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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा : 31 अगस्त 2021
हरे कृष्ण,
*ऋषिकेन ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्चयते।*
इंद्रियों के द्वारा इंद्रियों के मालिक भगवान श्री कृष्ण की सेवा करना यही भक्ति है। जब हम अपनी इंद्रियों को भगवान की सेवा में लगाते हैं तो यह इंद्रियों के लिए एक उत्सव होता है। कानों का उत्सव भगवान के पवित्र नाम का तथा भगवान की कथा का श्रवण करना है। जब हम भगवान का प्रसाद ग्रहण करते हैं तो यह हमारी जिव्हा के लिए एक उत्सव है। मंदिर मार्जन द्वारा हमारी त्वचा अथवा स्पर्श इंद्रिय उत्सव मनाती है। उसी प्रकार जब हम मंदिर में भगवान के श्री विग्रह का स्पर्श करते हैं तब भी हमारी त्वचा या स्पर्श इंद्रिय के लिए यह एक उत्सव के समान होता है। नासिका अथवा ग्रहण इंद्रियों का उत्सव भगवान को अर्पित पुष्प अथवा तुलसी को सूंघना है भगवान के श्री विग्रह का दर्शन करना यह हमारे नेत्रों के लिए एक उत्सव है। अतः आप सभी को इस प्रकार के उत्सव प्रतिदिन मनाने चाहिए। ऐसे उत्सव मनाने से हमें क्या लाभ होगा? इसका उत्तर है, *परम दृष्ट्वा निवर्तते* अर्थात् हमें उच्च स्वाद अथवा अमृत का रसास्वादन प्राप्त होगा क्योंकि भगवान अत्यंत मधुर है। श्रीपाद वल्लभाचार्य इसके विषय में कहते हैं, *मधुराधिपते अखिलम मधुरम।*
कृष्णा अत्यंत मधुर है। इसी के साथ हम इंद्रिय तृप्ति के लिए हमारे द्वारा किए गए सभी प्रकार के उद्यम या इंद्रिय तृप्ति के रस से मुक्त होंगे। हम संसार के प्राकृतिक इंद्रिय सुख से मुक्त हो सकेंगे। हम स्वतंत्र होंगे। हम इंद्रिय विषयों से मुक्त हो सकते हैं। हमारी इंद्रियों के विषय भगवान होने चाहिए। और वही भगवान हमारे मन के भी विषय होने चाहिए। हमें सांसारिक मनोरंजन की आवश्यकता नहीं होती है ।यदि हमें सांसारिक मनोरंजन की आवश्यकता हो तब हम पराधीन है परंतु यदि हमें इनकी आवश्यकता नहीं है तब हम स्वतंत्र हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में ही जीव भगवान की शरण ग्रहण करता है। भगवान का आश्रय लेने के कारण वह हमारे विषय बनते हैं हमारे जीवन का लक्ष्य तथा केंद्र स्वयं श्री कृष्ण बन जाते हैं।
*कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे।*
मैं सोच रहा था कि संपूर्ण भारत स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। यह दिन भारत या भारतवासियों के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है परंतु वैष्णव के लिए यह दिन इतना महत्वपूर्ण नहीं है। एक समय 15 अगस्त के दिन श्रील प्रभुपाद हरे कृष्ण लैंड जुहू में थे। दिन के समय जुहू मंदिर में छत पर हरिशौरी प्रभु श्रील प्रभुपाद की मसाज कर रहे थे उस समय हरे कृष्ण लैंड पर कुछ किराएदार भी रहते थे । वह सभी किराएदार दिन के समय स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए एकत्रित हुए तथा राष्ट्रगान गा रहे थे, कुछ भाषण दे रहे थे कि किस प्रकार हमने अंग्रेजों को भारत से भगा दिया और इस प्रकार भिन्न भिन्न प्रकार से जय घोष चल रहा था।
श्रील प्रभुपाद ने हरीशौरी प्रभु से पूछा कि यह क्या हो रहा है? हरिशौरी प्रभु ने कहा कि हमारे किराएदार स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। श्रील प्रभुपाद ने कहा यह क्या है? स्वतंत्रता दिवस का उत्सव यह कोई बड़ा दिवस नहीं है । श्रील प्रभुपाद इस उत्सव से प्रसन्न नहीं थे और ना ही उन्होंने इसकी सराहना की। वैष्णवो के लिए स्वतंत्रता दिवस अथवा गणतंत्र दिवस का अधिक मूल्य नहीं है। श्रील प्रभुपाद भी प्रारंभ में भारत की आजादी के लिए प्रयास कर रहे थे वह गांधी के अनुयायी बन रहे थे, परंतु उसी समय उनकी प्रथम मुलाकात श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज के साथ हुई। उस समय श्रील प्रभुपाद अभय बाबू ही थे। अभय बाबू ने श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से कहा हमें देश की आजादी को प्राथमिकता देनी चाहिए। सर्वप्रथम भारत को अंग्रेजी सरकार से मुक्त होना होगा। परंतु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज ने कहा, नहीं नहीं, कृष्णभावनामृत का प्रचार करो। इसको प्रधानता दो।
कृष्णभावनामृत का आचार, विचार , प्रचार तथा प्रसार रोका नहीं जा सकता। यह आजादी की प्रतीक्षा नहीं कर सकता है। भारत की स्वतंत्रता प्रतीक्षा कर सकती है परंतु कृष्णभावनामृत का प्रचार प्रतीक्षा नहीं कर सकता। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद अपनी इस प्रथम मुलाकात में श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज से प्रभावित हुए तथा उनकी बात मान गए एवं उन्होंने भक्तिसिद्धांत सरस्वती महाराज की शरण ग्रहण कर ली। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद ने महात्मा गांधी के आंदोलन को त्याग दिया।
इस प्रकार श्रील प्रभुपाद ने भारत की आजादी का विचार छोड़ दिया तथा वह श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के आदेश को पूरा करने की तैयारी में लग गए। इसी प्रथम मुलाकात में श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर ने अभय बाबू से कहा था कि तुम बुद्धिमान हो , तुम अंग्रेजी भाषा में चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं का प्रचार करो। अभय बाबू इस मुलाकात के पश्चात गौड़िय वैष्णव बन गए तथा कालांतर में वही अभय बाबू ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद बने। श्रील प्रभुपाद के नाम में ए.सी. शब्द का अर्थ है अभय चरणारविंद। अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय। यह स्वतंत्रता का उत्सव है इसलिए हमारा एक प्रश्न होना चाहिए और वह प्रश्न है हमें किससे स्वतंत्रता चाहिए।
हम किससे स्वतंत्र होना चाहते हैं। जीव कभी भी भगवान से स्वतंत्र नहीं हो सकता है। फिर चाहे वह पश्चिम के लोग हो या पूर्व के। सभी लोगों का यही हाल है। भारत के लोग भारतीय नहीं रहे वह इंडियन बन गए हैं। एक समय एक पक्के भारतीय ने अपने भाषण में कहा कि मैं इंडियन नहीं हूं, मैं भारतीय हूं। भारत को 15 अगस्त के दिन आजादी तो मिल गई परंतु यहां के लोग भारतीय बनने की अपेक्षा इंडियन बन गए। अंग्रेज यहां से चले गए परंतु अंग्रेजी लोग बना गए। हमारी पतलून अंग्रेजी हो गई और जूता जापान का हो गया। अंग्रेज चले गए परंतु अंग्रेजी भाषा यही रह गई। हम सभी अंग्रेजी भाषा सीख रहे हैं परंतु हमने संस्कृत भाषा को छोड़ दिया। अंग्रेजों ने हमें चाय पीना सिखाया और हम आज भी चाय पी रहे हैं।
यद्यपि भारत 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी राज्य से स्वतंत्र हुआ परंतु फिर भी आज तक वह अंग्रेजी मानसिकता से स्वतंत्र नहीं हो पाया है। हमारा रहन सहन , कपड़े पहनना , खाना-पीना , जीवन जीने की पद्धति यह सब कुछ अंग्रेजी है।
इस प्रकार केवल राज्य बदला अंग्रेजी राज्य से भारतीय राज स्थापित हुआ परंतु इससे कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। गांधीजी कहते थे कि हम राम राज्य की स्थापना करेंगे। यदि अंग्रेजी राज के स्थान पर राम राज्य की स्थापना होती तो हम कह सकते थे कि वास्तव में हम स्वतंत्र हुए हैं परंतु ऐसा नहीं हुआ। हमारे राजनेता भौतिकतावादी, साम्यवादी , लोकशाही या पूंजीवादी कहे जाते हैं। प्रभुपाद इस डेमोक्रेसी को डीमन क्रेजी कहते थे। *एई भालो एई मन एई सब भ्रम* अर्थात इस संसार में जो कुछ भी हम देख रहे हैं उसमें बुराई ही है। श्रील प्रभुपाद इसके विषय में कहते थे कि एक सूखा मल है और दूसरा गीला मल है यदि हमें उसमें से चयन करना है तो कौन सा मल लेना पसंद करेंगे। मल तो मल ही है फिर चाहे वह सुखा हो अथवा गिला दोनों ही गंदगी है। इसी प्रकार यह राज्य या वह राज्य इससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता। परंतु इन सभी वाद-विवादो से परे जो राज्य होना चाहिए वह महत्वपूर्ण है। *मनुष्य जब माया से मुक्त हो मायावी विचारों से मुक्त हो तथा पूर्ण रूप से भगवान श्री कृष्ण पर निर्भर हो तब हम कह सकते हैं कि हमें वास्तव में स्वतंत्रता मिली है।*
इनके अभाव में हम परतंत्र ही हैं. माया की अध्यक्षता अँगरेज़ राज के समय भी थी और अब भी हैं। नई सरकार , नया संविधान बना। एक शूद्र जिन्होंने उस धर्म को छोड़ दिया जिसमे राम और कृष्ण का जन्म हुआ और फिर धर्मनिरपेक्ष संविधान बना। इस संविधान में धर्म का कोई स्थान नहीं हैं। भगवान् स्वयं भगवद गीता में कहते हैं : सर्वधर्मान परित्यज्य। कई धर्म बहुत नए हैं : ५०० वर्ष पुराण , २५०० वर्ष पुराण धर्म इत्यादि। जिस धर्म का प्रारम्भ होता हैं उसका अंत भी अवश्यम्भावी हैं।
*जातस्य ही ध्रुव मृत्यु* , परन्तु भागवत धर्म सनातन धर्म हैं , इसका प्रारम्भ और अंत नहीं होता। संविधान में सनातन धर्म को अधिक स्थान नहीं दिया गया हैं। सरकार मात्र रोटी कपड़ा और मकान या केवल आपके शरीर की ही चिंता हैं , उन्हें आपकी आत्मा से कोई लेना देना हैं। इस प्रकार ऐसी सरकार की स्थापना का कोई महत्त्व नहीं हैं। वह गंभीर जीव जो कृष्ण प्राप्ति करना चाहते हैं उन्हें इससे कोई महत्त्व नहीं हैं।
जो पशु जीवन जीना यह सरकार उनके लिए अच्छा हैं। *धर्मस्तु हीन: पशुभिः समान:*।इसी प्रकार कुछ वर्ष पहले एक फिल्म बनी थी जिसका नाम था रावण राज। यह सब भ्रष्ट मानसिकता की देन हैं। तो हमें यह समझना चाहिए कि वास्तविक स्वतंत्रता तब मिलेगी जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप और कीर्तन करेंगे।
श्रील प्रभुपाद ने मुझे एक पत्र लिखा और कहा कि यह तुकाराम का देश हैं , परन्तु यह गंदे राजनेता इसे बिगाड़ रहे हैं। तुम यहाँ महाराष्ट्र में प्रचार करो भागवत धर्म करो। यहाँ के लोगों को भक्त बनाओ , वैष्णव बनाओ और फिर उन्हें स्वतंत्र करो। यहाँ पर यह पक्ष , वह पक्ष ये सब माया की पार्टी हैं। भारतभूमी तपो भूमि हैं परन्तु ऐसे राजनेता इसे भोग भूमि बना रहे हैं। जहाँ गाय की रक्षा होनी चाहिए वहां गाय खाई जाती हैं। भारत खाड़ी देशों में मांस का निर्यात करता हैं और वहां से पेट्रोल का आयात करता हैं , जिस देश में गौ माता सुरक्षित नहीं हैं , जहाँ गर्भ में ही बच्चे का वध करना वैद्य माना जाता हो, क्या वह देश भारत हो सकता हैं ? क्या हम स्वतंत्र हो पाए ?
आप तो स्वतंत्र हो रहे हो और आप आगे भी इसका प्रचार करो। जो कृष्णभावनामृत का प्रचार करते हैं वह वास्तव में स्वतंत्र हैं। श्रील प्रभुपाद जब इंग्लैंड गए तब वहां के कई जीव कृष्ण भक्त बने और इस प्रकार इंग्लैंड के निवासी अपने देश में ही स्वतंत्र हुए। भगवान् की सेवा में लग्न और से मुक्त होना यही वास्तविक स्वतंत्रता हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभू का यह संकीर्तन आंदोलन जिसकी स्थापना श्रील प्रभुपाद ने पुनः की , यह आंदोलन सम्पूर्ण पृथ्वी पर जीवों को वास्तविक स्वतंत्रता क्या हैं , वह सीखा रहा हैं। जो जीव हरिनाम लेंगे वह स्वतंत्र हो सकते हैं।
हम कहते हैं : नाम से धाम की प्राप्ति होती हैं। किसी भी जीव को चाहे कहीं भी नाम की प्राप्ति हो , फिर चाहे वह चीन में हो या इंग्लैंड में वह सोचता हैं कि एक दिन मैं मायापुर या वृन्दावन अवश्य जाऊंगा। यह उनकी स्वतंत्रता हैं , वह देश की सीमा से स्वतंत्र हो गए। इस प्रकार श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु ने आदेश दिया हैं : *जारे देखो तारे कहो , कृष्ण उपदेश।*
जब हम ऐसा करेंगे तब हम स्वयं भी स्वतंत्र होंगे तथा अन्यों को भी स्वतंत्र करेंगे। इस दुनिया के तथाकथित धर्म छोड़कर जब जीव भगवान् की शरण में आता हैं तो उसका उत्सव मनाना चाहिए। आप जब इस गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय से जुड़ते हैं , आपको जब शिक्षा और दीक्षा यहाँ मिलती हैं और आपको ज्ञान की प्राप्ति हैं। आप फिर दीक्षा होती हैं आपका नामकरण होता हैं , उस दिन आप वास्तव में स्वतंत्र होते हैं। प्रत्येक देश में लगभग हर स्थान पर स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं , वह पहले की सरकार से मुक्त होकर नई सरकार के आधीन हुए , एक विचारधारा का त्याग करके दूसरे को अपनाया परन्तु वास्तव में यह स्वतंत्रता कोई मूल्य की नहीं हैं।
हमें यह समझना चाहिए। आप इस पर चिंतन कीजिए। जिस प्रकार दही का मंथन करने से मक्खन छाछ के ऊपर तैरने लगता हैं , वही मक्खन दही के साथ मिला हुआ था परन्तु अब वह छाछ के ऊपर तैरता हैं। आप उसे डुबाने का प्रयास करेंगे तब भी वह डूबेगा नहीं और छाछ के ऊपर ही तैरता रहेगा। उसी प्रकार जब हम कृष्णभावनामृत का अभ्यास करेंगे तब हम भी उस मक्खन की तरह इस संसार के कीचड़ से मुक्त और ऊपर रहेंगे। हम इस कांफ्रेंस को आज यहीं विश्राम देते हैं , कल आप सभी से पुनः भेंट होगी।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
वृंदावन धाम से,
30 अगस्त 2021
हरे कृष्ण!
श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव की जय।सारा संसार जन्माष्टमी मना रहा हैं और आप भी तो जन्माष्टमी मना ही रहे हो और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी श्री कृष्ण जन्माष्टमी मनाई,किसने जन्माष्टमी मनाई?सुना आपने? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी जन्माष्टमी मनाई।एक बार महाप्रभु जन्माष्टमी के दिन जगन्नाथपुरी में थे,तो उन्होंने भी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उत्सव मनाया।आज जब मैं जप कर रहा था तो मुझे यह लीला याद आई, क्योंकि मैंने यह पहले पढ़ा था इसलिए मुझे यह लीला याद आई,इस बार मैंने सोचा कि चलो इसी को शेयर करते हैं, ठीक हैं। समय ज्यादा नहीं हैं और यह लीला थोड़ी छोटी भी हैं,छोटी परंतु प्यारी,तो आज इसी पर बात करेंगें।
मध्य लीला-15.17
कृष्ण जन्म यात्रा – दिने नन्द – महोत्सव ।
गोप – वेश हैला प्रभु लत्रा भक्त सब ॥१७ ॥
अनुवाद-भक्तों ने कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव भी मनाया , जिसे नन्द महोत्सव भी कहा जाता है । इस अवसर पर श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्तों ने ग्वालों का वेश धारण किया ।
यह बताया गया हैं कि जन्माष्टमी के दिन नंदोत्सव संपन्न हुआ। वैसे पहली कृष्ण जन्माष्टमी तो नवमी के दिन मनाई गई थी, और नंद महाराज ने ही यह उत्सव स्पॉन्सर किया,इसलिए इसको नंदोत्सव कहते हैं। जगन्नाथपुरी में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नंदोत्सव मना रहे थे, मतलब कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव मना रहे थे। उस दिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और उनके परिकरो ने गोप वेश धारण किया और इस लीला का मंचन होना था।वह नृत्य नाटिका के रूप में सब कुछ प्रस्तुत करने वाले थे। केवल कथा ही नहीं हो रही थी बल्कि नृत्य नाटक से सब कुछ प्रस्तुत कर रहे थे।उत्सव मनाया जा रहा था,तो कई सारे परिकर गोप वेश धारण करके वहां पहुंचे। कैसे पहुंचे?
मध्य लीला 15.18
दधि – दुग्ध – भार सबे निज – स्कन्धे करि ‘ । महोत्सव – स्थाने आइला बलि हरि”हरि ‘ ॥१८ ॥
अनुवाद- ग्वालों का वेश धारण करके तथा कंधे में बहँगी पर दूध तथा दही के बर्तन लेकर सारे भक्त ‘ हरि’हरि ‘ का उच्चारण करत हुए महोत्सव स्थल पर आये ।
गोप वेश धारण किए हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और कई सारे परिकर कंधों पर लाठी लेकर चल रहे थे और आगे पीछे कई सारे मटके थे और उसमें दूध दही और गौरस था। उसको ढोते हुए सभी वहां पर पहुंच जाते हैं और साथ में हरि हरि, हरि हरि बोल रहे हैं। आप बोलोगे या नहीं?हरि हरि। अगर आप देख पाओ तो हम आपको बहुत सब दिखा रहे हैं। हमको वहां पहुंचना हैं। इस लीला का जो यहां वर्णन हैं, इसको जब हम ध्यानपूर्वक और श्रद्धा पूर्वक सुनेंगे तो ऑडियो का वीडियो बन जाएगा।हम कहते ही रहते हैं कि यह ऑडियो का वीडियो बन जाना चाहिए।
मध्य लीला 15.19
कानात्रि – खुटिया आछेन ‘ नन्द ‘ – वेश धरि ‘ । जगन्नाथ – माहाति हत्राछेन ‘ व्रजेश्वरी ‘ ॥१ ९ ॥
अनुवाद- कानाइ खुटिया ने नन्द महाराज का वेश बनाया और जगन्नाथ माहाति ने माता यशोदा का वेश बना लिया ।
कानात्रि खुटिया नाम के सज्जन नंद महाराज की भूमिका निभा रहे हैं और जगन्नाथ माहिती बृजेश्वरी बने हैं,मतलब यशोदा मैया। यशोदा मैया की जय।यशोदा और नंद महाराज दोनों वहां पर पहुंचे हैं।
मध्य लीला 15.20
आपने प्रतापरुद्र , आर मिश्न – काशी । सार्वभौम , आर पड़िछा – पात्र तुलसी ॥ २० ॥
उस समय काशी मिश्र , सार्वभौम भट्टाचार्य तथा तुलसी पड़िछापात्र अनुवाद समेत राजा प्रतापरुद्र भी वहाँ उपस्थित थे।
इस उत्सव में कई सारे लोग सादर आमंत्रित हैं।यहां पर वीआईपी के नाम दिए जा रहे हैं। पुरी के राजा प्रताप रूद्र पहुंचे हैं और राजा के पुरोहित काशी मिश्र आए हैं। सार्वभौम भट्टाचार्य जी आए हैं, सार्वभौम भट्टाचार्य की जय। सार्वभौम भट्टाचार्य का भी स्वागत हैं। उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया हैं और पड़िछा नाम के सज्जन या जगन्नाथ के सेवक भी वहां पहुंचे हैं।
मध्य लीला 15.21
इँहा – सबा लञा प्रभु करे नृत्य – रङ्ग । दधि – दुग्ध हरिद्रा – जले भरे सबार अङ्ग ॥ २१ ॥
सदैव की तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने उल्लासपूर्वक नृत्य किया।सारे लोग दूध,दही तथा हल्दी के पीले जल से सराबोर हो गये ।
दही हैं,दूध हैं और उसमें हल्दी भी मिलाई गई हैं। इसको केवल दिखाने के लिए नहीं लाए हैं, जैसे नंदोत्सव में हुआ।उस नंदोत्सव में तो सारे ग्वाल बाल पहुंचे थे और सारा ब्रज ही वहां पहुंचा था,नंद के घर आनंद भयो जय कन्हैया लाल की। नंदलाल जब प्रकट हुए थे नंद भवन में तो सारे बृजवासी वहां पहुंचे और वह दही,दूध, छाछ लेकर आए थे। वैसे ही आज यहां जगन्नाथपुरी में हो रहा हैं और छाछ, दही और दूध पता नहीं खाया या नहीं खाया पहले तो एक दूसरे के ऊपर उसको झलका रहे हैं।छिड़का रहे हैं, मतलब एक दूसरे का दूध दही से अभिषेक कर रहे हैं। वैसे ही जगन्नाथपुरी में भी हो रहा हैं। सब के अंग में दही दूध का लेपन हो रहा हैं। इसका छिड़काव हो रहा हैं और इसी के साथ सभी अपना हर्ष और उल्लास प्रकट कर रहे हैं। वैसे ही लीला संपन्न हो रही हैं, जैसे नंदोत्सव के दिन नंद भवन में हुई थी।
मध्य लीला 15.22
अद्वैत कहे , सत्य कहि , ना करिह कोप । लगुड़ फिराइते पार , तबे जानि गोप ॥२२ ॥
अनुवाद- तभी श्रील अद्वैत आचार्य ने कहा , ” आप नाराज न हों । मैं सच कह रहा हूँ । यदि आप इस लाठी को चन्द्राकार रूप में घुमा सको , तो मैं समझूगा कि आप ग्वाले हो । ”
बीच में ही अद्वैत आचार्य प्रभु उठे, उन्होंने माइक लिया और कहने लगे कि अगर आपको इस बात से ऐतराज ना हो या क्रोध ना आए तो मैं एक बात कहने जा रहा हूं,आप लोग यहां गोप वेश धारण करके तो आ गए हो लेकिन आप सिद्ध करो के आप सचमुच गोप हो। केवल नाटक करके नहीं दिखाना हैं। आपसे सिद्ध करो कि आप गोप हो।हे नित्यानंद प्रभु,हे चैतन्य महाप्रभु आप सिद्ध करो। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु तैयार हुए और उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया और
मध्य लीला 15.23
तब लगुड़ लञा प्रभु फिराइते लागिला । बार बार आकाशे फेलि ‘ लुफिया धरिला ॥२३ ॥
अनुवाद- महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य की चुनौती को स्वीकार करके बड़ी – सी लाठी ली और वे उसे चारों ओर घुमाने लगे । वे बार – बार लाठी को आकाश में उछालते और गिरते समय पकड़ लेते ।
आपने कभी ऐसा खेल देखा होगा, हम भी जब छोटे थे तो ऐसा खेल गांव में खेलते थे।बड़ी लाठी को उछाल कर आकाश में फैंकते थे और फिर उसे हाथ में पुण: पकड़ना होता था। हाथ में धारण करना होता हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसे ही कर रहे थे। लाठी को आकाश में फेंक देते और लाठी जब नीचे आ जाती तो उसे पकड़ लेते।
मध्य लीला 15.24
शिरेर उपरे,पृष्ठे,सम्मुखे , दुइ – पाशे । पाद – मध्ये फिराय लगुड़ , देखि लोक हासे ॥२४ ॥
अनुवाद- श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी लाठी को घुमाते और उछालते और कभी कभी अपने सिर पर ले जाते , कभी पीठ पीछे , कभी सामने , कभी बगल में और कभी दोनों पाँवों के बीच । यह देखकर सारे लोग हँसने लगे ।
साथ ही साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस लाठी को लिया हुआ हैं और इधर-उधर घुमाते हुए उसके साथ खेल रहे हैं। उसे गोल गोल घुमा रहे हैं, आगे पीछे घुमा रहे हैं।वह कइ प्रकार से इस लाठी के साथ खेल कर रहे हैं और यह जब सब लोगों ने देखा तो सब हा हा हा हा करके हंसने लगे। आप हंस नहीं रहे। क्या आपको यह कोई चमत्कार नहीं लग रहा हैं? यह चमत्कार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने चमत्कृत किया।जिस प्रकार से उन्होंने उस लाठी के साथ खेल दिखाए उससे यह चमत्कारी लग रहा था।इतनी तेजी से वह उसे घुमा रहे थे, ऐसा लग रहा था कि वह लाठी गोलाकार हैं या वह सब स्थान पर हैं, जैसे अग्नि के मशाल को अगर आप घूमाते हैं तो ऐसा लगता है कि मशाल हर स्थान पर हैं।
मध्य लीला- 15.25
अलात – चक्रेर प्राय लगुड़ फिराय । देखि ‘ सर्व लोक – चित्ते चमत्कार पाय ॥२५ ।।
अनुवाद-जब श्री चैतन्य महाप्रभु लाठी को अग्निबाण ( अलातचक्र ) तरह घुमा रहे थे , तो देखने वालों के हृदय चमत्कृत हो गये ।
अब नित्यानंद प्रभु आपकी बारी हैं, नित्यानंद प्रभु ने भी खेल दिखाया।नित्यानंद प्रभु कौन हैं?बलराम होइलो निताय
brajendra-nandana jei, śacī-suta hoilo sei,
balarāma hoilo nitāi( हरि हरि बिफले)
नंद महाराज के नंद नंदन ही तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बने हैं और बलराम नित्यानंद प्रभु बने हैं, तो यह सचिनंदन लीला खेल के दिखा रहे हैं,जन्माष्टमी उत्सव मना रहे हैं।किसना जन्माष्टमी उत्सव मना रहे हैं?बताओ?श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु किसका जन्माष्टमी उत्सव मना रहे हैं? खुद का ही जन्माष्टमी उत्सव मना रहे हैं।वह तो अपना खुद का ही बर्थडे मना रहे हैं।
15.27
प्रतापरुद्रर आज्ञाय पड़िछा – तुलसी । जगत्राथेर प्रसाद – वस्त्र एक लत्रा आसि ॥२७ ॥
अनुवाद-महाराज प्रतापरुद्र की आज्ञा पाकर मन्दिर का निरीक्षक तुलसी भगवान जगन्नाथ के उतारे वस्त्रों में से एक वस्त्र ले आया ।
पड़िछा तुलसी प्रभु मंदिर से आए थे और मंदिर से कुछ विशेष भेट लाए थे।वह वहां का जगन्नाथ प्रसाद वस्त्र लाए थे।
M 15.28
बहु मूल्य वस्त्र प्रभु – मस्तके बान्धिल । आचार्यादि प्रभुर गणेरे पराइल ॥२८ ॥
अनुवाद-यह बहुमूल्य वस्त्र श्री चैतन्य महाप्रभु के सिर पर लपेट दिया गया।अद्वैत आचार्य,आदि दूसरे भक्तों ने भी अपने सिरों पर इसी तरह ,वस्त्र लपेट लिये।पड़िछा तुलसी प्रभु ने जगन्नाथ जी का वस्त्र चेतनय महाप्रभु के मस्तक पे बांध दिया।आपने देखा होगा कि जैसे वस्त्र कभी-कभी मस्तक पर बांध देते हैं,वैसे उन्होंने महाप्रभु के मस्तक पर वस्त्र बांध दिया।इस प्रकार उनको जगन्नाथ जी का प्रसाद उत्सव वस्त्र प्राप्त हुआ।
M 15.29
कानात्रि – खुटिया , जगन्नाथ , दुइ – जन । आवेशे विलाइल घरे छिल यत धन ॥२ ९ ॥
अनुवाद-कानाइ खुटिया जिसने भावावेश में नन्द महाराज माहाति जिसने माता यशोदा का वेश धरा था , घर में संचित सारे धन को बांट दिया।नंद बाबा ने नंद उत्सव के दिन या जो कन्हाई कुटिया नंद बाबा की भूमिका निभा रहे थे, नंदोत्सव के दिन आवेश में आ गए मतलब वह स्वयं ही नंद बाबा और यशोदा मैया के आवेश में आ गए,वैसे तो वह नाटक कर रहे थे लेकिन नाटक करते-करते सचमुच ही उनमें नंद बाबा के भाव उदित हो गए,उनको ऐसा भाव आ रहा था जैसा यशोदा सोचती थी और उन्होंने खूब दान धर्म किया और घर में जितना भी धन था वह सब बांट दिया या दान में दे दिया।
M 15.30
देखि ‘ महाप्रभु बड़ सन्तोष पाइला । माता – पिता – ज्ञाने दुँहे नमस्कार कैला ॥३० ॥
अनुवाद-श्री चैतन्य महाप्रभु यह देखकर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए।उन्होंने उन दोनों को अपने पिता तथा माता के रूप में स्वीकार करके नमस्कार किया ।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी इस उत्सव में सम्मिलित हुए हैं और जिस ढंग से यह उत्सव संपन्न हुआ वह अद्भुत हैं।क्योंकि वहा और भी ग्वाल बाल एकत्रित हुए हैं और नंद बाबा और यशोदा भी वहां हैं और कई सारे वीआईपी भी हैं।तो उनकी उपस्थिति से या उनके भाव को देखकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को संतोष हुआ हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न हैं और वह भी श्रीकृष्ण के भाव में आ गए। तो क्या वह कृष्णभावना भावित बने? नहीं वह कृष्णा ही बने। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े हैं।
M 15.31
परम – आवेशे प्रभु आइला निज – घर । एइ – मत लीला करे गौराङ्ग – सुन्दर ॥३१ ॥
अनुवाद- श्री चैतन्य महाप्रभु परम आवेश में अपने निवासस्थान पर लौट आये।इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने,जो गौरांग सुन्दर के नाम से जाने जाते थे ,विविध लीलाएँ कीं ।
और इसी के साथ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कीर्तन और नृत्य करते हुए सभी अपने अपने निज घर पहुंचे हैं, चैतन्य महाप्रभु पहुंचे हैं। और इस प्रकार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु में जन्माष्टमी के दिन लीला संपन्न की। श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव की जय। तो यह लीला काफी विशेष और अद्भुत हैं,कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भक्त बने हैं और वह भी जन्माष्टमी मना रहे हैं।और हम सभी के समक्ष एक आदर्श भी रख रहे हैं कि अगर जन्माष्टमी संपन्न करनी हैं, तो कैसे करनी हैं, जैसे चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु जन्माष्टमी में सम्मिलित हुए वैसे ही। क्या-क्या आयोजन हुआ और…हरि हरि।अब हमारी बारी हैं या हमारा भाग्य हैं कि हमें भी ऐसा मौका मिल रहा हैं।
M 19.151
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव । गुरु – कृष्ण – प्रसादे पाय भक्ति – लता – बीज ।।
अनुवाद -सारे जीव अपने – अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं।इनमें से कुछ उच्च ग्रह – मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह – मण्डलों को।ऐसे करोड़ों भटके जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता हैं,जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता हैं । कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता हैं और आज के दिन कम से कम जो यहां पर उपस्थित हैं, कितने उपस्थित हैं, यहां पर 900 भक्त सम्मिलित हैं, उनको भगवान सद्बुद्धि दे रहे हैं,आप सब को भगवान सद्बुद्धि दे रहे हैं या भगवान ने आपके लिए ऐसी व्यवस्था की हैं। इस प्रकार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जन्माष्टमी महोत्सव संपन्न किया। संभावना हैं कि 1965 में भारत के बाहर भक्तों ने जन्माष्टमी महोत्सव मनाया था और आज 2021 में पूरे विश्व भर में जन्माष्टमी उत्सव मनाया जाएगा। इस सभा में हजार भक्त हैं, वह तो मनाएंगे ही,सारे मंदिरों में और केवल मंदिरों में ही नहीं, अपने अपने घरों में भक्त जन्माष्टमी मनाएंगे या जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाएगा। हजारों लाखों करोड़ों इस्कॉन के अनुयाई जन्माष्टमी मनाएंगे। वैसे भी आजकल लोगों की ऐसी समझ हैं कि जन्माष्टमी मतलब हैं,वह जन्माष्टमी जो इस्कॉन के मंदिरों में मनाई जाती हैं, हमारे इस्कान दिल्ली और ऐसे ही कई सारे मंदिरों में कई सारे न्यूज़ चैनल पहुंच जाते हैं,टेलीकास्ट करते हैं। इस्कान के जन्माष्टमी का टेलीकास्ट करते हैं। यहां भी मीडिया पहुंच जाएगा और यहां के उत्सव का प्रसारण भी होगा और लोग घर बैठे बैठे दर्शन कर सकते हैं।घर बैठे बैठे जन्माष्टमी का उत्सव,घर पहुंचाया जाएगा। मंदिर में आज हमको बुलाया हैं और हम आज महोत्सव में शामिल हो रहे हैं।हैप्पी बर्थडे टू यू श्री कृष्णा एंड यू में नेवर टेक बर्थ अगेन( हंसते हुए) हैप्पी बर्थडे टू कृष्णा और आप सब को भी मेरी बहुत-बहुत बधाइयां, शुभकामनाएं और साथ में यह भी कहना होगा कि जिस जिस ने भी इस जपा टाक को ज्वाइन किया हैं, यू में नेवर टेक बर्थ अगेन। यहां कृष्ण के पुनर्जन्म का तो प्रश्न ही नहीं हैं,कृष्ण को कहने की आवश्यकता ही नहीं हैं कि आप का पुनर्जन्म ना होए। आपकी पुनः मृत्यु ना हो, कृष्ण तो इन सब बातों के परे हैं। किंतु अगर हम इन उत्सवों में सम्मिलित होंगे, कैसे? पूरी समझ के साथ, पूरे दिल से, श्रद्धा से और तत्वत: इस उत्सव को मनाएंगे तो पुनः जन्म नहीं होगा।
BG 4.9
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||”
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता हैं। तो आप दोबारा जन्म ना लें। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। तो आज यहा रुकना होगा।हरे कृष्णा।
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*जप चर्चा*,
*वृंदावन धाम*,
*29 अगस्त 2021*
हरी बोल। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। हमारे साथ 781 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि हरि। जप चर्चा तो होगा ही किंतु हमने कल भी सूचना दी थी, आज 7:10 तक आपके साथ वार्तालाप होगा क्योंकि मुझको राधा श्यामसुंदर श्रृंगार दर्शन के लिए दौड़ना है और फिर मुझे श्रील प्रभुपाद गुरु पूजा के कीर्तन करने के लिए भी आदेश हुआ है। यह सारी सेवा मुझको निभानी है। हरी हरी। श्रीकृष्ण बलराम की जय। आप सब जानते ही हो कि हम वृंदावन पहुंचे हैं और फिर यहां कृष्ण बलराम के दर्शन हो रहे हैं और भक्तों से भी मिलन हो रहा है। आज प्रात: काल कृष्ण बलराम की आरती भी हमने बहुत समय के उपरांत उतारी। हम इसका अभाव अनुभव कर रहे थे और फिर जप करने लगे तो *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* मन में यह विचार आ रहा था कि यह भी तो आराधना है। मैंने विग्रह कृष्ण बलराम की आराधना करी और हरे कृष्ण हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना भी क्या है? आराधना ही है। वह विग्रह आराधना है और यह नाम की आराधना या उपासना है।
*कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् ।*
*यज्ञै: सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधस: ॥ ३२ ॥*
(श्रीमद भागवतम 11.5.32)
अनुवाद:
कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है ।
भागवतम कहता है कि बुद्धिमान लोग *सुमेधसः* क्या करेंगे? *यजन्ति* यानी आराधना करेंगे। कैसे आराधना करेंगे? *यज्ञै:* यज्ञ करके। कौन सा यज्ञ? *सङ्कीर्तनप्रायैर्य* संकीर्तन यज्ञ। संकीर्तन यज्ञ ही आराधना है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। यह आराधना और पद्धति श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पूरे संसार को सिखाई। जब मैं जप कर रहा था तब कृष्ण याद आ रहे थे। याद आने चाहिए कि नहीं? जप आराधना का उद्देश्य यही है कि श्रीकृष्ण का स्मरण हो जाए। भगवान को हम याद कर सके। फिर मुझे वह गीत भी याद आ रहा था।
(1)
यसोमती-नंदन, ब्रज-बरो-नागर,
गोकुल-रंजन कान
गोपी-परान–धन, मदन-मनोहर,
कालिया दमन विधान
(2)
अमला हरिनाम अमिय विलास
विपिन-पुरंदरा, नवीना नगर-बोरा,
बमसी-बदाना सुवास
(3)
ब्रज-जन-पालन, असुर-कुल-नासन
नंदा-गोधन-रखोवाला
गोविंदा माधव, नवनिता-तस्करा,
सुंदर नंद-गोपाल
(4)
यमुना-तट-चारा, गोपी-बसाना-हारा,
रस-रसिका, कृपामय:
श्री-राधा-वल्लभ, वृंदाबन-नटबारा,
भक्तिविनोद-आश्रय
यशोमती नंदन क्योंकि अब जन्माष्टमी आ रही है। कल ही है। कितने दिन दूर है? जन्माष्टमी में बस एक दिन बचा है। मैं यह भी याद कर रहा था कि जन्माष्टमी के दिन यह गीत गाया जाता है और इस्कॉन में हम कई सारे गीत और भजन गाते रहते हैं। उनमें से यशोमती नंदन प्रसिद्ध गीत है। मैंने भी जब गीत सीखा। जब मैं इस्कॉन हरे कृष्ण लैंड मुंबई में नया भक्त था। पहले कुछ मैंने भजन सीखे उसमें से एक यशोमती नंदन गीत है, प्रसिद्ध है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की रचना है। यह गीत है और यह ध्यान(मेडिटेशन) है। जब हम इस गीत को गाते हैं। हम इसको सुनते भी हैं। यह पूरा गीत हमको कृष्ण का स्मरण दिलाता है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण जप हो भी रहा है और साथ में यह भजन याद आए, तो अच्छा है। यशोमती नंदन और यह भी नाम ही है। वैसे तो पूरा यशोमती नंदन गीत और भजन है। यह एक-एक भगवान का नाम है और कुछ नाम भगवान का यशोदा के साथ जो संबंध है उसको स्मरण दिलाता है या कोई लीला का स्मरण दिलाता है या फिर कुछ भगवान के गुण का स्मरण दिलाता है। तो ऐसे भगवान के नाम बन जाते हैं। भगवान के अनेक नाम है। विष्णु सहस्त्रनाम भगवान के नाम ही नाम है। नाम कैसे बनते हैं? भगवान के रूप का, गुण का, लीला का और यहां तक कि धाम का भी उल्लेख करते हैं। उसका स्मरण दिलाते हैं। हम ऐसे समझ सकते हैं कि भगवान के अलग-अलग नाम है। भगवान के अलग-अलग नाम क्यों हैं? क्योंकि भगवान के कई सारे गुण हैं। किसी नाम से उस गुण का उल्लेख होता है। भगवान कितने सुंदर है। सुंदर लाला सचिर दुलाला, सचीर दुलाल है वह भी सुंदर है। फिर सुंदर लाल नाम बन जाता है। कृष्ण ही बन जाते हैं। कृष्ण ही है या गौर सुंदर श्याम सुंदर ही है। यह नाम है। भगवान का एक नाम श्यामसुंदर है। यह सौंदर्य का स्मरण दिलाता है। कैसे सुंदर है? श्यामसुंदर है। घन इव श्याम और दूसरे हैं गौर सुंदर। वह भी सुंदर है। लेकिन वह गौर वर्ण के हैं तो गौर सुंदर। श्याम वर्ण के है तो श्यामसुंदर। तो नाम,रूप, गुण, लीलाओं का और धाम का वृंदावन बिहारी लाल की जय, और एक नाम हो गया। वृंदावन बिहारी, वृंदावन में बिहार करते हैं। हम यशोमती नंदन गीत को गाएंगे तो नहीं किंतु सुनाएंगे। गायन ही हो जाता है। गोलोक में बोलना भी गान ही है चलना भी नृत्य ही है। उस दृष्टि से यह गान ही है। *यसोमती-नंदन ब्रज-बरो-नागर* यशोमती नंदन, यशोमती मैया के यह नंदन है। ऐसे देवकीनंदन भी है। नंदनंदन भी है या तो यशोमति नंदन कहा है। लेकिन वह वह कईयों के नंदन है। वैसे ब्रज की हर स्त्री कृष्ण को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करती है। तो वह सभी के नंदन है। ब्रजवासियों के नंदन है। विशेष रुप से यशोमती नंदन है। *ब्रज-बरो-नागर* वृंदावन के प्रेमी है। *गोकुल-रंजन कान* कृष्ण कन्हैया लाल की जय। कान्हा बड़ा प्रसिद्ध नाम है। *गोकुल-रंजन कान* जब गीत लिखे जाते हैं कान्हा का कान लिख सकते हैं। काव्य लाइसेंस मिलता है। कभी ऐसे शब्दों को कभी थोड़ा अपभ्रंश भी हो जाता है किन्तु यह समस्या नहीं है। तो कान यहां कहां है। यह गोकुल वासियों के कान्हा है। सभी गोकुल वासियों के आकर्षण हैं। *गोपी-परान–धन* वैसे गोपी-प्राणधन होना चाहिए था। गोपी प्राणधन का गोपी-परान–धन हुआ। *राधा कृष्ण प्राण मोर जुगल किशोर*। यह गोपियों के प्राण है। गोपियों के प्राणधन है, धन है। तो क्या वह सिर्फ गोपियों के प्राण धन है? औरों के प्राणधन है कि नहीं? और आपके प्राणधन कौन हैं? जब हम सुनते हैं यह गोपियों के प्राण धन है।
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*जप चर्चा*
*वृन्दावन धाम से*
*28 अगस्त 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 722 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!!!
कृष्ण कन्हैया लाल की जय! हाथी घोड़ा पालकी
कृष्ण कन्हैया लाल की ..
नंद के घर… क्या हुआ? कुछ हुआ या नहीं?
नंद के घर आनंद भयो। वैसे अभी होने वाला है, हर साल होता है। केवल दो दिन ही दूर हैं, वृंदावन धाम की जय!
वैसे आज भी हम लगभग सवा सात बजे तक ही जप चर्चा करेंगे। आजकल ऐसे ही होने वाला है, कल भी और परसों भी क्योंकि मुझे मंदिर के प्रोग्राम में भी सम्मिलित होना है।
अभी पदमाली प्रभु भी घोषणा करेंगे कि 8:00 बजे कथा होगी। अभी थोड़ी कथा होगी व 8:00 बजे पुनः जन्माष्टमी के उपलक्ष में कृष्ण कथा होगी। इस्कॉन कानपुर द्वारा आयोजित कृष्ण कथा में मैं भी 8:00 बजे से 9:30 तक कथा करूंगा। अभी तो छोटी कथा होगी बाद में आठ बजे से लंबी कथा होगी।
यह हम कुछ दिनों से स्मरण कर रहे हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मथुरा- वृंदावन में.. ..
(कृष्ण दास कविराज गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के संबंध में लिखते हैं)
*नीलाचले छिला यैछे प्रेमावेश मन । वृन्दावन याइते पथे हैल शत – गुण ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत १७.२२६)
अनुवाद:- श्रीचैतन्य महाप्रभु का मन जगनाथ पुरी में प्रेमावेश में मग्न था , किन्तु जब वे वृन्दावन के मार्ग से होकर निकल रहे थे, तब वह प्रेम सैकड़ों गुना बढ़ गया।
जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नीलांचल में रहते थे, तब यदि वहां वे वृंदावन का स्मरण अथवा वृंदावन के संबंध में कोई बात सुनते तब उनमें प्रेम का आवेश हो जाता। श्रीकृष्ण चैतन्य वृन्दावन के विषय में सुनते ही भावविभोर हो जाते थे।
*वृंदावन याइते पथे हैल शत-गुण*
वृन्दावन धाम की जय!
जब वे वृन्दावन की ओर आने लगे, वृन्दावन के मार्ग में उनमें 100 गुणा प्रेमावेश बढ़ गया। महाप्रभु में वृंदावन के स्मरण अथवा श्रवण मात्र से जितना प्रेम का आवेश जगन्नाथपुरी में हुआ करता था, रास्ते में वह प्रेम आवेश 100 गुना बढ़ गया।
*सहस्त्र – गुण प्रेम बाड़े मथुरा दरशने । लक्ष – गुण प्रेम बाड़े, भ्रमेन यबे वने ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.227)
अनुवाद:- जब महाप्रभु ने मथुरा देखा तो उनका प्रेम हजार गुणा बढ़ गया, किन्तु जब वे वृन्दावन के जंगलों में घूम रहे थे, तब वह लाख गुणा बढ़ गया ।
जब महाप्रभु मथुरा में पहुंच गए तब मथुरा के दर्शन से उनका भाव अथवा प्रेम एक 1000 गुणा अधिक हो गया।
*लक्ष – गुण प्रेम बाड़े , भ्रमेन यबे वने*
तत्पश्चात जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन की यात्रा प्रारंभ की। यह उनका भक्ति भाव अथवा प्रेम भाव कहा जाए अथवा उनकी कृष्णभावनामृत चेतना अथवा वृंदावन की भक्ति भाव, वह उनमें एक लाख गुणा बढ़ गया। मथुरा से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने द्वादश काननों की यात्रा प्रारंभ की, वह मधुबन गए, वहां से ताल वन गए, कुमुद वन गए, तत्पश्चात वृंदावन गए। क्या आपको यह सब नाम याद हैं? यह पवित्र नाम हैं इसलिए इन नामों को सुनने मात्र से हम भी पवित्र हो जाते हैं। तत्पश्चात चौथा वन है, यमुना के पश्चिमी तट पर (वेस्टर्न बैंक ऑफ़ यमुना चल रहा) मधुबन से ताल वन, ताल वन से कुमद वन और वहां से वृंदावन आते हैं। वृंदावन से कामवन जाते हैं और कामवन से खादिर वन की यात्रा करते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, वहां जो संपन्न हुई लीलाओं का श्रवण स्मरण करते हैं। इस प्रकार उनका भक्ति भाव लक्ष्य गुण अर्थात लाख गुना अधिक बढ़ जाता है। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यमुना को पार करते हैं। तब वे भद्रवन जाते हैं जिस वन में भगवान ने वत्सासुर का वध किया था। तत्पश्चात चैतन्य महाप्रभु, भद्रवन से आगे बढ़ते हैं और भांडीरवन जाते हैं। भांडीरवन वही वन है जहां राधा कृष्ण का विवाह भी हुआ था। वहां से वे अगले वन बेलवन अर्थात श्रीवन भी जाते हैं। जहां लक्ष्मी जी तपस्या कर रही हैं। वहां से लोहवन अर्थात जहां भगवान् ने लोहाजंग असुर का वध किया था। लोहवन से आगे द्वादश काननों का अंतिम वन महावन अथवा गोकुल है। गोकुलधाम की जय!!
वहीं पर बलदेव नामक स्थान भी है, वहां बलदेव के विग्रह का दर्शन भी है। गोकुल में ब्रह्मांड घाट है। वहां क्या-क्या नहीं है? श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गोकुल धाम की यात्रा करते हैं । यह चैतन्य महाप्रभु का इस ब्रज यात्रा में बिल्कुल अंतिम पड़ाव रहता है। जब हम लोग भी ब्रजमंडल परिक्रमा करते हैं तब हम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों का अनुसरण करते हुए उन्हीं वनों में से, व उसी क्रम में उसी मार्ग पर जिस पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए थे, उसी मार्ग से हम लोग भी चौरासी कोस की ब्रज मंडल परिक्रमा करते हैं, जो कि कार्तिक मास में इस्कॉन द्वारा आयोजित होती है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गोकुल से रावल गांव जाते हैं, रावल राधा रानी का जन्म स्थान है। सभी वनों की यात्रा करने का फल है, यह हमें राधा रानी के चरणों तक पहुंचा देती है। हम रावल गांव पहुंचते हैं और वहां की धूलि को हम अपने मस्तक पर उठाते हैं।
*राधे तेरे चरणों की यदि धूल मिल जाए तो तकदीर बदल जाए*..
हरि !हरि! तब परिक्रमा का फल राधा रानी के गांव में रहने का ही है, वैसे एक रात वहां रहते भी हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं राधा रानी अथवा राधा भाव में ही प्रकट हुए हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य। गौरांग!!!
रावल गांव में वे स्वयं ही राधारानी के भाव में रहे!! उन्हें लगा यह मेरा गांव है, मैं राधा रानी हूं।
*राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥* राधा – भाव
(श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.5)
अनुवाद ” श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । ”
राधा रानी के कारण ही तो कृष्ण अब गौर वर्ण के बने हैं। वे श्यामसुंदर थे, अब वे गौर सुंदर बने हैं। राधारानी के अंग के रंग को श्रीकृष्ण ने अपनाया है।
*अन्तः कृष्णं बहिरं दर्शिताङ्गादि – वैभवम् । कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण – चैतन्यमाश्रिताः ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 3.81)
अनुवाद:- मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ , जो बाहर से गौर वर्ण के हैं, किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं । इस कलियुग में वे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात् अपने अंगों तथा उपागों का प्रदर्शन करते हैं ।
कृष्ण छिपे रहे और बाहर से राधारानी के वर्ण को लिया।
*तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरिप्रिये।।*
राधारानी गौरांगी हैं, इसलिए वे हमारे गौरांग हैं। राधारानी के कारण वे गौरांगी के गांव में रहे। वहां रावल गांव में गौरांगी अथवा राधारानी के भाव में ही रहे।
अन्तोगत्वा वे पुनः विश्राम घाट लौटे हैं। जहां से उन्होंने यात्रा प्रारंभ की।
ब्रज मंडल की यात्रा का प्रारंभ औपचारिक दृष्टि से मथुरा के विश्राम घाट से होता है। चैतन्य महाप्रभु ने वैसे ही विश्राम घाट से प्रारंभ हुई यात्रा का समापन वही पर किया है। वहां से अक्रूर घाट रहने के लिए गए हैं ।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रहने अथवा निर्जन भजन करने के लिए वहां गए हैं।
*ढुले ढुले गोरा-चांद हरि गुण गाइ आसिया वृंदावने नाचे गौर राय॥1॥*
*वृंदावनेर तरुर लता प्रेमे कोय हरिकथा निकुञ्जेर पखि गुलि हरिनाम सुनाई॥2॥*
*गौर बोले हरि हरि शारी बोले हरि हरि मुखे मुखे शुक शारी हरिनाम गाइ॥3॥*
*हरिनामे मत्त होये हरिणा आसिछे देय मयूर मयूरी प्रेमे नाचिया खेलाय॥4॥*
*प्राणे हरि ध्याने हरि हरि बोलो वदन भोरि हरिनाम गेये गेये रसे गले जाइ॥5॥*
*आसिया जमुनार कुले नाचे हरि हरि बोले जमुना उठोले एसे चरण धोयाइ॥6॥*
अर्थ
(1) चन्द्रमा सदृश भगवान् गौरा चाँद, नृत्य करते हुए, इधर-उधर झूलते हुए, और भगवान् हरि की महिमा का गुणगान करते हुए, वृन्दावन में पहुँचते हैं।
(2) वृन्दावन के वृक्षों को अलंकृत करती हुई उनमें लिपटी हुई लताएँ परम आनन्दित प्रेम से भाव विह्वल हो गई है, और वे भगवान् हरि की महिमा व यश के विषय में बोल रही हैं। पक्षियों के झुण्ड जो वृक्षों के समूह में या बगीचों मे रहते हैं, भगवान् हरि के नाम का गान कर रहे हैं।
(3) भगवान् गौर कहते हैं, “हरि! हरि!”, एक मादा तोता (शुक) उत्तर देती है, “हरि! हरि!” और तब सारे नर एवं मादा तोते सब साथ मिलकर, जोर से हरि के नाम का सहगान करते है।
(4) पवित्र भगवन्नाम द्वारा नशे में मद होकर, हिरन वन से बाहर आ जाता है। मोर व मोरनियाँ परम आनन्दित प्रेमपूर्ण भाव में भाव विभोर होकर नृत्य कर रहे हैं तथा उल्लासपूर्ण क्रीड़ा कर रहे हैं।
(5) भगवान् हरि उनके हृदय में हैं, भगवान् हरि उनके ध्यान में हैं, और वे अपनी वाणी (आवाज) से सदा हरि के नाम का उच्चारण करते हैं। गौर चाँद परम आनन्दित प्रेम पूर्ण भाव के मधुर, रसीली, मनोरम ध्वनि द्वारा नशे में मस्त हैं और हरिनाम गाते-गाते भूमि पर घूमते हुए लुढ़कते हैं।
(6) यमुना नदी के तट पर पहुँच कर, वह “हरि! हरि!” का उच्चारण करते हुए अति उत्साहित होकर नृत्य करते हैं। माता यमुना इतनी अधिक प्रेमानन्द से भाव विभोर हो जाती हैं कि वे उठती हैं और भगवान् गौरांग के चरण धोने के लिए आगे आती हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ढुले ढुले अर्थात डोलायमान हैं और
हरि गुण गाइ अर्थात हरि का गुण भी गा रहे हैं।
आसिया वृंदावने, नाचे गौर राय
वे वृंदावन में आकर कीर्तन और नृत्य कर रहे हैं। नाचे गोरा राम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में आकर कीर्तन और नृत्य कर रहे हैं।
‘वृंदावनेर तरुर लता प्रेमे कोय हरिकथा ‘
अर्थात
वृंदावन की लता, वेली भी हरि कथा करती है। हरि हरि! सभी हरि हरि बोलते हैं। निकुञ्जेर पखि गुलि हरिनाम सुनाई अर्थात निकुंज के पक्षी पखि गुलि अर्थात पक्षियों के समूह भी भगवान के गुण गाते हैं।
झारखंड जंगल में तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन को प्रेरित किया और वे सभी झारखंड वन में नृत्य और कीर्तन कर रहे थे। जमीन पर पशु और आसमान में पक्षी को देखकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को वृंदावन का स्मरण हुआ था लेकिन अभी महाप्रभु वृंदावन में ही हैं। वृंदावन के पशु पक्षी सदा के लिए कृष्ण भावना भावित होते हैं। वे भी हरि का गुण गाते ही रहते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको प्रेरित नहीं किया अथवा उनको कुछ सिखाया नहीं है। वृंदावन के पशु पक्षी किसी साधना से सिद्ध नहीं हुए। वे तो स्वभाविक रूप से कृष्ण भावना भावित हैं। गौर बोले हरि हरि
शारी बोले हरि हरि
मुखे मुखे शुक शारी
हरिनाम गाइ
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब हरि हरि कहते, तब उनको सुनने वाले भी हरि हरि बोलते। क्या आप हरि हरि बोल रहे हो? आप लोग बोल रहे हैं। बहुत अच्छा! वेरी गुड!
मुखे मुखे शुक शारी हरिनाम गाइ
हरिनामे मत्त होये
हरिणा आसिछे देय
मयूर मयूरी प्रेमे
नाचिया खेलाय।
हरि नाम में मद् कुछ हिरन भी वहां आ गए। वे भी गा रहे हैं। मयूर मयूरी प्रेमे
नाचिया खेलाय।
मयूर भी आ गए, कई सारी मयूरी भी आ गई। कई सारे मयूर वा मयूरी आ गई वे अपने नृत्य के लिए प्रसिद्ध हैं। कभी-कभी जब भक्त नाचते हैं, तब लोग या अन्य भक्त कहते हैं कि ‘ही इस डांसिंग लाइक ए पीकॉक’ अर्थात वह भक्त मोर जैसा नृत्य कर रहा है। मोर नृत्य के लिए प्रसिद्ध है।
मयूर, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के पास पहुंचे और नाचिया खेलाय और नाच रहे हैं खेल रहे हैं।
प्राणे हरि ध्याने हरि
हरि बोलो वदन भोरि
हरिनाम गेये गेये
रसे गले जाइ
प्राण में हरि, ध्यान में हरि। हरि हरि। हरि बोलो वदन भोरि
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
कैसे बोलो बदन भरी। मुख भर के बोलो। मुख को भरने से पहले जी भर कर और कंठ भर के आत्मा की पुकार ह्र्दय से प्रारंभ होगी, कंठ में पहुंचेगी और कंठ से मुख में पहुंचेगी। मुख खोलो और बोलो- हरि! हरि!
हरिनाम गेये गेये
रसे गले जाइ
ऐसा कीर्तन करते-करते श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यमुना के तट पर पहुंच गए। उन्होंने सात वनों की यात्रा की। सात वनों की यात्रा की और पांच वन अवशेष हैं। बीच में है यमुना मैया। यमुना के तट पर जब चैतन्य महाप्रभु पहुंचे।
आसिया जमुनार कुले
नाचे हरि हरि बोले
जमुना उठोले एसे
चरण धोयाइ॥
यमुना के तट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरि हरि कहते हुए अथवा हरि हरि नाम गाते हुए नृत्य कर रहे हैं। ऐसे हरि को गौर हरि को यमुना मैया ने देखा ।
जमुना उठोले एसे
चरण धोयाइ।
यमुना ने सोचा कि मेरे प्रभु मेरे प्राणनाथ पहुंच चुके हैं। जब वे जन्माष्टमी की मध्य रात्रि को जन्मे थे। जब वसुदेव इनको ले जा रहे थे तब उस समय भी मथुरा नगर से बाहर आए तो वहां पर भी यमुना मैया ने उनके दर्शन किए। वहां पर भी यमुना मैया ने वासुदेव को देखा था। जब कृष्ण कुछ ही घंटों के थे, उनकी आयु कितनी थी ? अभी लगभग 2 ही घण्टों के थे। अब मध्यरात्रि को उनका जन्म हुआ। हो सकता है कि वह एक-दो घंटे में वहां पर पहुंचे। यमुना को क्रॉस कर रहे थे। यमुना ने कृष्ण अष्टमी की रात्रि को, कृष्ण को अब पुनः देख रही है। कृष्ण जमुना में खूब खेलते और और उनकी जलकेली तो होती रही। वे गोरांगा गौर सुंदर के रूप में पहुंचे हैं। जब यमुना ने चैतन्य महाप्रभु को देखा तब यमुना सोच रही है ।
सुस्वागतम गोरांग
सुस्वागतम निमाई।।
वह दूर से खड़ी होकर केवल स्वागत स्वागत ही नहीं कह रही है, यमुना मैया गौरांग महाप्रभु की ओर दौड़ पड़ी है। उसकी लहरें तरंगे चैतन्य महाप्रभु के चरण धोए आगे बढ़ी है और आगे बढ़ते समय यमुना में कई सारे कमल के पुष्प भी खिलते हैं। उसको हाथ में लिया हुआ है। वैसे यमुना केवल जल ही नहीं है यमुना एक व्यक्ति अथवा पर्सनैलिटी भी है। वही आगे कालिंदी बनने वाली है, द्वारिका में पटरानी बनेगी। यहां पर गौरांग महाप्रभु का यमुना ने स्वागत किया है, उनके चरण धोती है। उनको पुष्प देती अथवा, अर्पित करती है। उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के हाथ में भी दिए होंगे और चरणों में भी अर्पित किए होंगे।
ढुले ढुले गोरा-चांद
हरि गुण गाइ
आसिया वृंदावने
नाचे गौर राय
हरि हरि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की खुद की लीलाएं भी वहां संपन्न हुई। वृंदावन में श्यामसुंदर ने अपनी लीलाएं संपन्न की ही थी और अब श्यामसुंदर गौर सुंदर के रुप में पधारे हैं, अब उनकी लीला वृंदावन में संपन्न हो रही है। वैसे गौरांग चैतन्य महाप्रभु एक भक्त के रूप में भी यात्रा करने आए हैं, दर्शन करने आए हैं, यात्री बन कर आए हैं लेकिन वे साथ में भगवान भी हैं, भक्त भी हैं अथवा भक्त की भूमिका निभा रहे हैं। वे भक्त के रूप में वृंदावन की यात्रा दर्शन, परिक्रमा भी कर रहे हैं। साथ ही साथ वे स्वयं भगवान तो हैं ही।
*श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य*
वृंदावन में उनकी लीलाएं जो संपन्न हुई उसके विषय में श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला अध्याय 17 और 18 में चैतन्य महाप्रभु में लिखते हैं कि मैं चैतन्य महाप्रभु की यात्रा अर्थात उनकी लीलाओं का हावभाव का वर्णन कुछ तो कर रहा हूं लेकिन यह सारी लीलाएं सागर के समान हैं अथवा यह लीला का सिंधु भी है, मैं तो उसमें से कुछ बिंदु ही आपको प्रस्तुत कर रहा हूं। क्योंकि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हर क्षण, भाव भक्ति व प्रेम के गोते लगाए। राधा कृष्ण प्रणय के मन में जो विकार विचार आए अथवा जो भी हावभाव रहे इसके वर्णन के विषय में वे कहते हैं मैं तो नहीं कर सकता , यदि कोई कर सकता है, तो अनंत शेष कर सकते हैं। जो सहस्त्र वदन है ,अनंत शेष को करने दो, वे कर सकते हैं। वे प्रयत्न कर सकते हैं।
उनकी सभी लीलाओं के वर्णन को लिखने के विषय में वे कहते हैं।
*वृन्दावने हैल प्रभुर यतेक प्रेमेर विकार । कोटि – ग्रन्थे ‘ अनन्त ‘ लिखेन ताहार विस्तार ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.231)
अनुवाद- वृन्दावन में श्रीचैतन्य महाप्रभु को प्रेम – विकार की जो अनुभूति हुई , उसका विशद वर्णन करने के लिए भगवान् अनन्त लाखों ग्रन्थों की रचना करते हैं ।
*तबु लिखिबारे नारे तार एक कण । उद्देश करिते करि दिग्दरशन ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.232)
अनुवाद- चूंकि भगवान् अनन्त स्वयं इन लीलाओं के एक अंश का भी वर्णन नहीं कर सकते , अत : मैं तो केवल दिशा – निर्देश ही कर रहा हूँ ।
मैं तो एक कण लिख रहा हूं या आपको दे रहा हूं। चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन की लीलाएं और उनके भक्ति भाव का प्रदर्शन उनके भक्ति का विकार और विचार के कोटि-कोटि ग्रंथ हो सकते हैं। हरि! हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! जय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के वृंदावन यात्रा की जय!
आप भी इसको पढ़िए। चैतन्य चरितामृत में मध्य लीला या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन की यात्रा, जिसमें हमें वृंदावन का परिचय होता है। चैतन्य महाप्रभु की दृष्टि में वृंदावन कैसा है, महाप्रभु ने कैसे देखा, क्या अनुभव किया, उसका कुछ कुछ वर्णन है। ठीक है, अब मैं अपनी वाणी को यहीं विराम देता हूँ। यथासंभव पुनः 8:00 बजे मिलेंगे।
हरे कृष्ण!!!
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जप चर्चा
वृंदावन धाम
26 अगस्त 2021
हरे कृष्ण !
815 स्थानोंसे भक्त जप कर रहे हैं ।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ।
जय अद्वेत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ॥
वृंदावन धाम की जय !
और वृंदावन में तो मैं पहुंच चुका ही हूं जानते हो । इतना आसान और सरल वैसे नहीं है वृंदावन पहुंचना । लेकिन यह शरीर तो पहुंचा हुआ है किंतु हम पूरे के पूरे पहुंचे हैं नहीं पहुंचे हैं भगवान जाने ! अक्रूर जैसे वृंदावन पहुंचे । वे तो सचमुच पहुंच ही गए । यह कहना था कि आज की कथा कहो या जो भी जपा टॉक है यहां 7:15 तक ही चलेगा जपा टॉक । क्योंकि मुझे फिर कृष्ण बलराम मंदिर पहुंचना है और 8:00 बजे भागवतम् कक्षा होगी कृष्णा बलराम मंदिर में । पद्ममाली आपको अलग से अनाउंसमेंट करेंगे 7:15 बजे । टॉक केबल मेरा ही होगा आप में से कुछ हैंड राइस करके तैयार बैठे हो लेकिन आज आप नहीं बोल पाओगे । मोनोलॉग नोट डायलॉग अगर आप यह शब्द समझते । मोनोलॉग, डायलॉग । डायलॉग नहीं होगा आज तो मैं ही समय सीमित है तो मैं ही कुछ कहूंगा और फिर आपको कुछ कहना होगा तो फिर देखते हैं भविष्य में आप कह सकते हो । अबसर तो दिया जाता ही है आपको वैसे बोलने के लिए समय-समय पर लेकिन आज नहीं ।
वृंदावन धाम की जय !
यह वैसे द्वितीय दिन चल रहा है वृंदावन में हमारा जपा और जपा टॉक का तो पहले दिन तो कृष्ण का जन्म बड़ा संक्षिप्त हमने कहा मथुरा में जन्मे कृष्ण और वहां से गए गोकुल । गोकुल कितने वर्ष रहे । वहां से आए वृंदावन अगर आप भेद जानते हो गोकुल मतलब क्या है और वृंदावन अलग है क्या ? या अलग-अलग वन है । गोकुल महावन में है और यह बड़ा भ्रामक है और वहां से आए वृंदावन लेकिन वृंदावन भी तो कई सारे वन भी है उनके नाम भी है । द्वादश कानन है ।
केशी घाट , वंशीवट , द्वादश कानन ।
याहा सब लीला कोइलो श्रीनन्दनन्दन ॥ 3 ॥
(जय राधे, जय कृष्ण )
अनुवाद:- जहाँ श्रीकृष्ण ने केशी राक्षस का वध किया था उस केशीघाट की जय हो । जहाँ श्रीकृष्ण ने अपनी मुरली से सब गोपिकाओं को आकर्षित किया , उस वंशीवट की जय हो । व्रज के बारह वनों की जय हो जहाँ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ने सब लीलायें की ।
12 वनो में से 1 है वृंदावन और फिर सारे वनों को मिलके भी कहते हैं वृंदावन यह थोड़ा संक्षिप्त में समझ ही जाओ । आज हम श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का वृंदावन में आगमन और उन्होंने किया वृंदावन का परिभ्रमण और वे 12 वनों में यात्रा किए या दूसरे शब्दों में कहो तो व्रजमंडल परिक्रमा किए ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । उसमें से देखते हैं क्या हम कह सकते हैं । कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जो मध्यलीला 17 वा अध्याय चैतन्य चरितामृत में चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन भेंट और वैसे 18वें अध्याय में भी 17 और 18 अध्याय में भी 2-1 अध्याय में चैतन्य चरितामृत में चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन भेंट । टूरिंग वृंदावन, परिक्रमा की तो उसका वर्णन कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखे हैं । हरि हरि !! तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दूर से ही देखा । मथुरा को देखा पहले और साष्टांग दंडवत प्रणाम किए दूर से ही । ओ ! मथुरा धाम की जय ! मथुरा सामने दिखने लगी तो वहीं पर साष्टांग दंडवत प्रणाम किए । इससे भी पता तो लग ही सकता है कितने वे धाम भावीत थे । धाम का कितना चिंतन कर रहे थे । धाम का महिमा जानते थे चैतन्य महाप्रभु से कोई बात छिपी ही नहीं है और उनकी श्रद्धा रही मथुरा वृंदावन में और वही तो बात है । जिसे हम लोग चैतन्य महाप्रभु के चरणों का आश्रय हम भी लेते हैं और फिर वे बुल बातें हैं हमारा नियंत्रण नहीं रह जाता तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कब से वृंदावन आना चाहते हैं थे । उनकी गया में दीक्षा हुई महामंत्र प्राप्त किए ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
कहते ही, वैसे वृंदावन का उनको को स्मरण हुआ और वृंदावन की ओर दौड़ने लगे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । वृंदावन धाम की जय ! लेकिन उनको रोका गया और वृंदावन जाने की वजह है उनको मायापुर ले गए भक्त तो वह एक समय था और फिर एक दीक्षा हुई सन्यास दीक्षा हुई अब मैं मुक्त हूं । मैंने सन्यास लिया है । मैं बैरागी बन चुका हूं अब मैं मुक्त हूं तो मुक्त हो के सन्यास लेने के तुरंत उपरांत श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन ही जाना चाहते थे उन्हें अपने गंतव्य स्थान वृंदावन बनाया और वृंदावन की दिशा में जा रहे थे किंतु यह सब लीलाएं हैं । मैया ने कहा कि वृंदावन तो बेटा दूर है तो कैसे मिलना जुलना होगा । कोई समाचार भी नहीं आएगा तुम वृंदावन जाके वहां रहोगे तो जगन्नाथपुरी में रहो-जगन्नाथपुरी में रहो । हां मैया ! तथास्तु वैसे ही हो । ऐसा कहकर वे वृंदावन की वजह है जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान तो किए लेकिन वृंदावन जाने का विचार तो वे कभी नहीं छोड़ पाए और उन्होंने कई बार प्रस्ताव रखे थे । हरि हरि !! जगन्नाथ पुरी के भक्तों के समक्ष, मुझे वृंदावन जाना है मुझे वृंदावन जाने दो । लेकिन वे रोकते रहे । टालते रहे अभी नहीं तो अंत में जा ही रहे थे फिर रामकेली में रूप सनातन जगन्नाथ पुरी से गए । वैसे मायापुर नवदीप भी गए थे भक्तों से मिले । रूप सनातन को मिलने रामकली गए फिर वहां से अब वे वृंदावन के दिशा में जा रहे थे लेकिन भक्तों को जिसे पता चला कि चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं तो सारा बंगाल ही सारा नवदीप वासी सभी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ उस यात्रा में जुड़ गए । चैतन्य महाप्रभु उस भीड़ भाड़ के साथ नहीं जाना चाहते थे अकेले जाने चाहते थे तो उस समय भी चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन जाने की या विचार छोड़ दीया और जगन्नाथपुरी लोटे और फिर अंत में विचार हुआ ही और योजना बन गई अकेले जाना चाहते थे लेकिन कम से कम बलभद्र भट्टाचार्य को एक व्यक्ति को साथ में रखो ना ! तो फिर एक व्यक्ति को लेके श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के लिए प्रस्थान कर रहे हैं । जगन्नाथ पुरी से कटक आते हैं, कटक से झारखंड जंगल आते हैं जंगल में से जा रहे हैं और उस जंगल का किया है मंगल । जंगल में मंगल श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । झारखंड; आप जानते हो ? आजकल तो झारखंड नाम का एक राज्य ही बन चुका है । बिहार का एक अंश तो चैतन्य महाप्रभु ने उस जंगल के जंगली जानवरों को पशु पक्षियों को अपनी संकीर्तन से जोड़ दिया । सभी कीर्तन और नर्तन कर रहे थे और चैतन्य महाप्रभु ने वह दृश्य जब देखा एक शेर और एक हिरण वह साथ में चल रहे हैं कंधे से कंधा मिला के कहो । इतना ही नहीं आगे देखा कि यह दोनों शेर और हिरण आलिंगन कर रहे हैं आप जेसे मनुष्य आलिंगन करते हैं एक दूसरे को गले लगाते हैं यह दो पशु और वे भी कौन-कौन से टीम देखिए । एक से दूसरे शेर के साथ नहीं, एक से दूसरे हिरण के साथ गले लगा रहा है आलिंगन दे रहा है, आलिंगन ही नहीं चैतन्य महाप्रभु ने देखा की वह चुंबन कर रहे हैं और यह जब देखा दृश्य तो चैतन्य महाप्रभु कहने लगे वृंदावन वृंदावन वृंदावन धाम की ! वृंदावन धाम की ! उन्होंने तो अनुभव किया कि यही तो वृंदावन है जहां ईर्ष्या द्वेष नहीं है ।
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥
( भगवद् गीता 4.22 )
अनुवाद:- जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं ।
गीता में कृष्ण कहे भी थे मेरे भक्ति या मेरे वृंदावन के भक्त कैसे होते हैं ? “द्वन्द्वातीतो” वैसे ही में हिरण हूं यह भी द्वंद है । “द्वन्द्वातीतो विमत्सरः” मत्सर रहित होना तो यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दृश्य दिखा झारखंड के उस जंगल में अपने समक्ष दिखा, प्रत्यक्ष देखा तो चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कि वृंदावन तो यही है । वृंदावन के भाव तो ऐसे ही होते हैं तो वैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के रास्ते में थे । बीच में ही एस जंगल में ही उनको लगा कि वृंदावन में पहुंच गया यही तो वृदावन है तो वैसे श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु आगे बढ़े ही है उस जंगल में बहुत कुछ हुआ हाथियों के साथ उसका वर्णन और यह लीला बड़ी झारखंड में संकीर्तन लीला । यह प्रसिद्ध लीला है । हरि हरि !! तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े हैं कीर्तन और नृत्य करते हुए और हर नगर में हर ग्राम में चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन हो रहा है, नृत्य हो रहा है और अपनी भविष्यवाणी को सच करके भी दिखा रहे हैं ।
पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ॥
( चैतन्य भागवत् अंत्यखंड 4.126 )
अनुवाद : इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा ।
मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा । नगरों में ग्रामों में रास्ते में । ओडिशा में, बिहार में, उत्तर प्रदेश में कई महीनों तक यह यात्रा चलती रही तो चैतन्य महाप्रभु रास्ते के सभी नगरों में सभी ग्रामों में और यहां तो जंगल में भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन और नृत्य किया है । मुझसे यह हाल मतलब पशु पक्षियों का हुआ वैसा हाल तो हर नगर हर ग्राम में भी लोगों का हो ही रहा था याद रखिए ऐसा वर्णन हे चैतन्य मंगल, चैतन्य भागवत् में । वैसे यह सारे पशु पक्षियों को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रेम का दान किया । ये प्रेम पुरुषोत्तम है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । श्री राम है मर्यादा पुरुषोत्तम । श्री कृष्ण है पूर्ण पुरुषोत्तम । चैतन्य महाप्रभु है प्रेम पुरुषोत्तम या आप लिखना चाहोगे कुछ तो लिख रहे हैं अच्छा है ऐसे समझना राम को, कृष्ण को, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेम पुरुषोत्तम ।
नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते ।
कृष्णाय कृष्णचैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः ॥
( श्री गौरांग प्रणाम )
अनुवाद:- हे परम करुणामय व दानी अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं , जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारणकिया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमन करते हैं ।
यह उनके लीला ही है । कृष्ण प्रेम का दान वितरण करना चैतन्य महाप्रभु की लीला है ।
पात्रापात्र – विचार नाहि, नाहि स्थानास्थान ।
येइ याँहा पाय, ताँहा करे प्रेम – दान ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.23 )
अनुवाद:- भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है , इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं । उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी । जहाँ कहीं भी अवसर मिला , पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया ।
चैतन्य महाप्रभु विचार नहीं करते कि कहां पर में प्रेम का दान मुझे करना है । कहां नहीं करना यह विचार नहीं करते । “सर्वत्र प्रचार होइबे ” तो कौन पात्र है अपात्र है इस पर विचार नहीं करते । पशुओं को दे रहे हैं हरि नाम । हरि नाम का दान प्रेम का दान तो नगरों में ग्रामों में भी तो देते ही थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेम का दान इसीलिए प्रसिद्ध है “नमो महावदान्याय” श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु “नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते” कृष्ण प्रेम का दान करने वाले यह दयालु “वदान्य” इस प्रकार उपकार किया है सारे संसार के ऊपर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने तो जंगल में किया प्रेम का दान तो वही नगरों में ग्रामों में हरि नाम का दान करते हुए प्रेम का दान करते हुए और लोगों को पागल करते हुए । लोग पागल हो जाते हरि नाम लेकर यह आप पूरी तरह कृष्ण भावना भावित हो जाते थे । हरि हरि !! प्रेम के पूंजी को प्राप्त करते थे चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य में यह करते-करते जय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मथुरा वृंदावन की ओर प्रस्थान कर रहे हैं तो अब जब उन्होंने मथुरा को देखा है सामने, साष्टांग दंडवत प्रणाम और फिर वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु फिर ; मथुरा धाम की ! मथुरा में प्रवेश किए ही है और सर्वप्रथम श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु यमुना के तट पर विश्राम घाट पहुंचे हैं । जहां श्री कृष्ण उसी मथुरा में कंस का वध करने के उपरांत और कंस के शरीर को मथुरा के रास्ते में और गलियों में घसीट के सभी को दिखाने के उपरांत कृष्ण विश्राम किए विश्राम घाट पर । जहां वराह भगवान भी विश्राम किए थे विश्राम घाट और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी अब इतने लंबे सफर के उपरांत वहां आए हैं वह भी थोड़ा विश्राम किए ही होंगे । वैसे किए तो वहां स्नान विश्राम घाट पर । हरि हरि !! यमुना मैया की ! तो यमुना में स्नान करने वाले ही तो श्यामसुंदर अब गौर सुंदरबन के यहां पहुंचे हैं । बेचारी यमुना भी प्रतीक्षा कर रही थी कब आएंगे श्याम सुंदर तो वे गौर सुंदर के रूप में आए हैं और यमुना में स्नान किए हैं और वहां से स्नान करने के उपरांत श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण जन्म स्थान के लिए प्रस्थान किए हैं और कीर्तन करते हुए मथुरा नगरी के मार्ग पर कीर्तन और नृत्य करते हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भावविभोर होके और बड़े उत्कंठीत होके कृष्ण जन्म स्थान की ओर जा रहे हैं और वहां आते ही उन्होंने केशव देव का दर्शन किया । मथुरा में कृष्ण जन्म स्थान पर केशव देव का दर्शन है । बलदेव, केशव , गोविंद देव, हरी यह प्रसिद्ध विग्रह है वृंदावन के और वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन हुआ । कीर्तन किया उदंड कीर्तन हुआ और अब तक सारे मथुरा वासी दौड़ पड़े हैं । गौर सुंदर का आगमन का पता चला मथुरा वासियों को । कहां गए ? कहां गए ? जन्म स्थान गए । जन्म स्थान में कीर्तन हो रहा है तो सारा भीड़ उमड़ आई हैऔर वहां सभी जन पहुंचे हैं । ठीक है तो और कीर्तन हो रहा है होने दो कीर्तन । हम तो अपने वाणी को यहीं विराम देते हैं और यथासंभव फिर केस आगे बढ़ाते हैं । गौरांग महाप्रभु की वृंदावन भेंट चर्चा या वर्णन ।
॥ निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥
॥ हरे कृष्ण ॥
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*जप चर्चा*
*वृंदावन धाम से*
*25 अगस्त 2021*
*हरे कृष्ण*
853 स्थानों से भक्त आज जप में सम्मिलित हैं । गौरंगा !गौर प्रेमानंदे !हरि हरि बोल! हरे कृष्ण, वृंदावन धाम की जय !श्रील प्रभुपाद की जय! हरि हरि ! अभी वृंदावन में कृष्ण बलराम मंदिर में कई दिनों से श्रील प्रभुपाद लीलामृत की कथा प्रस्तुत की जा रही है। प्रतिदिन प्रभुपाद के कोई शिष्य कभी एक तो कभी दो उनकी अपनी स्मृतियां, श्रील प्रभुपाद के संबंध में शेयर कर रहे हैं। कल मेरी बारी थी, हो सकता है आपने सुना भी हो आज मैं सोच रहा था और मैंने कल कहा भी था कि आप जब पहली बार वृंदावन आए तब आपने क्या अनुभव किया या कौन सा अनुभव आपके लिए अविस्मरणीय रहा, क्या देखा, या क्या सुना जिससे आप प्रभावित हुए हैं ? जिससे आपके जीवन में या आप की विचारधारा में क्रांति हुई ? श्रील प्रभुपाद इन वृंदावन, उसी टॉपिक को हम वृन्दावन में टॉपिक बना सकते हैं और जैसा की आप जानते हो कि श्रील प्रभुपाद की 125 वी वर्षगांठ मनाई जा रही है इस वर्ष और इसी वर्ष कुछ ही दिनों में श्रील प्रभुपाद की महा व्यास पूजा संपन्न होगी। जन्माष्टमी के दूसरे दिन ही, प्रभुपाद का जन्मदिन है। कोलकाता में जो श्रील प्रभुपाद जन्मे उस दिन तो व्यास पूजा की भी तैयारियां हो रही हैं। सेटिंग द सीन कहो या गेटिंग इन टू द मूड कहो श्रील प्रभुपाद का स्मरण सर्वत्र हो रहा है। कृष्ण कथाएं भी हो रही हैं। वैसे कृष्ण बलराम कथा प्रातः काल हो रही है और सांय काल श्रील प्रभुपाद कथा चल रही है और वैसे मैंने कल कहा था
*यस्य देवे परा भक्तिः यथा देव तथा गुरौ तस्य महात्मनः कथिताः एते अर्थाः प्रकाशन्ते॥*
अनुवाद- किन्तु जिसके हृदय में ‘ईश्वर’ के प्रति परम प्रेम तथा परमा भक्ति हैं तथा जैसी ‘ईश्वर’ के प्रति है वैसी ही ‘गुरु’ के प्रति भी है, ऐसे ‘महात्मा’ पुरुष को जब ये महान् विषय बताये जाते हैं, वे स्वतः अपने आन्तर अर्थों को उद्घाटित कर देते हैं, सचमुच, उस ‘महात्मा’ के लिए वे स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं।
जैसे यस्य देवें तथा गुरु जैसे श्रीकृष्ण देव, गोविंद देव कि हम आराधना करते हैं वैसे ही यस्य देवें अर्थात जैसे हम भगवान की आराधना या भगवान की परा भक्ति की आराधना करते हैं वैसे ही हमें अपने गुरु की आराधना करनी चाहिए। जैसे अचार्योपासना, कृष्ण ने गीता में कहा है अचार्योपासना श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का यह अवसर है श्रील प्रभुपाद का आविर्भाव का भी दिन आ रहा है अर्थात दोनों का ही संस्मरण चल रहा है। कृष्ण बलराम मंदिर में यथा देवे तथा गुरु, प्रातः काल में कृष्ण कथाएं हो रही हैं और साय काल में प्रभुपाद का संस्मरण हो रहा है हरि हरि ! श्रील प्रभुपाद पहली बार यहां आए होंगे, 1932 की बात है उनके गुरु महाराज श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ब्रज मंडल परिक्रमा कर रहे थे, उस समय कार्तिक मास में श्रील प्रभुपाद प्रयाग में रहते थे उन दिनों में प्रयाग फार्मेसी इत्यादि भी चलाते थे और वहां से वृंदावन मथुरा स्टेशन आये हैं। वहां से श्रील प्रभुपाद सीधे परिक्रमा में गए, जहां श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर, कोसी गए हुए थे जो नंद ग्राम से कुछ ही दूरी पर दस एक किलोमीटर की दूरी पर है या नंद महाराज के कोषाध्यक्ष, वहां निवास करते थे। उस स्थान का नाम कोसी हुआ। श्रील प्रभुपाद ने भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की उस परिक्रमा को वहां पर ज्वाइन किया। एनीवे, यह सब हम आपको नहीं बता सकते हैं । वहां यह हुआ कि वहां श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज द्वारा कही हुई कथाओं को बड़े ही ध्यानपूर्वक सुना करते थे और उनका प्रेफरेंस सुनने में था। एक प्रातः काल को घोषणा हुई कि कोसी से कुछ ही दूरी पर शेषशायी नाम का स्थान है जहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी गए थे और परिक्रमा में हम लोग भी जाते रहते हैं। उसको आप पढ़िए ब्रजमंडल दर्शन में श्रील प्रभुपाद लीला में, तो परिक्रमा के भक्त वहां जाने वाले थे और वहां घोषणा हुई कि उस स्थान पर परिक्रमा के भक्त जाएंगे। किन्तु साथ ही साथ भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर भक्तों के साथ परिक्रमा में, नहीं जाने वाले थे बल्कि वहीं रहकर कथा करने वाले थे और जो वहीं रहने वाले थे उनके लिए श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर कथा सुनाएंगे यह आपकी चॉइस है कि या आप परिक्रमा में जाइए या फिर उनके पीछे रहो और रुको फिर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर द्वारा सुनो, तब श्रील प्रभुपाद ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के साथ रहना पसंद किया और उनसे कथा सुनना ही पसंद किया।
*यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिचि जनेष्यभिजेषु स एव गोखरः*॥
(श्रीमद भागवतम १०.८४.१३)
अनुवाद- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता – ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है । तात्पर्य : असली बुद्धि तो आत्म की मिथ्या पहचान से मनुष्य की उन्मुक्तता द्वारा प्रदर्शित होती है । जैसाकि बृहस्पति संहिता में कहा गया है ।
यह भी बात आपको कई दिन पहले सुनाई थी। जब कृष्ण ऋषि-मुनियों को कुरुक्षेत्र में सुना रहे थे । नवदीप या वृंदावन की यात्रा में जब जाते हैं और कई स्थानों पर जाकर दर्शन करना चाहते हैं तब दर्शन के अलावा और क्या आकर्षण होता है वहां जो कुंड है या सरोवर है या पवित्र नदियां हैं वहां स्नान करना चाहते हैं । स्नान को प्रेफरेंस देते हैं।स्नान करना या डुबकी लगाना यह तीर्थ है। मतलब जल, कईयों की बुद्धि सलीले, तीर्थ मतलब क्या करता है ? स्नान करता है । तब यात्रा सफल जो मार्गदर्शक हैं यह वहां के धाम गुरु हैं वहां के जो प्रचारक हैं या वहां के जो गाइड हैं उनसे मिलना चाहिए और वैसे यह यात्रा इसमे गाइड टूर होनी चाहिए । कौन गाइड करें? अभिज्ञान जन अर्थात जो जानकार हैं बुद्धिमान हैं। आचार्य वान पुरुषों वेदा जो आचार्य हैं उनके पास पहुंचना चाहिए, उनको स्वीकार करना चाहिए, उनके मार्गदर्शन के अनुसार यात्रा होनी चाहिए, उनको सुनना चाहिए, लोग सुनते नहीं है बस देखना चाहते हैं। बस स्नान करना चाहते हैं और हो गई यात्रा । जो सुनते नहीं , श्रवण कीर्तन नहीं करते, धाम में आए और श्रवण कीर्तन नहीं हुआ, धाम में आए और *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* कीर्तन नहीं हो रहा है । कीर्तन के बिना ऐसे ही देखते जा रहे हैं, स्नान करते जा रहे हैं। यह कीर्तन और लीला कथा का श्रवण अनिवार्य है कहने का तात्पर्य यह है जब श्रील प्रभुपाद पहली बार वृंदावन आये तब उन्होंने क्या किया? श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर से सुना, धाम की महिमा को सुना, भगवान की लीला का श्रवण किया, हरि हरि! फिर श्रील प्रभुपाद उस समय तो प्रयाग लौट गए और फिर उसके पश्चात आप मथुरा वृंदावन को छोड़ने वाले नहीं थे। वो मथुरा वृंदावन को भेंट देने या यात्रा के लिए ही केवल नहीं आए थे अब तो वह सदैव के लिए मथुरा वृंदावन में ही रहना चाहते थे। वानप्रस्थ लिया है तो वन में प्रस्थान किया। कौन सा वन उन्होंने पसंद किया? वृंदावन ! वृंदावन धाम की जय ! वह मथुरा वृंदावन आये। मथुरा में केशव जी गौड़ीय मठ, श्रील प्रभुपाद के भ्राता श्री केशव महाराज, गौड़ीय मठ में, जहां नारायण महाराज जी रहते थे। श्रील प्रभुपाद वहीं रहने लगे वह एडिटिंग वगैरह का कार्य करते थे। ही इज द राइटर प्रभुपाद जी ने इजी जर्नी टू द अदर प्लेनेट, (अन्य ग्रहों की सुगम यात्रा) इत्यादि, ग्रंथों का इस उपनिषद का भाषांतरण का कार्यक्रम आरंभ करते हैं । श्रील प्रभुपाद ने 1958 /1959 में सन्यास लिया । वानप्रस्थी बने और फिर अंततोगत्वा सन्यास लिया फिर धीरे-धीरे मथुरा से वृंदावन के लिए प्रस्थान किया और फिर एक छोटा सा स्थान जमुना के तट पर, वृंदावन में रहते थे और वहीं से उन्होंने दिल्ली आना जाना प्रारंभ किया और बुक प्रिंटिंग के उद्देश्य से प्रभुपाद वहां जाया करते थे। वो अपना एड्रेस वृंदावन का छोटा सा स्थान था किराए का वहां रहते थे उसका देते थे। जो आज भी है वहां से फिर श्रील प्रभुपाद राधा दामोदर मंदिर में आकर रहने लगे राधा दामोदर की जय और इसी राधा दामोदर मंदिर में रूप गोस्वामी की समाधि है भजन कुटीर है। यही स्थान है जहां षड गोस्वामी वृंद एकत्रित हुआ करते थे ।
*नानाशास्त्रविचारणैकनिपुणौ सद्धर्मसंस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ शरण्याकरौ ।राधाकृष्णपदारविन्दभजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीवगोपालकौ* || २ ||
षड गोस्वामी वृन्द यहां एकत्रित होकर नाना शास्त्रों पर विचार विमर्श करते थे उसी स्थान पर श्रील प्रभुपाद आए ,यह वह समय है। कौन सा समय? लाइफटाइम प्रिपरेशन 1922 में श्रील प्रभुपाद को आदेश मिला था पाश्चात्य देश में जाकर अंग्रेजी भाषा में भागवत धर्म का प्रचार करो, इस आदेश का पालन करना ही था। इसे कभी श्रील प्रभुपाद नहीं भूले थे, इसकी जीवन भर तैयारी करते रहे और अब उसी को आगे बढ़ा रहे थे । राधा दामोदर मंदिर में स्पेशली ग्रंथ राज भगवतम का प्रसिद्ध भाषांतर यही प्रभुपाद लिख रहे थे । टाइपिंग किया करते थे सिंगल हैंडेडली, सारा प्रोग्राम चल रहा था। प्रूफ रीडिंग भी करते थे, एडिटिंग भी करते थे और वहां से श्रील प्रभुपाद इन ग्रंथों को लेकर दिल्ली प्रिंटिंग के लिए ट्रेन से दिल्ली जाते थे। ऐसा ही वर्णन हमको सुनने को मिलता है। ही इज़ ट्रैवल्ड बाय थर्ड क्लास ट्रेन, थर्ड क्लास, इतना थर्ड क्लास की टेंथ क्लास था। आजकल वह थर्ड क्लास रहा भी नहीं , केवल सेकंड क्लास ही चलता है लेकिन आप जानते हो सेकंड क्लास में कैसा होता है। एक समय थर्ड क्लास हुआ करता था और श्रील प्रभुपाद दिल्ली जाया करते थे और वहां पेपर को खरीदते थे चांदनी चौक में कई बाजार थे, पेपर बाजार कहो या कागज प्रिंटिंग के लिए, प्रभुपाद स्वयं शॉपिंग करते थे और कभी कभी अपने सिर पर ढोकर प्रिंटर के पास ले जाते थे । हरि हरि ! क्या कहना और वैसे यमुना के पास दिल्ली का एक पार्ट जमुना के पार है। यहां जमुना दिल्ली और यूपी के बीच में बहती है उस समय जमुना के पार प्रभुपाद जाते तब प्रिंटर नोट करता कि श्रील प्रभुपाद बिना कुछ खाए पिए भूखे ही वहां पहुंच जाते हैं हरि हरि ! उन दिनों में उनकी अर्थव्यवस्था कुछ ठीक नही हुआ करती थी या भगवान ने उनको ऐसे रखा, धनराशि का अभाव, ही रहता था। प्रभुपाद जहां रहते थे 5 ₹ उसका किराया देते थे । राधा दामोदर मंदिर में किराया ₹5 था, तब जब यह फर्स्ट कैंटों श्रीमद भगवतम का तैयार हुआ उसके तीन वॉल्यूम बनाएं । फिर श्रील प्रभुपाद ने प्रिंटिंग के द्वारा बाद में बुक डिसट्रीब्यूशन भी करना प्रारंभ किया। दिल्ली में अलग-अलग एंबेसीज में जाकर उन ग्रंथों को वितरित करते थे अलग-अलग लाइब्रेरी में भी वितरित करते थे और मिनिस्ट्रीस में भी जाते मिनिस्टरों के पास जाते थे। लाल बहादुर शास्त्री के साथ प्रभुपाद का कुछ संबंध था, कुछ पहचान थी उनको भी मिला करते थे । वैसे महात्मा गांधी के साथ में श्रील प्रभुपाद का कई बार कॉरस्पॉडेंस हुआ करता था। जवाहरलाल नेहरू एंड डॉ राजेंद्र प्रसाद उनके साथ भी पत्र व्यवहार था। डॉ राधाकृष्णन जो उस जमाने के राष्ट्रपति थे उनके साथ भी श्रील प्रभुपाद संपर्क बनाए रखते थे। पत्र व्यवहार करते थे इन ऊंची हस्तियों से मिलते भी थे और उनसे सहायता भी मांगते थे ताकि कृष्ण भावना का प्रचार प्रसार हो। उनको एक समय जापान जाना था वे वहां जाना चाहते थे । वही आदेश का पालन करना चाहते थे । पाश्चात्य देश जाओ, अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो , जवाहरलाल नेहरू से काफी कॉरस्पॉडेंस चल रहा था ताकि वे कुछ सहायता करें, हो सकता है जवाहरलाल नेहरू या राधाकृष्णन या कुछ अन्य से स्पॉन्सरशिप मिले ताकि प्रभुपाद जापान जा सके ,किंतु नहीं जा पाए। इस प्रकार ऐसी तैयारियां चल रही थी। प्रभुपाद की लाइफ टाइम प्रीपेराशन, एक दिन जाएंगे ही और अंग्रेजी भाषा में प्रचार करेंगे। प्रचार करना है तो बुक्स भी चाहिए। बुक्स आर द बेसिस और वैसे भी वृंदावन में श्रील प्रभुपाद भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर से मिले थे। राधा कुंड के तट पर, उनके गुरु का दूसरा आदेश, पहला आदेश मिला था 1922 में विदेश जाओ और अंग्रेजी भाषा का प्रचार करो और पुनः भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने प्रभुपाद को राधा कुंड के तट पर कहा कि जब भी तुम्हे धन राशि प्राप्त हो तो किताबें छापों । यह भी इंस्ट्रक्शन, अपने गुरु का आदेश, उनको मिला था । इसलिए प्रभुपाद इन ग्रंथों की रचना या भाषांतर कर रहे थे प्रिंट कर रहे थे । अब मुझे प्रचार के लिए जाना है तो प्रचार का आधार यह ग्रंथ होना चाहिए यह सब तैयारियां हुई तो प्रभुपाद गए, कहां गए विदेश जाना था, गए तो कहां अमेरिका गए लेकिन कैसे जाना था ₹5 किराया के मकान में या कमरे में रहते थे और विदेश जाने के लिए एयरफेयर वगैरा तो नहीं था तो वहीं पर एक सुमति मोरारजी करके एक महिला को प्रभुपाद कुरुक्षेत्र में मिले थे कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्र है जहां भगवत गीता का उपदेश हुआ वहीं पर गीता जयंती के सम्मेलन में प्रभुपाद वहां गए थे और वहीं सुमति मोरारजी से उनकी मुलाकात हुई थी। श्रीमती सुमति मोरारजी इंडियन नेवी की एक कार्गो कंपनी जो पोर्ट से माल ढोते हैं बहुत बड़ी कंपनी की मालकिन थी। प्रभुपाद उनको मिलने के लिए मुंबई जाते हैं , मुंबई में उनकी कंपनी का हेड क्वार्टर था और वे जुहू में रहती थी। एनीवे , उनसे मिलना जुलना हुआ और फिर प्रभुपाद ने उन से निवेदन किया कि मैं वहां जाना चाहता हूं कुछ व्यवस्था करो , काफी चर्चा चल रही थी। अंततोगत्वा उन्होंने वन वे टिकट दे दिया । माल ढोने वाला जो जहाज होता है कार्गो शिप उसमें बैठकर श्रील प्रभुपाद अमेरिका जा सकते हैं। अब प्रभुपाद वृंदावन से मुंबई जाते हैं टिकट वगैरा लेते हैं, उस इंडियन नेवी कंपनी से और फिर वहां से श्रील प्रभुपाद ट्रेन से कोलकाता जाते हैं। कोलकाता मेल वाया नागपुर जाने वाली , श्रील प्रभुपाद डायरी लिखा करते थे। उस डायरी में जिस बोट से जाने वाले थे उस बोट का नाम था “जलदूत” , प्रभुपाद रास्ते में भी डायरी लिख रहे थे अब इस्कोन में एक डायरी प्रसिद्ध है जिसका नाम है प्रभुपाद जलदूत डायरी, प्रभुपाद ने उसमे लिखा है कि वह कौन सी ट्रेन से गए और यह भी लिखा है वाया नागपुर, नागपुर के भक्त इस बात से बड़े प्रसन्न हैं कैसे न्यूयॉर्क गए? वाया नागपुर, मुंबई से कोलकाता गए वाया नागपुर और फिर 2 दिन पहले का वह दिन था 1965 में प्रभुपाद ने उस बोट में अपना स्थान ग्रहण कर लिया और ये आज से 2 दिन पहले की बात है वहां से उन्होंने प्रस्थान किया न्यूयॉर्क के लिए हरि हरि ! ऐसा लीलामृत में आपको पढ़ना है इस वर्ष हम को प्रभुपाद कॉन्शियस होना है । इस वर्ष हमको समझना है हमारे फाउंडर आचार्य ने हम सभी के लिए क्या-क्या नहीं किया , ताकि न्यूयॉर्क पहुंचकर इस्कॉन की स्थापना कर सके ताकि भविष्य में हम एक दिन उस इस्कॉन के सदस्य बन सकते थे जैसे कि आप बने हैं आप इस्कॉन के हो कि नहीं? ऑल राइट, वेरी गुड, ठीक है।
गौर प्रेमनान्दे!
हरि हरि बोल!
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*जप चर्चा*
*वृंदावन धाम*
*24 अगस्त 2021*
848 स्थानों से आज जप हो रहा है । निताई गौर प्रेमानंदे कहे की बोलो श्री राधे श्याम कहे ? श्याम के धाम पहुंच ही गए ।
जय राधे जय कृष्ण जय वृंदावन ।
श्रीगोविंद गोपीनाथ मदन मोहन ।।
300000 गौड़ वैष्णवेर नाम, कृष्णदास कविराज गोस्वामी दिखते हैं । यह तीन नाम राधा मदन मोहन राधा या राधा गोविंद , राधा गोपीनाथ यह गोडीयों के नाथ है । गौड़ीय वैष्णवो के नाथ यह तीन विग्रह है । और यह विग्रह जहां है वही वृंदावन है । हरि हरि । वृंदावन यह वनम वृंदावनम , वृंदा यह वृंदा देवी का , राधायः वृंदा देवी का नाम वृंदावन या वृंदादेवी के कारण इसका नाम वृंदावन हुआ । कृष्ण जिनका नाम है , गोकुल जिनका धाम है ऐसे श्री भगवान को मेरा बारंबार प्रणाम है । आप सभी की ओर से भी मैं धाम को प्रणाम कर रहा हूं । कल मैं जब यहां पहुंचा तो मैंने कहा कि भक्त नहीं है भगवान नहीं है तो यह ऐसा कैसा धाम ? वैसे हम पहुंच रहे थे तो भक्त भी वृंदावन में पहले पहुंचे थे । कीर्तन भी हो रहा था ,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
कभी-कभी हम इसको राधा कृष्ण राधा कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधा राधा ।
राधा रमन राधा रमन राधा रमन रमन राधा राधा ऐसा भी हम बोलते हैं । ऐसे समझ के साथ भी भक्त कहते हैं हरे कृष्ण मतलब राधा कृष्ण राधा कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधा राधा समझ में आ रहा है । हरे राम मतलब राधा रमन राधा रमन रमन रमन राधा राधा , और हम रमन रेती में पहुंचे हैं । रमन रेती जहां भगवान रमते हैं ।भगवान रमते है इसलिए फिर यह स्थान रमणीय बनता है और यह अच्छा शब्द आपके लिए सुनने के लिए याद रखने के लिए है रमणीय , रमने योग्य , रमन के लिए योग्य । यही कृष्ण बलराम रमते थे उन्हीं का दर्शन श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण बलराम के विग्रह के रूप में कराया । हरि हरि । श्री कृष्ण जन्माष्टमी का महोत्सव भी आ ही रहा है । श्री कृष्ण जन्माष्टमी का महोत्सव वृंदावन में मनाने के उद्देश्य से में वृंदावन आ पहुचा हूं । कृष्ण जैसे ही प्रकट हुए मथुरा में और रातों-रात गोकुल पहुंच गए । कृष्ण चक्रवर्ती ठाकुर समझाते हैं आपके जानकारी के लिए या यह बातें स्मरणीय है या जो कृष्ण के संबंध में बातें हैं वह स्मरणीय है । स्थल होता है रमणीय , रमने योग्य स्थल होता है , स्थान होता है और वहां पर जो लीला संपन्न होती है वह लीलाये स्मरणीय होती है । स्मरण करने योग्य , लीला भी स्मरणीय है और कई सारी स्मरणीय बातें हैं । गोपिया क्या करती है ? बस स्मरण करती रहती है और कुछ नहीं करती । गोपिया केवल क्या करती है ? क्या जानती है ? स्मरण करना जानती है ।
स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।
सर्वे विधि – निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य 22.113)
अनुवाद “ कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं । उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए । शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने चाहिए । ”
स्मरण करती रहती है । समर्तव्य मतलब स्मरण करना चाहिए ऐसा अर्थ हुआ। स्मरणीय मतलब स्मरण करने योग्य लेकिन समर्तव्य मतलब स्मरण करना चाहिए जैसे कर्तव्य , समर्तव्य ऐसे शब्द बन जाते हैं । गोपिया बस , उनका धर्म क्या है ? समर्तव्य , स्मरण करती है । विस्मरतव्य न जयतो चित , वि मतलब उल्टा हुआ समर्तव्य के विपरीत विस्मरतव्य। स्मरतव्य स्मरण करना चाहिए , विस्मरतव्य कभी नहीं भूलना चाहिए । गोपियां सिर्फ इतना ही जानती है , स्मरण करना चाहती है और भूलना नहीं जानती है कभी नहीं भूलती है मतलब स्मरण ही करती रहती है बस यही करती रहती है उसी के संबंध में कुछ चर्चा होती रहती है और अभी भी हो ही रही है । स्मरण करने योग्य स्मरतव्य स्मरण करना चाहिए , स्मरण करना चाहिए स्मरणीय स्मरतव्य । विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि कृष्ण 3 वर्ष 8 महीने गोकुल में रहे । आप कुछ नोंद करना चाहोगे मानसिक तौर पर या लिखना चाहिए । कई सारी लीलाये वहां संपन्न हुई और गोकुल में अंतिम लीला जो श्रीकृष्ण खेले वह दामोदर लीला थी । भक्तो का उद्धार किया और उन वृक्षों का उद्धार हुआ । उसी समय निर्णय लिया था ब्रज वासियों ने नंद बाबा , उपानंद वहां उपस्थित थे , उपा नंद , नंद महाराज के चार भाई हैं और नंद महाराज पांचवे हुए। नंद महाराज के सबसे बड़े जो भाई है उनका नाम उपा नंद है । उपा नंद ने प्रस्ताव रखा कि हमको यहां से प्रस्थान करना चाहिए इसको मैं अभी विस्तार से नहीं कहना चाहता हूं । सभी तैयार हुए और सारे गोकुल का परिवर्तन हुआ सभी ने यमुना को पार किया और सारे गोकुल के वासी चले गए सारा गोकुल खाली हो गया । वहां आतंकवाद बढ़ रहा था यह फिर कहना पड़ता है जब विस्तार से कहते हैं, फिर कारण देना होता है । क्यों क्यों छोड़ा उन्होंने गोकुल ? जब उन्होंने जमुना पार की सारे गोकुल वासी नंद यशोदा भी और कृष्ण बलराम भी वहा रहने लगे । मैं जहां अभी हूं या कृष्ण बलराम जिस जगह है वहां से कई दूरी पर छठीका नानक ग्राम है , छठीका आप जानते ही होंगे । छठीका और वहा से कृष्णा बलराम मंदिर के और मार्ग जाता है । उसका पहले नाम था छटीका और हम जब पहली बार वृंदावन आए थे उन दिनों में और कोई भक्त याद भी कर रहे थे । जब हम कल पहुंच रहे थे उन्होंने कहा कि महाराज अगले साल आपका 58 वा वृंदावन भेंट वर्षगाठ होगी । 1972 में मैं पहली बार वृंदावन में आया था । उस समय उस रास्ते का नाम था नाम था छटी करा । उसी का नाम फिर 1977 में भक्तिवेदांत स्वामी मार्ग हुआ और कृष्ण बलराम मंदिर के पास बहुत बड़ा गेट है आपने देखा होगा और वह गेट है भक्तिवेदांत स्वामी द्वार या गेट और जो वह रास्ता है वह भक्तिवेदांत स्वामी मार्ग है । इसका समाचार जप आया , आपके नाम से एक रास्ता बन रहा है । एक रास्ते का नाम भक्तिवेदांत स्वामी ऐसा हम दे रहे हैं वृंदावन मुंसिपल पार्टी ने इसे मान्यता दी है ऐसा समाचार लेके उस समय के 1977 के धनंजय प्रभु जो यहां के इसको के अध्यक्ष थे वह मुंबई आए थे और प्रभुपाद के मुंबई के क्वार्टर में पांचवें माले पर आये । मैं भी वहां था मुझे याद है , वह बता रहे थे कि आपके नाम से यह भक्तिवेदांत स्वामी मार्ग बन रहा है । वैसे पहले तो जो कह रहे थे सोच रहे थे कि क्या नाम दे जाए ? उससे श्री प्रभुपाद प्रसन्न नहीं थे । हम भक्तिवेदांत मार्ग नाम दे रहे हैं प्रभुपाद को यह नाम पसंद नहीं आया । भक्तिवेदांत और भी कोई हो सकता है , भक्तिवेदांत यह सामान्य नाम हुआ । भक्तिवेदांत के साथ स्वामी होना चाहिए तो फिर मेरा नाम हुआ लेकिन भक्तिवेदांत तो कोई भी हो सकता है । उसको सुधार के फिर उस मार्ग का नाम भक्तिवेदांत स्वामी मार्ग हुआ ।
बात यही हो रही थी कि छटीकरा का जो मार्ग है भक्तिवेदांत स्वामी मार्ग जहां मिलता है वह टी जंक्शन है । ठीक है । हरि हरि । वह गोकुल वासी छटीकरा में रहने लगे ।वह बैलगाड़ी में , छकड़े में बैलगाड़ी को छकड़ा कहते हैं । कई सारे छकड़े , बैलगाड़ी को उन्होंने गोलाकार पार्किंग किया और बीच में सभी गोकुल वासी रहते थे । छटीकरा वैसे अपभ्रंश है वैसे मूल नाम तो शास्त्र में शक्तावर्त लिखा है । शकट मतलब बैलगाड़ी , आपको पता है शक्तासुर कृष्ण ने वध किया । बैलगाड़ी के नीचे लिटाया था तो कृष्ण ने लात मारी उसी के साथ खत्म हो गया । और शक्ट भंजन लीला कहते हैं । कई सारे शकटो में बैल गाड़ियों में अपना घर का जो भी सामान है भरकर के सारे गोकुल वासी आए और यहां शक्तावत में रहने लगे । वह वहा रहने लगे । वह वहा 3 वर्ष और 8 महीने रहे । हरि हरि। जब कृष्ण रहते थे गोकुल में तब वह गोकुल शहर के बाहर भी कभी नहीं गए अधिकतर नंद भवन में ही और फिर माखन चोरी के लिए घर घर जाते ही थे जरूर और नंद भवन के प्रांगण में जहां ब्रह्मांड घाट है वहां कृष्णा ने मिट्टी खाई। कृष्ण का आना जाना या भ्रमण यही गोकुल में ही था । अब वह शक्तावत पहुंचे और वह थोड़ा भ्रमण करना चाहते हैं । यहीं से कृष्ण क्या बन गए ? कृष्ण वत्सपाल बन गए । आप गोपाल गोपाल सुनते ही रहते है । गोपाला गोपाला देवकीनंदन गोपाला ।
गोपाल सब जानते हैं लेकिन गोपाल बनने के पहले एक समय वह पहले वत्सपाल थे । वत्स मतलब बछड़ा पाल मतलब पालन । बछड़ों का पालन करते थे , वह स्वयं छोटे थे तो नंद महाराज ने सोचा कि यह बड़ी गायों को संभाल नहीं पाएंगे इसलिए छोटे छोटे गैया छोटे छोटे ग्वाल । शक्तावत में कृष्ण वत्सपाल बन गए , और फिर वह लीला खेल रहे थे । एक दिन एक असुर बछड़े का रूप लेकर आया तब कृष्ण ने कहां,’ मैं तुमको जानता हूं ।” तुम कौन हो ।” वह बछड़ा होने का ढोंग कर रहा था लेकिन कृष्णा ने पकड़ लिया पिछले पैर से और सावधानी से थोड़ा आगे बढ़े और पास में जाकर उसके पीछे के पैर से पकड़ लिया । उस असुर को जो वत्स बना था और ऐसा उसको घुमाया और फेंक दिया वह एक पेड़ के शाखा में अटक गया और फिर खत्म । अब देवताओं का आना प्रारंभ हुआ , देवताओं ने अपना हर्ष प्रकट किया असुर का वध होता है तब सूर जो होते हैं या देवता जो होते हैं वह प्रसन्न होते हैं । वत्सासुर , कैसा असुर था ? वत्सासुर । कृष्ण वत्सपाल थे और यह वत्सासुर था ।इस वत्सासुर का वध किया तब कृष्ण होंगे कुछ चार पांच साल की उम्र के , ठीक है और भी लीलाए हैं जब वह शक्तावत में थे । वहां 3 वर्ष 8 महीने रहे और फिर आगे बढ़ते हैं यह थोडी टेंपरेरी व्यवस्था थी , इंट्रानसिट कहते हैं वहां सेटल नहीं होना था , वहां नहीं रहना था लेकिन दरम्यान थोड़े वहां 3 वर्ष 8 महीने रुके थे । नंदग्राम अंतिम स्थान रहा , आप नंदग्राम जानते हैं बरसाना और नंदग्राम , नंद महाराज का ग्राम बन गया । वहां नंदेश्वर भी है , वह पहाड़ शिवजी है । नंदग्राम एक पहाड़ के ऊपर है वह पहाड़ शिवजी है । बरसाने का पहाड़ ब्रह्मा है , ब्रह्मा के चतुर्मुख होते हैं इसलिये बरसाने में भी 4 शिखर है उनके नाम भी है उनकी लीलाये भी है । ब्रजमंडल दर्शन में आप पढ़ सकते है , अधिक विस्तार से जानकारी आप उस ग्रंथ में पढ़ सकते हो । ब्रह्मा , शिव और विष्णु इन तीनों पहाड़ के रूप में भी ब्रज मंडल में रहते हैं । ब्रह्मा बरसाना है , शिवजी नंदग्राम है और विष्णु कौन सा पहाड़ है ? कौन सा होगा ? विष्णु किस पहाड़ के रूप में रहते हैं ? गिरिराज गोवर्धन की जय । जब पहली बार पूजा हो रही थी तब श्री कृष्ण प्रकट हुए , सभी ने देखा वह बैठे बैठे अन्नकोश भोजन करने वाले थे और उस पहाड़ ने कहा , उस गोवर्धन ने कहा , क्या कहा ? शैलोस्मि , शैलोस्मि , शैलोस्मि ।गोवर्धन शीला , शीला से होता है शैल । शीला से शैल शब्द बनता है , पहाड़ । शैल यह जो पहाड़ है गोवर्धन , यह मैं ही हूं , ऐसा पहाड़ कहने लगा यह पहाड़ मूर्तिमान बना अपने मूल रूप को धारण किया या दर्शन दिलाया । इस नंदग्राम में कृष्ण रहे हैं और 3 वर्ष 8 महीने पूरा कितना हुआ गिनो , 10 साल हो गए कि नहीं ? ठीक है , मतलब कृष्ण अब किशोर हो चुके हैं । पहले बालक थे , बाल्य लीला में कोमार थे । कौमार लीला औकण्ड लीला । जब औकाण्ड अवस्था प्राप्त किया तो उसी दिन गोपाष्टमी का उत्सव मनाया गया । गोपाष्टमी , गोपाष्टमी क्यों कहते हैं ? क्योंकि कृष्ण उस दिन गोप बने , गोपाल बने । वत्सपाल थे , वत्सपाल बछड़ों का पालन करते थे और फिर वह कार्तिक का मांस भी था और अष्टमी का दिन भी था । कार्तिक शुक्ल अष्टमी के दिन श्रीकृष्ण को बढ़ती मिली वह वत्सवाल से गोपाल बन गए ।कुमार ऑगण्ड अवस्था उन्होंने प्राप्त की थी । तब पुनः सभा बुलाई गई थी जिसमें पुष्टि हुई उसमें कहा गया हां , हां , आज से कृष्ण गोपाल बनेगा , बड़ी-बड़ी गायों की , नवलाख गायों की रखवाली करेगा । नंदग्राम में फिर 3 वर्ष 8 महीने भगवान रहे । उस दिन उस समय अक्रूर आ गए , आप पढ़ते हैं कि अक्रूर को वृंदावन में भेजा है या फिर वह वृदावन पहुंच गए । हम सोचते थे वह यह दो ही बार वृंदावन आए होंगे । यहां पंचक्रोशी वृंदावन है , राधा दामोदर इत्यादि मंदिर है मदन मोहन है । वृंदावन मतलब नंदग्राम , नंदग्राम कहां जहां कृष्ण कभी भी रहे नहीं पंचकृषि वृंदावन में लिला सर्वत्र संपन्न होती ही है लेकिन कृष्ण का निवास यहां नहीं हुआ था । यहां नंदबाबा नहीं रहते थे ना तो नंदलाल रहते थे , न कृष्ण बलराम रहते थे । अक्रूर वृंदावन पहुंचे मतलब नंदग्राम पहुंचे , नंदग्राम गए । नंदग्राम को गए कृष्ण को लाने के लिए । हरि हरि । कृष्ण का स्मरण करते हुए वह जाही रहे थे , कृष्ण बलराम का स्मरण करते जा रहे थे वह नंदग्राम के पास अब उनका रथ पहुंची गया था तब उनका ध्यान भगवान के चरण कमल की ओर गया । वहां रास्ते के बगल में ही कृष्ण के चरण का चिन्ह दिखा , कृष्ण के चरण का चिन्ह देखा , अभी-अभी कृष्ण वहीं से लौटे थे । नंदग्राम गए थे अपनी गायों के साथ वह नंदग्राम लौट रहे थे तो वहीं से चले थे , अभी के ताजे जो चिन्ह थे । आज की ताजी खबर , जैसे ही वह देखे तब बस उनको कृष्ण का और स्मरण आया , भाव उमड़ आए और सबको उन्होंने रोक दिया और धड़ाम करके गिर गए , चरण का स्पर्श करने लगे । वहा की धूल अपने मस्तक पर उठा रहे थे वहां लोट रहे थे , ब्रज के रज में लोट रहे थे । बोहोत समय के उपरांत उन्होंने स्वयं को संभाला और रथ में पुनः स्थित हो गए और आगे की यात्रा हुई , नंदग्राम का स्थान वहां से पास में ही था और फिर अगले दिन ,
सोडूनिया गोपीना कृष्ण मथुरेसी गेला ।
अक्रूराने रथ सजविला , कृष्ण रथामधे बैसिला ।।
सोडूनिया गोपीना कृष्ण मथुरेसी गेला ।
वह दूरदिन रहा , सुदिन नहीं ।दूरदिन रहा , उस दिनने कईयों को खास करके गोपियों को दुखी किया और वह कृष्ण को देख रही थी , कृष्ण को मथुरा की ओर प्रस्थान करते हुई देख रही थी , उन्होंने बड़ा प्रयास भी किया था कृष्णा को रोकने का , वह रथ के पहिए पकड़ रही थी आगे बढ़ने से रोक रही थी , कईयों ने अक्रूर का गला पकड़ा था “अरे ! तुमको किसने यह अक्रूर नाम दिया ? तुम तो बड़े क्रूर हो , हमारे प्राणनाथ को , हमारे प्राण को ही तुम लेकर जा रहे हो क्रूर कहीं का ।” फिर जमुना के तट पर थोड़ा मथुरा से पहले जमुना के तट पर अक्रूरजिने रथ को थोड़ा रोका , विश्राम हुआ कृष्ण बलराम रथ में बैठे रहे । अक्रूर ने वहां स्नान किया है और गायत्री के मंत्र का जप ध्यान कर रहे थे , ठीक है । अभी यह सब कहने के लिए समय नहीं है । हरि हरि । वह जो स्थान है उसको अक्रूर घाट कहते हैं इसको याद रखिए । अक्रूर घाट , इसलिए उस घाट का नाम अक्रूर घाट हुआ । हम जब ब्रजमंडल परिक्रमा शुरू करते हैं तब यह स्थान आता है , कृष्ण बलराम के मंदिर से हम प्रस्थान करते है तब अक्रोन आता है फिर उसके बगल में ही अक्रूर घाट है । वही फिर हम रुकते हैं वहां के सारे लीलाओं का स्मरण करते हैं , वहां पर संपन्न हुई लीलाएं उसी अक्रूर घाट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ब्रजमंडल परिक्रमा की , तब परिक्रमा के समय वृंदावन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रहे फिर परिक्रमा के अंत में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अक्रूर घाट पर ही रहे थे जो मथुरा और वृंदावन के बीच में है । अक्रूर घाट और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वहीं से जगन्नाथपुरी की लिए प्रस्थान किया । हरि हरि । ठीक है, मैं यही रुकता हूं । मैं ऐसे सोच रहा था या कुछ मिनटों का समय है आप को मुझे वह भी कहना था लेकिन मैंने नहीं कहा । मैं पहली बार जब वृदांवन आया तब मैंने क्या देखा और किस से प्रभावित हुआ और कौन सी बात अविस्मरणीय है जो हम कभी नहीं भूल सकते ऐसे दर्शन किए , ऐसे कुछ बातों से प्रभावित हुए । ऐसा अगर आपका कोई अनुभव है , पहले बाहर जो कोई वृंदावन गया तब मैंने यह देखा , यह सुना , जिसे कभी नही भूल सकते , ऐसे दर्शन किया , कुछ बातों से प्रभावित हुआ और मेरी तकदीर बदल गई या मेरे जीवन में क्रांति हुई ऐसा कोई आपका अनुभव है , आप में से कुछ भक्त कह सकते हो आप की वृंदावन में पहली भेंट । उस भेट में आपने क्या देखा ? जो आप जीवन भर में कभी नहीं भूल सकते हैं । ठीक है , थोड़े समय के लिए कोई बताना चाहता है तो आप बता सकते हो ।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
गोविंद धाम, नोएडा से
23 अगस्त 2021
हरे कृष्ण!!!
हरे कृष्णा।क्या आप तैयार हैं?777 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। दाऊजी के भैया कृष्ण कन्हैंया।गोविंदा आला रे आला,कल यहां यह चल रहा था। कल रात्रि में हमनें उत्सव मनाया। भक्तों ने दही हांडी लूट लिया और हम गा भी रहे थे, गोपाला गोपाला देवकीनंदन गोपाला, देवकीनंदन गोपाला। कल दिन भर हमने कृष्ण बलराम की याद में बिताया,हमने मतलब आप सब ने ही या फिर कम से कम यहां जहां मैं था यहां तो बलराम पूर्णिमा के उत्सव के दिन ऐसा ही मूड था।बलराम आविर्भाव महोत्सव संस्मरण के समय कृष्ण याद आते ही हैं, यह दोनों भगवान भी हैं और भाई भी हैं। इन दोनों का साथ में संस्मरण होता हैं, क्योंकि कल बलराम पूर्णिमा हो चुकी हैं, तो श्री कृष्ण जन्माष्टमी की तैयारी भी अब से शुरू हो गई हैं। वैसे इन दोनों को यानी कृष्ण और बलराम को अलग किया ही नहीं जा सकता।हरि हरि। तो जब अक्रूर मथुरा से वृंदावन जा रहे थे, कृष्ण और बलराम दोनों को ही लेकर जा रहे थे। वैसे जब अक्रूर मथुरा से वृंदावन जा रहे थे तो कंस ने उन्हें बताया भी था कि कृष्ण और बलराम दोनों को ले आना। उस दुष्ट की तो कुछ और ही योजना थी। दुष्ट लोग सोचते हैं कि भगवान को मारा जा सकता हैं, कि भगवान की हत्या संभव हैं, इसीलिए इस योजना से कल उन दोनों को मथुरा में बुला रहा था। कंस ने अक्रूर को भेजते हुए कहा था कि कृष्ण और बलराम दोनों को ले आना। जब अक्रूर जा रहे थे तो रास्ते में कृष्ण और बलराम को याद कर रहे थे। कृष्ण और बलराम को याद करते करते और उनके गुण गाते गाते ही आगे बढ़ रहे थे और रथ को हॉक रहे थे। उनका जो इस यात्रा में मूड रहा या उनका इस यात्रा का लक्ष्य यह रहा कि मैं नंदग्राम जाऊंगा,जो कि वृंदावन में ही हैं। वह केवल नंद ग्राम का ही नहीं सोच रहे थे बल्कि यह सोच रहे थे कि नंद ग्राम में मैं कृष्ण बलराम से मिलूंगा।श्रील प्रभुपाद ने भी ऐसा लिखा हैं कि अगर कोई वृंदावन की यात्रा करना चाहता हैं तो अक्रूर जी का आदर्श हमें अपने समक्ष रखना चाहिए,जिस प्रकार से अक्रूर कृष्ण को याद करते हुए गए या इस भावना से गयें कि मैं उनसे मिलूंगा और कृष्ण बलराम से मिलने पर यह होगा, यह करूंगा, कृष्ण बलराम ऐसे दिखते होंगे,वह दोनों मुझे जरूर दर्शन देंगे, मैं उनसे जरूर मिलूंगा, वह दोनों भी खुशी से कहेंगे कि चाचा आ गए, मुझे चाचा चाचा कह कर पुकारेंगे और ऐसा हुआ भी, खैर अभी तो मैं नोएडा में बैठा हूं। लेकिन इस जप चर्चा के बाद मुझे भी वृंदावन के लिए प्रस्थान करना हैं, इसलिए मैं अक्रूर की वृंदावन की यात्रा के बारे में सोच रहा था।
श्रीमद्भागवतम् -10.38.28
ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गोदोहनं गतौ । पीतनीलाम्बरधरौ शरदम्बुरहेक्षणौ ॥२८ ॥
तत्पश्चात् अक्रूर ने व्रज – ग्राम में कृष्ण तथा बलराम को गौवें दुहने के लिए जाते देखा । कृष्ण पीले वस्त्र पहने थे और बलराम नीले वस्त्र पहने थे । उनकी आँखें शरदकालीन कमलों के समान थीं ।
पूरे दिन भर के प्रयास के बाद जब वह वृंदावन पहुंचे तो उन्होंने देखा ददर्शन मतलब देखा किसे देखा? कृष्ण बलराम को देखा। अभी तक वह रथ में ही विराजमान हैं, रथ अभी-अभी नंद ग्राम के प्रांगण में पहुंचा हैं। नंद ग्राम,ग्राम हैं लेकिन वहां पर भी भवन है नंद भवन। क्या आप नंदग्राम गए हो?एक नंद भवन तो गोकुल में हैं, दूसरा नंद भवन नंद ग्राम में हैं। ग्राम का नाम भी नंद ग्राम हैं, किसका ग्राम हैं? नंद का ग्राम,गोकुल भी हैं, नंदगोकुल।ददर्श कृष्णं रामं मतलब अक्रूर जी ने कृष्ण और बलराम को देखा।
अभी-अभी वह दिन भर की गोचरण लीला के बाद लौटे थे, अभी-अभी गाय चरा कर वृंदावन में लौटे हैं और अब गो दोहन के लिए गौशाला में गए थे और वहां पर देखा कि एक ने पीतांबर वस्त्र पहना हैं और एक ने नीलांबर नील मतलब नीला, अंबर मतलब वस्त्र। जिसने पीले वस्त्र पहने हैं, वह कौन हैं? वह कृष्ण हैं।उन्होंने ऐसे वस्त्र पहने हुए कृष्ण बलराम को देखा और जब उन्होंने उनकी आंखों की तरफ देखा तो शरदम्बुरहेक्षणौ ऐसा लगा जैसे शरद ऋतु में कमल खिले हैं, वह दोनों इतनी सुंदर आंखों वाले थे,ऐसा लग रहा था जैसे शरद ऋतु में कमल खिले हो।इस प्रकार अक्रूंर ने उनको देखा तो आप भी दर्शन कीजिए। अक्रूर जी को दर्शन हो रहे हैं। वैसे मैंने तो नहीं देखा, मैंने सुना हैं कि कृष्ण बलराम कैसे दिखते हैं।किन से सुना हैं? जिन्होंने उन्हें स्वयं देखा हैं। तो अक्रूर ने उन्हें देखा और अक्रूर ने क्या देखा? उसका वर्णन शुकखदेव गोस्वामी सुना रहे हैं। वास्तव में वह कैसे दिखते हैं, हम लोग सुनते जाएंगे,सुनते जाएंगे यानी श्रवण करेंगे और फिर कीर्तन करेंगे और फिर 1 दिन हम भी भगवद्धाम लौटेंगे और वहां जब हम कृष्ण और बलराम को देखेंगे तो पाएंगे कि कृष्ण- बलराम कैसे दिखते हैं। वैसे ही जैसे हम सुन रहे हैं। जैसे वह दोनों अक्रूर को दिखे।तब आपको याद आएगा कि एक दिन मैंने जब चर्चा में कृष्ण बलराम के बारे में अक्रूरजी से सुना था, तब आप सोचोगे अरे! यह तो वैसे ही हैं, जैसे मैंने सुना था। तो इस प्रकार सुनने से हमें भगवद्धाम लौटने से पहले ही कृष्ण बलराम दिखने लगते हैं और उन्हें कौन दिखाता हैं? हम कह सकते हैं कि भागवतम हमें दिखाता हैं। भागवतम् हमें उनका दर्शन देता हैं, इसे शास्त्र चक्षुक्ष: कहा हैं।शास्त्र क्या हैं? शास्त्र चश्मा हैं और बिना चश्मे के कुछ भी नहीं दिखता।जब हम चश्मा पहनते हैं,तब सब कुछ स्पष्ट दिखता हैं। शास्त्र का चश्मा पहनो, शास्त्र पढ़ो और सुनो आपको सब स्पष्ट दिखने लगेगा और इसको ही कहा गया है ओम अज्ञान तिमिरंधास्ञ क्योंकि हम अज्ञानी हैं।
प्रतिदिन इस प्रकार का ज्ञान का अंजन हम अपनी आंखों में डालते हैं और फिर इस प्रकार ज्ञानांजन से प्रेमांजन तक पहुंच जाते हैं।प्रेम सुन सुनकर उदित होता हैं।
M 22.107
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय।
श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।107॥
अनुवाद
“कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं हैं, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता
हैं, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।” श्रवण कीर्तन से ही हमारी चेतना शुद्ध होती हैं, या फिर हमें स्पष्ट दिखने लगता हैं, हमें दर्शन होता हैं।कैंसे?जब हम गुरुजनों के चरणों में अपनी वंदना करते हैं।कृष्ण बलराम जिनको अक्रूर ने देखा उनको किशोरों कह रहे हैं, क्योंकि दो है इसलिए किशोरों कह रहे हैं। दोनों भी किशोर हैं।किशोर समझते हो? किशोरावस्था, 10 से 15 साल की आयु के बीच को किशोरावस्था कहते हैं।10 साल के तो यह हो गए हैं इसलिए इन्हें किशोर कहा गया हैं।
10.38.29
किशोरौ श्यामलश्वेतौ श्रीनिकेतौ बृहद्भुजौ । सुमुखौ सुन्दरवरौ बलद्विरदविक्रमौ ॥ २ ९ ॥
इन दोनों बलशाली भुजाओं वाले , लक्ष्मी के आश्रयों में से एक का रंग गहरा नीला था और दूसरे का श्वेत था । ये दोनों ही समस्त व्यक्तियों में सर्वाधिक सुन्दर थे ।
श्यामलश्वेतौ- यह जो पितांबर पहने हैं, इनके अंग की कांति श्यामल हैं, वस्त्र तो पीला पहना हैं, किंतु उनके अंग की कांति श्यामल हैं। श्याम रंग की हैं और दूसरे यह बलराम हैं, उनके अंग की कांति श्वेत हैं। उनका अंग श्वेत था, हैं और सदा के लिए रहेगा।कोई भी बदलाव नहीं होगा।श्रीनिकेतौ लक्ष्मी के यह निकेतन हैं या स्वामी हैं या निवास हैं।बृहद्भुजौ-इनकी बड़ी बड़ी महान या शक्तिमान भुजाएं हैं । एक एक बात को नोट करो। आपको बता देते हैं कि आपको कहां से पढ़ना हैं, यह दसवां स्कंध हैं, अध्याय 38।यह कुछ श्लोक मुझे बहुत प्रिय हैं। दसवां स्कंध अध्याय 38 और चार पांच श्लोक हैं। 28 से 33 नोट करो और अभी भी अगर आपके पास ग्रंथ हैं, तो खोलो,देखो और पढ़ो या बाद में पढ़ना।सुमुखौ अर्थात सुंदर मुख वाले कृष्ण।ब्यूटीफुल लाइक वूमेन एंड हैंडसम लाइक मैंन।अंग्रेजी में स्त्री के सौंदर्य को ब्यूटीफुल कहते हैं और पुरुष के सौंदर्य को हैंडसम कहते हैं।कृष्णा इन दोनों का कॉन्बिनेशन हैं, दोनों का ही मिलाजुला संगम हैं।सुमुखौ मुख तो मुह हुआ और सु मतलब सुंदर और दो हैं, इसलिए सुमुखो सुंदर वरो,वर मतलब नटवर, श्रेष्ठ हैं, इसलिए वर हैं या फिर वर हैं, तो वधू भी होगी ही। वर और वधु दोनों साथ में होते हैं,इसीलिए यहां लक्ष्मी वधू हैं और कितनी लक्ष्मीया हैं?
5.29 ब्रह्म संहिता
चिन्तामणिप्रकरसद्यसु कल्पवृक्ष-
लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२९॥
अनुवाद-जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान
हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों
लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुषकी सेवा कर रही हैं, ऐसे
आदिपुरुष श्रीगोविन्दका मैं भजन करता हूँ।२९॥
सुंदर वरो और दोनों दो हैं, इसीलिए सुंदर वरो और जब कृष्ण बलराम दोनों चल रहे थे, तो ऐसे लग रहा था कि हाथी के दो बच्चे ,हाथी के दो युवा बच्चे चल रहे हैं,उनकी चाल से ऐसा लग रहा था कि हाथी जा रहे हैं, क्योंकि यह दोनों नवयुवक हैं, इसलिए इनकी बूढ़े हाथियों के साथ तुलना नहीं हो सकती हैं, इसीलिए ऐसा कहा गया हैं कि जैसे बाल हाथी चल रहे हैं और जब वह चलते हैं तो शाम्भोजैश्चिह्नितैरधिभिर्वजम्
भागवतम् 10.38.30
ध्वजवजाङ्क शाम्भोजैश्चिह्नितैरधिभिर्वजम् । शोभयन्तौ महात्मानौ सानुक्रोशस्मितेक्हैं। ॥३० ॥
ये दोनों ही समस्त व्यक्तियों में सर्वाधिक सुन्दर थे। जब वे युवक हाथियों की – सी चाल से अपनी दयामय मुस्कानों से निहारते चलते तो ये दोनों महापुरुष अपने पदचिन्हों से चरागाह को सुशोभित बनाते जाते । ये पदचिन्ह पताका , वज्र , अंकुश तथा कमल चिन्हों से युक्त थे ।
वह अपने चरण चिन्नो से उस ब्रजमंडल के स्थान को अंकित या सुशोभित करते हैं। जहां भी वह दोनों चलते हैं वहां उनके चरण कमलों के चिन्ह बने रहते हैं और वहां की भूमि उसको संभाल कर रखती हैं। वैसे अभी भी कुछ चरण चिन्ह चरण पहाड़ी पर कामवन में और भी अनेक जगहों पर आज भी मौजूद हैं। आज भी हम उन चरण कमलों के दर्शन कर सकते हैं और आप भगवान के चरण कमल में देखोगे कि चरण कमल में अलग अलग चिन्ह हैं। पैरों के तलवों में लालिमा हैं।भगवान का तलवा और हथेली लाल रंग की हैं। उनके नाखून भी लाल हैं,इसलिए आप लोग पॉलिश कर के लाल बनाते हो, क्योंकि आप नकल करते हो।कृष्ण की सुंदरता एक मानक हैं जिस पर सब उतरना चाहते हैं।यहां के लोग कृष्ण के साथ प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं।शोभयन्तौ महात्मानौ- वह ऐसे शोभायमान हैं और महात्मानो,महान आत्माएं हैं, परमात्मा हैं या भगवान हैं।सानुक्रोशस्मितेक्हैं-और उनके मुख पर सदैव ही एक मुस्कान बनी रहती हैं, वे हंसते नहीं बल्कि मुस्कुराते हैं। एक हंसना होता हैं, एक मुस्कुराना होता हैं। तो भगवान के मुख पर सदैव मुस्कान बनी रहती हैं।उदाररुचिरक्रीडौं- वह उदार हैं
उदाररुचिरक्रीडौं स्रग्विणी वनमालिनी । पुण्यगन्धानुलिप्ताङ्गी स्नातौ विरजवाससौ ॥३१ ॥
यह अत्यन्त उदार तथा आकर्षक लीलाओं वाले दोनों प्रभु मणिजटित हार तथा फूल – मालाएँ पहने थे , इनके अंग शुभ सुगन्धित द्रव्यों से लेपित थे । ये अभी अभी स्नान करके आये थे और निर्मल वस्त्र पहने हुए थे और कई सारी लीलाए खेलते हैं,दिल खोलकर और जी भर कर लीलाएं खेलते हैं।वह लीला खेलते हैं तो फिर उस नीला का प्रचार प्रसार होता हैं और यह प्रचार प्रसार भी कृष्ण और बलराम की उदारता का लक्षण हैं।
अक्रूर ने देखा कि दोनों ने मालाएं पहनी हुई हैं,दोनों ही के गले में माला हैं, कैसी माला हैं? वनमालीनो। दोनों वन के पुष्पों की माला पहने हैं, कृष्णा अलग-अलग पुष्पों की अलग-अलग मालाएं अलग-अलग समय पर पहनते हैं,इसीलिए पद्ममाली भी कहलाते हैं।कदम की पुष्पों की माला पहने हुए उस बालक का दर्शन कब होगा? कई प्रकार की मालाएं पहनते हैं, उसमें से वैजयंती माला भी एक हैं। यह वैजयंती उस नटी की बात नहीं हैं, जो एक्ट्रेस अब नहीं रही। यह तो वैजयंती के फूलों की बात हो रही हैं। यह एक विशेष माला हैं। पर यहां तो वनमालिनो कहा हैं।
अक्रूर ने देखा कि ऐसा लगता हैं कि इन्होंने अभी अभी स्नान किया हैं, गोचारण लीला से आने के बाद पहला काम तो स्नान का ही होता हैं। भगवान के स्नान को अभिषेक कहते हैं। जैसे हम सब ने कल बलराम का अभिषेक किया, साथ में कृष्ण भी थे।वैसे मैं कल अभिषेक करते समय सोच रहा था, कि क्या किसी का ऐसा अभिषेक स्नान होता हैं? कल महा स्नान, महा अभिषेक, नोएडा मंदिर में था। हम लोग तो मुश्किल से एक बाल्टी भरकर स्नान कर लेते हैं, लेकिन भगवान के स्नान को अभिषेक कहते हैं। उसकी शोभा के बारे में तो क्या कहा जाए, अलग-अलग तरह के द्रव्य, जल और फलों का रस और ना जाने क्या-क्या, इन सब चीजों से भगवान का अभिषेक होता हैं। कई सारे उबटन और सुगंधित तेलों से और चंदन के लेपो से भगवान का अभिषेक होता हैं। भगवान का स्नान, अभिषेक कोई छोटी मामूली बात नहीं हैं। यह एक बड़ी चीज हैं। संसार में ऐसा नहीं होता। जब हम भगवान का अभिषेक देखते हैं तो हमें कुछ मात्रा में पता चलता हैं कि भगवद्धाम में किस प्रकार से भगवान का अभिषेक होता होगा। उस कृत्य को दर्शाने के लिए अभिषेक का आयोजन यहां होता हैं।विरजवाससौ-दोनों ने स्नान किया हैं और स्वच्छ वस्त्र पहने हुए हैं। वास मतलब वस्त्र, रज मतलब फूल और बिरज मतलब धूल से मुक्त अर्थात स्वच्छ वस्त्र पहने हुए हैं
प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्धेतू जगत्पती । अवतीणों जगत्यरहैं। स्वांशेन बलकेशवौ ॥ ३२ ॥
प्रधानपुरुषावाद्य- और यह दोनों कृष्ण और बलराम प्रधान पुरुष हैं। प्रधान से आप क्या समझते हैं?जैसे कहते हैं कि यह गांव के प्रधान हैं और फिर प्रधानमंत्री भी होते हैं, तो प्रधान मतलब मुख्य। सारे पुरुषों के यह मुखिया हैं, सबसे मुख्य पुरुष हैं और आदो मतलब आदि पुरुष हैं और जब कोई भी नहीं था तब से यह मौजूद हैं।जगद्धेतू जगत्पती-वह इस जगत के कारण भी हैं और इस जगत के पति भी हैं।अवतीणों जगत्यर्थे-और यह दोनों ही प्रकट होते हैं। बलराम जी तो कल प्रकट हुए और कृष्ण भी अपने प्राकट्य की तैयारी कर रहे हैं।जगत्यर्थे- इस जगत के कल्याण के लिए भगवान प्रकट होते हैं।
BG 4.8
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||”
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
यह तो भगवान ने गीता में कहा ही हैं, लेकिन भागवत में भगवान ने कहा हैं, कि अनुग्रहाय भूतानां-
8.24.27
नूनं त्वं भगवान्साक्षाद्धरिनारायणोऽव्ययः अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम् ॥२७ ॥
हे प्रभु ! आप निश्चय ही अव्यय भगवान् नारायण श्री हरि हैं । आपने जीवों पर अपनी कृप प्रदर्शित करने के लिए ही अब जलचर का स्वरूप धारण किया है ।
अनुग्रहाय भूतानां-इस संसार के जीवो पर विशेष अनुग्रह करने के लिए कृष्ण और बलराम प्रकट होते हैं।स्वांशेन बलकेशवौ-यह दोनों स्वयं भगवान हैं।
1.3.28
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८ ॥
उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।बल केशवो-बल अर्थात बलराम और केशव अर्थात केशव प्रकट हुए।
दिशो वितिमिरा राजन्कुर्वाणी प्रभया स्वया ।
यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचिती ॥३३ ॥
शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं, हे राजन! क्योंकि शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज को यह सब सुना रहे हैं,इसलिए उन्हें संबोधित कर रहे हैं कि हे राजन! कृष्ण जहां भी होते हैं, वहां का जो तिमिर हैं यानी कि अंधकार हैं, वह प्रकाश में बदल जाता हैं।वितिमिरा- अंधकार रहित।
Cc, M22. 31
*कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार।*
*य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।*
(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31)
अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान हैं। जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत नाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता हैं।
यह लिखा हैं, कि सारी दिशाएं अंधकार से मुक्त हुई।कुर्वाणी प्रभया स्वया- अपनी प्रभा से सभी दिशाओं के अंधकार को दूर कर देते हैं और भगवद्गीता में कृष्ण ने कहा हैं कि सूर्य का प्रकाश भी मैं ही हूं या कृष्ण कहते हैं कि सूर्य मेरी एक आंख हैं और चंद्रमा मेरी दूसरी आंख हैं। मैं जब आंख खोलता हूं, तो दिन में मेरी सूर्य के रूप में आंख खुलती हैं और रात में चंद्रमा के रूप में। इसीलिए सूर्य और चंद्रमा के रूप में प्रकाश भी भगवान ही देते हैं।प्रभया मतलब- स्वयं प्रकाशित हैं।कृष्ण और बलराम स्वयं प्रकाशित हैं।उनको प्रकाशित होने के लिए किसी और प्रकार स्त्रोत पर निर्भर नहीं होना पड़ता। अगर आपके घर पर कृष्ण माखन चोरी करता हैं, तो आप ऐसे स्थान पर माखन को रखो जहां अंधेरा हो। आप को अंधेरे में रखना चाहिए ना। आपमें इतना दिमाग नहीं हैं, कि अंधेरे में रखेंगे तो कृष्ण बलराम वहां नहीं पहुंच जाएंगे, तो एक गोपी को ऐसा सुझाव दिया गया था। तो उन्होंने कहा कि हां हां ऐसा ही कर रहे हैं,किंतु जब यहा कृष्ण आता हैं, तो जहां जहां यह जाता हैं, वहां वहां प्रकाश हो जाता हैं। यह कोई अलग से मोमबत्ती लेकर नहीं आता, लेकिन स्वयं हर दिशा प्रकाशित हो जाती हैं। हमने माखन रखा तो अंधेरे में ही था लेकिन जैसे ही यह आ गया वहा प्रकाश हो गया।यह जहां भी जाता हैं, वहां इसे दिख जाता हैं, क्योंकि यह स्वयं प्रकाशित हैं।यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचिती- और श्रीकृष्ण मरकत मणि का बना हुआ एक पहाड़ हैं। मरकत मणि का श्याम वर्ण होता हैं, तो वैसे ही कृष्ण हैं और बलराम क्योंकि वह श्वेत वर्ण के हैं,तो वह दूसरा पहाड़ हैं। कैसा पहाड़? चांदी का पहाड़। यह हमारा प्रातः स्मरणीय ध्यान था। हमने कृष्ण बलराम के बारे में श्रवण किया। अब हम स्मरण कर सकते हैं। श्री कृष्ण बलराम की जय। आज एक विशेष दिन भी हैं,आज इस्कॉन के लिए एक विशेष दिन हैं। आज ही के दिन प्रभुपाद ने कोलकाता से अमेरिका के लिए यात्रा प्रारंभ की। 23 अगस्त 1965 को प्रभुपाद ने वह यात्रा प्रारंभ की। 1965 के 23 अगस्त को श्रील प्रभुपाद कोलकाता के बंदरगाह गए, वहां जलदूत उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह बोट सिंडिया नेवीगेशन कंपनी की थी। कोलकाता से कोलंबो, कोलंबो से केरल और केरल से अमेरिका के लिए प्रस्थान किया।प्रभुपाद 1 महीने से अधिक उस बोट में रहे, किंतु उस यात्रा की शुरुआत आज हुई। आप उस समय की तस्वीर भी देख सकते हैं। प्रभुपाद के एक हाथ में एक अटैची हैं और दूसरे हाथ में छाता हैं। और वह बोट में बैठने के लिए ऊपर चढ रहे हैं। कृष्ण बलराम मंदिर में भी ऐसा एक दृश्य आप देख सकते हैं। आपने तस्वीरों में भी यह दृश्य देखा होगा। यह जो तस्वीरें हैं,यह आज ही के दिन की हैं। इस्कॉन कोलकाता के भक्त आज उस स्थान पर जाएंगे जहां यह जलदूत बोट खड़ी थी।उस बंदरगाह का नाम हैं, खिदिरपुर। वहां कोलकाता के भक्त आज पहुंचने वाले हैं और वहां जाकर इस दिन को और श्रील प्रभुपाद की यात्रा को याद करेंगे और वैसे भी यह वर्ष कुछ विशेष हैं, क्योंकि यह श्रील प्रभुपाद के 125 वी वर्षगांठ का साल हैं और उस उपलक्ष्य में उत्सव भी मनाये जा रहे हैं।आप इस लीला को प्रभुपाद लीलामृत में पढ़ सकते हैं। पढ़ोगे ना? इस बात का ध्यान रखें कि आप सबके पास प्रभुपाद लीलामृत होनी ही चाहिए, नहीं हैं, तो इसे खरीदो। वैसे आप में से कई भक्तों ने प्रभुपाद लीलामृत का वितरण करने का भी संकल्प लिया हैं कि हम 5,10 या 125 लीलामृत का वितरण करेंगे। ऐसा आप लोगों का प्लान हैं।आप यह संकल्प ही लेकर बैठे हो। कब तक बैठे रहोगे?उठो और इसका वितरण प्रारंभ करो,ताकि प्रभुपाद भावना पूरे संसार में फैल सके। श्रील प्रभुपाद की जय।1922 में आज के दिन जो श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती प्रभुपाद जी ने कोलकाता में प्रभुपाद को आदेश दिया था,1965 में उस पर आज के दिन अमल हो रहा हैं। इसी को इस पुस्तक में बताया गया हैं, लाइफ टाइम इन प्रिपरेशन। 1922 से 1965। प्रभुपाद अपने गुरु महाराज के आदेश को कभी भी नहीं भूले थे।वह तो बस तैयारी कर रहे थे। यह आप लीलामृत में पढ़ सकते हैं और फिर जब तैयारी पूरी हो गई तो आज ही के दिन उन्होंने वह जलदूत को लिया। देवदूत श्रील प्रभुपाद ने उस जलदूत को बोर्ड किया। कहां गए?न्यूयॉर्क गए।ठीक हैं।अब आप पर हैं, कि आप इसे पढ़ो,ध्यान करो या लीलामृत का वितरण करो। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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*जप चर्चा*,
*गोविंद धाम, नोएडा*,
*22 अगस्त 2021*
हरी बोल। हमारे साथ 825 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हम सब को बल देने वाले या बल के स्त्रोत बलराम। बल भी देने वाले और राम भी देने वाले। *रमयती च इति राम:*। जो रमते हैं और रमाते हैं राम। बलराम आज उनका प्राकट्य दिन है। हरि हरि। कृष्ण बलराम जय कृष्ण बलराम, कृष्ण बलराम जय कृष्ण बलराम, कृष्ण बलराम जय कृष्ण बलराम, कृष्ण बलराम जय कृष्ण बलराम। यह भगवान की जोड़ी है कृष्ण और बलराम। क्या आप अब सुन पा रहे हो? हरि हरि। मैंने बहुत कुछ कहा। बलराम पूर्णिमा महोत्सव की जय। दाऊजी का भैया बलराम को क्या कहोगे आप? कृष्ण कन्हैया। कृष्ण कन्हैया और फिर आपकी बारी है दाऊजी का भैया। दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया, कृष्ण कन्हैया दाऊजी का भैया। वृंदावन में जब हम बलदेव जाते हैं, दाऊजी मतलब कृष्ण के बड़े भैया। तो वहां पर जब हम परिक्रमा में जाते हैं। वहां पर यह सब गान चलता रहता है। ब्रज के और क्षेत्र में तो जय राधे चलता रहता है। किंतु जब हम महावन जाते हैं। महावन में पहले बलदेव या दाऊजी जाते हैं। वहां पर दाऊजी के भैया कृष्ण कन्हैया दाऊजी के भैया कृष्ण कन्हैया। तो ब्रज में बलदेव के विग्रह है। महावन में 4 देव है। एक बलदेव है, गोविंद देव है, हरिदेव है और मथुरा में कौन है केशव देव। हरि हरि। कृष्ण के परपोत्र उन्होंने इन विग्रहों की स्थापना करी। तो फिर मैं बहुत कुछ सोच तो रहा हूं या सोच तो रहा ही था। लेकिन एक मुख से क्या कह सकता हूं? ऐसे हैं। कृष्ण कथा ही करनी है। एक मुख से और बलराम जी का एक शुद्र जीव क्या गुण गा सकता है? वैसे कहा जाता है कि कृष्णदास कविराज गोस्वामी भी कहे हैं। जितना संभव है, मैं इतना ही कह सकता हूं और इतना ही लिख सकता हूं। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन की यात्रा कर रहे हैं। तो वह लिखे हैं कृष्णदास कविराज गोस्वामी कि चैतन्य महाप्रभु वृंदावन का दौरा कर रहे हैं। वह कहते हैं कि बहुत कुछ लिखा और कहा जा सकता है तो मैं यह छोड़ दूंगा। अनंतशेष वदन को कहने दो या सहस्त्र वदन को कहने दो। सहस्त्र वदन कौन है? यह बलराम है। वैसे सर्वोत्तम कथाकार तो बलराम ही है और उनके तो एक हजार मुख है। मैं देख रहा था कि बलभद्र सहस्त्रनाम। सहस्त्र वदन बलराम के हजार नाम है। बलभद्र सहस्त्रनाम, गर्ग संहिता में गर्गाचार्य बलराम के हजार नाम, विष्णु सहस्त्रनाम आपने सुना होगा। तो बलभद्र सहस्त्रनाम गर्गाचार्य ने लिखा है। गर्ग मुनि यदुवंश के आचार्य और पुरोहित थे। उन्होंने लिखी गर्ग संहिता और उन्हें जो भी लिखी गौरवगाथा उसका नाम दिए गर्ग संहिता। यह हम जानते हैं इस नाम से गर्गाचार्य बलराम के 1000 नामों का उल्लेख करते हैं। तो उन नामों में से एक नाम सहस्त्र वदन भी है। बलराम को सहस्त्र वदन क्यों कहते हैं? क्योंकि उनके सहस्त्र वदन ही है। सहस्त्र वदनो से क्या करते हैं? गुण गाथा गाते हैं और उनके लिए कृष्ण भगवान है। वह स्वयं भी भगवान है और साथ ही साथ श्री कृष्ण उनके भगवान है। वह श्रीकृष्ण की गाथा गाते रहते हैं। अनंत शेष हरि कथा गाने वाले कहने वाले तो हो गए, वैसे बलराम स्वयं ही हो गए आचार्य या गुरु। बलराम एक गुरुत्व भी है या आदिगुरु तो बलराम ही है यानी गुरुओं के गुरु बलराम ही है। वह कृष्ण की सेवा करके दिखाते हैं या कृष्ण का गुण गाकर हमको सुनाते हैं। हमारे सभी के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। कृष्ण प्रकट हुए तो सर्व प्रथम कृष्ण को मिलने वाले कौन थे और सेवा करने वाले कौन थे? संकर्षण, कुछ दिन पहले बताया था। बलराम जी आ गए और उनको फनो से छाता बनाकर उन्होंने वर्षा से उनकी सेवा करने लगे और बचाने लगे। सहस्त्र वदन ऐसे बलराम का आज आविर्भाव या प्राकट्य दिन है। ऐसा मैं सोच ही रहा था तो उसमें से जब वृंदावन में कृष्ण बलराम प्रकट हुए या श्रील प्रभुपाद कृष्ण बलराम को प्रकट किए। कृष्ण बलराम विग्रह का प्राकट्य जब हो रहा था। 1975 में तब मैं वहां पर था। रामनवमी का दिन था। कई दिनों तक प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव चलता रहा और अंततोगत्वा कृष्ण बलराम मंदिर की श्रील प्रभुपाद वृंदावन में स्थापना कर रहे हैं। उन्होंने कृष्ण बलराम को केंद्र में रखा है। इस्कॉन के वृंदावन के मंदिर का वैशिष्ट्य है। बगल में राधा श्यामसुंदर और गौर निताई और केंद्र में कृष्ण बलराम की जय। ऑल्टर पर पहले अभिषेक हो रहा था। मंदिर में लोग चारों ओर थे। ऑल्टर पर कृष्ण बलराम को स्थापित किया गया और पहली आरती श्रील प्रभुपाद ने ही की। मैं वहीं पर खड़ा था। कृष्ण बलराम का और साथ ही साथ श्रील प्रभुपाद का दर्शन कर रहा था। सारे संसार को श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण बलराम को दिया। श्री कृष्ण बलराम की जय। उस प्रकार उस तरह प्राकट्य हो रहा था। विग्रह भगवान का अवतार है। वृंदावन इस्कॉन कृष्ण बलराम मंदिर के कृष्ण बलराम जिस दिन प्रकट हुए तब मैं वहां पर उपस्थित था। मैं उनके प्राकट्य का साक्षी था। हरि हरि। इस रमणरेती में कृष्ण बलराम गौचारण लीला खेलते हैं और वहीं पर श्रील प्रभुपाद कृष्ण बलराम को प्रकट किए। कृष्ण बलराम के पास ऑल्टर पर ही एक गाय और बछड़ा भी रखा। कई बार कृष्ण बलराम के हाथों में रस्सी होती है और एक रस्सी बछड़े के गले में और दूसरी रस्सी गाय के गले में होती है। जब हम कृष्ण बलराम का श्रृंगार दर्शन करते हैं और कई बार ऐसा अनुभव होता है कि कृष्ण वन में जाने के लिए तैयार हैं। गौचारण लीला के लिए प्रस्थान कर रहे हैं और फिर दिल ललचाता है कि मैं कई बार सोचता रहता हूं। चलो हम भी चलते हैं, कृष्ण बलराम गाय चराने के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। चलो मुझे भी ग्वाला बनना है। प्रभुपाद ग्वाले थे। श्रील प्रभुपाद यह सारा कृष्ण बलराम का दर्शन प्रकट किए। हम भी जब कृष्ण बलराम के दर्शन करते हैं, गाय बछड़े भी है और हाथ में डोरी भी है। कभी-कभी लंच पैकेट भी होता है। कृष्ण बलराम के फल भी उनके हाथों में दिए जाते हैं। ऐसा अनुभव होता है कि कृष्ण बलराम अपनी गौचारण लीला के लिए तैयार हैं और चलो, हम भी चलते हैं। श्री कृष्ण बलराम की जय। सभी के इष्टदेव हैं श्री कृष्ण बलराम। तो यह देवकी के सातवें पुत्र रहे। जब शुकदेव गोस्वामी कथा कर रहे थे। वैसे उन्होंने बलराम के प्राकट्य की पूरी कथा तो नहीं कही है। उनसे अधिक कथा तो गर्गाचार्य ने गर्ग संहिता में बलराम प्राकट्य वर्णन किए हैं। किंतु प्रारंभिक वर्णन श्रीमद् भागवत में शुकदेव गोस्वामी पूर्व तैयारी करते हैं। बलराम के प्राकट्य ऐसी तैयारी हो रही थी ताकि वह जन्म ले बलराम। गोलोक में ही कृष्ण बुलाते हैं योगमाया को। योग माया जब पहुंच जाती है।
गच्छ देवि व्रज भद्रे गोपगोभिरल तम् रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुले ।
अन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ॥
(श्रीमद भगवतम 10.2.7)
अनुवाद:- भगवान् ने योगमाया को आदेश दियाः हे समस्त जगत द्वारा पूज्या तथा समस्त जीवों को सौभाग्य प्रदान करने वाली शक्ति , तुम व्रज जाओ जहाँ अनेक ग्वाले तथा उनकी पत्नियां रहती हैं उस सुन्दर प्रदेश में जहाँ अनेक गावें निवास करती हैं , वसुदेव की पत्नी रोहिणी नन्द महाराज के घर में रह रही हैं । वसुदेव की अन्य पत्नियां भी कंस के भय से वहीं अज्ञातवास कर रही हैं कृपा करके वहाँ जाओ ।
कृष्ण गोलोक में आदेश देते है । गोलोक में यह घटना घट रही है ।
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु ।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
(ब्रह्म संहिता 5.43)
अनुवाद:- जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुंठ लोक (हरीधाम), महेश लोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों में विभिन्न स्वामियों को यथा योग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ ।
कृष्ण और बलराम गोलोक में रहते हैं। कृष्ण भी गोलोक के निवासी हैं और बलराम भी गोलोक के निवासी हैं। हरि हरि। भगवता के दृष्टि से विचार करें। कृष्ण कहते हैं गीता में
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 7.7)
अनुवाद:- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है ।
वैसे बलराम भी यह वचन कह सकते हैं। लेकिन राम नहीं कह सकते । ना ही परशुराम कह सकते हैं। ना ही और कोई अवतार कह सकता है। लेकिन कृष्ण बलराम यह दोनों कह सकते हैं। *मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय*। तो श्रील प्रभुपाद लिखते है कि कृष्ण और बलराम एक जैसे हैं। केवल उनका कांति का ही अंतर है। एक है घन इव श्याम घनश्याम कृष्ण और दूसरे हैं बलराम यह शुक्ल वर्ण के हैं। वर्ण का ही भेद है। दोनों की भगवता और जैसे राम घोषित नहीं कर सकते हैं *मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय*। लेकिन बलराम कह सकते हैं। कृष्ण में चार अधिक विशेष गुण है। राम में 60 गुण है और बाकी अवतारों में 60 गुण हो सकते हैं। लेकिन कृष्ण में 4 अधिक गुण है और वह गुण बलराम में भी है। कृष्ण का रूप माधुर्य, लीला माधुर्य, प्रेम माधुर्य और वेणु माधुर्य, यह बलराम पर भी लागू होता है। माधुर्य का कह रहे है तो कृष्ण जैसे माधुर्य लीला खेलते हैं वैसे ही बलराम भी माधुर्य लीला खेलते हैं। रास क्रीडा खेलने वाले सिर्फ दो ही भगवान है, एक है कृष्ण और दूसरे बलराम। राम यह नहीं कर सकते हैं। बाकी सब जितने भी अवतार हैं उनकी एक एक लक्ष्मी है, लक्ष्मी नरसिंह, लक्ष्मी वराह। लक्ष्मी नारायण एक लक्ष्मी एक नारायण, एक लक्ष्मी एक नरसिंह, एक लक्ष्मी एक वराह। हर अवतार की अपनी एक–एक लक्ष्मी है किंतु
चिन्तामणिप्रकरसद्यसु कल्पवृक्ष-
लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
(ब्रह्म संहिता 5.29)
अनुवाद:- जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुष की सेवा कर रही हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
वृंदावन में कितनी लक्ष्मियां है? *लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं* लाखों करोड़ों अरबों लक्ष्मी को व्यस्त रख सकते हैं, प्रसन्न रख सकते हैं। जैसे कृष्ण वैसे बलराम भी। बलराम अपनी गोपियों के साथ भी रास क्रीडा खेलते हैं। कृष्ण की अपनी गोपियां है और बलराम की अपनी गोपियां है। तो द्वारका से जब लौटे थे। बलराम अकेले ही आए थे। द्वारकावासियों ने केवल द्वारका से केवल बलराम को ही भेजा । आप अकेले ही जाओ, आप दोनों नहीं जा सकते। जब बलराम वृंदावन आए थे । वृंदावन में 2 मास के लिए रहे चैत्र वैशाख इन 2 महीने रहे तो उन दिनों में बलराम अपनी रासक्रीडा संपन्न किए ।
जय रामघाट , जय रोहिणीनन्दन ।
जय जय वृन्दावनवासी यत जन ॥ 7 ॥
अनुवाद:- जहाँ बलरामजी ने रास रचाया था उस रामघाट की जय हो । रोहिणीनन्दन बलरामजी की जय हो । सब वृन्दावनवासियों की जय हो ।
जब हम लोग नंद ग्राम से यह सब समय लगेगा यह सब समझा नहीं मैं, तो एक है राम घाट है वहां पर बलराम पहुंच जाते हैं । वहां आज भी बलराम विद्यमान है उनके विग्रह है तो वहां पर रासक्रीडा खेलना चाह रहे थे बलराम । यमुना मैया कुछ दूर थी तो उन्होंने कहा कि यहां आओ ताकि हम रासक्रीडा खेलेंगे तो यमुना कुछ हाना कानी कर रही थी कुछ देरी हो रही थी सुन नहीं रही थी तो बलराम ने ऐसा उसको धमकाया और अपना हल लेके उसको खींचकर अपनी और लाने का प्रयास चल रहा था तो फिर यमुना को चेतना हाई तो यमुना आगे बढ़ी तो जहां यह रामघाट है यमुना सबसे अधिक उसका विशाल पात्र है और कई नहीं है व्रजमंडल में केवल उसी स्थान पर है क्योंकि बलराम ने जो अपने हल से वह खींच रहे थे पास में ला रहे थे तो वहां नदी का विस्तार हुआ । वहां पर फिर रासक्रीडा खेले हैं बलराम राम घाट जहां है तो यह बलराम पहले जन्म लेते हैं तो हम बता रहे थे । मैं नहीं बता रहा था वैसे । शुकदेव गोस्वामी बता चुके हैं की कृष्ण योगमाया को बुलाए गोलक में ही और कहे कि हे भद्रे ‘व्रजंगच्छ’ वृंदावन जाओ । ठीक है मैं चाहती हूं । क्या आदेश है ? क्या मेरा काम है ?
गच्छ देवि व्रज भद्रे गोपगोभिरल तम् रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुले ।
अन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.2.7 )
अनुवाद:- भगवान् ने योगमाया को आदेश दियाः हे समस्त जगत द्वारा पूज्या तथा समस्त जीवों को सौभाग्य प्रदान करने वाली शक्ति , तुम व्रज जाओ जहाँ अनेक ग्वाले तथा उनकी पलियाँ रहती हैं उस सुन्दर प्रदेश में जहाँ अनेक गावें निवास करती हैं , वसुदेव की पत्नी रोहिणी नन्द महाराज के घर में रह रही हैं । वसुदेव की अन्य पलियाँ भी कंस के भय से वहीं अज्ञातवास कर रही हैं कृपा करके वहाँ जाओ ।
देवक्या जठरे गर्भ शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत्सन्निकृष्य रोहिण्या परे सन्निवेशय ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.2.8 )
अनुवाद:- देवकी के गर्भ में संकर्षण या शेष नाम का मेरा अंश है । तुम उसे बिना किसी कठिनाई के रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दो ।
तो योग माया को गोलक में ही श्री कृष्ण बता रहे हैं वसुदेव की एक र्भाया एक पत्नी आजकल उस समय 5200 कितने ? 48 वर्ष पूर्व तो कृष्ण प्रकट हुए । बलराम उनके लगभग 1 साल पहले तो फिर 49 हो जाएगा । 5249 ऐसा लगभग जोड़ना होगा इतने वर्ष पूर्व कृष्ण बता रहे हैं तो आजकल इस समय वसुदेव की एक र्भाया गोकुल में रहती है । उसका नाम है रोहिणी तो तुम को क्या करना है ? इस समय “शेषाख्यं धाम मामकम्” मैं ही मनो अनंत शेष के रूप में या अनंतशेष बलराम के रूप में देवकी के गर्भ में पहुंच चुका हूं या बलराम देवकी के गर्भ में है तो है योग माया तुमको बलराम को देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागार में, कंस कारागार में देवकी है उनके गर्भ से रोहिणी के गर्भ में बलराम को पहुंचा दो तो फिर वैसे ही हुआ है और फिर आज के दिन तो नहीं । रोहिणी के गर्भ में बलराम पहुंच गए और कुछ ही दिन वहां रहे अब उनको पूरे 9-10 मास रहने की आवश्यकता नहीं थी इतने दिन उतना समय तो देवकी के गर्भ में वे थे ही केवल प्रकट होने के उद्देश्य से रोहिणी के गर्भ में पहुंचे हैं या पहुंचा गया है तो आज के दिन रोहिणी ने बलराम को जन्म दिया । हरि बोल ! और वह वे गए रोहिणी नंदन बलराम ।
गर्ग मुनि वर्णन करते हैं जैसे कृष्ण का जन्म मथुरा में जब होता है तो सारे देवता पहुंच गए । एक तो बलराम का जन्म गोकुल में हुआ है इसको समझना होगा तो देवता वहां पहुंचे हैं और देवता ही नहीं सारे अप्सरा पहुंची है गंधर्भ पहुंचे हैं और गान चल रहा है, नृत्य हो रहा है, पुष्प वृष्टि हो रही है और स्तुति हो रही है बलराम की और जय बलदेव ! तो गर्गाचार्य समझाते हैं गर्गसंहिता में की गोकुल के निवासियों को थोड़ा आश्चर्य हो रहा था कि हुआ क्या और कुछ मन में कुछ शंकाएं भी उत्पन्न हो रही थी । रोहिणी के पतिदेव तो मथुरा में है और यहां कैसे गर्भवती हुई और यहां कैसे उसने जन्म दिया यह क्या मामला है ? ऐसा कुछ मन में प्रश्न कहो कुछ शंकाए उत्पन्न हो रही थी तो इस शंका का समाधान या इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए वैसे सोयम श्रील व्यास देव वहां पहुंच जाते हैं और प्रश्न के उत्तर देने के लिए नहीं वह आ ही जाते हैं ।
नारद मुनि आ जाते हैं । कई ऋषि मुनि भी आ गए गोकुल और बलराम का दर्शन करना चाहते हैं और वह विशेष निवेदन कर रहे हैं नंद बाबा से । हमें दर्शन कराओ ! हमें दर्शन कराओ ! बलराम के दर्शन कराओ ! बड़े ही उतकंठीत् है । दर्शन भी हो ही जाता है । ऐसा कहने से नहीं होता है वैसे दर्शन हो ही जाता है लेकिन कैसा दर्शन उन्होंने किया ? कैसे गए ? जहां बलराम जी को पालने में लिटाया था और पालने को कैसे सजाया है और श्रील व्यास देव, नारद मुनि इत्यादि ऋषि मुनि देवर से महर्षि वहां पहुंच जाते हैं और कैसे साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हैं और स्तुति गान होता है, प्रदक्षणा करते हैं बलराम की और फिर हम एशा ही कह सकते हैं । श्रील व्यास देव यह जो मामला या जो लोगों के प्रश्न थे या शंका थी उसका भी समाधान करते हैं । यह सारा कृष्ण ने कैसी योजना मनाई योगमाया को यह कार्य दिया था और बलराम पहले वैसे देवकी के गर्भ में ही थे वहां से स्थानांतरित या गर्भांतरित किए गए यह सब रहस्य का उद्घाटन श्रील व्यास देव करते हैं तो फिर सभी का चित्त शांत हो जाता है, प्रसन्न होता है और वह सब गोकुल वासी भी बलराम पूर्णिमा महोत्सव बड़े धूमधाम उत्साह के साथ हर्ष उल्लास के साथ मनाते हैं आज के दिन मनाया उन्होंने गोकुल में, नंद भवन में । गोकुल में जो नंद भवन है वही या वही रहती थी रोहिणी तो वही जन्म बलराम का है । वैसे हम लोग जब गोकुल जाते यात्रा के लिए यात्रा लेके या परिक्रमा भी तो जब हम दर्शन करते हैं कृष्ण बलराम के और सारे परिवार वहां हैं । नंद यशोदा भी है तो वहां के पुरोहित जरूर बताते हैं बलराम का जन्म स्थान बलराम का जन्म स्थान । हमारे यात्रा में कई गीत अंतरराष्ट्रीय भक्त भी होते हैं तो उनके जानकारी के लिए भी वहां के आजकल के पुरोहित अंग्रेजी भाषा में बोलने के प्रयास करते हुए वह यह वाक्य बोलते हैं; बलराम का जन्म स्थान बलराम का जन्म स्थान ऐसे सब और फिर हंसने के लिए कहते हैं हां ! हा हा हा हा हा ….नहीं तो आप दर्शन नहीं कर सकते तो वहां ऐसे झूला भी है तो पालने में बिठाए हैं कृष्णा और बलराम को भी शायद तो आप झूला झूल सकते हो लेकिन उसके पहले आपको हंसना होता है । हसो ! हसो ! हा हा हा हा हा ….
सभी हंस रहे हैं ? हां ? नहीं तो दर्शन नहीं होगा । हस ना मतलब
आप खुश हो । आपके हर्ष का प्राकट्य तो वहां जब दर्शन करते हैं हम बलराम के और वैसे वहां पर ही नहीं व्रज भर में जहां-जहां बलराम के विग्रह है । बलराम को तो होना चाहिए सफेद होने चाहिए बलराम शुक्ल वर्ण के बलराम तो वस्त्र तो पहनते हैं । नीले वस्त्र पहनते हैं नीली धोती पहनते हैं इसीलिए नीलांबर कहते तो हैं तो बलराम है नीलांबर और कृष्ण है पितांबर । पितांबर, नीलांबर । लेकिन उस शुक्ल, सफेद के बलराम का दर्शन नहीं करते हम लोग वृंदावन में वह भी काले सांवले हीं होते हैं । फिर दाऊजी जाइए दाऊजी बलदेव वृंदावन में । दाऊजी नाम का धाम स्थान है कई बार समझ में नहीं आता दाऊजी क्या है ? दाऊजी नाम भी है । दाऊजी मतलब दादा । बड़े भैया कृष्ण के बड़े भैया । अग्रज कहते हैं कृष्ण के अग्रज हे बलराम । ‘अग्र’ मतलब पहले I ‘ज’ मतलब जन्म ऐसे शब्द है बहुत बढ़िया संस्कृत भाषा में । शब्द समझ लिया तो फिर बहुत कुछ समझ में आता है । ‘अग्रज’ हे बलराम और अनुज है बलराम अनुज है कृष्ण । दोनों में ‘ज’ है । जन्म की बात है । एक में ‘अग्र’ है एक में ‘अनु’ है । अग्रज कहेंगे तो बलराम हो गए और अनुज कहेंगे तो कृष्ण हो गए तो अग्रज बलराम । ओ समय भी हो गया ! यह कैसे हुआ । इसको कह देते हैं तो यह विग्रह बलराम के विग्रह कृष्ण बनके काले सांवले घनश्याम जैसे बलराम भी क्यों ? तो वहां जब पूछेंगे हम तो उसका उत्तर यह है कि जब बलराम भी चिंतन करते हैं कृष्ण का । बलराम भी स्मरण करते हैं कृष्ण का दो बलराम हो जाते हैं कृष्ण भावनाभावित । बलराम क्या होते हैं ? कृष्ण भावनाभवित बलराम होते हैं तो उनके रंग का अंग में परिवर्तन होता है । वे सफेद के अंदर जैसा भाव है कृष्ण भावनाभावित है तो वही रंग उसी कांति के बलराम बन जाते हैं तो इतने कृष्ण भावनाभावित बलराम भी है । और उसके बाद तो कृष्ण बलराम भावना भावित भी कह सकते हैं । इस प्रकार यह दोनों भाई भाई भी है और भगवान भगवान भी है ।
तो जिनको हम अवतारी अवतारी कहते हैं, अवतारी केवल कृष्ण ही नहीं है बलराम भी अवतारी है । बाकी सब तो अवतार है …
रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु ।
कृष्ण: स्वयं समभवत्परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
( ब्रम्ह संहिता 5.39 )
अनुवाद:- जिन्होंने श्रीराम, नृसिंह, वामान इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान श्री कृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ ।
“किन्तु कृष्ण: स्वयं समभवत्परम: पुमान् यो” एक तो कृष्ण अवतारी है हम सुनते ही हैं लेकिन हम को समझना होगा कि बलराम भी अवतारी है । अवतारी मतलब जिनसे अवतार होता है तो मोटा मोटी यह जो पुरषा अवतार है, मतलब कौन ? महाविष्णु । विष्णु के तीन प्रकार है । महाविष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु ये बलराम के अवतार हैं । वैसे हां शकर्षण से यह तीनों विष्णु का प्राकट्य है और सारी सृष्टि के निर्माण की जिम्मेदारियां सब यह तीनों विष्णु मिलाके संभालते हैं । मतलब बलराम ही संभालते हैं यह सारी जो । हरि हरि !! तो हो गए बलराम अवतारी है और बलराम सब “सच्चिदानन्द विग्रहः” भगवान कृष्ण है कि नहीं “सच्चिदानन्द विग्रहः” सत्-च्चिद्-आनंद तो ‘सत’मतलब संधिनी । भगवान की जो संधिनी शक्ति है जो आधार है संधिनी से ही सृष्टि दिव्य दृष्टि सारे जो लोग हैं या गोलक है यह बलराम है । भगवान जहां-जहां लीला खेलते हैं, कृष्ण जहां जहां लीला खेलते हैं वह जो मंच है वह जो स्थान है वह क्षेत्र रहे बलराम है । यहां तक की अनंतसया भगवान जब जहां-जहां लेते हैं क्या पलंक पर ही लेटते हैं तो बलराम है या अनंत शेषसया तो बलराम है ही उसी पर पोहुड़ते हैं । इस प्रकार बलराम सेवा करते रहते हैं या कृष्ण का आधार बलराम है या फिर कृष्ण के जो जूते पहनते हैं वह बलराम है । छाता बलराम है, छत्र है बलराम है कई प्रकार से यह कृष्ण बलराम साथ में रहते हैं या बलराम कृष्ण के सेवा करते हैं । तीनों भी होता है वैसे कृष्ण भी बलराम की सेवा करते हैं तो कभी-कभी बलराम कृष्ण से उनसे ऊंचे भी है, बड़े भैया भी हैं, बलवान भी है इत्यादि इत्यादि तो कृष्ण से बेहतर हैं और कहीं पर कृष्ण के समकक्ष हैं तो कई कई लीलाओं में कृष्ण से वह निम्न है तो तीनो स्तर पर बलराम कृष्ण के साथ सौदा करते हैं । श्रेष्ठतर, कृष्ण से श्रेष्ठतर कृष्ण के समकक्ष, कृष्ण के नीचे या नाम के ही निम्नतर । निम्नतर मतलब कुछ दोस्त नहीं है या अभाव की बात नहीं है तो यह दोनों सदैव साथ में रहते हैं शुरू से अंत तक या जन्म साथ में ले रहे हैं और सारी लीलाएं फिर मथुरा वृंदावन में । फिर मथुरा गए कंस के वध के लिए तो साथ में रहेंगे । उज्जैन पढ़ाई के लिए तो साथ में गए और वहां से द्वारिका गए तो साथ में गए । द्वारिका में साथ में रहते हैं और फिर प्रस्थान का समय आया तो गए कहां ? कौन सा स्थान है वह ? प्रभास क्षेत्र तो प्रभास क्षेत्र से दोनों का प्रस्थान भी लगभग एक समय का ही है । बलराम थोड़े आगे जाते हैं और कृष्ण पीछे से प्रस्थान करते हैं पहले आए थे ना । प्रकट भी पहले हुए तो प्रस्थान भी पहले करते हैं बलराम लेकिन ज्यादा अंतर नहीं है 19-20 का फर्क है थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो पीछे से कृष्ण प्रस्थान करते हैं तो इसी तरह से यह कृष्ण बलराम यह जोड़ी सदैव साथ में है या कुछ स्थानों पर कुरुक्षेत्र की लड़ाई के समय दोनों साथ में नहीं थे तो कई कई पर वे स्थानों पर साथ में नहीं है उन दोनों के कुछ मत भिन्नता भी देखी जाती है । दोनों के विचार अलग-अलग होते हैं । सुभद्रा का विवाह के समय कृष्ण पक्ष में थे, बलराम उनके विरुद्ध थे जब अर्जुन अपरहण करके सुभद्रा का अपहरण करके ले जा रहे थे तो कृष्ण का समर्थन था और बलराम उनके विरुद्ध । हरि हरि !! ठीक है । मैं यही रुकता हूं ।
श्री कृष्ण बलराम की जय !
बलराम पूर्णिमा महोत्सव की जय !
श्रील प्रभुपाद की जय !
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
20 अगस्त 2021
832 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं। गौरांग।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। तैयार हो आप सब?
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद
जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्त वृंद।
जय जय श्री चैतन्य चैतन्य महाप्रभु की जय हो। जय नित्यानंद नित्यानंद प्रभु की जय और गौर भक्त वृंद की भी जय। आप भी गौर भक्त वृंद हो। हो कि नहीं? अगर हो तो फिर आप की भी जय। तो कल हम मना रहे थे श्रील रुप गोस्वामी प्रभुपाद का तिरोभाव तिथि महोत्सव। याद है? तो आज उन्हीं की हमको याद आ रही है या उन्हीं की हमको याद सता रही है। हरि हरि। एक समय रूप गोस्वामी जगन्नाथपुरी गए, क्यों गए होंगे? जगन्नाथ के दर्शन के लिए ऐसा भी उत्तर हो सकता है। किंतु गौडीय वैष्णवों के लिए तो गौरांग महाप्रभु ही जगन्नाथ थे या है। तो वैसे वे गौरांग महाप्रभु के दर्शन के लिए जगन्नाथपुरी गए थे। वैसे चातुर्मास मे और भी भक्त आया करते थे नवद्वीप से, शांतिपुर से, कुलीन ग्राम से, यहां से, वहां से। तो रूप गोस्वामी प्रभुपाद वृंदावन से गए थे जगन्नाथ पुरी। और चार महीने चातुर्मास में और अभी चल रहा है चातुर्मास ही चल रहा है ना। याद है? अब दूसरा चातुर्मास शुरू हुआ। तो धाम वास भी होता है चातुर्मास में, धामवास का महिमा है। कई सारे अलग-अलग स्थानों से पधारे हुए भक्त उनका धाम वास भी हुआ और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का सानिध्य लाभ हुआ। चैतन्य महाप्रभु के लीलाओ का दर्शन किया या उनकी लीलाओं में प्रवेश भी किया। उन्हीं के लीला के वे अंग बन गए, चैतन्य महाप्रभु के परिकर जो थे तो। उन्हीं के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु लीला खेलते हैं। रूप गोस्वामी वहां पधारे हैं पहुंचे हैं। अन्य या अधिकतर भक्ता चातुर्मास के उपरांत अपने-अपने स्थान प्रस्थान किए। किंतु रूप गोस्वामी जगन्नाथपुरी में ही और कुछ समय के लिए रुके रहे। और पता है जब वह जगन्नाथपुरी गए तो किन के साथ रहते थे? नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के साथ रहते थे रूप गोस्वामी। मैं कहने जा रहा था कि रूममेट्स होंंगे रूममेट्स जानते हो? रूममेट्स। जब आप कॉलेज के हॉस्टेल में रहते हो तो आपके रूममेट्स होते हैं। जिनके साथ आप रहते हो कमरे शेयर करते हो फिर आप का किराया भी शेयर करते हो रूममेट्स। वहां पर तो कोई रूम थी ही नहीं जहां नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर रहते थे शायद कुटिया में होंंगे। और आप जानते हो सिद्ध बकुल जहां नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर रहते थे। वैसे सिद्ध बकुल तो पहले नाम नहीं था। एक समय वह बकुल और बकुल
का वृक्ष जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ही उगाया। हरि हरि। तो वह वृक्ष भी नहीं था धूप में ही खुले आकाश में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जप करते थे धूप मे हीं। या ठंडी में, गर्मी में कोई आश्रय, छत्रछाया नहीं था। कुटिया थी छोटी सी। किंतु फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस बकुल वृक्ष को उगाया। तो फिर उस स्थान का नाम हो गया सिद्ध बकुल। रूप गोस्वामी नामाचार्य हरिदास ठाकुर के साथ वहां रहे हैं। तो बात वैसे मुझे और कुछ कहनी है, यही बातें अच्छी है या मैं सोच रहा था कि यह हर बात जो हमने कही यह पवित्र बातें हैं, यह हमको शुद्ध करती हैं। फिर रूप गोस्वामी का नाम ही हम सुनते हैं या नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का नाम ही सुने हम। तो वह पवित्र करता है और जगन्नाथ पुरी मे गए रूप गोस्वामी जगन्नाथ पुरी का नाम सुना तो वह नाम हमको शुद्ध करता है। और वे रहने लगे सिद्ध बकुल तो सिद्ध बकुल यह शब्द ही सुना नाम सुना तो वह शुद्ध करता है. हरी हरी। यहीं पर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर अपना नाम जप हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कितना जप करते थे? 300000 नाम जप। और रूप गोस्वामी भी जप किया करते ही थे किंतु और भी कार्य करते थे रूप गोस्वामी।
वे ग्रंथ लिख रहे थे वहीं पर विदग्ध माधव कल आपको बताया मैंने, बहुत कुछ कल बताएं। कई सारे ग्रंथ उन्होंने लिखें अब जगन्नाथपुरी में विदग्ध माधव ग्रंथ की रचना हो रही थी। तो नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर अपना जप कर रहे है, जप मैं तल्लीन है। तो रूप गोस्वामी प्रभुपाद जप भी कर रहे हैं और ग्रंथ की रचना भी हो रही है विदग्ध माधव। श्री कृष्ण की वृंदावन लीलाओं का वर्णन है विदग्ध माधव में। ललित माधव में द्वारका लीला का वर्णन रूप गोस्वामी करते हैं। तो यह जप हो ही रहा था। प्रतिदिन जप हो रहा है ग्रंथों की रचना हो रही है। तो एक दिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां आए, वैसे हर रोज ही आते थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां। लेकिन एक दिन की बात है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आ गए। आप देख रहे हो अजानुलम्बितभुजौ कनकावदातौ चैतन्य महाप्रभु आ रहे हैं मतलब झट से फिर हमको स्मरण होना चाहिए। चैतन्य महाप्रभु के विग्रह का स्मरण। चैतन्य महाप्रभु आ रहे हैं, पहले उन्होंने जगन्नाथ का दर्शन किया है और अब वह दर्शन देने जा रहे हैं हरिदास ठाकुर को और रूप गोस्वामी प्रभुपाद को। तो इन दोनों में और भी भक्त वहां होंगे, उन दोनों का तो उल्लेख हुआ ही है। और यह सारी बातें जो हम कर रहे हैं, ज्यादा तो नहीं कहा.. सारी हम कह रहे हैं लेकिन ज्यादा तो नहीं कहा। यह अंत्य लीला प्रथम परिच्छेद मैं से वैसे पयार संख्या 99 की बात थोड़े कुछ ही क्षणों में करने वाले हैं। हम तो अंत्य लीला प्रथम परिच्छेद प्रथम अध्याय और 99 श्लोक वर्ष की बात अब होगी ही। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर और रूप गोस्वामी ने चैतन्य महाप्रभु को आते हुए जैसे देखा तो दोनों ने साष्टांग दंडवत किया श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े और इन दोनों को उठाया और अपने गले लगाए इन दोनों से। फिर सभी ने अपने अपने स्थान ग्रहण किए हैं और फिर चर्चा शुरू होती है इस विदग्ध माधव की। चैतन्य महाप्रभु ने रूप गोस्वामी से कहा सुना है कि आजकल तुम एक ग्रंथ लिख रहे हो। कहां है? तो रूप गोस्वामी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अपना ग्रंथ दिखाएं।
मानो चैतन्य महाप्रभु अब बुक रिव्यू लिखेंगे। लिखेंगे तो नहीं लेकिन कुछ कहे या कमेंट कर सकते हैं। उस ग्रंथ देखते ही.. ग्रंथ मतलब ऐसा प्रिंटिंग पेपर और बाइंडिंग ऐसा तो नहीं था। 500 वर्ष पूर्व की बात है जब प्रिंटिंग प्रेस नहीं थी और ना तो कागज था। पांडुलिपि में ताल पत्र पर लिखा करते थे। तो देखिए कितना कठिन कार्य था। आजकल तो लैपटॉप आ गया और क्या-क्या, प्रिंटिंग प्रेस तो है ही। लेकिन ऐसे दिन थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के समय। तो रुप गोस्वामी ने जैसे ही ग्रंथ दिखाया तो देखते ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न हुए और प्रशंसा करने लगे। तुम्हारा एक एक अक्षर मानो एक एक मोती है मोती के बिंदु है, मोतीयों की पंक्ति है। ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा और जब वे ग्रंथ को देख ही रहे थे, तो एक श्लोक में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ध्यान आकृष्ट किया। और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसको पढ़े और कहे उस मंत्र को। यही है श्लोक संख्या 99, प्रथम श्लोक और प्रथम अध्याय अंत्य लीला का तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली – लब्धये ऐसी शुरुआत है। तुण्डे मतलब तोंड मराठी में चलता है ना तोंड़ तो तुण्डे। ताण्डविनी रतिं वितनुते तो इस श्लोक में रूप गोस्वामी हरि नाम का महिमा लिखे हैं। और ऐसे हरि नाम के महिमा का वचन इतना गौरव जिस वचन मे हुआ है, ऐसे वचन बड़े विरला होते हैं। जिसकी प्रशंसा स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कर रहे हैं और स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसको कह रहे हैं। जैसे में कह रहा हूं ऐसा नहीं। चैतन्य महाप्रभु ने अपने ढंग से कहा। तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते जब हम भगवान के नाम का उच्चारण करते हैं तो भगवान का नाम भगवान ही है। वे नृत्य करने लगते हैं अपने मुख में अपने जीव्हा पर, यह नृत्य प्रारंभ होता है भगवान का।
रतिं वितनुते जिससे रति, आकर्षण, मिठास बढ़ जाता है और फिर ऐसी स्पृहा, ऐसी आंतरिक इच्छा हो जाती है कि तुण्डावली – लब्धये या मुझे तुण्ड आवली जैसे दीपावली तुण्ड एक मुख, दूसरा मुख, कई सारे मेरे अगर कई सारे मुख होते तो तो उन सारे मुखो से एक में कितना नाम ले सकता हूं मेरी यह इच्छा है कि अगर मुझे हजारों मुख होते तो मैं कितना सारा प्रभु के नाम का उच्चारण करता। तो यह पहली पंक्ति में रूप गोस्वामी लिखे थे, हरि नाम का महिमा, गौरव गाथा। कर्ण – क्रोड़ – कडुम्बिनी और यह जब मुख से उच्चारित किया हुआ प्रभु का नाम जब कर्णो में प्रवेश करता है, कर्ण रंध्र से उसका प्रवेश होता है। फिर क्या होता है? कर्ण – क्रोड़ घटयते कानों से जब मैं सुनता हूं हरि नाम को तो कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम् फिर लगता है कि दो कानों से कितना सुन सकता हूं। कर्णार्बुदेभ्यः कर्ण अर्बुद एक बहुत बड़ी संख्या होती है अर्बुद। सहस्त्र फिर लक्ष्य, कोटी और दस कोटी, फिर खर्व, निखर्व एक के सामने एक शुन्य, दो शुन्य, दस शुन्य, पंधरा शुन्य फिर बहुत सारे शुन्य उसको अर्बुद कहते हैं। तो क्या अगर मेरे इतने कान होते तो कितना अच्छा होता। इतने सारे कान होते तो मैं इस नाम को भलीभांति फिर श्रवण करता, सुनता, आनंद लूटता। और फिर रूप गोस्वामी प्रभुपाद आगे लिखते हैं चेतः – प्राङ्गण – सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां क्रतिं अंततोगत्वा मुख से मैंने कहा, सुना ,प्रवेश हुआ और पहुंच गया, चेतः – प्राङ्गण चेतना का जो प्राङ्गण है, चेतना का भावना का जो प्राङ्गण है या ह्रदयप्राङ्गण ही कहिए, जहां जीव का निवास स्थान है। चेतः – प्राङ्गण – सङ्गिनी और वहां पर इस हरि नाम का अंग संग जीव को प्राप्त होगा। तो वह भावना व चेतना पूरी कृष्ण भावनाभावित होगी। और उस अवस्था में सारा मन पर नियंत्रण होगा, मन तल्लीन होगा इस हरि नाम के श्रवण और चिंतन में। विजयते सर्वेन्द्रियाणां क्रतिं तो फिर उस समय मैं जीतूंगा अपने इंद्रियों पर। इंद्रिया तो निष्क्रिय बन जाएगी। इंद्रिया तो रहेगी लेकिन मन ही जब व्यस्त है हरिनाम में, इंद्रियां है तो क्या कर सकती है बेचारी इंद्रियां? कुछ नहीं कर सकती, उनके कार्य भी ठीक हो जाएंगे। विजयते सर्वेन्द्रियाणां क्रतिं इंद्रियों के जो सारे वृति, कृति, कार्य होते हैं वह सारे बंद हो जाएंगे क्योंकि आत्मा व्यस्त है, तल्लीन है। चेतना में भगवान है कृष्ण भावना है और मन भी उसी में लगा हुआ है अंतःकरण में ही। जो भौतिक मन अभी भौतिक नहीं रहा उसका भी आध्यात्मिकीकरन हुआ, मन भी कृष्णमय है। तो विजयते और यही विजय भी है परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनं। अपने मन को जीता, अपने इंद्रियों पर.. इंद्रियों का पराभव हुआ और अभी आत्मा मुक्त है। आत्मा पर कोई तनाव दबाव नहीं है।
आत्मा तल्लीन है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। नो जाने रूप गोस्वामी उस पयार या श्लोक के अंतिम पंक्ति में लिखते है नो जाने जनिता कियद्धिरमृतैः कृष्णेति वर्ण – द्वयी न जाने कितना अमृत है इन दो अक्षरों में। कृष्ण इति कृष्णेति वर्ण – द्वयी यह जो दो अक्षर है कृष्णा नो जाने जनिता कियद्धिरमृतैः कितना अमृत उत्पन्न होता है, यह नामा मृत, कितना सारा भक्ति रसामृत सिंधु या नामामृत सिंधु। कितने सारे आनंद का स्रोत है यह प्रभु का नाम प्रभु ही है यह तो। प्रभु कितने मीठे हैं, प्रभु का नाम कितना मीठा है ना जाने मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता। हरी हरी। तो यह वचन या इन शब्दों में रूप गोस्वामी प्रभुपाद यह हमारे गौडीय वैष्णव आचार्य है या प्रमुख आचार्य है प्रधान आचार्य है गौडीय वैष्णव संप्रदाय के। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु द्वारा अधिकृत। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ही उनको ऐसी पदवी दी। इतना एंपावरमेंट दिए, शक्ति दिए, भक्ति दिए रूप गोस्वामी प्रभुपाद को।
वैसे भी हम कल कह रहे थे वैसे भी वह लीडर है कृष्ण लोक में, गोलोक में रुप गोस्वामी लीडर तो है ही। मंजिरियों के लीडर है, रूप मंजिरी मंजिरियों का नेतृत्व करती है। तो यहां आ गए प्रकट लीला में, यहां प्रकट हुए हैं चैतन्य महाप्रभु की लीला में 500 वर्ष पूर्व तो यहां भी वह लीडर है। हमारे लीडर गौडीय वैष्णव संप्रदाय के प्रधान आचार्य यह रूप गोस्वामी। उन्होंने हरि नाम का महिमा इन शब्दों में गाया है। हरि हरि। इसको हमने सुन तो लिया तो इसका चिंतन करना चाहिए और हमारा दृष्टिकोण और लक्ष्य भी यही है। हमको भी तैयारी करनी है हम बहुत बहुत बहुत दूर है इस लक्ष्य से। ऐसे मन की स्थिति, ऐसी चेतना, ऐसी भावना और हम कब कहेंगे कबे हबे बोलो से दिन आमार हमारे जीवन में वह दिन कब आएगा कि हम उतना तो नहीं लेकिन कुछ तो तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली – लब्धये मेरे इतने सारे मुख होते तो कितना अच्छा होता इन सारे मुखोसे में…। हमारी स्थिति हम तो एक मुख का भी उपयोग नहीं करते। एक ही मुख है उस मुख का भी हम पूरा उपयोग नहीं करते। हरि हरि। किसी को हरे कृष्ण कहने के लिए कहते हैं, तो उसका मुंह थोड़ा खुला भी था तो झट से वह व्यक्ति क्या करता है ? मूख बंद कर देता है। मैंने कई बार देखा है ऐसे पदयात्रा में देखा है। जहां पर नगर संकीर्तन में जाते हैं तो लोग इकट्ठे हो जाते हैं। तो अंत में या बीच में रुक के जब हरे कृष्ण भक्त उन को संबोधित करते हैं या निवेदन करते हैं कृपया कहो कहो हरे कृष्णा कहो। तो कई कहते हैं लेकिन कई लोग क्या करते हैं.. हरे कृष्णा कहो ऐसा कहने से सुन तो लिया, लेकिन अगर उनका मुंह थोड़ा खुला भी था तो झट से उसको बंद कर लेते हैं। गलती से भी मेरे मुख से नाम ना निकले। यहां भी हम लोग जो जप करने वाले हैं वे भी कहां उपयोग करते हैं।
हम थोड़ा मुंह हिलाते हैं, चिव चिव चिव करते हैं। मुख भर के, दिल भर के बलेन बोलो रे वदन भरि हम कहां करते हैं। बलपूर्वक सारे शक्ति का प्रयोग, उपयोग करते हुए जी भर के, दिल भर के, कंठ भर के, मुख भर के हम कहां बोलते हैं। तो एक मुख का भी हम पूरा उपयोग नहीं करते यह हमारी स्थिति है।दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः ऐसे चैतन्य महाप्रभु थी कहे शिक्षाष्टक में। यह हमारी स्थिति, हमारा हाल है। वैसे भी कम से कम हमको पता तो होना चाहिए यह भाव। रूप गोस्वामी ने जो भाव व्यक्त किए है, यह लक्ष्य है और यही है शुद्ध नाम जप। इसको कहते हैं शुद्ध नाम जप। अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम जैसे भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं अपराध शून्य हईया तो हमारी समस्या तो यही है हम अपराध करते रहते हैं। कब हम भी अपराध शून्य होकर हरि नाम का उच्चारण करेंगे। फिर वह नामाभास हुआ अपराध शुन्य मतलब नामाभास। हरि हरि। अपराध सहित हम जप करते हैं, कीर्तन करते हैं शुरुआत में अपराध सहित अपराध के साथ। लेकिन हमको अपराध रहित जप करना है अपराध सहित नहीं। तो बीच में क्लीयरिंग स्टेज कहां है नामाभास है, अपराध सहित फिर नामाभास अपराधों से मुक्त हुए और फिर शुद्ध नाम जप। तो भक्ति विनोद ठाकुर के हरिरनाम चिंतामणि को भी हमको पढ़ना होगा, समझना होगा। उसके कई सेमिनार है तो आप अटेंड करो या रिकॉर्डिंग है तो उसको सुनो या उस ग्रंथ को भी आप पढ़ सकते हो। अच्छा है कि भक्तों के सानिध्य में आप उसे समझे। और भी कई सारे अपराध.. अपराध के लिए तो हम बड़े कुशल है।
जहां तक अपराध करना है पापियन मे नामि जिसे सूरदास.. उनको कहने की आवश्यकता नहीं थी ऐसा अपनी विनय पत्रिका में सूरदास लीखते हैं। तो वे कहते हैं कि मैं कैसा हूं पापियन मे नामि पापियों में मेरा नाम है। हरि हरि। ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है ( होनेस्ट्लि इज द बेस्ट पॉलिसी) अगर हम ईमानदार होते, स्वीकार भी करेंगे कि हां हां मुझसे यह अपराध होता है, मैं यह अपराध करता हूं, वैष्णव अपराध करने में मेरा पहला नंबर है, या फिर जो 10 नाम अपराध है उसको हर एक को थोड़ा ध्यान पूर्वक पढ़ना, समझना चाहिए और देखना चाहिए कि उसमें से मैं कौन सा अपराध करता हूं। या कुछ अपराध हम अधिक करते हैं, कुछ अपराध कम करते हैं। हो सकता है कुछ अपराध हम नहीं करते हैं। इस प्रकार का भी कुछ आत्म निरीक्षण, परीक्षण की भी आवश्यकता है। स्टोप, थिंक, प्रोसिड ऐसा भी कहते हैं थोड़ा रुको, सोचो, विचार करो। जो भी कर रहे हो ऐसे ही कर रहे हो। हम जो भी कर रहे हैं वह कैसे कर रहे हैं? कैसा कार्य कर रहे हैं? कैसी सेवा कर रहे हैं? सही है गलत है? कोई अपराध हो रहे हैं? निरापराध है। हरि हरि। यही बात है जिस पर हमे विचार करना चाहिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*18 अगस्त 2021*
*हरे कृष्ण !*
हरि बोल ! गौरंगा ! एकनाथ गौर हरि हरि!
आज 930 स्थानों से भक्त जप में सम्मिलित हैं स्वागत है। आज एकादशी होनी चाहिए इसीलिए इतनी बड़ी संख्या में भक्त उपस्थित रहते हैं। व्हाई नॉट एवरीडे, प्रतिदिन क्यों नहीं? थिंक अबाउट इट, कीर्तनीय सदा हरि। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक्सपेक्टिंग इट वुड भी चैंटिंग ऑल द टाइम ,एवरीडे दिस, आल टाइम ऑफ द डे। प्रतिदिन फोरम में जप करने के लिए आपका स्वागत है। गौर किशोर , आप में से कुछ लगभग १०० डेढ़ सौ साधक ऐसे हैं जो प्रतिदिन इस फोरम में जप नहीं करते हो लेकिन अच्छा होगा, आपका संग हमको मिल जाए या फोरम वाले सभी साधकों को मिल सकता है और आप भी लाभान्वित होंगे। इस संघ से आपको प्रेरणा मिलेगी और आपका ध्यान अधिक केंद्रित भी हो सकता है या ध्यान पूर्वक जप करने में अधिक मदद होगी इस उद्देश्य से इसको चलाया गया है। एक तो जप करना है और कैसे करना है? ध्यान पूर्वक जप करना है या कम से कम यह दो बातें तो कही जा सकती हैं और भी कई बातें हैं लेकिन मुख्य बातें यही है। एक तो प्रतिदिन जप करना है और ध्यान पूर्वक जप करना है। ठीक है और अधिक नहीं कहेंगे इस संबंध में, आज एकादशी भी है और आज से झूलन महोत्सव प्रारंभ हो रहा है झूलन महोत्सव यात्रा की जय ! हम उसकी भी चर्चा नहीं करेंगे। कुछ दिनों से हम लोग श्रीकृष्ण जन्म की चर्चा कर रहे हैं उसी को आगे बढ़ाएंगे और अभी नोट कीजिए आपकी जानकारी के लिए 7:30 बजे आज एकादशी महोत्सव है तो इस्कॉन कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से श्रवण कीर्तन उत्सव का आयोजन प्रति एकादशी को होता है। इसलिए आज आपको 7:30 बजे, परम पूजनीय भक्ति मुकुंद गोस्वामी महाराज कथा सुनाएंगे, उनका प्रबोधन होगा। हमें जो भी कहना है मैं कहूंगा और यदि आपका कोई प्रश्न है या शंका समाधान इत्यादि है तो यह सब भी आज पूरा करना है। दिस प्रोग्राम बियॉन्ड गो ऑन एट 7:30। श्रीकृष्ण जन्म ले चुके हैं जैसे हम चर्चा कर रहे थे। श्रीकृष्ण का जन्म हो चुका है और वसुदेव देवकी की प्रार्थनाएं भी हुई हैं। श्रीभगवान उवाच, भगवान ने भी कहा है वसुदेव देवकी को संबोधित किया है और उनको भयभीत भी देखा है भगवान ने उपाय बताया, क्या है ? मुझे गोकुल ले चलो। वसुदेव ने जैसे ही अपने बालक को उठाया तभी वो मुक्त हो गए, हथकड़ी, बेड़ियों से मुक्त हो गए। वैसे आप हम भी हो सकते हैं, ऐसा कल भी कहा था, यदि हम भी हरि हरि श्रीकृष्ण को अपनाएंगे इसीलिए तो वे प्रकट हो रहे हैं अवतार ले रहे हैं , ताकि कोई ले ले। वैसे वसुदेव भी रास्ते में कहने वाले हैं इस बालक को कोई ले ले। जहां उन्होंने यह बात कही कोई लेले, उस स्थान का नाम कोईलाघाट हुआ है। जमुना को पार करने के उपरांत वसुदेव कहने लगे आप में से कोई है? ले ले लेना चाहते हैं कोई तो ले ले, मैंने तो लिया ही है। राधा विनोद जी कुछ विचार है कृष्ण को लेने का ? और नैना राधिका ऑल फैमिली सभी ले रहे हैं हरि हरि ! स्वयं को देने के लिए ही भगवान प्रकट हुए हैं मुझे ले लो ! मुझे ले लो ! हरि हरि! इस संसार में प्रकट हुए ताकि इस संसार में कुछ लोग उनको लें और कुछ ही लोग उनको लेते हैं, सभी नहीं लेते हैं।
*मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः||* (भगवद्गीता ७. ३ )
अनुवाद – कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है ।
हजारों में, उन हजारों में कोई एक, आप यहां एक-एक हो जप करने वाले या *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* कहते हो। आप क्या कर रहे होते हैं ? आप कृष्ण को ले रहे हैं, आप कृष्ण को चाहते हो कृष्ण को पुकार रहे हो आई वांट यू कृष्ण, आई वांट यू कृष्ण या सेवा योग्यं कुरु कृष्ण , मुझे सेवा के लिए योग्य बनाओ कृष्ण। आप ये जानते हो कई बार हमने है, जब हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहते हैं तब हम क्या कहते हैं ? हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहते तो हैं लेकिन , क्या भाव क्या विचार होता है ? “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” मेरे साथ रमिये कृष्ण, इत्यादि इत्यादि। मतलब, हम जप कर रहे हैं या फिर भक्ति भी कर रहे हैं या
श्रीप्रह्लाद उवाच
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं साख्यमात्मनिवेदनम् ॥इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥* (श्रीमदभागवतम ७.५.२३-२४)
अनुवाद – प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) – शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
आप निवेदन भी कर रहे हैं, मतलब भगवान को चाह रहे हैं, उनकी सेवा, उनका नाम, उनका गान, उनकी लीला, उनका प्रसाद, यह सब चाहते हैं।
*अकामः सर्व कामो व मोक्ष काम उदारधी: । तीब्रेण भक्ति योगेन यजेत पुरुषं परम् ।।*
( श्रीमदभागवतम २. ३. १०)
अनुवाद:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है , वह चाहे सकाम हो या निष्काम अथवा मुक्ति का इच्छुक हो , उसे चाहिए कि सभी प्रकार से परमपूर्ण भगवान् की पूजा करे ।
अधिक तीव्रता है अधिक तीव्र इच्छा है तो भगवान मिलेंगे। हम को स्वयं को देने के लिए
*साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् । मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥* (श्रीमदभागवतम ९. ४. ६८)
अनुवाद – शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ । मेरे भक्त मेरे सिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता ।
कृष्ण ने कहा, साधु के हृदय में मैं रहता हूं। मेरा निवास स्थान कौन सा है? साधु का ह्रदय है। आप सब साधु हो या आप सब साधु बनना चाह रहे हो। आप फिर कहोगे साधु ! हमारी दाढ़ी नहीं है, हम कहां से साधु हैं ?
फिर मैं सोचता हूँ , मैं सोचती हूं, मैं तो स्त्री हूं। मैं कहां से साधु हूं ? मैं तो कोई सन्यासी नहीं हूं। मैं गृहस्थ हूं, मैं स्त्री हूं। मेरी दाढ़ी नहीं है हरि हरि ! साधुता भाव से होती है। भाव में साधुता हो, विचारों में साधुता हो, या साध्वी, स्त्री को साध्वी कहते हैं। भगवान ने कहा ही है मैं साधु के हृदय में रहता हूं और साधु मेरे हृदय में रहते हैं। साधूनां हृदयं त्वहम् , साधु मेरे हृदय में और मैं साधु के हृदय में, इस प्रकार का आदान-प्रदान हो, इस प्रकार का लेन-देन हो, साधु कृष्ण को ले लेंगे और फिर भगवान साधु को ले लेंगे अपने हृदय में, इस उद्देश्य से भगवान प्रकट हो रहे हैं हरि हरि ! देखिए वसुदेव ने उठा लिया , या पहले सर्वप्रथम इस संसार में कृष्ण को स्वीकार करने वाले कृष्ण को गले लगाने वाले या फिर कृष्ण की सेवा करने वाले, जाना चाहते हैं गोकुल, तो उनको ले जाना उनकी सेवा हुई। यह सेवा प्रारंभ हुई है वसुदेव से, किंतु केवल वसुदेव ही सेवक नहीं है अकेले उनको सेवा करते हुए हम देखेंगे तो, हमारा दिल भी कहने लग जाएगा, मी टू , मी टू , हम भी उठाना चाहते हैं। स्वीकार करना चाहते हैं ऐसे बालक को, हरि हरि ! एक साथ यह बालक भी है, कुमार भी है, पौगंड भी है , किशोर भी है। 5 साल की आयु तक कृष्ण कौमार होते हैं, फिर 5 से 10 साल की आयु तक यह पौगण्ड अवस्था चलती है और 10 से 15 यह है किशोरावस्था, फिर 16 तक पहुंच जाते हैं। वहां से आगे नहीं बढ़ते, सदा के लिए उनकी आयु 16 साल की ही रहती है। संसार में गिनाये जाते हैं कृष्ण 125 वर्ष संसार में रहे, जब कुरुक्षेत्र में थे तब वह 100 वर्ष के थे। यह साल की गणना चलती है लेकिन कृष्ण की,
*अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप माद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनञ्च । वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्ती गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥*
(ब्रह्म संहिता ५. ३३)
अनुवाद – जो अद्वैत, अच्युत, अनादि, अनन्तरूप, आद्य, पुराण – पुरुष होकर भी सदैव नवयौवन – सम्पन्न सुन्दर पुरुष हैं , जो वेदोंके भी अगम्य हैं , परन्तु शुद्धप्रेमरूप आत्म – भक्तिके द्वारा सुलभ हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ
सदा के लिए किशोर ही रहते हैं। युवा ही रहते हैं। एक ही साथ कृष्ण, साईमनटेनियसली वह कुमार भी हैं, पौगंड और युवावस्था भी चल रही है। यह सब अचिंत्य बातें हैं और इस संसार में ऐसा अनुभव नहीं है इसीलिए हम कहते रहते हैं आउट ऑफ दिस वर्ड और वैसे भगवान का मथुरा वृंदावन भी कहां इस जगत में है? इस जगत में है ही नहीं, इसीलिए कृष्ण ने कहा भी मेरे जन्म और कर्म को दिव्य समझो, तत्त्वत: समझो, मेरी लीलाओं को या मेरे धाम को, मेरे परीकरो को तत्त्वत: जानो।
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||* (भगवद्गीता ४. ९)
अनुवाद- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
इस संसार का जो दृष्टि कोण होता है, यह संसार जिस प्रकार इवैल्यूएशन या मूल्यांकन करता है , वह सब वहां काम नहीं करेगा, डिड नॉट अप्लाई ऑन कृष्ण हरि हरि ! वसुदेव ने उठा लिया है और आगे बढ़ रहे हैं। उस कैद खाने में जो भी सिक्योरिटी फोर्स है और कंस ने, जो थोड़ा एक्स्ट्रा सिक्योरिटी फोर्स की व्यवस्था की थी यह सोच करके वह जान रहा था कि एनीडे नाउ, किसी भी दिन देवकी आठवें पुत्र को जन्म देने वाली है, इसके लिए थोड़ा एडिशनल सिक्योरिटी की व्यवस्था हो चुकी है। लेकिन वह सारी व्यवस्था बेकार हो गई। तब बंदूक है हाथ में, या क्या-क्या हाथ में है और दें आर स्लीपिंग, दिस इज़ कृष्ण। नहीं मुझे उठा कर ले जाओ कृष्ण को कहने की आवश्यकता भी नहीं थी कृष्ण इज़ सो हेल्पलेस, बालक जो है और बालक की लीला खेल रहे हैं और सुंदर लीला खेल रहे हैं अभी उठने का भी सामर्थ नहीं है। वह दौड़ेगा भी कैसे ? इसीलिए वसुदेव उनको उठा के ले जा रहे हैं और ऐट द सेम टाइम, ही इज एक्टिंग, सबको सुलाया जो है। यह सब किसके एक्शन हैं ? यह उन्हीं के एक्शन हैं। कृष्ण के जो एक्शन हैं अपने हाथ में कुछ इंस्ट्रूमेंट ले लिया, कुछ हथियार ले लिया जैसे पुलिस काम करती है ना, कुछ उपकरण कुछ हथियार अपने हाथ में लेते हैं ऐसा कृष्ण नहीं करते। भगवान की शक्तियां हैं। कृष्ण शक्तिमान हैं।
*न तस्य कार्य करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च ॥*
(श्वेताश्वर उपनिषद 6.8)
भगवान की कई सारी शक्तियां हैं। लीला शक्ति, क्रीडा शक्ति, इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, एवरेडी भगवान की सेवा के लिए , इच्छा हुई भगवान के मन में तो फटाफट इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति, लीला शक्ति, उसी को हम थोड़ा मोटा मोटी योग माया नाम देते हैं। या जो वृंदा देवी है और भी कई हैं यह सब बिजी रहते हैं। वसुदेव ने वासुदेव को , ओम नमो भगवते वासुदेवाय, को उठा लिया है और जा रहे हैं। लेकिन वहां कैद खाने में जस्ट २ मीटर की दूरी पर , वहां कृष्ण इज़ इट इन फुल एक्शन यहां उसके पास बोलने, चलने की शक्ति, समर्थ नहीं है और अभी बोलना भी नहीं सीखे, वैसे उन्होंने चतुर्भुज रूप दिखाकर ,उन्होंने लीला खेली है और पुनः बालक बन गए हैं। और बालक रोना ही जानता है बोलना नहीं जानता है। लेकिन ऐसा बालक सक्रिय है, अभी मार्ग में जो जो होगा उसके पीछे सर्वकारणकारणम् वही है।
*ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः । अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥* ॥ (श्लोक १ ब्रम्हसंहिता)
अनुवाद – सच्चिदानन्दविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं वे अनादि , सबके आदि और समस्त कारणोंके कारण हैं ॥
थोड़ा आगे बढ़े कैद खाने का द्वार आ गया। कृष्ण को लेकर वसुदेव वहां पहुंच गए, खड़े हो गए, नाउ व्हाट टू डू ? कृष्णा नोज व्हाट टू डू और अब सारे ताले खुल रहे हैं, द्वार भी खुल रहे हैं। इसको खोलने वाला कौन है ? हम तो कहते हैं ऑटोमेटिक ! ऑटोमेटिक ! ऑटोमेटिक सिस्टम हमने बना दिया है और हम उसको ऑटोमेटिक तब कहते हैं जब हम को पता नहीं होता है कैसे हुआ किसने किया व्हाट हैपन ? इसका जब पता नहीं होता तब उसको नाम देते हैं ऑटोमेटिक, लेकिन ऑटोमेटिक नाम की कोई चीज नहीं है संसार में, उसके पीछे या तो इलेक्ट्रिसिटी है या कोई डिवाइस है , उसको बटन दबाने वाला कोई व्यक्ति है या कोई रिमोट कंट्रोलर है ही , मतलब ऑटोमेटिक कुछ नहीं होता। यहां पर भी जब द्वार खुल रहे हैं उसके पीछे भी कृष्ण की शक्ति है और यह शक्तियां भी अलग अलग व्यक्ति होते हैं। राधा रानी भी शक्ति हैं अल्हादिनी शक्ति, शक्ति बन गई व्यक्ति, हरि हरि ! एवरीथिंग इज अ पर्सनालिटी, आगे बढ़ते हैं। द्वार के बाद भी कई द्वार हैं, सारे खुलते रहते हैं और कृष्ण इज़ आउट फ्रॉम द प्रिजन, वसुदेव भी बाहर आए हैं। सर्वप्रथम स्वागत करने वाले सू- स्वागतम कृष्ण, ऐसा पता नहीं उन्होंने कहा कि नहीं? लेकिन ग्रीटिंग हुआ, और ऐसा स्वागत करने वाले कौन थे ? “बलराम” अपने अनंत शेष नामक विस्तार रूप में बलराम पहुंचे हैं। हिज़ ट्रांसी डेंटल स्नेक लाइक उसी की शय्या होती है। अनंतशेष शय्या और कृष्ण उस पर रहते हैं। इस प्रकार बलराम जन्मोत्सव भी आने वाला है। बलराम पूर्णिमा भी कुछ दिनों के उपरांत है। बलराम को जब हम बलराम तत्त्वतः जानेगे या समझेंगे, बलराम किन अलग-अलग रूपों में कृष्ण की सेवा करते हैं। अब सेवा शुरू हो गई बलराम की, वर्षा के दिन है छाता बने हैं उनके फणों के ऊपर मणि है वे बड़े तेजस्वी हैं। रात्रि का समय है कुछ प्रकाश की ऐसी व्यवस्था बलराम कर रहे हैं। वसुदेव के हाथ में कोई बैटरी या टॉर्च वगैरह नहीं है। बलराम ही उसकी व्यवस्था कर रहे हैं और फिर आगे बढ़ते हैं, मथुरा से जमुना के तट पर आ गए हैं। वर्षा के दिन थे ही, वहां पानी ही पानी, बाढ़ आ चुकी है। कैसे पार करेंगे ? लेकिन जमुना ने थोड़ा निहार के देखा यह कौन है ? हु इज दिस वन ? और वैसे तत्क्षण जमुना समझ गई, ओह माय लार्ड , मेरे स्वामी, मेरे तट पर श्रीकृष्ण पधार चुके हैं। जमुना केवल जल नहीं है, जमुना एक व्यक्ति है। जमुना महारानी है, कालिंदी है। उनका अपना यान वाहन भी है। जिस पर वह बैठती हैं और सभी नदियां अलग-अलग उनका भी रूप हैं उनका सौंदर्य है उनके सारे कार्यकलाप भी हैं। अभी समय नहीं है एनीवे, जमुना ने सोचा कि अब मुझे सहायता करनी होगी ताकि वसुदेव मुझे पार कर सकते हैं जमुना को पार कर सकते हैं। मुझे ऐसी सहायता करनी ही होगी। ऐसा सत्कार देना ही होगा। अदर वाइज …, यह जो जमुना सोच रही है उसको त्रेता युग की घटना का स्मरण हुआ। श्रीराम को जब रामेश्वर से किष्किंधा कहो, या अभी रामेश्वर पहुंचे हैं और वहां से जाना है श्रीलंका और बीच में है समुद्र, समुद्र देवता आगे नहीं आ रहे हैं। कैसे पार करेंगे क्या योजना है क्या व्यवस्था है कैसे योगदान देंगे? राम प्रतीक्षा में थे लेकिन समुद्र देवता आगे नहीं आ रहे थे। राम क्रोधित हुए, उन्होंने धनुष उठाया और उसी के साथ सारे समुद्र में खलबली, सुनामी मच गई और भी कुछ हो सकता था। फिर तभी समुद्र देवता आ गए, इसलिए अभी जमुना सोच रही थी मैं भी अगर देर करुंगी या उनको योगदान नहीं दूंगी जमुना पार करने के लिए तब मेरा हाल भी वैसा ही हो सकता है। यह वही है। वही राम ! कभी राम बनके, कभी श्याम बन के या आज कल साईं बाबा बनके, कुछ बदमाश लोग या राक्षस लोग क्या क्या कहा जाए, हमने एक समय यह गीत कुछ नया चल रहा था, बहुत साल पहले, कभी राम बनके कभी श्याम बनके, हमको अच्छा लग रहा था, कि अच्छा गाया जा रहा है कभी राम बनके कभी श्याम बनके, उसी गीत को बड़ा करके कुछ लोगों ने कभी साईं बाबा बने के, सब सत्यानाश हो गया, ऐसा लिखते हैं गाते हैं क्योंकि वह नहीं जानते हैं।
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||*
अनुवाद- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
तत्त्वतः रूप में भगवान को नहीं जानते, इसीलिए फलाना यह भगवान, वो भगवान , हमारे देश में तो गलियों में घूमते रहते हैं भगवान ही भगवान, यमुना मैया की जय ! जमुना सोच रही थी राम ही तो आए हैं कृष्ण रूप में और फिर वह यह भी सोच रही है कि जब भविष्य में यह द्वारकाधीश होंगे यह विवाहित होने वाले हैं , मेरे साथ भी इनका विवाह होना है। मैं इनकी चौथी पटरानी बनूंगी। वैसे 8 पटरानिया हैं, जैसे अष्ट सखियां है वृंदावन में प्रमुख सखियां । हरी हरी !
द्वारका में आठ पटरानियां हैं पहली है, रुकमणी दूसरी सत्यभामा, तीसरी है जाम्ब्वती और चौथी है कालिंदी ,जमुना ही है कालिंदी, अर्थात विवाह का प्रस्ताव जब आएगा और मैं यदि अभी सहायता नहीं करूंगी तब जरूर याद रखेंगे, हां ! आई नो, आई नो , मुझे जब पार करना था उस रात्रि को, तब तुमने कुछ नहीं किया और अभी मुझसे विवाह करना चाहती हो। फॉरगेट, भूल जाओ, ऐसा कृष्ण कह सकते हैं, ऐसा द्वारकाधीश कह सकते हैं। इसीलिए अच्छा है कि मुझे उनकी सहायता करनी चाहिए। जमुना ने रास्ता क्लियर किया। वसुदेव ने जमुना को पार किया और फिर है कोई लेले, कोई लेले, कोई मेरे लाला को ले ले , ऐसा वसुदेव, ऐसे भाव थे उनके, अब जमुना पार करने के उपरांत गोकुल है गंतव्य स्थान, जब वो जा रहे थे तब वहां पर भी वसुदेव की जो मन :स्थिति है अपने मन की स्थिति, जो अलग-अलग विचारों का मंथन हो रहा है उसी के साथ ,उसको वैसे कहा भी है रुत विलंबित गति, उनकी जो गति है स्पीड है कभी-कभी वह धीरे धीरे चलते हैं , फिर सोचते इतने धीरे-धीरे यदि मैं चलूंगा तो बहुत देर लग सकती है गोकुल पहुंचने में और इतने में अगर कंस को पता लग जाए, अरे वसुदेव पलायन कर चुका है और अपने बालक को ले गया, साथ में चलो, सभी पीछा कर सकते हैं और फिर आगे सोचना भी नहीं चाहते क्या हो सकता है। इसीलिए फिर वसुदेव जो धीरे-धीरे जा रहे थे फिर वह दौड़ने लगते हैं। थोड़ा तेजी से दौड़ने लगते हैं और मतलब तेजी से विलम्बित गति से धीरे धीरे या तेजी से जाते जाते और सोचते यदि इतनी स्पीड से जाऊंगा, जल्दी पहुंच जाऊंगा। उस से क्या होगा कि मैं बालक को मुझे वहां रखना है इस बालक के अंग संग से वंचित हो जाऊंगा। मैं छोड़ जाऊंगा नहीं-नहीं नो नो नो, थोड़ा अधिक समय, थोड़ा धीरे धीरे चलता हूं, ताकि यह बालक मेरे साथ थोड़ा अधिक समय तक रहेगा, ऐसा सोचता तभी फिर दूसरा विचार आ जाता कि यदि कंस आएगा तो ? इस प्रकार यह सोचते सोचते वसुदेव जा रहे हैं और गोकुलधाम पहुंच गए, गोकुलधाम की जय ! गोकुलधाम में नंद भवन पहुंचे हैं और नंद भवन में सूतिका गृह कहिए, जहां यशोदा ने बालक को जन्म दिया है। उसको कुछ सुध बुध नहीं है, उसने कब जन्म दिया एक बालक को जन्म दिया या दों को दिया, जिसको भी जन्म दिया ये बालक है या बालिका ? अब वसुदेव पहुंचे और उन्होंने अपने बालक को रखा है। देवकीनंदन या वसुदेव नंदन को रखा और यशोदा की बालिका को लेकर मथुरा पहुंचे हैं हरी हरी ! इस प्रकार देखते हैं अनेक बातें है। इसका कोई अंत ही नहीं है। कुछ ही मिनटों में दूसरा प्रोग्राम शुरू होने वाला है इसीलिए इसी फोरम पर आप बने रहिए। उस प्रोग्राम को भी आपको अटेंड करना है।
निताई गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल !
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*17 अगस्त 2021*
संकीर्तन गौर , सुन रहे हो ? हरि हरि ,सुनो सुनो ठीक है । 850 स्थानों से आज जप हो रहा है । गौरांग, ओम नमो भगवते वासुदेवाय , जो प्रकट होने वाले हैं उनको नमस्कार करते हैं । आदो मध्ये अंते ऐसा नमस्कार करो ।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||
(भगवद्गीता 18.65)
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
भगवान कहते है मुझे नमस्कार करो । कृष्ण जिनका नाम है और क्या-क्या है ? गोकुल जिनका क्या है ? धाम है । ठीक है बहूलाष्टमी जानती है , ऐसे श्री भगवान को बारंबार प्रणाम है । ऐसे हैं भगवान , ऐसे हैं वैसे हैं कैसे कैसे हैं , ऐसे भगवान को बारंबार प्रणाम है। कल कुछ चर्चा हो रही थी , श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं , किस परिस्थिति में प्रकट होते हैं और कुछ तत्वत: भगवान को जानना चाहिए भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं । ऐसे हम लोग कुछ पूर्वतयारी कर रहे थे , भगवान प्रकट होने जा रहे हैं ही और अष्टमी के दिन यह आपको कल बताया कितने हजार वर्ष पूर्व भगवान प्रकट हुए ? आप नोटबुक में देख रहे हो ! ठीक है , पांच , मतलब 5000 और क्या आगे कितने 2 मतलब 200 और फिर 4 , और फिर 8 । बंसीवदन ठाकुर 8 उंगलिया दिखा रहे हैं , 5248 वर्षपूर्व भगवान प्रकट हुये । या दुनिया को पता नही है ,हरि हरि । ऐसी बाते हम जब सुनते है , जो शास्त्र की बाते है , शास्त्रोक्त, शास्त्र में उक्त उसे शास्त्रोक्त कहते है । या फिर साधु, शास्त्र , आचार्य की बाते सुनते है तब हमारा विश्वास होता है । हाँ ! हाँ !कृष्ण है , प्रकट भी हुये । और हम जब बोल रहे है कि उतने वर्ष पूर्व प्रकट हुये , इस स्थान पर प्रकट हुये । ऐसा उनका दर्शन है , ऐसे उनके परिकर है , वह ऐसे लीला खेले , उन्होंने भगवद्गीता सुनाई , भगवद्गीता! भगवान के अस्तित्व का क्या सबूत है? भगवद्गीता। केवल कृष्ण के अस्तित्व का ही नही , कृष्ण के आगमन का और कृष्ण बोलते भी है ,
गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥
(गीता महात्मय ४)
चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।”
ऐसा गीता महात्म्य में भी कहा गया है । गीता है तो यह सबूत है । कृष्ण है , कृष्ण प्रगट हुये थे , उनकी वानी जो है ऐसी कुछ बात हम सुनते हैं , श्रवन करते है , पढ़ते हैं तब हमारी श्रद्धा , विश्वास अधिक अधिक बढ़ता है इसलिए भी सुनना चाहिए और इसलिए भी भागवत में कहा गया है ,
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥
(श्रीमद्भागवत 1.2.18)
अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
हम सुनेंगे सुनेंगे सुनते जाएंगे ,
श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा । चिन्त्यतां चिन्त्यतां भक्ताश्चैतन्य – चरितामृतम् ॥
(चैतन्यचरितामृत अंत्य 12.1)
अनुवाद हे भक्तों , श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य जीवन तथा उनके गुण अत्यन्त सुखपूर्वक नित्य ही सुने , गाये तथा ध्यान किये जाँय ।
ऐसा करते जाएंगे तो उसका परिणाम और फल क्या है ? हमारे निष्ठा बढ़ेगी , वैसे हमारी श्रद्धा बढ़ेगी । किसी ने मुझे पूछा महाराज श्रद्धा को कैसे बढ़ाया जाये ? श्रद्धा को कैसे बढ़ाया सकते हैं? इसका उत्तर मैंने दे डियस था , शुरुआत में श्रद्धा होती है उसे कैसे बढ़ा सकते हैं ? साधु संग करो , साधु संग होगा तब साधु भजन क्रिया बताएंगे यह करो , यह मत करो , यह मत करो , यह करो , विधि निशेध बताएंगे उसका पालन हम जब करेंगे तब अनर्थ निवृत्ति , अनर्थो से हम मुक्त होते है ।
पापा ची वासना नको दाऊ डोळा ,
त्याहुनी अंधळाच बरा मि ,
तुका म्हणे , यह जो पाप की वासना है , पापके विचार है , ऐसी विपरीत बुद्धि है इससे भी हम मुक्त होंगे । यह अनर्थ है कोई मानसिक स्तर पर अनर्थ है , कोई वाचिक स्तर पर अनर्थ है , कुछ कायि स्तर पर अनर्थ है । अनर्थ निवृत्ति , साधु संग किया या फिर भजन क्रिया , कुछ सीखे , कुछ उस पर अमल किया फिर अनर्थ से मुक्त हुये तब फिर क्या होता है ? हम लोग निष्ठावान बनते हैं । श्रद्धा जब दृढ़ होती है उसी का नाम निष्ठा है । शुरुआत में जो कोमल श्रद्धा होती है और दिन-ब-दिन यह पक्व होती है , उसका पोषण होता है , हमारी श्रद्धा का पोषण होता है और एक दिन हम फिर निष्ठावान बन जाते हैं । एक ही दिनमें अचानक नहीं , धीरे-धीरे हम निष्ठावान बन रहे है , निष्ठावान बन रहे है , निष्ठावान हो गए । कृष्ण के जन्म के सम्बंध की बातें भी हम जब सुनेंगे तब हमारी भगवान में निष्ठा या हमारी श्रद्धा दृढ़ होंगी। हरि हरि। यह सब कहते कहते ही समय बीत जाता है । कृष्ण कितने वर्ष पूर्व प्रकट हुए यह तो बता ही दिया और कृष्ण ने गीता में कहां है , क्या ?
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
(भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
मैं प्रकट होता हूं और क्यों प्रकट होता हूं ? यह आप बता सकते हो क्योंकि हमने कहा था कि आपको भी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की कथा करनी होगी । हां पद्मगंधा तैयारी कर रही हो ? इसलिए आपको थोड़ा कुछ पढ़ाया जा रहा है , कुछ याद दिलाया जा रहा है या कुछ पॉइंट दीये जा रहे है । कृष्ण ने गीता में कहा मैं प्रगट होता हु , क्यो ? मैं प्रकट होकर क्या करता हूं ? 1-2-3
1) परित्राणाय साधुनाम यह पहला कार्य है उसकी लीला होगी कई सारी
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
(भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
इसके संबंध में कई सारे लीलाए खेलेंगे भगवान
2) विनाशाय च दुष्कृताम्
दुष्टों का संहार करने की लीला , कंस का वध होगा इनका वध होगा उनका वध होगा बहुत बड़ी सूची है और फिर ,
3)धर्मसंस्थापनार्थाय तीसरा है , परित्राणाय ! किसके लिए ? परित्राणाय और धर्मसंस्थापनार्थाय , और दृष्टो का संहार करने के लिए यह तीन कारण कृष्ण कहते हैं , इस उद्देश्य से मैं प्रकट होता हूं । इसको भी याद रखिए और इसको भी कहिए जो कृष्ण ने कहा है और फिर संभवामि युगे युगे भगवान ने कहा है । संभवामि भव मतलब होना , संस्कृत भी थोड़ा सीख लीजिए । भव मतलब होना , संभव भली-भांति में हु । प्रकृतिष्ठ रुपेन मैं रहूंगा । भगवान का प्राकट्य संभवामि , केवल भवामि नहीं संभवामि , अहम संभवामि युगे युगे । हर युग में मैं प्रकट होता हूं ऐसा भगवान कहते हैं । हर युग में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण प्रकट नहीं होते हैं उन्होंने कहा है कि में हर युग में प्रकट होता हूं लेकिन कृष्ण ही हर युग में प्रकट नहीं होते । स्वयं भगवान ,
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
(श्रीमद्भागवत 1.3.24)
अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
कृष्णस्तु , किंतु है । हर युग में अवतार होता है , कृष्ण का अवतार होता है , कृष्ण अवतार लेते हैं लेकिन कृष्ण स्वयं प्रकट नहीं होते यह समझ लो । यह दुनिया वालों को पता नहीं है , हिंदुओं को पता नहीं है यह रहस्य या यह भेद कहो ।
ना ना अवतार मकरो भुवनेषु किंतु कृष्ण स्वयं परमाभवायो
ब्रह्मा जी ने अपने ब्रह्म संहिता में भेद बताया है । हर युग में भगवान का 1-1 -1-1 अवतार होता है किंतु भगवान स्वयं भगवान श्रीकृष्ण प्रकट नही होते , फिर वह भागवत में कहा गया है कई स्थानों पर कहां गया हैं । श्रीमद भागवतम स्कंद 2 अध्याय 6 श्लोक 39 वहां कृष्ण के संबंध में कहा गया है ,
स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः । आत्मात्मन्यात्मनात्मानं स संयच्छति पाति च ॥
(श्रीमद्भागवत 2.6.39)
अनुवाद:- वे परम आदि भगवान् श्रीकृष्ण , प्रथम अवतार महाविष्णु के रूप में अपना विस्तार करके इस व्यक्त जगत की सृष्टि करते हैं , किन्तु वे अजन्मा रहते हैं । फिर भी सृष्टि उन्हीं से है , भौतिक पदार्थ तथा अभिव्यक्ति भी वे ही हैं । वे कुछ काल तक उनका पालन करते हैं और फिर उन्हें अपने में समाहित कर लेते हैं ।
और अवतार तो युगे युगे है और अवतार हर युग में होता है । कृष्णाका 1-1 अवतार होता है । लेकिन कृष्ण स्वयं कल्पे कल्पे, एक होता है युग और दूसरा होता है कल्प , ब्रह्मा के 1 दिन को कल्प कहा जाता है । कल्पांतर भेद से कभी उसपर चर्चा हो , कल्पांतर भेद से यह लग रहा है कि यह कुछ अलग लीला है या स्थल , स्थान अलग है , रूपांतर है । कल्पे कल्पे , कृष्ण ब्रह्मा के 1 दिन में एक बार प्रकट होते हैं । ब्रह्मा के 1 दिन में 14 मनु होते हैं फिर जब सातवे मनू , अब जो हम जहां पर हैं जब हम बात कर रहे हैं , अब जब हम हैं तो इस समय वैवश्वत नाम के मनु का काल है। यह सूर्य देव विवस्वान के पुत्र हैं वैवश्वत मनु , हर मनु के काल में 72 महायुगो के चक्र चलते हैं , यह सब तांत्रिक बातें भी है । महायूग मतलब सत्य , त्रेता , द्वापर , कली इसको महायुग कहते हैं , चार युग मिलाकर महायुग होता है । ऐसे 72 बार यह महायुग आते हैं । ब्रह्मा के 1 दिन में ही ऐसे 1000 चक्र चलते हैं फिर ब्रह्मा का एक दिन यह एक कल्प हुआ । सातवे मनु आ गये , हर मनु के 72 – 72 , 72 गुना 14 कितना हुआ ? लगभग 1000 होता है । हर मनु के 72 महायुग होते हैं , यह वैवश्वत मनु का काल है और यह 72 में से जब 28 वा महायुग आता है , महायुग का 28 वा चक्र और फिर उस महायुग के 28 वे चक्र का जब द्वापर युग आता है उसके अंत में स्वयं भगवान कृष्ण प्रकट होते हैं । और यह सब पहले ही निर्धारित हो चुका है । रामादि मूर्तिशु कला नियमेन निष्टन्ति , यह सारा नियम है , सारी योजना है , यह सब नियोजन है । यह सब भगवान की व्यवस्था है । वैवश्वत मनु के 28 वे महायुग का द्वापर युग आता है , तब द्वापरयुग के अंत में भगवान श्रीकृष्ण प्रगट होते हैं और उस द्वापर युग के बाद वाला जो कलयुग आता है तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी कल्पे कल्पे , कल्प में एक बार। ब्रह्मा के 1 दिन में एक बार भगवान श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं और फिर तुरंत उनके बाद चैतन्य महाप्रभु प्रगट होते हैं । यह भी ज्ञान जो भक्तिपूरक ज्ञान है इसको भी अर्जन करना चाहिए , आप कर ही रहे हो । आप कुछ नोट भी कर रहे हो । कुछ तो बैठे ही हैं (हंसते हुए) आराम से कुछ लेटे भी है । क्या फर्क पड़ता है ? (हंसते हुए) आराम करते हैं , आत्माराम (हंसते हुए ) हरी हरी । और फिर शायद कल बताया या नही बताया वह फिर प्राकट्य का समय आजाता है तो भगवान पहले वसुदेव के मन में प्रकट होते हैं वसुदेव के मन में प्रकट होते हैं मन में अवतार लेते हैं। भगवान मन में या उनके हॄदय प्रांगण में प्रकट होते हैं और वहां से देवकी के गर्भ में प्रवेश करते हैं और फिर गर्भ में रहते हैं और गर्भ में रहने का अनुभव करते हैं यह भी उनकी लीला है और फिर अष्टमी के दिन मध्यरात्रि को फिर प्रकट होते हैं। वसुदेव ऐक्षेत फिर वसुदेव देखेंगे मध्यरात्रि को देखेंगे हरि हरि तो आप जब वो प्रकट होंगे तब भगवान तुरंत एक तो अद्भुत बालक भी कहा गया है सुखदेव गोस्वामी ने कहा है और
तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शङ्खगदाधुदायुधम् । श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम् ॥९ ॥ महार्हवैदूर्यकिरीटकुण्डल त्विषा परिष्वक्तसहस्रकुन्तलम् । उद्दामकाञ्च्यङ्गदकङ्कणादिभिर् विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत ॥१० ॥
अनुवाद:-तब वसुदेव ने उस नवजात शिशु को देखा जिनको अद्भुत आँखें कमल जैसी थीं और जो अपने चारों हाथों में शंख , चक्र , गदा तथा पद्म चार आयुध धारण किये थे । उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न था और उनके गले में चमकीला कौस्तुभ मणि था । वह पीताम्बर धारण किए थे , उनका शरीर श्याम घने बादल की तरह , उनके बिखरे बाल बड़े – बड़े तथा उनका मुकुट और कुण्डल असाधारण तौर पर चमकते वैदूर्यमणि के थे । वे करधनी , बाजूबंद , कंगन तथा अन्य आभूषणों से अलंकृत होने के कारण अत्यन्त अद्भुत लग रहे थे ।
तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शङ्खगदाधुदायुधम् उनके सौंदर्य का वर्णन है। उसको भी आप मन में बिठा सकते हो।
कदा द्रक्ष्यामि नन्दस्य बालकं नीपमालकम् ।
पालकं सर्वसत्त्वानां लसत्तिलकभालकम् ।
सुनने में अच्छा लगता है इसमें जो छंद है कदा द्रक्ष्यामि ठीक है कदा द्रक्ष्यामि मैं कब देखूंगा मुझे कब दर्शन होगा। कदा द्रक्ष्यामि नन्दस्य बालकं नंद महाराज के बालक का मुझे कब दर्शन होगा नीपमालकम् वह बालकम और नीपमालकम् कदम्ब के निप मतलब कदम्ब की फूलों की माला पहना हुआ। वह बालक और लसत्तिलकभालकम् जिसने अपने भाल पर तिलक धारण किया हो जैसे हम कहते हैं। भाले चंदन तिलक मनोहर ऐसा मनोहारी तिलक पहना हुआ वह बालक और साथी साथ यह बालक है कैसा है यह बालक है पालक हम सब का पालन करने वाला पालन पोषण करने वाला वही है। यह बालकलसत्तिलकभालकम् ऐसा भी आप कुछ यह कुछ श्लोक याद करो कृष्ण जब बालक है सुंदर है। आप कथा की तैयारी करनी है ना सुखदेव गोस्वामी ने भी सौंदर्य का वर्णन किया है। तो प्रकट होते ही वासुदेव और देवकी ने भगवान को प्रार्थना की है प्रार्थना नहीं करनी चाहिए थी आप प्रार्थना करते हो क्या आपने जब बालक को जन्म दिया तो आपने प्रार्थना कि नहीं की माधवी कुमारी कह रही है बालक को थोड़ी प्रार्थना करनी होते बालों के चरणों में प्राथना करनी हंसते हुए वैसे नंदग्राम में या फिर गोकुल में नंद बाबा यशोदा प्रार्थना नहीं करते उनको तो तमाचा मारते हैं उनको डांटते हैं उनका कान पकड़ते हैं प्रार्थना नहीं करते लेकिन यह मथुरा है मथुरा कंचन की नगरी उद्धव मोहि ब्रज विसरत नाहि हे उद्धव मैं ब्रज को नही भूल सकता ब्रज के जो जो प्रेम का व्यापार है लेकिन मथुरा में तो कंचन की नगरी है सोना चांदी का व्यापार होता है दूसरे प्रकार के व्यवहार होते हैं। तो यह भाव का अंतर है मथुरा में अलग भाव है यह भगवान के ऐश्वर्या का ध्यान रखते है मथुरा वासी और वसुदेव और देवकी भी भगवान महान है तब फिर प्रार्थना होती है। आगे लीलाओं में जब आप पढ़ोगे तो कृष्ण जब हंसते कंस के वध के लिए मथुरा जाते हैं मथुरा पहुंचते ही जय जगदीश हरे जय जगदीश हरे उनकी आरती उतारना प्रारंभ होती है। वृंदावन में कोई नहीं पूछता कोई आरती नहीं उतरता है कृष्ण की कोई प्रार्थना नहीं करता कोई नमस्कार नहीं करता।
आदि लीला 4.25
सखा शुद्ध – सख्ये करे , स्कन्धे आरोहण । तुमि कोन् लोक , तुमि आमि सम ॥ 25 ।।
अनुवाद ” मेरे मित्र शुद्ध मैत्री के कारण मेरे कन्धों पर यह कहते हुए चढ़ जाते हैं कि , ‘ तुम किस तरह के बड़े व्यक्ति हो ? तुम और हम समान हैं । ‘
तुमि कोन् बड़ लोक , तुमि आमि सम मथुरा के हिसाब से वसुदेव देवकी यहा भाव भिन्न है ऐश्वर्य भाव है और वृंदावन है माधुर्य है हरि हरि
उन्होंने प्रार्थना की है वह प्रार्थना सुखदेव गोस्वामी ने दी है तृतीय अध्याय में या यहां कृष्ण जन्म की कथा सुखदेव गोस्वामी कर रहे हैं 10 स्कंद तृतीय अध्याय आपके घर में भागवतम होना चाहिए न्यूज़पेपर तो होता है लेकिन भागवतम का कोई ठिकाना नहीं है तो न्यूज़पेपर को आग लगाओ और भागवत का सेट वगैरा ले लो आज तो वह भद्र पूर्णिमा भी आ रही है। कुछ दिन पहले या पंढरपुर में भक्त बता रहे थे उन्होंने भागवत का सेट लिया तो मंदिर के भक्त गए और उस भागवत की आराधना हुई एक समारंभ संपन्न हुआ उत्सव हुआ भागवतम का उन्होंने अपने घर में स्वागत किया भागवत है भगवान भागवत की भी आरती उतारी जा सकती है उतारनी चाहिए।
एक समय जब मैं ट्रैवलिंग पार्टी वाली जो बस होती हैं उसमें ग्रँथ भरते है और फिर प्रचार के लिए जाते हैं तो पूरा उनका पूरी उनकी गाड़ी ग्रंथों से भरी थी तो भी वीग्रह के लिए कोई स्थान नहीं था मूर्ति रखने के लिए ताकि वह मंगल आरती इत्यादि कर सकते हैं तो श्रील प्रभुपाद से पूछा कि हम भी वीग्रहों की अर्चना कैसे कर सकते हैं तो प्रभुपाद ने कहा कि कोई समस्या नही आप लोग ग्रंथों की आरती उतारो विग्रह नहीं है विग्रह के लिए जगहा नहीं हैं यह अच्छी बात है। इतने ग्रंथ आपके पास भरे हुए हैं।
ग्रंथराज श्रीमद्भागवत की जय
आपके घरों में भी देखना थोड़ा पीछे मुड़ कर देखो की आपके पास है भागवतम का ग्रँथ पूरा सेट रखो तब जब हम कहते हैं कि द्वितीय स्कंध में ऐसे ऐसे अध्याय में कल्पे कल्पे की बात हुई है तो आप लोग खोल कर देख सकते हो अब दशम स्कंद तृतीय स्कंध की तृतीय अध्याय की बात चल रही है। इस जब चर्चा में इस प्रकार का उल्लेख होता ही हैं तब आप देख सकते हो फलाना कैंटो यह अध्याय और श्लोक यह रेफरेंस देते रहते हैं तो ठीक है तो उसी समय फिर कृष्ण कहेंगे आप वैसे वासुदेव भी है मथुरा में वासुदेव भी है कृष्ण तो वृंदावन में जब जाएंगे तब कृष्ण बनेंगे यह संवाद हुआ है वसुदेव देवकी और वासुदेव के मध्य में भगवान के मध्य में संवाद हुआ है तो उस समय भगवान बताते हैं कि आपने भी बहुत कठोर तपस्या की थी और फिर मैं प्रसन्न हुआ और मैंने कहा था वर मांगो आपने इच्छा प्रकट की थी व्यक्त की थी प्रभु आप जैसा पुत्र हमें प्राप्त हो और मेरे जैसा तो मैं ही हूं फिर मैं ही प्रकट हुआ तो आप दोनों ही वसुदेव देवकी आप सूत पत थे और सूतप मैं पृश्नि गर्भ नाम का भगवान या अवतार लिया था एक समय और कश्यप और अदिति थे तो मैं वामन देव बन गया बटुक बामन बन गया यह दूसरा नंबर था और अब यह तीसरी बार है पुन्हा में प्रकट हो रहा हूं तो भगवान यह भी कहना चाह रहे हैं कि मैंने तो वादा निभाया तो इसलिए भी ताकि वह समझेंगे कि वह भगवान है। तो उस बालक ने चतुर्भुज रूप धारण किया है जिसको वसुदेव और देवकी दर्शन भी कर रहे हैं प्रार्थना की है नमस्कार किया है और श्री कृष्ण और वासुदेव ओम नमो भगवते वासुदेवाय ऐसा भगवान ने बोले है अपना परिचय दिया है मैं हूं मैं क्या हु अहम सर्वस्य प्रभःव मैं सब कुछ हूं तो इसके उपरांत हरि हरि
कृष्ण अनुभव करते हैं कृष्ण वासुदेव अनुभव करते हैं कि वसुदेव और देवकी खासकर देवकी बड़ी भयभीत और चिंतित है क्यों नहीं होगी उसका अनुभव रहा 6 बार कंस ने उनके पुत्रों का वध किया था और जब सातवां पुत्र उनके हाथ में नहीं लगा था सातवा पुत्रों को स्थानांतरित किया गया था यह हार्ट ट्रांस्प्लांटेशन अभी ये क्या क्या चल रहा है और किडनी ट्रांसप्लांटेशन होते हैं लेकिन या तो गर्भ गर्भातर हुआ एक गर्भ से बालक को दूसरे गर्भ में पोहोचाया गया ऐसे कोई टेक्नोलॉजी है ऐसा कोई संसार में होता है गर्भातर कोई कह रहे हैं हां तो गर्भ अंतर हुआ तो सात वे बालक का पता नहीं चला तो अभी आठवां आप कल्पना कर सकते हैं तो हम विस्तार से नहीं कर सकते तो दोनों चिंतित थे तो भगवान ने संकेत किया कि मुझे यहां से सुरक्षित जगह गोकुल लेकर जाओ तब फिर वसुदेव जैसे वासुदेव ने उठाया कृष्ण को उसी के साथ हथकड़ी बेड़ी टूट गई हरि बोल और फिर से यह भी सीखना चाहिए कि हम भी कृष्ण को उठाएंगे कृष्ण को अपनाएंगे या कृष्ण को गले लगा सकते हैं तब हो गया फिर यह संसार हमारे लिए समाप्त हो गया समाप्त हुआ हमारे लिए तो समाप्त हुआ हमको इस भौतिक संसार से कुछ लेना देना नही रहता जब हम भगवान को स्वीकार करेंगे तब सारे भाव बंधन से मुक्त हो जाएंगे
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |
अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || २७ ||
अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |आप तब कहेंगे कि हां मैं तो मुक्त हु। मैं मुक्त जीवात्मा हूं और मैं मुक्त हु मैं कुछ भी बोल सकता हूँ आप फ्री नहीं हो आप मुक्त नहीं हो आप बंधे हुए हो यह माया है हम सब बद्ध जीव हैं तो सतोगुण रजोगुण तमोगुण की डोरिया रसिया गुण मतलब डोरी भी होता हैं उससे हम बंधे हुए है और कटपूतली वाले उनकी हाथों में डोरिया है और हमको नचाया जाता है हरि हरि या कोई लड़ रहा है तो दोनों जो लड़ने वाली पार्टियां है लड़ाई हो रही है तालिबान और अफगानिस्तान में लड़ाई हो रही हैं तो तालिबान और अफगानिस्तान उनके ऊपर वाला कठपुतली वाला उमको नचा रहा हैं। और फीर सोचते होंगे कि हम लड़ रहे हैं नही नही कोई लडवा रहा है उनके गुणों के अनुसार तो इन सब से हम मुक्त होंगे जब हम कृष्ण को स्वीकार करेंगे अपने जीवन में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
या अभी हमने कृष्ण को स्वीकार किया जब हमने हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण किया श्रवण किया कृष्ण का प्राकट्य वैसे संसार में नहीं हो संसार में भी भगवान प्रकट होंगे कृष्ण अष्टमी के के दिन वह भी ठीक है। लेकिन हमारा तो लक्ष्य होना चाहिए कि कृष्ण हमारे लिए मेरे लिए प्रकट हो मेरे लिए प्रकट हो और फिर मेरे परिवार के लिए और मेरे लिए प्रकट हो या मेरे जीवन में भगवान प्रकट हो मेरे घर में भगवान प्रकट हो मेरे मन में प्रकट हो।
सवै मनः कृष्णपदारविन्दयो वासि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेमन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥१८ ॥ मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्भत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसना तदर्पिते ॥१ ९ ॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥२० ॥
अनुवाद:- महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में , अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने – बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन , को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श – इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में , अपनी घाण – इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में , अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा करने में लगाया । निस्सन्देह , महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा । वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत : मुक्त होने की यही विधि है ।
सवै मनः कृष्णपदारविन्दयो मेरे मन में भगवान प्रकट हो जन्माष्टमी के दिन भगवान का प्राकट्य कहा हमारे मन में हमारी चेतना में मत्त चित्तह मदगत प्राणः तो ठीक है हम यही रुकते हैं। और एक दिन तो वैसे कई दिन हो सकते हैं लेकिन और एक दिन तो हमको बिताना ही होगा इसी चर्चा को आगे बढ़ाएं नहीं या पूरा करने के उद्देश्य से तो कोई प्रश्न या टिका टिपणी हैं तो कहिए।
हरे कृष्ण ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
16 अगस्त 2021
हरे कृष्ण!
833 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।हरे कृष्णा,आपका स्वागत हैं।ओम नमो भगवते वासुदेवाय।अर्थात मैं वासुदेव को नमस्कार करता हूं और उनको मैं वासुदेव क्यों कहता हूं? क्योंकि वह वसुदेव के पुत्र हैं और क्योंकि वह भगवान भी हैं, इसलिए ओम नमो भगवते वासुदेवाय। तो हरे कृष्णा श्वेत मंजरी सुनो।हरि हरि।क्या तुम तैयार हो? ठीक हैं। शुरू करते हैं। आज मैं जन्माष्टमी की कथा तो नहीं करने वाला हूं, किंतु क्योंकि जन्माष्टमी आ ही रही हैं, जन्माष्टमी अब दूर नहीं हैं तो मैंने सोचा कि कुछ तथ्य आपके साथ सांझा करूं।जन्माष्टमी के संबंध में कुछ जानकारी, तथ्य, कुछ हाइलाइट्स, कुछ वैशिष्ट्य का उल्लेख करता हूं, ताकि हम सब जन्माष्टमी के मूड में आ जाए और जन्माष्टमी कॉन्शियस हो जाएं और मेरा विचार यह भी था कि आपको भी जन्माष्टमी की कथा करनी होगी।कृष्ण जन्माष्टमी की कथा आप भी करोगे या नहीं करोगे या फिर कथा करने का ठेका केवल मैंने ही लिया हुआ हैं और आप सिर्फ आराम से सुनते जाओगें।नहीं आपको भी बोलना हैं। जब किसी से प्रेम होता हैं तो शुरुआत में आप छिप छिप के प्रेम करते हो,लेकिन जब वह एक सीमा तक पहुंच जाता हैं,तब आप बोलना शुरू करते हो, तब आपको फिर कहना ही पड़ता हैं कि मुझे उससे प्रेम हैं और वह ऐसी हैं, वैसी हैं,उसका रूप ऐसा हैं, उसका नाम ऐसा हैं,उसका गुण ऐसा हैं,हरि हरि।आप कृष्ण से प्रेम करते हो या नहीं?हां या ना? या फिर उतना नहीं जितना होना चाहिए।प्रेम हैं तो दिखा दो।आप जब कृष्ण के बारे में बोलना शुरू करोगे तब हम मान जाएंगे कि हां हां आप कृष्ण के सचमुच प्रेमी हो और वह प्रेम अब कायेन मनसा वाचा प्रकट होने लगेगा।उस बात को आप केवल मन में ही नहीं रखोगे। मुख से कुछ कहने लगोगे। जन्माष्टमी आ रही हैं, इसलिए आपको बोलना हैं। आपको कुछ कहना हैं। कृष्ण आपके हैं,आपके कृष्णा।इसीलिए मैं सोच रहा था आपको कोई आईडिया दे दू। फिर आप सोच सकते हो, कुछ खोज सकते हो और कह सकते हो और यही कीर्तन हैं। सुनना, पढ़ना और कहना
अनत: लीला 12.1
श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा । चिन्त्यतां चिन्त्यतां भक्ताश्चैतन्य – चरितामृतम् ॥१ ॥
अनुवाद- हे भक्तों , श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य जीवन तथा उनके गुण अत्यन्त सुखपूर्वक नित्य ही सुने , गाये तथा ध्यान किये जाँय ।
और फिर कीर्तन करना ही होता हैं,यह स्वभाविक हैं,श्रवण के उपरांत कीर्तन होता हैं। अबकी बार आपकी बारी हैं। आप सभी की बारी हैं।
भगवद्गीता 4.7
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || ७ ||”
अनुवाद
हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
सभी कहते हैं कि भगवान आज से 5000 वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। इतना तो कोई भी कह सकता हैं, हर कोई ऐसा तो कहता ही हैं। किंतु अगर एग्जैक्ट बात करनी हैं, तो जैसा कि आप इस साल कहोगे कि कृष्णा आज से 5248 वर्ष पूर्व प्रकट हुए।आप समझ गए होंगे कि यह जो जन्माष्टमी हैं यह कौन से क्रमांक की हैं,क्योंकि जानकारी उपलब्ध हैं, कि जिस दिन भगवान अपने धाम में लौटे उस दिन से कलयुग का प्रारंभ हुआ।
यदा मुकुंदो भगवान्
कसमांम त्यक्तवा स्व पदम् गतह:
तद दिनात कलिर आयतह:
सर्व साधन बाधक:
तो कलियुग कब प्रारंभ हुआ? भगवान ने इस जगत से कब प्रस्थान किया? इसे विस्तार से नहीं बता पाऊंगा, कलियुग 3102 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ।क्राइस्ट से पहले इसे बीसी कहते हैं। एक बिसी होता हैं, एक एडीसी होता हैं।कृष्ताब्द की चर्चा तो संसार में हैं ही। ईसाई मसीह के पहले 3102 वर्ष पूर्व भगवान अपने धाम लौटे थे। उस दिन से कलियुग प्रारंभ हुआ। मैं आपको यह बता रहा हूं कि 5248 संख्या कैसे आई?तो यह हो गए 3102।जब कृष्ण प्रकट हुए,”कृष्ण कन्हैया लाल की जय”, तब वह 125 वर्ष इस संसार में इस धरातल पर रहे।125 प्लस 3102 प्लस 2021 इसका जोड करोगे तो टोटल हो जाता हैं 5248 साल पहले कृष्ण प्रकट हुए और नोट करने की बात यह हैं, कि वह दिन बुधवार का दिन था और कृष्ण का जन्म हुआ था। कहां हुआ था? ऐसे लोग अंदाज से बोल देते हैं कि मथुरा वृंदावन में जन्म लिया था,लेकिन कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ हैं। मथुरा में ही कृष्ण का जन्म स्थान हैं। शायद आपने देखा भी होगा। यह सब बातें शुकदेव गोस्वामी ने भी कही हैं, कहां कही हैं? भागवत के दसवें स्कंध में भागवतम का पूरा दसवां स्कंध श्री कृष्ण चरित्र हैं। श्रीमद्भागवत का बहुत बड़ा अंग श्री कृष्ण चरित्र ही हैं। कथा को 90 अध्यायो में कहा गया हैं। भागवत में कुल 335 अध्याय हैं। 335 में से 90 अध्याय तो दसवें स्कंध में हैं और 11वे स्कंध में भी श्री कृष्ण का चरित्र हैं, उद्धव संदेश हैं। जैसे भगवद्गीता श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य का संवाद हैं,इसके अलावा एक और गीता हैं भगवान की गीता नहीं हैं, उद्धव की गीता हैं। उद्धव गीता 11 वे स्कंध में हैं। उसके कई सारे अध्याय हैं।दसवां स्कंध और 11वा स्कंध इन दो स्कंधो में आप कृष्ण चरित्र को पढ़ सकते हो। वहां पर शुकदेव गोस्वामी ने कहा हैं कि जब श्री कृष्ण का जन्म होने जा रहा था तो सर्वप्रथम वहां पर देवता पहुंच गए।
सूत उवाच
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा: ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्यान्तं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम: ॥
श्रीमद्भागवतम्12.13.1
सभी देवताओं ने स्तुति की हैं और श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के दूसरे अध्याय में आपको गर्भ स्तुति मिलेगी। जब कृष्ण गर्भ में हैं और देवता आकाश में हैं और वही से कृष्ण की उन्होंने स्तुति की, उसका नाम गर्भ स्तुति हैं। जब आपको विस्तार से कथा कहने का अवसर मिले तो आप उस स्तुति का हर शब्द समझ कर उसे कह सकते हो।हरि हरि और अब मध्य रात्रि का समय हो रहा हैं और मध्य रात्रि को श्रीकृष्ण प्रकट हुए, इसका कारण बताया गया हैं कि क्योंकि श्री कृष्ण चंद्र वंश में प्रकट होने जा रहे हैं और यह भी नोट कीजिए कि बुधवार का दिन हैं,तब अष्टमी थी।उस अष्टमी का नाम ही पड़ गया कृष्णअष्टमी। हर एक व्यक्ति यही कहता हैं कि कृष्ण अष्टमी या कृष्ण जन्माष्टमी।तो अष्टमी का दिन था और अष्टमी का चंद्रमा मध्यरात्रि को उदित होता हैं। कृष्ण यह कैलकुलेशन कर रहे थे,कि मैं 10:00 बजे भी प्रकट नहीं होउगा और 12:00 बजे भी प्रकट नहीं होंउगा। ठीक मध्य रात्रि को जिस समय पूर्व दिशा में चंद्र उदित होंगे तब होउगा।दो चंद्र उदित हुए हैं, सूर्या चंद्र में जो चंद्र हैं वह उदित हुए हैं और हमारे कृष्णचंद्र उदित हुयें हैं।श्री कृष्ण चंद्र की जय। हरि हरि।भाद्रपद मास में भगवान का प्राकट्य हो रहा हैं। भादों मतलब मंगलमय।बहुत ही मंगलमय महीना। ऐसे पवित्र मंगलमय मास में श्रीकृष्ण प्रकट हो रहे हैं और वर्षा ऋतु भी हैं। जन्म के समय पर वर्षा भी हो रही हैं। मूसलाधार वर्षा नहीं हो रही हैं। महाराष्ट्र में कहते हैं कि रिमझिम वर्षा हो रही हैं। गोरांग। तो फिर कृष्ण प्रकट हुए हैं।श्री कृष्ण के प्रकट होते की सर्वप्रथम भगवान का दर्शन करने वाले कौन होंगे?वसुदेव।इसलिए शुकदेव गोस्वामी ने कहा हैं वसुदेव ने देखा।ऐसा शुकदेव गोस्वामी ने कहा भी हैं और जब वसुदेव ने देखा तो क्या देखा?जाहिर हैं बालक को देखा।बालक कैसा था,इसका सारा वर्णन सुखदेव गोस्वामी ने किया हुआ हैं।आप पढ़ लेना।आप जब विस्तार से कथा कहोगे तो उसका पूरा वर्णन कीजिएगा।बालक ने जन्म लिया हैं और वस्त्रों और अलंकार से सुसज्जित हैं।इस जन्म को स्वयं श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा हैं कि मेरा जन्म कैसे होता हैं?
भगवद्गीता 4.9
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||”
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता हैं |
मेरा जन्म और मेरी लीला भी दिव्य हैं। जगत से परे हैं।ऐसा जन्म संसार में किसी का भी नहीं होता हैं,आप ही बताइए, क्या कोई बालक वस्त्र के साथ जन्म लेता हैं?नहीं लेता हैं। वस्त्र के साथ कोई भी बालक या बालिका जन्म नहीं लेती हैं। ऐसा सब जानते हैं, लेकिन यह बालक अद्भुत हैं। यह वस्त्रों और अलंकार के साथ जन्मा हैं। हरि हरि।इस बालक का चित्र आकर्षक हैं। इसका सौंदरय आकर्षक हैं।
भगवद्गीता 10.9
“मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||”
अनुवाद
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
इसलिए व्यक्ति ऐसे बालक पर अपने प्राण भी समर्पित करता हैं, इसीलिए ही व्यक्ति ऐसे बालक की सेवा और चरणों में अपने प्राण समर्पित करता हैं। मेरा सब कुछ तुम पर न्योछावर हैं।
मानस-देह-गेह, यो किछु मोर।
अर्पिलु तुया पदे, नन्दकिशोर!॥1॥
अनुवाद:- हे नन्द महाराज के पुत्र, मेरा मन, शरीर, मेरे घर का साज-सामान तथा अन्य जो कुछ भी मेरा है, मैं आपके चरणकमलों पर अर्पित करता हूँ।
जो भी कन्हैया को जानेंगे, जिनको कृष्ण का साक्षात्कार और अनुभव होगा और फिर अगर दर्शन भी हो जाए तो उनका तो क्या कहना।वैसे दर्शन तो होता ही हैं। आप सभी ने भगवान का दर्शन किया हैं।अगर कोइ पूछे कि आपको दर्शन हुआ हैं? तो नंदी मुखी क्या कहेगी? हां हां हुआ हैं। हम सोचते हैं जो फाइनल दर्शन हैं, जो अंततोगत्वा दर्शन होगा वही दर्शन हैं, लेकिन नहीं
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
अनुवाद :जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।यह जो दर्शन हैं, यह भी दर्शन हैं।पूरा दर्शन तो अचानक नहीं होता।भगवान के दर्शन होते होते होते अंत में पूरा दर्शन होता हैं।और दर्शन किया फिर और दर्शन किया और फिर 1 दिन पूरी तरह से दर्शन हो जाता हैं। वैसे शास्त्रों को भी दर्शन कहा जाता हैं। वेदांत दर्शन, षड्दर्शन भगवद्गीता भी एक दर्शन हैं, भागवतम् एक दर्शन हैं। शास्त्रों को दर्शन कहा गया हैं। यह शास्त्र हमको दर्शन देते हैं। हमको तैयार करते हैं फाइनल दर्शन के लिए। तो हर क्षण दर्शन और अधिक स्पष्ट होता चला जाता हैं, हो सकता हैं कि शुरुआत में धुंधला दिख रहा हो ,कुछ दिख गया लेकिन भगवान का नाम ही स्वरूप हैं। भगवान का गुण भी स्वरूप हैं और भगवान बड़े दयालु और कृपालु हैं। या केवल आपने पढ़ लिया था इसलिए आप कह रहे हो कृष्ण बड़ा दयामय या सचमुच आपको अनुभव हो रहा हैं कि भगवान सचमुच दयालु हैं। भगवान ने मेरे लिए क्या-क्या किया हैं, कृपालु हैं, भगवान दयालु हैं, अगर आप ऐसा सोच रहे हो,नहीं ऐसा अनुभव कर रहे हो तो आप ने कृष्ण को देखा हैं। आपने भगवान को देखा हैं। क्या आपने भगवान का अनुभव किया हुआ हैं? भगवान के कुछ गुण का अनुभव किया गया हैं?भगवान की लीला का अनुभव किया हुआ हैं? जैसे पढ़ते-पढ़ते दामोदर लीला का अनुभव हुआ हो और भी कई सारी लीलाएं हम पढ़ते हैं और पढ़ते-पढ़ते उन श्लाकों में अधिकाधिक विश्वास होने लगता हैं। हरि हरि।ऐसा नहीं हैं। क्या आपने कृष्ण को देखा नहीं हैं? अगली बार अगर कोई पूछता हैं कि क्या आपने कृष्ण को देखा हैं?तो हां मैंने कृष्ण को देखा हैं। तो जितना हमने देखा हैं, उससे हम कह सकते हैं कि हां हमने कृष्ण को देखा हैं। जितना हमने अनुभव किया हैं और कैसे अनुभव होता हैं?
भगवद्गीता 4.11
“ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || ११ ||”
अनुवाद
जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता हैं |
भगवान ने कहा हैं कि जो जितना मेरी शरण में आएगा उनको उसी प्रकार मेरा दर्शन होगा। यह भगवान थोड़ा व्यापार की बात कर रहे हैं।लेन-देन की बात कर रहे हैं। भगवान कह रहे हैं कि मैं तुमको उतना ही प्रकट होउगा जितना कि तुम मेरे शरण में आ रहे हो।अगर आप का भाव 50-50 है तो मैं भी तुमको 50-50 दर्शन दूंगा।इतना ही नहीं भगवान तो यह भी कह रहे हैं, तान मतलब जिन्होंने जितनी मेरी शरण ली हैं, तान मतलब उनको और तथा एवं मतलब उतना ही भगवान कह रहे हैं कि उनका मैं भजन करूंगा।मैं उनकी सेवा करूंगा।वे मुझे उतना ही समझ पाएंगे।तांस्तथैव भजाम्यहम् यह साधक और भगवान की बात हैं। पहले साधना भक्ति करते हैं। फिर भाव भक्ति होती हैं और अंततोगत्वा प्रेम भक्ति होती हैं। यह भक्ति के 3 सोपान बताए गए हैं। साधक अगर साधना भक्ति ठीक से कर रहा हैं तो कुछ सिद्धियां प्राप्त कर रहा हैं। वह कृष्ण का कुछ अनुभव कर रहा हैं। हरि हरि।गुजरात में प्रभास क्षेत्र नामक स्थान हैं, जहां से भगवान ने अपने धाम को प्रस्थान किया था, वहां से भगवान अपने धाम को लौट गए थे।
1.3.43
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ।
कलौ नष्टृशामेष पुराणाकोऽधुनोदितः ॥ ४३ ॥
यह भागवत पुराण सूर्य के समान तेजस्वी हैं और धर्म, ज्ञान आदि के साथ कृष्ण द्वारा अपने धाम चले जाने के बाद ही इसका उदय हुआ हैं। जिन लोगों ने कलियुग में अज्ञान के
गहन अन्धकार के कारण अपनी दृष्टि खो दी हैं, उन्हें इस पुराण से प्रकाश प्राप्त होगा।
हम एक बार अपनी नारद मुनि ट्रैवलिंग कीर्तन पार्टी के साथ गए थे ।हम दर्शन के लिए वहां गए थे,जहां से कृष्ण ने प्रस्थान किया। 125 वर्षों के उपरांत वाली बात हैं।जब हम वहा पहुंचे तो हम अलग-अलग लीला स्थलिया देख रहे थे। वैसे मुख्य लीला तो भगवान के अंतर ध्यान होने की लीला स्थली हैं, तो वहां एक साइन बोर्ड लगा था और उस पर लिखा था,गॉड डाइड हेयर। यहां पर भगवान की मृत्यु हुई।तो हमारी संकीर्तन पार्टी में मेरे गुरु भ्राता इंग्लैंड के थे। उनका नाम था रविदास प्रभु। तो उन्होंने जब यह पड़ा किगॉड डाइड हेयर तो उनसे सहा नहीं गया, उन्होंने गुस्से में पूछा कि कौन हैं यह लिखने वाला? क्या भगवान की भी कभी मृत्यु होती हैं? तो वहां एक आश्रम भी था। वह आश्रम की तरफ दौड़ने लगे कि इन्हीं में से किसी ने यह लिखा होगा।कौन हैं? दरवाजा खटखटाने लगे कि दरवाजा खोलो। मैं उस व्यक्ति से मिलना चाहता हूं, जिसनें यह लिखा हैं कि गोड डाइड हेयर। और वह इस बात को लेकर बहुत गंभीर थे। उस वक्त मैं सोच रहा था और आप भी कल्पना कर सकते हो कि यह भगवान का साक्षात्कार हैं। उनका अनुभव रहा कि कृष्णा ऐसे हैं, वैसे कृष्ण जन्मे ही नही हैं, जिनका जन्म नहीं होता जिसका जन्म होता हैं, उसकी मृत्यु भी होती हैं और जिसका जन्म ही नहीं होता हैं तो उसकी मृत्यु कैसे हो सकती हैं?
भगवद्गीता 2.20
“न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्र्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे || २० ||”
अनुवाद
आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु | वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा | वह अजन्मा, नित्य, शाश्र्वत तथा पुरातन है | शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |
अगर आत्मा का जन्म नहीं हैं, आत्मा की मृत्यु नहीं हैं, तो यह बात परमात्मा पर भी लागू होती हैं। भगवान का जन्म नहीं हैं। भगवान की मृत्यु नहीं हैं। इस बात से यह रवि प्रभु जी इतने कन्विंस्ड थे,तो क्या उनको भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ? जिस किसी ने भी वह उल्टा सीधा लिखा था वह उसका भी विरोध करने लगे।ऐसा अनुभव उनको हुआ।यह भी भगवान का दर्शन ही हैं।भगवान ने उनको दर्शन दिया।यह अनुभव हैं, यह साक्षात्कार हैं। कृष्ण ने गीता के वचन में कहा हैं।
BG 4.9
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||”
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता हैं, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता हैं|
भगवान का जन्म और उनकी लीलाओं को तत्वत: समझना हैं। विषय तो जन्म का हैं, क्योंकि जन्माष्टमी आ रही हैं। तो हमें इसका तत्व भी समझना चाहिए।कृष्ण जन्म तत्व। हरि हरि।कृष्ण वासुदेव और देवकी के पुत्र तो बन रहे हैं। लेकिन क्या वास्तव में यह वसुदेव और देवकी के पुत्र हैं?नहीं। यह वसुदेव और देवकी के बाप हैं। वह पुत्र किसी के नहीं हैं।
भगवद्गीता 14.4
“सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः |
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता || ४ ||”
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ |
कृष्ण कह रहे हैं कि मैं सबका पिता और माता हूं।जब हमें यह समझ नहीं आता तो हम कृष्ण को साधारण जीव समझते हैं। आपने गर्भ की बात तो की,भगवान गर्भ में थे और हम भी गर्भ में रहते हैं। यह सब बातें सुनकर हम कृष्ण को एक साधारण जीव समझने लगते हैं। जैसे कि हम हैं।
आतमवत मन्नते जगत। मैंने जैसे जन्म लिया वैसे ही कृष्ण ने जन्म लिया।लेकिन इसका तत्व शुकदेव गोस्वामी ने समझाया हैं कि भगवान कैसे पहले वसुदेव के मन में प्रकट हुए और वहां से वह देवकी के गर्भ में प्रकट हो रहे हैं। फिर वहां से वह अष्टमी के दिन प्रगट हो रहे हैं। तो यह स्त्री पुरुष के लैंगिक क्रिया का सहयोग नहीं हैं।यह तो हमारे तुम्हारे जन्म के संबंध में होता हैं। इसका कोई संबंध नहीं हैं। यह तत्व हैं और जब हम ऐसे तत्व समझेंगे फिर त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।
फिर ऐसे व्यक्ति के लिए पुनर्जन्म नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति मेरी ओर आएगा,मुझे प्राप्त करेगा,मेरे धाम लोटेगा।कृष्ण जो तथाकथित जन्म ले रहे हैं उसी के साथ हमारी मृत्यु को मारने वाले हैं। कृष्ण हमारी मृत्यु को मारेंगे और फिर हमको पुनः पुनः जन्म नहीं लेना पड़ेगा।अपने धाम से अष्टमी के दिन कृष्ण आते हैं,हम सबको आमंत्रित करने के लिए, घर वापस आ जाओ, आ जाओ और आ जाओ और फिर भगवान ने हम सभी के लिए गीता भी समझाई ।भगवान ने बहुत कुछ किया ताकि हम कृष्णभावनाभावित हो। भगवत गीता भगवान की एक विशेष भेंट हैं। गीता में भगवान ने कहा हैं-
भगवद्गीता 18.65
“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||”
अनुवाद
सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
गीता के सार के रूप में अंत में भगवान ने कहा हैं कि मेरा स्मरण करो,मेरी पूजा करो, मेरे भक्त बनो,मुझे नमस्कार करो। इतना करोगे तो बस मैं जहां रहता हूं वहां तुम आओग। गर्भ स्तुति में देवताओं ने कहा था कि आप कैसे हो देवताओं ने कहा-
10.2.26
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्र सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥२६ ॥
देवताओं ने प्रार्थना की हे प्रभु,आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते।जो सदा ही पूर्ण रहता हैं, क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं,वह पूरी तरह सही होता हैं और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता। सृष्टि , पालन तथा संहार – जगत की इन तीन अवस्थाओं में विद्यमान रहने से आप परम सत्य हैं। कोई तब तक आपकी कृपा का पात्र नहीं बन सकता जब तक वह पूरी तरह आज्ञाकारी न हो अत : इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते । आप सृष्टि के सारे अवयवों में असली सत्य हैं, इसीलिए आप अन्तर्यामी कहलाते हैं । आप सबों पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं । आप आदि सत्य हैं,अतः हम नमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं।आप हमारी रक्षा करें ।
देवताओं ने भगवान को कहा कि भगवान आप सत्य हो। सत्य का स्रोत आप ही हो। सत्य का भी सत्य आप ही हो। आप सत्यात्मक हो, इसलिए हम आपकी शरण में आ रहे हैं। कई बार लोग लिखते और कहते हैं कि भगवान सत्य हैं।यह बात तो वैसे देवताओं ने गर्भ स्तुति में कही हैं,वही भगवान कह रहे हैं कि मेरा भजन करो। ठीक हैं।अब मुझे रुकना होगा। कुछ थोड़ा सा आपको मैंने मसाला दिया कि आप इस पर सोच विचार कर सको और भी कई सारी बातें हैं। ठीक हैं। हरे कृष्णा।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*15 अगस्त 2021*
हरी हरी। हमारे साथ 777 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। एक दिन आपका भगवत धाम में स्वागत हो। नवद्वीप पैसे अच्छा होगा ना। एक दिन क्या हो जाए? आपका स्वागत भगवत धाम में हो जाए। स्वयं भगवान भी स्वागत समारोह में रहते हैं और भक्त भी रहते हैं। ऐसा कुछ करो। ऐसी कुछ करणी करो। हरि हरि। आपके चेहरे पर मुस्कान हो। आप में से कुछ थक गए हो। हरि हरि। गौरंग। यह सब जप तप करने का उद्देश्य है। क्या हो जाए? गोपाल राधे अंते नारायण स्मृति हो जाए।
*एतावान् साड्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।*
**जन्मलाभ: पर: पुंसामन्ते नारायणस्मृति: ।।*
(श्रीमद् भागवतम् 2.1.6)
अनुवाद:
पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति के अभ्यास से या स्वधर्म का भलीभाँति पालन करने से मानव जीवन कि जो सर्वोच्च सिध्दि प्राप्त कि जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान् का स्मरण करना।
नारायण की स्मृति अंत में हो जाए। अंत भला सो सब भला। अगर ऐसा अंत होता है *अंते नारायणस्मृति:*, तो जीवन सफल पैसा वसूल। लक्ष्य को ध्यान में रखिए। अपने लक्ष्य को को कभी ना भूलिए। उसका स्मरण रखिए। वैसे कृष्ण ही लक्ष्य हैं।
सूत उवाच आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकों भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥ १० ॥ (श्रीमद् भागवतम् 1.7.10)
अनुवाद:
जो आत्मा में आनन्द लेते हैं , ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म – साक्षात्कार के पथ पर स्थापित हो चुके हैं , ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं , फिर भी भगवान् की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् में दिव्य गुण हैं, अतएव वे मुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकते हैं ।
ऐसा सूत गोस्वामी कहे और यह शुकदेव गोस्वामी के संबंध में कहें। अभी-अभी वह कह चुके थे। शुकदेव गोस्वामी कोई अनुष्ठान और कोई संस्कार नहीं हुआ था। वह वन के लिए दौड़ पड़े।
*सूत उवाच यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।*
**पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥२ ॥*
(श्रीमद् भागवतम् 1.2.2)
अनुवाद:
श्रील सूत गोस्वामी ने कहा : मैं उन महामुनि ( शुकदेव गोस्वामी ) को सादर नमस्कार करता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं । जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करने चले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग के भय से आतुर होकर चिल्ला उठे , ” हे पुत्र , ” उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे , केवल ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया ।
पिताश्री श्रील व्यासदेव पीछे दौड़ पड़े थे। शुकदेव गोस्वामी को कोई परवाह नहीं थी। किंतु फिर शुकदेव गोस्वामी ये भी कहे।
*स संहितां भागवतीं कृत्वानुक्रम्य चात्मजम् ।*
**शुकमध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनिः ॥ ८ ॥*
(श्रीमद् भागवतम् 1.7.8)
अनुवाद:
श्रीमद्भागवत का संकलन कर लेने तथा उसे संशोधित करने के बाद महर्षि व्यासदेव ने इसे अपने पुत्र श्री शुकदेव गोस्वामी को पढ़ाया, जो पहले से ही आत्म – साक्षात्कार में निरत थे ।
ऐसे शुकदेव गोस्वामी *निवृत्तिनिरतं* सेवानिवृत्त महाराष्ट्र में कहते हैं। शुकदेव गोस्वामी मुक्त हो गए थे और वन के लिए प्रस्थान किए। वह मुक्त थे। निवृत्तिनिरतं किंतु फिर उन्होंने भागवत की कथा सुन ली ही। बड़ी युक्तिपूर्वक श्रील व्यासदेव अपने पुत्र शुकदेव गोस्वामी को भागवत की कथा पढ़ाए। वह दूर ही रहते थे किंतु श्रील व्यासदेव ने अपने कुछ शिष्यों को कहे कि वन में जाओ और जोर-जोर से भागवत की कथा कहो। ओम नमो भगवते वासुदेवाय।
*वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।*
**वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥२८ ॥*
*वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः ।*
**वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ॥ २ ९ ॥*
(श्रीमद् भागवतम् 1.2.28-29)
अनुवाद:
प्रामाणिक शास्त्रों में ज्ञान का परम उद्देश्य पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं । यज्ञ करने का उद्देश्य उन्हें ही प्रसन्न करना है । योग उन्हीं के साक्षात्कार के लिए है । सारे सकाम कर्म अन्ततः उन्हीं के द्वारा पुरस्कृत होते हैं । वे परम ज्ञान हैं और सारी कठिन तपस्याएँ उन्हीं को जानने के लिए की जाती हैं । उनकी प्रेमपूर्ण सेवा करना ही धर्म है । वे ही जीवन के चरम लक्ष्य हैं ।
*वासुदेव सर्वमिति* वासुदेव की कथा सुनाओ। उनके कुछ शिष्य सुनाने लगे और वो कथा सुन सुन के …
*
*श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयता गीयता मुदा ।*
**चिन्त्यतां चिन्त्यता भक्ताचैतन्य – चरितामृतम् ॥1 ॥*
(अंतिम लीला 12.1)
अनुवाद:
हे भक्तों , श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य जीवन तथा उनके गुण अत्यन्त सुखपूर्वक नित्य ही सुने , गाये तथा ध्यान किये जाए।
सब समय भागवत की कथा सुननी चाहिए और बढ़े प्रेम से उस कथा को सुनाना भी चाहिए। इस प्रकार वन में ही श्रवण और कीर्तन होने लगा। तो शुकदेव गोस्वामी आकृष्ट हुए। भागवत से, भागवत कथा से आकृष्ट हुए। मतलब की भगवान से आकृष्ट हुए और इस प्रकार श्रील व्यासदेव ने भागवत कथा अपने पुत्र शुकदेव गोस्वामी को सिखाई और पढ़ाई। क्योंकि शुकदेव गोस्वामी इस कथा के प्रवक्ता बनाना चाहते थे। मैंने भागवत की रचना की है। लेकिन इसका प्रचार प्रसार करने वाला भी तो चाहिए। उन्होंने अपने पुत्र का चयन किया था और उन्होंने अपने पुत्र को शिष्य बनाया। हरि हरि। वह शिष्य बने तो और भगवान के अनन्य भक्त भी बने। शुकदेव गोस्वामी महा भागवत हुए।
*नष्टप्रायेष्वभरेषु नित्यं भागवतसेवया ।* *भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिको ॥१८ ॥*
*(श्रीमद् भागवतम् 1.2.18)
*
अनुवाद:
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है । वस्तुओं को निकालने का उपचार दिया गया।
तो श्रील प्रभुपाद लिखते है कि भागवत दो प्रकार के होते हैं। एक व्यक्ति भागवत और दूसरा ग्रंथ भागवत। श्रीमद् भागवतम् की जय। व्यक्ति भागवत चलते फिरते भागवत। हरि हरि। तो जब अब यह शुकदेव गोस्वामी भागवत बने ही हैं। वैसे तो *निवृत्तिनिरतं* थे। वैसे ब्रह्मवादी थे। मायावादी नहीं थे। ब्रह्मवादी और मायावादी में अंतर होता है। 4 कुमार भी मायावादी नहीं थे। वह ब्रह्म वादी थे। मायावादी तो निराकार और निर्गुणवादी होते हैं। लेकिन मायावादी तो भगवान के साथ प्रतियोगिता करना चाहते हैं और भगवान बनना चाहते हैं। *अहम ब्रह्मास्मि*। मायावादी निराकार निर्गुणवादी होते हैं। ब्रह्मवादी खुले विचार के होते हैं। उनको अब ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है और वह आगे बढ़ना चाहते हैं।
*वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।*
**ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥११ ॥*
(श्रीमद् भागवतम् 1.2.11)
अनुवाद:
परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को ब्रहा, परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं।
यह भगवान की तीन अवस्थाएं हैं या स्वरूप है कहो। ब्रह्म भी भगवान की स्वरूप है। परमात्मा भगवान का एक स्वरूप है और भगवान का स्वरूप है ही। ब्रह्म और परमात्मा के स्त्रोत भगवान है और अद्वैत। यह तीनों अलग अलग नहीं है। एक ही है। जो ब्रह्मवादी होते हैं, वह आगे बढ़ते हैं। ब्रह्म का दर्शन और साक्षात्कार और परमात्मा का साक्षात्कार और फिर भगवान साक्षात्कार भी ब्रह्मवादियों को होता है। मायावादियों को नहीं होता। तो ब्रह्मवादी थे, मुक्ता आत्मा थे। तो वह कैसे भगवान से आकृष्ट हुए? और केवल आकृष्ट ही नहीं हुए और शुकदेव गोस्वामी भगवान की भक्ति भी करने लगे।
*श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।*
**अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥*
(श्रीमद् भागवतम् 7.5.23)
अनुवाद:
प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
यह नवविधा भक्ति में से शुकदेव गोस्वामी उनकी क्या ख्याति है? कीर्तनकार, पहले पद पर सबसे ऊपर शुकदेव गोस्वामी कीर्तनकार है। इस भक्ति के प्रतिनिधित्व करने वाले यह भक्त हैं। कीर्तन के शुकदेव गोस्वामी और श्रवण के परीक्षित महाराज और बलि महाराज आत्मनिवेदन के प्रतिनिधित्व है। शुकदेव गोस्वामी भगवान की भक्ति करने लगे। अहैतुकी भक्ति करने लगे। यह कैसे संभव हुआ? वह ब्रह्मवादी थे और मुक्तात्मा थे किंतु वह भगवान से आकृष्ट हुए और भगवान की भक्ति करने लगे और महाभागवत हुए। तो उसके उत्तर में कई सारी बातें हैं। इसी श्लोक में आत्माराम यह श्लोक प्रसिद्ध भी है। *आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे* निर्ग्रन्था मतलब कोई भव बंधन नहीं। ग्रंथि मतलब गांठ। संसार से संस्कारों के संबंधों से हम बंद जाते हैं। तो उसको हृदय ग्रंथि कहते हैं। लेकिन शुकदेव गोस्वामी बन गए निर्ग्रन्था। यह तो बात है वैसे। मुख्य कारण यहां पर बताया जा रहा है कि निर्ग्रन्था, यह सेवानिवृत्त, यह मुक्त आत्मा भगवान के भक्त कैसे हुए और भगवान से आकृष्ट कैसे हुए? *इथम भूत गुणों हरि:* भगवान ऐसे ही है से या भगवान के गुण ही ऐसे हैं, जो सभी को आकृष्ट करते हैं। *आकर्षिति स: कृष्ण* और व्यक्ति जब भक्ति करता है तब यह भक्ति कृष्ण आकर्षिणी बन जाती हैं। भगवान भी आकृष्ट होते हैं भक्त की ओर और भक्त तो होता ही है आकृष्ट भगवान की ओर। भगवान के गुणों से, भगवान के कई सारे गुण हैं। कई सारे मतलब अनगिनत, असंख्य गुण हैं। तो भी उसमें 64 गुणों का उल्लेख हुआ है, रूप गोस्वामी भक्ति रस अमृत संधू में करते हैं। उन 64 गुणों में से 60 गुण विष्णु तत्वों में या भगवान के अवतारों में पाए जाते हैं। लेकिन 4 विशेष गुण हैं, जो केवल कृष्ण में ही पाए जाते हैं। इसके कारण विशेष बन जाते हैं। असाधारण बन जाते हैं, अपवाद बन जाते हैं या फिर इसीलिए वह कह सकते हैं कहीं भी ।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
( भगवत गीता 7.7 )
अनुवाद:- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है । जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है ।
मतलब राम भी नहीं, नरसिंह भी नहीं यह भी नहीं वह अवतार भी नहीं ।
रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु ।
कृष्ण: स्वयं समभवत्परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
( ब्रम्ह संहिता 5.39 )
अनुवाद: -जिन्होंने श्रीराम, नृसिंह, वामान इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान श्री कृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( भगवद् गीता 4.8 )
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
चलता ही रहता है लेकिन उन सभी में मैं जो कृष्ण हूं “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति” कोई भी नहीं है । जीवो को तो भूल ही जाओ और देवताओं को तो दूर रखो यहां तक की अवतार जो है यह भी मेरे जैसे नहीं है, मेरे समकक्ष नहीं है । “समुर्ध्वंम” “असमुर्ध्वंम” कहा है । भगवान कैसे हैं असम “समुर्ध्वंम” सम और उर्ध्व “समुर्ध्वं” और आगे अ लिखा है । “असमुर्ध्वं” अ मतलब नहीं तो कृष्ण जैसे कोई नहीं है और “ऊर्ध्व” मतलब ऊपर । 10 दिशाओं में 9वी दिशाओं है, वैसे पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, अग्नेर, नैरति, वायु, विशान्य यह 8 दिशाएं हुई और फिर 9वी दिशा है । 10 दिशा कहते हैं ना 10 दिशा पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, अग्नेर, नैरति, वायु, विशान्य 8 हो गई । ऊर्ध्वंम एक । एक दिशा है ऊपर “उर्ध्वंम” और फिर “अधः” नीचे तो भगवान इस शब्द में कहा है “असमुर्ध्वं” कृष्ण के समान भी कोई नहीं है और “ऊर्ध्वम” का फिर प्रश्न ही नहीं है, समान ही नहीं है कोई तो उर्ध्व को भूल ही जाओ तो ऐसे हैं कृष्ण तो ऐसे कृष्ण क्यों बने हैं कैसे बने हैं तो “ईथम् भुत गुणो हरिः” इस आत्माराम श्लोक में जो ग्रंथ राज श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के सातवें अध्याय का यह 10 वा श्लोक है । आप इसे चाहे तो नोट कर सकते हैं तो कृष्ण के जो गुण है विशेष गुण है तो वह गुण है भक्ति रसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी प्रभुपाद समझाते हैं भगवान का वेणुमाधुर्य । यह कृष्ण का वैशिष्ट्य है । वेणुमाधुर्य, लीलामाधुर्य, रूपमाधुर्य, प्रेममाधुर्य ऐसा कहने वाला एक श्लोक भी है भक्ति रसामृत सिंधु में । आप खोज सकते हो तो इन गुणों के कारण “ईथम् भुत गुणो हरिः” तो प्रश्न पूछा गया था की ; क्या हुआ कैसे हुआ यह सुकदेव गोस्वामी जैसा यह निवृत्ति नीरोत्तम यह मुक्त आत्मा यह भगवान से कैसे आकृष्ट हुआ ? और भगवान का भक्ति कैसे करने लगा ? “कुरूर्वंति अहेतुकी भक्तिम्” या “ऊरुक्रमें” ऊरुक्रम ही, भगवान का एक संबोधन है “ऊरुक्रम” तो ऐसे हैं कृष्ण । इसी के साथ वैसे कृष्ण का गौरव हो रहा । कृष्णा के गुणों का उल्लेख हो रहा है और यह गुण भी ऐसा हम कहते रहते हैं, अगर हम समझ सकते हैं तो, तो यह गुण भी भगवान है । अभी अभी कहा ब्रह्म और परमात्मा और भगवान यह एक ही है कहने जा रहे हैं भगवान का नाम, भगवान का रूप, भगवान के गुण, भगवान के लीला, भगवान का धाम, यह सब एक ही है यह भगवान ही है । भगवान से यह अभिन्न है । दूसरा शब्द आगया तो गुणों से आकृष्ट हुए मतलब क्या ? गुण भगवान से अलग थोड़ी ही है ! ऐसे ऐसे गुण वाले भगवान । हरि हरि !!
तो हम थोड़ा ही कुछ कह रहे हैं इस श्लोक के संबंध में । किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी यह जो आत्माराम श्लोक है यह जगन्नाथपुरी में सार्वभौम भट्टाचार्य को सुनाया या मैं सोच रहा था कि चैतन्य महाप्रभु की मध्यलीला, मध्यलीला समझते हो ? मध्यलीला कुछ जगन्नाथ पुरी से प्रारंभ होती है । यह मध्यलीला प्रारंभ होने जा रही थी तब सार्वभौम भट्टाचार्य को जगन्नाथ पुरी में चैतन्य महाप्रभु इस आत्माराम श्लोक पर व्याख्या सुनाएं और आत्माराम श्लोक की व्याख्या सार्वभौम भट्टाचार्य को सुना रहे थे और पता है सार्वभौम भट्टाचार्य कौन है ? स्वयं बृहस्पति । स्वयं बृहस्पति प्रकट हुए हैं चैतन्य लीला में सार्वभौम भट्टाचार्य बने हैं । वृहस्पति कौन है ? वे गुरु हैं 33 करोड़ देवताओं के जो गुरु हैं वह बने हैं सार्वभौम भट्टाचार्य और अब वे जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु के शिष्य बने हैं । मानना पड़ेगा बन गए और यह आत्माराम श्लोक पर चैतन्य महाप्रभु की व्याख्या सुनकर और भी कुछ घटनाएं घटती है कारण बन जातें है किंतु इस बृहस्पति ने सुनी चैतन्य महाप्रभु ने की हुई व्याख्या आत्माराम श्लोक पर व्याख्या की तो मान गए । यह तो साक्षात भगवान होने चाहिए । यह ज्ञानवान, देखो उनका ज्ञान चैतन्य महाप्रभु का ज्ञान देखो ।
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञान वैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥
अनुवाद:- सम्पूर्ण ऐश्वर्य , वीर्य ( जगत् को धारण करने की शक्ति विशेष ) , यश ,श्री ,सारा ज्ञान , और परिपूर्ण वैराग्य के समुच्चय को भग कहते हैं. इस तरह से भगवान शब्द से तात्पर्य हुआ उक्त छह गुणवाला, और कई शब्दों में ये6 गुण जिसमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान कहते हैं ।
यह भगवान के अच्छे ऐश्वर्य है, वैभव है पेडऐश्वर्य पूर्ण भगवान है तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने ज्ञान का कुछ थोड़ा हल्का सा प्रदर्शन किया और उससे प्रभावित होके शरण में आए मान गए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को तो फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने षड़भुज दर्शन दीया । मतलब समझाये कि मैं राम हूं, मैं कृष्ण हूं मैं वही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब मैं हूं तो आत्माराम श्लोक पर की हुई व्याख्या से भी प्रभावित हुए यह सार्वभौम भट्टाचार्य और उनको साक्षात्कार हुआ भगवद् साक्षात्कार । चैतन्य महाप्रभु साक्षात्कार, चैतन्य महाप्रभु की साक्षात परम पुरुषोत्तम श्री भगवान हैं । यह साक्षात्कार हुआ तो यह साक्षात्कार हुआ या संवाद कहो । चैतन्य महाप्रभु के मध्यलीला के प्रारंभ में हुआ और फिर पुनः श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु लगभग 6 वर्षों के उपरांत दक्षिण भारतीय यात्रा हुई फिर पूर्व बंगाल, बांग्लादेश यात्रा हुई और फिर वृंदावन, उत्तर भारत, झारखंड, वृंदावन की यात्रा भी की और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अब पिछले 6 वर्षों से वे भ्रमण कर रहे थे और …
श्री – राधार भावे एवे गोरा अवतार ।
हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार ॥ 4 ॥
( जय जय जगन्नाथ शचिर नंदन , वासुदेव घोष )
अनुवाद:- अब वही भगवान् श्रीकृष्ण राधारानी के दिव्य भाव एवं अंगकान्ति के साथ श्रीगौरांग महाप्रभु के रूप में पुनः अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने चारों दिशाओं में ” हरे कृष्ण ” नाम का प्रचार किया है ।
हरे कृष्ण महामंत्र का प्रचार प्रसार और इस धर्म की स्थापना कर रहे थे । “धर्मसंस्थापनार्थाय”
कलि – कालेर धर्म – कृष्ण – नाम – सङ्कीर्तन ।
कृष्ण – शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन ॥
( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 7.11 )
अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है । कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता ।
यह समझा रहे थे ! केवल भाषण देके ही नहीं, अपने आचरण से स्वयं ही कीर्तन कर रहे थे, नृत्य कर रहे थे । हरि हरि !! तो उसी के साथ उन्होंने धर्म की स्थापना हरे कृष्ण कीर्तन धर्म की स्थापना की है और अब जगन्नाथपुरी लौट रहे हैं, अब लौटेंगे जगन्नाथपुरी तो फिर जगन्नाथ पुरी के बाहर एक पग भी नहीं रखने वाले हैं । ठीक है ! उनके जो शेष पड़ा था परिभ्रमण चल रहा था पिछले 6 वर्षों से अब अंत में रुक गए वाराणसी में । बनारस में, गंगा के तट पर और फिर यहां होता है संवाद वह भी शुकदेव गोस्वामी और राजा परीक्षित का संवाद भी भागवद् का संवाद गंगा के तट पर हुआ हस्तिनापुर के बाहर और यहां अब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और सनातन गोस्वामी का संवाद होगा । 2 महीने चलेगा संवाद तो इस संवाद के अंतर्गत, वैसे सनातन गोस्वामी विशेष निवेदन किए । ओ ! आपने जो शुभम भट्टाचार्य जो आत्माराम की व्याख्या सुनाई थी मैं भी सुनना चाहता हूं, मुझे भी सुनाइए तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु; उन्होंने कहा की अरे क्या मैंने सुनाया ! मैं भी एक बातुल, पागल और सार्वभौम भट्टाचार्य वह भी दूसरा पागल पता नहीं मैंने क्या-क्या कहा तो यह ऐसा पागलपन वैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा ही था ।
किवा मन्त्र दिला , गोसायि , किबा तार बल ।
जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.81 )
अनुवाद:- हे प्रभु , आपने मुझे केसा मन्त्र दिया है ? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ ।
तो ऐसे पागल, पगला बाबा । मैंने सुनाया और दूसरे पागल ने सुना ठीक है तुम भी सुनना चाहते हो तो सुनो सही तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आत्माराम श्लोक को और भी व्याख्या किए । इसमें से एक एक शब्द जो है आत्माराम श्लोक कीसको कहते हैं, एक एक शब्द नहीं ! एक एक अक्षर की किए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और कुल मिलाकर 64 हो गए । 64 प्रकार से व्याख्या सुनाए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस आत्माराम श्लोक की व्याख्या । उसी प्रकार से उन्होंने, चैतन्य महाप्रभु ने व्याख्या की और ऐसी व्याख्या तो बस भगवान ही कर सकते हैं । इससे भी सिद्ध होता है कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान है और इससे भी सिद्ध होता है की ..”मत्तः परतरं नान्यत” “असमुर्ध्वंम” तो यह अतुलनीय है । आप कभी पढ़िएगा यह आत्माराम श्लोक पर जो व्याख्या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु किसको किसको सुनाएं ? एक तो सार्वभोम भट्टाचार्य को सुनाएं पता है वह कौन थे ? बृहस्पति थे और फिर सनातन गोस्वामी को वाराणसी में सुनाएं जो एक मंजरी । अब एक पुरुष देह को धारण करके, स्वीकार करके सनातन गोस्वामी बने हैं “सनातन” । इसी के साथ वैसे यह जो चैतन्य चरितामृत है या श्रील प्रभुपाद इसको जो पोस्ट ग्रेजुएशन कहते हैं । यह एक पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्स है । भागवद् तो वैसे ग्रेजुएट अध्ययन लेकिन चैतन्य चरितामृत एक उच्चतम शिक्षा है तो ऐसा है यह । भागवद् भो ऐसा है, चैतन्य चरितामृत भी वैसा ही है । इसीलिए वैसे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी कहे चैतन्य चरितामृत के संबंध में कहे
श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा ।
चिन्त्यतां चिन्त्यतां भक्ताश्चैतन्य – चरितामृतम् ॥
( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 12.1 )
अनुवाद:- हे भक्तों , श्री चैतन्य महाप्रभुका दिव्य जीवन तथा उनके गुण पूर्वक नित्य ही सुने , गाये तथा ध्यान किये जाँय ।
इसको सुनो इसको सुनो । चैतन्य चरितामृत को सुनो । सुनो सुनाओ और इसका चिंतन करो, मनन करो या भागवद् और चैतन्य चरितामृत दोनों चर्चाएं यहां एक साथ हो रही है तो “श्रुयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा” और “चिन्त्यतां चिन्त्यतां भक्त्या” चिंतन करो भक्ति पूर्वक । चैतन्य चरितामृत का, भागवद् का और क्यों नहीं भगवद् गीता का भी । ना हम आगे नहीं बढ़ सकते गीता तो नींव है । ठीक है ।
॥ हरि हरि ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*14 अगस्त 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 855 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!
कई भक्त मॉरीशस, वर्मा, थाईलैंड, यूक्रेन, रशिया, नेपाल, बांग्लादेश इत्यादि से भी सम्मिलित हैं। इस तरह से हम एक बड़े परिवार की तरह हैं। वसुदेव कुटुम्बकम। हम इसका भी अनुभव करते हैं जब हमारे साथ देश विदेश से भक्त मिलकर जप करते हैं। यहां पर कोई विदेशी है ही नहीं, इस संसार में चलता है देश-विदेश, ईस्ट वेस्ट, अपना पराया, लेकिन हम भक्तों के लिए क्या है, सभी लोग अपने ही हैं। हैं या नहीं? कोई पराया नहीं है। सभी भगवान के हैं। भगवान किसके हैं? भगवान मेरे हैं। मेरे भगवान के सभी लोग, मेरे हो गए। भगवान मेरे और मेरे भगवान के सभी लोग, मेरे लोग हो गए। पराए का प्रश्न ही नहीं है। यह संसार ऐसे द्वंद उत्पन्न करता है। द्वंद का मतलब समझते हो? द्वंद अर्थात दो जैसे अपना पराया, देशी विदेशी, काला गोरा, स्त्री पुरुष इत्यादि। इसका कोई अंत ही नहीं है। थोड़े में कहा जा सकता है कि यह संसार द्वंद्वों से भरा है। सुख है- दुख भी है। हरि हरि! सदाचारी है तब फिर दुराचारी भी होने चाहिए। इस संसार में ऐसा ही है। यह संसार है लेकिन हमें इस संसार में नहीं रहना है। हमें इस द्वंद से परे पहुंचना है। जैसा कि भगवतगीता में कृष्ण ने कहा
*यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||*
( भगवतगीता 4.22)
अनुवाद: जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं।
ऊपर वाले की इच्छा से जो भी प्राप्त है, उसी में संतुष्ट रहो। द्वंद के अतीत पहुंचो। क्या करना है? द्वंद से अतीत पहुंचना है। द्वन्द्वातीत को ही गुणातीत कहा जाता है अर्थात गुणों से परे। इन तीन गुणों में से ही यह रजोगुण द्वंद उत्पन्न करता है। रजोगुण से द्वंद होता है, रजोगुण से इस संसार में प्रतियोगिता, ईर्ष्या द्वेष चलते रहते हैं ।हरि! हरि!
*मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्।आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडित:।।* (चाणक्य नीति)
अनुवाद:- जो कोई पराई स्त्री को अपने माता की तरह, पराए धन को धूल के समान तथा सारे जीवों को अपने समान मानता है, वह पंडित माना जाता है।
(शायद आपको पता होगा पूरा समझाने का समय भी नहीं है) कुछ दिन पहले या शायद कल ही कुछ भक्तों ने कहा था-
मातृवत् परदारेषु, सभी स्त्रियां माता के समान है। परद्रव्येषु लोष्टवत्। इस प्रकार एक अक्षर एक् अक्षर को सुनना चाहिए, एक-एक शब्द को सुनना चाहिए, समझना चाहिए लेकिन हम सुनते नहीं हैं। हम पूरा वाक्य सुनते हैं लेकिन हम हर शब्द और हर अक्षर को सुनते नहीं है। हम पूरा महामंत्र एक ही बार सुनते हैं। हमारे भूरिजन प्रभु जब जपा रिट्रीट करते हैं, कहते हैं कि हर शब्द को सुनो, हर अक्षर को सुनो। हरि नाम महामंत्र में कितने अक्षर हैं? कितने हैं? (अभी गिनना प्रारंभ करोगे)
आपके मुख में कितने दांत हैं? कभी गिना है? जितने दांत आपके मुख में, उतने ही अक्षर महामंत्र में हैं। इसलिए उसे
बदनभरी भी कहा है। भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं- बलेन बोलो अर्थात थोड़ा ताकत के साथ भगवान का नाम लेते हैं। अरे अरे बोलो, वदन हरि।
मुख भर के बोलो। है मुख में 32 दांत हैं। पूरे मुख का उपयोग करो औऱ सभी अक्षरों को सुनो, हर शब्द को। बलेन बोलो ना वदन हरि। यह जो सूक्ष्मता है इसकी और ध्यान देना चाहिए। कितना सूक्ष्म है। अनस्पर्श है, मेरी सम्पति नहीं है। हम छुऊँ भी नहीं। ऐसा सूक्ष्म दृष्टिकोण, गहराई में पहुंचना है। भगवान सूक्ष्म अति सूक्ष्म है। हमारी आत्मा भी वैसे ही है। (पता नही मैं क्या क्या कह रहा हूं। जो भी मन में आता जा रहा है, ऐसे ही कहते जा रहा हूँ ।)
लोष्टवत मतलब कूड़ा करकट, कंकड़, पत्थर । परद्रव्येषु- हम अन्यों का द्रव्य, वस्तु, संपत्ति को छुएंगे ही नहीं। हम स्पर्श भी नहीं करेंगे क्योंकि वो मेरी संपत्ति नहीं है। हरि! हरि! भगवान ने जो मुझे दिया है, उसी में हम संतुष्ट रहेंगे।
*ईशावास्यमिद्ँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्।।*
( ईशोपनिषद मंत्र१)
अनुवाद:- इस ब्रह्माण्ड के भीतर की प्रत्येक जड़ अथवा चेतन वस्तु भगवान द्वारा नियंत्रित है और उन्हीं की संपत्ति है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करें जो उसके लिए आवश्यक है, जो उसके भाग के रूप में नियत कर दी गई हैं। मनुष्य को यह भली-भांति जानते हुए कि अन्य वस्तुएं किसकी हैं, उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए।
इसी के साथ हमनें ‘ईशावास्यमिद्ँ सर्वं’ का पालन किया।
अन्यों की सम्पति को छूना और तिरछी नज़र से देखना तक नहीं है । संसार की जो समस्याएं हैं, उनका ईशावास्यमिद्ँ सर्वं- सुलझन है। परद्रव्येषु लोष्टवत- वैसे सभी मतलब की बातें ही हैं लेकिन मैं जो कह रहा हूँ- याद रखिये- आत्मवत् सर्वभूतेषु। वैसे आपको कहना आना चाहिए। आत्मवत् सर्वभूतेषु। (राखी तुम्हें याद हुआ? सुन तो लिया?) आत्मवत् सर्वभूतेषु संसार में जो भी लोग हैं, वह कैसे हैं? आत्मवत् हैं । मेरे जैसे ही हैं, मेरे ही हैं। इसीलिए मैं उनके साथ वैसा ही व्यवहार करूंगा अथवा मेरा उनके साथ व्यवहार वैसा ही रहेगा, जैसा कि मैं स्वयं के साथ करता हूं। यदि मैंने दूसरे को तमाचा लगाया तो मैं स्वयं को ही तमाचा लगा रहा हूं ।
यदि मैं ऐसा नहीं करना चाहता तब मैं औरों को क्यों तमाचा लगाऊं? मुझे कष्ट होता है जब कोई तमाचा लगाता है या कुछ गाली गलौच होता है। इसलिए मैं औरों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करूंगा। वैसे यह कृष्ण भावना भी है। पहले तो हम कृष्ण भावना भावित् हैं फिर हम जीव भावना भावित भी हो जाएंगे । कृष्ण कॉन्शसनेस (भावना) पूर्ण हो जाती है,जब हमारे अंदर जितने भी जीव हैं उनके लिए भी चेतना हो जाती है अथवा हम उनके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं उनका जो भगवान के साथ संबंध है, वह भी समझ लेते हैं। हमारा उनके साथ संबंध है इसको भी समझ लेते हैं। वह हमारे ही परिवार के हैं, हम समझ गए। वे हमारे परिवार के क्यों हैं? क्योंकि कृष्ण इस परिवार के द हेड ऑफ फैमिली हैं। हमारे परिवार के मुखिया कौन हैं? कृष्ण हैं।
कहते हैं ना कि-
*त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रव्य द्रव्य त्वमेव ।त्वमेव सर्वम् मम देव देव।*
अनुवाद:- हे भगवान्! तुम्हीं माता हो, तुम्हीं पिता, तुम्हीं बंधु, तुम्हीं सखा हो, तुम्हीं विद्या हो, तुम्हीं द्रव्य, तुम्हीं सब कुछ हो। तुम ही मेरे देवता हो।’
कितना कहूं, रुक जाता हूं क्या कहूं। आप ही सब कुछ हो, आप ही हेड ऑफ द फैमिली हो ही।
*सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः | तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ||*
( श्रीमद् भगवतगीता १४.४)
अनुवाद- हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ |
भगवान् ने भगवत गीता में कहा ही है। आत्मवत् सर्वभूतेषु। कृष्ण भावना भावित होना मतलब कृष्ण को जानना, कृष्ण की सेवा करना, कृष्ण से प्रेम करना तत्पस्च समाप्त। यदि हम इतना ही समझे हैं तो हम समझे नहीं हैं। यह नासमझी है, हमारी समझ कुछ अधूरी है। जीवों को भी समझना है।
*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||*
( श्रीमद् भगवतगीता BG 15.7)
अनुवाद : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
उनको भी समझना है, उनको भी प्रणाम करना है, उनकी भी सेवा करनी है और उनको भी प्रेम करना है। उनके साथ भी हमारे मैत्रीपूर्ण व्यवहार होने चाहिए। वैसे तो कहा ही है- ईश्वर से प्रेम करना चाहिए।
*ईस्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।प्रेममैत्रीकृषोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥*
(श्रीमद् भागवतम् 11.2.46)
अनुवाद- द्वितीय कोटि का भक्त, जो मध्यम अधिकारी कहलाता है, भगवान् को अपना प्रेम अर्पित
करता है, वह भगवान् के समस्त भक्तों का निष्ठावान मित्र होता है, वह अज्ञानी व्यक्तियों पर दया करता है जो अबोध है और उनकी उपेक्षा करता है, जो भगवान् से द्वेष रखते हैं।
तदधीनेषु, भगवान् के अधीन जो जीव है, उनसे मैत्री करनी चाहिए।
बालिशेषु – जैसे बालक भोले भाले व श्रद्धालु होते हैं, उन पर कृपा करनी चाहिए । द्विषत्सु जो द्वेषीजन हैं- हरे कृष्ण! हरे कृष्ण! ( तुम सो रहे हो, नींद आ रही है) गौरांगा कुछ करो)
द्विषत्सु जो द्वेष करने वाले हैं। विष्णु और वैष्णवों के जो द्वेषीजन हैं, हमें उनकी उपेक्षा करनी चाहिए। यह पिछले 1 मिनट में जो मैंने कहा वे मध्यमा अधिकारी के लक्षण हुए।
प्रभुपाद कहा करते थे कि हमें कम से कम द्वितीय स्तर का अधिकारी तो बनना ही चाहिए। लक्ष्य तो हमारा उत्तम अधिकारी बनने का होना चाहिए। तीन प्रकार के अधिकारी व स्तर हैं। कनिष्ठ अधिकारी कोई पदवी तो नहीं है लेकिन कुछ लोग वैसे ही रह जाते हैं। कहने में अच्छा भी नहीं लगता की वह थर्ड क्लास का भक्त है। कनिष्ठ अधिकारी। तृतीय श्रेणी के भक्त जो भगवान से प्रेम करता है और भक्तों के चरणो में अपराध करता है। इतना ही है, तीसरी श्रेणी के भक्तों से भगवान भी प्रसन्न नहीं हैं। प्रभुपाद कहा करते थे कि मध्यम श्रेणी के भक्त तो बनो।
कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम। यह जो शब्दकोश है, हमें सीखना चाहिए। यह हमारी भाषा होनी चाहिए। यह हमारे शब्द होने चाहिए। इस भाषा में हमें बोलना चाहिए। दुनिया की भाषा तो हम बोलते सुनते रहते हैं। जो हम सुनते हों, फिर उसी को बकते रहते हैं। लेकिन यह शास्त्र की भाषा जो है वह शास्त्र प्रमाण है।
शास्त्र क्या है? शास्त्र प्रमाण है। शास्त्र के जो वचन अथवा शब्द हैं, हमें उन्हें भी याद रखना चाहिए। उनको कहना चाहिए, इसे कहते कहते और जब हम लोग प्रवचन करना शुरू करेंगे, कुछ भाषण, संभाषण के पश्चात वही भाषा बोलेंगे जो कि शास्त्र या भगवान की भाषा है। यह ऋषि मुनियों की भाषा है। भाषा संस्कृत भी है। हरि! हरि! वैसे ही शब्द बोलते बोलते हमारा शुद्धिकरण होगा क्योंकि शब्द शुद्ध भी हैं पवित्र भी हैं। हमारे शुद्धिकरण की शक्ति सामर्थ्य इन शब्दों, वाक्यों , वचनों, श्लोकों, इन भावों में है।
हमें जीवों से प्रेम करना है। हम यहीं फेल होते हैं। हम भगवान की सेवा में तो आगे आगे रहते हैं लेकिन जब भक्तों की सेवा का समय आता है तो हम पीछे हटते हैं परंतु भगवान को उनके भक्त इतने प्रिय हैं
*श्रीभगवानुवाच*
*अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥*
( श्रीमद् भगवातम 9.4.63)
अनुवाद:- भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ । निस्सन्देह , मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ । चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ । मुझे मेरे भक्त ही नहीं , मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं ।
मैं भक्तों के अधीन हूं।
*साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् । मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥*
( श्रीमद् भगवतगीत 9.4.68)
अनुवाद:- शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ । मेरे भक्त मेरे सिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता ।
साधु मेरा हृदय है, साधुओं के हृदय में मैं रहता हूं। मेरे हृदय में साधु रहते हैं और साधुओं के सिवा और मैं किसी को नहीं जानता। साधु भी मुझे छोड़कर और वे किसी को नहीं जानते। ऐसे साधु, ऐसे भक्त अंततः सभी जीव एक ही हैं। कुछ समय के लिए भूल गए हैं। ऐसे जीवों की भक्तों , संतों की सेवा हमें करनी चाहिए।।
सूत उवाच
*यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥*
(श्रीमद् भगवातम 1.2.2)
अनुवाद:- श्रील सूत गोस्वामी ने कहा : मैं उन महामुनि ( शुकदेव गोस्वामी ) को सादर नमस्कार करता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं। जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करने चले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग के भय से आतुर होकर चिल्ला उठे , ” हे पुत्र , ” उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे , केवल ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया ।
शुकदेव गोस्वामी को प्रार्थनाएं कर रहे थे। उन्होंने ये प्रार्थनाएं की और अपने गुरु महाराज की वंदना की।
वे वंदना कर रहे हैं- उन्होंने कहा
*प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि।।*
शुकदेव गोस्वामी जो शुक मुनि हैं, के चरणों में मुनिमानतोऽस्मि।
मैं नमस्कार करता हूं, नतमस्तक होता हूं। लेकिन शुकदेव गोस्वामी कैसे हैं?
सर्वभूतहृदयं। इसको नोट करो। सब भूतों के (भूत शब्द भी ऐसा है शुकदेव गोस्वामी सभी जीवों से प्रेम करते हैं। सभी जीवों के दिल की बात को जानते हैं, उनके भावों को समझते है।
*सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि*
वह सभी से स्नेह करते हैं। वह पर दुख दुखी हैं ।अन्यों का दुख देखकर दुखी होते हैं और फिर कुछ करते भी हैं। वे औरों के दुख को हटाने घटाने के लिए कुछ करते भी हैं और उन्होंने वही किया। श्रीमद् भागवत कथा सुनाई। क्यों सुनाई? हम सभी दुखियों को सुखी बनाने के उद्देश्य से शुकदेव गोस्वामी ने कृपा की और श्रीमद् भागवतं संसार भर को कथा सुनाई।
एक बार उन्होंने गंगा के तट पर कथा सुनाई। कलयुग के कितने साल बीत चुके थे? जब शुकदेव गोस्वामी ने कथा सुनाई थी, तब कलयुग कितने साल का था? (आप उंगलियां दिखा रहे हो लेकिन..लेकिन उत्तर है 30 साल। (राखी कोई सिग्नल दे रही है लेकिन मैं पढ़ नहीं पा रहा हूं । 3 उंगली और जीरो। ऐसा कुछ किया। ) हरि! हरि! लगभग कलयुग 30 साल का था, बच्चा था, तब उन्होंने इस कथा को सुनाया। हरि! हरि! और उन्होंने सारे संसार के ऊपर कृपा की। सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ‘ हमें भी यह करना और सीखना है। भगवान के भक्तों की, जीवों की सेवा के कुछ उपाय या माध्यम आप सोचो, इसको कहा भी है जीवे दया, नामे रुचि, वैष्णव सेव,। नाम में रुचि होनी चाहिए और साथ में क्या क्या होना चाहिए? वैष्णव सेवा, वैष्णवों की सेवा करनी चाहिए। जीवे दया अर्थात जीवों पर दया दिखाओ।
*निन्दसी यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयह्रदय! दर्शित- पशुघातम। केशव! धृत- बुद्धशरीर! जय जगदीश हरे!*
( श्री दशावतार स्त्रोत)
अनुवाद:- हे केशव!हे जगदीश! हे बुद्ध का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! तुम्हारा ह्रदय दया से परिपूर्ण है, तुम वैदिक यज्ञ- विधि की आड़ में सम्पन्न पशुओं की हिंसा की निंदा करते हो।
बुद्धदेव ने भी दया दिखाई, जब इतनी सारी पशुहत्या हो रही थी। उस समय भगवान् बुद्धदेव के रूप में प्रकट हुए।
जयदेव गोस्वामी ने दशावतार स्त्रोत में लिखा है। वे लिखते हैं-
सदयह्रदय! दर्शित- पशुघातम।
पशुओं के जो वध होते थे। सदयह्रदय! देखो! दया शब्द जैसे छिपा हुआ है। उनको पकड़ना चाहिए। स ,सदय। स मतलब के साथ, दय अर्थात दया के साथ।
उन्होंने दया का दर्शन प्रदर्शन किया उन्होंने। पशु हत्या बंद की उन्होंने।
अहिंसा परमो धर्म
( महाभारत)
अहिंसा परम धर्म है।
उन्होंने ऐसी भी घोषणा की ।
उन्होंने ऐसा किया तो सही , पशु हत्या बंद की, अभी के जो बौद्ध पंथीय है, वे क्या करते हैं, वह सारे हिंसक है। मांस भक्षण करते रहते हैं।
मैंने कई देशों में देखा है, वर्मा में भी देखा। म्यांमार में बौद्ध धर्म इतना प्रचार, इतने मंदिर वर्मा में है। उनके इतने बौद्धपंथीय अनुयायी हैं लेकिन वहां भक्षण है, वे मांस खूब खाते रहते हैं। जी भर के खाते ही रहते हैं। बुद्धदेव ने अहिंसा का प्रचार किया और पशुवध बंद किया, उनके अनुयायी ही ऐसे धंधे कर रहे हैं, तब यह कैसे बौद्धपंथीय हैं, वे किस तरह के अनुयायी हैं। वही समय था। जब बुद्ध देव 2500 वर्ष पूर्व प्रकट हुए। उसके २००० वर्ष बाद हमारे जीसस क्राइस्ट हुए, उन्होंने भी पशु हत्या बंद करने के लिए प्रचार व प्रयास किए। दाऊ शॉल नॉट किल पशु हत्या नहीं करनी चाहिए। केवल कहा ही नहीं। मिडल ईस्ट में वहां भी कर्मकांड चलता था। यज्ञ में पशुओं की हत्या या आहुति चढ़ती थी। मिडल ईस्ट ज़्यादा दूर नही है भारत में भी होता था। बुद्धदेव ने इसको रोकने के लिए सफल प्रयास किया।
इसके उपरांत जो ईसा मसीह प्रकट हुए, उन्होंने भी मिडिल ईस्ट में पशु हत्या अर्थात जिन पशुओं जैसे मुर्गी, गायों या हो सकता हैं ऊंटों व अन्य पशुओं को भी वहां वध के लिए पहुंचा देते थे।( मैंने एक डॉक्यूमेंट्री में देखा था) इसाई मसीह उन सारे पशुओं मुर्गी इत्यादि को आजाद कर देते थे। सभी उनको रोकने का प्रयास करते थे, विरोध करते थे। लेकिन वे पशुओं को भेज देते थे, यहां से जाओ।
हरि हरि।
कहा है सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि या कहा है?
नाम में रुचि, जीवे दया, वैष्णव सेव कहा है? ओके!
ठीक है! हम पूर्णतया कृष्ण भावना भावित हो गए हैं या होंगे। जब हम समझेंगे, तब हम भगवान की भी सेवा करेंगे और जीवों की भी सेवा करेंगे। वैष्णवों की सेवा करेंगे ।जीवों में दया का प्रदर्शन करेंगे। उसके लिए केवल लिप सर्विस नहीं होगी, हम उसके लिए कुछ कदम उठाएंगे।
*यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश ॥*
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 7.128॥)
अनुवाद:- ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
हम स्वयं करेंगे। हम प्रसाद का वितरण भी कर सकते हैं या श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों का वितरण कर सकते हैं। एक दिवस की पदयात्रा भी कर सकते हैं।
कीर्तन को बांटों।
राम नाम के हीरे मोती बिखराऊं में गली गली।
बहुत कुछ किया जा सकता है। श्रील प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना करके हम सब को एक मंच/ प्लेटफार्म तैयार करके दिया है। जहां से हम परोपकार का कार्य अर्थात वैष्णव सेवा, जीवे दया का कार्य कर सकते हैं। सेवा कर सकते हैं और यह करते-करते ही हम अधिक अधिक कृष्ण भावना भावित होते जाएंगे। कृष्ण भावना भावित मतलब कांशसनेस ऑफ कृष्ण। साथ ही साथ जीवों को जोड़ेंगे। कृष्ण, जीवों / भक्तों के बिना अधूरे हैं। ठीक है। इस पर विचार करो, चिंतन करो, मनन करो, स्मरण करो। ऐसा जीवन जीते रहो, जीते रहो।
हरि हरि!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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१३ अगस्त २०२१
हरे कृष्ण!
हमारे पास ८५२ स्थानों से जाप करने वाले भक्त हैं। आज गुरुकुल के छात्रों को जाप करते देखा क्या..? क्या आपने मायापुर मंदिर, योगपीठ देखा? और क्या आपने श्रील प्रभुपादजी को जाप करते हुए देखा..? चलना और जाप करना।
वह स्थान लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया में न्यू द्वारका था जो एक समय में मुख्यालय था। न्यू द्वारका वह स्थान था जहाँ श्रील प्रभुपादजी नामजाप कर रहे थे। ध्वनि फित
(ऑडियो) में श्रील प्रभुपादजी ने कहा, “यह हमारा परिचय होना चाहिए – मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं हूं जैसा कि श्री चैतन्य महाप्रभुजी ने प्रचारित किया था। हम सभी को कुछ कर्तव्य निभाने हैं लेकिन हमंं सेवक का सेवक बनना चाहिए वृंदावन की गोपियों का सेवक! हमें सभी पद छोड़कर भगवान कृष्ण की सेवा करनी चाहिए – गोपी जन वल्लभ! भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को क्यों उठाया जो गोपियों की रक्षा के लिए है। जैसे भक्तों की इच्छा केवल भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने की होती है। भगवान श्रीकृष्ण भी हमेशा सोचते हैं कि अपने भक्तों की रक्षा कैसे करें। भगवान के लिए, सभी समान हैं। लेकिन उनके नाम का जाप करने वालों के लिए – वे उन भक्तों की ओर अधिक आकर्षित होते हैं। हमें अपनी सभी इंद्रियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए। हमारा शरीर है भगवान श्रीकृष्ण की सेवा करें जैसे एक नौकर अपने मालिक की सेवा करता है। कल्पना कीजिए कि अगर कोई नौकर मुझसे वेतन लेता है और दूसरे मालिक की सेवा करता है, तो वह नौकरी जल्द ही छीन ली जाएगी। या तो हम भगवान श्रीकृष्ण की या माया की सेवा करते हैं।
जेल के बाहर और अंदर सरकार का शासन है यदि हम नियमों का पालन नहीं करते हैं तो हमें तब तक दंडित किया जाना चाहिए जब तक कि हम भगवान श्रीकृष्ण की सेवा नहीं करते, हमें आनंद के लिए अलग-अलग शरीर मिलते रहते हैं। यह शरीर भगवान श्रीकृष्ण की सेवा करने का साधन है । जैसे यात्रा करने के लिए अलग-अलग कारें हैं, वैसे ही आनंद लेने के लिए हमारे पास अलग-अलग शरीर हैं। जानवर की तरह सुअर मल खाने और आनंद लेने की इच्छा रखता है। ५००० साल पहले भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए थे, लेकिन उससे भी पहले ४००लाख वर्ष पहले भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए और सूर्य देव विवस्वान को यह दिव्य ज्ञान सुनाया। सूर्य के राज्य में, रथ, वैज्ञानिक आदि सब कुछ था। आज के वैज्ञानिक सूर्य ग्रह पर जाने की कल्पना भी नहीं कर सकते। जैसे हमारा शरीर पांच तत्वों से बना है – सूर्य ग्रह में जीव सूर्य की गर्मी और प्रकाश से बने हैं। समय के साथ, यह शिष्य उत्तराधिकार टूट गया। भगवद-गीता कोई साधारण पुस्तक नहीं है, यह भक्तों के लिए है, ज्ञानी, कर्मी और भक्तोके लिए हैं। भगवद-गीता में सभी का वर्णन किया गया है लेकिन अंतिम उद्देश्य भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति सेवा करना है।
मन्मना भव मद्भक्तो
मद्याजी मां नमस्कुरू
मामेवैष्यसि युक्त्वैव
मात्मानं मत्परायण:
भावार्थ : अपने मन को सदा मेरे ही चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे प्रणाम करो और मेरी पूजा करो। मुझमें पूर्णतया लीन होकर निश्चय ही तुम मेरे पास आओगे। (भ.गी ९.३४)
भगवान श्रीकृष्ण को अपनी गतिविधियों के केंद्र में रखें, लेकिन इसके लिए व्यक्ति को शुद्ध होना चाहिए। जैसा कि श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ‘कृष्णेर संस्कार करी छडी अनाचार…’ कहते हैं – शुद्ध हो जाओ, अपनी पापी आदतों को त्याग दो। भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं,
येषां त्वन्तगतं पापं
जनानां पुण्यकर्मणाम।
ते द्वंन्व्दमोहनिर्मुक्ता
भजन्ते मां दृढव्रत:।।
अनुवाद : पिछले जन्मों में और इस जन्म में जिन लोगों ने पवित्र कर्म किया है और जिनके पाप कर्म पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं, वे भ्रम के द्वंद्व से मुक्त हो जाते हैं, और वे दृढ़ संकल्प के साथ मेरी सेवा में स्वयं को संलग्न करते हैं। (भ.गी.७.२८)
वे सभी जो अपने पापों से शुद्ध हो जाते हैं, केवल वे ही भक्ति सेवा की पापरहित गतिविधियों में संलग्न हो सकते हैं और भगवान श्रीकृष्ण के राज्य तक पहुँचने के योग्य हैं। भगवान शिव या भगवान ब्रह्मा प्रकट हुए और इंद्र भी भौतिक संसार का आनंद लेने के लिए प्रकट हुए। वे भगवान श्रीकृष्ण के सेवक हैं जैसा कि यह कहते है, कृष्णस्तू भगवान स्वयं…। कोई भी अपनी स्थिति से नीचे गिर सकता है और जिवन की ८४लाख प्रजातियों से गुजर सकता है। इसलिए भगवान चैतन्य महाप्रभु कहते हैं,
ब्रह्मांड भ्रमिते कोनो भाग्यवान जीव:
गुरु कृष्ण कृपा पाए भक्ति-लता बीज:
भावार्थ : अपने कर्म के अनुसार समस्त जीव जगत में विचरण कर रहे हैं। उनमें से कुछ को ऊपरी ग्रह प्रणालियों में ऊंचा किया जा रहा है, और कुछ निचले ग्रह प्रणालियों में जा रहे हैं। लाखों भटकते जीवों में से, जो बहुत भाग्यशाली होता है उसे कृष्ण की कृपा से एक प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के साथ जुड़ने का अवसर मिलता है। कृष्ण और आध्यात्मिक गुरु दोनों की कृपा से, ऐसा व्यक्ति भक्ति सेवा की लता का बीज प्राप्त करता है। (चै.च.मध्य १९.१५१)
भगवान श्रीकृष्ण चाहते हैं कि ये मूर्ख भौतिक प्रकृति का आनंद लेना चाहते हैं, उन्हें आनंद लेने दें। जब वे अपने आनंद से थक जाते हैं तो मेरे पास आ सकते हैं।
बहूनां जन्मनामन्ते
ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति
स महात्मा सुदुर्लभ:।।
अनुवाद : अनेक जन्मों और मृत्युओं के बाद, जो वास्तव में ज्ञान में है, वह मुझे सभी कारणों और जो कुछ भी है उसका कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसी महान आत्मा दुर्लभ है। (भ गी ७:१९)
यदि आप वास्तव में सुखी होना चाहते हैं तो भक्ति सेवा करें। जो मेरी भक्ति में लगे रहते हैं वे कभी दुखी नहीं होते।
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो
मोक्षयिष्यामि मा शुच:
भावार्थ : सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग कर मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापपूर्ण प्रतिक्रियाओं से छुड़ाऊंगा। डरो मत। (भ.गी.१८:६६)
भगवान श्रीकृष्ण को अपनी गतिविधियों के केंद्र में रखें । पाप कर्मों का परित्याग करें – अवैध मैथुन, मांसाहार, नशा, जुआ। चाणक्य पंडित कहते हैं, अपनी पत्नी को छोड़कर अन्य सभी महिलाओं को अपनी मां के रूप में मानो अन्यथा यह सीधे नरक का रास्ता है। मांस नहीं खाओ, केवल श्रीकृष्ण प्रसाद पाओ।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं
यो मे भक्त्या प्रयाचति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्रामि
प्रयतात्मन:।।
भावार्थ : यदि कोई मुझे प्रेम और भक्ति से एक पत्ता, एक फूल, एक फल या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे स्वीकार कर लूंगा। (भ.गी.९:२६)
नशा नहीं का मतलब चाय, कॉफी, सिगरेट धूम्रपान, शराब नहीं है। अगर ये सब नहीं करेंगे तो क्या कोई मर जाएगा? नहीं, देखिए कैसे ये हजारों यूरोपीय, अमेरिकी सभी बुरी आदतों को छोड़कर इतने खुश हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण को भोग अर्पित करें, प्रसाद का सम्मान करें, हरे कृष्ण महा-मंत्र का जाप करें और खुश रहें। यह हमारा श्रीकृष्णभावनाभावित दर्शन है और यह हर किसी के लिए है चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, ब्राह्मण हो, इत्यादि।”
हर कोई बड़े ध्यान से सुन रहा था और मैं इस बात से बहुत खुश था। आप में से कई लोग टिप्पणीया भी लिख रहे थे। श्रील प्रभुपादजी द्वारा कही गई इतनी सारी बातों में से आपको कोनसी बाते अधिक पसंद आयी? आपका बोध क्या था? ऐसा क्या है जो आप कभी नहीं भूल पाएंगे?
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*11 अगस्त 2021*
*हरे कृष्ण !*
845 स्थानों से भक्त आज जप में सम्मिलित हैं, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
ओम नमो भगवते वासुदेवाय ! वैसे आप में से कुछ या तो प्रश्न पूछने वाले थे या कमेंट, कल के जप टॉप के ऊपर, लेकिन मुझे आज भी पहले बोलने दो और फिर देखते हैं…., मैं थोड़ा पहले रुकने का प्रयास करूंगा और टॉक के अंत में कल वाला कोई प्रश्न उत्तर या साक्षात्कार है या आज जो कुछ कहूंगा उसके ऊपर भी कुछ कहना है आपको या कुछ विचार है, शंका है, उसका भी समाधान करने का प्रयास करेंगे। कल था भगवत गीता नाउ वी आर जम्पिंग टू भागवतम, ऐसे हम कर रहे हैं कभी गीता तो कभी भागवतम तो कभी चैतन्य चरित्रामृत तो कभी कलयुग दोष निकालते हैं।
*कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः । कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥* (श्रीमद भागवतम 12.3.51)
अनुवाद- हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।
या फिर इसकी चर्चा होती है ऐसी विविधता हमारे प्रेजेंटेशन में हो ही रही है। वैसे सबको पसंद भी होती है वैरायटी, मेरे मन में जो भी आता है आपको सुना देता हूं ज्यादा तैयारी नहीं करता हूं या जब भी किसी समय कुछ विचार आए या कल मैंने जो कुछ पढ़ा था या चिंतन किया था उसी के आधार पर या वही आधार बनता है मैं बोलता रहता हूं हरि हरि ! जपा टॉप होता रहता है और वैसे भी शुकदेव स्वामी की भागवत कथा इस महीने में होने वाली है। उस भागवत कथा की एनिवर्सरी कहिए जब भाद्र पूर्णिमा आएगी तब, भाद्रपद महीने की पूर्णिमा के दिन समापन होगा। नवमी को प्रारंभ करेंगे ऐसा हुआ था इसीलिए मैं बता रहा हूं। कलयुग के कुछ ठीक 30 साल बीत चुके थे। कलयुग जब 30 साल का था आप जानते ही हो, कलयुग कब प्रारंभ हुआ, पता नहीं जानते होंगे या नहीं जानते होंगे ? हमने कई बार कहा तो है
*यदा मुकुन्दो भगवान् क्ष्मां त्यक्त्वा स्वपदं गतः । तद्दिनात् कलिरायातः सर्वसाधनबाधकः ॥* (श्रीमद भागवतम माहात्म्य ६६)
*एतावान् साड्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया। जन्मलाभ: पर: पुंसामन्ते नारायणस्मृति:।।*
( श्रीमद् भागवतम् 2.1.6)
अनुवाद: -पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति के अभ्यास से या स्वधर्म का भलीभाँति पालन करने से मानव जीवन कि जो सर्वोच्च सिध्दि प्राप्त कि जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान् का स्मरण करना।
इसको नोट भी कर सकते हो यदि आप लिख सकते हो। जिस दिन श्याम त्यक्तवा, भगवान पृथ्वी को त्याग कर अपनी पदवी को, अपने धाम को पुनः प्राप्त किए, तद दिन से कलि यहां आ गया और फिर क्या करने लगा? कलि ने अपना धंधा शुरू किया। सर्व साधन बाधकः, साधकों की साधना में बाधा उत्पन्न करना यह कलि का काम शुरू हुआ। तददिनत, उस दिन से, जब भगवान अपने धाम लौटे और 125 वर्ष उन्होंने यहाँ प्रकट लीला खेली, और फिर प्रस्थान किया। जब आगमन हुआ था सभी देवता मथुरा मंडल में पधारे और देवताओं ने गर्भ स्तुति भी की थी। एक स्तुति का नाम है गर्भ स्तुति, श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के द्वितीय या तृतीय अध्याय में होगा, “देवताओं ने की स्तुति” देवता कृष्ण की स्तुति कर रहे हैं। जब गर्भ में हैं तब उन्होंने स्तुति की, स्तुति का नाम है गर्भ स्तुति, जब भगवान का आगमन हुआ, (प्रकट हुआ, जन्म हुआ) तब भी देवता वहां थे और जब वह प्रस्थान कर रहे थे अर्थात स्वधाम लौट रहे थे तब भी देवता वहां पर पहुंचे थे। भगवान ने प्रस्थान किया और फिर 30 साल बीत गए। राजा परीक्षित के प्रस्थान का समय आ चुका है उनको श्राप मिला है 7 दिनों में आप मृत्यु को प्राप्त होंगे। फिर राजा परीक्षित तैयार हुए, सब कुछ उन्होंने त्याग दिया, वस्त्र भी त्याग दिए केवल कोपीन पहने हैं और गंगा के तट पर जाकर बैठ गए और फिर सारी व्यवस्था हुई। भगवान ने व्यवस्था की यह 7 दिन कैसे बिताएंगे क्या करना चाहिए 7 दिनों में ताकि क्या हो जाए? अंते नारायणस्मृति: वहां सारा संसार पहुंच गया। देव ऋषि, राजऋषि, महर्षि वहां पहुंच गए, फिर आपस में विचार-विमर्श हो रहा है कि आने वाले 7 दिन कैसे बिताएंगे। राजा परीक्षित के ताकि जो लक्ष्य है अंतिम चरण में क्या होना चाहिये, नारायणस्मृति: नारायण की स्मृति होगी तो जीवन सफल होगा ऑल इज वेल डेट एंडस वेल, फिर वहां पर शुकदेव गोस्वामी पहुंच गए और राजऋषि, देवऋषि पहुंचे थे। आपस में विचार-विमर्श हो रहा था कुछ भी हो रहा था कुछ मतभेद भी हो रहा था क्या करें ? कैसे समय बिताना चाहिए ? कुछ कर्मकांड करना चाहिए, कुछ ज्ञान कांड करना चाहिए, अष्टांग योग करना चाहिए व्हाट शुड वी डू ? लेकिन जैसे ही शुकदेव गोस्वामी वहाँ पधार गए तो सब समझ गए राजा परीक्षित को श्रीमद् भागवत कथा शुकदेव गोस्वामी के मुखारविंद से सुननी चाहिए और वे सुनेंगे और हम भी सुनेंगे तब जो भी मतमतान्तर चल रहा था उसका खंडन हुआ। वह सब समाप्त हुआ और स्पष्ट भी हुआ शुकदेव गोस्वामी के आगमन से सब समझ गए।
*सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्याः श्रवण मात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत ||*
(श्रीमद् भागवतम् महात्म्य 3.25)
अनुवाद – भागवत की कथा का सदा सर्वदा सेवन करना चाहिए श्रवण करना चाहिए इसके श्रवण मात्र से भगवान श्रीहरि हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं |
कथा के श्रवण मात्र से भगवान हृदय में प्रवेश करेंगे , *यस्याः श्रवण मात्रेण* शुक देव गोस्वामी की जय ! हम शुकदेव गोस्वामी का भी आज प्रातः स्मरण यहां कर रहे हैं। मुझे वैसे यह कहना था उस कथा के श्रोता वैसे कौन कौन थे? श्रील व्यास देव भी श्रोता बने हैं, वक्ता हैं शुकदेव गोस्वामी और श्रोता कौन है? श्रील व्यासदेव गोस्वामी कथा श्रवण कर रहे हैं। व्यासदेव भगवान के शक्त्यावतार हैं जो शुकदेव गोस्वामी के पिताश्री हैं या शुकदेव गोस्वामी के गुरु हैं, शिक्षा गुरु हैं। श्रीमद् भागवत की कथा का अध्ययन किया शुकदेव गोस्वामी ने, किन से…? श्रील व्यास देव, उनके गुरु बने, वहां नारद मुनि हैं नारायण ! नारायण ! वहां नारद मुनि भी श्रोता बने हैं। श्रीमद्भागवत की रचना की प्रेरणा श्रील व्यास देव को नारद मुनि से प्राप्त हुई। उन्होंने और भी कई ग्रंथ लिखे थे, लेकिन इतने सारे ग्रंथ लिखने पर भी श्रील व्यास देव् संतुष्ट नहीं थे। कुछ निराशा को प्राप्त हुए थे। तब बद्रिकाश्रम में उनकी मुलाकात नारद मुनि से हुई। जो परिवज्रकाचार्य हैं। इंटरप्लेनेटरी ट्रेवल उनका चलता रहता है। नॉट इंटरनेशनल यहाँ से गए थाईलैंड, म्यांम्मार नेपाल, यूक्रेन इत्यादि वहां गए और फिर वहां से घूम फिर के यहां आ गए। नारद मुनि उनके जैसा एक्सटेंसिव ट्रैवेलिंग और प्रीचर और कोई नहीं है। पूरे ब्रह्मांड भर में उनका ट्रेवल होता है भ्रमण होता है और यहां तक कि वैकुंठ भी जा सकते हैं। बैकुंठ से ब्रह्मांड आ सकते हैं, कोई रोकथाम नहीं है। जब भगवान प्रकट होते हैं तब भगवान की लीला में भी उनका प्रवेश होता है, द्वारका भी विजिट करते हैं। द्वारका पहुंच गए तो श्रीकृष्ण सुस्वागतम नारद ! सुस्वागतम ! स्वयं भगवान जिनका स्वागत करते हैं स्वयं भगवान जिन के चरणों का पाद प्रक्षालन करते हैं ऐसे नारद मुनी भी वहां श्रोता बने हैं। शुकदेव गोस्वामी कथा सुना रहे हैं और उस सभा में सूत गोस्वामी भी हैं सूत गोस्वामी जी कथा सुन रहे हैं। यह सूत गोस्वामी, नैमिषारण्य में कलयुग के प्रारंभ में पहुंच गए हैं और उनसे भी पहले वहां 88000 ऋषि मुनि पहुंचे हैं नैमिषारण्य में, जो उत्तर भारत लखनऊ से ज्यादा दूर नहीं है। वहां सूत गोस्वामी पहुंच गए, वैसे गंगा के तट पर और भी पहुंचे थे राज ऋषि महर्षि और फिर सूत गोस्वामी, उनका जैसे आगमन हुआ गंगा के तट पर हस्तिनापुर के बाहर ,आउटस्कर्ट्स आफ हस्तिनापुर, वैसे ही यहां नैमिषारण्य में शौनक आदि ऋषि मुनि पहुंचे थे। सभी मुनियों की ओर से शौनक मुनि उनके संवाददाता या उनके स्पोक्सपर्सन बने। तो यहां से वहां संवाद हो रहा था, राजा परीक्षित और शुक देव गोस्वामी के मध्य में, उस कथा में, गंगा के तट पर शुक ताल भी उसको कहते हैं। हम गए थे। शायद आप भी आए होंगे कुछ साल पहले हम लोग शुक्रताल गए थे, याद है कथा आदि कर रहे थे? वहां एक नदी है नैमिषारण्य में, मुझे नाम तो याद नहीं आ रहा, वहां पर भी हम गए थे, अपनी बात मैं कह रहा हूं। हम भी शुक्र ताल गए और भागवत कथा मैंने की, अहम यह तो चलता ही रहता है उसको टाल ही नहीं सकते कितने बद्ध हैं हम , कुछ पूछो नहीं और फिर नैमिषारण्य भी गए थे। कोई 10 /15 साल पहले की बात हो सकती है वहां भी हमने कथा की थी 7 सत्रों की भागवत कथा, उस नैमिषारण्य में भागवत कथा हो रही है वहां संवाद हो रहा है। सूत गोस्वामी और शौनक ऋषि आदि के मध्य में सभी ऋषियों की ओर से प्रश्न पूछ रहे हैं। जिज्ञासा हो रही है। नैमिषारण्य में कथा को जब प्रारंभ करना था हम देखते हैं श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध का द्वितीय अध्याय का पहला श्लोक , पहला तो नहीं है दूसरा है 1. 1. 2 अंग्रेजी में आप समझ सकते हो कैंटो वन चैप्टर वन चैप्टर 2 श्लोका , दूसरे में शुक देव गोस्वामी बोलेंगे। जो पूरा प्रथम स्कंध है यह कथा सूत गोस्वामी सुनाने वाले हैं इसको भी हमने आपसे नोट करवाया था लेकिन आप लिखते नहीं हो, तो फिर भूल भी जाते हो। जैसे भगवत गीता का पहले अध्याय में भगवान ने कुछ नहीं कहा है। दो-चार शब्द ही कहा है। भगवत गीता के पहले अध्याय में श्रीभगवान उवाच नहीं है केवल कुछ शब्द कहे हैं पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति
*भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् | उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति ||* |(भगवद्गीता १. २५)
अनुवाद – भीष्म, द्रोण तथा विश्र्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो |”
बस इतना ही कहे पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति गीता में अर्जुन से इतने ही शब्द प्रथम अध्याय में भगवान ने कहा है। गीता में कृष्ण का प्रवचन द्वितीय अध्याय से प्रारंभ होता है। वैसे भागवत में भी, शुक देव गोस्वामी के द्वारा कही हुई कथा द्वितीय अध्याय से प्रारंभ होती है। प्रथम अध्याय की कथा सूत् गोस्वामी ने सुनाई है। उसमें 19 अध्याय हैं उसमें भी जो पहला अध्याय है श्रीमद् भागवतम का उसमे शौनक ऋषि के प्रश्न हैं और शौनक मुनि ने छ अलग-अलग प्रश्न पूछे हैं हाउ मेनी सिक्स ? अब नहीं बताऊंगा आपको, यथासंभव आप होमवर्क कीजिए और पता लगाइए कि श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के प्रथम अध्याय में शौनक मुनि के द्वारा पूछे हुए कौन से 6 प्रश्न है ?
*ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि । स्वां काष्ठामधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः ॥* (श्रीमदभागवतम 1.1.23 )
अनुवाद- चूँकि परम सत्य , योगेश्वर , श्रीकृष्ण अपने निज धाम के लिए प्रयाण कर चुके हैं , अतएव कृपा करके हमें बताएँ कि अब धर्म ने किसका आश्रय लिया है ?
इस प्रकार और भी पांच है। उसका पता लगाइए। हमने कभी भागवत कथा में उसे बताया है और भी कई सोर्सेस हैं जिनसे आप पता लगवा सकते हो। उस पर विचार विमर्श करो फिर द्वितीय अध्याय जब शुरू होता है। श्रीमद् भागवत प्रथम स्कंध द्वितीय अध्याय, अब सूत उवाच, सूत गोस्वामी बोलेंगे, पहली बात जो उनके मुख से निकली है यह गुरु वंदना है। सूत गोस्वामी के द्वारा की गई गुरु वंदना। कौन है उनके गुरु ? शुक देव गोस्वामी हैं उनके गुरु। भागवत कथा जिनसे उन्होंने सुनी, वही उनके गुरु हैं। वे वंदना करते हैं।
सूत उवाच
*यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥* (श्रीमदभागवतम 1.2.2)
अनुवाद- श्रील सूत गोस्वामी ने कहा : मैं उन महामुनि ( शुकदेव गोस्वामी ) को सादर नमस्कार करता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं । जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करने चले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग के भय से आतुर होकर चिल्ला उठे , ” हे पुत्र , ” उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे , केवल ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया ।
यह गुरु वंदना है या अपने गुरु की स्तुति कहिए या अपने गुरु शुकदेव गोस्वामी को स्मरण कर रहे हैं। प्रातः स्मरणीय, सदैव स्मरणीय, शुक देव गोस्वामी का सूत गोस्वामी ने स्मरण किया, सारे 88000 ऋषि मुनियों के साथ, सभी बैठे हैं। क्या वहां दर्जनों माइक्रोफोन सिस्टम थे पब्लिक ऐड्रेस या माइक सिस्टम थे ? तो फिर कैसे सुना होगा ? हर एक के कान में जाकर कथा सुनाई क्या ? कल्पना कीजिए यह कैसे संभव हुआ करता था ? उन दिनों में हजारों लाखों श्रोता गण बैठे हैं कितना साइलेंस है। कितनी शांति है। पिन ड्रॉप साइलेंस, कुछ पिन तुम जानते हो जैसे हेयर पिंस और भी बहुत सारी पिंस होती हैं। पिन को गिरा दिया आवाज़ सुनाई देगी। कितनी शांति है कि पिन गिरने और गिराने से आवाज हो किन्तु अब तो बम ड्रॉप साइलेंस भी नहीं है। यदि बॉम भी फट गया तो भी सुनाई नहीं देता कितना नॉइस पोलूशन है। कितनी ध्वनि सर्वत्र होती रहती है, अशांति है। एक ऐसा समय था पिन गिरने का उसकी भी आवाज सुनाई देती थी। केवल बाहरी शांति ही नहीं हुआ करती थी सभी के मन भी शांत हुआ करते थे। श्रोताओं के मन शांत और सभी श्रोता बड़े उत्कंठित भी हुआ करते थे। वे सुनने के लिए आतुर हुआ करते थे। अभी पब्लिक मैं सुनाने के लिए लाउडस्पीकर भी चलता है, लेकिन हो सकता है लाउडस्पीकर तो चल रहा है और कथा हो रही है लेकिन हम सुन नहीं रहे हैं। हम वहां नहीं हैं। हमारा शरीर तो वहां है किंतु हमारा मन थाईलैंड चला गया यह हमारा मन काठमांडू गया या महाबलेश्वर गया अराउंड द वर्ल्ड इन एट डॉलर चल रहा है। कैसे सुनाई देगा हमारा मन ही वहां नहीं है और कहीं पहुंचे हैं। यह अंतर है जमाना बदल गया, वह 5000 वर्ष पूर्व की बात है वैसी परिस्थिति में, वैसे मन की स्थिति में वह संभव था। स्पीकर बोल रहे हैं सूत गोस्वामी बोल रहे हैं पहले शुक देव गोस्वामी बोले थे और हजारों लाखों श्रोता एकत्रित हैं। एंड देयर इज नो स्पीकर या स्पीकर तो है शुक देव गोस्वामी स्पीकर हैं लेकिन वहां बॉक्स स्पीकर नहीं है। वहां ट्रंपेट नहीं है। अब कथा होती है मुरारी बापू की कथा होती है एक्स्ट्रा ट्रंपेट लगाते हैं। हर 20 फीट की दूरी पर एक ट्रंपेट है या बॉक्स स्पीकर है। हरी हरी ! वहां पर सूत गोस्वामी ने ऐसा संस्मरण किया शुक देव गोस्वामी का
सूत उवाच
*यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥* (श्रीमदभागवतम १.२ .२)
जैसे ही उनका जन्म हुआ, प्रकट हुए शुक देव गोस्वामी, कोई संस्कार नहीं हुआ उपनयन नहीं हुआ, या नामकरण नहीं हुआ, कोई संस्कार नहीं हुए, जिन्हे जन्मजात संस्कार कहते हैं और वे दौड़ पड़े प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं कोई ऐसा कार्य संस्कार संपन्न नहीं हुआ और वो वन की ओर, जंगल की ओर दौड़ पड़े। कोई आसक्ति नहीं थी। वह अहम ममेति से आसक्त नहीं थे। मुक्तात्मा, द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव, श्रील व्यास ने जब देखा हिज सन इज रनिंग, अरे पुत्र जा रहा है पुत्र की पीठ उनकी ओर है वह सन्मुख नहीं है। सन्मुख मतलब आमने-सामने नहीं है विमुख हो चुके हैं घर से, या जो भी संपत्ति है, या जो भी वैभव है ,रिश्ते नाते हैं, प्यारे दुलारे हैं , नो प्रॉब्लम, कोई चिंता नहीं है। विमुख होकर वन की और जब वे दौड़ने लगे विरह कातर पिताश्री, जो विरह से मर रहे हैं। व्याकुल हो रहे हैं और फिर पुत्रेति तन्मयतया और उन्होंने कहा पुत्र, ऐसा आचार्यों ने कहा है पुत्रेति, उन्होंने पुत्र, पुत्र ,पुत्र कहा कोई रिस्पांस नहीं, हे पुत्र पहले हृस्व कहा, फिर दीर्घ कहा पुत्र, फिर प्लुत कहा पुत्र, ऐसे संबोधन के तीन प्रकार होते हैं हृस्व दीर्घ और प्लुत, तीनों प्रकार से पुत्र कहा, कुकू कुकूकू कुकूकूकू इसको ऐसे भी कहा है जो हृस्व दीर्घ और प्लुत के उदाहरण हैं वह कुकुट वाला नहीं करना चाहिए कुकुट मुर्गा होता है हमने भी सुना जब हम गांव में थे। शहर में तो मुर्गे को आप डिनर के प्लेट में ही देखते हो लेकिन मुर्गा कैसा दिखता है सुंदर भी होता है और भगवान की कृपा से उसकी ड्यूटी भी लगाई है ब्रह्म मुहूर्त में सबको उठाने की। द्वारिका में भी मुर्गे हुआ करते थे, भागवत में वर्णन है द्वारिका के महल में और मुर्गों का कु कु कु सुनते ही भगवान छलांग मार के आउट ऑफ द बेड, लेकिन उनकी रानियां पसंद नहीं करती थी। मुर्गे को श्राप देती थी बदमाश कहीं का ! तुम्हारे कारण हम द्वारकाधीश के संग से बिछड़ गई हरि हरि ! इस प्रकार शुकदेव गोस्वामी को संबोधित कर रहे थे श्रील व्यासदेव पुत्रेति तन्मयतया पुत्र का विचार करते हुए, पुत्र को पुकार रहे हैं लेकिन पुत्र ने कोई जवाब नहीं दिया। जवाब किसने दिया ? तरवोऽ, यहाँ तरु से होता है तरवोऽ,तरु होता है एक वचन वहां बहुवचन तरवोऽ, बहुवचन , कौन बोले? उत्तर शुक देव गोस्वामी ने नहीं दिया। वृक्षों ने उत्तर दिया, वे कह रहे हैं हम भी तो अपने फल से आसक्त नहीं होते हैं कई लोग यहां से आते हैं वहां से आते हैं और चढ़ते हैं मेरे ऊपर और कई सारे फल तोड़ते हैं और ले जाते हैं लेकिन हम उनका पीछा नहीं करते। हम तो आसक्त नहीं होते अपने फल से हम पर जो फल उत्पन्न होते हैं हमारी शाखाओ के ऊपर जो फल होते हैं। लेकिन तुम स्वयं को आईने में देखो, देखो तुम्हारा चेहरा, तुम कितने आसक्त हो, पुत्र है वह फल ही है। माता पिता को पुत्र के रूप में फल प्राप्त हुआ उससे तुम आसक्त हो, हम तो आसक्त नहीं हैं। ऐसा मैसेज तरवोऽभि वृक्ष दे रहे हैं श्रील व्यास देव को, *सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि* सब जीवो के ह्रदय मैं विराजमान कहे जाने वाले उनके भावों को या विचारों को या सुख दुख को जानने वाले शुकदेव गोस्वामी सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ऐसे मुनि को नतोऽस्मि मेरा नमस्कार ऐसे,
“यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि” हरि हरि !
गौर प्रेमानन्दे !
हरी हरी बोल !
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*10 अगस्त 2021*
गौरांग । निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । 864 स्थानों से आज जप हो रहा है । हरे कृष्ण। मुझे आशा है कि आप जप करने में आनंद ले रहे हैं ! जप मैं आनंद आ रहा है ? हरि हरि । हरे कृष्ण । आप तैयार हो ? हाथ उपर जा रहे हैं , किसलिए ? क्यों ? हाथ नीचे करो । अभी मुझे कुछ बोलने तो दो (हंसते हुए) फिर देखो हाथ ऊपर करने की या विरोध करने की या समर्थन करने की आवश्यकता हो तो तब आप हाथ ऊपर नीचे कर सकते हो । 2 दिनों से हम बात कर ही रहे हैं , मैंने भी बातें की और आप भी बोल रहे थे , लिख रहे थे , कह रहे थे और मैंने कहा था कि 14000 शास्त्रज्ञों ने ऐसा कहा , हम कुछ सुधार नहीं करेंगे तो कुछ या पूरा , बहुत कुछ नहीं करेंगे तो हम सभी यह पूरा संसार धरती माता और हम सब उसके बालक विनाश की ओर आगे बढ़ रहे हैं , विनाश होगा । छोटा-मोटा प्रलय होगा आपातकालीन परिस्थिति उत्पन्न होगी ऐसी चेतावनी वह दे रहे थे और अभी अंत में जो संदेश उन्होंने दिया उस पर हम चर्चा कर रहे थे और फिर आपने भी उस चर्चा सत्र में भाग लिया । ऐसी ऐसी समस्या है तो उसका क्या समाधान है ? उसका कैसे समाधान किया जा सकता है ? आपमें से कईयों ने अपने अपने व्यक्तव्य , विचार , मत्यव्य उनके विचार व्यक्त की , उन सब का स्वागत है । कम और ज्यादा , मोर ओर लेस अंग्रेजी में कहा जाता है आप सभी ने जो जो कहा सच ही कहा , किसी ने कुछ झूठ नहीं कहा । हो सकता है किसीने थोड़ा गुड बेटर बेस्ट ऐसी बातें भी होती ही रहती है । किसी ने कुछ अच्छी बातें की , किसी ने कुछ और भी अच्छी बातें की , किसीने और भी सर्वोत्तम बातें की अपने विचार व्यक्त किये । अब देखते हैं हमने नाशिककर बसीवदन ठाकुर प्रभु को कुछ गृहपाठ भी दिया है । एक अहवाल या एक रिपोर्ट हम सबके जानकारी के लिए प्रकाशित कर सकते हैं । इस चर्चा सत्र का क्या परिणाम , क्या डिक्लेरेशन , क्या घोषणाये है । यह क्या घोषणा होगी ? फिर मैं सोचही रहा था , मैं सोचता ही रहता हूं तब मेरा ध्यान जा रहा था भगवत गीता अध्याय 2 श्लोकसंख्या 62 और 63 आपके जानकारी के लिये ।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ||
(भगवद्गीता 2.62)
अनुवाद:-इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||
(भगवद्गीता 2.63)
अनुवाद:- क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है | जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाति है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है |
मैंने सोचा यह जो भगवान के वचन है , भगवान के वचन है! और भगवान सुप्रीम अथॉरिटी है
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||
(भगवद्गीता 7.7)
अनुवाद:- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है |
मुझसे और कोई ऊंचा व्यक्ति या अधिकारी या ऐसे विचार वाला और कोई है ही नहीं, भगवान ही सर्वे सर्वा है , उन्होंने कहा और यह दुनिया उन्हीं की है , यह साम्राज्य भगवान का ही है । भौतिक साम्राज्य भी भगवान का ही है , यहां के लोग , यहां के हम सब लोग कैसे ? बुद्धिनाशात्प्रणश्यति
हम लोग नाश की और कैसे आगे बढ़ते हैं ? नाश को प्राप्त होते हैं । नाश ! और यहां नाश और उसको प्रणश्यति कहा गया है विशेष प्रकृश्य रूपेन विनाश , बड़ियासे विनाश , भगवान ने केवल विनाश ही नहीं कहा हैं प्रणश्यति विनाश यहां तक हर व्यक्ति या सारे व्यक्तियों का समुदाय , समाज या मानव जाति प्रणश्यति कैसे प्रणाश , विनाश होगा ? कृष्ण यहां बता रहे हैं की विनाश अगर उसका परिणाम है या दुष्परिणाम है , इसका प्रारंभ कैसे होता है ? विनाश का प्रारंभ कहां से होता है और विनाश के बाद में क्या होता है ? शुरुआत होने के बाद क्या होता है ? किस क्रम से एक-एक मनुष्य और सारे मनुष्य का समाज मिलकर हम प्रारंभ से समार्पण तक कैसे पहुच जाते हैं? क्या घटनाएं घटती है ? या कैसे विचारों से प्रभावित होता है इसको यहां कृष्ण समझा रहे हैं । अगर इसको हम समझेंगे तो इस क्रम को हम कुछ उलटा भी कर सकते हैं , शुरुआत ही नहीं होने देंगे , विनाश की शुरुआती ही नहीं होने देंगे तब और विनाश , और विनाश , और विनाश , और विनाश फिर प्रणश्यति पूरा हो गया सत्यानाश । उसको हम कैसे टाल सकते हैं ? शुरुआत ही नहीं करेंगे उस और मुड़ेंगे ही नहीं , उस विचारधारा को अपनाएंगे ही नहीं ऐसी जीवन शैली को हम धिकार होगा तब फिर विनाश के बजाय विकास हो सकता है । एक विनाश और एक है विकास , हम सबका विकास हम सब के साथ ऐसा भी कोई पार्टी कहती रहती है (हँसते हुये) लेकिन सच में उनको पता नहीं है कि विकास किसको कहते हैं ।समय अधिक नहीं है इसलिये झट से हम आपको कृष्ण का कहना सुनाते ही हैं , श्री भगवान उवाच , कौन उवाच ? किसने कहा ? तेजस्विनी गोपी किसने कहा ? श्री भगवान उवाच , भगवान ने कहा और भगवान जब बोलते हैं तब तुम अपना मुंख बंद करो केवल सुनो , तुमको बकने की आदत होती है सारा संसार बकबक बकबक ही कर रहा है , सुन तो नहीं रहा है या भगवान को नहीं सुन रहा है औरों को सुनता होगा बकबक या बड़बड़ , सारे दिन भर सारे संसार में बकबक या बड़बड़ होती है ठीक है ।
ध्यायतो विषयान्पुंसः, मैं अभी थोड़ी देर से जाऊंगा । ध्यायतो विषयान्पुंसः यहां से शुरुआत होती हैं । पूरा मानव समाज , पूरे संसार के लोग मुझे कहना नहीं चाहिये लेकिन विचार आ जाता है सारे संसार के लोग कहते हैं कि हम हिंदू थोड़ी है आपकी कृष्ण ने जो कहा है उसको हम नहीं मानेंगे , पर वहां कोई पर्याय नहीं है ।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||
(भगवद्गीता 4.11)
अनुवाद:- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |
भगवान ने कहा सारे मनुष्य , भगवान ने जो नियम बनाए हैं उसका पालन हर मनुष्य को करना ही होता है ऐसा करते ही हैं वहां कोई पर्याय नहीं है । हिंदू मुसलमान का प्रश्न यहां नहीं है , अमेरिकन इंडियन या गरीब अमीर का नहीं है , सभी के लिए ऐसा है । ध्यायतो विषयान्पुंसः , पुंस: मनुष्य कहा है । मनुष्य क्या करते हैं ? ध्यायतो , ध्यान करते हैं । किसका ध्यान करते हैं? ध्यायतो विषयान्पुंसः, कह तो दिया है विषयान्पुंसः । सारा संसार विषयों का ध्यान करता है शरीर में इंद्रिय है और यह इंद्रियों के विषय है अब हम विस्तार से नहीं कहेंगे आपको इतना तो पता चला ही होगा । पांच इंद्रियां है और पांच इंद्रियों के अपने-अपने 1-1 विषय करके पांच विषय है । सारा संसार क्या करता है ? ध्यायतो विषयान्पुंसः अगर हम कहेंगे कि संसार इतना ही करता है , हर दिन जब जाग गया तो पूरा दिन भर सोने के समय तक सारे संसार के लोग क्या करते हैं ? उत्तर में क्या कहा जा सकता है ? विषयान्पुंसः ,ध्यायतो विषयान्पुंसः । हर व्यक्ति विषयों का ध्यान करता है और ध्यान से शुरुवात होती है शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध यह विषय है यह मैंने कह दिया , कहना नहीं चाहता था लेकिन विस्तार हो जाता है । शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध यह इंद्रियों के विषय है और इनका ध्यान करता रहता है । नासिका से सूंघता है तो ध्यान करता है , आंखों से कुछ रूपको देखता है तो ध्यान करता है और स्पर्श करता है तो ध्यान करता है इसी तरह शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध समझ मे आ रहा है ? संसार में जो कुछ भी है , संक्षिप्त में यही कहा जा सकता है संसार किस से भरा पड़ा है ? इंद्रियों को विषय से भरा पड़ा है । आपके मॉल में सुपर बाजार , हायपर बाजार वहां क्या है ? कुछ शब्द है, स्पर्श हैं , रूप है, रस है, गंध हैं ।ध्यायतो विषयान्पुंसः सारा संसार ध्यान कर रहा है , ध्यान कर रहा है , ध्यान कर रहा है , ध्यान कर रहा है सभी ध्यान ही है किसका ध्यान कर रहा है ? विषयों का ध्यान कर रहा है टेलिविजन देख रहे हैं तब ध्यान कर रहे हैं । हरि हरि । ध्यायतो विषयान्पुंसः फिर क्या होता है ? सङगात्सञ्जायते
जिन विषयों का वह ध्यान करेगा उन विषयों से वह आसक्त होगा । सङगस्तेषूपजायते थोड़ा संस्कृत समझ लो । संग आसक्ती तेषु उन्मे , तेषु मतलब उनमें , उन विषयों में सङगस्तेषूपजायते उत्पन्न होगी , आसक्ति उत्पन्न होगी उन विषयों में क्यों ? क्योंकि आपने ध्यान किया । विषयों का ध्यान करने से उसमें आसक्ति उत्पन्न होती है ।
सङगात्सञ्जायते कामः
आगे क्या होता है ध्यान दो उससे कामवासना उत्पन्न होती है , कामवासना । हम कामी बनते हैं काम लालसा आशा पाश शतेर बद्धे , आशा उत्पन्न होती है कामना के विचार आ जाते हैं , हम काम ही बनते हैं ।यह शुरुवात ही है आगे होने वाला है। काम तक पहुच गये है । सारा संसार ही कामी है जो काम से पूर्ण है , जो कामवासना से पूर्ण है उसको कामी कहेंगे । दुखी सुखी कामी ऐसे सारे शब्द बन जाते हैं प्रेमी भी है जो प्रेम से भरा है । सारे संसार के लोग कामी है मुक्ति कामी , भुक्ति कामी , सिद्धिकामी शकले अशांत , सारा संसार अशांत है क्यों? कामना से पूर्ण है । याद रखिये ध्यायतो विषयान्पुंसः, विषयों का ध्यान किया , सङगस्तेषूपजायते हम आसक्त हो गए , इतने आसक्त हो गए कि उसको हमने प्राप्त कर ही लिया उसके खरीदी कर ही ली और उसको गले लगा ही लिया , उसको पी ही लिया , सूंघ ही लिया फिर कामना और प्रबल हो गई और कामात्क्रोधोऽभिजायते काम तृप्ति के प्रयासों में व्यक्ति कभी सफल नहीं होता , कभी तृप्त नहीं होता यह भी नियम है । इंद्रियों के विषय इंद्रियों को खिलाओ पिलाओ । उससे व्यक्ति कभी तृप्त नहीं होगा अधिक अतृप्त रहता है और फिर पश्चाताभी है फिर कहा है ,कामात्क्रोधोऽभिजायते उससे सुख प्राप्त करना चाहता था , सुख लूटना चाहता था या प्रसन्न होना चाहता था , संतुष्ट होना चाहता था किंतु हुआ नहीं इसीलिए वह पश्तायेगा और कामात्क्रोधोऽभिजायते व्यक्ति व्यक्ति को क्रोध आएगा वह निराश हो जाएगा । कोई व्यक्ति क्रोध में है मतलब उसकी कुछ इच्छा अपेक्षा , उसकी कुछ कामना – योजना सफल नहीं हो रही है या वह जो चाहता था वह प्राप्त नहीं हो रहा है ऐसा ही होता है पहले या बाद में पश्चाता है । इस दुनिया ने हमको दिया क्या और यह क्या और दम मारो दम फिर यह सब शुरू कर देते हैं । अमेरिका में लोग हिप्पी बन गए , संसार से अमेरिका से जो कुछ आशा थी उससे समाधान नहीं हुआ तब देश के प्रति वह क्रोधित हुए और उन्होंने घरदार ही छोड़ दिया ऐसे ही भटक रहे हैं , वह क्रोध में है । जब व्यक्ति को क्रोध आता है , तब क्रोधाद्भवति सम्मोहः , श्लोक 63 व्यक्ति मोहित हो जाता है फिर वही बात है वह भी क्रम तो है ही काम फिर क्रोध फिर लोभ फिर मोह,मद फिर मात्सर्य करें इस क्रम से भी व्यक्ति आगे बढ़ता है। यह जो षड रिपु है तो मिस्टर लस्ट काम यह लीडर है यह नायक है यह षड रिपु जो है उसके नायक कौन है काम है और फिर काम से फिर क्रोध आपको और सभी बताएंगे थोड़ा बता दिया कि काम से क्रोध कैसे होता है। क्रोध से होता है फिर लोभ फिर मोह मोह के बाद मद फिर मात्सर्य और बाद में ईर्ष्या अब पूछो ही नहीं इतना मात्सर्य होता है। औरों का उत्कर्ष जो है वह स्थानीय औरों का उत्कर्षा है उससे औरों का उत्कर्ष असहनीय होता हैं औरो की प्रगति जो हमसे सही नहीं जाती असहनीय बन जाती है तो वह मात्सर्य हो जाता है। या तो क्रोधा त भवति सम्मोहात समोह क्रोध के बाद फिर मोह व्यक्ति मोहित होता है। दुनिया मोहित होती है समाज मोहित होता है हर व्यक्ति मोहित होता है। और यहीं भावना से आगे अहम ममेति की भावना उत्पन्न होती हैं और समोहात स्मृति विब्रमात और फिर मोह से मोहित होने से हमारी देहात्म बुद्धि होती हैं। देहात्म बुद्धि कुंपैकी विधातु ते कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में कहा था ना आपको बताया था कि जब वह साधु संतों को उपदेश दे रहे थे तो देहात्म बुद्धि व्यक्ति देह को आत्मा समझता है। तो यही तो वह मोह है इल्यूजन मोह है और समोहात स्मृति विब्रमह तो भ्रमित होता है संभ्रमित होता है। या मूलतः वह कौन है उसका उसे पता ही नहीं चलता है वो यह सोचता हज नही की कृष्ण दासोस्मि या ये जीव कृष्ण दास येई विश्वास करल तो आर दुःख नाय जीव कृष्ण का दास हैं यह विश्वास इस सत्य से वह बहुत दूर चला जाता है। हम जो जीवात्मा है भगवान के अंश है भगवान के दास है भक्त है। यह जो सत्य है यह जो समझ है इससे बहुत दूर चला जाता है सम्भ्रमित हो जाता है और स्मृति विभ्रम होता है। यह जो याद है भगवान की याद और हम जीवात्मा इस बात की याद खत्म हो जाती है याद ही नहीं उस याद से उस स्मरण से दूर चला जाता है।
सम्मोहात स्मृति विभ्रमा
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || ६३ ||
अनुवाद:- क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है | जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाति है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है |
और फिर कहा गया हैं स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति जब स्मृति में विभ्रम उत्पन्न हुआ तो इसी के साथ हो बुद्धि का नाश हो गया। या वह बुद्धू हो गया बुद्धू कहीं का बुद्धू का मतलब हंसते हुए उसने यह सब किया हुआ है
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||
अनुवाद:-इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |
तो फिर हो गया बुद्धू कहीं का बुद्धू है ना बुद्धि नाशम यह सब एक के बाद एक एक के बाद एक एक के बाद एक इस क्रम से व्यक्ति ध्यायतो विषयान्पुंसः इंद्रियों का विषय से प्रारंभ करके फिर पहुंच गया बुद्धि नाशात बुद्धि का नाश हो गया उसका और फिर बुद्धि का नाश हो गया तो विनाश काले विपरीत बुद्धि तो अब तो अब तो विनाश होना है। विपरीत बुद्धि या बुद्धि नाश हुआ तो कृष्ण कहते हैं।
बुद्धि नाशात प्रणश्यति बुद्धि का नाश हुआ तो नष्ट हुआ या गया गो टू हेल कृष्ण ने वैसे कहा भी है काम क्रोध लोभ हो यह तीन द्वार है नरकश्य द्वार हैं यह नरक के द्वार है काम क्रोध लोभ का भी नाम लिया है लेकिन और तीन को भी जोड़ सकते हैं काम क्रोध मोह मद मात्सर्य यह सब द्वार है नरक जाने के द्वार है। तो प्रणश्यति मतलब अधोगति होती हैं और आगे कृष्ण ने कहा ही है अधो गचन्ति तामसा उध्र्वम गचन्त्ति सत्वसा जो सत्वगुणी है वह ऊपर जाएंगे स्वर्ग में जाएंगे लेकिन जो तामसिक हैं वो नीचे जाएंगे नीचे क्या है नरक है नरक जाएंगे बुद्धि नाशात प्रणश्यति ठीक है इतना ही कह सकते हैं। हम संक्षिप्त में लेकिन मुझे और भी एक बात कहनी थी मैंने कहा भी था कि मैं कहूंगा अगर हम हमारा विनाश ना हो ऐसा चाहते हैं आप में से कोई चाहते हो कि आप का विनाश ना हो अच्छा कुछ माताये तो दोनों हाथ ऊपर कर रही है कुछ तो सोच ही रही है कुछ तो केवल हंस रही है तो ठीक है अभी कई सारे हाथों पर जा रहे हैं। ठीक है ठीक है थाईलैंड वाले भी हैं तो देखिए विनाश कोई नहीं चाहता विनाश कोई नहीं चाहता विनाश कोई नहीं चाहता सभी विकास ही चाहते हैं लेकिन विकास किसे कहते है दुर्दैव से ये भी नही पता लेकिन विकास मतलब हम नरक जाने के बजाय आम्ही जातो आमुच्या गावां आमचा राम राम घ्यावा आमी जातो आमच्या गावा ये क्या है ये प्रगति है। यमदूत आपको ले गए क्या बोले गए आपको पता है यमदूत कहां ले जाता है आपको पता है लेकिन यमदूत की बजाए विष्णु दूत आगए ताकि आप को ले जाने के लिए तो यमदूत आ गए तो विनाश हुआ विष्णु दूतआ गए तो विकास हुआ तो क्या करना चाहिए था कि ताकि विष्णु दूत आ जाए तो हमने थोड़ी सी हिंट दी ही थी किसको हम शुरुआत विकास या विनाश की ओर जाने के लिए अंत में हुआ विनाश ही हुआ लेकिन शुरुआत कहां से हुआ ध्यायतो विषयां पुंसां तो यही परिवर्तन करेंगे हम ध्यायतो विषयान्पुंसः करने से होने वाला हैं विनाश जो इंद्रियों के विषयों का ध्यान करेंगे उनका होगा विनाश तो क्या करना होगा ताकि हमारा विकास हो जाए सुन लो इंद्रियों के विषयों का ध्यान किया तो विनाश हो गया तो फिर किसका ध्यान करना चाहिए ताकि हमारा विकास हो जाए विनाश के बजाय विकास कठिन प्रश्न है क्या यह सच में बहुत कठिन प्रश्न है यह तो बाएं हाथ का खेल होना चाहिए किसका ध्यान करने से फिर होगा विकास या फिर कहां से हम शुरुआत करें ताकि हमारा उद्धार होगा उन्नति होगी प्रगति होगी विकास होगा और कृष्ण प्राप्ति होगी हम भगवत धाम लौटेंगे हरि बोल।
तो आप कहना आते हो लेकिन आप को म्यूट मतलब आपका मुंह बंद कर दिया है मुख तो बंद नहीं है लेकिन मुझ तक आपकी आवाज नहीं आ सकती लेकिन मैं समझ रहा हूं ठीक है।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
स्मरण करो याद करो या
र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥१ ॥
श्रीमद्भागवत 12.13.1
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद – क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता – ऐसे भगवान् को मैं सादर नमस्कार करता हूँ ।
भगवान का ध्यान करो ध्यायतो विषयान्पुंसः तो जो विषयांन है आपको ध्यान करना है मतलब मनुष्य को ध्यान करना चाहिए विषय के स्थान पर यह संसार के जो विषय है इंद्रियों को जो विषय है उसके स्थान पर भगवान को विषय में बनाना है। भगवान को विषय बनाना है भगवान का कृष्ण का कृष्ण कन्हैया लाल की जय
सुंदर ते ध्यान सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी करकटा वरि ठेऊनिया
सुंदर ते ध्यान भगवान का ध्यान करना है तो विस्तार से तो कहने के लिए कहा समय है किंतु उनके नाम का ध्यान है उनके रूप का ध्यान है लीला का ध्यान है उनके धाम का ध्यान है। उनके भक्तों का ध्यान है उनके भक्तों के चरित्रों का अध्ययन है स्मरण है ध्यान है तो हरि सम्बंधी वस्तुना: जो जिनका जिनका हरि के साथ प्रत्यक्ष संबंध है दिव्य संबंध है उनका ध्यान करें ठीक है तेजी से जाते हैं तो क्या होगा ध्यायतो विषणापुंस सँगस्तेषुपजायते मोटा मोटी कृष्ण यहा कह रहे हैं कि जिसका हम ध्यान करेंगे उससे हम आसक्त होंगे। उसमें हमारा आसक्त होगा या हमारी आसक्ति बढ़ेंगी इतना ही करते हैं। भगवान का ध्यान किया तो क्या होगा संगस्तेषूपजायते संगस्तेषू मतलब कृष्ण में हम आसक्त होंगे श्रद्धा से प्रेम तक के जो सोपान है श्रद्धा से प्रेम तक फिर श्रद्धावान होना फिर आसक्त होना आसक्ति भाव प्रेम आसक्ति हैं ना अटैचमेंट हम आसक्त होंगे हम भगवान का ध्यान करते करते हम भगवान में आसक्त होंगे संगस्तेषूपजायते और फिर आए कहते है संगात सनजायते कामः अब यहां देखिए क्या कहा है अगर आप इंद्रियों के विषयों में लिप्त है आसक्त हैं तो उत्पन्न होगा कामवासना प्रबल होगी जगेगी हम होंगे कामी किंतु हमने भगवान का ध्यान किया है। भगवान में हम आसक्त हुए है। संगात सनजायते काम: के बजाए क्या होगा कैसे इसे हम संस्कृत में कहेंगे ऐसे संगात सनजायते प्रेमाहा यह कृष्ण जिसका जिक्र कर रहे हैं इस लोक में वहां तो काम की बात कर रहे हैं या इंद्रियों के विषयों का ध्यान इत्यादि इत्यादि होने से फिर व्यक्ति आसक्त होता है।
फिर ऐसे आसक्ति से उत्पन्न होता है काम लेकिन किंतु हमने ध्यान ही भगवान का इसीलिए हम भगवान में आसक्त हुए तो उसका परिणाम का फल क्या होगा प्रेम समाप्त 1 मार्ग का अवलंबन करने से आप काम प्राप्ति और दूसरा मार्ग अपना लिया दूसरी विधि विधान का स्वीकार किया आपने विषय ही बदल दिया मतलब माया के स्थान पर ऐसा भी कह सकते माया के स्थान पर माया का ध्यान करने के बजाय हमने भगवान का ध्यान किया कृष्ण का ध्यान किया है राम का ध्यान किया श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय उनका ध्यान किया तो हम उनमें आसक्त होंगे और प्रेम को प्राप्त करेंगे और फिर कामात क्रोधोभीजायते यहां तो कहा है कि काम वासना की तृप्ति नहीं होगी तो फिर व्यक्ति में क्रोध आएगा तो फिर यहां पर क्या होगा अभी वैष्णव को क्रोध आता है कि नहीं जो कामी होते हैं कामात क्रोधोभीजायते यहां तो कृष्ण कहे ही हैं प्रेमात क्रोधोभिजायते इसका क्या क्यो नही जो विष्णु या वैष्णवों के चरणों मे अपराध करते हैं। तो वह अपराध की बात सुनकर वैष्णव क्रोधित हो जाते हैं हनुमान को क्रोध आ गया था कि नहीं जब सीता का अपहरण करके वह बदमाश राक्षस रावण सीता को ले गया तो राम भी क्रोधित थे और फिर उनके संपर्क में जो जो थे तो उनको भी क्रोध आ गया हनुमान को भी क्रोध आ गया जामवान को भी क्रोध आ गया हरि हरि अर्जुन को नहीं आ रहा था तो हंसते हुए लेकिन भगवान ने गीता का उपदेश सुना के उनको क्रोधित किया उठावो युद्ध करो नरसिंह भगवान को देखो कितना क्रोध आया तो यह क्रोध दिव्य होता है। यह रजगुण से उत्पन्न होने वाला क्रोध होता है।
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || ३७ |
अनुवाद:-श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
रजोगुण से उत्पन्न होता हैं क्रोध होता हैं ये गुणातीत या शुद्ध सत्व से उत्पन्न होता है वह क्रोध दूसरे जगत का होता है तो ठीक है अभी आगे बढ़ते हैं दौड़ते हैं।
क्रोधात भवति समोहात तो यहां व्यक्ति मोहित होने वाला नहीं है उसकी स्मृति विभ्रम नहीं होने वाला है क्या होने वाला है मैं दास हु दास दासानु दास पूरा पता है साक्षात्कार अनुभव उसको होने वाला है स्मृति वीभ्रम हुआ था ध्यायतो विषयान्पुंसः इत्यादि से इत्यादि से शुरुआत हुई तो स्मृति विभ्रम लेकिन भगवान का ध्यान और वह आगे बढ़े तो क्रोध भी आ गया और आ सकता है लेकिन कभी स्मृति विभ्रम नही होगा या स्मृति ही होगी।
मततः स्मृतिज्ञान अपोहनोमच भगवान स्मृति देंगे भगवान कोन है जीव कोन हैं और स्मृति भ्रमशात बुद्धि नाशो तो यहां कृष्ण कहते हैं।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || ६३ ||
अनुवाद:- क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है | जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाति है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है |
द्वितीय अध्याय में श्लोक संख्या 62 और 63 में जब स्मृतिभ्रंशाद् स्मृति में भ्रंश हुआ तो बुद्धि नाश होगा लेकिन यहां बुद्धि का नाश नही होने वाला हैं।
बुद्धि का विकास होने वाला है भगवान बुद्धि देने वाले हैं उसकी बुद्धि शून्य नहीं होने वाली है उसकी बुद्धि 100% विकसित होने वाली है वह 100% बुद्धिमान होगा ऐसा कृष्ण ने कहा है कि
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||
अनुवाद:-
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
बुद्धि योगम मैं बुद्धि देता हूं माययाअपरित ज्ञान माया तो हमारा ज्ञान या बुद्धि संभ्रमित करती है चोरी करती है लेकिन जो भक्त है उनको भगवान बुद्धि देते है ददामि बुद्धि योगम तम मैं देता हूं मैं बुद्धि देता हूं। वह बुद्धू नहीं जो आपको स्कूल कॉलेज में पढ़ाते हैं वह तो उनका ज्ञान या बुद्धि चोरी हुई है माया ने चोरी की है ऐसे बुद्धू से हम कुछ सीखेंगे समझेंगे तो वह बुद्धि प्राप्त नहीं होगी लेकिन भगवान बुद्धि प्राप्त करेंगे बुद्धि देंगे तो बुद्धि नाशात प्रणश्यति कृष्ण ने कहा है भगवत गीता में बुद्धि का नाश हुआ तो फिर विनाश भी हुआ तो फिर हो गया विनाश बुद्धि नाशातप्रणश्यति लेकिन यहां भगवान ने बुद्धि दी है
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||
अनुवाद:-
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
तो ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ताकि वो व्यक्ति जिसको बुद्धि प्राप्त हुईं है मामुपयान्ति ते माम यान्तिते उप मतलब पास यान्ति मतलब जाता हैं वो व्यक्ति मेरे पास आयेगा जहां मैं रहता हूं वहां आएगा मुझे प्राप्त होगा तो ऐसे ही हैं सब अभी पूर्ण बताने के लिए समय नही हैं तो ये दो अलग अलग मार्ग हैं
तर्कोंप्रतिष्ठ श्रुतयो विभिन्ना
नासावृषिर्य़स्य मतं न भिन्नम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो ये़न गत: स पन्था:।।
(श्री चैतन्य-चरितामृत,मध्य लीला, अध्याय 17 श्लोक 186)
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अनुवाद: – श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, “शुष्क तर्क में निर्णय का अभाव होता हैं। जिस महापुरुष का मत अन्यों से भिन्न नहीं होता, उसे महान ऋषि नहीं माना जाता। केवल विभिन्न वेदों के अध्ययन से कोई सही मार्ग पर नहीं आ सकता, जिससे धार्मिक सिद्धांतों को समझा जाता हैं। धार्मिक सिद्धांतों का ठोस सत्य शुद्ध स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के ह्रदय में छिपा रहता हैं। फलस्वरूप, जैसा कि सारे शास्त्र पुष्टि करते हैं, मनुष्य को महाजनों द्वारा बतलाए गये प्रगतिशील पद पर ही चलना चाहिए।”
महाजनों ने दिखाया हुआ मार्ग ये हैं कृष्ण ने गीता भागवत का दिखाया हुआ मार्ग भक्ति मार्ग हैं और फिर दूसरा जतो मत ततो पथ वाला मार्ग दूनियावालों ने भी या राजनीति वाले और अन्य लोगो ने दिखाया हुआ मार्ग तब आपको चयन करना होगा आप कोनसा मार्ग का चयन करेंगे वैसे आपने पसंद किया ही हैं ये बातें सुन कर आपकी श्रद्धा और बढ़ नई चाहिए दृढ़ होनी चाहिए और उसी के साथ आप सारी दुनिया को बता सकते हैं तो संसार में जो भी समस्याएं हैं जिसकी हम लोग चर्चा कर रहे थे यह शास्त्र हमें सावधान तो कर रहे हैं कि कुछ सुधार करिए पर हमको कोई युक्ति नहीं है उपाय नहीं है भौतिक दुविधा है तो भौतिक उपाय उस पर कारगर नहीं हो सकती श्रीमद भगवतम में उसके उपाय यह सही दिशा मार्ग दृष्टिकोण मूल्य यह सब बताएं हैं तब इसको सारा संसार मानव जाति ऐसे अपनाएंगे तो हम टाल सकते हैं। हम सब गड्ढे में गिरने से बच सकते हैं ठीक हैं इस पर चिंतन मनन करिए भगवान के विचार यह मेरे विचार नहीं है यह कोई मनो धर्म नहीं है यदि ऐसा करते हैं तो वह जुगार हो जाता है फिर ऐसा होता है कि एक ठगता है और दूसरा ठगाता है। यहां हम आपको ठिकाने नहीं है बैठे हम अपने विचार करेंगे तो फिर आप ठग जाओगे दुनिया वाले अपने विचार बताते हैं मेरा विचार है ऐसा हो सकता है इसीलिए इस्कॉन प्रभुपाद ने हमको 4 नियम दिए हैं उसमें से एक नियम है जुगार नहीं खेलना जब व्यक्ति अपने विचार बोलता है मुझे लगता है मेरा विचार है मेरा ऐसा मत है यह और वह इस प्रकार से समस्या का कारण यही है कि दुनिया वाले अपने दिमाग से दुनिया को चलाना चाहते हैं या शायद इनको लगता है कि और कोई इसे नियंत्रित करने वाला नहीं है तो हम ही इसे नियंत्रित करते हैं। लेकिन किसने कहा था कि गीता और भागवत यह हमारे जीवन का दिशा दर्शक पुस्तिका है इस संसार के साथ कैसे डील करना है या उसको कैसे समझना है और हमको सारे व्यवहार करने हैं एक दूसरे के साथ और निसर्ग के साथ इत्यादि इत्यादि पर्यावरण के साथ और उसके लिए यह दिशा दर्शक पुस्तिका है हमें यह शास्त्र दिए गए हैं जिसको श्रील प्रभुपाद जी ने प्रस्तुत किए हैं और कई लोग कह रहे थे कि प्रभुपाद जी की पुस्तकें इस सारे प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं तो आइए सब मिलकर इसका प्रचार करें यह प्रभुपाद जी की 125 साल की जन्मदिन भी है उनके जन्म का 125 सावा वर्ष भी है तब जो प्रभुपाद जी ने हम को जो दिया है उसको भली-भांति समझ कर उसका यथासंभव उसका वितरण उसका प्रचार जितना अधिक से अधिक बड़े तौर पर कर सकते हैं उतना हमें करना चाहिए जहां जहां आप कुछ लोगों को प्रभावित कर सकते हो अपने पारिवारिक जीवन आपका शहर है आपका गांव हैं आपकी कॉलनि इतने बड़े पैमाने में आप इसे प्रचार कर सकते हैं प्रयास करिए जो बातें आप समझे हो उसे औरों को समझाओ प्रभुपाद जी के ग्रंथों का वितरण करिए यह मार्गदर्शिका है हरे कृष्ण महामंत्र का प्रचार करो लोगों को भाग्यवान बनाओ प्रसाद वितरण करो यह प्रसाद ग्रहण करने के लिए कहो अपने अपने घरों में उसमें से एक भी आइटम केवल लोग प्रसाद ही खाएंगे तो संसार में क्रांति होंगे 1 साल के लिए पूरे संसार को प्रसाद खिलाओ और उसके बात दुनिया का चेहरा हम यह निश्चिती देते हैं भगवान की और से संसार का कल्याण होगा छोड़ दो यह मांसाहार मटन चिकन और जो हॉट डॉग और क्या क्या रहता है स्नेक सुप क्या पीते हैं यदि अभक्ष्भक्षण हम साल भरके लिए छोड़ते हैं तो संसार का कल्याण होगा या तो प्रसाद ही खायेंगे और हरे कृष्ण महामंत्र का जप करेंगे कीर्तन करेंगे ग्रन्थों का अध्ययन करेंगे और साधु संग करेंगे लव मात्र साधु संग करेंगे सर्व सिद्धि होय आपके साथ भी संग करेंगे आप सब साधु हो आप का संग करेंगे तब काफी क्रांति होने वाली हैं। ठीक है हरि बोल ।
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जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
09 अगस्त 2020
हरे कृष्ण!
826 सुन लिया अनादि गोपी ? ठीक हैं,827 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।हरे कृष्णा। सहो परिवार।भुवनेश्वर से बहुत सारे लोग जुड़े हुए हैं। घर भर गया आपका? क्या आप हिंदी समझते हो? हिंदी भूजबेन ? ठीक हैं, और भी कई लोगो के घर भरे हैं। माधव,नागपुर और भी कई सारे हैं। आप सब का स्वागत हैं। सुप्रभातम कहना अच्छा हैं। हरि हरि, देवहुति माधुरी ।
हरि हरि।
तो कई सारे लोग एकत्र हुए हैं,लेकिन सारी दुनिया तो नहीं हुई हैं,कितना अच्छा होता कि अगर सारी दुनिया अपना सारा काम धंधा छोडकर एकत्र होती।हो सकता हैं, अभी भी कई लोग सो रहे होंगे। ऐसी संभावना तो हैं न? सात बज रहे हैं, लेकिन कई लोग मीठी नींद का माज़ा चख रहे होंगे ?रात को सोते नहीं,फिर प्रातकाल: में जागते नहीं और इतना सुनहरा अवसर ये ब्रहममुहृत को गवाते हैं।ये हैं कलियुग, जमाना बदल गया हैं।वही बातें हो रही हैं, कल भी बातें की और आज भी उसी पर चर्चा होने वाली हैं। में भी कुछ कहूंगा और फिर आप में से जिन्होंने हाथ ऊपर करे थे, वो भक्त आज बोल सकते हैं। उनमेसे कुछ नहीं बोलना चाहते, तो भी ठीक हैं। दूसरे भी कुछ बोल सकते हैं। लेकिन बोलने वालो की कुछ संख्या ही हो सकती हैं । जब हम इस संसार का अवलोकन करते हैं, निरक्षण करते हैं, या ऑब्जरवेशन या डायग्नोसिस करते हैं तो कैसे करना चाहिए?शास्त्र चक्षुक्ष:।जब हम शास्त्रों की आखों से या आचार्यों की आखों से देखेंगे तो कयोकि आप वैष्णव हो,विष्णु के प्रतिनिधि हो तो आप फिर बताओगे की क्या करना चाहिए। ये दुनिया तो भ्रमित हो सकती हैं। उनको पता नहीं है,की क्या करना हैं लेकिन वैष्णव जानते हैं।आप विष्णु दूत हो।हो की नहीं विष्णु के दूत? विष्णु की ओर से या परंपरा की ओर से परम्परा के भक्त विष्णु दूत होते हैं। दूत मतलब सन्देश वाहक, दूत, आप कहोगे लेकिन पहले मैं कहूँगाआपको पहले थोड़ा कलि पुराण सुनाऊँगा । कलि के जो दोष हैं, *कलेर दोष निजे राजन*
12.3.51
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः । कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥५१ ॥
हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।
ये कहना मतलब कलि पुराण कहना हुआ।कलि का जो परिणाम निकल रहा हैं। कली के कारण जो दोष इस संसार में आ चुके हैं,ना सिर्फ संसार में बल्कि कह सकते हैं पृथ्वी या प्लेनेट पर और हम सभी में भी हम सभी भी तो उस पृथ्वी के लिए हैं पृथ्वी के ही अंग हैं पृथ्वी के ही बच्चे हैं पृथ्वी माता को हम कलयुग के चेलों ने बिगाड़ दिया है पृथ्वी का सत्यानाश कर दिया है कल भी इस बारे में कहा और आज भी प्रयत्न है मेरा कि कुछ कहू लेकिन देखते हैं क्या कह पाता हूंँ। शास्त्रों में सात अलग अलग तरह की माताए कही गयी हैं। वैसे पृथ्वी एक माता हैं। हमको खिलाती पिलाती कौन हैं? माताए ही , पृथवी माता ही खिलाती पिलाती हैं, हमारा लालन पालन ये पृथवी करती हैं, तो हम सभी ने मिलके वैज्ञानिक और फिर उद्योयगपति, राज नेता और फिर अभिनेता और फिर ये सब चांडाल चौकड़ी ने क्या किया है? पृथवी का सत्यानाश, पर्यावरण का सत्यानाश। या फिर मेंनें कल भी कहा कि इतना सारा डिफोरेस्टशन हो रहा हैं, जंगल के जंगल तोड़े जा रहे हैं। जो ब्राज़ील में हैं या जहाँ वहाँ यहाँ तहाँ तो या जंगल को काटा जा रहा हैं या जंगल को आग लग रही हैं। जंगल आग में हैं। पिछले वर्ष ऑस्ट्रेलिया ने जो जंगल आग देखा ये ऑस्ट्रेलिया के इतिहास में अभूतपूर्व हैं,ऐसी आग जिस अग्नि ने लाखो वर्ग किलोमिटर जंगल को राख बना दिया और हर साल कैलिफ़ोर्निया में ऐसा होता ही हैं। जंगल अग्नि। और भी कई जगह इस प्रकार हो रहा हैं या तो हम वृक्षों को काटते हैं या फिर जंगल जल रहे हैं, तो इस प्रकार से मैंने एक समय कहा था,हालांकि कहने के लिए समय भी नहीं हैं,पर यह जो वृक्ष हैं या इस पृथवी पे जो हरियाली हैं जो लटावेली है या कई और भी जो रंग बिरंगे पुष्प भी है ये पृथवी माता का वस्त्र हैं,साडी हैं। पृथवी माता ने साडी पहनी हुई हैं। उसमे एक अचछी नक़्क़ाशी भी हैं। या हो सकता है की अलग अलग रंग जो अधिक्तर हरियाली ही हैं, हरा रंग और भी रंग होते हैं प्रकृति में, वृक्षवाली में, फिर उस वस्त्र को हम संसार के या कलियुग के जन क्या कर रहे हैं? पृथ्वी को हम विवस्त्र कर रहे हैं, ये कृत्य वैसा ही हैं, जैसे दुशाशन – दुष्ट शाशन करने वाला – दुशाशन – जैसे द्रौपदी का वस्त्र हरण कर रहा था,तो वैसा ही इस संसार के जो शाशक हैं, हम सारे मिलके इस पृथवी का जब डिफोरेस्टशन करते हैं या आग लगा के जब जलाते हैं या आग लगती हैं, जलता हैं, तापमान बढता हैं,ग्लोबल वार्मिंग होती हैं,तो कुछ फ्रिक्शन के साथ आग लग जाती हैं।हरि हरि।
तो फिर दुशाशन का जो हाल हुआ और सारी कौरव सेना का जो हाल हुआ, उनकी जाने चली गयी,वह सब मर गए। तो अब भी ऐसा ही हैं, वहीं होगा,वहीं हो रहा हैं, फिर महामारी आती हैं और जाने जाती हैं। हमारा स्वास्थ बिगड जाता हैं।कई आतंकवादी आ जाते हैं, वो जान लेते हैं, तो ऐसे ही उनको दण्डित करा जाता हैं।यह सब हमारे पाप कर्तय के कारण हैं।हम लोग डिफोरेस्टशन की बात कर रहे थे तो फिर वोही पेड़ काट काट के जाने क्या क्या करते हैं। यह मैं नहीं बताऊंगा। एक तो कागज़ बनता हैं और कागज़ का उपयोग होता हैं। प्रिंट मीडिया में अख़बार छपते हैं। और फिर अखबार ही हैं, कलि पुराण और जो संसार भर की जो बुरी खबर हैं “कलेलर दोष निधे राजन” वो ही छापते हैं। उसका प्रचार प्रसार होता हैं। तो ये उपयोग होता हैं। पेड़ काट दिए कागज़ बन गया,बड़े बड़े कारखाने हैं। पेपर मिल हैं, फिर धुआँ भी हैं। हवा प्रदूषित हो गयी और उस कागज़ से जो भी पेपर बना और अखबार छपते हैं। संसार भर में कितने सारे न्यूज़ पेपर,सैकड़ो की संख्या में अख़बार छपते हैं और फिर प्रातःकाल में जब हम देरी से उठते हैं, हो सकता हैं आठ बजे।कुछ लोग शराब भी पिते होंगे। कुछ लोग तो चाय तो पीते ही हैं और चाय के साथ चाय की मिठास और बढ़ती हैं, जब अखबार भी साथ में पढते हैं। तो संसार भर का जो कचरा न्यूज़ हैं, हम अपने मन रूपी कचरे के डिब्बे में डाल देते हैं और संसार भर का कचरा खबर , ताज़ी खबर या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या प्रिंट मीडिया से हम अपने मन को भर देते हं।संसार भर के आतंकवादी क्या कर रहे हैं? या यह सिनेमा वो सिनेमा जिसमे क्या होता हैं, सिर्फ सेक्स होता हैं और वोइलेंस होता हैं।काम और क्रोध, दो चीज होती हैं। नायक खलनायक ये कामी लोग और हम ऐसे लोगो को हीरो बनाते हैं, यह हमारा हीरो हैं, ये मेरा हीरो है। वैसे ये हीरो तो जीरो ही होते हैं, लेकिन हम उनको हीरो बनाते है हम उनकी नक़ल करते है। हमारा काम का धंधा होता हैं और हम भी काम और क्रोध में लग जाते हैं।यह दुनिया पागल हैं और इन पागलो की संगती में जो आएगा यह दुनिया उनको पागल ही कर देगी। जो इन पागलो के साथ आएगा उनके संम्बन्ध में सुनेगा पढेगा वो भी फिर पागल ही हो जाएगा।हरे कृष्णा।
हम कल भी सर्वे की बात बता रहे थे कि कई साल पहले एक सर्वे हुआ और क्योकिं लोग अधिक अधिक भोगी बन रहे हैं या उनको प्रोत्साहित करा जाता हैं कि आप भोगी बनो,आप भोगी बनो। कृष्णा ने कहा हैं, आप योगी बनो और यह संसार का सन्देश हैं या संसार के तथाकाहित नेता या भ्रमित नेता हैं,उनकी प्रेरणा हैं कि भोगी बनो, भोगी बनो।हरि हरि।
भोगी बनो और फिर रोगी बनो और उनको यह पता नहीं हैं कि भोगी बनाएंगे तुमको तो साथ में रोगी भी बनाएगे,वैसे भारत भूमि की यह खासियत हैं कि भारत भूमि तपो भूमि हैं और पहला आदेश उपदेश भगवान ने ब्रह्मा को जो इस ब्रह्मांड के पहले जीव हैं,उनको पहली बात जो करने के लिए कही थी वह तप ही था।तप करो तो ये भारत भूमि हैं, तपो भूमि और आजकल पुरे संसार को भोग में ही आनंद आता हैं। भारत भी वही कर रहा हैं। इसको भोग भूमि बना दिया हैं। भोगी बनो तो फिर रोगी बनो, यह उनको पता नहीं हैं कि भोगी बनेंगें अगर तो रोगी भी बनना ही पडेगा।पृथवी को भूमि कहते हैं।पृथवी को हमने भोग भूमि बना दिया हैं और इस भोग की कोई सीमा ही नहीं है। काम और फिर क्रोध और फिर लोभ। फिर लोभी बनो तो में जयादा समय नहीं लेना चाहता हूँ।आज आप लोग जयादा बोलेंगे। तो जो एक सर्वे हुआ उसके अनुसार अमेरिका का जो रहने का स्टैण्डर्ड है उनके अनुसार रहने का स्टाइल और जितने सामग्री का वो उपयोग करते है भोग विलास के लिए और जितने कर रहे है उससे तृप्ति तो नहीं हो रही है और चाहते है और चाहते हैं।तो अभी की जो चाहत हैं, अमेरिका में भोग विलास की वो सबसे आगे हैं।अमेरिका “लैंड ऑफ़ ओप्पोरचुनिटी”, तो उस सर्वे में ये कहा गया था की हमे 5 पृथवी की आवश्यकता हैं, तब कुछ समाधान होगा। जितना कामी,क्रोधी, लोभी हम हैं उसके अनुसार 5 पृथवी की आवशयकता हैं,जो अमेरिकन लोगो की भोग की वासना है उसकी तृप्ति के लिए हमको 5 ग्रह की आवश्यकता हैं। और फिर अगर यूरोपियन स्टैण्डर्ड से जायेंगे तो हमे 3 ग्रह की आवश्यकता है। और भारत के स्टैण्डर्ड से प्राचीन भारत के न की आधुनिक भारत के, आधुनिक भारत तो बाहर हैं, भारत तपो भूमि के स्टैण्डर्ड से 1 ग्रह ही काफी हैं, जिसमे हम बहुत सारे चीज़ो को इस्तेमाल ही नहीं करेंगे। हम तपस्या करेंगे। अपने अपने स्थान पर जो भी सामग्री है वो बनी रहेगी * नैचुरली *।उसी से शोभा हैं, पृथवी की। फिर वो वन हैं या समुद्र हैं या ज़मीन हैं या आकाश हैं यथावत हैं।हम बना के या बना रहे। ये स्वच्छ भारत के लिए तो मन स्वच्छ होना चाहिए। तो भारत स्वच्छ तो सड़क स्वच्छ और कार स्वच्छ और मन हैं, कचरा गंदा। तो में अब यही रुकूंगा और आप में से बता सकते हैं, कि क्या करना चाहिए?ये प्रश्न हैं।अगर आपको पूछा जायेगा तो आप क्या कहोगे?कैसे बचा सकते हैं पृथवी को और हम सब को भी? हमारा कैसे रक्षण होगा? या कैसे परिवर्तन होगा? या कैसे कुछ क्रांति हो सकती हैं? क्या उपाय हैं?अब मेैं यहाँ रुकता हूंँ। और वंसीवदन ठाकुर आप लिख रहे हो? आप वैसे भी भक्त जो उपाए बताते हैं और ट्रांस्क्रिबेर भी अंग्रेजी में लिखते है आप भी लिखते हो। में सोच रहा था की जो भी भक्तो ने आज और कल जो उपाए बताये थे या कहेंगे उसके आधार पर आप कोई रिपोर्ट त्यार करके सभी को प्रस्तुत करो। एक लेख लिख सकते हैं। ठीक हैं। हरि हरि ।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*8 अगस्त 2021*
हरे कृष्ण। हमारे साथ 729 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। क्या इतने काफी है? बिल्कुल भी नहीं। या तो आज रविवार है। हरी हरी। या फिर हो सकता है कि नया पासवर्ड 1896 सभी के पास नहीं पहुंचा है। कुछ करो। हरी हरी। यह इतनी बड़ी चिंता नहीं है। उससे कुछ और भी कुछ चिंताजनक बातें हैं। जिसका संसार सामना कर रहा है। मैं आपको उसका स्मरण दिलाना चाह रहा था। यह सुप्रभात खबर तो नहीं है। लेकिन करें क्या? यह कलयुग है।
*कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः ।*
*कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥५१ ॥*
(श्रीमद भगवतम 12.3.51)
अनुवाद:
हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।
बुरा, बुरा, बुरा और पागल, पागल, पागल जगत है। जगत कैसा है? दुनिया पागल है, बुद्धू है, बेवकूफ है, बहुत कुछ है। क्या क्या कहें। कुछ दिन पहले, संसार के 14000 शास्त्रज्ञों ने इस संसार को मतलब हम सबको, संसार के जनता को, संसार के नेताओं को चेतावनी दी हुई है। एक प्रकार से उन्होंने आपातकालीन घोषित करा हुआ है। उनका यह भी कहना था कि शास्त्रज्ञो 1960 से दुनिया को बता ही रहे थे। सावधान! सावधान! बुरे दिन आने वाले हैं, अच्छे दिन नहीं। इस संसार का उज्जवल भविष्य नहीं है, काला भविष्य है। इसका स्मरण 1960 से दे ही रहे थे। अभी उन्होंने कुछ दिन पहले अंतिम घोषणा करी है और कहा दुनिया वालों सावधान! सुधरो और अपनी सोच में, दृष्टिकोण में और अपने जीवन शैली में सुधार करो और अपने खानपान में बदलाव लाइए। ऐसा उन्होंने नहीं कहा। लेकिन मैं ऐसा कह रहा हूं कि वे ऐसा वह कहना चाह रहे थे। ऐसा परिवर्तन अगर आप नहीं करोगे तो आने वाले 20 – 30 वर्षों में इस संसार का, इस पृथ्वी का, पृथ्वी माता का और पृथ्वी माता की गोद में हम जो पलते हैं, हमारा बहुत बुरा हाल होने वाला है। सावधान! हम पृथ्वी का तापमान बढ़ा रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग हो रही है। आप ब्राजील में अमेजॉन के वन वहां पर वनों की कटाई चल रही है। अधिक अधिक पेड़ काटे जा रहे हैं और भी कुछ स्थानों पर भी खुदाई हो रही है। पृथ्वी के गर्भ में या गोद में खनिज पदार्थ आप ढूंढ रहे हो। आप शोषण कर रहे हो। आप में उपभोग की प्रवृत्ति इतनी बढ़ चुकी है। उपयोग करना और दुरुपयोग करना। उसका कुछ ज्यादा ही फायदा उठाना। हरि हरि। आपने क्या किया है? वायु प्रदूषण, आपने हवा को दूषित बनाया है। प्राण वायु जिससे हमको प्राण प्राप्त होता है। संसार के जन प्राण वायु का अभाव महसूस कर रहे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रहा है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण बढ़ रहा है। आपने पानी को खराब किया और दूषित किया। पृथ्वी का भी प्लास्टिक से प्रदूषण हो रहा है। काफी सारे औद्योगिक उत्पाद से गैस निकलती है जो हवा को दूषित करते हैं और कई रसायन है नदी में बहते हैं। फिर वह गंगा हो सकती है, यमुना हो सकती है। तो इस तरह जल प्रदूषण होता है। आप पृथ्वी को रासायनिक खाद खिला रहे हो। यह रसायनिक खाद खिला खिला के पृथ्वी की उपजाऊपन बहुत कम हो रही है। जो पृथ्वी की मिट्टी है वह अस्वस्थ है। आप रसायनिक उर्वरक (केमिकल फर्टिलाइजर) पृथ्वी को खिलाते हो। उसी से अनाज या फल या जो भी उत्पन्न होते हैं, उसमें रसायन होता है। उसको हम लोग खाते हैं। हमारा स्वास्थ्य खराब हो रहा है और साथ में पृथ्वी का भी स्वास्थ्य बिगड़ रहा है और इस पृथ्वी पर जो मनुष्य है, लोग हैं हमारे स्वास्थ्य में बिगाड़ कर रहे हैं। कोरोनावायरस 19 पैंडेमिक(सर्वव्यापी महामारी) हो गया। एक एपिडेमिक(महामारी) होता है और उससे भी अधिक खतरनाक पैंडमिक(सर्वव्यापी महामारी) होता है। इसका तो आप अनुभव कर ही रहे हो। ऐसा शास्त्रज्ञो ने कहा तो नहीं, उनकी घोषणा में ऐसा नहीं मिलता। हरि हरि। लेकिन अमेरिका में सर्वे हुआ। पूरे विश्व भर में सर्वे हुआ। हरि हरि। पूरे संसार में सबसे अधिक बीमार देश कौन सा है? उस सर्वे से पता चला कि अमेरिका सबसे अधिक बीमार देश है। जहां तक बीमारी की बात है तो यह मानसिक बीमारी से अधिक अमेरिकी बीमार हैं। पांच में से एक व्यक्ति बीमार है। पांच में से एक अमेरिकन मानसिक अस्पताल जाता है। भोग का परिणाम है रोग। अमेरिका अवसर प्रदान करने वाली भूमि है। यह औद्योगिक सभ्यता का प्रयोग पिछले 500 वर्षों से हो रहा है। जब से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। यह दो सभ्यता, एक औद्योगिक सभ्यता और दूसरी है कृष्ण भावना भावित सभ्यता दोनों का प्रचार और प्रसार हो रहा है। जो इस औद्योगिक सभ्यता के दुष्परिणाम है, वह स्पष्ट हो रहे हैं। अब इसीलिए शास्त्रज्ञो जिनकी रचना से और जिनकी व्यवस्था से विज्ञान और प्रौद्योगिकी (साइंस एंड टेक्नोलॉजी) की जय। ऐसा जो प्रचार वह करते थे और संसार भर में हो रहा था। शास्त्रज्ञो की जय। दुनिया शास्त्रज्ञो को ही गुरु मान रही थी। वह शास्त्रज्ञो को आंखें बंद करके मान रहे थे। अंधविश्वास कर रहे थे। वही शास्त्रज्ञो कुछ साल पहले एक शास्त्रज्ञ से पूछा कि अब क्या करना चाहिए इसका क्या उपाय है? पृथ्वी का ऐसा हाल हुआ है। पृथ्वी पर जो जन है और लोग हैं वह अधिकाधिक दुखी हो रहे हैं।तो उन्होंने कहा था, दूसरे ग्रह को । किंतु यह क्या समाधान है ? हरि हरि !! तो शास्त्रज्ञों ने अपने हाथ नीचे कर दिए, अब हम आपके सहायता नहीं कर सकते । आप अपने मर्जी के हैं ! तो वैज्ञानिकों का कोई भरोसा नहीं है या विज्ञान, प्रौद्योगिकी । उसको हम निंदा नहीं करते, श्रील प्रभुपाद कहा करते थे । अंध पंगुनिआई की बात है । यह विज्ञान ,प्रौद्योगिक है अंधी है, अंधा है । यह जैसे, भारत की संस्कृति लंगड़ा है, तो लंगड़ा और अंधा एक दूसरों की सहायता कर सकते हैं तो वैज्ञानिक अब तक, वैज्ञानिक अंधे होते हैं वह देख नहीं पाते …
*कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभि: सह ।*
*कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्कोऽधुनोदित: ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 1.3.43 )
अनुवाद:- यह भागवत पुराण सूर्य के समान तेजस्वी है और धर्म , ज्ञान आदि के साथ कृष्ण द्वारा अपने धाम चले जाने के बाद ही इसका उदय हुआ । जिन लोगों ने कलियुग में अज्ञान के गहन अन्धकार के कारण अपनी दृष्टि खो दी है , उन्हें इस पुराण से प्रकाश प्राप्त होगा ।
की बात है । कलियुग क्या करता है ? लोगों की दृष्टि को नष्ट करता है तो वैज्ञानिक वे प्रत्यक्षवादी होते हैं । परोक्षवाद नहीं । हम लोग वैष्णव हम परोक्षवादी होते हैं । शास्त्र प्रमाण या शब्द प्रमाण को स्वीकार करते हैं । भगवान की बात या गीता, भागवत् वेद पुराणकी बात सुनते हैं और उसी से हम देखते हैं समझते हैं या परोक्षवाद कहा जाता है । प्रत्यक्षवाद, दिखाओ हमको ! जो दिखता नहीं वह है नहीं । यह वैज्ञानिकों का दर्शन तत्व हुआ इसको प्रत्यक्षवाद कहते हैं । ‘प्रति-आक्ष’ जो भी सामने हैं हम उसको देख सकते हैं, छू सकते हैं, सुंघ सकते हैं नहीं तो उसका अस्तित्व नहीं है या फिर यह भौतिकवाद है या यह प्रत्यक्षवाद है या चार्वाक वाद है, चार्वाक का यह दर्शन तत्व है । इन शास्त्रज्ञ को और फिर इनके जो चैले हैं सारी दुनिया इनके चैले हैं उनकी आंखें खोलने की आवश्यकता है ।
तो जो सभ्यता श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दी है …
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥*
( भगवद् गीता 4.8 )
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
कहा और ऐसा किया भी तो ऐसी सभ्यता की आवश्यकता है दुनिया को सबसे ज्यादा ।
अधिक औद्योगिक उत्पादन, उत्पादन को बढ़ाओ उत्पादन को बढ़ाओ । अधिक उत्पादन होगा तो हमारे इंद्रिय तृप्ति के साधन बढ़ जाएंगे । इंद्रियों के विषय बढ़ जाएंगे और उसके बाद फिर मनोरंजन, मजा आएगा और ऐसा ऐसा होता है । ऐसा गणित चलता है दुनिया वालों का या यह प्रत्यक्षवादियों का, वैज्ञानिकों का । अधिक उपभोग के साधन तो औद्योगिकरण को बढ़ाओ और प्रोडक्ट जब तैयार हुआ है उसका तरक़्क़ी करो । उसके लिए सब यह इंटरनेट है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, तो तेज संचार ताकि कोकाकोला की प्रोडक्ट तैयार होते ही दुनिया को पता चलना चाहिए । आनंद’, ऐसा बता दो और दुनिया जब इसको सुनेगी पढ़ेगी यह व्यावसायिक विज्ञापन ऐसा ऐसा प्रोडक्ट बाजार में उपलब्ध है, तो लोग टूट पड़ेंगे उसके बाद सारे प्रोडक्ट को क्या करेंगे ? दुकानों में नहीं ! अपने बाजारों में नहीं ! सुपर बाजार में, सुपर बाजार में नहीं ! हाइपर बाजार में, हाइपर बाजार में नहीं ! महा मॉल्स में, उसको सारा पहुंचा दो और फिर तेज परिवहन की व्यवस्था हो । ताकि हम को पता चलते ही ऐसा ऐसा प्रोडक्ट यहां पर भी मिलता है तो हम जल्दी वहां पर पहुंच जाते हैं और उसको प्राप्त करो उसके बाद उपभोग करो और उस का आनंद लो उसके बाद हम पीड़ित होंगे ।
ऐसा भी सर्वेक्षण किया गया की पहले छोटी-छोटी दुकानें हुआ करती थी और कुछ ही बिक्री होती थी कुछ प्रोडक्ट्स का । क्रय विक्रय होता था लेकिन अब तो मॉल्स वगैरा बने हैं, अधिक उत्पादन हो रहा है, अधिक बिक्री, खरीदना और बेचना हो रहा है और खरीदारी यह शौक बन गई । मैं खरीदारी के लिए मिडिल ईस्ट जाऊंगा । मैं खरीदारी के लिए पूरे विश्वभर आऊंगा । खरीदारी बढ़ाने से, मॉल बढ़ गए, उत्पादन बढ़ गया तो उसके साथ क्या दुनिया अधिक सुखी हो गई ? पहले की तुलना में तो छोटी-छोटी दुकानें थी, कुछ ही उत्पादन था । उसके सो हजार गुना उत्पादन बढ़ गया तो क्या हम लोग या मनुष्य जाति हजार गुना ज्यादा सुखी हो गए ? तो उस सर्वेक्षण में यह निकला, नहीं ! नहीं ! नहीं ! …इससे कुछ नहीं होता है । वास्तविक में उनक पता नहीं चलता है, हम ही बता सकते हैं । या साधु शास्त्र आचार्य बता सकते हैं ऐसा नहीं होता है । आप ज्यादा उपभोग करने से ज्यादा सुखी हो सकते हैं । तो औद्योगिकरण उत्पादन बढ़ गए फिर परिवहन के साधन तेज हो गया, संचार फटाफट हो रहे हैं, तो इससे क्या दुनिया सुखी है ना दुखी है ! अधिक दुखी है या हम अधिक दुखी हो रहे हैं । इसीलिए यह वैज्ञानिक मंडली 14000 शास्त्रज्ञों ने होश में आ रहे हैं और हो सके तो हमें कुछ रुकना चाहिए और करने से पहले कुछ सोचना चाहिए कुछ करने से पहले I हम को रोकना होगा, सोचना होगा और हमको काफी कुछ रणनीति में परिवर्तन करना होगा या हमारे जीवन चर्या में परिवर्तन करना होगा । हरि हरि !! वरना, नहीं करोगे तो कुछ प्रलय जैसा अनुभव होगा । अब जब महामारी जो हुआ है यह छोटा प्रलय ही कहो । इतना सारा विनाश, कई प्रकार के विनाश, स्वास्थ्य सहित, मृत्यु और भी बहुत सी बातें । तो सावधान ऐसा आप सुधरोगे नहीं तो आपका इस दुनिया का, संसार का, पृथ्वी के सारे लोगों का, पूर्व का,पश्चिम का अमंगल होने वाला है, यह अंधकार भविष्य है । ठीक है ! तो आप भी इसको सुन रहे थे, तो आपका क्या विचार है ? या फिर क्या समाधान है ? आपको यह घर के लिए पाठ दीया ! वैज्ञानिक कह रहे हैं सावधान, सुधरो । कुछ परिवर्तन करो । वे बुद्धि नहीं लगा रहे हैं क्या करना चाहिए । कुछ बुद्धि है उनके पास लेकिन उनके समाधान जो है, समस्या है भौतिक ! समाधान भी है भौतिक होगा तो वह समाधान नहीं है । भौतिक समस्या का या सभी समस्या का समाधान आध्यात्मिक समाधान है । आध्यात्मिक या दिव्य या शास्त्रीक या शास्त्रउक्त कोई समाधान, कोई उपाय भी हो सकता है, तो हम आपसे सुनना चाहेंगे या दुनिया वालों को फिर कहो आप कहना चाहोगे के सुधार करना है तो यह सुधार । ऐसा करना चाहिए, ऐसा करने से फिर हम कुछ इस खतरे से बच सकते हैं । हमारे जो भविष्य, हमारे कोई भविष्य नहीं है । वैसे आप लोग तो भगवद् धाम लोटो गे लेकिन आपके संतानों को क्या होगा ? पोते, भविष्य की पीढ़ी !
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*07 अगस्त 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 746 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। जय हो। आप जप टॉक के लिए तैयार हो ना?
*जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जय अद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥*
अर्थ:- श्रीचैतन्य महाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्री गौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो।
आप समझ ही गए होंगे कि मैं, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के विषय में कुछ कहने जा रहा हूँ।
कल मैं एक ग्रंथ पढ़ रहा था जो कि बंगला भाषा में है। उसका शीर्षक ‘श्री वृंदावने छः गोस्वामी अर्थात वृंदावन के छह गोस्वामी है। मैंने उनमें से रूप व सनातन गोस्वामी के संबंध में चर्चा पढ़ी। ‘श्रीमन महाप्रभु का रामकेली गमन’ अथवा श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का रामकेली में आगमन। हरि! हरि! रूप और सनातन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का दर्शन चाहते थे। बहुत समय से वे रामकेलि में रहते थे। यह रामकेलि, राजा हुसैन शाह की राजधानी रही। यहां रूप और सनातन के नाम दबीर ख़ास व साक्कर मल्लिक हुए थे। यहां आकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दबीर खास को रूप गोस्वामी बनाएंगे व साक्कर मल्लिक, सनातन गोस्वामी बनेंगे। ऐसा उनका नामकरण होगा, रामकेलि जो गौड बंगाल की राजधानी ही है, उसके राजा नवाब हुसैन शाह थे। यह दोनों भ्राताश्री रूप, सनातन उसके दरबार में थे। रुप और सनातन के एक तीसरे भाई भी थे ‘अनुपम’ इसी अनुपम के पुत्र जीव गोस्वामी हुए। अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आगमन रामकेलि में होने जा रहा है। उन दिनों में जीव गोस्वामी तो शिशु ही थे। हरि! हरि! वैसे यहां इस रामकेलि के तीन गोस्वामी हो गए रूप, सनातन और जीव। रामकेलि में रुप और सनातन की तीव्र इच्छा थी और वे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को उन दिनों में संस्मरण अथवा याद किया करते थे व चैतन्य महाप्रभु को पत्र भी लिखते थे। उनके पत्र श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथपुरी में मिलते थे। जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से बंगाल के भक्तों को मिलने के उद्देश्य से गए। तब वे वहां से रामकेलि भी गए।
हरि! हरि! श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे कि आप भगवान को देखना चाहते हो तब शायद ऐसा नहीं होगा अर्थात आप मिल नहीं पाओगे अथवा दर्शन नहीं होंगे। किन्तु यदि हमें ऐसा कुछ कार्य होता है या हम भगवान को याद भी करते हैं। तब हम जहां भी हैं और जहां से पुकारते हैं तब भगवान स्वयं ऐसे व्यक्ति को मिलने, देखने के लिए आएंगे वैसा ही यहां हो रहा है।
*विट्ठल तो आला, आला, मला भंतन्याला मल भंतन्याला आला, महल भंतन्याला तुशीमाळ घालुनि गाला, कढ़ी नाही कुटले टा पंढरीला नाही गेलेचुनियां एक वे देव्हाऱ्यात माझे देव ज्यांनी केला प्रतिपांचांची तंच्या धू लो लावीकाला सत्य वाचा माझी में, वाचली न गाथा पोथी घाली पाणि तुशीला, आगळीच माझी भक्ती शिकवणे मेनेची ती बंधुभाव सर्वांभूति विसरून धर्मस्थल, देई घाँची भुकेल्याला।*
महाराष्ट्र में पांडुरंग के भक्त ऐसा गाया करते हैं। विट्ठल आए हैं। विट्ठल कब आएंगे? मला भंतन्याला- मुझे मिलने के लिए विट्ठल कब आएंगे। आप तुकाराम को जानते हो, भगवान उनसे मिलने के लिए पंढरपुर से देहू गए। रुक्मिणी भी साथ में तुकाराम महाराज से मिलने के लिए गयी थी। ऐसे ही पांडुरंग विट्ठल जाया करते थे। अलग-अलग भक्तों को मिलने के लिए उनके गांव, घर जाते थे अथवा जाते रहते हैं। यहां पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप और सनातन पर विशेष कृपा की है। रामकेलि में चैतन्य महाप्रभु का आगमन हो चुका है।
बंगाल के कई भक्त उनके साथ में गए हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ऐसी ही रचना होती है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जहां भी जाते हैं, वहां लोग बड़ी संख्या में इकट्ठे हुआ करते थे। जब हम चैतन्य चरितामृत अथवा चैतन्य भागवत का अध्ययन अथवा श्रवण करते हैं। तब हमें बारंबार ऐसा पता चलता है कि चैतन्य महाप्रभु जहां भी पहुंच जाते हैं, ना जाने कहाँ से और कितने सारे लोग वहां इकट्ठे हो जाते हैं। वही हुआ। उनके कुछ पार्षद व परिकर बंगाल से ही गए थे। वहां बहुत सारे लोग एकत्रित हो गए । इतनी भीड़ हुई, जिसकी चर्चा सर्वत्र हो रही थी कि कोई आए हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! वे कैसे हैं, कितने लोग आए हैं? वैसे जब यह समाचार राजा हुसैन शाह तक पहुंचा कि इतने सारे लोग रामकेलि आए हैं। उन्होंने सोचा कि पहले कभी इतने लोग नहीं आए थे। रामकेलि के इतिहास में पहली बार इतने लोग आए हैं। इतने लोगों के आगमन का कोई कारण कोई संन्यासी यहां आया हुआ है। उसको देखने के लिए, उसको मिलने के लिए इतनी सारी भीड़ इकट्ठी हुई है।
इतनी भीड़ थी कि नियम व कानून टूटने लगे। विशेष रूप से राजा हुसैन शाह को भय हुआ, ‘जो गोसाई यहां आए हैं, उनके यहां आने का क्या उद्देश्य है व साथ में इतने सारे लोग क्यों आए हैं? कहीं राजा हुसैन शाह मुर्दाबाद, जिंदाबाद मुर्दाबाद। ऐसा कुछ कहने के लिए तो नहीं आए हैं। हमारा यहां पर कोई विरोध तो नहीं हो रहा है?’ चैतन्य भागवत में वर्णन है कि राजा ने अपने कोतवाल अथवा पुलिस कमिश्नर को पता लगवाने के लिए भेजा कि जाओ ‘फाइंड आउट’ अर्थात ढूंढो क्या हो रहा है? कौन आए हैं? इनके साथ इतने सारे लोग कैसे पहुंच चुके हैं? वह कोतवाल गया, उन्होंने सारा अवलोकन अथवा निरीक्षण किया। नोट किया व श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भी देखा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी अहेतु की कृपा से उसे दर्शन दिया, दर्शन मतलब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जैसे हैं वैसे ही। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ज्ञान, कुछ साक्षात्कार अथवा कुछ अनुभव इस कोतवाल अथवा पुलिस कमिश्नर को हुआ। वह उनके सौंदर्य व उनके प्रभाव से प्रभावित था, प्रभावशाली महाप्रभु से प्रभावित होकर जब वह कोतवाल वापिस लौटा । तब राजा ने पूछा-
राजा बोले- *कह कह सन्यासी केमन।कि खाय, कि नाम, कैछे देहेर गठन।।*
(श्री चैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०२६)
अर्थ:- राजा ने पूछा- संन्यासी कैसा है? क्या खाता है? क्या नाम है? तथा उसकी देह गठन कैसी है?
यह कैसा सन्यासी है। कौन है ये संन्यासी, बताओ, बताओ। क्या खाता है? क्या नाम है? क्या करता है? कैसा दिखता है? मुझे थोड़ा सुनाओ तो सही।
तब इस कोतवाल ने जो कहा है और चैतन्य भागवत में उल्लेख है- यह जब मैं कल पढ़ रहा था…
हरि! हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु!
*जिनिञा कनक कांति, प्रकांड शरीर। आजानुलम्बित भुज नाभि सुगभीर।*
(श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०२९)
अर्थ:- स्वर्ण की कांति को भी जीतने वाला बड़े आकार का शरीर है, भुजाएं घुटनों तक है तथा नाभि देश- गंभीर है।
यह कोतवाल कह रहा है – हे महाशय, हे राजा। क्या कहूं?
आजानुलम्बित भुज- मैं देख रहा था कि वे अपनी लंबी भुजाएं आसमान में उठाए थे अर्थात उनकी लंबी भुजाएं आसमान में उठी हुई थी। उनकी नाभि गहरी थी। “नाभि सु गंभीर” भगवान के अलग-अलग अवयव या अंगों में गहराई होती है। उसमें एक नाभि होती है। उसने वह भी नोट किया अथवा उसे दर्शन हुआ। ‘नाभि सु गंभीर’ । वह बता रहे थे।
*सिंह – ग्रीव, गजस्कन्ध, कमल- नयान। कोटि चंद्रो से मुखेर ना करि समान।*
(श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३०)
अर्थ:- सिंह की ग्रीवा, हाथी के से कंधे व कमल नयन नेत्र है। करोड़ो चंद्रमा भी उसके मुख की समानता नहीं करते।
उनका गर्दन शेर अर्थात सिंह ही की तरह है, हाथी की तरह उनका कंधा है। कमल नयन अर्थात कमल लोचनी आंखें हैं ‘कोटि चंद्रो से मुखेर ना करि समान’ अर्थात उस मुख मंडल की यह शोभा अर्थात ओज तेज का तो क्या कहना। जैसे कहा है-
*बहु कोटि चंद्र जिनि वदन उज्जवल। गल- देशे बन माला करे झलमल।।*
( शिक्षाष्टकम-६)
अर्थ:- चैतन्य महाप्रभु के मुखमंडल की कांति करोड़ो चंद्रमाओं को पराजित कर रही है तथा उनके गले में पड़ी वनकुसुमों की माला चमक रही हैं।
कोतवाल अपने शब्दों में कह रहा है-
*सुरङ्ग अधर मुक्ता जिनिमा दशन। काम शरासन येन भ्रू भङ्ग-पतन।।*
(श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.०३१)
अर्थ:- सुंदर रंगीन होंठ हैं, मोतियों की पंक्ति को जीतने वाले दांत हैं। कामदेव के धनुष के समान उसके भ्रोओं का चलना है।
उसने भगवान् के सुंदर अधर, यहां तक कि उसने भगवान के दांतो का भी दर्शन किया। उसने कहा – मानो मोती जैसे मैंने उनके दांत देखें हो। काम शरासन येन भ्रू भङ्ग-पतन। जैसे कंदर्प कोटि कमनीय विशेष शोभन। उनके मुख मंडल की, उनकी भृकुटि की कैसी शोभा थी अर्थात मैंने काम देवों को भी आकृष्ट करने वाला सौंदर्य मुखमंडल व भृकुटि देखी।
*सुंदर सुपीन वक्ष, लेपित चंदन। महाकटितटे शोभे अरुण- वसन।*
(श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३२)
अर्थ:- चंदन लगाए हुए अति सुंदर अति स्थूल वक्षस्थल है। तथा सुंदर कमर में गेरुआ वस्त्र शोभा पा रहा है।
उनके अंगों में सर्वत्र चंदन लेपन हुआ था। महाकटि तटे शोभे अरुण- वसन । कटि अर्थात कमर। वहां मैंने सन्यासी भगवे वस्त्र पहने देखा।
*अरुण कमल येन चरण युगल। दश नख येन दश दर्पण निर्मल।।*
(श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३३)
अर्थ:- रक्त कमल जैसे दोनों चरण हैं, दसों नृख दसों दर्पण जैसे थे।
जैसे ही मैंने उनके चरण देखें, मुझे कमल का ही स्मरण हुआ, चरण कमल। दश नख येन दश दर्पण निर्मल- मैंने उनके पैरों की उंगलियों के नाखून देखें। मानो वे एक एक चंद्रमा है या आईना के समान है, जो होता है। परिबिम्बित भी होता है मैंने उनके नाखून भी देखे।
*कोनो वा गन्येर कोनो राजार नंदन। ज्ञान पाइ न्यासी हइ करये भ्रमण।*
(श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३४)
अर्थ:- किसी राज्य के किसी राज- पुत्र जान पड़ते हैं जो संन्यासी बन कर भ्रमण कर रहे हैं।
मुझे लगा की यह व्यक्ति कोई राजा सम्राट का कोई राज पुत्र नंदन के रूप में है। राजा नंदन यहां पर पधार चुके हैं। *ज्ञान पाइ न्यासी हइ करये भ्रमण।*
लेकिन इनके जीवन में वैराग्य उत्पन्न हुआ है। राजा का पुत्र राजपुत्र भव्य, दिव्य, वैभव संपन्न है किंतु वैराग्य उत्पन्न हुआ तो सन्यास लेकर भ्रमण कर रहे हैं ।
*निरंतर सन्यासीर उद्ध रोमावली।पनसेर प्राय अङ्गे पुल्लक मंडली।।*
(श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०३७)
अर्थ:- उस संन्यासी के शरीर से पुलक होने पर रोमावली ( बाल) बराबर खड़ी रहती है। जैसे कटहल पर बाल खड़ें रहते हैं।
हे राजा हुसैन शाह! और क्या कहूं। उनके शरीर में रोमांच था। उनके रोगंटे खड़े थे।
जैसा आंखों देखा दर्शन था, वह कोतवाल वैसे ही सुना रहा था।
*क्षणे क्षणे सन्यासीर हेन कम्य हय। सहस्न जनेओ धरिवारे शक्त नय।*
( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.०३८)
अर्थ:- क्षण क्षण में उस संन्यासी को ऐसी कंप होती है कि हजारों भी पकड़ने में सामर्थ्य नहीं होते हैं।
शरीर में कंपन होते हुए मैंने देखा। कोई हजारों लोग भी उस कंपित शरीर को स्थिर नहीं कर सकते थे, रोक नहीं सकते थे। उनके वपु में, रूप में ऐसा कंपन हो रहा था ।
*दुई लोचनेर जल अद्भुत देखिते। कत नदी वहे हेन ना पारि कहिते।*
( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.०३९)
अर्थ:- दोनों नेत्रों का जल अभूतपूर्व दिखता है- कह नहीं सकते कितनी नदियां बहती हैं।
मैंने देखा कि उनकी आंखों से अश्रु बिंदु नहीं, अश्रु धारा नहीं अपितु उनकी आंखों से नदियां बह रही थी अर्थात उनकी आंखों से अश्रु की नदियां बह रही थी। मैं
वर्णन नहीं कर सकता कि उनकी आंखों से कितनी अश्रु धाराएं बह रही थी।
जब राजा हुसैन शाह ने यह वर्णन सुना, सुनते सुनते उनको भी यह सब सत्य है सच है वे ऐसा अनुभव करने लगे। कोतवाल का रिपोर्ट स्वीकार कर लिया और कोतवाल ने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जो वर्णन किया था। उसको सुनिश्चित करने के लिए कि उसने जो कहा यह सही है या गलत है? राजा ने अपने एक और कर्मचारी जो कि हिंदू परिवार के थे, लेकिन अब उनका नाम केशव खान था। जैसे रूप, सनातन के नाम साक्कर मलिल्क व दबीर खास थे। ये भी हिंदू थे, उनके नाम तो कुछ और थे। लेकिन जब ये साक्कर मल्लिक व दबीर खास बने। तब ऐसा ही एक और कर्मचारी हुआ जिसका नाम केशव खान था। राजा ने पूछा-
*कहत केशव खान, कि मत तोमार।श्रीकृष्ण चैतन्य बलि नाम बल याहां।*
( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०४९)
अर्थ:- केशव खान! जिसे श्रीकृष्ण चैतन्य नाम से पुकारते हैं, उसके विषय में तुम्हारी क्या राय है, बताओ।
केशव खान! मैंने कोतवाल से जो सुना, उसके विषय में तुम्हारा क्या मत है। जो हमारे नगर में पहुंचे हैं, इनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य हैं, उन्होंने जैसे कहा- श्रीकृष्ण चैतन्य! राजा ने नाम का उच्चारण किया। बस हो गया। इस राजा का उद्धार तो होना ही है।
*के मत ताँहार कथा, केमत मनुष्य। केमत गोसाञि तिहो कहिवा अवश्य।।*
( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०५०)
अर्थ:- उसकी क्या कथा है, वह कैसा है, वह कैसा गोसाई हैं? वह सब ठीक ठीक अवश्य कहो।
कहो, कहो, यह कौन है? यह कैसे हैं? यह गोसाई, यह सन्यासी जो भ्रमण करते करते हमारे नगर में पहुंचे हैं?
*चतुर्दिगे थाकि लोग ताँहारे देखिते। कि निमित आइसे, कहिबे भालमते।।*
( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४. ०५१)
अर्थ:- उसे देखने को मनुष्य चारों और से ( आकर) उपस्थित हैं? वह किस निमित आया है? अच्छी तरह से कहो।
मैंने इस पुलिस अथवा कोतवाल से सुना और अभी भी सुन रहा हूँ कि लाखों लोग पहुंचे हैं। लाखों लोगों से घिरा हुए अर्थात इन लाखों लोगों के मध्य में वह संन्यासी है। वे यहां क्यों आए हैं? उनका क्या उद्देश्य है? बताओ, बताओ। केशव खान ने कहा- यह चिंता का विषय नहीं है। आप चिंता मत कीजिए।
*के बोले ‘गोसाञि एक भिक्षुक सन्यासी। देशांतरि गरीब वृक्षेर तलवासी।*
( श्रीचैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.०५३)
अर्थ:- गुसाईं” कौन कहता है? वह तो एक भीख मांगने वाला गरीब परदेशी संन्यासी है।
यह गोसाई थोड़ी ही है। यह महापरुषु, ऐसा विशेष व्यक्ति नहीं है। एक भिक्षुक सन्यासी है एक भिक्षुक अथवा भिखारी है। यह गरीब भिक्षुक पेड़ के नीचे रहता है। एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है, महाराज! आपको ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। तब भी राजा को तसल्ली नही हुई अथवा चिंता का समाधान नहीं हुआ है। उन्होंने दबीर खास को अपने पास बुलाया और एकांत में पूछा-
*दबिर खासेरे राजा पुछिल निभृते।गोसाञिर महिमा तेंहो लागिल कहिते।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७५)
अनुवाद:- राजा ने एकांत में दबिर खास (श्रील रूप गोस्वामी) से पूछताछ की, तो वे महाप्रभु की महिमाओं का वर्णन करने लगे।
दबीर खास मतलब रूप गोस्वामी (जो भविष्य में वृंदावन में पहुंचकर रूप गोस्वामी होंगे)
ने कहा-
*य़े तोमारे राज्य दिल, य़े तोमार गोसाञा। तोमार देशे तोमार भाग्ये जन्मिला आसिञा।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७६)
अनुवाद:- श्रील रूप गोस्वामी ने कहा, जिस पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने आपको यह राज्य दिया है और जिन्हें आप ईश्वर के दूत के रूप में स्वीकार करते हैं, उन्होंने आपके सौभाग्य से आपके देश में जन्म लिया है।
क्या कहूँ, जिस प्रभु ने आपको इस गौड़ देश का राजा बनाया है, वे आपकी राजधानी में पहुंचे हैं। वे केवल आपका मंगल चाहते हैं, कल्याण चाहते हैं।
*तोमार मङ्गल वाञ्छे, कार्य़ – सिद्धि हय। इहार आशीर्वादे तोमार सर्वत्र-इ जय।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७७)
अनुवाद:- यह ईश्वर के दूत सदैव आपके मंगल के आकांक्षी हैं। उन्हीं की कृपा से आपके सारे कार्य सफल होते हैं। उनके आशीर्वाद से आपकी सर्वत्र विजय होगी।
इनके आशीर्वाद से ही आपका विजय, जय होता रहा है और अब तक हुआ है और भविष्य में भी होगा।
*मोरे केन पुछ, तुमि पुछ आपन- मन।तुमि नराधिप हओ विष्णु- अंश सम।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७८)
अनुवाद:- आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? आप अपने मन से क्यों नहीं पूछते? आप जनता के राजा होने के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रतिनिधि हैं। अतएव आप इसे मुझसे अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं।”
आप, मुझसे क्यों पूछ रहे हो कि वह कौन व्यक्ति है और कितना प्रभावशाली है। मुझे क्यों पूछ रहे हो? आप अपने मन को पूछो। आप अंतर्मुख होकर अपने दिल की बात सुनो। आपका क्या अनुभव है। आप क्या सोच रहे हो ?अंदर की आवाज को सुनिए?
*तोमार चिते चैतन्येरे कैछे हय ज्ञान।तोमार चिते ये़इ लय, सेइ त प्रमाण।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१७९)
अनुवाद:-इस प्रकार श्रील रूप गोस्वामी ने राजा को बतलाया कि उसका मन श्रीचैतन्य महाप्रभु को जानने का एक साधन है। उन्होंने राजा को विश्वास दिलाया कि उसके मन में जो भी आये, उसे ही प्रमाण मानें।
आपके चित् में क्या विचार उठ रहे हैं? आपको कैसा साक्षात्कार का अनुभव हो रहा है। आपने तो कोतवाल से रिपोर्ट सुनी है, कि यह श्रीकृष्ण चैतन्य कौन है? कैसे दिखते हैं? उसने आपको बहुत कुछ सुनाया है। आपके चित में जैसे विचार जैसे भाव उठ रहे हैं वह सही भाव है, सही विचार होंगे। आपका मत सही होगा। हमें क्यों पूछ रहे हो कि दबिर खास तुम्हारा क्या मत है। जैसे उन्होंने केशव खान को पूछा था कि तुम्हारा क्या मत है? कौन है? आप स्वयं ही जानिए। आपका क्या विचार है? आपका क्या कहना है। जब दबिर खास ने ऐसा पूछा।
*राजा कहे, शुन, मोर मने ये़इ लय।साक्षातीश्र्वर इहँ नाहिक संशय।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १.१८०)
अनुवाद:- राजा ने उत्तर दिया,” मैं श्रीचैतन्य महाप्रभु को पूर्ण पुरषोत्तम भगवान् मानता हूं। इसमें कोई सन्देह नहीं हैं।”
तुम मुझे पूछ ही रहे हो, तो सुनो। हे दबीर खास, मेरे मन में ऐसा विचार आ रहा है कि साक्षातीश्र्वर इहँ नाहिक संशय। यह जो श्रीकृष्ण चैतन्य हैं, यह साक्षात ईश्वर हैं। मुझे कोई संशय नहीं है। हरि! हरि! राजा ने घोषित ही किया जैसे अर्जुन ने भगवतगीता सुनकर अंत में कहा था
अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।।*
( श्रीमद् भगवतगीता १८.७३)
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई । अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।
आपने जो जो मुझे सुनाया। अब मैं उसमें स्थित हो गया हूं। अब कोई संदेह नहीं रहा। मैंने कोतवाल को भेजा था और जब वह आया। उसने जो दर्शन किया था अथवा अनुभव किया था, वो उसने मुझे सुनाया, अब मुझे शक नहीं है, संशय नहीं है, मेरा कोई प्रश्न नहीं है। मैं तो यह घोषित कर रहा हूं। मेरा यह साक्षात्कार है कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु साक्षात ईश्वर हैं।
हरि! हरि! इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रामकेलि में रूप और सनातन पर कृपा करने के उद्देश्य से वे आए थे लेकिन अब देख लो, लाखों लोग भी वहां पहुंच गए। उन पर भी तो कृपा हुई। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने केवल जनता पर ही अपने आगमन व दर्शन से कृपा नहीं की।
*आजानुलम्बित भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक-पितरौ कमलायताक्षौ विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वंदे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ।।*
( चैतन्य भागवत १.१)
अर्थ:- मैं भगवान्, श्रीचैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्रीनित्यानंद प्रभु की आराधना करती हूं, जिनकी लंबी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुंचती हैं, जिनकी सुंदर अंगकांति पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है, जिनके लंबाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं। वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, इस युग के धर्मतत्वों के रक्षक, सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं। उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारंभ किया।
करुणावतार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रामकेलि में प्रेम का वितरण किया।
*नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.५३)
अनुवाद:- हे परम करुणामय व दानी अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं।
जहां भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं, वहां कीर्तन है। वे कीर्तन का वितरण कर रहे हैं। यह कीर्तन ही प्रेम है, वह प्रेम का दान कर रहे हैं। अपना दर्शन दे रहे हैं। हरे कृष्ण! यह केवल जनता पर ही नही अपितु राजा हुसैन शाह पर विशेष कृपा हुई। हरि! हरि! इसी रामकेलि की भेंट में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप व सनातन अर्थात दबीर खास व साक्कर मल्लिक को दीक्षा भी दी थी। तुम सनातन हो और तुम रूप हो। तुम वृंदावन जाओ, मैं भी आऊंगा वहां, हमारा अगला मिलन वृंदावन में होगा। ऐसा आदेश देकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रामकेलि से प्रस्थान करते हैं। तब रामकेलि में कई सारी घटनाएं घटती हैं। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन गए थे लेकिन जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन पहुंचे तब वहां पर ना तो रूप गोस्वामी थे और ना ही सनातन गोस्वामी पहुंचे थे। लेकिन अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन से जगन्नाथ पुरी लौट रहे थे, तब चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी को प्रयागराज में मिले और सनातन गोस्वामी को वाराणसी में मिले। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौटे। ,
*श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य।*
या
*नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते। कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।।*
इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ५०० वर्ष पहले जो प्राकट्य हुआ था, कहना ही पड़ेगा कि
उन्होंने अपनी अहेतु की कृपा की
राजा हुसैन शाह व अन्य कईयों के ऊपर अहेतु को कृपा हुई। जो इस योग्य भी नहीं थे, तब भी महाप्रभु ने उन पर कृपा की
हम भी, आप भी ऐसी कृपा के अभिलाषी हैं। आप भी ऐसा सोचते हैं कि आप पर ऐसी कृपा हो जाए? कौन-कौन सोचता है? किस के मन में यह विचार आता है – हम पर क्यों नहीं?
भक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं- भगवान् ने तो कई का उद्धार किया लेकिन भक्ति विनोद तो थकीला यहीं के यहीं रह गए। भक्ति विनोद ठाकुर भी प्रार्थना कर रहे थे कि हम पर क्यों नहीं। हे प्रभु! आपने राजा हुसैन शाह पर कृपा की। उन पर कृपा की। जगाई- मधाई पर कृपा की। अब किस-किस के नाम ले पर हम पर क्यों नहीं? बस हम ही रह गए। कबे हबे सेइ दिन हमार। हमारा ऐसा दिन कब आएगा? आज का दिन सर्वोत्तम दिन है।
*कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान तम् अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।*
( मुकंद माला स्रोत-३३ राजा कुलशेखर)
अनुवाद:- हे भगवान् कृष्ण, इस समय मेरे मनरूपी राजहंस को अपने चरणकमल के डंठल के जाल में प्रवेश करने दें। मृत्यु के समय जब मेरा गला कफ, वात तथा पित्त से अवरुद्ध हो जाएगा, तब मेरे लिए आपका स्मरण करना कैसे सम्भव हो सकेगा?
आज या अब।
हरि! हरि!
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!
रूप सनातन की जय!
रामकेलि धाम की जय!
नवाब हुसैन शाह की जय!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनका भी कल्याण किया। चैतन्य महाप्रभु ने पूर्व में मायापुर में चांद काजी का उद्धार किया था। आपको पता है कि महाप्रभु चांद काजी की कोठी पर एक कीर्तन पार्टी लेकर गए। उनका उद्धार किया। तत्पश्चात चांद काजी ने घोषणा की, आज से नवद्वीप में हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन में बिल्कुल रोकथाम नहीं होगा। हरे कृष्णा के जो भक्त हैं, वे स्वतंत्रता पूर्वक जप, कीर्तन व नृत्य कर सकते हैं। मायापुर में उस चांद काजी की समाधि है। जब हम लोग नवद्वीप मंडल परिक्रमा में जाते हैं, तब हम चांद काजी की समाधि पर पहुंच जाते हैं। वहां बैठकर चांद काजी का संस्मरण करते हैं। वहां नतमस्तक होते हैं। वहां की धूलि अपने मस्तक पर उठाते हैं।हम चांद काजी की समाधि की प्रदक्षिणा करते हैं। उन्होंने चांद काजी का उद्धार किया। हम कहते हैं कि यह हिंदू है , दूसरा मुसलमान है तीसरा कोई और है लेकिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की दृष्टि में तो हम सब एक ही हैं। हम कहते हैं या लिखा पढ़ा भी जाता है कि उन्होंने मुस्लिम चांद काजी का उद्धार किए। मुस्लिम यह तो हमारी भाषा है। संसार का विचार है। भगवान के लिए क्या है? भगवान के लिए कौन हिंदू? कौन मुस्लिम? कौन इसाई? स्त्री, पुरुष? यह सारा द्वंद है।
*विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि | शुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ||*
( श्रीमद् भगवतगीता ५.१८)
अनुवाद:- विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
विद्या विनय संपन्न पंडित की दृष्टि समदृष्टि हो सकती है, वो भेद भाव नहीं रखता, इसमें उसमें , कुत्ते या हाथी में या शूद्र या मुसलमान या हिंदू में ..। ऐसी दृष्टि कहां से आती है? ओरिजिनल भगवान में होती है। भगवान् की दृष्टि है। भगवान का विचार है।
भगवान की सम दृष्टि है। भगवान् भेदभाव नहीं करते। भगवान के लिए कोई अपना पराया नहीं है। भगवान के लिए सभी अपने ही हैं। वे जो भी हो, जैसे भी इस संसार में बने हैं। जिन नामों व उपाधियों से वे जाने जाते हैं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। भगवान के लिए तो वे सब एक ही हैं। हरि! हरि! मैं यहीं अपनी वाणी को विराम देता हूं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
6 अगस्त 2021,
पंढरपुर धाम.
878 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। गौरांग, गौर हरि बोल, गौर प्रेमानंदे हरि हरि। आप सभी का स्वागत है। गुरु महाराज धूम कॉन्फ्रेंस में “एक भक्त को संबोधित करते हुए कह रहे हैं, आपका भी स्वागत है।” आप सभी भगवान के हो, या आप सभी मेरे भगवान के हो इसीलिए आप मेरे भी हो। वैसे केवल में ही नहीं, आप हम सभी भी ऐसा कह सकते हो। जीव किनके है? जीव मेरे भगवान के हैं, कृष्ण के जो भी लगते हैं वह भी मेरे हैं। ऐसा हमारा संबंध है। हमारा संबंध केवल भगवान से ही नहीं तो भक्तों से भी हैं। जीवो से भी है। इस प्रकार हम सभी का एक परिवार बन जाता है। इसीलिए कहां है वसुदेव कुटुंबकम कुटुंब, मतलब परिवार। सारे लोग हमारे हैं। यह विचार भी आ गया मन में फिर आपको कह कर सुनाया। किंतु ओर ही कुछ सुनाने का विचार मैंने करके रखा है। उसकी और मुड़ते हैं। कल हमने चर्चा किया पंचतत्व, उन्होंने क्या किया, कीर्तन किया।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कीर्तन और नृत्य, लूट सके तो लूटलो, लूट रहे थे आनंद को बांट रहे थे। हरि हरि, तो यह जो भी किया पंचतत्व ने जो किया यह कार्य कहो या लीला कहो या उन्होंने जो लीला खेली, यह कार्य वैसा ही किया उन्होंने जैसा शास्त्रों में बताया है। इसका आधार शास्त्र है। ग्रंथ इसका आधार है। भगवान भी जब प्रकट होते हैं तब शास्त्रोक्त शास्त्र उक्त शास्त्रों में कही हुई बातों का आवलंबन भगवान भी करते हैं। सभी के समक्ष भगवान एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
आपने आचरे जगत सिखाएं
हरिः ओम ऐसी शुरुआत होती हैं कलि संतरण उपनिषद की शुरुआत होती है। मैं यहां कलि संतरण उपनिषद खोल कर बैठा हूं। कलयुग का धर्म कौन सा है, ठीक है कलयुग का धर्म तो नाम संकीर्तन है ही या हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करना, यह कलयुग का धर्म है। इसका आधार है यह कलि संतरण उपनिषद। हमारे गौड़िय वैष्णव बारंबार इस कलि संतरण उपनिषद का संदर्भ देते हैं। और श्रील प्रभुपाद तो सर्वत्र अपने तात्पर्य में या अपने कथा प्रवचनों में इस बात को पुनः पुनः कहा करते थे, स्मरण दिताते थे। उसी बात का हम भी आपको स्मरण दिलाने जा रहे हैं, ताकि आपको भी याद रहे और आप भी उसकी पुनरावृत्ति करते रहे और औरों को याद दिलाते रहे। यहां तो वैसे ब्रह्माजी नारद मुनि को याद दिलाते हैं। अभी कलयुग आया है। तो कौन सा धर्म होगा कलयुग में,
व्दापार अन्ते ब्रम्हाणाम जगानाम, द्वापर युग के अंत में नारद मुनि नारायण नारायण कहते हुए गए होंगे। या नारद मुनि बाजाय वीना राधिका रमण नामें अपना वीणा बजाते हुए पहुंच गए ब्रह्म लोग। और अपने पिताश्री अपने गुरु महाराज से उन्होंने पूछा,
कथम भगवान गम परयंतन कलि संतरेयामिती भगवन ब्रह्माजी मैं तो सर्वत्र भ्रमण करते रहता हूं।, यह कलयुग आ धमके गा तो मैं इस कली से कैसे बच सकता हूं, कली से कैसे तर सकता हूं, आप कृपया बताइए। सह उवाच ब्रम्हा, तो फिर ब्रह्मा कहे। क्या कहा ब्रह्मा ने साधु प्रश्नोंस्मि यह जो तुम्हारा प्रश्न है। अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा, यह जो तुम्हारा प्रश्न है, यह सर्वोत्तम जिज्ञासा है। इसका में स्वागत करता हूं ।साधु साधु! कई बार कोई अच्छी बात करता है या कहता है तो उसका अभिनंदन करते हुए भी कहते हैं साधु साधु। बहुत अच्छे बहुत सुंदर।
सर्व श्रुतिरहस्यम गोप्यम ततश्रुणुम मैं तुमको सुनाता ही तुम उसको सुनो सर्वश्रुतिरहस्यम श्रुतियों का शास्त्रों के दो भाग हैं। एक होता है श्रुति और दूसरा होता है स्मृति। स्मृति का मूल ग्रंथ श्रुति है। श्रुति का महिमा कुछ विशेष है। उन श्रुति ग्रंथों में जो रहस्य बताया है, उसी को मैं तुमको सुनाता हूं।
गोप्यम ततश्रुणुम और मैं जो तुमको सुनाऊंगा वह बड़ी गोपनीय बात है। श्रुति शास्त्रों का सार कहूंगा। येन कलि संसारम तरिष्यसि और मैं जो कहूंगा उसका तुम पालन करोगे। निश्चित ही तुम भी बच जाओगे। इस कलिकाल से भगवद आदि पुरूषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निरध्रितकलिरभवतिती ब्रह्मा शुरुआत में सर्व श्रुतिरहस्यम सारे श्रुतियों का जो रहस्य हैं उस को समझाते हुए कहे। आपको पता है नारद आदि पुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निरध्रितकलिरभवतिती बस भगवान का नाम लेना है। भगवान का नाम उच्चारण करना है। बस तर जाओगे। कुछ तो समाधान हुआ नारद जी का। क्योंकि वह वैसे जानना चाहते थे। नारायण के नाम तो बहुत है। कई सारे नाम है या सहस्त्रनाम है विष्णु सहस्तनाम है। सहस्त्र से भी अधिक नाम है। नारदः पुनः पप्रच्छ तन्नाम किमीती नारदः पुनः पप्रच्छ नारद पुनः प्रश्न किए तन्नाम किम उसमें से कोई विशेष नाम है जिसका कलयुग में उच्चारण करने से उद्धार होगा, आप तो सारे सामान्य जन में बात कर रहे हो। हां भगवान का नाम लो। भगवान का नाम लो। नाम के उच्चारण से तर जाओगे। लेकिन मैं जानना चाहता हूं तन्नाम किम उसमें कोई विशेष नाम है जिसके उच्चारण से कलयुग में उद्धार होगा। स उवाच हिरण्यगर्भः, इसके उत्तर में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा कहें
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
इति षोडषकम नामनाम कलिकल्मषनाशनम। नातः परतरोउपाय सर्ववेदेषु दृष्यत्ये।।
कभी-कभी ओम भी उच्चारण में होता है ओम हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
ब्रह्मा कह रहे हैं तो उनके उच्चारण में यह वैदिक मंत्र है। ओम से प्रारंभ होते हैं। तभी वैदिक मंत्र इसीलिए ओम भी कहे होंगे। उनके वानी में गांभीर्य है और प्रेम भी है भाव भी है। इस महामंत्र का उन्होंने उच्चारण किया और फिर कहां इति षोडषकम नामनाम कलिकल्मषनाशनम नातः परतरोउपाय सर्ववेदेषु दृष्यत्ये
हे नारद इति मतलब यहां अभी जो मैंने कहे इति षोडषकम नामनाम 16 नाम वाला यह मंत्र है। 16 नाम वाला यह नाम है। 32 अक्षर 16 नाम। कलिकल्मषनाशनम कली के जो कल्मष है, कली के जो दोष है जिसको शुकदेव गोस्वामी कहे हैं क्या या कितने दोष हैं?
कलेर्दोषनिधे राजन जो बात ब्रह्मा कह रहे हैं वही बात शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं। ब्रह्माजी नारदजी को और शुकदेव गोस्वामी सुना रहे हैं परीक्षित महाराज को। बात एक ही है यहां शास्त्र की बात चल रही है। कलि संतरण उपनिषद शास्त्र की बात चल रही है। और शुकदेव गोस्वामी एक आचार्य के रूप में है। साधु शास्त्र आचार्य यह प्रमाण है ना। और यह सभी मेल खाते हैं। सभी एक ही भाषा बोलते हैं। एक ही सत्य परम सत्य का वह वर्णन करते हैं। निरूपण करते हैं। वक्तव्य में कहते हैं। तो जो ब्रह्मा ने कहा था शुकदेव गोस्वामी ने भी वही कहा। कलिकल्मषनाशनम ब्रह्मा जी इसलिए यह कह रहे हैं, क्योंकि कलि संतरण उपनिषद में ऐसा कहां है। और फिर यह भी आप समझ लेना कि यहां कलि संतरण उपनिषद शाश्वत है। सदा के लिए हैं। जब-जब कलयुग आता है। आपको पता है ना, हम क्यों कहते हैं? जब जब कलयुग आता है ब्रह्मा के 1 दिन में कितनी बार कलयुग आता है? आप लोग तैयार तो हो लेकिन कैसे बोलोगे। हजार बार कलयुग आता है। और फिर हजार बार ऐसे जिज्ञासा भी होती हैं। नारद मुनि पहुंच जाते हैं ब्रह्मा के पास। ब्रह्मा वही कलि संतरण उपनिषद की बात सुनाते हैं। तो कलि संतरण उपनिषद शाश्वत है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
हरि हरि, जब तक कलयुग आता है तो कलयुग का धर्म कौन सा होता है, इसीलिए कहा भी है
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । क्या कहां ह क यहां नाम उच्चारण मात्र से नाम उच्चारण मात्रेन कहां है। कलि संतरण उपनिषद में
और इस वाक्य में श्लोक में कहां है हरेर्नामैव केवलम्। केवलम कहो हरेर्नामैव केवलम् या नाम उच्चारण मात्रेण एक ही बात है तो हरेर्नाम हरेर्नाम
हरेर्नामैव केवलम् कलौ मतलब क्या? कली, कली जैसा कुछ संकेत होता है। लेकिन कली का क्या? कलयुग में, कलौ मतलब कलयुग में। या हरि का हरौ होगा तो हरि मे.. ।कलयुग में कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा दूसरा उपाय नहीं है, दूसरा उपाय नहीं है, दुसरा उपाय नहीं है। और यह वचन सत्य है शास्त्र का वचन इसको कहते हैं, त्रिकालाबादित सत्य। यह कैसा सत्य? त्रिकालाबादित सत्य तीनों कालों में या काल के प्रभाव से कोई परिवर्तन नहीं होता। यह सत्य है, सत्यमेव जयते। सत्य की जय भी होती है और सत्य शाश्वत भी होता है, सदैव सत्य सत्य ही रहता है। तो कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा यह वचन भी शाश्वत है। इस प्रकार यह संसार का चक्र चलता रहता है। सतयुग आया तो यह धर्म फिर त्रेतायुग आया तो यह धर्म, यज्ञ धर्म, द्वापर युग आया भगवान की अर्चना, कलौ तद् हरि कीर्तन कलयुग आया तो फिर भगवान का हरि कीर्तन, और सत्य युग में ध्यान। चार युग है तो चार विधियां भी है और यह सत्य युग भी आता है बारंबार, फिर आता है द्वापर युग त्रेता युग और कलयुग। तो इस प्रकार यह सब इस ऑल सेट, इज ऑल प्रोग्राम यह सारी सिस्टम बनी हुई है और यह सब भगवान की रचना है। तो नातः ब्रह्मा कह रहे हैं, वही बात कह रहे हैं जो कलिसंतरण उपनिषद की बात है। नातः परतरौपाय सर्व वेदेषु दृष्यते ब्रह्मा कह रहे हैं और ब्रह्मा जी स्वयं भी आचार्य है, वे केवल सृष्टि कर्ता ही नहीं है। दुनिया या हिंदू जगत में तो ब्रह्मा सृष्टि कर्ता है इतना ही जानते हैं, सुने होते हैं। लेकिन ब्रह्मा आचार्य भी है यह बहुत कम लोगों को पता है, ब्रह्मा आचार्य है। चार संप्रदाय है उसमें से एक ब्रह्म नारद मध्व गौडीय संप्रदाय हैं। यह कितने लोगों को पता है? तो ब्रह्मा, जो आचार्य भी हैं वह साधु, शास्त्र, आचार्य और यह आचार्य ब्रह्मा शास्त्र की बात कर रहे हैं। शास्त्र को दोहरा रहे हैं। जो शास्त्र अपौरुषेय है। किसी साधारण व्यक्ति की रचना नहीं है, शास्त्र अपौरुषेय है। हरि हरि। मतलब भगवान की रचना है। भगवान के श्वास के साथ यह सब शास्त्रों के वचन मिश्रित होते हैं, निकलते हैं और यह सदा बने रहते हैं। हरि हरि। तो ब्रह्मा कह रहे हैं नातः परतरौपाय सर्व वेदेषु दृष्यते परतरौपाय इससे कुछ दूसरा या बढ़िया उपाय कहोगे, नातः अतः मतलब इससे यह जो हरे कृष्ण मंत्र का उच्चारण करें और यह जो कली के कल्मषो का नाश करेगा। ना अतः इससे परतरहः परतरौपाय इससे कोई बढ़िया उपाय है कहोगे तो, है ही नहीं। सर्व वेदेषु दृष्यते सभी वेदों में वैदिक वांग्मयम में दूसरा कुछ उपाय बताया ही नहीं। कौन कह रहे हैं? ब्रह्मा कह रहे हैं। किसको कह रहे हैं? नारद जी को कह रहे हैं। और यह ब्रह्मा कैसे हैं? यह ब्रह्मा ही वह व्यक्ति है जिनको स्वयं भगवान ने सारे वेद सुनाएं तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरय:। श्रीमद्भागवत के प्रथम अध्याय, प्रथम स्कंध, प्रथम श्लोक में यह बात कही है। तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये तो ब्रह्मा को कहां है आदि कवि और उनको भगवान ने वेद सुनाएं। यह इतिहास भी है, यह लीला भी है। ऐसी घटना घटी है। ब्रह्मा वैसे सर्वज्ञ है, क्योंकि भगवान ही गुरु बन गए उनके। शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् जैसे अर्जुन के गुरु बन गए भगवान कुरुक्षेत्र में। यहा सृष्टि के प्रारंभ में और कोई था ही नहीं बस भगवान थे और ब्रह्मा थे। ब्रह्मा के ऊपर तरस खाए, पढ़ाए सारा एजुकेशन उनका स्वयं भगवान ही किए। तो ऐसे ब्रह्मा, सारे वेदों के ज्ञाता वह कह रहे हैं.. नातः परतरौपाय सर्व वेदेषु दृष्यते इन शास्त्रों में या वेदों में दूसरा कोई उपाय नहीं है। तो आप समझ रहे हो? यह जो अंतराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ का जो भी कार्य है या विधि विधान है यह सभी शास्त्रोक्त है। द बुक्स आर द बेसिस ग्रंथ ही आधार है। या कल भी मैं सुन रहा था श्रील प्रभुपाद कह रहे थे नो मेंटल स्पैक्यूलेशन। हमारे आंदोलन में हम जुगार नहीं खेलते, जुगार खेलना तो एक महापाप है ना। तो जुगार मतलब ठगाई, ठगाना औरों को, मनमानी करना और उर्पटांग बातें कहना। ऐसा सब होता है धर्म के क्षेत्र में तो ऐसी ठगाई चीटर्स एंड चीटेड जिसको श्रील प्रभुपाद कहते हैं। तो ऐसा काम हम नहीं करते हरे कृष्ण आंदोलन में, हर बात प्रामाणिक। तो प्रमाण क्या है? शास्त्र प्रमाण, साधु, शास्त्र, आचार्य प्रमाण। और फिर वह भी केवल ब्रह्मा ने कहां ही नहीं कि हे नारद कलयुग में हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन होना चाहिए उसका उच्चारण होना चाहिए। वैसे ब्रह्मा स्वयं प्रकट हुए। पहले तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय.. और सब पंचतत्व की जय.. वे सारे प्रकट हुए। और उन्होंने संकीर्तन किया, संकीर्तन धर्म की स्थापना की और परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तन भी कहा। जय हो संकीर्तन आंदोलन की। जय हो सत्यमेव जयते। इस सत्य की जय होगी सत्य भगवान है और भगवान का नाम सत्य है। हरि से बड़ा हरि का नाम ऐसा भी महिमा गाया है। हरि से भी हरि का नाम बड़ा है, महान है। तो वह ब्रह्मा भी प्रकट हुए प्रवेश किए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन में 500 वर्ष पूर्व। और जिस ब्रह्मा ने उपदेश किया था नारद मुनि को कीर्तन करो और फिर नारद जी प्रचार भी करने वाले थे। वैसा ही जो अभी सुनेंगे पिताजी से, गुरु से सुनेंगे ब्रह्मा से और फिर वही प्रचार करने वाले हैं। नारद मुनि प्रचार कर रहे हैं। वैसे नारद मुनि भी प्रकट हुए चैतन्य महाप्रभु की लीला में नारद मुनि कौन है? कौन है? याद है किसको याद है? हाथ ऊपर करो आप नहीं कर पाओगे, लेकिन कम से कम आप उंगली या हाथ तो दिखा सकते हो, अगर आप जानते हो। कल ही कही हुई बात पंचतत्व के एक सदस्य नारद मुनि और वह थे श्रीवास ठाकुर की जय। श्रीवास नारद मुनि है। नारद मुनि ने श्रीवास ठाकुर के रूप में भी हरि नाम का प्रचार किया। और वैसे भी अपने नारद मुनि रूप में भी किब जय जय गोराचाँदेर.. जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की आरती होती है। और आरती कौन करते हैं? आरति करेन ब्रह्मा-आदि देवगणे संध्या आरती हो रही है गंगा के तट पर। आरती कौन कर रहे हैं? ब्रह्मा आरती उतार रहे हैं और सारे देवता वहां एकत्रित हुए हैं। किब शिव-शुक नारद प्रेमे गद्गद् तो वहां उस आरती में आरती महोत्सव में शिवजी पहुंचे हैं, वहां सुखदेव गोस्वामी पहुंचें हे, नारद जी पहुंचे हैं और कीर्तन और नृत्य हो रहा है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे कहते हुए यह ब्रह्मा, नारद, शिव के गले गदगद हो रहे हैं, गला आवृद्ध होता है। तो नारद मुनि वे स्वयं कीर्तन कर रहे हैं। और फिर ब्रह्मा, ब्रह्मा भी प्रकट हुए हैं ब्रह्म हरिदास के रूप में और वह हमारे संप्रदाय के आचार्य तो है ही। तो उनको श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पदवी दे दी तुम नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर हो। कैसे हरिदास ठाकुर? नामाचार्य, नाम के आचार्य। वे तीन लाख नाम का जप कर रहे हैं, और प्रचार कर रहे हैं। हरि हरि। वैश्या को भक्त बनाए, वैश्या प्रभावित हुई यह हरिदास ठाकुर और हरी नाम का प्रभाव है। वैश्या शरण में आई। हरिदास ठाकुर को में परास्त करूंगी, पिघल जाएंगे मेरे सानिध्य में ऐसा सोच कर आई थी। लेकिन हरिदास ठाकुर जिस प्रकार जहां वे जप कर रहे थे वहा कली का कोई प्रभाव नहीं था। कली कहां रहता है? जहां अवैध स्त्री पुरुष संग होता है वह भी एक अड्डा बन जाता है कलि का। लेकिन जहां नामाचार्य हरिदास ठाकुर नामोच्चार कर रहे थे हरे कृष्ण महामंत्र का, तो वहां पहुंच गए भगवान पहुंच गए नाम के रूप में, भगवान प्रकट हो रहे हैं प्रकट हुए हैं। तो कली ने इस वैश्या.. लक्ष्यहीरा उसका नाम था। लक्ष्यहीरा वैश्या ने खूब प्रयास किया लेकिन बात नहीं बनी। एक रात, दूसरी रात, तीसरी रात, मध्य रात्रि का समय..। किंतु जहांँ कृष्ण ताहाँ नाहि मायेर अधिकार माया का कोई अधिकार नहीं है, तो वही हुआ ना। इती षोड़शकम् नाम्नान कली कल्मष नाशनम् कली के जो कल्मष है वह नाश होंगे, उसका नाश होगा। और इस वैश्या के मन में जो कामुकता, कामैच्छा, कामवासना प्रचूर भरी पड़ी थी। तो हरिदास ठाकुर के मुखारविंद से निकलने वाला यह नाम और नाम मतलब यह भगवान ही उसने कली कल्मष नाशनम् वेश्या के मन में जो कली का अवैध स्त्री पुरुष संग जो विचार था उसका नाश हुआ जहांँ कृष्ण ताहाँ नाहि मायेर अधिकार। और तीसरे दिन यह लक्ष्यहिरा शरण में आई, हरिदास ठाकुर ने उनको अपना शिष्य बनाया। और फिर अब यह वेश्या, वेश्या नहीं रही आचार्य हो गई वह भी 300000 नाम का जप करने लगी। हरि हरि।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
5 अगस्त 2021
896 स्थानों से भक्त जपकर रहे हैं । हरि हरि बोल !
हरि हरि बोल गोर हरि बोल
मुकुंद माधव गोविंद बोल
हरि हरि बोल गोर हरि बोल
जय जय श्री-चैतन्य जया नित्यानंद ।
जयाद्वैतचद्र जय गौर-भक्त- वृन्द ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 5.2 )
अनुवाद:-श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो ! श्री नित्यानंद प्रभु की जय हो ! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो !
पंचतत्व की जय ! हमको आज पंचतत्व याद आ रहे हैं । हरि हरि !!
पञ्च- तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तं-रूप- स्वरूपकम् ।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥
( चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.14 )
अनुवाद:- मैं उन परमेश्वर कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूं, जो अपने भक्तरूप, भक्तस्वरूप, भक्तावतार, शुद्ध, भक्त और भक्तशक्ति रूपी लक्षण से अभिन्न हैं ।
“पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तं-रूप- स्वरूपकम् ।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥”
यह पंचतत्व प्रणाम मंत्र है । मंत्रों की बात या श्लोकों की बात चल रही थी उपदेशामृत के यह मंत्र यह श्लोक उसको भी याद करो उसको भी कंठस्थ करो । मंत्र श्लोक तो कई है और उसमें से कुछ प्रणाम मंत्र भी होते हैं जिसको कहते हुए हम प्रणाम करते हैं प्रणाम मंत्र तो पंचतत्व का यह प्रणाम मंत्र है । वैसे हर गोडिय वैष्णव को यह मंत्र पता होना चाहिए । पंचतत्व प्रणाम पत्र तो क्या है प्रणाम मंत्र ? “पञ्च- तत्त्वात्मकं” प्रणाम मंत्र आप नहीं लिखना है शायद आप नहीं लिख पाओगे जिस गति से मैं कहूंगा । चैतन्य चरितामृथम ढूंढिए ! अभी नहीं ढूंढना । नोट करो इसको ढूंढना है और आपके नोटबुक में इसको नोट कर देना ताकि आप उसको देख देख कर फिर याद भी कर सकते हो । कंठस्थ कर सकते हो,
ह्रदयगंम कर सकते हो । पञ्च- तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तं-रूप- स्वरूपकम् ।
“पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तं-रूप- स्वरूपकम् ।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥”
तो वही है यह पंचतत्व का प्रणाम मंत्र हुआ और फिर हम
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वेत ।
गदाधर श्रीवासदि गौर भक्त वृंद ॥
यह पंचतत्व महामंत्र हुआ । श्रील प्रभुपाद लिखते हैं वैसे दो महामंत्र है । एक है . . .
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
और एक महामंत्र है । वह कौन सा है ?
“श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वेत ।
गदाधर श्रीवासदि गौर भक्त वृंद ॥”
यह भी महामंत्र है तो हरे कृष्ण महामंत्र के जप के प्रारंभ में इस पंचतत्व महा मंत्र को भी हम उच्चारण करते हैं स्मरण करते हैं याद जपकरते हैं या जप करते समय हम पहले यह मंत्र कहते हैं महामंत्र ।पहले यह मंत्र कहते हैं महामंत्र ।
“श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वेत । गदाधर श्रीवासदि गौर भक्त वृंद ॥”
और फिर कहते हैं !
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
तो इतने महत्वपूर्ण है यह पंचतत्व । कितने तत्व हैं ? पांच तत्व । हम तक तो की बात नहीं करने वाले थे ! तत्व या सिद्धांत के बात करते समय आलस भी नहीं करना चाहिए ।
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस ।
इहा हइते कृष्णे लागे शुद्र मानस ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 2.117 )
अनुवाद:- निष्ठा पूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धांतों की व्याख्या को विवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ होता है । इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है ।
“सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस” सिद्धांत की चर्चा पुनः पुनः करनी चाहिए उत्साह के साथ करनी चाहिए । आलस नहीं होनी चाहिए । तत्व अति महत्वपूर्ण है ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
( भगवद् गीता 4.9 )
अनुवाद:- हे अर्जुन ! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है ।
कृष्ण कहे । मेरे जन्म को, मेरे लीलाओं को, मेरे तत्वों को जो जानता है, कैसे जानता है ? “तत्त्वतः” जानता है उसी का उद्धार उसी का कल्याण वही होगा कृष्णभावना भावित और तभी तो संभव होगा “त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति” भगवत धाम लौटेगा । लौटने का यह अधिकारी बनेगा तत्वतः भगवान को जानने से । यह पंचतत्व भी है । “पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं” कृष्ण कैसे हैं ? कृष्ण “पञ्च-तत्त्वात्मकं” बन गए । यह कृष्ण अब बन गए पांच तत्व बन गए ।
किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय ।
य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ‘ गुरु ‘ हय ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.128 )
अनुवाद:- कोई चाहे ब्राह्मण हो अथवा सन्यासी या शुद्र हो-यदि वह कृष्ण-तत्त्व जानता है, तो गुरु बन सकता है ।
यह भी कहा है । हरि हरि !! “किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय” कोई सन्यासी हो सकता है, विक्रम हो सकता है, ब्राह्मण हो सकता है, शूद्र भी हो सकता है । शूद्र हो सकता है जन्म से कहो लेकिन जो “य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ‘ गुरु ‘ हय” आप “कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता” कोई बात नहीं आप किस वर्ण के
वर्ण के आश्रम के थे, या बर्ण में या आश्रम में , जन्मे थे या अपनाए थे उस आश्रम को कृष्ण तत्व को जानते हो ! “सेइ ‘ गुरु ‘ हय” आप गुरु हो, आप गुरु बन सकते हो ।
वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं
जिह्वावेगमुदरोपस्थ वेगम् ।
एतान्वेगान् यो विषहेत धीर:
सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात् ॥
( श्रीउपदेशामृत श्लोक 1 )
अनुवाद: – वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन कि मांगों को,क्रोध कि क्रियाओं को तथा जीभ, उदर एवं जननेन्द्रियों के वेगो को सहन कर सकता है, वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य हैं ।
सारे पृथ्वी पर आप शिष्य बना सकते हो । “य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ‘ गुरु ‘ हय”, “किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय” , य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ‘ गुरु ‘ हय” । इसको भी आप याद रखना चाहिए । वैसे ऐसा भी कहना आना चाहिए, जैसे मैं कह रहा हूं । कौन गुरु है ? कौन गुरु बन सकता है ? “य़ेइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेइ ‘ गुरु ‘ हय”, उसका उत्तर है । कौन गुरु बन सकता है ? जेइ सेइ । जो है कृष्ण तत्त्व-वेता” वही बन सकता है गुरु । फिर दीक्षा गुरु बनेंगे फिर शिक्षा गुरु बनेंगे वर्तप्रदर्शक गुरु बनेंगे । हरि हरि !!
तो यह पंचतत्व या भगवान पांच रूपों में, पांच तत्वों में प्रकट हुए और वह है श्रीकृष्ण चैतन्य एक, नित्यानंद दूसरे, अद्वैत आचार्य तीसरे, गदाधर चौथे, और श्रीवास पांचवे और श्रीवासदि गौर भक्त वृंद भी कहा है । गौर भक्त वृंद श्रीवास ठाकुर गौर भक्त हैं । आदि भी कहा है । आदि मतलब कल बताया आपने नोट किया होगा तो फिर पढ़ सकते हो । आदि का क्या अर्थ होता है ! आदि इत्यादि, तो श्रीवासदि मतलब श्रीवास और उस श्रेणी के और भक्त वैसे ही और भक्त । यह सब पांच मिलके पंचतत्व हुआ और यह पांच मिले एक स्थान पर श्रीवास आंगन में । श्रीवास ठाकुर के बाडी में कहो । श्रीवास ठाकुर जो नारद मुनि रहे । नारद मुनि बने हैं श्रीवास ठाकुर । कृष्ण बने हैं श्रीकृष्ण चैतन्य । बलराम बने हैं नित्यानंद । महाविष्णु या सदाशिव शंकर बने हैं अद्वैत आचार्य । राधा रानी बनी है गदाधर पंडित और नारद मुनि जेसे कहा बने हैं श्रीवास ठाकुर तो यह पांच पंचतत्व है पांच व्यक्तित्व है और यह पांचो एक ही है । एक होते हुए भी यह अलग-अलग लीला के लिए अलग-अलग बनते हैं या रूप धारण करते हैं । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास ठाकुर का आंगन कहो या श्रीवास ठाकुर का भवन कहो इसको उन्होंने अपना कर्मभूमि बनाया । जन्मभूमि तो योगपीठ, योगपीठ आप सुने होंगे देखना चाहिए वैसे । योगपीठ चैतन्य महाप्रभु के जन्म का स्थान, निमाई वहां नीम का वृक्ष भी है आज भी है तो उसके तले, नीचे वहां वह सचिनंदन सच्ची के नंदन या जगन्नाथ मिश्र नंदन बने हैं । जन्मभूमि योगपीठ तो श्रीवास ठाकुर का घर, चैतन्य महाप्रभु ने अपना कर्मभूमि या अपने यह संकीर्तन आंदोलन हेड क्वार्टर (मुख्यालय) कहो बनाए । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और और लीलाएं तो हुई है । बाल लीला विद्या लीलाएं अध्ययन-अध्यापन करते रहे वह भी लीलाएं हैं और फिर उनका कार्य तो …
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( भगवद् गीता 4.8 )
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं ।
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वैसे अवतारी हैं । वह स्वयं भगवान है । किंतु वे युग अवतारी का भी काम करने वाले हैं तो उस युग का जो धर्म है फिर कलियुग का जो धर्म है उसका स्थापना के कार्य भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु करने वाले हैं ।
श्रो राधार भावे एबे गौर अवतार ।
हरे कृष्ण नाम गौर कोरिला प्रचार ॥ 4 ॥
( जय जय जगन्नाथ सचिर नंदन भजन, वासुदेव घोष )
अनुवाद:- वही आए है जो । वह आ गए है ! ओह, व्रज से वह नदिया में आए हैं । श्रीराधा के भाव और तेज को स्वीकार कर वे व्रज से नदिया आए हैं । वह आए हैं ! अब गोविन्द, भगवान गौरांग के रूप में आए हैं । वह हरे कृष्ण महामंत्र बांटने आए हैं !
तो हरे कृष्ण नाम क प्रचार करने वाले हैं हरे कृष्ण नाम धर्म के स्थापना करने वाले हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो उसका कार्य संपन्न हुआ श्रीवास ठाकुर के बाड़ी या आंगन से तो यह प्रारंभ तब हुआ जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गया गए थे । हरि हरि !! अब पिताश्री नहीं रहे तो श्राद्ध का जो अनुष्ठान है उसको संपन्न करने के लिए गया गए । मायापुर से गया गए । आप जानते हो गया कहां है तो वहां विष्णु पाद है वहां गए और वहीं पर मिलन हुआ उनका किन के साथ ? ईश्वर पुरी, तो ईश्वर पुरी ने उनको मंत्र दिया । दीक्षित हुए । भगवान दीक्षित हुए । हरि हरि !! भक्तों रूप क्योंकि, भक्त बने हैं । भगवान बने हैं भक्त । श्री कृष्ण बने हैं श्रीकृष्ण चैतन्य तो यह श्री कृष्ण चैतन्य भगवान के भक्त की भूमिका निभा रहे हैं । दीक्षा ग्रहण कर लिए उन्होंने महामंत्र प्राप्त किया, तो यह कीर्तन करने लगे, तो बस हो गया वह पहले के वह निमाई पंडित नहीं रहे अब । वे पागल हो गए । वे पांडित्य के कारण जो गंभीरी होता है वह नहीं रही, पागल हो गए । नष्ट हो गए । यह नाम कीर्तन करते हुए या फिर नृत्य करते हुए और फिर क्या क्या सब कुछ होने लगा और फिर इसीलिए उन्होंने कहा भी हे गोसाई ..
किबा मन्त्र दिला, गोसाञि, किबा तार बल ।
जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.81 )
अनुवाद:- हे प्रभु, आपने मुझे एक ऐसा मंत्र दिया है ? मैं तो इस महामंत्र का करने मात्र से पागल हो गया हूं !
कैसा मंत्र दिए हो ? जब से आपने मुझे मंत्र दिया और उसका मैंने कीर्तन और जप प्रारंभ किया तो मैं हो गया पागल-पागल । पगला बाबा हो गया मैं ! सब लोग कहे निमाई पागल हो क्या ? पागल हो गया निमाई ! तो यह पागल निमाई अब सारी दुनिया को पागल करने वाला है । खुद बन गया पागल या भगवान बन गए पागल तो यह दुनिया को अब पागल बनाएंगे ।
तो पांच इंद्रियां है, पांचों ने मिलके मतलब पंचतत्वों ने क्या किया ? वह स्वयं ही इस कृष्ण प्रेम का हरि नाम धन का आस्वादन कर रहे हैं ।
पाँचे मिलि लुटे प्रेम, करे आस्वादन ।
य़त य़त पिये, तृष्णा बाढे अनुक्षण ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.21 )
अनुवाद:- कृष्ण के गुण दिव्य प्रेम के आगार माने जाते हैं । जब कृष्ण विद्यमान थे, तब यह प्रेम का आगार निश्चय ही उनके साथ था, किंतु वह पूरी तरह से सीलबन्द था । किंतु जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने पंचतत्व के संगियों के साथ आये, तो उन्होंने दिव्य कृष्ण प्रेम का आस्वादन करने के लिए कृष्ण के दिव्य प्रेमागार की सील तोड़कर उसे लूट लिया । वे ज्यों-ज्यों उसका का आस्वादन करके गये, त्यों-त्यों और अधिकाधिक आस्वादन करने की तृष्णा बढ़ती हो गई ।
जैसे वह पिते रहै हरि नाम का पान करते रहे यह पांचो मिलकर पंचतत्व जैसे पीछे गए उनकी तृष्णा बढ़ रही है । और पिया तो और । पीने की इच्छा हो रही है, इच्छा अधिक अधिक तीव्र हो रही है । लोलुप्ता बढ़ रही है और पीउं-और पीउं । जो शराबी पिताहि रहता है, तो और पिता है । और पीने कि इच्छा होती है उसको ।
पुनः पुनः पियाइया हय महामत्त ।
नाचे, कान्दे, हासे, गाय, य़ैछै मद-मत्त ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.22 )
अनुवाद:- स्वयं श्री पंचतत्व ने पुनः पुनः नाच कर इस तरह भगवत्प्रेम रूपी अमृत को पीना सुगम बनाया । वे नाचते, रोते, हँसते और गाते थे, मानो उन्मत हों और इस तरह उन्होंने भगवत्प्रेम का वितरण किया ।
तो पुनः पुनः और और पीके क्या पी रहे हैं ?
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
का पान कर रहे हैं कौन ? श्री कृष्ण चैतन्य, नित्यानंद, अद्वैतचार्य, गदाधर, श्रीवास यह हरि नाम संकीर्तन का श्रवणं और फिर पहले कीर्तन और फिर श्रवण कर रहे हैं । श्रवणं, कीर्तन हो रहा है । इसका आस्वादन हो रहा है । इस को लूट रहे हैं लूट सको तो लूट लो और यह तिजोरी में जो है यह हरि नाम धन या अमृत कृष्ण प्रेम तो उसको निकाल रहे हैं बाहर और पी रहे हैं । पीके मत्त हो रहे हैं । नशा में आ रहे हैं । “नाचे, कान्दे, हासे, गाय, य़ैछै मद-मत्त” तो मद मतलब नशा आना । काम क्रोध लोग मद होता है ना मद यह तो भौतिक मद होता है यह षडरिपु है, इसमें से जो मद है मतलब नशा ही है । अपनी संपत्ति की अपनी वैभव की इसकी, पदवी की, उसकी । मद नशा में आ जाता है व्यक्ति ,तो यहां तो यह पंचतत्व यह हरि नाम का आस्वादन कर कर के हो क्या रहा है ? नाचे – नाच रहे हैं , कान्दे- रो रहे हैं/क्रंदन कर रहे हैं । अश्रु धाराएं बह रही हैं ।
नाम्नाम् अकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिः
तत्रार्पिता नियमितः स्मरणेन कालः ।
एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि
दुर्दैवं ईदृशम् इहाजनि नानुरागः ॥
( श्री श्री शिक्षाष्टकम् 2 )
अनुवाद:- हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अतः आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।
तो भगवान ने यह , जो नाम में शक्ति है वह शक्ति का प्रभाव पड रहा है इनके ऊपर ।
नयनं गलदश्रु – धारया वदनं गद्गद – रुद्धया गिरा । पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम – ग्रहणे भविष्यति ॥
( श्री श्री शिक्षाष्टकम् 6 )
अनुवाद:- हे प्रभु , कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे ? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा ?
ऐसे चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टक में कहे । ऐसा कब होगा ऐसा कब होगा मैं जब भी कीर्तन करूंगा या आपके नाम का उच्चारण करूंगा हे प्रभु ! चैतन्य महाप्रभु एक भक्त भूमिका निभा रहे हैं तो भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं, ऐसा कब होगा ?
कबे ह’बे बोलो से-दिन आमार
अपराध घुचि’, शुद्ध नामे रुचि,
कृपा-बले ह’बे ह्रदये संचार ॥ 1 ॥
( कबे ह’बे बोलो, शरणागति )
अनुवाद:- कब, ओह कब, वह दिन कब मेरा होगा? आप मुझे अपना आशीर्वाद कब देंगे, मेरे सभी अपराधों को मिटा देंगे और पवित्र नाम के जप के लिए मेरे दिल को स्वाद [रुचि] देंगे ?
ऐसा दिन कब मेरे आएगा ? कि मैं हरि नाम का उच्चारण करते ही “नयनं गलदश्रु – धारया” अश्रु धाराएं कब बेहने लगेगी ? “वदनं गद्गद – रुद्धया गिरा” गला कब अवरुद्ध होगा ? और शरीर में रोमांच कब होगा ? ऐसा चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में कह रहे हैं । शिक्षाष्टक कि उन्होंने जब रचना की है और वहां पर स्वरूप दामोदर राय रामानंद के साथ जब बता रहे थे यह शिक्षाष्टक तो उस समय वह कह रहे हैं, कब होगा ऐसा ? “नयनं गलदश्रु – धारया” पहले का ही हो चुका था, मायापुर में भी हो रहा था यह सब सारे भक्ति के लक्षण विकार
“पुनः पुनः पियाइया हय महामत्त” ठीक है !
पात्रपात्र-विचार नाहि, नाहि स्थानास्थान ।
य़ेइ य़ाँहा पाय, ताँहा करे प्रेम-दान ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.23 )
अनुवाद:- भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है , इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं । उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी । जहाँ कहीं भी अवसर मिला , पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया ।
तो दोनों भी हो रहा है । स्वयं भी आस्वादन कर रहे हैं और साथ ही साथ इसको औरों को बांट रहे हैं और यहीं पर बन रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु …
नमो महा-वदान्याय कृष्ण- प्रेम- प्रदाय ते ।
कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर- त्विषे नम: ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 19.53 )
अनुवाद:- हे परम दयालु अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं , जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमस्कार करते हैं ।
चैतन्य महाप्रभु बड़े धनी बने । धनी तो वे थे ही, उनके पास धन का हरि नाम का उनके पास और वे दानी बने हैं और केबल श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही नहीं है धनी, यह सारे पंचतत्व जो है पांच जो व्यक्तित्व है यह अपना उनका समूह है । वे सभी धनी है और सभी दानी बने हैं । “नमो महा-वदान्याय” रूप गोस्वामी ने कहा चैतन्य महाप्रभु को । आप इतना दयालु हो “महा-वदान्याय” । “महा-वदान्याय” मतलब वीरदान, सूरदान होना इसको “वदान्य” कहते हैं या दया की दृष्टि ।
तो ”नमो महा-वदान्याय कृष्ण- प्रेम-प्रदाय ते” आप तो एक “महा-वदान्याय” हो आप तो महा दयालु हो । क्यों महा दयालु हो ? “कृष्ण- प्रेम-प्रदाय ते” प्रद मतलब देते हो , कृष्ण प्रेम का बांटते हो । तो यहां यह सारे पंचतत्व मिलके , महादान हो रहा है प्रेम दान हो रहा है तो सर्वत्र इसका वितरण भी अब हो रहा है । जो आता है .. पात्र अपात्र कोई विचार नहीं है सबको बांट रहै हैं । भारतीय है अफ्रीकन है यूरोपियन है ये है वह है , काला है, गोरा है, गरीब है, शक्तिमान है, स्त्री है, पुरुष है अबाल है , वृद्ध है । सबको मुफ्त में बांट रहे हैं यह हरि नाम ।
लुटिया , खाइया , दिया , भाण्डार उजाड़े ।
आश्चर्य भाण्डार , प्रेम शत – गुण बाड़े ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.24 )
अनुवाद:- यद्यपि पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम के भण्डार को लूटा और इसकी सामग्री का आस्वादन किया तथा उसे बाँट दिया , फिर भी उसमें कोई कमी नहीं हुई , क्योंकि यह अद्भुत भण्डार इतना भरा – पूरा है कि ज्यों – ज्यों प्रेम का वितरण किया जाता है , त्यों – त्यों इसकी आपूर्ति सैकड़ों गुना बढ़ जाती है ।
ता लूट रहे हैं । लूट सके तो लूट ! हम कहते हैं लूट सके तो लूट । “राम नाम के हीरे मोती बिखरा हुं में गली गली” तो यह प्रारंभ किया यह लूट, लुटेरे पंचतत्व लूट रहे हैं इस हरिनाम को । हरि नाम धन को और पंचतत्व उसको बांट रहे हैं । इसका वितरण कर रहे हैं । कृष्ण प्रेम का दान कर रहे हैं हरि नाम के रूप में । “आश्चर्य भाण्डार , प्रेम शत – गुण बाड़े” तो जितना वह आश्चर्य भाण्डार , यह भंडार जो है या तिजोरी घर यह खजाना है ये बड़ा अद्भुत है । क्योंकि जितना वह बांट रहे हैं उतना खाली होना चाहिए था ! लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है । जितना वो बांट रहे हैं उतना वह भरता जाता है । खाली होता ही नहीं !
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
( श्री इशोपनिषद 1 )
अनुवाद:- भगवान पूर्ण हैं और कि वे पूरी तरह परिपूर्ण है , अतएव उनके सारे उद्भव तथा यह व्यवहार जगत , पूर्ण के रूप में परिपूर्ण हैं । पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है , वह भी अपने में पूर्ण होता है । चूंकि वे सम्पूर्ण हैं , अतएव उनसे यद्यपि न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती है , तो भी वे पूर्ण रहते हैं ।
तो जितना खाली करने का प्रयास हो रहा है, बांट रहे हैं तो घट नहीं रहा बांटने से घट नहीं रहा है वह बढ़ ही रहा है । मानो उतना ही था जितना शुरुआत में था । इतना तो आस्वादन किया, खा लिया, बांट लिया लेकिन अभी तक उतना का उतना ही है ।
उछलिल प्रेम-वन्या चौदिके वेड़ाय ।
स्री, वृद्घ, बालक, य़ुवा, सबारे डुबाय ॥
( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.25 )
अनुवाद:- भगवत्प्रेम की बाढ़ से सारी दिशाएं आप्लावित होने लगी और इस तरह से युवक, वृद्ध, स्त्रियां तथा बच्चे उस बाढ़ में डूबने लगे ।
तो चौदि के साथ सभी दिशाओं में इसका वितरण हो रहा है । बाढ़ आ गई यहां लिखा है । प्रेम बन्या । तो बाढ़ आती है तो सब या फिर नदी दूर-दूर तक पहुंच जाता है जहां पर पहले पानी नहीं था वहां तक पहुंच जाता है । यह हरि नाम का जो खजाना है या वहां बाढ़ आ रही है और यह हरि नाम की जो लहरें, तरेंगे, बूंदे पहुंचे सर्वत्र दूर-दूर फेहल रही है ।
तो हम तक जो यह पहुंच रही है हरी नाम हमारे घर तक पहुंच गया हम तक पहुंच गया ! या 500 साल के उपरांत हम तक पहुंच गया । चाइना में पहुंचा यहां पहुंचा वहां पहुंचा । यह अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्ण भावना संघ हो गई । लगभग हजार मंदिर हो गए और फिर कितने कौन-कौन से प्रोजेक्ट और कितनी सारी पद यात्राएं और संकीर्तन पार्टी यह वही कार्य कर रहे हैं जो कार्य प्रारंभ किए पंचतत्व । पंचतत्व का जो कार्य था हरिनाम का अस्वादन करनाऔर उसका वितरण करना । हरि हरि !! और फिर इसलिए चैतन्य महाप्रभु ने कहा ..
यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।
आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 7.128 )
अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो ।
घरे घरे गिया कोरो एई भीक्षा
बोलो ‘कृष्ण’, भजो कृष्ण, कोरो कृष्ण-शिक्षा
( चैतन्य भागवत् मध्यखंड 13.9 )
अनुवाद:- घर-घर जाओ और सभी निवासियों से भीख मांगो, कृपया कृष्ण का नाम जपें, कृष्ण की पूजा करें, और दूसरों को कृष्ण के निर्देशों का पालन करना सिखाएं ।
सुनो सुनो नित्यानंद, सुनो हरिदास
सर्वत्र आमर अज्ञा कोरोहो प्रकाश
( चैतन्य भागवत् मध्यखंड 13.8 )
अनुवाद:- सुनो सुनो नित्यानंद ! सुनो, हरिदास ! हर जगह मेरी आज्ञा का प्रचार करो !
तुम यहां जगन्नाथपुरी में क्या कर रहे हो ? जाओ, नित्यानंद प्रभु जाओ बंगाल तो नित्यानंद प्रभु बंगाल गए ।
नदिया गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन
पतियाछे नामहट्ट जीवेर कारण ॥ 1 ॥
( श्रद्धावान जन हे , श्रद्धावान जन हे )
प्रभुर आज्ञाय भाइ मागि एइ भिक्षा
बोलो ‘ कृष्ण ‘ , भजो ‘ कृष्ण ‘ , कर कृष्ण शिक्षा ॥ 2 ॥
( नदिया गोद्रुमे भजन )
अनुवाद:- 1. नदिया के गोद्रुम क्षेत्र में नित्यानन्द महाजन ने पतित जीवों के उद्धार के लिए हरिनाम का बाजार खोला है ।
अनुवाद:- 2. श्रद्धावान लोगों ! श्रद्धावान लोगों ! श्रीगौरांग महाप्रभु की आज्ञा से हे भाइयों , मैं आपसे तीन बातों की भिक्षा माँगता हूँ श्रीकृष्ण के नामों का कीर्तन करों , श्रीकृष्ण की पूजा करो , और अन्यों को इसकी शिक्षा दो ।
तो नित्यानंद प्रभु ने नाम हाट्ट खोलें । नदिया गोद्रुम में भी और “पतियाछे नामहट्ट जीवेर कारण” जीवो के उद्धार कल्याण के लिए । नित्यानंद प्रभु जो आदि गुरु है बलराम नित्यानंद तो उन्होंने ने प्रचार कार्य आरंभ किया चैतन्य महाप्रभु के आदेश अनुसार और फिर उसी परंपरा में यह प्रचार का कार्य चलता रहा आचार्य उपरांतआचार्य आये उन्होंने हरिनाम का आस्वादन कियापरांतआचार्य आये उन्होंने हरिनाम का आस्वादन किया और साथ ही साथ फिर भक्ति विनोद ठाकुर आए उन्होंने कुछ योजनाएं बनाई, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर उसको सूखे दुखे भूलो ना’को, वन्दे हरि-नाम करो रे बढ़ाए, और फिर 1922 में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर अभयबाबू को कहे तुम बड़े बुद्धिमान लगते हो जाओ पाश्चात्य देश में जाओ अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो । “यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश” तो श्रील प्रभुपाद ऐसे हीं किए। और यह करने के लिए फिर उन्होंने इस हरे कृष्ण आंदोलन का स्थापना की कुछ दिन पहले जो इस्कॉन इनकॉन के नींव निगमन का दिन था और फिर यह करते-करते या करने के लिए श्रील प्रभुपाद 14 बार पूरी पृथ्वी का भ्रमण किए और जहां जहां गए वहां वहां पर श्रील प्रभुपाद ने वही कार्य किए जो कार्य यह पंचतत्व प्रारंभ किए थे और फिर श्रील प्रभुपाद ने हमको उनके शिष्यों को आदे१ा उपदेश दिए इस को बढ़ाना है । किताब वितरण करो किताब वितरण करो । वही उद्देश्य है या प्रसाद वितरण करो उसी का अंश है यह । नगर संकीर्तन प्रारंभ हुए । न्यूयॉर्क में लंदन टोक्यो में मेलबर्न, साउथ अफ्रीका , ऑस्ट्रेलिया यहां वहां सर्वत्र कीर्तन होने लगा । फिर लोग कहे, हरे कृष्ण लोग’ ए’ हरे कृष्ण लोग । यह हरे कृष्ण लोग है । क्यों हरे कृष्ण लोग कहने लगे ? क्योंकि..,
पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम ॥
( चैतन्य भागवत अन्त्यखण्ड 4.1.26 )
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
सर्वत्र उनके नाम का प्रचार होने लगा तो वैसा ही कार्य जो जो पंचतत्वों ने वहां श्रीवास आंगन में जो कार्य किया हरि नाम का आस्वादन हरि नाम का वितरण यह कार्य अब सारे संसार भर में हो रहा है, और इस कार्य को हमको भी करना है । इस को आगे बढ़ाना है । और यही है इस युग का धर्म..
कलि – कालेर धर्म कृष्ण – नाम – सङ्कीर्तन ।
कृष्ण – शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन ॥
( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 7.11 )
अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है । कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता ।
धर्म-स्थापन-हेतु साधुर व्यवहार ।
पुरी-गोसाञिर य्रे आचरण, सेई धर्म सार ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 17.185 )
अनुवाद:- भक्त के आचरण से धर्म के वास्तविक प्रयोजन की स्थापना होती है । माधवेन्द्र पुरी गोस्वामी का आचरण ऐसे धर्मों का सार है ।
तो आप सब साधु हो या स्त्री साधु को साध्वी कहते हैं । या तो साधु या साध्वी हो या फिर कोई फर्क नहीं है !
गृहे थाको, वने थाको, वने थाको, सदा ‘हरि’ बोले’ डाको, I
सूखे दुखे भूलो ना’को, वन्दे हरि-नाम करो रे ॥ 4 ॥
( गाए गौर मधुर स्वरे :श्री नामागीतावली )
अनुवाद:- आपका जीवन किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है, और आपने इंद्रियों के भगवान, हृषिकेश की सेवा नहीं की है। इसे लोभक्तिविनोद ठाकुर की सलाह: “बस एक बार, पवित्र नाम के अमृत का आनंद लें!”
आप घर के गृहस्थ हो या वनके ब्रह्मचारी हो हम दोनों का व्यवसाय एक ही है । हम दोनों के कर्तव्य एक ही है । “सूखे दुखे भूलो ना’को, वन्दे हरि-नाम करो रे” सुख-दुख में हरी नाम को नहीं भूलना है । हरि नाम का प्रचार प्रसार करना है । हरि ! ठीक है !
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !!
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*04 अगस्त 2021*
*पंढरपुर धाम से*
हरे कृष्ण !
हरे कृष्ण टू यू ! आज किसी का बर्थडे भी है, उनको भी और आप सभी को भी मेरी ओर से हरे कृष्ण ! आज 1000 से भी अधिक स्थानों से भक्त जप में सम्मिलित हैं। थाउजेंड से अधिक होने से एक दूसरा भी अकाउंट प्रारंभ किया है। एनीवे आप औरों को भी सूचित कर सकते हो यदि वे हमारे साथ इस अकाउंट में नहीं हैं तो उनके लिए एक दूसरी आईडी भी उपलब्ध कराई जा रही है। हरि हरि ! अच्छा होता कि हर दिन एकादशी होती, तब हर दिन हमारी संख्या एक हजार से ऊपर जाती हरि हरि! हर दिन एकादशी अन्न की भी बचत हो जाती और कई अधिक लोगों को बचा हुआ अन्न प्राप्त होता अर्थात हमने आज जो नहीं खाया। प्रभुपाद कहते हैं दिस इज़ द सोलूशन ऑफ स्टार्वेशन, कई लोग जिन को भोजन नहीं मिलता या कुछ लोग थोड़ा ज्यादा खा लेते हैं अत्याहार चलता है। जो उपदेशामृत में कहा है
*अत्याहार: प्रयासश्र्च प्रजल्पो नियमाग्रह:। जनसड्गंश्र्च लौल्यञ्च षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति।।*
अनुवाद: – जब कोई निम्नलिखित छह क्रियाओं में अत्याधिक लिप्त हो जाता है, तो उसकी भक्ति विनष्ट हो जाती है।:(1)आवश्यकता से अधिक खाना या आवश्यकता से अधिक धन-संग्रह करना (2) उन सांसारिक वस्तुओं के लिए अत्यधिक उद्यम करना, जिनको प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। (3) सांसारिक विषयों के बारे में अनावश्यक बातें करना।(4) शास्त्रीय विधि-विधानों का आध्यात्मिक उन्नति के लिए नहीं अपितु केवल नाम के लिए अभ्यास करना या शास्त्रों के विधि-विधानों को त्याग कर स्वतंत्रता पूर्वक या मनमाना कार्य करना। (5) ऐसे सांसारिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों की संगति करना जो कृष्णभावनामृत में रुचि नहीं रखते। तथा, (6) सांसारिक उपलब्धियों के लिए लालायित रहना।
एकादशी होने के कई फायदे हैं। एक तो हम अपना श्रवण कीर्तन बढ़ाते हैं और फिर गुह्ममाख्याति पृष्छति भी बढ़ जाता है। *ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति ।भुड.कते भोजयते चैव षडविधम प्रीति-लक्षणम् ॥*
(उपदेशामृत 4)
अनुवाद- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना -भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
इस प्रकार हम अपनी प्रीति दर्शन या प्रैक्टिकल डेमोंसट्रेशन ,भी कर रहे हैं आपके साथ हरि हरि ! यह उपदेशामृत कथा कहो, यह गुह्ममाख्याति दिल की बात या शास्त्र की बात या भगवान की ही बात जो गुह्य होती है उसको हम समझाते हैं।
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति भुड.कते भोजयते चैव षडविधम प्रीति-लक्षणम्* वह होगा नहीं एकादशी में तो आप जलपान प्रसाद तो खा ही सकते हो। दुग्ध पान या कोई रसपान पत्रं पुष्पं फलं तोयं, पत्रं ठीक है पुष्प भी खा तो नहीं सकते ठीक है कुछ सब्जियों को फ्लावर्स भी कहते हैं हरि हरी ! एकादशी महोत्सव की जय ! स्वागत है इस एकादशी महोत्सव का, जिसको हम हरि वासर या माधव तिथि भी कहते हैं।
*माधव – तिथि भक्ति जननी , यतने पालन करि । कृष्णवसति वसति बलि परम आदरे वरि ।।*
( एकादशी – कीर्तन , शुद्ध भक्त चरण रेणु)
अनुवाद- माधव तिथि ( एकादशी ) भक्ति को भी जन्म देने वाली है तथा इसमें कृष्ण का निवास है, ऐसा जानकर परम आदरपूर्वक इसको वरणकर यत्नपूर्वक पालन करता हूँ ।
*वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम्। एतान्वेगान् यो विषहेत धीर: सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात्।।*
(श्रीउपदेशामृत श्लोक1)
अनुवाद: – वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन कि मांगों को, क्रोध कि क्रियाओं को तथा जीभ, उधर एवं जननेन्द्रियों के वेगों को सहन कर सकता है, वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य है।
यह जो पहला ही उपदेशामृत का वचन है वह आवेग को, स्पीड को रोकना है। ६ बेग दमी, बांग्ला में व को ब कहते हैं वृंदावन कहने की बजाय बृंदावन कहते हैं। यह ६ वेग दमी दमन , दमन कौन से? ६ वेग वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम् इसका एकादशी के साथ भी संबंध है। एकादशी के दिन हम विशेष प्रयास करते हैं इन इंद्रियों का दमन करने के लिए, उसको दबाने के लिए
*शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||* (श्रीमद भगवद्गीता १८. ४२)
अनुवाद – शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं |
इसको कृष्ण ने गीता के १८ अध्याय के ४२ श्लोक में कहा है। यह शमो दमस्तपः शौचं , जो होता है एकादशी के दिन, मन निग्रह इंद्रिय निग्रह मतलब यह ६ वेग दमि, यहां तो यह सही कहा है, लेकिन एकादशी है तो ग्यारह वेगों का कहो या इंद्रियों का कहो दमन करना है। उनको स्थिर करना है उनको शांत करना है। उसमें जो आवेग हैं उस भोग का, भोग विलास का, तीव्र इच्छा मन में, या इंद्रियों में, इंद्रियों को लगी हुई है आग, उसको बुझाना है अर्थात यह एकादशी जो है हमारी जो पांच ज्ञानेंद्रियां हैं (हम नहीं बताएंगे कौन कौन सी है ,इतना तो पता होना ही चाहिए क्योंकि जब से जपा टॉक इतने समय से चल रहा है और आपके पास श्रील प्रभुपाद के सारे ग्रंथ भी हैं तो ये एक्सपेक्टेड है) जनता को ज्ञानेंद्रियां व्हाट इज देट , पता नहीं होता, आपको भी नहीं पता था जब आप कृष्णभावना से जुड़े नहीं थे। पांच ज्ञानेंद्रियां हैं, पांच ज्ञानेंद्रियां क्या होती हैं ,पता नहीं होती हैं 1,2,3,4,5 तो पांच ज्ञानेंद्रियां हैं पांच कर्मेंद्रियां हैं और उसमें से जिव्हा वेगम, एक कर्मेंद्रिय है और दूसरी तरफ उदर उपस्थ जननेंद्रिय हैं और गुदाद्वार है वह भी कर्मेंद्रियां हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां हैं पांच कर्मेंद्रियां हैं और मनःषष्ठानीन्द्रियाणि और मन छठी इंद्रिय है
*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||*
(श्रीमद भगवद्गीता १५. ७)
अनुवाद – इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
इस प्रकार ५ और ५ और एक, ११ हो गए। ५ पांच ज्ञानेंद्रियां ५ कर्मेन्द्रिय और एक मन। एकादशी के दिन इन इंद्रियों का इंद्रिय निग्रह सेंस कण्ट्रोल, माइंड कंट्रोल रखने का दिन है हरि हरि ! एकादशी के दिन हमारा होमवर्क होता है और फिर कल भी आपको हमने होमवर्क दिया था उपदेशामृत का पहला या प्रथम जो चार श्लोक हैं उसको याद कीजिए, कंठस्थ कीजिए और केवल कंठस्थ ही नहीं करना है वैसे कहा तो नहीं लेकिन फिर भी आज कह रहा हूं उसको हृदयंगम भी करना है। केवल कंठस्थ ही नहीं करना है जैसे तोता केवल राम राम राम कुछ लोग सिखा देते हैं तो वह केवल कंठ से ही बोलता है और उसको पता भी नहीं होता कि वह क्या बोल रहा है? क्या बक रहा है? नकल करता रहता है। ही इज अ वेरी गुड इमिटेटर, लेकिन उससे हमारा फायदा नहीं होने वाला क्योंकि वह केवल कंठस्थ ही है। उसको हृदयंगम करना होगा, सुन तो लिया या पढ़ तो लिया, श्रवण मात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत ऐसा कहा तो है
*सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा । यस्याः श्रवण मात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत।।*
(श्रीमद्भागवत महात्म्य 3.25)
अनुवाद – भागवत की कथा का सदा सर्वदा सेवन करना चाहिए, श्रवण करना चाहिए इसके श्रवण मात्र से भगवान श्रीहरि हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं |
चार कुमार शास्त्रों के अध्ययन या श्रवण की महिमा सुना रहे हैं। सदा सेवया सदा सेवया सदा सेवन करो, सेवा करो, किस की सेवा करो ? कथा की सेवा करो, वहां भागवत की कथा वो कह रहे हैं किंतु यह उपदेशामृत की कथा भी भागवत की कथा ही है या भगवत गीता भी भागवत कथा ही है। श्रील प्रभुपाद ने कई बार कहा और लिखा भी इट इज़ स्पोकन बाय कृष्ण, भगवत गीता भगवान ने कही है और श्रीमद्भागवतम और चैतन्य चरित्रामृत और भी ग्रंथ है यह भगवान के संबंध में कही हुई बातें हैं स्पोकन बाय कृष्ण, स्पोकन अबाउट कृष्ण, लेकिन यह दोनों ही कथा या हरि कथा ही हैं। *हरि संबंधी वस्तुनः मोक्षहीः परित्यागो वैराग्यं फल मुकत्याते* वैराग्य इसका संबंध भी हरि के साथ है तो उपदेशामृत का भी है और भक्तिरसामृत सिंधु का भी है। यहां चार कुमार कह रहे हैं सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा यस्याः श्रवण मात्रेण इसको आप सुनोगे, यस्यः श्रवण मात्रेण, कथा के श्रवण मात्र से क्या होगा आप के चित् में हरि प्रवेश करेंगे या वहां विश्राम करेंगे या वहां स्थिर हो जाएंगे। कृष्ण ने गीता में कहा है।
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||*
(श्रीमद भगवद्गीता १०. ९ )
अनुवाद- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
मेरे भक्तों की क्या खासियत है? व्हाट इज द स्पेशलिटी ऑफ माय डिवोटी ? मच्चित्ता उसका चित् मुझ में लगा रहता है। यही है कॉन्शसनेस, भावना और हम कृष्ण कॉन्शियस होंगे ऐसा कहा है। श्रवण मात्रेण यहां केवल श्रवण मात्र की बात कही है केवल श्रवण से हरि हमारे चित् में, मन में, ह्रदय में, बसेंगे। श्रीमद् भागवत ने भी कहा है
*धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् । श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥*
(श्रीमद्भागवत 1.1.2)
अनुवाद- यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए , सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है , जो पूर्ण रूप से शुद्ध हृदय वाले भक्तों के लिए बोधगम्य है । यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक् होते हुए सबों के कल्याण के लिए है । ऐसा सत्य तीनों प्रकार के संतापों को समूल नष्ट करने वाला है । महामुनि व्यासदेव द्वारा ( अपनी परिपक्वावस्था में ) संकलित यह सौंदर्यपूर्ण भागवत ईश्वर – साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है । तो फिर अन्य किसी शास्त्र की क्या आवश्यकता है ? जैसे जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है, वैसे वैसे ज्ञान के इस संस्कार ( अनुशीलन ) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं ।
हृद्यवरुध्यते भगवान हमारे हृदय प्रांगण में रहेंगे, यह बात कही है चार कुमारों ने पद्म पुराण में और फिर मैंने आपको जो होमवर्क दिया था , ऐसा होमवर्क क्यों दिया जाता है और इस होमवर्क की क्या महिमा है, क्या माहात्म्य है, इसको भी मैं समझाने का हल्का सा प्रयास कर रहा हूं। पद्म पुराण में श्रीमद्भागवत महिमा या माहात्म्य में जब गोकर्ण कथा सुना रहे थे और कई सारे सुन रहे थे बड़ी धर्मसभा वहां जुट गई थी लेकिन वैसे कथा धुंधकारी के लिए हो रही थी उनके भ्राता श्री धुंधकारी के लिए ,जो भूत योनि को प्राप्त कर चुके थे या भूत बने थे तो उसके उद्धार के लिए गोकर्ण भैया ने, भागवत की कथा सुनाई और सातवें दिन धुंधकारी को भगवत धाम ले जाने के लिए वैकुंठ से एक विमान आ गया हरि हरि और फिर वैमानिक और एयर होस्टेस वगैरह भी थे। उन्होंने धुंधकारी को संकेत किया (अब वो धुंधकारी भी नहीं रहा) उसने अपने स्वरुप को प्राप्त किया था कथा का श्रवण करते करते वैसे और भी कुछ किया था उन्होंने केवल कथा का श्रवण ही नहीं किया था और भी कुछ किया था इसीलिए उनको वैकुंठ ले जा रहे थे। घर वापसी हो रही थी, ही इज़ गोइंग बैक टू होम, तब विष्णु दूतों ने संकेत किया, आइए , एनीवे वह सीढ़ी चढ़ने लगे और बैठ गए अपनी सीट में , और बेल्ट वगैरह बाँध ली (ही फास्टन हिज सीट बेल्ट) और यह विमान टेकऑफ होने ही वाला था कि उससे कुछ क्षणों पहले ही , गोकर्ण ने कहा वेट ए मिनट, क्या हुआ ? कथा तो सभी ने सुनी, किंतु आप केवल एक व्यक्ति को वैकुंठ ले जा रहे हो ? इनका क्या कसूर है? श्रवणस्य विभेदें फलस्य विभेदो सुसंस्कृतः यह अभी बैठे ही रहे हैं मेरे समक्ष इनका क्या कसूर है इन्होंने भी कथा सुनी, केवल मेरे भ्राता श्री धुंधकारी ने हीं कथा नहीं सुनी, उसके उत्तर में वैकुंठ से पधारे विष्णु दूतों ने कहा, समस्या यह रही, श्रवणम तू कथं सर्वे न यथा मंयेनम कृतं , कथा श्रवण तो सभी ने किया लेकिन मनन करने वाले केवल एक ही थे। श्रवण के उपरांत होता है मनन या श्रवण के उपरांत कीर्तन भी होता है और करना भी चाहिए यह भी कर्तव्य है। हमने श्रवण किया है उसको हमको ही सुनना, खुद को ही सुनाना और खुद ही सुनना, यही है मनन ,
श्रीप्रह्लाद उवाच
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥*
*इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥*
(श्रीमद्भागवत 7.5.23, 24)
अनुवाद- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना ) – शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
जो स्मरण है यह अधिक होगा, हम अधिक अधिक मनन करेंगे या सुनी हुई बातों को पुन: मन में लाकर उनकी ओर अपना ध्यान आकृष्ट करेंगे या उनसे हमारा ध्यान आकृष्ट हो और उसी में हम तल्लीन हो जाएं, इस पर विचारों का मंथन हो रहा है फिर जो सही विचार हैं जो सुने हुए शास्त्रों के वचन है या गुरु मुख् पदं वाक्य, गुरु के मुख से जो सुनी हुई बातें हैं वह सेटल हो जाएगी। वह याद आएगी, उसके फिक्स डिपाजिट होंगे वह हमारी संपत्ति बन जाएगी। यही होगा ह्रदयंगम जो सुना था या पढ़ा था उस पर पुनः या फिर पुनः पढ़ लिया या जो पढ़ा और सुना था वह याद कर लिया कुछ भूल गए तो वह अपनी नोटबुक को देखा या फिर शास्त्र को पुनः देखा सोचा और कुछ समझ में नहीं आया तो प्रश्न पूछा,
*तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ||* (श्रीमद भगवद्गीता 4.34)
अनुवाद- तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है |
या स्टडी करते समय स्टडी सर्कल होते हैं और उनके साथ स्टडी करने से उसके फायदे हैं ,स्टडी ग्रुप, स्टडी सर्कल में होती है। क्या फायदे हैं ? कि कोई बात यदि पढ़ते-पढ़ते समझ में नहीं आ रही है या कोई प्रश्न मन में उठा है तो झठ से हम पूछ सकते हैं। हमारे पल्ले नहीं पड़ रहा है लेकिन किसी को समझ में आ रहा है उस सर्कल में जो बैठे हैं वह बता सकते हैं हमारी शंका का समाधान कर सकते हैं यह हमारे प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं यह फायदा है। यह सारा श्रवण से, शुरुआत में जब पहली बार हमने पढ़ा, वहां से शुरुआत हो गई क्योंकि श्रवण इज नॉट एंड वहां से तो शुभारंभ होता है इट्स अ बिगिनिंग, हम तो शुभारंभ करते करते उसका समापन भी कर लेते हैं। हां ! कुछ इनीशिएशन हुआ या प्रारंभ हुआ कुछ इनीशिएटिव लिया हमने, वहां से शुरुआत हो गई और वह जारी रखना ही चाहिए। सदा सेवया सदा सेवया या
*नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।।* (चैतन्य चरितामृत 22.107)
अनुवाद -“कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”
हमारा भगवान के प्रति जो प्रेम है, है कि नहीं? यह पता नहीं है? कल भी कह रहे थे जैसे आपका माता पिता के प्रति होता है और फिर यह भी कहा, केवल माता पिता का ही आप से प्रेम नहीं होता, आपका भी होता है। प्रेम पुमर्थो महान, हमारे चैतन्य महाप्रभु ने यह लक्ष्य दिया, पंचम पुरुषार्थ क्या है? पंचम पुरुषार्थ प्रेम पुमर्थो महान
*श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं यस्मिन्पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते । तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविस्कृतं तच्छृण्वन्सुपठन्विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः ॥*
(श्रीमदभागवतम 12.13.18)
अनुवाद -” श्रीमद्भागवत निर्मल पुराण है । यह वैष्णवों को अत्यन्त प्रिय है क्योंकि यह परमहंसों के शुद्ध तथा सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन करने वाला है । यह भागवत समस्त भौतिक कर्म से छूटने के साधन के साथ ही दिव्य ज्ञान , वैराग्य तथा भक्ति की विधियों को प्रकाशित करता है। जो कोई भी श्रीमद्भागवत को गम्भीरतापूर्वक समझने का प्रयास करता है , जो समुचित ढंग से श्रवण करता है और भक्तिपूर्वक कीर्तन करता है , वह पूर्ण मुक्त हो जाता है । तात्पर्य : चूँकि श्रीमद्भागवत प्रकृति के गुणों द्वारा कल्मष से पूरी तरह मुक्त है, अतएव इसमें अद्वितीय आध्यात्मिक सौंदर्य पाया जाता है और इसीलिए यह भगवद्भक्तों को प्रिय है । पारमहंस्यम् शब्द सूचित करता है कि पूर्णतया मुक्तात्माएँ भी श्रीमद्भागवत को सुनने और सुनाने के लिए उत्सुक रहती हैं । जो लोग मुक्त होने के लिए प्रयासरत हैं उन्हें इस ग्रंथ को श्रद्धा तथा भक्ति सहित श्रवण करना चाहिए तथा वाचन द्वारा इसकी सेवा करनी चाहिए ।
यह भागवत कथा या चैतन्य चरितामृत कथा, राम कथा यह सारी कथाएं, कृष्ण कथा कह दिया, तो हो गया सारी कथाएं यह सुनेंगे हम क्या होगा ? श्रवणादि शुद्ध चित्ते भगवान से हमारा जो प्रेम है वह जगेगा। यहां केवल श्रवणादि नोट दिस *श्रवणादि* मतलब क्या? इत्यादि, मराठी में भी इत्यादि कहा है या अंग्रेजी लोग अटसेक्टरा कहते हैं। केवल श्रवण नहीं है या श्रवण से ही केवल कृष्ण प्रेम जागृत होगा, कृष्ण स्नेही या प्रेमी बनोगे ऐसा नहीं कहा है। श्रवणादि शुद्ध चित्ते विष्णु स्मरणम इत्यादि अनिवार्य है। यह दूत जो धुंधकारी को बैकुंठधाम ले जा रहे थे उन्होंने कहा समस्या यह है कि धुंधकारी ने मनन किया, श्रवण भी किया, कीर्तन भी किया, चिंतन भी किया इसीलिए यह बैकुंठ प्राप्ति के अधिकारी बने हैं। ही बिकम एलिजिबल कैंडिडेट जो बैक टू कृष्ण यह पात्र बने हैं। हरि हरि ! इनकी नम्रता भी है, उन्होंने मनन किया, धुंधकारी ने और क्या किया ? *विश्वासो गुरु वाक्येषु सस्मिन दीनत्व भावना मनो दोष ज्याश्चैव कथयं निश्चला मतिः* एक तो मनन किया नोट दिस और जो आप गोकर्ण एक आचार्य गुरु के रूप में कथा सुना रहे थे , इस धुंधकारी का उसमें विश्वास रहा। ही इज़ सो मच फेथ, विश्वासो श्रद्धावान लभते औरों का इतना विश्वास नहीं रहा लेकिन इनका विश्वास था और दीनत्व भावना और बड़े दीन भाव के साथ त्रणादपी सुनीचेन, बड़े दिन भाव के साथ, ऐसे भावों के साथ धुंधकारी ने कथा सुनी और मनो दोष ज्याश्चैव या मन में वाचो वेगम मनसः वेगम जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम् इसको उन्होंने जीत लिया मन को जीता, कहो इंद्रियों पर अपना नियंत्रण रखा और कथयं निश्चला मतिः इसी के साथ उनकी मती निश्चल, वैसे मन तो चंचल होता है निश्चल, मतलब चलना नहीं, मन को निश्चल बना दिया मन को स्थित किया, इसी के साथ हरि चित्तंसमाश्रयेत उनका चित् हरि में समा गया, स्थित हो गया। मैसज और फिर *या मति सा गति कहते हैं* या मति सा गति आपको अच्छा लगा ? ऐसी बातें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं पर्सनली, यू डोंट केयर लेकिन या मति स गति तो हमारी जैसी मति होगी वैसे ही हमारी गति होगी वैसे ही हमारा डेस्टिनेशन या गंतव्य, स्थान होगा इसको याद रखो या मति स गति, नेक्स्ट टाइम जब आपको, इसे औरों को समझाना होगा
*यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ‘ एइ देश ॥* (चैतन्य चरितामृत 7.128)
अनुवाद:- ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो ।
आपको और उनको, इस प्रकार श्रवण करने से, इस प्रकार करने से मतलब क्या? श्रवण करने से, कीर्तन करने से, मनन करने से या पुन: पुन: कीर्तन या पुन: पुन: पढ़ो याद करो एक बार ही पढ़ लिया या एक ही बार पढ़ने से आप समझ गए पूरा साक्षात्कार हुआ, अनुभव हुआ, रिलाइजेशन हुआ इसीलिए कहा है
सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा |
*यस्याः श्रवण मात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत ||*( श्रीमदभागवतम महात्म्य 3.25)
और
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥* ( श्रीमद्भागवतम १ .२ .१८ )
अनुवाद – भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
नित्यम भागवत की सेवा की बात है इसीलिए हम डेली चैटिंग डेली जपा टॉक करते हैं। डेली रीडिंग करते हैं। आपको होमवर्क दिया था आप देख लो , आप में से कोई कहना चाहते हैं क्या क्या किया आपने या कैसा होमवर्क किया या क्या समझ में आया कुछ शेयर करना चाहते हो तो आप करो या कुछ बातें समझ में नहीं आई तो यहां सारी सभा बैठी हुई है आप प्रश्न पूछ सकते हो आपका स्टडी सर्कल है जिसमें कोई भक्त आपको उत्तर भी दे सकता है। मैं भी हूं और भी हैं। ठीक है।
निताई गौर प्रेमानन्दे !
हरी हरी बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
3 अगस्त 2021
हरि हरि । गौर हरी बोल । 921 स्थानों से आज जप हो रहा है । वैष्णव गोसाई पूरा परिवार है, कौन-कौन बैठे हैं? मित्र परिवार । ठीक है । आप सभी का स्वागत है । उपदेशामृत का विषय होगा ही , उसके पहले आपको वीडियो दिखाना चाहते हैं , मुझे लगता है कि आपको पसंद आएंगे । एक रथ यात्रा का वीडियो है , छोटा वीडियो है 4 मिनट का है और एक पदयात्रा का है । एक रथ यात्रा का और एक पद यात्रा का वीडियो है , एक 2 मिनट का ही है । कल हमने इस्कॉन इनकारपोरेशन डे मनाया । प्रभुपाद ने इस्कॉन का कारपोरेशन , रजिस्ट्रेशन , पंजीकरण किया , पंजीकृत हुआ फिर न्यूयॉर्क से श्रील प्रभुपाद सान फ्रांसिस्को गए और वहाँ वैसे इस्कॉन का पहला उत्सव तो इतना बड़ा हुआ , इतना यशस्वी हुआ उसके पहले कभी ऐसा उत्सव नहीं हुआ था । वह उत्सव रथ यात्रा था । जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव की जय । उस संबंध में , उसका थोड़ा इतिहास कैसे शुरुआत हुई ? कैसे जगन्नाथ सुभद्रा बलराम किस रूप में प्रकट हुए ? इस्कॉन में भगवान ने प्रवेश किया और प्रभुपाद ने रथ यात्रा की योजना बनाई और उस नगरी को श्रील प्रभुपाद ने नवीन जगन्नाथ पुरी नाम भी दिया । सैन फ्रांसिस्को का नाम इस्कॉन जगत में प्रभुपाद ने ही रखा है , नवीन जगन्नाथपुरी । कैलिफोर्निया में जो सन फ्रांसिस्को है , उस सम्बंध का एक वीडियो है । हमारे लोक आर्काइव्स ने अभी-अभी बनाया हुआ है । आज की ताजी खबर है कहो शायद उन्होंने कल ही बनाया उसको देख लीजिए , अंग्रेजी में है लेकिन आप समझ जाओगे थोड़ा मनोरंजक भी है ।
(रथयात्रा सम्बंधित वीडियो)
जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव की जय । यह श्रील प्रभुपाद का 125 वा जन्मोत्सव भी है इसलिए हमने सोचा कि आपको यह दिखाते हैं । रथयात्रा प्रभुपाद ने प्रारंभ की , मैंने कहा ही इस वीडियो में की प्रभुपाद जगन्नाथ रथ यात्रा के संस्थापक आचार्य है और साथ-साथ पदयात्रा के फाउंडर आचार्य संस्थापक आचार्य भी श्रील प्रभुपाद ही है । रथयात्रा 1967 में प्रारंभ हुई और फिर पदयात्रा 1976 में शुरू हुई । 10 सितंबर 1976 में पहली पदयात्रा हुई , उन दिनों में हम उसे बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी कहते थे । वह रथयात्रा जब शुरू हुई तो फैल गई यहां वहां यहां वहां और चल ही रही है उसी प्रकार यह पदयात्रा भी 1976 में शुरू हुई यह भी रुकने का नाम नहीं ले रही है । इस पद यात्रा का लक्ष्य इस जगत का हर एक शहर हर एक गांव हर एक नगर है ।
चैतन्य भागवत
पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम । सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत अन्त्य – खण्ड 4.1.26)
पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
कुछ ही दिन पहले ऑल इंडिया पदयात्रा राजस्थान में हमारे जयतीर्थ प्रभु के गांव में पहुंच गई तब वहां कैसे स्वागत हुआ ? रथ यात्रा में आप देखी रहे थे अमेरिकन लोग सान फ्रांसिस्को में जुड़े और यहां पर पदयात्रा में देखिये राजस्थानी सदगृहस्थ या सज्जन और देवियां कैसे इसमें सम्मिलित हुई , देख लीजिए ।
(राजस्थान में, ऑल इंडिया पदयात्रा स्वागत विडिओ)
जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव की जय । यह श्रील प्रभुपाद का 125 वा जन्मोत्सव भी है इसलिए हमने सोचा कि आपको यह दिखाते हैं । रथयात्रा प्रभुपाद ने प्रारंभ की , मैंने कहा ही इस वीडियो में की प्रभुपाद जगन्नाथ रथ यात्रा के संस्थापक आचार्य है और साथ-साथ पदयात्रा के फाउंडर आचार्य संस्थापक आचार्य भी श्रील प्रभुपाद ही है । रथयात्रा 1967 में प्रारंभ हुई और फिर पदयात्रा 1976 में शुरू हुई । 10 सितंबर 1976 में पहली पदयात्रा हुई , उन दिनों में हम उसे बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी कहते थे । वह रथयात्रा जब शुरू हुई तो फैल गई यहां वहां यहां वहां और चल ही रही है उसी प्रकार यह पदयात्रा भी 1976 में शुरू हुई यह भी रुकने का नाम नहीं ले रही है । इस पद यात्रा का लक्ष्य इस जगत का हर एक शहर हर एक गांव हर एक नगर है ।
चैतन्य भागवत
पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम । सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत अन्त्य – खण्ड 4.1.26)
पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
कुछ ही दिन पहले ऑल इंडिया पदयात्रा राजस्थान में हमारे जयतीर्थ प्रभु के गांव में पहुंच गई तब वहां कैसे स्वागत हुआ ? रथ यात्रा में आप देखी रहे थे अमेरिकन लोग सान फ्रांसिस्को में जुड़े और यहां पर पदयात्रा में देखिये राजस्थानी सदगृहस्थ या सज्जन और देवियां कैसे इसमें सम्मिलित हुई , देख लीजिए ।
(राजस्थान में, ऑल इंडिया पदयात्रा स्वागत विडिओ)
पदयात्रा महोत्सव की जय। आपको पसंद आई ? फिर उससे जुडो घर बैठे बैठे तो अच्छा लग रहा है । पदयात्रा करो , अपने अपने मोहल्ले में नगर संकीर्तन करो या कहीं पर परिक्रमा करो ब्रज़मंडल परिक्रमा या नवदीप मंडल परिक्रमा या कहीं पदयात्रा में जा सकते हो , वनडे पदयात्रा भी आजकल चल रही है । हमारे मुरली मोहन प्रभु प्रमोट कर रहे हैं , वनडे पदयात्रा आपके नगर में , ठीक है । इस प्रकार की श्रील प्रभुपाद की जो योजनाएं थी ताकि कृष्ण भावनामृत सर्वत्र फैले । खासकर लोगों को उत्सव अच्छे लगते हैं । उत्सव प्रिय मानव: , याद रखिए आप कह भी सकते हो मनुष्य कैसे होते हैं ? या मनुष्य की कमजोरी है कहो कि सभी को उत्सव अच्छे लगते हैं और क्यों नहीं लगेग उत्सव अच्छे? क्योंकि हम उस जगत के हैं , हम गोलोक के हैं , हम मूलतः वृंदावन से हैं या वैकुंठा से है जहां सदैव उत्सव संपन्न होते रहते हैं । हर कदम पर नृत्य और हर शब्द में गीत है ऐसा ब्रह्म संहिता में भी कहा है । हमारे आत्मा को इसीलिए उत्सव अच्छे लगते हैं क्योंकि हम उत्सव के जगत से हैं और गलती से यहां पहुंच गए । उत्सव अच्छे लगते ही हैं और फिर गलती से हम मटन महोत्सव ( हंसते हुए ) मटन उत्सव संपन्न करते हैं या इंटरनेशनल फिल्म महोत्सव , फिर डॉग शो , यह शो वह शो , यह उत्सव वह उत्सव ऐसे करते हैं । उत्सव अच्छे लगते हैं लेकिन हम गलत उत्सव के पीछे हैं ।
महोतसवान पुरस्कृत्य अन्य धर्मा तिरस्कृत , ऐसा नारद मुनि ने कहा था ।
नारद मुनि का संवाद जब भक्ति देवी के साथ हो रहा था तब नारद मुनि ने ऐसा संकल्प लिया , यह घोषित किया ,”हे भक्ति देवी में तुम्हे सर्वत्र फैलाऊंगा”
गेहे गेहे जने जने (भागवत महात्म्य)
घर घर में पहुंचाऊंगा , यह भक्ति मैं घर घर पहुंचाऊंगा ।
गांव गांव , नगर नगर में पहुंचाऊंगा , नगर आदि ग्राम और कैसे पहुंचाओगे ? महोत्सवान , महोत्सव को प्राधान्य देंगे । उत्सव के माध्यम से भक्ति देवी को फैलायेगे । श्रील प्रभुपाद , उसी परंपरा के हम हैं ना ? ब्रह्मा – नारद- मध्व – गौड़ीय – श्रीलभक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर – भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद यह परंपरा है । नारद मुनि की इस परंपरा में प्रभुपाद आए , जो संकल्प लिया था जिस योजना की घोषणा नारद मुनि ने की थी कि उत्सव के माध्यम से हम भक्ति को फैलाएंगे । श्रील प्रभुपाद ने जब कल के दिन इनकारपोरेशन डे जो रहा । इस्कॉन का रजिस्ट्रेशन हुआ और , इस्कॉन के 7 उद्देश्य होंगे , वह कौन-कौन से होंगे उसका भी रजिस्ट्रेशन हुआ, और फिर इस्कॉन की स्थापना हुई फिर इस्कॉन का विकास , विस्तार होने लगा तब प्रभुपाद ने दुनिया को उत्सव दिए । लव फिस्ट , संडे फेस्टिवल ।
भुमते भोजयते चैव , (उपदेशामृत)
कल हैं उपदेशामृत में पढ़ रहे थे घूमते भोजयते चैव , प्रसाद खाओ और खिलाओ । षठ विधि प्रीति लक्षणं , यह प्रीति का लक्षण है । प्रीतिभोज लव फिस्ट , श्रील प्रभुपाद ने जो संडे फेस्टिवल शुरू किया पहले उसका नाम हुआ करता था लव फिस्ट , और यह फिस्ट खा खा के कितने सारे लोग भक्त बने, भक्ति करने लगे या उनको भक्ति प्राप्त हुई और भक्ति करने लगे , प्रसाद ग्रहण करके , भुमते भोजयते चैव ।
रुप गोस्वामी का भी इस उपदेशामृत में यह उपदेश है ऐसा करो , घूमते भोजयते चैव षठविध प्रीति लक्षणम , और फिर ,
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति ।
भुन्कते भोजयते चैव षडविथम् प्रीति लक्षणम्।।
(उपदेशामृत 4)
अनुवाद
दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना -भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
हरि हरि । और फिर श्रील प्रभुपाद ने धीरे-धीरे हम सभी को ग्रंथ भी दिये , ग्रंथ ही आधार है इस इस्कॉन का आधार है ।कल इन कारपोरेशन डे हुआ । इस्कॉन का फाउंडेशन ग्रंथ है । उन ग्रंथों में यह उपदेशामृत एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । रूप गोस्वामी भी फाउंडर आचार्य ही है । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और उनका संघ , षठ गोस्वामी वृंद और चैतन्य महाप्रभु इस संघ ने ही तो यह हरे कृष्ण आंदोलन प्रारंभ किया । हरे कृष्ण आंदोलन की स्थापना की , संकीर्तनेक पितरो आप याद रखो हम कई बार कहते हैं , आप लिखते नहीं हो फिर उसको पढ़ते नहीं हो । एक बार सुन लिया तो फिर शायद उसका चिंतन नहीं करते होंगे । प्रभुपाद यह भी कहा करते थे कि मेरे शिष्य क्या करते हैं ? एक दो पन्ने पढ़ लिया और फिर तुरंत ही प्रश्न पूछना शुरू कर देते है । प्रभुपाद ! प्रभुपाद ! मुझे यह समझ में नहीं आया , इसका अर्थ क्या है प्रभुपाद । प्रभुपाद कहते हैं ऐसा नहीं करना चाहिए कि एक दो पन्ने पढ़ लीये , 5 – 10 मिनिट पढ़ लिये और प्रश्नोत्तर शुरू हो गए , पढ़ते जाओ और पढ़ो या पुनः पढ़ो , एक बार पढ़ने से जब समझ में नहीं आया , दोबारा बढ़ने से और समझ में आएगा और वही बात तीसरी बार पढेगे तो और समझ में आएगा , इस तरह अलग-अलग साक्षात्कार अनुभव , स्मृतिया स्मरण होगा ।अंत हमें क्या करना है ? लक्ष है , भगवान का स्मरण करना है चैतन्य महाप्रभु ने कहा , ऐसी भक्ति करो जैसे गोपियों ने भक्ति की ,
रम्याकांच उपासना ब्रज वधु वर्गनया कल्पेत
मतलब गोपिया , उनकी भक्ति , गोपिया आदर्श भक्ता है । इस वक्त हम बात कर रहे हैं इस समय गोपिया भी है , गोपिया शाश्वत है ऐसा समय नहीं था जब गोपिया नहीं थी वह आज भी है । कृष्ण भी है , गोपिया भी है उनका धाम सनातन है वहां लीला कैसी होती है? नित्य लीला संपन्न होती है । नित्य लीला ,
गोपियों की खासियत क्या है?
स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।
सर्वे विधि – निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य 22.113)
अनुवाद “ कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं । उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए । शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने चाहिए । ”
सब समय भगवान का स्मरण करो यह एक बात हुई , विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित्
और भगवान को कभी नहीं भूले यह क्या दूसरी बात हुई क्या ? (हंसत हुए )भगवान को कभी नहीं भूले यह दूसरी बात नहीं हुई यह पहली बात हुई मतलब ही भगवान का स्मरण करो ।
स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।
स्मर्तव्यः इसको आप लिख भी सकते हो । स्मर्तव्यः अच्छा शब्द है । स्मर्तव्यः मतलब स्मरणीय , स्मरण करने योग्य स्मर्तव्यः , श्रोतवयः , कर्तव्य: ऐसे शब्द संस्कृत में बनते हैं । गोपियां बस भगवान का स्मरण करती रहती है । गोपिया बस इतना ही जानती है , गोपियों का तत्वज्ञान बड़ा सरल है । क्या करती है? सिर्फ कृष्ण का स्मरण करती है । हमको भी वही करना है हमारा लक्ष्य भी क्या है ? सदैव भगवान का स्मरण करना । फिर उसी श श्लोक में ,
स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।
उसी को आगे कहा है
सर्वे विधि – निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ।।
यह जो सब समय भगवान का स्मरण करना है यह करने के लिए विधि और निषेध है ।शास्त्रों में जो विधि बताई है और निषेध बताए हैं ।
विधि – निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः
यह दो दास है , स्वामी कौन है ? सदैव स्मरण करना यह लक्ष्य है । किस की मदद से यह होगा ? दो बातें हैं । एक विधी है और एक निषेध है ।
स्युरेतयोरेव किङ्कराः
विधि और निशेध एतयो मतलब दो । यह दो किंगकर है , स्मरण के दास है । स्मरण लक्ष्य है , यह स्मरण कैसे संभव होगा ? कुछ विधियों का पालन करना होगा , कुछ निषेध को भी याद करके जो निषेध है उनको नही करना चाहिए और विधि है उसको करना चाहिए । ऐसा करने से क्या होगा ? स्मरण होगा , भगवान का स्मरण होगा । भगवान का ध्यान करना है अष्टांग योग विधि जो है , अष्टांग योग पद्धति है जिसका लक्ष्य समाधि है । यम नियम , अष्टांगो में उसकी शुरुआत कैसी होती है ? यम नियम । आसन प्राणायाम फिर प्रत्याहार, ध्यान , धारणा , समाधि । इस अष्टांग योग की शुरुआत कैसी हैं ? जिसका लक्ष्य है ध्यान , भगवान का ध्यान , उसकी शुरुवात कैसी है यम नियम। यम मतलब निषेध वही बात हो गई विधि और निशेध हो गए । अष्टांग योग जो पद्धति है जिसका लक्ष्य समाधि है , भगवान का ध्यान है उसकी शुरुआत कहां से हुई ? यम नियम से , यम नियम से शुरुआत हुई , यम नियम मतलब विधी निशेध से शुरुआत हुई ।बराबर है ? यह मैं आपको क्यों कह रहा हूं ? इस उपदेशामृत ग्रंथ में भी इस ग्रँथ की शुरुआत भी विधि और निषेध से हुई है । भगवान को याद करना है , लीलाओं का स्मरण करना है इत्यादि इत्यादि बातें इस उपदेशामृत ग्रंथ में आगे बताई है । यह संक्षिप्त ग्रंथ है , मुझे लगता है यह केवल 11 श्लोक वाला ग्रंथ है और 11 श्लोक में ही पूर्ण ग्रंथ है लेकिन शुरुआत कहां से हो रही है ? यम नियम से हो रही है, विधि निषेध से हो रही है ।
विधि – निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ,
गोपियों का लक्ष्य या उनका जीवन ही भगवान का स्मरण करना है और कुछ नहीं करती केवल भगवान का स्मरण करती है , उनको याद करती है , खूब याद आती है । या उनको कृष्ण की खूब याद सताती है , यह विधि निषेधों का पालन करने से संभव होता है । इस ग्रंथ में से कल जो 4 प्रथम , प्रारंभिक श्लोक हमने आपको सुनाये या आपको स्मरण दिलाएं उसमें से दो निषेध के श्लोक है , ऐसा नहीं करना चाहिए , ऐसा मत करो , ऐसा मत करो , इसे यम कहते है । निषेध मतलब निशिब्ध । वह निषेध की बात करते हैं और तीसरा और चौथा विधि की बात करते हैं । पहला और दूसरा श्लोक यम की बात करते हैं और तीसरा और चौथा श्लोक निषेध की बात करते हैं ।या पहला और दूसरा श्लोक यम की बात करते हैं और तीसरा चौथा श्लोक नियम की बात करते हैं । पहला दूसरा श्लोक कहते है यह मत करो , यह मत करो। तीसरा चौथा श्लोक कहते है यह करो , यह करो । अगर आपको याद है , सभी मैं चार चार बातें हैं हम कह रहे थे ।
“वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं
जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम्।
एतान्वेगान् यो विषहेत धीर:
सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात्।।”
(श्रीउपदेशामृत श्लोक 1)
अनुवाद: – वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन कि मांगों को,क्रोध कि क्रियाओं को तथा जीभ, उधर एवं जननेन्द्रियों के वेगो को सहन कर सकता है,वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य हैं।
आप सभी ने कल कुछ गृहपाठ किया ? कुछ पढ़ा उपदेशामृत ? आपके घर में ऐसा ग्रंथ है भी या नहीं कि केवल एक बार ही है ? आपके पास यह है तो दिखा दो । अच्छा ठीक है , बेंगलोर वाले यह दिखा रहे हैं राखी माताजी दिखा रही है और किसके पास है हाथ ऊपर करो । किनके किनके घर में पर्सनल लाइब्रेरी में उपदेशामृत नामक ग्रंथ है । हाथ ऊपर करो , ठीक है ! ठीक है ! ठीक है ! बहुत अच्छा कुछ दिखा भी रहे हैं । पूर्ण सबूत हुआ ना? बाप दाखव नाही तर श्राद्ध कर (हँसते हुये) आप दिखा रहे हो । जिनके घर में अब तक भी उपदेशामृत ग्रंथ नहीं है उनके लिए गृहपाठ क्या है ? उनको यह ग्रँथ लेना है देखो कोई अगर आप को तोफा देता है ।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति ।
भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ॥४॥
(उपदेशामृत 4)
अनुवाद
दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना -भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
कुछ भक्त भेट भी दे सकता है लेकिन कोई दे नहीं रहा है तो फिर आप उसको ले लो । किसने किसने इसको पढ़ा है ? यह चार श्लोक पढ़े या कुछ आगे सोचा या चिंतन किया या किसको यह श्लोक कंठस्थ है ? किसको किसको यह श्लोक कंठस्थ है ? कंठस्थ समझते हो ? कंठ में बैठ गया , कहने के लिए तैयार है , जब चाहे तब हम कह सकते है । ठीक है सुनाओ , पद्मावली ? नागपुरी की मनोप्रिया कहती है कि वह जानती है , एक एक श्लोक सुनाओ । आप में से चार भक्त एक एक श्लोक सुनाओ , देखते हैं किसने किसने याद किया , कंठस्थ किया फिर आप की प्रॉपर्टी हो गई ना ? ग्रंथ में तो है ही ग्रँथ से आपके दिमाग में फिर दिल में उसकी स्थापना करनी है तभी फायदा होगा । नही तो ग्रँथ में तो सब छाप के रखा हुआ है वह सारी पूंजी तो वहां है ही फिर वहां से हमें हमारे मन में या हमारे ह्रदय प्रांगण में उसको डिपाजिट करना है वहा स्थापना करनी है तो फिर वह आपकी संपत्ति हो गई , आपकी प्रोपर्टी हो गई ।
(मनोप्रिया माताजी द्वारा उपदेशामृत प्रथम श्लोक)
बस ! बस! बस! बहुत अच्छा ( ताली बजाते हुए )अगला और कौन ? दूसरा श्लोक कहना होगा जो भी है । मनोप्रिया ने एक कह दिया और कौन कह सकता है । कोई भी ?
( नागपुर से आल्हादिनी माताजी द्वारा उपदेशामृत द्वितीय श्लोक )
ठीक है । थोड़ा सा कच्चा है । (हंसते हुए )ठीक है थोड़ा हल्कासा कच्चा है । ठीक है , बहुत अच्छा । अभी नागपुर से नहीं और किसी नगर से कोई है ? नागपुर से दो हुए , दो माताये हुई ।
(रचकरंजी से राधिका माताजी द्वारा उपदेशामृत तृतीय श्लोक)
जय । बहुत अच्छा । छान , सुंदर ठीक है । चौथा श्लोक अब कोई पुरुष भक्त ? माताओं की मेजोरिटी हो गई (हंसते हुए) उदयपुर से कौन है ?
(जयपुर से अजय गौरांग प्रभु द्वारा उपदेशामृत चतुर्थ श्लोक)
बहुत ज्यादा गति से हो गया , थोड़ा धीरे धीरे बोलिए।
(दोबारा अजय गौरांग प्रभुजी द्वारा उपदेशामृत चतुर्थ श्लोक)
बीच में चैव रह गया । ठीक है । बहुत अच्छा । ठीक है । मुझे लगता है कि कल हम इसको आगे बढ़ाएंगे । आपमे से कुछ भक्तो ने श्लोक याद किये और याद करने का आज प्रयत्न करो । पर्यासस्य परजल्पान नियमग्रह प्रयास तो करना चाहिए भगवान के लिए प्रयास कर सकते है , खूब प्रयास कर सकते हैं और फिर हम आपसे सुनना चाहेंगे । एक श्लोक को एक भक्त कहेगा फिर कुछ कॉमेंट्री करेंगे या थोड़ा शब्दार्थ , भावार्थ हमको सुना सकते हैं हमको या सभी को सुना सकते हैं । और फिर देखते हैं कुछ प्रश्न उत्तर की आवश्यकता है तो उसको भी कर सकते हैं और देख लो जिनके पास अभी तक नहीं है तो डाउनलोड भी कर सकते हो । चोरी कर सकते हो इंटरनेट से (हंसते हुए) वहां कुछ भुगतान नहीं करना है । आप भेट दे सकते हो , माधवी गोपी आपके मित्र परिवार में जिनके पास नहीं है उनको भेट दे दो , उनके घर पर पहुंचा दो । आजकल तो शराबी भी होम डिलीवरी हो रही है तो फिर उपदेशामृत की भी डिलीवरी हो जाये । वह जहर पिला रहे हैं , शराब पिलाते हैं फ्री का माल हरि हरि । वह मूर्खता है हरी हरि । आप कृपा करो आपके मित्रों पड़ोसियों पर प्रीति लक्षण , यह उपदेशामृत ग्रँथ भेट दे सकते हो । कुछ प्रश्न भी लेकर आओ लेकिन पहले पढ़ना होगा जैसे प्रभुपाद ने कहा एक दो पन्ने पढ़ लीये और फिर प्रभुपाद प्रभुपाद मुझे प्रश्न है , थोड़ा और पढो , चिंतन करो , भगवान से प्रार्थना करो कि भगवान मुझे इसका उत्तर दिजिये , भगवान दूर नही है । सबसे निकट कौन है? सबसे निकटतम कौन है ? क्या उत्तर है भगवान है। शांतारूपीको थाइलैंड में इतना तो पता चला । यह भी बहुत बड़ा सत्य है कि नहीं ? सबसे अधिक निकट निकटतम जो व्यक्ति है और प्रियतम भी है जिनका हम से प्रेम है ।
यह नही की केवल हम ही भगवान से प्रेम करते हैं और भगवान हमसे प्रेम नहीं करते , ऐसी बात नहीं है । हम भगवान से प्रेम करते हैं और भगवान हम से प्रेम करते हैं यह नहीं कि केवल बच्चे ही माता-पिता से प्रेम करते हैं । माता-पिता प्रेम नहीं करते क्या ? माता-पिता तो प्रेम करना कभी नहीं छोड़ते हम तो बदमाश हो जाते हैं बड़े हो गए तो माता-पिता को भूल जाते हैं लेकिन माता-पिता कभी हमको भूलते नहीं है ।और वह भूलेंगे तो वह माता-पिता ही नही होंगे , मातापिता की जो परिभाषा हैं समझ है , वह प्रेम करते रहते है । हम उनसे प्रेम करते या प्रेम करते नहीं कोई फर्क नही पड़ता । ऐसे ही इस संसार के माता-पिता अगर हम से प्रेम करते ही रहते तो आदी माता आदी पिता जो है , परमपिता जो है वह अपने आपत्तियों से कितना प्रेम करते होंगे ? भगवान का हमसे कितना प्रेम है ? इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते , वह हम से प्रेम करते हैं , वह आप से प्रेम करते हैं । यह बाते समझना भी भगवान को समझना है । मैं भगवान की जानता हूं , मैं कृष्ण को जानता हूं । ऐसे समझना कि भगवान हमसे प्रेम करते हैं , भगवान हमको चाहते हैं ।वह मुझे चाहते हैं , वह मुझसे प्रेम करते है , उन्हें मेरी जरूरत है , ठीक है । कल उपदेशामृत के विषय को आगे बढ़ाते है । आप भी अपना गृहपाठ करके आईये , आप भी कुछ बोलिये । आपमे से कुछ भक्त , आपने जो जो समझा या आज पढ़कर और समझोगे , भगवान से प्रांर्थना करके भी आ जाओ । प्रार्थना करेंगे तो भगवान क्या करते है ,
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||
(भगवद्गीता 15.15)
अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
यह बात भगवान ने किस शास्त्र में कही? हमने अभी जो वचन कहा यह किस शास्त्र कभी , किस पुराण का है? चैतन्य? ठीक हैं , भगवद्गीता है कह रहे है । भगवद गीता में कहा है , किस अध्याय का है , यह किस अध्याय में भगवान ने कहा? हर एक किताब खोलकर नही देखना है (हँसते हुये) किसे पता है ? क्या यह 15 वे अध्याय में है ? श्लोक संख्या? वह भी 15 ही है । तो 15 – 15 याद रखो । 15 वा अध्याय 15 वा श्लोक , भगवान ने कहा है
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो
तुम्हारे हृदय प्रांगणमें मैं रहता हूं और वहां ऱहकर मैं क्या करता हु? भगवान का कर्तव्य क्या है? वह भगवान ने कहा ,
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||
स्मृती , ज्ञान , विस्मरण , स्मरण , हम भगवान को याद करते है तो उनके कारण ही । हम भूल चुके है क्योंकि उन्होनेही वैसी व्यवस्था की है , क्योकि हम भूलना चाहते है तो भगवान व्यवस्था कर देते है ।
एको बहूनां यो कामन्दि कहा है , वह एक हम अनेको की कामना की पूर्ति करते है । हम भूलना चाहते है यह हमारी कामना है तो भगवान उसकी भी पूर्ति करते है हमको भुला देते है । स्मरण होता है भगवान जे कारण , विस्मरण हम भूल गए तो उसके कारण भी भगवान है । सर्व कारण कारणम , ठीक है । कल पुनः मिलने है , पुनः मिलाम: इसे आप याद रखिये , आप भी कह सकते है पुनः मिलाम: , पुनः मिलेंगे , फिर मिलेंगे लिख लो । हिंदी में , उर्दू में क्या क्या हम लोग कहते रहते है । आप संस्कृत बोल सकते हो पुनः मिलाम:, पुनः मिलेंगे , ठीक है ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
2 अगस्त 2021
हरे कृष्ण!
आज जप चर्चा में 892 भक्त सम्मिलित हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल…!
श्री चैतन्य मनोभीष्ठं स्थापितं येन भूतले स्वयंरूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदांतिकं
(श्री रूप प्रणाम मंत्र)
अनुवाद:- श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद मुझे कब अपने चरण कमलों में शरण प्रदान करेंगे?जिन्होंने इस जगत में भगवान् चैतन्य कि इच्छा के लिए प्रचार अभियान कि स्थापना की है।
रुप गोस्वामी प्रभूपाद कि जय…!
आज रुप गोस्वामी की रचना पर चर्चा करेंगे , हरि हरि। जिनकें कारण हम रूपानुगा कहलाते हैं।आप कौन हो? उत्तर क्या होगा? या एक उत्तर क्या होगा? हम रूपानुगा हैं। आप कौन हो? कौन हो? रू रुप गोस्वामी,’अनु’ पीछे पीछे ‘ग’ जानेवाले,रूपानुग अर्थात उनका अनुगमन करने वाले।हम सूनते हैं, या गाते रहते हैं।इसको नोट करना और वैसे मै यह भी सोच रहा था कि आप सब मन में ही नोट करते हो। नोटबुक भी रखो। आपको इतना विश्वास हैं अपनी मेमरी या स्मृती के उपर?अपनी मेमरी पर आपको जो घमंड हैं,वह अभी तो चल रहा हैं।किंतु कुछ नई नई बातें होगी तो याद रख सकोगे?आप श्रुतिधर तो नही हो? या हो? श्रुतिधर किसको कहते है, यह भी शायद आपको पता नही होगा। या याद नही होगा तो फिर कैसे उत्तर दोगे कि श्रुतिधर हो या नही तो श्रुतिधर उनहे कहते हैं जिनहे सुनकर सब याद रहता हैं,परतुं हम भूल जाते हैं। याद रहना चाहिये। कुछ तो लिखते रहते है, बाकी तो बैठे रहते हैं और फिर भूल जाते हैं। आप सब एक नोटबुक खरीद ही लो। यहा 900 स्थानो से भक्त उपस्थित हैं तो एक एक नोटबुक पढाई के लिये खरीद ही लो।जिसमे लिख सकते हो, और फिर लिखने के लिये ही बैठे हो जब सून ही रहे हो। कुछ अच्छे पॉईंट्स,कुछ तथ्य, या कोई श्लोक या कुछ सार आप लिखते जाओगे तो फिर आपको निंद भी नही आयेगी। निद्रा देवी आपसे दूर रहेगी, आपको परेशान नही करेगी। आपपें अपना प्रभाव नही डालेगी,जब आप जागृत रहोगे,एकाग्र हो कर सुनोगे। ठीक हैं, हम आगे बढ़ते हैं।
छय वेग दमि’, छय दोष शोधि’,
छय गुण देह दासे।
छय सत्संग, देह’ हे आमाय,
बसेछि संगेर आशे॥2॥
(श्रील भक्ति विनोद ठाकुर विरचित -ओहे!
वैष्णव ठाकुर)
अनुवाद:-आप कृपापूर्वक मेरे छः वेगों का दमन करने में मेरी सहायता करें, तथा मेरे छः दोषों को सुधारकर मुझे छः गुण प्रदान करें। हे वैष्णव ठाकुर! छः प्रकार का सत्संग प्रदान करें जिसमे दो भक्त परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। मैं आपके निकट आपका संग प्राप्त करने की आशा से आया हूँ।
“ओहे! वैष्णव ठाकुर” हे वैष्णव ठाकुर क्या करो? तो यहा चार बातो का जिक्र किया हैं। हे वैष्णव हमको चार बाते आप से चाहिये।और वह चार बाते जो है, या प्रकार हैं या श्रेणीया है उसमे फिर उसके छह-छह अंग हैं या उसके प्रकार हैं। हर एक एक के छह-छह विभाग हैं या प्रकार हैं।”छय वेग दमि”।वेग, वेगों कि बात हो रही हैं। मैं छह वेगो का दमण करना चाहता हूँ। “छय दोष शोधि” इस गीत मैं जो चार बातो का जिक्र हुआ हैं, या मांग कि हैं, और हर चार में फिर और छ: छ: मांगे हैं या प्रकार हैं, विभाग हैं।गीत का ये जो भाग हैं, इसका आधार उपदेशामृत हैं। उपदेशामृत के लेखक रूप गोस्वामी हैं, अब हम रूप गोस्वामी के ओर मुड रहे है।यहा रूप गोस्वामी के उपदेशामृत के जो प्रथम चार श्लोक हैं, वचन हैं, उपदेशामृत हैं, अमृत बिंदू हैं यहा उसका उल्लेख हो रहा हैं, इसको हमको पढना हैं, सीखना हैं।ये चार कौन कौंनसे अमृत बिंदू हैं। वैसे जब आप भक्तिशास्त्री कोर्स जॉईन करते हो, किया हैं किसी ने? कर रहे हो? कुछ हाथ उपर हो रहे हैं, तो उसमे भी उपदेशामृत का अध्ययन होता हैं। ठीक हैं पुरुषोत्तम! ( उपस्थित भक्तो को प पू लोकनाथ महाराज पुछ रहे हैं) आप तंत्रज्ञान के सहारे हाथ उपर कर रहे हो,आप को पता है कैसे हैंड रेज करना होता हैं, वाह कई लोगों को पता हैं। ऑस्ट्रेलिया के लोगों को तो पता ही होगा कैसे हैंड रेज करते हैं।
एक तरीके से दिखाना होता हैं, यह तो कोई भी कर सकता हैं। लेकिन कंप्यूटर के स्क्रीन पर हाथ दिख रहे हैं।यहां भी सीखना ठीक हैं। यह सीखना अच्छा हैं।यह एक अध्याय हैं, ताकि अगर कभी अगर चर्चा हो रही हो तो किस किस को समझ रहा हैं कौन इसके पक्ष में हैं और कौन इसके विरुद्ध हैं,इसका पता लगवा सकते हैं। तो इसको भी सीख लो।अभी मैं अपने विषय की तरफ बढ़ता हूं। समय कम हैं, हाथ नीचे करिए।बहुत अच्छा।आप लोग एक्सपर्ट बन रहे हो।
उपदेशामृत के प्रथम चार श्लोको पर बात करेंगें, उपदेशामृत पर कुछ बात होने वाली हैं, चर्चा होने वाली हैं,या हमारा ध्यान आकर्षित किया जा रहा हैं।
तो यह आप लिख सकते हो।हम, आप कोन हो? हम रूपानुग हैं, तो आपने लिख लिया रूपानुग। रूपानूगा मतलब क्या होता हैं ,रूप गोस्वामी के अनुयायी को रूपानुग कहते हैं,आप ऐसा नोट कर सकते हैं।कुछ लिख सकते हैं, कुछ श्लोक लिख सकते हैं। कई लोग लॅपटॉप लेके बैठ गये हैं, तो आप टाईप कर सकते हो। हमारे पास समय कम हैं और ये जो चार श्लोक हैं, यह चार अमृतबिंदू हैं।और फिर आपके लिये होमवर्क भी होगा। इस के लिये आपके पास उपदेशामृत होना चाहिए,क्या यह ग्रंथ हैं, आपके पास? इसकी भी मैं चर्चा करुंगा। आप सभी के पास श्रील प्रभूपाद के सभी ग्रंथ होने चाहिए!
अखबार के ढेर की बजाय,इन किताबो का ढेर लगा दो,और अखबार को आग या उसको गटर मे फेक दो।अखबार या और कूछ ग्राम कथा,ये तो चलता ही राहता हैं, ये कचरा हैं, उसके बजाय श्रील प्रभूपाद के दिव्य ग्रंथ,गीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत,उपदेशामृत, भक्तीरसामृतसिंधु इत्यादी इत्यादि ग्रंथो को खरीद लो! आपके धन का सदुपयोग होगा, आपके धनराशी का उपयोग होगा। आप बी.बी.टी.से ग्रंथो को खरीद लो! यह भी टॉपिक नही हैं, आजका। आपके पास ग्रंथ होने चाहिये।इससे आपके धनराशी का सदुपयोग होगा।आपने ग्रंथ खरीद लिये, आपके धन का,समय का,टाइम का सदुपयोग होगा।आप के जीवन का सदुपयोग होगा।जब आप इन ग्रंथों को पढोगे आप भगवान के साथ रहोगे।उसी के साथ आप धीरे-धीरे कृष्णभावनाभावित बनने वाले हो।पग पग पर हर शब्द,हर वाक्य,हर वचन एक एक परिच्छेद आप पढ़ते जाओगे तो आप भगवान के साथ, भगवान के अधिक निकट पहुंच जाओगे।भगवान आप में आपकी भावना में प्रवेश करेंगे।
“श्री रुक्मिण्युवाच
श्रुत्वा गुणान्भुवनसुन्दर श्रृण्वतां
निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोड्ग़तापम्।
रुपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे।।”
(श्रीमद्भागवतम् 10.52.37)
अनुवाद: – [ब्राह्मण द्वारा पढ़े जा रहे अपने पत्र में] श्री रुक्मिणी ने कहा: हे जगतों के सौंदर्य,आपके गुणों के विषय में सुनकर जो कि सुनने वालों के कानों में प्रवेश करके उनके शारीरिक ताप को दूर कर देते हैं और आप के सौंदर्य के बारे में सुनकर कि वह देखने वाले की सारी दृष्टि संबंधी इच्छाओं को पूरा करता है, हे कृष्ण, मैं अपना निर्लज्ज मन आप पर स्थिर कर दिया है।
“निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोड्ग़तापम्।”
ऐसे रुक्मिणी महारानी ने कहा “श्रुत्वा गुणा” मैं जब आपके गुणों को सुनती हूं, हे भुवनसुंदर!,”गुणान्भुवनसुन्दर श्रृण्वतां निर्विश्य” कर्णविवरैर्हरतोड्ग़तापम्।” मेरे अंग का जो ताप हैं ,बुखार जैसी बात है ताप, दिमाग ठंडा हो जाता हैं। रुक्मणी महारानी कह रही हैं कि उनका दिमाग ठंडा हो जाता था,वह स्थिर हो जाती थी, क्या करने से?जब वह भगवान के गुणों का वर्णन सुनती या पढती थी। “निर्विश्य कर्णविवरैर्हरत” कर्णरंद्रौ से प्रवेश हो रहा है ,मानो कृष्ण ही प्रवेश कर रहे हैं, आत्मा को छू रहे हैं या फिर आत्मा के कान सुन रहे हैं,आत्मा के कान सुन रहे हैं,आत्मा की आंखें देख रही हैं। जीव जागो! जीव जागो! क्या जागो? जीव जागो! हमारा लक्ष्य तो आत्मा की आंखें, आत्मा का कान, आत्मा की नासिका को जगाना हैं,उनको भगवान की सेवा में लगाना हैं
सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्।
हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.170)
अनुवाद: – भक्ति का अर्थ है समस्त इंद्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् कि सेवा करता है तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् कि सेवा में लगे रहे ने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं।
हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।।इसी का नाम हैं, भक्ति और इसलिए भगवान का नाम हैं,हृषिकेश।हमारी इंद्रियां के स्वामी। अंततोगत्वा हमारा लक्ष्य यह है कि आत्मा की इंद्रियां,आत्मा भगवान की सेवा में, भाव और भक्ति के साथ लगे। हरि हरि! तो पहला जो श्लोक हैं
“वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं
जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम्।
एतान्वेगान् यो विषहेत धीर:
सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात्।।”
(श्रीउपदेशामृत श्लोक 1)
अनुवाद: – वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन कि मांगों को,क्रोध कि क्रियाओं को तथा जीभ, उधर एवं जननेन्द्रियों के वेगो को सहन कर सकता है,वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य हैं।
वेग होते हैं वेग, आवेग। यहा छ: प्रकार के वेग कहे गये हैं।’छय वेग दमि’, उस गीत में था।ओहे!
वैष्णव ठाकुर ‘छय वेग दमि’, मैं चाहता हूँ कि इन छ: वेगो का दमन हो जाए, जो हमको ढकेलते है, उनका दमन हो जाए। उनका जो हमको ढकेलना होता हैं, तो जीवन में वाचों वेगं, हमारी वाचा, वाचो वेगं, मनसा: मन का आवेग, हम पर मन का प्रभाव, क्रोधवेगं हम क्रोधीत होते हैं,तो क्रोध हम पर नियंत्रन करता है। “जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम्।” जिव्हा, उदर,जननेंद्रिय प्रभुपाद लिखते हैं,इसमें से तीन वेगम् एक कतार में हैं,एक जीव्हा हैं,जो खाने के उपयोग में आती हैं,और जीव्हा के दो प्रकार हैं।एक तो हैं,वाणी। वाचो जो बोलने के काम में आती हैं,जीव्ह वेगम् कहा हैं, तो यह खाने की बात हैं। तो तीन वेगं एक तो पहले खाना और फिर खुब खाके जब अत्याहार से पेट भर गया तो उदर वेगम् और उपस्थ वेगम् तो फिर जननेंद्रिय सक्रिय हो जाती हैं ,उसमें आवेग आ जाता हैं और
“अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.36)
अनुवाद: -अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो |
“अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ”और हम नहीं चाहते हुए भी हम कुछ ऐसा कार्य कर बैठते हैं। हमसे अपराध होता हैं, पाप होता हैं।हमसे पाप यह अलग अलग छ: वेगं करवाते हैं। वाचो वेगं में बोलने और खाने कि बात हैं। इतना ही कहुंँगा हमारे पास समय नहीं हैं।यह छ: वेगं हैं। वेग को वैसे गती भी कहा जाता हैं, यह सब गती से जा रहा हैं, इसे रोकथाम लगाना हैं, यह जो आवेग हैं, हम को ढकलने वाले हैं और, हमको त्वरित प्रभावित करने वाले और फिर “अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः | ”हमसे तुच्छ कार्य करवाने वाले, ये छेह वेग हैं। इतना आप समझिए।वह कोन हैं जो इन वेगो से मुक्त हैं? वेग या आवेग भी कहते हैं,जो व्यक्ति वेग से प्रभावित नहीं हैं, वही व्यक्ति गुरु बन सकता हैं। गुरु बनने की पात्रता या अधिकार तभी प्राप्त होगा जब व्यक्ति का वेग पर नियंत्रण हो खैर अब मैं आगे बढ़ूगा, वक्त ज्यादा नहीं हैं यह पहला शलोक था। अब दूसरा हैं-
*अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः ।*
*जनसङ्गश्च लौल्यं च षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति ।।*
षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति – षड्भि मतलाब इन छ: से भीह मतलब ये संस्कृत हैं या कह सकते हैं इनके द्वारा । षड्भि तो इन छ: से क्या होता हैं, र्भक्तिर्विनश्यति – भक्ति का विनाश हो जाता हैं।आप चाहते हैं कि भक्ति का विनाश हो?आप नहीं चाहते ना। तो समझो कि कौन कौन से प्रकार आपकी भक्ति को नाश कर सकती हैं। तो छह बातें है, श्लोक सांख्य २ अत्याहारः – अतिआहार नंबर एक, प्रयासश्च – और अति प्रयास, आवश्यकता से अधिक प्रयास करते रहना, प्रजल्पो – गपशप या बाक्ते करते रहना,इधर उधर की बात, राजनीति की बातें, इसको प्रजल्प कहते हैं,।तीसरा प्रकार हैं। नियमाग्रहः – तो नियम का आग्रह करना या पालन करना। किसी नियम का बिना कुछ जाने या नहीं जानते हुए भी किसी नियम पे अधिक जोर देना ।
आवश्यकता से ज्यादा जोर देना,किसी प्रकार का अतिवादी होना। पांचवा हैं जनसङ्गश्च – तो इसपर पूरे तात्पर्य भी लिखे हैं श्रील प्रभुपाद ने, हमे इसको समझने के लिए इसको पढ़ना होगा।एक एक प्रकार से नाम गिना जा रहा हैं। या श्लोक में छ: प्रकार कहे हैं। छ:-छ: करके चार श्लोको में इसी लिए तात्पर्य महतवपूर्ण हैं।तात्पर्य या जिसको भावार्थ भी कहते हैं,जिसकी मदद से हम समझ सकते हैं। पांचवा हैं, जनसंगस्य अर्थात अभक्तों का संग, मायावी लोगों का संग और लोलुपता मतलब तीव्र इच्छा और तीव्र इच्छाए भौतिक ही होती हैं अगर तीव्रेन भक्तियोगेन हैं तो ठीक हैं।परंतु यहां माया के भक्तों की बात की गई हैं,कली के चेले, जो भौतिक चीजें चाहते हैं,अगर भौतिक चीजों के लिए प्रबल इच्छा हैं तो उसी को लोलुपता कहा हैं लोलयम्। तो यह 6 प्रकार हैं, षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति, जो हमारी भक्ति भाव का नाश करते हैं।
तीसरा हैं, उपदेशामृत का तीसरा श्लोक
*उत्साहान्निश्चयाद्धैर्यात्तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् ।*
*सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति ॥ ३ ॥*
इसमें कहा हैं षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति –
तो आप अपनी किताब में लिख सकते है कुछ महत्वपूर्ण शब्द – फल और सफल। फल आप सब जानते हो। सफल क्यों कहते हैं? स अलग हैं फल अलग हैं। सफल कहेंगे तो,फल के साथ। अगर फल प्राप्त हुआ तो सफल। सफलता प्राप्त हुई, यश प्राप्त हुआ। निष्फल – फल प्राप्त नहीं हुआ। तो निष्फल और सफल। तो फल तो रहेगा ही, स जोड़ दिया तो सफल और नही जोड़ा तो निष्फल। तो यहाँ कौनसे छ: प्रकार हैं?जिनसे क्या होगा? षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति – पहले षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति था और अब षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति हैं।
_*इसी को भी फिर हेय और उपाधेय कहते है हेय मतलब जो निष्फल हैं मतलब त्याजय – जिसको त्यागना चाहिए । और उपाधेय मतलब जिनको अपनाना चाहिए या स्वीकारना चाहिए। उपयोगी और निरुपयोगी ऐसे शब्द भी हैं। आपको अगर शास्त्रों का सचमुच अध्ययन करना है तो यह शब्द भी सीखने होंगे। समझना होगा इन शब्दों को भी। हरि हरि।
तो वो कौनसे छ: प्रकार हैं, जिनसे भक्ति का विकास होता हैं? या हमारी उन्नति होगी या प्रगति होगी। एक प्रगति है और दूसरी अधोगति हैं। गति मतलब जाना या आगे बढ़ना या लेकिन दोनों शब्दों में अर्थ बदलते हैं,गति तो गति ही हैं, दोनों शब्दों में। अधोगति और प्रगति। प्रगति मतलब उन्नति और अधोगति मतलब – आधो मतलब आधा – या नीचे। और गति मतलब जाना,तो व्याकरण के संधि के नियम के अनुसार अधोगति मतलब नीचे जा रहे है।
तो हम निचे जा रहे हैं,गिर रहे हैं। तो दूसरा जो श्लोक था उसमे अधोगति की बात हैं। और इस श्लोक षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति – में सफलता की बात हैं , उन्नति की बात हैं , प्रगति की बात कही हैं। तो कैसे होगी प्रगति या क्या क्या करना होगा जिससे प्रगति होगी? भक्ति में प्रगति की बात चल रही हैं या आधयात्मिक जीवन में प्रगति, सफलता उन्नति की बात चल रही हैं। साफल्य शब्द भी आता हैं, साफल्य कहो या सफलता कहो एक ही बात हैं।तो वो ६ प्रकार है उत्साह, निश्चय, धैर्यात्त – आपने इन ६ में से ३ को एक साथ कई बार सुना। तो व्यक्ति को उत्सहित होना चाहिए। निश्चयी होना चाहिए। उत्साह हैं, निश्चय हैं, धैर्य हैं और फिर क्या तत तत् कर्मप्रवर्तनात्। भक्ति के जो अलग अलग तथ्य हैं साधन हैं, उनको अपनाने से परिवर्तन होता हैं।इसलिए कहा गया तत तत कर्मप्रवर्तनात्। ये ४ प्रकार हुआ। ऐसा करने से और सङ्गत्यागात और संग का त्याग करेंगे तो परिवर्तन होगा।संग के भी दो प्रकार होते हैं। एक हो गया सत्संग और दूसरे को कहेंगे असत्संग – असत मतलब झूट मूठ का और सतसंग में सत तो भगवान हैं,ॐ तत सत। तो भगवन के साथ जोड़ने वाला संग, जिस संग के साथ हम भगवन के साथ जुड़ जाये, उसको कहेंगे सत्संग या वही हैं साधुसंग। तो दूसरे श्लोक में था असतसंग – जनसङ्गश्च होगा तो षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति -इसे आप लिख सकते हैं,अगर जनता का संग होगा, मायावी दुनियादारी लोगो का संग होगा, कामी क्रोधी लोभी लोगो का संग होगा तो षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति – भक्ति का विनाश हो जायेगा। लेकिन भक्ति का विकास या उन्नति होगी क्या करने से? सङ्गत्यागात असत संग त्यागने से,मायावी संग त्यागने से,भक्तिः प्रसिध्यति और मायावी संग अपनाने से षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति – आप लिख सकते हैं। हरि हरि ।।
तो पाँच प्रकार हो गए और फिर सतो वृत्तेः – उसी को दूसरे शब्दों में, असत्संग को त्यागने के लिए कहा हैं।यहाँ तो ठीक हैं, असत संग तो त्याग दिया हमने अब कोई संग को अपनाना चाहिए या नहीं तो सत्संग – सतो वृत्तेः – साधु संग या भक्त संग वैष्णव संग को अपनाने से भक्ति में प्रगति होगी। भक्तीवृक्षा कार्यक्रम में जाने से, या मंदिर में जाने से, भक्तो के संग में जाने से, या भक्तो की इष्टोगोस्ति में जाने से, उनका संग करने से, उनकी सलाह लेने से भक्ति में प्रगति होगी।हमारे काउंसलर को हमने संपर्क किया सलाह किया तो ये हुआ सतो वृत्तेः। तो ये ६ प्रकार थे षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति – हमारी भक्ति में सफलता, उन्नति, प्रगति आप चाहते हो की नहीं ?
तो चौथा श्लोक षड्विधं प्रीतिलक्षणम् –
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति ।*
*भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥ ४ ॥*
तो इस श्लोक में भी छ: बातें बताई गयी हैं। षड्विधं प्रीतिलक्षणम् – प्रीति के लक्षण छ: हैं।
छ: लक्षणों से पता चलेगा की आपका भगवद्भक्तो में प्रेम हैं या नही । वैष्णवों में प्रेम हैं या नही। वैष्णव के मध्य में प्रेम होंना चाहिए।और वो छ: प्रकार की लेंन देन कौनसी हैं? ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् – तो ददाति प्रतिगृह्णाति – छ: को फिर २-२ में बाटा गया तो – ददाति प्रतिगृह्णाति – भक्तो को कुछ भेंट देना या उनके पास किसी चीज़ का अभाव हैं तो उनकी मदद करना, तो ददाति प्रतिगृह्णाति लेन देन की बात हैं। आदान-प्रदान करने की बात हैं। भेंट दो भेंट लो। सिर्फ लेना अच्छी बात नहीं हैं।केवल लेते जाओ और देने का नाम ना लो, यह प्रीति का लक्षण नहीं हैं।प्रीति हैं, देना और फिर लेना भी। आगे गुह्यमाख्याति पृच्छति – दिल की बात या कोई साक्षात्कार की बात या हो सकता हैं, कोई दिल में चुबने वाली बात,गुहयम कहा हैं – गोपनीय बात अख्याति मतलब कहना, किसी भक्त को जिसमे हमारा विश्वास हैं, हमारा मित्र हैं और फिर पूछना भी पृच्छति। तो यहाँ विचारो की लेन देन हैं। तो यहाँ कोई संवाद या कोई दिल की बात या विचारो के लेन देन की बात या कोई समस्या की बात हो सकती हैं। और हम कोई राय ले सकते हैं कि अब क्या करना चाहिए? ऐसी स्तिथि में क्या करें?क्या आप बता सकते हों? या कोई खुशखबरी बाँटना। तो यह सब। अब हर दिन प्रातकाल: में ज़ूम पर यह सत्र चल रहा हैं।जपा चर्चा भी होती हैं।ऐसे किसी को आप सुना सकते हो और उनसे भी कुछ सुन सकते हों,वो भी आपको कुछ बताएँगे।तो इसी प्रकार, भक्तो में संग संवाद होंना चाहिए, बातचीत होनी चाहिए और बातचीत से आपसी सामंजस्य भी बढ़ता हैं। ये बातचीत बंद नहीं होनी चाहिए। और फिर भुङ्क्ते भोजयते चैव – भुङ्क्ते जो प्रसाद को ग्रहण करे और या औरों ने आपको प्रसाद दिया या आपको उनके घर बुलाया और प्रसाद खिलाया और फिर अपने घर से अपने विग्रह का अपने घर से भोग लगाया हुआ प्रसाद आप भी उनके घर लेकर गये, उनको दिया या आपने उनको अपने घर बुलाया और उनको प्रसाद खिलाया। ये प्रसाद का लेन देन ये एक बड़ा प्रीति का लक्षण हैं इससे हमारे वैष्णवो के साथ सम्बन्ध और भी घनिष्ठ बन जाते हैं।
प्रसाद साथ में बैठकर खाना और खिलाना इसमें बड़ा जादू हैं।भगवान इससे ऐसा कुछ करते हैं कि प्रसाद खाने, खिलाने से हमारे सम्बन्धो में सुधार होता हैं।अगर आप ऐसा करोगे तो मैत्री पूर्ण व्यवहार होने लगेंगे, हमारा एक दुसरे में विश्वास बढ़ेगा,तो हमारे जीवन में प्रसाद की बहुत बड़ी भूमिका हैं। ठीक हैं, तो अब हम यही रुकते हैं।उपदेशामृत के प्रथम जो यह ४ श्लोक हैं,हर श्लोक में ६-६ बातें बताई गयी हैं। और ये बहुत ही उपयोगी है। हमारे आध्यात्मिक जीवन की सफलता या निष्फलता इसी पर निर्भर हैं।हमारी प्रगति या अधोगति इसी पर निर्भर हैं।तो हम अधोगति तो नहीं चाहते और हमारे प्रयास निष्फल हो ऐसा भी नहीं चाहते। तो हमको इन सब बातो को भलीभांति पढ़ के याद रखना चाहिए। क्युकी आपको प्रचारक भी बनना हैं। जारे देखो तारे कहो कृष्णा उपदेश करना हैं की नहीं?
यह तो हमारा धर्म हैं, कि जो जो हम सीखते हैं या जो हम समझ रहे हैं ये सभी बातें हमे औरो को बतानी हैं और उनको सीखाना हैं,समझाना हैं। और इसी के साथ कृष्णाभावना का प्रचार होगा। और इसी के साथ संसार के अधिक लोग जो आपके रिश्तेदार या आपके पडोसी,आपके मित्र उनका कल्याण होगा वे भी कृष्णाभावनाभावित बनेंगे। और उनका जीवन सफल होगा।
भारत भूमि ते होइलो मनुष्य जन्म जार।
जन्म सार्थक करि, कर पर उपकार।।
भारत में जन्मे हो और जीवन की सार्थकता चाहते हो। जीवन अर्थपूर्ण हो तो कर पर उपकार । चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं कि उपकार करो , औरो पर उपकार करो। तो जब हम जारे देखो तारे कहो कृष्णा उपदेश करेंगे तो यही सबसे बड़ा उपकार होगा। और हम जब जारे देखो तारे कहो कृष्णा उपदेश करते है, तो हम औरो को कृष्णा को ही दे देते हैं। और लोगो को जब कृष्णा मिल गए तो फिर और क्या रह गया प्राप्त होना?जो कृष्णा पूर्णं अदा: पूर्णम इदाम् हैं,तो पूर्ण को ही आपने दे दिया। तो अपना जीवन सफल बनाने के लिए भी हमे ये जारे देखो तारे कहो कृष्णा उपदेश करना चाहिए।
हरे कृष्णा।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पढं रपरु धाम,
1 अगस्त 2021
हरेकृष्ण। हमारेसाथ 858 स्थानों सेभक्त जप कर रहेहैं। हरि हरि । गौर हरि । हरी हरी।
ॐ अज्ञान ति मि रान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।* *चक्षुरुन्मीलि तंयेन तस्मैश्रीगरुुवेनम: ॥
लोकनाथ गोस्वामी ति रोभाव ति थि महोत्सव की जय।
जो हमनेकल मनाया। कल कुछ सस्ं मरण हुआ और करनेका प्रयास हुआ और लोकनाथ गोस्वामी महाराज को या श्रील लोकनाथ गोस्वामी प्रभपु ाद को आज भी भलू नहींपा रहेहैं। इन सभी आचार्यों के नाम के साथ प्रभपु ाद – प्रभपु ाद जोड़ सकतेहैं। यह आपकी जानकारी के लि ए है। श्रील भक्ति सि द्धांत सरस्वती ठाकुर ही प्रभपु ाद नहीं थे। हम शि ष्यों नेश्रील प्रभपु ाद सेनि वेदन कि या था। हेस्वामी जी! यह शरुुआत के दि नों की बात है, वि देश के अनयु ायी न्ययू ॉर्क मेंप्रभपु ाद को स्वामी जी स्वामी जी कहतेथे। कुछ सस्ं मरण हो रहा है। श्रील प्रभपु ाद की
जय। तो जसै ेआप अपनेगरुु को श्रील भक्ति सि द्धांत सरस्वती ठाकुर को प्रभपु ाद कहतेथे। तो क्या हम भी आपको हम प्रभपु ाद कह सकतेहैं? तो प्रभपु ाद तयै ार हुए, स्वामी जी कहो। श्रील भक्ति वेदांत स्वामी जी को प्रभपु ाद कहनेलगे। तो रूप गोस्वामी प्रभपु ाद भी हैऔर फि र लोकनाथ गोस्वामी प्रभपु ाद भी कह सकते हैं। एक ऐसेआदर्श का क्या कहना। वह इस जगत के नहीं थे। गोलोक के ही श्रीकृष्ण के एक परीकर, एक मजं रूी, एक गोपी। मझु ेयाद नहीं आ रहा है। कौन सी गोपी थी। वह मजं री गोपी थे। तो वह प्रकट हुए हैं। तो दि व्य जगत के भगवान के परि कर गणु ों की खान होते हैं। वसै ेही थे। हरि हरि । फि र श्रीकृष्ण चतै न्य महाप्रभुऔर इन सब असख्ं य परीकरो को साथ मेंलेआए और मैं सोच रहा था कि इस प्रकार श्रीकृष्ण चतै न्य महाप्रभुनेअपनेधाम का और अपनेनि त्य धाम के परि कर का परि चय भी दि या है। ऐसेहोतेहैं, ऐसे हैं मेरे परि कर, ऐसे हैं मेरे भक्त।
हरि हरि । आप भी, तमु भी, हेबद्ध जीवो! हेभलू ेभटके जीवो! वसै ेतमु भी वसै ेही हो, तमु मेंभी सारेगणु हैं। हरि हरि । तमु भी ऐसेगणु वान बनो। ऐसेअसख्ं य भक्तों को श्रीकृष्ण चतै न्य महाप्रभुप्रस्ततु कि ए। जि नको हम बड़ेआसानी सेआचार्य या आदर्श के रूप मेंस्वीकार कर सकतेहैं। हरि हरि । जो भी इनके सगं मेंआतेहैं। हरि हरि । तो उनके गणु फि र लोकनाथ गोस्वामी जसै ेपरीकर या अचार्य उनके सगं मेंजब हम आतेहैं। हम उनके सगं मेंकैसेआतेहैं? जब हम उनके बारेमेंसनु तेहैं। उनके चरि त्र को जानतेहैंऔर उसी के साथ हमेंभी वह गणु आतेहैं। वसै ेगणु हम मेंहैं। हम जीव हैना, जीवात्मा हैं। ऐसेमन मेंवि चार आतेहैं। हम जीव है। हम श्रीकृष्ण के अशं हैं। भगवान अशं ी हैं।
*सतू उवाच आत्मारामाश्च मनु यो नि र्ग्रन्र्ग्र था अप्यरुुक्रमे।*
*कुर्वन्र्व त्यहैतकु ों भक्ति मि त्थम्भतू गणु ो हरि ः ॥ १० ॥*
(श्रीमद भगवतम 1.7.10)
अनवु ाद:- जो आत्मा मेंआनन्द लेतेहैं, ऐसेवि भि न्न प्रकार के आत्माराम और वि शषे रूप सेजो आत्म –
साक्षात्कार के पथ पर स्थापि त हो चकुे हैं, ऐसेआत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौति क बन्धनों सेमक्ुत हो चकुे हैं, फि र भी भगवान्की अनन्य भक्ति मय सेवा मेंसलं ग्न होनेके इच्छुक रहतेहैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान्मेंदि व्य गणु हैं, अतएव वेमक्ुतात्माओंसहि त प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकतेहैं। भगवान मेंगणु है। हम भगवान के अशं हैंऔर हमेंमेंभी गणु हैं। बस और ढक चकुे हैं। आच्छादि त हुए हैं। हम
उन गणु ों को भलू गए हैं। फि र इसकी प्रक्रि या है। तो जब हम इन आचार्यों को या भक्तों को या श्रीकृष्ण चतै न्य महाप्रभुके परीकरो को स्वीकार करतेहैं।
*बोलेतसै ा चाले, त्याची वदं ावी पावले* उन्होंनेजसै ा कहा हम वसै ेकरनेलगतेहै।
*तर्कों Sप्रति ष्ठ श्रतु यो वि भि न्ना*
*नासावषिृषिर्य़स्र्य़ य मतंन भि न्नम ्।*
*धर्मस्र्म य तत्त्वंनि हि तंगहुायांमहाजनो ये
़
न गत: स पन्था: ॥*
(श्री चतै न्य-चरि तामतृ ,मध्य लीला, अध्याय 17 श्लोक 186)
अनवु ाद:- श्री चतै न्य महाप्रभुनेआगेकहा, शष्ुक तर्क मेंनि र्णयर्ण का अभाव होता हैं। जि स महापरुुष का मत अन्यों सेभि न्न नहीं होता, उसेमहान ऋषि नहींमाना जाता। केवल वि भि न्न वेदों के अध्ययन सेकोई सही मार्ग पर नहींआ सकता, जि ससेधार्मि कर्मि सि द्धांतों को समझा जाता हैं। धार्मि कर्मि सि द्धांतों का ठोस सत्य शद्ुध स्वरूपसि द्ध व्यक्ति के ह्रदय मेंछि पा रहता हैं। फलस्वरूप, जसै ा कि सारेशास्त्र पष्टिुष्टि करतेहैं, मनष्ुय को महाजनों द्वारा बतलाए गयेप्रगति शील पद पर ही चलना चाहि ए।
श्रील लोकनाथ गोस्वामी जसै ेमहाजन *महाजनो ये
़
न गत: स पन्था:*। वह जि स मार्ग पर चलेउसका अनसु रण
करतेहुए हम भी आगेबढ़ेंगे। उनके व्यवहार को और चरि त्र को देखेंगे। हरि हरि ।
*धर्म-र्मस्थापन-हेतुसाधरु व्यवहार।*
*परुी-गोसाजि र येआचरण, सेई धर्म सार ॥*
(मध्य लीला 17.185)
अनवु ाद:- भक्त के आचरण सेधर्म के वास्तवि क प्रयोजन की स्थापना होती है। माधवेन्द्र परुी गोस्वामी का आचरण ऐसेधर्मों का सार है।
साधुऔर सतं ों के व्यवहार धर्म की स्थापना हेतुकार्यकर्य लाप होतेहैं। तो फि र जब हम देखेंगेश्रील लोकनाथ गोस्वामी जसै ेसतं महात्मा उनके सारेव्यवहार, सारेकार्यकर्य लाप उनके समझेंगे। तब हम देखेंगेकि उन्होंने धर्म की स्थापना करी। धर्म की स्थापना फि र हम मेंभी हो जाएगी। कृष्ण भावना हम मेंभी जगेगी। वह हमारे जीवन मेंस्थापि त होगी। उनके चरि त्र के अध्ययन सेहम भी धार्मि कर्मि बनेंगे। हरि हरि । कृष्ण दास कवि राज गोस्वामी जब चतै न्य चरि तामतृ लि खनेजा रहेथे। तो यह देखि ए लोकनाथ गोस्वामी की नम्रता। लोकनाथ गोस्वामी नेवि शषे नि वेदन कि या। मेरा उल्लेख चतै न्य चरि तामतृ मेंनहींकरना। मैंपति त हूं, मैंशद्रू हूं, मैं शलू क हूं, मैंनगण्य हूं। मेरा नाम जि क्र नहींकरना इसीलि ए चतै न्य चरि तामतृ मेंलोकनाथ गोस्वामी का नाम हल्का सा एक-दो स्थानों पर उल्लेख हुआ है। कृष्ण दास कवि राज गोस्वामी टाल नहींसके। ऐसा उल्लेख आता हैकि ंतुउससेअधि क नहीं। यह लोकनाथ गोस्वामी की वि नम्रता है। हरि हरि।
ऐसी वि नम्रता नेही तो नरोत्तम दास ठाकुर को आकृष्ट कि या। जो स्वयं ही नरोत्तम और ठाकुर है। जीव गोस्वामी नेउनको यह पद दि या।
नरोत्तम दास ठाकुर, जो स्वयं राज्य पत्रु थे। वह लोकनाथ गोस्वामी के कार्यकर्य लापों सेउनके जीवन चरि त्र से, उनकी कार्यकर्य लापों से, वि नम्रता सेप्रभावि त हुए। वह उनके शि ष्य बन गए। लोकनाथ गोस्वामी के केवल एक ही शि ष्य थेऔर वह नरोत्तम दास ठाकुर थे। इतना आसान नहीं था, लोकनाथ गोस्वामी का शि ष्य बनना। वह लोकनाथ गोस्वामी की कैसे-कैसेछि प छि प के सेवा कर रहेथे। वेकैसेछि प छि प के ही मल मत्रू का वि सर्जनर्ज स्थली जहांपर लोकनाथ गोस्वामी करतेथे। वहांपर उस क्षेत्र की सफाई का, स्वच्छता का कार्य छुप-छुपकर नरोत्तम दास ठाकुर एक राज्य पत्रु करतेथे। वह हठ लेकर बठै ेथे। आप मझु ेअपनाइए। मैंआपका शि ष्य बनना चाहता हूं। तो अतं तोगत्वा लोकनाथ गोस्वामी नेनरोत्तम पर प्रसन्न होकर उनको शि ष्य रूप मेंस्वीकार कर लि या। हरि हरि । तो जब लोकनाथ गोस्वामी की वद्ृ धावस्था में, हमनेकल कहा था कि लगभग 100 वर्ष उनकी आयुथी। वह वद्ृधि थे।
तब जीव गोस्वामी उनके पास प्रस्ताव लेकर आए। वह क्या प्रस्ताव था? हम श्रीनि वास आचार्य और श्यामानदं पडिं डित को बगं ाल भेज रहेहैं। कुछ वदिैदिक ग्रथं ों के ग्रथं भडं ार या गौडीय ग्रथं को लेकर वह हम भेज रहेहैं। क्या नरोत्तमदास भी जा सकता है? एकमात्र शि ष्य। यह वद्ृ ध अवस्था चल रही हैऔर एक ही शि ष्य उनकी जो सेवा कर रहा था और भी कुछ करतेहोंगेकि ंतुउनके गरुु तो यहीं थे। लोकनाथ गोस्वामी राजी हुए। उन्होंनेकहा क्यों नहीं। वो भी जा सकता है। उसको भेजो। तो उन्होंनेवहांजाकर प्रचार करनेवालेथे। प्रचार को उन्होंनेप्रधान्य दि या। उन्होंनेवद्ृ धावस्था मेंयह नहींसोचा कि मेरी सखु सविुविधा का क्या होगा। मेरी सहायता कौन करेगा उन्होंनेइसकी चि तं ा नहींकरी। उन्होंनेकहा उनको भेज दो और उनको उन्होंनेआदेश दि या कि जाओ तमु बगं ाल जाओ। वहांपर प्रचार प्रसार करो। यहांपर मत रहो। जसै ेश्रील प्रभपु ाद वदंृावन को 1965 मेंछोड़।े क्यों? परूा ससं ार दखु ी और परेशानी मेंहै। तो कुछ राहत मि ल जाए। प्रचार होगा तो लोगों को सहायता होगी। उनका मार्गदर्ग र्शनर्श प्राप्त होगा और लोग भगवान की शरण मेंआएंगे।
*समाश्रि ता येपदपल्लवप्लवंमहत्पदं पण्ुययशो मरुारेः ।*
*भवाम्बधिुधिर्वत्र्व सपदं परं पदं पदं पदं यद्वि पदांन तषे ाम ्॥*
(श्रीमद भगवतम 10.14.58)
अनवु ाद:- दृश्यजगत के आश्रय एवंमरु राक्षस के शत्रुमरुारी के नाम सेप्रसि द्ध भगवान्के चरणकमल रूपी नाव को जि न्होंनेस्वीकार कि या हैउनके लि ए यह भव सागर बछड़ेके खरु चि न्ह मेंभरेजल के समान है। उनका लक्ष्य परं पदम ्अर्था त्वकै ुण्ठ होता हैजहाँभौति क वि पदाओंका नामोनि शान नहीं होता , न ही पग पग पर कोई सकं ट होता है।
तो फि र इस ससं ार के लोग, लोगो के लि ए यह सारा *भवाम्बधिुधिर*् कैसा बन जाएगा? *वत्सपदं* जसै ा। फि र उसको आसानी सेलांघ सकतेहैं। इस भवसागर को पार करना तो कठि न है। इसका कोई अतं ही नहीं है। भवसागर जो सागर है। लेकि न जसै ेही कोई भगवान के चरणों का आश्रय लेता हैतो आश्रय लेतेही वह भगवत धाम लौटनेका या उसका प्रवाह शरूु हो जाता है। ” पदपल्लवप्लव”ं भगवान के चरण कमल बन जाती हैनोका और उसका प्रवास शरूु होता हैऔर पहुंचा देता हैउस जीव को भगवत धाम जहांक्या नहीं ?
समाश्रि ता येपदपल्लवप्लवंमहत्पदं पण्ुययशो मरुारेः । भवाम्बधिुधिर्वत्र्व सपदं परं पदं पदं पदं यद्वि पदांन तषे ाम ्
॥
( श्रीमद् भगवतम ्10.14.58 )
अनवु ाद:- दृश्यजगत के आश्रय एवंमरु राक्षस के शत्रुमरुारी के नाम सेप्रसि द्ध भगवान्के चरणकमल रूपी नाव को जि न्होंनेस्वीकार कि या हैउनके लि ए यह भव सागर बछड़ेके खरु चि न्ह मेंभरेजल के समान है।
उनका लक्ष्य परं पदम ्अर्था त्वकै ुण्ठ होता हैजहाँभौति क वि पदाओंका नामोनि शान नहीं होता , न ही पग पग पर कोई सकं ट होता है।
जहांवि पदा नहीं है। वहांकेवल सपं दा ही है। वि पदा तो यहां हैऔर कि तनी भी वि पदा है? “पदं पदं पदं यद्वि पदां” या पग पग पर वि पदा है, सकं ट है।
लोकनाथ गोस्वामी नेप्राधान्य दि ए प्रचार को और अपनेइकलौतेशि ष्य को भेज दि ए यहांमत रहो जाओ !
प्रचार करो । चतै न्य महाप्रभुके शि ष्य लोकनाथ गोस्वामी उनको कहा था कि तमु वदंृावन मेंरहो, वदंृावन मत छोड़ो तो लोकनाथ गोस्वामी अपनेशि ष्य को आदेश देरहेहैंवदंृावन मेंमत रहो वदंृावन छोड़ो । वदंृावन को मत छोड़ो लोकनाथ गोस्वामी को आदेश लेकि न लोकनाथ गोस्वामी कह रहेहैंवदंृावन मेंमत रहो जाओ प्रचार करो । हरि हरि !! यहा लोकनाथ गोस्वामी शि ष्य नरोत्तम दास ठाकुर वह भी हैभगवान के एक परी कर ही हैतो
यहांआकर इस धरातल पर भगवान के प्रकट लीला मेंयह अलग-अलग भमिूमिका नि भातेहैं। एक परीकर बन जाता हैगरुु और दसू रा परीकर बन जाता हैशि ष्य । फि र आदर्श गरुु तो आदर्श शि ष्य और फि र हम सभी के समक्ष वह भी आदर्श । गरुु बनना हैतो लोक गोस्वामी जसै ेगरुु बनो । शि ष्य बनना हैतो नरोत्तम दास ठाकुर जसै ेशि ष्य बनो । इसी के साथ यह परी कर यह साधुक्या करतेहैं?
धर्म-र्मस्थापन-हेतुसाधरु व्यवहार ।
परुी-गोसाञि र य्रेआचरण, सेई धर्म सार ॥
( चतै न्य चरि तामतृ मध्यलीला 17.185 )
अनवु ाद:- भक्त के आचरण सेधर्म के वास्तवि क प्रयोजन की स्थापना होती है। माधवेन्द्र परुी गोस्वामी का आचरण ऐसेधर्मों का सार है।
अपनेव्यवहारों सेधर्म की स्थापना करतेहैं। नरोत्तम दास ठाकुर के लि ए उनके अपनेगरुु लोकनाथ
..”लोकनाथ ्लोकेर जीवन” हम जो प्रति दि न गरुु पजू ा मेंजो गीत गातेहैंश्रील प्रभपु ाद पजू ा मेंजो गीत गातेहैं
यह हम सब शि ष्य बन के गीत गातेहैंयह गीत कि सकी रचना है? वह नरोत्तम दास ठाकुर की रचना है।
लोकनाथ गोस्वामी के शि ष्य नरोत्तम दास ठाकुर ऐसेगीत लि खेजि समेंअपनेगरुु की गाथा कहो या गरुु का
महि मा वह गाऐं हैं। मैंसोच रहा था कि एक बार हम लोग उसको पढ़ लेतेहैंजल्दी से। ऐसी समझ हैनरोत्तम
दास ठाकुर की जो सही समझ हैगरुु के सबं धं में।
( श्री गरुुवन्दना )
श्रीगरुु-चरण-पद्म केवल-भकति -सद्म
बदं ॊ मइु सावधान मते।
अनवु ाद:- हेमेरेभाई ! गरुुदेव के चरण कमल ही शद्ुध भक्ति के एकमात्र धाम है। मैंउनके चरणकमलों में
अत्यतं सतर्कता एवं ध्यान पर्वूकर्व नतमस्तक होता हूं ।
जो गीत 500 वर्ष पर्वू र्वलि खेंनरोत्तम दास ठाकुर अब यह गीत आज भी बताया जा रहा हैऔर यह गीत अब
वि श्व प्रसि द्ध गीत इस्कॉन के हर मदिं दिर मेंइसको हम गातेहैंऔर एक दि न तो यह गीत गाया जाएगा हर
नगर मेंहर गांव में। जि ससेकृष्ण भावना आदं ोलन कहो ।
पथ्ृवीतेआछेयत नगर आदी ग्राम ।
सर्वत्रर्व प्रचार होइबेमोर नाम ॥
( चतै न्य भागवत्अत्ं यखडं 4.126 )
अनवु ाद:- इस पथ्ृवी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम मेंमेरेनाम का प्रचार होगा ।
नाम का प्रचार होगा हर नगर मेंहर ग्राम में।
हरेकृष्ण हरेकृष्ण कृष्ण कृष्ण हरेहरे।
हरेराम हरेराम राम राम हरेहरे॥
का कीर्तनर्त होगा हर नगर और हर ग्राम में। तब हम आराम सेकह सकतेहैंउन सभी नगरों मेंसभी ग्रामों मेंयह नरोत्तम दास ठाकुर लि खि त श्रीगरुु वदं ना यह गीत भी वहांवहांपर गाया जाएगा । अभी यक्रूेन में रशि या मेंथाईलडैं मेंमॉरीशस मेंनेपाल मेंसभी जगहों सेअतं रराष्ट्रीय कृष्णभावनामतृ सघं जहां-जहांपहुंची है वहांवहांयह नरोत्तम दास ठाकुर का गीत जि समेंहमनेगरुु का गणु गान गा रहेहैं। महि मा लि खेहैं
…”श्रीगरुुचरण-पद्म” श्रीगरुु के चरण पद्म , चरण कमल ” केवल-भकति -सद्म” यह भक्ति कासगम है, भक्ति का साधन हैस्रोत है”बन्दो मइु सावधान मत”े आराधना वदं ना हमें”बन्दो” वदं ना सावधान होके हमेंगरुु की वदं ना करनी चाहि ए । वेकर रहेहैंऐसा वह लि खेहैं। “बन्दो मइु” मतलब मैंयानी आमी बांग्ला में। भक्त वसै ेगलती सेमन्ुनी मन्ुनी कहतेहैंक्योंकि उसमेंजब लि खा जाता हैतो उसमें ‘ एन’्( N ) आ जाता हैएन,्य(ू U ) diacritic ( वि शषे क ) हम समझतेनहींतो मइु मतलब आमी ,में। मैंवदं ना करता हूं ,मन्ुनी का कोई सबं धं नहीं हैकुछ भक्त कहतेहैं। यह उच्चारण का सधु ार है।
य़ाँहार प्रसादेभाइ, ए भव तरि या य़ाइ,
कृष्ण प्राप्ति हय य़ाहा ह’ ते॥ 1 ॥
अनवु ाद:- उनकी कृपा सेहम भौति क महासागर को पार कर सकतेहैंतथा कृष्ण को प्राप्त कर सकतेहैं।
तो इनका प्रसाद कृपा प्रसाद प्राप्त होगा तो “ए भव तरि या य़ाइ” जि स भवसागर मेंहम अभय , हम लोग तर जाएंगे। और क्या होगा ? “कृष्ण प्राप्ति य़ाहा ह’ त”े
यस्य प्रसादाद् भगवत-्प्रसादो
यस्या प्रसादान्न गति ः कुतोऽपि ।
ध्यायन्स्तवुमं ्तस्य यशस ्त्रि – सन्ध्यं
वन्देगरुोः श्रीचरणारवि न्दम ्॥ 8 ॥
( श्री श्रीगर्वु ष्र्व टक )
अनवु ाद:- श्री गरुुदेव की कृपा सेभगवान श्री कृष्ण का आशीर्वा द प्राप्त होता है। श्री गरुुदेव की कृपा के बि ना कोई प्रगति नहींकर सकता । आतेही मझु ेसदैव श्री गरुुदेव का स्मरण व गणु गान करना चाहि ए । दि न मेंकम सेकम तीन बार मझु ेश्री गरुुदेव के चरणकमलों मेंसादर नमस्कार करना चाहि ए ।
तो वहांवि श्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर गर्वु ष्र्व टक में, गर्वु ष्र्व टक हैमगं ल आरती मेंइसको गातेतो वही बात नरोत्तम दास ठाकुर अपनेशब्दों मेंयहांलि खेहैं”य़ाँहार प्रसादेभाइ, ए भव तरि या य़ाइ” और “कृष्ण प्राप्ति हय य़ाहा ह’
त”े ।
गरुु-मखु -पद्म वाक्य, चि त्तेतेकरि या ऐक्य, आर ना करि ह मनेआशा ।
अनवु ाद:- उनके मखु कमल सेनि कलेहुए शब्दों को अपनेहृदय मेंपर्णू तर्ण या समा लो और इसके अलावा अन्य कि सी वस्तुकी इच्छा ना करो ।
तो “गरुु-मखु -पद्म वाक्य” गरुु के मखु ारवि दं सेनि कलेहुए वाक्य बच्चन आदेश उपदेश “चि त्तेतेकरि या ऐक्य” हमारेचि त्में”ऐक्य” उत्पन्न करतेहैं।
व्यवसायात्मि का बद्ुधि रेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बद्ुधयोऽव्यवसायि नाम ्॥
( भगवद् गीता 2.41 )
अनवु ाद:- जो इस मार्ग पर (चलत)े हैंवेप्रयोजन मेंदृढ़ रहतेहैंऔर उनका लक्ष्य भी एक होता है। हे कुरुनन्दन! जो दृढ़प्रति ज्ञ नहीं हैउनकी बद्ुधि अनेक शाखाओंमेंवि भक्त रहती है।
नहींतो कई सारी वि चार कई सारी दि शा we all over spaced out इसको कहतेहैं। “ऐक्य” हमारेवि चार में “ऐक्य” focused (ध्यान केंद्रि त) हम बनेंगे। गरुु के मखु के “आर ना करि ह मनेआशा” और कोई आशा नहीं। श्रील प्रभपु ाद एक समय मेंमझु ेप्रभपु ाद कहेबॉम्बेमेंमबंु ई, मैंऔर प्रभपु ाद थेप्रभपु ाद लेटेथेअस्वस्थ थेतो उस समय के एक सवं ाद मेंप्रभपु ाद मझु ेकहे”आर ना करि ह मनेआशा” ।
श्रीगरुु – चरणेरति , एइ सेउत्तम – गति ,
य़ेप्रसादेपरूेसर्व आशा ॥ 2 ॥
अनवु ाद:- गरुु के चरणकमलों मेंअनरुाग अध्यात्मि क प्रगति का सर्वश्रर्व ेष्ठ साधन है। उनकी कृपा से आध्यात्मि क सि द्धि के समस्त मनोरथ पर्णू र्णहोतेहैं।
श्री गरुु के चरणों में”रति ” रति समझतेहो आसक्ति और यही है”उत्तम गति ” गति मतलब वेग या स्पीड भी होता है। गति का एक अर्थ गतं व्य स्थान लि या destination भी होता हैतो यहांलि ख रहेहैं”श्रीगरुु-चरणे रति , एइ सेउत्तम-गति ” श्रीगरुु चरणों मेंरति हेउत्तम गति । जा जा कर कहांजाना हैश्रीगरुु के चरणों मेंजाना हैतो वह भी एक गति हैलेकि न वहांपहुंचनेपर वह चरण हमको पहुंचा देंगेकृष्ण के पास या भगवत धाम
लौटाएंगेऔर वह हैउत्तम गति ।
“य़ेप्रसादेपरूेसर्व आशा” और हमारी सारी आशा पर्णू र्णहोगी ।
वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सि धं भ्ुय एव च ।
पति तानाम ्पावनेभ्यो वष्ैणवेभ्यो नमो नमः ॥
( श्री वष्ैणव प्रणाम )
अनवु ाद:- मैंभगवान के समस्त वष्ैणव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूं । वेकल्पवक्षृ के समान सबो की
इच्छाएंपर्णू र्णकरनेमेंतथा पति त जीव आत्माओंके प्रति अत्यतं दयालुहैं।
गरुु के चरण “वाञ्छा कल्पतरु” है। “य़ेप्रसादेपरूेसर्व आशा” ।
चक्षु- दान दि लो येइ , जन्मेजन्मेप्रभुसेइ ,
दि व्य – ज्ञान हृदेप्रकाशि त ।
अनवु ाद:- जि न्होंनेमेरी बदं आखं ों को दि व्य दृष्टि दी हैवेजन्म जन्मांतर रोहतक मेरेप्रभुहै। उनकी कृपा से,
हृदय मेंदि व्य ज्ञान प्रकट होता है।
तो “चक्षु- दान” गरुु क्या करतेहैं”चक्षु- दान” देतेहैं। कि स का दान देतेहैं? “चक्षु- दान” । आखं ों का
ऑपरेशन करतेहैं।
ॐ अज्ञानति मि रांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुर्उन्मीलि तंयेन तस्मैश्रीगरुवेनमः ॥
( श्री गरुु प्रणाम मत्रं )
अनवु ाद:- मैंघर अज्ञान के अधं कार मेंउत्पन्न हुआ था और मेरेगरुु नेअपनेज्ञान रूपी प्रकाश सेमेरी आखं ें खोल दीं । मैंउन्हेंसादर नमस्कार करता हूं ।
यह करतेहैं। और उसी के साथ यह “दि व्य-ज्ञान हृदेप्रकाशि त” दि व्य ज्ञान हृदय प्रांगण मेंप्रकाशि त होता है।
“जन्मेजन्मेप्रभुसेइ ,” तो ऐसेगरुु के चरणों की हम सदैव सेवा करेंया मैंकरना चाहता हूं वसै ेनरोत्तम दास
ठाकुर अपने,वेपहलेव्यक्ति हैंजो लि ख रहेहैं.. I
प्रेम – भक्ति याहा होइते, अवि द्या वि नाश याते,
वेदेगाय याँहार चरि त ॥ 3 ॥
अनवु ाद:- जि ससेप्रेमा भक्ति का वरदान मि लता हैऔर अवि द्या का नाश होता है। वदिैदिक शास्त्र उनके चरि त्र का गान करतेहैं।
हो गया “चक्षुदान” आखं ेंदी, दि व्य दृष्टि दी । गरुु नेआखं ेंहमारी खोली अतं ः चक्षुअतं ः करण मेंआत्मा की आखं ें। ना कि यह चर्म चक्षुनहीं । दि व्य चक्षुजब दि ए तो उसी के साथ “प्रेम – भक्ति याहा होइत”े प्रेम भक्ति का मार्ग उन्होंनेदि खाया प्रेम भक्ति दी या फि र सि खाएंयह साधन भक्ति हैयह प्रेम भक्ति हैयह भाव भक्ति हैयह सब ज्ञान दि या और हमनेउस साधना मेंसि द्ध हुए तो प्रेम भक्ति प्राप्ति उसी के साथ “अवि द्या वि नाश यात”े वि द्या अवि द्या का नाश हुआ ।
कृष्ण-सर्य़ू़
-र्य़सम;माया हय अन्धकार ।
य़ाहाँकृष्ण, ताहाँनाहि मायार अधि कार ॥
( चतै न्य-चरि तामतृ मध्यलीला, 22.31)
अनवु ाद:- कृष्ण सर्यू र्यके समान हैंऔर माया अधं कार के समान हैं। जहांँकहींसर्यू प्रर्य काश हैवहांँअधं कार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामतृ नाता है, त्योंही माया का अधं कार (बहि रंगा शक्ति का प्रभाव) तरुंत नष्ट हो जाता हैं।
“य़ाहाँकृष्ण, ताहाँनाहि मायार अधि कार” यह दसू रा गीत है। आपके पास कृष्ण हैउस कृष्ण को आप दे सकतेहो तो ऐसेकृष्ण जब दि ए उसी के साथ सारी अवि द्या का नाश होता है। इस प्रकार “वेदेगाय याँहार चरि त ” गरुु की वदं ना गरुु का चरि त्र गरुु का महि मा सारेवेदों मेंगाया है।
श्रीगरुु करुणा – सि न्धुअधम जनार बन्धु, लोकनाथ लोकेर जीवन ।
अनवु ाद:- हेगरुुदेव, करुणा सि धं ुतथा प्रतीत आत्माओंके मि त्र ! आप प्रत्येक के गरुु एवंसभी लोगों के जीवन हैं।
“श्रीगरुु करुणा – सि न्ध”ु श्रीगरुु हैकरुणा के सागर और वह हम हमारेमेरेहेबधं ु”अधम जनार बन्ध”ु जो अधम जन हैहम अधम है”अधम जनार बन्ध”ु वह हैकरुणा सि धं ुगरुु हैकरुणा सि धं ुऔर हम जसै ेजनों के अधम जनों के वेहेबधं ु। हम हैंअधम ,अधम जनों के वह हैबधं ुवेकरुणा सि धं ु। और वह हैंलोकनाथ गोस्वामी । नरोत्तम दास ठाकुर के गरुु “लोकनाथ लोकेर जीवन ।” और वह कह रहेहैंकि लोकनाथ गोस्वामी लोकेर जीवन । सभी लोगों के जीवन है। या वेसबको जीवन देसकतेहैंनहींतो हम मतृ प्राय हैं। हमारेहुए हैं। जड़ बन चकुे हैंहम मेंजान डाल सकतेहैं। हमारेचेतना को जागतृ कर सकतेहैं। हम मेंचतै न्य ला सकतेहैंतो ऐसे हैं “लोकनाथ लोकेर जीवन” ।
हा हा प्रभुकर दया , देहो मोरेपद – छाया ,
एबेयश घषुकु त्रि भवुन ॥४ ॥
अनवु ाद:- हेगरुुदेव ! मझु पर दया कीजि ए तथा मझु ेअपनेचरणों की छाया दीजि ए । आपका यह तीनों लोकों मेंघोषि त हो ।
तो पनु ः यह अतिं तिम पक्तिं क्ति भी है, इस गीत की इस गरुु वदं ना की । जि समेंसबं ोधि त कर रहेहैंनरोत्तम दास ठाकुर लोकनाथ गोस्वामी को सबं ोधि त कर रहेहैं”हा हा प्रभुकर दया” मझु पर दया कृपा कीजि ए । “देहो मोरे पद – छाया” और आपके चरणों की छाया दीजि ए । “एबेयश घषुकु त्रि भवुन” और आपका यस तीनों लोकों में फैले। फैला हुआ है, फैलाना चाहतेहैं”एबेयश घषुकु त्रि भवुन” । हरि हरि !!
श्री लोकनाथ गोस्वामी प्रभपु ाद की जय !
और उसके साथ-साथ उनके आदर्श शि ष्य फि र भी परी कर रहेचतै न्य महाप्रभुके, कृष्ण के उनकी भी जय !
श्री नरोत्तम दास ठाकुर की जय !
गौर प्रेमानदं ेहरि हरि बोल !
॥ हरेकृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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