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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*वृंदावन धाम से*
*31 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण ! आज 706 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। आज हम थोड़ा जल्दी जपा टॉक शुरू कर रहे है क्योंकि मुझे कृष्ण बलराम मंदिर में श्रृंगार दर्शन के लिए पहुंचना है और मुझे मंदिर में 8 बजे भागवतम कक्षा देनी हैं। तो अभी आप थोड़ा जपा टॉक सुन लीजिए और थोड़ी देर बाद 8 बजे विस्तार में श्रीमद् भागवत कथा होगी। आप जानते ही हो व्रजमंडल परिक्रमा की जय। ऑनलाइन और दूर से व्रजमंडल परिक्रमा का अनुसरण कर रहे हैं। व्रजमंडल परिक्रमा कल बद्रिकाश्रम पहुंचे गई। बद्रीकाश्रम धाम की जय। कल की रात बिताई थी और आज रहेंगे। आज की रात बिताएंगे और फिर केदारनाथ के लिए प्रस्थान करेंगे। जैसे हम हिंदू तो नहीं है या सनातनी कह सकते हो। भागवत धर्म के अनुयाई वैसे चार धाम की यात्रा एक बार करना चाहते हैं। नंद बाबा और यशोदा भी चार धाम की यात्रा करना चाहते थे। बद्रीकाश्रम की यात्रा करना चाहते थे। अपने आपत्यो या पुत्रों का फर्ज बनता है कि अपने माता-पिता की यात्रा कराए। जैसे ही कृष्ण बलराम को पता चला नंदबाबा–यशोदा और बाकी सब यही चाहते थे। बुजुर्ग भी बद्रिकाश्रम की यात्रा करना चाहते थे। तो कृष्ण और बलराम नंद बाबा और यशोदा के साथ सभी बृजवासी जिनका भगवान के साथ वात्सल्य का संबंध है। इन सबको लेकर कृष्ण बलराम बद्रीकाश्रम पहुंचे। बद्रीकाश्रम की यात्रा करवाएं और फिर केदारनाथ भी पास में ही है।
कल परिक्रमा केदारनाथ जाएगी। वहां से आगे काम्यवन पहुंचेगी। जहां पर रामेश्वरम भी है और मथुरा में द्वारकाधीश का मंदिर है। इस प्रकार यह चारों धाम व्रजमंडल में है। व्रजमंडल पूरा है। सारे धाम एक धाम में है वृंदावन धाम में है। इसलिए कहा जाता है कि बस आप व्रजमंडल परिक्रमा करो, व्रज की यात्रा करो, तीर्थ यात्रा करो। सारे संसारभर के तीर्थो की यात्रा हो गई। आप कभी 2 इन 1 या 3 इन 1 की बात करते हो। यहां ऑल इन वन है। सारे धाम एक धाम में है। कृष्ण सभी अवतारों के उद्गम या स्त्रोत है। वैसे ही वृंदावन धाम सभी धामों का स्त्रोत है। वृंदावन धाम की जय। बद्रिकाश्रम में बद्री के पेड़ है और बद्री के फल भी हैं। बद्रीनारायण मतलब वैसे लक्ष्मीनारायण ही है। बद्रीकाश्रम में जो बद्री के वृक्ष है। यह स्वयं लक्ष्मी ने रूप धारण किया हुआ है और इन्ही वृक्षों के फल भी, पत्रं पुष्पं फलं तोयं नारायण को खिलाती रहती है । तो एक समय की बात है। नारायण नारायण नारायण, नारद मुनि का मुख्यालय वैसे बद्रिकाश्रम है क्योंकि वह परिव्राजक आचार्य हैं। हरि हरि। नारद मुनि जब एक समय वैकुंठ पहुंचे, पुनः पुनः जाते रहते हैं।
हर समय वह देखते हैं कि बस नारायण विश्राम कर रहे हैं अनंत शय्या पर लेटे हुए हैं और लक्ष्मी उनके चरणों की सेवा कर रही हैं। तो इस मानक का दर्शन वह जब भी जाते हैं तो उनको ऐसा ही दर्शन होता है। तो फिर लोग पूछते हैं कि आपने नारायण को देखा ? वह कहते हां हां, मैने उनके दर्शन किए। उनसे तो कहते हैं कि चरणों की सेवा करवा रहे थे । अगली बार पूछते तो कहते की चरणों की सेवा हो रही है। तो उन्होंने सोचा कि यह आदर्श अच्छा तो नहीं है। वैसे गृहस्थ ऐसा आराम करना चाहते है। वह सुनेंगे कि भगवान विश्राम कर रहे हैं और चरणों की सेवा करवा रहे हैं तो वह भी वैसा करवाते रहेंगे । यह आदर्श ठीक नहीं है। गृहस्थ के लिए तो प्रचारक नारद मुनि ने विशेष निवेदन किया। हे प्रभु ऐसा कुछ कर के दिखाइए कि ऐसी कोई लीला जिसका वर्णन करके मैं सुनाऊंगा तो लोग प्रोत्साहित होंगे, कुछ तपस्या करेंगे ।
ऋषभ उवाच नार्य देहो देहभाजां नलोके कष्टान्कामानहते विड्भुजा ये ।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम् ॥
( श्रीमद् भागवद् 5.5.1 )
अनुवाद:- ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा – हे पुत्रो , इस संसार समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन – रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर – सूकर भी कर लेते हैं । मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने लिए वह अपने को तपस्या में लगाये । ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है , तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है , जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है ।
भगवान् ऋषभदेव कहे ही है कि तपस्या करो तपस्या करो। नारद मुनि ने कहा कि हे प्रभु नारायण, आप थोड़ी तपस्या करके दिखा दो। अपने वैराग्य का प्रदर्शन करो। उसी के साथ फिर नारायण बद्रिकाश्रम जाते हैं और वहां पर तपस्या करते हैं। नर नारायण ऋषि के रूप में तपस्या करते हैं। नारायण बद्रिकाश्रम में तपस्या करने लगते हैं। तो वैसे लक्ष्मी को वह पीछे ही छोड़ कर गए थे। लक्ष्मी ने सोचा कि मुझे मेरे प्रभु की सेवा करनी है। तो उन्होंने सोचा कि वह लक्ष्मी के रूप में वहां पर नहीं जा सकती, प्रभु तपस्या करना चाहते हैं। फिर लक्ष्मी वहां पर पहुंच जाती हैं बद्री के वृक्षों के रूप में और श्रीनारायण को छाया ही प्रदान करती हैं। उस बद्री के फल भी खाने के लिए उपलब्ध होते हैं। हरि हरि। नारायण जब वैकुंठ को छोड़कर ढूंढ रहे थे कि वह कहां पर तपस्या कर सकते हैं। तब वह हिमालय पहुंच गए और वैसे बद्रीकाश्रम ही आ गए। उनको लगा कि मैं यहां पर रहना चाहता हूं।
यह तपस्या के लिए अच्छी जगह है। यहां पर शांति है, शीतलता भी है और बर्फ गिरती है तो तपस्या हो जाती है। लेकिन उन्होंने देखा कि बद्रिकाश्रम में कोई रह रहा है। वहां पर शिव और पार्वती रह रहे थे। एक दिन उन्होंने देखा कि शिव और पार्वती कहीं जा रहे हैं। बद्रिकाश्रम में तप्त कुंड एक स्थान है वहां स्नान के लिए जा रहे है। वहां पर नारायण एक बालक के रूप में असहाय होकर रो रहे हैं, कोई मेरी मदद कर सकता है? शिव और पार्वती ने दोनों देखा। वैसे पार्वती आगे बढ़ी और उस बालक को उठाई और अपने निवास स्थान पर रखी और फिर शिव और पार्वती तप्त कुंड में स्नान के लिए गए और जब वह लौटे तो उन्होंने देखा कि सारे दरवाजे और खिड़कियां अंदर से बंद है, तो शिव और पार्वती खूब खटखटाते रहे । बेल बजाते रहे लेकिन नारायण ने एक नहीं मानी । यह नारायण को स्थान पसंद था तो वही अपना अड्डा बनाना चाहते, तो शिव पार्वती समझ गए । वैसे यह हमारे प्रभु ही है । यह स्वयं नारायण भगवान है और इनको यह स्थान पसंद है ये यहां रहना चाहते हैं तो फिर शिव पार्वती दूसरे स्थान की खोज में निकल चले । हिमालय में ही और खोजते खोजते इनको केदारनाथ स्थान उन्होंने देखा उनको पसंद आया और फिर शिव और पार्वती केदारनाथ में रहने लगे । इस प्रकार बद्रिकाश्रम और फिर केदारनाथ । एक नारायण का आश्रम, एक शिव जी का आश्रम ।
इसीलिए हरिद्वार और जानते हो हरिद्वार, तो कुछ भक्त कहते हैं कि यह हरिद्वार है तो कुछ लोगों के लिए हर-द्वार है । “हर हर गंगे” यह शिव जी के भक्त हैं इसको हर-द्वार कहते हैं । इसी स्थान से यही द्वार है । बद्रिकाश्रम के लिए द्वार है तो हरिद्वार है और शिव भक्तों के लिए वो हर-द्वार है । आप केदारनाथ जा सकती हो जहां हमारे परिक्रमा के भक्त पहुंचे हैं । आज दिन में वे सारे बद्रिकाश्रम का यात्रा करेंगे । वहां भी ऋषिकेश वहां भी हरिद्वार है । कल बता ही रहे थे इष्टदेव प्रभु; बालक नंदा है वहां व्यास गुफा है और वैसे वहां बद्रिकाश्रम में दर्शन भी है बद्री नारायण के तप्त कुंड है । तप्त कुंड नहीं तपस्या कुंड है । यह सब स्थान हमारे भक्त वहां आज देखेंगे और सचमुच यह तपस्या स्थली ही है । पहाड़ है और यह बद्रिकाश्रम, यात्रा वैसे ब्रजमंडल की और यात्राओं से भिन्न है । सचमुच वहां, गोवर्धन एक पहाड़ है ठीक है, वर्षाणा पहाड़ है । नंदग्राम एक पहाड़ है ऐसे पहाड़ तो हम देखते रहते हैं दर्शन करते रहते हैं लेकिन जब बद्रिका आश्रम जाते हैं तो वहां पहाड़ ही पहाड़ है । पहाड़ी इलाका है यह अलग है । एक नया अनुभव है और सब एकांत है । हरि हरि !! आप भी कभी यात्रा वरजमंडल परिक्रमा की यात्रा करो । बद्रिकाश्रम भी जाओ, केदारनाथ जाओ । व्रजमंडल में जो रामेश्वर है वहां जाओ । इस प्रकार भी आप चार धाम की यात्रा वहां कर सकते हो । हरि हरि !!
एक समय श्री कृष्ण वैसे छुप जाते हैं और फिर गोपियां खोजने लगती है कृष्ण को । कृष्ण ! कहां हो कृष्ण ? कृष्ण को खोजती हुई जाती है तो कृष्ण को पता चला की गोपियां आरही है, मेरी और ही आ रही है । कृष्ण क्या करते हैं ? कृष्ण नारायण का रूप धारण करते हैं । कृष्ण चतुर्भुज हो जाते हैं । कृष्ण को सदैव अच्छा लगता है गोपियों के साथ हास्य विनोद चलता रहता है । यह प्रेम कभी सीधा नहीं होता है कभी टेढ़ा मेढ़ा होता है । “प्रेमना गति आहेरिब” अहि मतलब सर्प । प्रेम की गति, प्रेम की चाल सर्प जैसी होती है । वैसे यह प्रसिद्ध वचन भी है, तो कृष्ण ऐसे कुछ चाल चल रहे थे तो उन्होंने चतुर्भुज रूप धारण किया । गोपिया जैसी वहां पहुंची उन्होंने देखा तो वह कहती, नमो नारायणाय ! हे नारायण नमस्कार । आपने हमारे कृष्ण को देखा है ? बस इस नाटक को आगे नहीं बढ़ा पाए कृष्ण । वो जिस भाव से उन्होंने पूछा क्या हमारे कृष्ण को देखा है ? वैसे कृष्ण को ही देख रही थी लेकिन कृष्ण तो चतुर्भुज रूप दिखा रहे थे । लेकिन जिस भाव से जिस उत्कंठा के साथ पूछा वो नारायण नारायण नहीं रह पाए । उनका जो नाटक चल रहा था उन्होंने मेकअप किया हुआ था और जो अतिरिक्त हाथ जो थे वो हाथ गिर गए, वो नहीं रहे कृष्ण वापस फिर से अपने स्वरूप में आ गए । कृष्ण द्वीभुज उनको बनना ही पड़ा प्रेम बस । गोपियों का प्रेम ने कृष्ण को कृष्ण रूप में बनाया । हरि हरि !! तो गोपियों के लिए या फिर व्रज वासियों के लिए उनको तो कृष्ण ही उनके आराध्य देव कृष्ण ही है ।
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं
रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ॥
(चैतन्य मंज्जुषा)
अनुवाद:- भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है ।
तो व्रज वासियों के पसंद आराध्य देव है श्री कृष्ण । व्रजेंद्र नंदन, यशोदा नंदन और फिर राधानाथ, गोपीनाथ, भक्तवत्सल श्री कृष्ण से ही स्नेह करती हैं गोपियां और ग्वाल बाल और नंद यशोदा, तो नारायण वै भी कृष्ण है किंतु वे बैकुंठ के कृष्ण हैं या फिर कहो कृष्ण ही वैकुंठ में नारायण बनते हैं और राधा ही वैकुंठ में लक्ष्मी बनती हैं ।
चिन्तामणिप्रकरसद्यसु कल्पवृक्ष-
लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
( ब्रह्म संहिता 5.29 )
अनुवाद:- जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुषकी सेवा कर रही हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्दका मैं भजन करता हूँ ।
गोपियों को वे ब्रह्मा जी कहे; गोपियां भी हैं लक्ष्मी है । वैकुंठ की गोपी लक्ष्मी है । अगर आप समझ सकते हो तो । वृंदावन की लक्ष्मी है गोपी और वैकुंठ की गोपी हे लक्ष्मी । हरि हरि !! तो कृष्ण से ही फिर आगे, कृष्ण ही बनते हैं द्वारिकाधीश और राधा रानी बनती है कौन ? या वृंदावन की व्रज की गोपियां ही बन जाती हैं अलग-अलग द्वारिका की रानियां । राधा बन जाती है सत्यभामा द्वारिका में और फिर आगे विस्तार होता है और वे नाराय या विष्णु रूप धारण करते वैकुंठ में । वृंदावन की गोपियां यह पटरानी या बनती हैं द्वारिका में उनका और आगे विस्तार होता है और वे लक्ष्मी नारायण या लक्ष्मी नरसिंह, लक्ष्मी वराहा ऐसे रूप वे धारण करते हैं । जय जय श्री श्रीराधाश्याम सुंदर की जय ! वृंदावन में तो है राधा और श्याम सुंदर तो सर्वोपरि है ।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
( भगवद्गीता 7.7 )
अनुवाद:- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है । जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है ।
नारायण भी बराबरी नहीं कर सकते कृष्ण की और उसी प्रकार लक्ष्मी भी बराबरी नहीं कर सकती राधा के साथ । ठीक है मैं यही रुकता हूं ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*वृन्दावन धाम से*
*30 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
इससे आपके जप करने का विचार और पक्का होता है। हम ही जप करने वाले पागल नहीं है। ‘आई एम नॉट ओनली फूल’ कोई कह सकता है कि यह हरे कृष्ण वाले पागल है। अब इस पृथ्वी पर जप करने वाले असंख्य भक्त हैं। पहले ऐसा नहीं हुआ करता था, लोग पहले प्रात: काल में कहाँ जगा करते थे। जब से इस्कॉन की स्थापना हुई है और इस्कॉन का प्रचार- प्रसार अथवा इस्कॉन टेंपल की ओपनिंग हो रही है तब से लोग पुनः ब्रह्म मुहूर्त में जगने लगे हैं। यह हमारा कल्चर है, हमारी संस्कृति है। उस भूली हुई संस्कृति को यह हरे कृष्ण आंदोलन पुनः स्मरण दिला रहा है। ना केवल भारत में, पूरी दुनिया में लोग…
जैसे पंढरपुर में काकड़ आरती होती है। मंगल आरती/ काकड आरती महाराष्ट्र / पंढरपुर में होती है। वैसी ही आरती अब न्यूयॉर्क में हो रही है व डरबन, ऑस्ट्रेलिया, मेलबॉर्न, साउथ अफ्रीका, मास्को इत्यादि कई नगरों में होती है। जैसे आजकल 700 से अधिक शहरों में अथवा अराउंड द वर्ल्ड जगन्नाथ रथ यात्रा हो रही है। हमारे कुछ 1000 मंदिर हैं कई सारे गुरुकुल, कृषि फार्म है। इन स्थानों पर हमारी इंडिया से पहुंचे हुए एन आर आई भी अभ्यास कर रहे हैं। वे भी इस साधना/भक्ति के लिए प्रातः काल में उठ रहे हैं, नहीं तो लोग कहां उठते थे। देर रात तक पार्टी ही चलती रहती है। एक बार मैं ऑस्ट्रेलिया के शायद सिडनी शहर में था (अच्छे से शहर का नाम याद नहीं आ रहा) हम लोग मंगला आरती जा रहे थे अथवा मुझे एक भक्त मंदिर तक ले जा रहा था। रास्ते में मार्केटप्लेस आया। वहां कई सारे लोग जगे हुए थे और काफी संख्या में लोग तैयार थे। वे व्यस्त थे ।जो भक्त मुझे मंदिर ले जा रहे थे, मैंने उनसे पूछा कि क्या यह लोग भी मंगल आरती के लिए तैयार हुए हैं? वे लोग भी जगे हुए हैं। तब उस भक्त ने कहा- ‘नहीं, नहीं” यह लोग अभी सोए ही नहीं हैं।’ प्रात: चार बजे मुझे लगा कि शायद ये लोग मंगला आरती के लिए जग गए हैं किंतु वे सोए ही नहीं थे। लोग पूरी रात भी जगते ही रहते हैं।तत्पश्चात वे 9-10 बजे उठते हैं। कलियुग में देश विदेश में सब उल्टा- पुल्टा हो रहा है। श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित यह अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ अपनी प्राचीन संस्कृति और भागवत धर्म को जागृत कर रहा है अर्थात जीव जागो चल ही रहा है।
*जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले। कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥1॥*
*भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे। भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥2॥*
*तोमार लइते आमि हइनु अवतार। आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥3॥*
*एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि। हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥4॥*
*भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया। सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥5॥*
अर्थ
(1) श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे?
(2) तू इस जगत में यह कहते हुए आया था, ‘हे मेरे भगवान्, मैं आपकी आराधना व भजन अवश्य करूँगा,’ लेकिन जगत में आकर अविद्या (माया)में फँसकर तू वह प्रतिज्ञा भूल गया है।
(3) अतः तुझे लेने के लिए मैं स्वयं ही इस जगत में अवतरित हुआ हूँ। अब तू स्वयं विचार कर कि मेरे अतिरिक्त तेरा बन्धु (सच्चा मित्र) अन्य कौन है?
(4) मैं माया रूपी रोग का विनाश करने वाली औषधि “हरिनाम महामंत्र” लेकर आया हूँ। अतः तू कृपया मुझसे महामंत्र मांग ले।
(5) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने भी श्रीमन्महाप्रभु के चरण कमलों में गिरकर यह हरे कृष्ण महामंत्र बहुत विनम्रता पूर्वक मांग लिया है।
हमनें आपको दिखाया, सीइंग इज बिलिविंग (देखकर विश्वास होता है)। वैसे अभी कई सारे मंदिरों में, आपने देखा ही कि केवल मंदिरो में ही नहीं अपितु आप गृहस्थ भी तो उदाहरण हो। लगभग यहां पर 900 स्थानों से प्रतिभागी हैं। उसमें से 90 मंदिर से सम्बंधित होंगे । बाकी अवशेष 800 स्थान हैं, उसमें आप गृहस्थों के हैं। आप ग्रहस्थ आश्रम के सदस्य हो। आप भी तो जगे हो और आप प्रात:काल में जप भी कर रहे हो। राधाचरण प्रभु अपने आश्रम में और राधा श्यामसुंदर और शुभांगी अपने आश्रम में, महालक्ष्मी नागपुर में और इसी तरह से थाईलैंड, वर्मा, यूक्रेन, मोरिशियस जहां जहां से ज्वाइन करते हो, आप भी तो जगे हो। जोकि जीव का धर्म है। जैव धर्म।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* का आप जप कर रहे हो, ध्यान कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो। राधा कृष्ण को प्रार्थना कर रहे हो। हरि! हरि! करते रहो, जप व प्रार्थना करते रहो। विशेषरूप से यह कार्तिक मास है, कार्तिक व्रत चल रहा है। इस कार्तिक मास में की हुई साधना, भक्ति, जप, तप का कितना सारा फल प्राप्त होता है और वैसे हम वह फल कृष्ण प्रेम के रूप में ही चाहते हैं । हम प्रेममई सेवा भगवान की करें। हम जब जप करते हैं, तब हमारी प्रार्थना ही होती है। वी आर प्रेयिंग अर्थात हम प्रार्थना कर रहे होते हैं कि हम आपके हैं। हे राधे, हे कृष्ण! हमें स्वीकार कीजिए। प्रभुपाद भी कहा करते थे, “प्लीज इंगेज” और आपको भी सिखाया समझाया है। हरे कृष्ण महामंत्र के जो भाष्य हैं- जब हम हरे कहते हैं तो क्या भाव होता है, जब हम कृष्ण कहते हैं तो क्या भाव अथवा प्रार्थना होती है।
हरे कृष्ण महामंत्र पर आचार्यों का भाष्य भी है। -‘सेवा योग्यं कुरु’ अर्थात मुझे सेवा योग्य अथवा समर्थ बना दो। ‘मया सह रम्यस’ अर्थात हे प्रभु, मेरे साथ भी रमो । हरि! हरि! मेरे चित को आकृष्ट करो। आप कृष्ण हो।
*सः कर्षति स: कृष्ण:*
मेरे चित को अपनी ओर आकृष्ट करो। यह भी प्रार्थना है। प्रार्थना है कि ” हे राधे आपकी कृष्ण के साथ जो लीलाएँ संपन्न होती हैं और हे कृष्ण तुम्हारी जो राधा के साथ लीलाएँ संपन्न होती हैं उनको श्राव्य अर्थात मुझे सुनाइए। केवल सुनाइए ही नहीं अपितु मुझे उनका दर्शन कराइए।” जब हम जप करते हैं तब ऐसे विचार होने चाहिए। जप एक ध्यान है, जप एक प्रार्थना है, जप एक यज्ञ है।
*महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ||*
( श्रीमद भगवतगीता १०.२५)
अनुवाद:- मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ |
जब हम जप करते हैं तब हम स्वयं को ही समर्पित करते हैं
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||*
( श्रीमद भगवतगीता १८.६६)
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
हम भगवान की शरण लेते हैं। मुझे आश्रय दीजिए और अपने चरणों की सेवा दीजिए। प्रेममयी सेवा (डिवोशनल सर्विस) केवल मुझे भक्ति ही नहीं दीजिये, मुझे प्रेम दीजिए, भक्ति दीजिए, केवल डिवोशन (भक्ति) नहीं चाहिए अपितु मुझे भक्तिमय सेवा (डिवोशनल सर्विस) चाहिए। जैसे भक्ति योग है, कई लेखक, भाष्यकार, कमेंटेटर्स भक्ति का अनुवाद तो डिवोशन कर देते हैं लेकिन हमारे गौड़ीय आचार्य और श्रील प्रभुपाद भक्ति को डिवोशनल सर्विस कहते हैं। केवल डिवोशन ( भक्ति) नहीं कहते। केवल यदि डिवोशन (भक्ति) है तो शांत रस हुआ। हमें तो सक्रिय होना है। केवल ओम शांति ओम शांति …
केवल जीना ही नहीं, रहना ही नहीं, सिंपली लिविंग, ‘वी हैव टू बी एक्टिव’ सक्रिय होना यह इस जीवन का लक्षण भी है। हम भक्तिमय सेवा (डिवोशनल सर्विस) चाहते हैं। डिवोशनल सर्विस /भक्ति योग यह जीव का धर्म है। चाहे फिर उसको सनातन धर्म कहिए या भागवत धर्म कहिए या वर्णाश्रम धर्म कहिए। सेवा महत्वपूर्ण है क्योंकि हम तो दास ही हैं।
*जीवेर ‘स्वरूप’ हय- कृष्णेर ‘नित्य दास’। कृष्णेर तटस्था- शक्ति’ ‘ भेदाभेद – प्रकाश’।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक 20. 108)
अर्थ:- कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिति है, क्योंकि जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान से एक ही समय अभिन्न और भिन्न है।
हरि! हरि! जप करते रहिए। देखिये हमार अधिक अधिक ध्यान कैसे बढ़ सकता है, हो सकता है। मोर कंसंट्रेशन, मोर फोकस। चेंट व्हाईल चैंटिंग अर्थात जप के समय जप ही करें। किसी तरह की योजना न बनाए (डोंट डू एनी प्लानिंग)। कुछ भक्त इधर उधर मिक्स कर देते हैं, जप के साथ मोबाइल पर बात भी हो रही है। जप भी हो रहा है, दोनों हाथ व्यस्त हैं। यह सही तरीका नहीं है। कहते हैं कि जप के समय बगल में ही मोबाइल रखना यह ग्यारहवां नाम अपराध है। दस नाम अपराध तो आप जानते ही हो। जब से संसार में मोबाइल ने अवतार लिया तब से हम सभी से एक और अपराध होने लगा। हम इस मोबाइल का प्रयोग करते रहते हैं और सारी दुनिया से निरन्तर संपर्क बनाए रखते हैं जिसके कारण हमारा मन विचलित हो जाता है। ध्यानपूर्वक जप करना है, जप के समय और कुछ नहीं करना है, जप ही करना है। इसको हम कहते रहते हैं। यह समय हमारा कृष्ण के साथ का समय होता है। कृष्ण के साथ मुलाकात का समय होता है ‘टाइम विद कृष्ण’ ‘आई हेव अपॉइंटमेंट एट 5:30 ए एम’ आई हैव अप्वाइंटमेंट विद कृष्ण। पहले भी हो सकती है, कृष्ण तो तैयार हैं, वे कभी भी मुलाकात कर सकते हैं। कुछ भक्त तो 3:00 बजे ही जप शुरू करते हैं। कृष्ण तैयार हैं। वे अपने भक्तों से 3:00 बजे मिलते हैं। एनी टाइम ऑफ द डे और नाईट कृष्ण इज अवेलेबल (कृष्ण हर समय उपलब्ध हैं)। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण भगवान का फोन नंबर है। क्या किसी के फ़ोन नम्बर में 16 अंक होते हैं? प्रधानमंत्री के नम्बर में भी नहीं है। ना ही अमेरिका के राष्ट्रपति का 16 डिजिट वाला नंबर है। यह कोई वी. वी. वी.वी.आइ.पी होने चाहिए। इसलिए इनका नंबर 16 डिजिट वाला है। यह हरे कृष्ण महामंत्र यह फोन नंबर है। जब हम फोन करते हैं तब हमारा फोन कृष्ण अटेंड करते हैं? कृष्ण अटेंड द फोन पर्सनली। कृष्ण हमारे फ़ोन को व्यक्तिगत रूप से अटेंड करते हैं। कृष्ण अपने सैक्रेटरी को नहीं कहते कि देख लो कौन है। हम जब कृष्ण को पुकारते हैं या राधे को पुकारते हैं अर्थात जिनको हम पुकार रहे हैं, जिनको हमने फोन किया हैं, वह स्वयं फोन उठाते हैं। यह जो लाइन है, यह हॉट लाइन है। कृष्ण हर समय तैयार रहते हैं। कृष्ण इज रेडी फॉर द कम्युनिकेशन, फॉर द डायलॉग। जब कृष्ण के साथ हम संवाद करते हैं। हम कुछ कर रहे हैं।
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्यति पृच्छति। भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीति-लक्षणम्।।*
( उपदेशामृत श्लोक 4)
अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
हम गुह्ममाख्यति पृच्छति वैष्णवों के साथ भी करते हैं। विष्णु के साथ कर सकते हैं। कृष्ण के साथ भी हम गुह्ममाख्यति पृच्छति कर सकते हैं। हम अपने दिल की बात कृष्ण को सुना सकते हैं।
हम उनसे कुछ गोपनीय बातें भी पूछ सकते हैं। ‘के आमी’, के एम आय, तारे ताप त्रय। जैसे सनातन गोस्वामी भी ….. हमारे अर्जुन भी कई सारे प्रश्न पूछ रहे थे। हम भी प्रश्न पूछ सकते हैं, कृष्ण को कोई रिपोर्टिंग कर सकते हैं या कृष्ण की कोई स्तुति कर सकते हैं। यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहना भी स्तुति ही है लेकिन स्तुति के अंतर्गत हम अन्य कोई स्तुति और कोई गौरव गाथा भी कर सकते हैं। नाम, रूप, गुण, लीला की बातें तो हैं ही। नाम हमें भगवान के रूप तक पहुंचा देता है और उनका रूप , भगवान के गुणों का स्मरण दिलाता है। गुणों से कृष्ण के परिकरों का एसोसिशन होता है। कृष्ण इनसे जुड़े हैं तो फिर लीला.. कृष्ण लीला माखन चोरी… वह समय मक्खन चुराने का है। यहां ब्रज में इस प्रकार का लीला का स्मरण भी होता है। इस समय कृष्ण कहां होंगे? यह दोपहर का समय है। वे राधा कुंड पर होंगे। 8:00 बजे गोचारण के लिए जाते होंगे, हो सकता है आज बद्रिकाश्रम की तरफ गाय चराने जाएं । तब वहां कृष्ण ब्रज मंडल परिक्रमा पार्टी को मिलेंगे। ब्रज मंडल परिक्रमा पार्टी कृष्ण से मिलेगी। इस तरह से यह भी एक स्मरण की पद्धति है। अष्टकालिय लीला के अनुसार इस समय कृष्ण कहां होंगे? या कौन सी लीला सख्य रस भरी लीला मित्रों के साथ या वात्सल्य रस से प्रचुर भरपूर लीला यशोदा नंद बाबा के साथ कर रहे होंगे.. यह मध्यान्ह का समय है या मध्य रात्रि का समय है।
राधा माधव कुंज बिहारी, गोपियों के साथ होंगे। राधा और गोपियों की अनलिमिटेड लीलाएँ है… कि हम चिंतन नहीं कर सकते। यह अष्टसखियां हैं, यह चंद्रावली दल है। यह राधा दल है, गोपियों के भी कितने सारे प्रकार हैं, लेफ्ट विंग गोपी, राइट विंग गोपी। कुछ सखियां हैं, कुछ गोपियाँ हैं, गोपियों में कुछ मञ्जरी नाम का प्रकार है। अगर यदि हम डिटेल में जाए हर व्यक्ति का नाम ही नहीं, सुदेवी या रंगदेवी, इंदुलेखा ऐसे नाम कहते हैं, अष्टसखियों के केवल नाम ही नहीं उन सखियों का अपना व्यक्तित्व, रूप, उनके शरीर के कांति के रंग …किस प्रकार की कौन सी सखी, किस रंग की साड़ी पहनती है? कौन सी सखी कौन सी सेवा करती है? उसका क्या विशिष्टय है? उसका चरित्र कैसा है? उनके पति कौन हैं? उनके माता पिता कौन हैं? यह सारे डिटेल्स उपलब्ध हैं? यह कोई कल्पना तो है नहीं या कोई मनोधर्म तो नहीं है। इन सारे व्यक्तित्वों का अस्तित्व शाश्वत रूप से हैं। कृष्ण के संबंध में तो उनके संबंध की जानकारी कितनी सारी है सो मच इनफॉरमेशन। ऐसी इंफॉर्मेशन( सूचना) जो हमारे जीवन में ट्रांसफॉरमेशन( परिवर्तन) लाए। ऐसी इंफॉर्मेशन उपलब्ध है। रूप गोस्वामी प्रभुपाद ने राधाकृष्ण गणोंदेश दीपिका नामक ग्रंथ लिखा है राधाकृष्ण गणोंदेश दीपिका। वे दीपक लेकर दिखा रहे हैं जैसे हम कहते हैं कुछ थोड़ा सा इस पर प्रकाश डालें । रूप गोस्वामी राधा कृष्ण के परिकरों का परिचय देते हैं। जैसे कि राधाकृष्ण गणोंपदेश दीपिका कवि कर्णपुर की रचना है। वे गौरांग महाप्रभु के जो परिकर रहे, उनका परिचय देते हैं। यहां वृंदावन में राधाकृष्ण गणोंपदेश दीपिका और वहां गौरगण। आप आराम से जप के समय इसका स्मरण कर सकते हो। अपने माइंड को व्यस्त रख सकते हैं।
क्योंकि
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्रे्चवलक्षणा। क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मयेअ्धीतमुत्तमम्।।*
( श्रीमद भागवतम ७.५.२३-२४)
अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप,साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान के चरण कमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रुप में मानना और उन्हें अपना सर्वस्व न्यौछावर करना (अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति के ये 9 विधियां स्वीकार की गई हैं जिस किसी ने इन 9 विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
श्रवण कीर्तन का फल स्मरण है। कई सारे विषय या व्यक्तित्व या पर्सनालिटी नाम, रूप, गुण, लीला यह सब स्मरणीय है। स्मरण करने योग्य हैं। प्रातः स्मरणीय, मध्यान्ह स्मरणीय, साय:काल स्मरणीय, अष्ट काल स्मरणीय जितना हम अधिक अधिक सुनते, पढ़ते भी हैं, सत्संगों में नित्यम भागवत सेवया करते हैं।
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।*
( श्रीमद भागवतम 1.2.18)
अर्थ:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से ह्रदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रंशसा दिव्य गीतों से की जाती है।
गीता पढ़ते हैं, भागवत पढ़ते हैं,
गीता भागवत करति श्रवण अखंड चिंतन विठु… तुकाराम महाराज ने कहा आप गीता भागवत का पाठ करो । इससे अखंड चिंतन विठु बाचे.. कृष्ण का चिंतन होगा, स्मरण होगा, गीता भागवत करति श्रवण.. जो भी गीता भागवत को पढ़ेंगे, श्रवण करेंगे , भगवत गीता यथारूप पढ़ेंगे, उनको स्मरण होगा।
इसलिए परंपरा में पढ़ना चाहिए।
*एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: |स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||*
(श्रीमद भगवतगीता ४.२)
अर्थ:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
यदि आपने मायावाद भाष्य सुना तो सर्वनाश हो गया। इसलिए सावधान।
*जीवेर निस्तार लागि’ सूत्र कैल व्यास।मायावादि भाष्य शुनिले हय सर्वनाश।।*( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 6.169)
अर्थ:- श्रील व्यासदेव ने बद्धजीवों के उद्धार हेतु वेदांत दर्शन प्रस्तुत किया, किन्तु यदि कोई व्यक्ति शंकराचार्य का भाष्य सुनता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है।
श्रील कर्मकांड, ज्ञानकाण्ड, केवल विषेर
भांड भी है। गौड़ीय आचार्यों की जो शिष्य परंपरा है, उन्होंने शास्त्र और सिद्धान्तों को संभाल कर रखा है उसकी रक्षा की है। उसकी यथावत प्रस्तुति करते आए हैं। श्रील प्रभुपाद ने वही किया। वे ग्रंथ कुछ संस्कृत भाषा में थे, बंगला भाषा में थे इसीलिए श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा था- ‘इन इंग्लिश लैंग्वेज’, एक बार इंग्लिश लैंग्वेज में कुछ लिखा जाता है फिर उसका अनुवाद अन्य भाषाओं में भी होता है नहीं तो कैसे संसार भर में पता चलता और चैतन्य महाप्रभु का भी कैसे पता चलता? गीता भागवत का कैसे पता चलता ? कुछ पता तो चल रहा था लेकिन गीता के ४०० से अधिक संस्करण उपलब्ध हैं लेकिन उनमें से किसी एक ने किसी एक को भक्त नहीं बनाया। उनमें कुछ धार्मिकता आ गई। कुछ कुछ हुआ लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि
अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||* (श्रीमद भगवतगीता १८. ७३)
अर्थ:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
जैसे अर्जुन ने भगवत गीता सुनने के उपरांत कहा ‘करिष्ये वचनं तव’ मैं तैयार हूं मैं आपके आदेश का पालन करने के लिए तैयार हूं। योर विश इज माय कमांड। ये जैसे परिवर्तन, क्रांति हुई अर्थात जैसी अर्जुन में क्रांति हुई । 45 मिनट पहले अर्जुन डांवाडोल चल रहे थे, संभ्रमित थे किंतु जब भगवत गीता सुनी तो यह न्यू ओरिजिनल… उनकी कृष्ण भावना पुन: स्थापित हुई।
ऐसा नहीं हो रहा था, कई सारे संस्करण पढ़े तो जा रहे थे अंग्रेजी भाषा में और संसार की कई सारी भाषाओं में लेकिन जब भगवत गीता यथारूप परंपरा में भागवतम, चैतन्य चरितामृत प्रस्तुत हुई तब से यह दुनिया सत्य को जान रही है। नहीं तो सत्य को आच्छादित किया जा रहा था। हरि! हरि ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप काल के प्रभाव से कुछ बदलाव, कुछ बिगाड़ आ जाता है। उससे बचने के लिए श्रील प्रभुपाद ने ग्रंथ भी प्रस्तुत किए हैं। उसको पढ़कर हमें जप के समय स्मरण कर सकते हैं । पढ़ने के पश्चात हमें स्मरण करने के लिए कई विषय मिलेंगे। पढ़े हुए, सुने हुए विषय का हम स्मरण चिंतन कर सकते हैं। ध्यान कर सकते हैं, यह भी मंत्र मेडिटेशन है। ठीक है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
आप यह संदेश परंपरा में सुन रहे हो। आप परंपरा के साथ जुड़े हो, आप परंपरा के हिस्सा हो। आप का उत्तरदायित्व है- इसको खिचड़ी नहीं बनाना। शुद्धता को मेंटेन करना है। ‘प्यूरिटी इज द फोर्स’
*कलि कालेर धर्म कृष्ण नाम संकीर्तन।कृष्ण शक्ति बिना नहे तार प्रवर्तन।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत ७.११)
अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
आपकी भक्ति की शक्ति से फिर आपको सुनने वाले प्रभावित होंगे। फिर उनमें परिवर्तन होगा। फिर वह सही पटरी पर बैक ऑन द ट्रैक थें प्रोसीड। इस परंपरा के साथ जुड़ने से कुछ उत्तरदायित्व आपके भी बन जाते हैं। इस कृष्ण भावना को आप समझ रहे हो, इसको दूसरों को समझाना भी है व मूलरूप से कृष्ण को औरों के साथ शेयर करना है। यह करने का समय है। सब समय होता ही है लेकिन यह दामोदर मास में यह सीजन है। स्पेशल टाइम कहो। फेवरेबल टाइम। अनुकूल समय है।
इसका फायदा उठाइए। आप कृष्ण भावनामृत का अभ्यास करते हो तब भगवान प्रसन्न होते हैं। किंतु जब आप अभ्यास के साथ उसका प्रचार करते हो ( वैसे आप स्वयं भी साधक बने हो, साधना कर रहे हो) तब आप औरों से साधना करवाते हो अथवा औरों को प्रेरित करते हो और वे भक्ति करने लगते हैं। यह जब भगवान देखते हैं कि आप भी भक्ति कर रहे हो और आप औरों से करवा रहे हो। कृष्ण इज मोर पलिजड (कृष्ण आप से अधिक प्रसन्न होंगे) आप को बोनस मिलेगा। ऐसा सेल चल रहा है, दामोदर मास में महासेल चल रहा है।
शेयर कृष्ण कृष्ण कॉन्शसनेस विद अदर एंड मेक कृष्ण हैप्पी। मे कृष्ण शावर अनलिमिटेड ब्लेसिंग ऑन यू (कृष्ण भावनामृत को दूसरों के साथ बांटो इससे कृष्ण तुमसे और अधिक प्रसन्न होंगे। भगवान तुम पर अपनी असीमित कृपा बनाए रखे)।
ओके हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
29 अक्टूबर 2021,
वृंदावन धाम.
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्तवृंद।। 925 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। बहुलाष्टमी महोत्सव की जय!
वैसे गौडिया वैष्णव यह महोत्सव आज का जो महोत्सव है, उसका नाम राधाकुंड आविर्भाव महोत्सव। गौडिया वैष्णव वह महोत्सव आज मना रहे हैं, हमारे वैष्णव कैलेंडर अनुसार। किंतु राधाकुंड के निवासी ब्रजवासी तो कल ही मनाएं। मैं गया था ब्रजमंडल परिक्रमा में। गुरुमहाराज कांफ्रेंस में एक भक्त को संबोधित करते हुए, आप तो नहीं गए, अमेरिका में जा कर बैठे हो।
हरि हरि, यथा राधाप्रिया विष्णुः तस्य कुंडम प्रियं ततः चैतन्य चरितामृत में उल्लेख आता है विष्णु को, कृष्ण को, यथा राधा प्रिया जितनी राधा प्रिया है, कृष्ण को उतना ही प्रिय है तस्य कुंडम। तथा वैसा ही उतना ही प्रिय है कृष्ण को राधाकुंड। राधा भी प्रिय है और राधा का कुंडा भी प्रिय है। राधाकुंड कितना प्रिय है, कृष्ण को जितनी राधा प्रिय है, यथा राधा प्रियः विष्णु ततः कुंडम प्रियम।
राधाकुंड के तट पर ब्रज मंडल परिक्रमा के भक्तों का पड़ाव पिछले 3 दिनों से वह भाग्यवान जीव वहां बड़े आनंद के साथ परिक्रमा कर रहे हैं। वह आनंद ले रहे हैं। हरि हरि, उनसे जब मिल रहा था तो तब या वह मुझसे मिल रहे थे या परिक्रमा के व्यवस्थापक कुछ परिक्रमा के भक्तों का परिचय भी दे रहे थे। तो हमने उस बात का स्मरण किया। कैसे 500 वर्ष पूर्व वह परिक्रमा हुई थी या अनेक हुई थी। उसमें से एक परिक्रमा का मैं स्मरण कर रहा था। जिसका उल्लेख भक्तिरत्नाकर में हुआ है। जिस के संबंध में कुछ दिन पहले हमने बताया भी था। राघव गोस्वामी परिक्रमा में ले गए श्रीनिवासाचार्य और नरोत्तम दास ठाकुर को। तो वह वह राघव गोस्वामी परिक्रमा करते करते मधुबनसे, तालवनसे, बहुला वन से, कुमोद वनसे, वृंदावन में प्रवेश किए और राधाकुंड के तट पर आए। राघव गोस्वामी ने उनके पदयात्रियों का, उनके परिक्रमा में जो जुड़े थे उनका परिचय रघुनाथ दास गोस्वामी जी से कराया। हरि हरि, कल तो कुछ परिक्रमा के भक्तों का मेरे साथ मुझे परिचय करा रहे थे इष्टदेव प्रभु ब्रजभूमि प्रभु। और मुझे स्मरण आया कि कैसे हैं 500 वर्ष पूर्व ऐसा ही प्रसंग थोड़ा भिन्न होगा वैसा ही नहीं कह सकते, लेकिन कुछ तो साम्य है। रघुनाथ दास गोस्वामी उस समय विद्यमान थे राधाकुंड के तट पर ही रहते थे। रघुनाथ दास गोस्वामी की जय! इन सभी ने वैसे रघुनाथ दास गोस्वामी को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। रघुनाथ दास गोस्वामी वृद्ध थे। तो भी वहां उठकर खड़े हुए और इन परिक्रमा के भक्तों को आलिंगन दिए।
उनका स्वागत किया और आलिंगन दिया। इतने में कृष्णदास कविराज गोस्वामी वहां पहुंच गए। उन दिनों में हमारे कई सारे गौड़िय वैष्णव आचार्य षड गोस्वामी वृंद राधाकुंड के तट पर निवास, अपनी साधना अपनी भक्तिभजन राधाकृष्ण पदारविंदा भजनेन मत्तालिको आनंद मस्त थे राधाकृष्ण के भजन में। हरि हरि, संख्यापूर्वक नाम गान नतीहीइ और संख्या पूर्वक हम सभी के समक्ष आदर्श रखने हेतु संख्यापूर्वक नाम गान, नाम गान जप तप परिक्रमा, गोवर्धन की परिक्रमा में प्रतिदिन करते। और ग्रंथों की रचना हो रही थी, कृष्णदास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरितामृत लिख रहे थे। राधाकुंड के तट पर वैसे हमारे इस्कॉन ब्रजमंडल परिक्रमा के भक्त सारे स्थान देख कर आए ही थे। रघुनाथ दास गोस्वामी के समाधि पर पहुंचे थे। और कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जी कुटिया में चैतन्य चरितामृत लिखे उसको भी देखे देखे थे। हरि हरि, और जहां पर राधाकुंड के तट पर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर और भक्तिविनोद ठाकुर की भी पुष्प समाधिया है। और वह दोनों रहे हैं जब वे आए थे राधा कुंड राधाकुंड आए थे, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर में उनके 64 मठों में से 1 मठ की स्थापना राधाकुंड में किए थे। और राधा कुंड के तट पर ही श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर अभय बाबू को भविष्य में होने वाले, अभयचरणरविंद भक्तिवेदांत श्रील प्रभुपाद को आदेश दिए थे, “अगर आपको कभी धनराशि प्राप्त होती है उस धन का उपयोग करो ग्रंथ को छापने में ग्रंथ छपने के लिए धनराशि का उपयोग करो” यह महत्वपूर्ण आदेश दीया राधाकुंड के तट पर ही।
हरि हरि, यह सब कई सारी बातें मैं कल भी याद कर रहा था। आज कुछ और बातें याद आ रही है। खासकर उस समय के जो पदयात्री राघव गोस्वामी के पदयात्रा के जो उस समय परिचय दिए, वह स्वयं राघव गोस्वामी परिचय दिए रघुनाथ दास गोस्वामी को। और कैसे स्वागत किया रघुनाथ दास गोस्वामी ने पदयात्रियों का। उनकी सराहना की।शाब्बास आप बहुत अच्छा कर रहे हो परिक्रमा कर रहे हो। हम भी सोच रहे थे, यह जो परिक्रमा में परिक्रमा कर रहे हैं भक्तों उनका स्वागत हमारे पूर्वआचार्य वृंदा श्रील प्रभुपाद उनके ओर से हमने भी शाबासकी दी, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा ऐसे ही करते रहो। ऐसा कुछ प्रोत्साहन हम भी देखकर आए। आने के पहले वृंदावन लौटने के पहले राधाकुंड गए। और राधाकुंड आविर्भाव का समय तो मध्यरात्रि का है। लगभग 6:00 बजे ही वहां पर इतनी भीड़ थी, पचास हजार से एक लाख लोग तो अपना अपना स्थान ग्रहण कर कर वहां पर बैठे थे, राधाकुंड के तट पर। राधाकुंड और श्यामकुंड के तट पर दीपमाला हजारों लाखों दीप जलाए थे। हरि हरि, राधे राधे राधे राधे का जयघोष हो रहा था। सर्वत्र राधे का नाम गूंज रहा था। इतने में एक महाराज राधाकुंड के आविर्भाव की कथा भी सुनाने लगे सबको। हरि हरि, अनुभव कुछ विशेष रहा। इस लोक से परे जिसको कहते है।
इस जगत का अनुभव नहीं था क्योंकि, राधाकुंड इस जगत में नहीं है।
हरि हरि, ऐसा ही कुछ अनुभव इस जगत का नहीं, दूसरे जगत का, वृंदावन का अनुभव। पर तस्मातू भाव अन्य, इस संसार के परे जो जगत हैं वहां की शोभा और वहां का सारा माहौल और फिर उस जल का दर्शन दर्शन ही नहीं स्पर्श भी किए। प्रणाम भी किया। कुछ संकल्प के मंत्र भी, हमारे पुरोहित है वह भी राधारानी के व्यवस्था से 100000 भक्त वहां होंगे लेकिन, हम वहां पहुंचते ही एक विशेष राधाकुंड के ही पुरोहित है। जब भी हम जाते हैं ऐसे ही कुछ अद्भुत घटना घटती आई या योजना बन जाती हैं, हमको वह मिल ही जाते हैं। तो कल भी मिले और फिर उन्होंने सरा विधिवत मंत्रोच्चारण के साथ संकल्प और प्रार्थनाएं करवाई। राधाकुंड के चरणों में और फिर श्यामकुंड गए। हरि हरि, यह राधा कुंड श्यामकुंड का जल यह राधा और कृष्ण का प्रेम ही है। हरि हरि, यह साधारण जल नहीं है। कल वैसे मैं कह भी रहा थें यह साधारण h2o नहीं है। गुरु महाराज कांफ्रेंस में एक भक्त को संबोधित हुए, “आप जानते हो h2o किसको कहते हैं हाइड्रोजन के दो भाग एक भाग ऑक्सीजन का और पोटैशियम परमैंगनेट के एल एम और इनका सहयोग होता है और फिर बन जाता है जल h2o तो वह जल यह जल नहीं है।” राधाकुंड श्यामकुंड का जल संसार के जल जैसा नहीं है। राधाकुंड श्यामकुंड का जल स्वयं राधाकृष्ण ही है।
राधा और कृष्ण के एक दूसरे से जो प्रेम है, प्रेम क्या हम बता रहे थे स्नेह हैं। केवल स्नेह ही नहीं है मान है। केवल मान ही नहीं है राग अनुराग है। अनुराग ही नहीं भाव महाभाव है। यह प्रेम के अलग-अलग स्तर है। उनका एक दूसरे के प्रति जो भाव है राधाभावों महाभाव राधा ठकुरानी वह भाव ही उनका प्रेमभाव ही उस राधाकुंड श्याम कुंड के रूप में विद्यमान है। प्रकट है। जो कल रात्रि को मध्य रात्रि को राधाकुंड और श्यामकुंड का प्राकट्य हुआ। और उसका दर्शन और स्पर्श और प्रणाम करने का सौभाग्य उन्हीं की कृपा से या फिर हम ऐसे वहां स्मरण कर रहे थे श्रील प्रभुपाद के कृपा से संभव हुआ। हरि हरि आज के दिन बहुलाष्टमी जो 49 वर्षों पूर्व वैसे उस समय तो यह राधाकुंड आविर्भाव का महात्म्य हम जानते भी नहीं थे। हम कुछ बच्चे ही थे कच्चे ही थे। और मुंबई से वृंदावन पहुंचे थे। प्रभुपादने उनके कुछ शिष्य को आमंत्रित किया हुआ था। इस्कॉन के पहले कार्तिक व्रत महोत्सव में सम्मिलित होने के लिए। हम भी पहुंचे थे मुंबई से कुछ 10-12 भक्त। हम रेल से मथुरा आए और मथुरा से टांगे में बैठकर, पहला मंदिर हमने जो देखा वृंदावन का पहला मंदिर और वह था राधादामोदर की जय! पहले तो हमने राधादामोदर के दर्शन किए और हमको बताया गया था श्रील प्रभुपाद वह इस क्वार्टर में रहते हैं। हम प्रभुपाद के क्वार्टर में गए वह प्रातकाल का समय था हम सभी ने प्रणाम किया।
नमो विष्णु पादाय कृष्ण प्रेष्ठाय भूतले,
श्रीमते भक्तिवेदांता स्वामिनीइति नामिने।
नमस्ते सरस्वती देवी गौरवाणी प्रचारिणे
निर्विशेष शून्यवादी पाश्चात्य देश तारिणे।।
इस मंत्र का उच्चारण करते हुए प्रणाम करके बैठे। हरि हरि और वैसे यह मेरी पहली मुलाकात या मिलन। इतने निकट से पहली बार प्रभुपाद को मिलने मैं जा रहा था। प्रभुपाद को मिला में हमारा मिलन भी प्रभुपाद को मिला वृंदावन में। उस समय मैं वृंदावन मेरे दीक्षा का पत्र और रिकमेंडेशन लेटर जब दीक्षा होती है तो रिकमेंडेशन लेटर चाहिए यह परंपरा उस समय से ही चल रही है। प्रभुपाद ही ऐसी व्यवस्था किए थे। हमारे मुंबई के अध्यक्ष गिरिराज दास ब्रह्मचारी ने हमको रिकमेंडेशन लेटर दिया था। हमने श्रील प्रभुपाद को लेटर भी दिया।
हरि हरि, और भी बहुत कुछ रहे श्रीला प्रभुपाद के साथ। श्रील प्रभुपाद के साथ पूरे 1 महीने के लिए। शरद पूर्णिमा के दिन श्रील प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक पर गए। राधा दामोदर मंदिर के पास ही जो सेवा कुंज है। सेवा कुंज जिस सेवा कुंज में ऐसे समझ है कि, हर रोज रात्रि को वहां रास क्रीडा होती है या राधा कृष्ण का मिलन होता है। सेवा कुंज में प्रभुपाद वहां अपने शिष्यों को लेकर गए। मॉर्निंग वॉक पर शरद पूर्णिमा के दिन की बात है। हरि हरि, ठीक है, अभी तो सब कुछ नहीं बताएंगे। हम तो प्रभुपाद के सानिध्य लाभ के लिए वृंदावन आए थे किंतु, श्रील प्रभुपाद ने मुझे और एक द्रविड़दास ब्रह्मचारी अमेरिकन भक्त हम दोनों को आगरा भेजे थे, क्योंकि कार्तिक में श्रील प्रभुपाद गोवर्धन पूजा उत्सव मनाना चाहते थे। गोवर्धन पूजा मतलब अन्नकूट अन्न का पहाड़। श्रील प्रभुपाद हम दोनों का आदेश दिए जाओ आगरा के धान बाजार में और वहां से सामग्री लेकर आओ। तो ऐसा ही किया हमने और एक टेंपो भरकर हमने चावल और सूजी और चक्कर गुण गुड तेल और कुछ भी वगैरह भी हो सकता है इत्यादि इत्यादि सामग्री लेकर आए थे।श्रील प्रभुपाद ने पहला आदेश या सेवा हमको दिया। और उनके वाणी का सेवा हुई हम वपु सेवा चाहते थे। प्रभुपाद का नीजी सानिध्य चाहते थे लेकिन प्रभुपाद ने कहा आगरा जाओ तो आदेश का पालन हुआ। और फिर हम लौटे बहुलाष्टमी के पहले ही पहुंच गए। वहां कुछ ही दिन थे चार-पांच दिन। फिर आज के दिन हमारे भाग्य का उदय हुआ या प्रभुपाद कराएं।
हरि हरि, प्रभुपाद हररोज प्रवचन दे रहे थे। भक्तिरसामृत सिंधु पर क्लासेस चल रही थी। कहां क्लासेस होती थी, रूपगोस्वामी प्रभुपाद के समाधि और भजन कुटीर के पास। रूपगोस्वामी जिन्होंने भक्तिरसामृत सिंधु की रचना की है वृंदावन में ही। उसी भक्तिरसामृत सिंधु पर प्रभुपाद कथा करने जा रहे थे। प्रतिदिन कर रहे थे। प्रातकाल में भागवत हम और संध्या के समय भक्तिरसामृत सिंधू भक्तिरसामृत सिंधु वर्ग हररोज। 30 क्लासेस भक्तिरसामृत सिंधुके 30 श्रीमद् भागवत इस प्रकार भी हमें अपना संग भी प्रदान किए श्रील प्रभुपाद। श्रील प्रभुपाद वही रहते थे राधा दामोदर मंदिर में। वह देखकर भी हमको बड़ा अचरज हुआ। प्रभुपाद जिस कमरे में 1965 अमेरिका जाने के पहले ही, इस्कॉन की स्थापना के पहले जिस कमरे में रहते थे। और जिस कमरे का किराया कुछ अभी मुझे ठीक से याद नहीं दो चार रूपये मुझे ठीक से याद नहीं पांच रूपये हर महीने के होते थे।
फर्नीचर नहीं था। श्रील प्रभुपाद अब अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ के संस्थापक आचार्य और उनके फॉलोअर्स, जॉर्ज हैरिसन उन्होंने बहुत बड़ी संपत्ति दान में दी थी लंदन में। अंबरीश प्रभु अल्फेट फोर्ड वे शिष्य बने थे। ऐसे धनाढ्य व्यक्ति शिष्य थे। हरि हरि, और अभी इनके कई हजारों शिष्य थे संसार भर में। वह श्रील प्रभुपाद जब वृंदावन 72 में लौटे कहां रहे, उसी कमरे में रहे जिस कमरे में प्रभुपाद लगभग निर्धन जब थे। विदेश जाने के पहले कुछ ही रुपए का किराया देकर उस कमरे में रहा करते थे। उसी कमरे में श्रील प्रभुपाद फिर से वापस आए। वह देख कर भी मुझे थोड़ा अचरज हुआ लगा और साथ में प्रभावित भी हुआ। प्रभुपाद का जो मूड और मिशन कहो, त्व्यत्वा पु्र्णम अशेष मंडलपति षड गोस्वामी ऐसे थे। त्व्यत्वा पु्र्णम अशेष मंडलपति जय श्री रघुनाथ दास गोस्वामी और कितने धनाढ्य थे। रघुनाथ गोस्वामी सनातन गोस्वामी रूप गोस्वामी इनकी बड़ी बड़ी पदवीया थी वह षड गोस्वामी सब कुछ त्याग कर वृंदावन आए थे। और संसार के वैभव को तुच्छ समझते थे, तुच्छवत। कोपीनवास्थितो षड गोस्वामी वृंद गोस्वामी तो केवल कोपीन पहनते थे और कंधा पर केवल एक कंबल है। और पेड़ के नीचे ही रात्रि का उनका पड़ाव रहता। तो यह षड गोस्वामी जैसे वैराग्य की मूर्ति रहे. वैराग्यवान मैंने प्रभुपाद को देखा उस बैठक में। राधा दामोदर मंदिर में। मैं प्रभावित हुआ था प्रभुपाद के उस आवास निवास की जो इतनी कमियां लगभग सुविधा थी नहीं लेकिन, प्रभुपाद बड़े आनंद के साथ वहां अपना समय बिता रहे थे। उनका आनंद दो इस सुख सुविधा पर निर्भर नहीं रहता। राधा कृष्ण भजन आनंद, राधा कृष्ण के भजन में आनंद श्रीला प्रभुपाद की जय! और हमारे आचार्य वृंद ऐसे हैं। यह उनका वैशिष्ट्य है। ज्ञानवान, वैराग्यवान भक्तिवान पुनः अपने विषय पर आ जाते हैं। आज गोपाष्टमी है।
गोपाष्टमी के दिन रूपगोस्वामी के समाधि और उनके भजन कुटीर राधा दामोदर मंदिर के प्रांगण में दीक्षा समारोह संपन्न हुआ। और श्रील प्रभुपाद संख्या तो ज्यादा नहीं थी। हम लोग कुछ 810 भक्त होंगे। कोई मुंबई से कोई कोलकाता से कोई विदेश के। द्रविड़ दास ब्रह्मचारी मेरे गुरु भ्राता जो मुंबई से मेरे साथ गए थे। उनकी संन्यास दीक्षा भी हुई। द्रविड़ दास ब्रह्मचारी थे तो श्रील प्रभुपाद ने कहा आपका नाम है पंचद्रविड़ स्वामी। द्रविड़ के स्थान उन्हें पंचद्रविड़ और ब्रह्मचारी के स्थान पर स्वामी ऐसा उनका भी नामकरण हुआ। और फिर जिनकी दीक्षा हो रही थी। प्रभुपाद हमारे सामने ही हमारी माला पर जप किया करते थे। आज यहां पर भी दीक्षा होने वाली है कुछ शिष्यों की। तो हम भी उनके माला पर जप कर रहे हैं पहले ही कर रहे हैं 1 सप्ताह पहले या 10 दिन पहले ही, लेकिन प्रभुपाद हमारे सामने मेरी माला पर जप कर रहे थे और मैं बैठा रहा। और जब मेरी माला पर प्रभुपाद जप पूरा किए तो मुझे बुलाए आगे, भक्त रघुनाथ आगे आ जाओ तब मैं भक्त रघुनाथ था। तो साष्टांग दंडवत प्रणाम करके मैं बैठ गया। उसके बाद प्रभुपाद में मेरे हाथ में जप माला दी। उसके पहले मुझसे चार नियम बोलने के लिए कहा। 4 नियम तो हमने कह दिए। मांस भक्षण नहीं, नशा पान नहीं, अवैध स्त्री पुरुष संग नहीं और जुगार नहीं। सारे कार्यक्रम वैसे अंग्रेजी में हुआ करते थे। बहुत सारे प्रोग्राम इंटरनेशनल सोसायटी है तो अधिकतर शब्द नॉन इंडियन हुआ करते थे। 4 नियमों का उल्लेख यह संकल्प मैंने किया। तो फिर श्रील प्रभुपाद मुझे जपमाला दी और कहां 4 नियमों का पालन करना और हर रोज 16 माला का जप करें। और आपका नाम है लोकनाथ।
हरि हरि धन्य हुआ में। मेरा जन्म सार्थक हुआ कि मुझे श्रील प्रभुपादने स्वीकार किया। कृष्णसे तोमार कृष्ण दिते पार, तोमार शकती आंछे। मुझे कृष्णा देने में श्रील प्रभुपाद समर्थ है। और हम चाहते थे श्रील प्रभुपाद हमें कृष्ण दे दे। आमितो कंगाल कृष्ण कृष्ण बोले धाई तब पाछे पाछे ऐसे आचार्य ने इन शब्दों में अपने भाव व्यक्त किए हैं। आपके पीछे पीछे हम दौड़ रहे हैं। हम हैं तो कंगाल। हम तो गरीब हैं। प्रेमधन बिना दरिद्र जीवन चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा। प्रेम धन के बिना जीवन वह दरिद्र जीवन है। हम गरीब बेचारे थे। कंगाल थे। प्रभुपाद दिए यह
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इसी के साथ हो गए धन्य धन्य हो गए। गोलोकेर प्रेमधन हरिनाम संकीर्तन प्राप्त किए।
हरि हरि श्रील प्रभुपाद की जय! बहुलाष्टमी महोत्सव की जय! राधा दामोदर की जय! रूप गोस्वामी प्रभुपाद की जय! कार्तिक महोत्सव की जय! तो इस प्रकार हमारा वृंदावन के साथ हमारा परिचय हुआ 1972 में। और फिर आज के दिन जैसे मैंने पहले भी कहा हमेशा कहते भी रहता हूं। हमारा जन्म हुआ वृंदावन में। या कल ही कह रहे थे इसका संस्मरण हो रहा था। तो आरवडे में तो जन्म कुछ 1949 में हुआ। सांगली जिला महाराष्ट्र इंडिया लेकिन, आज के दिन वह आरवडे का जन्म स्थान था 5 जुलाई 1949। संस्कारात भवेत् द्विज द्विज मतलब दूसरा जन्म। संस्कारों से दूसरा जन्म। वह मेरे लिए आज। यह दीक्षा संस्कार आज संपन्न हुआ और प्रभुपाद ने मुझे आज के दिन वृंदावन में जन्म दीया। तो 49 वर्षों पहले मेरा जन्म हुआ वृंदावन में। मैं उन 49 वर्षों का हूं। 49 वर्षों का हुआ। ओल्ड होना अच्छा है। पता नहीं ओल्ड हुआ कि नहीं एक तो आयु की दृष्टि से ओल्ड होना अच्छा है। लेकिन ज्ञान और भक्ति की प्राप्ति से वैसे ज्ञानवृद्धि वयोवृद्ध ऐसे दो प्रकार से हमारे आयु की गणना होती हैं।
साधारणतः हमें जब पूछा जाता है तुम्हारी आयु क्या है, हम लोग अपनी आयु की गणना के हिसाब से कहते हैं मैं 72 वर्षों का हूं मैं 15 वर्षों का हूं 58 वर्षों का हूं तो यह आयु की दृष्टि से वयोवृद्ध कहते हैं वह मतलब आयु। ज्ञानवृद्ध होना चाहिए। ज्ञानवृध्द श्री शकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को जाने दो बताऊंगा नहीं हमारे पास समय कम है। हर रोज कुछ प्रयास तो चल रहे हैं ज्ञानार्जन भक्तिआर्जन ज्ञानार्जन धनार्जन हरे कृष्ण हरे कृष्ण के का जो धन है उसका अर्जन कर रहे हैं। कितने बुढे हैं या अभी भी कच्चे है या बच्चे हैं। यह आप ही जाने। हमारा प्रयास तो चल रहा है कि हम वृद्ध हो ज्ञानवृद्ध भक्ति वृद्ध या धनवान भी हो।
हरिनाम का धन कमाने का प्रयास हम कह सकते हैं कि प्रभुपाद को जो वचन दिया। यह संकल्प किया हम हर रोज 16 माला का जाप करेंगे। इस आदेश का पालन हमने प्रतिदिन हर वर्ष के 365 दिन और पिछले 49 वर्षों से प्रतिदिन हमने यहां धनार्जन यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।ऋ इस संकल्प को पूरा किए हैं। हम प्रभुपाद को अर्पित कर रहे हैं। उनके प्रसन्नता के लिए। और फिर यस्य प्रसादात भगवत प्रसादो हरि हरि तो हम आज के दिन अपनी कृतज्ञता को व्यक्त करते हैं। प्रभुपाद ने जो उपकार किए हैं मैं ऋणी हूं और रहूंगा। और उनसे इस ऋण से मुक्त होने के लिए क्या किया जाए तो कुछ नहीं किया जा सकता। ऋन से मुक्त होना संभव नहीं है। ऐसे ही श्रील प्रभुपाद कहे एक समय किंतु थोड़ा रुक कर कहे। हां एक बात आप कर सकते हैं। इस ऋण से मुक्त होने के लिए आप एक बात कर सकते हैं। सब ने कहा वह क्या है तो प्रभुपाद ने कहा आप वही करो जैसे मैंने किया है यह बात प्रसिद्ध है श्रील प्रभुपाद कि तुम वैसे ही करो जैसे मैंने किया। इस अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ का जो कार्य है। प्रचार प्रसार का जो कार्य है। श्रीला प्रभुपादने शुरू किया। उसको आगे बढ़ाया। ऐसे करो जैसे मैंने किया। फिर हमारा फर्ज बनता है कि उस कार्य को हम और आगे बढ़ाएं। उसको फैलाए हम कृष्णभावना की स्थापना करें। और यह प्रयास करने से कुछ राहत मिलेगी। कुछ ऋण से मुक्त होंगे तो यह प्रयास हमारी ओर से जारी है। और जारी रहे ऐसे प्रार्थना श्रील प्रभुपाद के चरणों में।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
श्रील प्रभुपाद की जय!
बहुलाष्टमी महोत्सव की जय!
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जप चर्चा
वृंदावन धाम से
28 अक्टूबर 2021
940 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । हरि !
जय राधे , जय कृष्ण , जय वृन्दावन
श्रीगोविन्द , गोपीनाथ , मदन मोहन ॥ 1 ॥
श्यामकुण्ड , राधाकुण्ड , गिरि – गोवर्धन
कालिन्दी यमुना जय , जय महावन ॥ 2 ॥
केशी घाट , वंशीवट , द्वादश कानन
याहा सब लीला कोइलो श्रीनन्दनन्दन ॥ 3 ॥
जय राधे ! जय कृष्ण ! जय पदरेणु ! हरि हरि !! जय राधे, जय कृष्ण, जय वृंदावन । यह गीत है जिसके रचना भी, इसके रचयिता है कृष्ण दास कविराज गोस्वामी । कविराज कवियों में श्रेष्ठ । कृष्ण दास कविराज गोस्वामी । गीत लिखे हैं प्रसिद्ध है । मैं भी गाते रहता हूं । पूरा तो नहीं गाता । आप भी गाया करो । यह राधा कुंड के तट पर यह लिखें यह गीत कृष्ण दास कविराज गोस्वामी । वैसे राधा कुंड के तट पर ही इन्होंने चैतन्य चरितामृत की रचना की । हरि हरि !! “श्याम कुंड राधा कुंड गिरी गोवर्धन”, “कालिन्दी यमुना जय , जय महावन” । इस गीत में श्याम कुंड राधा कुंड, जय गोवर्धन ! तीनों का उल्लेख कर रहे हैं । श्याम कुंड, राधा कुंड, गिरी गोवर्धन । हरि हरि !! जब ये निवास करते थे, तो उस निवास स्थान का भी गुणगान गा रहे हैं । श्याम कुंड की जय ! राधा कुंड की जय ! गिरिराज गोवर्धन की जय ! और फिर उस गीत में, हरि हरि !! केशी घाट , वंशीवट , द्वादश कानन । द्वादश कानोंनो की जय । 12 वनों की जय । जिस 12 वनों , इस कार्तिक मास में इस्कॉन के कुछ भाग्यवंत भक्त परिक्रमा कर रहे हैं उस द्वादश कानन की जहां जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन, तो जय-जय तो कहा जा रहा है । यह जय-जय जोड़ना होगा सभी के साथ । क्योंकि इसमें अलग-अलग स्थानों का या लीलाओं का उल्लेख करते हैं, तो हर एक के साथ फिर जय जोड़ना होगा । द्वादश कानन की जय ! या फिर जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन या कम से कम जय तो कह ही सकते हैं । जब हम सुनेंगे कि किसी धाम का या लीला का तो या कम से कम जय हो, अति प्रशंसनीय । सभी गौरवशाली ऐसे भाव तो उठने चाहिए ही । जय राधे, जय कृष्ण, जय वृंदावन । श्री गोविंद गोपीनाथ मदन मोहन तो राधा कुंड में कृष्ण दास कविराज गोस्वामी रहते थे तो वहां यह गुड़ियों के विग्रह वहां है राधा कुंड में राधा गोविंद देव मंदिर है, राधा मदन मोहन है, राधा गोपीनाथ है । हरि हरि !! हमारे परिक्रमा के भक्त इस समय राधा कुंड में है । ब्रह्मा को भी यह दुर्लभ स्थान या जहां ब्रह्मा भी नहीं पहुंच पाते उनके लिए दुर्लभ है । उसी स्थान पर कुछ भक्त पहुंचे हैं शारीरिक रूप से । हम वहां कुछ मानसिक रूप से पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं उस स्थान का नाम लेके या स्मरण करके मानसिक रूप से । मानसिक रूप से हम अपने आप को पहुंचा सकते हैं अगर हम सुन ही रहे हैं इसी स्थान के संबंध में तो भगवान क लीला या श्रवण कर रहे हैं । हमारे आत्मा भी वहां पहुंच ही जाती है तो हम कहते तो हैं मानसिक परिक्रमा या मानसिक सेवा लेकिन इस आत्मा से ही सेवा होती है । हम तल्लीन होके, उसने लीन होके राधा कुंड में लीन, राधा कुंड के लीला या धाम के संबंध में जब या सुनने में हम लीन हैं तो फिर हमारी आत्मा और कहीं नहीं होती । आपकी आत्मा अगर सुन रही है राधा कुंड के संबंध में, जय राधे ! तो आपकी आत्मा कहीं नहीं होती फिर और किसी देश में और किसी नगर में ग्राम में । नहीं रहती हमारी आत्मा । योग होता है भक्ति योग संबंध स्थापित होता है । उस स्थान के साथ, उस लीला के साथ, उस व्यक्तित्व के साथ जिनके बारे में हम सुन रहे हैं, श्रवणं, कीर्तनं हो रहा है तो फिर स्मरण होता है श्रवण कीर्तन से और फिर हमारी आत्मा, हमारे शरीर जहां भी हो उसी को यह चिंता नहीं है शरीर तो मृत है ही कुछ दिन पहले ही हम कह रहे थे । शरीर हमेशा मृत रहता है या जब आत्मा छोड़ता है शरीर को तब हम कहते हैं यह मृत शरीर है । लेकिन शरीर हमेशा मृत रहता है । शरीर कभी जीवंत नहीं होता है । जीवित आत्मा होता है । हरे कृष्ण ! यह दुर्लभ स्थान, वैसे वृंदावन ही दुर्लभ है । उसमें राधा कुंड प्राप्ति और भी दुर्लभ है । फिर से रूप गोस्वामी उपदेशामृत में यह 90 उपदेश में या श्लोक में कहे हैं कौन सा स्थान कौन से अधिक बेहतर है श्रेष्ठ है तो वे कहते हैं …
वैकुण्ठाज्जनितो वरा मधुपुरी तत्रापि रासोत्सवाद् वृन्दारण्यमुदारपाणिरमणात्तत्रापि गोवर्धनः ।
राधाकुण्डमिहापि गोकुलपतेः प्रेमामृताप्लावनात् कुर्यादस्य विराजतो गिरितटे सेवां विवेकी न कः ॥
( उपदेशामृत श्लोक 9 )
अनुवाद:- मथुरा नामक पवित्र स्थान आध्यात्मिक दृष्टि से वैकुण्ठ से श्रेष्ठ है , क्योंकि भगवान वहाँ प्रकट हुए थे । मथुरा पुरी से श्रेष्ठ वृन्दावन का दिव्य वन है , क्योंकि वहाँ कृष्ण ने रासलीला रचाई थी । वृन्दावन के वन से भी श्रेष्ठ गोवर्धन पर्वत है , क्योंकि इसे श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य हाथ से उठाया था और यह उनकी विविध प्रेममयी लीलाओं का स्थल रहा और इन सबों में परम श्रेष्ठ श्री राधाकुण्ड है , क्योंकि यह गोकुल के स्वामी श्री कृष्ण के अमृतमय प्रेम से आप्लावित रहता है । तब भला ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति होगा , जो गोवर्धन पर्वत की तलहटी पर स्थित इस दिव्य राधाकुण्ड की सेवा करना नहीं चाहेगा ?
वैकुंठ से श्रेष्ठ है मधुपुरी । मथुरा को मधुपुरी भी कहते हैं । मधुपुरि या मथुरा वैकुंठ से क्यों श्रेष्ठ है ? “जनितो” वहां जन्म लिए । मथुरा श्री कृष्ण का जन्म स्थान है । यह बैकुंठ से भी श्रेष्ठ है जहां जन्म लिए । “वैकुण्ठाज्जनितो वरा मधुपुरी” “रासोत्सवाद् वृन्दारण्य” “वृन्दारण्य” मतलब वृंदावन । अरण्य कहो या वन कहो एक ही बात है । “वृन्दारण्य” मतलब वृंदावन । वृंदावन मथुरा से श्रेष्ठ है । क्यों ? “रासोत्सवाद्” वहां रासक्रीडाएं और अन्य क्रीडाएं लीलाएं पूरे द्वादश कानोनो में संपन्न हुई है । इसीलिए मथुरा से श्रेष्ठ है वृंदावन धाम, की जय ! तो यह द्वादश कानन 12 वन मथुरा से श्रेष्ठ है । हरि हरि !! आगे रूप गोस्वामी प्रभुपाद लिखते हैं “मुदारपाणिरमणात्तत्रापि गोवर्धनः” और इन द्वादश कानोनों से 12 वनों में से श्रेष्ठ है, गिरिराज गोवर्धन की जय ! क्यों ? “मुदारपाणिरमणात्त” अपने हाथों से अपने स्वयं के हाथों से इस गोवर्धन को उठाए हैं । इसी के साथ गोवर्धन का सत्कार सम्मान किए हैं और सारे व्रज वासियों को आश्रय दिए हैं । अपना संग दिए हैं एक ही साथ सारे व्रजवासी किसी समय या किसी लीला में सम्मिलित हुए थे तो यह गोवर्धन लीला है, तो 12 वनों में से श्रेष्ठ हुआ है ये गोवर्धन । “राधाकुण्डमिहापि गोकुलपतेः प्रेमामृताप्लावनात्” और गोवर्धन से भी श्रेष्ठ है, राधा कुंड की जय ! जय श्री राधे …श्याम ! उर्वशी राधा का राधा कुंड गोवर्धन से भी श्रेष्ठ है “गोकुलपतेः प्रेमामृताप्लावनात्” वहां यह माधुर्यलीला “परकीया भावे याहा, व्रजेते प्रचार” तो व्रज का क्या वैशिष्ट्य है ? यहां प्रचार है प्राधन्य है “परकीया भाव” । द्वारिका में कृष्ण के विवाह हुए हैं 16,108 और उनके अपनी धर्मपत्नी या है उतनी सारी । लेकिन यहां जो गोपियां हैं राधा रानी के सहित इनके साथ जो भाव है संबंध है वो “परकीया भाव” । उपपति है, तो परकीया भाव का श्रेष्ठत्व है । ऐसे लीला खेले हैं भगवान । हरि हरि !! ऐसे हैं कृष्ण राधा पति हैं, गोपी पति हैं’, राधा वल्लभ । राधा के वल्लभ तो कृष्ण ही हो सकते हैं । गोपियों के वल्लभ कृष्ण ही और अन्य कोई हो ही नहीं सकता । किंतु भगवान यहां ये परकिया भाव का संबंध स्थापित किए हैं । राधा रानी का विवाह और किसी से हुआ है । हरि हरि !! अभिमन्यु के साथ । फिर जावट राधा रानी का ससुराल है और बर्षाणा माईके है और रावल गांव जन्मभूमि है । सूर्योपासना के लिए सूर्य कुंड पहुंच जाती है, तो राधा कुंड पहुंच जाती है मध्यान्ह के समय । यह परकीया भाव लीला खेलने के लिए । “प्रेमामृताप्लावनात्” राधा कुंड प्रेम से भरपूर है यह । वहां प्रेम की बाढ़ आती है और उसी में राधा कृष्ण गोते लगाते हैं या उस राधा कुंड में जल क्रीड़ा भी होती है सचमुच में । अक्सर वहां स्नान करते हैं । राधा कुंड का जो जल है वह प्रेम ही है तो प्रेम के लीला में नहाते हैं राधा कृष्ण और अन्य सारी लीलाएं राधा कुंड के तट पर प्रतिदिन मध्यान्ह के समय आप कृष्ण से मिलना चाहते हो तो मधुवन नहीं जा सकते आप कृष्ण को मिलने के लिए । मधुवन में नहीं मिलेंगे और कहीं नहीं मिलेंगे । कामवन में नहीं मिलेंगे वहां बद्रिकाश्रम है । वृंदावन में वहां नहीं मिलेंगे । केवल राधाकुंड में कृष्ण मिलते हैं मध्यान्ह के समय । अभी-अभी गोचरण लीला खेल रहे थे अपने मित्रों के साथ जैसे ही कुछ ठीक सुबह 10:30 बजे कृष्ण कुछ बहाने बनाते हैं ए! ये गाय कहां है ? दिख नहीं रही है । मैं ढूंढ कर लाता हूं । मित्रों तुम खेलते रहो और कृष्ण, गाय को थोड़े ढूंढना है उनको तो राधा रानी को ढूंढना है, राधा रानी को मिलना है । मित्र जहां भी है गुरचरण लीला वो खेलते हैं, खेलेंगे । वहां कृष्ण पहुंच जाते हैं राधाकुंड के तट पर । 10:30 से लेकर 3:30 बजे तक इसको मध्यान्ह लीला कहते हैं । अष्ट कालीय लीला में से यह जो लीला है मध्यान्ह लीला उसके पहले अपरान्ह । पूर्वरान्ह और अपरान्ह लीला । 10:30 बजे से पहले पूर्वरान्ह और 3:30 बजे के बाद अपरान्ह दो मित्रों के साथ गोचरण लीला का ही यह काल है या यह लीला है पूर्वरान्ह और अपरान्ह वाली, तो कई घंटों का अवधी है । इस समय कृष्ण प्रतिदिन राधा के साथ और फिर असंख्य गोपियों के साथ …”राधा माधव कुंज बिहारी” कुंजू में बिहार करते हैं । राधाकुंड के तट पर और कई सारे कुंज हैं वहां । कुंज है और कुंड है एक तो राधा कुंड है तो अष्ट सखियों के अपने-अपने कुंड है । सुदेवी, रंग देवी, चंपक लता, ललिता, विशाखा, टुंग विद्या इस तरह से । उनके कुंड भी है उनके नाम से कुंज भी है । इन कुंडों में जल क्रीड़ाएं, नौका विहार कुंडों में और कुंजो में कई सारे झूलन यात्रा होती है या यहां तक की रासक्रीडाएं होती हैं । हरि हरि !! एक ही रात यहां सभी ऋतु रहते हैं एक साथ । यह नहीं कि एक के बाद केवल अभी वसंत ऋतु ही । वर्षा ऋतु का अनुभव करने के लिए अब कुछ महीने रुको, नहीं कुछ प्रतीक्षा नहीं । कृष्ण जिस मूड में है तो उस मूड की उस भाव के पुष्टि के लिए सारे ऋतु सब तैयार रहते हैं । कुंज में ही या कहो यह ऋतु है वह ऋतु है उसके अनुसार लीलाएं प्रतिदिन यहां संपन्न होती है । हरि हरि !! और जो माधुर्यलीला सर्वोपरि है । सभी लीलाओं में या सभी रसों में द्वादश रस 7 गोण और 5 प्रधान रसों में फिर शांत से श्रेष्ठ है दास्य, दास्य से श्रेष्ठ है सख्य, सख्य श्रेष्ठ है वात्सल्य, वात्सल्य से श्रेष्ठ है माधुर्य । माधुर्य के ऊपर और कुछ नहीं है । माधुर्य लीला, मधुर लीला, श्रृंगार लीला, रासक्रीडा इत्यादि लीला सर्वोपरि है । हरि हरि !! क्योंकि भक्तों में वैसे राधा रानी ही सर्वोपरि है और उनकी सखियां । यह लीला वैसे राधा कुंड में या राधा कुंड के तट पर कुंडों में कुंजो में प्रतिदिन संपन्न होती है । इसीलिए राधा कुंड की जय और इसीलिए यहां रूप गोस्वामीपाद कह रहे हैं यह राधा कुंड सर्वोपरि है । वैकुंठ से श्रेष्ठ है मथुरा, मथुरा से श्रेष्ठ क्या है ? अभी कागज में देख रही हो, कहां लिखा है ! भूल गई । मथुरा से श्रेष्ठ है 12 वन । 12 वनों में से क्या श्रेष्ठ है अनंग मंजरी ? हां ? मुंडी तो हिला रही हो कुछ बोलो ! ठीक है गोवर्धन, श्रेष्ठ है और गोवर्धन से श्रेष्ठ है कौन सा स्थान ? मनुप्रिया बता सकती है ? गोवर्धन से श्रेष्ठ है, गायत्री कौन ? राधाकुंड की जय ! और फिर राधाकुंड से कोई श्रेष्ठ है तो बोलो । मुंह खोलो । मुंह खोल ही नहीं सकते क्योंकि राधा खून से कोई श्रेष्ठ है नहीं । क्योंकि राधा से कोई श्रेष्ठ नहीं है ।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
( भगवद् गीता 7.7 )
अनुवाद:- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है । जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है ।
ये कृष्ण कहे हैं । मुझसे श्रेष्ठ या मेरे बराबर का या मुझसे श्रेष्ठ और है नहीं इसी प्रकार जब भक्तों की बात आती है या फिर शक्ति की बात आती है ठीक है भगवान शक्तिमान है या भगवान पुरुष है, तो पुरुष की होती है प्रकृति या पुरुष की होती है शक्ति हम भी शक्ति है । कई प्रकार के शक्तियां हैं और राधा रानी भी शक्ति है । आह्लादिनी, आह्लाद देने वाली शक्ति तो राधा रानी पुरुषोत्तम श्री कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति है । प्रकृति है, तो जैसे कृष्ण के साथ ! कृष्ण पुरुष के साथ और किसी पुरुष की साथ तुलना संभव नहीं है । वैसे और भी पुरुष हैं ।
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप माद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनञ्च ।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्ती गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
( ब्रह्म संहिता 5.33 )
अनुवाद:- जो अद्वैत , अच्युत , अनादि , अनन्तरूप , आद्य , पुराण – पुरुष होकर भी सदैव नवयौवन – सम्पन्न सुन्दर पुरुष हैं , जो वेदोंके भी अगम्य हैं , परन्तु शुद्धप्रेमरूप आत्म – भक्तिके द्वारा सुलभ हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ ।
कृष्ण के और कई सारे स्वरूप है, रूप है या अवतार है या विस्तार है ।
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
( श्रीमद् भगवतम् 1.3.28 )
अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
अंश हे भगवान के अंशाश है कृष्ण के । लेकिन “कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्” वैसे ही प्रकृति की दृष्टि से देखा जाए या भक्त की दृष्टि से देखा जाए फिर शक्ति के दृष्टि से देखा जाए तो राधा रानी सर्वोपरि है अतुलनीय तो यह जोड़ी है फिर । इसीलिए जय राधे ! जय कृष्ण ! जय वृंदावन ! कृष्ण के स्तर पर राधा रानी आ सकती है तो राधा रानी अतुलनीय है या फिर यह दोनों जब …
राधा कृष्ण प्रणय – विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद्
एकात्मानावपि भुवि पुरा देह भेदं गतौ तौ ।
चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं
राधा भाव द्युति सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 1.5 )
अनुवाद:- श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं ।
तो फिर उनके प्रणय की “प्रणय – विकृति” प्रणय मतलब प्रेम का एक प्रकार है या फिर शायद आप सुने होंगे नहीं तो प्रेम प्रेम कहते हैं “प्रेमा पुमार्थो महान” जीवन का लक्ष्य है प्रेम प्राप्त करना । पंचम पुरुषार्थ है प्रेम । लेकिन प्रेम से भी और ऊंचे प्रेम गाढतर प्रेम की अवस्थाएं है, प्रेम से भी ऊंचा होता है स्नेह । स्नेह से ऊंचा होता है मान । मान से भी ऊंचा होता है प्रणय । प्रणय से भी ऊंचा होता है भाव और महाभाव और फिर राधा रानी के संबंध में कहा है …
महाभाव-स्वरूपा श्री-राधा-ठाकुराणी ।
सर्व-गुण-खनि कृष्ण-कान्ता-शिरोमणि ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 4.69 )
अनुवाद:- श्री राधा ठाकुराणी महाभाव की मूर्त रूप हैं । वे समस्त सदृणों की खान हैं और भगवान् कृष्ण की सारी प्रियतमाओं में शिरोमणि हैं ।
हमारे जो भाव है उसको कहते हैं भक्ति भाव । लेकिन राधारानी का भाव महाभाव । हरि हरि !! या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर पहुंचे और वहां भावविभोर हुए और फिर सार्वभौम भट्टाचार्य उनको अपने घर ले गए और सब परीक्षा किए, उन्होंने वे समझे कि यह कोई असलि भाव, कोई नाटक या ढोंग करने वाले नहीं थे यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । औरों ने तो पूछा ऐसे कईयों को हमने देखा है । लेकिन सार्वभौम भट्टाचार्य स्वयं पता लगाएं चैतन्य महाप्रभु को अपने घर में लेकर गए और यह असलि भाव उदित हुए हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु में और उन्होंने यह भी एक निष्कर्ष निकाला कि यह भाव वैसे जीवात्मा जब भावभक्ति को प्राप्त करता है तो वैसा वाला ही यह भाग नहीं है चैतन्य महाप्रभु में जो भाव है । यह तो महाभाव है या यह राधारानी का ही भाव है । राधारानी में ही ऐसे भाव संभव है, तो वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य विद्वान थे यह सब भावों के लक्षण और प्रकार यह सब जानते थे तो उन्होंने मूल्यांकन किया कहो या परीक्षा की और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और इनके भाव ये तो जीव में जैसा भाव होता हैं, जीवात्मा इन भाव भक्ति को प्राप्त करता है और उसका दर्शन होता है । लेकिन यह भाव तो महाभाव है तो उसी के साथ उन्होंने यह भी वैसे सिद्ध करके दिखाया सुनाया की “श्रीकृष्ण चैतन्य राधा-कृष्ण नाहीं अन्य” चैतन्य महाप्रभु कृष्ण और राधा है । “राधा भाव द्युति सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम्” मैं नमस्कार करता हूं उस स्वरूप का उस रूप का “राधा भाव द्युति सुवलितं” जिस रूप में, चैतन्य महाप्रभु के रूप में उसमें राधा भी है, राधा का भाव है “राधा भाव द्युति” भाव है और द्युति है । द्युति मतलब कांति । इसीलिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गौरांग है क्योंकि राधारानी का रंग को अपनाएं हैं और राधारानी के भाव भी है इनमें । राधा रानी ही है । राधा और कृष्ण, “श्रीकृष्ण चैतन्य राधा-कृष्ण नाहीं अन्य” और “राधा कृष्ण प्रणय – विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद्” तो राधा और कृष्ण के बीच में मध्य में परस्पर जो भावों का मिलन और हरि हरि !! और जो प्रदर्शन होता है वे भाव उसको प्रेम कहा है ये प्रेम है । यह राधा कृष्ण प्रेम है । राधा का प्रेम कृष्ण से, कृष्ण का प्रेम राधा से है । वैसे हमारा भी है कृष्ण से प्रेम और हमारे साथ भी । हमसे भी कृष्ण प्रेम करते हैं किंतु राधा और कृष्ण के मध्य का जो प्रेम है एक ही सेट है वैसा । एक ही जोड़ी है कृष्ण और राधा और फिर गोपियां कुछ पास में आ जाती है । यह सब “राधा कृष्ण प्रणय – विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद्” यह सब राधाकुंड में होता है और वनों में भी इतना संभव नहीं है तो और वनों में फिर सख्य रस है मित्रों के साथ । मैत्री और भाव और प्रेम दोस्ती है या नगरों में ग्रामों में या यशोदा और नंद बाबा या उनके वात्सल्य रस है । लेकिन “परकीया भावे याहा व्रजेते प्रचार” वृंदावन में कृष्ण का शृंगार रस, माधुर्य रस और उसमें भी परकीय रस तो परकिय रस की पराकाष्ठा इस राधाकुंड में होती है ऐसा यह स्थान है । बहुत ही अनोखी सेटिंग है और वहां के सारे व्यवस्था जो वहां है मंच ही है कहो जैसा कि कोई फॉर्म है । जैसा नट उनके लिए मंच की जरूरत होती है ताकि वो अपने कला का प्रदर्शन करें तो उसी प्रकार यह राधाकुंड एक सेट बन जाता है या जब मूवी बनती है तो कोई सेट बनाते हैं । सीन या दृश्य या स्थान तो राधा कुंड ऐसा स्थान है तो वहां ऐसी सारी व्यवस्था है । वहां सारा का वातावरण माहौल कहिए और कहीं नहीं है । मतलब गोलक में भी नहीं है । बैकुंठ में तो है ही नहीं । आपके वोंवेई, बॉलीवुड या कैलिफोर्निया के हॉलीवुड में भी उसको तो भूल ही जाओ और आध्यात्मिक जगत में भी नहीं । वृंदावन में भी स्थान नहीं है । एक ही स्थान है ऐसा और वो है, राधाकुंड की जय ! और साथ में श्यामकुंड भी है । ऐसे स्थान पहुंचना और हम वहां रह भी सकते हैं 1-2 दिन रात बिता सकते हैं तो फिर क्या कहना । हमारे भाग्य का उदय वहां के जो कंपन है वो हमको हिलाता है फिर डुलाता है फिर नचाता है कुछ जागृत करता है हमारे भाव या हमारे कृष्ण भावना ।
जय राधे , जय कृष्ण , जय वृन्दावन
श्रीगोविन्द , गोपीनाथ , मदन मोहन ॥ 1 ॥
श्यामकुण्ड , राधाकुण्ड , गिरि – गोवर्धन
कालिन्दी यमुना जय , जय महावन ॥ 2 ॥
केशी घाट , वंशीवट , द्वादश कानन
याहा सब लीला कोइलो श्रीनन्दनन्दन ॥ 3 ॥
हरि ! ठीक है । तो परिक्रमा के भक्त राधा कुंड में है ही । कल उन्होंने गोवर्धन परिक्रमा की । आपने भी कि कि नहीं ? ऑनलाइन हां ! ठीक है अच्छा है और अब विषय तो नहीं खोलेंगे लेकिन वैसे राधाकुंड के पंचांग या कैलेंडर के अनुसार राधा कुंड का आविर्भाव आज रात्रि को ही है । हमारे परिक्रमा के भक्तगण वहां पहुंच जाएंगे और आप की ओर से हमारी ओर से वे स्नान करेंगे । वैसे दिन में मैं भी राधा कुंड जा रहा हूं और परिक्रमा के भक्तों को मैं भी मिलके और फिर राधाकुंड, आचमन तो जरूर होगा । दर्शन और प्रणाम करके हम भी आएंगे । वैसे आज का दिन महान है । मतलब कि आज राधाकुंड का आविर्भाव दिवस है । राधाकुंड प्रकट हुआ आज मध्य रात्रि को लेकिन उसके साथ या लीलाएं जुड़ी हुई है दिन में भी पढ़ सकते हो । अरिष्ठा सुर का वध हुआ । हरि हरि !! गौरंग ! तो आपके पास व्रजमंडल दर्शन ग्रंथ होना चाहिए । उसमें भी कुछ तो, पूरे विस्तार में नहीं तो कुछ संक्षिप्त में वर्णन वहां पढ़ ही सकते हो । ये हिंदी में अंग्रेजी में दोनों भाषाओं में । धर्मराज सुन रहे हो ! ठीक है । समय हो चुका है ।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
राधाकुंड श्यामकुंड की जय !
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय !
श्रील प्रभुपाद की जय !
॥ हरे कृष्ण ॥
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*जप चर्चा- 27 -10-2021*
*वृन्दावन धाम से*
हरे कृष्ण
आज 932 स्थानों से भक्त जप में सम्मिलित हैं। वेलकम ईच वन ऑफ यू ! जय गिरिराज धरण की जय ! तो ब्रज मंडल परिक्रमा, परिक्रमा के साथ आप हो। यू आर फॉलोइंग ब्रज मंडल परिक्रमा ? प्रतिदिन आपको पता होना चाहिए कि आज परिक्रमा कहां पहुंची या आज कौन सी यात्रा हो रही है आज कहां पड़ाव है या इस वक्त ब्रजमंडल परिक्रमा कहां होगी , इस वक़्त गोवर्धन की परिक्रमा चल रही है। स्टार्ट एवरी मॉर्निंग या फिर आधी मंगला आरती में ही शुरु कर देते हैं। तुलसी आरती की परिक्रमा के मार्ग पर ही होती है या जाते-जाते गोवर्धन के परिक्रमा मार्ग पर ही करते हैं। कृष्ण बलराम मंदिर से जब परिक्रमा प्रारंभ हुई पदमाली आर यू देयर ? तो आज की कथा में मैं भी दो शब्द कहूंगा लेकिन मेरा विचार है कि हमारे टेंपल डिवोटीस सोलापुर पंढरपुर नागपुर हेयर एंड देयर नोएडा टेंपल डिवोटीस ब्रह्मचारी वे कुछ कथा करें।
आज पदमाली आर यू देयर रेस्पॉन्ड लाइन उप कंमांड , आई विल से फ्यू वर्ड्स थेन फ्यू मिनट्स ईच , गोवर्धन कथा माहात्म्य जो जो मंदिर के भक्त सुन रहे हैं। हर मंदिर से एक एक या दो दो भक्त सुना सकते हैं या कल्पना करो कि आप परिक्रमा के साथ हो और परिक्रमा कर रहे हो और फिर आपको स्फूर्ति आ रही है। यू आर गेटिंग इंस्पायर्ड फॉर दिस एंड डेट। गोवर्धन के संबंध के कई सारे टॉपिक्स हैं और कई सारे दृष्टिकोण हैं लीलाएं हैं महिमा है लीला स्थलियां हैं या कई सारे जिसमें चैतन्य महाप्रभु ने क्यों की गोवर्धन परिक्रमा और माधवेंद्र पुरी परिक्रमा करते थे गोविंद कुंड के तट पर। एक समय जब परिक्रमा कर रहे हैं तब फिर क्या हुआ, उन्हीं के नाम से जतिपुरा नाम का जो गांव आता है तो यह माधवेंद्र पुरी का ही नाम है यति मतलब सन्यासी, तो वे सन्यासी माधवेंद्र पुरी है माधवेंद्र पुरी महाशय की जय ! हमारे संप्रदाय के प्रथम आचार्य गौड़ीय वैष्णव आचार्य एनीवे या सनातन गोस्वामी या ब्रह्म नाथ दास गोस्वामी को 40 वर्ष राधा कुंड के तट पर रहे और इस तरह मैं आप को कह रहा हूं कि कई सारे अनलिमिटेड टॉपिक्स हैं। कई सारे विषय हैं।
चर्चा के विषय हैं कथा के विषय गिरिराज के संबंधित , सो रेज योर हैंड्स, यह सब पदमाली प्रभु भी कह सकते थे किंतु मैं ही सब कह रहा हूं। मंदिर वाले भक्तों ब्रम्ह्चारियों फुल टाइम डेवोटीज़ यदि आप मुझे सुन रहे हो या इस समय हमारे साथ हो या आपका साथ है। ओके अद्वैत आचार्य इज़ वन ऑफ देम , इस तरह और भी तैयार हो जाओ कुछ लीला कथा सुनाओ हम सबको, गिरिराज की प्रसन्नता के लिए हरि हरि ! इस प्रकार कार्तिक में ब्रज मंडल परिक्रमा को आधार बनाते हुए हम ब्रज में वास कर सकते हैं। यह टॉपिक मिल सकता है एक चिंतन का स्मरण का या श्रवण कीर्तन का, परिक्रमा को फॉलो करो ,परिक्रमा का शेड्यूल आपके पास होना चाहिए और वर्चुअल परिक्रमा को देखते रहो , सुनते रहो, ब्रजमंडल दर्शन ग्रंथ को पढ़ते रहो ,पढ़ते हो आप ? एनी बडी रीडिंग?चिंतामणि धाम आर यू रीडिंग? ओके चैतन्य इज़ रीडिंग। उसको पढ़ो विद फैमिली एंड फ्रेंड्स विद मूड , ब्रज मंडल का वृंदावन का, वी हैव गोट योर हैंड्स, तो इन भक्तों को सुनिए उनके साक्षात्कार या उनके अनुभव कहो उनकी कही हुई गौरव गाथा जय गिरिराज !
ओके पदमाली कोऑर्डिनेट देम ठीक है, आप को सुनते सुनते फिर बोलते भी जाना है यह भी सीखना है और फिर मैंने एक दो बार कहा भी था कि बोलने का केवल मैंने ही ठेका नहीं लिया है आपको भी इसीलिए हम सुनाते रहते हैं ताकि आप बोलना प्रारंभ करोगे और ऐसा बोलना प्रारंभ हो करोगे ताकि संसार भर की जो बकबक हम करते ही रहते हैं वह बकबक बंद हो जाएगी वह बकवास की बातें हैं। अतः कृष्ण की बातें कहना सीखो। उसको बोधयन्तः परस्परम् कहा है
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||* ( श्रीमद्भगवद्गीता 10.9)
अनुवाद- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
कृष्ण ने भी कहा है मेरे भक्त क्या करते हैं ? वह बोधयन्तः परस्परम् या रूप गोस्वामी ने क्या कहा,
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैव षडविधम प्रीति- लक्षणं ॥* ( उपदेशामृत-4)
अनुवाद- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना – भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
यह प्रीति का लक्षण है या भक्त क्या करते हैं ? गुह्ममाख्याति पृष्छति , कुछ कहते हैं और पूछते भी हैं सुनते भी हैं तो ठीक है ओवर टू यू ऑल स्पीकर्स।
हरे कृष्ण !
गौर प्रेमानन्दे !
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जप चर्चा
२६ अक्टूबर २०२१
वृंदावन धाम से,
हरे कृष्ण! आज हमारे साथ ९०९ स्थानों से भक्त जप कर रहे है।
*नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ-शरण्याकरौ।*
*राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे-रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ।।*
षड्गोस्वाम्यष्टक! हरि हरि।
तो उसमें से एक ये अष्टक है जो मैंने अभी आपको सुनाया। यह षड गोस्वामी वृंद हमारे आचार्य, आचार्योंकी टीम रहीं। चैतन्य महाप्रभु ने इनको नियूक्त किया हुआ था। दीक्षित और शिक्षित भी किए हुए थे। _डायरेक्ट डिसिपल्स, फॉलोअर्स ऑफ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु_! या रूप गोस्वामी को प्रयागराज में शिक्षा दे दिए। और सनातन गोस्वामी को दो महीने वाराणसी में शिक्षा दे रहे थे, और रघुनाथ गोस्वामी को जग्गनाथपूरीमें अपना संग दिया। और भी जो षड गोस्वामी वृदं है वह चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे। और चैतन्य महाप्रभु ने उनको स्फूर्ति दी, प्रेम किया किया। ताकि वे कृष्णभावना की स्थापना करें। हरि हरि। ये सब लम्बी कहानी है। एक था राजा एक थी रानी वाली कहानी नहीं है। ये सब.. हमारा इतिहास है सब सच है। लेकिन मुझे कहना तो ये था कि, उनमें से जो रूप गोस्वामी है, यह षड गोस्वामी सभी प्रमुख है। हरे कृष्णमूमेंट का, हरे कृष्ण आंदोलन का, यह सब गौडिय वैष्णव पांचसो वर्ष पूर्व अपने जमाने में नेतृत्व कर रहे थे। और इन सबके प्रमुख थे रूप गोस्वामी! हरि हरि।
*श्रीचैतन्यमनोऽभिष्ठं स्थापितं येन भूतले।*
*स्वयं रूप: कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।*
श्री रूप गोस्वामी कहते थे *श्रीचैतन्यमनोऽभिष्ठं स्थापितं येन भूतले।* श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मन अभीष्ट। चैतन्य महाप्रभु का मन क्या है? इसको रूप गोस्वामी समझाते थे। उनके पास महाप्रभू के मन और हृदय को जानने का हक था। चैतन्य महाप्रभु के क्या क्या विचार हैं, क्या क्या इच्छा है, क्या दृष्टिकोण है? इसको भलि भांति जानने वाले थे रूप गोस्वामी! और *स्थापितं येन भूतले* वो चैतन्य महाप्रभु को यानी भगवान को जानकर ही यानी कृष्ण क्या सोचते है, कृष्ण की क्या इच्छा हैं, कृष्ण का क्या विचार हैं? मतलब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का क्या विचार है वह वे जान पाते थे। हरि हरि। ऐसी गुणवत्ता, ऐसी ख्याति, ऐसा वैशिष्ट्य था रूप गोस्वामी का! रूप गोस्वामी के हम सभी अनुयायी है इसीलिए हम सब रूपानुग कहलाते है! क्या कहलाते है? हम सब कौन है?कौन है हम ? “रूपानुग!”। रूप अनुग। हरि हरि। तो रूप गोस्वामी वृन्दावन में रहे। हम भी वृन्दावन में हैं। रूप गोस्वामी वृन्दावन में रहे। षड गोस्वामी वृन्दावन में रहे। और उन्होंने सभीने मिलकर चैतन्य महाप्रभु के मन अभीष्ट या मनोकामना को पूरा किया। हरि हरि। और वृन्दावन के गौरव की पुनःस्थापना की। उनको विशेष आदेश थे। तो वह रूप गोस्वामी, उन्होंने लिखा भी। उपदेशामृत का भी बता रहे थे। बोहोत सारे ग्रंथ लिखे है। बोहोत सारे शास्त्रों के लेखक रहे। उसमेसे श्रील प्रभुपाद भक्तिरसामृतसिंधु, उपदेशामृतु यह रूप गोस्वामी के कम से कम ये दो ग्रंथों का श्रील प्रभुपाद ने हम संसार भर के साधकों के लाभ के लिए भाषान्तर किया, उसको प्रस्तुत किया है। तो वे रूप गोस्वामी के उपदेशामृतं आप पढ़िए! वैसे जब आप भक्तिशास्त्री कोर्स करते हैं उसमे श्रील प्रभुपाद भी कहते है, चार ग्रंथ पर्याप्त हे। भक्ति शास्त्री कोर्स के लिए चार ग्रंथ का अध्ययन। उसमें है, उपदेशामृत, भक्तिरसामृतसिंधु और इशोपशिनद! एक ही उपनिषद् का प्रभुपाद अनुवाद किए। वैसे उपनिषद तो १०८ है..और भी है। ईशा वास्यम जगत सर्वम यह जो उपनिषद है, ईशावास्यम..यह पहला श्लोक है, तो उस उपनिषद का नाम हुआ ईशोपनिषद! यह तीसरा ग्रंथ है। और चौथा है भगवतगीता! इसका अध्ययन होता है। यह सब हमे अध्ययन करना चाहिए।और फिर हम जो यह रूप गोस्वामी का स्मरण कर रहे है, उपदेशामृत लेके बैठे है, और मैं स्वयं भी ये उपदेशामृत वृन्दावन में पढ़ रहा हु! इसमें ग्यारह उपदेश है।या मुख्य ग्यारह उपदेश उन्होंने दिए है। कहना तो कठिन है , ग्यारह कहना, ग्यारह श्लोक है लेकिन उसी के साथ कई सारे उपदेश के वचन भी आते है!
*वाचो वेगं मनसः वेगं क्रोधवेगं जिह्वावेगमुदरोपस्थवेगम् ।*
*एतान् वेगान् यो विषहेत धीरः सर्वामपीमां पृथ्वीं स शिष्यात्।।*
(उपदेशामृत १)
यह सुरवात है, उसके बाद आता है,
*उत्साहात् निश्चयात् धैर्यात् तत्-तत् कर्म प्रवर्तनात्* (श्री उपदेशामृत श्लोक -३)
*ददाति प्रतिगृह्याती…* यह और एक हुआ। यह एक विशेष उपदेश अमृत का समूह है। और उसमें चौथा है,क्या नहीं करना चाहिए! क्या नहीं करना चाहिए? वैसे में जो सोच रहा था वो चौथा नहीं है! अत्याहार।
*अत्याहार: प्रयासश् च प्रजल्पो नियमाग्रहl*
*लौल्यम् जन-संगस् च षडभीर भक्तिर विनश्यति।।*
(उपदेशामृत २)
प्रथम चार जो उपदेश आमृत या उपदेश के वचन है,या और भी विशेष है। यहांसे हमारे आध्यात्मिक जीवन की शुरुवात होती है। कई विधि निषेधोका उल्लेख किए ही इन चार उपदेशोंके वचनको…तो यह सब हमको पढ़ना चाहिए, सीखना चाहिए! इसपे अमल करना चाहिए। ग्रंथ ही आधार है! हमारे जीवन आधार ये ग्रंथ होने चाहिए। हैं इन ग्रांथोसे उपदेश लेना है। हरि हरि। राजनेताओंसे, अभिनेताओंसे या शास्त्रज्ञ से या समाजसुधारकोंसे हमे कुछ ज्यादा सीखना, समझना और उनसे स्फूर्ति प्राप्त करना नही चहिए। हम तो रूपानुगा भक्त है।या रागनुगा।तो सावधान! अगर हम ये पढ़ेंगे नहि इन शास्त्रों का अध्ययन नहीं करेंगे तो फिर हम ये संसार या, माया या मायावी लोग हमाको नचाएंगे।उनके हात की हम कटपुतली बनेंगे।या फिर कृष्ण कहे ही है,
*प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।*
*अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।*
भगवतगीता 3.27
तीन गुणोंका प्रभाव हमेशा बना रहेगा! सत्वगुण, राजगुण, तमगुण का प्रभाव हमपे बना रहेगा,और वे प्रकृति के तीन गुण हमको व्यस्त रखेंगे। *प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।* प्रकृतिके ये जो लोग है जनसाधारण लोग है,उनके जो सारे कार्य कलाप है। वह तीन गुण करवाते है।तीन गुण इनको व्यस्त रखते है। उनके अलग अलग लक्षण भी होते है।ये सत्वगुनी है,ये तमोगुणी है,ये रजोगुणी है।उनके कार्य कालापोंसे पता चल जाता है। हरि हरि। और फिर ऐसे लोगोंको कृष्ण कहे “ये मूढ़ है,ये मूर्ख है! *प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्म* गुणोद्वारा.. गुणाभ्याम वैसे। गुनः गुणाभ्यम गुनैह:।तीन गुणोद्वारा।कार्य करनेवालों को कृष्ण कहे , *अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते* कर्ता इति मन्यते।उनकी मान्यता है,की कर्ता वो है।मैं कर्ता हूं। मैं करूंगा।अरे तुम क्या करोगे!तुमसे करवाया जा रहा है। उठो जागो समझो! तुम कुछ नही कर रहे तुमसे करवाया जा रहा है। ये तीन गुण तुमको व्यस्त रख रहे है।तो भी मैं कर्ता हू।कर्ता इति अहम मन्यते।कर्ता मैं हूं ऐसा मानता है।तो कृष्ण कहते है, *अहङ्कारविमूढात्मा* और मूढ़ हो मूढ़। गधे हो। हरि हरि। गधे का वध किए बलराम तालवन में।कल तालवन में परिक्रमा थी तो तालवनमें धेनुकासुर का वध बलराम किए। तो बलराम आदिगुरु है। उन्होने धेनुकासूर का, गधे का वध किया। हमको भी प्रार्थना करनी चाहिए की, हम भी जो गधे है, गढ़त्व है, गधा पन जो है उसका वध गुरू ही करते है, भगवान की ओर से! बलराम ने ये लीला खेली, गधे का वध किया।
ताकि फिर वहा कृष्ण के मित्र वहांके फल चख सके, तालवृक्षके ताल फल। हरि हरि।
तो गाढ़ा बोहोत काम करता है। _वर्किंग लाइक डोंकी_ ऐसा कहा जाता है। धोबी गधे के पीठ पर इतना सारा बंडल रखता है उसको गधा ढोंता रेहेता है। ताकि अंत में कुछ थोडा घास प्राप्त हो सके। इसकी आशा से इतना सारा बोझ वो उठाता रेहेता है। और वो बोझ उठता रहे , ढोंता रहे इसीलिए कभी कभी चालाख धोबी क्या करता है? गाजर बांध देता है। डंडिमे और डंडी बांध देता है उसके सिर के ऊपर। गर्दन के ऊपर डंडी और डंडी के ऊपर गाजर। कैरट..। और ऐसा जब चलता है तो वो गाजर उसके मुख पे आता तो है लेकिन मुख तक नहीं पोहचता है।वो सोचता हैं कि वो खाने ही वाला है इतने में ही पुनः वो गाजर दूसरी ओर जाता है। पेंडुलम की तरह।और आगे चलता है तो पुनः वो गाजर ऊपर की ओर जाता है। ऐसा चलाता है तो वह गाजर उसके मुख के ओर आता तो है लेकिन वह उसे खा नही सकता। वैसेही जीव आज नहीं तो कल प्राप्त होगा, परसो प्राप्त होगा ही, ये होगा, वो होगा ऐसा सोचता रहता है। कृष्ण आसुरी संप्रदाय का वर्णन जिस अध्याय में किए गए है, वहा भी इतना बताते है की, इतना धन मैंने आज कमाया है, मेरी इतनी सारी योजनाएं है। उससे मैं इतना धन कमाऊंगा, ये होगा, फिर घर बनाऊंगा , ओर ऐसा करते करते ही.. मृत्यु सर्व हरस्याहम! भगवान मृत्यु के रुप मे आते है और सब छीन लेते है।ये गधे जैसा ही विचार है। बोझ उठाता रहता है ताकि उसकी सैलरी बढ़े। उसकी सारी आशाएं होती है, महत्वाकांक्षा ए होती है। और गधा गधिनी के पीछे जाता है। _मेल डोंकी रन आफ्टर फीमेल डोंकी_। और ऐसे प्रयास में गधिनी उसके चेहरे पे लाथ मारती है.. फिर भी गधे प्रयास करता ही रेहेता है। संभोग की इच्छा इतनी तीव्र होती है। हरि हरि।
_सो बेसिकली वर्किंग हार्ड एंड देन एस्पायर फॉर सम सेक्स_ खूब कष्ट करो उसके बाद संभोग की इच्छा करो! संभोग यानी काम इच्छा की पूर्ति करो। वो योनि तो अलग है। गधा तो गधा है। पर हम कुछ गधे से अलग थोड़ी ही है! गधे की ही प्रवृत्ति है। इसीलिए मनुष्य को द्विपाद पशु ही कहा गया है। प्रभुपाद कहते थे की, पशु अपने चार पैरोंपे दौड़ते है या फ़िर चलते है। हमने चार पैयोंकी गाड़ी बनाई है। दो पहिए से प्रसन्न नही है तो चार पहिए की गाडी में बैठते है और हम पशु जैसा दौड़ते है। एक स्थान से दूसरा स्थान! यहा कुछ नंगा नाच देखो वहासे दौड़ और शराब जो खराब होती है उसे पियो,और कुछ खाओ और सिगरेट पियो। इसीलिए अपने इंद्रिय तृप्ति लिए एक स्थान से दूसरे स्थान लोग दौड़ते रहते है। _लिव लाइक किंग साइज_ ब्रांड्स देखते है, विज्ञापन देखते है फिर खरीद लेते है। ओर फिर अंत में एंबुलेंस बुलानी पड़ती है। फिर से फोर व्हीलर! इस प्रकार हम दौड़ते रहते है। हम इतना परिश्रम करते है ताकि हम कुछ भोग भोग सके। धेनुकासुर लीला! जो कल जहा परिक्रमा थी तो वह लीला का श्रवण करनी चाहिए। बलराम ने वध किया, धेनुकासुर, गधे का। एसी लीला का जब हम श्रवण करते है तो हम में भी ऐसे कुछ दुर्गुण है, या गढ़त्व है उसका विनाश हो। ऐसे दुर्गुनोंसे, दोषों से हम मुक्त होंगे। इसीलिए वृन्दावन में कृष्ण ने *विनाशय च दृष्किता…* असुरोंका विनाश किया है। कंस के भेजे हुए असुरोंका संहार करते रहे ग्यारह साल तक, सालों तक। और बलराम ने भी कुछ किया प्रलंबासुर, धेनुकासुर।तो ये लीलाएं जरूर पढ़नी चाहिए। कृष्ण बलराम ने जो अलग अलग असुरों का दृष्टोंका सँहार किया वध किया।ये लीलाएं जरूर पढ़नी चाहिए। ये लीलाएं पढ़ानेसे हमारे अंदर अगर ये दुर्गुण है तो उन दुर्गुनोंस हम दूर होंगे। हरि हरि।
तो रुप गोस्वामी हमारे प्रमुख है।और महाजनों ने जो मार्ग बताया है उस मार्ग पे हमे चलना है। ताकि हम तीन गुणोंके प्रभाव से मुक्त होंगे। फिर अहंकार से हम मुक्त होंगे। विमूढ़आत्मा की बात चल रही थी फिर हम गधे नही रहेंगे हम। तीन गुनों द्वारा नचाए नही जाएंगे। भगवान गीता मे १४ अध्याय में कहे है..
*मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।*
*स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥*
(भगवतगीता १४.२६)
भक्तियोगी भव! तो जो भक्तियोगी बनते है। भक्ति कैसी? अव्यभिचारेण। व्यभिचार नही! इन्द्रिय तृप्ति का जीवन! इंद्रिय भोग का जीवन। इन्द्रिय के भोगों को भोगने का जो जीवन जो अव्यभिचारेन है। लेकिन जो अव्यभिचारी है शम, दम, शौच जिसने किए है। जो भक्ति योग में तल्लीन है। तो क्या होता है? तो ऐसा व्यक्ति तीन गुनोंके परेह पोहोचता है। गुणातीत हो जाता है। इसको शुद्ध सत्व स्थिति कहा गया है। एक है तमोगुण, उसके ऊपर रजोगुण, उसके ऊपर सतोगुण, उसके ऊपर का जो स्तर है उसे शुद्ध सत्व कहा गया है।ये तब संभव तब है जब हम अवयभिचारि भक्ति करेंगे। कैसी भक्ती?
*अन्याभिलाषिता शून्यम ज्ञान कर्म आदि अनावृतम आनुकुल्येन कृष्णानुशिलनम स भक्ति उत्तमा:।।*
उत्तम भक्ति करेंगे तो व्यक्ति कृष्णभावना भवित होगा और फिर हम तयार हो जाते है।हम पात्र हो जाते है और तब हम अधिकारी बन जाते है।
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।*
भगवतगीता 4.9
तब भगवत धाम लौटनेके हम अधिकारी बन जाते है। हरि हरि। तो शास्त्र अध्ययन की बात कर रहे है। श्रील प्रभुपाद के ग्रंथो का अध्ययन करिए। श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ ही आधार हैऔर उससे स्फूर्ति प्राप्त करिए। और षड गोस्वामी वृंदो के विचार भी वहा है। महाप्रभुने जो विचार दिए जो, उपदेशामृत का सार हे,
*तन्नामरूपचरितादिसुकिर्तनानु स्मृत्यो: क्रमेण रसना म न सी नियोज्य।*
*तिष्ठन् व्रजे तदनुरागी जनानुगामि कालं नायेदखिल मित्युपदेशसारम्।।*
उपदेशामृत ८
यह श्लोक उपदेश का सार है। भगवान का नाम रुप चरित्र आदि का हम कीर्तन करे। अनुकीर्तन करे। श्रवण करेंगे, कीर्तन करेंगे, स्मरण होगा।इन बातोंको अपनी जिव्हा पर और मन में स्थापित करके, वृन्दावन में रहना चाहिए। मानसिक रूप में वृन्दावन में रहना चाहिए। आप जहां भी हो उस जगह को वृन्दावन बनाओ।और हम कृष्ण की नाम रुप गुण लीला का चिंतन, स्मरण करते रहें। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
वृंदावन धाम से,
25 अक्टूंबर 2021
आज जप चर्चा में 907 भक्त उपस्थित हैं।
जय राधे, जय कृष्ण, जय वृन्दावन।
श्रीगोविन्द, गोपीनाथ, मदन-मोहन॥
ये गौडी़य वैष्णवों के इष्टदेव ही हैं। राधामदन-मोहन, राधागोविन्द देव, राधागोपीनाथ। हरि हरि!
गौरांग! जय श्री राधे…श्याम!
या जब गौरांग भी कहते हैं तो राधा तो आ ही जाती हैं।गौरांग महाप्रभु राधारानी ही हैं।फिर गौरांग कहो या श्रीराधे कहो एक ही बात हैं,लगभग एक ही बात हैं।हरि हरि!
उन गौरांग को भी वृंदावन ही प्रिय था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जहा भी रहते हैं,सदैव वृंदावन का स्मरण करते और वृंदावन जाना पसंद करते हैं।
वृंदावन धाम कि जय…!
ओजस्वनी गोपी भी वृंदावन जाना चाहती हैं।हम सभी के लिए वही लक्ष्य हैं। वैसे भी हम वृंदावन मायापुर के माध्यम से जाते हैं,यही हैं औदार्य धाम,और यही हमको माधुर्य धाम तक पहुंचाता हैं।हरि हरि!
दोनो एक ही हैं,दोनों गोलोक ही हैं।
“गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।”
(ब्रम्ह संहिता 5.43)
अनुवाद: -जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुंठ लोक (हरिधाम), महेश लोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों में विभिन्न स्वामियों को यथा योग्य अधिकार प्रदान किया हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
“गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य”
गोलोक में ही वृंदावन हैं,गोलोक में ही नवद्वीप हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।श्री कृष्ण उदार बनते हैं,गौरांग बनते हैं और प्रेम दाता बनते हैं।
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन,
रति ना जन्मिल केने ताय।
संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले,
जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥
(हरि हरि बिफले.. नरोत्तम दास ठाकुर लिखित)
अनुवाद:-गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता हैं,और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
गोरांग हमको संकीर्तन देते हैं,हमको हरि नाम धन देते हैं।हरि नाम धन बिना यह जीवन बेकार हैं,दरिद्र जीवन।वह व्यक्ति दरिद्र ही हैं, गरीब ही हैं जिसको यह हरि नाम धन प्राप्त नहीं हुआ हैं।फिर गरीब रहो, मरो, दुखी हो जाओ लेकिन सुखी होना हैं तो धनी होना पड़ेगा, धनवान होना होगा और कौन सा धन सुखी बनाएगा? हरि नाम धन, इसीलिए हम सब लोग प्रात:काल को उठते ही अपना धन अर्जन शुरू करते हैं।आपकी कमाई सुबह 4:00 बजे ब्रह्ममुहूर्त में ही शुरू होती हैं,बाकी लोग तो 10:00 बजे-11:00 बजे दुकान खोलते हैं, फँक्ट्ररी जाते हैं। धन कमाना शुरु करते हैं, लेकिन हरे कृष्ण भक्त बडे चालाक हैं।
“जेई कृष्ण भजे सेई बडा़ चतुर।”
जो कृष्ण को भजता हैं, वही चतुर हैं।आप कृष्ण का भजन और यह हरिनाम लेना प्रारंभ करते हो ओर धन कमाते हो। दरिद्र कौन अमीर कौन इसकी परिभाषा यही हैं। शिक्षाष्टक में यह समझाया हैं। “हरिनाम धन बिना दरीद्र जीवन”
हरि नाम का धन या भक्ति का धन
‘राम नाम के हीरे मोती मैं बिखराऊ गली गली’
यह हरिनाम के हीरे हैं,मोती हैं। इसको कमाते जाईये। इसका फिक्स डिपौजीट और फिर इसके इंटरेस्ट से आपकी इंटरेस्ट भी बढेगी।इंटरेस्ट बढेगी मतलब हरिनाम में रुचि बढेगी और अधिक अधिक डिपोजिट करोगे तो फिर ज्यादा ब्याज,इंटरेस्ट भी आएगा और आप सुखी होओगे। चैंट हरे कृष्ण अँन्ड बी हैप्पी।हैप्पी होने के लिए धनी होना चाहिए। यह दरिद्र जीवन छोड़ दो! इस संसार के अमीर लोग दरिद्र हैं। गरीबी हटाओ। हमारा प्रोग्राम भी वही हैं।गरीबी हटाओ! यह संसार बडा गरीब हैं।टाटाज और बिरलाज और अंबानी और भी बड़े गरीब हैं, गरीब बेचारे! इस संसार के तथाकथित धनी लोग या विदेश के भी धनी लोग।धनी हो जाओ।ये हरि नाम धन हैं।इसे लेलो।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इसको धन कहा हैं गोलोकेर क्या? प्रेमधन।गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन। आप इस तथ्य को समझिए और इस धन को कमाते जाईये। ध्यान पूर्वक इसको डिपोजिट करते जाइये। मेक शोर आपके अकाउंट में इसका डिपोजिट हो। माया के अकाउंट में नाम अपराध करेंगे तो हमारा यह धन माया के अकाउंट में डिपोजिट होंगा। सावधानी पूर्वक,ध्यान पुर्वक प्रभु के नामों को सुनिए।मतलब प्रभुको ही सुनिए। राधा को सुनिए कृष्ण को सुनिए।
श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा । चिन्त्यतां चिन्त्यतां भक्ताश्चैतन्य – चरितामृतम् ॥
(श्री चैतन्य चरितामृत, अन्त लीला 12.1)
अनुवाद: -हे भक्तों , श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य जीवन तथा उनके गुण अत्यन्त सुखपूर्वक नित्य ही सुने , गाये तथा ध्यान किये जाँय ।
“श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा”
इसको सुनो कैसे? सदैव सुनों और सदैव प्रसन्न रहो। ऐसा ही कहा हैं। हरि हरि!
तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु स्मृत्योः क्रमेण रसनामनसी नियोज्य । तिष्ठन् व्रजे तदनुरागि जनानुगामी कालं नयेदखिलमित्युपदेशसारम् ॥
(श्रीउपदेशामृत 8)
अनुवाद : समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय – चौबीसों घण्टे – भगवान् के दिव्य नाम , दिव्य रूप , गुणों तथा नित्य लीलाओं का सुन्दर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने से लगाए , जिससे उसकी जीभ तथा मन क्रमशः व्यस्त रहें । इस तरह उसे व्रज ( गोलोक वृन्दावन धाम ) में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्गदर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए ।मनुष्य को भगवान् के उन प्रिय भक्तों के पदचिह्नों का अनुगमन करना चाहिए,जो उनकी भक्ति में प्रगाढता से अनुरक्त हैं।
“तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु स्मृत्योः क्रमेण रसनामनसी नियोज्य। ”
उपदेशामृत का 8 वा श्लोक
श्रील रुप गोस्वामी भी आपको यही स्मरण दिलाते हैं, इनके कारण हम रुपानुग बन जाते हैं, उनके पदचिह्नो का हमे अनुसरण करना हैं। उन्होंने महत्वपूर्ण उपदेश दिये हैं।11 उपदेश के वचन हैं।प्रभुपाद ने इसको प्रस्तुत किया हैं।उपदेशामृत के साथ भक्तिरसामृत सिंधु यह दोनों ग्रंथ भी श्रील रुप गोस्वामी प्रभुपाद के ही हैं। इस 8 वे उपदेश में रुप गोस्वामी ने “तिष्ठन् व्रजे”हम वृंदावन में रहे या वृंदावन मे रहकर क्या करना चाहिए “तदनुरागि जनानुगामी” वृंदावन के जो अनुरागी भक्त है,वृंदावन,ब्रज के,कृष्ण लीला के समय वाले,महाप्रभु के लीला के समय वाले, ओर भी, हमारे जो पुर्ववर्ती आचार्य हैं। ये सब अनुरागी भक्त हैं।”तदनुरागि जनानुगामी”।जो अनुरागी जन हैं,उनका अनुगमन करते हुए हमे वृंदावन में रहना चाहिए।”तिष्ठन् व्रजे”,”कालं नयेदखिलमित्युपदेशसारम्”।इस प्रकार हमे अपना जीवन बीताना चाहिए, काल को व्यतीत करना चाहिए।नहीं तो व्यय या अपव्यय होता हैं।व्यय मतलब खर्च करना या इनवेस्ट करना होता हैं, अपव्यय मतलब हम अपने काल का दुरूपयोग करते हैं।अपव्यय न करे,व्यय करे,खर्च करे, समय का सदुपयोग करे। ये कैसे किया जा सकता हैं? “कालं नयेद”, “तिष्ठन् व्रजे”वृंदावन में रहकर “तदनुरागि जनानुगामी”और ये करना ही “खिलमित्युपदेशसारम्”, ” सारे उपदेश का सार यही हैं। ऐसा रुप गोस्वामी कह रहे हैं। इस उपदेश का सार यही हैं।इस ग्रंथ का नाम तो उपदेशामृत हैं ही और इस उपदेशामृत का सार “खिलमित्युपदेशसारम्”,”तिष्ठन् व्रजे” वृंदावन में रहो! अपने मन को वृंदावन कि और दौडाओ!
वृंदावन बिहारी लाल कि जय…!
उनके विहार का ध्यान करो, स्मरण करो! उपदेशामृत के प्रारंभ में कहा गया हैं।
“तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु स्मृत्योः क्रमेण रसनामनसी नियोज्य ।”
‘तन्नाम’भगवान का नाम, रूप, गुण लीला धाम में इसका कीर्तन, इसका श्रवण, ‘स्मृत्योः’इसका स्मरण करो।’रसनामनसी’अपनी जिव्हा का उपयोग करो। हरि हरि!
जिव्हा से शुरुआत करो।’नियोज्य’ ऐसा आयोजन या नियोजन बना दो,लेकिन और भी इंद्रिया हैं।
सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्।
हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।।
(श्री चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला19.170)
अनुवाद: – भक्ति का अर्थ है समस्त इंद्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् कि सेवा करता है तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् कि सेवा में लगे रहे ने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं।
‘हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते’ ऐसी भक्ति करो।
ऐसा करते करते आप वृंदावन पहुँच जाओगे, आप का मन वृंदावन पहुँच जाएगा या फिर जहाँ आप हो वृंदावन वहा पहुँच जाएगा। ये दोनों ही बातें संभव हैं।ऐसे करोगे आप, ऐसे श्रवण,कीर्तन, स्मरण करोगे तो आपकी आत्मा वृंदावन पहुँच जाएगी या वृंदावन वहा पहुँच जाएगा जहाँ आप हो।ये दोनों ही बातें संभव हैं।आप जहाँ हो वृंदावन बिहारी लाल जी वहा पहुँच जाएगें।”तिष्ठन् व्रजे” वृंदावन में रहकर ये सब करना हैं और यही है कृष्णभावना। यह विधी हैं और विधी के साथ निषेध भी होते हैं।उनको भी याद रखो कि ये करना हैं, ये नहीं करना हैं। निषिद्ध बातों का सामना करते हुए इनको टालते हुए इन से बचते हुए “तिष्ठन् व्रजे”वृंदावन में रहो और”तदनुरागि जनानुगामी” वहाँ के जो अनुरागी भक्तवृंद हैं, यही रागानुगा भक्त हैं। कहते हैं, हम गौड़ीय वैष्णव जिस भक्ति का अवलंब करते हैं,उसे रागानुग भक्ति कहते हैं।यही हैं, रागमार्ग, रागानुगा भक्ति। तो मन को वृंदावन कि तरफ दौडाओ।”चलो वृंदावन!”, “गो बैक टू होम” यह कार्तिक मास हैं, इसलिए यह सारी बातें कहीं जा रही हैं। इस मास में, वृंदावन मास और राधा दामोदर या यशोदा दामोदर कि आराधना, दीप दान इत्यादि विधीओं को हमको अपनाना हैं। परिक्रमा भी हो रही हैं।
ब्रज मंडल परिक्रमा कि जय..!
आप उनके साथ भी रहो,आपका शरीर तो वहाँ नहीं हैं, लेकिन मन से आप पहुँच सकते हो। आनलाइन परिक्रमा को देखो। उनके साथ रहो तो फिर ऐसे आप कृष्ण के साथ रहोगे या आप वृंदावन में रहोगे ।आपके पास ब्रजमंडल दर्शन नामक ग्रंथ होना चाहिए।भगवान ने मुझसे इसकी रचना करवाई हैं।ब्रज मंडल की 25 बार परिक्रमा करने के उपरांत ब्रजमंडल दर्शन नामक ग्रंथ में मैंनें अपने अनुभव लिखे हैं।आप उसे प्राप्त कर सकते हो,उसमें एक दिन का एक अध्याय हैं।ऐसे 30 अध्याय हैं।पता लगाओ।आज परिक्रमा कहां हैं?आपको पता हैं?आज पांचवा दिन हैं। राधास्मृति को कुछ स्मृति हो रही हैं, कुछ पांच उंगली तो दिखा रही हैं। ठीक है! वह ग्रंथ लेकर बैठी हैं। औरों के पास तो नहीं है या होंगा लेकिन वह दिखा नहीं रहे हैं।उदयपुर वाले हमको भगवान का दर्शन करा रहे हैं,विग्रह कि आराधना भी हो रही हैं। ठीक हैं और कुछ ब्रजमंडल दर्शन ग्रंथों के दर्शन करा रहे हैं।हरि हरि!
इस ग्रंथ का एक अध्याय एक दिन के लिए माया से दुर रखता हैं। यह मंत्र हैं। इस ग्रंथ के 1 अध्याय को पढ़ने से पूरे दिन माया से बच सकते हो। यह 1-1 अध्याय पढ़ोगे तो यह आपको वृंदावन में पहुंचा देगा।आप अपने परिवार के साथ पढ़ सकते हो।परिक्रमा को फॉलो करते रहो,आपको इससे विषय मिलेंगे,सब्जेक्ट मैटर मिलेगा। परिक्रमा आज मधुबन से शांतिकुंड जा रही हैं। मधुबन से वह ताल वन जाएंगे,ताल वन से कुमुदवन जाएंगे और कुमुद वन से आगे बगुला वन की ओर बढ़ेंगे।कुमुद वन और बगुला वन के बॉर्डर में आज पदयात्रा की परिक्रमा का पड़ाव होगा।आज की काफी लंबी यात्रा हैं,सफर हैं, वैसे सफर तो नहीं करेंगे।परिक्रमा के भक्त कभी भी सफर नहीं करते है( यह सफर अंग्रेजी का सफर नही हैं) या फिर कुछ सफरिंग या तकलीफ हैं, भी तो वह परमानंद की प्राप्ति के लिए हैं।कहते हैं फ्रॉम ब्लिस्टर टू ब्लीस, ब्लिस्टर मतलब पहले पैर में छाले पड़ते हैं, बिना जूते चलते हैं, तो पैरों में ब्लिस्टर्स हो जाते हैं, लेकिन वह
ब्लिस्टर्स से बलिस मे परिवर्तित होते हैं।पैर में कभी फोडे आ जाते हैं।कांटे भी हमारे पैर को चुमते हैं।यही तपस्या हैं और तपस्या से क्या होता हैं।ऋषभदेव भगवान ने बताया हैं-
5.5.1
ऋषभ उवाच नार्य देहो देहभाजां नलोके कष्टान्कामानहते विड्भुजा ये ।। तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम् ॥१ ॥ –
भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा – हे पुत्रो , इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई हैं, उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन – रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर – सूकर भी कर लेते हैं । मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने लिए वह अपने को तपस्या में लगाये।ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता हैं और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता हैं ,तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता हैं ,जो भौतिक आनंद से परे हैं और अनवरत चलने वाला हैं।
आपने तो सुना ही होगा कि नो पेन नो गेन।कुछ पाने के लिए आपको कुछ तकलीफ से गुजरना पड़ता हैं।परिक्रमा में कुछ तथाकथित परेशानिया हो सकती हैं,लेकिन यह केवल गेन हैं,यानी पाना ही पाना हैं, कुछ खोने के लिए नहीं हैं।आप कृष्ण भावनाभावित हो कर बहुत कुछ कमाएंगे,वैसे तो कृष्णभावनाभावित हो कर कृष्ण को ही कमाएंगे,यही तपस्या हैं, यह दिव्य तपस्या हैं। वैसे साधना का जीवन तपस्या का जीवन हैं।आप वृंदावन में आकर तपस्या करते हुए ब्रज मंडल परिक्रमा करते हो। आप जहां भी हो वहीं से तपस्या करते हो।प्रातकाल: में ब्रह्म मुहूर्त में उठना भी तपस्या हैं।कई सारी तपस्याएं हैं और यह तपस्या दिव्य हैं और फिर अगर पूछोगे तो बताओ कौन तपस्या नहीं करता?कोई परेशानी नहीं, चिंता नही,हर एक व्यक्ति तपस्या करता हैं। हर व्यक्ति तपस्या करता ही हैं। असुविधा तो होती ही हैं। अब नाम नहीं बताउगा कि किस किस प्रकार की तपस्या होती हैं। आप सब जानते ही हो, लेकिन दिव्य तपस्या करनी चाहिए
BG 9.27
“यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् || २७ ||”
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो |
जो भी खाते हो, जो तपस्या करते हो, जो भी दान देते हो ,यज्ञ करते हो,वह सब मुझे अर्पित करो,भगवान ऐसा कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं।यद् तपसयसि, मेरे लिए तपस्या करो। फालतू में इस संसार का धन कमाने के लिए नहीं।कृष्ण कह रहे हैं कि नहीं नहीं फालतू तपस्या मत करो।फालतु संसार मे धन कमाने के लिए कम तपस्या हैं क्या?कुछ तो कह रहे हैं कि नही नही बहुत तपस्या हैं।तपस्या करो कृष्ण के लिए, हरि प्राप्ति के लिए,तपस्या करो हरि नाम धन प्राप्ति के लिए या कृष्ण स्मरण प्राप्ति के लिए या ब्रज में वास के लिए तपस्या करो। साथ ही साथ आज नरोत्तम दास ठाकुर तिरोभाव तिथि महोत्सव भी हैं। यह कार्तिक मास महोत्सव का महीना हैं और आज श्रील नरोत्तम दास ठाकुर तिरोभाव तिथी महोत्सव हैं। हरि हरि। नरोत्तम दास ठाकुर भी एक समय बृजवासी रहे। उन्होंने वृंदावन में वास किया। वैसे वह थे तो खेचुरी ग्राम के। खिचुरी ग्राम वेस्ट बंगाल इंडिया में हैं, इस्ट बंगाल,जो भी हैं, आज से 500 वर्ष पूर्व उत्तर,दक्षिण दिशा यह सब फर्क नहीं था।यह नरोत्तमदास वहां पद्मावती नामक पवित्र नगरी के तट पर जन्मे हैं।उन्होंने घर बार,धन दौलत में बिल्कुल रुचि नहीं दिखाई। वैसे तो यह राजा के पुत्र थे,लेकिन राजा के पुत्र होते हुए भी पद पदवी में, धन दौलत में इन्होंने बिल्कुल भी रुचि नहीं दिखाई।बचपन से ही वह गौर नित्यानंद से आकृष्त थे।उन्होंने बड़े युक्ति पूर्वक घर को त्यागा।
हरि हरि।जब नरोत्तम दास ठाकुर जन्मे तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अंतर्ध्यान हो चुके थे।उनकी प्रकट लीला का समापन हो चुका था। लेकिन जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे तो वह 1 दिन एक विशेष दिशा में देखकर जोर-जोर से पुकारने लगे।पूरब की ओर देख कर पुकारने लगे।नरोत्तम- नरोत्तम-नरोत्तम, किसी को भी पता नहीं चल रहा था कि यह नरोत्तम कौन हैं और वह किसे पुकार रहे हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नरोत्तम दास ठाकुर के आगमन की घोषणा कर रहे थे।खैर यह नरोत्तम पुन्ह: वृंदावन पहुंच गए। वृंदावन में आकर लोकनाथ गोस्वामी की खूब सेवा कर रहे थे,बल्कि छुप छुप के सेवा कर रहे थे। लोकनाथ स्वामी और किसी से सेवा स्वीकार नहीं करते थे। जीव गोस्वामी नरोत्तम दास ठाकुर के शिक्षा गुरु थे।उस समय बाकी गोस्वामी अंतर्ध्यान हो चुके थे और जीव गोस्वामी का जमाना था। जीव गोस्वामी गोडिय वैष्णवो के रक्षक थे,क्योंकि केवल जीव गोस्वामी ही थे,तो वह कइ जीवो के शिक्षा गुरू थे।
नरोतम दास ठाकुर के भी वह शिक्षा गुरू थे। और उन्हीं से दीक्षा लेना चाहते थे, लेकिन लोकनाथ स्वामी दीक्षा नहीं देना चाहते थे किंतु अंततोगत्वा नरोत्तम दास ठाकुर की सेवा,प्रयास और प्रार्थना और दृढ़ निश्चय का परिणाम यह निकला कि लोकनाथ गोस्वामी ने नरोत्तम दास ठाकुर को अपने शिष्य रूप में स्वीकार किया और लोकनाथ गोस्वामी के वह केवल एक मात्र शिष्य थे और तारों की क्या आवश्यकता हैं,जब चंद्रमा मौजूद हैं। ऐसे विशेष शिष्य थे, यह नरोत्तम दास ठाकुर। “लोकनाथ लोकेर जीवन”यह जो गीत हैं,यह नरोत्तम दास ठाकुर का ही हैं।उन्होंने कई सारी प्रार्थनाएं लिखी हैं।उनकी प्रार्थनाओं का एक संग्रह हैं।श्रील प्रभुपाद ने इस्कॉन के भक्तों को नरोत्तम दास ठाकुर के गीत दिए।श्रील प्रभुपाद गीत गाते थे,किसके?नरोत्तम दास ठाकुर, भक्ति विनोद ठाकुर और कुछ लोचन दास ठाकुर के भी गीत गाते थे। जिन गीतो को गोर किशोर दास बाबा जी महाराज भी पसंद करते थे और वह कभी कभी पूछते कि भगवद् साक्षात्कार में आपकी रुचि हैं?तो वह कहते कि हां हां, मेरी बहुत रुचि हैं।गोर किशोर दास बाबाजी महाराज कहते थे कि अगर आपके पास चवन्नी हैं या अठन्नी हैं,4 आना हैं या 8 आना हैं, एक समय चवन्नी,अठन्नी चलती थी। जब हम छोटे थे तब भारत में यह चवन्नी,अठन्नी चलती थी। गौर किशोर दास बाबा जी महाराज के समय भी यह चलता था।गौर किशोर दास बाबा जी महाराज को कोई कहता कि मेरे पास अगर चवन्नी हैं, तो मैं क्या करूं? तो वह कहते कि नरोत्तम दास ठाकुर का एक प्रार्थना ग्रंथ हैं,उसको खरीद लो और पढ़ो और गाते जाओ भगवत साक्षात्कार होगा,यह गौर किशोर दास बाबा जी महाराज की सिफारिश हुआ करती थी। एक समय परिक्रमा चल ही रही थी,उसमें एक स्मरणीय बात हैं कि जीव गोस्वामी सोच रहे थे कि वह नरोत्तम दास ठाकुर और श्रीनिवासाचार्य को ब्रजमंडल परिक्रमा में भेजें।वह उन दोनों को ब्रजमंडल परिक्रमा में भेजना चाहते थे।ऐसा उनके मन में विचार था कि मैं इन दोनों को परिक्रमा में भेजना चाहता हूं।ऐसा विचार कर ही रहे थे, तो एक भक्त राघव गोस्वामी आ गए और वह कहने लगे कि मैं ब्रज मंडल परिक्रमा में जा रहा हूं। अगर कोई जाना चाहता हैं तो चल सकता हैं। जीव गोस्वामी ऐसा चाहते ही थे,वह अपने दो शिष्यों को भेजना चाहते थे।
राघव गोस्वामी,नरोत्तम दास ठाकुर और श्रीनिवासाचार्य और एक बड़ा नाम है हमारे गोडिय वैष्णव परंपरा में,जीव गोस्वामी के बाद गोडिय वैष्णव परंपरा के तीन आचार्य रहे। इन तीनों में से नरोत्तम दास ठाकुर और श्री निवास आचार्य इन दोनों को लेकर राघव गोस्वामी ब्रजमंडल की परिक्रमा करने चल पड़े।
ब्रजमंडल की परिक्रमा के यह राघव गोस्वामी भी एक मंत्री हैं।यह चैतन्य महाप्रभु के परिकर और गोवर्धन में एक जगह हैं, पुछरी का लोटा,क्या आप जानते हो?जहां राधा कुंड श्याम कुंड हैं,वह एक मुख हैं गोवर्धन का,गोवर्धन एक मयूर जैसा हैं,उसका मुख हैं,जहां राधा कुंड और श्याम कुंड हैं और दूसरी और मयूर की पूंछ हैं।वहा पूछरी का लौटा नाम से एक बाबा बैंठे हैं। वहीं पास में एक स्थान हैं पूछरी का लोटा।यह पूछरी का लौटा दक्षिण में हैं।तो वहीं पर यह राघव गोस्वामी रहते थे।वहां उनकी गुफा भी हैं। जब हम ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते हैं,गोवर्धन परिक्रमा के दिन हमारा नाश्ता प्रसाद वहीं होता हैं।वह मंजरी नहीं, वह तो सखी थे,चंपक लता सखी।अष्ट सखियों में से जो चंपक सखी हैं,वही यह राघव गोस्वामी थे।वह नरोत्तम के लिए गाइड बन गए।वह नरोत्तम का परिक्रमा में मार्गदर्शन करने लगे।नरोत्तम दास ठाकुर ने भी परिक्रमा की जिसका वर्णन एक नरहरी चक्रवर्ती हैं,उन्होंने एक ग्रंथ लिखा हैं,भक्ति रत्नाकर नामक ग्रंथ लिखा हैं, उसमें उन्होंने जो ब्रजमंडल की परिक्रमा की और नरोत्तम दास ठाकुर को अपने साथ ले गए,बृज मंडल परिक्रमा में उसका वर्णन हैं। मैं भी जब परिक्रमा में जाता हूं तो उस परिक्रमा की डेरी आज भी उपलब्ध हैं। नरहरी चक्रवर्ती ने वह हमें उपलब्ध कराया।हमारी ब्रज मंडल पुस्तक में भी कई सारे वर्णन भक्ति रत्नाकर से हैं।नरोत्तम दास ठाकुर इस प्रकार ब्रजवासी थे और उन्होने परिक्रमा की। फिर वह वृंदावन से गोडिय वैष्णवो का साहित्य लेकर लौट गए और 3 आचार्य बंगाल गए।
उन्होंने उसे बैलगाड़ी में लोड किया और बोला की इसकी डिलीवरी बंगाल में करो।ऐसा जीव गोस्वामी का आदेश था। फिर नरोत्तम दास ठाकुर खेचुरी गांव में पहुंचे और वहीं से प्रचार प्रसार किया और आज भी पूरा मणिपुर,आसाम, इसट इंडिया में गोडिय वैष्णवो का जो प्रचार हुआ हैं,वह नरोत्तम दास ठाकुर की वजह से हुआ हैं।हरि हरि और पहली बार पूर्णिमा का उत्सव भी नरोत्तम दास ठाकुर ने मनाया।तब चैतन्य महाप्रभु नहीं थे। पहला गोर पूर्णिमा महोत्सव नरोत्तम दास ठाकुर ने मनाया।अब तो यह इस्कॉन में बहुत ही प्रचलित हैं। सर्वप्रथम उत्सव मनाने वाले नरोत्तम दास ठाकुर ही थे और उस उत्सव का क्या कहना, जाहनवा माता और भी बहुत भक्त,सारा गोडिय वैष्णव समाज ही वहां मौजूद था।पहला गोर पूर्णिमा उत्सव खैचुरी ग्राम में संपन्न हुआ। नरोत्तम दास ठाकुर जब गायन कर रहे थे, गोरांग और पंचतत्व के यश का गुणगान कर रहे थे,तो सारे पंचतत्व पुनह: वहां प्रकट हो गए।प्रकट लीला में इनमें से कोई भी वहां प्रकट नहीं था, प्रकट लीला हो चुकी थी, किंतु जब नरोत्तम दास ठाकुर गायन करने लगे, कैसे?भक्ति भाव के साथ, तो पंचतत्व सभी के मध्य में प्रकट हो गए।वहा जो हजारों लाखों भक्त उपस्थित थे सभी ने अनुभव किया कि गोरांग नित्यानंद प्रभु यहां उपस्थित हैं, गदाधर पंडित सभी ही उपस्थित हैं, देखो देखो श्री निवास ठाकुर भी यहां हैं। सभी को बहुत अचरज हुआ। ऐसे हैं हमारे नरोत्तम दास ठाकुर। इनको कहते हैं,” नरोत्तम”,” नरो में ऊतम”। आज के दिन उन्होंने पद्मावती में प्रवेश किया। उनके कई सारे अनुयायि उनके साथ हैं और वह अभिषेक कर रहे थे, नरोत्तम दास ठाकुर का अभिषेक कर रहे थे, उसी के साथ क्या हुआ? उनका शरीर पिघलने लगा और वह अधिकाधिक जल प्रयोग करते हुए अभिषेक कर रहे थे।वह शरीर नहीं रहा और जिस जल का वह प्रयोग कर रहे थे उसका दूध बन गया और वह समाधि नरोत्तम दास ठाकुर की दुग्ध समाधि हैं, दूध से बनी हुई समाधि।जब मैं मायापुर में 10 दिन पहले था तो हमारे नाम हट के भक्त आज के दिन हमें बुला रहे थे, वह उस क्षेत्र के हैं, जहा यह दुग्ध समाधि हैं।मुझे बुला रहे थे कि आईए आईए,आज के दिन वहां बहुत बड़ा उत्सव होगा, जहां नरोत्तम दास ठाकुर की दुग्ध समाधि हैं। उनका परायण या तिरोभाव भी बहुत अद्भुत हैं। जैसे कि आप संक्षिप्त मैं सुन रहे थे, ऐसे हैं हमारे नरोत्तम दास ठाकुर।
“जे अनिलो प्रेम धन करुणा करूणा प्रचुर”,यह गीत नरोत्तम दास ठाकुर का ही लिखा गया हैं। तिरोभाव तिथि के दिन जो हम गीत गातें हैं, यह रचना नरोत्तम दास ठाकुर की हैं। उन्होंने अपने विरह की व्यथा उस गीत में व्यक्त की हैं। इससे पता चलता हैं कि वह भक्तों से, गुरुजनों से, आचार्यो से कितना प्रेम करते थे।उनको जैसे-जैसे पता चल रहा था कि यह आचार्य नहीं रहे, रूप गोस्वामी नहीं रहे और भी आचार्य नहीं रहे तो यह भाव प्रकट करने लगे। इस गीत में वह अपने भाव व्यक्त कर रहे हैं।अब हमारी बारी हैं।हमें भी वैसे ही भाव व्यक्त करने हैं।कम से कम इस गीत को गाकर आप अपने भाव व्यक्त कर सकते हो। देख लो,इस गीत को पढ़ लो,गा लो, नरोत्तम दास ठाकुर के संबंध में और भी गीत हैं, उसको भी गा सकते हो। नरोत्तम दास ठाकुर तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! ब्रज मंडल की जय!निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! श्रील प्रभुपाद की जय!
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*जप चर्चा*
*वृंदावन धाम से*
*24 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण ! आज 864 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं । हरे कृष्ण । आप तैयार हो ? एवरेडी मतलब सदैव तैयार रहते हैं। ऐसी आशा है कि आप हमेशा तैयार रहते हैं। तो ऑनलाइन परिक्रमा को आप फॉलो कर ही रहे होंगे ही। हमेशा आप इसी भाव में रहिए। ब्रज में पहुंच जाइए जैसे शिवराम महाराज कह रहे थे। हम जहां भी हैं, वह हंगरी में रहते हैं। लेकिन उनका लक्ष्य होता है वृंदावन में रहने का, वृंदावन वनवास। वृंदावन के कृष्ण का स्मरण जब हम करते हैं तो हम ब्रजवासी बन ही जाते हैं, वृंदावन पहुंच ही जाते हैं। कृष्ण वृंदावन में ही रहते हैं। वैसे मथुरा में भी रहते हैं और वहां से द्वारका भी जाते हैं। यह गोलोक है वृंदावन ,मथुरा और द्वारिका। हरी हरी। कृष्ण द्वारिका में पूर्ण है ,मथुरा में पूर्णतर और वृंदावन में पूर्णतम है। कृष्ण कन्हैया लाल की जय। इस धाम की परिक्रमा, इस धाम का दर्शन, वृंदावन की परिक्रमा कहिए, चलती रहती है। जब से यह धाम है तब से परिक्रमाऐं हो रही है और कब से यह धाम है? ऐसा समय नहीं था जब यह धाम नहीं था। धाम की सृष्टि नहीं होती, उसका निर्माण नहीं होता इसीलिए इसका प्रलय भी नहीं होता या नाश भी नहीं होता। यह धाम शाश्वत है और तब से परिक्रमाऐं हो रही हैं। परिक्रमा करने वाले स्वयं कृष्ण भी तो है ही। हम जैसे परिक्रमा मार्ग पर चलते एक निश्चित मार्ग भी है किंतु श्रीकृष्ण प्रतिदिन हर दिन अलग अलग वनों की यात्रा करते हैं, भ्रमण करते हैं। हरि हरि।
केशीघाट बंसीबट द्वादश कानन ।
जहां सब लीला कईलो श्री नंदनंदन ॥
केशी घाट है या वंशीवट है। यह दो नाम ही लिए हैं। उन्होंने कहा कि केशीघाट बंसीबट द्वादश कानन। द्वादश कानन है। ऐसा कोई वन नहीं बचता जहां पर कृष्ण लीलाएं नहीं खेले हैं। जो मधुबन है नाम भी हम जब सुनते हैं तो यह नाम भी पवित्र है अलग-अलग वनों के, इनके नाम सुनने मात्र से ही हम पवित्र हो जाते हैं। मधुबन है या तालवन है। आपको याद रखना चाहिए अलग-अलग वन है। आपकी नगरी में अलग-अलग सेक्टर या कॉलोनी होते हैं, जिसको आप याद रखते हैं या मोहल्ले होते हैं। तो कृष्ण के धाम के जो वन है, हम उनको याद क्यों नहीं रख सकते। उनका स्मरण क्यों ना करें। उनके नाम को कंठस्थ कर सकते हो और फिर हम हृदयंगम भी कर सकते हैं। इस वन में यह लीला हुई, उस वन में वह लीला हुई। मधुबन, तालवन, कोमुद वन , बगुला वन, वृंदावन, कामवन, खादिर वन। यह सात वन हुए। यह यमुना के पश्चिमी तट पर हैं। फिर हम यमुना के पार पहुंच जाते हैं। फिर हम भद्र वन में पहुंचते हैं। वहां से हंडीर वन पहुंचते है। जहां राधा कृष्ण का विवाह हुआ था। हर वन में बहुत कुछ हुआ है। रोज कुछ ना कुछ होता रहता है। कृष्ण कुछ ना कुछ वहां पर लीलाएं जोड़ते रहते हैं। वहां से बेल वन या श्रीवन भी कहते हैं। जहां लक्ष्मी अपनी तपस्या कर रही है। लेकिन गलतियां भी कुछ कर रही हैं तो उनसे हमको सीखना चाहिए।
अनुगत्त्य को स्वीकार नहीं करती, पालन नहीं करना चाहती इसीलिए लक्ष्मी भगवान की लीला में प्रवेश करने की तीव्र इच्छा तो है लेकिन प्रवेश प्राप्त नहीं होता और गोपियों जैसे वह भी कृष्ण के साथ रास क्रीडा खेलना चाहती है। लेकिन संभव नहीं हो पा रहा है। हरि हरि। गोपी जैसा भाव चाहिए है तभी यह संभव है। रास क्रीडा में प्रवेश करना या माधुर्य लीला में प्रवेश करना। लोभ वन है यह ग्यारवाह वन है। 12वा वन महावन है। जहां पर गोकुल है। गोकुल धाम की जय। वहीं पास में रावल गांव है। रावल गांव का राधा रानी का गांव है। परिक्रमा में जाते हैं तब हमको पता चलता है नहीं तो हम गाते तो रहते हैं। राधा रानी की जय , महारानी की जय, बरसाने वाली की जय जय जय। ऐसा हम भी सोचते थे। राधा रानी का जन्म बरसाने में हुआ। मेरी भी एक समय ऐसी समझ थी और कईयों की होगी या होती होगी। बरसाने वाले की राधारानी बनने के पहले उन्होंने रावल गांव में राधाअष्टमी के दिन जन्म हुआ था। यह हमको पता नहीं होता है। हम कृष्ण जन्माष्टमी मानते रहते हैं। लेकिन राधा अष्टमी भी तो है उनका कहां पर जन्म हुआ और जन्म की लीला। रावल गांव भी महावन में है और पुन: उनकी परिक्रमा द्वादश कानन में करके हम लौटते हैं। मथुरा पहुंचते हैं। विश्राम घाट पर पहुंचते हैं। जिस विश्राम घाट पर विश्राम किए किसी ने विश्राम किया होगा इसलिए इसका नाम विश्राम घाट हुआ। तो वह विश्राम करने वाले वराह भगवान थे। केशव धृत शूकर रूप जय जगदीश हरे। तब वराह भगवान के रूप में जिस पृथ्वी का पतन हुआ था। अपने स्थान से च्युत हुई, नीचे गिर गई, गर्भोधक सागर में, इस खगोल में, ब्रह्मांड में। एक सागर है जिसको गर्भोधक कहते हैं। जिसमें गर्भोदक्षयी विष्णु जिस जल के ऊपर विराजमान हुए हैं। वहां गिर गई है पृथ्वी। भगवान प्रकट हुए वराह रूप में और उन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया। हिरण्याक्ष का वध कब हुआ? इस कल्प के प्रारंभ में। यह जो ब्रह्मा का दिन चल रहा है।
ब्रह्मा का जब दिन प्रारंभ हुआ तब पहला असुर जिसका भगवान ने वध किया वह हिरण्याक्ष थे, हिरण्यकशिपु के भाई। वराह कल्पे इसीलिए कल्प मतलब ब्रह्मा के दिन को कल्प कहते हैं। आप कब याद रखोगे। हम कह कह कर थक गए। थके तो नही। कल्प मतलब ब्रह्मा का दिन। इस दिन को वराह कल्प भी कहते हैं। इस दिन के प्रारंभ में हिरण्याक्ष का वध हुआ। पृथ्वी का उद्धार किए। अपने दांत के ऊपर ही पृथ्वी को धारण किए। जैसे जंगली सुअर या शूकर होता है वैसे। यह भगवान के दांत वाले सुकर थे। प्राय: हम दांत वाले सुकर नहीं देखते। हम गांव में या शहरो में सुकर देखते हैं। दांत के ऊपर पृथ्वी को धारण किए है। थोड़ी लड़ाई हुई हिरण्याक्ष के साथ, उसमें भी तो परिश्रम रहा ही। फिर पृथ्वी को ऊपर लाए। भगवान विश्राम कर रहे थे। कहा विश्राम किए? यमुना के तट पर विश्राम घाट पर भगवान विश्राम कर रहे हैं और उस समय पर पृथ्वी कहां पर है भगवान के दांत के ऊपर है। मतलब यह आपका दिल्ली या आगरा है, यह दांत के ऊपर है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, एशिया, जितने भी खंड या भू खंड है। यह सारे भगवान के दांत के ऊपर है। भगवान मथुरा में बैठे है।
विश्राम घाट पर विश्राम कर रहे हैं। हरी हरी। इससे आपको कुछ समझ आता है? इससे यह समझ में आना चाहिए कि हम अपराध करते रहते हैं। कौन सा अपराध है? वैसे 10 धाम अपराध भी हैं। 10 जैसे नाम अपराध है। वैसे ही धाम अपराध भी है। आप पता लगवाइए। 10 धाम अपराध कौन से हैं। अगर आपको पता है तो आप टाल सकते हो। नहीं तो धाम की यात्रा कर रहे हो और अपराधी हो रहे है। उसमें से एक यह अपराध है कि धाम किसी किसी देश में है या किसी प्रदेश में है। वह किसी देश का या राज्य का भाग है। यह अज्ञान है। यह सही नहीं है। ऐसी समझ अपराध है। वृंदावन यूपी में है और अयोध्या भी यूपी में है। मायापुर बंगाल में है। जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में है और द्वारिका गुजरात में है और कृष्ण गुजराती थे। ऐसे कई लोग कहते हैं कि कृष्ण गुजराती थे। लेकिन क्योंकि वह गुजरात में है। द्वारिका गुजरात में है। लेकिन यह धाम इस संसार में नहीं है या पृथ्वी के अंग नहीं है। नहीं तो पृथ्वी जब डूब जाती है, जब पृथ्वी का विनाश होता है, इन धामों का भी विनाश होता। जब प्रलय होता है। तब ऐसा नहीं होता है। यह धाम तो बने रहते हैं। यहां पर आप देख सकते हो, भगवान ने पृथ्वी को धारण किया हुआ है और अपने दांत के ऊपर उठाया हुआ है। भगवान मथुरा वृंदावन में विराजमान है या विश्राम घाट पर विराजमान है। पृथ्वी ऊपर है, भगवान मथुरा वृंदावन में बैठे हैं। यह तत्व है या सिद्धांत है। धाम तथ्य या धाम महात्म्य कहिए। धाम शाश्वत है। इसका सृष्टि यह आप समझ सकते हो कि यह ब्रह्मा की सृष्टि नहीं है। धाम ब्रह्मा की सृष्टि नहीं है और देवताओं को यहां कोई कुछ कार्य नहीं कर सकते। देवता अपना जो कार्य वह करते रहते हैं। सृष्टि का कार्य है या प्रलय का कार्य है। वहां पर नहीं चलता या वहां पर आवश्यकता नहीं है क्योंकि धाम की सृष्टि नहीं होती है। यहां तीन गुणों का प्रभाव भी नही है। यह गुणातीत धाम है। सच्चिदानंद धाम सच्चिदानंद चिंतामणि।
चिन्तामणिप्रकरसद्यसु कल्पवृक्ष-
लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
( ब्रह्म संहिता 5.29 )
अनुवाद:- जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुष की सेवा कर रही हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
हरि हरि। तो परिक्रमाऐं करने वाले हम कह रहे थे कि वह सर्वप्रथम कृष्ण ही हैं। वह प्रतिदिन नंदग्राम से इन सारे अलग-अलग वनों की यात्रा करते हैं। गौचारण लीला के लिए और गौचारण लीला सभी वनों में होती है और माधुर्य लीला निकुंजो में होती है और वात्सल्य भरी लीलाएं नंदग्राम या गोकुल में होती हैं। यह वृंदावन के प्रधान लीलाएं के 3 प्रकार हैं। एक वात्सल्य से पूर्ण लीला, यशोदा दामोदर को हम दीपदान कर रहे हैं। यह वात्सल्य है। यशोदा का वात्सल्य कृष्ण के प्रति और कई सारे जो बड़े बुजुर्ग लोग हैं वृंदावन के उन सब का भी कृष्ण के साथ ऐसा ही वात्सल्य भाव है । इन भावों को रस भी कहते हैं या यह संबंध भी है इस प्रकार का संबंध है । मुझे मालूम नहीं कि कितना प्रतिशत के व्रजवासी वात्सल्य रस वाले हैं ? कितने सख्य रस वाले हैं ? कितने सखा है ? कितने गोपियां हैं ? मुझे मालूम नहीं कि तिहाई एक तिहाई एक तिहाई है कि कुछ कम अधिक । लेकिन आबादी का बड़ा हिस्सा जो व्रज की है वृंदावन की है । उनका संबंध उनका वात्सल्य कृष्ण के साथ वत्स, अपना पुत्र ऐसा ही भाव कृष्ण के प्रति है और फिर, तो यह लीलाएं तो अधिकतर गोकुल में या नंदग्राम में ही संपन्न होती है और गो चारण लीला बनो में होती है, गोष्ट बिहारी, गोष्ट मतलब; वृंदावन जहां गो चारण लीला संपन्न होती है और जहां कुंज है । “राधा माधव कुंज बिहारी” तो कुंजू में माधुमाधुर्य लीलाएं संपन्न होती है । जहां थोड़ा एकांत है यह माधुर्य लीला गोपियों के साथ वाली लीला राधा कृष्ण की लीला व्रज के नगर या ग्राम के चौराहे पर नहीं होती है । कोई मैदान में तो दिल्ली में रामलीला मैदान है या और कैसे मैदान होते हैं । यह रासक्रीड़ा है और माधुर्य लीला तो एकांत में वन में निकुंजो में बड़े गुप्त में अति गोपनीय लीला है । इस प्रकार श्री कृष्णा पूरे वृंदावन में भ्रमण करते रहते हैं । वैसे वे सदैव व्यस्त रहते हैं रात दिन । इसीलिए इसको हम अष्ट कालिय लीला भी कहते हैं । 24 घंटे भगवान व्यस्त रहते हैं । अलग-अलग लीला खेलते हुए वृंदावन में, तो हम जब परिक्रमा में जाते हैं तो जो लीला जहां हुई थी वहां पहुंचकर और वहां बैठकर या हो सकता है कोई खड़े होके भी हम सुनते हैं, तो फिर क्या कहना । देखकर ही विश्वास किया जा सकता है कहते हैं । दिखा दो, प्रमाण करो ! क्या सबूत है ? भोजन स्थली पहुंचते हैं तो देखो यहां तो भगवान ने अपना यहां थाली रखी तो हाली का चिन्ह बन गया है । उस स्थान को काम वन में एक स्थान है जहां भोजन थाली भी कहते हैं । भोजन की थाली जहां कृष्ण ने रखी जिस पत्थर के ऊपर वो पत्थर ही पिघल गया । कई पर कटोरिया रखी हुई है तो कटोरी के चिन्ह है और फिर हम परिक्रमा में जाते हैं तो उस दिन हम वह लीला का श्रवण भी करते हैं कृष्ण की भोजन की लीला । कृष्ण कैसे सब के मध्य में बैठे रहते हैं और सारे मित्र गोला कर बैठते हैं सभी और I हरि हरि !! फिर हम जब जाते हैं तो हम परिक्रमा में उसी स्थान पर बैठकर जहां कृष्ण बलराम अपने मित्रों के साथ भोजन किया करते थे । एक तो वहां की भोजन लीला का श्रवण करो । वो कटोरी का चिन्ह देखो थाली का चिन्ह देखो और फिर वही पर बैठो और
महाप्रसादे गोविन्दे , नाम – ब्रह्मणि वैष्णवे ।
स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते ॥ 1 ॥
सेइ अन्नामृत पाओ , राधाकृष्ण गुण गाओ
फिर जब हम अन्नामृत को प्राप्त करते हैं हमारे इस्कॉन का जो फुड् फर लाइफ प्रोग्राम स्कोर अन्नामृत कहते हैं तो सेइ अन्नामृत पाओ, फिर राधाकृष्ण गुण गाओ । फिर मुख से अनायास कुछ राधा कृष्ण के कुछ गुण निकल ही आते हैं । फिर बोलना भी शुरू करते हैं ।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( भगवद् गीता 10.9 )
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं ।
होने लगता है । “कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च” कुछ हम जो देखते हैं, सुनते हैं फिर वो सुनाने लगते हैं या उस पर विचार करते हैं, हम गंभीर हो जाते हैं । हमारी कोई शंका है उसका समाधान हो जाता है । वो देखो व्योमासुर गुफा देखो ! व्योमासुर के गुफा के बारे में हम सुने तो रहते हैं या पढ़ते रहते हैं । व्योमासुर “व्योम” मतलब आकाश । आकाश में उड़ान भरने वाला आसुर क्या करता है ? कृष्ण के मित्रों को गोवर्धन के ऊपर जहां मित्र खेल रहे थे वहां आकर यह व्योमासुर उनको चोरी कर रहा था उनका अपहरण कर रहा था और आकाश मार्ग से वो कामवन में पहाड़ है एक गुफा में व्योमासुर मित्रों को रख रहा था और फिर शीला से उसका मुंख बंद कर देता, तो फिर कृष्ण कैसे पीछा करते हैं व्योमासुर का । कृष्ण को पता होता है, ऐ ! इतने सारे हम मित्र थे अभी तो पूछी ही बच गए हैं, क्या हुआ ? ऐसी पूरी लीला है । वो खेल ही खेल रहे थे आप पढ़िएगा । फिर कामवन में जाते हैं तो फिर व्योमासुर कोई गुफा भी देखते हैं और कहते हैं इस आकाश में यहां आकाश में कृष्ण ! व्योमासुर के साथ युद्ध खेलें । यह लीला का श्रवण, वृंदावन ही पहुंच जाओ, परिक्रमा में पहुंचाओ और फिर उस लीला स्थली पर पहुंच जाओ और वही लीला का श्रवण करो या अध्ययन करो । उसका जो प्रभाव है यह हमारे साथ सदैव रहेंगे । क्योंकि हम तपस्या भी करते हैं । परिक्रमा जाना है तो तपस्या है कुछ असुविधा है और धूल भी खाते हैं, धूल में लौटते हैं, तो भगवान देखते हैं कि यह व्यक्ति वास्तविक में गंभीर है मेरी प्राप्ति के लिए । कितना सारा प्रयास कर रहा है । परिक्रमा में जा रहा है …
शीत आतप , वात बरिषण , ए दिन यामिनी जागि ‘ रे ।
विफले सेबिनु कृपण दुर्जन , चपल सुख – लव लागि ‘ रे ॥ 2 ॥
( भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन )
अनुवाद:- मैं दिन – रात जागकर सर्दी – गर्मी , आँधी – तूफान , वर्षा में पीड़ित होता रहा । क्षणभंगुर सुख के लिए मैंने व्यर्थ दुष्ट और लोगों की सेवा की ।
फिर परिक्रमा है तो कभी ठंडी है तो या हो सकता है कभी गर्मी है तो परिक्रमा कभी लंबी है । आज का परिक्रमा है 30 किलोमीटर, ऐसे भी 1-2 दिन होते हैं । आज कितना चलेंगे ? 25 किलोमीटर 30 किलोमीटर चलेंगे और भक्त चलते हैं, चलते क्या है ! दौड़ते हैं, तो भगवान या बेशक वह सब देखते हैं जानते हैं और ऐसे प्रयास जब हमारे तक होते हैं तो कृष्ण प्रसन्न होते हैं और फिर …
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
( भगवद् गीता 4.11 )
अनुवाद:- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ । हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है ।
फिर कृष्ण प्रकट होते हैं । ऐसे साधक जो …
उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् ।
सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति ॥
( श्री उपदेशामृत 3 )
अनुवाद:- भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (1) उत्साही बने रहना (2) निश्चय के साथ प्रयास करना (3) धैर्यवान होना (4) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कम
करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्–कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना ) (5) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा (6) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना । ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं ।
तो श्रील रूपगोस्वामी उपदेशामृत में कहे हैं जब हम अपनी साधना भक्ति और फिर परिक्रमा की बात चल रही है तब हम कैसे करते हैं ? उत्साह के साथ, निश्चय के साथ, धैर्य के साथ । धैर्य भी चाहिए और “तत्त्कर्मप्रवर्तनात्” अलग-अलग विधि-विधान ओं का पालन करते हुए “सतो वृत्तेः” और सजल ओके चरण कमलों का अनुगम, अनुसरण करते हुए …
तर्कोंSप्रतिष्ठ श्रुतयो विभिन्ना
नासावृषिर्य़स्य मतं न भिन्नम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो ये़न गत: स पन्था: ॥
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 17.186 )
अनुवाद: – श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “शुष्क तर्क में निर्णय का अभाव होता हैं । जिस महापुरुष का मत अन्यों से भिन्न नहीं होता, उसे महान ऋषि नहीं माना जाता। केवल विभिन्न वेदों के अध्ययन से कोई सही मार्ग पर नहीं आ सकता, जिससे धार्मिक सिद्धांतों को समझा जाता हैं। धार्मिक सिद्धांतों का ठोस सत्य शुद्ध स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के ह्रदय में छिपा रहता हैं । फलस्वरूप, जैसा कि सारे शास्त्र पुष्टि करते हैं, मनुष्य को महाजनों द्वारा बतलाए गये प्रगतिशील पद पर ही चलना चाहिए ।
या पहले भी परिक्रमा कर चुके हैं या कई सारे जहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ही परिक्रमा की । राघव गोस्वामी ने परिक्रमा की । व्रजाचार्य नारायण भट्ट गोस्वामी ने यह परिक्रमा के पुनर्स्थापना की । फिर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर 1932 में परिक्रमा करने आए । उस समय श्रील प्रभुपाद गृहस्थ थे, वे अलाहाबाद से मथुरा पहुंचे, मथुरा से टांगा लेके प्रभुपाद पहुंच गए कोसी पहुंचे वृंदावन नंदग्राम के पास जहां श्रील भक्ति स्थान सरस्वती ठाकुर की परिक्रमा पहुंची थी और उस समय भी अभय बाबू थे, तो अभय बाबू ने ज्वाइन किए या भविष्य के; हिस डिवाइन ग्रेस भक्ति वेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की ! उन्होंने परिक्रमा की । एक दिन घोषणा हुई परिक्रमा शेषषायी जाएगी, तो जो जाना चाहते हैं तैयार हो जाओ लेकिन जो नहीं जाएंगे उनके लिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर वे हरि कथा सुनाएंगे, तो अभय बाबू ने सोच लिया कि मैं नहीं जाऊंगा । मैं यहीं रहूंगा श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर के साथ, तो वे रहे और उन्होंने श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती के मुखारविंद से हरि कथा सुनी । हरि हरि !! फिर उसी साल श्रील प्रभुपाद के या अभय बाबू के दीक्षा का संस्तुति हुआ । यह अलाहाबाद के गोडिया मठ में दीक्षा समारोह संपन्न हो रहा था, तो अभय बाबू की बारी आई तो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के कुछ शिष्य कह रहे थे कि यह अभय बाबू है । इनके दीक्षा होगा अब, तो श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ; मैं इसको जानता हूं ! कैसे जानते हैं आप ? वह मुझे सुनना पसंद करता है । यह मुझे सुनते रहता है । मैं जब हरि कथा करता हूं तो उसमें यह बहुत रुचि लेता है बड़े ध्यान पूर्वक सुनता है मेरी कथा को मेरी बातों को और कुछ याद आया नहीं आया लेकिन यह बात जरूर ध्यान दिए थे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने की “हि लाइक्स टू हियर मी” यह मुझे सुनते रहता है मैं जब बोलता हूं, कुछ कथा सुनाता हूं । हरि हरि !! तुम्हारा नाम अभय चरण है । प्रभुपाद का नामकरण हुआ, अभय चरण बने । से परिक्रमा में गए और परिक्रमा करके फिर वे कृपा पात्र बने । श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की कृपा के पात्र बने जब वे परिक्रमा में भी गए थे । हरि हरि !! तो इस प्रकार यह परिक्रमाएं या कभी कुछ अलग से सुनाएंगे आपको परिक्रमा का सारा या जितना मुझे पता है इतिहास कहो । यह जो परिक्रमाएं वृंदावन में होती है ।
व्रजमंडल की जय !
यशोदा दामोदर की जय !
और भी कई सारी जय !
राधा श्याम सुंदर की जय !
कृष्ण बलराम की जय !
निताई गौर सुंदर की जय !
और विशेष रुप से श्रील प्रभुपाद की जय !
जिन्होंने इस धाम को प्रकट किया है हमारे समक्ष । प्रभुपाद ने यह वृंदावन का परिचय दिया सारे संसार को और संसार भर के लोगों को वृंदावन प्रभुपाद ले आए और वृंदावन का दर्शन कराए, तो प्रभुपाद भी 1971 की बात हो सकती है श्रील प्रभुपाद अपने विदेश के शिष्यों को वृंदावन ले आए थे और श्रील प्रभुपाद उनको दिखा रहे थे अलग-अलग स्थान । पैदल यात्रा नहीं कर रहे थे लेकिन यहां आने से या टांगे से कैसे कैसे चाह रहे थे और कथा सुना रहे थे एक समय वे ब्रह्मांड घाट भी गए थे और वहां श्रील प्रभुपाद स्नान भी किए उसका एक फोटोग्राफ, एक मायापुर में श्रील प्रभुपाद का गंगा में स्नान करते हुए एक फोटोग्राफ है और दूसरा प्रसिद्ध फोटोग्राफ ब्रह्मांड घाट पर स्नान करते हुए और फिर बरसाने भी गए यहां गए वहां गए । फिर मायापुर वृंदावन उत्सव जब शुरू हुए तो उस समय प्रातः कालीन कार्यक्रम के उपरांत प्रभुपाद हमको पूरे दिन भर व्रज की यात्रा में भेजा करते थे, तो हम बसों में उन दिनों में पैदलयात्रा नहीं होती लेकिन बसों में हम बैठकर सारे व्रज की यात्रा करके शाम को लौट आते जो प्रतिवर्ष वो आज तक हो रहा है तो इस प्रकार प्रभुपाद ने कृष्ण का और कृष्ण के धाम का, वृंदावन धाम की जय ! सारे संसार को परिचय दिया उन्होंने इस धाम को प्रकट किया है ।
॥ गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*दिनांक 23 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 928 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
श्री राधा श्याम सुंदर की जय!!!
वृन्दावन धाम की जय!!!
ब्रज मंडल की जय!!!
यशोदा दामोदर की जय!!!
दामोदर मास की जय!!!
श्रील प्रभुपाद की जय!!!
गौरांग!!!
आपका स्वागत है। शिवराम महाराज ने मेरे इस ब्रज मण्डल ग्रंथ की प्रस्तावना लिखी है। वे प्रारंभ में लिखते हैं, मैं आपको थोड़ा पढ़कर सुनाना चाहता हूं। उनके ब्रज मंडल महिमा या परिक्रमा की महात्म्य के संबंध में कुछ अनुभव व उदगार हैं।
“मैं 1976 में पहली बार भारत आया, (आप सब सुन रहे हो) और उसी दौरान मुझे अपनी पहली परिक्रमा का अनुभव प्राप्त हुआ। मैं श्रील प्रभुपाद के साथ मायापुर और वृंदावन में रहा। प्रातः कालीन प्रवचन और नाश्ते के पश्चात हम भगवान श्रीकृष्ण और चैतन्य महाप्रभु की लीला स्थलियों की यात्रा पर जाते। मेरे अनुभव मिले-जुले रहे। चाहे शारीरिक तौर पर कहिए या मानसिक तौर पर, मैं अभी तक भारतीय परिवेश में घुल मिल नहीं पाया था। परिक्रमा में इतने भक्त हैं कि कुछ सुनाई नहीं देता। यह धाम के आध्यात्मिक वातावरण की सराहना करने की बात तो दूर रही। सच कहूं तो इन परिक्रमाओं के बाद थोड़ा मैं थोड़ा स्तब्ध रह गया। कुछ वर्ष बीते और (महाराज आगे लिखते हैं) मैं अब भारत को जानने पहचानने लगा। परिक्रमाओं तथा भगवान श्रीकृष्ण तथा श्रीगौरांग महाप्रभु के धाम के प्रति मेरी रुचि बढ़ी। मैं ना केवल वरिष्ठ भक्तों का सङ्ग करने के लिए मायापुर और वृंदावन आता, अपितु इन यात्राओं के दौरान स्वयं को पूरी तरह भगवान की लीलाओं में डुबो लेता। इसने मेरे जीवन में कृष्ण भक्ति के एक नए जीवन की आशा प्रदान की और जब धाम यात्रा के बाद जब मैं हवाई जहाज में बैठकर अपने देश जाता, मैं अनुभव करता कि समय के साथ-साथ मेरी कृष्ण भावना क्षीण हो रही है। मैं हर समय वृंदावन में नहीं रह सकता था, परंतु इतना अवश्य समझ गया था कि वृंदावन में रहे बिना कृष्ण कृष्ण भावना में प्रगति नहीं कर पाऊंगा। तब एक दिन मैंने एक श्लोक पढ़ा-
*कृष्णं स्मरन्जनं चास्य प्रेष्ठं निजसमीहितम्। तत्तत्कथारतश्चासौ कुर्याद्वासं वज्रे सदा।।*
( श्री चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला 22. 160)
अनुवाद:- भक्त को चाहिए कि वह अपने अंतःकरण में सदैव श्रीकृष्ण का स्मरण करें और वृंदावन में श्रीकृष्ण की सेवा में रत किसी प्रिय भक्त का चुनाव करें। उसे चाहिए वह निरंतर उस सेवा तथा श्रीकृष्ण के साथ उसके प्रेम संबंध की चर्चा करें। साथ ही उसे चाहिए वृंदावन में निवास करें। यदि व्यक्ति शारीरिक रूप से वृंदावन में न रह सके तो उसे मानसिक रूप से वहां रहना चाहिए।
‘ वृंदावन में मानसिक निवास’
इस छोटी सी शिक्षा द्वारा श्रील प्रभुपाद ने निरंतर परिक्रमा करने की मेरी इच्छा का समाधान कर दिया। मेरा शरीर चाहे अमेरिका में हो या इंग्लैंड में। यदि मेरा मन भगवान के धाम एवं उनकी लीलाओं में मग्न है तो मैं सदैव श्रीकृष्ण के साथ ब्रज में निवास कर सकता हूं।
वृंदावन की स्मृतियों को पोसने के लिए मैं जब भी समय मिलता परिक्रमा पुस्तक पढ़ने लगता। विशेष रुप से पद्मलोचन प्रभु तथा अन्य आचार्यों द्वारा लिखी पुस्तकें जैसे ब्रज विलास स्तव। जिस प्रकार मैं भारत में धाम यात्रा के दौरान जप किया करता, अब मैं उसी प्रकार पश्चिमी देशों में रहकर जप करता हुआ धाम यात्रा कर सकता हूं।
इसीलिए मेरे लिए लोकनाथ महाराज की ब्रजमंडल दर्शन पुस्तक न केवल वृंदावन यात्रा के लिए दिग्दर्शिका पुस्तक है, अपितु इसकी सहायता से मैं हंगरी( उनके देश का नाम है) में रहते/सेवा करते हुए ब्रज में रह सकता हूं । मेरी कृष्ण भक्ति को प्रेरणा प्रदान करने के लिए मैं उनका आभारी रहूंगा। पाठकों से निवेदन है कि वह इस पुस्तक का प्रयोग ना केवल व्रज के तीर्थ स्थलों की जानकारी हेतु करें, अपितु इसकी सहायता से श्रीकृष्ण की और आगे बढ़े।
लोकनाथ महाराज ने सरल किंतु विद्वत्ता पूर्ण शैली में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है जिससे हम श्रीकृष्ण के सानिध्य में रहकर उनकी माया शक्ति से बचे रह सकें। इस प्रकार चित में व्रज तथा ब्रजवासियों के प्रति सुप्त आकर्षण धीरे-धीरे जागृत होने लगेगा। हम सहज रूप से इन लीलाओं, स्थानों और ब्रजवासियों से आसक्त होने लगेंगे। यह आसक्ति विकसित होने पर सनातन व्रजधाम के द्वार हमारे लिए खुल जाएंगे। वहां एक दिन हम स्वयं भगवान की उन इलाकों में भाग ले सकेंगे जिनका पृथ्वी पर रहने वाले साधक भक्त श्रवण एवं स्मरण करेंगे। संशय नहीं कि लेखक ब्रजवासी का सेवक बनकर श्रीकृष्ण लीला में प्रवेश करने के बाद भी उनकी यह पुस्तक अन्यों को व्रजधाम का मार्ग दिखाती रहेगी।”
– शिवराम स्वामी
हरि! हरि! मैंने जो पढ़ा, यदि आप उसे सुन नहीं पाए या समझ नहीं पाए तो आपके पास भी ग्रंथ है, आप स्वयं भी इस प्रस्तावना को पढ़ सकते हो। हरि! हरि! कार्तिक मास में ब्रजवास/ वृंदावन वास जो कि स्ट्रांग्ली रिकमेंडिड है, वैसा करने के लिए ब्रज मंडल परिक्रमा भी है और जो भक्त ब्रज मंडल परिक्रमा नहीं कर सकते, वे यंहा आकर निवास कर सकते हैं व अपना ध्यान, धारणा, साधना, स्मरण यहां कर सकते हैं। कुछ भक्त पूरे महीने नहीं आ सकते। वे ब्रज मंडल परिक्रमा हर साल कोई एक-एक सप्ताह करते हैं और अगले वर्ष और 1 सप्ताह करते हैं, जहां वे पिछले वर्ष रुके थे फिर वहां से आगे बढ़ते हैं इस प्रकार 4 साल में उनकी परिक्रमा पूरी होती है। कुछ भक्त 2 साल में पूरी कर लेते हैं परंतु अधिकतर भक्त एक साल में ही पूरी परिक्रमा कर लेते हैं। वैसे आप शायद परिक्रमा नहीं कर रहे हो, वृन्दावन में नहीं हो। इसलिए आप जहां भी हो बैठे हो। आप सोलापुर, कोल्हापुर, नागपुर, पंढरपुर में बैठे हो और वही से.. जैसा कि महाराज यहां लिख रहे हैं कि इसे आप वहीं से विजिट कर रहे हो।’यू आर शटलिंग वृन्दावन और वहीं से बैक टू नागपुर, बैक टू सोलापुर, बैक टू लंदन, बैक टू मोरिशियस, बैक एंड … आप आ जा रहे हो। कम से कम विजिट तो हो रही है। अच्छा है कि वापिस ना जाएं, यहीं रहे। वृंदावन में ही वास करें। हमारा मन जहां है, वैसे वही हमारा ध्यान भी जाता है। वैसे शरीर के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। हम कहां है यह शरीर को पता ही नहीं होता है। शरीर तो निर्जीव है। निष्प्राण है। शरीर में कोई संवेदना, इमोशंस या फिलिंग कुछ नहीं है। यह मृत है।
‘बॉडी डेड बॉडी’ अर्थात शरीर तो मृत होता है। शरीर कहां है ? मिट्टी कहां है, मिट्टी को पता नहीं है। जल कहां है ?जल को पता नहीं है, हवा कहां है? हवा को पता नहीं है। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश से ही यह पिंड बनता है। जो ब्रह्मांड में है वही हमारे पिंड में भी है। शरीर को कुछ ज्ञात नहीं है कि वह कहां है? हमारी ज्ञानेंद्रियां हमारे मन को फीड करती है।
*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।* ( श्रीमद भगवतगीता १५.७)”
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । मन हमारी छ्ठवीं व प्रधान इन्द्रिय है।
सारा थिंकिंग, फीलिंग, विलिंग,( सोचना, अनुभव करना, इच्छा करना) स्मरण जो है, वह..
*स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुति चकाराच्युतसत्कथोदये ॥* *मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्धृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥*
*पादौ हरे : क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥*
( श्रीमद भागवतम 9.4.18-20)
अनुवाद:- महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में, अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने – बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह, कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों, यथा मथुरा तथा वृन्दावन को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में अपनी घ्राण – इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गईं तुलसी की सुगन्ध को सूँघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा करने में लगाया। निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा । वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त होने की यही विधि है।
जैसा की भागवतम में कहा है कि मन से हम स्मरण करते हैं। स्मरण से पता चलता है। साथ में बुद्धि भी है। अंततोगत्वा ज्ञाता अथवा क्षेत्रज्ञ आत्मा ही होती है। आत्मा को पता चलता है। इस शरीर में जो अंतःकरण है अर्थात जो सूक्ष्म शरीर मन, बुद्धि, अहंकार वाला और आत्मा है, इनको पता चलता है अथवा स्मरण करता है, इनको स्मरण होता है। शरीर स्मरण नहीं करता। शरीर को कोई क्लू नही होता। मन से… मानसिक परिक्रमा या मानसिक पूजा भी होती है, मन में सारा रजिस्ट्रेशन होता है। मन, बुद्धि, अहंकार उसको नोट करते हैं। आत्मा को पता लगना चाहिए। आत्मा का भी दिल है, आत्मा का भी हृदय है। उस ह्रदय प्रांगण में कुछ दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित होता है।
यह ज्ञान का प्रकाशन कहां होता है? दिव्य ज्ञान हृदय प्रकाशित, ह्र्दय मतलब ‘हार्ट ऑफ द सोल’ अर्थात आत्मा का हृदय। आत्मा हृदय में रहती है। उस आत्मा के हृदय में सब प्रकाशित होना है। इसको हम आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। सेल्फ रिलाइजेशन, गॉड कृष्ण रिलाइजेशन या कृष्ण भावना भावित होना है तो इसका सीधे आत्मा के साथ संबंध है। आत्मा का साक्षात्कार या भगवत साक्षात्कार या भगवत दर्शन। यह दर्शन करने वाली आत्मा ही है। वह साक्षात्कार आत्मा को होता है। यह इंद्रियां और यह मन सब फीड करते हैं। इसी को योग कहा ही जाता है। योग मतलब लिंक अर्थात संबंध। हमारा भगवान के साथ जो संबंध है उसका रिवाइवल होना या उसका स्मरण करने व संबंध स्थापित करने में मन, बुद्धि, अहंकार ही कुछ संचार के साधन बन जाते हैं। वह सम्बन्ध स्थापित होता है। मन, बुद्धि, अहंकार इसका शुद्धिकरण करते हैं।
*चेतो – दर्पण – मार्जनं भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेय : -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् । आनन्दाम्बुधि – वर्धनं प्रति – पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म – स्नपनं परं विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.12)
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो, जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागररूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है, जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है। यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर का विस्तार करता है । यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है । ‘
इससे हमारी चेतना का शुद्धिकरण होता है।
सेंस कंट्रोल, माइंड कंट्रोल
*शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||*
( श्रीमद भगवतगीता 18.42)
अनुवाद:- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं।
शम अर्थात माइंड कंट्रोल, दम अर्थात सेंस कंट्रोल। यह सारे नियंत्रण करते हुए अथवा तपस्या करते हुए हम जिस संबंध को भूले हैं या भगवान को भूले हैं, उसको हम योग से पुनः स्थापना करते हैं। कृष्ण का स्मरण करना है, तो आत्मा का स्मरण करना है। ब्रजवास करना है तो शरीर को तो पता ही नहीं चलेगा, शरीर लंदन में है या मास्को में है या अफ्रीका के एक शहर है जिसे डरबन अथवा डूरबन में हैं। हमारे दीनबंधु प्रभु कहते हैं कि यह जो हमारे द्वादश कानन या द्वादश वन है , वह हमारे डूरबन है। जैसेअफ्रीका में डूरबन है। हमारा शरीर जहां भी है, हमारे शरीर को कुछ पता नहीं होता। वैसे पता तो आत्मा को लगवाना है। भगवान का पता लगवाना है या स्मरण करना है तो आत्मा को स्मरण करना है। हरि! हरि! गोपियां सदैव भगवान का स्मरण करती हैं
*स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।*
*सर्वे विधि – निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.113)
अनुवाद:- “ कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं । उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए । शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने चाहिए । ”
वे भगवान को कभी नहीं भूलती। वे बस इतना ही जानती हैं। गोपियां कुछ ज्यादा नहीं जानती, ज्यादा कुछ नहीं करती। वे क्या करती हैं? स्मर्तव्यः सततं विष्णु हमेशा भगवान का स्मरण करना चाहिए। भगवान स्मरणीय है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा-
*मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।*
(श्रीमद भगवतगीता 18.65)
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो।
मुझे याद करो, मेरा स्मरण रखो। गोपियां स्मरण कर रही हैं। ब्रज/ वृंदावन का हर भक्त, हर व्यक्ति भगवान का स्मरण करता है। ‘वी आल रिमेंबर कृष्ण’। यहां जो वृंदावन में भक्त हैं, वह केवल आत्मा हैं। उनका शरीर है ही नहीं या उनका शरीर ही आत्मा है। आत्मा ही शरीर है। उनका अलग से शरीर नहीं है, हम शरीर में हैं। इसलिए आत्मा को देही कहा है, देह मतलब शरीर। देही मतलब जो शरीर में रहता है। जैसे निवास औऱ निवासी। निवास मतलब रहने का स्थान और निवासी मतलब रहने वाला।
*सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ||*
( श्रीमद भगवतगीता 5.13)
अनुवाद:- जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है।
कृष्ण कहते हैं- यह नव द्वार वाला जो गेट अथवा शरीर है, इस शरीर में आत्मा रहती है। हमें आत्मा को मुक्त करना है। प्रारंभ मन से करते हैं, मन को मुक्त करते हैं।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।*
मंत्र अर्थात मन से त्र, मुक्त करने वाला। मन्त्र हमें मुक्त करता है। हरि !हरि!
*निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः । मक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व – रूपेण व्यवस्थितिः ॥*
(श्रीमद भागवतम 2.10.6)
अनुवाद:- अपनी बद्धावस्था के जीवन – सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है ।
परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति ‘ मुक्ति ‘ है ।
अंततोगत्वा इस रूप, इस देह को छोड़ना है और इस देह की राख होगी अथवा कीड़े खाएंगे। इसकी अलग अलग स्थितियां बताई गई हैं। एक भस्म अथवा राख होती ही है। तत्पश्चात आत्मा बचती है। आत्मा मुक्त है, भक्त है।
*इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले – गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तन से निकले।।*
यदि हम ऐसा करते हैं तब हमारी आत्मा सीधे…
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।*
( श्रीमद भगवतगीता 4.9)
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
जब शरीर को त्याग दिया तो त्याग ही दिया, नो मोर, दूसरा शरीर अपनाने की आवश्यकता नहीं है। तत्पश्चात आत्मा सीधे भगवत धाम लौटती है और वहां अपनी अपनी सेवा में स्थित हो जाती है। हम क्या बता रहे हैं? स्मरण करना है या वृंदावन में वास करना है- शुद्ध मन और आत्मा के स्तर पर यह संभव है। हम जहां भी हैं वही बात शिवराम महाराज भी यहां लिख रहे हैं कि हम जहां भी हैं, वहीं रह सकते हैं। शरीर और कहीं भी है लेकिन हमारा वृंदावन में वास तो हो रहा है। हरि! हरि! वृंदावन वास या कृष्ण भावना भावित होने के लिए यह सब साधन भी है। फिर यह कार्तिक व्रत एक साधन है। इस महीने में दामोदरष्टक का पाठ या गान या दीपदान यह भी एक साधन है। यहां अगर आ कर रह ही सकते हैं और यहां पर परिक्रमा कर सकते हैं तब यह संस्मरण और कितना आसान हो जाता है। वहां जाओ जैसे आज वहां परिक्रमा के भक्त मथुरा में हैं। कल आधा दिन, आज पूरी रात रहे। आज पूरा दिन रहेंगे और एक और रात बिताएंगे और कल वहां से मथुरा से प्रस्थान करेंगे। जब वे एक दो दिन वहां बिताएंगे तो वे कृष्ण जन्मस्थान जाएंगे, वे कल गए थे। वहां केशव देव का दर्शन करेंगे। वास्तविक जन्म स्थान (एक्चुअल बर्थ सपोर्ट) अर्थात जहां कृष्ण मध्यरात्रि की अष्टमी को प्रकट हुए थे, वहां पहुंच जाएंगे। वहां पढ़ेंगे भी कि “जो भी व्यक्ति कार्तिक मास में जन्म स्थान आ जाता है, दर्शन करता है.. उसका दुबारा जन्म नही होता।
*भारतामृतसर्वस्वं विष्णुवक्त्राद्विनिः सृतम। गीता- गङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥*
(गीता महात्म्य ५)
अर्थ:- “जो गंगाजल पीता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है। अतएव उसके लिए क्या कहा जाय जो भगवद्गीता का अमृत पान करता हो? भगवद्गीता महाभारत का अमृत है और इसे भगवान् कृष्ण (मूल विष्णु) ने स्वयं सुनाया है ।”
वहां हमने साइनबोर्ड पर लिखा हुआ है। इस प्रकार कृष्ण का स्मरण कितना आसान है। उनके जन्म स्थान पर पहुंचकर और उंगली करके कहेंगे, यहां पर जन्म हुआ था, यहां पर जन्म हुआ था। जन्म होने के पहले देवता आए थे, गर्भ स्तुति हो रही थी। तब यह हुआ, वह हुआ और वह हुआ था। तत्पश्चात भक्त विश्राम घाट जाएंगे, यमुना में स्नान करेंगे। यमुना मैया की जय! संकल्प करेंगे और वहां यम, यमी का दर्शन करेंगे। यम मतलब यमराज और यमी मतलब यमुना। उससे भी मुक्त होंगे। इस प्रकार मुक्त होते जाते हैं।अलग-अलग स्थान जाएंगे, वहां की लीला का श्रवण करेंगे, प्रार्थना करेंगे, दंडवत प्रणाम करेंगे। वहां की धूलि में लौटेंगे।
ओह यह स्थान कुब्जा का है, कृष्ण यहां आए थे और कुब्जा को दर्शन दिया था इत्यादि इत्यादि। यहां पर कुब्जा, कंस के लिए कुछ अंगराग या कुछ चंदन लेप लेकर जा रही थी। कृष्ण, बलराम का चंदन लेपन हुआ। यहां पर देखो, यहां कौन सा क्षेत्र है। रंगेश्वर महादेव है, यहां पिपलेश्वर महादेव है या गोकर्णेश्वर महादेव, यहां भूतेश्वर महादेव है। वहां भक्त जाएंगे। चार दिशा में चार महादेव धाम की रक्षा कर रहे हैं। शिवजी, धाम के पाल या मथुरा के पाल बनकर कृष्ण व धाम सेवा कर रहे हैं। वे मथुरा के पालक अथवा रक्षक हैं। रंगेश्वर महादेव मंदिर के पास में ही रंगमंच है, जहां कृष्ण बलराम अक्रूर को लेकर पहुंचे थे, जहाँ पर कल पदयात्रा थी। तब वहां से कृष्ण बलराम को लेकर आगे बढ़े। कृष्ण बलराम चल कर वहां मथुरा का दर्शन कर रहे थे। भगवान ने रास्ते में कोई धोबी देखा और वस्त्रों की मांग की। यह सारी पूरी लीला है। जहां कृष्ण ने अपने वस्त्र पहने- ‘जैसा देश, वैसा भेष’। कृष्ण ने धोबी से सारे वस्त्र ले लिए। वह दे नहीं रहा था तब भगवान ने अपने हाथ से उसके सिर को काट लिया। वहां जो ग्वाले के वेश में दर्शन दे रहे हैं, इसलिए उन्होंने वस्त्र पहन तो लिए लेकिन वस्त्र लंबे थे कुछ सही नही थे, तब वे टेलर के पास गए, तब वह उन वस्त्रों को उनके साइज के बना देता है। तब वे आगे बढ़ते हैं तब आगे एक माली अथवा फूल वाला वहां था, तो उसने कृष्ण का माल्यार्पण किया। कुब्जा ने चंदन लेपन किया है तत्पश्चात आगे बढ़े तो यज्ञशाला में धनुर्यज्ञ हो रहा है। कुछ समय के लिए कृष्ण बलराम उस यज्ञ को देखते रहे। तब वे फिर आगे बढ़े और उन्होंने जैसे ही धनुष को उठाया और उसके टुकड़े हो गए। उसकी आवाज दूर-दूर तक पहुंच गई। कंस ने भी उस आवाज को सुना – ‘ओह! उस धनुष को किसी ने तोड़ दिया है।’ कंस को बताया गया था कि जो इस धुनष को तोड़ेगा, वही कंस की मृत्यु का कारण बनेगा और वही हुआ वैसे तब तक वह जंगी मैदान में बैठे थे लेकिन यह जब धनुष के टूटने की ध्वनि सुनी तो वह कांपने लगा। तब उसने सोचा कि रास्ते में कोलयापीड़ है, वह कृष्ण की जरूर जान लेगा, कृष्ण बलराम को मार देगा लेकिन उल्टा हुआ। कृष्ण बलराम नहीं अपितु कोलयापीड़ नाम का हाथी जोकि पृथ्वी पर सबसे अधिक बलवान हाथी है, कृष्ण बलराम ने उसकी खेलते खेलते जान ले ली। उन्होंने इस हाथी के दोनों दांत उखाड़ लिए। कृष्ण ने बलराम को कहा- तुम उसको ले लो। वे दोनों एक एक हाथी दांत लेकर आगे बढ़ रहे थे। तब कृष्ण बलराम को सबसे पहले कंस ने देखा होगा। अरे यह जीवित है! और यह क्या लेकर चल रहे हैं ? अरे यह तो मेरे हाथी के दांत है। इन्होंने मेरे कोलयापीड़ का भी अंत कर दिया अब मेरा अंत जरूर करने वाले ही हैं।
लेकिन उनको पहले चारूण, मुष्टिक, शल, कौशल के साथ लड़ने दो। कृष्ण बलराम लड़े, जब वे नहीं रहे, उनको लिटा दिया, सब पहलवानों की जान ले ली। तब कृष्ण कंस की ओर आगे बढ़े और उसको नीचे घसीट लिया। थोड़ा डिशूम डिशूम ,थोड़ा बॉक्सिंग हुआ। कुछ हल्का सा, ज़्यादा कुछ प्रयास नहीं करना पड़ा। तत्पश्चात कंस मामा नहीं रहे। ‘ही वाज नो मोर’ हरि! हरि! शोक सभा भी हुई। शोक सभा में भी कृष्ण गए कि मामा नहीं रहे। जिस समय कंस की हत्या हुई तब कंस के कंक आदि आठ भाई थे, वे आगे बढ़े। बलराम ने उनको भी ऐसे ही लिटा दिया। बलराम ने उनको संभाला। तत्पश्चात शोक सभा में कृष्ण बलराम भी रोने लगे.. मामा नहीं नहीं रहे, कितने अच्छे थे, ये थे, वे थे। ‘कृष्ण एज ए परफेक्ट पर्सन है। कृष्ण ने अपनी शब्दांजली भी कहकर सुनाई है। कृष्ण शोक कर रहे हैं।
यह जो थोड़ा-थोड़ा हमने हल्का सा उल्लेख किया, पदयात्री इन स्थानों पर अधिकतर जाते हैं और उस लीला का वहां स्मरण होता है। तो कितना आसान है! वी गो ऑन द स्पॉट, उंगली कर दिखाते हैं कि यहां पर यह लीला हुई, वहां पर वह लीला हुई। उसके बाद यह हुआ, कृष्ण वहां गए, उसके बाद वहां से वहां गए
फिर कृष्ण का स्मरण बहुत आसान हो जाता है। आप इस परिक्रमा का अनुसरण करो। परिक्रमा पार्टी के साथ आप रहो। आपको ऑनलाइन परिक्रमा भी दिखाई जा रही है। यह ब्रज मंडल ग्रंथ भी है, इसको भी आप पढ़ सकते हो। जब आप पढ़ोगे, याद करोगे, स्मरण करोगे तब आप अपने नगर, अपने ग्राम में नहीं रहोगे। आप वहां लीला स्थली पर होंगे। आपकी आत्मा उस लीला को देखेगी, सुनेगी और उसी के साथ
*नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।।*
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107)
अनुवाद:- “कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”
इस श्रवण से ‘नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम’ हमारा जो कृष्ण प्रेम है। ‘वी लव कृष्ण’ ‘आत्मा लव्स कृष्ण।’ आत्मा का प्रेम भगवान से ही है। आत्मा और किसी से प्रेम नहीं कर सकती। इस देहात्मबुद्धि के कारण वह अपने को शरीर मान बैठती है।
*यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥*
( श्री मद भागवतम 10.84.13)
अनुवाद:- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता – ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है।
हम आत्मा की बजाय शरीर बन जाते हैं कि मैं यह शरीर में हूं। यह मेरा आईडेंटिफिकेशन(पहचान) है फिर हमें दूसरे शरीर से प्यार हो जाता है अथवा लगाव होता है। फिर इस भौतिक मन / भौतिक बुद्धि या दुर्बुद्धि या विनाश काले विपरीत बुद्धि के कारण रोज हमारा विनाश काल आ जाता है। विपरीत बुद्धि के कारण दिमाग उल्टा पुल्टा काम करता है, सोचता है और हम पूरे माया में लिप्त हो जाते हैं। माया का स्मरण करते हुए शरीर और यह दूषित मन, भ्रमित बुद्धि यह संसार से प्रेम करती है। माया से प्रेम करती है लेकिन वैसे आत्मा तो किसी और से प्रेम नहीं कर सकती। यह संभव नही है। आत्मा का प्रेम तो भगवान से ही है। जो हमारा प्रेम कृष्ण से है, उसको जगाना है। वह होता है इसलिए यह सारे साधन हैं।
नवधा भक्ति में जो पादसेवन है। यह परिक्रमा ही पादसेवन है। तत्पश्चात
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
मुख्य साधन तो यही है- नाम स्मरण। इसी के अंतर्गत या उसी से जुड़ा हुआ यह परिक्रमा या दामोदर मास में वृंदावन वास परिक्रमा करना वृंदावन का परिभ्रमण हुआ । फिर उसके साथ स्मरण देख लीजिए, फायदा उठाओ। कृष्ण प्रेम जगाने का फेवरेबल सीजन है । ‘टेक फुल एडवांटेज’।
पंढरपुर में भी कई भक्त पहुंचे हैं। राधा पंढरीनाथ की जय!
पंढरपुर धाम की जय!
कई सारे यात्री आए हैं वे भी कार्तिक मास में पंढरपुर धाम में वास कर या पंढरपुर यात्रा कर फायदा उठा रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज भी वहां पहुंचे हैं। वे यात्रियों को संबोधित कर सकते हैं और कृष्ण की याद दिला सकते हैं। पांडुरंग! गौरंग! पांडुरंग गौरंग! पांडुरंग! गौरंग!
हरि! हरि! हरि! हरि!
अब दर्शन का समय है, अपने अपने विग्रह के दर्शन अपने-अपने मंदिरों में करो। हरि बोल!
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
22 अक्टूबर 2021,
वृंदावन धाम.
हरि बोल, हमारे पदयात्री भी सुन रहे हैं वृंदावन में, आप भी आप परिक्रमा कर रहे हो आशा है और हम आपको प्रेरना देना चाहेंगे। आप परिक्रमा को देखे या सुने ऑनलाइन परिक्रमा की मैं बात कर रहा हूं। आपके सुविधा के लिए क्योंकि आप ब्रजमंडल नहीं पहुंचे तो आपके घर पर परिक्रमा को पहुंचाया जा रहा है। होम डिलीवरी हो रही है परिक्रमा की तो उसका फायदा उठाइए। मॉरीशयस में पहुंच रही है परिक्रमा हर जगह यह उपलब्ध है। और दामोदरअष्टकम गाइये और दीपदान कीजिए इस महीने में। और दीपदान करवाइये औरों से।
हरि हरि उत्तिष्ठीत जाग्रत वराण निबोधत ऐसे एक वेद वाक्य या वाणी है। उत्तिष्ठीत उठो, जाग्रत जागो, वराण निबोधत और भगवान ने इस समय आपको जो वरदान दिया है उन वरदानों को समझो। बोध कराओ। वरान्निबोधत मनुष्य जीवन ही बहुत बड़ी देन है या वरदान है। दुर्लभ मानव जन्म यह जीवन बहुत दुर्लभ है। अध्रुवमपि अर्थदम प्रल्हाद महाराज ने कहा है, मनुष्य जीवन है तो अध्रुवम। अध्रुवम मतलब है इसकी कोई गारंटी नहीं है शाश्वतता का नहीं है। या यह सब होते हुए भी अर्थदम यह अर्थपूर्ण है, अर्थदम। तद अपी अर्थदम प्रल्हाद महाराज ने कहा है, अर्थपूर्ण ऐसा यह मनुष्य जीवन। भगवान ने इस वक्त हम को दिया है। इस वक्त हम शुकर कुकर ही बने हैं। शुकर मतलब सूअर कुकर मतलब कुत्ते। कुत्ते बिल्ली नहीं बने हैं। इस वक्त हमें मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है। और यह दुर्लभ देह हैं तो इसका पूरा लाभ उठाओ। वह कहते हैं और फिर इस महीने में दामोदर महीने में दामोदर मास का पूरा लाभ उठाओ। अपने और अपने मनुष्य जीवन को सार्थक करो।
हरि हरि, मनुष्य जनम पाइया राधा कृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाईलो। मनुष्य जीवन तो प्राप्त हुआ है किंतु, इस मनुष्य जीवन का उपयोग हम राधा कृष्ण के प्राप्ति के लिए अगर हम नहीं कर रहे हैं। अगर हम राधा दामोदर के प्राप्ति के लिए राधा दामोदर को प्रसन्न करने के लिए नहीं कर रहे हैं तो, फिर हम क्या करेंगे, जानिया शुनिया विष खाइलो हम जहर पिएंगे। तो जहर मत पियो। अमृत पियो। टनों में अमृत उपलब्ध है। यह दामोदर मास अमृत पान करने का महीना है। समय है। जहर को मारो गोली, फेक दो। त्याग दो। ठुकरा दो। इस संसार का जहर माया है जहर और कृष्ण है अमृत।
हरि हरि, अक्रूर घाट पर परिक्रमा अब थोड़ी देर में पहुंच ही रहे हैं। अक्रूर घाट वहां भी स्मरण करेंगे हम अक्रूर जी का स्मरण करेंगे। अक्रूर गए वैसे वृंदावन, मथुरा में कंस के साथ रहा करते थे। कंस ने भेजा अक्रूर को भेजा लेकर आओ कृष्ण बलराम को। अक्रूर गए और कैसे गए और क्या क्या चिंतन कर रहे थे रास्ते में। यह भी स्मरणीय बात है। स्मरण करने योग्य बात है, कैसे और क्या भाव थे। क्या विचार थे। कैसे उत्कंठा थी अक्रूर जी की।
श्रील प्रभुपाद कहते हैं, वृंदावन जाना है तो कैसे जाओ अक्रूर जैसे। वृंदावन जाओ जैसे अक्रूर गए। हरि हरि, जब अक्रूर कृष्ण बलराम का चिंतन कर ही रहे थे रास्ते में और महत्वाकांक्षा यह थी, “हां हां आज मैं देख लूंगा। आज मैं मिलूंगा। आज मैं दर्शन करूंगा कृष्ण बलराम का”। जब कृष्ण बलराम उन्होंने देख ही लिया, ददर्शकृष्णंराममचव्रजे गोधुवनम गतो सायंकाल के समय पहुंचे अक्रूर मथुरा से वृंदावन पहुंचे। मतलब नंदग्राम पहुंचे। नंदभवन पहुंचे और वहां पहुंचते ही कृष्ण बलराम का दर्शन किए। ददर्शकृष्णंराममचव इतना ही कह कर आगे की लीला की बात करते हैं शुकदेव गोस्वामी भी। और कृष्ण बलराम को देखें बस आगे बढ़ो किंतु, शुकदेव गोस्वामी ने अक्रूर ने जो ददर्शकृष्णंरामम राम मतलब बलराम कृष्णम मतलब श्रीकृष्ण को देखा तो कैसे देखा क्या? देखा उनके सौंदर्य को, देखा उनके चाल को देखा, उनके कुछ लीलाओं का भी स्मरण कर रहे हैं जब उन्होंने देखा कृष्ण बलराम को। अक्रूरने जैसे देखा आंखों देखा वर्णन शुकदेव गोस्वामी हमको सुना रहे हैं। भागवत कथा में वर्णन सुनाएं हैं। तो कोई भी भाग्यवान, आज भाग्यवान हैं। आज हम उनको उसको पढ़ना चाहते हैं। संक्षिप्त में समय कम है। आइये हम दर्शन करते हैं। जैसे दर्शन किया अक्रूर ने। क्या क्या देखा कृष्ण बलराम में, क्या-क्या देखा। आप भी देखना चाहते हो कृष्ण बलराम को। जरा उत्कंठित हो तो फिर दर्शन होंगे या जो सुनेंगे आप भी देखेंगे कैसा दर्शन रहा, या त कुछ साक्षात्कार या अनुभव भी रहा उनका। हरिबोल! ब्रजे गोधुवनम गतो सायंकाल के समय पहुंचे हैं अक्रूर नंदभवन या नंदग्राम में, नंदभवन के प्रांगण में। वैसे कृष्ण बलराम गोदोहन से अभी अभी लौटे है। गोचारण लीला खेलकर अब नहा धोकर स्नान हुआ है। अभिषेक हुआ है। और तुरंत ही अगला काम उनका है गो दोहन गाय का दूध निकालना। उसके लिए जब वे जा रहे थे गौशाला के लिए ओर तो अक्रूर उसी समय पहुंचे कृष्ण बलराम को देखें। पीत नीलांबरो अधरों शरद अंबुहृहेक्षणो…. कैसे कृष्ण बलराम थे पीतनीलांबर धरो, अंबर मतलब वस्त्र। कैसे थे वस्त्र, एक में नीले वस्त्र पहने थे वह थे बलराम और पीत पीतांबर वैसे नाम भी है कृष्ण का एक नाम भी है पितांबर और बलराम का नाम है नीलांबर एक ने मिले वस्त्र पहने हैं एक में पीले वस्त्र पहने हैं पीतांबर शरद अंबुहृहेक्षणो. और उन्होंने व्यक्ति को देखना है तो जब तक उनकी आंखों को नहीं देखते तो देखना पूरा नहीं होता। यहां तो अक्रूर कृष्ण बलराम का दर्शन उनकी आंखों का दर्शनसे ही कर रहे हैं। शरद अंबू शरद ऋतु में खिले हुए कमल के पुष्प जैसे श्रीकृष्ण बलराम की आंखें।
पदमालोचनी कमललोचनी कृष्ण बलराम को देखें। हमारी आंखें तो मर्कट लोचनी होती है। बंदर जैसी हमारी आंखें होती है। लेकिन कृष्ण बलराम पदमालोचन नमः पंकजनेत्राय कुंती महारानी ने भी कहा था। नमः पंकजनेत्राय पंकज नेत्र किशोरों श्यामल श्वेतो श्रीनिकेतो बृहद भुजो…. दोनों भी किशोर आयु की दृष्टि से, उनकी उम्र की दृष्टि से किशोर कहने से उम्र का पता चलता है। एक समय वह कुमार थे, फिर पोगंड अवस्था को प्राप्त किए। अब उनकी उम्र थी कुछ 11 साल की है कृष्ण बलराम कि। बलराम थोड़े और बड़े है कृष्ण से लेकिन अब 10 से 15 साल की आयु किशोरावस्था कहलाती है। तो किशोरों दोनों किशोर हैं। श्यामल श्वेतो अंकेश विग्रहों की जो कांति है ,रंग है, कृष्ण है श्यामल और बलराम है श्वेतो जैसे शंख होता है या हंस होता है सफेद होते हैं श्वेतो एक है श्वेत वर्ण के दूसरे कृष्ण श्यामल वर्ण के। जयति जयति देवो मेघश्यामल कोमल अंगों जगन्नाथ की प्रार्थना में हम गाते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गाये जगन्नाथ को देख रहे थे तो उन्होंने वर्णन किया। जयति जयति मेघश्यामल कोमल अंगों अंग भी कोमल है। श्यामल कोमल कृष्ण श्यामल और कोमल तो दोनों भी है कृष्ण बलराम। लेकिन वर्ण की दृष्टि से कृष्ण श्यामल और बलराम श्वेत वर्ण के हैं। श्रीनिकेतो और यह लक्ष्मी के श्रीनिवास कहते हैं। भगवान को कहते हैं श्रीनिवास मतलब लक्ष्मी निवास। जहां भगवान वहां लक्ष्मी का वास होता है। वही रहती है लक्ष्मी भी या उनके गोद में या उनके ह्रदय में या उनके वक्षस्थल भी हैं वहां पर भी रहती हैं लक्ष्मी। और वृंदावन में तो लक्ष्मी सहस्त्र शतसंभ्रम सेव्यमानो तो यह गोपिया ही लक्ष्मीया हैं। और कृष्ण की गोपियां है। बलराम की अपनी गोपियां है। इसीलिए कहां है श्रीनिकेतो और बृहदभुजो और फिर इनका गुण है यह महाभुज है पाही पाही महाभुजो हे महाभुज रक्षा करो रक्षा करो।
हरि हरि, सुमुखो सुंदरवरो बालवीरदविक्रमो इस तरह दर्शन किए बलराम का दर्शन किए। सुमुखो सुंदर मुख वाले। पुर्णेदो सुंदरमुखात सूमोखो सुंदरवरो सुंदरवर होते हैं। नटवर भी होते हैं। वर मतलब श्रेष्ठ। तो यह दोनों श्रेष्ठ और सुंदर भी है। सौंदर्य की दृष्टि से सौंदर्य में यह सबसे अधिक श्रेष्ठ है। किसी की भी तुलना नहीं हो सकती है कृष्ण बलराम के सौंदर्य के साथ। और बालवीरदविक्रमो वीरद मतलब हाथी, बालहाथी। मानो दो छोटे हाथी है और वैसे ही उनकी चाल है। उनका पराक्रम विक्रमो उनका पराक्रम हाथी जैसा है हाथी जैसे पराक्रमी है या बालहाथी जैसे इनकी चाल है। बालवीरद विक्रमो और आगे दर्शन में और भी थोड़ा गहराई में जाकर दर्शन की बात हो रहे हैं। थ्वजवज्रांकुशमभोजये चिन्हभिर अंगीरभिर व्रजम.. उनके चरणकमल में कृष्ण बलराम के चरणो में चरणकमल में कई अलग अलग चिन्ह है। यहां पर कुछ चिन्हों का ही उल्लेख हुआ है। ध्वजा है वज्र है। वज्र हथियार है और अंकुश है। हाथी को नियंत्रण में रखने के लिए जो होता है वह अंकुश है। अंबुजे कमल के पुष्पोका चिन्ह है और इन चिन्होसे भगवान के चरण कमल में तलवे में ऐसे चिन्ह है और ऐसे यह चिन्ह वाले चरण वृंदावन में चलते हैं शोभायंतो ब्रजम ब्रज वृंदावन में जब चलते हैं तो शोभा बढ़ाते हैं। यह वृंदावन ब्रज भूमि तो सम अंलकृत करते है। वृंदावन का डेकोरेशन होता है भगवान के चरणों के चिन्हों से। यह चिन्ह भी चिन्हा अंकित है।
महात्मानो अनुक्रोशसितोइक्षणो…. हरि हरि उदार रुचिरक्रिडो ….. उनकी जो क्रीडाये हैं लीलाये है, क्रीडा है यह औदार्य है। कृष्ण बलराम अपनी लीला खेल कर अपने औदार्य का उदारता का प्रदर्शन करते हैं। यह हमको दान देते हैं। यह लीला का ताकि हम सुने और लाभान्वित हो। श्रगविनो और कई प्रकार के मालाएं पहनते हैं। वह मोती की माला है या अलग-अलग गए हैं। और वनमालो घर में यशोदा ने तो कई सारे अलंकार पहनाए थे कृष्णा को। कृष्ण गए मित्रों के साथ वन में पहुंचते हैं। मित्रों को लगता है नहीं यह सब अच्छा नहीं है। यह माला यह अच्छे नहीं हैं। यह तो बनावटी है। यह किसी ने तो बनाई है। तो वहां की पुष्पों से, पुष्प है, कुछ पत्र भी है उससे मालाएं बनाते हैं और पहनाते हैं कृष्ण बलराम को। तो फिर वनमाली कहलाते हैं। पदमामाली कहलाते हैं। वैजयंती कहलाते हैं। वैजयंती माला ऐसे वनमालो अक्रूर ने देखा कि वहां वनमाला भी पहने हुए हैं। पुष्पगंधानुलिप्तमअंगौ स्नातो विरजवाससो जैसे ही वह लौटे थे और गोचारण लीला से यशोदा और रोहिणी का पहला काम या उनका स्वागत होता है और फिर उनका स्नान करवाती है दिन भर जो वस्त्र पहने थे कृष्ण बलराम ने और सारे ब्रज की धूल वस्त्रों में और सारा धूल उनके अंगों में भी जैसे कि पांडुरंग बन जाते हैं तो उनके वस्त्र उतारकर उनका अभिषेक होता है नए वस्त्र पहनाए जाते हैं। विरजवाससो स्नातो, अक्रूरजी ने देखा कि उन्होंने स्नान किया। अभी अभी स्नान किया है ऐसा दर्शन किया हुआ और वस्त्र पहने हुए हैं विरजवाससो अच्छे साफ कपड़े पहने हुए हैं। इसमें गंदगी नहीं है। अभी-अभी नए वस्त्र पहने हैं। और जब अभिषेक स्नान हुआ तो पुण्यगंधानुलिप्तांगो, कई सारे सुगंधी दिव्य द्रव्य का लेपन हुआ है। चंदन आदि सौरभ से लिप्त अंगों और संभव है कि अक्रूरजी वे सुंघ रहे हैं। वैसे श्रीकृष्ण का शरीर ही सुगंधित है। वैसे हमारे शरीर तो उसमें बदबू आती रहती हैं लेकिन कृष्ण बलराम के शरीर विग्रह बहुत स्वाभाविक ही सुगंधित रहते हैं। यह वैशिष्ट्य है उनके विग्रह का उनके रूप का। स्वाभाविक वह सुगंधित है। और ऊपर से गंधो का जो लेपन है। गंधोलिप्तांगो भी हुआ है। प्रधानपुरुषो यह दोनों कैसे हैं कृष्ण और बलराम प्रधान पुरुष है गोविंदम आदि पुरुषम आदि पुरुष है। प्रथम पुरुष है। प्रधान पुरुष है। जगतहितुहू और यह सारे संसार के जगतहुतू मतलब कारण है।
सर्व कारणकारणम कृष्ण बलराम की जय! सभी कारणो के कारण जगतहतू है। जगतपति और सारे संसार के यह स्वामी है। पति है। हरि हरि, केवल राधा पति ही नहीं है, हम सबके भी पति भगवान ही हैं। वह है पुरुष। कृष्ण और बलराम है पुरुष और बाकी सब स्त्रियां है पुरुषः प्रकृति भगवान पुरुष है और हम सब प्रकृति स्त्रियां हैं। स्त्रियों के होते हैं पति। हमारे पति कृष्ण बलराम है। कैसा दर्शन किया जगतपति का दर्शन किया अक्रूर जी ने अवतीर्णोजगत्यर्थी समक्षेण बलकेशवो और वे अवतीर्णो दोनों प्रकट हुए हैं। जगत के कल्याण के लिए मतलब हमारे कल्याण के लिए। हम सुन रहे हैं। याद रखना हमारे कल्याण के लिए हमारे फायदे के लिए, हमारे उद्धार के लिए या केवल हम को दर्शन देने के लिए और दर्शन देकर या फिर श्रील प्रभुपाद ने हमको कृष्ण बलराम दिए। अक्रूर घाट में दर्शन है कृष्ण बलराम का दर्शन है। अक्रूर जी बीच में है और कृष्ण बलराम उनके दाएं और बाएं बाजू में खड़े हैं। उनको रथ में बिठाकर अक्रूर मथुरा के और ले जा रहे थे। अक्रूर घाट पर उन्होंने थोड़े समय के लिए रथ को रोका था तो, वहां भी कृष्ण बलराम का दर्शन है। और हमें भी श्रील प्रभुपाद कृष्ण बलराम मंदिर की जय! यहां मंदिर अंग्रेज का मंदिर नहीं है। कृष्ण बलराम का मंदिर है। इसमे अंग्रेज के मूर्ति की वहा स्थापना नहीं है। वहां कृष्ण बलराम है। हमारे कल्याण और हमको दर्शन देने के लिए है। विग्रहों के रूप में भगवान प्रकट होते हैं। दिशोविथी राजन कुर्वानु प्रभयास्वया अक्रूर जी ने अनुभव किया कि कृष्ण बलराम के उनके अंगों से प्रभया प्रभा कांति निकल रही हैं। वितरित हो रही हैं। उसी के साथ सारे दिशा ओ में 10 दिशाओं में जो अंधेर हैं उसको मिटा रहा है वह प्रकाश। कोटी सूर्य समप्रभ अंधेरा दूर दूर भाग रहा है। उसी के साथ तमसो मा ज्योतिर्गमय हो रहा है। हे अंधेरे, अंधेरे में आया हूं यहां पर तो कृष्ण बलराम है और कृष्ण बलराम प्रकाश की ओर ले जा रहे हैं या प्रकाश दे रहे हैं। यथामार्कतशैलो रौप्यस्यकनकाचित्तो कृष्ण बलराम पहाड़ है। पर्वत है। रौप्य एक चांदी का और दूसरा सोने का या मरकत मणि का पर्वत है। ऐसा दर्शन ऐसा अनुभव हो रहा है और ऐसे कृष्ण बलराम को जैसे ही देखा अक्रूर जी ने, रथातुर्णमवप्लुत्य सुअक्रूरस्नेहविवलहः।
पपातचरणोपांते दंडवत रामकृष्णयो।।
वैसे यह सब रथ में बैठे-बैठे अभी रथ में ही है। रथ पहुंचा है और कृष्ण बलराम को सामने देखा है। अब क्या हो रहा है, यह दर्शन से वे स्नेहविवलहः स्नेह उमड आया है। और रथ से नीचे उतरे क्या, वह धड़ाम से गिरे हैं। पपात वह गिर गए। जैसे हम लोग उतरते हैं, गाड़ी से उतरते हैं, रथ से उतरते हैं, टांगे से उतरते हैं, वैसे उतरे नहीं वैसे गिर पड़े उनके चरणों में। किनके चरणों में, रामकृष्णयोः रामकृष्ण बलराम कृष्ण के चरणों में दंडवत प्रणाम करते हुए गिरे हैं। भगवदर्शन अल्हाद बाष्पकुलेक्षणः
पुलकचितांग औकंठ्यात
स्वख्याने नाशकमनृपो
श्लोक में लिखा है भगवत दर्शन अल्हाद कृष्ण बलराम के दर्शन से वे अल्हादित या आनंद के सागर में गोते लगा रहे हैं। और अब तो लोटांगन हो रहा है वहां। और अश्रु धाराएं बह रहे हैं। शरीर में रोमांच हैं। इतना सब हो गया अक्रूर जी का कृष्ण बलराम के दर्शन से।
हरि हरि, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! अभी हमें रुकना होगा क्योंकि मैं जहां पर हूं उस स्थान से मुझे अभी अक्रूर घाट पहुंचना है। फिर 7:30 बजे 740 तक देखते हैं अगर आपके पास समय है और इच्छा है पुनः मिलेंगे थोड़ी देर में। तब तक के लिए अपनी वाणी को विराम देते हैं। हमारा भी गला गदगद हो उठनख चाहिए था लेकिन ऐसा तो नहीं हो रहा है। विराम दे देंगे अभी।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
वृंदावन धाम से
21 अक्टूबर 2021
890 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं ।
हरि हरि !! महारास में आप सब रास नृत्य को ज्वाइन किए हो आज । रास नृत्य का प्रदर्शन है या रास क्रीडा की रात्रि है । यह बहुत बड़ी पार्टी है । सारे सितारे चंद्रमा भी चंद्रमा और चांदनी पर कृष्ण सितारे हैं । सितारे शुरू करते हैं रात । केवल सितारे ही एकत्रित हुए हैं । एक एक गोपी सितारे हैं । वे नेत्री है । नेता और नेत्री । नट कृष्ण है । नट राधा और गोपियां है नटी या नट नटी ।
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकार बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।
रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.21.5 )
अनुवाद:- अपने सिर पर मोरपंख का आभूषण , अपने कानों में नीले कर्णिकार फूल , स्वर्ण जैसा चमचमाता पीला वस्त्र तथा वैजयन्ती माला धारण किये भगवान् कृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ नर्तक का दिव्य रूप प्रदर्शित करते हुए वृन्दावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीक बना दिया । उन्होंने अपने होंठों के अमृत से अपनी वंशी के छेदों को भर दिया और ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया ।
यह उसी समय का वर्णन है रास क्रीडा के समय कृष्ण कैसे नट सज धज के राधा रानी के साथ । राधा रानी और गोपियां भी या पूरे मेकअप के साथ पधारे हुए हैं । हरि हरि !! तो नृत्य है अपने आल्हाद का प्रदर्शन नृत्य के साथ होता है । कोई नृत्य कर रहा है या कोई लेटा हुआ है बैठा हुआ है कोई चल रहा है किंतु जब कोई नृत्य कर रहा है तो फिर उसके तो फिर उसके खुशियों का कोई ठिकाना नहीं । वह आनंद लेता है । अपने आनंद का हर्ष का पूरा प्रदर्शन होता है जब व्यक्ति नृत्य करता है तो यह नृत्य की रात्रि रही और चलती रहेगी । ब्रह्मा की पूरी रात भर यह रासक्रीडा चलती रहेगी ऐसा भागवद् कहता है शुकदेव गोस्वामी कहते हैं । नृत्य होता है तो संगीत भी होता है । वाद्य भी बजते हैं । जैसे ताल और सुर हो तो फिर नृत्य भी हो सकता है या नृत्य में सहायता करता है यह ताल । मृदंग का ताल है तो सूर है कुछ गायन है तो
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह भी एक गायन हो सकता है । रासक्रीडा के समय जिस का गान संभव है या गाने योग्य है वैसा ही यह महामंत्र भी है और भी सारे गीत वे गाते ही रहते हैं । हरि हरि !! रिफ्लेक्शन कहो या छाया कहो या प्रतिबिंब कहो यह सिनेमा में मूवी में जो एक्ट्रेस और एक्ट्रेसेस गाते हैं बारी बारी से गाते हैं और साथ में नाचते भी हंन । सारा तमाशा दिखाते हैं यह है अपने काम का प्रदर्शन । अपने काम वासना का प्रदर्शन करते हैं या मूवी में नाचते हैं नाच के दिखाते हैं नंगा नाच या पुरा नंगा नाच भी होता है । वोटमलेस या टॉपलेस और उनके नृत्य भी रात्रि के समय होते हैं । केवल कृष्ण की नकल है । कृष्ण की रास नृत्य की नकल होती है । कृष्ण का रास नृत्य रात्रि के समय होता है तो दुनिया भर के जो पार्टी सोती हैं जो नृत्य होते हैं वे रात्रि के समय ही होते हैं । एक कृष्ण एक गोपी ऐसा भी नृत्य करके दिखाते हैं लोग । एक स्त्री एक पुरुष और वे कामी पुरुष या स्त्रियां भी अपने पुरुष के साथ नृत्य नहीं करती है । किसी को भी पकड़ लेती हैं या कोई अपने मर्जी से और जो भी स्त्रीयां एकत्रित हुई है उन्हीं के साथ वह नाचने लगते , सब अवैध है । सबसे निकृष्ट बात है या नंगा नाच है नृत्य है पार्टी है जो संसार भर में होती रहती है । लेकिन उत्कृष्ट है कृष्ण का नृत्य गोपियों के साथ और वह वास्तविक है ।
असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्तोतिर्गमय ॥ मृत्योर् मा अमृतं गमय । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
तो करना तो यह है “तमसो मा” वो तमोगुणी कामि कामुख यह संसार के जो जन है जो लोग हैं । फिर बॉलीवुड हॉलीवुड और बाकी सब तो वो जो भी खेल खेलते हैं उनकी पार्टी और उनके नृत्य तो वह तामसी, तमोगुण में वो सब होता है । लेकिन वेद वाणी के “तमसो मा” ऐसे अंधेरे में मत रहो । ऐसे तमोगुण बनके अपने काम का प्रदर्शन मत करो “तमसो मा ज्योतिर्गमय” प्रकाश की ओर जाओ अंधेरे में मत रहो, तो सचमुच यह प्रकाश है । जपा सेशन से पहले मैं बरांडे में जाकर जो दृश्य देखा वृंदावन में वह सचमुच ज्योतिर्गमय था या ज्योति थी जो मैंने देखा कोई भी दे सकता था और कईयों ने देखा होगा आज जो वृंदावन में पहुंचे हैं या आकाश में चंद्रमा पूर्णिमा का चंद्रमा का प्रकाश यह प्रकाश तेज और वृंदावन का ज्योतिर्गमय । आकाश में चंद्रमा और फिर व्रजमंडल में कृष्ण चंद्र और आकाश में चंद्र और चांदनी तो व्रजमंडल में भी कृष्ण चंद्र और यह सारी गोपियां एक एक चांदनी की तरह तो वो दृश्य कुछ विशेष रहा । हम कुछ देख रहे थे कुछ सोच रहे थे कुछ कल्पना कर रहे थे उस दृश्य का । हरि हरि !! इतने में फिर घोषणा भी होती है कृष्ण बलराम मंदिर में हमारे दीनबंधु प्रभु; मंगलआरती के उपरांत आप उस खीर को प्राप्त कर सकते हो और खीर का वितरण होता है । कौन सी खीर ? वैसे वृंदावन में यह प्रथा या यह बात प्रचलित है । रात्रि के समय वहां का बड़ा पात्र भरके खीर छत पर रखते हैं और क्योंकि रासक्रीडा होती तो उसमें काफी परिश्रम भी है तो राधा कृष्ण, गोपी कृष्ण वह थोड़ा रुक जाते हैं । बीच में थोड़ा विश्राम लेते हैं और उसके बाद थोड़ा नाश्ता कहो या खीर ग्रहण करते हैं तो उसी का जो बचा हुआ अबशेष, राधा कृष्ण का उचिष्ट जूठन फिर उसका वितरण होता है और यह समझ है कि वह चंद्र की जो किरणें हैं वह भी प्रवेश करते हैं इस खीर में और कृष्ण उसको ग्रहण करते ही हैं, तो उसका वितरण होता है कृष्ण बलराम मंदिर के कोर्टयार्ड में । हो भी गया, बहुत देर हो चुकी है अभी नहीं जाना आप वहां । यह शरद पूर्णिमा महोत्सव संपन्न हो गया, संपन्न हो रहा है ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह श्री कृष्ण की माधुर्यलीला है या श्री कृष्ण के “परकीय भावे जाहा, व्रजेते प्रचार” परकीय भाव का प्रचार यहां करते हैं वृंदावन में और उसका संयोजन इस रासक्रीडा में होता है । रासक्रीडा जैसी और कोई उसके समकक्ष और कोई लीला नहीं है । यह सबसे उत्तम है । सब लीलाओं में से यह रासलीला । सिर्फ रस ही रस । रस सागर में गोते लगाते हैं राधा कृष्ण गोपी कृष्ण । “माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नां” “प्रतिक्षणास्वादन-लोलुपस्य”
“वंदे गुरोः श्री चरणारविंदं” । और फिर केवल आस्वादन ही कर सकते हैं । यह भी कुछ कम नहीं है यह आस्वादन कर के हम उसमें सम्मिलित होते हैं । हमारा भूमिका क्या है ? बस राधा कृष्ण रासनृत्य खेल रहे हैं गोपी कृष्ण । हम केवल उसका वर्णन सुन सकते हैं, उसी का आस्वादन कर सकते हैं और फिर श्रील प्रभुपाद के शब्दों में ; हम तैयार होते हैं राधा कृष्ण नृत्य में सम्मिलित होने के लिए, ऐसे प्रभुपाद कहा करते थे । हमें तैयार होना है, को भी क्या करना है ? सम्मिलित होना है नृत्य में । राधा कृष्ण की जो नृत्य समूह है उसमे हमें भी सम्मिलित होना है । उससे पहले हमको उसके योग्य उम्मीदवार बनना है । हरि हरि !! कामी व्यक्ति, हरि हरि !! ना तो इस लीला को समझ सकता है ना तो इस लीला में प्रवेश कर सकता है । हरि हरि !! इस लीला में काम का गंध भी नहीं है ।
राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ ।
चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 1.5 )
अनुवाद:- श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं ।
यह राधा कृष्ण का प्रणय का प्रदर्शन जो प्रेम से भी ऊपर । प्रेम से भी ऊपर है स्नेह, स्नेहा के ऊपर है मान, मान से ऊपर है यह प्रणय । यह सब अति शुद्ध व्यवहार है कृष्ण का । वैसे यह लीला माधुर्य लीला कहो या रासलीला कहो हम दुनिया वालों को, हमको यह लीला समझने में सबसे अधिक कठिनाई इस लीला को समझने में ही होती है । क्योंकि इस लीला में सारे प्रेम के व्यापार है । प्रेम का खेल है और हम हैं कामी और पापीयों में नामी, तो पापी, कामी, क्रोधी, लोभी मद मास्चर्य से जो पूर्ण है विशेष रुप से जो कामी जो है काम से ही सब उत्पन्न होता है । काम से ही क्रोध और क्रोध से फिर आगे लोभ इत्यादि इत्यादि । यह जो अवगुण है दुर्गुण है यह शत्रु है हमको पछाड़ लेते हैं । जब तक हम कामी हैं तब तक यह लीला हमारे पल्ले नहीं पड़ने वाली है । हम नहीं समझेंगे क्योंकि “आत्मवत मन्यते जगत” यह भी समस्या है । “आत्मवत मन्यते जगत” मैं जैसा हूं और भी लोग वैसे ही है । यहां तक कि कृष्ण राधा गोपियां भी वैसे ही है, तो हम जैसे राधा कृष्ण नहीं है । हम हैं कामी और राधा और कृष्ण है प्रेमी । कामि लोगे कृष्ण को दोष देते रहते हैं । उनमें गलतियां ढूंढते हैं । वे निंदा करते हैं पूर्ण पुरुषोत्तम श्री भगवान को । अरे भाई यह रासक्रीडा या माधुर्यलीला अगर काम का खेल, कामवासना का व्यापार होते तो श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु इतने कठोर सन्यासी थे वह बहुत कठोर थे वह कभी भी इस माधुर्यलीला का आस्वादन नहीं करते । गोविंद लीलामृत कृष्ण करुणामृत यह विषय सुना करते थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । हे कठोर सन्यासी और राधा कृष्ण का लीला का श्रवण करते हैं । क्योंकि राधा कृष्ण की लीला शुद्ध है पवित्र है । इसका आस्वादन नहीं करते नहीं करते वे कठोर सन्यासी थे और शुकदेव गोस्वामी स्वयं, गोस्वामी, परमहंस परिव्राजक आचार्य शुकदेव गोस्वामी और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ..
नानाशास्त्र – विचारणैक – निपुणौ सद्धर्म – संस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ – शरण्याकरौ ।
राधाकृष्ण पदारविन्द भजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे – रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव – गोपालकौ ॥ 2 ॥
अनुवाद:- मैं श्रील रूप- सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो अनेक शास्त्रों के गूढ़ अर्थों पर विचार करने में परमनिपुण थे , भक्तिरूप परमधर्म के संस्थापक थे , जनमात्र के परमहितैषी थे , तीनों लोगों में माननीय थे , शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्त मधुप के समान थे ।
षड्गोस्वामी वृंद राधा कृष्ण के भजन या राधा कृष्ण के लीला का स्मरण में मस्त हुआ करते थे । सबसे उनत्तम गोस्वामीयां, इंद्रीयों को बस करने वाले, मन को बस करने वाले यह षड्गोस्वामी वृंद उनके ध्यान का स्मरण का विषय राधा कृष्ण । राधा कृष्ण की संबंध की हर बात यह लीला शुद्ध है, पूर्ण है, नित्य है, तो जो स्वयं भी शुद्ध है वे हो पवित्र बन रहे हैं वे ही समझ सकते हैं इस लीला को । हरि हरि !! मुझे लगता है कि या इसीलिए कहा है कि हम में जो कामरोग, हम रोगी है, कौन सा रोग ? कामरोग हुआ है हमें । संसार का हर मनुष्य कामरोग से ग्रस्त है या इसको शुकदेव गोस्वामी हृद रोग भी कहे । 5 रास अध्याय के उस अध्याय के अंत में शुकदेव गोस्वामी ने कहा अध्याय 33, 10 वा स्कन्ध के
विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद्यः ।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.33.39 )
अनुवाद:- जो कोई वृन्दावन की युवा – गोपिकाओं के साथ श्रीभगवान् की क्रीड़ाओं को श्रद्धापूर्वक सुनता है या उनका वर्णन करता है , वह श्रीभगवान् की शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा । इस तरह वह शीघ्र ही धीर बन जाएगा और हृदयरोग रूपी कामवासना को जीत लेगा ।
तो इसमें शुकदेव गोस्वामी यह रासक्रीडा के कथा के वक्ता और महा भागवत द्वादश भागवतो में से । यह एक प्रमाण है साधु शास्त्र आचार्य । यह स्वयं साधु है आचार्य है तो उनके पक्की सिफारिश है कि, हम में जो कामवासना है हम कामी है उस से मुक्त कैसे हो सकते हैं ? सुनो इस लीला को सुनो । “अनुशृणुयाद” मतलब प्रामाणिक आचार्यों से गुरुजनों से शाहजीआ या पाखंडी उनसे नहीं सुनना । “अनुशृणुयाद” या
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
( भगवद् गीता 4.2 )
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है ।
उसको सुनो “श्रद्धान्वितो” श्रद्धा के साथ सुनो । किसको सुनना है ? “विक्रीडितं” जो क्रीडा, कौन खेले हैं क्रीडा ? “व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः” या विष्णु मतलब कृष्ण । कृष्ण और व्रजवधु । व्रज की वधु मतलब गोपियां । राधा कृष्ण या गोपी कृष्ण “विक्रीडितं” उन्होंने जो लीला खेली है रासक्रीडा उसको श्रद्धा के साथ आचार्यों से प्रामाणिक, व्यक्तियों से सुनो और साथ ही साथ उसको “वर्णयेद्यः” और वो सुनाते भी हैं, इसका वर्णन औरों को सुनाते हैं, स्वयं सुनते हैं और फिर सुनाते हैं । ऐसा करने से तो इसका मात्रा यह जो रासक्रीडा का लीला का जो वर्णन है इसी का मात्रा, यही औषधि है, यही दवा है । रोग है काम रोग यहां कहा है । “कामं हृद्रोगम” काम को हृदरोग या यह हुआ वह हुआ कार्डियका रेस्ट इत्यादि को दुनिया समझती है । हृदय का रोग हृदरोग लेकिन शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं हमारे जो कामवासना है हम लोग कामी ही हैं कामी । आई लव यू ! यह वह जो संसार भर में जो चलता है इसको “कामं हृद्रोगम” कह रहे हैं । यही है रोग और यह महारोग है, महामारी यही है । यह कोरोनावायरस वगैरह यह तो बड़ी क्षुलक, क्षुद्र रोग है । सबसे महा रोगा तो यह कामरोग ही है, तो रोग है तो रोक का फिर निराकरण हुआ । शुकदेव गोस्वामी निराकरण कर रहे हैं और उन्हीं का निर्धारण है । उन्होंने अभी-अभी जो सुनाई है कथा 5 अध्याय में इसको जो सुनते हैं और सुनाते हैं और वो हर एक के लिए मात्रा अलग-अलग होगा । हम कितने बीमार हैं कितना रोग है यह काम की मात्रा कम है या अधिक है इसके अनुसार ही मात्राएं होती है ना या तो फिर इसको साधारण वर्ड में दाखिल करते हैं नहीं तो सीधे अति दक्षता आईसीयू में पहुंचाते हैं या फिर कुछ केसेस के लिए, आप ले जाओ हमारे बस का रोग नहीं है । आप इनको घर को ले जा सकते हैं आपका यह मरीज । यह बड़ा सावधान पूर्वक उसका मात्रा लेना होगा और ऐसा करेंगे तो तो फिर “भक्तिं परां भगवति” ऐसा व्यक्ति भक्ति को प्राप्त करेगा । “परां भक्ति” और “अपहिनोत्यचिरेण धीरः” वो धीर बनेगा, स्थित होगा और उसका काम रोग से वो मुक्त होगा ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह भी औषधि है और रासक्रीडा के जो वर्णन है 5 अध्याय में वैसे 10 में स्कंध में कई स्थानों पर यह माधुर्यलीला का वर्णन है और लीलाओं का भी । गोचरण लीलाएं या सक्षरस से पूर्ण लीला या वात्सल्य रस भरी लीलाएं जैसी है दसवें स्कंध में, तो माधुर्यलीला का वर्णन भी कई अलग-अलग अध्याय में है लेकिन फिर भी 5 अध्याय विशेष माने जाते हैं तो यह सब औषधि है और इसी के समकक्ष है यह महामंत्र । हम भागवत का अध्ययन करते हैं भागवत को सुनते हैं “अणुशुणुयाद” या हम …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
एक ही दवा है जिसको शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं यह आप सुनो “अनुशृणुयाद”, “विक्रीडितं” जो क्रीडा “व्रजवधु” उनकी क्रीडा या गोपगनांए गोपियों की क्रीडा कृष्ण के साथ या उसको सुनो या हरे कृष्ण हरे कृष्ण महामंत्र को सुनो एक ही दवा है । यह भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण का ही तो व्याख्या है यह 5 अध्याय कहो । यह अनपैक्ड है । हरे कृष्ण हरे कृष्ण इसमें भरा हुआ है सारा यह माधुर्य लीला । उसमें भरी हुई है तो जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का ध्यानपूर्वक सुनते हैं श्रद्धा पूर्वक सुनते हैं तो उसका परिणाम भी उसका फल उसका श्रुति फल भी वही है जो शुकदेव गोस्वामी यहां रासपंच अध्याय में कहे हैं । “भक्तिं परां भगवति” वह भक्तिमान होगा, प्रेम को प्राप्त करेगा या हरे कृष्ण महामंत्र वैसे प्रेम हे ही । “गोलकेर प्रेमधन हरिनाम संकीर्तन” । हरि हरि !! ठीक है तो हम यही रुकते हैं ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*20 अक्टूबर 2021*
*पंढरपुर धाम से*
हरे कृष्ण
आज 925 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं, हरि बोल ! गुड नंबर, बैटर नंबर , स्वागत है। बैटर नंबर का कुछ कारण भी होगा अधिक संख्या आप जानते ही हो इसलिए हरि हरि ! आज अति विशेष दिन भी है और रात्रि भी,
*श्रीबादरायणिरुवाच भगवानपि ता रात्री : शारदोत्फुल्लमल्लिकाः । वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥*
(श्रीमद भागवतम 10.29.1)
अनुवाद – श्रीबादरायणि ने कहा : श्रीकृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण भगवान् हैं फिर भी खिलते हुए चमेली के फूलों से महकती उन शरदकालीन रातों को देखकर उन्होंने अपने मन को प्रेम – व्यापार की ओर मोड़ा । अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति का उपयोग किया ।
भगवान आज रात्रि को या फिर यह भागवत में भी कहा है केंटो नम्बर 10 चैप्टर 29 टेक्स्ट नंबर 1 जहां महारास की रात्रि है और जिस महारास के वर्णन के 5 अध्याय भी है। इसे रास पंचाध्य भी कहते हैं किंतु इन अध्यायों को भागवत का प्राण भी कहा है। रास क्रीड़ा की रात्रि और फिर वह रात्रि कल्प तक लंबी हो गई नॉट जस्ट फ़ॉर ट्वेल्व ऑवर और कैसे ? वह भी समझने की बात है। ब्रह्मा का एक दिन और एक रात होती है और ब्रह्मा के दिन को कल्प कहते हैं फिर रात भी उतनी ही लंबी होती है। कल उत्सव है श्रीकृष्ण रास उत्सव या श्रीकृष्ण शरदीय रास उत्सव, शरद ऋतु की रास यात्रा, रस से हुआ रास, रस का समूह इतना रस इतना रस की श्रीकृष्ण स्वयं भी रसेषय हैं अर्थात रस की मूर्ति स्वयं श्रीकृष्ण ही हैं तो एंजॉयएड रास डांस टुनाइट, इसे शारदीय रास कहते हैं। वृंदावन में यह प्रसिद्ध उत्सव मनाया जाता है और इसी के साथ आज से शरद ऋतु भी प्रारंभ हो रहा है । वैसे टेक्निकली कल से है क्योंकि आज की रात्रि को रास क्रीडा प्रारंभ जरूर हुई किंतु कार्तिक मास शरद ऋतु का मास है अश्विन और कार्तिक, राइट, आज अश्विन महीने की पूर्णिमा है । आपकी जानकारी के लिए, साल में छह ऋतु होते हैं वसंत ऋतु फिर ग्रीष्म ऋतु फिर वर्षा ऋतु फिर शरद ऋतु फिर हेमंत ऋतु और फिर शिशिर ऋतु, इस प्रकार 12 माह छह ऋतु, दो दो महीने की एक ऋतु होती है । अश्विन और कार्तिक दो मास मिलाकर शरद ऋतु होता है। आज शरद ऋतु की पूर्णिमा है ।
शरद पूर्णिमा भोजा गिरी पूर्णिमा महाराष्ट्र में कहते हैं, इसी के साथ दामोदर मास भी प्रारंभ हो रहा है। दामोदर मास जो चातुर्मास का चौथा और अंतिम मास है। चतुर्मास चल रहा है तो आज से चौथा मास प्रारंभ हो रहा है । दामोदर मास की बहुत सारी महिमा है और इस मास में कई सारे बड़े-बड़े उत्सव मनाए जाते हैं क्योंकि भगवान की बड़ी-बड़ी महत्वपूर्ण लीलाएं संपन्न होती हैं इस मास में, बिगिनिंग विद दामोदर लीला, इसी महीने में दिवाली भी है। इसी महीने में हुई दिवाली के दिन ही कृष्ण ने अपने ही घर में चोरी की, डाका डाला, फिर कृष्ण को ओखल के साथ बांध दिया, दामोदर लीला भी इसी महीने में हुई है और यह महीना रासलीला के साथ ही प्रारंभ हो रहा है और गोवर्धन लीला भी इसी महीने में संपन्न हुई है। कार्तिक मास में गोवर्धन को भी धारण किया और बहुला अष्टमी के दिन राधा कुंड का प्राकट्य हुआ, राधा कुंड की जय ! वृंदावन के सभी स्थानों में राधा कुंड सर्वोपरि है क्योंकि राधा सर्वोपरि है इसलिए उनका कुंड भी सर्वोत्तम है। उस कुंड का प्राकट्य इसी महीने में हुआ और आविर्भाव तथा तिरोभाव दिवस भी है। श्रील प्रभुपाद का तिरोभाव तिथि महोत्सव भी इसी महीने में हुआ। हम उसको मनाएंगे और गोपाष्टमी वत्स पाल से अबुध गोपा, इसी महीने में श्रीकृष्ण पौगंड अवस्था को प्राप्त हुए ।यानी 5 साल के बाद छठवां साल भी इसी महीने में प्रारंभ हुआ अतः गोपाष्टमी भी मनाएंगे। कार्तिक मास में ही बहुला अष्टमी है। कृष्ण पक्ष की बहुलअष्टमी और शुक्ल पक्ष की है गोपाष्टमी फिर इसी महीने में ही जो एकादशी आएगी शुक्ल पक्ष की एकादशी, उत्थान एकादशी, शयन एकादशी के साथ कृष्ण भगवान विश्राम करते हैं “शयनी एकादशी” पंढरपुर में उस दिन बहुत बड़ा उत्सव होता है और अन्य स्थानों पर भी होता है । सोए हुए भगवान उत्थान एकादशी के दिन जग जाते हैं।
तुलसी विवाह पूर्णिमा को होता है, अतः यह दामोदर मास तुलसी विवाह का मास भी है । इस प्रकार मैं सभी तो नहीं बता रहा हूं। हमारे नरोत्तम दास ठाकुर का तिरोभाव दिवस भी इसी महीने में है और गौर किशोर बाबा जी महाराज का तिरोभाव दिवस भी दामोदर मास में ही है। इतने सारे उत्सव और भी जो मैंने कहे भी नहीं, ये सारे दामोदर महीने में मनाए जाते हैं । सो ईट्स स्ट्रांग रिकमेंडेशन, कहा है इस दामोदर मास में, कार्तिक मास में वृंदावन वास करना चाहिए। वृंदावन में रहना चाहिए हरि हरि ! यदि वृंदावन में नहीं रह सकते यस ! सोच रहे हो? आपमे से कुछ लोग सोच रहे हैं लेकिन मेंटली तो रहना ही चाहिए । यहां आपका शरीर अहमदाबाद में हो सकता है या व्हाट एवर नागपुर में या हेयर एंड देयर , मिडल ईस्ट, लेकिन आप को मन से या दिल से इस मास में वृंदावन में रहना चाहिए वृंदावन वास करना चाहिए। यू शुड लूसिंग योर हार्ट इन वृंदावन ड्यूरिंग दिस मंथ, इस से पहले जब कभी आप यहां आए थे और चले तो गए, अपने अपने गांव नगर या देश व्हाट, दैन व्हाट हैपन? यू लॉस्ट योर हार्ट इन वृंदावन, उस हार्ट को खोजने के लिए, यू लॉस्ट योर हार्ट,नाउ यू कैन फाइंड योर हार्ट तो फिर वृंदावन आना होगा, गेट योर हार्टबैक और खोजते खोजते दैन यू लूज़ योर हार्ट मोर इन वृन्दावन, हार्ट को खोजते खोजते और अपने दिल को और खो बैठोगे। सो दिस इज़ द मंथ, गेट लॉस्ट इन वृंदावन, वृन्दावन में तल्लीन होना तल्लीन जो शब्द है उसे तत् + लीन तल्लीन ओम तत्सत अपने मन को लीन करना है। तत मतलब वृन्दावन, भगवान् भी होता है
*स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥*
*मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्धृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥*
*पादी हरे क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥*
(श्रीमद भागवतम 9.4.18)
अनुवाद – महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में अपने को भगवान् का गुणगान करने में अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने – बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन , को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में अपनी घ्राण – इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गईं तुलसी की सुगन्ध को सूँघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा करने में लगाया । निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त होने की यही विधि है ।
अपने मन से चिंतन करना है स्मरण करना है वृन्दावन का और कृष्ण की वृंदावन लीलाओं का, दामोदर की यथासंभव निवास करना है। वैसे सब समय तो पूरे मास के लिए तो नहीं लेकिन कुछ दिनों के लिए तो आप आ ही सकते हो प्रयास कीजिए ट्राई योर बैस्ट, वैसे दामोदर व्रत भी होता ही है कई सारे व्रत होते हैं एकादशी का व्रत भी होता है पतिव्रत भी होता है पतिव्रता नारियां होती हैं, होनी चाहिए कई सारे व्रत, ब्रह्मचर्य का व्रत होता है ब्रम्ह्चारियों के लिए बृहद व्रत भी है। एकादशी व्रत यह भी दामोदर व्रत भी एक व्रत है। भक्तिरसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी प्रभुपाद का रेकमेंडेशन है, दामोदर व्रत करना चाहिए तो चातुर्मास का व्रततो चल ही रहा है लेकिन चातुर्मास में भी एक व्रत होता है जो कि कुछ विशेष संकल्प या साधना के व्रत लिए जाते हैं। सभी मासों में दामोदर महीना सर्वोपरि है तो दामोदर मास दामोदर व्रत का पालन करना चाहिए। प्रतिदिन। आज से ही वैसे प्रारंभ हो रहा है तो दामोदरअष्ठक और दीपदान, आपको भी दीपदान करना है औरों से भी दीपदान करवाना है। आजकल इस्कॉन में कई सालों से मिडिल ईस्ट में जो दुबई है, दुबई का नाम दामोदर देश है , वहीं यह दामोदर ऑफरिंग लैंप या दीपदान की योजना प्रारंभ हुई और बहुत बड़ी संख्या में दीपदान करवाते हैं। मिडिल ईस्ट में कर रहे थे फिर धीरे-धीरे और नगरों में शहरों में देशों में हमारे शोलापुर में या शोलापुर ही क्यों, और स्थानों पर भी जैसे एशिया मॉरीशस या औरों को, आप औरों से करवा सकते हो यह भी एक व्रत है। दीप दान करना है, और उसे करवाना हरि हरि ! कृष्ण की लीला, श्रील प्रभु पाद की जो कृष्ण बुक है लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण उसका अध्ययन का आप संकल्प ले सकते हो और ब्रजमंडल दर्शन हमारी लिखी हुई पुस्तक या ग्रंथ उसको पढ़ सकते हो। कई सालों से भक्त पढ़ रहे हैं।
चैप्टर ए डे , ब्रजमंडल दर्शन में 30 अध्याय हैं तो चैप्टर के डे ,कीप्स माया अवे, गेट फैमिली एंड फ्रेंड्स टुगेदर और आप पढ़ सकते हो, ऑनलाइन भी पढ़ सकते हो, शेयर कर सकते हो, ब्रजमंडल दर्शन यदि आपके पास बुक नहीं है तब आप उसे आर्डर करें, हिंदी में है, अंग्रेजी में है और अन्य कई सारी भाषाओं में उसका अनुवाद हो रहा है, रशियन स्पेनिश बंगाली मराठी, छोटी परिक्रमा भी हो रही है। बृजमंडल में पिछले साल राधा रमण महाराज केवल पांच शिष्यों के साथ थे , लेकिन इस साल देखते हैं छोटी परिक्रमा के साथ ऑफलाइन ऑन ग्राउंड परिक्रमा होगी। बारह वनों की चौरासी कोस परिक्रमा आज से प्रारंभ हो रही है। आज या कल से है और आज से वैसे ऑनलाइन परिक्रमा भी शुरू हो रही है। लास्ट ईयर भी हुई थी। वह परिक्रमा तो आसान है. अटेंड करना आपको कहीं आना जाना नहीं है। जीना वहां मरना वहां घर छोड़कर जाना कहां , आप घर तो छोड़ते नहीं ,होम डिलीवरी होगी परिक्रमा की, उसको भी अपने व्रत की लिस्ट में जोड़ सकते हो। एवरीडे वॉच, वॉच ऑनलाइन परिक्रमा, कल से मैं परिक्रमा में होऊंगा या होउंगी। ठीक है। अब हम यहीं विराम करते हैं।
हरि हरि बोल !
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जप चर्चा
19 अक्टूबर 21
नोएडा से
858 स्थानो से भक्त जप कर रहे है | यहाँ कृष्ण है और यहाँ आप भी हो। गौर प्रेमानन्द हरि हरि बोल। नोएडा की जय, नोयडा भक्त वृंद की जय हो और आप सब की जय हो | जो जो जप करते है, उनकी जय कहो या ना कहो, उनकी जय विजय होती ही है |
अंत लीला 20.12
चेतो – दर्पण – मार्जनं भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेय : -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् । आनन्दाम्बुधि – वर्धनं प्रति – पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म – स्नपनं परं विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥१२ ॥
अनुवाद भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागररूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है । ‘
“परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तन” की गारंटी है, गौरांग महाप्रभु के द्वारा विजय की गारंटी है |
बस आप जप करते जाइए l
महामंत्र ही हमारा भगवान है, कृष्ण है, राधा है |
और फिर जहां कृष्ण है वहां पर आप भी हो |
BG 18.78
“यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम || ७८ ||”
अनुवाद
जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
यह गीता का अंतिम श्लोक है |
गीता के अंतिम श्लोक में भी भगवान ने यही कहा है | इस श्लोक मे संजय उवाच चल रहा है | जहां कृष्ण है, वहां आप भी हो या आप जप कर रहे हो या जप करके आप भगवान को अपने पास बुलाते हो | या स्वयं को भगवान के पास पहुंचाते हो | यही विजय है |
भगवान कहते हैं जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं, वहां मैं रहता हूँ |
नाहं तिष्ठामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेषु वा । तत्र तिष्ठामि नारद यत्र गायन्ति मद्भक्ताः ॥ ”
हे नारद ! न तो मैं अपने निवास वैकुण्ठ में रहता हूँ , न योगियों के हृदय में रहता हूँ । मैं तो स्थान में वास करता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरे पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं और मेरे रूप , लीलाओं गुणों की चर्चा चलाते हैं।
जो भक्त मेरा गान करते हैं, वहां मैं रहता हूँ | भगवान का उद्देश्य तो वही है, हमारा उद्देश्य भगवान की सानिध्य प्राप्ति है | जहाँ हम विमुख हुए है पर सनमुख होना है , उनके मुखारविंद के सन्मुख, उनको पुकारेंगे | अपनी जिह्वा पर भगवान के नाम का आस्वादन करेंगे | रूप गोस्वामी नामाष्टक में कहते हैं – कल मैं पढ़ रहा था, नाम को ही प्रार्थना कर रहे है। इसका मतलब है कृष्ण को ही प्रार्थना कर रहे हैं- हे कृष्ण!आपका नाम रसेना का जो रस है और जो आस्वाद है, आपका नाम स्वादिष्ट है, मेरी जिह्वा आपके नाम का आस्वादन सदा सदा के लिए करें, ऐसी आपसे प्रार्थना है | ऐसी प्रार्थना करते हुए भी हम जप कर सकते हैं | इस उत्कंठा के साथ कि कब होंगे भगवान प्रकट, कब होंगे | जप करते रहिए | जप साधना को आगे बढ़ाइए | साधन भक्ति फिर भाव भक्ति फिर प्रेम भक्ति यह भक्ति के प्रकार और भक्ति के स्तर हैं | और साधन बिना सिद्धि नहीं मिलती | एक कृपा सिद्धि भी होती है, किसी किसी को होनोरी डिग्री कोई विश्वविद्यालय देता है लेकिन वह बहुत दुर्लभ है | सामान्य तौर पर सभी को अभ्यास साधना करते हुये फिर परीक्षा में उत्तीर्ण होना होता है ग्रेजुएशन फिर पोस्ट ग्रेजुएशन | अर्थात साधना से सिद्ध होना है | ग्रेटर नोएडा के भक्त यहां बैठे हैं |
मेरी बंगाल की और मायापुर की यात्रा के संबंध में आपको बताता हूँ | वैसे तो हम प्रतिदिन कुछ खबर आप तक पहुंचा रहे थे और आपको पता चल रहा था | मायापुर यात्रा के उपरांत हम 1 दिन के लिए पदयात्रा भी गए | श्री श्री निताई गौर सुंदर ने अपनी यात्रा मायापुर से प्रारंभ की है, मायापुर में जब महाप्रभु ने संयास लिया, सन्यास तो वैसे कटवा में लिया जो गंगा के तट पर ही है | वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी गए | जाना तो वृन्दावन चाहते थे परंतु शची मैया ने कहा कि तुम जगन्नाथपुरी जाओ | श्री चैतन्य महाप्रभु मायापुर से शांतिपुर होते हुए जगन्नाथपुरी गए वैसे ही अब निताई गौर सुंदर वही जा रहे हैं | उनकी लीला की पुनरावृति हो रही है | उन दिनों में तो हेटे-हेटे यानी पैदल चलकर यात्रा कर रहे थे | और अब तो रथ में निताई गौर सुंदर विराजमान है | हरि नाम चल रहा है और भगवान जगन्नाथ पुरी की ओर बढ़ रहे हैं | यह एक नई पदयात्रा है और हम उनसे मिलने गए थे | मैं इस पद यात्रा से मेछेदा नमक स्थान में मिला, यह कोलकाता से 2 घंटे की दूरी पर है और मायापुर से 4 घंटे की दूरी पर है | इतनी ज्यादा विस्तार पूर्वक बताएं जाने की जरूरत नहीं है | हमें मुद्दे की बात पर आना चाहिए | पदयात्रा का बंगाल में खूब स्वागत हो रहा है | मैंने पदयात्रा में कहा भी कि ओर भी पदयात्राये चल रही है ऑल इंडिया पदयात्रा, यूपी पदयात्रा, महाराष्ट्र पदयात्रा, राजस्थान में भी एक पद यात्रा चल रही है सुहाग महाराज के शिष्य वहां पर समय-समय पर यात्रा करते रहते हैं, इन पदयात्राओं की तुलना में बंगाल की पदयात्रा में सबसे अधिक लोग जुट रहे हैं | दिन भर और सायं कालीन जब उत्सव होता है, पदयात्रा में हर दिन एक उत्सव है, हर दिन ही नहीं, हर कदम डग डग पर उत्सव होते रहते हैं, कीर्तन भी होता है, नृत्य भी होता है, प्रसाद भी बटता है, ग्रंथ वितरण भी होता है और कई सारे लोग भागे दौड़े आते हैं या जो रास्ते में अपने यात्राएं कर रहे होते हैं वह अपने वाहनों को रोक देते हैं, अपनी बस को पार्क कर देते हैं और बस की यात्री नीचे उतरते हैं, गौर निताई गौर सुंदर का दर्शन करते हैं फिर पदयात्री कहते हैं कि हाथ ऊपर करो हाथ ऊपर करो और फिर सबको
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
का जाप करवाते हैं, फिर चरणामृत देते हैं | जंगल में भी मंगल पदयात्राएं कर देती हैं | काफी भक्त बुक वितरण भी कर रहे हैं, मेरे साथ अपना स्कोर भी शेयर कर रहे थे, 1 महीने में उन्होंने 12000 छोटी पुस्तकें वितरित की हैं, बंगाल पदयात्रा की उम्र अभी एक महीने भी नहीं हुई है, नई पदयात्रा है, 1 महीने में उन्होंने 12000 छोटी पुस्तकें, 600 भगवत गीता और फिर बड़ी पुस्तकें और फिर वृहद पुस्तकें बड़ी पुस्तकों का भी वितरण किया है, चैतन्य चरित्रामृत के सेट का भी वितरण बंगाल मे हो रहा है और श्रीमद्भागवतम के सेट भी वितरित किए जा रहे हैं, हरि नाम तो होता ही है फिर प्रसाद भी होता है | प्रभुपाद ने मुझे कहा था जब हम पदयात्रा प्रारंभ किए थे कि कीर्तन, प्रसाद वितरण, पुस्तक वितरण यही पदयात्रा में सर्व प्रमुख है | यह दो तीन प्रमुख गतिविधियां हैं — हरि नाम का कीर्तन करना है, प्रभुपाद के ग्रंथों का वितरण करना है और प्रसाद का वितरण करना है और फिर उत्सव तो होते ही रहते हैं | बंगाल पदयात्रा का इतना स्वागत हो रहा है, संख्या की दृष्टि से भी और लोगों के भाव भक्ति की दृष्टि से भी | काफी आतिथ्य हो रहा है | जब हमने पूछा की पदयात्रा का रसोईया कुक कौन है, तो इशारा करके दिखाया गया कि ये कुक है | उन्होंने मुझे बताया कि पदयात्रा के साथ बर्तन है गैस है रसोईया है राशन है परंतु पिछले 1 महीने में एक बार भी उन्होंने रसोई नहीं बनाई, ये एक रिकॉर्ड ब्रेक हुआ, ब्रेकफास्ट लंच डिनर वहां बंगाल के नगरवासी, बंगाल के वासी, ग्राम वासी पहले तो निताई गौर सुंदर को भोग लगाते हैं और फिर पद यात्रियों को भरपेट प्रसाद ग्रहण करवाते हैं | हम कोलकाता भी आए, परसों की रात और कल हम कोलकाता में थे, कल प्रातः काल का जप और जपा टॉक भी वही से हुआ और पूरा दिन लगभग वही बिताएं | वहां के आचार्य रत्न प्रभु इस्कॉन कोलकाता के लीडर मुझसे एक बात ये कह रहे थे जो सच है और सच के अलावा कुछ नहीं है वरना वह कहते ही नहीं क्योंकि वे भगवान के भक्त हैं, इस्कॉन कोलकाता भारत में इस्कॉन का पहला मंदिर है, जब वह कह रहे थे तो मुझे स्मरण हुआ अप्रैल 1971 का बॉम्बे का हरे कृष्णा पंडाल जहां से मैंने इस्कॉन जॉइन किया था और उसके बाद प्रभुपाद ओर एक हरे कृष्णा फेस्टिवल के लिए कोलकाता गए थे उसके उपरांत उन्होंने 3, अल्बर्ट रोड जहां पर अभी कोलकाता का मंदिर है उस प्रॉपर्टी का नेगोशिएशन और उस प्रॉपर्टी की खरीद किए थे, श्री श्री राधा गोविंद देव की जय, इस प्रकार राधा गोविंद देव की प्राण प्रतिष्ठा और इस्कॉन का भारत में पहला मंदिर इस्कॉन कोलकाता बना और 3 अल्बर्ट रोड इस्कॉन कोलकाता में आज प्रभुपाद का क्वार्टर भी है, प्रभुपाद वहां रहते थे | आचार्य रत्न प्रभु मेरे साथ शेयर कर रहे थे कि कोलकाता का एक हिस्सा है जिसका नाम है वराह नगर | शायद आपने सुना या पढ़ा होगा |
शास्त्रों मे भक्ति विनोद ठाकुर वराह नगर के बारे में लिखते हैं | कोलकाता कोई साधारण स्थान या शहर नहीं है | 500 वर्ष पूर्व श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कोलकाता आये थे और इस वराह नगर में भागवत आचार्य नामक चैतन्य महाप्रभु के पार्षद निवास करते थे, वे नित्यालीला मे एक मंजरी थे | वे भागवत कथा किया करते थे, भागवत सुनाएं करते थे | एक समय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वराह नगर आए और भागवत आचार्य से भागवत कथा का श्रवण कर रहे थे, जब कथा प्रारंभ हुई और महाप्रभु कथा का आस्वादन करने लगे तो महाप्रभु के लिए बैठना मुश्किल हुआ और महाप्रभु खड़े होकर नृत्य करने लगे और कथा भी सुन रहे थे और कथा के अनुसार अपने भाव भी व्यक्त कर रहे थे और भाव विभोर होकर नृत्य कर रहे थे, महाप्रभु सारे भाव महा भाव प्रकट नहीं करते | महा भावा राधा ठाकुरानी ही श्री चैतन्य महाप्रभु बने थे, कथा भी हो रही थी उसी के साथ चेतन्य महाप्रभु कथा का श्रवण भी कर रहे थे और नृत्य भी हो रहा था , अश्रु धारा भी बह रही थी | मराठी में कहते हैं लोटांगम, लोट रहे थे , यह सब चलते रहा कोलकाता में | भक्ति विनोद ठाकुर कह रहे हैं कि ये कोलकाता साधारण नहीं है, ये वृंदावन है, यह वृंदावन का एक कुंज है, निकुंज हैं क्योंकि एक मंजरी ही यहाँ भागवताचार्य के रूप में निवास कर रही है |
वराह नगर की जय |
भागवत आचार्य की जय |
Ad 4.69
महाभाव-स्वरूपा श्री-राधा-ठाकुराणी।
सर्व-गुण-खनि कृष्ण-कान्ता-शिरोमणि ॥ 69॥
अनुवाद
श्री राधा ठाकुराणी महाभाव की मूर्त रूप हैं। वे समस्त सदृणों की खान हैं और भगवान्
कृष्ण की सारी प्रियतमाओं में शिरोमणि हैं।
भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं कि हम खोज कर रहे हैं, हम अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर रहे है, अलग-अलग स्थानों के संबंध में या महाप्रभु के अलग-अलग परिकर कहाँ रहे और उनकी गतिविधियां और इतनी जानकारी हमने अभी तक प्राप्त की है | हमारा प्रयास और जानकारी प्राप्त करने के तरफ रहेगा | जब मैं सुन रहा था तो मुझे याद आया कि कैसे हमारे पूर्ववती आचार्य प्रमुखतः भक्ति विनोद ठाकुर ने कितना सारा प्रयास किया, कितनी खोजबीन की और मानो भगवान को ही खोज रहे थे | यह लीला यहां हुई यह ली
ला वहां हुई यह परिकर यहां थे, यह परिकर वहां थे, यह गतिविधि वह गतिविधि इस प्रकार भक्ति विनोद ठाकुर 150 साल पहले चैतन्य चरितामृत को खोज रहे थे, 150 साल पहले भक्ति विनोद ठाकुर मायापुर, नवदीप, बंगाल और उड़ीसा में थे | वे खोज रहे थे खोज रहे थे और लिख रहे थे लिख रहे थे, सूचनाएं एकत्रित कर रहे थे, उसका कंपाइलेशन, एडिटिंग और प्रिंटिंग कर रहे थे | वही प्रयास आगे श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रहे थे और फिर हमारे प्रभुपाद ने उसे जारी रखा | अब मैं कुछ मिनटों में इसके बारे में बताऊंगा |
BRT यानी भक्तिवेदांत रिसर्च सेंटर कोलकाता में है | वहां भी मैं गया था | उसके पहले मैं कटहलतला भी गया, जहां श्रील प्रभुपाद का 125 वर्ष पूर्व जन्म हुआ था | इसीलिए प्रभुपाद का इस वर्ष हम 125th बर्थ एनिवर्सरी मना रहे हैं | कटहल के पेड़ के नीचे प्रभुपाद का जन्म हुआ यह हम पिछले 50 सालों से सुन तो रहे थे किन्तु कल अंततः मैं वहां पहुंच ही गया | मैं इस्कॉन कोलकाता के अधिकारियों का अभिनंदन कर रहा था आभार प्रकट कर रहा था | उस स्थान को प्राप्त करने के लिए उनको बहुत प्रयास करना पड़ा | प्रभुपाद वैसे चाहते थे इस्कॉन को यह कटहलतला ले लेना चाहिए | उन्होंने संकर्षण प्रभु को एक पत्र भी लिखा था जो प्रभुपाद के शिष्य भी थे और प्रभुपाद के ब्लड रिलेशन में भी थे, वे आज भी है और मैं उनसे 2 दिन पहले मिला था| इस्कॉन कोलकाता में राधा रमन प्रभु है, उनके और भक्तों के प्रयासों से ही और ममता बनर्जी के योगदान से यह संभव हुआ कि वह स्थान अब इस्कॉन के साथ है, इस्कॉन के हाथ में है, इस्कॉन की संपत्ति है | वहां मैं गया और प्रभुपाद की गुरु पूजा की, कई सारे भक्त वहां इकट्ठे हुए थे |
वह कटहल का पेड़ प्रभूपाद के जन्म का साक्षी है, उस वृक्ष का मैंने आलिंगन किया, गले लगाया, नमस्कार किया, प्रदक्षिणा की | खोज रहा था कि उस समय का कोई और भी वहां होगा परंतु कोई मुझे दिखा नहीं, सिर्फ वह पेड़ ही था या हैं, 125 साल या उससे भी अधिक पुराना | मायापुर में जब उत्सव हो रहा था, “प्रभुपाद आ रहे हैं, प्रभुपाद आ रहे हैं” | उस उत्सव का नाम प्रभुपाद वैभव दर्शन उत्सव दिया था | TOVP मे प्रभुपाद की मूर्ति का अभिषेक हुआ | उस दिन एक वृक्षारोपण भी हुआ, एक वृक्ष का रोपण हुआ, कटहल के वृक्ष का रोपण भी हुआ और मुझे भी उस वृक्षारोपण में सहयोग करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | मैं भी एक वृक्षरोपण करने वाला था | वह कटहल का पौधा प्रभुपाद के जन्म स्थान के कटहल के वृक्ष के फल के बीज से उगाया गया था, मायापुर में TOVP मंदिर के आंगन में ही उस बड़े कटहल के वृक्ष के बच्चे का रोपण हुआ | तो मैंने कहा कि इस वृक्ष का नाम प्रभुपाद वृक्ष होगा |
फिर हम कोलकाता में प्रभुपाद जन्म स्थान से भक्ति वेदांत रिसर्च सेंटर गए और वहां हमने देखा, जो कहीं पर भी नहीं देखा और कभी भी नहीं देखा, ऐसा वहां देखा और सुना | वहां महाप्रभु की हस्तलिखि देखी, भक्त मुझे चैतन्य महाप्रभु की हैंडराइटिंग दिखा रहे थे, भक्ति विनोद ठाकुर, भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर और प्रभुपाद के हैंडराइटिंग देखी | चैतन्य महाप्रभु और चैतन्य महाप्रभु के परिकरो के सारे शास्त्र हैंड रिटेन पांडुलिपिया देखी जो पत्तों पर लिखी हुई | यह सब वहां पर संग्रहित किया हुआ है | मैं उनका स्पर्श भी कर रहा था, यह बड़ा रोमांचकारी अनुभव रहा | वहां एक बहुत वृहद संग्रह है जो जीबीसी की इनीशिएटिव से हुआ है | हरिसोरी प्रभु प्रभुपाद के शिष्य है, उन्होंने ये कार्य किया | श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की व्यक्तिगत लाइब्रेरी उनके तिरोभाव के उपरांत उनके एक ज्येष्ठ विद्वान शिष्य के पास थी, उनके कब्जे मे थी वो दे नहीं रहे थे, फिर उन्होंने किसी को श्रील भक्ति बिवुध बोधयान महाराज को सौप दिया | उन्होंने विशेष कृपा की फिर भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की पूरी लाइब्रेरी आज भक्ति वेदांत रिसर्च सेंटर में है |
मैंने कल जपा टॉक में कहा था कि भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने वृहद मृदंगम नामक मैगजीन बनाई थी और वह छापते भी थे, मैंने इसे कई बार पढ़ा भी था | मैं सोच रहा था कि यह डेली न्यूज़ पेपर कुछ दिन के लिए ही छपा होगा, या कुछ महीनों तक | लेकिन कल मैंने अपनी आंखों 5000 न्यूज़पेपर देखे | यह न्यूज़ पेपर रोज छपते थे और उनका खुद का एक प्रिंटिंग प्रेस भी था| यह 8 पन्ने का डेली न्यूज़ पेपर हुआ करता था, जिसका नाम वृहद मृदंग था और यह बंगला भाषा में था क्योंकि कोलकाता में इसका पब्लिकेशन होता था | यहाँ प्राचीन ग्रंथ और पांडुलिपिया, हैंडराइटिंग आदि का संग्रह है और बहुत कुछ संग्रह करना जारी है | बहुत बड़ा खजाना वहाँ है | इस्कॉन के भक्तों के लिए वहां जाकर स्टडी और रिसर्च करने के लिए फैसिलिटी भी है | मुझे भी आमंत्रित कर रहे थे कि आप आइए यहां रहिए और कुछ रिसर्च और पठन-पाठन कीजिए | इस सेंटर का कई विश्वविद्यालयों के साथ भी एफीलिएशन हो रहा है | इसकी कई शाखाएं भी स्थापित हो रही हैं | इसका विस्तार भी हो रहा है | भक्त वहां उन स्थानों का नाम ले रहे थे जहां पर भक्ति वेदांत रिसर्च सेंटर का विस्तार की स्थापना होगी | कलेक्शन, उसका प्रिजर्वेशन, प्रोपेगेशन, शेयरिंग और पब्लिकेशन यह सब इनका कार्य है |
Books are the basis.
यहां गौड़ीय वैष्णव ग्रंथ, वैदिक वांग्मय भी बहुत मात्रा में है | इस सेंटर से हम और अधिक धनी हो गए हैं | हमें और अधिक गंभीर होना चाहिए यह जानकर कि हमारे आचार्यों ने क्या-क्या नहीं किया, शास्त्रों की रचना, रिसर्च, पुस्तके लिखना ताकि हमारी परंपरा जीवित रहे, पुनर्जीवित हो और उसका प्रकाशन हो | मुख्य तौर पर भक्ति वेदांत रिसर्च सेंटर के दर्शन से मैं काफी प्रभावित हुआ हूँ | देखते हैं इस प्रभाव से आगे क्या होता है, स्वभाव में कुछ अंतर आता है क्या?
हरे कृष्णा
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
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जप चर्चा,
इस्कॉन कलकत्ता धाम से,
18 अक्टूबर 2021
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल…!
क्या आप तैयार हो? सखीवृंद तुम तैयार हो?
आज जप चर्चा में 865 भक्त उपस्थित हैं।
आप सभी का आज स्वागत हैं, हर दिन ही आपका जप करने के लिए और जपा टौक सुनने के लिए स्वागत हैं।आप थके तो नहीं हो? नैमिषारण्य के शौनकादि ऋषि मुनि भी थकते नहीं थे वे भी सूत गोस्वामी से निवेदन कर रहे थें।
“वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे । यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥”
( श्रीमद्भागवतम् 1.1.19)
अनुवाद: -हम उन भगवान् कि दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं , जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है । उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है , वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं ।
“साधु साधु पदे पदे” सुनाते जाइए और सुनाइए। हम को भी ऐसे ही उत्साही होना चाहिए। हरि हरि!
श्रवण के लिए उत्साही होना चाहिए,फिर वह श्रवण महामंत्र का श्रवण हो या फिर हरि कथा का श्रवण हो।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय।
श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय॥
(श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107)
अनुवाद:-“कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी बस्तु नहीं
है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता
है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”
“श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।”
हमारे चित्त का शुद्धिकरण श्रवण से होता हैं। हम लोग उठते ही श्रवण प्रारंभ करते हैं। हमारे जीवन का यह मुख्य व्यवसाय हैं। श्रवण! प्रतिदिन हम श्रवणउत्सव ही संपन्न कर रहे हैं। जप और जप चर्चा के साथ,यह श्रवण उत्सव हैं। कैसा उत्सव? श्रवणोत्सव या कर्णोत्सव।हम कर्णो के लिए अमृत पिलाते हैं, उसी के साथ हमारे आत्मा के स्वास्थ्य में सुधार होता हैं या आत्मा कि पुष्टि होती है, पोषण होता हैं, नहीं तो यह सारा संसार शोषण करने के लिए तैयार बैठा हैं। संसार शोषण करता हैं और यह हरे कृष्ण आंदोलन और हरे कृष्ण महामंत्र और यह हरि कथा हमारा पोषण करती हैं। वैसे “महाप्रसादे गोविंदे”,हम प्रसाद ग्रहण करते हैं तो उससे भी हमारी आत्मा का पोषण होता हैं। प्रसाद को क्या कहते हैं?प्रसाद आत्मा का भोजन हैं।केवल शरीर के लिए ही नहीं प्रसाद आत्मा के लिए भी हैं। जैसा अन्न वैसा क्या? वैसा मन! यह याद रखो! छोटा सा मंत्र हैं। आप बताते जाओ! जैसा अन्न वैसा मन! अन्न परब्रह्म होता हैं।भगवान अन्न बन जाते हैं।हम प्रसाद ग्रहण करते हैं तो शरीर का भी पोषण होता है।
“अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.14)
अनुवाद:-सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है | वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है |
कृष्ण ने कहा है “अन्नाद्भवति भूतानि” हम बनते हैं,हमारा शरीर बनता हैं।किस से?अन्न खाने से, अन्न ग्रहण करने से, लेकिन वह अन्न जब भगवान को खिलाते हैं और हम ग्रहण करते हैं तो फिर वह अन्न हमारे आत्मा का भी पोषण करता हैं। हमारे आध्यात्मिक स्वास्थ्य मे सुधार होता हैं। स्वस्थ हो तो स्व मे स्थित हो या आत्मा मे स्थित हो या आत्मसाक्षात्कार हो रहा हैं और क्या?आपकी आत्मा भगवान के चरण कमलों में स्थित हैं।
“अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.73)
अनुवाद: -अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
“स्थितोऽस्मि” जैसे अर्जुन ने कहा,जब गीता का पान किया। अर्जुन ने गीता का श्रवण किया तो कहा”स्थितोऽस्मि” फिर अर्जुन स्वस्थ हो गए। हरि हरि!
वैसे दुनिया वालों के लिए कई विषय होते हैं।अगर उनके कई विषय होते हैं तो क्या हरे कृष्ण वालों के लिए विषय कम हैं? हमारे पास भी कई सारे विषय हैं।
“श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्त्रशः । अपश्यतामात्म – तत्त्वं गृहेषु गृह – मेधिनाम् ॥ ”
(श्रीमद्भागवतम् 2.1.2)
अनुवाद:-हे सम्राट , भौतिकता में उलझे उन व्यक्तियों के पास जो परम सत्य विषयक ज्ञान के प्रति अंधे हैं , मानव समाज में सुनने के लिए अनेक विषय होते हैं ।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा लोगों के लिए श्रवण के लिए या फिर बक बक बक बक बोलने के लिए कई सारे विषय हैं। रात और दिन ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही हैं। हमारे पास भी कुछ कम विषय नहीं है। हमारे पास अधिक विषय हैं। वैसे मैं आज इस्कॉन कोलकाता में पहुंचा हूं और इस्कॉन कोलकाता से आपके साथ यह वार्तालाप हो रहा हैं। हरि हरि!
हमारे कितने सारे विषय हैं, तो यह जो मैंने कहा तो फिर मुझे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का भी स्मरण हुआ। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कोलकाता में या मायापुर कुछ चाहते थे। क्या चाहते थे? उनका विचार था कि गौडीय मठ या गौडीय संप्रदाय का एक डेली न्यूज़ पेपर (दैनिक समाचार पत्र) छपना चाहिए। यह बात जब श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर जी के अनुयायियों ने सुनी तो उन्होने सोचा कि क्या डेली न्यूज़ पेपर,मंथली(प्रतिमाह) ठीक हैं या विकली ( साप्ताहिक) भी हो सकता हैं? लेकिन दैनिक इतना सारा न्यूज़ कहां से निकालेंगे? डेली न्यूज़ पेपर छपने के लिए और उसका वितरण करने के लिए समाचार कहा से लाएगे?तो फिर भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर बता रहे थे कि हमारे पास कितनी न्यूज़ हैं या फिर हम लोग आध्यात्मिक जगत के हैं,वहां कितने सारी खबरें हैं।
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
(मंगल आरती)
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
हमारे आचार्यवृंद हर क्षण, प्रतिक्षण आस्वादन करते हैं। राधा माधव या राधा गोविंद देव कि जय।यहां राधा गोविंद के विग्रह की स्थापना श्रील प्रभुपाद ने की हैं। यह आपके लिए और हमारे लिए समाचार हैं। आज हम सुन रहे थे यहां के व्यवस्थापक बता रहे थें कि श्रील प्रभुपाद ने राधागोविंद देव कि स्थापना कि थी। राधागोविंद या राधामाधव, राधागोपीनाथ इनके नाम,गुण,रूप, लीला इतनी सारी कथाएं हैं। हरि हरि!अनंतशेष इस का बखान या व्याख्यान कब से कर रहे हैं, दिन और रात,अहर्निश लेकिन यह नाम रूप गुण लीला कि कथा, बातें, समाचार पूरा नहीं कर पा रहे हैं। बहुत सारी खबरें हैं। “प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य” हमारे आचार्यगण प्रतिक्षण सुनते थे ,सुनाया करते थे, सुनते थे, सुनाया करते थें।हरि हरि!
और फिर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर इसी कोलकाता नगर में कहां था,उनका मंदिर वगैरह प्रिंटिंग प्रेस वगैरह? बागबाजार नाम का एक स्थल हैं, वहा गौड़ीय मठ की स्थापना हुई थी।तो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर भगवान के संबंध के बारे मे बातें,खबरें, न्यूज़,कथा छपने के लिए मंदिर के सामने प्रिंटिंग प्रेस, प्रिंटिंग मशीन वगैरह वहां पर ही रखते थे या फिर विग्रह प्रिंटिंग प्रेस को देख सकते थे,ऐसे स्थान पर वह प्रिंटिंग प्रेस रखी गई। उस प्रिंटिंग प्रेस को श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा यह हैं ब्रृहदमृदंग। कौन सा हैं, ब्रृहदमृदंग? यह प्रिंटिंग प्रेस हैं, ब्रृहदमृदंग। मृदंग तो समझते हो और फिर ब्रृहदमृदंग बड़ा मृदंग। हम लोग जो मृदंग बजाते हैं
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥
(मंगल आरती)
अनुवाद:-श्रीभगवान् के दिवय नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
वाद्य बजाते हैं। कीर्तन में जो वाद्य बजते हैं, मृदंग करतार तो कुछ ज्यादा से ज्यादा 100 मीटर, 200 मीटर सुनाई देता हैं ,फिर आगे वह ध्वनि नहीं पहुंचती हैं। लेकिन जो प्रिंटिंग प्रेस में ग्रंथ छापे जाते हैं उसमें जो हरि कथा, हरि कीर्तन भरा हुआ हैं। “हरि सर्वत्र गिय्यते” शास्त्रों में “आधो मध्ये अंते हरि सर्वत्र गिय्यते”। हरि का नाम, रुप ,गुण, लीला, कथा सर्वत्र चर्चा, वर्णन होता हैं। अगर एक बार उसको ग्रंथ में छाप दिया,उसकी रचना हुई तो ग्रंथ जहां-जहां पहुंचेगा वहा-वहा तक वह हरि ध्वनि, हरि कथा, हरि नाम भी पहुंच जाएगा। इस तरह श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने इसका नामकरण किया कि यह प्रिंटिंग प्रेस ब्रृहदमृदंग हैं और फिर इस प्रिंटिंग प्रेस में छपे हुए ग्रंथ उनको दूर तक पहुंचाना हैं और फिर लोग उसको पढेंगे तो मृदंग कि दूर तक जाएगी।मृदंग हैं ,करताल हैं,तो हरे कृष्ण हरे कृष्ण हैं या हरि कथा हैं, तो “ओम नमो भगवते वासुदेवाय” सब सुनाई देता हैं। जब हम ग्रंथ को पढ़ते हैं तो सब कुछ सुनाई देता हैं। इस प्रकार यह हरि ध्वनि ,हरि कथा सर्वत्र फैलती हैं।
फिर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने इसी कोलकाता में ऐसा कहा कि ग्रंथों को छापना और उनका वितरण करना यही हमारा मुख्य कार्य हैं। इसको फिर हम अपना पारिवारिक व्यवसाय भी कहते हैं। वैसे हम व्यापारी तो नहीं हैं, हम तो साधू हैं, भक्त हैं लेकिन भगवान के लिए हम व्यवसाय करते हैं
kṛṣṇaera saḿsāra koro chāḍi’ anācār
jīve doyā, kṛṣṇa-nām—sarva-dharma-sār
(नदिया गोर्दुमे गीत)
हम कृष्ण के लिए कुछ भी व्यवसाय कर सकते हैं, अपने लिए नहीं। अपने लिए तो बहुत कर लिया कर। कर के हम थक गए। पेट भरा नहीं, पेट भरता ही नहीं हैं। तो ग्रंथों की छपाई और ग्रंथों का वितरण और फिर यही आज्ञा भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने श्रील प्रभुपाद को राधा कुंड के तट पर दी। प्रभुपाद जब श्रील भक्ति सिद्धांत को मिलने के लिए गए तो उस समय वह ब्रज मंडल में राधा कुंड के तट पर थे और प्रभुपाद को आदेश दिया कि अगर कभी भी तुम्हें धनराशि प्राप्त हो तो क्या करो? उस धनराशि का उपयोग ग्रंथों के छपाई में करो और फिर
गुरु-मुख-पद्म-वाक्य, चित्तेतॆ कॊरिया ऐक्य
आर् ना कोरिहो मने आशा
श्रील प्रभुपाद ने फिर वैसा ही किया। श्रील प्रभुपाद ने इस्कान की स्थापना की।प्रभुपाद जब अमेरिका जा रहे थे तो अपने साथ में भागवतम् ले गए। सभी आदेशों की शुरुआत तो कोलकाता में ही हुई ।कोलकाता हमारे लिए एक विशेष नगर हैं। यह हमारे लिए धाम ही हैं,क्योंकि श्रील प्रभुपाद का यह जन्म स्थान हैं। आज हम वह जन्मस्थली देखने जा रहे हैं।पोली गंज या कटहलतला यहां प्रभुपाद जन्मे थे।आज मैं सबके साथ वह जन्म स्थान देखने जा रहा हूं। इस्कॉन कोलकाता के अथक प्रयासों का फल यह रहा हैं कि यह जन्मभूमि हमें प्राप्त हुई हैं और वहां श्रील प्रभुपाद का मेमोरियल स्मारक भी बन रहा हैं वहां एक कटहल का पेड़ हैं कटहल समझते हो? अंग्रेजी में इसे जैकफ्रूट कहते हैं और वह स्थान भी हैं जहां पर दो प्रभुपाद मिले। पहले तो एक ही प्रभुपाद थे श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद। लेकिन फिर ए.सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद भी हुए। यह दोनों प्रभुपाद एक ही स्थान पर मिले। कब मिले?1922 में।आप सब इस तारीख इस साल से परिचित हो। 1922 सुनते ही इस्कॉन के भक्तों को क्या स्मरण आता हैं? वह सीधा कोलकाता पहुंच जाते हैं और कोलकाता में उल्टाडांगा पहुंच जाते हैं। यह सीधा डांगा नहीं हैं। उल्टाडांगा हैं उल्टा सुल्टा हैं। उल्टाडांगा नाम का स्थान हैं। उस समय श्रील प्रभुपाद अभय बाबू थे और अभी अभी गृहस्थ बने थे और उनकी उम्र 26 साल की होगी जब वह कटहलतला पोलीगंज मे भक्ति सिद्धांत से मिले।1896 मे प्रभुपाद यही जन्मे थे।जन्म के 26 वर्षों के उपरांत अभय बाबू अपने मित्र नरेंद्र मलिक के साथ गए और श्रील भक्ति सिद्धांत के साथ यह पहली भेट थी। दो महान आचार्यों की सबसे पहली मुलाकात और सबसे पहली मुलाकात में कहा कि तुम बहुत बुद्धिमान लगते हो,तुम पाश्चात्य देशों में अंग्रेजी भाषा में भागवत धर्म का या चैतन्य महाप्रभु के मिशन का प्रचार करो।
यह आदेश जो श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने उस समय के अभय बाबू को दिया,वह भी यही पर दिया। वह जो स्थान हैं वह भी यहीं पर हैं। मैं आज उस स्थान पर जाना चाहूंगा परंतु पता नहीं जा पाऊंगा या नहीं। समय कम रहेगा तो नहीं जा पाऊंगा, लेकिन वह स्थान भी इस्कॉन कोलकाता को प्राप्त हो गया हैं। हरि हरि बोल।यह खबर हैं कि नहीं। आपको बता रहे थे कि भक्तों के पास भी बहुत सारी खबरें हैं। अगले साल 21 फरवरी को,नोट करो। अगले साल 21 फरवरी को क्या होगा? श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की व्यास पूजा होगी।उसी स्थान पर। कौन सा स्थान? उल्टाडांगा।जहां दो महान आत्माओं का मिलन हुआ। पुन्ह: मिलन हुआ। उस स्थान का उद्घाटन होगा। हरि बोल। और अगले साल अर्थात 2022 और यह दोनों कब मिले थे 1922 में और उद्घाटन है 2022 में मतलब कितने सालों के उपरांत? जल्दी बोलो।ठीक 100 सालों के उपरांत। दोनों के प्रथम मिलन की सो वी सालगिरह हैं। जैसे हम लोग प्रभुपाद की 125 वीं सालगिरह मना रहे हैं। समझ रहे हो?1896 में प्रभुपाद जन्मे थे, तो इस वर्ष 125 साल हुए। हम वह भी सालगिरह मना रहे हैं।उसी के अंतर्गत एक और सालगिरह हैं श्रील भक्ति सिद्धांत और श्रील भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद पहली बार मिले।यह उत्सव 21 फरवरी को हैं। आप को आमंत्रित किया जाएगा।ऑनलाइन या ऑफलाइन।आप उसको जॉइन कर सकते हो। यह कोलकाता नगर हम गोडिय वैष्णव के लिए, इस्कॉन वैष्णवो के लिए बड़ा ही महत्वपूर्ण हैं। यह हमारे लिए धाम हैं।
यह श्रील प्रभुपाद का जन्म स्थान हैं। श्रील प्रभुपाद की कर्मभूमि तो सर्वत्र रही हैं या मायापुर में बता रहे थे कि चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थान योग पीठ हैं और कर्म स्थान या कर्मभूमि इस्कॉन या मायापुर चंद्रोदय मंदिर और फिर सारा विश्व ही कर्म भूमि हैं। वैसे ही यह कोलकाता श्रील प्रभुपाद का जन्म स्थान हैं और यह कर्म स्थान भी हैं। वैसे तो पूरा संसार ही उनका कर्म स्थान हैं। यहां पर श्रील प्रभुपाद की कई सारी गतिविधियां हुई। बड़े होकर भविष्य में जो जो श्रील प्रभुपाद करने वाले थे उसमें से बहुत कुछ उन्होंने जब वह बालक थे या युवा थे तभी करना प्रारंभ कर दिया था।इसमें रथयात्रा भी सम्मिलित हैं। सारे संसार को ही भविष्य में प्रभुपाद ने रथयात्रा प्रदान की, जगन्नाथ जी प्रदान किए। सबसे पहले रथयात्रा सैन फ्रांसिस्को में प्रारंभ हुई, साल था 1967।लेकिन जब प्रभुपाद बालक थे तो उनके पिताजी या बड़े लोग जब रथ यात्रा करते थे तो प्रभुपाद हठ करके बैठ जाते थे कि हम अपनी अलग से रथयात्रा करेंगे तो इस कारण इसी नगर में गौर मोहन डे रथ खोज रहे थे, सोच रहे थे कि रथ कहां मिलेगा। किसी के पास अगर कोई छोटा पुराना रथ हो तो और रथ भी उन्होंने भी यही प्राप्त किया।अगर रथयात्रा हैं तो प्रसाद वितरण भी होना चाहिए तो उनकी बहन पिशीमां प्रसाद बनाती थी।भवतारिणी प्रसाद बनाती थी।अभय की रथ यात्रा उत्सव में वह कुकिंग की इंचार्ज थी। दोनों भाई बहन विग्रह आराधना करते थे।
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना।
श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ।
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥3॥
प्रभुपाद में इस्कॉन की स्थापना के बाद सब शिष्यों को विग्रह आराधना सिखाया, लेकिन वह बचपन में स्वयं कोलकाता में विग्रह आराधना करते थे। प्रभुपाद ने सारे संसार को मृदंग बजाना सिखाया लेकिन बचपन में वह मृदंग बजाना सीखते थे, मृदंग कक्षाएं लेते थे और जहां प्रभुपाद रहते थे वहां राधा गोविंद का दर्शन करने जाते थे। हमारे पास इतना सारा समाचार हैं कि हमारे पास इतना समय नहीं हैं कि हम पूरा बता पाए। प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक पर सबको बताया करते थे कि प्रभुपाद के पिता श्री गौर मोहन डे मंगल आरती करते थे तो शंख ध्वनि होती और घंटी बजाते थे घंटी सुनके अभय बाबू जग जाते थे जगते ही वहीं पास में राधा गोविंद का मंदिर था वहां जाकर यह बालक दर्शन करते ही रहते,करते ही रहते।अभय के इस प्रकार के संस्कार रहे। उनके पिता जी साधु-संतों को अपने घर पर प्रसाद के लिए बुलाया करते थे। प्रसाद खिलाते थे और सभी संतो से निवेदन करते थे कि मेरे पुत्र को आशीर्वाद दो ताकि यह राधा रानी का अच्छा भक्त बन सके। कोलकाता में यह सब हुआ। ऐसे इस्कॉन कोलकता धाम की जय। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*मायापुर धाम से*
*17 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण आज 808 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं । राधे राधे । राधारानी की जय।
( जय ) राधा-माधव कुञ्ज-बिहारी ।
गोपी-जन वल्लभ गिरि-वर-धारी ॥
यशोदा-नंदन ब्रज-जन रंजन ।
जमुना-तीर वन-चारी ॥
जय राधा माधव कुञ्ज-बिहारी ।
श्रील प्रभुपाद अपने कथा प्रवचन के प्रारंभ में यह गीत जय राधा माधव कुंज बिहारी गाते थे। इस जप चर्चा में हर रोज हम नहीं गाते। शायद ही कभी गाए होंगे। लेकिन आज गा ही लिया। राधा माधव की जय। आज राधा माधव के विग्रह की आरती करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हरि हरि। केवल राधा माधव ही नहीं, पूरा ऑल्टर सजा हुआ है, भरा हुआ है। राधा माधव के साथ अष्ट सखी वृन्द वहां पर विराजमान है। मानो वैसा ही दृश्य है।
दीव्यद्वन्दारण्य-कल्प-द्रुमाधः-
श्रीमद्लागार-सिंहासनस्थौ ।
श्रीमद्राधा-श्रील-गोविन्द-देवी
प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ स्मरामि ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 1.16 )
अनुवाद:- श्री श्री राधा-गोविन्द वृन्दाबन में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों के मन्दिर में तेजोमय सिंहासन के
ऊपर विराजमान होकर अपने सर्वाधिक अन्तरंग पार्षदों द्वारा सेवित होते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार
करता हूं।
राधा गोविंद का नाम कहां है? राधा गोविंद और राधा माधव एक ही है। दीव्यद्वन्दारण्य अरण्य मतलब वृंदावन। द्रुमाधः मतलब वृक्ष कल्प-द्रुमाधः मतलब कल्पवृक्ष। कल्पवृक्ष के नीचे क्या है? रत्न जड़ित सिंहासन है। सिंहासन पर आसीन है। राधा माधव है, राधा गोविंद है। प्रेष्ठालीभिः मतलब गोपियां सखियां। कृष्ण प्रेष्ठाए भूतले मतलब कृष्ण को प्रिय। उन सखियों को राधा माधव की सेवा करते हुए, उन का स्मरण मैं कर रहा हूं या करना चाहता हूं। यहां का ऑल्टर राधा माधव का अष्ट सखियां भी वहां पर विराजमान है। वह स्मरण दिलाता है कि या वृंदावन पहुंचाता है। राधा माधव है और कौन-कौन सखियां है। सुदेवी है, रंग देवी है, इंदुलेखा है, फिर विशाखा है, फिर राधा माधव, ललिता, चंपकलता, चित्रा और तुंग विद्या इस प्रकार अष्ट सखियां विराजमान है। तो उनकी जब आरती करने जब वहां पर पहुंच गए। तो कुछ विचार आया या सोच रहे थे कि कहां पहुंच गए। क्या राधा माधव जब सखियों से घिरे हुए हैं। सखियों ने घेर लिया है राधा माधव को और अपनी अपनी सेवा कर रहे हैं और मैं वहां पर पहुंच गया। तो मैं स्वयं को अति सूक्ष्म या मच्छर जैसा ही समझ रहा था लेकिन काटने वाला मच्छर जैसा समझ रहा था। लेकिन काटने के लिए मच्छर नहीं। छोटा शूद्र कहते हैं। राधा माधव के ऑल्टर पर या फिर और भी सारे ऑल्टर पर पहुंचकर भगवान के श्री विग्रह के दर्शन किये ।
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना ।
श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ 3 ॥
( श्री श्री गुर्वष्टक )
हम अनुभव करते है कि राधा कृष्ण की लीला में हम भी प्रवेश किए हैं और हम भी सेवा कर रहे हैं। पूरा परमधाम और चिंतामणि धाम की जय, वृंदावन धाम की जय मायापुर धाम की जय। हर आत्मा वहां पर श्रीकृष्ण की सेवा करते हैं। हम भी ऑल्टर पर पहुंच जाते हैं। तो हम भी उस आध्यात्मिक आकाश या आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने जैसा ही अनुभव करते हैं और भी सेवाएं कर रहे हैं और फिर हम भी सेवा के लिए पहुंचते हैं और सेवा करते है। मैं यह भी सोच रहा था कि वैसे मंगला आरती में या कोई भी आरती में जो अन्य भक्त पहुंच जाते हैं, वह भी आरती करते हैं और सम्मिलित होते हैं। सभी उपस्थित भक्तों की ओर से पुजारी आरती उतारता है। आप भी वहां पर हो। तो हर व्यक्ति शंख नहीं बजाएगा। सारे आइटम ऑफर नहीं करेगा। लेकिन जो पुजारी है। आज मेरी बारी थी। हर कुत्ते का दिन होता है, ऐसा कहा जाता है। हरी हरी। सभी उपस्थित भक्तों की ओर से एक भक्त या पुजारी आरती उतारते हैं। लेकिन वह अकेले आरती नहीं करते, वह सभी जो उपस्थित है वह भी आरती कर रहे हैं। हमें यह सोचना चाहिए कि पुजारी हमारी ओर से आरती कर रहे हैं। हरि हरि। यह भी विचार आ रहा था कि मैं सोच रहा था कि यह अष्ट सखियां सोच रही है कि यह कौन है। तो कुछ सखियां अपनी सेवा में मस्त थी और तल्लीन थी और लेकिन कुछ आपस में बातें कर रही थी कि यह कौन है। यह ऐ.सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के शिष्य हैं। हरि बोल। तो कुछ सखियां अपनी कृपा की दृष्टि की वृष्टि भी कर रही थी। हरि हरि। फिर मुझे याद आया जब मैं 1973 में पहली बार मायापुर में मायापुर महोत्सव में आया था। मैं इतिहास में पीछे चला गया था। उत्सव विग्रह समझते हो? उत्सव विग्रह में महाप्रभु है और छोटे-छोटे राधा माधव हैं। 1973 में केवल वही थे। यह बड़े राधा माधव और अष्ट सखियां नहीं थी। छोटे राधा माधव और महाप्रभु ही हुआ करते थे। तो 1973 में मैं जब उत्सव के लिए मायापुर महोत्सव में आया था। जननिवास प्रभु तब पुजारी थे और अभी भी है। 1973 में मैं राधा रासबिहारी इस्कॉन मुंबई मंदिर का पुजारी था। तो जब मैं मुंबई से हेड पुजारी आ गया। तब जननिवास प्रभु ने मुझ पर विशेष कृपा की और मुझे बुलाया करते थे, राधा माधव की आराधना के लिए। वह स्वयं माधव की अर्चना, आराधना, अभिषेक और श्रृंगार इत्यादि किया करते थे और मुझे कहा करते थे कि तुम राधा रानी की सेवा करो। हम राधा माधव की सेवा में पर्दे के पीछे व्यस्त रहते थे। वही समय हुआ करता था जब श्रील प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक पर जाया करते थे। भक्ति सिद्धांत रोड पर चला करते थे। हम कर रहे हैं राधा रानी की सेवा लेकिन हम सोच रहे थे प्रभुपाद के बारे में प्रभुपाद यहां गए होंगे, यहां तक पहुंचे होंगे या प्रभुपाद लौटते होंगे। इतने में फिर कीर्तन प्रारंभ होता और प्रभुपाद कुछ भक्तों के साथ या कुछ सन्यासियों के साथ और फोटोग्राफर थे। जब पुनः प्रभुपाद लौटते थे। तो उस समय केवल एक प्रभुपाद कुटीर तो थी ही। 1972 में प्रभुपाद कुटीर थी। जो अगले साल 50वी मायापुर फेस्टिवल की सालगिरह होगी। आपको आयोजित करना होगा। आपको उस व्यवस्था को देखना होगा। जननिवास और अन्य भक्त सोचते होंगे। लेकिन 1972 तक यह लोटस बिल्डिंग में जो इस्कॉन में कहते हैं। शंख भवन है, पद्म भवन है, चक्र भवन भी है। पद्म शंख गदा चक्र यह सब भी है। सर्वप्रथम उस लोटस बिल्डिंग की जैसे मायापुर का विकास हो रहा है। एक एक पत्ती की जैसे। एक पत्ता शंख भवन बन गए, एक पत्ता गदा भवन बन गए, एक पत्ता चक्र भवन बन गए। तो श्रील प्रभुपाद लौटते थे तब कीर्तन प्रारंभ होता था। जय प्रभुपाद जय प्रभुपाद, हरे कृष्ण हरे कृष्ण। उस समय 200-300 भक्त मायापुर फेस्टिवल में आया करते थे और 200 भक्त आए मतलब ! बहुत सारे भक्त आए हैं, बहुत सारे भक्त आए हैं । कितने ? 200 I अभी तो 10,000 भक्त आ रहे हैं और अभी जिसको हम 10,000 भक्त जब आते हैं तो अब हम कहते हैं, बहुत सारे भक्त । कितने भक्त ? 10,000 तो भविष्य में 50 साल के बाद 1 लाख भक्त आएंगे । वह भी कहेंगे बहुत सारे भक्त 1 लाख । फिर 100 सालों के बाद, 200 सालों के बाद 1 करोड़ भक्त । कोई कह रहे थे परसों । अभी लाखों की संख्या में आते हैं विजिटर्स या भक्त । भविष्य में आएंगे करोड़ों । सारा संसार ही आने वाला है तो 1973 में फिर प्रभुपाद समय पर पहुंच जाते थे विग्रह के दर्शन करने और हम लोग पर्दे के पीछे भागम भाग सब तैयारी करते । राधा माधव और महाप्रभु को तैयार करते और फिर प्रभुपाद करते के आगे आके उपस्थित होते । मुझे याद आ रहा है कि उन दिनों में 7:15 बजे पर्दे खुलते थे ।
“गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि”
“गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि”
ऐसे श्रील प्रभुपाद साष्टांग दंडवत प्रणाम किया करते थे । अधिकतर प्रभुपाद साष्टांग दंडवत करते थे पंचांग नहीं करते थे । जैसे माता है पंचांग, पंच-अंग । पंच-अंग 8 अंश शरीर के तो प्रभुपाद के प्रणाम को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया करते थे प्रभुपाद और फिर राधा माधव पद्म इमारत की बात चल रही है जहां म्यूजियम है ना । चैतन्य महाप्रभु का डायरामां है वहां मंदिर या दर्शन मंडप हुआ करता था तो प्रभुपाद परिक्रमा करते थे । वहां एक घंटा भी थी तो प्रभुपाद स्वयं उस घंटा बजाते थे रुक के तो फिर कीर्तन पार्टी एसी जोरदार और कूदते थे भाव से तो प्रभुपाद घंटा बजाते हुए फिर हम सब की ओर देखते तो हर घंटे के नाद के साथ हम सब उड़ान भरते । ऊपर और नीचे कूदना वह शायद फोटोग्राफ आपने देखा होगा प्रभुपाद घंटा बजाते हुए तो उसके बाद गुरु पूजा में भागवत के कक्षाएं होते थे । आज आरती करते समय मुझे पुराने अच्छे दिन । पुराने दिन कैसे थे ? अच्छे थे । ओल्ड ईज गोल्ड तो पुराने दिन सोने के दिन थे । फिर मैं यह भी याद कर रहा था, भूल नहीं सकता । जिस राधा रानी का मैं किया करता था आराधना श्रृंगार अभिषेक इत्यादि वह राधा रानी अभी वहां नहीं रही । कुछ मुसलमान, काफी यहां दंगे हुआ करते थे । गोलीबार भी । मुस्लिम हमला करते थे तो एक समय एक रात को वह लोग राधा रानी की चोरी किए । यह अंग्रेज का मंदिर है । सांवेर मठ । वृंदावन में अंग्रेज का मंदिर और मायापुर में सांवेर मठ I अंग्रेज लोग साहेब फिर केबल जो शासन करते थे । साहेब आए हैं साहेब का यह मठ है सांवेर मठ इस्कॉन । फिर वहां से धनराशि आती होगी और यह …तप्त-कांचन गौरांगी राधे, वैसे भी राधा रानी है “तप्त कांचन” । उन्होंने सोचा कि यह मूर्ति तो सोने की है ।
अर्च्य विष्णौ शिलाधीर्गुरुषु नरमतिर्वैष्णवेजातिबुद्धि : विष्णोर्वा वैष्णवानां कलिमलमथने पादतीर्थेऽम्बुबुद्धिः ।
श्रीविष्णोर्नाम्नि मन्त्रे सकल – कलुषहे शब्दसामान्यबुद्धि विष्णौ सर्वेश्वरेशे तदितर समधीर्यस्य वा नारकी सः ॥
( पद्म पुराण )
अनुवाद:- मन्दिर के अर्चाविग्रह को पत्थर या काठ का बना हुआ नहीं मानना चाहिए , न ही गुरु को सामान्य मनुष्य मानना चाहिए । वैष्णव को किसी विशेष जाति या नस्ल का नहीं मानना चाहिए और चरणामृत या गंगाजल को सामान्य जल नहीं मानना चाहिए । हरे कृष्ण महामन्त्र को भौतिक ध्वनि नहीं मानना चाहिए भौतिक जगत् में कृष्ण के ये सारे विस्तार भगवान् की कृपा तथा इस भौतिक जगत् में भक्ति में लगे अपने भक्तों को सुविधा देने की इच्छा को प्रदर्शित करने वाले हैं ।
ऐसा कहा है तो सोचते हैं कि यह विग्रह किसी धातु के पत्थर के बने हैं । पत्थर ही है या सोना चांदी कोई धातु ही है ऐसा सोचना “र्गुरुषु नरमति” गुरु साधारण मनुष्य है और वैष्णव की कुछ जात पात होती है ऐसा विचार करने वालों को सीधे नरक पहुंचा जाता है तो वह राधा रानी परिवर्तन हो चुका है । अभी की राधा रानी है यह दूसरी राधा रानी है । मूल राधा रानी मिली ही नहीं । खोजे ढूंढे तो आज जिस राधा रानी का छोटे राधा रानी की बात चल रही है । उत्सव विग्रह राधा रानी वह वाली नहीं जो 1973 में बहुत सालों तक थी । हरि हरि !! इसीलिए भी वैसे, नरसिंह भगवान की जय ! नरसिंह भगवान प्रकट हुए या प्रार्थना की तो भगवान नरसिंह रूप में प्रकट हुए क्योंकि सारी यह उत्पात चल रहे थे । मारा पीटी काफी विरोध उसमें मुसलमानों का भी या उन दिनों में प्रभुपाद काफी परेशान थे यह परेशानियों से तो फिर धीरे-धीरे जब कुछ छोटा मंदिर था पद्म इमारत के निचले मंजिल पर । फिर यह दूसरा इमारत बन गई और फिर बड़े राधा माधव अष्ट सखियां भी आ गई । जय राधे ! राधा माधव की जय ! अष्ट सखी वृंद की जय ! तो मैं यह बता रहा था कि यह जो विघ्न आ रहे थे यहां के आराधना में या सेवा साधना में तो उससे रक्षा हो यहां के भक्तों की फिर नरसिंह भगवान उग्र नरसिंह प्रकट कराए तबसे शांति है । ओम शांतिः शांतिः शांतिः । तीन बार क्यों कहते हैं “शांति शांति शांति” । ताप, त्रय, उनमुलनम् । ताप, कष्ट, परेशानियां तीन प्रकार की है । आदि दैविक, आदि भौतिक, आदि आध्यात्मिक । ओम शांतिः :- मतलब आदि दैविक कष्टों से मुक्त । ओम शांतिः :- आदि भौतिक । ताप, त्रय शांति इससे निवारण यह तीन प्रकार के कष्टों से मुक्त ताप, त्रय । जब से नरसिंह भगवान पहुंचे हैं तब से कुछ राहत मिली है इस्कॉन मायापुर को और यहां के भक्तों को । भक्ति विघ्नविनाशक श्री नरसिंह देव भगवान की जय ! और फिर पंचतत्व भी सारे पुनः छोटे पंचतत्व की स्थापना हुई 2004 में । उत्सव विग्रह की स्थापना हुई उस अतिरिक्त मंदिर के पंचतत्व हॉल में विस्तार हुआ तो इस तरह से राधा माधव निचले मंजिल पर थे पद्म इमारत में तो उसके बाद यह अष्ट सखियां राधा माधव आ गए तो परिवर्तन हुए और फिर पंचतत्व आए और फिर दुगना कर दिया गया दर्शन मंडप दुगना हुआ । लेकिन जहां-जहां भी हम थे वह छोटा ही पढ़ रहा था । उसको बड़ा बनाते गए बड़ा बनाते गए बड़ा बनाते ही भर जाता था और वही हमने अनुभव किया यहां भी परसों के दिन इतना विशाल दर्शन मंडप पहले दिन ही भर गया । तो क्या होगा ? आने वाले 10000 साल ! वैसे कल मुझे यहां के मास्टर प्लानिंग टीम है, ह्रदय चैतन्य प्रभु और तो वो मुझे दिखा रहे थे यह भी भर गया तो एक पार्क बनने वाला है एक स्टेडियम की तरह यह है मास्टर प्लान । चैतन्य कल्चरल वर्ल्ड इरिटेशन मतलब मायापुर । सिटी ऑफ गोल्डन अवतार या नगर । नगर की स्थापना होगी । गौर नगर तो हो गए एक तो तो उस सिटी ऑफ गोल्डन अवतार में एक स्टेडियम होगा उसको पार्क कहते हैं । उसका नाम हरि बोल पार्क होगा तो उसमें कुछ 50,000 भक्त एक समय इकट्ठे हो सकते हैं । तो वह जब बनेगा तो वह भर जाएगा तो यह सब मछ्छ अवतार की तरह हम बता रहे थे उस दिन …
प्रलय पयोधि-जले धृतवान् असि वेदम्
विहित वहित्र-चरित्रम् अखेदम्
केशव धृत-मीन-शरीर, जय जगदीश हरे ॥ 1 ॥
अनुवाद:- हे केशव ! हे जगदीश ! प्रलय के विशाल समुद्र में वेद नष्ट होने जा रहे थे और उनकी रक्षा करने के लिए आप एक विशाल मछली बनकर आये । मछली का रूप धारण करने वाले हे हरि ! आपकी जय हो !
प्रकट हुए तो कमंडलु में से, कमंडलु भर गया इतना अपना आकार को बढ़ा दिये । वहां से फिर छोटे से कुएं में भी रख दिए तो वह भी अपने आकार को बड़ा बना दिए तो कुआं भर गया । फिर तालाब में । फिर बड़े सरोवर में । फिर किसी समुद्र में जहां जहां रखते थे उसको पूरा आछाद देते थे यह मत्स्य अवतार । ऐसी लीला है मत्स्य अवतार की तो वैसे ही यहां हो रहा है । जितना भी बड़ा दर्शन मंडप बना दो ,भर जाता है आकार बढ़ा दो ,भर जाता है । जैसे प्रचार बढ़ेगा, प्रचार हो रहा है कि नहीं संसार में उसका पता मायापुर में चलता है । अधिक आ रहे हैं मतलब प्रचार हो रहा है । कल भोपाल के 200 भक्त आ गए । मतलब भोपाल में प्रचार हो रहा है मध्यप्रदेश में या चाइना के भक्त आ रहे हैं, रसिया के भक्त आ रहे हैं तो अधिक अधिक भक्त आ रहे हैं । मतलब नेपाल में प्रचार हो रहा है और पदयात्रा प्रचार कर रही है तो हरि नाम का प्रचार होता है तो जिनको भी यह प्राप्त होता है …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
उन सबको सबका मायापुर के साथ संबंध स्थापित हो जाता है तो सभी सोचते हैं एक दिन मैं भी मायापुर जाऊंगा । मायापुर धाम की जय ! महामंत्र का पता लगने से महाप्रभु का भी और मायापुर का भी पता लग ही जाता है या भक्त बड़ी संख्या में पहुंच जाते हैं पहुंचते रहेंगे । आप हम नहीं रहेंगे, ऐसे जीव ऐसी बारी-बारी से लोग आएंगे और मुक्त होंगे और यही प्रवेश करेंगे लीला में या …
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥
( भगवद् गीता 8.20 )
अनुवाद:- इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है । यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है । जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता ।
दूसरा जो अन्य जगत है वास्तविक परलोक वहां के लिए प्रस्थान करेंगे जैसे हम खाली जगह, खाली करते जाएंगे तो रिक्त स्थान भर दिया जाएगा दूसरे भक्त आएंगे तो यह हम माध्यम चलता रहेगा 10000 सालों के लिए । यह स्वर्णकाल है कलियुग का । ठीक है l
॥ गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥
॥ हरे कृष्ण ॥
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*जप चर्चा*
*मायापुर धाम से*
*दिनांक 16 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 800 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। हरि! हरि! आज एकादशी भी है। जप करो, थोड़ा अधिक जप कर सकते हो या जप करना प्रारंभ कर सकते हो।(ट्रांसलेशन हो रहा है? ट्रांसलेशन उपलब्ध है। यदि आपके पास स्मार्ट फ़ोन है तो आप ट्रांसलेशन/ अनुवाद को पढ़ सकते हो, आपको भी स्मार्ट बनना है, केवल आपका फोन ही स्मार्ट नहीं रखना है) हरि! हरि!
एकादशी महोत्सव की जय!
कीर्तनीय सदा हरि: जैसा कि महाप्रभु ने सिखाया है, हम अब उन्हीं के धाम से आपके साथ बात कर रहे हैं। आपको भी कभी कभी आना चाहिए। कई सारे भक्त मायापुर पहुंच चुके हैं। आप कब आओगे? प्रभुपाद भी आ चुके हैं या प्रभुपाद भी आ गए। वैसे प्रभुपाद तो यहीं रहते हैं, वे चैतन्य महाप्रभु के नित्य परिकर हैं, सेनापति भक्त हैं। एक समय गौरांग महाप्रभु ने श्रील प्रभुपाद को यहां भेजा था। हमारी जो सेना है अर्थात हम सब सेना हैं। ‘हरे कृष्ण सेना’ कोई शिवसेना है या कोई और कोई सेना है परंतु हमारी यह हरे कृष्ण सेना है। हरे कृष्ण सेना और इस सेना के सेनापति भक्त श्रील प्रभुपाद हैं।
सेनापति भक्त श्रील प्रभुपाद की जय!
कल श्रील प्रभुपाद मूर्ति के रूप में टी.ओ वी. पी. में आए हैं। आप टी.ओ वी. पी. समझते हो? टेंपल ऑफ़ वैदिक प्लैनेटेरियम, यह एक विशाल या अद्भुत मंदिर होगा। जहां से हरिनाम का प्रकाश होगा,विकास होगा।…जहां पर हरि नाम का ही प्रचार होगा। यह मंदिर अभी निर्माणाधीन ही है। श्रील प्रभुपाद इसे 60% पूर्ण कह रहे हैं। इसका 40% कार्य अभी बचा हुआ है उसको पूरा करने के लिए, उसकी देखरेख करने के लिए चूंकि काम बहुत ढीला चल रहा है। इसलिए श्रील प्रभुपाद ने ऐसा सोचा होगा और प्रभुपाद कल मूर्ति के रूप में यहां आए।कल बहुत बड़ा उत्सव हुआ। उसको ‘प्रभुपाद वैभव उत्सव दर्शन’ नाम दिया गया था। ‘श्रील प्रभुपाद वैभव’ यह शब्द कहा जाए। वैसे हम कृष्ण के वैभव की बात करते रहते हैं अर्थात हम opulence ओपुलेंस ऑफ कृष्ण की बात करते ही रहते हैं। यहां प्रभुपाद का वैभव ही तो कृष्ण का वैभव है। उसका हम दर्शन भी कर रहे थे। हमने दर्शन में यह भी देखा कि इतना बड़ा दर्शन मंडप इस्कॉन के किसी और मंदिर में नहीं है। हमने सर्वत्र भ्रमण करके देखा है। इतना विशाल, लंबा, चौड़ा, ऊंचा और गहरा यह दर्शन मंडप पहले दिन ही हाउसफुल हो गया।
तब मैं सोच रहा था अगले 10000 साल
वर्षों में क्या होगा? पहले ही दिन
हाउसफुल हो गया है क्योंकि यह प्रचार
बढ़ने वाला है। हरि नाम का प्रचार कहां
तक पहुंचेगा?
*पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।*
( चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१.२६)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा, पृथ्वी के कोने-कोने में होगा, हो रहा है या बढ़ेगा।
अभी मैं ब्रेकिंग न्यूज़ में देख रहा था कि अभी अभी हमारी ऑल इंडिया पदयात्रा वृंदावन पहुंचने वाली है, उन्होंने कितना सारा हरि नाम का प्रचार किया है। विश्व भर के हरे कृष्ण भक्त जिन्हें दूसरा कोई काम धंधा नहीं है। वे हरे कृष्ण हरे कृष्ण ही करते रहते हैं। इससे लोगों को कृष्ण मिल जाते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहना कृष्ण की प्राप्ति ही है। आज मेरे पड़ोस वाले भी जब उठे, तब लग रहा था कि वह नए थे कुछ अभ्यास कर रहे थे। वे हरे कृष्ण हरे कृष्ण थोड़ा रुक रुक के कह रहे थे। मैं सोच रहा था कि शायद वे सीख रहे हैं या याद कर रहे हैं। एक और व्यक्ति ने हरिनाम को अपनाया और कीर्तन कर रहा था। सारे संसार में जब प्रचार बढ़ेगा तब जप करने वाले नाम से धाम में जाते हैं। मायापुर हमारी मक्का है। हु केयर फॉर मक्का। वैसे तुलना भी नहीं करनी चाहिए। मायापुर की तुलना न तो मक्का न तो जेरुसलम के साथ हो सकती है । ऐसी तुलना करना भी अपराध होगा लेकिन यह भाषा आप समझते हो इसलिए कहा जाता है। जो भी भक्त जप करेंगे, कीर्तन करेंगे, वह एक बार तो अपने जीवन में जरूर मायापुर आ ही जाएंगे। यह हरि नाम ही हमें भगवान तक पहुंचा देता है या भगवान की लीला तक पहुंचाता है या भगवान की लीला में प्रवेश कराता है। यहां मायापुर में आज भी लीला करे गौर राय है कोन-कोन भाग्यवान देखे व भाग्य पाय।
आज भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला यहां संपन्न हो रही है। जो भी यहां पहुंच जाते हैं। वे महाप्रभु की लीला में प्रवेश करते हैं। महाप्रभु की यहां की प्रधान लीला कौन सी है?
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
*सुन्दर-लाला शचीर-दुलाल नाचत श्रीहरिकीर्तन में। भाले चन्दन तिलक मनोहर अलका शोभे कपोलन में॥1॥*
अर्थ:- यह अद्भुत विस्मयकारक बालक, भगवान् हरि के नामों के कीर्तन में नृत्य करता हुआ, माता शची का अत्यन्त प्रिय शिशु है। उसका मस्तक चन्दन के लेप से बने तिलक से अलंकृत है, उसके मंत्रमुग्ध कर देने वाले बालों की लटें वैभवपूर्ण रूप से चमकती हैं जब वे उनके गालों से टकराकर उछलती हैं या उड़ती हैं।
मॉरीशस के सुंदरलाल वैसे अभी वे भी सुंदर चैतन्य स्वामी हो गए हैं। भगवान सुंदर हैं। जो भी यहां आते हैं, वे चैतन्य महाप्रभु की लीला में प्रवेश करते हैं। हम जब कीर्तन करते हैं तब हमारा भी उस लीला में प्रवेश होता है। हम भी उस लीला का अंग बन जाते हैं। जैसे-जैसे प्रचार बढ़ता जाएगा अधिक अधिक लोग स्वाभाविक रूप से यहां आ जाएंगे। इस्कॉन की स्थापना हुए कुछ 50- 55 वर्ष बीत चुके हैं। ऑलरेडी( पहले से ही) यह बड़ा मंदिर भी हाउस फुल, (हाउस फुल नहीं कह सकते) टेंपल फुल हो गया है। भविष्य में अर्थात अगले 50 वर्षों के उपरांत, 100 वर्षों के उपरांत, 500 वर्षों के उपरांत यह प्रचार खूब बढ़ने वाला है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी सच होगी या नहीं? भगवान सत्य वचनी हैं। राम भी अपने सत्य वचन के लिए प्रसिद्ध हैं। राम ही तो कृष्ण हैं, राम ही तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं। सत्यश्र्च योनि: भगवान जो भी बोलते हैं-
*सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।*
( श्रीमद भगवतगीता १०.१४)
अर्थ: हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है,उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूं। हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।
अर्जुन ने भी कहा कि आप जो भी कहते हो, सत्य है अथवा सत्य होता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु द्वारा की गई भविष्यवाणी सच होकर ही रहेगी। कितने सारे लोग यहां पहुंचने वाले हैं। भक्ति विनोद ठाकुर ने भी भविष्यवाणी की है कि संसार भर के लोग आएंगे और देश विदेश के भक्त मिलकर क्या करेंगे?
*जय शचीनन्दन जय शचीनन्दन जय शचीनन्दन गौर हरि!!*
जब सारे संसार के भक्त यहां आते हैं तब वे इसी देश के हो जाते हैं। उनका देश कौन सा बनता है? मायापुर! मैं मायापुर देश का हूं।व्हाट इज योर मदर लैंड? (आपकी मातृभूमि कौन-सी है?) मायापुर। व्हाट इज योर फादर लैंड? (आपकी पितृभूमि कौन सी है?) मायापुर। मैं यहां का हूं, मैं वहां का हूं , यह हमारे विकार या सब झूठ है। इसे सापेक्ष सत्य या रिलेटिव ट्रुथ कहते है कि मैं इस देश का हूं। मैं ब्राजील का हूं या मैं ब्राजील की हूं। मैं बांग्लादेश का हूं। मैं मॉरीशस का हूं इत्यादि इत्यादि। कलि इस प्रकार संसार का विभाजन करता है। यह कलि का बिजनेस( व्यापार) है। वह इस संसार के टुकड़े-टुकड़े करता है। एक समय तो इस पृथ्वी पर एक ही देश था। उस देश का नाम भारत था, महाभारत। जैसे कलियुग आ गया, कलियुग में हम लोग शेयर( बांटना) नहीं करना चाहते। हम लोग भगवान को भी शेयर नहीं करना चाहते। हमारे भगवान, तुम्हारे भगवान। यहां से शुरुआत हो जाती है अल्लाह, कृष्ण, जेहोवा… इत्यादि।
हमारे भगवान, हमारा देश, हमारा यह, हमारा वह.. यह जो अहं मामेति है, वह और बढ़ जाता है। अहं मामेति अर्थात मी एंड माईन, मी एंड माईन। यही मंत्र चलता रहता है और बोलते रहते हैं। किसी ने सर्वे किया लोग फोन पर कौन सा शब्द सबसे अधिक बार बोलते है। किसी ने पता लगाया कि मैं, मैं, मैं। यह शब्द सबसे अधिक बार बोला जाता है। इस प्रकार हम ऐसे बद्ध बने हुए हैं कि अहं, अहं, अहं, उसके साथ मम, मम, मम या उसके साथ त्वम त्वम अहम त्वम अर्थात मैं और तू, मैं – तु, मैं – तु, तू-मैं, तू-मैं। यह द्वंद है। इस द्वंद में यह कलियुग फसा देता है लेकिन वैसे जो भी हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं, कीर्तन करते हैं, भक्ति करते हैं अर्थात जब भक्ति योग को अपनाते हैं उसी के साथ बॉडी फिनिश्ड ( समाप्त) हो जाती है। बॉडी पर हमारी पकड़ ढीली पड़ जाती है। जप करते करते करते यह ढीला हो जाता है। विदेश के भक्त जब भारत में मायापुर या वृंदावन में आते हैं तब कई इंडियन ( भारतीय) लोग पूछते हैं- वेयर कंट्री फ्रॉम ( आप किस देश से हो?) तब भक्त कहते हैं -मैं फ्रांस से हूं। फिर एक दो मिनट बाद दूसरा व्यक्ति पूछता है- व्हेयर फ्रॉम? कई बार उत्तर देना होता है तब उत्तर देने वाला हरे कृष्ण भक्त सोचता है कि क्या? आई एम फ्रॉम फ्रांस, नो, मैं फ्रांस का नहीं हूं। तत्पश्चात वह कहता है कि मैं बैकुंठ से हूं। हम सारे वैकुंठ वासी हैं। हमारा देश वैकुंठ है या महावैकुंठ गोलोक है। हम वहां के वासी हैं। वही वैकुंठ यहां भी है। हम वैकुंठ में गोलोक में बैठे हैं। मायापुर धाम की जय!
मैं एक बात कह रहा था कि संख्या बढ़ने वाली है। यहां के जो दर्शनार्थी है, वे दिन-ब-दिन, सप्ताह-व सप्ताह, माह दर माह, वर्ष दर वर्ष बढ़ते जाएंगे। कल रात ही मंच पर एक वक्ता कह रहे थे,वे कुछ प्रतिशत की बात कर रहे थे। उन्होंने कहा कि ऐसा समय आएगा 99% जनसंख्या गौड़ीय वैष्णव हो जाएगी। मैं निश्चित नहीं हूं लेकिन निश्चित ही एक बहुत बड़ी संख्या में, जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग गौड़ीय वैष्णव का होगा । वैसे वैष्णव होना उपाधि नहीं है।
*सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।।*
( भक्तिरसामृत सिन्धु १.१.२)
अर्थ:- भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता हैं और भगवान की सेवा में लगे रहने मात्र से इसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती है।
हमें निर्मल होना है। हम निर्मल कब होंगे? अथवा हम गंदगी से कचरा विचार से तब मुक्त होंगे जब हम सारी उपाधियों से भी मुक्त होंगे।
हम कई सारी उपाधियां लेकर बैठे हैं। मैं यह कहना चाहता था कि वैष्णव कोई उपाधि नहीं है। ब्राह्मण भी उपाधि हो गई कि मैं ब्राह्मण हूं। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं-
*नाहं विप्रो न च नरपतिर्नापि वैश्यो न शुद्रो नाहं वर्णी न च गृह-पतिर्नो वनस्थो य़तिर्वा। किन्तु प्रोद्यन्निखिल-परमानन्द-पूर्नामृताब्धेर् गोपी- भर्तुः पद-कमलयोर्दास-दासानुदासः।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १३.८०)
अनुवाद:- मैं न तो ब्राह्मण हूं, न क्षत्रिय, न वैश्य, न ही शुद्र हूं। न ही मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी हूं। मैं तो गोपियों के भर्ता भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के दास के दास का भी दास हूँ। वे अमृत के सागर के तुल्य हैं और विश्व के दिव्य आनन्द के करणस्वरूप हैं। वे सदैव तेजोमय रहते हैं।
यह सब उपाधियां है। मैं इस वर्ण का हूं ,मैं इस आश्रम का हूं, यह भी उपाधियां हैं लेकिन वैष्णव होना उपाधि नहीं है। वैकुंठ जगत में वैष्णव वह है जो विष्णु को महाविष्णु को, कृष्ण को समर्पित है, वहीं वैष्णव है। वैकुंठ या गोलोक अर्थात आध्यात्मिक जगत की सारी जनसंख्या 100% वैष्णव हैं। हमें वैष्णव बनना हैं। जब हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण करते हैं तब हम वैष्णव बन जाते हैं और फिर भगवत धाम लौटने अथवा प्रवेश करने के पात्र भी बन जाते हैं। जैसे-जैसे प्रचार बढ़ेगा,तब सारे वैष्णव ही वैष्णव हो जाएंगे, हमारी सारी जो अन्य उपाधियां हैं कि मैं इस देश का, उस देश का हूं, यह सब मिट जाएगा। इसलिए श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे और हमने कई बार देखा, सुना है कि श्रील प्रभुपाद, पंडाल प्रोग्राम्स में अथवा हरे कृष्ण फेस्टिवल और मंच पर उपस्थित कई भक्तों को उंगली करते हुए कहते थे- यह जापान से है, यह ऑस्ट्रेलिया से है, यह ब्राजील से है, यह कनाडा से है, भारत से है, यह फ्रांस से है, तब वे कहते थे कि यह यूनाइटेड नेशन ऑफ स्पिरिचुअल वर्ड है ( यह आध्यत्मिक जगत का संयुक्त राष्ट्र संघ है ) वैसे न्यूयॉर्क में यूनाइटेड नेशन का जो हेड क्वार्टर है,जब भी प्रभुपाद वहां से गुजरते थे तब वे झंडो को देखकर कहते थे- एक और झंडा। अगली बार जब फिर वे वहां से गुजरते- एक और झंडा अथवा एक और ध्वज/ पताका। यह प्रभुपाद का प्रसिद्व स्टेटमेंट( वाक्य) है। दिस इस डिस- यूनाइटेड नेशन। डी. यू. एन. ओ. लेकिन भक्तों की ओर मंच पर भक्तों का परिचय देते हुए कहते हुए यह है यूनाइटेड नेशन।
वर्ष 1971 में जब मैं पहली बार हरे कृष्ण उत्सव में गया था तब एक दिन श्रील प्रभुपाद ने मंच पर ही भक्तों को दीक्षा दी थी। दस हजार लोग बैठे हुए थे और उनके समक्ष दीक्षा समारोह हुआ। उसमें एक विवाह भी हुआ था। ऑस्ट्रेलिया की पद्मावती माता जी व उनके पति जो स्वीडन के थे अर्थात वाइफ फ्रॉम ऑस्ट्रेलिया से थी और हस्बैंड फ्रॉम स्वीडन से थे, का विवाह हुआ था। तब प्रभुपाद ने कहा यह यूनाइटेड नेशन है। इन दोनों का विवाह हो रहा है। यह यूनाइटेड नेशन है। जैसे हम कहते हैं
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
कल भी जब कीर्तन हो रहा था। (थोड़ी देर में मुझे रुकना है) कीर्तन करते समय टी. ओ. वी. पी. का सारा विशाल दर्शन मंडल देख मुझे लग रहा था कि कृष्ण कितने बड़े हो रहे हैं,
*नाम चिंतामणि: कृष्णश्रै्चतन्य-रस-विग्रहः। पूर्णः शुद्धो नित्य-.मुक्तोअभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः।*
( पदम् पुराण)
अर्थ:- कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंद मय है यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वरदान देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनंद का आगार अर्थात स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह से कम शक्तिशाली नहीं है। चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृष्ण नाम तथा स्वयं कृष्णा अभिन्न हैं।
नाम और नामि में भेद नहीं है। जब कीर्तन हो रहा था, वह गुम्बद कीर्तन से भरता जा रहा था। पूरा गुम्बद खचाखच भर रहा था। किस से भर रहा था? वहां भगवान पहुंच रहे थे। भगवान वहां विशाल रूप धारण कर रहे थे, जब कीर्तन हो रहा था। मुझे स्ट्रांग फीलिंग हुई। अच्छा हुआ। बड़ा मंदिर तो भगवान भी बड़े हो गए। भगवान बड़े हो गए। पहले थे वहां वामन अब हो गए-त्रिविक्रम। वैसे भी हमारा दूसरा विचार यह था और आज भी हम जप कर रहे थे और जब भी जप करते हैं अर्थात जब जब नाम होता है, तब कृष्ण प्रकट होते हैं।
*नाहं तिष्ठामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेषु वा। मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।*
( पद्म पुराण)
अर्थ:- न मैं वैकुंठ में हूं, न योगियों के ह्रदय में। मैं वहाँ रहता हूं, जहां मेरे भक्त मेरी लीलाओं की महिमा का गान करते हैं।
इस सिद्धांत के अनुसार जब हम भगवान के नामों का उच्चारण करते हैं तब भगवान प्रकट होते हैं। जितने भक्त जप कर रहे थे, उतने ही भगवान प्रकट हो जाते हैं। जैसे जितनी गोपियां उतने कृष्ण बन जाते हैं ।वैसे ही जितने भक्त जप कर रहे होते हैं तो एक जप करने वाला एक भगवान, दूसरा जप करने वाला दूसरा भगवान। एक ही लेकिन अनेक बन जाते हैं। आपके खुद के भगवान, आप और भगवान,
जप करते समय श्रीकृष्ण, राधा माधव भगवान प्रकट होते हैं। जब हम भगवान को पुकारते हैं तब फिर हम उनका स्मरण कर सकते हैं फिर हम उनसे सवांद या उनको प्रार्थना कर सकते हैं, उनकी संस्तुति कर सकते हैं। हरि! हरि!
हम जप करते-करते अनर्थो से मुक्त होकर शुद्ध नाम जप कर सकते हैं और कृष्ण भावना भावित हो सकते हैं।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
15 अक्टूबर 2021,
मायापुर धाम.
हरि हरि बोल, जय श्रीराम!
760 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। आप शायद अपेक्षा नहीं कर रहे थे कि, मैं 6:30 जप चर्चा शुरू करूंगा। मध्वाचार्य आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय! राम विजयदशमी के उपलक्ष में मुझे भागवतम की कक्षा भी मुझे देनी है। हम जप चर्चा जल्दी शुरू करेंगे और खत्म भी जल्दी करेंगे। हम 7:00 बजे तक खत्म करेंगे। 8:00 बजे मुझे हिंदी भागवतम कक्षा देनी हैं।
हरि हरि, आज बहुत बड़ा दिन है। कौन आ रहे हैं, श्रील प्रभुपाद आ रहे हैं, हरि बोल!! वह महोत्सव भी कल से जारी है। आज भी पूरे दिन यह महामहोत्सव संपन्न होगा। उस संबंध में भी 7:00 बजे इष्टदेव प्रवचन रिमाइंडर दे सकते हैं। आज क्या क्या होने वाला है।
हरि हरि, मध्वाचार्य का भी आज आविर्भाव तिथि महोत्सव है। राम विजयदशमी के दिन ही मध्वाचार्य प्रकट हुए। उडुपी के पास वैसे उडुपी जानते हो। उडुपी कृष्ण प्रसिद्ध है। उडुपी के कृष्ण कहते हैं और उडुपी के कृष्ण को मध्वाचार्य ने ही प्रसिद्ध किया। हरि हरि, तो वह पवनदेव के अवतार माने जाते हैं। इसलिए बड़े बलवान थे। उनका शारीरिक बल अतुलनीय था। एक जहाज आ रही थी द्वारका की ओर से। जब उडुपी के पास पहुंचे समुद्र में आंधी तूफान के कारण डामाडोल हो रही थी, वह बोट जब दबने कि संभावना हो रही थी तो, वह लोग मदद के लिए पुकार रहे थे। मध्वाचार्य वही थे समुद्र के तट पर। तो उन्होंने जो भी किया, पता नहीं क्या किया उसी के साथ आंधी तूफान रुक गया, ठप हो गई। हरि हरि, और मध्वाचार्य ने मदद की। मध्वाचार्य को विशेष भेंट भी दे दिए। उस बोट के कैप्टन ने भेट दी होगी। एक संदूक देकर कहा यह आपके लिए। उसमें थे कृष्ण बलराम के विग्रह। द्वारका मे उनका लोडिंग हुआ था तो अपने सर पर धोके उनको मध्वाचार्य एक स्थान पर बलराम कि तो दूसरे स्थान पर कृष्ण कि स्थापना की। और तब से बलराम तो है प्रसिद्ध लेकिन कृष्ण अधिक प्रसिद्ध है उडुपी के। उनको उडुपी कृष्ण कहते हैं। मध्वाचार्य संप्रदाय विहीनये मंत्रः ते निष्फल मतः… पद्मपुराण कहते हैं जो भी हम मंत्र और तंत्र भी स्वीकार करते हैं, वह संप्रदाय में होने चाहिए नहीं तो वरना क्या, निष्फलामतः। मध्वाचार्य मध्व संप्रदाय उनके नाम से ही संप्रदाय है। मैं थोड़ा विचार कर रहा था, चारों संप्रदाय के आचार्य दक्षिण भारत में जन्मे, प्रकट हुए और कई सारे अवतार उत्तर भारत में प्रकट हुए। भगवान का प्राकट्य उत्तर भारत में और आचार्य का प्राकट्य दक्षिण भारत में। मध्वाचार्य सारे भारत का भ्रमण किए। परिव्राजकाचार्य संन्यासी थे। शायद कुछ 8 साल के ही थे, उन्होंने संन्यास लिया और भ्रमण करते करते यहां मायापुर में भी आए। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने उनको दर्शन दिया। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने वैसे हर संप्रदाय से उनके दो-दो विशेष गुणों का स्वीकार किया। अपने संप्रदाय को उन्होंने गौड़िया वैष्णव संप्रदाय को और पुष्ट बना दिया। मध्वाचार्य संप्रदाय से उन्होंने एक तो अर्चना पद्धति या जिस भाव से होनी चाहिए उसे स्वीकार किया। शुरुआत माधवाचार्य ही पूजा अर्चना श्रीकृष्ण की किया करते थे। उसको श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु अपनाएं। माया मत का खंडनमंडन मंडन जो किया मध्वाचार्य ने उसको भी श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने स्वीकार किया।। इसलिए श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु बारंबार कहां करते थे, मायावादी कृष्ण अपराधी और क्या कहते थे मायावाद भाष्य सुनीले हइले सर्वनाश। शंकराचार्य इन चारों संप्रदाय के आचार्य के पहले प्रकट हुए और उन्होंने ऐसा मायावाद असतशास्त्र मायावाद वैसे असत शास्त्र है। शास्त्रों में ही उल्लेख है की मायावाद कैसा शास्त्र है, असत शास्त्र। उसका वह कलो ब्राह्मणरूपेन उन्होंने स्वयं ही कहा, शंकराचार्य स्वयं ही पार्वती से कहें, मं। स्वयं प्रकट होकर कलयुग में मायावाद का प्रचार करने वाला हूं। और मायावाद कैसा है, असतशास्त्र। उन्होंने किया तो बड़ा जबरदस्त प्रचार। उसको रोकथाम लगाने हेतु यह देश भी एक रहा चार संप्रदाय के आचार्य प्रकट हुए दक्षिण भारत में और इस संबंध में मध्वाचार्य का योगदान सर्वोपरि रहा। मायावाद का खंडन जैसे मध्वाचार्य ने किया और किसी ने नहीं किया। एकदम अतुलनीय मध्वाचार्य का जब हम फोटोग्राफ वगैरा दर्शन करते हैं माधवाचार्य कैसे दिखाते हैं, उंगली दिखाते हैं। प्रभुपाद एक उंगली दिखा कर हमेशा कहते थे मामेकम शरणं व्रज। मध्वाचार्य दो उंगलियां दिखाते हैं, मतलब द्वंद्व। मतलब भगवान एक है और हम दूसरे हैं। या फिर हम भी हैं और भगवान भी हैं। दो है और दोनों शाश्वत है। यह सिद्ध किया मध्वाचार्य की जय! तो इनका एक कॉन्ट्रिब्यूशन रहा। मध्वाचार्य भ्रमण करते करते बद्रिकाश्रम पहुंचे। बद्रिकाश्रम में श्रील व्यासदेव का उन्होंने दर्शन किया। व्यासदेव ने उन्हें दर्शन दिया और व्यास देव के आदेशानुसार या दिव्य ज्ञान हृदये प्रकाशित व्यासदेव दिव्य ज्ञान प्रकाशित किए। मध्वाचार्य के हृदय प्रांगण में और मध्वाचार्य वेदांत सूत्र पर भाष्य लिखें। जिसमें उन्होंने सिद्ध किया कि हम एक नहीं है, दो है। भगवान भी हैं और जीव भी हैं।
हरि हरि हम भी वैसे ब्रह्मा मध्व गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के सदस्य हैं। हम अनुयायी हैं मध्वाचार्य के। वैसे कल भी चारों संप्रदाय के जो वर्तमान आचार्य है, उन सभी ने श्रील प्रभुपाद के गुण गाए। यह कार्यक्रम 1 घंटे के लिए होना था लेकिन, गौरांग प्रभु जी मुझे बता रहे थे कि, प्रभुपाद के गुणगाथा यहां मध्वचार्य के वर्तमान आचार्य, रामानुजाचार्य, विष्णुस्वामी और निंबार्काचार्य उनके वर्तमान आचार्य सारे प्रभुपाद के गुण गाते गए, गाते गए, तो 1 घंटे के बजाय 3 घंटे तक बोलते रहे।
प्रभुपाद इज कमिंग, प्रभुपाद आ रहे हैं!! उत्सव के अंतर्गत वैसे यहां भी प्रभुपाद के शिष्य प्रभुपाद की गौरव गाथा गा रहे थे, तो साथ ही साथ ऑनलाइन यह चारों संप्रदाय के आचार्य इनके साथ मध्वाचार्य संप्रदाय के वर्तमान आचार्य उडुपी के वह प्रभुपाद का एबे यश घुषुक त्रिभुवण तो इस प्रकार श्रील प्रभुपाद की गाथा यश सारे त्रिभुवन में फैल रहा है। सभी संप्रदाय के आचार्य भी प्रभुपाद के गुण गा रहे हैं।
हरि हरि, तो अभी थोड़ा सा ही समय है। फिर आज है विजयदशमी। राम विजयादशमी जय श्रीराम हो गया काम। आज के दिन श्रीराम कहा थे, लंका में थे। यह बहुत समय पहले की बात है। कम से कम 10 लाख वर्ष पूर्व की बात है। आज के दिन वह दिन दशमी का था। श्रीराम अपनी सेना के साथ वानर सेना के साथ अयोध्या पहुंचे। यह युद्धकांड राम की लीला या सात कांडों में लिखी गई है। लंका पहुंचने के पहले प्रकट होना चाहिए उनको। प्रकट हुए अयोध्या में अयोध्यावासी राम, अयोध्या के वासी बन गए। तब बालकांड या फिर अयोध्या कांड। फिर हुआ अरण्यकांड। अरण्य में प्रवेश किए वनवासी हुए राम। और फिर किष्किंधा कांड इस अरण्य में दंडकारण्य में वह राक्षस रावण ने सीता का अपहरण किया। और फिर राम और साथ में लक्ष्मण भी सहायता कर रहे थे। खोज रहे हैं, सीता को खोज रहे हैं। वृंदावन में तो राधा और गोपियां कृष्ण को खोज रही थी। रामलीला में उल्टा हो रहा है। यहां सीता को खोज रहे हैं। श्रीराम खोजते खोजते पहुंच गए किष्किंधा पहुंच गए। किष्किंधा नामक एक स्थान है। राजधानी भी रही और फिर किष्किंधा से सीता का खोज प्रारंभ हुआ। और हनुमान भी गए। किष्किंधा कांड और फिर सुंदरकांड। सुंदरकांड में हनुमान का सीता को खोजने के प्रयास और हनुमान पहुंच ही गए और सीता का पता लगवा कर लौट आए।
हरि हरि, किष्किंधा लौट आए। राम प्रतीक्षा ही कर रहे थे। मेरे पास आपके लिए शुभ समाचार है। श्रीराम आपके लिए खुशखबरी लाया हूं। बताओ तो सही क्या शुभ समाचार है। क्या खबर है। हमने इस सीता का पता लगाया है। मैं जानता हूं कहां है सीता। यह समाचार जैसे ही राम ने सुना तो राम ने हनुमान को गले लगाया।
हरि हरि, वैसे राम कह रहे थे कि आपको पता है हनुमान अगर मैं इस समय अयोध्या में होता तो, कितने बड़े-बड़े पुरस्कार या उपहार तुमको दे देता। लेकिन मैं तो वनवासी हूं। मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। मैं खाली जेब हूं। जेब ही नहीं है। कैसे वस्त्र पहना हूं। लेकिन तुमको एतराज नहीं है तो मेरे आलिंगन को स्वीकार कर सकते हो। ऐसा कहकर राम आगे बढ़े और हनुमान को गले लगाए।
हरि हरि, और फिर जय श्रीराम! जय श्रीराम! जय श्रीराम! कहते ही वानर सेना और भालू सेना लंका की ओर आगे बढ़ी। रास्ते में उनको पुल भी बनाना पड़ा। इतने सारे पत्थर हनुमान एंड कंपनी कंस्ट्रक्शन कंपनी का नाम। हनुमान एंड कंपनी बड़े-बड़े पत्थर या पहाड़ ही फेक रहे थे। नल और नील भी पत्थर पानी को स्पर्श करने से पहले ही स्पर्श करने से पहले ही उस पर नाम लिखते राम। उसी के साथ पत्थर डूबते नहीं पत्थर क्या करते, तैर रहे थे। राम के नाम का संबंध स्थापित हुआ। उन पत्थरों से अगर निर्जीव पत्थर कर सकते हैं, राम राम राम!!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। फिर हमको विश्वास होना चाहिए कि पत्थर अगर कह सकते हैं, वह तो निर्जीव है। हम तो फिर सजीव हैं। राम का नाम हरे कृष्ण नाम लेंगे तो हमारा भी उद्धार निश्चित है। अवश्य रक्षिबे कृष्णाश या अवश्य रक्षिबे राम और फिर ऐसे सेना पहुंची हैं। सुंदर कांड के बाद अभी युद्ध कांड होगा। युद्ध बहुत समय के लिए। कुरुक्षेत्र का युद्ध तो अट्ठारह दिन का था लेकिन यह युद्ध तो बहुत महीनों तक चलता रहा लंका में। और फिर आज के दिन राम और उसके पहले यह कुंभकर्ण नहीं रहे। और फिर आज बारि थी रावण की। परित्राणाय साधुनाम, श्रीराम ने आज के दिन उस दुष्ट का संघार किया। कुत्ते कहीं के ऐसा भी कहां है श्रीराम ने। कुत्ता क्या करता है, जब घर का मालिक यह मालकिन घर में नहीं है। किचन में नहीं है तो घुस कर चोरी करता है। और ले जाता है। ऐसा ही राम कह रहे थे। मैं जब वहां नहीं था, सीता के साथ जैसे कुत्ते चोरी करते हैं ले जाते हैं वैसे तुमने भी किया। तो आज तुम को सबक सिखाता। ऐसा कहकर उन्होंने अपनी प्रत्यंचा धनुष को चढ़ाई। और राम के बाण कैसे होते हैं, वह प्रसिद्ध है। एक बार उनका बाण कभी खाली नहीं जाता। वहां पहुंच गया सीधा भेदन हुआ वक्षस्थल में भूसा। वहां बाण और उसी के साथ रावण के 10 मुखों से रक्त बहने लगा। रक्त की उल्टी करने लगा और विमान से धड़ाम करके गिर गया। हाय हाय हाय हाय कह रहा था।
हरि हरि उसी के साथ जय श्री राम जय श्रीराम हो गया विजय विजय प्राप्त कर लिए राम ने और सीता को जीत लिया। सीता को प्राप्त किया और रावण के वध के उपरांत राम सीधे अशोक वाटिका अशोक मान गए। जहां एक साधारण कुटिया में शीशम के पेड़ के नीचे सीता महारानी बैठी थी निराश और उदास होकर सामने जब श्रीराम को देखा तो उनके जान में जान आ गयी। और इसी के साथ श्रीराम श्रीराम सीता को स्वीकार किए। गले लगाए फिर अग्नि परीक्षा भी होती है। वह भी पास हो गई सीता। वहां का कारोबार विभीषण को दे दिये। अगले एक कल्प तक तुम यहां के राजा बनके रहोगे। रावण का अंतिम संस्कार करो ऐसा आदेश भी दिया। और फिर पुष्पक विमान में आरूढ होकर श्रीराम अयोध्या को प्रस्थान किए। वहां तक पहुंचेंगे तो दिवाली का उत्सव मनाया जाएगा। और आज के दिन कौन सा उत्सव है, दशहरा 10 सिर थे और दिमाग नहीं था। 10 सिर हर लिए इसलिए दशहरा। उत्तर भारत में आज के दिन रावण का अंतिम संस्कार भी हम लोग करते रहते हैं। रावण दहन रावण के बड़े बड़े पुतले बनाते हैं और उसको लगाते हैं आग। ऐसे कई लोग हमने देखा कई लोग उन स्थानों पर अपना अपना धनुष बाण भी लेकर आते हैं। वह लोग भी सहायता कर रहे हैं राम कि। हम भी मारते हैं। हमको भी श्रेय मिल जाएगा। इस लीला के श्रवण से ही आज के दिन जो रावण का वध हुआ, यह लीला श्रवण से रावण में जो कौन थे अवगुण थे दुर्गुण थे, वैसे ही दुर्गुण अवगुण हम में हैं। इसलिए लिला श्रवण मात्र से हम उन दुर्गुणों से मुक्त होते हैं।
हरि हरि रावण को मारने के लिए जो लोग आते हैं। धनुष बाण लेकर पत्थर फेंकते हैं बदमाश कहीं का। आज के दिन राम ने वैष्णव कैलेंडर या घड़ी के और देखा होगा 14 साल पूरे होने जा रहे थे। अपने वचन के पक्के थे श्रीराम। वहां चित्रकूट में राम भरत मिलन हुआ। और फिर भरत को तो केवल पादुका ही मिली राम नहीं मिले। तो उस समय वादा किया था या वैसे भरत भी कहे थे, ठीक है मैं क्या कर सकता हूं, अभी आप नहीं आ रहे हो मुझे केवल पादुका ही दे रहे हो किंतु, जब 14 वर्ष का कालावधी पूर्ण होगा उस समय आपको सही समय पर या फिर पहले पहुंचना होगा। आप देरी करोगे तो उससे अच्छा नहीं होगा। आना ही होगा। आप आओगे तो भी तो मुझे जीवित नहीं देखोगे। यह सब बातें राम को याद थी। उनको समय पर पहुंचना था। तो आज के दिन फिर फटाफट, नहीं तो वैसे चल कर आए थे। पदयात्रा करते हुए आए थे पदयात्रा करते हुए ही लौटे। लेकिन समय नहीं था। इसीलिए राम पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या धाम की जय! अयोध्या में आज के दिन दशहरे का उत्सव हम मना रहे हैं। और कार्तिक में कार्तिक के मध्य में दिवाली का दिन या उत्सव हम मनाएंगे। वैसे हम हिंदू या सनातनी जो भक्त हैं। हमारे यही दो बड़े उत्सव है, दशहरा और दिवाली. क्रिसमस डे वैसे से पाश्चात्य देशों में होता है। हमारा दशहरा दिवाली तक सबसे बड़े उत्सव है। और यह दोनों हम राम के साथ संबंध में हैं। जय श्रीराम ! जैसे राम विजयी हुए तो वैसे आप सब को भी विजय प्राप्त हो। आप सभी विजयी हो। यशस्वी हो। ऐसी भी मनोकामना हम करते हैं। प्रार्थना हम करते हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
मायापुर धाम से
14 अक्टूबर 2021
गौरंग ! 888 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । मायापुर धाम की जय ! मायापुर धाम भी एक लोकेशन बन गया । या मैं ही पहुंच गया मायापुर । मैं अभी मायापुर में स्थित हूं । हरि हरि !!
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ।
श्री अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ॥
आप सभी जप करने वाले जप कर्ता भक्तों का स्वागत है । त्रिलोकीनाथ और नंदीमुखी माताजी का विशेष स्वागत है । मायापुर पहुंचे हैं । केशव प्रभु पुणे से । हरि हरि !! जप करने वालों को स्वागत है और जो जप नहीं करते उनका क्या ? कोई करेगा स्वागत ? इसी भाग्य का ही, हमारा भाग्य का ही उदित हुआ । हम मायापुर पहुंच गए । गौरंग ! तो भ्रमण करते करते कल हम योगपीठ पहुंच गए । योगपीठ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थान है । जैसे कृष्ण जन्म मथुरा में तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अजन्मा होते हुए भी वे जन्म लेते हैं जन्म लिया उन्होंने मायापुर में । एक समय उसको मियांपुर कहते थे । मुसलमानों की खूब आबादी यहां हुआ करती थी 500 वर्ष पूर्व । चांद काजी का जमाना था । चांद काजी की सरकार थी । नवाब हुसैन सहा बंगाल के सम्राट थे या राजा थे तो हे तो मायापुर । मायापुर ! हम भी जब 1976 में आ रहे थे पदयात्रा करते हुए । प्रभुपाद ने भेजा हमको । वृंदावन से मायापुर जाओ । विमान से नहीं नोट एयर यात्रा, पदयात्रा तो रास्ते में हम लोग पूछते । कहां जा रहे हो ? कहां जा रहे हो ? मायापुर जा रहे हैं । साधु और मायापुर जा रहे हैं । माया का पूर । आपको तो कृष्णपुर जाना चाहिए । मायापुर क्यों जा रहे हो ? तो यहां की माया भिन्न है यहां की योगमाया है । जहां महामाया नहीं है तो दर्शन करने हम भी पहुंच गए कल मायापुर में योगपीठ ।
जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन गौर हरि !
जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन गौर हरी !
सचि माता प्राण धन गौर हरी ! नदिया बिहारी गौर हरी !
गौर गौर गौर हरी ! गौर गौर गौर हरि !
तो वहां भी कुछ ऐसा गा रहे थे थोड़े समय के लिए और वह भी बात याद आ गई भक्ति विनोद ठाकुर कहे थे एक समय आएगा संसार भर के देश विदेश के भक्त एकत्रित होकर एकत्र होंगे मायापुर में और क्या गाएंगे ? जय सचिनंदन गौर हरि ! तो भक्ति विनोद ठाकुर की भविष्यवाणी भी सच हो रही है कल भी हमने अनुभव किया चाइना से भक्त हमारे साथ थे । बर्मा के भक्त । कहां-कहां से भक्त ! संसार भर के भक्त योगपीठ पहुंचे और गा रहे थे, जय सचिनंदन गौर हरि ! वो नीम का पेड आज भी है, साक्षी है । नीम के वृक्ष ने दर्शन किया होगा सर्वप्रथम दर्शन करने वाला तो वह नीम का पेड़ ही होगा तो नीम के पेड़ के नीचे कुटिया है आज भी है जगन्नाथ मिश्रा की । वृंदावन में तो नंद भवन है महल जैसा है । जैसे 84 खंबे हैं । किंतु जगन्नाथ मिश्रा तो ब्राह्मण थे । नंद बाबा के पास तो …
कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते ।
वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.24.21 )
अनुवाद:- वैश्य के वृत्तिपरक कार्य चार प्रकार के माने गये हैं – कृषि , व्यापार , गोरक्षा तथा धन का लेन – देन । हम इनमें से केवल गोरक्षा में ही सदैव लगे रहे हैं ।
9,00,000 गाय के मालिक और राजा थे तो जगन्नाथ मिश्रा गरीब ब्राह्मण या ब्राह्मण तो वैराग्य वान होते हैं । तपस्या है उनका धन होता है । वैसे ही कुटिया आज भी है नीम का पेड़ तो है ही । नीम के पेड़ के नीचे जन्म हुआ इसीलिए बालक का नाम निमाई । निमाई ! निमाई ! यह सचि माता का प्यारा नाम है तो जब निमाई निमाई कहते । हरि हरि !! वैसे सीता ठाकुरानी यह नाम रखा निमाई । लेकिन अधिकारी नाम भी होने वाला है तो कल जब हम वहां दर्शन कर रहे थे निमाई के चरण चिन्हों का दर्शन हुआ और चरण चिन्ह के साथ में एक बच्चन भी लिखा था जिसको रमण कृष्ण प्रभु जब बांग्ला जानते हैं उन्होंने पढ़के हमको सुनाया भी । याद है ? जो यंहा हमारे पास है वे जानते हैं फिर मैं सोच रहा था की चैतन्य चरितामृत में कहां है यह श्लोक ? तो मिल ही गया तो आदिलीला चैतन्य चरितामृत 14 परिच्छेद में प्रारंभ में ही इस श्लोक का उल्लेख है और चरण चिन्हों में क्या देखा उन्होंने ? लघु पद चिन्ह । छोटे छोटे आकार के एक तो चरण में चिन्ह और चरणों में फिर चरण चिन्हांकित थे । ध्वजा थी वज्र था शंख था चक्र था मीन मछली थी और भी चिन्हित है यहां सभी नहीं लिखे हैं । कृष्ण के चरणों में चिन्ह होते हैं चरणों में तो उन चिन्हों से चिन्ह अंकित हुआ था उनका घर का फर्श । मार्बल का नहीं होगा नहीं तो चिन्ह नहीं दिखते । गोबर से लेपन किया होगा जहां-जहां निमाई चला तो चिन्ह देखें और चरण चिन्हों में चिन्ह देखें । ध्वजा, मीन इत्यादि । यह दोनों को और आश्चर्य हुआ ।
देखिया दोंहार चित्ते जन्मिल विस्मय ।
कार पद – चिह्न घरे , ना पाय निश्चय ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.8 )
अनुवाद:- इन सारी छाप को देखकर न तो उनके पिता न ही माता समझ पाये कि पाँवों की ये छाप किसकी हैं । इस प्रकार विस्मित होकर वे यह निश्चय नहीं कर पाये कि उनके घर में ये चिह्न कैसे आये ।
हमारे घर में यह किसके चिन्ह है ? कुछ उनके समझ में नहीं आ रहा था और निष्कर्ष निकाल नहीं पा रहे थे ।
मिश्र कहे , बालगोपाल आछे शिला – सङ्गे ।
तेंहो मूर्ति हञा घरे खेले , जानि , रङ्गे ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.9 )
अनुवाद:- जगन्नाथ मिश्र ने कहा , ” निश्चय ही बाल कृष्ण शालग्राम शिला के साथ हैं । वे अपना बालरूप धारण करके कमरे के भीतर खेल रहे हैं । ”
तो जगन्नाथ मिश्रा सोचे हमारे घर के जो बाल गोपाल जो विग्रह है वहीं चले हैं । यह उनका चरण चिन्ह है । निमाई का हो सकता भी नहीं, निमाई तो हमारा बालक है । वे भगवान वगैरह है नहीं तो यह हमारे विग्रह के, हमारे विग्रह हमसे प्रसन्न हुए और वे चले हैं उनके चरण चिन्ह है ।
सेइ क्षणे जागि निमाई करये क्रन्दन ।
अङ्के लञा शची तारे पियाइल स्तन ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.10 )
अनुवाद:- जब माता शची तथा जगन्नाथ मिश्र बातें कर रहे थे , तब बालक निमाइ जग गया और रोने लगा माता शची ने उसे गोद में उठा लिया और अपने स्तन से दूध पिलाने लगीं ।
तो इतने में जो सोच रहे थे किसके चरण चिन्ह है ? किसके चरण चिन्ह है ? हो सकता है हमारे विग्रह के चरण चिन्ह है तो इतने में निमाई को लगी है भूख और वे रो रहे हैं मां … ! तो सचि माता ने गोद में बिठाया लिटाया और स्तनपान कराई । सचि माता महाभागा यस्या स्थनम् । जैसे यशोदा गोकुल में कृष्ण को अपना स्तनपान कराती थी दूध पिलाती थी अपने स्तन का तो वही माता यहां सचि माता बनी है और दूध पिलाने लगी निमाई को ।
देखिया मिलेर हइल आनन्दित मति ।
गुप्ते बोलाइल नीलाम्बर चक्रवर्ती ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.12 )
अनुवाद:- जब जगन्नाथ मिश्र ने अपने पुत्र के तलवे पर ये अद्भुत चिह्न देखे तो वे अत्यन्त पुलकित हुए और चुपके से उन्होंने नीलाम्बर चक्रवर्ती को बुलावा भेजा ।
ऐसा भी कई स्थानों पर उल्लेख है जब वह दूध पिला रही थी सचि माता निमाई को हो तो वो चरण, जो चरण चिन्ह घर में फर्श पर थे वही चिन्ह निमाई के चरणों में थे । हरि बोल ! तो उन दोनों ने नीलांबर चक्रवर्ती को बुलाया । जो कहां रहते थे ? बेलपुकुर में रहते थे थे तो आमंत्रण भेजा और यह कुछ नामकरण इत्यादि संस्कार संपन्न कराने हैं ।
चिह्न देखि ‘ चक्रवर्ती बलेन हासिया ।
लग्न गणि ‘ पूर्वे आमि राखियाछि लिखिया ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.13 )
अनुवाद:- जब नीलाम्बर चक्रवर्ती ने ये चिह्न देखे , तो हँसते हुए उन्होंने कहा , “ मैंने पहले ही नक्षत्र – गणना से इसे निश्चित कर लिया था और लिख भी लिया था ।
उन्होंने आकर नीलांबर चक्रवर्ती ने यह सब चरण चिन्ह देखें तो उनको तो कोई आश्चर्य नहीं लगा । वो समझ गए यह चरण चिन्ह तो और किसी के नहीं है ! यह किसके हैं ? निमाई के चरण चिन्ह है पुष्टि हो गई । उन्होंने बता दिया और उन्होंने कहा कि यह तो मैंने तो पहले सोचा था और लिख कर भी रखा है मैंने निमाई के संबंध में । निमाई कौन है इत्यादि । इनकी भगवता को समझ चुके थे नीलांबर चक्रवर्ती और नीलांबर चक्रवर्ती कृष्ण लीला के गर्गाचार्य है, गर्ग मुनि प्रकट हुए हैं नीलांबर चक्रवर्ती के रूप में तो जैसे गर्गाचार्य परम विद्वान त्रिकालज्ञ तो वैसे नीलांबर चक्रवर्ती भी थे जो निमाई के नाना है ।
बत्रिश लक्षण— महापुरुष- भूषण ।
एइ शिशु अङ्गे देखि से सब लक्षण ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.14 )
अनुवाद:- बत्तीस लक्षणों से महापुरुष का बोध होता है और के शरीर में इन सारे लक्षणों को देख रहा हूँ । इस बालक के शरीर में इन सारे लक्षणों को देख रहा हूं ।
तो नीलांबर चक्रवर्ती उन्होंने 32 जो लक्षण होते हैं महापुरुष के तो वह पहले ही लिख कर रखे थे अब वे सुनाने वाले हैं या वैसे महापुरुष थे उन्होंने ही लिखे हैं शास्त्र में । सामुद्रिक नाम का एक ग्रंथ है । ग्रंथ का प्रकार है तो उसमें उल्लेख है महापुरुष के लक्षण को सुनो और फिर याद कर सकते हो तो ।
पञ्च – दीर्घः पञ्च – सूक्ष्मः सप्त – रक्त : षडू – उन्नतः ।
त्रि – हस्व – पृथु – गम्भीरो द्वात्रिंशल्लक्षणा महान् ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.1 5 )
अनुवाद:- महापुरुष के शरीर में ३२ लक्षण होते हैं – उसके शरीर के पाँच अंग बड़े , पाँच सूक्ष्म , सात लाल रंग के , छह उठे हुए , तीन छोटे , तीन चौड़े तथा तीन गहरे ( गम्भीर ) होते हैं ।
तो यहां लिखा है पहले 5 दीर्घ अंग होते हैं । ऊंची नासिका है, भुजाएं, हनु है ऊंची, नेत्र है और जानू है । फिर पांच दीर्घ यह भी पांच सुक्ष्म त्वचा है महाप्रभु की या भगवान की गोरांग की त्वचा, बाल है । अंग लिप्त और उनके दांत भी विशेष दांत है । छोटे-छोटे दांत है भी और रोमा बली है यही 5 टी सुक्ष्म । अब बताएंगे शरीर के 7 प्रकार के 7 अंक उसमें लालिमा होती है और वह है नेत्र । नेत्र में लालिमा होती है । यह भगवान की करुणा का लक्षण है । कल हम जगन्नाथ का दर्शन कर रहे थे तो वहां भी लालिमा है । हमारी आंखें लाल होती है तो वह क्रोध का लक्षण है लेकिन भगवान की आंखों में ! फिर पदतल, करतल उसमें लालिमा है । तालू में मुंह खोलेंगे तो देख सकते हैं भगवान जब बोलते हैं । ओस्ट, हॉट भगवान के लाल है तो हम भी लाल करना चाहते हैं लिपस्टिक वगैरह लगाते हैं । लाल है नहीं लेकिन, और नख लाल है । हाथों के पैरों के नख लालिमा है एई सप्त रक्त । अब 6 ठो उन्नत उभरे हुए हैं ऊंचे हैं । जो वक्षस्थल है भगवान का चलते भी है तो ..और कंधे भी ऊंचे हैं । दोबारा नख का नाम आया है उसमें यह उन्नत है । नासिका ऊंची है नाक की चाइनीस नाक और कट्टी और मुख यह उन्नत है । 3 अंक भगवान के छोटे हैं । जैसे ग्रीवा है । उनका गला छोटा है, त्रीरेखाअंक कंठ होते हैं । ऊंट जैसा लंबा नहीं होता है और जंघ और जनन इंद्रिय छोटा है । फिर 3 ठो विस्तीर्ण भगवान की कट्टी प्रदेश उनके बड़ी होती है और ललाट यह भी विशाल होता है और वक्षस्थल । दोबारा वक्षस्थल का नाम आया । 3 अंग में गहराइयां है । नाभि भगवान की गहरी होती है वहां तालाब भी है ऐसे कमल का पुष्प भी उत्पन्न होता है और स्वर, भगवान का जो स्वर है उसमें भी गांभीर्य और गहराई होती है । ” मेघ गांभीर्य वाचा” वैसे बादल आते हैं और फिर उसका जो आवाज है दूर-दूर तक पहुंचता है । 5-10 किलोमीटर दूर जाता है । जब बादल बोलते हैं तो वहां माइक्रोफोन सिस्टम की आवश्यकता नहीं है उसका आवाज दूर पहुंचाने के लिए । तो भगवान बोलते हैं तो उसमें गांभीर्य है और दूर दूर तक पहुंचता है । नरसिंह भगवान जब सिंहनाद हो रहा था तो सारे ब्रह्मांड में फैल गया और सारा ब्रह्मांड कांप रहा था यह अद्भुत है । सारे ब्रह्मांड में आवाज ध्वनि तो परम पुरुष भगवान इस प्रकार, मायावती तो 100 मीटर दूर भी नहीं जाती । लेकिन भगवान के आवाज सर्वत्र या भगवान के मुरली की आवाज ब्रह्म लोक में ब्रह्मा सुने । उसी के साथ दीक्षा भी हुई ब्रह्मा की । गायत्री मंत्र को सुनाएं और उसके बाद यही तीनों गांभीर्य है, ठीक है । जिनमें यह 32 लक्षण है वे होते हैं महापुरुष और वे थे गौरांग । गौरांग ! गौरांग ! गौरांग ! तो गर्गाचार्य अभी बने हैं नीलांबर चक्रवर्ती यह सब सुना रहे हैं ।
नारायणेर चिह्न – युक्त श्री हस्त चरण ।
एइ शिशु सर्व लोके करिबे तारण ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.16 )
अनुवाद:- इस बालक की हथेलियों तथा तलवों में भगवान् नारायण के सारे लक्षण ( चिह्न ) हैं । यह तीनों लोकों का उद्धार करने में समर्थ होगा ।
और एसी लक्षण नारायण में होते हैं और दूसरे शब्दों में यह बालक नारायण ही है या महा नारायण है या नारायण का भी स्रोत है और यह शिशु, अभी तो शिशु है “सर्व लोके करिबे तारण” सभी लोगों का रक्षण करने वाले हैं यह बालक है ।
एइ त ‘ करिबे वैष्णव धर्मेर प्रचार ।
इहा हैते हबे दुइ कुलेर निस्तार ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.17 )
अनुवाद:- यह बालक वैष्णव सम्प्रदाय का प्रचार करेगा और अपने मातृ तथा पितृ दोनों कुलों का उद्धार करेगा ।
तो फिर उसको कुंडली सब बताई जा रही है पहली बार अधिकृत रूप से बताया जा रहा है निमाई के संबंध में वे जानते हैं जानकार है, त्रिकालज्ञ है, विद्वान है वे बता रहे हैं । वैसे श्रील प्रभुपाद जब जन्मे थे; यह बालक 108 मंदिरों का निर्माण करेगा । इत्यादि इत्यादि कुछ बातें जो वैसी की वैसी है जो कोलकाता में कही थी । वही बातें यहां मायापुर में नीलांबर चक्रवर्ती सुना रहे हैं । “एइ त ‘ करिबे वैष्णव धर्मेर प्रचार” या वैष्णव धर्म का प्रचार करेगा । “इहा हैते हबे दुइ कुलेर निस्तार” और दोनों कुलों का, दोनों कुल कौन से ? एक सचि माता का और जगन्नाथ मिश्रा के कुल का उद्धार करने वाला है यह बालक । आगे वे कहते हैं …
महोत्सव कर , सब बोलाह ब्राह्मण ।
आजि दिन भाल , -करिब नाम – करण ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.18 )
अनुवाद:- मैं नामकरण संस्कार करना चाहता हूँ । हम उत्सव मनायें और ब्राह्मणों को बुलायें , क्योंकि आज का दिन अत्यन्त शुभ है ।
तो निलंबर चक्रवर्ती कह रहे हैं कि सब को बुलाओ ! आमंत्रण दे दो और उत्सव संपन्न करो । मैं आज ही इस बालक का नामकरण करना चाहता हूं तो नामकरण संस्कार के लिए बुलाओ सबको ।
सर्व – लोकेर करिबे इहँ धारण , पोषण ।
‘ विश्वम्भर ‘ नाम इहार , -एइ त ‘ कारण ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.19 )
अनुवाद:- यह बालक भविष्य में सारे जगत् की रक्षा और पालन करेगा । इसलिए इसे विश्वम्भर नाम से पुकारा जायेगा ।
तो हो भी गया । अभी अभी कह रहे थे कि उत्सव संपन्न करो और आयोजन करो । “आयोजन हाईवे, आयोजन” तो कल होगा ऐसा नहीं, अभी करो । सभी आए भी हैं उत्सव संपन्न हो रहा है और नीलांबर चक्रवर्ती कह रहे हैं इस बालक का नाम होगा ‘विश्वंभर’ । आपने अनुमोदन किया ? आपका जब नामकरण होता है । उसका नाम दशरथ ! तो आप क्या कहते हो ? हरि बोल ! तो नगाड़े बजता है, मृदंग बजता है, करताल तो इस प्रकार हम भी थोड़ा योगदान करते हैं नामकरण संस्कार में । यह तो चिरकाल लिए ऐसा उत्सव तो हर दिन हो सकता है । होता है नित्यलीला है नामकरण के भी तो आज हमारी बारी है । हमको भी बुलाया और हम वहां उपस्थित थे । और जब भी हम पढ़ते हैं इसको याद करते हैं वही क्षण है नामकरण का ।
शुनि ‘ शची मिलेर मने आनन्द बाड़िल ।
ब्राह्मण – ब्राह्मणी आनि ‘ महोत्सव कैल ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 14.20 )
अनुवाद:- नीलाम्बर चक्रवर्ती की भविष्यवाणी सुनकर शचीमाता तथा जगन्नाथ मिश्र ने बड़े ही आनन्द के साथ सारे ब्राह्मणों और उनकी पत्नियों को आमन्त्रित करके नामकरण उत्सव सम्पन्न किया ।
तो यह ब्राह्मण ब्राह्मणी बड़े प्रसन्न हुए “आनन्द बाड़िल” जब कहा कि बुलाओ बुलाओ सब को बुलाओ और उत्सव संपन्न हो रहा है तो “महोत्सव कैल” महोत्सव का आयोजन भी हो गया । हरि हरि !! उत्सव संपन्न हो गया । निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । गौरंग ! नाम तो विश्वंभर है, नाम तो क्या है ? निमाई है, महाप्रभु है, गौर हरी है, श्री कृष्ण चैतन्य है सन्यास के समय तो श्री कृष्ण चैतन्य और सची माता के पसंद का नाम है निमाई तो महाप्रभु , माताएं भी कहती है महाप्रभु ! महाप्रभु ! जब चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि मेरा नाम का प्रचार होगा तो कौन सा नाम का प्रचार होने वाला था ?
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह उनकी परिचय है । वास्तविक परिचय “श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य” तो इसका वृंदावन के साथ संबंध है और मेरे नाम का प्रचार, हरे कृष्ण हरे कृष्ण का प्रचार होगा और यहां गर्गाचार्य बताए ही “एइ त ‘ करिबे वैष्णव धर्मेर प्रचार” यह बालक वैष्णव धर्म का या कलियुग के धर्म का … “कलि – कालेर धर्म – हरि नाम संकीर्तन” वैसे चैतन्य महाप्रभु तो भारत में ही प्रचार किए । कहे थे तो ..
पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ॥
( चैतन्य भागवत अंत्यखंड 4.126 )
अनुवाद:- इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा ।
सारे पृथ्वी पर होगा । लेकिन फिर प्रभुपाद का है हां महाप्रभु सर्वत्र प्रचार करते तो हम क्या करते ? हमारे लिए बचा हुआ कार्य हमारे लिए छोटे भगवान तो फिर प्रभुपाद इस अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्णा भावना मृत संघ का फिर स्थापना किए और फिर हुआ सर्वत्र प्रचार या नहीं कह सकते सर्वत्र प्रचार हुआ लेकिन बहुत देशों में प्रचार प्रारंभ हुआ तो प्रभुपाद भी कर सकते थे प्रचार । फैला सकते थे हर नगर हर ग्राम में तो फिर हम क्या करते ? हमारी भी बारी है जिम्मेदारी है कि हम और नगरों में और ग्रामों में इसको फैला दें और उस नगर के ग्राम के हर व्यक्ति तक हरिनाम पहुंचाना है । यह नहीं कि हमने कहां पहुंचा दिया । वर्तमान नगर वहां गए और एक कीर्तन कर दिया । ए ! गांव में प्रचार हो गया, हरि नाम फैल गया तो हरि नाम फिर रास्ते के मूर्ति के लिए उधार के लिए नहीं है या वहां के जो दीवारें हैं घर है उसके उद्धार के लिए हम कीर्तन नहीं करते । कीर्तन तो वहां के जीवो के लिए मनुष्य के लिए । कीर्तन को तो फिर घर घर सिर्फ घर-घर ही नहीं घर में रहने वाले .. “गैहे गैहे- जने जने” जैसे नारद मुनि कहे हमारा लक्ष्य तो वहां के या मनुष्य है । उन मनुष्यों को तक पहुंचाना है यह नहीं कि हमने इस नगर में कीर्तन किया फैल गया पहुंच गया । इस गांव में गया पहुंच गया या एक देश में नहीं की कीर्तन किया विदेश में पहुंच गया । हमको तो हर मनुष्य के पास पहुंचाना है और फिर मनुष्य भी परिवर्तन होते रहते हैं या कुछ जिनके पास पहुंचा तो वह हो गए मुक्त भक्त बन गए । भगवत धाम लौट गए दूसरी पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी तो यह सब अगले 10000 वर्ष तक होना है । जिनमें पदयात्रा करते हुए द्वारका से कन्याकुमारी से मायापुर पहुंचे । 1986 में चैतन्य महाप्रभु का 500 जन्म वर्ष का उत्सव संपन्न हुआ बहुत बड़ा उत्सव था तो फिर हमको याद आई वह 1996 में प्रभुपाद का जनशताब्दी है । 1986 प्रभुपाद का 100 वा जनशताब्दी तो हमने सोचा कि अब यही रुकेंगे हम लोग, वैसे पदयात्रा को यहां रुकना था तो हम और 10 साल पदयात्रा करे । हृदयानंद गोस्वामी महाराज उनके साथ मेरी बात हो रही थी तो उन्होंने पूछा मुझे; महाराज ! और कब तक करते रहोगे पदयात्रा ? तो मैंने कहा अगले 10 सालों तक परिक्रमा पदयात्रा करेंगे तो मुझे तो लगा कि महाराज को आश्चर्य लगेगा । इतने सालों तक करते रहोगे, ऐसा में उपेक्षा कर रहा था ऐसा महाराज कहेंगे । किंतु महाराज कहे ; बस 10 तक । उन्होंने कहा क्यों नहीं 10000 सालों के लिए । फिर हम भी थोड़ा दूरदृष्टि और तो यह श्रील प्रभुपाद ने प्रारंभ की हुई यह पदयात्रा भी, पदयात्रा का बड़ा योगदान रहा हरिनाम को और नगरों में और ग्रामों में पहुंचाने के लिए और इसीलिए भी प्रभुपाद एक पद यात्रा चल रही थी भारत में तो प्रभुपाद ने रिपोर्ट भेजा यानी हमने प्रभुपाद को रिपोर्ट भेजा तो प्रभु बात बड़े प्रसन्न थे । उन्होंने एक पत्र लिखा नित्यानंद प्रभु अमेरिका में नया तालवन फार्म के इंचार्ज थे उनके पास बेल इत्यादि थे । प्रभुपाद कहे हमारे भारत में ऐसी ऐसी पदयात्रा चल रही है बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी , बहुत सफल है तो हमको ऐसी लाखों गाड़ी चलानी चाहिए विश्वभर में । गाड़ी एक चल रही थी भारत में लेकिन प्रभुपाद ने कहा लाखों ऐसी गाड़ियां चलनी चाहिए पूरे विश्व भर में तो लाखों करोड़ों ऐसी बेल गाड़ियां सर्वत्र होनी चाहिए तो यह हैं प्रभुपाद । प्रभुपाद कभी छोटा सोचते ही नहीं थे । यह मेरी बीमारी है कहते थे । उच्च विचार वाले, श्रील प्रभुपाद की जय ! निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
इष्ट देव प्रभु ने पदयात्रा शुरू की है बंगाल और उड़ीसा राज्य के लिए । फिर सोच रहे हैं बंगाल में एक हो उड़ीसा में और एक हो तो आप सब का स्वागत है । पदयात्रा करो । अपने से गई एक दिन के लिए पदयात्रा करते हो बेंगलुरु में, करते हो ना ? 1 दिन का पदयात्रा । इसी तरह से जमशेदपुर में 1 दिन का पद यात्रा और कई अहमदाबाद में तो होती है तो 1 दिन के लिए पदयात्रा या हर राज्य में एक पद यात्रा और नगर कीर्तन भी करते रहो अपने अपने नगरों में । प्रभात फेरी में निकल जाओ, कीर्तन करो प्रातः काल और घर में तो करना है ही । “जे दिने गृहते भजन देखी गृहेते गोलक भाए” जिस दिन मेरे घर में कीर्तन होता है …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
मेरे घर का हो गया कल्याण । गोलक ! फिर गोलक में रहो, वैकुंठ में रहो जहां भी कीर्तन करोगे वहां भगवान प्रकट होंगे तो भगवान के साथ रहो ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*13 अक्टूबर 2021*
*मायापुर धाम से*
हरे कृष्ण !
हरे कृष्ण आज 896 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं जिसमें से 50 मायापुर से हैं। इष्ट देव आगे क्या प्रोग्राम है। कल इस समय मैं यह नहीं जानता था कि मुझे किस तरफ जाना है वृंदावन या मायापुर लेकिन अब मैं यहां हूं। मायापुर धाम की जय ! मायापुर धाम इज मर्सीफुल, मायापुर धाम को औदार्य धाम भी कहा जाता है हरि हरि ! हम लोग जप करने वाले लोग हैं या हम लोग कीर्तन करने वाले लोग हैं। हरे कृष्ण पीपल राइट ! हरे कृष्ण पीपल हरे कृष्ण लोग और जूम कॉन्फ्रेंस में भी हम लोग जप या कीर्तन ही करते हैं। अधिकतर तो जप ही करते हैं *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* जप एंड क्लोज टॉक और जप के साथ-साथ थोड़ा टॉक भी होता है या वॉक द टॉक। हरे कृष्ण महामंत्र का ओरिजन मायापुर धाम में हुआ यह नाम का धाम है। नाम से धाम तक, नाम से धाम तक ,नाम से धाम तक, यह नाम ही हमको यहां तक ले आया है। गौरंगा ! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु
*गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥*
(2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है,
किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
यह दोनों हैं जहां हम हैं।
*परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः | यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 8.20)
अनुवाद- इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता |
ऊपर भी गोलोक है। उस गोलोक से इस गोलोक तक श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक प्रेम धन ले आए । वैसे स्वयं प्रकट होने के पहले ही नाम रूपी धन पहले पहुंचा, हरि से बड़ा हरि का नाम ! हरि से भी अधिक दयालु हरि का नाम, पहले पहुंचा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सायँकाल में पहुंचे, चंद्रोदय मायापुर, चंद्रोदय मंदिर की जय हो ! चंद्रोदय होने वाला था उस समय चैतन्य महाप्रभु प्रकट होने वाले थे किंतु उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा को जिसका बाद में नाम हुआ है “गौर पूर्णिमा” गौरांग महाप्रभु की पूर्णिमा जैसे अष्टमी का नाम हो चुका है “जन्माष्टमी” अष्टमी कहलाती है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और यह पूर्णिमा कहलाती है गौर पूर्णिमा। पूर्णिमा के दिन में यह हरिनाम पहुंचा, चंद्रग्रहण था असंख्य लोग यहां ना जाने कहां कहां से पहुंचे थे। कोलकाता से पहुंचे होंगे या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की अहेतु की कृपा का फल ऐसे लोग वहां पहुंचाए गए थे कि गंगा के तट पर लोग स्नान कर रहे थे। ऐसे लोग जो धार्मिक नहीं थे, जो नास्तिक थे ऐसे लोगों को भी गौरांग ने उस दिन यहां पहुंचाया और सभी लोग उस दिन पुकार रहे थे *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* “हर हर गंगे” यह भी कहते होंगे कीर्तन करते हुए वे लोग डुबकी लगा रहे थे। टेकन होली डिप हेयर, इस प्रकार दिन में चैतन्य महाप्रभु के स्वयं के प्राकट्य के पहले हरी नाम ने अवतार लिया।
*कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार।नाम हइते हय सर्व जगत निस्तार ।।*
(चैतन्य चरितामृत 17.22)
अनुवाद:- मनुष्य उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है । इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् कृष्ण का अवतार है । केवल पवित्र नाम के कीर्तन से भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है । जो कोई भी ऐसा करता है ,
इस प्रकार गौर पूर्णिमा के दिन दो अवतार हुए जिनमें यह हरि नाम का अवतार हुआ और सांयकाल को चंद्रोदय के समय गौरंगा प्रकट हुए हरि हरि और फिर इस धाम में जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन का धाम है औदार्य धाम है। वैसे भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उदार हैं। श्रीकृष्ण से भी अधिक वे उदार बन गए। यह दूसरे कृष्ण हैं। वैसे एक ही हैं लेकिन कहो कि दूसरे कृष्ण, कृष्ण से एक और कृष्ण बने और
*नमो महा – वदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते । कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौर – त्विषे नमः ।।* (चैतन्य चरितामृत 19. 53)
अनुवाद ” हे परम दयालु अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं , जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमस्कार करते हैं ।
महा – वदान्याय, मतलब दयालु, श्रीकृष्ण दयालु हैं भगवान राम दयालु हैं भगवान दयालु हैं।
*अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप माद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनञ्च । वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्ती गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥* (ब्रह्म संहिता 5.33)
अनुवाद – जो अद्वैत, अच्युत , अनादि , अनन्तरूप , आद्य , पुराण – पुरुष होकर भी सदैव नवयौवन – सम्पन्न सुन्दर पुरुष हैं , जो वेदोंके भी अगम्य हैं , परन्तु शुद्धप्रेमरूप आत्म – भक्तिके द्वारा सुलभ हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूँ ।
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप यह सभी दयालु हैं किंतु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कैसे हैं महादयालु हैं। महा – वदान्याय हैं। *श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे* नरोत्तम दास ठाकुर का यह साक्षात्कार है। मुझ पर दया करो, मर्सी अपॉन मी मुझ पर दया करो ! आप चाहते हो दया? आप मांग नहीं रहे दया, दया मांगो ! दया मांगोगे तो नाम मिलेगा तुम बिन के दयालु जगत संसारे, इस संसार में आप जैसा दयालु और कौन हो सकता है? है ही नहीं तो कैसे मिलेगा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस धाम में कीर्तन करते रहे, छोटे बालक ही थे पालने में लेट जाते थे *जय शची नंदन जय शची नंदन, जय शची नंदन गौर हरी नदिया बिहारी गौर हरी शचीमाता प्राण धन गौर हरी* वैसे उन्होंने कीर्तन प्रारंभ किया जब चैतन्य महाप्रभु पालने में थे चैंटिंग हरे कृष्ण मंत्र और वन्स ही क्राय , शचीमाता थिंक्स व्हाट कुद आई डु ? हे राम हे कृष्ण क्या कर सकती हूं। व्हाट शुड आई डू ? स्टार्ट चैंटिंग *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* तभी बच्चे का रोना स्टॉप हो गया और बच्चा भी हाथ पैर हिलाने लगा ताली बजाता हुआ कीर्तन सुन रहा है कीर्तन कर रहा है। पालने में ही पता चलता है छोटा बालक भविष्य में कौन बनेगा, क्या करेगा जब चैतन्य महाप्रभु भविष्य में क्या करने वाले हैं ? उसका पता चला जब चैतन्य महाप्रभु डोलने लगे कीर्तन के साथ , चैतन्य महाप्रभु की अष्टकालीय लीला कभी वृंदावन में है तो कभी मायापुर में, और महाप्रभु कीर्तन ही कीर्तन करते रहते हैं। वृंदावन में वे रास क्रीड़ा करते हैं और यहां पर, कौन सी क्रीड़ा, संकीर्तन लीला प्रातः काल में ही प्रारंभ करते थे। फिर बगल में ही श्रीवास ठाकुर के आंगन में रात भर यह सारा कीर्तन होता था। कितनी बार बताता हूं श्रीवास आंगन श्रीवासांग नहीं , श्रीवास आंगन, आंगन बंगला में चलता है। यह शब्द आंगन क्रीड़ांगन, कोर्टयार्ड आंगन को कहते हैं। श्रीवास ठाकुर के कोर्ट यार्ड में कीर्तन हो रहा था। श्रीवास आंगन, अंग में नहीं, अंग मतलब पार्ट ऑफ द बॉडी, बॉडी को भी अंग कहते हैं। कितने अंग या अवयव कहते हैं यह अंग है यह कई सारे अंग हैं वैसे श्रीवास ठाकुर के अंग अंग में रोम रोम में हरी नाम तो होता ही होगा किंतु यहां साइन बोर्ड भी लगा हुआ है हम लोग जब जाते हैं, बांग्ला भाषा में अंग्रेजी में हिंदी में वहां लिखा है, आंगन, वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन प्रारंभ किया और एक प्रकार से चैतन्य महाप्रभु का जन्म भूमि तो योग पीठ और श्रीवास ठाकुर का आंगन कर्मभूमि, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कर्म, कर्म भगवान के कर्म को एक्टिविटीज को हम लोग कर्म नहीं कहते हैं उनको लीला कहते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कर्मभूमि या लीला भूमि या हेड क्वार्टर कहो वह श्रीवास ठाकुर का आंगन रहा। वहां कीर्तन प्रारंभ हुआ जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गया से लौटे जहां ईश्वर पुरी महाशय से मिले दीक्षा हुई तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वैसे ही कीर्तन प्रारंभ करते ही, ऑन द स्पॉट इंस्टेंटली ही बिकम फुल्ली कृष्ण कॉन्सियस, कृष्ण भावना भावित हुए ओर वृन्दावन की और दौड़ रहे थे, बहुत प्रयास करके उनको रोका गया, नहीं नहीं इस वक्त वृंदावन नहीं चलो मायापुर चलते हैं। मायापुर भी तो वृंदावन ही है मायापुर को गुप्त वृंदावन कहते हैं। वृंदावन भी है गोलोक , मायापुर नवद्वीप भी है गोलोक और शास्त्रों की भाषा में चैतन्य भागवत की भाषा में चैतन्य चरितामृत की भाषा में वृंदावन को गोलोक कहा है और मायापुर को श्वेत दीप भी कहा है या गुप्त वृंदावन कहा है या जहाँ नवदीप भी है लेकिन यह गोलोक के दो विभाग हैं गोलोक के और भी विभाग हैं गोलोक में ही द्वारिका है गोलोक में ही है मथुरा और गोलोक में ही है वृंदावन लेकिन उस वृंदावन में भी एक है वृंदावन और दूसरा है यह नवद्वीप अतः यह दोनों अभिन्न हैं। एक में राधा कृष्ण हैं
*राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥* राधा – भाव -55
अनुवाद ” श्रीराधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । यह दोनों एक हैं एक हो जाते हैं तब हो गया नवदीप और तद्वयं और जब दो होते हैं तब होता है वृंदावन, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी बिल्कुल प्रारंभ में ही हमें समझाते हैं भुवि पुरा या बहुत समय पहले की बात है लेकिन यह पूछना कितने सौ साल पहले की बात है अनादि काल से एक आत्मा है वे दो हो जाते हैं दो हैं तो राधा कृष्ण और एक हैं।
*अन्तः कृष्णं बहिरं दर्शिताङ्गादि – वैभवम् । कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण – चैतन्यमाश्रिताः ॥*
अनुवाद ” मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ , जो बाहर से गौर वर्ण के हैं , किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं। इस कलियुग में वे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात् अपने अंगों तथा उपागों का प्रदर्शन करते हैं ।
श्रीकृष्ण चैतन्य जहां दो हैं वहां होती है रास क्रीड़ा और कीर्तन गान भी होता है और जहां
*महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥*
अर्थ–श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
यहां महाप्रभु कीर्तन और नृत्य करते हैं
*सुन्दर – बाला शचीर – दुलाल नाचत श्रीहरिकीर्तन में । भाले चन्दन तिलक मनोहर अलका शोभे कपोलन में ||* ( सुंदर बाला भजन )
अनुवाद : – श्रीहरि के नाम – कीर्तन पर नृत्य करता यह सुन्दर बालक शचीमाता का दुलारा पुत्र है । उसके कपाल पर चन्दन का मनोहारी तिलक लगा है और उसके घुघराले बालों की लटें उसके गालों पर लटकती हुईं अत्यन्त शोभायमान हैं ।
*उदिलो अरुण पूरब-भागे द्विजमणि गोरा अमनि जागे भकत समूह लोइया साथे गेला नगर-ब्राजे*
*‘ताथै ताथै’ बाजलॊ खोल् घन घन ताहॆ झाजेर रोल् प्रेमे ढलढल सोणार अंग चरणॆ नूपुर बाजे*
*मुकुंद माधव यादव हरि बोलेन बोलोरॆ वदन भोरि मिछे निद-बशे गेलो रॆ राति दिवस शरीर साजे*
*एमन दुर्लभ मानव देहो पाइया कि कोरो भाव ना केहॊ एबॆ ना भजिलॆ यशोदा सुत चरमॆ पोरिबॆ लाजे*
*उदित तपन हॊइलॆ अस्त दिन गॆलो बोलि हॊइबॆ ब्यस्त तबॆ कॆनॊ एबे अलस होय् ना भज हृदॊय राजे*
*जीवन अनित्य जानह सार् ताहॆ नाना विध विपद-भार् नामाश्रय कोरि जतनॆ तुमि थाकह आपन काजे*
*जीवेर कल्याण साधन काम् जगतॆ आसि’ए मधुर नाम् अविद्या तिमिर तपन रूपॆ हृद् गगनॆ बिराजे*
*कृष्ण-नाम-सुधा कोरिया पान् जुड़ाऒ भकति विनोद-प्राण् नाम बिना किछु नाहिकॊ आरॊ चौद्द-भुवन माझे*
भगवान की मुरली बन जाती है मृदंग और फिर प्रेमे ढलढल सोणार अंग चरणॆ नूपुर बाजे तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां रास क्रीडा हो रही है और गोपियां और सखियां और मंजरियाँ हैं उन्हीं को पुरुष का रूप दिया है। कोई रूपमंजरी तो कोई रति मंजरी बनी है।
*वंदे रूप – सनातनौ रघु – युगौ श्री – जीव – गोपालको ।*
*नाना – शास्त्र – विचारणैक – निपुणौ सद् – धर्म संस्थापकौ लोकानां हित – कारिणौ त्रि – भुवने मान्यौ शरण्याकरौ राधा – कृष्ण – पदारविंद – भजनानंदेन मत्तालिकौ वंदे रूप – सनातनौ रघु – युगौ श्री – जीव – गोपालकौ।।*
(श्री श्री षड् गोस्वामी अष्टक)
अनुवाद : – मै , श्रीरुप सनातन आदि उन छ : गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की , जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे , भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे , जनमात्र के परम हितैषी थे , तीनो लोकों में माननीय थे , श्रृंगारवत्सल थे , एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे ।
यह सभी मंजरिया हैं हरि हरि ! कौन-कौन हैं ? आपको पढ़ना पड़ेगा गौर गणों देश दीपिका में इसका उद्घाटन किया है अर्थात जो वृंदावन में है वह मायापुर में भी है भूमिका अलग अलग है या फिर वह भी है नंदनंदन होय सचिनंदन, बलराम होइले निताई शची माता और इस तरह यहां तक कि कंस मामा भी पहुंच गए, कौन बन गए चांद काजी, इस प्रकार हम समझते हैं नॉन डिफरेंट या वहां का यह द्वीप बेलवन वृन्दावन का भी का भी बेलवन ही है। यहां भी राधा कुंड है और वहां भी राधाकुंड है वहां की जमुना भी यहां है। यहां गंगा और जमुना दोनों साथ में रहती हैं चैतन्य महाप्रभु संन्यास के बाद जब शांतिपुर में पहुंच गए तब उन्होंने नदी को देखा और कहा जमुना मैया की जय! ऐसा कह के श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नदी में कूद पड़े , नित्यानंद प्रभु से पूछा वृंदावन जाना चाहता हूं, आप पहुंच गए नित्यानंद प्रभु ? देखो मैं पहुंच गया फिर यह नदी जमुना होनी चाहिए और जमुना है। यहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते रहते हैं सदैव हरि हरि ! कीर्तन करवा के फिर हमको वृंदावन पहुंचा देते हैं। यहां पर मायापुर में वे औदार्य बनते हैं। यहाँ थोड़ा डेमोंसट्रेशन हो गया श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के समय वह जो संसार भर में पापी तापी है उसमें से जगाई मधाई का उद्धार करके दिखाया जैसे अर्जुन को भगवत गीता सुनाई ,सुनने के उपरांत क्या हुआ अर्जुन ने क्या कहा –
“अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 18.73)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
भगवत गीता अर्जुन को सुना कर, पहले अर्जुन ऐसे थे
*कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 2.7)
अनुवाद- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |
मैं तो सम्ब्रह्मित हो रहा हूं डामाडोल हो रहा हूं। ऐसे अर्जुन ने जब गीता सुनी तब क्या कहा स्थितोस्मि, स्थिर हो गया। ऐसा ही डेमोंसट्रेशन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भगवत गीता सुना के लोग भगवत गीता सुनेंगे उन सभी पर ऐसा ही परिणाम होगा ऐसा ही श्रुति फल होगा। जैसे भगवान ने कहा करिष्ये वचनं वैसा ही। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इस धाम में यहां हरि नाम का प्रभाव दिखा दिया हरि नाम का महत्व हरि नाम की महात्म्य , हरि नाम की शक्ति, अतः जगाई मधाई का उद्धार हो सकता है हरी नाम से तो फिर और सभी का भी हो सकता है। क्योंकि जगाई और मधाई मैचलेस पापी तापी, उनकी बराबरी करने वाला कोई था ही नहीं।
*मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय | मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||* (श्रीमद भगवद्गीता 7.7)
अनुवाद- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है |
उनके जैसा पापी या उनसे ज्यादा और बढ़िया पापी वह पापीयन में नामी थे पापियों में उनका नाम था इसीलिए भी हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु इसका प्रयोग करते हैं। इस हरि नाम का, यह सुधरेंगे तो हमारे महा प्रभु का नाम होगा प्रसिद्धि होगी और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी लीला में दिखा दिया फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा
*पृथ्वीते अछे यता नगरदि ग्राम सर्वत्र प्रचार हैबे मोर नाम* मेरे नाम का होगा प्रचार होगा और आपका नाम क्या है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* मतलब मैं केवल कृष्ण नहीं हूं मैं राधा भी हूं इसलिए मेरा नाम “हरे कृष्ण” है मेरे नाम का प्रचार होगा मतलब हरे कृष्ण हरे कृष्ण का प्रचार होगा सर्वत्र पृथ्वी पर प्रचार होगा मेरे नाम का , श्रील प्रभुपाद ने चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी को सच करके दिखाया कोई उड़ीसा से है तो कोई महाराष्ट्र से है कोई कहां-कहां से और कोई देश, यह कर्नाटक से है वर्मा से हो कहां से हो? कोलकाता से हो, माता जी चाइना से हो हरि बोल ! ब्राजील रशिया से है यह प्रूफ है। आप कहां से कहां तक आ गए हैं। नाम से धाम तक, आपने नाम लिया आप जहां जहां से भी हो और यू आर कम बैक होम। आप भगवाद धाम लौटे अर्थात जो कहा था श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वैसा ही हो रहा है और वैसा ही होता है जो ख़ुदा मंजूर होता है। खुदा श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही है हरि हरि ! जप और कीर्तन करते जाइए और इसका प्रचार बताइए , नित्यानंद प्रभु की ड्यूटी लगाई तुम यहां क्या कर रहे हो जगन्नाथपुरी में ? प्रभुपाद के कमरे में भी यदि कोई बेकार का व्यक्ति आकर बैठ जाता था तो कहते थे गेट आउट गो एंड डू समथिंग प्रैक्टिकल, मैं दर्शन करना चाहता हूं और आपका संग चाहता हूं, तब नॉट ओनली सेंटीमेंट कुछ प्रैक्टिकल करके दिखाओ, चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को बंगाल भेजा वहां का जीबीसी बनाया प्रचार ,महाप्रभु ने दिया प्रदेश, यहां प्रचार करो और फिर एक समय नित्यानंद प्रभु के प्रीचिंग पार्टनर कौन थे हरिदास ठाकुर , प्रीचिंग पार्टनर या कम से कम दो होने चाहिए श्रील प्रभुपाद ने हमको भी जब हम मुंबई में प्रचार करते थे तब किसी अकेले को नहीं जाने देते थे। हैव सम वन विद यू, और एक भक्त चाहिए इन दोनों ने टीम बनाई नित्यानंद प्रभु ने और नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने , हरिदास ब्रह्मा और नित्यानंद बलराम, ब्रह्मा और बलराम की टीम हो गई और ऐसा जबरदस्त प्रचार किया उनका आदेश भी था प्रति घरे गिया, हर घर में जाओ और क्या करो आमार आज्ञा प्रकाश हमारी आज्ञा का प्रकाश करो, बोलो कृष्ण भजो कृष्ण करो कृष्ण शिक्षा यह आदेश चैतन्य महाप्रभु ने हम सब को दिया है। माय आर्डर हमार आज्ञा
*यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश ॥* चैतन्य चरितामृत
अनुवाद:- ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
जो भी आपको प्राप्त हुआ है कृष्ण प्राप्ति हुई, जहां हरि नाम प्राप्ति या गीता भागवत ग्रंथ प्राप्ति हुई है या प्रसाद प्राप्त हो रहा है या धाम यात्रा में आप जाते हो यह सब शेयर करो, दुनिया के साथ औरों के साथ महाप्रभु का आदेश है। इट्स ऑर्डर हरी हरी! अद्वैत आचार्य ने देखा था उस समय की दुनिया या बंगाल, उड़ीसा , क्या देखा?
*यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 4.7)
अनुवाद- हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
धर्म की ग्लानि हुई है। भगवान के प्राकट्य का समय हुआ है। भगवान अनिवार्य है इज़ मोस्ट एसेंशियल, संसार को क्या चाहिए ? कृष्ण चाहिए। संसार को शराब नहीं चाहिए, लॉकडाउन के समय सारी दुकानें लॉक थी लेकिन सरकार ने शराब की दुकानें खोल दी, लोग सोच रहे थे जीना तो क्या जीना शराब के बिना, अतः दुकानें खोल दी कितनी सारी भीड़ वहां इकट्ठे हो रही थी मारामारी धक्का-मुक्की चल रही थी। सरकार ने कहा आप घर में रहो, नहीं! नहीं !आप घर में रहो, शराब की होम डिलीवरी होगी, मतलब यह सारा कलयुग है। जैसे अद्वैत आचार्य ने देखा संसार का अवलोकन किया थोड़ा नाड़ी परीक्षा हुई, डायग्नोसिस, प्रिसक्रिप्शन क्या था? संसार को क्या चाहिए ? भगवान चाहिए। इस संसार को चाहिए कृष्ण नाम तो महाप्रभु को पुकारा और महाप्रभु चले आए। अभी स्थिति वैसी ही है थोड़ा हम लोग सुधरे हैं वरना अधिकतर, इतनी दुर्गा पूजा और क्या-क्या सो मच टू मच, थोड़ा ठीक है लेकिन हरि नाम चाहिए। संसार को कृष्ण चाहिए। संसार को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चाहिए। तो दे दो संसार को कृष्ण, श्री कृष्ण चैतन्य ठीक है। मैं अब यही विराम देता हूं पुनः मिलेंगे।
गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पुणे
12 अक्टूबर 2021
912 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। जप कर्ताओं की संख्या बढ़ती जा रही हैं। हरिकीर्तन और गौरांगी आगये आप ठीक है आपका स्वागत है।
हरि हरि ठीक है अभी आप जप आपके लिए और आपके पुत्र के लिए जप कर रहे हो ठीक है इसके बारे में हम बाद में अधिक चर्चा करेंगे।
कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।।
श्रीमद्भागवत 11.5.32
कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत मंव रहता है ।
भागवत कहता है ग्यारह वा स्कन्द अध्याय 5 वा करभजन मुनि और निमि महाराज जी का संवाद हो रहा हैं। और इस संवाद के अंतर्गत करदम्ब मुनि जो नवयोगेन्द्रों मेसे एक योगेंद्र है उनका कहना है और कई यो का कहना है वैसे नारद मुनि कह रहे हैं वसुदेव जी से वैसे वसुदेव और देवकी उसमे वसुदेव के साथ नारद मुनि का संवाद हो रहा है। नारद मुनि कुछ उपदेश कर रहे किसको वासुदेव के पिता श्री वासुदेव को उपदेश हो रहा है। नारद मुनि द्वारा तो उस समय कई बातें करभाजन मुनि ने कही है कौन से युग में कौन से रूप में और क्या नाम होगा उस अवतार का और कौन सी लीला संपन्न करेंगे इसका उत्तर दे रहे हैं। करभाजन मुनि अलग-अलग युगों के उपरांत जब कलयुग का कलयुग की बारी आ गई तो उन्होंने कहा वैसे कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् इसको पूरा नही समझाए गे लेकिन ये वचन प्रसिद्ध वचन या चैतन्य महाप्रभु के सम्बंध में भागवत में कहा गया हैं। की चैतन्य महाप्रभु भगवान है ऐसे अगर कोई हमको कहे तो हम कह सकते हैं कि हा है इसका उत्तर इस श्लोक में है इसका उल्लेख भागवत में है। कलयुग में भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की रूप में प्रकट होते हैं कृष्ण वर्णन वह क्या करते हैं कृष्ण का वर्णन करते हैं कृष्ण वर्णन कृष्ण विष्णु वर्णम हरि हरि तृषा मतलब कांति कांति समझते हो इपलजन्स तृषा कृष्णन्म कृष्ण प्रकट होंगे विष्णु तो होने चाहिए ऐसा गर्गाचार्य ने कहा था द्वापर युग में कृष्ण प्रकट होते हैं और कृष्ण काले साँवले होते हैं। लेकिन वही कृष्ण कलयुग में जब प्रकट होते हैं तब कृष्ण काले साँवले नहीं होते तो कैसे होते हैं गोरे होते हैं। गौरंगा कौन होंगे गौरंग उनके साथ संगी साथियों के साथ प्रकट होते हैं। और उन्हीं को हथियार बनाते हैं या उन्हीं के साथ धर्म की स्थापना करते हैं।
भगवद्गीता 4.8
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||”
अनुवाद:-
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
धर्म की स्थापना के लिए उसका उपयोग करते हैं यहां एक प्रकार से वह अस्त्र बन जाते है और उसी का प्रचार करते हैं या हरे कृष्ण महामंत्र का वह प्रचार करते हैं। हरि हरि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की परिकर हरिदास ठाकुर और नाम आचार्य श्री हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु का हम जब विचार करते हैं जैसे 1 दिन उन्होंने जगाई और मदाई के साथ उनका परिचय हुआ हरि हरि और वह बदमाश थे असुर थे तो भगवान परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दृश्यता दुष्टों का संहार करने के लिए भगवान प्रकट होते हैं।
श्रीमद्भागवत 1.3.28
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८ ॥
अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे जो इंद्रियों के भोग में लिप्त हैं मतलब वह असुर हैं। वह व्याकुल करते हैं जो कष्ट देते हैं भक्तो को तब भगवान उनकी रक्षा करते हैं। असुरों से वैष्णवो की रक्षा करते हैं असुरों का संहार करते हैं ठीक है यहां जगाई मधाई ने अपराध किया नित्यानंद प्रभु के चरणों में अपराध किया उसके सिर पर बाल पर पत्थर फेंके प्रहार किया हरी हरी तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को वही तभी पता चला किसने बताया तो नहीं मैसेज संदेश भेजकर या भगवान जानते हैं भगवान प्रकट हुए और उन्होंने सुदर्शन को आव्हान किया।
औए वह सुदर्शन के साथ प्रकट हुए। तब नित्यानंद प्रभु ने कहा नही नही प्रभु इस कलयुग में ऐसे हथियार का उपयोग नहीं होगा तो कौनसा हथियार तो सांगो पांगात पार्षद भगवान के परिकर सांगो पांगात पार्षद यह वही अस्त्र शस्त्र बनते हैं और साथ मे वो यही हरिनाम का वितरण करते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
इसी को हथियार अपनाते हैं और उस व्यक्ति को जो दृष्ट प्रवृत्ति है या इस हरिनाम अस्त्र या हरिनाम बॉम्ब को डालते हैं। यह शरीर को तो तोड़ता फोड़ता या काटता नहीं यह शरीर का नाश नहीं करता इस व्यक्ति की जो दृष्टि प्रवृत्ति है आसुरी भाव है।
भगवद्गीता 7.15
” न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः |
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || १५ ||”
अनुवाद:-
जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |
” न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः इस प्रकार के अवगुण से भरे हुए जो लोग हैं यह हरिनाम इस दुष्ट प्रवृत्ति का विनाश करता है।
श्रीमद्भागवत 12.3.51
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः । कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥५१ ॥
अनुवाद:- हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।
उस व्यक्ति के या इस कलयुग में कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः तो दोष जिसमे में उसको दोषी कहते हैं यह दोषी है या दोषों से भरा हुआ है तब अगर इस कलीयुग के दोषों का नाश कैसे होगा कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् और जब
श्रीमद्भागवत 11.5.32
कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ॥३२ ॥
अनुवाद:-कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है ।
यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः कलयुग के जो बुद्धिमान लोग हैं यह बात मैं आपको थोड़ा सुनाना चाहता था हम लोग प्रतिदिन उठते ही यहां एकत्रित होते हैं और हम जप करते हैं या जपा ज़ूम सेशन जॉइन करते हैं जो भी करते हैं यह सही करते हैं हम इसको शास्त्र का आधार है भागवत शास्त्र ही आधार हैं और भागवत में इस बात की पुष्टि हुई है। या श्रीमद्भागवत हमको प्रोत्साहित करता है जप करने के लिए कीर्तन करने के लिए के तब ईसी वचन में करभाजन मुनि राजा निमि को कहे उसमे एक ति कहा है कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयम भगवानलिए तो ऐसी भाषा में है। श्रीकृष्णचैतन्य ही कृष्ण है एक बात वह हुई या आधे श्लोक में उसको सिद्ध किया श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु कृष्ण है। कृष्ण वर्णनम तृषा अकृष्णम वह कैसे दिखते हैं और क्या करते हैं। तो उसी का जो दूसरा भाग है उसमें समझाया है श्रीकृष्ण महाप्रभु ने समझाया या कलयुग की धर्म की स्थापना की और जो भी अपने धर्म को अपनाते हैं जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सिखाया
चैतन्य चरितामृत अंत्य लीला 7.11
*कलि-कालेर धर्म —कृष्ण-नाम-सड़्कीर्तन।*
*कृष्ण- शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन।।*
(श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 7.11)
अनुवाद: – कलयुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
फिर ऐसे भी कहां चैतन्य चरितामृत में और एक शास्त्र का उल्लेख है और शास्त्र प्रमाण हुआ भागवत प्रमाण हुआ चैतन्य चरितामृत प्रमाण हुआ तो हम जो कहते यह प्रामाणिक बात हुई यह शास्त्रोक्त बात है शास्त्र उक्त शास्त्रोक्त उक्त मतलब कहि हुई यह शास्त्रों की बात है यह कोई मनो धर्म नहीं हैं।यह भागवत धर्म है यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः कलयुग के लोग क्या करते हैं यज्ञ करते हैं और तुरंत ही यज्ञ करते हैं ऐसा कह कर छोड़ नहीं दिया फिर हम लोग कई सारे यज्ञ करना प्रारंभ करेंगे तुरंत उसको नाम दे दिया यज्ञ संकीर्तन प्राय संकीर्तन यज्ञ करेंगे नहीं तो कई सारे यज्ञ चलते रहते हैं।
संकीर्तन यज्ञ करने के लिए कहा है और जो संकीर्तन यज्ञ करते हैं उनको यह प्रमाण पत्र भी दे दिया उनको कहा कि वो सब बुद्धिमान है वह लोग जो संकीर्तन यज्ञ करेंगे या इसको पुन्हा भगवत गीता के 10 अध्याय में श्री कृष्ण ने कहा है या इस महामंत्र के साथ महामंत्र का कीर्तन करते हैं और दूसरा जप करते हैं तब भागवत में तो कहा है यज्ञ संकीर्तना प्राय यह संकेत है यह संकीर्तन को यज्ञ कहा है। भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है
BG 10.25
“महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः || २५ ||”
अनुवाद
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ |
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि सभी यज्ञों में जो जप यज्ञ हैं वो मैं हु विशेष उल्लेख हुआ है लेकिन उसमें से भी जो जप यज्ञ कहा हैं वह जप यज्ञ मैं हू।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
इसका जो जप करते हैं वह जप यज्ञ मै हु ऐसे कहा भगवान ने कहा और एक कृष्ण की ओर से सिक्का हां यही सही बात है संकीर्तन करो संकीर्तन यज्ञ जप यज्ञ दोनों को भी यज्ञ कहां है हम मृदंग करताल के साथ कीर्तन करते हैं नृत्य करते हैं वह भी है यज्ञ और फिर प्रातकाल में हम एकत्रित हो के इस ज़ूम जपा सेशन में हम जो जप करते हैं यह भी यज्ञ है और यह करने वालो को भगवान ने बुद्धिमान कहां है।
यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः बुद्धिमान हो वैसे आप सब को प्रमाणपत्र मिलना चाहिए बुद्धिमान लोग यह बुद्धिमान वह बुद्धिमान और अनग मंजिरी बुद्धिमान और हरीहर दास फ्रॉम मॉरीशस पद्ममालि बुद्धिमान उनकी धर्मपत्नी भी बुद्धिमान हां आप लोग बुद्धिमान हो ऐसा भगवान कहते हैं।
आपके बारे में अगर आप जप कर रहे हो तो नहीं तो इस संसार में वैसे इंटेलेक्चुअल जीव जिनको बुद्धिजीवी कहते हैं यह अपने बुद्धि का उपयोग अपनी जीविका के लिए करते हैं। बुद्धिजीवी क्या करते हैं अपने बुद्धि का उपयोग जीविका लिए के लिए करते हैं धन कमाने के लिए और फिर बहुत कुछ बकते रहते हैं।
फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम से बहुत कुछ लिखते रहते हैं बोलते रहते हैं इमेज मेकर भी कहा जाता है किसी की इमेज बनाते हैं या सरकार की इमेज और हो सकता है कि वह वैदिक जो भी पद्धति है अनुष्ठान है मंत्र तंत्र है शास्त्र है उनके विरोध में क्यों ना बात करते होंगे थोड़ी शराब पीना आपके हॄदय के लिए अच्छा है दूध मत पियो ऐसी भी बकवास करते रहते हैं।
तो उसको इंटेलेक्चुअल कहते हैं दूध नहीं पीना दूध हानिकारक है शराब पियो ऐसे कई सारे बकवास बकबक बकासुर के परंपरा के होते हैं।
बकासुर बकबक करते रहते हैं और उनको यह संसार में कहा जाता है यह बुद्धिमान है तो वह है बुद्धू और आप हो बुद्धिमान तो उनको प्रमाण पत्र जाना चाहिए यह कम बुद्धिमान है और हरे कृष्ण का जप करने वाले बुद्धिमान है तो भगवान ऐसा प्रमाण पत्र देंगे मैं कौन हूं देने वाला यह कहने वाला इस प्रकार से भी सेटिस्फाइड अपने बुद्धि को भी थोड़ा हरि हरि तो प्रसन्न होके अपना कार्य करते रहना है दुनिया वाले क्या क्या कहते रहते हैं कल एक व्यक्ति ने कहा भागवत पढ़ने की क्या जरूरत है आप धोती क्यों पहनते हो इसकी क्या जरूरत है ऐसी लड़ाई चल रही थी हमारे भक्त बता रहे थे यह करने की क्या जरूरत है ये हरे कृष्ण हरे कृष्ण क्यों करते रहते हैं पागल हो क्या तो भक्तों ने कहा तुम भी पागल हम भी पागल कौन पागल नहीं है कोई कृष्ण के लिए पागल और कोई माया के लिए पागल दोनों में से कोई एक कौन सा पागलपन आप पसंद करोगे पागल तो सभी हैं पागल पागल पागल दुनिया कहते हैं और बुरी दुनिया कहते हैं वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी पागल बने थे पगला बाबा उन्होंने कहा भी और चैतन्य महाप्रभु स्वयं कहते थे जब से मैंने यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे जब से मैं इसका जो कर रहा हूं तब से लोग मुझे पागल कह रहे हैं या मैं पागल हो गया हूं वह स्वयं कह रहे हैं कि मैं पागल हो गया हूं। ऐसे पागलपन का स्वागत है आपका स्वागत है अगर आप पागल हुए हो कृष्ण के लिए या कृष्ण के नाम के लिए या कृष्ण के नाम लेते लेते अगर पागल हो रहे हो तो आपका स्वागत है। जप करते जाइए यह कलयुग है कलयुग में जप करना होता है या कीर्तन करना होता है।
चैतन्य चरितामृत आदिलीला 17.21
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥२१ ॥
अनुवाद ” इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है । ”
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव तीन बार कहा गया है तब भगवान कर्म से योग से ज्ञान से प्राप्त नहीं होगी एक होता हैं कर्म और कर्मकांड होता है। और ज्ञान से फिर ज्ञानकांड होता है और योग से योग सिद्धियां होती है अष्टसिद्धिया होती हैं तो इसीलिए तीन बार कहा गया है।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव कर्म से ज्ञान से नही योग से नही हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् नाम से प्राप्त हो सकते है। और प्रातःकाल का ब्रह्म मुहूर्त भी उचित समय है इस दुनिया में कोई प्रातःकाल में उठना पसंद नहीं करता किंतु यही उचित है यही परंपरा है सृष्टि जब से प्रारंभ हुई है तब से साधक अपनी साधना प्रात:काल में करते हैं यह प्रात:काल सत्व गुण से या सत्व गुण से भरा हुआ होता है दिन में राजसिकता और रात में तामसिक था ऐसा विभाजन भी है इस बात को समझ कर भी हम फायदा उठाते हैं सत्व गुण की प्राधान्यता जब होती है तब हम साधना करते हैं ध्यान धारणा करते हैं जप तप करते हैं यह समय सही है ।
हरि हरि यह करते रहिए अगर आप जहां से भी हो सभी लोगों के लिए है सभी स्त्री पुरुषों के लिए एक ही धर्म है वैसे कोई स्त्री के लिए अलग से कोई धर्म हो सकता है स्त्री धर्म फिर वर्णाश्रम धर्म ग्रहस्त के लिए कोई विशेष धर्म होता है ब्रह्मचारी का अपना अलग धर्म होता है ब्राह्मण क्षत्रिय इनके लिए कोई अलग धर्म यह अलग-अलग धर्मों के नाम ही है। किंतु एक धर्म सामान्य है इसीलिए कहा भी है। इसी लिए कहा भी है
गाय गोरा मधुर स्वरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥धृ॥
गृहे थाको वने थाको, सदा हरि बले डाको, सुखे दुःखे भुल नाको।
वदने हरिनाम कर रे॥1॥
अनुवाद:- भगवान गौरांग बहुत ही मधुर स्वर में गाते हैं- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे॥चाहे आप घर में रहे, या वन में रहें, सदा निरन्तर हरि का नाम पुकारें “हरि! हरि!” चाहे आप जीवन की सुखद स्थिति में हों, या आप दुखी हों, हरि के नाम का इस तरह उच्चारण करना मत भूलिए।
यह जीवन सुख दुख का मेला है कैसा मिला है यहां यह सुख दुख का मेला है। कभी सुख तो कभी दुख सुखे दुखे भूले नाखो सुख में भी नहीं भूलेंगे तो दुख काहे का होय या दुख है तो फिर इसका भी फायदा उठा सकते हैं दुख में सुमिरन सब करे में सुख में करे न कोय। कोई सुख आ गया तो भूल जाते हैं सुखे दुखे भूले नाको वदने हरिनाम करो रे जीवन होईल शेष ना भजिले ऋषिकेश जीवन तो शेष हो रहा हैं। भागवत ने भी कहा है उदयन हर सूर्योदय और फिर सूर्यास्त के साथ और एक दिन निकल गया हाथ से हमारे सामने ही निकल गया और और एक क्षण भी स्वर्ण कोटिभीही हम कोटि कोटि सुवर्णा भी दे देंगे तो उसमें से बिता हुआ एक क्षण भी हम वापस नही ला सकते। वह चला गया वह चला गया वह हमेशा के लिए चला गया वैसे समय मूल्यवान है।
क्योंकि समय भगवान है भगवान के साथ रहो कृष्ण के साथ रहो कृष्ण को पीछे मत छोड़ो जो वैकुंठा जाने वाली फ्लाइट है जो जाती रहती है। उसको पीछे मत छोड़ो जीवन तो शेष हो जाता हैं होता जाता है आलस नही करना सूर्यवंशी आज बड़े उत्साह के साथ
उत्साहात निश्चयात धैर्यात, तत तत कर्मप्रवर्तनात। संगत्यागात्सतो वृत्ते:, षड्भिर भक्ति: प्रसिध्यति।। (उपदेशामृत श्लोक ३)
यहां प्रसिद्धि की बात नहीं चल रही है। सिद्धि की बात चल रही है प्रसिद्धति वह सिद्ध होगा। उपदेशामृत में श्री रूप गोस्वामी प्रभुपाद हम को समझा रहे हैं।
ठीक है स्थिर हो जाओ और आगे बढ़ो और साथ में औरों को भी ले चलो जोत से जोत मिलाते चलो नाम की गंगा कौन सी गंगा प्रेम की गंगा बहाते चलो ऐसा भी कुछ गीत है यह जो प्रेम प्रेम है हरि नाम प्रेम या संकीर्तन गोलोक प्रेमधन हरिनाम संकीर्णतन इसका वितरण करते करते औरों को साथ में लेते हुए आगे बढ़े शुरुआत में तो हम हो सकता है अकेले ही थे धीरे धीरे संख्या बढ़नी चाहिए प्रतिदिन यही हमारा प्रयास होना चाहिए जप करने वाले की कीर्तन करने वाले की संख्या बढे फिर घरवाले हो सकते हैं पड़ोसी हो सकते हैं सगे संबंधी हो सकते हैं आपकी कोई कर्मचारी हो सकते हैं या कोई राजनेता अभीनेता भी हो सकते हैं देख लो किन को किनको साथ मे जोड़ सकते हैं। किन को किन को साथ में जोड़ कर आगे बढ़ो गे भगवत धाम जाना है न हाती है ना घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है पदयात्रा करते हुए तो हम थोड़ा प्रयास करेंगे तो भगवान विमान भेज देंगे भगवान देखना चाहते हैं कि हम कितना उथकंटीत है तो वैसे हम एक पग उठाएंगे तो भगवान 1000 पग उठाकर दौड़ कर आते हैं जैसे पांडुरंग आते हैं विठ्ठल तो आला आला मला भेटणन्याला वारकरी गाते हैं और मुझे मिलने के लिए विट्ठल आए तो भगवान अपने नाम के रूप में आही जाते हैं नाम के रूप में आ जाते हैं प्रकट होते हैं अवतार लेते हैं नाम के रूप में आप यह कैसे समझेंगे विठ्ठल तो आला आला मुझे मिलने के लिए विट्ठल आ रहे हैं नाम आ गया नाम लो तो भगवान आ गए नाम भगवान है। आपके घर आ रहे हैं आपके नगर में हर रोज भगवान आ रहे हैं थोड़ा ध्यान पूर्वक जप करो कीर्तन करो और भक्ति के साधन करते रहो तो हम अनुभव करेंगे कि भगवान आए हैं भगवान यही है भगवान यही है ठीक है धन्यवाद अभी 7:30 बज चुके हैं हरे कृष्ण हरि हरो बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
इस्कान कैम्प पुना से,
11 अक्टुबर 2021
आज जप चर्चा में 888 भक्त उपस्थित हैं। हरि हरि! गौरांग!
आप सभी बड़े उत्साही लग रहे हो।अरे शशि माताजी!अजय गौरांग तुम दिल्ली पहुंचे या माताजी आ गई उदयपुर?आप सब का स्वागत हैं।जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद…गाइये!जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद…जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद…जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।
हरि हरि!जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद।जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।
इस मे भगवान भी आ गए और भक्त भी आ गए या गुरु भी आ गए और गौरांग भी आ गए और यह चैतन्य महाप्रभु का विशेष स्मरण हैं। जय-जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।ऐसी प्रार्थना हैं,जब चैतन्य चरितामृत का कुछ पाठ करना होता हैं तो हम ऐसा गाण करते हैं। गीता भागवत के पाठ के प्रारंभ में हम” ऊ नमो भगवते वासुदेवाय” कहते हैं।गौडीय वैष्णवो के कई ग्रंथ हैं,चाहे चैतन्य चरितामृत कहो या चैतन्य भागवत कहो या चैतन्य मंगल कहो,कई ग्रंथ हैं,कई शास्त्र हैं,जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नाम, रुप,गुण, लीला, धाम का वर्णन करते हैं।उन शास्त्रों के अध्ययन के प्रारंभ में या पाठ के प्रारंभ में या पाठन के प्रारंभ मे हम प्राथनाएं करते हैं,हम पढ़ते हैं या पढाते हैं और सुनाते भी हैं और विशेष रुप से जब हम पढ़ाते हैं फिर हम…
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद। जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।
यह इसलिए भी कहते हैं कि चैतन्य चरित्रमृतकार मतलब चैतन्य चरितामृत कि रचना करने वाले कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने यह हर अध्याय के प्रारंभ में कई बार लिखा हैं। अध्याय को खोलिये।तो शुरुआत करते हैं।
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद। जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।
और एक और श्लोक भी लिखते हैं, वैसे एक संस्कृत के श्लोक कि रचना करते हैं,हर अध्याय कि शुरुआत एक विशेष श्लोक से होती हैं,वह श्लोक उस अध्याय के भाव या विषय वस्तु का निर्देश करता हैं, हर एक अध्याय कि शुरुआत मे एक श्लोक का प्रथम उल्लेख होता हैं और फिर
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद। जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।
कृष्णदास कविदास गोस्वामी ने भी हर अध्याय के प्रारंभ में पहले श्लोक के आगे वाला दुसरा श्लोक यही लिखा हैं,तो हम भी चैतन्य महाप्रभु की हर कथा के प्रारंभ में जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद, जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद कहते हैं, तो चैतन्य चरित्रामृत के प्रारंभ में चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला प्रथम अध्याय या प्रथम अध्याय के 14 श्लोक जो हैं, आपकी जानकारी के लिए बता रहा हूं फॉर युवर इंफॉर्मेशन,लोग एफ व्हाय आइ लिखते हैं,क्या इंफॉर्मेशन हैं? यह जो 14 श्लोक हैं, इन श्लोकों को मंगलाचरण कहा हैं। चैतन्य चरितामृत का मंगलाचरण।आदि लीला के प्रथम अध्याय के 14 श्लोक मंगलाचरण हैं।हरि हरि!
से मड्ग़लाचरण हय त्रि-विध प्रकार। वस्तु- निर्देश, आशीर्वाद, नमस्कार।।
( चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.22)
अनुवाद: – मंगलाचरण (आवाहन) मे तीन विधियाँ निहित है- लक्ष्य- वस्तु को परिभाषित करना, आशीर्वाद देना तथा नमस्कार करना।
कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि मंगलाचरण क्या होता है? मंगल आचरण। मंगलाचरण विच्छेद करेंगे तो मंगल- आचरण, मंगलाचरण। मंगलाचरण में क्या वस्तु निर्देश हैं?इस ग्रंथ में ग्रंथ की विषय वस्तु क्या हैं,इसका उल्लेख मंगलाचरण में होता हैं। वस्तु निर्देश और आशीर्वाद। मंगलाचरण में आशीर्वाद दिए जाते हैं।किसे? श्रोताओं को या जो भी पठण करते हैं। जो पढ़ने वाले हैं चैतन्य चरितामृत या जो भी ग्रंथ मंगलाचरण मे आशीर्वाद होते हैं और मंगलाचरण में होता हैं, नमस्कार,भगवान को नमस्कार, भगवान के भक्तों को नमस्कार, नमस्कार ही नमस्कार।आध्यात्मिक जीवन में नमस्कार का महत्वपूर्ण स्थान हैं,
“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.65)
अनुवाद: -सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
“मां नमस्कुरु” भगवान भी कहते हैं,मुझे नमस्कार करो!
“कृष्ण जिनका नाम हैं, गोकुल जिनका धाम हैं, ऐसे श्री भगवान को बारंबार प्रणाम हैं”। हरि हरि!
श्रीमद्भागवत के अंतिम श्लोक में यह दो बातें करने के लिए कहा हैं, एक तो भगवान का नाम लो और दूसरी बात हैं भगवान को नमस्कार करो! भगवान का नाम लो!
“नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् । प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥”
(श्रीमद्भागवतम् 12.13.23)
अनुवाद:-मैं उन भगवान् हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है।
भगवान का नाम लो!हरि नाम क्या करेगा? ‘सर्वपापप्रणाशनम्’ आपके सारे पापों को नष्ट करेगा, ये हरि का नाम और हरि मे कोई अंतर नही,क्योकि हरि का नाम, हरिनाम का आश्रय लिया मतलब भगवान का आश्रय लिया “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद: -समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
‘मामेकं शरणं व्रज’ मेरी शरण में आओ तो मैं क्या करुंगा? “अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः”मैं तुम्हे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा!क्योकि यह भगवान का वचन हैं या संकल्प हैं तो यह पूरा हो जाता हैं यह बात श्रीमद्भागवत के अंतिम श्लोक में लिखी हैं, वहा पर एक तो नाम स्मरण कि बात की हैं और “प्रणामो” प्रणाम करने के बात कही हैं।श्रीमद्भागवत का समापन या सार ही हैं,भगवान का नाम और भगवान को प्रणाम और यह प्रामाणिक बात हैं। मंगलाचरण में नमस्कार,आशीर्वाद और वस्तु निर्देश का उल्लेख होता हैं, हुआ हैं। यह आदि लीला के प्रथम अध्याय के 14 श्लोक मंगलाचरण हैं।मंगलाचरण महत्वपूर्ण होता हैं और क्यों महत्वपूर्ण होता हैं, उसमें निर्देश का उल्लेख होता हैं, विषय वस्तु का, क्या विषय हैं और नमस्कार और आशीर्वाद भी,इन्हीं 14 मंगलाचरण के वचनों में हैं।श्लोक 15 मे मदनमोहन या राधा मदन मोहन,दूसरे राधा गोविंददेव और तीसरे राधा गोपीनाथ इन को नमस्कार किया हैं। इनका स्मरण किया हैं। इन को नमस्कार किया हैं। इन 14 श्लोकों में यह तीन श्लोक नमस्कार के हैं और कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं।
एइ तिन ठाकुर गौडी़याके करियाछेन आत्मसात्।
ए तिरेर चरण वन्दों, तिने मोर नाथ।।
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.18)
अनुवाद: – वृंदावन के इन तीनों के विग्रहों (मदनमोहन,गोविंद तथा गोपीनाथ) ने गौड़ीय वैष्णवों ( चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों) के ह्रदय एवं आत्मा को निमग्न कर दिया हैं। मैं उनके चरणकमलों की पूजा करता हूंँ, क्योंकि वह मेरे हृदय के स्वामी हैं।
यह तीन जो भगवान के विग्रह हैं, उनके चरणों कि मैं वंदना करता हूं और यह गौड़ीय वैष्णवों के इष्टदेव हैं। मदनमोहन, गोविंददेव, और गोपीनाथ “तिने मोर नाथ” यह तीन मेरे नाथ हैं। और एक विशेष, सभी विशेष ही हैं,यह मंगलाचरण के वचन किंतु उस में भी एक विशेष मंत्र या श्लोक हैं।
अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ
समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्।
हरि: पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब- सन्दीपित:
सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।
(श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.4)
अनुवाद: -श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय कि गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने कि आभा से दीप्त, वे कलयुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं।
ये आशीर्वाद के वचन हैं, मंगलाचरण का ये आशीर्वाद का वचन हैं। क्या कह रहे हैं कृष्णदास कविराज गोस्वामी
“अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ”श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि बात हो रही हैं।”सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।” आप सभी के ह्रदय प्रांगण में शचीनंदन प्रगट हो!,स्पृरित हो!आपको प्रेरणा दे, स्पृर्ति दे, वे गौरांग जो आपके हृदय प्रांगण में विराजमान हैं।”सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।”
“जय शचीनंदन जय शचीनंदन जय शचीनंदन गौर हरि।”
यही आशीर्वाद हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आपको स्फूर्ति दे! और नाम भी तो चैतन्य हैं ही, तो हम जड़ बन गए हैं, हम बद्ध बन गए हैं,तो जड़ के विपरीत होता हैं चैतन्य।एक होता हैं जड़ और दुसरा होता है चैतन्य और इस संसार में तीसरी चीज़ तो होती ही नहीं हैं। इस जड़ जगत में हम भी जड़ बन चुके हैं या प्राणहीन बन चुके हैं। हमें चैतन्य कि आवश्यकता हैं, चैतन्य…!चैतन्य…!और वे चैतन्य हैं निमाई। वैसे निमाई ने जब संन्यास लिया, तो संन्यास समारोह में उनका नामकरण हुआ ,नाम क्या दिया गया? तुम्हारा नाम हैं श्रीकृष्ण चैतन्य।यह नाम चैतन्य महाप्रभु के संबंध में बहुत कुछ कहता हैं।यह श्री कृष्ण चैतन्य क्या करते हैं,”स्फुरतु व: शची- नन्दन” श्रीकृष्ण चैतन्य आप सबको स्पृर्ति दे, प्रेरणा दे, या जीवन दे!
“यस्याखिलामीवहभि:सुमड्ग़लै:-
वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभि:।
प्राणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगत् यास्तव्दिरक्ता: शवशोभना मता:।।
(श्रीमद्भागवत 10.38.12)
अनुवाद: – भगवान के गुणों, कर्मो तथा अवतारों से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उत्पन्न समस्त सौभाग्य एवं इन तीनों का वर्णन करने वाले शब्द संसार को जीवन दान देते हैं, उसे सुशोभित रखते हैं और शुद्ध करते हैं। दूसरी ओर उनकी महिमा से भी विहीन शब्द शव कि सजावट करने जैसे होते हैं।
भागवत ने कहा है भगवान क्या देते हैं? प्राण देते हैं या जब हम भगवान कि कथा सुनते हैं या भगवान के नाम का उच्चारण करते हैं तब हम कृष्ण भावनाभावित कार्य को अपनाते हैं या नवधा भक्ति को अपनाते हैं, भक्तियोगी बनते हैं।उसी के साथ हमको प्राण प्राप्त होते हैं या हमारे प्राणनाथ प्राप्त होते हैं। हमारे प्राण प्राप्त होते हैं
राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर।
जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥1।।
(नरोत्तमदास ठाकुर रचीत गीत राधाकृष्ण प्राण मोर)
अनुवाद:-युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है।
राधाकृष्ण हमारे प्राण हैं,नहीं तो इस बद्ध अवस्था में हम तो निष्प्राण हैं। हरि हरि!
हम मुर्दे हैं। हम में जान नहीं हैं, तो जान में जान आती हैं। प्रांणंति ऐसा हो ऐसी प्रार्थना कर रहे हैं कृष्णदास कविदास गोस्वामी। “सदा हृदय-कन्दरे” कन्दरे मतलब गुफा। पहाडो में गुफाएं होती हैं, कन्दराएं होती हैं, झरने भी होते हैं,बहुत कुछ होता हैं।
हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो यद्रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः । मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत् पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः ॥
(श्रीमद्भागवत 10.21.18)
अनुवाद:-यह गोवर्धन पर्वत समस्त भक्तों में सर्वश्रेष्ठ है । सखियो , यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ उनकी गौवों , बछड़ों तथा ग्वालबालों की सभी प्रकार की आवश्यकताओं – पीने का पानी , अति मुलायम घास , गुफाएँ , फल , फूल तथा तरकारियों की पूर्ति करता है । इस तरह यह पर्वत भगवान् का आदर करता है । कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकर गोवर्धन पर्वत अत्यन्त हर्षित प्रतीत होता हैं।
गिरिराज भी कृष्ण-बलराम को देते हैं,गिरिराज कृष्ण बलराम कि सेवा करते हैं।वैसे ही वहा कंदराएं ,गुफाएं हैं,वे भी सेवा करती हैं। शीतलता का अनुभव कराती हैं, बाहर गरमा गरम मामला चल रहा हैं, तो कृष्ण अपने मित्रों के साथ गुफा में प्रवेश करते हैं,जैसे वहा ए. सी. है,एयर कंडीशन गुफा में विश्राम करते हैं।
“कन्दरकन्दमूलैः” और कंदमूल, फल,फुल भी ये गिरिराज देते हैं, कंदर की बात चल रही हैं, हम गुफा में रहते हैं, कल भी कह रहे थें।उस गुफा का नाम हैं,हृदय। हृदय नामक गुफा मे हम रहते हैं,मतलब हम आत्मा हैं, आत्मा रहता हैं और साथ में परमात्मा भी रहते हैं।
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.61)
अनुवाद: – हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार कि भांँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं।
हे अर्जुन! ईश्वर सभी जीवो के हृदय रूपी देश मे रहते हैं,मैं रहता हूंँ? या ईश्वर रहते हैं,कृष्ण ऐसी बात कर रहे हैं मानो और कोई ईश्वर हैं। और कौन सा देश है? हृत्-देशे, हृदय नामक देश में भगवान रहते हैं। कृष्णदास कविराज का यह आशिर्वचन हैं, वे शचीनंदन स्फुरतु व: शची- नन्दन यह तो अंतिम पंक्ति हुई,उस “अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ” वचन कि शुरुआत में कह रहे हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दया दिखाई और इस कलयुग में वे प्रकट हुए। कैसे और क्यों, क्या कारण हुआ? उनके प्राकट्य के पीछे क्या कारण है? कोई कारण होता हैं, तो फिर परिणाम होता हैं, कार्य होता हैं। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए यह परिणाम या कार्य हुआ, इसका कारण क्या है? “करुणया अवतीर्ण: कलौ” उनकी जो करुणा हैं, चैतन्य महाप्रभु करुणा कि मूर्ति हैं या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु
नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते । कृष्णाय कृष्णचैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः ।।
अनुवाद:-हे परम करुणामय व दानी अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं , जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारणकिया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमन करते हैं ।
दयावान हैं, यह वैशिष्ट्य हैं,यह महाप्रभु का एक विशेष गुण हैं, जब गोलोक में भगवान विराजमान रहते हैं गोलोक वृंदावन में, तो वहां क्या हुआ? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के हृदय प्रांगण में हम बध्द जीवों कि हालत देख कर दया उमड़ आई, ।
इसीलिए शास्त्रों में कहा हैं-
गोलोकं च परित्यजय लोकानामं तरान कारनात
मारकंडय पुरान
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने गोलोक को क्यों त्यागा?
गोलोकं च परित्यजय लोकानामं तरान कारनात
हम जो यहां दुख: पा रहे हैं,समझो परेशान हैं और भगवान यह जानते ही हैं और उन्होने ही ऐसा संसार बनाया हैं और इसको नाम भी दिया हैं, कैसा संसार हैं? दुखालयम।कैसा संसार हैं? अशाश्वत्म:। तो जो भी यहां हैं वह कैदी हैं, इसको कारगार भी कहां हैं, तो जो कैदी होते हैं वो सुखी नहीं रह सकते हैं।जब वे स्वतंत्र होंगे कारगार से छुट्टी मिलेगी वो मुक्त होंगे तो अपना सामान्य जीवन जी सकते हैं।तो कारगार का जीवन दुखमय और कष्टमय हैं, तो भगवान यह जानते ही हैं,वैसे भगवान तो सदैव दयावान रहते ही हैं, लेकिन जब कलयुग आया तो परेशानियां और भी बढ़ गई। भोग विलास अधिक होने लगे, तो भोग के कारण रोग भी बढ़ने लगे। कोरोनावायरस आ गया। मौसम में बदलाव आने लगे। हमने पृथ्वी का भी तापमान बढ़ा दिया,जिसकी गोद में हम रहते हैं। वह गोद ही हमने गरमा गरम कर दी। तो पृथ्वी माता का तापमान बढ़ रहा हैं, जिसे ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। यह पृथ्वी गोल हैं और हमारी माता भी हैं। पृथ्वी को बुखार हो गया हैं और यह हमने किया हैं,उसका तापमान बहुत बढ़ गया और यह हमने किया हैं। हमारे कारण हमारी माता परेशान हैं और अगर माता परेशान हो तो फिर बच्चों का क्या होगा? यह सब देखकर चैतन्य महाप्रभु तो
“करूणया अवतीर्ण कलौ”
अपनी खुद की करुणा की वजह से ही वह अवतीर्ण हुए या करुणावश चैतन्य महाप्रभु वशीभूत हुए।उनके अवतरण का और कोई पर्याय था ही नहीं वह स्वयं ही करुणा की मूर्ति हैं।उस करुणा की वजह से ही चैतन्य महाप्रभु अवतीर्ण हुए।कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि क्यों, ऐसा क्या कारण हुआ कि चैतन्य महाप्रभु अवतीर्ण हुए,”करूणया अवतीर्ण कलौ”और प्रकट होकर क्या करा उन्होने “अर्पित-चरीं चिरात्”
Cc adi 1.4
*अर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ*
*समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्।*
*हरि: पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब- सन्दीपित:*
*सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।*
अनुवाद: -श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय कि गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने कि आभा से दीप्त, वे कलयुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं।
महाप्रभु ने ऐसी दान या भेंट दी जो अन्यअर्पित थी यानी कि पहले कभी भी नहीं दी गई थी,ऐसी बात नहीं है कि पहले कभी नहीं दी गई थी बहुत समय पहले दी गई थी उसे पुनः देने के लिए
बहुत समय बाद पुनः प्रदान करने के लिए, “अर्पित-चरीं चिरात्”
चिरात मतलब बहुत समय बाद प्रदान करने के लिए, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ विशेष भेंट देने के लिए प्रकट हुए तो यह चरीं चिरात् मतलब कितनी काल अवधि के बाद प्रकट हुए। यह तो संभवामि युगे युगे होता हैं।यानी हर युग में भगवान का अवतार होता है किंतु जो अवतारी होते हैं जो कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं,कृष्ण भी अवतारी हैं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी अवतारी हैं क्योंकि दोनों एक ही हैं। यह अवतारी कलपे कलपे प्रकट होते हैं, युगे युगे नहीं। संभवामि कलपे कलपे, एक कल्प में एक बार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं,कल्प अर्थात ब्रह्मा का 1 दिन। 1 दिन में हजार महायुग होते हैं और उन हजार महा युगों में से एक महायुग के कलियुग में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं,पहले कृष्ण द्वापर युग के अंत में प्रकट होते हैं और कलयुग के प्रारंभ में वह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में पुनः प्रकट होते हैं।संभवामि कलपे कलपे होता हैं।यह बात प्रसिद्ध हैं और शास्त्र में कही गई हैं।श्रील प्रभुपाद ने अपने तात्पर्य में इसका पुन: पुन: उल्लेख किया हैं। ब्रह्मा के 1 दिन में भगवान आते हैं। ब्रह्मा के 1 दिन में एक बार कृष्ण प्रकट होते हैं और कलियुग के प्रारंभ में वह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में पुनः प्रकट होते हैं।श्री कृष्ण प्रकट हुए और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। तो यह हुआ कि नहीं चरीं चिरात्
बहुत लंबे अंतराल के बाद श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हो रहे हैं। इस प्रकार यह दुर्लभ हैं। चैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य दुर्लभ हैं। इसी की ओर वह हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं या समझा रहे हैं, कौन समझा रहे हैं?कृष्ण दास कविराज गोस्वामी।
*अर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ*
और प्रकट हुए तो मतलब कुछ देने के लिए आए। तो क्या दिया चैतन्य महाप्रभु ने?किस उद्देश्य से वह आए? क्या कारण हुआ? यह भी समझाया हैं। लेकिन आए हैं तो क्या देने के लिए आए हैं,”उन्नत उज्जवल रस।उन्होंने उन्नत उज्जवल रस दिया।हमारा जीवन नीरस होता हैं,उसमें कोई रस नहीं होता तो इस नीरसता के स्थान पर हमारे जीवन को रसमय बनाने के लिए चैतन्य महाप्रभु आए, रस युक्त बनाने हेतु आए और रस दिया तो कौन सा रस दे रहे हैं,उन्नत उज्जवल रसां
जो सर्वोत्कृष्ट हैं, सर्वोपरि हैं और वह रस माधुर्य रस हैं। जिसके अंतर्गत ओर सारे रस आ जाते हैं।शांत रस,दास्य रस,सख्य रस,वात्सलय रस और श्रृंगार और माधुर्य रस।उन्होंने सभी रसों को दिया।लेकिन प्रधानय रहा माधुर्य रस का।उसको उन्नत उज्जवल रसाम् कहां हैं। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने
“रमया केचिद उपासना वृज वधु वरगाभिर या कलपिता”
(चैतन्य मंजूषा)
चैतन्य महाप्रभु का यह मत हैं कि वैसे भक्ति करो जैसे गोपियों ने भक्ति करी या राधा ने भक्ति करी।जैसी राधा भक्ति करती हैं। स्वयं भगवान ही आए और वैसे भक्ति करके दिखाई। ऐसी भक्ति करके हम सब को उत्साहित किया, प्रेरित किया कि हम भी वैसे ही भक्ति करें।तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान भक्त बने हैं।कौन से भक्त बने हैं?राधा बने हैं।अगर कोई सर्वोपरि भक्त हैं, तो वह राधा रानी हैं और फिर
*हरि: पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब- सन्दीपित:*
*सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।*
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी उस आशीर्वचन में यह भी कह रहे हैं,पुरट मतलब सोना। उनकी कांति इतनी सुंदर हैं, जैसे सोने की कांति होती हैं। जैसे सोना चमकता हैं और कैसा सोना?जब सोने को तपाते हैं।तप्त कांचन,कांचन मतलब भी सोना।कैसा सोना?मॉल्टन गोल्ड। जब सोने को तपाते हैं तो उसकी चमक और भी बढ़ जाती है,ऐसे गोरसुंदर की जय। ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व:।
ऐसा आशीर्वाद कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने हमे दिया हैं, हम सबको आशीर्वाद दे रहे हैं। क्या आप स्वीकार करना चाहोगे? हमारी परंपरा भी आशीर्वाद दे रही हैं।आप को आशीर्वाद दे रहे हैं,परंपरा की ओर से, श्रील प्रभुपाद की ओर से कृष्ण दास कविराज गोस्वामी की ओर से,कृपया स्वीकार कीजीए। कृपया मतलब आप कृपालु बनिए।तभी आप स्वीकार करोगे। ठीक हैं मुझे रुकना होगा। हरे कृष्णा
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*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*10 अक्टूबर 2021*
गौरंग । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। हमारे साथ 862 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। 862 भक्तों की जय। मतलब आप सब की जय। जप करने वालों की जय होती ही है। आप कहे या ना कहे, यह निश्चित है।
चेतो – दर्पण – मार्जनं भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेय : -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् । आनन्दाम्बुधि – वर्धनं प्रति – पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म – स्नपनं परं विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥१२ ॥
(अंतिम लीला 20.12)
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागररूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है ।
परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्, परम विजय, विजय भव: , हम एक दिन जीतेंगे। हरि हरि। धन्यवाद श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज केवल माल्यार्पण के लिए ही नहीं। मैंने कह दिया या मैंने कहने प्रारंभ किया था कि आज पता नहीं आप कुछ नया अनुभव कर रहे हो या नहीं। आपको कुछ नया अनुभव हो रहा है क्योंकि आज प्रातः कालीन हम जप तप एक गुफा में कर रहे हैं। हम एक अद्भुत गुफा में आ चुके हैं। जहां एकांत और प्रशांत या शांति का हम अनुभव कर रहे हैं और वह गुफा जो है लोक स्टूडियो पंढरपुर में है। हरि बोल। इस्कॉन पंढरपुर में इस स्टूडियो का निर्माण लगभग पूरा हो चुका है। यह मेरा पंढरपुर में आखिरी दिन है और मेरी यात्रा प्रारंभ हो रही है। जो भी निर्माण कर रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय इन सभी ने योगदान दिया भविष्य में हम कभी स्पेशल समारोह भी आयोजित कर सकते हैं लोग चिड़ियों के संबंध में यहां तक कि श्री कृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज, स्वरूपानंद और आदि पुरुष प्रभु की जय। इन तीनों के प्रयासों से और वैसे कई औरों ने भी प्रयास किए और योगदान दिया। हम भविष्य में विशेष समारोह आयोजित कर सकते है। श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज इस स्टूडियो का वीडियो बनाकर प्रस्तुत भी कर सकते हैं। वैसे आप में से कईयों ने धनराशि देकर भी योगदान दिया हुआ है। आपने से कई सारे इस स्टूडियो के वित्तीय योगदान करता है। आपको भी आभार, लेकिन आपको थोड़ा हल्का सा अभार मान रहे हैं। लेकिन भविष्य में किसी समय पूरा आभार मान लेंगे, कुछ औपचारिक दृष्टि से। हरि हरि। गौरंग। वैसे गुफाएं भी होती है और इस स्टूडियो को हम गुफा कह रहे हैं किंतु शास्त्रों में हमारे हृदय को भी गुफा कहा है। हमारा हृदय एक गुफा है। कई स्थानों पर ऐसा उल्लेख है। हमारा हृदय ही गुफा है। तो गुफा अनुकूल होती है ध्यान के लिए या जप तप के। हमको हमारे हृदय रूपी गुफा में प्रवेश करके ध्यान करना चाहिए या फिर ध्यान धारणा और समाधि, पूर्ण समाधि यह सब गुफा में संभव है।
दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 12.13.1 )
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद – क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता – ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ ।
फिर भक्ति योगी बनकर उस गुफा में हम भगवान का ध्यान कर सकते हैं। तो फिर उस गुफा में पूरा एकांत है। एकांत का अर्थ यह भी है कि वहां बस एक आप और दूसरे भगवान, तीसरा कोई नहीं है। आपकी सारी उपाधियों से आप मुक्त हो गए। आत्मा रह गए। उस गुफा में और गुफा में कौन रहते हैं?
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥
( भगवद्गीता 15.15 )
अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।
कृष्ण कहे हैं उस ह्रदय में मैं रहता हूं और कठोपनिषद कहता है, यह शरीर एक वृक्ष है और इस वृक्ष पर दो पक्षी रहते हैं एक आत्मा पक्षी है और दूसरा परमात्मा पक्षी है। यह आत्मा परमात्मा का निवास हमारा यह ह्रदय बन जाता है। हरी हरी।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति ।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
*अनुवाद :*
*जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
ऐसा ब्रह्मा भी कहे हैं। हरि हरि। जब उस भक्ति और भाव की अवस्था को भी हम प्राप्त करेंगे। *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन* ऐसे संत, ऐसे साधु ह्रदय में देखते हैं, किसको? वह श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं। हरि हरि। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। जप कहां करना चाहिए? गुफा में करना चाहिए। जहां पर शांति हो या प्रशांति हो वहां जप करना चाहिए।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ईशोपनिषद स्तुति
अनुवाद:- भगवान् पूर्ण हैं और चूँकि वे पूरी तरह से पूर्ण हैं , अतएव उन से होने वाले सारे उद्भव जैसे कि यह दृष्य जगत , पूर्ण इकाई के रूप में परिपूर्ण हैं । पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है , वह भी अपने आप में पूर्ण होता है । चूँकि वे सम्पूर्ण हैं , अतएव उनसे यद्यपि न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती हैं , तो भी वे पूर्ण रहते।
हम भी पूर्ण हैं भगवान ने भी सारी व्यवस्था करके रखी है। इसी शरीर में बनी हुई गुफा है। करताल भी यह साथ में आप देख सकते हैं और भी सोचा जा सकता है कि हम पूरी तरह से सुसज्जित है। गुफा में एकांत में ध्यान धारणा करनी है। जप तप करना है। गुफा में प्रवेश करो और वहां भगवान भी है। भगवान ने हमको अकेला नहीं छोड़ा है। भगवान हमारे साथ हैं। भगवान हमारा साथ कभी नहीं छोड़ते। घरवाले छोड़ते रहते हैं। फिर जब मृत्यु होती है तो कोई साथ में आता है? नहीं आता। घरवाली भी घर में रहती है। हम जा रहे है। हमारा राम नाम सत्य हो रहा है। कौन कहां तक जाता है, कौन कहां तक जाता है इसका भी वर्णन है घरवाली वहां तक जाती है और वहां तक जाते है। घाट तक कौन जाता है। एक समय तो सारा साथ छूट जाता है। सब हमको छोड़ देते हैं। लेकिन एक व्यक्तित्व हमको कभी नहीं छोड़ते और वह है परमात्मा भगवान, सब समय ।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥
( शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् )
अनुवाद:- हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर ।
यह सब हो रहा है, देहांतर प्राप्ति हो रही है, देहांतर हो रहा है, स्थानांतर हो रहा है, लोकांतर हो रहा है। लेकिन एक तथ्य यह है कि भगवान हमारे साथ सदैव रहते हैं। अब तक पता नहीं था। लेकिन अब पता चल रहा है। अन्य योनियों में पता नहीं चलता, हम मनुष्य बने हैं। यह मनुष्य जीवन दुर्लभ है। *दुर्लभ मानव जन्म सत्संगे*
इस दुर्लभ मानव जीवन को हम जब सत्संग में बिताते हैं और जो हम सत्संग में आ जाते हैं तो यह समझाते बुझाते हैं हमको। कपिल भगवान ऐसा कहते हैं। जब सत्संग होता है तो भगवान के वीर्य, शौर्य और सुंदरता की कथाएं होती है और भगवान का परिचय दिया जाता है। हमें इस प्रकार अपने हृदय प्रांगण में भगवान का ध्यान करना चाहिए।
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो
भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा: ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ २५ ॥
यह विशेष प्रसंग है। वैसे जब हम संतो को मिलते हैं तो प्रसंग बन ही जाता है और ऐसे साधू संग में क्या होता है? संवाद शुरू होता है। संवाद का विषय क्या होता है? भगवान का वीर्य शौर्य इत्यादि इत्यादि। हरि हरि। आज प्रातः काल वैसे पूरी प्रातः काल भी कहो या जप करते समय हम सभी कारणों के कारण भगवान ही है या फिर भगवान का नाम भी कारण बनता है। सभी कारणों का कारण कौन है? भगवान का नाम है। भगवान ही नाम है। नाम जप हम कर रहे थे तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में उनका स्मरण आ रहा था इसलिए भी स्मरण आ रहा था क्योंकि हम यह लीला कथा पढ़ी और सुनी थी। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंभीरा में निवास कर रहे हैं और वहां अपने विप्रलंभ अवस्था या भाव में ही रहा रहते थे।
हे राधे व्रजदेवीके च ललिते हे नन्दसूनो कुतः
श्रीगोवर्धनकल्पपादपतले कालिन्दीवने कुतः ।
घोषन्ताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर्महाविह्वलौ
वन्दे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीवगोपालकौ || ८ ||
कहां हो कहां हो। हे राधे व्रजदेवीके च ललिते हे नन्दसूनो। नंद महाराज के पुत्र कहां है? जैसे षठ गोस्वामी वृंद श्रीकृष्ण की खोज में ऐसा सोचते और वृंदावन में सर्वत्र दौड़ते और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसी भाव में जगन्नाथ पुरी में गंभीरा में रहते थे। तब विप्रलंभ अवस्था में वह भी कहां है कहां है कृष्ण, कब मिलेंगे कृष्ण? श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसे सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद रखी जाती थी और वहां पर गार्ड भी हुआ करते थे। स्वरूप दामोदर है या रामानंद राय हैं बारी-बारी से वह रखवाली करते थे। उनको भय रहा करता था कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु से यहां से निकल कर कही जा सकते हैं, कृष्ण की खोज में। एक विशेष रात्रि की बात है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंभीरा से बाहर आ ही गए सफलतापूर्वक। यह सब अचिंत्य बातें हैं और भगवान ही ऐसा कर सकते हैं। जैसे हमारा स्टूडियो पूरा बंद है, ताले भी लगे हैं। लेकिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बाहर आ गए। यह विषय तो बड़ा ऊंचा और गहरा है। अचिंत्य और गोपनीय भी है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु समुद्र की ओर दौड़ पड़े और वहां वह जब आते हैं और समुद्र का जल जब देखे। तो समुद्र के जल का रंग नीला होता है। कई सारी बड़ी-बड़ी जो बातें होती है नीली होती है । तो समुद्र का जल का रंग भी नीला होता है । कई सारी बड़ी-बड़ी जो बातें होती हैं वह नीली होती हैं । समुद्र का जल नीला होता है । आकाश कैसा होता है ? नीला होता है । और जो पर्वत पहाड़ है तो वह दूर से देखो तो कैसे दिखते हैं ? नीले दिखते हैं । अंततः सब कुछ काला है हम न्यूयॉर्क में ऐसा पढा एक साइन बोर्ड पर तो वह क्या है ? या काला नीला । भगवान है तो समुद्र के जल का रंग देखकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कि यह मेरे श्याम सुंदर ही है या फिर उनको यह भी स्मरण हुआ होगा कि यमुना मैया की ! यह यमुना का ही जल है, यमुना ही है । मैं वृंदावन पहुंच गया तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु समुद्र में कूद पड़े । अकेले हैं उनको वहां रोकने वाला कोई है नहीं । फिर क्या क्या हुआ होगा ? उनको कोई रोकने नहीं तो उस समय पूरी रात चेतन महाप्रभु समुद्र में रहे और क्या कर रहे थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में पहुंच गए । सचमुच वृंदावन पहुंच गए । वैसे वह सपने की बातें हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वप्न देखें और स्वप्न में पहुंच गए वृंदावन पहुंच गए और राधा कृष्ण गोपी कृष्ण की श्रृंगार माधुर्य लीलाओं का वे दर्शन करने लगे या वे भी प्रवेश कर रहे हैं इन लीलाओं में और यह सब जो चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करना है या सब सोच है या विचार है या भाव है यह सब राधा के भाव है । चैतन्य महाप्रभु में जो राधा है “श्रीकृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नही अन्य” तो जगन्नाथपुरी में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा बनके ही रहे । वास्तविक में वे राधारानी है तो यहां पहुंचे हैं वृंदावन में । तो कौन ? पहुंची है वैसे राधारानी पहुंची है और राधा रानी उन सब दृश्य का लीला का दर्शन कर रही है साक्षी बन चुकी है श्री कृष्ण की कई सारी लीलाएं । यह सब चैतन्य चरितामृत के अंत्य लीला में एक दिव्य उन्माद नामक एक अध्याय है उसमें ही सारी बातें कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखे भी हैं । तो जल क्रीड़ा का वर्णन हो रहा है । जल क्रीड़ा या जल कैली कहते हैं । कैली मतलब क्रीडा, कैली मतलब लीला तो रास क्रीडा भी कुछ कुंज विहार भी हुआ ।
जय राधा माधव,
जय कुन्ज बिहारी
जय राधा माधव,
जय कुन्ज बिहारी
जय गोपी जन बल्लभ,
जय गिरधर हरी
जय गोपी जन बल्लभ,
जय गिरधर हरी
॥ जय राधा माधव…॥
यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन
यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन
जमुना तीर बन चारि,
जय कुन्ज बिहारी
॥ जय राधा माधव…॥
मुरली मनोहर करुणा सागर
मुरली मनोहर करुणा सागर
जय गोवर्धन हरी,
जय कुन्ज बिहारी
॥ जय राधा माधव…॥
तो यह विभिन्न लीलाओं की उपरांत जल क्रीड़ा होती है और इतनी सारी गोपियां है राधा रानी भी है तो क्रीडा के समय जैसे रास क्रीडा में जितनी गोपियां है उतने कृष्ण बनते हैं तो यहां जल कैली जल क्रीड़ा में जितनी गोपियां है उतना कृष्ण बनते हैं । एक गोपी एक कृष्ण खेल रहे हैं पानी में खेल रहे हैं । एक दूसरे के ऊपर जल छिड़का रहे हैं । हंसी मजाक और वह वास्तविक में बहुत खुश और अच्छे समय बिताते हैं । उज्जल खेड़ा के उपरांत कुछ ऐसे किनारे आ जाते हैं और सभी गोपियां उनके समेत राधा रानी उसमें नेत्री है लोकेश से कृष्ण का श्रृंगार करती हैं उसका वर्णन है । स्नान भी हुआ और नए वस्त्र भी पहने हुए हैं । हम ऐसे ही कह देते हैं कृष्ण नए वस्त्र पहने हुए हैं उस में विस्तृत वर्णन है कैसे-कैसे वस्त्र पहने कौन से अलंकार पहने । हरि हरि !! और फिर चंदन लेपन भी हुआ और मुकुट धारण भी कराया मोर मुकुट । एक मुरली भी दे दी और फिर, मुझे लगता है कि यह रात्रि का समय होगा तो भोजन की तैयारी होती है और कृष्ण दास कविराज गोस्वामी बड़े विस्तार से इतने सारे प्रकार का उल्लेख करते हैं । जो कृष्ण को सभी खिलाती हैं उस दिन हम भोग आरती में भक्ति विनोद ठाकुर भी कई सारे व्यंजन का उल्लेख किए हैं लेकिन यहां कृष्ण दास कविराज गोस्वामी अब जो भोजन खिलाया जा रहा है वृंदावन में यह जल क्रीड़ा और क्रीडा के अंत में वहां तो काफी विस्तृत वर्णन किया हुआ है कौन-कौन से आइटम्स कौन कौन से व्यंजन छप्पन भोग या उससे भी अधिक । तो भोजन हुआ तो फिर श्री कृष्ण का जो महाप्रसाद है राधा रानी ग्रहण करती है गोपियां ग्रहण करती है फिर शयन का समय हुआ ।
राधा और कृष्णा एकी एक ही सैया पर कैसे पोहुडते है या लेट जाते हैं विश्राम कर रहे हैं और फिर और गोपियां भी विश्राम कर रहे हैं अपने अपने स्थान पर ऐसा भी वर्णन है और यह सब लीलाएं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु देख रहे हैं और देखते समय पर वे कहां है ? समुद्र में है । जब भक्तों को पता चला कि, कहां है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ? तो जो जिनकी पहरेदारी थी रात की पहरेदारी जगने की वे जब भी जगह होंगे या सुलाया होगा तो भगवान की योग माया ने उनको सुला दिया और वे जब जग गए तो पता चला कि चैतन्य महाप्रभु नहीं है । सारे श्री कृष्णा चेतन महाप्रभु के अंतरंग परिकर फिर भी दौड़ पड़ते हैं सब 10 दिशाओं में । गौरंग ! गौरंग ! तो बहुत समय तक खोज करते रहे कुछ पता नहीं । उनको कोई संकेत नहीं मिला तो धीरे-धीरे समुद्र की ओर जाते हैं । समुद्र के तट पर एक मछुआरा को उन्होंने देखा और वह उसकी हालत तो, वह तो पागल हो गया था और कुछ डरा हुआ भी था और दौड़ रहा था फिर स्वरूप दामोदर, रामानंद राय इत्यादि जो खोज रहे थे चैतन्य महाप्रभु को ।
उन्होंने जब देखा यह इस मछुआरे को और उस स्थिति में । ऐ ! इसको रोकने का प्रयास किया । पूछा क्या हुआ ? क्या हुआ ? उसमें होना क्या है सब कुछ हुआ । अब मुझे नहीं पूछना, नहीं बता सकता मैं । तो हुआ यह था कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को वह मछुआरा बहुत भाग्यवान था । चैतन्य महाप्रभु ही उसको प्राप्त हुए जब मछली को पकड़ रहा था अपने जाल फेंक दिया और खींच रहा था तो इतना भारी इतना मोटा मछली और जब दिखने लगा तो, सोने की मछली ! यह तो सोने की मछली है । जब स्पर्श किया अपने नोखा में रखने के लिए तो उसी के साथ तो गया काम से । कांपने लगा और सब रोमांच होने लगा सारे अष्ट विकार उनका प्रदर्शन होने लगा और गला गदगद हो उठा और सब तरफ वह दौड़ रहा है इधर-उधर तो ऐसे । तो यह सब उसने बता ही दिया ऐसा ऐसा हुआ । यह जब सुना तो इन भक्तों को लगा, हां ! वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही होने चाहिए । तो उन्होंने कहा कि हमको वहां ले चलो । नहीं नहीं दुबारा नहीं जाना । वहां नहीं जा सकता नहीं नहीं मुझे वापस मत वहां मत ले जाओ । वह मछली जो भी है वह तो उसको बहुत समझा बुझा के ले गए और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हवा के या जल के तरंग और झोंके के साथ ऐसे कोणार्क तक पहुंचे थे । कहां जगन्नाथ पुरी और कहां कोणार्क तो रात में बहते बहते उनका शरीर उनका विग्रह कोणार्क तक वहां मिले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो अपने ही जगत में पहुंचे हुए तो उनको कोई बाह्य ज्ञान नहीं था । भक्तों ने जोर-जोर से कीर्तन प्रारंभ किया …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
और वैसे जब यह भक्त वहां पहुंचे चैतन्य महाप्रभु के पास तो चैतन्य महाप्रभु तो वृंदावन में थे उस समय और जो भी वे देख रहे थे उसी के साथ कुछ कह भी रहे थे भाव विभोर होके तो उसको सुन भी रहे थे भक्त जो वहां उपस्थित थे । तो बहुत समय के कीर्तन के उपरांत, बाह्य ज्ञान देने का प्रयास चल रहा था तो अंततोगत्वा श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को बाह्य ज्ञान जैसे ही हुआ और तब चैतन्य महाप्रभु बड़े क्रोधित हुए, ऐ ! क्यों मुझे जगाया ? मैं तो या मुझे वंचित किया तुम लोगों ने मैं वृंदावन में था । सब कृष्ण लीला का दर्शन कर रहा था और आपने विघ्न डाल दिया । तो सारे दर्शन को आपने बंद कर दिया । आपने बंद कर दिया दूरदर्शन के दृश्य को जो मैं देख रहा था तो फिर उसी के साथ फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सभी ले आए या चैतन्य महाप्रभु ही स्वयं कीर्तन करते हुए नृत्य करते हुए गंभीरा पहुंच जाते हैं । इस प्रकार यह एक रात की एक बात है । इसको हमने संक्षेप में कहा । तो इस बात का इस लीला का लीला के स्रोत भी यह हरे कृष्ण महामंत्र ही है जब हम जप करते हैं तो यह जप यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण हमको स्मरण दिलाता है । कुछ लीलाओं का स्मरण दिलाता है । जो पहले कभी हमने पढ़ी सुनी लीला है या वैसे जीव तो जानता है जीव तो भगवान को जानता है जीत तो भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला से परिचित है जीव जानता है कृष्ण को । बस भूल गया ।
माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान ।
जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 20.122 )
अनुवाद:- बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता । किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन
किया ।
माया में मुग्ध या माया भुला देती है और फिर हम जब सुनते पढ़ते हैं तो पुनः जीव को यादें आ जाती है और यह हरे कृष्णा महामंत्र का जब हम कीर्तन जप करते हैं यदि हमें पुनः स्मरण दिलाता है ।
चेतो – दर्पण – मार्जनं भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् । आनन्दाम्बुधि – वर्धनं प्रति – पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म – स्नपनं परं विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥१२ ॥
( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 20.12 )
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो, जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागररूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है, जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है ।
होता है । धूल निकल गई जो आच्छादित करती है । जीव के कृष्ण भावना को तो फिर “श्रेयः -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम्” फिर विद्या, वधू का जीवन है कौन है ? हरि नाम । हरि नाम है विद्या बंधु का जीवन “विद्या – वधू – जीवनम्” । यह हरे कृष्ण महामंत्र का जप, कीर्तन, ध्यान का भी यह फल है कि हमें स्मरण होता है कि हमें स्मरण दिलाता है यह हरिनाम भगवान का भगवान के लीलाओं का भी । हरि हरि !!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !!
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*9 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 880 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! क्या आप तैयार हो? गौड़ीय वैष्णव? हरि! हरि!
*भज गौराङ्ग कह गौराङ्गलह गौराङ्गेर नामे रे। ये जन गौराङ्ग भजेसेइ अमार प्राण रे॥*
*गौराङ्ग बोलिय दुऽबहु तुलियानचिय नचिय बेदाओ रे॥1॥*
*गौराङ्ग भजिले गौराङ्ग जपिले होय दुखेर अबसान रे॥2॥*
*भज गौराङ्ग कह गौराङ्ग लह गौराङ्गेर नाम रे। ये जन गौराङ्ग भजे सेइ अमार प्राण रे.. भज गौरांग, गौरांग को भजो, कह गौराङ्ग ,गौराङ्ग का नाम लो।* गौरांग गौरांग जैसे
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।*
यह गौरांग का नाम है।
*पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।*
( चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१.२६)
अर्थ:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
उन्होंने कहा कि मेरे नाम का प्रचार होगा भज गौराङ्ग कह गौराङ्ग
लह गौराङ्गेर नाम रे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण यह नाम लो, भज गौरांग कह गौराङ्ग वैसे हम लोग अलग से भी कहते ही रहते हैं गौरांग! नित्यानंद! नित्यानंद! गौरांग! नित्यानंद! गौरांग! आप भूल गए हो। हरि! हरि! साथ ही साथ इस गीत में कहा है
*ये जन गौराङ्ग भजे सेइ अमार प्राण रे।।*
जो जन, लोग अथवा जो भक्त गौरांग को भजते हैं अथवा गौरांग का नाम लेते हैं वह मेरे प्राण हैं। वे मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हैं। हरि! हरि! गौरांग को भी भजना है और गौर भक्तों का भी भजन करना है। विशेष रूप से हमें गौर भक्तों का भजन कीर्तन, स्मरण करना चाहिए जो कि गौरांग के स्मरण से कुछ अलग या भिन्न नहीं है। गौरांग का स्मरण करो या फिर गौर भक्तों का स्मरण करो एक ही बात है। वैसे गौरांग का स्मरण आपको गौर भक्तों का स्मरण दिलाएगा और गौर भक्तों का स्मरण करोगे तो गौरांग का स्मरण जरूर होगा। हरि! हरि! हम सोच रहे थे कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अंग उपांग पार्षद.. हर एक गौर भक्त या एक गौर पार्षद …
*कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्। यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।।*
( श्रीमद भागवतम ११.५.३२)
कलयुग में बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन संकीर्तन करते हैं जो निरंतर कृष्ण के नाम का गायन करता है यद्यपि उसका वर्ण श्यामल कृष्ण नहीं है किंतु वह साक्षात कृष्ण है वह अपने विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है।
वैसे कुछ दिनों में हम एक तिरोभाव तिथि मनाएंगे। वह तिथि रघुनाथ दास गोस्वामी की होगी। रघुनाथ दास गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! कार्तिक प्रारंभ होने से पहले वह तिथि आती है लेकिन कल मैं रघुनाथ दास गोस्वामी के संबंध में कुछ पढ़ और सुन रहा था तो सोचा कि क्यों देरी करें। आज ही उनके विषय में कुछ कहते हैं, रघुनाथ दास गोस्वामी को याद करते हैं। रघुनाथ दास गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
रघुनाथ दास गोस्वामी ज्ञान और वैराग्य की मूर्ति थे और वे भक्तिभाव की मूर्ति तो थे ही। विशेष रुप से जहां तक वैराग्य की बाते हैं तो उनका वैराग्य तो अतुलनीय/ अनुपम रहा। रघुनाथ दास गोस्वामी बंगाल में सप्तग्राम नाम के एक गांव में एक जमींदार के पुत्र रूप में जन्मे थे। हरि! हरि! बचपन में ही उनको नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का सङ्ग प्राप्त हुआ। उस समय वे छोटे ही थे। उसी सप्तग्राम में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर आकर अपना भजन कर रहे थे। संभावना है कि रघुनाथ दास गोस्वामी के पिताश्री ने ही उनको आमंत्रित किया था। बालक रघुनाथ दास वहां पहुंचते जहां पर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर अपना जप कर रहे थे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जैसे साधु का सङ्ग रघुनाथ दास गोस्वामी को प्राप्त हुआ। उसी के साथ उनमें यह दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित हुआ अर्थात ज्ञान उनके हृदय प्रांगण में उदित होने लगा।
*विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः | रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||*
( श्रीमद भगवतगीता २.५९)
अनुवाद:- देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है | लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है |
वे ऊंचा स्वाद या उच्च विचार का भी अनुभव करने लगे। इसी के साथ जब हम ऊंचे स्वाद का आस्वादन करते हैं तब जो नीच अथवा जो तुच्छ बातें होती हैं, उनमें हमारा वैराग्य उत्पन्न होता है। धीरे-धीरे वह ज्ञानवान और वैराग्य वान भी बन रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक समय शांतिपुर में थे। रघुनाथ दास गोस्वामी वहां पर पहुंचे, उसी समय में वे हरे कृष्ण आंदोलन को ज्वाइन करना चाहते थे किंतु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको प्रेरित किया, ‘जाओ घर लौटो, यह समय नहीं है।
*कृष्णेर संसार कर छाडि’ अनाचार। जीवे दया, कृष्ण-नाम सर्व धर्म-सार॥4॥*
अर्थ:- संपूर्ण अनुचित आचरण को त्याग कर, कृष्ण से संबधित अपने कर्तव्यों को सम्पन्न कीजिए। सभी जीवों के प्रति दया करने के लिए कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण सभी धर्मों का सार है। ”
अनाचार छोड़कर कृष्ण के लिए संसार करो। जाओ। बेचारे रघुनाथ घर वापस लौट गए। घर क्या उनका महल ही था। उनके पिता जी बड़े ही धनी एक बड़े जमींदार थे। नौका भरकर इनके पास सोने के सिक्के थे। वे काग़जी धनराशि नहीं अपितु वास्तविक सोने के सिक्के गिना करते थे। उनके पिताश्री मजूमदार करोड़पति थे, धनी भी थे और साथ में दानी भी थे। वैसे इनका दान चैतन्य महाप्रभु के पिता श्री जगन्नाथ मिश्र तक पहुंच जाता था। सारे बंगाल भर के भक्त, आचार्य, ब्राह्मण इनको दान दक्षिणा दिया करते थे। रघुनाथ दास गोस्वामी घर लौट आए लेकिन उनका मन घर में बिल्कुल नहीं था। घरवाले तो चाहते थे कि बालक इस उम्र में हरे कृष्ण वाला ना बने, संन्यास न ले।
घरवाले सोचते थे कि रूटीन चलता रहे, बालक का विवाह तो होना ही चाहिए, यह होना चाहिए, वह होना चाहिए। वे कहते थे कि हम बालक के बालकों को देखना चाहेंगे। रघुनाथ दास गोस्वामी तो अवसर देख रहे थे कि वे कब पुनः घर छोड़ सकते हैं। तब तक श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में पहुंच चुके थे और जगन्नाथपुरी में ही रह रहे थे। रघुनाथ दास गोस्वामी ने कई सारे प्रयास किए कि वह घर छोड़कर जगन्नाथ पुरी चले जाए। वे अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों का आश्रय चाहते थे। वे महाप्रभु का सानिध्य चाहते थे लेकिन घर वाले छोड़ नहीं रहे थे। उनके घर वालों ने कई गार्ड्स भी रखे थे, देखो, ध्यान दो, यह घर छोड़कर पलायन ना करें। रघुनाथ दास गोस्वामी कई बार घर छोड़ कर गए थे और कई बार चौकीदार/ गार्ड्स उनको पकड़ कर वापस लाए थे। हरि! हरि! उन्होंने उनका विवाह भी कर ही दिया अब उनकी एक सुंदर पत्नी भी थी और धन दौलत का कोई अभाव नहीं था लेकिन रघुनाथ दास गोस्वामी को उनमें कोई भी रुचि नहीं थी, ना कामनी में, ना ही कांचन में। कामिनी और कांचन इस संसार में दो बड़े आकर्षण होते हैं। सुंदर स्त्री और धन दौलत, संपदा यह दोनों ही बहुत बड़ी प्रचुर मात्रा में थे लेकिन रघुनाथ दास गोस्वामी को इनमें बिल्कुल रुचि नहीं थी। हरि! हरि! एक समय आया जब वह नित्यानंद प्रभु को मिलने आए। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को कहा कि बंगाल जाओ, बंगाल में जाकर प्रचार करो। बंगाल में प्रचार की जिम्मेदारी चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को दे दी। नित्यानंद प्रभु अब पानिहाटी में अपने परिकरों के साथ पहुंचे थे। रघुनाथ दास भी वहां पहुंच गए।
(अभी मैं इतने विस्तार से तो नहीं बता पाऊंगा) नित्यानंद प्रभु अपने कुछ परिकरों के साथ गंगा के तट पर पानिहाटी में थे। वे द्वादश गोपालों व अन्यों के साथ बैठे हुए थे। रघुनाथ दास गोस्वामी भी वहां आए और वे भी बैठे हुए थे। किसी ने परिचय दिया कि नित्यानंद प्रभु, रघुनाथ आए हैं, रघुनाथ आया है। तब नित्यानंद प्रभु ने पूछा- कहां है? तब उन्होंने बताया कि वह पीछे बैठा है। तब नित्यानंद प्रभु प्रसन्न नहीं हुए और बोले कि पीछे क्यों बैठा है? क्यों छिपा हुआ है? मैं इसको दंड दूंगा। तब नित्यानंद प्रभु आगे बढ़े और अपना चरण कमल रघुनाथ के सर पर रख दिया। वे रघुनाथ को दंड दे रहे थे, वैसे यह दंड है या वरदान है। मैं उसको दंडित करूंगा, मैं उसे मारूँगा। वे एक अन्य दंड भी साथ में देने वाले थे, वे बोले कि इसे मेरे परिकरों को दही और चिड़ा खिलाना चाहिए, यही इसकी सजा है। रघुनाथ दास तैयार हुए, वहां दही चिड़ा महोत्सव संपन्न हुआ। जिसका विस्तृत वर्णन चैतन्य चरितामृत में भी है। यह दही चिड़ा महोत्सव धीरे धीरे फैल गया। सारे गांव के नागरिक उस महोत्सव में आए, अन्य सारे गांव के लोग भी आए। रघुनाथ दास गोस्वामी ने सबको दही चिडा और दूध चिड़ा खिलाया। दही चिड़ा, दूध चिड़ा महोत्सव में चैतन्य महाप्रभु भी आ गए, नित्यानंद प्रभु ने उनको भी आमंत्रित किया। इस प्रकार सर्वप्रथम रघुनाथ दास गोस्वामी के इस सेवा से नित्यानंद प्रभु ही प्रसन्न हो गए। नित्यानंद प्रभु का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ। नित्यानंद प्रभु जो कि आदिगुरु हैं।
*ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ। दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥*
( वैष्णव गीत- नरोत्तम दास ठाकुर)
अर्थ:- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
बलराम हइल निताइ। वही बलराम, नित्यानंद बने हैं। नित्यानंद प्रभु की कृपा रघुनाथ दास गोस्वामी के ऊपर हुई। अब इसका परिणाम अथवा फल यह निकलने वाला है कि उनको चैतन्य महाप्रभु के चरण प्राप्त होंगे। रघुनाथ दास गोस्वामी वहां से घर लौटे तो सही किन्तु उनके जगन्नाथपुरी जाने के प्रयास तो जारी रहे, उनके प्रयास कई बार असफल भी रहे लेकिन एक दिन उनको सफलता मिल ही गई। रघुनाथ दास गोस्वामी जगन्नाथ पुरी धाम पहुंच गए और चैतन्य महाप्रभु को प्राप्त कर लिए। इस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास गोस्वामी का घर लौटने की बात नहीं की। इस समय उन्होंने स्वरूप दामोदर जो कि चैतन्य महाप्रभु के अंतरंग परिकर अथवा निज सचिव के रूप उनकी सेवा करते हैं और वे स्वरूप दामोदर जो ललिता सखी के अवतार भी थे। उन स्वरूप दामोदर से चैतन्य महाप्रभु ने कहा हे स्वरूप, रघुनाथ दास गोस्वामी को संभालो, उनकी देखभाल करो, उनको प्रशिक्षण दो और वैसा ही हुआ। रघुनाथ दास गोस्वामी का एक नया नाम ही बन गया स्वरूपे रघु।
वे थे तो रघुनाथ लेकिन अब कौन से रघुनाथ थे – ‘स्वरूपे रघु’ अर्थात स्वरूप गोस्वामी के रघुनाथ। इस प्रकार स्वरूप दामोदर के साथ रघुनाथ दास गोस्वामी का घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ। रघुनाथ दास जब वृंदावन पहुंचेंगे तो रघुनाथ दास गोस्वामी भी कहलाएंगे, अभी तो रघुनाथ दास नाम ही चल रहा है। हरि! हरि! यह नाम मुझे भी अच्छा लगता हैं क्योंकि एक समय मेरे माता-पिता ने भी मेरा नाम रघुनाथ ही रखा था। तत्पश्चात प्रभुपाद ने मुझे लोकनाथ नाम दिया और फिर लोकनाथ स्वामी भी नाम दिया। रघुनाथ का नाम अभी तक रघुनाथ ही चल रहा है, या रघुनाथ दास ही चल रहा है परंतु भविष्य में वे रघुनाथ दास गोस्वामी कहलाएंगे। रघुनाथ दास गोस्वामी, चैतन्य महाप्रभु के साथ में ही रहा करते थे। वह चैतन्य महाप्रभु के परिकर, संगी साथी बन गए थे। स्वरूप दामोदर जिन विभिन्न लीलाओं का दर्शन करते थे/ देखते थे और जिन लीलाओं में रघुनाथ दास गोस्वामी भी साक्षी बन कर रहते थे, वे उन लीलाओं को डायरी में लिखते थे। जिसे मराठी में हम दैदिन्नी भी कहते हैं।
वे जिस जिस लीला को देखते थे अथवा सुनते भी थे अर्थात वे जिस जिस लीला में भी नहीं होते थे, वे उसको औरों से सुनते थे, उन्होंने इसका सारा वर्णन अपनी डायरी में करके रखा था जो कि भविष्य में काम आने वाला है। रघुनाथ दास गोस्वामी का वैराग्य देखो, वे सिंह द्वार पर खड़े हो जाते थे। जो भी कोई उनको भिक्षा या दान
देता, उसी से अपना गुजारा चलाते थे लेकिन ऐसा करना अब उनको उचित नहीं लग रहा था। वे सोच रहे थे कि जब कोई द्वार की ओर आता है कि वह वहीं से आगे मंदिर में जाने के लिए बढ़ता है और मैं वहां खड़ा सोचता हूं कि यह जरूर मुझे कुछ देने वाला है, यह मुझे कुछ जरूर देगा, कुछ दान दक्षिणा देगा लेकिन जब नहीं देगा तब शायद मुझे अच्छा भी नहीं लगेगा। तब मैं शायद उसके संबंध में कुछ भला बुरा सोच लूंगा। यह सही नहीं है, यह देगा अथवा इसने नहीं दिया, इसको देना चाहिए था। यह दिहाड़ी वाला है या यह अमीर लगता है इसको देना चाहिए था। एक महिला भी जा रही है उसके पास पर्स भी है तो इसके पास कुछ धनराशि भी होनी चाहिए। वह उसे मुझे जरूर देगी लेकिन नहीं दिया। …’ ऐसे विचारों को टालने के लिए रघुनाथ दास गोस्वामी ने वहां द्वार पर खड़े होकर भिक्षा को ग्रहण करना भी छोड़ दिया। अब कैसे गुजारा होगा। हरि! हरि! देखिए! यह जमींदार के बेटे हैं, कितना धन दौलत है इनके पास। आपने सुना ही नौका भरकर इनके घर में सोने के सिक्के थे जिनकी गिनती करते करते हुए वे थक जाते या पसीने पसीने हो जाते थे, वे रघुनाथ भिक्षा मांग रहे थे। हरि !हरि! भिक्षा मांगना भी उन्होंने छोड़ दिया। तब वह क्या खा रहे थे? जगन्नाथ का प्रसाद जो झूठन है या बचा हुआ है अथवा कुछ खराब हुआ है, जिसे लोग फैंक देते थे या मंदिर के व्यवस्थापक भी कूड़ा करकट के डिब्बे में या वैसे फेंक देते थे, जिसे गाय, कुत्ते आकर उसको खाते हैं। रघुनाथ दास गोस्वामी वहां जाने लगे। वे कुत्ते या गायें उस प्रसाद के अवशेष को रघुनाथ के साथ बाँटती थी। जो भी रुखा सूखा या मिट्टी यह, वह होता था, चाहे कितने दिन बासी हो या दुर्गंध अभी आ रही होती थी, रघुनाथ दास गोस्वामी उसी को इकट्ठा करते, उसी को थोड़ा धो लेते, साफ कर लेते और उसको बड़े आनंद से उसका पान करते। उसका आस्वादन करते, ग्रहण करते।
*महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे ।स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते* 1॥[महाभारत]
शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल,
जीवे फेले विषय-सागरे।
तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति,
ताके जेता कठिन संसारे॥2॥
कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय,
स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई।
सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ,
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥3॥
अर्थ
(1) गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत]
(2) शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है।
(3) भगवान् कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।
उसी को अमृत मान कर और वैसे अमृत है भी, एक समय चैतन्य महाप्रभु जानना चाह रहे थे कि आजकल रघुनाथ कहां भोजन करता है।
कहां पर प्रसाद खाता है? तब किसी ने बताया कि रघुनाथ गोस्वामी मंदिर के पीछे जाते हैं, जहां पर जो भी कुछ कूड़ा करकट के डिब्बे में या वहां पड़ा हुआ प्रसाद होता है, उसी को वे साफ करके खाते हैं। चैतन्य महाप्रभु वहां गए और देखा कि रघुनाथ दास प्रसाद को साफ कर रहा है और वही बगल में बैठ कर महाप्रसादे गोविंदे नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे।
स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते.. कर रहा है।
वैसे कई लोगों का विश्वास नहीं होता। स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते, जिनकी पुण्याई कम है अर्थात जिनके खजाने में ज़्यादा पुण्याई कमाई नहीं है। उनका क्या होता है? उनका महाप्रसाद में विश्वास नहीं होता वे महाप्रसाद की महिमा को भलीभांति नहीं जानते।
महाप्रसादे गोविंदे नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। उनका नाम में विश्वास नहीं होता और वैष्णवे में विश्वास नही होता। वैसे 4 नाम लिए हैं महाप्रसादे अर्थात महाप्रसाद में, गोविंद -गोविंद में, नाम-ब्रह्मणि या नाम ब्रह्म है या नाद ब्रह्म और वैष्णव में विश्वास नहीं होता है। किनका विश्वास नहीं होता। जो स्वल्पपुण्यवतां राजन् है।
रघुनाथ दास गोस्वामी बड़े ही पुण्यात्मा थे इसीलिए उनका इतना विश्वास था, श्रद्धा थी महाप्रसाद में। वह नहीं सोचते थे यह कुछ खराब है या.. अन्न परब्रह्म.. बस जगन्नाथ का प्रसाद है, भगवान का प्रसाद है। यह परब्रह्म स्वयं भगवान है, रघुनाथ दास गोस्वामी जब प्रसाद को ग्रहण कर रहे थे तो चैतन्य महाप्रभु ने देखा, चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े, “मुझे भी तो दो, चोर कहीं का, अकेले-अकेले खा रहे हो।” रघुनाथ दास गोस्वामी झट से उठे और दौड़ने लगे। वे नहीं चाहते थे कि ऐसा प्रसाद… महाप्रभु खाए… महाप्रभु को ऐसा प्रसाद नहीं खाना चाहिए। नहीं …नहीं.. नहीं.. यह आपके लिए उचित नहीं होगा। यह मेरे लिए ठीक है लेकिन आपके लिए नहीं। ऐसा सोचते हुए रघुनाथ दास गोस्वामी दौड़ रहे थे, दूर जाने का प्रयास कर रहे थे किंतु चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास गोस्वामी को पकड़ ही लिया और थोड़ा प्रसाद ले कर ग्रहण किया नाचने लगे। हरि बोल! हरि बोल! हरिबोल! कई सारी लीलाएँ है, जिसमें रघुनाथ दास भी रहे। रघुनाथ दास गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के साथ कई वर्षो तक जगन्नाथपुरी में रहे और डायरी लिखते रहे। तब दुर्देव से वह दिन भी आ गया जब चैतन्य महाप्रभु नहीं रहे। चैतन्य महाप्रभु अंतर्धान हुए अर्थात उन्होंने टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रवेश कर लिया। फिर उसी के साथ क्या कहना, पूरा नगर या सारा विश्व कहो, गौड़ीय वैष्णव जगत व्याकुल हो गया।
*युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे 7॥*
( शिक्षाष्टकम)
अर्थ:- हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा है तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है।
पहले तो वे कुछ विरह की व्यथा का अनुभव किया करते थे कि चैतन्य महाप्रभु कहीं बहुत दूर हैं, मैं यहां सप्तग्राम में हूं। चैतन्य महाप्रभु दूर जगन्नाथपुरी में हैं। वे विरह की व्यथा अनुभव किया ही करते थे किंतु अब तो चैतन्य महाप्रभु अब तो और भी दूर चले गए। जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी …
जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी नहीं रहे, उनके नयनों का पथ का.. अब दर्शन नहीं होगा, अंग संग नहीं होगा। स्वधाम उपगते .. भगवान अपने धाम लौटे तो फिर कितना विरह। पृथ्वी पर है, धरातल पर है लीला खेल रहे हैं हम वहां नहीं हैं तो भी विरह का अनुभव होता ही रहता था लेकिन अब जब चैतन्य महाप्रभु रहे ही नहीं अपनी इस प्रकट लीला को समापन कर दिया तो क्या कहना। तत्पश्चात रघुनाथ दास गोस्वामी ने स्वरूप दामोदर का आश्रय लिया। उनके आश्रय में तो थे ही लेकिन अब चैतन्य महाप्रभु नहीं रहे तो अधिक निकटता उनकी बनी रही परंतु कुछ समय बीता तो स्वरूप दामोदर भी नहीं रहे उनका तिरोभाव हुआ। फिर वह गदाधर पंडित के पास पहुंचे, उनका अंग सङ्ग प्राप्त किया।गदाधर पंडित उनको सांत्वना देते रहे। पहले स्वरूप दामोदर दे रहे थे, तत्पश्चात गदाधर पंडित.. श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अंतर्ध्यान होने के उपरांत उनके कई सारे पार्षद, परिकर प्रस्थान होते रहे। प्रतिदिन कहो या प्रति सप्ताह। अब यह भी नहीं रहे, वह भी नहीं, वह भी नहीं रहे, यह भी नहीं रहे, नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर तो श्रीचैतन्य महाप्रभु के चलने के पहले ही वे अपने प्राण त्याग चुके थे क्योंकि उन्होंने महाप्रभु के समक्ष प्रस्ताव रखा ही था- ‘आप नहीं रहोगे, मैं रहूंगा पीछे? वह बिरह की व्यथा मुझसे सही नहीं जाएगी। अच्छा है कि पहले मुझे भेजो। मैं उस परिस्थिति में मैं नहीं रहना चाहता, आपकी प्रकट लीला का समापन हुआ और मैं बच गया, छूट गया तब…”
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वैसी व्यवस्था की थी। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का भी प्रस्थान हुआ । इस प्रकार सारे वैष्णव प्रस्थान कर रहे थे। रघुनाथ दास गोस्वामी सोच रहे थे कि मैं भी जीवित नहीं रहना चाहता, उन्होंने वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया कि मैं, वहां जाकर गोवर्धन पहाड़ पर चढ़कर खाई में कूद जाऊंगा और अपनी जान लूंगा। अब रघुनाथ दास गोस्वामी वृंदावन पहुंच गए और रूप सनातन इत्यादि गोस्वामियों से उनका मिलन हुआ। वैसे रघुनाथ क्या सोच रहा है, उनका आत्महत्या का विचार है रूप और सनातन गोस्वामी समझ गए और उन्हें उसको खूब समझाया बुझाया तत्पश्चात उन्होंने वह विचार छोड़ दिया और रघुनाथ दास गोस्वामी वृंदावन में कुछ 40-41 साल रहे। राधा कुंड के तट पर वे रह रहे थे।
उस समय का जो काल और परिस्थिति का जो स्मरण होता है, षड् गोस्वामी वृन्द अधिकतर राधा कुंड के तट पर रहा करते थे । कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, लोकनाथ गोस्वामी, भूगर्भ गोस्वामी थे और गोवर्धन परिक्रमा हुआ करती थी। कई सारे कार्यकलाप तो होते रहे। रघुनाथ दास गोस्वामी जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु की जगन्नाथपुरी में लीला देखी थी और उसको लिख कर भी रखा था। रघुनाथ दास गोस्वामी प्रतिदिन राधा कुंड के तट पर भक्तों को गौर लीला सुनाते थे, जो लीलाएं उन्होंने देखी थी जिसके वे साक्षी थे उसको वह सुनाते थे। उन श्रोताओं में कृष्णदास गोस्वामी भी हुआ करते थे। कृष्णदास गोस्वामी और रघुनाथ गोस्वामी की कुटिया बिल्कुल अगल बगल में ही थी। भविष्य में वैष्णवों ने कृष्णदास कविराज गोस्वामी को विशेष निवेदन किया कि “आप चैतन्य चरितामृत की रचना करो।” राधा मदन मोहन ने भी उन्हें आशीर्वाद दिया और वे तैयार हुए। यहां राधा कुंड के तट पर ही चैतन्य चरितामृत लिखा।
यह रघुनाथ दास गोस्वामी के संग से सम्भव हो पाया। यह 40 साल की बात है। षड् गोस्वामी वृंद भी धीरे धीरे वृद्ध हो रहे थे, उनके तिरोभाव होते रहे, अब यह गोस्वामी नहीं रहे तब रघुनाथ दास गोस्वामी कुछ जो अन्न प्रसाद लिया करते थे वह भी छोड़ दिया जब और गोस्वामी नहीं रहे जैसे सनातन गोस्वामी नहीं रहे तो वे अब कुछ कंदमूल फल ही खा कर ही गुजारा करते थे। कुछ दिन हो अर्थात कुछ समय बीत गया यह वैष्णव नहीं रहे। अब केवल दूध व छाछ ही पी रहे थे। यह विरह की व्यथा उनको इतना परेशान कर रही थी। पहले तो चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में नही रहे ,उनके विरह की व्यथा तो थी ही । वहां जगन्नाथपुरी में कई सारे वैष्णव प्रस्थान कर रहे थे और यहां वृंदावन में भी राधा कुंड के तट पर वे यही अनुभव करते रहे। एक समय ऐसा भी आया जब वे दिन में छोटे से दोने में थोड़ा सा छाछ लेते थे। कोई दोना भर के थोड़ा सा छाछ लाता था और वह उसी को ग्रहण करते थे। एक दिन कोई उनको बड़ा दोना भरकर छाछ दे रहे था तब उन्होंने एक से पूछा कि इतना छाछ? सो मच बटर्मिल्क? यह इतना बड़ा दोना कहां से आया? इतने पत्ते कहां से लिए दोना बनाने के लिए? उनको बताया गया कि यह सखी स्थली है ना, गिरिराज की पूर्व दिशा में एक सखी स्थली नाम का स्थान है वहां के कदम्ब के पेड़ के पत्तों से दोना बनाया है तो यह सुनते ही रघुनाथ दास ने दोना फेंक दिया व बड़े क्रोधित हुए। वहां के पत्ते का दोना बनाकर मुझे छाछ पिला रहे हो? वह सखी स्थली तो चंद्रावली का स्थान है। वह अपॉजिट पार्टी है। रघुनाथ दास गोस्वामी रति मंजरी हैं। श्रीकृष्ण की नित्य लीला में वह रति मंजरी हैं। रति मंजरी, राधा रानी की सखी है, राधा रानी की पार्टी के रघुनाथ है। जब उन्होंने सुना कि चंद्रावली की सखी स्थली के पत्ते से दोना बनाकर मुझे यह छाछ पिला रहे हैं तो वह बहुत क्रोधित हुए। इससे उनका भाव स्पष्ट हुआ राइट विंग गोपी, लेफ्ट विंग गोपी।
राधा रानी के पक्ष के और चंद्रावली के पक्ष के, रघुनाथ दास गोस्वामी, राधा रानी के पक्ष में थे उन्होंने बर्दाश्त नहीं किया कि वहां के पत्ते के दोने में मुझे छाछ पिला रहे हो। इस प्रकार रघुनाथ दास गोस्वामी का वैराग्य, ज्ञान, भक्ति..
एक समय तो बस यह *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*।। इसी से उनका भोजन चल रहा था, इसी से जी रहे थे। विरह की व्यथा विरह की ज्वाला अधिक अधिक प्रज्वलित हो ही रही थी। उस मन और भक्ति भाव के स्थिति में रघुनाथ दास गोस्वामी ने पहले भी कुछ ग्रंथ लिखे थे और फिर उन्होंने मन: शिक्षा नाम ग्रंथ की रचना की। गोवर्धन की गौरव गाथा इस ग्रंथ में है। ‘दान केली कौमुदी’ रघुनाथ दास गोस्वामी की रचना है, अब जीवन का कुछ अंतिम समय भी आ चुका है। उन्होंने सारा खान पान छोड़ दिया है और हरि नाम जप चल रहा है और विरह की व्यथा से मन व्यथित है। ऐसे में उन्होंने एक और ग्रंथ लिखा- ‘विलाप कुसुमांजलि’ विलाप तो हो ही रहा था, व्यथित तो हो ही रहे थे। अपने सारे भाव अपना सारा विलाप इस विलाप कुसुमांजलि में लिखा। यह उनका अंतिम ग्रंथ था जो उन्होंने लिखा। मैं सोचता हूं कि अक्टूबर की 17 तारीख कार्तिक मास के कुछ दिन पहले ही उनका तिरोभाव हुआ और उनकी समाधि राधा कुंड के तट पर ही है। वहां अखंड कीर्तन होता है। वह राधा गोपी नाथ का मंदिर भी है, रघुनाथ दास गोस्वामी ने जप कीर्तन करते हुए आखिरी सांस ली। वो नाम *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* उन्होंने इस नाम का कीर्तन किया।। राधा कुंड के तट पर उनकी समाधि पर वहां अखंड जप होता है
हरि! हरि! हम रघुनाथ गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव एडवांस में मना रहे हैं और उनको याद कर रहे हैं। ठीक है।
हरे कृष्ण!!!
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जप चर्चा,
8 अक्टूबर 2021,
पंढरपुर धाम.
880 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। कल कि इतने ही भक्त हैं। जय! धन्यवाद आप सब की उपस्थिति के लिए। और आपने किया हुआ संकल्प, कम से कम 16 माला का जप मैं करूंगा, यह संकल्प लिया है। उसको आप पूरा कर रहे हो। इस कॉन्फ्रेंस में आप जप कर रहे हो मतलब, मुझे विश्वास हो जाता है कि, आप जप करते होंगे। बाकी अगर आप दृष्टि से परे हो, सामने नहीं हो, उसका थोड़ा व्यक्ति विचार भी नहीं करता। वैसे आप जप कर रहे हो। अपने संकल्प को पूरा कर रहे हो। इसको सिद्ध करके दिखा रहे हो। आप दिखाते हो इस कॉन्फ्रेंस में। आप जब मेरे साथ भी और संसार भर के वैष्णव के साथ भी जप करते हो। और इसको भगवान तो देखते ही है। और फिर हम भी साक्षी हो जाते हैं और कई सारे भक्त वे भी साक्षी हो जाते हैं। फिर रेकमेंडेशन होगा। आपका भगवत धाम जाना, नहीं जाना, होगा कि नहीं यह जप पर निर्भर करता है। और कुछ करें ना करें, करना ही होता है बहुत कुछ, लेकिन जप तो करना ही है। हर्रेरनामेव केवलम, 64 प्रकार की भक्ति आपने नहीं की है, तो कहां है, नवविधा भक्ती नो प्रकार की भक्ति तो करो। नवविधा भक्ति भी नहीं कर पाए तो फिर 5 जो साधन है वह करो। और अब तक आपको पता होना चाहिए कि पांच महासाधन कौन से हैं। इन सबका भक्तिरसामृत सिंधु में वर्णन हुआ है। और फिर पांच भी नहीं होते हैं तो फिर, हर्रेरनामेव केवलम, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज आपने हमारे गुरुकुल के बालको को भी जप करते हुए देखा। कौमारम आचरेत प्राग्यो बड़े भाग्यवान है वह बालक और उनके पालक भी बुद्धिमान होने चाहिए। अपने बच्चों को बचपन से ही गुरुकुल में शिक्षा दे रहे हैं। और अभी बालक जैसे प्रल्हाद महाराज ने सिखाया था गुरुकुल में, अपने मित्रों को कीर्तन और नृत्य करने के लिए श्रवणं कीर्तनम विष्णु स्मरणम यह जो नवविधाभक्ति है इसको कहने नवविधा भक्ती है। प्रल्हाद महाराज भी जो अपने मित्रों से करवाते थे। कौमारम आचरेत प्राग्यो मित्रों यही समय है। कौमारम आचरेत प्राग्यो वह भी बड़ा सुंदर दृश्य था। बालकों को जप करते हुए किसी ने देखा तो लिखा था कमेंट में, लग रहा है कि, चार कुमार जप कर रहे हैं। चतुषकुमार, उनकी वेशभूषा और। हरि हरि, और अर्चविग्रह के दर्शन पद्ममाली प्रभु को भी आभार देना है तो, संचालन कर रहे हैं। आपके अर्चविग्रह के दर्शन के लिए अच्छे से व्यवस्था संचालन कर रहे हैं। विग्रह के नाम के साथ आपका भी नाम, आपके नगर का नाम, आपके देश का नाम। कई सारे थाईलैंड के विग्रहों का दर्शन किए। बर्मा के सभी अर्चविग्रह का दर्शन किए। कन्याकुमारी से लेकर जम्मू कश्मीर तक और द्वारिका से लेकर जगन्नाथपुरी तक कई सारे नगरोके और ग्रामों के भी और सभी अर्चविग्रहों का दर्शन पद्मामाली प्रभु कराएं। वह कैसे दर्शन करा दे अगर आप दर्शन नहीं भेजते। तो जिन्होंने दर्शन भेजा उन सब के भी आभारी हैं। और यह आभार केवल उनके ही मानने नहीं चाहिए जिन्होंने केवल दर्शन किए, आप सबको भी आभार मानने चाहिए। जो जो जुड़े हुए थे, उनका योगदान रहा घर के अर्चविग्रहोके दर्शन कराने में, उनका योगदान रहा। इनमे कुछ मंदिरों के अर्चविग्रहो के भी दर्शन थे। जैसे सिडनी के मंदिर के अर्चविग्रहो का दर्शन हमने किया।
आपने भी किया। नाम याद है, सिडनी के मंदिर के सभी अर्चविग्रहो का नाम याद है, प्रभुपादने ही रखा है राधा गोपीनाथ। उनका जब मैंने दर्शन किया, उस दर्शन के तुरंत बाद हुआ वैसे शुभांगी और डॉ श्यामसुंदर प्रभुजी के घर के अर्चविग्रहो का दर्शन के तुरंत बाद उनके सुपुत्र धीरप्रशांत प्रभु जो ऑस्ट्रेलिया में बैठे हैं। उन्होंने भी उनके अर्चविग्रहो का दर्शन कराया। एक के बाद एक ऐसे भगवान की व्यवस्था और किसी की व्यवस्था लेकिन यह क्रम भी अच्छा रहा। सभी अर्चविग्रहो का मैं दर्शन कर रहा था। राधा गोपीनाथ बड़े सुंदर दर्शन रहे। हरि हरि, राधा गोपीनाथ जो है राधा के या गोपियों के नाथ। चित्त आकर्षक, हरि हमारा चित्त तो हर लेते हैं अपने सौंदर्य से। इसीलिए उनको चित्तहरि भी कहते हैं। इसीलिए जब राधा गोपीनाथ का दर्शन में कर रहा था तो, मुझे याद आया। तुरंत इस्कॉन के पहले अर्चविग्रह का जो मैंने दर्शन किया जीवन में। हरे कृष्ण फेस्टिवल आप सबको याद है, होना चाहिए। क्रॉस मैदान 1971 हरे कृष्ण फेस्टिवल पंडाल में मैं गया था। उस समय मंच पर अल्टर बना हुआ था और उस अल्टर पर जो विग्रह है वह राधा गोपीनाथ थे। तो यह पहले अर्चविग्रह है जिनका मैंने दर्शन किया। इस्कॉन के अर्चविग्रह या प्रभुपाद द्वारा स्थापित प्राणप्रतिष्ठितअर्चविग्रह जिन अर्चविग्रह को 1971 फेस्टिवल के तुरंत बाद 1971 मई महीने की बात है। श्रील प्रभुपाद राधा गोपीनाथ की जो विग्रह है अल्टर में थे मंच पर क्रॉस मैदान फेस्टिवल में। उन विग्रहों को श्रील प्रभुपाद अपने साथ ले गए। उन्होंने प्रवास किया।
प्रभुपाद अर्चविग्रह को लेकर मलेशिया गए थे। मुझे अच्छे से पता नहीं है वहां दर्शन कराया था कि नहीं। किया भी होगा कोल्लम पूर में कुछ लोगों ने किया होगा। उसके तुरंत बाद यह अर्चविग्रह को सीधे सिडनी ऑस्ट्रेलिया ले गए और उन्होंने वहां वैसे प्राणप्रतिष्ठा की राधा गोपीनाथ की। और उस समय ऑस्ट्रेलिया में हरे कृष्णा। आंदोलन नया नया शुरू हुआ था। और वहां के भक्त भी नए ही थे। कुछ सालों से जुड़े थे इस्कॉन से तो श्रील प्रभुपाद ने उसमें से कुछ भक्तों को ब्राह्मण दीक्षा भी दी। अभी अभी म्लेच्छ थे। चांडाल थे और क्या क्या थे कुछ महीने पहले, कुछ साल पहले। और प्रभुपाद ने उनको ब्राह्मण दीक्षा दी। ऐसे उनमें गुण विकसित हो रहे थे। और फिर प्रभुपाद में उन भक्तों को दे दिया राधा गोपीनाथ को। यहां ले लो राधा गोपीनाथ और संभालो उनकी सेवा करो। और उस समय श्रील प्रभुपाद ने प्रार्थना भी की थी, ऐसे हम लीलामृत में वगैरह पढ़ते हैं या सुनते भी हैं कि, मैं आपको सौंप रहा हूं ऑस्ट्रेलिया की इन ने भक्तों को, आप को संभालेंगे। यह मैं प्रार्थना करता हूं कि, उनको आप ही कुछ बुद्धि दे। शक्ति दे। सामर्थ्य दे ताकि वह आपकी सेवा कर सकते हैं। मैं प्रार्थना करता हूं क्योंकि, वह नए हैं राधा गोपीनाथ की। इस प्रकार वैसे भगवान प्रकट होते रहे सारे संसार भर में। और 100 से अधिक मंदिरों का भी निर्माण श्रील प्रभुपाद ने किया और उसमे विग्रह की स्थापना कि अपने जीवन में। और अब सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, भगवान मंदिर तक सीमित नहीं रहे ।भगवान घर-घर तक पहुंच रहे हैं और आपने देखा ही घर अर्चविग्रहो का दर्शन।
हरि हरि, भगवान की सेवा करो। अर्चना करो। तो कल यहां पंढरपुर में संपूर्ण महाराष्ट्र दर्शन मंदिर खुल गए। अभी लॉकडाउन नहीं है। हम भी सब, मतलब कई सारे लोग धामवासी और कई स्थानों से आ रहे थे। दौड़ रहे थे विट्ठल भगवान की ओर। हम भी गए हैं। हमारी भी आंखें कुछ भूखी प्यासी थी। विट्ठल भगवान के दर्शन का सौभाग्य बहुत समय के उपरांत 6 महीनों के बाद हुआ। गोपिया तो 6 पलों तक रुक नहीं पाती थी। पलक झपक ने तक उतना भी उनको सहन नहीं होता था। और वह कहते थे बुद्धू कहीं का यह ब्रह्मा उसने ऐसी आंखें दी है। वह सोच रही थी कि, वैसे इन आंखों को खुलने की बंद होने की क्या जरूरत थी। यहां खुली रहती थी तो हम देखती ही रहते। आंखें बंद होती है, खुलती है यह ब्रह्मा अच्छा निर्माता नहीं है। यह ब्रह्मा बुद्धू है। बुद्धिमान नहीं है।
हरि हरि, इन विचारों से भगवान कितने सुंदर हैं। इसका भी अंदाजा हम लगा सकते हैं। यह गोपियों के भाव जब हम सुनते हैं। कास्थिमगती वेणुगीतः चैतन्य चरित्रामृत में एक समय स्वरूप दामोदर कहे हैं। जब श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने कहा है, भावावेश स्वरूप कहेना गदगद वाणी। आप जानते ही हो, चैतन्य महाप्रभु के साथ में स्वरूप दामोदर रहा करते थे गंभीरा में। यह स्थान बड़ा गंभीर है जगन्नाथपुरी में। चैतन्य महाप्रभु ने कहा गदगद वाणी में। क्या कहा, कर्ण तृष्णाय मरे पड रसायन सुनि ही। स्वरूप दामोदर, कर्ण तृष्णाय मरे यह कान की तृष्णा की बात कर रहे हैं। मेरे कान बड़े लालायित है। और तुम सुना नहीं रहे हो कुछ। कुछ सुनाओ मेरे कानों को प्यास लगी हुई है। कर्ण तृष्णाय मरे, मर रहे हैं मेरे कान। कुछ रसायन, रसभरी बात या कुछ कर्णामृत पिलाओ। कर्णामृत श्रवणामृत अमृत कानों के लिए। उत्सव, नेत्रोत्सव या श्रवणोत्सव पडे रसायन। फिर स्वरूप दामोदर उन्होंने कहा, “सम्मोहिताय चरिताम चलेत त्रैलोक्यम” उन्होंने कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करना प्रारंभ किया। और वह कह रहे हैं। स्वरूप दामोदर जब “कलपदामृत वेणुगीत” कह रहे हैं, वे कृष्ण जब श्यामसुंदर, कृष्णकन्हैया लाल की जय! जब मुरलीवादन करते हैं। मुरली बजाते हैं। और मुरली की नाद जो है वेणुगीत उसके गीत का श्रवण जब गोपिया करते हैं।
वेणुगीत यह पूरा अध्याय ही है भागवत में। यह सारी गोपियां मोहित हो जाती है। और कृष्ण से आकृष्ट हो जाते हैं। और कृष्ण के और दौड़ने लगती है। कृष्ण तो परपुरुष हो गए ना। उनका विवाह हो चुका है। किसी अन्य पुरुष के बजाए मुरली और वहां मुरली का नाम सुनते ही दौड़ रही है. अपने पतिदेव हैं उनको वही छोड़ा। सब कुछ छोड़ा। वैसे सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकम शरणमव्रज का कोई उदाहरण है तो गोपिया है। वर्णाश्रम धर्म या स्त्री धर्म, यह धर्म, वह धर्म, कई सारे धर्म है। वर्णाश्रम धर्म भी है क्योंकि कर्तव्य हैं। उनको भी त्यागते हुए सर्वधर्मान्परित्यज्य यह गोपिया दौड़ पड़ती है। उनका ध्वनि का जो पद है, ध्वनि का पद जिस और से वह ध्वनि आ रही हैं। उस पद पर जैसे नयन पथ गामी होता है। जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी मेरे आंखों का जो पद है, पथ है उसमें आप रहे सब समय। मुझे आप दर्शन दे सब समय। यह भी प्रार्थना है। तो नयन पथ के साथ श्रवण पथ भी हैं। जो बात सुनी है, तो गोपिया सुनती है मुरली की नाद तो उस दिशा में दौड़ने लगती है। किस ओर से आ रही है ध्वनि मुरली। कहां होंगे श्यामसुंदर इस समय घूम फिर के वहीं देखती है, सुन लेती हैं। हां इधर भांडीरवन में होना चाहिए। ओह! आज तो मधुबन की ओर से ध्वनि सुनाई दे रहे हैं। तो उस पथ पर वह चलती है। दौड़ती है।
त्रैलोक्य सौभगम इदम चलनिरीक्षरूपम ऐसा है कृष्ण का रूप। ऐसा है कृष्ण का सौंदर्य। सौभगम यह संसार का भाग्य है। त्रैलोक्य सौभगम इदम चल निरीक्षरूपम, इस संसार के ब्रह्मांड की शोभा कृष्ण के कारण है। कृष्ण नहीं होते तो यह जग केवल मिट्टी है। फिर मिट्टी से ही बने हैं हमारे रूप, हमारे शरीर इसकी क्या कीमत है। हमारे रूप जो मलमूत्र से बने हैं। यह एक थैला है प्रभुपाद कहां करते थे हमारा शरीर एक थैली है जिसमें मल मूत्र भरा है। और जो नवद्वार की बात की है आपको। इन सारे नवद्वारो से क्या निकलता रहता है, गंदगी निकलती रहती हैं। इसलिए उठते ही पहला काम वही करना होता है। फिर आंँख से क्या निकलता है। नाक से क्या-क्या निकलता है। कान से भी निकलता है और मुख से। मुंह को साफ करना ही पड़ता है। और गुदाद्वार है और मलमूत्र द्वार हैं जो भी अंदर है वही बाहर आता है। थोड़ा यह सारा सौंदर्य सारा चमडी का खेल है। हमारी जो त्वचा है इसका सौंदर्य ज्यादा गहरा नहीं है। कहते हैं, स्किन डीप हमारी सौंदर्य कितना गहरा है कि, स्किन डीप जितनी हमारी चमड़ी त्वचा स्कीम परत है उतना ही सौंदर्य की गहराई है। चमड़ी उतार दोगे तो उसके साथ आप सेल्फी खींच पाओगे। अभी शायद चमड़ी है तो खींच रहे थे सेल्फी। चमड़ी उतार कर फिर आप भूत भूत कहकर दौडोगे वहां से। या नाक बंद करके कहोगे बदबू आ रही हैं। यहां लिक्विड ब्यूटी प्रभुपाद कहा करते थे। उसका भी उदाहरण प्रभुपाद कहां करते थे। कहां यह हमारे रूप और हमारा सौंदर्य तुच्छ हैं।
हरि हरि। तो जैसे हम भगवान के सौंदर्य के संबंध में सुनते हैं, उसका ध्यान करते हैं और यह सौंदर्य शाश्वत भी है। कृष्ण शाश्वत सुंदर है। और हम अगर सुंदर है तो भी हमारी सुंदरता उधार ली हुई है। हममें भी कोई सौंदर्य है या इस सृष्टि में भी कोई सौंदर्य है तो भगवान के कारण ही वह सौंदर्य है। हमने उधार लिया हुआ है और ज्यादा समय टिकता भी नहीं। लेकिन कृष्ण का सौंदर्य शाश्वत सौंदर्य है। वे शाश्वत सुंदर है। तो हम जब विग्रह की आराधना करते हैं, हमारा खुद का जो अभिमान है, गर्व है, दर्प है, हमारे खुद के सौंदर्य के संबंध में हमारा जो अहंकार है वह धीरे-धीरे मिटने लगता है। हरि हरि। दंभ, दर्प समझ रहा है यह शब्द दर्प अहंकार। और फिर दर्प है तो दर्पण मैं जब हम देखते हैं तो हमारा दंभ, दर्प बढ़ जाता है दर्पण में देखने से। जो हमारा दर्प बढ़ा दे उसी को दर्पण कहते हैं। वैसे दर्पण में कम देखना चाहिए। हरि हरि। इसीलिए हमारे जो वैष्णव है या ब्रह्मचारी भक्त है जब तिलक लगाना होता है तभी थोड़ा देख लेते हैं। लेकिन उनका जो दर्पण होता है 1 इंच डायमीटर जितना होता है। पूरा चेहरा भी नहीं देख पाते, इसीलिए तिलक लगाते समय उसको ऊपर नीचे करना पड़ता है। तो सावधानी से..। बड़ा दर्पण होगा तो हमारा दर्प बढ़ेगा खुद को देखकर। आपके घरो में तो पूरी दीवार ही एक आईना होता है दर्पण होता है। हरि हरि। और महिलाएं तो अपने पर्स में रखती हैं एक दर्पण रखके चलती है। हरि हरि। तो कृष्ण का दर्शन करो, विग्रह की आराधना करो। तो यह दर्शन करते जाएंगे।
इसीलिए कहा भी है सावधान पूर्णिमा की रात्रि है या शरद पूर्णिमा की रात्रि है। कृष्ण केशी घाट पर है। वहां त्रिभंगललित ऐसे खड़े हैं। मुरली को धारण किए हैं। ऐसे कृष्ण को नहीं देखना, ऐसे कृष्ण को देखोगे तो गए काम से। यह संसार का जो आकर्षण है, संसार की जो आसक्ती है वह समाप्त होगी। आप दिल्ली से आए होंगे तो आप दिल्ली नहीं लौटोगे। वही के कृष्ण के हो जाओगे, ऐसे कृष्ण का दर्शन करोगे तो। इसीलिए सावधान। तो भगवान के विग्रह स्वयं भगवान है और यह भगवान है इसका मुंहतोड़ जवाब भी है। ओ भगवान सर्वत्र है। यह वैसे ऐसे ही बहाना है, बहाना है या कुछ तर्क वितर्क है। हम तो उंगली करके दिखाते हैं देखो भगवान को देखो वे वही है। सर्वत्र है पता नहीं, है कि नहीं, सर्वत्र है सर्वत्र है सर्वत्र है। seeing is believing अंग्रेजी में कहावत है। हम तब विश्वास करेंगे जब हम देखेंगे। दिखाओ दिखाओ सर्वत्र हैं और फिर भगवान ज्योति है, तो इससे भी समाधान नहीं होता। लेकिन जब हम देखते हैं तब हमें विश्वास हो जाएगा, भगवान है। बाप दाखव नाहीतर श्राद्ध कर ऐसा मराठी में कहते हैं। दिखाओ, नहीं दिखा सकते तो शायद है ही नहीं, होंगे ही नहीं। लेकिन दिखा सकते हो, तो हम दिखाते हैं। भगवान स्वयं ही वैसे दिखाते हैं, मैं यहां हूं मुझे देखो। सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम अर्जुन को कृष्ण ने कहा भगवदगीता के ग्यारहवें अध्याय में। जिस रूप का तुम दर्शन कर रहे हो, हे अर्जुन यह दर्शन दुर्लभ है। देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिण: देवता भी ऐसे दर्शन के लिए तरसते हैं। तो भगवान है, भगवान का रूप है। जो विग्रह है यह केवल प्रतिमा नहीं है या कोई कल्पना नहीं है। भगवान सर्वांगसुंदर सारे अंग वाले। सभी अंग है और वे सभी अंग सुंदर है सर्वांग सुंदर। तो भगवान का रूप भी भगवान का स्वरूप है, यह बताते रहते हैं आपको। नाम भी भगवान का स्वरूप है, रूप भी भगवान का स्वरूप है, गुण भी भगवान का स्वरूप है, लीला भी भगवान का स्वरूप है। अद्वैतम अच्युतम अनादि अनंत रूपम और फिर भगवान के अनंत रूप भी है। रामादि मूर्ति शुक्ला मूर्ति मतलब रूप, श्री विग्रह मूर्ति। वह भगवान का रूप शाश्वत है। यह नहीं कि ओम से वे प्रकट होते हैं। वैसे भगवान सदा के लिए ज्योति या प्रकाश होते हैं और कभी-कभी वह रूप धारण करते हैं, ऐसी बात नहीं है। हरि हरि।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: कुछ बुद्धू है कृष्ण कह रहे हैं भगवदगीता में। वैसे भगवान तो अव्यक्त है, उनका कुछ रूप नहीं है, वे ज्योति ही है। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं अव्यक्त से फिर व्यक्त बन जाते हैं ऐसा समझने वाले, मन्यन्ते ऐसा मानते हैं, माम मेरे संबंध में उनकी ऐसी मान्यता है, अबुद्धया उनको बुद्धि नहीं है। इसलिए आपने कई चित्र वगैरह देखे होंगे उसमें दिखाते हैं पीछे कुछ ज्योति है, प्रकाश है फिर वहां से निकल गए कृष्ण। उस ज्योति से निकल आए उस ब्रह्माज्योति से निकल आए और मुरली बजा रहे हैं। और फिर एक समय क्या होगा आप उधर वापस जाओगे और ज्योति बन जाओगे, ब्रह्म ज्योति बन जाओगे। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: तो यह सारी भगवान ने अरगुमेंट्स दी हुई है। इसको हमें समझना चाहिए और प्रचार करते समय हम समझा सकते हैं ,औरों को दिमाग दे सकते हैं। हरि हरि। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
प्रश्न 1 – नोएडा सी ब्रजजनरंजन प्रभुजी द्वारा,
जो यह कहते हैं कि ज्योति से भगवान ने स्वरूप धारण किया, वे इस बात को अचिंत्य शक्ति कहते हैं इस बात का खंडन कैसे करें?
गुरु महाराज का उत्तर – अचिंत्य, मुझे तो नहीं पता एक्झ्याटली क्या अरगुमेंट है यह अचिंत्य शक्ति है..। बात यह है कि हम कह रहे थे या जो कृष्ण ही कहे भगवान का कहना होता है कि अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् भगवान कहते हैं यह तो मुढ है, वे समझते नहीं है। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् मेरा परम भाव भी है या फिर परमधाम भी है, वहां मैं रहता भी हूं और वहां मेरा रूप भी है, मैं भगवान हूं। तो वहां से फिर मैं आता हूं। जैसे वहां रहता हूं वैसे यहां भी आता हूं। यह नहीं कि आपके समक्ष आता हू तभी मैं होता हूं। और जब लीला का समापन हुआ 125 वर्षों के उपरांत तो फिर मैं नहीं रहता हूं जैसे था। तो लाइट से मैं नहीं आता हूं। वैसे ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम उसी में फिर भगवान आगे कहे है ब्रह्म का आधार में हू ब्रह्म मेरा आधार नहीं है। ब्रह्म से में उत्पन्न नहीं होता हू मुझसे ब्रह्म उत्पन्न होता है। ब्रह्म मतलब ब्रह्मज्योति। भगवान का रूप इतना तेजस्वी है इसीलिए कहा भी है भगवान कोटी सूर्य समप्रभ। कृष्ण सूर्यसम क्यों कहते हैं? कृष्ण सूर्य के समान है। क्योंकि जैसे सूर्य से प्रकाश निकलता है, तो यह सूर्य देवता है वैसे। सूर्य देवता है उनका रूप है और उनसे प्रकाश निकलता है। तो वह सूर्य का प्रकाश स्वतंत्र तो नहीं है। उसका का स्रोत है वह है जैसे सूर्य देवता। तो वैसे ही ब्रह्मज्योति का स्रोत स्वयं भगवान है। तो उल्टा नहीं है कुछ लोग उल्टा कर देते हैं, उल्टा पल्टा कर देते हैं। तो ब्रह्म से भगवान नहीं भगवान से ब्रह्म है। तो फिर कहां ही है ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते और इसको अद्वैत ज्ञान भी कहा है। यह तीनों अद्वय है या अलग अलग नहीं है या ब्रह्म या परमात्मा भगवान से ही होते हैं। तो पहले भगवान होते हैं। और फिर भगवान की परिभाषा व्याख्या को भी समझना होगा हम समझाते रहते हैं या पराशर मुनि समझाए है। ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः भगवान सौंदर्यवान है, रूपवान है, इसीलिए भगवान कहते हैं। वह रूपवान नहीं होते तो उनको भगवान नहीं कहते हम। तो ब्रह्म, ब्रह्म तो है लेकिन ब्रह्म भगवान नहीं होता। उनके सौंदर्य के कारण फिर ब्रह्म भी भगवान होते हैं। तो कई सारी शक्तियां है, उनका पता नहीं। लोग क्या कहते हैं या ब्रजजनरंजन क्या कह रहे है। शायद यह उत्तर आपको मदद करेगा इसको समझने में।
प्रश्न 2 – मॉरिशियस से यशोदा माताजी व्दारा,
जिस प्रकार कभी-कभी हम हमारा या किसी का सौंदर्य देख कर गर्व, दंभ या दर्प अनुभव करते हैं। तो उसी प्रकार लोगों में या हम में भौतिक उपलब्धियों का एक दंभ या गर्व आ जाता है। मेरे पास इतना भौतिक वैभव है, तो उसे कैसे हम निकल सकते हैं?
गुरु महाराज द्वारा उत्तर – मराठी में एक कहावत है गर्वाचे घर नेहमीच खाली। जो गर्व करता है, मैं ऊंचा पहुंचा हूं ऐसा अहंकार होता है। वह जरूर एक दिन नीचे जाएगा वह गिर जाएगा। यह गारंटी है अभी या बाद में ऐसा होने ही वाला है। आज के आपके गर्व के, दर्प के, दंभ के, अहम के जो विचार हैं। तो जब मृत्यु: सर्वहरश्चाहम तो है ही। अपने यह कमाया, आपने वह कमाया, आप सुंदर मिस यूनिवर्स, मिस इंडिया और फिर प्रकृति आपको बूढ़ा भी बना देती है। फिर आप अपनी सुंदरता को याद करेंगे आप मिस इंडिया थे पर अब वह सुंदरता नहीं है, बूढ़ी हो गई तुम। तो द्वंद्व से भरा हुआ यह जगत है, तो दोनों भी होगा। कच्छ हबू डुबू भाई जो व्यक्ति सुखी है वह दुखी होगा ही, जो धनी है उसका दीवाना निकल के वह गरीब होगा ही इस तरह से। कभी निरोगी है तो रोगी होगा, कोई सुरूप है तो कुरूप बन जाएगा। मृत्यु: सर्वहरश्चाह तो भगवान ने कहा ही है, तो जो जो तुमने कमाया था जिसके कारण तुम्हारा दंभ, दर्प एक क्षण में सारा छीन लिया जाएगा गेट आउट, यह तुम्हारा नहीं है। फिर प्रभुपाद कहते हैं अगर तुम समझते थे कि यह तुम्हारी संपत्ति है, तुम्हारा सौंदर्य है, यह जो भी है तो साथ में ले जाओ ना। इतना प्रयास करके जो धन दौलत तुमने इकट्ठी की। एक व्यक्ति ने जैसे 14 भुवन होते हैं ना तो मुंबई में एक अमीर ने अपने घर के फोर्टीन स्टोरीज है। जैसे चौदा भुवन होते हैं। आपको शायद पता होगा मैं नाम नहीं कहना चाहता। इंडिया के सबसे धनवान व्यक्ति हैं उन्होंने अपना मुंबई में 14 मंजिल वाला घर बनाया है। तो क्या होगा एक दिन? वह बैंक करप्ट होगा। उनकी मृत्यु होने वाली है कि नहीं? और जब मृत्यु होगी तो सब छीन लिया जाएगा। तो क्यों गर्व करें हमारे सौंदर्य के ऊपर, धन दौलत के ऊपर, संपत्ति पोजीशन, यह, वह। इसीलिए सलाह दी जाती है
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् इन सारी उपाधियों से मुक्त हो जाओ। हरि हरि। अहं अहं के बजाय त्वं त्वं त्वमेव माता त्वमेव पिता द्रविणं त्वमेव यह संपत्ति भी आपकी हैं, यह सौंदर्य भी आप का दिया हुआ है। आप ही माता हो, आप ही पिता हो, मम सर्व देवदेव आप ही सब कुछ हो या जो भी आपने दिया हुआ है आपका है। त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये जो जो मेरे पास है, हे गोविंद, त्वदीय आपका है यह सारी वस्तुएं जो भी है आपका है। तो अच्छा है कि मरने के बाद छीन लिया जाएगा, तो मुझे कोई क्रेडिट नहीं मिलेगा। तो मरने के पहले थोड़ा उसका लाभ तो उठाता हूं। मैं जो भी संपत्ति है जिसको मैं मेरा मेरा कहता हू उसे मैं अर्पित करता हूं, आपकी सेवा में उसका उपयोग करता हूं। फिर भगवान कितने प्रसन्न होंगे और फिर आपको ऐसी पदवी देंगे। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम अपने धाम ले जाएंगे फिर सदा के लिए वहां रहो। नहीं तो इस संसार में कभी नर्क में कभी स्वर्ग में यह चलता ही रहता है, अप एंड डाउन राउंड एंड राउंड। उसको रोकना है तो समझ लो।
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
इसलिए सारी सलाह है। श्री इशोपनिषद कह रहा है ईशावास्यम संसार में जो भी है उसके स्वामी आप हो। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा और उस सारी संपत्ति में से कुछ संपत्ति आप मुझे दिए हो। वह आपकी संपत्ति है और उसका में आपकी सेवा में उपयोग करूंगा। यह कृष्णभावना भावित विचार है या व्यवहार है और जीवन शैली है। यह सब हमको सीखना है कृष्ण भावनाभावित होकर। इस प्रकार हम समाज में परिवर्तन, संसार में परिवर्तन ला सकते हैं। विचारों में क्रांति ला सकते हैं।
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
7 अक्टूबर 2021
884 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । हरे कृष्ण !
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
कर कटावरी ठेवोनिया
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
तुळसीहार गळा कासे पितांबर
आवडे निरंतर हेची ध्यान
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
मकर कुंडले तळपती श्रवणी
कंठी कौस्तुभ मणी विराजित
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख
पाहीन श्रीमुख आवडीने
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
( अभंग – संत तुकाराम महाराज )
महाराष्ट्र में और पंढरपुर में भी आज आधिकारिक तौर पर आज मंदिर खुल रहे हैं । आज दर्शन प्रारंभ हुआ । जय ! श्री विट्ठल रुक्मिणी की जय ! अखियां प्यासी है । वैसे जगन्नाथपुरी में भी जैसे दर्शन बंद होते हैं यह कारण नहीं है कि लॉकडाउन की वजह से । जब स्नान यात्रा होती है स्नान यात्रा के समय से रथयात्रा तक दर्शन बंद होते हैं तो भक्त भगवान को याद करते हैं और बड़े उतावले होते हैं, उत्कंठित होते हैं दर्शन के लिए प्यासे होते हैं और फिर रथ यात्रा के 1 दिन पहले दर्शन खुलता है । नेत्र उत्सव होता है उस दिन । नेत्रों के लिए उत्सव । “तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख” “पाहीन श्रीमुख आवडीने” । तुकाराम महाराज भी कहे, वैसे आज दर्शन खुल रहे हैं पंढरपुर में भी । मुझे तो सुख है तुकाराम महाराज कह रहे हैं । संत तुकाराम महाराज की ! वे भी जगतगुरु रहे । “पाहीन श्रीमुख आवडीने” मैं श्रीमुख विट्ठल मुख या फिर रुकमणी मुख, श्रीमुख का दर्शन करना चाहता हूं कैसे ? “आवडीने” बड़े प्रेम से या दिल से और इसी में मुझे सुख प्राप्त होता है । “तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख” बस इसी में ही सुख मुझे प्राप्त होता है । मेरा सुख भगवान के दर्शन में है । हरि हरि !! तो बड़े भाग्य से हमें आज और भी कई सारे दर्शन हुए । कुछ लोग कहते रहते हैं; देखने की चीज है तो क्या करो ? बार बार देखो । हजार बार देखो तो यह संसार में क्या है देखने की चीज, देखने लायक, देखने योग्य या दर्शनीय कौन है ? बस भगवान ही है तो उनका दर्शन बार-बार करना चाहिए हजार बार करना चाहिए । हम आभारी हैं उन भक्तों के जिन्होंने अपने विग्रह के दर्शन हमें कराएं हमें मतलब मुझे ही नहीं, हजार, डेढ़ हजार, दो हजार भक्तों ने दर्शन किए । संभावना है कि इतने दर्शन आरती आपके विग्रह के कभी नहीं हुए होंगे या तो आप देखते हो आप दर्शन करते हो या आपके कोई अतिथियां रिश्तेदार हैं हो सकता है कि कभी उनका कोई दिलचस्पी ना हो । उनके भगवान के दर्शन के लिए । लेकिन आज आपके विग्रह का दर्शन कई भक्तों ने किए । इस दर्शन में जीवन का सार्थकता है । हरि हरि !! तो यह एक मंदिर है उसके साथ साथ घर एक मंदिर है । घर को मंदिर बनाओ ऐसे हम आपको स्मरण दिलाते रहते हैं । घर एक क्या है ? मंदिर है और घर को कुछ नाम भी दे सकते हो । गोकुलधाम या हरि धाम या कुंज बिहारी तो आपका घर एक तो आश्रम और गृहस्थ हो तो गृहस्थ आश्रम । आश्रम में जरूर रहना चाहिए । किसी ना किसी आश्रम में रहना चाहिए या तो ब्रह्मचारी या तो गृहस्थ या तो वानप्रस्थ या सन्यास । आप में से किसी भी आश्रम में नहीं रहते हैं तो आप चांडाल हो, आप योवन हो क्या क्या आप हो, आप असभ्य हो तो आश्रम में रहना चाहिए और आप जो गृहस्थ आश्रमी भक्त हो आपका आश्रम का मंदिर बनाया है अपने घर को मंदिर बनाया है । वैसे भी कहते हैं …
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूताः स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥
( श्रीमद भागवतम् 1.13.10 )
अनुवाद:- हे प्रभु , आप जैसे भक्त , निश्चय ही , साक्षात् पवित्र स्थान होते हैं चूँकि आप भगवान् को अपने हृदय में धारण किए रहते हैं , अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थस्थानों में परिणत कर देते हैं ।
जहां भक्त रहते हैं जहां साधु रहते हैं उस स्थान को जहां वे रहते हैं उस स्थान को “तीर्थीकुर्वन्ति” उसको तीर्थ बनाते हैं । आप भी साधु हो या आप साध्वी हो या आपको साधु या साध्वी बनाने का यह सब प्रयास हो रहा है अंतर्राष्ट्रीय श्री कृष्ण भावनामृत संघ का प्रयास ताकि आप साधु बनोगे, आप साध्वी बनोगे । तो साधु साध्वी जहां रहते हैं उस स्थान को “तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि” उस स्थान को तीर्थ बना देते हैं । अपने घर को मंदिर बनाओ, तीर्थ बनाओ, आश्रम बनाओ । विग्रह का होना वह फोटो भी हो सकता है वैसे हम तो विग्रह के दर्शन करा रहे हो लेकिन वेदी पर भगवान का चित्र भी हो सकता है । हरि हरि !! या यहां तक की ग्रंथ भी हो सकते हैं । कुछ भक्तों ने रखे थे, शायद रामलीला माताजी ने कुछ ग्रंथ भी रखे थे अपने वेदी पर । फिर तुलसी भी है, तुलसी महारानी की जय ! और घर में ग्रंथ भी है कभी आपके ग्रंथ भंडार का कभी-कभी दर्शन कर सकते हैं । अभी तो वेदी का दर्शन कर रहे हैं । जिस घर में भगवान है वेदी है तो वहां ग्रंथ भी होने चाहिए । तीर्थ स्थान में ग्रंथ भी होते हैं, शास्त्र होते हैं, तुलसी महारानी होती है । हरि हरि !! और हमारा जो धर्म है उसको हम किचन धर्म भी कहते हैं । हमारा धर्म का एक नाम है किचन धर्म । किचन का इतना महत्व है या इस धर्म के केंद्र में ही है या फिर जहां मंदिर है, विग्रह है तो वहां तो रसोईघर तो होना ही चाहिए । हरि हरि !! भगवान को भोग लगाने हैं । प्रतिमा नहीं है । किसी ने कमेंट भी लिखा “प्रतिमा नाई तुमि, साक्षात बृजेंद्र नंदन” वैसे यह चैतन्य चरितामृत में लिखा है । “प्रतिमा नाई” आप केवल प्रतिमा या मूर्ति नहीं हो । आप मूर्ति भी हो लेकिन आप साक्षात व्रजेंद्र नंदन आप स्वयं भगवान हो । यह जो विग्रह है यह स्वयं भगवान इस ग्रुप में आप इस विग्रह के रूप में आप स्वयं प्रकट हुए हो । तो स्वयं भगवान है तो फिर …
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
( भगवद् गीता 5.29 )
अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता , समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से श लाभ करता है ।
भगवान भोक्ता है । “भुक्तं मधुरम, सुप्तं मधुरम” तो यह भगवान प्रतिमा नहीं है केवल मूर्ति नहीं है यह जड़ तो है नहीं चेतन है, चैतन्य की मूर्ति है, स्वयं भगवान है तो फिर उनको अब सुलाना खिलाना तो भी होगा । वैसे पहले खिलाना होगा फिर सुलाना होगा । “सुप्तं मधुरम” इनका सोना भी मधुर है । इनका “भुक्तं” खाना ही मधुर है तो यह लीला है खेलते हैं भगवान । खाने की लीला हे, सोने के लीला है कई सारी और भी लीलाएं हैं । इस प्रकार आप अपने घर को मंदिर तीर्थ बना सकते हो और वैसे भी कहा है जहां भगवान के विग्रह का स्थापना हुई है वह स्थान वैकुंठ है फिर आप वैकुंठ में रहोगे । ( नैन मंजरी नागपुर रहती है ) । फिर आप नागपुर में नहीं रहोगे आप वैकुंठ में रहोगे । भगवान के साथ रहोगे । हरि हरि !! इस प्रकार हम को अभ्यास भी करना है । हमें बैकुंठ जाना है हमको गोलोक जाना है तो हम को तैयार होना है । हमको अभ्यास करना है ताकि हम या हमें साधना करना है ताकि हम साधन सिद्ध हो और सिद्ध हो के हम भगवत धाम लौटने के योग्य हम बन सकते हैं । हरि हरि !! तो कीर्तन भी तो होना ही चाहिए । “ये दिन गृहे , भजन देखि , गृहेते गोलोक भाय ।” भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं जिस दिन या जब जब मेरे घर में भजन होता है कीर्तन होता है “ये दिन गृहे , भजन देखि , गृहेते गोलोक भाय” मैं अनुभव करता हूं कि मेरा घर तो हो गया गोलोक हो गया गोकुल हो गया वैकुंठ हो गया । हरि हरि !! और इसी के साथ या तो आप सभी का वैसे मंदिर के साथ भी संबंध होना चाहिए । कभी कभी यह समस्या हो जाती है कि घर में जब मंदिर मनाया घर में विग्रह है फिर हम मंदिर जाना बंद कर देते हैं । ओ ! हमारा घर ही मंदिर है । यह भी ठीक नहीं है । मंदिर भी इस्कॉन टेंपल भी जाना चाहिए अनिवार्य है । अंतर क्या है वहां ? हमें सत्संग का लाभ होगा । हम को सत्संग, “आदौ श्रद्धा”, “साधु संग” अनिवार्य है । साधु संत किस लिए ? ताकि हम उनसे “भजन क्रिया” को सीखेंगे या यहां तक की आप जो विग्रह आराधना कर रहे हो तो उसका भी आपका कुछ शिक्षण लेना चाहिए, सीखना चाहिए इसका विधि विधान । हो सकता है भविष्य में आपको कभी कुछ हल्का सा सेमिनार वगैरा भी करा सकते हैं इसी फोरम इसी मंच में । जापा टॉक के अंतर्गत तो हम अभी अभी कोई आरती वगैरा उतार रहे हैं तो हम लोग बिना सीखे समझे कुछ करते रहते हैं । लेकिन उसकी जो विधि है अर्चना पद्धति है वैसे आपका मापदंड विग्रह आराधना मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित विग्रह जो होते हैं उतना तो ऊंचा नहीं हो सकता । लेकिन कुछ मापदंड तो अनुरक्षण करने होंगे । सीखने समझने भी होंगे वह मापदंड वह पद्धति के अर्चना पद्धति विधि और निषेध भी । इसको आप भक्तिरसामृतसिंधु में भी आप कुछ पढ़ सकते हो अपराध जो हम करते हैं विग्रह के चरणों में कहो अपराध हो जाते हैं । फिर 32 प्रकार के वहां लिखे हैं रूप गोस्वामी या 10 नाम अपराध उल्लेख है भक्तिरसामृतसिंधू में । वहां पर 32 साल का लग अपराध जो हम कर बैठते हैं विग्रह के संबंध में या वैष्णव के संबंध में कुछ अपराध करते हैं जो सेवा के संबंध में कुछ अपराध होते हैं सेवा अपराध, नाम जप में कुछ अपराध होते हैं नाम अपराध । कुछ धाम के संबंध में कुछ हमसे गलतियां होती है तो धाम अपराध । यह कई सारे अपराध है इसको निषेध कहां है विधि निषेध ऐसा नहीं करना चाहिए । ऐसा करोगे कुछ गलतियां करोगे अपराध हो जाएगा । तो यह नाम अपराध फिर धाम अपराध, वैष्णव अपराध, विग्रह अपराध भी है तो उनको भी सीखना समझना होगा । ताकि हम विधिवत …
“श्रीश्री विग्रहाराधन नित्य नाना
शृंगार-तन्मंदिर मार्जनादौ”
वैसे मुख्य तो हमारे भाव, भक्ति और प्रेम ही है । फिर कुछ गलतियां होगई हमारी तो किर्तन तो जरूर करना चाहिए । विग्रह आराधना के समय श्रवण कीर्तन होना चाहिए या कीर्तन होना चाहिए तो फिर …
मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः ।
सर्वं करोति निश्छिद्रमनुसङ्कीर्तनं तव ॥
( श्रीमद् भागवतम् 8.23.16 )
अनुवाद:- मंत्रों के उच्चारण तथा कर्मकांड के पालन में त्रुटियां हो सकती है । देश, काल, व्यक्ति तथा सामग्री के विषय में भी कमियां रह सकती हैं । किंतु भगवान् ! यदि आप के पवित्र नाम का कीर्तन किया जाए तो हर वस्तु दोष रहित बन जाती है ।
ऐसा भागवत में एक सिद्धांत कहा है । जब हम कीर्तन करते हैं विग्रह आराधना के साथ-साथ कीर्तन हो रहा है कुछ स्तुति हो रही है कुछ आरती का हम गान कर रहे हैं ऐसा करने से “सर्वं करोति निश्छिद्रम” हमारी आराधना में कोई त्रुटि या अभाव रहा “करोति निश्छिद्रम” कोई लूप हो उसको होल को भर देंगे या आपको माफ किया दिया जाएगा । मंत्रतः हो सकता है आप का उच्चारण ठीक नहीं है तंत्रतः मंत्र और तंत्र होते हैं उसकी विधि उसका विधि होती है, पद्धति होती है और काल होता है । कल देश होता है, समय होता है और स्थान होता है उसमें कोई त्रुटि हो सकती है समय की दृष्टि से, स्थान की दृष्टि से । वस्तुतः जिन वस्तुओं का हम उपयोग करते हैं भगवान की आराधना में । हो सकता है हम घी की बजाय डालडा उपयोग कर रहे हैं वह भी अच्छा नहीं है लेकिन अगर ऐसा कुछ गलती हो जाती है हमसे वस्तुतः और आजकल के आपके सब्जी में भी सारे रासायनिक के साथ यह सब आते हैं । दूध में दूध कम होता है पानी अधिक होता है । तो हो गई नहीं सारी त्रुटियां आ गई । “छिद्रम वस्तुतः” “देशकाल” “मंत्र तंत्र श्छिद्रं” । यह सारे चित्र सारी त्रुटियां कोई अभाव कुछ कमी इससे हम बचते हैं । क्या करने से ? “अनुसङ्कीर्तनं तव” आपका हम जब संकीर्तन करते हैं “अनुसङ्कीर्तनं” जो हम परंपरा में संकीर्तन सिखा है कीर्तन सीखा है फिर ..
तृणाद् अपि सुनीचॆन तरोर् अपि सहिष्णुना ।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 20.21 )
अनुवाद:- जो अपने आप को घास से भी तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्य को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है, वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यंत सुगमता से कर सकता है ।
वाला भी कीर्तन है ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह मंत्र तो बहुउद्देश्यीय मंत्र है और कोई उचित मंत्र आप कोई नहीं जानते हो कई सारे मंत्र होते हैं । भगवान के जगाने के मंत्र है । भगवान को सुलाने के मंत्र है । भगवान को भोजन खिलाने का मंत्र है या तुलसी के पत्ते या मंजरी तोड़ते हैं तो उस समय वाले मंत्र है, कई सारे मंत्र है । तो अगर हमको याद नहीं है याद नहीं रहता या तो यह हरे कृष्ण महामंत्र तो बहुउद्देशीय हर स्थिति के लिए महामंत्र । महामंत्र भीतो महामंत्र हे ही या फिर साथ में …
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।
भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.2.18 )
अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
यह भी कीर्तन है । शास्त्रों का अध्ययन या कोई पढ़ सकता है । बाकी सुन रहे हैं या विग्रह आराधना के समय आप कुछ प्रवचन सुन सकते हो, कुछ कथा सुन सकते हो, कीर्तन सुन सकते हो, नहीं तो आप स्वयं कहो और सुनो । हाथ में काम यह विग्रह आराधना का काम सेवा और मुंह में नाम तो यह नाम संकीर्तन का बहुत बड़ा रोल है तो हम कलयुग में हैं ।
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति होको महान्गुणः ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥
( श्रीमद् भगवतम् 12.3.51 )
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
और यह दोषों का भंडार है या दोष ही दोष कई प्रकार के दोष तो इन दोषों से मुक्त होना है तो “कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति होको महान्गुणः” लेकिन इस दोष से भरे हुए कलियुग या अवगुण से भरे हुए यह कलीयुग में, कलीयुग का एक महान गुण है और वो है
“हरिनामानुकीर्तनं” या “अनुसङ्कीर्तनं तव” या “कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्” हम मुक्त होंगे दोषों से मुक्त होंगे । अपराधों से मुक्त होंगे । अपराध रहित हमारे सेवा या जो भी कार्यकलाप है अपराध रहित होने लगेंगे हम श्रवण कीर्तन जारी रखेंगे । हरि हरि !! ठीक है ।
॥ हरे कृष्ण ॥
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*जप चर्चा*
*06 अक्टूबर 2021*
*पंढरपुर धाम से*
हरे कृष्ण !
आज 880 भक्त इस जप टॉप में उपस्थित हैं और उन्हीं स्थित लोकेशन, स्थानों में से हमने कुछ विग्रह के दर्शन किए। आपको अच्छे लगे दर्शन ? यू लाइक इट कई तो आंख बंद करके बैठे थे या सो रहे थे या उनको वे खुद ही अच्छे लगते हैं भगवान उनको अच्छे नहीं लगते या भगवान के साथ में कुछ कॉम्पिटिशन है या द्वेष है या अपनी ज्योत में ज्योत मिलाना या अपनी ऐसी इच्छा रखने वाले, मायावादी कृष्ण अपराधी, भगवान का दर्शन नही करना चाहते। उनको ब्रह्म पसंद होता है “अहम् ब्रह्मास्मि” मैं ब्रम्ह हूँ। लेकिन यह भी प्रार्थना है कि
*हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥*( ईशोपिनषद)
उपनिषद श्लोक संख्या 15 देख लो वहां भगवान के विग्रह से प्रार्थना है कहो या भगवान से प्रार्थना है मतलब यहां क्या ?
*ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशस: श्रेय:। ज्ञान वैराग्ययोश चैव सन्नम भग इतिंगना।। (विष्णु पुराण 6.5.47)
अनुवाद: – पराशर मुनि जो श्रील व्यास देव के पिता हैं श्री भगवान के बारे में कहते हैं कि छः ऐश्वर्य यथा धन बल यश रूप ज्ञान एवं वैराग्य परम पुरुषोत्तम भगवान में पूर्ण मात्रा में विद्यमान होते हैं अतः श्री भगवान सर्व आकर्षक हैं।
श्रेय: मतलब सौंदर्य असीम सौंदर्य वाले जो हैं उनको भगवान कहते हैं। अर्थात यह भगवान को प्रार्थना है हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये आपका जो तेज है आप से उत्पन्न होने वाला जो प्रकाश है जिसको ब्रह्म ज्योति कहा है
*वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥*
(श्रीमद भागवतम 1.2.11)
अनुवाद – परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी (तत्वविद) इस अद्वय तत्त्व को ब्रहा, परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं।
उस प्रकाश को हटाइए, इट्स टू मच लाइट, इस लाइट को इस प्रकाश को इस ब्रह्म ज्योति को हटाइए या मिटाइए। मिटा तो नहीं सकते वह भी शाश्वत है सत्यस्यापिहितं मुखम् थोड़ा पर्दा हटाइए, यह ब्रह्म ज्योति के रूप में आप जो आच्छादित हो चुके हो या मेरे और आपके रूप के बीच में यह जो प्रकाश आ रहा है मैं आपका भक्त हूं ऐसी प्रार्थना है मुझे दर्शन दीजिए आपके चरण कमलों का दर्शन दीजिए आप के मुख् मंडल का दर्शन दीजिए आपके सर्वांग का दर्शन मैं करना चाहता हूं ऐसी प्रार्थना है ईशोपनिषद में, आप पढ़ लीजिएगा इसको समझ लीजिएगा हरि हरि! सुंदर दर्शन और भक्त भी अपने-अपने भगवान विग्रह के दर्शन औरों को दे सकते हैं। पद्म राधा ने तो दिया और और प्रेम आंजन सुभद्रा फ्रॉम वृंदावन उन्होंने तो पंचतत्व का दर्शन कराया। शायद पंच तत्वों का विग्रह का दर्शन तो बड़ा दुर्लभ है। वृंदावन में प्रेम सुधा माता जी के घर में पंच तत्व हैं उसका भी दर्शन हमने किया और कई सारे दर्शन हरि हरि ! हमको गौड़िय वैष्णव फ्रॉम बेंगलुरु से उन्होंने अपने विग्रह का दर्शन कराया, सुंदर दर्शन रहे। मैं सोच रहा था कभी-कभी ड्रेस कंपटीशन होता है ना बच्चों का कंपटीशन और प्राइस भी होते हैं बेस्ट ड्रेसिंग के लिए, ऐसा भी कभी हो सकता है यदि आप प्रस्तुत कर सकते हो। लेकिन बढ़िया कैमरा और कैमरामैन भी हो लाइटिंग वगैरह ठीक से हो और कुछ विशेष श्रंगार भी करो अपने इष्ट देव का अपने विग्रह का और भेजिए और आन्यौर आन्यौर, मतलब और चाहिए और दर्शन और दर्शन, हम लोग प्रतीक्षा करेंगे और फिर उसका भी एक कलेक्शन हो सकता है। कुछ दिन पहले दो-चार दिन पहले हम डिटीज दर्शन करा रहे थे वह इस्कॉन मंदिर के विग्रहों के दर्शन थे। इस प्रकार एक और कलेक्शन बन सकता है।
होम डीटीज, घर में आपके गृहस्थ आश्रम में आपके जो डीटीज हैं उसका भी कलेक्शन हो सकता है उसका भी एक संग्रह हो सकता है और वह जब कई सारे डीटीज संग्रहित हो जाएंगे तब हम आपके साथ शेयर कर सकते हैं उसके भी दर्शन आप कर सकते हैं या औरों को करा सकते हैं। प्रेजेंटेशन बन सकता है और एक दूसरों के विग्रह के श्रृंगार के दर्शन करोगे तो आपको भी आईडिया आएंगे या कुछ कंपटीशन का विचार आएगा। हमारे भगवान का श्रृंगार इससे भी और अधिक बढ़िया करना चाहते हैं या प्रेम से करना वैसे अधिक महत्वपूर्ण है हरि हरि ठीक है। फिर आप भेजिएगा और दर्शन विग्रह पद्ममालि के पास भेजो, जो ठीक वाले हैं उन्हीं का चयन वे करेंगे और उन्हीं का दर्शन सबको दे देंगे। अभी तक उदयपुर से कोई दर्शन नहीं हुआ शोलापुर का शायद हुआ है मॉरीशस से भी एक हुआ, थाईलैंड से नहीं हुआ। तपो दिव्यम या जो भी तैयार हैं ठीक है। सेंड मोर फोटोज कई एंगेल के साथ जूम इन जूम आउट के साथ, ओके तो कुछ प्रश्न उत्तर भी बाकी हैं 2 या 3 दिन पहले जब हम देवताओं के द्वारा की हुई गर्भ स्तुति प्रस्तुत की जा रही थी स्तुति का एकवचन समझाया था उसमें से आप में से कुछ भक्तों ने प्रश्न पूछे थे।
एक प्रश्न साधना माताजी ने मुंबई से पूछा है – रोम छिद्रों को द्वार क्यों नहीं कहा जाता?
गुरु महाराज- रोम छिद्र जानते हो हमारे शरीर में कई सारे रोम होते हैं रोमांच रोमावली होता है कई सारे छिद्र होते हैं उनका उल्लेख क्यों नहीं हुआ। एनीवे आपको बताना होगा 1 2 3 4 चल रहा था। एक क्या है वृक्ष है, दो, दो प्रकार के फल हैं, तीन प्रकार के गुण हैं, यह सब, इसी तरह शरीर में 9 द्वार हैं नॉ गेट्स हैं अब नहीं बताएंगे कौन से गेट, आपको बता चुके हैं। आपको याद है ? बता सकते हो कौन-कौन से 9 द्वार हैं। ओके प्रेम पद्मिनी रेडी है याद रखा है कुछ भक्त है या कुछ भक्तों ने लिख भी लिया था, अब भूल गए, शशि मुखी भी नोटबुक लेकर बैठी है। नव द्वार हैं हमारे पूर्व द्वार, दक्षिण द्वार, उत्तर द्वार, पश्चिम द्वार, चार दिशा में चार द्वार है। यह सब अब नहीं कहूंगा, प्रश्न है कि जो 9 द्वार हैं हमारे शरीर में, तो कई सारे छिद्र हैं आप देखो जहां जहां बाल हैं एक छिद्र है उन छिद्रों को यह 9 द्वार की जो सूची है, क्यों नहीं उस का समावेश किया। ऐसा कोई प्रश्न पूछना भी नहीं चाहिए था, लेकिन पूछ लिया एक तो 9 द्वार हैं जैसे घर होता है। शरीर को भी घर कहा है।
*सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी | नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 5.13)
अनुवाद- जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है |
नवद्वारे पुरे देही, देही मतलब शरीर, शरीर को घर कहां है। मेरे प्रश्न के उत्तर थोड़े लंबे हो जाते हैं घर में द्वार होते हैं या दीवारों में द्वार होते हैं फिर हो सकता है कोई छोटी-छोटी खिड़की है छोटे-छोटे छिद्र हैं। वह है कभी चूहे भी कुछ होल बना देते हैं या छिद्र उसकी गणना नहीं होती, आगे द्वार है या पीछे भी बैक गेट है। द्वार द्वार होते हैं और कुछ हो या छिद्र कुछ छोटी मोटी खिड़की हो सकती है। यहां केवल द्वारों का ही उल्लेख है और यह छिद्र अनेक हैं किन्तु उसकी ओर ध्यान नहीं दिया है या उसका उल्लेख नहीं हुआ है केवल द्वार का ही उल्लेख हुआ है वैसे यह छिद्र जो है रोम जो है स्किन में शामिल होते हैं। वैसे आठ प्रकार के आवरण या कवरिंग्स हैं उसमें त्वचा का उल्लेख हुआ है स्किन का उल्लेख हुआ है लेकिन त्वचा में जो छिद्र हैं उसका उल्लेख नहीं है। यह एक प्रश्न का उत्तर हुआ, दूसरा प्रश्न है तत्व विचार और रस विचार समझ में नहीं आया ? तत्व विचार और रस विचार”, तत्व अर्थात हर चीज का तत्व होता है सिद्धांत होता है या लीला का भी तत्व होता है। एक लीला होती है जब लीला का वर्णन हम सुनते हैं जैसे रास क्रीडा रासलीला है, लीला का तत्व होता है। छोटा सा तत्व यह भी हो सकता है भगवान के दो प्रकार एक रूप को कहा है शास्त्र में “प्रकाश और दूसरा है, विलास, प्रकाश रूप और विलास रूप भगवान के रूपों के दो प्रकार बताए हैं यह तत्व की सिद्धांत कि चर्चा शुरू हो गई जब वे इन दोनों में विस्तार करते हैं तब विग्रह बन जाते हैं और फिर विलास विग्रह बन जाते हैं। जब भगवान एक के अनेक हो जाते हैं तब प्रकाश विग्रह कहलाते हैं, अर्थात प्रकाश विग्रह में भगवान अनेक तो होते हैं लेकिन वह सभी रूप एक दूसरे जैसे ही होते हैं जैसे रास क्रीडा में भगवान हर गोपी के साथ एक एक कृष्ण के सभी रूप एक जैसे या फिर भगवान द्वारका में पहुंचे विवाह हुए, 16108 उनकी रानियां रही, उनके महल रहे, उतने महलों में भगवान रहते थे लेकिन वे सारे रूप एक जैसे ही हैं। दिखने में फोटो खींचोगे वीडियो बनाओगे तो एक जैसे ही रूप होते हैं और फिर हर घर से हर महल से कहना चाहिए, रथ में विराजमान होकर पार्लियामेंट जा रहे हैं। संसद भवन द्वारका का मंदिर है द्वारका में जब आप गए होंगे, द्वारका जो मंदिर है वह पार्लियामेंट है और जिसको भेंट द्वारका कहते हैं। आईलैंड द्वारका , वहां भगवान के महल थे उसमें से कुछ एक आध महल बचा हुआ है बाकी भगवान जब अंतर्धान हुए तब सारे महल समुद्र में डूब गए। उन सारे महलों से भगवान एक एक रथ में विराजमान या अरुण होते हैं और सब16108 रथ पार्लियामेंट की तरफ जा रहे हैं और जब पार्लियामेंट पहुंचते हैं तब 16108 द्वारकाधीश एक हो जाते हैं और पार्लियामेंट में प्रवेश करते हैं और उनका पार्लियामेंट का कारोबार चलता है। इस प्रकार यह प्रकाश विग्रह है और फिर विलास विग्रह, इसमें भगवान नाना अवतार लेते हैं।
*रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु।कृष्ण: स्वयं समभवत्परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।*
( ब्रम्ह संहिता 5.39)
अनुवाद: -जिन्होंने श्रीराम, नृसिंह, वामन इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
राम, नरसिंह, दिस एंड देट, लीला अवतार, शक्त्यावेश अवतार और यह सारे एक दूसरे जैसे नहीं दिखते हैं। नरसिंह भगवान एक रूप, दूसरे हैं वामन, और फिर हैं कूर्म, फिर मलच्छ, वराह, यह जो मूर्तियां हैं यह जो विग्रह हैं इनको विलास विग्रह कहते हैं। प्रकाश विग्रह और विलास विग्रह यह जो ज्ञान है इसको तत्व कहते हैं। यह तत्व विचार हुआ और उन अवतारों की जो लीलाएं कथाएं जो मधुर होती हैं रस भरी होती हैं उसको रस विचार कहते हैं या फिर वात्सल्य रस में यह लीला या माधुर्य रस वह जो रस है द्वादश रस हैं या भक्तिरसामृत सिंधु है या भगवान के संबंध की हर बात रसीली होती है। वे रसिक होते हैं रसास्वादन करते हैं यह सारा रस हुआ। भगवान का नाम भी मधुर है भगवान का रूप भी मधुर है भगवान की हर चीज “मधुराधिपते अखिलम मधुरम” भगवान के संबंध की हर बात मधुर है या मीठी है रसभरी है। यह रस विचार हुआ, इस विचार को फिलॉसफी कहो या तत्व विचार कहो यह तत्वज्ञान हुआ और हर एक का तत्व होता है और फिर नाम का भी तत्व है लीला का भी तत्व है और फिर वह लीला है, लीला का सारा वर्णन है और फिर इस का तत्व है। यह दोनों हम को समझना है। इसलिए कृष्ण ने कहा,
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||* (श्रीमद भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
मैं जन्म लेता हूं यह मेरी लीला है लेकिन मेरे जन्म का जो तत्व है उसको भी समझो “जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः चौथे अध्याय में भगवान ने कहा है श्रीकृष्ण ने अपने प्रकृति की बात करने से पहले कहा, उस को समझो हरि हरि ! सोते समय या बच्चों को सुलाते समय हम कुछ कहानी बताते रहते हैं कोई बूढ़ी मां, दादा-दादी या नाना-नानी कुछ कहानी सुनाते रहते हैं उसमें थोड़ा कुछ हो सकता है लेकिन अधिकतर उसको तत्व नहीं होता, उसको सिद्धांत के साथ कही हुई कथा या लीला को नहीं सुनाते हरि हरि ! यह भेद है। आशा है यह क्लियर हो गया होगा क्या रस विचार है और क्या तत्व विचार है। अब अगला प्रश्न है वायु के नाम ठीक हैं मैंने उस दिन 10 प्रकार के वायु के नाम बताए थे जो शरीर में होते हैं यह जो वायु है वात है कुछ नाम तो मैंने कहे थे लेकिन सभी 10 नाम नहीं कहे थे। किसी ने प्रश्न पूछा कि वे 10 नाम क्या है? यह जो 10 प्रकार के वायु हैं इस पर एक पूरा सेमिनार हो सकता है इससे संबंधित जो ज्ञान है तत्व है विचार हैं या आपको हम नाम बताते हैं नाम के पहले वैसे श्रीमद्भागवत के कैंटों 3 अध्याय 6 और श्लोक संख्या 9 यदि हम इस प्रकार से कुछ रिफरेंस देते हैं उसका कोई आधार है तब अच्छा है इस प्रकार से हमको याद भी रखना चाहिए स्कंध तीसरा कहा है और तीन ऐड करो तो क्या हुआ 6 हुआ, अध्याय छठवां हुआ और तीन ऐड करो तो 9वां हुआ 9 वा श्लोक इस तरह से मैं भी कुछ करता रहता हूं। हर व्यक्ति को कुछ याद रखने के लिए ऐसी कुछ युक्ति होनी चाहिए।
यहां पर हम आप को पर्दे पर स्क्रीन पर दिखाते हैं ठीक है आपको दिखाई दे रहा है यह अंग्रेजी में है यदि आप देख रहे हो तो अच्छा है मुझे तो यहां नहीं दिख रहा है। महालक्ष्मी दिख रहा है ठीक है, जैसे मैंने कहा ही था कि मैं सेमिनार नहीं देने वाला हूं आप उसको पढ़ सकते हो। ऐसे स्क्रीन पर रहेगा या बाद में यह डाउनलोड कर सकते हैं। चैट बॉक्स में उसको अपलोड करेंगे और आप लोग उसको डाउनलोड कर लेना ताकि सदा के लिए ही है आपके पास रह सकता है यह अंग्रेजी में है या फिर हिंदी में भी मिलना चाहिए। हिंदी का यदि आपने भागवत सेट लिया हुआ है आप सभी के घरों में प्रभुपाद के ग्रंथ होने चाहिए “भागवतम सेट, चैतन्य चरित्रामृत सेट” एक वायु है प्राणवायु, आपने सुना होगा मेन एयर जो नासिका से आप लेते हो जो चलता रहता है और जिस पर हमारा जीवन टिका हुआ है। फिर अपान वायु है वह क्या कार्य करता है ? इन सारी वायु के अपने-अपने फंक्शंस हैं ऐसे बेकार के लिए ही हवा सर्कुलेट नहीं होती इस शरीर में, हर वायु का अपना कार्य है, महत्वपूर्ण कार्य है। यह हमारे नहीं होती तो जैसे इससे मिलते जुलते, अर्थराइटिस होता है ना, आप समझते हो शरीर थोड़ा-थोड़ा फ्रीज होने लगता है कई पार्ट हिलते भी नहीं है मतलब मर ही गए, इज़ डेड, वहां किसी विशेष हवा का फंक्शन या कार्य नहीं हो रहा है।
इसीलिए अर्थराइटिस हुआ या कॉन्स्टिपेशन होता है और मल मूत्र विसर्जन में कठिनाई तब उसके लिए, यह अपान वायु है। समान है, उदान है, कूर्म है, देवदत्त है, हम जो मुंह खोलते हैं बंद करते हैं इसके पीछे भी एक वायु कार्य करती है। हमारी आंखें बंद होती हैं खुलती हैं इसके पीछे भी एक हवा है। वायु है वात है, दसवीं है धनञ्जय, सस्टेन स्थित कहो या मेंटेनेंस, यह धनंजय नाम की वायु से यह कार्य होता है। ओपनिंग एंड क्लोजिंग, क्लोजिंग के लिए यह कूर्म, कूर्म अंगनि वसा, जैसे कूर्म अपने हाथ पर खोल देता है फैलाता है और कभी-कभी खतरा है तो उसको सिकुड़ लेता है इसी तरह हमारे शरीर में भी ऐसे कई पार्ट हैं जिसका फंक्शन ओपनिंग क्लोजिंग वहां पर यह कूर्म वायु कार्य करती है। आप उसको देख लीजिए पढ़ लीजिए समझ लीजिए फिर आप समझा भी सकते हो भगवान ने यह सारी व्यवस्था की हुई है हमारे लिए, हम तो बस खाना ही जानते हैं खाने के बाद उसको पचाना है डाइजेशन है और फिर क्या क्या बहुत कुछ कितनी सारी एक्टिविटीज शरीर में होती रहती है निरंतर हम सोए तब भी, इस प्रकार की प्रकृति है भगवान जिस प्रकृति के अध्यक्ष हैं।
*मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 9.10)
अनुवाद- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
प्रकृति के सारे फंक्शन ऑटोमेटिक नहीं होते हैं कोई ना कोई करता है और वैसे देवताओं को भी भगवान ने नियुक्त किया है और हमारे कई सारे शरीर के जो अलग-अलग फंक्शन है उसका नियंत्रण देवता द्वारा भगवान करवाते हैं। वैसी सुव्यवस्था भगवान ने की हुई है। हरि हरि *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* चार्ट में भेजा हुआ है यह जो 10 वायु का ज्ञान है आप इसको मेंटेन भी कर सकते हो कुछ उसकी फाइल बनाओ कुछ स्टोर करो लिख लो याद रखो ताकि आपकी यह संपत्ति आपका यह ज्ञान आपकी संपत्ति बन जाए ऐड विक्रम योर प्रॉपर्टी हरि हरि !
एक अन्य प्रश्न है श्याम गोपाल प्रभु के द्वारा, वह पूछ रहे हैं कि जो प्रकृति के तीन गुण हैं जो हमें पोषित करते हैं उससे किस तरह पार जाया जा सकता है ?
गुरु महाराज –
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||* (श्रीमद भगवद्गीता 7.14)
अनुवाद- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वो सरलता से इसे पार कर जाते हैं।
यह जो तीन गुण वाली माया है सत्व रज तम यह माया है मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ” जो भी कृष्ण की शरण में आते हैं वह माया से उठते हैं या तीन गुणों के प्रभाव से ऊपर पहुंचते हैं।
*मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते | स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ||* (श्रीमद भगवद्गीता 14.26)
अनुवाद- जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है |
ब्रम्ह्भूयाय कल्पते ऐसा भी कृष्ण ने कहा है भक्ति के जो कृत्य हैं वह हम करते हैं भगवान की शरण लेते हैं और तीन गुणों के प्रभाव से बचते हैं और फिर *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* या फिर ,
*त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 2.45)
अनुवाद- वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है | हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो | समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो |
वेदों में भी ऐसे कुछ कृत्य या विधि विधान बताए हैं वेदों में ही कर्मकांड है वेदों में ही ज्ञान कांड है इसको केवल विषेर भांड कहा है। कृष्ण ने भी भगवत गीता में कहा है निस्त्रैगुण्यो,
*भुक्ति – मुक्ति – सिद्धि – कामी – सकलि अशान्त ‘कृष्ण – भक्त – निष्काम , अतएव ‘ शान्त ‘* । (चै.च. मध्य19.149)
अनुवाद ” चूँकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है , इसलिए वह शान्त होता है । सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं , ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं ; अत : वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते ।
कर्मी नहीं बनना, ज्ञानी नहीं बनना, भक्त बनो फिर कामवासना से हम रहित हो जाएंगे और प्रेम से भर जाएंगे जब आप प्रेम से भर गए तब काम से मुक्त हुए कामी के सारे कृत्य हैं।
“श्री भगवानुवाच
*काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 3.37)
अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
काम एष क्रोध एष, अगर हम रजोगुणी हैं तो रजोगुण से काम उत्पन्न होता है फिर काम से क्रोध उत्पन्न होता है तो जब हम इन शत्रुओं से बचेंगे यह षड रिपु हैं। काम से क्रोध लोभ , बहुत सारे यह सारे कार्य 3 गुण ही करवाते हैं। जब हम क्रोधित होते हैं तब रजोगुण हमें क्रोधी बनाता है। मात्सर्य हममें है तमोगुण के प्रभाव से मात्सर्य हम में होता है। औरों से मात्सर्य करते हैं। अतः भक्ति करो या नवधा भक्ति के कृत्यों को अपनाओ,
श्रीप्रह्लाद उवाच
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥*
*पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥* (श्रीमद भागवतम 7.5.23-24)
अनुवाद- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
हम साधक हैं। साधक बनके हम इस नवधा भक्ति को अपनाएंगे हम तीन गुणों से बचेंगे। तीन गुणों से उत्पन्न होने वाले काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य इन से बचेंगे,
*ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति | समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 18.54)
अनुवाद- इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है | वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है | वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है , उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है।
फिर उस समय हम “न शोचति न काङ्क्षति”, महत्वाकांक्षा नहीं होगी हमारी, भौतिक दृष्टि से ना शोक करेंगे, यह नहीं हुआ हाय हाय, हम वर्तमान काल में रहेंगे, कृष्ण के साथ रहेंगे और संसार की
*यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः |
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||* (श्रीमद भगवद्गीता 4.22)
अनुवाद- जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं |
जो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः मात्सर्य रहित होकर द्वंद से मुक्त होंगे, द्वंदतीत अवस्था है यही तो कृष्ण भावना मृत की अवस्था है। गुणातीत द्वंद्वातीत एक ही बात है। साधना का यह जीवन है यही साधन है तीनों गुणों से मुक्त होने का यही साधन है। प्रतिदिन फिर अभ्यास करना है।
*चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।* (श्रीमद भगवद्गीता 6.34)
अनुवाद- हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |
मन का चंचल यह गुण ही हमको विषय में लगाते हैं यह विषय फिर कामवासना के जो विषय हैं उसकी और मन दौड़ता है।
*यतो यतो निश्र्चलति मनश्र्चञ्चलमस्थिरम् | ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 6.26)
अनुवाद- मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए |
आत्मत्न्येव वशं नयेत् मन को विषय भूत करो, हरे कृष्ण में दोबारा लगाओ भगवान का दोबारा स्मरण, स्त्री पुरुष के रूपों की ओर मन हो रहा है तो कृष्ण के रूप की ओर ले चलो। इसलिए भी करना है विग्रह आराधना है। ” हरे कृष्ण हरे कृष्ण तो है ही और फिर प्रसाद भी है, मन की शांति है ही, शांति मतलब सतोगुण तो है। हम सतोगुण तक तो पहुंच ही गए। ओम शांति शांति शांति ! कृष्ण भक्त निष्काम होता है इसलिए सदैव शांत होता है। हरि हरि !
हरे कृष्ण !
निताई गौर प्रेमानन्दे !
हरी हरी बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
5 अक्टुबर 2021
पंढरपुर धाम से
856 स्थानों से जप हो रहा है । उसमे से कुछ स्थान हमने आपको दिखाये थे , सुजाता गोपी , परिवार जप करते हुये आपको दिखाया । वह एक स्थान था । इस्कॉन पंढरपुर के भक्त जप करते हुए वह भी दृश्य आपने देखा । हरि हरि । आपके विग्रहों का भी दर्शन हमको या आप सभी को करा सकते हो । आप पद्मावली को अगर पहले सूचना दोगे तो आपके विग्रह का भी दर्शन हम सभी कर सकते हैं । थोड़े समय के लिए , बारी बारी से हो सकता है । यह कुछ नहीं कल्पनाये हम ला रहे हैं । विग्रहों के दर्शन कई दिनों तक करते रहे हैं । आपको सिर्फ स्वयं मुझे ही जप करते हुए देखने की आवश्यकता नहीं है और भी कोई दृश्य हम देख सकते हैं । वृंदावन में अगर आप जप कर रहे हो , जमुना के तट पर जप कर रहे हो तो वह दृश्य मैं भी देखना चाहूंगा । आपके घर के विग्रह पद्मराधा या किसी के घर में आप समझते हो कुछ विशेष विग्रह आराधना होती है , विशेष श्रृंगार होता है , आपके विग्रह सौंदर्य की खान है तब हमें सूचना दीजिए , पद्मावली आपभी ध्यान रखो । हम सभी उन दर्शनो से लाभान्वित हो सकते हैं या जप करते समय हम उनका दर्शन कर सकते हैं उसी के साथ , श्रवनम , कीर्तनम , विष्णु स्मरणम मरणम में सहायता होगी । याद रखिए हम नए-नए कल्पनाएं ला रहे हैं । हरि हरि । ठीक है । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय । चैतन्य महाप्रभु ने शिक्षाष्टक की रचना की और आप समझते होंगे , ऐसा कहते भी हैं कि जहाँ तक चैतन्य महाप्रभु की लिखित शिक्षा है , श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लिखित शिक्षाएं है वहीं शिक्षाष्टक है । हरि हरि । कृष्ण का उपदेश भगवत गीता है और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का उपदेश शिक्षाष्टक है । चेतोदर्पन मार्जन हम इसको शिक्षाष्टक कहते है इसको भी समझीयेगा । इस शिक्षाष्टक के अलावा चैतन्य महाप्रभु ने कई बार उपदेश दिये है , शिक्षाये प्रदान की हुई है । अलग-अलग भक्तों के साथ उनके संवाद एवं प्रश्न उत्तर हुए हैं । यह हरि नाम चिंतामणि जो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने लिखा है , यह भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और नामाचारी श्रील हरिदास ठाकुर के मध्य का संवाद है , वह भी एक आदेश , उपदेश शिक्षा हुई । हरि नाम चिंतामणि में हम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा कोही हम पढ़ते है । राय रामानंद और महाप्रभु के मध्य का जो संवाद है । कृष्ण और अर्जुन के मध्य का संवाद भगवद्गीता है लेकिन राय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु के बीच का जो संवाद है , वह तो पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्स है । भगवत गीता तो प्राथमिक ज्ञान है । चैतन्य महाप्रभु का रामानंद राय के साथ जो संवाद है वह काफी ऊंची बाती है , गहरी बातें हैं । हरि हरि । गोपनीय बातें कही हैं । इस प्रकार और भी स्थानों पर चैतन्य महाप्रभु का आदेश , उपदेश मिलता है । प्रकाशानंद सरस्वती के साथ वाराणसी में जो वार्तालाप हुआ और फिर सनातन और चैतन्य महाप्रभु के मध्य का संवाद वाराणसी में संपन्न हुआ वह बहुत प्रसिद्ध है । 2 महीने संवाद चल रहा था अर्जुन श्रीकृष्ण का संवाद 45 मिनट चला , सनातन गोस्वामी और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संवाद 2 महीनों तक चला ।रूप गोस्वामी और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संवाद प्रयागराज में संपन्न हुआ , दशमेश घाट पर यह संवाद हुआ 10 दिनों तक चलता ही रहा और वह संवाद ही फिर भक्तिरसामृत सिंधु इत्यादि ग्रंथों की रचना में परिणत हुआ । इसी तरह चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं चैतन्य चरित्रामृत है , चैतन्य भागवत है जिसमे हमें पढ़ने सुनने मिलती है , हमें जरूर पढ़नी चाहिए , जरूर समझनी चाहिये और समझ कर फिर उसका हमको प्रचार भी करना है तो ऐसे ही एक शिक्षा चैरानी महाप्रभु ने दी है , कहीं है । आदि लीला के नवम परिच्छेद में , परिच्छेद मतलब अध्याय । चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला नवम परिच्छेद ।हम सुनते रहते हैं जब प्रभुपाद कहते हैं , बारंबार,
भारत – भूमिते हैल मनुष्य जन्म झार । जन्म सार्थक करि ‘ कर पर – उपकार ॥
(चरितामृत आदि 9.41)
अनुवाद:- “ जिसने भारतभूमि ( भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है , उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए ।
आपको याद है ? यह आपने सुना है ? इस वचन को आपने कभी सुना है ? हां ! चैतन्य ने सुना है और किसने सुना है ? ऐसा संभव नहीं है अगर आप श्रील प्रभुपाद के प्रवचन सुनते हो या प्रभुपाद के ग्रंथ पढ़ते हो तो यह बात आपको सुनाई पड़ता है ।
भारत – भूमिते हैल मनुष्य जन्म झार । जन्म सार्थक करि ‘ कर पर – उपकार ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.41)
श्रील प्रभुपाद बारंबार दोहराया करते थे । यह वचन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का है , यह वचन कहने के पहले श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने और क्या-क्या कहा और फिर अंत में कहा ,
भारत – भूमिते हैल मनुष्य जन्म झार ।
जन्म सार्थक करि ‘ कर पर – उपकार ॥
उसको हम आज आपको सुनाने जा रहे हैं । ध्यान से सुनिए हम कुछ बांग्ला पयाड भी पढेगे । इसी के साथ आप चैतन्य महाप्रभु को सुनोगे , चैतन्य महाप्रभु को आप सुनना चाहते हो ? चैतन्य महाप्रभु को सुनना चाहते हो ? तो सुनिए, फिर आप कहोगे कहां है चैतन्य महाप्रभु ? उनको तो आपने माइक्रोफोन नहीं दिया । वह दिख नहीं रहे हैं । यह चैतन्य चरित्रामृत की वाणी कहो यह चैतन्य महाप्रभु की वाणी है उसको हम पढेगे और सुनाएंगे । यह चैतन्य महाप्रभु की वाणी है । देखिए उस वक्त हम नहीं थे जब चैतन्य महाप्रभु ने यह वाणी कहीं और अब कोई चिंता की बात नहीं है या शोक की बात नहीं है । आज हम पढ़ सकते हैं , आज अभी वर्तमान में हम सुन सकते हैं । यह भगवान के वचन कोई भूतकाल की बात नहीं है वर्तमान में भी यह वचन है । चैतन्य महाप्रभु ने कई सारी बातें कही है मैं उसको फटाफट कहने का प्रयास करते हैं ।
प्रभु कहे , आमि ‘ विश्वम्भर ‘ नाम धरि ।
नाम सार्थक हय , यदि प्रेमे विश्व भरि ॥
(चैतन्य चरितामृत 9.7)
चैतन्य महाप्रभु ने सोचा , ” मेरा नाम विश्वम्भर अर्थात् ‘ अखिल ब्रह्माण्ड का पालन करने वाला है । यह नाम तभी सार्थक बनेगा , यदि दूँ । ” मैं अखिल ब्रह्माण्ड को भगवत्प्रेम से भर दू ।
चैतन्य महाप्रभु ने कहा मेरा नाम विश्वंभर है । आप जानते हो ना चैतन्य महाप्रभु का नाम है , जब उनका नामकरण हुआ तब उनको नाम दिया विश्वंभर नीलांबर चक्रवर्ती उन्होंने नामकरन किया । तुम्हारा नाम विश्वंभर, विश्वंभर की जय। जो उपस्थित थे उन्होंने कहा होगा विश्वंभर की जय । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं , “मेरा विश्वंभर नाम तभी सार्थक होगा जब मैं , यदि प्रेमे विश्व भरि , मैं अगर सारे विश्व को प्रेम से भर दूँगा । प्रेम के साथ सारे संसार का पोषण , पुष्टि करूंगा , भरण पोषण होता है ना , विश्वंभर ! विश्व को भरना है , विश्व का पालन पोषण करना है । यदि मैं प्रेम दूंगा , प्रेम खिलाऊंगा उनको या प्रेम खिला पिला के सारे विश्व को मैं अपने नाम विश्वंभर को सार्थक करूंगा ।
एत चिन्ति ‘ लैला प्रभु मालाकार – धर्म ।
नवद्वीपे आरम्भिला फलोद्यान – कर्म ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.8)
अनुवाद:- इस प्रकार सोचते हुए उन्होंने माली का कार्य स्वीकार किया और नवद्वीप में एक उद्यान ( बगीचा ) लगाना प्रारम्भ कर दिया ।
ऐसा सोच कर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने एक व्यवसाय को अपनाया । कोनसा? वह मालाकार बन गए मतलब माली बन गए । फलोद्यान कर्म और उस फल के वृक्षों को भी वह उगाने लगे ।
श्री चैतन्य मालाकार पृथिवीते आनि ‘ ।
भक्ति – कल्पतरु रोपिला सिञ्चि ‘ इच्छा – पानि ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.9)
अनुवाद:- इस प्रकार महाप्रभु भक्ति – रूपी कल्पवृक्ष को इस पृथ्वी पर ले आये और स्वयं इसके माली बने । उन्होंने बीज बोया और उसे अपनी इच्छा रूपी जल से सींचा ।
यह अक्षर भी छोटे है और यह भाषा मेरी नहीं है बांग्ला भाषा है । चैतन्य महाप्रभु ने फिर उस उद्यान में जो वृक्षारोपन किया उसका सेचन करने लगे । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसको खात , जल खिलाने , पिलाने लगे और यह सारे वृक्ष भक्ति वृक्ष है ऐसा भी कह रहे हैं । कैसे वृक्ष हैं ? भक्तिवृक्ष कार्यक्रम की जय । इसका सिंचन कैसा ? इच्छा पानी , अपने खुद की श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की इच्छा के जल से सिंचन रहे हैं । यह समझने में आपका दिमाग काम करता है ? चैतन्य महाप्रभु की इच्छा को पानी बनाया है और उन वृक्षो को जल दिया जा रहा है , वृक्षों को जलपान करा रहे हैं , सिंचन करा रहे किसका? इच्छा पानी , अपने खुद की इच्छा का । इच्छा से खिलाएंगे पिलाएंगे उस वृक्षों को मोटा बनाएंगे ।
जय श्री माधवपुरी कृष्ण प्रेम – पूर ।
भक्ति – कल्पतरुर तेंहो प्रथम अङ्कुर ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.10)
अनुवाद :-कृष्ण – भक्ति के आगार श्री माधवेन्द्र पुरी की जय हो ! वे भक्ति के कल्पवृक्ष हैं और उन्हीं में भक्ति का प्रथम बीज अंकुरित हुआ ।
बीजारोपण हुआ , इच्छापानी से सिंचन हो रहा है । चैतन्य महाप्रभु की इच्छा से ही वह वृक्ष अंकुरित हुए, वह बीज अंकुरित हुए । पहला जो अंकुर निकला , रामलीला अंकुर को समझते हो ? अंकुर मराठी में बहुत चलता है वैसे हर भाषा में चलता होगा ही । वह अंकुर था माधवेंद्र पुरी , हमारे गौड़ीय संप्रदाय के प्रथम आचार्य , पहले तो यह संप्रदायवाद मध्व संप्रदाय ही था । वहां से एक उपशाखा उत्पन्न हुई और हमारे संप्रदाय के पहले आचार्य माधवेंद्र पुरी प्रकट हुए । यह चैतन्य महाप्रभु की इच्छा से प्रकट हुए हैं इसको आप समझ सकते हो ।
श्री – ईश्वरपुरी – रूपे अंकुर पुष्ट हैल ।
आपने चैतन्य माली स्कन्ध उपजिल ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.11)
अनुवाद:- इसके बाद भक्ति का बीज श्री ईश्वरपुरी के रूप में अंकुरित हुआ और फिर श्री चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं माली थे , उस भक्ति रूपी वृक्ष का मुख्य तना बने ।
माधवेंद्र पुरी के बाद उनके , माधवपुर के कई सारे शिष्य हुए और उन शिक्षो में प्रधान शिष्य ईश्वर पुरी थे । जिन के शिष्य कौन ? श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बनने वाले हैं ।
आपने चैतन्य माली स्कन्ध उपजिल ॥
वृक्षेर उपरे शाखा हैल दुइ स्कन्ध । एक ‘ अद्वैत ‘ नाम , आर ‘ नित्यानन्द ‘ ॥ CC Aadi 9.21 ॥
अनुवाद:- वृक्ष के ऊपरी तने के दो भाग हो गये । एक तने का नाम श्री अद्वैत प्रभु था और दूसरे का श्री नित्यानन्द प्रभु ।
तो चैतन्य महाप्रभु से फिर वो स्कन्द हैं या तना है दो शाखायें उत्पन्न हुई एक शाखा है अद्वैत नाम अद्वैत आचार्य और दूसरे है नित्यानंद महाप्रभु आगे बताते हैं।
सेइ दुइ इ – स्कन्धे बहु शाखा उपजिल । तार उपशाखा – गणे जगत्छाइल ॥ चैतन्य चरितामृत आदि 9.22॥
अनुवाद:- इन दोनों तनों से अनेक शाखाएँ एवं उपशाखाएँ उत्पन्न हुईं , जो सारे जगत् पर छा गईं ।
फिर धीरे धीरे फिर चैतन्य महाप्रभु से फिर अद्वैत आचार्य नित्यानंद महाप्रभु ये शाखा फिर शाखा से उप शाखा ऐसे पूरे सारे विश्व में फैल गया है या फैल रहा है ये वृक्ष और हम जो हैं उसी परंपरा से है और ये परम्परा भी आगे बढ़ती रही और फिर गौड़ीय वैष्णव परंपरा उसी के साथ इसी परंपरा में कई सारे आचार्य और उनके शिष्य प्रशिष्य भक्ति विनोद ठाकुर श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर भक्तिवेदांता स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय ये उसी वृक्ष के शाखा उपशाखा और फिर ऐसे होते होते फिर हम तक पोहोच गए हमारा भी सम्बंध स्थापित हुआ इस वृक्ष के साथ हम भी इस वृक्ष का बन गए कोई शाखा ही बन गए या कोई पत्ता बन गए तो कोई फूल बन गए तो कोई बाद में कोई फल इस प्रकार हम सारे आप सभी उपस्थित आप सभी का सम्बंध उस चैतन्य वृक्ष से है क्या आपको मंजूर है या मंजूर नहीं है तो फिर वह शाखा सूख जाएंगे ऐसा प्रभुपाद कहते हैं वह जो शाखा है या जो पत्ता है वह सूख जाएगा उसको रस नहीं मिलेगा प्रेम नहीं मिलेगा शुष्क होगा मतलब ड्राई हमारा संबंध नहीं है परंपरा के माध्यम से इस वृक्ष के साथ हम यूजलेस ब्रांच या यूज लेस लीप कह सकते है। जिसका कोई उपयोग नहीं है ना तो खुद के लिए ना तो औरों के लिए
शिष्य , प्रशिष्य , आर उपशिष्य – गण । जगत्व्यापिल तार नाहिक गणन ॥ चैतन्य चरितामृत आदि 9.24॥
अनुवाद:- इस तरह शिष्य , उनके शिष्य और उन सबके प्रशंसक सारे जगत् में फैल गये । इन सबको गिना पाना सम्भव नहीं है ।
शिष्य हुए उनके प्रशिष्य हुये और सारे जगत में फैल गया ये वृक्ष और कहां तक फैला कितने शाखा कितने प्रशाखा इसकी कोई गणना ही नहीं हो सकती । हमको धीरे धीरे ये समझना है कि इसी प्रकार क्या होना है?
चैतन्य भागवत
पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम । सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम
पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
( चैतन्य भागवत अन्त्य – खण्ड ४.१.२६ )
इसी के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ भविष्य की बात कर रहे हैं , अभी तो ऐसा नहीं है लेकिन चैतन्य महाप्रभु का यह दूर दृष्टि है , ऐसा विचार है और यह सब हो रहा है और कुछ इस सुवर्ण काल में होने वाला भी है। ठीक है।
ए वृक्षेर अङ्ग हय सब सचेतन । बाड़िया व्यापिल सबे सकल भुवन ॥ चैतन्य चरितामृत आदि 9.33॥
अनुवाद:- ” इस वृक्ष के सारे अंग आध्यात्मिक रूप से सचेतन हैं और वे ज्यों ज्यों बढ़ते हैं त्यों – त्यों सारे जगत् में फैल जाते हैं ।
अभी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब हम सभी को संबोधित कर रहे हैं या संसार के लोगों को संबोधित कर रहे हैं कहो या कुछ निवेदन कर रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु की कुछ मांग है , डिमांड है , वह सोच रहे हैं ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
आप पूरा जग जाइये ।
जीव जागो जीव जागो ।
गौरा चांद बोले ।
गौरा चांद बोल रहे है इसलिए जीव जागो और सुनो चैतन्य महाप्रभु की क्या अपेक्षाएं है । वह क्या चाहते हैं , हमसे क्या चाहते हैं । वह तो कह रहे हैं कि ,
एकला मालाकार आमि काहाँ काहाँ ग्राब ।
एकला वा कत फल पाड़िया विलाब ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.34)
अनुवाद:- “ मैं ही अकेला माली हूँ । मैं कितने स्थानों में जा सकता हूँ ? मैं कितने फल तोड़ और बाँट सकता हूँ ?
मैं अकेला मालाकार हूं । जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए तब वहां प्रारंभ में उन्ही से शुरुआत हुई पहले वह अकेले ही थे , वह कहते हैं कि
एकला मालाकार आमि काहाँ काहाँ ग्राब ।
एकला वा कत फल पाड़िया विलाब ॥
एकला उठाञा दिते हय परिश्रम ।
केह पाय , केह ना पाय , रहे मने भ्रम ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.35)
अनुवाद:- अकेले फलों को तोड़कर उन्हें वितरित करना निश्चित ही अत्यधिक परिश्रम का कार्य है , परन्तु इतने पर भी मुझे सन्देह है कि कुछ लोग उन्हें प्राप्त कर पाएँगे और कुछ नहीं ।
मैं अकेला कितना परिश्रम कर सकता हूं और कितने फलों को स्वयं में तोड़ सकता हूं ? कीतने फलों को मैं स्वयं वितरित कर सकता हूं ? और यह सब सारे प्रयास में केह पाय केह ना पाए रहे मने भ्रम , किसको फल मिला किस को नहीं मिला कृष्ण प्रेम का फल ऐसा भी संभव होगा , मैं सम्भ्रमित भी हो जाऊंगा की किसको मिला और किसको नहीं मिला । डिमांड इतनी हैं और इसका वितरण होना है और मैं अकेला हूं तो वितरक की जरूरत है , वांटेड का वह कॉलम अखबार में होता है ना कि यह चाहिए वह चाहिए एंप्लाइज चाहिए । चैतन्य महाप्रभु स्वयं क्या चाहते हैं ? वितरक चाहिए । चैतन्य महाप्रभु को वितरक चाहिए , कृष्ण प्रेम के वितरक , कृष्ण प्रेम के डिस्ट्रीब्यूटर चाहिए ।
एकला मालाकार आमि कत फल खाब ।
ना दिया वा एइ फल आर कि करिब ॥
( चैतन्य चरितामृत आदि 9.37)
अनुवाद:- “ मैं अकेला माली हूँ । यदि मैं इन्हें वितरित न करूँ तो मैं इनका क्या करूँगा ? अकेले मैं कितने फल खा सकता हूँ ?
( हंसते हुए ) और कोई वितरण करने वाले नही तो आप खाओ । वितरण नहीं हो रहा तो आप खाओ लेकिन वह कहते है ,” मैं अकेला कितना खा सकता हूं खा खा के , कई सारे बचही जाएंगे ना ।”
नादिया व फल आर की करिबो ।
मैंने खा भी लिया तो बचे हुए जो फल हैं इन फलों का क्या होगा ।
आत्म – इच्छामृते वृक्ष सिञ्चि निरन्तर ।
ताहाते असङ्ख्य फल वृक्षेर उपर ।।
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.38)
अनुवाद:-“ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य इच्छा से सारे वृक्ष पर पानी छिड़का गया है और इस तरह भगवत्प्रेम के असंख्य फल लगे हैं ।
मैं इसका सिंचन तो करता ही रहता हूं , इच्छा पानी पिलाता रहता हूं । यह फल , यह वृक्ष बढ़ रहा है । कई सारे फूल या फिर फल बाद में उत्पन्न हो रहे हैं ।
अतएव सब फल देह ‘ नारे तारे ।
खाइया हउक् लोक अजर अमरे ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि 9.39 )
अनुवाद :- , “ इस कृष्णभावनामृत आन्दोलन का वितरण सारे विश्व में करो , जिससे सारे लोग इन फलों को खाकर अन्ततः वृद्धावस्था तथा मृत्यु से मुक्त हो सकें ।
इसलिए मैं चाहता हूं कि यह सारे फलों का वितरण हो जाए ताकि लोग इस फलों को खा कर क्या होंगे ? अजर होंगे , अमर होंगे । ऐसा ही कर रहे हैं , अजर मतलब अ मतलब नहीं , और जर मतलब जरा । कोई रोगी नहीं होगा सभी निरोगी होगे , काम रोग है । आप कामरोग समझते हो ? जिसको सुखदेव गोस्वामी ने वृत रोग भी कहा है । काम रोग , भव रोग । रोगों के नाम तो लिखो । इन रोगों के नाम पता है ? आजकल के कितने डॉक्टर , मेडिकल शॉप , ड्रग स्टोर में कोई जा कर बोलता है की भवतोग के लिए कोई औषधि है आपके पास ? न तो कोई डॉक्टर बताता है , हां ! तुम्हारा डायग्नोसिस हो गया है । मैंने नाड़ी परीक्षा कर ली , तुमको काम रोग हुआ है ऐसा कोई बताता भी नहीं है । यह बड़ा भयानक रोग है। जन्म जन्मांतर के लिए यह रोग हमारा पीछा कर रहा है । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं अजर अमर सारे रोगों से मुक्त होंगे ।
गिर मत बनो कल्चर्ड बनो सुसंस्कृत बनो और ये सब करो ।
केन केन प्रकारेन
मन को भगवान में लगाओ और भगवान को दे दो औरों को ये बात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कही है , और अब तो समय नहीं है किंतु । कृष्ण दास कबीर गोस्वामी यही पर चैतन्य महाप्रभु ने जब कहा
वृत अनात्मा भारतभूमिते मनुसूजन मोविलजा जन्म सार्थक करी कर परुपकार तो श्रीमद भागवत के chapter 22 verse no. 35 note करो इसमें जो वचन है इसी के साथ मिलता जुलता है जो चैतन्य महाप्रभु ने कहा भारतभूमित कारीकर परुपकार तो जो चैतन्य महाप्रभु ने कहा उसकी पुष्टि करने हेतु ये श्रीमद् भागवत में से उधारण दिया गया है ।
प्रनेय अर्थे धियावाचा
श्री आचारणाम सदा
तो क्या करो करीकर परुपकार औरों का उपकार करो औरों पर कुछ उपकार करो कैसे कर सकते है प्रणई ये भागवत के उस श्लोक में कहा है प्राण अपना प्राण दो पूरा समर्पण प्रणई अर्थई ध्यान दो समर्पित करों भगवान की सेवा में प्राणई अर्थी धीया कृष्ण दिमाग लड़ाओ कुछ सोचो कैसे कृष्ण भावना का प्रचार प्रसार हो सकता है ये नही तो कम से कम बोलो जो आचार्यों के विचार श्रील प्रभुपाद के विचार अपने गुरुजनों के जो विचार है उनको कहो उनको औरो तक पहुचाओ अपनी भाषा से ये हो गया तो आप खुद नही सोच सकते ऐसा दिमाग काम नही करता है । लेकिन जिसका काम करता है दिमाग उसके दिमाग से निकली योजनाएं उसको समझो, स्वीकार करो और उसका प्रचार करो । तो
प्रणई अर्थी धिया वाचा
कैसे उपकार कर सकते है तो विचार प्रकार से इस भागवत के वचन में कहा है श्री आचारनम सदा श्री आचरण इस प्रकार का आचरण श्रेयस्कर हैं कल्याण कारी है । हमारा खुद का भी । Yes गायत्री do you agree ? तुमको मंजूर है । मुंडी तो हिला रहे है । Ok We stop here यहा कल के कुछ प्रश्न थे । मैं उत्तर देना चाहता हु लेकिन अभी तो समय नहीं है तो देखते है। कल परसों कभी। उत्तर देंगे कल वाले प्रश्नों के ।आज भी कई प्रश्न है तो लिख लो या कुछ कमेंट्स है तो पब्लिश करते है । या फिर देखते है समय भी हो चुका है मैंने आज लिमिट क्रॉस कर दी। हरे कृष्ण श्रील प्रभुपाद की जय सभी भक्तो को दंडवत प्रणाम तो chat ऑप्शन आप सभी के लिए ओपन है यदि आपके कोई प्रश्न है या कमेंट्स है आज से संबंधित तो आप लिख सकते है।कल वैसे कोई हमने कल भी chat ओपन किया था कोई प्रश्न नहीं आए । २ -३ प्रश्न मिले है हमने नोट किए है सब उत्तर दिया जाएगा धीरे धीरे । तो आज भी chat ऑप्शन ओपन है तो यदि भक्तो के प्रश्न है तो वे पूछ सकते है।और फिर आने वाले दिनों में कभी यथा समय यथा संभव करेंगे हम । और कुछ इनोवेटिव ideas ऐसे जो भक्त अपने विग्रह के घर के सेवा करते है आप उनके दर्शन करवाना चाहते है।सभी से zoom पे शेयर करना चाहते है तो आप मुझे whatsapp कर सकते है।४ – ५ पिक्चर्स भेज सकते है घर के हॉल्टर के या उनके बेस्ट श्रृंगार के मै chat में no. शेयर कर रहा हु तो अपना whatsapp अपना नाम और चित्र का दर्शन नही कराएंगे DT का सीधा शृंगार के साथ live। अपने खुद के दर्शन के बजाए उनको भगवान के दर्शन कराएंगे नही तो हम उनको देखते हि रहते है । जैसे आप मुझे देखते हो मैं आपको देखता हु।तो जैसे ये देव दत्त है दिखा रहे है अपना श्रृंगार सोलापुर से this is one sample उसके विशेष दर्शन विशेष श्रृंगार । इस प्रकार आप दिखा सकते हो १ – २ मिनट थोड़े समय के लिए।जैसे देव दत्त प्रभु दर्शन करवा ही रहे है हमे ये जग्गानाथ सुभद्रा महारानी और राधा कृष्ण का तो इस प्रकार से आप भी कुछ समय के लिए ऐसे दर्शन करवा सकते है ।तो समय भी हो चुका है आजके सत्र को हम यही विराम देते है ।और पुनः लोकनाथ जी के हरिनाम जप talk ke लिए हम एकत्रित होंगे। श्री चैतन्य महाप्रभु की जय । चैतन्य चारितममृत की जय । श्रील प्रभुपाद कि जय । परम पुजनीय लोकनाथ स्वामी की जय।
वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
4 अक्टूबर 2021
हरे कृष्ण..!
आज जप चर्चा में 865 भक्त उपस्थित हैं।
वेलकम!सुस्वागतम! सुप्रभातम्!सुप्रभातम् मतलब क्या? या गुड मॉर्निंग के बजाय आप सुप्रभातम कह सकते हो!क्या कहोगे?सुप्रभातम्! गुड मॉर्निंग कहोगे तो फिर आप इंडियन कहलाओगे लेकिन सुप्रभातम् कहोगे तो आप भारतीय हो।आपका परिचय क्या है?मैं भारतीय हूं।हे भारत!हम भरतवंशी हैं,हम सभी भरतवंशी है,केवल राजा परीक्षित ही नहीं या अर्जुन ही नहीं।गीता,भागवत में भारत कहा जाता हैं,भरत के वंशज भारतीय कहलाते हैं,हम सभी भारतीय हैं।आप कौन हो?या अगर आप थाईलैंड के भी हो परंतु अगर आपने भारत कि विचारधारा को अपनाया हुआ हैं,तो आप भारतीय ही हैं,लेकिन किसी ने भारतीय विचारधारा को नहीं अपनाया हैं,तो उनका इंडियन पासपोर्ट तो हो सकता हैं,लेकिन वह भारतीय नहीं हैं। हरि हरि!
सुप्रभातम्! बालाजी तिरुपति में, पंढरपुर में या सभी वैष्णव तीर्थो में सुप्रभातम् होता हैं।
“उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुडध्वज ।
उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यं मङ्गलं कुरु ॥ 2 ॥
सुप्रभातम् स्त्रोत्र बहुत सुंदर,मधुर और भावार्थ पूर्ण होता हैं।हरि हरि!!कुछ दिनों से हम विग्रहों के दर्शन कर रहे थे और साथ में जप भी चल रहा था तो हम कह रहे थे कि हम श्रवण भी कर रहे हैं, कीर्तन भी कर रहे हैं और स्मरण भी कर रहे हैं।दर्शन करना मतलब स्मरण करना भी होता हैं,जब हम भगवान के विग्रह का दर्शन करते हैं तो स्मरण भी होता हैं।हरि हरि!दर्शन रस भरा होता हैं,नेक्टेरियन या रस से भरा होता हैं।भगवान का नाम,रुप,गुण,लीला,धाम,
“प्रतिक्षणास्वादन- लोलुपस्य वंदे गुरो: श्रीचरणारविन्दम्।।”
भगवान का नाम, रूप, गुण,लीला,धाम या उस संबंध में जो वार्तालाप है, कथाएँ हैं, चर्चा है,ये सब नेक्टर(अमृत) हैं या रस से भरी हुई हैं।फिर उसी से भक्तिरसामृत सिंधु बन जाता हैं।भक्ति रस का क्या? सिंधु। मुझे आज कुछ कहना हैं, ऐसा मैंने सोचा हैं। दो प्रकार के विचार होते हैं या मोटा मोटी दो प्रकार की बातें होती हैं। एक को तत्व विचार कहते हैं और दूसरे होते हैं रस विचार या फिर उसको फिलॉसफी या तत्व विचार कहते हैं और दूसरा होते हैं रस विचार या रीलीजीयन (धर्म) या फिर उसी के अंतर्गत हैं नाम,रूप गुण, लीला, धाम का श्रवण,कीर्तन इसमें रस और इसका आधार हैं, तत्व विचार, फिलासफी(दर्शन शास्त्र)।यह मैं आपको बताता ही रहता हूं कि यह दोनों अनिवार्य हैं।रिलिजन एंड फिलासफी (धर्म और दर्शन)तत्व विचार और रस विचार को समझिए।तत्व विचार या तत्व या सिद्धांत भी कह सकते हो या कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा हैं कि मुझे जानना हैं,मेरे जन्म को जानना हैं,मेरी लीलाओं को जानना हैं तो कैसे जानना चाहिए?तत्वतः जानना चाहिए।
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 4.9)
अनुवाद: -हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |”
फिर रस का भी तत्व हैं,रसतत्व।मैने रसविचार कहा तो उस का भी तत्व हमें समझना हैं। तत्व और सिध्दांत लगभग एक ही बात हैं।चैतन्य चरितामृत में भी कहा है
“सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।
इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।।”
(श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 2.117)
अनुवाद:-निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को बिवादास्पद मानकर उनकी
उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति
अनुरक्त होता है।
आपको याद हैं,यह वचन? नहीं है? होना चाहिए।आपको प्रचार करना हैं। बजरंगी तो जानते हैं।”सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर आलस।लेकिन यह प्रचार का ठेका केवल कुछ ब्रहमचारियो ने नहीं लीया हैं। हमारे संप्रदाय में गृहस्थ भी प्रचारक होतें हैं।
यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश।।
(चैतन्य चरितामृत 7.128)
अनुवाद:- ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
यह आदेश चैतन्य महाप्रभु ने एक गृहस्थ को दिया था। आप सभी को प्रचारक बनना हैं इसलिए यह सब बातें आपको पता होनी चाहिए। इस को कंठस्थ करना चाहिए, याद करना चाहिए। इसको कह सकते हो लिखना चाहिए, पढ़ना चाहिए,सुनना चाहिए। मैं यह सब कहता जाऊंगा तो मुझे जो कहना हैं जो मतलब कि बात हैं, वह रह जाएगी।मैं आपको कुछ तत्व की बात सुनाने वाला हूं और वह तत्व और वह सिद्धांत हैं,हरि हरि!सोना नहीं! हरि बोल! जीव जागो! इसलिये कहता हूँ कि हम लिख सकते हैं तो फिर हम को नींद नहीं आएगी या फिर हम जगते रहेंगें। सोना नहीं चाहते हो तो राइटिंग पैड और पेन लेकर बैठो।आपको लिखना भी हैं,तो आपको लिखने के लिए सुनना पड़ेगा फिर सोओगे नहीं आप।ऐसे कुछ उपाय हम ढूंढ सकते हैं,ताकि हम सोऐं नहीं।हरि हरि!
इसी में समय निकल जाता हैं।देवता स्तुति कर रहे हैं और मथुरा में स्तुति का नाम हैं,”गर्भस्थस्तुति” और इस स्तुति का वर्णन श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के द्वितीय अध्याय में हैं।यह आपको याद भी रहना चाहिए,आप याद रख सकते हो।देवताओं ने स्तुति की और उस स्तुति को कहते हैं गर्भस्थस्तुति और वह कहां पर हैं? गीता में नहीं है। वह चैतन्य चरितामृत में नहीं हैं,वह कठोपनिषद में नहीं हैं। फिर क्या हम बता सकते हैं कि कहां हैं? कौन से शास्त्र में हैं? वह भागवत के दसवें स्कंध के द्वितीय अध्याय में हैं।आप जब इस तरह बताओगे तो फिर उसका प्रभाव पड़ेगा।उस पार्टी को मानना पड़ेगा और फिर इसी के साथ हम लोग जो जो मनोधर्म कि बात करते हैं,हमे लगता हैं कि यह मेरा विचार हैं, नहीं नहीं यह शास्त्र का विचार हैं।ऐसे रेफरन्स देकर हम प्रमाणित कर सकते हैं।जैसे वकील कोर्ट में करते हैं, कि ऐसे-ऐसे लाँ या क्लाज या नियम हैं या रेफरेंस देते हैं,तो हम प्रचारक भी एक एडवोकेट हैं।हम को भी वकालत करनी हैं।भगवान के लिए वकालत करनी हैं हरि हरि!
भगवान की बातें सिद्ध करनी हैं या समझानी हैं। फिर दोबारा इस में हमारा समय चला गया।आपको ट्रेन करना हैं इसलिए यह सब बताना भी पड़ता हैं।तो गर्भस्तुति को गर्भ स्तुति क्यों कहा गया है? उस समय भगवान देवकी के गर्भ में थे और वह अष्टमी कि रात्रि थी और मध्य रात्रि का समय निकट आ रहा था।उस समय कि बात बताक्षरहा हूं।देवता कारागार में पहुंचे हैं।वसुदेव देवकी मथुरा में कंस के कारागृह में हैं।यह रेफरेंस, कांटेक्ट्स,संदर्भ अध्याय 2 मे हैं। मराठी में संदर्भ कहते हैं। उसमें एक वचन आता हैं। श्लोकसंख्या 27।अध्याय 2 श्लोक 27 इसमें देवता कुछ विशेष बात कहते हैं।उन कि स्तुति कुछ ज्यादा विस्तृत नहीं हैं।आपके पास भागवत होनी चाहिए।आपके घर में भागवतम होनी चाहिए होती तो आप खोल कर बैठ भी सकते थे या फिर अभी कोई लाइब्रेरी में जा रहे हैं तो या फिर दिन में आप देख सकते हो।दोबारा पढ़ सकते हो।लेकिन तब तक तो कुछ भूल जाओगे इसलिए लिखना आवश्यक हैं। कौन सा श्लोक? कौन सा स्कंध है ?कौन सा अध्याय?यह पता होना चाहिए।हरि हरि!
“एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूल श्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः ॥”
(श्रीमद्भागवत 10.2.27)
अनुवाद:-शरीर को अलंकारिक रूप में ” आदि वृक्ष ” कहा जा सकता है । यह वृक्ष भौतिक प्रकृति की भूमि पर आश्रित होता है और उसमें दो प्रकार के सुख भोग के तथा दुख भोग के फल लगते हैं । इसकी तीन जड़ें तीन गुणों – सतो , रजो तथा तमो गुणों के साथ इस वृक्ष के कारणस्वरूप हैं । शारीरिक सुख रूपी फलों के स्वाद चार प्रकार के होते हैं- धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष जो पाँच ज्ञान इन्द्रियों द्वारा छः प्रकार की परिस्थितियों – शोक , मोह , जरा , मृत्यु , भूख तथा प्यास के माध्यम से अनुभव किये जाते हैं । इस वृक्ष की छाल में सात परतें होती हैं – त्वचा , रक्त , पेशी , वसा , अस्थि मज्जा तथा वीर्य इस वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं जिनमें से पाँच स्थूल तत्त्व तथा तीन सूक्ष्मतत्त्व हैं- क्षिति , जल , पावक , समीर , गगन , मन , बुद्धि तथा अहंकार शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र ( कोठर ) हैं,आँखें , कान , नथुने , मुँह , गुदा तथा जननेन्द्रिय।इसमें दस पत्तियाँ हैं,जो शरीर से निकलने वाली दस वायु हैं।इस शरीररूपी वृक्ष में दो पक्षी हैं- एक आत्मा तथा दूसरा जीव। मैं कुछ शब्द सुन रहा था तो मुझे यह अच्छा लगा।काफी इंटरेस्टिंग इंफॉर्मेशन हैं और यह वचन हैं, देवताओं के।वह भगवान की स्तुति कर रहे हैं।तो यह हमारे ज्ञानवर्धन के लिए बड़े महत्वपूर्ण वचन होने चाहिए।हमारे ज्ञान की वृध्दि करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
वैसे देवतागण कह रहे हैं एकायनोअसौ एक हैं आदीवृक्ष:,एक हैं वृक्ष।तो दो क्या हैं?तीन क्या हैं?उस वृक्ष में, चार क्या हैं?वह ऐसे एक से दस संख्या गिनाएंगे,आप नोट भी कर सकते हो।एक क्या हैं? एक वृक्ष हैं और यह कौनसा वृक्ष हैं?यह शरीर हैं वृक्ष। हमारा ही परिचय दे रहे हैं।हम मनुष्यो का परिचय दे रहे हैं, देवता भी हम जैसे ही हैं।उनके शरीर भी हम जैसे ही हैं। उनका खुद का या हम सब शरीर हैं, उसका वह विश्लेषणात्मक अध्ययन करके हमको कुछ शिक्षा दे रहे हैं। एक हैं वृक्ष और वह हैं, शरीर। द्वि-फल: वृक्ष हैं तो वृक्ष क्या देता हैं, वृक्ष से क्या प्राप्त होता हैं? निखिल जी क्या प्राप्त होता हैं?उससे बहुत कुछ प्राप्त होता हैं। लेकिन महत्वपूर्ण जो हैं या वृक्ष का सार कहो वह होता हैं फल। इस वृक्ष में द्वि-फल: दो प्रकार के फल लगते हैं तो फिर आप पुछोंगे कौन से दो प्रकार है फल हैं?उत्तर हैं,एक हैं मीठा फल फिर कौन सा बच गया?एक हैं कड़वा और हम अनुभव करते भी हैं।इस शरीर में शरीर में वह जो मन है उस मन से हम अनुभव करते हैं कभी अच्छा समय, कभी अच्छे दिन आएंगे! और अधिकतर बुरे ही दिन आते रहते हैं अच्छाई और बुराई, गुड और बैड, मीठा और कडुवा।नोट करो त्रि-मुल: वृक्ष हैं, तो वृक्ष के फल होते हैं और फिर वृक्ष का मूल होता हैं, उसकी जड़ होती हैं और यह तीन कौन से मूल है, यह तीनगुण हैं।सत्व,रज,तम इस वृक्ष के मूल हैं। त्रि-मुल: तीन मूल हैं और मूल की कितनी बड़ी भूमिका होती हैं पेड़ का खानपान मूल से ही होता हैं। इसीलिए वृक्ष के मूल को पद या पैर भी कहते हैं। वैसे मुख भी होता हैं। मूल को पादप कहते हैं। प मतलब पद से पीता हैं। कैसे पीता हैं?पद से या पैर से पीता हैं,जड़ से पीता हैं,इसलिए उसे पादप कहते हैं।सत्व,रज,तम गुण हमको खिलाते हैं,पिलाते हैं या प्रभावित करते हैं।हमको नचाते हैं।हसाते हैं या रुलाते हैं।
“प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |
अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.27)
अनुवाद:-जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
ये जो तीन गुण हैं।प्रकृति के तीन गुणों से ही हमारे सारे कार्यकलाप नियंत्रित होते हैं।इन तीन गुणों को मूल कहा हैं? इसको समझ तो लो।हमें तो यह ही नहीं पता होता कि हमारे जीवन में हो क्या रहा हैं और क्योंकि हम जानते नहीं हैं, इसलिए कर्ता अहम इति मन्यते।हम स्वयं को करता समझते हैं,लेकिन ऐसे व्यक्ति को मूर्ख कहा गया हैं। मूर्ख नहीं रहना हैं। मूर्ख नंबर 1 मत बनो। इसलिए भगवान ने सारी व्यवस्था की हैं।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:।।
अंधकार के कारण हम अंधे हैं और हमें आंखें खोलनी हैं। हमको सीखना समझना हैं।चार प्रकार के रस हैं।इसको रस कहां हैं।चर्तुविधा,यह चार प्रकार के रस हैं।धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष।चार प्रकार के रस हैं,पंचविधा और पांच इंद्रियां हैं।अगर मन को जोड़ देंगे तो 11 इंद्रियां हैं,उनका उल्लेख यहां हो रहा हैं।पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। पांच कर्म इंद्रियां हैं और जिन इंद्रियों की मदद से हम ज्ञान का अर्जन करते हैं,वह पांच इंद्रियां हैं।इसलिए पंचविधा कहा गया हैं।पांच प्रकार की इंद्रियां,पंचइंद्रियों का उल्लेख हैं।हरि हरि।संसार में पांच प्रकार के विषय हैं।शब्द,स्पर्श,रूप,रस और गंध।यह सारा संसार स्पर्श,रूप,रस,गंध से भरा पड़ा हैं। इस संसार में इसके अलावा और कुछ हैं ही नहीं। संसार में क्या हैं? गंध,स्पर्श,रूप,रस और शब्द।इन इंद्रियों के विषय का कैसे पता चलता हैं? ज्ञान इंद्रियों की मदद से शब्द के लिए कौनसी इंद्री हैं? कान।हम लोग कान से सुनते हैं।स्पर्श के लिए त्वचा हैं।और क्या हैं? रूप।रूप के ज्ञान के लिए आंखें हैं और क्या हैं? रस।रस के लिए जिव्हा हैं और गंध के लिए नासिका हैं।आप समझ रहे हैं ना?इस प्रकार हमारा संसार के साथ व्यवहार चलता रहता हैं।
और इसी के साथ फिर हम इंद्रितृप्ति में लगे रहते हैं।सारे साधनों के हम भोगी बनकर इंद्रितृप्ति करते हैं।तो यह 5 ज्ञानेंद्रियां हैं।इसे नोट करो और समझ भी लो।छह प्रकार की परिस्थितियां हैं।हमारे मन के अलग-अलग भाव या विचार हैं।इसी से परिस्थितियां निर्माण होती हैं।षड्आत्मा अर्थात 6 प्रकार की परिस्थितियां हैं। यह बात देवता तो नहीं कह रहे हैं। देवताओं ने तो कहा हैं कि 2 प्रकार के फल हैं। दो प्रकार कौन से हैं यह नहीं बताया। यह बताया हैं कि तीन प्रकार की जड़ हैं। कौन सी हैं यह नहीं बताया।यह तो प्रभुपाद ने भाषांतर में समझाया हैं और तात्पर्य में और अधिक जानकारी हैं। हमारे आचार्यों के भाष्यो की मदद से और शास्त्र से भी बताया गया हैं और प्रभुपाद ने तात्पर्य भी लिखा हैं।नोट करो-6 प्रकार की परिस्थितियां हैं।कौन सी हैं? शोक,मोह,जरा,मृत्यु और भूख तथा प्यास और भी कई सारी परिस्थितियां हैं। लेकिन यहां केवल बड़े-बड़े नाम दिए हैं और हमारा जीवन इसी में गुजरता रहता हैं। हम हमारे जीवन को गवाते रहते हैं।क्या करते हुए?इन सब परिस्थितियों में गंवाते रहते हैं। क्या-क्या परिस्थितियां हैं।मैं दोबारा दोहरा रहा हूं। आप नोट कर सकते हैं।शोक,मोह,जरा,मृत्यु और भख-प्यास।देवता गन आगे कह रहे हैं कि इस शरीर में सात प्रकार के आवरण हैं और मैंने कहा कि आवरण हैं तो कोई पूछे कि किसके ऊपर आवरण हैं तो क्या कहोगे?किसको आच्छादित किया हैं इन सात अलग-अलग आवरनो ने?आत्मा को आच्छादित किया हैं। वैसे शरीर ही आत्मा को आच्छादित करता हैं।तो यह सात प्रकार के आवरण कौन-कौन से हैं?इससे यह भी पता चलता हैं कि यह शरीर किन तत्वों से बना हुआ हैं। उसकी भी सूची हैं। वह भी आगे आ रहा हैं। हम जब भोजन करते हैं तो भोजन से रस बनता हैं।लिख लीजिए। रस से रक्त बनता हैं। रस से मांस बनता हैं।और अस्थि बनती हैं अस्थि मतलब हड्डियां बनती हैं। चार हो गए ना? पांचवा हैं- मज्जा। और छटा हैं वीर्य और त्वचा।सातवां त्वचा हैं या हम भोजन करते हैं तो क्या-क्या होता हैं?
भगवद्गीता 3.14
“अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः || १४ ||”
अनुवाद
सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है | वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है |
हम अन्न से ही बनते हैं।अन्न खाने के बाद क्या-क्या होता हैं?यह शरीर बनता हैं।अन्न से रस बनता हैं और रस से रक्त बनता हैं,मांस बनता हैं,अस्थि बनती हैं, मज्जा बनती हैं, वीर्य बनता हैं और फिर त्वचा।इस तरह यह सात प्रकार के आवरण होते हैं।अगला हैं-
अष्ट विटपो।इस वृक्ष की 8 प्रकार की शाखाएं हैं।इससे तो आप परिचित ही हो।भगवान ने गीता में कहा हैं कि यह शरीर 8 तत्व से बना हैं।पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार। और पंचमहाभूत हैं। पृथ्वी,अग्नि,जल,आकाश और वायु।इन्हें वृक्ष की 5 शाखाएं कहा गया हैं। इससे स्थूल शरीर बनता हैं और सूक्ष्म शरीर में हैं- मन,बुद्धि और अहंकार।यह 5 और 3, 8 हो गए।गीता का श्लोक भी आप याद कर सकते हैं।
BG 7.4
“भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || ४ ||”
अनुवाद
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं |
यह मेरी प्रकृति हैं और यह भिन्न प्रकृति हैं। तो 8 शाखाएं बताई गई हैं। फिर अगला हैं-नवाक्ष:।अक्ष: मतलब आख भी हो सकता हैं। नो छिद्र हैं।जैसे अगर कोई पुराना प्राचीन वृक्ष हैं, तो उसे पोखर कहते हैं। उसमें पंछी अपना घोंसला बनाते हैं या सांप वगैरा भी उस में विश्राम करते हैं।तो इस शरीर में 9 प्रकार के छिद्र हैं। कौन से हैं? गुरुप्रसाद अभी उन दो छिद्रो को साफ कर रहे थे।यहां छिद्र कहा हैं। गीता में इसे कृष्ण ने कहा हैं-नवद्वारे पुरे देही
BG 5.13
“सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी |
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् || १३ ||”
अनुवाद
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है | यहा देवता शरीर की तुलना वृक्ष के साथ कर रहे हैं। लेकिन शरीर को तो वस्त्र भी कहा हैं या कहीं कहीं पर शरीर को घर भी कहा हैं। कृष्ण ने गीता में कहा हैं कि इस घर के 9 द्वार हैं।इस शरीर में 9 द्वार हैं। जैसे घर में द्वार होते हैं। आगे पीछे का और खिड़कियां भी होती हैं। तो हमारे शरीर में 9 द्वार हैं।9 की बात चल रही हैं, तो दशावतार प्रभु बता सकते हैं कि 9 द्वार कौन-कौन से हैं।आपको नहीं पता क्या?यह आपका शरीर हैं, पिछले 50 साल से इस शरीर में रहते हो तो आपको पता नहीं हैं कि किसका कौन कौन सा द्वार हैं।यह भी नहीं भागवतम् में समझाया हैं कि कुछ द्वार हमारे शरीर के पूर्व दिशा में हैं। मान लो कि यह शरीर एक घर हैं, तो जैसे घर की भी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा होती हैं। इस घर में पूरब दिशा में 5 द्वार हैं। यह मुख पूर्व दिशा में है और यहां पांच गेट हैं। 9 में से 5 दरवाजे तो पूरब दिशा में हैं।
कौन-कौन से?दो आंखें,दो नासिकाएं और मुख। हो गए ना 5। दाहिना कान भी एक गेट हैं। एक दरवाजा हैं। यह दक्षिण दिशा हैं। संस्कृत में दक्षिण मतलब दाहिना भी होता हैं। राइट को दक्षिण कहते हैं और दूसरा कान उत्तर दिशा में तो यह 7 द्वार हो गए।बच गए कितने? दो।यह पूरब हैं तो दूसरी कौन सी दिशा हैं?पश्चिम दिशा होती हैं। एक गुद द्वार हैं तो दूसरा जननेंद्रिय हैं। सभी शरीरों में यह सब होता हैं। आप भारत के हैं या भारत के बाहर के हैं कोई फर्क नहीं पड़ता। एक ही भगवान हैं।एक ही भगवान की सृष्टि हैं। कोई अंतर नहीं हैं। सभी शरीरों में यह 9 प्रकार के द्वार हैं। घर हो तो दरवाजा भी होना चाहिए, नहीं तो कोई भी घुस सकता हैं। बुद्धि का उपयोग करते हुए जब चाहे तब ही हमें दरवाजे को खोलना चाहिए,अन्य समय पर बंद रखना चाहिए। जो योगी होते हैं वह बुद्धि से काम लेते हैं कि कब इंद्रियों का प्रयोग करना हैं या नहीं करना हैं। कब द्वार को खोलना हैं और कब बंद रखना हैं।
जैसे कछुआ होता हैं। जब कछुए को कोई खतरा लगता हैं तो वह अपने हाथ और पैर को अंदर सिकोड लेता हैं। उसका शरीर भी इसी प्रकार से होता हैं कि जब भी कोई खतरा आए तो हाथ पैर को अंदर कर लेता हैं। उसी प्रकार से योगी भी हैं। योगी भी वैसे ही करते हैं। खतरा या इंद्री का विषय सामने आ जाए तो वहां से चले जाएंगे या आंखों को बंद कर लेंगे।हरि हरि। आपको पता तो होना चाहिए कि कौन-कौन से द्वार हैं और उन्हें कब खोलना और बंद करना हैं। कौन शत्रु हैं और कौन मित्र हैं।शत्रु प्रवेश कर रहा हैं या मित्र प्रवेश कर रहा हैं। हरि हरि। देखने की चीज देख रहे हैं या कोई खराब चीज देख रहे हैं। हरि हरि गौरंग और फाइनल आइटम हैं शरीर की 10 पत्तियां हैं। पेड़ हैं तो 10 प्रकार की पत्तियां भी हैं। इसका तो हमको पता ही नहीं हैं। शरीर में 10 प्रकार के वायु विद्यमान हैं। उनका भ्रमण चलता रहता हैं। पांच प्रकार के वायु ऊपर की ओर और पांच प्रकार की वायु नीचे की ओर। उनका भम्रन चलता रहता हैं। व्यान,अपान, आदि आदि और इन वायु का बहुत बड़ा रोल हैं हमारे जीवन में। इसे वात भी कहा गया हैं।कफ,पित,वात हैं। शरीर में मल मूत्र विसर्जन जैसे बहुत से कार्य इस बात के चलाएं मान होने से होते हैं।
BG 15.14
“अहं वैश्र्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः |
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् || १४ ||”
अनुवाद
मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचन-अग्नि (वैश्र्वानर) हूँ और मैं श्र्वास-प्रश्र्वास (प्राण वायु) में रह कर चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ ।
मैं वेशनावर के रूप में पेट में और जठर मैं प्रवेश करता हूं और आपने तो भोजन खा लिया लेकिन उस भोजन को पचाएगा कौन? उसके लिए कृष्ण गीता में कहते हैं कि पान,अपान 10 प्रकार की वायु हैं, जिसका विभाजन दो प्रकार में हुआ हैं। पान और अपान। तो पान और अपान का संतुलन भगवान करते हैं,जिससे जठराग्नि उत्पन्न होती हैं। आपने भोजन खाया हैं, उसे मैं पचाता हूं।इस प्रकार हमारे शरीर में वायु के बहुत सारे कार्य हैं। इसके बिना शरीर काम नहीं करता। इसको 10 पतियां कहां हैं। यह शरीर एक आदि वृक्ष हैं। इसमें दो पक्षी बैठे हैं।यह बात कठोपनिषद में भी कही गई हैं। प्रभुपाद कई बार इसे कोट करते रहते हैं। तो इस वृक्ष में दो पक्षी बैठे हैं। एक आत्मा हैं और दूसरा परमात्मा हैं और यह बस आत्मा इस शरीर के फल खाता रहता हैं। कभी कड़वे फल होते हैं तो कभी मीठे फल होते हैं। लेकिन परमात्मा यह फल वगैरह नही खाते हैं।केवल साक्षी बने रहते हैं। परमात्मा तो केवल साक्षी हैं और यह बद्ध जीव भोग भोक्ता रहता हैं। कभी स्वर्ग जाता हैं, तो कभी पाताल जाता हैं। इस प्रकार इस वृक्ष में दो पक्षी हैं।
BG 15.15
“सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ ||”
अनुवाद
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
परमात्मा के रूप में सभी के ह्रदय प्रांगण में मैं रहता हूं और परमात्मा के साथ आत्मा भी रहता हैं और हमारी जानकारी के लिए देवताओं ने यह सब बातें कही हैं। यह बस एक ही वचन हैं और एक ही वचन में उन्होंने क्या-क्या नहीं कह दिया।कुछ ही शब्दों में इतना सारा ज्ञान भरा पड़ा हैं। यही शास्त्रों की शैली हैं। इसे सूत्र कहते हैं। कोड लैंग्वेज।हमारे आचार्य और गुरुगन इसको हमें दिखाते हैं। एक वचन में कितना सारा ज्ञान भरा हुआ हैं। ठीक हैं। यही रुकेंगे। हरे कृष्णा।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*3 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण । हमारे साथ 833 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । सुस्वागतम। हरि हरि । उसी के साथ हमारा श्रवणम् कीर्तनम् हो रहा है। श्रवण कीर्तन करते हैं तो क्या होता है ? श्रवण कीर्तन का क्या फल होता है ?
श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४ ॥
अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) – शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं। साथ में हम भगवान के विश्वभर के विग्रहों के दर्शन कर रहे थे। हमें स्मरण में मदद हो रही थी। भगवान का दर्शन करते हैं तो भगवान का स्मरण होता है। श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं । हरि हरि !! थोड़ा स्मरण को आसान कर रहे थे। विग्रह मतलब भगवान, भगवान को बिना देखे भी भगवान का चित्र ,फोटोग्राफ या मूर्तियां। उनको देखे बिना भी हम दर्शन कर सकते हैं। वह हमको करना है । आत्मा दर्शन कर सकता है। विग्रह सामने हो या ना हो, दर्शन और स्मरण भी संभव है। ध्रुव महाराज के समक्ष भगवान आकर खड़े हुए। उन्हें विग्रह कहो या साक्षात भगवान कहो। तो ध्रुव महाराज के समक्ष आ गए। यह कहां की बात है? मधुबन में, वहां पर उन्होंने तपस्या करी और भगवान से मिलना चाहते थे । भगवान से सीधे प्रत्यक्ष आमने सामने बात करना चाहते थे। वह उनसे कुछ मांगना चाहते थे उनकी महत्वाकांक्षा थी। यह विषय नहीं है । लेकिन बात यह है कि भगवान आ गए, सामने खड़े थे। लेकिन भगवान ने देखा कि ध्रुव जो मुझे मिलना और देखना चाह रहा था । वह आंख भी नहीं खोल रहा है। ध्रुव आंखें खोलो। मैं आया हूं, देखो देखो मुझे देखो तो सही। आंखें तो खोलो तो भी ध्रुव महाराज आंखें नहीं खोल रहे थे । फिर भगवान ने महसूस किया । भगवान समझ गए कि मुझे क्यों नहीं देख रहा है। मेरा दर्शन क्यों नहीं कर रहा है । भगवान समझ गए कि मेरा दर्शन तो वह कर रहा है ।
दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
( श्रीमद् भगवतम् 12.13.1 )
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद – क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि प्र में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता – ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ ।
ध्यान अवस्था में भक्ति योगी भी दर्शन करते हैं । भगवान का दर्शन अपने हृदय प्रांगण में करते हैं। तो वैसे ही भगवान ह्रदय में है। हे भगवान ! मैं आपको देखना चाहता हूं । जॉर्ज हैरिसन गा रहे थे । मैं आपके साथ रहना चाहता हूं । आपके पास पहुंचना चाहता हूं। आपको देखना चाहता हूं। हे मीठे सुंदर भगवान। ध्रुव जब नहीं देख रहा था, जब भगवान को सामने खड़े हुए । तो भगवान ने क्या किया। अंदर का जो दर्शन, जो हृदय में दर्शन कर रहा था। दर्शन स्मृति पटल पर होता है। हमारे अंदर एक स्क्रीन है जिसे स्मृति पटल कहा जाता है। हमारे अंतःकरण का एक अंग है। जो इस स्क्रीन पर वह दर्शन देख रहे थे। ध्रुव महाराज देख रहे थे। भगवान ने क्या किया? उसको बंद किया । अंदर के दर्शन को बंद किया। जब दर्शन नहीं हो रहा था। तब धर्मराज सोचे क्या हुआ मैं दर्शन खो तो नही बैठा और ऐसा सोचते हुए ध्रुव महाराज ने आंखे खोल दी और वह आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने भगवान को अपने समक्ष देखा वही भगवान के दर्शन हुए। उन्होंने वैसे ही दर्शन अपने समक्ष देखा जिनका भी स्मरण कर रहे थे, उस दर्शन में कोई अंतर नहीं था। बहिर नरसिंह हृदये नरसिंह भगवान हृदय में है, भगवान बाहर है, भगवान सर्वत्र हैं । श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं तो भी हम सहायता ले सकते हैं, स्मरण करने के लिए। भगवान का चित्र, भगवान के विग्रह के समक्ष, भगवान के चरणों में बैठकर जप करोगे या धाम में जा कर जप करोगे या घर में मंदिर बना कर जप करोगे। यह सारे चित्र भी है। तुलसी महारानी की जय। तुलसी भी है और भक्त भी है। यह सब हम को सहायता करते हैं। गाय भी है पास में, कुत्ता नहीं है । वहां पर भगवान है । भगवान की गाय हैं। भक्ति रसामृत सिंधु में उद्दीपन कहते हैं। मुझे अभी शास्त्र का नहीं बताना था। हमको मदद करते हैं। स्मरण के लिए हमको सहायता करते हैं। श्रवण कीर्तन का फल हमको प्राप्त हो। श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं विष्णु का स्मरण मतलब विष्णु के रूप का भी स्मरण, केवल रूप का स्मरण ही स्मरण नहीं है। भगवान के नाम का स्मरण, भगवान के गुणों का स्मरण भी स्मरण है, भगवान की लीला का स्मरण भी स्मरण है और भगवान के भक्तों का, भक्त भी प्रातः स्मरणीय होते हैं ।
हम जो ब्राह्मण बने होते हैं वह गायत्री मंत्र प्राप्त किए होते हैं । तो उनके लिए कहा है। *ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं। वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।*
त्रिसंध्याकाल में हम गुरुजनों का स्मरण करते हैं। ध्यान करते हैं, उनकी स्तुति करते हैं। तो वह भी, गुरुजन भी स्मरणीय है, स्मरण करने योग्य हैं। वह स्मरण भी भगवान के स्मरण से अलग नहीं है। उनको भी भगवान से अलग नहीं किया जा सकता। यह सब स्मरण के विषय हैं। वैसे हम आपको विग्रहों के दर्शन करा रहे थे । लेकिन यह नहीं समझना कि केवल विग्रह का दर्शन ही दर्शन है। विग्रह का दर्शन ही स्मरण है । भगवान का नाम है, रूप है, गुण है, लीला है, धाम है, परिकर है । इनका स्मरण भी स्मरण है या ध्यान है या दर्शन है कहो। तो धन्यवाद यह सारे भगवान के स्वरुप हमारे समक्ष प्रकट हुए, इस प्रेजेंटेशन के रूप में और भगवान जो सर्वत्र हैं , पूरे संसार भर में है, जहां जहां प्राण प्रतिष्ठा हुई है, जहां जहां विग्रह आराधना होती है। यह सारे विग्रहों को हमने एकत्रित किया। हमने नहीं किया यह पहले से ही उपलब्ध है और आप चाहते हो तो आप भी प्राप्त कर सकते हो। आप में से अगर कोई इच्छुक है तो आप हाथ उठा सकते हो। आपको भेजने की व्यवस्था करेंगे । फिर आप भी इनका दर्शन कर सकते हो या औरों को दर्शन दे सकते हैं। अपने इष्ट मित्रों को, अपने पड़ोसियों को, घर वालों को एकत्रित करो । आप यह 1 दिन का प्रदर्शन जीत भी सकते हो। हमने तो यह प्रदर्शन 4 दिन किया है। किसी फंक्शन पार्टी या बर्थडे पार्टी या किसी अवसर में उनको दर्शन दे दो। *दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी, अँखियाँ प्यासी रे।* तो वैसे भी भगवान दर्शन देते हैं। जब हमारी आंखें कैसी होती है? प्यासी होती है। प्यासी समझते हो? जब हम भूखे प्यासे हैं तो हम जल और पानी का महत्व समझते हैं । ऐसे प्यासे होते हैं, असली प्यास जब होती है तो फिर हम कुछ उपाय ढूंढते ही हैं। फिर हम जल को प्राप्त करते ही हैं। पी लेते ही हैं। ऐसे भूख प्यास होना भी अनिवार्य है । ताकि फिर हम दर्शन करेंगे । वैसे कई लोगो को भूख प्यास नहीं है । भगवान के दर्शन की कोई प्यास या कोई अभिलाषा नहीं है । जॉर्ज हैरिसन तो कह रहे थे कि उनको तो भगवान के दर्शन की प्यास थी। वह प्यासे थे । वह गाना गा रहे थे कि मैं भगवान को देखना चाहता हूं और भगवान के साथ रहना चाहता हूं, बड़ा ही प्रसिद्ध गीत है । आप उनका दर्शन करना चाहते हो ? आनंदनी चाहती है और कोई नहीं चाहता है या आपके पास हाथ नहीं है। चाहने से भी अच्छा है चाहना । चाहने से भी दर्शन होगा । तो कहीं लोग दर्शन करना चाहते नहीं इसलिए दर्शन करने के लिए कहीं आते-जाते नहीं है । भगवान सर्वत्र हैं। भगवान सब जगह है । तो मूर्ख क्या भगवान मंदिर में नहीं है? भगवान सर्वत्र हैं । भगवान मंदिर में भी है । शीला में भी हैं, पत्थर में भी हैं । भगवान शीला बने हैं। कुछ लोग आते हैं उन्हें कई बार देखा मंदिर के सामने रास्ते पर सामने आ जाते हैं और वही से दर्शन करते हैं और दर्शन करने से पहले वह देखते हैं कि हमको कोई देख तो नहीं रहा है । इधर उधर देखते हैं और जब कोई उनको देख ही रहा होता तो झट से दर्शन कर लेते हैं । उनको लगता है कि कोई देख लेगा तो उनको कहेगा धार्मिक कहीं का, धार्मिक, पुराना फैशन, भगवान का दर्शन करता है। हम इसके साथ व्यापार नहीं करेंगे, इत्यादि । हमारे देश के कई देशवासी अमेरिका और यूरोप गए। तो शुरुआत में छिपकर भगवान की आराधना और आरती उतारते थे छुप-छुपकर ताकि अमेरिकन और यूरोपियन को पता नहीं चले कि यह धार्मिक लोग हैं या हिंदू है । तो यह डर के मारे भी, सामाजिक दबाव कहो या समाज के कुछ ऐसे बंधन है। जो हमको दर्शन करने से दूर रखते हैं । हरि हरि !! फिर मंदिर में कोई आ भी गए तो भगवान के विग्रह तो है भगवान समक्ष है। लेकिन वह तो भगवान को देखते ही नहीं है। ऐसे आते हैं, भगवान सामने है और हाथ भी नहीं जोड़ेंगे, साक्षात दंडवत तो छोड़ दो। यह तो बहुत ज्यादा है साक्षात दंडवत। वह हाथ भी नहीं जोड़ेंगे। हरि हरि। हाथ जोड़ के खड़े भी हो जाएंगे और आंखें बंद कर लेंगे। आंख बंद करके रखेंगे और आंख बंद करके फिर उनकी जो मांग की जो सूची है, वह भगवान को पढ़कर सुनाएंगे। आपने वह तो दे दिया। आपने बीच पर घर तो दिया, लेकिन टेलीविजन नहीं दिया। वह तो दिया लेकिन वह नहीं दिया। तो वह अपनी सूची में से हटा देते है। जब भी वह आते हैं तब और आइटम सूची में जोड़ देते हैं और आंख बंद करके भगवान को सुनाते हैं।
हे भगवान, हमें हमारी रोजी रोटी दीजिए । यह भगवान ! वह भगवान ! सूख संपत्ति घर आवे । कष्ट मिटे तन का । मसाज करो भगवान का । कष्ट मिटे तन का हमारा तो आंख खोलके भगवान का दर्शन और सौंदर्य का कुछ सराहना वगैरह नहीं होता है । ऐसा आंख बंद करके 1-2 मिनट में । कुछ निवेदन हो करते रहते हैं और भगवान सुंदर वगैरह की बात नहीं करते । अच्छा झूमर है, देखो झूमर कितना ! इनको विदेश से पैसा आता है ना इस्कॉन वालों को ऐसा सोचते हुए फिर लौटेंगे भी । हरि हरि !! तो विग्रह ने उनको कोई स्मरण तो नहीं दिया ,भगवान का स्मरण । विग्रह ने स्मरण नहीं दिया । विग्रह के दर्शन के लिए आए मंदिर में आए लेकिन उनका स्मरण ही नहीं किया उन्होंने और और क्या सोचते । विश्व भर के बारे में सोचते हैं लेकिन कृष्ण का छोड़के । हरि हरि !! तो हम लोग जब, यह प्रभुपाद सिखाया हमारे आचार्य परंपरा में सिखाया जाता है कि विग्रह स्वयं भगवान है । भगवान से भिन्न नहीं है, प्राण प्रतिष्ठा जो हुई है । प्राण की प्रतिष्ठा हुई है इस विग्रह में या यह विग्रह भगवान बने हैं ।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुडध्वज ।
उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यं मङ्गलं कुरु ॥ 2 ॥
( श्री वेंकटेश्वर सुप्रभातम् )
ऐसे भगवान है तो भगवान विश्राम करते हैं रात्रि को विश्राम करते हैं और दिन में भी विश्राम करते हैं भगवान तो इसलिए हम विग्रह को स्वयं भगवान के समान मानते हैं ऐसी हमको को शिक्षा दी जाती है । ऐसा प्रशिक्षण दिया जाता है इस्कॉन में की विग्रह स्वयं भगवान है । फिर भगवान को जगाते भी हैं ,जैसे यशोदा जगाती है कहो गोकुल में या नंदग्राम में । “उठी उठी गोपाला” अलग अलग भाषा में कोई अलग अलग गीत भी हो सकते हैं । उसी के साथ कृष्ण को हम जगाते हैं । फिर बाल भोग होता है । इसमें अधिकतर मिठाईयां होती हैं । यह क्यों ? ऐसा प्रभुपाद से पूछा गया तो प्रभुपाद कहे की प्रातः काल में बाल कृष्ण, बच्चा है बालक है तो इसलिए उनको मिठाइयां अच्छी लगती है । फिर मैं ध्यान के समय वह बड़े हो गए, फिर राज भोग फिर आप हलवा, पूरी सब खिलाओ । लेकिन प्रातः काल में बाल भोग मिष्ठान बालक जो है और दोपहर का भोजन राजा जैसा राजभोग और फिर भगवान का अभिषेक होता है, अभिषेक मतलब स्नान । भगवान का स्नान होता है और पंढरपुर में यहां जब स्नान होता है भगवान का अभिषेक हो रहा है तो बीच में ही, बालक जो है उनका माखन चोरी का समय होता है माखन चोरी का । मेरा माखन कहां है ? माखन चाहिए ! माखन ।
“मोहे माखन भावे”
“मेवा पकवान कहती तू”
“रुचि नहीं आवे”
मैया से कहते । यह सारा 56 भोग और क्या मेवा पकवान खिलाती रहती हो ! मुझे यह अच्छा नहीं लगता है । आप मुझे माखन खिलाया करो तो यहां पांडुरंग का अभिषेक हो रहा है तो बीच में ही क्या करते हैं ? अभिषेक को रोक देते हैं । उनको माखन खिलाते हैं । माखन का बड़ा गोला एक आधा किलो या 1 किलो ऐसा बड़ा और उनको खिलाते हैं । जब खिलाते हैं उसी समय एक विशेष छोटी आरती भी कर देते हैं उस रूप का दर्शन कराते हैं जो माखन खा रहे हैं माखन चोर तो फिर भगवान का श्रृंगार होता है । नए कपड़े हर दिन । रात का कपड़ा भी होता है और मंदिर में होता है क्या ? बहुत सारे कपड़े ! रात के कपड़े । हो सकता है पुजारी के पत्नी का कई सारे कपड़े हैं । पुजारी के जो पत्नी है उसके तो दर्जन साड़ियां हैं । बनारसी साड़ी यहां के साड़ी, वहां की साड़ी लेकिन जिस विग्रह की पूजा करते थे राधा रानी के लिए ऐसा कई खादी का वह भी सीधा-साधा और वह बदलते हैं 1 हफ्ते में या 1 महीने में । उनके पत्नी साड़ी हर दिन बदलते हैं । राधा रानी के साड़ी बदलते नहीं । राधा रानी को साड़ी नहीं देंगे । अपने धर्म पत्नी को साड़ी देंगे । हरि हरि !! तो यह समझ नहीं है कि यह विग्रह भगवान है, भगवान यहां पर है । इसलिए मंदिर में प्रवेश करते ही श्रीमान उनके समक्ष प्रणाम करो, नमस्कार करो ।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
( भगवद् गीता 18.65 )
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो । इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे । मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो ।
हम प्रवेश करते हैं, भगवान को नमस्कार करते हैं तो मंदिर से दुबारा कहीं बाहर दुबारा नमस्कार करते हैं । बीच में भी और कई बार नमस्कार होते ही हैं । इससे एक व्यक्ति कृष्ण भावना भावित होता है । यही तो कृष्ण भावना भवित है । हम कृष्ण भावना भावित होते हैं । एक तो विग्रह के रूप में यहां कृष्ण है इस बात का स्मरण रखना इस बात को समझना इसी से हम कृष्ण भावना भावित होते हैं । विग्रह तो है लेकिन कौन परवाह करता है । है या नहीं है कोई फर्क नहीं पड़ता या हम विग्रह आराधना कर रहे हैं क्योंकि हमको पिता मिलता है । कई बार अमीर लोग अपने घरों में रखते हैं कोई पुजारी को और उसको मासिक वेतन मिलता है तो वेतन के लिए पूजा करता है वह बेचारा । वह भी कृष्ण भावना भावित नहीं है । तो हम कैसा हमारा लेनदेन विग्रह के साथ है ? क्या सोचते हैं हम विग्रह के संबंध में ? तो विग्रह भगवान है कि नहीं यह वह और हे भी तो फिर उनसे हम क्या कहेंगे ? क्या मांगेंगे ? वैसे स्तुति करनी चाहिए भगवान की । इसलिए कहा है विग्रह की आराधना के समय आरती मतलब आरती उतारना करते ही है । आरती को गाना भी होता है जिस आरती में भगवान की स्तुति भगवान का नाम, रूप, गुण, लीला का वर्णन होता है । आरती भी और साथ में …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह कीर्तन होना चाहिए । विग्रह के आराधना के साथ यह …
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
( बृहन्नारदीय पुराण )
अनुवाद:- कलह और दम्भ के इस युग में मोक्ष का एकमात्र साधन भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करना है । कोई दूसरा मार्ग नहीं है । कोई दूसरा मार्ग नहीं है । कोई दूसरा मार्ग नहीं है ।
हरि नाम का कीर्तन भी होना चाहिए । ऐसे जीव गोस्वामी और आचार्यों का भी यह जोर संस्तुति दी गई है, नहीं तो आप ने की हुई विग्रह आराधना यह संपूर्ण नहीं है या आप तमोगुण में कर रहे हो आरती । तो कई मंदिरों में हमारे हिंदू मंदिरों में जो पुजारी होता है, कोई गाने के लिए होता ही नहीं है तो फिर वह एक मशीन होती है । मशीन ही घंटा बजाती है, मशीन ही क्या क्या करती है मशीन ! बटन को दबाओ और इतने जोर जोर से घंटा बजता है अलग-अलग नाद होते है और उसमें भगवान का गुणगान होता ही नहीं है । वे इस प्रकार का आराधना या आरती हमारे देश में होते हैं । आपने देखा है कि नहीं ? वृंदावन में भी है या हरिद्वार में है ही और यहां वहां हर जगह, जम्मू कश्मीर से कन्याकुमारी तक । हमने भी यात्रा किए हैं तो हमने कई मंदिरों में, पुजारी अकेला होता है तो आरती शुरू करने से पहले ही शुरू हो जाता है । मशीन में सब बजता रहता है ।
शंख बाजे घण्टा बाजे , बाजे करताल
मधुर मृदंग बाजे परम रसाल ।।५ ।।
अनुवाद:- शंख , करताल एवं मृदंग की मधुर ध्वनि सुनने में अत्यन्त प्रिय लग रही है ।
( गौर आरती, भक्ति विनोद ठाकुर )
सारे वाद्य बजते एक ही साथ । वह सब ऐसा मशीन खरीद के लाते हैं और पुजारी भी रखा है किराए का पुजारी है । हरि हरि !! और मंगल आरती में फिर उठता भी नहीं है । भगवान को जगाना चाहिए प्रातः काल में मंगल आरती के समय और मंगल आरती क्यों करते हैं ? वही समय है भगवान के जगने का वही समय है । इसीलिए हम विग्रह को भगवान का जगने का वही समय है मतलब, गोकुल में या नंदग्राम उनके जगने का, या जगते नहीं तो जगाया जाता है । यशोदा आती है जगाने के लिए तो मंगल आरती करते हैं ब्रह्म मुहूर्त में क्यों करते हैं हम ? वही भगवान का जगने का वही समय है और फिर कृष्ण धीरे-धीरे तैयार हो जाते हैं । यशोदा तैयार करती है कृष्ण को । स्नान हुआ यह हुआ, श्रृंगार हुआ । इतने में आ गए ग्वाल बालक । ग्वाल बालक आ गए अपने अपने गाय बछड़े लेकर । ऐ ! कृष्ण तुम देर हो गए हो । क्या हुआ ? तुम माया में हो । जल्दी करो । यह सब अष्टक कालीन लीला के अंतर्गत भगवान का नित्य लीला की बात है । नित्य लीला में भगवान प्रातः काल में उठते हैं, ब्रह्म मुहूर्त में उठते हैं तो हमको भी उठाना जगाना होगा भगवान को उसी समय । इस तरह हमारा जीवन भी थोड़ा भगवान केंद्रित, विग्रह केंद्रित हो जाता है । भगवान को जगाना फिर हम जगते हैं, हमें तो जगना होगा ।
हरि हरि !! भोजन करना है तो भोग लगाया ? कृष्ण पूछेंगे पहले । भगवान को भोग लगाया ? हां हां । बाल रोग लगाया या राजभोग, फिर हम प्रसाद लेते हैं इत्यादि इत्यादि । कृष्ण के विग्रह जीवन के केंद्र में, जीवन हम जीते हैं । और जो 5 अंग है, भक्ति के तो 64 आइटम्स बताया गया है भक्ति के, आइटम्स कहो या प्रकट कहो । 64 नहीं तो फिर नवविधा भक्ति करो । नवविधा भक्ती नहीं तो फिर कम से कम 5 प्रकार की भक्ति करो ऐसे भक्तिरसामृतसिंधु में सीखाया गया है समझाया है । तो 5 जो भक्ति के प्रधान अंग है उसमें क्या क्या है ? साधु स है भक्तों का संग । नोट करो याद रखो पहले बताया है आपको । आप भूलते रहते हो । हां गायत्री ? तो साधु संग और भागवत श्रवण कहा है 2 नंबर । नाम संकीर्तन 3 नंबर और धाम वास नंबर 4 और विग्रह आराधना नंबर 5 तो यह जो महा साधन । यह महा साधन कहा है । आप लोग साधक हो आप लोग साधना करते हो इसलिए साधक कहा जाता है । इसी हिसाब से आप साधु भी हो जाते हो । साधु साधना करते हैं इसीलिए उनको साधक कहा भी जाता है तो कौन सी साधना है तो साधना के 5 प्रधान साधना है ।
अंतिम प्रकार है शायद मैंने कहा कि नहीं ? वह विग्रह आराधना है, भगवान की आराधना । घर में विग्रह की आराधना, साधारण भी रख सकते हैं अगर घर में है तो । यहां तक की फोटोस भी रखा जा सकता है । गौर निताई का फोटो भी रखो, तस्वीर रखो । पंचतत्व का और कुछ वेदी होना चाहिए घर में । घर में वेदी होना चाहिए । वह घर का केंद्र वही है वेदी । जिस घर में ऐसा वेदी नहीं देवघर या कृष्ण घर नहीं है तो घर तो स्मशान भूमि है या भोग भूमि जरूर है । क्योंकि हम उस देश के वासी हैं जो तपोभूमि के लिए प्रसिद्ध है । हमारी भूमि भारत भूमि तपोभूमि । भोग भूमि तो पाश्चात्य देश भोग के लिए प्रसिद्ध है । फिर भोग से होते हैं रोग आपको बताए ही हैं । फिर वेदी में अर्पित करेंगे तो उसी तरह से । ठीक है ।
॥ हरे कृष्ण ॥
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*02 अक्टूबर 2021*
हरे कृष्ण
एकादशी के दिन कुछ भक्त जुड़ ही जाते हैं। अन्य दिनों में तो वे जप करना भूल ही जाते हैं या हमारे साथ जप नहीं करते। एकादशी के दिन संख्या बढ़ जाती है। आप का स्वागत है! वेलकम! आजकल आप श्रवण के साथ विग्रहों के दर्शन भी कर रहे हो। वैसे इस्कॉन मंदिरों में श्रृंगार दर्शन तो प्रतिदिन होता है। आप तो एक ही विग्रह के दर्शन करते हो लेकिन आप यहां अपने कंफर्ट जोन में बैठे-बैठे संसार भर के विग्रहों के दर्शन कर रहे हो। आपको अच्छा लग रहा है? क्या आप प्रसन्न हैं? कई लोगों ने हाथ ऊपर किए हैं। थाईलैंड से भी हाथ ऊपर उठ रहे हैं। रशिया, मोरिशस इत्यादि से भी उठ रहे हैं। मैं कहना प्रारंभ कर ही चुका हूं, कुछ समय के लिए मैं स्वयं को थोड़ा कंट्रोल करूँगा। आज मैं थोड़े समय के लिए ही बोलूंगा जिससे फिर आप भी बोल सकें। हमने वादा किया था कि जो कल नहीं बोल पाए वह आज बोल सकते हैं। अपने हाथ अथवा इंटरनेट के हैंड्स उठाइए। वैसे भी शो इज नॉट कंपलीट। यह तो इस्कॉन का वैभव है। भगवान के विग्रह इस्कॉन का वैभव है। ऐसे इतने विग्रह आपको किसी संघ, संस्था या संगठन में नहीं मिलेंगे। कुछ तो बदमाश होते हैं। मायावादी होते हैं, उनका भगवान के रूप में विश्वास ही नही होता। अधिकतर देवी देवता को ही लेकर बैठे रहते हैं।
*कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः | तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||* ( श्रीमद भगवतगीता ७.२०)
अनुवाद:- जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं |
देवता के पुजारी कामी होते हैं। अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए भजन्ते ईशदेवता: । यह सब कृष्ण कह रहे हैं, हमें जिम्मेदार नहीं ठहराना। यदि आपकी कोई शिकायत हो तो कृष्ण के पास पहुंचा दो। यदि कोई जानता है तो कृष्ण जानते हैं। कृष्ण ज्ञानवान हैं। उनकी सारी व्यवस्था है। देवी देवता के पुजारी, देवी देवता के आराधना करते रहते हैं। मायावादी तो स्वयं भगवान ही बनना चाहते हैं, जोत में जोत मिलाना चाहते हैं। उनके लिए विग्रह की आराधना का कोई प्रश्न ही नहीं है। यदि वे विग्रह की आराधना करते भी हैं, तो उनकी समझ सही नही है। वे विग्रह तत्व को नहीं जानते। वे भगवत तत्व/विग्रह तत्व को कहीं जानते।
क्रिश्चियन को पता ही नहीं है, उनके अनुसार गॉड कोई बूढ़ा व्यक्ति है, दाड़ी वाला जो हिडिंग इन द बुश ( मतलब पेड़ पौधे) हैं। उन्होंने अब्राहम को देखा, इतना ही दर्शन किया। आप कौन हो, हु आर यू गॉड, हाऊ आर यू गॉड? तब
भगवान (गॉड) ने उत्तर दिया, ‘आई एम व्हाट आई एम।’ मैं हूं, जो भी हूं मैं। ज्यादा कुछ खुलासा नहीं किया, स्पष्टीकरण नहीं किया, न तो दर्शन दिया। क्रिश्चियन लोग मैन इज मेड इन इमेज ऑफ गॉड कहते हैं जोकि सत्य है। मैन इज मेड इन द इमेज ऑफ गॉड। भगवान ने मनुष्य को कैसे बनाया ? जैसे कि वे स्वयं हैं। गॉड की इमेज है, गॉड का रूप है लेकिन उनको पता नहीं क्यों कैसा रूप है। भगवान कुछ हल्के से बूढ़े हैं, दाढ़ी वाले हैं। कहते हैं कि भगवान ने एक पहाड़ के ऊपर से उनको कभी ऐसा हल्का सा दर्शन दिया। जो बौद्धपंथी होते हैं उनका शून्यवाद चलता है। मायावादी निर्विशेषवादी होते हैं, उनके अनुसार भगवान का कोई विशिष्टय नहीं है अर्थात भगवान कोई विशेष नहीं है। भगवान का कोई रूप नहीं है, न ही भगवान का कोई सौंदर्य है। यह मायावादी हुए। बौद्धपंथीय, उनका शून्यवाद है, वह कहां से भगवान के विग्रह की आराधना करेंगे। वैसे वे थोड़ा सा बुद्धदेव की आराधना करते हैं। हमने बर्मा में भगवान के चरण भी उनके मंदिर में देखें। वे कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते हैं। हरि! हरि! निश्चित ही वे कृष्ण को नहीं जानते।
*एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥*
(श्रीमद भागवतम 1.3.28)
अर्थ:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
वे न तो कृष्ण के विभिन्न अवतारों को जानते हैं और न ही मानते हैं कि दस अवतार हैं या
*अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप माद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनञ्च ।*
*वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्ती गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥*
(ब्रह्म संहिता 5.33)
अनुवाद – जो अद्वैत, अच्युत, अनादि , अनन्तरूप, आद्य ,पुराण – पुरुष होकर भी सदैव नवयौवन – सम्पन्न सुन्दर पुरुष हैं , जो वेदों के भी अगम्य हैं, परन्तु शुद्धप्रेमरूप आत्म – भक्तिके द्वारा सुलभ हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ ॥
भगवान के अनन्त रूप हैं।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||*
( श्रीमद भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
भगवान हर युग में प्रकट होते हैं, अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं,
केशव धृत वामन रूप, केशव धृत मीन शरीर, केशव धृत रामशरीर अर्थात केशव ने राम शरीर धारण किया इत्यादि। यह दस अवतार गीत गोविंद में दशावतार स्तोत्र में वर्णित है। यह जो तथाकथित अलग-अलग धर्म है, उनको ज्ञान नहीं है, उनका भगवान के रूप में विश्वास नहीं है, हमारे देश में मायावादी हैं ही, निराकार या निर्गुणवादी भी बहुत बड़ी संख्या में है। अधिकतर जो हिंदू है, वे ऐसे ही हैं या तो वे देवी देवता के पुजारी हैं या मायावादी हैं या निराकार, निर्गुणवादी हैं, भौतिक वादी तो हैं ही। यह सारे बॉलीवुड या हॉलीवुड के हीरो के पीछे लगे रहते हैं। उन हीरो के फोटोग्राफ इनके घरों में, उनके घरों की दीवारों पर लगे होते हैं या वे अपने पर्स में भी अपने हीरो का फोटो रखते होंगे। वे उन्हीं की वरशिप करते हैं। ऐसी परिस्थिति में कृष्ण को जानकर, पहचान कर उनके विग्रह का जो सिद्धांत है अथवा तत्व है, उनकी स्थापना करना यह इस्कॉन कर रहा है। यह हमारी परंपरा में होता आ रहा है। सृष्टि के प्रारंभ से विग्रह की आराधना हो रही है।
पृथु महाराज जोकि भगवान के शक्त्यावेश अवतार हुए, उन्होंने विग्रह की आराधना की, पृथु महाराज विग्रह आराधना के लिए प्रसिद्ध है। हमारी परंपरा में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विग्रह की आराधना करते रहे। वे प्रतिदिन जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ जी का दर्शन करते थे। हरि! हरि! तत्पश्चात जब वे वृंदावन गए, केशव देव, बलदेव, हरिदेव गोविंद देव के दर्शन किए। भारत का भ्रमण किया तब उन्होंने बाला जी का दर्शन, यहां दर्शन, वहां दर्शन किया। छठ गोस्वामी वृंदों ने विग्रह की आराधना की, विग्रह की स्थापना की। चैतन्य महाप्रभु ने आदेश दिया। मंदिरों का निर्माण करो। विग्रहों की आराधना करो और वृंदावन का गौरव बढ़ाओ। उसी परंपरा में श्रील प्रभुपाद, इस्कॉन मंदिर मतलब भगवान का घर जहां भगवान विग्रह के रूप में रहते हैं। हरि! हरि!
एक व्यक्ति बंगाल के थे। उनका कोई अतपत्य नहीं था। उनके कोई बाल बच्चे नहीं थे। हो भी नहीं रहे थे, उन्होंने विग्रह को ही अपना पुत्र मान लिया। अडॉप्टेड द डीटी ऑफ लार्ड एस देयर सन। वे पुत्र के रूप में उनकी देखरेख या देखभाल करते थे। उन्होंने अपनी सारी प्रॉपर्टी अथवा संपत्ति विग्रह के नाम से कर दी। विग्रह के नाम से सारे कागजात बनाएं, सारी प्रॉपर्टी। क्या आप में से कोई तैयार है?, हम लोग कहते हैं कि यह तेरे बाप का थोड़े ही है जबकि जवाब तो ये है कि हमारे बाप का ही है। वो बाप है विठोबा। भगवान ही सबके बाप हैं, हमारे बाप की ही सारी प्रॉपर्टी है। इस गृहस्थ ने सारी सम्पति विग्रह के नाम से कर दी। जब वे नहीं रहे, उनकी मृत्यु हुई। उनका अंतिम संस्कार भगवान के विग्रह ने किया, भगवान के विग्रह साथ में गए।
उनके हाथों से उनके करकमलों से सारे अंतिम संस्कार भी करवाए। ऐसी श्रद्धा, भक्ति विश्वास उस बंगाल के गृहस्थ में थी। हरि! हरि! भगवान विग्रह के रूप में हमें केवल दर्शन ही नहीं देते, हम उनको नमस्कार भी कर सकते हैं। वे हमें सेवा का अवसर देते हैं। हम उनका श्रृंगार कर सकते हैं। जैसे यशोदा श्रृंगार करती है या यशोदा स्नान करवाती है वैसे ही हम भी भगवान का अभिषेक कर सकते हैं। भगवान के लिए हमारे इस्कॉन मंदिर में प्रतिदिन कुछ माताएं आती हैं, प्रभु जी आते हैं लेकिन अधिकतर माताएं आती हैं और कई घंटों तक माला बनाती रहती हैं। वो माला कृष्ण को पहनाई जाती है। यह भगवान की सीधी सेवा है या कुछ माताएं या पुरुष भी आते हैं विग्रह की आराधना करते हैं
*श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना।श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ। युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।*
( गुर्वाष्टक 3)
अर्थ:- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्री श्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
हमारी इस्कॉन बीड, इस्कॉन नोएडा, इस्कॉन सोलापुर मंदिर के भक्तों के साथ साथ कोंगरीगेशन (संघ) के भक्त भी वहां पहुंचते हैं और भगवान की आराधना करते हैं, श्रृंगार करते हैं, भोग बनाते हैं। यह सारी सेवा डायरेक्ट सेवा है। यू आर डायरेक्ट सर्विग टू लार्ड।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह भी तो प्रत्यक्ष सेवा है।
लेकिन थोड़ा समझने में कठिन जाता है कि भगवान के नाम से हम किस तरह से डायरेक्ट सेवा करते हैं किन्तु जब हम विग्रह की आराधना करते हैं, दयालु चैतन्य, थाईलैंड में हमारे समक्ष सेवा कर रही हैं, आप भी देख सकते हो। हरि बोल! गौरांग! यदि आपका बड़ा स्क्रीन है तो आप देख सकते हो। उनकी धर्म पत्नी भी आ गयी। विग्रह की आराधना चल रही है, यह प्रत्यक्ष सेवा है। यह सीधे भगवान की सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है। ओके! मैं अभी रुक जाता हूं और अपनी वाणी को विराम देता हूं। मेरी वाणी रुकने का नाम तो नहीं लेती लेकिन क्या करें, आप भी कुछ बोलना चाहते हो।
ठीक है।
हरे कृष्ण!
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जप चर्चा,
1 अक्टूबर 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज जप कॉन्फ्रेंस में 877 स्थानों से भक्त जुड़ गए हैं। हरे कृष्ण, ऋषिकेन ऋषिकेश सेवया हमारे इंद्रियों का जब हम ऋषिकेश भगवान ऋषिकेश के सेवा में जब उपयोग करते हैं उसको भक्ति कहते हैं। ऋषिक मतलब इंद्रिय।ऋषिक मतलब इंद्रिय क्या? गुरु महाराज एक भक्त को संबोधित करते हुए प्रश्न कर रहे हैं। इंद्रिय और इस इंद्रियों के स्वामी भगवान ही है। हमारे इंद्रियों के स्वामी भगवान हैं। हमने उधार ली हुए हैं भगवान ने हमको इंद्रिय दी हुई है। हमारी तो है नहीं इंद्रिय तो हमारी है नहीं, भगवान की है। यह शरीर हमारा नहीं है। हम तो कहते रहते हैं। हमारा चलता रहता है। यह शरीर तो भगवान का है या भगवान ने दिया हुआ है। इंद्रिय भगवान ने दी हुई है। भगवान इंद्रियों के स्वामी हैं। जब इन इंद्रियों का शरीर में इंद्रिय है, शरीर इन इंद्रियों से बना हुआ है। नवद्वारे पुरेदेही नैव नवद्वार वाला उसमें से कुछ इंद्रिय है, कर्मेंद्रिय, ज्ञानेंद्रिय। इन इंद्रियों का उपयोग प्रयोग हम भगवान की सेवा में करते हैं, उसी का नाम भक्ति है। हम कान से सुन रहे थे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।ँ और कौन सा इंद्रिय व्यस्त था? हम देख भी रहे थे। सुंदर विग्रह को। सुंदरलाला शचीर दुलारा सुंदरलाल या शामसुंदर या गौरसुंदर उनको हम अपने इंद्रियों से, आंखों से देख रहे थे। आंखें भी इंद्रियां है। और फिर मनषष्ठानी इंद्रियानी मन को भी इंद्रिय कहां है। मनषष्ठानी इंद्रियानी मन है छठवां इंद्रिय। पांच इंद्रिय आप जानते हो, ज्ञानइंद्रिया और फिर मनषष्ठानी इंद्रियानी या तो मान छठवां इंद्रिय है या 11 वा इंद्रिय है। मन की भी गणना या गिनती कहो, इंद्रियों में की हुई है। उस मन को भी हम भगवान की सेवा में लगा रहे हैं। लगा रहे थे कि नहीं पता नहीं लगाना तो चाहिए था। हमको ध्यान करना है। ध्यान मन से होता है। इसी से होता है फिर इंद्रिय निग्रह। आत्म संयम। उसको श्रीकृष्ण गीता में कहे हैं शमौ दमोस्तपःशमौ दमोस्तपः शमौ मतलब मन का नियंत्रण।
दम पंचइंद्रिय कहे। जब हम इंद्रियों का प्रयोग उपयोग भगवान की सेवा में करते हैं तो उसी के साथ इंद्रिय निग्रह, इंद्रियों और मन पर भी नियंत्रण होता है। इंद्रियों पर नियंत्रण या मन पर नियंत्रण मतलब, आप चुप बैठो, कुछ नहीं करो, निष्क्रिय हो जाओ, ऐसी तो बात नहीं है। इंद्रियों का सही उपयोग करें। भगवान की सेवा में उपयोग करें। वही है उसी के साथ होता है फिर मन पर नियंत्रण। देखना बंद नहीं करना है या सुनना बंद नहीं करना है। मुख को कुछ ताला नहीं लगाना है। मुंह खोलना ही नहीं आपका, यह बात नहीं है। आपका मुंह खोलो अपनी जीवा का सदुपयोग करो। श्रील प्रभुपाद कहां करते थे, आपके जिव्हा का कंपन होना चाहिए। जब हम जब करते हैं तो जिव्हा में कंपन होना चाहिए। या ऐसे इतना ध्यान पूर्वक जप करो। हरि हरि, ताकि भगवान आपके जिव्हा नृत्त्य करने लगे। और उसी के साथ हमारे मन की जो चांचल्य है चंचलता मन चंचलम हे मन कृष्ण अर्जुन ने भी शिकायत की। आप लोग तो करते ही रहते हो। मन दौड़ता है। इधर उधर दौड़ता है। सारे संसार का भ्रमण करता है। तो फिर प्रयास वही भी है हम लोग साधक हैं। इस मन की जो चंचलता है, मन को स्थिर करना है। मन को एकाग्र करना है। यह करने के लिए फिर बुद्धि का उपयोग करना है। ताकि भगवान पर मन एकाग्र हो। ध्यान मतलब, ध्यान मतलब एकाग्र भगवान पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करना है। भगवान के ऊपर, भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम के ऊपर। विग्रहो का दर्शन करते हैं। दर्शन करते समय, उस समय तो हम और कुछ नहीं करते हैं। हम ध्यानपूर्वक दर्शन कर रहे हैं। या भगवान को देख लिया तो चल ही रहा है, महामंत्र का जप कर रहे हैं। भगवान का दर्शन विग्रह का दर्शन भी कर रहे हैं। कृष्ण के संबंध में विचार भी आएंगे। कृष्ण फिर ऐसे बुद्धि भी देंगे। तधामि बुद्धि योगंतम विचार भी देंगे। या दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित हृदय प्रांगण में कोई दिव्य ज्ञान प्रकाशित होगा। जब हम दर्शन कर रहे हैं।
दर्शन के साथ श्रवण हो रहा है या दर्शन कर रहे हैं तो भगवान की स्तुति करनी होती है। प्रार्थना करनी होती है। हरि हरि, मैं तो यह सोचता रहता हूं बस। सोचो इसके बारे में, वह जो हम भगवान का दर्शन करते हैं तो भगवान की हम आराधना भी करते हैं। श्रीविग्रहाराधननित्यनाम्ना श्रृंगार तनमंदिरमार्जनादो विग्रह की आराधना करते हैं, तो श्रृंगार करते हैं। विग्रह का पुजारी बनते हैं। ब्राम्हण बनते हैं। हमको जरूर करनी चाहिए विग्रह की आराधना। ब्रह्मचारी के लिए भी संन्यासियों के लिए भी। श्रील प्रभुपाद भी करते रहे और हमारे सभी आचार्य वह भी करते रहे। उन्होंने अर्चविग्रहो कि सेवा की है। शीला स्वामी नामक आचार्य हुए हमारी उन्होंने नरसिंह स्वामी की आराधना की है। नरसिंह का प्रसाद कहां उन्हें। हरे कृष्ण, पहले राधा गोविंद की आराधना करते थे रूप गोस्वामी। और राधा मदनमोहन की आराधना करते थे सनातन गोस्वामी। राधादामोदर की आराधना करते थे जीव गोस्वामी। भक्ति में विनोद ठाकुर आराधना करते थे गौर गदादर या अपने भगवान कि, हरि हरि विग्रह की आराधना जब हम करते हैं या, उनका श्रृंगार करते हैं। उनको माल्यार्पण करते हैं। उसी के साथ और भी शोभा बढ़ती है ना, भगवान का सौंदर्य। एक बार श्रील प्रभुपाद ने मुझे भी प्रमुख पुजारी बनाया, राधा रासबिहारी हरे कृष्ण लैंड मुंबई में। मैं कुछ साल भर की हुआ था इस्कॉन ज्वाइन करके।
1 साल ही हुआ था श्रील प्रभुपाद ने मुझे ब्राह्मण दीक्षा दी। और राधा रासबिहारी की आराधना किया करते थे। इसके पहले मैंने आपको बताया था। अंततोगत्वा जब भगवान का श्रृंगार पूरा हुआ। माल्यार्पण भी हुआ। विग्रह को और फिर मुकुट भी पहनाते हैं। और फिर दर्शन खुलता है। भगवान को आईना दिखाते हैं. और भगवान जब अपने सौंदर्य को आईने में देखते हैं। मुझे याद है, मैं भगवान की ओर राधा रासबहारी की ओर देखता था। इनको पसंद है ना, आज का श्रृंगार। या मुझसे प्रसन्न है ये, जैसे मैंने श्रृंगार किया। हम उनके चेहरे की ओर देखते थे जब भगवान अपना चेहरा आईने में देख रहे हैं। क्या वे प्रसन्न है? चेहरा मन का सूचक है कहते हैं। अपने मन के विचार या भाव प्रकाशित होते हैं, कहां से? चेहरे से प्रकाशित होते हैं। हम देखने का प्रयास करते थे, समझने का प्रयास करते थे. भगवान प्रसन्न तो है हमने जो आराधना की, श्रृंगार किया। और इसी के साथ फिर हमारी भी शोभा बढ़ती है, हमारा भी श्रृंगार हो जाता है। साधवः साधुभूषणाः हम भी आभुषित होते हैं. वैसे वह आभूषण है क्षमाः दमाः वह भी है और अजातशत्रवः शान्ताः. सब समझाना पड़ेगा आपको अजातशत्रवः हमारा कोई शत्रु ही नहीं है या हमारा कोई हो सकता है लेकिन हम किसी के शत्रु नहीं है, यह आभूषण है। सुह्रदः सर्वभूतानां और हम सभी जीवो के सुह्रद है या मित्र है। तो साधवः साधुभूषणाः ऐसे गुणों से हम आभुषित हो जाते हैं, भगवान की आराधना करने से। इसको ऐसे भी समझाया जाता है जब हम या आप में से कोई भी विशेष रुप से माताए बहुत समय बिताती है आईने के सामने। वह तो अपने शरीर का श्रृंगार करती है, उसी के साथ आईने में जो है अपना प्रतिबिंब उसका भी श्रृंगार हो जाता है। आपने यहां पर बिंदी लगाई तो आईने में जब देखते हो रूप उसको भी लग जाती है बिंदी। आपने काजल अपने आंखों में लगाया तो आईने मैं भी जो रूप है जिसको आप देखते हैं उसके आंख में भी काजल लग जाता है। तो फिर और भी वस्त्र है, श्रृंगार है मेकअप जो चलता रहता है। जो आपने अपने खुद के शरीर का किया। लेकिन आईने में जो रूप है उसका भी श्रृंगार उसी के साथ हो जाता है। तो वैसे ही हो जाता है भगवान का जब हम श्रृंगार करते हैं। भगवान का रुप मूल है, हम तो है एक प्रतिबिंब। भगवान का श्रृंगार करने से वैसे हमारा भी श्रृंगार हो जाता है, हमारी भी शोभा बढ़ती है, हम भी आभूषणों से सुसज्जित होते हैं। आप समझ गए यह जो उदाहरण है? आईने में देखकर जब आप श्रृंगार करते हैं तो आईने में जो रूप है प्रतिबिंब है उसका भी श्रृगार हो जाता है। उसी प्रकार जब हम भगवान का श्रृंगार, भगवान की आराधना करते हैं, भगवान की शोभा बढ़ाते हैं उनको नटवर बना देते हैं, नटों में श्रेष्ठ नटवर।
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकार बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् । रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः ।।
यह सब कृष्ण के श्रृंगार के आइटम। यह सब कृष्ण पहने हैं। बर्हापीडं नटवरवपुः पगड़ी पहनते हैं या मोर पहनते हैं। फिर मोर पंख भी होता है। पितांबर वस्त्र धारण करते हैं पीताम्बरा अरविंद नेत्रात। वंशी विभुषित करा वंशी धारण करने से उनके हाथों की शोभा बढ़ती है। वैजयन्तीं च मालाम् भगवान वैजयंती माला पहनते हैं। और फिर वन में जाते हैं तो वनमाला पहनते हैं। और वह फुल अगर पद्म फुल है तो उनको पद्ममाली कहते हैं, वनमाली कहते हैं पद्ममाली कहते हैं। इसी के साथ भगवान नटवर बन जाते हैं, नट मतलब एक्टर। नटो नाट्यधरो यथा जैसे कुंती महारानी ने कहा.. कृष्ण क्या करते हैं? जैसे एक ही व्यक्ति अलग अलग भूमिका निभाता है, अलग-अलग सिनेमा में एक ही व्यक्ति होता है। कभी इडियट बनता है, तो कभी क्या बनता है, तो कभी क्या बनता है। कृष्ण को भी कहा है नट वे भी एक्टर है। कभी नरसिम्ह बनते हैं, कभी वराह बनते हैं, तो कभी वामन बनते हैं। बन गए त्रिविक्रम बन गए है, तो अलग-अलग प्रकार के श्रृंगार भी है अलग-अलग प्रकार के हथियार भी धारण करते है। ऐसे भगवान की जब हम आराधना करते हैं और साथ-साथ मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु करते हैं तो भगवान के गुण हमने आ जाते हैं। हम भी गुणवान हो जाते हैं, गुणों से सुसज्जित होते हैं। तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् तितिक्षु सहनशील बनते हैं हम सहनशीलता आ जाती हैं। कारुणिकाः औरों के प्रति करुणा का प्रदर्शन करेंगे हम और यह है
साधवः साधुभूषणाः यह साधु के लक्षण है, आभूषण है। और विग्रह की आराधना से यह भी बात पक्की हो जाती है भगवान का रूप है। यह भूल जाओ निराकार निर्गुण। तो भगवान का रूप है यह बात मन में दृढ़ हो जाती हैं, रूप वाले भगवान हैं। देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः इस रूप का दर्शन करने की देवता भी महत्वाकांक्षा रखते हैं। भगवद् गीता के ग्यारहवें अध्याय के अंत में श्री कृष्ण कहे। अपने रूप के संबंध में कह रहे हैं जिस रूप को तुम देख रहे हो अर्जुन, वैसे मैंने विश्वरूप भी दिखाया तुमको ग्यारहवें अध्याय में। लेकिन तुमको पसंद नहीं आया, तब तुम डर रहे थे तुमने कहा अरे रे मिटा दो इसको नॉर्मल हो जाओ भगवान नॉर्मल दर्शन। यह थोड़ा कुछ भिन्न दर्शन है। तो भगवान फिर चतुर्भुज बने तो उससे भी अर्जुन प्रसन्न नहीं थे। फिर भगवान फाइनली द्विभुज रूप धारण किए। द्विभुज, चतुर्भुज, षड़भुज चैतन्य महाप्रभु ने षड़भुज दर्शन दिखाया। तो द्विभुज दर्शन दिखाते हुए कृष्ण फिर कहे थे देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः सुदुर्दर्शमिदं रुपं और इस रूप का दर्शन दुर्लभ है। दृष्टवानसि तुम जो देख रहे हो यह बड़ा दुर्लभ है इस रूप का दर्शन। देवता भी तरसते हैं इस रूप का दर्शन करने के लिए। इस प्रकार यह विग्रह आराधना की महिमा। तो जप के समय हम दर्शन भी कर रहे थे फिर स्मरण भी कर रहे थे या वह दर्शन हमको कुछ स्मरण दिला रहे थे। कई प्रकार के स्मरण। दर्शन तो कर रहे थे रूप का लेकिन फिर भगवान के गुण का भी स्मरण होता है, भगवान की लीला का भी स्मरण होता है, भगवान के धाम का भी स्मरण होता है, भगवान के भक्तों का स्मरण होता है। हरि हरि। तो आपके क्या विचार है? जैसे आप भी दर्शन करते हुए जप भी कर रहे थे। आपके मन में क्या विचार आ रहे थे या कौन से विग्रह आप को सबसे अधिक पसंद आए। या कोई देख भी रहे थे स्कॉटलैंड के गौर निताई मुझे पसंद आए श्यामलांगी ने लिखा मैंने दर्शन किया था उनका मैं गई थी वहा।
मैंने जब उनको देखा गौर निताई के दर्शन मुझे बहुत पसंद आए। और मणिपुर के राधा-कृष्ण याद है आपको? जिस प्रकार का मुकुट पहने हैं। राधा रानी तो ऐसी साड़ी थी गोल। मणिपुर में माताएं भी पहनती है तो राधा रानी को भी वैसे साड़ी पहनाई जाती है वहां। सब समय पर नहीं लेकिन कुछ विशेष उत्सवो पर। मैं गया था वहां उस विग्रह की जब प्राण प्रतिष्ठा हुई, तो मैं भी था वहां। भक्ति स्वरूप दामोदर महाराज के साथ। भक्ति स्वरूप दामोदर महाराज की जय। मेरे गुरु भ्राता वे मणिपुर के थे। तो उन्होंने जब विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की तो हम भी थे उस समारोह में और उस दिन भी वैसा ही श्रृंगार था, जैसा आज हमने देखा। और आपने कहां-कहां पंचतत्व का दर्शन किए? आपको याद है। ठीक है, चलो थोड़ा संवाद करते हैं। आप में से कोई अपने विचार कहना चाहते हैं? मैंने अपने विचार तो कह दिया। कुछ विचार जो मेरे मन में आ रहे थे या उनके दर्शन करने के उपरांत आए या मैं जब बोलने लगा तब आए। प्रभुपाद चाहते थे कि हमें स्वतंत्र रूप से विचारशील बनना चाहिए। हम भी कुछ सोचना सीखें। और कुछ नए लोग भी बोल सकते हैं। जो अपने विचारों को छुपाते रहते हैं या बोलते नहीं। बोलने से पता चलता है। आप जैसा अपने विचारों को आप जब व्यक्त करते हैं वाणी से।
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