। अभी ठंड है तो स्नान के विषय में ना कहा जाए। आपने 6 अध्याय पढ़ लिए तो गंगा स्नान का फल आपको मिलता है। वास्तव में हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि कितना बड़ा सौभाग्य है जो हमने अपने जीवन में इस गीता को प्राप्त किया है। श्रील प्रभुपाद जी की कृपा से।
अच्छा यदि इतना नहीं तो तीन अध्याय तो कर सकते हैं। 3 अध्याय मतलब 6 भाग हो गए।
प्रातकाल उठे, जप किया और तीन अध्यायों को आपने पढ़ लिए तो सोम यज्ञ आदि इन का फल प्राप्त होता है।
अच्छा तीन अध्याय नही तो एक अध्याय का ही नियम रख लो भाई
*एकम अध्यायकम् नित्यं पठते भक्ति संयुताः। रुद्र लोकं अवप्नोति गणो भूत्वा वसे चिरम्।।*
अर्थ:-
जो प्रतिदिन एक अध्याय भक्ति के साथ गाता है, वह भगवान शिव के सहयोगी के रूप में पहचाना जाएगा और वह अथाह समय के लिए भगवान शिव के निवास में निवास प्राप्त करेगा।
इसमें भी कोई नुकसान नहीं है कोई यदि एक अध्याय भी नियमित रूप से पढ़ता है तो वह रूद्र लोक अर्थात शिवजी के सानिध्य को प्राप्त करता है। कोई कल्पना कर सकता है। हम लोग प्रतिदिन गुरु महाराज के सानिध्य में नाम जप करते हैं। साक्षात शिवजी जो निरंतर
*राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥*
का जप करते हैं। रूद्रं मतलब जो निरंतर भगवान के नाम में निरंतर क्रंदन करता हो। उसे रूद्र कहते हैं, शिवजी के नाम की व्याख्या में यह बार बताई जाती है।
ऐसा शिवजी का सानिध्य उसे प्राप्त होता है जो केवल गीता का एक अध्याय पढ़ लेता है। यदि एक अध्याय भी नहीं पढ़ सकते तो एक श्लोक तो पढ़ ही सकते हैं।
*अध्यायर्धाम च पदम वा नित्यम् येः पथते जनः प्राप्नोति रवि लोकं सा मन्वन्तरा समः सतम्*
अर्थ:-
जो व्यक्ति प्रतिदिन आधा या केवल एक चौथाई अध्याय गाता है, वह सौ मनु के समय के लिए सूर्य के निवास में निवास प्राप्त करेगा।
कितनी विशेष बात कही है। आपने एक नियम रखा कि गीता का एक ही श्लोक मैं प्रतिदिन पढ़ लूंगा जिसने इतना भी कर लिया तो कहा गया है मन्वंतर (मन्वंतर का मतलब आप जानते हैं। लगभग 71 चतुर्युग का एक मन्वंतर होता है) इतने काल तक यह निश्चित है कि वह मनुष्य योनि से नीचे नहीं गिरेगा। यह बहुत बड़ी सिद्धि है। निम्न योनि में ना जाना और मनुष्यता प्राप्त करना सरल नहीं है। वह उसे मन्वंतर तक प्राप्त हो जाता है और यदि कोई गीता का अभ्यास कर रहा है तो उसके बारे में कहा जाता है।
*गीताभ्यसं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिम् उत्तमम्।*
गीता के अभ्यास से उत्तम मुक्ति अर्थात प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है। कुछ लोग भगवान गीता के विषय में कहते हैं कि वे पढ़ नहीं पाते, उन्हें सुनने में अच्छा लगता है। यदि आपको पढ़ना नहीं आता केवल गीता को सुनने में आपकी आसक्ति है। उनके विषय में क्या कहा जाता है गीता अर्थ श्रवणसक्त महापापा युतो पि वावैकुंठम् समवप्नोति विष्णु सह मोदयते कितना सुंदर शब्द है।
गीता के श्रवण में आसक्ति, गीता सुनने में ना मिले तो उसके प्राण निकलने लगे। मैनें आज गीता नही सुनी ऐसी जिसकी जीवन की अवस्था हो जाए, बडे से बड़ा पापी भी क्यों न हो, उसे गीता के श्रवण में आसक्ति होने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है और भगवान् विष्णु के नित्य लीला विलास में भाग लेता है। हरिबोल!!!
(मैं पढ़ने जा रहा हूँ तो एक एक वचन एक एक शब्द खुलते ही जा रहे हैं।।)
*गीता अर्थम् ध्यायते नित्यकृत्वा कर्मणी भूरिसाहजीवनमुक्तः सा विज्ञानोदेह न्ते परमं पदम्*
पहला जो श्लोक था, लगभग वैसा ही अठारहवां श्लोक भी है। जो गीता के अर्थ का ध्यान करता है। गीता का श्लोक होता है, उस श्लोक का अर्थ होता है। उन श्लोकों का चिंतन करना
जैसे हम गुरु महाराज से श्रवण करते हैं हम देखते हैं किस प्रकार गुरु महाराज अर्थों के ऊपर चिंतन करते हैं।
*गीता अर्थम् ध्यायते नित्यकृत्वा कर्मणी भूरिसाहजीवन मुक्तः सा विज्ञानो देहन्ते परमं पदम्*
जो गीता का ध्यान करता है वह इस संसार का सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति है। वह जीवन मुक्त है, आगे इसी बात को कहा जा रहा है।
*ये श्र्वन्ति पठन्ति एव गीता शास्त्रम् अहर निसम न ते वै मानुषा ज्ञान देवा रुपा न संशयः*
अर्थ:- जो लोग दिन-रात गीता सुनते और गाते हैं, उन्हें कभी भी केवल मनुष्य के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। निःसंदेह वे इस संसार में देवता के समान हैं।
जो अहर्निश दिन रात सुबह शाम श्र्वन्ति पठन्ति एव गीता शास्त्रम् अर्थात जो गीता के शास्त्र को सुनते हैं, पढ़ते हैं। समझ लेना चाहिए वह मनुष्य नहीं है। वे सब वास्तविक देव हैं। आगे कहा जा रहा है ऐसे जो भक्त होते हैं जो निरंतर दिन-रात गीता का अध्ययन करते हैं। अर्थात उनको इतना दिन भर गीता का ध्यान होने लगा कि सपने में भी गीता के वचन आने लगते हैं। गच्छन मतलब चलते समय गीता के वचन, वदन मतलब बोलते समय जब आप सांसारिक लोगों से बात करते हैं तो बोलते समय व्यवहार में गीत आने लगती है। बोलने में गीता के वचन आपके व्यवहार में आने लगते हैं। तिष्टन अर्थात जहां भी आप खड़े हैं ,सोते समय, बोलते समय, खड़े रहते समय भी गीता के शब्दों का यथार्थ चिंतन करते हैं तब भगवान की नित्य लीला में प्रवेश करते हैं।
*गीता पथम् च श्रवणम् ये करोति दिने दिने कृतवो वाजिमेधाद्यः कृतस तेना सा दक्षिणः*
अर्थ:-
जो व्यक्ति प्रतिदिन गीता को सुनता और गाता है, उसे सभी यज्ञों जैसे अश्वमेध और अन्य को पूरा करने वाला माना जाता है, जिसमें यज्ञोपवीत प्राप्त करना भी शामिल है।
ऐसे कई वचन हैं पर क्षमा कीजिए। मेरा समय हो चुका है, मुझे और भी कुछ अन्य बात कहनी थी। इस प्रकार यहां पर गीता की विशेष महिमा बताई गई है। हम सभी का विशेष सौभाग्य है कि हम लगभग पिछले डेढ़ महीने से भगवत गीता पर गुरु महाराज जी के सानिध्य में निरंतर गीता के शब्दों का चिंतन विचार कर रहा है। गुरु महाराज विशेष रूप से सभी को प्रोत्साहित कर रहे थे। ग्रंथ वितरण के विषय में पहले ही मैंने कुछ स्थानों पर कहा है जब गुरु महाराज ने आदेश दिया था । जिस तरह से भगवान के भिन्न-भिन्न अवतार होते हैं जो हमें कृपा देते हैं। लेकिन रामचन्द्र की कृपा हम सभी को सहजता से प्राप्त नहीं होती है। हालांकि भगवान रामचन्द्र बहुत करुणामय व दयालु है परंतु भगवान कहते हैं
*सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वदा तस्मै ददाम्येतद्व्रतं मम ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.34)
अनुवाद ” यह मेरा व्रत है कि यदि कोई यह कहकर एक बार भी मेरे शरणागत होता है कि , ” हे प्रभु ! आज से मैं आपका हूँ ” और अभय के लिए मुझसे प्रार्थना करता है, तो मैं उस व्यक्ति को तुरन्त अभय प्रदान करता हूँ और वह उस समय से सदैव सुरक्षित रहता है । ”
कोई एक बार मेरी शरण में आ जाए और वह कह दे कि हे भगवान, मैं आपका हूं। भगवान रामचंद्र पूर्ण शरणागति चाहते हैं। जिस समय विभीषण आया तब भगवान ने उसे स्वीकार किया। भगवान ने वानरों को स्वीकार किया, जो भगवान रामचंद्र के शरणागत होता है। भगवान उसे स्वीकार करते हैं। उस पर कृपा करते हैं। वही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में द्वापर में आए। तब भगवान् ने कहा
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||*
अर्थ:-
जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।
भगवान का हिसाब उतना ही रहता जितना आप मेरे पास आओगे, उतना ही मैं आपको आदान प्रदान करूंगा।
भगवान् कहते हैं-
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद:-
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
समस्त धर्मों का परित्याग करके पूर्ण रूप से मेरी शरण लो। वास्तविक देखा जाए भगवान रामचंद्र, भगवान कृष्ण की कृपा उन्हें प्राप्त होती है, जो पूर्ण शरणागत हों। हम श्रील भक्ति विनोद ठाकुर और चैतन्य महाप्रभु के शब्दों को देखें तो पता चलता है कि शरणागत शब्द बहुत गहरा है। सहज नही है।
*षडंग शरणागति हइबे याँहार। ताँहार प्रार्थना शुने श्री-नन्द-कुमार॥*
( भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित)
अर्थ:-
कृष्ण, जो कि नन्द महाराज के पुत्र हैं, उन लोगों की प्रार्थनाएँ सुनते हैं जिन्होंने शरणागति के इन छः सिद्धांतों को आत्मसात् कर लिया है।
भगवान् श्रीकृष्ण उनकी प्रार्थना सुनते हैं,जो षडंग शरणागत होते हैं। हमारी तो शरणागति है भी नहीं, तो हम जैसों के लिए कौन हैं जो कि शरणागत नही हैं। परन्तु कम से कम भगवान् के पास आए हैं। आप ऐसे जीव हो, मैं तो ऐसा नहीं हूं। कितने ऐसे जीव हैं जो भगवान के पास चल कर आते हैं शरणागति नहीं जानते हैं, भक्ति नहीं जानते हैं, ऐसे जीवों के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!!! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इतने करुणामय हैं जो शरणागति नहीं जानता, समर्पण नहीं जानता है, जिसका हृदय पवित्र नहीं है, शुद्ध नहीं है। जो केवल कृष्ण भावना अमृत में आ गया है और हाथ ऊपर कर भगवान का नाम लेता है , बस इससे आप मुक्त हो सकते हो। यह है तीसरी कैटेगरी (वर्ग) है लेकिन कुछ ऐसे जीव हैं, ( यह हमारी कैटेगरी है) जो भगवान के पास भी आना नहीं चाहते हैं। भगवान को प्राप्त ही नहीं करना चाहते।
एक वर्ग होता है इंटरेस्टेड पीपल (रुचि दिखाने वाले लोगों) का और दूसरा वर्ग होता है अनइंटरेस्टेड पीपल (रुचि ना रखने वाले लोगों का) जो वास्तविक भगवान में रुचि रखते ही नहीं हैं। जैसे सार्वभौम भट्टाचार्य, प्रकाशा नंद सरस्वती, रामानंद राय कुछ विशेष भक्त हैं जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु की कृपा को प्राप्त किया। अंततः चैतन्य महाप्रभु चाहते थे कि समस्त जीवों पर कृपा हो। तब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु से कहा-
*ताहाँ सिद्धि करे – हेन अन्ये ना देखिये । आमार ‘ दुष्कर ‘ कर्म , तोमा हैते हुये ।।*
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 16.65)
अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा , ” तुम वह कार्य कर सकते हो , जिसे मैं भी नहीं कर सकता । तुम्हारे अतिरिक्त मुझे गौड़देश में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल सकता , जो मेरे उद्देश्य को वहाँ पूरा कर सके । ”
हे नित्यानंद, जो मैं नहीं कर सकता, वह कार्य तुम कर सकते हो। कौन सा कार्य? प्रसिद्ध वचन है
*प्रभुर अज्ञाय, भाइ, प्रति घरे जाय मागि एइ भिक्षा बोलो ‘कृष्ण, ‘भजकृष्ण, कर कृष्ण-शिक्षा॥*
अर्थ:-
हे सच्चे, वफादार व्यक्तियों, हे श्रद्धावान, विश्वसनीय लोगों, हे भाइयों! भगवान् के आदेश पर, मैं आपसे यह भिक्षा माँगता हूँ, “कृपया कृष्ण के नाम का उच्चारण कीजिए, कृष्ण की आराधना कीजिए और कृष्ण की शिक्षाओं का अनुसरण कीजिए। ”
*सुनो सुनो नित्यानंद , सुनो हरिदास सर्वत्र आमार आज्ञा कोरोहो प्रकाश* ( चैतन्य भागवत् मध्यखंड 13.8 )
अनुवाद : – सुनो सुनो नित्यानंद ! सुनो , हरिदास ! हर जगह मेरी आज्ञा का प्रचार करो !
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जो यह विशेष आदेश है , मैं लगभग पिछले डेढ़ महीनों से इसी शब्द पर विचार चिंतन कर रहा हूं। इसीलिए पुन: पुन: यही विचार आ रहे हैं । चैतन्य महाप्रभु ने जब नित्यानंद प्रभु को कहा था प्रति घरे जाये.. प्रति घरे का मतलब क्या उसमें सिर्फ बंगाल के घर थे? या महाराष्ट्र के सब घर उसमें आते हैं? या उसमें ऑस्ट्रेलिया के घर आते हैं? या उसमें मोरिशियस के घर आते हैं। जब नित्यानंद प्रभु को चैतन्य महाप्रभु से आदेश मिला कि प्रति घरे जाओ। यह बहुत महत्वपूर्ण शब्द है। प्रत्येक घर में तुम्हें जाना है। इसका वास्तविक जो अर्थ है जो लोग वास्तव रूप से इंटरेस्टेड नहीं है जिनको बिल्कुल भी भगवान में रुचि नहीं है। भगवत भक्ति में रुचि नहीं है जिनकी भगवत प्राप्ति की कोई इच्छा नहीं है ऐसे लोगों पर कृपा करने के लिए इस धरातल पर नित्यानंद प्रभु ने जन्म लिया। श्री नित्यानंद प्रभु की जय!
निताई की करुणा जो है, वह अनइंटरेस्टेड पीपल के लिए है। जो बिल्कुल इंटरेस्ट नहीं लेते हैं जो बिल्कुल नहीं चाहते, उनके घर में जाकर भक्ति दी जाती है। वही श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज और श्रील प्रभुपाद ने उस नित्यानंद प्रभु की कृपा को ही एक मूर्तिमान स्वरूप दिया है जोकि है श्रील प्रभुपाद जी के ग्रंथ। श्रील प्रभुपाद ट्रांसडेंटल बुक डिस्ट्रीब्यूशन की जय!!!
वास्तव में हम नहीं जानते कि हम अनजाने में क्या करते हैं। जो लोग इन ग्रंथों को लेकर बाहर जाते हैं, जब मैं इस बात पर विचार कर रहा हूं तो मेरे मन में कुछ अलग ही भाव आ रहे थे। प्रात: काल जब मैं नाम जप के समय चिंतन करने लगा। जिस तरह से भक्त लोग प्रार्थना करते हैं, आपने सुना है। कब वह दिन आएगा जब मैं यमुना के तट पर रहूंगा। कब वह दिन आएगा जब मैं गोवर्धन का दर्शन करूंगा, कब वह दिन आएगा जब मैं राधा कृष्ण की लीला का दर्शन करूंगा। आप वास्तविक ग्रंथ वितरण की महिमा को नहीं जानते। यदि आप जान ले तो किंचित मात्र मन में क्या भावना आएगी कि कब वह दिन आएगा जब श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों को हाथ में लेकर रास्ते खड़ा होऊंगा। कब हम उस ग्रंथ वितरण की महिमा को समझ पाएंगे? जिस तरह से एक समय श्रील प्रभुपाद को उनके एक शिष्य ने पूछा कि
प्रभुपाद, हम रोज गुरु वंदना में कहते हैं।
*निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया तत्राति-दक्ष्याद् अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।*
( श्री गुर्वाष्टक)
अर्थ:-
श्रीगुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्रीश्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यन्त श्रेष्ठता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
हम उन गुरु के चरण कमलों की वंदना करते हैं जो भगवान राधा कृष्ण की नित्य व अन्तरंग लीला में राधा कृष्ण को सहायता करते हैं। एक भक्त ने पूछा प्रभुपाद इसका अर्थ क्या हुआ। श्रील प्रभुपाद ने कहा कि ग्रंथों को उठाओ, बाहर जाकर रास्ते में वितरण करो। यही इसका अर्थ है। कभी लगता है कि श्रील प्रभुपाद ने इसमें यह क्या कहा है लेकिन इसमें बहुत गहरा अर्थ बताया गया है। वास्तव में यह बहुत ही अंतरंग सेवा है। आप ग्रंथो को लेकर इस संसार में जो बहुत ही अनिच्छा वाले जीव हैं, उनके पास जब जा रहे हैं तब आप ऐसी कृपा प्राप्त करते हैं। प्रबोधानंद सरस्वती के शब्दों में कहा जाता है।
*यथा यथा गौरा पादरविंदे विन्देता भक्तिम कृत पुण्य राशी: तथा तथोस्तसर्पती हृदयकस्मात राधापदाभोजा सुधाम्बुराशीः*
( चैतन्य चन्द्रामृत ८८)
वास्तव में चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख सेवक कौन हैं। श्री नित्यानंद प्रभु ही चैतन्य महाप्रभु के एकमात्र सेवक हैं। नित्यानंद प्रभु की कृपा की मूर्ति श्रील प्रभुपाद हैं। जैसे नित्यानंद प्रभु घर घर गए, वैसे ही श्रील प्रभुपाद भारत को छोड़कर न्यूयॉर्क गए । वास्तव आदेश प्रति घरे जाओ यही भावना तो श्रील प्रभुपाद की थी। लोग रूचि नहीं लेते थे, ना ही उन्होंने आमंत्रण दिया था। श्रील प्रभुपाद ने वहां पर जाकर इन ग्रंथों को पहुंचाया है। चैतन्य महाप्रभु , नित्यानंद प्रभु और श्रील प्रभुपाद के माध्यम से जो ग्रंथ वितरण की सेवा करता हो उनके लिए तो क्या कहा जाता है। राधापदाभोजा सुधाम्बुराशीः अर्थात अचानक बिना किसी प्रयास के श्री वृंदावन धाम में श्रीमती राधा रानी के चरण कमलों की निज सेवा का उसे अधिकार प्राप्त होता है। इससे आगे बढ़कर और मैं क्या कहूं। ऐसे बहुत सारी बातें हैं और क्या कहूं। क्षमा चाहता हूं। मेरे स्वभाव को जानकर मुझे 4,5 मिनट अतिरिक्त दिए गए थे । आप सब भक्तों का बहुत बहुत धन्यवाद। क्षमा चाहता हूं थोड़ा 5 मिनट अधिक हो गए।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
वैसे कुछ लीला और कथा भी थी परंतु समय का अभाव है, भविष्य में फिर कभी आपकी सेवा में सुनाएंगे।
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
14 जनवरी 2021,
सच्चिदानंद प्रभुजी
नमो विष्णुपादाय कृष्ण प्रेष्ठाय भुतले।
श्रीमते लोकनाथ स्वामिने इति नामिने।।
वांछा कल्पतरूभेष्य कृपासिन्धुभ एवच।
पतितानां पावनयोभ्य वैष्णवयोभ्य नमोनमः।।
भगवत गीता के 18 अध्याय में 72 वे श्लोक में कहां गया है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं,
“कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा |
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रणष्टस्ते धनञ्जय || ७२ ||”
हे धनंजय, अर्जुन आपने आपके मन के साथ ध्यान से सुना। आपकी अज्ञानता और मोह नष्ट हो गया। तकरीबन 45 मिनट में यह 700 श्लोको का संवाद हुआ। और 45 मिनट में अर्जुन का मोह, अज्ञानता नष्ट हो गई। यह उद्देश्य है भगवान का। यह जो ज्ञान देने का उद्देश्य था हमारी जो अज्ञानता है और जो मोह है वह नष्ट हो जाए। गुरु महाराज बड़ी कृपा कर रहे हैं कि, हररोज हमें यह जपा टॉक दे रहे हैं। जिससे हमारी अज्ञानता और हमारा मोह भी नष्ट हो जाए। फर्क सिर्फ इतना है की, क्या हम लोग 45 मिनट में नष्ट कर पाएंगे या फिर हमें 45 घंटे लगेगी या फिर 45 हफ्ते लगेंगे या 45 महीने लगेंगे या 45 साल लगेंगे या फिर 45 जीवन लगेंगे।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
कैसे सुनना चाहिए यह भगवान बता रहे हैं। ध्यान से सुनना चाहिए। एकाग्रता का यहां उल्लेख हुआ है। हम देखते हैं शास्त्रों में बताया गया है कि यदि आहार हमारा सात्विक शुद्ध रहता है तो फिर हम ध्यान से सुन सकते हैं। आहार केवल हम जो भोजन लेते हैं वह नहीं है। हमारी सभी ज्ञानेंद्रियों का जो आहार हैं, वह जब सात्विक हो जाएगा तो हम भी एकाग्रता के साथ हरे कृष्ण महामंत्र को भी सुन पाएंगे। और गीता भागवत के उपदेश है वह भी ध्यान से सुन पाएंगे। श्रवण की पद्धति भी बताई है उपनिषद में। श्रवण मनन और निजी आचरण। अर्जुन ने सुना उसका चिंतन मनन करके, स्पष्ट रूप से समझ लिया। और फिर उन्होंने निर्णय भी ले लिया शरणागति का। और अगले श्लोक में बोलते हैं कि, करिस्ये वचनम तव आपकी आज्ञा का पालन, शरणागति। आप युद्ध करने के लिए कह रहे हैं तो, उसके लिए मैं तैयार हूं 45 मिनट में अर्जुन ने श्रवण कर लिया, मनन कर लिया और अपने जीवन में उतार भी लिया और देखिए यह बहुत बड़ी बात है। 45 मिनट में उन्होंने तीनों चीज कर लिया। समझ गए श्रवण मनन और निजी आचरण। प्रभुपाद जी बार-बार हमारी स्थिति देखकर कहते थे यह जो कृष्णभावनामृत का जो मार्ग है वह ग्रैजुएल प्रोसेस है। तो हम लोग में से ज्यादातर जो कलयुग इस स्तर में है 45 साल का टारगेट ले सकते हैं। 45 मिनट तो कहीं नहीं है लेकिन 45 मिनट में पढ़कर पूरा हो जाना चाहिए। एक बार प्रभुपाद जी को कोई पूछ रहे थे कि कितना समय लगता है तो, प्रभुपाद जी ने कहा अभी आप 20 साल के हो तो कम से कम 50 साल के होने तक हो ही जाना चाहिए। एक बार श्रीधर महाराज को प्रभुपाद जी ने कहा था कि 35 साल के बाद आप अच्छी तरह से हरे कृष्ण महामंत्र का जाप कर सकते हैं। निश्चित रूप से हरे कृष्ण महामंत्र कीर्तन कर सकते हैं। हमारा टारगेट लेना चाहिए कि, हमें क्या करना पड़ेगा। हमारी इंद्रियों का जो आहार है, वह शुद्ध सात्विक करना पड़ेगा ताकि, हम ध्यान से सुन सके। मनन करके समझ ले और फिर जीवन में उतार सके। पहला है कि आपने आज ध्यान से सुना। और जब हम ध्यान से सुन कर उसका मनन करेंगे तो क्या होगा, अज्ञानता नष्ट होगी। मोह जो है वह नष्ट होगा। और श्रील भक्तिविनोद ठाकुर समझाते हैं कि, जितनी मात्रा में अज्ञानता नष्ट होती हैं, उतनी ही मात्रा में संबंध ज्ञान और वैराग्य प्रकट होता है। तो सोचो कि हमारी अज्ञानता 10 परसेंट नष्ट हुई है तो 10 परसेंट संबंध ज्ञान और सब कुछ भगवान की सेवा में लगाने का 10 परसेंट प्रकट हुआ है। जितनी जितनी मात्रा में हम अज्ञानता नष्ट कर पाते हैं ज्ञान लेकर अज्ञानता नष्ट, ओम अज्ञान तिमिरंधास्य ज्ञानांजना शलाकय। चक्षुरन्मिलितन्मेन तस्मै श्री गुरवै नमः।। ज्ञान अंजन शलाकय
तो ज्ञान जितना हमें समझ में आता है, साक्षात्कार होता है। उस हिसाब से फिर अज्ञानता नष्ट होगी और सब अज्ञानता नष्ट होगी फिर हम शरणागत हो सकते हैं।
भगवान की बात को जीवन में उतारेंगे और यह तरीका है। फिर हमें ज्ञान मिलेगा कि, सब कुछ कैसे भगवान की सेवा में लगाना है। हमारी इंद्रिय तृप्ति के लिए नहीं लगाना है। इसमें बहुत सारा मन की बात भी बहुत चलती है क्योंकि, हमारा चेतन मन है और अचेतन मन है। हमारी सारी बातें मन में स्थापित की गई है। संस्कार बने हुए हैं ।तो यदि हम जब हम बार-बार सुनेंगे जैसे श्रुतिधर इस युग में बहुत ही दुर्लभ है ऐसे व्यक्ति मिलना। जैसे गुरु महाराज ने जपा टॉक में कहा था की, एक बार अर्जुन ने सुन लिया और उनको सब याद रह गया। एक बार व्यासदेवजी ने कहा और शुकदेव गोस्वामी को सब याद रह गया। इतना पावरफुल मेंमरी था लेकिन कलयुग में कहां हि हैं मंद सुमति यतोः। इसलिए बार-बार हमे गीता को पढ़ना पड़ेगा और चिंतन मनन करना पड़ेगा। उसको अच्छी तरह से समझने का प्रयास करना पड़ेगा। जितनी मात्रता में हमें समझमे आएगा फिर उतनी मात्रता में हमारी अज्ञानता नष्ट होगी। उतनी मात्रता में हमारी शरणागति बढेगी और तब जाकर के हमारी बुरी आदतें हमारे अंदर जो पाप वृत्तिया हैं, वह नष्ट होगी। इसलिए हमे बहुत ही ध्यान से एकाग्रता के साथ दोनों हरे कृष्ण महामंत्र और गीता भागवत को हमें सुनना पड़ेगा। जीवन में उतारना पड़ेगा। तब सफलता मिलेगी। तो फिर अर्जुन अगले श्लोक में क्या कहते हैं, हां मेरा मोह नष्ट हो गया और मेरी सुधृति वापस आ गई। मैं कौन हूं, भगवान कौन है, हमारा संबंध क्या है, मेरा धर्म क्या है, मेरा कर्तव्य क्या है वह सब उनको स्मरण हो गया फिर से। मेरी शंका का समाधान हो गया। जब हम समझने का प्रयास करेंगे तो निश्चित हमारे अंदर कुछ प्रश्न उठेगे। कुछ शंका उत्पन्न होगी लेकिन ऐसा है, तो फिर ऐसा है। तो भी उनका समाधान होना चाहिए परीप्रश्नेन सेवया इसलिए साधु संग बहुत महत्वपूर्ण है। और गुह्यं आख्याति प्रच्छती होना चाहिए क्योंकि, हम सबकुछ तो भर सभा में नहीं पूछ सकते है। हमारे ऐसे घनिष्ट संबंध होने चाहिए हम से उन्नत भक्तों का जिनसे हम पूछ सकते हैं दिल खोलकर हृदय खोलकर कि, हमारे समस्या का कोई समाधान नहीं हो रहा है। हम प्रयास कर रहे हैं। ऐसे गुप्तता होने चाहिए तो हमारी समस्या का समाधान होगा। जो अर्जुन ने कहा था करिस्ये वचनम तव, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। मैं युद्ध करने के लिए तैयार हूं। यह पद्धति हैं, गीता का और जैसे भगवान कहते हैं“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || ” जो यहां भगवान बुद्ध की बात कर रहे हैं इस श्लोक में, यह भगवान की विशेष कृपा के साथ यह बुद्धि प्रधान मिलती हैं। जब हम इमानदारी से गंभीरता से हरे कृष्ण महामंत्र का ग्रहण करते हैं और गीता भागवत का अध्ययन करते हैं तो भगवान हमें बुद्धि देते हैं। दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित है। गुरु और कृष्ण की कृपा से जब हम पढ़ रहे हैं, सुन रहे हैं तब हम प्रकाशित होते हैं। प्रकाश आता है की यह मुझे अप्लाई होता है। इसको करने से, मैं आगे बढ़ सकता हूं। और यह कृपा प्राप्त करने के लिए, उसके प्रति गुरु महाराज ने हमें प्रेरित किया है कि, हमें गीता का वितरण करना चाहिए। विशेष करके किसको वितरण करना चाहिए, जैसे हमने समझाया कि बहुत साल लग जाएंगे गीता समझने के लिए। इसलिए विशेष करके युवा पीढ़ी को पकड़ना चाहिए।
उनको गीता देना चाहिए क्योंकि, उनके पास टाइम है अब उनके जीवन में। वह समझ पाएंगे, जीवन में उतार पाएंगे। सभी को बांटना चाहिए क्योंकि, कम से कम आज तक जीवन में जितना रास्ता काट लिया उतना अगले जीवन में कम काटना पड़ेगा। तो बाटना सभी को है लेकिन, विशेष रूप से जैसे प्रभुपाद ने कहा था कि, कुछ बुद्धिशैली युवकों को पकड़ो ताकि वहां आगे इस संस्था को चला भी सके। गीता बाटने से कृपा मिलती है। जैसे भगवान कहते हैं, “जो भी यह ज्ञान बांटते हैं वह मुझे बहुत प्रिय है।” इसलिए हमें यह गीता बांटना है। गीता बाटेंगे तो भगवान की हमारे ऊपर भगवान की कृपा दृष्टि रहेगी। जैसे प्रभुपाद ने कहा,”don’t try to see krishna but act in such way that krishna see you” कृष्ण को देखने की प्रयास मत करो। कुछ ऐसा कार्य करो कि कृष्ण आपको देखें। वह कार्य क्या है, गीता का ज्ञान दूसरे जीवो को देना। वह भी अज्ञानता और मोह में ग्रस्त है। यह दया है। किसी अज्ञानी और मोहग्रस्त व्यक्ति को उसकी अज्ञानता मोह निकालना है। यह बहुत बड़ी कृपा है। सबसे बड़ी कृपा है। रोटी, कपड़ा, मकान देना यह तो बहुत निम्न प्रकार की कृपा है। अज्ञानता किसी की निकालना उसको भवबंधन से निकालना यह सबसे बड़ी कृपा है। और यहां कृपा प्राप्त करने के लिए, प्रतिदिन गुरुमहाराज ने हमें प्रोत्साहित किया है कि, हम गीता का वितरण करें। लेकिन, जैसे कुछ भक्तों ने अपने साक्षात्कार में बताया था हमें केवल बांटना नहीं है, हमें समझना भी हैं। हमें बांटना भी है और समझना भी है। समझ कर हमारी अज्ञानता को नष्ट करना है। हमारी पहचान में सुधार लाना है। हमारी पहचान समझकर मोह को नष्ट करना है। हम अपनी पहचान मन से और शरीर से करते हैं। दूसरे कि भी पहचान मन से और शरीर से करते हैं। इससे हमें ऊपर उठना है इसीलिए हमें मेहनत करनी पड़ेगी। समय निकालना पड़ेगा गीता पढ़ने के लिए। अगर हम सोचते हैं, हमने तो गीता पढ़ ली है। अगर अपने गीता पढ़ ली है तो 18.72 में भगवान ने जो प्रश्न किए हैं वह आपको लागू पढ़ते हैं। क्या आपने ध्यान से गीता पढ़ी है, क्या आपने आपकी अज्ञानता नष्ट हो गई हैं, क्या आपका मोह नष्ट हो गया? और आपका उत्तर भी अर्जुन की तरह 18.73 जैसा है। हमें बार बार पढ़ना पड़ेगा, चिंतन करना पड़ेगा, मनन करना पड़ेगा। हमारी डिग्री इसमें होगी, हमारी अज्ञानता एक परसेंट नष्ट हो गई है। हमारा मोह 2 परसेंट नष्ट हुआ है। अभी 5 परसेंट हुआ है। ऐसे हम सोच लेंगे क्योंकि, हम लोग नित्य बद्धजीव हैं। इस जीवन में भी हमसे गलतियां हुई हैं। पिछले जीवन में भी बहुत हुई है।
पहाड़ है हमारे अंदर गलत संस्कारों का पहाड़ है। उसको भी साफ करना है। हरे कृष्ण महामंत्र से और इस ज्ञान से।वास्तव में हरे कृष्ण महामंत्र में इतनी ताकत है कि, यह ज्ञान की भी जरूरत नहीं है, अगर हम शुद्ध रूप से हरिनाम ले रहे हैं। लेकिन इतनी सारी मेहनत की है प्रभुपाद जी ने केवल 2 घंटा सोते थे। किताब लिखते थे। क्योंकि बिना इस ज्ञान शुद्ध रूप से हम हरे कृष्ण महामंत्र नहीं ले सकते। इसीलिए दोनों चीज साथ साथ में चलना चाहिए। गीता भागवत का ज्ञान और हरे कृष्ण महामंत्र। तब हमारा मोह जिससे हम गलत पहचान में जी रहे हैं और हमारी अज्ञानता नष्ट हो। हमें यहां शुद्ध अवसर उठाना चाहिए। हमें प्रभुपादजी की कृपा से, गुरुमहाराज की कृपा से इस्कॉन में सेवा करने का ज्ञान लेने का अवसर आनंद मिला है। और हमें अपनी गंभीरता और अपनी ईमानदारी भक्ति करने में इसके बारे में बार-बार चिंतन मनन करना चाहिए। विशेषकर कर आज उत्तरायण है 2021 चला गया अभी 2022 है। आज बहुत लोग पंतग उड़ाते हैं। तो हमें सावधान रहना है हमारा जीवन कटी पतंग जैसा ना हो। लेकिन गुरु और कृष्ण के मार्गदर्शन से हमारी पतंग गोलोक जाए। वैकुंठ जाए, ऐसा होना चाहिए। इसके लिए हमें एक अच्छा भक्त बनना पड़ेगा। अधिकृत भक्त बनना पड़ेगा। 1500 रुपए का किट पहनकर जो भक्त बनते हैं, उससे काम नहीं चलेगा। हमारा मन भक्त बनना चाहिए। हमारा ह्रदय भक्त बनना चाहिए। इसके लिए हमारे लिए यह गीता का ज्ञान भागवत का ज्ञान बहुत ही महत्वपूर्ण है। हमें बहुत ही ईमानदारी से भक्ति में लगना चाहिए। इससे हमें भी वह रिजल्ट मिलेगा जो अर्जुन को मिला। और हम यह सब नाप सकते हैं। अपने आप को माप सकते हैं। मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु हमारा मन कितना गंदा है और कितना मेल है। क्योंकि, हम द्वंद्व में हैं तो हमें दोनों भी मापना है, कितना मैल है और कितना कृष्णमय है और भक्त बनने के प्रयास में हम कौन से स्तर पर हैं। अधो श्रद्धा साधु संग अनर्थ निवृत्ति निष्ठा भाव प्रेम कौन से स्तर का भक्ति कर रहे हैं। कनिष्ठा मध्यम उत्तम। बहुत सारा ज्ञान का भंडार है। प्रभुपाद जी ने हमें इतना ज्ञान दिया है कि, 45 जीवन में भी हम इसका पूरा अभ्यास नहीं कर सकते हैं। इसलिए हमेशा सारग्राही बनना है। 45 मिनट में अर्जुन का अज्ञान और वह नष्ट हो गया। और वह शत-प्रतिशत कृष्णा के आज्ञा का पालन किए शरणागत होकर। हमें भी शरणागति बढ़ानी है हमें भी सोचना है कि, हम किस तरह शत प्रतिशत गुरु और कृष्ण को शरणागत हो जाए। तो इस तरह गुरुमहाराज ने आज मुझे अवसर दिया वह। हम सब मिलकर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि गुरु महाराज जल्द से जल्द स्वस्थ होकर वापस आए।
हरे कृष्ण,
धन्यवाद,
श्रील प्रभुपाद की जय!
गुरु महाराज की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
भक्तः भगवतगीता के 18.68 में भगवान बोल रहे हैं कि, यह ज्ञान भक्तों के बीच मे देना चाहिए, भक्त बनेगे फिर यह ज्ञान देना चाहिए। भगवान यह ज्ञान अर्जुन को दे रहे हैं। अर्जुन भक्त था और कृष्ण भगवान थे। दोनों के बीच में यह संवाद हो रहा है। तो हम ऐसे लोगों को गीता दे रहे हैं जो भक्त भी नहीं है तो यह भगवान का वचन सही है गीता में?
प्रभुजीः जैसे चैतन्य महाप्रभु से ज्यादा कृपालु नित्यानंद प्रभु है। चैतन्य महाप्रभु तो सुदर्शन निकाल रहे थे जगाई मधाई को मारने के लिए। लेकिन नित्यानंद प्रभु ने रोक लिया। हम यहां मारने के लिए नहीं आए हैं। कलयुग के जीव पहले ही मरे हुए हैं। इनको प्राण देना है। और नित्यानंद प्रभु से और भी कृपालु है अद्वैत आचार्य। इस प्रकार से परंपरा में आते हुए प्रभुपाद जी और भी कृपालु है। जो सेनापति भक्त है। गीता हम शुरुआत में दे रहे हैं तो हम सब उनको गुह्य बातें नहीं बताते लेकिन उनको जोड़ने के लिए यह बातें जरूरी है। हम अपनी गोपनीय बातें उनको नहीं बताते है। तो इस तरह से प्रभुपाद जी ने जो प्रणाली दी है येन केन प्रकारेन कैसे भी व्यक्ति भक्ति में आ जाए वह धीरे धीरे भक्ति में आ जाएगा। वह गीता को हाथ लगाता है मतलब उसका सुकृति हो रहा है। और जैसे जैसे ज्यादा सुकृति बढ़ते जाएगा वैसे वहां भक्ति में आ जाएगा। इस प्रकार से उनको उचित स्तर से ज्ञान दिया जाएगा तो वह भक्त हो जाएगा। और नहीं बनेगा तो वहां बैठेगा ही नहीं सुनने के लिए।
माधवी कुमारी माताजीः प्रभुजी यह जो सारग्राही मतलब वह थोड़ा समझा दीजिए।
प्रभुजीः जैसे दूध होता है दूध को उबालकर उसका दही बनाते हैं। उसका मक्खन निकालते हैं। फिर उससे घी बनाते हैं। तो वहां सार है। सार क्या है, अज्ञानता नष्ट होना है। इस श्लोक में से हम लोग अगर देखें तो, गीता पढ़ना मतलब क्या है? हमारी अज्ञानता और मोह नष्ट होना है। कृष्ण को शरणागत होना। हमें यह जानना है कि हम शरीर नहीं है, हम मन नहीं है। हम एक अनु आत्मा, चेतन तत्व के भगवान के नित्य दास है। कृष्ण की सेवा करने से ही हम आनंद प्राप्त कर सकते हैं और कोई रास्ता नहीं है। यह सार है। यह समझना है, हमें गीता को पढ़कर।
मंजूरानीगोपी माताजीः मेरा यह प्रश्न है कि आपने जैसे कहा था कि, जीवों पर दया करनी चाहिए। जैसे खाना देने से, कपड़ा लेने से निम्न प्रकार की दया है। जब हम भक्त भक्तिवृक्षमे लोगों को बताते हैं कि, यह क्या है कैसे हैं। जैसे हम लोगों को उदाहरण लीजिए। जैसे कि हम देवी देवता पूजा के ऊपर हमने पूरा अभ्यास लिया था। लेकिन फिर वही सोच है कि नहीं हमें देवी देवताओं की भी पूजा करनी है। तो यह सुनकर कभी कभी तो हमारे पैशन्स छूट जाते हैं। क्या हमें उनको छोड़ देना चाहिए, हमें जो करना था हमने कर लिया। अब छोड़ दो उन्हें
उनके हाल पर या फिर उनके पीछे उनको मेंटर करना चाहिए। क्योंकि बहुत बोलने से भी लोग इरिटेट हो जाते हैं। तो क्या करना चाहिए हमें?
प्रभुजीः हमें और स्मार्ट तरीके से उनको प्रेजेंटेशन देना चाहिए। भक्तिवृक्ष में भी उन्हें अलग-अलग स्तर दिखाने चाहिए। यह अलग अलग स्तर है। आप यह स्तर पर हैं। अच्छी बात है। आपने इतना रास्ता काट लिया है। आपको इतना करना है। आगे का यह रास्ता है। आप अपने स्पीड से जा सकते हैं। और ऐसा करने से और उनको जोड़ कर रखना है। उनको सेवा में लगाइए। अगर भजन नहीं कर रहे हैं तो सेवा में लगाइए। उनकी सुकृति बढ़ाते रहिए। उनको संग देते रहिए क्योंकि, उतना वह एडवांस हो जाएंगे। हमें पेशन्स रखना है। कृष्ण पेशन्स रख रहे हैं हमारे ऊपर।
ठीक है, हरे कृष्ण।
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जप चर्चा,
7 जनवरी 2022,
मुंबई जुहू,
हरे कृष्ण, 1032 स्थानो से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। हरिबोल, गीता जयंती महोत्सव की जय! गीता जयंती मैराथाँन की जय! जय प्रभुपाद! भगवत गीता का छठवां अध्याय ध्यानयोग कहलाता है। कृष्ण जो भी कहते हैं वह केवल महत्वपूर्ण ही नहीं होता है। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं और जैसे कहना पड़ता है महत्वपूर्ण यह है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। भगवत गीता में भगवान कृष्ण जो कहे है वहां अतिमहत्वपूर्ण अत्यावश्यक है। उसमें यह छठवां वैसा ही महत्वपूर्ण है यह अध्याय है। शीर्षक पढ़कर ध्यानयोग, इस्कॉन के भक्त कहेंगे ध्यान से हमारा कोई संबंध नहीं है। ध्यान मेडिटेशन यहां हम कुछ करते नहीं हैं। लेकिन हम सुनाते तो रहते हैं। जप करते हो आप हमें कैसे जप करना है, एक ही शब्द में कहना है। जप कैसे करना है, ध्यानपूर्वक करना है। हमको भी योगी बनना है। जैसे कुछ प्रकार की योगी, ध्यानयोगी जो अष्टांग योगी भी कहलाते हैं। पतंजलि का पूरा योग सूत्र है जो गीता पर, यहां गीता के छठवें अध्याय पर ही आधारित है, पतंजलि का योग। जो षड्दर्शन है हमारे भारत में, उसमें से एक योग दर्शन पतंजलि का उसमें जो अष्टांग योग है। वहां पर तो परमात्मा पर ध्यान की बात है। ठीक है, हम परमात्मा का नहीं सीधे भगवान कृष्ण का ही ब्रम्हेति परमात्मेति भगवानिति शब्दते। हम ब्रह्म तक ही नहीं रुके हैं। कुछ तो ब्रह्मा का ही ध्यान या ब्रह्म ही बनना चाहते हैं। अहम् ब्रह्मास्मि कहते जो शंकराचार्य के अनुयायी, अव्दैतवादि की पहुंच ब्रह्म तक ब्रम्हेति परमात्मेति। जो ध्यानयोगी, अष्टांगयोगी है उनकी पहुंच परमात्मा तक। हम तो हम यहां से तो नहीं होते हैं। ब्रह्म बनने का तो बिल्कुल विचार नहीं होता।
कोई ब्रह्म बन ही नहीं सकता वह बात अलग है। और ब्रह्म से, परमात्मा से भी ऊपर इन दोनों का जो स्त्रोत है, उस भगवान हम ध्यान जरूर करते हैं। ध्यान तो करना ही होगा। सतयुग में कृतयेधद्धयायतो विष्णुं तो इस प्रकार का ध्यान सतयुग में भी होता था। अष्टांगयोग योग का ध्यान वह पद्धति फिर उनका लक्ष्य। वैष्णव का वैष्णव का गौड़िय वैष्णव का लक्ष्य तो भगवान है। कृष्णस्तु भगवान स्वयं, श्रीकृष्णचैतन्य राधाकृष्ण नाहिं अन्य या संभवामि युगे युगे अवतार लेते हैं। रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु। इसमें से किसी अवतार का भी हम ध्यान करते हैं। कर सकते हैं, अपने अपने इष्टदेव के अनुसार ध्यान तो करना है। केवल जैसे प्रभुपाद कहते हैं, पहले निर्धारित करना है। किसका ध्यान करना है, ध्यान तो करना ही है, ध्यान तो करना है यह सामान्य बात है। लेकिन उसका जो लक्ष्य है जिसका ध्यान करना है वह सबका अलग अलग होता है। यहां तक कि कृष्ण ने कहा द्वितीय अध्याय में ध्यायतो विषयाम पुंसा जनता जनार्दन लोग भी ध्यान तो करते हैं, किस पर ध्यान करते हैं। किनका ध्यान करते हैं। विषयों का ध्यान करते हैं। इंद्रियों के विषयों का ध्यान करते हैं। तो फिर तो कर्मी है यहां या कर्मयोगी है। ध्यान योगी हैं या फिर भक्तियोग भी है। ध्यान तो करना ही है भक्तियोगी भी ध्यान करते हैं। हमको ध्यान करना है। ध्यानपूर्वक जप करना है। ध्यानपूर्वक तप करना है। ध्यानपूर्वक मतलब भक्तिपूर्वक भी हो गया। इसी छठवें अध्याय के अंत में कृष्ण कहने वाले हैं अंतिम श्लोक इस छठे अध्याय का
“योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ||
सभी योगी में भक्ति योगी श्रेष्ठ है। तो बात ही यह है, हमें नहीं समझना चाहिए यह जो छठवें अध्याय में ध्यानयोग की जो बातें की है, हमें नहीं लेना देना है। हम तो भक्ति योगी हैं हम तो जप योगी हैं, ऐसी बात नहीं है। इसीलिए अर्जुन ने कहा है, “चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |” नहीं, मैं ध्यान नहीं कर सकता, कठिन है, मन चंचल है। और केवल अर्जुन ही नहीं थे ऐसी शिकायत करने वाले, संसार के हर साधक की यह शिकायत है। समस्या है, क्योंकि मन तो मन ही है। यहां पर मेरा मन, तुम्हारा मन अमेरिकन मन, इंडियन मन, स्त्री मन, पुरुष मन ऐसा कुछ नहीं है। मन तो मन ही है। मन एक तत्व है। श्रीकृष्ण ने कहा है, “भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |” आठ प्रकार की मेरी प्रकृति है। लिस्ट में “भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च | मन बुद्धि अहंकार तो मन एक धातु है। तत्व है। उसी से हमारा अंतःकरण या सूक्ष्म शरीर बनता है। इस मन 2 गुण हैं। इस मन के जो गुणधर्म है, लक्षण है, उसी का तो परिचय दे रहे हैं श्रीकृष्ण इस छठवे अध्याय में। ठीक है, अर्जुन ने शिकायत की, शिकायत क्या जो वस्तुस्थिति हैं वह कह दी। श्रीकृष्ण आप यह कह रहे, ध्यान लगाओ, मन को फिर करो। यहां तक कि आपने कहा,“यथा दीपो निवातस्थो नेङगते सोपमा स्मृता |योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ||
19 वें अध्याय के श्लोक में, आपने कहा जिस प्रकार वायु रहित स्थान में दीपक हिलता नहीं, डूलता नहीं, उसी तरह योगी का मन वश में होता है। वह आत्म तत्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है। यह संभव है, मन चंचल है, प्रमादी क्रीडा यह सब ठीक है। उसी अध्याय में यह कहा है कि, मन पर नियंत्रण, मना निग्रह कठिन है लेकिन, असंभव नहीं है। आप ध्यान में रख रहे हो, मन को नियंत्रण करना कठिन है लेकिन, असंभव नहीं है। प्रयास करना जरूरी होगा ताकि, हम साधक क्या कर सकते हैं, निवातस्तो। दीपक जलाया है या जल रहा है, किसी का कक्ष में कमरे में। और वहां से हवा नहीं रही हैं। पंखा नहीं है। और दरवाजा खिड़की सब बंद है। नियंत्रित किया गया है। सभी द्वार बंद है तो फिर यह दीपक नेङगते, दीपक की ज्योत ज्वाला है वह स्थिर रहती है। हिलती डूलती नहीं। कोई हल्की सी खिड़की खुल गई, कोई आ गया दरवाजा खुल गया तो फिर दीपक हिलने लगेगा। और संभावना यह भी है कि दीपक बुझ सकता है। मन को स्थिर करना है। दीपक जैसा, जो दीपक निवातस्तो निवात वात मतलब हवा जिस कमरे में हवा नहीं है, मतलब हवा तो है लेकिन बाहर से हवा नहीं आ रही है। हवा चलायमान नहीं है। तो मान लो कि हमारा यह शरीर ही है वह कक्ष या कमरा और मन की ज्योति है। ऐसा करना है तो निवातस्थो उस कमरे को निवात वात से, हवा से, हवा के झोंके को अंदर नहीं आने देना है तो क्या करना होगा? वैसे जो नवद्वारे पुरे देही इस शरीर को कृष्ण कहे हैं यह शरीर एक पूर है नगर है। जिसके नव द्वार है। तो इस सारे द्वारों पर कंट्रोल रखना होगा। तो मन निग्रह का संबंध इंद्रिय निग्रह के साथ भी है। इसीलिए कृष्णा पुनः अठारहवें अध्याय में कहे है ब्राह्मणों के लक्षण सुनाते हुए, क्षमः दमः दोनों साथ में। क्षम मतलब यहां मन निग्रह है, दम मतलब इंद्रिय निग्रह है। मन निग्रह, इंद्रियां निग्रह क्षमः दमः। तो हमारे जो द्वार है, जिस द्वार से हम बाहर जाते हैं फिर अंदर आते हैं। यह जो अलग-अलग आंख है, नासिका है, कान है, मुख जीव्हा है, त्वचा है यह द्वार है। तो इस पर भी नियंत्रण रखना है और द्वार पर चौकीदार को खड़ा करना है। वैसे चौकीदार बुद्धि है हमारी। बुद्धि सब के ऊपर नियंत्रण रखता है, मन के ऊपर भी। इंद्रियों के ऊपर मन है।
फिर मन:षष्ठानीन्द्रियाणि तो मन को छठवा इंद्रिय कहां है। इंन्द्रियेभ्यः परं मनः कृष्ण कहे मनसस्तु परा बुद्धि तो इंद्रियों के ऊपर मन है और मन के ऊपर बुद्धि है। इसको लगाम भी कहा है। घोड़ा चलाते समय जो लगाम होता है, रस्सी डोरी होती है और वह ड्राइवर के हाथ में होती हैं। तो घोड़े हैं इंद्रिय और लगाव है वैसे मन और लगाम जिसके हाथ में हैं वह है बुद्धि। तो बुद्धि से काम लेना होगा, ताकि क्या करना है निवातस्थो हमारे अंतःकरण को, हमारे शरीर में हमारा मन ही चलायमान होता है हिलता है डुलता है। चांचल्य जो है मन का उसको मिटाना है तो बाहर की जो हवा या बाहर के जो इंद्रियों के विषय अंदर आते हैं। मन बाहर जाता है और इंद्रियों को के विषयों को अंदर लेकर आता है। इसीलिए कृष्ण वहां समझाएं हैं भगवदगीता यह मैन्युअल है। पगपग पर हमें भगवदगीता की आवश्यकता है। भगवदगीता हमें मदद कर सकती है। यह प्रवास जो है जीवन एक प्रवास है कहते हैं। पता नहीं जो कहते हैं जीवन प्रवास है, उस प्रवास में तो गोल ही घूमते रहते हैं।
आब्रह्मभुवनाल्लोकका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन लेकिन हमको राउंड नहीं मारने हैं बस हो गया इनफ इज इनफ। हमको सीधे जाना है, भगवदधाम लौटना है वह हमारा लक्ष्य है। तो इस मार्ग पर हमें कृष्ण का मार्गदर्शन अत्यावश्यक है। इस मार्गदर्शन पर ही फिर गुरुजन आचार्य वृंद हमारे शिक्षा दीक्षा गुरु उसी के आधार पर बोलते हैं और बोलना चाहिए। शास्त्र प्रमाण है और गीता में तो कृष्ण स्वयं प्रमाण है। तो गीता की मदद से भगवदगीता के छठवे अध्याय की मदद से भी हमें अपने जीवन को, कार्यकलापों को कुछ नियंत्रण में लाना है। ताकि हमारी यह जो प्रवास है हम आगे बढ़ते रहेंगे। कभी-कभी अटके रहते हैं हम। न तो आगे बढ़ रहे हैं न तो पीछे मुड़ रहे हैं या फिर कुछ पीछे मुड़ जाते हैं यू टर्न।
पुनः मुशिक भाव बन जाओ पुनः चूहा बन जाओ। तो यह हम नहीं चाहते हैं, कौन साधक चाहेगा यह। साधना में तो सिद्धि ही चाहेगा सिर्फ प्रगति चाहेगा षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति चाहेगा, विनश्यति विनाश नहीं चाहेगा। तो कुछ बातों से प्रगति होती है तो कुछ सेट है दूसरे बातों का उससे हमारी अधोगति होती है। कृष्ण जो बातें कहे हैं उनकी जो सलाह है छठवे अध्याय में उसको हमें फॉलो करना चाहिए। और कुछ बातें नहीं समझ में आती है तो और भक्तों की, जिन भक्तों के साथ आप इस्कॉन मंदिर के भक्त या आपके शिक्षा गुरु, आपके काउंसलर से आपको सलाह लेनी चाहिए, इष्ट गोष्टी होनी चाहिए। इसी को फिर कहां है षड़विधं प्रीतिलक्षणम् गुह्यमाख्याति पृच्छति कुछ बात चुभ रही है, कुछ बात समझ में नहीं आ रही है। किसी को कुछ अनुभव हो रहे हैं अच्छे-अच्छे उसको भी फिर शेयर करना चाहिए। ऐसा नहीं कि हर वक्त बैड न्यूज़ ही शेयर करें है हम, फिर लोग आपसे दूर रहेंगे। हर वक्त आप जो भी बोलते हो कुछ खुशखबरी नहीं.. कुछ बैड न्यूज़, कोई समस्या हर वक्त समस्या हर वक्त उलझन। कभी सुलझन भी होनी चाहिए उलझन भी होना चाहिए। कभी प्रॉब्लम भी हम प्रस्तुत कर सकते हैं और कभी सलूशन भी हमारी ओर से होना चाहिए, अपने अनुभव से कहां हमें सफलता मिल रही है। तो सफलता का साफल्य की बातों को भी शेयर करना चाहिए। तो इस तरह से भक्तों के समाज में इस प्रकार का लेन देन, विचार-विमर्श होना चाहिए। जैसे हम इस जपा टॉल्क के अंतर्गत भी करते रहते हैं, यह वही बात है। और इसी को भी फिर कह सकते हैं…
साधु-संग’, ‘साधु-संग – सर्व शास्त्र कय।
लव-मात्र साधु-संग सर्व-सिद्धि हय ॥
तो इस्कॉन में सभी साधु है। कोई छोटे-मोटे या अलग-अलग स्तर पर हो सकते हैं। तो इस साधु संग का हमें लाभ उठाना चाहिए। ताकि हम कुछ आगे ही नहीं बढ़ रहे है, कहीं अटक गए हम, जप छूट रहा है या माला नहीं हो रही है, मंदिर आने का दिल नहीं करता या और कुछ मूवी देखना शुरू किया है हमने। तो पढ़िए इस अध्याय को भी, हर अध्याय को पढ़ना चाहिए। आज तो ध्यान योग नामक अध्याय की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास चल रहा है। तो याद रखिए यह छठवां अध्याय बहुत महत्वपूर्ण है। इसको आत्म साक्षात्कार कहते हैं। आत्म साक्षात्कार में वैसे आत्मा, आत्मा मतलब आत्मा भी होता है और आत्मा मतलब मन भी होता है। यहां तक की आत्मा मतलब शरीर भी होता है। अलग-अलग कुछ सात बातों का संकेत या उल्लेख होता है जब हम आत्मा आत्मा कहते हैं। तो मन भी हमारा आत्मा ही है, हमारा अंतरंग है। इस मन का अभ्यास करना चाहिए। वैसे कृष्ण कहे भी है इसी अध्याय में अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते हां कठिन है, कठिन है मन को जीतन या मना निग्रह। लेकिन असंभव नहीं है। तो क्या करो? अभ्यास करो अभ्यास करो प्रैक्टिस। तो इसीलिए हम लोग केवल एक दिन जप कर लिया, कभी किया, कभी नहीं किया ऐसा नहीं। अभ्यास मतलब प्रतिदिन यह अभ्यास करना हैं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन दोनों में तृतीया विभक्ति है। दो प्रकार से दो बातें कह रहे हैं अभ्यास करना चाहिए मन निग्रह के लिए अभ्यास और वैराग्य। वैराग्य मतलब जिसमें हमारा दिल लगता है, हमारा मन चाहता है, यह चाहता है, वह चाहता है, तो उसमें भोग के स्थान पर उसको योग से जोड़ीए। योगी बने भोगी न बने, भोग विलास का जीवन। फिर यह जो चार नियम का पालन करते हैं हम यह उसी के अंतर्गत है। नशापान नहीं, मांसभक्षण नही, परस्त्री संग नहीं, जुगार नहीं। यह लिस्ट और भी आगे विस्तृत लिस्ट है, तो उसके अनुसार जीवन शैली बना दे। तो वैराग्येन या दूसरे शब्दों में सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग सादा जीवन जीओ। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते फिर यह संभव होगा। ठीक है।
श्री कृष्ण अर्जुन की जय।
भगवदगीता की जय।
कुरुक्षेत्र धाम की जय।
गीता डिस्ट्रीब्यूशन मैराथॉन की जय।
श्रील प्रभुपाद की जय।
गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल।
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जप चर्चा
6 दिसंबर जनवरी 2022
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
हम थकते नहीं हैं भगवान को नमस्कार करने की बात जब आती है तो बारंबार प्रणाम है। वैसे हर क्षण ओम नमो भगवते वासुदेवाय और गीता का पाठ भी कर रहे हैं तो ओम नमो भगवते वासुदेवाय भगवत गीता का वितरण भी कर रहे हैं। कर रहे हो कि नहीं? इसीलिए भी जिन्होंने गीता का उपदेश सुनाया हमारे लिए हम कृतज्ञ हैं और इसीलिए भी अपना थैंक्यू कहो एक शुद्र जीव भगवान का जितना आभार मान सकता है । उन्होंने हमारे लिए जो कुछ किया है उसमें से भगवत गीता जैसी अमूल्य भेंट श्री कृष्ण ने दी है हम सबको और उन्हीं की व्यवस्था से गीता का वचन और गीता का सार हम तक पहुंच चुका है इसलिए भी बारम्बार प्रणाम है। कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में सैन्य निरीक्षण यह पहले अध्याय का शीर्षक है। सेटिंग द सीन जिसको आप कहते हो। यह देखो तैयारी हो रही है।
ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.14)
अनुवाद- दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये |
माधव और पांडव भी वहां पधार रहे हैं। रथ में विराजमान और कृष्ण बने है पार्थ के सारथी, फिर अर्जुन ने कहा है शंख ध्वनि वगेरह भी हो चुकी हैं।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय: |
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदर: || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.15)
अनुवाद- अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने पाञ्चजन्य नामक तथा धनञ्जय अर्जुनने देवदत्त नामक शंख बजाया और भयानक कर्म करनेवाले वृकोदर भीमने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।
पांचों पांडवों ने अपने-अपने शंख बजाए हैं। फिर अर्जुन ने कहा है इक्कीसवे श्लोक में यह हम बारंबार आपको सुनाते रहते हैं।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेऽच्युत |
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ||
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.21, 22)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ |
अर्जून कहते है कि कृष्ण मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़े करो | कृष्ण तुरंत ही अर्जुन के रथ को आगे बढ़ा रहे हैं| अर्जुन कह रही रहे हैं
मैं देखना चाहता हूं, मेरे साथ, हम पांडवों के साथ युद्ध खेलने के लिए कौन पधार चुके हैं? हमारे साथ युद्ध कौन कर सकता है? अर्जुन का जोश देखिए| His blood is boiling. दिखा तो दो कौन मेरे साथ युद्ध खेलना चाहते हैं रथ को आगे बढ़ाओ| कृष्ण ने वैसा ही किया वे तो आदेश का पालन ही कर सकते हैं मालिक तो अर्जुन है और यह तो सारथी है| ड्राइवर रथ को आगे बढ़ाया और फिर कृष्ण ने कहा है
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति || || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.25)
अनुवाद- भीष्म, द्रोण तथा विश्र्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो |
देखो, देखो तुम देखना चाहते थे ना, देखो तो सही। भगवत गीता के प्रथम अध्याय श्लोक संख्या पच्चीस में कृष्ण ने कहा है। यह कुछ ही शब्द भगवान बोलने वाले हैं भगवत गीता के प्रथम अध्याय में। पहला अध्याय भी भगवद गीता ही है पर यह सॉन्ग ऑफ गॉड नहीं है। यह भगवान नहीं बोले हैं इसमें अधिकतर अर्जुन ही बोलने वाले हैं। आधा अध्याय तो सेटिंग द सीन तैयारी हो रही है और जब कृष्ण ने कहा और कृष्ण की कही हुई बातों ने अर्जुन के विचारों में क्रांति या बदलाव लाया है। और अर्जुन का जो जोश था युद्ध खेलने का दिखाओ कौन है जो मेरे साथ युद्ध खेलने वाला आगे बढ़ाओ रथ को किंतु जब जब कृष्ण ने कहा – देखो, देखो, देखो। देखना चाहते थे ना देखो। कौरव, कौरव उपस्थित हुए हैं। कृष्ण के कहने का आशय यह है कि तुम भी कौरव हो, कुरु वंशज हो और तुम्हारे साथ युद्ध खेलने वाले भी कौरव कुरु वंशज ही है। तुम एक ही परिवार के हो। उसी के साथ श्री कृष्ण ने अर्जुन के मन में या विचारों में ममता, अहम और ममता को जगाया है। एकत्रित हुए कुरुओं को देखो। जब देख ही लिया मतलब कृष्ण अर्जुन का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं। देखो देखो यह तो तुम्हारे ही परिवार के सदस्य हैं। कोई चाचा है, कोई नाना है, कोई तुम्हारे चचेरे भाई हैं। तुम्हारे ही परिवार के हैं तुम्हारे ही तो लोग हैं और बस फिनिश। भगवान ने दो चार शब्द कहे इसे देखने के लिए कहा। एक दृष्टिकोण को दिया अर्जुन को वैसे अर्जुन भी देखने जा रहे थे लेकिन अर्जुन जब देख ही रहे हैं तो कृष्ण बता रहे हैं कि क्या देखना है। देखो देखो तुम्हारे परिवार के सदस्य है। ममता ममता कुछ जागृत किया है जगाया है। मेरे ही तो लोग हैं बस इसी के साथ अर्जुन ठंडे पड़ गए।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे |
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.31)
अनुवाद- हे कृष्ण! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार की विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ |
ऐसे विचार व्यक्त करने लगे अर्जुन। अभी-अभी इतना जोश था इतने दिनों, महीनों से तैयारी भी चल रही थी। वह आ चुके हैं। वहां पर डिनर पार्टी थोड़ी थी वह तो युद्ध खेलने के लिए आए थे। लेकिन अब कह रहें है नहीं नहीं।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् |
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिश्रुष्यति || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.28)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! इस प्रकार युद्ध कि इच्छा रखने वाले मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुँह सूखा जा रहा है।
वेपथुश्र्च शरीरे मे रोमहर्षश्र्च जायते |
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.29)
अनुवाद- मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है|
इस युद्ध को खेलेंगे तो जाति धर्म का क्या होगा? कुल धर्म का होगा? इस धर्म का क्या होगा? यह क्या होगा? वह क्या होगा? काफी भारी नुकसान होने वाला है। बहुत हानि होने वाली है। यहां कई सारे धर्मों की बात, जाति धर्म, कुल धर्म, यह धर्म, वह धर्म, ऐसी ड्यूटी, वैसी ड्यूटी। इसीलिए यह पहला अध्याय चल रहा है। कृष्ण अर्जुन के विचार सुन चुके हैं।उनको कई चिंता है। वह इसके बारे में उसके बारे में चिंतित है। इसलिए सबसे अंत में कृष्ण कहने वाले हैं
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 18.66)
अनुवाद- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
पहले अध्याय में अर्जुन ने अपने विचार कहे । इस धर्म का क्या? उस धर्म का क्या? अलौकिक धर्म । यह धर्म, वह धर्म, यह ड्यूटी, परिवार के सदस्यों के प्रति । यह ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने अंत में निर्णय में कहा हैं। त्याग दो ठुकरा दो यह विचार और जहां तक धर्म की बात है तो धर्म क्या है? मेरी शरण में आओ। तुम्हारे अपने सब विचार छोड़ दो। मेरे विचार।मै क्या चाहता हूं? इस पर कभी विचार किया है? तुम अपने मनो धर्म से चल रहे हो। कृष्ण धर्म के बारे में क्या? कृष्ण धर्म, मेरा धर्म। अर्जुन बोलते जा रहे है, बोलते जा रहे है- युद्ध नहीं करूंगा, युद्ध नहीं करूंगा। यही बातवे बारंबार कह रहे हैं अलग-अलग शब्दों में या वचनों में कह रहे है। हर बात के साथ वह भगवान के विरोध में कहो या भगवान से भिन्न, भगवान का जो दृष्टिकोण है। भगवान का जो लक्ष्य है।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 4.8)
अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
भागवत धर्म या कृष्ण धर्म की जो स्थापना करनी है उनको उन विचारों से, भगवान के विचारों से, भगवान के दृष्टिकोण से, भगवान के उद्देश्य से हर बार के साथअर्जुन हटते जा रहे हैं । अर्जुन तो सोच रहे होंगे कि मैं कितनी बड़ी बुद्धिमता की बात कर रहा हूं। इस बात को सुन कर के तो कृष्ण जरूर कहेंगे ओके ओके अर्जुन यू डोंट हैव टू फाइट, तुम्हें युद्ध करने की जरूरत नहीं है। क्या समय हुआ है चलो थोड़ा नाश्ता कर लेते। मॉर्निंग आवर्स है, लेकिन कृष्ण ऐसा होना नहीं देंगे। समझो जैसे कुछ दिन पहले किसी संवाद के अंतर्गत ग्यारहवें अध्याय में सब दिखाया है। करने वाला तो मैं ही हूँ। कर्ता कर्विता मराठी में कहते हैं कर्ता कर्विता। करने वाला, करवाने वाला तो मैं हूं। देखो मेरा विराट रूप, और देखो शत्रु सैन्य का क्या हाल हो रहा है? वे सभी मेरे मुख में प्रवेश कर रहे हैं। जलकर खाक राख हो रहे हैं । देख रहे हो ना, ऐसा ही होना है। इन लोगों का ऐसा ही भविष्य है। तुमको बस निमित्त बनना है।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भाव सव्यसाचिन् || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 11.33)
अनुवाद- अतःउठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकरसम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं औरहे सव्यसाची! तुम तो युद्ध मेंकेवल निमित्तमात्र हो सकते हो|
तुमको जो भी मैं दिखा रहा हूं इस विराट रूप में इस युद्ध का जो परिणाम है या भविष्य है। 18 दिनों के उपरांत ऐसे होगा देखो इस विराट रूप में विश्व रूप में। इस में कोई परिवर्तन नहीं होगा। युद्ध होकर ही रहेगा। तुम नहीं खेलोगे करोगे युद्ध तो कोई और खेलेगा लेकिन युद्ध तो होगा ही, लेकिन अच्छा है अर्जुन तुम ही तैयार हो जाओ।
इस पहले अध्याय के अंत में अर्जुन कह कह के थक गए, मैं युद्ध नहीं करूंगा कई सारे कारण बता रहे थे। वह रथ में बैठ ही गए।
सञ्जय उवाच
एवमुक्तवार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.46)
अनुवाद- संजय ने कहा – युद्ध भूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया और शोकसंतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया |
अर्जुन बैठ गए रथ में, युद्ध बैठकर होता है क्या? बैठकर तो बातें होती है। लेकिन फाइटिंग करनी होती है तो कोई बैठा होता है व्यक्ति तो कहते हैं उठाओ आ जाओ। फाइटिंग तो बैठकर नहीं होती है। किसी को थप्पड़ भी मारनी है तो यहाँ तो गोली चलेगी, तलवार चलेगी या बाण चलेंगे। अर्जुन बैठ गए मतलब यह सब कह-कह के अर्जुन तो थक गए। उनका जो सारा तर्क वितर्क लॉजिक रीजनिंग जो था सब ख़त्म हो चूका था। अब कुछ नहीं बचा अर्जुन बैठ गए। दूसरे अध्याय में अर्जुन का बहुत बुरा हाल हुआ है।
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् |
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 2.1)
अनुवाद- संजय ने कहा – करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे |
अर्जुन आंसू बहा रहे हैं। अर्जुन शोक से व्याकुल है। पूरी माया में है अर्जुन। सारे संसार भर का अहम और मम से प्रभावित हुए हैं अर्जुन। ऐसे अर्जुन को कृष्णा द्वितीय अध्याय के द्वितीय श्लोक में आप सब भी यह याद कर सकते हो समय-समय पर मैं बताता रहता हूं। यह अध्याय- यह श्लोक में यह कहा है। कृष्ण का गीता का जो प्रवचन जो है वह द्वितीय अध्याय के द्वितीय श्लोक से शुरू होता है पहले अध्याय में कृष्ण का कोई उपदेश है, कुछ कहा हैं। अब आपको याद होना चाहिए। हाँ हाँ एक छोटी सी पंक्ति कृष्ण ने कही है अध्याय पहला और श्लोक संख्या क्या श्लोक संख्या 25 वें श्लोक में कृष्णा ने कहा है उतनी ही बात ही कृष्ण पहले अध्याय में कृष्ण बोले हैं कहे हैं। और कृष्ण का गीता का उपदेश संदेश द्वितीय अध्याय के द्वितीय श्लोक से प्रारंभ होने वाला है। कृष्ण बोलना जब शुरू करते हैं तो अर्जुन ने तो शायद सोचा होगा कितनी बढ़िया-बढ़िया बातें मैंने कहीं। यह धर्म, वह धर्म उसका क्या होगा सामाजिक, पारिवारिक विचार और कृष्ण कहेंगे शाबाश, शाबाश अर्जुन मैं प्रसन्न हूं। ऐसी बुद्धिमता की तुमने बात की अर्जुन ने ऐसे सोचा होगा। लेकिन पता है कृष्ण क्या कह रहे हैं पहली बार जो कृष्ण का कमेंट है कृष्ण का अर्जुन के कही हुई बातें भगवत गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन बहुत बोले हैं। पहला अध्याय यह अर्जुन गीता है। पहले आधे अध्याय में तो अर्जुन का ही गीत है। अर्जुन कृष्ण को अपना संगीत सुना रहे हैं। इसको सुनकर कृष्ण अब कह रहे हैं –
श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्|
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन|| (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 2.2)
अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो| इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है|
अरे अरे यह कचरा विचार तुम्हारे मन कहां से आ रहे हैं। यह तो कूड़ा करकट है। यह नीच विचार है तुम जैसे आर्य को यह शोभा नहीं देते। ऐसी कुछ बातें तो सुनी है अर्जुन ने तो भी कुछ तो बातें सुनी एक आधा मिनट के लिए कृष्ण से बातें सुनी तो भी अर्जुन पहले तो रथ में बैठे थे और अब कह रहे है-
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 2.9)
अनुवाद- संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया | |
मैं युद्ध नहीं करूँगा। मैं युद्ध नहीं करूंगा ऐसा कह कर शांत हो गए। अब सीरियस बात, गंभीर बात प्रारंभ होगी भगवत गीता के द्वितीय अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से अब भगवान का उपदेश प्रारंभ होने वाला है। यह सब बातें सुनने के उपरांत अर्जुन कहने वाले हैं-
अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 18.73)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
आपके वचन या उपदेश के अनुसार में युद्ध करूंगा। आई एम रेडी। आपने जो उपदेश मुझे सुनाया, कृपा प्रसाद जो मुझे प्राप्त हुआ उससे मेरा मोह नष्ट हो गया। कृष्ण ने कहा अर्जुन ने वैसा ही देखा जिसके साथ मोह, माया, भ्रम उत्पन्न हुआ और गीता के अंत में पूरी गीता सुनने के उपरांत अर्जुन अब कहने वाले हैं अब मैं स्थिर हो गया हूं। पहले डावांडोल स्थिति चल रही थी अब आपके कहे आदेशानुसार युद्ध करने के लिए मैं तैयार हूं। आई एम रेडी। उन्होंने कहा अगर आप रेडी है तो फिर आगे बात करने की आवश्यकता नहीं है तुम तैयार नहीं थे इसीलिए मैं सुना रहा था अगर अब तुम रेडी हो तो वंडरफुल, स्वागत है। शुरू करो, फिर गीता जयंती गीता का जन्म तो हो गया मोक्षदा एकादशी के दिन गीता का जन्म हो गया। गीता जयंती और बातें तो हो गई, अर्जुन ने जैसे कहा है कर के दिखाना हैं, दिखेंगे ही। और शुरुआत हो गई। ओके तो ऐसे संदेश को हमें भी समझना चाहिए और फिर समझ कर औरोंको समझा सकते हैं। श्रील प्रभुपाद ने जैसे समझाया है “भगवत गीता यथारूप” में लोगों की समझ के लिए समझाने के लिए। भगवत गीता वितरण करना है। पूरा पैकेज देंगे हम कुछ तो कह सकते। हर समय तो हम नहीं समझा सकते हैं पूरी बात या हमारी समझाई हुई बात लोग भूल भी सकते है। उन्हें पुनः स्मरण कराने के लिए भगवत गीता है तो उन्हें पुनः भगवत गीता यथारूप याद दिलाएगी इसीलिए गीता का वितरण करते रहो। अब सुनते हैं कल आपने कैसे किया, कितनी गीता का वितरण किया। निताई गौर प्रेमानंदे मॉरीशस में कर रहे हो गीता का वितरण कुसुम सरोवर
हरि बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*05 -01-2022*
*भगवद्गीता से*
हरे कृष्ण !
आज 1040 स्थानों से भक्त इस जप में सम्मिलित हैं। मैं आपका वेलकम कर रहा हूं किंतु वेलकम तो मेरा ही हो रहा है हरि हरि !आप सभी का स्वागत है और फाइनली आप सबका वेलकम बैकुंठ में हो या गोलोक में हो, आपका स्वागत कृष्ण करेंगे और वे इस प्रतीक्षा में हैं की वे मिलेंगे और अन्य भक्त भी रहेंगे।
*सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।*
( श्रीमद भगवद्गीता 9.14)
अनुवाद – ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढ़ संकल्प के साथ प्रयास करते हुए मुझे नमस्कार करते हुये भक्ति भाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं।
मैं कुछ कुछ ऐसा सोच रहा था, भगवत गीता में भगवान ने कहा है जप के संबंध में कीर्तन के संबंध में । सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः मेरा सतत कीर्तन कीजिए जैसे “कीर्तनीय सदा हरि” चैतन्य महाप्रभु ने कहा है और श्रीकृष्ण ने भी कहा है। सततं कीर्तयन्तो माम , कीर्तन और कैसे करना है ? यतन्तश्च दृढव्रताः प्रयत्न पूर्वक जैसे उत्साह निश्चयात धैर्यात होता है उपदेशामृत में, यहाँ कृष्ण भी कह रहे हैं। जय श्री कृष्ण ! जय श्री कृष्ण ! कौन कह रहे हैं श्रीकृष्ण कह रहे हैं। जो हम भी कह रहे हैं। सततं कीर्तयन्तो मां, कीर्तन करें और कैसा करें, यतन्तश्च दृढव्रताः यत्न पूर्वक, प्रयत्न पूर्वक और दृढ़ श्रद्धा के साथ, यहाँ ऐसा कृष्ण ने कहा, फिर हमारी बारी आती है जैसा उन्होंने कहा वैसा हमें करना है। जिनको प्राप्त करना है वह बता रहे हैं। कैसे उनको प्राप्त किया जाए। पूरा सेमिनार तो नहीं दिया है लेकिन एक वाक्य ठीक है कीर्तन करने के लिए, आगे कृष्ण ने कहा है।
*धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 1.1)
अनुवाद- धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
यह दूसरा विचार है इसके संबंध में, गीता प्रारंभ होती है धृतराष्ट्र उवाच! के साथ और वे कहते हैं धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, बस केवल कुरुक्षेत्र कह सकते थे या हरियाणा में जो कुरुक्षेत्र है ऐसा कुछ कह सकते थे। हरियाणा को कहते हैं हरि का ,जहां आना हुआ , “हरियाणा ” तो हरियाणा में है “कुरुक्षेत्र “लेकिन उसको धर्म क्षेत्र क्यों कहा जानबूझकर या मजबूरी भी है। धृतराष्ट्र ने कहा, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे ऐसा युद्ध कहां हो रहा है कुरुक्षेत्र में हो रहा है लेकिन कैसे कुरुक्षेत्र में? धर्म क्षेत्र में , तो धृतराष्ट्र चिंतित हैं वैसे पूछ भी रहे ही हैं मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय, संजय! बता दो मेरे पुत्र और पांडु के पुत्र, ऐसा कहकर उन्होंने भेद भी देखा है “पंडिता समदर्शिना” नहीं हो रहा है। उनकी दृष्टि में दोष है, द्वंद है, मेरे पुत्र और पांडू के पुत्र इसी के साथ धृतराष्ट्र का परिचय भी होता है, पहचान होती है ऐसा भेदभाव करने वाले या पक्षपात करने वाले धृतराष्ट्र की और उनको चिंता है कुरुक्षेत्र, जो धर्म क्षेत्र है लेकिन मेरे पुत्र धार्मिक नहीं हैं। यह कुरुक्षेत्र का जो धर्म होना है या धर्म क्षेत्र है यह संभावना है कि यह मेरे पुत्रों के लिए अनुकूल नहीं है क्योंकि मेरे पुत्र धार्मिक नहीं है।
ऐसी उनके मन में शंका है संशय है और अपने पुत्रों को भी जानते हुए, कि दुर्योधन और दुशासन दुष्ट भी हैं। उनके पुत्रों के नाम भी देख लो कैसे हैं दुर्योधन ! दुशासन! अतः उनको यह कहना पड़ा कि यह धर्म क्षेत्र है। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे उन्होंने पूछा किमकुर्वत सञ्जय, संजय बता दो या वैसे रनिंग कमेंट्री चल रही है कुरुक्षेत्र का दृश्य संजय देख रहे हैं। वहां की बातों को सुन रहे हैं वहां के जो भी योद्धा हैं और कृष्ण अर्जुन भी हैं उनके मन के विचारों को भी वह समझ रहे हैं। अब अर्जुन क्या सोच रहा है और दुर्योधन का क्या विचार है यहां तक का ज्ञान हो रहा था संजय को, उनके विचारों को भी सुना रहे थे राजा धृतराष्ट्र को , कि वे ऐसा सोच रहे हैं या वैसा सोच रहे हैं अब यह हो रहा है अब वह हो रहा है। प्रश्न पूछा जा रहा है किम कुर्वत ? क्या क्या हुआ इस युद्ध में, युद्ध में क्या होना होता है। जीत होती है या हार होती है दोनों में से एक होता है। उनके प्रश्न पूछने के पीछे का हेतु क्या है कि मेरे पुत्रों की जीत हो रही है कि नहीं और दुर्देव से कुरुक्षेत्र युद्ध क्षेत्र है वहां युद्ध हो रहा है। इंडिया-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच अगर रावलपिंडी में हो रहा है तो भारतीय थोड़ा चिंतित होते हैं और वहां के खिलाड़ी (पाकिस्तान के) इंडिया में खेल रहे हैं तब उन्हें चिंता होती है। अतः इस प्रश्न का उत्तर गीता के पहले श्लोक में जो प्रश्न पूछा है उसका उत्तर गीता के अंतिम श्लोक में है। पहले श्लोक में प्रश्न पूछा है किसकी जीत हार हो रही है बताओ संजय ? संजय उवाच, संजय ने कहा,
*यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: |तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥*
(श्रीमद भगवद्गीता 18.78)
अनुवाद – हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीं पर ऐश्वर्य , अलौकिक शक्ति, तथा नीति भी निश्चित रहती है- ऐसा मेरा मत है।
अर्थात जहां कौन-कौन है? अर्जुन और कृष्ण की जोड़ी जहां है, भगवान और उनके भक्त जिस पक्ष में हैं तत्र मतलब वहां , श्रीर्विजयो विजय, अर्जुन विजयी होंगे, ऐसा कोई 45 मिनटों के अंदर या अंत में, कृष्ण का उत्तर दिया जा रहा है। अर्थात 45 मिनट तक यह संवाद चलता रहा और युद्ध अभी शुरू भी नहीं हुआ है और संजय पहले ही कह रहे हैं कि उनकी जीत होने वाली है। क्योंकि वह जानते हैं ऐसा ही होता है, जब खुदा मंजूरे होता है या वैसे कृष्ण ने दिखाया भी ( इन द मीन टाइम) उस विश्वरूप में दिखाया क्या हाल हो रहा है शत्रु के सैन्य का ,वैसे कहां भी कि तुम पांडव तो बचोगे बाकी सब फिनिश,
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
विनाशाय च दुष्कृताम्, मै विनाश करूंगा संभवामि युगे युगे, मैं प्रकट होता हूं। यह भी दिखाया है इस युद्ध का भविष्य या परिणाम विश्वरूप में दिखाया ही है और फिर संजय कह भी रहे हैं संजय बड़े अनुभवी हैं। एक्सपीरियंसड रियलाइजड , क्योंकि वे जानते हैं “यतो धर्मा ततो जया” एक सिद्धांत है। जहां धर्म है वहां जीत है। यता तत: जहां धर्म वहां जीत, विजय, बड़ी प्रसिद्ध है महाभारत की, अर्जुन जो कृष्ण भक्त हैं येषाम पक्षे जनार्दनः जिस पक्ष में जनार्दन है उस पक्ष की जीत होती है। आप किस पक्ष को पसंद करोगे अगर जीत चाहते हो और कोई पराजय चाहता है, अभी तक तो हम किसी को भी नहीं मिले जो पराजय चाहता हो। अर्थात वही जीतेगा जो कृष्ण के पक्ष में होगा। इसीलिए हम कभी-कभी कहते हैं और आज भी कह रहे हैं वोट फॉर….. कृष्ण ! वोट फॉर…… कृष्ण! , एमपी को या उस एमएलए को आप अपना मत दो जो कृष्ण भक्त हैं। वे आपके द्वार पर आते हैं ना , मत मांगने के लिए, गीता के अंत में गीता की शुरुआत , धृतराष्ट्र उवाच से है और गीता के समापन या उसको संहार भी कहते हैं संजय उवाच से है। अंतिम चार पांच वचन संजय के ही हैं। अब यह कॉन्क्लूज़न होगा कनक्लूडिंग स्टेटमेंट संजय के हैं। उसमें अपनी इमानदारी से, ऑनेस्टी इस द बेस्ट पॉलिसी लोग कहते हैं। उन्होंने कहा,
*व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्रामहं परम् । योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम् ।।*
(श्रीमद भगवद्गीता 18.75)
अनुवाद – व्यासजी की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनी।
मैं जो भी सुन रहा हूं देख रहा हूं यह कैसे संभव हो रहा है? व्यासप्रसादाद यह कोई मेरी स्वयं की क्षमता, मैं किसी के ऊपर निर्भर नहीं हूं। आई एम इंडिपेंडेंट, ऐसी बात नहीं है। संजय बता रहे हैं यह संभव हो पाया मेरा देखना, सुनना और समझना, कुरुक्षेत्र का जो दृश्य है या जो भी घटनाक्रम हो रहा है व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्रामहं , इसको कैसे समझें ? महाभारत में समझाया है उन दिनों में व्यास देव, वह भी महाभारत के एक पात्र थे। एक व्यक्तित्व है उन दिनों में महाभारत का जो काल है इतिहास ही है। श्रील व्यास देव वहां प्रकट हुए हैं और इस महाभारत के इतिहास हिस्टोरियन स्वयं भगवान हैं “व्यास देव” जो कि शक्त्यावेश अवतार है।
उन्होंने महाभारत लिखा उन्होंने ही वैसे भगवद्गीता भी लिखी (भगवत गीता कहने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं ) लेकिन, लिखने वाले कौन हैं, ऐसा नहीं है कि कोई सेक्रेटरी ने टाइपिंग किया उसका लेखक सेक्रेटरी नहीं होगा। हम भी कुछ पत्र डिक्टेशन देते हैं तब हमारे सेक्रेटरी का नाम नहीं आता है। यहाँ गणेश जी ने कुछ सेवा की गणेश गुफा में बैठकर, व्यास गुफा में व्यास ने , फिर व्यास देव गए थे धृतराष्ट्र से मिले थे उन्होंने प्रस्ताव रखा था कि आप चाहोगे तो मैं आपको दृष्टि दे सकता हूं क्योंकि वह अंधे थे जन्मांध थे ताकि कुरुक्षेत्र में जो घटनाक्रम घटने वाला है वह आप स्वयं देख सकते हो, आपको दृष्टि दे दूं मैं, किन्तु धृतराष्ट्र ने साफ इनकार किया नहीं ! नहीं ! क्योंकि वह जानते थे मेरे पुत्रों का क्या हाल होना है। यह कृष्ण ही क्या हाल करेंगे। “विनाशाय च दुष्कृतम्” इनका जॉब डिस्क्रिप्शन है ऐसा करते हैं और मेरे पुत्र दुष्ट हैं। इसलिए मैं अपनी आंखों से मेरे पुत्रों का संहार होते हुए विनाश होते हुए नहीं देखना चाहता हूं। नहीं नहीं मुझे आंखें मत दीजिए , मुझे अंधा ही रहने दीजिए। जब धृतराष्ट्र ने इनकार किया वह दृष्टि नहीं चाहते थे देखना नहीं चाहते थे तब श्रील व्यास देव ने विशेष कृपा और कृपा दृष्टि या ऐसी दृष्टि संजय को दी। धृतराष्ट्र के इनकार करने के उपरांत संजय जो धृतराष्ट्र के सचिव मंत्री रहे उन दिनों में व्यास देव ने उनको यह सारी देखने की सुनने की समझने की क्षमता दी, दूरदर्शन दिया, दूर से ही दृश्य देखने की क्षमता संजय को प्राप्त हुई।
श्रील व्यास देव ने दी थी ऐसी क्षमता ऐसी सामर्थ्य, इसीलिए यहां संजय भगवत गीता के अंतिम कुछ श्लोकों में, व्यासप्रसादाच्छुतवान, व्यास देव के प्रसाद से मैंने सुना, मैंने गीता सुनी। अर्जुन सुन रहे थे गीता और वैसे वहां एक वृक्ष भी था “अक्षय वट” उसने भी सुना वह भी अक्षय हुआ अमर हुआ और आज भी है और तीसरे है संजय वैसे कह सकते हैं कि तीन पार्टी सुन रही थी। तीसरे संजय और साथ में यह भी कह रहे हैं।
“तद्गुह्रामहं परम्योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम्” पहले कहा व्यास प्रसादाद व्यास देव की कृपा से मैं इस भगवत गीता के वचन जो की गुह्य भी है गोपनीय भी है “तद्गुह्रामहं परम्योगं यह योग का शास्त्र है। भगवत गीता योगेश्वर आत किस से सुना, सुना तो गया व्यास देव की कृपा से लेकिन मैं सुन रहा था कृष्ण को योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात कितने शब्दों का उपयोग किया है। इसी के साथ यह कन्फर्मेशन हो रहा है गीता किसने कही भगवान उवाच और उस पर संजय भी अपना स्टैंप मार रहे हैं। यस ! यस !
श्री भगवान उवाच, क्योंकि मैंने यह भगवत गीता सुनी योगेश्वर से, कृष्ण के मुखारविंद से तो उनको नाम भी दे रहे हैं और साक्षात श्री कृष्ण से मैंने यह गीता का संदेश उपदेश सुना है। पूछते ही रहते हैं कृष्ण अर्जुन का संवाद तो हुआ पुराने जमाने में, ऐसे सेक्रेटरी स्टेनोग्राफर हुआ करते थे, शॉर्टहैंड फटाफट लिखते थे। ऐसा कोई था क्या ? कृष्ण अर्जुन बोल रहे थे और उस वक्त आजकल के टेप रिकॉर्ड तो थे नहीं, ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछेगा लेकिन वहां पर तो कोई था नहीं, तब वैसे संवाद ज्यूँ के त्युं एज इट इज़ ,रिकॉर्डिंग कैसे हुआ ? अरे भाई व्यास की कृपा से, यदि संजय सुन सकते हैं तो फिर स्वयं व्यास देव को क्या परेशानी है। उस समय जहां भी थे उन्होंने भी सुनी होगी कि नहीं और वह श्रुतिधर, एक एक अक्षर, एक एक शब्द, एक एक वाक्य उन्होंने जो जो सुना वैसा रिप्रोडक्शन उसको रिपीट करना उनके लिए कोई कठिनाई नहीं है। यह तो श्रुतिधर् मनुष्य भी करते रहे हैं। गुरु परंपरा प्राप्त श्रील व्यास देव ने भी सुना उस संवाद को, संदेश को, उपदेश को और उन्होंने महाभारत के बीच में या महाभारत में , भगवत गीता का भी समावेश किया। महाभारत के भीष्म पर्व के 18 अध्याय हैं। अठारह पदों में से एक पर्व है “भीष्म पर्व ” उसके यह अध्याय शायद 25 से लेकर 42 तक, वैसे और भी इस पर्व में अध्याय हैं। उसमें से 18 अध्याय भगवत गीता महाभारत के हैं हरि हरि !
*तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: । विस्मयो मे महाराजन्हृष्यामि च पुन: पुन: ।।*
(श्रीमद भगवद्गीता 18.77)
अनुवाद – हे राजन् ! भगवान् कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मै अधिकाधिक आश्र्चर्य चकित होता हूँ और पुनः पुनः हो रहा हूँ।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे , कृष्ण अर्जुन का संवाद उनको समापन के बाद भी ध्वनित हो ही रहा है। उसको सुन ही रहे हैं उसका स्मरण कर रहे हैं या जैसे वह सुन रहे हैं उसी के साथ उनको संस्मृत्य संस्मृत्य स्मरण कर कर के, उसका परिणाम क्या ? रूपमत्यद्भुतं हरे: भगवान के अद्भुत रूप का उनको दर्शन हो रहा है। गीता के वचन स्मरण दिला रहे हैं दर्शन दिला रहे हैं गीता की जो वक्ता कृष्ण हैं, उन के मुखारविंद से यह वाणी निकली, उस रूप का उनको स्मरण हो रहा है और यह भी लक्ष्य है भगवान के रूप का, दर्शन या गीता श्रवण, कीर्तन प्रचार , प्रसार यह जो भगवत गीता का वितरण कर रहे हैं जब गीता पढ़ेंगे तब उनको दर्शन होगा और अन्य लोगों को भी जीवन में, भगवान का दर्शन हो, उसके लिए गीता लो और गीता पढ़ो ऐसा निवेदन आप सभी कर रहे हो और करते रहिए।
गौर प्रेमानंदे !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
4 जनवरी 2022
हरे कृष्ण,
आज 1042 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। आप सभी का स्वागत है। यद्यपि मैं आपका स्वागत कर रहा हूं परंतु वास्तव में यहां मेरा स्वागत हो रहा है। तो एक बार पुनः आप सभी का इस कॉन्फ्रेंस में स्वागत है। अंततः आप सभी का स्वागत वैकुंठ अथवा गोलोकधाम में हो ऐसी हम प्रार्थना करते हैं। भगवान श्री कृष्ण आप सभी का स्वागत करने की प्रतीक्षा में है। कृष्ण आप सभी को मिलेंगे। वहां भगवान श्रीकृष्ण होंगे और उनके भक्त भी होंगे।
*“सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्र्च दृढव्रताः |*
*नमस्यन्तश्र्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ||* भगवद गीता ९.१४ ||”
अनुवाद
ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं|
मैं सोच रहा था कि क्या भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जप या कीर्तन के विषय में कुछ कहा है? इसका उत्तर है हां भगवान श्री कृष्ण ने कीर्तन के विषय में कहा है : सततम् कीर्तयंतो माम अर्थात् मेरा कीर्तन करो। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी कीर्तन के विषय में कहा है : कीर्तनीय सदा हरी ।
*तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना।*
*अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः* ॥ चैतन्यचरितामृत आदिलीला 17.31॥
अनुवाद
जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है।
और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दसरों को सम्मान देने के लिए सदा
तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।”
तथा यहां पर भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं मेरा सतत अथवा निरंतर कीर्तन करो और यह कीर्तन दृढ़तापूर्वक करो। उपदेशामृत में श्रील रूप गोस्वामी बताते हैं उत्साहात निश्चयात धैर्यात अर्थात् एक भक्त को सदैव उत्साही तथा भगवान में विश्वास रखना चाहिए ।
*उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् ।*
*सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति* ॥ श्रीउपदेशामृत श्लोक ३ ॥
अनुवाद
भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना
शुद्ध
(२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कम
करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्–कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना)
(५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये
छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
यहां भगवान श्री कृष्ण ने भी यही कहा है। ऐसा किसने कहा है? जय श्री कृष्ण! जय श्री कृष्ण! भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में इस प्रकार कह रहे हैं।
भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में क्या कह रहे हैं? भगवान कहते हैं सततम् कीर्तयंतो : मेरा निरंतर कीर्तन करो और यह कीर्तन प्रयत्न पूर्वक अथवा दृढ़ श्रद्धा के साथ करना चाहिए ऐसा भगवान श्री कृष्ण ने कहा है। अब हमारी बारी है । हमें भी वैसे ही कहना है जैसे भगवान ने कहा है। भगवान बता रहे हैं कि उन्हें किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है इसलिए यदि हम भगवान की प्राप्ति करना चाहे तो हमें वैसे करना होगा जैसे भगवान श्री कृष्ण ने कहा है। भगवान ने यहां पर पूरा सेमिनार तो नहीं दिया है परंतु यह वाक्य कहा है और यह वाक्य अपने आप में पूर्ण है कि भगवत प्राप्ति के लिए भगवान का कीर्तन करना चाहिए। एक अन्य विचार भी है कि भगवद गीता का प्रारंभ इस श्लोक से होता है :
*धृतराष्ट्र उवाच*
*धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |*
*मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय* || भगवद गीता १.१ ||
अनुवाद
धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
धृतराष्ट्र भगवत गीता के प्रारंभ में यह प्रश्न करते हैं कि धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया। यहां कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा गया है। धृतराष्ट्र धर्मक्षेत्र की जगह केवल कुरुक्षेत्र भी कह सकते थे। परंतु उन्होंने धर्मक्षेत्र कहा , यह विशेष बात है। कुरुक्षेत्र धाम हरियाणा में स्थित है हरियाणा अर्थात जहां हुआ हरि का आना वह स्थान बना हरियाणा । इस कुरुक्षेत्र को धर्म क्षेत्र क्यों कहा गया है ? यह बात धृतराष्ट्र ने जानबूझकर या अपनी चिंतित अवस्था के कारण कही है। वह चिंतित हो रहे है और पूछ रहे हैं युद्ध हो रहा है कुरुक्षेत्र में यह कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र है और इसीलिए धृतराष्ट्र चिंतित है और संजय से पूछ रहे हैं *मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय* मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया । इस प्रकार धृतराष्ट्र अपने पुत्रों तथा पांडु के पुत्रों में भेद कर रहे हैं।
इस प्रकार धृतराष्ट्र अपने तथा अपने छोटे भाई के पुत्रों के मध्य भेद भाव अथवा पक्षपात कर रहे हैं। *पंडिता: समदर्शीन:* होना चाहिए परंतु धृतराष्ट्र पंडित नहीं है इसलिए वह समदर्शी भी नहीं है। यहां उनकी दृष्टि में भेद है। यह धृतराष्ट्र का परिचय अथवा उनकी पहचान है कि वह पक्षपात अथवा भेदभाव करने वाले हैं। यही धृतराष्ट्र अत्यंत चिंतित भी है क्योंकि यह युद्ध कुरुक्षेत्र में हो रहा है और कुरुक्षेत्र धर्म क्षेत्र है। धृतराष्ट्र जानते हैं कि मेरे पुत्र धार्मिक नहीं है और यह युद्ध क्षेत्र धर्मक्षेत्र है जो मेरे अधार्मिक पुत्रों के लिए अनुकूल नहीं है। यह संशय धृतराष्ट्र के मन में है इसलिए वह चिंतित है। उनके पुत्र भी अत्यंत दुष्ट हैं तथा उनके नाम भी ऐसे ही हैं यथा दुर्योधन दु:शासन आदि। इसलिए धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र कहकर धृतराष्ट्र संजय से पूछ रहे हैं कि संजय मुझे बताओ मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया। यह कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध की लाइव कमेंट्री है। संजय युद्ध स्थल में जो कुछ घटित हो रहा है उसे देख रहे हैं। वह सभी योद्धाओं, कृष्ण , अर्जुन के मन की बात को समझ रहे हैं। अर्जुन के मन में या दुर्योधन के मन में क्या विचार है यह सब बातें संजय धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं। संजय को किसी के मन का विचार जानने तक का ज्ञान प्रदान कर दिया गया था।
यहां पर धृतराष्ट्र यह प्रश्न पूछ रहे हैं कि किम कुर्वत अर्थात वहां क्या-क्या हुआ? युद्ध में क्या होता है एक पक्ष की होती है जीत दूसरे की होती है हार। यहां पूछे गए प्रश्न के पीछे हेतु यह है कि धृतराष्ट्र यह जानना चाह रहे हैं कि मेरे पुत्रों की जीत हुई है या नहीं हुई। धृतराष्ट्र इस विषय में शंका ग्रस्त हैं क्योंकि दुर्दैव से यह कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र है और यहीं पर युद्ध हो रहा है। यदि भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच रावलपिंडी में हो रहा हो तो भारतीय खिलाड़ियों को चिंता होती है। जब भारत में खेल रहे होते है तो पाकिस्तान के खिलाड़ियों को चिंता होती है |
जो प्रश्न गीता के पहले श्लोक मे पूछे गये है, उनके उत्तर गीता के अन्तिम श्लोक मे हैं |
पहले श्लोक में प्रश्न पूछा गया है कि संजय बताओ — किसकी जीत हार हो रही है |
फिर संजय ने कहा —
*भगवतगीता* 18.78
“यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ७८ ||”
अनुवाद
जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
यहाँ कौन कौन है?
यत्र यानि जहाँ | जहाँ अर्जुन और कृष्ण की जोड़ी है, भगवान और भगवान के भक्त जिस पक्ष में है, तत्र अर्थात वहाँ पर श्री यानि वैभव और विजय होगी |अर्जुन विजयी होंगे | 45 मिनट के अंदर या 45 मिनट के अंत मे इस प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है |45 मिनट तक यह संवाद चलता रहा | युद्ध तो अभी शुरू भी नहीं हुआ है और संजय पहले ही कह रहे हैं कि किसकी जीत होने वाली है क्योकि वे जानते हैं कि वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है | उन्हें कृष्ण ने विश्वरुप भी दिखाया | संजय ने देखा कि शत्रु के सैन्य का क्या हाल हो रहा था | कृष्ण वैसे कहे भी हैं कि पांडव केवल तुम बचोगे बाकि सबका अंत हो जायेगा |
*भगवतगीता* 4.8
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||”
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
भगवान ने कहा कि मैं विनाश करूंगा इसलिए ही मैं प्रकट होता हूँ |
भगवान ने संभवामि युगे युगे भी दिखाया है | इस युद्ध का भविष्य या परिणाम विश्वरूप में दिखाये है और संजय कह भी रहे हैं क्योंकि संजय बड़े अनुभवी हैं, वे जानते हैं |
यतो धर्मः ततो जयः (या, यतो धर्मस्ततो जयः)
“जहाँ धर्म है वहाँ जय (जीत) है।” *महाभारत*
यह एक सिद्धांत है — जहां धर्म है वहा जीत है, यतः यानि जहा, ततः यानि वहा |
*भगवतगीता* 18.78
“यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ७८ ||”
अनुवाद
जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
ये बात तो महाभारत की बड़ी प्रसिद्ध है कि जिस पक्ष में कृष्ण है, अर्जुन जैसे कृष्ण भक्त हैं, जिस पक्ष में स्वयं जनार्दन है, उस पक्ष की जीत होती है |
अगर जीत चाहते हो तो आप किस पक्ष को पसंद करोगे?
कोई क्या पराजय चाहता है?
अभी तक तो मैं किसी से नहीं मिला जो पराजय चाहता है | वही जीतेगा जो कृष्ण के पक्ष में होगा | इसलिए मैं कभी-कभी कहता हूँ आज भी कहता हुँ |
आपल्या मत कोणार?
वोट फॉर कृष्णा
वोट फॉर कृष्णा
वोट फॉर कृष्ण या कृष्ण भक्त |
या उस MP या MLA को अपना मत दो जो कृष्ण भक्त है |
आपके द्वार पर आते हैं ना मत मांगने के लिए? गीता की शुरुआत तो धृतराष्ट्र उवाच से है | गीता का समापन, जिसे उपसंघार भी कहते हैं, संजय उवाच से है | अंतिम चार – पाँच वचन या श्लोक संजय के ही है, अब यह सारांश होगा, concluding statement संजय के हैं | उसने अपनी इमानदारी से कहा —
Honesty is the best policy.
*भगवतगीता* 18.75
“व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्र्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् || ७५ ||”
अनुवाद
व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात् योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं ।
18 वे अध्याय में संजय कुछ विशेष बात कह रहे हैं — व्यास प्रसादात श्रुतवान |
श्रुतवान या दृष्टमान भी कह सकते हैं | संजय ने कहा कि मैं जो भी सुन रहा हूँ , देख रहा हूँ, यह कैसे संभव हो रहा है?
व्यास देव के प्रसाद से |
यह कोई मेरी स्वयं की क्षमता, स्वतंत्र क्षमता की बात नहीं है | ऐसी बात भी नहीं हैं कि मैं किसी पर निर्भर नहीं हूँ| संजय बता रहे हैं कि मेरा कुरुक्षेत्र का घटनाक्रम देखना और सुनना संभव हो पा रहा हैं जो भी मैंने देखा मैंने सुना | कैसे?
व्यास प्रसादात श्रुतवान |
इसको कैसे समझे?
महाभारत में समझाया है कि इन दिनों में व्यास देव थे, स्वयं व्यास देव थे, वो भी महाभारत के एक पात्र हैं, एक व्यक्तित्व है जो उन दिनों महाभारत के काल मे थे |महाभारत एक इतिहास है | श्रील व्यास देव वहां प्रकट हुए हैं | इस महाभारत इतिहास के इतिहासकार स्वयं भगवान है | व्यास देव जो है वे भगवान के साकत्यावेश अवतार हैं |
उन्होंने महाभारत लिखा और उन्होंने ही भगवत गीता लिखी और भगवत गीता कहने वाले भगवान श्री कृष्ण हैं |
लिखने वाले कौन है?
किसी सचिव ने टाइपिंग की हो तो वो लेखक नहीं हो जाता | हमारे सचिव का नाम लेखक के स्थान पर नहीं आता है | तो गणेश जी ने गणेश गुफा में बैठकर और व्यास देव ने व्यास गुफा में बैठकर कुछ सेवा की |
श्रील व्यास देव धृतराष्ट्र से मिलने गए थे और उन्होंने प्रस्ताव रखा था कि आप चाहोगे तो मैं आपको दृष्टि दे सकता हूँ क्योंकि वे अंधे थे, जन्मांध थे ताकि आप कुरुक्षेत्र में जो घटना क्रम घटने वाला है उसे आप स्वयं देख सकते हो |
क्या आपको मैं दृष्टि दे दूं?
धृतराष्ट्र ने साफ इंकार कर दिया नहीं नहीं नहीं नहीं क्योंकि वैसे वे जानते थे कि मेरे पुत्रों का क्या हाल होना है या ये कृष्ण ही क्या हाल करेंगे |
*भगवतगीता* 4.8
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||”
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
विनशाय चतुस्कृताम इनका कार्य है, भगवान कृष्ण ऐसा ही करते हैं और मेरे पुत्र दुष्ट हैं तो मैं अपनी आँखों से अपने पुत्रों का संहार होते हुए, विनाश होते हुए नहीं देखना चाहता हूँ | नहीं नहीं मुझे आंखें मत दीजिए मुझे अंधा ही रहने दीजिए |
तो जब धृतराष्ट्र इंकार किए, वे दृष्टि नहीं चाहते थे, वे युद्ध देखना नहीं चाहते थे तो श्रील व्यासदेव अपनी विशेष कृपा से कृपा दृष्टि एवं दिव्य दृष्टि संजय को दे दिये | धृतराष्ट्र के इनकार करने के बाद संजय, जो धृतराष्ट्र के सचिव या मंत्री उन दिनों मे रहे, व्यास देव उनको यह सारी देखने की सुनने की समझने की क्षमता दिए, दूरदर्शन या दूर से दृश्य देखने की क्षमता संजय को प्राप्त हुई |
यह क्षमता, शक्ति, सामर्थ्य श्रील व्यास देव दिये थे, इसीलिए संजय गीता के अंतिम कुछ श्लोको में कह रहे हैं — “व्यास प्रसादात श्रुतवान” श्रील व्यास देव की कृपा से |
एक तो अर्जुन गीता सुन रहे थे और वैसे वहां एक वृक्ष भी था वट वृक्ष अक्षय वट वो भी सुना वह भी अक्षय हुआ अमर हुआ आज भी है और तीसरे हैं संजय |
कह सकते हैं कि तीन पार्टी सुन रही थी |
संजय का सुनना संभव कैसे हुआ?
व्यास की कृपा से |
साथ में यह भी कह रहे हैं कि
*भगवतगीता* 18.75
“व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्र्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् || ७५ ||”
अनुवाद
व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात् योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं ।
पहले तो कहे कि व्यास की कृपा से मैंने यह भगवत गीता के वचन सुने | यह गुह्य भी है और गोपनीय भी है | भगवत गीता योग का शास्त्र है |
किससे सुना?
सुना तो गया व्यास देव की कृपा से लेकिन मैं कृष्ण को सुन रहा था | योगेश्वरात कृष्णात साक्षात | कितने शब्दों का उपयोग किया है | इसी के साथ यह प्रमाणित हो रहा है कि गीता किसने कही |
गीता मे भगवान उवाच भगवान उवाच तो है ही और उस पर संजय अपनी मुहर लगा रहे हैं कि मैंने यह भगवत गीता योगेश्वर से सुनी, योगेश्वर के मुखारविंद से सुनी, कृष्णात कृष्ण से सुनी, उनको नाम भी दे रहे हैं और साक्षात साक्षात श्री कृष्ण से मैंने यह गीता का संदेश उपदेश सुना है तो लोग पूछते रहते हैं कृष्ण अर्जुन का संवाद तो हुआ, वहां कोई लिखने वाला तो नहीं था |
क्या पुराने जमाने में ऐसे सचिव हुआ करते थे जो शॉर्ट हैंड फटाफट लिखते थे?
ऐसा कोई कुरुक्षेत्र में था क्या?
कृष्ण अर्जुन बोल रहे थे उस वक्त कोई वहाँ था क्या?
क्योंकि आजकल के टेप रिकॉर्डर तो थे ही नहीं, ऐसा कोई प्रश्न तो नहीं पूछेगा|
लेकिन वहां तो कोई था नहीं तो यह संवाद ज्यों के त्यों कैसे रिकॉडेड हुआ?
अरे भाई अगर व्यास की कृपा से यह भगवत गीता का संवाद संजय सुन सकते हैं, तो फिर स्वयं व्यास देव को क्या समस्या है, वे उस समय जहां भी थे उन्होंने वहीं से सुनी होगी |
और वे श्रुतिधर थे, एक एक अक्षर एक एक शब्द एक एक वाक्य उन्होंने जो जो सुना उनको दोहराना उनके लिए कोई कठिनाई नहीं है, यह तो साधारण श्रुतिधर मनुष्य भी करते हैं, करते रहे हैं “एवं परंपरा प्राप्तम”
तो फिर व्यास देव भी उस संवाद को संदेश उपदेश को सुने और उन्होंने महाभारत के बीच में भगवत गीता का भी समावेश किया | महाभारत के भीष्म पर्व का 18 अध्याय है, 18 पर्व में से एक पर्व है भीष्म पर्व, 25 से लेकर 42 तक और उसमें से ही 18 अध्याय भगवत गीता है |
*भगवतगीता* 18.77
” तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: |
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः || ७७ ||”
अनुवाद
हे राजन्! भगवान् कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मैं अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुनःपुनः हर्षित होता हूँ |
संजय ने यह भी कहा है कि कृष्ण अर्जुन के संवाद के समापन के उपरांत भी यह ज्ञान ध्वनित तो हो ही रहा है, वे सुन हीं रहे हैं, ऐसा स्मरण कर रहे हैं |
वे संवाद का स्मरण कर करके उसके परिणामस्वरुप भगवान के अद्भुत रूप का दर्शन कर रहे हैं |
गीता के वचन स्मरण दिला रहे हैं, कृष्ण का दर्शन दिला रहे हैं, वक्ता का दर्शन दिला रहे हैं, गीता के वक्ता कृष्ण है, उनके मुखारविंद से ही यह वाणी निकली तो उस रूप का इनको स्मरण हो रहा है | यह भी लक्ष्य है भगवान के रूप का दर्शन या गीता श्रवण कीर्तन प्रचार प्रसार |
10.29.27
श्रवणाद्दर्शनाद्ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात् । न तथा सन्निकर्षण प्रतियात ततो गृहान् ॥ २७ ।।
मेरे विषय में सुनने , मेरे अर्चाविग्रह रूप का दर्शन करने , मेरा ध्यान करने तथा मेरी महिमा का श्रद्धापूर्वक कीर्तन करने की भक्तिमयी विधियों से मेरे प्रति दिव्य प्रेम उत्पन्न होता है । केवल शारीरिक सान्निध्य से वैसा ही फल प्राप्त नहीं होता । अतः तुम लोग अपने घरों को लौट जाओ ।
जो लोग गीता का वितरण कर रहे हैं, गीता पढ़ेंगे तो उनको दर्शन होगा, लोगों को जीवो को भगवान का दर्शन हो इसीलिए गीता लो और गीता पढ़ो ऐसा निवेदन आप सभी कर रहे हो करते रहिये |
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जप चर्चा,
श्री श्री राधारास बिहारी मंदिर जुहू,
03 जनवरी 2022
*गीता मेरथन*
हरि हरि।आज 1049 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हरि हरि।
मैं जुहू मुंबई में हरे कृष्णा लैंड पहुंच चुका हूं और यहां मेरा स्वागत हो रहा हैं। मेरे अपने घर में मेरा स्वागत हो रहा हैं। एक दृष्टि से मेरा जन्म यहीं इस हरे कृष्णा लैंड में हुआ हैं।यहां मेरी जान में जान आ गई और यहीं पर मेरा लालन-पालन भी हुआ।हरे कृष्ण लैंड की जय। राधा रास बिहारी की जय। यहां आकर मुझे बचपन की बातें याद आ रही हैं। अभी तो नहीं बता पाऊंगा क्योंकि अभी मुझे और बहुत कुछ बताना हैं, किंतु 50 वर्ष पूर्व की यादें तो आ ही रहे हैं।प्रभुपाद की भी बहुत याद आ रही हैं और सभी भक्त भी बहुत याद आ रहे हैं।राधा रासबिहारी की बहुत याद आती हैं, जिनकी आज सुबह मैंने मंगल आरती उतारी हैं। जय जगदीश हरे। इन्हीं राधा रास बिहारी का श्रील प्रभुपाद ने मुझे मुख्य पुजारी बनाया था और कुछ सालों तक मैं इन विग्रहो की आराधना करता था।
श्री-विग्रहाराधन-नित्य-नाना-
शृङ्गार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ
( श्रीमद्-गुरोर् अष्टकम्)
उनका श्रृंगार भी करता था। जो भी सेवा मिलती थी, वह करता तो था। भगवान के लिए भोग बनाने की सेवा भी करता था। यह मुझे आता तो नहीं था,ना ही अभी आता हैं, लेकिन कभी कोई शिकायत तो नहीं सुनने को मिली। भगवान ने उन सभी भोगों को स्वीकार किया जो भी मैं उन्हें बनाकर खिलाता था। हरि हरि।तो श्री राधा रासबिहारी आज भी हैं और हमेशा रहेंगे।यह हरे कृष्णा लैंड एक धाम बन गया हैं। यह हरे कृष्णा लैंड मुंबई में नहीं हैं। श्रीमद्भगवद्गीता की जय। जब तक मैराथन का समय हैं, हम गीता का संस्मरण करते रहेंगे। वैसे मैं यहा पहुंच तो कल ही गया था, लेकिन आज जब मंगल आरती के बाद मैंने यहां के पुस्तक वितरण के स्कोर सुने तो मुझे संस्मरण आया कि वास्तव में मैराथन होता क्या हैं।जैसा पुस्तक वितरण यह हरे कृष्ण लैंड के भक्त कर रहे हैं या थाने के भक्त भी मिलकर कर रहे हैं, इसे कहते हैं मैराथन और फिर राधा रासबिहारी ,श्रील प्रभुपाद और सभी भक्त वृंद की प्रसन्नता के लिए स्कोर बताए गए। पता हैं कुल मिलाकर कितना था?लगभग 3000 से ज्यादा पुस्तकों का कल- कल में वितरण हुआ हैं। यह केवल 1 दिन का स्कोर हैं। वैसे इस प्रकार भगवद्गीता का वितरण आप लोग भी कर रहे हो। मॉरीशस में भी पुस्तक वितरण हो रहा हैं, मंगोलिया में भी होता होगा,यहां मंगोलिया के भक्त भी उपस्थित हैं और बर्मा और नेपाल में भी हो रहा हैं.. आदि आदि और भी कई जगह के भक्त जप कर रहे हैं, जैसे ऑस्ट्रेलिया के… सभी जगहों पर ही पुस्तक वितरण हो रहा हैं। इन सभी जगहों के लोग इस जप चर्चा में उपस्थित हैं। तो इन जगहों पर भी पुस्तक वितरण हो ही रहा होगा। तो इसीलिए भगवान की प्रशंसा के लिए आइए हम अधिक से अधिक ग्रंथों का वितरण करते हैं। यह गीता जिसका आज वितरण हो रहा हैं, वह आज नहीं तो कल कभी ना कभी जरूर पढ़ी जाएगी। इसीलिए श्रील प्रभुपाद की भगवद्गीता को हम टाइम बोम कहते हैं। बोम भी तुरंत तो नहीं फटता हैं, उसका एक समय होता हैं। जिस समय पर वह फटता हैं, वह समय निश्चित होता हैं। यह उस व्यक्ति के कर्मों के अनुसार भी हो सकता हैं। लेकिन एक दिन वह शुभ दिन जरूर आएगा और उसके भाग्य का उदय होगा। वैसे जिस दिन भगवद्गीता ली एक दृष्टि से तो उसी दिन उसके भाग्य का उदय हो गया, किंतु अंततोगत्वा जिस दिन वह उस भगवद्गीता को खोलेगा उस दिन पूरी तरह से उसके भाग्य का उदय होगा और खोलेगा तो जरूर।हर एक गीता जरूर पढ़ी जाएगी। कोई ना कोई तो उसे अवश्य पड़ेगा और जिसने खरीदी उसने ना भी पढी तो उसके बाल बच्चे पढेगे,उसकी अगली पीढ़ियों में कोई पढेगा,लेकिन हर भगवद्गीता कईयों के द्वारा पढ़ी जाएगी।लाखों-करोड़ों भगवद्गीता का वितरण तो हो चुका हैं और इस साल तो केवल भारत को ही 2000000 भगवद्गीता का वितरण करना हैं। तो इतने स्थानों पर या ,इतने घरों में,इतने लोगों के अंततः दिल में जहां आत्मा स्थित हैं, वहां यह गीता के वचन पहुंचने वाले हैं।तो यह गीता वितरण करने की बुद्धि भगवान आपको दें
भगवद्गीता 10.10
“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||”
अनुवाद
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
यह गीता का वितरण परोपकार हैं, चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा हैं
यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।
आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश ॥
चैतन्य चरितामृत 7.128॥
अनुवाद:- ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि मेरा आदेश हैं,जिसको देखो उसे कृष्ण का उपदेश कहो।तो कृष्ण उपदेश क्या हैं? यह भगवद्गीता ही कृष्ण का उपदेश हैं और भी कई उपदेश मिलेंगे आदि पुरुष श्री कृष्ण गोविंद के लेकिन यह भगवद्गीता एक विशेष उपदेश हैं। इसका प्रचार करो।यह आदेश हमें भगवान का हुआ हैं। उपदेश का प्रचार करने की बुद्धि मैं भी कुछ देने की कोशिश कर रहा हूं,ताकि हम बुद्धू से बुद्धिमान बने।जो गीता का वितरण नहीं करते वह बुद्धू हैं,बुद्धू कहीं के और जो गीता का वितरण करते हैं, वह बुद्धिमान हैं। मतलब भगवान ने उनको बुद्धि दे दी हैं। भगवान तो बुद्धि सभी को देते हैं ,लेकिन हम लेते ही नहीं हैं। तो ऐसी बुद्धि को ले लो।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा-
चैतन्य चरितामृत आदिलीला 9.41
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।
जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥41॥
अनुवाद
जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना
चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।”
तो आप भारतीय हो तो प्रचार करो।आपको यह सिद्ध करना होगा कि आप भारतीय हो।आप हो कि नहीं भारतीय? केवल भारत भूमि पर जन्म लेने से कोई भारतीय नहीं बन जाता। जन्म से कोई भारतीय नहीं बनता,क्योंकि मैंने भारत में जन्म लिया इसलिए में भारतीयों हूं, ऐसा नहीं हैं।ब्राह्मण परिवार में मैंने जन्म लिया इसलिए मैं ब्राह्मण हूं,नहीं। आप ब्राह्मण नहीं हो। ब्राह्मण तो अपने गुणों से होते हैं।
BG 4.13
“चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || १३ ||”
अनुवाद
प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये | यद्यपि मैं इस व्यवस्था का सृष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ ।
भारतीयता भी होनी चाहिए। भारतीयता नाम की भी कोई चीज हैं, तब हम भारतीय कहलाएंगे। भारतीय वह हैं, जो भाव में रक्त हैं भा मतलब प्रकाश और रत मतलब तल्लीन होना। जो प्रकाश में रक्त हैं या तल्लीन हैं वह भारतीय हैं और कैसा प्रकाश? इस भगवद्गीता के प्रकाश में तल्लीन हैं, गीता का ज्ञान एक प्रकाश है।
असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्तोतिर्गमय ॥ मृत्योर् मा अमृतं गमय । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
(उपनिषद 1.3.28)
तो जो अंधेरे में हैं, वह भारतीय नहीं हैं।लेकिन जो ज्योति की ओर जा रहे हैं, जिन्हें प्रकाश प्राप्त हुआ हैं, कौन सा प्रकाश? गीता का प्रकाश प्राप्त हुआ हैं, कृष्ण द्वारा दिया गया.. गीता का ज्ञान जिसके पास हैं वह भारतीय हैं। इसीलिए जिस स्थान पर गीता का ज्ञान दिया गया उसे ज्योतिसर कहा गया हैं। अर्जुन ने कुरुक्षेत्र के ज्योतिसर में ज्ञान लिया, सेना के बीच में खड़े हुए।
कृष्ण भी खड़े थे और अर्जुन भी खड़े थे, ज्योतिसर में वह स्थान आज भी हैं और उसी स्थान की ओर प्रभुपाद ने उंगली करके बताया था, आपको बताया था कि जब प्रभुपाद अपने शिष्यों के साथ रेल से दिल्ली जा रहे थे, तो प्रभुपाद अपने शिष्यों को उंगली करके रेल की खिड़की में से दिखा रहे थे कि वह देखो यहीं पर कृष्ण ने गीता का उपदेश सुनाया, यही हैं धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र..यह वह स्थान हैं, जिसे ज्योतिसर कहते हैं। सर मतलब सरोवर भी होता हैं और स्त्रोत भी होता हैं। ज्योति का स्त्रोत। ज्ञान का स्रोत या ज्योति का स्रोत तो यह भगवद्गीता का ज्ञान ज्योति हैं, प्रकाश हैं।
कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार।
य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31)
अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान हैं। जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत नाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता हैं।
ऐसे गीता के ज्ञान को केवल ज्ञान ही नहीं बल्कि कहना होगा कि ज्ञान और भक्ति का वितरण करना, इसको औरों तक पहुंचाना एक बहुत बड़ा उपकार हैं।
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।
जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥41॥
भारत में जन्मे हो और जन्म की सार्थकता चाहते हो, चाहते हो कि नहीं? बताओ कौन कौन चाहता हैं? वैसे हरे कृष्णा वाले तो सब लोग ही चाहते हैं कि अपने जन्म को सार्थक करें इसलिए तो आप हरे कृष्णा वाले बने हो। तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा,यह महाप्रभु की हम सभी को देन हैं, कृष्णा ओर अधिक दयालु बनकर चैतन्य महाप्रभु के रूप में आए हैं
नमो महा-वदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नामने गोर-तविशे नमः ॥
(चैतन्य महाप्रभु प्रणाम मंत्र)
कृष्ण महा वदनयाय हैं, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हमारा उद्धार किया हैं। वह हमें बचा रहे हैं।सब कुछ तो वही करवा रहे हैं और उन्हीं की तरफ से श्रील प्रभुपाद कर रहे हैं, गौरांग महाप्रभु की ही दया, कृपा श्रील प्रभुपाद ने हम तक पहुंचाई हैं। हर घर में श्रील प्रभुपाद ने पहुंचाई हैं और श्रील प्रभुपाद ने जो कृपा इस संसार के लोगों पर की हैं, वह अद्वितीय हैं। हरि हरि।भगवान श्रील प्रभुपाद से प्रसन्न हैं, तो मैं जो आपको बता रहा था यह चैतन्य महाप्रभु का वचन हैं
(श्रीचैतन्य-चरितामृत
आदि लीला 9.41)
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।
जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥41॥
अनुवाद
जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना
चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।”
इस वचन को श्रील प्रभुपाद से हमने सैकड़ों बार कहते हुए सुना हैं, चाहे वह उनके प्रवचन हो या कोई पंडाल प्रोग्राम हो,श्रील प्रभुपाद इसे जरूर कहते थे। जब भी श्रील प्रभुपाद भारतीयों को संबोधित करते तो बारंबार श्रील प्रभुपाद इस वचन को दोहराते थे, कौन सा वचन?
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।
जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥41॥
आप भी इस को याद करो। इस को कंठस्थ करो और लोगों को इसके बारे में स्मरण दिलाओ। तो महाप्रभु ने कहा कि परोपकार करो और गीता का वितरण करना सबसे बड़ा परोपकार हैं। आप शायद सोच रहे हो कि कि बार-बार बोल रहे हैं,कि परोपकार करो परोपकार करो, हम करना भी चाहते हैं परोपकार, लेकिन करें क्या? तो यह गीता का वितरण करो। वैसे और भी कई तरीकों से कर सकते हैं, कल भी मैं कुछ भक्तों से मिल रहा था,तो मैंने उनसे पूछा कि आप लोगों को कृष्ण कैसे प्रदान कर सकते हैं?उन्होंने झट से कहा कि भगवद्गीता का वितरण करेंगे, तो मुंबई के भक्त इतने मैराथन भावना भावित हैं या गीता की भावना से ग्रसित हैं कि यहां गीता की ही बात चलती रहती हैं, जिससे भी मैं मिलता हूं सब गीता की ही बात करते हैं।यहां सभी के दिमाग में गीता घुसी हुई हैं। सभी लोग गीता का चिंतन और विचार कर रहे हैं, जैसे एक व्यापारी होता हैं, उसी प्रकार हम भी कृष्ण के व्यापारी बने हैं। यह हमारा पारिवारिक व्यापार हैं। यह हमारा फैमिली बिजनेस हैं। जैसे व्यापारी अपने व्यापार के संबंध में सोचता हैं कि उसके सामान का अधिक से अधिक वितरण हो, उसकी बिक्री हो,उसका प्रचार हो।दिमाग लगाता रहता हैं। वैसे ही हम भगवान के लिए या गीता के वितरण के लिए अपना दिमाग लगा सकते हैं।
Prithvite ache yata nagaradi grama
sarvatra prachara haibe mora nama
(Chaitanya Bhagavata)
तो जब मैंने भक्तों से पूछा कि कैसे हम लोगों को कृष्ण प्रदान कर सकते हैं? तो उन्होंने कहा कि भगवतद्गीता का वितरण करके और भी कुछ भक्तों ने कहा कि हरे कृष्ण महामंत्र देंगे, किसी ने कहा कि प्रसाद बाटेंगे, ऐसे ही यह सूची बहुत लंबी हो सकती हैं, क्या क्या कर सकते हैं, या क्या-क्या दे सकते हैं। लेकिन यह तीन आइटम मोटे-मोटे सबसे मुख्य हैं इस सूची में।तो देने की चीज क्या हैं? एक तो हम लोगों को हरि नाम देते हैं और बहुत ही पुस्तक वितरण होता हैं, इसीलिए संसारी लोग हमें क्या कहते हैं? हरे कृष्णा लोग। यह हरे कृष्णा लोग हैं। क्योंकि चारों तरफ हरि नाम का प्रचार हो रहा हैं।
हरि नाम का प्रचार-प्रसार हो रहा हैं या हम नाम जप को बाकी लोगों में वितरित रहे हैं और दूसरा हैं प्रभुपाद की पुस्तकों का वितरण कर रहे हैं और तीसरी आइटम जिसका हम वितरण करते हैं वह हैं प्रसाद वितरण
maha-prasade govinde
nama-brahmani vaisnave
svalpa-punya-vatam rajan
visvaso naiva jayate
(महाभारत)
अन्न परभम्र.. जैसे अर्जुन ने श्रीकृष्ण को गीता में कहा है
भगवद्गीता 10.12-13
“अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् || १२ ||
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे || १३ ||”
अनुवाद
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
ऐसे ही अन्न भी परभम्र हैं।
अन्न को भी परब्रह्म कहा हैं, भगवान उसे ग्रहण करते हैं। तो फिर भगवान के गुण उस अन्न में आ जाते हैं। ऐसा अन्न का वितरण करना भी कृष्ण को ही देना हैं, कृष्ण का ही वितरण करना हैं। तो संसार भर में हरे कृष्ण भक्त इन तीन प्रकार के वितरण पर जोर देते हैं,जो कि प्रभुपाद ने भी दिया,ऐसी योजनाएं बनाई जिनसे कि इन तीनों का वितरण हो सके, भगवान का नाम, भगवान के ग्रंथ और भगवान का प्रसाद।
तो यह समय मुख्य रूप से पुस्तक वितरण के लिए हैं।जैसे हरि नाम का भी समय होता हैं,जब हम हरि नाम का वितरण करते हैं, उसे कहते हैं,वर्ड होली नेम वीक। तब हरि नाम का मैराथन करते हैं और अब यह ग्रंथ वितरण का मेराथन हैं। अगर ऐसा हम करेंगे तो लोगों को नाम देंगे। गीता देंगे।तो हमारा जन्म भी सार्थक हो जाएगा, क्योंकि यह बहुत बड़ा उपकार हैं।
इससे हमें कृष्ण प्रेम प्राप्त होगा और कृष्ण की प्रेममई सेवा सदा के लिए प्राप्त हो जाएगी। हरि हरि। तो ठीक हैं, पुनः मिलेंगे। तब तक व्यस्त रहिए।पुस्तक वितरण में व्यस्त रहिए। एक प्रकार से हमारा यह प्रातः काल में मंदिर ही बन रहा हैं। मैं सोच रहा था यह तो जूम मंदिर हैं। जो एक विराट विश्व रूम हैं, क्योंकि विश्व भर के लोग इस में आते हैं। अलग-अलग वर्ण के भी हैं, वर्ण मतलब अलग-अलग रंगों के भी लोग हैं।अलग-अलग साइज के भी लोग हैं। अलग-अलग लिंगों के भी लोग हैं। अलग-अलग भाषा बोलने वाले लोग भी हैं। तो यह एक छोटा सा जगत ही हैं। यह अंतरराष्ट्रीय जूम मंदिर हैं और आप सब इसी मंदिर के भक्त हो। हरे कृष्णा।
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जप चर्चा : 2 जनवरी 2022
शीर्षक : भगवान के ऐश्वर्य का प्रमाण उनका सार्वभौम रूप है
मुझे लगता है कि आज जैसे मैं थोड़ा गणना कर रहा था, आज कुरुक्षेत्र के 18 दिन के युद्ध का आखिरी दिन होना चाहिए। मोक्षदा एकादशी पर लड़ाई शुरू हुई थी और फिर कुछ दिन पहले, तीन दिन पहले हमारी सफला एकादशी थी, इसलिए 15 + 3, 18 इसलिए आज कुरुक्षेत्र धाम की जय के युद्ध का अंतिम दिन होना चाहिए। और इस जूम कांफ्रेंस के पिछले कुछ दिनों में हम भगवद गीता के दसवें अध्याय: श्री भगवान का ऐश्वर्य की चर्चा कर रहे थे। तो अब अगला अध्याय 11वाँ अध्याय है, विश्वरूप दर्शन नामक बहुत प्रसिद्ध अध्याय, सार्वभौम रूप। तो बहुत शुरुआत में, अर्जुन उवाच, इसलिए हम इस अध्याय का एक छोटा सा अवलोकन करने जा रहे हैं, इस अध्याय का सारांश, हम यह कहने जा रहे हैं कि अध्याय के माध्यम से विराट रूप का वर्णन करेंगे।
हमारे पास अपने जप चर्चा में बहुत समय नहीं है, हमारे पास जो भी समय है। अर्जुन उवाच: एवम एतद, आप अपनी भगवद गीता को खोल सकते हैं, 11वें अध्याय में हम कुछ श्लोक से दूसरे श्लोक की ओर चलेंगे। और हम कुछ को कवर करेंगे और इस तरह। लेकिन आपके पास अभी भी आपके संदर्भ के लिए भगवद गीता हो सकती है। यह तीसरा श्लोक है और हर बार हम इस संख्या श्लोक को वह अंक श्लोक भी नहीं कह सकते। हम अर्जुन के कथन पढ़ेंगे। यहां अर्जुन बोल रहे हैं, संजय यहां बोल रहे हैं। इस अध्याय में अर्जुन और संजय द्वारा किसी भी अन्य अध्याय की तुलना में बहुत अधिक बात की गई है। और निश्चित रूप से कृष्ण भी बोल रहे हैं । दरअसल, वह बोल कम और अभिनय ज्यादा कर रहे हैं, दर्शन दे रहे हैं। इस अध्याय में श्री कृष्ण की ओर से कम बातचीत और अधिक कार्रवाई और अर्जुन और संजय की बहुत सारी बातें हैं। तो तीसरा श्लोक,
एवं एतद यथात्था तवमि
आत्मानं परमेश्वर:
द्रुम इच्छामि ते रूपमी
ऐश्वर: पुरुषोत्तम:
अनुवाद
हे सभी व्यक्तित्वों में सबसे महान, हे सर्वोच्च रूप, हालांकि मैं आपको यहां अपने वास्तविक स्थान पर देखता हूं, जैसा कि आपने स्वयं का वर्णन किया है, मैं यह देखना चाहता हूं कि आपने इस ब्रह्मांडीय अभिव्यक्ति में कैसे प्रवेश किया है। मैं आपका वह रूप देखना चाहता हूं। (BG 11.3)
तो यह इस तरह से शुरू होता है कि अर्जुन कहते हैं कि आपने अभी-अभी ऐश्वर्य की सूची साझा की है, मैं यह स्थावरनम हिमालय यह एक और वह एक हूं। भगवद गीता के 10वें अध्याय में यह काफी बड़ी सूची है। अथा आपने बोला आपने द्रौंम इच्छा को प्रस्तुत किया अब मैं देखना चाहता हूं या मैं चाहता हूं कि आप बात करें जैसा कि मैं कहता हूं कि चलो बात करो। आपने बहुत बात की, तो क्या आप इसे साबित कर सकते हैं? क्या आप इसे प्रदर्शित कर सकते हैं? मुझे देखने की इच्छा है। श्री भगवान उवाच: और कृष्ण जवाब में, ठीक है, ठीक है। बस देखो पार्थ देखो, हे अर्जुन मेरे रूप को देखो।
पश्य में पार्थ रूपणि:
शताओ ‘था सहस्रसन:’
नाना-विधानी दिव्यानी
नाना-वर्णाकृतिनी चं
अनुवाद
भगवान के परम व्यक्तित्व ने कहा: मेरे प्रिय अर्जुन, हे पृथा के पुत्र, अब मेरे ऐश्वर्य, सैकड़ों हजारों विविध दिव्य और बहुरंगी रूपों को देखें। (BG 11.5)
भगवान अपने सार्वभौमिक रूप को प्रदर्शित करने, प्रदर्शित करने के लिए तैयार हो रहे हैं। ब्रह्मांड जितना बड़ा रूप। कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में अर्जुन के सामने जो रूप था, वह सीमित नहीं रहेगा। कृष्ण पहले ही कह चुके हैं, अहम् सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वः प्रवर्तते
अहं सर्वस्य प्रभावो
मत्त: सर्वम प्रवर्तते
इति मतवा भजंते मानि
बुद्ध भव-समनवितशी
अनुवाद
मैं सभी आध्यात्मिक और भौतिक संसारों का स्रोत हूं। सब कुछ मुझसे निकलता है। जो ज्ञानी इस बात को भली-भांति जानते हैं, वे मेरी भक्ति में लग जाते हैं और पूरे मन से मेरी आराधना करते हैं। (BG10.8)
भगवान कृष्ण कहते हैं, मैं हर चीज का स्रोत हूं।
कृष्ण ने यह भगवद गीता के 10वें अध्याय में कहा है और अब जब मैं हर चीज का स्रोत हूं, तो मैं ही स्रोत हूं: अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्व: प्रवर्तते। तो यहाँ तुम जाओ तुम देख सकते हो, तैयार हो जाओ अर्जुन पश्यादित्यन तुम देखोगे 12 आदित्य और 2 अश्विनी कुमार और 11 रुद्र और 49 मारुत, यह सिर्फ एक छोटी सी सूची का उल्लेख कर रहे है और बहुत अधिक बहिन्य अदिआ-पूर्वी पन्याश्चारी भारतत
पश्यादित्यन वासिन रुद्राणी
अश्विनौ मरुतस तथा:
बहनी अदा-पूर्वाणी:
पाण्याचार्यी भारत:
अनुवाद
हे भारत में श्रेष्ठ, यहाँ आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनी-कुमारों और अन्य सभी देवताओं के विभिन्न रूपों को देखें। उन बहुत सी अद्भुत चीज़ों को देखें, जिन्हें पहले कभी किसी ने देखा या सुना नहीं है। (BG11.6)
भगवान कृष्ण अपने सार्वभौमिक रूप का प्रदर्शन करते हैं
और आप कुछ ऐसा देखने जा रहे हैं जो पहले कभी किसी ने नहीं देखा है। आप सबसे पहले देखने वाले हैं और कृष्ण कहते हैं हिलो मत। मैं एक तरह से आपको विश्व भ्रमण कराने जा रहा हूं। मैं तुम्हें पूरे ब्रह्मांड में ले जाऊंगा। आप जहां हैं वहीं रहें और वास्तव में मैं उस ब्रह्मांड या सार्वभौमिक रूप या उस रूप के विभिन्न पहलुओं और कोणों को आपके पास लाऊंगा जहां भी आप होंगे। इहिका-स्थ: कृष्ण कहते हैं, यहीं, तुम यहीं रहो और जगत कृष्ण: मैं तुम्हें पूरी बात, सब कुछ दिखाऊंगा। लेकिन फिर कृष्ण कहते हैं, नहीं, नहीं, एक मिनट रुको अर्जुन। मैं जो दिखाने जा रहा हूं वह आप नहीं देख सकते आप अपनी वर्तमान आंखों से नहीं देख पाएंगे। दिव्यं दादामि ते चक्षु: आपको एक विशेष दृष्टि की आवश्यकता है । तो यहाँ कुछ विशेष जोड़ी चश्मा हैं जो आप पहनते हैं, ठीक है, आपके पास है। अब तुम आगे बढ़ो।
दर्शनम आस पार्थय परमम् रूपम ईश्वरम
एवं उद्वा ततो राजनी
महा-योगेश्वरो हरि:
दर्शनयम आस पार्थाय:
परम: रूपम ऐश्वर्या
अनुवाद
संजय ने कहा: हे राजा, इस प्रकार बोलने के बाद, सभी रहस्यवादी शक्ति के सर्वोच्च भगवान, भगवान के व्यक्तित्व ने अर्जुन को अपना सार्वभौमिक रूप दिखाया। (BG 11.9)
और ऐसा कहकर और दिव्यं दादामि ते चक्षुं को अर्जुन और कृष्ण को दिव्य दृष्टि देकर शो शुरू होता है। अनेक-दिव्यभारत: और हर तरफ बहुत सारे रूप हैं । उनके पास बहुत सारे अलंकरण हैं दिव्य-माल्यांबर-धर: और वे सभी माला पहने हुए हैं । सर्वाचार्य-मायां देवं अनंतं विश्वतो-मुखमी
अनेका-वक्त्र-नयनम:
अनेकाभूत-दर्शनम:
अनेका-दिव्यभारत:
दिव्यानेकोद्यतायुधामि
दिव्या-माल्यांबर-धाराणी
दिव्य-गंधनुलेपनामि
सर्वाचार्य-माया: देवमी
अनंत: विश्वतो-मुखम
अनुवाद
अर्जुन ने उस सार्वभौमिक रूप में असीमित मुख, असीमित नेत्र, असीमित अद्भुत दर्शन देखे। इस रूप को कई दिव्य आभूषणों से सजाया गया था और इसमें कई दिव्य हथियार थे। उन्होंने दिव्य मालाएँ और वस्त्र पहने थे, और उनके शरीर पर कई दिव्य सुगंध बिछी हुई थीं। सब कुछ अद्भुत, शानदार, असीमित, सर्वव्यापी था। (BG 11.10,11)
सब कुछ अद्भुत है। अर्जुन उन सभी विभिन्न वस्तुओं और व्यक्तित्वों और रूपों को देख रहा है। वह चकित है। भगवान् के ऐश्वर्य के इस प्रदर्शन को देखकर अर्जुन चकित रह जाते हैं। हृ-रोमा धनन-जय:, उसके शरीर पर बाल सिरे पर खड़े हैं और वह कांप रहा है । वह एक प्रकार से भयभीत भी है, भगवान के इस सार्वभौम प्रदर्शनी रूप को देखकर वह पूरी श्रद्धा से भर जाता है। प्रणम्य सिरसा देवासी
कीतांजलिर अभट:
तत्: सा विस्मयविषो:
हृ-रोमा धनन-जयḥी
प्रणम्य सिरसा देवासी
कीतांजलिर अभट:
अनुवाद
तब चकित और चकित होकर, अपने बालों के सिरे पर खड़े होकर, अर्जुन ने सिर झुकाकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर परमेश्वर से प्रार्थना करने लगे। (BG 11.14)
और वह हाथ जोड़कर झुक रहा है। वह दिखता है, वह एक ही स्थान पर है, लेकिन जब वह चारों ओर चारों ओर देखता है, तो वह सभी वस्तुएं अद्भुत हैं, अदभुत मंदिर अदभुत की तरह अद्भुत! अर्जुन उवाच और फिर ओह, देखो। ब्रह्माजी हैं। ब्राह्मणं शं कमलासन-स्थम ।
पयामी देवास तव दे देहं
सर्वंस तथा भूत-विषेश-संघानी
ब्राह्मणं शं कमलासन-स्थम
च सरवन उरगं च दिव्यानी
अनुवाद
अर्जुन ने कहा: मेरे प्रिय भगवान कृष्ण, मैं आपके शरीर में सभी देवताओं और विभिन्न अन्य जीवों को एकत्रित देखता हूं। मैं कमल के फूल पर बैठे ब्रह्मा को, साथ ही भगवान शिव और सभी ऋषियों और दिव्य नागों को देखता हूं। (BG11.15)
हम पन्द्रहवें श्लोक में पहुँचे हैं मैं ब्रह्मा को देखता हूँ, मैं शिव को देखता हूँ, ओह, यहाँ कितने ऋषि हैं और फिर तुम वहाँ जाते हो। यह यहाँ नागलोक है। निचली ग्रह प्रणाली। सांपों की इतनी सारी किस्में उनके व्यक्तित्व के साथ। वासुकी भी हैं। दसवें अध्याय में सभी सर्पों में मैं वासुकि हूँ। वासुकी भी हैं। अनेक-बहिदारा-वक्त्र-नेत्रं पश्यमी त्वां सर्वतो ‘नंत-रूपम।
अनेक-बहिदारा-वक्त्र-नेत्र:
पन्यामी तवां सर्वतो ‘नंत-रूपमि’
नंतं न मध्यं न पुनस तवादी:
पन्यामी विश्वेश्वर विश्वरूप:
अनुवाद
हे ब्रह्मांड के भगवान, हे सार्वभौमिक रूप, मैं आपके शरीर में कई, कई हाथ, पेट, मुंह और आंखें देखता हूं, जो हर जगह, बिना सीमा के फैले हुए हैं। मैं आप में कोई अंत, कोई मध्य और कोई शुरुआत नहीं देखता। ( BG 11.16)
अर्जुन कहते हैं, हे इतने सारे पेट इन सभी विभिन्न रूपों के मुंह, आंखें, हाथ।
तवं अस्य विश्वस्य परं निदानम्
तवं अक्षरम परम: वेदिव्या:
तवं अस्य विश्वस्य परं निदानम्
तवं अव्ययं शांवत-धर्म-गोप्तम
सनातन त्वं पुरुषो मतो मे
अनुवाद
आप सर्वोच्च मौलिक उद्देश्य हैं। आप इस सारे ब्रह्मांड के परम विश्राम स्थल हैं। आप अटूट हैं, और आप सबसे पुराने हैं। आप सनातन धर्म के रखवाले, भगवान के व्यक्तित्व हैं। यह मेरी राय है। (BG 11.18)
मुझे भगवान को स्वीकार करना चाहिए कि आप यहां मौजूद सभी चीजों के आश्रय और मूल हैं। सनातन त्वं पुरुषो मतो मुझे, और मेरी राय ठीक है, आपने इन सभी रूपों में खुद को प्रदर्शित और फैलाया है। पर तुम फिर भी रह जाते हो। मूल रूप या आपका रूप समाप्त नहीं हुआ है क्योंकि आपने अपने आप को पूरे ब्रह्मांड में इन रूपों में बदल दिया है। तुम अब भी रहोगे। आप पुरुष हैं। आप हमेशा के लिए व्यक्तित्व हैं और यह मेरी राय है। अनंत-बहुं शनि-सूर्य-नेत्रम। देखो, चारों ओर कितनी भुजाएँ हैं और तुम वहाँ जाते हो। मैं चाँद देखता हूँ, मैं सूरज देखता हूँ। आपने पहले कहा था कि ये मेरी आंखें हैं और मैं देख सकता था कि आप मुझे सूर्य के रूप में देख रहे हैं। तुम मुझे देख रहे हो। चाँद एक और आँख है, तुम मुझे देख रहे हो। अमी ही तवां सुर-संघ विशनंति केसिद भूत: प्रांजलयो गणि
अमी ही त्वां सुर-संघ विशन्ति:
केसीद भूत: प्रांजलयो गणना:
स्वस्ति उक्त्वा महर्षि सिद्ध संघ:
स्टुवंती तवां स्तुतिभिं पुष्कलाभि:
अनुवाद
देवताओं के सभी यजमान आपके सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं और आप में प्रवेश कर रहे हैं। उनमें से कुछ बहुत डरे हुए हैं, हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे हैं। महान संतों और सिद्ध प्राणियों की मेजबानी, “सभी शांति!” वैदिक भजन गाकर आपसे प्रार्थना कर रहे हैं। (BG 11.21)
अर्जुन ध्यान दे रहा है। यहाँ ऋषियों का एक समूह है, वे प्रार्थना कर रहे हैं, भगवान की महिमा का जाप कर रहे हैं। स्टुवंती त्वः स्तुतिभिं पुष्कलाभि:। देवर्षि, राजर्षि, महर्षि चारों ओर हैं और वे सभी आपको नमन कर रहे हैं और आपकी महिमा को मंत्रमुग्ध कर रहे हैं। मैं रुद्र, और आदित्य और वसु और अश्विनी कुमार, गंधर्व और यक्ष और किन्नर देखता हूं। वे सब वहाँ बाहर हैं। जीवन सिर्फ इस ग्रह पर ही नहीं हर जगह है। इस मूर्ख और अज्ञानी वैज्ञानिक का कोई सुराग नहीं है। उनकी दूरबीनें उन्हें अन्य ग्रहों पर जीवन नहीं दिखा रही हैं। लेकिन 5000 साल पहले अर्जुन को जीवन दिखाया गया था। तो तथ्य पहले से ही ज्ञात हैं। वास्तव में ज्ञान प्राप्त करने का यही तरीका है। शास्त्र प्रमाण, श्रुति प्रमाण। भगवद गीता अधिकार है। बेशक भगवान, यह भगवद गीता की विशेषता है। कृष्ण भगवान व्यक्तिगत रूप से बोल रहे हैं और अर्जुन ने कहा था, सर्वं एतद द्रितं मन्ये, जो कुछ भी आप कहते हैं मेरे भगवान यह कुछ भी नहीं है बल्कि सत्य है जो आप बोलते हैं। उन्होंने दसवें अध्याय में जीवन के बारे में बात की, स्वर्ग लोक से पाताल लोक तक पूरे ब्रह्मांड में प्रजातियां हैं और अर्जुन अभी सभी 14 ग्रहों को देख रहा है और वह गंधर्व और यक्ष, किन्नर और नाग और सभी को नहीं देख रहे हैं। ददरा-करलानी च ते मुखानी ।
दशरा-करलानी च ते मुखानी
द्विव कलानाल-सनिभानिं
दीओं न जाने न लभे च शर्म:
प्रसूदा देवेश जगन-निवास:
अनुवाद
हे प्रभु, हे जगत के शरणागत, मुझ पर अनुग्रह करे। इस प्रकार आपके प्रज्वलित मृत्यु सदृश चेहरों और भयानक दांतों को देखकर मैं अपना संतुलन नहीं रख सकता। मैं सभी दिशाओं में व्याकुल हूँ। ( BG 11.25 )
और कुछ रूपों के मुंह बहुत भयानक या डरावने हैं, उनके जबड़े खुले हुए हैं और जब अर्जुन इसे करीब से देख रहे हैं, तो वह क्या कह रहे हैं धृतराष्ट्र पुत्र, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, शत्रु शिविर के सभी सदस्य और कुछ अन्य भी दौड़ रहे हैं, उन मुंह में कुचल रहे हैं। यद्यपि हम कल्पना कर सकते हैं कि यह बात केवल कृष्ण और अर्जुन के बीच है और यह विराट रूप का दर्शन भी है, यह सिर्फ अर्जुन के लिए है। उभयोरमध्ये सेना के चारों ओर सब कुछ बरकरार है और वे सभी अपनी स्थिति लेने की तैयारी कर रहे हैं, किसी को पता नहीं है कि कृष्ण अर्जुन से क्या बात कर रहे हैं और कृष्ण के इस विराट रूप के प्रदर्शन के बारे में क्या बात कर रहे हैं। वहां क्या हो रहा है इसकी जानकारी किसी को नहीं है। लेकिन वहाँ तुम जाओ कृष्ण पहले से दिखा रहे हैं कि यह क्या होने वाला है अर्जुन, यहाँ उपस्थित सभी लोगों के लिए विशेष रूप से आपके शत्रुओं का क्या होगा? यह हो रहा है, वे सभी इस विराट रूप के मुख की ओर भाग रहे हैं और इतने सारे मुख हैं, है ना? याथा नंदीनां बहावो ‘मबु-वेगांशी’
याथा नंदीनां बहावो ‘मबु-वेगांशी’
समुद्रम इवाभिमुख द्रवंती
तथा तवमी नर-लोक-वीर:
विषंति वक्रताय अभिविज्वलंति:
अनुवाद
जैसे नदियों की अनेक लहरें समुद्र में प्रवाहित होती हैं, वैसे ही ये सभी महान योद्धा आपके मुख में प्रज्ज्वलित होकर प्रवेश करते हैं। ( BG 11.28 )
भगवान कृष्ण ने पहले ही पांडवों के शत्रुओं का वध कर दिया था
नदियों की तरह इतनी नदियाँ हैं, है ना? इस ग्रह पर भी। वे सभी समुद्र में जाती हैं, ऐसे में वे सभी सदस्य और वे बड़ी संख्या में हैं। वे उनमें से लाखों हैं, जैसा कि हम जानते हैं कि 64 करोड़, 640 मिलियन सैनिक इकट्ठे हुए हैं और उनमें से अधिकांश भगवान के मुंह में प्रवेश कर रहे हैं और भगवान के मुंह से आग की लपटें निकल रही हैं और जैसे ही वे प्रवेश कर रहे हैं, उनमें से कुछ धृतराष्ट्र यह वह है जो भगवान के दांतों के बीच फंस गया है। कुछ लोग कुचले जा रहे हैं और साथ ही उनका अंतिम संस्कार भी किया जा रहा है, भगवान का मुख श्मशान भूमि बन गया है और उन सभी को जलाया जा रहा है। और यह वर्णित किया गया है कि यह एक कीट की तरह है, आप जानते हैं कि छोटे जीव कीट आग की चकाचौंध में भागते हैं और अपने जीवन को समाप्त करते हैं, पतंगे ऐसा करते हैं। तो वही हो रहा है और फिर कृष्ण कहते हैं कालोस्मि, मैं समय हूं । तो आने वाले समय में जो होगा, वही होगा। वे सभी अर्जुन द्वारा मार दिए जाएंगे और भगवान दिखा रहे हैंकि मैं हत्यारा हूँ तुम नहीं। ते ‘पि त्वं न भविष्यंति सर्वे:
कालो ‘स्मि लोक-क्षय-कित प्रविद्धो:
लोकन समर्थनम इह प्रवत:
ते ‘पि त्वं न भविष्यंति सर्वे:
ये ‘वस्थित: प्रति-अंकेषु योद्धा:
अनुवाद
भगवान के परम व्यक्तित्व ने कहा: समय मैं दुनिया का महान संहारक हूं, और मैं यहां सभी लोगों को नष्ट करने आया हूं। आप [पांडवों] को छोड़कर, यहां दोनों तरफ के सभी सैनिक मारे जाएंगे। (BG 11.32)
आपके और पांडवों को छोड़कर आप में से कुछ मुट्ठी भर लोग 18वें दिन के अंत में, बस आज ही रहेंगे। उन सभी का सफाया हो जाएगा। तस्मात, इसलिए उत्तम, उठो और याशो लाभ्वा:
तस्मात त्वं उत्तिष्ठ याशो लाभ्वां
जित्वा शत्रुं भुंकिव राज्यः समिति
मयैवैते निहत: पूर्वम एवं
निमित्त-मातृं भव सव्य-सासिनी
अनुवाद
इसलिए उठो। लड़ने और गौरव जीतने की तैयारी करें। अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें और एक समृद्ध राज्य का आनंद लें। वे मेरी व्यवस्था द्वारा पहले ही मार डाले जा चुके हैं, और आप, हे सव्यसाची, लड़ाई में एक साधन मात्र हो सकते हैं। (BG 11.33)
विजयी बनो मयैवैत निहत: मैंने उन्हें पहले ही मार दिया है। क्या आप निमित्त-मातृं भव सव्य-सासीन उस प्रसिद्ध कथन को नहीं देख रहे हैं, है ना? निमित्त-मातृ: निमित्त-मातृ: हम हमेशा सुनते और पढ़ते भी हैं । तो यह इस 11वें अध्याय से है। तुम बस मेरे हाथ के निमित्त बन जाओ। मैं इस लड़ाई के पीछे हूं। मुझे यह लड़ाई चाहिए। और मैं इसका कर्ता हूँ। मैं समय हूँ। युधिस्व लड़ाई, जेतासी निश्चित रूप से आप विजयी होंगे ।
तवं आदि-देव: पुरुष: पुराण:
तवं अस्य विश्वस्य परं निदानम्
वेत्तासी वेद्यं च परं च धाम:
त्वया तत्: विश्वं अनंत-रूप:
अनुवाद
आप भगवान के मूल व्यक्तित्व हैं, इस प्रकट ब्रह्मांडीय दुनिया के सबसे पुराने, अंतिम अभयारण्य हैं। आप सब कुछ जानने वाले हैं, और आप वह सब हैं जो जानने योग्य है। आप भौतिक गुणों से ऊपर, सर्वोच्च शरणस्थली हैं । हे असीम रूप! यह संपूर्ण ब्रह्मांडीय अभिव्यक्ति आपके द्वारा व्याप्त है! (BG 11.38)
और अर्जुन स्वीकार कर रहा है और अपनी अनुभूतियों को स्वीकार और साझा कर रहा है। आप भगवान के मूल और शाश्वत व्यक्तित्व हैं और इस सारी सृष्टि के मूल और आश्रय हैं और आपको भगवद गीता, वेदों और पुराणों के अध्ययन से जाना जाता है। वेत्तासी आप जानने वाले हैं और आपको जानने वाले हैं, आपको जानने जाने के लिए । और आप असीमित हैं और अर्जुन कह रहे हैं, वह क्षमाप्रार्थी मूड में हो रहा है और पछताता है आप जानते हैं। ओह, अब मैं देखता हूं, समझो कि तुम कौन हो। लेकिन ऐसे समय थे, इस बार साखेती मतवा आपको अपना मित्र या रिश्तेदार मानते हुए, मुझे संबोधित किया गया था, हे कृष्ण! हे यादव! अबे यार! लेकिन यह अजनाता नहीं है, मैंने यह अनजाने में या अनजाने में किया है । कृपया मुझे क्षमा करें हे प्रभु। मुझे आपके साथ व्यवहार करने या आपको इस तरह संबोधित करने के लिए बहुत खेद है अब मुझे पता है कि आप कौन हैं, आप वास्तव में कौन हैं। पितासी लोकस्य कारकास्य,
पितासी लोकस्य कारकास्य:
तवं अस्य पूज्यः च गुरुर गरियानी
न त्वत-समो ‘स्त्य अभ्यासां कुतो’ न्यो
लोका-त्रे ‘पि अप्रतिमा-प्रभा:
अनुवाद
आप इस संपूर्ण ब्रह्मांडीय अभिव्यक्ति के, गतिमान और अचर के जनक हैं। आप इसके पूज्य प्रमुख, सर्वोच्च आध्यात्मिक गुरु हैं। आपसे बड़ा कोई नहीं है और न ही कोई आपके साथ एक हो सकता है। फिर तीनों लोकों में आप से बड़ा कोई कैसे हो सकता है, हे अथाह शक्ति के स्वामी? (BG 11.43)
आप न केवल जीवित जीवों के पिता बल्कि निर्जीव चल अचल के पिता है । आप ही जन्म देने देने वाले मूल बीज हैं। स्थावरनम् हिमालय, आप भी हिमालय और मेरु पर्वत के उद्गम स्थल हैं। आप जगन-निवास हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड जगत आपके भीतर है जगन-निवास । और तेनैव रूपा चतुर-भुजेना सहस्र-बाहो भव विश्व-मृत
किरसीनम गदीनम चक्र-हस्तम
इच्छामि तवां द्रुंम अहम् तथाैवं:
तेनैवा रूपेच चतुर-भुजेना
सहस्र-बाहो भव विश्व-मृत:
अनुवाद
हे सार्वभौम रूप, हे हजार भुजाओं वाले भगवान, मैं आपको आपके चार भुजाओं वाले रूप में, हेलमेट वाले सिर और आपके हाथों में गदा , चक्र, शंख और कमल के फूल के साथ देखना चाहता हूं। मैं आपको उस रूप में देखने के लिए तरस रहा हूं।( BG 11.46)
अर्जुन ने भगवान कृष्ण से द्विभुज रूप दिखाने का अनुरोध किया
और अब उनका एक विशेष अनुरोध है, हे प्रभु, कृपया हवा दें, बहुत हो गया। मेरे पास काफी था, अब यह दर्शन नहीं, मैं संभाल नहीं सकता।क्या आप इस अध्याय को बंद कर सकते हैं? इस दर्शन को बंद कर दें। अब आप विश्व-मूर्ति हैं, आप अपनी हजारों भुजाओं के साथ सहस्र-बाहो हैं और आपका रूप इस ब्रह्मांड जितना विशाल है। मैं इससे संबंधित नहीं हो सकता। यदि आप सार्वभौम रूप हैं तो मैं आपको माला भी नहीं पहना सकता। कृपया कृपा करें और मुझे अपना चतुर-भुज रूप, सार्वभौमिक रूप दिखाएं, यह हजार सशस्त्र रूप नहीं बल्कि चतुर-भुज के लिए जाएं। तो वही हुआ जो प्रभु ने किया। सब कुछ बंद कर दिया गया और वापस कुरुक्षेत्र में चला गया। इस पूरे समय अर्जुन दोनों सेनाओं के बीच अपने परिवेश का एहसास न होने से पूरी तरह से बेखबर थे। लेकिन अब दृश्य बदल गया है, वापस सामान्य होना बिल्कुल सामान्य नहीं है। तो चार हाथ का रूप, नहीं, नहीं, यह नहीं, अपने द्वि-भुज रूप के लिए जाएं, न कि चतुर-भुज रूप, द्वि-भुज रूप, दो हाथ वाले रूप और फिर यही भूतवा पुन: सौम्य-वापुर महात्मा है।
इति अर्जुन: वासुदेव तथोक्तवा:
स्वकां रूपं दर्शनायं आस भिय:
अश्वसयाम आस च भूतम इनशी
भूतवा पुन: सौम्य-वापुर महात्मा:
अनुवाद
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा: भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व, कृष्ण, ने अर्जुन से इस प्रकार बात की, अपने वास्तविक चतुर्भुज रूप को प्रदर्शित किया और अंत में अपना दो-सशस्त्र रूप दिखाया, इस प्रकार भयभीत अर्जुन को प्रोत्साहित किया। (BG 11.50)
सौम्य-वापुर शांत और मूल दो हाथ रूप भगवान द्वारा प्रदर्शित किया गया था और अर्जुन अब तक पूरी तरह से संतुष्ट और महसूस कर चुका है, कि यह रूप कृष्ण के रूप में इस दो हाथ के रूप का मूल स्रोत है और फिर भगवान कहते हैं
सु-दुरदर्शनं इदं रूपा:
दशावन असि यान मम:
देवा एपी अस्य रूपस्य:
नित्य: दर्शन-कांडिश:
अनुवाद
परम पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: मेरे प्रिय अर्जुन, मेरा यह रूप अब तुम देख रहे हो, देखना बहुत कठिन है। देवता भी इस रूप को देखने का अवसर तलाश रहे हैं, जो इतना प्रिय है। (BG.11.52)
यह रूप बहुत ही विशिष्ट, मौलिक, सुंदर और क्या नहीं, इन सब ऐश्वर्यों से भरा हुआ है और यह रूप बहुत दुर्लभ है, यहां तक कि इस मूल रूप के दर्शन भी हो सकते हैं। अब तुम फिर से उस रूप को देख रहे हो। देवता भी इस रूप के दर्शन करने के लिए हमेशा उत्सुक और उत्सुक रहते हैं। और कुछ और बात 11वें अध्याय के अंत की ओर।
निर्वैरां सर्व-भूतेनु यं सा मम एति पांडव
भक्ति टीवी अनन्या शाक्य:
अहम् एवं-विधो ‘ अर्जुन:
ज्ञानुं द्रौं च तत्ववेणं
प्रवेशु च परन-तप:
अनुवाद
मेरे प्रिय अर्जुन, केवल अविभाजित भक्ति सेवा से ही मुझे समझा जा सकता है कि मैं आपके सामने खड़ा हूं, और इस प्रकार सीधे देखा जा सकता है। केवल इसी तरह तुम मेरी समझ के रहस्यों में प्रवेश कर सकते हो। ( BG 11.54 )
भगवान कृष्ण के सुंदर द्विभुज रूप को केवल अनन्या भक्ति ही देख सकती है।
यह रूप जो आप अभी देख रहे हैं, वह केवल भक्ति अनन्य-भक्ति द्वारा ही देखा जा सकता है। तो फिर यह अध्याय भी भक्ति को भगवान को महसूस करने और भगवान से जुड़ने के लिए एक सर्वोच्च प्रक्रिया के रूप में स्थापित करता है और फिर 12 वें अध्याय में भगवान उस भक्ति योग के बारे में बात करेंगे। 12वां अध्याय भक्ति योग अध्याय है। तो हम 11वें अध्याय को समाप्त करेंगे। भगवान ने भक्ति, भक्ति की प्रक्रिया का महिमामंडन किया है और यह मुझे महसूस करने या मुझे देखने का एकमात्र तरीका है। ठीक है, मुझे लगता है कि हमें यहीं रुकना होगा। निताई गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल !! श्रीमद्भगवद्गीता की जय! श्री कृष्ण अर्जुन की जय! भगवद् गीता पुस्तक वितरण या गीता वितरण मैराथन की जय! श्रील प्रभुपाद की जय! गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल !!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*दिनांक 1 जनवरी 2022*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 1070 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
हैप्पी न्यू ईयर किन्तु केवल हैप्पी न्यू ईयर, हैप्पी न्यू ईयर कहने से हैप्पी नहीं हो जाते। हैप्पी न्यू ईयर कहना अथवा मनोकामना व्यक्त करना हैप्पी न्यू ईयर नही है।
हम हरे कृष्ण भक्त केवल हैप्पी न्यू ईयर कहते ही नहीं हैं अपितु हम इसके साथ यह भी कहते अथवा बताते हैं कि हम नए साल में हैप्पी कैसे हो सकते हैं? श्रील प्रभुपाद के शब्दों में चैंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी (हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करो और प्रसन्न रहो)। आप भगवान् के नाम का उच्चारण करो , भगवान् को पुकारो – कृष्ण! कृष्ण! हेल्प, हेल्प, वी आर सफरिंग। हमें हैप्पी (प्रसन्न) बनाओ।आप हैप्पी हो, हमें भी हैप्पी( प्रसन्न) बनाइए।
चैंट हरे कृष्ण ( हरे कृष्ण का जप करो), भगवतगीता को पढ़ो रीड भगवतगीता यू विल बी हैप्पी (भगवद्गीता पढ़ने से आप प्रसन्न हो जाएंगे।) और साथ साथ यह भी कहना होगा। डिस्ट्रीब्यूट भगवद्गीता एंड यू विल बी हैप्पी। भगवद्गीता के उपदेश अथवा संवाद को अधिक से अधिक लोगों के साथ शेयर करो। इससे आप प्रसन्न हो जाओगे। कृष्ण आपको सुखी बनाएंगे। उनके हाथ में सब चाबी हैं।
वे ही नियंत्रक हैं। कृष्ण कहते हैं कि तुम मेरा नाम लो। हर्रेनामेव केवलम।
साथ ही कृष्ण भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में कहते हैं-
*अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् | स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ||*
( श्रीमद भगवद्गीता १८.१५)
अनुवाद:-
सच्चे, भाने वाले,हितकर तथा अन्यों को क्षुब्ध न करने वाले वाक्य बोलना और वैदिक साहित्य का नियमित पारायण करना – यही वाणी की तपस्या है ।
स्वाध्याय करना, गीता का पाठ करना
गीता के अध्याय पढ़ो अर्थात स्वाध्याय करो और उसका अभ्यास करो।स्वाध्यायाभ्यसनं।
कृष्ण इसके विषय में कहते हैं कि यह तप है। वाङ्मयं तप उच्यते।
स्वाध्याय करना, गीता का पाठ करना,
सुनना व सुनाना यह जिव्हा का तप है। यह तप वाक्यम है अर्थात इसमें वाक्य है।इसमें जिव्हा का प्रयोग है। यह तप है। तप ही हमको शुद्ध बनाता है।
ऋषभ उवाच
*नार्य देहो देहभाजां नलोके कष्टान्कामानहते विड्भुजा ये ।। तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम् ॥*
( श्रीमद् भागवतम 5.5.1)
अनुवाद:-
भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा – हे पुत्रो , इस संसार में समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन – रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर – सूकर भी कर लेते हैं । मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने लिए वह अपने को तपस्या में लगाए । ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है तब उसे शाश्वत जीवन
का आनन्द मिलता है। जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है ।
तप ही हमें शुद्ध बनाता है, तप से
शुद्धिकरण होता है, तप हमें शुद्ध करता है। तत्पश्चात फिर आनंद ही आनंद। सुख ही सुख। ब्रह्मसौख्यम वनन्तम। यह सुख / आनंद इतना सस्ता नहीं हैं। नॉट सो चीप। आप टेलीविजन ऑन करो और हा हा हा। इतना सस्ता नही हैं। वह जो टेलीविजन / दूरदर्शन का सुख है, वहीं दुख देता है। हरि! हरि! हमें इस सुख दुख के परे पहुंचना है। हरि हरि! सुखी रहिए।
*ॐ सर्वे सुखिनःभवन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥*
अनुवाद:-
– “सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।”
यह प्रार्थना, यह भावना, यह मनोकामना, वैष्णवों की होती है। सर्वे सुखिनःभवन्तु अर्थात सभी सुखी रहे लेकिन उसके साथ सुखी होने के उपाय भी बताने होंगे।
श्रील प्रभुपाद का यह आंदोलन अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ वही कर रहा है। आप उसी आंदोलन के सदस्य हो। इसलिए आप जानते हो कि हम सुखी कैसे बन सकते हैं अथवा बना जा सकता है। हम कैसे सुखी हो सकते हैं, यह दुनिया अथवा यह सारा संसार कैसे सुखी हो सकता है, यह केवल कृष्ण भक्त ही जानते हैं या जिन्होंने भगवान् या भगवान् के भक्तों को सुना है।
*एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: |स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 4.2)
अनुवाद:-
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
वे अधिकारी हैं। वे बता सकते हैं। आप भी बता सकते हो। बताते जाइए। हरे कृष्ण! अब मेरे पास बहुत ही कम समय है।
एक हमारे ही भक्त हैं जो गोपाल कृष्ण महाराज के शिष्य है और एक मोटिवेशनल स्पीकर हैं।
मिस्टर बिंद्रा! हम आज उनसे भी कुछ सुनना चाहते हैं। एक प्रेजेंटेशन है जो आपको भगवत गीता के वितरण के लिए प्रेरित करेगा कि गीता भेंट में दो। इस प्रेजेंटेशन में उनका कुछ ऐसा ही संदेश है। कुछ क्षणों में आप उसको देखोगे व सुनोगे। यह नया वर्ष है और यह नए वर्ष का यह संदेश भी है। मैं भी कुछ कह रहा हूं और बिंद्रा जी भी कुछ कहेंगे और आप.. पता नहीं, समय तो इतना नहीं होगा लेकिन आप में से भी कुछ कहना चाहता है अर्थात सभी को प्रेरित करने के लिए आपके पास भी कुछ ऐसा वचन है तो आप में से एक दो व्यक्ति ऐसा बोल सकते हैं।
नहीं तो वैसे, हमनें आज के लिए विश्वरूप दर्शन का विषय रखा था लेकिन नया वर्ष है इसलिए मैंने उसी में कुछ कह दिया। पांच दस मिनट तो उसी में बीत गए। अभी बिंद्रा जी को भी सुनना व देखना है। विश्वरूप/ विराट रूप को अब आप देखिए। आप इसे कैसे देखोगे? शास्त्र चक्षुः से अर्थात भगवत गीता का चश्मा या 11 अध्याय के चश्मे से इसे देखिए। ग्यारवें अध्याय को चश्मा बना लो और उससे देखो। वैसे भी कृष्ण ने कहा था कि मेरे सारे वैभव जो अभी अभी मैनें दसवें अध्याय में कहें थे – हे अर्जुन, उसको मैं दिखाना चाहता हूं लेकिन उन्होंने कहा
*न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्र्वरम् ।।*
( श्रीमद् भगवद्गीता ११.८)
अनुवाद:-
किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते । अतः मैं तुम्हें दिव्य आँखें दे रहा हूँ । अब मेरे योग ऐश्र्वर्य को देखो ।
मुझे तुम्हें दिव्य चक्षु देने होंगे तभी तुम देख पाओगे। उन्होंने अर्जुन को सही दृष्टि दे दी। उन्होंने उसके चश्मे को साफ किया। चश्मे को साफ करना होता है, नहीं तो सब धुंधला दिखता है या दिखता ही नहीं है। संस्कृत में चश्मे को उपनेत्रम कहा जाता है। उप मतलब पास, नेत्र मतलब आंखें। उपनेत्रम अर्थात आंखों के पास या जो चीजों अथवा वस्तुओं को पास में लाकर दिखा दे, वह उपनेत्रम कहलाता है। उसमें जैसा भी रंग होगा…
कुछ लोग गॉगल्स भी पहनते हैं जिससे सारी दुनिया नीली, हरी या पीली दिखने लगती है। भगवान ने ऐसा चश्मा अथवा ऐसी दृष्टि अर्जुन को दे दी ताकि अर्जुन वह देख सके। भगवान् ने जैसे अर्जुन को दिखाया और अर्जुन ने देखा भी, अब उसको सुनकर, हम भी देख सकते हैं। देखने की विधि क्या है? हम कैसे देखते हैं? हम कानों से देखते हैं। आंखों से कुछ दिखता नहीं.., लेकिन वह तब दिखता है जब गुरुजन, आचार्यगण, हमें दृष्टि देते हैं,
*ॐ अज्ञान-तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।*
(श्री गुरु प्रणाम मन्त्र)
अनुवाद:-
मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने आने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आंखें खोल दीं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
आचार्यवृन्द हमारी आंखें खोलते हैं। हमारी आंखों का कुछ ऑपरेशन कराते है। पूरे विश्व भर में यह हरे कृष्ण आंदोलन आई आपरेशन कैंप हैं।ऑपरेशन के पश्चात दिखने लगता है। यह विराट रूप वाला जो ग्यारहवां अध्याय है, यह अध्याय अन्य अध्यायों से भिन्न है। एक अद्भुत दर्शन है। अन्य स्थानों या अन्य अध्यायों में तो ज्ञान की बातें हो रही थी। वैसे यहां भी ज्ञान हो रहा था। अर्जुन ज्ञान को सुनते सुनते ही उसको रिलाइज (अनुभव) कर रहे थे। उन्हें साक्षात्कार हो रहा था इसीलिए
*अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||*
(श्रीमद् भगवद्गीता 10.8)
अनुवाद:-
मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
यह ज्ञान की बात कृष्ण ने कही। इस ज्ञान का विज्ञान कैसा हुआ
अर्जुन उवाच
*परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् | पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् || आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा | असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।*
( श्रीमद् भगवद्गीता 10.12-13)
अनुवाद:-
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।
जब अर्जुन ने कहा तब कृष्ण द्वारा कहे गए ज्ञान का विज्ञान हुआ।
*शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 18.42)
अनुवाद:-
शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं।
दूसरे सभी अध्यायों मे ज्ञान और विज्ञान अर्थात नॉलेज एंड इट्स एप्लीकेशन दोनों वैसे चल रहे हैं लेकिन उसमें जो 11वां अध्याय है, उसको साइंटिस्ट भी देखने का प्रयास करते हैं। वे सारे संसार को देखने का प्रयास करते हैं। अस्ट्रोनाउंट्स बनते हैं, स्पूतनिक में बैठेते है। अपोलो 11, दिस वन, दैट वन.. बहुत पहले चल रहे थे। अभी नासा ने और अन्यों ने भी स्पेस स्टेशन खोलें है। वहीं से उनका देखने का प्रयास चलता रहता है। बड़े-बड़े टेलीस्कोप्स भी हैं, दूर दर्शक यंत्र हैं। उनकी मदद से यह साइंटिस्ट मंडली देखने का कुछ प्रयास कर रही है लेकिन ज्यादा कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है। कुछ ज़्यादा नहीं दिख रहा हैं।डज लाइफ एग्जिस्ट। क्या मंगल पर , यहां पर या वहां पर जीव या प्राणी हैं या जीवन है? पानी भी है? मंगल पर पानी है? पानी है , पानी है,, पानी है। पिछले 2 सप्ताह से कहने लगे पानी है, हमने पानी को ढूंढ लिया है। वहां के लोग.. उनको कुछ साउंड भी सुनाई दे रही है।
ये प्रत्यक्ष ज्ञान की बात है लेकिन उससे कुछ ज्यादा दिखता नहीं, अपनी इन्द्रियों की मदद से कुछ ज्यादा समझ में नहीं आता लेकिन भगवान दिखाना चाहेंगे, वही कर रहे हैं। भगवान स्वयं दिखा रहे हैं।
*न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्र्वरम् ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 11.8)
अनुवाद:-
किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते । अतः मैं तुम्हें दिव्य आँखें दे रहा हूँ । अब मेरे योग ऐश्र्वर्य को देखो ।
भगवान् ने अर्जुन से कहा कि तुम यह दिव्य चश्मा पहन लो और फिर देखो। तत्पश्चात जो अर्जुन ने सब कुछ देखा। पूरे विश्व को देखा। वह विराट रूप का दर्शन ग्यारवें अध्याय में है। देखते हैं, फिर कभी आपको सुनाना हो पाएगा। आज तो इस ग्यारवें अध्याय की कुछ भूमिका ही प्रस्तुत की जा सकी है। ठीक है।
पदमाली, क्या तुम तैयार हो?
हरि! हरि! सभी बने रहिए! कहीं मत जाइए। रिलैक्स।