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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
29 नवम्बर 2021
हरे कृष्ण..!
आज जप चर्चा में 860 भक्त उपस्थित हैं।
कृष्ण कन्हैया लाल कि जय..!
मैने नाम सुना,क्या आप नाम सुन रहे थे?उठो! कुछ बैठे-बैठे सो रहे हैं। कहा था मैंने आपसे नाम सुनने को लेकिन आप कहां सुन रहे हैं?
हरे कृष्ण..!
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय!
वासुदेवाय हरि हरि..!
कल भी बात तो कि किंतु पुनः विषयांतर हो गया और हम इस कथा को कुछ दिनों से सुन रहे थें।
श्री शुक उवाच
हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकमारिका:।
चेरुर्हविष्यं भुज्जाना: कात्यायन्यर्चनव्रतम्।।
(श्रीमद्भागवत 10.22.1)
अनुवाद: – सुखदेव गोस्वामी ने कहा: हेमंत ऋतु के पहले मास में गोकुल कि अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी की
पूजा की और व्रत रखा। पुरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई।
“हेमन्ते प्रथमे मासि” वाले मार्गशीर्ष महीने में जो लीला संपन्न हुईं। कात्यायनी का व्रत हो रहा हैं और व्रत के व्रति भी होते हैं,कात्यायनी या कोई भी व्रत होता हैं, तो उसके व्रति होते हैं, व्रत करने वाला व्रति हो जाता हैं। जैसे कल एकादशी हैं, तो जो एकादशी करेंगे,वो व्रति कहलाएंगे।भागवत कथा श्रवण के भी व्रति होतें हैं। सात दिन कथा होने वाली हैं,तो सब व्रत लेंगे, कथा का श्रवण करने का व्रत, समझ गए व्रत का मतलब।
यह गोपियों का कात्यायनी व्रत चल रहा हैं। पहले हम लोगों का दामोदरव्रत चल रहा था।व्रत को अपनाने वाले व्रति कहलाते हैं। क्या कहलाते हैं? आप याद कर सकते हो, व्रत करने वाला क्या कहलाता हैं? व्रति कहलाता हैं। कात्यायनी व्रत चल रहा हैं, फिर व्रत संपन्न हुआ और फिर व्रत का फल भी मिला। कृष्ण प्राप्ति हुई,पति रूप में; कृष्ण प्रगट हुए।
पतिं मे कुरु ते नम:। पतिं मे कुरु ते नम:। यह चल रहा था उनका,
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:।
इति मन्त्रं जपन्त्यस्ता: पूजां चक्रु: कमारिका:।।
(श्रीमद्भागवत 10.22.4)
अनुवाद: – प्रत्येक ओर विवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की: “हे देवी कात्यायनी, हे महामाया, हे महायोगिनी, हे अधीश्वरि,आप महाराज नंद के पुत्र को मेरा पति बना दें। मैं आपको नमस्कार करती हूंँ।”
प्रार्थना भी कर रही थी और “जपन्त्यस्ता”, वे जप भी कर रहीं थीं। पतिं मे कुरु ते नम:।पतिं मे कुरु ते नम:।
“नन्दगोपसुतं देवि” तो हमने उस कथा को आगे तो बढ़ाया था। कृष्ण प्रकट हुएं और उन्होंने कहा भी था, भविष्य में किसी क्षतरात्रि को हम मिलेंगे, फिर गोपिया वहां से प्रस्थान करती हैं और कृष्ण भी वहां से प्रस्थान कर चुके हैं। वैसे भगवान अपने मित्रों के साथ ही वहां पहुंचे थें। चीरघाट पर गोपियों के साथ जो मिलन भेंट या दर्शन या वार्तालाप या वस्त्र और चोली का हरण हुआ, उसमें वहा अपने मित्रों को नहीं लाए थे।यह गोपनीय लीला हैं, और ये रस अलग हैं या यह भाव अलग हैं। गोपियों के साथ मिलना और मित्रों के साथ जो भगवान का संबंध हैं, वो सख्य रस हैं और यह माधुर्य रस हैं, श्रृंगार रस हैं। मित्र वहां पहुंचे तो हैं, लेकिन कृष्ण उन्हें ज्यादा इनवॉल नहीं करते इस लीला में,जब चीर हरण हुआ तो मित्र कहीं बगल में हैं, कुछ हंसी मजाक उन्होंने भी किया जब कृष्ण ने वस्त्रचोरी की, तो ऐसे थोड़ा सा उनकी उपस्थिति का उल्लेख हुआ हैं, किंतु अधिकतर मित्रों को दूर ही रखा था। यह भी हम को समझना चाहिए। हरि हरि।
जब कृष्ण राधा से मिलते हैं या गोपियों से मिलते हैं तो बलराम वहा साथ मे नहीं होते। हरि हरि!
वह बड़े भाई भी हैं और एक सखा के रूप में भी रहते हैं बलराम।बलराम कृष्ण के सखा और भाई दोनों हैं।गोपियों को कृष्ण ने कहा कि यहां से जाओ, अपने अपने घर लौटो और गोपियों ने वैसे ही किया, कृष्ण फिर अपने सखाओं के साथ गोचारण लीला के लिए प्रस्थान करते हैं। वह हम कह चुके हैं।कैसे वन से गुजर रहे हैं? विचरण हो रहा हैं और वन की शोभा रमणीय हैं। राम रहे हैं वहां के वृक्षावल्ली, वहां के वृक्ष- लता,पौधे, हरियाली, वहा के पुष्प, पुष्पों की सुगंध रमणीय हैं और वहां पर पक्षी चहक रहे हैं, भ्रमरों कि गुंजार हो रही हैं।हरि हरि!
और वह वृक्ष क्या करते हैं? वृक्ष अपनी शाखाओं को हिलाते हैं, कृष्ण जब वहां से जाते हैं तो पुष्प वृष्टि होती हैं। पुष्पा-अभिषेक होता हैं। हम जब भी विग्रहों का अभिषेक करते हैं तो पुष्प हम कहीं से ले आते हैं और फिर हम पुष्पा-अभिषेक करते हैं, किंतु वन में तो कृष्ण अपने मित्रों के साथ गैय्या चराते हुए जा रहे हैं और
वृक्ष भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्पो की वृषा कर रहे हैं, फिर कदम हैं, या चमेली हैं या पारिजात हैं, वृंदावन के कुछ विशिष्ट फूल जो इतरत्र मिलेंगे भी नहीं, ऐसे वृक्ष और उनके पुष्प हैं। वृक्ष भी भक्त हैं, वृक्ष भी कृष्णभावना भावित हैं। वैसे कृष्ण ने तो कहा ही था।
निदघार्कातपे तिग्मे छायाभि: स्वाभिरात्मन:।
आतपत्रायितान्वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकस:।।
(श्रीमद्भागवत10.22 30)
अनुवाद: – जब सूर्य की तपन प्रखर हो गई तो कृष्ण ने देखा कि सारे वृक्ष से मानो उन पर छाया करके छाते का काम कर रहे हैं। तब वे अपनी वालों मित्रों से इस प्रकार बोले।
“आतपत्रायितान्वीक्ष्य” मित्रों देखो देखो यह वृक्ष छाता बनके क्या कर रहे हैं? यह जो ग्रीष्म ऋतु कि धूप हैं, हेमंत ऋतु चल रहा हैं, फिर भी कुछ धूप तो होती हैं। हम भी अनुभव कर रहे हैं कि नहीं? यहां तो विषम क्लाइमेटिक चेंजेज चल रहे हैं, ग्लोबल वार्मिंग हो रहा हैं। इसके कारण अब कोई ऋतु(मौसम) का भरोसा नहीं हैं, कोई भी ऋतु प्रगट हो रहा हैं। हरि हरि! ठंडी के दिन में गर्मी और गर्मी के दिन में ठंडी भी आती हैं, वर्षा कभी भी होने लगती हैं, कोई भरोसा नहीं हैं। क्या भरोसा हैं, इस जिंदगी का? वह भी हैं और क्या भरोसा इस दुनिया का या क्लाइमेट का या ऋतु का?ऐसी यह दुनियादारी हैं, लेकिन ठीक हैं। कृष्ण ने कहा यह छाते के रूप में हमारी सेवा कर रहे हैं और यह अनुभव ये वृक्ष भी कैसे कृष्ण के साथ अपने तरीके से आदान प्रदान करते हैं, कृष्ण कि आराधना करते हैं,आराधना,सम्मान करते हैं।
कृष्ण का स्वागत करते हैं,इसका वर्णन चैतन्य चरितामृत में जब चैतन्य महाप्रभु वृंदावन कि यात्रा कर रहे हैं,तब हैं। चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से आए और चैतन्य महाप्रभु ने ब्रजमंडल परिक्रमा की ,उस समय वहां के सभी चर-अचरो का कैसे आदान-प्रदान हो रहा था श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ? उन्होंने तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को, गौर सुंदर को,मान लिया कि श्याम सुंदर ही आ गये और फिर गायों का क्या कहना? गाय ने भी अपना घास चरना छोड़ दिया और दौड़ पड़ी कृष्ण कि ओर या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ओर ,और गौर सुंदर को श्यामसुंदर मान के उनको चाट रही हैं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु खुजला रहे हैं गायोँ को, वैसे कभी-कभी गाय आगे बढ़ती हैं और चैतन्य महाप्रभु के पास झुकती हैं,वह चाहती हैं कि चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़कर कुछ खुजलाहट करें और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वैसा ही किया, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े तो कई सारे पक्षी आकाश में उड़ान भरे थे और पंचम गाय, चैतन्य चरितामृत में कहा गया हैं, सारेगमप… प मतलब पंचम सारेगमप…वैसे और भी हैं, यह उच्च ध्वनि तो पक्षी, पंचम गाय कर रहे हैं,उस स्वर में गा रहे हैं। ऊपर से चैतन्य महाप्रभु के समक्ष कईं सारे मोर पहुंचे हैं और वे नृत्य कर रहे हैं। फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ते हैं, तो कई सारे मोर नाच रहे हैं। वह मुड नहीं रहे हैं। उनका मुख तो संमुख ही हैं।वह चैतन्य महाप्रभु की और देखते हुए और नाचते हुए पीछे पीछे जा रहे हैं और इस प्रकार ये मोर महाप्रभु का स्वागत कर रहे हैं, मानो कह रहे हैं
स्वागतम गौरांग सु स्वागतम् श्यामसुंदर, जो थे गौरसुंदर और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वहां के जो वृक्ष थे, वहां पर वर्णन आया हैं कि श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी वर्णन करते हैं कि वृक्षों ने क्या किया? गायों ने क्या किया? उसका वर्णन भी हमने संक्षिप्त में कहा और पक्षियों ने कैसे स्वागत किया, अपने ढंग से पक्षी अपना हर्षोल्लास कैसे प्रगट कर रहे हैं ,उसका वर्णन भी हैं। अब वृक्षों कि बारी आई तो वहा कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने लिखा हैं कि वृक्ष कैसे अपनीं-अपनी शाखाओं को हिला रहे थे और पुष्पों कि वर्षा कर रहे थे और वहा लिखा हैं कि एक दोस्त जैसे दुसरे मित्र से मिलने जाता हैं, तो कुछ भेंट लेकर जाता हैं,कोई षुष्पं, पत्रं,फल, तोयं ऐसी भेट लेके जाता है तो
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 9.26)
अनुवाद: -यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ |
वृंदावन के वृक्षों ने कुछ सोंचा, वृक्ष भी सोच सकते हैं। गोलोकेर वृक्ष
“भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 5.29)
अनुवाद: -मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता हैं।
हमारे परम मित्र आ रहे हैं।”सुहृदं सर्वभूतानां”। हमारे मित्र जब पहुँचे तो उन्हें कुछ भेट देनी चाहिए, ऐसा सोचकर वृंदावन के वृक्ष जिनके पास फुल हैं, वो फुल दे रहे हैं, फुलों कि वृष्टि हो रही है, वहाँ पर यह भी लिखा हैं कि जो कुछ वृक्ष, फलों से लदे हैं वह भी अपनी शाखाओं को नीचे झुका रहे हैं। कुछ फल ले लो उनका ऐसा कुछ भाव हैं जो वो व्यक्त कर रहे हैं, इतना ही नहीं वह भी अपने शाखाओं को हिलाते हैं। वह फल दे रहे हैं, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अर्पित कर रहे हैं, जब वृक्षों ने महाप्रभु को पुष्प अर्पित किये, फल अर्पित किये तो फिर क्या हुआ? श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृतज्ञ हैं। हम लोग कृतघ्न होतें हैं, यह दुनियाँ के बदमाश लोग कृतघ्न होते हैं और किसी ने सहायता कि, उपकार किया,उसकों भुल जाते हैं, लेकिन भगवान वैसे नहीं है और ना ही भगवान के भक्त भी वैसे होतें हैं। जो वैष्णवों के 26 गुण हैं, उस में से एक यह कृतज्ञता भी हैं। यह गुण कहा से आता है? यह गुण भगवान से आता हैं।
भगवान में यह गुण हैं, भगवान सर्वोत्तम हैं। हम उनके अंश हैं, तो भगवान के ही गुण हम में आते हैं। बाप जैसा बेटा ऐसा भी कहो। इस सिध्दांत के अनुसार देखों या फिर अचिंत्य भेदाभेद के दृष्टिकोण से भी कहो ।भगवान में और हम में भेद हैं, अभेद नहीं हैं और जहाँ तक गुणों कि बात है, भगवान के गुण हम में भी हैं। हम उसी गुणों के हैं, क्योंकि हम उन्हीं के अंश हैं। मात्रा के दृष्टि से भेद हैं। अगर भगवान सर्वोत्तम हैं, तो हम भी सर्वोत्तम हैं। लेकिन भगवान जितने सर्वोत्तम हैं, उतने हम सर्वोत्तम नहीं हो सकते,यह बात हैं,अचिंत्य भेदाभेद। जब हम कृष्ण भावनाभावित हो जाते हैं, तो हमारे आत्मा में जो स्वाभाविक गुण हैं, वो प्रगट होंते हैं। तो हम भी सदगुणी और कृतज्ञ होंगें। जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को वृंदावन के सारे वृक्ष,पुष्प या फल या हो सकता है कि कुछ पत्ते भी दे रहे हैं,जैसे कि तुलसी हैं या और भी पत्ते हैं या जैसे कोई जड़ी बूटी होती हैं या जब श्री कृष्ण गोवर्धन जाते हैं तो वहां लिखा हैं कि वहां की गायों को गोवर्धन घास देता हैं और स्वयं कृष्ण को गोवर्धन कंद,फूल और मूल देते हैं,जड़ी-बूटी देते हैं,यह सब गोवर्धन कृष्ण को देते रहते हैं,जब कृष्ण गोवर्धन में लीला खेलने के लिए जाते हैं।
गोवर्धन में तो सभी वृक्षों का यही गुणधर्म हैं। हरि हरि।कृतज्ञ होने के कारण श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु क्या करने लगे? उन वृक्षों को आलिंगन देने लगे,जिस वृक्ष ने कुछ पुष्प प्रदान किए,छाया दी।चैतन्य महाप्रभु भाग के उन वृक्षों को आलिंगन कर रहे हैं।वृक्षों का आलिंगन कर रहे हैं, तो बगल वाले वृक्ष ने देखा कि देखो कृष्ण इस वृक्ष को गले लगा रहे हैं, तो वृक्ष बोला मुझे भी लगाओ,मुझे भी लगाओ। वह भी मांग करने लगे कि हमें भी आलिंगन कीजिए, तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दूसरे वृक्ष की ओर दौड़ कर उन्हें स्पर्श करते हुए गले लगाते हैं, तो फिर बगल वाले वृक्ष बोलते हैं, कि अरे! हमने क्या बिगड़ा हैं तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सारे वृक्षों को गले लगाते हैं।लेकिन एक पेड़, फिर दूसरा पेड़,ऐसे सभी वृक्षों को आलिंगन करने में सदियां बीत सकती हैं। हमारे हिसाब से हम सोच सकते हैं कि देखो कितने सारे वृक्ष हैं। अरे वृंदावन तो वन ही हैं, वृक्षों से भरा पड़ा हैं। तो सबको आलिंगन देते देते तो सदिया बीत जाएंगी, तो वह कैसे तालमेल बिठाते हैं। वह कैसे मैनेज करते हैं, यह उनको सोचना हैं, संभव हैं उन्होंने इस प्रकार से मैनेज किया होगा कि जितने वृक्ष हैं, उतने ही चैतन्य महाप्रभु बन गए। ठीक हैं और एक ही साथ सारे वृक्षों को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आलिंगन दिया। हरि बोल। किसी को पंक्ति में खड़ा नहीं होना पड़ा कि अब तुम आओ, फिर उसके बाद तुम आना और फिर इन सारे वृक्षो के पास तो इतना धीरज भी नहीं था,तो वह रुक नहीं सकते थे, इस प्रकार के आदान-प्रदान का वर्णन हमें श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की चैतन्य चरितामृतम में मिलता हैं, जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की चैतन्य चरित्रामृत में भेंट का वर्णन हैं, वृंदावन की भेट या वृंदावन की यात्रा, तो श्रीकृष्ण के साथ भी वैसा ही आदान-प्रदान चलता रहता हैं, वृंदावन के पेड़ वृक्ष,लता, बेली, पौधे और फिर यही जब अनुभव कर रहे थे श्री कृष्ण तो तब श्री कृष्ण ने कहा था
एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा।।
(श्रीमद्भागवतम् 10.22.35)
याद हैं आपको? श्री कृष्ण एक सिद्धांत की बात अपने मित्रों से कह रहे हैं। श्री कृष्ण का जो उस प्रातः काल को अनुभव रहा,थोड़ा कनेक्शन जोड़ देते हैं।वही लीला चल रही हैं। उन्होंने चीर घाट से प्रस्थान किया हैं
तस्या उपवने कामं चारयन्त: पशून् नृप ।
कृष्णरामावुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रुवन् ॥ ३८ ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.22.38)
और एक उपवन में पहुंचे हैं और हम बता चुके हैं कि उपवन का नाम अशोक वन हैं, अक्रूर घाट के क्षेत्र में श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ पहुंचे हैं तो रास्ते में उन्होंने यह कहा था
और ऐसा सदाचार का जीवन मनुष्य को जीना चाहिए-
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा
झांसी के भक्त तो कह रहे हैं कि हां उन्होंने नोट किया था। मैंने कहा था आपको कि इस पर आप प्रवचश दे सकते हो या अपने जीवन में उतार सकते हो क्योंकि ऐसा जीवन श्रेयस्कर हैन, एक श्रेय होता हैं और दूसरा प्रेय होता हैं। यह श्रेयस्कर हैं। ऐसा जीवन श्रेष्ठ हैं। इन वृक्षों का जीवन ही श्रेष्ठ हैं या इनका जीवन सफल हैं। देहिनाम देहिषु कुछ देही अन्य देहियो की मदद करते हैं या कुछ उपकार का कार्य करते हैं। तो ऐतावत जन्म साफलयम
चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है
bhārata-bhūmite haila manuṣya janma yāra
janma sārthaka kari’ kara para-upakāra
(Chaitanya charitamrit adi leela 9.41)
भारत भूमि में जन्म लिया हैं, तो अपने जीवन को सार्थक करो। जीवन को सार्थक करने के लिए क्या करना होगा? परोपकार करो और उपकार करो। जैसे एक व्यक्ति सिगरेट पीने जा रहा था। उसने सिगरेट निकाली, उंगलियों के बीच रखी,लेकिन उसके पास दियासलाई या लाइटर नहीं था। देख रहा था कि कोई मेरी मदद करें उसने किसी को कुछ कहा तो नहीं कि मेरी मदद करो लेकिन देखकर ही लोग समझ जाते हैं कि इस बेचारे के पास सिगरेट तो हैं, नहीं बिचारा नहीं भाग्यवान क्योंकि इसके पास सिगरेट हैं बीडी नहीं हैं,यह विशेष व्यक्ति हैं, इसलिए भाग्यवान हैं, यह कोई वीआईपी हैं, इसलिए बीड़ी नहीं सिगरेट पी रहा हैं। लेकिन बेचारे के पास लाइटर नहीं हैं, किसी को दया आ जाती हैं, वह आगे बढ़ता हैं और उसकी सिगरेट को जलाता हैं। जिसकी सिगरेट को जलाया वह कहते हैं थैंक यू ,थैंक यू और जिसने जलाई उसको भी लगता हैं कि मैंने बहुत बड़ा उपकार किया हैं, क्योंकि बदले में थैंक्यू थैंक्यू भी चल रहा हैं या मानो जिसकी सिगरेट जलाई वह कह रहा हैं कि थैंक यू इन एडवांस। अभी तो तुमने केवल मेरी सिगरेट जलाई हैं, इसी के साथ-साथ भविष्य में मेरे फेफड़े भी जलने वाले हैं और फिर अकाल मृत्यु होगी और मेरे शरीर को भी समय से पूर्व जलाया जाएगा। तो इस सारी व्यवस्था करने के लिए धन्यवाद और उस समय पर मैं तुम्हारा धन्यवाद करने के लिए नहीं आऊंगा इसलिए पहले से ही धन्यवाद थैंक यू, चलिए अभी थैंक्यू कर देता हूं।
थैंक यू सर फॉर लाइटिंग माय सिगरेट। मेरी सिगरेट जलाने के लिए शुक्रिया और हमें यह भी नही पता कि हमें किसके ऊपर कैसे उपकार करना हैं, तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं कि भारत में जन्मे हो और जन्म को सार्थक करना चाहते हो,जन्म को तो हर कोई सार्थक करना चाहता हैं।चाहता हैं,लेकिन सभी को पता नहीं है कि किस को उपकार कहा जाता हैं। हरि हरि। आप तो जानते ही होगे कैसे हम एक दूसरे की सहायता करते हैं, परोपकार करते हैं।अगर हमने सामने वाले व्यक्ति को माया ही दे दी तो वे उपकार नहीं अपकार होता हैं। उपसर्ग बदलने से मतलब बदल जाता हैं। एक होता हैं उपकार दूसरा अपकार।अब मतलब बात बिगाड़ दी हमने,उप मतलब उपकार किया तो मतलब कुछ फायदे की बात या कल्याण की बात, या श्रेयस्कर बात इसलिए कृष्ण ने कहा श्रेय-उत्तमम्, तो औरों को कृष्ण देना, माया नहीं देना उपकार हैं। लोग हमें माया देते रहते हैं। माया को ले लो, माया को ले लो, माया कई रूपों में आती हैं। तो माया को ही देना या माया की जो विषय हैं। उसी को ही शेयर करना यह अपकार हैं और औरों को कृष्ण को देना यह उपकार हैं। कृष्णा से तोमार कृष्ण दिते परो तोमार शक्ति आच्छे। कृष्ण आपके पास हैं और आप कृष्ण को दे सकते हो तो, हम कृष्ण कई रूपों में देते हैं तो यह कहलाता हैं उपकार और उसी से जीवन सफल होगा। तो कृष्ण को दो
‘जा रे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश करो’
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे दो,यह महामंत्र दो लोगों को, थोड़ा समझाओ लोगों को, प्रचार करो और और लोगों को गीता भागवत देकर हम कृष्ण को दे सकते हैं।यह बहुत बड़ा उपकार हैं।पुस्तक वितरण करो।श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों का वितरण करके हम कृष्ण को दे देते हैं।यह बहुत बड़ा उपकार हैं। अभी 1 दिसंबर से मैराथन भी शुरू होने वाला हैं। गीता वितरण का मैराथन समझते हो क्या?होलसेल में गीता वितरण और एक-दो दिन के लिए नहीं पूरे 30 दिन के लिए उपकार , की बात कर ही रहे हैं। ताकि हमारा जीवन सफल हो। आपने सोचा था कि नहीं कि क्या संकल्प लोगे?आपको पता हैं कि नहीं कि मैराथन भी कोई चीज होती हैं। तो तैयार हो जाइए, भगवद्गीता का वितरण बड़ी क्वांटिटी में करने के लिए तैयार हो जाइए। इस्कॉन के सारे मंदिर ग्लोबली तैयारी कर रहे हैं।बीबीटी तैयारी कर चुकी हैं।उन्होंने करोड़ों भगवद्गीता छाप दी हैं और आपकी जानकारी के लिए और स्फूर्ति के लिए इस वर्ष केवल भारत में ही 2100000 भगवद्गीता का वितरण करने का संकल्प हुआ हैं और योजना बन चुकी हैं। अभी अभी पिछले हफ्ते एक इष्ट गोष्टी में इस्कॉन भारत के लीडर,फॉलोअर ,मैनेजर और कुछ कॉन्ग्रीगेशन भी था। पता नहीं आप में से किसी ने उसे अटेंड किया भी या नहीं किया।लेकिन उसमें संकल्प लिया जा चुका हैं कि इस वर्ष 2100000 भगवद्गीता का वितरण करेंगे।उसमें से बताओ आप कितना करोगे? क्या आप अकेले 21 लाख भगवद्गीता करना चाहोगे? आप भी संकल्प ले लो और अपनी कृपा का प्रदर्शन करो इस दुनिया पर। आप अपनी तैयारी शुरू करो।आप जिस मंदिर के साथ जुड़े हो, उनके साथ मिलकर संर्पक करो और उन्हें पूरा करो। वैसे मंदिर वाले भी यहां बैठे हैं।
स्ट्रेटजी के साथ वर्कआउट करो कि कौन कितने भगवद्गीता का वितरण और कहां करेंगे। मुकुंद माधव ने भी संकल्प लिया हैं। इस्कॉन पुणे,हदसर वाले कहते हैं कि हमने इतने हजारों भगवद गीता का वितरण करने का संकल्प लिया हैं। मुकुंद माधव ने मुझे समाचार भेजा हैं, तो उनकी सहायता करो जो भी पुणे बेस से हैं या हडदसर बेस से हैं। जो भी हमारा वहां का कॉन्ग्रीगेशन हैं,भक्त हैं,प्रभुपाद अनुगा हैं,शिष्य हैं। इस प्रकार कोई नागपुर के साथ जुड़ा हुआ हैं, कोई कोल्हापुर, कोई सोलापुर, कोई पंढरपुर, कोई नोएडा से हैं। तो हर इस्कान कार्य में आ रहा हैं।गीता वितरण के कार्य में लगने वाले हैं। गीता वितरण महा महोत्सव की जय।इसी के साथ इस्कान गीता जयंती भी मनाने वाला हैं,ताकि तमसो मा ज्योतिर्गमय।ए दुनिया वालों!अंधेरे में मत रहो।प्रकाश की ओर आओ।मतलब माया को त्यागो और कृष्ण को अपनाओ।कृष्ण की ओर आओ। जो हर चीज के स्त्रोत हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय। ऐसे कुरुक्षेत्र में ज्योतिसर भी हैं, सरोवर हैं। सर मतलब स्त्रोत होता हैं, जहां कुरुक्षेत्र में कृष्ण अर्जुन का संवाद हुआ,मतलब भगवद्गीता बोली गई। श्री भगवान उवाच हुआ। उस स्थान को ज्योतिसर भी कहते हैं।ज्योति का स्त्रोत, जहां कृष्ण ने भगवद्गीता बोली वह स्थान आज भी हैं। ठीक हैं। तो अब तैयार हो जाइए। आपसे दोबारा बात करेंगे। कुछ खबर देगें और कुछ खबर लेंगे़।पूरे महीने के लिए इस उपकार के कार्य में लगना हैं। गीता जयंती मैराथन की जय। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*28 नवंबर 2021*
हरे कृष्ण ! आज 816 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। हरि हरि। आज रविवार है तो कम भक्त उपस्थित है।
श्रीशुक उवाच
हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिका: ।
चेरुर्हविष्यं भुञ्जाना: कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥
( श्रीमद् भागवद् 10.22.1 )
अनुवाद:- शुकदेव गोस्वामी कहा हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी का पूजा व्रत रखा । पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई ।
कुछ दिनों से हम उन्हीं लीलाओं का स्मरण कर रहे हैं। आशा है आप भी दिन में भागवत या कृष्ण पुस्तक को पढ़ते होंगे। भागवत में दसवें स्कंध का 22 वां अध्याय हैं। पूरा तो नहीं पर उसका कुछ अंश लीलाओं को हम स्मरण कर रहे थे या याद कर रहे थे। आप सभी का स्वागत है। आप जहां भी हो, आज प्रातः काल को मैं देख रहा था कि आप कहां कहां पर हो। अब 800 भक्त हो गए हैं क्या हुआ नंबर गिर क्यों रहे हैं? मैं लुधियाना भी पहुंच गया। उसी तरह मैं नागपुर, मोरिशियस, महाराष्ट्र, पंढरपुर और घर घर जा रहा था। मैने इस्कॉन पंढरपुर, इस्कॉन नोएडा, इस्कॉन बीड और कहीं स्थानों पर मुलाकात करी। आपने भी देखा होगा। भक्त सर्वत्र जप कर रहे हैं और सभी के लिए सुबह नहीं है। आपमें से कई लोगों के लिए बहुत ज्यादा जल्दी सुबह होगी। आपको पता नहीं होगा। यूक्रेन के भक्तों को भारत में जो भक्त हैं उनसे कहीं एक-दो घंटे पहले जगना होता है। कोई आगे है तो कोई पीछे है। हम सभी का साथ दे ही रहे हैं। हम सब मिलकर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का श्रीरामपुर में जप हो रहा है। हर जगह जप हो रहा है। यह देख कर हम विश्वास कर सकते हैं। ज़ूम कॉन्फ्रेंस हम देख सकते हैं आपकी आंखों के सामने हैं। मेरे सामने तो बहुत बड़ा स्क्रीन है। मैं सभी को एक साथ देख सकता हूं। 50–50 भक्त एक स्क्रीन में आते हैं। विश्वरूप दर्शन जैसा ही है। अर्जुन कुरुक्षेत्र में सारा संसार का दर्शन कर रहे थे। भगवान अर्जुन को पूरे संसार का दर्शन कराएं। वैसे ही व्यवस्था ज़ूम के माध्यम से यह भी भगवान की देन है, हमको ऐसा मानना पड़ेगा। भगवान ने वैज्ञानिकों को ऐसी बुद्धि दी। भगवान बुद्धि दिए बिना इस संसार का काम नहीं चलता है।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || १० ||
(श्रीमद भगवत गीता 9.10)
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
भगवान ने कहा है भगवत गीता में मैं अध्यक्ष हूं। चर और अचर का जो चलायमान होना है। वैसे सुनते ही हैं कि भगवान की इच्छा और व्यवस्था के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। इतनी बड़ी जो व्यवस्था है यह तो एक भौतिक व्यवस्था है। इंटरनेट है और ज़ूम कांफ्रेंस है, दूरदर्शन हो रहा है। वही प्रकार है जब दूरदर्शन कुरुक्षेत्र के लड़ाई के समय धृतराष्ट्र बैठे हैं। कहां बैठे हैं? हस्तिनापुर में बैठे हैं। हस्तिनापुर कुरुक्षेत्र से काफी मील दूर है। संजय दूर से दर्शन कर रहे थे और सुन भी रहे थे। जैसे कृष्ण और अर्जुन का संवाद है वह भी संजय ने धृतराष्ट्र को सुनाया और भी सारा वर्णन कर रहे है। किमकुर्वत संजय क्या-क्या हो रहा है संजय क्या क्या हुआ, ऐसा जो प्रश्न पूछा। तब संजय उत्तर दे रहे थे संजय उवाच तब भगवान ने श्रील व्यासदेव ने उनको विशेष दृष्टि प्रदान की। वह देख सकते थे। दूरदर्शन और दूर से दर्शन कर रहे थे और दूरभाष, दूर से सुन रहे थे। ऐसी व्यवस्था के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। ऐसा ही अनुभव कर सकते हैं। यह नकल है कहो व्यवस्था तो देखी थी यह व्यवस्था भी भगवान की है। भगवान की अनुमति के बिना कुछ भी नहीं होता। हरि हरि। मैं ज्यादा नहीं कहना चाहता हूं। मैं प्रशंसा कर रहा हूं इस व्यवस्था की, अंतर इतना है कि हम उस का कैसे उपयोग करते हैं। सदुपयोग करते हैं या दुरुपयोग करते हैं। इसको व्यवस्था मानकर भगवान की सेवा में हम इसको उपयोग कर रहे हैं। धन्यवाद कृष्ण। थैंक्स गिविंग समारोह भी विदेशों में चल रहा है। नहीं तो यह सब संभव नहीं हो पा रहा था। हम एक साथ कई सारे देशों के, कई सारे नगरों के, गांव के एक साथ। हम एक साथ
है कि नहीं? एक माताजी थाईलैंड में बैठी है, एक अमरावती में बैठी है, एक भुवनेश्वर में बैठा है। कोई नागपुर में है कोई कहां है कहां है। हम एक साथ हैं। केवल हमें एक दूसरों के साथ ही नहीं रहना है। हम सबको भगवान के साथ रहना है। तब जाकर हम एक दूसरे के साथ बैठकर भगवान के साथ हैं और फिर एक दूसरों के साथ भी है। यह अध्यात्म जगत का ऐसा भाव ऐसी स्थिति होती है। वह केवल एक दूसरों से जुड़े नहीं रहते। इस संसार का यह सामाजिक संबंध सब बेकार है, अगर हम सभी भगवान के साथ जुड़े नहीं हैं। तो फिर यह जब पूरा होगा तब हमारे आंतरिक रिश्ते होने चाहिए। लेकिन पहले हमारा कृष्ण के साथ हमारा संबंध होना चाहिए। मैं अभी और ही कुछ कह रहा हूं। मुझे कहना तो कुछ और था। देखते हैं कब अपने विषय की ओर मुड़ते है। संबंध ज्ञान से सब शुरुआत होती है।
तीन अवस्था या 3 सोपान कहो ऐसा विकास होता है। हम विधये से प्रयोजन तक पहुंचते हैं। यह संबंध के साथ शुरू होता है। हम जब जप करते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हम अपना खोया हुआ संबंध को पुनः जागृति, पुनः स्मरण, विस्मरण का स्मरण थे। जो हम भूलें थे। भगवान के साथ जो हमारे संबंध है उस की पुनः स्थापना हम अपने जीवन में करते हुए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहते हुए। हम आपके हैं मेरा हृदय आपकी तरफ
आकृष्ट करो। हे राधे हे कृष्ण हम आपके हैं।
अयि नंदतनुज किंकरम पतितं मां विषमये भ्वामबुधौ। चैतन्य प्रभु ने संबंध की बात कही है। मैं आपका किंकर हूं मतलब मैं आपका दास हूं। आप नंद के तनुज हो यह बात कृष्ण के संबंध में बात हो रही है। कृष्ण कैसे हैं नंद महाराज के पुत्र हैं। मैं उनका किंकर हूं। हम अपना संबंध भगवान के साथ स्थापित करते हैं और दुर्देव से पतितम मैं गिर चुका हूं, मेरा पतन हुआ है। पुनः मुझको उठाइए इस संसार के कीचड़ से और दलदल से, क्या क्या कहें और पुनः अपने चरणों की धूल बनाइए। अपने चरणों पर रखिए अपने चरणों की सेवा दीजिए प्रभु। हरि हरि। यही प्रार्थना है, आज हम प्रार्थना माताजी को मॉरीशस में मिले, मैं भी मिला और अभी भी सामने बैठे हैं और आपको भी उनसे मिलाया। उनसे मैं कह रहा था प्रार्थना करो तुम्हारा नाम प्रार्थना है हरे कृष्ण हरे कृष्ण जप भी प्रार्थना ही है। प्रार्थना करो। तो कैसे प्रार्थना करोगे? हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे कुछ निवेदन होता है, आशा है और कुछ अपेक्षा है। रघुनायका मांगडे हेची आता। यह
मराठी में हो गया। भगवान मुझे दूर मत रखो, आपके पास में ले आओ। हमें अपने पास ले आओ। एक अपेक्षा और दूसरी उपेक्षा होती है। हरि हरि। तो हम जब जप करते हैं तो हम प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना के साथ हम अपना संबंध पुनः स्थापित करते हैं भगवान के साथ। हम सभी भगवान के है। प्रार्थना के अंतर्गत मैं आपका दास हूं। मुझे सेवा में लगाइए। हरि हरि। हम जिसको भूल चुके हैं। माया हमको मोहित करती है, हमको भुलादेती है। हरि हरि। कुछ दिन पहले एक विषय पर कार्यक्रम पेश किया जा रहा था। संसार के लोगों के समक्ष बहुत बड़ा प्रश्न है। प्रश्न क्या था? क्या भगवान को मनुष्य ने बनाया है? मतलब भगवान वगेरा कोई चीज है नहीं। वैसे बस मनुष्य सोचता है भगवान भगवान यह कल्पना ही है तो किसने बनाया भगवान को। यह बहुत बड़ा प्रश्न है। महा मूर्खों का प्रश्न है। बीबीसी इसको प्रसारण कर रही थी। हरी हरी। भगवान पहले आए या मनुष्य पहले आया। भगवान ने हमको बनाया या हमने भगवान को बनाया। यह दुनिया या माया मनुष्य को इतना भुला देती है। इस संसार में ऐसे प्रश्न उत्तर चलते हैं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 27 नवम्बर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 855 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरि! हरि! आप प्रसन्न हो? चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी (जप करो और प्रसन्न रहो) कहते ही हैं…
तपोदिव्यम, तुम भी प्रसन्न हो। आप सभी के चेहरे पर हास्य झलक रहा है। हरि! हरि! इस हास्य और आनंद के कारण भगवान ही हैं। भगवान कृष्ण का एक नाम आनंद हैं। नंद के घर आनंद भयो अर्थात नंद के घर में आनंद हुआ। आनंद हुआ मतलब आनंद देने वाले नंदनंदन कृष्ण हुए। नंदभवन में आनंद या कृष्ण हुए, यह एक ही बात है क्योंकि आनंद ही कृष्ण है। कृष्ण से आनंद अलग नहीं किया जा सकता। जहां जहां जो कोई आनंद का अनुभव करता है, वह कृष्ण के कारण ही होता है। हम यहां पर सुख की बात नहीं कर रहे हैं, सुख अधिकतर भौतिक होता है। जिसने सुख भोगा, उसे दुख भोगना ही पड़ता है लेकिन आनंद भोगने से आनंद और बढ़ता है। आनंद घटता या मिटता नहीं, यह अंतर है। यह संसार सुख दुख का मेला है। कभी सुख तो कभी दुख लेकिन आनंद, सुख और दुख के परे है।
गुणातीत है। हरि! हरि! ‘चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी’ अर्थात जप करो और खुश रहो, हम सुनते तो हैं लेकिन आप स्वयं इसका अनुभव कर सकते हो, तो यह अच्छा है,मधुर/ मीठा है। जैसे शहद मीठा होता है। शहद मीठा है, यह हम सुनते तो जाएंगे किंतु जब हम शहद का आस्वादन कर लेंगे, तभी पता चलेगा, यह मीठा है। जैसे कोई शहद की बोतल है, यदि उसका ढक्कन खोल कर हम चम्मच से खाएंगे तब ही कहेंगे- हां, यह सच है। ‘हमने सुना तो था और इस लेबल पर भी लिखा तो है कि यह शहद/ मधु बहुत बहुत मीठा है लेकिन केवल वह पढ़ना तो एक प्रकार की जानकारी हो गयी। लेकिन उसका (अनुभव) एक्सपीरियंस तभी हो सकता है जब हम सचमुच उस मधु को ग्रहण करेंगे। श्रील प्रभुपाद ने तो कहा ही है और कहते गए- ‘चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी’
*चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥*
(श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१२)
अनुवाद:-
श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
जप , कीर्तन, भक्ति करने से आनंद वर्धित होता है। अच्छा होगा कि हम अगर स्वयं इस बात को अनुभव करें। आप कहोगे या नही कि जप (चैटिंग) से आनंद प्राप्त होता है? यह पढ़ने-सुनने की बात नहीं रही। कृष्ण भगवतगीता में कहते हैं-
*राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ||*
( श्रीमद भगवतगीता ९.२)
अनुवाद:- यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है | यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है |
यह अनुभव का विषय है। इसी को अनुभव या साक्षात्कार अथवा रिलाइजेशन कहते हैं। जो बातें कही गयी है या हरि नाम के संबंध में भी,बैटर टू बी रिलाइज अर्थात हम स्वयं ही इस बात को समझें। हरि! हरि! आनंद हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। आनंद ही आनंद है। यह जीवन केवल आनंदमय है।
*परम करुणा, पहुँ दुइजन, निताई गौरचन्द्र। सब अवतार, सार-शिरोमणि, केवल आनन्द-कन्द॥1॥*
*भज भज भाई, चैतन्य-निताई, सुदृढ़ विश्वास करि’। विषय छाड़िया, से रसे मजिया, मुखे बोलो हरि-हरि॥2॥*
*देख ओरे भाई, त्रिभुवने नाइ, एमन दयाल दाता। पशु पक्षी झुरे, पाषाण विदरे, शुनि’ यार गुणगाथा॥3॥*
*संसारे मजिया, रहिले पड़िया, से पदे नहिल आश। आपन करम, भुञ्जाय शमन, कहये लोचनदास॥4॥*
अर्थ
(1) श्री गौरचंद्र तथा श्री नित्यानंद प्रभु दोनों ही परम दयालु हैं। ये समस्त अवतारों के शिरोमणि एवं आनंद के भंडार हैं।
(2) तुम श्री चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु का दृढ़ विश्वासपूर्वक भजन करो। विषयों को त्यागकर इन दोनों के प्रेमरस में डूबकर मुख से हरि-हरि बोलते रहो।
(3) देखो भाई! इस त्रिभुवन में इतना दयालु अन्य कोई नहीं है। इनका गुणगान सुनकर पशु-पक्षियों का हृदय भी द्रवित हो जाता हे तथा पाषाण भी विदीर्ण हो जाता है।
(4) मैं तो संसारिक विषयों में ही रमा पड़ा रहा और श्रीगौरनित्यानंद के चरणकमलों के प्रति मेरी रूचि नहीं जागी। लोचनदास कहते है कि अपने दुष्कर्मों के कारण ही यम के दूत मुझे इस दुःख का भोग करा रहे हैं।
लोचन दास ठाकुर कहते हैं- देखो रे भाई त्रिभुवने नाइ, देखो, देखो भाइयों बहनों! भक्तों! सारे त्रिभुवन में एमन दयाल दाता। गौरांग जैसा ऐसा दयालु दाता नहीं है। ढूंढ के भी नहीं मिलेगा। जब है ही नहीं कैसे मिलेगा। एमन दयाल दाता हरि! हरि!
यह केवल आनंदकंद है।गौरांग, आनंद से ही बने हुए हैं। उनको सच्चिदानंद कहते भी हैं। सच्चिदानंद विग्रह!
हरि! हरि! पशु पक्षी झुरे, पाषाण विदरे,
शुनि’ यार गुणगाथा॥
ऐसा भी कहा है-पशु पाखी झुरे, पाखी मतलब पक्षी। यह बंगला भाषा में है।
जिनके पंख होते हैं, उनको पक्षी कहते हैं। पशु पाखी झुरे अर्थात पशु पक्षी, शुनि’ यार गुणगाथा झुरने लगते हैं, तल्लीन हो जाते हैं।
महाप्रभु की गुण गाथा से पशु पाखी झूरते हैं और पाषाण भी पिघल जाता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के पास अलारनाथ में दंडवत प्रणाम कर रहे थे। जगन्नाथ का दर्शन बन्द है। (आप जानते हो। आपको कई बार बताया गया है, जब स्नान यात्रा होती है तब मंदिर बन्द रहता है।तब चैतन्य महाप्रभु अलारनाथ जाते थे।ऐसी विधि है, केवल चैतन्य महाप्रभु ही नहीं, जो भी जगन्नाथ का दर्शन करना चाहते थे। वे अलारनाथ जाते थे। )अब जगन्नाथ, अलारनाथ में दर्शन दे रहे हैं। जब चैतन्य महाप्रभु साक्षात दण्डवत प्रणाम कर रहे थे, तब वहां जो शिला अथवा पत्थर था, उस शिला का स्पर्श श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अंग सङ्ग से अर्थात सचिदानन्द विग्रह से हुआ और वह शिला पिघल गयी। पत्थर पिघल गया, आप कहोगे क्या कोई उदाहरण है? पशु पाखी झूरे, पाषाण विदरे.. पाषाण पिघलता है तो .. चैतन्य महाप्रभु ने अलारनाथ में जब साक्षात दण्डवत प्रणाम कर रहे थे तब उन्हें एक पाषाण के ऊपर यह लीला करके दिखाई। जब वे प्रणाम करके उठे तत्पश्चात उनके स्पर्श से वहां चिन्ह बन गया अर्थात वह शिला चिन्हांकित हुई। वह शिला आज भी है। हरि! हरि!
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!प्रेमानंदे अर्थात प्रेम का आनन्द। प्रेम पूर्वक बोलो, क्या बोलो? हरि हरि बोलो। हाय हेलो छोड़ो, हरे कृष्ण बोलो।
हाय- बाय, यह सब छोड़ो, बस हरे कृष्ण बोलो। (वास्तव में समय तो बीत रहा है। मुझे और ही कुछ कहना था लेकिन कह दिया जो अभी आपने सुना)
हरि! हरि! हेमंत ए प्रथम मासि..
मार्घशीर्ष महीना है, हम लोग कृष्ण की लीलाएं स्मरण कर रहे थे। भगवान इस महीने में चीर घाट पर लीला खेल रहे थे व पूरे महीने भर के लिए खेलते रहे। तत्पश्चात अंतिम दिन अर्थात पूर्णिमा के दिन उन्होंने (यह सब आपको बता चुके हैं) वस्त्र हरण किया और बाद में वस्त्र लौटा भी दिए। उसके पश्चात श्रीकृष्ण ने गोपियों को अपने-अपने घर लौटने के लिए कहा और यह भी कहा था कि हम भविष्य में आने वाली किसी रात्रि को मिलेंगे।
*याताबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथा क्षपाः। यदद्धिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः।।*
( श्रीमद भागवतम १०.२२.२७)
अनुवाद:- हे बालाओं, जाओ, अब व्रज लौट जाओ। तुम्हारी इच्छा पूरी हो गयी है क्योंकि तुम आने वाली रातें मेरे साथ बिता सकोगी। हे शुद्ध ह्रदय वाली गोपियों, देवी कात्यायनी की पूजा करने के पीछे तुम्हारे व्रत का यही तो उद्देश्य था!
हम आने वाली किसी रात्रि को रमेंगे। ततपश्चात गोपियों ने वहां से प्रस्थान किया। हमनें इसका स्मरण किया था लेकिन पुनः स्मरण किया जा सकता है। गोपियों के लिए प्रस्थान करना कठिन हो रहा था।
श्रीशुक उवाच
*इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः।ध्यायन्तयस्तत्पदाम्भोजम्कृच्छ्रान्निर्विविशुर्व्रजम्।।*
( श्रीमद भागवतम १०.२२.२८)
अनुवाद:- शुकदेव गोस्वामी ने कहा:- भगवान द्वारा आदेश दिए जाकर अपनी मनोवांछा पूरी करके वे बालाएं उनके चरणकमलों का ध्यान करती हुई बड़ी ही मुश्किल से व्रज ग्राम वापिस आयी।
श्रीकृष्ण के चरण कमलों का स्मरण गोपियाँ सदैव करती रहती हैं। हरि!हरि! अब उन चरण कमलों से उनको दूर जाना पड़ रहा है। वे कृष्ण से दूर जान में थोड़ी कठिनाई महसूस कर रही हैं। जब वे जा रही थी, तब उन्होंने यह भी अनुभव किया था कि वहां चीर घाट पर कृष्ण ने वस्त्र हरण किया था। कृष्ण ने लौटा तो दिए लेकिन कृष्ण चित चोर भी तो हैं। कृष्ण ने हमारे चित की भी चोरी की है, इसलिए हमारा मन उस चोर की ओर दौड़ रहा है जिसने हमारे चित/ मन की चोरी की है। हरि! हरि! हम भी प्रार्थना कर सकते हैं। हमनें कहा तो है कि हमें भक्ति करनी चाहिए
*आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता। श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्री चैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः।।*
( चैतन्य मञ्जूषा)
अर्थ:-
भगवान् व्रजेन्द्रनंदन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद् भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही परम् पुरषार्थ है- यही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम् आदरणीय है।
कृष्ण चितचोर हैं, कृष्ण का एक नाम चितचोर हैं। माखन चोर तो है ही। माखन चोर कृष्ण कन्हैया लाल की जय!
चोर की कभी जय होती है क्या? आपके घर से कोई चोर चोरी करके जाए तब क्या आप उसकी जय कहते हो? लेकिन यह ऐसा चोर हैं… चोर क्या है.. चोर तो हम हैं। वह चोर नहीं हैं। हरि! हरि!
माखन चोर और चितचोर! हरि! हरि! भगवान्, हमारे चित्त की चोरी कब करेंगे? ना जाने माया ने हमारे चित्त/ हमारे मन/ हमारे ध्यान को चोरी किया हुआ है।
कृष्ण ने भगवतगीता में कहा हैं-
*न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ||* (श्रीमद् भागवत गीता ७. १५)
अर्थ:-
जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |
हमारा भाव आसुरी भाव है। माया हमारे आसुरी भाव वाले चित्त की चोरी कर लेती है। ‘आई लॉस्ट माय हार्ट इन सिनेमा हॉल’ ऐसा हो सकता है ‘आई लॉस्ट माय हार्ट इन बॉलीवुड बॉम्बे’, आई लॉस्ट माय हार्ट इन … शराब की दुकान में, शराब में। हरि! हरि! इस संसार की सुंदर स्त्रियां, सुंदर पुरुष या तथाकथित बलवान पुरुष यह सब हमारी चित्त की चोरी करते रहते हैं। हमारे चिंतन के यह सारे विषय होते हैं क्योंकि उन्होंने हमारे चित्त की चोरी की हुई है। किसी स्त्री ने हमारे चित्त की चोरी की हुई है। धन ने हमारे चित्त की चोरी की है।
*न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥4॥*
अर्थ:- हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।
हरि! हरि! कहां से कहां तक यह चोरियां हमारी हो ही रही है। हमारी चित्त की चोरी माया कर रही है। माया के कई विविध रूप हैं, माया के कई विविध खेल हैं। माया के कई सारे पक्ष हैं, पार्टीज हैं। हरि! हरि! कार्यकलाप है। जब हम लीला का स्मरण करते हैं, देखो, गोपियों का मन कहां है? गोपियां क्या सोच रही हैं? वह शिकायत कर रही है, चितचोर ने पहले तो वस्त्रों की चोरी की, अब चित्त की चोरी की। इसलिए हमारा शरीर तो घर की ओर जा रहा है लेकिन मन तो कृष्ण की ओर दौड़ रहा है।
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||*
( श्रीमद् भगवतगीता १०.९)
अर्थ:-
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
हम यह कह ही चुके हैं। गोपियां जब जा ही रही थी अर्थात वे बेचारी अपने अपने घर लौट रही थी तब कृष्ण गायों और अपने मित्रों के साथ आगे बढ़ते हैं।
श्रीमद्भागवतम में वर्णन आता है-
*तस्या उपवने कामं चारयन्तः पशुन्नृप।कृष्णरामावुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रवन्।।*
( श्रीमद् भागवतम १०.२२.३८)
अनुवाद:- तत्पश्चात हे राजन, सारे ग्वालबाल यमुना के तट पर एक छोटे से जंगल में पशुओं को उन्मुक्त ढंग से चराने लगे। किन्तु शीघ्र ही भूख से त्रस्त होकर वे कृष्ण तथा बलराम के निकट जाकर इस प्रकार बोले।
शुकदेव गोस्वामी कथा सुना रहे हैं। वे गंगा के तट पर बैठे हुए हैं और कृष्ण की वृंदावन लीला का वर्णन कर रहे हैं। मानो लीलाओं को अवलोकन अथवा देख रहे थे अर्थात मानो वह लीला जैसे शुकदेव गोस्वामी के समक्ष घटित हो रही हो रनिंग कमेंट्री चल रही है। शुकदेव गोस्वामी सुना रहे हैं। इसलिए वे संबोधित कर रहे हैं, हे नृप! हे राजा! तस्या उपवने, कृष्ण एक उपवन में पहुंचे। वह चीर घाट पर यमुना के तट पर थे। वहां से कृष्ण ने प्रस्थान किया। अब वे, गाय और अपने मित्रों के साथ में एक उपवन में पहुंचे हैं। उस उपवन का नाम वैसे अशोक वन है, यह अशोक वन अक्रूर घाट के पास है। आप अक्रूर घाट से परिचित होंगे? यस और नो? इसलिए ब्रजमंडल परिक्रमा नामक ग्रंथ को भी आप पढ़ा करो या कभी स्वयं आकर ब्रजधाम या वृन्दावन की परिक्रमा भी किया करो। इससे यह सारा खुलासा हो जाएगा कि कौन सी लीला कहां हुई, कौन सा वन कहां है इत्यादि इत्यादि। कृष्ण अक्रूर घाट के पास अशोक वन में पहुंचे हैं। अक्रूर घाट जिसे हम वर्तमानकालीन वृंदावन कहते हैं। पंचकोशीय वृंदावन और मथुरा के बीच में अक्रूर घाट है। वे वहां पर पहुंच गए। कोई कह सकता है- बाप रे बाप ।वहां चीर घाट पर थे, वहां से अक्रूर घाट / अशोक वन पहुंच गए। आप में से कइयों को पता है कि यह कई दिनों की यात्रा है। हम पूरा दिन भर चलते रहेंगे तब हम, आप जैसे व्यक्ति कई दिनों के उपरांत चीर घाट से अक्रूर घाट पहुंच सकते हैं लेकिन कृष्ण तो अभी अभी चीर घाट पर ही थे और अब अक्रूर घाट या अशोक वन पहुंच गए जिसे यहां उपवन कहा गया है। कृष्ण कैसे पहुंच जाते हैं? इसी को अचिंत्य कहा गया है। यह सब अचिंत्य बातें हैं। हम अपने दिमाग अर्थात मटेरियल कैलकुलेशन से इसको जान समझ नहीं सकते कि कैसे कृष्ण ने इतनी लंबे सफर की दूरी को कुछ क्षणों में तय कर लिया और यहां पहुंचे गए। यह कृष्ण हैं। इसे कहते हैं कृष्ण रिलाइजेशन। मैं कृष्ण को जानता हूं , मैं कृष्ण को जानता हूँ। यह कहने वाले कई होते हैं लेकिन ये बातें समझना.. मुश्किल है। इसीलिए हमनें कल का जो श्लोक हैं हमने उसकी व्याख्या की।
*अतः श्रीकृष्ण- नामादि न भवेद्ग्राह्यामिन्दियैः। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला१७.१३६)
अनुवाद:- इसलिए भौतिक इन्द्रियाँ कृष्ण के नाम, रूप, गुण तथा लीलाओं को समझ नहीं पातीं। जब बद्धजीवों में कृष्णभावना जाग्रत होती है और वह अपनी जीभ से भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है तथा भगवान् के शेष बचे भोजन का आस्वादन करता है, तब उसकी जीभ शुद्ध हो जाती है और वह क्रमशः समझने लगता है कि कृष्ण कौन हैं।
आपको याद है? कल इसी पर चर्चा हो रही थी। हम हमारी ज्ञान इंद्रियों से भगवान् के नाम, गुण, लीला, धाम को जान नहीं सकते। ग्राह्यामिन्दियैः कलूषित, दूषित, अपूर्ण, त्रुटिपूर्ण इंद्रियों के मदद से हम भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम को नहीं समझ सकते हैं। यही बात है। हरि! हरि। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः कहीं से शुरुआत करो। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ से शुरुआत करो। प्रभुपाद कहा करते थे- नाचो, गाओ, खाओ। कृष्णभावनामृत का जीवन कोई कठिन नहीं है। दो चार बातें करनी है। नाचो, गाओ या गाते हुए नाचो, नाचते हुए गाओ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह जप, यह नाम स्मरण करो। नाचो गाओ। फिर थोड़ा बैठ जाओ, थोड़ा श्रवण कीर्तन करो, नित्यम भागवत सेवया करो। गीता भागवत पढ़ो और प्रसादम लो। जैसे हमारा मॉर्निंग प्रोग्राम होता है, प्रभुपाद ने हमें प्रातः कालीन साधना दी। हम मंगला आरती करते हैं उसके लिए जल्दी उठते हैं। जल्दी उठना होगा। मंगल आरती तत्पश्चात बैठ जाओ और हरे कृष्णा का जप करो तत्पश्चात हम पुनः श्रृंगार दर्शन करते हैं। आचार्य उपासना / गुरु पूजा करते हैं और फिर ओम नमो भगवते वासुदेवायाय, ओम नमो भगवते वासुदेवाय के कहते ही सो जाओ। फिर एक घंटे के उपरांत महाप्रसाद ए गोविंदे कहते ही हम जग जाते हैं। भागवत की कथा में हम बैकबेंचर्स पीछे बैठते हैं। भागवत कथा में तो हम कहीं पीछे छिप कर बैठते हैं। जब प्रसादम का समय होता है तब अहम पूर्वम, अहम पूर्वम पहले मैं, पहले में, सबसे आगे हो जाते हैं.. हरि! हरि! नाचो, गाओ, खाओ। अच्छा प्रोग्राम है। बीच में यह श्रवण कीर्तन भी है।
*नित्य- सिद्ध कृष्ण प्रेम ‘साध्य’ कभु नय। श्रवणादि- शुद्ध- चिते करये उदय।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.१०७)
अनुवाद:-
कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के ह्रदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्त्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से ह्रदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।
हम चित्त की बात कर रहे थे जिससे हमारा चित्त मच्चित्तः हो जाए। हमारा चित्त भगवान के चरणों में लगा रहे। मच्चित्तः । श्रवणादि- शुद्ध- चिते करये उदय।
*एक हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*।। यह श्रवण कीर्तन है और साथ ही साथ गीता भागवत का श्रवण करना है। नित्यम भागवतसेव्या करेंगे और प्रसाद भी लेंगे इसलिए यह कार्यक्रम थोड़ा मीठा है। आत्मा को प्रसन्न करने वाला है। आत्मा का पोषण करने वाला है। दुनिया करती है शोषण और कृष्णभावनामृत करती है पोषण। आप इन दोनों शब्दों को समझते हो, शोषण और पोषण। हरि! हरि! वी आर एक्सप्लोइटेड एंड एग्जास्टेड भी कहते हैं। इस माया और मायावी लोगों के साथ लेनदेन करते करते, सारे व्यवहार व्यापार करते-करते यह सारा संसार यह मायावी जगत हमारा खून पीता है या दिमाग खाता है, परेशान करता है। कोई सहायता करने वाला नहीं है। लोग अकेलापन (लोनली) फील करते हैं क्योंकि जिसके पास भी गए उसने शोषण ही किया। हमारा कुछ फायदा ही उठाया। धीरे धीरे व्यक्ति सोचता है कि नहीं, नहीं मेरा किसी से कुछ लेना देना नहीं है। मैं अकेला ही रहूंगा। आई डोंट केयर, आई डोंट नीड। किसी की जरूरत नहीं। मैं अकेला रहूंगा।
लोनली, लोनली यह अकेलापन इन दिनों में बहुत बड़ी समस्या है। यह अकेले लोग तो धीरे धीरे आत्महत्या की भी बातें करते हैं। मैं अभी सुन रहा था, कुछ देशों जैसे इंग्लैंड या कुछ अन्य देशों में एक नए मंत्रालय( मिनिस्ट्री) की स्थापना की है। लोनली मिनिस्ट्री। जो लोग अर्थात उस देश के नागरिक अकेलापन फील करते हैं, उनकी सहायता करने के लिए एक मिनिस्ट्री की स्थापना हो रही है जिसे लोनली मिनिस्ट्री (मंत्रालय) कहते हैं। मैं नहीं जानता है कि वास्तव में क्या नाम है? यह लोनलीनेस, यह संसार यह माया जो हमारा शोषण करती है, इसी के कारण हम अकेलापन अनुभव करते हैं या अकेले रहना पसंद करते हैं। हरि !हरि! कृष्ण भावना क्या करती है? हमारा पोषण करती है, हमें पुष्ट करती है। हमें आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए प्रेरणा देती है। जिससे हष्ट पुष्ट हो सकें। जिससे हम महात्मा हो। महात्मा बन के हम क्या करेंगे?
*महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः | भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ||* ( श्रीमद् भगवतगीता ९.१३)
अनुवाद:-
हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं | वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं |
संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक दुरात्मा होते हैं दूसरे महात्मा होते हैं। सारे मायावी आसुरी प्रकृति के लोग दुरात्मा कहलाते हैं लेकिन मनुष्यों को महात्मा बनना चाहिए।
स्त्रियां भी महात्मा बन सकती हैं। आत्मा की बात चल रही है। अंतर्राष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ की जो भी गतिविधियां हैं, जो विधि विधान है। यह सब संसार के लोगों को महात्मा बनाने के लिए है। ऐसे महात्माओं का थोड़ा अभाव है, शॉर्टेज है। इसलिए हम ज़्यादा से ज़्यादा महात्मा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। अमेरिकन महात्मा, यूरोपियन महात्मा हर आत्मा महात्मा बने। वह किसी भी देश का वासी हो सकता है। किसी भी उम्र का हो सकता है किसी भी लिंग स्त्रीलिंग या पुल्लिंग हो सकता है। ऐसी कई सारी उपाधियां है।
*सर्वोपाधि विनिर्मुक्तं त्तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषीकेण हृषीकेश सेवनं भक्तिरुच्यते।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१७०)
अनुवाद:- भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरूषोतम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं।
अधिकतर यह आत्मा से संबंधित है। पर हम आपके शरीर की भी परवाह करते हैं। हम ऑलसो ग्रोथ देखना चाहते हैं। भगवान् देखना चाहते है। बॉडी, माइंड, सोल यह सब आ जाता है लेकिन लक्ष्य तो आत्मा ही है। माइंड व शरीर को इसलिए करते हैं जिससे हमारी बॉडी, हमारा माइंड आत्मा के लिए अनुकूल हो। आत्मा के पोषण के लिए अनुकूल हो। इसी उद्देश्य से हम से शरीर और मन की भी देखभाल करते हैं। ठीक है। लीला तो वहीं रह गई।
कृष्ण गायों और मित्रों के साथ उसी दिन, उसी क्षण या कुछ क्षणों के उपरांत अक्रूर घाट अर्थात जहां अशोक वन है वहां पहुंचे । तदउपरांत वहां और कौन सी घटनाएं घटी, इसका स्मरण पुनः करेंगे या देखते हैं। कल करेंगे। तब तक के लिए हम अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं। हरे कृष्ण!!!
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
26 नवंबर 2021,
पंढरपुर धाम.
890 स्थानों से भक्तों जब के लिए जुड़ गए हैं आप सब का स्वागत और धन्यवाद। राधा पंढरीनाथ की जय! राधा पंढरीनाथ का दर्शन करते हुए, आप दर्शन कर रहे थे। आपको आपके जप का फल निश्चित ही फल प्राप्त हुआ। भगवान ने आपको दर्शन दिए आज। उनका नाम ले रहे थे। उनको आपने देखा।
हरि हरि, नयनपथगामी भवतुमें, जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतुमें। हम विग्रह का दर्शन करते हैं। और जप करते हुए, कीर्तन करते हुए या दर्शन करते समय जरूर दर्शन होता है तो हम नमस्कार भी करते हैं। नमस्कार कर रहे थे कि नहीं, मन ही मन में। हरि हरि, और फिर निहार रहे थे भगवान को। निहारना मतलब समझते हो, देखना नहीं कुत्ते को देखा जाता है। कुत्ते को हम देखते हैं। भगवान को हम निहारते हैं। तो देखना और निहारना। प्रेम से देखना। प्रेम से अवलोकन करना और अवलोकन करते ही रहना, उसको निहारना कहते हैं। और हम देखते ही रहते हैं। सुन भी रहे हैं और देख भी रहे हैं तो मतलब हमें और और बातें हैं याद आती है कृष्ण की। देख रहे हैं रूप को और स्मरण हो रहा है उनके लीलाका और उनके परीकरो का। राधारानी भी खड़ी है। ललिता विशाखा हे भी और नहीं भी है तो याद आती है ललिता विशाखा की। स्मरण होता है ललिता विशाखा का। और कई सारी यादें आती है और स्मरण होता है। और सताना भी तो चाहिए लेकिन, हम इतने प्रगत नहीं हैं कि हमको यादें सता दे या सताए।
हरि हरि, भक्ति के उच्च स्तर पर वह यादें सताती ही है। शुन्यायितम जगत सर्वम गोविंद विरहेन मे। हम विरहा महसूस करते हैं। गोविंद के बिना। गोविंद के दर्शन के बिना। गोविंद के सानिध्य के बिना। मन में विव्हलता, व्याकुलता प्रेम का कुछ जागृति उदय होते ही फिर हम अधिक अधिक याद करते हैं कृष्ण को राधा को। हरि हरि, तो यह समाधि भी है जब हम भगवान को देखते हैं और भगवान के संबंध में सोचते हैं। उनके रूप के संबंध में सोचते हैं। उनके गुणों के संबंध में सोचते हैं। वह कितने दयालु हैं। जैसे विष्णु सहस्तनाम है। विष्णु सहस्त्रनाम, विष्णु के भगवान के कितने नाम हैं, सहस्त्र नाम है। हम उनको कहते तो हैं सहस्त्रनाम है भी वह सहस्रनाम किंतु, एक-एक नाम भगवान के एक-एक गुण का उल्लेख करता है या स्मरण दिलाता है। यह भगवान के गुण का, भगवान के लीला का। गोवर्धनधारी नाम हुआ। क्या है नाम, गोवर्धनधारी इसी के साथ गोवर्धन का स्मरण। गोवर्धन धारण करने के लीला का स्मरण होता है। हर नाम के साथ या नाम इसलिए बनते हैं भगवान के, भगवान के सौंदर्य का उल्लेख होता है। त्रिभंगललितम यह नाम हो सकता है। रासविग्रह नाम हुआ, भगवान का नाम है। वैसे रासविग्रह यह स्मरण दिलाता है यह विग्रह दिख रहा मतलब रूप नाम है। रासविग्रह और हम उनके दास हैं वैसे हम रासविग्रह नहीं है। रासविग्रह कौन है, भगवान रासविग्रह है। यह नाम रासविग्रह नाम कहते ही रासलीला का स्मरण होता है। रासक्रीडा का स्मरण होता है। और वह विग्रह वह रूप रासक्रीडा खेलता है। ऐसी कई बातें ध्वनित होती है जब हम कोई ना भगवान का लेते हैं या सुनते हैं।
हरि हरि, हर नाम सहस्त्रनाम, विष्णु सहस्त्रनाम है तो फिर गोपाल सहस्त्रनाम है। नरसिम्हा के सहस्त्रनाम है। राधा सहस्त्रनाम है। गौरांग सहस्त्रनाम है। विट्ठल सहस्त्रनाम है। जमुना सहस्त्रनाम है। केवल, बाप रे बाप हजार नाम हजारों नाम विष्णु के सहस्त्रनाम लेकिन फिर एक विष्णु सहस्त्रनाम नहीं है, इस सहस्त्रनामोके भी कई विविध प्रकार है। विविध प्रकार के सहस्त्रनाम है गोपाल सहस्त्रनाम या यह सहस्त्रनाम वह सहस्त्रनाम। भगवान के कुछ या तो हुआ, तो नाम लेकिन वह नाम कहता है कुछ। रामलीला नाम हुआ राम की लीला का स्मरण होता है। श्याम सुंदर नाम हुआ इससे क्या पता चलता है एक तो भगवान सुंदर है, लेकिन इस सौंदर्य का प्रकार कौन सा है, कैसा है। सौंदर्य घन एवं शाम। घन मतलब आकाश में जो बादल होते हैं उनका जो रंग होता है छटा होती है आभा होते हैं। बारिश के बादल प्रभुपाद कहते हैं। मान्सून के दिनों में जो बादल केरल की ओर प्रवेश करते हैं। उस समय की जो बादल घन श्याम और उसमें जो सौंदर्य है घन
श्याम सुंदर। एक नाम बहुत कुछ कहता है कृष्ण के संबंध में।
हरि हरि, तो इस प्रकार हम भगवान का दर्शन करते हैं। रूप का दर्शन करते हैं और साथ में नाम भी ले रहे हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह नाम है। रूप है। रूप ही नाम है और यह सब अचिंत्य है।
अतः श्रीकृष्ण नामादि ना भवेत ग्रह्या इंन्द्रियीः यह भी कहां है, भगवान का नाम भगवान का रूप, गुण, लीला इसी के साथ श्रीकृष्ण नामादि ना ग्रह्या इंन्द्रियीः यह और कुछ कहना हम प्रारंभ कर रहे हैं, पता नहीं क्या कहलवाते हैं भगवान। इस सूत्र में या मंत्र में कहां है भगवान श्रीकृष्णानामादि नाम और बाकी नाम, रूप, गुण, लीला परिकर धाम आदि कह दिया खत्म। नामादि कहने से क्या क्या कहा जा रहा है। रूप, गुण, लीला, धाम श्रीकृष्ण नामादि ना भवेत ग्रह्या इंन्द्रियीः तो इनको भगवान के नाम को रूप को, गुण को, लीला को, धाम को हम अपने इंद्रियों से जान नहीं सकते। क्योंकि, हमारी तो इंद्रियां है उसमें से एक प्रकार है इंद्रियों का उसको ज्ञानेंद्रिय कहते हैं और दूसरा प्रकार है कर्मेंद्रिय। कर्मेंद्रिय पांच है और ज्ञानइंद्रियां पांच है। हम अपने इंद्रियों से भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला को नहीं समझ सकते हैं। या कौन सी इंद्रियों से नहीं समझ सकते हैं, ना भवेत ग्रह्या इंन्द्रियीः जो इंद्रियां कलुषित है, दूषित है ऐसे इंद्रियों के मदद से हमारी ज्ञानइंद्रियों के मदत से भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला को हम नहीं समझ सकते। यह सब अचिंत्य रहेगा। हमारे चिंतन के परे रहेगा। हम कहेंगे कुछ कुछ नाम लेंगे पढ़ेंगे सुनेंगे किंतु हमारी जो इंद्रियों की स्थिति हैं उसे ज्ञान नहीं होने वाला है। भगवान के नाम का, रूप का, गुण का, लीला का, धाम का परिकरो का। हरि हरि, क्योंकि हमारे पास वह साधन नहीं है। साध्य क्या है, भगवान के नाम को जानना है। भगवान के रूप को देखना है। और गुणों को समझना है। यथासंभव लीला का दर्शन करना है। उसके लिए साधन चाहिए। साधन हमारी जो अभी हमारे पास इंद्रिय हैं। हमारी इंद्रिय है वह बेकार की है। बेकार है या फिर और भूख और जिव्हा चाहिए। हरि हरि, सेवन्मुखेही जिव्हादौ स्वयं एव स्फूर्ति अदः हम शुरुआत करेंगे। जिव्हा से शुरुआत करेंगे। तो हमारी जो दूषित इंद्रिय है और अपवित्र अनियंत्रित इंद्रियों में उसके साथ मन भी है, जो स्वैराचार होता रहता है।स्वैराचार स्वैराचार
हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। और इंद्रिय दूषित है शमः दमः तपः शौचम यह करना होता है शमः दमः तपः शौचम शांतिर्राजमेवच ज्ञानविज्ञान नमस्तीक्यम ब्रह्मकर्म स्वभावचम।। यह भी कहां है। ब्राहणों का ऐसा स्वभाव है। हमको भी ब्राह्मण बनना होगा। ब्राह्मणत्व को प्राप्त करना होगा। आगे वैष्णव भी बनना है। फिर कहां है, सेवन्मुखेही जिव्हादौ शुरुआत करो। कहां से शुरुआत करोगे, जिव्हा से शुरुआत करोगे। और जीवा के दो कार्य है एक खाने का और एक गाने का या बोलने का। तो यह दो कार्य भगवान के लिए करो। जिव्हा से शुरुआत करो। सेवन्मुखेही जिव्हादौ मतलब शुरुआत हमारी प्रसाद ग्रहण करने से शुरुआत करो। ऐसे कई बार होता है, कई लोग प्रसाद खा खाकर ही सुधर जाते हैं। सदाचारी बन जाते हैं। भगवान से आकृष्ट होते हैं। भक्ति का उदय होता है तार मधे जिव्हा अति। महाप्रसादे गोविंदे नाम ब्राह्मणे वैष्णवे।
स्वल्प पुण्यवतमराजा विश्वासने वजायते। शरीराअविद्या जल जडेद्रीय ताहे काल।
जीवे फेले विषय सागरे तार मध्ये जीवाआति। लोभो माया सुदुरमति। ताके जिता कठिन संसारे कृष्ण बड़ा दयो माय कोरीबारे जीवा जाय। स्वप्रसाद अन्नो दिलों भाय ।सेई अन्नामृत पाओ राधाकृष्ण गुणगांओ। ऐसा बहुत कुछ कहा है। अभी-अभी हमने यह कहां है 30 सेकंड में लेकिन, इसमें कई सारे सिद्धांत छिपे हुए हैं। अगर हम उसको समझ भी सकते हैं, हमको तो जल्दी में होता है। प्रसाद हाथ में लिए होते हैं और फिर महाप्रसादे गोविंदे कहना शुरु देते हैं। कब प्रार्थना पूरी होगी ताकि हम खाने के लिए शुरुआत करें। इसीलिए प्रार्थना की और या तो ध्यान नहीं देते हैं। ध्यान देते हैं तो समझते नहीं। ऐसे कुछ समझना चाहिए या फिर समझ के साथ प्रार्थना करनी चाहिए। हरि हरि, और फिर प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। हमारे जिव्हा का बहुत बड़ा रोल है हमारे जीवन में।
हमारे जीवन को बिगाड़ने में या सुधारने में जिव्हा की बहुत बड़ी भूमिका है। हरि हरि, क्योंकि जैसा अन्न वैसा मन ऐसा कहते हैं। प्रसाद ग्रहण कर कर के, करते-करते प्रसाद ग्रहण करेंगे तो जैसा अन्न वैसा मन बन जाएगा। अन्न में जो गुण है, प्रसाद भगवान है। अन्न परम ब्रह्म कहते हैं। अन्न परम ब्रह्म। अन्न होता है, जब भगवान ग्रहण करते हैं, भगवान ने ग्रहण किया हुआ भोजन अन्न अब महाप्रसाद के रूप में हम को प्राप्त हो रहा है। तो उसको परब्रह्म कहां अन्न परब्रह्म। जैसे अर्जुन ने कहा भगवान को, परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् | प्रेम भगवान खड़े हैं सामने। इसीलिए अर्जुन ने कहा आप परब्रह्म हो। और थाली में जो प्रसाद हैं परब्रह्म है। इसीलिए हम प्रसाद को क्या करते हैं? करना तो चाहिए पता नहीं आप करते हो कि नहीं, नमस्कार करना चाहिए। नमस्कार करके फिर ग्रहण करो। प्रसाद सेपरेट भरने के बाद दोबारा अपनी कृतज्ञता व्यक्त करो पुनः प्रणाम करके ऐसे धाग के साथ ऐसे समस्त के साथ हम प्रसाद को ग्रहण करेंगे तो हमारी जिव्हा नियंत्रण में आ जाएगी जीवा नियंत्रण में आ जाएगी उस से मन प्रभावित होगा जैसा अन्न वैसा मन फिर मन चंगा होगा तो कठौती में गंगा मन चंगा है
सेवन्मुखेही जिव्हादौ उसी मंत्र में यह कहा है। एक तो प्रसाद ग्रहण करो और फिर क्या करो जिव्हा का दूसरा कार्य क्या है, बोलने का कार्य है। सेई अन्नामृत पाओ राधाकृष्णा गुण गाओ। फिर क्या? सो जाओ नहीं। सेई अन्नामृत पाओ राधाकृष्ण गुण गाओ। सो जाओ नहीं फिर तो हम नमक हराम बन जाएंगे। नमक हराम या खीर हराम। हमने भगवान की खीर भी खायी हैं। फिर आराम कर रहे हैं तो यह तो हराम हुआ। नमक हराम, खीर हराम, प्रसाद हराम। सेई अन्नामृत को प्राप्त करेंगे, ग्रहण करेंगे तो संतुष्ट होंगे। हम प्रसन्न होंगे। भगवान से प्रसन्न। अपनी प्रसन्नता हम व्यक्त कर सकते है। इसी के साथ सेई अन्नामृत पाओ राधाकृष्ण गुण गाओ। या फिर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। गुण गाना आता भी नहीं है। ठीक है। हरे कृष्ण गाओ। उसी के साथ सब होगा भगवान के गुण आपने गाए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण गाया आपने तो फिर सब गुण गाए आपने। क्योंकि भगवान का नाम कैसा है, नित्य है। शुद्ध है। पूर्ण है। नामचिंतामणि चैतन्यारसविग्रहः रस विग्रह या रासविग्रह हम कह रहे थे। रसविग्रह विग्रह मतलब मूर्ति। रस की मूर्ति है या भगवान का जो रूप है वह रस भरा है।
रसौ वै सहः उपनिषदों में कहां है। भगवान कैसे हैं, रसौ वै सहः सहः मतलब वह, रस, रस तो है, कृष्ण कैसे हैं? रस है। वै मतलब निश्चित ही, रसः वै सहः सह रसः तो भगवान रस है। भगवान रस की मूर्ति है या फिर अखिल रसामृत सिंधु भगवान है अखिल रस के अमृत के सिंधु। और फिर उनकी मूर्ति या उनका जो रूप है, नाम चिंतामणि कृष्ण चैतन्य रसविग्रह चैतन्य भी है और नित्य है। भगवान का नाम नित्य हैं तो फिर भगवान ही नित्य है, शुद्ध है। भगवान का नाम शुद्ध है या फिर भगवान का प्रसाद शुद्ध है। नाम भगवान है भगवान का प्रसाद भी भगवान है। ऐसी कुछ चित्र विचित्र बातें तो है। तो इसको जब हम ग्रहण करते हैं प्रसाद ग्रहण किया और नाम ग्रहण किया। तो नित्य शुद्ध पूर्ण मुक्त भगवान का नाम कैसा है? नित्य है, शुद्ध है, पूर्ण है, मुक्त है। जो मुक्त है हमको भी मुक्त बना सकता है। भगवान का नाम मुक्त है तो हम हो गए मुक्त हो गए, मुक्त के संग से या मुक्त के प्रभाव से। यह हरिनाम मुक्त है, मुक्त है मतलब गुणातीत भी समझ सकते हैं। तीन गुना से परे हैं, सत्व रज तमोगुण का कोई प्रभाव नहीं है इस नाम के ऊपर, नाम मुक्त है। तो यह नाम लेंगे, भगवान का प्रसाद ग्रहण करेंगे यही तो भक्ति है।
” मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || २६ ||”
भगवान गीता में कहे हैं, वैसे भक्ति की परिभाषा भी वहां कह रहे हैं भगवान। स गुणान्समतीत्य मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते जो मेरी भक्ति करते हैं, अव्यभिचारेण मतलब शुद्ध भक्ति करते हैं उसके पीछे कुछ भुक्ति मुक्ति के विचार या वासना नहीं है ऐसा भक्ति करता है, ऐसा नाम लेता है, ऐसा प्रसाद ग्रहण करता है। वह बातें चल रही है सेवोन्मुखे हि जिव्हादो जीव्हा से प्रसाद ग्रहण करते हैं, जीव्हा से भगवान का नाम या गान करते हैं। ऐसा करेंगे तो कृष्ण कह रहे हैं गीता में स आगे पहले य कहा था अभी स कह रहे हैं। जो ऐसा भक्ति करेगा उसका क्या होगा? स गुणान्समतीत् ऐसे हर शब्द की ओर अगर हम ध्यान दे सकते हैं फिर अच्छी तरह समझ सकते हैं हम। भगवान को क्या कहना है? स वह व्यक्ति, गुणान मतलब तीन गुण है इसीलिए उसे बहुवचन में कहां है सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। स गुणान समतीत्य इसको पार करते हुए समतीत्य या जो गुणातीत, स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते फिर उसमे भी भगवान के गुण आ जाएंगे। भगवान परब्रह्म है तो ऐसा भक्ति करने वाला व्यक्ति भी ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ् क्षति ब्रह्मभूत होगा, प्रसन्न होगा, कृष्णभावना भावित होगा। कृष्ण नहीं होगा लेकिन कृष्णभावना से प्रभावित होगा, कृष्ण से प्रभावित होगा. हरि हरि।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
तो प्रसाद ग्रहण करते रहिए और भगवान का नाम लेते रहिए। और भी बहुत कुछ करना है लेकिन सेवोन्मुखे हि जिव्हादो की बात चल रही है। तो इसमें आगे यह कहा है वह भी महत्वपूर्ण है। सेवोन्मुखे हि जिव्हादो स्वयंमेव स्फुरत्यदः फिर वह पूर्ण हो गया। वैसे तो ग्राह्यं इंद्रियों भी वर्तमान स्थिति में, काल में हमारे जो इंद्रियों की जो दशा है उससे तो हम भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला को जान नहीं पाएंगे। इसीलिए कहा शुरुआत करो जीव्हा से शुरुआत करो, जीव्हा से प्रसाद लो और नाम लो। ऐसा करोगे तो स्वयंमेव स्फुरत्यदः स्वयंमेव मतलब भगवान स्वयं, कृष्ण स तु भगवान स्वयं स्फुरति स्फुरित होंगे, प्रकट होंगे या कुछ साक्षात्कार होना प्रारंभ होगा। हरि हरि। कोई प्रश्न या टिप्पणी।
प्रश्न 1 – बीड से कृष्णनाम प्रभु द्वारा प्रश्न
इतने समय से हम प्रसाद तो ले रहे हैं, लेकिन फिर भी कुछ हो ही नहीं रहा है, यह अनर्थ तो जो कि तो बने ही है।
गुरु महाराज द्वारा उत्तर – कुछ कम हुआ कि नहीं? प्रसाद लेने के पहले और अब उसमें तुलना करो। पहले कितने अनर्थ थे और अब कितने बचे हैं। तो यह काफी परिवर्तन हुआ है यह कैसे हुआ? प्रसाद ग्रहण करने से तो हुआ। अनर्थ कम तो हो रहे हैं फिर आपको विश्वास होना चाहिए इस प्रोसेस में। प्रसाद ग्रहण करने की जो विधि है तो लेते रहो कंटिन्यू। तो बचे हुए जो अनर्थ है निश्चित रूप से कम होंगे। बेशक उसके साथ नाम भी लेना है। आहार-विहार युक्तस्य युक्त आहार कहां है। हरि हरि। प्रसाद के नाम से भी कई बिगड़ जाते हैं या हो सकता है जैसे हमने कहा है, सेई अन्नामृत पाओ तो कह दिया। लेकिन उसके बाद जो करना होता है वह क्या है? राधा कृष्ण गुण गाओ वह नहीं किया तो आपने आधा ही काम किया। प्रसाद लेना तो आधा काम हो गया, उसी के साथ तो जुड़ा हुआ है सेई अन्नामृत पाओ राधा कृष्ण गुण गाओ राधा कृष्ण के गुण गाओ। हो सकता है हम लोग तो सो जाओ कह दिया इसीलिए भी जितनी मात्रा में और जितने गति से अनर्थो मुक्त होना है, ऐसा कुछ कम हो सकता है। तो आप कुछ सुधार कर सकते हो। हरि हरि। और प्रसाद ग्रहण करना होता है तो प्रसाद ग्रहण करते समय भी जो भाव है वह भी महत्वपूर्ण है।
प्रसाद को कैसे ग्रहण करना चाहिए? कब ग्रहण करना चाहिए? कितना ग्रहण करना चाहिए? इत्यादि इत्यादि कई सारे विधि निषेध भी प्रसाद ग्रहण करने के साथ जुड़े हुए हैं। उनका भी थोड़ा पालन करें। बीमार भी हो सकते हैं प्रसाद खा के इतना प्रसाद खा लिया। कोई आयुर्वेदिक डॉक्टर कहते हैं हरे कृष्ण वाले भी उनके शरीर भी बीमार हो जाते हैं। उनको भी शुगर और कोलेस्ट्रॉल इश्यूज हो जाते हैं, एक डॉक्टर कह रहे थे हम जब मिले थे उनसे। इस्कॉन की भक्तों को कहते हैं कि मुंह खोलो तो डॉक्टर जब देखते हैं कि यह तो हलवा और शक्कर से भरा हुआ है। यह हलवा जिसमें बहुत सारा घी या हो सकता है तेल भी और बहुत सारा शक्कर। तो फिर शुगर ब्लड से संबंधित बीमारियां तो होनी है। तो कई सारी बातें हैं स्मरणीय या करनीय प्रसाद ग्रहण करना यह एक बात है। हरे कृष्ण जपना तो हम कहते रहते हैं लेकिन फिर उसके कई सारे नियम भी तो है। या फिर हम कहते रहते हैं नियम नहीं है लेकिन नियम तो है।
नाम अपराध भी है और ध्यान पूर्वक जप करना है। शुरुआत में हम कहते हैं सिर्फ हरे कृष्ण जप करो, लेकिन यह नहीं कहते ध्यान पूर्वक जप करो, अपराध रहित जप करो। उसी प्रकार प्रसाद, यह प्रसाद लो, लेकिन फिर वैसे आपको बैठ के उसके ऊपर सेमिनार देना पड़ेगा प्रसाद ग्रहण करने के संबंध में। प्रसाद ग्रहण करने की कला और शास्त्र भी हैं। हरि हरि। ईट युवर फूड एंड ड्रिंक युवर वॉटर ऐसा भी एक नया टॉपिक है। तो ऐसी सलाह दी जाती है भोजन या अन्न को आप खाओ और जल को पिओ इसके ऊपर हम कोई टिप्पणी नहीं देंगे। लेकिन ऐसी भी एक सलाह है यु ईट युवर फुड एंड ड्रिंक युवर लिक्विड्स या वॉटर। क्योंकि हम चबाकर नहीं खाते, ठीक है इसके ऊपर एक पूरा सेमिनार हो सकता है। तो फिर रिव्यू करो, इतने साल से तो खा रहे हैं। लेकिन हमारा जो खाना है केवल शरीर के लिए नहीं है , शरीर का फायदा भी हो सकता है, नुकसान भी हो रहा है। तो मन का फायदा होना चाहिए, आत्मा का फायदा होना चाहिए। हो रहा है कि नहीं? वैसे प्रसाद यह आत्मा का खाद्य है। तो फिर प्रसाद शरीर के लिए है, प्रसाद मन के लिए है, प्रसाद आत्मा के लिए है इस पर विचार करो। आत्मा तक पहुंच रहा है कि नहीं प्रसाद आपका देखो या प्रसाद को समझो। जैसे हम कह रहे थे अन्न परब्रह्म अन्न है परब्रह्म या प्रसाद है भगवान। इस समझ के साथ ही ग्रहण करो। हरि हरि। और फिर कभी कभी उपवास भी करना चाहिए।
प्रश्न 2 – प्रसाद लेते वक्त सही भाव कैसे बना कर रखें कि यह भगवान का प्रसाद है?
गुरु महाराज द्वारा उत्तर – प्रसाद लेते वक्त तुम तो नहीं पढ़ पाओगे या और कोई पढ सकता है कृष्णा बुक या कोई टेप, कुछ प्रवचन कथा वह सुन सकते हो। ताकि थोड़ा कृष्ण भावना भावित मूड बन जाएगा। प्रसाद लेते वक्त कोई गंभीर बातें भी नहीं होनी चाहिए कृष्ण भावनाभावित बिजनेस के विषयों के ऊपर चर्चा भी नहीं होनी चाहिए या मैनेजमेंट डिस्कशन नहीं करनी चाहिए। संभव है तो कुछ हल्की सी चर्चा भी हो सकती हैं या कोई पढ सकता है। हमारे अच्छे पुराने दिनों में हम हमारे आश्रमों में हर प्रसाद के समय कोई भक्त कृष्ण बुक पढ़ा करते थे या रात्रि में दूध की बाल्टी बीच में लगते थे और आजू बाजू में सब बैठे हैं और एक भक्त कृष्णा बुक पढ़ रहा है और इसी के साथ हम दूध भ ग्रहण कर रहे हैं। तो यह हमको स्मरण दिलाता था कि यशोदा कैसे कृष्ण को सोने से पहले दूध पिलाया करती थी। और फिर कृष्ण कहते थे नहीं नहीं नहीं आप को मुझे कुछ कहानी सुनानी पड़ेगी।
तो फिर यशोदा कृष्ण को कहानी सुनाती थी किसकी? कृष्ण की ही कहानी या फिर रामलीला की कहानी। इस प्रकार थोड़ा मूड बन जाता है। क्योंकि प्रसाद साधारण नहीं है, प्रसाद कृष्ण है। चैतन्य महाप्रभु ने भी एक समय कहां आओ आओ भक्तों शांतिपुर में। चैतन्य महाप्रभु प्रसाद ग्रहण कर रहे थे और उसको ग्रहण करना प्रारंभ करते ही इतना स्वादिष्ट था वह प्रसाद। महाप्रभु ने उन भक्तों को पास में बुलाया और कहां इसमें कृष्ण के मुख की जो लाल है यह मिश्रित है, इसीलिए यह भोजन इतना मीठा बन चुका है। एक दिन शांतिपुरे प्रभु अद्वैतेर घरे अद्वैत आचार्य के घर में शांतिपुर में चैतन्य महाप्रभु प्रसाद ग्रहण करते समय प्रसाद की महिमा का गान करने लगे। तो ऐसा सब करने से हम लोग मुड़ में आ जाते हैं, फोकस हो सकता है प्रसाद के ऊपर या प्रसाद भगवान है उसके ऊपर भी। इन विचारों को लाने के लिए कुछ सुने आप, कुछ सोचे आप या कुछ चर्चा करें प्रसाद लेते वक्त। लोग तो बोलते रहते हैं खाते वक्त। कृष्ण के विषय में बोलिए, कृष्ण कैसे अपने मित्रों के साथ बैठते हैं, भोजन करते रहते हैं।
मेरा भी कभी नंबर लगेगा, मैं भी कभी ज्वाइन कर सकता हूं भगवान का जमुना के तट पर पुलिन पर भोजन हो रहा है। और मैं यहां नागपुर में कुछ अभक्ष भक्षण कर रहा हूं अभक्ष भक्षण। कैसा भक्षण? अभक्ष भक्षण जैसे सूअर और सिंह गीध जैसे खाते हैं। वैसा मैं भी कुछ मटनम चिकनम चल रहा है, हाय यह मेरा हाल है। ऐसा भक्त तो नहीं सोचेंगे क्योंकि वह पत्रं पुष्पं फलं तोयं को ही ग्रहण करते हैं। लेकिन हम अगर याद कर सकते हैं, भगवान कैसे भोजन करते हैं अपने मित्रों के साथ वन में वनभोजन या फिर नंद भवन में भोजन, कितनी सारी लीलाए हैं। ठीक है, मैं यहां रुकना चाहूंगा। हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
25 नवंबर 2021
882 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । हरि हरि !! आप सभी तैयार हैं ? पुरुषोत्तम हरि ! और बाकी सब । हरि हरि !! गौरंग ! पांडुरंग ! पांडुरंग पंढरपुर में है । गौरंग पांडुरंग ! गौरंग पांडुरंग ! …आप कह रहे हैं पांडुरंगा ? गौरंग ! पंढरपुर में ऐसा भक्त कहने लगे हैं । नवद्वीप में तो कहते हैं । गौरांग नित्यानंद ! हरि हरि !! तो वृंदावन में कहते हैं, दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया ! और पंढरपुर में गौरंग पांडुरंगा ! सखी वृंदा कह रही है ? गौरंग पांडुरंग ! गौरांग है पांडुरंग । जेई गौर, सेई कृष्ण, सेई जगन्नाथ । जेई गौर, सेई विट्ठल, सेई जगन्नाथ यो जेई गौर, सेई पांडुरंग, सेई जगन्नाथ । अभी हम जगन्नाथपुरी में थे कल । कल की यात्रा यह कल की प्रातः काल हमने जगन्नाथपुरी में विताई परिक्रमा के साथ । भक्त चैतन्य वहां भी थे और कई सारे भक्त । अभी हम वापस आजाते हैं वृंदावन । जगन्नाथ पुरी से वृंदावन वापस आना कहना भी उचित नहीं है क्योंकि जगन्नाथपुरी है वृंदावन तो वापस आना क्या ! जगन्नाथपुरी ही है वृंदावन तो वापस भी और वापस नहीं भी, तो हम जगन्नाथपुरी में रह सकते हैं । जगन्नाथपुरी में है वृंदावन । गुंडिचा मंदिर जगन्नाथ पुरी का कौन सा धाम है स्थान है ? वृंदावन गुंदीचा मंदिर जगन्नाथ मंदिर का वृंदावन धाम भी है ।
आपका ध्यान पुनः हम आकृष्ट करना चाहते हैं । मार्गशीर्ष महीने में क्या हुआ ?
श्रीशुक उवाच
हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दब्रजकमारिकाः ।
चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.1 )
अनुवाद:- शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी का पूजा व्रत रखा । पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई ।
याद है ! कुछ दिनों से नया मस्त दामोदर मास के उपरांत मार्कशीट या दामोदर के कई नाम है दामोदर मास वैसे कार्तिक मास, चैत्र वैशाख लेकर आगे बढ़ेंगे तो फिर दामोदर मास कार्तिक मास । आरती के बाद मार्गशीर्ष । मार्गशीर्ष में क्या हुआ ? आप सुन रहे थे । जिसे शुकदेव गोस्वामी सुनाएं हैं श्रीमद् भागवत् के दसवें स्कंध के अध्याय संख्या याद है ना ? 22, किसी ने 29 कहा । 29 अध्याय में क्या है ? दसवें स्कंध के 29 अध्याय में भगवान की रासक्रीडा का वर्णन है और 22 में चीरहरण । इस अध्याय में 22 वे अध्याय में हम कुछ पढ़ रहे थे कुछ बता रहे थे आपके साथ । वहां का घटनाक्रम वहां की लीलाएं घटनाओं को लीला कहते हैं, तो कृष्ण कहे गोपियों को आप जा सकती हो ।
याताबला ब्रजं सिद्धा मयेमा र॑स्यथा क्षपाः ।
यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.27 )
अनुवाद:- हे बालाओ , जाओ , अब व्रज लौट जाओ । तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई है क्योंकि तुम आने वाली रातें मेरे साथ बिता सकोगी । हे शुद्ध हृदय वाली गोपियो , देवी कात्यायनी की पूजा करने के पीछे तुम्हारे व्रत का यही तो उद्देश्य था !
हे गोपियों वृंदावन जाओ । अपने-अपने घर लोटो । जो वृंदावन में ही है उनके सारे निवास स्थान । सारे व्रज की गोपियों वहां प्रकट हुई है या पहुंची थी । हरि हरि !! तपस्या कर रही कात्यायनी की पूजा अर्चना कर रही थी तो एक महीना बीत गया । प्रतिदिन अपनी साधना कर रही थी । फिर साधना से सिद्ध हुई । कृष्ण ने कहा भी ‘सिद्धा’ । तुम अब क्या बन चुकी हो ? सिद्ध । भगवान ने कहा साधना में सिद्ध हुई हो । इसीलिए तो मैं यहां पहुंचा हूं । मैंने आपको दर्शन दिया फिर आप के वस्त्र चोरी भी किए । क्योंकि आप चाहती थी मैं आपका की पति बनू ।
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।
इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कमारिकाः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.4 )
अनुवाद:- प्रत्येक अविवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की ” हे देवी कात्यायनी , हे महामाया , हे महायोगिनी , हे अधीश्वरी , आप महाराज नन्द के पुत्र को मेरा पति बना दें । मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।
हमें पति प्राप्त हो पति प्राप्त हो नंद गोप का जो पुत्र है । नंद महाराज का पुत्र इसका जप मतलब, जप करती हुई आप कात्यायनी की आराधना कर रही थी साधना कर रही थी तो ‘सिद्धाः’ तुम सिद्ध हो चुकी हो । कैसे समझेंगी कि आप सिद्ध हो चुकी हो कि आपने हासिल किया है ? मैं जो यहां उपस्थित हो चुका हूं और मैंने वस्त्र भी चोरी किए और आप सब गोपियों को आगे बढ़ने के लिए मेरी और आगे आने के लिए या नदी किनारे आने के लिए भी कहा मैंने । यह थोड़े में पुनः दोहरा रहा हूं मैं जो कह रहा हूं । यह बातें तो हम कह चुके हैं लेकिन पुनावृत्ति की भी आवश्यकता होती है । पुनः स्मरण दिलाते हैं या उसी बात को फिर जोड़ देते हैं ताकि हम प्रभावित हो जाए । अगर हम कुछ भूलने लगे थे तो पुनः याद दिलाऐ जाए । आप जा सकती हो । “याताबला ब्रजं सिद्धा” और फिर पुनः मिलेंगे हम सभी कहे थे । हरि हरि !!
श्रीशुक उवाच
इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः । ध्यायन्त्यस्तत्पदाम्भोजं कृच्छ्रान्निर्विविशुर्ब्रजम् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.28 )
अनुवाद- श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा- पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा इस प्रकार से आदेश दिये जाकर अपनी मनोकामना पूरी करके वे बालाएँ उनके चरणकमलों का ध्यान करती हुईं बड़ी ही मुश्किल से ब्रज ग्राम वापस आईं ।
तो कृष्ण ने जब कहा “इत्यादिष्टा भगवता” भगवान कृष्ण कंहैया लाल की जय ! उनका आदेश “कुमारीका:” गोपियों को जो मिला कि क्या आदेश ? तुम जासकती हो “ध्यायन्त्यस्तत्पदाम्भोजं कृच्छ्रान्निर्विविशुर्ब्रजम्” तो आदेश जो मिला है उसका पालन तो कर रही है लेकिन वहां से निकलना वहां से दूर जाना गोपियों के लिए बड़ा कठिनाइ महसूस कर रही है । क्यों ?
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( भगवद् गीता 10.9 )
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं , उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परं संतोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं ।
ऐसे कृष्ण भगवत गीता में 10वे अध्याय में कहे हैं । मेरा भक्त कैसा होता है ? “मच्चिता” उसकी चेतना मुझमे लगी होती है । “मच्चित्ता मद्गतप्राणा” पूरे समर्पित होते हैं । “सर्वधर्मान्परित्यज्य” किए होते हैं । मुझ में आसक्त होते हैं ।
अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
( भगवद् गीता 9.22 )
और कोई चिंतन करना ही नहीं चाहते । केवल मेरा ही चिंतन करते हैं, तो ऐसी थी गोपियां इसका ज्वलंत उदाहरण है गोपियां । उनको कृष्ण से दुर जाने के लिए “कृच्छ्रा” यहां शब्द का उपयोग हुआ है । बड़ी कठिनाई से वहां से निकल पा रही है । हरि हरि !!
अथ गोपैः परिवृतो भगवान् देवकीसुतः ।
वृन्दावनाद् गतो दूरं चारयन् गाः सहाग्रजः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.29 )
अनुवाद:- कुछ काल बाद देवकीपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण अपने ग्वाल – मित्रों से घिरकर तथा अपने बड़े भाई बलराम के साथ गायें चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गए ।
तो गोपियां जा रही है अपने-अपने घर लौट रही है । पीछे मुड़ मुड़ के देखती हुई । और वो भी अनुभव कर रही थी अब कुछ समय तो उन्होंने हमारे वस्त्रों की चोरी की थी या उसी के साथ उन्होंने हमारे चित्त का भी चोरी कर ली । चीर घाट में वो अपना चित्त खो बैठी थी । अपना दिल ह्रदय विचारी खो गई तो इसीलिए जार तो रही है शरीर तो जा रहे हैं लेकिन उनका मन तो उनका चेतना या चिंतन तो कृष्ण की ओर दौड़ रहा है या कृष्ण के साथ रहना चाहता है । जब गोपियां जो भी है मुश्किल से कहो जा तो रही है तो उस समय कृष्ण भी आगे बढ़ते हैं गाय चराने के लिए । “वृन्दावनाद् गतो दूरं चारयन् गाः” गाय चराते हुए दूर गए “सहाग्रजः” । “सह” मतलब साथ “अग्र” मतलब आगे वाला या पहले वाला । अग्रज मतलब बलराम । कृष्ण अनुज है तो बलराम अग्रज है । ऐसे भी आप याद कर सकते हो अच्छा है कि नहीं आपको ऐसे याद कर सकते हो । अच्छे शब्द है एक है अग्रज एक है अनुज । अग्रज है बलराम । ‘ज’ मतलब जन्म लेना और अनु मतलब बाद में या पीछे से ‘ज’ जन्म लिए । सातवें पुत्र बलराम आठवें पुत्र कृष्ण, तो यहां कहा है “सहाग्रजः” तो कृष्ण गाय चराने जा रहे हैं, साथ में कौन है ? बलराम भी है । “गोपैः परिवृतो” तो गोपों से अपने मित्रों से ग्वाल बालों से गिरे हुए हैं । अभी अभी वहां माधुर्य लीला संपन्न हुई चीर घाट पर । अब सख्य रस की ओर मूड रहे हैं । अपने शाखाओं के साथ घिरे हैं वहां गोपियों से गिरे हुए थे और अब यहां मित्रों से घिरे हुए हैं ।
हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन् सुबलार्जुन ।
विशाल वृषभौजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.31 )
अनुवाद:- “हे स्तोक कृष्ण तथा अंशु ! हे श्रीदामा, सुबल तथा अर्जुन ! हे वृषभ, ओजस्वी, देवप्रस्थ, तथा वरूथप ।
तो कृष्ण बड़े प्रेम से अपने कुछ मित्रों का उल्लेख कर रहे हैं उनको संबोधित कर रहे हैं । उनको बुला रहे हैं ए ए मैं भी आ रहा हूं तो यहां भगवान की मित्रों की छोटी लिस्ट ऐसे असंख्य मित्र हैं । गोपियां असंख्य है । यहीं कहीं पर लिखा है तीन करोड़ ( 3,00,00,000 ) गोपियां रासक्रीडा में नृत्य करती हैं । कभी अधिक भी हो सकती है, कम भी हो सकती है लेकिन इसी तरह से संख्या है तो भगवान की मित्रों की संख्या भी कुछ कम नहीं है । कृष्ण के लड़की दोस्त हैं लड़के दोस्त हैं तो जितने लड़की दोस्त है या गोपियां है उनके लड़के दोस्त मित्र सखा भी असंख्य है । “हे स्तोककृष्ण” ऐसे नाम भी प्रातः स्मरणीय है । भगवान की मित्रों के नाम हम याद कर सकते हैं या केवल नाम सुन लिया तो नाम से सीमित नहीं रहता वो व्यक्तित्व का स्मरण भी होता है । वो फिर व्यक्तित्व का स्मरण नहीं उससे भी सीमित नहीं रहता उनके कार्यकलापों का स्मरण होना चाहिए तो इस प्रकार ये भगवान के मित्र हैं या ग्वाल बाल वे भी स्मरणीय है । प्रातः स्मरणीय और उनका स्मरण कुछ कृष्ण के स्मरण से कम नहीं है । क्योंकि कृष्ण से संबंधित है । कृष्ण के ही सगे संबंधी मित्र ही है । उनका स्मरण कृष्ण के स्मरण जैसा ही है । उनका स्मरण भी हम को कृष्ण भावना भावित बनाएगा तो मायावती मत बनो । हरि हरि !! “मायावादी कृष्ण अपराधी” तो होते ही हैं और मायावादी कुछ संबंध नहीं चाहते । ना तो भगवान के साथ और ना तो भक्तों के साथ या किसी के साथ यहां तक कि घर वालों के साथ । क्योंकि उनके अनुसार सब माया ही है । ब्रह्म सत्य जगत क्या है ! तो कोई आकार नहीं कोई संबंध नहीं कोई कर्म नहीं ये सब माया बाद है । मायावाद को भी समझो । मायावादी भगवान के रूप को नहीं मानते तो फिर औरों के रूप को भूल ही जाओ । कोई रूप नहीं है मतलब निराकार निर्गुण कोई गुण नहीं है निर्गुण है । कोई संबंध नहीं है, बस क्या है ? ज्योति है, प्रकाश है, ब्रह्म ज्योति है ।
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ।।
( श्रीमद्भागवतम् 1.2.11 )
अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्त्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को ब्रह्म , परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं ।
केवल ब्रह्म के भ्रम को लेके बैठे हैं मायावादी । उनका परमात्मा से कुछ लेना देना नहीं होता और भगवान से तो वे दूर ही रहते हैं, हे ही दूर तो भगवान के मित्र है और हम भी भगवान के हैं । आप किसके हो ? भगवान के होना ! हां मंजूर है । हरि हरि !! तो भगवान अपने मित्रों को एक एक को संबोधित करते हुए बुला रहे हैं । हमको कब बुलाएंगे ? हमको केवल माया ही बुलाती है । माया ही पुकारती है, माया ही संबोधित करती है । कृष्ण कब बुलाएंगे ? कृष्ण हमारा नाम लेके कब पुकारेंगे ? ऐसा भी कुछ विचार आ जाता है । अच्छा है इन मित्रों को वो पुकार रहे हैं । “हे स्तोककृष्ण” उनके नाम है स्तोककृष्ण । “अंशो” एक मित्र का नाम है “अशो” । “श्रीदामन्” श्रीदामा । वो तो एक सुदामा हो गए सुदामापुरी गुजरात के जो लंगोटियार थे । गुरुकुल में साथ में पढ़ते थे वो सुदामा और एक श्रीदामा नामक एक मित्र है । सुबल सखा है बहुत ही खास गोपालक लड़का है । उनका चरित्र तो थोड़ा विशेष होता है । वे दूत बनके जाते हैं । राधा रानी के लिए कुछ संदेश भेजना होता है तो कृष्ण सुबल को बताते । जाओ जाओ कब से नहीं आ रही है, कब से नहीं मिले जाओ ढूंढो वो क्यों नहीं आ रही है या मान कर के बैठी है जाओ सुबल, तो सुबल सखा है बहुत ही खास दोस्त । अर्जुन भी है वो कुरुक्षेत्र का अर्जुन नहीं । यहां एक वृंदावन के एक अर्जुन है । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्त को संबोधित करते हुए ) एक यूक्रेन के अर्जुन यहां बैठे हैं । फिर विशाल नाम के भगवान के मित्र हैं । हमारे नागपुर में विशाल दास अधिकारी हैं । भगवान के मित्र का नाम विशाल है । “वृषभौजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप” ऐसे एक एक का नाम लेके पुकार रहे हैं या वे थोड़े आगे पीछे हैं तो उनको पास में बुला रहे हैं कृष्ण ।
चीरघाट से दूर जा रहे हैं वृंदावन में आगे बढ़ रहे हैं । “आगे आगे गैया’ आगे आगे आए हैं और पीछे वे सब ग्वाल बाल है और ऐसे ये सब इन मित्रों को पुकारने का या पास बुलाने का उद्देश्य भी है कृष्ण का । कृष्ण जब जा रहे हैं अपने गायों को ले जा रहे हैं । “वनात् वनम” एक वन से दूसरे वन या चीरघाट भी एक वन में है तू वहां कई सारे वन है । “वनात् वनम” भागवत में कई बार शुकदेव गोस्वामी कहते हैं “वनात् वनम” एक वन से दूसरे वन । फिर आप कहोगे वो मधुबन से ताल वन जा रहे हैं याद दाल वन सिम कुमुद बन जा रहे हैं । काम वन से खादिर वन जा रहे हैं, तो वृंदावन में केवल द्वादश कानन ही नहीं है । ये व्रजभक्ति विलास नामक ग्रंथ में नारायण भट्ट गोस्वामी जो वजाचार्य रहे तो उनके अनुसार वनों के कई सारे प्रकार है । मुख्य भवन है फिर आदि वन है उपवन है तो हर वन के फिर और द्वितीय, तृतीय वन में वन तो कई सारे फिर सो हजार या एक उनके नाम भी है । वैसे फिर कोकिलावन भी है तो ये वृंदावन में ही है लेकिन और एक नाम हुआ कोकिलावन । ये वन वो वन कुछ मुख्य है कुछ गोण है आकार की दृष्टि से कहो या कुछ लीला के महात्म्य के दृष्टि से कम अधिक महिमा वाली लीला इस वन में उस वन में । वन ही वन है बहुत सारे वन तो हर वन का अपना वैशिष्ट्य भी है । वहां का वातावरण है हो सकता है, यहां तो कहा है अलग-अलग यह बात सुनके आगे बढ़ रहे हैं । “हेमन्ते प्रथमे मासि” तो हेमंत ऋतु है जो 2 महीने चलता है । ये भी है छह ऋतु है फिर दो 2 महीने वाले लेकिन वृंदावन में तो सारे रितु एक ही साथ विद्यमान रहते हैं । ऐसी व्यवस्था है तो एक वन में ग्रीष्म ऋतु चल रहा है तो दूसरे वन में वर्षा हो रही है । वर्षा ऋतु चल रहा है तो तीसरे वन में शरद ऋतु चल रहा है । चौथे वन में हेमंत ऋतु चल रहा है बगल वाले वन में शिशिर ऋतु चल रहा है तो ये अलग-अलग ऋतु, इसके अनुभव भी है हर ऋतु के आप कल्पना भी कर सकते हो । ग्रीष्म ऋतु गर्मी के दिन और फिर वर्षा के दिन । फिर वसंत ऋतु का अपना महिमा है वैशिष्ट्य है । इस प्रकार का सारा वेविद्य भी है वृंदावन में । ये विवधता है और कृष्ण उसका आनंद लेते हैं । तो “वनात् वनम” एक वन से दूसरे वन से कृष्ण जा रहे हैं गायों को लेके और साथ में मित्र तो हे ही । समय तो दौड़ता रहता है तो क्या कर सकते हैं ? तो मित्रों को पास में बुलाने का उद्देश्य इस समय इस लीला में एसएस शुकदेव गोस्वामी वर्णन कर रहे हैं । उद्देश्य ये रहा कि कृष्ण वन की जो शोभा है इसका स्वयं अनुभव कर रहे हैं और वण की शोभा किसके कारण ? वहां के जो वृक्ष है लगता है कि वैली है । उसके कारण जो शोभा है और केबल शोभा ही नहीं है कृष्ण ये भी कह रहे हैं मित्रों देखो देखो !
निदघार्कातपे तिग्मे छायाभिः स्वाभिरात्मनः ।
आतपत्रायितान्वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकसः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.30 )
अनुवाद:- जब सूर्य की तपन प्रखर हो गई तो कृष्ण ने देखा कि सारे वृक्ष मानो उन पर छाया करके छाते का काम कर रहे हैं । तब वे अपने ग्वालमित्रों से इस प्रकार बोले ।
“आतपत्रायितान्वीक्ष्य” वीक्ष्य मतलब देखो । संस्कृत में वीक्ष्य मतलब देखो बोलते हैं । वीक्ष्य मतलब क्या ? देखो ही नहीं उसे देखकर । वीक्ष्य मतलब देखकर । आपको अच्छे लगते हैं ऐसे शब्द समझना वगैरा या सीखना ? जब ऐसे आराम से बैठे हो । ठीक है वीक्ष्य ! कौन इसकी परवाह करता है तो वीक्ष्य मतलब देखकर, तो कृष्ण ने क्या देखा ? “द्रुमान” मतलब वृक्ष या गोद्रुम जैसे । नवद्वीप का एक द्वीप है गोद्रुम । वहां गाय और द्रुम वहां का वन तो वृक्षों को देखा तो कृष्ण बाद में कहते हैं देखो देखो, फिर छातें जैसे सेवा कर रहे हैं हमारी । हम जहां भी जाते हैं शीतलता प्रदान कर रहे हैं ये वृक्ष हमारे लिए ।
पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान् । वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति नः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.32 )
अनुवाद:- जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो जिनके जीवन ही अन्यों के लाभ हेतु समर्पित हैं । वे हवा , वर्षा , धूप तथा पाले को सहते हुए भी इन तत्त्वों से हमारी रक्षा करते हैं ।
अभी “वीक्ष्य” कहा था अभी “पश्य” कह रहे हैं । देखो देखो
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति ॥
( भगवद् गीता 1.25 )
अनुवाद:- भीष्म , द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो ।
“पश्यैतान्समवेतान्कुरुन” ऐसे कृष्ण भी अर्जुन से भी कहे थे । “पश्यतैतान्” देखो देखो तुम देखना चाहते थे किसके साथ किन के साथ युद्ध करना तो “पश्यतैतान्महाभागान्” ये जो सारे वन के वृंदावन के जो वृक्ष है लता है ये क्या है ? “महाभागान्” बड़े भाग्यवान हैं या मतलब महात्मा है । “परार्थैकान्तजीवितान्” जिनका सारा जीवन औरों के लिए है । औरों को वो उपकार करते रहते हैं । औरों की सहायता करते रहते हैं । और उनको कुछ दान देते रहते हैं । “पत्रं पुष्पं फलं तोयं” ये कहां से आते हैं ? तो पत्रं कहां से मिलता है ? भगवान कहे भी …
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्तयुपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
( भगवद् गीता 9.26 )
अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र , पुष्प , फल या जल प्रदान करता है , तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ ।
मुझे ये दे दो “पत्रं पुष्पं फलं तोयं” ये भक्ति पूर्वक दोगे तो मैं स्वीकार करता हूं । ये सारे के सारे वन से प्राप्त होते हैं । पत्र भाष्य की आवश्यकता होती है क्या ? पत्र तो पत्ते यहां तक कि सब्जी भी पत्र है । हम रसोई के लिए पत्र सालड है । तुलसी पत्ता है पत्र । पुष्प, फूल कहां से आते हैं ? वृक्षों से आते हैं । फलमं कहां से आते हैं ? वृक्षों से आते हैं । तोयं कहां से आता है ? 1:00 से ही आता है । नारियल का डाब आप पीते हो या और भी कई प्रकार से । ये तोयं यहां तक की शहद शहद है शहद है । वन वृक्ष से ही प्राप्त होता है तो “परार्थैकान्तजीवितान्” इन वृक्षों का जो जीवन है बस औरों के लिए है । इस संसार के लोग स्वार्थी है लेकिन देख तो लो इस वृक्षों का परमार्थ देखो । एक होता है स्वार्थ । दूसरा क्या होता है ? ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्तों को संबोधित करते हुए ) स्वर्ण मंजरी क्या होता है ? परमार्थ होता है । कभी सोचे कि नहीं ? दो प्रकार है । एक स्वार्थ है दूसरा है परमार्थ । स्वार्थ तो सारी दुनिया स्वार्थी है । ये जो वृक्ष है कैसे हैं ? ये परमार्थ इसका जीवन औरों के लिए, परमार्थ का कार्य करते हैं । “परोपकाराय फलन्ती वृक्षः” ऐसा भी कहा है । परोपकार के उद्देश्य से ही वृक्षा फलते हैं फुलते भी हैं । ये “पत्रं पुष्पं फलं तोयं” देते हैं । “परोपकाराय” औरों के लिए इनका जीवन औरों के लिए है । उपकार करते रहते हैं ।
अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.33 )
अनुवाद:- जरा देखो , कि ये वृक्ष किस तरह प्रत्येक प्राणी का भरण कर रहे हैं । इनका जन्म सफल है इनका आचरण महापुरुषों के तुल्य है क्योंकि वृक्ष से कुछ माँगने वाला कोई भी व्यक्ति कभी निराश नहीं लौटता ।
और हम मनुष्यों का जीवन तो वैसे ही वृक्षों के ऊपर ही तो निर्भर है । हरि हरि !! और ये कहते हुए कृष्ण एक बड़ा सिद्धांत यहां कह रहे हैं । अपने मित्रों को सुना रहे हैं । अर्जुन भी मित्र है, कुरुक्षेत्र में ‘सखाचेती’ कहकर अर्जुन को उन्होंने बहुत सारा उपदेश के बच्चन सुनाएं, वैसा ही विशेष बच्चन भगवान अपने मित्रों को वृंदावन में सुना रहे हैं और ये नोट करना चाहिए । याद कर सकते हो तो कैसे याद करोगे तो ये दसवा स्कंद चल ही रहा है । अध्याय 22 श्लोक संख्या है 35 । आप सब शिक्षक भी हो आपको प्रचार भी करना है । “यारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश” कृष्ण उपदेश करना है कि नहीं ? हां यशोदा ? मॉरीशस में फिर करना है । कौन-कौन प्रचार करना चाहते हैं ? आदेश तो है सब प्रचार करें । बहाना के लिए कोई जगह नहीं है । ठीक है हाथ उठा कर के भी दिखा रहे हो आप तो इसको नोट करना होगा । आप इसको सीख सकते हो कंठस्थ कर सकते हो, समझ सकते हो । इस पर एक भाषण दिया जा सकता है । ये घंटे भर का प्रवचन हो सकता है अभी जो कहने वाले हैं ।
एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैधिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.35 )
अनुवाद:- हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण , धन , बुद्धि तथा वाणी से दूसरों के लाभ हेतु कल्याणकारी कर्म करे ।
ठीक है समय हो गया है । व्याख्या करने की समय नहीं है मैंने कहा कि घंटे भर का प्रवचन हो सकता है इस श्लोक के ऊपर । 10.22.35 नोट तो करो । आप के पास भागवत का सेट होना चाहिए इसको आप पढ़िएगा । शब्दार्थ भी समझिए यदी भागवत है । इसको खोलके पढ़ना भी चाहिए, केबल रखा है । भगवद् गीता केसी रखी है ? यथारूप में रखी है । मैंने रखी है भगवत गीता यथारूप में जैसे खरीदी थी यथारूप में । इसको खोलो गीता को खोलो ! वैसे भी गीता का मैराथन शुरू होने वाला है । गीता जयंती ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय ! तो उसकी भी चर्चा करेंगे आपको तो उसकी भी चर्चा करेंगे आपको व्यस्त रहना है अभी पूरे महीने के लिए, गीता के वितरण के लिए । इस श्लोक का शब्दार्थ, भाषांतर, भावार्थ पढ़ लीजिए । “एतावज्जन्मसाफल्यं” जीवन को सफल बनाइए कृष्ण कह रहे हैं । “एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु” तो कृष्ण को ये सारे अनुभव मिला वन में जा रहे हैं, वन की यात्रा हो रही है तो वृक्षों का उदाहरण के समक्ष है । वो अपना जीवन कैसे सफल बना रहे हैं और ये बात दूसरों को सुना रहे हैं श्री कृष्ण और फिर स्पूर्ति मिली है कृष्ण को । एक उपदेश पूरी मानव जाति के लिए भगवान ने एक उपदेश दिया । उपदेश का वचन है ।
देहिनो ऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
( भगवद् गीता 2.13 )
अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस ( वर्तमान ) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है । धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता ।
मनुष्यों को या कम से कम मनुष्य को मनुष्य के लिए कुछ करना चाहिए । एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के लिए या कुछ मनुष्य का कोई समूह हो सकता है कोई परिवार और परिवार के लिए I कृष्ण को केंद्र में रखते हुए या हम सब अलग-अलग व्यक्तित्व है परिवार है देश है, तो हम अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ की सेवा कर सकते हैं, मदद कर सकते हैं । जो अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ सारे संसार की सेवा कर रहा है, सेवक है तो “देहिनामिह देहिषु” । सेवा कैसी करनी चाहिए ? प्रचार प्रसार से सेवा कर सकते हैं ऐसा कृष्ण कह रहे हैं । इसको भी याद कीजिए और वो है “प्राणैर” प्राण से सेवा । ये कृष्ण के ही सेवा है । माधव सेवा ही है क्या ? मानव सेवा । मानव सेवा माधव सेवा नहीं हो सकती । हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है । लेकिन माधव सेवा से मानव सेवा इसको भी सीखो तो हिंदू बनके इसको उल्टा कर दिया हिंदुओं ने और फिर कहते हैं गर्व से कहते हैं हम हिंदू हैं । मानव सेवा माधव सेवा ऐसा नहीं करना है । माधव सेवा ही है मानव सेवा तो फिर माधव सेवा और मानवों की सेवा । कैसे करें ? “प्राणैर” प्राण दे दो, पूरा समर्पण संख्या 1 । दूसरा क्या है ? “अर्थै” धन दे दो । धन क्या है ! तुम्हारे बाप का थोड़ी है धन । भगवान का ही तो है इसको समझो और फिर दे दो जिसका है उसको लौटा दो । धन मतलब केवल पैसा अडगा ही नहीं । रुपीस और टाउंस, डॉलर, सीलिंग ही नहीं । संपत्ति जमीन भी धन है । “प्राणैरर्थै” आर्थिक विकास तो “प्राणैरर्थै” धन दो संपत्ति दो जमीन दो संख्या 2 । “प्राणैरर्थैधिया” मतलब बुद्धि दो, दिमाग लडाओ थोड़ा कृष्ण की सेवा के लिए । नहीं तो क्या उपयोग है दिमाग का । दिमाग का उपयोग हमने कृष्ण की सेवा में नहीं किया तो बेकार है । “श्रम एव हि केवलम्” है । तो “प्राणैरर्थैधिया” बुद्धि दो, दिमाग दो और चौथा है ! “वाचा” मुख से कहो । प्रचार करो, बताओ सबको । “यारे देख, तारे कह ‘कृष्ण’-उपदेश” तो ये चौथा है । “प्राणैरर्थैधिया वाचा” फिर अंत में कहा है “श्रेयआचरणं सदा” तो ऐसा आचरण, ऐसा व्यवहार ये श्रेयस्कर है या ऐसा आचरण होना चाहिए या यही है सदाचार । “प्राणैरर्थैधिया वाचा” । ठीक है !
गौर प्रेमानंदे ! ( हरि हरि बोल ! )
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*24 -11 -2021*
*सोलापुर धाम से*
हरे कृष्ण !
आज 881 स्थानों से भक्त जपा टॉप में सम्मिलित हैं और परिक्रमा के 800 डिवोटीज़ वह भी अपने प्रोग्राम में सम्मिलित हैं। जगन्नाथ पुरी यात्रा धाम की जय ! कितना अद्भुत दृश्य है जगन्नाथ पुरी धाम का। ” उपयोगिता ही सिद्धांत है” (यूटिलिटी इज द प्रिंसिपल) यहां टेक्नोलॉजी का इंटरनेट का प्रयोग भी हो रहा है जगन्नाथ की सेवा में यहां साइंस टेक्नोलॉजी सेवा कर रहे हैं और इसी का परिणाम देखिए, गौर निताई की जय ! पता नहीं आप देख रहे हो कि नहीं लेकिन मेरी स्क्रीन में तो बहुत कुछ दिखाई देता है। क्योंकि आप पर तो लैपटॉप का स्क्रीन है किंतु टीवी सेट स्क्रीन पर जब आप भी देखते हो। गौर निताई पदयात्रा के गौर निताई जो अभी-अभी बृज मंडल परिक्रमा कर रहे थे। अभी वह जगन्नाथ मंडल परिक्रमा कर रहे हैं। श्री श्री निताई गौर सुंदर की जय हरि हरि ! और फिर परिक्रमा के भक्तों को आप देख रहे हो , ऐसे ऑफीशियली कुछ अनाउंसमेंट या रजिस्ट्रेशन कुछ नहीं हो रहा है किन्तु फिर भी इष्ट देव प्रभु बता रहे थे कुछ सात आठ सौ भक्त वहां जगन्नाथ पुरी में पहुंच चुके हैं जगन्नाथ पुरी धाम की परिक्रमा कर रहे हैं और हम उनका परिक्रमा का घर बैठे बैठे लाभ उठा रहे हैं कहीं आना है ना कहीं जाना है यहीं मरना है तो बस मरने के पहले यह सब दृश्य देख रहे हैं। यही है
*ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव । गुरु – कृष्ण – प्रसादे पाय भक्ति – लता – बीज ।।*( सी सी 19.151)
अनुवाद “ सारे जीव अपने – अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं । इनमें से कुछ उच्च ग्रह – मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह – मण्डलों को । ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है , जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है । कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है ।
इस तरह महाप्रभु हम सभी को भाग्यवान बना रहे हैं और प्रातः काल में हमको जगा भी रहे हैं। प्रातः काल में जगना सीखा है और जगते ही हम जगन्नाथ पुरी धाम पहुंच गए और वहां के सभी दृश्य तो नहीं किन्तु कुछ सुन तो रहे थे कुछ महोदधि मतलब क्या? महा उदही, महासागर। सागर के तट पर ही है नीलाचल नीला + अचल ,नीले रंग का पर्वत वहां पर विराजमान है नीलाचल वासी जगन्नाथ कैसे हैं ?
*नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने। बलभद्रसुभद्राभ्यां जगन्नाथाय ते नमः।।* अतः समुद्र के तट पर ‘महोदधि” महा मतलब महान, उद मतलब जल वॉटर, हि मतलब बिग स्टोरीज महाउदधि, इस जल में वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन स्नान के लिए भी जाया करते थे इसीलिए उदीहि सागर भी, (इट्स बे ऑफ बंगाल) हरि हरि ! यह सब देखना और सुनना भी संभव हो रहा है एक प्रकार से कुछ विराट रूप का दर्शन हम कर रहे हैं। अर्जुन ने देखा या भगवान ने दिखाया विश्वरूप दिखाया यूनिवर्सल फॉर्म जो हम देख रहे हैं यह सब वैसा ही कुछ विराट रूप है। कहां जगन्नाथ पुरी और कहां हम, कहां मैं और कहां आप बैठे हो कोई उनमें से अहमदाबाद कोई हेयर कोई देयर, एवरीव्हेयर। ९०९ लोकेशंस पर से हम एक ही दृश्य को देख रहे हैं या सुन रहे हैं कहां जगन्नाथपुरी कहां 909 स्थान में विराजमान भक्त कोई पंढरपुर में है तो कोई इस्कॉन हेयर कोई इस्कॉन देयर और यह सब परिक्रमा का अनुभव भी हम कर पा रहे हैं। आज परिक्रमा का दिन है विशेष दिन है। शंख का प्रकट दिन है इष्ट देव प्रभु कह रहे थे पांचजन्य ऋषिकेश भगवान के शंख का नाम है। पांचजन्य और वैसे जगन्नाथ पुरी धाम भी शंख के आकार का है। जगन्नाथ पुरी धाम का आकार शंख आकार का भी है और इस धाम में विराजमान है पुरुषोत्तम ! उत्तम पुरुष पुरुषोत्तम *गोविन्दम् आदि पुरुषं तम् अहं भजामि* आदि पुरुषोत्तम, पुरुषोत्तम जगन्नाथ स्वामी की जय !जगन्नाथ स्वामी ही है पुरुषोत्तम और इसका नाम भी है पुरुषोत्तम क्षेत्र, भगवान भी है पुरुषोत्तम और धाम का नाम भी है पुरुषोत्तम क्षेत्र कई नामों से जाना जाता है। इसको श्री क्षेत्र भी कहते हैं राधा रानी का क्षेत्र हुआ श्रीक्षेत्र, जगन्नाथपुरी गोलोक है.
*गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु। ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।* ( ब्रम्ह संहिता 5.43)
अनुवाद: -जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुंठ लोक (हरीधाम), महेश लोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों में विभिन्न स्वामियों को यथा योग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूं।
जगन्नाथपुरी में एट लीस्ट थ्री इन वन, तीन धाम एक साथ है। यहां वृंदावन भी है जो गुंडीचा मंदिर है जगन्नाथ पुरी का एक स्लाइड में हम देख रहे थे चैतन्य महाप्रभु गुंडीचा मार्जन कर रहे हैं या रथ यात्रा में जगन्नाथ को कहां लाया जाता है गुंडिचा मंदिर अर्थात वृंदावन लाते है। कहां से लाते हैं? द्वारिका से या कुरुक्षेत्र से लाने का प्रयास लेकिन कुरुक्षेत्र आए कहां से? द्वारिका से आए। जहां जगन्नाथ स्वयं रहते हैं जिस मंदिर में बलदेव सुभद्रा है। द्वारिका, द्वारिका से बृजवासी भगवान को वृंदावन ले आते हैं। इस तरह जगन्नाथपुरी वृंदावन भी है द्वारिका भी है और नवद्वीप भी है। लेकिन वैसे गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य जब कहते हैं या ब्रह्मा जी ने कहा जो हमारे आचार्य हैं। अर्जुन ने तो विश्वरूप को देखा यूनिवर्सल फॉर्म लेकिन ब्रह्मा ने देखा या ब्रह्मा को दिखाया भगवान ने यह सारे ब्रम्हांड यह सारे यूनिवर्स सारे विश्वरूप को भी या कहो कि भगवान ने ब्रह्मा को अपने दोनों साम्राज्य का दर्शन कराया ( मेटीरियल किंगडम एंड स्प्रिचुअल किंगडम ) आध्यात्मिक जगत और भौतिक जगत का या ब्रह्मा ने थोड़ा और देखा, ब्रह्मा को थोड़ा और दिखाया। इतना सारा अर्जुन को नहीं दिखाया जो ब्रह्मा को दिखाया या ब्रह्मा को ऐसे साक्षात्कार कराया भगवान ने। ब्रह्मा ने देखा अनुभव किया भगवान का पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का, स्वयं भगवान का धाम कहां है और फिर भगवान के अलग-अलग अवतार कहां रहते हैं। कोई गोलोक में रहते हैं कोई सदाशिव में, सदाशिव लोक भी है पर भी कौन रहता है और फिर हम लोग भी कहां रहते हैं। यह ब्रह्मांड गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु देवी, महेश्वर हरीधाम भूतेषु तेषु एनीवे यह सब दूसरी व्याख्या शुरू हो गई। अतः देवी धाम में हम हैं फिर महेश धाम, शिव जी का धाम है। आधा इस देवी धाम में है या महेश धाम, शिव जी का धाम या सदाशिव लोक कहिए वह आधा भौतिक जगत में है और आधा बैकुंठ लोक में है। हाफ एंड हाफ उससे ऊपर है हरी धाम और उससे ऊपर है गोलोकधाम अर्थात जगन्नाथपुरी है गोलोक धाम, वृंदावन के जैसे नवद्वीप है। वैसे जगन्नाथपुरी में वृंदावन भी है और वैसा ही है जहां गोलोक है ऐसा ही गोलोक जगन्नाथपुरी में है और गोलोक में भी दो विभाग हैं एक नवदीप पार्ट और दूसरा वृंदावन यह सब जैसा है वैसा ही वृंदावन है। आप जब वहां जाओगे फिर कहोगे हां ऐसा सुना तो था हमने जैसा सुना था वैसा ही है। अतः जगन्नाथपुरी वृंदावन भी है जगन्नाथपुरी नवद्वीप भी है और जगन्नाथपुरी गोलोक भी है फिर गोलोक में द्वारिका भी है और मथुरा भी है। इस तरह से जगन्नाथपुरी, यह विशेष धाम है। चार धामों में से यह जो बद्रिकाश्रम है, यहाँ बद्रिकाश्रम में नारायण रहते हैं। ये नारायण का स्थान है। बद्रीनारायण या बद्रिकाश्रम सतयुग में बद्री नारायण बद्री विशाल धाम की महिमा है फिर त्रेतायुग में है रामेश्वरम जहां राम भगवान भी पहुंचे और द्वापर युग में द्वारिका की महिमा है। समझ रहे हैं ना मैं ठीक कह रहा हूं? मैं जो भी कहता हूं सच ही कहता हूं या कहने का प्रयास तो होता है। इस प्रकार चार युगों में चार धाम की महिमा है। सतयुग में बद्रिकाश्रम त्रेता युग में रामेश्वरम और द्वापर युग में द्वारिका और कलयुग में जगन्नाथ पुरी धाम की जय! यह चार धाम चार युगों में जो चार अलग-अलग दिशाओं में भी हैं। हम जो कह रहे हैं या जो मैं कह रहा था कुछ देर पहले वैसे तुलना तो नहीं करनी चाहिए फिर तरोत्तम भी होती ही है या गुड बेटर बेस्ट की बातें एक समझ भी है इन सभी धामों में यह जो चार धाम की यात्रा प्रसिद्ध है। हिंदू समाज में भारत में चार धाम यात्रा तो उन चार धामों में जगन्नाथ पुरी धाम सर्वोपरि है। इट इज द बेस्ट क्योंकि वह गोलोक है और धाम बैकुंठ है या हरीधाम या महेश धाम किंतु जगन्नाथपुरी गोलोक है सर्वोपरि है। आज हमारा जगन्नाथ पुरी धाम पहुंचना संभव हुआ ,अभी चल ही रही है परिक्रमा,जो आप देख ही रहे हो, देखना मतलब परिक्रमा के दृश्य को देखना कि आप कहां हो ,जब हम परिक्रमा का दर्शन कर रहे हैं या ऐसा संभव हो रहा है यह सुन पाते हैं या हम कीर्तन भी सुन रहे थे तब हम कहीं और नहीं होते, हमारा शरीर कहीं हो सकता है हम ऑस्ट्रेलिया में हो सकते हैं हरी ध्वनि ऑस्ट्रेलिया में बैठी है। वैसे शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है शरीर तो मिट्टी है, है कि नहीं है? शरीर नहीं के बराबर ही है मान लो कि शरीर है ही नहीं, है क्या? हम आत्मा हैं हम जड़ नहीं हैं। हम मिट्टी नहीं हैं जल पृथ्वी अग्नि वायु आकाश इनमें से हम कुछ भी नहीं हैं तो शरीर तो हम हैं ही नहीं, जहां भी हो, आपके घर में दीवार भी है, है कि नहीं या फिर कुर्सी पर बैठे हो व्हाट इज द डिफरेंस आप के बगल वाली दीवार और आप में क्या भेद ? या आप इस कुर्सी पर बैठे हो या आपके सोफे पर बैठे हो उसमें और आपके शरीर में क्या भेद है। हाथ पैर पेट में क्या अंतर है या प्रकृति में होती है विकृति और फिर हम धारण करते हैं आकृति, उसको शरीर कहते हैं। प्रकृति में होती है कुछ विकृति , कुछ अलग अलग रसायन एलिमेंट्स का मिश्रण होता है लेकिन है तो वे जड़ ही। शरीर कभी जीवित नहीं होता। शरीर डेड बॉडी ही होती है बॉडी इज ऑलवेज डैड, एनीवे थोड़ा विषयांतर होता ही रहता है। हम परिक्रमा के साथ हैं जगन्नाथ के साथ हैं या हम जगन्नाथ को जब देखते हैं जगन्नाथ का दर्शन भी कर रहे थे या रथ यात्रा के कुछ दृश्य देख रहे थे। पखंडी उत्सव को देख रहे थे या चैतन्य महाप्रभु डांसिंग इन फ्रंट ऑफ़ जगन्नाथ कार्ट, जगन्नाथ के समक्ष चैतन्य महाप्रभु का नृत्य और चैतन्य महाप्रभु और उनके प्रेम का उद्वेग भाव जो आंदोलित होते रहते हैं जैसे समुद्र में लहरें तरंगे आंदोलित होती हैं। चैतन्य महाप्रभु का भाव हरि हरि और वह भाव राधा का भाव है। चैतन्य महाप्रभु ने इस भाव का प्रदर्शन किया जगन्नाथपुरी में ही , दर्शन ही नहीं किया कोई एग्जिबिट नहीं बने हैं चैतन्य महाप्रभु। वैसे आप दर्शन करें या ना करें या दर्शन हो या ना हो, चैतन्य महाप्रभु तो स्वयं उसका अनुभव करने के उद्देश्य से जगन्नाथ पुरी पहुंचे थे या जगन्नाथ पुरी में राधा भाव,
*राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥* (राधा – भाव आदि 1.5)
अनुवाद ” श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । ”
राधा भाव को अपनाएं हैं हरि हरि! उनके प्राकृटय के उद्देश्य का साफल्य जगन्नाथपुरी में हो रहा है। श्रीकृष्ण जो प्रकट हुए हैं पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में ही,
*श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।।* (वासुदेव घोष भजन)
अनुवाद- अब वही भगवान् श्रीकृष्ण राधारानी के दिव्य भाव एवं अंगकान्ति के साथ श्रीगौरांग महाप्रभु के रूप में पुनः अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने चारों दिशाओं में “हरे कृष्ण” नाम का प्रचार किया है।
राधा भाव में वह कीर्तन कर रहे हैं राधा भाव में नृत्य कर रहे हैं चैतन्य महाप्रभु रथ यात्रा के समय मतलब राधा के प्रभु पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण जगन्नाथ स्वामी रथ में विराजमान हैं और राधा भावा ठाकुरानी चैतन्य महाप्रभु के रूप में समक्ष वहां सामने नृत्य कर रही हैं या जगन्नाथ का दर्शन कर रही हैं प्रार्थना कर रही हैं।
*जगन्नाथ: स्वामी नयनपथगामी भवतु में* हे जगन्नाथ स्वामी ! क्या हो जाए? नयन पथ गामी आप बनिए , जगन्नाथ अष्टक भी प्रसिद्ध है। भाव क्या है जगन्नाथ स्वामी नयनपथ गामी भवतु , यू प्लीज विक्रम , मेरे आंखों के पथ पर आ जाओ, दर्शन दो, चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का एक पर्सनल रीजन, बाकी रीजन
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
ऐसा भगवत गीता के चौथे अध्याय में कृष्ण ने कहा है। वह भी उद्देश्य है किंतु इस समय एक एडिशनल उद्देश्य है एक विशेष उद्देश्य लेकर चैतन्य महाप्रभु या श्रीकृष्ण प्रकट हुए हैं और वह उद्देश्य है वे राधा को जानना चाहते हैं राधा की भाव भक्ति, राधा का प्रेम, इसीलिए और राधा ही बन गए, भगवान बन गए राधा, तभी तो वह जान सकते हैं जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु राधा बन गए
*अन्तः कृष्णं बहिरं दर्शिताङ्गादि – वैभवम् । कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण – चैतन्यमाश्रिताः ॥* (आदि लीला 3.81)
अनुवाद ” मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ , जो बाहर से गौर वर्ण के हैं किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं । इस कलियुग में वे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात् अपने अंगों तथा उपागों का प्रदर्शन करते हैं |
ओके
निताई गौर प्रेमानन्दे !
हरि हरि बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
23-11-2021
हरे कृष्ण ,
आज 828 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। अच्छा हैं कि भक्तों की संख्या में वृद्धि हो रही हैं।
ॐ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशालाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं ।
यत्कृपा तमहं वन्दे श्री गुरु दीं तरिणम परमानन्दं माधवं श्री चैतन्य ईश्वरम ॥
श्रील प्रभुपाद की जय….
उन्हीं की कृपा से गंगा भी वाचाल बन सकता हैं , ऐसे गुरुदेव हमारे जैसे दीनों को तार सकते हैं. ऐसे गुरुजनों के दिव्य चरणों का हमें स्मरण करना चाहिए , इसके साथ ही साथ हम गुरुदेव के साथ साथ वैष्णवों की वंदना भी करते हैं।
वन्दे अहम् श्री गुरौ: श्रीयुत पद कमलान , श्री गुरन वैष्णवांश्च। अर्थात मैं श्री गुरु के चरण कमलों की वंदना करता हूँ।
आज हम इसके विषय में चर्चा करेंगे , और उसके पश्चात आपको और कुछ बताएंगे ठीक हैं ?
इस श्लोक में शब्द आया हैं युत , युत का अर्थ होता हैं दो अतः हम श्रील गुरुदेव के दोनों चरण कमलों की वंदना करते हैं। इसके अलावा प्रतिदिन हम गाते भी हैं :
श्री गुरु चरण पद्म , केवल भक्ति सद्म।
यदि आप सभी भी प्रतिदिन यह प्रार्थना करते हैं तो हम कह सकते हैं कि हम ऐसा कहते हैं। गुरो : का अर्थ एक वचन में हैं परन्तु गुरुन शब्द बहुवचन में हैं। अहम् गुरुन वन्दे अर्थात मैं गुरुओं की वंदना करता हूँ। अतः हमें यह समझना चाहिए कि पहले एक गुरु की बात हुई हैं अहम् गुरोः वन्दे अर्थात मैं दीक्षा गुरु की वंदना करता हूँ जो एक ही होते हैं परन्तु यहाँ बहुवचन में अहम् गुरुन वन्दे आया हैं जिसका अर्थ हैं कि मैं शिक्षा गुरुओं की वंदना करता हूँ। दीक्षा गुरु एक होते हैं परन्तु शिक्षा गुरु अनेक हो सकते हैं
श्रील प्रभुपाद इस्कॉन के सभी भक्तों के प्रथम तथा सर्वोपरी शिक्षा गुरु हैं ही परन्तु उनके साथ साथ हमारे कई अन्य शिक्षा गुरु भी होते हैं। इसके पश्चात कहा गया हैं कि मैं वैष्णवों की वंदना करता हूँ। यद्यपि गुरु भी वैष्णव ही हैं परन्तु यहाँ पर वैष्णव शब्द से अनन्त कोटी वैष्णवों की वन्दना हो जाती हैं।
इस प्रकार इस श्लोक की पंक्ति में तीन व्यक्तियों का उल्लेख हैं :
अहम् गुरु पद कमलान वन्दे : मैं दीक्षा गुरु के चरण कमलों की वंदना करता हूँ।
अहम् गुरून वन्दे : मैं सभी शिक्षा गुरुओं के चरणों की वंदना करता हूँ।
अहम् वैष्णवान वन्दे : मैं सभी वैष्णवों की वन्दना करता हूँ।
यद्यपि हमारी चर्चा का विषय कुछ और हैं परन्तु हमने आपको इस श्लोक के विषय में कुछ बताया हैं जिससे हमें पता रहे कि हम किसकी वंदना कर रहे हैं।
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि अभी हेमन्त ऋतू प्रारंभ हो चुकी हैं। आप सभी के लिए भी हेमंत ऋतू ही चल रही हैं तथा एक समय कृष्ण तथा गोपियों के लिए भी हेमन्त ऋतु चल रही थी , जिसका वर्णन श्रीमद भागवतम में हैं।
हेमन्ते प्रथमे मासे (श्रीमद भागवतम 10.22 )
अर्थात हेमन्त ऋतु के प्रथम मास में अर्थात मार्गशीर्ष मास का वर्णन हैं। हमें सुबह जप चर्चा के समय श्रवण करना चाहिए तथा दिन में उसका चिन्तन करना चाहिए। इस प्रकार श्रवण , कीर्तन तथा स्मरण यह तीनों अत्यन्त आवश्यक हैं। दिन में अपने नोट्स पढ़ना , श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों को पढ़ना , मंदिर में भागवतम कक्षा का श्रवण करना यह सब श्रवण कीर्तन ही हैं। इस प्रकार हम श्रवण, कीर्तन, मनन तथा चिंतन में पूरा दिन व्यस्त रह सकते हैं। हमें समय निकालकर श्रील प्रभुपाद की पुस्तकें पढ़नी चाहिए। यदि हम मनन नहीं करते तो हम केवल दैनिक समाचार पत्र के समान कुछ पढ़ते हैं और फिर भूल जाते हैं उसी प्रकार हम आध्यात्मिक ज्ञान भी भूल जाएंगे , इसलिए श्रवण करने के पश्चात कीर्तन तथा उसपर चिन्तन अत्यंत आवश्यक हैं। अतः हमें अधिक से अधिक मात्रा में भगवान् के विषय में श्रवण और कीर्तन करना चाहिए , यदि हम ऐसा करते हैं तो फिर हमें अवश्य विष्णु या कृष्ण का स्मरण होगा। और यदि हम ढृढ़तापूर्वक इसका पालन करते हैं तो यही बन जाता हैं : रम्या काचिदुपासना व्रजवधु वर्गेण या कल्पिता , हमें किसी आराधना करनी चाहिए ?
चैतन्य महाप्रभु ने बताया हैं : गोपियों जैसी , यशोदा जैसी , राधारानी जैसी , साखों जैसी भक्ति करो यही हैं रागानुगा भक्ति। अतः हम यही कहना चाहते हैं कि आपको श्रवण हर समय करना चाहिए , श्रील प्रभुपाद के प्रवचन , गुरुओं के प्रवचन , सेमीनार आदि बहुत कुछ ऑनलाइन उपलब्ध हैं अतः हमें
उनको हृदयङ्गम करना चाहिए और उसके पश्चात उन पर चिंतन मनन करना चाहिए।
गोपियाँ स्मरण के लिए प्रसिद्द हैं।
सततं स्मृत्यव्य: विष्णु अर्थात स्मरण करना चाहिए। कर्त्तव्य: करना चाहिए या करने योग्य हैं। कर्तव्य या करणीय दोनों समान हैं। इसी प्रकार स्मृतव्य कहें या स्मरणीय कहें दोनों एक ही बात हैं। यह संस्कृत के व्याकरण की कुछ बातें हैं। हम पुनः हेमंत ऋतु में हुई लीला की ओर चलते हैं।
हेमन्त ऋतु में गोपियाँ चीर घाट पहुँची। वह प्रतिदिन प्रातःकाल में स्नान करने यमुना पर जाती हैं , वहीँ पर कृष्ण आ जाते हैं और उनके वस्त्र हरण कर लेते हैं और फिर उनके वस्त्र लौटा देते हैं। यहाँ तक की कथा आप सभी को विस्तार पूर्वक बता चुके हैं उसके आगे अब हम और चर्चा करेंगे। इस प्रकार हम बता रहे हैं कि गोपियाँ स्मरण के लिए प्रसिद्ध हैं :
सततं स्मृत्यव्य: विष्णु, विस्मृतव्य न जातुचित।
जातुचित का अर्थ है कभी भी नहीं अर्थात गोपियाँ सदैव भगवान् का स्मरण करती हैं और कभी भगवान् को नहीं भूलती हैं। यही गोपियों का भाव हैं। गोपियाँ बहुत अधिक नहीं जानती हैं वह केवल इतना ही जानती हैं कि भगवान् को कभी भूले नहीं और सदैव उनका स्मरण रहे। यही उनकी सबसे श्रेष्ठ भक्ति हैं। हमें भी इसका अभ्यास करना हैं।
याताबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथा क्षपा: ।
यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सती: ॥ (श्रीमद भागवतम 10. 22. 27 )
यहाँ भगवान् ने गोपियों के वस्त्र लौटा दिया। उन्होंने सर्वधर्म परित्याग किया , सर्वाङ्ग दान दिया तब भगवान् उन्हें कह रहे हैं कि हे अबलाओं , हे गोपियों तुम सिद्ध , निपुण हो गई हो। गोपियों ने महिने भर भगवान् की अर्चना और तपस्या की और उसका फल हैं कि स्वयं भगवान् श्री कृष्ण उन्हें कह रहे हे कि तुम सिद्ध हो गई हो। जिस प्रकार साधना से सिद्धि प्राप्त होती हैं। भगवान् आगे कह रहे हैं कि अब आप ब्रजं , वृंदावन या अपने अपने घर जाओं। यात का अर्थ हैं : जाओ। गोपियाँ नदी के तट पर आई हुई थी भगवान् अब उन्हें आगे कुछ कह रहे हैं जो बहुत महत्वपूर्ण बात हैं।
रंस्यथा क्षपा: – क्षपा: का अर्थ हैं रात्रि , स्यथा शब्द भविष्य का सूचक हैं तथा रं एक धातु हैं जिसका अर्थ हैं रमण करना। अतः भगवान् गोपियों से कह रहे हैं कि भविष्य में हम आपके साथ रमण करेंगे। अभी आपने मुझे अपना पति स्वीकार किया हैं , आपने मुझे अपना सर्वस्व दान कर दिया हैं , अब आप अपने अपने घर जाओं भविष्य में किसी रात्री को हम आपके साथ रमण करेंगे।
राधा रमण या गोपी रमण। रमण रेती में हम रमण करेंगे। वैसे तो वृन्दावन का सम्पूर्ण हिस्सा रमन रेती हैं। सरे वृन्दावन की रज में भगवान् ने रमन किया हैं , आगे भगवान् कह रह रहे हैं कि हम भविष्य में भी रमन करेंगे। अभी हम दसवें स्कंध में हैं और हम 22 वां अध्याय पढ़ रहे हैं परन्तु जब हम 29 वे अध्याय में पहुंचेंगे तब हम वहां पहला श्लोक पढ़ेंगे :
श्रीबादरायणिरुवाच
भगवानपि ता रात्री: शारदोत्फुल्लमल्लिका: ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित: ॥ श्रीमद भागवतम 10.29.1 ॥
यह रास पंचाध्यायी का प्रथम अध्याय हैं। 29 , 30 , 31 , 32 ,33 यह पांच अध्याय रास का वर्णन करते हैं। 29 वां अध्याय प्रथम अध्याय हैं , इसमें बताया गया हैं :
भगवानपि ता रात्री: शारदोत्फुल्लमल्लिका: । वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित:
यहाँ रात्रि का वर्णन हैं, रात्रि स्त्रीलिंग में हैं इसलिए इसे ता कहा हैं। २२ वे अध्याय में भगवान कहते हैं कि भविष्य में किसी रात्रि को हम मिलेंगे तथा २९ वे अध्याय में ता रात्रि कहा गया हैं अर्थात यह वही रात्रि हैं जिसका उल्लेख भगवान् ने किया था। वह रात्रि कौनसी रात्रि हैं ? हेमन्ते प्रथमे मासी : हेमंत ऋतु के प्रथम मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को भगवान् ने कहा की हम भविष्य में रास क्रीड़ा करेंगे। तो वह रात्रि कौनसी रात्रि हैं ? कब भगवान ने रास क्रीड़ा की थी ? तो वह रात्रि हैं शरद पूर्णिमा। आश्विन मास की पूर्णिमा जिसे महाराष्ट्र में कोजागिरी पूर्णिमा कहते हैं।
इस दिन भगवान् के मन में रमन करने की इच्छा जाग्रत हुई। इसीलिए यहाँ भगवानपि शब्द का प्रयोग किया गया हैं क्योंकि भगवान् आत्माराम हैं , उन्हें किसी की कामना नहीं रहती परन्तु फिर भी भगवान् होते हुए भी भगवान् के मन में रमन करने की इच्छा जगी।
भगवान् ने यह इच्छा किसी से कही नहीं परन्तु योगमाया ने भगवान् के मन की बात जान ली. भगवान् की कई शक्तियां हैं उन्हें योगमाया कह दिया जाता हैं। इच्छा शक्ति , लीला शक्ति आदि कई शक्तियां हैं उन्होंने भगवान् के मन की इच्छा जान ली इसलिए यहाँ कहा गया हैं की योगमाया ने इस इच्छा की पूर्ति के लिए व्यवस्था की। अब रासलीला संपन्न होगी , इसका वर्णन 29 से 33 वे अध्याय तक किया गया हैं। रास क्रीड़ा प्रारम्भ होती हैं , फिर कुछ विघ्न आते हैं , गोपियाँ ढूंढती हैं , कृष्ण उन्हें नहीं मिलते हैं , तब वे गोपियाँ यमुना तट पर आ जाती हैं और वहां पर गीत गति हैं जिसे गोपी गीत कहते हैं , जो की अध्याय 31 में वर्णन हैं।
गोप्य ऊचु:
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रज:
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥
भगवान् गोपियों द्वारा गाए गए इस गीत से प्रसन्न होकर पुनः प्रकट होते हैं तथा रासक्रीड़ा प्रारम्भ होती हैं।
अंग्रेजी में रात्रि के लिए केवल एक शब्द हैं : नाइट परन्तु संस्कृत में रात्रि के लिए कई शब्द हैं : निशा , रात्रि , क्षपा , रजनी आदि। इस प्रकार संस्कृत भाषा समस्त भाषाओँ की जननी तथा अत्यन्त उत्कृष्ट भाषा हैं। रजनीश का अर्थ हैं चन्द्रमा , रजनी अर्थात रात्री तथा ईश का अर्थ हैं राजा अतः रात्रि का राजा हैं चन्द्रमा तथा एक शब्द हैं दिनेश जिसका अर्थ हैं सूर्य।
अतः जैसा कि आपको बताया गया हैं कि आप ध्यानपूर्वक श्रवण कीजिये और फिर उसको मनन कीजिए और इसका लाभ लीजिए।
मराठी में एक कहावत हैं :
नाड़ी फुंकली सोनारे , इकडून तिकडून जाई वारे।
सुनार अपनी धौंकनी से आग जलाने के लिए अथवा माताएं जब घरों में मिट्टी के तब आग जलने के लिए एक ओर से फूंक मारता हैं तथा वह दूसरी ओर से बहार निकल जाती हैं। हमें ऐसा नहीं करना हैं हमें भगवान् के ज्ञान का श्रवण करके उसे हृदयङ्गम करना चाहिए यह हमारी संपत्ति हैं इसे सहेज कर रखना चाहिए। गीता,भागवत, रामायण यह हमारी संपत्ति हैं हमें इनका अध्ययन करके इनको हृदयङ्गम करना चाहिए तथा चिंतन तथा मनन करना चाहिए तथा इसका पूरा लाभ लेनी चाहिए।
हम अपनी जप चर्चा को यहीं विश्राम देंगे।
हरे कृष्ण !!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
22 नवम्बर 2021
हरे कृष्ण..!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल..!
आज जप चर्चा में 836 भक्त उपस्थित हैं। मेरे खयाल से बीच में शनिवार, रविवार आ गया तो लोग दांडी (छुट्टी) मार गये,इसलिए भी आज संख्या थोड़ी कम हैं, वैसे हम लोग ब्रेक वगैरह नहीं लेते, आप सभी जानते हैं।
“त्वयि मे़Sनन्यविषया मतिर्मधुपतेSसकृत्।
रतिमुव्दहताध्दा गग्ङेवौघमुदन्वति।।”
(श्रीमद्भागवत 1.8.42)
अनुवाद: – हे मधुपति, जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र कि ओर बहती हैं, उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी और ना बँट कर आपकी और निरंतर बना रहें।
‘गग्ङेवौघ..!’ कुंती महारानी कह रही हैं कि तुम्हारी भक्ति कैसी हो? जैसे गंगा का ओघ ‘गग्ङेवौघ’, गंगा जैसे गोमुख से गंगासागर कि ओर सदैव बहती रहती हैं,अखंड! कभी विश्राम नहीं लेती,ना संडे, ना मंडे, ना लंच ब्रेक उसी तरह कुंती महारानी ने गंगा का स्मरण किया और कहा कि ‘गग्ङेवौघ..!’
“स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥”
(श्रीमद्भागवत 1.2.6)
अनुवाद:-सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति ( धर्म ) वही है जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा – भक्ति प्राप्त कर सकें । ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके ।
‘अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति।’
ये भी भागवत के प्रथम स्कंध मे कहा गया हैं। मनुष्य को भक्ति करनी चाहिए।
‘स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।’
कर्मयोगी,ज्ञानयोगी,अष्टांगयोगी नहीं बनना चाहिए, कभी हो सकता हैं कि जीवन कि किसी अवस्था में कर्मयोगी थे और अब विकास हो रहा हैं तो आगे बढ़ना चाहिए और ज्ञान योगी बनना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए और अष्टांग योग होना चाहिए।
“योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 6.47)
अनुवाद:- और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण हैं,अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता हैं और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता हैं, वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता हैं और सबों में सर्वोच्च हैं|यही मेरा मत हैं|
भगवद्गीता के प्रारंभ में अलग-अलग योगियों का उल्लेख हैं और केवल छठे अध्याय में अध्याय के अंतिम श्लोक में भगवान ने कहा, सारांश में कह रहे हैं,यह सारे जो योगियों का मैंने जिक्र किया कर्मयोगी, ज्ञानयोगी,अष्टांगयोगी और इन सभी में श्रेष्ठ हैं भक्ति योगी। ऐसे योगी,भक्ति योगी बनो! यह स्वयं कृष्ण भगवान का आदेश हैं।
“एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम। इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे।।”
(श्रीमद् भागवतम १.३.२८)
अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएं) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरषोत्तम भगवान हैं। वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं। भगवान आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं।
‘स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।’
भगवान का एक नाम हैं, अधोक्षज।अब मैं यह नहीं बताऊगा कि भगवान को अधोक्षज क्यों कहते हैं।खुद से यह पता लगाइए। मनुष्य का भक्ति करना धर्म हैं और फिर किसकी भक्ति करनी चाहिए? अधोक्षज। देवी देवताओं कि भक्ति नहीं,दुर्गा गणेश की भक्ति को भक्ति नहीं कहते,उसको भुक्ति कहते हैं।आपके जानकारी के लिए एक होती हैं- भक्ति और दूसरी होती है भुक्ति।
“कृष्ण-भक्त- निष्काम, अतएव ‘शान्त’।
भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी- सकलि ‘अशान्त’।।”
(श्री चैतन्य चरितामृत, मध्य19.149)
अनुवाद: -“चूंकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता हैं, इसलिए वह शान्त होता हैं। सकाम
कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं, ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं; अत: वे
सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते।”
भक्ति सर्वोपरि हैं,मेरे कहने का तात्पर्य यह था कि फिर आगे इस वचन में कहां हैं कि भक्ति कैसी करनी चाहिए? अहैतुकी! उसमें कोई हेतु नहीं हो इस पर चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं-
“न धनं न जनं न सुन्दरीं
कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे
भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥”
(श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य 20.29,शिक्षाष्टक 4)
अनुवाद:-न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा अलंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।
यहां पर चैतन्य महाप्रभु ने अहैतुकी कृपा का उल्लेख किया हैं।अहेतु की भक्ति मतलब ना धनं, ना जनं, मतलब अहैतुकी।ना भुक्ति चाहिए, ना मुक्ति भी चाहिए।भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी इसलिए कह रहे हैं “मम जन्मनि जन्मनीश्वरे”।वह कह रहे हैं कि मैं तैयार हूं अगर फिर से जन्म लेना पड़े तो जन्म लेना यह अच्छा नहीं हैं।लेकिन आपके लिए अगर लेना पड़े तो मुझे अहैतुकी भक्ति प्राप्त हो। एक अहैतुकी और दूसरी अप्रत्ययता ।अप्रत्ययता मतलब अखंड!,अप्रतिहता! उसमें संडे मंडे नहीं हैं।अहैतुकी,अप्रतिहता, अहर्निश,24/7।हरि हरि!
यह दामोदर मास के उपरांत नया मांस,नया महीना शुरू हुआ हैं। कौन सा महीना चल रहा हैं? याद हैं? मार्गशीर्ष महीना! ऋतु कौन सा चल रहा है? हेमंत!
“श्रीशुक उवाच
हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकमारिकाः । चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥”
(श्रीमद्भागवत10.22.1)
अनुवाद:-शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी की पूजा,व्रत रखा।पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई ।
भागवत में कहा हैं,
हेमंत ऋतु का पहला महीना हैं, मार्गशीर्ष और दूसरा महीना हैं, पौष। मार्गशीर्ष-पौष इन दो महीने में से पहला महीना मार्गशीर्ष में “नंदगोपकमारिकाः” नंद महाराज का
जो ब्रज हैं नन्दव्रजकमारिकाः,नंद महाराज के व्रज कुमारीयों ने कुछ किया? क्या किया उन्होंने? चीर घाट पर गई और उन्होंने कात्यायनी कि पूजा कि, आराधना कि और आराधना के साथ ‘जपन्त्यस्ता’ जप कर रही थी, मानो जप ही कर रही थी या बारंबार कह रही थी, क्या कह रही थी?क्या प्रार्थना कर रही थी?
“कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:।
इति मन्त्रं जपन्त्यस्ता: पूजां चक्रु: कमारिका:।।”
(श्रीमद्भागवत 10.22.4)
अनुवाद: – प्रत्येक विवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की: “हे देवी कात्यायनी, हे महामाया, हे महायोगिनी, हे अधीश्वरि,आप महाराज नंद के पुत्र को मेरा पति बना दें। मैं आपको नमस्कार करती हूंँ।”
नमस्कार भी कर रही हैं,प्रार्थना भी कर रही हैं,नमस्कार भी कर रही हैं, प्रार्थना भी कर रही हैं और दूसरा-तीसरा पति नहीं चाहिए हमें, हमारा पति नन्दगोपसुतं देवि महाराज का पुत्र हैं।
कन्हैया लाल की जय..!
नंदा महाराज का पुत्र और बस दूसरा कोई नहीं।
“एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।
यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥”
(श्रीचैतन्य चरितामृत आदि 5.142)
अनुवाद: -एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते
हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
यही हैं, परमेश्वर तो कृष्ण हैं और सभी उनके दास हैं,सेवक हैं,अंश हैं या अंग हैं, अंशांश हैं, लेकिन हमें चाहिए “कृष्णस्थ भगवान स्वयं” और वे अब कृष्ण नंदनंदन या नंदसुत बने हैं और वे हमें प्राप्त हो। “नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:।” हम सभी को भी ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं ना, आप भक्ति कैसे करो?
“आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं
रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।।”
(चैतन्य मंज्जुषा)
अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु हैं। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट हैं।श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण हैं एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ हैं – यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत हैं । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय हैं।
यह कई बार रिपीट होता हैं, पुनः पुनः हम कहते हैं।सभी शास्त्र और आचार्य भी कहते हैं।रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।’व्रजवधूवर्ग’ व्रज कि स्त्रिया; उनका वर्ग, उन्होंने जैसी भक्ति कि वैसे ही भक्ति करें,यह चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं,मैं जो यह प्रसंग बता रहा हूं यह श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के 22वे अध्याय में हैं।ध्यान रखिएगा, आपको बाद में पढ़ना भी है,यह गृहपाठ हैं आपके लिए। यह नहीं कि केवल सुन लिया,आपको स्वयं को पढ़ना होगा, फिर नोट्स लिखने होंगे, चर्चा करनी होगी, जो समझ में आया वह औरों के साथ शेयर करो,समझ में नहीं आया तो प्रश्न पूछो प्रचार करो
“मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.9)
अनुवाद: -मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
“बोधयन्तः परस्परम्” करो! और ऐसा जीवन जिओ! नही तो इसका भाव क्या हैं? उसका भाव क्या हैं?मिर्च का भाव बढ़ गया? बाजार भाव क्या?हो गया, इसी में सारा जीवन बीत रहा हैं। लेकिन ये भाव कुछ काम के नहीं हैं।अभाव तो भक्तिभाव का अभाव हैं। समझ में आता हैं ना आपको? अभाव किसका है, शॉर्टेज किसका है? भक्ति भाव का अभाव हैं। बहुत हो गया बाजार भाव क्योंकि
“यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तभ्दावभावित:।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 8.6)
अनुवाद: -हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस-उस भाव को निश्चित रुप से प्राप्त होता है।
‘यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।’
इसको याद रखिए।भगवान कृपया हम पर कृपा करो और भगवद्गीता में कहां हैं कि यं यं वापि स्मरन्भावं जो जो भाग हमारा होगा कब? त्यजत्यन्ते कलेवरम्। कलेवरम् मतलब देह को त्यागते समय हमारा जैसा भाव हैं, तं तं, यं यं-तं तं जैसा जैसा भाव हैं, वैसा वैसा हमारा भविष्य होगा। हरि हरि!
“श्रीभगवानुवाच कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये । खियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ॥”
(श्रीमद्भागवत 3.31.1)
अनुवाद:-भगवान् ने कहा : परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव ( आत्मा ) को पुरुष के वीर्य कण के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है ।
इसका ऐसा सिद्धांत हैं। एक विज्ञान से वैसे सब समझाया हैं, हमारे कर्मों के अनुसार हमारे कर्मो का फल मिलेगा और फल किस रूप में सत- असत जन्मयोनेशु
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु || २२ ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 13.22)
अनुवाद: -इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता हैं| यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण हैं| इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं |
स्वर्ग में जन्म या नर्क में यातना मिलती रहती हैं।लेकिन हमें तो ना स्वर्ग चाहिए नरक तो चाहिए ही नहीं।हमको तो वैकुण्ठ या हमको तो गोलोक चाहिए।
गोलोक धाम कि जय…!
बोलो गोलोक चलो..!
बैक टू गोलोक..!
वैसे तैयारी भी करनी चाहिए, वैसे भाव भी चाहिए जैसे गोलोक में भक्तों के भाव होते हैं,वही हम सीख रहे हैं।यहां यह जो प्रसंग हैं, इस मौसम में,मार्गशीर्ष महीने में हेमंत ऋतु में,गोपिया जिस भाव के साथ, प्रार्थना के साथ अपनी भक्ति कर रही हैं, ये हमको सीखना होगा। उन्होंने ऐसी लीलाएँ कि, उन्होंने ऐसी प्रार्थना कि हैं,वह ऐसा नमस्कार करती थी, उन्होंने ऐसी तपस्या कि,
शीत आतप, वात वरिषण,
ए दिन यामिनी जागि’रे।
विफले सेविनु कृपण दुर्जन,
चपल सुख-लव लागि’रे॥2॥
(गोविंददास कविराज लिखित भज हुं रे मन)
अनुवाद:-मैं दिन-रात जागकर सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, वर्षा में पीड़ित होता रहा। क्षणभर के सुख हेतु मैंने वयर्थ ही दुष्ट तथा कृपण लोगों की सेवा की।
वे जमुना में स्नान करती रही, यह सब क्यों लिखा हैं?, यह सब हम क्यों पढ़ते हैं? ताकि हम भी वैसा ही करेंगे। इन गोपियों के चरणों का अनुसरण नकल नहीं,अनुकरण नहीं, अनुसरण करते हुए हम वैसा ही कर सकते हैं। हरि हरि!
क्योंकि हमें भी प्रभुपाद कहां करते थे,हमको भी एक दिन क्या करना है?याद रखो प्रभुपाद ने कहा- क्या कहा था? हमें राधा कृष्ण कि रास नृत्य ज्वाइन करनी हैं।यह हमारे जीवन का लक्ष्य हैं। प्रभुपाद ने यह एक समय कहां और कई बार भी कहां; हमें भाग लेना है, भगवान कि रासलीला में,नहीं तो जैसे होटलों में इधर उधर तो चलते ही रहता हैं, नंगा नाच, वह तो हॉलीवुड बॉलीवुड वाले करते रहते हैं।वह सब भुत हैं, वह जंगली पशु हैं,नर्तकी, नट और नटी। नर्तकी शब्द के उलट करे तो क्या होता हैं?यह मैंने कई बार कहा हैं आपसे,अभी समझ में आया कि नहीं? आप उत्तर दे सकते हो? थोड़ा दिमाग लगाओ।शुभांगी माताजी तैयार हैं। तो नर्तकी के उल्टा हैं कीर्तन। हम कीर्तन करेंगे! देवहुति माताजी समझते का? डोक चालते कि नाहीं?डोक्याची आवश्यकता आहे खोक्याच काम नाही ग डोक पाहीजे।प.पु.लोकनाथ महाराज देवहुति माताजी से मराठी में बात करते हैं)हरि हरि!
हमको ये सीखना हैं, इस प्रसंग पर से हमें कुछ प्रेरणा लेनी है और हमें कुछ करना हैं।ये प्रार्थना हो रही हैं और जैसे हम एक-दो दिनों से कह रहे हैं
मैं एक-दो दिनों से इस लीलाके बारे में कह रहा हूं, यह लीला हर रोज हो रही थी।या कहो यह गोपी लीला,राधा लीला या गोपी और राधा की आराधना चल रही हैं।गोपिया आराधना कर रही हैं ताकी
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम: ।
इति मन्त्रं जपन्त्यस्ता: पूजां चक्रु: कुमारिका: ॥ ४ ॥
श्री मद् भागवतम् 10.22.4
ताकी नंदलाल उनको पति के रूप में प्राप्त हों,इस उद्देश से पूरे महीने के लिए मार्गेशीश मे उनकी साधना चल रही हैं।वह प्रतिदिन भक्ति कर रही हैं, तपस्या कर रही हैं,इसका परिणाम, इसका फल क्या हुआ? श्री कृष्ण अतिंम दिवस, पूर्णिमा के दिन प्रकट हुए और पति बन गए या उन्होंने पति बनना स्वीकार किया।उनकी तपस्या से भगवान प्रसन्न थे या फिर कात्यायनी प्रसन्न थी जो परम वैष्णवी हैं, आचार्यो ने अपने भाषण में लिखा हैं और कात्यायनी को पार्वती भी कहां हैं तो वह पार्वती की आराधना कह रही थी।वैसे गोपियों ने उनके लिए बहुत से संबोधन किए हैं,हम तो कात्यायनी कात्यायनी कह रहे हैं,परंतु गोपियों ने उन्हें महामाई – कात्यायनी कहा।आप लिख सकते हैं कि वह क्या-क्या संबोधन कर रही है।एक कात्यायनी ,फिर आगे कहती हैं महामाई,तीसरा हैं महायोगिनी चौथा हैं अधीश्वरी और पांचवा हैं देवी।देवी तो पांचवा संबोधन हैं।हरिबोल। नीलांबर बलदेव जीव जागो।यहां पर 22 वे स्कंध का चौथा श्लोक हैं, उसमें देवी देवी तो कह ही रही हैं, पर लेकिन साथ में उस देवी को उन्होंने क्या क्या कहा?कैसे-कैसे संबोधित किया।आप कात्यायनी हो,आप महामाया हो,आप अधीश्वरी हो, आप महायोगिनी हो। यह सारा कह के गोपियों का भाव यह हैं कि फिर आपके लिए कुछ असंभव नहीं हैं। आप बहुत कुछ कर सकती हो।आप सब कुछ कर सकती हो। हम जो मांग रहे हैं,नंद गोप सुतंम देवी, हे देवी! नंद गोप सुतं हम को पति रूप में प्राप्त हो,तो हमको वह कृष्णा पति रूप में प्रदान करने के लिए तुम समर्थ हो।क्यों?क्योंकि आप कात्यायनी हो,आप महामाया हो,आप महायोगिनी हो आप अधीश्वरी हो,आप देवी भी हो। फिर क्या समस्या हैं?आप दे सकती हो तो यह देवी कात्यायनी सभी गोपियों के लिए एक गुरु रूप में या फ्रेंड, फिलॉस्फर, गाइड बनी हैं। और फिर इनको प्रसन्न कर लिया तो भगवान प्रसन्न होने वाले हैं।
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।
गुरु को,मार्गदर्शक को,गाइड को प्रसन्न करो तो इन्होंने तो कात्यायनी का चयन किया हुआ हैं। उन्हीं को अपना मार्गदर्शक सहायक या गाइड रूप में माना हैं- “सो मे आई हेल्प यू ? यस, यस,!! कात्यायनी कहती हैं- श्योर।”
तो गोपिया मदद मांग रही हैं और साथ में यह सब आराधना भी कर रही हैं, तो केवल जाके सीधे मांग नही कर रहीं हैं।
देवी की आराधना भी चल रही हैं। हरि हरि ।। तो देवी प्रसन्न हैं ओर देवी प्रसन्न हैं तो फिर
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।
भगवान प्रसन्न हुए हैं। चैतन्य महाप्रभु ने भी ऐसी लीला की हैं, जब नवद्वीप की युवतियां जा रही थी, शिव पार्वती के पास ताकी उनको पति मिल जाए,चैतन्य महाप्रभु बड़े नटखट या कम नॉटी नहीं थे। वे कृष्ण ही हैं।वृंदावन के नटखट कनहैया ही तो नवद्वीप मायापुर के नटखट गौरांग थे। जब बालक थे तो बड़े नटखट थे।तो कुछ युवतियां जा रहीं थी,अपनी थाली सजा के, पुष्प इत्यादि लेके जा रही थी कहा?पार्वती और शिव की अराधना के लिए,तो गौरांग महाप्रभु बोलते हैं,ऐ मेरी पूजा करो!शिव पार्वती तो मेरे पुजारी हैं। वे मेरी पूजा करते हैं। वे मेरे सेवक हैं। मेरी पुजा करो । तो युवतियां जब टालती और ऐसे आगे बढ़ती चैतन्य महाप्रभु की पूजा या आराधना नहीं करती तो फिर चैतन्य महाप्रभु बोलते – ऐ में तुम्हे श्राप दूंगा,क्या होगा? बुड्ढा मिलेगा तुम्हे। तुमको पति तो मिलेंगे लेकिन कैसे होंगे? बूढ़े होंगे पति तुम्हारे – मुझे बुड्ढा मिल गया। तो यह लीला भी वहा नवद्वीप में हुई। हरि हरि। लेकिन हम जानते हैं,वहा एक द्वीप हैं, पहला ही द्वीप हैं जहा जगन्नाथ मंदिर हैं, सीमंत द्वीप – मैं पिछले महीने वही था।तो वहा सिमंतनी का विग्रह हैं, महाप्रभु भी हैं और सीमंतिनी देवी भी हैं, मतलब पार्वती हैं।तो शिव और पार्वती ने इस सीमंत द्वीप में गौरांग महाप्रभु की खूब आराधना की और गौरांग महाप्रभु की नवद्वीप में आराधना कैसे होती हैं? श्रवण कीर्तन से होती हैं। तो इस द्वीप में उन्होंने खूब श्रवण किया,खूब कीर्तन किया।वैसे नवधा भक्ति में से पहली भक्ति श्रवण भक्ति हैं। तो यह सीमांत द्वीप श्रवण भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं।तो इन दोनो ने खूब श्रवण,कीर्तन किया – गौरांगा गौरंगा ये भक्ति हैं,श्रवण कीर्तन या
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे
का कीर्तन और नृत्य।शिवजी ने यहाँ खूब नृत्य किया हैं। डमरू बजाते हुए। तांडव नृत्य और नटराज वह हैं ही।
शिव-शुक नारद प्रेमे गद्गद्।
भक्ति-विनोद देखे गौरार सम्पद
जब गौरांग महाप्रभू की आरती होती है
किब जय जय गोराचाँदेर आरतिक शोभा।
जाह्नवी तट वने जगमन लोभा
जाहनवी गंगा का नाम हैं, जहानवी।जहांव मुनि से जन्मी इसीलिए जहानवी नदी के तट पर जब आरती होती हैं। गौरांग महाप्रभु की आरती करें ब्रम्हा आदि देव गने, तो आरती कौन करता हैं, पुजारी कौन हैं?ब्रह्मा आरती कर रहे हैं और सभी देवता उस आरती में उपस्थित हैं और शिवजी आए हैं, शुकदेव गोस्वामी हैं नारद मुनि हैं और कीर्तन करते समय क्या हो रहा हैं?
प्रेमे गद्गद्।
उनका गला गद् गद् हो रहा हैं। वॉयस इस गेटिंग चोक्ड आउट । हमारी तो खांसी के कारण चोकिंग होती हैं। किंतु भाव से जब गला भर जाता हैं, जी भर जाता हैं भाव से और प्रेम का जब उग्द्रेव होता हैं,अधिक मात्रा में प्रेम जागता हैं, तो ऐसी स्थिति में कुछ गाना या बोलना कठिन होता हैं,तो शिवजी का भी ऐसा हाल हुआ करता था जब वे यहा सीमंत द्वीप में कीर्तन और नृत्य करते थें । यह बहुत समय पहले की बात हैं, यह सृष्टि के प्रारंभ की भी बात हो सकती हैं, लेकिन आप तो जानते ही हो कि नवद्वीप धाम का सृष्टि और प्रलय से कोई संबंध नहीं हैं, भोलेनाथ शिव शंकर तांडव नृत्य के साथ सारी सृष्टि का प्रलय तो करते हैं, लेकिन नवद्वीप मंडल का बिगाड़ नहीं होता, नवदीप मंडल बना रहता हैं, ब्रह्मा सृष्टि करते भी हैं तो उन्हें करने दो।जब ब्रह्मा ने सृष्टि की तो नवदीप की सृष्टि नहीं की। सृष्टि के प्रारंभ के पहले भी नवद्वीप था और शिव जी जब महा प्रलय करते हैं तो उसके उपरांत भी नवद्वीप बना रहता हैं, वृंदावन भी बना रहता हैं। यह सभी धाम शाश्वत हैं। हरि हरि। तो इन दोनों की ही आराधना करनी चाहिए। यहां तो गोपियां कात्यायनी देवी की आराधना कर रही हैं या पार्वती स्वयं ही भगवान की आराधना करती हैं। आपको पता ही हैं
निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा ।
वैष्णवानां यथा शम्भु: पुराणानामिदं तथा ॥
श्री मद् भागवतम् 12.13.16
सभी वैष्णवो में शिव श्रेष्ठ हैं या वह परम वैष्णव हैं,तो परम वैष्णवी कौन हैं? पार्वती परम वैष्णवी हैं और वह वैसे भी सदैव हरि कथा करते रहते हैं और बारी बारी से एक दूसरे को कथा सुनाते रहते हैं। यह नहीं है कि केवल शिवजी यह कथा करते हैं, पार्वती भी कथा करती हैं और शिव जी सुनते हैं और जब शिवजी कथा करते हैं तब पार्वती सुनती हैं, क्या आप लोगों के घरों में ऐसा होता हैं? क्या आप पति पत्नी एक दूसरे को हरि कथा सुनाते हो या ग्राम कथा सुनाते हैं? यह आदर्श परिवार हैं। शिव पार्वती का आदर्श परिवार हैं।हमारे वैष्णव की ऐसी समझ हैं शिव पार्वती की ओर हम इसी दृष्टि से देखते हैं और ग्रंथ राज श्रीमद्भागवत में भी शिव जी का ऐसा वर्णन हैं। शिवजी का वैष्णव रूप में वर्णन हैं और पार्वती का वैष्णवी के रूप में और उसके बाद वह गुणावतार हैं, तमोगुण के अधिष्ठाता हैं और महा प्रलय करते हैं।यह सब भी उनकी भूमिकाएं हैं,लेकिन हम वैष्णवो के लिए परम वैष्णव हैं और अपने भक्तों की इच्छा पूरी करते हैं यह शिवपार्वती इसलिए भी लोग उनके पास जाते हैं।लोगो के लिए शिवजी उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए हैं,उनको धन देने वाले शिवजी हैं, पार्वती हैं, इसलिए अधिकतर संसार में शिव जी के भक्त पाए जाते हैं,क्योंकि वह जल्दी प्रसन्न होकर उनकी इच्छा पूरी करते हैं।
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ भगवद्गीता 4.12
वह लोग उनको वैष्णव रूप में नहीं देखते हैं, वह तो उन्हें आशुतोष रूप में देखते हैं, मतलब इनको आसानी से प्रसन्न किया जा सकता हैं। फिर क्या होगा? सुख संपति घर आवे कष्ट मिटे तन का। यह सब चलता रहता हैं। हमको वह चाहिए, हमको यह चाहिए.. उनके पास पहुंच जाते हैं और जाने क्या-क्या तपस्या करते हैं, शिवजी को प्रसन्न करने के लिए। हरि हरि। तो यह शिव पार्वती वैष्णव वैष्णवी हैं और इसी भाव के साथ गोपियां पार्वती जी के पास पहुंची हैं या पार्वती की मूर्ति बनाई हैं और क्या मांग रही हैं? हमको कृष्ण दीजिए।
कृष्ण सॆ’ तॊमार,
कृष्ण दितॆ पारो,
तॊमार शकति आछॆ
आपके पास कृष्ण हैं, आप कृष्णभावनाभावित हो।आप हमें कृष्ण को दे सकती हो और फिर उन्होंने कृष्ण को दे ही दिया। कात्यायनी ने गोपियों को कृष्ण दे दिए। तो यह सब तपस्या आराधना नमस्कार जो 1 महीने से चल रहा था वह अंततः पूर्णिमा के दिन संपन्न हुआ। देवी प्रसन्न हुई हैं और गोपियों को पति रूप में कृष्ण प्राप्त हुए हैं। पतिम मे कुर्ते नमः और फिर आगे क्या हुआ? फिर आगे बताएंगे क्या हुआ। कल भी बताया था कि उसके बाद क्या हुआ। फिर उसके उपरांत द्वारका में क्या हुआ, यह भी बताना था और फिर द्वारका जाने से पहले वृंदावन में क्या हुआ, उस पूर्णिमा के दिन जब भगवान गोपियों से मिले तो उनको उन्होंने क्या कहा, उनको क्या वचन दिया था। वह भी आपको आने वाले दिनों में सुनाएंगे। ठीक हैं। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। ग्रंथ राज श्रीमद भागवतम् की जय।
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*21 नवंबर 2021*
हरे कृष्ण ! आज 707 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। 807 नहीं है या 907 नहीं है। 707 चल रहा है। कोई बात नहीं। गौरंग गौरंग। राधे राधे। जगन्नाथ स्वामी राधे राधे। कार्तिक मास संपन्न हुआ। कुछ वृंदावन में ही है या वृंदावन के भाव में ही है, भाव आवेश में है। कल से एक और भी व्रत प्रारंभ हुआ। कार्तिक व्रत पूरा होते ही दूसरा व्रत भी प्रारंभ हुआ उसका नाम कौन सा व्रत चल रहा है अभी? भूल गए? कात्यायनी व्रत। कात्यायनी महा वैष्णवी, परम वैष्णवी शिव पत्नी पार्वती ही है। गोपियों ने उनकी अराधना प्रारंभ की। वह तपस्या कर रही है। भगवत प्राप्ति के लिए प्रातः काल में
श्रीशुक उवाच
हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिका: ।
चेरुर्हविष्यं भुञ्जाना: कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥
( श्रीमद् भागवद् 10.22.1 )
अनुवाद:- शुकदेव गोस्वामी कहा हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी का पूजा व्रत रखा । पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई ।
हेमंत ऋतु के प्रथम मास में कौन सा महीना चल रहा था और अभी चल रहा भी है कार्तिक के बाद, मार्गशीष कल से प्रारंभ हुआ है। हेमंत ऋतु भी प्रारंभ हुआ। “हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिका:” का कहने से लघु का संकेत होता है यानी छोटा। कुमारी नहीं कहा है कुमारीका कहा है। गोपी कहना एक बात और गोपीका कहना मतलब यानी छोटी गोपी और जब राधा को राधिका कहते हैं तो मतलब छोटी राधा या बाल राधा। इस शब्द बालक भी कहते हैं और बालिका भी कहते हैं का से लघुत्व का उल्लेख होता है। छोटापन या लघुपन का उल्लेख होता है। यहां कुमारीका यानी छोटी उम्र वाली कुमारी और कहां की कुमारीका। यह व्रज किसका है? नंद महाराज का व्रज है। जैसे नंदगोकुल भी कहा है शास्त्रों में। गोकुल का जब उल्लेख होता है तो नंदगोकुल कहा गया है। नंदगोकुल से नंद महाराज और व्रजवासी नंदग्राम गए। जिस ग्राम में गए गोकुल से वह नंदगोकुल था और वह ग्राम भी हुआ नंदग्राम। नंद महाराज का गोकुल, नंद महाराज का ग्राम और यहां कहा है नंद महाराज का व्रज। इसलिए कहा है बृजेश तन्य। कृष्ण का एक नाम हुआ ब्रजेश तन्य। तन्य मतलब पुत्र किसके पुत्र हैं व्रज के ईश कौन है? नंद महाराज हैं। नंद महाराज के व्रज की कुमारी या यहां तपस्या कर रही है। अपनी साधना भक्ति कर रही है। तपस्या कर रही है। यह हेमंत ऋतु है शीतकाल है। जल्दी उठकर अपने अपने घरों से जमुना की ओर जा रही हैं और प्राकृतिक रूप से यह ठंड का मौसम है और जल ठंडा है। ठंडे जल में स्नान कर रही है। यह तपस्या है कि नहीं? जाड़े के दिनों में जल्दी उठकर मंगला आरती से पहले स्नान करना बहुत बड़ी तपस्या है। जिस तरह गर्मी के दिनों में चूल्हे के पास बैठ कर पकाना तपस्या है। उसी तरह तपस्या कर रही हैं और तपस्या करनी चाहिए। हरि हरि।
ऋषभ उवाच नार्य देहो देहभाजां नलोके कष्टान्कामानहते विड्भुजा ये ।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम् ॥
(श्रीमद् भागवद् 5.5.1)
अनुवाद:- भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा – हे पुत्रो , इस संसार समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन – रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर – सूकर भी कर लेते हैं । मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने लिए वह अपने को तपस्या में लगाये । ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है , तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है , जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है ।
ऋषभदेव भगवान कहे हे पुत्रों! तपस्या करो। *तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम्* तपस्या करने से तुम शुद्ध होगे, शुद्धिकरण होगा। वैसे भगवान ने ब्रह्मांड के पहले जीव को ब्रह्मा उनको पहला जो आदेश दिया था। वह था त प, त प, त प। तब ब्रह्माजी को आदेश दिया तपस्या करने के लिए। भारतवर्ष कैसा है तपोभूमि है। बाकी भूमि भोग भूमि है। वृंदावन में गोपीयां क्या कर रही है? वह तपस्या कर रही है। कालिंदी के जल में प्रवेश करके स्नान कर रही हैं और उन्हें कात्यायनी की पूजा की या फिर वही की रेती या व्रज के रज से ही कुछ मिट्टी और बालू लेकर मूर्ति बनाई। कात्यायनी की प्रतिमा बनाई। कल भी कहे थे कि इन से आर्धना की गोपियों ने। आराधना करते समय वह प्रार्थना भी कर रही थी। कैसी थी प्रार्थना याद है? हे देवी क्या करो नंद सुतम नंद का जो सुत है पुत्र है।
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।
इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कमारिकाः ॥४ ॥
(श्रीमद भगवतम 10.22.4)
अनुवाद:- प्रत्येक अविवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की : ” हे देवी कात्यायनी , हे महामाया , हे महायोगिनी , हे अधीश्वरी , आप महाराज नन्द के पुत्र को मेरा पति बना दें । मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।
हे देवी! कुरु यानी करो आप ऐसा भी आप सीख सकते हो। कुरु मतलब करो। देवी संबोधित कर रही हैं। देवी क्या करो? *पतिं मे कुरु* पति बना दो किसको? नन्दगोपसुतं नंद महाराज को गोप कहा है। नंद महाराज कैसे है। नंद महाराज भी गोप है। गाय के रखवाले हैं , गाय का पालन करते है। इनकी 900000 गाय है। कृष्ण की गाय नहीं है। उनके पिताजी की गाय है। यह 9 लाख गाय कृष्ण की गाय नहीं है। यह गाय तो नंद महाराज की है। नंद गोप कौन है नंद महाराज। नंद महाराज जो गोप है गाय का पालन करने वाले हैं। इतने गायों के जो मालिक है। उनका जो पुत्र है, हमारा नमस्कार स्वीकार करो, पुनः पुनः हम नमस्कार कर रही हैं। हमारा निवेदन सुनो। इसका परिणाम निकलने वाला है। यह द्वितीय दिन है। गोपियां प्रातः काल में ही चीर घाट पर जमुना के तट पर, यमुना मैया की जय। चीर घाट पर स्नान करती रही और कात्यायनी की आराधना करती रही, प्रार्थना करती रही। आज दूसरा दिन है। जब 30 दिन हो जाएंगे, पूरे मास के अंत में जब पूर्णिमा आएगी। तब पूर्णिमा के दिन, मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन भगवान क्या करने वाले हैं? चीर हरण करने वाले हैं। गोपियों के वस्त्रों को चुराने वाले हैं। गोपियों के वस्त्र की चोरी होगी। वस्त्र तो रखे थे नदी के तट पर, वह ले लिए और पेड़ के ऊपर चढ़ गए। गोपियों का स्नान तो पूरा हुआ। किनारे आ जाती है वस्त्र कहां है? पेड़ के ऊपर है। कृष्ण नटखट है।
यह नटखटो में चूड़ामणि है। इसमें भी कोई कृष्ण की बराबरी नहीं कर सकता। यह नटखट कन्हैया वस्त्र लेकर पेड़ पर जाकर बैठे हैं। हरि हरि। श्रील प्रभुपाद कृष्ण पुस्तक में लिखते हैं कि यह सामान्य ज्ञान है ही कि प्रभुपाद लिखते हैं कि स्त्री केवल पति के समक्ष ही निर्वस्त्र हो सकती है। बिना वस्त्र या नग्न अवस्था में सिर्फ अपने पति के सानिध्य में। जब कृष्ण ने वस्त्र चोरी किए हैं और वह ऊपर बैठे हैं और कह रहे हैं कि सनी से बाहर निकलो आगे बढ़ो आ जाओ आ जाओ । अभी तो तैयार नहीं है और कृष्ण को दोष दे रही हैं और यह ठीक नहीं है यह अनुचित है । ये तो दुराचार है । तुम जो भी कर रहे हो । हम कंस को बताएंगे । शिकायत करेंगे राजा मथुरा नरेश को तो ऐसा डरा भी रही है । ऐसा कुछ चल रहा है संवाद गोपियां और कृष्ण के मध्य में, तो कृष्ण को दोष क्यों दे रही हो ? तुम तो हर रोज प्रार्थना करती रही बहुत ईमानदारी से । “पतिं मे कुरु ते नमः”, “पतिं मे कुरु ते नमः” ठीक है । मैं खुश हूं तुम्हारे ऊपर आज मैं आपको अपनी पत्नी बना रहा हूं मैं पति हूं । “पतिं मे कुरु ते नमः” ठीक है मैं तुम्हारा पति हूं । मैं बन गया तो आ जाओ, तो पूर्णिमा के दिन आज द्वितीया है पूर्णिमा के दिन इस महीने के अंत में तो भगवान ने क्या किया है ? ये गोपियों की जो प्रार्थना है “पतिं मे कुरु ते नमः” “नन्दगोपसुतं देवि” तो देवी भी प्रसन्न हुई है और उनको प्राप्त हो रहे हैं । प्राप्त हो गए कृष्ण पति रूप में । ये समझना होगा । हरि हरि !! और इस लीला में यही है …
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ॥
( भगवद् गीता 18.66 )
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
का ये ज्वलंत उदाहरण है । “सर्वधर्मान्परित्यज्य” करने में सब धर्म को त्यागो । लज्जा भी धर्म है ये भी धर्म है कई सारे रीति रिवाज है या लोक व्यवहार है । इनको भी त्यागो तू ऐसा ही कर रही है ऐसा ही हुआ है । इस वस्त्रहरण जो लीला है चीर घाट के तट पर ये गोपियों का “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” हुआ है और माधुर्य रस का ये वैशिष्ट्य भी है । माधुर्य भाव इसमें “निजांग दान” या वात्सल्य रस में नंद बाबा, यशोदा और सारे बुजुर्ग जो वृद्ध वृद्धा स्त्री पुरुष है उनका भाव पालक है । वे पालक है और कृष्ण पाल्य है यह वैशिष्ट्य है वात्सल्य रस का । सभी मां समझते हैं ये वात्सल्य रस में कृष्ण का लालन पालन करना हमारा धर्म है तो उसी प्रकार माधुर्य रस का वैशिष्ट्य है “निजांग दान” । नीज-अंग अपना सर्वस्व दान या त्याग या आहुति स्वाहा । यहां तक कि मन और शरीर सब कुछ
मानस , देह , गेह , जो किछु मोर ।
अर्पिलूँ तुया पदे नन्दकिशोर ॥
( भक्ति विनोद ठाकुर )
तो इस लीला में ये जो वस्त्र हरण चीर घाट पर हो रहा है ये क्या हो रहा है ? “निजांग दान” काम भी हो रही हो रहा है, सब दान । अंगदान, मन का दान सब कुछ । सभी का त्याग ये आत्मा निवेदन भी है, समर्पण भी है और इस दृष्टि से वैसे ये माधुर्य रस, माधुर्य भाव ये सर्वोपरि है तो ये भाव वात्सल्य रस से भी ऊंचा है और साख्य रस से ऊंचा है, दास्य रस से ऊंचा है, शांत रस यह पांच या 4 प्रधान रस हुए फिर और 7 गोण भी है तो इन सभी और गोण और प्रधान रसों में माधुर्य रस जो है माधर्य लीला जो है ये सर्वोपरि है और फिर इस लीला के जो कलाकार है या यह सारे जो व्यक्तित्व है गोपिया है राधा रानी वे भी सर्वोपरि है ।
प्रथा राधा प्रिया विष्णोस्तस्याः कुण्डं प्रियं तथा ।
सर्व – गोपीषु सैवैका विष्णोरत्यन्त वल्लभा ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 8.99 )
अनुवाद:- जिस तरह श्रीमती राधारानी श्रीकृष्ण को परम प्रिय हैं , उसी तरह उनका स्नान – स्थान राधाकुण्ड भी उन्हें प्रिय है । सारी गोपियों में श्रीमती राधारानी सर्वोच्च हैं और कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं ।
अत्यंत प्रिय है या सर्वोपरि है । “सर्व – गोपीषु सैवैका” सभी भक्तों में गोपियां श्रेष्ठ है । दास्य रस के भक्त, सख्य रस के भक्त, वात्सल्य रस के भक्तों से श्रेष्ठ है गोपियां और फिर कहा है गोपियों में “सर्व – गोपीषु सैवैका” वैसे वो अकेली ही है और वो है राधा रानी । “प्रथा राधा प्रिया विष्णोस्तस्याः कुण्डं प्रियं तथा” ये भी पद्म पुराण का वचन है । वैसे राधा प्रिय है कृष्ण को या सबसे अधिक प्रिय तो राधा ही कृष्ण को प्रिय राधा ।
“तस्याः कुण्डं प्रियं तथा” उसी प्रकार राधा रानी के नाम के ये कुण्ड श्री कृष्ण को उतना ही प्रिय है जितनी राधा प्रिय है कृष्ण को । इस प्रकार ये राधा कुंड और राधा । ये भी समकक्ष है कृष्ण को जितनी राधा प्रिय है उतना ही प्रिय है राधा का कुण्ड कृष्ण को और राधा कितनी प्रिय है ? “सर्व – गोपीषु सैवैका विष्णोरत्यन्त वल्लभा” सभी गोपियों में अधिक प्रिय है कृष्ण को कृष्ण को राधा रानी की जय ! तो ये सिद्धांत भी सिद्ध हो रहे हैं इस लीला के साथ या जो व्रत हो रहा है कात्यायनी व्रत और उस कात्यायनी व्रत के अंत में पूर्णिमा के दिन कृष्ण जो वस्त्रों का हरण करेंगे चीर घाट पर । चीर मतलब वस्त्र तो इसीलिए सारे सिद्धांत भी स्पष्ट हो रहे हैं । माधुर्य रस सर्वोपरि है और यहां “निजांग दान” निज-अंगदान हो रहा है और यहां “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” हो रहा है । कृष्ण ने स्वीकार किया है इसी के साथ हो गई फिर हम जो कहते हैं राधा वल्लभ या गोपी वल्लभ । “गोपीजन वल्लभ गिरिवर्धारी” तो वल्लभ मतलब पति । प्रिय या पति ।
यहां कृष्ण बन रहे हैं, बन गए उस दिन पूर्णिमा के दिन राधा के पति बन गए । राधा पति या वे राधानाथ बन गए, गोपीनाथ बन गए, राधा वल्लभ बन गए, गोपी वल्लभ बन गए और वैसे इस लीला के साथ ऐसे कुछ पूर्व तैयारी भी हो रही है और मथुरा वृंदावन से कृष्ण द्वारका के लिए प्रस्थान करने वाले हैं । वहां उनके विवाह भी होने वाले हैं 16,108 रानियों के साथ विवाह होंगे । यह जो प्रार्थना है “नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः” । यहां तो व्रज में हेमंत ऋतु में मार्गशीर्ष महीने के अंत में पूर्णिमा के दिन एक कुछ झलक ही हाथ मिलाना कहो तुम मेरी पत्नी हो गोपियों मैं तुम्हारा पति हूं या कुछ विवाह ठीक हो रहा है किंतु यहां रूपांतरित होने वाला है द्वारका में ।
द्वारका में 16,108 रानियां है यह कहां से आ गई ? ये व्रज के गोपियां है । व्रज की गोपियां जो कात्यायनी की प्रार्थना कर रही थी, अर्चना कर रही थी तपस्या कर रही थी तो वही गोपियां ये पति रूप में उनको भगवान प्राप्त हो । वही गोपियां बन जाती है कृष्ण की रानियां द्वारका में 16,108 और फिर यहां चल रहा था “परकिया भावे याहा, व्रजेते प्रचार” यहां वृंदावन में तो ‘परकिया भाव’ पर स्त्रियां गोपियों के वैसे विवाह हो जाते हैं उनके अपने अपने पति है । लेकिन कृष्ण उनके साथ गोपियों के साथ अपना संबंध बनाए रखते हैं तो ये परकिय भाव हुआ । पर स्त्रियां है या कृष्ण उप पति हैं इन गोपियों के उप पति । द्वारका में वे सचमुच पति बन ही जाएंगे और फिर वहां ‘स्वकिय भाव’ होगा । वृंदावन में ‘परकिय भाव’ और द्वारका में स्वकिय मतलब अपनी विधिवत विवाह उनके विवाह यज्ञ संपन्न होंगे । विधिवत विवाह होगा और तो यही गोपियां वहां हो जाती हैं और फिर भगवान के वहां विवाह होते हैं और ‘स्वकिय’ वाली लीला द्वारका में संपन्न होती है । ठीक है और कभी और आगे की बातें उनको कहेंगे । कौन-कौन बनती है कौन सी गोपी कौन सी रानी पटरानी द्वारका में बनती है के इत्यादि इत्यादि । ठीक है ।
॥ हरे कृष्ण ॥
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 20 नवम्बर 2021*
हरे कृष्ण!!!
हम अब थोड़े समय के लिए रुक जाते हैं। अपने जप को रोका जा सकता है क्योंकि अब हम जप से जपा टॉक की ओर मुड़ेंगे।आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 708 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। यह चिंता का विषय है। (मैटर आफ कंसर्न) क्या हुआ( व्हाट हपनेड)। पिछले 2 सप्ताह में दो- ढाई सौ लोग या भक्त कम हो गए । आपको याद होगा कि कार्तिक के मध्य में हम लोग 950 की संख्या तक जा रहे थे। कार्तिक के दूसरे भाग में अर्थात कार्तिक के शुक्ल पक्ष में कुछ हुआ (समथिंग हैपन) अभी तो सारा विश्लेषण नहीं करेंगे । केवल आपको याद दिला रहे हैं, पता नहीं, आप यह सोचते हो या नहीं। देख लो, यदि आप कुछ कर सकते हो, एक तो आप इस जपा सेशन में जप करते रहिए और अपने सगे- संबंधियों, बंधु- बांधवों, पड़ोसी या कोई इष्ट मित्र जो इस जूम कॉन्फ्रेंस में जप किया करते थे और अब नहीं कर रहे हैं और यदि आपने नोट किया है, तो उनको रिमाइंडर (अनुस्मारक) दीजिए। यह भी हो सकता है कि यह कार्तिक के उत्सव, वृंदावन यात्रा, यह, वह, भ्रमण, परिभ्रमण के कारण उनकी आदत छूट गई हो। आप विचलित हो गए हो और समाप्त। वैसे आप नहीं, आप तो यहां जप कर रहे हो। मैं उनकी बात कर रहा हूं जो हमारा साथ दिया करते थे। यह पदमाली आदि सोच सकते हैं। हमनें कार्तिक में इतना समय साथ बिताया लेकिन अब मैं सोचता तो रहता हूं कि क्या हुआ, क्या इसमें हमारा कोई कसूर है? नहीं है? हरि !हरि!
ठीक है, मैं तो अभी बोलूंगा ही लेकिन आप नहीं बोलते हो। यह आज अंतिम अवसर है। कार्तिक माह में आपके रिपोर्टिंग या कुछ विशेष अनुभव रहे हो और आप उसे शेयर करना चाहते हो तो आज अंतिम अवसर है। वैसे आज हमारे कुछ मंदिर, इस्कॉन टेंपल रिपोर्टिंग करने वाले हैं। हम बहुत ज़्यादा नहीं ले सकते। कुछ सीमित भक्त ही बोल सकते हैं अथवा सीमित भक्त ही अनुभव शेयर कर सकते हैं। अपना रिलाइजेशन शेयर कर सकते हैं। हम चाहते है कि संख्या कम हो लेकिन क्वालिटी और संक्षिप्त रिपोर्ट हो। पहले तो मैं भी कुछ कहूंगा तब आपकी बारी आएगी। बहुत ज्यादा नहीं कहूंगा। वैसे आप अपने अनुभव लोक संघ पर लिख भी सकते हो। वहां पर भी लिखित रिपोर्ट की जा सकती है। ठीक है।
कोई कह रहा था अथवा किसी ने चैट में लिखा था लेकिन मैंने पूरा पढ़ा नहीं। बद्रीका आश्रम मंदिर आप जानते हो? शीतकाल में (विंटर सीजन) चार 6 महीने के लिए बंद होता है, वह आज बंद हो रहा है। वैसे ही आपको स्मरण दिला रहे हैं। कितना सही है या गलत है, पता नहीं। कोई चैट में लिख रहा था ऐसी कोई संभावना है। वह तो संभावना ही है लेकिन आज से एक नया व्रत प्रारंभ हो रहा है। अभी तक कार्तिक व्रत चल रहा था। कार्तिक पूर्णिमा हुई, शालिग्राम तुलसी तुलसी विवाह भी संपन्न हुआ। हरि! हरि! कल पूर्णिमा भी थी। कहा गया है कि शरद पूर्णिमा के रात्रि को त्रिभंग ललित कृष्ण केशी घाट पर मुरली बजाते हैं।
*आलोलचंद्रकलसद्वनमाल्यवंशी-रत्नाङ्गदं प्रणयकेलिकलाविलासम। श्यामं त्रिभङ्गललितं नियतप्रकाशं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।*
( ब्रह्म- संहिता श्लोक ५.३१)
अनुवाद:- जिनके गले में चंद्रक से शोभित वनमाला झूम रही है, जिनके दोनों हाथ वंशी तथा रत्न – जड़ित बाजूबन्दों से सुशोभित हैं, जो सदैव प्रेम- लीलाओं में मग्न रहने हैं, जिनका ललित त्रिभंग श्यामसुंदर रूप नित्य प्रकाशमान है, उन आदिपुरुष भगवान गोविंद का में भजन करता हूँ।
*बंसी विभूषित करात, नवनीरद आभात, पूर्णेन्दु सुंदर मुखात, अरविंद नेत्रात, पीताम्बरात, अरूणबिंबफल अधरोष्ठात, कृष्णात, परम किम् अपि तत्वम, अहम न जाने…”*
(अज्ञात सूत्र)
अर्थ:-
जिन के कर कमलों में बंसी शोभायमान है जिनके सुंदर शरीर की आभा नए बादलों जैसे घनश्याम है जिनका सुंदर मुख पूर्णचंद्र जैसा है जिनके नेत्र कमल की भांति बहुत सुंदर है जिन्होंने पितांबर धारण किया हुआ है जिनके एयरोस्टर अरुणोदय जैसे माने उदित होते हुए सूर्य के लाल पल के रंग जैसा है ऐसे श्री कृष्ण भगवान के सिवा और कोई परम तत्व है यह मैं नहीं जानता
*बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रदवास: कनककपिशं वैजयंती च मालाम । रंध्रां वेणोरधरसुधया पुर्यंगोपवृन्दै-रवृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद गीतकीर्ति:।।*
( श्रीमद भागवतम १०.२१.५)
अनुवाद:- अपने सिर पर मोर-पंख का आभूषण, कानों पर नीले रंग के कर्णिकारा फूल, सोने के समान चमकीले पीले वस्त्र, और वैजयंती माला पहने हुए, भगवान कृष्ण ने वृंदावन के जंगल में प्रवेश करते हुए, सबसे महान नर्तकियों के रूप में अपने दिव्य रूप का प्रदर्शन किया। उसके पदचिन्हों के साथ। उन्होंने अपनी बांसुरी के छिद्रों को अपने होठों के अमृत से भर दिया, और चरवाहों ने उनकी महिमा गाई।
ऐसे कृष्ण को नहीं देखना चाहिए। सावधान। यदि आप देखोगे तो फिर गए काम से। दिल्ली हो या नागपुर आपके सारे भव बंधन टूट जाएंगे। ऐसा शास्त्रों में कहा गया है कि यदि आप उसको बनाए रखना चाहते हो तब ऐसा दर्शन फिर खतरनाक है। कृष्ण कन्हैया लाल की जय! कृष्ण हमेशा सक्रिय( एक्टिव) हैं। जहां तक मुरली बजाने की बात है या उनके विवाह की बात है। (शालिग्राम तुलसी विवाह) कृष्ण ही शालिग्राम के रूप में हैं। कृष्ण की अष्टकालिय लीला तो चलती रहती है। प्रतिदिन/ नित्य चलती है। प्रतिदिन भगवान की लीला संपन्न होती है। एवरी सिंगल डे एवरी सिंगल मोमेंट भगवान की लीला चलती है। भगवान विश्राम भी नहीं करते हैं। यशोदा दूध पिला कर कृष्ण को सुलाती तो है लेकिन सुलाकर जैसे ही कमरे से यशोदा बाहर जाती है, तब कृष्ण बिस्तर से कूद कर वन में पहुंच जाते हैं और मुरली बजाने लगते हैं। यह 10:30 की बात है। हर रात्रि 10:30 बजे बिना किसी चूक के वे किसी ना किसी वन में पहुंच जाते हैं। वहां पर उनका मुरली वादन होता है। कृष्ण का पूरा नियंत्रण होता है कि यह वादन गायों के लिए है और यह वादन मित्रों के लिए है, यह वादन गोपियों के लिए है, जिनके लिए वह संदेश है। कृष्ण मुरली के माध्यम से उनको ही अपना संदेश प्रसारित करते हैं। रात्रि 10:30 वाला संदेश तो केवल गोपियों के लिए होता है । उसे अन्य घरवाले कोई नहीं सुन पाते। ना तो पतिदेव सुन रहे हैं और ना ही बच्चे सुन रहे हैं, ना कोई सास या ननद सुन रही है। केवल गोपियां सुनती है तब वे दौड़ पड़ती हैं। पूरी रात अर्थात रात्रि की अष्टकलिय लीला सम्पन्न होती है। कहने का तात्पर्य है कि कृष्ण दिन और रात 24 घंटे व्यस्त हैं। उनका नींद (स्लीपिंग) जो है तथाकथित नींद (स्लीपिंग) है। हम नोट कर सकते हैं कि कृष्ण अब कहां होंगे, कृष्ण अब कहां होंगे? इस दिन कहां होंगे? यह गोवर्धन धारण का दिन है तो उन्होंने गोवर्धन धारण किया होगा। यह शरद पूर्णिमा है, तो वे रास नृत्य कर रहे होंगे। प्रातः काल का समय है कृष्ण की माखन चोरी की लीला जारी होगी या दिन का समय है तो अब वे गोचरण लीला हेतु काम वन में होंगे।
मधुबन में राधिका नाचे रे…
इस तरह से हम सब कृष्ण भावना भावित हो सकते हैं। अब कृष्ण कहां हैं? कृष्ण कैसे दिखते होंगे ?
*कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण कृष्ण! कृष्ण! हे। कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे।।कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! रक्ष माम्।।कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! पाहि माम्।।राम! राघव!राम!राघव!राम! राघव! रक्ष माम्। कृष्ण ! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! पाहि माम्!*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक ७.९६)
अनुवाद:- महाप्रभु कीर्तन कर रहे थे-
हे भगवान कृष्ण!कृपया मेरी रक्षा कीजिए और मेरा पालन कीजिए।” उन्होंने यह भी उच्चारण किया-
हे राजा रघु के वंशज! हे भगवान राम! मेरी रक्षा करें। हे कृष्ण, हे केशी असुर के संहारक केशव , कृपया मेरा पालन करें।
कृष्ण की लीलाएं संपन्न हो रही है। उनकी कुछ प्रकट लीलाएँ हैं और कुछ नित्य। उनकी 125 वर्ष तक प्रकट लीला है लेकिन कृष्ण की नित्य लीला तो चलती ही रहती है। उसी नित्य लीला के अंतर्गत कल तक दामोदर व्रत चल रहा था। हम जानते हैं दामोदर लीला एक लीला है। उसका कार्तिक में अधिक प्रधान्य रहा किन्तु अन्य भी कई सारी लीलाएँ हुई। कल थोड़ा उल्लेख हुआ ही। माधुर्य लीला, वात्सल्यपूर्ण लीला,गोचारण लीला
गोपाष्टमी उत्सव है, यह लीलाएं भी कार्तिक मास में हुई। केवल दामोदर लीला ही नहीं हुई, अन्य रसभरी लीलाएं भी हुई। अलग अलग रस हैं। अलग अलग फ्लेवर हैं, सभी विभिन्नताएं पसन्द करते हैं। यह हम कृष्ण की वैरायटी ऑफ पास्ट टाइम्स का आनंद लेते हैं। उनके कुछ माधुर्य रस वाले पास्ट टाइम्स हैं तो कोई वात्सल्य रस, माधुर्य रस, दास्य रस से भरे हुए। आपको बताया था वृन्दावन में किंचित सा दास्य रस है। दास्य रस इतना मधुर नहीं होता। वृंदावन तो माधुर्य लीला स्थली है। वैकुंठ वैभव लीला स्थली है। वैकुंठ और माधुर्य लीला वृंदावन में और औदार्य लीला नवद्वीप मायापुर में होती है। वृंदावन माधुर्य लीला के लिए प्रसिद्ध है। इस दास्य भाव में इतनी मधुरता नहीं होती। इतना रस नहीं होता। इसीलिए किंचित सा दास्य रस का प्रचार है।
*जय जयोज्ज्वल-रस-सर्व रससार। परकीया भावे याहा, व्रजेते प्रचार॥*
( वैष्णव भजन)
अर्थ:-समस्त रसों के सारस्वरूप माधुर्यरस की जय हो, भगवान् कृष्ण ने परकीय-भाव में जिसका प्रचार ब्रज में किया।
अधिकतर प्रचार परकीय भाव का है।
गोपियों के साथ, राधा के साथ भाव या संबंध है, उसको परकीय रस कहते हैं। (यह हमने बता ही दिया।) आज से कात्यायनी व्रत प्रारंभ हो रहा है। श्रीमद्
भागवतम के स्कन्ध 10 अध्याय 22 कात्यायनी व्रत का वर्णन करता है। आप वहां उसका वर्णन पढ़ सकते हो। यह कात्यायनी व्रत चीर घाट पर संपन्न होगा। घाट मतलब यमुना का किनारा। किनारे पर ही घाट होता है यह भी समझना चाहिए। (आपके धोबी घाट पर नही।)
*हेमंते प्रथमे मासि नंद वर्जकमारिका:। चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम्।।*
( श्रीमद भागवतम १०.२२.१)
अनुवाद:- शुकदेव गोस्वामी ने कहा:- हेमंत ऋतु के पहले मास में गोकुल
की अविवाहित लड़कियों ने कात्यायनी देवी का पूजा-व्रत रखा। पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई।
शुकदेव गोस्वामी ने प्रथम श्लोक में ही कात्यायनी व्रत की कथा को कहना प्रारंभ किया। कात्यायनी देवी का नाम है, उसकी आराधना अर्चना अब गोपियां करने वाली है। उन्होंने हेमंते प्रथमे मासि … आज से नया ऋतु भी शुरू हुई। कल तक शरद ऋतु चल रही थी। अश्विन, कार्तिक यह सब आपको पता होना चाहिए। दो दो मास की एक एक ऋतु होती है। कल शरद ऋतु का समापन हुआ। आज से हेमंत ऋतु शुरू हो रही है, हेमंत ऋतु में दो महीने होते हैं- मार्घशीर्ष और पौष। यहां पर लिखा है कि हेमंते प्रथमे मासि अर्थात हेमंत ऋतु के पहले महीने में अर्थात मार्घशीर्ष में…
आज से मार्घशीर्ष शुरू हो रहा है। जिस मार्घशीर्ष माह के संबंध में भगवान भगवत गीता के दसवें अध्याय में कहते हैं-
*बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्। मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ||* ( श्रीमद भगवतगीता १०.३५)
अनुवाद:- मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ | समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलने वाली वसन्त ऋतु हूँ |
भगवान ने इन शब्दों में इस माह की महिमा वर्णन की है। यह मार्घशीर्ष महीना जो है, वह मैं हूं। आज से मार्घशीर्ष महीना प्रारंभ हो रहा है। मासानां मार्गशीर्षोऽहं ।
गोपियां चीर घाट जाया करती थी बाद में उसका नाम चीर घाट हुआ। जब गोपियों ने अपना व्रत प्रारंभ किया तब वहां एक घाट था। उन्होंने वहां जाकर कात्यायनी की मूर्ति बनाई। पहले तो वे वहां स्नान किया करती थी
*आप्लुत्याम्भसि कालिन्द्या जलान्ते चोदितेअरुणे कृत्वा प्रतिकृतिं देवीमानर्चुर्नृप सैकतीम्। गन्धैर्माल्यै सुरभिभिर्बलिर्धूपदीपकैःउच्चावचैश्र्चोपहारैः प्रवालफलतण्डुलैः।।*
( श्रीमद भागवतम 10.22.2-3)
अनुवाद:- हे राजन सूर्य उदय होते ही यमुना के जल में स्नान करके वह गोपियां नदी के तट पर देवी दुर्गा का मिट्टी का अच्छा विग्रह बनाती हूं तत्पश्चात वे चंदन लेट जैसी सुगंधित सामग्री और महंगी असाधारण वस्तुओं तथा दीपक फल सुपारी को उपलब्ध का सुगंधित मालाओं और अंगूर के द्वारा उनकी पूजा करती।
कालिंदी जो यमुना का नाम है, वे यमुना में प्रवेश करके स्नान किया करती थी और वहां के यमुना की रेत/ मिट्टी से उन्होंने कात्यायनी देवी की मूर्ति बनाई।
वे गन्धैर्माल्यै गंध, माला,पुष्प , धूप दीप कई अन्य कई प्रवालफलतण्डुलैः अर्थात चावल, पत्रं, पुष्पं, फलं तोयं, गंधम से आराधना कर रही थी। पुष्पम समर्पयामि। गंधम समर्पयामि। वे इन सबको समर्पित करती रही। इन द्रव्यों से वह कात्यायनी देवी की आराधना/अर्चना कर रही थी साथ में प्रार्थना भी कर रही थी-
*कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।*
*इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कमारिकाः*
( श्रीमद भागवतम 10.22.4)
अनुवाद:- प्रत्येक अविवाहिता लडक़ी ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की: ” हे देवी कात्यायनी, हे महामाया, हे महायोगिनी, हे अधीश्र्वरी, आप महाराज नंद के पुत्र को मेरा पति बना दें। मैं आपको नमस्कार करती हूं।
हे कात्यायनी, तुम महामाया हो, तुम योग माया नहीं हो, तुम महामाया हो। तुम महायोगिनी हो, तुम अधिश्वरी हो। हम भी ऐसी प्रार्थना कर सकते हैं। यह हमारे लिए महत्वपूर्ण है। वैसे ऐसी प्रार्थना कुण्डनीपुर में रूक्मिणी ने भी की थी, जोकि महाराष्ट्र में अमरावती और वर्धा के बीच में है। नागपुर से ज़्यादा दूर नहीं है। रूक्मिणी मैया की जय!!!
रूक्मिणी ने भी वैसी प्रार्थना की। उसने भी अंबिका की प्रार्थना थी। अंबिका, दुर्गा का एक रूप है। कात्यायनी, दुर्गा का एक रूप है। स्वरूप है, गोपियों ने प्रार्थना की। ऐसी प्रार्थना इन शब्दों में रुक्मिणी ने भी की है। ऐसे शब्दों में रुक्मिणी ने भी प्रार्थना की है। हम भी ऐसी प्रार्थना कर सकते हैं। आप याद रखिए। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः। बस यही मुख्य बात है। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः। नंद महाराज का जो पुत्र है अर्थात नंदनंदन मुझे पति रूप में प्राप्त हो। आप भी ऐसी प्रार्थना कर सकते हो। यदि दुर्गा पूजा या कात्यायनी या भद्रकाली की पूजा करनी है तो ऐसी प्रार्थना है तो आपका स्वागत है। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।
हरि! हरि! हम सबके पति तो कृष्ण हैं ही। है या नहीं? अभी हमने किसी को पति बना लिया है। यहां हम पुरुष बन गए हैं लेकिन हम वैसे पुरुष नहीं है। हम में से कोई भी पुरुष नहीं है। हम सारी स्त्रियां हैं लेकिन हम ऐसी भूमिका निभाते रहते हैं। आज की स्त्री अगले जन्म में पुरुष भी हो सकती है और इस जन्म में पुरुष अगले जन्म में स्त्री भी हो सकती है। यह सब संभव है, यह शरीर के स्तर की बात है। आत्मा के स्तर की बात क्या है। आत्मा के पति जगतपति श्रीकृष्ण है। यह तथ्य है, आत्मा के पति/ स्वामी भगवान हैं ( हम जगन्नाथ स्वामी भी कहते हैं जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी..)
जीवों के स्वामी भगवान हैं। वास्तविकता में हमें निश्चित ही पता नहीं है कि वे हमारे पति हैं या वे हमारे पुत्र हैं या हमारे मित्र हैं। लेकिन एक दृष्टि से वे स्वामी तो हैं ही। नंद बाबा यशोदा के पुत्र भी हैँ लेकिन पुत्र होते हुए वे स्वामी तो हैं ही। वे ऐसी लीला भी खेलते हैं। मित्रों के स्वामी भी श्रीकृष्ण हैं लेकिन कृष्ण एक प्रकार से अपना डिमोशन करते हैं। वे अपने आपको मित्र के स्तर का स्वयं बना देते हैं।
मित्र कहते हैं-
*सखा शुद्ध- सख्ये करे, स्कन्धे आरोहण। तुमि कोंबड़ लोक, तुमि आमि सम*
( श्रीचैतन्य चरितामृत ४.२५)
अनुवाद:- मेरे मित्र शुद्ध मैत्री के कारण मेरे कंधों पर यह कहते हुए चढ़ जाते हैं कि, तुम किस तरह के बड़े व्यक्ति हो? तुम और हम समान हैं।’
लेकिन सभी जीवों के स्वामी कृष्ण ही हैं। दूसरे शब्दों में भगवान ही पुरुष हैं और हम और हम सब भगवान की प्रकृति हैं। ऐसी प्रार्थना हम भी कर सकते हैं। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः। आप भी कहिये नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः। आप कह रहे हो? हरि! हरि! वैसे हम कहते रहते हैं । जब हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहते हैं तब हम यही कहते हैं कि हमें सेवा दीजिए। हम आपके दास /भक्त हैं। सेवा योग्यं कुरु, सेवा योग्यं कुरु। इस शब्द में गोपियों ने प्रार्थना की। या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कह रहे हैं। बात तो एक ही है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहने के पीछे भाव वही है, नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।
मैं सोचता हूँ कि अब हमें विराम देना चाहिए। इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे। आज से यह व्रत प्रारंभ हो रहा है और यह व्रत एक महीने के लिए चलेगा। दामोदर मास एक महीने का था। यह कात्यायनी व्रत भी पूरे मास का है। फिर देखते हैं इस मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन क्या होता है, वैसे उसी दिन चीरहरण होगा। फिर उस घाट का नाम चीर घाट पड़ेगा। पूर्णिमा के दिन चीर हरण हुआ। आज मार्गशीर्ष की प्रथमा चल रही है। 30 दिनों के उपरांत जहां गोपियां स्नान कर रही थी, कृष्ण वहां पहुंच जाएंगे। गोपियां ने यमुना के तट पर वस्त्र रखे थे। कृष्ण आए और सारे वस्त्र ले लिए और वृक्ष के ऊपर चढ़ गए और चीर घाट पर वस्त्रों को हर लिया अर्थात वस्त्र हरण/ चीर हरण हुआ।अब मैं यहां विराम देता हूं और आपको सुनते हैं।
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*19 नवंबर 2021*
*पंढरपुर धाम से*
जय राधे, जय यशोदे ,जय मधुमंगल।
740 स्थानो से भक्त जप कर रहे है। आराध्यो भगवान ब्रजेश तनयस तद्धाम वृंदावनं आप जानते हो ना यह? यह उत्तम श्लोक हम कहीं बार कहते रहते हैं अब भी कह रहा हूं। यह बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है। महत्वपूर्ण मतलब आप नोट कर रहे हो कि नहीं? नोट भी करो, कंठस्थ भी करो, ह्रदयंगम भी करो। इस मंत्र में चैतन्य महाप्रभु का मत दिया हुआ है। तो क्या कहा है इस मंत्र में? आप याद कर सकते हैं ना? दिमाग है है कि नहीं? आपको बुद्धि हैं उपयोग करो और क्या-क्या दुनिया भर की बातें तो आप याद करते रहते हैं। दुनिया के लोग फिल्मी गाने सैकड़ों गाने गाने वाले लोग भी हम जानते हैं। तो क्यों नहीं हम कुछ याद रखें।
आराध्यो भगवान ब्रजेश तनयस तद्धाम वृंदावनं
रम्या काचिद उपासना व्रज वधू वर्गेन वा कल्पित।
श्रीमद भागवतम् प्रमाणं अमलं प्रेम पुमार्थो महान
श्री चैतन्य महाप्रभोर मतं इदं तत्रादरः नः परः।।
तो आज है दामोदर मास का अंतिम दिन। आज कार्तिक पूर्णिमा है, इसी के साथ इस कार्तिक व्रत का समापन होने जा रहा है। अच्छा समाचार तो नहीं है समापन होना। हम कुछ तो सोच रहे हैं पता नहीं आप सोच रहे हैं कि नहीं। अच्छा होता कि यह महीना कुछ और आगे बढ़ता और कुछ दिन या सप्ताह होते। हमारे ब्रज मंडल परिक्रमा के भक्त परिक्रमा के अंत में ऐसा ही सोचते रहते हैं। उनका विचार होने लगता है क्या हम लोग और एक राउंड मार सकते हैं और एक परिक्रमा कर सकते हैं यह समाप्त हो रहा है, यह अच्छी बात नहीं है। अभी अभी हम मूड में आ रहे थे और अब समापन भी होने जा रहा है। ऐसे भाव अगर है तो.. ऐसे भाव है किसी के ऐसा विचार हो रहा है? या फिर अच्छा हुआ फाइनली समाप्त हो गया, धन्यवाद बाय बाय चातुर्मास या दामोदर मास। तो हम सब ने बहुत अच्छा समय बिताया।
अच्छे दिन आए थे, अच्च्छे दिन आएंगे तो अच्छे दिन आए थे कार्तिक मास में। तो हम क्या कर रहे थे यह बात इस श्लोक में कहां है। जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मत है, सिद्धांत है। श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य या स्वयं भगवान गौरांग का यह मत है। आराध्य भगवान 75 मास में हम क्या क्या कर रहे थे आराध्यो भगवान ब्रजेश तनयस ब्रजेंद्र नंदन की आराधना कर रहे थे। ब्रजेंद्र नंदन सर्वोपरि है। अद्वैतम अच्युतम अनादि अनंत रूपम भगवान के अनंत रूप है। उन सभी रूपों में ब्रजेंद्र नंदन श्री कृष्ण या वृंदावन के कृष्ण सर्वोपरि है। तो आराध्यो उनकी आराधना करो चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। और हम गौड़ीय वैष्णव ब्रजेंद्र नंदन की आराधना करते हैं। और हम ब्रज भक्ति का अर्जन करते हैं या ब्रज के भक्तों जैसी भक्ति। एक तो आराध्यो भगवान ब्रजेश तनय है और तद्धाम वृंदावनं और आराधना धाम की भी आराधना करनी है, वृंदावन धाम की जय। तो इस मास में हम धाम की भी आराधना कर रहे थे। रम्या काचिद उपासना व्रज वधू वर्गेन वा कल्पित आराधना करनी है तो कैसी आराधना करो? जैसी आराधना ब्रज की गोपिया करती है। और ब्रज की गोपियों में भी जो श्रेष्ठ गोपी है प्रधान गोपी है। विष्णोर अत्यंत – वल्लभा जो विष्णु को मतलब कृष्ण को सबसे अधिक प्रिय है। सैवइका स- एव – एका सर्व – गोपीशु सैवइका विष्णोर अत्यंत – वल्लभा। तो सभी गोपियों में वही एक है मतलब वह राधा है, जो कृष्ण को सबसे अधिक प्रिय है। तो उनका भाव या उनके जैसी भक्ति करो। ऐसा चैतन्य महाप्रभु का मत है श्री चैतन्य महाप्रभोर मतं इदं। तो वह भाव माधुर्य भाव या माधुर्य रस हुआ। तो उसकी आराधना करने के लिए चैतन्य महाप्रभु कह रहे है। उसी के अंतर्गत कहो और भी रस है ब्रज के रस, ब्रज की भक्ति, एक राधा की भक्ति।
फिर यशोदा की भक्ति यह वात्सल्य रस हुआ। और फिर मधुमगल, सुदामा श्रीदामा सखा जो भक्ति करते हैं वह सख्य रस वाली भक्ति है। तो वृंदावन में तीन प्रकार की भक्तियों का प्राधान्य है। चौथा प्रकार भी है वह दास्य रस वाला है। लेकिन वृंदावन में हम कह रहे हैं, आपको पता चलना चाहिए। वृंदावन में मतलब द्वारका में नहीं, वृंदावन में मतलब वैकुंठ में नहीं, वृंदावन मे मतलब स्वर्ग तो है ही नहीं स्वर्ग तो भूल ही जाओ। हम वृंदावन में कह रहे हैं। तो गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोलोक के निवासी श्री कृष्ण गोलोक के वृंदावन के निवासी। गोलोक में वैसे मथुरा भी हैं, गोलोक में द्वारिका का भी समावेश है सही। किंतु हम गौडीय वैष्णव विशेष रुप से वृंदावन के भक्ति का अवलंबन करते हैं। तो गोलोक में वृंदावन में जो जनता है, उनका विभाजन तीन वभागों में हो सकता है। वहां के जो बुजुर्ग लोग हे स्त्री और पुरुष वृंदावन के उनका कृष्ण के प्रति जो भाव है, रस है संबंध है वह वात्सल्य रस है। गोपी और नंद महाराज… और उन्हीं से सीमित नहीं है। आप जानते हो ब्रह्म विमोहन लीला जब हुई तब कृष्ण ही बन गए सारे ग्वाल बाल। पूरे एक साल के लिए यह वात्सल्य रस उमड़ आया ब्रज में। ब्रज के सभी बुजुर्ग स्त्री पुरुष वह जो भक्ति कर रहे थे वह वात्सल्य रस है।
वैसे भी सब समय यह तो एक विशेष लीला, प्रकट लीला में भगवान उसका प्रदर्शन किए हैं। लेकिन वात्सल्य रस सब समय नित्य विद्यमान रहता ही है। तो मैं कह रहा था.. इसको थोड़ा संक्षिप्त में कहता हूं। तीन प्रकार के जन या लोग वृंदावन में, गोलोक वृंदावन कुछ गोकुल वृंदावन भी। वही बात है लेकिन हम गोकुल वृंदावन की बात करते तो फिर भौम वृंदावन कहना पड़ता है। उसमें तो हमें ज्यादा अधिक कुछ दिखता नहीं है। लेकिन जो गोलोकेर वैभव लीला प्रकाश कोरिला गोलोक की लीला वैसे वृंदावन में भी प्रकाशित है। वृंदावन के सभी बुजुर्ग जो है उनका जो संबंध है वह वात्सल्य रस का संबंध है। और दूसरा है.. ठीक है, यह बूढ़े हो गए वृद्ध माताए पुरुष हो गए वात्सल्य रस ऐसा संबंध है उनका भगवान के साथ वात्सल्य रस का। और फिर सभी जो जवान है उसके दो विभाजन होंगे कुछ युवक है कुछ युवतीया है। तो युवती के साथ गोपियां आ गई फिर उसमें राधा आ गई मंजिरीया आ गई। उनके साथ भगवान का जो संबंध है वह है श्रृंगार रस या माधुर्य रस। जो सभी रसों में श्रेष्ठ माना जाता है। और फिर जवानों में जो युवक है ग्वाल बाल कहीए। उनके साथ कृष्ण का जो संबंध है वह है साख्य रस। तो हो गए इस तरह तीन प्रकार के संबंध या भक्ति कहो ब्रज में संपन्न होती है सदैव। और कुछ ही होते हैं सेवक। वृंदावन में दास्य रस का प्राधान्य नहीं है।
वैकुंठ में दास्य रस का प्राधान्य है, वृंदावन में नहीं। तो कुछ थोड़े सेवक है दास्य भाव में कृष्ण की सेवा करते हैं। किंतु अधिकतर गोलोक की आबादी की बात कर रहे हैं, वृंदावन की आबादी। गोलोक का कहने से वह वह पूरा सही नहीं है। फिर गोलोक में मथुरा भी है, द्वारका भी है। वहा की बात हम नहीं कर रहे हैं, हम वृंदावन की बात कर रहे हैं। तो वृंदावन की जो जनता है, जो जन है ब्रजवासी, जिनको हम ब्रजवासी कहते हैं। ब्रजवासी मथुरा वासियों से भिन्न है। ब्रजवासी द्वारका वासियों से भिन्न है। ब्रजवास हम कहते हैं। तो पूरे दामोदर मास में हम ब्रजवास भी कर रहे थे और ब्रज वासियों की जो भक्ति है उसका हम अनुसरण करने का प्रयास कर रहे थे। और यह भक्ति अर्जन करने का हमारा प्रयास चल रहा था। भक्ति का अर्जुन। भक्ति को प्राप्त करना है। भक्ति को कमाना है। तो यह तीनों प्रकार की भक्ति दामोदर मास में हम कर रहे थे। दामोदर है तो यह वात्सल्य रस का नाम तो है इसका या उसका प्राधान्य है ऐसा हम सोचते हैं भी। लेकिन यह नहीं भूलना है यही दामोदर मास प्रारंभ हुआ शरद पूर्णिमा के साथ। आज तो कार्तिक पूर्णिमा है। तो रास क्रीडा के साथ यह दामोदर मास प्रारंभ हुआ। और दामोदर मास में ही राधा कुंड का प्राकट्य हुआ फिर से यह माधुर्य लीला का प्राधान्य। हम अनुभव कर रहे थे, सुन रहे थे। राधा कुंड में जाकर हम में से कईयों ने स्नान भी किया और ब्रज मंडल परिक्रमा कर रहे थे। तो वैसे तीन रसों की लीलाएं हम सुन रहे थे या तीन रसों से भरे स्थान या स्थली को हम भेट दे रहे थे और वहां की लीलाओं का श्रवण कर रहे थे। आप समझ रहे हो ना? मैं थोड़ा इसे जल्दी समाप्त करना चाहता हूं, ताकि आप भी बोल सकते हो। और हम हमारे इस्कॉन मंदिर के अधिकारी या भक्त उनसे भी सुनना चाहते हैं।
कैसे उन्होंने यह दामोदर मास संपन्न किया? और क्या-क्या उन्होंने किया? कैसे अनुभव रहे उनके? तो फिर तैयार रहें। तो फिर सख्य रस के भी इसी मास में वासुदेवो अभुद गोपः पुर्वम तु वत्सपः गोपाष्टमी आई इसी मास में हमने गोपाष्टमी का उत्सव मनाया। एक था बहुलाष्टमी राधा कुंड का प्राकट्य, तो दूसरी अष्टमी शुक्ल पक्ष में गोपाष्टमी। तो गोपाष्टमी मतलब कौन सा रस? गोपाष्टमी का रस कौन सा है हां क्या कहोगे? साख्य रस.. हां सही है सखाओ के साथ। पहले तो वासुदेवो अभुद वासुदेव बन गए गोप या गोपाल। पुर्वम तु वत्सपः उसके पहले वत्सप बछड़े चराते थे या वत्सपाल थे, वत्सपाल के बन गए गोपाल। तो हमने जितने उत्सव मनाए दामोदर मास में, कुछ उत्सव माधुर्य रस से संबंधित है। कुछ उत्सव वात्सल्य रस से भरपूर है और कुछ उत्सव साख्य रस से पूर्ण है। और फिर गोवर्धन को भी धारण किए इसी मास में भगवान। तो फिर कौन सा रस वहा चल रहा था? क्या वैशिष्ट्य है? यह गोवर्धन धारण किए जब भगवान कौन-कन सा रस अनुभव कर रहे थे। सभी रस? कुछ कहो, कुछ सोचो। कुछ पल्ले पड़ रहा है कि ऐसे ही सर के ऊपर से जा रहा है। ऐसी दूसरी कोई लीला तो हुई नहीं जैसी गोवर्धन लीला या गोवर्धन धारण लीला। क्योंकि सभी रस सख्य रस, वात्सल्य रस, माधुर्य रस, सभी का महारस। एक ही साथ 24×7 भी हम कह रहे थे। 24 घंटे 7 दिन। गोपिया भी वहां थी, राधा भी वहां थी, नंदा बाबा, यशोदा और सभी बुजुर्ग भी वहां थे और सभी ग्वाल बाल वहां थे। और यह लीला भी इसी मास में संपन्न हुई। तो हमारा प्रयास रहा हमने जो भी साधना की, दीपदान किया और श्रवण, कीर्तन किया या ब्रजमंडल गए या अपने परिक्रमा की या परिक्रमा को देखा सुना।
उसके पीछे का उद्देश्य यही था कि हम चलो हम भी भक्त बनते हैं कृष्ण के। और रागानुगा भक्ति भी है। हमने एक नया शब्द कह दिया, नया तो नहीं है। इसके साथ फिर व्याख्या भी हो जाती है। हम लोग रागानुगा भक्ति राग – अनुग या रागात्मिका भक्ति की साधना करते हैं। मतलब ब्रज के किसी भक्तों को जो आदर्श है उनका। उनके उदाहरण को ध्यान में रखते हुए हम भी उनके जैसे भक्ति करने का अभ्यास करते हैं। साख्य रस है तो भगवान के सखा उनको हम आदर्श मानते हैं। और वात्सल्य रस के लिए नंद बाबा यशोदा, विशेष रुप से यशोदा मैया की जय। उनका हम स्मरण करते हैं, करते रहे। और माधुर्य रस के लिए रम्या काचिद उपासना वर्गे न या कल्पित फिर राधा और गोपियां वह हमारे आदर्श उदाहरण समक्ष होते हैं। इस प्रकार इस महीने में सभी प्रकार की भक्ति के सभी प्रकार या रस या संबंध कहो उसे प्राप्त करने का, अर्जन करने का हमारा प्रयास रहा। ऐसा ही प्रयास आपने भी किया तो अभिनंदन। और फिर आप अपना आनंद व्यक्त कर सकते हो। आपका स्वागत है बोलने के लिए। विशेष रुप से हम मंदिरों के भक्तों से अधिकारियों से सुनना चाहेंगे।
हरे कृष्ण।
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जप चर्चा
व्रजधाम सोलापुर से
18 नवंबर 2021
778 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । हरि हरि !! जय राधे ! बोलो श्री राधे… श्याम सुन्दर ! राधेश्याम ! ये दामोदर मास वैसे उर्जा व्रत भी कहलाता है । ऊर्जा मतलब शक्ति । कौन सी शक्ति ? याद नहीं सकती अह्लादिनी शक्ति राधा रानी । ये उर्जा व्रत भी है ये दामोदर मास और आज अभी हो सकता है कि वह चले गए होंगे । हमारे पदयात्रा के परिक्रमा के भक्त राधा रानी के गांव में थे । आप जानते हो राधा रानी का गांव का नाम ? रावल । वरसाणे वाली की जय जय कहते आप कहते हो और वरसाणा में बाद में गई राधा । कैसे अकेले नहीं गई । राजा वृषभानु वहां गए रहने के लिए वो वृषभानु पुर है वैसे । वृषभानु पुर से फिर वरसाणा ऐसा अपभ्रंश हुआ है, तो वहां वृषभानु पुर या वरसाणा जाने के पहले राधा रानी रावल गांव की जन्मी । जो गोकुल से ज्यादा दूर नहीं है । कल प्रातः काल हमारे भक्त परिक्रमा के भक्त या ब्रह्मांड घाट गोकुल होते हुए रावल गांव पहुंच भी गए और यह एक दावत है । समय-समय पर बड़ी दावत होती है, तो राधा रानी के गांव में वराह रूप माताजी जो सभी परिक्रमा में रही है वो हमारे मैनेजमेंट टीम में भी है । व्रजमंडल TMC मैनेजमेंट टीम में वराह रूप माताजी तो वो सभी को दावत स्पॉन्सर करती है । जय राधे !
परिक्रमा करते-करते पूरे 1 महीने की परिक्रमा वैसे आज वरसाणा हमारा आखरी पड़ाव होता है और देख लो परिक्रमा का फल भी कहो, परिक्रमा में जो तपस्या तो झेलनी ही पड़ती है । घर छोड़ते ही परिक्रमा में प्रवेश करते ही वहां तपस्या क्षेत्र शुरू होता है, सहज क्षेत्र से तपस्या क्षेत्र । पूरे 1 महीने के अंतरांत, वैसे जिन की कृपा से ही हम परिक्रमा कर पाते हैं वह राधा रानी की गांव में अंततोगत्वा हम परिक्रमा के भक्त पहुंच जाते हैं और फिर वहां या करुणामई राधा, हरि हरि !! “करुणा कुरु मई करुणा भरीते” हम प्रार्थना भी करते हैं रूप गोस्वामी प्रभुपाद प्रार्थना किए हैं । “करुणा कुरु मई करुणा भरीते” हे राधे तुम तो करुणा की मूर्ति हो, हम पर भी कृपा करो और राधा के कृपा के बिना श्री कृष्ण की कृपा प्राप्त नहीं होती । राधा अनुशंसा करती है तो फिर कृष्ण कृपा करते हैं । “राधे वृंदावनेश्वरी”…
तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि ।
वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये ॥
अनुवाद:- मैं उन राधारानी को प्रणाम करता हूँ , जिनकी शारीरिक कान्ति पिघले सोने के सदृश है , जो वृन्दावन की महारानी हैं । आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं और भगवान् कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं ।
तो राधा रानी “तप्तकाञ्चनगौराङ्गि” कहलाती है । मतलब गौरंगी कहलाती है । गौर वर्ण की है । कैसा है गौर वर्ण ? “तप्तकाञ्चन” स्वर्ण वर्ण की राधा है हेमांगी राधा । लेकिन वो हेमांगी, ‘हेम’ कैसा स्वर्ण ? वर्ण मतलब रंग भी होता है, तो स्वर्ण वर्ण । सोने की रिंग की लेकिन कैसा सोना ? “तप्तकाञ्चन” तपा हुआ सोना जो और अधिक चमकता है । साधारण सोने से जब उसको त पाया जाता है तो उसमें अधिक चमक-दमक आ जाती है । ऐसे अंग-रंग वाली ये राधा रानी । “तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि” तो वृंदावन की ईश्वरी है राधा । कृष्ण की भी ईश्वरी है राधा । जब मान करके बैठती है तो तब कृष्ण को भी नचाती है और कृष्ण को भी झुकना पड़ता है राधा के चरणों में । अपने उदार कोमल चरण, हे राधे ! मेरे सिर पर रखो । “क्षमस्व” मुझे माफ कर दो इत्यादि-इत्यादि कहना भी पड़ता है कृष्ण को । इसलिए कृष्ण का नाम मदन मोहन मोहिनी । कृष्णा होंगे मदन को मोहित करने वाले मदन मोहन । किंतु इस मदन मोहन को मोहित करने वाली है राधा रानी । हरि हरि !! “वृषभानुसुते देवि” और ये राधा रानी वृषभानु सुता, वृषभानु नंदिनी के पुत्री है और कीर्तिदा की पुत्री है । वहां यशोदा है कृष्ण को जन्म देने वाली यशोदा और राधा को जन्म देने वाली कीर्तिदा । ये दोनों भी कीर्ति या यस अपने-अपने घराने को यश बढ़ाने वाली है यशोदा और कीर्तिदा तो इस कीर्तिदा की नंदिनी पुत्री राधा रानी ।
तो 1 दिन या एक शाम राधा के नाम । कल दोपहर जब परिक्रमा के भक्त पहुंचे उसके बाद कल की शाम और आज प्रातःकाल की मंगल आरती ये सब रावल गांव में ही होता है और परिक्रमा के भक्त खूब प्रार्थना याचना करते हैं । राधे तेरे चरणों की यदि धूल मिल जाए ! ऐसी प्रार्थना करते हैं वृंदावन में, तो फिर क्या हो जाए ? तकदीर बदल जाए । राधा के चरणों की धूल । वैसे ब्रह्मा के लिए भी दुर्लभ है । वैसे नारद मुनि को सर्वप्रथम राधा रानी का दर्शन करने वाले । वैसे वृषभानु रह जाते हैं और कीर्तिदा किंतु नारद मुनि आ गए । जो पहले गोकुल गए थे । गोकुल में नारद मुनि कृष्ण का दर्शन किया बालकृष्ण का, तो उनको विचार आया कि अगर कृष्ण प्रकट हुए हैं तो जरूर राधा रानी की भी कहीं ना कहीं प्रकट हुई होगी ही था की खोज में निकले । खोजते खोजते वे रावल गांव पहुंचे और राजा वृषभानु के महल में राधा रानी का दर्शन हुआ नारद मुनि को । हरि हरि !! तो यह सब तो यह सब नारद और “सनक सनातन वर्णित चरिते” चार कुमार कहो । ये ब्रह्मा के पुत्र हैं या नारद मुनि भी कहो जो वो भी ब्रह्मा के मानस पुत्र है और ये महात्मा, ये ऋषि मुनि राधा रानी के चरणों का वर्णन करते ही रहते हैं, तो ये ऊर्जा व्रत भी हमने प्रारंभ तो ये कार्तिक मास । फिर आज परिक्रमा प्रातःकाल को मार्ग में होंगे ही । लगभग 6:00 बजे प्रस्थान करते हैं तो परिक्रमा लौट रही है विश्राम घाट या लौट रही है मथुरा और धीरे-धीरे वृषभानु मंदिर की ओर वो धीरे-धीरे कृष्ण बलराम मंदिर की ओर वे लौटेंगे । वैसे आज कार्तिक मास का समाप्त तो कल है । कल पूर्णिमा है लेकिन पूर्णिमा आज भी शुरू हो रही है । कार्तिक पूर्णिमा आज भी है और कल भी है । आज शुरू होगी और कल समापन होगा तो वैसे चतुर्मास विशेष रूप से कल इसका समापन है कार्तिक पूर्णिमा के दिन परिक्रमा के भक्त अब लौट रहे हैं । वहां जहां ये परिक्रमा आरंभ किए थे । किसी ने व्रत कर ही लिया तो ये कार्तिक व्रत तो ब्रज मंडल परिक्रमा कारी करने वाले कार्तिक व्रत का भली-भांति बढ़िया से उसका पालन किया ।
कृष्णं स्मरन् जनं चास्य प्रेष्ठं निज-समीहितम् ।
तत्तत्कथा- रतश्चासौ कुर्याद्वासं व्रजे सदा ॥
( भक्तिरसामृतसिन्धु 1.2.294 )
अनुवाद:- भक्त को चाहिए कि वह अपने अन्तर में सदैव कृष्ण का चिन्तन करे और ऐसे प्रिय भक्त को चुने जो वृन्दावन में कृष्ण का सेवक हो । उसे उस सेवक की कथाओं के विषय में तथा कृष्ण के साथ उसके प्रेममय सम्बन्ध के विषयों का सदैव चिन्तन करना चाहिए और उसे वृन्दावन में निवास करना चाहिए । हाँ , यदि कोई शरीर से वृन्दावन नहीं जा सकता , तो उसे मानसिक रूप से वहाँ रहना चाहिए ।
सा बच्चन “कुर्याद”, “व्रजे”, “वास” वृंदावन में सदैव वास करें यह विशेष रूप से दामोदर मास में वृंदावन मास हो । “कुर्याद्वासं व्रजे सदा” और ये “कुर्याद्वासं व्रजे सदा” कह रहे हो ? “कुर्याद्वासं व्रजे सदा” लिख भी सकते हो । एक विधि है “कुर्याद्वासं व्रजे सदा” । “व्रजे” वृंदावन में “कुर्याद” करें । क्या करें ? निवास करें सदैव तो परिक्रमा के भक्त जरूर व्रज में वाक्य वास किया । व्रज की सभी वनों की यात्रा की । सभी वनों में वास किया और आप भी घर बैठे बैठे वर्चुअल परिक्रमा वगैरह आपकी चल रही थी या हम भी आपको पहुंचा रहे थे इस जपा टॉक में । वृंदावन ले जा रहे थे और आप भी उस परिक्रमा पार्टी के सदस्य बन रहे थे । आपने भी कुछ आंशिक रूप में वृंदावन में वास कर ही लिया या आपका मन दौड़ रहा था वृंदावन की ओर ।
वृंदावन धाम की जय !
व्रजमंडल की जय !
व्रजमंडल परिक्रमा की जय !
दामोदर मास की जय !
॥ हरे कृष्ण ॥
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*जप चर्चा*
*17 -11 -2021*
*पंढरपुर धाम से*
हरे कृष्ण !
818 स्थानों से आज भक्त जप में सम्मिलित हैं।
*हरि हरि! विफले हरि हरि! विफले जनम गोंआइनु। मनुष्य जनम पाइया राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु।।1।।*
अर्थ – हे श्रीहरि! मैंने अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा दिया है। मानव जीवन पाकर भी मैंने श्री श्रीराधा-कृष्ण का भजन नहीं किया और जानबूझकर विष खा लिया।
हरि हरि ! यह आचार्यों की वाणी है या गीत है उनकी सोच ऐसी है हम कब ऐसा सोचेंगे? जैसा हमारे पूर्ववर्ती आचार्य सोचते थे। उनके विचार वाले हम कब बनेंगे। वह कहते हैं मनुष्य जन्म तो प्राप्त हुआ पर हमने क्या किया “विफले जनम गोंआइनु” एक होता है विफल और एक होता है सफल, फल के साथ सफल फल नहीं मिला विफल, बेकार का जीवन बिताया। “जानिया शुनिया विष खाइनु” जानबूझकर हमने जहर पी लिया। अब तो बंद कर दे जहर पीना। जहर पीने से तो मृत्यु होती है ना अर्थात हमारी मृत्यु और जन्म, फिर जन्म और मृत्यु कई बार हो चुका है। क्यों ? क्योंकि हमने कई बार जहर पी लिया दोबारा जन्म में दोबारा जहर पी लिया फिर दोबारा मर गए हरि हरि ! भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं “सुखे दुखे भूले ना कोई हरि नाम “सुख में और दुख में भी भगवान को नहीं भूलना वैसे “दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोई” ऐसा भी कहावत है जब दुख आता है तब हम फिर हाय हाय ! बाप रे!
*पाहि पाहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥* श्रीमद भागवतम १.८.९
अनुवाद – हे देवाधिदेव, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप सबसे महान् योगी हैं। कृपया मेरी रक्षा करें, क्योंकि इस द्वैतपूर्ण जगत में मुझे मृत्यु के पाश से बचानेवाला आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है।
पाही पाही महाबाहु! भगवान की ओर दौड़ते हैं भगवान को पुकारते हैं कि हम संकट में हैं हमें बचाओ कृष्ण ! संभावना है अच्छा है यदि ऐसे भी हम भगवान की ओर मुड़ते है।
*चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥* (श्रीमद भगवद्गीता ७.१६)
अनुवाद- हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी ||
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी, भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है चार प्रकार के लोग मेरी और आते हैं और आर्त मतलब दुखी जो बहुत कष्ट भोग रहे हैं और अर्थार्थी, धन का अभाव है या फिर संपत्ति का अभाव है तब भी कुछ लोग दौड़ते हैं भगवान की ओर, सुख संपति घर आवे, ऐसी प्रार्थना भी करते हैं आरती गाते समय, जिज्ञासु कोई जिज्ञासु होते हैं और कुछ ज्ञानी भी होते हैं। इस प्रकार चार प्रकार के लोग “चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन” उनको सुकृति कहा है यह चार प्रकार के लोग आते हैं।
*न धनं न जनं न सुंदरी, कवितां वा जगदीश! कामये । मम जन्मनि जन्मनीश्वरे, भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि ।। 4।।* (शिक्षाअष्टकं)
अर्थ – हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि मेरे हृदय में जन्म-जन्मान्तर तक आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।
यह चैतन्य महाप्रभु ने जो व्यक्त किया हुआ है। हमारा ऐसा भाव् नहीं होता। मुझे धन नहीं चाहिए, मुझे जन नहीं चाहिए, मुझे सुंदर स्त्री का उपभोग नहीं लेना है, मुझे अनुयाई नहीं चाहिए। फिर क्या चाहते हो? मम जन्मनि जन्मनीश्वरे, भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि, मुझे मुक्ति भी नहीं चाहिए मुझे जन्म देना है तो दीजिए लेकिन हर जन्म में क्या हो ? मुझे भक्ति प्राप्त हो, जन्मनि जन्मनीश्वरे, ईश्वर के चरणों में, श्रीकृष्ण के श्री चरणों में मुझे भक्ति प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना श्री चैतन्य महाप्रभु ने की। यह शुद्ध भक्ति है किंतु यहां कृष्ण कह रहे हैं भाव शुद्ध नहीं होगा लेकिन मेरी ओर आ तो रहे हैं। इसीलिए अच्छा है हरि हरि ! “लॉर्ड ! गिव अस डेली ब्रेड” ईसाई लोग कहते हैं भगवान के पास जाते हैं और प्रार्थना करते हैं हमको ब्रेड मिले हमारे खानपान की व्यवस्था हो, हमारा मेंटेनेंस रोटी कपड़ा मकान भगवान हमको प्राप्त हो, ओ लार्ड ! गिव अस डेली ब्रेड यह शुद्ध भक्ति नहीं है लेकिन अच्छा है हम भगवान के पास तो जा रहे हैं। सो दैट, वेलकम ! श्रील प्रभुपाद हमको कह रहे हैं भगवान से कभी प्रार्थना या निवेदन नहीं करना चाहिए हे कन्हैया हमको ब्रेड दे दो भोजन दे दो उल्टे श्रील प्रभुपाद कह रहे थे यह प्रसिद्ध बात है यशोदा कृष्ण को ब्रेड देती है कृष्ण को खिलाती है उल्टा हुआ ना इसाई लोग या कई लोग अपने स्वयं के ब्रेड के लिए कि, मुझे भोजन मिले या मुझे यह प्राप्त हो या वह प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना करते हैं। लेकिन बृज के भक्त, बृज की भक्ति सर्वोपरि है यशोदा कृष्ण को खिलाती है और समय पर नहीं आता खाने के लिए, तो खोजने जाती है कहां है? कब से खेल रहे हो ,रुक जाओ ,चलो तुम्हारी पिताश्री राह देख रहे हैं बलदेव सखा ऐसे बलदेव और सारे सखा सभी पंक्ति में बैठते हैं और यशोदा सभी को खिलाती है। कृष्ण के मित्र भी आ गए तो पार्टी हो जाती है। एक तो भगवान के पास आना ही नहीं किसी स्थिति में, सुख हो या दुख हो या कुछ भी हो, हरि नाम करो, ऐसे भी कुछ लोग हैं बल्कि अधिकतर ऐसे ही हैं।
*न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः । माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ||*
(श्रीमद भगवद्गीता ७. १५||
अनुवाद- जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |
सातवें अध्याय में भगवत गीता में लिखा है। दो वचन अगल-बगल में हैं एक में चतुर्विधा भजन्ते मां, चार प्रकार के लोग जो मेरा भजन करते हैं मेरी और आते हैं मेरी शरण लेते हैं उनका उल्लेख है और उससे पहले का जो श्लोक है चार प्रकार के लोग जो मेरी ओर नहीं आते न मां दुष्कृतिनो मूढाः तरह एक प्रकार हुआ दुश्मनों का और दूसरा प्रकार “सुकृतिनो” और ‘दुष्कृतिनो” हरि हरि !
*बहुत सुकृतांची जोडी म्हणुनी विठ्ठल आवडी* एक मराठी अभंग भी है इसमें कहा है एक अच्छा सु कृत्य किया अच्छा सही कार्य किया भगवान को प्रसन्न करने के लिए, इसका परिणाम क्या निकलेगा म्हणुनी विठ्ठल आवडी, विट्ठल में रुचि और प्रेम उत्पन्न होगा। एक तो दुष्ट है और दूसरे सज्जन हैं ऐसे दो प्रकार के लोग इस संसार में होते हैं एक सुर पार्टी होती है और एक असुर पार्टी होती है लेकिन फिर सुर पार्टी जो है उसमें भी दो प्रकार हैं एक मिश्र भक्ति होती है उनकी कुछ खुद के लिए डिमांड या मांग होती है अभी भी बोडिली कांसेप्ट चल रहा है अभी भी कुछ उपाधियों में फंसे हैं। ओफ़्कौर्से, सर्वोपरि तो शुद्ध भक्ति ही है।
*शुद्ध भकत-चरण-रेणु, भजन अनुकूल। भकत-सेवा, परम-सिद्धि प्रेमलतिकार मूल* ।।1।।
अनुवाद – शुद्ध भक्तों की चरणधूलि भक्ति के अनुकूल है और वैष्णवों की सेवा परम सिद्धि तथा दिव्य प्रेम रूपी कोमल लता की मूल है।
फिर हम शुद्ध भक्तों के चरण रेणू अपने सर पर धारण करेंगे श्रील प्रभुपाद जैसे *महाजनो येन गतः स पन्थाः*
*तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नम्। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥*
अनुवाद- श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “शुष्क तर्क में निर्णय का अभाव होता है। जिस महापुरुष का मत अन्यों से भिन्न नहीं होता, उसे महान् ऋषि नहीं माना जाता। केवल विभिन्न वेदों के अध्ययन से कोई सही मार्ग पर नहीं आ सकता, जिससे धार्मिक सिद्धान्तों को समझा जाता है। धार्मिक सिद्धान्तों का ठोस सत्य शुद्ध स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के हृदय में छिपा रहता है। फलस्वरूप, जैसाकि सारे शास्त्र पुष्टि करते हैं, मनुष्य को महाजनों द्वारा बतलाये गये प्रगतिशील पथ पर ही चलना चाहिए।”
जो महाजनों ने मार्ग दिखाया है उसको सुनेंगे समझेंगे फिर हम शुद्ध भक्ति करना प्रारंभ करेंगे। जब
*चेतोदर्पण-मार्जनं भव-महादावाग्नि निर्वापणं श्रेय:कैरव-चंद्रिका-वितरणं विद्यावधू जीवनम् । आनन्दाम्बुधि-वर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्।।* (शिक्षाष्टकम-1)
अर्थ: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो हमारे चित्त में वर्षों से संचित मल को साफ करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी महाग्नि को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तनयज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन (पति) है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमें नित्य वांछित पूर्णामृत का आस्वादन कराता है।
फिर शुद्धिकरण हुआ और फिर हम आनंद की ओर बढ़ेंगे या आनंद के सागर में गोते लगाएंगे जब हम शुद्ध भक्ति करेंगे। इसीलिए कहा भी है बृज के भक्तों की जो भक्ति है वैसे आज हमारी ब्रज मंडल परिक्रमा पार्टी जो है वह गोकुल में पहुंच चुकी है। ब्रह्मांड घाट, चिंता हरण घाट, उखल बंधन लीला, जहां संपन्न हुई उस स्थान पर पदयात्रा पार्टी पहुंचेगी और माखन मिश्री का वहां भोग लगेगा और माखन बाटेंगे, कुछ परिक्रमा के भक्त बंदर बन जाएंगे। बंदरों को भगवान ने माखन खिलाया था ना। अपना पेट भर लिया फिर औरों की भी याद आ गई अपने मित्रों की या इन बंदरों की उनको भी खिलाया। परिक्रमा के डेवोटीज़ आज वहां पहुंचेंगे उखल बंधन मतलब दामोदर लीला जहां हुई, कार्तिक मास में दीपावली के दिन और जहां यमल अर्जुन दो वृक्ष खड़े थे उनको जहां उखाड़ा भगवान ने और उसके कारण जो भी ब्रज में चहल-पहल, धूल या सर्वत्र धूल के बादल जैसे कोई दिखाई नहीं दे रहा था और सभी ऐसी परिस्थिति में भी श्रीकृष्ण का स्मरण कर रहे थे हरी हरी ! वेयर इज कृष्ण कृष्ण कहां है कृष्ण कहां है ? सबको स्मरण रहा वह सुरक्षित है यह दुर्घटना घटी यह जो बड़े वृक्ष जो हजारों वर्षों से वहां खड़े थे, नारद के एक श्राप से बने नलकुबेर और मणि ग्रीव् अब भगवान ने दीपावली के दिन दामोदर लीला के दिन उनको मुक्त किया और खूब भक्ति दी। इसीलिए हम दामोदर अष्टकम में प्रतिदिन गा रहे हैं।
*कुबेरात्मजौ बद्धमूत्यैव यद्वत् त्वयामोचितौ भक्तिभाजीकृतौ च। तथा प्रे भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह।।* (दामोदर अष्टकम -7)
अनुवाद -हे दामोदर! ऊखल से बँधे अपने शिशु रूप में आपने नारद द्वारा शापित दो कुवेर-पुत्रों को मुक्त करके उन्हें महान् भक्त बना दिया। इसी प्रकार कृपया मुझे भी अपनी शुद्ध प्रेमभक्ति प्रदान कीजिए। मैं केवल इसकी कामना करता हूँ और मुक्ति की कोई इच्छा नहीं करता।
कुबेरात्मजौ , जो कुबेर आत्मज है , यह दामोदर अष्टकम जहां आज ब्रज मंडल परिक्रमा पार्टी पहुंचेगी, उखल बंधन लीला उस पर यह लागू होती है। उसमें वे यह प्रार्थना करते हैं कि हम कुबेर आत्मज जो वृक्ष योनि में बद्ध थे, वृक्ष योनि में क्यों? क्योंकि जो वस्त्र नहीं पहनना चाहते , नंगे ही रहना पसंद करते हैं या बहुत कम वस्त्र पहनना चाहते हैं यह नहीं कि वह गरीब है लेकिन ऐसी बदमाशी या दुराचार ऐसा चलता रहता है उनका बॉटमलेस और टॉपलेस और पता नहीं क्या-क्या धंधे चलते रहते हैं और नाचते हैं। नंगा नाच मतलब नंगे लगभग प्रैक्टिकली और लिटरली और ऑलमोस्ट नो वस्त्र चल रहा है और यही सिनेमा वगैरह में भी चल रहा है जिसे हम देखते हैं या और पार्टी में तो जो वस्त्र नहीं पहनना चाहते हैं तब उनके लिए क्या होगा ? जैसे इन कुबेर आत्मजो का हुआ, नारद मुनि वहां से गुजर रहे थे आकाश मार्ग से यहां नलकुबर और मणि ग्रीव कुछ लड़कियों के साथ वहां के सरोवर में दे वीकम नेकेड एंड उनका जो भी खेल स्विमिंग, ऐसे नारद मुनि जी ने जब उनको देखा स्त्रियों के साथ । स्त्रियाँ तो लज्जित हुई और उन्होंने अपने वस्त्र पहन लिए ढक लिया उन्होंने अपने शरीर को, लेकिन यह दो नंग धड़ंग ही रहे मणि ग्रीव और नलकुबेर, यह जो दुराचार नारद मुनि ने देखा तब उन्होंने कहा तुम वृक्ष बनो। वृक्ष का क्या होता है उन्हें कोई वस्तु नहीं पहनना पड़ता। टेलर के पास नहीं जाते , स्टे नेकेड जो लोग जींस भी पहनते हैं कई व्यक्तियों को मैंने देखा पैंट में जींस में आधा छेद ही था हमने कहा कि थोड़ा बदली करो थोड़ा नया पेंट खरीद लो उसने कहा अभी अभी तो खरीदा है। दिस इज़ ब्रांड न्यू , आधा फाड़ के उसको पहन लेते हैं उनका भविष्य क्या है इस लीला से समझ सकते है दे बिकम द ट्री इन नेक्स्ट लाइफ, अगले जन्म में वृक्ष बनो। फिर उन्होंने क्षमा याचना वगैरह मांग ली नारद मुनि के चरणों में उन्होंने कहा ओके ओके ! श्राप तो दिया ही है इसलिए अभी वृक्ष बनना ही पड़ेगा किंतु तुम वृक्ष बनोगे नंद महाराज के कोर्ट यार्ड में और दीपावली के दिन दामोदर लीला के दिन भगवान ने उनका उद्धार किया। फिर हम प्रार्थना में कहते ही हैं जैसे आपने और कुबेर आत्मजो को मुक्त किया और प्रचुर मात्रा में उनको भक्ति दे दी ऐसा श्रीमद् भागवत10th कैंटो 10th चैप्टर दामोदर लीला में है
*वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोनः । स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥*
अनुवाद – अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा का श्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इन्द्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यों में लगें तथा हमारे मन सदैव आपके चरणकमलों का चिन्तन करें। हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कार करें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप हैं और हमारी आँखें आपसे अभिन्न वैष्णवों के रूपों का दर्शन करें।
श्री कृष्ण के साथ संवाद हो रहा है इन दो कुबेर के आत्मजो का अर्थात उनके पुत्रों का ऊखल के साथ बैठे हुए हैं और संवाद हो रहा है श्रवणौ कथायां तुम अपने कानों का प्रयोग कथा के श्रवण में करोगे हस्तौ च कर्मसु , अपने हाथों का उपयोग भगवान की सेवा में करो, मनस्तव पादयोनः और मन का उपयोग, मन को सेवा में लगा दो भगवान के चरण कमलों का स्मरण करने में स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे, मुझे प्रणाम करने के लिए अपने सर का उपयोग करोगे दर्शनेऽस्तु और देखो क्या कह रहे हैं तुम अपनी दृष्टि का उपयोग संतो के दर्शन भक्तों के दर्शन में करो अपनी आंखों का उपयोग भवत्तनूनाम् , सब भक्तों को तनु मेरा ही रूप है वह मुझसे अभिन्न है मेरा ही प्रतिनिधित्व करते हैं
*साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रैउक्तस्तथा भाव्यत एव सद्भिः। किंतु प्रभोर्य: प्रिय एव तस्य वंदे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।* (गुरुअष्टक7)
अनुवाद – समस्त शास्त्र स्वीकार करते हैं कि श्रीगुरु में भगवान् श्रीहरि के समस्त गुण विद्यमान रहते हैं और महान् सन्त भी उन्हें इसी रूप में स्वीकार करते हैं। किन्तु वास्तव में वे भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
उनको साक्षाद्धरित्वेन कहा है। ऐसे संतों का दर्शन करो वैसे संतों का दर्शन आंखों से भी होता है लेकिन हम जब संतो के दर्शन के लिए जाते हैं तो उनके द्वारा कही हुई जो वाणी है वही दर्शन है उनके द्वारा कही हुई वाणी जो हम सुनते हैं तब कृष्ण का दर्शन हमें होने लगता है या संत महात्मा हमको दृष्टि देते हैं ताकि हम दर्शन करें। इसीलिए संतो के संबंध में कहा है यह प्रार्थना है।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:।।*
अर्थ – मैं घोर अज्ञान के अन्धकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आखें खोल दीं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
हमारी आंखें खोलते हैं हमारी आंखों का ऑपरेशन गुरुजन करते हैं ताकि हम भगवान का दर्शन कर सकें जब आत्मसाक्षात्कार भगवत साक्षात्कार संभव होगा। कृष्ण नलकुबेर और मणि ग्रीव को रिकमेंडेशन कर रहे हैं समदर्शनी भक्तों के दर्शन में और उनकी तनु मेरी तनु एक ही है हरि हरि ! परिक्रमा पार्टी आज बेसिकली गोकुल में है। गोकुल में नंद भवन का दर्शन करेंगे, लाला का दर्शन और वहां कन्हैयालाल को झूले में बिठाया है। हम दर्शन के लिए जब जाते हैं तब हम झूला झूलाते हैं। ऐसे वहां के जो पुजारी हैं ऐसा सभी से करवाते हैं और आप जब झूला झूलाते हो तो आपको हंसना पड़ता है हा हा ! हंसो अपना हर्ष व्यक्त करो।
हां रामप्रसाद जी कर रहे हो रोना बंद करो अभी हंसो, हंसने के दिन आ गए। माया रुलाती है कृष्ण हंसाते हैं। वहां कृष्ण के समक्ष जब नंद भवन में आते हैं वहां पूरा परिवार है कृष्ण बलराम नंद यशोदा के दर्शन हैं। नंद भवन में और 84 खंभे हैं। परिक्रमा भी चल रही है। ब्रजमंडल परिक्रमा कितने कोस की है ? 84 कोस और योनि कितनी है चौरासी लाख! फिर कहते हैं जो चौरासी कोस वाली परिक्रमा करते हैं और नंद भवन आकर जिस नंद भवन में 84 खंभे हैं वहां का दर्शन करते हैं फिर उन्हें चौरासी लाख योनियों में से, किसी भी योनि में प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं है। किसी भी योनि में, नॉट इवन डेमी गॉड या देवता बनने की भी आवश्यकता नहीं है। वह तो कुछ भी नहीं है देवता की या इंद्र गोप, एक जंतु होता है उसको इंद्र गोप्स कहते हैं सबसे सूक्ष्म इंद्र गोप से इंद्र तक अलग अलग पदवियाँ या शरीर प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसमें प्रवेश नहीं कराया जाएगा
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥* (श्रीमद भगवद्गीता ४.९॥
अनुवाद- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
ऐसा व्यक्ति भगवान को प्राप्त होगा। भगवान के धाम को लौटेगा भगवान की लीला में प्रवेश करेगा हरि हरि! ठीक है अब हम इसे यहीं विराम देते हैं।
निताई गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल!
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जप चर्चा
दिनांक 16 नवंबर 2021
हरि हरि!!
आप सब लोग सुन ही रहे हो,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो आप लोग जप करते रहिए। श्रवण: कीर्तन जले कर: शेचन, इस प्रकार आपको याद भी दिलाया जाता है।
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु-कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति-लता बीज।।
ये सब आप लोग जानते हो या कई बार सुन रखा है। भक्ति-लता बीज! आपको प्राप्त हो चुका है या आप लोग तैयारी में हो कि आपको भक्ति-लता बीज का रोपण हो या दीक्षा के समय औपचारिक रुप से उसका रोपण होता है और फिर आपकी जिम्मेदारी बनती है की उस बीज की रखवाली करे और बीज को बीज ना रखे, बीज अंकुरित हो, फिर वृक्ष बने और फल भी लगे। तो इसके लिए किस की जरूरत है।
श्रवण: कीर्तन जले कर: शेचन, ऐसा बंगला भाषा में कहा गया है। तो ये बहुत अधिक महत्वपूर्ण है, हरेर नामैव केवलम! भी कहा ही है। नाम नाचे जीव नाचे, नाचे प्रेम धन! तो इस प्रकार जब हम अभ्यास करते रहेंगे, अभ्यास मनुष्य को पूर्ण बनाता है, साधना से सिद्ध होगे हम, तो फिर उसका लक्ष्य क्या है? नाम नाचे जीव नाचे, नाचे प्रेम धन!
नाम नाचने लगेगा, नाम नाचेगा मतलब नाम भगवान है। अभिन्नत्वा नाम नामिनो, नाम और भगवान अभिन्न है। नाम नाचे, मतलब भगवान हमारी जिह्वा पे नाचने लगेगे और जीव नाचे, और हम लोग भी भगवान के साथ नाचने लगेगे। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे की हमारा लक्ष्य है कि हम लोग राधा कृष्ण की रास क्रीड़ा या माधुर्य लीला या व्रज लीला में प्रवेश कर के इस व्रज लीला या व्रज धाम का अनुभव करे। हरि हरि!
तो यहां सोलापुर में कुछ दिनों से उत्सव संपन्न हो रहा था और आज प्रातः कालीन मंगला आरती के साथ राधा दामोदर की पहली मंगला आरती हुई। और में सोचता हूं इसी के साथ इस उत्सव का समापन हो रहा है। तो ये उत्सव यशस्वी रहा और भगवान प्रकट हुए तो अब हमे भगवान की सेवा करनी है। कृष्ण ने भगवद गीता में कहा है, मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। गीता के अंत में भगवान ने कहा कि है अर्जुन अब में तुमको गुह्यतम बात कहूंगा। भगवान ने कुछ गुह्य बाते कही, कुछ गुह्यतर बाते कही और अब में तुमको गुह्यतम बात कहूंगा। ऐसा कह कर फिर भगवान ने कहा,
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।
तो जब भगवान के विग्रह प्रकट होते है तो फिर ये करना ’मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु’ आसन होता है।
भगवान बहुत सुंदर है। मन्मना भव मद्भक्तो, सदैव मेरा चिंतन करो और मेरे भक्त बनो। मद्याजी, मेरी आराधना करो।
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ।
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥
तो फिर आराधना करो, विग्रह ही भगवान है और आज सुबह ही मंगला आरती में जब में श्रोताओं को संबोधित कर रहा था तो मेने कहा कि विग्रह की आराधना करने से पाप नष्ट हो जाते है। मां नमस्कुरु, मुझे नमस्कार करो। भगवान को नमस्कार करना भी सिखाए श्रील प्रभुपाद। जैसे ही हम लोग मंदिर में प्रवेश करते है तो विग्रह देखते ही हम लोग नमस्कार करते है। विग्रह को देखते ही, ओह कृष्ण यहां है, सर्व कारण कारणम, हम लोग कृष्णभावना भावित हो जाते है। तो हम नमस्कार करते है और बारंबार नमस्कार करते है। कई बार लोग मंदिर में आते है और विग्रह को नमस्कार नही करते है, उनको अनदेखा कर देते है। बस अपने परिवार को देखते रहते है और अपनी ही कुछ गपशप या राम कथा करते रहते है।
तो विग्रह के प्राकट्य से ये आसन होता है, मन्मना,मेरा चिंतन करो, मद्भक्तो, मेरे भक्त बन जाओ, मद्याजी, मेरी आराधना करो, नमस्कुरु, मुझे नमस्कार करो। श्री कृष्ण करुणा सिंधू या करुणा निधान, तो भगवान विग्रह के रुप में प्रकट हो कर तुमको अपना सानिध्य या अपनी सेवा प्रदान करते है। या तुमको अपने धाम ले जाने के लिए भगवान प्रकट होते है। विग्रह के रूप में प्रकट हो कर जो छप्पर फाड़ के भगवान हम लोगो को अपनी कृपा दे रहे है तो हमे उनकी कृपा का पात्र होना चाहिए। तो आज हम यही विराम देते है।
निताई गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल।।
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जप चर्चा
सोलापुर धाम से,
15 नवंबर 2021
जैसा कि आपने आज सुन भी लिया और आप जानते ही हो कि आज चतुर्मास का एक गणना के अनुसार समापन ही हैं,चातुर्मास अगर शयनी एकादशी को प्रारंभ करते हैं तो आज हैं उत्थान एकादशी,शयनी मतलब विश्राम, सोना और उत्थान मतलब उठना। आज के दिन भगवान जग रहे हैं। यहां जहां आज हम हैं, कहां हैं?ब्रज धाम में। इस्कॉन सोलापुर का नामकरण हुआ हैं और अब इसे ब्रजधाम कहते हैं। तो हम आज ब्रज धाम में हैं। ब्रज धाम में आज राधा दामोदर प्रकट हो रहे हैं या प्रकट हो चुके हैं।
भगवान राधा दामोदर की जय। पता नहीं आपने देखा या नहीं कि भगवान प्रकट हो चुके हैं, सुना तो था आपने कि नेत्र मिलन होने वाला हैं और हो भी गया और उत्थान एकादशी पर जगने वाले भगवान आज यहां राधा दामोदर के रूप में प्रकट होकर दर्शन दे रहे हैं।कल सायंकाल में नेत्र उनमिलन हुआ। नेत्र + मिलन इसका अर्थ समझते हो ना? नेत्र उन मिलन अर्थात भगवान के विग्रह ने आंखें खोली। सर्वप्रथम भगवान ने जो भी वहां उपस्थित भाग्यवान जीव थे उनको देखा और भक्तों ने भी भगवान को देखा। नेत्र उन मिलन के साथ मिलन भी हुआ। आंखों का हो गया उनमिलन, ओपनिंग ऑफ़ आइस। उसी के साथ जो जीव उपस्थित थे उनका परमात्मा के साथ मिलन और परमात्मा ही नहीं, भगवान के साथ मिलन। भगवान का मिलन भक्तों के साथ हुआ। विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा मतलब, हमें समझना चाहिए कि भगवान का अवतार हुआ।भगवान अवतरित हो गए।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || 8||(भगवद्गीता 4.8)
यहां इस्कॉन मैं युगे युगे क्या,भगवान दिने दिने प्रकट होते हैं। हर दिन नहीं तो हर सप्ताह या हर महीने मे कहीं ना कहीं भगवान की प्राणप्रतिष्ठा संपन्न होती रहती हैं। अभी यहां हुआ हैं, तो कुछ दिनों के बाद युगांडा में होने वाला हैं और हमें निमंत्रण आ गया कि नित्यानंद त्रयोदशी के दिन भगवान कोल्हापुर में प्रकट होने वाले हैं और हर बार सारे समाचार तो हम तक भी नहीं पहुंचते। पूरे विश्व भर में भगवान प्रकट होते रहते हैं और केवल भारत में नहीं पूरे विश्व में उनके जीव, उनके अंश,उनके दास तो सर्वत्र हैं। तो वहां वहां भी प्रकट होकर भगवान क्या करेंगे? संतों की, भक्तों की रक्षा करेंगे। भगवान शरणागत के पालक हैं।
शरणागत वत्सल हैं। उनकी रक्षा करेंगे। उनको सेवा का अवसर देंगे। हरि हरि और नेत्र उनमिलन के उपरांत यह मैं अपने अनुभव की बात बता रहा हूं, मुझे विश्वास हैं कि और सभी ने भी यह अनुभव किया होगा।जो यहां उपस्थित थे या जो ऑनलाइन देख रहे थे, तो नेत्र उनमिलन के उपरांत शयन अधिवास हुआ। भगवान का शयन हुआ। भगवान के लिए बिस्तर या बैड तैयार था और बड़े विग्रह राधा दामोदर वहां लेट गए। कृष्ण लेट गए, राधा रानी लेट गई और बहुत ही मंगलमय वातावरण हो गया। भक्त सुमधुर कीर्तन गा रहे थे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। कुछ रात्रि दीपक भी जलाए थे।वहां भगवान के लिए मच्छरदानी भी थी और हमने तो बेड रखा था।वैसे बेड में भी भगवान नंद ग्राम में विश्राम करते होंगे, लेकिन यह शयन जो हमने देखा यह तो जब भगवान कुंजो में निवास करते हैं और फिर लीला भी खेलते हैं, कुंज बिहारी भगवान रास लीला खेलते हैं। फिर उसके उपरांत किशोर किशोरी विश्राम करते हैं।
लाडली और लाल विश्राम करते हैं। तो कल जो दृश्य हमने देखा,उसमें वृक्ष भी थे और लताएं भी थी। कई सारे पुष्प खिले थे और जरूर देवता भी उस दृश्य का दर्शन करने के लिए वहां पहुंचे होंगे या फिर देवताओं के लिए भी जो दुर्लभ दर्शन हैं वैसे दर्शन का लाभ हमें हुआ और इस्कॉन के कई सारे वरिष्ठ भक्त, सन्यासी, जीबीसी और अधिकाधिक भक्तगण उपस्थित थे और इस दर्शन का अवसर जनता को दिया गया और बहुत समय के लिए लोग कतार में खड़े हुए थे और कुछ छोटे-छोटे समूह में आकर वह दर्शन कर रहे थे और ऐसा दर्शन जीवन में एक ही बार होने वाला हैं। प्रतिदिन का यह दर्शन नहीं हैं। यह शयन अधिवास का दर्शन, प्रतिदिन होने वाला नहीं हैं। भगवान को हम प्रतिदिन वेदी पर विद्यमान देखते हैं। राधा गोविंद को,अष्ट सखियों को हम प्रतिदिन खड़े हुए देखते हैं। राधा गोविंद देव की जय। अष्ट सखियों की जय और उनकी आरती उतारते हैं, लेकिन कल हमने भगवान को बेड में देखा। बेड में यानी बिस्तर में लेटे हुए थे,तो यह दर्शन दुर्लभ दर्शन हैं। भगवान ने कल ब्रजधाम इस्काॅन सोलापुर में यह दुर्लभ दर्शन कराए और हम धन्य हुए और कई सारे जीवो को भगवान ने भाग्यवान बनाया। एक तो हम भक्तों के संपर्क में आते हैं
brahmāṇḍa bhramite kona bhāgyavān jīva
guru-kṛṣṇa-prasāde pāya bhakti-latā-bīja
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.151)
और कल जो भाग्य का उदय हुआ, भगवान ने जो जीवो को भाग्यवान बनाया वह तो अति दुर्लभ हैं। आप सभी को भगवान ने ऐसा दर्शन दिया। भगवान दर्शन तो देते हैं, लेकिन हम कितना ले पाते हैं यह हमारे खुद पर निर्भर करता हैं या हमारी शरणागति पर निर्भर करता हैं। अब मुझे रुकना होगा। भगवान दोबारा बुला रहे हैं। हमारे मध्य में रेवतीरमन प्रभु और राधेश्याम प्रभु हैं। अब उनसे सुनिए।हरे कृष्णा।
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सोलापुर धाम से
14 नवंबर 2021
हरे कृष्ण ! आज 584 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। आज हम जल्दी प्रारंभ कर रहे है। जल्दी प्रारंभ कर के हम जल्दी ही समाप्त करेंगे। हम सोलापुर पहुंच चुके है। आप जानते हो? राधा दामोदर पहुंच रहे है। राधा दामोदर मार्ग में है। राधा दामोदर की जय। कल प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव के दो दिन है। आपको यह सूचना मिली ही होगी। आप टाइम टेबल के अनुसार देखिए और सुनिए। इस समारोह को आप ऑनलाइन देख सकते हैं। हमारी टीम आश्वासन दे रही कि दूरदर्शन होगा। दूर से आप दर्शन कर पाओगे, देख और सुन पाओगे। जैसे धृतराष्ट्र देख रहे थे वैसे आप अंधे नहीं हो। इतने तो आप समर्थ हो कुरुक्षेत्र पहुंचने में जो भी कारण है आप यहां सोलापुर में नहीं रहोगे। आप जहां भी हो वहां से समारोह का आनंद उठा सकते हो। याद रखिए और फुर्सत निकाल के प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव का अंग बनिए और आनंद उठाइए। रशिया में कुछ हो रहा है।
आरती उतार रहे हैं। वैसे विधि विधान कल से प्रारंभ हुए हैं। व्यास होम संपन्न हुआ। उसमें हम अनुभव कर रहे थे कि धाम की स्थापना, वैकुंठ की स्थापना हुई। जैसे राधा ने ही कहा था। मैं वहां नहीं जाऊंगी जहां वृंदावन नहीं है, जहां गोवर्धन नहीं है, जहां यमुना नहीं बहती है। राधा दामोदर वैसे जो राधा रानी ने उनको कहा होगा कि मैं सोलापुर नहीं जाऊंगी। अगर वहां वैकुंठ नहीं है, वहां गोलोक नहीं है। कल हमारे सक्षम पुरोहितों ने एक प्रकार से धाम की स्थापना की और यह सब मंत्र उच्चारण के साथ होता है। शब्द से ही रूप बनते हैं। शब्द स्पर्श रूप रस गंध। शब्दों का उच्चारण हो रहा था। मंत्रों का उच्चारण हो रहा था। उसी के साथ स्थापना हो रही थी। हमारे पुरोहित समझा रहे थे कि मंडल बनाया भी है। जिसको हम देख भी पा रहे थे। उसके चार द्वार थे। पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर। पूर्व द्वार ही होगा जिसमें जय विजय द्वारपाल है।
प्रवेश द्वार पर और अलग-अलग नाम के द्वारपाल है। दो दो द्वारपाल हैं चारों द्वारों पर है। पुरोहित समझा रहे थे या मंत्रों के साथ जो वैकुंठ की स्थापना हो रही थी। स्थापना ही कहो। तो वह कह रहे थे कि जैसे आप यहां सोलापुर में दर्शन मंडप में देख रहे हो वैकुंठ। जैसा वहां है वैकुंठ वैसे ही आप भी यहां पर देख रहे हो, स्थापना हो रही है। तो विशेष अनुभव रहा। मेरे पास शब्द नहीं है कहने के लिए। अंत: चक्षु से कुछ दर्शन कर रहे थे। जैसे जैसे मंत्रों का उच्चारण करते गए और समझाते गए। यह वैकुंठ है, यह द्वार है, यह द्वारपाल हैं और फिर भागवतम की भी स्थापना हुई कलश के रूप में। कई महाजनों की नवग्रह स्थापना के स्थान पर हम गौडीय वैष्णव नवग्रह की बजाए नवयोगेंद्र की उपासना करते हैं। जैसे सनातन गोस्वामी हरीभक्ति विलास में समझाएं हैं।
हरीभक्ति विलास स्त्रोत और एक आधार ग्रंथ है। जब यह अर्चना पद्धति टेक्निकल मंत्र यंत्र और तंत्र होते हैं। मंत्र के साथ तंत्र भी होते हैं और उसके यंत्र भी होते हैं। एक प्रकार से प्राण प्रतिष्ठा विधि प्रारंभ हो चुकी है और हम आज आगे बढ़ेंगे। आज विग्रह को ऑल्टर तक पहुंचाया जाएगा। नेत्रों उनमिलन एक विशेष घटना घटने वाली है। बहुत कुछ होगा लेकिन अंततोगत्वा भगवान विग्रह अपनी आंखें पहली बार खोलेंगे। हरि बोल। ऐसे प्राण सारी इंद्रियों को जागते हैं या स्थापित करते हैं। भगवान के विग्रह के जो अलग-अलग अंग है, अवयव है , मंत्र तंत्र के साथ यह एक स्पेशल टेक्नोलॉजी है। तो प्राण प्रतिष्ठा मंत्रों के साथ विधिपूर्वक सभी अंगों में प्राण और अंततोगत्वा आंखों में जान या प्राण, फिर विग्रह अपनी आंखें खोलेंगे। वह देखेंगे कि सभी उपस्थित भक्तों के ऊपर उनकी कृपा दृष्टि पड़ेगी। भक्त भी भगवान का दर्शन करेंगे ही। यह नहीं समझना कि भगवान का दर्शन करते हैं ऐसी बात नहीं है। भगवान स्वयं भी हमारा दर्शन करते हैं। हम को देखते हैं, हमारे ऊपर कृपा की दृष्टि से वृष्टि करते हैं। मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। लगभग 5:30 बजे यह कार्यक्रम संपन्न होगा। आप डिटेल्स देख सकते हैं, प्रकाशित हो चुका है। 6:20 बजे पर नेत्र उनमिलन होगा ।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम: ॥
वहां पर है उनमिलन शब्द आता है। गुरुजन आंखे देते हैं ,दृष्टि देते हैं और आंखें खोलते हैं। आज नेत्र उनमिलन उत्सव होगा। इसको नेत्र उत्सव भी कहिए। हमारे नेत्रों के लिए उत्सव होगा। भगवान का दर्शन यह हमारी आंखों के लिए उत्सव है और फिर अंततोगत्वा शयन आदिवास कहते हैं। भगवान राधा दामोदर का शयन आदिवास, उनको बिस्तर पर लिटाया जाता है। एक बिस्तर होगा, मच्छरदानी भी होगी, नाइट लैंप भी होगा, कई सुगंधित द्रव्य और पुष्प वहां पर रखे जाएंगे। राधा और दामोदर विश्राम करेंगे। भक्त भगवान के शयन के समय गान करेंगे, वाद्य बजेंगे। वह भी एक अनोखा अनुभव है या जैसे गोलोक पर प्रतिदिन भगवान विश्राम करते हैं। वही अनुभव पृथ्वी पर होगा। प्राण प्रतिष्ठा जब होती है तब शयन आदिवास में यह अनुभव विधिवत कराया जाता है और यह तो बात है कि जैसे कल की जो विधि हुई। वह भी कोई काल्पनिक नहीं थी। वैकुंठ जैसा है वैसे के वैसा उसको मंत्रों में वर्णन है शास्त्रों में उल्लेखित है। यह किसी के मनगढ़ंत बात नहीं है। एक भी अक्षर मनगढ़ंत नहीं है। जैसा है वैसा ही उसका वर्णन शास्त्रों में आता है।
शास्त्र में दी हुई विधि के अनुसार ही उसका उच्चारण मंत्र तंत्र होते हैं तो उसी की तरह भगवान विश्राम करते हैं। कैसे यशोदा सुलाती हैं। कृष्ण को नंदग्राम में और दोनों साथ में है तो विश्राम करते हैं या तो नंद भवन में विश्राम होता है या कहीं निकुंजो में वह रात्रि के समय रात्रि के लीला के अंत में विश्राम करते हैं या सेवा कुंज में वृंदावन में प्रतिदिन रासक्रिडा संपन्न होती है। वह थोड़े थक जाते हैं तो विश्राम कर लेते हैं वैसा ही इसका सारा वर्णन उपलब्ध है। उसी के अनुसार यह सारी प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव के अंतर्गत यह विधि विधान यहां संपन्न हो रहे हैं। उसका साक्षी होना या उसका अंग बन जाना या उसका आईविटनेस बनना। हमारा शुद्धीकरण भी हो रहा है। हम देख रहे हैं। सभी को भक्त ही कहना होगा। सभी भक्त जो उपस्थित थे निश्चित ही और कहीं नहीं थे। केवल वही थे जहां अनुष्ठान संपन्न हो रहा था बड़े गौर से देख और सुन रहे थे। देखने और सुनने की चीज थी।
श्रद्धा पूर्वक देख और सुन रहे थे। आज परिक्रमा लोहवन से दाऊजी जा रही है। दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया। इस क्षेत्र में पहुंचते ही यह कहा जाता है। यहां पर राधे-राधे कम बोला जाता है। दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया, दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया। अगर कोई यह नहीं कहता तो उसको विदेशी समझा जाता है कि यह बाहर से आया है। इसको यहां की संस्कृति पता नहीं है। फिर हर व्यक्ति यह सीख लेता है और संस्कृति को आगे फैलाता है, दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया। परिक्रमा में लोहवन 11वा वन है। जो द्वादश वन है उसका नाम महावन है। 12वे वन में आज परिक्रमा पहुंच रही है। 13वा कोई वन नहीं है।
दाऊजी नाम का ग्राम ही है। यहां पर दाऊजी के विग्रह है। जन को बलदेव कहते हैं। गोकुल में दाऊजी या बलदेव, वृंदावन में गोविंद देव, मथुरा में केशव देव, गोवर्धन में हरिदेव । इन देवो के विग्रह की स्थापना व्रजनाभ ने 5000 वर्ष पूर्व की थी। यह प्राचीन विग्रहों में दाऊजी के विग्रह उनके बगल में नहीं उनके सामने में रेवती माता खड़ी है। बलदेव जी का दर्शन तो सामने से होता है परंतु रेवती के दर्शन के लिए हमको बगल के दरवाजे से जाना होता है आप रेवती को देख सकते हो। जो सदैव बलराम को देख रही है जो हमेशा बलदेव की सेवा के लिए तैयार रहती हैं। वहां प्रसिद्ध संकर्षण कुंड है और कहीं भी सारे दर्शनीय स्थल हैं। जय बलराम। बलराम आप सबको जल्द ही बल दे दे। आत्मा परमात्मा की प्राप्ति बल हीन होकर नहीं कर सकते, तो क्या दंड बैठक कसरत करनी चाहिए तो बल आजाएगा और हम भगवान को देख सकते हैं । वो बल नहीं शारीरिक काम का नहीं है ।
ये आध्यात्मिक बल चाहिए तो आध्यात्मिक बलराम से प्राप्त होता है । वे बलराम, बलवान बलराम जो स्वयं को आराम दे सकते हैं बल और राम बल- आराम या रमती- रमयती च या रमाते हैं बलराम सभी जीवो को । ये बलराम कृष्ण ही है । कृष्ण और बलराम अभिन्न है । एक सफेद वर्ण के हैं, शुक्ल है भगवान के I यह केवल वर्ण का ही भेद है । दोनों अलग अलग व्यक्तित्व तो है किंतु भगवता की दृष्टि से ये दोनों समकक्ष है लगभग या प्रभुपाद कहीं लिखते हैं 98% मतलब 19/20 का फर्क है परंतु कोई फर्क नहीं है कृष्ण बलराम में । श्रील प्रभुपाद हमको वृंदावन में कृष्ण बलराम भी यह दोनों साथ में रहते हैं सदैव कृष्ण बलराम । जय बलदेव की ! उसमें तो होता रहता ही है समय पर रुकता नहीं । बस समय है, समय कहीं आता जाता नहीं है समय ही भगवान है । भगवान वैसे “कालोस्मी” मूल्यवान रहते ही हैं वैसे भी काल ही है, समय ही है तो अच्छा है कि हम समय के साथ रहे । समय के साथ या समय का उपयोग भगवान के सेवा में करे । हर समय भगवान की सेवा में रहे । समय भगवान है मतलब भगवान के साथ रहेंगे । वैसे समझ रहे हो क्या क्या कहा जा रहा है तो कृष्ण के साथ रहो रात और दिन और समय का सदुपयोग करो कृष्ण के सेवा के लिए । हरि हरि !! तो आज गौरकिशोर बाबा जी महाराज की जय ! कार्तिक का और एक विशेष उत्सव गौरकिशोर बाबा जी महाराज तिरोभाव तिथि महोत्सव है आज ।
नमो गौर-किशोराय साक्षाद्वैराग्य मूर्तये ।
विप्रलंभ-रसांबोधे पादांबुजाय ते नमः ॥
इस प्रकार हम उनका प्रणाम मंत्र कहते हैं । और उस प्रणाम मंत्र में भी उनके चरित्र का वर्णन हो जाता है । संक्षिप्त में और सारे रूप में उस प्रणाम मंत्र में गौरकिशोर बाबा जी महाराज के प्रणाम मंत्र में गौरकिशोर बाबा जी महाराज का परिचय । कहिए “नमो गौर-किशोराय साक्षाद्वैराग्य मूर्तये ।
विप्रलंभ-रसांबोधे पादांबुजाय ते नमः ॥” “पादांबुजाय ते नमः” आपके चरण कमलों में “पादांबुजाय ते नमः” आपके चरण कमलों में हमारा अभिवादन नमस्कार स्वीकार करे । गौरकिशोर दास बाबा जी महाराज वैसे बंगाल साइड के ही थे । एक समय वे विवाहित थे । ज्यादा कुछ रुचि नहीं लेते थे परिवार में और घरेलू कार्य में । यह अच्छी बात है ? अब सब कहोगे यह तो अच्छी बात नहीं है हम तो लेते हैं रुचि । लेना चाहिए कर्तव्य है । लेकिन इनको ज्यादा रूचि नहीं हुआ करती थी पारिवारिक में तो भगवान ने फिर ऐसी व्यवस्था भी की धर्मपत्नी ही नहीं रही तो पत्नी के मृत्यु के उपरांत, आश्चर्य भी होता है वो सीधे वृंदावन पहुंच गए और वहां कुछ 30 वर्ष रहे वृंदावन में । अपना भजन पूजन करते हुए । ये भजनांदि थे, बाबाजी थे । बस अपने भजन में मस्त रहा करते थे और उनका भजन उच्च कोटि का भजन, उच्च विचार और भगवान के माधुर्य लीला का श्रवण, आस्वादन उसमें तल्लीन हो रहा करते थे तो वृंदावन में जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज हमारे परंपरा के विशेष आचार्य भक्ति विनोद ठाकुर के ठाकुर के शिक्षा गुरु जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज तो गौर किशोर बाबा जी महाराज, ध्यान से सुनिए । जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज के संपर्क में आए और उनसे शिक्षित हुए, तो भक्ति विनोद ठाकुर के वे शिक्षा गुरु थे जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज और गौर किशोर बाबा जी महाराज के दीक्षा गुरु तेज जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज ।
फिर आगे गौर किशोर बाबाजी महाराज यह समझ के की वृंदावन और नवद्वीप अभिन्न है तो वे नवद्वीप आए और अपने भजन को और आगे बढ़ाएं । उनके वैराग्य की कोई सीमा नहीं थी । दिमाग चक्रम होगा । अगर हम सुनेंगे समझेंगे कैसा वैराग्य उनका । लगभग कोई वस्त्र नहीं पहनते, बस लंगोटी पहनते । इनका और ये खासियत रही की कोई किसी से कोई भेंट वस्तु वे कभी स्वीकार नहीं करते । कोई भिक्षा मांग के चावल करते तो उसी को साफ करके थोड़ा उबाल के थोड़ा मिर्च और नमक डालकर उसी को ग्रहण करते । गंगा के तट पर गौरांग ! गौरांग ! गौरंग ! कहते हुए नृत्य करते तो अगले क्षण वहां वही गंगा के तट पर लेट जाते । लौटने लगते या उनका रसांमवुधे में गोते लगाते । उनके जीवनी पर लिखा है 1897 में वे नवद्वीप पहुंचे और उसके बाद 1898 में श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर के संपर्क में आए या श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर उनके संपर्क में आए या यह समझना होगा कि भक्ति विनोद ठाकुर के संपर्क मंद भी आए गौर किशोर बाबाजी तो गौर किशोर बाबा जी महाराज नवद्वीप में सर्वत्र भ्रमण करने वाले गंगा के तट पर । गौरंग ! गौरंग ! कहते हुए नाचने और दौड़ने वाले
हे राधे व्रजदेविके च ललिते हे नंद सूनो कुतः
श्री गोवर्धन कल्प पादपतले कालिंदी-वने कुतः ।
घोषंताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर् महा विह्वलौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ ॥
( श्री श्री षड्-गोस्वामी-अष्टक – 8)
अनुवाद:- मैं श्रील रूप- सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो ” हे व्रज की पूजनीय देवी , राधिके ! आप कहाँ हैं ? ललिते ! आप कहाँ हैं ? हे व्रजराजकुमार ! आप कहाँ हैं ? श्रीगोवर्धन के कल्पवृक्षों के नीचे बैठे हैं अथवा कालिन्दी के सुन्दर तटों पर स्थित वनों में भ्रमण कर रहे हैं ? ” इस प्रकार पुकारते हुए वे विरहजनित पीड़ाओं से महान् विह्वल होकर व्रजमण्डल में सर्वत्र भ्रमण करते थे ।
षड्-गोस्वामी वृंदो का वृंदावन में साधारणतः मन की स्थिति और भावों का स्तर गौर किशोर बाबा जी महाराज का रहा करता था तो वे गौर किशोर बाबाजी महाराज गोद रूम में आकर गोदृम द्वीप में आके श्रील भक्ति विनोद ठाकुर को मिला करते थे और भक्ति विनोद ठाकुर से भागवत कथा सुना करते थे और इसी प्रकार या भक्ति विनोद ठाकुर को उन्होंने अपना शिक्षा गुरु के रूप में स्वीकार किया तो गौर किशोर बाबा जी महाराज के दीक्षा गुरु थे भागवद् दास बाबा जी महाराज वृंदावन के और यहां नवद्वीप में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की शिक्षा शिष्य बने । ये लिखना पढ़ना नहीं जानते थे । हरि हरि !! तो भक्ति विनोद ठाकुर ने अपने पुत्र श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर / विमला प्रसाद को आदेश दिया तुम शिष्य बनो किसके ? गौर किशोर दास बाबा जी महाराज के तो श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर एक प्रकांड विद्वान रहे जिन्होंने सूर्य सिद्धांत का भी अध्ययन और प्रकाशन किया था और शास्त्रों का भी तो ऐसे विद्वान श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर को विनोद ठाकुर ने कहा इनके शिष्य बनो । गौर किशोर दास बाबा जी महाराज के शिष्य बनो जो निरीक्षर थे । वास्तविक में निरीक्षर थे । यह महत्वपूर्ण नहीं है । वेसे शिक्षा को, सुन तो रहे थे ही वो भी ऐसे नहीं कह सकते हम निरक्षर थे । कई सारे अक्षर वाक्य और बच्चन वे जानते ही थे । लिखना पढ़ना नहीं जानते थे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । एक समय, वैसे शास्त्र लिखे नहीं जाते थे और पढ़े भी नहीं जाते थे ऐसा भी समय था प्राचीन युग में । ये प्रिंटिंग प्रेस और किताब भौतिक रूप में रहा ही नहीं करते थे ।
बस इसको परंपरा में सुनो, समझो और परंपरा में सुनाओ । इस प्रकार ये सारा ज्ञान शास्त्र का परंपरा में पठन-पाठन हुआ करता था तो वे शिष्य भी अपनाना नहीं चाहते थे । किंतु अब हमारे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के पहले का नाम विमला प्रसाद अब वे तो हट लेके बैठे थे, नहीं नहीं ! मेरे पिता श्री ने कहा है आपसे दीक्षा लेनी है । तो वे कहते नहीं नहीं !! मैं थोड़ा कहते मैं भगवान से पूछूंगा महाप्रभु से पूछूंगा और समय के बाद, अब तो दीजिए मुझे दीक्षा आपने पूछ लिया ? नहीं नहीं !! भूल गया । महाप्रभु को पूछना भूल गया । वैसे टाल तो रहे थे लेकिन ये विमल प्रसाद उनका तो दृढ़ संकल्प था दीक्षा लेंगे तो इन्हीं से दीक्षा लेंगे । एक समय तो उन्होंने जब टाल रहे थे गौर किशोर बाबा जी महाराज इंकार कर रहे थे तो शरीर भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर बहुत गंभीर थे ।
उन्होंने कहा तो फिर मैं आत्महत्या कर लूंगा मैं अपनी जान ही लेता हूं । मैं कैसे जी सकता हूं आपके दीक्षा के बिना मैं जी नहीं सकता तो अंततोगत्वा बन गए शिष्य गौर किशोर दास बाबाजी महाराज के शिष्य बन गए श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर और वृषभानु ‘वार्षभानवी’ ऐसा नाम दिया ‘वार्षभानवी’ मतलब वृषभानु नंदिनी राधा रानी का ही नाम दिया । एक प्रणाम मंत्र में हम वो इसको कहते हैं । ‘दयिताय कृपाब्धये’ तो फिर आज के दिन नवद्वीप में गौर किशोर दास बाबाजी महाराज भगवान के नित्यलीला में नित्य लीला में प्रवेश किये । उनका तिरोभाव हुआ और कई सारी और बातें घटती है आज के दिन नवद्वीप में तो श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर चैतन्य मठ की जहां उन्होंने की स्थापना की थी वहां समाधि मंदिर मनाएं हो सकता है मुझे याद नहीं कि पहले और कहीं था और बाद में स्थानांतरित किए चैतन्य मठ में तो श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के कार्यालय जहां है नवद्वीप में आप जानते होंगे जहां श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की स्वयं की भी समाधि है । वही उसी कैंपस में गौर किशोर बाबा जी महाराज की समाधि है और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अपने गुरु महाराज को गोर किशोर बाबा जी महाराज की पुष्प समाधि वैसे राधा कुंड के तट पर जहां और एक गोडिय मठ स्थापना किए । श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर राधा कुंड के तट पर वहां भी गौर किशोर महाराज की पुष्प समाधि है । हरि हरि !!
जे आनिल प्रेम – धन करुणा प्रचुर ।
हेन प्रभु कोथा गेला गौर किशोर बाबाजी ठाकुर ॥
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
गौर किशोर बाबा जी महाराज की जय !
या गौर किशोर दास भी बैठे हैं आज हमारे समक्ष । हमने भी अपना एक शिष्य का नाम दिया गौर किशोर दास और आज के दिन मेरे साथ वे जप कर रहे हैं, ठीक है ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*सोलापुर धाम से*
*दिनांक 13 नवम्बर 2021*
हरे कृष्ण!!!
(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन।
(जय) यमुनातीर वनचारी॥
अर्थ
वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 612 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं।
एक ब्रज लीला धाम यह हुआ!हरिबोल!!!
आप सब का पुनः स्वागत है।आपका हर दिन अर्थात प्रतिदिन बार-बार स्वागत है( यू आर वेलकम अगेन एंड अगेन एवरीडे एंड डे आफ्टर डे)।
आप जानते हो कि मैं इस्कॉन सोलापुर पहुंचा हूँ क्योंकि यहां भगवान राधा दामोदर पहुंचने वाले हैं। हरिबोल! वे रास्ते में हैं। भगवान अपने धाम वृंदावन/ गोलोक से राधा दामोदर के विग्रह के रूप में सोलापुर में प्रकट होने जा रहे हैं। हरिबोल!! बस अब दो दिनों की देरी है। यहां सब तैयारियां है अथवा चल रही है। आज अराइवल डे (आगमन दिवस) भी है। कई सारे भक्त भिन्न-भिन्न स्थानों से यहां पधार रहे हैं। ऑल ओवर महाराष्ट्र या पूरे भारत व कई सारे इस्कॉन के लीडर्स गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज, महामन प्रभु, रेवती रमन तिरुपति से, हमारे जी.बी.सी. देवकीनंदन प्रभु कानपुर नॉर्थ इंडिया से , गौरंग दास ब्रह्मचारी, गोवर्धन इको विलेज से, जूहू मुंबई से ब्रजधारी प्रभु की भी पहुंचने की सम्भावना है। इस तरह से बहुत लंबी सूची है। सबके आगमन की प्रतीक्षा है। उज्जैन से भी भक्ति प्रेम स्वामी महाराज आ रहे हैं। आप भी सभी सादर आमंत्रित हो। मॉरिशस, थाईलैंड, वर्मा, नेपाल, यूक्रेन आदि जहां जहां से भी आप इस जप कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित हुए हो, आप सब का भी स्वागत है। सादर आमंत्रण है। महालक्ष्मी, आ रही हो या नहीं ? तुम तो दूर नहीं हो लेकिन पंजाब थोड़ा दूर है। लुधियाना? ओके जो नहीं आ सकते, उनके लिए हम पहुंचा देंगे। उनके लिए यहां के फंक्शन की होम डिलीवरी होगी। आप इस उत्सव को देख सकते हो, सुन सकते हो। यह कब देखना, सुनना है, इसके विषय में आपको बताया जाएगा। आप को पहले से घोषणा कर दी जाएगी। देखते रहिए और सोलापुर में राधा दामोदर के आगमन उत्सव का आनंद लिजिए। (एंजॉय द फेस्टिविटीज एंड अपीयरेंस ऑफ राधा दामोदर इन सोलापुर।)
राधा दामोदर प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव की जय!
यदि राधा दामोदर यहां नहीं आने वाले होते तो मैं भी यहां आने वाला नहीं था। मैनें ब्रजधाम या वृंदावन को इस कार्तिक मास के बीच में ही छोड़ा है और यहां सोलापुर पहुंचा हूं। इसका मुख्य कारण राधा दामोदर का आगमन अथवा प्राकट्य होने वाला है। जैसा हम आपको बता रहे थे कि यह कार्तिक मास है, इस मास में वृंदावन में वास करना होता है। इस मास में वृंदावन वास। वहां स्वयं जाकर रहो/ वास करो या वहां जाओ और यथासंभव ब्रज मंडल परिक्रमा करो। अगर ऐसा नहीं कर सकते तो घर बैठे बैठे कम से कम याद तो कर सकते हो। कृष्ण कन्हैया लाल की जय! उनकी लीलाओ को उनके अलग-अलग वनों को, अलग अलग वनों में भगवान जो लीला खेलते हैं,..
केशी घाट, वंशि वट, द्वादश कानन।
याहा सब लीला कोइलो श्रीनन्द नन्दन॥
अर्थ:-
जहाँ कृष्ण ने केशी राक्षस का वध किया था, उस केशी-घाट की जय हो। जहाँ कृष्ण ने अपनी मुरली से सब गोपिकाओं को आकर्षित किया था, उस वंशी-वट की जय हो। व्रज के द्वाद्वश वनों की जय हो, जहाँ नन्दनंदन श्रीकृष्ण ने सब लीलायें कीं।
द्वादश काननों में श्रीकृष्ण अपनी लीला संपन्न करते हैं। जब हम ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते हैं और उन स्थानों पर पहुंचते हैं जहां जहां भगवान ने लीला खेली थी। जैसे कल परिक्रमा का पड़ाव मानसरोवर में था। मानसरोवर की जय! वृंदावन में वैसे कई सरोवर हैं, वृंदावन में कुसुम सरोवर, पावन सरोवर भी हैं। सरोवर मतलब कुंड अथवा जलाशय। गोवर्धन में वैसे मानसी गंगा भी है जो भगवान के मन से प्रकट हुई थी। जैसे मानसी गंगा कहते हैं, वैसे मानसरोवर भी है जहां पर राधा रानी एक बार मान कर के बैठी थी। इसलिए राधा रानी को ‘माननी’ कहते हैं अर्थात मान करने वाली। माननी श्रीकृष्ण को राधा रानी को मनाना पड़ता है। यहां तक कि राधा रानी के पैर छूने पड़ते हैं। कृष्ण उनसे क्षमा याचना मांगते हैं। इसी मानसरोवर के तट पर कृष्ण की रास क्रीड़ाएं संपन्न होती है। यह रास लीला स्थली है। इस मानसरोवर पर एक समय शिव जी भी आए। वह भी इस रासलीला में सम्मिलित होना चाह रहे थे। उन्होंने सोचा मैं भी रासक्रीड़ा में क्रीडा करना चाहता हूं। वैसे कोई भी ऐसे रास क्रीड़ा में घुस नहीं सकता है। जहां पर रास क्रीडा संपन्न होती है। वहां प्रवेश द्वार होता है और प्रवेश द्वार पर गार्ड भी होते हैं। गोपियाँ रखवाली करती है। शिवजी जब वहां प्रवेश द्वार पर पहुंचे, वह प्रवेश करना चाह रहे थे कि मैं भी, मुझे भी…. लेकिन वहां लिखा होता है नो ऐडमिशन विदाउट परमीशन (बिना अनुमति के प्रवेश नहीं हो सकता।)
परमिशन (अनुमति) उन्हीं को मिलती है.. अथवा
रास क्रीडा के लिए दो बातें अनिवार्य है। गोपी जैसा रूप चाहिए और गोपी जैसा भाव चाहिए। तभी आप रास क्रीडा में प्रवेश कर सकते हो। जब शिव जी आए थे (आप शिवजी को जानते ही हो, शिवजी की जटाएं हैं, त्रिशूल और डमरु है, गले में सर्प है, कानों में बिच्छू हैं, गले में मुंडमाला है। वह इसी वेषभूषा के साथ रास क्रीडा में प्रवेश करना चाह रहे थे। जो संभव नहीं है। ) उनको कहा गया कि वे अपनी वेशभूषा का परिवर्तन करें और गोपी भाव भी चाहिए। इसलिए वे मानसरोवर में थोड़ा नहा लें। तब शिवजी वहां गए और डुबकी लगा ली अथवा मानसरोवर में कूद गए। तत्पश्चात जब पुनः ऊपर आए तब वे गोपेश्वर बन गए। गोपेश्वर महादेव की जय!!!
वे गोपी बन गए। एक विशेष गोपी। अथवा महादेव, शंकर, भोलेनाथ का एक विशेष रूप गोपेश्वर महादेव है। तत्पश्चात उनका प्रवेश हुआ इस प्रकार शिवजी महान वैष्णव है। जैसे गोपियां सारी वैष्णवी कहलाती हैं। शिवजी एक प्रकार की वैष्णवी बन गए। सभी वैष्णव में श्रेष्ठ वैष्णव-
*निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा। वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा।।*
( श्रीमद भागवतम १२.१३.१६)
अनुवाद:- जिस तरह गंगा समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान शम्भू ( शिव) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं। उसी तरह श्रीमद्भागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है।
*वैष्णवानां यथा शम्भुः*
गंगा नदी, सारी नदियों में श्रेष्ठ नदी है, सारे पुराणों में भागवत पुराण श्रेष्ठ है। सारे देवों में अच्युत देव श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं। वैसे ही सभी वैष्णवों में शिवजी श्रेष्ठ हैं। इसलिए वैष्णवानां यथा शम्भुः कहते हैं।
यह मानसरोवर रास कीड़ा की स्थली है।आज भक्त मानसरोवर से लोहवन जाएंगे लोहवन भी द्वादश वनों में से एक वन है। एक समय वहां पर लोह जंघासुर नाम का असुर रहता था। भगवान ने वहां उस असुर का वध किया, इसलिए उस वन का नाम हुआ लोह वन।
हम मानसरोवर से लोह वन जाएंगे। मानसरोवर और लोहवन का यह क्षेत्र, यह युद्ध भूमि बन चुका था। यहां कृष्णऔर बलराम, जरासंध के साथ 18 साल युद्ध खेल रहे थे। यह युद्ध भूमि भी है, यह रास क्रीड़ा स्थली भी है। भगवान ने यहां पर युद्ध भी खेला। जब कृष्ण ने कंस का वध किया, तब कंस की दो पत्नियां थी एक अस्ति, दूसरी प्राप्ति। उनके पतिदेव नहीं रहे।श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया था। ये दोनों कंस की रानियां अपने पिताश्री जरासंध के पास रोती हुई पहुंची। ‘इस बदमाश कृष्ण ने हमारे पतिदेव का वध कर दिया है, पिताश्री, कुछ करो, आप बदला लो।’
जरासंध ने संकल्प लिया कि “मैं वध करूँगा, मैं कृष्ण की जान लूंगा।”
जरासंध बहुत बड़ी सेना अर्थात 23 अक्षौहिणी डिवीज़न सेना लेकर वहां पहुंचा था। कृष्ण, बलराम युद्ध खेलने के लिए जाते थे और जरासन्ध की सारी सेना का सत्यानाश कर देते थे और केवल जरासन्ध को बचाते थे। जरासंध जब देखता था, “अरे सब तो मारे गए,” वह अकेला बचता था तब वह पुनः अपनी राजधानी वापस जाता था और सेना लेकर आता था। हर बार वह 23 अक्षौहिणी डिवीज़न सेना लेकर आता था। आप कल्पना कर सकते हो? कुरुक्षेत्र में तो कुल 18 अक्षौहिणी डिवीज़न सेना पहुंची थी।
यहां पर वृंदावन में जो युद्ध हुआ, उसमें हर साल जरासंध 23 अक्षौहिणी डिवीज़न सेना लेकर आता था। कृष्ण बलराम की छोटी सेना हुआ करती थी। उस सेना की सहायता से कृष्ण बलराम सबकी जान ले लेते थे।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||*
( श्रीमद भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:-
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
जरासंध स्वयं भी असुर था उसकी सहायता करने वाले उसके मित्र कौन होंगे? वे भी असुर चांडाल चौकड़ी होंगे। कृष्ण उनका वध करते गए- एक बार, दो बार, तीन बार,….. 10 बार, 15 बार ,17 बार, 18 बार। जरासंधअट्ठारहवीं बार सेना लेकर आ गया। यह कृष्ण की पॉलिसी थी। सब को मारना है और जरासंध को बचाना है। जिससे जरासंध अन्य असुरों व अन्य असुर प्रवृत्ति के राजा, महाराजा व उनके सैनिकों को लेकर आये। इससे कृष्ण का काम आसान हो जाता था। कृष्ण को क्या काम करना था अथवा क्या लीला खेलनी होती थी।
विनाशाय च दुष्कृताम् अर्थात दुष्टों का संहार करना है। कृष्ण का होलसेल बिजनेस चल रहा था नहीं तो कृष्ण को एक एक घर में जाकर असुर को मारना पड़ता। एक असुर को मार दिया, ओके, अब दूसरे घर में जाकर बेल बजाई, ढिशुम! ढिशुम! फिर तीसरे को मार दिया, फिर चौथे को मार दिया, सोलापुर के घर.. वैसे सभी घर असुर के नहीं है लेकिन जहां जहां छिपे हुए असुर है, …ऐसे बहुत समय लगता। अच्छा हुआ। जरासंध उन असुरों को लेकर आता था और कृष्ण, बलराम उनका संघार करते जा रहे थे। जब 18वीं बार जरासंध आया तब कृष्ण और बलराम ने कहा- ‘यह बोरिंग बिजनेस है कि हर साल यही रूटीन चल रहा है।’तब कृष्ण ने सोचा बस हो गया। ‘नॉट इंटरेस्टेड इन दिस बैटल’ उसी समय भगवान की रुचि रुक्मिणी में हो गयी।
रुक्मिणी महारानी की जय! उनका रुक्मिणी के साथ यहां महाराष्ट्र के कौंडिन्यपुर में कुछ संपर्क हो रहा था।रुक्मिणी नागपुर अमरावती के पास भगवान को याद कर रही थी, उन्हीं के साथ विवाह करना चाह रही थी। जब कृष्ण बलराम तक यह समाचार पहुंच जाता है तब कृष्ण बलराम युद्ध खेलना वहीं छोड़कर वहां से प्रस्थान करते हैं। तब जरासंध कहने लगा रणछोड़! रणछोड़!रणछोड़! डरपोक कहीं का! कृष्ण बलराम ने वहां से प्रस्थान किया। यह अंतिम समय था। कृष्ण18 साल मथुरा में रहे, वह ग्यारह साल वृंदावन में रहे (आप नोट करते जाइए) और भगवान ने लीला खेली। 18 वर्ष मथुरा में रहे और अब वे रणछोड़ बन गए। रणछोड़ कर जब द्वारका पहुंचे तब उनका स्वागत हुआ।
रणछोड़राय की जय! द्वारकाधीश का नाम रणछोड़राय भी हैं। इस प्रकार यह मानसरोवर लोहवन क्षेत्र इस युद्ध के लिए भी प्रसिद्ध है। इसका कुछ अधिक स्मरण नहीं दिलाया जाता लेकिन इस लीला का उल्लेख कुछ ज्यादा नहीं होता परंतु है तो हकीकत। यह इतिहास है। ऐसी घटनाएं घटी है। ऐसी लीलाएं कृष्ण बलराम खेलते हैं। युद्ध इत्यादि यह कोई मीठी बातें नहीं है। रसमयी लीला नहीं लगती है। इसलिए हम इसको ज्यादा पढ़ते सुनते या याद नहीं करते किंतु इन लीलाओं का स्मरण करना चाहिए। भगवान असुर का वध करते है, हमें ऐसी लीला का जरूर श्रवण व कीर्तन करना चाहिए। जप करते रहिए। आप जप करते रहिए।
मैं सोच रहा था या जब जप कर रहा था तब सारी दुनिया लगभग 10-11 बजे कोई धन कमाना शुरू करती है। 10-11 बजे दुकान खोलती है। धन कमाना प्रारंभ करते हैं लेकिन हरे कृष्ण भक्तों की दुकान तो 4:30 बजे खुलती है।
काकड़ आरती/मंगल आरती के बाद हम बैठते हैं और धन अर्जन शुरू करते हैं।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हम अपने फिक्स डिपाजिट अर्थात एक एक मंत्र का डिपॉजिट करते जाते हैं और उसी के साथ धन्य/ धनी अथवा धनवान बनते हैं। इस प्रकार हम कृष्ण प्राप्ति करते हैं। इसको धन अर्जन कहते हैं।
इसको धन अर्जन कहा भी है।
*गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥*
( वैष्णव भजन)
अर्थ:-
गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
यह गोलोक वृंदावन का प्रेम धन है। महाप्रभु की दृष्टि के हिसाब से
प्रेम धन विना व्यर्थ दरिद्र जीवन।
‘दास’ करि’ वेतन मोरे देह प्रेम-धन”।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.३७)
अर्थ:- “भगवत्प्रेम के बिना मेरा जीवन व्यर्थ है। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे अपने सनातन सेवक के रूप में स्वीकार करें और वेतन के रूप में मुझे भगवत्प्रेम प्रदान करें।”
चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि ‘यदि आप प्रेम धन को प्राप्त नहीं कर रहे हो अथवा यदि प्रेम धन की कोई पूंजी नहीं है तब आपका यह जीवन दरिद्र है। आप दरिद्र हो। आपके पास प्रेम का धन नहीं है।’ हरि! हरि!हमारी आत्मा को यह धन ही सुखी करेगा। हमारी आत्मा को शांति देने वाला, आत्मा को सुख देने वाला, आत्मा को प्रसन्न रखने वाला यही धन है। हम कृष्ण की प्राप्ति करते हैं। हम *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* का श्रवण, कीर्तन व स्मरण करते हैं। यही संपत्ति है, यही धन है। अगर हम ऐसे करते जाएंगे हममें जो लोभ नाम की प्रवृत्ति अथवा शत्रु ही है। यह काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य छह शत्रु है जिसे षड् रिपु भी कहते हैं। इनमें से एक बड़ा शत्रु भी है। वैसे सब बड़े-बड़े ही हैं लेकिन सबसे बड़ा काम अर्थात काम वासना है। जब हमारे काम की तृप्ति नहीं होती तब क्रोध आता है।
*ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते | सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ||*
( श्रीमद भगवतगीता २.६२)
अनुवाद:-
इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |
यदि उस काम से हमारी कुछ तृप्ति हो गयी तो हम लोभी बनते हैं। यदि भोग विलास ने हमें कुछ तृप्त कर दिया तब हम उसी प्रकार की कुछ ओर तृप्ति चाहते हैं। हम लोभी बनते हैं। हमारा लालच अर्थात लोभी होना तो शत्रु है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* का श्रवण कीर्तन करने से हम कृष्ण का अर्जन करते हैं और इसी के साथ हमारी कामवासना कम होती जाएगी। तब क्रोध भी थोड़ा कम हो जाएगा। विशेष रूप से गृहस्थों व व्यापारियों के लिए जो लोभ है, यह भी कम होगा। तब इतना सारा भागदौड़ और कष्ट करने की आवश्यकता नहीं होगी।
‘सिंपल लिविंग, हाई थिंकिंग’ अर्थात हम सादा जीवन उच्च विचार वाले बन जाएंगे। ऐसे विचार भी हमें प्राप्त होंगे। हरे कृष्ण महामंत्र के जप से हम ऐसे विचार वाले बन जाएंगे। जैसे एक बार एक व्यक्ति को कहा गया- दौड़ पड़ो। वह दौड़ने लगा। उसको कहा कि तुम जितना दौड़ सकते हो अर्थात जहां तक तुम दौड़ते हुए जा सकते हो, जाओ। वह सारी भूमि तुम्हारी होगी। यह तुम्हारी प्रॉपर्टी होगी। वह व्यक्ति दौड़ने लगा, उसी के साथ वह कुछ गिन रहा था कि दस एकड़ हो गई तब वह और दौड़ने लगा और सोचने लगा कि 20 एकड़ मेरे नाम से होने वाली है, मैं इतना दौड़ चुका हूं। वह दौड़ता गया, दौड़ता गया। सोच रहा था कि थोड़ा और दौड़ू तब और दस- बीस मेरे नाम से हो जाएगी। यह लोभ उसको दौड़ा रहा था। वह दौड़ता गया, दौड़ता गया और दौड़ते दौड़ते उसकी जान चली गई । वह गिर गया। समाप्त (फिनिश्ड) तब उसे कितनी जगह मिली? मात्र 6 फीट। यह लोभ का लोभी। लोभ वाले याद रखो। इस लोभ शत्रु से बचना चाहिए।
हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना या कृष्ण भावनामृत का जीवन जीना, गीता भागवत का अध्ययन, श्रवण और कृष्ण प्रसाद को ग्रहण करना, दिव्य अलौकिक उत्सवों में सम्मिलित होना चाहिए। यह सब करने से और इस तरह की लाइफ स्टाइल जीने से हम धीरे धीरे काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ मात्सर्य से बचेंगे। इन शत्रुओं से हम बचेंगे। हम लोभ से बचेंगे। इसके कई सारे फायदे हैं। कृष्ण भावनाभावित होने के प्रैक्टिकल बेनिफिट्स (व्यवहारिक लाभ) हैं।
इस हरे कृष्ण महामंत्र का जप, तप, ध्यान, धारणा के कितने अच्छे परिणाम/ फल हम चख सकते हैं। इसीलिए जप करते रहिए। कीर्तनीय सदा हरि करते रहो और सुखी रहो। ठीक है! हम यहां अब व्यस्त होने वाले हैं। हम यहीं पर रुकते हैं।
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*12 नवंबर 2021*
*सोलापुर से*
हरि हरि।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
802 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं। आज तो गायों को माला पहनानी चाहिए। आज गायों का सत्कार, सम्मान, पूजा करने का दिन है। गौ माता की जय। आज गोपाष्टमी है। आपको कहां पता था? तो आज गोपाष्टमी के दिन मैं बेचारा यहां सोलापुर पहुंच गया। शायद यह पहले कभी नहीं हुआ था पिछले 35 वर्षों में आज पहली बार मैं वृंदावन मे नहीं हूं। आज के दिन प्रति वर्ष में जरूर शेरगढ़ से आगे जहां आज परिक्रमा का प्रस्थान शेरगढ़ से होकर फिर आगे रामघाट तक होता है। जहां रोहिणी नंदन बलराम रास क्रिडा खेलते हैं। वहा जाया करते थे और वहां से आगे बढ़कर खेलन वन वहां बहुत बड़ी गौशाला भी है।
वहीं बैठ कर हम कथा भी किया करते थे प्रतिवर्ष गोपाष्टमी की कथा। आज यह बहुत बड़ा उत्सव है वृंदावन में। आपके नगर में नहीं होगा क्योंकि हम लोग वह जो संस्कृति है कृष्ण को केंद्र में रखते हुए या वृंदावन को केंद्र में रखे हुए संस्कृति को हम भूल गए हैं। लेकिन कम से कम वृंदावन में तो यह संस्कृति और यह उत्सव गोपाष्टमी का बहुत ही बड़ा उत्साह के साथ मनाया जाता है। सर्वत्र गायों को कैसे सजाते हैं रिबन बांधते हैं अपने गायों के सींगों में। गले में हार या घंटी बांधते हैं और कई प्रकार से सजाया जाता है गायों को। जैसे 5000 वर्ष पूर्व आज के दिन जो गोपाष्टमी का दिन है गायों को सजाया था। आज अष्टमी है तो पद्मपुराण में जो कार्तिक महात्म्य है तो उसमें उल्लेख आता है। एक विशेष श्लोक है यथासंभव आप क्यों न ऐसा कुछ याद करो फिर दुनियादारी भूल जाओगे आप।
शुक्लाष्टमी कार्तिकेय तु
स्मृत गोपाष्टमी बुध्देः।
तद् दिनद् वासुदेवो अभुद
गोपः पुर्वम तू वत्सपः।।
तो पद्मपुराण.. पुराणों में इतिहास लिखा हुआ होता है। घटी हुई घटनाओं का उल्लेख मतलब इतिहास। इतिहास का विच्छेद होगा इति-अ-हास। ऐसी घटनाएं घटी इतिहास।तो इतिहास की बात है.. शुक्लाष्टमी कार्तिकेय तु कार्तिकी शुक्लाष्टमी के दिन को बुद्धिमान लोग क्या करेंगे? इस अष्टमी को गोपाष्टमी, स्मृत गोपाष्टमी बुध्देः जो बुद्धिमान लोग हैं, ज्ञानवान लोग उन्होंने इस अष्टमी को गोपाष्टमी नाम दिया। तद् दिनद् वासुदेवो अभुद मतलब क्या? उस दिन से वासुदेव हुए गोप वासुदेव गोप हुए कहो या गोपाल हुए। गोपः पुर्वम तू वत्सपः वह वत्सप थे और आज के दिन वे गोपाल हुए। बछड़ों को संभाल संभालते थे और यह श्रीमद्भागवत के दसवां स्कंध 15 वा अध्याय मैं शुकदेव गोस्वामी कहे हैं। कृपया इसे नोट करो ताकि बाद में आप उसे पढ़ सकते हो। आपको होमवर्क करना है पढ़ना है। तो 10.15.1 मे कहा है..
श्रीशुक उवाच
ततश्च पौगण्डवय:श्रीतौ व्रजे
बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ ।
गाश्चारयन्तौ सखिभि: समं पदै-
र्वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतु: ॥ १ ॥
ततश्र्च उसके उपरांत मतलब कुछ घटना घटी है ततः उसके उपरांत मतलब अभी जो बात कही जा रही हैं उसके ऊपरांत। उसके उपरांत नही उसके पहले। तो यह अध्याय 15 वा है, अध्याय 13 और 14 में ब्रह्म विमोहन लीला शुकदेव गोस्वामी सुनाएं। और ब्रह्म विमोहन लीला में क्या हुआ था? उस समय कृष्ण वत्सप थे बछड़ों को संभालते थे। छोटी छोटी गैया या जिसको कहां छोटे छोटे ग्वाल। और पूरे साल भर के लिए कृष्ण बछड़े बन गए मित्र बन गए। यह सब आपको पता है ना? पता होना चाहिए। मुंडी तो हिला रहे हैं सब नंदी बैल जैसे। तो ततः उसके उपरांत ब्रह्म विमोहन लीला हुई या पहले बछड़ों को संभालते थे मतलब वत्सप या वत्सपाल यह शब्द अधिक स्पष्ट होता है। वत्सपाल थे पहले और आज के दिन बन गए गोपाल। तो आज के दिन गोपाष्टमी के दिन कृष्ण बन गए पौगण्डवय:श्रीतौ पौगंड उम्र के कृष्ण हुए। फिर आप को समझना होगा अगर आप कृष्ण को जानना चाहते हो तो कई सारी बातें आपको सीखनी समझनी है। भगवान की पौगंड आयु मतलब 5 साल से 10 साल की उम्र को पौगंड आयु कहते हैं। उसके पहले वे कुमार थे और पौगंड आयु के उपरांत वे किशोर होंगे। तो पौगण्डवय:श्रीतौ व्रजे तो वृंदावन में कृष्ण जब पौगंड आयु को प्राप्त किए बभुवतु पौगंड आयु के कृष्ण हुए तो तौ कहां है मतलब दोनों कृष्ण और बलराम। पशुपालसम्मतौ तो उस दिन ब्रज वासियों की बैठक हुई इष्ट गोष्टी हुई। और सभी को अब मंजूर था कृष्ण अब बड़े हुए हैं अभी वह समर्थ है गायों को संभालने के लिए। गाश्चारयन्तौ सखिभि: समं पदै- र्वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतु: तो आज के दिन आप की भाषा में कृष्ण का प्रमोशन हुआ। बछड़ों को संभालते थे आज के दिन वे गोपाल बन गए। और यह पशुपालसम्मतौ वहां के जो पशु पाल है वृंदावन में सभी पशुपाल ही रहते हैं। या जो गोपालक हैं उनको गोप भी कहते हैं गोप और गोपी, सारे गोप है वृंदावन मे।
उनकी सभा में सभी ने सम्मति दी कौन-कौन आज से कृष्ण गोपाल बनेंगे, गायों को चरा सकते हैं अगर आप इससे सहमत हो तो हाथ ऊपर कीजिए। हां कुछ लोग तो फेवर में नहीं है क्या हुआ? अभी तो बड़े हो गए ना कृष्ण अभी संभाल सकते हैं गायों को। आप मंजूरी दो। ठीक है. अभी और थोड़े हाथों उपर हो रहे है। फिर सखिभिः कहां है तो वैसे आज के दिन केवल कृष्ण बलराम ही गोपाल नहीं बने। तो कृष्ण के मित्र उस उम्र वाली जो पूरी बैच है उन सभी का प्रमोशन हुआ और सभी के सभी बन गए गोपाल। हो सकता है आप लोग सोचते होंगे गोपाल मतलब कृष्ण ही गोपाल है नहीं वृंदावन का हर वैसे व्यक्ति कहो वह गोपाल है। या तो वत्स पाल है बछड़ों का पालन करते हैं या गोपाल गायों का पालन करते हैं। नंद गोधन रखवाला हम लोग गाते हैं वैसे भक्ति विनोद ठाकुर गीत लिखे नंद गोधन रखवाला। तो यह धन भी है ब्रज वासियों का धन क्या है? गाय धन है। तो उस धन के रखवाले केयरटेकर कृष्ण आज बने। और कृष्ण के मित्र भी गोपाल बने। और फिर पदै- र्वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतु: अपने चरण कमलों से सारे वृंदावन भर में वे चलते रहे और सारे ब्रज को अपनी चरण चिन्हों से चिन्हांकित करते हुए वृंदावन को पुण्य धाम पवित्र धाम बनाएं। शोभनीय शोभायमान हुआ वृंदावन सर्वत्र श्री कृष्ण के चरण कमल की शोभा से। तो उस दिन नंदग्राम को भी सजाया गया था। फिर गायों का श्रृगार हुआ। स्वस्तिवाचन हो रहा था, शहनाई बज रही थी कई सारे मंगल वाद्य बज रहे थे। और कृष्ण बलराम भी सज गए सजाए गए, उनका भी विशेष श्रृंगार हुआ। क्योंकि आज उनका प्रमोशन डे था। फिर प्रस्थान कर रहे थे जब, तब कहते हैं कि यशोदा ने अब तक तो तुम बछड़े चलाते थे तो पास में ही जाते थे बछड़े चराने के लिए। अब तो तुम गाय चराओगे तो तुम सारे वनो में, व्दादश काननों में भी तुम्हारा भ्रमण होगा। तो जूता पहनो। कृष्ण ने इनकार किया था नही नहीं मैया गाय जूता नहीं पहनती तो मैं कैसे पहन लूं।
यशोदा मैया ने कहां वे तो गाय हैं ना तो तुम पहनो। तो कृष्ण ने कहा था प्रस्ताव रखा था सभी गायों के लिए जूते लेकर आओ मैया तो एक जोड़ी में भी अपने लिए ले लूंगा। तो कहां से लाएगी मैया इतने सारे जूते कौन सी टाटा या बाटा कंपनी सप्लाई करेगी। कितने जूते चाहिए? हां 3600000 ठीक कहा। नहीं तो आप कहोगे 900000 गाये हैं तो कितने जूते चाहिए? 900000 जूते चाहिए ऐसे आंख बंद करके बिना सोचे आप हैं कहते रहते हो। किसी ने थोड़ा अपने बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया और मेरे पास जो बैठे थे वह कह रहे थे 900000। ठीक है.. जूते नहीं तो छाता तो ले कर चलो। ए शीत आतप वाप परिषण ग्रीष्म ऋतु में इतनी गर्मी परेशान करती है। वैसे सर्वांगे हरिचंदन चंदन का लेपन तो करती थी यशोदा। ताकि कृष्ण थोड़ा ठंडक महसूस करें ।तो अभी धूप तो है ही तो छाता लेकर चलो। तो कृष्ण ने कहा नही नही गायों के लिए छाता नहीं है। यशोदा ने कहा वह तो गाये हैं तुम ले चलो। नहीं नहीं उनके लिए छाता लेकर आओ। तो कितने छाते चाहिए? 900000 चाहिए। लेकिन उनके पास तो पैर ही है गायों के पास तो पैर ही होते है हाथ नहीं होते। तो छाता कौन पकड़ेगा? तो 900000 छाता पकड़ने वाले भी चाहिए छत्रधर को धारण करने वाले। इस प्रकार मैया ने विचार ही छोड़ दिया ठीक है बेटा जैसा तुम को जाना है जाओ। तो उस समय कृष्ण कहे थे मैय्या धर्मों रक्षति रक्षितः। जब हम धर्म की रक्षा करेंगे तो वही धर्म हमारी रक्षा करेगा। गाय की सेवा करना हमारा धर्म है वही करने जा रहा हूं मैं। तो गाय की सेवा करो। गाय की सेवा करना हमारा धर्म है। वैसे हम वैश्य परिवार के हैं तो कृषि, गौरक्षा, वाणिज्य। मैं जब वक्ता बनकर कुरुक्षेत्र जाऊंगा तो अर्जुन को बताने वाला हूं। वैश्यो का धर्म क्या होता है? कृषि खेती करना, गौ रक्षा गाय की रखवाली करना, वाणिज्य थोड़ा व्यापार करना।
माखन का वगैरा कुछ थोड़ा विक्री करना वैसे धनार्जन करना। यही हमारा धर्म है। जब इस धर्म का पालन करेंगे तो वही धर्म हमारा पालन, हमारी रक्षा करेगा। यशोदा मैया को कृष्ण यह सब उपदेश किए थे। इस प्रकार यह उत्सव गोपाष्टमी का उत्सव उस समय से प्रसिद्ध है। तो आज गाय की सेवा करने का दिन है। यह गाय की सेवा करने का संकल्प लेने का दिन है। इस्कॉन सोलापुर में गायों की सेवा हो रही थी लेकिन गौशाला थोड़ी छोटी थी। तो इस्कॉन सोलापुर के अधिकारियों ने कृष्णभक्त प्रभु ने गौशाला का आकार डबल कर दिया। और आज हम 10:00 बजे यह जो बढी हुई गौशाला है उसका उद्घाटन करेंगे गौ माता की सेवा में। गौ माता की जय। और जब हम यहां पहुंचे तो हमको एक और गुड न्यूज़ यह मिली किसी सज्जन ने कम से कम 2 एकड़ भूमि दान में दी। और कल ही उसका रजिस्ट्रेशन हुआ और आज प्रातकाल हम राधा दामोदर को वह जो कागजात है वही ठाकुर है, वही मालिक है ठाकुरबाड़ी तो उन्हीं को समर्पित किया यह 2 एकड़ जगह उनकी प्रसन्नता के लिए। और जिसने यह भूमि दान दे दी 2 एकड़ की उनकी एक ही शर्त थी इस भूमि का उपयोग गायों की सेवा में होना चाहिए।
आप देखो कैसे इस जमीन का उपयोग गौ माता की सेवा में हो। तो इस प्रकार वैसे हम सभी को गौ रक्षा और गौ सेवा, गो वर्धन जैसे की गाय हष्ट पुष्ट रहे इसके लिए कोई प्रयास का हमें संकल्प लेना चाहिए। वेजिटेरियन होना भी यह गौ माता की सेवा ही है। आप वेजिटेरियन बनोगे वैसे केवल वेजिटेरियन हम नहीं बनते कृष्णटेरियन बनते हैं हम लोग। वेजिटेरियन तो कहीं सारे होते हैं, जिसको शुद्ध वेजीटेरियन कहते हैं। जैसे हाथी होता है कुछ पक्षी भी होते हैं। तो केवल वेजिटेरियन होना कोई बडी बात नहीं है। ठीक है.. वेजिटरियन कृष्णटेरियन हम लोग बनेंगे। तो आपके लिए गाय कटेगी नहीं, गाय की जान नहीं ली जाएगी। यह सेवा ही है। प्रचार प्रसार कर सकते हैं ,अधिक अधिक प्रसाद वितरण करो, अधिक अधिक गोविंदाज की स्थापना करो। वेजीटेरियन रेस्टोरेंट्स यह स्ट्रेटजी का ही एक भाग है, यह गौ रक्षा के लिए ही है। गोविंद नाम भी दिया गोविंद, गोविंद मतलब गवानाम इंद्रः गायों में इंद्र ऐसी परिभाषा है। गोविंद गायों में श्रेष्ठ या गाय के रखवाले कृष्ण सर्व समर्थ जो गाय की सेवा करते हैं गवानाम इंद्रः गोविंद। गोविंद गोविंद गोविंद।
नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च ।
जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥
तो श्रील प्रभुपाद विश्व भर के कई सारे गौ भक्षक जो है या कम से कम मांस का भक्षण करना है तो गाय का कभी न करें। सूअर को खाओ और किसी को खाओ चिकन खाओ। वह भी वैसे ठीक नहीं है, यह राक्षस की प्रवृत्ति है। लेकिन दुनिया के लोग भारत के लोग भी सोचते हैं हम लोग तो आधुनिक जगत के पढ़े लिखे लोग हैं। हम शाक सब्जी थोड़ी ना खाएंगे। शाक सब्जी तो गरीबों के लिए है हम तो अमीर हैं, हम ऐसे हैं वैसे हैं, हमें गोमांस खाना चाहिए। पर यह सब असभ्यता है वे असभ्य है। मॉडर्न सिविलाइजेशन सिविलाइजेशन है ही नहीं, वे अनसिविलाइज्ड हैं। तो ऐसी विदेश की जनता को श्री प्रभुपाद ने गौ भक्षकों को बनाया गौ रक्षक। और श्रीला प्रभुपाद ने विश्व भर में कई सारी गौशालाओं की स्थापना की। नया वृंदावन अमेरिका में वेस्ट वर्जिनिया स्टेट में वहां नए वृंदावन की स्थापना की। तो वहां गौशाला की स्थापना की और जो गौ भक्षक थे अमेरिकन वे अभी आरती उतार रहे हैं गायों की। आरती तो कई उतारते हैं लेकिन सेवा नहीं करते गायों की। लेकिन वह गायों की सेवा कर रहे थे और फिर गाय का दूध उससे कई सारे सारे पकवान बनाते हैं राधा वृंदावन चंद्र के लिए। नए वृंदावन के विग्रह राधा वृंदावन चंद्र उनको सारे खिला रहे थे। और भी कई सारी गोशालाए प्रभुपाद के समय खुली। और अब तो हमारे पास सैकड़ों.. हम हजारों नहीं कह सकते। लेकिन भविष्य में हजारों गौशालाए भी होगी। हर मंदिर के साथ गौशाला तो जुड़ी रहती होती ही है। तो आप सब का योगदान अनिवार्य है यह सब गौशाला और गोसेवाओं के लिए। फिर कभी कभी गाय दूध नहीं देती तो हम कहते हैं यह बेकार की गाय हैं, निकम्मी गाय हैं। फिर हम राक्षस लोग गाय को बेचते हैं और बेचने पर उन्हें कत्तल खाने पर पहुंचा देते हैं।
यह भी सही नहीं है। ठीक है गाय दूध नहीं देती लेकिन मूत्र तो देती है ना। और आजकल रिसर्च करके वगैरा गाय के मूत्र का जो महात्म्य है, उपयोगिता है उसको भी लोग समझ रहे हैं। और इसी से कई सारे प्रोडक्ट बन रहे हैं दवाई बन रही है गोमूत्र और गोबर से। गोबर यह सबसे उत्तम फ़र्टिलाइज़र है। ऐसा भी कुछ संकल्प लिया जा सकता है अब कोई केमिकल रासायनिक खाद का उपयोग नहीं करेंगे, अभी हम बंद करेंगे। वैसे आपका तो कुछ लेना-देना है नहीं खेती से, जमीन से या गांव से तो फिर आप क्या करोगे। लेकिन कम से कम आप इसका प्रचार कर सकते हो, इस विचारधारा को फैला सकते हो कि अब कोई रासायनिक खाद का उपयोग नहीं करेंगे। रासायनिक खाद के स्थान पर गाय का गोबर यह सबसे उत्तम फर्टिलाइजर है। रासायनिक खाद का उपयोग करने से पृथ्वी माता धरती माता के स्वास्थ्य में बिगाड़ आ रहा है। हम धरती माता का स्वास्थ्य खराब कर रहे हैं और भूमि जो बीमार है जो हमारी माता है। तो हम बच्चे भी बीमार हो ही रहे हैं। हम खिलाते हैं धरती को रासायनिक खाद वगैरह और वही खाद जो पौधे उग आते हैं फसल होती है। जो भी शाक सब्जी है अनाज है उस मे सब रसायन वह खा लेते हैं। और उसको हम जब खाते हैं तो हम क्या खाते हैं हम भी रसायन खाते हैं। हमको खाते और पीते हैं, तो बीमारी गारंटीड है। इतनी सारी जो बीमारियां फैल रही है हम क्या खाते हैं क्या पीते हैं वह मुख्य स्रोत है हमारे रोगों का।
जब आप गौ माता की सेवा करोगे तो कृष्ण प्रसन्न होंगे। और गाय तो हमारी माता है। लेकिन यह सिविलाइजेशन ऐसी बन गई है माताए ही अपने बच्चों की जान ले रही है, अबॉर्शन कर देती है। माताएं अपने बच्चों की जान लेती है, वह एक है। और फिर गौ माता को भी खाती है भक्षण करती है। और यह सब करने के उपरांत शांति चाहते हैं, स्वामी जी शांति नहीं है शांति नहीं है। क्यों होगी शांति नहीं मिलेगी शांति आपको। यह सब जो अनर्थ या काम धंधे आप कर रहे है। तो आज के दिन यह गाय के संबंधित है या गाय की रक्षा के संबंधित हमें इस विचारधारा का प्रचार प्रसार करना चाहिए। और हम प्रैक्टिकली कैसे गायों की सेवा कर सकते हैं, हमें कुछ गायों को एडोप्ट करना चाहिए। आप मेंटेन नहीं कर सकते हो.. मैं कहते तो रहता हूं कि आप अपने घर का मंदिर बनाओ और यथासंभव गाय को रखो। लेकिन मुंबई में कहां है कहा रखोगे गाय को। एक तो गाय के रक्षक कहते हैं कि किसी कमरे में गाय को रखो। लेकिन मुंन्सी पार्टी ने उसे अनुमति नहीं दी। कुत्तों को अनुमति है, गाय को बाहर कर दिया। तो आप गाय को मेंटेन नहीं कर सकते हो शहरों में, तो आपको गायों को गोद लेना चाहिए। इस्कॉन के गौशाला के किसी एक दो चार गायों का आप स्पॉन्सर बनीए। उसका जो मेंटेनेंस है उसको संभालिए, वह एक तरीका है। और देख लिजिए, पूछ लीजिए मैंने कह तो दिया कुछ आइडिया।
कैसे हम गायों की रक्षा कर सकते हैं और गाय की रक्षा ही नहीं मतलब जान नहीं लेनी है तो रक्षा हो गई तो उसको कैसे हम हष्टपुष्ट बना सकते हैं। हम कुछ स्पोंसर करके गायों को मेंटेन कर सकते हैं। और भी बहुत से तरीके हैं। तो इस गोपाष्टमी के दिन हमारे उद्गार कहिए यह कुछ उचित विचार कहिए जिसको शास्त्र के आधार से हमने आपके साथ शेयर किया। तो दिन भर आप कुछ शेयर करो, आप बोलो दुनिया भर के बकबक के बजाय ऐसा कुछ सत्य बोलो। दुनिया भर की बकबक करते रहेंगे हम तो फिर क्या होगा? तो फिर वह बकबक सुनेगा कालव्याल काल रूपी सर्प। तो दुनिया की जो ग्राम कथा है, ग्राम कथा कहना यह मेंढक जैसे बोलता रहता है, तो मेंढक की वाणी को कौन सुनता है? साफ सुनता है। तो मेंढक मानो ड्राओ ड्राओ करते सांप को बुलाता है, मैं यहां हूं यहां हूं आ जाओ। और फिर साफ आ ही जाता है। आज हो गई उसकी ब्रेकफास्ट हो गई मेंढक को खा लिया या डिनर हो गया या लंच। उसी प्रकार यह सारी दुनिया जो बकती रहती है वाचो वेगम वाचा का जो आवेग है उस पर कंट्रोल नहीं है। जीव्हा वेगम जीव्हा क्या क्या चाहती है। हरि हरि। तो फिर हमारे लिए कालव्याल आता है व्याल मतलब सर्प ही। मेंढक के लिए भी आता है सर्प जैसा सर्प ही असली सर्प। और हमारे लिए काल बनता है व्याल काल बनता है सर्प और फिर हम को खा लेता है। और यह बहुत बार हो चुका है अब। अगर आप थके हो तो कुछ हम जो बोलते हैं, जो भाषा है, उसका प्रकार उसमें हमें परिवर्तन लाना होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो तीलगुल घ्या गोड बोला ऐसे महाराष्ट्र में चलता रहता है संक्रांति के दिन। तिल और गुड़ को वितरण करते हैं और कहते हैं तीलगुल घ्या गोड बोला। गोड मतलब मीठा बोलो। तो केवल मीठा ही नहीं बोलना चाहिए कैसे बोलना चाहिए सत्य बोलना चाहिए। साधु, शास्त्र, आचार्यों के जो वचन है, सत्य वचन है। तो इन को सुनना चाहिए, इस पर विचार होना चाहिए, चिंतन मनन होना चाहिए। और फिर अपने साक्षात्कार औरों को सुनाना चाहिए। न जाने मुझे क्यों याद आ रही है बहुत साल पहले इंडियन पार्लमेंट में यह गाय के संबंधित है इसलिए मुझे याद आ गया। इंडिया में जो कत्तल खाने है, तो उस कत्तल खाने में जो ब्लैड होते हैं पशुओं के गायों के गले काटने के लिए जिस ब्लैड का उपयोग करते हैं। वह कुछ तीक्ष्ण नहीं थे। तो प्रस्ताव यह था कि जब हमारे कत्लखाने में गायों को हम जब काटते हैं गायों को बहुत कष्ट होता है। गायों को काटने में थोड़ा अधिक समय बीतता है। तो इसके लिए क्या किया जा सकता है? ऐसे आपके खासदार मेंबर ऑफ द पार्लिमेंट दिल्ली मे एक बैठक हो रही थी, तो यह एजेंडा था। तो पता है आपको क्या डिसीजन हुआ? डिसीजन यह हुआ कि हमारे कत्ल खानों का आधुनिकीकरण होना चाहिए। हमें हायरलैंड से ब्लेड्स को इंपोर्ट करना चाहिए। हायरलैंड के कत्लखाने बहुत एक्सपर्ट है। उनके पास विशेष तीक्ष्ण ब्लेड्स है। तो वहां से ब्लेड्स इंपोर्ट करने चाहिए। ताकि जब हमारे देश में गाय कटेगी छठ छठ छठ कुछ ही समय में कटेगी। तो गायों को परेशानी नहीं होगी ऐसा गाय को काटेंगे तो। ऐसी दया दिखाइ मेंबर ऑफ पार्लमेंट ने।
अच्छा हुआ कि नहीं यह डिसीजन अच्छा रहा? क्या कहना है आपका? वैसे यह डिसीजन लेना चाहिए था कि सभी कत्लखाने बंद होने चाहिए। गाय की कत्ल नहीं हो सकती। ऐसा कुछ डिसीजन, ऐसा कुछ ठराव पास कर सकते थे। लेकिन उल्टा उन्होंने तीक्ष्ण ब्लैड्स इंपोर्ट करने का डिसीजन लिया। ऐसे हमारे नेता..। तो फिर याद आती है राजा परीक्षित की याद आती है। राजा परीक्षित ने जब देखा कोई शुद्र राजा के भेष में गाय को कुछ पीट रहा था, कुछ कष्ट दे रहा था। तो राजा परीक्षित का क्या डिसीजन रहा उसी जगह पर उन्होंने अपनी तलवार से उस शुद्र का वध करना चाह रहे थे। तो यह हो गए राजर्षि। राजा हो तो राजा परीक्षित जैसा या राम जैसे राजा युधिष्ठिर महाराज जैसे। राजा जो प्रजा का पालन करें। पशु भी तो प्रजा है। केवल मनुष्य ही प्रजा नहीं है पशु भी तो राजा की प्रजा है। ठीक है, तो आप और आगे सोचिए, चिंतन कीजिए, कुछ लिखिए, अखबार से कुछ निकालिए समाचार वगैरा।
गोपाष्टमी महोत्सव की जय।
गौ माता की जय।
गोपाल कृष्ण भगवान की जय।
राधा गोपाल की जय।
श्रील प्रभुपाद की जय।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
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नोएडा से
11 नवंबर 2021
665 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं, तो कुंती महारानी की प्रार्थनाओं में से एक प्रार्थना या स्मरण करेंगे । इस प्रार्थना का भगवान के दामोदर लीला के साथ संबंध है । कुंती महारानी प्रार्थना तो कर रही थी कृष्ण से वह प्रत्यक्ष रूप में उपस्थित थे परोक्ष में नहीं प्रत्यक्ष । रथ में विराजमान थे द्वारका का प्रस्थान हो रहा था । इतने में कुंती महारानी आई और कुछ विशेष निवेदन प्रार्थना करने लगी और कुंती महारानी तो हस्तिनापुर धाम की निवासी हैं तो वैसे ही भाव है हस्तिनापुर के भक्तों के जो भाव होते हैं या द्वारका के भक्तों के जैसे भाव होते हैं । ऐसे भाव वाली ये कुंती महारानी प्रार्थना कर रही थी । उसको स्मरण आया इस दामोदर लीला का जो लीला श्री कृष्ण गोकुल में खेले थे जब वे बालक थे । अभी तो बड़े हुए हैं द्वारकाधीश बने हैं । तब ऐसी एक बात ये दामोदर लीला की बात जो कुंती महारानी को मोहित कर रही थी । उसको ये लीला समझने में कठिनाई आ रही थी तो जो प्रार्थना पढ़ने जा रहे हैं श्रीमद्भागवत का प्रथम स्कंध आठवां अध्याय श्लोक संख्या 31 है ।
गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्
या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसम्भ्रमाक्षम् ।
वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य
सा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.8.31 )
अनुवाद:- हे कृष्ण , जब आपने कोई अपराध किया था , तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई , तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं , जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया । यद्यपि आपसे साक्षात् काल भी भयभीत रहता है , फिर भी आप भयभीत हुए । यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है ।
छंद और तात्पर्य भी है या तात्पर्य इसीलिए लिखे जाते हैं कि समझने में मदद हो । इस रहस्य का उद्घाटन हो, तो प्रभुपाद इसको बढ़िया से समझा रहे हैं इस श्लोक को तू पहले तो अनुवाद । कुंती महारानी कहा; हे कृष्ण ! आप सुन रहे हो । हां ! ध्यान पूर्वक श्रद्धा पूर्वक सुनना होगा नहीं तो पल्ले नहीं पड़ेगा ये । हे कृष्ण , जब आपने कोई अपराध किया था , तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई , तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं , जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया । यद्यपि आपसे साक्षात् काल भी भयभीत रहता है , फिर भी आप भयभीत हुए । यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है । तो कुंती महारानी जो दामोदर अष्टक का द्वितीय अष्टक है,
रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तं
कराम्भोज – युग्मेन सातंकनेत्रम् ।
मुहुःश्वास कम्प- त्रिरेखामकण्ठ
स्थित ग्रैव – दामोदरं भक्तिबद्धम् ॥
( श्री दामोदराष्टक 2 )
अनुवाद:- अपनी माता के हाथ में छड़ी देखकर वे रोते हैं और बारम्बार अपने हस्तकमलों से नेत्रों को मसलते हैं । उनकी आँखें दहशत से भरी हैं और तेजी से साँस लेने के कारण तीन रेखाओं से अंकित उनके गले में पड़ी मोतियों की माला हिल रही है । उन परम भगवान् दामोदर को , जिनका उदर अपनी माता के शुद्ध प्रेम से बँधा है , मैं प्रणाम करता हूँ ।
इस अष्टक के संबंध में दामोदराष्टक । कुंती महारानी अपनी प्रार्थना में बात कही । “रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तं” तो आपकी आंखें डबडबा आईं । “या ते दशाश्रुकलिलाञ्जन” अंजन जो आंखों में अंजन लगाया जाता है काजल । “सम्भ्रमाक्षम्” “वक्त्रं निनीय” और आप झुक गए । यशोदा की आंखों में आंख नहीं मिला पाए आप । नीचे देख रहे थे आप । “भयभावनया स्थितस्य” और भयभीत हुए आप । “सा मां विमो” आपने लीला का प्रदर्शन किया । आपके मन की स्थिति जो हुई । आप जो डरे थे आप, आंसू बहा रहे थे । “विमोहयति” इस बात से मैं सम भ्रमित होती हूं । “भीरपि यद्विभेति” ऐसा आप के कारण या कई सारे डरते हैं आपसे । लेकिन यहां पर आप यशोदा के कारण डरे थे । यहां पर श्रील प्रभुपाद तात्पर्य में लिखते हैं परमेश्वर के लीला से उत्पन्न मोह का एक दूसरा वर्णन दिया जा रहा है । भगवान तो सभी परिस्थितियों मंं सर्वोपरि है । जिससे कि इसकी व्याख्या की जा चुकी है तो प्रभुपाद आगे समझा रहे हैं । यहां पर भगवान सर्वोपरि होने का एक विशिष्ट उदाहरण है और साथ ही साथ वे अपने शुद्ध भक्तों के साथ उनके अधीन रहकर क्रीडा भी कर रहे हैं । “भक्तैर्जितत्वं” दामोदराष्टक में लिखा है “भक्तैर्जितत्वं” भक्त आपको जीत लेते हैं वैसे आप हो अजीत । लेकिन भक्त आपको जीत लेते हैं । भक्त अपना अधिकार जमाते हैं आपके ऊपर । आप भक्तों के अधीन हो जाते हो । भगवान का शुद्ध भक्त अनन्य प्रेम के कारण ही भगवान की सेवा करता है और ऐसी भक्ति में सेवा करते हुए वो परमेश्वर की पद स्थिति को भूल जाता है, तो श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं । वृंदावन के भक्त प्रेममई सेवा करते हैं भगवान की । ये नहीं की द्वारिका के भक्त प्रेममई सेवा नहीं करते तो वैकुंठ के भक्त भगवान की प्रेममई सेवा नहीं करते । लेकिन प्रेम की जो तीव्रता है, प्रेम की जो मात्रा है उस प्रेम की जो तीव्र वृंदावन में है और कहीं पर नहीं है यह कहने का तात्पर्य है, तो सेवा करते हुए वे परमेश्वर की परिस्थिति को भूल जाता है । भगवान सर्वज्ञ है, शक्तिमान है यह हो जो भगवान सबका मालिक ऊपर वाला है ये जो भगवान का वैभव इसको प्रेममई सेवा करने वाले वृंदावन के भक्त भूल जाते हैं ऐसा श्रील प्रभुपाद लिखते हैं । भगवान की भगवता भगवान का वैभव भगवान का स्वामित्व …
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
( भगवद् गीता 5.29 )
अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता , समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से श लाभ करता है ।
ये जो बात कृष्ण कहते हैं …
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥
( भगवद् गीता 9.10 )
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र ! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है , जिससे सारे चार तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं । इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है ।
इन बातों को वृंदावन के भक्त भूल जाते हैं । भगवान भक्तों की प्रेम मई सेवा स्वीकार अधिक चाओ से करते हैं तो और भक्तों की अपेक्षा जो प्रेममई सेवा करते हैं उसको भगवान बड़े उत्कंठा पूर्वक स्वीकार करते हैं या पहले स्वीकार करते हैं । सामान्य रूप से भगवान अपने भक्तों द्वारा आदर की दृष्टि से पूजे जाते हैं, तो भगवान का आदर सत्कार सम्मान होता है । भगवान के संबंध में सोचते हैं । लेकिन भगवान भक्त से तब विशेष प्रसन्न होते हैं, सुनिए ! प्रभुपाद क्या लिख रहे हैं । लेकिन भगवान भक्त से विशेष प्रसन्न होते हैं जब वो शुद्ध प्रेम तथा स्नेह बस भगवान को अपने कम महत्वपूर्ण समझता है । जब भक्त समझता है कि मुझसे ये छोटा है कम उम्र वाला है, ये बल हीन है, ज्यादा भी बुद्धि का विकास नहीं हुआ है इस बालक में, तो ऐसे भगवान के भक्त जो सोचते हैं । भगवान को अपने से कम महत्वपूर्ण समझता है । भक्त जब ऐसा समझता है तो भगवान उस बात से प्रसन्न होते हैं भगवान का कोई पालक बनते हैं । पालक समझते हो ? अभिभावक या देखभाल करने वाला भगवान का कोई देखभाल करने वाला बनता है । मैं इसका लालन-पालन में करती हूं, मैं खिलाती हूं, रोटी कपड़ा मकान यह सब मुझे करना पड़ता है तो यह जो भाग है यह जो सोच है उससे भगवान अधिक प्रसन्न होते हैं । उससे नहीं सुख संपति घर आवे कष्ट मिटे तन का । ऐसे जो मांग करने वाले हैं, उनको तो उससे भगवान प्रसन्न नहीं होते । भगवान के मूल धाम गोलक वृंदावन में भगवान की सारी लीलाओं का आदान प्रदान इसी मनोभाव से होता है तो वृंदावन की खासियत है कहो । वृंदावन में विश्रम्भ सख्य, विश्रम्भ वात्सल्य, विश्रम्भ माधुर्य का प्रदर्शन होता है । विश्रम्भ मतलब; हम एक समकक्ष है ।
सखा शुद्ध सख्ये करे , स्कन्धे आरोहण ।
तुमि कोन्बड़ लोक , तुमि आमि सम ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदिलीला 4.25 )
अनुवाद:- मेरे मित्र शुद्ध मैत्री के कारण मेरे कन्धों पर यह कहते हुए चढ़ जाते हैं कि , तुम किस तरह के बड़े व्यक्ति हो ? तुम और हम समान हैं ।
समझे ! ऐसा डांटते हैं भगवान के मित्र । ऐ ! ऐसे ही यशोदा भी वात्सल्य भाव में डांट ती या पीटने के लिए तैयार है । भगवान को पीटेगी, कान पकड़े की छड़ी लेके आई है और उर्दूखुला में, उखल से भगवान “द्धावमानं” दौड़ पड़े हैं नीचे उतरे हैं और दौड़ने लगे । “यशोदाभियो” यशोदा से डरी थे तो दूर भाग रहे हैं । भगवान के माता पिता या शुद्ध भक्त होते हैं । उन्हें केवल भगवान को केवल बालक मानते हैं । भगवान है बालक और हम हैं पालक । जैसा आप भी हो पालक । उसमें से कई पालक हो । ब्रह्मचारी तो पालक नहीं है । लेकिन जो गृहस्थ है आप पालक हो और आपके जो आपत्य है, पुत्र पुत्रियां हैं वो पाल्य है । पाल्य,पालक आपके बच्चे पाल्य और आप हो पालक, तो यशोदा और फिर वृंदावन में केवल यशोदा ही नहीं सारी वयस्क गोपी जो है बुजुर्ग गोपियां सभी का ऐसा ही समझ ऐसा ही भाव है कृष्ण के प्रति । पालक भाव । भगवान अपने माता-पिता की प्रताड़नाओं को वैदिक स्तोत्र द्वारा की गई बढ़कर आनंदमई मानता है । आप समझे ! प्रभुपाद यहां लिख रहे हैं एक और यशोदा डांट रही है डांटते समय कुछ वचन कह रही है तो और दूसरी और वेद पुराण है उसमें कई सारे स्तोत्र, स्तुति है इन दोनों में यशोदा का जो डांटना या फिर पीटना या कुछ क्रोध का बचन कहना यह अधिक प्रिय भगवान को है । स्तुतियों से वेदों में पुराणों में या ..
सूत उवाच
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै ।
वैदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 12.13.1 )
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुतगण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद – क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं ।
देवता भी स्तुति गान करते हैं तो उन स्तुतियों से यशोदा का जो डांटना है इससे भगवान अधिक प्रसन्न होते हैं । इसी प्रकार अपने प्रेमिकाओं के उलाहनों को वैदिक स्तोत्रों की अपेक्षा अधिक रुचि से सुनते हैं । मतलब गोपियां राधा रानी वो भी कभी रूठ जाती हैं और रूठी हुई राधा रानी जो कुछ कह बैठती है । लंपट हो तुम ऐसे हो तुम वैसे हो । हे ! तुम जाओ मैं तुम्हारा चेहरा नहीं देखना चाहती हूं । तुम जाओ चंद्रावली के पास जाओ तू ये जो बचन है, मानीनी राधा रानी जब मानीनी बन जाती है । वैसे मान भी प्रेम का प्रकार ही है या प्रेम से ऊपर जिसको हम प्रेम प्रेम कहते हैं उससे ऊपर है स्नेह और उससे ऊपर है ये राधा रानी का रूठ जाना । मान करके बैठना ।
राधा कृष्ण प्रणय – विकृतिर्ह्रादिनी शक्तिरस्माद्
एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ ।
चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं
राधा भाव द्युति सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदिलीला 1.5 )
अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक् कर रखा है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गये हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , जो साक्षात् कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं ।
प्रणय भी प्रेम का एक प्रकार है । मान भी प्रेम का एक प्रकार है तो ये राधा रानी जो मान करके जो बैठती है और उस समय जो कहती है यह रूठी हुई राधा कुछ क्रोध के वचन तो वे बच्चन कृष्ण को अधिक पसंद है । जब भगवान श्री कृष्ण का धरा धाम में मूल गोलक वृंदावन के दिव्य जगत की लीलाओं को जनसामान्य के आकर्षण के लिए प्रकट करने के निमित्त उपस्थित थे तो वे अपनी पालक माता यशोदा के समक्ष विलक्ष विनीत भाव प्रकट करते रहे तो कृष्ण विनीत …
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना ।
अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्यलीला 20.21 )
अनुवाद:- जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है ।
तो कृष्ण की नम्रता कृष्ण नम्र बन जाते हैं । विनीत भाव प्रकट करते हैं यशोदा के समक्ष । हाथ जोड़ते हैं उनके पैर छूते हैं और ऐसा कान पकड़ के नहीं नहीं ! दोबारा ऐसा नहीं होगा । माफ कर दो छोड़ दो मैया ऐसा दोबारा नहीं करूंगा मैं प्रतिज्ञा करता हूं और फिर कृष्ण नम्र बन जाते हैं तो फिर, उतना कोई नम्र बन सकता है जब कृष्ण ही नम्र बनेंगे । फिर उस नम्रता की तुलना कोई सीमा ही नहीं या भगवान जब मित्र बनते हैं तो वो मैत्री है या भगवान पति बन जाते हैं द्वारका में । तो इस तरह से कृष्ण सबसे आदर्श पति कहो या मित्र कहो या प्रेमी प्रियकर कहो प्रेयोंसी के लिए । इस प्रकार जब भगवान फिर क्रोध करते हैं तो फिर नरसिंह भगवान के रूप में ऐसा क्रोध और कोई नहीं कर सकता । यह जो भाव है अलग-अलग तो विनय का जो भाव है नम्रता है तो भगवान जब नम्र बनके दिखाते हैं लीला खेलते हैं तो उतना नम्र कोई नहीं बन सकता जितना श्रीकृष्ण यशोदा के समक्ष नम्र बनते हैं या फिर नंद बाबा कहते हैं; ऐ ! जूता लेके आओ तो कृष्ण कोई प्रश्न नहीं करते । तो कृष्ण, क्या ! मुझे जूता लाने के लिए कह रहे हो । जानते नहीं हो मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हूं । ऐसा नहीं कहते वो सचमुच, ये तो बात है तो भगवान आदर्श बच्चे तो फिर नटखट भी हो जाते हैं तो, है कोई संसार में ऐसा । नटखट बालक कृष्ण के जैसे । आप भी तो नटखट होगी ही या थे ही । मैं भी नटखट था या हर बालक में नटखट पन आती ही है । लेकिन इसका स्रोत क्या है ? कृष्ण नटखट है या फिर चोर है तो कृष्ण चोर बन जाते हैं । चोरों में अग्रगण्य बन जाते हैं । कोई चोर कृष्ण के साथ बराबरी नहीं कर सकता और हर क्षेत्र में कृष्ण अग्रगण्य है, चूड़ामणि है, शिरोमणि है वे सबसे श्रेष्ठ हैं या नम्रता की विलक्षण विनीत भाव प्रकट करते हैं । वे अपने बालोचित क्रीडाओं से यशोदा माता द्वारा एकत्र करके रखे गए माखन की मटकी तोड़ कर उसका सारा माखन बर्बाद कर देते थे और उससे मित्रों और संगीओं में यहां तक कि वृंदावन के प्रसिद्ध बंदरों में भी बांट दिया करते थे और वे सब भगवान की इस दान सिलता का लाभ उठाते थे तो फिर भगवान दानी बन रहे हैं । माखन तो अपना ही नहीं, चोरी का माल है । खुद बांट रहे हैं और वह फिर बंदरों को बांट रहे हैं । हो गए फ्री प्रसिद्ध दानवीर हो गए भगवान और उनकी जो दान सिलता का बंदर भी लाभ उठा रहे हैं प्रभुपाद लिखे हैं । जब यशोदा ये देखती है तो वह शुद्ध प्रेम बस यह दिव्य वालक को अपने दंड का दिखावा दंड का दिखावा करती है । यशोदा का जो दंड दिखाना है ये भी तो प्रेम ही है । प्रेम का प्रदर्शन ही है शुद्ध प्रेम वस ये सब दिखावा है ये लीला है । वे रस्सी लेकर धमकाती की वे उन्हें बांध देगी । इस प्रकार ये सामान्य घरों में किया जाता है । सामान्य घरों में आपके सभी घरों में कभी-कभी आप बच्चों को बांध देते हो या कोई कमरे में बंद कर देते हो । यह सब कभी बांध देते हाथ । ऐसा होता है कि नहीं ? हर घर में होता है । घरोघर मातीच्या चुली इसे कहते थे मराठी में कहावत । घर में होता है चुला । अब तो चुला नहीं रहा ग्यास आ गया । लेकिन ये कहावत हुआ करती थी हर घर-घर में चुला होता ही है तो ये जो यशोदा के घर में जो घटनाएं घटती थी और अपने बालक कृष्ण को जैसे डांटती है, पटती है, डराती है कभी बांध देती है दामोदर रस्सी से बांध देती है ये सब, सब घरों में चलता रहता है । हां या नहीं ? ये सब कैसे फैल गया हर घर घर कैसे फैल गए ? कृष्ण के कारण । कृष्ण है सर्वो कारण कारणं । माता यशोदा के हाथ में रस्सी देखकर भगवान अपना सिर नीचे करके सामान्य बालक की भांति रो पड़ते और उनके अश्रुओं से उनके सुंदर आंखों में लगा काजल धुलकर कपूलो पर धुला पड़ता । ये सब दामोदर अष्टक में कहा है, लिखा है । इसको आप सब गा रहे हो । उसी को यहां कुंती महारानी के इस प्रार्थना के संबंध में श्रील प्रभुपाद तात्पर्य में वही बातें लिख रहे हैं । कुंती देवी ने भगवान के इस रूप की पूजा की, तो कुंती की जो प्रार्थना है कुंती महारानी की प्रार्थना श्रीमद् भागवत के प्रथम स्कंध के आठवें अध्याय में तो कई प्रार्थना है विस्तृत प्रार्थना है ।
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम् ।
न न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.8.19 )
अनुवाद:- सीमित इन्द्रिय ज्ञान से परे होने के कारण आप मोहिनी शक्ति ( माया ) के पर्दे से ढके रहने वाले शाश्वत अव्यय – तत्त्व हैं । आप अल्पज्ञानी दर्शक के लिए ठीक उसी प्रकार अदृश्य रहते हैं , जिस प्रकार अभिनेता के वेश में कलाकार पहचान में नहीं आता ।
ऐसा भी कई प्रार्थना के अंतर्गत । ये बालक क्या करता है कृष्ण ? ऐसा आप भी करते होगे कुंती महारानी के सामने ही तो कृष्ण है । इतना कुछ परोक्ष में नहीं है । कृष्ण और कहीं है या होंगे सर्वत्र होते ही हैं इसलिए प्रार्थना कर रही है । ऐसी बात नहीं है । कृष्ण समक्ष थे उनको देखती हुई प्रार्थना कर रही है । कृष्ण रथ में बैठे हैं और इतने में सामने से आ गई कुंती महारानी । ये हस्तिनापुर का दृश्य है और प्रार्थना करने लगी । उस प्रार्थना के अंतर्गत उन्होंने यह भाग कहा कि “नटो नाट्यधरो यथा” आप वैसे नट अलग अलग नाटकों में नाटक अलग अलग है लेकिन नट तो एक ही है । एक ही कलाकार अलग-अलग भूमिका निभाता है अलग-अलग नाटकों में । ड्रामा में चलचित्र में तो आप भी तो वही हो । “केशब धृत राम शरीर जय जगदीश हरे” केशब धृत नरहरि रूप” इसी तरह से 10 अवतार के संबंध में कहा ही है और सारे अवतार तो कृष्ण है अवतारी और सारे अवतार ।
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप पुराणपुरुष माद्यं नवयौवनञ्च ।दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ वेदेषु गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
( श्री ब्रह्म संहिता 5.33 )
अनुवाद:- जो अद्वैत , अच्युत , अनादि , अनन्तरूप , आद्य , पुराण – पुरुष होकर भी सदैव नवयौवन सम्पन्न सुन्दर पुरुष हैं , जो वेदोंके भी अगम्य हैं , परन्तु शुद्धप्रेमरूप आत्म – भक्तिके द्वारा सुलभ हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ ।
तो अनंत रूपों में आप अलग-अलग भूमिका ये निभाते हो । “नटो नाट्यधरो यथा” जैसे कलाकार एक ही कलाकार अलग अलग भूमिका निभाता है । उसकी वेशभूषा अलग होती है नाम अलग होता है सारी परिस्थितियां अलग होती है तो श्रील प्रभुपाद आगे लिखते हैं जिन से साक्षात भय भी भयभीत रहता है । जिन से मतलब कृष्ण से भय भी भयभीत रहता है ।
मद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति मद्भयात् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निर्मृत्युश्चरति मद्भयात् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 3.25.42 )
अनुवाद:- यह मेरी श्रेष्ठता है कि मेरे ही भय से हवा बहती है , मेरे ही भय से सूर्य चमकता है । और मेघों का राजा इन्द्र मेरे ही भय से वर्षा करता है । मेरे ही भय से अग्नि जलती है और मेरे ही भय से मृत्यु इतनी जानें लेती है ।
भगवान कहे हैं मेरे भय से “वाताः, वाति” न्यू देवता है हवा का चलायमान हवा को मुझसे डर के करता है । अरे देवता सारे देवता भयभीत है भय के कारण नहीं तो नौकरी से हाथ धो सकते हैं । को निकाला जाएगा या उनको तनखा नहीं मिलेगा । ऐसा भय होता है । इसलिए सारे देवता भगवान की सेवा करते रहते हैं । राक्षस तो डरे होते ही हैं लेकिन देवताओं में भी थोड़ी भय होता हैं । भगवान महान है हम तो लहान छोटे हैं तो बड़ों से भयभीत होते हैं तो साक्षात भय भी भयभीत रहता है । वे भगवान अपनी माता से भयभीत हैं । जिनसे सारी दुनिया डरती है उसी को यशोदा डराती है, देख लो कमाल हो गई । क्योंकि माता उन्हें सामान्य तरीके से दंडित करना चाह रही थी । कुंती को भगवान की श्रेष्ठ स्थिति पता था । “कुंती को भगवान की श्रेष्ठ स्थिति” भगवान महान है, भगवान सर्वज्ञ है, अभीज्ञ है, स्वराट है, स्वतंत्र है । कैसी पहचान थी या ऐसे भगवान को जानती थी कि भगवान श्रेष्ठ है महान है । यशोदा को भगवान उनके शिशु रूप में प्राप्त हुए थे और भगवान ने उन्हें भुलवा दिया था कि उनका बालक साक्षात भगवान है यशोदा को बुलवा दिए भगवान या भगवान की जय योगमाया शक्ति है वो भुला देती है । भगवान की जो भगवता है भगवता को भुला देती है और भगवान को साधारण बालक या साधारण मित्र या साधारण प्रियकर वृंदावन के भक्त मानते हैं । माता यशोदा को भगवान उनके शिशु रूप में प्राप्त हुए थे और भगवान ने उन्हें बुलवा दिया कि उनका बालक साक्षात भगवान है जो भगवान जब शिशु रूप में प्राप्त हुए हैं अपने पुत्र के रूप में तो जोगमाया ने भुला दिया यशोदा को यह कोई भगवान है अवतारी है । यदि यशोदा को भगवान की दिव्य स्थिति का पता होता तो वे भगवान को अवश्य दंडित करते हुए हिचकती । सोचती बार-बार शायद सोचती एक बार तो सोच ही लेती इसको में अब बांधने जा रही हूं पीटने जा रही हूं और ये भगवान हे तो, लेकिन ऐसी समझ ही नहीं ये कोई भगवान है । लेकिन उन्हें ये स्थिति बुलवा दी गई । लेकिन भगवान ममतामई यशोदा के समक्ष पूर्ण वाल्यचापल्य का भाव प्रदर्शित करना चाहते थे, तो जब तक भगवान कि भगवता को यशोदा भूले ही नहीं तब तक यशोदा वाल्यचापल्य का प्रदर्शन नहीं कर पाते कृष्ण । कृष्ण ने पहले भुला दिया यशोदा को और फिर ये चल रहा है नटखट कन्हैया के नटखट लीलाएं । माता तथा पुत्र के बीच प्रेम का यह आदान-प्रदान सहज रूप में संपन्न हुआ और कुंती इस दृश्य को यथा स्मरण करके मोहित थी । क्योंकि बाल लीला जब यह संपन्न हुई तब वे सोच ही रही थी । तब से वो समभ्रमित थी कि ये कैसे हुआ ? यहां यशोदा डांट रही है, डोरी से बांध रही है और कृष्णा रो रहे हैं अश्रु बहा रहे हैं तो ये गुह्य बात या थोड़ी चुगने वाली बात अब बोल के सुना रही है कृष्ण को कह रही है । आपकी वो जो लीला गोकुल में आप खेले थे वो कुछ समझने में नहीं आती । मैं मोहित हूं समभ्रमित होती । सारा संसार आप से डरता है और ऐसे आप डर जाते हो यशोदा से यह कुछ समझ में नहीं आती, कृपया समझाएं । क्योंकि वे दिव्य पुत्र प्रेम की सराहना के अतिरिक्त कर ही क्या सकती थी । तात्पर्य के अंत में श्रील प्रभुपाद अब लिखते हैं परोक्ष रूप में यशोदा की प्रशंसा उनके प्रेम की दिव्य स्थिति के लिए की जा रही है । यशोदा की प्रशंसा तो हम लोग यशोदा का भी यशोगान गाते हैं । यशोदा मैया की जय ! क्योंकि उन्होंने अपने प्रेम का प्रदर्शन किया प्रेम की दिव्य स्थिति । यशोदा के प्रेम की दिव्य स्थिति को जानकर हम यशोदा का यशोगान गाते हैं । क्योंकि वे सर्वशक्ति भगवान को भी अपने प्रिय पुत्र के रूप में बस कर सकती थी, तो भगवान को भी अपने बस में करके रखा था ।
तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च ।
यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतु: शुच: ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.82.35 )
अनुवाद:- अपने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में उठाकर और अपनी बाहुओं में भर कर , नन्द तथा सन्त स्वभाव वाली माता यशोदा अपना शोक भूल गये ।
इसीलिए यशोदा बड़ी भाग्यवान है, ये विशेष है । इसीलिए जसोदा मैया की जय ! और हम तो दोनों का भी कृष्ण कन्हैया और उनकी मैया यशोदा दोनों का हम स्मरण करते हैं । दोनों का गौरव गाथा गाते हैं, तो दामोदर लीला में या दामोदर की कीर्ति है और विशेष कीर्ति का उल्लेख यशोदा का है । हम जब दीपदान करते हैं तो केवल दामोदर का नहीं, यशोदा का भी । यशोदा दामोदर का दीपदान होता है । दोनों का गौरव गाथा का हम स्मरण करते हैं और फिर कीर्तन भी करते हैं । यह सब ये कुंती महारानी के प्रार्थना में भी यशोदा की कीर्ति का गान हुआ है और सुना रही है कृष्ण को सुना रही है यशोदा का भी कीर्ति का गान और बाल लीला के कीर्ति का गान ।
जय यशोदा दामोदर की जय !
कुंती महारानी की जय !
कृष्ण कन्हैया लाल की जय !
गोकुल धाम की जय !
दामोदर मास की जय !
श्रील प्रभुपाद की जय !
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*10 नवंबर 2021*
*वृन्दावन धाम से*
हरे कृष्ण !
आज 761 भक्त इस जपा टॉक में सम्मिलित हैं। आप सभी का स्वागत है। वैसे आप पहुंच भी गए, पहले आप हमारे साथ यहां वृंदावन में थे किंतु कई अपने-अपने घर लौटे है। वैसे वृंदावन ही अपना घर है मे बी होम अवे फ्रॉम होम, ऐसा अंग्रेजी में कहावत है। आपका होम अहमदाबाद या जहां भी है वह कैसा है अवे फ्रॉम होम है ओरिजिनल होम तो हमारा वृंदावन है। बैक टू होम, धीरे-धीरे जो भक्त वृंदावन आए थे अपने अपने नगर ग्राम और घर पहुंच रहे हैं। इसे क्या कहें दुर्देव कहो या सुदेव कहो मुझे भी आज यहां से प्रस्थान करना पड़ रहा है। ऐसा पहली बार हो रहा है 35 वर्षों में शोलापुर में राधा दामोदर विग्रह की स्थापना हो रही है। राधा दामोदर आ रहे हैं। शोलापुर में उनके स्वागत और प्राण प्रतिष्ठा के लिए मैं आज यहां से प्रस्थान कर रहा हूं। वृंदावन से शोलापुर तो कल पहुंचूंगा।
*बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् । रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः ॥* (श्रीमद भागवतम १०.२१.५ )
अनुवाद – अपने सिर पर मोरपंख का आभूषण, अपने कानों में नीले कर्णिकार फूल, स्वर्ण जैसा चमचमाता पीला वस्त्र तथा वैजयन्ती माला धारण किये भगवान् कृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ नर्तक का दिव्य रूप प्रदर्शित करते हुए वृन्दावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीक बना दिया। उन्होंने अपने होंठों के अमृत से अपनी वंशी के छेदों को भर दिया और ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया।
यह वेणु गीत अध्याय का वचन है जो कि प्रसिद्ध है इसकी स्टडी भी हम कल कर रहे थे। अर्थात ऐसे कृष्ण और ऐसे धाम को छोड़ना पड़ रहा है। इट्स नॉट इजी टास्क , एक ओर कृष्ण खींच रहे हैं और दूसरी ओर ड्यूटी सेवा खींच रही है। शोलापुर की ओर, यहां वृंदावन में भगवान खींच रहे हैं यहां कृष्ण “बर्हापीडं” मोर मुकुट पहने हुए नटवरवपुः, जैसे हम पढ़ते हैं सुनते हैं स्मरण करते हैं नटवर वपु: उनकी वपु कैसी है ? नटवर या नटवत जैसे हैं कृष्ण। वैसे भी नटराज कहलाते हैं। इस तरह एक्टर हैं। कलाकार जैसा ही उनका सौंदर्य भी है और कलाकार जैसी उनकी चाल भी है। वैसे कलाकारों जैसी इनकी चाल या सौंदर्य नहीं कह सकते हरि हरि !
नटों मैं वे श्रेष्ठ हैं नटवरवपु: कर्णयोः कर्णिकारं अपने कानों में कर्णिकारं कर्णिका पुष्प धारण करते हैं। इस वचन में कहा है कर्णयोः कर्णिकारं अर्थात दो कान वाले, एक पुष्प और दो कान , क्या करते होंगे कैसे पहनते होंगे यह कैसे धारण करते होंगे? एक पुष्प है और दो कान हैं। कुछ आचार्यों ने यह भी लिखा है कि उल्लेख तो होना चाहिए पुष्पों का कर्णयोः कर्णिकारं, यह अर्श वचन है अर्श वचन मतलब ऋषि मुनि या शुक् कह रहे हैं उनके लिए माफ है वह कर्णयोः कर्णिकारं भी कह सकते हैं कहना तो था उनको करुणिकारौ द्विवचन में, लेकिन उन्होंने कह दिया एक ही पुष्प का उल्लेख हुआ अतः इसे अर्श वचन कहते हैं। कोई भाष्य कार लिखते हैं भगवान जो नटवर हैं या एक्टर हैं अपनी कलाकारी का प्रदर्शन करते हैं। उसमें क्या करते हैं एक ही पुष्प को दाहिने दक्षिणे कभी बाएं कान में उसी पुष्प को धारण करते हैं।
बिभ्रद्वासः कनककपिशं और कृष्ण जो वस्त्र धारण करते हैं कौन से विशेषणों का हम उपयोग कर सकते हैं। कृष्ण के सौंदर्य का कहो या उनके वस्त्रों का वर्णन करने के लिए ,शब्द तो अधूरे रहते हैं वाणी या तो गदगद होनी चाहिए। शब्द ही नहीं निकलते या शब्द अधूरे रह जाते हैं पूरा वर्णन नहीं कर पाते, ऐसा भी कहा है कृष्ण के संबंध में की आभूषण धारण करने से कृष्ण के सौंदर्य में वृद्धि नहीं होती, उल्टा ही होता है। कृष्ण जब अलग-अलग अलंकार या वस्त्र धारण करते हैं तब अलंकारों और उन वस्तुओं की शोभा बढ़ती है। भगवान के स्वयं के सौंदर्य के कारण, आप आसानी से समझ सकते हो यह उल्टा है आध्यात्मिक जगत में सुल्टा है और हमारे जगत में यह उल्टा है। हम अपने सौंदर्य का वर्धन करने या हम अधिक सुंदर हैं इसका दर्शन कराने में कई सारे वस्त्र अलंकार कुंडल या यह है या वह है हम पहन कर अपने सौंदर्य को बढ़ाने का हर संभव प्रयास करते हैं। यह सारी कॉस्मेटिक इंडस्ट्री, गारमेंट या इसके पीछे कितना लोग दिमाग लगाते हैं यह कितने प्रयास होते हैं
ताकि आप स्टाइल से इस प्रकार की शर्ट इस प्रकार की पेंट इस प्रकार की लिपस्टिक नेल पॉलिश एवं नेल केयर, चमड़ी की केयर है नाखून की केयर है इसी में हम लोग फंसे रहते हैं और अपने जीवन को बर्बाद करते हैं या प्लास्टिक सर्जरी करते हैं। ताकि हम ऐसा दिखे नहीं तो अच्छा नहीं लगता है। इसीलिए फिर लेकिन कृष्ण ! कृष्ण कन्हैया लाल की उनकी बात ही अलग है वैसे सारे सौंदर्य के स्रोत कृष्ण ही हैं और फिर कृष्ण के आभूषणों में या वस्त्रों में जो सौंदर्य है उसके कारण भी कृष्ण ही हैं या कृष्ण का सौंदर्य उनके वपु का उनके विग्रह का जो सौंदर्य है और यही है माधुर्य वृंदावन का, कृष्ण का सौंदर्य, एक माधुर्य है या चार प्रकार के जो माधुर्य वृंदावन में होते हैं वेणु माधुर्य, लीला माधुर्य, प्रेम माधुर्य और रूप माधुर्य है इन चार माधुर्यों के कारण कृष्ण हैं। या कृष्ण फिर कहते हैं
*मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥* (श्रीमद भगवद्गीता 7.7)
अनुवाद- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है |
मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। हम यहां मनुष्यों की बात नहीं कर रहे मनुष्य तो मक्खी मच्छर है। नथिंग, यहां जब भगवान कह रहे हैं मत्तः मुझसे और कोई श्रेष्ठ नहीं है और और
*रामादि मूर्तिषु कल-नियमेन तिष्ठन् नानावतारं अकरोद्भुवनेषु किंतु कृष्णः स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो गोविंदं आदिपुरुषं तमहं भजामि।*
यह नानावतारं सारे अवतारों में मेरे बराबर का कोई नहीं है समुर्ध्वं मेरे संग कोई नहीं है। ऊर्ध्वं अर्थात मुझसे श्रेष्ठ या मुझ से ऊंचा कोई नहीं है। यह चार माधुर्य हैं। भगवान के 64 गुणों का उल्लेख भक्तिरसामृत सिंधु में हुआ है और यह चार ऐसी क्वालिटी है जिनका हमने उल्लेख किया है। यह केवल कृष्ण में ही है और वह भी केवल वृंदावन कृष्ण में है। मथुरा में उतना सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है और द्वारका में भी नहीं है और बैकुंठ में तो है ही नहीं। वृंदावन के कृष्ण सर्वोपरि हैं बिभ्रद्वासः कनककपिशं, यह वस्त्र जो पहनते हैं इसे पीतांबर कहते हैं और जब ऐसे वस्त्र पहनते हैं तब भगवान का एक नाम भी हो गया है पीतांबर ! पीत पीला अंबर वस्त्र, पीले वस्त्र पहनते हैं।
येलो गारमेंट्स, लेकिन कनककपिशं कैसा है यह पीतांबर ? जब आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट होती है और बिजली चमकती है लाइटनिंग उसकी जो छटा या आभा है या शोभा होती है विद्युत की लाइटनिंग की, वैसे तुलना तो हो नहीं सकती लेकिन कुछ तुलना या उपमा देने से हमको थोड़ा सा कुछ आईडिया आ जाता है। जो भी हम विद्युत की या बिजली की चमक दमक है उसकी कई गुना चमक दमक कनककपिशं मतलब बोल्ट, जैसा यह भगवान के पीतांबर वस्त्र हैं। यह साधारण पीला या पीत रंग नहीं है। जैसे राधा रानी के संबंध में भी तप्त कांचन गौरांगी! गौरांगी का अंग कैसा है सुनहरे वर्ण की हैं किंतु कैसा सुनहरा वर्ण या कैसा? गोल्ड का वर्ण, कैसा सोना? तप्त , यह सोना जब तपता है, उसकी जो शोभा है वह साधारण सोने से कई अधिक गुना होती है। केवल कांचन गौरांगी राधे नहीं कहा है तप्त कांचन कहा है। वैसे ही यहां पर भी कहा है भूषणभूषणाङ्गम्
*यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग मायाबलं दर्शयता
गृहीतम् विस्मापनं स्वस्य च सौभगद्धेः
परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ॥*
(श्रीमद भागवतम ३.२.१२ )
अनुवाद- भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति योगमाया के द्वारा मर्त्यलोक में प्रकट हुए। वे अपने नित्य रूप में आये जो उनकी लीलाओं के लिए उपयुक्त है। ये लीलाएँ सबों के लिए आश्चर्यजनक थीं, यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिन्हें अपने ऐश्वर्य का गर्व है, जिसमें वैकुण्ठपति के रूप में भगवान् का स्वरूप भी सम्मिलित है। इस तरह उनका (श्रीकृष्ण का) दिव्य शरीर समस्त आभूषणों का आभूषण है।
कनककपिशं विद्युत के साथ या लाइटनिंग के साथ भगवान के पीतांबर वस्त्र की तुलना करने का प्रयास हुआ है। कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् और कृष्ण के इस वचन में वैजयंती माला का उल्लेख हुआ है। जब माला की बात करते हैं तब कई सारे वर्णन हैं या अलग-अलग समय या परिस्थिति में अलग-अलग प्रकार की मालाएं भगवान धारण करते हैं। इसीलिए फिर वह कभी वनमाली भी कहलाते हैं यशोदा मैया ने तो कई सारे अलंकार धारण कराये थे कन्हैया को, प्रातः काल में और वही पहन कर जब कृष्ण वृंदावन में अपने मित्रों के साथ प्रवेश करते हैं तब वन में पहुंचते ही मित्रों को वह अलंकार अच्छे नहीं लगते जो यशोदा ने पहनाये थे उनके मित्र वृंदावन में ही फॉरेस्ट गार्डन फ्लावर्स अर्थात कृष्ण के मित्र कई सारे पुष्पों का चयन वहीँ करते हैं पुष्पों का कुछ पत्तों का, उसकी माला बनाते हैं और फिर यशोदा के द्वारा पहनाए हुए मालाएं या अलंकार, उसको उतारकर श्रीकृष्ण को सजाते हैं। केवल माला पुष्पों की माला ही नहीं बल्कि जैसे कभी हम भी फ्लावर आउटफिट्स कहते हैं विग्रह का या मूर्ति का कैसा आउटफिट ? फ्लावर आउटफिट , हल्का सा थोड़ा सा वस्त्र और अधिकतर फ्लावर्स फूल ही फूल होते हैं यह आइडिया हमको कहां से आता है कृष्ण के जो मित्र हैं या जो सखियाँ गोपियां भी हो सकती हैं। जैसे बच्चों से लड़कों से लड़कियों के पास अधिक आईडिया होता है। श्रृंगार की बात जब आती है यह डिपार्टमेंट वैसे महिलाओं का या युवतियों का होता है बच्चे क्या जानते हैं वह तो केवल हल्का सा ही श्रृंगार करते हैं। लेकिन गोपियां जब कृष्ण का श्रृंगार करती हैं राधा रानी इज़ द लीडर , तब उस श्रृंगार का क्या कहना। इस प्रकार अलग अलग तरह की माला वर्णमाला है या पद्ममाला है पद्म के फूल या लोटस फ्लॉवर्स की माला, फिर वे पद्ममालि कहलाते हैं। ऐसी माला पहने होंगे कृष्ण, जब वे रथ में विराजमान थे हस्तिनापुर में और द्वारका के लिए प्रस्थान कर रहे थे। इतने में ही कुंती महारानी आ गई, कृष्ण को जैसे ही रथ पर विराजमान देखा, प्रार्थना करने लगी
*नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्ग्रये ॥* (श्रीमद भागवतम १.८.२२)
अनुवाद – जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सदृश गर्त है, जो सदैव कमल-पुष्प की माला धारण करते हैं, जिनकी चितवन कमल-पुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों (के तलवों) में कमल अंकित हैं, उन भगवान् को मैं सादर नमस्कार करती हूँ।
कम से कम उन्होंने देखा होगा आज कैसी माला पहने हैं। कृष्ण, कमल के पुष्पों की माला पहने हैं। द्वारिकाधीश द्वारिका के लिए प्रस्थान कर रहे हैं हस्तिनापुर से जैसी वे माला पहने हैं उसको देखते ही वह प्रार्थना कर रही हैं आप कैसे हो आपके नेत्र भी पंकज या कमल के पुष्प के सदृश हैं। और माला भी कैसी है नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने आप पंकज लोटस फ्लावर की माला पहने हो। कई भिन्न भिन्न प्रकार की माला पहनाई जाती हैं। इस वचन में शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं वैजयन्तीं च मालाम् कैसी माला “वैजयंती माला” एक एक्ट्रेस भी थी वैजयंती हमारे हरे कृष्ण लैंड में उनकी परफॉर्मेंस थी वैजयंती माला एंड डॉक्टर वाली, प्रभुपाद उन दोनों से मिले थे। वैजयंती माला आचार्यों ने उसको समझाया है और कई प्रकार से समझाया है वैजयंती माला इस माला को वैजयंती माला कहते हैं ये एक प्रकार है वैजयंती माला का, जब पांच प्रकार के पुष्पों के रंग जैसे लिखे भी हैं हरा, नीला, रक्त लाल श्वेत सफेद और इस तरह पांच प्रकार के फूल, पांच रंगों के फूल से जब वह माला लंबी होती है घुटनों तक पहुंचती है कृष्ण पहनते हैं उस माला को वैजयंती माला कहते हैं।
इस वचन में शुकदेव गोस्वामी इस माला का उल्लेख कर रहे हैं वे कहते हैं ऐसे कृष्ण का यह धाम है इसीलिए यहां से प्रस्थान करना थोड़ा कठिन होता है। इस धाम में ऐसे कृष्ण रहते हैं कृष्ण जिनका नाम है गोकुल जिनका धाम है और उनके कई सारे काम हैं *लूट लूट दधि माखन खायो ग्वाल बाल संग धेनु चराए* ऐसे कृष्ण लुटेरे बनने वाले माखन की चोरी करने वाले कृष्ण और दिन में गायों को चराने वाले कृष्ण, कल जहां हम दीक्षा समारोह संपन्न कर रहे थे भक्ति वेदांत स्वामी गौशाला में परिक्रमा मार्ग से सटके ही है हमारा वह पंडाल लगा हुआ था फिर भक्तों ने मुझे भी स्मरण दिलाया राधारमण महाराज ने कहा इस घाट का नाम गौघाट है यह घाट जहां हमारी भक्तिवेदांत स्वामी गौशाला है वही से एक समय जमुना बहती थी। कृष्ण वहां अपनी गायों को लेकर आते हैं उन को जल पिलाने हेतु और जो कालिया घाट से थोड़ा ही दूर है गौ घाट और इसीलिए भी श्रील प्रभुपाद ने, कृष्ण बलराम की जय ! कृष्ण बलराम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा वहां की। इस वेदी पर कृष्ण बलराम विराजमान हैं। उनकी बगल में एक गाय और एक बछड़ा उसकी भी स्थापना श्रील प्रभुपाद ने की। मैं हूं उसका साक्षी1975 की रामनवमी के दिन गाय और बछड़ा वही क्षेत्र तो है “रमणरेती” जहां कृष्ण गाय बछड़े चराते रहे। ऐसा धाम जहाँ पग पग पर भगवान की लीलाएं संपन्न हुई या फिर कहा ही है उन लीलाओं में वेणु रंधन अधरसुधया भगवान वेणु बजाते हैं चिकुज चिकुज शब्द का उपयोग भगवान ने मुरली बजाई चिकुज, उसकी जो ध्वनि है वेणु रंधन शुकदेव गोस्वामी कहते हैं वेणु को अधर सुधया अपने अधरों की सुधा या अमृत से भर देते हैं या कभी बंसी को भर देते हैं कभी मुरली को भर देते हैं भगवान के यह तीन प्रकार बताए हैं सब समय एक ही प्रकार की मुरली में वे नहीं बजाते और ऐसे विस्तृत या डिटेल्स वर्णन भी उपलब्ध है हर मुरली का, कि वह कितनी लंबी होती है,
वेणु कितनी लंबी होती है और हर एक में कितने कितने छिद्र होते हैं। एक में नौ होते हैं दूसरे में कितने होते हैं यह सारी डिटेल्स है और यह डिटेल्स कहां से प्राप्त हुई, जो कृष्ण की मुरली है आज भी वो बजाएंगे यह उनकी नित्य लीला है। ऐसी जैसे मुरली है, बंसी है, वेणु है उनका वर्णन भी उपलब्ध है। कोई कल्पना स्पैक्यूलेशन की जरूरत नहीं है। एज इट इज़ है भगवत गीता एज़ इट इज़ है भागवतम एज़ इट इज़ है, यथारूप उपलब्ध है। ऐसे वेणु को जब कृष्ण बजाते हैं अपने अधर के अमृत को उसमें भरते हैं और यह वेणु के द्वारा अधर अमृत सर्वत्र छिड़कते हैं और फिर इसी से कभी वह मुरली बजा कर गायों को बुलाते हैं कभी गोपियों के लिए बजाते हैं ऐसी व्यवस्था है। जिनके लिए मुरली बजाएंगे वही लोग सुनेंगे, जैसे रात्रि के समय 10:30 बजे कृष्ण को वन में रास क्रीडा खेलनी है, वहां पहुंच कर कृष्ण मुरली बजाते हैं मुरली की ध्वनि सर्वत्र पहुंच रही है सभी घरों में पहुंच रही है लेकिन केवल गोपियां ही सुनती हैं। ऐसी कृष्ण व्यवस्था करते हैं, घरवाले उनके पति नहीं सुन रहे हैं उनके बच्चे नहीं सुन रहे हैं सास ननंद नहीं सुन रही है केवल गोपियां सुन रही हैं ऐसे हैं कृष्ण *रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं* ऐसे कृष्ण आगे कह रहे हैं मित्रों से घिरे होते हैं। वो दिन में जब गौचारण लीला के लिए जाते हैं तब गोप वृंदायि मतलब समूह कई सारे मित्र उनके इर्द-गिर्द खेलते हैं और फिर साय काल का जब समय होता है तब वृन्दारण्यं स्वपदरमणं, कृष्ण अपने अपने मित्रों के साथ नंद ग्राम लौट रहे हैं और वैसे लौट रहे हैं तब भी और दिन भर क्या करते हैं *वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः* गोप वृंद जो उनके मित्र हैं सभी कृष्ण की कीर्ति का गान या बखान करते हैं, नाचते भी हैं
और कृष्ण मुरली बजा रहे हैं। मुरली बजाते हुए कृष्ण भी नृत्य कर रहे हैं कभी चल रहे हैं या फिर नंदग्राम की ओर आगे बढ़ रहे हैं। जहां भी जाते हैं स्वपदरमणं अपने चलने से वृंदावन की शोभा बढ़ाते हैं कृष्ण जहां भी चरण रखते हैं वह स्थान कृष्ण के चरणों से अंकित होता है। वहां कृष्ण अपने फुटप्रिंट्स पीछे छोड़ते हैं हम जब अभी ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते हैं कई स्थानों पर भगवान के चरण चिन्ह आज भी हम दर्शन कर सकते हैं। पृथ्वी माता ने उनको संभाल के रखा है क्योंकि वह शोभा है ऐसा डेकोरेशन कराओ भगवान कब हमारे शीश पर चरण रखेंगे। कालिया के सिर पर रखा अपना चरण, कालिया के फन को अपने चरणों से अंकित किया और फिर यह भी कहा कि अब तुमको कोई कष्ट नहीं दे सकता जब भी मेरे चरण चिन्ह तुम्हारे सर पर देखेंगे या फनों के ऊपर तब सभी लोग दूर रहेंगे , देखो ! यह पर्सन इज़ प्रोटेक्टेड बाय कृष्ण ऐसी शोभा हमारी जब हम कृष्ण की शोभा बढ़ाएंगे या फिर अपना चरण हमारे हृदय प्रांगण में रख देंगे और वही विश्राम भी करें। कृष्ण जब वृंदावन में प्रवेश करते हैं अपने चरणों से उस भूमि को, बृज में चिन्ह अंकित करते हैं। बृजरज को पवित्र करते हैं और फिर हम उस का स्पर्श करते हैं तब हम भी पवित्र हो जाते हैं हरि हरि !
टाइम अप हो गया है, कहने का तात्पर्य यही था ऐसे वृंदावन में कृष्ण ने हमको भी वास दिया इस कार्तिक मास में, ऐसा सानिध्य या निवास प्राप्त हुआ। आज प्रस्थान करना होगा आसान नहीं है किंतु हम यह अनुभव करते हैं जब वृंदावन में रहते हैं तब कुछ विशेष अनुभव होते हैं। होते हैं कि नहीं? आप वृंदावन जाते ही नहीं हो तो क्या कह सकते हो कि अनुभव होते हैं कि नहीं। पहले वृंदावन आना होगा फिर आप कह सकते हो। राधाचरण आए थे कुछ हुआ अनुभव या फिर ड्यूटी है या फिर यह है वह है हमको लौटना पड़ता है और फिर हम लौटते हैं तो लौटने वाले भक्तों में कुछ उसमें से टी शर्ट पहनते हैं। जिस टी-शर्ट पर लिखा होता है आई लॉस्ट माय हार्ट इन वृंदावन ! क्या हुआ मेरा दिल वृंदावन में खो गया। खोया पाया अपना दिल वृंदावन के चित्त चोर माखन चोर या चित्त चोर उन्होंने मेरे चित की चोरी की। इस प्रकार हम अपना संबंध वृंदावन के साथ या कृष्ण के साथ, भक्तों के साथ स्थापित कर सकते हैं। आई लॉस्ट माय हार्ट इन वृंदावन तो फिर पुनः कभी योजना बना सकते हैं पुनः वृंदावन आने की और अपने हार्ट को पुनः प्राप्त करने की।
हरि हरि !
निताई गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जापा टॉक
9 नवंबर 2021
पदरेनू तुम तैयार हो। आज भी जापा टॉक अभी-अभी शुरू करने जा रहे हैं। आज दूसरा बहुत व्यस्त दिन है। आज प्रातः काल में यहां दीक्षा समारोह संपन्न होने जा रहा है।
जय प्रभुपाद जय प्रभु पाद प्रभु पाद
जय प्रभुपाद जय श्री प्रभुपाद………
श्रील प्रभुपाद तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय हो!!!
हम भी यहां वृंदावन में मनाए तिरोभाव तिथि महोत्सव।
पूरा व्यस्त दिन था। सुबह 4:30 मंगल आरती से रात्रि में भी कार्यक्रम चलते रहे। वृंदावन की बात चल रही है जहां श्रील प्रभुपाद का समाधि मंदिर भी है या जहां श्रील प्रभुपाद समाधि हुए 44 वर्ष पूर्व उसमें सम्मिलित हुए थे कुछ 10000 भक्त , अधिकतर भारत के कोने-कोने से भक्त आए थे। तो श्रद्धांजलियां अर्पित हुई
श्रीलप्रभु पद के संस्मरण में वही एक विशेष कार्यक्रम होता है । फिर मध्यान तक चला वैसे और फिर अभिषेक श्रील प्रभुपाद का महा अभिषेक।
इस्कॉन नोएडा ने जो 125 तीर्थों का जल एकत्रित किया था ।आप जानते ही हो , 125 तीर्थ भी पहुंच गए हैं। हम 10000 भक्त तो थे ही और साथ ही कई सारे तीर्थ भी वहां पहुंच गए। 125 की संख्या में।
उसका भी उपयोग हुआ, अभिषेक के लिए।
वही पंडाल में ही हुआ अभिषेक । फिर गए समाधि मंदिर में पुष्प अभिषेक हुआ श्रील प्रभुपाद की आरती और पुष्प अभिषेक समाधिमंदिर में 1:00 बजे के आस-पास।
और सायीकालीन और भी कार्यक्रम होता हैं, प्रतिवर्ष प्रभुपद की कुटिया में। 7 बज के 22 या 25 मिनिट ये श्रील प्रभुपाद के महाप्रस्थान का समय है । उस समय श्रीला प्रभुपाद के शिष्य,और जगह बचता है तो और शिष्य भी प्रभुपाद की कुटिया में उपस्थित होते हैं। तो कल भी हुए ।और मुख्यता प्रभुपाद की आरती और कीर्तन होता है। मुझे कीर्तन करने को कहें
संसार-दावानल-लीढ-लोक-
त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्।
प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य
वन्दे गुरोः श्री-चरणारविन्दम्।।
यह गीत कहो या गुरु अष्टक कहते हैं इसका श्रवण कीर्तन हुआ,आरती हुई। हरि हरि!! श्रील प्रभुपाद के उपयोग की हुई चादर का सभी उपस्थित भक्तों से स्पर्श कराते हैं। बहुत ही अद्भुत स्पर्श होता है। वह चादर प्रभुपाद को स्पर्श किया था, अंतिम समय में तो वही चादर का स्पर्श कराते हैं। सभी भक्तों के सिर पर वही चादर रखी जाती है । कुछ क्षणों के लिए तो उस समय कुछ विशेष करंट या श्रील प्रभुपाद के सानिध्य लाभ का हम अनुभव करते हैं ।तो दिन में जो श्रद्धांजलि अर्पित की गई तो पता नहीं आप वृंदावन टीवी देख रहे थे या सुन रहे थे किसी ने देखा ?
यह देखने की चीज है….आपकी भाषा में कहें तो देखने की चीज है तो बार बार देखो तो यह बड़ा प्रेरणादायक ,यह श्रद्धांजलि , यादें हरि हरि !! इसका प्रस्तुतीकरण होता है । तो कुछ 50 भक्त ही बोल पाए और भी थे लेकिन , समय का अभाव होने के कारण लगभग 50 भक्त ही बोल पाए। समय मिलता है , 2-4 मिनटों का तो आप मेंसे भी कुछ भक्त अपने अनुभव सुना सकते हो या आप क्या सोच रहे थे ,आपने क्या देखा, कहां पर गए तिरोभाव तिथि महोत्सव मनाने के लिए ।तो कुछ भक्तों से ही हम सुन पाएंगे मेरे पास भी आज ज्यादा समय नहीं है, प्रात काल में।
गोपाल कृष्ण महाराज ने श्रील प्रभुपाद के आनंद के लिए सूचना दी
अभी अभी जो भद्र कैंपियन (भागवत वितरण कैंपियन) जो हुआ उन्होंने कहा की भारत में 25000 भागवत सेट का वितरण हुआ । प्रभुपाद प्रसन्न हुआ करते थे ग्रंथ वितरण से या ग्रंथ वितरण अंक की सूचना प्रभु पद को बहुत पसंद आती थी। तो यह सूचित किया गया 25,000 भागवतम् के सेट्स इस वर्ष अभी ,प्रतिवर्ष यह होता रहेगा मैराथन।
फिर उन्होंने, गोपाल कृष्ण महाराज या मोदी जी नरेंद्र मोदी ने जो मोदी सरकार उन्होंने एक सिक्का प्रकाशित किया की प्रभु पाद की स्मृति का चिन्ह *सिल्वर कॉइन* वो भी दिखाया संक्षिप्त में कहा नरेंद्र मोदी ने कैसे श्रीला प्रभुपाद की गौरव गाथा गाई आपने शायद देखा सुना होगा लगभग 1 महीने पहले की बात है। मैं कुछ मुख्य- मुख्य बातें ही आपके साथ साझा कर रहा हूं। महामन प्रभु जब बोल रहे थे एक बार पत्रकार परिषद में श्रील प्रभुपाद से एक प्रश्न पूछा गया स्वामी जी आपके मरण के उपरांत यह संस्था कैसे चलेगी या कौन इसका उत्तर दायित्व निभाएगा ऐसे प्रश्न पूछ रहे थे नहीं रहोगे तो यह कैसे होगा ,वह कैसे होगा तो उसके उत्तर में श्रील प्रभुपाद ने कहा मैं कभी नहीं मरूंगा वह पूछ रहे थे कि आप जब मरोगे तो क्या होगा ? तो प्रभुपाद ने कहा मैं कभी नहीं मिरुगा। “मैं मरने वाले में से नहीं हूं” यह इंटरप्रिटेशन है हमारा। क्योंकि प्रभु पाद कहा करते थे कि “मैं जीवित रहूंगा एक तो अपने ग्रंथों के रूप में अरे कोई मुझे जानना चाहता है तो मेरी किताबें पढ़े। फिर किसी ने यह भी कहा श्रील अपने खुद की किताबें पढ़ा करते थे तो कल एक वक्ता कह रहे थे। प्रभुपाद ने कहा की यह किताबें तो मैंने लिखी नहीं है। कृष्ण ने लिखी है ।
भगवान ने मुझे निर्देश दिया और वैसा ही मैं बोलता या लिखता गया। देवकीनंदन प्रभु जोर दे रहे थे श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों का अध्ययन हमको करना चाहिए “मेरी किताब का वितरण करो ,मेरी किताब का वितरण करो, मेरी किताब का वितरण करो -एक समय श्रील प्रभुपाद ऐसा कहे थे”उससे प्रभावित होकर किताब वितरण तो करते रहते हैं ,इस्कॉन के भक्त पूरे विश्व में किंतु उनकी किताबें इतने उत्साह के साथ नहीं पड़ते जितने उत्साह के साथ वे ग्रंथों का वितरण करते हैं। देवकी नंदन प्रभु कह रहे थे भक्तों को “किताब वितरण ,किताब वितरण, किताब वितरण” केबल ये ही याद नहीं रखना चाहिए वैसे प्रभु पद अपने ग्रंथों के अध्ययन के संबंध में भी कहे थे। तो देवकीनंदन प्रभु ने कहा उनको ऐसा सोचना चाहिए कि प्रभुपाद कह रहे हैं-“ मेरी किताब पढ़ो ,मेरी किताब पढ़ो ,मेरी किताब पढो” फिर यह पूर्ण हुआ क्योंकि प्रभु बात कहा करते थे मैंने यह किताब है केवल वितरण के लिए नहीं है यह मैंने अपने अनुयायियों के अध्ययन के लिए लिखी है तो अब मेरे ख्याल से आपको भी संदेश मिल रहा है। मुझे फिर अलग से नहीं कहने की आवश्यकता है प्रभु पद के ग्रंथों का अध्ययन की महिमा हरि हरि!!
फिर एक भी भीम प्रभु भी बोलने जो हमारे बीबीटी के सदस्य भी हैं तो बता रहे थे कि जब चैतन्य चरितामृत पहली बार प्रकाशित हुआ तो भक्त पढ़ रहे थे उनके पढ़ने में एक बात आई चेतन चरित्रामृत में एक समय अद्वित आचार्य प्रभु के घर में उन्होंने ही बुलाया था चैतन्य महाप्रभु को और नित्यानंद महाप्रभु को प्रसाद के लिए नहीं बता पाएंगे या चैतन्य महाप्रभु के सन्यास दीक्षा समारोह के बाद दोनों गौरांग और नित्यानंद अद्वैत आचार्य भवन सांतिपुर में पहुंचे थे। तो अद्वैत आचार्य दोनों को प्रसाद खिला रहे थे तो जितना भोजन नित्यानंद कर रहे थे खा रहे थे खाते जा रहे थे खाते जा रहे थे खाते ही जा रहे थे तो अद्वैत आचार्य ने कहा ए तुम किस प्रकार के सन्यासी हो यह वैराग्य का थोड़ी लक्षण है योगी हो की की भोगी हो इस प्रकार की बातें बड़ी हास्य – ,विनोद की बातें या अभी हम भीम प्रभु कहते हैं कितना मजेदार संवाद अद्वैत आचार्य और नित्यानंद प्रभु के बीच में हो रहा है भक्तों ने पहली बार पढ़ा तो उन्हें लगा आध्यात्मिक जगत में भी ऐसा होता है क्या? अरे यह तो भगवान है और अद्वित आचार्य महाविष्णु है नित्यानंद प्रभु तो बलराम है। इस प्रकार की बातें करते हैं। हंसी मजाक ऐसा पूछा श्रील प्रभुपाद से कुछ शिष्य ने ।
तो प्रभुपाद ने कहा हा हा वहां भी आध्यात्मिक जगत में भी हास्य विनोद मजेदार संवाद इत्यादि खूब चलते रहते हैं। तो प्रभुपाद उस समय कहे थे तो उसे भीम प्रभु कल सांझा के के किए पूरा तो नहीं कहूंगा लेकिन बात यह थी कि कृष्ण एक समय किसी गोपी से कहें मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं। प्रभुपाद ऐसे ही लीला बताने लगे हां हां आध्यात्मिक जगत में भी ऐसा चलता रहता है तो कृष्ण जब कहे कि मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं तो गोपी ने कहा तुम किसी बंदरी के साथ विवाह करो तुम काले हो ऐसे हो वैसे हो…। आपको भी अच्छी लग रही है ना आप भी हंस रहे हो तो यह सब चलता है आध्यात्मिक जगत में भी चलता रहता है। जो प्रभु पद बता रहे थे अपना अनुभव हरि हरि !!तो राधा रमण मंदिर से वृंदावन में राधा रमण मंदिर है गोपाल भट्ट गोस्वामी द्वारा स्थापित राधारमण के विग्रह और उनकी आराधना जिस मंदिर में होती है उसके जो वर्तमान आचार्य है। विशंभर गोस्वामी के सुपुत्र कल आए थे उन्होंने भी बड़ी सुंदर श्रद्धांजलि अर्पित की श्रीला प्रभुपाद के चरणों में श्रील प्रभुपाद और श्रील प्रभुपाद के हरे कृष्ण आंदोलन की बड़ी गौरव गाथा गा रहे थे तो उन्होंने कहा बस दुनिया में ऐसा वे कह रहे थे दो ही संगठन है।
अंतर्राष्ट्रीय या वैश्विक एक तो UNO संयुक्त राष्ट्र संगठन इसका मुख्यालय न्यूयॉर्क में है। तो वह कहते हैं एक तो यू.एन.ओ है दूसरा यह हरे कृष्ण आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावना अमृतसर यह दो ही संगठन विश्वव्यापी है और कुछ विशेष कार्य कर रहे हैं। वैसे इस्कॉन की तुलना यू .एन.ओ के साथ तो नहीं हो सकती है। किसी के साथ भी नहीं हो सकती हरि हरि!! श्रील प्रभुपाद कहा ही करते थे इस्कॉन भी यू .एन.ओ है पर अध्यात्मिक जगत का अंतरराष्ट्रीय संगठन है यह सच में एक्य है , एकता है विश्व बंधुत्व है ना लड़ाई ना झगड़ा यह वह …. और उन्होंने यह भी कहा श्रीला प्रभुपाद ने विश्व भर के लोगों को हरि नाम दिया है वैसे भी कह रहे थे नाम तत्व धाम तत्व प्रेम तत्व राधा तत्व ऐसे चार तत्व का उन्होंने उल्लेख किया वैष्णव गौड़ीय वैष्णव तो राधा रमण मंदिर वाले भी यह भी गौड़ीयवैष्णव ही है। गोपाल भट्ट गोस्वामी का मंदिर है। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ही दिया यह राधा भाव यह चार तत्व कहो राधा तत्व प्रेम तत्व धाम ( वृंदावन धाम) तत्व नाम तत्व और फिर उन्होंने कहा जिन को यह नाम प्राप्त है या गोपी भाव प्राप्त है वे सबसे अधिक धनी है वे बारंबार इस पर जोर दे रहे थे कि इस्कॉन के भक्त जितने धनी हैं संसार में और कोई उतना धनी नहीं है। जितने प्रभु पद के अनुयाई धनी हैं। धनी समझते हो ना धनबान
। यह असली धन है वह कह रहे थे की श्रीला प्रभुपाद ने आपको धनवान बनाया असली धन तो यही है।
“गोलोकेर प्रेमधन हरिनाम संकीर्तन”।
वही देदिया संसार को तथाकथित कई धनी लोग होंगे किंतु आपको प्रभुपाद ने जो धन दिया है ।आप जो धनी बने हों समझो प्रभु पद ने क्या दिया है आप कौन थे और क्या क्या हुए और क्या हो रहे हो इसका भी स्मरण दिलाएं आप धनी हो और यही धन आप को सुखी बना सकता है आत्माराम आत्मा को आराम देने वाला यही धन है यह तो उन्होंने नहीं कहा मैं कह रहा हूं आप समझ सकते हो तो सुखी होने के लिए धन चाहिए ऐसी समझ होती है लेकिन कौन सा धन कोन हमे सुखी बनाएगा ये दुनिया नहीं जानती तो यह प्रेम धन सुखी बनाएगा हमको या धाम भी धन है हरि हरि श्रीला प्रभुपाद के ग्रंथ भी संपत्ति है वैसे कहा जाता है हमारे भारत में भारतवर्ष का जो महाभारत ग्रंथ है रामायण ग्रंथ है भागवत ग्रंथ है ये इस देश की संपत्ति है इसीलिए भारत का गौरव इसी में है ठीक है तो ऐसे ही हम भी कुछ बोले तो थे ही हमने
एनी लोकप्रिय ध।।।।।
इसको गाया और इसका तात्पर्य भी सुनाया सभी को इसी के साथ धर्म सभा कल की प्रारंभ हुई या श्रद्धांजलि महोत्सव आरंभ हुआ
हम भी कुछ बातें याद दिलाई हमने भी अपनी प्रसन्नता व्यक्त की क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में एक भी स्थान खाली नहीं था। वो देख के हमने कहा प्रभुपाद इतनी बड़ी उपस्थिति के कारण प्रसन्न तो जरूर हुए होंगे। एक समय भारतीय आगे नहीं आ रहे थे। हम जब जोड़ें उन दिनों भारतीयों की कई सारी समझ या ना समझी गलतफ़हमी करके बैठे थे ।
इसलिए वृंदावन का मंदिर अंग्रेज का मंदिर है सी.आई.ए .एस है यह पहले हिप्पीज थे या अब भी है अभी चल रहा है उनका दम मारो दम बोलो सुबह शाम हरे कृष्णा हरे राम।।।। ऐसा करने वाले लोग हैं दम भी भरते हैं मतलब ना जाने क्या-क्या खाते पीते हैं दम भी मारते हैं और हरे कृष्णा हरे राम करने वाले यह लोग हैं तो कोई नहीं जोड़ रहा था एक समय तो फिर उस समय 1 दिन की बात है संक्षिप्त में कहीं अभी भी संक्षिप्त मैं उससे और भी अधिक संक्षिप्त में अभी कह रहा हूं मैं और प्रभुपाद प्रभुपाद की कुटिया में दो ही थे तो प्रभुपाद बड़े चिंतित थे भारतीय जड़ नहीं रहे हैं मेन पावर प्रचार प्रसार के लिए आवश्यक तो थी तो उस समय प्रभुपाद कहे थे और आदमी चाहिए हमे तुम्हारे जैसे और भक्तों की आवश्यकता है मैंने यह भी कहा मेरे जैसे मैं के समक्ष था इसलिए प्रभुपाद ने कहा मेरे जैसे,मेरे जैसे या भक्तिचारु स्वामी महाराज जैसे गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज जैसे स्वरूप दामोदर महाराज जैसे और भक्तों की आवश्यकता है।
उस समय तो नहीं जुड़ रहे थे लेकिन आखिरकार अब जुड़ रहे है। बहुत बड़ी संख्या में कल उपस्थित रहे भक्त ये प्रसन्नता की बात है। प्रभुपाद भी प्रसन्न हुए होंगे ही हरि हरि अब मुझे मुझे रुकना चाहिए कोन है ?पदमाली तुम हो क्या? हरि बोल.. पदमाली यात्रा कर रहा है। वह अभी रेलगाड़ी में है।
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जप चर्चा
वृंदावन धाम से
8 नवंबर 2021
664 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं।
प्रभुपाद तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
लगभग 7:00 बजे तक आज मुझे इस जप चर्चा को पूरा करना हैं और फिर उसके बाद पूरे संसार के इस्कॉन जगत में प्रभुपाद तिरोभाव तिथि महोत्सव मनाया जाएगा। यहां पर भी तिरोभाव तिथि महोत्सव संपन्न होगा। आपको भी इसमें सम्मिलित होना हैं या सम्मिलित हो चुके हो। तिरोभाव तिथि महोत्सव तो हमेशा मनाए जाते हैं और आज भी मनाया जाएगा,लेकिन यह स्थान प्रभुपाद तिरोभाव तिथि के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इस स्थान पर प्रभुपाद समाधिस्थ हुए।श्रील प्रभुपाद का समाधि मंदिर यही हैं, श्रील प्रभुपाद का समाधि मंदिर यही कृष्ण बलराम के आंगन में हैं और श्रील प्रभुपाद के कई सारे शिष्य आज के दिन यहां जरूर पहुंच जाते हैं और भी बहुत भक्त पहुंच चुके हैं।
आज अनाउंसमेंट में घोषित हुआ कि लगभग 12000 भक्तों को श्रील प्रभुपाद महा प्रसाद वितरित किया जाएगा,मतलब इतने भक्त यहां आ चुके हैं या रास्ते में ही हैं, पहुंचने वाले हैं। वृंदावन मे तिरोभाव तिथि महामहोत्सव संपन्न होगा।मैं ऐसा अनुभव करता हूं और कहता भी रहता हूं कि तिरोभाव तिथि के दिन प्रभुपाद और अधिक प्रकट हो जाते हैं। तिरोभाव तिथि के दिन वह और अधिक मात्रा में प्रकट हो जाते हैं। उनकी उपस्थिति का अधिक अनुभव होता हैं।इस तिरोभाव तिथि के दिन उनकी कई सारी यादें आ जाती हैं और हम श्रील प्रभुपाद को डिसअपीयर्ड होने भी नहीं देना चाहते हैं सही बात हैं या नहीं? श्रील प्रभुपाद कभी भी अप्रकट ना हो, हम श्रील प्रभुपाद को चाहते हैं। वी वांट प्रभुपाद।”श्रील प्रभुपाद की जय” या श्रील प्रभुपाद को भूल जाना, उन्हें याद नहीं करना मतलब श्रील प्रभुपाद अप्रकट हो चुके हैं या श्रील प्रभुपाद आपके लिए अप्रकट हो चुके हैं,यह तो संभव नहीं हैं।यदि प्रभुपाद ना होइते तबे कि होइते?यदि प्रभुपाद नहीं होते तो हमारा क्या होता?
हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।तो प्रभुपाद तो हुए ही,नहीं होते की बात नहीं हैं। प्रभुपाद तो हुए ही और प्रभुपाद को हम सारे जीवन भर के लिए अपने जीवन में संस्थापकाचार्य के रूप में चाहते हैं, हर सदस्य के जीवन में प्रभुपाद की एक विशेष भूमिका हमेशा रहेगी। हरि हरि और वैसे भी हम श्रील प्रभुपाद कि 125th बर्थ एनिवर्सरी मना रहे हैं और उसी के अंतर्गत यह 44th तिरोभाव दिवस मना रहे हैं।प्रभुपाद को याद रखने के लिए हम क्या करें?हम भक्त लोग प्रभुपाद को कैसे याद रखें? उनके लिए क्या करें ? या प्रभुपाद ने हमारे लिए इतना सारा किया, क्या नहीं किया उन्होंने हमारे लिए?उन्होंने इतनी सारी व्यवस्था हमारे लिए कि और इसी के अंतर्गत एक ऐसा घर बनाया जिसमें सारा संसार रह सकता हैं या उन्होंने सारे संसार को कृष्ण को दिया और कृष्ण को प्रसिद्ध किया।हरे कृष्ण लोग, लोग देखते ही कहते हैं यह हरे कृष्णा लोग हैं।पूरे विश्व भर में यह घर बनाया। हर देश में, हर नगर में,कई सारे घरों में पहुंच गया हैं यह हरे कृष्णा महामंत्र या कृष्णा बुक, कृष्ण प्रसाद या कृष्ण मंदिरों की स्थापना श्रील प्रभुपाद ने की। श्रील प्रभुपाद ने जगन्नाथ रथ यात्रा जैसे कई सारे उत्सव दिए और श्रील प्रभुपाद ने सारे संसार के भाग्य का उदय कराया, तो हम श्रील प्रभुपाद के सदा के लिए ऋणी रहेंगे, जो भी हमें श्रील प्रभुपाद ने दिया उसकी कोई तुलना नहीं हैं। उन्होंने हमें कृष्ण को दिया, उन्होंने हमें अपने ग्रंथ दिए, उन्होंने हमें जो भी दिया हैं, हमें उसे औरों को देना हैं। कल भी मैं बता रहा था कि यह श्रील प्रभुपाद की भावना रही, कैसी भावना? प्रचार की भावना।
वह हमेशा कृष्ण को देते र।हे अपने उच्च विचार और बड़ी सोच के लिए श्रील प्रभुपाद प्रसिद्ध थे ।एक समय उन्होंने भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को एक पत्र लिखा था,उस समय जो भगवद्दर्शन पत्रिका का प्रकाशन हो रहा था प्रभुपाद उसके लिए सहायता चाहते थे। उसमें प्रभुपाद ने लिखा था कि जो भी मनुष्य मेरे साथ इस पृथ्वी पर हैं, उन सभी को मैं भगवद्धाम ले जाना चाहता हूं। यह श्रील प्रभुपाद की बड़ी सोच का उदाहरण हैं। वह अकेले नहीं जाना चाहते थे ,इसीलिए बैक टू गॉड हेड पत्रिका का प्रकाशन कर रहे थे।इसके लोकल भाषा में कई सारे भाषांतरण हैं, जैसे भगवद्दर्शन लेकिन मुख्य तो बैक टू गॉड हेड ही हैं।प्रभुपाद ने भगवद्धाम लोटो का अभियान छेड़ा था। इसी पत्रिका के लिए राष्ट्रपति को लिखा कि मैं सारे संसार के मनुष्यो को भगवद्धाम ले जाना चाहता हूं।कितनी दया का यह भाव या प्रदर्शन हैं। तो यह बड़ी सोच ही हैं।
इसलिए हम प्रभुपाद के ऋणी हैं और सारा संसार उनका ऋणी हैं। इस ऋण से मुक्त होने के लिए प्रचार का कार्य आगे बढ़ाना चाहिए। प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की और इसका प्रचार प्रसार किया। इसलिए हमें ऋण से मुक्त होने के लिए इसका प्रचार प्रसार बढ़ाना होगा। यह कार्य आगे बढ़ना चाहिए और इस कार्य को और अधिक फैलाने की जिम्मेदारी हम सभी की हैं।एक समय प्रभुपाद ने ऐसा कहा भी था तुम वैसे ही करो जैसे मैने किया।या मैंने प्रारंभ किया या मैं कर रहा था, उसको आगे बढ़ाओ। कृष्ण प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाओ या फिर महाप्रभु का जो आदेश हैं जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश उसको आगे बढ़ाओ। अंतिम दिनों में भी श्रील प्रभुपाद लेटे लेटे, वह बिस्तर पर ही थे यहीं पर बगल के क्वार्टर में, प्रचार करने की इच्छा जाहिर कर रहे थे।वह बेचैन हो रहे थे और कह रहे थे कि मुझे ले चलो। मैं प्रचार करना चाहता हूं। मैं इस संसार को प्रचार करते करते ही छोड़ना चाहता हूं या माया के साथ लड़ते हुए मैं यह संसार या यह शरीर त्यागना चाहता हूं। इस सबके हम लोग साक्षी रहे और वह जो भाव था प्रभुपाद का कि मैं प्रचार करना चाहता हूं, मुझे यहां से ले चलो मुझे बैलगाड़ी से ले चलो और मुझे भी प्रभुपाद ने अपनी इस तीव्र इच्छा का भाग बनाया।
वह अपने प्रचार प्रसार की इस तीव्र इच्छा की पूर्ति के लिए मुझे भी आदेश दे रहे थे या आदेश दिया ही।बैलगाड़ी ले आओ। मैं जाना चाहता हूं, सबसे पहले गोवर्धन और भी उसके बाद बहुत स्थानों पर प्रभुपाद जाना चाहते थे, किसके लिए? प्रचार प्रसार के लिए। तो यह अंतिम दिनों की प्रभुपाद की अंतिम इच्छाएं भी हैं।हमारे संस्थापकाचार्य की विल को, इच्छाओं को ,भावनाओं को, विचारों को हमें भलीभांति से समझना चाहिए और उनकी इच्छा पूर्ति के लिए हमें हर प्रयास करनाचाहिए। तुम वैसे ही करो जैसे मैं कर रहा था। तो आइए आज के दिन हम श्रील प्रभुपाद को याद करते हैं या श्रील प्रभुपाद के विचारों को, उनके दूरदर्शिता को, प्रभुपाद की योजनाओं को ,श्रील प्रभुपाद के दृष्टिकोण को याद करे तभी हम अच्छे फॉलोअर्स बनेंगे। प्रभुपादानुगा बनेंगे।
tarko ‘pratiṣṭhaḥ śrutayo vibhinnā
nāsāv ṛṣir yasya mataṁ na bhinnam
dharmasya tattvaṁ nihitaṁ guhāyāṁ
mahājano yena gataḥ sa panthāḥ
(चेतनय चरित्रामृत मध्य लीला-17.186)
महाजनों द्वारा दिखाए गए पथ पर हमें चलना चाहिए। ऐसा शास्त्रों में वर्णन मिलता हैं।प्रभुपाद ने हमें मार्ग दिखाया हैं या वृंदावन में भक्ति वेदांत स्वामी नाम से एक मार्ग भी हैं। प्रभुपाद के दिए हुए कई सारे मार्ग हैं या विधि-विधान हैं, उनको भली-भांति समझ के हमें प्रभुपाद के कार्य को हर व्यक्ति, हर परिवार, हर भक्त को या इस्कॉन कि जहां-जहां स्थापना हुई हैं या आपके घर में भी वैसे क्योंकि आप इस्कॉन से ही हो। आप जहां हो वहीं इस्कॉन हैं। इस्कॉन केवल चार दीवारों में ही सीमित नहीं हैं या जहा इस्कॉन का मंदिर हैं, केवल वही इस्कॉन नही हैं,हां, इस्कॉन के अनुयाई जहां-जहां हैं, श्रील प्रभुपाद के अनुयाई जहां जहां उपस्थित हैं, वहा इस्कॉन हैं। फिर वह गृहस्थ भी हो सकते हैं या ग्रामस्थ भी हो सकते हैं या नगरस्थ भी हो सकते हैं। जहां श्रील प्रभुपाद के अनुयाई हैं वहां इस्कॉन हैं। आप इस्कॉन हो। आप इस्कॉन का अंग हो। हो या नहीं हो? आप अपने आप को इस्कॉन का मानते हो या नहीं? किसको किसको ऐसा लगता हैं कि वह इस्कॉन के हैं? अपने हाथ उठाओ या कहो हरि बोल हरि बोल।
तो फिर यह घर हुआ, जिसे श्रील प्रभुपाद ने बनाया हैं। वैसे इसमें दीवारें नहीं हैं, जहां आप रहते हो वहां दीवारें हैं लेकिन हमारे बीच में दीवारें नहीं हैं। यह घर बिना दीवारों का हैं। यह घर हैं, दूसरा घर हैं, एक परिवार, दूसरा परिवार, यह एक बहुत बड़ा परिवार हैं। बहुत बड़ा घर हैं। इस प्रकार से प्रभुपाद का बड़ा दिल भी रहा। तो देख लीजिए आप, आज के दिन को कैसे-कैसे संपन्न करने वाले हो। इस्कॉन के मंदिरों में जाओ या आपके भक्ति वृक्ष की टीम भी इकट्ठे हो सकती हैं, या आपके घरों में आप अपने इष्ट मित्रों को एकत्रित कर सकते हो या स्वयं भी इस दिन को उत्सव रूप में मना सकते हो, प्रभुपाद लीलामृत पढ़ो या श्रद्धांजलि अर्पित करो या औरों से श्रद्धांजलियों को सुनो या यहां का जो प्रोग्राम होगा वृंदावन में उसे वृंदावन टीवी पर देखो।स्टै टयूंड इन। प्रभुपाद लीलामृत पढ़ो और देखो की क्या संकल्प ले सकते हो कि मैं प्रभुपाद के लिए यह करूंगा, वह करूंगा। मैं ग्रंथों का वितरण करूंगा या मैं प्रसाद का वितरण करूंगा या मैं उत्सव मनाउगा। इत्यादि इत्यादि।वैसे 125 वी वर्षगांठ का साल चल ही रहा हैं और आप कई सारे संकल्प ले ही चुके हो।
मैं प्रभुपाद लीलामृत का वितरण करूंगा और फार्च्यूनएट पीपल कैंपैन भी हैं। कल मुझे गुजरात के भक्त मिले और वह बता रहे थे कि वह मुरली मोहन प्रभु जी के साथ प्रचार करते हैं और उन्होंने बताया कि उन सब ने मिलकर 125 गांव में हरि नाम के प्रचार का संकल्प लिया हैं।125 गांव में वह जाएंगे और कह रहे थे कि 120 लगभग गांव या 100 से ऊपर गांव हो चुके हैं। थोड़े ही बचे हैं और गांव में बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही हैं। बहुत सारी वीडियोस बन रही हैं। तो इस तरह से इस वर्ष लिए गए कई सारे संकल्पों को भी आप याद रखिए और वैसे ही करो जैसे मैं करता रहा।
इस पर थोड़ा मनन-चिंतन करिए और आप भी उच्च विचार बनाइए,नहीं तो कैसे आप प्रभुपाद के अनुयाई या प्रभुपाद के अनुयायियों के अनुयाई कहलाएंगे? केवल अपना जीवन या हम दो हमारे दो उसके परे हमें किसी से लेना देना नहीं हैं, ऐसा मत करिए। यह संकीर्ण विचार हैं। यह एक प्रकार से पशु बुद्धि ही हैं। हरि हरि। तो यह सारे भवबंधन या इस संसार के तथाकथित रिश्ते नाते तोड़ दो। मुक्त हो जाओ। बाहर आओ और मैदान में उतरो या अपने परिवार का भी कुछ तो ख्याल करो।आपके,आपके परिवार के सदस्यों के प्रति सबसे मुख्य आपकी ड्यूटी तो यही हैं कि आप सबको कृष्णभावनाभावित बनाएं। पति को,पत्नी को,बच्चों को, रिश्तेदारों को, सभी को। यह सबसे मुख्य ड्यूटी हैं। लेकिन यह छोड़कर हम केवल उनके लिए रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था कर रहे हैं। तो यह पशु बुद्धि हैं,
त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जात: प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥
श्रीमद्भागवतम 12.5.2
वैसे यह अंतिम वचन तो शुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित महाराज को द्वादश स्कंध में बताए गए हैं, पशु बुद्धिं जहि। ऐसी पशु बुद्धि को त्यागो।
त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जात: प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥
तुम मरोगे ऐसा तो कभी सोचना भी मत। क्योंकि ऐसा तो पशु सोचता हैं, कि मैं मरूंगा क्योंकि उसकी सोच शरीर तक सीमित होती हैं, परिवार तक सीमित होती हैं। मुझे रुकना होगा।मुझे मंदिर जाना हैं। ठीक हैं। तो आज के दिन व्यस्त रहो। देखो कैसे आप प्रभुपादभावना बढ़ा सकते हो।
प्रभुपाद को याद करते हुए, प्रभुपाद भावना बढ़ाओ और प्रभुपाद को याद करना ही कृष्ण को याद करना हैं और प्रभुपाद को भुलेंगें तो हम भगवान को भूल जाएंगे। हरि हरि। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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*जप चर्चा*
*वृंदावन धाम से*
*7 नवंबर 2021*
हरे कृष्ण ! आज 690 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। गोरंग! श्री कृष्ण बलराम की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। आपका स्वागत है। हरि हरि। आपका वृंदावन में स्वागत है। मैं वृंदावन में हूं, तो आपका स्वागत वृंदावन से कर रहा हूं। हरि हरि। इसी के साथ आपका वृंदावन के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयास भी हैं। हरि हरि। यहां पर तैयारियां हो रही है श्रील प्रभुपाद के तिरोभाव महोत्सव की जय। कल है श्रील प्रभुपाद का तिरोभाव महोत्सव। हजारों संख्या में भक्त एकत्रित हुए हैं, हो रहे हैं। हजारों भक्त देश विदेश से यहां पर पहुंचे हैं और पहुंच रहे हैं। हरि हरि। कहीं सारे उत्सव यहां पर संपन्न हो रहे हैं। व्रजमंडल परिक्रमा अभी आप जानते ही हो कि चल रही है। व्रजमंडल परिक्रमा के भक्त भी यहां पर आ जाएंगे। आप भी व्रजमंडल परिक्रमा के अनुयायियों हो।
कल यहां पर कृष्ण बलराम की शोभा यात्रा संपन्न हुई। श्री कृष्ण बलराम की जय। वह विशेष शोभा यात्रा निकली और पहली बार हुई थी। पहले तो जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की रथयात्रा होती थी, इन दिनों कार्तिक मास में। रथ यात्रा पर कुछ प्रतिबंध लगे हुए हैं। हम जब चाहे तब जगन्नाथ रथ यात्रा नहीं निकाल सकते। उसके स्थान पर कल फिर कृष्ण बलराम की शोभायात्रा हुई। हरि हरि और कृष्ण बलराम ने वृंदावन नगर का भ्रमण किया। वह रथ में विराजमान थे और एक रथ का ही रूप दिया गया था। जगन्नाथ के रथ को खींचने के बजाय, वह भक्त वृंद कृष्ण बलराम को खींच रहे थे। वह सभी व्रजवासी खींचने वाले थे। व्रज भाव में उन्हें खींच रहे थे। मैंने भी कुछ खींच लिया कृष्ण बलराम को। हरि हरि। प्रेम का पाश, प्रेम की डोरी या फिर कभी कभी भगवान जैसे हम तो कहते हैं मेरी डोरी तेरे हाथ मेरी डोरी तेरे हाथ लेकिन कल तो कृष्ण बलराम की डोरी हमारे हाथ में थी। कृष्ण बलराम कह रहे थे ठीक है जहां भी तुम मुझे ले जाना चाहते हो आपकी मर्जी। हम भक्तों के अधीन है।
श्रीभगवानुवाच
अहं भक्त्पराधिनो हय्स्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तर्भक्त्जनप्रिय ॥
(श्रीमद भगवतम 9.4.63)
अनुवाद:- भगवान ने उस ब्राह्मण से कहा: मैं पूर्णत: अपने भक्तों के वश में हूं। निसंदेह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूं। चूंकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत: रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयो में ही निवास करता हूं। मुझे मेरे भक्तों ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यंत प्रिय है।
वृंदावन टीवी वाले भी आए थे और मेरा इंटरव्यू ले रहे थे। उन्होंने प्रश्न किया कि इस कृष्ण बलराम शोभायात्रा का क्या वैशिष्ट्य है? हमने कहा कि कृष्ण बलराम को हम वापस वृंदावन ले आए हैं या ला रहे हैं। जिस दिन अक्रूर कृष्ण बलराम को वृंदावन से मथुरा ले गए और वह भी रथ में बैठा कर, कृष्ण बलराम को रथ में बैठाया। अक्रूर ने रथ को सजाया और कृष्ण बलराम को रथ में बैठाए और उनको रथ में मथुरा ले गए। कृष्ण जाते समय कहते गए कि हे गोपियों मैं आता हूं। मैं अब आ रहा हूं। लेकिन कृष्ण और बलराम भी लौटे नहीं। मथुरा में ही रहे 18 वर्ष और वहां से फिर और आगे बढ़े। हरि हरि। वह द्वारका पहुंचे और फिर द्वारका में ही रह गए और समय के लिए। व्रजवासी तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। आज आ जाएंगे, आज प्रातः काल नहीं आए तो कल आ जाएंगे, शाम तक तो आ ही जाएंगे। शाम तक उनको आना ही है। ऐसी आशा लेकर प्रतिदिन प्रतीक्षा चल रही थी। लेकिन व्रजवासियों की आशा की कुछ दुर्दशा निराशा ही हो रही थी और फिर समय आया कृष्ण बलराम द्वारकावासियों के साथ कुरुक्षेत्र में सूर्य ग्रहण के समय पहुंचे।
इतना सारा मैंने कल इंटरव्यू में नहीं कहा था। थोड़ा कुछ अधिक कह रहा हूं। आप सो रहे हो? आपको नींद आ रही है। सुलाने के लिए कथा नहीं सुना रहा हूं। हा हा। हरि हरि। आप अंधेरे में बैठे-बैठे तल्लीन हो जाते हो। हरि हरि। तो फिर कृष्ण और बलराम कुरुक्षेत्र गए। उस समय व्रजवासी भी गए कृष्ण बलराम को वृंदावन ले आने के लिए किंतु उस समय भी कृष्ण और बलराम तैयार नहीं हुए। तो फिर कल हमने कहा कि अंततः हमको यश मिला है। लगभग 100 वर्षों के उपरांत कृष्ण बलराम को वृंदावन ले आए हैं। रथ में बैठकर वृंदावन से मथुरा गए थे। रथ में बैठकर ही पुनः वृंदावन आए। व्रजवासी ने उनको पुनः यहां पर लाए। शोभा यात्रा में कृष्ण बलराम के रथ को खींचने वाले सभी व्रज भाव में व्रजवासी उनकी भावनाएं और प्रेम के साथ खींच रहे थे। हरि हरि। उस कृष्ण बलराम को आप मन में बैठा लीजिए। अपने हृदय प्रांगण में उनको स्थान दीजिए। कोई स्थान आपके ह्रदय में खाली है या सारा भर गया? दिल में आपने किस को बैठाया हुआ है। कहीं प्यारे दुलारे आपने बना लिए हैं। हरी हरी। बेकार के मायावी लोग उसमें से कहीं कामी, क्रोधी, लोभी और मात्सर्य से पूर्ण, ऐसे लोगों से आपका लगाव आपका प्रेम होता है। आप उनको चाहते हो। उनको बाहर करो अपने जीवन से, निकाल दो। उस स्थान को रिक्त करो और खाली करो। थोड़ा ही नहीं पूरा खाली कर दो। ऐसे लोगों से ऐसे विचारों से ऐसे लगावो से, ऐसे तथाकथित स्नेह से मुक्त हो जाओ और हृदय प्रांगण में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहा करते थे मोरा मन वृंदावन। अपने मन को वृंदावन बनाओ और उस वृंदावन में कृष्ण बलराम रहेंगे। हृदय को या मन को संसार बना लिया है। तो वहां पर पूरा संसार रहेगा। हमने कई साल पहले जब मुंबई में हम प्रचार के लिए जा रहे थे तो हमने वहां पर एक एडवर्टाइजमेंट देखा। अब देखना ही पड़ता है क्या कर सकते हैं।
उसमें एक जवान को देखा जवान क्या कर रहा था। अपना सीना फाड़ कर दिखा रहा था। बिल्कुल हनुमान जी जैसे। लेकिन अंतर यह था इसके अंतः करण में या दिल में कोका कोला का बोतल था। सीता राम या कृष्ण बलराम नहीं थे, उसके दिल में और उसके मन में भी। इस प्रकार हम लोग आसक्त होते है या हुए हैं। हरि हरि। श्री कृष्ण बलराम की जय। राधा श्यामसुंदर की जय। श्रील प्रभुपाद तिरोभाव तिथि महोत्सव की आज प्रातकाल को तैयारी चल रही है। उसी के अंतर्गत कहो या मुझे भी अवसर प्राप्त हुआ। आज प्रातः हमने राधा श्यामसुंदर की, ललिता विशाखा की मंगल आरती की। आपने देखी? आप वृंदावन टीवी को देखते हो या नहीं? आप टीवी देखा करो। अगर वह टीवी वृंदावन टीवी है। तो वह देखने की चीज है। उसको बार-बार देखो या मायापुर टीवी है। आजकल पंढरपुर टीवी भी शुरू हो रहा है। वैसे प्रभुपाद ने कृष्ण टीवी की स्थापना की। राधा श्यामसुंदर की जय। आरती जब मैं कर रहा था तब कई सारे अच्छे विचार तो आरती उतारते समय अगर नहीं आएंगे तो कब आएंगे। राधा श्यामसुंदर भावनाभावित अगर हम तब नहीं होंगे तो कब होंगे। हरी हरी। तो फिर उनके शोभा का क्या कहना। वह सौंदर्य की खान है। वह सारे संसार के सौंदर्य के स्त्रोत राधा श्यामसुंदर ही हैं। कृष्ण का सौंदर्य ही कृष्ण का माधुर्य है। फिर उसमें वेणु माधुर्य है, लीला माधुर्य है, प्रेम माधुर्य है, रूप माधुर्य हैं। चार प्रकार के माधुर्य के लिए कृष्ण प्रसिद्ध है। श्वेत मंजरी तो आरती उतार रही है। हाथ में काम, मुख में नाम। नाम लेते हुए कीर्तन करो। आप वैसे कीर्तन सुन रही हो। मैं जो बोल रहा हूं वह कीर्तन ही है।
तो सुनते सुनते आरती भी करो। आरती करते समय मैंने कुछ पढ़ा था। भागवत में जो वेणु गीत है। मैं उसका भी स्मरण कर रहा था और वेणु गीत का स्मरण तो गोपिया द्वारा किया हुआ स्मरण हैं। गोपियां कैसे स्मरण करती हैं या उन्होंने कृष्ण का स्मरण कैसे किया। वहीं उन्होंने कहा है। उस अध्याय का नाम दसवें स्कंध का 21 वां अध्याय है उसका नाम वेणु गीत है। कृष्ण शरद ऋतु ही हैं। कृष्ण बलराम और अपने सखाओ के साथ वन में पहुंचे हैं। द्वादश काननों में गौचरण लीला खेल रहे हैं। उस समय उन्होंने मुरली बजाई। जब वह मुरली कृष्ण बजा रहे थे उसकी नाद गोपियां अपने अपने नगरों में घरों में सुन रही थी। यही तो है वेणु गीत। जब गोपियों ने वेणु की नाद सुनी। तब उनके मन में कौन कौन से विचार आ रहे थे। वह कृष्ण का कैसे-कैसे स्मरण करने लगी। इस अध्याय में उसका उल्लेख हुआ है। कई सारे स्मृतियां और स्मरण हैं। अलग-अलग स्मरण है। उसमें से एक स्मरण यह भी था कि कृष्ण मुरली बजा रहे है। गोपिया उस मुरली की नाद को सुन रही हैं। तब गोपियों का एक स्मरण यह रहा कि वह सोचती है कि जब कृष्ण ने मुरली बजाई उस समय कुछ मोर या मयूर गोवर्धन के शिखर और तलहटी में थे। मयूर ने जैसे ही मुरली की नाद सुनी, एक तो उनको भी कृष्ण दिखे। कृष्ण श्याम सुंदर हैं या घनश्याम है। घन इव श्याम। तब मोर यह सोचने लगे कि यह एक बादल ही है। मयूर जब मुरली की नाद सुन रहे हैं तो उन्होंने सोचा कि कोई बादलों की गर्जना हो रही है और ऐसी स्थिति में फिर मयूर क्या करते हैं? मयूर नृत्य करने लगते हैं । वर्षा के दिनों में जब वर्षा प्रारंभ होती है। तब बिजली चमकती है, तब कृष्ण पीतांबर वस्त्र धारण किए हैं तो जब पीतांबर की लका की चकाती है। कृष्ण का पितांबर वस्त्र साधारण पीला नहीं है। विद्युत की जो छटा होती है। वैसे ही आभा और कांति देखने से लगती है। हरि हरि !!
मयूरो ने सोचा कि यहां पर वर्षा हो रही है। मयूर नृत्य करने लगे। वहां पर वर्षा नहीं हो रही थी और बादल नहीं पहुंचे थे। उन्होंने सोचा कि कृष्ण ही बादल है। मुरली की नाद की बादलों की गड़गड़ाहट है, तो मयूर मूड में आ गए और वे नृत्य कर रहे हैं । ऐसे गोपियों ने स्मरण किया । इस प्रकार गोपियों ने एक कारण यह रहा । पूरा तो नहीं हुआ तो आगे वे कहती हैं या हमारे आचार्य वृंद टीका में लिखते हैं, की कृष्ण ने जब देखा मयूर नृत्य कर रहे हैं कृष्ण भी आगे बढ़ते हैं क्योंकि वे भी नृत्यकार है । नटराज है सबसे श्रेष्ठ कलाकार या नृत्यकार । नट मतलब कलाकार । कलाकारों में अग्रगण्य शिरोमणि चूड़ामणि कृष्ण ही है, तो कृष्ण आगे बढ़े और जो मयूर नृत्य कर रहे थे उनके मध्य में कृष्ण पहुंच गए और कृष्ण भी मुरली तो मुरली का वादन तो हो ही रहा है । वैसे नृत्य के लिए गायन जरूरी होता है । सुर और ताल कहते हैं ना सुर और ताल तो ताल मुरली का जो सुर है नाद है तो ये गीत चल रहा है, गीत बज रहा है तो उसके साथ फिर मयूर मोड में आए थे और नृत्य कर रहे थे तो कृष्ण भी वहां अब नृत्य करने लगे । मंच पर, प्रकृति द्वारा वहां मंच था गोबर्धन तलहटी प्रदेश में ये सब यह घटना घट रही है, तो कृष्ण नृत्य करने लगे जब मुरली बजा रहे हैं । सारे मयूर जो थे कुछ समय के लिए वे दर्शक बन गए । प्रेक्षक क्योंकि कृष्ण का दर्शन और कृष्ण का नृत्य प्रेक्षणिय है । समझते हो ! प्रेक्षणीय । प्रेक्षणिय मतलब देखने दर्शनीय, देखने योग्य है, तो मयूरों ने अपना नृत्य बंद कर दिया और वे अब कृष्ण के नृत्य को कृष्ण के मुरली के नाद को सुन रहे हैं और कृष्ण के नृत्य को देख रहे हैं और कृष्ण ने ऐसे नृत्य किए बस। सभी के चित्त की चोरी कीए और सभी तल्लीन थे तत-लीन । उनका ध्यान और कहीं नहीं था और यही है ध्यान करना तो पूरा ध्यान इन मयूरों का अब कृष्ण के ऊपर था । हरि हरि !!
तो कृष्ण के नृत्य से सारे मयूर बहुत बेहत खुश थे । पता नहीं उन्होंने तालियां बजाई कि नहीं ? लेकिन कुछ नाचे होंगे पर ही लाए होंगे पंख भी दिखाए होंगे और अपना हर्ष उन्होंने व्यक्त किया । वैसे उन्होंने हर्ष कैसे व्यक्त किया ? यह आचार्यों के टीका में लिखा है । मयूरोंने अपना पंख अच्छा वो बात है तो इस कलाकार की इस कला का जो प्रदर्शन हुआ और उससे जो दर्शक प्रेक्षक थे मयूर प्रेक्षक वो इतने प्रसन्न थे वे सोच रहे थे की इस कलाकार को कुछ पुरुष कर देना चाहिए । जब कोई कलाकार गांव में भी आ जाते हैैं कोई डोंबारी आता है । मराठी में डोंबारी और कोई कोई कलाकार आता है और कुछ खेल कर के दिखाता है तो खेल के अंत में जो भी वहां लोग हैं वे कुछ देते हैं । कुछ बख्शीश देते हैं कुछ पुरस्कार देते हैं कोई भेट देते हैं तो सारे मयूररों ने सोचा कि इस कलाकार के कलाकारी के लिए हमको कुछ पुरस्कार देना चाहिए तो उन्होंने अपने पंख हिलाए और कई सारे उनके जो मयूर के पंख है, वे वैसे दे रहे थे इशारा कर रहे थे यह आपके लिए है । यह जो पंख है यह आपके लिए है । हमारे पास कोई धन संपदा तो नहीं है आपको देने के लिए । लेकिन हमारे पास पंख है मयूर पंख इसका आप स्वीकार कर सकते हो । हम बड़े प्रसन्न हैं आपके इस कलाकारी से तो कृष्ण मयूरों के मन की बात समझ गए तोकृष्णा आगे बढ़े और मयूरों ने जो पंख छोड़े थे गिराए थे उसको उठाएं कृष्ण और अपने मुकुट में उसको धारण किए और उसी के साथ उस समय से वो मोर पंख भगवान के सौंदर्य का अंग का एक अंग बन गया । कृष्ण कभी मयूर पूंछ बिना रहते ही नहीं । कृष्ण ने अपनी भी कृतज्ञता व्यक्ति की और प्रसन्नता व्यक्त की मयूरों से और मयूरों ने दी हुई भेंट को उन्होंने स्वीकार किया अपनाया पहन लिया ।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !!
तो मैं जब आरती उतार रहा था राधा श्याम सुंदर की तो ऐसे भी कुछ स्मरण हो रहे थे तो जो भी हम पढ़ते हैं सुनते हैं फिर “श्रवणं कीर्तनं” के बाद क्या होता है फिर ? उसी का स्मरण होता है और यह सारी बातें वेणु गीत में, तो गोपियों का स्मरण ऐसा है । ऐसी गोपियां ये विषय वस्तु है उनके स्मरण के । अब तुलना करके देखो गोपियां क्या सोचती हैं और हम क्या सोचते रहते हैं । गोपियां तो प्रेम की बात सोचती हैं । कृष्ण प्रेम और हो सकता है हम लोग काम की बात, मतलब की बात हम सोचते होंगे यह सही नहीं है, तो काम के स्थान पर प्रेम की स्थापना करनी है । “प्रेम पुमार्थ महान” वैसे चार पुरुषार्थ के अंतर्गत ये काम भी है । इसीलिए ये चार पुरुषार्थ को उसको भी …
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
( भगवद् गीता 18.66 )
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इसको भी कहना होगा ये भी त्याग दो । ऐसा धर्म जो चार पुरुषार्थों को जोड़ देता है ऐसा धर्म ऐसी अर्थव्यवस्था और उसमें काम भी ।
कुबेरात्मजौ बद्ध-मूर्त्येव यद्वत्,
त्वयामोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च ।
तथा प्रेम-भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ
न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह ॥
( श्री दामोदराष्टकम पद 7 )
अनुवाद:- हे दामोदर ! ऊखल से बँधे अपने शिशु रूप में आपने नारद द्वारा शापित दो कुवेर – पुत्रों को मुक्त करके उन्हें महान् भक्त बना दिया । इसी प्रकार कृपया मुझे भी अपनी शुद्ध प्रेमभक्ति प्रदान कीजिए । मैं केवल इसकी कामना करता हूँ और मुक्ति की कोई इच्छा नहीं करता ।
हमको मोक्ष भी नहीं चाहिए । “कुबेरात्मजौ बद्ध-मूर्त्येव यद्वत्,
त्वयामोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च । तथा प्रेम-भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ, न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह” ॥” हमको मोक्ष भी नहीं चाहिए । बस हमको दामोदर चाहिए । हमको कृष्ण चाहिए और कृष्ण की भक्ति चाहिए, प्रेम मई भक्ति । इसका ज्वलंत उदाहरण तो गोपियां है इसलिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कहना है मत है, आप उन गोपियों जैसी भक्ति करो तो ये गोपी गीत भी है । अब हम वेणु गीत का हम हल्का सा उल्लेख कर रहे थे । कुछ बिंदु उस सिंधु में से आप केवल छिड़का रहे हैं हम तो गोपियों जैसी भक्ति या गोपियों कि जो नेता है राधा रानी जैसी गोपी और फिर चैतन्य महाप्रभु ने वही किया ना । चैतन्य महाप्रभु भगवान राधा भाव को अपनाएं और भक्ति करके दिखाए ।
अष्टादश वर्ष केवल नीलाचले स्थिति ।
आपनि आचरि ‘ जीवे शिखाइला भक्ति ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्यलीला 1.22 )
अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु अठारह वर्षों तक लगातार जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने अपने खुद के आचरण से सारे जीवों को भक्तियोग का उपदेश दिया ।
हम जो इस जगत के जन है हमको सिखाए । भगवान सिखाए । कृष्ण सिखाए कैसी भक्ति करनी है ? तो सिखाते समय उन्होंने राधा के भाव को अपनाया है । गोपी भाव कहो, राधा भाव कहो, मंजरी भाव कहो एक ही बात है । ये भाव भक्ति भाव राधा भाव गोपी भाव यह सर्वोच्च भाव है । इन भावों के अंतर्गत ये भाव है । फिर सख्य भाव भी है या वात्सल्य भाव भी है, दास्य भाव भी है । इस माधुर्य रस या माधुर्य भाव में या प्रेम रस में । ठीक है मैं यहीं रुकता हूं ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*वृन्दावन धाम से*
*06 नवम्बर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 740 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि! हरि!
जय गिरिराज महाराज की जय!!!
*जय जय नंद यशोदा दुलार गिरिवरधारी गोपाल…जय जय नंद यशोदा दुलार गिरिवर धारी गोपाल!*
( आप भी गा रहे हो? आपका तो महामन्त्र का जप ही चल रहा है। वो भी अच्छा है।)
आप यह दृश्य देख रहे हो? कल ब्रज मंडल परिक्रमा में बरसाने में यह गोवर्धन पूजा महोत्सव सम्पन्न हुआ। आप इस समय वहां के गिरिराज के दर्शन कर रहे हो।यह अभिषेक का दर्शन है। उनकी आरती उतारी जा रही है। मुझे उनकी आरती उतारने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वैसे कई सारे वरिष्ठ नेता, संन्यासी उपस्थित थे अथवा आमंत्रित किए गए थे। राधारमण स्वामी महाराज परिक्रमा का संचालन करते ही हैं। मेरे गुरु भ्राता सच्चिदानंदन स्वामी महाराज जर्मनी से आ गए थे और अफ्रीका से वृहद भागवतामृत स्वामी महाराज आए । अन्य कई वरिष्ठ भक्त त्रिकालज्ञ प्रभु वृन्दावन से, ब्रज विलास प्रभु, टी. ओ. वी. पी. मायापुर से और हमारे पंढरपुर मंदिर के भक्त जैसे प्रह्लाद प्रभु वहां पहुंचे थे। वहां ईष्ट गोष्टी, कथा, कीर्तन, अभिषेक हुआ। सच्चिदानंदन स्वामी महाराज बहुत मधुर कथा सुना रहे हैं। वे सुनाते रहते हैं। महाराज गिरिराज के प्रेमी हैं। महाराज प्रतिवर्ष, पूरे कार्तिक में गोवर्धन के सानिध्य में रहते हैं।
(1) *निज-पति-भुज-दंडक-छत्र-भवं प्रपद्य: प्रतिहता-मदा-धृस्तोदंड-देवेंद्र-गरवा अतुल-प्रथुला-सैला-श्रेणी-भूप प्रियं मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(2) *प्रमदा-मदन-लीला कंदारे कंदारे ते रकयति नवा-यूनोर द्वंदवं अस्मिन्न अमांडाम इति किला कलानार्थम लग्नकस तद्-द्वायोर मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(3) *अनुपमा-मणि-वेदी-रत्न-सिंहासनो वी-रूहा-झारा-दारा-शनु-द्रोणी-संघेसु रंगैहो साहा बाला-सखीभिः सांखेलायं स्व-प्रियं मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(4)
*रस-निधि-नव-युनोह सक्सिनिम दाना-केलेर द्युति-परिमाला-विद्धाम श्यामा-वेदिम प्रकाश्य: रसिका-वर-कुलनम मोडम अस्फालायण मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(5)
*हरि-दयातम अपूर्वम राधिका-कुंडम आत्मा-प्रिया-सखम इहा कांठे नर्मनलिंग्य गुप्ता: नव-युव-युग-खेलस तत्र पास्यन रहो मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(6)
*स्थल-जला-ताला-सस्पैर भुरुहा-छाया च प्रतिपदं अनुकलम हंता सम्वर्धन गहः त्रि-जगती निज-गोत्रम सार्थकम् ख्यापायं मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(7)
*सुरपति-कृता-दिर्घा-द्रोहतो गोस्थ-रक्षा: तवा नवा-गृह-रूपस्यंतरे कुर्वतैव आगा-बका-रिपुनोकैर दत्त-मन द्रुतम मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(8)
*गिरि-नरपा-हरि-दास-श्रेणी-वरेति-नाम- मरतम इदं उदितम श्री-राधिका-वक्त्र-चन्द्रत: व्रज-नव-तिलकत्वे कल्पता-वेदैः स्फूतम मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(9)
*निज-जन-युता-राधा-कृष्ण-मैत्री-रसक्त व्रज-नारा-पसु-पक्षी-व्रत-सौख्यिका-दात अगणिता-करुणत्वन मम उरी-कृत्य तंताम् निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(10)
*निरुपाधि-करुनेन श्री-सचिनंदनेन तवायी कपटी-साथो ‘पि तवत-प्रियनारपितो’ स्मि इति खालू मामा योग्ययोग्यतम मम अग्रनां निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्*
(1 1)
*रसदा-दशकम अस्य श्रील-गोवर्धनस्या क्षितिधारा-कुल-भरतूर या प्रयात्नाद अधिते: सा सपदी सुखाड़े ‘स्मिन वसं असद्य सक्षक’ चुबड़ा-युगला-सेवा-रत्नम अप्नोति टर्नम*
अर्थ:- हे गोवर्धन, हे सभी अतुलनीय महान पहाड़ों के राजा, हे पहाड़ी जो अपने भगवान की भुजा के साथ एक छतरी बन गई और फिर देव राजा के गर्व को नष्ट कर दिया, पागलों ने हथियारों से हमला किया, कृपया अपने पास निवास प्रदान करें जो मुझे बहुत प्रिय है।
(2) हे गोवर्धन, कृपया मुझे अपने आस-पास निवास प्रदान करें जो युवा दिव्य जोड़े की दृष्टि की गारंटी देगा क्योंकि वे आपकी गुफाओं में भावुक कामुक मनोरंजन का आनंद लेते हैं।
(3) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, जहां भगवान कृष्ण खुशी-खुशी बलराम और उनके दोस्तों के साथ अतुलनीय रत्नों के आंगनों, रत्नों वाले सिंह-सिंहासन, पेड़ों, झरनों, पर्वत-धाराओं, गुफाओं, चोटियों और घाटियों में खेलते हैं, कृपया अपने पास निवास प्रदान करें जो मुझे बहुत प्रिय है।
(4) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, जो अमृत-खजाने वाले युवा दिव्य युगल के दाना-केली शगल का गवाह है, जो पारलौकिक अमृत का आनंद लेने वाले लोगों के लिए महान आनंद लाता है, कृपया मुझे निवास प्रदान करें तुम्हारे पास।
(5) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, अपने प्रिय मित्र, भगवान हरि के प्रिय, अभूतपूर्व राधा-कुंड की गर्दन को छिपाते हुए, गुप्त रूप से युवा दिव्य जोड़े की लीलाओं को देखते हुए, कृपया मुझे अपने पास निवास प्रदान करें।
(6) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, जो गायों को अपने पानी, घास और अपने पेड़ों की छाया से पोषण करके तीनों लोकों को अपने नाम की उपयुक्तता घोषित करती है, कृपया मुझे अपने पास निवास प्रदान करें। (गोवर्धन का अर्थ है “वह जो गायों का पोषण (वर्धन) करता है (जाना)।”)
(7) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, जो आगा और बका के शत्रुओं ने व्रज को सुरा राजा के निरंतर क्रोध से सुरक्षा देने के लिए एक नए घर में बदलकर सम्मानित किया, कृपया मुझे अपने पास निवास प्रदान करें।
(8) हे गोवर्धन, हे पहाड़ों के राजा, हे पहाड़ी जिसका अमृत नाम “भगवान हरि के सेवकों में सबसे अच्छा” श्री राधा के मुख के चंद्रमा से बहता है, हे पहाड़ी जिसे वेद व्रज का तिलक चिह्न घोषित करते हैं, कृपया अनुदान दें मैं तुम्हारे पास निवास।
(9) हे गोवर्धन, हे परोपकारी, जो व्रज के लोगों, जानवरों और पक्षियों को दिव्य सुख देते हैं, श्री श्री राधा-कृष्ण के लिए मित्रता के अमृत से अभिषेक करते हैं, अपने दोस्तों से घिरे, आपकी असीम दया से, कृपया मुझे दुखी स्वीकार करें और कृपया मुझे अपने निकट निवास प्रदान करें।
(10) यद्यपि मैं धोखेबाज़ और अपराधी हूँ, असीम दयालु भगवान शशिनन्दन, जो आपको बहुत प्रिय हैं, ने मुझे आपको दिया है। हे गोवर्धन, कृपया इस बात पर विचार न करें कि मैं स्वीकार्य हूं या नहीं, लेकिन बस मुझे अपने पास निवास प्रदान करें।
(11) जो पहाड़ों के राजा श्रील गोवर्धन का वर्णन करते हुए इन दस अमृत छंदों को ध्यान से पढ़ता है, वह बहुत जल्द उस आनंदमय पहाड़ी के पास निवास करेगा और सुंदर दिव्य जोड़े की सेवा के अनमोल रत्न को जल्दी से प्राप्त करेगा।
यह जो प्रार्थना है- ‘हे गिरिराज, मुझे आप अपने निकट रखिए, मुझे अपना सानिध्य प्रदान कीजिए। ‘ सच्चिदानंदन महाराज को ऐसा सानिध्य प्राप्त हो रहा है। वे हर
वर्ष यह पूरा महीना यहां बिताते हैं। वे गिरिराज के भी प्रेमी हैं।
यह गिरिराज अन्नकूट महोत्सव संपन्न हो रहा है। आप सब देख रहे हो ना? ब्रज मंडल में प्रतिवर्ष यह गिरिराज पूजा बड़े धूमधाम से मनाते हैं। यह अन्नकूट देख रहे हो? यह गिरिराज के लिए ऑफरिंग है। यह थाली भर के नहीं अपितु एक कमरा भर कर (रूम फूल) ऑफरिंग है। वैसे तो इस वर्ष गोवर्धन आकार में थोड़े छोटे रहे। परिक्रमा भी छोटी-छोटी हो रही है, संख्या थोड़ी कम है। तब भी परिक्रमा के भक्तों ने थोड़ा प्रयास किया। वे एक-दो दिनों से तैयारियां कर रहे थे। उन्होंने अन्न का कूट बना दिया अर्थात अन्न पहाड़ बनाया। वहां गोवर्धन का सारा दर्शन था, परिक्रमा मार्ग था। राधा कुंड, श्याम कुंड दिखाया था। कुसुम सरोवर और अन्नकूट के ऊपर गिरिराज महाराज विराजमान है। पूंछरी का लौटा, गोविंद कुंड, उद्धव कुंड इत्यादि इत्यादि सारे नामकरण के साइन बोर्ड भी उस अन्नकूट पर लगाए गए थे। (यहां नाम लिखा दिख रहा है। दानघाटी इत्यादि।) एक स्थान पर खड़े होकर पूरे गिरिराज का दर्शन कर सकते हैं जिसको बर्ड्स आई व्यू कहते हैं। ‘गिरिराज एट ए ग्लांस।’
जैसे हम कल भी कह रहे थे कि गिरिराज दर्शनीय है, दर्शन करने योग्य है, रमणीय है, शोभनीय है। कल जब हमने गिरिराज के दर्शन किए, यह सचमुच दर्शनीय थे। उनकी पूजा हो रही थी, उनकी पूजा हुई, अभिषेक हुआ फिर हमने दंडवती परिक्रमा भी की। दंडवती परिक्रमा करते हुए हम अनुभव कर रहे थे कि साक्षात गिरिराज प्रकट हुए हैं, चलो फायदा उठाते हैं। परिक्रमा करते हैं क्योंकि, इस दिन 5000 वर्ष पूर्व यह पहली परिक्रमा संपन्न हुई थी। दिन में यह गोवर्धन पूजा हुई थी। (कहां हुई थी? यह स्पष्ट ही है। ) गोवर्धन परिक्रमा के मार्ग पर एक गांव है जिसका नाम ‘अन्योर’ है। वहां पर यह गोवर्धन पूजा हुई थी। इस गोवर्धन पूजा के उपरांत दोपहर के बाद लगभग साय: काल होने जा रही थी तब उस समय परिक्रमा भी हुई।
कृष्ण और बलराम ने गोवर्धन की परिक्रमा की, गाय भी परिक्रमा कर रही थी। सारे ग्वाले, बुजुर्ग, बृजवासी भी परिक्रमा कर रहे थे। हमने भी परिक्रमा की, हमने तो दंडवती परिक्रमा की, इस प्रकार हमने आनंद लूटा । जब दिन में सच्चिदानंद स्वामी महाराज कथा कर रहे थे, वे कथा में बता रहे थे कि जीव गोस्वामी पाद अपने भाष्यों में उस दिन की गोवर्धन पूजा का वर्णन लिखते है कि कैसे बृजवासी वहां पहुंचे? वे पहले मानसी गंगा गए, गोवर्धन में ही मानसी गंगा है। सारे ब्रज वासियों ने सबसे पहले मानसी गंगा में स्नान किया, वहां से वे फिर आगे बढ़े। जहां अन्योर है, वहां उन्होंने पहुंच कर पूजा की और अन्न का पहाड़ बनाया। वे अन्नकूट ऑफर कर रहे थे, यह ऑफरिंग स्वीकार करने के लिए गोवर्धन प्रकट हुए। भगवान ने ही गोवर्धन का मूर्तिमान रूप धारण किया, गोवर्धन भगवान हैं। जीव गोस्वामी लिखते हैं कि भगवान प्रकट हुए और कहा
*कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः। शैलोअ्स्मीति ब्रुवन्भूरि बलिमादद्वहतद्वपुः।।*
( श्रीमद भागवतम १०.२४.३५)
अनुवाद:-
तत्पश्चात कृष्ण ने गोपों में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए अभूतपूर्व विराट रूप धारण कर लिया और यह घोषणा करते हुए कि मैं गोवर्धन पर्वत हूं” प्रचुर भेंटें खा ली।
मैं गोवर्धन पहाड़ हूं। यह गोवर्धन मैं हूँ, यह गोवर्धन शिला मैं हूं। यह पूरा गोवर्धन एक शिला ही है, यह शिला मैं हूं। उनके हजारों हाथ थे, कुछ लंबे थे, कुछ छोटे थे। गिरिराज सभी हाथों का प्रयोग कर रहे थे। वे सभी हाथों से खा रहे थे। हम कल्पना भी नहीं कर सकते। कितना विशाल यह अन्न का कूट होगा। ब्रज वासियों ने कितनी सारी सामग्री, कितने सारे व्यंजन, कितने सारे भोग प्रदार्थ बनाए थे। कुछ खीर या दाल जैसी वस्तुओं के तो तालाब भरे हुए थे। यह सब कटोरी और थालियों में नहीं था, अपितु कुंडो में भरा हुआ था अर्थात सारी ऑफरिंग के कुंड के कुंड भरे हुए थे। खीर का कुंड, सूप का कुंड, इत्यादि इत्यादि। जैसे जैसे भगवान खा रहे थे अथवा ग्रहण कर रहे थे और कहते भी जा रहे थे- ‘अन्योर, अन्योर.. और चाहिए और चाहिए।’ कई सारे बृजवासी भगवान का स्तुति गान भी गा रहे थे। वाद्य बज रहे थे, नृत्य हो रहा था। गिरिराज के ऊपर पुष्प अर्पित किए जा रहे थे। इस प्रकार का वर्णन जीव गोस्वामी पाद लिखते हैं। जब हम यह सुन रहे थे तो हमें भी यह लग रहा था कि हम भी उसी का एक अंग बन चुके हैं। हम लगभग वही हैं। इस प्रकार महाराज प्रथम गोवर्धन पूजा का कुछ ऐसा गहराई से वर्णन कर रहे थे जैसे जैसे हम सुन रहे थे, हमें भी लग रहा था कि हम भी पूजा कर रहे हैं, हम भी ब्रज वासियों के साथ वहां पहुंच गए हैं। ब्रज वासियों ने यह भी बताया था कि पूजा कैसी होनी चाहिए? उन्होंने नंद महाराज से केवल यह नहीं कहा था कि पिताश्री! इंद्र पूजा करने की आवश्यकता नहीं है, चलो गोवर्धन की पूजा करते हैं। केवल इतना ही नहीं कहा अपितु यह भी कहा कि गोवर्धन की पूजा कैसी होनी चाहिए? अर्थात कैसी करनी चाहिए? इस प्रकार कृष्ण ने विस्तार से कहा था। कृष्ण ने यह भी कहा था कि केवल गोवर्धन की पूजा ही नहीं साथ में गौ पूजा होनी चाहिए, ब्राह्मण पूजा होनी चाहिए। भगवान ने तीन पूजाओं की बात की- गोवर्धन पूजा, गो पूजा और ब्राह्मण पूजा।
*नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च। जगदि्धताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 13. 77)
अनुवाद:- ” मैं उन भगवान कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ, जो समस्त ब्राह्मणों के आराध्य देव हैं, जो गायों तथा ब्राह्मणों के शुभचिंतक हैं तथा जो सदैव सारे जगत को लाभ पहुंचाते हैं। मैं कृष्ण तथा गोविंद के नाम से विख्यात भगवान को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
कृष्ण को गाय प्रिय है, कृष्ण को ब्राह्मण प्रिय है। इसलिए कृष्ण ने कहा कि केवल गोवर्धन की पूजा ही नहीं हो, ब्राह्मणों की पूजा भी होनी चाहिए, गाय की भी पूजा होनी चाहिए। हमने भी गाय की पूजा की, प्रदक्षिणा भी की। गाय को सजाया भी और गाय को लड्डू भी खिलाए। परिक्रमा के सभी भक्तों ने मिलकर गो पूजा की। यह आप सब को करना है इसलिए बता रहे हैं। आपको हर वर्ष गोवर्धन पूजा करनी है और साथ में यह नहीं भूलना कि गाय, ब्राह्मणों की पूजा भी यथासंभव करनी है। कृष्ण ने जो जो निर्देश दिए थे कि कैसे-कैसे पूजा होनी चाहिए? अर्थात जिसके अंतर्गत कृष्ण ने कहा है यह अन्नकूट का जो महाप्रसाद है, उसका वितरण होना चाहिए। केवल ब्राह्मण को ही भोजन ही नहीं कराना अर्थात ब्राह्मणों को ही नहीं खिलाना अपितु सभी जीवों को यह प्रसाद मिलना चाहिए। चांडाल या शुद्र जो भी है, सबको गिरिराज गोवर्धन या अन्नकूट का प्रसाद मिलना चाहिए। हमारे ब्रजमंडल परिक्रमा के भक्त प्रतिवर्ष यह गोवर्धन पूजा बरसाने में ही मनाते हैं और हम भी दीवाली के समय वहां पहुंच जाते हैं। दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा होती है। गोवर्धन/ अन्नकूट का प्रसाद खूब बचता है। पूरे बरसाने में भक्त ( वैसे इस साल तो इतने बड़े स्केल पर नहीं हो पाया) हमारे इंग्लैंड के परशुराम प्रभु जो परिक्रमा के साथ बैलगाड़ी लेकर चलते हैं, वे हलवा, पूरी व सारे प्रसाद के साथ पूरी बैलगाड़ी को भर देते हैं। बरसाने में कीर्तन होता है और प्रसाद बंटता है। कल भी हुआ, कल भी एक ठेले में बचा हुआ सारा प्रसाद भर दिया गया अथवा रख दिया और बांटने के लिए ले गए। हमें भी वह प्रसाद वितरण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोवर्धन पूजा के उपरांत परिक्रमा के हम सब बरसाने की परिक्रमा में गए। बरसाने की भी परिक्रमा है। ब्रजमंडल परिक्रमा के अंतर्गत लोकल परिक्रमा भी होती है जैसे पंचकोसी परिक्रमा , गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं। काम वन में काम वन की आंतरिक और बाहरी परिक्रमा होती है वैसे ही जब बरसाने में आते हैं तो बरसाने की परिक्रमा होती है। बरसाने की जो लीला स्थलीय है, वहां की परिक्रमा होती है। हरि! हरि! मैं तो पूरी परिक्रमा में नहीं था लेकिन सीधे लाडली लाल के दर्शन के लिए गया। लाडली लाल की जय! लाडली लाल बड़ा प्यारा नाम है। राधा रानी को लाडली कहते हैं। काफी भीड़ थी। हरि! हरि! हम सीढ़ी चढ़कर पहुंच गए। जब हम जा रहे थे तब रास्ते में एक विशेष दर्शन या अनुभव हुआ।
वहां रास्ते में कई सारे भिक्षुक बैठे रहते हैं, कई संत भी होते हैं जो बैठे रहते हैं, भिक्षा की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उसमें से हमने एक को देखा कि वह बड़े ध्यानपूर्वक ग्रंथ पढ़ रहा था। (मुझे भिक्षुक कहना अच्छा नहीं लगता है) कुछ दान दक्षिणा के लिए मांग भी कर रहे थे। राधे! राधे! हमको दे दो, हमको दे दो, कई हमारी धोती पकड़ रहे थे, हमें जाने नहीं दे रहे थे। स्वामी जी दे दो, महाराज दे दो भिक्षा दो, भिक्षा दो परंतु यह जो विशेष व्यक्ति थे वह किसी ग्रंथ पढ़ने में मस्त थे। जब हमने गौर से देखा (हम जो आपको दिखा रहे हैं, यह वही दृश्य है ) वह भगवत गीता यथारूप पढ़ रहे थे) यह बाबा जी वही है। हम भक्तों ने औरों को तो दान दक्षिणा नहीं दी लेकिन इस महात्मा को जो भगवद्गीता पढ़ रहे थे, उनको जरूर दे दी। (वह रखी है, उनके बगल में देखो) उनको तो इसकी कोई चिंता नहीं थी, मिले या नहीं मिले लेकिन भगवान कहते हैं-
*अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||* ( श्रीमद भगवतगीता 9.22)
अनुवाद:-
किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ |
जो भगवान की अनन्य भक्ति करते हैं अर्थात औरों को छोड़कर केवल भगवान कृष्ण की भक्ति करते हैं, भगवान उनके लिए क्या करते हैं? योगक्षेमं वहाम्यहम् यह गीता में ही लिखा है। वे वही गीता पढ़ रहे थे। भगवान कहते हैं कि उनकी जो आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति मैं करता हूं। मैं उनका वहन करता हूं। ऐसा ही कल हुआ। यह व्यक्ति जो भगवे वस्त्र पहने थे, पढ़ रहे थे और पढ़ते जा रहे थे। हम लोग दर्शन करके आधे पौने घंटे के उपरांत जब वापिस लौटे तो उनका अध्ययन चल ही रहा था।( उनका ऊपर जाते समय भी फोटो खींचा और जब नीचे आए तो उनका फिर से फोटो खींचा) “ही वाज़ टोटली ऑब्जर्व इन रीडिंग भगवतगीता एज इट इज।” वह भी एक विशेष दर्शन रहा। श्रील प्रभुपाद का भी स्मरण हुआ। श्रील प्रभुपाद की जय! यह श्रील प्रभुपाद की देन है। कृष्ण की ओर से श्रील प्रभुपाद ने भगवतगीता यथारूप को प्रस्तुत किया और इसका वितरण करने के लिए हमें सभी को प्रेरित करते रहे। ऐसी ही एक भगवतगीता वहां पढ़ी जा रही थी।
वह पूर्णता है। भगवतगीता का वितरण जो हुआ, उसकी परफेक्शन( पूर्णता) पढ़ने में हैं। कल लाडली लाल का कुछ विशेष दर्शन था या गोवर्धन पूजा होने के कारण बरसाने में इतनी सारी भीड़ उमड़ आई थी कि कुछ पूछो नहीं। राधा रानी की जय! बरसाने वाली की जय! लाडली लाल की जय! हमनें देखा कि दर्शन के लिए भी समय समय ऐसी व्यवस्था होती रहती हैं कि अंदर गर्भगृह जिसे ऑल्टर भी कहते हैं, वहां से लाडली लाल को बाहर लाया गया था। लाडली लाल विशेष सिंहासन पर विराजमान थी। साथ में ललिता और विशाखा भी थी। बड़ा विशाल दृश्य था। बड़ा जनसुमदाय भी वहां एकत्रित था। हरि! हरि !हम लाडली लाल के दर्शन से लाभान्वित हुए। हरि! हरि! हमारे आंखों की पूर्णता भी इसी में है। यदि भगवान के दर्शन यह आँखें नहीं करती है तो यह आंखें बेकार है। यदि हम मुख से भगवान का नाम, गाथा नहीं कहते हैं तो यह मुख बेकार है और यह जीवन भी बेकार का ही है अगर हमनें यह जीवन समर्पित नहीं किया।
*एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम।परिचर्यमाणो भगवान्भक्तिमत्परिचर्यया।।पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः।श्रेयो दिशत्यभिमतं यद्धर्मादिषु देहिनाम्।।*
( श्रीमद भागवतम 4.8.59)
अनुवाद:-
इस प्रकार जो कोई गंभीरता तथा निष्ठा से अपने मन, वचन तथा शरीर से भगवान की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति विधियों के कार्यों में मग्न रहता है, उसे उसकी इच्छानुसार भगवान वर देते हैं। यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म, अर्थ, काम या भौतिक संसार से मोक्ष चाहता है, तो भगवान इन फलों को प्रदान करते हैं।
या
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||*
( श्रीमद भगवतगीता १८.६६ )
अनुवाद:-
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
सर्वधर्मान्परित्यज्य करके हम उनको प्राप्ति कर उनकी सेवा, साधना करते हैं और साधना से सिद्ध होते हैं। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करता है तो इसके विषय में ही आचार्यवृंद कहते हैं-
*हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥*
*गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥*
*ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ। दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥*
*हा हा प्रभु नन्दसुत, वृषभानु-सुता-युत, करुणा करह एइ बार। नरोत्तमदास कय, ना ठेलिह राङ्गा पाय, तोमा बिना के आछे आमार॥4॥*
अर्थ
(1) हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
(2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
(3) जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
(4) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नंदसुत श्रीकृष्ण! हे वृषभानुनन्दिनी! कृपया इस बार मुझ पर अपनी करुणा करो! हे प्रभु! कृपया मुझे अपने लालिमायुक्त चरणकमलों से दूर न हटाना, क्योंकि आपके अतिरिक्त मेरा अन्य कौन है?’’
मनुष्य जन्म पाकर यदि लाडली लाल का भजन नहीं किया तो जानिया शुनिया विष खाइनु। हमनें जहर पी लिया। प्रतिदिन अमृत जैसा दर्शन अर्थात जिस दर्शन को करने से व्यक्ति अमृत बन जाता है। (उस नेक्टर को अमृत क्यों कहते हैं? क्योंकि उसके पान से फिर मरण नहीं होता। ) मृत अर्थात मरना और अमृत अर्थात नहीं मरना। जो भी ऐसा दर्शन करेंगे अर्थात भगवान के विग्रह का दर्शन करेंगे, उनके नामों का उच्चारण करके उनका श्रवण करेंगे
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह भी नामामृत है। नामामृत करने से भी हम लोग आराधना ही करते हैं। महामन्त्र का श्रवण कीर्तन करते हैं। इसे भागवत कहता है। यदि कोई व्यक्ति भागवत के मर्म को समझते हैं। भागवत यही कहता है। बड़ा स्पष्ट है। भागवत प्रवचन 11 स्कंध में वर्णन आता है कि नव योगेंद्र हुए। उनकी संख्या 9 थी। इसलिए उनको नव योगेंद्र कहते हैं। नवयोगेंद्रों ने एक-एक करके कुछ उपदेश सुनाया है। उसके अंतर्गत करभाजन मुनि अपना उपदेश सुना रहे थे।
*कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्। यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।।*
( श्रीमद भागवतम ११.५.३२)
अनुवाद:-
कलियुग में, बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन करते हैं, जो निरंतर कृष्ण के नाम का गायन करता है। यद्यपि उसका वर्ण श्यामल नहीं हैं किंतु वह साक्षात कृष्ण है। वह अपने संगियों, सेवकों, आयुधों तथा विश्वासपात्रों साथियों की संगत में रहता है।
यह भागवत का वचन है । यह सुमेधसः है मेधा मतलब बुद्धि/ दिमाग। अच्छी बुद्धि वाले लोग क्या करेंगे? यज्ञ करेंगे या भगवान की आराधना करेंगे। यजन्ति मतलब आराधना करेंगे। यज्ञ करते हुए आराधना करेंगे। उस यज्ञ का उल्लेख भी किया है। यज्ञे संकीर्तन प्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः। कलियुग में जो बुद्धिमान लोग हैं।( बुद्धू नहीं जो बुद्धिमान लोग हैं। आप सिद्ध करो बुद्धिमान हो या बुद्धू हो )अगर आप संकीर्तन यज्ञ कर रहे हो तो आप इंटेलीजेंट पर्सन (बुद्धिमान व्यक्ति ) हो अन्यथा आप कम बुद्धिमान हो। हरि! हरि! वैसे भगवान दर्शन देते हैं, जब हम कीर्तन करते हैं
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण अथवा इस यज्ञ के पीछे का उद्देश्य / लक्ष्य भगवान का दर्शन ही है।
*महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ||*
(श्रीमद भगवतगीता10.25)
अर्थ:-
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ |
भगवान कृष्ण ने स्वयं ही गीता के दसवें अध्याय में कहा है – यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि अर्थात सभी यज्ञ में जप यज्ञ मैं हूं। भागवतम में करभाजन मुनि, निमी महाराज को कह रहे हैं कि कलियुग नें संकीर्तन यज्ञ ही आराधना की विधि या पद्धति है। हरि! हरि! जप करते रहिए। उत्सव भी संपन्न करते जाइए या उत्सव में सम्मिलित होते रहिए। कल आपने उत्सव कैसे संपन्न किया? क्या किया? कुछ अनुभव किया? गोवर्धन पूजा के दिन कहीं आए या गए? कुछ देखा, सुना? आपके कोई साक्षात्कार है? आप भी सुना सकते हो। मेरे पास तो आपको सुनाने के लिए बहुत कुछ है लेकिन आपको भी तो सुनाना चाहिए। हम जब सुनाते हैं तो
*तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्। श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः॥*
अर्थ:-
आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत में कष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं। विद्वान मुनियों द्वारा प्रसारित ये कथाएँ मनुष्य के पापों को समल नष्ट करती हैं और सुनने वालों को सौभाग्य प्रदान करती हैं। ये कथाएँ जगत-भर में विस्तीर्ण हैं और आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत हैं। निश्चय ही जो लोग भगवान् के सन्देश का प्रसार करते हैं, वे सबसे बड़े दाता हैं।
गोपियों ने कहा( मैं आगे कह ही रहा हूं। आगे आपको समय नहीं मिलेगा।) जो भी कथामृत का वितरण करते हैं, कथामृत का प्रचार प्रसार करते हैं। वे जन कैसे हैं भूरिदा जनाः है। वे जन जहां तहां है वे जन भूरिदा जनाः है, वे दयालु है, दाता है, दानी है, उदार है। कंजूसी मत करो। कंजूस मत बनो। बांट दो। कुछ बोल बोलो। आप में से कुछ ‘भूरिदा’ बनो। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था राजा प्रताप! कहा था तुम ‘भूरिदा’ हो, मुझे तुम गोपी गीत सुना रहे हो। ठीक है। अब आप से सुनते है।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*5 नवंबर 2021*
*वृंदावन धाम से*
हरे कृष्ण
आप लोग हरिनाम को तो सुन रहे हो ही। अब कुछ हरि कथा या गोवर्धन कथा सुनिए। अब तक 810 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। थोड़ी देर में मुझे बरसाना जाना है। बरसाना धाम की जय। धाम तो राधा रानी का है बरसाना, किंतु वहां ब्रज मंडल परिक्रमा के भक्तों के साथ गोवर्धन पूजा मनाएंगे हम। इसलिए जब कोई इमरजेंसी वगैरह होती है तो हम हमारा जपा टॉल्क 6:30 बजे शुरू करते हैं। और फिर समापन भी थोड़ा जल्दी कर ही देते हैं या करना पड़ता है। हरि हरि। आप सुनोगे 7:00 बजे अनाउंसमेंट्स होगी। पद्ममाली प्रभु भी वृंदावन पहुंचे हैं तो वे अनाउंस करेंगे। अलग-अलग अनाउंसमेंट्स है उसमें परिक्रमा में कभी कथा होगी या मैं कभी पहुंचूंगा। लगभग 8 से 8:15 वहां पर कथा होगी। मेरे पुर्व वहां सचिनंदन महाराज की कथा है। 7:30 बजे उनकी कथा प्रारंभ होगी और लगभग 7:15 बजे हमें ट्रैवल कर के वहां पहुंचना है। ठीक है ऐसी बहुत सारी सूचनाएं होगी। तो आज.. गोवर्धन पूजा महोत्सव की जय। गोवर्धन का संस्मरण तो होता ही है समय-समय पर इस फोरम में। तो फिर आज का क्या कहना? आज तो गोवर्धन पूजा का दिन है। वैसे जब कल की लीला हुई तब क्या हुआ? उखल बंधन लीला गोकुल में संपन्न हुई… इसे विस्तार से नहीं कहूंगा।
लेकिन यह याद रख सकते है हम की वैसे श्रीराम ही अयोध्या नहीं लौटे कल और फिर दिवाली का उत्सव मनाया गया कल के दिन। तो कल के ही दिन कृष्ण भी और सारे गोकुल वासी वैसे गोकुल से वृंदावन के लिए प्रस्थान किए या वृंदावन में प्रवेश हुआ कहो। सर्वप्रथम पहली बार कृष्ण वृंदावन आए, दीपावली के दिन की बात चल रही है। कृष्ण यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार किए। हम तो उद्धार किए वगैरा की बात करते हैं। लेकिन गोकुल वासियों का जो उन वृक्षों के उद्धार के अंतर्गत या उसके कारण जो हलचल मच गई। सारे ब्रजवासी गोकुल वासी चिंतित थे। यह आतंकवाद बढ़ रहा है टेरेरिस्ट अटैक हो रहे हैं ऐसा ही उन्होंने सुना, सुना नहीं समझा। उनको पता नहीं था यह दो वृक्ष कैसे और किसने उखाड़े। लेकिन कृष्ण की सुरक्षा हुई यह सब होते हुए भी ऐसे वे समझ रहे थे। तो उस घटना के उपरांत सभा बुलाई गई थी गोकुल में। नंद बाबा ने सभा बुलाई और उसमें विचार विमर्श हो रहा था की यह स्थान तो छोड़ना होगा हमें। पूतना आइ, तृणावर्त आया, छकटासुर आया और पता नहीं आज कौन आया था। तो यहां से प्रस्थान करना है। तो उस इष्ट गोष्ठी में विचार हो रहा था कि हम कहा जा सकते हैं। गोकुल को छोड़कर हमको तो जाना ही है, तो हम कहां जा सकते हैं।
उपानंद नंद बाबा के बड़े भ्राता श्री वह तो कब से चिंतित थे। और केवल चिंतित ही नहीं थे वे सोच रहे थे। सोच ही नहीं रहे थे वैसे उन्होंने सारे ब्रजमडल का भ्रमण करके एक स्थान का चयन भी किया हुआ था। हां हमें वहां जाना चाहिए, तो उपानंद कहे थे कि हमें वृंदावन में गोवर्धन के निकट जाना चाहिए। हरी हरी। तो गोवर्धन की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए उपानंद जी का यह प्रस्ताव था कि हमें गोवर्धन के निकट जाकर रहना चाहिए। क्योंकि यह गोवर्धन क्या करने वाला है? क्या कर सकता है? पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलै: यह जो वचन है गोपियों का वेणु गीत में तो उसमें गोपियों ने क्या कहा? गोवर्धन क्या करता है? पानीय यहां पानी की बहुत बड़ी व्यवस्था है, यहां कई सारे प्रपात है वॉटर फॉल्स, कई झरने हैं, कुंड हैं। और सूयवस यहा बढ़िया घास है। तो नंद महाराज का और और गोकुल वासियों का जो धन है गोधन। जब धन की बात होती है वृंदावन में तो ब्रज वासियों का धन है गोधन गाय ही धन है। तो हम उस गोवर्धन के पास जाएंगे तो गौ का क्या होगा वर्धन गोवर्धन। यह गोवर्धन वर्धन करेगा गाय का वर्धन करेगा। हमारी गाय के रूप में जो संपत्ति है वह बढ़ेगा वर्धन होगा। गोवर्धन क्या करेगा गायों को हष्टपुष्ट रखेगा।
सच ही तो कहा है गोवर्धन। इस पहाड़ का नाम गोवर्धन प्रसिद्ध नाम है क्योंकि यह गायों की पुष्टि करता है। गायों के लिए यह गोवर्धन गोचारण भूमि भी है या क्षेत्र है। यहां कृष्ण गायों को चराने के लिए ले जाते हैं। यह गोवर्धन एक शोभनिय, रमणीय, दर्शनीय स्मरणीय स्थल है। हरि हरि। जहां यह गोचरण लीलाएं भी संपन्न होती है। मित्रों के साथ खेलने के लिए यह जिसको हम सीनिक स्पॉट कहते हैं जहां जहां लोग जाते हैं पिकनिक के लिए पिकनिक स्पॉट। तो मित्र भी वहां गायों को ले जाते हैं जहां कृष्ण भी होते हैं बलराम होते हैं। यद् रामकृष्णचरणस्परशप्रमोद: और रामकृष्ण जब चढ़ते हैं वे तो चढ सकते हैं, हम चढ़ नहीं सकते। वे चढ़ते हैं जब गोवर्धन के ऊपर तो अपने चरण के स्पर्श से गोवर्धन को रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः गोवर्धन प्रसन्न होता है।उसके रोमांच खड़े होते हैं वृक्ष के रूप में। हरि हरि। इसकी गुफाएं भी है, गुफा में विश्राम करते हैं। बाहर गर्मी है, तो फिर अपने मित्रों के साथ कृष्ण कन्दरकन्दमूलै: गुफा में प्रवेश करते हैं। बाहर तो गरमा गरम मामला है लेकिन गुफा में जाते ही सभी जगह शीतलता है, नैसर्गिक ऐसी व्यवस्था है। तो वहा विश्राम करते हैं कृष्ण। और गोवर्धन क्या करता है? गायों के लिए भी घास की व्यवस्था है।
और मित्रों के लिए गोवर्धन पर कन्दरकन्दमूलै कई कंद मूल फल यह गोवर्धन देता है। फुल भी देता है फल भी देता है। पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्याा प्रयच्छति जिसको कृष्ण कहें। यहां पत्रं प्राप्त है गोवर्धन में। पत्रं पुष्पं फलं तोयं तोयं मतलब जल। अर्पित करो कृष्ण को प्रीति पूर्वक। तो फिर कहो की गोवर्धन अपना पत्रं पत्ते कई प्रकार के शायद उसकी कुछ सलाद के रूप में भगवान स्वीकार कर रहे हैं। पुष्पम वहां के खिले हुए पुष्प है उसी की माला बनाते हैं और फिर कृष्ण वनमाली बन जाते हैं। वनके कुछ पुष्प भी है कुछ पत्ते भी होते हैं उसकी माला बनाते हैं और अर्पित की जाती है। फलं वहां पर कई सारे पहाड़ी इलाकों में और भी कई भिन्न भिन्न प्रकार के वृक्ष उगते हैं और यह फल प्रदान करते हैं, मतलब गोवर्धन ही फल दे रहा है। तोयं मतलब जल तो प्रचुर मात्रा में वहां है। उसकी शोभा भी देखो वॉटर फॉल्स। लोग वॉटर फॉल्स देखने के लिए जाते हैं यहां जाते हैं वहां जाते हैं बेशक इतने सारे वॉटरफॉल्स नहीं है।
लेकिन गोवर्धन में वाटरफॉल्स ही वॉटरफॉल्स। उसको देखते भी है इसीलिए हमने कहा दर्शनीय, गोवर्धन दर्शनीय है देखने योग्य है। वहां रमन करने योग्य है तो रमणीय है। शोभनीय है और स्मरणीय है स्मरण करने योग्य है जैसे अभी हम स्मरण कर ही रहे हैं, गोवर्धन का स्मरण कर रहे हैं। कितना शोभनीय है रघुनाथ दास गोस्वामी कहते हैं कि यह गोवर्धन वृंदावन का तिलक है। हम भी जब तिलक पहनते हैं तो हमारी शोभा बढ़ती है। यह शरीर एक मंदिर है, उसकी शोभा हम बढ़ाते हैं तिलक पहन के। कई सारे स्थानों पर तिलक और फिर फाइनली भाल पर भाले चंदन तिलक मनोहर। ब्रज मंडल ने वृंदावन ने यह तिलक पहना हुआ है और वह ब्रजमंडल का तिलक है गोवर्धन। वैसे रघुकुल तिलक कहते है, रघुकुल के तिलक कौन है? जय श्री राम। इसीलिए रघुकुल तिलक श्री राम सारे कुल की शोभा बढ़ाने वाले श्री राम रघुकुल तिलक। तो ब्रज के तिलक है यह गोवर्धन। उसकी शोभा का क्या कहना? यह जो गोवर्धन है जिसको सेटिंग द सीन कहते हैं। यहां तो सीन वैसे सेट है। कई प्रकार के सेट्स है, जब मूवी बनती है तो हर मूवी के निर्माण के समय प्रोडक्शन के समय कई प्रकार के सेट्स सीन्स वह खड़े कर देते हैं। तो यहां गोवर्धन में कुदरती नैसर्गिक रूप से कहीं सारे मंच है या सीन्स है या सेट्स है। कई भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाएं संपन्न हो सकती है। यह रास क्रिडा की स्थली भी है यह गोवर्धन। हरि हरि।
वहां दानघाटी है जहां कृष्ण एंड कंपनी गोपीयो से और राधा से टैक्स कलेक्ट करते हैं। तो यह श्रृंगार लीला की स्थली भी है यह गोवर्धन। रासस्थली भी है यह गिरीराज गोवर्धन। रास क्रीडा या माधुर्य लीला संपन्न और भी स्थानों पर होती ही होगी लेकिन फिर राधा कुंड के तट पर माधुर्य लीला प्रतिदिन संपन्न होती है। आप अब तक समझ गए होंगे, मध्यान्ह के समय श्री कृष्ण की माधुर्य लीला संपन्न होती है। गोचारण लीला के लिए गए थे तो गोवर्धन में ही गायें चर रही है। तो कृष्ण वहां से गायब होते हैं या पलायन करते हैं या कुछ बहाना बनाकर मित्रों को कहते हैं, अभी अभी आता हूं। तो मित्र गाय चरा रहे हैं गोवर्धन मैं या और कोई वन में भी हो सकता है। लेकिन गोवर्धन और वहां से कृष्ण फिर राधाकुंड जाते हैं। निश्चित रूप से राधा कुंड गोवर्धन का एक भाग है। राधा कुंड गोवर्धन का ही एक अंग है। गोवर्धन ही है राधा कुंड श्याम कुंड। या गोवर्धन की आंखें हैं और वहां गोवर्धन का मुख है जहां राधा कुंड और श्याम कुंड है। और गोवर्धन एक मयूर के रूप में या उसने मयूर का रूप धारण किया है ऐसी भी समझ है। तो मयूर का मुख है, गोवर्धन का मुख है जहां राधा कुंड श्याम कुंड है। और फिर पूछ है पूछरी का लोटा बाबा। हम लोग परिक्रमा करते हुए जाते हैं, फिर दक्षिण दिशा में जो स्थान है आखिरी स्थान जहां से हम यू टर्न लेते हैं जतीपुरा की ओर। वहा पूछरी का लोटा बाबा अपनी लाठी लेकर बैठे हैं। और वैसे ऐसी भी समझ है कि वे नोट करते रहते हैं कौन-कौन परिक्रमा में आए हैं ओ यह भी आ गया यह भी आ गया। वे रिपोर्टिंग करते हैं फिर कृष्ण को यह लोग आए थे नागपुर से, सोलापुर से, कोल्हापुर से, यहां से, वहां से। गोवर्धन पहाड़ को धारण करने वाले तो गिरिराज धरण श्री कृष्ण ही थे।
लेकिन कुछ लोग थोड़े चिंतित थे कि कितने दिनों से धारण किए है इस गोवर्धन को कृष्ण, शायद थके होंगे। अब थकेंगे तो हो सकता है गोवर्धन नीचे आ सकता है। और फिर क्या होगा हमारा चलो थोड़ा सहायता करते हैं कृष्ण को। कईयों ने अपनी अपनी लाठी लेकर वे भी गिरधारी बनना चाह रहे थे, भूमिका निभा रहे थे। तो उसमें से लौटा बाबा भी एक थे, जिन्होंने अपनी लाठी से गोवर्धन को धारण किया। फिर यह लोग सोच रहे थे यह तो छोटा बच्चा है, हम बड़े बुजुर्ग हैं, पहलवान हैं, बलवान हैं। इसको धारण करने वाले तो हम ही हैं। कृष्ण ने उनके मन को पढ़ा, और फिर कृष्ण ने अपना हाथ थोड़ा नीचे लेकर हाथ घुमाते हुए कुछ कर रहे थे। शायद कुछ एक मिली मीटर नीचे और 1 इंच नीचे लेकर हाथ घुमा रहे थे। तो फिर सब समझ गए उनकी लाठियां टूट रही थीऔर कमर भी टूट रहे थे वे गिर रहे थे फिर वे कहने लगे नहीं हम नहीं हम नहीं गिरिराज धारण करने वाले तुम ही हो।
बाकी तो मनुष्य थे, जैसे हम, आप हैं। हम क्या कितना बोझ धारण कर सकते हैं। यही तो बात है.. कृष्णस तू भगवान स्वयं। यह भी सिद्ध किया भगवान ने गोवर्धन धारण करके। तो आप कितना बोझ उठा सकते हैं? शायद 20 किलो 50 किलो.. हां कितना उठा सकते हो आप? तो ब्रजवासी भी उतना ही उठा सकते हैं। वे भी जीवात्मा है, भक्त है। लेकिन भगवान ही इस पहाड़ को उठा सकते हैं, उठाएं। हम तो पत्थर को भी नहीं उठा सकते, लेकिन भगवान ने पहाड़ को उठा लिया। जो 16 मिल ऊंचा गोवर्धन पहाड़ था और 21 किलोमीटर इसकी परिक्रमा है। और वैसे गोलोक में भी गोवर्धन है उसको शतश्रृंग कहते हैं। श्रृंग मतलब शिखर सौ शिखर वाला गोवर्धन। और यह भी वैसा ही है हम को दिखता नहीं है या हम पूरा दर्शन नहीं कर पाते या दर्शन नहीं होता है हमें। तो जो वहां है वही यहां पर भी है। इसीलिए राधा ने कहा था मैं वहां नहीं जाऊंगी जब उनके प्राकट्य का संभवामि युगे युगे समय आया था। राधा रानी ने कहा था, मैं वहां नहीं जाऊंगी जहां क्या नहीं है? वृंदावन नहीं है, यमुना नहीं है और विशेष रूप से गोवर्धन नहीं रहता है। मुझे ऐसी जगह से कुछ लेना देना नहीं है। तो कृष्ण ने कहा था हां हां वहां सब कुछ है, सब कुछ प्रकट हो रहा है प्रकट किया गया है।
सीन सेट है चलो चलते हैं। तो फिर कृष्ण पहले प्रकट हुए और पीछे से 1 साल के बाद राधारानी भी प्रकट हुई। और फिर जब वे बड़े होते हैं तो इस गोवर्धन के तलहटी में, गोवर्धन के शिखर पर, गोवर्धन का जो मुख है श्यामकुंड राधाकुंड वहा भी खुब राधा कृष्ण की लीलाएं संपन्न होती है। आज भी होती है। तो 5000 वर्ष पूर्व के वृंदावन में कई सारे परिवर्तन, बदलाव आ जाते हैं। स कालेनेह महता योगे नष्टः परन्तप कालका ऐसा प्रभाव। तो भी ऐसी समझ है कि कृष्ण के समय के तीन आइटम तो आज भी मौजूद है। और वह है यमुना मैया की जय नंबर वन और ब्रज की रज वही की वही आज भी है और तीसरा है गोवर्धन गिरिराज गोवर्धन की जय। हरि हरि। तो गोवर्धन वैसे हमारी रक्षा कर रहा है। ऐसे गोवर्धन की आज पूजा का दिन है। जो पूजा स्वयं श्री कृष्ण ने समझाया बुझाया नंद महाराज और बुजुर्ग ब्रज वासियों को। और छोड़ दो यह इंद्र पूजा। तो जो प्रवचन, भाषण, उपदेश अर्जुन को देने वाले थे कुरुक्षेत्र के मैदान में। उसी का कुछ भाषण कृष्ण सुनाए थे.. कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए उनका यह हेतु होता है, देवी देवताओं की पूजा के पीछे। तो फिर कृष्ण कह रहे थे कि यह छोड़ दो और तुमने जो सामग्री इस साल भी शॉपिंग वगैरह की हैं। कल के दिन अमावस्या थी, इंद्र पूजा की तैयारी हो रही थी। तो कृष्ण ने कहा कि यही जो सामग्री आपने इकट्ठी की हुई है इसका उपयोग करो गोवर्धन पूजा के लिए।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज इंद्र पूजा, यह पूजा, वह पूजा, यह सब यह धर्म, यह कर्म इसको सब त्यागो। यह कर्मकांड और ज्ञानकांड इत्यादि क्या करो? मामेकं शरणं व्रज। तो व्रज मतलब जाना है वैसे लेकिन व्रज मतलब ब्रज मंडल भी है या ब्रज मतलब वृंदावन भी है। और सारे धर्म कर्म छोड़ो और क्या करो वृंदावन जाओ। ऐसा ही भाव निकालते है कुछ ब्रजवासी भक्त। मामेकं शरणं व्रज मतलब ब्रज वृंदावन जाओ बहुत हो गई दुनियादारी इत्यादि वृंदावन जाओ या फिर गोवर्धन जाओ। और आज गोवर्धन की पूजा करो, आप सभी को गोवर्धन पूजा करनी है।
इस्कॉन मंदिरों में जाओ भक्तों के साथ गोवर्धन पूजा मनाओ। या फिर आप अपने अपने घरों में भी गोवर्धन का पहाड़ या अन्नकूट बना सकते हो। फिर अर्पित करो वह अन्नकूट गोवर्धन को। तो आज के दिन गोवर्धन की सर्वप्रथम पूजा हुई और उस पूजा में कृष्ण बलराम भी उपस्थित थे या कृष्ण बलराम भी बन गए पुजारी। और सभी ब्रज वासियों के साथ उन्होंने गोवर्धन की पूजा की। फिर आज के दिन सभी ने वह पूजा की सामग्री जो भी अर्पित कर रहे थे अन्नकूट। अन्न का पहाड़ बनाया उन्होंने। इतने सारे पकवान्न, भोजन सभी अर्पित कर रहे थे ब्रजवासी गोवर्धन को। और गोवर्धन उसका भक्षण कर रहे थे या आस्वादन कर रहे थे। आनीओर आनीओर की बात चल रही थी। वह स्थान भी है गोवर्धन परिक्रमा करते हैं तो एक आन्यौर नाम का एक ग्राम है। वही तो स्थान है गोविंद कुंड के पहले। राधा कुंड से जब हम जाते हैं गोविंद कुंड की ओर तो गोविंद कुंड से थोड़ा पहले एक गांव आता है आन्यौर। तो वही अन्नकूट महोत्सव, गोवर्धन पूजा महोत्सव संपन्न हुआ। आनीओर आनीओर और ले आओ और ले आओ।और ऐसे कहने वाले गोवर्धन मूर्तिमान भगवान बन गए, इस गोवर्धन को ही अपना रूप बनाए। फिर उन्होंने कहा भी शैलोस्मि शैलोस्मि यह गोवर्धन पहाड़ या शीला मैं हूं। ऐसा कहने वाला मुख मंडल और ऐसा रूप सभी ब्रज वासियों ने देखा। वे आश्चर्यचकित हुए और वे आनंदित भी हुए देखकर गोवर्धन भगवान को।
तो यह सब आज के दिन हुआ। कई सारे जो विशेष स्थली है उसकी परिक्रमा करने वाले भक्त परिक्रमा करते समय अलग-अलग स्थानों पर उसी गोवर्धन की शीलाए लेकर एक छोटा सा भवन बनाते हैं। पत्थर रखते हैं एक दो और ऊपर से शीला रख दी छत के रूप में। और फिर प्रार्थना करते हैं मोर एइ अभिलाष, विलासकुंजे दिओ वास हे गोवर्धन जब यह शरीर नहीं रहेगा त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति जब होगा तब मुझे आपके तलहटी में हे गोवर्धन या यहां आपकी कुंज भी है तलहटिया है, तो यही मुझे वास दीजिए। मैं स्वर्ग का वास नहीं चाहता हूं मैं ब्रजवास चाहता हूं। ब्रजवास में भी गोवर्धन के निकट मुझे मेरा वास निवास हो। तो ऐसा छोटा सा निवास बनाकर गोवर्धन की शीलाओ से भक्त प्रार्थना करते हैं। गोवर्धन को प्रार्थना करते हैं, भगवान को प्रार्थना करते हैं कि मुझे यही वास निवास दीजिए। हरि हरि। ठीक है, बरसाना जाने का समय हो चुका है।
हरे कृष्ण।
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जप चर्चा
4 नवंबर 2021
वृंदावन धाम
हरि बोल ! तो जपा टॉक कभी-कभी 6:30 बजे शुरु होता ही है या शुरू करना पड़ता है । वैसे आज भी अभी जपा टॉक प्रारंभ करने जा रहे हैं और समाप्त भी जल्दी ही होगा 7:00 बजे तक इसको समापन करना है और फिर अब पुनः कथा सुन सकते हो 8:00 बजे मंदिर में भागवत की कक्षा होगी दामोदर लीला का संस्मरण होगा 8:00 बजे । आपको पता ही है आजकल कहां ज्वाइन करना होता है और कहां देख सकते हो और सुन सकते हो लॉगइन डीटेल्स तो और फिर आज साईं काल को भी दामोदर अष्टकम भी मुझे गाने के लिए कहा है तो वह 7:00 बजे होगा । 7:00 बजे दामोदर अष्टक सायं कालीन 7:00 बजे और फिर कीर्तन भी, तो जपा टॉक अभी और भगवतम कथा सुबह 8:00 बजे और शाम में 7:00 बजे दामोदर अष्टक । ठीक है तो आज हमारे साथ 766 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं ।
बेशक स्वागत है आपका स्वागत है आप जहां भी हो । हरि हरि !! हमारे साथ श्रृंगार मूर्ति भी है न्यू जर्सी से इसी तरह से । वैसे ऐसा कोई है नहीं न्यू जर्सी का कोई है नहीं और किसी देश का कोई नहीं है हम सभी वैकुंठ वासी है । वैकुंठ वासी ही नहीं यह महा वैकुंठ है । हम सभी गोलक वासी है इसको याद रखना है । याद रखना है क्या याद दिला भी जाती है प्रतिदिन इसी का स्मरण होता है कि हम कौन हैं ? और हम कहां के हैं ? दामोदर को तो जानो और फिर अपना जो दामोदर के साथ जो संबंध है सास्वत संबंध उसको जानो तो । आप जान रहे हो ना धीरे-धीरे ? और इसी के साथ हमें …
सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम् ।
हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते ॥
( चैतन्य चरित्रामृत मध्यलीला 19.170 )
अनुवाद:- भक्ति का अर्थ है समस्त इंद्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् कि सेवा करता है तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् कि सेवा में लगे रहे ने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं ।
करना है । सभी उपाधियों से मुक्त होना है । मैं यहां का हूं मैं वहां का हूं यह सोच, आज है तो कल नहीं वाली बात है तो इसमें से हम कुछ भी नहीं है । यह संसार की सारी जो पहचान है, परिचय है तो बस हम …
जीवेर ‘ स्वरुप ‘ हय-कृष्णेर ‘ नित्य-दास ‘ ।
कृष्णेर ‘ तटस्था-शक्ति ‘ ‘ भेदाभेद-प्रकाश ‘ ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 20.108 )
अनुवाद:- कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिती है , क्योकि जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय अभिन्न और भिन्न है ।
और फिर यह जीव “कृष्ण दास करलो तुआर दुख नाइ” तो भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं कि एक तो हम सभी जीव है जीवात्मा है जो परमात्मा के अंश है भगवान के हम अंश है । फिर भगवान जहां के हैं हम वहीं के हैं । हम भगवान के हैं हम दामोदर के हैं या हम श्री राम के हैं । इसको जब जानेंगे हम तभी हम सुखी हो सकते हैं । “करलो तुआर दुख नाइ” ए जीव कृष्णदास एइ विश्वास” ये जीव कृष्णदास है इस बात पर विश्वास । पूरा पक्का इरादा जब होगा या जैसे जितना होगा उतना ही हम लोग सुखी होंगे । “करलो तुआर दुख नाइ” दुख नहीं होगा । हम सुखी होंगे । जैसे जैसे मुक्त होते जाएंगे इन उपाधियों से मुक्त होते जाएंगे मतलब की माया से मुक्त हो जाएंगे फिर माया के ही सारे उपाध्याय हैं, मायावी उपाधियां है तो हम सभी साधक है । प्रतिदिन हम साधना करते हैं और साधना के अंतर्गत कई बहुत कुछ करते रहते हैं । अब तो दामोदर व्रत लेके बैठे हैं हम इस मास में यह भी साधना है, जो जैसे जैसे हम साधक साधना करते जाएंगे उसी के साथ हम सिद्ध होते जाएंगे साधनासिद्ध । जितने जितने सिद्ध होंगे उतनी मात्रा में हम “करलो तुआर दुख नाइ” दुखी नहीं होंगे सुख मतलब सुखी होंगे । आनंद को प्राप्त करेंगे । आज वैसे हैप्पी दिवाली । आज दिवाली ही है । जय श्री राम ! अयोध्यावासी राम, राम राम दशरथ नंदन राम ! और सीता मोहन राम । सीता मोहन ! वृंदावन में राधा मोहन है और अयोध्या में वे सीता मोहन राम ।
आज के दिन श्री राम इनका वनवास समाप्त हुआ और वैसे दशहरे के दिन राम विजयदशमी हम लोग मनाते हैं तो उस दिन । हरि हरि !!
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( भगवद् गीता 4.8 )
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
उस दुष्ट का संघार किए रावण का और फिर प्रस्थान की तैयारी भी लंका से अयोध्या तो आज के दिन भगवान अयोध्या पहुंचे । स्वागतम श्री राम ! तो राम का भव्य भव्य स्वागत हुआ अयोध्या में । हरि हरि !! सभी प्रतीक्षा में थे जो प्रतीक्षा में थे उनको मिल गए श्री राम । पता नहीं हम उतनी प्रतीक्षा में है या नहीं । प्रतीक्षा में होना पड़ता है तभी राम मिलेंगे । अगर प्रतीक्षा ही नहीं है क्यों मिलेंगे राम । हम राम को चाहते ही नहीं या सोचते भी नहीं । प्रार्थना भी नहीं करते आ जाइए हराम । ओ राम ! राम ! राम ! “सोडुनी गेला राम, कसा मला” । सोडुनी गेला राम । ऐसे हम गीत नहीं गाते । “रामविण मज चैन पड़ेना” राम के बिना चैन, हम बेचैन है राम के बिना । “नाही जिवासी आराम” और जीव को आराम नहीं है क्योंकि “सोडुनी गेला राम” । हमको अयोध्या में छोड़के राम वनवास के लिए गए । वन में भ्रमण कर रहे हैं, विचरण कर रहे हैं । अयोध्या वासी राम के भक्त और सभी राम भक्त थे तो राम के बिना यह जीवन हराम है । राम के बिना, राम नहीं है । जीवन में राम नहीं है । राम के बिना, हरि हरि !! तो फिर राम मिलेंगे या फिर कृष्ण भी मिलेंगे । रामकृष्ण एक ही है । त्रेतायुग में जिस दिन आज के दिन राम अयोध्या लौटे । उसके अंतर्गत जो तैयारियां हुई थी अयोध्या को सजाया था । अयोध्या का श्रृंगार हुआ । लोग तो स्वयं सज धज के तैयार हुए थे ही राम, लक्ष्मण, सीता की अगवानी करने के लिए उनके स्वागत करने के लिए और भरत भी वह पादुका लेके अयोध्या के नागरिकों के साथ या वशिष्ठ मुनि के साथ और मंत्रियों के साथ पुरोहितों के साथ जा रहे थे जहां वो मिलने के स्थान पर या स्वागत होने वाला था । स्वागत समारोह का जहां आयोजन हुआ था वहां के लिए भरत भी जा रहे थे तो तो शहर के भी शोभा बढ़ाई उसके अंतर्गत सब दीपक जलाएं । अयोध्या जगमगा रही थी । वैसे भी सूर्यवंश में प्रकट हुए श्री राम के लिए प्रकाश के साथ ज्योति के साथ दीए जलाए हैं हजारों लाखों दिए सर्वत्र जलाए हैं और पंक्ति बंध रखे हैं । दीप-आवली दीपों की आवली । आवली मतलब पंक्ति और उसी के साथ राम आ गए आगे उनके जीवन में राम ने प्रवेश किया । उनके नगर में उनके जीवन में और इसी के साथ हुआ है फिर “तमसो मा ज्योतिर्गमय” । एक प्रकार का अंधेरा छाया हुआ था अयोध्या में । लोग निराश उदास थे और जीवन में ही कुछ निराश अंधेरा तो जैसे राम का प्रवेश हो रहा था हो ही गया उसी के साथ । “तमसो मा” अंधेरा नहीं रहा और वो नीरानंद नहीं रहा । नीर-आनंद, आनंद और नीर-आनंद दुख या नाराजगी तो आज के दिन तो यही है योग भगवान के साथ पुनः अपना संबंध स्थापित हुआ । राम प्राप्त हुए और फिर लोगों ने अयोध्या वासियों ने जिस प्रकार से इतने हर्ष और उल्लास के साथ वे स्वागत कर रहे थे नृत्य कर रहे थे और फिर मिठाईयां भी बांट रहे थे । अच्छी खबर है भगवान राम आए हैं, आए हैं ! तो लोग एक दूसरोंको मुंह मीठा कर रहे थे । इसलिए मिठाइयां बांटते हैं या इसलिए मिठाइ बांटनी चाहिए । राम का स्मरण करते हुए राम आए हैं राम लौटे हैं राम आए हैं ! राम आए हैं ! तभी मिठाई बांटने और खानी चाहिए । जिस दिन राम अयोध्या लौटे और दीपावली का उत्सव मनाया गया तब से अब तक हम लोग दीपावली मनाते ही हैं चलो आज भी हम दीपावली मनाते हैं । वैसे अयोध्या वासियों ने दीपावली मनाई लेकिन हम बता रहे हैं क्यों मना रहे थे ? किस भावों के साथ उत्सव दीपावली मना रहे थे ! तो दीपदान हुआ कहो । दीए जलाए आरती उतारी श्रीराम की स्वागत हो रहा है तो हमको भी करना है । उसी दिन दीपावली के दिन ही अब दृश्य बदल गए हैं युगांतर भी हुआ वहां त्रेतायुग था फिर आगया द्वापरयुग और कृष्ण गोकुल में है । उनके चल रहे हैं डाके डाल रहे हैं चोरी हो रही है । माखन चोर कृष्ण कन्हैया लाल की ! एक और कहते हैं कि माखन चोर कहते हैं फिर उसी की जय हो । ऐसा तो नहीं होता है ना ! चोर की तो जय नहीं होती है । लेकिन यह चोर कुछ भिन्न चोर है । हरि हरि !! या चोर अग्रगण्य है । एक चोराष्टक भी है तो भगवान क्या-क्या चोरी करते हैं उसमें सारी वो लिस्ट है उसमें । चित्तचोर भी है और ये चोरी किया वस्त्र हरण हुआ यह हुआ वो हुआ । लेकिन सबसे अधिक तो माखन चोरी के लिए कृष्ण प्रसिद्ध थे और फिर प्रसिद्धि भी । एक सुप्रसिद्धि और एक कूप्रसिद्धि होती है । ये कीर्ति है । कीर्ति, अपकीर्ति तो कृष्ण की कीर्ति माखन चोरी के साथ और और घरों में कृष्ण चोरी किया करते ही थे । यह रोज का चोरी का मामला चल रहा था । हर सुबह या हर प्रातः काल में । ब्रह्म मुहूर्त में ऐसा पुण्य काम करते थे वे । ब्रह्म मुहूर्त में उठते ही, हरि हरि !! क्योंकि उनको माखन पसंद था । “मैया मोरी माखन भावे” कहा करते थे यशोदा को तो चोरियां होती रहती थी प्रतिदिन । शिकायतें भी नंद भवन के आगे रखा होगा कोई तकरारपेटी या पत्रपेटी कोई आपकी शिकायत है तो उसमें डाल दो । भर जाता था वो पेटी शिकायत से । ए ! ए यशोदे ! हर मिनिट व्रजवासी माताएं आके अपनी शिकायत दर्ज किया करती थी । हरि हरि !! लेकिन फिर आज के दिन ये दामोदर लीला आज हुई दीपावली के दिन । पूरे महीने भर के लिए हम जो दामोदर लीला मना रहे हैं दामोदरव्रत का पालन कर रहे हैं, दामोदर अष्टक गा रहे हैं, दामोदर का स्मरण कर रहे हैं तो वो सदैव स्मरणीय लीला दामोदर लीला आज हुई ।
एकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी ।
कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममन्थ स्वयं दधि ॥
( श्रीमद् भागवद् 10.9.1 )
अनुवाद:- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा एक दिन जब माता यशोदा ने देखा कि सारी नौकरानियाँ अन्य घरेलू कामकाजों में व्यस्त हैं , तो वे स्वयं दही मथने लगीं । दही म उन्होंने कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं का स्मरण किया और स्वयं उन क्रीड़ाओं के विषय में गीत बनाते हुए उन्हें गुनगुनाकर आनन्द लेने लगीं ।
या श्रीमद् भागवद् में शूकदेव गोस्वामी जब श्रीदामोदर लीला कथा प्रारंभ करते हैं तो कहते हैं कि “एकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी” । “कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममन्थ स्वयं दधि” तो श्रीमद् भागवद् के दसवें स्कंद के नवम अध्याय में ये दामोदर लीला है आप पढीएगा । आप सुनिए सुनाइए पूरा वही लीला है । अगला अध्याय भी वही लीला है 10 वे अध्याय में भी है । यह लीला आज संपन्न हुई आज ही वे बन गए दामोदर । आज ही उनके उदर को डोरी के साथ या “दाम” मतलब डोरी और “उदर” उदर तो कृष्ण का उदर डोरी के साथ और फिर उखल के साथ बांध दी आज के दिन । बांधना पड़ा ऐसा इतना उत्पात मचा रहा था ये नटखट कन्हैया तो “बांधा उखळाला” “नन्दासा चोर” मराठी में गाते रहते हैं । बांधों इसको बांधों । बांध दिए तो । “स्थित ग्रैव – दामोदरं भक्तिबद्धम्” दामोदर अष्टक में तो कहा है । यशोदा ने डोरी से नहीं भक्ति से बांध दिया । डोरी से बांधना संभव नहीं है । “भक्ति बद्धम” यशोदा की प्रेम ने बांध दिया । प्रेम के पास, प्रेम के डोरी ने बांध दिया । वो नलकुबेर और मणिग्रीव उनका जब उद्धार हुआ आज के दिन ही हुआ । ऐसे वे कह रहे थे क्या, छोड़ सकते हैं क्या ? ये कृष्ण को किसी ने डोरी से बांध दिया है ये सही नहीं है । हम छोड़ना चाहते हैं तूने महाराज के शायद कुछ परवानगी करवाना चाह रहे थे । नहीं नहीं नहीं ! इस डोरी का छोड़ना तुम्हारे बस का रोग नहीं है । ये तो यशोदा के प्रेम का बंधन है । ये गांठ यसोदा के प्रेम की गांठ है “भक्तिबद्धम्” तो वहीं छोड़ सकती है यह वही जो जिसकी यशोदा जैसी भक्ति है । वैसा व्यक्ति मुक्त कर सकता है कन्हैया को इस बंधन से ऐसा भाव दिया है । यह जो कुबेर के पुत्र थे उनका भी आज ही उद्धार हुआ ।
कुबेरात्मजौ बद्धमूर्त्येव यद्वत्
त्वयामोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च ।
तथा प्रे भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ
न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह ॥
( श्रीदामोदराष्टकम् पद 7 )
अनुवाद:- हे दामोदर ! ऊखल से बँधे अपने शिशु रूप में आपने नारद द्वारा शापित दो कुवेर – पुत्रों को मुक्त करके उन्हें महान् भक्त बना दिया । इसी प्रकार कृपया मुझे भी अपनी शुद्ध प्रेमभक्ति प्रदान कीजिए । मैं केवल इसकी कामना करता हूँ और मुक्ति की कोई इच्छा नहीं करता ।
कई प्रार्थना है जैसे, हे प्रभु ! कुबेरात्मजौ कुबेर के दो पुत्रों को आपने मुक्त किया और भक्ति उनको भक्ति भर दी उनके दिल में उनके जीवन में तो वेसा तथा हमारे लिए भी व्यवस्था करो । “तथा प्रे भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ” दीजिए । हमको भी प्रेम दीजिए । जैसे आपने उन नलकुबेर और मणिग्रीब को प्रेम दिया तो हमें भी प्रेम दीजिए । हमें मोक्ष बगैरा नहीं देना और कुछ हमको भोग विलास नहीं चाहिए हमको मोक्ष भी नहीं चाहिए । हमको चाहिए प्रेम । कृष्ण प्रेम, राधा कृष्ण प्रेम । ऐसी हम प्रतिदिन प्रार्थना कर रहे हैं दामोदर अष्टक के अंतर्गत, तो यह प्रार्थना को और भी तीव्र बनाने का आज भी ये दिन है । ये दामोदर लीला का दिन है तो आप सभी के लिए दामोदर लीला की भी शुभकामनाएं आज का जो अति विशेष दिन है और अति मधुर लीला संपन्न हुई है आज के दिन गोकुल में ।
इतीदृक् स्वलीलाभिरानंद कुण्डे
स्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम् ।
तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्वं
पुन : प्रेम तस्तं शतावृत्ति वन्दे ॥
( श्रीदामोदराष्टकम् पद 3 )
अनुवाद:- इन अद्भुत बाल्यलीलाओं से श्रीकृष्ण सभी गोकुलवासियों का आनन्द के सागर में निमग्न कर देते हैं । इस प्रकार वे भगवान् के ऐश्वर्य ज्ञान में लीन लोगों के समक्ष घोषणा करते हैं , ” मैं केवल अपने प्रेमी भक्तों द्वारा ही जीता जा सकता हूँ । ” मैं प्रेमपूर्वक ऐसे दामोदर भगवान् को शत – शत प्रणाम करता हूँ ।
आप गाते रहे । “इतीदृक् स्वलीलाभिर” दामोदर अष्टक का तीसरा अष्टक । “इतीदृक् स्वलीलाभिरानंद कुण्डे” भगवान ने इस प्रकार की लीलाएं विशेष रूप से ये दामोदर लीला संपन्न करके क्या किया ? “स्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम्” व्रजवासियों को उन्होंने आनंद के सागर में डुबो दिया । आनंद के सागर में नहा रहे थे सारे व्रजवासी । ये जो दामोदर लीला का जो आनंद है । दामोदर लीला खेल के इसका प्रदर्शन करके सारे व्रजवासियोंको वो अल्हाद आनंद प्रदान किए हैं । वैसा ही आल्हाद, आनंद हम सब को आप सबको प्राप्त हो । ऐसी शुभकामना प्रार्थना के साथ और मुझे अपनी वाणी को यहीं विराम देना होगा ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*03 नवंबर 2021*
*वृन्दावन धाम से*
हरे कृष्ण
आज 842 स्थानों से भक्त इस जब चर्चा में सम्मिलित हैं। ब्रजमंडल परिक्रमा के भक्त जो परिक्रमा कर रहे हैं और एक स्थान पर सुरभी कुंड वे पहुंच ही रहे हैं या पहुंच चुके हैं, जैसे मैं हर वर्ष उन्हें कथा सुनाता रहता हूं और इस साल भी राइट नाउ राइट देयर हम उनको कथा सुनाएंगे। परिक्रमा के भक्तों को यह संबोधन होगा और फिर आप भी सुन सकते हो। यू आर इंटरेस्टेड ? कथा होगी उनके लिए और वैसे मैं वृंदावन में बैठा हूं और वे काम्यवन में और आप जानते ही हो कि आप कहां कहां हो, कोई यूक्रेन में है तो कोई अलीबाग में, कोई अहमदाबाद में, कोई हेयर कोई देयर एवरीव्हेयर ऑल ओवर, आप सब और परिक्रमा के भक्त और मैं अब इकट्ठे हैं आप तैयार हो? क्या मैं देख सकता हूं या और सभी देख सकते हैं।
सबको दिखा दो आप समझ रहे हैं ना क्या हो रहा है ? ब्रज मंडल परिक्रमा को देखते हैं, यदि आपको दिखा सकते हैं तो इष्टदेव दिखा सकते हैं ना ? टुडे आर यू देयर? थोड़ा दर्शन कराओ सुरभी कुंड का और परिक्रमा के भक्तों का ताकि सब दुनिया उनको देखे। हमारे जपा कॉन्फ्रेंस के सभी पार्टिसिपेंट्स उनको देख सकते हैं ठीक है हरि हरि ! जब इच्छा की पूर्ति होती है हां बृज भूमि हरि बोल हमें दिखा दो, वहां का दृश्य दिखाओ। सबको सुरभी कुंड का दृश्य दर्शन कराओ मुझको और सभी को यहां इष्ट देव करा सकते हैं। जैसे राधा कुंड का दर्शन कराया था वैसे ही सुरभी कुंड का दर्शन कराओ मैं भी करना चाहता हूं। जय सुरभि कुंड की जय हरि बोल ! निताई गौर सुंदर कहां हैं ? पिछले 35 वर्षों से परिक्रमा कर रहे हैं। ऑल इंडिया पदयात्रा जो है उसमें आप दर्शन कीजिए हम उनके साथ इनके पीछे-पीछे परिक्रमा करते हैं। श्री श्री निताई गौर सुंदर ब्रज मंडल परिक्रमा का नेतृत्व करते हैं हरि हरि !
*ढुले ढुले गोरा-चांद हरि गुण गाइ आसिया वृंदावने नाचे गौर राय॥1॥*
ढुले ढुले गौरा चाँद हरि गुण गाए गौर बोले हरि हरि बोले हरि हरि !
इस गीत में चैतन्य महाप्रभु ने जब ब्रज मंडल परिक्रमा की, ब्रज मंडल परिक्रमा की जय हो ! कदंब वृक्ष भी आप देख रहे हो हरि हरि! घर बैठे बैठे, जय कदंब दर्शन कर रहे हो। ऐसा वृक्ष आपके देश में नहीं है आपके राज्य में या शहर में ऐसे वृक्ष नहीं होते हैं। यह वृंदावन की स्पेशलिटी है, कदंब वृक्ष हरी हरी!
*कदा द्रक्ष्यामि नन्दस्य बालकं नीपमालकम् । पालकं सर्वसत्त्वानां लसत्तिलकभालकम् ॥*
कृष्ण कदंब के वृक्ष के फूलों की माला पहनते हैं फिर वनमाली बन जाते हैं। राधारमण महाराज पहुंच गए और बृज भूमि में बैठे हैं। आपकी स्क्रीन वगैरह तैयार है रेडी ? कुछ लोग तो पहुंच गए हैं क्या आप लोग मुझे देख पा रहे हो परिक्रमा के भक्तों ? हरि बोल हरि हरि
*वृन्दावने तरुर लता, प्रेमे कोय हरी कथा निकुंजेर पाखि गुली हरी नाम सोनाइ ।।*
वृंदावन के यहां के वृक्ष की लता भी, वह भी भगवान का गुण गाते हैं। निकुंजेर पाखि गुली हरी नाम सोनाइ, निकुंज के पक्षी हरि नाम गाते हैं। आप गाते हो कि नहीं ? यहां के पक्षी भी हरिनाम गाते हैं और आप *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* वैसे परिक्रमा में आप गाते ही हो गाये बिना आप एक पग भी आगे नहीं रखते हो। गौर बोले हरि हरि ! हरि बोल ! हरि हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब परिक्रमा कर रहे थे ब्रज मंडल परिक्रमा महाप्रभु ने की उसको भूलना नहीं। तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सभी को प्रेरित कर रहे थे।
*गौर बोले हरि हरि सारि बोले हरि हरि, मुखे मुखे शुक शारी हरी नाम गाए*
हरि बोलो हरि बोलो हरि बोल हरि बोल ! शुकचारी को बुलाते हुए हरि हरि सारा ब्रज मंडल हरि हरि हरि हरि गौर हरी गा रहा था।
*हरिनामे मत्त होये हरिणा आसिछे देय मयूर मयूरी प्रेमे नाचिया खेलाय।।*
पक्षियों के उपरांत और वृक्षों के उपरांत हिरन भी आ गए। मयूर मयूरी प्रेमे नाचिये खेलाय और मयूर और मयूरी भी नृत्य करने लगे।
*प्राणे हरि ध्याने हरि हरि बोलो वदन भोरि हरिनाम गेये गेये रसे गले जाइ॥*
प्राण में हरी ध्यान में हरी, हरी बोलो बदन भरी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संदेश भी है और ऐसे जीवन ऐसी लीला श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने संपन्न की है। उनके प्राण में हरी, ध्यान में हरी और मुख में हरी हरी !
*आसिया जमुनार कुले नाचे हरि हरि बोले जमुना उठोले एसे चरण धोयाइ॥*
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु परिक्रमा करते करते मधुबन से ताल वन गए और वहां से कुमुद वन गए। कुमुद वन से बहुला वन गए और फिर वहां से वृंदावन गए और वृंदावन के उपरांत काम्यवन में आ गए और फिर एक ही वन बच गया था जैसे आपका भी एक ही वन बचा हुआ है जमुना के पश्चिमी तट पर ही वन बचा हुआ है वह कौन सा वन है ? खादिर वन, वहां पर पड़ाव तो नहीं होता ओवरनाइट स्टे हम खादिर वन में नहीं करते लेकिन आप जब बरसाना में रहोगे तो वहां से खादिर वन ले जाएंगे ऐसी संभावना है। हर साल हम जाते ही हैं इस साल देखो, लेकिन जाना तो चाहिए खादिर वन की यात्रा के बाद पुनः वृंदावन में आते हैं और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी ऐसा परिभ्रमण किया। क्या कर रहे थे और हम सभी जो परिक्रमा के भक्त हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ते हैं। चैतन्य महाप्रभु जहां जहां गए हम वहां वहां जाते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय और अब भी अपने विग्रह के रूप में श्री श्री निताई गौर सुंदर तो आए हैं और यह बात हम इसलिए बता रहे हैं या इस गीत में लिखा है आशिया जमुनार कोले नाचे हरि हरि बोले, अतः श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इतने सारे वनों की यात्रा करते करते नृत्य करते-करते, नृत्य हो रहा है गान हो रहा है और जमुना के तट पर पहुंचते हैं। जमुना मैया की जय! जमुना उठोले ऐसा चरण धोये। जमुना पहचान गई मेरे प्रभु यहां पहुंचे हैं। जमुना दौड़ पड़ी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों की ओर , इस गीत में लिखा है चरणधोयाय, जमुना ने चरण धोए पाद प्रक्षालन किया अपने ही जल से चैतन्य महाप्रभु के चरणों का हरि हरि और अपने जल में उगे हुए पुष्प भी जाते जाते साथ में ले गई और फूल भी अर्पित किए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों में इस प्रकार जमुना ने भी चैतन्य महाप्रभु का स्वागत किया सत्कार किया सम्मान किया हरि हरि और आथित्य किया। यह सुरभी कुंड में भी पता नहीं समय तो नहीं है लेकिन हम कई बार जब सुरभि कुंड पहुंचते थे तब मुझे याद है एक साल पुंडरीक विद्यानिधि मेरे गुरु माता गॉड ब्रदर बहुत समय पहले की बात है। परिक्रमा में वह भी आए थे। उस समय कई सारे पुष्प खिले हुए थे सुरभी कुंड में जहां आप बैठे हो तो वे तैरते हुए गए और कई सारे पुष्प उन्होंने इकट्ठे किए और फिर वह पुष्प उन्होंने निताई गौर सुंदर के चरणों में अर्पित किए। ऐसी भी एक लीला हुई थी सुरभि कुंड में या सुरभि कुंड के तट पर आज पता नहीं कोई पुष्प है वहां या नहीं लेकिन वृक्ष तो कई सारे हैं। यह विशेष स्थली है और रमणीय भी है और एकांत भी है शांत भी है शायद आप इतने शांत स्थान में अपने जीवन में गए ही नहीं होंगे। कहां शहर शहरों में तो पीपी भौं भौं चलता रहता है। सो मेनी साउंड एंड नॉइज पॉल्यूशन, लेकिन यहां सब संभावना है कि आप पक्षियों की चहचाहट सुनते होंगे और कोई आवाज या ध्वनि यहां पर नहीं है। ऐसे रमणीय एकांत शांत स्थान पर अपना भजन करते हुए प्रबोध आनंद सरस्वती ठाकुर की जय ! यहां प्रबौध आनंद सरस्वती का भजन कुटीर है हरी हरी! यह प्रबोध आनंद सरस्वती इनको श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का अंग संग प्राप्त हुआ श्रीरंगम में, साउथ इंडिया में श्रीरंगम जो धाम है श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो दक्षिण भारत की यात्रा में जा रहे थे तब श्रीरंगम में 4 महीने रुके थे चतुर्मास में, यह कार्तिक मास भी चतुर्मास ही है। समझो कि इस समय चैतन्य महाप्रभु श्रीरंगम में थे। व्यंकट भट्ट के अतिथि बन चुके थे। प्रबोध आनंद सरस्वती ठाकुर व्यंकट भट्ट के भ्राता श्री थे। वहां पर महाप्रभु ने तो सभी के ऊपर कृपा की ही थी लेकिन इस कृपा के पात्र बन गए दो व्यक्तित्व एक व्यंकट भट्ट भ्राता प्रबोध आनंद सरस्वती और व्यंकट भट्ट के पुत्र गोपाल भट्ट गोस्वामी षड गोस्वामी बंधुओं में से एक वृंद है गोपाल भट्ट गोस्वामी यह भी व्यंकट भट्ट के पुत्र थे। यह दोनों ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संग से कहो या लीला से कहो कीर्तन से कहो भाव से कहो इतने प्रभावित हुए कि वे दोनों भी श्रीरंगम को छोड़कर साउथ इंडिया लेफ्ट बिहाइंड और वृंदावन आ गए। वृंदावन धाम की जय ! वहां वैधी भक्ति का अवलंबन कर रहे थे यहां आकर वह रागानुगा भक्ति करने लगे। ऐसा ही होता है, प्रबोध आनंद सरस्वती तुंग विद्या सखी है अष्ट सखियों में से एक सखी है तुंगविद्या अर्थात तुंग विद्या ने जन्म लिया था श्रीरंगम में वह तुंगविद्या, ऑफ कोर्स ब्लॉग्स टू वृंदावन, वह वृंदावन लौट आई। जैसे रूप सनातन रूप गोस्वामी रूपमंजरी हैं उनको चैतन्य महाप्रभु का अंग संग प्राप्त हुआ था रामकेली में, तब रूप सनातन भी वृंदावन आए। इस प्रकार प्रबोध आनंद सरस्वती भी वृंदावन में आए और फिर इसी स्थान पर वे अपना भजन किया करते थे हरि हरि ! वृंदावन के इतने प्रेमी थे उन्होंने यहां कई सारे ग्रंथ लिखे हैं। “वृंदावन महिमामृत” नाम का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें वृंदावन की महिमा का गान किया है और उसमें सभी को प्रेरित करते हैं ए दुनिया वालों छोड़ दो जिसको भी पकड़े हो छोड़ दो वृंदावन की ओर दौडो वृंदावन की ओर चलो वृंदावन धाम की जय ! उनके कई सारे प्रेरणा के वचन हैं और जब वृंदावन आते हो तो वृंदावन को तो कभी भी मत छोड़ना। शीत आतप वात वरिषण, कई सारी परेशानियां या तपस्याएं होती ही हैं। ब्रज मंडल परिक्रमा कर रहे हो यह तपस्या ही तो है। सर्प हो सकते हैं, बिच्छू हो सकते हैं यह हो सकता है या वह हो सकता है लेकिन किसी हालत में आप वृंदावन को नहीं छोड़ना। डोंट लीव वृंदावन हरि हरि !गोपाल भट्ट व्यंकट के पुत्र थे तो यह दोनों ही इतने प्रभावित हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संग से कहो या लीला से कहो कीर्तन से कहो भाव से कहो तो वे दोनों भी श्रीरंगम को छोड़कर साउथ इंडिया लेफ्ट बिहाइंड और वृंदावन आ गए वृंदावन धाम की जय वहां तो वैधी भक्ति का अवलंबन कर रहे थे यहां आकर वह रागअनुग भक्ति करने लगे प्रबोध आनंद सरस्वती ऐसा ही होता है प्रबोध आनंद सरस्वती तुंग विद्या सखी हैं अष्ट सखियों में से एक सखी है तुंग विद्या तुंग विद्या ने जन्म लिया था। श्री रंगम में तो वह तुमको विद्या ऑफ कोर्स ब्लॉग्स टू वृंदावन तो वह वृंदावन लौट आई जैसे रूप सनातन रूप गोस्वामी तो रूपमंजरी हैं चैतन्य महाप्रभु को उनका भी अंग संग प्राप्त हुआ रामकेली में तो रूप सनातन भी वृंदावन आए इस प्रकार प्रबोध आनंद सरस्वती वृंदावन में आए और फिर इसी स्थान पर वे अपना भजन किया करते थे । हरि हरि वृंदावन के इतने प्रेमी थे वह उन्होंने यहां कई सारे ग्रंथ लिखे हैं तो वृंदावन महिमा अमृत नाम का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें वृंदावन का महिमा का गान किए है और उसमें सभी को प्रेरित करते हैं ए दुनिया वालों छोड़ दो जिसको भी पकड़े हो छोड़ दो वृंदावन की ओर दौड़े वृंदावन की ओर चलो वृंदावन धाम की जय उनके कई सारे प्रेरणा के वचन हैं और जब वृंदावन आते हो तो वृंदावन को तो कभी भी मत छोड़ना ए शीत आतप वात वरिषण कई सारी परेशानियां यह तपस्याएं होती ही हैं ब्रज मंडल परिक्रमा कर रहे हो तो यह तपस्या तो है या कहते हैं कि वंहा पर सर्प हो सकते हैं बिच्छू हो सकते हैं यह हो सकता है या वह हो सकता है लेकिन किसी हालत में आप वृंदावन को नहीं छोड़ना डोंट लीव वृंदावन हरि हरि व्यंकट के पुत्र थे, यह दोनों ही इतने प्रभावित हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संग से कहो या लीला से कहो कीर्तन से कहो भाव से कहो तो वे दोनों भी श्रीरंगम को छोड़कर साउथ इंडिया लेफ्ट बिहाइंड और वृंदावन आ गए वृंदावन धाम की जय वहां तो वैधि भक्ति का अवलंबन कर रहे थे यहां आकर वह रागअनुग भक्ति करने लगे प्रबोधआनंद सरस्वती ऐसा ही होता है प्रबोध आनंद सरस्वती तुंग विद्या सखी हैं अष्ट सखियों में से एक सखी है तुंग विद्या, तुंग विद्या ने जन्म लिया था श्रीरंगम में तो वह तुमको विद्या ऑफ कोर्स बैक टू वृंदावन तो वह वृंदावन लौट आई जैसे रूप सनातन रूप गोस्वामी तो रूपमंजरी हैं चैतन्य महाप्रभु को उनका भी अंग संग प्राप्त हुआ रामकेली में तो रूप सनातन भी वृंदावन आए इस प्रकार प्रबोध आनंद सरस्वती वृंदावन में आए और फिर इसी स्थान पर वे अपना भजन किया करते थे हरि हरि वृंदावन के इतने प्रेमी थे वह उन्होंने यहां कई सारे ग्रंथ लिखे हैं तो वृंदावन महिमा अमृत नाम का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें वृंदावन का महिमा का गान किया है और उसमें सभी को प्रेरित करते हैं, ए दुनिया वालों छोड़ दो जिसको भी पकड़े हो छोड़ दो वृंदावन की ओर दौडो , वृंदावन की ओर चलो वृंदावन धाम की जय उनके कई सारे प्रेरणा के वचन हैं और जब वृंदावन आते हो तो वृंदावन को तो कभी भी मत छोड़ना उनका धार्मिक जीवन था रिलीजियस लाइफ, उसके संबंध में कहते हैं
*वंचितोस्मि वंचितोस्मि वंचितोस्मि न संशयः विश्वम गौरा-रासे मग्नम स्पर्शोपि मम नभवत।।*
अर्थ:- मुझे वंचित किया गया है, मुझे वंचित किया गया है, निश्चित रूप से मुझे वंचित किया गया है! सारा विश्व श्री गौर के प्रेम में डूबा हुआ था, परंतु अफसोस! मेरी तकदीर ऐसी है कि उस प्यार की एक बूंद भी मुझ तक नहीं पहुंची।
वह कहते हैं पहले का मैं जो जीवन जी रहा था वह धार्मिक तो था किंतु वंचितोस्मि मैं ठग गया था मुझे ठगाया गया था क्योंकि उसी समय यह जो गौड़िय वैष्णव हैं या गौड़िय वैष्णव का जगत है वे सारे गौड़िय वैष्णव क्या कर रहे थे गौर रसे मग्नं गौर रस में, प्रेम रस में गोते लगा रहे थे। सर्वात्मा स्नपनं स्नान कर रहे थे कृष्ण प्रेम में, वही आप ब्रजमंडल परिक्रमा के भक्त भी कर रहे हो। गौर रस में नहा रहे हो या अलग-अलग कुंडों में भी नहाते हो या फिर जब यह कथा भी होती है या कीर्तन भी होता है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। ब्रज मंडल परिक्रमा में प्रवेश करते ही हमारा सर्वात्मा स्नपनं प्रारंभ होता है हम स्नान करने लगते हैं हमारी आत्मा स्नान करती है प्रेम रस में हम स्नान करते हैं यह प्रबोध आनंद सरस्वती ठाकुर कह रहे हैं। विश्व गौरा रसे मग्नं गौड़ीय वैष्णव जगत तो मग्न था तल्लीन था स्नान कर रहा था प्रेम रस में, किंतु मैं बेचारा , सारा गौड़िय वैष्णव जगत भक्तिरसामृत सिंधु में गोते लगा रहा था लेकिन उस सिंधु के एक बिंदु ने भी मुझे स्पर्श नहीं किया। गरीब बेचारा में वंचित उसमें ठग गया, मुझे ठगाया गया। मैं इस धर्म का बन गया मैं उस धर्म का बन गया लेकिन जब तक व्यक्ति श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन के साथ नहीं जुड़ता है, वह सारी ठगाई ही है सारी चीटिंग ही है। प्रबोधानंद सरस्वती और एक वचन में कहते हैं अवतीर्ण गौरा चंद्र उनका चैतन्य चंद्रामृत नामक ग्रंथ है। माधव नाम का उनका प्रसिद्ध ग्रंथ है नवद्वीप शतक केवल उन्होंने वृंदावन का महिमा मृत मतलब वृंदावन की महिमा का ग्रंथ ही नहीं लिखा वहां नवद्वीप मंडल की महिमा का भी ग्रंथ लिखा है। उसका नाम है नवद्वीप शतक और राधारस सुधा निधि यह इनकी विशेष देन है। चैतन्य चंद्रोदय में वे लिखते हैं-
*अवतीर्णे गौरचंद्रे विस्तीर्णे प्रेमसागरे।ये न मजंति मजंति ते महानार्थ-सागरे।।*
अर्थ:-
कलियुग के इस युग में परम पुरूषोत्तम भगवान गौरांग महाप्रभु के आगमन के कारण ब्रह्मांड अत्यंत भाग्यशाली और शुभ बन गया है। उनके दिव्य आगमन के कारण उनके शुद्ध प्रेम का असीम सागर असीम रूप से विस्तारित हो गया है। अगर कोई गहरा गोता नहीं लगाता है और भगवान गौरांग के लिए शुद्ध प्रेम के इस सागर में पूरी तरह से नहीं डूब जाता है तो वह खुद को निश्चित रूप से गहरे डूबे हुए पाएंगे या महान कुकर्मो के सागर में डूबेंगे।
“अवतीर्णे गौरा चंद्र विस्तीर्ण प्रेम सागरे ” हम आए हैं सुरभि कुंड के तट पर जहां पर प्रबोध आनंद सरस्वती ठाकुर का भजन कुटीर है। उनका स्मरण हम आपको दिला रहे हैं। कैसे बोध किया करते थे वे संबोधन किया करते थे क्या क्या कहा है लिखा है कुछ सैंपल वचन आपको सुना रहे हैं और दूसरा वचन यह है। अवतीर्णे गौरा चंद्र विस्तीर्ण प्रेम सागरे ” चैतन्य महाप्रभु ने अवतीर्ण प्रकट होकर क्या किया ? उन्होंने विस्तीर्ण प्रेम सागर प्रेम सागर का विस्तार किया। और फिर देखते हैं।
‘ये न मजंति मजंति ते महानार्थ-सागरे’ जो इस प्रेम सागर में उड़ेंगे नहीं या प्रवेश नहीं करेंगे या गोते नहीं लगाएंगे, तो उनके लिए फिर क्या है ? एक ही पर्याय बचता है ‘मजंति ते महानार्थ-सागरे’ वैसे दूसरे शब्दों में दो ही सागर हैं एक प्रेम का सागर है। जो ब्रजमंडल है प्रेम सागर और दूसरा है अनर्थों का सागर, पापमय जीवन का सागर और यह सारी दुनिया छोड़ कर वृंदावन धाम छोड़कर या फिर इस्कॉन टेंपल छोड़कर या जहां-जहां विष्णु मंदिर हैं वह स्थान छोड़कर बाकी सब तो बेकार है। दुनिया है संसार है यह जो सागर है अनर्थ सागर कहते हैं प्रबोधानंद सरस्वती ठाकुर, वह कहते हैं आपके पास दो ही पर्याय हैं यदि आप इस प्रेम सागर में नहीं आओगे , ये न मजंति मजंति फिर उनके लिए यह जो अनर्थो का सागर है वही बचता है हरि हरि ! आपकी क्या ख्वाहिश है आप क्या पसंद करोगे ? मुझे सुन रहे हो प्रेम सागर या महा अनर्थ सागर ?आप प्रबोधानंद सरस्वती ठाकुर के प्रबोधन को स्वीकार कर रहे हो हरि हरि ! उनका आपके ऊपर भी वरद हस्त हो, वे आपको खूब आशीर्वाद दें। आप उनके भजन कुटीर पर पहुंचे ही हो, यह सुरभि कुंड है नाम से ही पता चलता है। चिंतामणि प्रकर सद्मसु कल्पवृक्ष नंद ग्राम से वहां नंद का गोकुल था और नंद ग्राम नंद महाराज का ग्राम वहां जाओगे आप एक दिन, ज्यादा दूर नहीं है। वहां से श्रीकृष्ण प्रतिदिन जैसे आप अपने दफ्तर जाते हो वैसे कृष्ण का जॉब है गाय चराने के लिए प्रतिदिन किसी वन में जाते हैं। संभावना है कि आज वह अपनी गाय लेकर काम्यवन वन में भी आ सकते हैं हरी हरी ! आप जाओगे वहां कई सारी डिजायर ट्री भी हैं। आपकी इच्छा भगवान पूरी करें या यह डिजायर ट्री आपकी इच्छा की पूर्ति करें कि भगवान आज अगर गाय चराने के लिए आएं तो फिर उन गायों को लेकर सुरभि कुंड भी आएंगे यहां जल पिलाते हैं अपनी गायों को, गाय चरती रहती है और कृष्ण बलराम एंड फ्रेंड कंपनी खेलते रहते हैं और फिर चारा खाने के उपरांत गायों की गणना भी करते हैं। किसी वृक्ष के ऊपर कदंब के वृक्ष, जहां आप देख रहे हो मुरली बजाते हैं और सारी गाय वहां आ जाती है बैठ जाती है। इंटरटेनमेंट प्रोग्राम और गाय अपना जुगाली करती है। आपने देखा होगा पशु कैसे खाते हैं, दो बार खाते हैं पहले एक बार खाते हैं फिर उसके बाद में उसी चारे को फिर से चबाते हैं उस का रस बनाते हैं और खाते पीते हैं। कृष्ण मुरली बजा रहे हैं इंटरटेनमेंट भी हो रहा है और साथ ही साथ उनका डिनर कहो या लंच कहो गायों का चल रहा है या खाए हुए को दोबारा खा रहे हैं पी रहे हैं। इन वृक्षों के नीचे यह सब होता है और फिर गाय जल पीने के लिए सुरभी कुंड पर पहुंच जाती है जलपान करती है फ्रेश वाटर प्योर वाटर और यह वर्णन हमको सुनने को मिलता है जब गाय जलपान करती है तो कृष्ण भी उसी सुरभी कुंड का जलपान करते हैं। उनके लिए कोई अलग से बिसलेरी बोतल या जल नहीं है ऐसा है वृंदावन हंड्रेड परसेंट प्योर , यहां का जल भी जो जल गाय पीती है वही जल कृष्ण के लिए भी है. कृष्ण के लिए कोई अलग से व्यवस्था नहीं है और यह भी देखा जाता है कि कृष्ण कभी कभी जल वैसे ही पीते हैं जैसे गाय पीती है। मतलब गाय कैसे पीती है गाय तो मुख से पीती है अपने हाथ पैर का उपयोग नहीं करती है जलपान को पीते समय अपने मुख का उपयोग करती है तो कृष्ण भी आगे बढ़ते हैं गायों के बीच में से और सुरभि कुंड के तट पर पहुंचते हैं और केवल वे अपने मुख से ही जलपान करते हैं हाथ पैरों का उपयोग नहीं करते हैं नीचे झुकते हैं और देखते भी होंगे गाय कैसे पी रही है। उन गायों जैसा ही जलपान कभी-कभी करते रहते हैं। गौ माता की जय !कृष्ण कन्हैया लाल की जय! वैसे ब्रज मंडल परिक्रमा में जाना भगवान की लीला में प्रवेश करना ही है। भगवान की लीला में हम सम्मिलित हो सकते हैं या भगवान की लीला के साक्षी रह सकते हैं जब हम वहां की लीलाओं का जहां जहां हम जाते हैं और वहां की लीलाओं का हम श्रवण करते हैं तो उस लीला को हम कुछ हद तक देखने लगते हैं हम कहते रहते हैं ब्रज मंडल में हम कैसे देखते हैं सुनकर देखते हैं जो हम सुन रहे हैं उसी के साथ उसी का पिक्चर उसकी पेंटिंग या वह दृश्य हमारे सामने खड़ा हो जाता है ऐसा कह रहे थे कृष्ण जैसे जलपान करते हैं सुरभी कुंड का ,आपके मन में एक चित्र उभरा होगा, कैसे पी रहे हैं कृष्ण ?
*चिंतामणि-प्रकर-सद्मिसु कल्पवृक्ष- लक्ष आवृतेषु सुरभिः अभिपालयन्तम् ।लक्ष्मी सहस्र शत सम्भ्रम सेव्य मानं गोविन्दम् आदि पुरुषं तमहं भजामि ॥*
वृंदावन में कृष्ण क्या करते हैं ? सुरभिः अभिपालयन्तम् सुरभि गायों का या वहां की गायों का एक जनरल नाम है ऐसे सुरभि , वैसे हर गाय का अलग अलग नाम तो है ही लेकिन उनको सुरभि गाय कहते हैं। श्रीकृष्ण इस काम्यवन में जब-जब आते हैं गाय चराने के लिए तो काम्यवन में भी गौचरण लीला स्थली है काम्यवन से नंद ग्राम कोई ज्यादा दूर नहीं है। नंद ग्राम की जय ! कृष्ण वृंदावन में रहते हैं मतलब कहां रहते हैं, वह नंद ग्राम में रहते हैं। कृष्ण का वर्णन भी पूर्ण सुंदरम कृष्ण कैसे हैं उसका वर्णन शुरू होता है।
*वान-विभूति-करण नवा-नीरदाभात पितांबरद अरुणा-बिंबा-फलाधरौषत पूर्णेंदु-सुंदर-मुखाद अरविंद-नेत्रत क्षत परं किम अपि तत्त्वं अहं न जाने ||*
(मधुसूदन सरस्वती)
अर्थ:-
हाथ में बाँसुरी सजाए हुए, एक नए बादल का रंग, एक पीले कपड़े में पहने हुए और भोर के रूप में लाल होंठ या बिंब फल के साथ, पूर्णिमा के रूप में सुंदर चेहरे के साथ और कमल की तरह आंखें, मैं कृष्ण से भी ऊँचा कोई सच्चाई नहीं जानता ।
तो फिर कलाकार भी जैसे पेंटिंग करता है या लकीर खींचता है फिर वह बंसी पीतांबर पहने हैं तब पितांबर का पेंटिंग करता है पीले रंग का उपयोग करता है भगवान का विग्रह का रंग नीला है तो नीला रंग, जैसा हम वर्णन करते हैं पढ़ते हैं सुनते हैं उसी के साथ वह दृश्य वह व्यक्तित्व, पर्सनैलिटी, उनका जो वैशिष्ठ है वह भी हमारे मन में, ऐसी छवि मन में बसी हो कहते हैं इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले , प्राण जब निकलने का समय आएगा, तब छवि मन में बसी हो, जो जो हमने ब्रजमंडल परिक्रमा में सुना था देखा था वह दृश्य फिर हम देखने लगेंगे या कृष्ण की छवि हमारे समक्ष खड़ी होगी होनी चाहिए। इसका फायदा
*एतावान्साङ्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायणस्मृतिः ॥*
(श्रीमदभागवतम २.१.६ )
अनुवाद – पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति से या स्वधर्म का भलीभाँति पालन करने सेमानव जीवन की जो सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान का स्मरण करना।
अंत में नारायण की स्मृतियां, कृष्ण की स्मृति में मदद होगी। हम जो जो परिक्रमा में सुन रहे हैं देख रहे हैं अनुभव कर रहे हैं स्पर्श कर रहे हैं यह सब नोट किया जा रहा है। हमारी स्मृति पटल पर उसको लिखा जा रहा है। इसके जो संस्कार हैं इंप्रेशंस हैं यह सदा के लिए हमारे साथ रहेंगे और सदा के लिए इंक्लूडिंग जब प्राण तन से निकले तो जब हम सुनते हैं पढ़ते हैं वैसा ही हम देखते हैं मैं कह रहा था ब्रजमंडल परिक्रमा में जाना मतलब भगवान के लीला में प्रवेश करने जैसी बात है और मरने की बात तो कर ही रहे थे। मरने के उपरांत क्या करना है जय ओम नित्य लीला प्रविष्ट राधारमण महाराज की जय ! या ब्रजभूमि की जय ! इष्ट देव प्रभु की जय ! इनकी जय, उन की जय, सब की जय ! तो क्या होगा? नित्य लीला में प्रवेश करेंगे, शरीर यही का यही रह जाएगा ,समाधि में रहेगा या उसका अंतिम संस्कार होंगे ,लेकिन हमारी जो आत्मा है जो स्पिरिट सोल है जो भगवान का पार्षद है भगवान का परिकर है। वी ऑल आर हम सब भगवान के परिकर हैं। ऑल एसोसिएट्स ऑफ कृष्ण, दास कहो सखा कहो या जो भी हमारा संबंध है अपने स्वरूप में स्थित होकर ,
*निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः मुक्तिर्हित्वान्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ॥* (श्रीमदभागवतम २.१०.६)
अनुवाद – अपनी बद्धावस्था के जीवन-सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है। परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति ‘मुक्ति’ है।
ब्रज मंडल परिक्रमा में हम जा रहे हैं सुन रहे हैं प्रचार कर रहे हैं सूंघ रहे हैं देख रहे हैं, कथा सुन रहे हैं। सुनने से हम देखते हैं ऐसा करते करते हमारा जो देह है अपना जो रूप है जो स्वरूप है प्राप्त कर रहे हैं। हर पग पर प्राप्त कर रहे हैं। लाइक एवरी स्टेप हमारा जो स्वरूप है वह प्राप्त करने की हमारी जो साधना है या हम जो साधना भक्ति कर रहे हैं और फिर साधना से सिद्ध होकर फिर
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥* (श्रीमद भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
पुनर्जन्म नहीं है तो फिर क्या होगा। मुझे प्राप्त होंगे परिक्रमा के भक्तों तुम मुझे प्राप्त होंगे, मेरे धाम में लौटोगे। वृंदावन धाम की और लौट कर क्या करोगे अन्य कॉवर्ड बाय या जो सर्वेंट हैं उनके जैसे ही तुम भी सर्वेंट बनोगे, तुम्हारी पोस्ट है पोजीशन है तुम जब से धाम को त्याग कर दुनिया में गए तब से वह स्थान रिक्त है। और आपके जाने से या भगवान का धाम छोड़ने से जो रिक्त स्थान बन चुका है और कोई नहीं भर सकता। वह हमारे लिए रिजर्व है। कृष्ण इज वेटिंग धाम प्रतीक्षा कर रहा है भगवान प्रतीक्षा कर रहे हैं और आप के संगी साथी जो इटरनल फ्रेंड्स हैं एसोसिएट्स हैं वे भी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
व्हाट हैपन आ गए हो इष्ट देव ब्रज मंडल परिक्रमा पूरा करके। श्रीकृष्ण भावना मृत संघ में हम लोग जो इस प्रकार का जीवन जीते हैं हमारी लाइफ स्टाइल एंड यह सब हम करते हैं साधना करते हैं रागानुगा साधना ताकि हम लोग तैयार हो जाएंगे स्वरूप स्थिति , मैं यह भी कह रहा था भगवान आज काम्यवन आ सकते हैं फिर उनके साथ आप खेल सकते हो। वे खेलते रहते हैं। आप आगे बढ़ोगे तो फिसलनी शिला आने वाली है। आगे पहाड़ी इलाका ही है और हरियाली, हरा भरा घास भी उपलब्ध है। गाय जब चर रही है तो कृष्ण खेलते हैं। कई प्रकार के खेलों में से वे फ़िसलिनी शिला पर भी खेलते हैं। वह शिला बहुत चिकनी है। वहां पीछे ग्वाल बाल फिसलते रहते हैं मैं पहले मैं पहले मैं पहले , ऐसा भी होता होगा या कृष्ण पहले , कृष्ण के ठीक बाद में मैं जाऊंगा। अब आप वहां पहुंचने ही वाले हो आप सभी को वहां से चलना है मैं भी वहां पर फिसला था।
मैंने भी वहां खेला था। जब आप भी वहां खेलोगे तो संभावना है वहां और भी बहुत सारे कवर्ड बॉयज या और परिक्रमा के लोग आ गए तो आप भी ये भूमिका निभाओ और कृष्ण और मित्रों के साथ आप भी वैसे मित्र ही हो। केवल तुम भूल गए हो लेकिन परिक्रमा यह इसीलिए आपको रिमाइंडर देने के लिए है कि आप कौन हो कहां के हो कहां है कृष्ण कौन है कहां है और आप उनके साथ कैसे खेलते रहते हो। यह सारा परिचय आप को दिया जाता है ब्रज मंडल परिक्रमा शुरू करा कर, अतः आप खेलने वाले हो फिसलनी शिला पर फिर जब आप आगे बढ़ोगे तब व्योमासुर गुफा का भी दर्शन करोगे हरि हरि ! व्योमासुर का वध काम्यवन में ही हुआ और आपकी जानकारी के लिए कृष्ण का यह आखिरी दिन था वृंदावन में जब अक्रूर मथुरा से वृंदावन या नंदग्राम आ रहे थे और अगले दिन उनको कृष्ण बलराम को ले जाना है तो वह दिन है। वैसे प्रातः काल में कृष्ण ने केसी घाट मे केशी का वध किया और फिर दिन में कृष्ण गोवर्धन के शिखर पर थे वहां खेल रहे थे। अब हम आपको सारी लीला तो नहीं बताएंगे जब वह खेल चल रहा था और कृष्ण के जो मित्र थे कोई बछड़ा बन गया ,कोई चोर बन गया, कोई पुलिस बन गया इस प्रकार यह सभी खेल चल रहा था। कोई चोर आकर चोरी कर रहे थे पुलिस उनको रोक रही थी उनको दंडित कर रही थी जो चोर बनने की लीला जो चोरी की भूमिका निभा रहे थे।
तभी एक असुर व्योमासुर चोर बन के आ गया और जैसे बाकी फ्रेंड्स चोरी करते थे और फिर लौटा भी देते थे क्योंकि यह नाटक था यह वास्तविक नहीं होता था कोई चोरी नहीं होती थी। लेकिन इस चोर ने जो कि वास्तविक चोर था राक्षस था वह भगवान के मित्रों की चोरी करके हवाई मार्ग से , कहां से ? गोवर्धन के शिखर से काम्यवन के जो पहाड़ हैं आगे जब आप जाओगे तब उस पहाड़ में एक गुफा को उसने ढूंढा, कृष्ण के मित्रों को उसने वहां रखा था और बड़ी शिला से उसे बंद करता था। 10 , 20, 50, 100 ,1000 ऐसे और मित्रों की चोरी करके उसी गुफा में डाल देता था और फिर दोबारा गोवर्धन आता था फिर दोबारा काम्यवन जाता था, फिर गोवर्धन आता था इस तरह से उसकी शटल सर्विस चल रही थी। तब कृष्ण ने कहा अरे हम लोग तो यही कुछ दस मित्र खेल रहे थे तो क्या हो रहा है अभी केवल 5 ,10, 20 ही बचे हैं यह क्या हो रहा है यह नाटक था या ड्रामा था लेकिन सचमुच ही कोई चोरी कर रहा है।
वास्तविक चोर आ गया है फिर उन्होंने नोट किया यस! यही है व्योमासुर ही है फिर भगवान ने उसका वध किया। काम्यवन के आकाश में भगवान का उसके साथ युद्ध हुआ खेलते समय कृष्ण के कई सारे अलंकार वहां गिर रहे थे उसमें से कुछ उसी पहाड़ के ऊपर भी गिरे जिस पर व्योमासुर की गुफा है। वैसे ही आप वहां जाने वाले हो हम कहते ही रहते हैं आप दूर से ही देखो , दूर से ही सुनो लेकिन कोई सुनता नहीं सभी वहां गुफा तक जाना ही चाहते हैं और इतना ही नहीं पहाड़ के ऊपर तक भी चढ़ते हैं। आप देखने वाले हो , आप साक्षी हो गए उस लीला के, कई भगवान के अलंकार के चिन्ह आज भी वहां पर हैं यह प्रूफ है यह लीला सचमुच वहां पर हुई है और उस समय कृष्ण पृथ्वी पर थे काम्यवन काम में और उसी समय उड़ान भरते व्योमासुर के साथ युद्ध खेलते हुए कुछ नीचे आ जाते हैं लैंडिंग होता है फिर टेक ऑफ उसके साथ ही पृथ्वी को एक प्रकार का स्प्रिंग बोर्ड बनाकर, जैसे स्विमिंग पूल में स्नान करने वाले कई बार जब कोई प्लेटफार्म होता है तब वहां से तैयार होते हैं जंप के लिए, अप एंड डाउन कृष्ण भी वैसा ही कुछ कर रहे थे, उसी के साथ यह पृथ्वी भी घूम रही थी।
डामाडोल हो रही थी। बलराम ने अपने पैर से उसे स्थिर करने के लिए रखा ताकि पृथ्वी का हिलना डुलना बंद हो या रोका जाए। इस तरह जहां बलराम ने अपने चरण रखे थे उस चरण चिन्ह का दर्शन भी आप करने वाले हो। जय बलराम , कल या परसों या कुछ दिन पहले आपने चरण पहाड़ी पर कृष्ण के चरण देखे कि नहीं देखें ? हरि बोल ! आज आप बलराम के चरण चिन्ह देखने वाले हो और फिर वहां से आगे बढ़ोगे फिर एक और स्थान आप परिक्रमा की डेवोटीज़ जाओगे वह है भोजन स्थली, वैसे वहां भजन भी होगा और भोजन भी होगा, आपका भी भोजन होगा। इष्ट देव या ब्रजभूमि आप सुन रहे हो बाकी सब सुन रहे हैं ना गायत्री सुन रही है और परिक्रमा पार्टी ? भोजन स्थली वह स्थान है जहां उसका थोड़ा हम स्मरण करते हैं फिर हम विराम देंगे और आप भी विराम कर रहे हो आराम हराम है। आपको आगे बढ़ना है।
भोजन स्थली एक विशेष स्थल है और यह भी काम्यवन में इतने सारे चिन्ह आज भी उपलब्ध हैं। भगवान की लीला का संकेत करने वाले और उन सभी वनों की अपेक्षा काम्यवन में इतने सारे स्थान है जबकि और वनों में तो भगवान की लीला स्थली या तो लुप्त हो चुकी है या अच्छादित हो चुकी है। हमको पता ही नहीं ऐसा कोई नामोनिशान नहीं है या कोई संकेत नहीं है लेकिन काम्यवन यह वशिष्ठ है कि यहां हजारों है इसीलिए हमने यहां इंटीरियर परिक्रमा या आउटर परिक्रमा और फिर इतने सारे स्थल आज भी वह प्रकट हैं और स्पष्ट हैं हरि हरि! यहां इतने सारे वानर भी हैं , पता नहीं आजकल कुछ संख्या कम हुई है किंतु फिर भी सबसे अधिक वानर काम्यवन में ही हैं क्योंकि भगवान ने काम्यवन में ही सेतु बनाया। रामेश्वरम से श्रीलंका जाने के लिए , वानरों की आवश्यकता थी सेतु बनाने के लिए तब वानर पहुंच गए। इस वन में और वनों की अपेक्षा अधिक वानर हैं इसके पीछे कारण है भगवान की लीला जब सेतू बना रहे थे तब वानरों ने मदद की और फिर रामेश्वरम यहां है, अशोक वन यहां है और यशोदा कुंड यहां है। इस वन में माधुर्य लीला वात्सल्य भरी लीला और सख्य रस से पूर्ण लीला हुई है या पांडव यहां अज्ञातवास के समय रहे और 84 खंबे ब्रज मंडल में दो ही हैं। एक गोकुल में है और दूसरा यहां काम्यवन में है जहां पांडव रहते थे हरि हरि !
फिर राधा मदन मोहन , राधा गोविंद देव ,राधा गोपीनाथ के मंदिर काम वन्य में है और कहीं भी नहीं है। वृंदा देवी की जय ! वृंदा देवी काम वन्य में ही है। वह क्यों है ? आपने सुना होगा , आप पढ़ सकते हो इतने सारे कुंड हैं अभी आउटर परिक्रमा में कितने सारे स्थान आज भी स्पष्ट हैं प्रकट हैं तो बैक टू भोजन थाली कोई भोजन थाली कहते हैं तो कोई भोजन स्थली कहते हैं। भोजन स्थली में कृष्ण की थाली का चिन्ह बन गया। भगवान की लीला में प्रवेश करने की बात हुई , संभावना भी है कि कृष्ण काम्यवन में आ जाए या जहां भोजन स्थल है। जहां भगवान भोजन कर रहे हैं अपने मित्रों के साथ और परिक्रमा के यही कुछ ढाई सौ मित्र भी आ गए, वहीं बैठेंगे , आज का आपका भोजन उसी स्थान पर होगा जहां कृष्ण बलराम अपने मित्रों के साथ भोजन कर रहे थे। क्या भोजन किया था इससे बढ़कर और कौन सा भाग्य क्या कहेंगे इसे ? और क्या है ? भगवान आप सभी को छप्पर फाड़ कर दे रहे हैं। अपनी लीला का दर्शन करा रहे हैं. आपको स्वीकार कर रहे हैं। बैठो !बैठो ! यहां बैठो यहां मैं भी कर रहा हूं भोजन और कई सारे मित्र हैं। बगल में गाय चर रही है।
गाय दिन भर भोजन करती है और फिर पानी भी पीती है। मित्र भी अपना खेल खेलते हैं भोजन करते हैं और कृष्ण भी। यहां कृष्ण ने भोजन किया उन्होंने यहां अपनी थाली रखी फिर भगवान ने कुछ कटोरी भी रखी अलग-अलग पकवान से भरे हुए थाली के स्पर्श से वहां की भूमि और शिलाएं पिघल गई। ऐसा ही होता है भगवान जब कभी कभी अपना स्पर्श करते हैं तो पत्थर पिघल जाता है। जैसे कहा कि भगवान के अलंकार जहां गिरे और उसके स्पर्श से वह पत्थर भी पिघल गए और जो चिन्ह वहां छपे हुए हैं उन्हें आप देख ही सकते हैं। इस तरह भोजन थाली की भी वही बात है।
भगवान भोजन करते समय भोजन की लीला का और एक समय वहीं से जमुना बहती थी ऐसा भी है अलग-अलग स्थानों से बहती रहती है अलग-अलग कल्पों में जमुना के तट पर कृष्ण भोजन करना पसंद करते हैं और भोजन की लीला इतनी मधुर है सेइ अन्नामृत जैसा अभी है। अन्न गृहण कर रहे हैं कृष्ण वह भी अमृत है यह लीला है भोजन करने की लीला का स्मरण करते हुए अब आप भोजन कीजिए हरि हरि ठीक है। भगवान भी अनंत हैं और उनकी लीला भी अनंत है लेकिन हमारा दिन तो अनंत नहीं है समय बीत रहा है आपको आगे भी बढ़ना है मैं नहीं रोकूंगा क्योंकि उसके बाद आपको आगे फिसलनी शिला भी जाना है बलराम के चरणों का दर्शन करना है। तो आप तैयार हैं ? और गुफा के अंदर नहीं जाना। व्योमासुर से दूर रहो। परिक्रमा कमांडर के आदेशानुसार आप चलो ठीक है अब मैं यहीं विराम देता हूं।
हरि हरि बोल !
निताई गौर प्रेमानंदे!
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जप चर्चा,
वृंदावन धाम से,
1 नवम्बर 2021
आप सभी का स्वागत है, नियमीत उपस्थित रहने वाले और आज उपस्थित हुए सभी का स्वागत हैं। आज का कार्यक्रम हिंदी भाषा मे होने वाला है एकादशी श्रवण कीर्तन महोत्सव
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येनतस्मै शीगुरवे नमः
आज एकादशी व्रत है। मुझे विश्वास है कि आप सभी विश्वास से दमोदर मास व्रत का पालन कर रहे हैं दामोदर मास शुरू है आप सभी दामोदर मास मना रहे हैं और यह महत्वपूर्ण पडाव हैं। इस दामोदर मास के मध्य में एकादशी आई है।पहले ही दामोदर मास का उत्साह है और उस में एकादशी महोत्सव आने से उत्साह दृगृणित हो रहा हैं।
आज दामोदर मास मे एकादशी व्रत है, महोत्सव है यह अतिरिक्त महोत्सव, व्रत है।
आज वक्त निकल रहा है 7: 10 मे 25 मिनट बाकी है मुझे कृष्ण-बलराम के दर्शन के लिए मंदिर जाना है।वृंदावन धाम कि जय..!
मुझे कृष्ण-बलराम मंदिर जाना है और मैं व्यस्त हुं,और अगले वक्ता जो आने वाले है वे है सार्वभौम प्रभु वे आप सभी के साथ दामोदर अष्टक का पठन और महत्व समझायेंगे।
आगे कि और बढ़ते हुए मै भक्तीविनोद ठाकुर द्वारा एकादशी गीत साझा करता हूँ। यह एकादशी गीत मायापुर के अनेक स्थान तथा पुरे विश्व के भक्त एकादशी के दिन यह गीत गाते हैं।
शूधद-भकत- चरण-रेणु, भजन अनुकूल।
यह गीत नहीं गाऊंगा, मै यह गीत पढूंगा और मेरा विचार है कि मैं आपको इसका अर्थ समझाऊंगा। हम अनेक बार ये मंत्र, वो स्तोत्र, गीत, स्तुति, प्रार्थना गाते है किंतु हम इसका अनेक बार पठन, श्रवण करते हुए भी अर्थ नहीं समझ पाते। आज यह जरूरी है कि जिसका हम पठन और श्रवण करते है उसका जितना हो सके उतना संक्षिप्त में अर्थ जानेंगे, और मै बताना चाहता हूँ कि एकादशी के दिन श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने अत्याधिक महत्व दिया है। गौडिय वैष्णवों के लिए पिछले एकादशी से आने वाली एकादशी तक सेवा और साधना का अवलोकन करे। पिछले दो हप्ते में हमने कैसा प्रदर्शन किया हमारी साधना, जप, और भक्तिमय सेवा, आपकी कमजोरी तथा खुबी कि नोंद करे और उसमें सुधार लाए, जैसे वैष्णव अपराध, दस नामअपराध, धाम अपराध, सेवा अपराध, श्रीविग्रह आराधना अपराध इन अपराधों कि बढ़ी सुची है भक्तिरसामृतसिंधु में। भक्तिविनोद ठाकुर के अनुसार एकादशी का दीन सुनिश्चित किया है आत्मअवलोकन के लिए देखिए कि आप कैसे अपने जीवन में बदलाव, परिवर्तन हो सके तो अमल मे लाएं। आत्मविश्लेषण, चिंतन, मनन करे।
शूधद-भकत- चरण-रेणु, भजन अनुकूल।
भकत सेवा, परम-सिध्दी, प्रेम-लतिकार मूल।। 1।।
अनुवाद: -शुद्ध भक्तों की चरणरज ही भजन के अनुकूल है। भक्तों की सेवा ही परमसिद्धि है तथा प्रेमरूपी लता का मूल (जड़) है।
भक्तीविनोद ठाकुर ने लिखा है शुध्द भक्तों कि चरणरज ही भजन के लिए अनुकूल हैं।
भक्त-पद-धूलि आर भक्त-पद-जल।
भक्त-भुक्त-अवशेष,— तिन महा-बल।।
( श्री चैतन्य चरितामृत अंन्त लीला 16.60)
अनुवाद: – भक्त के चरणों की धूल, भक्त के चरणों का प्रक्षालित जल तथा भक्त व्दारा छोड़ा गया शेष भोजन–ये तीन अत्यंत शक्तिशाली वस्तुएँ हैं।
पद धुली, पदजल,भक्तभुक्त अवशेष इत्यादि।चैतन्य चरितामृत मे अन्य बातों कि भी नोंद हैं। शुध्द भक्तों कि चरणधुली,चरणामृत,भक्तभूक्त अवशेष,बचा हुआ महाप्रसाद आपके भक्तीमय जीवन के लिए अनुकूल हैं।
भकत सेवा, परम-सिध्दी, प्रेम-लतिकार मूल।।
शुद्ध भक्तों कि सेवा ही परम सिध्दी हैं। वपु सेवा, उनकि चरण धुली, चरणामृत, वाणी सेवा, आदेशों का पालन करना यही भगवत सेवा और परमसिध्दी हैं।
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥
(श्रीमद्भागवत 1.2.18)
अनुवाद:-भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
प्रभुपाद कहते है कि दो भागवत हैं। ग्रंथ भागवत, आध्यात्मिक भागवत और कृष्ण भागवत है। विष्णु सेवा मे, वैष्णवों कि सेवा मे रहना यही प्रेमरुपीलता कि जड़ हैं।
“प्रेम-लतिकार मूल” यह जड़ हैं। शुध्द भक्तों कि सेवा ही भक्ति कि जननी हैं।
माधव-तिथि, भक्ति जननी,
यतने पालन करि।
कृष्ण वसति, वसति बलि,
परम आदरे बरि॥2॥
अनुवाद: -माधव तिथि (एकादशी) भक्ति देने वाली है इसलिए मैं यत्नपूर्वक इसका पालन करता हूँ। मैं श्रीकृष्ण के धाम को ही आदरपूर्वक अपना निवास-स्थान चुनता हूँ।
माधव-तिथि, भक्ति जननी,
यतने पालन करि।
माधव तिथि यह वैष्णव तिथि हैं।तिथि मतलब दिन जैसे प्रथमा, व्दितिया, तृतिया, चतुर्थी। वैष्णव तिथि अथवा जन्माष्टमी और माधव तिथि मतलब एकादशी का अर्थ है माधव कि तिथि।इस दिन माधव का गुणगान और सेवा करनी चाहिए।भक्ति जननी का अर्थ है भक्ति कि जननी एकादशी उत्सव में नियमों का अनुसरण करे।
‘यतने पालन करि’ माधव तिथि भक्ति देने वाली हैं। यत्नपूर्वक इसका पालन करना चाहिए। भक्तिविनोद ठाकुर ने इन नियमों का एकादशी के दिन पालन करने को कहा है किंतु हमे इन नियमों का हर दिन पालन करना चाहिये।
कृष्ण वसति, वसति बलि,
परम आदरे बरि॥
जहाँ कृष्ण रहते हैं वहा तुम्हे जाना चाहिये। ‘परम आदरे बरी’ जीन जीन स्थानो मे आनंदपुर्वक भ्रमन किया उन लिला स्थलियों पे जाना चाहिये।
गौर आमार, ये सब स्थाने,
करल भ्रमण रंगे।
से-सब स्थान, हेरिब आमि,
प्रणयि-भकत-संगे॥
अनुवाद:-मेरे गौरसुन्दर ने जिन जिन स्थानों में आनन्दपूर्वक भ्रमण किया, मैं भी प्रेमी भक्तों के साथ उन-उन स्थानों का दर्शन करूँगा।
हे प्रभु गौरांग..! गौरांग..!
गौर ही कृष्ण हैं। वह जिन जिन स्थानों मे आनंदपुर्वक भ्रमण किया है प्रेमी भक्तो के साथ उन स्थानो कि परिक्रमा करो। श्रील प्रभुपाद भी हमेशा कहते थें। कभी किसी जगहपर अकेले न जाए। हम नहीं जानते कौन किस भाव से भक्ति कर रहे हैं। हो सकता है कोई बाबाजी, सहजीवी, गोस्वामी हमे भक्ति से भटका दे और हम भटक जाये इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम प्रेमी भक्तो के संग मे ही यात्रा करे। जो भक्त प्रेभुप्रेमी हो, वृंदावन प्रेमी हो, मायापुर प्रेमी हो उन्ही के साथ ही परिक्रमा करे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जगनानंद पंडित से वृंदावन मे कहा ऐसे लोगों से सावधान रहे। भक्तिविनोद ठाकुर कह रहे है कि मुझे उन जगहों पर जाना पसंद हैं।सिर्फ आखों से ही देखना नहीं है बल्कि कानों से सुनना तथा महसूस करना चाहिए। जैसे आपने उस स्थान को देखा, सुना है वैसा ही आपकोे दृश्यमान छबि प्रकट करना महत्वपूर्ण हैं।
मृदंग-वाद्य, शुनिते मन,
अवसर सदा याचे।
गौर-विहित, कीर्तन शुनि’,
आनन्दे हृदय नाचे॥4॥
अनुवाद: -मृदङ्ग की मधुर ध्वनि को सुनने के लिए मेरा मन सर्वदा लालायित रहता है तथा श्रीगौरसुन्दर द्वारा प्रवर्तित कीर्तनों को सुनकर आनन्द से भरकर मेरा हृदय नाचने लगता है।
मृदंग-वाद्य, शुनिते मन,
अवसर सदा याचे।
उन्होंने कहा मेरा मन हमेशा उस अवसर कि बाट देखता है कि कब मृदुंग कि मधुर ध्वनि को सुनने के लिए मेरा मन सदैव लालायीत रहता है तथा श्रीगौरसुंदर व्दारा प्रवर्तित किर्तनो को सुनकर आनंद से भरकर मेरा हृदय नाचने लगता हैं।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥
(संसार दावानल)
अनुवाद:-श्रीभगवान् के दिवय नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।
महाप्रभु का किर्तन, नृत्य, गीतों कि आवाज अलौकिक हैं। गौड़ीय वैष्णवों का विशिष्ट वाद्य है मृदंग और उसी के साथ करताल बजाया जाता हैं। भक्ति विनोद ठाकुर कह रहे हैं करताल, मृदंग इन वाद्यों के साथ जब भगवान के लीलाओं का गायन किया जाता है तब मेरा हृदय नाचने लगता हैं।
गौर-विहित, कीर्तन शुनि’,
आनन्दे हृदय नाचे।
इस संगितम दिव्य वातावरण में जहा भगवान के गुण और लीलाओं को गाया जा रहा हो, वहा इतना आनंद का अनुभव होता है कि मेरा हृदय आनंद से नाचने लगता है, उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरा शरीर नाच रहा है बल्कि ये कहा कि मेरा हृदय नाच रहा हैं। हृदय आत्मा का निवास स्थान हैं। मेरी आत्मा नाच रही हैं। किर्तन ही मेरी आत्मा का भोजन हैं। इस आनंद मे आत्मा नाचने लगता हैं। वृंदावन वह स्थान हैं जहा भक्ति नाचने लगती हैं।
युगल-मूर्ति, देखिया मोर,
परम-आनन्द हय।
प्रसाद-सेवा, करिते हय,
सकल प्रपन्च जय॥5॥
अनुवाद:-युगल मूर्ति का दर्शन कर मुझे परम आनन्द प्राप्त होता है। महाप्रसाद का सेवन करने से मैं माया को भी जीत लेता हूँ।
युगल-मूर्ति, देखिया मोर,
परम-आनन्द हय।
वे कहते हैं कि जब मै युगल विग्रहों के दर्शन करता हूँ,तब अत्यंत आनंद का अनुभव करता हूँ।राधाकृष्ण,राधामाधव,गौरनिताई जब मै इनका दर्शन करता हूँ तो मुझे परम आनंद मिलता हैं।
प्रसाद-सेवा, करिते हय,
सकल प्रपन्च जय॥
जब हम अर्चाविग्रहो को मंदिर में, घर में, ब्रम्हचारी आश्रम में भोग या छप्पन भोग लगाते हैं, भगवान को अर्पित प्रसाद ही ग्रहण करने से सारे प्रपंचों का निवारण हो जाता हैं। प्रसाद में भगवान कि मधुरता मिश्रीत होती है इसे ग्रहण करने से मन भी संयम मे आता हैं। भगवान के दर्शन कि योग्यता प्राप्त होती है।
भाई-रे!
एक-दिन शांतीपुरे, प्रभु अद्वैतेर घरे,
दुइ प्रभु भोजन बसिल
शाक करि आस्वादन, प्रभु बले भक्त-गण,
एइ शाक कृष्ण आस्वादिल॥1॥
अनुवाद:-हे भाइयों! एक दिन शांतिपुर में, दोनों प्रभु, श्रीचैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु, अद्वैत प्रभु के घर मे दोपहर भोजन के लिए बैठे थे। आश्चर्यजनक साग का आस्वादन करने के पश्चात्-चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मेरे प्रिय भक्तों, यह साग इतना स्वादिष्ट है, भगवान् कृष्ण ने अवश्य ही इसको चखा है। ”
एक दिन चैतन्य महाप्रभु शांतिपूर मे अव्दैताचार्य के घर मे गये और चैतन्य महाप्रभु को प्रसाद दिया वह बहुत स्वादिष्ट था, बाद मे सभी को उन्होंने बुलाया ओर कहा इस प्रसाद मे भगवान कि लार है इसलिए यह बहुत ही स्वादिष्ट हैं। “सकल प्रपंच जय” भगवान को अर्पित प्रसाद ग्रहण करने से सारे प्रपंचों का निवारण हो जाता हैं। प्रसाद मे भगवान कि मधुरता मिश्रित होती हैं। इसे ग्रहण करने से मन भी संयमित होता हैं।
जप और प्रसाद आपको भगवान का दर्शन करवा सकता है। किर्तन, दर्शन, भक्तों कि सेवा, अर्चना विग्रह सेवा, जप, प्रसाद से ही आप कृष्ण दर्शन के पात्र बनते हैं।
ये दिन गृहे, भजन देखि
गृहते गोलोक भाय,
चरण-सीधु, देखिया गंगा,
सुख ना सीमा पाय॥6॥
अनुवाद:-जिस दिन घर में भजन-कीर्तन होता है, उस दिन घर साक्षात् गोलोक हो जाता है। श्रीभगवान् का चरणामृत और श्रीगंगाजी का दर्शन करके तो सुख की सीमा ही नहीं रहती।
ये दिन गृहे, भजन देखि
गृहते गोलोक भाय,
जीस दिन मै घर में किर्तन का आयोजन करता हूँ, भक्तों को आमंत्रित करता हूँ, किर्तन मे भाग लेता हूं तो घर मे किर्तन होते हुए देखकर ऐसा लगता है जैसे घर गोलोक वृंदावन बन जाता है। उनका घर गंगा के तट पर है, वे कहते हैं कि गंगा को देखकर अति सुख का अनुभव होता हैं। गंगा भगवान के चरणों से उत्पन्न हुईं हैं। गंगा, जमुना, सरस्वती, कावेरी, गोदावरी, सिंधु आदि नदियाँ भगवत चरणामृत है वे भगवान कि कृपा हैं।
तुलसी देखि, जुड़ाय प्राण,
माधवतोषणी जानि’।
गौर-प्रिय, शाक-सेवने,
जीवन सार्थक मानि॥7॥
अनुवाद:-माधवप्रिया तुलसी जी का दर्शन कर त्रितापों से दग्ध हुआ हृदय सुशीतल हो जाता है। गौरसुन्दर के प्रिय साग का आस्वादन करने में ही मैं जीवन की सार्थकता मानता हूँ।
तुलसी देखि, जुड़ाय प्राण,
माधवतोषणी जानि’।
अब भक्तिविनोद ठाकुर तुलसी महारानी कि ओर मुडते हैं।
तुलसी महारानी कि जय…!
तुलसी महारानी जी कि बहुत सारी कहानियाँ हैं।
तुलसी कृष्णप्रेयसी नमो नमः। गृहांगन मे तुलसी देखकर प्राण जुड़ता हुआँ अनुभव होता है, तुलसी बहुत ही उंचे स्थान पर हैं। तुलसी देवी माधव तोषणी है, वह माधव को संतोष देती हैं।
गौर-प्रिय, शाक-सेवने,
जीवन सार्थक मानि॥
एक बार फिर से प्रसाद का महत्व बता रहे हैं भगवान को अर्पित प्रिय शाक (पालक) का सेवन करने से जिवन सार्थक होता हैं। भक्तिविनोद ठाकुर इस निष्कर्ष पर पहुँचे
भकतिविनोद, कृष्ण भजने,
अनुकूल पाय याहा।
प्रति-दिवसे, परम सुखे,
स्वीकार करये ताहा॥8॥
अनुवाद:-कृष्ण भजन के अनुकूल जीवननिर्वाह के लिए जो कुछ पाता है, यह भक्तिविनोद प्रतिदिन उसे सुखपूर्वक ग्रहण करते हैं।
भकतिविनोद, कृष्ण भजने,
अनुकूल पाय याहा।
वह कहते है जो भी मेरी भक्ति के लिए अनुकूल है उनका मै स्विकार करता हूँ।
प्रति-दिवसे, परम सुखे,
स्वीकार करये ताहा॥
भक्तिविनोद ठाकुर कहते है, हर रोज परमसुख के साथ स्विकार करता हूँ। हरि हरि!
भक्तिविनोद ठाकुर कि जय…!
भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा रचित इस भजन कि जय…!
इसे गाते रहिये और इसके अर्थ को पढिए। आप इस गीत के भावों को अनुभव कर सके। हरि हरि!
कृष्ण बलराम कि जय..!
वृंदावन धाम कि जय..!
दामोदर मास कि जय..!
एकादशी महोत्सव कि जय..!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल..!
अब पुज्य सार्वभौम प्रभु दामोदर अष्टक पर चर्चा करेंगे, वे वृंदावन के बहुत बडे प्रचारक हैं। मुझे मंदिर मे कार्यक्रम के लिए जाना होगा। आप यहा बने रहिये और कथा को श्रवण करिये।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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