Chant Japa with Lokanath Swami is an open group, for anyone to join. So if you wish to experience the power of mantra meditation or if you wish to intensify your relationship with the Holy Names, join us daily from 5.15 - 7.30 am IST on ZOOM App. (Meeting ID: 9415113791 / 84368040601 / 86413209937) (Passcode: 1896).
You can also get yourself added to the Whats app group for daily notifications. Wapp link: https://chat.whatsapp.com/CV7IL1JB8JCAXi2Z4wGGEQCurrent Month
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
30 सितंबर 2021
857 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । हरि हरि !! हरे कृष्ण ! आभार माने जा रहे हैं । आपको हमने कृष्ण को दिखाया । कृष्ण का दर्शन कराया । नाम भी दिया, नाम तो दिया ही है जब दीक्षा होती है । श्याम कांत ! तुम्हारी भी दीक्षा हुई तो नाम तो देते हैं । नाम के साथ फिर भगवान का रूप भी देते हैं या बताते हैं कि आप नाम जप करो ताकि भगवान की रूप का दर्शन होगा और नाम फिर नाम लेने से भगवान के काम भी पता चलता है । भगवान के लीलाओं का पता चलता है और फिर नाम से धाम तक । नाम से कहां तक ? धाम तक । यह नाम हमको धाम में पहुंचा देता है । हरि हरि !! तो शुरुआत होती है नाम से और नाम से नामी तक हम पहुंचते हैं । नाम से धाम कहो या नाम से नामी कहो । यह समझते हो ना नामी ? ऐसे ऐसे नाम के नामी । नामी मतलब व्यक्ति । जिनका नाम कृष्णा है । नाम नामी । जैसे धन धनी होता है ना धन-धनी । आप जानते हो धन । जिसके पास धन है जिसका धन है उसको धनी कहते हैं । काम काम वासना है तो काम में तो फिर जो काम से कामी होता है ।
यह कामी है । मैं समझा रहा हूं आपको नाम और नामी । कितना अच्छा होता कि हम इसको समझ ही जाते नाम नामी तो नाम से नामी तक । यह सारे हम दर्शन कर रहे थे । पूरा विश्व भर का भ्रमण सिर्फ केवल $8 में । ऐसा कोई गीत भी पहले चलता था । विश्व भर का भ्रमण $8 डॉलर में । हम सारे संसार का भ्रमण किए । कहां कहां गए ? मोहन प्रिया थक गई ! संसार का यात्रा करके भ्रमण करके थक गई तो संसार की यात्रा हुई । अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडिया, यूरोप भर के कई देशों में हम गए । ब्राजील में भी और भगवान के दर्शन किए हमने वैसे $8 भी नहीं । $8 खर्च भी नहीं करने पड़े आपको । विश्व भर का भ्रमण $8 डॉलर में । घर बैठे बैठे फ्री में आपने यात्रा की । ठीक है श्याम प्रेयशी ? घर में बैठो और पूरे विश्व भर में जाओ । यह कृष्ण अब सारे संसार भर में जाकर बैठे हैं । यह कृष्ण कृपा मूर्ति श्रील प्रभुपाद की जय ! तो परंपरा की ओर से परंपरा की आचार्यों की ओर से श्रील प्रभुपाद ने और समय आ चुका था तो श्रील प्रभुपाद, तैयारी हो रही थी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के समय से ही तैयारी हो रही थी या भविष्यवाणी तो हो ही चुकी थी मेरे नाम का प्रचार
पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ॥
( चैतन्य भागवद् अंत्य 4.126 )
अनुवाद:- इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा ।
संसार भर में पृथ्वी पर सर्वत्र नगर आदि ग्रामों में मेरे नामों का प्रचार होगा तो केवल नाम का प्रचार ही नहीं होगा या जहां होता है नाम का प्रचार वहां तो फिर भगवान पहुंची जाते हैं वहां विग्रह पहुंच जाएंगे और वहां फिर तो श्रील प्रभुपाद, यह बालक जब बड़ा होगा कुंडली में लिखा हुआ था 108 मंदिरों का निर्माण करेगा तो श्रील प्रभुपाद ने अपने जीवन में 108 मंदिरों का निर्माण कीया और मंदिर तो फिर दुर्गा, काली, गणेश के नहीं बनाए । वैसे भारत में मंदिर में जाओ तो मंदिर के जो ऑल्टर है वेदी पर सुपर बाजार होता है । कितने सारे विग्रह होते हैं तो फिर आपके पसंद आपकी चॉइस है । उसमें से आप चुन सकते हैं तो वैसे शिवजी काहे ही हैं महादेव ने कहा है …
आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधन परम् ।
तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 11.31 )
अनुवाद:- ( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा 🙂 हे देवी , यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है , लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है । किन्तु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णवों की सेवा , जो भगवान् विष्णु से सम्बन्धित हैं ।
हे देवी ! पार्वती को बता रहे हैं, आराधना विष्णु की होनी चाहिए या विष्णु तत्व की होनी चाहिए या आप भगवान के अलग-अलग अवतारों की आराधना । हरि हरि !! तो श्रील प्रभुपाद वैसे ही किए । प्रचार होना था मेरे नाम का प्रचार होगा ..
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
का प्रचार होगा तो आराधना होगी तो उनकी होगी राधा कृष्ण की आराधना होगी या फिर श्री श्री गौर निताई की जय ! गौर निताई की आराधना होगी क्योंकि गौर निताई कृष्ण बलराम है और जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की जय ! वहां भी जगन्नाथ है वहां भी बलदेव पर बीच में सुभद्रा है । इस प्रकार श्रील प्रभुपाद जो आराध्य है मतलब आराधना करने योग्य या शास्त्र में गीता भागवत शास्त्र में पुराणों की बात अलग है । फिर शिवपुराण भी है यह पुराण भी है वहां पुराण भी है, हरि हरि !! गीता भागवत यह सार ग्रंथ है और फिर साधु है शास्त्र है आचार्य है उनके अनुसार आराधना तो भगवान की होनी चाहिए और कई भी बात है । देवी देवता भगवान नहीं है या फिर …
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 6.242 )
अनुवाद:- कलह और दिखावे के इस युग में उद्धार का एकमात्र साधन भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है , अन्य कोई नहीं है , अन्य कोई नहीं है ।
केवल हरि का नाम होना चाहिए तो देवी देवता हरि भी नहीं है और ब्रह्म की आराधना कैसे करोगे ? अहम् ब्रह्मास्मि । जिनको ब्रह्म का साक्षात्कार होता है वह तो खुद की आराधना करते हैं अहम् ब्रह्मास्मि । वह ब्रह्म में ही हूं । आराधना की प्रश्न ही नहीं है । आराधना में फिर आराध्य देव चाहिए । आराध्या देव हो फिर आराधक हो । आराधक आराधना करने वाला हो और आराधना की विधि हो तो अहम् ब्रह्मस्मि कहने वाले खत्म । आराध्य और आराधक, मैं ब्रह्म हूं मैं ब्रह्म हूं अहम् ब्रह्मस्मि !
सोहम सोहम हरे हरे
हरे सोहम हरे सोहम सोहम सोहम हरे हरे
शायद पहले आपको बताया था । वृंदावन में एक आश्रम है वहां जप होता है । कैसा जप ? हरे सोहम हरे सोहम सोहम सोहम । सोहम स-अहम, वह अहम समझ लो क्या कहा जा रहा है । ‘सह’ वह अहम वह भगवान में हूं । हरे सोहम ! राधा और मैं, मैं मैं राधा राधा तो यह है मायावादी । मायावादी कैसे होते हैं ? कल ही तो बताया था, मायावादी ! कृष्ण अपराधि ।
प्रभु कहे , ” मायावादी कृष्णे अपराधी ।
” ब्रह्म ‘ , ‘ आत्मा , ‘ चैतन्य ‘ कहे निरवधि ॥
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 17.129 )
अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया , “ मायावादी निर्विशेषवादी लोग भगवान् कृष्ण के सबसे बड़े अपराधी हैं । इसीलिए वे मात्र ‘ ब्रह्म , ‘ आत्मा ‘ तथा ‘ चैतन्य ‘ शब्दों का उच्चारण करते हैं ।
ऐसा अपराध करते हैं मायावादी । अद्वैत वादी, निराकार वादी, निर्गुण वादी । ऐसे कई सारे नाम भी है या शंकराचार्य के अनुयाई बने हैं और इसका खूब प्रचार है संसार भर में, भारत भर में, हिंदू धर्म में । इसको चैतन्य महाप्रभु ने कहा है …
जीवेर निस्तार लागि” सुत्र कैल ब्यास ।
मायावादि-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 6.169 )
अनुवाद:- श्रील व्यासदेव ने बद्धजीवों के उद्धार हेतु वेदान्त-दर्शन प्रस्तुत किया, किन्तु यदि कोई व्यक्ति शंकराचार्य का भाष्य सुनता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है ।
या भक्ति का नाश होगा । मायावती भक्ति नहीं करते । किसकी भक्ति करेंगें ? मैं ही ब्रह्म हूं । अद्वैत, अद्वैत मतलब 2 नहीं है । भगवान और हम अलग थोड़े ही हैं, मैं ही भगवान हूं । आपको भी मैं भगवान बना सकता हूं । हरि हरि !! मैं नहीं कुछ ऐसा प्रस्ताव रखते हैं तो सावधान । श्रील प्रभुपाद हमको …
कृष्ण से तोमार , कृष्ण दिते पारो , तोमार शकति आछे ।
( श्रीवैष्णव कृपा – प्रार्थना )
अनुवाद:- आप मुझे कृपाकर कृष्णनामरूपी धनके प्रति श्रद्धाकी एक मूंदमात्र प्रदान कीजिए । क्योंकि श्रीकृष्ण आपके जदयके धन हैं । अतः आप कृष्णभक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं ।
आपके पास कृष्ण है उस कृष्ण को हमें दे सकते हो । ऐसा शक्ति ऐसा सामर्थ्य ऐसी युक्ति, बुद्धि आपके पास है तो हमें कृष्ण दीजिए तो श्रील प्रभुपाद ने सारे संसार को कृष्ण को दिया भगवान को दिया तो जब हम इन सारे विग्रह का दर्शन कर रहे थे तो उस पर विचार आ रहा था । हरि हरि !! तो अब कृष्ण पहुंचे हैं सारे संसार भर में । अब वही रहेंगे भगवान और भी भगवान कई रूपों में या कई सारे विचार हैं तो श्रील प्रभुपाद केवल मूर्तियां विग्रह ही नहीं दिए फिर उनकी आराधना करना भी सिखाए । हरि हरि !! हरीभक्ति विलास नामक ग्रंथ सनातन गोस्वामी लिखे तो उसी के आधार पर अर्चना पद्धति भी सिखाए । विग्रह की आराधना कैसी करनी होती है ! और फिर आराधना के अंतर्गत कहो या भगवान की विग्रह की स्थापना होती है तो जो कृष्ण कहे हैं गीता में …
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
( भगवद् गीता 18.65 )
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो । इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे । मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो ।
यह बड़े सारगर्भित बातें कहे श्री कृष्ण भगवद् गीता में । चार कार्य करो और गीता प्रवचन का कुछ समापन ही होने जा रहा है तो कृष्ण कहे वह श्री कृष्ण इस बात को यह भी बात कहे की अब मैं गुह्यत्तम बात कहने जा रहा हूं कुछ गुह्य बातें कहीं हैं कुछ गुह्यत्तर बातें कहीं हैं अब गुह्यत्तम बात कहूंगा । आप सब समझते हो ना ? गुह्यत्तर-त्तम, गुड, बेटर, बेस्ट ऐसा अंग्रेजी में कहते हैं । गुड – गुह्य, बेटर – गुह्यत्तर, बेस्ट – गुह्यत्तम तो कृष्ण ने कहा कि मैं गुह्यत्तम बात बताऊंगा । इतने में आप सो रहे हो । उस वक्त और जगना चाहिए ना, गुह्यत्तम बात कहने जा रही हैं मुझे बहुत सतर्क रहना चाहिए । इसको मिस नहीं करना चाहूंगा मैं । गुह्यत्तम बात कही जा रही है तो कृष्ण कहे “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां” तो विग्रह होने से, मूर्ति होने से विग्रह की आराधना करने से फिर हम यह जो चार कार्य भगवान ने करने के लिए कहे “मन्मना” मेरा स्मरण करो । हम थोड़ा विग्रह का दर्शन करते हुए भी जप कर रहे थे तो कुछ स्मरण करने में मदद हो रही थी कि नहीं ? ऐसे तो चार्ट में लिख भी रहे थे मेरे आभार भी मान रहे थे कि मैं आपको दर्शन दे रहा हूं । मैं कौन हूं ? हरि हरि !! मेरे हाथ में तो इंटरनेट वगैरह है, तो “मन्मना” भगवान का स्मरण भगवान की विग्रह का दर्शन उनके सौंदर्य का दर्शन करते हैं तो, हरि हरि !! स्मरण हो जाता है ।
“मन्मना” मेरा स्मरण करो तो विग्रह का स्मरण करते हम दर्शन करते हैं । जब दर्शन कर रहे थे तो मुझे कई सारी बातें और भी याद आ रही थी । मैंने बाल्टीमोर के अमेरिका की बाल्टीमोर के जगन्नाथ का दर्शन किया तो हर वर्ष बाल्टीमोर न्यूयॉर्क के पास है । बाल्टीमोर से न्यूयॉर्क लाते हैं जगन्नाथ के विग्रह को और मैंने कई बार कई साल न्यूयॉर्क में उस जगन्नाथ के समक्ष मैंने कीर्तन में करता था तो मुझे वो बाल्टीमोर के जगन्नाथ के विग्रह का दर्शन करते ही वो जगन्नाथ याद आ गए । 5th एवेन्यू मैनहैटन न्यूयॉर्क का एक क्षेत्र मैनहैटन कहते हैं ।उसमें एवेन्यू चलते हैं 5th एवेन्यू सबसे प्रतिष्ठित यह एवेन्यू । यह बाजार है मार्केटप्लेस है 5th एवेन्यू । लेकिन जब इस्कॉन की रथ यात्रा होती है तो सब ट्रैफिक बंद हो जाते हैं और जगन्नाथ के लिए सारे मार्ग खुला होते है । जगन्नाथ रथ में और हम सब रथ के समक्ष तो मैं कीर्तन करता था तो जगन्नाथ के लिए कई साल सालों के बाद साल कीर्तन करता था जगन्नाथ की खुशी के लिए तो मुझे याद आ रहा था । फिर भुवनेश्वर के जगन्नाथ को देखा । भुवनेश्वर के जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा उनका श्रृंगार कुछ विशेष था ।
परंपरागत जैसे जगन्नाथपुरी में होता है । जगन्नाथ पुरी के पास ही है भुवनेश्वर तो इस्कॉन भुवनेश्वर में फिर श्रृंगार है सारे वस्त्र हैं मुझे जगन्नाथ पुरी के जगन्नाथ का स्मरण हुआ वह दर्शन जिस प्रकार कुछ श्रृंगार हुआ था तो उसी तरह से । फिर राधा गोपाल का दर्शन किया इस्कॉन आरवडे । फिर तो क्या कहना बहुत सारी यादें आ रही थी । जब प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव राधा गोपाल का अविस्मरणीय रहा आप में से कोई थे वहां ? गिरिराज गोवर्धन तो थे और भी कुछ थे तो इस तरह से तो यह जो विग्रह का दर्शन आप कर रहे थे इन विग्रहों के साथ मेरा कुछ संबंध है । मैंने उन मंदिरों में जाके दर्शन किए हैं या उनकी सेवा की है या मैंने उनकी आरती उतारी है तो “मन्मना” स्मरण हो रहा था भगवान का भी ।विग्रह का स्मरण हो रहा था फिर कृष्ण का स्मरण जगन्नाथ का फिर उनकी लीला का फिर ऐसे धीरे-धीरे स्मरण होता है रूप का दर्शन फिर उनका लीला का दर्शन फिर वह धाम का दर्शन या स्मरण लीला का स्मरण धाम का स्मरण जहां वे स्थित है तो “मन्मना भव मद्भक्तो” भगवान कहते हैं मेरे भक्त बनो तो हम जब आराधना करते हैं फिर हमारे इष्ट देव भी होते हैं । कुछ विग्रह उनके हम फिर हम को अधिक प्रिय होते हैं हमारा संबंध कुछ अधिक घनिष्ठ होता है । कोई भक्त राधा गोविंद के भक्त हैं “मन्मना भव मद्भक्तो” , कुछ तो बांके बिहारी के भक्त हैं तो कोई राधा गोपाल के भक्त हैं कोई राधा पंढरीनाथ के भक्त हैं तो इस तरह से अपनी-अपनी पसंद या भगवान आकृष्ट करते हैं हमको या ऐसी कोई परिस्थिति बन जाती हैं जब हम वहां रहते हैं और वहां के इस्कॉन के विग्रह का हम भक्त बनते हैं । ‘भक्त समाज’ उस विग्रह का भक्त समाज, राधा गोपीनाथ भक्त समाज चौपाटी में तो वह गोपीनाथ के भक्त बन जाते हैं तो “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी” और तीसरी बार भगवान ने कहे ‘मद्याजी’ मत्-आजी ,मेरी अर्चना करो, मेरी आराधना करो कृष्ण कहे हैं तो विग्रह होने से आराधना आसान होता है ।
ब्रह्म ज्योति की आराधना कैसे करोगे? ब्रह्म ज्योति ! हां? फिर आप ब्रह्मज्योति को समझते हो तो आप समझ जाओगे कि कैसे आराधना करेंगे । ब्रह्म ज्योति की आराधना हो सकती है ? नहीं हो सकती, तो भगवान ने कहा मेरी आराधना करो । यह विग्रह होने से फिर हम उनकी आराधना करते हैं और चौथी बात है “मां नमस्कुरु” मुझे नमस्कार करो । ना तो ब्रह्म की आराधना हो सकती है । विश्वरूप की आराधना विश्वरूप, जो रूप भगवान ने अर्जुन को दिखाया । उनकी कैसे आराधना करोगे ? विश्वरूप को कैसे माल्यार्पण करोगे ? पहुंच सकते हैं उनके गले तक ? हां ? विश्वरूप ! यहां भी है वहां भी है और डरावना भी रूप है तो कैसे ? ताकि हम आराधना करें भगवान विग्रह के रूप में प्रकट होते हैं । भगवान ही होते हैं विग्रह बन जाते हैं ।
अर्च्ये विष्णौ शिलाधीगुरुषु ।
नरमतीः वैर्ष्णवे जाति-बुर्द्धि ॥
( पद्म पुराण )
अनुवाद:- जो यह सोचता है कि मंदिर में पूजा योग्य देवता लकड़ी या पत्थर से बना है, जो वैष्णव गुरु को एक सामान्य इंसान के रूप में देखता है, या जो भौतिक रूप से एक वैष्णव को एक विशेष जाति से संबंधित मानता है, वह नरकी है, जो नरक का निवासी है।
यह सब छोड़ देना चाहिए वैष्णव किसी जाति का होता है । इस जाति का उस जाति का जात पात समाप्त जब वैष्णव बन जाता है उसका कोई संबंध नहीं इस जाति से उस जाति से लेकिन ऐसा समझना इस जाति का उस जाति का फलाने देश का वह ऐसा है वैसा है । नहीं तो “वैर्ष्णवे जाति-बुर्द्धि” “गुरुषु । नरमतीः” गुरु एक साधारण व्यक्ति है “अर्च्ये विष्णौ शिलाधी” और जिस विग्रह की हम आराधना करते हैं वह शिला ही है, पत्थर ही है या कास्ट लकड़ी ही है या धातु ही है । ऐसा समझना वैसी समझ तो उस व्यक्ति को नरक में पहुंचाती है । नरकीय स्थिति को वो प्राप्त करेगा जो यह सोचता है की पत्थर ही है, लकड़ी ही है तो भगवान विग्रह के रूप में हमको ऐसा अवसर प्रदान करते हैं । उनका स्मरण हम कर सकते हैं । उनके भक्त हम बन सकते हैं । उनके आराधना कर सकते हैं । उनको नमस्कार कर सकते हैं । यह नमस्कार करना बहुत बड़ी विधि है “मां नमस्कुरु” ।
नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् ।
प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 12.13.23 )
अनुवाद:- मैं उन भगवान् हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है ।
प्रणाम करो ऐसा भागवतम का जो अंतिम श्लोक है उसमें दो बातें करने के लिए कहे हैं भागवद् कहता है । 18000 श्लोक तो उसमें कहा है कि नाम संकीर्तन करना चाहिए । “नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम्” यह नाम संकीर्तन …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
तो यहां भगवतम समाप्त होता है और बातें नहीं तो मेरा भगवान का नाम और …”प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम्” स्कंद 12 अध्याय 13 श्लोक 23 , 12.13.23 आप समझते हो जब हम ऐसा कहते हैं ? तो उसमें, आप देखिएगा इस श्लोक को भी तो वहां हरि नाम का महिमा है । हरि नाम करने के लिए कहा है और क्या करने के लिए ? “प्रणामो” प्रणाम करने के लिए कहा है । “प्रणामो दुःखशमनस्तं” दुख ‘करलो तुआर दुख नहीं’ दुख नहीं होगा, दुख समाप्त होगा । एक उनका नाम लो और उनको नमस्कार करो । उनको प्रणाम करो भगवान को प्रणाम करो मतलब इसी के साथ हम …
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ॥
( भगवद् गीता 18.66 )
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
हरि हरि !! तो विग्रह को हम प्रणाम कर सकते हैं और ऐसा करने से फिर भगवान कहे हैं “मामेवैष्यसि” हरि हरि !! तो अब भगवान पहुंच गए हैं सदा के लिए वहां रहेंगे और इस प्रकार …
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( भगवद् गीता 4.8 )
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
भगवान धर्म की स्थापना करेंगे या करवाते हैं स्वयं भी करते हैं धर्म की स्थापना अपने भक्तों से करवाते हैं तो हम सब को भी धर्म की स्थापना का कार्य करना है । अपने जीवन में धर्म की स्थापना, अपने घर में धर्म की स्थापना, वर्णाश्रम धर्म की स्थापना और यथासंभव अपने पड़ोस में, घर घर जाओ और वहां धर्म की स्थापना करो तो श्रील प्रभुपाद ने चैतन्य महाप्रभु की ओर से हम को यह होमवर्क दिया हुआ है या कृष्ण का ही वर्क है कृष्ण का ही कार्य है “धर्मसंस्थापनार्थाय” । हरि हरि !! ठीक है मैं यही रुकता हूं ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*29 सितंबर 2021*
*पंढरपुर धाम से*
हरे कृष्ण !
888 स्थानों से भक्त आज जप में सम्मिलित हैं हरि बोल ! गुड न्यूज़ जय गौड़िय वैष्णव एंड कंपनी हरि हरि! यहां वैसे भी हम जप करके भगवान का नाम लेकर भगवान का दर्शन करना चाहते हैं। अभिनत्वात नाम नामिनो ,
*नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह। पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामिनो ।।*
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133)
अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान है, यह चेतना से परिपूर्ण हैं। यह हरिनाम पूर्ण1, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त है । भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं ।
नाम और नामी अभिनत्वात ये तत्व की बात कहो, नाम नामी में भेद नहीं, लिख लो नाम नामिनो, आपको पता होना चाहिए। यह श्लोक बड़ा महत्वपूर्ण है। नाम चिंतामणि नाम को कहा है चिंतामणि, धाम भी है चिंतामणि, चिंतामणि धाम माता जी मॉरीशस में बैठी है और नाम चिंतामणि धाम चिंतामणि और चैतन्य इस नाम में चैतन्य है। चैतन्य इसमें एक्साइटमेंट है। चैतन्य जगेगा जड़ के स्थान पर चेतना आ जाएगी हमारा जीवन जो प्रतीक है। हम जड़ जगत से जुड़े हैं तो हम भी जड़ ही बन जाते हैं किंतु यह नाम जप करने से हममें चैतन्य आ जाता है। हमारी चेतना उदित होती है। जागृत होती है मतलब जीव ही जग जाता है। हम शरीर के स्तर पर कार्य करने के बजाए आत्मा के स्तर पर आ जाते हैं। आत्मा एक्टिव होता है आत्मा एक्टिवेटेड होता है। एक्टिवेटेड आत्मा इज मोटिवेटेड, मोटिवेशनल स्पीच आप सुनते हो तब आप मोटिवेट होते हो। आध्यात्मिक जीवन को स्वीकार करना मतलब हमारी आत्मा को जगाना है। आत्मा के स्तर पर सक्रिय होना है और यही है फिर जीव जागो ! जीव् जागो , मतलब जीव सोया हुआ है।
जीव जागो
*जीव जागो, जीव जागो, गौराचांद बोले।कोत निद्रा याओ माया-पिशाचीर कोले।।*
*भजिनो बोलिया एसे संसारमितोरे।मुलिया रोहिले सुमि अविचार भोरे।।*
*तोमारे लोइते आमि होइनु अवतार।आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार।।*
*एनेछि औषधी माया नाशिबारो लागि’। हरिनाम महामंत्र लओ तुमि मागि’।।*
*भकतिविनोद प्रभु चरणे पोडिया। सेइ हरिनाम मंत्र छोइलो मागिया।।*
१. भगवान् श्रीगौरचन्द्र पुकार रहे हैं, “उठो, उठो! सोती आत्माओं उठ! लम्बे काल
से तुम माया पिशाचिनी की गोद में सो रहे हो।
२. “इस जन्म-मृत्यु के संसार में आते समय तुमने कहा था “हे भगवन्! निश्चित्
ही मैं आपका भजन करूँगा,’ किन्तु अब तुम अपने उस वचन को भूल
गये और अविद्या के अंधकार में डूब गये।
३. “केवल तुम्हारे उद्धार हेतु मैंने अवतार लिया है। मेरे अतिरिक्त आखिर तुम्हारा
कौन मित्र है?
४. “मैं मायारूपी रोग को जड़ से उखाड़ने की औषधी लाया हूँ। अब प्रार्थना करते
हुए यह हरे कृष्ण महामंत्र मुझसे ले लो।”
५. भक्तिविनोद श्रीगौरांग महाप्रभु के चरणों पर गिर पड़ते हैं और हरिनाम की भिक्षा माँगने के पश्चात् उन्हें महामंत्र प्राप्त होता है।
वृंदावन में गाते हैं विभावरी शेष, रात अब बीत चुकी है। ब्रह्मा मुहूर्त हो चुका है निद्रा छाड़ि जीव उठो निद्रा त्यागो बोलो हरि हरि, मुकुंद मुरारी, राम कृष्ण हयग्रीव ! बोलो हरि हरि ! हरि हरि ! नहीं बोल रहे हो? आप बोलो हरि हरि! इस प्रकार हम जो मुर्दे बने हैं। शरीर तो मुर्दा ही है या प्रेत है आत्मा है। आत्मा सोया हुआ है, टेकेन बैक सीट और हमारा शरीर एक्टिव है। मन है बुद्धि है अहंकार है। चैतन्य रस विग्रह नाम चिंतामणि अर्थात नाम को कहा गया है नाम चिंतामणि “चैतन्य रस विग्रह” वह रस की मूर्ति है। अखिलरसामृत सिंधु, भगवान को कहा है अखिलरसामृत सिंधु, यह नाम ही भगवान है, नाम ही है चैतन्य रस विग्रह है रस के स्त्रोत हैं। रस कहो, फिर आनंद कहो, रस के विग्रह, फिर महारास भी है। वात्सल्य रस, सख्य रस, माधुर्य रस, दास्य रस, शांत रस, यह 5 प्रधान रस हुए 7 गौण रस भी हैं। इन सारे रसों के प्रधान अखिलरसामृत सिंधु या मूर्ति कहो, परसोनिफिकेशन ऑफ कृष्ण, जिसमें कृष्ण कृपा मूर्ति हम कहते हैं श्रील प्रभुपाद की जय ! कृष्ण कृपा की मूर्ति जन्मे, कृष्ण की कृपा की मूर्ति का दर्शन या प्रदर्शन किया। कृष्ण कृपा मूर्ति महान बनता है गुरुजनों में, आचार्यो में, इसीलिए उनको कहते हैं हिस डिवाइन ग्रेस ! फिर ऊपर वाला कृष्ण डिवाइन ग्रेस कृष्ण कृपा मूर्ति सेम थिंग तो ओरिजिनल तो कृष्ण ही हैं। कृपा, हे कृष्ण करुणा सिंधु हम कहते हैं यह नाम ही है “करुणा सिंधु” यह नाम ही है “दीनबंधु” यह नाम ही है “जगतपति” नाम चिंतामणि चैतन्य रस विग्रह फिर कहा है नित्य शुद्ध मुक्त पूर्ण यह सब नाम के विशेषण हैं आप समझते हो विशेषण होते हैं विशेष और विशेषण होता है एडजेक्टिव्स कहते हैं विशेष, विशेषण, कृष्ण विशेष हैं और कृष्ण के विशेषण हैं कृष्ण करुणा सिंधु हैं यह विशेषण हुआ दीनबंधु हैं यह विशेषण हुआ यह वैशिष्ठ हुआ वैशिष्ठ कृष्ण के हैं वैशिष्ठ हरि नाम के भी हैं। इसीलिए यहां कहा है यह पद्म पुराण का वचन है ” नित्य शुद्ध पूर्ण मुक्त” अतः यह नाम कैसा है नित्य है भगवान स्वयं ही नित्य हैं उनके नाम भी नित्य हैं। किन्तु हमारे नाम तो, हम कभी गधे बन जाते हैं कभी बिल्ली बन जाते हैं कभी पेड़ बन जाते हैं नाम बदलते हैं पेड़ कहीं का, गधा कहीं का, कहीं कौवा कहीं का, कृष्ण तो कृष्ण ही रहते हैं सब समय क्योंकि सृष्टि के प्रारंभ में भी कृष्ण थे। क्रिएशन के लिए क्रिएटर चाहिए, किन्तु बुद्धू इतना भी नहीं समझते और मानकर बैठे हैं बिग बैंग थ्योरी, ऐसा कुछ एक्सप्लोजन हुआ और हो गई सृष्टि, एक्सप्लोजन से कंस्ट्रक्शन होता है कि डिस्ट्रक्शन होता है? बिगबैंग एक्सप्लोजन हुआ, उसी के साथ सृष्टि नहीं होती है उसी के साथ प्रलय होता है।
*अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् | परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 9.11)
अनुवाद- जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते |
कृष्ण ने कहा है अवजानन्ति मां मूढा, मुझे वह नहीं जानते
*येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः | तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ||* (श्रीमद भगवद्गीता 9.23)
अनुवाद- हे कुन्तीपुत्र! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी पूजा करते हैं, किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं
अन्य भी हैं वे शरण लेते हैं देवताओं की, इसकी शरण लेते हैं उसकी शरण लेते हैं। नित्य भगवान नित्य हैं तो भगवान का नाम भी नित्य है नित्य मुक्त है, अर्थात वे निश्चित ही हैं और मुक्त भी हैं अतः भगवान का नाम भी मुक्त है बद्ध नहीं है। माया का प्रभाव नहीं होता, फिर नाम भी अच्युत है।
अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||*
(श्रीमद भगवद्गीता 18.73)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
च्युत और अच्युत भगवन का एक नाम भी है अच्युत भगवद प्रसादात अर्जुन ने कहा कृष्ण से यह, जो भगवद्गीता है यह प्रसाद मुझे आप से प्राप्त हुआ। हे अच्युत ! और च्युत मतलब नीचे गिरना, पतन होना इसको च्युत कहते हैं और अच्युत मतलब भगवान का कभी पतन नहीं होता, माया नेवर टेक फॉल डाउन, ऐसा कभी नहीं होता।
*मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ||* (श्रीमद भगवद्गीता 9.10)
अनुवाद- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
वे अध्यक्ष हैं माया के अधीन वे कभी नहीं होते। *अहम् ब्रह्मास्मि* मायावादी कहते हैं ब्रह्म को माया ने घेर लिया, झपट लिया इसलिए ब्रह्म का पतन हुआ था और अब मुझे साक्षात्कार हुआ। क्या साक्षात्कार? “ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या” यह जगत मिथ्या है ब्रह्म सत्य है। अहम् ब्रह्मास्मि मै ब्रह्मा नहीं था माया ने मुझे झपट लिया था माया के अधीन था और अब अहम ब्रह्मस्मी। यह मायावादी जो कृष्ण अपराधी होते हैं मायावादी कैसे होते हैं ? कहो मायावादी , आप क्या कहोगे कृष्ण अपराधी ! मायावादी, कृष्ण अपराधी! मायावादी, कृष्ण अपराधी! कृष्ण के चरणो में अपराध करते हैं अनाड़ी होते हैं लास्ट नियर ऑफ़ मायावादी, प्रभुपाद कहते हैं हरि हरि ! अर्थात यह नहीं कि ब्रह्म का पतन हुआ , ब्रह्म माया में फस गया था और अब वह ब्रह्म मुक्त हुआ आप समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूं ? भगवान अच्युत हैं और ब्रह्म भी अच्युत हैं। वैसे ब्रम्हेति, परमात्मेति , भगवानेति, ऐसे शब्द हैं ब्रम्ह भगवान है परमात्मा भी भगवान हैं और भगवान तो भगवान है ही या ब्रह्म और परमात्मा के स्त्रोत हैं भगवान स्वयं और यह भगवान का वैशिष्ट या खासियत कहो कि वे अच्युत हैं नेवर फाल्स डाउन उनका पतन नहीं होता वे संसार में आते जरूर हैं हमारे उद्धार के लिए लेकिन भगवान माया में नहीं फंसते, यह नहीं कि ब्रह्म माया में था अब मैं ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या, मैं ब्रह्म हो गया हरि हरि ! अतः नित्य भगवान का नाम नित्य भगवान नित्य हैं और शुद्ध भगवान का नाम कैसा है शुद्ध है। इसीलिए वो हमको भी शुद्ध बना सकता है भगवान का नाम, भगवान स्वयं शुद्ध हैं पवित्र हैं उनके संग से हम भी शुद्ध होते हैं। चेतोदर्पणमार्जनम, सूर्य के संग में जो भी क्षेत्र आ जाता है यहां पर लोग मल मूत्र का विसर्जन करते होंगे या और भी कोई गंदे इलाके होंगे तो सूर्य की किरणों से वो सारा क्षेत्र भी शुद्ध होता है। उसका शुद्धिकरण होता है और यह करते समय उसमे कोई बिगाड़ नहीं आता।
सूर्य सदैव शुद्ध ही रहता है या पवित्र ही रहता है क्योंकि वो सूर्य है। सन नेवर गेट्स कॉन्टैमिनेटेड, वैसे ही कृष्ण सूर्य सम कृष्ण कैसे हैं कृष्ण सूर्य सम, उसी प्रकार भगवान का नाम भी सूर्य सम है। तो यह क्या करता है? यह स्वयं शुद्ध है और इसके संपर्क में जो भी आते हैं वह भी शुद्ध हो जाते हैं *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* इसको कह के जब हम उसका श्रवण करते हैं तब यही है भक्ति योग या भक्ति के प्रकार हैं। श्रवणं कीर्तनम विष्णु स्मरणम यह जो हम करते हैं तब हम भगवान के संपर्क में आते हैं भगवान के साथ हमारा यह मतलब संबंध स्थापित होता है और इस संबंध से हम भी शुद्ध होते हैं। इसी को कहते हैं शुद्ध नाम जप, जप की भी तीन अवस्थाएं हैं। आप जानते हो यह हरिनाम चिंतामणि में समझाया है भक्तिरसामृत सिंधु , में भी या यह भी अपराध पूर्ण जप , ऐसा जप अपराध पूर्ण अपराध युक्त जप अपराध के साथ जप, भी हो रहा है। अपराध हो रहे हैं और फिर हम समझ लेते हैं इसको कहते हैं यह वैष्णव अपराध है यह अपराध है यह वह अपराध है यह नाम अपराध है। गुरुर अवज्ञा श्रुति शास्त्र निन्दनं यह नाम अपराध है। इसको हम सीखते हैं समझते हैं टालने का प्रयास करते हैं इसको क्लीयरिंग स्पीच कहते हैं या टेक्निकली इसको नामाभास कहा है। यह दूसरी अवस्था है आप को यह भली-भांति समझना है और इसका अभ्यास भी करना है इसको आपको औरों को सिखाना भी है। *यारे देख तारे कह कृष्ण उपदेश*, करोगे तब यह सब सिखाना भी है। हम क्यों सिखा रहे हैं आपको, खाली फोकट उद्देश्य होगा, एक उद्देश्य होगा आप सिखाओ औरों को पहले स्टूडेंट बनो फिर बिकम टीचर आज का स्टूडेंट कल का टीचर और सिखाने से फिर आप स्वयं भी सीखोगे, स्वयं को भी साक्षात्कार होंगे सिखाते सिखाते, विद्या दानेन वर्धते कहा है उसको भी लिखो अभी-अभी हमने क्या कहा, विद्या दानेन वर्धते ,विद्या का होता है वर्धन विद्या बढ़ जाती है। कैसे? दानेन, विद्या का दान करने से विद्या बढ़ जाती है। घट नहीं जाती है डरने की आवश्यकता नहीं है ऐसा नहीं की यह सारा ज्ञान देते जाएंगे फिर हमारा दिवाला निकल जाएगा, हमारा क्या होगा? वी बिकम बैंकरप्ट ऐसा नहीं होता है। इसका फायदा है ज्ञान देने में, आपका ज्ञान बढ़ेगा यह आपका ज्ञान विज्ञान बन जाएगा।
*शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥* ॥ (श्रीमद भगवद्गीता 18.42)
अनुवाद- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं |
ज्ञान विज्ञान सहित कर्म, भगवत गीता 18 अध्याय 42 श्लोक कृष्ण ने कहा , ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ब्राह्मण ज्ञानी भी होता है और विज्ञानी भी होता है। ज्ञान विज्ञान इंप्लीमेंटेशन, अमल करेंगे, साक्षात्कार होगा, नित्य शुद्ध, मुक्त भगवान का नाम मुक्त है। माया से मुक्त है सदा सदैव और कौन हैं वैसे 14 और भी हैं विशेषण है , उस लिस्ट में यह चार हैं नित्य है, शुद्ध है, मुक्त है और पूर्ण हैं। भगवान का नाम,
*ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।* ईशोपनिषद
यह एक बहुत बड़ा सिद्धांत है या तत्व है उसको भी हमको कंठस्स्थ करना चाहिए ह्रदयगम भी करना चाहिए। भगवान पूर्ण हैं और इस पूर्ण से जो भी उत्पन्न होता है वह भी पूर्ण है। यहां तक कि हमारा शरीर है जो ब्रह्मांड में है वह पिंड में भी है हमारे शरीर को पिंड भी कहते हैं “पिंडे पिंडे मतिर भिन्ने मुंडे मुंडे मतिर भिन्ने” अच्छा लगता है आपको सुनने में, मुझको अच्छा लगता है पिंडे पिंडे, पिंड मतलब यह शरीर को पिंड कहा है। मतलब इस पिंड में उस पिंड में हर पिंड में क्या होता है मतिर भिन्ने , दुर्देव से या सुदेव से, मति भिन्न होती है। हर एक का अपना-अपना मत होता है इस संसार में तो होता ही है फिर हम जब परंपरा में बातों को सीखते और समझते हैं तब हम एक विचार के हो जाते हैं। हमारी मती एक जैसी हो जाती है वैसे भी हम अलग अलग व्यक्ति हैं। तो अलग -अलग विचार करेंगे किंतु फिर भी सारे विचार कृष्ण भावना भावित ही होंगे और य मती स गति भी कहा है चार ही अक्षर हैं बहुत ही सिंपल मंत्र है लेकिन बहुत कुछ छुपा हुआ है इसमें सारगर्भित है।
य मति स गति जैसी हमारी मति होगी वैसे ही हमारी गति होगी, लक्ष्य क्या है ? हम कहां पहुंचेंगे, इस संसार में कहते हैं यह रामकृष्ण मिशन में, यह सब कहा जाता है और कहते हैं “यत मत तत् पथ” जितने भी मत हैं जितने भी पथ हैं वह सही हैं। लेकिन यह बकवास है ऐसे प्रचार से सावधान ! हरि हरि ! जप की तीन स्थितियां एक अपराध के साथ जप करते हैं फिर नामभास मतलब कुछ क्लीयरिंग अपराधों से बचने का प्रयास है। नामभास क्लीयरिंग स्टेज और फिर शुद्ध नाम जप, हमारा लक्ष्य या गति तो शुद्ध नाम जप करना है। भगवान शुद्ध हैं हम भी शुद्ध हो गए तभी उनका सानिध्य संभव है। भगवान शुद्ध हैं भगवान पवित्र हैं परम ब्रम्ह परमधाम पवित्रं परमं भवान , पवित्र भगवान के साथ रहना है हमको भी पवित्र होना।
ए दूर रहो दूर रहो ,गेट आउट, अस्पर्शय, गंदे कहीं के , से सम डिस्टेंस, सोशल डिस्टेंस, स्टे अवे, दूर रहो, भगवन के नाम की बात चल रही है तो भगवान का नाम ही पूर्ण है और भगवान का नाम षड ऐश्वर्य पूर्ण है भगवान का नाम पूर्ण है मतलब क्या ? षड ऐश्वर्य पूर्ण है समग्रस्य ऐश्वर्ययस्य वीररस्य:, यशस: ,श्र्या, ज्ञान, वैराग्य षण्णां िटिंगना , भगवान की परिभाषा पराशर मुनि श्रील व्यास देव के पिता श्री पराशर मुनि का यह वचन है षड ऐश्वर्य पूर्ण भगवान, यह भगवान की व्याख्या, इसको कहते हैं भगवान! पराशर मुनि ने जो कहा उनको क्रेडिट मिलता है उन्होंने कहा समग्रस्य : समग्र ऐश्वर्य , समग्र मतलब पूर्ण कंप्लीट फॉर्म पूर्ण ऐश्वर्या, वीर्यवान, यशस, यश यशस्वी हो ना टू बी सक्सेसफुल, यशस्वी संपूर्ण यश, यश वान, यशवंत भी कहते हैं। महाराष्ट्र में नाम चलता है जैसे हमारे महाराष्ट्र के चीफ मिनिस्टर पीछे एक यशवंतराव चौहान, यशवंत एक ही बात है। गणमान्य, गुणवंत ,वीर, यश, श्रेया मतलब सौंदर्य , भगवान कंप्लीट ब्यूटी और ज्ञान भगवान ज्ञानवान है , सर्वज्ञ हैं पूर्ण ज्ञान गीता में भगवान ने कहा भगवान उवाच , यहां ज्ञानवान उवाच , मतलब कौन बोल रहे हैं? भगवान बोल रहे हैं। जैसे भगवान ज्ञानवान बोल रहे हैं यह पांचवा वैभव है और ज्ञान वैराग्य और भगवान वैराग्य की मूर्ति है। भगवान चैतन्य महाप्रभु ने संयास ले लिया रास क्रीडा होने जा रही थी। वहां से आगे बढ़े तो यह सारा संसार उन्हीं का है यह सब हम सब को दे दिया भोगने के लिए स्वयं नहीं भोगते , भगवान वैराग्य वान हैं हरि हरि !
यह भगवान के षड ऐश्वर्य पूर्ण , नित्य शुद्ध ,मुक्त, भगवान षड ऐश्वर्या पूर्ण भी हैं और फिर अंत में कहा है। अभिनत्वात नाम नामिनो नाम और नामी अभिन्न हैं नाम और नामी में भेद नहीं है। क्या क्या नोट किया आपने ? एक तो नाम, नाम चिंतामणि, चैतन्य रस विग्रह, पूर्ण शुद्ध नित्य मुक्त और अंत में अभिनत्वात नाम नामिनो, ठीक है फूड फॉर थॉट आपके लिए पूरा इतना डाइजेस्ट करो, यह करने के लिए क्या करना होगा चिंतन करना होगा, मनन करना होगा ,भूल गए तो फिर अपने नोट्स देखना होगा, नोट लिखे नहीं तो फिर गए काम से, इसीलिए व्यास देव ने ग्रंथ लिखा क्योंकि इस कलयुग के लोग मंद होंगे , बुद्धि भी मंद, हरि भरोसे, राम भरोसे, राम भरोसे चलता है ठीक है अब मैं यहीं विराम देता हूं।
निताई गौर प्रेमानंद !
हरी हरी बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
28 सितंबर 2021
पंढरपुर धाम से
885 स्थानों से आज भक्त जप कर रहे हैं । हरि हरि ।
हरि हरि । ठीक है । आप सभी का स्वागत है । आज कुछ अधिक नए भक्त जुड़े हैं या पुराने भक्तों को पुनः प्रातःकाल में जप करने की याद आ गई इसलिए संख्या में कुछ बढ़ती हो गई है । हरि हरि । यह हर्ष का विषय है । संकीर्तन! हम क्या करते हैं ? हम संकीर्तन करते हैं , मतलब कांग्रेगेशन जप करते हैं , अधिक संख्या तो अधिक संकीर्तन हो जाता है । कीर्तन का होता है संकीर्तन संग प्रकार में कीर्तन , संग प्रकार से जप भी हो जाता है जब संख्या में बढ़ती है तो संकीर्तन यहां अधिक संकीर्तन संग संग संग कीर्तन । शिरोमणि गोपीका सुन रही हो ? हरि हरि । ठीक है । जप करना जारी रखो लेकिन अभी नहीं अभी सुनिए मैं कीर्तन कर रहा हूं । यह अभी कीर्तन है , जो बोलते हैं यह भी कीर्तन ही है । वैसे हम कल परसों बता रहे थे , कीर्तनिय सदा हरी ।
सिर्फ हरे कृष्ण हरे कृष्ण यहीही कीर्तन नहीं है भगवान की कथा कहना भी कीर्तन ही है । मैं कीर्तन कर रहा हूं , अब मैं कीर्तनकार बन चुका हूं । महाराष्ट्र में खूब कीर्तनकार होते हैं , कीर्तनकार ! कीर्तन करने वाले । मैं कीर्तनकार और आप श्रवणकार या श्रवण करता । कीर्तन करता और कीर्तन करता । श्रवण करते-करते फिर आपको भी कीर्तन करना है । हां , राधा माधवी तुमको भी कीर्तन करना है । हर एक को कीर्तन करना है । पहले श्रवण करना है । हरि हरि । यहां पर भी वैसे ही हुआ , सुखदेव गोस्वामी कीर्तन कर रहे थे और परीक्षित महाराज श्रवण कर रहे थे । उस सभा में , उस धर्म सभा में , उस भागवत कथा में सुत गोस्वामी भी भागवत कथा श्रवण कर रहे थे । राजा परीक्षित आगे बढ़े , नहीं रहे , भगवान के नित्य लीला में प्रविष्ट हुए , भगवान के नित्य लीला में उन्होने प्रवेश किया किंतु सूत गोस्वामी नई शरण्य में कथा करने लगे , उन्होंने कथा की जो कथा उन्होंने सुनी थी सुखदेव गोस्वामी से उसी कथा को उन्होंने श्रवण आदि मुनियों को सुनाया । मैं यह कह रहा हूं कि पहले हम श्रवण करते हैं और फिर श्रवण के उपरांत फिर हमारी बारी होती है कीर्तन करने की । हर जीव को भगवान की किर्ती का गान करना चाहिए । आप सब जीव हो , हो कि नहीं ? (हंसते हुए) अगर आप जीवित हो मतलब आप भी जीव हो । हरि हरि । श्रवण कीर्तन । प्रातकाल आज जब हम उठे और मंगल आरती में जाना था , गए भी लेकिन यहा इतनी भारी वर्षा हो रही थी कि पूछो मत । पंढरपुर निवास में , मंदिर पहुंचने के लिए कई सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था । उस समय हम याद कर रहे थे ,
शीत आतप , वात बरिषण , ए दिन यामिनी जागि’रे ।
विफले सेबिनु कृपण दुरजन , चपल सुख – लव लागि’ रे ।।
अरे मन ! तू सर्दी – गर्मी , आँधी – तूफान , बरसातमें तथा दिन – रात जागकर इन संसारी दुर्जनोंकी सेवा जिस सुख प्राप्तिकी आशासे कर रहा है वह क्षणभरका सुख तो चंचल अर्थात अनित्य है ।
शीत आतप , वात बरिषण, ए दिन यामिनी जागि’रे ।
ऐसा ही जीवन है । गोविंद दास अपने एक गीत में लिखते हैं । हम लोग ज्यादा सोचते नहीं लेकिन यह जो वैष्णव आचार्य होते है यह सोचते हैं और कुछ निरीक्षण करके हमारे लिए कुछ पीछे छोड़ कर गए हैं । बात तो सीधी से है लेकिन हम सोचते नहीं । उन्होंने कहा कि यह संसार में क्या होता है ?
शीत मतलब कभी शीतकाल , आतप , कभी गर्मी है । कभी शीतकाल है तो कभी गर्मी है । वात मतलब हानि , आंधी को कहा है । वात से बात , आंधी तूफान है । बरिषण मतलब वर्षा ।
शीत आतप , वात बरिषण , ए दिन यामिनी जागि’रे ।
ए दिन मतलब दिन में , यामिनी रात में , रातों दीन कोई ना कोई समस्या इस संसार में बनी रहती है , ऐसे गोविंदास लिख रहे हैं । हम इस गीत को याद कर रहे थे और फिर आगे यह भी कहा है ।
ए धन , यौवन , पुत्र परिजन , इथे कि आछे परतीति रे ।
कमलदल – जल , जीवन टलमल , भजहुँ हरिपद निति रे ।।
अरे ! इस धन , यौवन , पुत्र तथा परिजनोंकी तो बात ही क्या , स्वयं तेरा जीवन ही तो कमलके पत्तेपर स्थित पानीकी बूंदकी भाँति टलमल – टलमल कर रहा है अर्थात् तेरा जीवन भी कब समाप्त हो जाएगा , यह भी निश्चित नहीं है । अतः तुम भगवानके श्रीचरणमकलोंका भजन करो ।
कमलदल – जल , जीवन टलमल , भजहुँ हरिपद निति रे ।।
यह जीवन कैसा है ? कैसा है यह जीवन ? कमलदल – जल, कमल के पत्ते के ऊपर जल का एक बिंदु , एक-एक शब्द को आप पढ़ते जाइएगा या सुनते जाहिए । कमलदल – जल यह क्या है ? जीवन टलमल , हमारे जीवन की तुलना वह किसके साथ कर रहे कमल के दल पर जल का बिंदु वह थोड़ी सी हवा के झोंके के साथ बिंदु गिर जाता है ज्यादा टिकता नहीं है बिल्कुल वैसा ही हमारा जीवन है । हरि हरि ।
श्रवण , कीर्तन , स्मरण , वन्दन , पादसेवन , दास्य रे ।
पूजन , सखीजन , आत्मनिवेदन , गोविन्द दास अभिलाष रे ।।
श्रवण , कीर्तन , स्मरण , वन्दन , पादसेवन , दास्य , पूजन , सख्य और आत्मनिवेदनरूप नवधा भक्तिकी अभिलाषा करता है ।
हरि हरि । उन्होंने कहा है समाधान क्या है । समस्या यह है कि यहां ,
शीत आतप , वात बरिषण , ए दिन यामिनी जागि’रे , यह भी है , आदि देवीक , आदि भौतिक , आध्यात्मिक यह तापत्रय हमारे पीछे लगे हुए हैं , यही तो माया है । उपाय क्या है यह ? इस गीत के शुरुआत में उन्होंने कहा ही है ,
भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन , अभय चरणारविन्द रे ।
दुर्लभ मानव – जनम सत्संगे , तरह ए भव सिन्धु रे ।।
हे मेरे मन ! तुम यह दुर्लभ मानव जन्म प्राप्तकर सत्संगमें ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीश्यामसुन्दरके अभय अर्थात् समस्त प्रकारके भयोंका विनाश करनेवाले श्रीचरणकमलोंका भजन करो तथा इस अथाह भवसागरको पार कर लो ।
भजहुँ रे मन , इसलिए वह मन को प्रार्थना कर रहे है । मन को क्या करो । भजहुँ रे मन , किसको भजो ? श्री नंद नंदन । और यह भी लिखते हैं कि मनुष्य जीवन जो है,
दुर्लभ मानव – जनम सत्संगे , तरह ए भव सिन्धु रे ।।
यह मनुष्य जीवन दुर्लभ है सभी शास्त्रों में कहा है वही बात वह इस गीत में लिख रहे हैं । दुर्लभ , लभ मतलब लाभ , दूर मतलब कठिन । एक होता है सुलभ , एक होता है दुर्लभ । सुलभ मतलब सुलभ शौचालय (हंसते हुए ) किसी ने शौचालय सुलभ कर दिया । सुलभ और यह दुर्लभ । मनुष्य जीवन दुर्लभ है ।
दुर्लभ मानव – जनम , इस लिए क्या करना चाहिए ? दुर्लभ जनम सत्संगे , सत्संग में बिताना चाहिए । जीवन को सत्संग में बिताना चाहिए , सन्तों के , भक्तों के संगति में , भक्तों के साथ में हमारा सम्बंध , संपर्क होना चाहिए और सत्संग प्राप्त हो या सत्संग उपलब्ध कराया जाए इसी उद्देश्यसे श्रील प्रभुपाद ने इस कृष्ण आंदोलन की स्थापना की है । वैसे आज के दिन श्रील प्रभुपाद का अमेरिका में आगमन हुआ यह हमारे वैष्णव कैलेंडर में लिखा है । हम तो सोच रहे थे कि 17 सितंबर को प्रभुपाद अमेरिका पहुंचे लेकिन 17 तारिक को तो बॉस्टन में पहुंचे । बॉस्टन रास्ते में आ गया , बॉस्टन पहुचे । लेकिन प्रभुपाद को न्यूयॉर्क पहुचना था । न्यूयॉर्क गंतव्य स्थान था । आज के दिन फिर 28 सितंबर को श्रील प्रभुपाद अमेरिका पहुंचे । जो आज के दिन हम अनुभव कर रहे थे ,
शीत आतप , वात बरिषण , इसमें से वर्षा खूब यहा हो रही थी । तब वह श्रीला प्रभुपाद का नौका जलदूत न्यूयॉर्क के पास पहुच रही थी आगे बढ़ रही थी न्यूयॉर्क की दिशा में किंतु कोहरा था , इतना कोहरा था कि जलदूत नौका को एक स्थान पर रोका था , आगे बढ़ना था लेकिन कुछ दिख नहीं रहा था । मैं नही बताऊंगा क्या-क्या होता है लेकिन प्रभुपाद अपने जलदूत डायरी में लिख रहे हैं ।
जलदूत डायरी समझते हो ये आपको समझना होगा एक डायरी का नाम है। जलदूत डायरी जलदूत जहाज में जब प्रभुपाद प्रवास कर रहे थे तब जो डायरी लिखे तो उसका नाम है जलदूत डायरी आप उसको पढ़ो या प्राप्त करलो कहीं ढूंढो इंटरनेट पर और वह डायरी प्रकाशित भी हो चुकी हैं। उस पुस्तक का नाम है जलदूत डायरी उसमे प्रभुपाद लिखे है कि उनकी नौका जलदूत उसका नाम न्यू यॉर्क के पास पहुंच रही थी पहुंचते पहुंचते ही रुक गई क्योंकि वहां कोहरा था समझते हो तो वैसा प्रभुपाद के लिए वहां कोहरे का अनुभव और उसके कारण दिक्कते हुई और आज हमारे लिए यहां वर्षा के कारण दिक्कत कोई ना कोई कारण बन ही जाता है।
श्रील प्रभुपाद न्यू यॉर्क पहुँचकर इस्कॉन की स्थापना किए किस उद्देश्य से ताकि संसार भर के लोगों को सत्संग प्राप्त हो दुर्लभ मानव जनम सत्संगे श्रील प्रभुपाद ने सत्संग उपलब्ध कराया इस्कॉन की स्थापना कर कर और फिर 14 बार वह उन्होंने पूरे पृथ्वी का भ्रमण किया जहां भी प्रभुपाद गए कृष्ण की मांग की कृष्णभावनामृत लोग चाह रहे थे। यही उपाय है यही एक पर्याय है एक तो माया हैं और दूसरे कृष्ण है तीसरा कुछ है एक है कृष्ण दूसरी है माया और हम बुरी तरह माया में फंसे हुए हैं। तब पर्याय क्या है सिर्फ कृष्ण ही एक पर्याय है इसीलिए केवलम कहा है हरेर नामेव केवलम कहा गया हैं अन्य कोई उपाय नहीं है अन्य कोई उपाय नहीं है अन्य कोई उपाय नहीं है सिर्फ एक ही उपाय है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे मंगला आरती की हमने राधापंढरीनाथ की और मंदिर के पीछे ही चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु और विश्वरूप की पादुका की स्थापना हुई है। तो मुझे सौभाग्य प्राप्त होता है कि मैं उसका फायदा उठाता हूं जब मैं मंगला आरती के मंदिर के उपरांत में वहां जाकर चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु विश्वरूप की भी आरती करता हूं। पुष्प आरती करता हु मा नमस्कृरु नमस्कार करता हूं प्रदक्षिणा करता हूं और प्रार्थना करता हूं और एक प्रार्थना में मुझे याद आती है चैतन्य चरित्रामृत में कृष्णदास कविराज एक अध्याय और हर अध्याय के प्रारंभ में चैतन्य चरितामृत और हर अध्याय के प्रारंभ में एक विशेष प्रार्थना का उल्लेख कृष्णदास कविराज करते हैं अधिकतर वह संस्कृत भाषा में होती है।
चैतन्य चरितामृत ऐसे बांग्ला भाषा में है लेकिन हर अध्याय का पहला श्लोक जो होता है यह विशेष होता है उस अध्याय का मूल का उसका उल्लेख होता है उस प्रथम श्लोक में एक अध्याय के प्रारंभ में एक प्रार्थना वह लिखते हैं कृष्णदास कविराज गोस्वामी चरित्रामृत में
कथञ्चन स्मृते यस्मिन्दुष्करं सुकरं भवेत्।
बिस्मूते विपरीतं स्यात् श्री-चैतन्यं नमामि तम् ॥॥
अनुवाद:-
यदि कोई चैतन्य महाप्रभु का किसी भी प्रकार से स्मरण करता है, तो उसका कठिन कार्य सरल हो जाता है। किन्तु यदि उनका स्मरण नहीं किया जाता, तो सरल कार्य भी बड़ा कठिन बन
जाता है। ऐसे चैतन्य महाप्रभु को मैं सादर नमस्कार करता हूँ।
कथञ्चन स्मृते यस्मिन्दुष्करं सुकरं भवेत्। कैसे भी अगर आप स्मरण करोगे किनके चरणों का ऐसे अंत में कहां है तम चैतन्यम नमामि ऐसे चैतन्य महाप्रभु को मैं नमस्कार करता हूं या स्मरण करता हूं तो वह कहते हैं कि भगवान के चरण कमलों का स्मरण करने से दुष्कर्म सुकर्म भवेत यह महत्वपूर्ण है दुष्कर्म सुकरम भवेत वैसे मेरा कहता रहता हूं या मेरी प्रार्थना है। जब मैं चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों का दर्शन करता हूं प्रदक्षिणा करता हूं तो वहां प्रार्थना करते हुए यह वचन मुझे याद आता है। चैतन्य महाप्रभु के चरण कमलों का फिर कृष्ण ही तो चैतन्य महाप्रभु है तो कृष्ण का कहो या चैतन्य का कहो राम का भी कह सकते हो जय श्री राम हो गया काम
दुष्कर्म सुकर्म भवेत दुष्कर दु के आगे दो बिंदु होते हैं दु कर जमा कम जमा कर तो यह दुष्कर करने के लिए कठिन कोई कार्य करने के लिए कठिन है। दुष्कर्म सुकर्म भवेत दु के स्थान पर सु आ गया और करने के लिए कठिन था लेकिन सुकर हुआ आसान हुआ कठिन काम आसान होगा क्या करने से यस्मिन स्मृतेहे जिनके स्मरण मात्र से कठिन कार्य आसान होता है और फिर किंतु अगर हम याद नहीं करेंगे भगवान के चरण कमलों को विपरीतम शाखात विस्मृति विपरीतम शाख लेकिन हम भूल जाएंगे याद नहीं करेंगे भगवान को भगवान के चरण कमलों को तो आसान काम भी कठिन होगा बोहोत आसान काम भी कठिन हो जाएगा जब हम भगवान का स्मरण नही करने से और उनके स्मरण से कठिन काम आसान होगा तो यह एक प्रार्थना है जो मुझे यह प्रार्थना याद आती है तो मैं प्रार्थना करता हूं वैसे प्राथना तो हर समय कर सकते हैं और वह प्रार्थना है वैसे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह क्या है यह प्रार्थना है। यह केवल आरती के समय ही प्रार्थना करने की प्रार्थना नही है यह तो कीर्तनिया सदा हरी भी कहां है सदैव कीर्तन करते रहो सदैव समस्याओं से मुक्त रहो कीर्तन मत करो मर जाओ। फिर फ़सों तो ठीक है फिर इस अवसर पर आपको हम कुछ विडियो दिखाएंगे पद्ममालि क्या आप उपस्थित हो आज प्रभुपाद का आगमन हुआ इस उपलक्ष में कहो हम वीडियो दिखाने वाले हैं और मेरे प्रिय शिष्य शांताकारम प्रभु कल वृंदावन में मंगल आरती के समय देहांत हुआ तो उस संबंध में भी हम कुछ चर्चा करेंगे शांताकारम प्रभु जो नागपुर के निवासी थे वैसे किंतु वह 15 सालों से यहां लगभग 15 सालों से वृंदावन में रहते थे।
इस्कॉन वृंदावन की सेवा कर रहे थे पूर्ण समर्पित हो कर राधाश्यामसुंदर की सेवा के लिए फंडरेजिंग उनकी सेवा थी लाइफ मेंबरशिप डायरेक्टर कहो या और हरि हरि राधा रानी उनकी धर्मपत्नी वह भी खूब सेवा करती रही करती रहेगी बुक डिसटीब्यूशन या कई सारी सेवाएं दोनों भी पति पत्नी करते रहे और राधारानी माताजी में पति मेरे प्रिय शिष्य शांताकांरम इनका तिरोभाव हुआ तो हम सुनेंगे शायद एक भक्त से कम से कम कल तो मंदिर के सारे भक्त एकत्रित हुए थे अंतिम संस्कार के लिए तो हम प्रार्थना करते ही है पद्ममालि आगे इस बात को बढ़ाएंगे एक बार कहिए हरे कृष्ण महामंत्र और उनके लिए प्रार्थना ताकि वो सदा के लिए राधाश्यामसुंदर के चरणों की सेवा सदा के लिए करते रहे शरीर नहीं रहा लेकिन वह तो है ही वह शरीर थे नही शरीर है या नहीं है तो इसका कोई महत्व नहीं है हम तो आत्मा है ही सेवा तो आत्मा करती है शरीर है तो शरीर सेवा करते हैं लेकिन भगवान की सेवा करने के लिए शरीर नहीं होने से और भी अच्छा है ठीक है हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
27 सितंबर 2021
आज जप चर्चा में 877 भक्त उपस्थित हैं।
हरि बोल!क्या आप तैयार हो! हरि हरि! आप काफी हिल डुल रहे हो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जय अर्जुन कैसे हो!
कैसे रहा जप आपका? वेदांत चैतन्य तो अभी भी जप कर रहे हैं। ठीक हैं!कम से कम वृंदावन में तो भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित गीत ही मंगल आरती के समय गाया जाता हैं।
“विभावरी शेष, अलोक-प्रवेश”
उठ जाओ! विभावरी शेष और फिर संध्या आरती में भी हम भक्ति विनोद ठाकुर का ही गीत गाते हैं। संध्या आरती मे कौन सा गीत गाते हैं? कौन सा भजन गाते हैं? आप कभी गायें होंगे तभी तो पता होगा।
“किबो जय जय गोराचाँदेर आरतिको शोभा।”
सारे विश्व भर भक्ति विनोद ठाकुर के गीत गाये जाते हैं एक ओर भक्ति विनोद ठाकुर का गीत हैं, जिस को भोग आरती कहा गया हैं।भगवान राजा जैसा भोजन करते हैं।जब भगवान का लंच टाइम(मध्यान्ह भोजन समय)होता हैं, उस समय भी एक गीत गाया जाता हैं, गाया गाना चाहिए। वैसे हर मंदिर में गाते ही हैं,मायापुर में गाते हैं और भी कुछ मंदिरों में गाते हैं,क्या गाते हैं?राजभोग या भोग आरती। उस आरती का नाम भी भोग आरती हैं और उस गीत का नाम भोग आरती हैं; या भज भकत वत्सल यह नाम वैष्णव गीत नामक पुस्तिका में दिया गया हैं।मैं भज भक्त वत्सल गीत का स्मरण करना चाहता हूँ। गीत को गाअूगा तो नहीं लेकिन पढूंगा जरूर और आपको भी पढना हैं और यह भगवान कि भोजन लीला हैं।भगवान कि कोन सी लीला है?भोजन लीला हैं। भगवान केवल खाते ही हैं ओर लीला हो जाती हैं।भगवान कि हर बात लीला हैं और वह सोते हैं तो भी लीला होती हैं।
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्। मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।
‘भुक्तं और सुत्पं ‘ यह भगवान की लीला है,भुक्तं या भोग और भगवान भोक्ता भी है
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 5.29)
अनुवाद: – मुझे समस्त यज्ञो तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवो का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शांति लाभ करता हैं।
भगवान भोक्ता हैं, भोग भगवान के लिए हैं और प्रसाद हमारे लिए हैं। इसको भी समझ लीजिए। भोग भगवान के लिए और प्रसाद हमारे लिए!
भज भकतवत्सल श्री-गौरहरि।
श्री-गौरहरि सोहि गोष्ठबिहारी,
नन्द-यशोमति-चित्त-हारि॥1॥
अनुवाद:-अरे भाइयों! आप सभी लोग भक्तवत्सल श्रीगौरसुन्दर का भजन करो, जो और कोई नहीं, श्रीनन्दबावा व यशोदा मैया के चित्त को हरण करनेवाले, गोचारण के लिए वन वन में विचरण करने वाले नन्दनन्दन ही हैं।
भज भकतवत्सल श्री-गौरहरि।
मै कहने जा रहा था कि यह भोजन लीला एक मेडिटेशन हैं, जो भोग आरती हैं, यह एक ध्यान ही हैं,एक चिंतन का, मनन का विषय हैं और मधुर हैं और देख लीजिए भगवान क्या-क्या करते हैं। हमको पता नहीं है लेकिन भक्ति विनोद ठाकुर जानते हैं।कोई माता जी भोजन बना रही हैं। शशी मुखी।नहीं नहीं जप कर रहीं है( हंसते हुए )।प्रभुपाद कहां करते हैं कि जब हम भगवान के संबंध में या कृष्ण लीला को पढ़ते हैं तो एक खिड़की बन जाती हैं, जिसमें से हम देख सकते। हम तो ब्रह्मांड के अंदर हैं, उस ब्रह्मांड में एक छेद या खिड़की बन जाती हैं।
” परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः |
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 8.20)
अनुवाद:-इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता |
जो भगवान का सनातन धाम हैं,वहां होने वाली लीलाओं को हम घर या मंदिर में बैठे बैठे देख सकते हैं। ऐसे गीत पढ़ते हैं या सुनते हैं तो देख पाते हैं।जब गीत पढ़ते या शास्त्र पढ़ते हैं ‘शास्त्रशक्षुक्ष: च’ कहां ही हैं,तो शास्त्र हमारी आंखें बन जाती हैं,जब शास्त्र हमें दृष्टि देते हैं,तब हमको दिखाई देता हैं। भक्तिविनोद ठाकुर हमें दृष्टि दे रहे हैं या चश्मा दे रहे हैं। एक खास तरह का ग्लास दे रहे हैं।
“न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्र्वरम् ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 11.8)
अनुवाद:-किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते । अतः मैं तुम्हें दिव्य आँखें दे रहा हूँ । अब मेरे योग ऐश्र्वर्य को देखो ।
गीता के ग्यारहवें अध्याय के प्रारंभ में कृष्ण ने कहा हैं कि मैं तुमको एक विशेष रूप, विश्वरूप का दर्शन कराऊंगा। लेकिन इस आंखों से तुम नहीं देख पाओगे। तो यह चश्मा ले लो “दिव्यं ददामि ते चक्षु:” मैं तुम्हें आंखें दे रहा हूं। चश्मा दे रहा हूं ताकि तुम देख पाओ। ऐसी व्यवस्था हैं।यह सब कहते कहते वक्त समाप्त हो रहा हैं।भजन थोड़ा विस्तृत हैं।
“भज भकतवत्सल श्री-गौरहरि।”
ऐसी शुरुआत हैं।यहा गौरहरि का भी स्मरण हैं।हरि हरि। गौर हरि! हरि हरि गौर हरि! हरि हरि गौर हरि! और वह कैसे हैं? भक्तवत्सल हैं।भक्तवत्सल गौर हरि और फिर यहा कहा गया हैं,भज मतलब भजन करो!किसका भजन करो? भज भकत वत्सल मतलब गौर हरि भक्तवत्सल हैं,उनका भजन करो!श्री-गौरहरि सोहि गोष्ठबिहारी, और फिर आगे कहा हैं जो गौरहरि हैं वही तो गोष्ठबिहारी हैं। गोष्ठबिहारी तो कृष्ण हुए। गोष्ठ मतलब ब्रज में कृष्ण गोचरण लीला खेलते हैं। तो गोष्ठ याने गोचारन लीला। वही तो हैं गोष्ठबिहारी। यह गीत आप के पास हैं तो आप लेकर पढ़ सकते हो या बाद में देखना लेकिन पढ़ना चाहिए।हम को समझना चाहिए। क्या-क्या कहा जा रहा हैं? गीत में?शास्त्र में?
नन्द-यशोमति-चित्त-हारि॥1।।
और वे गोष्ठबिहारी कैसे हैं? गौरहरि ही हैं गोष्ठबिहारी और गोष्ठबिहारी कैसे हैं नंद-यशोमति- चित्त – हरि।नंद यशोदा के चित्त को हरने वाले।नंद यशोदा का ध्यान आकृष्ट करने वाले चित्तहरि। चित्त शब्द क्या हैं? चित्त मच्चित्ता मद्गतप्राणा चेतना ,चित्त से संबंधित हैं।
“मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.9)
अनुवाद: -मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
यह भगवान भगवद्गीता के 10 वे अध्याय में कहते हैं।यह चित्त भावना से संबंधित हैं।मैंने एक शिष्य को नाम दिया हैं चित्तहरि, जो मिडल ईस्ट में रहता हैं।
“बेला ह’लो दामोदर! आईस एखन।
भोग-मन्दिरे बसि’ करह भोजन॥2॥”
अनुवाद:-श्रीनन्दबाबाजी ने दामोदर को आदेश दिया कि समय हो गया है भोगमंदिर में जाकर भोजन करने के लिए बैठो।
“बेला ह’लो दामोदर! आईस एखन।”
नन्देर निर्देशे बैसे गिरिवरधारी।
बलदेव-सह सखा वैसे सारि-सारि॥3॥)
आपको बंगाली होना चाहिए था ताकि आप पढ़ भी सकते और समझ भी सकते।माफ करना हमारा उच्चारण ठीक नहीं होगा ” बेला होलो” होलो लिखा तो हैं ह’लो लेकिन बंगाली में बोलते होलो हरे कृष्णो हरे कृष्णो ओ..ओ उन का चलता रहता हैं।बेला होलो बेला मतलब समय हुआ हैं। कृष्ण को संबोधित करते हुए नंद महाराज कह रहे हैं या नंद यशोदा में से कोई कह रहे हैं-हे दामोदर! वह पुकार रहे हैं कि दामोदर! समय हो गया! समय हो गया! गोधूलि बेला मतलब समय।नोट करो! आप नोट नहीं करते हैं, आपको कुछ परवाह नहीं हैं।”आईस एखन।” एखाने मतलब यहां उखाणे मतलब वहां। आईस यहां आओ! यहां आओ! हे दामोदर समय हो गया है यहां आओ! समय किसका हुआ हैं? भोजन का समय हुआ हैं। हमारा सारा ध्यान यहा होना चाहिए। अब गोकुल में हमें पहुंचना चाहिए और वहां जा कर हमें देखना चाहिए।इस लीला को देखना चाहिए जिसका वर्णन यहां हो रहा हैं या नंदग्राम पहुंचना चाहिए गोकुल पहुंचना चाहिएं।अब देह वहा नहीं रहना चाहिए जहा अभी हैं।हम को नागपुर में या थाईलैंड में, यहां वहां नहीं रहना चाहिए। हमको पहुंचना हैं गोकुल या नंदग्राम,जहां यह सब बातें कही जा रही हैं, ये लीला घटित हो रही हैं।
भोग-मन्दिरे बसि’ करह भोजन॥2।।
आओ आओ मंदिर में,एक मंदिर आप जिसको डायनिंग हॉल कहते हैं। यहां डाइनिंग टेबल भी होतें हैं। आपके लेकिन यहा डाइनिंग टेबल तो नहीं हैं। यहां जमीन पर ही बैंठना होगा, कुछ आसन तो होगा। “भोग-मन्दिरे बसि’ करह भोजन”आसन पर बैठकर, हें दामोदर भोजन करो!
“नन्देर निर्देशे बैसे गिरिवरधारी।
बलदेव-सह सखा वैसे सारि-सारि॥3।।”
अनुवाद:-उनके आदेश पर गिरिवरधारी बलदेव तथा अन्य सखाओं के साथ बैठ गए।
“नन्देर निर्देशे बैसे गिरिवरधारी।
बलदेव-सह सखा वैसे सारि-सारि॥
तो कृष्ण दौड़ पड़े।कहा? भोग मंदिर कि ओर। नंद महाराज का आदेश हैं।नंद महाराज डाट भी रहे हैं कि खेलना बंद करो आ जाओ भोजन का समय है गया हैं।तो कृष्ण पहुंच गए। थोड़ा डर भी गए,नंद बाबा डांट रहे हैं,भोजन का स्मरण दिला रहे हैं। वैसे भोजन का भी आकर्षण हैं, एक और खेल का भी आकर्षण हैं।एक ओर खेल खीच यहा हैं तो दुसरी ओर भोजन खींच रहा हैं।पर अब आ गए हैं।भोजन ने खींच लिया। गिरिवरधारी बलदेव – सह सखा बलदेव भी हैं। बहुत सारे सखा खेल रहे थे तो सभी आ गए। कृष्ण के पीछे पीछे उनकी मित्र मंडली भी आ गई और पंक्ति में सब बैठ गए एक दूसरों को “वैसे सारी सारी” एक दूसरे के लिए स्थान बना रहे हैं। थोड़ा मुझे बैठने दो! कोई यहां खिसक रहा हैं, कोई वहा खिसक रहा हैं। कोई वहा बीच में गांव के गोप आकर बैठ रहे हैं और अब यहां वर्णन हैं कि सब बैठ गए। अभी भोजन परोसना शुरू हो गया हैं। तो कौन-कौन से व्यंजन खिलाए जा रहे हैं?माताएं भी नोट कर सकती हैं।
“शुक्ता-शाकादि भाजि नालिता कुष्माण्ड।
डालि डालना दुग्ध तुम्बी दधि’ मोचाखण्ड॥4॥”
अनुवाद:-शुकता, शाक, भाजि, नालिता, कुष्माण्ड, डालि, डालना, दुग्ध तुम्बी दधि, मोचाखंड
“शुक्ता-शाकादि भाजि नालिता कुष्माण्ड।
डालि डालना दुग्ध तुम्बी दधि’ मोचाखण्ड॥”
ये सभी पदार्थ बंगाल के हैं। बंगाल कि रेसिपी चल रही हैं। भक्ति विनोद ठाकुर बंगाल नवदीप में या जगन्नाथपुरी में रहते थे तो अधिकतर व्यंजन बंगाल के हैं, इसमें से कोई पंजाबी डिश नहीं हैं,दक्षिण भारत कि डिश नहीं हैं, या गुजरात का ढोकला नहीं हैं, ना तो महाराष्ट्र कि भाकरी हैं।
ऐसे ऐसे व्यंजनों का नाम हमने सुना भी नहीं हैं, बंगाल में शुक्ता खूब चलता हैं या बंगाल में जितनी शाख सब्जी खाते हैं इतनी सब्जियां और कहीं नहीं खाई जाती।वह लोग बहुत सारी सब्जियां खाते हैं। इसलिए इस्कान में भी हमने बहुत सी सब्जियां खाना सीखा हैं। जब हम मायापुर जाते हैं, तो बहुत सब्जियां खाते हैं,हमारे इस्कान का हेड क्वार्टर भी मायापुर में हैं।वहां जाकर हम बिगड़ जाते हैं।वहां जैसा भोग राधा माधव को लगता हैं, वैसा कहीं नहीं लगता।बहुत से व्यंजन होते हैं और अलग अलग तरीके की सब्जियां होती हैं। बंगाल में खूब सब्जियां उगती भी हैं। वहा जल भी प्रचुर मात्रा में हैं और बंगाल ऐसा देश हैं जहा कभी भी सूखा नहीं पड़ता। उन्होंने यह शब्द कभी सुना भी नहीं।
मुद्गबड़ा माषवड़ा रोटिका घृतान्न।
शुष्कुली पिष्टक क्षीर पुलि पायसान्न॥5॥
अलग-अलग बड़े के बारे में बात की गई है बड़ा होता है ना, दाल का बड़ा और रोटी की बात की गई है बंगाल में रोटी थोड़ी कम होती है लेकिन होती भी है यहा रोटी की बात की गई है और घी और अन्य की बात की गई है और सारा भोजन घी में पकाया जा रहा है मतलब पोष्टिक खाना क्योंकि यह भगवान का राजभोग है इसलिए वह राजा जैसा होना चाहिए सूखा सूखा नहीं होना चाहिए।
मुद्गबड़ा माषवड़ा रोटिका घृतान्न।
शुष्कुली पिष्टक क्षीर पुलि पायसान्न
पायसम तो समझ ही गए होंगे।दक्षिण भारत में दूध से एक खीर बनती हैं जिसे पायसम कहते हैं या क्षीर कहते हैं। एक खीर होती हैं और एक क्षीर होती हैं। खीर में दूध में चावल की मात्रा अधिक होती हैं, 16 किलो दूध में 1 किलो चावल और क्षीर में चावल नही होते हैं।केवल दूध होता हैं।क्षीर कहा होती हैं?क्षीर चोरा गोपीनाथ आपने सुना होगा? जहां भगवान ने माधवेंद्र पुरी को क्षीर की चोरी करके दी थी।
कर्पूर अमृतकेलि रम्भा क्षीरसार।
अमृत रसाला अम्ल द्वादश प्रकार॥6॥
इन सब में लड्डू तो समझ में आ गया बाकी सब क्या है मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा और यह सारे व्यंजन कृष्ण अपने मित्रों के संग में बड़े कुतूहल के साथ बड़े उत्साह और उत्कंठा के साथ खा रहे हैं और खाते जा रहे हैं। तो यहां पर इन 4 पंक्तियों में तो अलग-अलग व्यंजनों के नाम ही आ गए हैं।भक्ति विनोद ठाकुर आगे लिखते हैं
अमृत अकेली और क्षीरसार, उसमें कपूर भी डालते हैं।अमृत रसाल किसे कहा गया हैं? 12 प्रकार के अलग-अलग अचार इत्यादि हैं अमृत रसाल। उनका स्वाद भी अलग अलग होता हैं कोई खट्टा हैं तो कोई मीठा है तो कोई तीखा है और इसी विभिन्नताओं के कारण आप अपने खाने को आनंदपूर्वक खा सकते हैं, तो यह सब तैयार हुआ हैं।
लुचि चिनि सरपुरी लाड्डू रसावली।
भोजन करेन कृष्ण हये कुतुहली॥7।।
इन सब में लड्डू तो समझ में आ गया बाकी सब क्या है मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा और यह सारे व्यंजन कृष्ण अपने मित्रों के संग में बड़े कुतूहल के साथ,बड़े उत्साह और उत्कंठा के साथ खा रहे हैं और खाते जा रहे हैं।तो यहां पर इन 4 पंक्तियों में तो अलग-अलग व्यंजनों के नाम ही आ गए हैं।भक्ति विनोद ठाकुर आगे लिखते हैं
राधिकार पक्व अन्न विविध वयंजन।
परम आनन्दे कृष्ण करेन भोजन॥8॥
यह सारे व्यंजन बनाने में राधा का बड़ा योगदान हैं।वैसे मुख्य रसोईया तो माता यशोदा हैं और ऐसा कहा भी गया है कि सबसे उच्चतम रसोईया तो माता ही होती हैं।इसमें पत्नी का नाम ही नहीं आता हैं।उच्चतम रसोइए की बात की जाए तो वह माता ही होती है। तो कृष्ण के लिए उत्तम रसोईया तो माता यशोदा है। तो उस उच्चतम को और उत्तम बनाने के लिए यशोदा क्या करती है?जावट से राधिका को नंदग्राम बुलाती है। जावट आपने सुना ही होगा।जावट राधा रानी का ससुराल है और राधा रानी एक उत्तम रसोईया हैं और यशोदा यह बात जानती है कि राधा रानी के हाथ से पका हुआ भोजन अगर कोई खाता है तो वह कभी बीमार नहीं होता।इसलिए भी यशोदा राधा रानी को बुलाया करती थी।कृपया आओ,खाना बनाओ और मेरी सहायता करो।तो राधा रानी आ जाती थी और भी कई सखीया आ जाती थी और राधा रानी कई सारे व्यंजन बनाती थी।इसीलिए यशोदा मैया का और राधा रानी का पकाया हुआ भोजन कृष्णा बड़े उत्साह से खा रहे हैं और आनंद ले रहे हैं
छले-बले लाड्डू खाय श्रीमधुमङ्गल।
बगल बाजाय आर देय हरिबोल॥9॥
कृष्ण के बगल में ही मधुमंगल बैठे हैं।ब्राह्मणों को लड्डू बहुत पसंद होते हैं।ब्राह्मण मोदक प्रिय होते हैं।वैसे गणेश जी को भी मोदक खिलाते हैं।तो यहां यह मधुमंगल कृष्ण के बहुत प्यारे मित्र हैं और विनोदी भी हैं। वह लड्डू खा रहे हैं।वह लड्डू खाने में स्पेशलिस्ट हैं और लड्डू कैसे खा रहे हैं?छल बल से खा रहे हैं।कुछ छल के साथ खा रहे हैं और कुछ बल के साथ खा रहे हैं।कुछ जबरदस्ती कर रहे हैं मतलब कृष्ण की थाली में जो व्यंजन है उसी को उठा कर खा लेते हैं।अपना जो लड्डू परोसा गया था वह तो खा ही लिया और साथ ही साथ कृष्ण की थाली से भी लड्डू उठा कर खा लिया।छल करके कहते हैं कृष्ण उधर देखो उधर देखो और लड्डू उठा कर खा जाते हैं कभी युक्ति पूर्वक कभी छल से कभी बल से लड्डू खाने में मधुमंगल बहुत ही कुशल हैं और बिगुल बजाते हैं और हमने पहले यह भी समझा था कि बगल बजाए मतलब बगल में हाथ रखते हैं और कुछ आवाज करते हैं आपने सुना और देखा होगा,जब मित्र ऐसी आवाज सुनते हैं तो कृष्ण भी सुनते हैं।यह हास्यप्रद प्रोग्राम ही चल रहा हैं। मधुमंगल एंटरटेनर है और क्या कर रहे हैं?हरि बोल हरि बोल,बोल रहे हैं।
राधिकादि गणे हेरि नयनेर कोणे।
तृप्त हये खाय कृष्ण यशोदा भवने॥10॥
तो यह सब सारा भोजन कृष्ण और कंपनी कर रही है।भोजन का आनंद लूट रही है।राधिका आदि मतलब राधिका + आदि।राधिका और उनकी सखियां क्या कर रही हैं?हेरी मतलब देख रही हैं।कैसे देख रही है?नयनेर कोने। शास्त्रों में आंख को आंख नहीं कहा जाता, नयन कहते हैं।हम लोग तो आंख,आंख करते रहते हैं।कमलनयन या नेत्र कहा जाता हैं।यह कितना अच्छा शब्द हैं और हम लोग तो केवल आंख आंख करते रहते हैं।नयनेर कोने मतलब तिरछी नजर से देख रही हैं।राधा रानी कृष्ण को तिरछी नजर से देख रही हैं।
सीधे देखने की अनुमति नहीं हैं,क्योंकि दोनों एक युवक और एक युवती हैं इसलिए वह सीधे नहीं देख सकती। देखना तो चाहती हैं, देख भी रही हैं, लेकिन यह दिखा रही हैं कि मैं देख नहीं रही हूं। मैं तो सामने देख रही हूं।कृष्ण को थोड़ी ना देख रही हूं। इसलिए तिरछी नजर से देख रही हैं।
जो रसोइए होते हैं या जिसने भी भोजन बनाया होता हैं वह देखना चाहते हैं कि हमारा भोजन किसी को पसंद आ रहा हैं या नहीं आ रहा हैं, अच्छा बना कि नहीं। यह सभी कां हीं अनुभव हैं, मेरा भी यही अनुभव हैं, माताएं भी कभी मेरे लिए प्रसाद बनाती हैं तो वह देखना चाहती है कि मुझे पसंद आ रहा हैं या नहीं अगर संभव होता हैं तो देखती भी रहती हैं नहीं तो जब प्लेट बाहर पहुंच जाती हैं तो सोचती हैं,अरे महाराज ने यह तो खाया ही नहीं और यह तो बहुत ही कम खाया, ऐसी टिप्पणियां चलती रहती हैं।तो रसोइए की नजर खाने वाले पर ही होती हैं।मैने भोजन बनाया और उन्हें पसंद आया या नहीं। या कौन सी आइटम सबसे ज्यादा पसंद आई,अगली बार मैं इसे ही अधिक बनाऊंगी। इनको खीर पसंद हैं, इनको लड्डू पसंद हैं, इनको शुक्त पसंद हैं। तो राधा रानी निरीक्षण कर रही हैं और राधिका जब देख रही हैं तो उन्हें समझ में आ रहा हैं। कृष्ण भोजन खाकर तृप्त हो रहे हैं। वह बहुत ही संतुष्ट हैं।
भोजनान्ते पिये कृष्ण सुवासित वारि।
सबे मुख प्रक्षालय हये सारि-सारि॥11॥
अब भोजन का समापन हो रहा हैं।
हस्त मुख प्रक्षालिया जत सखागणे।
आनन्दे विश्राम करे बलदेव सने॥12॥
कृष्ण ने एक सुगंधित पेय को पिया और फिर सभी ने हाथ और मुंह धोए।सभी ने अपना हाथ मुंह धो लिया और अब थोड़ा विश्राम करेंगे ।पेट भर गया हैं, अब थोड़ा विश्राम करना होगा।इसलिए सभी थोड़ा थोड़ा लेट रहे हैं।इतने में कृष्णा लेटने ही वाले थे कि
जाम्बुल रसाल आने ताम्बुल मसाला।
ताहा खेये कृष्णचन्द्र सुबे निद्रा गेला॥13॥
जाम्बुल नाम के एक कृष्ण के मित्र हैं,जो तांबूल लेकर आए हैं, मसाला लेकर आए हैं। गुजरात में इसे कहते हैं मुख्वास।खाना पचाने के लिए खाने वाली चीज को मुखवास कहते हैं।
विशालाक्ष शिखि-पुच्छ चामर दुलाय।
विशालाक्ष नाम के उनके एक और मित्र आ गए,इनके हाथ में चावंर हैं और सीखीपुछ हैं,सीखी मतलब मयूर उसकी पूछ से भी पंखा बनता हैं। मोर पंख। जिससे पंखा किया जाता हैं। आरती में भी हम देखते हैं कि भगवान को दो प्रकार की चीजों से हवा दी जाती हैं। मोर पंख और चावंर।वह उनको उससे हवा कर रहे हैं। एसी की अलग से जरूरत नहीं हैं और कृष्ण जी शैया पर विश्राम कर रहे हैं। वह विशेष हैं। आपने ऐसी शैया पहले कभी देखी या सुनी नहीं होगी।
यशोमती-आज्ञा पेये धनिष्ठा-आनीत।
श्रीकृष्णप्रसाद् राधा भुञ्जे ह’ये प्रीत॥15॥
यशोदा की आज्ञा के अनुसार धनिष्ठा नाम की गोपी ने देखा कि क्या कुछ बचा हैं? क्योंकि कृष्ण जब खाते हैं और थाली में कुछ बचता हैं, तो सब कुछ प्रसाद बन जाता हैं, इसीलिए रसोई में जो कुछ भी बचा हुआ था यशोदा ने धनिष्ठा को कहा कि इसे बांट दो। सबको खिलाओ,सभी रसोइयों को भी खिलाओ। इस प्रकार से राधा रानी को भी वह प्रसाद मिला। राधा रानी ने उसको ग्रहण कर लिया और उनको बड़ा आनंद आ रहा हैं।
ललितादि सखीगण अवशेष पाय।
मने-मने सुखे राधा-कृष्ण गुण गाय॥16।।
पहले राधा रानी को दिया हैं, फिर ललिता,फिर विशाखा और फिर सभी सखियों को कृष्ण का उच्चिष्ट प्राप्त हो रहा हैं।
सभी प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं। क्या कर रहे हैं।?सेई अन्नामृत पाओ और फिर क्या करो? सो जाओ और फिर राधा-कृष्ण गुण गाओ हम ऐसा क्यों बोलते हैं? क्योंकि ऐसा ही होता हैं। नंद ग्राम में, गोकुल में ,वृंदावन में, जो जो कृष्ण का प्रसाद ग्रहण करते हैं, प्रसाद के उपरांत मने मने सूखे राधा कृष्ण गुण गाए। मन ही मन में कुछ कह रहे हैं। उच्चारण हो रहा हैं। तो क्या कर रहे हैं? राधा कृष्ण का गुणगान हो रहा हैं।
हरिलीला एकमात्र जाँहार प्रमोद।
भोगारति गाय ठाकुर भकति विनोद॥17।।
और भक्ति विनोद ठाकुर भोग आरती गा रहे हैं और भक्ति विनोद ठाकुर कैसे हैं?इसे जरूर नोट करना।हरि लीला यानी कृष्ण की लीला का गायन या स्मरण ही जिनके लिए प्रमोद हैं। मुद्र मतलब सुख या आनंद।भगवान की लीला में आनंद लूटने वाले या हरिलीला ही जिनका एकमात्र प्रमोद हैं। ऐसे भक्ति विनोद ठाकुर भोग आरती गा रहे हैं।श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की जय।भोग आरती की जय। भक्तवत्सल गौर हरि की जय।गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*26 सितंबर 2021*
हरे कृष्ण । हमारे साथ 770 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरी बोल। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । आपका स्वागत है। मेरा भी स्वागत पंढरपुर में हो रहा है । आप सुन रहे हो। आपको सुनाई दे रहा है? ठीक है। सुनना चाहोगे, तब सुनाई देगा। हरि हरि। गौरंग। मंगला आरती हो गई। वृंदावन में मंगला आरती में गाते हैं। तृणादपि रिट्रीट वाले भी बैठे हैं । आप गोवर्धन में हो क्या? अभी तृणादपि पढ़ रहा था। आपके लिए कुछ अलग से कुछ सोचा नहीं था, रिट्रीट वालों के लिए। वृंदावन धाम की जय। आप भाग्यवान हो। वृंदावन में पहुंच गए हो । गिरिराज गोवर्धन की जय । गोवर्धन तलहटी में कई सारे भक्त पहुंचे हैं, रिट्रीट के लिए उसका नाम रखा है ।
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना ।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 17.31)
अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ।
कीर्तनीयः सदा हरिः वैसे तभी संभव होता है जब तृणादपि सुनीचेन। यह एक बात हुई। तृणादपि तृण से भी नीचे, सुनीचेन नम्र होकर, जैसे घास का तिनका होता है। आप उस पर चलते हो, उसको ठुकराते हो। वह शिकायत नहीं करता है। हरि हरि। नम्र होना चाहिए। नम्र और सहनशीलता का उदाहरण देने के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने एक तो घास का तिनका और सहनशीलता के लिए वृक्ष का उदाहरण दिया है। घास का तिनका भी और वृक्ष लता बेल का भी। तो जब हम होंगे तृणादपि सुनीचेन अंग्रेजी में कहते हैं। वैसे मैं भी कहता रहता हूं इन सच अ स्टेट ऑफ माइंड वन कैन चेंट द नेम ऑफ लॉर्ड कांस्टेंटली (ऐसी मानसिक स्थिति में भगवान के नाम का जप करना चाहिए)। कीर्तनीयः सदा हरिः, लक्ष्य तो है कीर्तन करना। कितने समय के लिए और कब-कब कीर्तन करना है? सदा हरि। सदा मतलब सदैव। प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य की बात है। तो भगवान की भक्ति ऐसी करनी होती है। कैसी करनी होती है? अहैतूकी अप्रतियथा। इसमें कोई हेतू भी और कोई कारण भी ना हो। हम भगवान के सेवक हैं। तो और क्या कारण है? भगवान हमारे मालिक ही नहीं, मित्र भी बनते हैं। उनकी सेवा करना हमारा धर्म है। अहैतुकि, कृष्ण भगवान की सेवा क्यों करें? पूछा जा सकता है। क्यों नहीं । ऐसे पूछने वाले हैं कि भगवान की सेवा क्यों करें। उसका उल्टा, वैसे सुल्टा प्रश्न है कि भगवान की सेवा क्यों ना करें? भगवान की सेवा के लिए ही तो हमें बनाया है। हमारा धर्म है, भगवान की सेवा इसीलिए अहैतुकी जिसमें हेतु नहीं होता। चैतन्य महाप्रभु आगे कहे है।
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये ।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥
( शिक्षाष्टकम् 4 )
अनुवाद:- हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ।
चैतन्य महाप्रभु प्रार्थना कर रहे हैं कि मुझे आपकी सेवा में लगाईए। जब हम जप करते हैं तो सेवा योग्यं गुरु सेवा योग्यं गुरु, ऐसी प्रार्थना जप के समय यह भाव है तो और जप भगवान है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण भगवान है तो भगवान से जप करने वाला प्रार्थना भी कर रहा है। मुझे सेवा के लिए योग्य बना दो। सेवा के लिए योग्य हम कैसे बनेंगे? तृणादपि सुनीचेन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हम को मंत्र दिया है। ऐसे मन की स्थिति में हमें जप करना चाहिए। तो कुछ शर्ते बताई है, यह कंडीशन है। तो फिर क्या होगा? फिर कीर्तनया सदा हरी संभव होगा। सदा कीर्तन करना है और कब-कब कीर्तन करना है। गौडिए वैष्णव और रिट्रीट के भक्तों 2 मिनट नाम लेना चाहिए। प्रातः काल में जब उठते हैं और सोने से पहले 2 मिनट हो गया। भगवान खुश हो जाओ। 2 प्लस 2, 4 मिनट आपकी सेवा में हमने अर्पण करें और हमारे लिए कितने मिनट 23 घंटे 56 मिनट और आपके लिए 4 मिनट। इस दुर्देव से भारत भूमि में भी ऐसा लोग सोचते हैं। हम पागल थोड़ी ही है हरे कृष्ण वाले। हमारा कर्तव्य भी है, काम धंधे भी है। लेकिन लोग समझते नहीं हैं कि कर्तव्य क्या होता है। कर्तव्य यानी करने योग्य। करने योग्य तो सिर्फ कृष्ण की सेवा ही है। कीर्तनया सदा हरी यही कर्तव्य हैं। क्या कर्तव्य हैं? यही कर्तव्य है कीर्तनीय सदा हरी। कीर्तनीय सदा हरी जब कहा है तो भगवान की कीर्ति से संबंध है। भगवान का कीर्तन हमेशा करना चाहिए, सदैव करना चाहिए।
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना ।
श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ ।
यह भी नित्य करना चाहिए। विग्रह की आराधना सदैव करनी चाहिए और सैदव करते रहना चाहिए। हरि हरि। वह भी कीर्तन है। वह भी कीर्ति है। जब हम विग्रह की आराधना करते हैं तो हम भगवान का कीर्तन करते हैं या फिर विग्रह की आराधना के साथ भी कीर्तन करना चाहिए। ऐसा भी समझना चाहिए। हमारे हरे कृष्ण आंदोलन में ग्रंथ वितरण को भी हम कीर्तन समझते हैं। हर समय हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे तो नही करते। यह समय है गीता जयंती का तो गीता लो गीता पढ़ो या अभद्र पूर्णिमा आ गई तो भागवत का सेट ले लो। उसका प्रचार करते हैं। भगवतम का और गीता का वितरण करते हैं। हरे कृष्ण आंदोलन में इसको संकीर्तन कहते हैं। संकीर्तन पार्टी मतलब हरे कृष्ण हरे कृष्ण कीर्तन करने वाली पार्टी ही नहीं है। ग्रंथ वितरण करने वाली पार्टी है संकीर्तन पार्टी है। ग्रंथ वितरण कर के भगवान का गौरव गाथा भी गाते हैं। गौरव गाथा जिस ग्रंथ में है उसी को देते हैं। उसको कोई पढ़ेगा भगवान की कीर्ति फैलती है या ग्रंथों में है। तो हो गया संकीर्तन हुआ। कीर्तनीयः सदा हरिः को भी समझना चाहिए। कीर्तनीयः सदा हरिः मतलब केवल कीर्तन ही नहीं है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण ही नहीं है। भगवान की सेवा भी कीर्तन है। अलग-अलग प्रकार की सेवा। अलग-अलग प्रकार की सेवा करते हुए भी हमको कीर्तन करना है ऐसा हमको जीव गोस्वामी समझाते हैं। वितरण भी कर रहे हैं, रसोई भी बना रहे हैं, वह भी कीर्तन है। वह भी सेवा है। कीर्तनीयः सदा हरिः हमें एक समय कीर्तनीयः सदा हरिः हमारा लक्ष्य है। भगवत धाम भी पहुंचना है। भगवत धाम पहुंचेंगे तो प्रातः काल 2:00 मिनट और शाम को 2:00 मिनट, ऐसा नियम नहीं चलता है। भगवत धाम में , गोलोक में वहां पर रात और दिन भगवान का कीर्तन , भगवान का संग, भगवान का सानिध्य, भगवान का दर्शन, भगवान भगवान, भगवान के लिए यह, भगवान के लिए वो। वहां पर ऐसा होता रहता है। कीर्तनीयः सदा हरिः करना है, तो कैसे कर सकते हैं? तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा इसको कहने से पहले कहा था। *दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः* यह दुर्देव की बात है कि मुझे हरि नाम अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है। अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है, मुझे आकर्षण नहीं है मुझे हरि नाम में प्रेम नहीं है, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा द्वितीय शिक्षाष्टकम् में कहे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने तीसरे शिक्षाष्टकम् में अंत में कहा कि कीर्तनीयः सदा हरिः। मेरा दुर्देव है, में अभागी हूं। मुझे अनुराग नहीं है, हरिनाम में कोई आकर्षण नहीं है। कैसे आकर्षण बढ़ सकता है? इसके लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तृणादपि सुनीचेन की बात कह रहे हैं। इसको भलीभांति समझना चाहिए। ऐसे मन की स्थिति में कैसी मन की स्थिति है? हमको बताया है तृणादपि सुनीचेन इस मंत्र में शिक्षाष्टक में चैतन्य महाप्रभु ने कोई लंबी चौड़ी शिक्षा नहीं दी है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के केवल आठ निर्देश है, 8 वचन है या वाक्य है। उसमें से यह तीसरा वाक्य बड़ा ही महत्वपूर्ण है। तृणादपि सुनीचेन इतना महत्वपूर्ण है कि ऐसा सुझाव है कि तृणादपि सुनीचेन मंत्र की माला गले में धारण करनी चाहिए। इसको हृदय के पास रखना चाहिए। तृणादपि का जो भाव है। *तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।*
*अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।* नम्र लोग भगवान के राज्य में वास करेंगे। ईसाई धर्म में और बाइबिल में ऐसी समझ है कि नम्र है, विनम्र है वह पात्र बनेंगे। भगवत धाम प्राप्ति के पात्र बनेंगे। वह योग्य उम्मीदवार बनेंगे। कीर्तनीयः सदा हरिः करने के लिए और फिर अंततोगत्वा भगवत धाम में लौटने के लिए तृणादपि सुनीचेन, यह जो भाव है, विनम्रता इसको पात्रता भी कहा है।
विद्यां ददाति विनयं,
विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति,
धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥
अनुवाद:- विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है ।
*विद्यां ददाति विनयं* विद्या ही देती है विनय। विद्या क्या देती है? विनय देती है।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
( भगवद् गीता 5.18 )
अनुवाद:- विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
ब्राह्मण का भगवत गीता में उल्लेख किया है। ब्राह्मण के 2 लक्षण बताएं हैं। ब्राह्मण युक्त होते हैं, किससे? विद्याविनयसम्पन्ने, विनय संपन्न ब्राह्मण। जो सचमुच विद्वान है, यह व्यक्ति विद्वान है कि नहीं कैसे परीक्षा लोगे? कैसे पता लगवाओगे? वो विनम्र है तो विद्वान है। सचमुच ज्ञानवान है, वह नम्र ही होगा क्योंकि ज्ञानवान होना मतलब भगवान के निकट होना। यह मराठी में चलता है कि भगवान महान है और हम लहान है। यह ज्ञान हैं। हम छोटे हैं, अंश है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
( भगवद् गीता 15.7 )
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
हम एक शूद्र जीव हैं। यह ज्ञान है। भगवान महान है यह भी ज्ञान है। हम अंश हैं छोटे हैं यह भी ज्ञान हैं। तो ऐसा ज्ञान, ऐसी विद्वत्ता, *विद्यां ददाति विनयं* क्या देती है? विनय देती है। देखा तो उल्टा होता हुआ देखते हैं। विद्वान या ब्राह्मण तो घमंडी होते हैं, पाखंडी होते हैं। ब्राह्मण विद्वान अधिकतर घमंडी देखे जाते हैं। लेकिन सचमुच जिसने विद्या का अर्जन किया हुआ है। वह नम्र बनेगा। *विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।* विद्या क्या बनाती है? नम्र या विनय व्यक्ति पात्र बनता है। पात्र मतलब बर्तन जिसमें हम कुछ रखते हैं। पात्र बनेंगे, कृष्ण को भी हम धारण कर सकते हैं। ध्यान धारणा समाधि। *तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।*
सहनशीलता भी कैसी? वृक्ष जैसे सहनशील । कठिन तो है किंतु किसी वृक्ष के नीचे हम लोग आराम करते हैं उस वृक्ष की छाया में बैठते हैं हो सकता है उसी वृक्ष के कुछ फल भी चख रहे हैं और फिर उसी पेड़ को कुल्हाड़ी से हम काट भी रहे हैं तो वो वृक्ष कोई शिकायत नहीं करता । उल्टा तुमको कोई पीटता नहीं है, सहन करता है । यह है सहनशीलता हरि हरि !! और यह सहनशीलता का ज्वलंत उदाहरण नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की ! उनकी सहनशीलता । उनको जब दंडित किया जा रहा था, चांद काजी के लोग सिपाही या जो भी 22 बाजारों में पीट रहे थे । हजारों लोगों के समक्ष पिटाई हो रही थी तो सहन किया उन्होंने और इसीलिए भी सहन किया उनका हरि नाम में इतनी श्रद्धा थी , हरि नाम में श्रद्धा नहीं होना भी नाम अपराध है तो नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की हरि नाम में इतनी श्रद्धा इतने आसक्त थे कि वह कह रहे थे जब उनको पीटा जा रहा था चाबुक से या डंडे से । मेरा शरीर खंड खंड हो सकता है मुझे परवाह नहीं है लेकिन मैं नाम लेना नहीं छोडूंगा । हर हाल में में कीर्तन करूंगा ही तो हरि नाम में जो श्रद्धा थी और फिर हरि नाम में श्रद्धा हरि नाम भगवान है तो इतनी श्रद्धा थी हरी ना में मतलब भगवान में श्रद्धा हरि नाम में श्रद्धा मतलब भगवान में श्रद्धा । इसलिए वह सहन भी कर पाए या वैसे भगवान स्वयं ही सारी पिटाई वैसे भगवान के पीठ पर हो रही थी । चैतन्य महाप्रभु के पीठ पर हो रही थी भगवान बीच में आ रहे थे । यह शप्त प्रहरी यह जो लीला हुई तो चैतन्य महाप्रभु ने दिखाया । उस लाठी के निशान महाप्रभु के नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने देखा तो हैरान हो गए मेरे लिए आपने सारा यह सह लिया हरि हरि !! यह भी एक फिर उच्च स्तर पर यह सब होता है । सहन कैसे कर पाते हैं ? भगवान शक्ति देते हैं । भगवान सामर्थ्य देते हैं । भगवान ही ऐसी चेतना देते हैं । ठीक है मैं तो शरीर हूं ही नहीं, मैं तो आत्मा हूं तो आत्मा का क्या बात ? …
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
( भगवद् गीता 2.23 )
अनुवाद:- यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है ।
आत्मा तो किसी शस्त्र से काटा नहीं जा सकता और आग इसको जला नहीं सकती तो इस प्रकार का आत्म साक्षात्कार भी है तो सहनशीलता संभव है या यह सहन करना संभव है । लेकिन हमारा आत्मसाक्षात्कार क्या है ?
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.84.13 )
अनुवाद:- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता – ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है ।
मैं तो तीन धातु का बना हुआ यह शरीर है कफ, पित, वायु का बना हुआ यह मैं हूं । शारीरिक चेतना पर जो है वह तो सहन नहीं कर पाएगा । उसके लिए हर बात असहनीय होती है । लेकिन जिसका जो आत्म साक्षात्कार है जो साक्षात्कार है मैं आत्मा हूं तो आत्मा को तो काटा या पीटा नहीं जा सकता यह सब शरीर के स्तर पर ही होता है तो यह सब अनुभव या साक्षात्कार भी तो इसी को विद्वान कहेंगे । फिर ज्ञान भी हो रहा है । ज्ञान का साक्षात्कार भी हो रहा है । सूचनाएं एकत्र करना का रूपांतरण भी हो रहा है । कंठ में रखे हुए जो श्लोक है उसको हृदयंगम हम कर रहे हैं या
“तृणादपि सु-नीचेन” यह सब समझने के लिए यह सब संबंधित बातें भी है तो नम्रता सहनशीलता यह अनिवार्य है और आगे कौन सी शर्त है ताकि “कीर्तनीयः सदा हरिः” हो जाए । 16 माला जप रोज हम संकल्प लेते हैं तो लेकिन धीरे धीरे 16 के हम 8 कर देते हैं माला और फिर 4 कर देते हैं माला । अभी तो एक भक्त मिला मुझे । कोशिश की स्थिति में मैंने जप ही नहीं किया,जप हो ही नहीं रहा था । ऐसा भी होता है हमारी । हमें तो 16 के स्थान पर वैसे 32 करते हैं माला या 64 माला कर सकते हैं अधिक अधिक माला बढ़ाना है । मात्रा में गुण में भी “कीर्तनीयः सदा हरिः” तो इसके लिए आगे फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे हैं ऐसी मन की स्थिति में, कैसी मन की स्थिति में ? “अमानिना मानदेन” यह इसको उपकरण भी कहते हैं या तृतीया विभक्ति के यह शब्द है । अमानि । अमानी शब्द का अमानीना । मतलब अमानी होकर । अमानी मान ‘द’ शब्द है तृतीया विभक्ति मान देन हुआ तो अमानीन-मानदेन तो 2 क्रियाएं हैं । 2 भावहै 2 स्वभाव है व्यक्तित्व है । एक तो अमानी होना । अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा नहीं रखना । कितना मुश्किल कार्य है वैसे । पूजा लाभ प्रतिष्ठा और बहुत कुछ छोड़ सकते हैं यह 4 नियमों का पालन कर सकते हैं और भी बहुत कुछ कर सकते हैं लेकिन हमसे बध्ध जीव से यह लाभ पूजा प्रतिष्ठा हमारी पूजा हो । हमें कुछ लाभ हो कुछ विशेष व्यक्तित्व है स्थान है ऐसी समझ है । ऐसा प्रचार हो ऐसा घोषणा हो हमारे नाम का कुछ बोर्ड लगे यह हो वह हो । यह वधध जीव बहुत चाहता है तो अमनि मतलब उसके विपरीत जो चाहता है अमानिन और “मानदेन” औरों का सम्मान करने वाला । औरों का सनमान सत्कार करने वाला और उसी के साथ पहला नाम अपराध जुड़ा हुआ है सत्ताम निंदा । संतों की भक्तों की निंदा करना । उनके चरणों में अपराध करना । काएन, मनसा अपराध, बाचा से अपराध । शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से, वचन के रूप से और हम उसमें बड़े दक्ष होते हैं और इसको नाम अपराधों में इसको नंबर वन नाम अपराध या वैसे विशेष कैटेगरी में रखा गया है यह नाम अपराध भक्ति विनोद ठाकुर । यह 10 नाम अपराध तो है लेकिन उसमें भी वैष्णव अपराध एक विशेष स्थान ग्रहण करता है तो वैष्णवो का अपराध नहीं करना चाहिए । वैष्णवो की सेवा करनी चाहिए । वैष्णवो की निंदा नहीं करना चाहिए । वैष्णव भोगी नहीं बनना चाहिए । वैष्णव त्यागी नहीं बनना चाहिए । वैष्णव द्रोही नहीं बनना चाहिए यह शब्द सीखने भी तो होंगे द्रोह मतलब क्या होता है ? हमको पता नहीं होता है कई बार । उल्टे हमको क्या होने चाहिए ? वैष्णव सेवी होने चाहिए । नामें रुचि, जीवे दया, वैष्णव सेवन यह भी एक छोटा ही वचन है लेकिन नाम में रूचि बढ़ाना चाहते हैं तो वैष्णव की सेवा करनी चाहिए । वैष्णवो की निंदा नहीं करनी चाहिए । वैष्णवो से द्रोह नहीं करना चाहिए । वैष्णव भोगी मतलब कुछ फायदा उठाना । हरि हरि !! हम जब सेवा करने की बात करते हैं, प्रातः काल में मैं सोच रहा था केवल भगवान की सेवा नहीं करनी है वह अधूरी हो गई । हमारे सेवा के लिस्ट में वैष्णवों का भक्तों का जीवो का भी नाम होना चाहिए तो मोटे-मोटे दो ही नाम होंगे । हरि हरि !! एक तो भगवान की सेवा और भक्तों की सेवा । केवल भक्तों की सेवा नहीं करनी है और केवल भगवान की भी सेवा नहीं करनी चाहिए । भगवान की और भक्तों की सेवा तो फिर सेवा पूर्ण होगी ।
यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्था: प्रकाशन्ते महात्मनः ॥
(श्वेताश्वर उपनिषद 6.23)
अनुवाद:- जिन महात्माओं के हृदय में श्रीभगवान् में और श्रीभगवान् की तरह गुरु में भी उतनी ही दिव्य श्रद्धा होती है , उनमें वैदिक ज्ञान का सम्पूर्ण तात्पर्य स्वतः -जिनसे प्रकाशित हो जाता है ।
यह भी एक वैदिक मत्र प्रसिद्ध है । यहां तो गुरु का नाम लिया है यस्य देवे जैसे भगवान की देवकी आदिदेव की सेवा करते हैं वैसी गुरु की भी सेवा करनी चाहिए तो गुरु के सेवा के अंतर्गत वैष्णवो की सेवा का नाम जोड़ सकते हैं । हरि हरि !! जोर की अनुशंसा दी गई है रूप गोस्वामी प्रभुपाद का की हमसे जो वरिष्ठ भक्त हैं, आचरण बताएं कैसे कैसे आचरण करना होता है जो वरिष्ठ है उनकी सेवा करनी चाहिए उनकी सानिध्य में सेवा करनी चाहिए । जो समकालीन है मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना चाहिए तो मित्र बनकर उनकी सेवा करते हैं सहायता करते हैं तो जो वरिष्ठ हैं उनकी एक प्रकार से सेवा करते हैं । जो समकक्ष हें उनकी सेवा कुछ उनके सहायता करके उनकी सेवा करते हैं और जो छोटे होते हैं नए हैं उनकी सहायता करते हैं प्रचार करते हैं । नामे रूची, जीवे दया उन पर दया दिखाते हैं । वह भी सेवा ही है, सारी सेवा ही है दो वरिष्ठ के साथ समकक्ष के साथ छोटो के साथ व्यवहार अलग अलग होते हैं लेकिन वह सेवा ही है वह प्रेम की है । वह प्रेम का प्रदर्शन है वह सेवाभाव है तो “अमानिना मानदेन” । यह सब बातें सीखनी है हमको । मुझे निश्चित पता नहीं थे आप सब जो वहां रिट्रीट कर रहे हो मैंने अभी उसका टाइटल पढ़ा ‘तृणाद् अपि’ रिट्रीट तो मैं ऐसी कल्पना कर रहा हूं यह जो इसको सीख रहे हो इस पर चर्चा हो रही है की कैसे हम तृणाद् अपि तृणाद् अपि सुनीचॆन यह जो मंत्र सूत्र महाप्रभु ने दिया हुआ है उस पर कैसे अमल करना है ताकि हम क्या करें ? “कीर्तनीयः सदा हरिः” हो जाए हमसे और फिर दुबारा “कीर्तनीयः सदा हरिः” मतलब कीर्तन ही नहीं है प्रभुपाद तो कहे व्यस्त रहिए 24 घंटे तो 6 घंटे के लिए सोते हैं वह री कीर्तन है, वह भी सेवा सेवा होगी 24 घंटे भगवान की सेवा करनी है तो सेवा की अलग-अलग प्रकार हो सकते है उसमें श्रवण कीर्तन भी सेवा है अर्चनम् भी सेवा है और प्रसाद ग्रहण करना भी सेवा है इत्यादि इत्यादि । “कृष्णेर संसार करी छाडि अनाचार” अनाचार छोड़के कृष्ण के लिए संसार करना । कृष्ण को केंद्र में रखते हुए संसार करना और उसमें 24 घंटे व्यस्त रहना यही है “कीर्तनीयः सदा हरिः” । हमको कीर्तनीयः सदा हरिः को समझना चाहिए क्या ? 24 घंटे केबल हरे कृष्ण महामंत्र का जप ही नहीं है और और भी सेवाएं हैं उसी के कृष्ण से संबंधित तो जो रिट्रीट कर रहे हैं उनके लिए भी हमारा यह संदेश या केवल तृणाद् अपि सुनीचॆन तो पढ़ा तो मैंने सोचा कि ऐसा ही कुछ विषय चल रही है तो मैंने दो शब्द कहे मुझे आशा है कि उनके प्रासंगिक और उसी के साथ फिर आप सभी का भी रिट्रीट हो गई आज प्रातः काल में । वैसे मैं कह ही रहा था कि कल ही मैंने शायद कहा कि या भक्त रिट्रीट के लिए जाते हैं सप्ताह भर के लिए रिट्रीट होती है कई दिनों तक जपा रिट्रीट होती है लेकिन हम तो और वो कभी साल में दो चार बार होती है जपा रिट्रीट लेकिन हम भी यह जपा सेशन यह जपा टॉक यह भी एक प्रकार का जपा रिट्रीट ही है तो हमने भी आज प्रात काल का यह जपा रिट्रीट आपके लिए किया जपा सेशन एंड जपा टॉक जपा रिट्रीट । ठीक है ।॥ गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥ भगवान आप सबको शक्ति बुद्धि दे । भक्ति दे ताकि आप “कीर्तनीयः सदा हरिः” करते रहे या उसके लिए तैयार हो जाए । हरि बोल !
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*सोलापुर धाम से*
*25 सितंबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
क्या आवाज ठीक है? सोलापुर के भक्तों के लिए तो ठीक ही है। आज 805 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। जपा सेशन भी ऑनलाइन और ऑन ग्राउंड अथवा ऑफ लाइन दोनों ही हो रहा है। इस्कॉन सोलापुर भक्तवृन्द की जय!!!
इस्कॉन सोलापुर के भक्त भी जप के समय हमें अपना संग दे रहे हैं। हम उनकी उपस्थिति के लिए उनके आभारी हैं। हरि! हरि! आप सब तैयार हो? यस गायत्री? क्या तुम तैयार हो? ठीक है। जप टॉक में फूड फॉर द थॉट ही बता रहे हैं, जिससे हम और अधिक बुद्धिमान भी होंगे। बुद्धि का पोषण होगा, बुद्धि को कुछ खिलाएंगे, पिलाएंगे। फूड फॉर थॉट और ड्रिंक फॉर थॉट दोनो हो सकते हैं। फ़ूड भी हो सकता है और ड्रिंक भी हो सकता है। मस्तिष्क या बुद्धि के लिए खाद्य और पेय जिससे हम बुद्धिजीवी बन जाएं, कुछ इंटेलिजेंट बन जाएं, हम बुद्धिमान बन जाएं।
*तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||*
( श्रीमद भगवतगीता १०.१०)
अनुवाद:- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
कृष्ण भी कहते हैं,” मैं बुद्धि देता हूं।” भगवान की ओर से हम भी आपको बुद्धि देने का प्रयास करते हैं। अपना मनोधर्म अथवा अपने विचार नहीं अपितु भगवान के विचार देने का प्रयास तो रहता है। कभी-कभी थोड़ा फेल भी होते रहेंगे, उसके लिए माफ करना। हरि! हरि!
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते, भगवान बुद्धि देते हैं, गुरुजन बुद्धि देते हैं,
*चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥3॥*
अर्थ:- वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।
‘दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित’ हम हर रोज गाते हैं। गुरु हमारे हृदय में दिव्य ज्ञान प्रकाशित करते हैं। जब हम सुनते हैं
*गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य, आर न करिह मने आशा।*
हम तब थोड़े फोकस या केंद्रित हो जाते हैं। उसके लिए कुशाग्र बुद्धि की आवश्यकता है। बुद्धि हो तो कैसी हो? कुशाग्र बुद्धि। यह बुद्धि की विशेषता अथवा विशिष्टय कहा जाता है। ऐसा समय भी होता है कि जब हम जपा टॉक करते हैं। अच्छा है, जिससे प्रातः काल में हमें कुछ बुद्धि प्राप्त हो, कुछ दिव्य ज्ञान हमारे हृदय आंगन में प्रकाशित हो तब फिर हमारा दिन ठीक जाएगा। दो चार छोटे छोटे विचार आ रहे हैं लेकिन वे मोटे भी हो सकते हैं। मैं सोच रहा था फिर वही बातें ..
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैब षडविधम प्रीति-लक्षणम् ॥४॥*
( उपदेशामृत श्लोक संख्या 4)
अनुवाद:-दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना -भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
गोपनीय बातें करते हैं और पूछते हैं गुह्ममाख्याति पृष्छति।
इसे ही षडविधम प्रीति-लक्षणम् कहा जाता है। यह प्रीति का लक्षण है कि अपने विचार को शेयर करें, यह दिल की बात है।
मन की बात नहीं, मन को मारो गोली। दिल की बात मतलब आत्मा की बात है। मन का कुछ भरोसा नहीं है।
प्रातः काल में विचार आ रहा था कि यह जो चैंटिंग है,
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
जैसे ही आज मैं उठा और मंगला आरती के लिए तैयार हो रहा था, ऐसे विचार आ रहे थे कि महामंत्र का जप और कीर्तन स्वयं भगवान भी करते हैं।
आपनि आचरि जगत सिखाए। यह कोई विशेष बात या गंभीर मामला है। हम लोग जो जप व कीर्तन करते हैं,
*महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणार विन्दम्॥2॥*
हम गाते ही हैं। इस प्रकार यह छोटी बात है, इसको मोटा बनाना है तो इस पर व्याख्या कर सकते हैं, विस्तार से कह सकते हैं लेकिन बीज विचार अर्थात जो बीज के रूप में अंकुरित होता है, फिर उगता है, तत्पश्चात बढ़ता है और विशाल वृक्ष का रूप धारण करता है। सीड थॉट, ऐसा विचार मन में आया था कि यह कीर्तन तो स्वयं भगवान करते थे। यह एक विचार था लेकिन मैंने कहा था दो चार विचार आए थे। दूसरा विचार यह भी आया था
*हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥*
अर्थ: हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु, यह वैष्णव भजन का अंश है। विफले जनम गोङाइनु, यह बंगला भाषा का शब्द है , थोड़ा कठिन है। यह विचार भी आया। मैं सोच रहा था कि हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु,
कुछ बातें याद आ रही थी, मैं सोच रहा था कि मैंने अपना समय इसमें, उसमें खराबकर दिया।
हमारे कई आचार्य हैं, विनय पत्रिका अर्थात विनय के कुछ वचन लिखते हैं व गाते हैं। विचार व्यक्त करते हैं कि मैंने जीवन को ऐसे ही गवाया, वैसे ही गवाया, गवाया ही नहीं अपितु खोया, हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु,
मैंने भी यह करके, वह करके हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। कल
सायः काल को कुछ क्षणों के लिए किसी के प्रति ऐसे विचार आ रहे थे, किंतु फिर बीच में ही मैंने आवाज दी स्टॉप इट, इस विचार को आगे मत बढ़ाओ। इसके संबंध में या उसके संबंध में जो मात्सर्य या हैट्रेड। जैसा कि संस्कृत में कहा जाता है- अन्यश्र्च उत्कर्षः असहनीय अर्थात औरों का उत्कर्ष/ प्रगति असहनीय अथवा सहन नहीं होता हम पर दुखे सुखी हो जाते हैं अर्थात हम औरों का सुख देख कर हम दुखी हो जाते हैं अर्थात उनको सुखी देखकर हम दुखी हो जाते हैं। स्टॉप इट। मैं महाप्रभु से प्रार्थना कर रहा था कि कि मुझे बचाइये, मेरी रक्षा कीजिए ताकि मैं किसी के प्रति ना आऊं।
में औरों से द्वेष ना करूं। इसी के विषय में महाप्रभु भी कहते हैं।
*तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 17.31)
अनुवाद:- जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।”
अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा मत करो अपितु दूसरों का मान अथवा सत्कार करो। कृष्ण कहते हैं
*यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||*
(श्रीमद भगवतगीता 4.22)
अनुवाद:- जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं |
भगवान भगवत गीता में कहते हैं, द्वंद के अतीत पहुंचो, द्वंद के अतीत पहुंचो। मात्सर्य रहित बनो। मैं मायापुर उत्सव के समय प्रार्थना कर रहा था। अब जब कुछ मात्सर्य के सम्बन्ध में विचार हो रहा था , तब इस भाव को भगवान ने कृपा की ओर से नो नो कहा- यह सब प्रातः काल विचार आ रहे थे। मैं भी कायेन, मनसा वाचा, गंभीर हो गया।
अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||*
( श्रीमद भगवत गीता 18.73)
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
*कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।*
(श्रीमद भगवतगीता 2.7)
अनुवाद:- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |
धर्मसम्मूढचेताः लेकिन उन्होंने जब भगवत गीता सुनी तब अर्जुन कहने लगे कि मेरा मोह नष्ट हो गया है, अब मैं समृति कर रहा हूं। गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव का जो भाव है वैसा ही अर्जुन ने कहा कि ऐसे भाव उत्पन्न हुए, ऐसा विचार बना कि मैं तैयार हूं। लेकिन हम उस भाव में रहते नहीं। हम अच्युत नहीं है। हम च्युत भी हो जाते हैं। कभी अच्युत और कभी च्युत। किंतु हमारे प्रयास होने चाहिए ताकि हम हमेशा के लिए हाई रह सके ‘टू स्टे हाई फॉरएवर’। जब लोग कुछ नशा लेते हैं और बाद में जब उनका नशा उतर जाता है तो वे नीचे आ जाते हैं। नशा उतरने पर लोअर आ जाते हैं। हायर गए थे अब लोअर जाएंगे। अगली बार और बड़ी डोज़ लेंगे। ऐसा करते-करते वे डोज को बढ़ाते हैं, वहां से भी ऊपर हायर जाने क पर तमोगुण का इतना प्रभाव होगा। हाई एंड लो। श्रील प्रभु पाद जब अमेरिका पहुंचे- प्रभुपाद जानते थे कि यह सब लोग ड्रग एडिक्ट्स है। नशा पान करते हैं, प्रभुपाद ने कहा मैं भी एक नशीला पदार्थ लेकर आया हूं। मेरे पास भी ड्रग है। इस ड्रग से सब ऊपर ही जातेहैं। नीचे जाने का कोई प्रश्न ही नहीं। उन लोगों ने कहा स्वामी जी वह क्या है
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह ड्रग है, उसका परिणाम यह भी हुआ कि लोगों ने सारा नशा पानी छोड़ दिया। वैसे कुछ समय के लिए दोनों ही चल रहे थे । प्रभुपाद का दिया हुआ ड्रग भी ले रहे थे और ड्रग्स भी लेकिन इस परम् उच्च का आस्वादन इन भक्तों जीवों ने किया तो उनकी बुरी आदतें पाप छूट गए।
*विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||*
( श्रीमद भगवतगीता 2.59)
अनुवाद: देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है | लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है |
*पापाची वासना नको दावू डोळा। त्याहुनि आंधळा बराच मी ।।*
संत तुकाराम महाराज
हरि! हरि! आज मंगला आरती हो रही थी मैं ही मंगला आरती को गा रहा था
*संसार-दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥*
यह विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की रचना है। गुर्वाष्टक अर्थात गुरूवा और अष्टक।
गुर्वाष्टक में गुरु की गौरव गाथा, मान सम्मान, उनकी महिमा या उनके गुणधर्म का उल्लेख हुआ है। मैं सोच रहा था कि प्रभुपाद ने जो हमें इस्कॉन दिया हुआ है, जो लाइफ़स्टाइल दी हुई है ,जो साधना दी हुई है, उसी का तो उल्लेख इस गुर्वाष्टक में हुआ है। चार आइटम –
*महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥*
अर्थ – श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
हम इस्कॉन में क्या करते हैं
हम इस्कॉन में कीर्तन करते हैं, कीर्तन के साथ नृत्य भी करते हैं। वादित्रमाद्यन् अर्थात वाद्य बजते हैं, कीर्तन होता है। हम महाप्रभु द्वारा सिखाया हुआ कीर्तन करते हैं। यह एक एक्टिविटी है। यह इस्कॉन का एक कार्यक्रम है।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन। निश्चित ही हम कीर्तन करते हैं, कीर्तन करते क्या होता है, रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् अर्थात रोमांच होता है। इसकी और भी ध्यान देना होगा कि मुझे कब रोमांच होगा।
*नयनम गलदश्रु-धारया वदनम गद्गद-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 20.36)
अनुवाद:- हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?’
कब मेरा गला गदगद हो उठेगा ? रोमांच कब होगा? हम आधा तो कर ही लेते हैं अर्थात कीर्तन कर ही लेते हैं,पर अब वह रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो कब होगा। हम जो गुर्वाष्टक में गाते हैं।
दूसरा उल्लेख है हम श्री विग्रह की जो आराधना करते हैं, उनका श्रृंगार करते हैं, मंदिर मार्जन करते हैं और गुरुजन क्या करते हैं।
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि अर्थात
अपने भक्तों या शिष्यों को सेवा देते हैं। वैसे वही भगवान को आमंत्रित करते हैं, जब प्राण प्रतिष्ठा होती है तब प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु, आप यह रूप बन जाइए आप यह रूप बन जाइए। उसमें प्राण डाले जाते हैं।
*राधा कृष्ण प्राण मोर जुगल किशोर । जीवने मरणे गति आर नाहि मोर ।।*कालिन्दीर कूले केलि कदम्बेर वन । रतन वेदीर ऊपर बसाब दुजन ।। श्यामगौरी अङ्ग दिब ( चुया ) चन्दनेर गन्ध । चामर ढुलाबो कबे हेरिबो मुखचन्द्र ।। गाँथिया मालतीर माला दिबो दोहार गले । अधरे तुलिया दिबो कर्पूर ताम्बूले ।। ललिता विशाखा आदि जत सखीवृन्द । आज्ञाय करिबो सेवा चरणारविन्द ।। श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुर दासेर अनुदास । सेवा अभिलाष करे नरोत्तमदास ।।*
अनुवाद – राधाकृष्ण युगल किशोर ही मेरे प्राणस्वरूप हैं । इस जीवनमें उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति ( आश्रय ) नहीं है । कब मैं कालिन्दीके किनारेपर स्थित कदम्बवृक्षोंके वनमें रत्नजड़ित सिंहासनपर दोनोंको बैठाकर उनके श्रीअंगोंमें चन्दन प्रदान करूंगा तथा चामर ढुलाते हुए उनके श्रीमुखकमलका दर्शन करूँगा ? मैं कब मालती फूलोंकी माला गूंथकर दोनोंके गलेमें पहनाऊँगा , उनके अधरोंपर कर्पूरयुक्त सुगन्धित ताम्बूल अर्पण करूँगा तथा ललिता , विशाखा आदि जितनी भी सखियाँ हैं , उनकी आज्ञानुसार दोनोंके श्रीचरणकमलोंकी सेवा करूँगा । श्रीनरोत्तमदास ठाकुरजी श्रीमन्महाप्रभुके दासोंके अनुदासोंकी सेवाकी अभिलाषा करते हैं ।
आचार्य, गुरु जन प्रार्थना करके कृष्ण के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। इसकी सेवा की जिम्मेदारी जिन्होंने आमंत्रित किया है, उसी की होती है। फिर वह सेवा गुरुजन, आचार्यजन स्वयं भी करते हैं। वे औरों से भी सेवा करवाते हैं व कर लेते हैं। राधा कृष्ण के भी विग्रहों की आराधना युक्तस्य (यह युक्तस्य शब्द महत्वपूर्ण है) और भक्तों के साथ विग्रह की आराधना करते हैं। विग्रह आराधना का हमारे इस्कॉन में काफी महत्व है या इस्कॉन के केंद्र में विग्रह आराधना है। जिस प्रकार से हमारे इस्कॉन में विग्रह की पूरी समझ के साथ आराधना होती है शायद ही कहीं और होती होगी। हरि हरि। यह दूसरी क्रिया है। पहला कीर्तन है। दूसरा विग्रह आराधना है। तीसरा
*चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥*
अर्थ:- श्री गुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात् चबाए जाने वाले, पेय अर्थात् पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले – इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
कीर्तन करते समय भी हम संगठित होकर कीर्तन करते हैं इसलिए संकीर्तन कहा जाता है अर्थात कई भक्त एकत्रित होंगे और कीर्तन होगा। ऐसे कई भक्त ‘युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि’
कई सारे भक्त एकत्रित होंगे और फिर वह मिलकर विग्रह की आराधना करेंगे। तत्पश्चात चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद अर्थात प्रसाद का भगवान को भोग भी लगेगा। छप्पन भोग लगेंगे। यहां कहा गया है कि चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- प्रसाद को चार प्रकार से खाया जाता है इसलिए चतुर्विधा या छप्पन भोग, 32 व्यंजन की बात नहीं है, इतने आइटम की बात नहीं है। चतुर्विधा अर्थात चार प्रकार का प्रसाद अर्थात चार प्रकार से इसको खाया जाता है। हम लोग चार प्रकार से खाते हैं। उसके नाम भी है। चार प्रकार से उसको ग्रहण करते हैं। विधा मतलब प्रकार। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव – गुरुजन जब देखते हैं कि भक्त प्रसाद ले रहे हैं, वे प्रसन्न होते हैं, वे प्रसाद ले रहे हैं। भगवान कृष्ण ने ऐसा कहा भी है
*पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति | तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः ||*
( श्रीमद भगवतगीता 9.26)
अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ |
इसी को ग्रहण कर रहे हैं। ये
प्रसाद ग्रहण करके और भी कृष्ण भावना भावित हो जाएंगे क्योकि अन्न परब्रह्म अर्थात प्रसाद कृष्ण है। कृष्ण प्रसाद के रूप में हममें प्रवेश करते हैं। यह भगवान का बहुत ही मधुर रूप है, सबको भाता है। कई लोग प्रसाद खा खाकर भक्त बन जाते हैं। प्रभुपाद ने विदेशों में संडे फेस्टिवल शुरू किया जिसे पहले लव फीस्ट कहते थे। आज प्रीति भोजन होगा। प्रीति भोजन के लिए कई लोग आते थे। वैसे नारद मुनि भी बताते हैं कि वे कैसे भक्त बनें। श्रीमद भागवतम के प्रथम स्कंध में वर्णन है कि वे श्रील व्यास देव के साथ बात कर रहे थे कि प्रसाद व उच्छिष्ट खाकर खाकर मैं नारद मुनि बन गया। भक्तवृंद जब प्रसाद ग्रहण करते हैं ,प्रसाद ग्रहण करने के लिए यह भी कहा है-
*भुड.कते भोजयते चैव*
प्रसाद खाते हैं और प्रसाद खिलाते भी हैं, ऐसा नहीं है कि अकेला ही खा रहा है। कि हेड पुजारी ने सारा अकेले ही खा लिया।ऐसा वहां भी हुआ था जब माधवेन्द्र पूरी वहां पहुंचे थे… (नहीं अभी समय नहीं है)
वितरण, फ़ूड फ़ॉर लाइफ भी है, अन्नामृत भी है। यह सब प्रसाद चतुर्विधा के अंतर्गत आ गया है।
*श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥*
अर्थ:- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
वैसे यह भी बड़ा महत्वपूर्ण कार्यक्रम है।
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥*
( श्रीमद भागवतम 1.2.18)
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
श्रवण कीर्तन अनिवार्य है। हमारे इस्कॉन में या श्रील प्रभुपाद के इस्कॉन में या श्री चैतन्य महाप्रभु के इस्कॉन में इस पर जोर दिया जाता है।
श्रीप्रह्लाद उवाच
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥*
*इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥*
( श्रीमद भागवतम 7.5.23)
अर्थ:- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात् मनसा , वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना ) – शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
इसलिए जपा सेशन, जपा टॉक, प्रातः काल में भागवत कथा और सायः काल में भगवत गीता का पाठ और कथा कीर्तन। फिर उसी के अंतर्गत पुस्तकों का वितरण व अध्ययन भी आ जाता है । यह जो सारा शास्त्रों के संबंधित जो भी हम करते हैं, वही है श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् है।
इसकी चर्चा होती है। श्रवण कीर्तन होता है। श्रवण कीर्तन से स्मरण होता है ।श्रवणं कीर्तनं विष्णुं स्मरणम …
तत्पश्चात
*निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया तत्राति-दक्ष्याद् अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥6॥*
अर्थ:- श्रीगुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्रीश्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यन्त श्रेष्ठता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
छठवां गुर्वाष्टक है। इसमें कहेंगे कि यह चिंतन का विषय है, मनन का विषय है। कीर्तन की हुई जो बातें हैं, कुछ स्मरण तो हुआ। उसी का और चिंतन करते जाओ। सोचते जाओ विचारों का मंथन होने दो, उसे मनन कहते हैं। भगवान की लीलाओं का स्मरण, राधा माधव की लीलाओं का स्मरण, वे निकुंज में क्या करते हैं।
निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै
या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया।
युनो अर्थात राधा कृष्ण दो।रति-केलि-सिद्धयै अर्थात
रति मतलब माधुर्य और केलि मतलब लीला। फिर गुरुजन अपने स्वरूप अथवा अपने नित्य स्वरूप में भगवान के लीला में कुछ सहायता भी करते हैं। फिर आगे की बातें हैं और अधिक गोपनीय बातें हैं। गुरु साक्षात हरि हैं। वे साक्षात हरि की भूमिका भी निभाते हैं किंतु वे भगवान के प्रिय भी हैं। वे भगवान के पार्षद हैं। शुरुआत का जो गुर्वाष्टक है-
संसार दावानल इस दुनिया में आग लगी हुई है, आपको वर्षा भी तो हो रही है, आतप ताप अतिवृष्टि अनावृष्टि भी है। जीव परेशान है, आग लगी है तो कौन बुझाएगा। गुरु की कृपा से इस आग को बुझाया जा सकता है। इसलिए कहा है गुणार्णवस्य अर्थात गुण और अवस्य, गुण मतलब गुण, अवस्य मतलब सागर। गुरु, आचार्य गुण के साधक हैं। गुरु भगवान की कृपा का दान करते हैं।
*यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥*
अर्थ: श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए।
गुरु प्रसन्न होते हैं तो भगवान प्रसन्न होते हैं। लेकिन जब से यस्याऽप्रसादन्न् यदि वह प्रसन्न नहीं होंगे हमनें प्रसन्न नहीं किया तो कोई गति नहीं है, हम आगे बढ़ेंगे नहीं, हम अपने गंतव्य स्थान तक नहीं पहुंचेंगे। जो भगवत धाम कृष्ण भावना भावित होना है, भगवान की सेवा को प्राप्त करना है। जीवन का लक्ष्य है, राधा कृष्ण के चरणों की सेवा। यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि। प्रसाद प्राप्त हुआ, उनको हमनें प्रसन्न किया, यस्याऽप्रसादन्न्, अगर वे प्रसन्न नहीं हुए तो कोई गति नहीं हैं। ऐसे गुरुजनों का ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
श्रील प्रभुपाद की जय !
गुरु शिष्य परंपरा की जय!
राधा दामोदर की जय!
बोल प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
24 सितंबर 2021,
सोलापुर.
मेरी आवाज आ रही है सबको। आपके लिए भी और संसार भर के भक्त सुन रहे हैं, धन्यवाद। हम किसी पर मेहरबानी तो नहीं करते जप करके। भगवत साक्षात्कार के लिए हम जप करते हैं। जैसे संसार भर के लोग नतै विदुः स्वार्थगतिं ही विष्णुं नतै विदुः स्वार्थगतिं ही विष्णुं प्रल्हाद महाराज ने कहा है, नतै विदुः स्वार्थगतिं ही विष्णुं लोग जानते नहीं अपने फायदे के लिए, स्वार्थ के लिए कुछ करते रहते हैं लेकिन, उनको स्वार्थ का मतलब पता नहीं। करते रहते हैं, कुछ करते रहते हैं। नतै विदुः स्वार्थगतिं ही विष्णुं विष्णु प्राप्ति कृष्ण प्रार्थी में ही हमारा स्वार्थ है। स्व आत्मा का मतलब है मतलब की बात है, कृष्ण, कृष्ण प्राप्ति हुई जहां हईते यह जप कर करके, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। जो इस कलयुग का धर्म भी है। भगवान का नाम हमें रूप तक पहुंचाता है। यह नाम हमें रूप तक पहुंचाता है, कह भी दिया तो ठीक है कि नाम ही रूप है। नाम से रूप तक पहुंच गए की बात सही नहीं है। और कैसे समझ तो है नाम तत्व के दृष्टि से नाम ही रूप है। नाम से रूप तक और फिर रूप से भगवान के गुणों तक हम पहुंचते हैं। यह जीव का साक्षात्कार होता है ।नाम से धाम तक। वैसे मैं कहते रहता हूं, नाम से धाम तक। नाम से धाम तक मतलब भगवत धाम तक। वृंदावन धाम तक। मायापुर धाम तक। पंढरपुर धाम तक। यह नाम हमें धाम तक पहुंचाता है। धाम तक पहुंचाता है मतलब भगवान तक पहुंचाता है। धाम में रहते हैं भगवान। गोलोक, गोलोक में निवास करते हैं। नाम से रूप, रूप से गुण और गुणों से लीला और लीला खिलाने कोई साथ है। कोई पागल है, अकेला लीला करेगा। लीला में परीकरो कि अनिवार्यता है। नंदबाबा यशोदा है तो फिर, वात्सल्य लीला होगी। मधुमंगल सुदामा इत्यादि अष्टसखा है और अनेक सखा है तो फिर गोचारण लीला संभव होगी। गाय भी चाहिए। राधारानी है तो निकुंज में माधुर्यलीला फिर गोपियां, गोपियों के बिना राधारानी के बिना वह लीला संभव नहीं है। इसलिए फिर परिकर भी आ जाते है। कृष्ण के संगी साथी। संबंध का ज्ञान वही ज्ञान हो जाता है। नाम से, रूप रूप से, गुण तक गुण से लीला फिर लीला के पहले भक्त तो चाहिए। हवा में तो नहीं होगी। लीला धाम में होती है। यह नामजप हमें परिचय कराता है। हमें साक्षात्कार कराता है। भगवत साक्षात्कार मतलब भगवान के रूप का साक्षात्कार। भगवान के रूप का दर्शन। फिर गुणों का दर्शन भी, गुणों का दर्शन मैंने कह तो दिया बात सही है गुणो का दर्शन। गुणों का अनुभव उसको भी दर्शन कहते हैं। जैसे अलग-अलग शास्त्र षड्दर्शन कहलाते हैं। रूप का साक्षात्कार, गुणों का साक्षात्कार। समाधिस्थ होकर आप सुन रहे हो, यह समस्या है। लेकिन समाधि में कैसे, यह ध्यान रहे आंखें आधी खुली होनी चाहिए, आधी बंद होनी चाहिए। लेकिन हम क्या करते हैं, हम आंखें पूरी बंद करते हैं। या तो आंखें पूरी खोल देते हैं और सारी दुनिया को देख लेते हैं। वह भी सही नहीं है। और आपके पूरे बंद कर दिया तो अंधेरा हो गया अंदर। हरि हरि, जीव जागो यह बातें हम सुनेंगे नहीं तो हमारे जप में सुधार नहीं होगा। जपा टॉक होता है। जपा रिट्रीट होता है। जपा रिट्रीट में तो कई भक्त 1 सप्ताह भर के लिए एकत्रित होते हैं। और उनके लिए उनका ट्रेनिंग होता है। चर्चासत्र होता है। कैसे ध्यान पूर्वक जप करना है। यहां हम तो रोज हर रोज जपा रिट्रीट, प्रतिदिन हम जपा रिट्रीट करते हैं। या कुछ सीखते हैं, समझते हैं।
हरि हरि, तो इस प्रकार कुछ थोड़ासा कहा और फिर हम कह रहे हैं। इस प्रकार यह जो नाम है हमें धाम तक पहुंचा सकता है। और यह अतिशयोक्ति नहीं है। अतिशयोक्ति नहीं है या ऐसा समझना नाम अपराध हुआ। गुणका महिमा है। इतना महान है यह भगवान का नाम। यह नाम हमें धाम तक पहुंचा सकता है। सच में ऐसा कोई सोच सकता है। सचमुच अगर किसी के मन में शंका उत्पन्न होते हैं या विश्वास नहीं होता है कि नाम से धाम तक हम जा सकते हैं। नाम की मदद से तो यह अपराध ही होता है। नाम प्रभु के चरणों में मतलब कृष्ण के चरणों में अपराध होता है। यह तो सत्यकथा है। यह सत्य है किंतु हमारा विश्वास नहीं होता। बहुत सारी चर्चाएं या हरिनाम का महिमा सुनने के उपरांत भी हरिनाम में श्रद्धा नहीं होना भगवान के शुद्धनाम में विश्वास नहीं होना। यह कौन सा अपराध है, दसवां नाम अपराध है। ऐसा अपराध हमें नहीं करना है। करना चाहते हो, फिर नामप्रभु प्रसन्न नहीं होंगे। मैं यह भी सोच रहा था, जप करते समय आपसे क्या कहें। आज कुछ विशेष सम्मेलन यहां सोलापुर में हो चुका है। कई सारे मंदिर फुल हाउस है तो हाउसफुल मंदिर है तो मंदिरफुल। मंदिर फुल हो गए। मंदिरफुल और भक्त प्रातकाल में जप करने के लिए पहुंच गए। वैसे आप जपते रहते हैं अपने अपने घरों में वहां पर बैठकर जप करते रहते हैं। लेकिन आपने आज विशेष प्रयास किया। इस पर भी ध्यान देते हैं भगवान। जल्दी उठे हैं। कुछ असुविधा तो होती है पहुंचने में। यहां जप हो रहा है। मंदिर पहुंचना है। ऐसे होते हुए भी जब हम मंदिर पहुंचते हैं तो इस बात से भगवान प्रसन्न होते हैं। यहां पहुंचने के लिए कुछ तपस्या करनी पड़ती है। यह तपस्या फिर हम को शुद्ध ही बनाती हैं कि, हम कितने गंभीर हैं कृष्णप्राप्ति के लिए या हरिनाम जप करने के लिए या भक्तों के संग प्राप्ति के लिए इसका भी थोड़ा अंदाजा लगता है।
जब हम तपस्या करते हुए, कठिनाइयों का सामना करते हुए, हम पहुंच ही जाते हैं. मंदिर पहुंच जाते हैं या मंदिर पहुंचते हैं तो, अच्छी बात है। स्वागत है। ठीक है, आज समय ज्यादा नहीं है। मैं जरा सोच रहा था, बात तो कुछ नई नहीं है। एक ही बात हर बार होती है। घर छोड़कर यहां छोड़ कर वह छोड़ कर अपना कंफर्ट जोन छोड़ कर हम मंदिर पहुंच जाते हैं। धाम में जाते हैं। सत्संग में जाते हैं मतलब हम थोड़ा दुनियादारी से अलग होना चाहते हैं। दुनियादारी दुनिया से अलग होना चाहते हैं। माया से बाहर निकलना चाहते हैं। हां या नहीं, हम तो वैसे भगवान के हैं और हम भगवतधाम के भी हैं। हम केवल भगवान के नहीं हैं। हम भी भगवत धाम के हैं लेकिन, हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई। चूक हो गई। कैसी घोड चूक कहते हैं मराठी में। हमने क्या किया, हम बहिर्मुख हुए। हम भगवत धाम और भगवान को त्याग कर हम इस संसार में आए। और फिर क्या करने लगे, भोगवांछा भोग कि वांछा इच्छा, भोग। और फिर क्या करती है माया, निकटस्थ माया तारे झपटीया धरे। जब जब हम भोग की इच्छा करते हैं पछाड लेती है हमें माया। यह बातें संबंधित है एक दूसरे से। शेर शेरनी के बच्चे भेडियो के भीड़ में मिल गया और फिर भेड़ियों के साथ ही वहां रहने लगा। भेडियो जैसी चाल उसने सीख ली। भेड़ियों जैसे जीवनशैली और उसका अन्न कहो, घास खाने लगा। और भेड़ियों जैसा ही डरने लगा शेर से, डरने लगा। और फिर शेर शेरनी आते हैं तो भेड़िये जैसे डर के मारे दौड़ते हैं तो यह भी डर के दौड़ता भेडियो के साथ और म्यँ म्यँ आवाज करने लगता। शेर को तो गर्जना करनी होती है, वह सीखता अगर शेर के साथ ही रहता तो धीरे-धीरे वह भी गर्जना कर देता। उनके कई सारे प्रयास तो असफल रहे लेकिन शेर और शेरनी ने अपने प्रयास छोड़े नहीं। प्रयत्न करते रहे इसको कैसे अलग किया जाए, भेडियो से कैसे अलग किया जाए, यह तो शेर है। भेड़ियों जैसा इसका काम धंधा हुआ है। अंततः एक दिन वह सफल हो गए। और उसको थोड़ा अलग ले गए एक तालाब के किनारे ले गए। उन्होंने कहा देखो देखो पानी में देखो अपनी शक्ल, अब हमारी और देखो। तुम, हम जैसे हो ना। उसका ब्रेनवाशिंग किया। गलत सीखा था, गलत संस्कार में थे। संस्कार तो होने चाहिए थे शेर के ताकि वह शेर बने रहता। शेर जैसा ही गर्जना करें। लेकिन और और सीखा और संस्कार हुए। भेड़िए जैसे संस्कार हुए। तो उन्होंने सारा क्रैश कोर्स दिया अपने बच्चे को और गर्जना करना भी सिखाया। अब उसका प्रात्यक्षिक होगा। तो उसको लेकर आए जहां भेड़ी की भीड़ थी। और मां बाप ने शेर शेरनी ने कहा आज तुम्हारी बारी है, तुम गर्जना करके दिखाओ। तो उसने जैसे गर्जना की तो सारी भेड़ी दौड़ पड़ी। तुम शेर हो ना, हां मैं शेर हूं। वनराज, केशरी, मैं जंगल का राजा हूं।
उसको साक्षात्कार हुआ, आत्म साक्षात्कार मैं कौन हूं, शेर हूं।तो इसी प्रकार उस भेड़ी की भीड़ से वह अलग हुआ। वह वही बन गया जो वह था, वह शेर था। हरि हरि। आप सो रहे हो क्या? तो सोने वाले पार्टी मे ही रहोगे आप। पार्टी बदलने की चर्चा शुरू है अभी। पक्ष दो ही है इस संसार में एक है माया का पक्ष और दूसरा है कृष्ण का पक्ष। जयस्तु पाण्डुपुत्राणा॑ येषा॑ पक्षे जनार्दन: पांडवों की विजय निश्चित है। क्योंकि येषा॑ पक्षे जनार्दनः वे जनार्दन के पक्ष के हैं, कृष्ण के पक्ष के हैं तो उनकी जीत निश्चित है। बात तो यह चल रही है की कैसे हम पक्षांतर, पक्षांतर मतलब एक पक्ष से दूसरे पक्ष में, दलबदल। दल बदल दलदल ऐसे चलता रहता है बीजेपी से कांग्रेश पक्ष इधर से उधर एक पक्ष से दूसरे पक्ष मे बदलना। तो हमें करना है, बहुत समय से, अनादि काल से हम इस माया के चक्कर में माया के पक्ष में रहे। लेकिन यह पक्ष हमारा नहीं है वैसे। जैसे शेर है तो भेड़ी के पक्ष का नहीं था, वह शेर ही था। भूल गया या भुला दिया उन भेड़ियों ने भुला दिया। तो वैसी ही हमारी हालत है। केवल आपकी ही नहीं, सारे संसार का हाल ऐसा ही है, यही है। जब से सृष्टि बनी तब से यही हाल है और जब तक सृष्टि रहेगी तब तक ऐसा होता रहता है। तो भगवान को छोड़कर, भगवदधाम छोड़कर कहां पर फस गए, कहां अटक गए। लेकिन हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह क्या करता है? हमारा ब्रेनवाशिंग करता है, दिमाग की सफाई करता है। मतलब यह क्या करता है? चैतन्य महाप्रभु के शब्दों में चेतो दर्पण मार्जनम चेतना के दर्पण का मार्जन करता है यह महामंत्र। श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम तो आपकी जय हो या संकीर्तन आंदोलन की जय हो। ऐसे चैतन्य महाप्रभु ने घोषणा की है। तो इस अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ का उद्देश्य जो संघ भगवान का संघ है। संघ, यह हरे कृष्ण संघ भगवान का संघ, भगवान का संगठन है। इस संसार में कई सारे संगठन तो है लेकिन अधिकतर मायावी संगठन है। मायावी गट या दल या संस्था। लेकिन यह जो संस्था है, यह संस्था तो धर्मसंस्थापनार्थाय धर्म की स्थापना के लिए इस संस्था की स्थापना हुई है। श्रील प्रभुपाद की जय। स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ओर से, यह गौर निताई की ओर से श्रील प्रभुपाद इस हरे कृष्ण संस्था आंदोलन की स्थापना किए हैं। ताकि क्या उद्देश है? हर जीव को भगवत धाम ले जाने के लिए। और क्या कहोगे? तो जप करते रहिए और इसी के साथ कीर्तनीय सदा हरी भी है। कीर्तनीय सदा हरी। यह बताया जाता है कि कीर्तन करना है, जप करना है तो मन की स्थिति कैसी होनी चाहिए।
तृणादपि सुनीचेन
तरोरपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीयः सदा हरिः।।
यह सब हम को समझना होगा। इसी समझ के साथ, ऐसी मन की स्थिति के साथ जो जप करेंगे तो फिर वह सब समय जप भी कर पाएंगे। एक तो कीर्तनीय सदा हरी है और उसके साथ में वैसे श्रील प्रभुपाद हमको मॉर्निंग प्रोग्राम, मॉर्निंग साधना या डेअली साधना दिए हैं। उसमें हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इसका कीर्तन है, इसका जप है। और साथ में आचार्य उपासना भी है। गुरुपूजा भी है आचार्य, गुरुजनों की आराधना। और फिर नित्यम भागवत सेवया भी है। ओम नमो भगवते वासुदेवाय यह गीता, भागवत का श्रवण कीर्तन, पठन पाठन यह जब करते हैं, तो फिर हमें नाम का महीमा, नाम से रूप शास्त्रों में क्या है? गीता भागवत में क्या है? भगवान के सौंदर्य का वर्णन है या आपकी आत्मा के सौंदर्य का वर्णन है। हम तो बस शरीर को लेकर बैठे हैं, जो भी है सामने हैं। जो भी दिखता है वही है और तो कुछ है ही नहीं। जैसे हम प्रत्यक्षवाद कहते हैं, प्रत्यक्षवाद। एक वाद होता है, प्रत्यक्षवाद। जो दिखता है, अगर सुन सकते हैं तो है स्पर्श कर सकते हैं तो है, नहीं तो फिर है ही नहीं। उसको प्रत्यक्षवाद कहते हैं। लेकिन बहुत सारी बातें हैं उनका अस्तित्व है, वास्तविकता है, वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम्। उसका पता कैसे चलेगा? उसका पता चलता है श्रवण से या अध्ययन से। शास्त्र प्रमाण या श्रुति प्रमाण कहते हैं। सुन लिया समझ गए। तो क्या समझेंगे? जब हम शास्त्र पढ़ते हैं तो इसी का पता चलता है। गीता भागवत करिती श्रवण अखंड चिंतन विठोबाचे अगर गीता भागवत का श्रवण करेंगे तो अखंड चिंतन विठोबाचे विठोबा का, भगवान कृष्ण का स्मरण होगा। कृष्ण का स्मरण होगा मतलब कृष्ण के नाम का स्मरण दिलाता है। यह शास्त्र भगवान के रूप का स्मरण दिलाता है, ऐसा, ऐसा..।
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
कर कटावरी ठेवोनिया
तुळसीहार गळा कासे पितांबर
आवडे निरंतर हेची ध्यान
मकर कुंडले तळपती श्रवणी
कंठी कौस्तुभ मणी विराजित
तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख
पाहीन श्रीमुख आवडीने
तो यह साधु हो गए। प्रमाण है शास्त्र प्रमाण है, साधु प्रमाण है, आचार्य प्रमाण। साधु, शास्त्र, आचार्य प्रमाण है। हमारा मन प्रमाण नहीं है। हमारा मन, मेरा मन, मेरा विचार है यह हुआ मनोधर्म। यह कौन सा धर्म हुआ? मनोधर्म। भागवत धर्म नहीं हुआ। तो इस प्रकार जब हम यह हरे कृष्ण आंदोलन संस्था है यह हमें भगवान के नाम का, भगवान के रूप, गुण, लीला,धाम, पार्षद, परिषद उनका परिचय देता है। और इसी के साथ हमको इस संसार की कीचड़ से अलग कर देता है। या फिर हम इस संसार में ही हैं। बी इन द वर्ल्ड बट नॉट ऑफ द वर्ल्ड ऐसा अंग्रेजी में कहते हैं। संसार में रहते हैं लेकिन संसार के नहीं होते हो। आप सुनते हो क्या कहा जाए, संसार में तो रहते हैं सोलापुर में है, महाराष्ट्र में है। लेकिन इस संसार के नहीं होते। संसार में हैं लेकिन संसार के नहीं हैं। कृष्णेर संसार कर छाडि’ अनाचार सारे अनाचार छोड़कर कृष्ण के लिए संसार करते हैं। कृष्ण के प्रसन्नता के लिए सारे कार्यकलाप करते हैं। तो इस प्रकार यह हरे कृष्ण आंदोलन सारे संसार भर के लोगों को ट्रेन करता है स्मरण दिलाता है। जैसे वह शेर शेरनी प्रयास करते रहे। शुरुआत में तो पकड़ में नहीं आ रहा था। ऐसे भी लोग होते हैं, हां हम बिजी हैं बिजी हैं।
आ जाओ जन्माष्टमी है, नहीं नहीं हम बिजी हैं। हमें मरने के लिए समय नहीं है। तो एक व्यक्ति बहुत व्यस्त था गाड़ी चला रहा था। किसी ने फोन किया आपसे मिलना चाहता हूं कितने समय कब मिल सकता हूं। वह गाड़ी चला रहा था उन्होंने कहा आज कहां, मैं बहुत बिजी हूं नहीं मिल सकता, नहीं मिल सकता। तो इतनी रफ्तार से वह जा रहा था। तब मोबाइल का वगैरा उपयोग नहीं करना चाहिए। डोंट मिक्स ड्राइविंग एंड कॉलिंग। तो इतने में हो गया एक्सीडेंट हो गया। फिर वह दूसरे जो बोल रहे थे, अपॉइंटमेंट मांग रहे थे। उन्होंने कहा कि यमराज स्पीकिंग, यमराज बोल रहा हूं। क्या हम कह सकते हैं हम बिजी है बिजी हैं। लेकिन यमराज अगर अपॉइंटमेंट चाहते हैं, तो क्या हम कह सकते हैं? नहीं नहीं अगली बार और कभी और फिर कभी मिलेंगे। हरि हरि। तो इस प्रकार हमारा पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम् यह सब चल रहा है। लेकिन हम जिस विकट परिस्थिति में फंसे हैं, बुरी तरह फंसे हैं। उसको भी हम अगर समझ सकते हैं, तो फिर हम क्या करेंगे? फिर प्रार्थना करेंगे। कृपया पारे पाहि मुरारे हे मुरारी रक्षा करो, रक्षा करो। कृष्ण कृष्ण कृष्ण पाहिमाम रक्षामाम तो यही तो बात या भाव होना चाहिए। यह भाव जप करते समय होना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे मतलब बचाओ बचाओ, मदद करो मदद करो कृष्ण मैं आपका हूं। मैं आपका हूं मैं दुनिया का नहीं, मैं सोलापुर का नहीं, इनका नहीं, उनका नही, मैं आपका हूं, मैं आपका हूं। मुझे सेवा दीजिए हे कृष्ण, हे राधे। सेवायोग्यं कुरू सेवा के लिए मुझे योग्य बनाइए। हरे कृष्ण का जप कीर्तन इस भाव के साथ होना चाहिए। और भी भाव है, उसमें यह एक भाव है। तो हम अलग होंगे, सारे संसार में होते हुए भी। जैसे कमल का फूल कीचड़ मे हीं होता है, लेकिन कीचड़ को स्पर्श नहीं करता है, ऊपर ही रहता है। इसलिए हम सबको सदैव जप करना चाहिए। हरेर्र नामैव केवलं ऐसा शास्त्र का वचन भी है। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
23 सितंबर 2021
सोलापुर,
808 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । घर में ऑनलाइन जप करने की वजाए मंदिर में आकर सोलापुर मंदिर में कई भक्त जप कर रहे थे मेरे साथ । उन सभी भक्तों की भी जय हो । हरि हरि !! आज वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल का अंतिम दिन है तो अंतिम दिवस का अंतिम सत्र है । समय रात 8:00 बजे इस वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल का समापन होगा और हम कीर्तन करेंगे 8:00 बजे । आप सब का स्वागत है । जानकारी तो आप सबको पता लगवाईए । शायद आप प्रतिदिन तो लॉगइन करते ही होंगे पिछले 7 दिनों से कथा अखंड यह उत्सव चल रहा है । श्रील प्रभुपाद की जय ! श्रील प्रभुपाद की गौरव गाथा गाने वाला वितरित या प्रसारित करने वाला यह उत्सव या उसके अलावा शायद पद्ममाली कुछ सूचना देंगे । दिन में भी और भगवद्गीता पर प्रस्तुतीकरण है वह अंग्रेजी में होगा । न्यूजीलैंड के भक्तों के लिए लिए तो वह होगा 1:00 से 2:00 तक भारत के समय अनुसार । भगवद्गीता की महिमा और गीता का सार वह होगा 1:00 बजे । वैसे सभी तो चाट के मैसेजेस में पढ़ता नहीं किंतु कुछ पढ़ने में आया तो कई भक्त कुछ अनाउंसमेंट कर रहे थे शायद वेणी माधव बेंगलुरु से और उनके सहयोगी ने इतने सारे भागवद् सेट् का वितरण किया और भी कुछ भक्त सूचना कर रहे थे अच्छे खबर यह सूचना सूचित कर रहे थे ।
उनके भी हम आभारी हैं और उनसे प्रसन्न भी है तो हो सकता है कि शायद पद्ममाली इसका कुछ रिकॉर्ड या नोट करके इसको सूचित भी किया जा सकता है जपा टॉक के अंत में । हरि हरि !! नहीं तो क्या है आपको वैसे कल बता ही दिया लेकिन यहां बड़ी संख्या में आप आप भी नहीं सकते सोलापुर की बात है इस्कॉन सोलापुर में । शरद पूर्णिमा के दिन राधा दामोदर भगवान के प्राण प्रतिष्ठा का महोत्सव संपन्न होने जा रहा है । हरि बोल ! उसी की तैयारी कहो या कुछ योजना करने की उद्देश्य से मैं यहां पहुंचा हूं तो कल से यहां यह सारी चर्चाएं हो रही है तो याद रखिए किंतु महामारी का का समय है । इस कोरोना को मारो गोली लेकिन कोई मर नहीं रहा है कोरोना । अभी भी अपने लक्षण दिख रहा है थोड़े-थोड़े । इस समूल नष्ट नहीं हुआ है तो इसलिए सरकार सावधानी बरतने की कह रही है तो हम उतना बड़ा उत्सव जितना हम चाहते थे ऐसा नहीं मना पाएंगे किंतु आप में से कुछ भक्त तो सीमित सह-भागी होगा तो देखते हैं कृष्ण भक्त इनका चयन करते हैं और आप में से कुछ भक्तों को जरूरी आमंत्रण जाएंगे और उस उत्सव के लिए आप साबुत सादर आमंत्रित होंगे । हरि हरि !! मेरे साथ जप करने वाले भक्त अधिकतर जवान ही है यह सराहनीय बात है ।
जवानी में भगवान की सेवा कर रहे हैं भगवान का नाम रट रहे हैं । कलियुग है तो उसके कारण भी बूढ़े होने पर ही देखेंगे । ऐसे विचार है बूढ़े होने पर देखेंगे । क्या देखोगे ? दिखाई भी नहीं देगा । अच्छा है कोई ताजे फल, हम जब ताजे हैं जवान जवान है अभी हम सब भी हम समर्पित हो जाए भगवान के सेवा में । फल जब सढ़ गया, सढ़ा हुआ फल फिर हम अर्पित करेंगे तो कृष्ण उसका आनंद लेंगे तो अच्छा है । यही उम्र है थोड़ा देरी हो गया जवान मतलब देरी ही हो गया । जवानी में हम अगर भक्ति प्रारंभ किए भक्ति तो कब प्रारंभ करनी होती है ?
श्रीप्रह्राद उवाच
कौमार आचरेत्पाज्ञो धर्मान्भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यश्रुवमर्थदम् ॥
( श्रीमद् भगवतम् 7.6.1 )
अनुवाद:- प्रह्माद महाराज ने कहा : पर्याप्त बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ से ही । अर्थात् बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव शरीर का उपयोग करे । यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान् होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है । यदि
निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है ।
कुमार अवस्था में ।
BG 2.13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
( भगवद् गीता 2.13 )
अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है । धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता ।
तीन अवस्थाएं हैं तो उसमें पहली अवस्था है कुमार अवस्था तो वह सही समय है । ऐसा नहीं कि हम बहुत समय गवा चुके हैं या कल कुछ विजिटर्स आए थे तो उनके साथ चर्चा हो रही थी हमने उनसे पूछा ! जप करती हो माताजी या हमारे साथ प्रातःकाल में ? तो प्रातःकाल वो नहीं करती थी, तो फिर हमने कहा ! अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज मैक्स् म्यान् हेल्दी वेल्थी वॉइस । यह कहावत तो अंग्रेजी में हैं और तो पश्चात जगत में भी यह कहावत प्रसिद्ध है । पश्चात देश के लोग भी कहते हैं ! क्या कहते हैं ? ‘अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज’ हमारे देश में या भारतवर्ष में भारत के संस्कृति में तो इसको प्राधान्य दिया गया है ही । जल्दी सोना जल्दी उठो । ब्रह्म मुहूर्त में परम ब्रह्मा के प्राप्ति के प्रयास प्रारंभ करो ब्रह्म मुहूर्त में । ब्रह्म मुहूर्त मंगल आरती करो जीवन मंगलमय होगा । उस दिन का जो प्रवास है । हर दिन एक प्रवास होता ही है । आपकी यात्रा मंगलमय हो । आप की दिनभर की जो यात्रा है कार्यकलाप है या सोच है तो मंगल में मंगल आरती से या …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
तो इस बात को कंटेंट कंडेम्न्ड किया है वैसे शुकदेव गोस्वामी । कथा प्रारंभ करते ही कथा प्रारंभ अभी-अभी हो गई थी तो उन्होंने कहा था लोग क्या करते हैं ?
निद्रया हियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः ।
दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्ब भरणेन वा ॥
( श्रीमद् भागवतम् 2.1.3 )
अनुवाद:- ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी ) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों भरण – पोषण में बीतता है ।
तो जो बिरहा गृहमैंधी होते हैं, ग्रुप वासियों गुरु वस्तुओं के गृहस्थों के दो प्रकार होते हैं । एक गृहस्थ आश्रमी । गृहस्थ आश्रमी गृहस्थ, आश्रम में रहने वाले गृहस्थ आश्रम में । वैसे मनुष्यों को आश्रम में रहना चाहिए तभी आप सभ्य हो । आप ब्रह्मचारी या वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम के लिए तैयार नहीं हो तो ठीक है गृहस्थ आश्रम । लेकिन आश्रम में ही रहना चाहिए या ब्रह्मचारी नहीं तो गृहस्थ, नहीं तो वानप्रस्थ, नहीं तो सन्यास । लेकिन मनुष्य को आश्रम किसी ना किसी आश्रम को संबंध होना चाहिए उसे तो एक गृहस्थ आश्रमी होते हैं और दूसरे गृहमेधि होते हैं ।
यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम् ।
तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 7.9.45 )
अनुवाद:- विषयी जीवन की तुलना खुजली दूर करने हेतु दो हाथों को रगड़ने से की गई है गृहमेधी अर्थात् तथाकथित गृहस्थ जिन्हें कोई आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है , सोचते हैं कि यह खुजलाना सर्वोत्कृष्ट सुख है , यद्यपि वास्तव में यह दुख का मूल है । कृपण जो ब्राह्मणों से सर्वथा विपरीत होते हैं , बारम्बार ऐन्द्रिय भोग करने पर भी तुष्ट नहीं होते । किन्तु जो धीर हैं और इस खुजलाहट को सह लेते हैं उन्हें मूल् तथा धूर्तों जैसे कष्ट नहीं सहने पड़ते ।
प्रहलाद महाराज भी कहे गृहमेधिओं का क्या करते हैं गृहमेधि ? शुकदेव गोस्वामी वही कह रहे हैं वही बात शुकदेव गोस्वामी भी कह रहे हैं प्रहलाद महाराज भी कह रहे हैं । दोनों भी महाजन है, द्वादश महाजनों में यह दोनों हैं ।
तर्कोंSप्रतिष्ठ श्रुतयो विभिन्ना नासावृषिर्य़स्य मतं न भिन्नम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो ये़न गत: स पन्थाः ॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्यलीला 17.186)
अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “शुष्क तर्क में निर्णय का अभाव होता हैं। जिस महापुरुष का मत अन्यों से भिन्न नहीं होता, उसे महान ऋषि नहीं माना जाता। केवल विभिन्न वेदों के अध्ययन से कोई सही मार्ग पर नहीं आ सकता, जिससे धार्मिक सिद्धांतों को समझा जाता हैं। धार्मिक सिद्धांतों का ठोस सत्य शुद्ध स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के ह्रदय में छिपा रहता हैं। फलस्वरूप, जैसा कि सारे शास्त्र पुष्टि करते हैं, मनुष्य को महाजनों द्वारा बतलाए गये प्रगतिशील पद पर ही चलना चाहिए ।
महाजन हमको पथ दिखाते, पथ प्रदर्शक होते हैं । यह दोनों कह रहे हैं “निद्रया हियते नक्तं” लोग या अर्ली टू, तो लोग सोते हैं फिर पहलाद महाराज अपने मित्रों से मित्रों को संबोधित कर रहे थे तो उन्होंने कहा ; वैसे हमारा आधा जीवन तो सोने में ही जाता है । हम लोग सोचते नहीं लेकिन आधा जीवन तो और हम 70 साल जिए तो उसमें से 35 साल हमारे सोने में जाते हैं तो “निद्रया हियते नक्तं” “नक्तं” मतलब रात्रि । “निद्रया हियते” गवाते हैं । “नक्तं” रात्रि को “निद्रया” सोने और “व्यवायेन च वा वयः” “व्यवायेन” मतलब मैथुन आदि क्रिया । मीटिंग्स भी चलती है पार्टी भी चलती भी है । लेट नाइट पार्टी चलती है जिनके खाने के साथ फिर पीना भी होता है और खूब खाना और पीना हुआ तो फिर, रूप गोस्वामी कहते हैं …
वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं
जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम् ।
एतान्वेगान् यो विषहेत धीर:
सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात् ॥
( श्रीउपदेशामृत श्लोक 1 )
अनुवाद: – वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन कि मांगों को,क्रोध कि क्रियाओं को तथा जीभ, उधर एवं जननेन्द्रियों के वेगो को सहन कर सकता है,वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य हैं ।
यह प्रेशर डालता है कहां समझाया है हमारे जीव्हा, हमारा पेट और हमारी जननेन्द्रिया वह एक पंक्ति में हैं तो जीह्वा पर नियंत्रित नहीं है तो हम खूब खायेंगे खूब पिएंगे पेट भरेंगे । उससे प्रेशर बढ़ेगा तो फिर जनन इंद्रियां उनकी मांग बढ़ेगी । “वेगं” उसमें आवेग बढ़ेगा पुशिंग कहते हैं फिर …
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
( भगवद् गीता 3.36 )
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी ! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है ? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो ।
हम नहीं चाहते हुए भी कुछ पाप हो ही जाता है यह क्या है कौन है ? यह सब …
BG 3.37
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥
( भगवद् गीता 3.37 )
अनुवाद:- श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है ।
फिर कृष्ण को कहना पड़ा उसके उत्तर में कृष्ण कहे काम तुम्हारा शत्रु है “काम एष क्रोध एष” यह तुमसे कई सारे पाप करवाते हैं काम, क्रोध तो कामवासना बढ़ती है प्रबल होती है । हम नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं और फिर पाप करते हैं और “यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं” “मैथुनादि” ” गृहमेधि” जो गुहमेधि होते हैं जो गृहस्थ आश्रम के जो होते हैं एक गृहस्थ ब्रह्मचारी होते हैं । यह भी आश्रम का एक प्रकार । एक ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी होते हैं । कुछ गृहस्थ ब्रह्मचारी होते हैं और फिर गृहमेधि होते हैं तो कुछ नीति नियमों का पालन नहीं करते । अनैतिक व्यवहार चलता है और उसी को कहते हैं अवैध स्त्री पुरुष संग । अविधि पूर्वक । जो निशिध बातें हैं वही उसको अपनाते हैं और “यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं” गृहमेधिओं का सुख किस में है ? “यन्मैथुनादि” मैथुन में । जिस सुख को प्रहलाद महाराज कहे; कैसा है यह सुख ? “तुच्छं” तुच्छ है । यह बात समझाते हुए श्रील प्रभुपाद एक समय कोलकाता में थे प्रवचन दे रहे थे तो प्रभुपाद थुके । थु ! ‘तुच्छं’ वे वास्तविक में थुके ‘तुच्छं’ । अपने साक्षात्कार के साथ प्रभुपाद पूरी साक्षात्कार के साथ यह जो तुच्छता है, यह मैथुन कि जो सुख तुच्छता है नीचता जो है उसमें कोई उच्च बात है नहीं वैसे यह नीच बात है वैसे तो उस नीचता का तुच्छता का पूरा साक्षात्कार के साथ श्रील प्रभुपाद “तुच्छं” थूक रहे हैं ।
हमारे भक्तों ने पुस्तिका भी लिखी थी तो उसका शीर्षक दिए थे “जॉय ऑफ नो सेक्स” आप समझे ? लिखा था जॉय ऑफ नो सेक्स । एक सेक्स एंजॉयमेंट तो चलती रहती है सेक्स एंजॉयमेंट । इंजॉय करते हैं सेक्स, लेकिन उनको पता नहीं है ऐसे इंजॉय करने वालों को आनंद होता है जो सेक्स नहीं करते । हरि हरि !! वैसे वह आनंद तो, वह आनंद नहीं है अमीरी में जो आनंद फकीर करे वैराग्य वान जो होते हैं । उनको जो आनंद जिस आनंद का वे अनुभव करते हैं ऐसा संसार में किसी का अनुभव नहीं होता । संसार में तो क्या चलता है ? मनोरंजन मनोरंजन मनोरंजन । मनोरंजन चलता रहता है । लेकिन जो भक्त होते हैं संत होते हैं साधक होते हैं उनका लक्ष्य होता है आत्मरंजन । आत्मा को सुख देना, आत्मा को आनंद देना और जो आत्मा में आनंद लूटते हैं आत्मा में आराम लेते हैं उनको कहा जाता है आत्माराम ।
सूत उवाच आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकों भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.7.10 )
अनुवाद:- जो आत्मा में आनन्द लेते हैं , ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म – साक्षात्कार के पथ पर स्थापित हो चुके हैं , ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं , फिर भी भगवान् की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् में दिव्य गुण हैं , अतएव वे मुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकते हैं ।
भागवद् में कहा है । ‘आत्माराम’ आत्मसंतुष्ट तो
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह आत्मा को आनंद देने कि लिए और संसार भर के सारी भोग की जो सामग्री है हमारे इंद्रियां हमारे मन हमारा शरीर उसके भोग को यह सामग्री यह सारा संसार है यह । इंद्रियों के विषय हैं और मनोरंजन के साधन है या हरि हरि !! तो वैसे हमारे लक्ष्य होना चाहिए, मैं तो कहते हैं रहता हूं अपना ख्याल रखो वाली बात है । अपना ख्याल रखो, अपना ख्याल रखो, अपना ख्याल रखो । हमारे बड़े लोग ऐसा कहते रहते हैं कई मां-बाप यह कहते रहते हैं । अंग्रेजी बोलने वाले टेक केयर योरसेल्फ । अपना ख्याल करो, संभालो, अपना ख्याल करो तो कहते तो हैं टेक केयर योरसेल्फ ! अपना ख्याल करो । सेल्फ का ख्याल करो, सेल्फ को संभालो लेकिन र्दुदैव से सेल्फ को समझते नहीं । सेल्फ तो सेल्फ है । आत्मा वास्तविक में सेल्फ है । वैसे आत्मा जब कहते हैं शरीर को भी आत्मा कहा है शस्त्र मे और मन भी अंतकरण भी आत्मा है लेकिन वास्तविक में आत्मा का ख्याल करना जो है वह आत्मा ही है तो जो पशु होते हैं उनको आत्मा का ज्ञान नहीं होता, आत्मसाक्षात्कार नहीं होता । उनका साक्षात्कार क्या होता है ?
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः ॥
( श्रीमद् भगवतम् 10.84.13 )
अनुवाद:- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता – ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है ।
यह बात कृष्ण ही कहे हैं कुरुक्षेत्र में किंतु महाभारत युद्ध के समय की बात नहीं है आपको पहले बताया, कब कभी यह बात बताए तो “यस्यात्मबुद्धिः” जिसकी आत्मबुद्धि है । आत्माबुद्धि मतलब यह आत्मा है लेकिन वह गलती से अमित भ्रमित होके वह क्या सोचते हैं ? “कुणपे त्रिधातुके” तीन धातु का बना हुआ मतलब कफ वायु से बना हुआ यह शरीर है इस शरीर को ‘कुणप’ कहा है । यह मैं हूं ऐसा समझते हैं । “यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः” । यह सब गलत धारणाएं हैं । “यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः” वो है गधा । सोचता है कि “शरीर है इस शरीर को ‘कुणप’ कहा है । यह मैं हूं ऐसा समझते हैं । “यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके” यह तीन धातु का आर्युविज्ञान के अनुसार यह शरीर कफ, पीत, वायु से बना हुआ है और कफ, पीत, वायु में कुछ विकार या असंतुलन होता है तो फिर रोग होता है ऐसी आयुर्वेद की समझ है और उस में संतुलन लाना ही स्वस्थ रहना तो टेक केयर योरसेल्फ ख्याल रखो । हम सेल्फ को ही नहीं जानते या शरीर को सेल्फ मानते हैं । इसको भी विस्तार करते हैं प्रभुपाद समझाते हैं हमारे या हमारा परिवार मिलके हम एक सेल्फ हुआ फिर हम जिस जाति के हैं वह सब मिलकर एक हमारा सेल्फ हुआ । धीरे धीरे हमको बढ़ा के ठीक है देशवासी हमारे “भौम इज्यधीः” भारत माता की ! और सब भारतीय सब मिलके हम सेल्फ इस प्रकार हमारा ‘अहम’ यही अहंकार है ।
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः ।
अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
( भगवद् गीता 3.27 )
अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं ।
तो अहंम तो आत्मा है । प्रभुपाद लिखते हैं दो प्रकार के अहंम होते हैं । एक अहं है ‘अहं दासोस्मी’, ‘अंह कृष्ण भक्तस्मी’ । ‘अंह कृष्ण दासोस्मी’ मैं कृष्ण का दास हूं । “ममैवांशो” वो एक अंह हुआ और फिर यह झूठ मुट का अंह । वास्तविक अंहकार, झूठा अहंकार । वास्तविक अहंकार तो आत्मा है हमारा सेल्फ और झूठा अहंकार तो शरीर है और शरीर है ऐसा मिलके हम अहंकार तो हम सेल्फ तो समझते ही नहीं तो कैसे ख्याल करेंगे टेक केयर योरसेल्फ I इसलिए भगवद् गीता पढ़नी चाहिए सुननी चाहिए । हमको समझना चाहिए । हम हैं कौन ? और फिर उस अंह का उस आत्मा का हमें केयर करना चाहिए तो इस इस्कॉन में आत्मा की केयर करने के लिए एक तो पहले हम सेल्फ को पहचानना है । आत्मा कौन है ? आत्मा कहां है ? कैसा है आत्मा ? कौन है आत्मा ? या मैं आत्मा हूं और उसके बाद उसका ख्याल रखना उस आत्मा का केयर करने के लिए सिखाया जाता है । इसीलिए फिर आत्मा की केयर करना इसीलिए इस को जगाया जाता है ।
जीव जागो, जीव जागो, गौराचांद बोले ।
कोत निद्रा याओ माया – पिशाचीर कोले ॥ 1॥
( जीव जागो, भक्ति विनोद ठाकुर )
अनुवाद:- भगवान् श्रीगौरचन्द्र पुकार रहे हैं , ” उठो , उठो ! सोती आत्माओं उठ ! लम्बे काल से तुम माया पिशाचिनी की गोद में सो रहे हो !
कब तक सोए रहोगे ? उठो ! गौरचांद, गौरांग,गौरांगा, गौरांगा ! गौरांग बुला रहे हैं, जाओ जीव जागो तो जीव को जगाते हैं और फिर दिन भर आत्मा का ख्याल । हरि हरि !! फिर हम स्वस्थ हो जाते हैं । स्वस्थ हो ? यह पूछते भी हैं ।एक तो टेक केयर योरसेल्फ कहते हैं और फिर स्वस्थ हो-स्वस्थ हो ? पूछते हैं । स्वस्थ हो, अपने ‘स्व’ में स्थित हो ऐसा प्रश्न हुआ करता था । स्वस्थ हो, हमारा स्वास्थ्य ठीक है ? ऐसा प्रश्न पूछने पर हम, हां मेरा पेट ठीक है । सिर दर्द नहीं है, मैं स्वस्थ हूं । कोई बीमारी नहीं है तो कलियुग में ऐसा स्वस्थ हो का ऐसा मतलब ऐसा अर्थ ऐसा भाव निकालते हैं । लेकिन प्राचीन काल में जब पूछा जाता था स्वस्थ हो ? तुम्हारा स्व-आत्मा या आत्मासाक्षात्कार, स्वस्थ जब हम सुनेंगे ध्यान पूर्वक कहेंगे सुनेंगे, स्वस्थ तो सुबह से कुछ भाव भी हममें जागेंगे । स्वस्थ हो । हमारा स्व, हमारा आत्मा ठीक है या स्थित है वैसे अर्जुन ने कहा ही ना भगवद् गीता का प्रवचन सुने और फिर 18 वे अध्याय में …
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥
( भगवद् गीता 18.73 )
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत ! अब मेरा मोह दूर हो गया । आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई । अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ ।
‘स्थितोऽस्मि’ मैं भी स्वस्थ हो गया । “गतसन्देहः” कोई संदेह नहीं रहा । “स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव” अब आपका आदेश पालन करने के मैं तैयार हूं, मैं स्वस्थ हूं या युद्ध के प्रारंभ में हम जैसे यहां पहुंचे तो मैं तो ठीक था लेकिन कुछ बिगाड़ हुआ और …
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
( भगवद् गीता 2.7 )
अनुवाद:- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ । ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ । अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ । कृप्या मुझे उपदेश दें ।
कोई ‘कार्पण्यदोष’ लग गया मुझे । “पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः” तो मैं समभ्रमित हो गया । इसीलिए पूछ रहा हूं “पृच्छामि त्वां” आपसे पूछ रहा हूं । कौन पूछ रहा है ? “धर्मसम्मूढचेताः” जो सम्मूढ जो मैं मूढ बन गया हूं किसके संबंध में ? धर्म के संबंध में । धर्म मतलब कर्तव्य । क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए इसमें मैं थोड़ा समभ्रमित हो चुका हूं तो “यच्छ्रेयः स्या” जिसमें मेरा श्रेय है, “तं ब्रूहि तन्मे” मुझे कहिए । जिसमें मेरा श्रेय है । जिसमें मेरा कल्याण है, आप कहिए मुझे । “यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे” उसको मुझे कहिए और यह “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” आप की शरण में आ रहा हूं तो मुझे आप ही समझाइए, मेरा कल्याण किसमें है ? युद्ध करने में या युद्ध नहीं करने में तो ऐसा प्रश्न था । ऐसी मन की स्थिति थी डामाडोल तो वही अर्जुन “स्थितोऽस्मि गतसन्देहः”, “त्वत्प्रसादान्मयाच्युत” आपका यह प्रसाद भगवद् गीता का जब से मैं सुन रहा हूं यह सुन चुका हूं तो अब स्थिर हो गया मैं और आपके सिवा के लिए तैयार हूं, “करिष्ये वचनं” तो अर्जुन स्वस्थ हो गए । कुछ बीमारी माया से ग्रस्त हो चुके थे माया का प्रभाव किंतु भगवद् गीता का प्रवचन सुने या भगवान ही साधु बन गए उनके लिए तो …
साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सड्ग-सर्व-शास्त्रे कय ।
लव-मात्र साधु-सड़गे सर्व-सिद्धि हय ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्यलीला 22.54 )
अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है ।
तो सिद्ध हो गए वैसे शुकदेव गोस्वामी भी कहे भगवद् का प्रवचन सुने तो और सुनना चाहते हो ना नहीं-नहीं अभी धन्यवाद ।
राजोवाच
सिध्दोस्म्यनुगृहीतोस्मि भवता करुणात्मना ।
श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरि: ॥
( श्रीमद् भागवतम् 12.6.2 )
अनुवाद:- महाराज परीक्षित ने कहा अब मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया है क्योंकि आप सरीखे महान् तथा दयालु आत्मा ने मुझ पर इतनी कृपा प्रदर्शित कि हैं ।आपने स्वयं मुझसे आदि अथवा अंत से रहित भगवान् हरि कि यह कथा कह सुनाई हैं ।
आपके करुणा का, कोरोना का नहीं आपके करुणा का फल है कि मैं ‘सिधःअस्मी’ । साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सड्ग-सर्व-शास्त्रे कय ।
लव-मात्र साधु-सड़गे सर्व-सिद्धि हय ॥ तो शुक देव गोस्वामी का संग 7 दिन प्राप्त हुआ तो अब परीक्षित महाराज कह रहे हैं “सिधःअस्मी” मै सिद्ध और “अनुगृहीतोस्मि”। आपका अनुग्रह हुआ मुझ पर तो मैं कृतज्ञ हूं, मैं आभारी हूं । धन्यवादः,धन्यवाद ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*22 सितंबर 2021*
*शोलापुर धाम से*
हरे कृष्ण !
823 स्थानों से आज भक्त सम्मिलित हैं इस्कॉन शोलापुर की जय ! आज इस्कॉन शोलापुर है जहां मैं पहुंच चुका हूं। आज इस्कॉन शोलापुर के नाम का उल्लेख हुआ अर्थात यही कि एक महीने के उपरांत शरद पूर्णिमा के दिन राधा दामोदर के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। अलग से आपको कुछ स्पेशल अनाउंसमेंट इनविटेशन भेजे जाएंगे, कृष्ण भक्त प्रभु यह कार्य करेंगे हरि हरि ! वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल चल ही रहा है और फिर जपा टॉक के अंत में माधवी गौरी माता जी को मैं देख रहा हूं वह भी कुछ आज के इवेंट और अपडेट दे सकती हैं। अदरवाइस क्या हुआ “वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल” तो संपन्न हो ही रहा है और भाद्र पूर्णिमा अभियान चल ही रहा है। भाद्र पूर्णिमा अभियान, उसके अंतर्गत इस्कॉन में स्पेशली इंडिया, भारत में श्रीमद्भागवत सेट का वितरण हो रहा है और आज प्रातः काल इस्कॉन शोलापुर में अनाउंसमेंट सुन के कि कल दस सेट भागवतम का वितरण हुआ। यह अनाउंसमेंट किया गया कि भगवान की प्रसन्नता के लिए प्रभुपाद की प्रसन्नता के लिए और मैं वहां उपस्थित था तो उन्होंने कह ही दिया कि मेरी प्रसन्नता के लिए और उपस्थित भक्तों की प्रसन्नता के लिए, मै बड़ा प्रसन्न हुआ जब मैंने सुना कि 1 दिन में भागवत के दस सेट वितरण किए गए।
भाद्र पूर्णिमा के दिन ही शुकदेव गोस्वामी जो ऑफिशियल भागवत कथा कर रहे थे उस का समापन हुआ। पूर्णिमा के दिन पूर्ण आहुति हुई। आज तृतीया हो सकती है प्रथमा द्वितीया तृतीया शुकदेव गोस्वामी ने भागवत कथा का समापन किया। शुकदेव गोस्वामी अपने प्रवचन कथा के अंत में द्वादश स्कंध अध्याय तीसरा में कली के लक्षण लिखते हैं। कली के लक्षण आप जानना चाहते हो? कलयुग के लक्षण, क्या करोगे कहां पढ़ोगे , आप यह नोट कर सकते हो , नहीं तो भूल जाओगे। आप ट्वेल्थ केंटो चैप्टर नंबर 3 , इस चैप्टर के अध्याय के अंत में कलयुग के लक्षणों का वर्णन किया है। उस अध्याय में वैसे शुकदेव गोस्वामी कथा कर रहे थे तो वह नहीं कह रहे थे कि यह अध्याय या द्वादश स्कंध पूरा हुआ, यह अध्याय चल रहा है। ऐसा भी नहीं कहते, वह लगातार कथा कहते ही रहते हैं। श्रील व्यासदेव ने भागवत का ऐसा विभाजन किया, कितने अध्याय ? 335 अध्याय भागवत में हैं तो यह द्वादश स्कंध के तृतीय अध्याय की बात हम कर रहे हैं और चतुर्थ और पंचम अध्याय तक ही शुकदेव गोस्वामी की कथा होगी। कुछ छठ वें अध्याय से सूत गोस्वामी का भाष्य शुरू होगा तो श्रीमद्भागवत के प्रथम पांच अध्याय शुकदेव गोस्वामी की कथा है वही कथा का समापन, पूर्णाहुति करते हैं। बात यह है कि तृतीय अध्याय के अंत में ट्वेल्थ कैंटों थर्ड चैप्टर के अंत में,
*कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः । कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥*
(श्रीमद भागवतम 12.3.51)
अनुवाद- हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।
*कृते यद्धयायतो विष्णुं त्रेताया यजतो मखैः । द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥*
(श्रीमद भागवतम 12.3.52)
अनुवाद- जो फल सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है।
यह दो श्लोक इस अध्याय के अंत में हैं। कलयुग के कुछ लक्षणों का या मुख्य मुख्य लक्षणों का उल्लेख किया है और कितना कहेंगे, कलि पुराण और फिर उन्होंने सारांश में यह उपसंहार करते हुए कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः , कलयुग तो है दोषों का खजाना है। राजन मतलब, हे राजा परीक्षित संबोधन कर रहे हैं कलेर्दोषनिधे राजन्न , राजा कलयुग दोषों का भंडार है अस्ति ह्येको महान्गुणः किन्तु एक महान गुण कलि काल में या कलयुग में हैं दोष या अवगुण तो अनेक हैं उनका तो खजाना है बड़ा स्टोर हाउस है। लेकिन गुण तो एक ही है, दोष कई है किंतु दोषनिधि राजन , एक गुण ही पर्याप्त है। कलि के जो दोष हैं सारी समस्याएं , दिक्कतें उत्पन्न करते हैं। यह सारी समस्याएं उलझन में फंसाती है। यह कलि के काल के दोष हैं, अवगुण हैं, यह सारी उलझने हैं तब सोल्युशन क्या है। अस्ति ह्येको महान्गुणः , गुण कौन सा है। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः, ओके कथा का समापन हो ही रहा है और यह सारी कथा के श्रवण का फल ही है, और उसमें कलि का महान गुण है या अन्य स्थानों पर उसे धर्म ही कहा है, कलि का जो धर्म है नाम संकीर्तन उसको अपनाने से कीर्तनादेव कृष्णस्य, कृष्ण के कीर्तन करने से, कृष्ण सेवा करने से है। कृष्ण का कीर्तन होना चाहिए जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा यह नहीं चलेगा। कृष्ण का कीर्तन, देवी देवता का कीर्तन नहीं या किसी और का कीर्तन नहीं, राजनेता का या अभिनेता का, हम लोग करते ही रहते हैं गौरव गाथा गाते ही रहते हैं। अमिताभ बच्चन यह हीरो, यह हीरोइन, ऐसा धनी व्यक्ति यह इतना उसका सौंदर्य, व्हाट ए ब्यूटी हम लोग ऐसा सब समय इस संसार के लोगों की कीर्ति का गान तो करते ही रहते हैं। वाह-वाउ फैक्टर, कभी किसी व्यक्ति को पकड़ लेते हैं आई लव यू…. यह सब चलता रहता है। यह वही धंधा है किंतु यह सब तो माया का कीर्तन है कभी राजनेता का कीर्तन है कभी किसी अभिनेता का कीर्तन है यह सिनेमा में क्या होता है एक दूसरे का कीर्तन एक बार नट गाता है फिर नटी, नट बोल्ट जैसे कहते हैं नट बारी बारी से गाते ही रहते हैं। इंडियन मूवीस में यही होता है दो चार या आठ दस गाने सुनते ही रहते हैं उनके, अर्थात पुरुष स्त्री का इतना गौरव, जीना तो क्या जीना तुम्हारे बाहों के बिना और यह सब बकवास है यह सब बदमाशी है। यह सब राक्षसों के काम धंधे हैं या गौरव गाथा करने के टॉपिक हैं।
*श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः अपश्यतामात्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम् ॥* (श्रीमद भागवतम 2.1.2)
अनुवाद – भौतिकता में उलझे उन व्यक्तियों के पास जो परम सत्य विषयक ज्ञान के प्रति हे सम्राट, भौतिकता में उलझे उन व्यक्तियों के पास जो परम सत्य विषयक ज्ञान के प्रति अंधे हैं, मानव समाज में सुनने के लिए अनेक विषय होते हैं।
शुकदेव गोस्वामी बिल्कुल प्रारंभ में लगभग कथा का प्रारंभ करते ही द्वितीय स्कंध में कथा जैसी प्रारंभ हुई वैसे ही केंटो २ चैप्टर 1 श्लोक संख्या 2 , 212 ऐसा कहे श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः अपश्यतामात्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम् , मुझे पूरा याद नहीं आ रहा है। हम लोग भूल जाते हैं यह कलयुग का प्रभाव है तो श्रोतव्या सुनने के कई टॉपिक आते हैं, कई विषय, कई व्यक्तियों की गौरव गाथा गाते हैं और फिर उसे सुनते हैं इंटरनेट में यही होता है सोशल मीडिया में यही होता है हरि हरि ! शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं कीर्तनादेव कृष्णस्य, कृष्ण का कीर्तन निश्चित होना चाहिए मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ऐसा कोई करेगा तो क्या होगा वह मुक्त होगा वह भक्त होगा वह मुक्त होगा और परं व्रजेत् और फिर जाएगा ब्रज मतलब कहां जाएगा? परं व्रजेत् या परम गति को प्राप्त होगा। मतलब भगवत धाम को प्राप्त होगा मतलब भगवान को प्राप्त होगा। कौन व्यक्ति? कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् अर्थात कृष्ण का कीर्तन होना चाहिए। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* और फिर हरि हरि !
शुकदेव गोस्वामी ने बताया है सतयुग में कौन सा धर्म होता है कृते यद्धयायतो विष्णुं सतयुग में ध्यान का मेडिटेशन का धर्म होता है, त्रेताया यजतो मखैः त्रेता युग में यज्ञों द्वारा भगवान की आराधना होती है, द्वापरे परिचर्यायां द्वापर युग में आराधना पद्धति से भगवान को प्रसन्न किया जाता है कलौ तद्धरिकीर्तनात् कलयुग में हरि कीर्तन होगा हरि हरि ! *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* इस तरह कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति कली के दोष या कली के लक्षण श्रीमद्भागवत के प्रारंभ में हैं। राजा परीक्षित ने ऐसा किया कि ओक, कलि ! चार स्थानों पर तुम रह सकते हो द्यूतं पानं सुन: स्त्रीय, कहां ? जहां मांस भक्षण होता है, नशापान होता है और जहां अवैध स्त्री पुरुष संग होता है और जहां जुआ खेला जाता है। यत्र अधर्म चुतर्विधा या जहां चार प्रकार के अधार्मिक कृत्य होते हैं। हे कलि तुम वहां रहो और पांचवा स्थान भी ब्लैक मार्केटिंग जहां काला धंधा या ब्लैक मनी है वहां भी कलि ही रहेगा। इस प्रकार से संसार भर में यही हो रहा है। यत्र अधर्म चुतर्विधा जहां यह चार प्रकार के अधार्मिक कृत्य होते हैं वहां कलि का अड्डा है, कलि का स्थान है या कलि का विचरण है। जो मांस भक्षण करता है मतलब वह अधार्मिक है वह हिंदू नहीं है वह मुसलमान भी नहीं है ही इज़ नॉट बिलॉन्ग टू एनी रिलिजन वह धार्मिक नहीं है। ऐसा भागवत का कहना है यदि कोई कहे आई एम हिंदू आई एम दिस एंड देट यदि आप मांस भक्षण करते हो तो आप अधार्मिक हो। आप किसी भी धर्म के नहीं हो।
फिर आप कौन से धर्म के हो , ऐसा नाम लेने की आवश्यकता भी नहीं है। तुम धार्मिक ही नहीं हो वही बात है या वही बात लागू होती है तुम जो नशा पान करते रहते हो, तुम्हारा किसी धर्म से संबंध नहीं है तुम अधार्मिक हो यू आर नॉट रिलीजियस यू आर इररिलीजियस या अवैध स्त्री पुरुष संग जहां होता है, इल्लिसेट सेक्स, तुम फिर किसी धर्म के नहीं होते भागवत धर्म को तो भूल ही जाओ। लेकिन अन्य जो धर्म हैं आजकल के प्रचलित हैं उस धर्म के भी तुम सदस्य नहीं हो यदि तुम कलि के चेले बने हो और कलि ही तुमको नचा रहा है, व्यस्त रख रहा है एंड गैंबलिंग और यह सब करने के लिए, देन यू नीड मनी, ब्लैक मनी इस मनी का उपयोग , माया की सेवा में पाप कृत्यों के लिए किया जाता है वह मनी ब्लैक मनी है हरि हरि ! चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष , आप ध्यान दे सकते हो कौन से चार पुरुषार्थ कहे हैं या इन चार पुरुषार्थो में से या परे और श्रेष्ठ पुरुषार्थ है या पंचम पुरुषार्थ है प्रेम प्राप्ति किंतु यह चारों पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार भी करेंगे तब धर्म, अर्थ, अर्थ किसके लिए धर्म के लिए, अर्थ का धनराशि का, उपयोग धर्म की सेवा में, धर्म का पालन और धर्म को फैलाने में धर्म की स्थापना करने के लिए अर्थव्यवस्था, अतः धर्म अर्थ काम वैसे यह तीन पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम इन तीनों में क्या है बीच में अर्थ, एक और है धर्म और दूसरी ओर है काम, आप उस अर्थ का उपयोग धर्म के लिए कर रहे हो या कामवासना की तृप्ति के लिए कर रहे हो। यदि धर्म के लिए कर रहे हो तो तुम धार्मिक ही हो या फिर आपका जो धन है नारायण की सेवा में, इट इज़ नो मोर ब्लैक मनी, वह वाइट हो गई संसार की माने तो ब्लैक मनी तो ब्लैक मनी है ही किंतु जो दूसरी मनी है या वाइट मनी है यदि उसका उपयोग कृष्ण की सेवा में या कृष्ण भावना भावित होने में या कृष्णकॉन्सियस होने में नहीं करेंगे , श्रीमद् भागवत ग्रंथ खरीदने के लिए यदि उपयोग नहीं किया तो वह भी ब्लैक मनी ही है।
उस अर्थ का उपयोग या फिर ब्लैक मनी आपने और कुछ खरीदा, क्या खरीदा टेलिविजन सेट खरीदा, भगवतम सेट नहीं खरीदा, उसका वितरण हो रहा है भागवतम सेट की बजाए आपने टेलीविजन सेट खरीद लिया और अपने घर को बनाया है सिनेमाघर, होम थिएटर बना दिया और सोफा भी खरीद लिया और फिर आराम से कंफर्ट जोन में आप सारे नंगे नाच देख रहे हो बॉलीवुड और हॉलीवुड एंड तब यह सारा धन का दुरुपयोग हुआ और ऐसे ही दुनिया कर रही है। यह सारे संसार पर अप्लाई करता है इट डज नॉट कि इंडिया लिमिटेड हिंदू लिमिटेड अर्थात जहां यह मांस भक्षण, नशा पान अवैध स्त्री पुरुष संग, मनो धर्म होते रहते हैं वह सभी लोग अधार्मिक हैं। यह सारी आसुरी प्रवृत्ति है गीता में चैप्टर ही है “आसुरी संपदा और दैवी संपदा” आसुरी संपदा भारत में भी है, आसुरी संपदा सारे संसार में है और देवी संपदा के लोग भी आपको भारत में मिलेंगे कुछ विदेश में भी मिलेंगे यह दो प्रकार के दैव , असुर। जगत में दो प्रकार के लोग होते हैं, इंडिया में हुए तो सारा जगत हो गया। ऐसा नहीं है या कृष्ण ऐसा नहीं बोलते ऐसा कृष्ण सोच ही नहीं सकते , ही कूड नेवर थिंक, इस संसार में दो प्रकार के लोग दैव् असुरेव च, कलेर्दोषनिधे राजन्न कली का जो दोष है कलि के दोष हैं और यह दोष सारे संसार भर में हैं। कली सारे संसार भर में हैं या मैं कई बार कह चुका हूं , हम हिंदू थोड़े ही हैं हम तुम्हारे गीता भागवत को नहीं मानते यह तुम्हारा कलि वगैरह अपने पास रखो हमें कुछ लेना-देना नहीं कलि वलि से, लोग माने या ना माने यह कलि के चेले हैं, बन ही चुके हैं, बनाऐ ही गए हैं।
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||* (श्रीमद भगवद्गीता 4.11)
अनुवाद- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |
नो चॉइस भगवान ने घोषणा की हुई है भगवान दो चार भगवान नहीं हैं। नाम अलग-अलग हो सकते हैं कोई अल्लाह कहता है कोई जहोबा कहता है और कोई क्या क्या कहता है। अल्लाह कृष्ण ही हैं अल्लाह भगवान ही हैं। सब जगह वही भगवान हैं। जैसे सूर्य को कोई सूर्य कहता है या मार्कंडेय कहता है कोई क्या कहता है अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग देशों में सूर्य को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। अलग-अलग नामों के पुकारने से अलग-अलग या एक से अनेक नहीं हो जाते किसी भी नाम से पुकारो सूर्य तो एक ही रहता है वैसे आप समझ जाओ , भगवान एक ही हैं
*कृष्ण जिनका नाम है गोकुल जिनका धाम है । ऐसे श्री भगवान को मेरे बारंबार प्रणाम है* (वैषणव भजन)
कलि का प्रचार प्रसार सर्वत्र है कुछ दिन पहले हम कह रहे थे कि तुम न्यूयॉर्क क्यों गए ऐसी समझ है कि न्यूयॉर्क इज द कैपिटल ऑफ कलि, कलि की वह राजधानी है इसीलिए सेनापति भक्त श्रील प्रभुपाद ने सीधे राजधानी पर हमला किया। वहीं पर उन्होंने इस्कॉन की स्थापना की, रजिस्ट्रेशन ऑफिस इस्कॉन का वहीँ है और वहीं पर कीर्तन प्रारंभ हुआ टोंपकिंस स्क्वेयर पार्क में और यह गीता भागवत जो टाइमबम है उसका एक्सप्लोजन न्यूयॉर्क में होने लगा। जब यह बम फट जाते हैं तब उससे कोई विनाश नहीं होता उससे विकास ही होता है। इस टाइम बम से डिस्ट्रक्शन नहीं होता। श्रीमद भगवतम टाइम बम या यह हरिनाम यह भी अस्त्र है, श्री चैतन्य महाप्रभु अलग से कोई अस्त्र लेकर नहीं आए। सुदर्शन चक्र या कोई गदा या परशुराम से कोई अस्त्र, ऐसा कोई अस्त्र का उपयोग नहीं किया हरि नाम ही अस्त्र था। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* इन अस्त्रों का उपयोग करके इससे विकास हुआ विनाश नहीं हुआ नॉट डिस्ट्रक्शन,
*चेतो – दर्पण – मार्जनं भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेय : -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् । आनन्दाम्बुधि – वर्धनं प्रति – पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म – स्नपनं परं विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम्*॥१ ॥
अनुवाद भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागररूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है, जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है। कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है। यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है ।
*श्रेय : -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् इस संसार में चेतो – दर्पण – मार्जनं भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं जहां आग लगी है जगत में यह शिक्षा अष्टकम की ओर हम बढ़े हैं। प्रथम शिक्षा अष्टकम में कहा है जो भी कीर्तन करेंगे जब जब करेंगे, कीर्तनादेव कृष्णस्य तब क्या होगा ? चेतना का मार्जन होगा सफाई होगी और भव महादवाग्नि संसार भर में जो आग लगी हुई है उसको बुझाने वाला यह नाम संकीर्तन है। महा – दावाग्नि – निर्वापणं , निवारण करेगा बुझाएगा आग को और जहां आग लगी थी उस को बुझा कर उस स्थान पर क्या होगा? श्रेय : -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं हमारा परम कल्याण होगा। चंद्रिका, किरण फैलेगी वहां, जैसे सूर्य की किरण फैलती है तब व्यक्ति सुख का अनुभव करता है , शांति का अनुभव करता है वैसे मन के देवता चंद्र ही हैं। जहां आग लगी थी उसी स्थान पर फिर हरियाली उगेगी, पुष्प खिलेंगे , वहां शीतल सुगंधित मंद वायु बहने लगेगी। क्रांति होने वाली है या क्रांति करता है , क्रांतिकारी है यह आंदोलन , यह हरे कृष्ण महामंत्र, श्रेय : -कैरव – चन्द्रिका – वितरणं था महा – दावाग्नि था और अब उसके स्थान पर बन गया एक पिकनिक स्पॉट की तरह जहां हम जाकर रहना चाहेंगे विजिट करना चाहेंगे एंजॉय करेंगे हरि हरि ।
शुकदेव गोस्वामी अपने सात दिवसीय कथा का समापन इन्हीं शब्दों के साथ कर रहे हैं अब कुछ थोड़े मिनटों के लिए वह बोलेंगे ओनली वन मोर चैप्टर उन्होंने कहा है कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महानगुणः यह वचन अब थोड़ा सा चौथे अध्याय की कथा कर के पांचवे अध्याय में समापन करेंगे और यह पांचवा अध्याय जो है सभी अध्यायों में सबसे छोटा अध्याय है। यह अध्याय तेरह श्लोक वाला ही है। द्वादश स्कंध का पांचवा अध्याय यह अत्यंत संक्षिप्त है और जिसके अंत में उन्होंने कहा है
*ए तत्ते कथितं तात यदात्मा पृष्टवान्नृप।हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूय: श्रोतुमिच्छसि।।* ( श्रीमद् भागवतम् 12.5.13)
अनुवाद:- हे प्रिय राजा परीक्षित, मैंने तुमसे ब्रह्मांड के परमात्मा भगवान् हरि की लीलाएंँ — वे सारी कथाएंँ— कह दीं जिन्हें प्रारंभ में तुमने पूछा था अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?
कथा सात दिवसीय कर रहे थे अब पूछते हैं और कुछ जानना या सुनना चाहोगे दिज़ आर द लास्ट वर्ल्ड शुकदेव गोस्वामी के यह अंतिम वर्ड हैं किं भूय: श्रोतुमिच्छसि इसके उत्तर में राजा परीक्षित कहने वाले हैं
राजोवाच
*सिध्दोस्म्यनुगृहीतोस्मि भवता करुणात्मना।। श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरि:।।* (श्रीमद् भागवतम् 12.6.2)
अनुवाद: – महाराज परीक्षित ने कहा: अब मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया है क्योंकि आप सरीखे महान् तथा दयालु आत्मा ने मुझ पर इतनी कृपा प्रदर्शित कि हैं। आपने स्वयं मुझसे आदि अथवा अंत से रहित भगवान् हरि कि यह कथा कह सुनाई हैं।
आपकी कृपा से मैं सिद्ध बन चुका हूं। यह सब भगवत करुणा यह सब आपकी करुणा का ही फल है। मतलब वे कह रहे हैं ठीक है अभी और सुनने की आवश्यकता नहीं है। मैं अब तैयार हूं आपने मुझे तैयार किया है अंते नारायण स्मृति अब होगा, अब वह सर्प आ ही रहा है , देखो देखो अवश्य ही आने वाला है उसको जो करना है करने दो। मैं क्या करूंगा “अंते नारायण स्मृति” करने वाला हूं।
“इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले” मैं गोविंद का नाम लूंगा *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
निताई गौर प्रेमानन्दे !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
21 सितंबर 2021
गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।
‘हरि हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर॥1॥
अनुवाद:- वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे?
हरि हरि 811 स्थानों से आज भक्त जप कर रहे हैं हमारे साथ जुड़े हैं हरि हरि आपसे क्या कहें कबे हबे ए दिन आमार हरी नामे रुचि और क्या गुची कबे हबे ए दिन आमार शुद्ध नाम रुचि अपराधे गुची हरिनाम में रुचि कब होगी वह तब होगी जब हम चाहेंगे। निरपराध जप करेंगे तो रुचि होंगे वैसे पहले रुचि होंगी फिर अपराध से मुक्त होंगे उल्टा नहीं होता पहले पाप से या पाप के विचारों से आचारो से मुक्त नहीं होंगे पहले तो नाम में रुचि ही आएगी या दोनों साथ में भी होता है।
ऐसा भागवत का सिद्धांत है नामे रुचि जीवे दया वैष्णव सेवा नाम में रुचि ही जीवन का लक्ष्य है। नाम भगवान है तो नाम में रुचि मतलब भगवान में रुचि है परम दृष्ट्वा निवर्तते उचा स्वाद भगवान में भगवान के नाम में रूप में गुण में लीला में धाम में भक्तों में वैष्णव सेवा जीव दया जीवों के लिए दया ये उचे स्वाद का ही परिणाम है। नाम में रुचि वैष्णव की सेवा चल रही है वैष्णव की सेवा हम से नहीं होंगी नाम में रुचि नहीं हुए तो वैष्णव की सेवा भी नहीं होगी या वैष्णव की सेवा नहीं है तो नाम में रुचि में भी नहीं होगी और जीवो में दया दिखानी होगी जीवो में दया दिखाएंगे तो हम भगवान के प्रिय बन जाएंगे। तस्मात मनुषेसु वह भक्त मुझे प्रिय है जो प्रचार करते हैं। मेरा संवाद अर्जुन के साथ हुआ उसका प्रचार करते हैं औरो को बताते हैं वह भक्त मुझे प्रिय है। ऐसा प्रचार करने वाले तो फिर दया दिखाएंगे जीवे दया तो भगवान प्रसन्न होंगे और उसी के साथ नाम में रुचि बढ़ेगी एक बात मैं सोच रहा था कि सोचते ही रहता हूं। नामाआचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की जय
वैसे इनके स्मरण मात्र से कुछ होता है कुछ होता है बहुत कुछ होता है। या नाम में या नाम मे रुचि बढ़ती है या नाम लेने की प्रेरणा प्राप्त होती है। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का स्मरण करते ही 300000 नाम का हर रोज जप करने वाले नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर और हर रोज 300000 नाम का जप करते थे कम से कम मैं तो ऐसा नाता जोड़ते रहता हूं। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का नाम पड़ते है सुनते ही तीन लाख जप करने वाले नाम आचार्य श्री हरिदास ठाकुर तो कुछ स्पुर्ति प्रेरणा प्राप्त होती है। जैसे ही नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जी का नाम सुनते ही जो नाम के आचार्य जो रहे हुए तो कल उनका तिरोभाव तिथि महोत्सव हम मना रहे थे।
तो सोच रहा था की कल जितना भी कहा वह ज्यादा नहीं कहां पर्याप्त नहीं हुआ नामाचार्य श्रील हरीदास ठाकुर का जो प्रातः स्मरणीय भी है और प्रातः काल भी है वह उनका स्मरण करते हैं। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को ब्रह्म हरिदास भी कहते हैं ब्रह्म हरिदास क्यों कहते हैं ब्रम्हा ही थे ब्रह्मा ने अवतार लिया ऐसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा जगन्नाथ पुरी में आप ने अवतार लिया है वैसे भगवान के अवतार नहीं है कृष्ण अवतार और अवतारी और उनके अवतार लेकिन ब्रह्मा भी एक अवतार है दृष्टि से गुना अवतार हैं। रजोगुण कि वह अधिष्ठाता है तो वह ब्रह्मा स्वयं प्रकट हुए ब्रह्मा वैसे हमारे परंपरा के प्रथम आचार्य है ही हम ब्रह्म मध्व गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय हमारा है। तो हमारे आचार्य ब्रह्मा नाम के भी आचार्य है। वैसे तो वह सामान्य रूप से आचार्य है ही लेकिन वह नाम क्या चार्य हुए या भगवान ने उनको नाम का आचार्य बना दिया यह पदवी देने वाले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही थे तुम नामाचार्य हो नाम के आचार्य बनके उन्होंने गौड़ीय वैष्णव के समक्ष आदर्श रखा हुआ है और लोग तो कहते हैं हम बहुत व्यस्त हैं हम जप नहीं कर सकते तो ब्रह्मा से अधिक कोई अधिक हो व्यस्त हो सकता है क्या बिजनेसमैन हो जो भी हो आप इतनी व्यस्तता है एक दिमाग से वो सब संभाल नहीं सकते तो उनके चार दिमाग है ताकि वह एक ही साथ चारों दिशा में देख भी सकते हैं और निर्णय ले सकते हैं।
कार्य कर सकते हैं निर्माण का कार्य कर सकते है तो इतने व्यस्त ब्रह्मा ने फुर्सत निकालकर या कहो उन्होंने जपा रिट्रीट किया इस जीवन में उन्होंने इतने सालों के लिए उन्होंने जप ही किया भगवान का नाम ही लिया और कुछ लगभग किया ही नहीं नाम ही लिया इसी के साथ वैसे उन्होंने फिर
भगवद्गीता 4.8
“परीत्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||”
अनुवाद:-
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
कलियुग के धर्म की नाम संकीर्तन की स्थापना की नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने की है या ब्रह्मा ने की है ब्रह्म हरिदास ठाकुर बनकर की है और जन्म लेते हैं मुस्लिम परिवार में इस से ये दिखा रहे हैं कि जन्म तो लिया मुस्लिम परिवार में लेकिन कर रहे हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण तो इससे यह भी सिद्ध होता है या दर्शाया जा रहा है कि व्यक्ति किसी भी धर्म का हो सकता है देश का जाति का लिंग का हो सकता है मुस्लिम भी जप कर सकते हैं ना तो इस संसार में कोई मुस्लिम है ना कोई हिंदू है ना इसाई है यह सब सापेक्ष सत्य है जैव धर्म जीव का धर्म तो सनातन धर्म है भागवत धर्म है नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने यह यह दर्शाया है कि हम तथाकथित किसी धर्म में जन्म लिया होगा या किसी भी देश में हो लेकिन कोई चिंता नहीं है परवाह की बात नहीं है हम तो कीर्तन या जप कर ही सकते हैं ठीक है। फिर विरोध होगा तो होने दो तो विरोध तो हुआ ही है चांद काजी जो मुस्लिम डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट उन्होंने इतना विरोध किया कीर्तन का विरोध किया और फिर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को भी सजा पीटो इसको जब तक ये नाम लेना बंद नहीं करता तब तक उसकी पिटाई करो या उसकी जान लो अगर यह रुकता नहीं है। तो तब यह परीक्षा भी पास हो गए नामाचार्य श्रीलहरीदास ठाकुर इतनी असुविधा और इतनी बेइज्जती चौराहे पर हजारों लोग इकट्ठे हुए और पिटाई हो रही है नामाचार्य हरिदास ठाकुर को पीटा जा रहा है चाबुक से और लाठी से श्रील प्रभुपाद तो इसकी तुलना ईसाई मसीह को जीजस क्राइस्ट को सूली पर चढ़ाया उनका जो विरोध किया जा रहा था मिडलिस्ट की बात है तो वह भी नहीं छोड़ रहे थे धर्म और धर्म का प्रचार ईसाई मसीह जीसस क्राइस्ट तो उनको सूली पर चढ़ाया इसलिए श्री प्रभुपाद कहते हैं कि वह भी हमारे आचार्य है ईसाई मसीह और उसी के साथ हमारे नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने जो सहन किया या चैतन्य महाप्रभु ने जो आपने शिक्षाष्टक में
तृणादपि सुनीचेन
तरोरपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीयः सदा हरिः॥3॥
अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
इसका ज्वलंत उदाहरण नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ही है उसकी तुलना नहीं हो सकती तुलना अतुलनीय है और उदाहरण है तृणादपि सुनीचेन काअमानिन मान देन का अतुलनीय उदाहरण हैं और तरोरपी सहिष्णुता का ताकि वह क्या करते रहे कीर्तनीय सदा हरी और फिर कहा हैं कि कीर्तनिया सदाहरि तब होगा जब उसके लिए शर्ते है क्या शर्ते थी यह तीन चार शर्ते हैं नम्रता,सहनशीलता,औरों का सम्मान करना और खुदके लिए सम्मान की अपेक्षा नहीं रखने वाले वो सैदव भगवान का जप करते रहते हैं ऐसा मन की स्तिथि तभी संभव है क्या कीर्तनिया सदा हरि यह भी सिखाये ये नामाचार्य हरिदास ठाकुर अपने उदाहरण से की कीर्तनीय सदा हरी कैसे करना है। तो यह करना होगा त्रुनादपि सुनीचेन तरोरपी सहिष्णुना होना होगा हरि हरि नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर एक समय सप्तग्राम में थे जहां रघुनाथदास गोस्वामी जन्मे थे रघुनाथ दास गोस्वामी को भी संग मिला हरिदास ठाकुर का संग मिला और वहां एक धर्म सभा में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर नाम की महिमा का गान कर रहे थे और बस नाम आभास ही पर्याप्त मुक्त होने के लिए ऐसा कह रहे थे तो वहां के एक पाखंडी पंडित ने विरोध किया मुक्ति के लिए तो इतने सारे प्रयास करने होते हैं कितना शास्त्रों का अध्ययन करना होता है वेदांती होना होता है और फिर मुश्किल से मुक्ति प्राप्त होती है और आप कह रहे हो कि केवल नाम आभास से ही मुक्ति यह संभव नहीं है मैं यह मान्य नहीं करता तो भरी सभा में इस प्रकार संवाद तो नहीं कहेंगे वाद विवाद हो रहा था ऐसे हरिदास ठाकुर तो सवाद ही चाहते थे लेकिन वह वाद-विवाद कर रहा था वह श्राप दे रहा था तुम्हारा ऐसा होगा तुम्हारा वैसा होगा तो इससे हम नाम का महिमा कोई अतिशयोक्ति नहीं है अतिशयोक्ति हैं नाम का महिमा इतना अतिशय उक्ति है यह समझना नाम अपराध है तो यह व्यक्ति नाम अपराधी कर रहा था तो हुआ यह कि कुछ दिनों में यह तथा कथित पंडित उसका नाक गल गया उसका नाक ही गिर गया हरि हरि नामाचार्य हरिदास ठाकुर की जय नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर वैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बहुत पहले ही जन्मे थे लगभग 50 वर्ष पूर्व इनका जन्म था जैसे अद्वैत आचार्य और नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर लोग हैं यह सम कालीन रहे वैसे वह भी बांग्लादेश में बेनापोल नाम का स्थान है जहां नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर अपने 300000 नाम का जप कर दिया करते थे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे और उनका नाम और कीर्ति सर्वत्र फैल रही थी। सर्वत्र नाम आचार्य श्री हरिदास ठाकुर ऐसे हैं वह वैसे वह बढ़िया है । और रामचंद्र खान करके थे , वह वैसे हिंदू ही थे लेकिन उनका नाम रामचंद्र खान था ।
उनसे यह सहा नही गया और वैसे और भी जो हिंदू थे वह सब मिल कर हरिदास ठाकुर का नाम बदनाम करना चाहते थे । उन्होंने एक वैश्या को तैयार किया , सबसी अच्छी वैश्या , आप समझ सकते हो मतलब वह नव युवती होगी , सुंदर होगी , ऐसी होगी , चालाक होगी औरों को मनाने के लिए ताकि उनका पतन करेगी , उनके कामुकता को जगायेगी , ऐसी वह प्रख्यात विख्यात थी । वह वेश्या क्या नाम था ? लक्ष्य हीरा ! लक्ष्य हीरा उसका नाम था । उसको नियुक्त किया गया था और नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जप कर ही रहे थे फिर रात्रि का समय भी हुआ जप चल ही रहा था तब उस समय यह लक्ष्य हीरा वेश्या पहुंच गई और उसने अपने सारे नखरे , अपने सारे प्रयास किए ताकि नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करे ताकि वह अंग संग करें और इस हरि नाम भूल जाए । इस प्रेम में क्या होता है ? चलो काम की बात करते हैं , हम काम में व्यस्त हैं । इनको मैं कामुक बनाऊंगी और काम की वासना मैं जगाऊंगी ऐसा उस लक्ष्य हीरा का लक्ष्य था , उसने हर प्रयास किया कई सारे निवेदन किए किंतु नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर तस से मस नहीं हुए हैं और उनका जप चलता ही रहा । वैसे वह कहते रहे कि थोड़ा जप बाकी है अब थोड़ा ही जप बाकी है , यह जब पूरा होते ही फिर तुम्हारी इच्छा की पूर्ति होगी या जो तुम कह रही हो उसके और ध्यान देंगे किंतु उनका जप चलता ही रहा , चलता ही रहा , चलता ही रहा पूरी रात बीत गई नामचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का जप पूरा नहीं हुआ । पूरा कभी होता ही नहीं था , कीर्तनिय सदा हरि करते रहते थे । बेचारी उसको जाना पड़ा दूसरे प्रातकाल भोर का समय हुआ फिर दूसरे रात को आई और वही बाते दोहराई गई और फिर उसको जाना पड़ा फिर तीसरी रात को तब नामाचार्य श्रील हरीदास ठाकुर इस वैश्या से प्रभावित नहीं हुए , उन पर वैश्या ही प्रभावित हो गई । और वहा बैठे-बैठे उसको हरि नाम सुनना ही पड़ा ,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। और मन ही मन में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का सम्मान करने लगी कितने महान पुरुष है ! कितने तपस्वी हैं ! कितने यशस्वी हैं ! उसी के साथ तीसरे रात्रि के अंत में वह नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की शरण में आई और शिष्यस्ते अहम प्राधिमाम त्वम परप्नम , मैं आपकी शिक्षा हूं , मुझे स्वीकार कीजिए फिर वैसे ही हुआ और नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने उसे शिक्षा बनाया और फिर उसको यह भी कहा कि अब क्या करो ? तुमने जो भी यह वेश्या का धंधा करके धन कमाया , वह सारा काला पैसा उसका सारा बंटवारा कर दो , दान दे दो । उस से मुक्त हो जाओ तब उसने वैसे ही किया मतलब उसमें वैराग्य भी उत्पन्न हुआ था । ज्ञान , वैराग्य , भक्ति और यह लक्ष्य हीरा भी जप करने लगी । पता है कितना जप करने लगी ? वह भी तीन लाख जप करने लगी । (हंसते हुए) नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर ने बेनापल नाम का जो स्थान है वह इस लक्ष्य हीरा को दे दिया । तुम अब यहां की आचार्य बनो , मैं आगे बढ़ता हूं । नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर वहां से आगे बढ़े और उन दिनों में यह बांग्लादेश , भारत ऐसा कोई भेद नहीं था लेकिन अब बांग्लादेश बना है पहले भारत ही था । वह हरिदासपुर आ गए वह बेनापुर से ज्यादा दूर नहीं है , वह भारत में ही है ।
वहां वह अपना साधन भजन करने लगे यह हरिदासपुर उस नगर का नाम , इतना बड़ा नगर नहीं है किंतु उसका नाम ही हरिदासपुर हुआ । जहां कुछ समय के लिए साधना कि ,जप तप कि । वह स्थान अब इस्कॉन के साथ है , वहां इस्कॉन हरिदासपुर बन चुका है । मुझे लगता है 1976 के मायापुर फेस्टिवल के उपरांत श्रील प्रभुपाद अपने कई सारे शिष्यों के साथ , हम लोग गए थे । मैं भी श्रील प्रभुपाद के साथ हरिदासपुर गया था । और अब वहाँ पूरे इस्कॉन की स्थापना मंदिर , प्रचार और वह हरिदास ठाकुर का स्मृति भी है । वहासे और आगे बढ़ते हैं और फिर पुलिया नाम का स्थान है । वहां हरिदास ठाकुर एक गुफा में रहने लगे और फिर वहां भक्त उनको आकर मिलते थे , उनका संग प्राप्त करते थे , उनके साथ जप करते थे । लेकिन वहां आने वाले भक्तों को पता चला कि वहां केवल हरिदास ठाकुर ही नहीं रहते वहां एक बहुत बड़ा सांप भी रहता है । हरिदास ठाकुर गुफा सांप के साथ बांट रहे थे । यह पता चलने से भक्तों का आना जाना थोड़ा कम हो गया , भक्त डर रहे थे लेकिन नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर निर्भय थे । वहां साँप भी है और वहां बगल में वह रहते थे जप करते थे । उनका निवास स्थान गुफा ही था , ऐसा निर्भय बनाया उनको इस जप ने , इस हरि नाम के उच्चारन से , वीतराग भय क्रोध कृष्ण कहते हैं ।
वित मतलब आसक्ती , भय मतलब भय , क्रोध त्यागना चाहिए , त्यागा जा सकता है जब व्यक्ति जप करके कृष्णभावनाभावीत होता है । हरिदास ठाकुर पूर्णता कृष्णभावनाभवित थे इसीलिए वह पूर्णता निर्भय थे । लोगों का आना जाना थोड़ा कम हुआ तो हुआ क्या ? यह सर्प ही इस गुफा को छोड़कर चला गया । उस सर्प ने सोचा कि यह सही नही है , मेरे यहां होने के कारण कई सारे भक्त हरिदास ठाकुर को मिल नहीं सकते वह डरे हुए हैं तब वह साप ही वहां से चला गया । हरिदास ठाकुर ने गुफा को नहीं छोड़ा , साप में गुफा को छोड़ा । पुलिया से पास ही शांतिपुर है । जहां अद्वैत आचार्य रहा करते थे । अद्वैत आचार्य का जन्म स्थान नहीं , जन्म तो कुछ अलग था ईस्ट बंगाल में मतलब बांग्लादेश में हुआ था वह भी यहां शांतिपुर में स्थानांतरित हुए थे । हरिदास ठाकुर का अद्वैत आचार्य के साथ मिलना जुलना चल रहा था और वह दोनों साथ में भजन कीर्तन किया करते थे जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मायापुर नवदीप में जन्म हुआ तब यह दो व्यक्ति नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर , अद्वैत आचार्य को ही पता चला और वैसे वह सर्वज्ञ भी है । चैतन्य महाप्रभु ने जन्म लिया है यहा शांतिपुर में गंगा के तट पर हरिदास ठाकुर , अद्वैत आचार्य नाचने लगे , नृत्य करने लगे , हर्ष उल्लास का प्रदर्शन हो रहा था । निमाई , निमाई , निमाई ने जन्म लिया है औरों को पता ही नहीं चल रहा था कि क्या हुआ ? अचानक क्यों आप नाच रहे हो , गा रहे हो , इतने हर्षित हो । उसका कारण था उनको पता चला गौरांग प्रकट हुए हैं ।
वैसे चानकाजी या मुस्लिम सरकार ने उनको कैद खाने में भी भेजा । उनका जीवन चरित्र बड़ा विस्तृत है । मार्केटप्लेस में उनकी पिटाई करके उनका जब नहीं बंद करा पाए । “अरे तुम मरते क्यों नहीं ?” वह पीटने वाले कह रहे थे । तुम मरते क्यों नहीं ? अगर तुम नहीं मरोगे तो चांदकाजी हमारी जान लेगा । कृपा करके मर जाओ नहीं तो हम मरने वाले हैं । फिर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने कहा ठीक है । ठीक है । मैं ही मर जाता हूं । तब उन्होंने मरने का स्वांग किया । योगी जैसे वह अंतर्मुख हुए और फिर जीवन का कोई लक्षण नहीं दिख रहा था तब उन लोगों ने हरिदास ठाकुर को गंगा में फेंक दिया । अब मर गया , धन्यवाद! तुम मर गए (हंसते हुए) गंगा में फेंक के यह लोग फिर लौट चुके थे लेकिन हरिदास ठाकुर मरे नहीं थे उन्होंने जब फेंक दिया तब उन्होंने गंगा को पार कर लिया और उनका कीर्तन चलता रहा फिर दोबारा उनको गिरफ्तार किया और कैद में भेजा । फिर वह पर समस्या खड़ी हुई सारे कैदी को नचाने लगे (हंसते हुए) कारागार में सारी क्रांति , वह कारागार संकीर्तन भवान ही हो गया । उन सब को उस कीर्तन से मुक्त किया , फिर हरिदास ठाकुर को भी मुक्त करना पड़ा नहीं तो अगली वाली बैच भी नाचने लगेंगी , कीर्तन करने लगेगी फिर अंत में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जगन्नाथपुरी पहुच जाते हैं ।
चैतन्य महाप्रभु पहुंच ही चुके थे हरिदास ठाकुर मुस्लिम परिवार में जन्मे थे इसलिए मंदिर में प्रवेश तो संभव ही नहीं था और उनको भी कोई चिंता नहीं थी न तो उन्होंने कभी प्रवेश करने का प्रयास भी किया । वह रहने लगे , जगन्नाथपुरी में सिद्ध बकुल है और वही से जगन्नाथ स्वामी का जगन्नाथ स्वामी का दर्शन करते थे । जगन्नाथ स्वामी के मंदिर के ऊपर का जो चक्र है सुदर्शन चक्र उसका दर्शन करते थे और यह विधि भी है । चक्र का दर्शन किया भगवान का दर्शन हो गया । कई लोग चक्र को भोग लगाते हैं । जगन्नाथपुरी के कई परिवार या कई दुकानदार भी अपने घर का , दुकान का कोई सामग्री है , मिष्ठान है , भोजन है वह चक्र को खिलाते , भोग लग गया , जगन्नाथ प्रसाद हो गया । नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ऐसे दर्शन करते थे लेकिन वैसे दर्शन तो जेई गौर जेई कृष्ण सेई जगन्नाथ, जगन्नाथ ही चैतन्य महाप्रभु के रूप में दर्शन दिया करते थे । चैतन्य महाप्रभु स्वयं जगन्नाथ का दर्शन करने के लिए जाते , दर्शन करने के लिए जगन्नाथ मंदिर में जाते थे और दर्शन देने के लिए यहा सिद्ध बकुल आ जाते थे । हरिदास ठाकुर को दर्शन देने के लिए भगवान वहां जाते थे ।
गौरांग चैतन्य महाप्रभु जाते थे और यहीं पर बकुल वृक्ष को उगाए और चैतन्य महाप्रभु उनकी छत्रछाया में उनका जप होने लगा और इसी स्थान पर कईयों को संग मिला । दूर देश से आने वाले , वृंदावन से आने वाले , कई सारे वरिष्ठ भक्त , रूप गोस्वामी , सनातन गोस्वामी यह सब नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का संग चाहते थे उनके साथ रहते थे । रूप गोस्वामी और हरिदास ठाकुर जगन्नाथपुरी में साथ में रहे जहां हरिदास ठाकुर रहते थे और साथ में जप करते थे ,साथ में कीर्तन करते थे ।हरि हरि । कल के दिन , कल पूर्णिमा थी भाद्रपद पूर्णिमा के दिन नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर का तिरोभाव तिथि उत्सव संपन्न हुआ । उसकी भी लीला कुछ हमने कल कहीं । आप चैतन्य चरित्रामृत के अंत लीला में पढियेगा । एकादश परिच्छेद , 11 वा अध्याय श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण नामाचार्य हरिदास ठाकुर के हात में थे और उन चरणों को उन्होंने अपने वक्षस्थल पर धारण किया था , उनके मुख्य मंडल का दर्शन हरिदास ठाकुर कर रहे थे और यह कह कर ,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
यह भी कह रहे थे किंतु इस समय श्रीकृष्ण चैतन्य ही उन्होंने कहा या ऐसे कहते कहते ही उन्होंने अपने शरीर को त्यागा और अपना जीवन सफल बनाया । और हमारा जीवन भी सफल बनाने के उद्देश्य से ही उनकी सारी लीलाएं , उनका आचरण , व्यवहार रहा । नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की जय ।
और इसी के साथ हरि नाम की जय । हरि नाम प्रभु की जय । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय ।
जगन्नाथ पुरी धाम की जय ।गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल ।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
नागपुर से,
20 सितंबर 2012
हरे कृष्ण…!
आज है भद्रपोर्णिमा। भद्रपद मास कि पोर्णिमा है आज।
भद्रपोर्णिमा महोत्सव कि जय…!
आज का दिन विशेष है, महान है। जानना चाहते हो! क्यों महान है? आज के दिन क्या हुआ हैं। किस के कारण आज का दिन महान हुआ, ये पोर्णिमा महान मानी जाती हैं। खासतौर पर इस्कॉन के भक्त या गौड़ीय वैष्णव के लिए भी भद्र पोर्णिमा का दिन महान है। सुन रहे हो! आप सभी, किसी का जप चल रहा है और भी क्या क्या, नींद भी आ रही है, लेकिन कुछ तो नोट बुक भी लेकर बैठे है, लिखने के लिए। आज के दिन के बारे में थोड़ा ही बताते हैं। स्वरुपानंद अपना हात खडा कर के बैठे हैं। देखते हैं समय की सीमा भी हैं।
विश्व हरि नाम उत्सव की जय…!
हरिनाम महोत्सव संपन्न हो रहा है आज के दिन कि भी महिमा है आज के दिन विश्वरूप महोत्सव कहलाता हैं।
विश्वरूप महोत्सव कि जय…!
जो भी जानकारी है हम को प्राप्त है, उपलब्ध है उसके अनुसार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने भ्राताश्री विश्वरूप के खोज में थे,विश्वरूप ने लिया था संन्यास और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी लिया संन्यास और चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी पहुंचे थें। वहां के भक्तों को चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि नहींं नहीं मुझ को जाना है मैं दक्षिण भारत कि यात्रा करूंगा। क्यों जाना चाहता हो? मैं मेरे भ्राता विश्वरूप को खोजना चाहता हूंँ,उनसे मिलना चाहता हूंँ;तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान किए और दक्षिण भारत कि यात्रा करते हुए मध्य भारत कहो या महाराष्ट्र पहुंचे। महाराष्ट्र में पंढरपुर पहुंचे।
पंढरपुर धाम कि जय…!
पंढरपुर धाम पहुंचे।ये भी जानकारी मील रही है।आज के दिन वे पंढरपुर में थें चातुर्मास के दिन। आज के दिन में चातुर्मास का नाम आया,निकला तो बताते हैं चातुर्मास के दो मास पूरे हो गए,कितने बच गए और दो मास बच गए। व्ही फॉर विक्ट्री भी होता हैं। आज से तृतीय मास प्रारंभ हो रहा हैं।एक महीने भर के लिए दूध का सेवन नहीं करना है कुछ ज्यादा तपस्या तो नहीं है,और बहुत कुछ ले सकते हो बस दूध छोड़कर और यह भी देख सकते हो आपने लिए गए संकल्प चातुर्मास के लिए हुए अपने अपने संकल्प कैसे पूरे हो रहे हैं। थोड़ा खुद का सिंहावलोकन कीजिए। पिछले दो महीने का आपका परफॉर्मेंस कैसा रहा चातुर्मास के दौरान चातुर्मास के संकल्प कैसे पूरे कर रहे हो या कुछ छूट रहा है या कुछ प्रक्रिया है तो उसे सुधार करो। आज के दिन कर सकते हो! ठिक है!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आज के दिन पंढरपुर में पहुंचे तो मैं, महाप्रभु जब मिले थे श्रीरंगपुरी से, अब नहींबताऊंगा श्रीरंगपुरी कौन है? फिर उनका चरित्र बताना पड़ता है आपको,हुँ…श्रीरंगपुरी ने पंढरपुर धाम में चंद्रभागा के तट पर उन्होंने बताया श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को उनके भ्राताश्री विश्वरूप पंढरपुर आए थें, लेकिन उनका नाम अब विश्वरूप नहीं रहा उनका नाम शंकरारन्य स्वामी आप ये याद रख सकते हो लिख के रख सकते हो आप, तो शंकरारन्य स्वामी पंढरपुर में आए थे और वे यहां रहे पंढरपुर में अभी वे नहीं रहे। ये आज का दिन विश्वंभर या उन्हीं का जो नाम बना शंकरारन्य स्वामी उनके अंतर्धान का आज का दिन नहीं है। आज अंतर्धान नहीं हुए। विश्वरूप वैसे बलराम के विस्तार रहे। तत्व नहीं बताएंगे आपको किंतु आज के दिन चैतन्य महाप्रभु को पता चला कि विश्वरूप इस संसार को छोड़ चुके हैं, अंतर्धान हो चुकें हैं,वह समाचार आज के दिन मिला तो फिर श्री कृष्ण चैतन्य
महाप्रभु ने चातुर्मास के बीच में ही आज के दिन दाढ़ी कि, मुंडन किया। कई बाल वगैरह रखते हैं चातुर्मास में ऐसा भी संकल्प रखते हैं इस्कॉन में प्रभुपाद ने ऐसा प्रोत्साहन नहीं दिया बाल बढ़ाओ दाढ़ी रखो, प्रभुपाद ने कैयौ कि बाल और दाढ़ी उतार दिए। ये जब प्रभुपाद को पता प्रभुपाद जब वृंदावन आए तो वहा के भक्त चातुर्मास इस प्रकार से मना रहे थे लेकिन प्रभुपाद ने मना किया तो सभी ने फटाफट दाढ़ी उतार दी या बाल उतार दिए, मुंडन किया ,तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने मुंडन किया, दाढ़ी तो नहीं थी, आपको पता है ना भगवान कि दाढ़ी नहीं होतीं। कृष्ण कि, राम कि, चैतन्य महाप्रभु कि शायद पहली बार सुन रहे हो क्या आप! बाल तो होते हैं लेकिन दाढ़ी नहीं होती ।दाढ़ी किसकी होती है जो उम्र में बढ़ जाते हैं। 18,19,20,21साल के हो गए तो दाढ़ी आ जाती है लेकिन भगवान तो षोडशवर्षीय रहते हैं सब समय।
“आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनश्च।”
भगवान कभी बुढे़ नहीं होते 20 साल के या 25 साल के कभी बुढे़ नहीं होते हैं वो, उनकी उम्र सदा के लिए शोडशवर्षीय रहती है ये भी इक कारण है कि भगवान कि दाढ़ी नहीं रहती है
लेकिन चाहिए तो दाढ़ी हो भी सकती है जैसे अद्वैताचार्य, वह भी भगवान है,महाविष्णु है लेकिन उनकी दाढ़ी हैं।श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आज मुंडन किया उनकों पता चला कि उनके भ्राताश्री विश्वरूप जीनका नाम शंकरारन्य हुआ था। वे इस संसार में नहीं रहें।
विश्वरूप महोत्सव कि जय…!
इस विश्वरूप महोत्सव के दिन ही या फिर कहिए भाद्रपद पूर्णिमा के दिन ही 1959 में तारीख नोट कीजिए 17 सितंबर श्रील प्रभुपाद ने संन्यास लिया। संन्यास ग्रहण करने का ये आज का दिन हैं। श्रील प्रभुपाद जी गृहस्थ थें थोडे़ समय के लिए कलकत्ता में अधिकतर उन्होंने अपनें गृहस्थ जीवन को प्रयाग में बिताया। प्रभुपाद वनप्रस्थी रहे तो झांसी में रहे कुछ समय झांसी में बिताए और फिर वहां से श्रील प्रभुपाद झांसी से मथुरा गयें। और मथुरा में केशव गौड़ीय मठ उनके गुरु भ्राता केशवप्रज्ञान गोस्वामी महाराज उस मठ को चला रहे थें। वहां पर श्रील प्रभुपाद रहने लगे मथुरा में और फिर आज के दिन श्रील प्रभुपाद ने अपने गुरु भ्राता ऐसी पद्धति है अगर आपके स्वयं के गुरु नहीं है आप को संन्यास देने के लिए तो अपने संन्यासी गुरु भ्राता से आप सन्यास ले सकते हो मतलब माताएं लेगी नहीं लेकिन जो पुरुष लेकिन है जिन की तैयारी है ऐसे तो सोचो इसके बारे में आजकल तो कोई सन्यास वगैरह तो कोई सोचता भी नहीं हैं बस एक ही आश्रम चलता है इस कलयुग मे एक ही आश्रम चलता है गृहस्थाश्रम। पहिला गृहस्थाश्रम और अंतिम गृहस्थाश्रम।जीना वहा और मरना भी वही पर।चार आश्रम तो भुल जाओ ब्रह्मचारी आश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम संन्यास आश्रम इसमें कोई नहीं फसता। वैसे संन्यास कठिन भी है इस कलयुग में और शास्त्रों में पांच बातें वर्जनीय कहीं है उसमें से संन्यास, कलयुग में संन्यास लेना वर्जनीय है हरि बोल! अच्छी बात हुई,हमने सुन लिया।वर्जनीय है इसलिए हम नहीं लेते।लेकिन प्रभुपाद ने ले ही लिया आज के दिन संन्यास और वह स्थान था मथुरा केशवजी गौड़ीय मठ और फिर तुम्हारा नाम भक्तिवेदांत स्वामी ऐसा भी केशव प्रज्ञान गोस्वामी ने कहा और नामकरण हुआ और बड़ी अचरज कि बात श्रील प्रभुपाद को उनके संन्यास गुरु जो उनके गुरु भ्राता ने कहा कि कुछ बोलिए! प्रवचन कीजिए! श्रील प्रभुपाद ने प्रवचन किया अंग्रेजी भाषा में,क्योंकि उनको श्रील भक्तिसिध्दांत सरस्वती ठाकुर का आदेश था। याद है पाश्चात्य देशों प्रचार करो कोनसी भाषा में प्रचार करने के लिए कहा था आपकी परीक्षा हो रही है देखो या बोलो उत्तर दो! कोनसी भाषा में जानते हो कन्नड़ भाषा में कि ब्रज भाषा में? अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो! संन्यास लिया जाता है प्रचार के लिए, प्रभुपाद को अपने गुरु के आदेश के अनुसार तो अंग्रेजी भाषा में प्रचार करना था तो उस दिन मतलब आज के दीन जब वह संन्यास लिए तो अंग्रेजी भाषा में प्रवचन किया वहा भक्त उपस्थित थे उनको संबोधित किया। हरि हरि!
और आज के दिन भद्र पूर्णिमा तो है सुन ही रहे हो तो क्या हुआ आज शुकदेव गोस्वामी जो कथा सुना रहे थें यह पहली कथा है इसके पहले किसी ने अधिकारिक तौर पर कथा नहीं सुनवाई थी श्रीमद्भागवत कथा। राजा परीक्षित को कथा सुना रहे थे गंगा के तट पर हस्तिनापुर के पास आपको पता लगवाइए हस्तिनापुर कहाँ है, होना चाहिए हस्तिनापुर कहां है तमिलनाडु में है या लंका में है हस्तिनापुर हम सुनते तो रहते हैं हस्तिनापुर लेकिन कहां है यह अधिकतर हम लोग नहीं जानते या फिर दिल्ली को हस्तिनापुर कहते हैं दिल्ली हस्तिनापुर नहीं है दिल्ली है इंद्रप्रस्थ। जमुना के तट पर है इंद्रप्रस्थ और गंगा के तट पर है हस्तिनापुर ।मेरठ जानते हो मेरठ से 30 किलोमीटर पूर्व दिशा में और वहां पर कथा सुना रहे थे हस्तिनापुर उनकी राजधानी थीं हरि हरि !
कथा प्रारंभ हुई थी नवमी को भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की नवमी को कथा प्रारंभ हुई थी और आज आज के दिन कथा का समापन हुआ हरि हरि! पूर्णाहुति का दिन है आज का दिन हैं और उसी भागवत मे कहा है जो भी इस के उपलक्ष में भागवत ग्रंथ का वितरण करेगा करते हैं वह कृष्ण भावना भावित होंगे, भगवत धाम लौटेंगे और ग्रंथ वितरण का श्रीमद् भागवत इसीलिए इस्कॉन में अब श्रीमद् भागवत के सेट के वितरण का कार्यक्रम हो रहा हैंउस संबंध में आज एक नैमिषारण्य में यज्ञ भी हो रहा है उत्सव मनाया जा रहा है आपने जरूर किया होगा भागवत सेट का वितरण क्या किया है आपने अगर नहीं किया होगा तो आज करो या करते रहो हम जानते हैं।
भद्र पूर्णिमा अभियान कि जय..!
इस्कॉन का एक नया अभियान शुरू हो गया है यह भद्र पूर्णिमा अभियान है मतलब भागवत बुक सेट वितरण का मैराथन पहले हम गीता का मैराथन कर रहे थें, करते रहेंगे अभी हम भागवत सेट का वितरण मैराथन करेंगे तो अभी मैं आ रहा था शुरू हो रहा है भागवत सेट का वितरण आज यह भद्र पूर्णिमा है तो श्रीमद् भागवत कथा का संबंध किस पूर्णिमा के साथ है आज भागवत कथा का समापन हुआ तो वैसे श्रीमद् भागवत कथा का श्रवण भी करना है,करते रहना हैं। हरि हरि!
“नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥”
(श्रीमद्भागवतम् 1.2.18)
अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
नित्यम भागवत सेवया केवल भागवत ग्रंथ का वितरण ही नहीं करना है बल्कि उन्हें पढ़ना भी है पहले में ग्रंथों का वितरण करना है उसके बाद में ग्रंथों को अध्ययन भी हैं। हम सारे विद्यार्थी हैं तो विद्यार्जन करना है गीता, भागवत में जो विद्या राजविद्या, और भक्ति का जो शास्त्र है उसका हमें अध्ययन करना है श्रवण,कीर्तन,स्मरण करना हैं। ठीक है!
आज के दिन एक विशेष घटना घटी जगन्नाथपुरी में..
श्री जगन्नाथ पुरी धाम कि जय…!
हम पंढरपुर में थें पंढरपुर में हमे पता चला आज क्या हुआ 500 वर्ष पहले पूर्व चैतन्य महाप्रभु आये वहां से हम ने मथुरा कि बात की, केशवजी गौड़ीय मठ में आज मथुरा में प्रभुपाद जी का संन्यास हुआ और फिर पंढरपुर के उपरांत मथुरा के उपरांत हमने हस्तिनापुर कि बात की वहां पर गंगा जी के तटपर श्री भागवत कथा का समापन हुआ, पूर्णाहुति हुई तो अब जगन्नाथ पुरी जाते हैं
जय जगन्नाथ..!
जगन्नाथ पुरी धाम कि जय…!
जगन्नाथ पुरी धाम में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का जो निवास स्थान पंढरपुर के भक्त सुन रहे हैं प्रल्हाद तो सुन रहे हैं बाकी के भक्त सुन रहे हैं मंदिर के भक्त। हरि हरि!
पंढरपुर कि हमने कथा कि सुने कि नहीं पता नहीं कितने भक्तों ने सुनी, प्रह्लाद प्रभु जगन्नाथ पुरी के बगल में उनका जन्म हुआ हमारे इस्कॉन पंढरपुर के अध्यक्ष है प्रह्लाद प्रभुजी है प्रल्हाद प्रभुजी सुन रहे हैं कुछ भक्तों के साथ तो जगन्नाथपुरी में सिध्द बकुल नाम का स्थान आज भी है सिध्द बकुल नाम का वृक्ष आज भी है उस वृक्ष को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उगाये थे जगन्नाथ का दातुन प्लास्टिक का नहीं था वो बकुल वृक्ष कि एक छोटी सी टहनी चैतन्य महाप्रभु लेकर आए और नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जहां जप किया करते थें सदैव कीर्तनीय सदा हरी चलता था उनका तीन लाख नाम जप करने वाले नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर कि सेवा में चैतन्य महाप्रभु ने वहां पेड़ उगवाया और वह फटाफट उग भी गया और उसकी शाखाएं फैल गई और उसकी आज छाया हो गई और उसकी छत्रछाया में नामाचार्य हरिदास ठाकुर अब जप कर सकते थें नहीं तो पहले धूप में ही बैठके जप कर रहे थें
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु में ऐसी व्यवस्था की तो उसी स्थान पर आज के दिन नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का तिरोभाव हुआ। चैतन्य चरित्रामृत में उस का विस्तृत वर्णन है एक अध्याय ही है अंत लीला एकादश परिच्छेद अंत लीला के ग्यारहवें अध्याय में इस सब लीला का वर्णन है नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर उनको जब पता चला अंदाजा लगा कि चैतन्य महाप्रभु स्वयं ही अब धीरे-धीरे प्रस्थान कि तैयारी कर रहे हैं फिर हरिदास ठाकुर ने सोचा कि मैं वह दूरदिन नहीं देखना चाहता हूंँ चैतन्य महाप्रभु के प्रस्थान के पहले मैं प्रस्थान करना चाहता हूंँ।ऐसा निवेदन ऐसा संवाद भी उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के साथ नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का, तो उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्ति कि प्रस्थान कि, तो चैतन्य महाप्रभु जान गए और उनकी इच्छा पूर्ति हेतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक दिन मतलब आज के दिन ही कई भक्तों के साथ कीर्तन करते हुए चैतन्य महाप्रभु सिद्ध बकुल पहुंचे तो नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर उन्होंने महाप्रभु को सभी भक्तों के चरणों मे साष्टांग दंडवत प्रणाम किया हुआ हैं। कीर्तन हो ही रहा था तो नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल अपने हाथों में धारण किए और फिर उन चरण कमलो को अपने वक्षस्थल पर रखा भगवान के चरण कमल है
हाथ में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के हाथ में और उनकी दृष्टि है आंखों से चैतन्य महाप्रभु के मुख मंडल का दर्शन कर रहे हैं वे सुंदरलाल शचीदुलार और मुख से चैतन्य महाप्रभु का नाम पुकार रहे हैं और पुकारते पुकारते आखिरकार अंतिम बार उन्होंने कहा कि कृष्ण चैतन्य और समाप्त, तो फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरिदास ठाकुर के वपु को उठाए हैं और चैतन्य महाप्रभु कीर्तन में नृत्य करने लगे और कीर्तन और नृत्य के साथ उनकी शोभायात्रा कहो या अंतिम यात्रा समुद्र के तट पर सभी गए। चैतन्य महाप्रभु हरिदास ठाकुर के शरीर को उठाए थे फिर पालकी में भी रखें, सभी ढो भी रहे हैं और फिर वहां पर उनके अंतिम संस्कार हुए। वहां पर एक गड्ढा बनाएं चैतन्य महाप्रभु खुद खुदाई कर रहे थे और वपु को वहां रख दिए और वहां कि जो वालू है समुद्र के तट पर यह सब हो रहा था। जगन्नाथ प्रभु के कुछ वस्त्र ,कुछ पुष्प भी अर्पित किए गए नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को, इस प्रकार नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर समाधि महोत्सव संपन्न हुआ कीर्तन कर रहे थे फिर सभी ने स्नान किया और पुन्हा सभी नगर में लौटे तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सभी से भिक्षा मांग रहे थें। दुकानो में बाज़ारों जहां मिष्ठान या अन्य पदार्थ कि बिक्री होती हैं ऐसा अन्न महाप्रभु इकट्ठा कर रहे थे क्योंकि इस उत्सव का समापन प्रसाद वितरण से होगा। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के स्मृति में भोजन का आयोजन होगा, उसके लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भिक्षा मांग रहे हैं।
दान दो !कुछ भोग दो!कुछ अन्न दो!पत्रं पुष्पं फलं तोयं दो! कुछ मिष्ठान दो! आखिरकार सभी भक्त बैठे और वहां महाप्रसाद का वितरण हुआ आज के दिन जगन्नाथपुरी में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के प्रयान का नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के प्रयान की तुलना चैतन्य चरित्रामृत में पितामह भीष्म के प्रयान के साथ कि गई हैं। उनका कुरुक्षेत्र में प्रयान हुआ वे शरशैय्या पर लेटे थे और प्रस्थान होना है भीष्म देव ये जब श्रीकृष्ण को पता चला उस समय वह हस्तिनापुर में थे,पांडवों को साथ में लेकर श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र लौटते है और भीष्म पितामह दर्शन कर रहे थे जैसे हरिदास ठाकुर दर्शन कर रहे थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का वैसे ही पितामह भीष्म भी दर्शन कर रहे थे।
इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले –
गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तन से निकले
इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले – आप आ जाना जमुना का तट हो, बंसीलाल हो, आप आ जाना राधा को भी साथ ले आना, वो छबि मन में बसी हो जब प्राण मन से निकले…
इन दोनों का प्रस्ताव नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का प्रस्थान और पितामह भीष्म का प्रस्थान के समय भगवान ने स्वयं को उपलब्ध कराया। वहा उपस्थित रहे भगवान फिर क्या कहना ।
” अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 8.5)
अनुवाद:-और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है | इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है |
अंते नारायण स्मृति हो ही गयीं
अंत में भगवत धाम पहुंचते हैं नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर इस प्रकार से एक आदर्श रखे हैं हम सभी के समक्ष, मरना है तो मारना है तो मतलब कोई पसंद है क्या मरना है तो नहीं मरना चाहते हो तो नहीं मरना है तो मारना है ही तो कहते हैं मरो कैसे मारना चाहिए यह नामचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने हमें सिखाया हैं। हरि हरि!
नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर कि जय…!
श्रील प्रभुपाद संन्यास महोत्सव कि जय…!
श्रील शुकदेव गोस्वामी महाराज कि जय..!
जिन्होंने भागवत कथा का समापन किया। और वहां पंढरपुर में..
विश्वरूप महोत्सव कि जय…!
शंकरारन्य स्वामी कि जय…!
और चैतन्य महाप्रभु कि जय…!
और श्री रंगपुरी कि भी जय…!
जिन्होंने यह कथा ,वार्ता सुनाई चैतन्य महाप्रभु को शंकरारन्य के पंढरपुर के प्रस्थान कि, इस प्रकार आज का दिन विशेष है। ठीक है!हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*नागपुर से*,
*19 सितंबर 2021*
हमारे साथ 764 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरे कृष्ण। मैं नागपुर पहुंचा हूं। इस्कॉन नागपुर की जय। हम डॉ श्यामसुंदर शर्मा प्रभु के गांव में आ गए। आज एक विशेष तिथि है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय।
*नमो भक्तिविनोदय*
*सच्चिदानंद नामिने*
*गौर-शक्ति-स्वरूपाय*
*रूपानुगा-वरायते*
आप भी प्रार्थना करो। आपने ही तो कहा कि नहीं? हरि हरि। इनका नाम सच्चिदानंद भक्तिविनोद था। वह सत चित आनंद थे। उनका नाम भी सच्चिदानंद भक्तिविनोद था। *गौर-शक्ति-स्वरूपाय*। गौरंग गौरंग। गौर शक्ति के स्वरूप और मूर्तिमान, गौर शक्ति का ही उन्होंने प्रदर्शन किया। *रूपानुगा-वरायते* रूपानुगो में वह श्रेष्ठ रहे। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की जय। यदि भक्ति विनोद ठाकुर ना होईते। वैसे यह सब पर लागू होता है। गौर ना होईते, प्रभुपाद ना होईते, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ना होईते तो की होईते। आगे कुछ भी नहीं होना था। क्या कहा जाए। हम कहने तो कह रहे थे कि श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एक महान आचार्य रहे। वह कितने महान रहे। कौन जानता है और कौन समझ सकता है, उनकी महिमा और बड़प्पन। हरि हरि। यह ब्रिटिश काल में रहे। बड़ी कठिन काल था और विकट परिस्थिति भारतवर्ष में थी। उनका जन्म 1838 में हुआ था और तिरोभाव 1914 में हुआ। 1914 की बात कर रहे हैं। 2014 की बात नहीं कर रहे। 1914 में तीरोभाव हुआ। कल्पना कर सकते हो, कब रहे और कब हुए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने जमाने के वह डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट रहे। वैसे अंग्रेज भारतीयों को ज्यादा जिम्मेदारी या पद्मी नहीं दिया करते थे। कुछ गिने चुने भारतीयों को जिम्मेदारी दिया करते थे। उनमें से एक थे श्रील भक्तिविनोद ठाकुर। उन दिनों में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बहुत ऊंचा पद होता था। वह डिस्ट्रिक्ट भी जगन्नाथ पुरी धाम की जय। जगन्नाथ पुरी धाम के मजिस्ट्रेट बने। उनकी कोठी आज भी है। आप अगर जगन्नाथपुरी कभी गए होगे या आप जाओगे तो भक्तिविनोद ठाकुर की कोठी पर जरूर जाना। जो रथयात्रा के मार्ग पर ही है। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का जन्म हुआ था। वही उन्होंने अपना जीवन के कार्य को प्रारंभ किए। हरि हरि। जीवन का मिशन कहिए। वहीं पर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के तौर पर दुष्टों का संहार भी किए।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 4.8)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
तांत्रिक या सिद्धि बाबा जो स्वयं को भगवान घोषित कर रहे थे। उनको गिरफ्तार किया। उनको जेल में डाला और वह चल बसे। इस आंदोलन को या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के गौडीय वैष्णव परंपरा का काफ़ी प्रचार हो। आगे बढ़ता रहे यह प्रचार, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की ऐसी तीव्र इच्छा थी। तो उन्होंने जगन्नाथ से प्रार्थना भी की। मुझे ऐसा पुत्र रत्न प्राप्त हो। यह चैतन्य महाप्रभु का आंदोलन *संकीर्तन एक पितरों*। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की पुकार या प्रार्थना को जगन्नाथ स्वामी सुने और उनको पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। वह रहे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की जय। विमला प्रसाद उनका नाम दिया था। जगन्नाथपुरी मंदिर में विमला देवी है। उन्होंने समझा कि यह विमला देवी का ही प्रसाद है। मेरा पुत्र विमला प्रसाद या विमल प्रसाद नाम लिया। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर वैसे रिटायर्ड होना चाहते थे या सेवानिवृत्त होना चाहते थे। उनकी सरकारी नौकरी थी और उनको पूरा समर्पित होना था और अपनी पूरी शक्ति सामर्थ्य के समय गौरांग महाप्रभु के आंदोलन की सेवा में लगाना चाहते थे। उन दिनों में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर उनका नाम केदारनाथ दत्त था, जो पारिवारिक नाम था। उनको छोड़ नहीं रहे थे। उनको ट्रांसफर किया गया। दूसरा जिला कृष्ण नगर में उनको भेजा गया। जो नवद्वीप मायापुर के पास था। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर रिटायर हो कर मायापुर में वास करना चाहते थे। तो अंग्रेज सरकार ने उनको सेवा से निवृत्त तो नहीं होने दिया किंतु मायापुर के पास पहुंचा दिया कृष्ण नगर में और मायापुर धाम में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने कार्य को आगे बढ़ाएं। अभी तो उनको सप्तम गोस्वामी कहते हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को सातवें गोस्वामी कहते हैं। जो कार्य षठ गोस्वामी वृंदो ने किया।
*वंदे रूप – सनातनौ रघु – युगौ श्री – जीव – गोपालको।*
*नाना – शास्त्र – विचारणैक – निपुणौ सद् – धर्म संस्थापकौ लोकानां हित – कारिणौ त्रि – भुवने मान्यौ शरण्याकरौ राधा – कृष्ण – पदारविंद – भजनानंदेन मत्तालिकौ वंदे रूप – सनातनौ रघु – युगौ श्री – जीव – गोपालकौ।।२ ।।*
(श्री श्री षड् गोस्वामी अष्टक)
अनुवाद:- मै , श्रीरुप सनातन आदि उन छ : गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की , जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे , भक्ति रुप परंधर्म के संस्थापक थे , जनमात्र के परम हितैषी थे , तीनो लोकों में माननीय थे , श्रृंगारवत्सल थे , एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे ।
इन षठ गोस्वामी वृंदो ने जो वृंदावन में कार्य किया वैसा ही कार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने मायापुर में किए। मायापुर धाम के श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला स्थलियो को खोजना, ग्रंथों की रचना करना, नवद्वीप मंडल परिक्रमा की स्थापना करना और इस प्रकार पूरे धाम के गौरव को बढ़ाना और फैलाना, धाम को प्रकाशित करना, यह कार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर मायापुर में किए। वही कार्य जो षठ गोस्वामी वृंदो ने वृंदावन में किया था। हरि हरि। मायापुर में नवद्वीप जहां है, नवद्वीपो में से एक द्वीप गोदरूम द्वीप है। गोदरूम द्वीप में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर रहने लगे। पहले उनकी कोठी जगन्नाथपुरी में थी। गोदरूम द्वीप में स्वरूपगंज में उनकी कोठी थी और श्रील भक्तिविनोद ठाकुर उस स्थान को भक्तिविनोद ठाकुर समाधि के रूप में जाना जाता है। वह केवल वहां पर रहे ही नहीं। ऐसा भी समय था। एक विशेष समय ऐसा भी था। एक ही साथ जहां भक्तिविनोद ठाकुर रहा करते थे। हमारे परंपरा के चार अचार्य एक साथ वहां पर उपस्थित रहा करते थे। जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज भक्ति विनोद ठाकुर के गुरु महाराज या शिक्षा गुरु जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज। फिर स्वयं भक्तिविनोद ठाकुर, उनके शिष्य गौर किशोर दास बाबाजी महाराज और उनके शिष्य भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर। वहां पर रहा करते थे, उपस्थित होते थे। विचार ,विमर्श और शास्त्रार्थ किया करते थे। षठ गोस्वामी वृंद वृंदावन में राधा दामोदर मंदिर के आंगन में एकत्रित होकर शास्त्रार्थ किया करते थे। यहां नवद्वीप में हमारे 4 आचार्य एक साथ थे। उन दिनों में अभय चरण डे कोलकाता में थे। अभी तक उनका संपर्क इस परंपरा के साथ नहीं हुआ था। भक्तिविनोद ठाकुर कई सारे ग्रंथ लिखे। वह लेखक भी थे और कवि भी रहे। उनकी कविताएं और उनके गीत अब पूरा संसार गा रहा है। इसमें वह गीत भी सम्मिलित है जो श्रील प्रभुपाद अपने हर प्रवचन के प्रारंभ में गाया करते थे।
*जय राधा माधव,
*जय कुन्ज बिहारी
*जय राधा माधव,
*जय कुन्ज बिहारी
*जय गोपी जन बल्लभ,
*जय गिरधर हरी
*जय गोपी जन बल्लभ,
*जय गिरधर हरी*
**॥ जय राधा माधव…॥*
*यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन
*यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन
*जमुना तीर बन चारि,
*जय कुन्ज बिहारी*
*॥ जय राधा माधव…॥*
यह गीत भी भक्तिविनोद ठाकुर की रचना है। *किब जय जय गौराचंदेर आर्तिको शोभा* यह संध्या आरती का गीत भक्तिविनोद ठाकुर की रचना है।
*विभावरी – शेष , गोपनन्दपाल आलोक – प्रवेश निद्रा हि उठ जीव ।* इस्कॉन कृष्ण बलराम वृंदावन में मंगला आरती में यह गीत गाया जाता है। *जीव जागो जीव जागो गौरा चांद बोले* द्वारा यह भक्ति विनोद ठाकुर की रचना है। *अरुणोदय – कीर्तन उदिल अरुण पूरब भागे , द्विजमणि गोरा अमनि जागे , भकतसमूह लइया साथे , गेला नगर – बाजे* यह प्रसिद्ध गीत है। भक्तिविनोद ठाकुर की रचना है और ऐसे कई सारे गीत है। *यशोमती नंदन ब्रजबर नागर गोकुल रंजन कान्हा* यह भक्तिविनोद ठाकुर ने इन गीतों में जो भाव है और भक्ति है। वे भगवान की लीला, गौर लीला या कृष्ण लीला का का वर्णन करते हैं। जिससे हम समझ सकते हैं, उनके दिल और दिमाग में क्या था। वह क्या सोचते हैं। उनके क्या विचार हैं। भक्तिविनोद ठाकुर के क्या भाव है। व्यक्ति की पहचान होती है उसकी वाणी से। उसको बोलने तो दो। उसको माइक्रोफोन तो दो, उसको बोलने दो। तो पता चलेगा कि वह मूर्ख नंबर एक का है। 1 मिनट में पता चलेगा मुंह खोलते ही। लेकिन भक्तिविनोद ठाकुर मुंह खोलते ही, उनके मुखारविंद से जो वाणी निकलती थी। यह तो उनके गीत रहे हम सबको श्रील प्रभुपाद ने कहा है कि यह भक्ति विनोद ठाकुर के गीत हैं और इस्कॉन में हम नरोत्तमदास ठाकुर के गीत गाते हैं। यह वेद वाणी ही है। हरि हरि। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहीं सारे ग्रंथ लिखे। नवद्वीप मंडल परिक्रमा यह ग्रंथ नहीं लिखते तो हमको पता नहीं चलता कि नवद्वीप मंडल परिक्रमा कहां से प्रारंभ करें। कौन सी लीला कहां पर हुई इत्यादि इत्यादि। पूरा मार्गदर्शन उन्होंने हमको इस ग्रंथ में किए हैं। जैव धर्म नामक एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। जीव का धर्म बहुत ही मशहूर है उसमें कहीं सारे संवाद के रूप में है। इस जैव धर्म नामक ग्रंथ में वह गौडीय वैष्णव सिद्धांत स्थापित करते हैं। उन्होंने कई सारे भाष्य लिखे। भक्तिविनोद ठाकुर में विशेष रूप से चैतन्य चरितामृत लिखे, अमृत प्रवाह भाष्य लिखा। श्रील प्रभुपाद ने चैतन्य चरितामृत की रचना किए या भाषान्तर किए, तो अमृत प्रवाह भाष्य भक्ति विनोद ठाकुर । इसी का अनुवाद किए हैं अध्यायों का जो परिचय हैं रेल भक्ति विनोद ठाकुर के अमृत प्रभाह पर यह आधारित है । हरि हरि !! और अन्य सारी किताबें । हरिनाम चिंतामणि ! हम जप करने वाले लोग हैं । जपा क्षेत्र करते हैं तो भक्ति विनोद ठाकुर हरिनाम चिंतामणि नाम ग्रंथ लिखे । अपराधियों को कैसे टालना चाहिए किस को अपराध कहते हैं और वैसे यह हरिनाम चिंतामणि तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर मध्य का संवाद है । उसी को यह चिंतामणि हरिनाम चिंतामणि के रूप में वे लिखे हैं । ऐसे कई ग्रंथों का श्रील भक्ति विनोद ठाकुर और यह बड़े सामाजिक विज्ञान भी कहिए । श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के समय जो …
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
( भगवत गीता अध्याय 4.7 )
हे भारतवंशी ! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है , तब तब मैं अवतार लेता हूँ ।
धर्म की हुई ग्लानि या सिद्धांत खेल रहे थे समाज में सर्वत्र तो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर सारा अध्ययन किए । अबलोकन किए । परीक्षण निरीक्षण किए । और एक पूरी लिस्ट बनाएं । यह है आउल् और यहां है बाउल् । यह है सहजिया, गोरांग नागरी इत्यादि इत्यादि । कुछ एक दर्जन जो अपसिद्धांत जो वैसे दूर्दैव से जो गुड़िय वैष्णव परंपरा में कई सारे बिगाड़ लाए गए मिश्रण हुआ और सिद्धांतों के या विरोध में प्रचारहो रहा था तो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर उसका सारा खंडन मंडन किए । उसी को आगे अपसिद्धांत-व्धन्त- हारिणे । भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर उस कार्य को आगे बढ़ाए फिर श्रील प्रभुपाद और भी आगे बढ़ाए संसार भर में । सही सिद्धांतों की स्थापना की जा रही है किंतु भक्ति विनोद ठाकुर ही थे जिन्होंने यह सब नोट किया प्वाइंट आउट किया । समझाया कि नहीं नहीं यह गलत है यह सही नहीं है यह । यह दोष है, यह त्रृटी है, यह अभाव है ।
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 12.3.51 )
अनुवाद:- हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।
इसी के साथ उन्होंने …
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( भगवद् गीता 4.8 )
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने , दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
आचार्य धर्म की संस्थापना करते हैं । एक तो भगवान करते हैं यह तीनों भी कार्य वैसे “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥” एक तो भगवान के प्रकट होते ही हैं । “परित्राणाय साधूनां” भक्तों की रक्षा और “विनाशाय च दुष्कृताम्” दुष्टों का या दुष्ट प्रवृत्ति का विनाश या दमन का या उसको समूल नष्ट करने का प्रयास और सफल प्रयास भगवान भी करते हैं और जब जब भगवान की प्रकट लीला संपन्न होती है यहां पृथ्वी पर तो दरमियान एक अवतार और दूसरे अवतार के बीच में परंपरा के आचार्य परंपरा में आने वाले आचार्य भगवान का कार्य आगे बढ़ाते हैं तो “धर्मसंस्थापनार्थाय” तो धर्मसंस्थापन यह कार्य तो भगवान का है किंतु “साक्षाद्धरित्वेन समस्त-शास्त्रैर्” भगवान श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जैसे आचार्य को शक्ति प्रदान करते हैं । “गौर शक्ति स्वरूपाय” और उनसे यह कार्य करवाते हैं जैसे श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने यह कार्य किया या इतना संभ्रम था उन दिनों में कि वैसे चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली का लोगों का पता नहीं था कई सारे मत मतान्तर थे तो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के प्रयासों से उसको विराम और स्पष्ट हुआ तो उन्होंने अपने गुरु महाराज जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज की मदद से अपने गुरु महाराज को स्वयं तो नहीं और एक व्यक्ति उनको ढो रहे थे टोकरी में और ले जा रहे थे सारे नवदीप में ।
जैस कुछ वाटर डिटेक्टर होते हैं ना किसान को कुआं खोदना होता है ना तो ऐसे कुछ लोग होते हैं जो जानते हैं कि हां यहां खोदो कुआं पानी मिलेगा । यहां घूमता है वहां फिरता है वह एक जगह पर पहुंच जाता है, हां ! पानी यहां मिलेगा तो वैसे ही हुआ भक्ति विनोद ठाकुर जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज के मदद से वह डिटेक्ट करना चाहते थे चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव स्थान तो घूम फिर के वे पहुंच गए यह सब वहां से जब वे जा रहे थे इसको हम अब कहते हैं योग पीठ जन्मस्थली । वहां जब वह आए तो जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज जो कुछ 130 साल के थे । 130 वर्ष के थे सीधे बैठ भी नहीं पाते थे जैसे हम देखते हैं उनका चित्र है । आंखें नहीं खुलती दूसरे भक्त उनको आंखों खोल देते थे कि वह देख पाते थे । वे जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज उसमें ऐसे जोश में आए, ऐसी एनर्जी उनको मिली वो टोकरी में ही छलांग मारने लगे । हरि बोल ! हरि बोल ! हरि बोल ! गौरांग ! गौरंग ! गौरांग ! गौरंग ! तो इस बात की स्थापना हुई थी यही स्थान है ।
गौराविर्भाव-भूमेस्त्वं निर्देष्टा सज्जनप्रियः ।
वैष्णव-सार्वभौमः श्रीजगन्नाथाय ते नमः ॥
( श्रील जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज प्रणति मंत्र )
तो वे हो गए उनको सम्मान मिला या जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज को जिन्होंने क्या किया ? गौराविर्भाव भूमि का निर्देश किए । संकेत किए यह है गौर अवीरभाव भूमि । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की प्राकट्य स्थली यही है तो भक्ति विनोद ठाकुर का क्या कहना यह जो नाम हाट्ट और यह भक्तिवृक्ष का जो प्रचार खूब हो रहा है उसके संस्थापक कहो या प्रवर्तक कहो, संयजोक कहो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ही रहे । “गोद्रृम कल्पतविना” नामक ग्रंथ उन्होंने लिखा और उसी के अंतर्गत उन्होंने सब योजना बनाई कैसे कैसे चक्रवर्ती होंगे और यह यह होगा वह वह होगा वह सब मिलके विचार प्रसार करेंगे ।
इस्कॉन में जो जैसे जय पताका स्वामी महाराज ने लीडरशिप लेकर यह भक्तिवृक्ष नाम हाट्ट विचार जो प्रारंभ किया यह सारी संकल्पना तो श्रील भक्तिविनोदा ठाकुर की ही है ।
नदिया-गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन ।
पातियाछे नाम – हट्टा जीवेर कारण ॥ 1 ॥
( नदिया-गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर )
यह गीत उन्हीं का है भक्ति विनोद ठाकुर का और वहां पर वो स्मरण दिला रहे हैं । वैसे नाम हाट्ट के संस्थापक आचार्य हो गए नित्यानंद प्रभु । चैतन्य महाप्रभु ने उनको भेजा था, तुम जाओ ! बंगाल जाओ वहां प्रचार करो तो नित्यानंद प्रभु, आदि गुरु उन्होंने प्रचार प्रारंभ किया बंगाल में और परंपरा में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर उसको कुछ रूपरेखा दे दिए और “पातियाछे नाम – हट्टा जीवेर कारण” जीवो के कल्याण के लिए नाम हाट्ट का प्रचार प्रारंभ हुआ तो यह भी भक्ति विनोद ठाकुर की योगदान है । भक्ति विनोद ठाकुर ने एक महापुरुष होंगे संसार भर में प्रचार करेंगे और वह प्रचार जो लोग सुनेंगे वे लोग भारत आएंगे नवदीप आएंगे और सब मिलके … जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन गौर हरी ! जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन गौर हरी ! तो भक्ति विनोद ठाकुर भी एक भविष्यवाणी रही । श्रील प्रभुपाद होंगे और प्रचार होगा सर्वत्र । दुनिया भर के लोग भारत आएंगे नवदीप मायापुर आएंगे तो गाएंगे जय सचिनंदन ! भक्ति विनोद ठाकुर का यह भविष्यवाणी रहा जो सच होते हुए हम देख रहे हैं वह प्रचार करने के लिए । वही परंपरा में तो उन्हीं के पुत्र भक्ति विनोद ठाकुर के पुत्र और ग्राड डिसएपल भक्ति स्थान सरस्वती ठाकुर ने ही तो फिर कहां अभय बाबू को कहा ! तुम बुद्धिमान लगते हो जाओ पाश्चात्य देश में जाकर प्रचार करो, तो भक्ति विनोद ठाकुर के भविष्यवाणी को सच करके दिखाना है तो भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर आदेश दे रहे हैं । जाओ विदेश । 2 दिन पहले 17 सितंबर प्रभुपाद गए 1965 में और सर्वत्र प्रचार हुआ । उसी के साथ चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी भी सच हुई और अब संसार भर के लोग आ रहे हैं । भारत आ रहे हैं, नवदीप आ रहे हैं और गा रहे हैं । जय सचिनंदन ! जय सचिनंदन !
मुझे ऐसे ही याद आया हम पदयात्रा में जा रहे थे तो उड़ीसा में एक स्कूल के वे हैव मास्टर थे । उस स्कूल में हम गए रहे, तो भद्रक में भक्ति विनोद ठाकुर हेड मास्टर थे । पहले हेड मास्टर स्कूल के । वहां के हमको कुछ रिकॉर्ड मिले और सारे हेड मास्टर का लिस्ट था अब तक के हेड मास्टर । पहला नाम तो भक्ति विनोद ठाकुर हेड मास्टर । हरि हरि !! तो हम क्या कहे इन सब सारे ऋषि मुनियों के आचार्यों के ऋणी है । जिस ऋण से मुक्त होने का प्रयास हो सकता है और और वह है उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करे हम । स्फूर्ति ले ले और उस विचारधारा का प्रचार प्रसार करें या वही बात है जैसे श्रील प्रभुपाद कहे ; तुम वैसे ही करो जैसे मैंने किया, अंतिम उपदेश था कि श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को रही की तुम परिक्रमा करो । नवदीप परिक्रमा करो और नवदीप मंडल परिक्रमा जो करेंगे तो पूरा ब्रह्मांड मुक्त हो जाएगा ।
हम जब परिक्रमा कर रहे थे , श्रील प्रभुपाद के 100 सेंटेनियल ,हमने टी-शर्ट भी बनाया था परिक्रमा के भक्त वह टीशर्ट पहन के परिक्रमा कर रहे थे । जैसे भक्ति विनोद ठाकुर का बच्चन था परिक्रमा करने से सारे संसार को मुक्त करने वाली है यह नवदीप मंडल परिक्रमा ऐसा आदेश दिये भक्ति विनोद ठाकुर और फिर भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर 8 बार परिक्रमा किए अपने हजारों शिष्यों के साथ तो फिर श्रील प्रभुपाद जो भी श्रील प्रभुपाद का कार्य, वैसे भक्ति विनोद ठाकुर का ही कार्य । एक आचार्य कुछ सीमा तक कुछ हद तक पहुंचाते हैं उस कार्य तक उसके बाद वह कार्य को दे दिया जाता है उस रूप से आगे बढ़ाते हैं और फैलाते हैं उसकी स्थापना करते हैं । और उसके बाद अगले आचार्य को परंपरा में आगे बढ़ाते हैं और उसको जारी रखते हैं । वैसे अपने किसी आचार्य का कार्य अपने जीवन में पूरा नहीं होता ।
उसको परंपरा के जो आने वाले आचार्य उस को आगे बढ़ाते हैं उसी तरह से । अब हम भक्तों की बारी है हमारा जमाना है कहो तो जो कार्य एक समय भक्ति विनोद ठाकुर यह और फिर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर उसका आगे बढ़ाए और श्रील प्रभुपाद उसको विश्वभर में फैलाए और वो कहे; तुम वैसे करो जैसे मैंने किया तो मैंने फिर शुरुआत की आगे बढ़ाओ और फैलाउ । हरि हरि !! तो श्रील विनोद ठाकुर के चरण कमलो में हम प्रार्थना करते हैं हमें शक्ति बुद्धि भाव भक्ति दे ताकि इस कार्य को हम भी कुछ निमित्त बन जाए कुछ कार्य को आगे बढ़ाने में और उनको हम प्रसन्न कर पाए ।
जय श्री भक्ति विनोद ठाकुर आविर्भाव महोत्सव की जय !
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*उज्जैन से*
*दिनांक 18 सितंबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 744 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरिबोल! स्वागत है। यह जप टॉक थोड़ा सा जल्दी प्रारंभ हो रहा है क्योंकि इसको शीघ्र समाप्त भी करना है। लगभग मुझे ठीक 7:00 बजे उज्जैन से प्रस्थान करना है और इंदौर पहुंच कर वहां पर भागवत की कक्षा लेनी है। आपका स्वागत है। मैं 8:00 और 8:30 के बीच में वहां पहुँचूंगा। तत्पश्चात इस्कॉन इंदौर में श्रीमद् भागवतम की कथा होगी। यदि आप कथा सुनना चाहते हो और आपके पास समय हैं तो आपका स्वागत है। पदमाली प्रभु अभी दुबारा घोषणा करेंगे, ठीक है, समय कम है। मरने के लिए समय नहीं है। कल यहां हम सब इस्कॉन उज्जैन में प्रभुपाद मेमोरियल फेस्टिवल मना रहे थे। वैसे मैंने कल भी बताया था कि भक्ति चारु महाराज बहुत अधिक प्रभुपाद कॉन्शियस (चेतना) थे। कल उनका 76 वा व्यास पूजा दिन था। वैसे वे प्रतिवर्ष अपने व्यास पूजा के दिन ऐसा ही उत्सव मनाया करते थे ।। उनके जमाने में जब वे स्वयं उपस्थित रहा करते थे, तब आधा दिन प्रभुपाद का संस्मरण और फिर शेष आधे दिन में उनकी शब्दांजली होती थी लेकिन कल पहली बार दुर्देव से वह दिन रहा जब भक्ति चारू स्वामी महाराज शारीरिक रूप से उपस्थित नहीं रहे लेकिन पहले जब हर वर्ष उत्सव मनाया करते थे, वे इसी पद्धति से मनाते थे। हरि! हरि! श्रील प्रभुपाद का भी संस्मरण हुआ! भक्ति चारु स्वामी महाराज की जय!
आपने सुना होगा, शायद पढ़ा होगा कि यहां पर एक क्वार्टर है जिसे मेमोरियल बनाया हुआ है, आप उसकी विजिट (यात्रा) कर सकते हो। जहां पर साथ ही साथ भक्ति चारू स्वामी महाराज की वाणी, उनके टॉप सॉन्ग, किताबें, अभय चरण चरण अरविंद सीरियल इत्यादि इत्यादि उपलब्ध कराया जाएगा। हमनें कल उसका भी उदघाटन कर दिया है, हमारे साथ अन्य भी कई संन्यासी व प्रभुपाद के शिष्य भी थे। आपको इसका भी लाभ उठाना है। दोपहर में शब्दांजली अर्पित की जा रही थी, विदेशों से व भारत के कोने कोने से लोग पहुंचे थे। अधिकतर अनुयायी मध्य प्रदेश और प्रमुखतया उज्जैन से थे। एक बहुत बड़ी गैदरिंग ( जमावड़ा) थी। कल बहुत सारे यात्री थे। यह उत्सव बड़े धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया गया। गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!
कल प्रभुपाद को संस्मरण करने का बहुत विशेष दिन था ,
17 सितंबर एक ऐतिहासिक दिन है। संसार के इतिहास में 17 सितंबर 1965 को एक विशेष घटना घटी थी। श्रील प्रभुपाद अमेरिका पहुंचे। प्रभुपाद बहुत विजनरी( दूर द्रष्टा थे) वे एक डायरी रखते थे। जिस दिन से उनकी यात्रा प्रारंभ हुई, सब उसमें लिखा है। प्रभुपाद मुंबई से ट्रेन से कोलकाता गए और कोलकाता में जलदूत जहाज में आरूढ़ हुए और अमेरिका के लिए प्रस्थान किये।
श्रील प्रभुपाद ने एक महीने से अधिक दिन अर्थात 35 दिन जलदूत जहाज पर बिताए। श्रील प्रभुपाद हर रोज डायरी लिखते थे जिसमें वे अपने अनुभव, साक्षात्कार और स्वास्थ्य संबंधित उतार चढ़ाव, हार्ट अटैक सब लिखते थे। श्रील प्रभुपाद ने स्वपन में देखा कि भगवान कृष्ण प्रकट हुए हैं और कृष्ण ने जहाज का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया है तब जो बचा हुआ सफर था, वह काफी स्मूथ रहा , जहाज के कैप्टन ने भी ऐसा अनुभव किया, कृष्ण इंचार्ज थे। उस डायरी का नाम है जलदूत डायरी (याद रखो या नोट करो), इसे जलदूत डायरी कहते हैं। श्रील प्रभुपाद जलदूत डायरी में लिखते हैं। मुंबई से कोलकाता वे किस ट्रेन में गए, उस ट्रेन का नाम भी डायरी में लिखा है हमारे इस्कॉन नागपुर के भक्त कहते रहते हैं कि प्रभुपाद न्यूयॉर्क वाया नागपुर गए। हरि! हरि! उस यात्रा के अंत में दो कविताएं भी लिखी जो दिल को छू लेने वाली हैं। प्रभुपाद ने एक कविता 10 सितंबर को लिखी
(टेक) *कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ। ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥*
*ध्रुव अतिबोलि तोमा ताइ। श्री सिद्धांत सरस्वती शची-सुत प्रिय अति कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए। सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ॥1॥*
*ताँर इच्छा बलवान पाश्चात्येते थान थान होय जाते गौरांगेर नाम। पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी सकलेइ लोय कृष्ण नाम॥2॥*
*ताहले आनंद होय तबे होय दिग्विजय चैतन्येर कृपा अतिशय। माया दुष्ट जत दुःखी जगते सबाइ सुखी वैष्णवेर इच्छा पूर्ण हय॥3॥*
*से कार्य ये करिबारे, आज्ञा यदि दिलो मोरे योग्य नाहि अति दीन हीन। ताइ से तोमार कृपा मागितेछि अनुरूपा आजि तुमि सबार प्रवीण॥4॥*
*तोमार से शक्ति पेले गुरू-सेवाय वस्तु मिले जीवन सार्थक जदि होय। सेइ से सेवा पाइले ताहले सुखी हले तव संग भाग्यते मिलोय॥5॥*
*एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्। कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्॥6॥*
*तुमि मोर चिर साथी भूलिया मायार लाठी खाइयाछी जन्म-जन्मान्तरे। आजि पुनः ए सुयोग यदि हो योगायोग तबे पारि तुहे मिलिबारे॥7॥*
*तोमार मिलने भाइ आबार से सुख पाइ गोचारणे घुरि दिन भोर। कत बने छुटाछुटि बने खाए लुटापुटि सेई दिन कबे हबे मोर॥8॥*
*अजि से सुविधान तोमार स्मरण भेलो बड़ो आशा डाकिलाम ताए। आमि तोमार नित्य-दास ताइ करि एत आश तुमि बिना अन्य गति नाइ॥9॥*
अर्थ
शुक्रवार, 10 सितम्बर, 1965 के अटलांटिक महासागर के मध्य, अमेरीका जा रहे जहाज पर बैठे हुए श्रील प्रभुपाद जी ने अपनी डायरी में लिखा, “आज जहाज बड़ी सुगमता से चल रहा है। मुझे आज बेहतर लग रहा है। किन्तु मुझे श्री वृन्दावन तथा मेरे इष्टदेवों- श्री गोविंद, श्री गोपीनाथ और श्री राधा दामोदर – से विरह का अनुभव हो रहा है। मेरी एकमात्र सांत्वना श्रीचैतन्यचरितामृत है, जिसमें मैं चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का अमृत चख रहा हूँ। मैंने चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुगामी श्रीभक्तिसिद्धांत सरस्वती का आदेश कार्यान्वित करने हेतु ही भारत-भूमि को छोड़ा है। कोई योग्यता न होते हुए भी मैंने अपने गुरूदेव का आदेश निर्वाह करने हेतु यह खतरा मोल लिया है। वृंदावन से इतनी दूर मैं उन्हीं की कृपा पर पूर्णाश्रित हूँ। ” तीन दिन पश्चात, (13 सितम्बर, 1965) शुद्ध भक्ति के इस भाव में, श्रील प्रभुपाद ने निम्नलिखित प्रार्थना की रचना की।
हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूँ कि तुम्हें भगवान् श्रीकृष्ण से पुण्यलाभ की प्राप्ति तभी होगी जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जायेंगी।
(1) शचिपुत्र (चैतन्य महाप्रभु) के अतिप्रिय श्रीश्रीमद् भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की कृष्ण-सेवा अतुलनीय है। वे ऐसे महान सदगुरु हैं जो सारे विश्वभर के विभिन्न स्थानों में कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ भक्ति बाँटते हैं।
(2) उनकी बलवती इच्छा से भगवान् गौरांग का नाम पाश्चात्य जगत के समस्त देशों में फैलेगा। पृथ्वी के समस्त नगरों व गाँवों में, समुद्रों, नदियों आदि सभी में रहनेवाले जीव कृष्ण का नाम लेंगे।
(3) जब श्रीचैतन्य महाप्रभु की अतिशय कृपा सभी दिशाओं में दिग्विजय कर लेगी, तो निश्चित रूप से पृथ्वी पर आनंद की बाढ़ आ जायेगी। जब सब पापी, दुष्ट जीवात्माऐं सुखी होंगी, तो वैष्णवों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी।
(4) यद्यपि मेरे गुरू महाराज ने मुझे इस अभियान को पूरा करने की आज्ञा दी है, तथापि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। मैं तो अति दीन व हीन हूँ। अतएव, हे नाथ, अब मैं तुम्हारी कृपा की भिक्षा मांगता हूँ जिससे मैं योग्य बन सकूँ, क्योंकि तुम तो सभी में सर्वाधिक प्रवीण हो।
(5) यदि तुम शक्ति प्रदान करो, तो गुरू की सेवा द्वारा परमसत्य की प्राप्ति होती है और जीवन सार्थक हो जाता है। यदि वह सेवा मिल जाये तो वयक्ति सुखी हो जाता है और सौभाग्य से उसे तुम्हारा संग मिल जाता है।
(6) हे भगवान् मैं एक-एक करके भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए सर्पो के अन्धे कुँए में गिरता जा रहा था। किन्तु आपके दास नारद मुनि ने कृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इस दिवय पद को किस प्रकार प्राप्त किया जाय। अतएव मेरा पहला कर्त्तवय है कि मैं उनकी सेवा करूँ। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ? (प्रह्लाद महाराज ने नृसिंह भगवान से कहा, श्रीमद्भागवत 07.09.28)
(7) हे भगवान् कृष्ण, तुम मेरे चिर साथी हो। तुम्हें भुलाकर मैंने जन्म-जन्मांतर माया की लाठियाँ खायी हैं। यदि आज तुमसे पुर्नमिलन अवश्य होगा तभी मैं आपकी संगती में आ सकूँगा।
(8) हे भाई, तुमसे मिलकर मुझे फिर से महान सुख का अनुभव होगा। भोर बेला में मैं गोचारण हेतु निकलूँगा। व्रज के वनों में भागता-खेलता हुआ, मैं आध्यात्मिक हर्षोन्माद में भूमि पर लोटूँगा। अहा! मेरे लिए वह दिन कब आयेगा?
(9) आज मुझे तुम्हारा स्मरण बड़ी भली प्रकार से हुआ। मैंने तुम्हें बड़ी आशा से पुकारा था। मैं तुम्हारा नित्यदास हूँ और इसलिए तुम्हारे संग की इतनी आशा करता हूँ। हे कृष्ण तुम्हारे बिना मेरी कोई अन्य गति नहीं है।
कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ
ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे
अर्थात जब राधा रानी खुश होंगी, प्रसन्न होंगी तब पुण्य होगा
*श्री सिद्धांत सरस्वती शची-सुत प्रिय अति कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए। सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ॥1॥*
यह बंगला भाषा में हैं ( यह शुद्ध बंगाली है या इसमें कुछ हिंदी भी है) प्रभुपाद अपने गुरु महाराज का स्मरण कर रहे हैं कि श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती महाराज कैसे थे।। मेरे गुरु महाराज श्रील सरस्वती ठाकुर महाराज ,”शची-सुत प्रिय अति “- अर्थात शची नंदन को अति प्रिय थे। कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए – उनकी सेवा की तुलना किसी और सेवा के साथ संभव नहीं है। उनकी सेवा अतुलनीय रही।
सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू
कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ
मेरे गुरु महाराज (गुरु मतलब बड़े ) ने भक्ति की और भक्ति का प्रचार किया। वे उसका संस्मरण कर रहे हैं। आप इस्कॉन की वैष्णव भजन पुस्तक में इन कविताओं को पढ़ सकते हो। यह कविताएं प्रभुपाद की जलदूत डायरी का भाग है। जब प्रभुपाद रास्ते में ही थे, तब उन्होंने अगली डायरी लिखी। पहली डायरी 10 सितंबर को लिखी थी। जब प्रभुपाद का जहाज बोस्टन में पहुंचा था, तब जहाज के कप्तान पांडेय ने कहा था कि स्वामी जी, चलो चलते हैं, आपको थोड़ा अमेरिका दिखाता हूं। तब वह प्रभुपाद को ले गए। वे दिखा रहे थे। प्रभुपाद ने वहां की रैट रेस को देखा। जैसे चूहे दौड़ते हैं, वैसे ही अमेरिकन लोग दौड़ रहे थे।आजकल भारतीय भी लगभग वैसे ही दौड़ रहे हैं। वहां जो रैट रेस चलती थी, उनकी नकल करते हुए अब यहां भी चल रही है। लोग अपने काम धंधे में, माया के बंधन में इतने व्यस्त थे कि वे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे । बस दौड़ रहे थे, दौड़ रहे थे। प्रभुपाद उस समय विचार कर रहे थे कि मैं इस समय अमेरिका में प्रचार करने के लिए आया हूं तो मैं कैसे प्रचार करूंगा? यह लोग तो रुकने का भी नाम नहीं ले रहे हैं। मैं कैसे उनसे बात करूंगा और मैं उनको कैसे प्रचार करूंगा। यह श्रील प्रभुपाद का अमेरिका के साथ पहला अनुभव रहा। फर्स्ट एनकाउंटर विथ अमेरिका।
दूसरा जो गीत है , मार्किने भागवत धर्म। जो कल की तारीख अर्थात 17 सितंबर को लिखा। कल शुक्रवार का दिन था। उस वर्ष 1965 में भी 17 सितंबर को शुक्रवार ही था। प्रभुपाद ने जो दूसरी कविता लिखी है उनका डेस्टिनेशन तो न्यूयॉर्क था लेकिन प्रभुपाद कुछ समय के लिए बोस्टन में रुके थे। प्रभुपाद अब वापिस जहाज से न्यूयॉर्क जा रहे हैं। तब श्रील प्रभुपाद ने दूसरी कविता लिखी।।
मार्किने भागवत धर्म।
*बड़ो कृपा कोइले कृष्ण अधमेर प्रति। कि लागियानिले हेथा करो एबे गति॥1॥*
*आछे किछु कार्य तब एइ अनुमाने। नाहे केनो आनिबेन एइ उग्र-स्थाने॥2॥*
*रजस तमो गुणे ऐरा सबा आच्छन्न। वासुदेव-कथा रूचि नहे से प्रसन्न॥3॥*
*तबे यदि तव कृपा होए अहैतुकी। सकल-इ-संभव होय तुमि से कौतुकी॥4॥*
*कि भावे बुझाले तारा बुझे सेई रस। एत कृपा करो प्रभु करि निज-वश॥5॥*
*तोमार इच्छाय सब होए माया-वश। तोमार इच्छाय नाश मायार परश॥6॥*
*तब इच्छा होए यदि तादेर उद्धार। बुझिबे निश्चय तबे कथा से तोमार॥7॥*
*भागवतेर कथा से तव अवतार। धीर हइया शुने यदि काने बार-बार॥8॥*
शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः। हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया। भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी॥
तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादय श्च ये। चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति॥
एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः। भगवत्तत्वविज्ञानं मुक्तसङ्गस्य जायते॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनी श्वरे॥
*रजस तमो हते तबे पाइबे निस्तार। हृदयेर अभद्र सब घुचिबे ताँहार॥9॥*
*कि कोरे बुझाबो कथा वर सेइ चाहि। क्षुद्र आमि दीन हीन कोनो शक्ति नाहि॥10॥*
*अथच एनेछो प्रभु कथा बोलिबारे। जे तोमार इच्छा प्रभु कोरो एइ बारे॥11॥*
*अखिल जगत-गुरू! वचन से आमार। अलंकृत कोरिबार क्षमता तोमार॥12॥*
*तब कृपा हले मोर कथा शुद्ध हबे। शुनिया सबार शोक दुःख जे घुचिबे॥13॥*
*आनियाछो जदि प्रभु आमारे नाचाते। नाचाओ नाचाओ प्रभु नाचाओ से-मते काष्ठेर पुत्तलि यथा नाचाओ से मते॥14॥*
*भक्ति नाइ वेद नाइ नामे खूब धरो। भक्तिवेदांत नाम एबे सार्थक कोरो॥15॥*
अर्थ
17 सितम्बर, 1965 में कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ए0सी0 भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ‘जलदूत’ जहाज पर सवार होकर बोस्टन पहूँचे। श्रीचैतन्य की शिक्षाओं का भारत की सीमाओं से बाहर विश्वभर में विस्तार करने का अपने गुरू द्वारा प्रदत्त आदेश को वे अपने हृदय मे धारण किए हुए थे। जब उन्होंने बोस्टन की धूमिल व गंदी अम्बर-रेखा को देखा, तो उन्हें अपने पुण्य अभियान की कठिनाई का भान हुआ और उन्हे इन भगवद-विहीन लोगों पर अपार करूणा का अनुभव हुआ। अतएव, सभी पतितात्माओं के उद्धार की प्रार्थना करते हुए उन्होंने पूर्ण विनम्रतापूर्वक बंगला भाषा में निम्नलिखित ऐतिहासिक स्तोत्र की रचना की।
(1) मेरे प्रिय भगवान् कृष्ण, आप इस अधम जीव पर बड़े कृपालु हैं, किन्तु मैं नहीं जानता आप मुझे यहाँ क्यों लाये हैं। अब आप मेरे साथ जो चाहें सो करें।
(2) किन्तु मेरा अनुमान है कि आपका यहाँ कुछ कार्य है, वरना आप मुझे ऐसे उग्र-स्थान पर भला क्यों लाते?
(3) यहाँ की अधिकांश जनता रजस व तमस के भौतिक गुणों द्वारा प्रच्छन्न है। भौतिक जीवन में मग्न होकर, वे अपने आपको बहुत खुश व संतुष्ट समझते हैं, और इसलिए उनको वासुदेव की दिवय कथाओं में कोई रूचि नहीं है। मैं नहीं जानता वे किस प्रकार इसे समझ पायेंगे।
(4) किन्तु मैं जानता हूँ कि तुम्हारी अहैतुकी कृपा सब कुछ संभव कर सकती है, क्योंकि तुम सबसे निपुण कौतुकी हो।
(5) वे भक्तिमय सेवा के भावों को कैसे समझेंगे? हे प्रभु, मैं तो बस आपकी कृपा की प्रार्थना करता हूँ जिससे मैं उन्हें आपके संदेश के प्रति आश्वस्त कर सकूँ।
(6) सब जीव तुम्हारी इच्छा से माया के वश हुए हैं, और इसलिए, यदि तुम चाहो तो तुम्हारी इच्छा से ही वे माया के चंगुल से छुट भी सकते हैं।
(7) यदि उनके उद्धार हेतु तुम्हारी इच्छा होगी, तभी वे तुम्हारी कथा समझने में समर्थ होंगे। म्बर
(8) श्रीमद्भागवत की कथा तुम्हारा अवतार है, और यदि कोई धीर व्यक्ति विनम्रतापूर्वक उसका बारम्बर श्रवण करे, तो इसे समझ सकता है।
वैदिक साहित्य से श्रीकृष्ण के विषय में सुनना या भगवद्गीता से साक्षात उन्हीं से सुनना अपने आप में पुण्यकर्म है। और जो प्रत्येक हृदय में वास करनेवाले भगवान् कृष्ण के विषय में सुनता है, उसके लिए वे शुभेच्छु मित्र की भांति कार्य करते हैं और जो भक्त निरन्तर उनका श्रवण करता है, उसे वे शुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार भक्त अपने सुप्त दिवयज्ञान को फिर से पा लेते है। ज्यों-ज्यों वाह भागवत तथा भक्तों से कृष्ण के विषय में अधिकाधिक सुनता है, त्यों-त्यों वह भगवद्भक्ति में स्थिर होता जाता है। भक्ति के विकसित होने पर वह रजो तथा तमो गुणों से मुक्त हो जाता है और इस प्रकार भौतिक काम तथा लोभ कम हो जाता है। जब ये कल्मष दूर हो जाते हैं तो भक्त सतोगुण में स्थिर हो जाता है, भक्ति के द्वारा स्फूर्ति प्राप्त करता है और भगवद् तत्व को पूरी तरह जान लेता है। भक्तियोग भौतिक मोह की कठिन ग्रंथि को भेदता है और भक्त को असंशयं समग्रम् अर्थात् परम सत्य को समझने की अवस्था को प्राप्त कराता है (भागवत् 1.2.17-21)
(9) वह व्यक्ति रजस व तमस गुणों के प्रभाव से निस्तार पा लेगा और उसके हृदय के सभी अभद्र हट जायेंगे।
(10) मैं उन्हें कृष्णभावना का संदेश आखिर कैसे समझाऊंगा? मैं बहुत आभागा, अयोग्य तथा पतित हूँ। तभी तो मैं आपसे वरदान चाहता हूँ जिससे कि मैं उन्हें आश्वस्त कर सकूँ, क्योंकि मैं अपने बलबूते पर ऐसा करने में असमर्थ हूँ।
(11) फिर भी, हे प्रभु, आप मुझे यहाँ अपनी कृपा बोलवाने लाये हो। अब यह आप पर निर्भर है कि आप मुझे अपनी इच्छानुसार सफल या असफल बनाओ।
(12) हे अखिल जगत के गुरू! मैं तो केवल आपके वचन दोहरा सकता हूँ, इसलिए यदि आप चाहो तो मेरे वचनों को उनके समझ के अनुकूल बना दो।
(13) केवल आपकी अहैतुकी कृपा से ही मेरे वचन शुद्ध होंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि जब यह दिवय संदेश उनके हृदयों में जायेगा तो उनका सब शोक व दुःख दूर हो जायेगा।
(14) हे प्रभु, मैं तो बस आपके हाथों की कठपुतली हूँ। इसलिए यदि तुम मुझे यहाँ नचाने लाये हो, तो मुझे नचाओ, मुझे नचाओ, हे प्रभु मुझे अपनी इच्छापूर्वक नचाओ।
(15) मुझमें न तो भक्ति और न ही ज्ञान है, परन्तु मुझे कृष्ण के पवित्र नाम में दृढ़ विश्वास है। मुझे ‘भक्तिवेदांत’ की उपाधि दी गई है, इसलिए यदि आप चाहो तो मेरा यह नाम सार्थक कर दो।
इस कविता में एक प्रसिद्ध स्टेटमेंट है। प्रभुपाद ने इसमें लिखा हैं कि वे सोच ही रहे थे कि अब मैं कैसे प्रचार करूंगा। लोग इतने व्यस्त हैं, उनकी धर्म में या धर्म के प्रवचनों में कोई इंटरेस्ट था रुचि नहीं है। प्रभुपाद ने लिखा हैं
नाचाओ नाचाओ प्रभु नाचाओ से-मते
काष्ठेर पुत्तलि यथा नाचाओ से मते॥14॥
मैं तो काष्ठेर पुतली हूं। मैं लकड़ी की पुतली हूं। हे प्रभु! आप तो कठपुतली वाले हो। अब आप ही मुझे नचाओ। आप ही मुझसे बुलवायो जिससे आपका ही संदेश या मेरे गुरु महाराज का जो आदेश हुआ है- विदेशो में अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। मैं पहुंच तो रहा हूं लेकिन यह संभव तभी होगा जब आप ही मुझसे बुलवाओगें या आप ही मुझे नचाओगें। जैसी आपकी मर्जी है, वैसे ही आप मुझे नचाओ। नाचाओ नाचाओ प्रभु नाचाओ से-मते
भक्ति नाइ वेद नाइ नामे खूब धरो।
*भक्तिवेदांत* नाम एबे सार्थक कोरो॥15॥
अर्थ:-
मुझमें न तो भक्ति और न ही ज्ञान है, परन्तु मुझे कृष्ण के पवित्र नाम में दृढ़ विश्वास है। मुझे ‘भक्तिवेदांत’ की उपाधि दी गई है, इसलिए यदि आप चाहो तो मेरा यह नाम सार्थक कर दो।
मेरा नाम तो भक्तिवेदांत है। भक्ति नहीं वेद नाही, यह प्रभुपाद की नम्रता है। प्रभुपाद कहते हैं मेरा नाम तो भक्तिवेदांत हैं किंतु भक्ति नहीं है, ना ही मैं वेदों को जानता हूं लेकिन आप ही ऐसा कुछ करो जिससे मेरा नाम सार्थक हो जाए।
अंततः कल के दिन श्रील प्रभुपाद ने अमेरिका में प्रवेश किया। इसी के साथ धड़ाधड़ कई घटनाक्रम हुए। प्रभुपाद के पास ज्यादा समय नहीं था। केवल 11 साल ही थे। प्रभुपाद के जीवन में हर 11 साल के उपरांत एक विशेष घटना घटती थी। 1922 में आदेश मिला था कि पाश्चात्य देश में जाओ और प्रसार करो और फिर 11 सालों के उपरांत उनकी दीक्षा हुई थी। फिर 11 सालों के उपरांत 1944 में बैक टू गॉड हेड पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था। तत्क्रम अगले 11 सालों के बाद वर्ष 1955 में श्रील प्रभुपाद वानप्रस्थी ही बने थे। तब 11 सालों के उपरांत 1966 में इस्कॉन की स्थापना की और तत्पश्चात 11 साल उपरांत प्रभुपाद वर्ष 1977 में भगवतधाम लौटे।
वर्ष 1965 में पहुंचे हैं, 1966 में इस्कॉन की स्थापना होगी।।न्यूयॉर्क में ही इस्कॉन का रजिस्ट्रेशन होगा।
श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज यहां बैठे हैं और कह रहे हैं कि वर्ष 1966 में वे पैदा हुए थे। जिस वर्ष प्रभुपाद अमेरिका में पहुंचे थे, उसी वर्ष श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज का जन्म हुआ था।(पहले या बाद में?? पहले, तब तुम उनका स्वागत करने के लिए थे।) ठीक है।
बाकी सब इतिहास है। आप पढ़ो। प्रभुपाद लीलामृत पढ़ो। इसीलिए हम यह विश्व हरि नाम उत्सव मना रहे हैं। हम इसे पिछले 25 वर्षों से मना रहे हैं। इस साल भी विश्व हरि नाम उत्सव मनाया जा रहा है। आप सभी भाग ले रहे हो? वीडियो बना रहे हो या अधिक जप कर रहे हो या नगर संकीर्तन कर रहे हो या फॉर्च्यूनर पीपल कैंपेन??? आप व्यस्त हो ना? कुछ को व्यक्तिगत अर्थात अलग-अलग करना है। विश्व हरि नाम उत्सव के जो प्रकार हैं, व्यक्तिगत रूप से या मंदिरो को किस प्रकार से उत्सव मनाना है। वैसे कल से वर्ल्ड होली नेम वीक का कल से इंटरनेशनल फेस्टिवल भाग आरंभ हुआ है। कल पहला दिन था ।आशा करता हूँ कि आपने इंजॉय किया होगा। इस्कॉन की कई सारी लीडिंग पर्सनैलिटी, प्रभुपाद के शिष्य, जीबीसी हो या सन्यासी आपको अलग-अलग कीर्तन सुना रहे हैं या प्रभुपाद कथा सुना रहे हैं या जपा टॉक या जपा रिट्रीट हो रही है या मृदङ्ग बजाना या करताल, हरमोनियम बजाने के लेसन भी हर रोज दिए जा रहे हैं। आशा करते हैं कि आप पार्टिसिपेट( भाग ले) कर रहे हो?
आप में से कौन-कौन कर रहा है? शांत रुक्मिणी, थाईलैंड से??? शेड्यूल( समय सारणी) वर्ल्ड लेवल पर प्रसारित कर दी गयी हैं। उसका प्रिंट आउट ले अपने घर के नोटिस बोर्ड पर लगा दो। आज विश्व हरि नाम उत्सव का दूसरा दिन है, उसका भी प्रचार प्रसार करो।
वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल का आनंद लो।
यह भी प्रभुपाद की स्मृति स्मरण हेतु हुई उत्सव मनाया जा रहा है। प्रभुपाद ‘इज द अम्बेसडर ऑफ द होली नेम’ अथवा
‘हरि नाम के राजदूत’ या ‘अम्बेसडर ऑफ भागवत धर्म’
श्रील प्रभुपाद जब विदेश गए, वे साथ में एक तो वह हरि नाम लेकर गए।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
साथ में ग्रंथ राज श्रीमद्भागवतम। हम आसानी से कह सकते हैं कि प्रभुपाद अम्बेसडर ऑफ द होली नेम हैं और वे अम्बेसडर ऑफ द भागवत धर्म भी हैं। वैसे उस समय अमेरिका में कई पत्रकारों ने लिखा था प्रभुपाद ‘इज द अम्बेसडर ऑफ भक्ति योग’
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
मैं यहीं पर अपनी वाणी को विराम देता हूं।संभव हुआ तो पुनः मिलेंगे डेड घंटे में।
हरे कृष्ण!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
उज्जैन,
17 सितंबर 2021.
हरे कृष्ण, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! सुनाई दे रहा है, 822 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। सभी स्थानों से जुड़े भक्तों की जय! उसमें से एक स्थान है, जहां मैं अभी हूं। वह स्थान है उज्जैन इस्कॉन उज्जैन की जय
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आप सबका जप कैसे रहा? श्रील प्रभुपाद कहां करते थे जब हम जप करते हैं तब हमारे जिव्हा में कंपन या जिव्हा से ध्वनि उत्पन्न होनी चाहिए। बलेन बोलो रे वदन भरी मुख भर के बोलना चाहिए यह थोड़ी कीर्तन की बात है। जी भर के या फिर मुंह भर के उच्चारण करें और जप के समय उच्चारण होना चाहिए। जिव्हा का अपने होठों का उपयोग करना अनिवार्य है। श्रवण तभी होगा जब कीर्तन होगा हम जब भी मुखसे कहेंगे तब सुनेंगे मुख से नहीं कहेंगे तब मन कुछ कहता जाएगा मन कहता जाएगा मन कुछ याद दिलाएगा। तो फिर चंचल हे मन कृष्ण हमारे मन की चंचलता चलती रहेगी। उसका चांचल्य चलता रहेगा. और फिर उसको मनोधर्म होगा भागवत धर्म नहीं होगा संकीर्तन धर्म नहीं कलीकालेर धर्म हरि नाम संकीर्तन कलिकाल का धर्म है, नाम संकीर्तन। यह एक धर्म फिर मनोधर्म भी है। वैसे नहीं है लेकिन हो भी सकता है। लेकिन ऐसे धर्मों को तो भगवान ने कहा है
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणमव्रज मनोधर्मों को परित्यज्य मांमेकम शरणम प्र जा मेरी शरण में आओ। भगवान के नाम के शरण में जाकर भगवान के नाम का आश्रय लेकर इसमें किसी भी समय हमें उच्चारण करना होगा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। सुनना होगा भगवान को सुनना होगा भगवान के नाम को सुनना होगा। फिर मन की ध्वनि होती है मन के जो विचार होते हैं, मुझे ऐसे लगता है, मेरा विचार, मेरे विचार से, यह जो है उसका दमन होगा। हम जब सुनते हैं भगवान के नाम को हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। कृष्ण याद आ जाएंगे हमको। तो हम क्या कहते हैं श्रवणम कीर्तनम विष्णु स्मरणम आपको याद है? आपको याद है? पूछो तो सही किसकी याद? किसकी याद? कृष्ण भगवान है जीवात्मा को भगवान का पता है भगवान के संबंध में जीवात्मा जानता है। जीव भी सत चित आनंद पूर्ण है। उनके जैसा जीव का भी स्वभाव है। भगवान सच्चितानंद है तो हम भी कुछ कम नहीं है। बाप जैसा बेटा। हम भी बेटे या बिटिया है भगवान के, तो हम भी सच्चिदानंद है। केवल कृष्ण है श्याम सुंदर या गौरसुंदर नहीं है हम भी सुंदर हैं। यह सत्य है। आत्म साक्षात्कार होगा आत्मा के सौंदर्य का अपने खुद के सौंदर्य का पता चलेगा तो, हमारे शरीर के सौंदर्य के और हम देखेंगे तुम हम थुकेंगे। थु यह क्या सौंदर्य है जिसको हम आईने में देखते हैं। वह सौंदर्य कुछ भी नहीं है। आत्मा का जो सौंदर्य है परमात्मा भगवान का तो सौंदर्य है ही।
हरि हरि, जिसको हम भूल गए हैं उसको हम सुनकर, श्रवण करके याद आएंगे। भगवान हमको कृष्ण याद आएंगे।
कृष्ण याद ही आए थे। कृष्ण बलराम की जय! तो फिर हम लोगों को एक तो कीर्तनीय सदाहरी करना हैं। निरंतर खाइते सोइते नाम लय ऐसा वेद आदेश है। सततम् कीर्तयन्तोमाम और नित्यम भागवत सेवया। इसलिए हमारे साधना के अंतर्गत प्रात कालीन कार्यक्रम में या पभुपाद हमको साधना इस्कॉन के अनुयायियों के लिए साधना वह जप करते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। और फिर ओम नमो भगवते वासुदेवाय कथा होती है। प्रभुपाद के ग्रंथों का अध्ययन होता है। हरे कृष्ण महामंत्र का जप कीजिए और प्रभुपाद के ग्रंथों का अध्ययन कीजिए इसी के साथ धर्म भी हुआ और तत्वज्ञान भी हुआ। हरे कृष्ण महामंत्र का जाप धर्म हुआ और श्रील पभुपाद के ग्रंथों का अध्ययन तत्वज्ञान हुआ। इन दोनों का समन्वय इसीलिए भी जपा सेशन के अंतर्गत एक तो जप करते हैं। वही सही बोलना है। कृष्ण के बारे में हम बोलते हैं। सुनते हैं। जब हम जप करेंगे तब हमने जो सुना है कृष्ण के बारे में वह याद आएगा। श्रवणं कीर्तनम विष्णुस्मरणम जब हम जप करते हैं तो पहले जो सुना है वह याद आएगा। पहले सुना है तो हम भी याद करेंगे।
यहां पर उज्जैन हरि हरि अवंतीपुर धाम की जय जय! हो जय श्री श्रीमद् भक्तिचारू स्वामी महाराज की जय! उन्होंने इस्कॉन की स्थापना की यहां पर। कृष्ण बलराम के मंदिर की स्थापना की यहां पर। और गोविंदा रेस्टोरेंट की स्थापना हुई है। यहां पर और आयुर्वेद की स्थापना। यहां पर एक पूरा कारखाना है प्रभुपाद के विग्रह का, निर्मिती यहीं पर होती है। पहले तो अमेरिका से लाने पड़ते थे प्रभुपाद के विग्रह और अब भारत में ही इसका निर्माण होने लगा। इस्कॉन उज्जैन में होने लगा इस्कॉन। उज्जैन के तरफ से होने लगा और कीमत भी कम है। सेम क्वालिटी लेकिन कीमत कम है। और भी बहुत सारी व्यवस्थाएं और वैभव है इस्कॉन उज्जैन का। यह सारा श्रेया जाता है भक्तिचारू स्वामी महाराज को।
हरि हरि, अभी मैं तो सोचता था। आपका जो यह मंदिर हुआ है, साधारण रूप से 1 साल में हुआ होगा लेकिन एक भक्त में मुझे सही किया और बताया 9 महीने 20 दिनों में यह मंदिर पूरा हुआ। इस तरह से रिकॉर्ड ब्रेक कर दिया। नहीं तो इस्कॉन में 9 साल लगते हैं एक मंदिर बनाते बनाते, लेकिन यहां इतना फटाफट।
भक्तिचारू स्वामी महाराज की 76 वी व्यासपूजा आज ही मनाई जा रही है। हरि बोल!! इसीलिए मैं यहां पहुंचा हूं। यहां इस नगरी में इस्कॉन की स्थापना कर कर इस नगर की गौरव गाथा और भी बढ़ चुकी है। या अधिक अधिक प्रकाशित हो रही हैं। हमने भी कुंभ मेला पुस्तक लिखा है। उसमें भी आप पढ़ सकते हो। उसमें एक पाठ है इस पर क्योंकि, यह स्थान कुंभ मेला स्थली भी है। केवल 4 स्थानों पर कुंभ मेला होता है। यहां एक पवित्र नदी है शिप्रा। उसे गंगा ही है मान लो। या तो गंगा नदी जैसे ही महत्व है शिप्रा नदी का। यहां पर कृष्ण बलराम आए।
आज सुंद चैतन्य स्वामी महाराज का जन्मदिन है। पहले के सुंदर लाल प्रभु जी मॉरिशियस से है। मैंने उनको सन्यास दीक्षा दी है और नाम दिया सुंदरचैतन्य स्वामी महाराज। सुंदरचैतन्य स्वामी महाराज की जय! आपको जन्मदिन की शुभकामनाएं। मुझे विश्वास है मॉरिशियस में उत्सव मनाएंगे, उनके जन्मदिन पर। आज 17 सितंबर है तो आज का दिन बड़ा महान भी है क्योंकि, भक्तिचारू स्वामी महाराज का भी अविर्भाव तिथि महोत्सव हैं। आज के दिन ही श्रील प्रभुपाद न्यूयॉर्क पहुंचे। जलदूत जहाज न्यूयॉर्क के बंदरगाह पर। श्रील प्रभुपाद अमेरिका में आज के दिन प्रवेश किया। हरि हरि, हमारे सारे संस्था के भाग्य का उदय उसी से हुआ। उनके गुरु महाराज ने उनको जो कहा था
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने 1922 में। तुम क्या करो पाश्चात्य देश जाओ तो फिर प्रभुपाद तैयारी कर रहे थे। जीवन भर की तैयारी। और जब तैयारी पूरी हुई तो श्रील प्रभुपाद भागवत की भी रचना हुई। पहला स्कंध अनुवाद तात्पर्य हुआ। श्रील प्रभुपाद ने फिर प्रस्थान किया कोलकाता से न्यूयॉर्क पहुंचे आज के दिन। और वह देवदूत भक्ति योग के एंबेसिडर हरिनाम के एंबेसिडर। राजदूत होते हैं ना एक देश के दूसरे देश में अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे देश में उनको एंबेसिडर कहते हैं। श्रील प्रभुपाद वैसे वृंदावन के गोलोक के एंबेसिडर है। इस संसार में आए और आज के दिन न्यूयॉर्क पहुंचे। और वहां से वह पहुंचने वाले हैं सारे संसार भर में। जब प्रभुपाद का जन्म हुआ था तब, उनके जन्म के समय में उनके कुंडली में लिखा था। यह बालक भविष्य में 108 मंदिरों का निर्माण करेगा। यह सब भी आज न्यूयॉर्क पहुंचने के उपरांत प्रारंभ होगा। उसमें से पहला मंदिर की स्थापना तो श्रील प्रभुपाद ने न्यूयॉर्क में की। राधा गोविंद देव की जय! पहला मंदिर न्यूयॉर्क मे राधा गोविंद देव और फिर दूसरा मंदिर सैन फ्रांसिस्को। उसका नाम हुआ न्यू जगन्नाथ पुरी। पहले रथयात्रा गोल्डन गेट पार्क सैन फ्रांसिस्को मैं संपन्न हुई। 10000 स्त्रिया और पुरुषों सम्मिलित हुए अमेरिकन लोक। श्रील प्रभुपाद नृत्य कर रहे थे उस यात्रा में जगन्नाथ के समक्ष। इस तरह कँनडा में मॉन्ट्रियल गए श्रील प्रभुपाद। फिर 4 गृहस्थ भक्तों कि शादी भी की। इस प्रकार वर्णाश्रम की स्थापना कर रहे थे श्रील प्रभुपाद। अपने शिष्यों के शादी में संन्यास को वैसे सहभागी नहीं होना चाहिए। श्रील प्रभुपाद ने शादीया भी फिक्स किए आप किस लड़की से शादी करो आप उस लड़के से शादी करो। और स्वयं यज्ञ करते थे विवाह यज्ञ। और 4 जोड़ियों को भेजे थे इंग्लैंड। तमाल कृष्ण, मुकुंदा गुरुदास और श्यामसुंदर इन चार गृहस्थ को भेजे थे इंग्लैंड। यह चार गृहस्थो ने इंग्लैंड को ऐसा हिलाया ऐसा नचाया। और इंग्लैंड निवासियों को कृष्ण के दास या गुलाम बनाया। जिन अंग्रेजों ने भारतवासियों को गुलाम बनाया था उन अंग्रेजों को कृष्ण का दास बनाया। हरि हरि, इस तरह सर्वत्र प्रचार हईबे मोर नाम।
यह अवंतीपुर हमें फिर से अवंतिपुर लौटना है। कंस वध के उपरांत कृष्ण बलराम यहां आए। कंस का वध हुआ है तो उग्रसेन महाराज पुनः राजा बने। मथुरा नरेश बने कंस के पिताश्री। कृष्ण बलराम को उन्होंने ही भेजा। अभी पढ़ाई भी नहीं हुई नंदबाबा ने तो गायों की पीछे पीछे लगा दिया। जैसे गांव में होता है ना, बच्चों को करते हैं पढ़ाई छोड़ दो गाय की रखवाली करो कुछ खेती का काम करो। कृषि गौरक्ष वाणिज्य काम में लगा देते हैं। नंद बाबा ने उनको वैसे ही। तो पढ़ाई नहीं हुई उनकी कृष्ण बलराम को यहां भेज दिया। यहां का गुरुकुल विश्व प्रसिद्ध था उस समय। वैसे उन दिनों में भारत का हर बालक हर बच्चा गुरुकुल में ही पढ़ता था।
ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम् । आचरन्दासवनीचो गुरौ सुदृढसौह्रदः ॥ १ ॥
ऐसी व्यवस्था थीऋ गुरु एक प्रामाणिक गुरु पढ़ाते थे। गुरु कोई गोरु नहीं गोरू मतलब पशु बांग्ला भाषा में। श्रीगुरु चरण पद्म अब विदेश के भक्त श्रीगुरु चरण पद्म के बजाय क्या कहते हैं श्रीगोरु चरण पद्म श्रील पभुपाद ने कहा मैं गोरू नहीं हूं। कृष्ण बलराम यहां आए। उस समय सभी 5 साल के बालक को गुरुकुल में भेजा जाता था। और आज कल के विद्यापीठ विश्वविद्यालय या फिर कत्लखाने शास्त्रों में कहां है आत्माह आत्मा की हत्या होती हैं। आत्मा के संबंध में ज्ञान नहीं दिया जाता है। शून्य आत्मा के संबंध में शून्य ज्ञान। सारा ज्ञान सिर्फ पैसे बनाने के लिए, मनुष्य को बनाने के लिए नहीं। आप समझ रहे हो अंतर? पैसों को बनाने के लिए ना कि मनुष्य बनाने के लिए। मनुष्य को बनाने के लिए उस व्यक्ति का कुछ चरित्र, कुछ व्यक्तित्व विकास, कुछ ज्ञान ऐसी कुछ शिक्षा नहीं है। बस धन कमाने की विद्या, विद्या किस लिए धन कमाने के लिए हुआ करते थे। है ना? स्पष्ट रूप से..। तो गुरु हुआ करते थे जैसे यहां सांदीपनि मुनी। हमारे समय भी जब हम बच्चे थे स्कूल में गए, गांव गांव में गुरु नाम तो बचा हुआ था। टीचर्स को आप लोग सर सर कह रहे हैं। यह तो इंग्लैंड से सब आ गया, अंग्रेजों ने सिखाया सर एंड मैडम, यह हमारी संस्कृति नहीं है। तो हम कम से कम जब बच्चे थे स्कूल में जाते थे, मुझे लगता है तब हर गांव की ऐसे स्थिति थी 500000 गांव में। जरूर 50, 60, 70 वर्ष पूर्व की बात है टीचर को हम लोग गुरुजी कहते थे। आप मे से कोई कहते थे गुरुजी गुरुजी? जो गांव वाले हैं गुरुजी गुरुजी कहते थे।
हम तो उनको गुरुजी गुरुजी कहते थे, लेकिन हमारे गुरुजी कभी-कभी कहते ए इधर आओ बीड़ी लेकर आओ बीडी। हमको कुछ अठन्नी चवन्नी देते हम तो गुरुजी गुरुजी कहते थे। हां गुरु जी हम आपके लिए क्या कर सकते हैं? बीडी लेकर आओ या तंबाकू लेकर आओ या किसी के घर में मुर्गी है तो अंडे लेकर आओ। हां हमने सप्लाई किए हैं अंडे। हरि हरि। तो यह है कलियुग मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता: यह कली का लक्षण है। मन्दा: सुमन्दमतयो बड़े आसानी के साथ गुमराह राह गुमराह शब्दों की ओर ध्यान देना चाहिए गुमराह। पथभ्रष्ट हमको किया जाता है और बुद्धि भी मंद है। कृष्ण बलराम आए यहां.. सांदीपनि मुनि का आश्रम आपको देखना चाहिए अगर आप बाहर देश से आए हो। यहां तो जरूर जाइए सांदीपनि मुनि का आश्रम। कृष्ण बलराम का वहां भी दर्शन है। तो यह सांदीपनि मुनि… वैसे सांदीपनि मुनि की मां पौर्णमासी है वृंदावन में पौर्णमासी जो योगमाया है। योगमाया का नाम पौर्णमासी जो सारे ब्रजवासी के गुरु के रूप में सेवा करती हैं या अपनी भूमिका निभाती है। यह उनकी माता थी और उनका एक पुत्र बहुत प्रसिद्ध है कृष्ण की लीला में बहुत प्रसिद्ध चरित्र।
मधुमंगल नाम सुने हो मधुमंगल? मधुमगल जो मजाक करता रहता है विनोदीत। कृष्ण को बड़ा प्रसन्न करता है, ब्राह्मण पुत्र। और फिर यही सांदीपनि मुनि चैतन्य महाप्रभु की लीला में, जैसे यहां वे कृष्ण के गुरु थे। कृष्ण लीला में चैतन्य महाप्रभु के गुरु बन जाते हैं। यही सांदीपनि मुनि पुनः प्रकट हो जाते हैं नवद्वीप में। और वहां विद्यानगर में नवद्विप में एक विद्यानगर नामक स्थान है वहा चैतन्य महाप्रभु पढ़ने के लिए जाते थे। गंगादास तो वे टोल चलाते थे, टोल मतलब स्कूल। तो इस चैतन्य लीला में सांदीपनि मुनि प्रकट हुए। हरि हरि। कल भी कुछ हम सुना रहे थे यहां के कृष्ण बलराम की लीला कथा। तो अंत के समय कृष्ण कुछ 11 साल के थे जब वे यहां आए 11 साल के है कृष्ण और चार छह महीने रहे होंगे। यहां उनकी पढ़ाई वगैरह पूरी हुई साधना। यह साधना के लिए स्थली है, योग्य स्थली है उज्जैन। जहां कृष्ण बलराम ने अध्ययन किया यह विद्यार्जन के लिए बड़ा अनुकूल स्थल है, यह उज्जैन या अवंतिपुर, भक्ति के लिए भी। यही के भक्त राजा इंद्रद्युम्न, नाम सुने हो? जिन्होंने जगन्नाथ स्वामी की जय। जगन्नाथ मंदिर कि जगन्नाथपुरी में जो स्थापना किए और उनको दारुब्रह्म प्राप्त हुआ उसके पहले नीलमाधव। तो इंद्रद्युम्न महाराज भगवान का दर्शन करना चाहते थे, बड़े महान भक्त थे कृष्ण के, भगवान के। तो उन्होंने भेजा था अपने कृष्ण को खोजने के लिए। तो इंद्रद्युम्न महाराज यही कही रहे उज्जैन अवंतीपुर मे। जिनके कारण कहो पूरे धाम की स्थापना हुई है, जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की स्थापना हुई है। यहां भी हमारे मंदिर में उज्जैन में जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की स्थापना हुई है। वहां जब गए जगन्नाथपुरी में तो वहां नरसिम्हा मंदिर के पास में ही शुरुआत में इंद्रद्युम्न महाराज रहते थे। अपना कुछ छोटा सा सैन्य वगैरह होगा मंत्री, सहायक, सेक्रेटेरियल सचिव। जगन्नाथपुरी में जहां गुंडीचा मंदिर है राजा इंद्रद्युम्न के पत्नी का नाम है गुंडीचा। राजा इंद्रद्युम्न की पत्नी गुंडीचा, तो उसी नाम से मंदिर भी प्रसिद्ध है गुंडीचा। कुछ समय के लिए वहां रहे राजा इंद्रद्युम्न। मित्रवृंदा द्वारकाधीश की जो आठ रानियां रही, जैसे वृंदावन में अष्ट सखियां है द्वारका में अष्ट रानियां है। रुकमणी है, सत्यभामा है, जामवती है, कालिंदी है, मित्रवृंदा है, सत्य है, भद्रा है और लक्ष्मणा।
लक्ष्मणा मद्रास से थी। तो उसको प्राप्त करने के लिए भी फिर पुनः कृष्ण द्वारिका से यहां आए थे। मित्रवृंदा इस नगरी की थी। और एक संबंध कृष्ण का इस नगरी के साथ। तो पढ़ाई जब पूरी हुई तब सभी गुरु दक्षिणा दे रहे थे। अपनी कृतज्ञता व्यक्त करनी होती है, जो भी विद्यार्थी हुआ, विद्यार्जन हुआ विद्या को ग्रहण किए तो अपनी कृतज्ञता व्यक्त की जाती है दक्षिणा देकर। तो सभी दे रहे थे दक्षिणा, वहां पर बहुत सारे विद्यार्थी थे। कोई सवा रुपए दे रहा था, कोई वस्त्रम, तो कोई पुष्पम कोई पत्रम, तो कोई फलम, तो कोई तोयम। लेकिन जब कृष्ण बलराम वे भी लाइन में खड़े थे दक्षिणा देने के लिए इतने में पति पत्नी ने थोड़ा विचार विमर्श किया। यह जो विद्यार्थी है यह विशेष है तो इनसे हम कुछ विशेष दक्षिणा चाहेंगे। तो जब कृष्ण बलराम आए समक्ष उन्होंने सांदीपनि मुनि के एक पुत्र की मृत्यु हो चुकी थी। तो वे उस मृतक पुत्र को वापस चाहते थे। हमें अपना पुत्र वापस चाहिए। तो ऐसा कार्य कौन कर सकता है? यह तो और कोई दूसरा विद्यार्थी नहीं कर सकता था। ऐसी इच्छा को सुनते ही कृष्ण बलराम तैयार हुए तथास्तु वैसे ही होगा। फिर कृष्ण बलराम यहां से गए प्रभास क्षेत्र गए। प्रभास क्षेत्र को जानते हो कहां है? सोमनाथ जानते हो सोमनाथ गुजरात में वह जो समुद्र का किनारा है जहां से वैसे कृष्ण का स्वधाम उपगते भी हुआ। वह सरस्वती नदी का तट है वहां से भगवान प्रस्थान किए। तो वहां कृष्ण बलराम पहुंचे उनको पता चला था कि एक राक्षस ने उसको खा लिया अपने गुरु महाराज के पुत्र को। तो दोनों कृष्ण और बलराम समुद्र में कूद पड़े और खोज रहे थे कहां है वह राक्षस जिसने भक्षण किया था सांदीपनि मुनि के पुत्र का। राक्षस मिला लेकिन राक्षस भी कुछ मृत ही था मरा हुआ था। उसके पेट में देखा तो पेट में भी मिला नहीं पुत्र। तो उस राक्षस के शरीर को ही ले लिए साथ में और वही वह जो शरीर था मृत शरीर वह था पांचजन्य शंख। भगवान के शंख का नाम क्या है? पांचजन्य पांचजन्य ऋषिकेश देवदत्त धनंजय भगवद गीता के प्रथम अध्याय में किस पांडव ने कौन सा शंख बजाया इसका वर्णन है। तो पांचजन्य प्रसिद्ध बात है भगवान का जो शंख है पांचजन्य वह यही पर मिला समुद्र में।
समुद्र है प्रभास क्षेत्र में। जब सांदीपनि के पुत्र वहां नहीं मिले तो कृष्ण सीधे यमपुरी गए यमराज के लोक गए और वहां प्रवेश द्वार पर उन्होंने शंख ध्वनि की। हो सकता है पहली बार उन्होंने वह शंख बजाया। यह घोषित करना चाहते थे कि हम पधारे हैं हम यहां पर है, कृष्ण बलराम पधार चुके हैं, कृपया ध्यान दें। तो कृष्ण बलराम का पदार्पण वहां हुआ और शंख ध्वनि उसका नाद सर्वत्र फैल गया। उसी के साथ उस यमपुरी के नरको में जितने भी नरक वासी थे उन सभी ने चतुर्भुज रूप धारण किया। मुकुट भी है, कुंडल भी है, पिछला जो उनका शरीर था वह तो छूट गया और सभी के सभी भगवद धाम लौटे। तो सांदीपनि मुनि के पुत्र को लौटा दिए। सांदीपनि मुनि के पुत्र भी वहां पहुंचे थे किसी कारणवश। तो कृष्ण बलराम उस पुत्र को ले आए अवंतीपुर और कहा कि हमारी ओर से यह दक्षिणा स्वीकार कीजिए स्वीकरोतु। गुरु महाराज सांदीपनि मुनि और गुरु पत्नी प्रसन्न थे। तो हुआ फिर यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो गुरु प्रसन्न तो फिर भगवान प्रसन्न। उसके बाद फिर कृष्ण और बलराम मथुरा लौटे वहां की लीला फिर वहां 18 वर्ष रहेंगे मथुरा में। और वहां से बहुत कुछ हुआ बहुत लीला हैं मथुरा में। और किन के साथ युद्ध खेल रहे थे 18 साल तक?
जरासंध और फिर वह रणछोर रणछोर जरासंध ने कहा। कृष्ण बलराम ने एक समय जरासंध से युद्ध नहीं खेला, 17 बार तो खेला था। तो वे उब गए उस युद्ध से युद्ध से बोर हो चुके थे एक ही चीज हर समय। और वैसे रुक्मिणी भी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी वहां कौडींन्यपुर मे। और भी कुछ बहुत होना था। और सारे मथुरा वासियों को तो पहुंचा दिया था द्वारका में तो वहा सभी भी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वहां पहुंचते ही रणछोर राय की जय उनका स्वागत हुआ, अच्छा हुआ आपने रण छोड दिया और लीला ऐसे ही चलती रही। यह अवंतीपुर भी कृष्ण बलराम के प्रकट लीला कि एक लीला स्थली है। ज्यादा स्थानों पर नहीं गए कृष्ण। जो गिने-चुने स्थान है इसमें से एक है यह अवंतिपुर। ठीक है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
श्री श्री कृष्ण बलराम मंदिर उज्जैन
16 सितंबर 2021
800 स्थानों से भक्त जप कर रहें हैं ।
हरे कृष्ण ! ठीक है । कल भी जप किएना आप ? हा । जप तो किए हो गए किंतु मगर इस कॉन्फ्रेंस में कि नहीं ? कइंया अपने हाथ दिखा रहे हैं या हाथ उठा रहे हैं । आप गोड़िय वैष्णव, कल जप किया इस कॉन्फ्रेंस में । ठीक है । सैकड़ों हात उठ रहे हैं । आपका हाथ का दर्शन हो रहा है । आपका हाथ हमारे साथ । आप साथ दे रहे हो अच्छी बात है । जप तो हम कर ही रहे हैं ध्यान पूर्वक जप । हो रहा है नहीं हो रहा है आप ही जान सकते हो । आप भी थोड़ा सिंहावलोकन करो या मूल्यांकन करो अपने उन्नति अपने उत्तमजप पर और भक्तों के संग में या अपने काउंसलर के साथ भी आप चर्चा करते हो इस संबंध में ध्यान पूर्वक जप । वैसे आप, हम यहां उज्जैन में पहुंचे हैं । इस उज्जैन का एक समय नाम रहा अवंतीपुर । इस नगर में शिप्रा नदी के तट पर है यह अवंतीपुर या मॉडर्न उज्जैन । यह सांदीपनि मुनि का आश्रम था और यहीं पर कृष्ण बलराम अध्ययन के लिए पहुंचे थे । कृष्ण ब्रह्मचारी, बलराम ब्रह्मचारी बनके और उसी समय सुदामा भी सुदामापुरी से गुजरात से पोरबंदर । पोरबंदर कहते हैं ना ! पोरबंदर से सुदामा आए थे यहां तो उन्होंने पढ़ाई की । वैसे यहां, भक्तिचारू स्वामी महाराज की जय ! उन्होंने यह इस्कॉन स्थापना की और कृष्ण बलराम की विग्रह यहां है । इतना ही नहीं यहां सांदीपनि मुनि का विग्रह भी ऑल्टर पर है । जिस ऑल्टर पर कृष्ण बलराम है वहीं पर सांदीपनि मुनि भी उनके विग्रह भी है । इस्कॉन का शायद एक ही ऐसा मंदिर है जिस मंदिर में जिस मंदिर के ऑल्टर पर सांदीपनि मुनि विराजमान है तो स्वाभाविक है यह उज्जैन है यह अवंतिपुर है यहां सांदीपनि मुनि नहीं रहेंगे तो और कहां रहेंगे । यह अवंतीपुर काफी कृष्ण बलराम ज लीला के लिए प्रसिद्ध हे । कृष्ण बलराम यहां पढ़ाई किए ।
श्रीनारद उवाच
ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम् ।
आचरन्दासवन्नीचो गुरौ सुदृढसौहृद: ॥
( श्रीमदद् भागवतम् 7.12.1 )
अनुवाद:- नारद मुनि ने कहा : विद्यार्थी को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखने का अभ्यास करे । उसे विनीत होना चाहिए और गुरु के साथ दृढ़ मित्रता की प्रवृत्ति रखनी चाहिए । ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह महान् व्रत लेकर गुरुकुल में केवल अपने गुरु के लाभ ही रहे ।
ऐसे कहा है भागवतम् में “ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम्” तो भगवान बन गए ब्रह्मचारी विद्यार्थी और “वसन्दान्तो गुरोर्हितम्” अभ्यास किए साधना किए “वसन्दान्तो” इंद्रिय निग्रह और “गुरोर्हितम्” गुरु के सेवा कीए साधना किए । कई सेवाएं किया । हरि हरि !! तो कृष्ण बलराम एक कमरे को बांटते थे वे सहकक्षार्थी थे । रात्रि 9:00 बजे बत्ती बुझाते थे यहां आश्रम में । अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज । आप समझते हो ? अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज । मैक्स मैन हैलदी-वैलदी एंड वाइज् तो यह आश्रमों में यह जल्दी विश्राम का नियम होता है उनका पालन करना चाहिए और आश्रम कहा तो आश्रम केवल ब्रह्मचारी ही नहीं है ब्रहमचारीयों हो का । गृहस्थ का भी आश्रम है । वैसे हमें घर में नहीं रहना चाहिए हमें आश्रम में रहना चाहिए या हम कहते तो रहते हैं अपने घर को बनाओ मंदिर । मंदिर तो मंदिर है ही या ब्रह्मचारी रहते हैं किंतु जो कांग्रेगेशन के जो भक्त हैं उनको अपने घर को मंदिर भी मंदिर भी बनाना है और अपने घर को आश्रम भी बनाना है । आश्रम में रहो जो आश्रम में रहता है वही सभ्य व्यक्ति है नहीं तो वह सभ्य नहीं हैं तो मनुष्य को किसी ना किसी आश्रम का जो प्रमाणिक आश्रम है उन आश्रमों में रहना चाहिए । ब्रह्मचारी आश्रम में रहने की तैयारी नहीं है ठीक है तो आप गृहस्थाश्रम में रहो तो घर को बनाओ आश्रम फिर आश्रम के जो नियम है उसका पालन अपने घर में करो और एक एक नियम तो यहां कृष्ण बलराम भी अनुसरण कर रहे थे वे जब आश्रम में रह रहे थे सांदीपनि मुनि आश्रम में वह क्या था ? जल्दी सोना और जल्दी प्रातः काल में उठ जाना लेकिन ऐसा देखा जाता था । मुझे यह सब कहने के लिए समय तो नहीं है क्योंकि मुझे और आज मुझे भागवद् कक्षा भी देनी है 8:00 बजे । भागवद् की कक्षा होगी मुझे देने के लिए कहा है भागवद् कक्षा यहां । उससे पहले दर्शन भी है कृष्ण बलराम के दर्शन और गुरु पूजा भी है श्रील प्रभुपाद गुरु पूजा तो आज का भी जपा टॉक छोटा ही होगा और संभव है तो पद्ममाली और आप सब मिलकर इस को लॉन्ग कर सकते हो लॉन्गर मैं रुक जाऊंगा और आप में से कोई टॉक देना चाहते हैं या कोई चर्चा है याद अनाउंसमेंट बगैरा है तो इसको लंबा खींच सकते हो । ठीक है ।
लेकिन कृष्ण रात्रि को जल्दी उनको सोना उनको मुश्किल ज्यादा था । बलराम समय-समय पर देखते थे 10:30 बज गया कृष्णा अब तक जगा हुआ है तेरे बलराम देखते थे रात 11:00 बजे हैं कृष्ण अभी तक सो नहीं रहे हे हैं तो क्या गलत हुआ है तुम्हारे साथ सोना चाहिए आश्रम का नियम है सो जाओ तो कृष्ण कहते थे मुझे तो वृंदावन की याद आ रही है दाऊजी भैया और यह मेरा रात्रि का समय तो रास क्रीडा का समय है । माधुर्य लीला का, श्रृंगार रस का अनुभव करने का यह समय है । वैसे वे कहते हैं कि नंद बाबा, यसोदा भी मेरे मित्रों के भी याद आ रही है और गोपियों की याद आ रही है तो बलराम कहते हैं गोपियों की ! तुम कैसे ब्रह्मचारी ? गोपियों की याद कर रहे हो । लड़कियों की याद कर रहे हो । मैं बता दूंगा सांदीपनि मुनि को बताऊंगा, गुरु महाराज को बताऊंगा तुम रात्रि की लड़कियों की याद करते हो तो इस प्रकार दोनों भाइयों में ऐसे संवाद भी करते थे तो आश्रम में रहकर कृष्ण बलराम अपनी पढ़ाई करते थे । वह बहुत अच्छे विद्यार्थी थे । आश्रम में उनको पढ़ाई भी करनी होती है हम लोग विद्यार्थी हैं आश्रम में विद्यार्थी की तरह एक साधक विद्यार्थी विद्यार्जन करना होता है आश्रम में तो वैसे किया कृष्णा और बलराम ने । विशेष रुप से कृष्ण ने कहो और एक दिन में एक-एक कला में वो निपुण हो जाते । 64 कला और विज्ञान में 64 दिन में पढ़ लिए और उनको पुरस्कार भी मिले सर्टिफिकेट भी मिला और गुरु महाराज बड़े प्रसन्न थे कृष्ण के प्रदर्शन के साथ या A+, उत्कृष्ट वैसे 100% अंक तो कृष्ण एक अच्छे विद्यार्जन करने में अग्रगण्य थे । हरि हरि !! सेवा के लिए भी साधना करते अध्ययन करते और सेवा करते ।
एक समय रसोई के लिए इंधन जरूरत होती है तो फिर इंधन इकट्ठे करने कृष्ण और सुदामा गए तो यहां यही पर यही उज्जैन में उन दिनों में फॉरेस्ट जंगल वन में प्रवेश किया और दोपहर में फिर आंधी तूफान भी प्रारंभ हुई भारी वर्षा हुई मूसलाधार वर्षा । तो उसके बाद हर जगह पानी पानी जल सर्वत्र । किंतु कृष्ण सुदामा ने जो इंधन इकट्ठा कर रहे थे वो सेवा को रोके नहीं । इकट्ठे करते रहे और इतने में सूर्यास्त भी हुआ अंधेरा हुआ और वैसे भी यह तुम्हार तो दिख ही नहीं रहा था तो कैसे लौट सकते थे । उन्होंने रात वन में ही जंगल में ही बिताइ तो दूसरे प्रातः काल को सांदीपनि मुनि जब जागे तो कृष्ण नहीं लौटे और सुदामा नहीं लौटे तो यह गुरु जन उन शिष्यों के साथ जो संबंध है या संबंध हे अपनी पुत्रों की तरह तो खोजने गए । पुकार रहे थे कृष्ण ! सुदामा ! कहां हो ? तो खोजते खोजते उनको कृष्ण सुदामा मिले जंगल में हीं । क्यों नहीं लौटे ? कैसे लौट सकते थे ! इंधन इकट्ठा करने गए थे हम । हमारी सेवा पूरी नहीं हुई तो हम, और फिर यहां बाढ़ सर्वत्र बर्षा तों हम वहीं रह गए तो , इंद्रद्युम्न महाराज, सांदीपनि मुनि बहुत खुश थे और आशीर्वाद दिए कृष्ण को आशीर्वाद दिया तुम्हारे मुख से जो भी बच्चन निकलेगा वह वेद वाणी होगी सत्य होगा ।
यस्य प्रसादात् भगवत्-प्रसादो
यस्याप्रसादात् न गतिः कुतोऽपि ।
ध्यायन् स्तुवंस्तस्य यशास् त्रिसंध्यां
वंदे गुरोः श्री चरणारविंदं ॥
तो गुरु महाराज प्रसन्न हुए । सांदीपनि मुनि प्रसन्न हुए । श्री कृष्ण और उनके भक्ति भाव सेवा भाव देखकर और कृष्ण अन्य सभी वैसे विद्यार्थियों को आश्रम वासियों को सांदीपनि मुनि भेजा करते थे माधुकरी के लिए । जाओ माधुकरी मांग के आओ । कृष्ण भी जाते थे वैसे माधुकरी मांगना तो यह बहाना हुआ करता था । इसी के बहाने किसी के बहाने प्रचार का अवसर प्राप्त होता था तो कृष्ण चाहते थे । भिक्षाम देही ! तो घरवाली सुनते तो बाहर आकर देखते तो यह अति सुंदर सर्वांग सुंदर बालक का दर्शन करते । “पीतांबरात”
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् ।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ॥
अनुवाद:- जिनके करकमल वंशी से विभूषित हैं, जिनकी नवीन मेघ की-सी आभा है, जिनके पीत वस्त्र है, अरुण बिम्बफल के समान अधरोष्ठ हैं, पूर्ण चन्द्र के सदृश सुन्दर मुख और कमल के से नयन हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी भी तत्त्व को मैं नहीं जानता ।
पीतांबर वस्त्र पहना हुआ यह बालक “अरविन्दनेत्रात्” उसके पद्मनयनी कमललोचन यह बालक “पूर्णेन्दुसुन्दरमुखाद” तो उनका मुख पूर्णचंद्र की तरह तेजस्वी है । “वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्” यहां शायद मुरली तो बजा रहे होंगे लेकिन उनके सौंदर्य में कहा है कृष्ण जब मुरलीधारण करते हैं तो “विभूषितकरान्न” उनके हाथों की शोभा बढ़ाती है जब वे मुरलीधरण करते हैं और फिर मुरली को अपने अधरो पर रखते हैं और “बामबाहू या तो बाम कपोल” और अपने गर्दन को बाईं और झुकाते हैं और फिर मुरली बजाते हैं । “यत्र मुकुंद” तो ऐसे मुकुंद का दर्शन वह सब गृहस्थ करते । बहुत सारी मधुकरी देते थे गृहस्थ तो जो भी माधुकरी उनको प्राप्त हुई कृष्ण आगे बढ़ने की तैयारी करते । वह ग्रस्त कहते, रुको रुको ! और फिर कहते ए वह थोड़ा आलू लेके आओ । आलू लाए कृष्ण को दे दिए । कृष्ण जाने की तैयारी में थे । ए उसको और क्या चाहिए ले आओ । आटा ले आओ कुछ लक्ष्मी ले आओ यह ले आओ वह ले आओ । इस प्रकार वैसे अपना सारा घर खाली कर दे दे यह सोचते हुए की हमारे घर के समक्ष या हमारे दृष्टि पथ पर यह बालक सदा के लिए बना रहे या यहां उपस्थित रहे तो अन्य एक दरवाजा फिर फ्री कार्यकलाप । वे लोग भी इतना सारा सामग्री दे देते कृष्ण को । हरि हरि !! तो और मित्रों को या जो आश्रम वासी थे उनको कुछ ज्यादा भेट नहीं देते थे लोग । उनका यह थोड़ा, ले चलो ! जाओ या हम भी जब, मैं भी जब ब्रह्मचारी था जुहू हरकृष्ण लांड में तो मेरी भी ड्यूटी थी वैसे मधुकरी मांगने की ।
फूड फॉर लाइफ चलाते थे हम लोग । हरे कृष्ण लैंड में उसके लिए मैं चावल इकट्ठा करता था । वैसे चावल पर कुछ कंट्रोल था तो चावल ओपन मार्केट में खरीद नहीं सकते थे तो मैं घर घर जाकर चांद सोसाइटी नामक एक सोसाइटी मेरी कई कहानियां, बिल्डिंग और कई घर और भी तो तो वह घरवाले वाले मुझे देखते ही या पहले तो द्वार खोलते ही नहीं अंदर से देखते कौन है कोई साधु है हरे कृष्ण वाला है तो मेरी ओर ध्यान ही नहीं देते और कभी दरवाजा खोल दिया तो हमको आजाओ कुछ देने के लिए दरवाजा खोल दिया तो दरवाजा खोल कर फिर अपने कुत्ते को हमारे पीछे लगाते या चौकीदार को अंदर से फोन करके बुलाते । यह साधु को भगाओ यहां से । फिर चौकीदार आ जाता था फिर उससे बचने के लिए हम ऊपर के मंजिल पर ऊपर गए । ऊपर से नीचे वो पीछा करता था और हम छिपने का प्रयास छुप-छुप के कुछ माधुकरी मांगने का प्रयास जो भी हो कई लोग देते भी थे लेकिन अधिकतर लोग देते नहीं थे तो वैसा ही कुछ हो रहा था और कृष्ण के जो सहपाठी या दोस्त थे उनको कुछ ज्यादा सामग्री नहीं प्राप्त होती थी तो फिर उन्होंने सोचा कि सोचा कि अरे अलग से क्यों जाएं कृष्ण के साथ ही जाते हैं तो कृष्ण को जो जो दान भेंट सामग्री मिलती थी वह सारे मित्र उसको एक के बाद एक ढो कर कृष्ण के पीछे पीछे जाते ।
जैसे कि कोई शोभायात्रा और जो भी इकट्ठा होता था सारा समर्पित करते अपने गुरु के चरणों में ऐसा भी नियम है से फिर कुछ भोजन बन गया भोग लग गया और प्रसाद के लिए गुरु ने अगर प्रसाद के लिए बुलाया आदेश किया सभी प्रसाद लेंगे ब्रह्मचारी नहीं तो नहीं लेंगे । हमारे अयोध्यापति राम तू गुरुग्राम में जल्दी सुबह का नाश्ता ले रहे हैं । साधक है ! दया करके आनंद लीजिए । लेकिन आश्रम में सारा कलेक्शन किया घर घर गए और उससे कई सारे व्यंजन छप्पन भोग बनाए । लेकिन गुरु का आदेश है तभी प्रसाद ले सकते तो नहीं तो ब्रह्मचारी उपवास रहेंगे । ब्रह्मचारी ऐसा भूखा रह सकता है ऐसा भी एक नियमावली है । श्री कृष्ण बलराम इन सारे नियमों का आश्रम के सारे जीवन के शैली का, सिद्धांतों का और विचारधाराओं का साधना सेवा का पालन कर रहे थे वह अच्छे विद्यार्थी थे मथुरा से आए थे वापस । मथुरा से आए यहां रहे उज्जैन अवंतीपुर में और फिर यहां से वापस मथुरा तो ऐसी भी लीला स्थली है उज्जैन या अवंतीपुर । इसका बड़ा महिमा है ।
हमने अपने कुंभ नामक जो पुस्तिका है उसमें हमने महिमा लिखा हुआ है उनका सब महात्म्य इस धाम का और इसी उज्जैन में अवंतीपुर में जहां तक याद है 2007 में जब कुंभ मेला यहां हुआ तो उसी मेले में उज्जैन में मुझे यह महंत की पदवी जो दी गई महंतों का समाज या अधिकारी होते हैं उन्होंने मुझे महंत बनाया मैं इस्कॉन का महंत इस्कॉन की ओर से में महंत बन गया इसी नगर में इससे ही इसी धाम में । हरि हरि !! गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल !! ठीक है मैं यहां रुकता हूं ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
14 सितंबर 2021
827 स्थानों से आज भक्त जप कर रहे हैं । हरि बोल । समझल का? अब 830 स्थानों से आप सब जप कर रहे हो ।
जय श्री राधे । राधे , जय श्री राधे । आप सबको राधा अष्टमी की बधाइयां , शुभेच्छा । आज के दिन का क्या कहना ? आज राधा अष्टमी है । नंद के घर आनंद भयो , कृष्ण अष्टमी के दिन नंद के घर आनंद भयो , किंतु आज के दिन वृषभानु राजा के घर आनंद भयो । भयो मतलब भाला ।भयो ब्रजभाषा हुई । हरि हरि ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
राधा अष्टमी के दिन राधा रानी का जन्म हुआ ही किंतु उनके नाम के रूप में जो हरे कृष्ण हरे कृष्ण का जो नाम है इस नाम के रूप में राधा रानी हर दिन प्रकट होती है । हरि बोल । आपके घर में प्रकट होती है । यवतमाल में , सतरंजी में या जहां पर भी हम राधे के नाम एक का उच्चारण करते हैं तब राधा प्रकट होती है और साथ में कृष्ण भी प्रकट होते हैं ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। यह जो नाम है , यह जो महामंत्र है यह राधा कृष्ण की कृपा है । इस नाम के रूप में भगवान प्रकट होते हैं , हरे मतलब राधा । इस महामंत्र में कितने बार हरे हरे हरे है ? 8 बार हरे हैं । हरे मतलब राधा । जय जय राम कृष्ण हरि ।
जय जय राम कृष्ण हरि ।
जय जय राम कृष्ण हरि ।
हरे कृष्ण महामंत्र में हरे हैं , हरि नहीं है । हरि तो कृष्ण है , राम कृष्ण हरि । कृष्ण कौन-कौन है? कृष्ण राम है या कृष्ण कृष्ण है और कृष्ण हरि है , किंतु इस हरे कृष्ण महामंत्र में जो हरे हरे है यहा मराठी लोग भी बैठे तो इसलिए यह चर्चा हो रही है या यह बताया जा रहा है । हरे कृष्ण महामंत्र का वैशिष्ठ है कि इसमें राधा का नाम है । राधा ! हरा हरा हरा मतलब राधा , और हरे मतलब हे राधे ,हे राधे ! यह पूरा मंत्र ही प्रार्थना है । अभी अभी हम क्या कर रहे थे ? जप करते-करते हम प्रार्थना कर रहे थे । किसको प्रार्थना करते हैं ? राधा और कृष्ण को केवल कृष्ण को नहीं । यही तो बात है राधा और कृष्ण दोनों को प्रार्थना करते हैं । हरि हरि ।
सत्यम् सत्यम् पुना, सत्यं सत्यं इव पुना पुना,
विना राधिको प्रसादे, कृष्ण प्रसादो न विद्यते।
– (नारद पुराण)
श्री कृष्ण कहते हैं: हे नारद! मैं आपको सत्य कह रहा हूँ और बार बार, फिर से, सत्य बार-बार कहता हूं -“श्री राधारानी की कृपा के बिना मेरी कृपा कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता”।
एकवचन है जिससे हम समझ सकते है कि यह सत्य है । जो आपको बताया जा रहा है सत्यम सत्यम पुना पुना यह सत्य बात , यह सत्य कथा , सत्य वचन है । बिना राधा प्रसादेन , राधा के प्रसाद बिना , राधा की कृपा बिना वैसे कृष्ण की कृपा नहीं होती । इसलिए हम केवल कृष्ण कृष्ण नहीं कहते ।
जय जय राम कृष्ण हरि भी ठीक है किंतु साथ में इस महामंत्र में राधा को पुकारते है।
करुणां कुरु मयि करुणा भरिते।
सनक सनातन-वर्णित चरिते।।
अनुवाद:- आपका दिवय चरित्र सनक-सनातन जैसे महान संतो द्वारा वर्णित होता है। हे राधे, मुझ पर करूणा करो।
राधा का गुणगान है ।
सनक सनातन-वर्णित चरिते।
सुना होगा आपने , क्या है ? ब्रह्मा के पुत्र है , मानस पुत्रवह भी राधा राधा राधा राधा रटते हैं , राधा के गुण गाते हैं और फिर वह केवल चार कुमार ही नहीं ब्रह्मा भी रटते है ।
ब्रह्मा बोले , क्या बोले ?चतुर्मुख कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
ब्रह्मा जी भी बोलते हैं । वैसे ब्रह्मा 400 वर्ष पूर्व हरिदास ठाकुर के रूप में प्रकट हुए और वह 300000 नामों का प्रतिदिन जप करते थे , प्रतिदिन दिन करते थे साल भर में नहीं । तीन लाख नाम जप प्रतिदिन करने वाले वह ब्रह्मा थे , चतुर्मुखी ब्रह्मा । पंचमुखी महादेव राम राम हरे हरे और शिव जी का एक रूप है पंचमुखी महादेव , पांच मुख वाले । उनके मुख पाच है तो आंखें कितनी है ? 15 है । एक मुख में 3 , त्रिनेत्र तो इन सभी मुखो से वह बोलते रहते हैं राम, राम राम , हरे हरे , हरि हरि । वृंदावन में गोपेश्वर महादेव भी है रास क्रीड़ा में स्वयं वह गोपी बन जाते हैं । शिवजी गोपी बनते हैं , गोपी भाव , गोपी रूप धारण करते है ।
राधा श्याम सुंदर की जय ।
राधा श्याम के साथ जो असंख्य गोपियां है वैसे शिवजी भी एक गोपी बनते हैं और नृत्य करते हैं । इस प्रकार वह भी राधा कृष्ण के गुण गाते हैं , नारद मुनि भी गोपी बनते हैं । नारदी गोपी , हरि हरि । वह भी रास क्रीडा में गोपी भाव में प्रवेश करते हैं , हरि हरि । यह गोपी भाव या गोपी भाव मतलब ही राधा भाव , भक्ति करनी है तो किस भाव में ? राधा भाव में , राधा भाव , गोपी भाव यह सर्वोच्च भाव है ।
साधी राहनी उच्च विचार ।
सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग । सबसे ऊंचा विचार राधा रानी का हुआ । राधा गोपी इनके विचार सर्वोच्च विचारों है । इनके विचार शुद्ध , पवित्र विचार हैं ।
राधा रानी सदैव कृष्ण का ही चिंतन करती है और कृष्ण का ही सानिध्य चाहती है । भक्ति करनी है तो राधा जैसी भक्ति करो ।
अनयाराधितो नूनं भगवान्हरिरीश्वरः । यत्रो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥
(श्रीमद्भागवत 10.30.28)
अनुवाद : इस विशिष्ट गोपी ने निश्चित ही सर्वशक्तिमान भगवान् गोविन्द की पूरी तरह पूजा की होगी क्योंकि वे उससे इतने प्रसन्न हो गये कि उन्होंने हम सबों को छोड़ दिया और उसे एकान्त स्थान में ले आये ।
श्रीमद् भागवत नमें कहा है ।
अनयाराधितो नूनं यह चरण कमल और किसके हो सकते हैं ? राधा रानी के ही होने चाहिए । यह लीला है , गोपियां कृष्णा को खोज रही थी । कृष्णssss कृष्णाssss आप कहां हो ? कृष्णा sssss आप कहां हो ? रास क्रीड़ा की शुरुआत होने वाली थी इतने में कृष्ण अंतर्धान हो गए और साथ में राधा को ले गए । बेचारी गोपिया बिछड़ गई , अलग हो गई। फिर खोज रही थी , खोजते , खोजते , खोजते खोजते , एक वन से दूसरे वन , दूसरे वन तीसरे वन , तीसरे वन से चौथे , कितने बन हैं ऐसे ?वृंदावन में 12 मोटे मोटे वन है । उपवन है , वन के अंदर वन , वन के अंदर वन ऐसे कई हजारों , लाखों वन है । वनात वनम एक वन से दूसरे वन जा रहे थे । गोपियां खोजती हुई आगे बढ़ रही थी तब कृष्ण के चरण चिन्ह उन्हें दिखे और आगे बढ़ी तब कृष्ण के चरण चिन्हों के साथ और एक व्यक्ति के चरण चिन्ह भी उनको दिखे । किसी गोपी ने पूछा कि , ” यह चरण चिह्न किसके हो सकते हैं ?” वहां श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के 30वे अध्याय में कहां है ,
अनयाराधितो नूनं भगवान्हरिरीश्वरः । यत्रो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥
पगली कहीं की इतना नहीं जानती , यह चरण चिन्ह और किसके हो सकते हैं ? राधा रानी के ही हो सकते हैं ।
अनयाराधितो नूनं ,और कैसी राधा ? कृष्ण की आराधना करने वाली राधा , आराधयते जो आराधना करती है । इसलिए जो नाम है आराधना राधा राधा आराधना ऐसे ध्वनित होता है । आराधना आराधना क्या नाम हुआ ? आराधना करने वाली राधा । जितने भी आराधक है , आराधना करने वाले इस संसार में है या बैकुंठ में है या अयोध्या में है या गोलोक वृंदावन में है नंबर वन आराधक कौन है ? जय श्री राधे । राधा रानी के बराबर कोई नहीं । हरि हरि । वैसे राधा रानी भगवान है । भगवान की शक्ति है , कृष्ण की शक्ति या कृष्ण को आल्हाद देने वाली शक्ति है । आल्हाद समझते हो ? प्रह्लाद आल्हाद दायिने , प्रह्लाद को आल्हाद देने वाले कौन है ? नरसिंह भगवान । नरसिंह भगवान ने प्रह्लाद को अल्लाह दिया । कृष्ण को आल्हाद देने वाली कौन है ? राधा रानी , और भी देते हैं लेकिन राधा रानी जितना आल्हाद , आनंद कृष्ण को देती है इतना अल्लाह , आनंद और कोई नहीं दे सकता । भगवान कैसे हैं ? सच्चिदानंद , यह जो आनंद है सच्चिदानंद हैं । भगवान सत है , भगवान चित हैं , भगवान आनंद है । राधारानी आनंद देती हैं और भी देते हैं , हम भी दे सकते हैं । इसलिए वैसे उनको बनाया है ताकि हम क्या करें भगवान को आनंद दे । हम भी शक्ति है , राधा रानी भी शक्ति है किंतु राधारानी अंतरंगा शक्ति है और माया बहिरंगा शक्ति है और हम तटस्थ शक्ति है । कई सारी सिद्धांत की ज़ तत्व की , शास्त्र की बातें हैं उनको हम को सीखनी समझनी चाहिए । चितरंजी में राधा अष्टमी के दिन राधा श्यामसुंदर आ रहे हैं । राधा कृष्ण को समझना होगा , राधा रानी को समझना होगा या उनका तत्व समझना होगा । एक तत्व शक्ति तत्व है , कई सारे तत्व है ,
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
(भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
भगवद्गीता के चौथे अध्याय में दिया है । क्या करो ? आप सब मेरा जन्म और फिर राधा रानी का जन्म भी , यह जन्म कैसा है? दिव्य है । राधा रानी का जन्म , कृष्ण का जन्म कैसा है ? दिव्य है । हमारा जन्म मेटरनिटी होम जहां कहीं भी होता है तो उसमें कोई दिव्यता तो नहीं है वैसे कुत्ते का भी जन्म होता है।
कुत्ते का बिल्ली का भी जन्म होता है हम लोगों का भी जन्म वैसे ही होता है कुछ बड़ी बात नहीं है कोई विशेषता नहीं है लेकिन कृष्ण का जन्माष्टमी के दिन 2 सप्ताह पहले कृष्णष्टमी हुई और आज है राधा अष्टमी आज राधा अष्टमी है तो जिस दिन राधा रानी प्रकट हुई थी वृंदावन में कहा रावल गांव में यह सब आपको पता होना चाहिए और आपको और कई सारी बातें पता होती हैं कई सारे हीरो अवार्ड वॉच पवार जी ने कहा और आतंकवाद और उन सारे बदमाशों के बारे में हम बहुत पड़ते हैं जानते हैं। लेकिन हम कृष्ण के संबंध में राधा के संबंध में कब जानेंगे राधा का जन्म रावल गांव में आज के दिन हुआ वह जन्म दिव्य जन्म है हम सुनेंगे पड़ेंगे कैसे जन्म हुआ तो हम समझ सकते है कि वह जन्मदिन दिव्य था। या अलौकिक था कैसा था और अलौकिक लौकिक और अलौकिक लौकिक मतलब इस लोक में इस संसार को लौकीक कहते हैं त्रिलोक या चौराहा भुवन और ये लोक अलौकिक आउट ऑफ दिस वर्ल्ड इतना तो समझते हो इस जगत के परे ऐसा जन्म कृष्ण का जन्म और राधारानी का जन्म इस जगत का जन्म नहीं है। यह जगत में सिर्फ हम जन्म लेते हैं ऐसा जन्म नहीं है और ना तो राधा कृष्ण और राधा कोई साधारण जीव नहीं है हम जीव हैं हम कौन हैं जीव हैं जीवात्मा है लेकिन राधा रानी तो भगवान की आल्हादिनी शक्ति है।
चैतन्य चरितामृत आदी 1.5
राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥५५ ॥ राधा – भाव
अनुवाद:- ” श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । ”
एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ ऐसे चैतन्य चरितामृत में उल्लेख आता है। वैसे राधा और कृष्ण एक आत्मा है एक आत्मा राधा और कृष्णा दो नहीं है राधा और कृष्ण एक है एक शक्ति है और दूसरे शक्तिमान है। एक है शक्ति वो है राधा रानी और जिनकी वो शक्ति है कृष्ण की वह है राधा रानी कृष्ण की शक्ति है राधा और शक्ति और शक्तिमान में भेद नहीं है राधा रानी साधारण स्त्री नहीं है जैसे कोई इचलकरंजी की हम तो ऐसे मच्छर है चीटी है हम तो कुछ भी नहीं है राधा के समक्ष राधा कृष्ण ही है राधा क्या है राधा कृष्ण ही है।
तो लीला खेलने के लिए भी हो देह भेद गतो तो एक कि वह क्या करते हैं एक के दो बन जाते हैं अपने कई प्रकार के पेंटिंग वृंदावन में देखा होगा राधा कृष्ण केवल युगल सरकार राधा कृष्ण कृष्ण का चित्र दिखाते हैं वैसे वह एक ही है। सिर्फ रंग का भी दिखता है काले सांवले कृष्ण है और राधारानी का रंग कैसा है तप्तकांचन मतलब तपा हुआ सोना जो और चमकता है ना इसलिए केवल कांचन नहीं कहा तप्तकांचन कहा तपा हुआ सोना और भी चमकता है।
हरि हरि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कैसे हैं राधा रानी को समझना कठिन है भगवान को समझना राधा रानी को समझना हरि हरि तो राधा रानी को समझने के लिए वैसे कृष्ण प्रकट हुए और कौन बने चैतन्य महाप्रभु कृष्ण बने श्री कृष्ण चैतन्य श्री कृष्ण चैतन्य बनने का उद्देश्य क्या था राधा को वह जानना चाहते थे।
भगवद्गीता 4.8
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||”
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
यह भी एक उद्देश्य परित्राणाय साधुनाम यह तो करेंगे ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु किंतु एक अधिक कारण था एक विशेष कारण था जिस उद्देश्य के साथ कृष्ण प्रकट हुए चैतन्य महाप्रभु के रूप में वह था राधा रानी को जानना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने राधा भाव को अपनाया
चैतन्य चरितामृत आदि 1.5
राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं राधा – भाव – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥५५ ॥
अनुवाद ” श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । ”
और फिर जगन्नाथपुरी में जब चैतन्य महाप्रभु 18 वर्ष रहे जगन्नाथपुरी में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रहे कितने साल 18 साल और वो कोल्हापुर भी आए थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहा आये महालक्ष्मी का दर्शन करने यहां महालक्ष्मी को दर्शन देने आपने सुना हम लोग दर्शन करने जाते हैं वहां लक्ष्मी का लेकिन चैतन्य महाप्रभु महालक्ष्मी को दर्शन देने गए महालक्ष्मी किसकी है भगवान की है कृष्ण की लक्ष्मी है आपकी नहीं है हम लोग लक्ष्मी को अपनी लक्ष्मी कहते हैं। अपना पैसा अड़का ऐसा करना मतलब रावण बनना है। राम की सीता किसकी है राम की सीता रावण का क्या प्रयास चल रहा था उसको अपनी सीता रावण की सीता ऐसा कभी संभव नही है श्री श्री सीता रावण ऐसा कभी संभव नही है। श्री श्री सीताराम ही संभव है लेकिन रावण प्रयत्न तो करते हैं धन दौलत यह भी लक्ष्मी है। संपत्ति है फिर श्री हनुमान आ जाते हैं और क्या करते हैं सीता को पुनः राम जी को सौंप देते हैं। पहले खोजते हैं राम को फिर वहां ले जाते हैं फीर युद्ध होता हैं हमें रावण नहीं कौन बनना चाहिए हनुमान बनना चाहिए रावण सीता को लक्ष्मी को अलग करना चाहता था उसका उपभोग करना चाहता था। यह तो हम सब की समस्या है हम सब रावण है आपको यह सुनकर अच्छा तो नहीं लगेगा अब तक किसी ने नहीं कहा था हम रावण है। हम रावण है या हिरण्यकशिपु है हिरण्यकशिपु मतलब इसको क्या पसंद है हिरण्य हिरण्य मतलब सोना हिरण्य मतलब सोना एक तो सोना सोना दूसरा सोना कशिपु मतलब सॉफ्ट बेड किसको पसंद है। जिसको हिरण्य स्वर्ण सोना पसंद है और साथ ही साथ कशीपू ऐशो आराम पसंद है। जिसको भी ये पसंद है हो गया कि नहीं हिरण्यकशिपु हरि हरि
जय श्री राधे तो माधव सो रहे हो चैतन्य महाप्रभु ने कहा है
चैतन्य महाप्रभु स्वयं ही राधा के भाव को अपनाए और राधा जैसी भक्ति कर रहे थे। राधा को जानने के लिए वही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते हैं आप सब क्या करो रम्याकाशीद उपासना कल्पित वृंदावन का वधु वर्ग सभी गोपिया और उनकी लीडर राधारानी जैसी भक्ति आराधना भगवान की करती हैं वैसे हमको भी भगवान की उस पद्धति से उस विचारधारा के साथ समझ के साथ हमको भगवान की आराधना करनी चाहिए यह है शुद्ध भक्ति शुद्ध भक्ति है।
यहां यह जो जप है कीर्तन है हरे कृष्ण महामंत्र का जप महामंत्र का कीर्तन और कई भी प्रकार से पद्धति से हमभगवान की भक्ति करते हैं लेकिन मुख्य तो इस कलयुग में हरेर नामेव केवलम केवल हरिनाम केवल हरि नाम हरे कृष्ण आज के दिन मैं तो सोच रहा था लेकिन आज के दिन मतलब राधा अष्टमी के दिन 37 वर्षों पूर्व हमारी जो ऑल इंडिया पदयात्रा चल रही है। पूरी भारत यात्रा करने वाली पदयात्रा पहले यहां महाराष्ट्र पदयात्रा आयी थी और इंडिया पदयात्रा का भी आई थी तो ये ऑल इंडिया पदयात्रा राधा अष्टमी के दिन द्वारिका से 1984 में पदयात्रा शुरू हुई और आज तक चल रही है।
पिछले 37 वर्षों से आज उसका वर्धापन दिन कहो ऑल इंडिया पदयात्रा का वर्धापन दिन और पदयात्रा की बात चल रही है तो श्रील प्रभुपाद मुझे राधा अष्टमी के दिन ही दिल्ली में 1976 में 1 सितंबर राधा पार्थसारथी मंदिर में मुझे पदयात्रा बैलगाड़ी के साथ प्रचार करने का आदेश दिया।
इसे मैं राधा रानी की कृपा समझकर मुझ पर राधारानी की कृपा प्रभुपाद जी ने मुझ पर बरसाये पदयात्रा क्या करती है और पदयात्रा का मुख्य उद्देश्य तो हरि नाम का प्रचार है जो जप हम करते हैं कीर्तन हम करते हैं और चैतन्य महाप्रभु ने कहा मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥ २४२ ।।
अनुवाद ‘ कलह और दिखावे के इस युग में उद्धार का एकमात्र साधन भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है , अन्य कोई नहीं है , अन्य कोई नहीं है । ”
पदयात्रा के माध्यम से हरिनाम को नगरों में ग्रामों में पहुंचाया जाएगा ऐसा प्रभुपाद जी का दृष्टिकोण था तो उसके बाद श्रील प्रभुपाद जीने मुझे ये सेवा के राधाष्टमी के दिन ही दी।
हरि बोल हरि बोल
आज के दिन एक नई पदयात्रा प्रारंभ हो रही है यह ऑल इंडिया पदयात्रा वाले बैठे हैं राजस्थान में हैं। आज से एक नई पदयात्रा की शुरुआत हो रही है और बंगाल में शुरू होंगी मायापुर से नवदीप मायापुर से जगन्नाथपुरी जाएंगी आज उसका शुभारंभ है जय हो और क्या ठीक है आज के दिन 17 वर्ष पूर्व पंढरपुर में राधापंढरीनाथ की स्थापना हुई राधा पंढरीनाथ की जय
पंढरपुर के भक्त भी यहां बैठे हैं तुम मुझे तो आज वहां होना चाहिए था। राधा अष्टमी के दिन ही पंढरपुर में राधापंढरीनाथ प्रकट हुए प्राण प्रतिष्ठा हुई और फिर हमको हर्ष हो रहा है यह घोषित करते हुए की मुझे वैसे आज के दिन वृंदावन होना चाहिए था मैं वृंदावन में ही था दो दिन पहिले वृंदावन को छोड़कर न जाने कहां पहुंच गए लेकिन पता चला कि इचलकरंजी में इस्कॉन इचलकरंजी की जय
यहां राधाश्यामसुंदर का आगमन हो रहा है यहां राधाश्यामसुंदर का स्वागत हो रहा है तो मैं यहां आज पहुंचा हूं राधाश्याम सुंदर का स्वागत करने के लिए हरि बोल आप सब सादर आमंत्रित हो 10 देशों के भक्त यहां हमारे साथ इस वक्त हजार डेढ़ हजार भक्त सुन रहे हैं या अधिक भी हो सकते हैं। राधा अष्टमी की जय मोरिशियस से है थाईलैंड से भी कोई है यूक्रेन से हैं तो वह सुन रहे हैं आप हर रोज जप करते हो कि नहीं अपने अपने घरों में करते होंगे पर हमारे साथ भी किया करो ठीक है। और क्या बताएं जयपताका स्वामी महाराज श्रील प्रभुपाद जी ने उनको सन्यास दीक्षा दी और ये 51 वर्ष पूर्व की बात है 51 वर्ष सन्यास दीक्षा महामहोसव की जय
एक उत्तर प्रदेश में भी है एक महाराष्ट्र में चल रही है बंगाल में आज शुरू हुई है। तो उत्तर प्रदेश वाली पदयात्रा भी राधा अष्टमी के दिन ही शुरू हुई थी। उनका ज्यादा कनेक्शन है जुड़ा है राधा की कृपा है वृंदावन में गुरुकुल की भूमि का पूजन भी राधाअष्टमी के दिन ही हुआ 1975 में आज के दिन प्रभुपाद वृंदावन में थे कृष्णबलराम मंदिर के बगल में जो गुरुकुल है भूमि पूजन समारोह ही संपन्न हुआ जिस गुरुकुल में साथ सनातन प्रभु रहे थे वह गुरुकुल में पड़े हैं वह स्कूल जहां की भूमि पूजन की बात है तो इस प्रकार यह परम पावन दिन कई सारे उत्सव या पदयात्रा का प्रारंभ इत्यादि इत्यादि घटना घटी है यह सब राधा रानी की कृपा है जय श्री राधे श्याम ठीक है
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
श्री श्री राधा वृंदावनचंद्र मंदिर पुणे,
13 सितंबर 2021
आज जप चर्चा में 806 भक्त उपस्थित हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल…!
विश्व हरीनाम महोत्सव कि जय…!
आज का सत्र हमें थोडा़ छोटा ही रखना पड़ेगा क्योंकि मैं राधा वृंदावनचंद्र मंदिर पहुंचा हूं और श्रृंगार दर्शन और गुरुपुजा 7:30 बजे होंगी। वैसे 8:00 बजे भागवतम् कि कक्षा हैं,उसकों भी आप सुन सकते हो । आज कि जप चर्चा छोटी और भागवतम् पे ज्यादा चर्चा होगी।हरि हरि!
आज विश्व हरिनाम महोत्सव का कोनसा दिन चल रहा है? तीसरा दिन! (भक्तो ने जवाब दिया) महाराज ने आगे कहा ठीक हैं!कोई कोई दूसरा दिन कह रहे हैं।आज तीसरा दिन हैं। यहा पुणे में हर वर्ष इसे बडी धुम धाम से मनाते हैं और इस वर्ष भी मना रहे हैं।मैंने ढेर सारे समाचार सुने और मंदिर में पहुचा तो यहा दिनभर अखंड र्कीतन हो रहा था।तो कई भक्त नगर संर्कीतन भी कर सकते हैं,अभी पुणे में लॉकडाउन चल रहा हैं, नगर संर्कीतन का अवसर थोड़ा कम हैं,तो लोग घर-घर जा रहे हैं या भक्त घर-घर जा रहे हैं और घरों में संर्कीतन हो रहा हैं,घरवाले परिवारवालो को बुला रहे हैं,अपने इष्टमित्रों को बुला रहे हैं, इस प्रकार र्कीतन सर्वत्र हो रहा हैं।
हमने सुना कि इनकी योजना हैं कि एक साथ 108 स्थानों पर,भवनों में,घरों मे, मंदिरों में र्कीतन हो। एक दिन में समकालिक र्कीतन होगा। मैंने ऐसा कभी नहीं सुना हैं। इस्कॉन पुणे के भक्त इसे पहले कर चुके हैं, एक ही साथ 108 कीर्तन मंडली,108 स्थानों पर, 108 भवनों में, घरों में,मंदिरों में र्कीतन होगा। समकालिक 108 स्थानों पर र्कीतन होगा, तो उसका प्रभाव और फल क्या होगा इसकी कल्पना शायद हम नहीं कर सकते,यह कितना प्रभावशाली होगा या होता हैं। आप भी कुछ आईडिया ले सकते हो और जहां तक यह नगर संर्कीतन की बात हैं या पब्लिक र्कीतन या ,डांसिंग र्कीतन या, जप र्कीतन,इस र्कीतन के आचार्य स्वयं भगवान ही हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि जय…!
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.21)
अनुवाद:-महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं | वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्र्व उसका अनुसरण करता है |
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्त” श्रेष्ठजन
जो जो आदर्श रखते हैं, “त्तदेवेतरो जनः”इतर जो लोग होते हैं,दूसरे लोग उसका अनुसरण करते हैं। संर्कीतन आंदोलन के लीडर, संसार को संर्कीतन देने वाले जो श्रेष्ठ हैं या नेता हैं, वह स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं। भगवान ने आकर इस धरातल पर इस संर्कीतन का आरंभ किया। ईश्वर पुरी से मंत्र प्राप्त किए। उन्हे गुरु बना लिया। जो भगवान स्वयं ही गुरु हैं
“वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥”
(श्री कृष्णाष्टक 1 आदि शंकराचार्य)
अनुवाद:-कंस और चाणूर का वध करनेवाले, देवकी के आनन्दवर्द्धन, वसुदेवनन्दन जगद्गुरु श्रीक़ृष्ण चन्द्र की मैं वन्दना करता हूँ ।
वे बन गए शिष्य ,भगवान बन गए ईश्वर पुरी के शिष्य, उनसे मंत्र लिया। जैसे ही मंत्र का उच्चारण प्रारंभ हुआ तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने र्कीतन किया,पहले निमाई पंडित थे,विद्वान थे, प्रकांड विद्वान थे,शास्तार्थं करते थे,सभी को परास्त करते थें। भक्ति कम करते थे या र्कीतन नहीं करते थें। वैसे सभी यही चाहते थे कि यह र्कीतन करे।यह र्कीतन कब करेगा?मुकुंद इत्यादि,प्रार्थना कर रहे थे कि निमाई एक दिन कीर्तन करे।जब यह र्कीतन करेगा हम प्रसन्न होंगे। तो फिर एक दिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने मंत्र प्राप्त किया तो उसी के साथ उनका र्कीतन प्रारंभ हुआ।वह गया से लौटते लौटते, र्कीतन और नृत्य करते-करते ही नवदीप लौटे और श्रीवास ठाकुर के आंगन में, श्रीनिवास के प्रांगण में र्कीतन प्रारंभ हुआ। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पंचतत्वों के साथ के साथ र्कीतन करते हैं।
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
(पञ्चतत्त्व महामन्त्र)
महाप्रभु स्वयं श्री कृष्ण हैं,नित्यानंद प्रभु बलराम हैं, महाविष्णु या सदाशिव हैं- अव्दैताचार्य और गदाधर राधा रानी हैं, राधा रानी ने भी भाग लिया,जिनकी राधाष्टमी हम लोग कल मनाएंगे।
राधा अष्टमी महोत्सव कि जय…!
राधा रानी भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के र्कीतन में नृत्य करने लगीं।रासक्रिडा में श्रीकृष्ण के साथ रात में नृत्य करने वाली राधा अब गदाधर के रूप में चैतन्य महाप्रभु के साथ र्कीतन में नृत्य कर रही हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस कीर्तन के साथ राधा और कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और गदाधर पंडित और श्रीवास जो स्वयं नारद मुनि हैं और गौर भक्तवृंद के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास आंगन में अपना संकीर्तन आंदोलन प्रारंभ किया और इसी के साथ अद्वैताचार्य का जो सपना था वो साकार हुआ ।अद्वैताचार्य जो पुकार रहे थे वह पुकार पूरी हुई।उन्होने भगवान को पुकारा और भगवान चले आए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में और अद्वैताचार्य ने देखा था “धर्मस्य ग्लानिर्भवति”
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.7)
अनुवाद:-हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
धर्म की ग्लानी होते हुए देखा था। अद्वैताचार्य ने प्रार्थना कि थी कि धर्म कि पुनरस्थापना करने के लिए स्वयं भगवान ही आ जाए और भगवान उस प्रार्थना को सुनकर पहुंचे हैं और भगवान प्रकट होकर करते क्या हैं? धर्मसंस्थापनार्थाय,धर्म कि स्थापना करते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने धर्म की स्थापना का कार्य, सेवा, लीला प्रारंभ कि,पहले तो श्रीवास ठाकुर के बाडी़ में, आंगन में कीर्तन होते थें, केवल शुद्ध भक्तों के लिए प्रवेश था,तो शुद्ध भक्त तो कीर्तन का आनंद लूट रहे थे,लेकिन औरों का क्या?
जो पतित जन है, बद्ध जन हैं, उनका कैसे उद्धार होगा? तो अद्वैताचार्य इस बात से प्रसन्न नहीं थे कि चैतन्य महाप्रभु , सीमित और चयनित सभा के लोगों के साथ ही कीर्तन करते हैं, पतितो का क्या होगा? अद्वैताचार्य चिंतित थें तो उन्होंने एक दिन श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु के चरणों में विशेष प्रार्थना की
“गोलोकम् च परितज्य लोकानाम त्राण कारणात”
शास्त्रों, पुराणों में कहा हैं कि गोलोकम् च परितज्य, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गोलोक को त्याग कर प्रगट हुए हैं, क्यो?
“लोकानाम त्राण कारणात”लोगों को जो त्राण, कष्ट हैं, बद्धता हैं ,ताप हैं या तापत्राय हैं, उन से मुक्त करने हेतु ही तो भगवान प्रकट हुए थे।किंतु यहां पर वह पतितो के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं।जो पहले से ही पावन या शुद्ध हैं, उनके साथ ही कीर्तन कर रहे हैं।यह सब अद्वैत आचार्य ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को स्मरण कराया और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मान गए और उसी के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने नगर संकीर्तन प्रारंभ किए, जिसका वर्णन भक्ति विनोद ठाकुर इस वैष्णव भजन में करते हैं।
उदिलो अरुण पूरब-भागे
द्विजमणि गोरा अमनि जागे
भकत समूह लोइया साथे
गेला नगर-ब्राजे
(भक्ति विनोद ठाकुर)
इस गीत में भक्ति विनोद ठाकुर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन के बारे में बता रहे हैं, तो हमको भी कीर्तन करना हैं या नगर संकीर्तन करना हैं। ऐसी संभावना अगर नहीं है कि नगर के रास्ते में कीर्तन कर सके तो नगरों में जो घर हैं उन घरों में जाकर हम कीर्तन कर सकते हैं,जहां जहां लोग मिलेंगे वहां वहां जाकर संकीर्तन कर सकते हैं। गेहे गेहे जने जने। हमारा मतलब तो है कि आत्माओं से संपर्क करना, आत्मा चाहे कहीं पर भी हो रास्ते में हो या घर पर हो जहां भी हो हमें वहां पहुंच कर उन्हें हरि नाम देना हैं, उनको हरिनाम करने के लिए प्रेरित करना हैं, कीर्तन के साथ नृत्य करने के लिए भी प्रेरित करना हैं। हरि हरि।भक्त समूह अर्थात बहुत बड़े समूह के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु संकीर्तन कर रहे हैं, पहले तो चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते ही नहीं थे फिर करना प्रारंभ किया तो अंदर ही अंदर करते थे, फिर बाहर करना प्रारंभ हुआ। सारे नवदीप में कीर्तन करना प्रारंभ हुआ। उस वक्त नवदीप का तो या नवदीप वासियों का तो कल्याण हो रहा था, लेकिन औरों का क्या होगा? उनका उद्धार कैसे होगा तो फिर उसके लिए चैतन्य महाप्रभु ने संयास लिया और फिर हरिनाम संकीर्तन का प्रचार पूरे भारतवर्ष में करा,चाहे वह साउथ इंडिया हो यानी दक्षिण भारत हो, उत्तर भारत हो या भारत का कोई भी हिस्सा हो पहले वृंदावन गए,
फिर नवद्वीप भी गए और दक्षिण भारत रामेश्वरम भी गए, फिर पंढरपुर गए महाराष्ट्र में और नासिक में गए। कई स्थानों पर भ्रमण किया। चेतनय चरित्रामृत में इसे मध्य लीला कहां हैं। 6 वर्षों तक श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु संकीर्तन कर रहे हैं।इसी के साथ इस युग का जो धर्म हैं, हरेर नाम एव केवलम उसकी स्थापना कर रहे हैं।
थथाई थथाई बाजले खोल घन घन ताहे झांझेर रोल(भक्ति विनोद ठाकुर)भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं कि चैतन्य महाप्रभु की संकीर्तन मंडली मैं मृदंग यानी खोल बज रहा हैं और करताल बज रही हैं।प्रेमे ढल ढल सोनार अंग चरनेर नुपुर बाजे। यह विशेष ध्यान करने योग्य बात हैं कि यह जो शोभायात्रा या नगर संकीर्तन आगे बढ़ रहा हैं इसमें श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सबसे आगे हैं। अग्रणी शिरोमणि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सबसे आगे हैं। उनका अंग सुनार गोरांग हैं और वह डोल रहे हैं।हरि हरि और चरणों में नूपुर बांध के राधा भाव में नृत्य कर रहे हैं।राधा भी इस प्रकार से नृत्य करती हैं। राधा भी जब नृत्य करती हैं तब उनके चरणों में नूपुर बजते हैं।इस प्रकार से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नृत्य कर रहे हैं।सुंदर लाला शचिर दुलाला नाचत श्री हरि कीर्तन में। यह नोट करो। अधिकतर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ कीर्तन कर रहे हैं।कुछ तो प्रचार भी कर रहे हैं,इस कीर्तन की ध्वनि को सुनते ही कहीं लोग उठ रहे हैं। प्रातः काल का समय हैं, उदिलो अरुण। अरुण का उदय हो रहा हैं और यह कीर्तन मंडली जिस प्रकार से नगर में आगे बढ़ रही हैं, लोग इस कीर्तन को सुनकर जाग रहे हैं मानो उनके लिए अलार्म की घंटी हो। अभी तक तो सोए हुए थे,लेकिन इस चैतन्य महाप्रभु की कीर्तन मंडली में मृदंग करताल बज रहे हैं और नाम संकीर्तन हो रहा हैं। लोग जग कर बाहर दौड़कर आ रहे हैं। तो उनको भी इस कीर्तन मंडली के कुछ भक्त प्रचार कर रहे हैं। हमको भी ऐसा करना होगा। कीर्तन भी हो रहा हैं और प्रचार भी हो रहा हैं। कीर्तन करने वाले कीर्तन कर रहे हैं और प्रचार करने वाले प्रचार कर रहे हैं। कीर्तन करने वाले कीर्तन कर रहे हैं और साथ में कुछ और भक्त हैं जो लोगों से बातचीत कर रहे हैं या उन्हें कुछ समझा बुझा रहे हैं, उन्हें प्रेरित कर रहे हैं कि आप भी कीर्तन करो या फिर उनको प्रभुपाद के ग्रंथ दे रहे हैं।
स्तक वितरण भी हो रहा हैं और कई स्थानों पर भक्त प्रसाद बांटते हैं। कीर्तन हो रहा हैं, ग्रंथ वितरण हो रहा हैं, प्रसाद वितरण हो रहा हैं और बीच-बीच में रुक कर बोलते हैं कि जितने लोग उपस्थित हैं हाथ ऊपर करो और बोलो हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ऐसी घोषणा करते हैं और करनी चचाहि। हम यह सब भी बता सकते हैं कि यह सब क्या हो रहा हैं। हम क्या कर रहे हैं और यह सब हमने कहां से सीखा हैं। श्रील प्रभुपाद की जय।श्रील प्रभुपाद ने यह सब हमें सिखाया हैं। श्रील प्रभुपाद ने यह कार्य चैतन्य महाप्रभु की तरफ से शुरू किया और सारे विश्व को हरेनाम का दान देने वाले श्रील प्रभुपाद कीजय।य श्रील प्रभुपाद एंबेसडर ऑफ द होली नेम हैं। श्रील प्रभुपाद हरि नाम के अंबेडकर हैं।श्रील प्रभुपाद भक्ति योग के एंबेस्डर हैं। मैं कल ही पढ़ रहा था कि किसी समाचार पत्र में किसी ने लिखा कि श्रील प्रभुपाद कौन हैं?अंबेसडर ऑफ द भक्ति योग। तो प्रभुपाद ने यह बात पत्र के द्वारा एक गोडिए मठ के भक्त को लिखी थी कि लोग कह रहे हैं मैं भक्ति योग का एंबेस्डर हूं ।तो श्रील प्रभुपाद भक्ति योग के एंबेस्डर हैं। श्रील प्रभुपाद हरि नाम के दूत हैं भगवद्धाम से लाए हुए इस प्रेम धन का वितरण करने वाले श्रील प्रभुपाद ही हैं।
यह घोषणा करके हम प्रभुपाद के बारे में और हरि नाम के बारे में बता सकते हैं और उन्हें आमंत्रित कर सकते हैं कि कृपया राधा वृंदावन मंदिर में आए।मंदिर हमसे ज्यादा दूर नहीं हैं। वहां अलग-अलग प्रकार के कार्यक्रम होते हैं और आजकल तो विश्व हरि नाम उत्सव मनाया जा रहा हैं। यह कुछ भक्त प्रचार कर रहे हैं।दिवसे शरीर साजे। तुम सारी रात सोते रहते हो और जगते ही अपने शरीर को सजाने लगते हो। इस प्रकार तुम्हारे दिन और रात बीते जा रहे हैं। यह मनुष्य जीवन बहुत ही दुर्लभ हैं।” एमन दुर्लभ मनुष्य जन्म पाईला”। इसलिए जागो।अपने जीवन का समय व्यर्थ मत करो।यह जीवन अनित्य हैं और कई सारी विपदाए संसार में आती रहती हैं। नाम का आश्रय लो या फिर मुख में नाम हाथ में काम।काम करते करते नाम लेते रहो। इस प्रकार का प्रचार हो रहा था और कीर्तन भी हो रहा था और अंत में फाइनल घोषणा कर रहे हैं-” नाम बिना किछु नाही और 14 भुवन मांझे”- नाम के बिना कुछ भी नहीं हैं और नाम ही सब कुछ हैं। इन 14 भुवनो में सबसे मूल्यवान नाम ही हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।ठीक हैं। मैं यहां रुकूंगा।मुझे रुकना होगा। हरे कृष्णा।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*गोविंद धाम, नोएडा*,
*12 सितंबर 2021*
हरी बोल। हमारे साथ 750 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि हरि। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। गौरंग। पंढरपुर में गौरंग और प्रहलाद बैठे हैं। बाकी भक्त कहां गए? पीछे देखो। हरि हरि। सब को बुलाओ। हरि हरि। जपा टॉक का समय है। हरी नाम उत्सव की मना रहे हैं। आपने शुरुआत तो की है मैंने रिपोर्ट देखी थी। पंढरपुर इस्कॉन भक्त वृंद आप मंदिर गए थे। हरीबोल, धन्यवाद। उसी प्रकार आप सभी भक्त, हर एक भक्त,हर एक पुरुष, स्त्री और बच्चे को पार्टिसिपेट करना है या भाग लेना है। वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल की जय। विश्व हरि नाम महोत्सव की जय। जो भेंट श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु लेकर आए।
*गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन,
रति ना जन्मिल केने ताय।*
*संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले,
जुडाइते ना कैनु उपाय ।।*
अनुवाद:
गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
यह हरि नाम संकीर्तन हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। यह गोलोक वृंदावन का प्रेम धन है। परंपरा में इसका वितरण हो रहा है। अभी कईयों की दीक्षा हुई और भी लोगों की दीक्षा हुई। हरी नाम दीक्षा हुई तो हरी नाम धन प्राप्त हुआ। इस धन को सबके साथ बांटना है। हरि हरि। जैसे चीटियां, कुत्ते तो नहीं, लेकिन चीटियां, चींटी की कोई दाना पानी मिलता है शक्कर का कोई कण मिलता है। तो वह चखती भी होगी, उसकी जीवा भी होगी। भगवान ने कैसे-कैसे शरीर बनाए हैं। शायद आप भी एक समय चींटी थे। भूल जाते हैं, है कि नहीं? चीटी थोड़ा मधुर व्यंजन चख लेती है और खाना वही बंद कर देती है और इधर उधर दौड़ती और भागती है और सबको सूचना देती है कि आओ आओ आओ और फिर सब मिल कर टूट पड़ती है। उनकी दावत होती है। *महाप्रसादे गोविंदे* तो यह चींटी का स्वभाव है। अच्छा स्वभाव है। चीटी से भी हम सीख सकते हैं। चींटी को भी हम अपना गुरु बना सकते हैं। इस प्रकार हमें मधुर हरिनाम जो है उसको बांटना चाहिए और सब के पास पहुंचाना चाहिए। हरि हरि। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरिनाम साथ में ले आए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरिनाम का स्वयं वितरण किए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की मुख्य लीला में गौर भगवान है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की मुख्य लीला तो कीर्तन लीला है। *सुंदर लाला सचीर दुलाला नाचत श्री हरि कीर्तन में* सुंदरलाल क्या करते थे? श्री हरि कीर्तन में नाचते थे, नृत्य करते थे। गाते और नाचते थे। *महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।* मंगला आरती में अभी अभी हम गा रहे थे। महाप्रभु का कीर्तन, नृत्य, गीत, वाद्य इसका आस्वादन करते हैं। *वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्* जैसे हम गुरुजनों के चरणों की वंदना करते हैं। जो स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन और नृत्य करते हैं और रोमांचित होते हैं कीर्तन करते समय इसीलिए हम गुरुजनों के चरणों की वंदना करते है। जो भी कीर्तन करते उनके चरणों की वंदना करते हैं। *बोलेत जैसा चालेत* महाराष्ट्र में पंढरपुर में यह सब कहते रहते हैं। जैसे बोलते हैं वैसे चलते हैं। अंग्रेजी में वाक्स द टॉक। जैसा बोलता है वैसा करता है, करके दिखाता है। तो ऐसे भक्तों के चरणों की वंदना, ऐसे भक्तों के चरणों का हमें अनुसरण करना चाहिए। अब वह समय आ चुका है। विश्व हरि नाम उत्सव के समय में आप जो हमारे साथ जप करते हो। जप चर्चा कभी सुनते हो जैसे अभी सुन रहे हो। हमारी एक टीम बन चुकी है। जप क्लब तो नहीं कहेंगे। क्लब अच्छा शब्द नहीं है। हमारा एक समूह बन चुका है। बन रहा है और हम प्रतिदिन एकत्रित होते हैं। देश विदेश के भक्त एकत्रित हो जाते हैं। कई नगरों के, कई ग्रामों के, कई देशों के, कई वर्णों के, कई आश्रमों के, कोई ब्रह्मचारी है, कोई गृहस्थ हैं, यह सब भक्त एक साथ उपस्थित होते हैं।
गाय गोरा मधुर स्वरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। गृहे थाको वने थाको , सदा हरि बले डाको , सुखे दुःखे भुल नाको । बदने हरिनाम कर रे ।। मायाजाले बद्ध हये , आछ मिछे काज ल’ये , एखनओ चेतन पे’ये । राधा – माधव नाम बल रे ।। जीवन हइल शेष , ना भजिले हृषीकेश , भक्तिविनोद- ( एइ ) उपदेश , एक बार नामरसे मात रे ।।
अनुवाद – अहो ! स्वयं भगवान श्रीगौरसुन्दर अत्यन्त ही सुमधुर स्वरसे ‘ हरे कृष्ण ‘ महामंत्रका कीर्तन कर रहे हैं । अतः हे भाइयो ! आप लोग भी घरमें रहें या वनमें अर्थात् गृहस्थाश्रममें रहें या त्यागी आश्रममें अथवा सुखमें रहें या दुःखमें सदैव भगवानका कीर्तन करें । आप लोग माया जालमें आबद्ध होनेके कारण व्यर्थ ही सांसारिक कामोंमें व्यस्त हैं । अब तो होशमें आओ तथा राधामाधवका नाम लो । अरे ! व्यर्थके कार्योंमें तुम्हारा तो सारा जीवन ही बीत गया , परन्तु तुमने कभी हृषीकेश ( कृष्ण ) का भजन नहीं किया । श्रीभक्ति विनोदठाकुर यही उपदेश प्रदान कर रहे हैं – अरे भाइयो ! एक बार तो नामरसमें निमग्न हो जाओ ।
ऐसे भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा ही है। गृहस्थ है या ब्रह्मचारी है या वानप्रस्थ है या सन्यासी है। हम सभी के लिए एक ही धर्म है। *कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार* कृष्ण प्रकट होते हैं कलयुग में नाम के रूप में प्रकट होते हैं।
*अवतरि’चैतन्य कैल धर्म – प्रचारण ।*
*कलि – काले धर्म – कृष्ण – नाम – सङ्कीर्तन ।।*
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 11.98)
अनुवाद:
इस कलियुग में श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्णभावनामृत धर्म का प्रचार करने के लिए अवतरित हुए हैं । अतएव भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों का कीर्तन वही इस युग का धर्म है।
हम सब का एक ही धर्म है। किसी भी वर्ण और आश्रम के हो सकते हैं लेकिन एक ही धर्म है। इस प्रकार हम श्रील प्रभुपाद के शब्दों में इसको हम आध्यात्मिक जगत का एक संगठित देश कह सकते हैं। जब हम जप के लिए एकत्रित हो जाते है। तो हम एक सचमुच में एक साथ संगठित होते हैं। कौन कहां से है, कौन से देश है, कोई थाईलैंड से, कोई नेपाल से, कोई बर्मा से, कोई बांग्लादेश से, कोई भारत से, कोई दक्षिण अफ्रीका से, कोई ऑस्ट्रेलिया से, रशिया से, यूक्रेन से मैं देख रहा हूं कि पूरे जगत के भक्त हैं। मॉरिशियस से भी भक्त जुड़े हुए हैं। जब एक साथ जप करते हैं तो यह एकता है। हम एकत्रित हैं। हां या ना? आप क्या कहोगे हम सब एकत्रित हैं? हम सब एक है। अलग-अलग होते हुए भी हम एक हैं। हर जीवात्मा वैसे एक एक है। ऐसे करके कई सारी जीव हैं। तो भी हम कहते हैं हम एक हैं। हम एक विचार के हैं। हम सबका एक ही विचार है और यह उच्च विचार हैं। हम सभी का एक लक्ष्य हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और श्रीकृष्ण के चरणों की सेवा या प्राप्ति या भगवत धाम वापस लौटना हमारा लक्ष्य है।
*एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् ।
एको देवो देवकीपुत्र एव ।।*
*एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि।
कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।*
(गीता महात्म्य ७)
अनुवाद:
आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा।
हम सभी के लिए एक ही शास्त्र है। श्रीमद्भगवद्गीता की जय। आपका कोई अलग सा शास्त्र है क्या? नहीं है। सभी के लिए एक ही ग्रंथ है। *एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम्*। तो यहां पर हम जितने भी एकत्रित हुए हैं। 1000 – 1500 भक्त एकत्रित हुआ है। जप किया अब जपा टॉक को सुन रहे हैं। हम सभी के लिए एक शास्त्र है। पूरे संसार के लिए एक शास्त्र है।
*गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः ।*
*या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥*
(गीता महात्मय ४)
अनुवाद:
चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।
गीता महात्म्य में कहा गया है कि अन्य शास्त्रों की आवश्यकता ही क्या है। जब आपको गीता प्राप्त है। गीता और भागवत एक ही ग्रंथ है। एक दूसरे की पूर्ति करते हैं और ज्यादा मैं नहीं कहूंगा। हम सभी के देव आदि देव हम सभी के भगवान एक ही हैं। 2, 3, 4 अनेक भगवान नहीं है। जब हम एकत्रित होकर जप करते हैं केवल उन्हीं के भगवान एक हैं, ऐसी बात नहीं है। सारे संसार के लिए एक ही भगवान हैं। जिस प्रकार हम एक हैं। एक विचार के हैं। भगवत गीता के विचार हमारे विचार हैं और हम सभी के एक भगवान हैं। हम सभी के लिए एक मंत्र महा मंत्र है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। एक मंत्र है। सभी के लिए एक मंत्र है। जो हमको तारने वाला है। मन को मुक्त करने वाला है। इसी को मंत्र कहते हैं। मन और त्र मतलब त्रायते। बचाने वाला या मुक्त करने वाला मंत्र। किसको मुक्त करने वाला? मन को मुक्त करने वाला। मन ही बद्ध है।
*मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।*
*बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ॥*
(अमृतबिन्दु उपनिषद्)
अर्थात् :
मन ही मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है। इन्द्रियविषयासक्त मन बंधन का कारण है और विषयो से विरक्त मन मुक्ति का कारण है ।
तो हम बद्ध है। बंधे हुए हैं। पूरी माया ने हम को जकड़ लिया है या फिर हम मुक्त हैं। तो हमारे मन की स्थिति पर निर्भर करता है। हमारी मुक्तता या बद्धता। यह मन पर निर्भर रहती है। तो यह जो मंत्र है मन पर कार्रवाई करता है ।
*भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।*
*क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 1.2.21 )
अनुवाद:
इस प्रकार हृदय की गाँठ भिद जाती है और सारे सशंय छिन्न – भिन्न हो जाते हैं । जब मनुष्य आत्मा को स्वामी के रूप में देखता है , तो सकाम कर्मों की श्रृंखला समाप्त हो जाती है ।
हमारे मन में जो ह्रदय ग्रंथि है श्छिद्यन्ती, क्षीयन्ती ग्रंथि गांठ को तोड़ देता है छोड़ देता है यह महामंत्र तो यह काम करता है मन में मंत्र तो हम सभी के लिए एक ही मंत्र पूरे संसार के लिए एक मंत्र तो इस प्रकार हम एक हैं सभी एक हैं सारे संसार के लोग हम एक है और क्या है ? “तस्य देवस्य सेवा” “कर्माप्येकं” कर्म भी एक ही है । हम सभी का कर्म एक है और वह कौन सा है ? “तस्य देवस्य सेवा” उस देव की आदि देव कृष्ण देव की सेवा ही हमारा कर्म है तो इस प्रकार हम वैसे एक है और इसी प्रकार से हम हम लोग एक हो सकते हैं या संसार में ही ऐक्य की भावना या विचार या दृष्टिकोण को फैलाया जा सकता है तो श्रील प्रभुपाद कृष्ण की ओर से और परंपरा के आचार्यों की ओर से यह सारे दृष्टिकोण दिए हमको संसार को ताकि संसार में कुछ एकता आ जाए या फिर विश्व बंधुत्व जिसको पैटरनिटी लोग कहते रहते हैं । ‘हिंदी चीनी भाई भाई’ हम सचमुच वैसे भाई भाई है । इस बंधुत्व को हम अनुभव कर सकते हैं और ऐसा अनुभव करेंगे तो संसार में जो होने वाले झगड़े रगड़े हैं यह मिट जाएंगे या कम तो हो सकते हैं । कितने युद्ध चल रहे हैं, लड़ाई चल रहे हैं, कलह हो रहा है । क्योंकि लोगों के मन काम कर रहे हैं हम तो एक है हम तो भाई भाई हैं लेकिन इस संसार में हम या मित्र है । एक व्यक्ति दूसरा व्यक्ति या मेत्री का हमारा संबंध है लेकिन उसको भूल कर हम एक दूसरे को भूल कर हम एक दूसरे को शत्रु मान रहे हैं । शत्रु मानकर बैठे हैं हम । यह जो ऐक्य का एकता का संदेश है उपदेश से यह जो विचार है इसका प्रचार प्रसार होना अनिवार्य है और इस सब के मध्य में यह हरि नाम है या प्रभु प्रकट होते हैं हुए हैं हरि नाम के रूप में और यह समाधान है । यह सब बातें आपको औरों को सुनानी समझानी भी है जो जो जिन लोगों का समय आ चुका है यह जो आईडिया हम कह रहे हैं यह प्राप्त करने का कुछ जीवों का आज समय आ गया या कल किसी ने कल समय आया था कल उसको सुने और स्वीकार किए । किसी किसी के बारी आज है अपने सारे पूर्व कर्मों के अनुसार आज उनका समय है यह हरिनाम प्राप्त करने का यह विचार प्राप्त करने का गीता का विचार प्राप्त करने का समय तो ऐसी उनकी मांग या तो फिर उसको कोई देने वाला भी चाहिए ।
*ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव ।*
*गुरु – कृष्ण – प्रसादे पाय भक्ति – लता – बीज ॥*
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 19.151 )
अनुवाद:
सारे जीव अपने – अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं । इनमें से कुछ उच्च ग्रह – मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह – मण्डलों को । ऐसे करोड़ों भटक र जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है , जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है । कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है ।
तो आज किसी की भाग्य का उदय होगा तो फिर किसी हरे कृष्ण भक्तो को उनके पास पहुंचना होगा ।
*यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।*
*आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश ॥*
( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 7.128 )
अनुवाद:
हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो ।
करने के लिए या मुझे कहे थे “यारे देख , तारे कह” क्या कहे मुझे श्रील प्रभुपाद ? पदयात्रा शुरू करने प्रारंभ में ! “यारे देख , तारे कह” हरे कृष्ण उपदेश तो हमने किया । श्रील प्रभुपाद के आदेश अनुसार और यथाशक्ति हमने पदयात्राएं की सारी संसार भर में । हरि हरि !! श्रील प्रभुपाद के जन्म शताब्दी समय तो 100 से ज्यादा देशों में पदयात्राएं संपन्न हुई तो पग पग पर पदयात्री इन सारी देशों में कीर्तन कर रहे थे और कीर्तन का दान दे रहे थे । श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ भी दे रहे थे प्रसाद भी दे रहे थे तो यह कार्य जो वैसे शुरू किए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय ! और परंपरा में यह प्रचार प्रसार का कार्य चल रहा था और फिर श्रील प्रभुपाद ने इस इस्कॉन की स्थापना करके इस कार्य को ऐसा विश्वव्यापी अंतरराष्ट्रीय बना दिया या ताकि क्या हो जाए ? वैसे चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी …
*पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम ।*
*सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ॥*
( चैतन्य भागवत् 4.126 )
अनुवाद:
इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा ।
मेरा नाम का प्रचार होगा । नगरों में, ग्रामों में तो श्रील प्रभुपाद गए 1965 में हरि नाम लेकर और उन्होंने वितरण शुरू किया और श्रील प्रभुपाद 14 बार सारे संसार का भ्रमण किए जेटएज परीव्राजक आचार्य बने और संसार के कोने कोने में श्रील प्रभुपाद भगवान के नाम यस गान का प्रचार प्रसार किया तो आप वैसा ही करो जैसा मैंने किया या मैंने प्रारंभ किए हुए इस कार्यो को आगे बढ़ाओ । ऐसा श्रील प्रभुपाद का आदेश भी है हम सभी के लिए तो विशेष रूप से यह जो वैसे 17 सितंबर को जो तारीख है इस तारीख को श्रील प्रभुपाद न्यूयॉर्क पहुंचे । जलदूत जहाज में जा रहे थे तो वोट पहुंच गई । पहले बोस्टन में पहुंची । कामनवेल्थ पीरियड मुझे याद आ रहा है कि उस पोर्ट नाम था । कुछ घंटों के लिए प्रभुपाद बोस्टन में वैसे क्या पेंटा पांड्या श्रील प्रभुपाद को श्रील प्रभुपाद को बोस्टन दिखा रहे थे । फिर पुनः वोट में लौट आए और फिर बोस्टन से न्यूयॉर्क का सफर आगे बढ़ा । बोस्टन से न्यूयॉर्क ज्यादा दूर नहीं है तो फिर 17 सितंबर को श्रील प्रभुपाद न्यूयॉर्क पहुंचे । पहुंचते ही उन्होंने हरि नाम का प्रचार प्रसार प्रारंभ किया तो इसीलिए यह जो 17 सितंबर है इसका चयन जो हुआ है । प्रतिवर्ष पिछले 25 सालों से हम यह विश्व हरि नाम उत्सव मना रहे हैं और श्रील प्रभुपाद की गौरव गाथा भी बढ़ा रहे हैं और हरी नाम का महिमा हरि नाम की गुण गाथा का प्रचार प्रसार वैसे कीर्तन करके भी ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥*
तो आप सबको आज हमने घोषणा सुनी नोएडा मंदिर में मंगल आरती के बाद तो आज दूसरा दिन है विश्व हरि नाम उत्सव का दूसरा दिन इस तरह 17 तारीख तक और फिर दूसरा एक पार्ट है 17 से 23 तारीख तक वैसे 23 तारीख तक यह उत्सव मनाए जाएंगे तो इसको नोएडा इसको पहले से ही शुरू कर चुका है और कल उन्होंने भाग्यवान जीव कैंपेन के कितने वीडियोस ? कल एक ही दिन में 500 वीडियोस बनाएं इसको नोएडा के भक्तों ने, कई युवकों ने कई उत्साही युवक रिकॉर्ड कर रहे थे जो विजिटर्स या मंदिर के सामने आने जाने वाले लोगों को पकड़ पकड़ के, कोयला भी तक संख्या वैसे 4500 वीडियो हो चुके हैं और उनका प्रयास चल रहा है कुछ विश्व विजेता बनने का । विजेता बनना चाहते हैं 25000 का टारगेट उन्होंने बनाया है तो यह एक बात है और भी कई सारे योजनाएं हैं माधुरी गौरी आपको सुना रही थी । क्या तुम हो ? पद्ममाली तुम हो ? और कौन-कौन है ? कृष्ण भक्त ज्ञात थोड़ा समझाओ क्या क्या कर सकते हैं हमारे यह जो टीम है । यह एक विशेष टीम है और भी कई सारे टीमें है मंदिर है देश है या नगर है ग्राम है उनमें में हमारे यह जो प्रतिदिन एकत्रित होके यह जो जप करते हैं जपा टॉक को सुनते हैं तो इस टीम को एक्टिव होना होगा मंदिर के साथ भी जुड़ सकते हैं या मंदिर वालों को याद दिला सकते हैं यह विश्व हरि नाम उत्सव आ गया । “श्रद्धावान जन हे, श्रद्धावान जन” पातियाछे नाम-हट्ट जीवेर कारण” “नदिया गोद्रुमे नित्यानंद महाजन” एसे भक्तिविनोद ठाकुर घोषणा कर रहे हैं उसकी इसमें । हे श्रद्धावान लोगों क्या करो ? नदिया गोद्रुम में आओ यह नित्यानंद प्रभु ने नाम हट्ट प्रारंभ किया है इसका फायदा उठाओ तो हमारी टीम भी ऐसी घोषणा कर रही है और वैसे आप टीम मेंबर हो तो आपकी भी स्कोर्स वगैरा उत्सव के अंत में देखे जाएंगे और आप में से कौन जीतेगा भाई जीतेगा ! तो आपको इसमें भाग लेना होगा या बड़ी प्रतियोगिता होगी, दिव्य प्रतियोगिता । ठीक है तो आप लोग भी कहो कुछ । माधुरी गोरी तुम कुछ अधिक कहना चाहती हो या कृष्ण भक्त हेतु या पद्ममाली तुम स्वयं या आप भी जो मुझे सुन रहे हो आप में से कोई कुछ कहना चाहते हैं और कुछ प्रेरणा के बच्चन या आपका कोई संकल्प है या आपने कैसे शुभारंभ हुआ । अपने विश्व हरि नाम उत्सव कल कैसे बनाया । आज क्या करने वाले हो । काम धंधे तो चलते रहते हैं थोड़ा थोड़ा दूसरा कुछ करो, कुछ दिव्य कार्य करो । यह दुनियादारी बहुत हो गई ।
हरि हरि !! जीव जागो जीव जागो ! गोराचांद बोले ! चैतन्य महाप्रभु बुला रहे हैं । ठीक है ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*गोविंद धाम से*
*11 सिंतबर 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 802 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। गौरांग!
गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!
वृन्दावन धाम की जय!
हम गोविंद धाम इस्कॉन नोएडा में आए तो हैं किन्तु हमारा हृदय वृन्दावन में खो गया हैं “आई लॉस्ट माई हार्ट इन वृन्दावन।”
हरि! हरि!
इस बार वृन्दावन की भेंट कुछ विशेष रही। वैसे भी हम बहुत समय के उपरान्त वृंदावन गए थे। हरि !हरि! वृंदावन ने हमारे चित की चोरी की व अपनी ओर अधिक आकृष्ट किया। वृंदावन या वृन्दावन बिहारी लाल की जय!
एक ही बात है। वृंदावन भगवान से अभिन्न है, वृन्दावन भगवान हैं और भगवान वृन्दावन हैं। भगवदधाम भी भगवान का एक स्वरूप है।
हम जब से इस्कॉन में सम्मिलित हुए हैं तब से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव मना ही रहे हैं, लेकिन…
एक बार पहले भी मैं जन्माष्टमी के दिन वृन्दावन में था। शायद यह दूसरी या तीसरी बार था, जिस दिन मैं जन्माष्टमी के दिन वृन्दावन रहा और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वृन्दावन में ही मनाई।श्री कृष्ण जहाँ अष्टमी के दिन जन्में थे, जहाँ लीला खेली थी। उस वृन्दावन धाम में ही श्रीकृष्ण बलराम मंदिर में श्रील प्रभुपाद ने भगवान को उनके विग्रह के रूप में प्रकट किया। हमनें वहीं पर कृष्ण बलराम, राधाश्याम सुन्दर की जन्माष्टमी मनाई। कृष्ण की ही जन्माष्टमी। वृन्दावन में वह दिन तथा उसका अनुभव अति विशेष रहा। कृष्ण की कथा करने का भी अवसर मिला और रात्रि को जब कृष्ण का महा महा अभिषेक हुआ
जैसे नंद यशोदा नंद के घर आनंद भयो जय कन्हैया लाल की।
जैसे नंद- यशोदा व सभी ब्रज वासियों ने मिलकर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई थी। उस उत्सव का स्मरण करते हुए हमनें भी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव मनाया और हमें वृन्दावन में श्रील प्रभुपाद की 125वीं व्यास पूजा मनाने का अवसर मिला। वृन्दावन के लिए प्रभुपाद कहा करते थे,” वृन्दावन इज माई होम,” वृन्दावन इज माई होम” उस होम में जाकर जहां प्रभुपाद राधा दामोदर मंदिर में रहे, श्रील प्रभुपाद मथुरा में भी रहे थे। यह वृन्दावन मथुरा भगवान का धाम है।
कृष्ण जिनका नाम हैं, गोकुल जिनका धाम हैं। उसी वृन्दावन को श्रील प्रभुपाद अपना घर मानते थे। वृंदावन इज माय होम। उस होम (घर) में ही हमनें श्रील प्रभुपाद की व्यास पूजा मनाई।
हम चैतन्य बैठक पर रुके,
जहां एक बार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बैठे थे। हम भी वहां बैठ गए और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन की परिक्रमा को याद कर रहे थे। हम वहां थोड़े समय के लिए रुके और चैतन्य महाप्रभु का स्मरण कर रहे थे। चैतन्य बैठक एक बहुत प्रसिद्ध स्थान है, आप भी वहां गए ही होंगे। वहां जरूर रुकना चाहिए। वह बहुत विशेष स्थान है। वहां पर चैतन्य महाप्रभु और जगन्नाथ के विग्रह भी हैं। इस पंचकोसी परिक्रमा के अतिरिक्त (वैसे हमने आपको 1 दिन बताया था) हमनें गोवर्धन परिक्रमा भी की। यह विशेष परिक्रमा रही। पहली बार हमने वाहन में बैठकर गोवर्धन की परिक्रमा की। हरि! हरि! वहां की लीलाओं की रास्ते में कुछ चर्चा भी हो रही थी। उसको हम याद कर रहे थे। इतनी सारी बातें हैं कि शुद्र जीव कितना याद कर सकता है, क्या-क्या याद कर सकता है।हम उन लीलाओं के सिंधु में से कुछ बिंदु का आस्वादन कर रहे थे। हम राधा कुंड भी गए थे। राधा कुंड श्याम कुंड की जय!
वहां पर हमनें रघुनाथ दास गोस्वामी की समाधि का दर्शन किया। रघुनाथ दास गोस्वामी की जय!
रघुनाथ दास गोस्वामी राधा कुंड के तट पर लगभग 41 वर्ष रहे अर्थात उन्होंने राधा कुंड पर लगभग 41 वर्ष बिताए। वह भी परिक्रमा करते रहे जैसे कि सनातन गोस्वामी गोवर्धन की परिक्रमा किया करते थे। हरि! हरि! वहीं राधा कुंड के तट पर कृष्ण दास कविराज गोस्वामी रहते थे। राधा कुंड के तट पर ही कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने श्रीचैतन्य चरितामृत की रचना की। वे रघुनाथ दास गोस्वामी से चैतन्य महाप्रभु की लीला कथा का श्रवण करते थे। उनके पास अन्य भी कुछ कडचा ( नोट) इत्यादि थे। जिसके आधार व संदर्भो की मदद से उन्होंने चैतन्य चरितामृत की रचना राधा कुंड पर की। जय राधे! इस राधा कुंड पर प्रतिदिन अष्टकालीयलीला के अंतर्गत मध्यान्ह के समय राधा कृष्ण की लीलाएं संपन्न होती हैं। जल क्रीड़ा है या झूलन यात्रा है।
जय राधा माधव कुंज बिहारी अथवा वहां के कुंजों में विहार है। प्रतिदिन ध्यान के समय राधा कुंड की लीला का स्मरण किया। वैसे राधा कुंड सर्वोपरि है। वृंदावन के सभी स्थानों में राधाकुंड श्रेष्ठ स्थान है। जैसे कृष्ण के सभी भक्तों में राधा रानी श्रेष्ठ है। वैसे ही उनका कुंड भी सर्वश्रेष्ठ है। वह स्थान सबसे ऊंचा है, सर्वोपरि है। हमने गोवर्धन परिक्रमा का समापन वहीं पर किया व पुनः वृन्दावन लौटे। हरि! हरि! इन्हीं दिनों वृंदावन में 1 दिन दीक्षा समारोह भी संपन्न हुआ। जैसे आज नोएडा में भी यहां दीक्षा समारोह संपन्न होने वाला है और एक वृंदावन में भी हुआ था। एक दिन में मैं अपने शिष्यों से भी मिला। वृंदावन में रहने वाले भक्तों और शिष्यों की संख्या कुछ दिन-ब-दिन बढ़ रही है। 100 से अधिक शिष्य वृंदावन में रह रहे हैं। हरि! हरि ! उन को संबोधित करते हुए हमने सबको कहा कि जैसे और लोग रिटायर होने के बाद आराम करने के लिए आते हैं लेकिन हम गौड़ीय वैष्णव विशेष रुप से श्रीलप्रभुपाद के अनुयायी हैं, वह कभी रिटायर नहीं होते। वे इस भौतिक जगत से ऊब गए हैं और सब छोड़ वृंदावन पहुंच जाते हैं। छोड़ो दुनियादारी, छोड़ो दिल्ली या नागपुर, यह रूटीन कार्यकलाप। वृंदावन में जाओ, गो बैक टू होम। कुछ भक्त ऐसा कर रहे हैं, उसमें से मेरे शिष्य भी वहां पहुंचे हैं और मैं उनको कह रहा था कि एक्टिव रहो सक्रिय रहो और श्रील प्रभुपाद का वृन्दावन में जो मिशन, मंदिर अथवा प्रोजेक्ट है, उसमें सहायता करो। इस्कॉन की सेवा करो, इस्कॉन सेवी बनो। मैंने उस समय कहा भी था कि हमें इस्कॉन भोगी नहीं बनना चाहिए। इस्कॉन का फायदा नहीं उठाना चाहिए, इस्कॉन द्रोही मत बनो। जैसे कि लोग राष्ट्र द्रोही , इसके द्रोही, उसके द्रोही बनते हैं। इस्कॉन द्रोही मत बनो। इस्कॉन त्यागी भी मत बनो। अर्थात इस्कॉन को त्याग अथवा छोड़ दिया और इधर उधर भटक रहे हैं, मठ मंदिर जा रहे हैं और वहां जुड़ रहे हैं, यह मत करो। मूलभूत रूप से हमें इस्कॉन भोगी नहीं, इस्कॉन द्रोही नहीं, इस्कॉन त्यागी नहीं अपितु इस्कॉन सेवी बनना है।
मतलब इस्कॉन द्रोही, इस्कॉन त्यागी , इस्कॉन भोगी होना मतलब यह प्रभुपाद द्रोह हो जाता है अर्थात जैसे हमनें प्रभुपाद को त्याग दिया,यह आपके गुरु महाराज पर भी लागू होता है। गुरु द्रोही, गुरु भोगी, गुरु त्यागी… नहीं! अपितु गुरु सेवी बनो। गुरु सेवी, प्रभुपाद सेवी, इस्कॉन सेवी या सेवक बनो। निश्चित ही जो अभी आप मुझे सुन रहे हो , यह हम सभी के लिए है। आप जो वृंदावन में भी हो या वृंदावन में नहीं हो तो भी आपके लिए भी यह संदेश अथवा उपदेश भी है। हरि! हरि! इस वृंदावन की यात्रा में हमें कृष्ण बलराम और राधा श्याम सुंदर की मंगला आरती गाने का भी और आरती करने का भी अवसर मिला।
विग्रह आराधना अथवा कम से कम आरती तो उतारता हूं। मुझे भगवान की आरती उतारना अच्छा लगता है। वृंदावन के विग्रह बहुत बहुत विशेष हैं। अनुभव होता है, वहीं वृन्दावन के भगवान वहीं जन्मे, वही लीला खेलने वाले भगवान अर्च विग्रह के रूप में विद्यमान है। वें स्वयं भगवान हैं या वहां साक्षात भगवान की उपस्थिति का कुछ अनुभव होता है। वहीं पर लीलाएं हो रही हैं। वहीं पर रमणरेती है, जिस रेती में कृष्ण बलराम रमते हैं और राधा श्याम सुंदर और ललिता विशाखा भी है । कल ही मैनें भागवत की अंग्रेजी में कथा की और मैं कह रहा था कि ऑल्टर पर कृष्ण बलराम का विग्रह दर्शन करते समय वहां एक गाय हैं, एक बछड़ा भी है। दोनों गाय नहीं, दोनों बछड़े नहीं है। मैंने पहले भी देखा था लेकिन जब कल मैंने आरती भी उतारी अर्थात मंगला आरती मैंने देखा कि एक गाय के सींग थे अर्थात गाय थी। दूसरा बछड़ा था, उसके सींग नहीं थे। बछड़ों के सींग नहीं होते हैं। आकार तो लगभग एक जैसा ही लगता है, लेकिन एक के सींग है ,दूसरे के नहीं हैं। एक गाय हैं और एक बछड़ा है। भागवत में कृष्ण के वत्सपाल होने की चर्चा हो रही थी तब मैंने पूछा कि कृष्ण और बलराम वत्सपाल है? या गोपाल है?। कोई कह रहा था गोपाल है और कोई कह रहा था वत्सपाल है। हमने कहा कि लगता है यह दोनों ही हैं। ऑल्टर पर गाय भी है गोपाल हो गए और वत्स अर्थात बछड़ा भी है तो वत्सपाल हो गए। हमनें दोनों लीलाओं का वत्सपाल लीला, गोपाल लीला का दर्शन किया।
भगवान का जब श्रृंगार होता है तब
(मैंने कल कहा था और मैंने कई बार देखा भी है) कृष्ण बलराम के हाथ में रस्सी अथवा डोरी देते हैं अर्थात कृष्ण बलराम एक डोरी धारण किए हैं और पुजारी एक डोरी को गाय के गले में बांध देते हैं और दूसरी डोरी बछड़े के गले में बांध देते हैं। कृष्ण भगवान के हाथ में कहीं लंच पैक अथवा टिफिन भी होता है। कई बार उनके हाथ में फल भी होते हैं। ऐसे ही कृष्ण बलराम के हाथ में गाय बछड़े भी हैं और वे साथ साथ में टिफिन भी लिए हुए हैं। श्रृंगार दर्शन के समय अर्थात 7:15 पर जो दर्शन होता है । लगता है कि कृष्ण बलराम गोचारण लीला अथवा गोचारण प्रस्थान के लिए तैयार हैं। तब विचार आता है और दिल ललचाता है कि क्या हम भी जा सकते हैं। अन्य भी कई सारे ग्वाल बाल साथ में हैं ही, कृष्ण बलराम क्या हम आपके साथ जा सकते हैं? आप तो तैयार हो। जब वृन्दावन के कृष्ण बलराम का दर्शन करते हैं, तब ऐसा कुछ अनुभव भी करते हैं। ऐसे विचार आते हैं। वृंदावन के कृष्ण बलराम या अन्य विग्रह कुछ बहुत ही विशेष है उनकी आरती करने का भी अलग ही अनुभव होता है। कृष्ण श्रीमद भगवतगीता में कहते हैं-
*मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||*
(श्रीमद भगवतगीता 18.65)
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र हो |
कृष्णा अल्टीमेटली इतना ही करने को कहते हैं। राधा श्यामसुंदर ललिता विशाखा गौर निताई के विग्रह का स्मरण करो, उनके भक्त बनो। उनकी आराधना करो। केवल आरती उतारने से आराधना नहीं होती और भी अन्य कई प्रकार की आराधना होती है। उनको भोग खिलाओ, यह भी आराधना है। उनका अभिषेक करो, उनका श्रृंगार करो। यह भी आराधना है, उनके लिए कीर्तन करो। जब आरती होती है अथवा विग्रह की आराधना होती है तब साथ में कीर्तन जरूर होना चाहिए। कीर्तन भजन के साथ आरती होनी चाहिए। आरती उतारी जा रही है तो यह भगवान की आराधना है भगवान का कीर्तन हो रहा है
*कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ॥*
( श्रीमद भागवतम 11.5.32)
अनुवाद:- कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है।
हम कीर्तन करते हैं, आराधना करते हैं।मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु भगवान ने कहा कि मेरी आराधना करो और मुझे नमस्कार करो। हम जब विग्रह को जब नमस्कार करते हैं, मां नमस्कुरु हुआ। कृष्ण के विग्रह केंद्र में, नाम भी केंद्र में, भागवत श्रवण भी केंद्र में, प्रसाद
भी केंद्र में होना चाहिए। प्रसाद के बिना क्या जीवन है। हरि! हरि!
तत्पश्चात कथा कीर्तन करने का भी अवसर प्राप्त हुआ ही। भागवतम कक्षाएं हिंदी व अंग्रेजी में हुई। कृष्ण बलराम हॉल में हिंदी में कथाएं होती है।
टेंपल हॉल में अंग्रेजी में कथाएं होती हैं, वह सेवा करने का भी अवसर प्राप्त हुआ। इस समय श्रील प्रभुपाद की गुरु पूजा और कीर्तन, प्रभुपाद के विग्रह के साथ कृष्ण बलराम मंदिर बाहर से कीर्तन के साथ परिक्रमा होती है। मंदिर के अध्यक्ष पंचगौड़ प्रभु कहते हैं कि ऐसी गुरु पूजा वृंदावन में होती है। बड़े उत्साह के साथ, काफी बड़ी संख्या में भक्त उपस्थित रहते हैं। गुरु पूजा के उपरांत श्रील प्रभुपाद के विग्रह के साथ पूरे मंदिर की परिक्रमा होती है। ऐसी गुरु पूजा शायद ही कहीं पर होती होगी। ऐसा मंदिर के अध्यक्ष कह रहे थे। हरि! हरि! हम थोड़ा अधिक जप कर ही रहे थे, वैसे भी चातुर्मास तो चल ही रहा है। हम धाम वास के लिए भी गए थे, ताकि अधिक जप भी कर पाए। हमनें वृंदावन में
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* का कीर्तन और जप भी थोड़ा अधिक बढ़ाया। बहुत सारी बातें है, एक बात और कहना चाहूंगा कि हम कुछ अध्ययन भी कर रहे थे। वृंदावन चंद्र महाराज के सानिध्य में हम दोनों कुछ पढ़ रहे थे, आचार्यों की भागवत पर टीका, गोपाल भट्ट गोस्वामी की कृष्ण कर्णामृत पर टीका, जो बड़ी ही रसभरी अथवा अमृत से भरी है। वही उनकी टीकाएँ हैं या श्रीधर स्वामी की टीकाओं के संबंध में कहा है
*अहं वेद्मि शुको वेत्ति व्यासो वेत्ति न वेत्ति वा । भक्त्या भागवतं ग्राह्यं न बुद्ध्या न च टीकया ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 24.313)
अनुवाद ” [ शिवजी ने कहा : ] श्रीमद्भागवत को या तो मैं जानता हूँ या व्यासपुत्र गोस्वामी जानते हैं , तथा व्यासदेव जानते हैं अथवा नहीं जानते । इस निष्कलंक पुराण श्रीमद्भागवत को केवल भक्ति से सीखा जा सकता है – भौतिक बुद्धि , चिन्तन विधियों या काल्पनिक टीकाओं द्वारा नहीं । ”
व्यासदेव जानते हैं, शुकदेव जानते हैं पता नहीं राजा जानते हैं या नहीं जानते लेकिन पता नहीं श्रीधर स्वामी पाद जानते हैं या नहीं जिन्होंने भागवत पर टीका लिखी है। जिस टीका को चैतन्य महाप्रभु पसंद करते थे। श्रीधर स्वामी, चैतन्य महाप्रभु से भी पहले हुए, श्रीधर सक्लम वेति अर्थात श्रीधर स्वामी पाद सब कुछ जानते हैं। वे नरसिंह के भक्त थे। नरसिंह प्रसाद या कृपा से वह सब जानते थे, उन टीकाओं व कुछ भाष्यों को भी हम वृंदावन में पढ़ रहे थे। इतना कुछ पढ़ना सुनना और सीखना बाकी है किंतु और इतनी सारी व्यस्तता रहती है कि जो चाहते हैं उतना नहीं कर पाते । हरि !हरि !यह सब वृंदावन में कर ही रहे थे। वृंदावन मेरी जन्मभूमि है जहां पर मैंने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा प्राप्त की इसलिए वृंदावन को मैं अपनी जन्मभूमि समझता हूं। अन्य व्यस्तताओं व जिम्मेदारियों के कारण इस जन्म भूमि को छोड़कर कर्म भूमि अर्थात जहां-जहां प्रचार के लिए जाना पड़ता है हरि! हरि !वृंदावन की यादें तो सताती रहेगी और वृंदावन को याद करते हुए अपना संबंध बनाए रखते हुए भी हम कर्मभूमि में कुछ कर्म करेंगे, कुछ सेवा करेंगे, प्रचार करेंगे। हरि! हरि! वृंदावन धाम की जय!
श्रीकृष्ण बलराम की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
वृंदावन धाम से,
10 सितंबर 2021.
804 स्थानों से जप हो रहा है। मतलब आप सभी का समावेश। गौरांग। जय श्री कृष्ण बलराम की जय। आज की हमारी कक्षा कहो या जप चर्चा शार्ट ही होगा। हरि हरि। 7:15 बजे यहां श्रृंगार दर्शन होगा और फिर मुझे गुरु पूजा कीर्तन भी गाना है। सब पद्ममाली प्रभु सूचित करेंगे पुनः 8:00 बजे भागवतम् कक्षा होगी इंग्लिश में। तो आपका स्वागत है उस समय भी हमारे इंग्लिश भागवतम से जुड़ने के लिए। हरि हरि। और क्या कहें? यह मेरा आखिरी दिन भी है वृंदावन में आज। अच्छा समाचार तो नहीं है, न तो इस बात से मैं प्रसन्न हूं। लेकिन क्या करें कर्तव्य है तो प्रस्थान करना पड़ेगा। फिर मिलेंगे आपको कई अलग अलग स्थानों पर।
चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष
लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।
लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
इन शब्दों में ब्रह्मा जी वृंदावन की स्थिति का गाना किए है ब्रह्मसंम्हिता में। यह धाम कैसा है चिंतामणि है यह पृथ्वी, आग, वायु, आकाश से नहीं बना है, जैसे ब्रह्मांड बना है। यह चिंतामणि धाम है। और प्रकरसद्मसु यहां कई सारे भवन है सद्मसु मतलब भवन कई सारे भवन है। मतलब नंद भवन और ,और और ब्रज वासियों के भवन है। यहां कई सारे नगर और ग्राम है इस धाम में। प्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष
लक्षावृतेषु और यहां के वृक्ष कल्पवृक्ष है। आपको समोसा भी मिल सकता है ऐसा प्रभु पर कहे एक समय। यह वृक्ष केवल पत्रं, पुष्पम, फलम ही नहीं देते या तोयम भी। यह खाने के कुछ व्यंजन पदार्थ भी देते हैं इसीलिए तो कहा है कल्पवृक्ष। और कई असंख्य यह वन ही है तो वृंदावन। पूरे को वृंदावन कहां है मतलब फॉरेस्ट। तो फिर वृक्ष ही वृक्ष है। वैसे उन वृक्षो में तुलसी के वृक्ष है। तुलसी हैं, तुलसी का वन है यह। मतलब तुलसी देवी का है यह भी समझना चाहिए। वृंदा यः वनं वृंदावनं। हरि हरि। और वृंदा देवी यहां का बहुत सारा संचालन करती है। वृंदा देवी एक प्रकार से यहां की इवेंट मैनेजर है। समझते हैं इवेंट मैनेजर? और इसीलिए भी यह वृंदावन है, वृंदा देवी का वन है और यहां तुलसी भी है। वृंदा देवी की जय चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् तो मनुष्य के अलावा यहां पशु भी है, वृक्ष भी है, सद्मसु भवन भी है और पशु है। पशुओं में गौ माता की जय। वैसे भी इसको वृंदावन तो कहते ही हैं, इसको गोकुल भी कहते हैं। गोकुल वृंदावन कहते हैं या गोलोक कहते हैं। तो यह गाय का ही लोक है। तो गोपगोभिरलङ्कृतम् यह शोभायमान है वृंदावन किससे है? शोभा गायों से, गायों के कारण और गोपो के कारण। गोप और गाय या गो और गोप एक तो गायें हैं। सुरभीरभिपालयन्तम् कहां ही है पालन करते हैं गायों का और वैसे गायें सुरभि गायें हैं।
वृक्ष है कल्पवृक्ष, तो गायें है सुरभि गायें। और वे भी बहुत कुछ देती रहती हैं गोरस कहते हैं। गायों से गोरस प्राप्त होता है रस तो फलों का रस होता है। लेकिन गोरस भी कहते हैं, गोरस मतलब उत्पादन गो उत्पादन। उसमें मुख्य तो दूध है, दही है, छाज है और मक्खन है। मक्खन लाल कृष्ण कन्हैया लाल की जय। फिर कृष्ण की लीलाएं अधूरी रह जाती अगर वृंदावन में माखन नहीं होता। अगर गाय नहीं होती तो माखन भी नहीं होता। तो कन्हैया ने सारी व्यवस्था की हुई है। तो यहां पर पशु है तो गाय जैसे पशु है, पक्षी है मयूर जैसे पक्षी है। किसी भक्त कवि ने ऐसे अपनी इच्छा भी रखी है मुझे हे प्रभु पक्षी बनाना चाहते हो तो वृंदावन का पक्षी बनाओ या वृंदावन का कुछ भी बना दो मुझे वृंदावन का बना दो मुझे वृंदावन में वास दो। पशु बनाओ, पक्षी बनाओ, वृक्ष बनाओ। तो यहां के कल्पवृक्ष वैसे कई ऋषि मुनि वृक्षो के रूप मंन उपस्थित है। ऐसी भी समझ है कल्पवृक्ष सुरभीरभिपालयन्तम् अभिपालयन्तम् गायों का लालन-पलन यह कृष्ण का व्यवसाय है। कृष्ण वैश्य समाज के हैं। नंद महाराज भी वैश्य समाज के प्रधान है। तो उनका धर्म है कृषि, गोरक्ष, वाणिज्य। कृष्ण भी वही करते हैं गायो की सेवा करते हैं। लूट लूट दही माखन खायो ग्वाल बाल संग धेनु चरायो माखन की चोरी करते हैं या चोरी करने में उनको आनंद आता है। चोराग्रगण्य चोरों में अग्रगण्य बनते हैं. जो भी भूमिका भगवान निभाते हैं वह सर्वोपरि होती है, वैसे और कोई नहीं बन सकता। चोर बनना है तो कृष्ण जैसा चोर नहीं मिलेगा आपको चोर नंबर वन।
इसी प्रकार से कई प्रकार के चोरी करते हैं चित्त चोर भी है या गोपी वसन हर गोपियों के वस्त्रों की चोरी करते हैं। कृष्ण की माधुर्य लीला श्रीराधिका-माधवयोर्अपार- माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् यह वृंदावन है ही माधुर्य धाम, वैकुंठ होते हैं ऐश्वर्य धाम, मायापुर है कौन सा धाम? औदार्य धाम। वृंदावन में माधुर्य होता है और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसी माधुर्य का वितरण करते हैं। और वही माधुर्य है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह वृंदावन का माधुर्य ही है। जिसको श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो कृष्ण ही है केवल कृष्ण नहीं राधा और कृष्ण। वृंदावन के राधा और कृष्ण टू इन वन हो गए हैं। दो के एक बन जाते हैं एकात्मानावपि एक आत्मा बन जाते हैं। और वैसे है भी देह – भेदं गतौ तौ ऐसे भी कहा है चैतन्य चरितामृत में। तो वे दो रूपों में रहते हैं वृंदावन में और मायापुर में उनका एक रूप होता है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का गौर रूप। उस रूप में वृंदावन के माधुर्य का भी वितरण करते है। श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित यह हरे कृष्ण आंदोलन उसी माधुर्य का वितरण कर रहा है सारे विश्व भर में। यह नहीं कि यह वितरण केवल मायापुर नवद्वीप में ही होता है। वितरण प्रारंभ तो वहां हुआ सही किंतु इस माधुर्य का वितरण विश्वभर में हो रहा है चैतन्य महाप्रभु की ओर से। संकीर्तनैक पितरों फाउंडिंग फादर्स चैतन्य महाप्रभु या गौर नित्यानंद उनकी योजना के अनुसार उनकी भविष्यवाणी के अनुसार यह वृंदावन के माधुर्य का वितरण सर्वत्र सर्वत्र प्रचार होई बे मोर नाम सर्वत्र प्रचार हो रहा है।
हरि हरि। तो हरिनाम के रूप में वृंदावन के राधा कृष्ण को श्रील प्रभुपाद प्रकट कराए उनको न्यूयॉर्क में। और धाम भी प्रकट हो रहे हैं न्यू वृंदावन, न्यू जगन्नाथ पुरी और कई सारे विग्रह। यह बालक क्या करेगा 108 मंदिरों का निर्माण करेगा। तो जहां-जहां मंदिरों की स्थापना हुई तो वहां धाम का भी प्राकट्य है। और श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों के माध्यम से भी यह माधुर्य का वितरण होता है। ग्रंथों में भागवतामृत का माधुर्य भरा हुआ है गीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत में। तो हम जब ग्रंथों का वितरण करते हैं अब यह भद्र पूर्णिमा आ रही है तो भागवत के सेट्स का वितरण करना है। तो किसी को भागवत दिया मतलब क्या दिया? वृंदावन के माधुर्य को हम शेयर करते हैं देते हैं उनको। तो वृंदावन का माधुर्य विग्रहो के रूप में, ग्रंथों के रूप में, उत्सवों के रूप में, अब जन्माष्टमी मनाई जाती है सर्वत्र। और गौशाला है सर्वत्र स्थापित हो रही है जो गौ भक्षक थे। एक समय के गौ भक्षकों को श्रील प्रभुपाद गौ रक्षक बनाएं। और वह भी अभी सीखे हैं
नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च ।
जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥
इस प्रार्थना के साथ विश्व भर के लोग अब गाय की आराधना कर रहे हैं। गाय की सेवा कर रहे हैं। गौशालाओं की स्थापना हुई है। यह सारी ब्रज की संस्कृति है, वृंदावन की संस्कृति है। जिसको हम कभी-कभी भारतीय संस्कृति कहते हैं, तो भारतीय संस्कृति का ओरिजिन तो वृंदावन ही है। वृंदावन की संस्कृति, वृंदावन की जीवन शैली, वृंदावन के आचार- विचार, हाव -भाव, नृत्य- गायन। तो इस प्रकार वृंदावन को ही फैलाया जा रहा है सर्वत्र। और फिर प्रसाद भी है तो कृष्ण प्रसाद या राधा कृष्ण प्रसाद या जगन्नाथ प्रसाद और जगन्नाथ रथ यात्राएं। तो यह सब जो जो वितरित किया जा रहा है, जो जो आपको प्राप्त हो रहा है अपने अपने घरों में, नगरों में, ग्रामों में, देशों में उसका श्रोत तो वृंदावन में है। वृंदावन धाम की जय। इस प्रकार आप सबका, हम सबका वृंदावन से संबंध स्थापित होता है।
वृंदावन से हम जुड़ जाते हैं और हम जहां भी है वैसे वह स्थान फिर वृंदावन बन जाता है। तीर्थी कुर्वंति तीर्थानि वह तीर्थ बन जाते हैं। हमारे घर को मंदिर बनाना है, घर का मंदिर बनाओ। दिल का तो मंदिर है ही दिल एक मंदिर है। तो घर एक मंदिर के विषय में क्या? तो घर का जब मंदिर बनाते हैं मंदिर मतलब वृंदावन हो गया, वृंदावन में रहते हैं। वृंदावन में रहो और वही घर बैठे बैठे फिर वृंदावन का स्मरण भी करो। वृंदावन पहुंच जाओ। क्योंकि हमें एक दिन यही आना है, वृंदावन ही हमारा लक्ष्य है, क्योंकि हम सारे जीव यही के हैं वृंदावन के हैं। हमारी मातृभूमि पितृभूमि सब वृंदावन ही है। क्योंकि माता कौन है माता पिता सब कृष्ण है। राधा-कृष्ण हमारे माता-पिता है, तो उनकी भूमि ही तो हमारी भूमि हुई। हां संभ्रमित होकर हम क्या-क्या सोचते रहते हैं। सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम् हमको निर्मल बनना है सारी उपाधियों से मुक्त होकर। अंततोगत्वा त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।
वृंदावन धाम की जय।
श्री कृष्ण बलराम की जय।
श्रील प्रभुपाद की जय।
गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
वृंदावन धाम
9 सितंबर 2021
812 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं ।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ! तो ठीक है तैयार हो जाइए । पद रेणू तुम तैयार हो ? और एकनाथ गौर ? और सभी लोग ! जगन्नाथ स्वामी ! आप जहां भी हो तैयार हो जाइए । एक तो आज जपा टॉक 7:15 बजे तक यह चलेगा । आज यहां कृष्ण बलराम हॉल में हिंदी कक्षा होगी । हिंदी भागवतम् क्लास होगा तो मैं क्लास दे रहा हूं । आपका स्वागत है तो इसीलिए यह जो यह जो क्लास है इसको थोड़ा छोटा करेंगे ताकि 8:00 बजे के भागवत कक्षा की तैयारी कर सकते हैं । ठीक है तो आज की मंगल आरती की गायन की सेवा कृष्ण बलराम की कृपा से और श्रील प्रभुपाद की कृपा से मुझे प्राप्त हुई थी और शायद जानते होंगे नहीं जानते होगे यहां कृष्ण बलराम के मंगल आरती में वैसे श्रील प्रभुपाद के समाधि मंदिर में गुर्वष्टक गाया जाता है । “संसार-दावानल-लीढ-लोक” उस अष्टक का गुर्वष्टक का गान तो श्री प्रभुपाद के समाधि मंदिर में होता है 4:10 पर शुरुआत होती है और फिर 4:30 बजे कृष्ण बलराम मंदिर में जब मंगल आरती होती है तो उस मंगल आरती में जो गीत गाया जाता है
विभावरी – शेष , आलोक – प्रवेश ,
निद्रा छाडि ‘ उठ जीव ।
बोलो हरि हरि , मुकुन्द मुरारि ,
राम – कृष्ण हयग्रीव ॥ 1 ॥
अनुवाद:- 1. अरे जीव ! रात्रि समाप्त हो गई है और उजाला हो गया है अतः निद्रा त्यागकर उठो तथा श्रीहरि , मुकुन्द , कृष्ण तथा हयग्रीव नामों का कीर्तन करो ।
तो सोचा कि जिसको मैंने गाया जिस मंगल आरती के गीत को तो उसी को सुनाते हैं या उसी के साथ मेरा भी कुछ चिंतन होगा या मनन होगा । गा तो लिया है लेकिन कभी-कभी गाते समय गाते तो हैं लेकिन सुनते नहीं या ध्यान नहीं देते । देना तो चाहिए ध्यान पूर्वक गायन करना चाहिए या क्या गा रहे हैं जिसको समझना चाहिए । समझ के साथ गाने से या ध्यान पूर्वक गायन करने से फिर उस गायन का पूरा लाभ भी होगा और वह लाभ क्या है ? स्मरण है । कृष्ण का स्मरण होगा । जब गायन होता है गायन हुआ कीर्तन और फिर श्रवण । एक व्यक्ति गाते हैं और मैं गा रहा था पीछे से भक्त गा रहे थे या मैं जब गा रहा था तो वे सुन रहे थे । वे गा रहे थे तो मैं सुन रहा था तो यह श्रवण कीर्तन होता ही है ।
श्रीप्रह्राद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 7.5.23 )
अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं ।
उसी से विष्णु का स्मरण या कृष्ण का स्मरण या जो भी गायन का या श्रवण कीर्तन का जो विषय है तो उसी का स्मरण भी होना चाहिए । ठीक है तो वैसे एक दिन आपको सुन आए थे वह भी श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की रचना है । “यशोमती नंदन व्रजबर नागर” तो उस गीत में भी या कृष्ण का जो संबंध है भक्तों के साथ फिर यशोदा के साथ है या ग्वाल वालों के साथ या गोपियों के साथ है या अन्य विशेष विशेष भक्तों के साथ है उसका भी स्मरण दिलाते हैं यह कृष्ण का नाम । हरि हरि !! और फिर जब उस नाम में सारे नामों का समावेश होता ही है । जप करते समय हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते समय भी अगर यह गीत याद आ जाए या वैसे कोई भी गीत वैष्णव गीत लेकिन यहां एन नाम वाली गीत का हम उल्लेख कर रहे हैं तो इसका भी स्मरण करते हैं जप करते समय वह तो उचित है । हमारे स्मरण को बढ़ाने वाला या बढ़ाने में मदद करने वाला यह गीत है तो आइए थोड़ा, समय तो बीत रहा है उसका थोड़ा सुन लेते हैं समझ लेते हैं ।
“विभावरी – शेष , आलोक – प्रवेश” रात्रि बीत चुकी है अब भोर का समय हुआ है प्रातःकाल या ब्रह्म मुहूर्त “आलोक – प्रवेश” आलोक मतलब प्रकाश और कुछ या आभास हो रहा है कुछ आभास कुछ प्रकाश या सूर्य उदय हुआ तो नहीं किंतु आभास हो रहा है । इसी को भोर कहते हैं या वर्न कहते हैं तो आलोक प्रवेश तो सूर्य किर्ने तो नहीं दिख रही हे, यह सब आप कल्पना कर सकते हो तो फिर क्या करने का समय है रात बीत चुकी है या बीती है लगभग और आलोक प्रवेश तो क्या करो ? “निद्रा छाडि ‘ उठ जीव” हे जीव निद्रा को त्यागो और उठो । उठकर क्या करना है ? बोलो, मुंह खोलो और बोलो क्या बोलना है ? हरि हरि, बोलो हरी हरी । बोलो हरी हरी । मुकुंद मुरारी तो हरी हरी जानते हो वैसे एक-एक शब्दों की खूब व्याख्या हो सकती है । एक-एक शब्द कहो एक एक नाम कहो फिर एक-एक नाम तो कृष्ण ही है । एक एक नाम कृष्ण है तो कितनी सारी व्याख्या संभव है । मुकुंद मुरारी तो कृष्ण को मुकुंद क्यों कहते हैं ? मुक्तिदाता इसलिए मुकुंद कहते हैं । उनका एक नाम मुरारी है । मुर राक्षस के वे आरि या शत्रु रहे । इसलिए मुर-अरी । “राम – कृष्ण हयग्रीव” तो हरी हरी बोलो या रामकृष्ण बोलो, हयग्रीव बोलो । हय मतलब घोड़ा और ग्री मतलब गर्दन तो एक भगवान का अवतार या रूप है घोड़े का गर्दन या मुख है उस रूप को हयग्रीव कहते हैं ।
नृसिंह वामन , श्रीमधुसूदन ,
व्रजेन्द्रनन्दन श्याम ।
पूतना – घातन , कैटभ – शातन ,
जय दाशरथि – राम ॥ 2 ॥
अनुवाद:- 2. नृसिंह , वामन , मधुसूदन , ( पूतना का वध करने वाले ) तथा कैटभशातन ( कैटम नामक असुर का नाश करने वाले ) व्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर का नाम लो । वे रावण का वध करने के लिए दशरथनन्दन श्रीराम के रूप में अवतरित हुए थे ।
“नृसिंह वामन” आगे का नाम है नरसिंह और वामन भी तो यह भी कृष्ण ही है । कृष्ण बन जाते हैं “केशव धृतनरहरी रूप” केशव धारण करते हैं नरहरि रूप । “केशव धृत वामन रूप” तो “नृसिंह, वामन, श्रीमधुसूदन” सुदन मतलब शत्रु तो यह मधु कैटभ भारे आगे आने वाला है तो मधु दैत्य का वध करने वाले हे श्री मधुसूदन फिर कई भाव आता है कि मुझ में भी ऐसा ही कोई असुर छुपा हुआ है । मुझ में भी कुछ आसुरी प्रवृत्ति है तो है प्रभु उस आसुरी प्रवृत्ति का मुझ में छुपे हुए उस असुर का वध करो । जैसे और और असुरों का आप वध किए तो इस असुर को क्यों छोड़ रहे हो । इसका भी ऐसी प्रार्थना भक्त करते हैं या अर्जुन भी कर रहे थे भगवद् गीता । “व्रजेन्द्रनन्दन श्याम” और आप व्रजेंद्र, व्रज-इंद्र । वृंदावन के इंद्र हो आप व्रजेंद्र नंदन । नहीं नहीं । व्रजेंद्र तो नंद महाराज है । वैश्य समाज के मुखिया है प्रधान है इंद्र है । इंद्र मतलब मुखिया तो उनके नंदन आप हो । व्रजेंद्र के नंदन हो । श्याम हो आप, घनश्याम हो तो भगवान के अंग के रंग का उल्लेख श्याम कहने से फिर शाम कहते हैं श्याम मतलब काला साबला लेकिन ऐसा अर्थ है । श्याम कहते हैं हमको कौन याद आते हैं ? कृष्ण याद आते हैं । श्याम का तो कई सारे अर्थ हो सकते हैं । श्याम मतलब श्याम वर्ण का लेकिन श्याम कहते ही हम और कोई विचार करते ही नहीं । पहले कौन याद आते हैं ? घनश्याम ही याद आते हैं । “पूतना – घातन” तो पूतना का वध करने वाले हैं कन्हैया बालकृष्ण ने, कृष्ण जब छट्टी का दिन था 6 दिन के थे श्री कृष्ण और उन्होंने 6 दिन के बालक ने उस विशालकाय वध किया । “कैटभ – शातन” कैटभ नाम का एक विशेष असुर रहा तो उसका विनाश किया । “जय दाशरथि – राम” और जय हो किसकी ? दशरथी राम । केवलराम नहीं कहा । दास रथी । दशरथ के पुत्र दशरथ नंदन तो यह शैली है संस्कृत की । दशरथ का पुत्र दासरथी । वसुदेव का पुत्र वासुदेव । वैसे शब्द बन जाते हैं नाम बन जाते हैं या राम का तो जय दासरथी राम । दशरथी नहीं । दशरथी कहना गलत होगा । दाशरथि कहना होगा ।
यशोदा – दुलाल , गोविन्द – गोपाल ,
वृन्दावन – पुरन्दर ।
गोपीप्रिय – जन , राधिका – रमण
भुवन – सुन्दरवर ॥ 3 ॥
झंडू बाम:- 3. यशोदा मैया के लाडले गोपाल का नाम लो । वे वृन्दावन में सर्वश्रेष्ठ हैं , वे गोपियों के प्रियतम हैं तथा श्रीमती राधारानी को आनन्द प्रदान करने वाले हैं । समस्त त्रिभुवन में अन्य कोई उनके समान सुन्दर नहीं है ।
“यशोदा – दुलाल” यशोदा के दुलाल, सच्ची दुलाल वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सच्ची दुलाल । केवल गाय के रखवाले ही नहीं, गाय को आल्हाद देने वाले गोविंद । गो मतलब गाय गो मतलब पृथ्वी, गो मतलब भूमि भी तो इनको सुख आनंद देने वाले गोविंद कहते हैं और गोपाल गाय के रखवाले गाय की सेवा करते हैं । गाय से प्रेम करते हैं श्री कृष्ण गोपाल । “वृन्दावन – पुरन्दर” तो वृंदावन के इंद्र जैसा ही बात “पुरंदर” वृंदावन के पुरंदर हो आप । “गोपीप्रिय जन” और गोपियों के प्रिय हो आप हे श्री कृष्ण तो नाम तो कहा गोपीप्रिय जन । आगरा में सोचेंगे तो बहुत कुछ याद आता है । गोपी और गोपीजन और फिर गोपियों के प्रिय जन ।
“राधिका – रमण” और राधारमण राधिका रमण राधिका के साथ रमने वाले आप । “मया सह रमस्व” हम भी जब जप करते हैं तो यह भी व्याख्या है । “हरे हरे” अंत वाला हरे हरे जब कहते हैं 15 वा 16 वा नाम हरे हरे । उस वक्त हम क्या कहते हैं ? हरे हरे कहते हैं । मया सह रमस्व” आप राधिका के साथ तो रमते हो औरों के साथ रमते हो कईयों के साथ रहते हो वृंदावन में सभी के साथ रमते हो तो हे प्रभु मेरे साथ फिर रमीए ऐसी प्रार्थना हम करते हैं जब हम जप करते हैं या नाम जप स्मरण करते हैं तो रमणरेती में हम बैठे हैं तो यहां की रेती जो व्रज की रज यहां है । यहां रमण किए कृष्ण बलराम इसीलिए श्रील प्रभुपाद ने यहां कृष्ण बलराम की विग्रह कि स्थापना किए श्री कृष्ण बलराम की जय ! इसीलिए कृष्ण बलराम के साथ ऑल्टर में एक गाय है एक बछड़ा है और 900000 गायों में से एक ऑल्टर में भी है और उसका बछड़ा भी है तो यह रमन करते हैं । “भुवन – सुन्दरवर” और भुवन सुंदर । ‘वर’ मतलब श्रेष्ठ हो या त्रिभुवन सुंदर यह सारा जो संसार है ब्रह्मांड है जिसमें आप सुंदर हो, सौंदर्य की खान हो या सौंदर्य वैसे आपका एक वैभव है, माधुर्य है । सौंदर्य का माधुर्य है, वेणू आपका एक माधुर्य है । प्रेम माधुर्य, वेणु माधुर्य, रूप माधुर्य, लीला माधुर्य इसके लिए आप प्रसिद्ध हो ।
रावणान्तकर , माखन – तस्कर ,
गोपीजन – वस्त्रहारी ।
व्रजेर राखाल , गोपवृन्दपाल ,
चित्तहारी वंशीधारी ॥ 4 ॥
अनुवाद:- 4. उन्होंने रावण का अन्त किया , गोपियों के घरों से माखन चुराया , गोपियों के वस्त्र चुराये । वे व्रज एवं व्रजवासियों के रखवाले हैं तथा वंशी बजाकर सभी का चित्त चुरा लेते हैं ।
“रावणान्तकर” दुबारा राम की ओर राम का स्मरण हो रहा है । रावण के अंत करने वाला “रावणान्तकर” । “माखन – तस्कर” तो माखन चोर । माखन तस्कर यह तो कितनी प्यारी लीला है माखन तस्कर । यही समय है कृष्ण, हम तो यहां गा रहे हैं जीव जागो या
“निद्रा छाडि ‘ उठ जीव” हे जीवों उठो और हरी हरि बोलो । कृष्ण जैसे उठते थे वे अपने मित्र को इकट्ठा करके डाका डाला शुरू कर देते । आज उस गली में जाते, आज उस गोपी के घर जाते उस वहां जाते सारी कोशल बनती और ‘मोहि माखन भावे’ ऐसा भी कहते यशोदा से । ‘मेवा पकवान कहती तू’ ‘मुझे नहीं भावे’ मुझे पसंद नहीं है तुम्हारा मेवा पकवान 56 भोग, कचौरी क्या-क्या खिलाती रहती हो मुझे इतना अच्छा नहीं लगता जितना मुझे माखन प्रिय है मुझे माखन खिलाया करो ना । ‘मैया मोहि माखन भावे’ मुझे माखन पसंद है । “गोपीजन – वस्त्रहारी” तो फिर गोपियों के वस्त्रहरण आपने किया चीर घाट पर । वृंदावन के प्रसिद्ध घाटों में एक घाट है चीर घाट जहां वस्त्र हरण किया तो उसकी सारी लीला है ।
श्रीशुक उवाच हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकमारिकाः ।
चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥
(श्रीमद् भागवतम 10.22.1 )
अनुवाद:- शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी का पूजा – व्रत रखा । पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई ।
पहले महीने में शरद ऋतु के बाद हेमंत ऋतु आता है और हेमंत ऋतु में मार्गशीर्ष और पौष 2 महीने होते हैं इन 2 महीनों में से पहला महीना मतलब मार्गशीर्ष महीने में पूरे 1 मास के लिए गोपियां वहां स्नान कर रही थी और पूजा भी कर रही थी कात्यायनी की तो 1 महीने के उपरांत और प्रार्थना भी कर रही थी हमें प्राप्त हो ।
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि । नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः । इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कमारिकाः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.22.4 )
अनुवाद:- प्रत्येक अविवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की : ” हे देवी कात्यायनी , हे महामाया , हे महायोगिनी , हे अधीश्वरी , आप महाराज नन्द के पुत्र को मेरा पति बना दें । मैं आपको नमस्कार करती हूँ । ”
हे देवी “नन्दगोपसुतं” उनको हमें “पतिं कुरु ते नमः” हमें पति रूप में प्राप्त हो कौन ? “नन्दगोपसुतं” नंद महाराज का जो पुत्र है वह हमें प्रति रूप में प्राप्त हो तो श्री कृष्ण आए पूर्णिमा के दिन और वस्त्र हरण किए । हरि हरि !! तो “व्रजेर राखाल” वृंदावन के रखवाले हैं । “गोपवृन्दपाल” तो गोपवृन्द उसके वे पालक है । ‘गोप’ सभी गोप वृंदावन के वृंद मतलब समूह । गोपवृंदपाल तो वे केबल गोपाल ही नहीं है गायों के रखवाले नहीं है वे गोपों के भी रखवाले हे । ‘व्रजजन पालन’ । “चित्तहारी वंशीधारी” या चित्त को हरण करते हैं चित्तहरी ।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( भगवद् गीता 10.9 )
अनुवाद:- मेरे शुद्धभक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं , उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं ।
गीता में कृष्ण ‘मच्चित्ताः’ मेरी भक्त का चित्त मुझ में लगा रहता है तो चित्त हरि है । कृष्ण का एक नाम चित्त हरि । वे हर लेते हैं किसको ? चित् को । “वंशीधारी” आप वंशीधारी हो । वंशी वादन करते हो मुरली वादन करते हो । हरि हरि !!
योगीन्द्र – वंदन , श्रीनन्द – नन्दन ,
व्रजजन भयहारी ।
नवीन नीरद , रूप मनोहर ,
मोहन – वंशीबिहारी ॥ 5॥
अनुवाद:- 5. वे योगियों द्वारा वन्दनीय हैं तथा समस्त व्रजवासियों के भय का हरण करने वाले हैं । तुम उन नन्दनन्दन का नाम लो । उनका सुन्दर रूप नवीन मेघों के समान अत्यन्त मनोहर है और वे वंशी बजाते हुए विहार करते हैं ।
“योगीन्द्र – वंदन” योगी वंदना करते हैं । आप की वंदना करते हैं योगी । “श्रीनन्द – नन्दन” नंदन नंदन के पुत्रों हो । “व्रजजन भयहारी” वृंदावन के जो व्रजजन है उनके भय को हर लेते हो । “भयहरी” भय से मुक्त करते हैं । कई लीलाओं में से किया श्रीकृष्ण ने । “नवीन नीरद” आप नवीन नीरद कृष्ण का नाम हुआ । नवीन ! क्या नवीन ? नीरद ‘नीर’ मतलब जल और ‘द’ मतलब देने वाला । जल कौन देता है ? वादल जल देते हैं । केसे वादल ? नवीन नीरद । फ्रेश मॉनसून क्लाउड जिसको श्रील प्रभुपाद अंग्रेजी में कहते हैं तो उनका जो वादलों का जो रंग का होता है वैसे ही आप उस रंग वाले आप हो । “रूप मनोहर” आपका मन नहीं आपका रूप मनोहरी है मन को हरने वाला है । “मोहन – वंशीबिहारी” तो आप मोहन वंशीबिहारी तो वंसी बजाते हुए आप बिहार करते हो और मोहन मोहित भी करते हो । गोपियों को व्रज जनों को आपने मुरली वादन से ।
यशोदा – नन्दन , कंस – निसूदन ,
निकुञ्जरास विलासी ।
कदम्ब – कानन , रास परायण ,
वृन्दाविपिन – निवासी ॥ 6 ॥
अनुवाद:- 6. वे यशोदा मैया के नन्दन परन्तु कंस के संहारक हैं । वे निकुंजों एवं कदम्ब के वनों में रासलीला करते हैं तथा वृन्दावन के वनों में निवास करते हैं ।
ऊपर नंदनंदन कहा था श्रील भक्ति विनोद ठाकुर लिख रहे हैं गा रहे हैं यशोदा नंदन अब यह यशोदा के नंदन हो या कृष्ण को बहोत, कृष्ण प्रसन्न होते हैं जब हम उनको नंद नंदन या यशोदा नंदन कहते हैं या सचिनंदन कहते हैं । मेरा मां का नाम लिया मेरा मां का नाम ले रहे हैं यह व्यक्ति या मैं यशोदा का हूं । मैं नंदबाबा का हूं ऐसा कह रहे हैं तो कहने वाले से कृष्ण बड़े प्रसन्न होते हैं । जो कहेगा यशोदा नंदन । “कंस – निसूदन” कंस का वध करने वाली “कंस – निसूदन” मथुरा में जैसे पहुंचे श्री कृष्ण और बलराम भी दोनों साथ में पहुंचे थे तो पहली लीला तो मुख्य लीला ‘कंस – निसूदन’ मथुरा में कंस टिला है । एक छोटा सा टीला है, पहाड़ है । रंगेश्वर महादेव मंदिर के पास में तो वहां रंगेश्वर जो वहां के दिगपाल है तो वही पर कंसटिला , कंस निसूदन हुआ । “निकुञ्जरास विलासी” और आप निकुंजो में विलास करते हो गोपियों के साथ राधा के साथ जो लीलाएं संपन्न होती है वृंदावन में वह निकुंज में होती है । ‘निकुंज विराजो घनश्याम राधे राधे’ । ‘कुंज बिहारी राधा कुंज बिहारी’ ।
कुंजों में बिहार करते हैं गोपियों के साथ और फिर गोचरण भूमि में खुले मैदान होते हैं जहां गाय चरती है वह भी एक लीला हुई । मित्रों के साथ खेलते हैं और गायों को चराते हैं वह एक क्षेत्र व्रज का और दूसरा क्षेत्र है जहां गोपियों के साथ मिलते हैं गोपियों के साथ विचरण विलास होता है तो उसको निकुंज कहते हैं और फिर नंद ग्राम में माता पिता के साथ रहते हैं तो यह तीन प्रकार की लीलाएं हैं । साख्य रस, वात्सल्य रस, माधुर्य रस यह अलग-अलग क्षेत्रों में यह अलग-अलग भाव रस वाली लीलाएं संपन्न होती है । “कदम्ब – कानन” और कदम्ब कि वृक्ष जहां हो वहां लीला खेलते हो । “रास परायण” और रास में प्रवीण हो या रास खेलते रहते हो । “वृन्दाविपिन – निवासी” वृंदा विपिन मतलब वृंदावन ही । ‘विपिन’ मतलब वन तो वृंदादेवी का ‘वृंदायाःदेवी वनम्’ वृंदावन तो वहां के आप निवासी हो मतलब आप व्रजवासी हो । वृंदावन वासी हो हे श्री कृष्ण ।
आनन्द – वर्धन , प्रेम – निकेतन ,
फुलशर – योजक काम ।
गोपांगनागण , चित्त – विनोदन ,
समस्त – गुणगण – धाम ॥ 7 ॥
अनुवाद:- 7. वे गोपियों के आनन्द का विशेष रूप से वर्धन करने वाले हैं , प्रेम के अतुल भण्डार हैं तथा अपने पुष्पबाणों से गोपियों के काम को बढ़ाने वाले हैं । वे गोप बालकों के चित्त को आनन्दित करने वाले एवं समस्त गुणों के आश्रय हैं ।
“आनन्द – वर्धन” आनंद को बढ़ाने वाले आप हो ।”प्रेम – निकेतन” प्रेम का निकेतन । “फुलशर – योजक काम” और आप फूलों से बने हुए वाण । उसकी वृष्टि करते हो या उसको चलाते हो वाण उसको काम वाण लेकिन यह प्रेम वाण है । पुष्प वाणाय कृष्ण का पुष्प वाणाय तो उसे फिर गोपियां घायल हो जाती है और उसी के साथ उनका प्रेम तो उसे फिर गोपियां घायल हो जाती है और उसी के साथ उनका प्रेम और उदित होता है । प्रेम बढ़ता है गोपियों का उसी के साथ “फुलशर – योजक काम” ।
“गोपांगनागण” गोप-अंगणा मतलब स्त्रियां गोपांगणा गण तो आप गोपांगणा के प्रिय । “चित्त – विनोदन” चित्त को आनंद देने वाले । “समस्त – गुणगण – धाम” और सभी गुणों के खान । “समस्त – गुणगण – धाम” एक गुण दूसरा गुण गुणगण धाम । समस्त गुणों के खान आप हो ।
यामुन – जीवन , केलि – परायण ,
मानसचन्द्र – चकोर ।
नाम – सुधारस , गाओ कृष्ण – यश
राख वचन मन मोर ॥ 8 ॥
अनुवाद:- 8. वे यमुना मैया के जीवनस्वरूप हैं और उसके तटों पर नाना क्रीड़ायें करने में रत रहते हैं । वे राधारानी के मनरूपी चन्द्रमा के चकोर हैं । श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कह रहे हैं – हे मेरे मन ! तुम मेरी बात मान लो और निरन्तर अमृतसदृश श्रीकृष्ण के इन नामों का यशोगान करो ।
“यामुन – जीवन” यामुन मतलब यमुना के जीवन आप यमुना के जीवन हो । वैसे यमुना जीवन वह सही नहीं होगा व्याकरण दृष्टि से तो ‘जामुना जीवन’। “केलि – परायण” केली मतलब लीला में आप परायण हो, प्रवीण हो, कुशल हो । कई लीलाएं खेलते रहते हो आप “केलि – परायण” । “मानसचन्द्र – चकोर” क्योंकि आप कृष्णचंद्र हो मानसचन्द्र – चकोर या चकोर पक्षी भी होता है तो जिस की प्रतीक्षा में जो प्रतीक्षा में रहता है जल की प्रतीक्षा में ।
“नाम – सुधारस” तो किसने को कहा है; कृष्ण है चकोर और कृष्ण चकोर जो है वह कैसे जीवित रहते हैं ? जो राधा के मन से उत्पन्न होने वाली जो भाव या कांति है उसी पर यह चकोर उसी को ग्रहण करता है, उसी से जीवित रहता है तो कृष्ण है चकोर “मानसचन्द्र – चकोर” और राधा रानी उनको जीवित रखती हैं या राधा के मन का चंद्र । “नाम – सुधारस” यह नाम है, यह सुधा है, अमृत है । “नाम – सुधारस , गाओ कृष्ण – यश” तो कृष्ण के नाम का गायन करो । “राख वचन मन मोर” तुम मेरी बात मान लो और निरन्तर अमृतसदृश श्रीकृष्ण के इन नामों का यशोगान करो । ठीक है रुक जाते हैं यहां पर ।
॥ निताई प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*08 सितंबर 2021*
*वृंदावन धाम से*
हरे कृष्ण
आज 824 स्थानों से भक्त जप में सम्मिलित हैं जय राधे ! जय वृंदावन धाम की जय ! और वैसे कहना चाहिए गिरिराज धरण की जय ! क्योंकि राधा की कृपा हो गई या फिर गिरिराज की कृपा हो ही गई और हम गिरिराज को पहुंच गए। हमने ऐसी परिक्रमा की जैसे पहले कभी नहीं की थी। क्या व्यशिष्ठ रहा ? अपने वाहन में बैठकर गोवर्धन की परिक्रमा पहली बार की। ई-रिक्शा अब वृंदावन में और गोवर्धन में पहुंची है तो हरि हरि ! पहले सोचा था कि कुछ ही स्थानों का दर्शन करेंगे हमने शुरुआत मानसी गंगा से की। मानसी गंगा की जय हरि हरि ! भगवान के मन से गंगा प्रकट हुई, मानसी गंगा कहलाई। हम वहां गए हरि हरि और मानसी गंगा के तट पर ही हरिदेव है। ब्रज के जो अलग-अलग देव् हैं, बलदेव, केशव देव, गोविंद देव, फिर हरिदेव, कुछ विशेष देव प्रसिद्ध हैं जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं। उनका दर्शन करने गए हरि हरि ! उस विग्रह को जब दूर से देखा तब हम दौड़ने लगे, दौड़ते हुए विग्रह की ओर गए वहां का दर्शन मंडप बड़ा विशाल है। प्रवेश करते ही हरिदेव वहां कुछ दूरी पर दिखे और इसीलिए भी दौड़े क्योंकि चैतन्य महाप्रभु का स्मरण हुआ क्योंकि विग्रह दर्शन के लिए, हरिदेव के दर्शन के लिए, वे दौड़े थे। तो फिर हम भी दौड़े क्योंकि चैतन्य महाप्रभु दौड़े थे। हरि हरि !
एनीवे चैतन्य महाप्रभु की उत्कंठा है किन्तु हमारी उत्कंठा तो, इतना नहीं हो सकती है। कुछ ऐसा साधक, या हम भी चैतन्य महाप्रभु के चरणों का कुछ अनुसरण करने का प्रयास कर रहे थे। जैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हरिदेव का दर्शन किया, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने गोवर्धन की परिक्रमा की, उस प्रकार हम भी कर रहे थे हरि हरि ! फिर वहां से सोचा कि चलो गोविंद कुंड तक जाते हैं। गोविंद कुंड की जय ! जहां गिरिराज , गिरधारी का अभिषेक इंद्र ने किया। हरि हरि ! उस अभिषेक का जल एकत्रित हुआ। सुरभि गाय का दोहन हुआ, सुरभि गाय वही लेकर आए थे। सुरभि गाय का दूध और अपने ऐरावत द्वारा काफी सारा जल ( स्वर्ग में जो गंगा बहती है ) स्वर्ग से इंद्र लाये थे। उस जल और दूध से अभिषेक हुआ और फिर उससे कुंड बन गया जोकि गोविंद कुंड कहलाता है। कृष्ण को गोविंद, गोविंदा, नाम देने वाले इंद्र ही थे। इंद्र के गर्व को जब भगवान ने नष्ट किया या दमन किया या यह सब हरि हरि ! एक तो है गिरधर गोपाल और एक है गिरिराज, गिरिराज को धारण करने वाले भगवान हैं गिरधारी। यह दो हैं एक गिरिराज हैं और एक गिरिधारी है इसको भी याद रखिएगा। इतने विचार या यादें आ रही थी जब हम लोग परिक्रमा कर रहे थे या अलग-अलग स्थानों पर परिक्रमा मार्ग पर जा रहे थे।
क्योंकि इस परिक्रमा मार्ग पर, कई बार 50 से अधिक बार, गिनती बहुत समय पहले छोड़ दी, कितनी कितनी बार परिक्रमा की, ब्रज मंडल परिक्रमा की, कितनी बार गोवर्धन परिक्रमा कर चुके हैं। उस समय भी हमने परिक्रमा की और कुछ और समय भी हमने परिक्रमा की। हर समय कुछ श्रवण और कीर्तन हम किया करते थे और फिर हमने ब्रजमंडल दर्शन ग्रंथ भी लिखा है उसमें भी गोवर्धन परिक्रमा का सारा वर्णन है। यह सारी बातें जो पहले की परिक्रमा में कहीं और सुनी हुई बातें याद आ रही थी या भागवत में हमने पढ़ा या श्रील प्रभुपाद की कृष्ण लीला पुरुषोत्तम, श्रीकृष्ण, कब से पढ़ रहे हैं। हमारे होली डेज, हमारे ब्रह्मचारी डेज तब कितना सारा श्रवण कीर्तन पहले का हुआ है। अभी स्मरण हो रहा था, जिसका संकीर्तन हमने किया था।
श्रीप्रह्लाद उवाच
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥*
*इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥*
(श्रीमदभागवतम ७. ५. २४)
अनुवाद- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना ) – शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
आप की लीलाओं का स्मरण खूब हो रहा था उसको मन में समाए रखना उसको धारण करना, कुछ कठिन भी हो रहा था। इतनी सारी यादें और स्मरण और कहां रखें हमारे हृदय भी कुछ छोटे ही हैं। अतः जी भर के याद कर रहे थे हरि हरि ! वहां से आगे बढ़े, हर स्थान पर कौन कौन से विचार आए, इतना सारा मैं कह भी नहीं सकता। उसके लिए
*तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली – लब्धये कर्ण – क्रोड़ – कडुम्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम् । चेतः – प्राङ्गण – सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां नो जाने जनिता कियद्धिरमृतैः कृष्णेति वर्ण – द्वयी ॥* (चैतन्य चरितामृत अंत्य 1 . 99)
अनुवाद ” मैं नहीं जानता हूँ कि ‘ कृष् – ण के दो अक्षरों ने कितना अमृत उत्पन्न किया है । जब कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया जाता है , तो यह मुख के भीतर नृत्य करता प्रतीत होता है । तब हमें अनेकानेक मुखों की इच्छा होने लगती है । जब वही नाम कानों के छिद्रों में प्रविष्ट होता है , तो हमारी इच्छा करोड़ों कानों के लिए होने लगती है । और जब यह नाम हृदय के आँगन में नृत्य करता है , तब यह मन की गतिविधियों को जीत लेता है , जिससे सारी इन्द्रियाँ जड़ हो जाती हैं । ”
एक मुख् से कितना कह सकते हैं। इसीलिए श्रील रूप गोस्वामी ने जो भाव व्यक्त किया है “तुण्डावली – लब्धये” अगर मेरे कई सारे मुख्य होते, अर्थात एक मुख से कितना कहा जा सकता है हरि हरि ! फिर वहां से आगे बढ़े पूँछड़ी का लौटा बाबा का दर्शन किया। यह सब कह कर हम आपको स्मरण दिला रहे हैं। आपने कभी परिक्रमा की कि नहीं ? किसने किसने परिक्रमा की ? चैतन्य ने किया। भक्तिन ी थिंक फ्रॉम रूस , माताजी ने भी परिक्रमा की। मेरे विचार से कई सारे लोगों ने परिक्रमा की है और कईयों ने परिक्रमा नहीं भी की है। जिन्होंने नहीं की है, क्या देरी है ? क्यों प्रतीक्षा कर रहे हो ? तुरंत वृंदावन की ओर बढो, आ जाओ, वृंदावन की परिक्रमा करो। बृज वास करो और वृंदावन का वास करो, देखो कार्तिक मास आ रहा है। वृंदावन सदैव स्वागत करता है कृष्ण ही स्वागत करते हैं। कृष्ण प्रतीक्षा में हैं और अभी तक आपका अप एंड डाउन, राउंड एंड राउंड, चल रहा है। अप एंड डाउन इसी ब्रह्मांड में ,नरक से लेकर स्वर्ग तक और स्वर्ग से लेकर नर्क तक यह अप एंड डाउन, जाएं तो जाएं कहां, संसार के लोग कहां तक जा सकते हैं। बस स्वर्ग तक जा सकते हैं। दे कांट गो बियोंड, नीचे जाएंगे तो नर्क है और ऊपर जाएंगे तो स्वर्ग है। यह दोनों का द्वंद है। स्वर्ग और नरक का द्वंद है और दोनों द्वंदों में हम पिसे जा रहे हैं।
अब निकल पड़ो, वहां से बाहर निकल आओ, गेट आउट फ्रॉम देयर और नाम से धाम तक भी है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* भगवान का नाम लो, भगवान का नाम लेते लेते, जैसे-जैसे हम भगवान का नाम लेंगे, हमको हरिनाम, धाम पहुंचा देगा। नाम तो आपको प्राप्त हुआ है , अब धाम प्राप्ति हो जाए या कम से कम दर्शन के लिए तो आइए। यहाँ रहिये, परिक्रमा कीजिए, धाम वास भी 5 अंगों में से एक साधन है। अब हम लौटा बाबा भी गए और फिर आगे बढ़े, फिर यतिपुरा गए। हम बात कर ही रहे थे जो मेरे साथ भक्त थे। यतिपुर, यति मतलब, वैराग्य या सन्यासी कहते हैं। यतिपुर यह माधवेंद्र पुरी के नाम से, बना हुआ है और गोविंद कुंड के तट पर भी माधवेंद्र पुरी की कुछ लीलाएं हुई , कृष्ण ने दर्शन दिया, कृष्ण ने माधवेंद्र पुरी को दूध पिलाया इत्यादि, फिर हम लोग “पूंछडी का लौठा बाबा” का दर्शन करते हुए, राउंड लेते हैं यूटर्न होता है पूंछडी मतलब गोवर्धन मयूर के आकार का है उसकी पूंछ है, पूंछनि का लौठा, पूछ उधर है और मुख है जिधर राधा कुंड श्याम कुंड है। उस मयूर का मुख् है या फिर मयूर की आंखें हैं श्याम कुंड राधा कुंड, यतिपुर की जय ! यहाँ श्याम कुंड के तट पर माधवेन्द्र पुरी की बैठक भी है।
वहां से हम आगे बढ़े और उद्धव कुंड की ओर और वहीं पर हमने संध्या को गायत्री की, गोविंद उद्धव तट पर आगे बढ़े तो जय राधे, राधा कुंड श्याम कुंड की जय ! अब क्या कहूं ? कहूंगा ही नहीं , नहीं तो कहता ही जाऊंगा, रुकूंगा ही नहीं। हमारे और भी स्पीकर पार्थ सारथी और कौन-कौन आप में से भी बोलने वाले हो, प्रभुपाद की यादें या स्मरण, प्रभुपाद लीलामृत, आपको समय देना है। मैंने वादा किया है। राधा कुंड श्याम कुंड का दर्शन कीजिए, प्रणाम कीजिए। हमने भी किया था या फिर यह भी कह सकते हैं कि आप सभी की ओर से हमने भी प्रणाम किया, राधा कुंड श्याम कुंड जिसमें संगम कहते हैं राधा कुंड और श्याम कुंड का संगम है मिलन है हम वहां पर भी पहुंचे हरि हरि !
निताई गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल !
गिरिराज महाराज की जय !
ऐसा भी कहते हैं गिरिराज महाराज, बृजवासी, राधा कुंड श्याम कुंड की जय !
गौर प्रेमानंदे !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
वृंदावन धाम से
7 सितंबर 2021
आज 816 स्थानों से भक्त जुड़े है । मैं कुछ हरिकथा करना चाहता ही हु किंतु प्रभुपाद कथा हो रही है , अभी तक प्रभुपाद कथा सुनकर हम तृप्त नही हुए है । मैं सोच रहा था सभी का स्वागत होता ही है , सभी बोल सकते थे किंतु उनको अलग से आमंत्रित किया जा सकता है । अभी हम कर ही रहे है , आप सुनो अन्य भक्त नेपाल से , थाइलैंड , बर्मा, मोरिशिएस , बांग्लादेश और जहां जहाँ से भक्त जप करते है , जप चर्चा सुनते है उनमें से कुछ भक्तोसे भी हम सुनना चाहेंगे । गुरुकुल , भक्ति वेदांत स्वामी गुरुकुल पंढरपुर के कई विद्यार्थी है जिन्होंने अभी तक अपनी शब्दांजली नही दी है , वह भी दे सकते है।
उनके आचार्य यहा उपस्थित है , आप सुन रहे है? मोरिशिएस से चैतन्य स्वामी महाराज , मोरिशिएस के भक्त लीलाधर , गौर्य आप उनसे संपर्क कर सकते हो , अगर महाराज यहा पर नही है तो उनको भी आमंत्रित किया जा सकता है । ठीक है । अपने हाथ उपर करना प्रारंभ करो , संकीर्तन गौर बांग्लादेश से अगर यहाँ पर उपस्थित है तो वह भी बोल सकते है । उसी तरह जैसा मैंने कहा , कुछ तुम और कहना चाहते हो या उसी बात को दैराना चाहते हो ? (पद्मावली प्रभुजीसे पूछते हुये)
पद्मावली प्रभुजी , सभी भक्तों को हाथ उपर करने के लिए बताते है ।
गुरुमहाराज ,
गैरांग , राधा श्यामसुंदर की जय । हरि हरि । गौरांग गौरांग कह सकते है । कृष्ण बलराम की जय । राधा श्यामसुंदर की जय । जय श्री राधे , जय श्री श्याम । गिरिराज गोवर्धन की जय ।
मैंने जब वृंदावन की पंचक्रोशी परिक्रमा की तब सोचा तो था कि हम गोवर्धन दर्शन के लिए जाएंगे , गिरिराज गोवर्धन की जय । लेकिन अभी यह निश्चित नहीं है कि मैं जा सकूंगा कि नहीं इसलिए मैं सोच रहा था कि कम से कम गिरिराज को याद तो करते हैं । गिरिराज का स्मरण करते हैं , गोपियों का एक गोपी गीत प्रसिद्ध है और साथ ही साथ ऐसे कई गीत है गोपियों के जीवन गीत है , गोपी गीत है अभी सारी सूची का नाम मैं नहीं लूंगा उसमें वेणु गीत भी है , गोपी गीत भी है ।
अध्याय संख्या 21 कल हमने बताया था दशम स्कंध । इस वेणु गीत में गोपियों ने गिरिराज गोवर्धन की गौरव गाथा इन शब्दों में कही है , और गोपिया कह रही है तो यह भी समझना चाहिए कि राधा रानी भी कह रही है , राधा और गोपियां कह रही है । ऐसे शुकदेव गोस्वामी दशम स्कंध के कथा में गोपी गोपी कहते हैं गुप्या उचु या गोपियों ने कहा तब वहां समझना चाहिए कि जहा जहा गोपियों ने कहां , गोप्या उचु ऐसा लिखा है वहां राधारानी रहे ने भी कहा ही है । वेणु गीत भी राधा रानी का भी गीत है गोपियों का भी गीत है । इसको हम गोपी गीत नही कहते हैं , गोपी का गीत नहीं कहते हैं , गोपी गीत अलग से है किंतु इस वेणु गीत में गोपीयोने और राधा रानी है कहा ,
हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो यद्रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः । मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत् पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः ॥१८ ॥
(श्रीमद्भागवत 10.21.18)
यह गोवर्धन पर्वत समस्त भक्तों में सर्वश्रेष्ठ है । सखियो , यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ उनकी गौवों , बछड़ों तथा ग्वालबालों की सभी प्रकार की आवश्यकताओं – पीने का पानी , अति मुलायम घास , गुफाएँ , फल , फूल तथा तरकारियों की पूर्ति करता है । इस तरह यह पर्वत भगवान् का आदर करता है । कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकर गोवर्धन पर्वत अत्यन्त हर्षित प्रतीत होता है
हे अबलाओ , गोपिया स्वयं को अबला कह रही है । गिरिराज तो बलवान है लेकिन देखो हम यह जो अबला है , हम जो निर्बल है , हन्तायमद्रिरबला
हे अबलाओं , हे गोपियों देखो गिरिराज को देखो , अद्री मतलब गिरिराज , कैसे हैं गिरिराज ? हरिदासवर्य्य मैं यह व्याख्या तो नहीं करना चाहता था लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने जो वृंदावन भेट वृंदावन परिक्रमा और गोवर्धन परिक्रमा की इसका भी मैं संकेत करना चाहता था । गोपियों ने कहा यह हरिदासवर्य्य को देखो , यह गिरीराज जो है यह हरिदासो में श्रेष्ठ है ।राम कृष्ण चरण स्पर्श प्रमोद: और क्या होता है ? जब बलराम और कृष्ण इस गिरिराज पर चढ़ते हैं उनके चरणों का जो गिरीराज को स्पर्श होता है , गिरिराज कृष्ण बलराम के चरणों को स्पर्श करता है और कृष्ण बलराम चलते हैं ,गिरिराज स्पर्श करते हैं । गिरिराज स्पर्श करते हैं तो क्या होता है ? प्रमोद: यह गिरिराज आनंद का अनुभव करता है । हरि हरि । और यह वृक्ष वगैरह जो है ना यह तो गोवर्धन के रोंगटे खड़े हुए है , जब कृष्ण बलराम स्पर्श करते हैं तो यह वृक्ष लता वेली है यह मानो जैसे गिरिराज के रोंगटे खड़े हो गए हैं । ऐसा गोपिया सोचति हैं , कह रही है कि देखो इनको तो स्पर्श करते हैं , यह बलराम कृष्ण इनको स्पर्श करते है किंतु हम को स्पर्श नहीं करते हैं । या हमको कब स्पर्श करेंगे ? और हम भी कब अनुभव करेंगे जैसे गिरिराज को अनुभव होता है । राम कृष्ण चरण स्पर्श प्रमोद: , यह कहते समय थोड़ा मन में कुछ शोक भी कर रही है , गिरिराज भाग्यवान है भगवान इनको स्पर्श करते रहते हैं लेकिन हम बेचारी अबला उनसे दूर रहती है या वह हमको स्पर्श नहीं कर रहे है , कब करेंगे? उत्कंठा भी है , आगे कहती है यह गोपिया कि यह गिरिराज भी वैसे सभी का सम्मान करते रहता है । आने वाली गाये हैं , गोप है उन सब का यह गिरिराज सत्कार सम्मान करता है ।
पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः आगे गोपियों ने उस वेणु गीत में कहा, यह सत्कार सम्मान है , आपका स्वागत है , आपका स्वागत है केवल ऐसा कह कर ही या कहते हुए ही यह गिरिराज गोवर्धन सब का सत्कार सम्मान नहीं करते । इनका सत्कार सम्मान करने की जो पद्धति है वह बड़ी प्रैक्टिकल है । सुव्यवस्थ , गायों के लिए यहां प्रचुर मात्रा में घास है और यहाँ का घास खा खा के , नाम भी देखो गोवर्धन , नाम की ओर ध्यान दो गो-वर्धन गो-वर्धन गाय वर्धित होती है , गाय वृष्ट पृष्ठ होती है और गायों को वृष्ट पृष्ठ करने वाला यह गोवर्धन है । नाम के उपर ध्यान देना , गोवर्धन क्यों कहा जा रहे ? यह है गोकुल , यह नंदगोकुल , यह गोवर्धन , यह गोलोक । देखिए गाय का भी कितना महिमा है । धाम का नाम ही गोलोक , गोलोक है । जहाँ कृष्ण रहते है । यह वैसे गाय का लोक है । गोपसम अलंकृतम ऐसा भी भागवत में कहा गया है । यह वृंदावन अलंकृत है कौन करता है इस वृंदावन को अलंकृत गाय करती है उनकी उपस्थिति और यहाँ गोप है। वृंदावन के जो जन हैं लोग हैं उनको क्या कहते हैं गोप कहते हैं गायों के कारण उनका नाम हुआ गाय का पालन करने वाले गायों के रखवाले इस गोलुक के वृंदावन के लोग उनको गोप कहते है और उनकी पत्नियां हो गई गोपी जैसे गोप और गोपी और फिर गोपाल भी हो गए वैसे गाय केंद्र में है। और यह गिरिराज ब्रज मंडल का यह तिलक है तिलक से जैसे शोभा बढ़ती है हम तिलक पहन लेते हैं तो फिर हम तैयार हो गए हमारा मेकअप कहो या हमारा साज श्रृंगार हो गया अब हम तैयार हैं तिलक लगाया अब हम तैयार हो गए। तो तिलक का जैसा महिमा है तो वैसा महिमा गिरिराज का भी है ब्रज के तिलक है गिरिराज गोवर्धन और गोवर्धन क्योंकि गाय गाय का सत्कार सम्मान करते हैं कैसे सूयवस खुप हरियाली छाई रहती है। केवल देखने के लिए नहीं गायों को खाने के लिए भी और पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः आगे
10.21.18
हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो यद्रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः । मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत् पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः ॥१८ ॥
अनुवाद:- यह गोवर्धन पर्वत समस्त भक्तों में सर्वश्रेष्ठ है । सखियो , यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ उनकी गौवों , बछड़ों तथा ग्वालबालों की सभी प्रकार की आवश्यकताओं – पीने का पानी , अति मुलायम घास , गुफाएँ , फल , फूल तथा तरकारियों की पूर्ति करता है । इस तरह यह पर्वत भगवान् का आदर करता है । कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकर गोवर्धन पर्वत अत्यन्त हर्षित प्रतीत होता है।
प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध है कई सारे सरोवर कई सारे कुंड है फिर राधा कुंड भी है गोविंद कुंड है अप्सरा कुंड भी हैं कई सारे कुंड हैं और साथ ही कई सारे झरने हैं। या वाटर स्पोर्ट्स होते हैं यहां इसे हम क्या कहते हैं यह टुरिस्ट स्पॉट है। कृष्ण के समय में भी गिरिराज के तलहटी यह ओरिजिनेशन टूरिस्ट स्पॉट वाटरफॉल भी है सभी तरफ जल है। जिसमें गाय जल पीती है और कृष्ण अपने मित्रों के साथ खेलते हैं।
पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः पानी है सुयव मतलब घास हैं, कन्दर मतलब जहा कृष्ण बलराम अपने मित्रों के साथ विश्राम करते हैं यहां ऐ सी है इस कन्दरा में विश्राम करो खेलो इन गुफाओं में कन्दरकन्दमूलैः गोपिया कह रही है।
गिरिराज का गौरव गाथा गा रही है कन्दरकन्दमूलैः कंद,मूल,फल भी देता है यह गिरिराज तो कृष्ण बलराम और उनके मित्र “पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः।।
BG 9.26
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः || २६ ||”
अनुवाद:-
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ |
पत्रं पुष्पं फलं तोयं कैसा पत्र वह पत्र प्राप्त है पत्ते प्राप्त है सब्जियों का सलाद बना सकते हैं पुष्पम वहां हैं वनमाल्य वंशी उसकी मालाएं बनाई जाती हैं। मित्र माला बनाते हैं वणमाला वैजयंती माला इत्यादि प्रकार की माला भी होती है और वही वणमाला कृष्ण प्रसिद्ध हैं वनमाली मित्र ही कुछ रंग बिरंगी फूल इकट्ठे करेंगे कुछ पत्ते भी ले लेंगे और फिर माला बनाई हुई पहनाते हैं।
कन्दरकन्दमूलैः कन्द, फल,पत्ते ये सब भी यहां गोवर्धन उपलब्ध कराता है। और यह सब उपलब्ध करा कर भी मानम तनोति मान सम्मान करता है कृष्ण बलराम का उनके मित्रों का गोपो का गायों का तो इन सब शब्दों में गोपियों ने और साथ में राधा रानी भी है वेणु गीत में ऐसे उद्गार है। राधा गोपियों के गोवर्धन के संबंध में हरि हरि तो अभी हाथ ऊपर हो रहे हैं कोई बात नहीं।
ठीक है अभी कुछ दो-तीन ही हाथ ऊपर है तो अब हम और समय देते हैं रामप्रसाद ठीक है जल्दी तैयार हो जाइए ठीक है शामकुंड तैयार है। मैं तो बोलते ही रहता हूं मैंने एक दो बार कहा कि मैंने ही बोलने का ठेका लिया है ऐसा नहीं है और आप चुप मारकर सुनते ही जाओगे हंसते हुए मैं भी आपको तैयार कर रहा हूं ताकि आप बोलते जाओगे बोलते जाओगे जो जो सुनते हो उस पर चिंतन करो विचार करो फिर अपने शब्दों में कहो अपना अनुभव अपने साक्षात्कार आपको तैयार होना है उस तरह ठीक है।
मैं कुछ और समय के लिए बोलता हूं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब बृंदावन आए और ब्रज मंडल परिक्रमा कर रहे थे तब ब्रजमंडल के रास्ते में ब्रज मंडल परिक्रमा के मार्ग में फिर एक दिन हम राधा कुंड को शाम कुंड को भी आ जाते हैं। हम भी आ जाते हैं और चैतन्य महाप्रभु भी आए थे और फिर गोवर्धन की परिक्रमा होती है फिर हम उस परिक्रमा को आगे बढ़ाते हैं अगले बद्रिकाश्रम की ओर जाते हैं वृंदावन में बद्री का आश्रम वृंदावन में बद्री है केदार है रामेश्वर है वह थोड़ा आगे बढ़ते हैं गोवर्धन परिक्रमा तो चैतन्य महाप्रभु गोवर्धन परिक्रमा कर रहे हैं। राधा भाव में गोपी भाव में चैतन्य महाप्रभु जय श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाहि अन्य तो है।
तो यह दोनों भी भूमिका चल रही है कभी राधा बनकर तो कभी कृष्ण बनकर सब अनुभव करते कि हमारे कृष्ण आगए हमारे श्यामसुंदर आ गए हैं। आये तो गौर सुंदर लेकिन सभी अनुभव करते हैं हमारे श्यामसुंदर आ गए यह कइयों का अनुभव था जो चैतन्य महाप्रभु वृंदावन की और गोवर्धन की परिक्रमा कर रहे थे लेकिन चैतन्य महाप्रभु अपना जो राधा भाव है इसको भी प्रकट करते हैं करते रहे खासकर उन में वृंदावन में तो गोवर्धन परिक्रमा करते समय चैतन्य महाप्रभु पूरी परिक्रमा में यह जो वेणु गीत में जो अभी-अभी हमने जो कहा गोवर्धन की गाथा जिन शब्दों में राधा गोपीयो ने गाई अंतअयम बल हरिदास यह जो वचन है जो श्लोक है इसी श्लोक को पूरी परिक्रमा के मार्ग में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते थे गए और जो वे कह रहे हैं क्या कहना जितना कुछ हुआ उससे कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज उनको भी कठिन जा रहा है सारा वर्णन करना श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सारे भाव जो ब्रज मंडल में और फिर गोवर्धन परिक्रमा के समय चैतन्य महाप्रभु प्रणाम करने के लिए उनको नीचे झुकते ही वो स्तंभित हो जाते हैं। और फिर गिरिराज को देखा तो स्तंभित हो जाते हैं। ना हील रहे हैं ना डोल रहे हैं अपने नेत्रों से देख रहे है गिरिराज को तो फिर दूसरे ही क्षण फर गिरिराज कि ओर दौड़ते हैं। शीला को आलिंगन देते हैं और क्रंदन करने लगते हैं और फिर वही लोटने लगते हैं फिर मुश्किल से उठते हैं आगे बढ़ रहे हैं और उनकी आंखों से अश्रु धाराएं अश्रु बिंदु नहीं धाराएं बह रही है। आप फिर जानते हैं कई लोग जो गोवर्धन परिक्रमा करते हैं तो गोवर्धन का अभिषेक भी करते हैं।
पूरे ब्रज मंडल परिक्रमा में कुछ लोग जैसे फिर कुछ आधुनिक लोग या दिल्ली वाले आएंगे तो फिर कार में बैठेंगे और कार से एक हाथ बाहर है और उस हाथ में क्या है कई पात्र है और उसमें वह दूध या थोड़ा दूध अधिक पानी होता है और कार से घूमते हैं स्पीड बढ़ाते ताकि दूध समाप्त न हो हंसते हुए तो पांच 10 किलो या लीटर दूध में सारे गोवर्धन की परिक्रमा और अभिषेक भी करते हैं। भाव तो सही होते हैं गोवर्धन की पूजा मतलब गोवर्धन का अभिषेक यह विधि भी है। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कैसा अभिषेक कर रहे थे पूरे गोवर्धन परिक्रमा मार्ग पर उन्होंने अभिषेक किया गिरिराज गोवर्धन का और जल कहां से लाया उनकी आंखों से जो अश्रु धाराएं बह रही थी उन्ही के साथ श्री कृष्णा महाप्रभु अभिषेक कर रहे थे गिरिराज गोवर्धन की जय । ठीक है।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
वृंदावन धाम से,
6 सितंबर 2021
आज जप चर्चा में 720 भक्त सम्मिलित हैं। आज हम 10 मिनट पहले चर्चा शुरू कर रहे हैं।पद्ममाली क्या आप यहा उपस्थित हो?
(पद्ममाली प्रभुजी ने उत्तर दिया- जी गुरु महाराज मैं उपस्थित हूँ। )
प पू लोकनाथ महराज जी ने कहा- मैं थोड़े समय के लिए कृष्ण कथा कहूंगा और फिर मंदिर के भक्त प्रभुपाद कथा शुरू रखेंगे।
पद्मामाली प्रभु जी ने कहां- सभी भक्तों को मेरा दंडवत प्रणाम हैं। कल मंदिर के भक्तों से हमने सुना हैं, लेकिन काफी भक्त कह नहीं पाएं, इस्कॉन पंढरपुर के भक्त और सहस्त्रनाम प्रभु और अनंतशेष प्रभु कल यात्रा कर रहे थे, तो वह आज बोलेंगे, अमरावती के भी कुछ भक्त हैं, इस्कान नागपुर और आरवड़े के भी कुछ भक्त,और आल इंडिया पदयात्रा से प्रभु और उनका मंडल हैं,जो भक्त कल बोल नहीं पाए उनसे अनुरोध हैं कि हैंड रेज़ करीए।जब गुरु महाराज अपना जपा टॉप संपन्न करेंगे तो या पुर्ण करेंगे तो उसके पश्चात हम आप सभी को बारी-बारी से अवसर देंगे और आप सभी बोल सकेंगे।अब गुरु महाराज पनी जपा टौक प्रारंभ करेंगे और उसके उपरांत आप श्रील प्रभुपाद का गुणगान कर सकते हो।
प पू लोकनाथ महाराज जी जपा टौक शुरू करते हैं।
मैं वृंदावन में हूं।
वृंदावन धाम कि जय…!
इसलिए भी यहां कि लीलाएं कथाओं का स्मरण कर रहा हूं और जो-जो याद कर रहा हूं, उसको आपसे साझा भी कर रहा हूं और इतना सारा मैं याद करता हूं इतना सारा तो मैं आपसे साझा नहीं कर सकता लेकिन उसका अंश प्रस्तुत करता रहता हूँ ,जो भी मैं कभी पढ़ता हूं,सुनता हूं, कुछ अनुभव करता हूं,तो मेरे पढ़ने का, श्रवण का और स्मरण का उद्देश्य ये भी होता हैं कि मैं इसको तुरंत किसी के साथ साझा करूं। यह मेरा चलता रहता हैं,जैसा मेरा मनोभाव रहता हैं कि मैं अधिक-अधिक पढूं, सुनूं और भगवान को याद करूं और जिन भक्तों को मैं मिलता हूं, जो यहां जपा सेशन में या फिर अन्य भी मंच होते हैं बोलने के,वहां मैं यह बातें प्रस्तुत करता हूं। मेरा पढ़ना, सुनना,याद करना वैसे खुद के लिए नहीं होता या मैं सुनता पढता या याद करता हूं, वह मैं आपके लिए भी, औरों के लिए भी औरों को याद रखते हुए मैं पढ़ता हूं या सुनता हूं और पढी,सुनी, चिंतन की हुई बातें विचार या लीला कथा मैं उसको बांटता हूं,मैं औरों के पास पहुचाता हूंँ। हरि हरि!
पुनः हम एक साल के कार्तिक मास कि याद कर रहे थे, यह कृष्ण के समय कि बात हैं, कृष्ण कि प्रगट लीला संपन्न हो रही हैं और कृष्ण ने अब पौगंड अवस्था को प्राप्त किया हैं।पौगंड लीला संपन्न कर रहे हैं,मतलब क्या समझना चाहिए? कृष्ण की उम्र अब कितनी हैं? 5 और 10 के बीच में है और वे 7 साल के ही हैं, क्योंकि मैं गोवर्धन लीला कि बात करने वाला हूंँ। पूरी लीला कथा तो नहीं किंतु जो घटना क्रम हैं, इस गोवर्धन लीला के संबंध में वह कहूंगा। तो कृष्ण सात साल के हैं। हम पढते हैं, सुनते हैं,जब कृष्ण उतने आयु के थे, यह कार्तिक मास शुक्ल पक्ष कि बातें हैं। शुक्ल पक्ष प्रारंभ होने के एक दिन पूर्व अमावस्या थी,यहा इंद्र पूजा कि तैयारियां हो रही थी। प्रतिवर्ष नंद महाराज और उनके अनुयाई या वृंदावन का वैश्य समाज इंद्र पूजा करते थे (इनके नेता नंद महाराज थें)। हर वर्ष के भाती इंद्र पूजा कि तैयारी कर रहे थे,तो कृष्ण अब उम्र में बड़े हो रहे थे ।पहले भी तैयारी होती रही थी लेकिन कृष्ण तब केवल देखते थें,ज्यादा सोचते नहीं थे। इस साल कृष्ण ने प्रश्न उठाया क्या कर रहे हो?क्यो कर रहे हो?इसकी आवश्यकता हैं क्या? इत्यादि संवाद प्रारंभ होता हैं और कृष्ण ने प्रस्ताव दिया कि यह बंद करो! बस करो ये इंद्र पुजा! इसके बदले में आप गोवर्धन पूजा करो! यह संवाद भागवत में हैं। आप पढ़िएगा! अगले दिन वह अमावस्या का दिन था, जिस दिन यह संवाद हूआ और कृष्ण ने सभी को समझाया ,बुझाया और इंद्र पूजा के लिए जो सामग्री इकट्ठे कर थे,उसी सामग्री का गोवर्धन पूजा में उपयोग करो,ऐसा कृष्ण ने सुझाव दिया। फिर अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा आई। आप जानते हो प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया यह सब दोनों ही पक्षो में चलता रहता हैं चाहे कृष्ण पक्ष हो या शुक्ल पक्ष।शुक्ल पक्ष कार्तिक का पहला दिन हैं। प्रतिपदा के दिन गोवर्धन पूजा संपन्न हुई।
गोवर्धन पूजा महोत्सव कि जय…!
अब उस गोवर्धन पूजा का, गौरव गाथा का क्या कहना, मैं कहूंगा ही नहीं, समय नहीं हैं, लेकिन ब्रज की लीलाओं में यह एक प्रधान लीला हैं।गोवर्धन पूजा भी और फिर आगे गोवर्धन धारण भी और उसके संबंधित जो घटना प्रसंग घटते हैं, प्रतिपदा के दिन,गोवर्धन पूजा हुई अन्नकूट हुआ। सारे ब्रजवासी वहा गोवर्धन तलहटी के नीचे पहुंचे थें ,कृष्ण बलराम भी थें। “शैलोंस्मी” मैं गोवर्धन हूं ऐसे कृष्ण ने कहा, दर्शन दिया, गोवर्धन ने दर्शन दिया और गोवर्धन ने कहा “गोवर्धन उवाच” क्या कहा? “शैल:अस्मि” यह जो शीला हैं, ययहजो गोवर्धन पहाड़ है यह मै हूं गोवर्धन भगवान। आज अन्नकूट हैं। अन्नकूट-अन्न का पहाड़
कूट मतलब पहाड़।आपको इसको भी समझना चाहिए।अन्नकूट में कूट का क्या अर्थ हैं? कूट मतलब पहाड़।चित्रकूट मतलब पहाड़ पर।गोवर्धन के लिए बहुत से व्यंजन बनाए गए थे।सायं काल को या अपरान काल में गोवर्धन परिक्रमा भी हुई।पहली बार गोवर्धन परिक्रमा करने वाले कौन थे?सारे के सारे ब्रजवासी थे, जिन्होंने गोवर्धन की पूजा की और गोवर्धन की पूजा कर के गोवर्धन को प्रसन्न किया और गोवर्धन को ओर प्रसन्न करने हेतु या गोवर्धन से अपना संबंध स्थापित करने हेतु या गोवर्धन का स्मरण या गोवर्धन में होने वाली लीलाओं का स्मरण करने हेतु भी सारे ब्रजवासियों ने गोवर्धन की परिक्रमा की हैं। कृष्ण बलराम ने भी गोवर्धन की परिक्रमा की हैं और फिर सायंकाल को सारे बृजवासी अपने-अपने घर लोट गए।यह प्रतिपदा के दिन हुआ। समय हो भी गया?मैंने तो अभी अभी शुरुआत ही की थी।समय किसी के लिए भी नहीं रुकता। हरि हरि।मैं जितना आपको या जिस रफ्तार से आपको बताना चाहता था उस रफ्तार से मैं कह नहीं सकता। दूसरे दिन पुनः सारे बृजवासी मथुरा में विश्राम घाट पर पहुंचते हैं। विशेष रूप से भाई और बहन वहां पहुंच जाते हैं और वहां स्नान करते हैं।
यमुना मैया की जय।यही भैयादूज हैं, जो कि अलग-अलग नामों से भारत में जाना जाता हैं। भैया दूज क्यों कहते हैं? क्योंकि द्वितीय का दिन हैं। इस दिन यमुना के तट पर उत्सव मनाया गया। उत्सव के अंतर्गत उन्होंने बहुत कुछ किया और वही विश्राम घाट पर दो भाई बहन भी रहते हैं।यम और यमी। यम और यमी कौन हैं? यम मतलब यमराज और यमी मतलब यमराज की बहन यानी कि यमुना। यमुना यमराज की बहन हैं। वहां इन दोनों के विग्रह हैं यानी मंदिर हैं। जब हम ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते हैं तब हम उनके दर्शन वहा कर सकते हैं। वैसे परिक्रमा का प्रारंभ ही विश्राम घाट से होता हैं। तब हम वहां यम और यमी के दर्शन कर सकते हैं। यह दोनों सूर्य के पुत्र और पुत्री हैं। यमराज सूर्य पुत्र हैं और यमुना सूर्य पुत्री हैं। तो यहां द्वितीया के दिन भाई और बहन स्नान करने के लिए आते हैं और वह इन दो भाई बहनों का भाई यानी यमराज और बहन यानी यमुना का दर्शन करते हैं।यमुना तो वहां हैं ही अपने जल रूप में।यह सब ब्रज में घटित हुआ और यह सब जब हो रहा था तो इंद्र के पास समाचार पहुंच गया कि इस साल तुम्हारी पूजा नहीं हुई और उसके बदले में वह जो कृष्ण हैं ना उसने यह प्रस्ताव रखा हैं कि तुम्हारी पूजा की बजाय गोवर्धन की पूजा हो और देखो वैसा ही हुआ इससे इंद्र क्रोधित हो गए और खूब वर्षा की।
भागवतम् में लिखा हैं कि इंद्र संवरतक नामक बादलों का प्रयोग करते हैं। यह संवरतक नामक बादल कौन हैं?जो बादल महाप्रलय के समय वर्षा करते हैं। यह बादल वहा इंद्र के द्वारा पहुंचाए गए और मूसलाधार वर्षा हुई। इसी के साथ सारा ब्रज जलमय हो गया और सब लोग इससे परेशान हो गए। गर्गाचार्य ने नंद महाराज को कहा था कि जब आप किसी कठिनाई में होते हैं तो तुरंत इस बालक के पास पहुंच जाया करें,यह तुम्हारी रक्षा करेगा। इसी को ध्यान में रखते हुए सभी कृष्ण की शरण में गए। तो कृष्ण यह सब सुनकर उन सब को अपने साथ लेकर जाने लगे।पता नहीं कहां ले जा रहे थे।बस कहा कि चलो चलो और साथ लेजाते ले जाते कहां पहुंचे?गोवर्धन।
गोवर्धन के पास और यह कौन सा दिन हैं? तृतीया का दिन था। प्रथमा भी बीत गई, अमावस्या भी बीत गई, द्वितीय भी बीत गई और अब तृतीया का दिन हैं, तृतीया के दिन कृष्ण अब गोवर्धन को धारण करेंगे। भगवान ने गोवर्धन को धारण किया और गोवर्धन को धारण करना,भगवान के लिए बाएं हाथ का खेल था।कौन से हाथ का? दाहिने हाथ का नहीं।दोनों हाथों का भी नहीं ।बाएं हाथ का खेल।कहावत आपने सुनी होगी।अगर आपको उदाहरण देना हैं कि कृष्ण ने गोवर्धन कैसे उठाया, तो आप बाएं हाथ का खेल बोल सकते हो। कृष्ण ने गोवर्धन पहाड़ उठाया, मतलब क्या किया उन्होंने उन्होंने बाएं हाथ का खेल किया।तो वह तृतीया का दिन था और इसी के साथ कृष्ण ने सारे ब्रज वासियों की रक्षा की। सारा ब्रज वहां पहुंचा हैं। तृतीया से नवमी तक कौन कौन सी तिथि हुई?तृतीय, चतुर्थी, पंचमी, शष्टि, सप्तमी, अष्टमी,नवमी यानी कि 7 दिन और 7 रात्रि। ब्रज वासियों के लिए उनके जीवन में ऐसा समय कभी नहीं आया था। कृष्ण के इतने समीप,उनका संग, सानिध्य और दर्शन उन्हें प्राप्त हो रहा था।
श्रीमद भागवतम् 10.23.22
श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह धातुप्रवालनटवेषमनव्रतांसे । विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम् ।। २२ ।।
उनका रंग श्यामल था और वस्त्र सुनहले थे । वे मोरपंख , रंगीन खनिज , फूल की कलियों का गुच्छा तथा जंगल के फूलों और पत्तियों की वनमाला धारण किये हुए नाटक के नर्तक की भाँति वेश बनाये थे । वे अपना एक हाथ अपने मित्र के कंधे पर रखे थे और दूसरे से कमल का फूल घुमा रहे थे । उनके कानों में कुमुदिनियाँ सुशोभित थीं , उनके बाल गालों पर लटक रहे थे और उनका कमल सदृश मुख हँसी से युक्त था ।
भागवतम