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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
31 दिसंबर 2021,
रेवदंडा.
गौरांग! 1052 स्थानो से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। गुरु महाराज कांफ्रेंस में एक भक्त को संबोधित करते हुए, “आप भी एक स्थान से हो।” ठीक है, सुप्रभातम, आप सब का स्वागत और अभिनंदन है। जपा कॉन्फ्रेंस से जुड़ने के लिए, आपका संग देने के लिए, आपकी उपस्थिति के लिए आपका जितना अभिनंदन करें इस संबंध में वह कम ही होगा।
श्रीभगवान का ऐश्वर्य भगवदगीता, श्रीमद् भगवदगीता की जय! गीता जयंती महोत्सव की जय! पराशर मुनि उन्होंने भगवान के षडऐश्वर्य का उल्लेख किया है। वह विश्व प्रसिद्ध वचन है,
*ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसा: श्रीय: ज्ञान वैराग्ययोश चैव सन्नम भग इतिंगना।।*
प्रभुपाद उसका बारंबार उदाहरण देते रहते हैं। भगवान के षडऐश्वर्य, वह षडऐश्वर्य पूर्ण है, इसलिए उनको भगवान कहते हैं। भग मतलब, भग इस शब्द का भावार्थ ऐश्वर्य है। वैभव है या विभूति है। गौरव कहिए तो भी सही है। तो वह षडऐश्वर्य जिसमें ज्ञान भी है। ज्ञान भगवान का ऐश्वर्य है। भगवान ज्ञानवान है इसलिए उनको भगवान कहते हैं। वह सौंदर्य की खान है इसीलिए उनको भगवान कहते हैं। सौंदर्यवान कहो या भगवान कहो दोनों ही एक ही है, इसलिए उनको भगवान कहते हैं। वह वैराग्य की खान हैं वैराग्य की तो कोई सीमा ही नहीं है। चैतन्य महाप्रभु के रूप में उन्होंने संन्यास लिया। भगवान ने लिया संन्यास। वह वैराग्य की मूर्ति है।
“मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति, जहां तक वैराग्य की बात है मेरे बराबर की बैरागी या उससे उंचा कोई संभव ही नहीं है। इस प्रकार जो ऐश्वर्य या संपत्ति है। धन संपदा है। उसमें सिर्फ कृष्ण नंबर वन है। उनसे आगे कोई नहीं है। वह अकेले ही नंबर वन है। भगवान धनवान है इसलिए उनको भगवान कहते हैं। ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य
भगवान का वीर्य या शौर्य, तो हो गए कुछ 5-6 होने चाहिए। इसको मैं संक्षिप्त में बताना तो चाहता था लेकिन ऐश्वर्य की ओर मुड़ना है। यह मुख्य मुख्य ऐश्वर्य है। इसीलिए उनको भगवान कहते हैं. या फिर जैसे मैंने कहा वे ज्ञानवान है इसलिए उनको भगवान कहते हैं। या फिर भगवदगीता में कहां है, भगवानुवाच जो भगवानुवाच वहा आसानीसे ज्ञानवानुवाच कहा जा सकता है। वह ज्ञानवान भगवान, उनके मुखारविंद से निकले हुए वचन है भगवदगीता का ज्ञान। फिर क्या कहना इस गीता की महिमा। ज्ञानवान भगवान ने कहे हुए यह वचन है। जब यह कह रहे थे, उसी के अंतर्गत दसवें अध्याय में उन्होंने अपने और कुछ वैभव का उल्लेख किया है। अर्जुन को सुना रहे हैं ताकि, अर्जुन समझेगा भगवान को। समझेगा कौन है भगवान और वह समझ कर फिर अर्जुन और कृष्णभावनाभावित होगा। कृष्ण कौन है, कृष्ण अपना परिचय दे रहे हैं। कृष्ण केवल कृष्ण से ही सीमित नहीं है। कृष्ण और भी क्या क्या बहुत कुछ है। कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण यह मैं हूं ,यह मैं हूं, यह मैं हूं। इस ब्रह्मांड के कई वस्तु है या व्यक्ति हैं। घटनाएं हैं। यह मैं हूं तो पूरे संसार का ध्यान करते हुए ब्रह्मांड का या ब्रह्मांडो का कहना होगा। यह भी भगवान का वैभव हुआ, यानी यह या फिर कहते कहते दसवें अध्याय को कब पढ़ुंगा, अनंतकोटी ब्रम्हांडनायक हो गया कि नहीं। भगवान का वैभव कैसे हैं, भगवान अनंतकोटी ब्रम्हांड के नायक है। मोटे मोटे नाम गिनते हैं, वैसे गिनना और कहना और थोड़ा आगे दौड़ना कठिन है। क्योंकि यहां और वैभव है। विभूति हैं। ऐश्वर्या है वह सुनने मात्र से हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। इस संबंध में अधिक चिंतन करने के लिए अधिक मजबूर करता है। कैसा है यहां सर्वाकर्षक यकर्षति सःकृष्ण इसीलिए दौड़ना एक वैभव से दूसरी वैभव की ओर दौड़ना होगा। कठिन है फिर भी प्रयास करना होगा। तो ध्यान पूर्वक सुनिए। श्रद्धापूर्वक सुनिए। एकाग्र बुद्धि से, कुशाग्र बुद्धि से सुनिए ताकि, सुनते ही आपको यह छूएगा यह वैभव। कुछ ध्वनित होगा। कुछ भाव उत्पन्न करेगा, ध्यानपूर्वक सुनने से श्रद्धा पूर्वक सुनने से
यह भाव उदित होंगे। या हम कृष्णभावना भावेश होंगे हम जैसे जैसे सुनते जाएंगे हम केवल नाम ही गिन रहे हैं या भाष्य सुनाने के लिए अधिक समय नहीं है।
आदित्यानामहं विष्णु आदित्यो मे जो द्वादश आदित्य है, उसमें विष्णु मैं हूं। उसमें जो विष्णु है व्दादश आदित्यो में जो विष्णु है वह विष्णु मैं हूं। र्ज्योतिषां रविरंशुमान्, जितने भी ज्योतिया है ज्योति है उसमें रवि या सूर्य में हूं। है कि नहीं है? जो है, सही है वही भगवान कह रहे हैं।नक्षत्राणामहं शशी, नक्षत्रों में मैं चंद्र हूं।
वेदानां सामवेदोऽस्मि, चार वेदों में सामवेद में हूं। यह नहीं कि और वेद में नहीं हूं। यह नहीं कि और नक्षत्र में नहीं हूं। लेकिन उनमें भी विशेष नक्षत्र कहो या उन वेदों में विशेष वेद कहो सामवेद में हूं।
देवानामस्मि वासवः और देवों में इंद्र देवेंद्र मैं हूं।
इन्द्रियाणां मनश्र्चास्मि कल बता रहे थे हमारे इंद्रियों में मनषष्ठानि इंद्रियानी छठवां या सिक्सथ सेंस छठवां इंद्रिय मन है। तो वह मन मैं हूं। आप जानते हो मन कितना बलवान है। कितना चंचल है। यह मन भी मैं हूं। और है कैसे प्रकृति पृष्ठ अदा आठ प्रकार के प्रकृति या हैं उसमें से मन बुद्धि अहंकार जो सूक्ष्म प्रकृतिरष्टधा है। वह मन मैं हूं या मेरी शक्ति है। वैसे समझ भी सकते हैं कैसे मन भगवान का वैभव है।
रुद्राणां शंकरश्र्चास्मि एकादश या 11 रूद्र है उसमें शिव या शंकर मैं हूं, भगवान कहते हैं।
मेरू: शिखरिणामहम्, कई सारे पर्वत य पहाड़ है। पृथ्वी पर, ब्रह्मांड में है उसमें जो मेरु पर्वत है मैं हुं। उसी के साथ वैसे खगोल का पता चलता है। एक होता है भूगोल पृथ्वी गोलाकार है। यह कब से लिखा है पृथ्वी गोल है लेकिन आजकल कई लोग समझते हैं या मुस्लिम लोग पृथ्वी सपाट है। अभी अभी डिस्कवरी हुई एकसौ दोसौ साल पहले वैज्ञानिकों ने डिस्कवर किया पृथ्वी आकृति में गोल है। हरि बोल, क्या मूर्खता है। यह भूगोल है, यह तो सदियों से पता है। वेदिक कल्चर के संस्कृति के जो जन हैं भूगोल भी है या खगोल भी है। तो दोनों गोल है। पृथ्वी गोल है और खगोल ब्रह्मांड भी गोल है। उसमें मेरु पर्वत भी है। वह मैं हूं भगवान कहते हैं।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् | कई सारे पुरोहित है। पुरोहित कहते हैं फिर जो औरों का हित चाहते हैं। औरों के हित की बात कहते हैं सुनाते हैं। उसी प्रकार का मार्गदर्शन करते हैं या फिर यज्ञ भी करते होंगे उनको पुरोहित कहते हैं। पुरोहित शब्द भी कैसा है, पुरोहित आगे रखते हैं औरों का हित, यजमान का हित। पुरोहितों में बृहस्पति जो देवताओं के गुरु हैं, मार्गदर्शक है, वह बृहस्पति मैं हूं भगवान कहते हैं।
सेनानीनामहं स्कन्दः सेनानायक को में, मैं कार्तिकेय हूं। हरि हरि, यह शिव जी के पुत्र हैं कार्तिकेय।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि, यह काम की बात है। और यज्ञ में जप यज्ञ में हूं। हरि बोल! जो हम हररोज करते हैं। अभी अभी कर रहे थे।, जप और करने वाले हैं। जप दिन में तो यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि आर्य समाज के जनता तो सिर्फ यज्ञ ही करते हैं,
लेकिन वह कर्मकांडीय यज्ञ है। यज्ञो के भी कई प्रकार है भाइयों, मित्रों, बहनों। तो उन यज्ञो में जप यज्ञ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। एक तो यह यज्ञ है, आप समझिए यह यज्ञ है। हरि हरि। यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः कृष्ण ही कहे है गीता में। हमारे सारे कर्म कृत्य किसके लिए होने चाहिए? यज्ञार्थात यज्ञ के लिए हमारे सारे प्रयत्न होने चाहिए। वैसे यज्ञ तो भगवान ही है। उनको यज्ञपुरुष भी कहते हैं। भगवान का एक नाम है यज्ञ पुरुष। तो यज्ञार्थात कर्म यज्ञ के लिए कर्म करना चाहिए।
मतलब यज्ञ पुरुष के लिए, भगवान के लिए कर्म करना चाहिए, कृत्य करना चाहिए। यत्करोषि.. तत्कुरुष्व मदर्पणम् भी कहे हैं कृष्ण, जो भी करते हो वह मुझे अर्पित करो। अन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः तो तुमने किया हुआ कृत्य अगर यज्ञार्थात यज्ञ के लिए नहीं, भगवान के लिए नहीं तो लोकोऽयं कर्मबन्धनः बंधन में फस जाओगे। बद्ध बनोगे और बद्ध बनोगे तो सावधान। यज्ञ में जप यज्ञ में हूं। तो करते जाइए जप और यह जप तप भी है। स्थावराणां हिमालयः तो भारी कोई वस्तु है, भारी समझते हो या स्टेशनरी कहते हैं। एक मोबाइल और एक स्टेशनरी होता है। संसार में दो प्रकार की वस्तुएं होती है। मोबाइल समझते हो, एक स्थान से दूसरे स्थान पर हम ले जा सकते हैं उठाकर। लेकिन कुछ बातें स्थावर है, स्थित है, अपने स्थान से वह अलग नहीं होती। उन को हटाना कठिन है, भारी है, स्थित है। तो उनमे नंबर वन है हिमालय स्थावराणां हिमालयः भगवान कह रहे थे या भगवान का स्मरण दिलाता है वह हिमालय। भगवान का प्रतिनिधित्व करता है वह हिमालय। हिमालय भगवान का वैभव है। हम जब पदयात्रा में थे तब हमने अनुभव किया है ऐसे। पदयात्रा करते हुए हम जब बद्रिकाश्रम जा रहे थे, हरिद्वार से बद्रिकाश्रम। तो भगवान के वैभवो की सूची जो भगवान यहा कह रहे है दसवें अध्याय में। उसमें हिमालय हैं, अब गंगा का नाम भी आगे आने वाला है अगर हमारे पास समय है और सूर्य का ज्योति यों में रवि में हू सूर्य। तो सूर्य, गंगा और हिमालय। तो जब हम पदयात्रा करते हुए हरिद्वार ऋषिकेश से बद्रिकाश्रम जा रहे थे, तो कई दिनों तक यह यात्रा चलती रही। तो वहां प्रमुख तीन ही दर्शन है। सभी और देखू तो हिमालय ही हिमालय। हिमालय की शिखर या चोटी है, पत्थर है, चट्टाने हैं, तो सर्वत्र हैं हिमालय। और फिर नीचे देखो तो गंगा बह रही है। और फिर ऊपर देखो तो क्या दिखता है? सूर्य है। तो उस पूरी यात्रा में हम इन तीनों का ही दर्शन कर रहे थे। अधिकतर इन्हीं का ही दर्शन था, एक हिमालय, एक गंगा और सूर्य।
और यही हमको कृष्णभावना भावित बना रहे थे। कृष्ण का स्मरण दिला रहे थे। तो यह कृष्ण के वैभव है, विभूति है, गौरव है भगवान का इन बातों में तो स्थावराणां हिमालयः। अश्र्वत्थः सर्ववृक्षाणां सभी वृक्षो में पीपल का वृक्ष अश्र्वत्थः में हूं। देवर्षीणां च नारदः तो देवर्षी यों में नारद में हूं भगवान कह रहे हैं। उच्चैःश्रवसमश्वानां सभी घोड़े जितने भी है ब्रह्मांड में या जहां भी है उसमें उच्चैःश्रव नाम का घोड़ा मैं हूं। जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें उत्पन्न हुआ घोड़ा में हूं। और यह घोड़ा मिला किसको? कौन थे? बली महाराज, घोड़ा दिया बली महाराज को। और उसी मंथन से निकला एक हाथी भी और उसका नाम था ऐरावत, वह मिला इंद्र को। देखिए कैसे बटवारा हो रहा है। तो आगे उसी वाक्य में कृष्ण कहे ऐरावतं गजेन्द्राणां गजेंद्रो में या हाथीयों में ऐरावत में हू। नराणां च नराधिपम् मनुष्यों में जो राजा है वह मैं हूं। आयुधानामहं वज्रं जितने भी हथियार है उसमें वज्र में हूं। धेनूनामस्मि कामधुक् जितनी भी गायें हैं उसमें सुरभि गाय में हूं। सर्पाणामस्मि वासुकि: जितने भी सर्प है उसमें वासुकी मैं हूं। वासुकी नाम का नाग है, सर्प है। जिसकी मदद से यह मंथन भी हुआ था। अनन्तश्चास्मि नागानां ओर नागों में अनन्त भगवान ही है अनन्त। यह तो स्वयं भगवान ही है। और तो वैभव वैभव की बात है लेकिन यहां तो अनन्त तो स्वयं भगवान ही हैं। यम: संयमतामहम् समस्त नियमन कर्ताओ मे……….( नो ओडियो फॉर वन एंड हाफ मिनट ) अध्यात्मविद्या विद्यानां जितनी विद्या है अध्यात्म विद्या, आत्मा से संबंधित, परमात्मा के संबंध की विद्या मैं हूं, वेदांत कृत वेदविद कृष्णा कहे है। अक्षराणामकारोऽस्मि तो जितने भी अक्षर हैं उसमें अ अक्षर मैं हूं।
अहमेवाक्षय: कालो मैं काल हूं, शाश्वत काल में हूं। और मृत्युः सर्वहरश्चाहम सब कुछ हरने वाला, आप कमाते जाओ और फिर मैं आऊंगा। आपने अगर वह समर्पण नहीं किया है, आपने इसको कमाया है। त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये आपने ऐसा नहीं किया है तो मैं आकर हरश्चाहम मैं सब हर लूंगा और लात मार कर भगा दूंगा तुम्हें। मृत्युः सर्वहरश्चाहम तुमको भी घर से बाहर किया जाएगा या संपत्ति से अलग किया जाएगा। तुम जो अहं मम अहं मम कह रहे थे उसका विनाश करने वाला मृत्यु में हूं, सावधान। गायत्री छन्दसामहम् तो कई प्रकार के छंद है, उसमें गायत्री छंद में हूं। मासानां मार्गशीर्षोअहं महीनों में, मासों में मार्गशीर्ष महिना में हूं। यह तो मासों की बात हुई फिर ऋतुओं में बारह मास होते हैं और छह ऋतु होते हैं। तो ऋतु मे ऋतुनां कुसुमाकरः अहं कुसुम मतलब फूल। तो वसंत ऋतु में हूं, जब फूल ही फूल सर्वत्र खिलते हैं। वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि वृष्णी वंश जो है, उसमें वासुदेव में हूं। पाण्डवानां धनञ्जय: तो पांडवों में अर्जुन में हूं। अर्जुन को ही सुना रहे हैं।
मुनीनामप्यहं व्यास: और मुनियों में व्यास मुनि में हूं। ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ज्ञानियों का ज्ञान में हूं। तो आप समझ सकते हो, इसमें भाष्य की कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान ज्ञान नहीं देते। ज्ञान वैसे हम से पहले ज्ञान होता है बाद में हम जन्म लेते हैं। तो ज्ञान शाश्वत है। तो ज्ञानियों का ज्ञान में हूं। और इतना ही अभी कहेंगे भगवान और फिर कहेंगे नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप मेरे विभूतियों का, ऐश्वर्य का, वैभव का कोई अंत नहीं है। मैंने जो भी अभी यह कहा है यह संकेत मात्र है। संकेत किया है मैंने, थोड़ी हिंट ही दे दी। लेकिन यह नहीं समझना मैंने जितना कहा है यह जो सूची लिस्ट बनाई और सुनाई तुमको उतना ही वैभव नहीं है। यह तो नमूना पेश किया मैंने। एकांशेन स्थितो जगत् और यह जितने भी सारे वैभव मैंने कहे यह तो मेरे अंश है। अंश समझते हो? अंश है। मैं अंशी हूं और यह सब अंश है। मैं और भी बहुत कुछ हूं इनके अलावा जो जो मैंने कहा, जो जो वैभव गिनाए। हरि हरि। तो फिर यह जो भी बातें कृष्ण ने कहीं, वैभवो का उल्लेख किया। उसका दर्शन भी कराएंगे। उसका प्रात्यक्षिक होगा अगले अध्याय में विराट रूप विश्वरूप। जो जो कहा भगवान ने मैं यह हूं मैं वह हूं। दिखाओ.. तो भगवान ने दिखाया। तो हो गए विराट रूप धारण किए विश्वरूप। संभावना है कि हम कल विराट रूप का दर्शन करेंगे। और आज जो जो बातें कही उनको देखेंगे या कृष्ण दिखाएंगे, अर्जुन देखेंगे, हम भी देखेंगे।
श्रीमद्भगवद्गीता की जय।
गीता जयंती महोत्सव की जय।
कृष्ण अर्जुन की जय।
श्रील प्रभुपाद की जय।
कुरुक्षेत्र धाम की जय।
भगवद्गीता वितरण मैराथॉन की जय।
गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल। और भगवद्गीता वितरकों की जय।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
30 दिसंबर 2021
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
हरे कृष्ण ! आज 1085 स्थानों से भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। सफला एकादशी महामहोत्सव कि जय। आज के दिन आप सभी सफल हो इस प्रकार से मेरी आप सभी को शुभकामनाएँ हैं। कृष्ण प्रेम प्राप्ति में, प्राप्ति ही सफलता है। जब एकादशी होती है तो भक्त दिन में तो व्यस्त रहते ही है, रत में भी व्यस्त रहते हैं। महाराष्ट्र में एकादशी महोत्सव काफ़ी प्रसिद्ध हैं। विट्ठल भक्त एकादशी को पंढरपुर भी दौड़ते हैं वारकरी भी। माधव तिथि भक्ति जननी। एकादशी को माधव तिथि भी कहते हैं। वैसे सभी उत्सव माधव तिथियाँ होती हैं। माधव तिथि एकादशी भी स्पेशल एकादशी है। ये भक्ति कि जननी है। भक्ति देने वाली हैं, प्रेम देने वाली हैं। ऐसे दिन का व रात का भी यथा संभव हमें पूरा लाभ उठाना चाहिए और अधिकतर श्रवण कीर्तन में अपना समय व्यतीत करना चाहिए। हमारी जो शारीरिक आवश्यकताएँ उन्हें घटाते हुए या कम करते हुए। इसलिए यहाँ कई भक्त तो पहले मैं भी कई वर्षों तक निर्जला एकादशी करता था, शायद सात – आठ वर्ष तक हर एकादशी निर्जला एकादशी। या फिर कुछ भक्त तो अन्न तो लेना ही नहीं होता है यह तो आप जानते ही हो, संसार भर का पाप अन्न में प्रवेश करता हैं। पाप अन्न का आश्रय लेता हैं, जो व्यक्ति आज के दिन अन्न खाएगा वह पाप खाएगा इसलिए इस से बचो, इससे दूर रहो। नो ग्रेन्स। अन्न ग्रहण नहीं करते है। अल्पाहार करने का यह दिन हैं, या फलाहार। हरी हरी
सनातन गोस्वामी ने उपदेश दिए कि-
ग्राम्य कथा ना शुनिबे , ग्राम्य वार्ता ना कहिये ।
भाल ना खाइबे आर भाल ना परिबे ॥ (चैतन्य चरितामृत अंतय लीला 6.236)
अनुवाद – न तो सामान्य लोगों की तरह बोलो और न वे जो कहें उसे सुनो । तुम न तो स्वादिष्ट भोजन करो , न ही सुन्दर वस्त्र पहनो ।
ये यही प्रेक्टिस करने का दिन है। या अधिकतर अपनी आत्मा को खुराक, आत्मा को आज खूब खिलाना चाहिए । शरीर को मत खिलाओ – पिलाओ या कम खिलाओ – पिलाओ पर आत्मा को खूब खिलाओ । आत्मा के लिए फीस्ट हो आज, शरीर के लिए फ़ास्ट और आत्मा के लिए फीस्ट हो आज।
रसाई अनामृत पाओ के स्थान पर हरी नामामृत पाओ या फिर कृष्ण गुण गाओ। भागवत महात्यम में गीता को अमृत कहा गया हैं, भागवत भी अमृत हैं। आत्मा को अधिक से अधिक इस अमृत का पान कराओ। इसी से आत्मा बनेगी अमृत आत्मा मरती नहीं हैं।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 4.9)
अनुवाद- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
आत्मा अमर हैं और हम उस अमरत्व का अनुभव कर सकते हैं|
एकादशी का पालन आप कैसे करते हो, इस सुअवसर का आप कैसे लाभ उठाते हो| एकादशी दूसरे दिन के जैसा साधारण दिन नहीं है| एकादशी अन्य दिनों से भिन्न है| इसकी बहुत महिमा है एकादशी महात्म्य हैं| या इसीलिए रूप गोस्वामी प्रभुपाद भी एकादशी के पालन के लिए सभी रूपानुगत को प्रेरित किए हैं ये कार्तिक महोत्सव, ये महोत्सव, एकादशी महोत्सव| एकादशी महोत्सव का उत्सव हम श्रवण उत्सव, कर्ण उत्सव – कानों के लिए उत्सव, जिव्हा के लिए उत्सव, कीर्तन कर रहे हैं, जप कर रहे हैं, गीता का पाठ कर रहे हैं यह जिव्हा के लिए उत्सव है| नेत्रों के लिए उत्सव है, दर्शन कर रहे हैं| विग्रह के खूब दर्शन कीजिए नेत्रोत्सव, प्रार्थना कीजिए जिव्होत्सव, प्रार्थना सुनिए कर्नोत्सव| ह सभी उत्सव है और यह उत्सव मनाने से हम उत्साहित होते हैं| आपने सुना होगा मैं कहते रहता हूं शास्त्रों में भी कहा गया है उत्सव बढ़ाते हैं हमारा उत्साह|
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने शची माता को एकादशी करने के लिए प्रेरित किया था| एक समय शची माता या माताएं एकादशी के व्रत का पालन नहीं करती थी| विधवा एकादशी का व्रत कर सकती थी परंतु सधवा नहीं करती थी| विधवा और सधवा में अंतर समझते हैं – विधवा सधवा धव मतलब पति| माधव मतलब क्या लक्ष्मीपति माधव या राधा के पति माधव| धव मतलब पति| पति होना तो सधवा पति के साथ होना पतिव्रता नारियां उन्हें सधवा कहते हैं| पति नहीं रहें तो विधवा बन जाती हैं| 500 वर्ष पूर्व ऐसी मान्यता थी अभी भी होगी विधवा को एकादशी का पालन करना चाहिए सधवा को नहीं करना चाहिए| शची माता के पति जगन्नाथ मिश्र तो थे पर फिर भी चैतन्य महाप्रभु ने कहा मैया एकादशी का पालन करो और फिर तब से शची माता मैया एकादशी का पालन करने लगी| आप भी प्रेरित करो कल कुछ भक्त प्रचार में गए थे तो छोटे ग्रुप से उनका वार्तालाप हो रहा था तो हरे कृष्ण भक्त बता रहे थे कि आपको एकादशी का पालन करना चाहिए, एकादशी का पालन करो| कई लोग उसके लिए तैयार हुए| 8-10 लोगों ने कहा कि हाँ हम एकादशी का पालन करेंगे| आप एकादशी की महिमा औरों को सुनाकर उनसे पालन करवा सकते हैं जो नहीं कर रहे हैं |
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।। (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 10.20)
अनुवाद – हे नींद को जीतनेवाले अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ और प्राणियोंके अन्तःकरणमें आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।
यह कहना था आपको कहा था कि हम आगे बढ़ाएंगे श्री भगवान का ऐश्वर्य नामक जो गीता का दसवां अध्याय है । आप भी पढ़िए दिन में क्या पढ़ सकते हैं दिन में एक बार पढ़िए गीता का वितरण भी करना है। charity begins at home अंग्रेजी में कहते हैं। आप अगर यदि कोई वितरण कर रहे हो, कोई दान दे रहे हो तो पहले तो दान घर में ही दे दो, घर वालों को दे दो या फिर खुद को दो औरों को तो दे रहे हो गीता बांट रहे हो, खूब बांटों। गीता अमृत का पान कराओ देखो क्या क्या कर सकते हो, क्या क्या पढ़ सकते हो, क्या क्या सुन सकते हो या एक घर से दूसरे घर एक दुकान से दूसरी दुकान जा रहे हो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के पास तो रास्ते में आप कुछ पढ़ सकते हो या कुछ सुन सकते हो। प्रभुपाद के टॉक्स, गीता पर प्रभुपाद के प्रवचन या औरों के या गीता पर भागवत पर हरि कथा, दामोदर लीला सुन भी सकते हो। ऐसी व्यवस्था आजकल है हेडफोन के द्वारा। आप अपना समय व्यर्थ नष्ट ना करें। दो ग्राहकों के बीच में ग्राहक समझते हैं आप दो ग्राहकों के बीच में आप स्वयं को कुछ सुनाओ या कुछ याद करो जो बातें कृष्ण ने कही है। भगवत गीता के श्लोक कंठस्थ करो। कुछ पॉकेट या डायरी रख सकते हो important slokas भक्त लिखते हैं ऐसा इंपॉर्टेंट श्लोक और फिर समय-समय पर वह अपनी जेब से डायरी निकाल कर उसे पढ़ते रहते हैं।
इस प्रकार अव्यर्थ कालत्वम आप के कल को अव्यर्थ नहीं करोगे।
“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 10.10)
अनुवाद- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
पूरे समय का उपयोग कृष्ण की सेवा में आप इस पर विचार करो कैसे हम लोग अपना समय वेस्ट करते रहते हैं। भगवत प्राप्ति में या कृष्ण प्रेम प्राप्ति में या कृष्ण या गुरु गौरांग को प्रसन्न करने की बजाय सभी कुछ हमने किया। अपने समय को बर्बाद किया यह बहुत बड़ा विषय है मेरे मन में ऐसा ही कुछ विचार आया तो मैं कह रहा हूँ। हमारे 24 घंटे हम कैसे बिता रहे हैं उसमें हम कुछ समय व्यर्थ तो नहीं कर रहे हैं। अपने समय को तुम धन कमाने के लिए उपयोग नहीं कर रहे हो तुम अपने समय को बर्बाद कर रहे हो खराब कर रहे हो ऐसा दुनिया वाले कहते हैं परंतु हरे कृष्ण वाले या वैष्णव क्या कहते हैं अपने समय का उपयोग धन की बात कहते हैं तो हरी नाम का या प्रेम धन प्रेम धन प्राप्ति के लिए अपने समय का सदुपयोग नहीं किया तो फिर क्या कहोगे कि हमने अपने समय को नष्ट किया। हे वैष्णव या वैष्णवी तुमने अपने समय को बर्बाद किया। तुम सो रहे हो, तुम ये कर रहे हो, तुम वो कर रहे हो। अगर आप सोते हैं, गपशप करते हैं तो यह अपने समय को बर्बाद करते हैं।
अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः । जनसङ्गश्च लौल्यञ्च षडर्भिभक्तिर्विनश्यति ॥ (उपदेशामृत)
अनुवाद- जब कोई निम्नलिखित छह क्रियाओं में अत्यधिक लिप्त हो जाता है , तो उसकी भक्ति विनष्ट हो जाती है ( १ ) आवश्यकता से अधिक खाना या आवश्यकता से अधिक धन – संग्रह करना । ( २ ) उन सांसारिक वस्तुओं के लिए अत्यधिक उद्यम करना , जिनको प्राप्त करना अत्यन्तः कठिन है । ( ३ ) सांसारिक विषयों के बारे में अनावश्यक बातें करना । ( ४ ) शास्त्रीय विधि विधानों का आध्यात्मिक उन्नति के लिए नहीं अपितु केवल नाम के लिए अभ्यास करना या शास्त्रों के विधि – विधानों को त्याग कर स्वतन्त्रतापूर्वक या मनमाना कार्य करना । ( ५ ) ऐसे सांसारिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों की संगति करना जो कृष्णभावनामृत में रुचि नहीं रखते , तथा ( ६ ) सांसारिक उपलब्धियों के लिए लालयित रहना।
अपने समय को नष्ट कर रहे हो। सभी के पास 24 घंटे ही होते हैं, किसी के पास ज्यादा घंटे होते हैं क्या? सभी के लिए उतना ही समय होता है तो ऐसे भी कलयुग में जिंदगी बहुत छोटी हो रही है।
हम कलयुग के जो जन हैं हम अल्पायु हैं। अधिकतर आयु हम ऐसे ही
विफले जनम गोङाइनु।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय।
संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥
ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥
हा हा प्रभु नन्दसुत, वृषभानु-सुता-युत, करुणा करह एइ बार।
नरोत्तमदास कय, ना ठेलिह राङ्गा पाय, तोमा बिना के आछे आमार॥4॥
अनुवाद- (1) हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है। (2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। (3) जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं। (4) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नंदसुत श्रीकृष्ण! हे वृषभानुनन्दिनी! कृपया इस बार मुझ पर अपनी करुणा करो! हे प्रभु! कृपया मुझे अपने लालिमायुक्त चरणकमलों से दूर न हटाना, क्योंकि आपके अतिरिक्त मेरा अन्य कौन है?’’
अपना जीवन जहर पीने में बिता दिया तो हमें यह समझना चाहिए कि यह एक अमृत है यह है नामामृत, यह है गीतामृत, यह है भागवत अमृत, प्रसाद अमृत वह भी एक अमृत है। यह अमृत और यह है जहर। ऐसी बुद्धि भी भगवान हमको दे आपको दे
ददामि बुद्धियोगं
हम साधना में लगे रहेंगे भगवान देखेंगे कि किस व्यक्ति के प्रयास, भगवान प्रसन्न होंगे और फिर बुद्धि देंगे। शर्त भी हैं तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् हो रहा है या जितना भी हो रहा है जितना भी समय वह भगवान कि सेवा में दे रहा है।
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि |
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङगं त्यक्त्वात्मशुद्धये || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 5.11)
अनुवाद- योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
योगी भी कार्य करते हैं। निष्क्रिय नहीं होना है। यह मायावाद है, यह निराकारवाद, निर्गुणवाद है। निष्क्रिय तो होना ही नहीं है ऐसा संभव भी नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं योगी नाम कर्म कुर्वंति योगी भी कार्य करते हैं। काया से, मन से, वचन से और इंद्रियों से। इन्द्रियां अनेक हैं, पांच तो प्रमुख है ही।
मन को भी छठी इंद्री या इन्द्रियों का राजा एक प्रकार से बताया गया है।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति योगी कार्य करते हैं। योगी, भक्ति योगी भी कार्य करते हैं। भक्ति योगी होना होता है। सभी योगियों में श्रेष्ठ भक्ति योगी ही होता है। और भगवान ने भक्ति योगियों को रिकमेंट किया हुआ है। कर्म योगियों, अष्टांग योगियों, ध्यान योगियों का ज्ञान अधुरा है। योगी असत संग को त्याग कर आत्मा को शुद्ध करते हैं। एक ही वाक्य में, वचन में भगवान ने बहुत कुछ क्या क्या कहा। योगी कार्य करते हैं योगी कार्य करते हैं कैसे कार्य करते हैं, उनके जीवन में वैराग्यवान होते हैं। वैराग्य होता है और आत्मा की शुद्धिकरण के लिए योगी कार्य करते रहेंगे। तत्पश्चात भगवान हमें बुद्धि देंगे और इस बुद्धि का उपयोग हम भगवान के पास जाने में करेंगे। हमारा 24 घंटे की बुद्धि जो है वह कैसे व्यतीत हो रही है उस पर हमारा ध्यान होना चाहिए। कहीं हम समय को बर्बाद तो नहीं कर रहे हैं जिस समय हम कृष्ण प्राप्ति के लिए प्रयास नहीं हो रहा है। हमें अपना साधन और भजन प्रातः काल में ही करना होता है। दिन में यह करना हैं सायः काल में यह करना है। हमारा 24 घंटे का एक कार्यक्रम होना चाहिए। काम धंधा भी प्रेम धंधे करने चाहिए काम धंधा तो बहुत हो गया। वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत कुछ पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं तो उसको निभाने, संभालने हेतु भी समय निर्धारित किया जा सकता है। इस प्रकार हमें अपने पूरे जीवन का और पूरा जीवन कैसे एक एक क्षण का एक क्षण और फिर अणु क्षण से पूरा जीवन बनता है। कितना समय हम गवांते हैं एक क्षण। एक क्षण गवायाँ, दूसरा क्षण गवायाँ। इतना मूल्यवान है यह समय। आज के दिन का पूरा फायदा उठाइए टेक फुल एडवांटेज ऑफ द डे। भगवान का ऐश्वर्य, एकादशी भी भगवान का ऐश्वर्य ही है। यह उत्सव भी ऐश्वर्य ही है। एकादशी महोत्सव या और और उत्सव भगवान ही बने हैं। भक्ति के मार्ग साधन, साध्य यह सारी व्यवस्था भी भगवान का ऐश्वर्य ही है।
नीताई गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*29 -12 -2021*
*अध्याय-10*
हरे कृष्ण !
आज 1029 लोकेशन से भक्त जप में सम्मिलित हैं आप सभी का इस जप और जपा टॉक में स्वागत है। वैसे जप तो चल ही रहा है, चलता रहेगा पहले जप एंड नाउ फुल टॉक, इट्स नॉट माय टॉक, या भगवान ही बोलेंगे या हम भगवान को बोलने देंगे, भगवत गीता का दसवां अध्याय हम पढ़ रहे थे पिछले कई दिनों से अर्जुन का साक्षात्कार ,
“अर्जुन उवाच
*परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ||*
*आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा | असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ||* (श्रीमद भगवद्गीता 10.12, 13)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
हमारा भी साक्षात्कार है या अर्जुन का साक्षात्कार हम स्वीकार कर सकते हैं श्रद्धा पूर्वक या हम भी उस क्षण की प्रतीक्षा कर सकते हैं जब हम स्वयं भी कह पाएंगे परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान, एक तो अर्जुन की कही हुई बात को रिपीट करना उसका भी स्वागत है। ऐसे रिपीट करते करते गीता श्रवण, कीर्तन, चिंतन, प्रार्थना करते करते अर्जुन के विचार या अर्जुन के साक्षात्कार, निश्चित संभव है हमारा भी साक्षात्कार हो जाए, वरना तोते जैसा रटना अर्जुन जैसा साक्षात्कार, हमारा साक्षात्कार उसको हृदयंगम करना, अनुभव करना, कि हम भी कह पाएंगे अपने शब्दों में, अपने अनुभवों के साथ, परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् इत्यादि इत्यादि यह कहकर अर्जुन आगे कहते हैं
*सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव | न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ||* (श्रीमद भागवतम 10.14)
अनुवाद -हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं |
गीता का नौवां अध्याय सुनाया है फिर दसवें अध्याय में आपने प्रवेश किया और अभी चार विशेष श्लोक भी आपने सुनाएं। श्रील प्रभुपाद उन 4 श्लोकों के संबंध में इसी अध्याय के अंतिम श्लोक के तात्पर्य में वे लिखते है इस अध्याय के श्लोक 8 से लेकर 11 तक श्रीकृष्ण की पूजा तथा भक्ति का स्पष्ट संकेत है। श्रील प्रभुपाद ने विशेष उल्लेख इन 4 श्लोकों का किया है। अर्जुन ने वह चार श्लोक और चार वचन भी या भगवान के मुखारविंद से निकले हुए वह चार श्लोक भी सुने हैं
*गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥*
चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।”(गीता महात्मय ४)
फिर इट्स नेचुरली अर्जुन के मुख से यह वचन, अर्जुन उवाच चल रहा है।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् और इसी को फिर आगे अर्जुन कह रहे हैं आपने जो जो कहा है। “सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव, मन्ये मतलब मैं मानता हूं स्वीकार करता हूं। यह सत्य है मैं जो भी कहूंगा सत्य या सच ही कहूंगा इसके अलावा और कुछ भी नहीं कहूंगा। गीता के ऊपर हाथ उठाकर वह कहते हैं। अर्जुन भी कह रहे हैं कि आपने जो भी कहा है वह सब सत्य है।
*सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्र सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥*
(श्रीमद भागवतम 10.2.26)
अनुवाद -देवताओं ने प्रार्थना की हे प्रभो , आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा ही पूर्ण रहता है क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता । सृष्टि, पालन तथा संहार – जगत की इन तीन अवस्थाओं में वर्तमान रहने से आप परम सत्य हैं। कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं बन सकता जब तक वह पूरी तरह आज्ञाकारी न हो अत : इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते । आप सृष्टि के सारे अवयवों में असली सत्य हैं इसीलिए आप अन्तर्यामी कहलाते हैं । आप सबों पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं। आप आदि सत्य हैं अतः हम नमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं । आप हमारी रक्षा करें ।
आपने जो जो कहा है मुझे, यह सब सत्य है और यह मुझे मंजूर है। अर्जुन का आदर्श है हमें भी सीखना चाहिए ऐसे आदर्श भाव से, ऐसी श्रद्धा से, श्रद्धा के साथ हमें भी कृष्ण के वचनों को सुनना चाहिए स्वीकार करना चाहिए कि यह सत्य है। हम बोल रहे हैं गॉड इज ट्रुथ, सच कहते हैं लोग, गॉड सत्य हैं या गॉड जो भी बोलते हैं कृष्ण जो भी बोलते हैं वह सत्य ही है और देवता भी गर्भ स्तुति में कह रहे थे।
*सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये सत्यस्यसत्यमृतसत्यनेत्र सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥*
(श्रीमद भागवतम 10.2.26)
आप सत्य हो आप सत्य का स्त्रोत हो सत्यम सत्यम सत्यम सत्यम सत्यम कई बार और कई शब्दों में देवता कह रहे हैं। श्री सत्यम अतः कृष्ण सत्य है गॉड इज़ ट्रुथ और गॉड जो भी बोलते हैं वह सत्य ही बोलते हैं सत्य के अलावा और कुछ नहीं बोलते और फिर उस सत्य की जय होती है सत्यमेव जयते ! यह कहने पर फिर अर्जुन आगे कहते हैं उसमें से एक बात उनकी जिज्ञासा है। अर्जुन की अथातो ब्रह्म जिज्ञासा या कुछ परी प्रश्नेन है बनने वाला है या प्रेरित कर रहे हैं।
*वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः |याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.16)
अनुवाद- कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्र्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं |
आपकी जो विभूतियां हैं आपका जो वैभव है उस संबंध में मैं सुनना चाहता हूं।
*कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् | केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.17)
अनुवाद-हे कृष्ण, हे परम योगी! मैं किस तरह आपका निरन्तर चिन्तन करूँ और आपको कैसे जानूँ? हे भगवान्! आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय?
केषु केषु च भावेषु , मैं किस-किस रूप में किन किन भावों से किन किन रूपों में मैं आपका चिंतन कर सकता हूं।
दसवां अध्याय चल रहा है 12वें श्लोक से तो यह जो मैंने अभी कहा केषु केषु च भावेषु, आपके पास गीता है? हम सब गीता के विद्यार्थी हैं इसलिए हमारे पास टेक्स्ट बुक होना चाहिए। मॉरीशस में तो है गुड ! नागपुर में भी है वहां तो भगवत गीता एज इट इज़ रखी हुई है। कईयों के हाथों में तो मैं देख रहा हूं और फिर हाथ में ही नहीं रखना दिल में रखिए। गीता को आंखों से और कानों से पहुंचा दीजिए, गीता को हृदय में मतलब हृदयंगम करना है और वही तो आप रहते हो, आत्मा के पास पहुंचा दो, आत्मा को सुनने दो अर्जुन के वचन और कृष्ण के वचन , अर्जुन जानना चाहते हैं मैं आपका स्मरण करना चाहता हूं चिंतन करना चाहता हूं केषु केषु च भावेषु किस-किस रूप में, भाव में मैं आपका स्मरण कर सकता हूं। हमको तो चिंतन की चिंता है मैं चिंतन करना चाहता हूं मुझे कुछ टॉपिक दीजिए कुछ विषय दीजिए, कुछ प्रश्न दीजिए कुछ कहिए इसका स्मरण करो अर्जुन, तो वही बात है इस अध्याय में 10th चैप्टर में श्री भगवान का ऐश्वर्य भगवान का वैभव इस अध्याय का नाम भी है। अर्जुन वैसे दूसरे शब्दों में भगवान के वैभव को जानना चाहते हैं उनका वैभव एवं अलग-अलग रूप जो भी है वैविध्य है आपकी सृष्टि में विविधता है या आप कई सारे रूपों में आप प्रकट होते होंगे, होंगे कि नहीं थोड़ा उल्लेख कीजिए, संकेत दीजिए कहिए ताकि फिर मैं उनका भी स्मरण करूं।
*कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन | भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.18)
अनुवाद- हे जनार्दन! आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्र्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें | मैं आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ |
वैसे वह शौनक आदि ऋषि मुनि भी कह रहे थे हे सूत गोस्वामी कथा सुनाते रहिए सुनाते रहिए।
*वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे । यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥* ( श्रीमदभागवतम 1.1.19)
अनुवाद- हम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं , जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है । उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है , वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं ।
तृप्त नहीं हो रहे हैं जैसे आप अधिक अधिक सुना रहे हो अधिक अधिक सुनने की इच्छा जग रही है। प्यास कुछ बढ़ ही रही है। सुनाते जाइए ऐसा शौनक आदि मुनि कह रहे हैं सूत गोस्वामी से, उनका निवेदन था अतः अर्जुन यहां पर वैसा ही अपना भाव व्यक्त कर रहे हैं लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं।
तृप्तिम न अस्ति, तृप्त हो रहा हूं और नहीं भी हो रहा हूं। आपने सुना तो सेटिस्फाइड समाधान है लेकिन और सुनने की तीव्र लालसा है इच्छा है और सुनाइए, ऐसा निवेदन अब अर्जुन ने किया है। हमको भी सीखना चाहिए कि देखो अर्जुन का भाव देखो, अर्जुन थके नहीं हैं। किन्तु हम तो पिछले 10 मिनटों से सुन रहे हैं और हमारा मन और कहीं दौड़ रहा है और कितने दिनों से महाराज गीता की कथा सुना रहे हैं या फिर कृष्ण की कथा सुना रहे हैं और फॉर चेंज कुछ माया की कथा हो जाए। हम तो थक गए भाई यह सुन सुन के, कुछ वैरायटी भी हो। यह हमारा गला भी काम करना बंद कर देता है हमारा हाल ऐसा है सुनाने वाले भी थक जाते हैं। व्हाट टू डू ? अर्जुन उत्कंठित है।
*उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति ।।* (उपदेशामृत -3)
अनुवाद- भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना शुद्ध (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कम करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्–कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
उपदेशामृत में कहा है व्यक्ति को उत्साही होना चाहिए ,धैर्यवान होना चाहिए, अर्जुन अपना उत्साह उत्कंठा निश्चय व्यक्त कर रहे हैं मैंने कह दिया और शायद अभी अर्जुन ने भी कह दिया, परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् , ओके अर्जुन अपने भ्रम से मुक्त हो गया अब आगे कुछ सुनाने की आवश्यकता नहीं मैं यहीं विराम देता हूं अपनी वाणी को। भगवत गीता कुछ 9 अध्याय वाली हो जाएगी क्योंकि इनको साक्षात्कार हो गया ( मैं कौन हूं ) वैसे यह दोनों रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। अर्जुन ने जैसे जिज्ञासा की है और जानना चाहते हैं और सुनना चाहते हैं, आप चाहते हो कि नहीं? यस, नो ! कुछ पता नहीं चल रहा है हरि हरि !
श्री भगवानुवाच
*हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः | प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ||*
अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्र्वर्य असीम है |
कृष्ण ने कहा उन्नीस श्लोक में कथयिष्यामि तुमको मैं सुनाऊंगा दिव्या ह्यात्मविभूतयः विभूति का वचन हुआ एक विभूति से अनेक विभूतियां और कैसी विभूतियां ? दिव्या ह्यात्मविभूतयः हे अर्जुन तुमको मैं मेरी जो दिव्य विभूतियां है मेरा वैभव है उसको मैं सुनाऊंगा और जो यहां की प्रधानता या मोटी मोटी बात है क्योंकि बातें तो अनेक हैं असंख्य हैं। यहां सेनयोरभयोमध्ये हम सेना के दोनों ओर मध्य में खड़े हैं। युद्ध किसी भी क्षण प्रारंभ हो सकता है। मैं डिटेल में नहीं जा सकता इसीलिए कृष्ण कह रहे हैं प्रधानता जो मोटी मोटी मुख्य मुख्य जो वैभव है उसका में उल्लेख करने वाला हूं। ऐसा कहकर श्री कृष्ण
*अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः | अहमादिश्र्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||*
(भगवद्गीता 10.20)
अनुवाद- हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ | मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ |
श्लोक संख्या 20 से श्रीभगवान उवाच अहमात्मा गुडाकेश जिसने निद्रा को जीत लिया है गुडाकेश यह बातें उनको सुनाई जाएंगी, आपने जीता है अभी इस क्षण क्या हो रहा है आपका हाल जीव जागो ! तो अहमात्मा गुडाकेश मैं परमात्मा हूं अपना वैभव की जो सूची है उसमें पहला आइटम जो उन्होंने कहा है अहमात्मा हे अर्जुन मैं परमात्मा हूं हरि हरि !
*एकोऽप्यसो रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः । अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुष तमहं भजामि ॥* (ब्रम्हसहिता 5.35)
अनुवाद – शक्ति और शक्तिमान दोनों अभिन्न ( भेदरहित ) एक ही तत्त्व हैं । करोड़ों – करोड़ों ब्रह्माण्डकी रचना जिस शक्तिसे होती है , वह शक्ति भगवान्में अपृथकरूपसे अवस्थित है सारे ब्रह्माण्ड भगवान्में अवस्थित हैं तथा भगवान् भी अचिन्त्य – शक्तिके प्रभावसे एक ही साथ समस्त ब्रह्माण्डगत सारे परमाणुओंमें पूर्णरूपसे अवस्थित हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ ॥३५ ॥
भगवान ने कह दिया कि मैं परमात्मा हूं तो फिर तो उस परमात्मा को समझना होगा। परमात्मा सर्वत्र हैं। कण-कण में भगवान , अर्जुन जानना चाहते हैं किस किस भाव में, रूपों में मैं आपका स्मरण कर सकता हूं। यहाँ 1 बता दिया मैं परमात्मा हूं। परमात्मा कहां है ? कण कण में , ब्रह्मा ने कहा *अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं* क्या समझ में आ रहा है ?अंड , अंड मतलब संडे हो या मंडे खाते जाओ अंडे की बात नहीं है यहां , अंड मतलब ब्रह्मांड की बात और दोनों ही अंडे के आकार है। ब्रह्मांड के आकार का अंडा है अंडे के आकार का ब्रह्मांड, ब्रह्मांड का परमात्मा कौन है ? गर्भोदकशायी विष्णु है ब्रह्मांड का परमात्मा, ब्रह्मांड एक एक विग्रह एक रुप है और फिर आगे ब्रह्म संहिता में ब्रह्मा कहते हैं परमाणुचयान्तरस्थं मतलब, एटम कण, तो कण-कण में भगवान कण-कण में परमात्मा है। देखिए भगवान की सर्वव्यापकता, इस तरह हो गया यह भगवान का वैभव है। ग्रैंड लॉर्ड ऐसे महान भगवान हैं। वे सर्वत्र हैं और कहते भी हैं भगवान सर्वज्ञ हैं सब कुछ जानते हैं सर्वत्र हैं हम तो जहां है वहीं हैं और कहीं नहीं हैं हम जहां हैं वहां की बातें ही जानते हैं। जैसे यहां लाइट नहीं है अभी, लेकिन हम सर्वज्ञ नहीं हैं सब स्थानों पर नहीं हैं लेकिन भगवान सर्वत्र हैं इसीलिए सर्वज्ञ हैं। इस प्रकार से यह परमात्मा का वैभव उल्लेख किया। अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः सभी के हृदय प्रांगण में मैं परमात्मा के रूप में रहता हूं। ऐसी बात कही , अहमादिश्र्च मध्यं च भूतानामन्त एव च, क्या बच गया फिर सभी जीवो का आदि मैं हूं मध्य में हूं और अंत में हूं। यह वैभव हुआ । 10. 20 इसको हम याद रख सकते हैं दसवां अध्याय 20 श्लोक ओके टाइम इज़ अप, केवल एक आइटम का उल्लेख हुआ और कुछ वैभव को जानने का हम प्रयास कर रहे थे लेकिन प्रयास की शुरुआत ही हुई परमात्मा जो भगवान का वैभव है विभूति है इतने में उनका,
श्रीभगवानुवाच
*कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः | ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 11.32)
अनुवाद- भगवान् ने कहा – समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मैं हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ । तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे ।
भगवान कहते हैं मैं समय हूं। समय आ गया इस टॉक का अंत करने का समय वह भी भगवान ही हैं। भगवान आ गए तो अभी रुक जाते हैं या मैंने सोचा था कि भगवान का ऐश्वर्य नामक जो अध्याय हैं दसवें अध्याय का पूरा सारांश आपको आज ही सुना दूंगा, इसमें कई सारे ऐश्वर्य का उल्लेख किया है कृष्ण ने और इतना सारा उल्लेख करने के बाद ,
*अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन |विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 10.42)
अनुवाद-किन्तु हे अर्जुन! इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है? मैं तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ |
कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्, अर्जुन जो मैंने कहा यह शुरुआत है मेरे वैभव तो असंख्य हैं। मुझे जो कहना था मैंने नहीं कहा, समय का अभाव या समय का प्रभाव या कृष्ण का प्रभाव, कृष्ण सर्वत्र हैं शुरुआत में थे मध्य में थे और अंत करने भी आ ही गए, भगवान काल के रूप में , अतः हम भी अपनी वाणी को विराम देते हैं।
शुरुआत करते हैं सुनने के लिए कल के रिजल्ट और आप लोगों के क्या प्रयास रहे गीता वितरण के प्रयास जो आपने किए प्रयास होना चाहिए ,
*सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्र्च दृढव्रताः | नमस्यन्तश्र्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 9.14)
अनुवाद- ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं|
कैसे यत्न करना चाहिए। कैसा? दृढ़ व्रत के साथ, आप में से कईयों ने असाधारण व्रत लिया हुआ है और सभी को लेना चाहिए यह दृढ़ व्रत ,गीता वितरण का व्रत और फिर जो व्रत लेता है उसे व्रती कहते हैं। आप सबको व्रती होने का, कथा व्रत कथा का श्रवण करूंगा तो कथा व्रती कथा का वितरण करूंगा गीता का वितरण करूंगा ऐसा मैंने संकल्प लिया है दृढ़ संकल्प है तो फिर हम व्रती हो गए। आप में से कई सारे मैदान में उतर रहे हो या हो सकता है ऑनलाइन डिस्ट्रीब्यूशन कर रहे हो ऑन ग्राउंड, ऑनलाइन , कृष्ण की प्रसन्नता के लिए और हमारे पूर्ववर्ती आचार्य की प्रसन्नता के लिए, श्रील प्रभुपाद की प्रसन्नता के लिए, और हम सभी की प्रसन्नता के लिए, सुनते हैं देखते हैं किसने कितना प्रयास किया उसका क्या फल स्वरुप है।
गीता जयंती महोत्सव की जय !
ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय !
श्रील प्रभुपाद की जय !
कृष्ण अर्जुन की जय !
श्रीमद्भगवद्गीता की जय !
कुरुक्षेत्र धाम की जय !
गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
शीर्षक
श्रीमद भगवत गीता श्लोक 10.12
जप चर्चा
रेवाडंडा से
28 दिसंबर 2021
1055 प्रतिभागी भक्त |
ओम नमो भगवते वासुदेवाय |अर्जुन का साक्षात्कार ऐसा ही रहा | उन्होंने तो दूसरे शब्दों में कहा है | यह बात अर्जुन ने 4 श्लोक में सुनी (श्रीमद्भगवद्गीता 10.8-11) और नवे अध्याय मे भी सुनी और यह सब सुनने के उपरांत अहम् सर्वस्व प्रभव एवं तेशाम नित्या सुने |
BG 10.8
“अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः || ८ ||”
अनुवाद
मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं |
BG 10.9
“मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||”
अनुवाद
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
BG 10.10
“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||”
अनुवाद
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
तो फिर अर्जुन को साक्षात्कार हुआ | कृष्ण का साक्षात्कार हुआ, इसे भगवान का साक्षात्कार कहते है | कृष्ण के वचन सुन सुनकर अर्जुन को साक्षात्कार हुआ | वैसे पहले तो कई अध्यायों में कृष्ण अर्जुन को आत्मसाक्षात्कार ही करवाए थे | तुम आत्मा हो तुम आत्मा हो |
BG 2.13
“देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति || १३ ||”
अनुवाद
जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता |
BG 2.22
“वांसासि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य-
न्यानि संयाति नवानि देहि || २२ ||”
अनुवाद
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है |
BG 2.20
“न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्र्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे || २० ||”
अनुवाद
आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु | वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा | वह अजन्मा, नित्य, शाश्र्वत तथा पुरातन है | शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |
BG 2.23
“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः || २३ ||”
अनुवाद
यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है |
तुम शरीर नहीं हो तुम आत्मा हो तुम अमर हो तुम शाश्वत हो |
इस प्रकार के कई सारे वचनों से यह समझाएं थे और अर्जुन समझ रहे थे और यहां पर अब अर्जुन को आत्म साक्षात्कार हुआ |
और अब कृष्ण साक्षात्कार हो रहा है |
कृष्ण का साक्षात्कार
कृष्ण कौन है?
मैं कौन हूं?
मैं समझ गया |
अब आप कौन हो?
इसको भी मैं समझ रहा हूँ, समझ चुका हुँ |
इसीलिए अर्जुन कह रहे हैं |
भगवत गीता दसवां अध्याय 10. 8-11
प्रतिदिन एक एक श्लोक हम सुन रहे थे तो उसके तुरंत बाद वाले श्लोक मे अर्जुन कहते हैं |
BG 10.12-13
“अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् || १२ ||
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे || १३ ||”
अनुवाद
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
आप परम ब्रह्म हो, हो सकता है हम भी ब्रह्म हो, या हम भी ब्रह्म हैं |
अद्वैत वादी कहते रहते हैं अहम् ब्रह्मास्मि अहम् ब्रह्मास्मि |
परंतु अहम परम ब्रह्मास्मि तो कोई नहीं कह सकता |
परम ब्रह्म का अंश हम ब्रह्म है | किंतु हम परम ब्रह्म नहीं है, आप परम ब्रह्म हो|
आप सभी के आश्रय हो, आप पवित्र हो, परम पवित्र हो, यदि पवित्र को जानना है, पवित्र के पास पहुंचना है तो हमको पवित्र होना होगा | पवित्र व्यक्ति ही पवित्र अर्थात भगवान के पास पहुंच सकता है|
आप पवित्र हो |
आप पुरुष हो |
गोविंदम आदि पुरुषम ब्रह्मा जी ने कहा हैं |
5. 1
श्लोक १ ब्रम्हसंहिता
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः । अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥१ ॥
अनुवाद – सच्चिदानन्दविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं वे अनादि , सबके आदि और समस्त कारणोंके कारण हैं ॥१ ॥
यह ब्रह्मा जी का साक्षात्कार है | अनादि आदि गोविंदम आप सभी के आदि हो | यहाँ अर्जुन भी कहने वाले हैं |
आप शाश्वत हो |
पहले कृष्ण कह चुके थे कि अर्जुन ऐसा समय नहीं था जब तुम नहीं थे, मैं नहीं था और ये राजा नहीं थे | अब भी हम सभी हैं और भविष्य में भी रहेंगे |
शाश्वतता की बात हुई |
वहां अर्जुन ने यह बातें द्वितीय अध्याय मे कृष्ण से सुनी थी |
और अब उनको अनुभव हो रहा है कि हां आप शाश्वत हो |
सृष्टि की स्थिति होती है और फिर प्रलय भी होता है |
आपका प्रलय नहीं होता, आप सृष्टि के पहले भी रहते हो और सृष्टि के उपरांत भी रहते हो |
आप शाश्वत हो|
आप दिव्य हो, आप आदिदेव हो, देवों के भी देव हो, 33 कोटि देव हैं लेकिन आप आदि देव हो |
वह ईश्वर है तो आप परम ईश्वर हो |
12.13.16
निम्नगाना यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा ॥१६
जिस तह गंगा समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है भगवान् अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान् शम्भु ( शिव ) वैष्णवों सबसे बड़े हैं , उसी तरह श्रीमद्भागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है ।
सभी देवों में अच्युत श्री कृष्ण श्रेष्ठ है | वैष्णव में शंभू शंकर श्रेष्ठ हैं, सभी नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, पुराणों में भागवतम श्रेष्ठ है और फिर साथ में भगवत गीता भी श्रेष्ठ है, गीता भागवत सभी ग्रंथों में श्रेष्ठ है, श्री कृष्ण सभी देवों में श्रेष्ठ है, सभी वैष्णव में शंकर भोलेनाथ श्रेष्ठ हैं| देवों के भी आप आदि हो, स्रोत हो |
2-3-4 अक्षर वाले शब्द तो एक-एक छोटे छोटे हैं जैसे अजम | मैं कितनी सारी बातें कह रहा हूँ ज्ञान की बातें कह रहा हूँ साक्षात्कार की बातें कह रहा हूँ अर्जुन यहा कह रहे हैं आदिदेव अजम आप अजम हो | अ अर्थात नहीं एवं ज अर्थात जन्म | आप अजन्मा हो | आपका जन्म नहीं होता | आपने चौथे अध्याय में संभवामि युगे युगे कहा है तो आप प्रकट होते हो फिर से आप अपने धाम में चले जाते हो |
BG 15.6
“न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || ६ ||”
अनुवाद
वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते |
मेरा परमधाम है मेरा धाम है और वह परम है | इस प्रकृति के परे है, वहां मैं रहता हूं उसका नाम गोलोक हैं | फिर ब्रह्मा हमको अपना साक्षात्कार सुनाएंगे |
जैसे 11 वे अध्याय में अर्जुन को भगवान अब विराट रूप दिखाने वाले हैं वैसे ही ब्रह्मा को भी विराट रूप दिखाएं थे | ब्रह्मा को सिर्फ एक ब्रह्मांड की नहीं दिखाएं, कई सारे ब्रम्हांड दिखाएं | अर्जुन को सिर्फ एक ब्रह्मांड दिखाएं | ब्रह्मांड के परे जो परयोम है, दिव्य धाम है
अलौकिक वैकुंठ जगत है, बैकुंठ से भी ऊपर का दर्शन करा रहे थे, वह देखो वह देखो साकेत अयोध्या और और ऊपर जाओ वह है द्वारिका वह है मथुरा | और सबसे ऊपर है वृंदावन धाम |
वृंदावन धाम की जय |
ब्रह्मा एक साथ नीचे से ऊपर तक भगवान की सारी प्रकृति को देख रहे थे, वह विराट रूप या विश्वरूप का दर्शन तो बहुत ही विशाल रहा था | अर्जुन अब विराट रूप 11 वे अध्याय में देखने वाले हैं |
उससे भी अधिक बड़ा विराट रूप एक ही साथ सारी सृष्टि ब्रह्मा ने देखते हुए फिर कहा था
ब्रम्ह संहिता 5.43
*गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।*
*ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।*
अनुवाद: -जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुंठ लोक (हरीधाम), महेश लोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों में विभिन्न स्वामियों को यथा योग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
तो आप वहां रहते हो और वहां से बस कृष्ण जन्माष्टमी के दिन आप प्रकट होते हो | हम लोग जन्म कहते हैं लेकिन आपका जन्म से कोई संबंध नहीं हैं क्योंकि जिनका जन्म होता है वह मरते हैं, लेकिन आप मरने वालों में से नहीं हो | आप शाश्वतम हो |
हाँ और एक बात तो रह गई | आप पुरुषम आदि पुरुष हो |
लेकिन पृथ्वी पर जितने मनुष्य है उनमें से कुछ लोग धार्मिक भी होते हैं |भगवान पुरुष है व्यक्ति है यह बात उनके पल्ले नहीं पड़ती है, यह समझ में नहीं आती है| कई हिंदुओं को समझ में नहीं आती है |
अद्वैतवादीयों को समझ में नहीं आती है |
कर्मकांड करने वालों को समझ में नहीं आती है |
और हमारे मुसलमान भाई तो उनको तो समझ में आती ही नहीं है |
हिंदू समाज में बड़े मायावादी हैं|
जो भी अन्य धर्म है उनका प्राकट्य हिंदू से ही हुआ है |
कोई मुसलमान बना तो कोई इसाई बना तो कोई और क्या बना, कोई बौद्ध बना|
बौद्ध पंथी की उत्पत्ति भी हिंदू से ही हुई है, बौद्ध ने तो शुन्य ही कहा|
भगवान को कोई शुन्य कहता है तो कोई एक कहता है | निर्विशेषवाद, शून्यवाद के मातावलम्बी जो हैं उनको यह बात समझ में नहीं आती कि भगवान पुरुष है, भगवान व्यक्ति हैं फिर हम भी पुरुष हैं, हम प्रकृति हैं हम व्यक्ति तो जरूर हैं | और भगवान के साथ हमारा संबंध है और यह बात गीता की विशेषता है जहां कृष्ण यह सारा ज्ञान दे रहे हैं | और श्रील प्रभुपाद उस ज्ञान को यथारूप प्रस्तुत भी कर रहे हैं | वह धाम ही है, वहां सदैव नित्य श्री कृष्ण का निवास है | कृष्ण फिर यहां प्रकट होते हैं और गीता का उपदेश सुनाते हैं और भी लीलाएं करते है | उन लीलाओं को हमें सुनना चाहिए|
यह गीता का उपदेश सुनना चाहिए समझना चाहिए |
और हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना चाहिए |
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
यह झूठ मुठ के तथाकथित जो धर्म है या कर्मकांड है |
M 19.149
कृष्ण – भक्त – निष्काम , अतएव ‘ शान्त ‘ । भुक्ति – मुक्ति – सिद्धि – कामी – सकलि अशान्त ‘ ।। 149 ।।।
अनुवाद ” चूँकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है , इसलिए वह शान्त होता है । सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं , ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं ; अत : वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते ।
कृष्ण भावनामृत को स्वीकार करना चाहिए, भगवान की शरण में जाना चाहिए |
BG 18.66
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६ ||”
अनुवाद
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
भगवान कृष्ण कहते हैं मैं तुमको मोक्ष दूंगा | मैं तुम्हें मेरे धाम ले आऊंगा | मैं वहां भी हूं वहां आकर के तुम मुझे मिलना तुम वहा selfie खींच सकते हो |
मैं सुंदर भी हुँ मैं घनश्याम हुँ |
तुम भी सुंदर हो क्योंकि तुम मेरे हो | बाप जैसा बेटा | बाप सुंदर है तो बेटा भी सुंदर होता है लेकिन यह शरीर तो कारागार की वर्दी पहन रखा है और उसके साथ तुम photos, selfies खींचते रहते हो, ये मामले छोड़ दो | संसार दुख आलयम है कृष्ण ने ऐसा सुनाया है | यह दुखालय है इसको सुखालय नहीं बना सकते हो |
सुखालय तो मेरा धाम है | संसार में सुख का अनुभव तब कर सकते हो जब तुम मेरे भक्त बनकर रहोगे | यहां के सुख दुख को सहन करना सीखोगे|
BG 2.14
“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
अगामापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||”
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है | हे भरतवंशी! वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे |
भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में यह सब सिखाया है | यह सब सिखाते सिखाते आधी शिक्षा हो गई क्योंकि दसवां अध्याय चल रहा है | अभी दसवें अध्याय की शुरूआत ही है, कुल 18 अध्याय हैं | इस प्रकार अभी आधी भागवत गीता हो गयी हैं | आधी भगवत गीता अभी तक सुनाई है, इतने में ही अर्जुन को साक्षात्कार हो गया है | जो जो भी गीता पढ़ेंगे, उनको उनको भी साक्षात्कार होना चाहिए |
दसवें अध्याय पढ़ते-पढ़ते साक्षात्कार का समय आ गया है | हमको भी अपने स्वयं के अनुभव के साथ कहना होगा, या कहना चाहिए |
यहां तो अर्जुन बोल रहे हैं| अब हमारी बारी है, हम पढ़ेंगे सुनेंगे, श्रद्धा पूर्वक सुनेंगे |
BG 4.39
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || ३९ ||”
अनुवाद
जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है |
BG 4.34
“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || ३४ ||”
अनुवाद
तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है |
BG 4.9
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||”
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
भगवान ने कहा है कि मेरे संबंध के ज्ञान के तत्व को समझो | अर्जुन कहते हैं आप अज हो, आप अजन्मा हो, अविभुम हो, सर्वोच्च हो, कई सारे वैभवो से संपन्न हो | 10 वे अध्याय में कृष्ण विभूति योग सुनाने वाले हैं | अपनी विभूतियों का, अपने ऐश्वर्य का उल्लेख करने वाले हैं, शायद हम आपको आने वाले दिनों में या कल हो सकता है सुनाएंगे | अर्जुन ने भगवान को विभूम कहा है |
BG 10.12-13
“अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् || १२ ||
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे || १३ ||”
अनुवाद
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
अर्जुन कहते है कि जो मैं कह रहा हूँ या मेरे साक्षात्कार सुना रहा हूँ ऐसा साक्षात्कार केवल मेरा ही नहीं है देवर्षि नारद भी यही भाषा बोलते हैं जो मैं बोल रहा हूं मैं जो कह रहा हूँ | साधु शास्त्र की बात हो गई | सभी की एक ही वाणी है कि भगवान परम ब्रह्म है परमधाम है पवित्रम है परम भवान आदि देवम एवं परम विभूम पुरुषम हैं शाश्वत दिव्य है | यह जो भगवान के संबंध में विशेषण है वैशिष्ट्य है साधु भी ऐसा कहते हैं, गीता भी यही कह रही है, आप भी वही सुना रहे हो, साधु शास्त्र आचार्य यही भाषा बोलते हैं, प्रभुपाद वही सुनाएं | और परंपरा में यह बातें सदा के लिए सुनाई जाएगी |
यह सत्य है और सत्यमेव जयते |
सत्य की जीत होती है सत्य ही बना रहता है |
इस सत्य का प्रचार और प्रसार होना चाहिए | झूठ का खूब प्रचार-प्रसार हो रहा है और पूरे मानव जाति को गुमराह किया जा रहा है, पथभ्रष्ट किया जा रहा है, ठगा जा रहा है | तथाकथित teachers बन रहे हैं cheaters| Cheat कर रहे हैं| हमारे सारे लीडर अंधे हैं | तो सावधान होकर भगवान को सुनो, गीता पढ़ो | भगवत गीता यथारूप खास तौर पर पढ़ो | और पढाओ सुनाओ | पठन-पाठन करो | पढ़ो पढ़ाओ इस्कॉन का यही कार्यक्रम है | श्रील प्रभुपाद ने यही कार्य दिया है | हम सब अनुयायियों को गीता को पढ़ना है और गीता को पढ़ाना है |
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इसीलिए इस महीने में गीता का वितरण अधिक से अधिक संख्या में करना है | सभी का पार्टिसिपेशन चाहिए | सिर्फ 40% भक्तों का पार्टिसिपेशन चल रहा है | ज्ञान तो दिया जा रहा है लेकिन ज्ञान का विज्ञान नहीं हो रहा है | ज्ञान का प्रैक्टिकल एप्लीकेशन ही विज्ञान है और वह सभी नहीं कर रहे हैं |
हम 100% पार्टिसिपेशन के लिए प्रार्थना करते हैं |
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
27 दिसंबर 2021
1028 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं।
गौरंगा।।
श्री कृष्ण अर्जुन की जय।।
ओम नमो भगवाते वासुदेवायः ।।
कई बार मैं ये सोच रहा था गीता के विशेष चार श्लोक चतुश्लोकी है। भागवत गीता श्लोक 8,9,10,11 चार श्लोक की बाते हो रही है पिछले कुछ दिनों से। इन में देख रहे हो आप कौन सा श्लोक है। आपके लिए होमवर्क मैं दे रहा था आज इस श्लोक को पढ़ो आज उस श्लोक पढ़ो, तो ये महत्वपूर्ण श्लोक है।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः
मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं | 10 . 8
अब याद करो कंठस्थ करो फिर अंततोगत्वा हृदय आंत करो इन श्लोको को ये भी कहा जा रहा था। मैं तो कहता देता हूँ पर आप करते हो। हरी हरी।।
भगवान भी तो चाहते हैं की हम पढ़ें इसलिए तो भगवान ने गीता सुनाई क्योंकि जीव सुनेगा भगवान को और याद रखेगा समझेगा भगवान क्या कह रहे हैं। हरी हरी।।
सुनो सुनो कृष्णा ने क्या कहा है । अभी कुछ लोग भगवत गीता भी खोल रहे हैं ये अच्छा है तो दसवां अध्याय चल रहा है और श्लोक चल रहा है 8,9,10,11
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः
मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं | 10 . 8
तो कुछ भक्त हमारे साथ भी बोल रहे हैं और उनके होंठ भी हिल रहे हैं मैं देख रहा हूँ। फिर भगवान क्या कहे –
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परं संतोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | 10.9
फिर आगे क्या कहें –
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं | 10.10
और फिर आज इस के साथ आगे की बात करेंगे कृष्णा –
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः |
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।।
मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ | 10.11
तो ये चौथे श्लोक को समझते हैं इसी को भी संस्मरण भी कहते हैं की क्या कहा भगवान ने सुन तो लिया क्या कहा किंतु समझना भी तो जरूरी है। इति मत्वा भजन्ते मां – समझकर फिर भजन करना है। तेषामेवानुकम्पार्थम – श्रील प्रभुपाद भाषांतर में कहते हैं मैं उन पर विशेष कृपा करने हेतु उनके हृदय में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाश मान दीपक के द्वारा अगयान जन अंधकार को दूर करता हुं। कितनी बड़ी बात बड़ी बात भगवान कह रहे हैं अपने दिल की बात कह रहे हैं । या कल कुछ दिमाग की बात दिमाग से कह रहे थे – ददामि बुद्धियोगं तं – उनको मैं बुद्धि देता हूँ। 10 श्लोक में कह रहे थे और आज कह रहे हैं उनको तो मैं अपना हृदय देता हूँ बुद्धि देता हूँ, हृदय देता हूँ। ददामि बुद्धियोगं और एव अनुकम्पा-अर्थम् ।।
अनुकंपा – उनको देख के ये जीव मेरे ही है और उनको जब मैं देखता हूँ इस संसार में कैसे फंसे हैं दुखी है तो मेरे मन में या मेरे हृदय में उनके प्रति अनुकंपा उत्पन्न होती है। मेरा दिल भी अनुकंपित होता है और द्रिता से भर जाता है | मैं उनकी ओर दौड़ता हूँ बचाओ!! बचाओ!! कोई है?? कृप्या बचाओ भगवान के लिए। कभी-कभी भगवान भी याद आते हैं ।
तेषाम् – नोट कीजिए इस शब्द को तेषाम् – ऐसे भक्त जिन्होंने अभी फिर किया हुआ है मुझे समझ रहे हैं
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।
मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं | 10.8
ऐसे समझने वाले भक्त और फिर क्या करें – बोधयन्तः परस्परम् – उनका चिट मेरी ओर जा रहा है मुझे याद कर रहे हैं – कथयन्तश्र्च मां नित्यं – मेरी कथा कर रहे हैं तो मैंने कहा भी है ही ना जहां मेरी कथा होती है कीर्तन होता है |
तत्र तिष्ठामि नारद – पद्म पुराण 6.92.22
जहाँ मेरे भक्त एकत्रित होते हैं और कीर्तन करते हैं मुझे याद करते हैं प्रार्थना करते हैं | वहाँ में पहुंचता हूँ| तेषाम् – कृष्णा कह रहे हैं उन पर मैं अनुकंपा करता हूँ | पहले तो बुद्धि देता हूँ कहा लेकिन फिर बुद्धि से काम नहीं बनेगा और भी कुछ चाहिए तो मैं अनुकंपा भी करता हूँ मैं दया भी दिखाता हूँ| दसवे श्लोक मे ददामि बुद्धियोगं मैं बुद्धि देता हूं और फिर अब दया भी करता हूं |
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ||
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है | 5.29
क्योंकि मैंने कहा ही है इस अध्याय के पहले वाले अध्याय के अंत में मैंने कहा | सुहृदं सर्वभूतानां – मैं सभी जीवों का सुहृदं – परम मित्र हूँ | मित्र की क्या पहचान है ? ज़रूरत में काम आने वाला दोस्त ही सच्चा दोस्त होता है कहते हैं। वही फ्रेंड है जब हमारी कोई नीड है कोई जरूरत है सहायता चाहिए तो जो व्यक्ति आगे बढ़ता है, मदद करता है| मदद के लिए आगे आता है सहायता करता है तो वही तो फ्रेंड है|
सुनिए और समझिए कृष्णा क्या कह रहे हैं | अज्ञान-जम् तमः नाशयामि – कि तुम्हारे अगयान से उत्पन्न जो अंधेरा है अंधाकार है उसका मैं नाश करता हूँ |तुम तो जो स्कूल कॉलेज से ज्ञान प्राप्त कर रहे हो ज्ञान नहीं है |वो तो अज्ञान है वो अविद्या है| विद्या नहीं है इस अविद्या को मैं नष्ट करता हूँ |
अज्ञान-जम् तमः नाशयामि – और मैं कैसे करता हूँ| मैं तुमसे दूर तो नहीं हूँ | जैसे मैं अर्जुन के समक्ष था वहाँ धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र तो वैसे ही मैं यहाँ हृदय प्रांगण में हृदय नाम का प्रांगण या हृदय नाम का आंगन | वो रणआंगन था | कुरुक्षेत्र था रण का आंगन | रण मतलब युद्ध का आंगन | क्रीडांगन भी होता है |हृदय भी एक आंगन है और इस आंगन में हम दोनों साथ में है मैं और तुम् हे! जीव | कटौपनिषाद में कहा है – ये की यह शरीर है एक वृक्ष और इसमे दो पंछी बैठे हैं एक आत्मा रूपी पंछी और एक परमात्मा रूपी पंछी | जैसे वहाँ आमने सामने थे कृष्ण और अर्जुन तो यहाँ पे भी हृदय प्रांगण में हम आमने सामने है| मैं ही तो हूँ अनुमानता साक्षी और सुहृदम हृदय में बैठा हुआ तुम्हारा मित्र | नाशयामि आत्म-भाव स्थः तुम्हारे हृदय प्रांगण में | मैं उन पर विशेष कृपा करते हेतु उनके हृदय में वास करता हूँ| प्रभुपाद भाषांतर में लिख रहे है – मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ | ज्ञानदीपेन ज्ञान का दीपक जलाता हूँ जैसे आप दियासलाई माचिस से दिया जलाते हो तो दीपक जलते ही अंधकार दूर-दूर भागता है| प्रकाश और अंधेरा एक साथ रह ही नहीं सकते| जहाँ प्रकाश है वहाँ नाशयाम्यात्मभावस्थो अंधकार नष्ट होता है| मैं करता हूँ ज्ञानदीपेन – ज्ञान का दीपक मैं जलाता हूँ | ज्ञानदीपेन भास्वता – प्रकाशमान हूँ | हरी हरी ||
ये कृपा है, भगवान ने अर्जुन के हृदय प्रांगण में ज्ञान की ज्योति जलाई पहुँचाई और फिर उसको दिखने लगा यथारूप या फिर जैसे हुआ की गीता सुनाई अर्जुन को तो क्या हुआ तमसो माँ ज्योतिरगमया – अंधेरे में मत रहो ज्योति की ओर जाओ प्रकाश की ओर जाओ मतलब कृष्ण की ओर जाओ कृष्ण प्रकाश हैं| प्रकाश कृष्ण हे| प्रकाश की ओर जाओ मतलब भगवान ओर जाओ और भगवान की ओर जाना मतलब प्रकाश की ओर जाना क्योंकि कृष्णा कैसे है? कृष्ण सूर्य सम –
कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार।
य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31)
अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान हैं। जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत नाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता हैं।
तो हम कृष्ण जो सूर्य सम है| यानी कोटि-कोटि सूर्यों के समान है कृष्णा के बारे में कहा है| कृष्णा से कितना सूर्य प्रकाश आता है? कोटि सू़र्य़-सम प्रकाश – कोटी कोटी सूर्य के समान प्रकाश और ये ज्ञान का प्रकाश तो भगवान देते हैं बुद्धि इन श्लोकों में कहा है और भगवान दृष्टि भी देते हैं| तो यही हुआ ना? चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः तो ये सारी कृष्ण की व्यवस्था है|
नाशयाम्यात्मभावस्थो – मतलब अहम नाशयामि – इसका सर्वनाम क्या है? अहम है| अहमनाशयामि – में नाश करता हु – ज्ञानदीपेन भास्वता | लेकिन हम प्रैक्टिकली वैसे होते हुए देखते तो नहीं है| कृष्ण हमको ज्ञान नहीं दे रहे हैं| हमारे अंधकार को मान नहीं मिटा रहे हैं और कोई मिटा रहा है तो ये सारी व्यवस्था भगवान की है| गुरुजन ही आते हैं| कोई उसमें से मार्गदर्शक गुरु होते हैं तो कोई शिक्षा गुरु होते हैं कोई दीक्षा ग्रह होते हैं और भगवान स्वयं भी गुरु है| कृष्णवंदे जगद्गुरु और कौन सी गुरु चेति गुरु तो ये सारे भगवान की व्यवस्था है| तो ददामि बुद्धियोगं वहाँ भी अहम ददामि बुद्धियोगं कहा और नाशयाम्यात्मभावस्थो कहा तो यहाँ भी अहम् नाशयामि तो भगवान ये सारी भगवान की व्यवस्था है| मैं ये सोच रहा था हमारे आचार्य हैं और फिर हमारे फाउंडर आचार्य रहे उन्होंने ऐसी व्यवस्था करी है या ऐसी सोच रखी या फिर मैं कहूंगा कि भगवान ने ही कृष्ण ने ही उनको ऐसी बुद्धि दी ददामि बुद्धियोगं – कृष्ण ने उनको ऐसी बुद्धि दी और प्रेम भी दिया कृपा भी की प्रभुपाद के ऊपर कृपा की द्रष्टि इतनी सारी तो फिर प्रभुपाद हो गए कृपा की मूर्ति हो गए नित्यलीला नित्य लीला प्रविष्ट कृष्ण कृपामूर्ति भक्ति वेदांत स्वामी श्रीला प्रभुपाद की जय!! कृष्ण कृपा की मूर्ति|
तो भगवान ने दी हुई उस बुद्धि का और कृप्या का प्रदर्शन किए श्रीला प्रभुपाद तो ये गीता जो हम तक पहुंच रही है, पहुंची हुई है| है की नहीं? कम से कम इस कांफ्रेंस में जो है उनके सबके पास तो आई है| गीता है? गीता पढ़ते हो? तो फिर आपके पास आराम से कह सकते हैं| अभी तो लाखों करोड़ों लोगों के पास जो गीता है पहुँच चुकी है या पहुंचाई जा रही है कृष्णा तो कह रहे हैं|
अहम् नाशयामि आत्म-भाव स्थः – मैं इस ज्ञान का प्रकाश फैलता हूँ मैं बुद्धि देता हूँ लेकिन मैं को तो हम देख नहीं रहे हैं ऐसा करते हुए| उनकी ओर से फिर करते हैं भक्त करते हैं और उसमें कोई अंतर नहीं है भगवान ने किया या श्रीला प्रभुपाद ने किया या और उसी कार्य को फिर आप कर रहे हो| अभी आप उस गीता के वितरक बनें हो – सही है कि नहीं है? वितरक बनें हो की नहीं ?
इधर उधर सब जगह आप जो गीता का वितरक कर रहे हो और इस गीता को जब लोग पड़ेंगे तो वैसे कृष्ण ने जो अर्जुन को भागवत गीता सुनाई उसकी सफलता किसमें है| कृष्णा उस गीता को अर्जुन तक सीमित नहीं रखना चाहते थे नहीं नहीं कृष्णा ऐसा नहीं सोच रहे थे अर्जुन को मुक्त नहीं करना चाहते थे नहीं अर्जुन ने कहा कि –
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ | 18.73
मैं सफल हो गया मेरा काम हो गया | कृष्णा ऐसा सोच ही नहीं सकते | कृष्ण तो इस संसार में जो दु:खालयमशाश्र्वतम् – जो परेशान है| उन सबके पास मेरा संदेश मेरा उपदेश पहुंचना चाहिए ये कृष्णा सोच रहे थे| तो अब जब गीता पहुंचती हैं घर घर जा रही है पहुँच रही है|
पदार्थाः संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा ।
विप्रैर्भागवतीवार्त्ता गेहे गेहे जने जने
– भागवत महात्म्य: 70 या पद्म पुराण 6.193.73
आप पहुंचा रहे हो तो ये भी इसका भी श्रेय कृष्ण को जाता है| कृष्ण की ओर से हम कर रहे हैं या कृष्णा ने प्रभुपाद को बुद्धि दी और फिर प्रभुपाद ने हम बुद्धों को बुद्धिमान बनाने का सफल प्रयास भी हो रहा है| हमको भी बुद्धि मिल रही है| भगवान कहे – ददामि बुद्धियोगं – में बुद्धि देता हूँ और हम सुन रहे हैं भगवान बुद्धि देते हैं आपको बुद्धि दे ताकि आप इस गीता को सुनें समझे और साथ ही साथ गीता का वितरण करें| ऐसी बुद्धि आपको भगवान दे तो फिर जो यहाँ बात हो रही है| ददामि बुद्धियोगं मैं बुद्धि देता हूँ और तेषामेवानुकम्पार्थम तो दोनों की आवश्यकता है हृदय और दिमाग दोनों की आवश्यकता है| दिमाग भी चाहिए और हृदय भी चाहिए| तो भगवत गीता वितरण के लिए है वही वितरण करेंगे जो थोड़ा दयालु हैं| गीता का वितरण करना मतलब दया का प्रदर्शन है और जहाँ भी दया है भगवान के कारण ही है| तो आइए इन चारों श्लोको को हम थोड़ा भला भाती सुने और समझे और यहाँ जो बुद्धियोगं बुद्धि देने की और दया की बात हुई है| तो हम देखना चाहेंगे और भगवान देखना चाहेंगे कि कुछ बुद्धिमान बन रहे हैं| कि कुछ पल्ले पड़ रहा है और साथ में कुछ उनके मन में भी दया उत्पन हो रही है| देखना चाहेंगे और जब हम स्कोर सुनते हैं उससे भी पता चलता है|
कृष्ण ये भजेई सेई हयाता चतुर – श्रील प्रभुपाद द्वारा गीत:
वो चतुर हैं बुद्धिमान है जो कृष्ण का भजन करता है| कई दिनों में भगवद्गीता इस ज्ञान का ये गीता का वितरण करना ये कोई व्यापार नहीं है| यह हमारा पारिवारिक व्यवसाय है – श्रील प्रभुपाद ने कहा ऐसा समझाया है लेकिन ये कोई सांसारिक व्यवसाय नहीं है ये भक्ति है एक सेवा है ये एक भजन है भजन का रहस्य है|
हरी हरी | |
निताई गौर प्रेमानंद हरी हरी बोल| |
श्रीमद भगवद गीता यथारूप की जय |
गीता जयंती महोत्सव की जय |
श्रील प्रभुपाद की जय कुरुक्षेत्र धाम की जय |
श्री कृष्ण अर्जुन की जय |
भगवत गीता वितरण कार्यक्रम की जय |
गौर प्रेमानंद हरी हरी बोल |
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*26 दिसंबर 2021*
*श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 10.10*
हरे कृष्ण ! आज 945 स्थानों से भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। हरि हरि। आज रविवार है। कुछ लोग हर रविवार को प्रात: काल में सो जाते है। हरि हरि। हमारा एक हफ्ते में एक दिन का कार्यक्रम नहीं है। रविवार हो या सोमवार प्रतिदिन हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे करना चाहिए। ऐसी बात कृष्ण आज करने वाले हैं। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। अध्याय 10 श्लोक संख्या 10, ठीक है? 10–10 ऐसे याद रख सकते हो। यह 4 विशेष श्लोक है उसमें से एक यह है।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 10.10)
अनुवाद:
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
आपको याद है यह श्लोक? आप इसको याद करिएगा, कंठस्थ कीजिए। बहुत ही महत्वपूर्ण श्लोक हैं। जैसी भी थोड़ी समझ है। तेषां सततयुक्तानां कहते हुए कृष्ण तेषां मतलब उन या उनको, किनको? इसके पहले दो श्लोकों में कम से कम उल्लेख हुआ है उनको, वह कौन है?
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः || ८ ||
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 10.8)
अनुवाद:
मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं |
इसको जानकर क्या करते हैं?
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.9)
अनुवाद:
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
कृष्ण बड़े गर्व के साथ कह रहे थे। अपने भक्तों का परिचय या भक्तों का लक्षण बता रहे है। दसवें अध्याय के नौवें श्लोक में। इसको भी समझना होगा, कल भी हमने समझाया था। क्या क्या भाव है? 4 श्लोकों का जो समूह है। उसमें से जो तीसरे श्लोक है। तेषां मतलब यह जो है। आठवें और नौवें श्लोक में जिनका उल्लेख हुआ है। तेषां यह पार्टी यानी भक्त वह क्या करते हैं? तेषां सततयुक्तानां युक्त रहते हैं, तल्लीन रहते हैं। युक्त शब्द आपको पता ही है। हम विग्रह आराधना करते हैं। गुरु के शिष्य, भक्त युक्त होते हैं। विग्रह आराधना करते हैं। तेषां सततयुक्तानां भक्त भक्ति कब-कब करते हैं? वैसे भक्ति के 2 लक्षण या 2 विशेषण कृष्ण कह रहे हैं। एक तो है सततयुक्तानां, वह भक्ति कब-कब करते हैं? तेषां सततयुक्तानां सतत युक्त रहते हैं। सतत मतलब सब समय और प्रीतिपूर्वकम और भक्ति कैसे करते हैं? एक तो सतत करते हैं और कैसे करते हैं? प्रीतिपूर्वकम। ऐसे भक्तों को हम पहले थोड़ा समझाते हैं। इस बात के वचन में कृष्ण क्या कह रहे हैं? ऐसे भक्तों को पहले तो तेषां कह दिया। उससे पहले जो वर्णन हुआ है। ऐसे भक्त भक्ति करते हैं और कैसे भक्ति करते हैं? सतत भक्ति करते है, सब समय भक्ति करते हैं और कैसे भक्ति करते हैं? प्रीतिपूर्वकम यानी प्रेम पूर्वक भक्ति करते हैं। तो ऐसे ऐसे भक्तों को मैं क्या करता हूं? ददामि बुद्धियोगं ऐसे भक्तों को मैं बुद्धि देता हूं। ऐसा कहना होगा। यह अहम तो नहीं कहा है। श्रीभगवान उवाच चल रहा है। अहम छिपा हुआ है। भगवान अहम नहीं कह रहे हैं। यह शैली भी ऐसी ही है। कुछ शब्द नहीं कहे जाते हैं। लेकिन उनको समझना पड़ता है कि अहम कहा नहीं है लेकिन कहना पड़ता है। तो भक्तों ने कुछ किया या भक्ति कैसे की? सतत भक्ति कर रहे हैं और प्रीतिपूर्वकम भक्ति कर रहे हैं। तो ऐसे भक्तों के लिए मैं क्या करता हूं? ददामि बुद्धियोगं। ऐसे भक्त को मैं बुद्धि देता हूं। पहले दुनिया भर के लोगो को सुन सुन कर, प्रोफेसर्स थे, हो सकता है माता-पिता या राजनेता को सुनकर या अभिनेता अभिनेत्रियों को सुनकर दिमाग खराब कर दिया है। उन्होंने दिमाग साफ कर दिया। हमको बुद्धु बनाया। हम जैसे जैसे हायर एजुकेशन के साथ लोअर और लोअर यानी नीच बनते गए। एजुकेशन हायर और हमारे विचार लोअर।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः |
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || १५ ||
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 7.15)
अनुवाद:
जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |
उन्होंने आसुरी प्रवत्ति को बड़ा दिया। भोग विलास बड़ा दिया। कई लोग कई पार्टी से कई नाम है दुनिया में, उन्होंने कहने का सार क्या होता है? वह भोगी है। अरे यह किसने देखा है पुनर्जन्म? क्या करो? मौज करो। खरीदो किराए पर लो और क्या करो। चोरी करो। साधन और धन जुटाओ। पैसे का अभाव है। कार लोन, होम लोन, हायर एजुकेशन लोन। लेकिन करना क्या है? जब तक जीना है चैन से और सुख से जीना है। फिर साधन नहीं है तो चोरी करो। कुछ तो करो या उधार लो कुछ सामान या उधार लो। गाड़ी और घोड़ा लो, मजे करो। सारी दुनिया क्या सीखा रही है? मजे करना सीखा रही है। लेकिन वह यह नहीं सिखाते कि मजे लेने के बाद सजा मिलती है। हरि हरि। मुझे ऐसे याद आया। प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक में भक्तों के साथ गए थे। तब उन्होंने देखा कि मछुआरे ने एक मछली पकड़ी थी। मछली पकड़ने के लिए जो रस्सी होती है वह प्रभुपाद को दिखा रहा था। प्रभुपाद की पार्टी जा रही थी। वह दूसरी तरफ से जा रहा था। वह बात कह रहे थे तुम क्या मजे ले रहे हो? प्रभुपाद कुछ बोले नहीं और आगे बढ़े। शिष्य भी उनके साथ थे। आप मजे करोगे तो सजा मिलेगी। प्रभुपाद को बुद्धि भगवान देते हैं। भक्तों को बुद्धि भगवान देते हैं। हरि हरि। मैं कुछ और सोच रहा था। तुम भक्ति में युक्त हो और कैसी भक्ति कर रहे हो? सतत भक्ति कर रहे हो और कैसी कर रहे हो, प्रीतिपूर्वक भक्ति कर रहे हो। आपको रोजाना देखना होगा कि कर रहे हैं या नहीं। कृष्ण तो कह रहे हैं यह भक्ति के लक्षण है। भक्त सतत भक्ति करता है या मैं करता हूं कि नहीं। हमारे देश में तो कई लोग दो मिनट उठने पर तथा दो मिनट सोने से पहले भक्ति करने वाले हैं। हरे कृष्ण वाले पागल नहीं हैं और कुछ करते ही नहीं हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण करते रहते हैं। हरी बोल हरी बोल। हम तो दो मिनट सुबह शाम भक्ति करते है बाकि तो दम मारो दम ऐसा कुछ करते रहते हैं। अभी कोई ये भक्ति, धर्म, कर्म करने का समय नहीं हैं। बूढ़े होने के बाद देखेंगे। पहले हम आनंद लेंगे लेकिन वो जानते नहीं हैं कि तब आप पीड़ित भी होंगे। ये स्थगित करने की बात नहीं हैं कि अभी नहीं करूँगा, अभी इतनी ही भक्ति करूँगा। कुंती महारानी ने प्रार्थना करी की मेरी भक्ति कैसी हो?
त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् । रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥ ४२ ॥
(श्रीमद भगवतम 1.8.42)
अनुवाद:
हे मधुपति , जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र की ओर बहती है , उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी ओर न बँट कर आपकी ओर निरन्तर बना रहे ।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 18.55)
अनुवाद:
भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है।
भगवान को भक्ति से ही जाना जा सकता हैं। भक्ति साधन भी हैं। भक्ति कर कर के हमें और भक्ति प्राप्त करनी हैं ज़्यादा भक्ति प्राप्त करनी हैं। मैं प्रभुपाद से पूछता था कि आप जो ये हरे कृष्णा हरे कृष्णा करते रहते हो इसका क्या लाभ होगा। प्रभुपाद ने कहा कि और ज़्यादा हरे कृष्णा हरे कृष्णा करने कि इच्छा, प्रेरणा, भाव उदित होंगे। अभी मैं जितना हरे कृष्णा हरे कृष्णा कर रहा हूँ भविष्य में और ज़्यादा करूँगा करते ही जाऊंगा, करते ही जाऊंगा ये एक उपलब्धि हैं।
इसीलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं कि भक्ति कैसी हो?
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ (अंतिम लीला 20.29)
अनुवाद:
हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ।
भगवान कि भक्ति करे । क्यों भगवान कि भक्ति करे? तो उल्टा प्रश्न पूछा जा सकता हैं कि भगवान कि भक्ति क्यों नहीं करे? तुम पूछ रहे हो कि क्यों करें? हम कह रहे हैं क्यों नही करें? आत्मा का धर्म हैं भक्ति करना। आत्मा शुद्ध अवस्था में भक्ति करेगी, भुक्ति को छोड़ेगी तथा भक्ति को अपनाएगी। भक्ति के पीछे कोई हेतु नहीं होना चाहिए, वही शुद्ध भक्ति हैं ।
इसीलिए कृष्ण ने कहा हैं कि –
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
(भगवद गीता 9.22)
अनुवाद:
अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं? उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
नित्य वाहक या नित्य भक्ति और शुद्ध भक्ति करने वाले हैं उन्हें भगवान बुद्धि देंगे । बुद्धि की हमारे जीवन में बहुत बड़ी भूमिका है । ये जीवन एक यात्रा है और बुद्धि उसकी चालक है। हम यहाँ प्रवास कर रहे हैं।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।
(भगवद गीता 18.61)
अनुवाद:
हे अर्जुन ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है।
माया का बनाया हुआ जो शरीर हे इसे यन्त्र कहा गया है, इसे घोड़े खिंच रहे है। इसकी जो लगाम है वो मन है। घोड़े इन्द्रियां है, शरीर रथ है, बुद्धि चालक/ संचालक है, हम आत्मा प्रवासी हैं। यन्त्र आरूढ़ जो हुआ है इस यन्त्र रूपी शरीर में, आत्मा शरीर है, देहि, निवासी व प्रवासी भी हैं। हम शरीर को यहाँ से वहां ले जाते हैं इसको बुद्धि चलाती है। हम वहां में बैठते है तो उसे चलाने में सबसे बड़ी भूमिका चालक की होती है। यात्रा के दौरान प्रवासी सो भी जाता है, खा रहा है। दिल्ली से न्यू जर्सी 14 घंटे की लम्बी यात्रा में यात्री सोते हैं, टेलीविजन देखते हैं, लंच करते हैं परन्तु पायलट हमेशा सावधान रहता है। प्राथमिक प्रमुख भूमिका तो पायलट या ड्राईवर की रहती है उसी प्रकार हमें समझाना हैं कि हमारे जीवन में बुद्धि की प्रमुख भूमिका है।
इसीलिए भगवान श्री कृष्ण कह रहे है। हमें भगवत धाम लौटना है जहाँ सदा के लिए श्री कृष्ण रहते है। हम इतना ही कह सकते है। आप तात्पर्य को पढो, चिंतन करो। हमको श्री कृष्ण के दर्शन। मोक्षदा एकादशी कि प्रातः काल में सेना के बीच में श्री कृष्ण ने यह वचन कहा।ऐसा स्मरण ऐसा दर्शन। श्री रंगम में उस ब्राहमण ने चैतन्य महाप्रभु को गीता का पाठ करते हुए कहा था कि जब में गीता का पाठ करता हूँ तो कुरुक्षेत्र के मैदान में पहुँच जाता हूँ या कुरुक्षेत्र के कृष्ण अर्जुन श्रीरंगम में पहुच जाते हैं और मैं देखता हूँ कि अर्जुन के साथ भगवान ये संवाद कर रहे हैं। गीता के श्रवण, अध्ययन, स्मरण, चिंतन के पीछे कृष्ण का दर्शन ही लक्ष्य है। ऐसी बुद्धि भगवान आप सभी को दे, मुझे भी दे ऐसी आज कि प्रार्थना है। हरी हरी श्री कृष्ण अर्जुन की जय, श्री मद भगवद गीता की जय, गीता माता की जय। गीता माता है या वेद माता है। माता ही हमें बताती है कि हमारे पिता कौन है। गीता माता, वेद माता हमारा परम पिता परमेश्वर से हमारा परिचय करवाती है, दिखाती है, दर्शन कराती है। गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल।
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*जप चर्चा*
*दिनांक 25 दिसंबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 1010 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। सुस्वागतम!!!
ओम नमो भगवते वासुदेवाय:!
आज हम भगवत गीता यथारूप के दसवें अध्याय “श्री भगवान का ऐश्वर्य” नामक अध्याय के नौवें श्लोक का अध्ययन करेंगे। दसवाँ अध्याय नौवां श्लोक। यह चतुर्श्र्लोकी भगवद्गीता है अर्थात भगवतगीता के विशेष चार श्लोक हैं जिसमें से कल हमनें एक श्लोक का संस्मरण भी किया या कुछ हल्की सी व्याख्या भी की। अब आगे बढ़ते हैं।
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।*
( श्रीमद् भगवतगीता १०. ९)
अनुवाद:-
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
आपने यह श्लोक कई बार, बारम्बार सुना होगा। श्रील प्रभुपाद भी इसको ‘कोट’ किया करते थे। आप भी याद रखिए, कंठस्थ कीजिए। चारों श्लोक कंठस्थ कर सकते हो। तत्पश्चात उसका मनन कर सकते हो। ह्रदयंगम कर सकते हो। आप भी कुछ भगवतगीता, कथा सुना सकते हो।कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च । यहां कृष्ण स्वयं ही कह रहे हैं कि मेरे भक्त क्या करते हैं, मेरे भक्तों की क्या पहचान है? कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च। कथा करते हैं। अगर आप कहते हैं कि मैं भी भक्त हूं तब आपको कथा कहकर, सुनकर व सुनाकर सिद्ध करना होगा। कथयन्तश्र्च अर्थात कथा करते हैं। यहां आपके विषय में कहा जा है।
भगवान् आपको भक्त के रूप में तभी स्वीकार करेंगे यदि आप उनकी कथा करते हो या करेंगे इस श्लोक के अनुवाद
में लिखा है कि मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझ में वास करते हैं।
उनके विचार मुझ में वास करते हैं।मच्चित्ता। उनका जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहता है। वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हैं। आपने क्या सुना और क्या समझें आप? वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हैं और अभी इस समय वही कर रहे हैं। यह जपा टॉक जो हो रहा है,
मैं आपको कुछ ज्ञान प्रदान कर रहा हूं या मैंने सीखा समझा है, फिर आपकी बारी है। अब आपको इस ज्ञान को औरों के पास पहुंचाना है। यह परंपरा भी है। आगे लिखा है कि” तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं।” यह इस श्लोक का भाषांतर हुआ। श्रील प्रभुपाद तात्पर्य में लिखते हैं और यहां जिन शुद्ध भक्तों के लक्षणों का उल्लेख हुआ है, वे निरंतर भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में रमे रहते हैं। उनके मन श्रीकृष्ण के चरण कमलों से हटते ही नहीं हैं। वे दिव्य विषयों की ही चर्चा चलाते हैं। इस श्लोक में शुद्ध भक्तों के लक्षणों का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है। भगवत भक्त परमेश्वर के गुणों और उनकी लीलाओं के गान में अहर्निश अर्थात रात दिन लगे रहते हैं। उनके ह्रदय तथा उनकी आत्माएं निरंतर श्रीकृष्ण में निमग्न रहती है। वे अन्य भक्तों से भगवान श्रीकृष्ण के विषय में बातें करने में आनंद का अनुभव करते हैं। इतना भी हमने किया। भक्त ऐसे करते हैं, वैसे करते हैं, भक्त को यह करना चाहिए, वह करना चाहिए।” इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकले”
अगर हम इतना भी करेंगे, तो हो गया बेड़ा पार। मच्चित्ता। हम पुनः इस श्लोक/ वचन की ओर मुड़ते हैं कि कृष्ण क्या कह रहे हैं? आप मुड़ रहे हो? आपका ध्यान कहां है? ध्यान का समय है। ‘टाइम फॉर मेडिटेशन।’ ध्यान से सुनोगे तब फिर यही ध्यान है। ध्यान सुने और ध्यान करें। तत्पश्चात सुनी हुई बातों का ध्यान करते ही रहे। इसका चर्वण करते ही रहे। जैसे कहा गया है कि हम जो अन्न ग्रहण करते हैं, हमें अपने भोजन का 32 बार चर्वण करना चाहिए। जितना अधिक चर्वण करेंगे। आप उतना अधिक स्वाद का अनुभव करोगे। यह सुनी हुई बातें या कृष्ण की बातें अर्थात कृष्ण का संदेश, उपदेश ही है। उसको झट से गॉगल अप नहीं करना चाहिए। कुछ लोग फास्ट फूड और फास्ट ईटिंग करते हैं। फूड भी फ़ास्ट हैं और फ़ास्ट ईटिंग, तब पचता नहीं है। इसका ध्यान होना चाहिए।
सुनी हुई बातों का ध्यान होना चाहिए, मच्चित्ता मद्गतप्राणा। यहां पर कृष्ण कह रहे हैं कि (यह किन की बात हो रही है। यहां किसका मच्चित्ता होगा।) उनका चित्त मुझ में लगा रहेगा। वे हमारे लिए चित्त चोर बनेंगे। तुम्हारा चित्त उनमें लगा रहेगा।
*एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु। प्राणैरथैंर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा।।*
( श्रीमद भागवतम १०.२२.३५)
अनुवाद:- हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण, धन, बुद्धि तथा वाणी से दूसरों के लाभ हेतु कल्याणकारी कर्म करे।
तब आप अपने प्राण , वचन, धन, वाणी समर्पित करोगे। (मच्चित्ता मद्गतप्राणा कौन करेंगे।)
*अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||* ( श्रीमद् भगवद्गीता १०.८)
अनुवाद:-
मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है । जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
इसका संबंध पिछले श्लोक से हैं। एक श्लोक का दूसरे श्लोक से कुछ रिश्ता नाता होता है। हर बात अलग अलग नहीं होती। श्रीकृष्ण कभी नए अध्याय या अध्याय के मध्य में नया विषय कहना प्रारंभ कर सकते हैं लेकिन अधिकतर बातें एक दूसरे से सम्बंधित होती है अर्थात एक बात का दूसरी बात से संबंध होता है। एक ही बात को फिर आगे दूसरे शब्दों में कृष्ण कहते हैं या उसको विस्तार से समझाते हैं । इससे पहले वाला जो श्लोक है जो हमनें कल पढ़ा था।
*अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||* ( श्रीमद् भगवद्गीता १०.८)
कृष्ण ने कहा था कि जो भी इति मतवा भजन्ते अर्थात ऐसा मानकर, ऐसा समझकर मेरा जो भजन करेंगे, वह भजन कैसा होगा बुधा भावसमन्विताः होगा अर्थात वह आपका और हमारा भजन भाव और भक्ति से युक्त होगा। श्रील प्रभुपाद भाषान्तर में लिखते हैं कि जो ऐसा समझकर पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते, इन दो ही बातों को कहो। यह दो बातें सब कुछ ही है।
अहं सर्वस्य प्रभव: एक बात हुई व
मत्तः सर्वं प्रवर्तते दूसरी बात हुई।
इति मत्वा अर्थात ऐसा समझकर व साक्षात्कार के साथ जो भजन करते हैं, उनका भजन बुधा भावसमन्विताः होगा अर्थात वे ह्रदय पूर्वक, पूर्ण ह्रदय से मेरा भजन करेंगे। श्रीकृष्ण अब इस श्लोक में भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः अर्थात
इसका ह्रदय पूर्वक, मनःपूर्वक ध्यानपूर्वक भजन करने वाले का लक्षण बता रहे हैं।
ऐसा समझ कर भावसमन्विताः भक्ति करेंगे, ऐसे भक्त का वर्णन श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर रहे हैं अथवा अपने भक्त का परिचय दे रहे हैं कि यह मेरे भक्त हैं, मेरे भक्त ऐसे होते है। भक्तों से यह मेरी आशा (एक्सपेक्टेशन) है। मेरे भक्त कैसे हो या कैसे होते हैं। मच्चित्ता अर्थात उनकी सारी चेतना, सारी भावना मुझ में लगी होती है। भक्तों के विचार मुझ में वास करते हैं। श्रील प्रभुपाद भाषान्तर में लिख रहे हैं कि मद्गतप्राणा अर्थात भक्त सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार होते हैं।
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||* ( श्रीमद् भगवद्गीता १८.६६)
अनुवाद:-
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
जीव सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज तब करेगा, जब वो कृष्ण को समझेगा कि कृष्ण ऐसे महान हंख और हम लहान है। भगवान् महान है और हम छोटे हैं। कृष्ण ऐसे हैं, कृष्ण वैसे हैं। अद्भुत कृष्ण, मधुर कृष्ण, अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक कृष्ण, गोलोकपति कृष्ण और उनके भक्तों के साथ जो सम्बन्ध हैं, उसमें जो माधुर्य रस है या साख्य रस है या वात्सल्य रस है। फिर यह सारी रसभरी लीलायें, कथाएँ जो भी सुनेगा।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः
वह भी भगवान् के चरणों में समर्पित होगा। आत्मनिवेदन करेगा। यह सब भगवान् का ही है । तुभ्यमेव समर्पये तुदयेव वस्तु गोविंद.. मेरा तो कुछ भी नहीं है। बस आप मेरे हो, अलग से मेरा कुछ नही है, आप मेरे हो। आपका क्या क्या है? आपकी प्रॉपर्टी या कुछ कहो, थोड़ा समझाओ।आपकी प्रॉपर्टी जो कुछ भी आपका हैं, कहो क्या क्या है आपका। लंबी लिस्ट हो सकती है लेकिन बढ़िया है कि कृष्ण मेरे हैं और फिर मैं कृष्ण का हूँ। इसके परे अहम न जाने
*कृष्णत परम् किम् आपी तत्वम अहम ना जाने(वामशी विभूषिता)*
कृष्ण से परे और कोई है ही नहीं। कृष्ण ही सब कुछ हैं तो ऐसे कृष्ण मेरे हैं। मैं उनका हूँ और वे मेरे हैं। बस और क्या। कौन सी माया ममता बच गयी या चाहिए आपको, बस कृष्ण मेरे हैं।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा और फिर मेरा प्राण, सब कुछ न्यौछावर है।
*मानस-देह-गेह, यो किछु मोर। अर्पिलु तुया पदे, नन्दकिशोर!॥1॥*
*संपदे-विपदे, जीवने-मरणे। दाय मम गेला तुया ओ-पद वरणे॥2॥*
*मारबि राखबि जो इच्छा तोहार नित्यदास-प्रति तुया अधिकार॥3॥*
*जन्माओबि मोए इच्छा यदि तोर। भक्त-गृहे जनि जन्म हउ मोर॥4॥*
*कीट-जन्म हउ यथा तुया दास। बहिर्मुख ब्रह्माजन्मे नाहि आश॥5॥*
*भुक्ति-मुक्ति-स्पृहा विहीन ये भक्त। लभइते ताँक संग अनुरक्त॥6॥*
*जनक-जननी दयित तनय। प्रभु, गुरु, पति तुहुँ सर्वमय॥7॥*
*भकतिविनोद कहे, शुन कान! राधा-नाथ! तुहुँ आमार पराण। ॥8॥*
अर्थ
(1) हे नन्द महाराज के पुत्र, मेरा मन, शरीर, मेरे घर का साज-सामान तथा अन्य जो कुछ भी मेरा है, मैं आपके चरणकमलों पर अर्पित करता हूँ।
(2) आपके चरणकमलों का आश्रय लेने से मेरी समस्त जिम्मेदारियाँ – चाहे वे सुख में हों, भय में, जीवन में, अथवा मृत्यु में समाप्त हो चुकी हैं।
(3) आप चाहें तो मुझे मारें अथवा जीवित रखें, आपको पूरा अधिकार है। आपकी जो कुछ भी इच्छा हो, उसे कार्यान्वित करने हेतु आप स्वतन्त्र हैं, क्योंकि मैं तो आपका नित्य दास हूँ।
(4) यदि आप चाहते हैं कि मेरा पुनः जन्म हो तो मेरा एक ही निवेदन है कि मैं भक्त के घर में जन्म लूँ।
(5) यदि मुझे कीड़े का जन्म भी लेना पड़े तो आपका दासत्व मिले, यही मेरी अभिलाषा है। परन्तु, ब्रह्मा का जन्म भी मुझे कदापि स्वीकार नहीं, यदि मुझे आपसे बहिर्मुख होना पड़े।
(6) मैं आपके उन भक्तों का संग करने की कामना करता हूँ जो भौतिक भोग-विलास तथा मुक्ति की इच्छाओं से रहित हैं।
(7) आप मेरे पिता-माता, प्रेमी, पुत्र, स्वामी, आध्यात्मिक गुरु, एवं पति हैं। वस्तुतः मेरे लिए आप ही सब कुछ हैं।
(8) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं, “हे कृष्ण! कृपया मेरी प्रार्थना सुनिए। हे राधारानी के प्रियतम नाथ! आप मेरे जीवन एवं प्राण हैं। ”
भक्ति विनोद ठाकुर ने ऐसे भाव भी व्यक्त किया है। श्रीकृष्ण को भक्ति विनोद ठाकुर पर कितना अभिमान होगा। यस, भक्ति विनोद ठाकुर मेरे भक्त हैं, इनकी चेतना देखो, इनका भाव देखो। इनका समर्पण देखो। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की जय! भगवान् कह रहे हैं। भगवान् कह सकते हैं कि ऐसे मेरे भक्त की जय हो।
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्*
भगवान् कहते हैं कि मैं ही उनकी चर्चा का विषय बनता हूँ। मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् इस जपा टॉक के अंतर्गत एक दूसरे को याद दिलाएंगे। बाकी समय भी जब फ़ोन भी उठाएंगे तो हरे कृष्ण कहेंगे। हाय हेल्लो छोड़ो, हरे कृष्ण बोलो। अब गीता जयंती का महीना है तो गीता वितरण के सम्बंध में बोधयन्तः परस्परम् करेंगे अर्थात एक दूसरे को प्रेरित करेंगे। स्फूर्ति देंगे। सफ़लता की कहानियां एक दूसरे को सुनाएंगे कि मैंने ऐसे किया, मैं ऐसे स्थान पर गया। मैंने 108 पुस्तकें वितरित की। हरि बोल!
यह जपा टॉक भी बोधयन्तः परस्परम् ही है। एक दूसरे को भगवदगीता वितरण के संबंध में बोध करते हैं। तत्पश्चात
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च
कृष्ण के सम्बंध में सीधी बात करते हैं।गीता वितरण की बात हुई। वह भी कृष्ण कथा ही है। तुष्यन्ति च रमन्ति च इसमें दो बातें हैं। कुछ तो सन्तुष्ट होते हैं। समाधानी होना यह उपलब्धि बहुत ऊंची हैं। लोग सन्तुष्ट ही नहीं हैं, समाधानी ही नहीं हैं लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मेरे भक्त सन्तुष्ट हैं। टाटा, बिड़ला, अम्बानी.. इतने अधिक नाम है। क्या वे सन्तुष्ट हैं? नहीं हैं तो फिर क्या फायदा इस अमीरी का, उस अमीरी ने उनको सन्तुष्ट नहीं किया। लेकिन कृष्ण भक्तों की सम्पति कृष्ण कथा है।
*गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥*
( वैष्णव भजन- हरि हरि विफले)
अर्थः-
गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
यह भक्तों की सम्पति है और वे उसी सम्पति से सन्तुष्ट हैं।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह एक सम्पति है, हमारे देश अथवा भारतवर्ष की भगवद्गीता एक सम्पति है। यह एक ही सम्पूर्ण है, कुछ बचता नहीं है। जिसको भगवद्गीता प्राप्त है, वह धनवान है। भगवद्गीता का अध्ययन व्यक्ति को सन्तुष्ट करेगा तब सब हो गया। इसके अतिरिक्त और क्या होना होता है? सन्तुष्ट हो गया तो हो गया जीवन सफल *कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च*
इनका कार्यकलाप, इनका व्यवहार रमणीय हैं, इसी में रमते हैं। हरि हरि!
आप पढ़िए। दिन में इस श्लोक का तात्पर्य पढ़ लीजिए। यह आपके लिए गृह कार्य है। ठीक है। आगे जारी रहेगा( टू बी कंटिन्यूड)
गीता जयंती महोत्सव की जय!!!
श्रीमद् भगवद्गीता यथारूप की जय!!!
श्रील प्रभुपाद की जय!!!
श्री कृष्ण अर्जुन की जय!!!
कुरुक्षेत्र धाम की जय!!!
श्रीमद भगवद्गीता वितरकों भक्तों की जय!!!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*24 दिसंबर 2021*
*सोलापुर से*
श्रीमद्भगवद्गीता चतुश्लोकी भगवदगीता श्लोक पहला 10.8
यह जप चर्चा करने का समय है। 1036 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं। ओम नमो भगवते वासुदेवाय। इन दिनों में हम गीता पढ़ रहे हैं या गीता को याद कर रहे हैं। और वही गीता हमें कृष्ण की याद दिलाती है। क्यों नहीं? गीता ही है कृष्ण। उस गीता का संस्मरण कृष्ण का ही स्मरण है। वैसे चतुर श्लोकी भागवत है। भागवत के चार श्लोक जिसको चतुर श्लोकी भागवत कहते हैं। तो चतुर श्लोकी भागवदगीता भी है। भगवद गीता के भी चार श्लोक विशेष है। और वे हैं दसवें अध्याय का आठवां, नववा, दसवां और ग्यारहवा श्लोक। परिभाषित सूत्र यह वही कल्पना है। कुछ शास्त्रों के आधारभुत श्लोक है यह। उनको परिभाषित सूत्र कहते हैं। वह सारा ग्रंथ सूत्र रूप में कुछ ही श्लोकों में इसका जो मर्म है वह समझाया जाता है। एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् यह भागवत का परिभाषित सूत्र है, श्लोक है। तो वैसे यह चार श्लोक हैं दसवें अध्याय के। तो हल्का सा हम संस्मरण करते हैं उन श्लोकों का। ( गुरु महाराज झुम पर एक भक्त से कह रहे हैं) हां राम चरण सुनो, कृष्ण को सुनो। मैं तो कृष्ण की ओर से ही बोल रहा हूं। हरि हरि। आपके पास गीता है तो आप खोल सकते हो। कुछ भक्त भगवदगीता खोल कर बैठे हैं। इतने में कोई श्लोक को स्क्रीन पर दिखा रहे हैं, हमारे ट्रांसलेशन टीम से।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥
श्रील प्रभुपाद इस श्लोक को भी बारंबार कोट किया करते थे। अहं सर्वस्य प्रभवो श्री कृष्ण बहुत कुछ यहां कह रहे हैं कह गए हैं। अहं सर्वस्य प्रभवो मैं सभी को प्रभावित करता हूं या मैं सभी का स्रोत है। मैं कौन हूं? अपना परिचय भी दे रहे हैं। आप कौन हो? आप कैसे हो? ऐसा कोई प्रश्न भगवान से पूछे, तो भगवान श्रीकृष्ण उत्तर दे रहे हैं। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते तो यह सुनेंगे और समझेंगे फिर हम कृष्ण भावना भावित होंगे। हमकों साक्षात्कार होगा, भगवत साक्षात्कार। कृष्ण रिलाइजेशन, इसको दुनिया तो गॉड रिलाइजेशन कहती है। लेकिन हम क्यों कहेंगे गॉड रिलाइजेशन क्योंकि हम उस गॉड का नाम जानते हैं। हरि हरि। उनको गॉड गॉड ही कहना है लेकिन कृष्ण नहीं कहना है, तो आप कृष्णा भावना भावित नहीं हो। कुछ अभाव है।
उस भगवान का नाम भी नहीं जानते फिर क्या जानते हो? कैसा है साक्षात्कार तुम्हारा? उनके नाम को नहीं जानते, रूप को नहीं जानते, गुणों को नहीं जानते, लीलाओं को नहीं सुने समझे हो, उनके धाम का कभी दर्शन नहीं किए हो। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इति मत्वा ऐसा जो मानता है, समझता है, ऐसा समझकर, ऐसा जानकर जो इति मत्वा भजन्ते मां ऐसा मानकर जो भजन करता है, मेरी आराधना करता है, सोच समझ कर। बुधा भावसमन्विता: जो व्यक्ति बुद्धिमान है वह मेरी प्रेमा भक्ति में लगते हैं, तथा ह्रदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं। श्रील प्रभुपाद अनुवाद कर रहे हैं भावसमन्विता: वह मेरा भजन करेंगे भावों के साथ। भक्ति युक्त, कृष्णा भावनाभावित हो जाएंगे। जब वे समझेंगे अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इति इतना कोई जानेगा, इति मतलब इतना इति का अर्थ होता है इतना। ज्यादा तो नहीं कहा कुछ दो ही बातें कहीं अहं सर्वस्य प्रभवो, मत्त: सर्वं प्रवर्तते। दूसरे शब्दों में कृष्ण अहम और मम की बात कर रहे हैं। हम भी करते रहते हैं अहं मम, अहं मम, अहं मम, मैं मेरा मैं मेरा मैं मेरा, तू तेरा तू तेरा। लेकिन हम जब अहम मम की बात करते हैं तो हमारा माया से मोहित संभ्रमित होकर हम अहम और मम की बात करते हैं। तो उस झूठे अहम अहंकार और ममता ममत्त्व उस से मुक्त होने के लिए क्या करना पड़ेगा? अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इसको समझना होगा, मतलब कृष्ण को समझना होगा। हरि हरि ।
जब कृष्ण अहम कहते हैं वह झूठा अहम नहीं है। कृष्ण तो बस सीधी बात कह रहे हैं अहम मैं, मैं हू। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते जो भी है मेरा ही है। इशावास्यं इदं सर्वं यत् किन्च जगत्याम जगत। और फिर कृष्ण के संबंध में हम कौन हैं। हम जो अहम अहम कहते रहते हैं वह अहम छोड़ के मैं, मैं भारतीय हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं। यह सारी उपाधियां, सारी दुनिया भर की उपाधियां यह तो अहम हैं। मैं बीमार हूं यह तो और उपाधि हो गई कुछ दिन के लिए। हा फिर बीमारिया तो हजार प्रकार की बीमारियां है, तो मैं हूं लेकिन कैसा हूं कैंसर पेशेंट हूं। तो इस तरह हमारा अहम ऐसा है। लेकिन ऐसा जो अहम है अब है तो शाम तक नहीं है। मैं ठीक हो गया, मैं ठीक हो गया, मैं स्वस्थ हूं। अरे अभी अभी तो कह रहे थे मैं बीमार हूं अपनी पहचान दे रहे थे, अब ठीक हो गए। हमारा जो अहम था ज्यादा समय के लिए टिकता नहीं है। तो फिर कृष्णा कहेंगे ममैवांशो जीव लोके जीव भुतः सनातनः अरे अरे है जीव एक तो जीव जागो और समझो मम एवं अंश तुम कौन हो? मेरे अंश हो, तुम मेरे अंश हो। हां हां समझा मैं, मैं आपका अंश हू या फिर अहं दासौस्मि अहं कृष्ण दासः अस्मि। ऐसा किसी ने कहा मैं कृष्णदास हूं यह पहचान शाश्वत है। इसमें कोई कभी परिवर्तन होने वाला नहीं है। भ्रम के कारण हम कुछ बीच में बोलते रहेंगे ऐसे भी अभी बोल रहे हैं, मैं यह हूं वह हूं। लेकिन हम जब कृष्णभावना भावित होंगे या फिर समझेंगे भी अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इति मत्वा भजन्ते मां ऐसा जानकर, यह भगवद्गीता सुनकर, समझ कर कुछ समय के उपरांत हमारा यह जो झूठा अहम है समाप्त हो जाएगा। झूठे अहम से मुक्त हो गया। झूठे ममता से भी मुक्त हो गया। मेरा अहम और मम नहीं रहा।
हरि हरि, तो यहां कृष्ण कह रहे हैं पहले समझो।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ जिसको तुम मेरा मेरा कह रहे हो तुम्हारा थोड़ी ही है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
यह तो मेरी प्रकृति है। पृथ्वी है। मिट्टी है या सीमेंट है ईट है पानी है यह तो मेरा है। मेरी शक्ति है। बहिरंगा स
शक्ति हैं और उसको हड़प लिया कहीं से लाया। खान से या यहां से या पहाड़ से या और कह रहे हो, यह मेरा है। तुम्हें सुना नहीं मुझे भगवदगीता में क्या कहा मैंने अर्जुन को।
भूमिरापोऽनलो वायुः मेरी शक्ति है मेरी शक्ति है। हड़प रहे हो सावधान। अहम सर्वस्य प्रभवो एक अहम है और एक मत्तः। अहम सर्वस्य प्रभवो भगवान है। भगवान का अपना, भगवान है इसीलिए भगवान कह रहे हैं। अहम कृष्ण कह रहे हैं। अहम अहम वह क्या है, अहम अभी यह दो चार श्लोक अर्जुन सुनेंगे, तो अर्जुन कहने वाले हैं। परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥
यहां 12 श्लोक में, हमने आठवा श्लोक शुरू किया है। चतुश्लोकी में से आठवां श्लोक, यहां दसवें अध्याय का यह चार श्लोक जब सुनेंगे तो पहले की बातें सुनी हुई हैं, इस अध्याय में। दसवें अध्याय को विभूति योग भी कहा गया है। विभूति योग कहते हैं। वैसे सभी अध्याय योग योग कहलाते हैं। यह योग वह योग कुछ इस तरह। इस अध्याय का नाम है विभूति योग। भगवान अपने विभूतियों का उल्लेख करने वाले हैं।
स्थावराणां हिमालयः भगवान कहने वाले हैं। और सभी नदियों में पवित्र नदी गंगा में हूं कहने वाले हैं। मासानाम मार्गशीर्ष अहम ऐसा कहने वाले हैं। सारी महीनों में मार्गशीष महीना में हूं ऐसा कहने वाले हैं। रूद्रो में शंकर में हूं ऐसा कहने वाले हैं। काफी लंबी सूची है। हे तो बहुत सारी असंख्य बातें हैं लेकिन उसमें से कुछ बातों का उल्लेख कृष्ण करते हैं और कहते हैं। यह मैं हूं यह मैं हूं ऋतु में वसंत ऋतु है। कुसुमाकरः उसमें कई सारे पुष्प खिलते हैं, इस महीने में वह महीना में हूं। यह सब कृष्ण है। कृष्ण का प्रभाव है। कृष्ण है। कृष्ण से अभिन्न है। अहम और मत्त यहां मैं हूं। और मत्तः मुझसे सब उत्पन्न है, होता है। फिर खत्म तीसरी बात अस्तित्व में है ही नहीं। इसी को दूसरे शब्दों में कह सकते हैं, इस संसार में अस्तित्व है उसमें दो बातें हैं। एक कृष्ण है और दूसरी है कृष्ण की शक्ति और तीसरी कोई बात है ही नहीं। जिसको भी हो और आप उंगली दिखाओगे दोनों में से एक होगा या तो वहां कृष्ण होंगे या कृष्ण की शक्ति होगी। वैसे हमारा शरीर भी लीजिए, हमारा शरीर वैसे दो प्रकार की शक्तियां ही है। दो प्रकार की शक्तियों से यह शरीर फिर कहना कठिन हो जाता है। एक तो अंतरंगा शक्ति, ठीक है वह भी नहीं बोलेंगे। यह जो पृथ्वी वायु तेज आकाश उसको कृष्ण ने कहा है। भिन्ना प्रकृतिरष्टधा यह पंचमहाभूत है। जिसका यह स्थूल शरीर बना हुआ है।
यह भी भगवान की शक्ति है। फिर मन बुद्धि अहंकार यह अंतःकरण सूक्ष्म शरीर हुआ। यह सब भगवान ने कहा है मेरी शक्ति है। सूक्ष्म शरीर भगवान की शक्ति है। अंतकरण भगवान का सूक्ष्म शक्ति है। और फिर बच गया आत्मा जो इस शरीर को घर बना लिया। देह बना लिया। नवद्वारे पुरे देही नवा द्वार नो दरवाजे हैं नव द्वार का बना हुआ, यह घर इसमें आत्मा रहता है या बंद है। उसको इस शरीर रूपी कारागार में रखा है। और शरीर तो फिर यातना इसको यातनारूपी शरीर भी कहा है। वैसे हमारे मन और यातना परेशान करता है। हमारा शरीर भगवान की शक्ति है और हमारी आत्मा भी भगवान की शक्ति है। जैसे 8400000 योनियों हैं। उन सभी योनियों का यही हाल है। उनका शरीर है। एक एक योनी है मतलब एक एक प्रकार का शरीर है। और सारे के सारे शरीर भगवान के पृथ्वी आप जल वायू अलग-अलग प्रकार के मिश्रण से ही बन जाता है। शरीर और उन सभीयो में आत्मा होती है। इस प्रकार पूरा समझाया तो नहीं है लेकिन अभी समझाने के लिए समय भी कहा है। इतने में समझ जाओ कि इस प्रकार संसार में जो भी है कृष्ण का है। या तो अहम सर्वस्य प्रभावो है एक अहम प्रभावित करता है अहम सर्वस्य प्रभावो और मतलब सर्व मुझसे जो भी उत्पन्न होता है मतलब कि मैं हूं। और मेरा है। कृष्ण का अहम कृष्ण का मम इसी से बना होता है। भगवान की अंतरंग शक्ति हैं। भगवान के बहिरंगा शक्ति हैं। दोनों भी शक्ति दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । कहे कि नहीं कृष्ण। मम माया किसकी माया मम माया। माया हमारी नहीं है। कृष्ण की माया है। वही उसके मालिक हैं। और हमारे आत्मा के मालिक भी कृष्ण है। और शरीर के भी मालिक कृष्ण हैं। अहम सर्वस्य प्रभावो मत्तः सर्व प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।
समझ तो इतना ही जाना है। इति मतलब इति मत्वा इतना इसको मानकर इति मत्वा भजन्ते जो भजन करते हैं। यह तत्वज्ञान हैं। तत्वज्ञान समझ लिया फिर धर्म की ओर मुड़ते हैं या धार्मिक बनते हैं। धार्मिक कृत्य करते हैं। ऐसा ही करना चाहिए। पहले समझना चाहिए। जितना समझ आया उतना करना चाहिए यह नहीं की पहले सब समझ लेते हैं बाद में शुरुआत करते हैं।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः तो फिर ऐसे समझा हुआ व्यक्ति क्या करेगा बुधा भाव समन्विता वह बुद्धिमान या ज्ञानवान बनेगा। यह समझेगा इन बातों को। तो फिर उसकी जो भक्ति है बुधा भाव समन्विता वह बड़े ध्यानपूर्वक भजन करेगा। भाषांतर में तो श्रील प्रभुपाद ने कहा है, पूरे ह्रदय से मेरा भजन करेगा। ठीक है, हम यहां पर रुकेंगे। कल आगे बढ़ते हैं। मैंने सोचा था चार लोग समझाएंगे आज।
गीता जयंती महोत्सव की जय!
इसका वितरण करना है प्रचार प्रसार करना है गीता वितरण के साथ।
हरे कृष्ण,
हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
23 दिसंबर 2021
1. गौड़ीय वैष्णव पारिवारिक व्यवसाय के अग्रदूत।
2. हमारे संस्थापक आचार्य के गौरवशाली आध्यात्मिक गुरु!
3. दो प्रभुपादों को प्रसन्न करने के लिए पुस्तक वितरण।
हरे कृष्ण !!
विषय: श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कौन थे?
1055 से अधिक स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। आज का दिन एक महान दिन है क्योंकि श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने अपने शरीर को छोड़ने के लिए इस दिन को चुना था। वह श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र थे। वह श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी के गुरु के एकमात्र शिष्य थे और श्रील प्रभुपाद के गुरु थे। उनका जन्म जगन्नाथ पुरी में हुआ था।
उप विषय: उनका नाम बिमलाप्रसाद या श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर क्यों रखा गया?
भगवान जगन्नाथ ने बचपन में उन पर विशेष कृपा की थी। जब उनकी मां उन्हें रथ पर जगन्नाथ जी के पास ले गयी और उनके चरणकमलों में रखा, तो भगवान जगन्नाथ के गले की माला उनके गले में गिर गई। उन्हें विष्णु की किरण या आशा की किरण के रूप में जाना जाता है। भक्तिविनोद ठाकुर प्रार्थना कर रहे थे कि कोई ऐसा बच्चा पैदा हो जो गौड़ीय वैष्णव के दर्शन का प्रचार कर सके। जगन्नाथ की कृपा से भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने जन्म लिया और उनका नाम बिमलाप्रसाद था। देवी बिमला जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में देवताओं में से एक हैं। वह प्रमुख हैं और भगवान के प्रसादम का सम्मान करने वाली पहली हैं। उनके प्रसाद की दया के रूप में, भक्तिसिद्धांत का नाम बिमलाप्रसाद रखा गया। उन्होंने सूर्य सिद्धांत का अध्ययन किया और इसकी स्थापना की। सूर्य सिद्धांत एक वैदिक साहित्य या शास्त्र है। तब उनका नाम भक्तिसिद्धांत रखा गया और उन्हें सरस्वती की उपाधि दी गई। उनका एक लंबा व्यक्तित्व था। वह न केवल शारीरिक रूप से लंबे थे बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी लंबे थे।
विषय: श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर द्वारा योगदान।
भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अनेक शास्त्रों पर टीकाएँ लिखीं। उन्होंने चैतन्य भागवत पर गौड़ीय भाष्य के नाम से एक भाष्य लिखा। और फ़िर भक्तिवेदांत श्रील प्रभुपाद ने चैतन्य चरितामृत पर एक भाष्य लिखा। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर और श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी चैतन्य चरितामृत पर भाष्य लिखा। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने हमेशा पुस्तकों के लेखन, छपाई और वितरण पर ज़ोर दिया। वे कहते थे कि, यह गौड़ीय वैष्णवों का पारिवारिक व्यवसाय है। कोलकत्ता में उनके गौड़ीय मठ में एक प्रिंटिंग प्रेस भी थी। उन्होंने इसे मंदिर में इस तरह रखा कि देवता इसे देख सकें और पुस्तकों की छपाई देखकर प्रसन्न हो सकें। उन्होंने कहा कि यह प्रिंटिंग प्रेस एक ‘बृहद मृदंग’ है, जिसकी आवाज़ काफ़ी दूर तक जाती है। इसलिए पुस्तक वितरण हमारा पारिवारिक व्यवसाय है। गीता जयंती के इस महीने में हमें इसमें योगदान देना होगा।
विषय: श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का प्रत्यक्ष निर्देश।
राधा कुंड में, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने श्रील प्रभुपाद को निर्देश दिया, “जब भी आपको पैसा मिले, किताबें छापें।” श्रील प्रभुपाद के उनके शिष्य बनने से पहले ही यह एक सीधा निर्देश था। फ़िर उन्होंने दीक्षा के बाद भविष्य में फ़िर से इस निर्देश को दोहराया। दिसंबर 1936 में, तिथि अलग थी क्योंकि वह सौर कैलेंडर के अनुसार थी और तिथि चंद्र कैलेंडर के अनुसार है, उनके लापता होने से दो सप्ताह पहले, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर जगन्नाथ पुरी में थे। श्रील प्रभुपाद ने एक बार श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने एक गृहस्थ के रूप में उनकी संगति और किसी भी निर्देश के लिए अपनी इच्छा व्यक्त की थी। जवाब में उन्हें एक पत्र मिला जहां श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने उसी निर्देश को दोहराया, “किताबें मुद्रित करे और वितरित करे।” आज आप आभासी पृष्ठभूमि में एक छवि देख रहे थे जहां श्रील प्रभुपाद और उनके मित्र श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर और उनके शिष्यों के साथ बैठे थे। वह पहली बार थी जब ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद अपने गुरु से मिले, जो 1922 में उल्टा दंगा में थे। ए. सी. का अर्थ है अभय चरण। उन्हें वहा अपना पहला निर्देश मिला, “पश्चिम में जाओ और कृष्ण के बारे में प्रचार करो चेतना या चैतन्य पंथ अंग्रेजी में”। 2 महीने बाद हम श्रील प्रभुपाद की उनके गुरु महाराज के साथ पहली मुलाकात का शताब्दी वर्ष मनाएंगे। इस्कॉन कोलकत्ता 21 फरवरी, 2022 को एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन कर रहा है। एक और अच्छी खबर यह है कि अब इस्कॉन ने वह स्थान हासिल कर लिया है जहां ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद से मिले थे। यह गौड़ीय मठ हुआ करता था जो किसी तरह खाली था। इसलिए, इस्कॉन ने इस स्थान का अधिग्रहण किया और परिसर का नवीनीकरण किया। वही 100वां समारोह भी होने जा रहा है। इसलिए, श्रील प्रभुपाद को जो पहला निर्देश मिला, वह था, “पश्चिम में जाओ और कृष्णभावनामृत का अंग्रेजी में प्रचार करो”। और दूसरा निर्देश था, “यदि आपको पैसा मिले, तो किताबें छापें।”
विषय: श्रील प्रभुपाद द्वारा आदेशों का निष्पादन।
किताबें छापने या बाटने के लिए लिखना भी पड़ता है। इसलिए, श्रील प्रभुपाद जीवन भर उन्हें मिली शिक्षा की तयारी करते रहे। उन्होने वृंदावन में अंग्रेजी में श्रीमद भागवतम लिखा। उनकी कुछ पहली पुस्तकें थीं – अन्य ग्रहों की आसान यात्रा, श्री इशोपनिषद और भगवद-गीता पर टिका। उनका मुख्य काम श्रीमद भागवतम का पहला सर्ग था, जो 3 खंडों में था, जिसे वे अमरिका ले गए। रास्ते में, उन्होंने भागवतम का एक सेट मालवाहक जहाज जलदुत के कप्तान को दिया। श्रील प्रभुपाद ने स्वयं अमरिका की सड़कों पर पुस्तकों का वितरण किया। पुस्तकों को छापने और वितरित करने के लिए श्रील प्रभुपाद के प्रयासों के बारे में सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। इसकी शुरुआत कीर्तन से हुई और फ़िर पुस्तक वितरण भी शुरू हुआ। 1944 में पश्चिम जाने से पहले उन्होंने बैक टू गॉडहेड पत्रिकाओं की छपाई के लिए राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से संपर्क किया था। श्रील प्रभुपाद चाहते थे कि ‘बैक टू गॉडहेड पत्रिका’ ‘टाइम पत्रिका’ की तरह प्रसिद्ध हो। फ़िर हर महीने बैक टू गॉडहेड पत्रिका की कई प्रतियां वितरित की गईं। श्रील प्रभुपाद ने अमरिका के बोस्टन में इस्कॉन प्रेस की भी स्थापना की। फ़िर उन्होंने छपाई के लिए बी. बी. टी. की स्थापना की। बीटल्स बैंड के सबसे लोकप्रिय गायक जॉर्ज हैरिसन ने उनकी शरण ली और लंडन में 11 एकड़ जमीन की पेशकश की। इसका नाम भक्ति वेदांत मैनर रखा गया। अब हमारे पास लंडन में 80 एकड़ ज़मीन है। उन दिनों पुस्तक वितरण धन का प्रमुख स्रोत था। जॉर्ज हैरिसन ने भी ‘कृष्ण’ पुस्तक की छपाई की लागत को प्रायोजित किया। इसलिए कृष्ण पुस्तक का परिचय जॉर्ज हैरिसन द्वारा ही लिखा गया है । श्रील प्रभुपाद ने अपने गुरुमहाराज के निर्देशों को इतनी गंभीरता से छापने और वितरित करने के लिए लिया था कि हम इसे देख सकते हैं। यह गौड़ीय वैष्णवों का पारिवारिक व्यवसाय भी है जैसा कि श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा है। इसलिए हम पुस्तकें वितरित करते हैं क्योंकि यह श्रील प्रभुपाद को दिया गया निर्देश था ।
विषय – हमारा कर्तव्य।
उन्होंने यह निर्देश हमें आगे भेजा। प्रभुपाद शीर्षक है। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को प्रभुपाद भी कहा जाता था। इसलिए, आज हमें प्रभुपाद, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद और भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद दोनों को पुस्तकों का वितरण करके प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिए ताकि वे हम पर अपनी दया प्रदान करें और हम अपने आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करें।
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद के तिरोभाव दिन की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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*जप चर्चा*
*22 -12 -2021*
*भगवद्गीता अध्याय-4*
हरे कृष्ण !
1033 स्थानों से भक्त आज जप में सम्मिलित हैं। अर्जुन ने क्या प्रश्न पूछा ? भगवत गीता अध्याय 4 अर्जुन उवाच
“अर्जुन उवाच
*अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः |कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.4)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था |
जो भी उन्होंने कृष्ण से सुना था उनके मन में प्रश्न उठा है वह कह रहे हैं ऐ ! ऐ ! यह क्या डींग मार रहे हो *अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः* विवस्वान का जन्म तो बहुत पहले का हुआ है। यहां श्रील प्रभुपाद के तात्पर्य में समझाया है की विवस्वान कब हुए, त्रेता युग में हुए, अपरं भवतो जन्म और अपरम अभी-अभी का, भवतो मतलब आपका, हे श्रीकृष्ण आपका जन्म तो अभी अभी हुआ है हम तो भाई-भाई हैं। वी आर ब्रदर्स लगभग हम एक ही उम्र वाले हैं। आप समझ रहे हो कि वह क्या प्रश्न पूछ रहे हैं? परं जन्म विवस्वतः विवस्वान का जन्म बहुत पहले हुआ और आपका जन्म अभी हुआ है। आप कुरुक्षेत्र में आए हो आप 100 साल के हो और विवस्वान थे लाखों वर्ष पूर्व, कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति , हमें बताइए मैं कैसे समझ सकता हूं यह स्वीकार कर सकता हूं कथमेतद्वि जिस बात को जानीयां मैं स्वीकार कर लूंगा, किस बात को? त्वमादौ, बहुत पहले कभी प्रोक्तवानिति , यह सारी बातें आपने पहले विवस्वान को सुनाई थी। अभी-अभी आपने कहा,
श्री भगवानुवाच
*इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.1)
अनुवाद – भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया |
पहले श्लोक में आपने कहा अब चौथे श्लोक में मैं कह रहा हूं आपसे पूछ रहा हूं प्रोक्तवानहमव्ययम् मैंने कहा विवस्वान को यह सारी बातें या मैंने यह गीता का ज्ञान विवस्वान को दिया , किन्तु यह मुझे समझ में नहीं आ रहा है कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति , इति मतलब दिस मच या जिस बात को समझना भिन्न है कैसे समझा जाए, आप समझ गए अर्जुन का प्रश्न वेरी नाइस, बहुत अच्छा प्रश्न है स्वाभाविक है आप भी यदि अर्जुन के स्थान पर होते तब आप भी ऐसा ही प्रश्न करते या वैसे आप की ओर से ही अर्जुन से यह प्रश्न पूछवाया है श्रीकृष्ण ने, कहो कहो इससे संसार का कोई भी बद्ध जीव या सम्भ्रमित जीव ऐसा ही प्रश्न पूछेगा, उनकी की ओर से बोलो अर्जुन, इस प्रश्न को कृष्ण के द्वारा बुलवाया गया है। क्योंकि उसका उत्तर देना चाहते हैं वह समझाना चाहते हैं अर्जुन को कृष्ण कौन हैं ? भगवान कौन हैं? के आमी ? श्रीभगवान उवाच अगले श्लोक में कृष्ण उत्तर देंगे या दे रहे हैं।
श्रीभगवानुवाच
*बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन | तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.5)
अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है |
यहां अर्जुन को परन्तप कह रहे हैं परन्तप अर्थात शत्रुओं का दमन करने वाले या दमन करने वाले को परंतप कहते हैं और यहां वे अर्जुन हैं और भी कोई हो सकते हैं परंतु यहाँ कृष्ण कैसे उत्तर दे रहे हैं “बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन” बड़ी सरल संस्कृत है आप पढियेगा संस्कृत सीखिएगा, क्या-क्या भाषा मिक्स भाषा, कन्नड़ भाषा, यह भाषा, कई भाषा मातृभाषा और कृष्ण आपकी माता है या कृष्ण पिता है और मातृभाषा सीखो या सारे भाषाओं की जननी (मदर ऑफ ऑल लैंग्वेजेस) संस्कृत भाषा है। इसको भी थोड़ा पढ़िए, थोड़ा सीखिए प्रयास कीजिए प्रयत्न होना चाहिए , मदद होगी शास्त्रों को समझने में, यह जो खजाना है ज्ञान का भंडार है, लेकिन खजाना है तो उसको लॉक में रखा है। तिजोरी में रखा है, कैसी तिजोरी? यह कुंजी है। यह जो संस्कृत भाषा है यह चाबी है। जिसके पास ये चाबी है उसको ही यह खजाना मिलेगा। उसको भली-भांति समझेंगे, भावार्थ, गूढ़ अर्थ बड़ी सरल बात है। *बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन* अभी-अभी परन्तप कहा था और अभी यहां कह रहे हैं, हे अर्जुन! इसी एक ही श्लोक में एक ही वचन में या एक ही वाक्य में कृष्ण को परंतप भी कहा है और अर्जुन ने भी कहा है तो क्या कहा अर्जुन से तुम्हारे और मेरे बहुत जन्म बीत चुके हैं बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि व्यतीत किए हुए हैं, बिताए हैं बहुत सारे जन्म मैंने और तब तुम्हारे भी क्योंकि आगे तुम्हारे और मेरे बहुत सारे जन्म हो चुके हैं फिर समस्या क्या है ? तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप उन जन्मों को जो बहुत सारे हैं सर्वाणि सारे के सारे जन्मों को तान्यहं वेद मैं तो जानता हूं मुझे याद है। लेकिन समस्या क्या है? न त्वं वेत्थ परन्तप लेकिन तुम हे अर्जुन इसको नहीं जानते हो तुम भूल चुके हो, दिस इज द प्रॉब्लम बद्ध जीव की यह समस्या है। वह सोचता है कि यही जन्म मेरा पहला जन्म है और फिर दिस इज़ द लास्ट बर्थ, दिस बॉडी इज़ फिनिश्ड, एवरीथिंग इज फिनिश्ड ,
*यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।* (चार्वाक दर्शन)
अनुवाद – जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये । ऋण करके भी घी पिये । अर्थात् सुख-भोग के लिए जो भी उपाय करने पड़ें उन्हें करे ।
ऐसा ज्ञान है संसार के सारे जीव ऐसे ही अज्ञानी हैं। कृष्ण कह रहे हैं और यह कहानी और हकीकत केवल अर्जुन की ही नहीं है केवल अर्जुन ही नहीं भूले हैं। सारे संसार के सभी जीव अपने पूर्व जन्मों को भूल चुके हैं। उनको पता ही नहीं है कि वह पहले भी इस संसार में थे और उनके भी जन्म हुए हैं। अर्जुन उसी माला की एक मणि है। जब हम आगे पढ़ेंगे तब कृष्ण कहने वाले हैं
*सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||* श्रीमद्भगवद्गीता 15.15
अनुवाद- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
मैं सभी के ह्रदय प्रांगण में विराजमान रहता हूं और विराजमान रहकर क्या करता हूं मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च, मत्तः मतलब क्या मुझसे मत्त: स्मृति, जीव को मुझ से ज्ञान प्राप्त होता है। मुझ परमात्मा से मैं जो उनके हृदय प्रांगण में विराजमान हूं मुझसे मत्त: स्मृति मुझसे जीव को स्मृति मिलती है। याद होता है ज्ञान प्राप्त होता है। अपोहनं च तीसरी बार है तीन बातें कहीं हैं। स्मृति, ज्ञान, अपोहनं, मतलब भूल जाना (फॉरगेटफूलनेस) यह मेरे कारण होता है। मैं भुला देता हूं नहीं तो फिर जीना मुश्किल होगा। आपको सारे जन्मों की याद आएगी तो क्या क्या नहीं कह सकते कि क्या समस्या खड़ी हो सकती हैं। आप कल्पना कर सकते हो, जीना भी मुश्किल होगा, इसीलिए भगवान भुला देते हैं सभी को जब से सृष्टि प्रारंभ हुई है तब से भुला देना, कुछ याद दिलाना, कुछ ज्ञान, कुछ अज्ञान, इसका सारा कंट्रोल श्रीकृष्ण का है। अनुमंता च साक्षी च, इसी गीता में है मेरी अनुमति से यह होता है और इन सब बातों का मैं साक्षी हूं। आई एम ए परमिटर मैं परमिशन देता हूं और मैं साक्षी हूं। बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन | तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप इतना समझ में आया ना,अर्जुन को तो आया होगा, क्योंकि अभी वह ध्यान पूर्वक सुन रहे थे सो नहीं रहे थे। इसीलिए कृष्ण ने फिर आगे की बात सुनाई है। वैसे अर्जुन जैसे ही सुनते थे ऑन द स्पॉट ही उनको साक्षात्कार होता था उनको समझ में आता था। ऐसे 45 मिनटों में जो गीता का प्रवचन है कालावधि है उतने समय में ही सेल्फ रिलाइजेशन उनका कृष्ण रिलाइजेशन गॉड रिलाइजेशन, “गॉड इज कृष्ण” संपूर्ण हुआ 45 मिनट में, अतः जैसे कृष्ण सुना रहे हैं उनको समझ में आ रहा है। साक्षात्कार हो रहा है। अनुभव हो रहा है। कैसे सुनी होगी उन्होंने भगवत गीता कितनी श्रद्धा और भक्ति और ध्यान पूर्वक और फिर आगे कृष्ण उत्तर में कहते हैं और जो की आज
*अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोऽपि सन् | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.6)
अनुवाद- यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |
वैसे पूरा प्रवचन एक श्लोक का 1 घंटे में होता है श्रील प्रभुपाद ने जैसे व्यवस्था की है। एक श्लोक लेते हैं हम लोग भगवतम की कक्षा मॉर्निंग में होती है और कम से कम ( इन गुड ओल्ड डेज) पुराने अच्छे दिनों में , हमारे या प्रभुपाद के समय अभी भी जारी है कई स्थानों पर प्रातः काल में भागवतम पर कक्षा और सायं काल में भगवत गीता की कक्षा एवरीडे शाम को, हम अटेंड करते थे प्रभुपाद के समय, एक श्लोक भगवतम का प्रातः काल में और एक श्लोक सांयकाल को भगवत गीता से , वैसा यहां प्रवचन हम नहीं दे रहे हैं। एक एक श्लोक पर क्योंकि हमारे पास घंटा नहीं है और अजोऽपि कृष्ण अपना परिचय दे रहे हैं कि मैं कौन हूं कैसा हूं अज मैंने आपको कई बार सिखाया है अ मतलब नहीं, ज मतलब जन्म, दो अक्षर “अ” और दूसरा अक्षर “ज” मैं अजन्मा हूं मतलब मेरा कभी जन्म नहीं होता और अजोऽपि ऐसा होते हुए भी अजन्मा होते हुए भी सन्नव्ययात्मा मैं परमात्मा हूं यह कैसा है ? परमात्मा अवव्ययी हैं। व्यय मतलब खर्च करना और अव्यय मतलब खर्च नहीं होता, अव्यय कभी घटता नहीं, मैं जैसा हूं वैसे का वैसा ही रहता हूं।
बढ़ता ही हूं लेकिन घटता नहीं हूं। इसीलिए अव्यय बहुत महत्वपूर्ण शब्द है शास्त्रों में सर्वत्र इसका उपयोग या उल्लेख होता है। अच्छा है एक ही बार समझ लिया तो उसको लागू कर सकते हैं अलग-अलग परिस्थिति में, या संदर्भ में, एक मैं अज हूं अजन्मा हूं अब यही आत्मा ऐसा होते हुए भी भूतानामीश्र्वरोऽपि और सभी जीवो का मैं ईश्वर हूं। देखिए यह क्या-क्या कृष्ण कह रहे हैं। अब बहुत बार कृष्ण को कहने की आवश्यकता नहीं कृष्ण ने कहा भूतानामीश्र्वरोऽपि तो हम हैं भूत या जीव और हमारे ईश्वर हैं कृष्ण, परमेश्वर हैं। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया, फिर मैं क्या करता हूं सम्भवाम्यात्ममायया , शुरुआत में कहा मैं अज अजन्मा अव्ययी आत्मा होते हुए भी और भूतों का ईश्वर भी हूं। क्या करता हूं संभवामि, भव मतलब होना हरि हरि ! बिल्व मंगल ठाकुर उठो, सोये हो खोया कि नहीं दिस इज़ द प्रॉब्लम संभवामि भव् मतलब होना, भवामि मतलब होता हूं और संभव मतलब सम्यक प्रकार से मैं होता हूं प्रकट होता हूं। कैसे? आत्ममायया, माया मतलब माया, मायया जब आता है तो माया के द्वारा, माया, से मैं क्या करता हूं आत्ममायया या मेरी माया से मतलब यहां योग माया समझना होगा वैसे दूसरी माया भी उन्हीं की है। माया के दो प्रकार हैं एक योग माया और दूसरी है महामाया , हमारे जो जन्म होते हैं संसार में हमारे हैं या आपके हैं सब के कैसे होते हैं महामाया, महामाया हमको अलग-अलग जन्म देती है लेकिन भगवान का जो जन्म है वह कैसे होता है सम्भवाम्यात्ममायया मेरी माया से, खुद की माया से, मतलब लगभग स्वेच्छा से ही अपनी इच्छा से ही, मैं जबर्दस्ती नहीं मुझ पर कोई थोपा नहीं जाता यह जन्म,
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 7.14)
अनुवाद- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |
वह माया दूसरी है इसको लांघना कठिन है इत्यादि इत्यादि , वैसे तो दोनों ही माया कृष्ण की ही है लेकिन यहां जिस माया का उल्लेख कर रहे हैं सम्भवाम्यात्ममायया अपनी माया से अपनी योग माया से मैं प्रकट होता हूं। इतना कहकर अब कृष्ण ने कहा कि मैं कैसे प्रकट होता हूं कि मैं कैसे जन्म लेता हूं अब कृष्ण कहेंगे अगले श्लोक में वेरी फेमस वर्स चौथा अध्याय चल रहा है याद रखिए और सातवां श्लोक चल रहा है।
*यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.7)
अनुवाद- हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
अधिकतर हिंदुओं को कुछ ही श्लोक पता होते हैं उनमें से यह एक श्लोक है। इसमें भी कृष्ण कहेंगे पहले तो कहा कि मैं कैसे प्रकट होता हूं सम्भवाम्यात्ममायया अब वह कह रहे हैं कि मैं कब प्रकट होता हूं। मैं कब अवतार लेता हूं, आगे कहने वाले हैं मेरे जन्म को अवतार कहते हैं। सातवें श्लोक में कहते हैं कब-कब में जन्म लेता हूं इसीलिए कह रहे हैं यदा यदा मतलब जब जब कदा कदा यह अंत में दा है मतलब इस समय का उल्लेख होता है। काल का उल्लेख होता है तब दा होता है दूसरा धा होता है दुरविधा धा अलग है और यह द है एकदा ,यदा कदा, तदा सर्वदा, “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत” और यह भारत कौन है? अर्जुन है। अभी अभी कहा था अर्जुन को परंतप और अभी भारत कह रहे हैं। आपको बताया था थोड़ा होमवर्क कीजिए और अर्जुन के जितने भी नाम हैं संबोधन हैं उनकी सूची बनाइए। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् श्रील प्रभुपाद ने भाषांतर में लिखा है। हे भारतवंशी ! जब भी और जहां भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है तब तब मैं अवतार लेता हूं। यदा यदा ही धर्मस्य, ग्लानि मतलब धर्म की होती है ग्लानि और फिर धर्म का ह्रास हुआ, धर्म घट गया और साथ में क्या हुआ था अभ्युत्थानमधर्मस्य ग्लानि, ऐसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं कृष्ण और अधर्मस्य उत्थान समझ में आ रहा है धर्म की होती है ग्लानि और अधर्म का होता है उत्थान अधर्म फैलता है। अधर्म का बोलबाला होता है। जब एक ही साथ यह दोनों परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं तब
यदा यदा तथा तथा , सृजाम्यहम् पहले उन्होंने कहा था संभवामि और अब कह रहे हैं सृजाम्यहम् एक ही बात है संभवामि सृजाम्यहम् प्रकट होता हूं। मैं अवतार लेता हूं और इतना कहते हुए मुझे अब अपनी वाणी को विराम देना ही होगा।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्* यह दोनो श्लोक साथ में रहते हैं। यदा यदा ही धर्मस्य सातवां श्लोक और आठवा श्लोक परित्राणाय साधुनाम, छठवे श्लोक में कहा कि मैं कैसे प्रकट होता हूं। सातवें श्लोक में कहा कि मैं कब प्रकट होता हूं। अब कृष्ण कहेंगे कि मैं क्यों प्रकट होता हूं या प्रकट होकर मैं क्या करता हूं। क्या करने के लिए किस उद्देश्य से तो परित्राणाय साधुनाम, साधुओं की रक्षा दुष्टों का संहार और धर्मसंस्थापनार्थाय धर्म की स्थापना के लिए, संभवामि मैं प्रकट होता हूं बारंबार हर युग में, तुम जो पूछ रहे थे मुझे यह मैं कैसे समझ सकता हूं कि आपने इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्, कभी बहुत पहले यह ज्ञान विवस्वान को दिया था मैं कैसे समझ सकता हूं। आपका जन्म अभी-अभी हुआ है आप ऐसा पूछ रहे थे और जो ऐसा पूछ रहे थे इसका स्पष्टीकरण कृष्ण दे रहे हैं नहीं नहीं मैं अभी भी हूं लेकिन पहले भी था और बारंबार में प्रकट होता हूं और वैसे तुम भी प्रकट होते हो लेकिन तुम तो भूल गए हो मैं नहीं भूलता ठीक है, अब तो याद रखिए आप।
निताई गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल !
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*गुरु महाराज जप वार्ता 21-12-21*
*विषय-: भगवत गीता के ज्ञान का महत्व*
हरे कृष्णा
1044 से अधिक स्थानों के भक्त अभी हमारे साथ जप कर रहे हैं, स्वागत और धन्यवाद
पहले जप और फिर बात, जप की बात। जप धर्म है। जप ज्ञान है।
धर्म और कर्तव्य सदा साथ रहते हैं। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे कि धर्म का पालन करने के साथ-साथ ज्ञान भी होना चाहिए। दोनों महत्वपूर्ण हैं। पुस्तक (ग्रंथ) आधार हैं। इसे धर्म-शास्त्र या धर्म का शास्त्र भी कहा जाता है। धर्म-शास्त्र का अर्थ है वे ग्रंथ जो धर्म के बारे में ज्ञान देते हैं और हम धर्म शास्त्र के बारे में सीखते हैं
गीता जयंती का सीजन चल रहा है. यहां गीता वितरण उत्सव चल रहा है। अगर हम भगवद गीता को याद कर रहे हैं तो क्या हम भगवान को याद नहीं कर रहे हैं? उनके उपदेशों में गीता स्वयं भगवान हैं… हम बता रहे थे चौथे अध्याय के बारे में
*बीजी4.1*
श्री-भगवान उवाचं
इमम विवस्वते योग
प्रोक्तवन अहम् अव्ययमि
विवस्वान मानवे प्राहं
मनुर इकिवाकवे ‘ब्रवती
*अनुवाद*
भगवान श्री कृष्ण ने कहा: मैंने योग के इस अविनाशी विज्ञान को सूर्य-देव, विवस्वान को सिखाया, और विवस्वान ने इसे मानव जाति के पिता मनु को निर्देश दिया, और मनु ने बदले में इक्ष्वाकु को इसका निर्देश दिया।
भगवान कह रहे हैं कि संत और साधु राजा गीता और भागवतम ज्ञान सुनते थे। इस शास्त्र ज्ञान को सुनकर राजा संत राजा बन गए। इन निर्देशों और सिद्धांतों के अनुसार वे शासी प्रतिक्रिया का ध्यान रखेंगे
. क्या सही है क्या गलत ये शास्त्रों के अनुसार तय होता है…
ऋषि उन्हें समझायेंगे। फिर शास्त्र की व्याख्या होगी। शास्त्रों की व्याख्या करने के लिए साधु, शास्त्र और आचार्य महत्वपूर्ण अधिकार हैं। संतों को यह समझ में आ जाएगा कि उत्तराधिकार में। संत राजाओं ने ऐसा किया था। दुनिया के सभी लोगों को भी इस ज्ञान को अनुशासन के तहत लेना चाहिए। वैसे तो प्रभु ने एक ही श्लोक में कहा है, लेकिन यह बड़ी बात है और समझना और समझना जरूरी है। भगवद् गीता में 700 श्लोक हैं। यह बहुत छोटा है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। हमें यह ज्ञान बोनाफाइड परम्परा से लेना चाहिए।
*बीजी 4.2*
एवं परम्परा-प्राप्ति
इमाम राजर्नायो विदुषी
सा कालेनेः महता:
योगो नाशं परन-तप:
*अनुवाद*
यह सर्वोच्च विज्ञान इस प्रकार शिष्य उत्तराधिकार की श्रृंखला के माध्यम से प्राप्त किया गया था, और संत राजाओं ने इसे इस तरह समझा। लेकिन समय के साथ उत्तराधिकार टूट गया, और इसलिए विज्ञान जैसा है वैसा ही खो गया प्रतीत होता है।
पद्म पुराण में भी कहा गया है,
*पदम पुराण:*
संप्रदाय-विहिन ये मंत्र ते निश्फला माता:
*अनुवाद*
ऐसे संप्रदाय, या शिष्य उत्तराधिकार से प्राप्त सर्वोच्च ज्ञान, एक ज्ञान प्रदान कर सकता है
यदि कोई अपनी इच्छा या इच्छा के अनुसार बोलता या लिखता है तो वह बोनाफाइड नहीं है। यह परम्परा नहीं है। अगर कोई माइक्रोफोन ले रहा है और बकवास कहना शुरू कर देता है तो यह नहीं सुना जाना चाहिए। हमें कभी भी जुआ नहीं खेलना चाहिए और 4 नियामक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। अपनी परम्परा से दूसरों के पास जाना सबसे बुरा जुआ है। यदि हम यह सोचने लगें कि दूसरा व्यक्ति मेरी परम्परा से अधिक या अधिक दे रहा है। ऐसा नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह हमारे 4 सिद्धांतों में नहीं है और हम दीक्षा के समय उनका पालन करने की प्रतिज्ञा करते हैं। यह है जुगाड़। यह सच के साथ खेलने और सच के आधार पर नकली चीजों को स्थापित करने जैसा है। प्रामाणिक शास्त्रों को न पढ़ना/सुनना जुए के समान है। शास्त्री, आचार्य की बात नहीं सुनना और अंत में मेरे या मेरे अनुसार यह कहना कि सब नकली और जुआ हैं। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे कि कृष्ण को स्वयं बोलने दो। यदि हम आचार्य को बोलने नहीं देते हैं और हम अवांछित बातें बोलने लगते हैं तो कृष्ण बोलते हैं यदि हम अपनी समझ या हेरफेर से ज्ञान साझा करने का प्रयास करते हैं तो हम कृष्ण को बोलने नहीं देते हैं। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। हमें श्री कृष्ण को बोलने देना चाहिए, हमारे आचार्य को बोलने देना चाहिए। श्रील प्रभुपाद ने कहा कि मुझे जो भी सफलता मिल रही है, वह केवल इसलिए है क्योंकि मैं अनुशासन से बाहर नहीं जा रहा हूं और मुझे अपने आचार्य से जो कुछ मिला है, उसे इस्कॉन में दे रहा हूं, जो मुझे मिला है या जो लोकप्रियता मुझे मिली है, उसी के कारण मैं हूं। वैष्णव आचार्य से वास्तविक रेखा का पालन करें और श्रेय मेरे गुरु को जाता है। यदि आप एक उपदेशक बनना चाहते हैं तो आपको यह भगवत गीता के चौथे अध्याय से पता होना चाहिए कि वे शिष्य उत्तराधिकार के बारे में क्यों कह रहे हैं। ये बातें बहुत ही जरूरी हैं
*बीजी 4.3*
सा वयं माया ते द्य:
योग: प्रोक्त: पुराण:
भक्तो सी में सखा सेतिं
रहस्य: हाय एतद उत्तमम्:
*अनुवाद*
परमात्मा के साथ संबंध का वह अति प्राचीन विज्ञान आज मैंने आपको बताया है क्योंकि आप मेरे भक्त होने के साथ-साथ मेरे मित्र भी हैं और इसलिए इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हैं।
गीता को कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में कहा था, यह बहुत गोपनीय और बहुत गुप्त है। कृष्ण केवल इसे अपने भक्त और मित्रों को प्रकट करते हैं। भक्त बने बिना यह ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
*बीजी 9.2*
राज-विद्या राज-गुह्या:
पवित्रम इदं उत्तमम्
प्रत्यक्षावागमं धर्म्या:
सु-सुख: करतुम अव्ययम्:
*अनुवाद*
यह ज्ञान शिक्षा का राजा है, सभी रहस्यों का सबसे रहस्य है। यह सबसे शुद्ध ज्ञान है, और क्योंकि यह आत्म की प्रत्यक्ष अनुभूति को बोध द्वारा देता है, यह धर्म की पूर्णता है। यह चिरस्थायी है, और यह आनंदपूर्वक किया जाता है।
कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि मैं योग पुराण बता रहा हूं। इसकी बहुत पुरानी और प्राचीन
परमात्मा के साथ संबंध का वह अति प्राचीन विज्ञान आज मैंने आपको बताया है क्योंकि आप मेरे भक्त होने के साथ-साथ मेरे मित्र भी हैं; इसलिए आप इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हैं। इसका मतलब है कि मैं सूर्य और विवस्वान के बारे में क्या बात कर रहा हूं। यह बहुत प्राचीन है, कितना प्राचीन है? तब हम कह सकते हैं कि ऐसा कोई समय नहीं था जब यह ज्ञान अनुपस्थित था। तो हम कह सकते हैं कि यह शाश्वत से प्राचीन नहीं है
पुराणों, शास्त्रों या बीजी का ज्ञान दिनांकित सामग्री नहीं है। कोई समाप्ति तिथि नहीं है
यह शाश्वत है। तो यद्यपि यहाँ प्रयुक्त शब्द प्राचीन है, लेकिन हमें समझना चाहिए कि यह प्राचीन इतना प्राचीन है कि ऐसा कभी नहीं था कि यह ज्ञान उपलब्ध नहीं था।
*सीसी मध्य 17.136*
अत: श्री-कृष्ण-नामादि:
न भावेद गृह्यं इंद्रियि:
सेवनमुखे ही जिहवादौं
स्वयं एव स्फुरति अदा:
*अनुवाद*
‘इसलिए भौतिक इंद्रियां कृष्ण के पवित्र नाम, रूप, गुणों और लीलाओं की सराहना नहीं कर सकती हैं। जब एक बद्ध आत्मा कृष्ण भावनामृत के प्रति जागृत होती है और अपनी जीभ का उपयोग करके भगवान के पवित्र नाम का जप करती है और भगवान के भोजन के अवशेषों का स्वाद लेती है, तो जीभ शुद्ध हो जाती है, और व्यक्ति को धीरे-धीरे समझ में आ जाता है कि कृष्ण वास्तव में कौन हैं।’
मैं इस ज्ञान को अपने मित्र और अपने भक्त को केवल इसलिए साझा करता हूं कि आप मेरे मित्र या भक्त हैं हम गीता को उनके मित्र या भक्त बने बिना नहीं समझ सकते हैं।
*सीसी मध्य 23.14-15*
अदाउ श्रद्धा तत्: साधु-
संगो ‘था भजन क्रिया:
ततो ‘नार्थ-निवृत्ति: स्याती
ततो निशा रुकिस टाटा:
अथशक्तिस ततो भवसी
तत्: प्रेमाभ्युदानचति:
साधकानाम आयां प्रेमशं:
प्रदुरभावे भावेत क्रमी
*अनुवाद*
शुरुआत में विश्वास होना चाहिए। तब व्यक्ति शुद्ध भक्तों के साथ जुड़ने में रुचि रखता है। तत्पश्चात आध्यात्मिक गुरु द्वारा दीक्षा दी जाती है और उनके आदेशों के तहत नियामक सिद्धांतों का पालन किया जाता है। इस प्रकार व्यक्ति सभी अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति सेवा में दृढ़ हो जाता है। इसके बाद व्यक्ति में स्वाद और लगाव विकसित होता है। यह साधना-भक्ति का तरीका है, नियामक सिद्धांतों के अनुसार भक्ति सेवा का निष्पादन । धीरे-धीरे भावनाएं तीव्र होती हैं और अंत में प्रेम का जागरण होता है। यह कृष्ण भावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए भगवान के प्रेम का क्रमिक विकास है।’
*बीजी 4.39*
राधावान लाभते ज्ञानी
तत-परं सय्यतेंद्रियḥ:
ज्ञानम लाभ परां शांतिमि
एसीरेषाधिगच्छति:
*अनुवाद*
दिव्य ज्ञान के लिए समर्पित और अपनी इंद्रियों को वश में करने वाला एक वफादार व्यक्ति इस तरह के ज्ञान को प्राप्त करने के योग्य है, और इसे प्राप्त करने के बाद वह जल्दी से सर्वोच्च आध्यात्मिक शांति प्राप्त करता है।
पहला चरण है भक्ति का श्राद्ध। कोई एक दिन में शुद्ध भक्त नहीं बन सकता। भक्त बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है। यदि कोई व्यक्ति 1% भक्त है तो उसे भी यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है क्योंकि वह भक्त है।
*बीजी 4.11*
ये यथा मां प्रपद्यंते:
तास तथाैव भजामि अहमि
मामा वर्तमनुवर्तन्ते:
मनुश्यं पार्थ सर्वशनि
*अनुवाद*
जैसा कि सभी मेरी शरण में आते हैं, मैं उन्हें उसी के अनुसार पुरस्कृत करता हूं। हर कोई हर तरह से मेरे मार्ग का अनुसरण करता है, हे पृथा के पुत्र ।
अर्जुन ने भी कृष्ण से प्रश्न किया। इस पर कौन सा सवाल सोचता है। केवल सुनने और नामजप करने से ही यह विश्वास मजबूत होगा और इसे प्रेम में बदल देगा। भक्ति आपके प्रयासों के अनुसार धीरे-धीरे 1% से 100% तक बढ़ेगी। पुस्तक वितरण भी एक प्रयास
*श्रील प्रभुपाद की जय*
*गीता मैराथन की जय*
*भगवत गीता के रूप में यह की जय है*
*पुस्तक वितरक की जय*
मैं आप सभी के लिए प्रार्थना करूंगा
हरे कृष्णा
हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
20 दिसंबर 2021
*ध्यानपूर्वक जप की महिमा एवम् भगवद्गीता अध्याय 4*
1020 स्थानों से आपका स्वागत हैं।
वैसे आपके मन में या घर में पधार के व्यक्तिगत रूप से मैं आपका स्वागत कर रहा था,आपको भगवान का दर्शन तो लेना हैं किंतु मैं भी दर्शन दे रहा था और साथ-साथ मैं औरों का दर्शन कर रहा था, आप जप करने वाले भक्तों का दर्शन कर रहा था और मेरे साथ और भी लोग आपका दर्शन कर रहे थे।मॉरीशस के भक्त और भी अन्य भक्त अन्य मंदिरों से आपका दर्शन कर रहे थे। कुछ भक्त तो सो भी रहे थे,लेकिन यह सीसीटीवी कैमरा हैं, आप सीसीटीवी कैमरा की निगरानी में बैठे हैं।कोई ना कोई आपको देख रहा हैं। मैं आपको देख सकता हूं। इस मशीन के माध्यम से हम आपको देख सकते हैं तो क्या भगवान भी हमें नहीं देख सकते?वह भी देख रहे हैं और देखते रहते हैं।भगवान की सदैव आप पर, मुझ पर, हम सब पर लगातार नजर रहती हैं। इसलिए कृष्णा ने कहा हैं भगवत गीता में मैं अनुमनता हूं,मैं साक्षी हूं,तो हम जो जो करते हैं, उन सब कार्यों के या कथनों के साक्षी भगवान रहते हैं।
उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।13.23।
प्रति क्षण हर समय भगवान लिखते हैं और देखते हैं कि हमने क्या किया।आप प्रयास करें ताकि कृष्ण नोट ना करें कि आप सो रहे थे। पर अब नोट तो हो गया हैं,वह तो हर चीज देखते हैं और लिखते हैं
पर हमको टालना चाहिए।यह एक अपराध हैं।क्यों यह हुआ कि नहीं ध्यान पूर्वक जप ना करने का अपराध। आपके ध्यान में विघ्न हैं, बहुत बड़ा विघ्न हैं, यह ध्यान पूर्वक जप ना करना बल्कि यह तो जप करने में रोक देता हैं। आपने भगवान की उपस्थिति को अनदेखा कर दिया। तो यह भी एक विचार हैं, एक सोच हैं। तो ध्यान के साथ जप करें।सीधे बैठिए।ठीक से बैठो।श्रील प्रभुपाद कहां करते थे या एक बार कहे थे रिकॉर्डिंग में, जब हम ठीक से नहीं बैठते हैं तो फिर नींद आ जाती हैं या नींद की तैयारी हो जाती हैं। तो योगी की तरह हम जप योगी तो हैं ही, तो नियमों का पालन करना होगा।
पूर्ण तरीके से अष्टांग योगी, ध्यान योगी जैसे सतयुग में हुआ करते थे,वैसे तो हमको नहीं बनना हैं, लेकिन कुछ तो नियमों का पालन करना ही होगा।जैसे भगवद्गीता के छठे अध्याय में कृष्ण ने ध्यान योग की बात की हैं। ध्यान यानी मेडिटेशन।हमें वह भी पढ़ना चाहिए तो फिर ध्यान पूर्वक जप करने में और मदद होगी।भगवान ने टिप्स या नियम दिए हुए हैं,तो उनमें से कुछ नियमों का तो पालन करना ही पड़ता हैं। अगर हम सतयुग के ध्यान योगी नहीं हैं, तो भी और कुछ नियम हम पर भी लागू होते हैं।तो समय ही कृष्ण हैं और हमेशा आप समय के साथ रहिए।समय कृष्ण हैं और हमेशा समय के साथ रहो।मैं अपने आप को भी यही याद दिला रहा हूं, मैं अपने आपको भी स्मरण दिला रहा हूं, क्योंकि मैंने भी सोचा था कुछ कहने का परंतु अभी-अभी कही हुई बातें महत्वपूर्ण लगी, जो भी बातें अभी आपसे कहीं मैंने मेरे को नहीं लगता कि मैंने अपने समय को बर्बाद किया।
मतलब समय का दुरुपयोग नहीं करा। हम कृष्ण के साथ ही थे और वह बातें भी कृष्ण के संबंध में ही थी।ध्यान करने के संबंध में थी। तो हमने समय का सदुपयोग ही करा हैं। मैंने जो आपका समय लिया वह उपयोगी था।तो भगवत गीता कितनी पुरानी है क्या आप बता सकते हैं? कितने साल पुरानी हैं यह भगवत गीता, तो इसका जवाब बिना सोचे झट से या आंख बंद करके भी जवाब देते हैं, यह 5000 वर्ष पुरानी हैं, ऐसा कोई कहेगा तो हम कहेंगे यह झूठ हैं।यह सच नहीं हैं। यह गलत हैं, इसीलिए गलत हैं, क्योंकि गीता पढ़ी ही नहीं हैं। कभी गीता खरीदी ही नहीं हैं। कभी इस गीता को सुना ही नहीं हैं। तो चौथे अध्याय के प्रारंभ में श्री कृष्ण कह रहे हैं तो मैं इन्हीं कुछ बातों पर जोर डालना चाहता हूं, संसार में कितना अज्ञान हैं। लोग गीता को नहीं पढ़ते ,कृष्ण को नहीं सुनते और अपने मनोधर्म के अनुसार मनोधर्म की बातों के अनुसार चलते हैं।
मेरा विचार यह हैं,वह हैं। हमें कृष्ण को सुनना चाहिए तो अज्ञान के स्थान पर ज्ञान की स्थापना होगी। कृष्ण ने गीता के 14 वे अध्याय में कहा हैं
BG 4.1
“श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् || १ ||”
अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इशवाकु को दिया
तो कृष्ण कहते हैं, कि मैं यह अभी अर्जुन को सुना रहा हूं। अभी-अभी यह संवाद शुरू हुआ हैं। चौथा अध्याय शुरू हुआ हैं। करीब 10-11 मिनट से कृष्ण अर्जुन के साथ बात कर रहे हैं और फिर उन्होंने यह बात कहना प्रारंभ किया।कृष्ण जब यह कह रहे थे तो ऐसा नहीं कि कृष्ण ने कहा कि अब मैं चौथा अध्याय सुना रहा हूं, तृतीय अध्याय संपूर्ण हुआ, यह तो रचना श्रील व्यास देव की हैं, और उन्होंने ही गीता का विभाजन 18 अध्याय में किया और कितने श्लोक किस अध्याय में होगें तय किया क्योंकि कृष्ण तो बोलते जा रहे थे, तो उन्होंने कहा कि मैं जो तुमको अभी बातें सुना रहा हूं, हे अर्जुन!इन बातों का ही नाम हैं, भगवद् गीता।तो यह भगवद्गीता मैंने विवस्वान को सुनाई थी।
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् || १ ||”
विवस्वान ने यह बातें मनु को कहीं और फिर मनु ने इस बात को इश्वाकु राजा को कहीं, तो रघुवंश की बात चल रही हैं।तो रघुवंशी इश्वाकु को मनु ने वही गीता वही वचन बताएं।इसीलिए अगले श्लोक में कृष्ण कहने वाले हैं
Bg 4.2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ ||
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत : यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है ।
यहां परंपरा का उल्लेख और स्थापना भी हो रही हैं,यहां विवस्वान ने मनु को और फिर मनु ने इश्वाकु और उसके बाद फिर सभी नाम गिनाए।
Bg 4.2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ ||
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई ,अत : यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता हैं।
आपको पता होना चाहिए की परंपरा कि बात कहां पर कही हुई हैं।यह समझने से अच्छा रहता हैं।आप प्रचार कर सकते हो,इस अध्याय में इस संदर्भ में कृष्ण ने यह बात कहीं हैं। जैसे यहां परंपरा की बात कर रहे हैं। फिर इसमें आगे यह भी कहा हैं
Bg 4.2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ ||
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत : यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है ।
काल बड़ा बलवान हैं। काल के प्रभाव से क्या होता हैं?मैंने जो बातें कही थी और फिर परंपरागत बातें कही जा रही थी,उनमे समय के साथ कुछ बिगाड़ आ जाता हैं और सत्य को फिर आच्छांदित किया जाता हैं।उसमें कुछ मिलावट आ ही जाती हैं। यह सब काल का प्रभाव हैं। समय का प्रभाव हैं। समय का ही नाम ले रहे हैं और भी कुछ कारण हो सकते हैं। लेकिन समय बड़ा बलवान हैं तो
Bg 4.2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ ||
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत : यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है ।
अर्जुन को परंतपा भी कह रहे हैं। ऐसे भगवान अर्जुन को कई अलग-अलग नामों से पुकारते हैं।उसकी भी एक लिस्ट भक्तों ने बनाई हैं और अर्जुन भी कृष्ण को कई सारे नामों से पुकारते हैं और कृष्ण ने अर्जुन को कई सारे नामों से पुकारा हैं। आप पता लगाइए। आपस में संशोधन कर सकते हैं।इसकी भी सूची बनाई गई हैं।आप इस सूची को प्राप्त कर सकते हो।यह भी एक पढ़ाई का विषय हो सकता हैं।कृष्ण के कौन-कौन से नाम अर्जुन ने कहे हैं और अब कृष्ण ने अर्जुन को उन नामों से संबोधित किया हैं। यह भी आपके लिए एक अलग विषय वस्तु की बात हो सकती हैं और इस प्रकार हम व्यस्त रह सकते हैं और गीता की अच्छे से और गहराई से पढ़ाई कर सकते हैं
हम भलीभांति समझ भी सकते हैं।तो इतना कहकर फिर कृष्ण आगे कहते हैं, चौथे अध्याय के तीसरे श्लोक में
BG 4.3
“स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् || ३ ||”
अनुवाद
आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो |
क्या कहा श्री भगवान उवाच, कृष्ण ने क्या कहा? वही ज्ञान जो मैंने विवस्वान को सुनाया विवस्वान ने मनु को और मनु ने इशवाकु को और फिर परंपरा में यह ज्ञान का प्रचार हो रहा था,लेकिन काल के प्रभाव से इसमें बिगाड़ आया, तो इसीलिए अर्जुन अब इस समय इसी जगह पर तुमको मैं वही बात वही बचन सुनाऊंगा जो मैंने विवस्वान को सुनाया था।
BG 4.3
“स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् || ३ ||”
एव शब्द का उपयोग कर रहे हैं।वही शब्द वही वचन वही गीता में पुनः तुमको सुना रहा हूं।भगवत गीता यथारूप मूल रूप में जो मैंने सुनाई थी विवस्वान देवता को, वही गीता अब मैं तुम्हें सुना रहा हूं। तो अब भगवत गीता कितने साल पुरानी हो गई हैं?आप तो कह रहे थे 5000 वर्ष, नहीं। तो फिर तात्पर्य में यहां श्रील प्रभुपाद ने समझाया हैं कि कितने लाखो वर्ष पूर्व राम और
रामायण का काल आ गया।इशवाकु वंशज तो राम ही हैं,रघुवंशज राम ही हैं। भगवान ने इशवाकु को भगवद्गीता सुनाई। भगवान ने त्रेता युग में विवस्वान को भगवद्गीता सुनाई थी।विवस्वान ने मनु को सुनाई और मनु ने इशवाकु को, तो आप इसे जरूर पढिएगा।श्रील प्रभुपाद का तात्पर्य जरूर पढिएगा, चौथे अध्याय के पहले श्लोक मे ही भगवान बता रहे हैं कि हे अर्जुन, लाखों वर्ष पूर्व ही यह ज्ञान दिया गया था और वही ज्ञान मैं सुना रहा हूं। भगवान कह रहे हैं कि मैने यह गीता का ज्ञान विवस्वान को सुनाया था, वही ज्ञान अब मैं सुना रहा हूं।
भगवद्गीता 4.3
“स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् || ३ ||”
अनुवाद
आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो |
योगः प्रोक्तः पुरातनः,पुरातनः शब्द भी महत्वपूर्ण हैं। यह भगवद्गीता कैसी हैं? पुरातन हैं, अति प्राचीन हैं। फिर आपके मन में यह बात बैठ जाएगी कि भगवत गीता कितनी पुरानी हैं? त्रेता युग में कही गई थी, नहीं कई लाखो वर्ष पुरानी हैं, कई हजारों वर्ष नहीं लाखो वर्ष पुरानी हैं। अगर ऐसा कहोगे तो लोग कहेंगे कि गीता का इतना महत्त्व में कह रहे हैं लाखों वर्ष पुराने हैं हजारों नहीं लाखों में या करोड़ों वर्ष पुरानी है लेकिन ऐसा कहना भी झूठ ही है यह सच नहीं है हरि हरि विवस्वान को तो सुनाई ही त्रेता युग में यानी लाखों साल पहले सुनाई तो क्या उसके पहले नहीं सुनाई थी क्या भगवान जब-जब प्रकट होते हैं
तो सही उत्तर क्या है भगवद्गीता कितनी पुरानी हैं? महाराज तो यहां कह रहे हैं कि लाखों वर्ष पुरानी भी नहीं हैं, तो कितने वर्ष पुरानी हैं? कितनी पुरानी हैं यह भगवद्गीता?एक उत्तर तो यह हो सकता हैं कि जितने पुराने कृष्ण हैं उतनी पुरानी ही भगवद्गीता हैं, या जितनी पुरानी आत्मा हैं, इतनी पुरानी यह भगवत गीता हैं, जितना पुराना भगवान का धाम हैं,उतनी ही पुरानी भगवद्गीता हैं। भक्ति योग भी इतना पुराना हैं। कब से भक्ति योग हो रहा हैं? जबसे कृष्ण हैं, तभी यह भगवद्गीता पर भी प्रवचन हो रहे हैं,कृष्ण ने तो गीता के द्वितीय अध्याय में ही कहा हैं कि ऐसा कोई समय नहीं था जब तुम नहीं थे, मैं नहीं था,या यह सब राजा नहीं थे। यह अब भी हैं और रहेंगे। हम अब भी हैं और रहेंगे। कृष्ण शाश्वत हैं। वैसे ही भगवद्गीता भी जो कृष्ण का ज्ञान देती हैं, वह शाश्वत हैं। जब कोई वस्तु बनती हैं, जैसे कि यह माउस तो इस माउस के संबंध का ज्ञान कितना पुराना हैं? जब से यह माउस बना हैं, जब से यह अस्तित्व में आया हैं। जैसे कि काला हैं, यह इसे यह कहा जाता हैं, आदि आदि। तो जब से यह माउस हैं, तब से इस के संबंध का ज्ञान हैं। कृष्ण ने कहा भी हैं कि
भगवद्गीता 15.15
“सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ ||”
अनुवाद
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
मुझे जानने के लिए वेद हैं या पुराण हैं या उपनिषद हैं। यह गीता तो वेद ही हैं, क्योंकि वेद का एक विभाग उपनिषद होता हैं और इस गीता को भी गीतोपनिषद कहा हैं।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः ।
पार्थो वत्सः सुधिभोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
“यह गीतोपनीषद, भगवद्गीता, जो समस्त उपनिषदों का सार है, गाय के तुल्य है और ग्वालबाल के रूप में विख्यात भगवान् कृष्ण इस गाय को दुह रहे है । अर्जुन बछड़े के समान है, और सारे विद्वान् तथा शुद्ध भक्त भगवद्गीताके अमृतमय दूध का पान करने वाले हैं ।” (गीता महात्म्य ६)
ऐसा गीता महात्म्य में कहां हैं। यह गीता उपनिषद रूपी गाय हैं और इसका दोहन कृष्ण कर रहे हैं।खैर इसको गीताोपनिषद कहा हैं, उपनिषद हो गए वेद। उपनिषद मतलब वेद। भगवान कह रहे हैं कि वेदों की रचना मैंने की हैं और भगवद्गीता उसी के अंतर्गत हैं और किस लिए वेद हैं? मुझे जानने के लिए वेद हैं। तो कृष्ण जब से हैं तब से उनके संबंध का यह ज्ञान हैं। यहां तो गीता की बात चल रही हैं, फिर भागवतम् भी हैं, पुरान भी हैं। यही कहना है कि गीता शाश्वत हैं। ऐसा समय नहीं था, जब गीता नहीं थी या गीता का उपदेश नहीं था। यह था यह है और यह रहेगा।
इस प्रकार हमें जो हमारे संकीर्ण विचार हैं, जो हम पर कई प्रकार की संसार की विचारधारा को आच्छादिंत करती रहती हैं और हम मुंडी हिलाते रहते हैं। इसी को ब्रेनवाशिंग कहते हैं। संसार का पूरी तरह से ब्रेनवाश हो रखा हैं।जगत के लोगों का तो ब्रेनवाश हुआ ही हुआ हैं और हम उनके साथ रह के उनके जैसे बन गये हैं और वह हैं कैसे? श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि वह डॉक्टर फ्रॉग की तरह हैं या जिसको कूप मंडूक दृष्टि भी कहते हैं। कूप मतलब कुआ और मंडूक मतलब मेंढक। कुएं में रहने वाला मेंढक। हम कुएं में बंद मेंढक बने हैं।उसकी विजिट के लिए एक दूसरा मेंढक आ गया,उससे मिलने। कहां से? पेसिफिक द्वीप से। वह कुएं में रहने वाला मेंढक पूछता हैं कि कहां से आए हो? तो वह कहता हैं कि महासागर से,तो वह कहता हैं, अच्छा महासागर कितना बड़ा हैं? बहुत बड़ा हैं। तो मेरे कुएं ऐसे दुगना हैं क्या?नहीं नहीं इससे बहुत बड़ा हैं।4 गुना? नहीं नहीं इससे बहुत बड़ा। तो क्या 10 गुना? नहीं नहीं इससे भी बहुत बड़ा। तो कूप मंडूक के सोचकर भी परे हैं। वह तो विचार भी नहीं कर सकता कि महासागर कितना विशाल होता हैं,वह गहरा हैं, उसमें गांभीर्य हैं, या जो भी हैं यह कूप मंडूक अपने हिसाब से कैलकुलेशन करता हैं और सोचता हैं कि ऐसा होगा या वैसा होगा तो हमको यह कूप मंडूक वृत्ति को छोड़ना है।अंततः कूप मंडूक तो इतना बड़ा हैं जो तिगुना हैं,चोगुना हैं,दस गुणा हैं,बस अपने पेट को फुला रहा था
इस प्रयास में उसका पेट फट गया, जैसे गुब्बारा फट जाता हैं। तो यह जो गीता का ज्ञान हैं इसको यथारूप स्वीकार करना चाहिए, बिना किसी चुनौती के और बिना किसी अपने विचारों को मिलाये कि मेरा विचार ऐसा हैं, वैसा हैं। मैं कूप मंडूक,मेरा विचार यह हैं। तुम मेरे तुम्हारे विचारों को अपने घर में रखो या कहीं उसको फेंक दो और भगवान के विचारों को स्वीकार करो और भगवान के विचारों के अनुरूप बनो। इसी को ही कहते हैं, उच्च विचार।उच्च विचार क्या हैं? भगवान का विचार उच्च विचार हैं और भगवान का विचार क्या हैं?
भगवद्गीता भगवान का विचार हैं। तो उसको स्वीकार करना उच्च विचार हैं। कृष्ण के विचार को यथारूप स्वीकार करो।श्रील प्रभुपाद ने इसलिए इस गीता को यथारूप नाम दिया हैं। और तात्पर्य भी बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि हमारी जो कई सारी भ्रांतियां हैं उसका नाश कृष्ण के वचन कर देते हैं या भगवद्गीता उसका नाश कर देती हैं और यह तात्पर्य भी क्योंकि प्रभुपाद इन को और अधिक समझाते हैं। प्रभुपाद परंपरा के आचार्य के भाष्य के आधार पर और उन टिकाओ की मदद से समझाते हैं, इसलिए इस पर विचार करो और ऐसे उच्च विचार कि भगवत गीता का प्रचार प्रसार होना चाहिए, जिससे कि सारा संसार ही उच्च विचार वाला बनेगा। अभी सभी की विचारधारा नीच हैं। नीच कहीं का। सारा संसार ही नीच हैं।
उसको उच्च बनाना हैं। उच्च विचार। नीच विचार नहीं होने चाहिए।जिसे हम कहते हैं कि सोचो मत बस कर दो। डोंट थिंक जस्ट डू इट। आजकल यह चलता हैं। सोचना ही नहीं हैं। पहले करो।इस सोच को ठुकराना हैं और इसके स्थान पर भगवान की सोच जो हैं, या भगवान का जो विचार हैं, उसको अपनाना हैं। भगवान का दिया हुआ जो ज्ञान हैं, जिसको प्रभुपाद ने आगे समझाया हैं, हमको उस विचारधारा के बनना हैं। वो कृष्ण के विचार हैं। उसी को कृष्ण भावना भावित होना कहते हैं। ठीक हैं, तो इसी के साथ यही संदेश हैं कि अधिक से अधिक भगवद्गीता का वितरण करो। स्वयं ज्ञानवान बनो और अपने आसपास की दुनिया के लोगों को भी ज्ञानवान बनाओ।ज्ञानदानेन वर्धते। ज्ञान का दान करने से हमारा भी ज्ञान बढ़ता हैं। विद्यादानेन वर्धते। विद्या देने से और प्रचार करने से हमारी भी विद्या बढ़ती हैं। क्या आप नहीं चाहते कि आप अधिक ज्ञानवान हो या आपके ज्ञान का विज्ञान बने?आपको साक्षात्कार हो उस ज्ञान का। सेवा करो। इस महीने ग्रंथों का वितरण ही श्रीला प्रभुपाद की सेवा हैं। प्रभुपाद की यथारूप भगवद्गीता का वितरण यह सेवा हैं और सेवा करोगे तो मेवा मिलेगा।ठीक हैं। मैंने कुछ अधिक ही समय ले लिया। अब मैं यहीं रुकूंगा। हरे कृष्णा।
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*19 दिसंबर 2021*
हरे कृष्ण ! आज 982 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। हरे कृष्ण। आज रविवार है। आज स्कोर सुनकर आपको पता लग ही जाएगा कि कुछ लोगों की , कुछ भक्तों की आदत छूटती नहीं है। सोचते हैं कि रविवार आराम का दिन है। हरि हरि। मैं ज्यादा नहीं कहूंगा, अच्छी बात नहीं है आप उनको बताइए। आपने देखा ही है कि ऑल इंडिया पदयात्रा के भक्त कुछ समय के लिए कार्तिक मास में वृंदावन में थे। फिर वृंदावन में ही कृष्ण बलराम मंदिर में ही ग्रंथ वितरण कर रहे थे। प्रभुपाद समाधि के पास में ही पदयात्रा का रथ था और वही से भगवत गीता का वितरण कर रहे थे और कीर्तन तो पदयात्री करते ही रहते हैं। प्रतिदिन ग्रंथ का वितरण करते हैं। वैसे प्रभुपाद ने मुझे कहा था कि जप, कीर्तन, ग्रंथ वितरण और प्रसाद वितरण, पदयात्रा के मुख्य कार्यक्रम है। पदयात्रा वृंदावन से कुरुक्षेत्र जा रहे हैं। धर्म क्षेत्रे, यह चल ही रहा है।
शीतकाल है, लेकिन पदयात्री अपने आरामदायक परिस्थिति में बैठे या लेटे नहीं है। वह मैदान में उतरे हैं और कुरुक्षेत्र की ओर जा रहे है। प्रतिदिन प्रभुपाद के ग्रंथों का वितरण कर रहे हैं। भारत का शीतकाल तो पाश्चात्य देश की तुलना में कुछ भी नहीं है। तो यह ग्रंथ वितरण या भगवत गीता का वितरण, मेरे समझने से फर्क नहीं पड़ता है। बात तो यह है कि भगवत गीता स्वयं भगवान ही है। भगवत गीता का वितरण करना या भगवद्गीता किसी को देना मतलब भगवान को ही देना है। भगवान आपके समक्ष है जब आप पढ़ते हो। तो भगवान आपसे आपके साथ संवाद प्रारंभ होता है। आप उस गीता को पहुंचा रहे हैं। पाश्चात्य देश में जहां पर बर्फ होती है। वहां पर भी भक्त कनाडा, रशिया, मंगोलिया उत्तरी ध्रुव के पास में ही है। वहां पर भी वितरण करते हैं गीता जयंती या क्रिसमस पर इसको क्रिसमस मैराथन कहते थे। अब धीरे-धीरे इसका नाम प्रभुपाद का नाम हो गया है। सर्दी हो या गर्मी, आप देशी हो या विदेशी, ब्रह्मचारी हो या गृहस्थ।
यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।
आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश ॥
(चैतन्य चरितामृत 7.128)
अनुवाद:-
हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो ।
सभी संसार भर के भक्त इस प्रकार की तपस्या कर रहे हैं। कई सारी असुविधाएं उनका सामना कर रहे हैं। भगवान देख रहे हैं और नोट कर रहे हैं। आप उनके लिए क्या कर रहे हो? भगवान देख रहे हैं। आपसे दूर नहीं है। भगवान से कोई दूर जा सकता है? संभव ही नहीं है। आप जहां पर भी जाओ, गुफा में जाओ या आकाश में कोई उड़ान भरो, भगवान सर्वत्र है। भगवान आपके पास ही है।
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 15.15)
अनुवाद:
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
इस लोक के प्रत्येक जीव के हृदय प्रांगण में बैठे हैं। वह आपको देख रहे हैं और हम जो प्रयास कर रहे हैं या फिर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। यह व्यक्ति ब्रह्म मुहूर्त में जल्दी उठ गया। तो भगवान को पता चला और अब जप कर रहा है, भगवान को पता है। अगर कोई सोया है तो भगवान जानते ही हैं। हमारी तपस्या देखकर भगवान प्रसन्न होते हैं। भगवान ने ध्रुव महाराज की तपस्या देखी और वह ऋषि मुनियों की तपस्या देखकर प्रसन्न होते थे। ग्रंथ वितरण करना और वह भी शीतकाल में तपस्या जरूर है और यह तपस्या के लिए ही जीवन है। जब हम तपस्या करेंगे तो दिव्य तपस्या है। कौन तपस्या नहीं करता? इस संसार में सबको तपस्या करनी पड़ती है और असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन तपस्या दिव्य होनी चाहिए।
ऋषभ उवाच नार्य देहो देहभाजां नलोके कष्टान्कामानहते विड्भुजा ये ।।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम् ।।
(श्रीमद भगवतम 5.5.1)
अनुवाद:
भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा – हे पुत्रो , इस संसार समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन – रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर – सूकर भी कर लेते हैं । मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने लिए वह अपने को तपस्या में लगाये । ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है , तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है , जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है ।
भगवान ऋषभदेव के कुल 100 पुत्र थे। भगवान के केवल 100 पुत्र थे बस? हम सभी भगवान के पुत्र हैं। उस लीला में 100 पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र भरत ऋषभदेव सब को संबोधित करते हुए कहते हैं। जैसे कृष्ण और अर्जुन का संवाद हुआ था। भगवान अपने भक्तों के साथ संवाद हुआ है। वह अपने पुत्र को संबोधित कर रहे थे। तब उन्होंने कहा हे पुत्रका, एक पुत्र नहीं है, हे पुत्रों 100 पुत्र एकत्रित हुए हैं इसलिए ऋषभदेव कह रहे हैं तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं। तपस्या करो कहते ही कैसी तपस्या करनी चाहिए दिव्य तपस्या करो।
यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ||
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 9.27)
अनुवाद:
हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो |
जो भी तपस्या करो मुझे प्रसन्न करने के लिए तपस्या करो ऐसी तपस्या फिर दिव्य तपस्या कहलाएगी।
यत्तपस्यसि कौन्तेय कुंती पुत्र अर्जुन, मदर्पणम् मुझे अर्पित करो। इस ग्रंथ वितरण कार्यक्रम में जो सम्मिलित हो रहे हैं और आशा है कि आप सम्मिलित हो रहे हो। हर व्यक्ति को इस में भाग लेना है। यह जो तपस्या है ग्रंथ वितरण में आप भी जानते हो कैसी कैसी तपस्या है। शीतकाल का नाम ले रहा हूं लेकिन कई सारी और सारी असुविधाएं हैं होती ही रहती हैं और प्रतिकूल परिस्थिति होती ही हैं। तब भी आप ग्रंथों का वितरण करते ही हो। ऐसी तपस्या और ऐसा प्रयास उससे हमारा शुद्धिकरण होगा। शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम् ऋषभदेव भगवान आगे कह रहे हैं।
शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम् यानी ब्रह्म सुख या कृष्णानंद आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप आगे बढ़ो ,जीव को जो आनंद चाहिए। यह आनंद अमीरी में नहीं है। वह संसार के सुख में नहीं है या आरामदायक परिस्थिति में नहीं है। जो आनंद फकीर या तपस्वी करें, साधक जिस आनंद का अनुभव करते हैं। मैं आनंद अमीरी में नहीं है। हरि हरि। श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों का वितरण करते रहिए। आज वैसे महाभारत के युद्ध का पांचवा दिन है। आज पूर्णिमा है। युद्ध एकादशी के दिन प्रारंभ हुआ था। एकादशी से पूर्णिमा तक पहुंचे तो आज पांचवा दिन है। वैसे महाभारत में हर 1 दिन का वर्णन है। हर दिन क्या क्या हुआ, इसका वर्णन आप महाभारत में पढ़ या सुन सकते हो।
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*जप चर्चा!!!*
*दिनांक 18 दिसंबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 1032 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। हरि! हरि! गीता जयंती महोत्सव की जय!!! आप गीता जयन्ती महोत्सव मना रहे हो? यह एक दिन का महोत्सव या उत्सव नहीं है। हम इसे इस्कॉन में पूरे दो महीने मनाते हैं। यह लगभग डेढ़ महीना या एक महीना चलता रहेगा।15 जनवरी तक गीता का वितरण करेंगे। हरि! हरि! किन्तु गीता केवल वितरण के लिए नहीं है। हमारे अध्ययन के लिए भी है। श्रीमद् भगवतगीता के 16 अध्याय का आज थोड़ा सा संस्मरण करेंगे। सुभद्रा सुंदरी सुन रही हो? नहीं, सुन रही है। सुनो,
‘पार्थ मे श्रृणु।’ इस 16वें अध्याय के छठें श्लोक में कृष्ण कह रहे हैं -‘पार्थ मे श्रृणु ‘ अर्थात हे पार्थ सुनो़!!!
कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं – सुनो, सुनो। अर्जुन ने कृष्ण की बातें सुनी और उनका कल्याण हुआ। अब हमारी बारी है।’पार्थ मे श्रृणु’। सुभद्रा सुंदरी- मे श्रृणु अर्थात मुझे सुनो। सभी ही सुनो कि कृष्ण इस दैवी तथा आसुरी स्वभाव( सम्पदा) के विषय में क्या कह रहे हैं ।
श्रीकृष्ण ने दैवी तथा आसुरी स्वभाव( सम्पदा) का विषय छेड़ा है। वे छठे श्लोक में कह रहे हैं-
*द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च | दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु ||*
( श्रीमद् भगवदगीता 16.6)
अनुवाद:-
हे पृथापुत्र! इस संसार में सृजित प्राणी दो प्रकार के हैं – दैवी तथा आसुरी । मैं पहले ही विस्तार से तुम्हें दैवी गुण बतला चुका हूँ । अब मुझसे आसुरी गुणों के विषय में सुनो ।
श्रीकृष्ण ने क्या कहा है, उसको समझना है। जब हम भगवत गीता को समझेंगे तब हम भगवान को समझेंगे। तत्पश्चात हम स्वयं को भी समझने वाले हैं। हम अपने जीवन के लक्ष्य को भी समझेंगे। कृष्ण ने कहा ही है
*सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||*
( श्रीमद भगवतगीता 15.15)
अनुवाद:-
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
मुझे जानने के लिए वेद हैं। भगवद्गीता गीता वेद का अंग है, कृष्ण की वाणी है। वेद वाणी अर्थात भगवान की वाणी। भगवान् हमारे कल्याण के लिए यह बातें कह रहे हैं।( विस्तार से नहीं कह सकते) इसलिए जब आपको संक्षिप्त में बातें कही जाती हैं, तब उसको और ध्यान से सुनना पड़ता है। विस्तार से जो कहते हैं, उसको समझ सकते हैं लेकिन जो सूत्र रूप अथवा संक्षिप्त में जो बातें कही जाती हैं, वे बातें ध्यानपूर्वक सुनने से ही समझ में आती हैं। इस संसार में दो प्रकार के लोग हैं। द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। इस जगत में दो प्रकार के लोग होते हैं। दैव व आसुरी।
कोई दैवी संपदा वाले हैं और कोई आसुरी संपदा वाले हैं अर्थात कुछ भक्त हैं तो कुछ असुर हैं। कृष्ण पांचवे श्लोक में कहते हैं।( हम किसी कारणवश थोड़ा आगे पीछे अथवा क्रम से नहीं पढ़ रहे हैं।)
*दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता | मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।*
(श्रीमद भगवतगीता १६.५)
अनुवाद:-
दिव्य गुण मोक्ष के लिए अनुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धन दिलाने के लिए हैं । हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त होकर जन्मे हो ।
हम आपको इस अध्याय का कुछ परिचय ही देंगे। तत्पश्चात दिन में आप पूरा अध्याय पढ़ सकते हो या जब जब आपको आज या और किसी दिन फुर्सत मिलेगी, तब पढ़ सकते हो। यह आपके लिए गृह कार्य है। आप इस अध्याय को और पढ़िए। कृष्ण बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैं।
*दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता | मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।*
कृष्ण बहुत बड़ा सिद्धांत कह रहे हैं। जिन्होंने दैवी संपदा को प्राप्त किया है, उनकी मुक्ति होगी। आसुरी संपदा निबन्धाया । विमोक्षाय व निबन्धाया ऐसे दो शब्द हैं। मुक्ति के लिये दैवीय सम्पदा है और यदि बंधन में और फंसना है अथवा और भ्रमित होना है, अथवा जन्म मृत्यु के चक्कर में फंसना है। वैसे फंसे ही हैं। यह हृदय ग्रंथि अर्थात हृदय में जो कई प्रकार की गांठे हैं, यह गांठे और टाइट होंगी। हम बुरी तरह फंस जाएंगे। निम्न योनियों में भी जन्म संभव है।
श्रीभगवानुवाच
*कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये । खियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ।।* ( श्रीमद भागवतम 3.31.1)
अर्थ:-
भगवान् ने कहा : परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव ( आत्मा ) को पुरुष के वीर्यकण के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है ।
आसुरी संपदा- विमोक्षाय व दैवी सम्पदा निबन्धाया। (आप नोट करो। मेंटल नोट या लिखित) यह सत्य है, यह सिद्धांत है। ऐसा ही होता है। ऐसी व्यवस्था है। जिन्होंने ऐसी अवस्था की है, वही बोल रहे हैं। श्री भगवान उवाच चल रहा है। इसलिए भगवान को सुनना चाहिए तभी हम इस जगत को समझ सकते हैं किन्तु हम कैसे बंधन में फंसे हैं, इससे मुक्त कैसे हो सकते हैं । इसकी चाबी या इसका उत्तर कहो या इस उलझन का सुलझन कहो, भगवान यहां भगवत गीता में सुना रहे हैं । भगवान् 16 अध्याय में कह रहे हैं (आपने नोट किया) दैवी सम्पदा से क्या होता है- विमोक्षाया और आसुरी संपदा से निबंधाया। श्रीकृष्ण पार्थ सारथी ने देवी संपदा से युक्त लोगों के लक्षण अथवा गुण धर्म और आसुरी संपदा वाले जनों के अवगुणों का कहा है।
एक गुणवान है और दूसरे अवगुणी हैं। यहां हिंदू- मुसलमान, देशी-विदेशी का प्रश्न नहीं है। दैवी सम्पदा वाले कुछ लोग संसार में आपको सर्वत्र मिलेंगे । अमेरिका में मिल सकते हैं या कुछ क्रिश्चियन भी हो सकते हैं। आसुरी संपदा वाले कुछ हिंदू भी हो सकते हैं, भारत में कई आसुरी संपदा वाले लोग हैं। जब श्री भगवान उवाच चल रहा है तब कृष्ण, हिंदू मुसलमान, देशी-विदेशी ऐसा कुछ विचार नहीं कर रहे हैं। 5000 वर्ष पूर्व हम यह जो तथाकथित कई सारे धर्म अथवा धर्मों के नाम सुनते हैं, अर्थात यह धर्म उत्पन्न हुए हैं अथवा उन्होंने जन्म लिया है, इन धर्मो का निर्माण हुआ है। अथवा यह धर्म शुरू हुए हैं। … जो शुरू होते हैं, उनका अंत भी होता है। यह बात दूसरी है लेकिन बात बड़ी महत्वपूर्ण है। इसलिए हमें सनातन धर्म के भक्त अनुयायी होना चाहिए। श्रील प्रभुपाद, अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ की स्थापना करके सारे संसार के सभी जीवों को कृष्णभावनाभावित बनाकर पुनः सनातनी अथवा सनातन धर्म के अनुयायी बना रहे हैं।
यहां जब कृष्ण दैवी संपदा, आसुरी संपदा के गुणधर्म कह रहे हैं तब न तो यहां कौन सा देश, कौन सा धर्म, कौन सी जाति का प्रश्न है न तो यहां किसी लिंग स्त्री या पुरुष का कोई प्रश्न है और न ही उनके रंग का कोई प्रश्न ही है। हरि! हरि! दो प्रकार की सम्पदाएँ हैं। दैवी सम्पदा व आसुरी सम्पदा। ऐसी संपदा से युक्त लोग इस संसार में सर्वत्र मिलेंगे। दैवी संपदा वाला कौन होता है अथवा क्या पहचान है? हम उसको थोड़ा ( केवल कुछ नाम ही गिनेंगे) कृष्ण ने जिन शब्दों में कहा है- आइए हम सुनते हैं । एक एक गुण की चर्चा नहीं करेंगे।
श्रीभगवानुवाच |
*अभयं सत्त्वसंश्रुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः |दानं दमश्र्च यज्ञश्र्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||*
*अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्| दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् || तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता | भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ||*
( श्रीमद् भगवतगीता 16.1-3)
अनुवाद:-
भगवान् ने कहा – हे भरतपुत्र! निर्भयता, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म-संयम, यज्ञपरायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधविहीनता, त्याग, शान्ति, छिद्रान्वेषण में अरुचि, समस्त जीवों पर करुण, लोभविहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या तथा सम्मान की अभिलाषा से मुक्ति – ये सारे दिव्य गुण हैं, जो दैवी प्रकृति से सम्पन्न देवतुल्य पुरुषों में पाये जाते हैं |
अभयं (आप समझते हो, जो सरल बातें हैं उसको मैं अधिक नहीं कहूंगा, ना ही हमारे पास सब समझाने के लिए अधिक समय होता है ) भगवान् १६ अध्याय के श्लोक १-३ में दैवी संपदा वाले लोगों के गुण का वर्णन कर रहे हैं। अभयं अर्थात निर्भरता। सत्त्वसंश्रुद्धि अर्थात अपने अस्तित्व की शुद्धि। मैं सोच रहा था, वैसे सोचता ही रहता हूं। केवल हम सुन भी लेंगे कि ये अलग अलग गुण क्या होते हैं? इसी के साथ हम में यह गुण उदित होने लगेंगे। यह नाम ही, यह शब्द ही दिव्य और शक्तिमान है। यह हमें प्रभावित करेंगे, यहीं तो श्रवण है। जब हम इन्हें सुनेंगे।
*नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107)
अनुवाद:-
“कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”
यह गुण वैसे हर जीवात्मा में है। हर जीव में यह गुण है। जब हम इन गुणों के संबंध में सुनते हैं तब यह गुण विकसित होने लगते हैं, प्रकट होने लगते हैं। इसलिए पुनः पुनः सुनेंगे, चिंतन करेंगे तब नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय
श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय होगा।
सभी जीवों का कृष्ण से प्रेम है। सभी जीवों का प्रेम है। जब हम श्रवण कीर्तन करते हैं, तब
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥* ( श्रीमद् भागवतम 1.2.18)
अर्थ:-
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
गीता को सुनते हैं, महामंत्र का जप व कीर्तन करते हैं तब जीव का जो भगवान से प्रेम है, वह पुनः उदित अथवा प्रकाशित होता है, प्रकट होता है। उसी सिद्धांत के अनुसार यहां पर जो दैवी संपदा वाले गुणों को गिनाया है, इनको भी जब हम ध्यानपूर्वक व श्रद्धापूर्वक सुनेंगे तब यह गुण हम में विकसित होने लगेंगे। यह कोई विदेशी गुण नहीं है। जीवात्मा के गुण हैं। जीव में यह गुण हैं लेकिन हम भूल चुके हैं। यह सुनने- पढ़ने की महिमा व लाभ है। हम दैवी सम्पदा वाले व्यक्ति के गुणों के वर्णन को सुनेंगे तो हम भी वैसे ही गुणवान बनेंगे।
आगे ज्ञान अर्थात ज्ञान में, योग अर्थात संयुक्त होना। दानं अर्थात दान देना। दम: अर्थात दमन करना, इंद्रियों का दमन करना। यज्ञश्चय अर्थात यज्ञ करना। जप करना भी यज्ञ है। स्वाध्याय अर्थात अध्ययन करना या अभ्यास करना। तप अर्थात तप करना। हमारा देश तपोभूमि है। हम साधकों के जीवन में तप की बहुत ऊंची भूमिका है। आर्जवम अर्थात सरलता बहुत ही सरल होना। अहिंसा अर्थात हिंसा न करना। सत्यम अर्थात सत्य बोलना।क्रोधं अर्थात क्रोध नहीं करना। त्यागः अर्थात शांति, शांत होना। ॐ शांति: । अपैशुनम अर्थात दूसरों के दोष देखने की प्रवृत्ति नहीं होना। यह दैवी सम्पदा है। दूसरों में दोष देखना यह आसुरी संपदा है। दया अर्थात दयालु होना। भूतेषू अर्थात जीवों में। जिसे हम जीवे दया कहते हैं। लोलुप्त्वं अर्थात लोभ से मुक्ति। मार्दवं अर्थात भद्रता अर्थात मृदु होना। ह्रीर अर्थात लज्जावान होना। आजकल के लोग निर्लज्ज है। स्त्री में लज्जा बहुत बड़ा गुण है। लज्जावान स्त्रियों की रक्षा होती है। जो स्त्रियां निर्लज्ज होती है, तब दूसरे मनुष्य उसका फायदा उठाते हैं। हरि हरि!!
तेज: अर्थात बल। क्षमा अर्थात क्षमा। धृतिः अर्थात धैर्य। शौचम अर्थात पवित्रता। द्रोहो अर्थात ईर्ष्या से मुक्ति। नातिमानिता अर्थात
सम्मान की आशा नहीं रखना। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत । यह दैवी सम्पदा का वर्णन है। श्रील प्रभुपाद ने सात पृष्ठों में इसका तात्पर्य लिखा है ।श्रील प्रभुपाद ने इन तीन श्लोकों में बहुत सारा समय दिया है। इन तीन श्लोकों में जिनमें दैवी सम्पदा का वर्णन किया गया है, प्रभुपाद ने इसका भावार्थ कई सारे पृष्ठों में गूढ़ अर्थों व उदाहरणों के साथ समझाया हैं। तत्पश्चात आगे कृष्ण आसुरी स्वभाव का वर्णन कर रहे हैं।
*दम्भो दर्पोऽभिमानश्र्च क्रोधः पारुष्यमेव च | अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ||*
( श्रीमद भगवतगीता 16.4)
अनुवाद:-
हे पृथापुत्र! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान – ये सारे आसुरी स्वभाव वालों के गुण हैं |
दम्भ अर्थात अंहकार। दर्प अर्थात घमंड, लोग घमंडी होते हैं। आप में से भी कोई हो सकता हैं। आप अगर ईमानदार हो ( आनेस्टी इज़ द बेस्ट पालिसी ) तब गर्व से कहो कि हम घमंडी हैं। वैसे इस में गर्व की बात नहीं है। हरि! हरि!
अभिमानश्र्च अर्थात गर्व। क्रोधः अर्थात क्रोध। पारुष्यम अर्थात निष्ठुरुता ।अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् यह मोटे मोटे नाम गिनाए है। मोटे मोटे अवगुणों का उल्लेख किया है। आसुरी सम्पदा का वर्णन है। भगवान् आसुरी स्वभाव का और भी कुछ शब्दों में वर्णन 7वें श्लोक में करते हैं।
*प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः |
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ||*
(श्रीमद भगवतगीता 16.7)
अनुवाद:-
जो आसुरी हैं , वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । उनमें न तो पवित्रता, न उचित आचरण और न ही सत्य पाया जाता है ।
जो असुर होते हैं, जना न विदुरा, आसुरी लोग नही जानते।
प्रवृतिं च निवृत्तिं च अर्थात प्रवृतिं क्या करना चाहिए, निवृत्तिं अर्थात क्या नहीं करना चाहिए। वे विधि और निषेध नहीं जानते और न ही मानते हैं और न ही वैसा व्यवहार करते हैं। न शौचं अर्थात उनके जीवन में पवित्रता नहीं होती।
नापिचाचारो अर्थात न ही उनका ऐसा आचरण होता है। न सत्यं तेषु विद्यते अर्थात उनमें कोई सत्य नही होता। वे सत्य का पालन नहीं करते।आसुरी सम्पदा वाले ऐसे होते हैं। श्रील प्रभुपाद इसका भी तात्पर्य लिखते हैं। (उन्होंने हर एक का तात्पर्य लिखा ही हैं।) (बीच में इतना कह कर रूकना होगा।) कृष्ण ने अर्जुन को कहा है- इसको भी नोट कीजिए।
*दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता | मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 16.5)
अर्थ:-
दिव्य गुण मोक्ष के लिए अनुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धन दिलाने के लिए हैं । हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त होकर जन्मे हो ।
हे पांडव, हे अर्जुन, मा शुचः अर्थात तुमको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। घबराओ नहीं। डरो नही। चिंता
मत करो। मा शुचः क्योंकि दैवीमभिजातोऽसि अर्थात तुम्हारा जन्म तो दैवी सम्पदा परिवार अथवा घराने में हुआ है अथवा तुम तो दैवी सम्पदा से युक्त हो। इसलिए तुम्हारी मुक्ति, भवबंधन से निश्चित है। मा शुचः। सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि जो दैवी सम्पदा वाले हैं। कृष्ण उनको कहते हैं कि ‘मा शुचः’ डोंट फियर, आईं एम हेयर, ओ डिअर(चिंता मत करो, मैं यहीं हूँ) आप सभी को भी सम्बोधित या यह कहा जा सकता है। आप सभी भी हरे कृष्ण आंदोलन में जन्म लिए हो। जब दीक्षा होती है, तब दीक्षा जन्म ही होता है। आप ऐसे घराने में जन्मे हो अर्थात ब्रह्म मध्व गौड़ीय सम्प्रदाय में जन्मे हो। आपने वैष्णव सम्प्रदाय में जन्म लिया है अथवा आपने अपना सम्बन्ध स्थापित किया हुआ है। इसी के साथ आप दैवी सम्पदा से युक्त हो रहे हो। प्रतिदिन दैवी सम्पदा या सम्पति ही कहो। आप प्रतिदिन प्रात: काल में उठकर दैवी सम्पदा के अधिक अधिक फिक्स डिपाजिट बढ़ा रहे हो। आप हरे कृष्ण महामन्त्र का जप कर रहे हो। भागवतम, गीता का श्रवण कर रहे हो और सभी चार नियमों का पालन कर रहे हो।
*साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सड्ग-सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र साधु-सड़गे सर्व-सिद्धि हय ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत 22.54)
अनुवाद
सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य
सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।”
साधु सङ्ग भी कर रहे हो और अब गीता का वितरण कर रहे हो। जारे देखो ताहे कह कृष्ण उपदेश भी कर रहे हो। यह सब दैवी सम्पदा के लक्षण हैं। आप सब इस कॉन्फ्रेंस में जॉइन करने वाले भक्त हो।इसलिए आप को कहना और सुनाना होगा कि आप चिंता नहीं करना। डोंट फियर, यह भवबंधन आप पर लागू नहीं होता है। दैवी सम्पदा विमोक्षय और आसुरी सम्पदा निबन्धाय। ठीक है। अब कुछ स्कोर रिपोर्ट सुनते हैं।
हरे कृष्ण!
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*जप चर्चा*
*17 दिसंबर 2021*
*सोलापुर से*
1042 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय। आप तैयार हो? हमारे साथ अब मंगोलिया के भक्त भी है, मोरिशियस के तो है ही और एक देश मंगोलिया। हरि हरि। इस प्रकार इस हरे कृष्ण फैमिली का विस्तार हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी सच हो रही है। इसका सबूत क्या है? वैराजगिरी यह जो मंगोलिया की माताजी है इनका नाम भी कठिन है। संस्कृत से भी कठिन है संस्कृत आसान है वैसे। लेकिन उसी का फिर आगे बिगाड़ होता है तो फिर कठिन हो जाता है। वैसे मूल रूप से यह संस्कृत के ही नाम है, बट्टूक मंगोलिया से। देखिए कहां कहां तक फैल रहा है भगवान का नाम। वैसे कुछ ज्यादा दूर तो नहीं है।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो कहे ही है पृथ्वीते आछे जत नगरादी ग्राम.. मेरे नाम का प्रचार कहां होगा पृथ्वी पर होगा। हमारे भक्ति वैभव स्वामी महाराज मंगोलिया के जीबीसी (GBC) है। तो उनके प्रयासों से मंगोलिया में भी हरिनाम का प्रचार हो रहा है। वैसे कई सालों से हो रहा है। और हमारे एकनाथ गौर प्रभु मेरे शिष्य है वह अभी नोएडा में रहते हैं। एकनाथ गौर दास ब्रह्मचारी अभी प्रशिक्षित हो रहे हैं। अभी तो ब्राह्मण भी बन गए ब्राह्मण दीक्षा भी हो गई। तो वे भी प्रचार कर रहे हैं ऑनलाइन। मंगोलिया के भक्तों को जोड़ रहे हैं इस परंपरा के साथ और वृंदावन के साथ या वृंदावन के श्री कृष्ण के साथ। इस प्रकार यह भक्ति का प्रचार होता है। यह भक्ति भगवान ने भगवद्गीता में दी है, सिखाई है। भगवद्गीता क्या सिखाती है? भक्ति योग सिखाती है। और भी योगों का उल्लेख तो करते हैं लेकिन फिर सार में कहते हैं, निष्कर्ष निकालते हैं भगवान और कहते हैं…।
“योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः || ४७ ||”
और यह भगवद्गीता एकम शास्त्र देवकी पुत्र गीतम। यह भक्ति का शास्त्र है, भक्ति सिखाता है, यह आत्म तत्व का विज्ञान है। भगवत साक्षात्कार का भी विज्ञान है। तो इस विज्ञान का ही प्रचार हो रहा है। वैसे जहां जहां हरि नाम पहुंच रहा है, वहां वहां भगवदगीता निश्चित रूप से पहुंच रही है। और संभावना है कि मंगोलियन भाषा में भी भगवदगीता का अनुवाद हुआ है। आई एम कॉन्फिडेंट। मंगोलिया जानते हो क्या आप? मंगोलिया रशिया से भी ऊपर या बगल में चीन ऑलमोस्ट नियर नॉर्थ पोल के पास मंगोलिया है। तो वहां तक नाम पहुंच गया तो वहां पर गीता भी पहुंचती है और सारी संस्कृति भी पहुंचती है। कृष्ण भावनामृत या धर्म और संस्कृति जिसको हम कहते हैं। यह दो बातें होती हैं, यह धर्म और संस्कृति का भी प्रचार और प्रसार होता है सर्वत्र। और वहां की फिर.. वैसे आप जानते हो। आप जो जानते हो बातें उन्हीं को हमें कभी कभी याद भी दिलाई जाती हैं। फिर उसी प्रकार की भी जीवन शैली यह भी याद दिला रहे हैं, जीवनशली भी बन जाती है। साइंस ऑफ बिंग एंड आर्ट ऑफ लिविंग ऐसे भी कहां जाता है। हमारा जो अस्तित्व है उस अस्तित्व का विज्ञान और जीने की कला। या आर्ट्स एंड साइंस आप सुनते हो ना, कई कई कॉलेज होते हैं आर्ट्स एंड साइंस। तो सायंस ऑफ बिंग मतलब होना मैं हूं इसका विज्ञान, आत्म साक्षात्कार का विज्ञान। तो साइंस ऑफ बिंग एंड आर्ट ऑफ लिविंग और जीने की कला या जीने की शैली। तो गीता का प्रचार जहां पहुंचता है, फिर वहां की जीने की पद्धति भी जिसको संस्कृति भी कह सकते है, उसमें परिवर्तन आता है। वहां के खानपान में अंतर आता है फिर वहां महाप्रसादे गोविंदे शुरू हो जाता है।
कृष्ण गीता में कहे हैं डाइट कैसा होना चाहिए..पत्रं पुष्पं फलं तोयं। फिर वेशभूषा में परिवर्तन आ जाता है पुरुष धोती पहनते हैं स्त्रियां साड़ी पहनती है। यह क्यों? क्योंकि कृष्ण धोती पहनते हैं राधा रानी साड़ी पहनती है। देखिए यह कहां की संस्कृति। यह गोलोक की संस्कृति या वृंदावन की संस्कृति या वृंदावन की वेशभूषा श्री कृष्ण की, राधा की, ब्रज वासियों की तो वैसे वेशभूषा वाले फिर हम बन जाते हैं। उसी के साथ वैसे कृष्ण भावना भावित भी होना पड़ता है। तभी तो हमारे वेशभूषा में अंतर आता है। कृष्ण कैसे वस्त्र पहनते हैं, राधा रानी कैसे पहनती हैं। वह जींस पहनती है क्या राधा रानी। तो यही फिर मदद करता है कृष्णभावना भावित होने के लिए। हम वैसी ही वेशभूषा करते हैं, जैसे वृंदावन में राधा रानी और कृष्ण करते हैं। फिर वाद्य भी वैसे ही होते हैं। रास क्रीडा होती है तो जो वाद्य बचते हैं, वैसे भी रास क्रीडा नहीं है तो भी कई सारे वाद्य तो बचते ही है। वैसे भगवत धाम हे भी किसको पता है, किसी को पता नहीं है। भगवान है कि नहीं इसीका पता नहीं है तो भगवत धाम कैसे पता होगा। कई सारे हिंदुओं को भी पता नहीं है की भगवत धाम है। यही तो मुसीबत है। क्योंकि हम यह निराकार निर्गुण के प्रचार से इतने प्रभावित हो चुके हैं। बस ज्योत मे ज्योत मिलानी है, मुक्त होना है खतम। यह अधूरा ज्ञान बड़ा भयानक, खतरनाक होता है।
इसीलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहां ही है सावधान मायावाद भाष्य सुनिले हय सर्वनाश। मायावाद भाष्य सुनोगे.. उसी का नाम है निर्गुण, निराकार या अद्वैतवाद। वह भी तो हिंदू है, वह भी तो भारतीय है। या फिर शास्त्र को अधूरा जानते हैं अद्वैत। अच्छा किया कि प्रभुपाद ने कुछ समझोता नहीं किया। अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ कृष्ण भावना भावित होना सर्वोच्च बात है, सर्वोपरि बात है कृष्ण भावना भावित होना। कई लोग कह रहे थे स्वामी जी स्वामी जी आप यह कृष्ण कॉन्शियस क्यों कहते हैं गॉड कॉन्शियस कहो ना। अपने सोसाइटी का नाम दे दो इंटरनेशनल सोसायटी फॉर गॉड कॉन्शसनेस। उनका नाम कृष्ण है तो हम उनको गॉड क्यों कहेंगे, हम उनको कृष्णा कहेंगे। और गॉड कहना कृष्ण कहना बहुत उस में जमीन आसमान का अंतर है। गॉड जो शब्द है उससे कुछ ज्यादा समझ में नहीं आता है गॉड। कृष्ण जब कहते हैं तो आपको सब कुछ समझ में आ जाएगा। गॉड तो ऐसे ही क्रिएशन है। यह मल भाषा, यह म्लेच्छ भाषा, नीच भाषा, नीच लोगों की भाषा। अंग्रेजी भाषा को कई विद्वान कहते हैं यह म्लेच्छों की भाषा है। लेकिन संस्कृत भाषा तो देव भाषा है। देवता बोलते हैं, देवीयाँ बोलते हैं इस भाषा में।
कृष्ण भी यह भाषा बोलते हैं भगवद्गीता को वे संस्कृत में बोलते हैं। संस्कृत रिफाइंड पॉलिश लैंग्वेज।…. जैसे रिलीजन कहना और धर्म कहने में बहुत बड़ा अंतर है। धर्म कहने से पूरा वर्णन हुआ धर्म। रिलीजन क्या होता है? रिलिजन से ज्यादा कुछ समझ में नहीं आता। लेकिन धर्म कहेंगे तो उसमें सब कुछ आता है……….। अधिकतर इस कलयुग के जो लोग हैं वे शुद्र संस्कृति के हैं। जब हम संस्कृति कहते हैं तो उसमें वेशभूषा भी आ गई, खान-पान भी आ गया, उत्सव आ गए या वाद्य है वह आ गए, पूरी जीवन शैली भी आ गई जब हम संस्कृति कहते हैं। तो मॉडर्न संस्कृति और आधुनिक भारत, भारत नहीं रहा। जब हमने भारत को आधुनिक बनाया। जैसे भारत का हो गया इंडिया। और फिर मॉडर्न इंडिया की संस्कृति यह वेस्टर्न संस्कृति, अमेरिकन संस्कृति या शुद्रों की संस्कृति कहो या कुछ व्यापारियों की संस्कृति कहो, फिर शास्त्रज्ञो का कहो उनके समान ही है। उनकी क्या संस्कृति है? उनके पास कोई संस्कृति नहीं है वे असंस्कृत है। हरि हरि। मैं सोच रहा था कि आपको भगवद्गीता समझनी है और पढ़नी है तो आपके सारे हाव भाव में, संस्कृति में परिवर्तन करना होता है।
हमको जल्दी उठना होगा भगवद्गीता को समझना चाहते हो तो आपको जल्दी उठना होगा। यह एक बात है, संस्कृति का एक भाग है। वेस्टर्न संस्कृति क्या है? वह तो पार्टी कल्चर है, फाइन वाइन पीना ही कल्चर हुआ। पार्टियों में जाना कल्चर हुआ। मॉडर्न कल्चर.. आपको साइंटिस्ट बनना है या पीएचडी करनी है कोई भी टॉपिक ले लो और पीएचडी करना चाहते हो, तो आप कुछ भी बकवास कर रहे हो, आपके खान पानी या आपकी जीवनशैली। आप वुमन हंटर भी हो सकते हो और पीएचडी भी हो सकते हो। आप कामी हो सकते हो, आप क्रोधी हो सकते हो, आप लोभी हो सकते हो और पीएचडी भी हो रहे हो, साइंटिस्ट भी हो रहे हैं। इस प्रकार की जो अविद्या है उसको ग्रहण कर रहे हैं, पढ़ रहे हैं, उसमें निपुण हो रहे हैं। ऐसा करने के लिए आप मांसाहार नहीं कर सकते, नशापान नहीं कर सकते, गेम्बलिंग नहीं कर सकते।
भगवद् गीता पढ़ना चाहते हो या समझना चाहते हो तो यह आप नहीं कर सकते। तुरंत ही शुरुआत में यम नियम, यह यम है यह नियम है, यह विधि है यह निषेध है। ऐसे विधि निषेध संसार भर के लोगों के लिए नहीं है। न तो वह जानते हैं न तो पालन करते हैं। जिसका वर्णन भगवद् गीता में कृष्ण करते हैं किं कर्तव्यं विमुढता क्या करना चाहिए। भगवद् गीता को हम पढ़ना और जानना चाहते हैं या फिर भागवत भी हैं, चैतन्य चरितामृत भी है। इसका हम साक्षात्कार करना चाहते हैं उसका हम दर्शन करना चाहते हैं। हमारे शास्त्र को वैसे दर्शन कहा है दर्शनशास्त्र। अंततोगत्वा हमें कृष्ण का दर्शन ही करना है। तो यह करने के लिए हमारे भावनाओं में क्रांति, विचारों में क्रांति, हमारी संस्कृति, हमारी जीवन शैली में क्रांति, हमारे खान पान, यह वह, जिनका संग करते हैं उसमें क्रांति, हम कब उठते हैं, कब सोते हैं, कितना सोते हैं, खाना है, सोना है, मैथुन है, फिर डिफेन्स है। यह सारा नियंत्रण होगा, इसकी सारी नियमावली है। यह नहीं कि आप खा नहीं सकते, लेकिन आप क्या खाओगे, क्या नहीं खा सकते यह सारे नियम है।
लेकिन ऐसे नियम दुनिया वालों के लिए नहीं है। जो फिजिक्स, केमिस्ट्री, बायोलॉजी, ज्योग्राफी हो सकता है, फिर एस्ट्रोनॉट्स बन रहे हैं, नासा के साइंटिस्ट बन रहे हैं। उसमें कोई नियम का पालन करने की आवश्यकता नहीं है। तो भी आप नासा साइंटिस्ट बनेंगे। सारा सत्यानाश कर दिया पृथ्वी का अपनी जीवनशैली से। और अब कह रहे हैं चलो चलो चलते हैं, इस लोक को छोड़ो। हमको मंगल दिखा रहे हैं, हमको चंद्रमा दिखा रहे हैं। हम पहले जाकर देखते हैं वहां कैसा है, क्या व्यवस्था है, क्या वहां लाइट है या लाइफ सरवाइव कर भी सकते हैं। तो यह सब बकवास चल रहा है संसार में। संसार के तथाकथित सुपर पावर्स ऐसे रास्ता दिखा रहे हैं। पृथ्वी का सारा किया बिगाड़ उन्होंने, यहां का सारा पर्यावरण, वातावरण को बदल दिए। फिर ग्लोबल वार्मिंग पृथ्वी का टेंपरेचर बढ़ गया। फिर बुखार आ गया पृथ्वी को। जिसके गोद में हमें रहना है उसी को बुखार आ गया फिर हम कैसे स्वस्थ रहेंगे। तो संसार भर के लोगों की जीवन शैली, विचारधारा और उसी का यह दुष्परिणाम है। इसमें से चयन करिए। तो राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् यह कुछ भिन्न ही बात है। यह राज विद्या है और संसार में जो पढ़ाया जाता है, पढ़ते हैं वह अविद्या है।
विद्या और अविद्या परा विद्या इस विद्या के दो प्रकार है। तो संसार जिसको पढता है वह अविद्या है मैटर का स्टडी है। आत्मा का स्टडी प्रारंभ करते हैं तो फिर वह विद्या हो गई। और वह विद्या भगवान गीता मे सिखाए हैं, जिसको किंग ऑफ नॉलेज कहां है। राजगुह्यं सबसे गोपनीय है। पवित्रम पवित्र है और उत्तम है मतलब तमो गुण से परे है। तमो, रजो, सतोगुण से परे का यह ज्ञान है भगवदगीता का। ऐसे ज्ञान को हम प्राप्त करेंगे तो हम गुणातीत हो जाएंगे, कृष्ण भावना भावित हो जाएंगे। हरि हरि। तो इस पर और विचार कीजिए। आप को विचार करना होगा, चिंतन, मनन करना होगा। जब हम कुछ कहते हैं इसको भी आप और सोचिए, चिंतन कीजिए, मनन कीजिए और अध्ययन कीजिए।
पता लगवाइए अधिक अधिक जिन बातों को हम थोड़ा संक्षिप्त में कहते हैं, कुछ संकेत ही करते हैं। तो देखिए गीता में, भागवत में इसके संबंध में और कुछ कहा है या प्रभुपाद के तात्पर्य में, उनकी कन्वर्सेशन मे। हमारे आचार्यों के जो विचार है उसे भी पढ़िए, सुनिए। विशेष रूप से यह गीता का जमाना है। गीता जयंती, गीता वितरण के कार्यक्रम को हम मना रहे हैं। तो गीता को पढ़िए, गीता का वितरण कीजिए। धन्यवाद। हरे कृष्ण।
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जप चर्चा
दिनांक – 16 दिसंबर 2021
1. कृष्ण माया के माध्यम से भौतिक संसार को नियंत्रित करते हैं।
2. वास्तविक कर्ता ।
3. हमारी गतिविधियों को तीन मोड में चित्रित किया गया है।
हरे कृष्ण
आज हमारे साथ 1000 स्थानों से जप करने वाले भक्त हैं। इस पवित्र गतिविधि का हिस्सा बनने के लिए आप सभी का स्वागत है। जप करना और जप की बात सुनना दोनों ही पवित्र करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 14 में, भगवान कृष्ण भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के बारे में बात करते हैं:
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् |
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः || श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक 14.1 ||
अनुवाद : भगवान् ने कहा – अब मैं तुमसे समस्त ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ इस परम ज्ञान को पुनः कहूँगा, जिसे जान लेने पर समस्त मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की है ।
भगवान मानवता के लिए और पूरे विश्व के लाभ के लिए सर्वोच्च ज्ञान साँझा कर रहे हैं और बता रहे हैं कि किस प्रकार ज्ञान को जानकर ऋषियों ने मुझे प्राप्त किया है, सर्वोच्च पूर्णता, गोलोक वृंदावन को प्राप्त किया। खैर, मैं कहना चाहता था कि यह भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के बारे में विशेष ज्ञान है, यह ज्ञान स्वयं भगवान कृष्ण ने दिया है और श्रीमद्भगवद्गीता में उपलब्ध है। बेशक यह ज्ञान अन्य शास्त्रों में भी मिलता है। कई भारतीय और गैर भारतीय इस ज्ञान से अवगत नहीं हैं, यह कुरान या बाइबिल या किसी अन्य शास्त्र में नहीं मिलता है। जिस स्थिति में भगवान कृष्ण इस सब के बारे में बात कर रहे हैं, वह स्वयं सिद्ध करता है कि, निश्चित रूप से यह बहुत महत्वपूर्ण ज्ञान है। यह ज्ञान वह ठीक कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में कह रहे हैं। मैं इस पर सोच रहा था, एक हैं भगवान कृष्ण और दूसरी हैं माया, मायावी ऊर्जा।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || श्रीमद्भगवद्गीता 7.14 ||
भावार्थ : प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |
माया गुणमयी है, उसके पास कुछ गुण हैं। माया के माध्यम से भगवान कृष्ण भौतिक सृष्टि को नियंत्रित और संचालित करते हैं।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते (श्रीमद्भगवद्गीता 9.10)
अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चार तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
इन तीन गुणों को रस्सियों के रूप में जाना जाता है, प्रत्येक जीव इन 3 रस्सियों द्वारा नियंत्रित होता है जिन्हें अच्छाई, जुनून और अज्ञानता के रूप में जाना जाता है। हम भ्रम के प्रभाव में सोचते हैं कि हम कर्ता हैं लेकिन वास्तव में सब कुछ सर्वोच्च भगवान की इच्छा से किया जाता है। भौतिक प्रकृति के गुणों के माध्यम से भगवान नियंत्रित और संचालित करते हैं, जो सुस्त दिमाग वाले हैं, वे खुद को कर्ता समझते हैं।
चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्मविभागशः |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || श्रीमद्भगवद्गीता 4.13 ||
अनुवाद : भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये | यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्त्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जाना लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र: ये मानव समाज के 4 विभाग हैं और यह जीव में भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के अनुपात के आधार पर निर्धारित किया जाता है। इसी तरह 4 युग हैं: सत्य, द्वापर, त्रेता और कली। सतयुग में ब्राह्मण के समान गुण हैं, त्रेतायुग में क्षत्रिय, द्वापरयुग में वैश्य और कलियुग में सभी शूद्र हैं। युग बदलता है और तदनुसार प्रकृति के तरीके भी बदलते हैं। भौतिक जगत में 3 चीजें होती हैं, निर्माण, रखरखाव और विनाश। इन्हें भी भगवान के गुण अवतारों द्वारा किया जाता है। भगवान विष्णु अच्छाई के भगवान हैं, भगवान ब्रह्मा जुनून के स्वामी हैं और भगवान शिव अज्ञान के स्वामी हैं।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || श्रीमद्भगवद्गीता 14.18 ||
अनुवाद : सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं।
संपूर्ण भौतिक दुनिया को 3 गुणों में विभाजित किया गया है। हालाँकि यह भौतिक दुनिया कुल सृष्टि का 1/4वां हिस्सा है और 3/4 आध्यात्मिक दुनिया है ।
मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || श्रीमद्भगवद्गीता 14.26 ||
अनुवाद : जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है।
उस आध्यात्मिक दुनिया में जाने के लिए व्यक्ति को प्रकृति के इन सभी गुणों को दूर करना होगा और श्रेष्ठता में स्थित होना होगा। हमारे पास तीन मूल रंग हैं: पीला, लाल, नीला और इनके मिश्रण करके हम हजारों रंग बना सकते हैं, मिश्रण में अलग-अलग अनुपात एक नया रंग लाएगा। इसी तरह हम अलग-अलग मूड, विचार और रूप के साथ कई हैं। फिर भी हम एक नया रंग मिला सकते हैं और बना सकते हैं। यह आपके विचारों के लिए भोजन है।
हरे कृष्ण ।।
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*जप चर्चा*
*15 -12 -2021*
*सोलापुर धाम से*
हरे कृष्ण !
आज 1000 एक आईडी से और दूसरी आईडी से 30 अर्थात 1030 स्थानों से भक्त इस जप में सम्मिलित हैं, जिसमें सोलापुर के भक्त भी हैं। संभावना है कि सोलापुर में सबसे अधिक भक्तों की संख्या है। गीता जयंती महोत्सव की जय ! ओम नमो भगवते वासुदेवाय ! वासुदेव को नमस्कार ! वासुदेव यदि समक्ष हैं तो हम नमस्कार कर सकते हैं लेकिन मन ही मन में हमें स्मरण करना होगा उनके रूप का स्मरण ताकि वे प्रकट हो जाएं, हमको देखें ताकि हम नमस्कार भी कर सकते हैं और आगे जो भी करना है जो शिकायत है या कोई निवेदन है। कृष्ण ने गीता का उपदेश कल सुनाया, फिर कहना होगा , हे कृष्ण ! करुणा सिंधु भगवान की करुणा का ही फल करुणास्वरूप, यह करुणा नहीं तो क्या है। हे कृष्ण करुणा सिंधु संभवामि युगे युगे,
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
जब भगवान इस जगत में आए हम पर कृपा करने के लिए, यदि भगवान कृपालु नहीं होते तो फिर भगवान अपनी लीला बैकुंठ में गोलोक में जारी रखते और हम यहीं के यहीं मरते रह जाते। किंतु भगवान भूलते नहीं, उन्होंने कहा है भगवत गीता में,
*मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्र्वतम् | नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 8.15)
अनुवाद- मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है |
जिस जगत में तुम हो हे जीवो ! हे जीवो ! हे जीव ! वह कैसा है? दुःखालय है और अशास्वत भी हैं। अर्थात तुम दुखी हो भगवान जानते हैं कि नहीं? हम दुखी हैं करके
*वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन |भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्र्चन ||* ( श्रीमद्भगवद्गीता 7.26)
अनुवाद- हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता |
कृष्ण ने भी कहा था और हमने भी कहा था कल भी और दीक्षा समारोह में भी कह रहे थे। मैं जानता हूं मैं बहुत कुछ जानता हूं और मैं सब कुछ जानता हूं आप किस परिस्थिति से गुजर रहे हो उसे मैं जानता हूं आपको छप्पर फाड़ के कुछ मिला या कुछ दिया, समझते हो, उसको भी मैं जानता हूं और आपका दिवाला निकल गया उसको भी मैं जानता हूं हरि हरि! इस लाभ और हानि के बीच में, इस परिस्थिति में तुम पिसे जा रहे हो, इसको भी मैं जानता हूं। ऐसे जानकार कृष्ण, ऐसे कई विचार फिर उससे कई और विचार ऐसे कई विचारों से एक विचार बनता है और दूसरा जो कहा, वह विचार और अन्य विचारों का कारण बनता है।
दूसरे विचार से तीसरे, चौथे ऐसे विचार, तो कृष्ण करुणा सिंधु हैं इसको समझा रहे थे, आप स्वीकार करोगे कि नहीं कि कृष्ण करुणा सिंधु हैं। अगर हैं तो फिर आप कृष्ण को समझ गए कृष्ण का आपको साक्षात्कार हुआ। हल्का सा और स्वीकार भी कर लिया आपने पूर्ण श्रद्धा के साथ भी नहीं, किन्तु मान तो लिया। यदि हम इतना भगवान को समझ गए, गीता का उन्होंने उपदेश सुनाया और गीता का उपदेश सुनाना, यह भी भगवान की एक लीला ही है। वैसे रास क्रीड़ा तो लीला है माखन चोरी वह भी एक लीला है। लेकिन फिर भगवान युद्ध खेल रहे हैं युद्ध के मैदान में हैं वह लीला है कि नहीं ? वह भी लीला ही है या भगवान सृष्टि करते हैं। श्रीमद्भागवतम के तृतीय स्कंध में सृष्टि कर्ता कौन हैं वैसे भगवान ही हैं भगवान शुरुआत करते हैं और फिर ब्रह्मा को हैंडोवर करते हैं कि अब आगे का काम आगे का कंस्ट्रक्शन तुम करो। यह सारा मटेरियल है कंस्ट्रक्शन, रेत है सरिया है यह है वह है, भगवान सप्लाई करते हैं और कंस्ट्रक्शन कैसे करना है यह बताते हैं और फिर कहते हैं आगे तुम सृष्टि करो वही करना है।
भगवान की सृष्टि उत्पत्ति लालन पालन करना वह भी भगवान की लीला है। सृष्टि उत्पत्ति और फिर क्या होगा, क्या बच गया संहार, यह भगवान की लीला है। फिर वह केवल शंकर भगवान ही नहीं करते, वे संकर्षण भगवान की मदद से करते हैं और फिर संकर्षण भगवान से शंकर, शिव शंकर सदाशिव, संकर्षण भगवान के भक्त हैं। संकर्षण भगवान की आराधना करते हैं। ध्यान करते हैं आपने देखा है ध्यानस्थ शिव जी को? आपने देखा है उनके हाथ में माला भी होती है और ध्यान कर रहे हैं। वह खुद का ध्यान कर रहे हैं क्या? ध्यान किसी और का करना होता है तो शिवजी भी ध्यान करते हैं संकर्षण भगवान का, उनसे कृपा याचना करते हैं ताकि वे शिवजी को समर्थ बना दें संहार की जो लीला है। सृष्टि की उत्पत्ति संहार यह भी एक लीला ही है। कृष्ण की वृंदावन की मधुर लीला, वह लीला है ही किंतु युद्ध लीला, नही हो सकती है ऐसा हम सोचते हैं यह भी लीला ही है। वैसे लीला के अलावा भगवान और कुछ करते ही नहीं, जो भी करते हैं उसको क्या कहना होगा लीला है।
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद – हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
कृष्ण ने कहा, कल भी कहा गीता में, मेरा जन्म लेना भी लीला है हम जब जन्म लेते हैं तो हमारी लीला नहीं होती।
श्रीभगवानुवाच
*कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये ।खियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ॥* (श्रीमदभागवतम ३. ३१. १)
भगवान् ने कहा : परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव ( आत्मा ) को पुरुष के वीर्य के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है
*पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् | कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता १३. २२ )
अनुवाद- इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है | यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है | इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं |
हमको जन्म लेना ही पड़ता है चॉइस नहीं है “कर्मणा दैवनेत्रेण” हमारे कर्मों के अनुसार हमको जन्म दिया जाता है। लेना ही होता है।
*न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा | इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता ४. १४)
अनुवाद- मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ | जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह कभी भी कर्मों के पाश में नहीं बँधता |
कृष्ण ने कल भी कहा, भगवान जब कर्म करते हैं तब उसको लीला कहते हैं और वह कर्म जिसको लीला कहते हैं। *न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले* वह कर्म क्रिया या लीलाएं हमें लिप्त नहीं करती उसका कोई कर्म हमें भोगना नहीं पड़ता। यह अंतर हुआ हमारे कर्म में और भगवान के कर्म में, हमारे कर्म का फल है, बुरा भी हो सकता है भला भी हो सकता है लेकिन भगवान के कर्म के एक्शन की होती है रिएक्शन, एवरी एक्शन हैज ए रिएक्शन इक्वल अपोजिट रिएक्शन फिजिक्स वाले भी कहते हैं हमने पढ़ा था विज्ञान पढ़ते थे। किन्तु भगवान के संबंध में ऐसा नहीं है। अर्थात यह जो युद्ध है यह भी भगवान की लीला ही है और दिखाया भी, ग्यारहवें अध्याय में भगवान ने भगवत गीता में, कोई कुछ भी नहीं कर रहा है युद्ध प्रारंभ भी नहीं हुआ है। अर्जुन युद्ध खेलने के लिए तैयार भी नहीं है, भगवान ने विराट रूप में दिखाया क्या हो रहा है सारा जो सैन्य है भागे दौड़े आ रहा है। भगवान ने कुछ किया होगा उसी के साथ लोग दौड़ रहे हैं और फिर स्वाहा ! अग्नि संस्कार हो रहे हैं और फिर जलकर खाक हो रहे हैं। अर्जुन तुम युद्ध करने वाले नहीं हो, मैं कर्ता हूं करने वाला मैं हूं। भगवान ने दिखाया विराट रूप में, भगवान की लीला है कि नहीं ? बैठे-बैठे सब सैन्य आ रहा है उनमें और मुख से ज्वाला भी निकल रही है। कैसे, भगवान के विराट रूप के दांत भी हैं बड़े-बड़े डरावने डरावने और नुकीले और उसमें कई सारे फंस रहे हैं। गर्दन कट रही है, यहां एक्सीडेंट हो रहा है किसी का हाथ, पैर कट गया। भगवान ने थोड़ा चला लिया। आगे मुझे कहना यह था कुरुक्षेत्र में युद्ध हो रहा है। आज डे नंबर टू , कल भी हुआ ना अर्जुन ने फिर 45 मिनट के भाषण के उपरांत क्या कहा ?
अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||* (श्रीमद्भगवद्गीता १८. ७३)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया , आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
“करिष्ये वचनं तव” आप जैसा चाहते हो, मैं समझ गया कि आप चाहते हो , अर्जुन ने पहले सोचा होगा कि मेरे चाहने से ही सभी होता है। क्या ? मैं युद्ध नहीं करूंगा ऐसा मैंने कहा भी और नहीं करूंगा तो युद्ध नहीं होगा, ऐसा अर्जुन ने सोचा होगा लेकिन ऐसा नहीं होगा, वैसा नहीं होता वही होता है जो मंजूरे ख़ुदा होता है। जो मंजूर है वही होगा। हमारे चाहने नहीं चाहने से नहीं , अतः युद्ध भी एक लीला ही है और उस युद्ध में भगवान अपनी लीला अर्जुन के सारथी के रूप में खेल रहे हैं। वे सारथी बने हैं। “पार्थ सारथी” पार्थ के सारथी बने हैं। लेकिन इस संभ्रमित स्थिति में जो मार्गदर्शन की आवश्यकता है वह भगवान ही बताएंगे, भगवान ही चलाएंगे, हां करेंगे भगवान और युद्ध जीतने के लिए जितने भी मदद करेंगे। वैसे सारथी की बहुत बड़ी भूमिका होती है आप कल्पना कर सकते हो की रथ को कैसे हांकना है, किस प्रकार से हांकना है, कैसे उसको मोड़ना है लेफ्ट राइट यू टर्न, ताकि, डरना नहीं अब धनुर्धारी अर्जुन को चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा कुछ नहीं करने वाले हैं 18 दिन, लेकिन शुरुआत में ही जो पहले ही दिन मार्गदर्शन करने की आवश्यकता होती है।
*तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता १०. १०)
अनुवाद- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
*ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते* भगवान ने बुद्धि दी। इस तरह सारा गीता का उपदेश भगवान ने अर्जुन को बुद्धि ही दी है हरि हरि ! और फिर हम कहते आ रहे हैं वैसे अर्जुन कोई बुद्धू नहीं था भगवान ने उसे गीता के संदेश उपदेश समझने के लिए डिक्लेअर किया या घोषणा की। क्या घोषणा थी ?
*स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः | भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता ४. ३)
अनुवाद- आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो |
भक्तोऽसि मे सखा चेति, ये दो बातें कही भगवान ने, तुम मेरे भक्त हो तुम मेरे सखा हो, अर्जुन को गीता का उपदेश सुनाया जा रहा है ताकि कोई व्यक्ति भक्त बने। (व्यक्ति को जीव को या बद्ध जीव को) भक्त बनाने के लिए। भक्त बनाने के उद्देश्य से बद्ध को मुक्त और मुक्त को भक्त बनाने के उद्देश्य से गीता का उपदेश सुनाया है।
*मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता १८. ६५)
अनुवाद- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
यह जो मैंने उपदेश बताया अर्जुन को और अभी सुना ही रहा हूं बिल्कुल अंत में जो बात कही है मेरा स्मरण करो, मेरे भक्त बनो, मद्भक्तो मद्याजी, मेरी आराधना करो मां नमस्कुरु मुझे नमस्कार करो, ऐसा करोगे तो क्या होगा कोई फायदा है कुछ, *मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे* कृष्ण कहते हैं फिर मुझे ही तुम प्राप्त होगे यह बात सत्य है एक बात प्रतिजाने मैं प्रतिज्ञा पूर्वक यह कहता हूं। मन्मना भव मद्भक्तो और तुम मुझे प्रिय हो। इस संसार में केवल अर्जुन ही भगवान को प्रिय है क्या? और भी कोई प्रिय है कि नहीं ? सभी प्रिय हो। तुम भी, सभी तो होंगे, लेकिन व्हाट अबाउट मी ? मेरा क्या ? कृष्ण कह रहे हैं प्रियोऽसि एक एक को संबोधित करते हुए, हर जीव को संबोधित करते हुए, भगवान कह रहे हैं प्रियोऽसि त्वम , त्वं -तुम, असी मतलब है। सरल संस्कृत है कठिन नहीं है। गीता का उपदेश सुनाने के पीछे का उद्देश्य है जीव को पुनः भक्त बनाना है और अपने धाम ले आना है। लेकिन इस गीता का उद्देश्य अभी-अभी देना प्रारंभ किया है तभी भगवान ने घोषणा भी की कि भक्तोऽसि अर्जुन तुम तो भक्त हो, वह भी प्रिय, तुम भक्त हो, भक्त होंगे ऐसा नहीं , तुम अभी भक्त हो। अतः यहाँ भगवान ने कैसे सम्भ्रमित किया अर्जुन को और उसको बद्ध और अभक्त बना दिया। माया से मोहित कराया और फिर ऐसे अर्जुन को गीता का उपदेश सुनाया मतलब हम जैसे इस संसार में होते हैं वैसा ही अर्जुन को बना दिया। वैसे ही विचार वाला अर्जुन और अब देखो, ऐसे उसको मैं अभी गीता का उपदेश सुना रहा हूं। तब अर्जुन ने क्या कहा,
“अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||* (श्रीमद्भगवद्गीता १८. ७३)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ ।
मेरा मोह नष्ट हो गया और भी बहुत कुछ कहा स्थितोऽस्मि और अंत में कहा कॉन्क्लूज़न में कहा, करिष्ये वचनं तव , मैं भक्त हो गया अब मैं आपके आदेश का पालन करूंगा। अब मैं आपका भक्त हूं। मतलब क्या दिखाया भगवत गीता का ऐसा प्रभाव दिखाया, डेमोंसट्रेशन दन एंड नाउ, ऐसे थे अर्जुन और ऐसे के अब कैसे हो गए , यह सब इसी गीता का प्रयोग, किस पर होगा ? हम सब पर तो इसका फाइनल प्रोडक्ट क्या होगा? हम भी भक्त होंगे और हम भी कहेंगे करिष्ये वचनं तव, आपका आदेश (योर विश इज़ माय कमांड) बस आप आदेश करो ओके एक आदेश है।
*यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश ॥*
(चैतन्य चरितामृत 7.128)
अनुवाद:- ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
दूसरे अवतार में, जिनको मिलोगे उनको कहोगे कृष्ण उपदेश करो, मतलब हम इस्कॉन में क्या कहते हैं ? भगवत गीता का वितरण करो और क्या करूं ? कलयुग आ गया *हरेर्नामेव केवलम*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। ।* अभी-अभी आपने कहा था ना कि आप की तैयारी हो चुकी है। कैसी तैयारी करे ? “करिष्ये वचनं तव” हमें आपका उपदेश समझ में आ गया। मतलब क्या? अब हम आपके आदेश का पालन करने के लिए तैयार हैं। मतलब भगवत गीता समझ में आ गई और आगे से जो आदेश होंगे तो उसको फॉलो करो और बहुत कुछ मोटा मोटी कीर्तन, जप करना है और गीता का, भागवत का श्रवण चिंतन, वाचन ठीक है।
निताई गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
14 दिसंबर 2021
पंढरपुर से
1105 भक्त
1100 स्थानो से भक्त आपके साथ और मेरे साथ भी जप कर रहे थे |
हरि बोल |
यही समय है 5200 से भी कुछ साल पहले आज के दिन कृष्ण (कन्हैया लाल तो नहीं कह सकते), पार्थ सारथी ने भागवत गीता सुनाई |
श्री कृष्ण अर्जुन की जय |
श्री कुरुक्षेत्र धाम की जय |
उस दिन की जय |
गीता जयंती की जय |
विजय होने ही वाली है |
BG 18.78
“यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ७८ ||”
अनुवाद
जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
अर्जुन की विजय होने ही वाली है और ये विजय किस लिए होने वाली है?
BG 1.14
“ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || १४ ||”
अनुवाद
दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये |
अर्जुन किनके पक्ष में है? जनार्दन के, कृष्ण के पक्ष में है | आप भी विजयी होना चाहते हो तो किस पक्ष में जाना होगा ?
माया के या कृष्ण के?
कृष्ण के |
आप सभी इस बात को समझ लो |
महाभारत काल्पनिक कथा है या ग्रंथ है या हकीकत है या इतिहास है?
ये इतिहास है | तथ्य है काल्पनिक कथा नहीं है |
सत्य है कल्पना नहीं है | यह स्वयं अनुभव करना चाहते हो तो कुरुक्षेत्र धाम कभी जाइए |
कुरुक्षेत्र धाम की जय |
कुरुक्षेत्र धाम का वट वृक्ष भी साक्षी था |
किसका साक्षी था?
भगवत गीता का |
वटवृक्ष ने कृष्ण और अर्जुन को देखा | वटवृक्ष ने भगवत गीता सुनी , वटवृक्ष अमर हो गया | जब वट वृक्ष अमर हो सकता है, अक्षय हो सकता है तो क्या हम होंगे या नहीं?
इस स्थान पर मेने आर्टिकल भी लिखा है, बैक टू गॉड हेड मे 9 साल पहले कुरुक्षेत्र के संबंध में मैंने लेख भी लिखा है, ऐसा स्मरण हो रहा है | आप उसे पढ़ सकते हैं | मैंने कुरुक्षेत्र की महिमा इस लेख में लिखी है |
आज एकादशी है | उस दिन भी क्या थी? एकादशी ही थी | एकादशी कोई नई बात नहीं है जब से सृष्टि हुई है तब से एकादशी चल ही रही है उस दिन भी एकादशी थी जिस दिन महाभारत का धर्म युद्ध था | आजकल जो युद्ध होते हैं वो धार्मिक नहीं होते है | महाभारत मे तो धर्म की स्थापना करना ही उद्देश्य होता है | आजकल के युद्ध के पीछे तो कुछ और उद्देश्य रहता है |
लेकिन वह युद्ध कैसा था?
धर्म युद्ध था
और धर्म के संस्थापक धर्म संस्थापनार्थाय प्रकट होते है| क्यों?
धर्म संस्थापनार्थाय
मैं धर्म की स्थापना हेतु प्रकट होता हूं |
श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र पहुंचकर आज जब गीता का उपदेश सुनाएंगे उसी के साथ ही वे धर्म की स्थापना करेंगे |
पहला शब्द कौन सा है गीता का — धर्म,
गीता का अंतिम शब्द कौन सा है — मम |
गीता खोल के देखिए 18 अध्याय का पहला श्लोक है पहला शब्द है धर्म अंतिम शब्द है मम |
साथ में कहेंगे तो क्या होगा — मम धर्म |
भगवत गीता क्या है?
मम धर्म |
मेरा धर्म, मेरे द्वारा दिया हुआ धर्म | श्रील प्रभुपाद अंग्रेजी मे धर्म की व्याख्या करते हैं — लॉ ऑफ द लॉर्ड |
धर्म क्या है?
भगवान के दिए गए नियम |
भगवत गीता में जो भगवान ने नियम दिए हुए हैं ,जो यम दिए हैं फिर कहना होगा विधि दी हुई है निषेध दिए हुए हैं यम भी दिए हैं यही है धर्म | भगवत धर्म शास्त्र गीता है | और शस्त्र शास्त्र के अनुसार चलाने होते हैं |
क्या करने के लिए?
युधिष्ठिर महाराज जैसे धर्मराज राज करेंगे, सम्राट होंगे और धर्म की स्थापना करेंगे |
हरि हरि
आज कृष्ण कुरुक्षेत्र में पहुंचे हैं | हमको तो उन्होंने पहले ही पहुंचाया था जब हम कल जप चर्चा कर रहे थे |
आगमन तो सब का पहले ही हो गया है|
BG 1.14
“ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || १४ ||”
अनुवाद
दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये |
शंख ध्वनि इसी समय हो रही थी| सुनाई दे रही है आपको?
BG 1.15
“पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः|
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः || १५ ||”
अनुवाद
भगवान् कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड्र नामक शंख बजाया |
और यही घड़ी है जब कृष्ण वहां अर्जुन को लेके पहुंच रहे है |
BG 1.14
“ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || १४ ||”
अनुवाद
दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये |
कृष्ण घोड़े हाँक रहे हैं, रथ के चालक बने हैं | तो फिर वह समय आ चुका | भगवान ने किसी को बताया नहीं था कि आज प्रात काल में मैं प्रवचन सुनाने वाला हूं | किसी को कोई संकेत नहीं था | संसार में कोई नहीं जानता था कि ये भगवत गीता का प्रवचन भगवान सुनाएंगे और कँहा सुनाएंगे | तो आज के दिन प्रात काल की बात है | धर्म युद्ध प्रातः काल में शुरू होते थे और सांय काल तक चलते थे |
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः ।
पार्थो वत्सः सुधिभोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
“यह गीतोपनीषद, भगवद्गीता, जो समस्त उपनिषदों का सार है, गाय के तुल्य है और ग्वालबाल के रूप में विख्यात भगवान् कृष्ण इस गाय को दुह रहे है । अर्जुन बछड़े के समान है, और सारे विद्वान् तथा शुद्ध भक्त भगवद्गीताके अमृतमय दूध का पान करने वाले हैं ।” (गीता महात्म्य ६)
तो यह जो गीता है यह भगवत गीता है | भगवान का गीत –अंग्रेजी मे इसे “सॉन्ग ऑफ गॉड” कहते हैं |
गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥
चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।”(गीता महात्मय ४)
भगवान के मुखारविंद से यह भगवत गीता जन्म लेने वाली है |
इसी समय जन्म लेना प्रारंभ हुआ था |
हम इतिहास 5000 और कुछ वर्ष पूर्व पीछे जा रहे है |
उसे भूल जाओ या कल्पना करो आप वहां हो या पहुंचे हो |
उस दिन मोक्षदा एकादशी भी व्रत करने वाली है वह भी पहुंची है और श्री कृष्ण ने समभ्रमित मोहित अर्जुन को देखा |
भगवान को दया आई
हम पर कब दया आएगी?
आ रही है या नहीं?
भगवान की दया हो रही है या नहीं?
हरि हरि
आज के दिन मैं तो समझूंगा जरूर कहूंगा भगवत गीता यथारूप को हम प्राप्त किए हैं उसको पढ़ रहे हैं समझ रहे हैं मैं तो कहूंगा यही भगवान की हम सभी के ऊपर कृपा है
किनके ऊपर ऐसी कृपा हुई है?
आप में से किसके ऊपर कृपा हुई है? यहाँ तो कई सारे है, बैठे है| किनको भगवत गीता प्राप्त हुई है और पढ़ते हैं|
लोग सोच रहे हैं मेरे पास है कि नहीं है, गीता है या भागवत है |
लोग गीता भागवत मे अंतर नहीं जानते |
भगवान ने (श्री भगवान उवाच) गीता का उपदेश संदेश अर्जुन को सुनाया
लेकिन वह संदेश किनके लिए था?
मेरे लिए, हमारे लिए
तो भगवान का उद्देश्य सफल हुआ |
अगर हम तक उस दिन का कहा हुआ संदेश उपदेश अगर पहुंचा है तो
BG 18.73
“अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || ७३ ||”
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
भगवत गीता को अर्जुन ने कहा है — यह क्या है?
प्रसाद है
आप तो दूसरे प्रसाद को जानते हो | महाप्रसाद मुँह मे आ रहा है |
लेकिन अर्जुन ने गीता को कहा ये प्रसाद है |
श्रील प्रभुपाद की जय
श्री कृष्ण ने श्रील प्रभुपाद को निमित्त बनाया |
युद्ध खेलने के लिए अर्जुन को निमित्त बनाने जा रहे थे| उन्होंने 11 वे अध्याय में कहा भी
BG 11.33
“तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भाव सव्यसाचिन् || ३३ ||”
अनुवाद
अतःउठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकरसम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं औरहे सव्यसाची! तुम तो युद्ध मेंकेवल निमित्तमात्र हो सकते हो |
हे अर्जुन निमित्त मात्र बनो |
अर्जुन को सब्यसाची कहे अर्जुन तुम सब्यसाची हो
हे अर्जुन निमित्त बनो
मैं चाहता हूँ की तुम मेरी और से युद्ध करो |इसी के साथ यशस्वी बनो |
BG 11.33
“तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भाव सव्यसाचिन् || ३३ ||”
अनुवाद
अतःउठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकरसम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं औरहे सव्यसाची! तुम तो युद्ध मेंकेवल निमित्तमात्र हो सकते हो |
तो हम कह सकते हैं वह कुरुक्षेत्र में अर्जुन को निमित्त बनाये |
तो उसी प्रकार श्रील प्रभुपाद को भगवान निमित्त बनाएं और भगवत गीता का प्रचार प्रसार यथारूप प्रचार प्रसार और फिर प्रभुपाद उस ग्रंथ की रचना भी किये |
गीता तो भगवान की है — भगवत गीता | प्रभुपाद की नहीं है |भगवत गीता है |भगवान की गीता है |लेकिन उसको यथारूप के रूप में पहुंचाने का श्रेय श्रील प्रभुपाद को जाता है तब उस दिन तो गीता का संदेश सुनके एक व्यक्ति भ्रम से मुक्त हुआ –अर्जुन| इसीलिए आज की एकादशी का नाम है मोक्षदा | शब्दों में ध्यान देना चाहिए, शब्दों की और ही नहीं हर अक्षर की और, मोक्षदा मोक्ष देने वाली एकादशी |
उस दिन किसको मोक्ष मिला ?
BG 18.73
“अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || ७३ ||”
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
उस दिन तो अर्जुन भ्रम से मुक्त हुए और फिर श्रील प्रभुपाद ने जो भगवत गीता का प्रकाशन किया और उसके वितरण की योजना बनाई | सबसे अधिक प्रिय बात उन्हें कौन सी होगी — ग्रंथ वितरण |
श्रील प्रभुपाद ने यह भी कहा है कि ग्रंथ ही आधार है और इस प्रकार यह योजना बनाई |
आज के दिन उच्चारण और प्रचार हुआ था |
वही प्रचार भगवत गीता का अब संचार के कोने कोने में पहुंचाने वाले श्रील प्रभुपाद की जय
अब तो जानते ही हो आप हरे कृष्णा दल के सदस्य हो भगवत गीता यथारूप कितनी भाषाओं में प्रकाशित हुई है और कितने देशों में पहुंची है और कितने भक्त बन रहे हैं इन सब का श्रेय प्रभुपाद को जाता है श्रील प्रभुपाद की प्रसन्नता के लिए भगवत गीता का हमें अध्ययन करना चाहिए और क्या करना चाहिए भगवत गीता का वितरण भी करना चाहिए तो फिर कौन कौन प्रसन्न होंगे?
श्रील प्रभुपाद प्रसन्न होंगे |
और कौन प्रसन्न होंगे?
श्री कृष्ण भी प्रसन्न होंगे |
श्री कृष्ण कहे हैं
गीता जयंती महोत्सव की जय श्रीमद भगवत गीता की जय
श्री कृष्ण अर्जुन की जय
श्रील प्रभुपाद की जय
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
13 दिसंबर 2021
हरे कृष्ण..!
हरि बोल..!
गीता जयंती महोत्सव कि जय..!
आज 1024 स्थानों से भक्त जप चर्चा में भाग ले रहे हैं।
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय..!
गीता का जन्म तो कल होगा,आप सब सर्वत्र कुरुक्षेत्र का समाचार,कुरुक्षेत्र से समाचार, ब्रेकिंग द न्यूज़ सुन रहे हैं, पंढरपुर में भी सुन रहे हैं ,प्रभुपाद कह रहे हैं कि यही तो युद्ध हुआ था। 1970 कि बात हैं, जब प्रभुपाद रेल से अपने विदेशी शिष्यों के साथ अमृतसर से दिल्ली जा रहे थे और जब ट्रेन कुरुक्षेत्र के स्टेशन पर रुकी तब प्रभुपाद में उंगली करके दिखाया था कि वहां पर
“धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 1.1)
अनुवाद: -धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
यहां पर युद्ध हुआ,कुरुक्षेत्र धाम में और फिर ऐसा विश्वास, पक्का विश्वास था श्रील प्रभुपाद का कि महाभारत के इतिहास कि एक विशिष्ट घटना यहां कुरुक्षेत्र में घटी थीं।ऐसा विश्वास अधिकतर ही लोगों में नहीं हैं,लोगो का कहना हैं कि यह सब माइथोलॉजी हैं या काल्पनिक हैं या फिर फेयरी टेल। ऐसा ही प्रचार अंग्रेजों ने शुरू किया और अब तक हम मुंडी हिलाते हुए हां हां माइथोलॉजी हां हां।यहां तक कि महात्मा गांधी,अरे कहां के महात्मा, कैसे कहा जाए उनको महात्मा? उनका विश्वास नहीं था कि कृष्ण सचमुच कुरुक्षेत्र में पहुंचे थे और “श्री भगवान उवाच” वहा हुआ। “मेरे सत्य के साथ के प्रयोग” ऐसे शीर्षक वाली,किताब महात्मा गांधी ने लिखी हैं। उसमें वे लिखते हैं कि मेरा विश्वास नहीं हैं, मैं इस बात को स्वीकार नहीं करता कि कृष्ण थे ।
भगवद्गीता 1.21-22
“अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेऽच्युत |
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् || २१ ||
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता1.21-22)
अनुवाद: -अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ |
यह सब हुआ,मेरा रथ खड़ा करो, सेनाओं के बीच में और फिर आगे जो भी हुआ, वह नहीं हुआ ऐसे लोगों से जब हम गीता को सुनते हैं या गीता के रहस्य को सुनते हैं,जिनका विश्वास ही नहीं हैं, इस इतिहास में कि कृष्ण सचमुच वहां थें।गीता तो श्री कृष्ण कल कहेंगे।
गीता जयंती महोत्सव कि जय..!
गीता का जन्म कल होगा।आज अराइवल डे हैं, वैसे कई दिनों से अराइवल चल रहा हैं,चल रहा था।याद रखिए ये विश्वयुद्ध होने जा रहा हैं। महाभारत का जो युद्ध संपन्न हुआ वह विश्वयुद्ध था।सारे विश्व के राजा, महाराजा और सैनिक वहां पहुंचे थे। 18 अक्षयोनि सेना,11 अक्षयोनि सेना कौरवो कि और से ,7 अक्षयोनि सेना पांडवों कि ओर से,तो 18 अक्षयोनि सेना हुईं। यह अट्ठारह का कुछ खेल हैं। महाभारत में 18 पर्व है और यह युद्ध भी 18 दिन तक चलने वाला हैं और 18 अक्षयोनि सेना भी वहां पहुंच रही है और भगवत गीता भी 18 अध्याय मे श्रीकृष्ण सुनाने वाले हैं। 18-18-18 ध्यान रखिए और यह सत्य हैं, वास्तविक हैं तो फिर कल के गीता जयंती के दिन भगवान ने
“श्री भगवान उवाच” ये गीता की महिमा हैं “श्री भगवान उवाच”, कौन उवाच ? “श्री भगवान उवाच” गीता का महात्म्य, कितनी महान हैं, यह गीता। क्या हैं गीता का महात्म्य? श्री भगवान उवाच बस हो गया।महात्म्य अगर जानना चाहते हो तो भगवान ने कहा या भगवान ने कही गीता
गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥
(गीता महात्मय ४)
अनुवाद:-चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।”
गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः ।
क्या आवश्यकता है जब गीता उपलब्ध हैं। एक शास्त्र पर्याप्त हैं।
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् ।
एको देवो देवकीपुत्र एव ।।
एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि।
कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।
(गीता महात्म्य ७)
अनुवाद:-“आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा ।”
गीता की महिमा उतनी ही हैं, जितनी भगवान श्री कृष्ण की महीमा हैं। किसने कहा? किसी बदमाश ने कहा? या किसी अंधे ने कहा कि सूर्य नहीं हैं, किसने कहा अंधे ने कहा तो इसने कहा, कहने वाला कौन हैं, इसके ऊपर निर्भर रहता हैं। वह जो कही हुई बातें हैं,उसकी कीमत, उसकी महिमा, उसका महत्व, उसकी उपयोगिता हम समझ सकते हैं। वक्ता कौन हैं? कौन कहने वाला है? यहाँ श्री भगवान उवाच” चल रहा हैं। हरि हरि!
अगर हम सुनेंगे और श्रद्धा पुर्वक उसको स्वीकार करेंगें।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.39)
अनुवाद: – जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरंत आध्यात्मिक शांति को प्राप्त होता हैं।
ऐसे भगवत गीता में कहा हैं कि अगर विश्वास हैं तो श्रद्धा से सुनो और फिर ज्ञानवान बनोगे और गुणवान भी बनोगे और फिर भक्तिवान भी बनोगे, अगर श्रद्धावान हो तो श्रद्धा से सुनो। महात्मा गांधी का विश्वास नहीं था कि भगवान वहां पर पहुंचे थे कि नहीं, उन्होंने गीता कहीं कि नहीं, इसमें विश्वास नहीं हैं तो फिर उन्कि कही हुई बातों में हम क्यों विश्वास रखेंगे ! मनोधर्म,हरि हरि!
यह गीता का उपदेश किसी को पता नहीं हैं कि कल गीता जयंती के दिन जयंती मतलब जन्म।इस गीता के जन्मदाता स्वयं भगवान कृष्ण हैं ।”कृष्णस्तु भगवान स्वयं” स्वयं भगवान इस गीता को जन्म देने वाले हैं और जन्म कहां से होगा?मुख से होगा ।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्मव्दिनि:सृता।।
भगवान अपने मुख से किसी को जन्म दे सकते हैं। जैसे गीता को जन्म दे रहे हैं। मुखारविंद से गीता का जन्म हुआ। गीता के जन्मदाता कृष्ण हैं। हरि हरि! और अगर हम सुनते हैं फिर मानते हैं, समझते हैं,यह कृष्ण कौन है? भगवान कौन है? फिर मानना पड़ेगा ना! जब कृष्ण कहते हैं 4 अध्याय में
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
ऐसा संवाद हो रहा हैं।संवाद के अंतर्गत श्री कृष्ण अर्जुन को यह गीता का संदेश,उपदेश सुना रहे हैं।इस गीता को गीतोपनिषद भी कहा गया हैं। श्रीमद् भगवद् गीतासु उपनीषदसु ब्रम्हविद्यायाम
ऐसे भगवत गीता में लिखा होता हैं, हर अध्याय में, गीतोपनिषद,उपनिषद में क्या होता है? एक शिक्षक, आचार्य अपने शिष्यों को साथ लाता हैं, बिठाता हैं और उसको सुनाता हैं, ‘उप’ मतलब पास ‘नी’ मतलब विनम्र होकर ‘षद’ मतलब बैठो और फिर होगा संवाद और जो 108 उपनिषद हैं और भी हैं। प्रधान तो 108 बताए गए हैं।उन सभी में गुरु शिष्य का संवाद हैं। गुरु शिष्य परंपरा में, यहां तो श्री कृष्ण ही आचार्य बनने वाले हैं।
“कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.7)
अनुवाद: -अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |
ऐसी गीता की शुरुआत होने वाली हैं। अर्जुन स्वीकार करने वाले हैं, जिससे मैं हूं “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्”।
मैं हूं आपका शिष्य।मैं जो आपकी शरण में आ रहा हूं ‘शाधि’आप मुझे उपदेश दीजिए।
मैं जो प्रपन्ना अर्थात आपकी शरण में आ रहा हूं, त्वम शाधि या भवान शाधि, आप मुझे आदेश या उपदेश दीजिए।तो यहां टीम बनी हैं और कहा भी जाता हैं, गुरु हो तो कृष्ण जैसा और शिष्य हो तो अर्जुन जैसा, तो जोड़ी ऐसी होनी चाहिए।उपनिषदों में ऐसे संवाद का वर्णन हैं, गीता जयंती के प्रातः काल में ही यह संवाद प्रारंभ होता हैं, इनकी माया तो अद्भुत हैं, किसने ऐसा सोचा होगा कि यहां तो युद्ध होने जा रहा हैं और कृष्ण की सेटिंग देखिए,ही इज सेटिंग द सीन, पूरा मंच तैयार हैं और मंच किसके लिए तैयार हैं? युद्ध के लिए तैयार हैं
भगवद्गीता 1.1
“धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||”
अनुवाद
धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
युद्ध भूमि में क्या हो रहा हैं,युद्ध कैसे हो रहा हैं? युद्ध कैसे आगे बढ़ रहा हैं? कैसे युद्ध भूमि में अब श्री कृष्ण प्रवचन सुनाने वाले हैं।
या युद्ध में जो भी हो रहा हैं,यह इस लोक से परे हैं। जो यह परिस्थिति हैं उसके परे पहुंचकर भगवान ने अपना एक अलग जगत निर्माण किया हैं, जिसमें केवल कृष्ण हैं और अर्जुन हैं और उसके अलावा मानो कुछ भी नहीं हैं और होगा भी तो उसकी परवाह नहीं हैं। जैसे कि आसपास के वातावरण को पूरी तरह भुला दिया जाए, मतलब गुनातीत या उस परिस्थिति के अतीत या द्वंद्वातीत,युद्ध मतलब द्वंद भी होता हैं युद्ध स्थली में यह संवाद होने जा रहा हैं और अर्जुन इस संसार के बद्ध जीवो का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं या भगवान ने अर्जुन का डिमोशन किया।एक होता हैं प्रमोशन और दूसरा डिमोशन, क्योंकि वैसे तो अर्जुन भक्त हैं। यह प्रमोशन हैं, भक्त होना एक प्रमोशन हैं।
भगवद्गीता 4.3
“स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् || ३ ||”
अनुवाद
आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो |
उनको डिमोट किया मतलब अर्जुन मायातीत थे और उन पर माया का प्रभाव डाल दिया गया
उन्हें माया के अधीन कर दिया गया, मानो भगवान ने कोई छू मंत्र फूंक दिया और इसी के साथ अर्जुन की स्थिति डांवाडोल हो चुकी हैं। यह कल भी कह रहे थे कि जब अर्जुन वहां पहुंचे थे,तो कितना जोश था उनमें, उनका खून खोल रहा था।मेरे साथ और कोई युद्ध करना चाहता हैं, दिखा दो वह कौन हैं? आगे बढ़ाओ मेरे रथ को, अर्जुन का यह जोश था लेकिन भगवान के हाथ में ही सब की चाबी हैं। मेरी डोरी तेरे हाथ, हमारी डोरी उनके हाथों में हैं। वह हमको नचा भी सकते हैं।यहां अर्जुन के भावो में, विचारों में, उनके निश्चय में, उत्साह, निश्चित,धैर्य नहीं रहा
उपदेशामृत 3
उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् ।
सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद
भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना
शुद्ध
(२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कम
करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्–कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना)
(५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये
छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
उत्साह नहीं रहा, वह निरउत्साही हो गए।उनमें धैर्य नहीं रहा और जब उन्होंने देखा कि उन्हें किन के साथ युद्ध करना हैं तो कल जैसे मैं बता रहा था
भगवद्गीता 2.9
“सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह || ९ ||”
अनुवाद
संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया | |
अर्जुन ने कहा कि मैं युद्ध नहीं करूंगा,यह डिमोशन हुआ ना। इतने शूरवीर जो कि अपने वीरता का प्रदर्शन करने वहां धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में पहुंचे थे और धर्म युद्ध खेलने वाले थे और डिमोशन हो गया।अब खेलना ही नहीं चाहते थे।
भगवान ने अर्जुन को एक मायावी अथवा माया से प्रभावित या समभ्रमित कर दिया। अहम मम: से प्रभावित किया और अब अर्जुन इस संसार के बध जीवो का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं,जैसे इस संसार के लोग बातें करते रहते हैं, वैसे ही बातें अर्जुन करने वाले हैं। ऐसे सवाल अर्जुन पूछने वाले हैं ,अपनी शंका का व्यक्त करने वाले हैं।
BG 3.36
“अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ३६ ||”
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो |
अर्जुन ने मुख्य रूप से 16 प्रश्न पूछे और उसके उत्तर स्वयं श्री भगवान उवाच दे रहे हैं और फिर विश्वरूप भी दिखाया है पहले तो 10 अध्याय में मैं यह हूं मैं वह हूं अपने ऐश्वर्या बताएं
BG 10.25
“महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः || २५ ||”
अनुवाद
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ |
सारी नदियों में मैं गंगा हूं,इत्यादि इत्यादि।कृष्ण अपनी विभूतियां बता रहे हैं और विभूति योग की बातें करते हैं और अब अर्जुन उनका दर्शन करना चाहते हैं।अर्जुन ऐसा कह रहे हैं कि आपने कह तो दिया पर अब मुझे दिखा दो तो फिर भगवान ने अपने विश्व रूप में अपना सारा वैभव दिखाया हैं। ग्यारहवें अध्याय में भगवान ने दिखाया हैं। क्या ऐसा कोई कर सकता हैं?कई सारे तथाकथित भगवान गलियों में घूमते रहते हैं।भारत की गलियों में ऐसे कई सारे भगवान घूमते रहते हैं,उनको कहो कि दिखाओ अपना विश्वरूप,क्या आज तक किसी ने दिखाया हैं। कृष्ण ने विश्व रूप दिखाया और विश्व रूप में भविष्य भी दिखाया कि अगले 18 दिनों में क्या होने वाला हैं।
वैसे करने वाला करता तो मैं ही हूं और इस युद्ध को चाहने वाला भी मैं ही हूं। मैं चाहता हूं कि युद्ध करो।कृष्ण ने प्रयास तो किए थे।वह स्वयं गए थे दूत बनकर कि पांडवों को उनका राज्य लौटा दो। यह उनका हक हैं। चलो सारा नहीं तो कम से कम पांच पांडवों का एक-एक गांव तो दे दो, 5 गांव तो दे दो किंतु यह कौरव तो बहुत स्वार्थी थे।उन्होंने कहा कि 5 गांव तो बहुत बड़े होते हैं, सुई की नोक जितना क्षेत्र भी नहीं देंगे। कृष्ण ने अपनी तरफ से प्रयास तो किया था कि कुछ समझोता हो जाए लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो युद्ध ही पर्याय था तो यह युद्ध भगवान की इच्छा था,मैं चाहता हूं कि युद्ध हो। तुम कौन हो,अगर मैं चाहता हूं युद्ध हो तो युद्ध होगा। तुम्हारे कहने से क्या होगा।मैं चाहता हूं कि युद्ध हो,इसलिए अर्जुन उठो निमित्त बनो,हे सव्यसाची
भगवद्गीता 11.33
“तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भाव सव्यसाचिन् || ३३ ||”
अनुवाद
अतःउठो! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीत कर सम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हों।|
भगवान स्मरण दिला रहे हैं कि तुम ऐसे बढ़िया सर्वोत्तम धनुर्धारी हो, तुम सव्यसाची हो, तुम तो बाय या दाएं किसी भी हाथ से धनुष चला सकते हो, आमतौर पर जो बान होता हैं वह बाएं हाथ से ही चलाया जाता हैं, लेकिन अर्जुन तो इतने कुशल थे कि दाएं बाएं किसी भी हाथ से धनुष चला सकते थे। भगवान अर्जुन को याद दिला रहे हैं कि तुम तो दोनों हाथ से धनुष चला सकते हो, निमित्त बनो, हे सव्यसाची! और यशस्वी हो जाओ। यश को प्राप्त करो। यश तो मिलेगा ही मिलेगा। गीता के अंत में स्वयं संजय ही कहने वाले हैं कि किसकी जीत होती हैं?
भगवद्गीता 18.78
“यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ७८ ||”
अनुवाद
जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
जहां कृष्ण और अर्जुन होते हैं,वहा विजय होती हैं या जहां धर्म होता हैं, वहां विजय होती हैं। तो कृष्ण कह रहे हैं कि यश को प्राप्त करो।हरि हरि।इस प्रकार कृष्ण बोलते जा रहे हैं और संवाद आगे बढ़ रहा हैं और इस संवाद को पूरा किया और ज्यादा समय भी नहीं लिया। जिस प्रकार मैंने आज आपको जपा टॉक सुनाया हैं ना, आधा घंटा इससे थोड़ा ही ज्यादा।अगर मेरे पास थोड़ा और समय होता, 7:30 बजे तक का तो मैं 45 मिनट के लिए बोलता। इतने ही समय में भगवद्गीता कही गई हैं। केवल 45 मिनट में भगवान ने इस संवाद को पूरा किया हैं और 45 मिनट में ही अर्जुन कृष्ण भावनाभावित बन गए। भगवद् साक्षात्कार हुआ और अर्जुन एकदम तैयार हो गए।
भगवद्गीता 18.73
“अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || ७३ ||”
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
आप भी आधे पौने घंटे से सुन रहे हो, तो क्या आप भी तैयार हो? तैयार हो तो भाषण यही बंद करेंगे और तैयार नहीं हो तो भाषण को आगे बढ़ाना होगा। चलो आप कह तो रहे हो कि आप तैयार हो। ठीक हैं। बहुत अच्छे। मैंने बहुत अच्छे से अपना काम किया। ठीक हैं। कल आगे बात करते हैं, अगर आवश्यकता हुई तो। गीता जयंती महोत्सव की जय।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*12 दिसंबर 2021*
हरे कृष्ण ! आज 1022 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। हरे कृष्ण। हरि बोल। हमारे पास दो आईडी है। पद्ममली आपको जपा टॉक के अंत में बताएंगे। एक आईडी में 1000 भक्त जुड़े हैं और दूसरी आईडी में 22 भक्त जुड़े हैं। आपका स्वागत है। हम प्रसन्न हैं कि आप हमारे साथ हो। हमारे जब मैं यहां कह रहा हूं तो मैं और जप कर्ता भक्त हैं उन्हीं का उल्लेख नहीं होता है। आप हमारे साथ हो, मैं जोड़ना चाहूंगा कि आप भगवान के साथ हो। आप यहां हो तो मतलब आप भगवान के साथ हो।
इस कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित हो, आप कृष्ण से मिल रहे हो। आप भगवान के साथ हो। भगवान कभी अकेले नहीं होते। आप भगवान के भक्तों के, बस भगवान का नाम कृष्ण है। तो आप कृष्ण के साथ हो। ऐसे साथ के लिए आपका धन्यवाद है। हम अपना हर्ष भी व्यक्त कर रहे हैं। भगवान यहां पर हमें हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, अपने नाम के रूप में संघ देते हैं और दर्शन भी देते हैं। इस नाम उच्चारण का उद्देश्य भगवान का दर्शन भी करना है एक दिन। वह हमें 1 दिन दर्शन देंगे। कब होगा वह दिन।
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।*
*यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।*
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
*अनुवाद :* जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
विलोकयन्ति मतलब देखते हैं। भगवान के भक्त भगवान को जप करते समय भी देखते हैं। ऐसा है यह अफसर, यह जपा कॉन्फ्रेंस और जपा टॉक का यह अफसर है। अब गीता जयंती दूर नहीं है सिर्फ 2 दिन बाकी है। इन 2 दिनों में मोक्षदा एकादशी आएगी। एकादशी आ रही है। तो एकादशी के दिन, एकादशी के साथ श्रीकृष्ण भी आ रहे हैं और अर्जुन को साथ लेकर आएंगे। कृष्ण अर्जुन के सारथी बनेंगे पार्थ सारथी।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेऽच्युत |
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् || २१ ||
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे || २२ ||
(श्रीमद भगवत गीता यथारूप 1.21–22)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ |
वह आएंगे और अर्जुन की इच्छा और लगभग आदेश ही कहो। कृष्ण केवल चालक हैं और रथ के मालिक तो अर्जुन ही है। अर्जुन है रथी और कृष्ण है सारथी। आप समझते हो। हम इन शब्दों को समझ सकते हैं, रथी और सारथी – स रथी। रथ पर जो विराजमान है या जो रथ का स्वामी है उन्हे रथी कहते हैं और दूसरा शब्द है और दूसरा नाम भी है सारथी। सारथी मतलब रथी के साथ – स रथी। अर्जुन रथी है और इस रथी के साथ हैं सारथी श्रीकृष्ण। तो कृष्ण का ऐसा पद है। वह रथ के चालक हैं। अर्जुन ने उनको आदेश भी दिया है। *सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य* दोनों सेनाएं वहां पर पहुंची है।
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.1)
अनुवाद:
धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
धृतराष्ट्र कहे है *मामकाः* मेरे पुत्रों की सेना और *पाण्डवाश्र्चैव* मेरे भ्राताश्री पांडु के पुत्रों की सेना भी वहां पहुंची हैं। दो सेनाएं है पांडवों की और कौरवों की सेनाएं वहां पर पहुंची है। अर्जुन को जैसे सारथी श्रीकृष्ण रण आंगन में ले आए है। रण मतलब युद्ध और आंगन जहां युद्ध खेलेंगे। यह एक प्रकार का खेल ही है। जैसे कुश्ती के जंगी मैदान में पहलवान कुश्ती खेलते हैं। यह भी एक प्रकार का खेल है। युद्ध खेलेंगे, इस खेल के मैदान में या युद्ध के मैदान में रण आंगन करेंगे। श्रीकृष्ण अर्जुन को ले आए।
ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || १४ ||
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 1.14)
अनुवाद:
दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये |
यह सब महाभारत है। तो भगवत गीता महाभारत का एक अंग है। मैं कहने जा रहा था छोटा अंग है। आकार की दृष्टि से छोटा है क्योंकि महाभारत में 100000 श्लोक हैं। एक लाख श्लोक श्रील व्यासदेव लिखे है। उन 100000 श्लोकों में भगवत गीता के केवल 700 श्लोक ही है। जो बड़ा हिस्सा नहीं है। महाभारत के जो अट्ठारह पर्व है। यह सब कब कहेंगे और थोड़े समय में कैसे कहेंगे। 18 पर्वों में से एक है भीष्म पर्व और भीष्म पर्व के 18 अध्याय भगवद गीता के है। महाभारत इतिहास है। रामायण महाभारत को इतिहास कहा है। वैसे कुछ इतिहास पुराणों में भी है।
इतिहास जब कहते हैं तो यह दो बड़े प्रसिद्ध है। रामायण की रचना वाल्मीकि मुनि ने की और महाभारत स्वयं श्रील व्यासदेव भगवान के शक्त्यावेश अवतार ने यह इतिहास लिखा। इति हास, इतिहास 3 शब्दों से बना है – इति, ह और आस। इति मतलब ऐसा हुआ और वैसा हुआ। शास्त्रों में नेति नेति नेति होता है। फिर इति, इति, इति होता है। ऐसा नहीं है ऐसा नहीं है ऐसा नहीं है मतलब ना इति ना इति ना इति। फिर इति इति इति, ऐसा हुआ या ऐसी घटनाएं घटी, तो इति ही हास। तो महाभारत इतिहास है। सचमुच में घटी हुई घटनाओं का वर्णन है इसीलिए इसको इतिहास कहते हैं। यह काल्पनिक नहीं है यह सच है इतिहास है।
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 11 दिसम्बर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फेंस में एक हजार स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं।हरिबोल! महामुनि! और बाकी सब भी क्या आप थोड़ी चर्चा के लिए तैयार हो? अभी हम आपको दिखा रहे थे कि जब हम एक हजार प्रतिभागी कहते हैं तो प्रतिभागी तो अधिक होते हैं। कई स्थानों पर एक एक ही होते हैं लेकिन मैं देख रहा हूँ कि किसी किसी स्थान पर दो-दो भक्त भी बैठे हैं। और कहीं पर जॉइंट फैमिली ( संयुक्त परिवार) भी जप कर रहे हैं। कहीं पर हमारे बेस के पांच, दस या बीस भक्त मिलकर भी जप करते हैं व हमारे मंदिरों के 50 या 100 भक्त भी एक साथ जप करते हुए दिख रहे हैं। कुछ दिनों से हम आपको दिखा रहे थे।
यह नहीं समझना कि आप अकेले ही हो। मैं अकेला ही पागल हूं जो जप कर रहा हूं, अन्य भी कई सारे पगले बाबा इस संसार में हैं। हरि नाम में हमारा विश्वास बढ़ता है, जब हम देखते हैं कि और ( दूसरे) भी जप कर रहे हैं। केवल भारत के ही भक्त या मनुष्य ही नहीं या थाईलैंड या मॉरीशस इस लैंड के, उस लैंड से अन्य भी जप कर रहे हैं। हरि नाम में हमारी श्रद्धा बढ़ती है। हम जो जप कर रहे हैं, यह सही है। सही होना चाहिए, कई सारे लोग जप कर रहे हैं। सर्वत्र जप हो रहा है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हम जप को सुनते हैं, हम हरे कृष्ण महामंत्र को सुनते हैं। मुझे गोपियों की याद आ रही थी। जब गोपियां श्री कृष्ण के वेणु नाद को सुनती हैं तब गोपियों ने कई सारी बातें कही हैं। श्रीमद्भागवतं के दसवें स्कंध में 21 वां अध्याय है, इसमें गोपियों के भाव स्पष्ट व प्रकट हैं। जब कृष्ण मुरली बजाते हैं और गोपियां सुनती हैं तब ब्रज में सर्वत्र खलबली मच जाती है। देखो! देखो! कृष्ण मुरली बजा रहे हैं। गोपियां मुरली की नाद को सुन तो रही हैं लेकिन उनको कृष्ण याद आते हैं अर्थात गोपियों को, कृष्ण की यादें सताती हैं। जब गोपियाँ भगवान की मुरली की नाद को सुनती हैं तब जो भी सामने है, गोपियां उनको गले लगाती हैं। वे कृष्ण के संबंध में बहुत कुछ कहना चाहती हैं। किन्तु
*तद्वर्णयितुमारब्धाः स्मरन्तयः कृष्णचेष्टितम्। नाशकन्समरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप।।*
( श्रीमद् भागवतं 10.21.4)
अनुवाद:- गोपियाँ कृष्ण के विषय में बातें करने लगी किन्तु जब उन्होंने कृष्ण के कार्यकलापों का स्मरण किया तो हे राजन, काम ने उनके मनों को विचलित कर दिया जिससे वे कुछ भी न कह पायी।
उनमें जो समरवेगेन या काम का वेग (कही समर और कही काम भी लिखा होता है जैसे वृंदावन में काम वन लिखा हुआ है। यह काम वन नहीं है, यह प्रेम वन है। वैकुंठ या गोलोक का काम, ‘प्रेम’ ही है।) गोपियाँ जब मुरली की नाद सुनती हैं तब उनमें प्रेम का उद्वेग होता है। बहुत से भाव उदित होते हैं लेकिन कह नहीं पाती। फिर वे कल्पना करती हैं।( यह मनोकल्पना नही है)
इस मुरली की नाद को जब अन्य ब्रजवासी सुनते हैं तब उन पर कैसा प्रभाव पड़ता है, वहीं इस वेणु गीत नाम के अध्याय में उनके कथन, वक्तव्य अथवा चर्चा का विषय है।
गाय जब सुनती हैं, (गोपियां अपना अनुभव या आंखों देखा अनुभव भी हो सकता है, वह देखती भी होगी)
*गावश्र्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत-पीयूषमुत्तभितर्णपुटैः पिबन्त्यः। शावाः स्नुतस्तनपयः कवलाः स्म तस्थु-र्गोविन्दमात्मनि द्हशाश्रुकलाः स्पृशन्तयः।।*
(श्रीमद् भागवतं १०.२१.१३)
अनुवाद:-
गौवें अपने नलिकारूपी दोनों कानों को उठाये हुए कृष्ण के मुख से निकले वेणुगीत के अमृत का पान कर रही हैं। बछड़े अपने माताओं के गीले स्तनों से निकले दूध को मुख में भरे भरे स्थिर खड़े रहते हैं। जब वे अपने अश्रुपूरित नेत्रों से गोविंद को अपने भीतर ले आते हैं और अपने ह्रदयों में उनका आलिंगन करते हैं।
जब कृष्ण मुखारविंद से वह अधरामृत को मुरली के माध्यम से छिड़काते हैं, व उसको फैलाते हैं तब मुरली की ध्वनि मुरली की नाद दूर-दूर तक पहुंच जाती है। पीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबन्त्यः, अर्थात गोपियां कहती हैं कि गाय जब मुरली की नाद को सुनती हैं, वे अपने कानों को ऊपर उठा लेती हैं। आप जानते हो कि साधारणतया गाय अथवा पशुओं के कान ऐसे नीचे की ओर लटके रहते हैं। वे हिलते रहते हैं। पशुओं अथवा गाय के कान हमारे कान जैसे नहीं होते, हमारे कान तो स्थिर होते हैं। उन्हें हाथ से हिलाना पड़ता है किंतु गाय अपने कान हिला सकती है। विशेष रूप से जब कोई ध्वनि उत्पन्न होती है अथवा आवाज आती है तब वे उसकी ओर अपने कान करती हैं।
गोपियां कह रही हैं कि जब मुरली की नाद का पीयूष अथवा अमृत गाय अपने कानों में धारण करती हैं। तब गाय अपने कानों में धारण करने के लिए अपने कानों को ऊपर उठाती है। अगर ऐसे नीचे रखती तो क्या होता तो वह सारा अमृत नीचे गिर जाता। उस अमृत की एक बूंद भी नीचे ना गिरे इसके लिए वे गाय अपने कानों को ऊपर करती हैं। ऐसा लगता है कि मानो कानों का प्याला बनाती हैं। (आप प्याला जानते हो) अमृत का पान करती रहती है। कर्णपुटैः पिबन्त्यः, पीयूष अर्थात अमृत को पीती रहती हैं।
*शावाः स्नुतस्तनपयः कवलाः स्म तस्थु-र्गोविन्दमात्मनि द्हशाश्रुकलाः स्पृशन्तयः*
वैसे यह अनुभव गायों का है। अब बछड़ों का भी उल्लेख हो रहा है उनको यह मुरली की नाद कैसे प्रभावित करती है। गोपियां अपना अनुभव आगे कह रही हैं कि इस मुरली की नाद को जब बछड़े सुनते हैं , वे बछड़े जो अपनी अपनी माता का दूध पी रहे थे अर्थात उनके मुख में गाय का स्तन है अथवा वे दूध पी रहे थे। इतने में उनको मुरली की नाद सुनाई देती है, तब वे स्तनपान करना बंद करते हैं और उनका मुख जो स्तन के दूध से भरा था, उसको पीना भी भूल जाते हैं। वे स्तब्ध होते हैं। वे बस मुरली को सुनते ही रहते हैं, उनका खान-पान बंद हो जाता है।
*र्गोविन्दमात्मनि द्हशाश्रुकलाः स्पृशन्तयः*
गाय भी और बछड़े भी अपने अंतःकरण में दर्शन करते हैं। वे मुरली की नाद को सुन रहे हैं कि कृष्ण कहीं दूर वन में हैं। यह शरद काल का ही वर्णन हो रहा है ।
मुरली की नाद के श्रवण से वे अपने अंतःकरण में दर्शन करते हैं। जब दर्शन हो रहा है तब वे द्हशाश्रुकलाः स्पृशन्तयः अर्थात आंसू बहाने लगते हैं। बछड़े आंसू बहा रहे हैं। गायों का भी यही हाल है क्योंकि दोनों ही सुन रहे हैं अर्थात गौमाता भी सुन रही है और बछड़े भी सुन रहे हैं और दोनों ही रोमांचित हो रहे हैं। यह लक्षण उनमें दिखाई दे रहे हैं। गाय और बछड़े मन ही मन में दर्शन कर रहे हैं।
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। यं श्यामसुन्दरमचिन्तयगुणस्वरूपंगोविंदमादिपुरूषं तमहं भजामि।।*
( ब्रह्म- संहिता श्लोक ५.३८)
अनुवाद:- जो स्वयं श्यामसुंदर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रञ्जित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अंतरह्रदय में दर्शन करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
इस वचन में ब्रह्मा जी, संतो की बात कर रहे हैं किन्तु वृंदावन के गाय और बछड़े कुछ कम संत नहीं है। वे भी संत हैं, वे भी महात्मा है। वैसे वृंदावन के गाय, बछड़े, पशु ,चराचर सभी व्यक्ति हैं, सभी संत हैं, सभी भक्त हैं। यह इन गायों का वात्सल्य है। वात्सल्य रस में गाय कृष्ण को अपना बछड़ा समझती है और कृष्ण से उनका वैसा ही प्रेम है। जैसे वह अपने बछड़े से प्रेम करती हैं। कृष्ण मानो एक बछड़ा ही है। एक विशेष बछड़ा (वेरी स्पेशल सुप्रीम काफ) प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन अर्थात गाय और बछड़ा के नेत्रों से प्रेम के अश्रु की धाराएं बह रही हैं। हरि! हरि! हम गोपियों के शब्दों में गायों के भाव अर्थात गायों और बछड़ों की भक्ति का प्रदर्शन या दर्शन भी कर सकते हैं। इन शब्दों का उच्चारण गोपियां तब कर रही है जब उन्होंने मुरली की नाद को सुना। हमारे लिए यह जो *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* कि जो नाद अथवा ध्वनि है। हमारे लिए यही मुरली की नाद है। देख लीजिए, यह लक्ष्य है। मुरली की नाद हम सुनेंगे तो क्या होना चाहिए ?हरि! हरि!
*नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥2॥*
(श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.16)
अर्थ:-
हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।
भगवान ने अपनी सारी शक्ति इस हरि नाम में भरी हुई है। भगवान ने स्वयं को ही इस मंत्र में भरा है। यह महामंत्र अपनी शक्ति, अपनी भक्ति के भाव से भरा हुआ है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही कहते हैं-
*नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥6॥*
( शिक्षाष्टकम)
अर्थ:-
हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्गद् वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा?
इन गायों का या बछड़ों का जो हाल हो रहा है वह होता ही रहता है। यह प्रतिदिन की बात है। ऐसा नहीं है कि वह एक बार, एकदा, एक समय ऐसा हुआ। यह पुनः पुनः ऐसा होता ही रहता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने भाव व्यक्त कर रहे हैं। हमें करने नहीं आते इसलिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने आचरण से हमें सिखा रहे हैं।
*अपनी आचारी प्रभु ज्वेरे शिखायाअपना वनकाका ये से जिरजाने भजया*
(2)
*जगत भारिया गेला जगई मधैय नित्यानंद वन बयाय शिष्य संप्रदाय*
(3)
*अच्छे दिन थाके वेश हय चिंता ही वैष्णवेरा उचिता नहीं थाक दया होना*
(4)
*माधुर्य कादम्बिनी ग्रांड चक्रवर्ती गया सिद्धांत देखा तथा किबा तार रे*
(1) आत्मा आत्माओं को सिखाने के लिए प्रभु स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जो निर्जना भजन करता है वह बस अपने आप को धोखा देता है।
(2) दुनिया अब जगैस और मधेसियों से भरी हो गई है। भगवान नित्यानंद के वंश ने अपने शिष्यों की संख्या बढ़ा दी है।
(3) भोजन करना, सोना, वस्त्र धारण करना और बेफिक्र रहना वैष्णव के लिए उचित नहीं है, क्योंकि यह दया के बिना है।
(4) श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर द्वारा लिखित ग्रंथ “माधुर्य कादम्बिनी” के अनुसार, देखें कि निष्कर्ष क्या है और उनका निर्णय क्या है।
वे हमें सिखा रहे हैं कि हमें प्रार्थना करनी चाहिए। नयनं गलदश्रुधारया, जब हम जप करेंगे तब कब उन गाय और बछड़े के जैसे नयनं गलदश्रुधारया होगा? वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा कब होगा? पुलकैर्निचितं वपुः कदा अर्थात हमारा शरीर पुलकित कब होगा? यह प्रश्न है। ऐसे प्रश्न पूछने चाहिए? क्यों नहीं हो रहा है? कब होगा? वह दिन कब आएगा? कभी हबो वो दिन आमार। वह दिन हमारे जीवन में कब आएगा। हरेनाम में रुचि, अपराधे गूची अर्थात हरि नाम में रुचि कब बढ़ेगी और हम अपराध कब छोड़ेंगे? ठुकरायेंगे , अपने मन व जीवन से उनको उखाड़ कर फेंक देंगे।
हमारा वह दिन कब आएगा। हरि! हरि!
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे!!*
हम इस जपा सेशन में यही अभ्यास करते हैं। अभ्यास से क्या आशा है? प्रेक्टिस मेक ए मैन वूमेन परफेक्ट। स्त्री व पुरुष जो भी प्रैक्टिस(अभ्यास) करेंगे, भगवान् उनको परफेक्शन देने के लिए तैयार है। हमारी तरफ से प्रयास होना चाहिए।
गॉड हेल्प दोज़ हूस हेल्प दैमसेल्फ। अंग्रेजी में ऐसी कहावत है। भगवान उनकी सहायता करते हैं, जो प्रयास करते हैं। जो स्वयं को सहायता देते हैं या प्रयास करते हैं। हमारे प्रयासों का फल जरूर मिलेगा लेकिन प्रयास जरूर करना चाहिए। प्रयत्न करना हमारे हाथ में है। फल भगवान के हाथ में है। जैसे यशोदा मैया के हाथ में या पैर में प्रयत्न करना ही था। वह प्रयत्न करता रही, करती रही। जब तक यशोदा ने कृष्ण को पकड़ा नही तब तक प्रयत्न को छोड़ा नहीं। वैसे कृष्ण पकड़ में तब आए, जब कृष्ण ने यशोदा का प्रयत्न देखा। यशोदा के प्रयास को देखा और वे प्रसन्न हो गए। तत्पश्चात स्वबन्धनेः पकड़ना उद्देश्य नहीं था, कृष्ण को उखल के साथ बांधना भी था। उसमें भी प्रयास, पहले तो पकड़ने के लिए दौड़ रही थी। पकड़ तो लिया लेकिन बाद में ऊखल के साथ बांधना था, उसमें कितने सारे प्रयास करने पड़े। कितनी सारी रस्सी प्राप्त व इकट्ठी करनी पड़ी। दो उंगलियां छोटी पड़ रही थी। एक उंगली यशोदा का प्रयत्न व दूसरी कृष्ण की कृपा थी। फिर वह स्व बंधन में आ गए। आइए हम अपनी तरफ से पूरा प्रयास करते हैं। तब यश की गारंटी है।
*चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.12)
अर्थ:-
श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
चैतन्य महाप्रभु ने ही यश की गारंटी दी हुई है। प्रयत्न करते रहो, जप करते रहो। प्रभुपाद की पुस्तकों का वितरण करते रहो। गीता जयंती का महीना है। भगवत गीता यथारूप के प्रचार को बढ़ाना है। अधिक अधिक जीवों के पास गीता को पहुंचाना है। यह प्रयास भी जब कृष्ण देखेंगे, वे प्रसन्न होंगे और वह हमें कृष्ण प्रेम देंगे। फिर हम चख लेंगे। यह साधना और सेवा है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह साधना है और फिर दिन भर में सेवा है। वैसे हरे कृष्ण हरे कृष्ण साधना भी है और सेवा भी है। साधन भी है और साध्य भी है। यह सेवा भी हमको करनी है, हम सेवक हैं। इस महीने में इस्कॉन के भक्त और प्रभुपाद के अनुयायी.. आप प्रभुपाद के अनुयायी हो या नही?? यस! आप हो तो इसे सिद्ध करके दिखा दो। प्रभुपाद चाहते थे कि उनके ग्रंथों का वितरण हो और विशेष रूप से इस महीने में गीता का वितरण हो। पुस्तकों का वितरण करो। पुस्तकों का वितरण करो, पुस्तकों का वितरण करो।
श्रील प्रभुपाद की जय!!!
हरिनाम संकीर्तन की जय !!!
गीता जयंती महोत्सव की जय !!!
दिव्य ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय !!!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!
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जप चर्चा
10 दिसंबर 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण. आज 1000 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं।
आज विशेष दिन है। इसलिए नहीं कि, हमारे साथ आज विशेष अतिथि है अमेरिका से या केवल अमेरिका के ही भक्त, भक्त तो अमेरिका का नहीं होता है। भक्त वैकुंठ यां गोलोक का होता है। ऐसे कुछ नहीं है कि, अमेरिकन भक्त, भारतीय भक्त, अफ्रीकन भक्त, भक्त तो भक्त है। बाकी तो वैष्णवेर जाती बुद्धि आपको पता है, ऐसा कोई विचार हमें नरक की ओर ले जाएगा। ऐसे हमें कभी हमें सोचना भी नहीं चाहिए कि. यह अमेरिका का भक्त है। रशिया का भक्त है। यह अफ्रीका का भक्त है।
भक्त तो भक्त होता है। भक्त मतलब वैष्णव। वैष्णव तो विष्णु के दास होते हैं। वैकुंठ के होते हैं। ऐसे ही वैष्णव उपाधि नहीं है, वैसे भी भक्त भी उपाधि नहीं है। सर्व उपाधि विनीर्मुक्तं। तत्परत्वेन निर्मलम।। हमें सभी उपाधियों से मुक्त होना है। ना हम विप्रो न च नरपति श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने कहा है, मैं ब्राह्मण नहीं हूं। क्षत्रिय नहीं हूं। मैं ब्रह्मचारी नहीं हूं। सन्यासी भी नहीं हूं। गोपीर भर्तुर पदकमले दासानूदास। कई सारे उपाधियां है किंतु किसी को भक्त कहते हैं तो भक्त को यह उपाधि नहीं है। यह इस संसार की उपाधि नहीं है। किसी को भक्त कहना वैष्णव कहना, गोलोक में सभी वैष्णव रहते हैं। आप सभी भी सभी गोलोक में वैष्णव है। यह विषय तो चलता रहेगा जब तक मैं बोलता रहूंगा।
हरे कृष्ण, मैं कह रहा था कि, आज का दिन विशेष है। आज का दिन विशेष क्यो है, 3 वर्ष पूर्व आज के दिन है 10 सितंबर 2018 हमने हमारा जपा झूम कॉन्फ्रेंस शुरू किया था। हरिबोल! आज के दिन ही 3 साल पहले यह जपा कॉन्फ्रेंस प्रारंभ हुई और लगभग लगभग बिना कोई व्यत्यय नित्य आज तक चल ही रहे हैं। यह ब्रेकिंग न्यूज़ है आपकी जानकारी के लिए। बेशक यह उनके जानकारी के लिए है जो कभी कभी ज्वाइन करते हैं। या फिर आप में से कोई भक्त होंगे जब पहली बार उन्होंने जपा कॉन्फ्रेंस ज्वाइन किया है। परंतु कई सारे भक्त हैं इस कॉन्फ्रेंस में 3 साल से बिना व्यत्यय है।
हरि हरि, आज के इस विशेष दिन हमारे भक्त कृष्ण के भक्त मेरे भक्त, कृष्ण के भक्त हैं तो फिर हम कह सकते हैं मेरे भक्त आज ज्वाइन किया है यह जप कॉन्फ्रेंस तो हम आप सबका हार्दिक स्वागत करते हैं।
मुझे ऐसे लगता है कि आप सब तो हिंदी जानते ही होंगे ना। गुरु महाराज कॉन्फ्रेंस में एक भक्त को संबोधित करते हुए पूछ रहे हैं, वृंदावनदास मुझे बोलना था वृंदावन दास को छोड़कर किंतु वहां भी ब्रजवासी हैं उन्होंने ब्रज धाम में काफी समय बिताया है आप हिंदी बोलते हो ना।
मैं 10/ 12 साल पहले जब न्यूजर्सी में था मुझे याद है. यह थपा कांफ्रेंस का जो आईडिया है मुझे वहां से मिला। उन दिनों में अमेरिका के भक्त कहना पड़ता है, पता नहीं कैसे अमेरिका अमेरिका के भक्त। वहां अमेरिका में रहते हैं लेकिन अमेरिका में नहीं ऐसा कह सकते हैं। हम इस दुनिया में रहते हैं लेकिन इस दुनिया में कि नहीं। मैं सोच रहा था यह अलग विचार है समझने के लिए। आप अमेरिका में हो लेकिन आप अमेरिकन नहीं हो। उन दिनों में भक्त फोन पर जप कॉन्फ्रेंस चलाते थे। मैं जब वहां था अभी तो यह झूम जपा कॉन्फ्रेंस है वीडियो कांफ्रेंस का वगैरा हम उपयोग कर रहे हैं। उन दिनों में तो भक्तों के यहां व्हाट्सएप या जो कुछ भी उसका नाम था, टेक्निकल फोरम था। उस पर जपा करते थे। तो मुझे उन जप करने वालों भक्तों को शायद मैंने उनके साथ कुछ समय जप किया भी। और उनको संबोधित भी किया और उन दिनों मे बीटीजी में भी उसकी विज्ञापन आया करता था। जपा कॉन्फ्रेंस ज्वाइन करो। तो तब से मैं सोच रहा था कि मैं भी ऐसा जपा करू भक्तों के साथ। तो फिर 3 साल पहले जब मैं अमेरिका में था। मैं बोस्टन में था। हनुमंत प्रेषक स्वामी महाराज गुरुमहाराज एक भक्तों को संबोधित करते हुए, “आप थे ना तब मेरे साथ वहां पर” हमने महाराज को वह अपना मोबाइल चला रहे थे। उसमें कुछ डूबे हुए थे। मैं सोच रहा था, महाराज मोबाइल पर इतना क्या देख रहे हैं। बाद में मैंने पता लगाया कि, महाराज जप कर रहे थे उनके शिष्यों के साथ, मित्रों के कुछ देशों से जप कर रहे थे उनके साथ। तो मैंने सोचा हां मुझे भी यह करना है। मैं भी ऐसे ही करना चाहता हूं। तो महाराज ने मुझे सारी बातें सिखाई। उन्होंने सारे सिक्रेट मुझे शेयर किए और वहां से मे साउथ अफ्रीका पहुंच गया। तो फिर आज के दिन मैं डरबन में था।
डरबन साउथ अफ्रीका हमने सारी टेक्निकल व्यवस्था की। जूम कॉन्फ्रेंस बुकिंग वगैरह सब कुछ और हमने जप कॉन्फ्रेंस प्रारंभ किया। शुरुआत में तो यह जप चर्चा के बाद में नहीं सोच रहा था। शुरुआत में तो हम जप ही करते थे। हमने शुरुआत की तब 10 से कम लोग थे और उसके बाद हम प्रयास करते रहे। उसका प्रमोशन करते रहे। 5-10 के फिर 10-20 हो गए 10-20 के फिर 40 -50 हो गए और फिर धीरे-धीरे तो 100- 200 हो गए। और हम लोग हमने झूम के साथ हमारे पास कुछ सौ सदस्य की व्यवस्था थी। फिर हमने 250 तक बढ़ाई वह भी फुल होने लगा फि,र उसके बाद हमने 500 तक उसको बढ़ाया उसके हम उसके बाद हमने एक हजार के क्षमता वाला बुक किया। आप देख सकते हो आज 1000 सदस्य है। अब हमें पता नहीं कि, अब क्या करना है। और झूम के पास भी इससे ज्यादा क्षमता वाला कोई व्यवस्था उनके पास नहीं है। और हम यहीं पर रह गए। झूम के लोगों का भी सर फट रहा है कि कैसे किया जाए। हमें कैसे ज्यादा क्षमता वाला व्यवस्था कैसे दी जाए। जिससे हम 2000 या 5000 भक्त एक साथ जुड़ जाए। यह संख्या बढ़ती जाएगी। हरि नाम का प्रचार दिन-ब-दिन बढ़ने वाला है। थोड़े समय पहले मैं सोच रहा था, प्रभुपाद कहां करते थे, यूटीलिटीज या फिर प्रिंसिपल जैसे प्रभुपाद कहां करते थे। तो हम यहां जो टेक्निकल सुविधाएं हैं उसको यूटिलाइज कर रहे हैं। उपयोगिता ही सिद्धांत है, हिंदी में कहोगे तो। तो हम इन सारी चीजों का उपयोग कर रहे हैं।
यह व्यवस्था यह झूम कॉन्फ्रेंस और हम सोशल मीडिया को अध्यात्मिक बना रहे हैं। सोशल मीडिया यह सिर्फ सोशल मीडिया नहीं है। यह अध्यात्मिक मीडिया है। और प्रभुपाद के शब्दों में एक अंध पंगु न्याय करते हैं। अंधपंगु में न्याय इन शब्दों में तो आपने नहीं सुना होगा। लेकिन आप सुनते हो, अंधा और लूला आदमी दोनों एक साथ आकर एक दूसरे की मदद कर सकते हैं। हम भी वही कर रहे हैं। हमारी संस्कृति पूरब की आध्यात्मिकता। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह भारत की संपत्ति है। यहां इंडिया की संपत्ति है। नही मुझे इंडिया नहीं कहना है। यहां भारत की संपत्ति है। इंडिया यह मॉडल रूप है। उसमें भारत नहीं है। उसमें भारतीयता नहीं बचती है। जब हम दिन-ब-दिन इंडियन बन रहे हैं। पाश्चात्य देशों का नकल कर रहे हैं। लेकिन जब पाश्चात्य देशों के टेक्नोलॉजी का हम कृष्णभावना के प्रचार और प्रसार में उपयोग करते हैं तो हम अपने भारतीयता को असली भारतीयता को बरकरार रखते है। साधनों का उपयोग करते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो आप लोग देख सकते हो कि, कैसे हम एकत्रित आ सकते हैं। सम्मिलित हो सकते हैं। यह एक समाज है भक्त समाज। संकीर्तन बड़ी संख्या में एकत्रित आना और हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करना। कीर्तन करना। श्रवणं कीर्तन विष्णु स्मरणम यह टेक्नोलॉजी हमें एक साथ ला रही है। वैसे तो हमारा जप चर्चा संक्षिप्त ही होता है। तो मैं ज्यादा नहीं बोल सकता हूं। मेरा हृदय खोल कर नहीं रख सकता हूं। यहां मुमकिन नहीं है। मुमकिन हो सकता है अगर मुझसे 10 सर और 10 मुंह हो तो। या उससे ज्यादा और हर एक मुंह अलग-अलग बात कर सके परंतु मेरे पास उस तरह के सिद्धि नहीं है। दुर्दैव से एक ही मुख है।
जैसे गोपिया कहां करते थे ब्रह्मा बुद्धू कहीं का, क्यों बुद्धू ब्रह्मा, ब्रह्मा और बुद्धू बुद्धिमान नहीं बुद्धू है। वैसे रावन के भी 10 सर है परंतु उसको दिमाग ही नहीं है। वैसे ही गोपिया कह रही है। ब्रह्मा को दिमाग ही नहीं है। उन्होंने हमको सिर्फ दो आंखें दी है और और वह भी खुलते है बंद होती है। आई वांट टू सी यू जॉर्ज हैरिसन ने गाया है भगवान के लिए। आई वांट टू सी यू गोपियां ऐसे सोच रहे हैं। और हमें भी चाहिए कि हम उनका अनुकरण करें। हमें भी कुछ उसी तरह का भाव रखना चाहिए। रम्याकाचित उपासना व्रजवधु वर्गेन याकल्पितः चैतन्य महाप्रभु कि सलाह है। गोपी जैसा भाव राधाभाव व्रजभाव आंखें केवल दो ही है और वह भी पलकती रहती है। बंद होती रहती है। कितना हम देख पाएगी। मुझे भी यह एहसास होता है विलाप होता है शायद थोड़े समय के लिए मुझे बहुत सारे मुंह हो और सुनने वाले भी हो तो।
आप सभी इस जपा कॉन्फ्रेंस का श्रेय यश हो इस जपा कॉन्फ्रेंस के यश का श्रेय इधर सभी जपा कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित होने वाले सदस्यों को भी जाता है। वह सभी 1000 भक्त उनसे गारंटी है कि उससे ज्यादा है लेकिन, वह मीटिंग में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं। जैसा कि रास्कल झूम मैं अभी तो थोड़ी देर पहले उनका गुणगान कर रहा था और अभी रास्कल बोल रहा हूं। क्योंकि इन्होंने सिर्फ एक हजार की क्षमता रखी है, रास्कल कहीं के। अधिक भक्त जुड़ सकते थे लेकिन स्थान ही नहीं है। ऐसी व्यवस्था ही नहीं है। तो 1000 भक्त तो ज्वाइन कर रहे हैं। जितने भक्त प्रतिदिन और जो कभी-कभी आते हैं ऐसे भक्तों और जैसे कि आज कुछ भक्त जुड़ गए हैं, अतिथि के तौर पर।
सभी अमेरिका से नहीं है गोलोक से हैं किंतु, अभी अमेरिका में है। आप कभी-कभी आते हो आप में से कोई रोज आता है तो कोई कभी-कभी जुड़ते हैं हफ्ते में एक बार या बीच-बीच में प्रिया गोविंद आप रोज छपा कॉन्फ्रेंस में जोड़ते हैं वह माधवी से जा और रामचंद्र आरती और भी कई सारे हमारे पास समय कम है इसे मैं सभी का नाम नहीं ले सकता हूं, समय का ध्यान रखते हुए। मैं आप लोगों अपमान नहीं कर रहा हूं या फिर आप का उल्लेख नहीं करना चाह रहा हूं ऐसे कुछ नहीं है। मुझे पता है आप में से बहुत सारे लोग रोज जुडते हैं। कई सारे उत्साहो पर जूड़ते हैं गोराचांद भी कभी-कभी जुड़ते हैं। वह भी आज है।
धन्यवाद। हरे कृष्ण।
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
9 दिसंबर 2021
1. गौरवशाली नालंदा विश्वविद्यालय |
2. सच्ची उच्च शिक्षा।
3. प्राचीन भारत की महिमा।
गौरांग
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल
आज हमारे पास 1000 प्रतिभागी हैं। उनकी जय हो।
इस सम्मेलन में नामजप करें और जप प्रवचन भी सुनें। थोड़ा जल्दी उठने की कोशिश करें। इस सम्मेलन में कुछ ही भक्त देर से शामिल होते हैं या वे जप वार्ता ही प्राप्त करते हैं। इससे पहले वे क्या कर रहे होंगे ? सो रहे होंगे, और क्या करेंगे? ऑफिस का समय नहीं है या इस समय कोई अन्य ड्यूटी नहीं है। आप जप वार्ता में भाग ले रहे हैं तो हमारे साथ जप क्यों नहीं करते ? अन्य भक्तों के साथ जप करें। मेरे साथ ही कई भक्त इसमें शामिल होते हैं। मैं हमेशा आपको इस्कॉन पंढरपुर, नोएडा, इस्कॉन अमरावती, कौंडिन्यपुर, यहाँ, वहाँ आदि कई भक्तों को दिखाता रहता हूँ। भुवनेश्वर के भक्त, आज एक माताजी मंगोलिया से हैं। श्यामलंगी मध्य पूर्व में है इसलिए इस जप सम्मेलन में इन सभी भक्तों के साथ जप करने का अवसर है। इस सम्मेलन का लाभ उठाएं। थोड़ा जल्दी उठना भी सेहत के लिए अच्छा होता है। ‘जल्दी सोना और जल्दी उठना व्यक्ति को स्वस्थ, धनी और धनवान बनाता है’। सुबह जल्दी उठने वाले का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। स्वास्थ्य में सुधार होगा, धन में वृद्धि होगी। आपने सोचा होगा कि ओह! मैं अमीर बन जाऊंगा इसलिए मुझे जल्दी उठना चाहिए। लेकिन हरिनाम भी एक धन है और आप इसे अर्जित करेंगे। हरि हरि! तुम भी समझदार हो जाओगे। ठीक ! मैं यह कहना चाहूंगा कि जब आप जप वार्ता में शामिल हो रहे हैं तो थोड़ा जल्दी शामिल होने का प्रयास करें। अब घर भर गया है इसलिए प्रवेश संभव नहीं है। यह भी एक नुकसान है। यहां पहले आओ पहले पाओ काम करता है। आप अपनी सीट खो देंगे। आपको न तो सीट मिलेगी और न ही प्रवेश द्वार। इन ब्रह्म मुहूर्त से घंटों का लाभ उठाएं। इस सुबह के खूबसूरत समय को बर्बाद न करें। हरि!
आपको सोने में सुबह के घंटों को कभी याद नहीं करना चाहिए। ठीक !
यह 800 साल पहले की कहानी है। सटीक होने के लिए, 1197 में, एक मुस्लिम शासक ने नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा दी। विभिन्न अभिलेखों से हम जानते हैं कि विश्वविद्यालय लगभग 3 महीने से जल रहा था। कई रिकॉर्ड का दावा है कि यह 6 महीने से जल रहा था। इसका नाम ‘वर्ल्ड यूनिवर्सिटी’ पड़ा, क्योंकि दुनिया भर से छात्र वहां पढ़ने के लिए आते थे। विश्वविद्यालय परिसर में एक समय में 11,000 छात्रों को समायोजित करने की व्यवस्था थी। 11,000 छात्र वहां रहते थे और सीखते थे और एक समय में उन्हें प्रशिक्षित किया जाता था। यह 9 मंजिला इमारत थी, और इमारत की दीवारें 8 फीट चौड़ी थीं। यह एक किले की तरह था। इसकी स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त वंश ने की थी। यह 700 वर्षों से अस्तित्व में है। इस विश्वविद्यालय में 9 मिलियन पांडुलिपियां, यानी 90,00,000 पांडुलिपियां या शास्त्र या कमेंट्री या किताबें या लेख मौजूद थे। आग में सभी जल गए। इस घटना में हजारों शिक्षकों और छात्रों की मौत हो गई। हरि हरि! वह तीन से छह महीने का काला दिन या काला काल था जब तक वह जल रहा था। यह विश्व इतिहास का काला काल था। नालंदा विश्वविद्यालय विश्व के सात अजूबों के समान भारत का गौरव था। जैसे ताजमहल, पीसा, निआग्रा गिरता है। दुनिया के सात अजूबों की तरह भारत के अजूबों में भी नालंदा विश्वविद्यालय का जिक्र था | यह कोई छोटा साधारण विश्वविद्यालय नहीं था। तक्षशिला भी एक विश्वविद्यालय था। नालंदा बिहार में था। इसके कुछ हिस्से अभी भी मौजूद हैं। जो कुछ बचा है उसे देखने के लिए पर्यटक वहाँ जाते हैं। तक्षशिला सिंध या वर्तमान पाकिस्तान की ओर था । वैसे भी ! मैं इसके बारे में क्या कह सकता हूँ!
भारत के इंजीनियर, डिजाइनर, आर्किटेक्ट ऐसी इमारतों को बनाने में बहुत माहिर थे। विश्वविद्यालय की इमारत इस तरह से डिजाइन की गई थी कि गर्मियों में कमरे ठंडे थे और सर्दियों में वे काफी गर्म थे। उस इमारत के कमरे, दरवाजे कभी बंद नहीं होते थे। ताले मौजूद नहीं थे। कोई चोर नहीं थे। यह कुछ 800 साल पुरानी कहानी है अगर हम सत्य युग में पीछे जाते हैं तो लोग उस समय दरवाजे खुले रखते थे।
मातृवत परदारीशु पाराद्रव्येशु लोष्ठवत |
आत्मवत सर्वभूतु याह पश्यति सा पंडितः ||
अनुवाद
वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है जो दूसरों की पत्नियों को अपनी माँ के रूप में देखता है, दूसरों के धन को पृथ्वी के ढेले की तरह और सभी प्राणियों को अपना मानता है।
(चाणक्य श्लोक 10)
पंडित का अर्थ है एक विद्वान व्यक्ति। चाणक्य ने कहा है कि यदि किसी व्यक्ति में उपरोक्त गुण हों तो वह पंडित कहलाता है। किसी में क्या गुण या समझ होनी चाहिए? परद्रव्येशु लोष्टावत – एक व्यक्ति को लगता है कि दूसरों की संपत्ति मेरे लिए नहीं है। वह इसे अपने लिए पत्थरों के बराबर मानता है। विश्वास करो कि यह मेरी संपत्ति नहीं है। अन्य गुण भी हैं जैसे
मातृवत परदारीशु, आत्मवत सर्वभूतु। ऐसी मान्यताएं होनी चाहिए। ऐसी मान्यताओं वाले व्यक्ति को भारतीय कहा जाता था। अगर कोई दूसरों की पत्नी को मां मानता है और दूसरे की संपत्ति मेरी नहीं है तो वह भारतीय है। उन्हें एक विद्वान व्यक्ति के रूप में जाना जाता है।
हरि हरि! कभी-कभी हम सुनते हैं कि भारत पूरे विश्व का मालिक है। यह एक सच्चाई है और यह हमेशा मालिक ही रहेगा। व्यवस्थाएं ऐसी हैं कि इसकी जगह कोई नहीं ले सकता। वस्तुतः जब यह पूरी दुनिया का विश्वविद्यालय था तब दुनिया भर के छात्रों को शिक्षक, आचार्य, डीन, फैकल्टी पढ़ाया करते थे। सभी उच्च शिक्षा के लिए भारत आते थे। अपने देश लौटने के बाद वे गर्व से कहते थे कि “मैं भारत लौटा हूँ! यह मेरी डिग्री है! मैं नालंदा विश्वविद्यालय से स्नातक हूं।” या “मैंने नालंदा विश्वविद्यालय में पीएचडी की है!” लोग बहुत गर्व करते थे। आजकल भारत से छात्र उच्च शिक्षा के लिए ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा जाते हैं। यह उच्च शिक्षा नहीं है। आप उच्च शिक्षा के लिए नहीं जा रहे हैं। आप जो कुछ भी प्राप्त करते हैं वह उच्च शिक्षा नहीं है जो निम्न शिक्षा है। नालंदा विश्वविद्यालय में आने वाले छात्र वास्तव में उच्च शिक्षा के लिए आ रहे थे। क्योंकि शिक्षा दो प्रकार की होती है: परा विद्या (उच्च) और अपरा विद्या (निम्न)। आत्मा का ज्ञान उच्च शिक्षा है। पदार्थ, परमाणु का ज्ञान निम्नतर शिक्षा है। परमाणु, न्यूट्रॉन, प्रोटॉन और यह सब तथाकथित वैज्ञानिक ज्ञान सबसे कम ज्ञान है। सबसे अच्छा ज्ञान है
राज-विद्या राज-गुह्या:
पवित्रम इदं उत्तमम्
प्रत्यक्षावागमं धर्म्या:
सु-सुख: करतुम अव्ययम्:
अनुवाद
यह ज्ञान शिक्षा का राजा है, सभी रहस्यों का सबसे रहस्य है। यह सबसे शुद्ध ज्ञान है और क्योंकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति को बोध करा देता है, यह धर्म की पूर्णता है। यह चिरस्थायी है और यह आनंदपूर्वक किया जाता है।
(भगवद गीता 9.2)
कृष्ण ने घोषणा की है कि भगवद गीता और वेदों का ज्ञान ज्ञान का राजा है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के छात्र तथाकथित उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं। हमारी शिक्षा वास्तव में पूर्ण है। इसमें उच्च, निम्न, परा, अपरा, भूगोल, खगोल विज्ञान, गणित, साहित्य, इतिहास सब कुछ समाहित है। आप इसे नाम दें और हमारे पास है। यह संपूर्ण ज्ञान उपलब्ध था और यह अभी भी सभी शास्त्रों और वैदिक पुस्तकों में उपलब्ध है। वह ज्ञान पहले आसानी से उपलब्ध था। दुर्भाग्य से इन शरारती लोगों ने कई पांडुलिपियों को जला दिया है। फिर भी हमारे पास जो कुछ है वह भी काफी है। कभी-कभी ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, इस्लाम, अब्राहम धर्म जैसे धर्म गर्व से कहते हैं कि बाइबिल धर्म की पुस्तक है या कुरान धर्म की पुस्तक है। वे अपने धर्म की पुस्तक के रूप में एक ही पुस्तक का उल्लेख कर सकते हैं या उनके पास ईसाई धर्म में कुछ ओर पुस्तकें हो सकती हैं लेकिन जब हम सनातन धर्म या भागवत धर्म की बात करते हैं तो हमारे पास धार्मिक पुस्तकों का एक पुस्तकालय होता है। और एक भी किताब नहीं : लेकिन वास्तव में हमारे धर्म मंस एक पूरा पुस्तकालय है।
आप इस बात को समझ सकते हो ? हमारे पास धार्मिक पुस्तकों का इतना बड़ा संग्रह है। हमारे पास ज्ञान का सागर है। उनके पास एक ही किताब है , ठीक है ! लेकिन हमारे पास एक पूरी लाइब्रेरी है। नालंदा जैसे हमारे विश्वविद्यालयों में उनके पास अध्ययन और शोध के लिए 90,000 पुस्तकें थीं। यह भारत की महिमा है या यह भागवत धर्म की महिमा है। यहां हमारे पास लाखों ग्रंथ हैं।
हमें प्राचीन भारत के इतिहास को समझना चाहिए ताकि हमें भारतीय होने पर गर्व हो। एक बार एक व्यक्ति ने अपना परिचय “मैं इंडियन नहीं हूँ, मैं भारतीय हूँ!” इस कथन के पीछे बहुत रहस्य है।
ठीक ! आपको धन्यवाद ! मैं यहीं रुकूंगा।
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*जप चर्चा*
*08 -12 -2021*
*पंढरपुर धाम से*
हरे कृष्ण !
आज 1000 स्थानों से भक्त इस जप में सम्मिलित हैं। शाबाश ! नोएडा में शाबाश चलता है आप सब मिलकर के इस शाबाश के पात्र बन रहे हो आप अकेले ही होते या आप में से कुछ नहीं होते तो हम शाबाश नहीं कहते किंतु 1000 पार्टिसिपेंट्स के लिए पता नहीं मराठी में तो शाबाश कहते हैं या हिंदी में भी कुछ और हो सकता है आप धन्यवाद के पात्र बन रहे हो हरि हरि ! कीप अप द गुड वर्क जिसको कहते हैं अच्छा कार्य कर रहे हो। करते रहो, लगे रहो इस कार्य से हम प्रसन्न है। हमने कह दिया “हम” तो इतना पर्याप्त है। हम प्रसन्न होंगे मतलब मैं भी प्रसन्न, न केवल हो ही नहीं रहा हूं बल्कि अपनी प्रसन्नता व्यक्त भी कर रहा हूं। फिर इस हम में श्रील प्रभुपाद हैं सारे पूर्ववर्ती आचार्य हैं और अंततोगत्वा अल्टीमेटली स्वयं भगवान हैं। गुरु और गौरांग! कृष्ण कन्हैया लाल की जय ! बृजेंद्र नंदन है देवकीनंदन हैं वह भी आपके कीप अप गुड वर्क, इस कार्य से प्रसन्न हैं और अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं या उनकी प्रसन्नता को भी मैं उन्हीं की ओर से व्यक्त कर रहा हूं। वैसे शास्त्रों में कहा ही है
*यस्य प्रसादाद् भगवत्-प्रसादो यस्याप्रसादान् न गतिः कुतोऽपि ध्यायन् स्तुवंस् तस्य यशस् त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्री-चरणारविन्दम् ।।* (गुरुअष्ठक)
अर्थ- श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए।
हमारे गुरुजन हमसे प्रसन्न हैं तो निश्चित ही भगवत्-प्रसादो , भगवान प्रसन्न है या और कोई बचता नहीं, किस को प्रसन्न करना है? बीवी को बच्चों को या बॉस को इसको या उसको हरि हरि !गुरु गौरांग जयत: गुरु और गौरांग की जय हो ! ऐसे भी लिखा और पढ़ा जाता है और इसी को परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तन भी कहा है।
*चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम् श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम् सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥*
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥
मतलब सभी की जय हो और उसमें आप की भी जय हो, आपकी जय इसी में है। यह तो एक बात हुई और उससे रिलेटेड ही है मैं सोच रहा था कि उठते ही चैतन्य महाप्रभु कहते हैं।
*जीव जागो जीव जागो, गौरचांद बोले कोत निद्रा जाओ माया पिशाचीर-कोले*।
*भजिबॊ बोलिया ऎसॆ संसार-भितरे भुलिया रोहिलॆ तुमि अविद्यार भरे*
*तॊमारॆ लोइते आमि हॊइनु अवतार आमि बिना बंधु आर कॆ आछॆ तॊमार*
*एनॆछि औषधि माया नाशिबारॊ लागि हरि-नाम महा-मंत्र लओ तुमि मागि*
*भकति विनोद प्रभु-चरणे पडिया सॆइ हरिनाम मंत्र लॊइलॊ मागिया* (अरुणोदय कीर्तन)
हम प्रातः काल में वैसे ही कर रहे हैं जैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चाहते हैं या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हमको पुकार रहे हैं कि जीव जागो !जीव जागो !कौन कह रहे हैं? गौरा चांद बोले, गौर चंद्र बोल रहे हैं।
*बहुकोटिचन्द्र जिनिवदनउज्ज्वल । गलदेशेवनमाला करेझलमल ॥*
(गौर आरती – 6 पद)
अनुवाद: श्रीचैतन्य महाप्रभु का मुखमण्डल करोड़ो चन्द्रमा की भाँति दैदीप्यमान हो रहा है तथा उनके गले में वनफूलों की माला झलमल कर रही है। जिनके मुख मंडल से बहु कोटि चंद्रमा जैसी ज्योत्सना या प्रकाश मिश्रित होता है गोरा चांद इनका नाम है या गौर चंद्र कहो या गोरा चांद कहो। वे गौर चंद्र हमको बुला रहे हैं। हम को जगा रहे हैं। गोरा चांद बोले जीव जागो! जीव जागो! कौन कह रहे हैं ? गौर चंद्र बोल रहे हैं।” कोत निद्रा जाओ माया पिशाचीर-कोले” माया को क्या कहा है पिशाचीनी *निकटस्थ मायातारे झपटिया धारे* ऐसा चैतन्य चरितामृत में चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है यह माया झपट लेती है। आप सो तो नहीं रहे हो सीता ठाकुरानी ? जीव जागो ! जीव जागो! यह बात चल रही है। सुनते सुनते हम सो भी रहे हैं। मुझे नहीं पता कि आप सो रहे हो या बड़ी मजेदार बातें हैं। है कि नहीं? हां ! हम बात कर रहे हैं चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं की जीव जागो जीव जागो ऐसा सुनते सुनते ही हम सो रहे हैं। अब क्या करें चैतन्य महाप्रभु तो अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। महाप्रभु से रहा नहीं जाता हमको सावधान कर रहे हैं साधु सावधान ! उठो जागो कोत निद्रा जाओ माया पिशाचीर-कोले , माया पिशाची है। हम को पहचान लिया है हमको पछाड़ लिया है पंचमहाभूत कहते हैं ना, कभी-कभी ऐसी व्याख्या करते हैं पंचमहाभूत सुना है ? हमारे पीछे कितने भूत लगे हुए हैं पंचमहाभूत, एक ही पर्याप्त है लेकिन एक नहीं पांच-पांच भूत हमारे पीछे लगे हुए हैं , पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश का बंधन है। उसका बना है यह कारागार यह शरीर भी वैसा ही है। यहाँ गोरा चांद बोले श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बुला रहे हैं मैं अच्छी बात कह रहा था या सही बात कह रहा था कि हम जब प्रातः काल में उठते हैं और फिर मंगला आरती के लिए मंदिर की ओर दौड़ते हैं राधा पंढरीनाथ का या राधा गोपीनाथ, राधा गोविंद, राधा मदन मोहन ऐसे नाम लेते रहते हैं और हम लोग काफी समय बिता सकते हैं उनके कई नाम हैं वहां पहुंचते ही
*मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||* (श्रीमद्भगवद्गीता 18.65)
अनुवाद – सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो।
नमस्कुरु , भगवान को देखते ही प्रणाम करते हैं फिर दर्शन करते हैं खड़े होते हैं मंगल आरती का गान होता है और उसी के अंतर्गत फिर *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* कीर्तन करते हैं नृत्य करते हैं भगवान को देख रहे हैं दर्शन कर रहे हैं कीर्तन हो रहा है नृत्य हो रहा है। इस प्रकार और भी कई सारी बातें मुझे कहनी थी लेकिन इस तरह से हमारा इंटरेक्शन कृष्ण के साथ है। कृष्ण इज द सुप्रीम पर्सनैलिटी आफ गॉड हेड के साथ, लीला पुरुषोत्तम श्री कृष्ण के साथ, हमारा आदान-प्रदान, लेनदेन गिव एंड टेक भी कहो, “इंटरेक्शन” अच्छा शब्द है हमारा इंटरेक्शन इंटर+ एक्शन इंटर रिलेशनशिप हमारी कृष्ण के साथ इंटरेक्शन प्रारंभ होती है। जीव का कृष्ण के साथ, हम भाग्यवान बनते हैं
*अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम् । यन्मित्रं परमानन्दं पूर्ण ब्रह्म सनातनम् ॥* (श्रीमद भागवतम १०.१४.३२ )
अनुवाद – नन्द महाराज, सारे ग्वाले तथा व्रजभूमि के अन्य सारे निवासी कितने भाग्यशाली हैं! उनके सौभाग्य की कोई सीमा नहीं है क्योंकि दिव्य आनन्द के स्रोत परम सत्य अर्थात् सनातन परब्रह्म उनके मित्र बन चुके हैं
कितने भाग्यवान हैं ब्रज में ” व्रजौकसाम् ” ओकस मतलब निवासी, बृज के निवासी कितने भाग्यवान हैं। हम भी जब उठते हैं और उठते ही भगवान की ओर दौड़ते हैं यह कुछ कम नहीं है हमारा दौड़ना राधा गोविंद की ओर या कृष्ण बलराम की ओर, यह वही है फॉलोइंग हिज फुट स्टेप, ही तो है। गोपियां कृष्ण की ओर मध्यरात्रि में दौड़ती हैं। प्रातः काल में तो ग्वाल-बाल दौड़ते हैं। नंद भवन की ओर , क्योंकि गोचरण लीला के लिए प्रस्थान करना होता है। सारे ग्वाल बाल बृज भर के नंद ग्राम पहुंच जाते हैं कृष्ण से मिलने के लिए और फिर मिलकर कृष्ण की गाय, उनकी गाय और अन्य ग्वाल बालों की गाय और कृष्ण, सभी गोचारण के लिए प्रस्थान करेंगे, अतः वे सभी नंद भवन आते हैं इस तरह उनका अनुसरण करते हुए हम भी जाते हैं। जहां भी मंदिर है हरे कृष्ण मंदिर है या फिर नंद भवन जहां हरि मंदिर है राधा कृष्ण का मंदिर है या कृष्ण बलराम मंदिर है या जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा का मंदिर है। यह वृंदावन है या नवदीप है सेम थिंग , इस तरह हम नवद्वीप की ओर वृंदावन की ओर, नंद भवन की ओर या योग पीठ की ओर, मायापुर में या जगन्नाथ हरि हरि हम दौड़ते हैं। हमारी आत्मा दौड़ रही है और उन भगवान का हम दर्शन करते हैं। अभ्यास करते हैं दर्शन करने का या प्रतिदिन थोड़ा अधिक अधिक दर्शन होने लगता है और फिर साधना भक्ति का, हरि नाम या इसके फलस्वरूप एक दिन हम कीर्तन करते करते हमे उत्कंठा होने लगती है। होना भी चाहिए उत्कंठा बढ़ाना है।
*कदा द्रक्ष्यामि नन्दस्य बालकं नीपमालकम् । पालकं सर्वसत्त्वानां लसत्तिलकभालकम् ॥*
कब दर्शन होगा नन्दस्य बालकं, नंद महाराज के बालक का, नीपमालकम् कदंब के पुष्पों की माला पहना हुआ हो वह बालक ऐसे जब हम कहते हैं तब उसी के साथ कृष्ण का वर्णन हो रहा है। वह हमको आकृष्ट करता है। कब होगा दर्शन, कब होगा दर्शन, नंद महाराज का बालक कैसा है? हमने सुना तो है नीपमालकम् कमल के पुष्पों की माला, फिर पदमाली हो गए या कभी वैजयंती माला पहनते हैं कभी कदंब के पुष्पों की माला पहनते हैं। *पालकं सर्वसत्त्वानां लसत्तिलकभालकम्* और उनके भाल पर तिलक है कस्तूरी तिलकम , फिर ऐसे यहां क्या क्या, बहुत कुछ याद आने लगता है। कृष्ण के सौंदर्य का हम स्मरण करते हैं तो याद आता है। अच्छा ही है मतलब कृष्ण याद आ रहे हैं और यू आर रिमेंबरिंग, रिमेंबरिंग मतलब इसका कुछ कनेक्शन है रिमेंबर रिटर्न रीबुक मतलब पहले कुछ किया था उसी क्रिया को पुनः करना जब कहना होता है तो उसमें “आर” र आता है और आर “र” रिटर्न रिजर्वेशन री मेंबर जो शब्द है दिस इज़ माय अंडरस्टैंडिंग, मैं थोड़ा सोचता रहता हूं रिमेंबर मतलब पहले कभी हम याद करते थे कृष्ण को , अब दुर्देव से भूले भटके जीव भूल गए, लेकिन अब हम क्या कर रहे हैं पुनः रिमेम्बर, डू यू रिमेंबर मी? ऐसा कभी-कभी हम पूछते हैं पहले हम याद करते थे साथ में रहते थे या साथ में पढ़ते थे फिर 50 वर्षों के बाद जब मिलेंगे तब कहेंगे डू यू रिमेंबर मी, डू यू रिमेंबर दैट वन, आप समझ रहे हैं मैं कुछ कहना चाह रहा हूं आपको, रिमेंबर मतलब पहले आपको देखा हैं सुना हैं पढा हैं देन वी रीमेंबर तब हम याद करते हैं। इवन भगवान के विग्रह को देखते हैं एंड डिस. इज़ द बिग रिमाइंडर यह बहुत बड़ा रिमाइंडर है यह रिमाइंडर की भगवान के रूप को ही देखते हैं।
*माया मुग्ध जीवेर नाहि स्वत: कृष्ण ज्ञान। जीवेर कृपया कैला कृष्ण वेद पुराण।।* (चै.च. मध्य लीला 20.117)
हम भगवान का सब भूल गया माया से मुग्ध हो गया, ऐसी माया दुरत्यया है।
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||* ( श्रीमद्भगवद्गीता 7.14 )
अनुवाद- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |
हम उनको भूल गए, स्वयं को भूल गए, इत्यादि इत्यादि हमारा जो स्वरूप है के अमी ?
*के आमि’, ‘केने आमाय जारे ताप-त्रय’। इहा नाहि जानि— केमने हित हय’ ॥* (चैतन्य चरितामृत मध्य 20.102)
अनुवाद- मैं कौन हूँ? तीनों ताप मुझे निरन्तर कष्ट क्यों देते हैं? यदि मैं यह नहीं जानता, तो फिर मैं किस प्रकार लाभान्वित हो सकता हूँ?
केन उपनिषद भी है क्यों? कैसे? ऑल दिस क्वेश्चंस ? भगवान का दर्शन भी करते हैं या भगवान के विग्रह का दर्शन भी करते हैं तब एक रिमाइंडर है फिर *हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* यह भी किसके लिए करते हैं ? यू रिमेंबर कृष्ण,
श्रीप्रह्लाद उवाच ।
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥*
(श्रीमद भागवतम ७.५.२३)
अनुवाद -प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना)-शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं करने के लिए स्मरण करने के लिए यू रिमेंबर कृष्ण या
*मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||*
( श्रीमद्भगवद्गीता 18.65)
अनुवाद- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
कृष्ण ने फाइनल इंस्ट्रक्शन दिया है उसके बाद भगवान ज्यादा बोलने वाले नहीं हैं। और अंत में क्या कहा मनमनाः रिमेंबर मी, अंग्रेजी में ट्रांसलेशन होता है मनमना मतलब मत-बना, मन – तुम्हारा मन मुझ में लगाओ मनमना मेरा भक्त बनो, मन लगाओ मुझमें, मेरे भक्त बनो मद्याजी माम् नमस्कुरु, मेरी आराधना करो मुझे नमस्कार करो, हो गया ना, जब हम मंगला आरती में जाते हैं या मंदिर में जाते हैं तो क्या करते हैं केवल दर्शन के लिए जाते हैं क्या क्या करोगे ? मनमनाः रिमेंबर कृष्ण भगवान को याद करने के लिए स्वयं को पुनः याद दिलाने के लिए रिमाइंडर, उनका भक्त बनने के लिए उनकी आराधना करने के लिए उनको नमस्कार करने के लिए बस हो गया। वी फॉलो फोर रेगुलेटीव प्रिंसिपल्स,ऐसे एक समय यह बात प्रभुपाद ने ही की है फॉलो फोर रेगुलाटीव प्रिंसिपल्स, ऐसा जब प्रभु पाद ने कहा मुझे याद आ रहा है तब भक्तों ने सोचा कि प्रभुपाद कह रहे हैं सोच रहे हैं या कहने वाले हैं वी फॉलो फोर रेगुलेटीव प्रिंसिपल्स, वह कौन से हैं प्रभुपाद ने तो नहीं कहा लेकिन भक्त मन में सोच रहे थे।
नो मीट ईटिंग, नो इंटॉक्सिकेशन, नो इलिसिट सेक्स, नो गैंबलिंग इन 4 नियमों का हम पालन करते हैं। वी फॉलो फोर रेगुलेटीव प्रिंसिपल्स श्रील प्रभुपाद ने कहा कि हम 4 नियमों का पालन करते हैं ऐसा कहकर प्रभुपाद ने आगे कहा यू रिमेंबर कृष्ण, कृष्ण को याद करना पहला प्रिंसिपल है। २ बिकम माय डिवोटी मेरे भक्त बनो, ३ मध्याजी मेरी आराधना करो, ४ माम नमस्कुरु मुझे नमस्कार करो, इस तरह प्रभुपाद ने कहा वी फॉलो फोर रेगुलेटीव प्रिंसिपल्स हम 4 नियमों का पालन करते हैं और ऐसा जब आप करोगे तो भगवान ने फिर कहा है। उसको हमने कई बार कहा है डू यू रिमेंबर या फिर हम आपको पुन्: भी रिमाइंडर दे रहे हैं
*मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे* ऐसा करोगे हे मित्रों या पुत्रों, भक्तों, तो क्या होगा? सब मुझे ही प्राप्त होंगे हरीबोल !
गुड न्यूज़ ! ब्रेकिंग द न्यूज़ ! फिर गोलोक लौटने के लिए या भगवत धाम लौटने के लिए हम को चिंता है, उसका महत्व अगर हम समझते हैं तो मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे हरि हरि ! हम बड़े भाग्यवान हैं यही मुझे कहना था भाग्यवान हैं और साथ में यह भी कहना है कि आप बुद्धिमान हो। हो कि नहीं हो? दुनिया बुद्धू है और आप बुद्धिमान हो। क्यों माधवी कुमारी समझ रही हो? *जेई कृष्ण भजे सेई बडा चतुर* (श्रील प्रभुपाद द्वारा), यही क्राइटेरिया है। कौन बुद्धिमान है कौन बुद्धू है। पता लगाएं जो कृष्ण को भजता है वह चतुर है इंटेलिजेंट होशियार बुद्धिमान है, अतः आप सभी बुद्धिमान और भाग्यवान भक्तों का पुन्: हार्दिक स्वागत इस ज़ूम कॉन्फ्रेंस और जपा टॉक में , ओके टाइम् इज़ अप ,ऐसे विचार आ रहे थे उसका थोड़ा झलक आपके सामने प्रस्तुत किया, वैसे नहीं कह पाते हैं। ठीक है तो फिर धन्यवाद।
गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल !
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जप चर्चा : 7 दिसंबर 2021
स्थान : श्री पंढरपुर धाम
आज १००० स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं. आप सभी का स्वागत हैं. सम्पूर्ण विश्व से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। आप सभी जप योगियों का इस कांफ्रेंस में स्वागत हैं। भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं : योगी भव। इसे हम यह कह सकते हैं कि जप योगी भव।
भगवान् कहते हैं योगी भव , परन्तु यह दुनिया कहती हैं : भोगी भव। अब तक आप यह समझ चुके होंगे कि आपको योगी बनना हैं अथवा भोगी। हम समझते हैं कि जैसा भगवान श्री कृष्ण चाहते हैं आप सभी जप योगी हैं इसीलिए जप करने के लिए उपस्थित हैं।
व्यास पूजा अथवा सन्यास दीक्षा की वर्षगाँठ में आप सभी अलग अलग गुण बताते हो, जैसे आप सहनशील हो , दयालु हो आदि। कल भी इसी प्रकार मुझे बिठा दिया गया और कहा गया कि हम जो आपका गुणगान करते हैं आप उसे सुनिए। मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था इसलिए मुझे स्वयं का गुणगान सुनना पड़ा।
भक्त बता रहे थे कि आप गुणवान हो, सौंदर्यवान हो , धनवान हो आदि। उस समय मैं सोच रहा था कि जो भक्त इन गुणों का वर्णन कर रहे हैं शायद वे यह भूल चुके हैं कि यह सरे गुण सर्वप्रथम तो भगवान् में हैं, वहीँ से यह गन हम जीवों में प्रकट होते हैं। अतः हमें सदैव भगवान् का स्मरण रखना चाहिए जो इन समस्त गुणों के स्त्रोत हैं। इस प्रकार बोलने वाले में भी यह सारे गुण होते हैं। आत्मा में परमात्मा के गुण होते हैं।
यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना
सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुरा: ।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा
मनोरथेनासति धावतो बहि: ॥ श्रीमद भागवत : 5.18.12 ॥
जो भगवान की अकिंचन भक्ति करते हैं , उनमे देवताओं वाले गुण आ जाते हैं।
अन्याभिलाषिता शून्यं , ज्ञान कर्म अनावृतम।
अनुकूलेन कृष्णानुशीलनं , भक्तिर उत्तमा।। भक्तिरसामृत सिंधु 1.1.11
ऐसी उत्तम भक्ति करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व में देवताओं के गुण प्रकट हो जाते हैं। हमें स्वयं को पहचानना हैं कि हम वास्तव में कौन हैं। यह वैष्णवों का गुण हैं कि वह दूसरों में गुण देखते हैं तथा स्वयं में अवगुण। जब जीव इस भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता हैं तो उसमे यह दुर्गुण आ जाते हैं , अन्यथा जीव अथवा आत्मा तो शाश्वत रूप से शुद्ध हैं। उसमें इस प्रकार के दुर्गुण नहीं होते। संसार के संपर्क में आने से जीव दुर्गुणी बनता हैं अन्यथा वह सद्गुणी होता हैं। हमारी आत्मा गुणों की खान हैं। यह आत्म साक्षात्कार होना चाहिए। अंग्रेज़ी में कहावत हैं कि बाप जैसा बेटा होता हैं। भगवान हमारे पिता हैं। भगवान् स्वयं ऐसी घोषणा करते हैं :
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या: ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता ॥ श्रीमद भगवद्गीता : 14.4 ॥
इस प्रकार कृष्ण हमारे माता तथा पिता हैं। हम सभी भगवान् के बालक बालिकाएं हैं। हम सभी के पिता हैं : विठोबा , पाण्डुरंग या भगवान् श्री कृष्ण। अतः हमारे में भी भगवान् श्री कृष्ण के गुण विद्यमान होते हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश जीव बहिर्मुखी होता हैं जिसके कारण वह इस जगत में आकर यहाँ के दुर्गुणों से स्वयं को आच्छादित कर लेता हैं। इसके लिए उदाहरण दिया जाता हैं कि वर्षा का जल जब तक धरती को स्पर्श नहीं करता तब तक वह शुद्ध रहता हैं परन्तु जैसे ही वह जल धरती को स्पर्श करता हैं वह मलीन हो जाता हैं और पृथ्वी पर पड़ी हुई गन्दगी उसमे समा जाती हैं।
हमें इस प्रकार यह सिद्धांत समझना होगा। हम सभी आत्माएं हैं , आत्मा शाश्वत होती हैं , इसे वर्ण , देश अथवा शरीर के रूप में विभाजित नहीं कर सकते यथा यह स्त्री की आत्मा हैं , यह पुरुष की आत्मा हैं , यह अमेरिकन आत्मा हैं या यह भारतीय आत्मा हैं। आत्मा शाश्वत हैं तथा यह परम भगवान् का अंश हैं। यह अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व कहलाता हैं। इसका अर्थ हैं कि आत्मा तथा परमात्मा में भेद हैं भी और नहीं भी हैं। दोनों एक भी हैं तथा अलग भी हैं।
भगवान के अंश होने के कारण हमारे में भी भगवान् के गुण हैं , परन्तु वह काम मात्रा में हैं। इस कारन हम भगवान् से भिन्न भी हैं तथा अभिन्न भी हैं। इस प्रकार हमें यह समझना होगा कि भगवान के ऐसे दिव्य गुण केवल हमारे गुरु महाराज , श्रील प्रभुपाद अथवा केवल आचार्यों में ही नहीं हैं अपितु हम सभी में भी हैं। ऐसा भाव हमारा होना चाहिए। इसलिए यदि कोई भगवान श्री कृष्ण की निष्किंचन भक्ति करता हैं तो उसमें यह सभी गुण प्रकट हो जाते हैं। अतः हम सभी को स्वयं को भगवान् श्री कृष्ण की भक्ति में लगाना चाहिए तथा यह भक्ति निष्किंचन होनी चाहिए। वास्तव में यदि हम कहें तो भगवान् की भक्ति करने में सबसे प्रधान भक्ति हैं : हरेर नाम इव केवलम।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ।।
इस प्रकार जब हम भगवान् के पवित्र नामों के जप तथा कीर्तन में स्वयं को लगाते हैं , अपराध रहित होकर ध्यान पूर्वक जप करते हैं तब हम भी भगवान् श्री कृष्ण की निष्किंचन भक्ति कर सकते हैं और ऐसा करने से हमारे में भी भगवन के गुण प्रकट होते हैं तथा धीरे धीरे हम भी गुणवान बनते हैं। हमें भक्ति संपन्न होकर जप करना चाहिए। हमारे में भगवान् की भक्ति हैं उसे प्रकट करना हैं। इस प्रकार आपका आज का गृह कार्य हैं कि आप इस विषय पर चिंतन मनन कीजिए तथा गुण संपन्न बनिए। हम आज की जप चर्चा को यहीं विराम देते हैं , आगे पद्ममाली प्रभु आप सभी भक्तों को कुछ शब्दांजली पढ़कर सुनाएंगे।
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जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
6 दिसंबर 2021
आज जप चर्चा में कम से कम 1000 भक्त उपस्थित हैं। हरि हरि! आप में से कई सारो कि प्रात:काल से पुरी टीम चल ही रही हैं,46, 79, 900 या उसके बदले में मेरा भी आशीर्वाद स्वीकार कीजिए। एक सन्यासी का आशीर्वाद, हरि हरि!आपको नहीं कहूंगा,अच्छा नहीं लगेगा (प पू लोकनाथ महाराज जी ने हंसते हुए कहा) आशिर्वाद क्या? आप भी एक दिन सन्यासी बने यही आशीर्वाद,यह भी एक आशीर्वाद हैं।
श्रीभगवानुवाच |
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: |
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः || २ ||
(श्रीमद्भगवतगीता 18.2)
अनुवाद:-भगवान् ने कहा-भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं ।
गीता जयंती का महीना आया हैं,गीता वितरण का माहौल है ही, गीता का यह जो 18वां अध्याय हैं इसको अंग्रेजी में प्रभुपाद ने टाइटल दिया हैं -द परफेक्शन आफ रिनूअनसेशन- वैराग्य कि पूर्णता
अर्जुन उवाच |
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् |
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन || १ ||
.
(श्रीमद्भगवतगीता 18.1)
अनुवाद:-अर्जुन ने कहा – हे महाबाहु! मैं त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश! मैं त्यागमय जीवन (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ ।
18वे अध्याय, पहले श्लोक मैं अर्जुन कह रहे हैं
“वेदितुम् मिच्छामि” मै जानना चाहता हूँ। “सन्न्यासस्य तत्त्व”
संन्यास का तत्व मुझे समझाइए। संन्यास क्या होता है? तो उत्तर में भगवान बताएगे कि संन्यास क्या होता है?”त्यागस्य च”, संन्यास और त्याग कि बात, दो बातें जानना चाहते हैं। सन्यास का तत्व समझाइए। “वेदितुम् मिच्छामि”। वैसे अर्जुन कि ऐसी जिज्ञासा हैं, तो हम सभी कि ऐसी जिज्ञासा होनी चाहिए।आप ऐसा कभी प्रश्न पूछते हो? पूछना चाहिए? कब आएगा आपके जीवन में वह समय जब आप उत्कंठीत होंगे। आप संन्यास का तत्व जानना चाहोगे! तो उत्तर में…
काम्यानां कर्मणां न्यासं इति संन्यासं | काम के कर्म को त्यागना, जिस काम के साथ कामवासना जुड़ी हैं। संन्यास ले कर फिर क्या करेंगे आप? क्या लाभ हैं? प्रेम प्राप्ति के लिए संन्यास हैं। सारा संसार काम प्राप्ति में व्यस्त हैं और सन्यास लिया जाता हैं प्रेम प्राप्ति के लिए। “काम्यानां कर्मणां न्यासं” मुझे स्मरण हो रहा है एक बात का और फिर हरि हरि!
वृंदावन पहुंचने के पहले मुंबई में क्या हुआ! श्रील प्रभुपाद से कैसे मैंने प्रस्ताव रखा? मुझे यह संन्यास का तत्व क्या हैं, यह सुनाइए ऐसी अर्जुन की जिज्ञासा हैं। “सन्न्यासस्य तत्त्व मिच्छामि” वैसे मैंने पूछा नही,सीधे संन्यास दीजिए ऐसा ही प्रस्ताव, ऐसा ही निवेदन रखा श्रील प्रभुपाद के समक्ष और फिर श्रील प्रभुपाद ने क्या कहा? और फिर एक साल के उपरांत क्या हुआ? तुम पहले से ही संन्यासी हो ऐसे प्रभुपाद जी ने कहा और मुझे समझा बुझा रहे थें ‘फॉर्मेलिटी कि कोई जरुरत नही हैं’, उस पर मैंने कहा ‘ मैं फॉर्मेलिटी चाहता हूंँ’ ‘ठीक है, जाओ, वृंदावन जाओ! श्रीधर के साथ’।मैने एक मिनट में आपको कह दिया जो बातें एक-दो सालों में होती रही, उसको मैंने एक मिनट में आपको सुनाया। हम वृंदावन पहुंचे। आज के दिन श्रील प्रभुपाद कुरुक्षेत्र गए थें। इस्कॉन के लिए जमीन लेनी थीं। इस्कॉन कुरुक्षेत्र के लिए। अमरीश जानते हो?प्रभुपाद के शिष्य, उनको साथ में ले गए थे और और भी भक्त थे,वहाँ से प्रभुपाद कुरुक्षेत्र से वृंदावन आए।
“धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 1.1)
अनुवाद: -धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
हां इसी महीने में जिस महीने में भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश,संदेश सुनाया अर्जुन को और युद्ध भी शुरू होने वाला था।उसी महीने में प्रभुपाद कुरुक्षेत्र गए थे और वृंदावन लौट आए और हम मुंबई से वृंदावन पहुंचे। मैं ,श्रीधर और पृथूपुत्र हम तीनों का संन्यास था ।संन्यास हम तीनो को मिलने वाला था। पृथूपुत्र फ्रांस के थे, श्रीधर कनाडा के और लोकनाथ स्वामी भारत के, इंडिया जानबूझकर मैंने नहीं कहा, मुझे इंडिया कहना पसंद नहीं हैं ,भारत कहना ही अच्छा हैं। मैं भारतीय हूंँ,यह कहना अच्छा हैं कि मैं इंडियन हूँ, कहना अच्छा है? लेकिन आज के दिन जो मैं चाहता था,क्या चाहता था? मैं संन्यास लेना चाहता था। मैं सन्यासी होना चाहता था। फिर कैसे हम कृष्ण बलराम के आंगन में प्रात:कालीन कार्यक्रम के दौरान आंगन में पहुंचे और हमने कैसे संन्यास वस्त्र पहने, कहां पहने यह भी हमें याद हैं, और पुनः आंगन में लौट आए और श्रील प्रभुपाद ने मुझे दंड दिया।
प्रभुपाद ने जो मुझे दंड दिया था यह वह दंड नहीं हैं, वैसे वह दंड मैंने नोएडा में रखा हुआ हैं। यह मेरा प्रवासीय दंड हैं।यह थोड़ा हल्का हैं, वह पहले वाला भारी था।सफर करते वक्त भारी था और सुरक्षा की भी प्रॉब्लम है (दुविधा है), प्रभुपाद ने दंड दिया और फिर अक्षयनंद स्वामी महाराज से उन्होने कहा था कि इनसे संन्यास मंत्र बुलवाओ,तो अक्षयनंद स्वामी महाराज प्रभुपाद कि ओर से संन्यास मंत्र कहने लगे और हमने दोहराया। हमने अपना स्थान ग्रहण किया और फिर इस समय दंड के साथ बैठे थें। वहा यज्ञशाला,यज्ञ कुंड बना हुआ था। श्रील प्रभुपाद ने वचन सुनाएं, उसकी रिकॉर्डिंग हैं, आप सुन सकते हो!उसमे से कुछ महत्वपूर्ण भाग हैं, जो मै आपको थोडासा सुनाऊंगा।”देयर इज नो अदर बिजनेस” आप समझ गए ना
“यथा हि पुरुषस्येह विष्णो: पादोपसर्पणम्।
यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्र्वर: सुहृत्।।”
(श्रीमद्भागवत 7.6.2)
यह मनुष्य जीवन भगवत धाम जाने का अवसर प्रदान करता हैं अतएव प्रत्येक जीव को,विशेष रूप से उसे, जिसे मनुष्य जीवन मिला हैं, भगवान विष्णु के चरण कमलों कि भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए। यह भक्ति स्वाभाविक हैं, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु सर्वाधिक प्रिय, आत्मा के स्वामी तथा अन्य सभी जीवों के शुभचिंतक हैं।
“विष्णो: पादोपसर्पणम्।”
यही बिजनेस हैं। “विष्णो: पादोपसर्पणम्।” सारी विधि इसलिए हैं कि कैसे हम विष्णु-कृष्ण के चरण कमल प्राप्ति करे,इसके लिए जो भी विधि विधान हैं, यही बिजनेस हैं। नो अदर बिजनेस।भगवान के चरण कमलो तक कैसे पहुंचना हैं। प्रभुपाद सुना रहे हैं, हमें यह सब करने के लिए। हमें फिर क्या करना होगा?
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: |हरि हरि! यह याद हैं? कृष्ण ने कहा था। संन्यास एक अंतिम या सर्वोपरि अनुष्ठान हैं। यह दीक्षा, वो शिक्षा यह सब पहले होते रहता हैं और प्रभुपाद कह रहे हैं और ना ही यह नई बात या नई विधि हैं। सृष्टि प्रारंभ हुई तभी से संन्यास हो ही रहे हैं।चार कुमार वह भी यही चाहते थे।कामवासना से पूर्ण कर्मों मे वह लिप्त नहीं रहना चाहते थें। इसीलिए वह कुमार ही रह गए। मेरे ख्याल से कामवासना जगी ही नहीं। थोड़े बड़े हो जाते हैं तो
तरुणी में आकर्षण हो जाता हैं, स्त्री में आकर्षण हो जाता हैं।
बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥ ७ ॥
बाल काल बहु खेल खिलौने, युवा काल नारी रमते,
वृद्ध, रोग, दुःख, क्लेश अनेका, परम ब्रह्म को ना भजते.
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥७॥
( भज गोविंदम श्लोक ७ आदि शंकराचार्य के द्वारा)
युवावस्था में तरुणी में आकर्षण हो जाता हैं, तो उन्होंने सोचा कि चलो हम बालक बनकर ही रहेंगे।कुमार बनकर ही रहेंगे। तो प्रभुपाद कह रहे हैं कि सन्यास लेना कोई नई चीज नहीं है चार आश्रम हैं
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || 13||(भगवत गीता 4.13)
चारो आश्रम पृथ्वी के शुरुआत से ही हैं। यह कोई नई चीज नहीं है। हमारे से पहले भी कई सारे महान आचार्य हो चुके हैं। जैसे कि श्रील प्रभुपाद ने कहा रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, विष्णु स्वामी, निंबार्क आचार्य हमारी प्रणाली में चैतन्य महाप्रभु हैं। तो यह बड़े-बड़े आचार्य जो कि संन्यासी भी थे उनके नाम हमें प्रभुपाद स्मरण करा रहे थे। हम जो वहां संयास लेने के लिए बैठे थे।सन्यास अनुष्ठान हो रहा था और यह प्रातः स्मरणीय विशेष अनुष्ठान प्रभुपाद कर रहे थे। सन्यासियों का स्मरण प्रभुपाद हमें करा रहे थे और हमारी गोडिय वैष्णव प्रणाली में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी सन्यास लिया और तरीका यह हैं कि जो पूर्ववर्ती आचार्य हैं, उनका अनुसरन करना हैं,यह हमारी विधि हैं
tarko ‘pratiṣṭhaḥ śrutayo vibhinnā
nāsāv ṛṣir yasya mataṁ na bhinnam
dharmasya tattvaṁ nihitaṁ guhāyāṁ
mahājano yena gataḥ sa panthāḥ
(चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला-17.186)
जब हम हमारे पूर्ववर्ती आचार्यों या महाजनों के चरणों का अनुसरण करते हैं तो हमें भी आचार्यों का या महाजनों का मुख्य रूप से जिन्होंने सन्यास लिया,प्रभुपाद सन्यास दे रहे हैं और उन्होंने सन्यास लिया। यह माधवाचार्य, रामानुजाचार्य, विष्णुस्वामी, निंबार्काचार्य और हमारी प्रणाली के श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आप सन्यासियों के समक्ष उदाहरण हैं। प्रभुपाद हम को संबोधित कर रहे थे तो इस प्रकार और भी बहुत ही महत्वपूर्ण बातें प्रभुपाद ने कही हैं। इसे आप इन कन्वरसेशन विद श्रीला प्रभुपाद में पढ़ सकते हो, इस नाम से मैंने ग्रंथ लिखा हैं, उसमें यह 11वां अध्याय हैं, कृष्ण भावना को सीखो और पूरे संसार में उसका प्रचार करो और फिर यज्ञ हुआ। स्वाहा स्वाहा और हम तीनो सन्यासी हो गए। यह कृष्ण बलराम मंदिर के आंगन में हुआ और फिर हम प्रभुपाद क्वार्टर में प्रभुपाद से मिलने गये। मैं अपने दंड को लेकर वहां बैठा और उन्हें प्रणाम किया ,खैर अभी आपको मैं यह सब नहीं सुना सकता। प्रभुपाद ने नाम के संबंध में कहा कि अब स्वामी तुम्हारा नाम हैं। तो मैं लोकनाथ दास ब्रह्मचारी के स्थान पर लोकनाथ स्वामी बन गया श्रीधर स्वामी और पृथु पुत्र स्वामी,हम तीन थे।
और
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: || 34||
(भगवद्गीता श्लोक ९.३४)
यह श्लोक भी कहा और मन मना समझते हो ?क्या करने के लिए कृष्ण कह रहे हैं।बिना पाखंड और दिखावे के यह करोगे तो निश्चित सफल होंगे, ऐसे प्रभुपाद ने प्रोत्साहन दिया और आशीर्वाद दिया हरि हरि ।यह ४६ वर्ष पूर्व की बात हैं और जैसे संन्यास लेने के बाद सन्यासी गुरु भी बनते हैं और उनके शिष्य होते हैं। ऐसा प्रभुपाद ने प्रवचन में कहा था और शिष्य इसलिए होते हैं ताकि वह आपके गुरु के प्रचार में आपकी सहायता दे। इसी कार्य के लिए ही शिष्य अपनाए जाते हैं या बनाए जाते हैं ताकि वह जो सन्यासी गुरु हैं वह अपना धर्म निभा सके।हम अपना सन्यास धर्म निभा रहे हैं या जो गुरु का धर्म हैं वह मैं निभा रहा हूं।आप शिष्य मंडली हैं, अनुयाई हैं, आप अपने धर्म को निभाईए। आप अपने शिष्य धर्म को निभाईए।शिष्य का यह धर्म या कर्तव्य होता हैं, गुरु का या सन्यासी के यह कर्तव्य हैं। अपने अपने उत्तरदायित्व को आप पूरा कीजिएगा और वैसे भी हमारे आचार्य लिख कर गए हैं-
ekaki amara, nahi paya bala,
hari-nama-sańkirtane
tumi krpa kori’, sraddha-bindu diya,
deho’ krsna-nama-dhane
(भक्ति विनोद ठाकुर)
हम अकेले आपकी सहायता योगदान के बिना क्या कर सकते हैं? आपकी सहायता या योगदान के बिना ज्यादा कुछ संभव नहीं होगा। प्रचार के कार्य में हमें आपके सहयोग की आवश्यकता हैं। आपका योगदान अनिवार्य हैं। जिस प्रकार हम अपनी एक टीम बनाते हैं, ऐसी कई सारी टीमें हैं या यह प्रभुपाद की टीमें हैं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की टीमें हैं। यह प्रचार का कार्य तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कार्य हैं। तो आइए इस श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कार्य को पूरा करने में सहयोग करें। पूरा तो हम नहीं कर पाएंगे,परंतु जितना अपने जीवन में पूरा कर सकते हैं, उतना करें। फिर उसके बाद आने वाली पीढ़ी इसे पूरा करेगी और फिर उसके बाद आने वाली पीढ़ी उसे पूरा करने में सहयोग करेगी
pṛthivīte āche yata nagarādi grāma
sarvatra pracāra hoibe mora nāma
[CB Antya-khaṇḍa 4.126]
मेरा नाम का प्रचार सर्वत्र होगा, यह भविष्यवाणी हैं और यह कार्य की भगवान के नाम को सर्वत्र पहुंचाना हैं, तो यह हर पीढ़ी और आगे बढाएगी और कार्य होता रहेगा और अगले 10000 वर्षों तक होता रहेगा और अब हमारी बारी हैं, तो हमें पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ और युक्ति के साथ भी इस कार्य को आगे बढ़ाना हैं और चैतन्य महाप्रभु के आदेशों को, चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि
bhārata-bhūmite haila manuṣya janma yāra
janma sārthaka kari’ kara para-upakāra
(चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला 9.41)
परोपकार का कार्य करो। तो फिर आप भारत में जो जन्मे हो, तभी आपके जन्म की सार्थकता होगी। कब होगी? जब आप परोपकार करोगे।
तो यह महीना ही परोपकार करने का हैं। इस महीने में क्या करना हैं? यह हम आपको बताएंगे। यह महीना गीता जयंती का महीना हैं और गीता जयंती के उपलक्ष्य में गीता वितरण का महीना हैं। तो आइए हम सब मिलकर कुछ योजनाबद्ध कार्य करके अधिक से अधिक भगवद्गीता का वितरण करते हैं। तो आज सन्यास एनिवर्सरी हैं, तो काफी सराहना हो रही हैं, आपके काफी उद्गार हम सुन रहे हैं जो कि आप लिख रहे थे ,एप्रिसिएशन सुन रहे थे। तो एक समय प्रभुपाद ने मुझे पत्र लिखा उसमें प्रभुपाद ने लिखा कि लोग एप्रिशिएट कर रहे हैं, तो वह प्रैक्टिकल होना चाहिए केवल लिप सर्विस नहीं होना चाहिए। टाइप करके कुछ लिख रहे हो, अच्छा हैं शुरुआत में लेकिन यह कार्यों में भी आना चाहिए।केवल लिखना ही नहीं हैं। तो जो भी आप लिख रहे हैं उसे कार्यान्वित कीजिए। इस महीने में अगर आप अधिक से अधिक भगवद्गीता का वितरण करोगे तो मैं मान लूंगा कि आप सचमुच में मुझे एप्रिशिएट करते हो और जो मैंने सन्यास लिया उसे भी। अगर आप ऐसा करोगे तो मैं बहुत प्रसन्न होउगा और प्रभुपाद भी खुश होंगे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी भी खुश होंगे।
वैसे समय तो बीत चुका हैं, लेकिन मैं यह वाक्य पढ़ देता हूं। वैसे यह लंबा वाक्य हैं, प्रभुपाद ने अपने प्रवचन में कहा कि इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई भारतीय हैं या अमेरिकन हैं, या कोई भी हैं, अगर वह चैतन्य महाप्रभु के आदेश का पालन करेगा तो उसका लाभ होगा और कल्याण होगा और उस व्यक्ति का सम्मान सत्कार होगा। इसीलिए हिचकीचाओ मत क्योंकि जो आत्मा हैं, वह ना तो भारतीय हैं, ना अमेरिकन हैं, ना कोई ओर। चैतन्य महाप्रभु के आदेशों का पालन करने से तुम गौरवान्वित होगें। तुम्हारे देश का गौरव होगा और सारे संसार को इसका लाभ मिलेगा। सारे मानव जाति का कल्याण होगा। देखिए प्रभुपाद के विचार। बहुत-बहुत धन्यवाद, प्रभुपाद ने कहा और इस वचन के साथ प्रभुपाद ने अपनी वाणी को विराम दिया था और मैं भी इन्हीं शब्दों के साथ अपनी वाणी को विराम देता हूं। हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
5 दिसंबर 2021
विषय : गोपियों और यज्ञपत्नियों के स्वागत के बीच समानताएं
क्या आप तैयार हैं?इस्कॉन कौंडन्यापुर, इस्कॉन अमरावती, इस्कॉन नागपुर मंदिर,इस्कॉन अरावडें.. भक्त पहले से ही जप कर रहे हैं और अब जप चर्चा के लिए तैयार हैं।आज 932 प्रतिभागी जप कर रहे हैं।आज रविवार हैं और इस होलिडे को आप होलीडे बना रहे हैं। आप में से कुछ पहले से ही बना रहे थे।आज रविवार को होने वाली भक्तो की सबसे अधिक संख्या हैं।आमतौर पर रविवार को इतने प्रतिभागी सम्मिलित नही होते हैं।धन्यवाद।प्रेरित तो हम आपको पहले ही करते रहते थे ,लेकिन अब आप उस प्रेरणा को ले रहे हैं।एक हफ्ते पहले हमारे मंदिर भक्तों, इस्कॉन अधिकारियों ने भी आपको प्रेरित किया हैं और इसके परिणामस्वरूप प्रतिभागियों की संख्या में वृद्धि हुई हैं और आज रविवार को भी हम एक बड़ी संख्या का अनुभव कर रहे हैं।तो यह सराहनीय हैं।मुझे यकीन हैं कि आप भी सराहना कर रहे होंगे।हम कहते रहते हैं,”मोर द मेरियर”(अंग्रेजी में) मेरी का अर्थ हैं खुश रहना।अधिक भक्त और अधिक सुखी भक्त। जब मैं देखता हूं तो मैं भगवान की ओर से देखता हूं और फिर भगवान को रिपोर्ट करता हूं और भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। फोर द प्लेजर आफ देंयर लॉर्ड शिपस(अंग्रेजी में)।हम कहते हैं कि देखो इतने प्रतिभागी हैं,हे राधा पंढरीनाथ,हे राधा गोपीनाथ,हे राधा गोपाल, हे राधा गोविंद,देखो। जब वह संख्या सुनते हैं कि बहुत बड़ी संख्या हैं, तो केवल हम ही प्रसन्न नहीं होते या मैं ही प्रसन्न नहीं होता, आप सभी प्रसन्न होते हो और सबसे पहले भगवान प्रसन्न होते हैं यह देखकर कि आप लोग सभी सुख-सुविधाओं को छोड़कर पवित्र नाम का जप कर रहे हो।
शांतरूपिणी माताजी के दो पुत्र भी हमारे साथ,सभी खेल कुद छोड़कर,नींद को तोड कर जप कर रहे हैं।यही त्याग हैं, वैराग्य हैं और हम इस वैराग्य का स्वागत करते हैं।
कल मेरी 46वीं सन्यास वर्षगाँठ हैं।कुछ भक्त आज ही मुझे बधाई भेज रहे हैं।हो सकता हैं कि वह अडवांस मे भेज रहे हैं।आप सभी की शादी की सालगिरह होती हैं और मेरी संन्यास की सालगिरह होती हैं।आप सभी यह प्रयास करें कि आपकी भी कम से कम वानप्रस्थ वर्षगांठ हो जाए।या गृहस्थ ब्रह्मचारी तो रहो । यह भी एक पदवी हैं। एक ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी होते हैं और दूसरे हैं.. गृहस्थ ब्रह्मचारी, गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन करना।इस सब पर कल चर्चा होनी चाहिए थी मैं आज ही करने लगा या फिर मैं सिर्फ इतना बताना चाहता हूं कि आज मेरी संन्यास की वर्षगांठ नहीं हैं।कल 6 दिसंबर को हैं।ठीक हैं।विषय पर वापस आते हैं।
भुभुक्षितस्य तस्यन्नां:
गण कार्रवाई सा गोपालै:
सा रामो दरम अगतशी
भुभुक्षितस्य तस्यन्नां:
सानुगस्य प्रद्यातमी
अनुवाद
उन्होंने ग्वाले लड़कों और भगवान बलराम के साथ गायों की देखभाल करने के लिए एक लंबा सफर तय किया है। अब वह भूखा है, इसलिए उसे और उसके साथियों के लिए कुछ खाना दिया जाना चाहिए।
( श्रीमद भागवतम 10.23.17)
जैसा कि भागवत में लिखा हैं, ब्राह्मणों की पत्नियां पत्नीशाला में रहती थीं।अच्छा लगा यह सुनकर।जैसे गाएं गोशाला मे रहती हैं पर शुकदेव गोस्वामी भागवतम में पत्नीशाला के विषय मे कह रहे हैं और ये पत्नियां भोजन लेकर भगवान के पास गई हैं।
चतुर-विधा: बहू-गुण:
अन्नम अदाय भजनाई:
अभिशाश्रुं प्रियं सर्वशी
समुद्रम इवा निम्नागंशी
अनुवाद
जैसे नदियाँ समुद्र की ओर बहती हैं, वैसे ही सभी स्त्रियाँ बड़े-बड़े बर्तनों में उत्तम स्वाद और सुगन्ध से भरे हुए चार प्रकार के भोजन को साथ लेकर अपने प्रियतम से मिलने के लिए निकलीं।
( श्रीमद भागवतम 10.23.19)
बहुगुणम, अर्थात सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों को लेकर गयी थी और इसमे मुख्य वस्तु ओडनम होती हैं, ओडनम का मतलब चावल हैं।ऐसी संभावना हैं कि चावल से बने व्यंजन लेकर गयी थी क्योंकि जिस स्थान पर इन यज्ञपत्नियों ने भगवान को भोजन कराया था, उसका नाम भातरोंड हैं।यह जगह अक्रूर घाट के पास अशोकवन में हैं, भातरोंड।व्रज मंडल परिक्रमा में हम जिस पहले स्थान पर पहुंचते हैं वह हैं ,भातरोंड।यह कृष्ण बलराम मंदिर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर,अक्रूर घाट से पहले हैं।एक पहाड़ी पर छोटा सा मंदिर हैं और राधा भातरोंड बिहारी हैं।भातरोंड बिहारी का अर्थ हैं कृष्ण,और बिहारी का अर्थ हैं जो रहता हैं।भातरोंड बिहारी।क्या आप भात को जानते हैं?मराठी भक्त जानते हैं।क्या दिल्ली के भक्त जानते हैं?भात का अर्थ हैं, चावल, ओड़नम। तो यज्ञपत्नियों ने यहां कृष्ण बलराम और उनके दोस्तों को चावल चढ़ाए।तो जैसे वे भगवान को खिलाने जा रहे हैं, विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखते हैं, उनके पास वात्सल्य भाव हैं।माताएं अपने बच्चों को वात्सल्य भाव से खिलाती हैं।लेकिन ये यज्ञपत्नियाँ, गोपियों और राधारानी की तरह माधुर्य भाव में हैं।वह उस प्रेम भाव के साथ जा रही हैं।समुद्रम इवा निमनाग:।जैसे नदियाँ समुद्र की ओर दौड़ती हैं, ये यज्ञपत्नियाँ गोपीभाव में कृष्ण की ओर दौड़ रही हैं।नित्य: तद-दर्शनोत्सुका:
श्रुतवाच्युतम उपायत:
नित्य: तद-दर्शनोत्सुका:
तत-कथाक्षिप्त-मनसो:
बभिवुर जटा-संभ्रमणि
अनुवाद
ब्राह्मणों की पत्नियाँ हमेशा कृष्ण को देखने के लिए उत्सुक रहती थीं, क्योंकि उनके मन कृष्ण के वर्णन से मुग्ध हो गए थे।इस प्रकार जैसे ही उन्होंने सुना कि वह आया हैं,वह बहुत उत्साहित हुई।
(श्रीमद् भागवतम 10.23.18)
मैं शुकदेव गोस्वामी द्वारा आपके लिए कुछ शब्द पढ़ रहा हूं।
वे दर्शन के लिए उत्साहित थे और भगवान के शाश्वत दर्शन चाहती थी।कि काश आज हमें दर्शन मिल जाए।”नित्य दर्शनोत्सुकः” यह यज्ञपत्नियां,( समुद्रम एव निमग्नाः) तो जैसे नदियां समुद्र की ओर दौड़ती हैं, वैसे ही वे भी दौड़ रही थी।तो जब वह वहाँ पहुँची जैसे मैंने कहा
श्यामम हिरण्य-परिधि: वनमाल्य-बरहा-
धातु-प्रवाल-नाना-वेशम अनवरतांसे:
विनयस्ता-हस्तं इतरेश धूनांम अबजंः
करोत्पललक-कपोला-मुखाब्ज-हसामी
अनुवाद
उसका रंग गहरा नीला और उसका वस्त्र सुनहरा था।मोर का पंख, रंगीन खनिज, फूलों की कलियों की टहनी, और जंगल के फूलों और पत्तियों की एक माला पहने हुए, उन्होंने एक नाटकीय नर्तक की तरह कपड़े पहने थे।उन्होंने एक हाथ मित्र के कंधे पर रखा और दूसरे से कमल को घुमाया। लिली ने उसके कानों पर कृपा की, उसके बाल उसके गालों पर लटके हुए थे, और उसका कमल जैसा चेहरा मुस्कुरा रहा था।
(श्रीमद्भागवतम 10.23.22)
उन्होंने भगवान की सुंदरता को देखा और जब वह दर्शन कर रही थी, तो हमें भी दर्शन लेने का अवसर मिला।उन्होंने जो देखा वह हमने भी देखा।हमने सुना और हम सुनकर देखते हैं।हम कान से दर्शन लेते हैं।ये आंखें बेकार हैं और हम उनके नित्यदर्शनोत्सुकह जैसे भाव के बारे में भी सुन रहे हैं, इसलिए जैसे ही हम सुनते हैं वही भाव हमारे अंदर भी आते हैं।
*श्रवणादि-शुद्ध-चित्त करे उदय*
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कबू नया
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कबू नया:
श्रवणादि-शुद्ध-चित्त करे उदय:
अनुवाद
“कृष्ण के लिए शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में शाश्वत रूप से स्थापित है। यह किसी अन्य स्रोत से प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है। जब श्रवण और जप से हृदय शुद्ध हो जाता है तो यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग जाता है।
(चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला 22.107)
हम जो कुछ भी सुनते हैं, वही भावना हममें उत्पन्न होती हैं। जैसे यज्ञपत्नियाँ दौड़ रही हैं, जैसे नदी समुद्र की ओर दौड़ती हैं वैसे ही यह दौड रही थी.. इसलिए इससे आत्मा को प्रेरणा मिलती हैं कि हमें भी मंगल आरती के लिए ऐसे ही दौड़ना चाहिए। यदि हम यज्ञपत्नियों की भावनाओं को सुनते हैं, तो हमारे दिल में गोपीभाव या ब्रजभाव आता हैं।
*श्रवणादि-शुद्ध-चित्त करे उदय*
ठीक हैं,
उन सभी ने दर्शन किए और भगवान को प्रसादम अर्पित किया।
उससे पहले कृष्ण यज्ञपत्नियों का स्वागत कर रहे हैं।
स्वागतम वो महा-भाग:
अस्यतां कारवाम किमि
यान नो दीक्षिताया प्राप्त:
उपपन्नम इड़ाṁ ही वा
अनुवाद
[भगवान कृष्ण ने कहा:] स्वागत हैं, हे सबसे भाग्यशाली महिलाओं । कृपया बैठ जाएं और अपने आप को सहज बनाएं। मै आप के लिये क्य कर सक्त हु? कि तुम यहाँ मुझे देखने आए हो, यह सबसे उपयुक्त है।
(श्री मद भागवतम 10.23.25)
स्वागत! कृपया आओ।कारवाम किम?मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?ऐसा कृष्ण यज्ञ पत्नियों से पूछ रहे हैं। मैं आपका ध्यान इस बात की ओर आकर्षित करना चाहता हूं कि ऐसे ही वचन कृष्ण ने गोपियों को कहे थे, जब गोपियां शरद पूर्णिमा के दिन।यह कौन सी पूर्णिमा हैं?यह मार्गशीर्ष पूर्णिमा हैं और दोपहर में भातरोंड में कृष्ण दिन के समय उनका स्वागत कर रहे हैं।
किंतु शरद पूर्णिमा की रात्रि को जब गोपियां कृष्ण के साथ रास करने पहुंची वहां पर भी भगवान ने ऐसा ही कहा और यह सारा विवरण कौन से अध्याय में होगा दसवें स्कंध के 29वें अध्याय में। आप सभी को यह याद होगा?मैंने आपको यह कई बार,अध्याय 29 से 33 तक बताया था, इन पांच अध्यायों को रस पंचाध्या कहा जाता हैं।महारास के इन पांच अध्यायों में से रासक्रीड़ा,पहले अध्याय में कृष्ण ने गोपियों से जो अभी-अभी आई हैं,जो बात कही, वही बात कृष्ण यज्ञपत्नियों से कह रहे हैं, आपको इस पर ध्यान देना चाहिए। यदि आप भागवत के अच्छे छात्र हैं, तो आप इसे देखना चाहेंगे।तो स्वागतम वो महा-भाग:,वही शब्द कृष्ण गोपियो से दोहरा रहे हैं, वास्तव में यह मिलन पहले हुआ हैं और फिर शरद पूर्णिमा के दिन कृष्ण इन शब्दों को दोहराने जा रहे हैं और इतना ही नहीं कुछ और बातें दोहराई जाती हैं।हम अध्याय 23 और 29 की तुलना कर रहे हैं। इन दोनों अध्यायों में कुछ समानता हैं।
तड़ यता देव-यज्ञ:
पतायो वो द्विजाताय:
स्व-सत्रं पारयिष्यंति:
युष्माबीर गृह-मेधिना:
अनुवाद
इस प्रकार आपको बलि के मैदान में लौट जाना चाहिए, क्योंकि आपके पति, विद्वान ब्राह्मण, गृहस्थ हैं और अपने-अपने बलिदानों को समाप्त करने के लिए आपकी सहायता की आवश्यकता है।(श्रीमद भागवतम 10.23.28)
भगवान कृष्ण ने उनका स्वागत किया हैं और फिर वे कहते हैं कि अब घर वापस जाओ।यही बात कृष्ण 29वें अध्याय में गोपियों को बताने जा रहे हैं।10.23.33 में कृष्ण कह रहे हैं, प्रत्यात ततो गृहनी।
सत्यं कुरुश्व निगमम तव पद-मुलमि
प्राप्त वायं तुलसी-दाम पदव
श्रवणद दर्शनद ध्याननी
माई भावो ‘नुकीर्तनाति’
न तथा सन्निकरण:
प्रत्यायता ततो गृहनी
अनुवाद
मेरे लिए दिव्य प्रेम मेरे बारे में सुनने, मेरे देवता रूप को देखने, मेरा ध्यान करने और ईमानदारी से मेरी महिमा का जप करने की भक्ति प्रक्रियाओं से उत्पन्न होता है। वही परिणाम केवल भौतिक निकटता से प्राप्त नहीं होता है। इसलिए कृपया अपने घरों को वापस जाएं।
( श्रीमद भागवतम 10. 29.27)
वापस लौटो, अपने घरों को वापस जाओ।पहले उसने स्वागत किया और वह ऐसी कठोर बातें कह रहा हैं।पहले वह गले लगा रहा था और अब अस्वीकार कर रहा हैं।वापस जाओ।तो इन बातों को सुनकर यज्ञपत्नियों ने क्या कहा?
मैवं विभो रति भवन गदितुं नृसंस:
सत्यं कुरुश्व निगमम तव पद-मुलमि
प्राप्त वायं तुलसी-दाम पदवसंशी
केयर निवोḍहम अतिलṅघ्य समस्त बंधन
अनुवाद
ब्राह्मणों की पत्नियों ने उत्तर दिया: हे सर्वशक्तिमान, कृपया इस तरह के क्रूर शब्द न बोलें। बल्कि, आपको अपना वादा पूरा करना चाहिए कि आप हमेशा अपने भक्तों के साथ तरह तरह से व्यवहार करते हैं। अब जबकि हमने आपके चरण कमलों को प्राप्त कर लिया है, हम बस यहीं जंगल में रहना चाहते हैं ताकि हम आपके चरण कमलों से गिरने वाली तुलसी के पत्तों की माला को अपने सिर पर ले सकें। हम सभी भौतिक संबंधों को छोड़ने के लिए तैयार हैं।
( श्री मद भागवतम 10.23.29)
यहां यज्ञपत्नियां अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रही हैं और कह रही हैं कि वे नहीं जाना चाहती हैं, लेकिन उन्होंने जो कुछ भी कहा हैं, मेरे पास अभी कहने का समय नहीं है। मेरा कहना हैं कि जैसे यज्ञपत्नियों ने यहां बात की हैं, वैसे ही गोपियों ने भी शुरुआत में वहां बात की हैं। गोपियों द्वारा 29वें अध्याय में बोले गए शब्दों को प्रणयगीत कहा गया हैं। भागवत में अलग-अलग गीत हैं। यह उन गीतों में से एक हैं। अध्याय 29 में गोपियों द्वारा बोले गए शब्द और यहां यज्ञपत्नियों द्वारा बोले गए शब्द समान हैं, उनकी भावना भी वही हैं। कुछ शब्द समान हैं, कम से कम आरंभिक शब्द। हम कैसे जा सकते हैं? हमारे पति हमें स्वीकार नहीं करेंगे। हम दूसरे आदमी के यहाँ आ गए हैं। हमारे लिए वापस जाना उचित नहीं होगा। हम आपके साथ रहना चाहते हैं। यज्ञपत्नियां ऐसा अनुरोध कर रही हैं। कुछ कारण दिखाते हुए कि हम क्यों नहीं जाना चाहते। हमारे पति हमें स्वीकार नहीं करेंगे। वे हमें डांटेंगे या पीटेंगे। तुम क्यों चली गई?
कृष्ण कहते हैं नहीं, नहीं। तुम जाओ, मैं तुम्हारे पतियों को समझा दूंगा।और जब यज्ञपत्नियां घर लौटती हैं, तो उनके पति उन्हें स्वीकार करते हैं।उनका स्वागत करते हैं।उनकी सराहना करते हैं और यह पति बहुत प्रभावित होते हैं और प्रेम भक्ति, भाव भक्ति के संकेतों से खुश भी होते हैं। जो उनकी पत्नियों में दिख रहे हैं और वे कह रहे हैं कि धिक्कार हैं हमारी विद्वता और हमारे ज्ञान पर! हमारे वैदिक ज्ञान पर! हमारे पास कृष्ण के साथ आपके जैसा प्रेम नहीं है । तो अपनी पत्नियों की भक्ति देखकर इन पतियों को शर्म आती हैं। उन्हें अपनी पत्नियों से प्रेरणा मिलती हैं या वे उन्हें अपना शिक्षा गुरु बनाते हैं और यह ब्राह्मण जो पहले कर्मकांडी थे, अब भक्त बन गए हैं। हरि बोल!अच्छी खबर। मैं यहीं रुकूंगा। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरिबोल !!
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*4 दिसंबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 929 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। आप प्रतिभागियों की जय हो! हरि !हरि!
बंसी वदन ठाकुर की जय! बंसीवदन ठाकुर नासिक से पंढरपुर पधार चुके हैं। उनका भी स्वागत है।
आगे बढ़ते हैं।
कल हमने कृष्ण को देखा था। देखा था या नहीं? कल हमने कृष्ण को देखा था जब मैंने यह कहा तो यह बात सही है या मैंने ऐसे ही कहा? देखा था या नहीं? किन को याद है या कौन स्वीकार करना चाहते हैं कि कल हमने कृष्ण को देखा था? ठीक है। कुछ हाथ ऊपर उठ रहे हैं। वैसे कृष्ण को तो यज्ञ पत्नियों ने देखा था लेकिन जब वे देख रही थी तब हमने भी देखा था। यह शुकदेव गोस्वामी ने सुनाया और फिर उसी को आगे श्रील व्यास देव ने लिखा है या पहले ही लिखा था, ऐसा भी कह सकते हैं। श्रील व्यास देव ने भागवत की रचना की। तत्पश्चात शुकदेव गोस्वामी ने वही कथा/ लीला राजा परीक्षित को सुनाई। जैसे कि हम बता रहे थे कि उसके अंतर्गत कल के ही दिन में अर्थात एक ही दिन में दो लीलाएं हुई हैं। वैसे कई सारी लीलायें एक ही दिन में होती है लेकिन दो बड़ी-बड़ी लीलाएं अथवा विशेष लीलाएं एक ही दिन में हुई। हम ऐसा ही आपको स्मरण दिला रहे थे। वह दिन मार्गशीर्ष पूर्णिमा का था। प्रातः काल में चीरहरण लीला संपन्न हुई थी। यह लीला गोपियों के संबंध में थी। भगवान् ने गोपियों के वस्त्रों का हरण किया था। तत्पश्चात दिन में लगभग मध्यान्ह के भोजन के समय एक और लीला हुई थी। पहली लीला श्री मदभागवतं के दसवें स्कन्ध के 22 वें अध्याय में वर्णित है व दूसरी लीला यज्ञ पत्नियों के साथ जो लीला भगवान ने खेली थी ( कल बताया था नाग पत्नियां
और यह यज्ञ पत्नियां) अर्थात यज्ञ करने
वाले ब्राह्मणों की पत्नियों के साथ भगवान की यह लीला संपन्न हुई थी। ये यज्ञ पत्नियां एक वन में पहुंची। एक वन में कहने की बजाय हम उपवन कह सकते हैं। भागवतम में उपवन कहा है लेकिन आचार्यों ने उस उपवन का अर्थ समझाया हैं कि उप मतलब छोटा होता है। जैसे आप राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति का अंतर समझते हो, वैसे ही वन और उपवन का अंतर समझ सकते हो। उस वन का नाम अशोक वन था। वहां कृष्ण को भूख लगी हुई थी (इससे थोड़ी रिविजन हो जाती है। जब हम यह कहते रहते हैं, ठीक है। हम सीधा वही कह देते हैं) यज्ञ पत्नियां भगवान के लिए भोजन लेकर आई और कृष्ण को खोज रही है। कृष्ण कहां है? कृष्ण कहां है? कृष्ण कहां है? उन्होंने कृष्ण को ढूंढ ही निकाला। वैसे कल बताया ही था (वही रिवीजन की बात ) उन्होंने पहले कृष्ण के संबंध में सुना था कि कृष्ण कैसे दिखते हैं, कैसे वस्त्र पहनते हैं इत्यादि इत्यादि। यज्ञ पत्नियां उनके हावभाव का वर्णन सुन चुकी थी। यहां अब वे इतने लाखों बालकों के बीच में कृष्ण को यहां ढूंढ रही है कि कृष्ण कौन से हैं?
*श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह धातुप्रवालनटवेषमनव्रतांसे । विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम् ।।* ( श्रीमद् भागवतम २०.२३.२२)
अनुवाद:-उनका रंग श्यामल था और वस्त्र सुनहले थे । वे मोरपंख , रंगीन खनिज , फूल की कलियों का गुच्छा तथा जंगल के फूलों और पत्तियों की वनमाला धारण किये हुए नाटक के नर्तक की भाँति वेश बनाये थे । वे अपना एक हाथ अपने मित्र के कंधे पर रखे थे और दूसरे से कमल का फूल घुमा रहे थे । उनके कानों में कुमुदिनियाँ सुशोभित थीं , उनके बाल गालों पर लटक रहे थे और उनका कमल सदृश मुख हँसी से युक्त था ।
उन्होंने कृष्ण को देखा।
देखती-देखती गई, नेति नेति भी चल रहा था। यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं… हां यह है। फिर यज्ञ पत्नियों ने देखा। वह सुंदर वर्णन शुकदेव गोस्वामी ने सुनाया है। यज्ञ पत्नियां देख रही है और उनको जो दर्शन हो रहा है, वह छवि जो उनके मन में बैठ रही है या बैठने जा रही हैं। भगवान के स्वरूप/ दर्शन की यह छवि घर करके वहीं रहेगी। उसको शुकदेव गोस्वामी सुना रहे हैं। यज्ञ पत्नियों ने जो देखा, उसका सुंदर वर्णन शुकदेव गोस्वामी ने सुनाया है। उन बातों को हमने सुना, जो लिखा है, हम पढ़ भी सकते हैं। उसको सुन भी लिया लेकिन जब हम कहीं पढ़ेंगे अर्थात सुनते तो हैं ही, सुनना थोड़ा आसान होता है। पढ़ने के लिए अधिक परिश्रम करना पड़ता है, हम सुनना ही पसंद करते हैं लेकिन पढ़ना भी चाहिए। सुनी हुई बातों को पुनः पढ़ना चाहिए। हरि! हरि! वह जो दर्शन यज्ञ पत्नियों ने किया।
*श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह*
आपको याद है कि उन्होंने क्या-क्या देखा? एक और तो दुनिया वाले अद्वैतवादी, निराकार, निर्गुण पार्टी भगवान का कोई कोई रूप ही नहीं है। ऐसा जबरदस्त प्रचार संसार भर में हो चुका है। भगवान का कोई रूप नहीं है भगवान का कोई रूप नहीं है। जब आप भगवान को रूप देते हो तब आप भगवान को सीमित कर देते हो। आप भगवान को सीमित कर रहे हो लेकिन फिर वह जानते नहीं , वह तथाकथित सीमित रूप असीम ही रहता है। वह लगता अथवा दिखता तो सीमित है लेकिन वह असीमित ही रहता है। भगवान का रूप है, शो मी दिखा दो, उनको देखो। यह भागवतम हमें भगवान का रूप दिखाता है। यज्ञ पत्नियों ने जो देखा, शुकदेव गोस्वामी उसी का वर्णन कर रहे हैं अथवा सुना रहे हैं, दिखा रहे हैं। आपको क्या-क्या याद है? कैसे-कैसे यज्ञ पत्नियों ने कृष्ण को देखा था? बोलो?
एक तो श्यामवर्ण देखा था। कल यह भी कहा था और आज भी कहते हैं, जैसा कि यज्ञ पत्नियों ने पहले सुना था कि कृष्ण ऐसे हैं, ऐसे वर्ण के हैं, ऐसे वस्त्र पहनते हैं, ऐसे हंसते हैं। उन्होंने उनके हास्य का वर्णन सुना था। वे अलग-अलग अलंकार धारण करते हैं इत्यादि। यह सब उन्होंने सुना था। अब तो वे देख रही हैं। उन्होंने जैसे जैसे सुना था, हूबहू वैसा ही वह दर्शन कर रही थी। कोई अंतर नहीं था। जीरो डिफरेंस। जैसे सुना था, वैसे ही कृष्ण उनको सामने दिखाई दे रहे थे। हमारे साथ भी यही होना है, अगर हम चाहते हैं और यदि ऐसी कोई भगवान के दर्शन की हमारे अंदर तीव्र इच्छा है। दर्शन दो घनश्याम
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी, अँखियाँ प्यासी रे |
मन मंदिर की जोत जगा दो, घाट घाट वासी रे ||
मंदिर मंदिर मूरत तेरी, फिर भी न दीखे सूरत तेरी |
युग बीते ना आई मिलन की पूरनमासी रे ||
द्वार दया का जब तू खोले, पंचम सुर में गूंगा बोले |
अंधा देखे लंगड़ा चल कर पँहुचे काशी रे ||
पानी पी कर प्यास बुझाऊँ, नैनन को कैसे समजाऊँ |
आँख मिचौली छोड़ो अब तो मन के वासी रे ||
निबर्ल के बल धन निधर्न के, तुम रखवाले भक्त जनों के |
तेरे भजन में सब सुख़ पाऊं, मिटे उदासी रे ||
नाम जपे पर तुझे ना जाने, उनको भी तू अपना माने |
तेरी दया का अंत नहीं है, हे दुःख नाशी रे ||
आज फैसला तेरे द्वार पर, मेरी जीत है तेरी हार पर |
हर जीत है तेरी मैं तो, चरण उपासी रे ||
द्वार खडा कब से मतवाला, मांगे तुम से हार तुम्हारी |
नरसी की ये बिनती सुनलो, भक्त विलासी रे ||
लाज ना लुट जाए प्रभु तेरी, नाथ करो ना दया में देरी |
तिन लोक छोड़ कर आओ, गंगा निवासी रे ||
मीराबाई तो कह कर चली गई लेकिन वह घनश्याम आज भी हैं। मीराबाई की आंखें प्यासी थी, भगवान ने मीराबाई की प्यास बुझाई भी। अगर हमारी भी प्यास है, तो प्यास बुझाई जा सकती है। प्यास है? यही समस्या है कि हमारे अंदर प्यास नहीं है। हमें तो दूरदर्शन देखने की प्यास हैं। मुंबई का बॉलीवुड और कैलिफोर्निया का हॉलीवुड.. इसी की प्यास है इसलिए इसी को देखते रहते हैं लेकिन कहां है वह भगवान के दर्शन की अभिलाषा। भगवान तब दर्शन देंगे (किसी ने..अभी नहीं कहूंगा) जब हम सुनते जाएंगे, सुनते जाएंगे। सुन सुनकर भी हमारी प्यास कुछ बढ़ सकती है। थोड़ी-थोड़ी बुझना भी प्रारंभ होगी। बुझना अर्थात कुछ दर्शन होगा। एक समय तो पूरा दर्शन होना है। जैसे यज्ञ पत्नियों ने प्रत्यक्ष दर्शन किया। एक परोक्ष होता है, एक प्रत्यक्ष होता है। यह भी अच्छे शब्द हैं। केवल शब्द ही नहीं। उसके साथ कितनी सारी समझ है। प्रत्यक्ष और परोक्ष। अभी तो हम परोक्ष में भगवान का दर्शन करते हैं। कहीं हैं कृष्ण अर्थात वे अपने धाम में हैं, गोलोक, गोकुल में है। वे लीला खेल रहे हैं। आज भी अब भी राइट नाउ, वही हैं। यह परोक्ष में हुआ। तब प्रत्यक्ष शब्द को कैसे समझेंगे? कई बार समझाया है प्रति- अक्ष अर्थात प्रत्यक्ष। अप्रत्यक्ष प्रति मतलब सामने। अक्ष मतलब आंखों के सामने। प्रत्यक्ष। परोक्ष अर्थात कही और है, दूर नगरी है। हम कुछ कल्पना करते हैं, स्मरण करते हैं। एक दिन प्रत्यक्ष दर्शन करना है या नहीं? इसलिए पहले सुनना होगा। उस दर्शन/ रूप के बारे में कुछ सुनना होगा। सुनने के उपरांत क्या-क्या करना होगा? श्रवण के उपरांत या अध्ययन के उपरांत क्या करना होगा? उपरांत का मतलब समझते हो ना? क्या करना होता है? चिंतन करना होता है। क्या आप में से किसी ने सोचा था? आपकी आवाज मुझ तक नहीं पहुंच रही है लेकिन क्या किसी के मन में विचार आ रहा था कि श्रवण के बाद चिंतन करना होता है। किसी ने सोचा था ,हाथ ऊपर कीजिए। अगर सोचा होगा तो? (हम जानते हैं कि आपके हाथ हैं। ऐसे हाथ नहीं दिखाना हैं। मेरा भी हाथ है। ओके।) आप कुछ प्रशिक्षित हो रहे हो। ट्रेनेड हो रहे हो। पिछले दो-तीन सालों में कम से कम दस- बीस बार तो बताया ही होगा। श्रवण के उपरांत सुनी हुई बातें या अध्ययन के बाद पढ़ी हुई बातों का चिंतन करना होता है। जैसे धुंधकारी चिंतन कर रहा था जबकि अन्य श्रोता सुनी हुई बातों को वही छोड़ रहे थे और अपने काम धंधे में लग गए थे। बातों का विचार चिंतन नही किया। वे श्रोता सुनी हुई बातों का पूरा भूल गए। मानो जैसे सुनी ही न हो। अब दुबारा सुनेंगे, अगले दिन सुनेंगे, टू भी कंटिन्यूड.(आगे जारी रहेगा।) इसका परिणाम कुछ अच्छा नहीं निकला था। गोकर्ण ने भागवत कथा सभी को सुनाई थी। उस भागवत कथा के अंत में एक छोटा सा विमान वहां पहुंचा। हरि! हरि! वहां जो एयर होस्ट थे (एयर होस्टेस की बात नहीं है) एयर होस्टेस पुरुष अर्थात विमान परिचारक, वे केवल धुंधकारी को वैकुंठ ले जा रहे थे।तब गोकर्ण अर्थात स्पीकर अथवा जपा टॉक देने वाले ने उनसे पूछा। वे एयर होस्ट( विमान परिचारक) विष्णु दूत ही थे। भगवान विष्णु ने ही उनको वैकुण्ठ से भेजा था। “केवल धुंधकारी को लेकर आओ।” जब धुंधकारी हवाई जहाज( विमान) में बैठने के लिए सीढ़ी से चढ़ रहे थे। विमान उड़ान भरने ही वाला था, इतने में गोकर्ण ने पूछा। यह सब भागवत माहात्म्य पदम पुराण में वर्णित है। इस कथा /भागवत माहात्म्य को 6 अध्यायों में सुनाया गया है। हमने भी कई बार भागवत माहात्म्य की कथा सुनाई है। अब तो नहीं भूलनी चाहिए। वहां पर गोकर्ण ने पूछा- क्या हुआ/ क्या हुआ ? उन्होंने कहा कि और क्या होना है, जो होना था, वह हो गया। हम तो एक व्यक्ति को ही वैकुंठ ले जा रहे हैं। बैक टू होम, बैक टू गोड़हेड। वैकुंठ धाम प्राप्ति के लिए एक व्यक्ति अधिकारी या पात्र बन चुका है। पदम पुराण में गोकर्ण और विष्णु दूतों के मध्य में यह संवाद हुआ है। आप उसे पढ़िएगा या सुनिएगा। हमनें पदम पुराण / भागवत माहात्म्य के विषय में कई बातें कही हैं।
वहां कई बातें हुई कि क्या कसूर या क्या गलतियां हुई। अन्य हजारों श्रोता जो कथा में बैठे थे ,उन्होंने क्या त्रुटि की, उनके भाव में क्या कमी रही। उसमें एक आइटम( मद) था मननम। चिंतन, मनन एक ही बात है। उन्होंने मनन ही कहा है कथा तो सभी ने सुनी लेकर चिंतन (मनन) जो कथा के उपरांत करना होता है, वह तो एक ही व्यक्ति ने किया और वह व्यक्ति तुम्हारे भ्राताश्री धुंधकारी हैं। वह बहुत ही गंभीर श्रोता थे, उनकी नम्रता, उनकी दृढ़ श्रद्धा जिसको हम निष्ठा कहते हैं। बाकी सब श्रद्धा के साथ सुन रहे थे लेकिन धुंधकारी तो निष्ठा के साथ सुन रहे थे। श्रद्धा और निष्ठा में जो भेद है, उसको समझना होगा। उसके लिए आपको भक्ति शास्त्री कोर्स करना होगा या भक्तिरसामृत सिंधु को पढ़ना होगा। कौन पढ़ेगा? नहीं पढ़ना है तो मर जाओ। मरो। मरते रहो। हम कहें या नहीं कहें। श्राप तो नहीं दे रहे हैं औऱ न ही देना चाहते हैं लेकिन ऐसा ही होता है। जो ख़ुदा मंजूरे होता है तो खुदा को ऐसा ही मंजूर है। ऐसी ही व्यवस्था है। कहने का तात्पर्य ही है (क्योंकि हमें अभी कहना बंद करना है) तात्पर्य आदि अभी विस्तार से नहीं कह सकते। ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए और सुनने के उपरांत और ध्यान करते रहना चाहिए। मनन चिंतन जारी होना चाहिए। कल हमनें कृष्ण का दर्शन किया। कृष्ण का दर्शन जो अशोक वन में किया, उसका भी चिंतन दिन में करना था। वह किया या नहीं? चिंतन करेंगे तो फिर हम भूलेंगे नहीं। यदि कोई बात भूल रहे हैं तो चिंतन अथवा मनन करने से पकड़ में आएगी। हरि! हरि! एक वे श्याम वर्ण के कृष्ण। हिरण्य परिधि… (शीघ्रता से रिपीट कर रहा हूं। ) उन्होंने पीतांबर वस्त्र धारण किए हुए लेकिन साधारण पीतांबर नहीं है। इसलिए हिरण्यपरिधि कहा है। हिरण्यपरिधि क्या है… इसको समझना होगा। गोल्डन कांप्लेक्शन अर्थात भगवान के वस्त्रों का रंग साधारण पीला रंग नहीं है। वह और कई सारे धातु, रंगीन खनिज पहने हुए हैं। वनमाल्यबर्ह अर्थात वन की माला अर्थात वनमाला पहने हुए हैं। बर्ह मतलब मोर पंख पहने हैं। मोर मुकुट पहने हैं। प्रवाल अर्थात पुष्प के कुछ गुच्छ भी धारण किए हैं। नटवेषम .. संक्षिप्त में कह दिया। उनकी सारी वेशभूषा नट जैसी है। ऐसे वेशभूषा को धारण करते हुए.. अनुव्रतांसे अर्थात अपने मित्र के कंधे पर एक हाथ रखते हैं। विन्यस्त मतलब रख कर… मित्र के कंधे पर एक हाथ रखकर, हस्तमितरेण .. दूसरे हाथ में उन्होंने क्या धारण किया था? दूसरे हाथ में रस्सी को लिए हुए थे, याद है आपको? क्या था हाथ में? हाथ तो हिला रहे हैं लेकिन हाथ में किस को हिला रहे हैं रस्सी हिला रहे थे? वे धुनानमब्जं अर्थात कमल पुष्प को हिला रहे थे। कानों में कुछ कुछ पुष्प धारण किए हुए हैं। यह नट( आर्टिस्ट) हैं।
उनके बालों से, कपोल जो चेहरा है, कुछ ढका सा है, हल्का सा ढक गया है। मुखाब्जहासम अर्थात उनके चेहरे पर हंसी है। एक बार पुनः आप दुबारा नोट करो। यह दसवां स्कंध है, तेइसवां अध्याय है और बाईसवां श्लोक हैं। आप कंठस्थ भी और ह्रदयंगम भी कर सकते हो।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!
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जप चर्चा,
3 दिसंबर 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण 971 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन आप सुन रहे हो, आप तैयार हो, शायद सब तैयार नहीं है। कुछ लोग तो जप ही कर रहे हैं। यह कथा लगभग 7:10 तक चलती रहेगी। कुछ भक्तों ने पुस्तक वितरण किया है तो, उनके आंकड़े भी अनाउंस करने हैं और भी कोई अनाउंसमेंट घोषणा रहेगी। उसके साथ लगभग 7:15 पर यह जप चर्चा समापन करने का एक नियम अभी-अभी बनाया है। हमारे आई एम पीएम मंदिरों के अध्यक्ष। यह ठीक है ना, क्योंकि यहां मंदिरों में दर्शन खुलते हैं श्रृंगार दर्शन इत्यादि इत्यादि और भी कार्यक्रम होते हैं। हर रोज 7:15 तक यह जप चर्चा समापन करेंगे इसीलिए अब ध्यान पूर्वक सुनिएगा। मैंन कहना प्रारंभ किया ही था। मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन वैसे दो लीलाएं हुई। एक प्रात काल में और दूसरी दिन में। प्रात कालीन लीला तो आप सुन ही रहे थे। आज नहीं कई दिन पहले वह लीला संपन्न हुई। चीर घाट पर वस्त्र हरण की लीला है। गोपी वस्त्रहरण लीला प्रात काल में संपन्न हुई। भोर में या जब सूर्योदय हो रहा था कहिए।
कृष्ण जल्दी उठकर गायों को तैयार किए हैं। और सभी ग्वालबाल भी अपने अपने घरों में सभी को बताया था आज हम जल्दी प्रस्थान करेंगे, हर रोज की तरह नहीं रहेगा। नहीं तो हमेशा क्या होता था 8:00 बजे प्रस्थान होता है। गोचारण लीला का प्रारंभ 8:00 बजे के पास आस पास होता है। इस दिन जरा जल्दी इससे यह हुआ कि, इस दिन ना तो यशोदा को न किसी ग्वाल बाल के माता को अपने पुत्रों के लिए दोपहर का जो भोजन है वह बनाकर देने के लिए समय ही नहीं था। कृष्ण जल्दी में थे। मित्रों को उनके साथ जाना था। कृष्ण जल्दी में इसलिए थे, गोपिया जो स्नान कर रही है चीर घाट पर वहां तक पहुंचना है। हो गया वस्त्रहरण, हो गया उसी प्रातकाल को। फिर वहां से कृष्ण अपने मित्रों के साथ गायों के साथ प्रस्थान करते हैं और कहां पहुंच जाते हैं, उपवने एक उपवन में पहुंच जाते हैं। उपवन का नाम भी बताया था आपको याद है, गुरु महाराज कॉफ्रन्स में एक भक्त को संबोधित करते हुए, “आप लिख रहे हो आपको याद है।” क्या है नाम, उस उपवन का नाम है अशोक वन। यह अशोक वन कौन से घाट के पास था, अक्रूर घाट। वहां कृष्ण पहुंचे हैं और गायों को चराने लगे और गाय चर रही हैं।
तस्याउपवने कामं, चारयन्त पशुम नृप। यह श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के बावीसवे अध्याय का अंतिम श्लोक है। वहां पर शुकदेव गोस्वामी ने कहा है, तस्याउपवने कामं, चारयन्त पशुम नृप। हे राजा कृष्ण उपवन में जिसका नाम अशोक वन है गायों को ले गए। कृष्णमकृष्णरामा ग्रामोंपगम्य क्षुधारताइदम अब्रवन। वहां से भी तो चल के ही गए हैं और फिर वहां पर गाय चर रही हैं। अब कुछ मध्यान्ह का समय हो चुका है। दिन कौन सा है? याद है ना, पूर्णिमा का दिन है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा आपको याद रहना चाहिए। फिर अश्विन पूर्णिमा को क्या हुआ, फिर कार्तिक पूर्णिमा को क्या हुआ, अश्विन कार्तिक मार्गशीर्ष पूर्णिमा को क्या होने जा रहा है? मित्रों को लगी है भूख। क्षुधारता भूख से परेशान है। और सारे मित्र कृष्ण बलराम को संबोधित करने लगे। और उन्होंने कहा राम-राम महावीर्य इसी के साथ अब दूसरा अध्याय प्रारंभ हो रहा है। अध्याय संख्या के स्कंध वही है। दसवां स्कंध अध्याय 23।
हे राम राम हे कृष्ण दुष्ट निभाना दुष्टों का संघार करने वाले हैं बलराम हे श्री कृष्णा इषावइ बाधते शुनः तशान्तिम करतुम अहर्तितः मित्रों ने कहा तुम तो दुष्टों का संहार करने वाले हो। यह जो हमारी दुष्ट भूख है ना, भूख को दुष्ट कह रहे हैं दुष्ट। कहे कि यह भूख यह हमको परेशान कर रही हैं। तो कुछ इस भूख का पराभव करो ना, भूख को थोड़ा शांत करो ना। तशान्तिम करतुम अहर्तितः तुम दोनों भी समर्थ हो हम सभी की भूख को मिटाने के लिए। हमारे क्षुधारताः हम परेशान हैं। हमको कष्ट हो रहे हैं। भूख लगी है। कुछ समाधान करो हे कृष्ण, बलराम। वैसे हररोज ऐसे नहीं कहते थे लेकिन आज कह रहे हैं। क्या कारण है, आपको बताया गया है। आज के दिन साथ में भोजन नहीं लेकर आए थे। भोजन साथ में लाए ही नही थे। नहीं तो भूख लगी है तो फिर कृष्ण को कहने की क्या जरूरत थी। अपना डिब्बा खोल लिया और खा लिया। और खाना प्रारंभ करते लेकिन किसी के पास भी भोजन नहीं था। सभी खाली हाथ है। या हो सकता है कोई लकड़ी या बासुरी हाथ में है लेकिन भोजन तो नहीं था। दोपहर का भोजन तो किसी के पास नहीं था। इसीलिए विशेष निवेदन हो रहा है।
हे राम राम महावीर्य हे कृष्ण कुछ करो। तो कृष्ण और बलराम ने एक्शन लिया है। और कुछ ग्वालों को भेजा भी है। जाओ यहां पास में ही यज्ञ हो रहा है। यज्ञ करने वाले जो ब्राह्मण है उन से निवेदन करो। वे जरूर आपको कुछ देंगे। पत्रम पुष्पम फलम उनके साथ काफी कुछ होगा। यज्ञ की सामग्री और कोई भोजन भी होगा। भोग लगाया होगा। यज्ञार्थम यज्ञ की प्रसन्नता के लिए। वैसे यज्ञ यज्ञ पुरुष भगवान ही होते हैं। यज्ञार्थात्कर्मणोन्यत्र लोकोअयं कर्मबंधन तो यज्ञपुरुष मतलब भगवान। भगवान कह रहे हैं कृष्ण बलराम। यज्ञ हो रहा है तो यज्ञ पुरुष को कई आहुतियां वह लोग चढ़ा रहे हैं ही। तो वह आहुति अग्नि में चढ़ाने की बजाय बताएं वह हमारे मुख में चढ़ा सकते हैं। उनको बता दो, कृष्ण बलराम यहां पास में ही है। और उनको लगी है भूख और हे ब्राह्मणों कुछ दे दो। कोई सामग्री दे दो। कुछ पत्रं पुष्पं फलं दे दो। कुछ पक्वान्न दे दो। पक्वान्न पका हुआ अन्न। कुछ कच्चा भी होता है। कुछ पकि भी होता है। दोनों प्रकार के अन्न। तो मित्र गए हैं सारी लीला तो नहीं कहेंगे आपको। आपको पढ़ना है। उन ब्राह्मणों ने कुछ नहीं दीया इन बालको की और उन्होंने ध्यान भी नहीं दिया, उनका स्वाहा। हे कृष्ण बलराम को भूख लगी है, कुछ दे दो स्वाहा। कुछ थोड़ा तो दे दो स्वाहा। अरे पत्रं पुष्पं फलं तो दे दो स्वाहा। स्वाहा उनका तो चल रहा है स्वाहा।
कृष्ण को चाहिए कृष्ण को भूख लगी है। कृष्ण मरने दो कृष्ण को। हमको कोई परवाह नहीं है। हमारा स्वाहा स्वाहा हम करेंगे। इसको कहते हैं कर्मकांड। कर्मकांड केवल विषेर भांड यही है भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी यह भुक्ति है ऐसे कई सारे यज्ञ करते रहते हैं। यज्ञार्थात कर्म जो यज्ञ भगवान की प्रसन्नता के लिए नहीं करते हैं। अपनी प्रसन्नता के लिए अपनी कुछ आकांक्षा की पूर्ति के लिए यज्ञ करते हैं। मित्र मांग मांग कर थक गए हैं। एक नहीं सुनी उन कर्मकांडी ब्राह्मणोंने तो फिर लौट आए। बेचारे कुछ भी नहीं दिया भूख तो लगी है। हे कृष्ण कृष्ण, बलराम, महावीर्य अब क्या करें? कैसा पेट भरे? हम भूख से परेशान हैं। तो फिर कृष्ण कहे ठीक है, कोई प्रॉब्लम नहीं। कृष्ण आइडियाबाज होते ही है, रहते ही हैं। उनके पास दूसरा पर्याय था। ठीक है, जहां यज्ञ हो रहा है वहां बात नहीं बनी, तो उनकी यज्ञ पत्नियों के पास जाओ, उनके घरों में जाओ। और उनको कहो कृष्ण बलराम यहां अशोक वन में है। उनको लगी है भूख और उनके मित्रों को भी लगी है भूख। कुछ तो दे दो भोजन कोई पकवान। तो मित्रों की एक टोली भागे दौड़े गई और वहां यह जो स्त्रियां थी उनको यज्ञ पत्नियां कहा है यज्ञ पत्नी।
श्रीमद्भागवत में नाग पत्नीया प्रसिद्ध है। नागपत्नी मतलब किसकी पत्नी कालिया नाग की पत्नी। और यहां यज्ञ पत्नी मतलब यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों की पत्नियां। तो उनके पास पहुंचे और जैसे ही उन्होंने सुना कि कृष्ण पास में ही है, बगल के वन में है। वह कहने लगी हम कुछ कर सकते हैं आपके लिए या कृष्ण के लिए। कृष्ण यहां पास में है तो बता दो, बता दो हम क्या कर सकते हैं। आप क्यों आए हो यहां? बड़ी उत्कंठीत थी। कृष्ण पास में ही है और उन्हीं के कुछ यह दूत आए हैं, संदेशवाहक बनके आए हैं तो जरूर किसी उद्देश्य से कृष्णा ने भेजा होगा तो बता दो बता दो। तो मित्र कहने लगे हां कृष्ण बलराम है और उनको भूख लगी है और उनके पास कुछ भोजन नहीं है आज। उनके पास भी नहीं और हमारे पास भी नहीं है। देखो हमारा पेट तो देखो थोड़ा कुर्ता खोल कर दिखाया होगा पेट। मैया दया करो कृष्ण का भी यही हाल है, हम मित्रों का भी यही हाल है। तो यह सुनते ही बस यह सारी माताओं ने यज्ञ पत्नियों ने कई सारी टोकरिया भर दी। चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद.. चतुर्विध मतलब चार प्रकार का भोजन होता है। कुछ चबाने का होता है। कुछ पीने का भी होता है। इसलिए उसको चतुर्विधा कहते हैं। कुछ तो हम चाटते हैं जीव्हा से उसको खाते हैं, तो यह चतुर्विध है। वैसे होंगे छप्पन भोग, लेकिन छप्पन भोगो का विभाजन होगा, फिर चार विभाग होंगे।
इसलिए चतुर्विध कहां है कुछ चबाकर खाने के, कुछ पीने के, कुछ निगलने के और कुछ चाटने के। तो यह तैयारी हो गई उन्होंने टोकरिया भर दी, कुछ प्लेट्स भी तैयार किए कहो। और वे स्वयं ही लेकर जाने लगे, मित्रों ने कहा होगा हमको दे दो, हम ले जायेंगे। तो फिर यज्ञ पत्नियों ने कहा नहीं नहीं नहीं हम स्वयं ही पहुंचा देंगे। बस हमको मार्ग दिखा दो, बता दो कहां है चलो हमारे आगे आगे रहो हम पीछे-पीछे आ रही हैं। चलो दौड़ो कृष्ण को भूख लगी है हमें जल्दी करना होगा। तो सभी पहुंच गए जहां कृष्ण बलराम लाखों मित्रों से घिरे हुए हैं। वह प्रतीक्षा में घड़ी की और देख रहे हैं, कब आते हैं मित्र भोजन लेकर। लेकिन आ ही गए हैं केवल मित्र ही नहीं आए वह सारी यज्ञ पत्तियां आ गई। बहुत बड़ी संख्या में पहुंच गई, कई सारे पकवान्न व्यंजन लेकर। तो इतने सारे मित्रों, ग्वाल बाल और इसके मध्य में कई पर कृष्ण है।
लेकिन इसमें से कृष्ण कौन से हैं? कैसे पता लगवाएगी. क्योंकि पहले कृष्ण बलराम को खिलाना है और फिर मित्रों को भी खलाएगी ही। तो इन यज्ञ पत्नियों ने भगवान के सौंदर्य का, रूप का वर्णन सुने था। हो सकता है किसी भागवत कथा में गई होगी या किसी जपा टॉक में उन्होंने सुना था कि कृष्णा ऐसे दिखते हैं, ऐसे वस्त्र पहनते हैं, यह होता है, वह होता है मुरली है, यह है, वह है। तो वह सारा याद रखा तो था भूली नहीं थी। वे जब कथा सुनते थे तब सोते नहीं थे। नोट भी करते थे फिर बाद में उसका चिंतन भी करती थी, जो जो उनको सुनाया था। और अब ढूंढ रही है ऐसे ऐसे वर्णन वाला कौन सा है बालक। वही है कृष्ण, वही होगा कृष्णा। तो वह वर्णन है दसवें स्कंध के 23 वा अध्याय का 22 वा श्लोक। बहुत सुंदर श्लोक है उत्तम श्लोक है। इसमें कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन किया हुआ है। आप इसको नोट करना ताकि आप कृष्ण को ढूंढना, देखना चाहोगे तो आप कहोगे ओहो नैति नैति नैति। या भी नहीं है, यह भी नहीं है, यह गणेश है, तो यह यमराज है, तो यह चंद्र है, इंद्र है तो यह यह है, यह है वह है। लेकिन न इति यह कृष्ण नहीं है, यह कृष्ण नहीं है। ठीक है यह विष्णु है, यह नारायण है, यह राम है लेकिन यह कृष्ण नहीं है। हां यह कृष्ण है। तो कैसे कृष्ण दिखे या दर्शन किया। और यह दर्शन हुबहू वैसा ही था जैसे इन माताओं ने सुना था उनके सौंदर्य का वर्णन।
श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह-
धातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे ।
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं
कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम् ॥ २२ ॥
तो शाम वर्ण का बालक.. अब हम इसको विस्तार से नहीं कह पाएंगे। आपके पास भागवत है उसको आपको पढ़ना होगा। श्याम वर्ण के हिरण्यपरिधिं तो उनके अंग का रंग या कांति श्याम वर्ण के हैं। घन एव श्याम घनश्याम है। वस्त्र है पीले वस्त्र है पितांबर हैं। लेकिन वह पीलापन साधारण नहीं है। जब बिजली चमकती है ऐसा चमकीला है वह पितांबर वस्त्र। वन माल्य वनमाला पहने हुए हैं। बर्ह और ऊपर मोर मुकुट है। बाकी औरों ने नहीं पहना हुआ है जिन्होंने मोर मुकुट धारण किया है वह कृष्ण है। धातु.. कई सारे धातु या खनिज पदार्थ होते हैं या धातु एलिमेंट्स सोना चांदी भी कहो या डायमंड। जो खान से मिलते हैं फिर उसका पॉलिशिंग वगैरह होता है। तो इस प्रकार के धातु वह पहने हुए है, उसके अलंकार बनाए हुए हैं। उसको मोती की माला पहने हुए हैं। नटवेश और वेश जो है नट जैसा है एक्टर जैसा। और कृष्ण तो नटराज है, सारे नटों के राजा है। अनुव्रतांसे यहां यज्ञ पत्नियों ने देखा कि ऐसा घनश्याम वर्ण का, पीतांबर वस्त्र धारण किया हुआ और कई सारे धातु और वनमाला मोर मुकुट पहना हुआ यह बालक। अपने मित्र के कंधे पर हाथ रखकर खड़ा है। अपने बगल वाले मित्र के कंधे पर अपना एक हाथ रखे हैं। विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं और दूसरे हाथ में यह कमल का पुष्प धारण किए हैं और उस को हिला रहे हैं। जिसको अंग्रेजी में ट्विरलिंग कहते हैं। कैसे ट्विरलिंग कैसे होता है दिखाइए। आप कभी घूमाते हो ऐसा? कृष्ण तो एक्टर है। ओके सत्यजीत ठीक कर रहे हैं।
आपने तो हाथ में पेन लिया हुआ है, कृष्ण के हाथ में कमल का पुष्प था। आपके हाथ में.. अच्छा अगरबत्ती है क्या? ओके जब अगरबत्ती से आप आरती उतारते हो तो वह है ट्विरलिंग। धुनानमब्जं कर्णोत्पल कान में कुछ पुष्प रखे हैं, कानों के ऊपर। तो ऐसा विस्तार से वर्णन है कैसे वस्त्र है, कैसा रंग है, कैसी माला है और मोर मुकुट है। एक मित्र के कंधे पर हाथ रख कर खड़े हैं और दूसरे हाथ में कमल का पुष्प है और केवल पकड़े नहीं है उसको हिला रहे हैं। कान में कुछ पुष्प रखे हैं फूल रखे हैं। इसी के साथ अलककपोल उनके कुछ घुंघराले बाल उनके चेहरे को ढक रहे हैं। इससे भी कृष्ण का सौंदर्य और बढ़ा हुआ है। मुखाब्जहासम और मुख मंडल में हास्य है। हासम मुखाब्ज अब्ज इस श्लोक में दो बार आया है। एक मुख मंडल कमल सदृश्य है और हाथ में तो कमल का पुष्प रखे ही है। तो ऐसे कृष्ण को देखा और सब को फिर भोजन खिलाई।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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2 दिसंबर 2021
हरे कृष्ण !!
आज हमारे साथ 950 स्थानों के प्रतिभागी जप कर रहे हैं। आप सभी का स्वागत है। हमारे पास सीमित समय है। कृपया इस छोटे से समय में कृष्ण की लीला को अधिक एकाग्रता के साथ सुनने का प्रयास करें जो वृंदावन में हुआ और अभी भी हो रहा है। क्या यह आज नहीं हो रहा है? यह हमारे बिना हो रहा है। कौन जानता है कि हम कब इसका हिस्सा होंगे? कृष्ण हमारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वह हमें याद कर रहा है। इसलिए, यदि हम भगवान के पवित्र नाम का जप करते हैं, तो यह श्रवण और नित्यं भागवत-सेवया है ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे।।
अगर हम सुनते हैं तो हम कृष्ण को भी याद करेंगे और हमारा सुप्त प्रेम पुनर्जीवित हो जाएगा।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कबू नया:
श्रवणादि-शुद्ध-चित्त करे उदय:
अनुवाद: – कृष्ण के लिए शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में शाश्वत रूप से स्थापित है। यह किसी अन्य स्रोत से प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है। जब श्रवण और जप से हृदय शुद्ध हो जाता है तो यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग जाता है।
(श्री चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला 22.107)
और फिर हम कृष्ण प्रेम प्राप्त करेंगे क्योंकि हम कृष्ण भावनाभावित हो जाएंगे । तब अंत में हम नारायण को याद कर पाएंगे ।
एतावन सांख्य-योगभ्याणि
स्व-धर्म-परिनिष्टया।
जन्म-लाभं परं पूसामी
पूर्व नारायण स्मृति।।
अनुवाद :- मानव जीवन की सर्वोच्च पूर्णता, या तो पदार्थ और आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, रहस्यवादी शक्तियों के अभ्यास से, या व्यावसायिक कर्तव्य के पूर्ण निर्वहन से प्राप्त होती है, जीवन के अंत में भगवान के व्यक्तित्व को याद करना है।
(श्रीमद् भागवत 2.1.6)
जीवन के अंत में जब हम इस शरीर को छोड़ते हैं तो हम जो कुछ भी याद करते हैं, उसी के अनुसार हम जन्म लेंगे।
यं यं वापि स्मरन्भावं
त्यजत्यन्ते कालेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय
सदा तद्भावभावित:।।
अनुवाद: – हे कुंती के पुत्र, शरीर त्यागने पर जो भी होने की स्थिति याद आती है, वह वह अवस्था बिना किसी असफलता के प्राप्त होगी।
(श्रीमद्भगवद्गीता 8.6)
लेकिन जो अपने अंतिम समय में कृष्ण और उनकी लीलाओं को याद करेगा, वह दोबारा जन्म नहीं लेगा और वह वहां पहुंच जाएगा जहां कृष्ण हैं।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म: नैति मामेति सो ‘र्जुन:।।
अनुवाद: – जो मेरी उपस्थिति और गतिविधियों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह शरीर छोड़ने पर, इस भौतिक दुनिया में फिर से जन्म नहीं लेता है, लेकिन मेरे शाश्वत निवास को प्राप्त करता है, हे अर्जुन।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.9)
मैं इन श्लोकों का सार बता रहा हूँ। इसलिए इसे पकड़ने की कोशिश करें क्योंकि हम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। 18 अध्याय में कृष्ण कहते हैं,
मन्मना भव मद्भक्तो:मद्याजी मां नमस्कुरू।
मामेवैशष्यसि सत्यं तेप्रतिजाने
प्रियो ‘सि मे।।
अनुवाद
सदा मेरा ही चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। इस प्रकार तुम निश्चय ही मेरे पास आओगे। मैं तुमसे यह वादा करता हूँ क्योंकि तुम मेरे बहुत प्रिय मित्र हो।
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.65)
अगर हम हमेशा उनके बारे में सोचते हैं तो हम कृष्ण और सत्यम को प्राप्त करेंगे, यह सत्य है। कृष्ण सत्य हैं और वे जो कहते हैं वह भी सत्य है। वो क्या है? भगवान कहते हैं, “यदि आप मेरे बारे में सोचते हैं, मेरे भक्त बन जाते हैं, मेरी पूजा करते हैं तो आप निश्चित रूप से मेरे पास आएंगे।” यह सच है। जब प्रभु यह कहते हैं तो हमें दृढ़ विश्वास के साथ उस पर विश्वास करना चाहिए। अंत में वह भी कहते हैं; प्रतिजन प्रियो’सी मे, “मैं वादा करता हूं कि तुम मेरे पास आओगे और तुम मेरे साथ खेलोगे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? क्योंकि तुम प्रिय हो, प्रिय मुझे।” कृपया इस पर ध्यान दें। “तुम मेरे लिए प्रिय हो।” हे मेरे प्रिय आत्माओं !! एचएच नवयोगेंद्र स्वामी महाराज अपने भाषण में कहते हैं। यह वास्तव में प्रभु द्वारा तभी कहा जा सकता है जब वे कहते हैं कि आप मेरे और प्रिय हैं। लेकिन भक्त अन्य भक्तों को भी प्रिय होते हैं। इसलिए वह एक भक्त होने के नाते ऐसा कह सकता है। कृष्ण तब कहते हैं, “मैं क्यों आता हूँ? मेरे अवतार लेने का क्या कारण है? क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो, प्रियो’सि।”
परित्राणय साधुनां विनाशय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि
युगे युगे।।
अनुवाद :- साधुओं का उद्धार करने और दुष्टों का नाश करने के साथ-साथ धर्म के सिद्धांतों को पुन: स्थापित करने के लिए, सहस्राब्दियों के बाद मैं स्वयं प्रकट होता हूं।
( श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
भगवान कहते हैं, “हे मेरी प्रिय आत्माओं! मैं तुम्हें याद कर रहा था और तुम नहीं आ रहे थे। इसलिए मैं तुमसे मिलने आया था।”
विट्ठल तो आला, आला, मला भेटन्याला..
मराठी भक्त गाते हैं, “विट्ठल मुझसे मिलने आते हैं।” इसलिए कृष्ण अपने निवास और मधुर लीलाओं को छोड़कर, हमसे मिलने के लिए इस कालकोठरी में आते हैं।
गोलोकम् च परित्यज्य:
लोकनम त्राणा-करणाति
कलौ गौरंगा-रूपेन
लीला-लवण्य-विग्रहः।।
अनुवाद: – कलियुग में, मैं गोलोक को छोड़ दूंगा और दुनिया के लोगों को बचाने के लिए, मैं सुंदर और चंचल भगवान गौरांग बनूंगा।
(मार्कंडेय पुराण)
बद्ध आत्माओं पर दया करते हुए कृष्ण हमारे पास आते हैं। वह हमेशा दयालु होते है, ऐसा नहीं की कभी-कभी उसे सहानुभूति मिल जाती है।
यदा यदा हि धर्मस्य
ग्लानिर्भवती भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
अनुवाद :- हे भरतवंशी, जब भी और जहां भी धर्म-कर्म में ह्रास होता है, अधर्म का प्रबल उदय होता है–उस समय मैं स्वयं अवतरित होता हूं।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.7)
जब इस दुनिया में जीवन कठिन हो जाता है या जब भी धर्म में गिरावट आती है और अधर्म हर जगह फैल जाता है, तो भगवान प्रकट होते हैं।
अभ्यासार्थ तडा तस्माईं
स्थाननी कलये ददौं।
दिष्टं पनम स्त्रियां सोना:
यात्राधर्म: चतुर-विधा:।।
अनुवाद: – सीता गोस्वामी ने कहा: महाराज परीक्षित ने, इस प्रकार, काली के व्यक्तित्व से अनुरोध किया, उन्हें उन स्थानों पर रहने की अनुमति दी जहां जुआ, मद्यपान, वेश्यावृत्ति और पशु वध किया जाता था।
(श्रीमद् भागवत1.17.38)
अधर्म क्या है? महाराज परीक्षित ने अनुमति दी, “ओह कली आप चार स्थानों पर रहते हैं जहाँ अधर्म होता है; जहाँ जुआ और लॉटरी (दिष्ट:) होती है, शराब (पान:), कॉफी और अन्य नशा पीना, वह कली के लिए जगह है। फिर मांस खाना है। (सीना), अंडे खाना, मांस, सांप का सूप, चींटी की रोटी। हर कोई रोटी और मक्खन खाता है लेकिन चीन में वे चींटी की रोटी खाते हैं। मैंने इसे व्यक्तिगत रूप से देखा। वे इसके लिए चींटियों की खेती करते हैं। वे मुझे भी दिखा रहे थे; विभिन्न प्रकार के विभिन्न प्रकार की रोटी के लिए चींटियाँ। यह जीवों के लिए भोजन नहीं है। जहाँ ऐसा भोजन होता है, वहाँ केवल मांस और मांस ही नहीं बल्कि ऐसा फैंसी भोजन होता है जो अधर्म या अधर्म का स्थान होता है। और फिर अवैध सेक्स (स्ट्राय) होता है; जहां सिनेमा है, बॉलीवुड है, हॉलीवुड है और विपरीत के साथ खुलकर घुलमिल जाता है, जहां कृष्ण के बारे में कोई सुनवाई नहीं है।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य’ कबू नया।
श्रवणादि-शुद्ध-चित्त करे उदय:।।
अनुवाद: – कृष्ण के लिए शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में शाश्वत रूप से स्थापित है। यह किसी अन्य स्रोत से प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है। जब श्रवण और जप से हृदय शुद्ध हो जाता है तो यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग जाता है।
(श्री चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला 22.107)
जब हम भगवान का नाम और लीलाएं सुनते हैं तो देवत्व का प्रेम जाग जाएगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे।।
लेकिन ये अभिनेता और अभिनेत्री कृष्ण लीलाओं को नहीं सुनते हैं लेकिन वे केवल दो विषयों का चित्रण करते हैं; वासना और क्रोध।
ध्यायतो विषयान्पुंस:
संगस्तेषूपजायते।
संग्ङात्सञ्ञायते काम:
कामात्क्रोधो ‘भिजायते।।
अनुवाद :- इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य में उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और काम से क्रोध उत्पन्न होता है।
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.62)
सिनेमा देखने का मतलब है कि कामोत्तेजक लोगों को कामोत्तेजक तरीके से काम करते देखना और सुनना तो हम भी वासना विकसित करेंगे और कामोत्तेजक बन जाएंगे। नोट करें। और अगर आप कृष्ण के नाम और लीलाएं सुनेंगे, तो कृष्ण प्रेम जाग जाएगा। लेकिन अगर हम सांसारिक चीजों में लिप्त हैं तो हमारी वासना बढ़ेगी। इस तरह कई विषय हैं। क्या आपने यह नोटिस किया? यदि आप कृष्ण के नाम और लीलाएं सुनेंगे, तो कृष्ण प्रेम जाग जाएगा। लेकिन अगर हम सांसारिक चीजों में लिप्त हैं तो हमारी वासना बढ़ेगी। एक को वासना मिलेगी और दूसरे को प्रेम। कामुक अधिक कामी और माया के दास बनेंगे और बार-बार जन्म लेंगे।
पुनर्पी जनानम पुनर्पी मारनम पुनर्पी जननी जठारे स्यानाम,
इहा संसार बहुदसरे कृपापारे पाहि मुरारे
अनुवाद: -फिर से जन्म लेना, फिर से मरना, और फिर से माँ के गर्भ में पड़ा रहना; इस संसार को पार करना अत्यंत कठिन है। हे मुरा के विनाशक, मुझे अपनी असीम करुणा से बचाओ।
(भज गोविंदम श्लोक – 21)
इसलिए सावधान रहें। ये चार स्थान हैं कली के धब्बे, जिससे दुनिया भुगत रही है। मैं कह रहा था की कृष्ण जीवों की पीड़ा देखते हैं, विशेष रूप से कलियुग में इस कोरोनावायरस की तरह। आप सभी जानते हैं कि यह युहान, चीन से आया है; वहाँ के खाने की आदतों के कारण कोई आश्चर्य नहीं। वहीं से यह हर जगह फैल गया और हर कोई परेशान था। तब भगवान दयालु महसूस करते हैं और भगवान चैतन्य, नित्यानंद और उनके सभी सहयोगियों के रूप में हमसे मिलने आते हैं। 500 साल पहले, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कलियुग के धर्म की स्थापना की थी। कृष्णभावनामृत, हरिनाम संकीर्तन कलियुग का धर्म है। भागवत धर्म सार है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इसकी स्थापना की। और इसकी स्थापना क्यों की गई? हमारी सुरक्षा के लिए।
धर्म एव हटो हंति धर्मो रक्षाति रक्षित: तस्माद धर्मो न हंतव्यो मा नो धर्मो हटोवधूत
अनुवाद: – धर्म उसका नाश करता है जो उसका नाश करता है। धर्म उनकी भी रक्षा करता है जो इसकी रक्षा करते हैं। इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए। जान लें कि यदि उल्लंघन किया जाता है, तो धर्म हमें नष्ट कर देता है।
(मनु स्मृति 8.15)
धर्म धारिकों की रक्षा करता है। आइए इस हरिनाम संकीर्तन धर्म की स्थापना करें। और हम इस धर्म के तहत आश्रय और रक्षा करेंगे। सभी को इस धर्म का प्रचार करें ताकि उनकी भी रक्षा हो सके। इसलिए लगे रहो। मैराथन भी शुरू हो गई है। भगवद्गीता का वितरण शुरू करें । आप सभी भी तैयार हैं, मुझे लगता है कि जैसा कि हमने पहले घोषणा की थी। हम जल्द ही सभी के स्कोर की घोषणा करेंगे। इसलिए योजना बनाना शुरू करें कि आप अधिक से अधिक कैसे वितरित कर सकते हैं। एचजी पद्ममाली प्रभु को योजना बनाएं, क्रियान्वित करें और रिपोर्ट करें और अगले दिन घोषणाएं की जाएंगी।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*01 -12 -2021*
*पंढरपुर धाम से*
हरे कृष्ण !
आज 990 स्थानों से भक्त इस जप कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित हैं हरि बोल! वेलकम जिन्होंने एडिशनल ज्वाइन किया है लगता है कि कल अलग-अलग भक्तों ने आप को संबोधित भी किया, प्रेरणा के कुछ अपने वक्तव्य प्रस्तुत किए इसी का परिणाम है कि आज एकादशी तो नहीं है किन्तु एकादशी की जो संख्या थाउजेंड, वन के जो कहते हैं तो आज भी हम लोग 990 हैं और काउंटिंग जिसको कहते हैं इसीलिए आप सभी का स्वागत है यू आल आर वेलकम हरि हरि ! कभी-कभी मैं कहता ही रहता हूं आज आपका यहां पर स्वागत हो रहा है इस जपा कॉन्फ्रेंस में या जपा टॉप में जप सुनने के लिए जो जप किया आपने। ऐसा ही आपका स्वागत या इससे और बढ़िया स्वागत एक दिन आपका वैकुंठ या गोलोक में हो। अच्छा होगा कि नहीं ? सो दैट इज द आईडिया हरि हरि ! इस्कॉन की बोट जा रही है वी आर गोइंग बैक टू होम, हम जा रहे हैं, भगवत धाम लौट रहे हैं। श्रद्धावान जन हे ! श्रद्धा वान जन ! हे श्रद्धा वान लोगों , भक्तों क्या करो ? चेंट *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
“नदिया गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन पतियाछे नामहट्ट जीवेर करण” नित्यानंद प्रभु, चैतन्य महाप्रभु ने यह नाम हाट खोला है इसका भी एक नामहट है। हाट मतलब बाजार, भगवान के नाम का, मतलब होली नेम और यहां की जो कमोडिटी है इसका वितरण होता है या कहो बिक्री भी होती है और वह हरि नाम का वितरण होता है (श्रद्धावान जन हे, श्रद्धावान जन हे) फिर कह भी दिया श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कह रहे हैं, आप इस नाम हाट में आए हो , दिस इज द मार्केट प्लेस ऑफ होली नेम, मार्केटप्लेस है नाम हाट है, बाजार है और यहां उपलब्ध हो रहा है।
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥* (आदि लीला17.21)
अनुवाद ” इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है । ”
यहां केवल हरि नाम का ही वितरण होता है। अतः महा सेल चल रहा है सेल जब होता है तब डिस्काउंट वगैरा की बातें चलती है। बाय टू एंड टेक वन फ्री, ऐसा भी कुछ कहते रहते हैं। खरीद लो, ले जाओ 3 ऐसे लोग आपको ठगाते रहते हैं हरि हरि! और यहां पर भी काफी डिस्काउंट चल रहा है एक तो हम कहते हैं फ्री फ्री फ्री में ही हरि नाम दिया जा रहा है। बस एक हल्का सा मूल्य चुकाना है और वह है “श्रद्धा” श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कह रहे हैं श्रद्धावान ! श्रद्धा मूल्य है जो श्रद्धा लेकर आए हैं जिसके पास श्रद्धा है, जिस के दिल में है श्रद्धा उनको मिलेगा यह माल मालामाल होंगे। हरि नाम यह माल जो है इसको आप ले जा सकते हो हरि हरि ! फिर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर और समझाते हैं की श्रद्धा कुछ कम और अधिक भी हो सकती है उसके अनुसार ही यह हरि नाम की प्राप्ति होगी, यह हरि नाम का साक्षात्कार होगा हरि हरि ! अर्थात श्रद्धा ही तो मूल्य है लेकिन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर “गोद्रुम कलपतरि” ऐसा कोई ग्रंथ है ,अभी मुझे थोड़ा याद नहीं आ रहा है उसमें समझाते हैं कि ठीक है आप हरि नाम प्राप्त करने या खरीदने आए तो हो, फिर क्या श्रद्धा को भी लेकर आए हो? लेकिन क्या आपकी श्रद्धा कोमल ही चल रही है कोमल श्रद्धा थोड़ा सा ही फेथ है लिटिल फेथ तो हरि नाम भी फिर उतना ही मिलेगा। यह हरि नाम का अनुभव साक्षात्कार, उतनी मात्रा में ही होंगे। इसे व्यापार तो नहीं कह सकते भगवान कहते हैं गीता में ,
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।*
(श्रीमद भगवद्गीता 4.11)
अनुवाद- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।
जो जितनी क्या करता है? “ये यथा मां प्रपद्यन्ते , मेरी शरण में आता है तो मैं भी उतना ही, यदि हम समझेंगे तब हैरान होंगे, कृष्ण कहते हैं मैं भी उतना ही भजता हूं। भजाम्यहम् , अहम भजामि , अर्थात कोई मेरा भक्त भजन कर रहा है तो मैं भी उसका भजन करता हूं। “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्यह मैं भी भजन करता हूं यथा तथा की बात है , जितना उतना जो जितनी मेरी शरण में आएगा और यह शरण आना मतलब जितनी उसकी श्रद्धा है उतना ही वह शरण में आता है। हर एक की श्रद्धा कुछ कम, किसी की अधिक श्रद्धा है, तांस्तथैव भजाम्यहम् , मैं भी स्वयं को उतना ही प्रकट करता हूं। या कहो जो जितनी शरण में आता है जिसके पास जितनी श्रद्धा है उतना ही उस व्यक्ति को मैं प्रकट होता हूं। हरे कृष्ण महामंत्र भगवान है यह भगवान यह हरि नाम प्रभु हमको उतना ही दर्शन देंगे हरे कृष्ण हरे कृष्ण का दर्शन या साक्षात्कार या अनुभव यह भगवान ही है, यह कितनी मात्रा में होगा जितनी श्रद्धा है। भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं नाम हाट में तो आ गए आप हरिनाम प्राप्ति के लिए, हरी नाम को खरीदने के लिए, ले जाने के लिए कहो, लेकिन उसके पास, वह चवन्नी लेकर आया यह पुराने जमाने की बात है यह भक्त चैतन्य को समझ में नहीं आएगी चवन्नी एक समय चवन्नी अठन्नी सोलह आना , सोलह आना का ₹1 होता था। जब हम छोटे थे तब हमने देखा है कि चवन्नी अठन्नी, चाराने आठाने सोलहा आने , कोई चवन्नी लेकर आया है उसको उतना ही प्राप्त होगा *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* यह 16 नाम वाला 32 अक्षर वाला सभी को महामंत्र तो प्राप्त हो रहा है एवं दीक्षा के समय भी यह मंत्र दिया जाता है किंतु यह मंत्र केवल अक्षर नहीं हरे कृष्ण यह अक्षर नहीं है स्वयं साक्षात भगवान हैं। यह साक्षात्कार है। उस व्यक्ति की शरणागति इस पर निर्भर रहती है जितनी श्रद्धा, कोई लेकर आया ठीक है ले लो हरि नाम,
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।*
(श्रीमद भगवद्गीता 4.11)
अनुवाद- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।
किन्तु उतना ही हरि नाम के रहस्य का उद्घाटन होगा या उतना ही दर्शन होगा उतना ही हरि नाम समझ में आएगा और उतना ही प्रेम प्राप्त होगा, क्यों? क्योंकि हरि नाम क्या है यह प्रेम है।
*गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥*
अर्थ- गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
उतना ही प्रेम उदित होगा। हम कह तो रहे हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण चल तो रहा है।
*नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय॥*
(मध्य लीला 22.107 )
अनुवाद-“कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”
हमारी आत्मा का जो भगवान से प्रेम है वह उतना ही जागृत होगा जितनी हमारी श्रद्धा है। चवन्नी जितनी श्रद्धा है तो उतना ही भगवान प्रकट होंगे, हरि नाम प्रकट होगा, हरि नाम दर्शन देगा, उतना ही कृष्ण प्रेम प्राप्त होगा फिर वह कहते हैं कोई अठन्नी लेकर आया है अठन्नी मतलब आधा रुपया तब उसको यह हरिनाम उतना दर्शन देगा, उतना साक्षात्कार कराएगा और कोई सोलह आने लेकर आया तो उतना ही और जिसमें पूरी श्रद्धा है, बड़ी श्रद्धा है क्योंकि मुझे वह भी याद आ रहा है दसवां नाम अपराध क्या है ? हरिनाम में श्रद्धा नहीं होना नॉट टू हैव फेथ इन होली नेम , भगवान नाम में विश्वास ना होना यह भी एक नाम अपराध है। नाम में श्रद्धा नहीं होना संख्या कम या अधिक होती है तब श्रद्धा नहीं होना डेट इज़ वर्स्ट सबसे निकृष्ट बात यही है कि श्रद्धा ही नहीं है। लेकिन जिनकी श्रद्धा है, सभी की श्रद्धा एक जैसी नहीं होती और फिर यहां श्रील भक्ति विनोद ठाकुर समझाते हैं कि जितनी श्रद्धा होगी उतना ही यह हरि नाम प्राप्त होगा उतना ही कृष्ण प्राप्त होंगे उतना ही कृष्ण प्रेम प्राप्त होगा हरि हरि!
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥*
( श्रीमदभागवतम 1.2.18)
अनुवाद – भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
यह भागवत का एक विशेष वचन है और इसमें सिद्धांत भी छिपा हुआ है। इसमें कहा है कि नित्यम भागवत सेवया, नित्य प्रति हम भागवत की सेवा करेंगे तो क्या होगा? भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी भगवान का एक नाम है उत्तम श्लोक, भगवती अर्थात भगवान में, उत्तम श्लोक में, भक्तिर्भवति नैष्ठिकी, भक्ति उत्पन्न होगी, कैसी भक्ति होगी? नैष्ठिकी अर्थात निष्ठावान बनेंगे। यह माधुर्य कादंबिनी का विषय है माधुर्य कादंबिनी इसमें श्रद्धा से प्रेम तक के सोपान समझाएं हैं। श्रद्धा से प्रेम तक, शुरुआत मंय आदौ श्रद्धा , श्रद्धा के बिना हम आगे बढ़ ही नहीं सकते या कृष्ण ने कहा भी है।
*श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 4.39)
अनुवाद- जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है |
श्रद्धा वान को ज्ञान होगा या अनुभव होगा या कृष्ण प्राप्त होंगे और कृष्ण ने यह भी कहा है।
*अज्ञश्र्चाश्रद्दधानश्र्च संशयात्मा विनश्यति | नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 4.40 )
अनुवाद- किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते हैं | संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है |
श्रद्धा नहीं है संशयात्मा, ऑलवेज डाऊटिंग, अपने लॉजिक तर्क वितर्क का खूब उपयोग करते रहता है जिसकी श्रद्धा नहीं है। कृष्ण ने कहा विनश्यति संशयात्मा
यह दो अच्छे वचन हैं इनको नोट करना चाहिए एक है। श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं या श्रद्धावाँल्लभते प्रेम भी कह सकते हैं। जो श्रद्धालु है उसको ज्ञान या प्रेम प्राप्त होगा ज्ञाननंजन या प्रेम अंजन श्रद्धावान व्यक्ति को प्राप्त होगा और जो संशय आत्मा है संशय करने वाला ऑलवेज डाउटिंग उसका विनाश होगा। यहां पर भी कृष्ण ने श्रद्धा की उपयोगिता, अनिवार्यता समझाई है। श्रृद्धा होना अनिवार्य है, आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत तो होती है आध्यात्मिकता से आदौ श्रद्धा लेकिन वह श्रद्धा भक्तिरसामृत सिंधु में कहा है कोमल हो सकती है वेरी टेंडर, तो इस कोमल श्रद्धा को मतलब अठन्नी चवन्नी वाली श्रद्धा है या १० पैसे या ३० पैसे की श्रद्धा वाला है तब श्रद्धा को निष्ठा में परिणत करना है। निष्ठावान मतलब दृढ़ श्रद्धा,
*तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||*
( श्रीमद भगवद्गीता 10.10 )
अनुवाद- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
श्रद्धा से शुरुआत हो सकती है लेकिन कम श्रद्धा व कोमल भी हो सकती है। इस भागवत के वचन में सूत गोस्वामी कह रहे हैं, जब हम निष्ठावान बनेंगे मतलब दृढ़ श्रद्धा या फिर श्रील प्रभुपाद कहते हैं वहां से गाड़ी को रिवर्स नहीं करेंगे इर रिवर्सिबल वहां से यू टर्न नहीं लेंगे, आदौ श्रद्धा है या थोड़ी श्रद्धा है, कोमल श्रद्धा है, तो हो सकता है हम कहीं अटक जाएंगे या कहीं पथभ्रष्ट होंगे, संभावना है पुन: मूषिक भवः पुन: बन गया चूहा, ऐसा कुछ हो सकता है। लेकिन जब व्यक्ति निष्ठावान बनता है इसी को इररिवर्सिबल कहा है। जब व्यक्ति निष्ठावान बनेगा तब वह केवल आगे बढ़ेगा ही गो फॉरवर्ड , नोट डाउन वर्ल्ड, हरी हरी! यह जो श्रद्धावान जन है तो यह नामहट खुला हुआ है। श्रद्धावान लोगों आओ, श्रद्धा ही है मूल्य हरि नाम को प्राप्त करना चाहते हो तो श्रद्धा, किंतु यहां यह बात या चर्चा हो रही है कम या अधिक श्रद्धा के अनुसार कम अधिक प्राप्ति भी होगी कृष्ण प्राप्ति या प्रेम प्राप्ति यह साक्षात्कार अनुभव कम अधिक प्राप्त होगा। हमें प्रयास करना है कि हम श्रद्धा तक पहुंच जाएं, हम निष्ठावान बने। केवल श्रद्धा उससे काम नहीं बनेगा उस श्रद्धा को निष्ठा में परिणत करना होगा। निष्ठावान बनना होगा निष्ठावान मतलब दृढ़ श्रद्धा, फुली कन्वेंस कनविक्शन हरि हरि! हर रोज जैसे कि यह भी कहा जा सकता है कभी जप किया या कभी जप नहीं किया या फिर इस कांफ्रेंस में भी कभी ज्वाइन किया कभी नहीं ज्वाइन किया यह भी श्रद्धा के कम या अधिक होने का कारण हो सकता है हमारी श्रद्धा कुछ कमजोर है कुछ कोमल है और कई सारे विघ्न आ जाते हैं नींद आ जाती है तब नींद का आश्रय लेते हैं और यह है वह है ,
*निद्रया हियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः । दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्ब भरणेन वा ॥* ( श्रीमद भागवतम 2.1.3)
अनुवाद – ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी ) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों भरण – पोषण में बीतता है ।
कुटुंब का पालन पोषण करने की भी जिम्मेदारी (उत्तरदायित्व) है। उठते ही हमने वेयर इज मनी वेयर इज मनी धन कहां है कहां है कैसे कमाएंगे आज क्या योजना है , उठते ही स्टार्ट उसी का चिंतन शुकदेव गोस्वामी ने कहा है दिवा मतलब दिन में अर्थव्यवस्था मतलब इकोनामिक डेवलपमेंट दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्ब भरणेन वा, फिर कुटुंब का पालन पोषण करो और इसी में लगे रहेंगे व्यस्त रहेंगे बिजी रहेंगे और मर जाएंगे मर के हरि हरि ! तो अपनी श्रद्धा को बढ़ाइए यह भी कहा जा सकता है या कह रहे हैं (वेयर इज योर फेथ) हरि नाम में अपनी श्रद्धा बढ़ाइए और और बातों में माया में जो श्रद्धा है उसको हटाइए, मिनिमाइज थोड़ा कुछ कुछ वैराग्य अपने जीवन में, वैराग्य भी हो।
*वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य़ोग-शिक्षार्थमेक:पुरुष:पुराण:।श्री-कृष्ण-चैतन्य-शरीर-धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।।*
(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला,6.254)
अनुवाद: -मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूंँ, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के हिंदू होने के कारण अवतरित हुए हैं। मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूंँ।
कार्तिक मास में कई भक्त वैराग्य वैरागी बने थे कई सारे संकल्प लेकर बैठे थे। चिंतामणि माता जी वह फर्श पर ही सोती थी शी हैव मेट्रेस उसको त्याग कर शी वाज स्लीपिंग ऑन द फ्लोर, यह कुछ वैराग्य है। और भी कुछ लोगों ने वैराग्य का प्रयास किया अभ्यास किया चतुर्मास में और आपने भी जरूर किया ही होगा यह वैसे हमको रोज ही करना है। विराग, संसार में हमारा जो राग है जो आसक्ति है संसार माया से जो हमारा लगाव है प्रेम है चाह है माया से उसको थोड़ा कम करना है और वैसे वह तभी कम होगा जब भगवान के नाम में अधिक श्रद्धा है अधिक प्रेम है। कृष्ण से जैसे हम आसक्त होंगे जैसे हरि नाम में आसक्ति बढ़ेगी, भागवत का कहना है भगवान से भगवान में, भगवान के नाम में, अनुराग तत्क्षण उसी के साथ वैराग्य विराग उत्पन्न होगा। आसक्ति है अटैचमेंट है, अनुराग-अनु मतलब पीछे पीछे जाना अवलंबन करना और राग तो कई हैं कभी वात्सल्य रस का अनुराग, सख्य रस का अनुराग, माधुर्य रस का अनुराग, या साधना हम करेंगे , उसी के साथ संसार में जो राग है वहां विराग भी मतलब उल्टा विपरीत विरोध, विराग से वैराग्य शब्द आता है तब हम वैराग्य वान बनेंगे। कैसी श्रद्धा बढ़ाएं हम ? जैसा हम आस्वादन करेंगे हरि नाम का, उससे आसक्त होंगे, प्रेम पालन करेंगे हरि नाम का पालन करेंगे, उसी के साथ, वैसे जवाब वही है कई प्रकार से समझाया जा सकता है, कृष्ण ने कहा ही है।
*विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः | रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 2.59)
अनुवाद- देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है | लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है |
हमारा जो हाईएर टेस्ट, ऊंचे स्वाद का जो अनुभव करेंगे तब जो निकृष्ट स्वाद है बेकार की जो संसार की बातें है वो हम आसानी से छोड़ देंगे। ज्यादा सोचेंगे नहीं इसीलिए आप यह प्रातः काल में हरी नाम जप की जो साधना है या साधना भक्ति है जो लाइफ स्टाइल है यह जीने की राह है। कृष्ण ने कहा है योगा कर्मसु कौशलम्,
*बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 2.50)
अनुवाद- भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है,
यह योग का जीवन है। योगी बनो भक्ति योगी बनो, जप योगी बनो, कैसे योगी जप योगी, जप करो यही योग कर्मसु कौशलम् आर्ट ऑफ लिविंग, बाकी तो आर्ट ऑफ डाइंग ही है। शायद आपको पता नहीं होगा यह सब कुछ बातें चलती रहती हैं। स्वीडन में एक बुक प्रकाशित हुई है, उसका टाइटल है “आर्ट ऑफ कमिटिंग सुसाइड”( आत्महत्या की कला) और कितने प्रकार से आप कर सकते हो , फिर उसकी डिमांड भी है पीपल एंड ऑथर्स आर राइटिंग बुक आर्ट ऑफ डाईंग ,एक महिला बेचारी शायद वही की थी स्वीडन की आई थिंक सो, उस महिला का कुत्ता मर गया उसने सोचा कि (जीना तो क्या जीना कुत्ते के बिना) इसीलिए शी कमिटेड सुसाइड उसने आत्महत्या कर ली, कुत्ता नहीं रहा , मैं कैसे जी सकती हूं कुत्ते के बिना, एक होता है डी ओ जी डॉग, व्हाट अबाउट जि ओ डी गॉड, गॉड है कि नहीं? लाइक दिस इज़ योर लाइफस्टाइल, इसे जीवन की शैली बनाइए, उठते ही पहली चीज आपको ज्यादा सोचना नहीं है ज्यादा विचार नहीं करना चाहिए थोड़ा तैयार हो जाइए मंगला आरती वगैरा कर सकते हैं आपके पास इतना समय है या फुर्सत है यू आर जस्ट गेट अप एंड चेंट, अभ्यासेन तु कौन्तेय,
“श्रीभगवानुवाच
*असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् | अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ||* (श्रीमद भगवद्गीता 6.35)
अनुवाद- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – हे महाबाहो कुन्तीपुत्र! निस्सन्देह चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है; किन्तु उपयुक्त अभ्यास द्वारा तथा विरक्ति द्वारा ऐसा सम्भव है |
यह भी कहा है अभ्यास करो अभ्यास अच्छा शब्द है। अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च गृह्यते, दोनों ही बातें कही हैं। अर्जुन ने जब कहा वैराग्य की बात छठे अध्याय में , यह श्लोक वचन आता है कृष्ण ने अर्जुन से कहा की मन तो बड़ा चंचल है तो क्या कर सकता हूं? कृष्ण ने कहा अभ्यास करो, अभ्यास, माइंड कंट्रोल का अभ्यास, अभ्यासेन और दूसरा कहा वैराग्येण दोनों ही शब्द तृतीय अभिव्यक्ति में हैं, यदि आप समझते हो संस्कृत की विभक्ति, वैराग्येण अभ्यासेन अभ्यास प्रैक्टिस! प्रैक्टिस! प्रैक्टिस! और प्रैक्टिस कैसे करें वैराग्य के साथ, जैसे जप के समय जो और आकर्षण हैं और कई कंफर्ट जोन की व्यवस्था है उसको ठुकरा कर गेट रीड ऑफ इट और गियर अप, गेट आउट ऑफ द बेड , हिरण्यकशिपु मत बनो ऐसा और जो मैं कोई शब्द कहता हूं तो उस पर भाष्य कहना पड़ता है निकल पड़ता है। यह विचार और फिर विचार की धारा, तो ठीक है यहीं रुक जाते हैं अब यहीं विराम देते हैं।
निताई गौर प्रेमानन्दे !
हरि हरी बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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