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जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
12 जूलाई 2021
हरे कृष्ण!
आशा है कि इसमें से एक लोकेशन जगन्नाथ पुरी धाम भी हैं,जगन्नाथ पुरी धाम की जय!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।जय अद्वैत चन्द्र जय गौरभक्तवृन्द।।
“जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी,नयनपथगामी भवतु मे।”
जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा महारानी कि जय…!
जगन्नाथ पुरी धाम कि जय…!
जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव कि जय…!
आप तैयार हो? हां! हां!कल मंदिर मार्जन किया? हां!अगर मंदिर मार्जन ही नहीं हुआ होता तो आप कैसे तैयार होते! गुंडींचा मंदिर मार्जन की जय..!
तो मंदिर मार्जन भी हो गया जगन्नाथपुरी में, गुंडींचा मंदिर जगन्नाथ के आगमन के लिए तैयार हैं और रथ तो कब से तैयार हो रहे थे।क्या आपको पता हैं कि जगन्नाथ,बलदेव,सुभद्रा के लिए अलग-अलग तीन प्रतिवर्ष नए रथ बनाए जाते हैं और ईनका उपयोग केवल एक ही बार होता हैं। एक ही रथयात्रा में।अगले साल नया रथ बनता हैं। ऐसे रथ भी जगन्नाथपुरी में तैयार हैं,और उसकी सजावट वगैरह हो गयी हैं।इन रथो को मेरु पर्वत जैसे कहा हैं, इतने उचें हैं यह रथ,यह रथ शोभायमान हैं। हरि हरि!
सभी स्थानों से भक्त भी पहुँच चुके हैं , बंगाल से शिवानंद सेन बंगाल के भक्तों को ले आते थें।शिवानंद सेन का आज तिरोभाव तिथि महोत्सव भीं हैं।रथयात्रा के दिन ही, और स्वरूप दामोदर गोस्वामी इनका भी आज तिरोभाव तिथि महोत्सव हैं। यह दोनों तिरोभाव अलग-अलग साल अलग-अलग स्थानों पर लेकिन रथयात्रा के दिन संपन्न हुए।शिवानंद सेन बहुत बड़ी संख्या में भक्तों को रथ यात्रा के लिए जगन्नाथपुरी ले आतें,जिसमें अद्वैताचार्य भी रहा करते थे। नित्यानंद प्रभु,श्रीवास और कई अन्य महानुभाव,सभी उनकी खूब सेवा करते थे। रास्ते में उनके आवास निवास,लॉजिंग- बोर्डिंग यह सब शिवानंद की जिम्मेदारी रहा करती थीं। हरि हरि!
एक वर्ष वैसे एक कुत्ते ने भी इस यात्रा में भाग लिया।हरि हरि! श्रील प्रभुपाद कहा करते थें कृष्णभावना में कोई भी भाग ले सकता हैं।
एक साल इस रथयात्रा में एक कुत्ते ने भाग लिया तो एक दिन कि बात हैं,शिवानंद सेन को यात्रियों के साथ पहुंचने में देरी हो गयी। वह चिंतित रहा करते थे कि उनकी अनुपस्थिति में वहा कैसी व्यवस्था हो रही हैं या हो ही नही रही हैं। उनको उस दिन कुत्ते कि याद आई। उन्होंने पूछा कि कुत्ते को प्रसाद खिलाया या नही?औरों कों तो खिलाया ही होगा, किसी ने जवाब नहीं दिया। वैसे कुत्ता उस दिन वहा नहीं था।हरि हरि! सभी ने कुत्ते को सर्वत्र खोजा कुत्ता नहीं मिला। शिवानंद सेन बहुत दुखी थें कि मैंने अपराध किया मैने कुत्ते को नहीं खिलाया और कुत्ता मिल भी नहीं रहा।उनके चरित्र के संबंध में यह विशेष घटना बतायीं जाती हैं। यात्रा जब जगन्नाथ पुरी में पहुँच गयी तो शिवानंद सेन ने देखा कि वह कुत्ता चैतन्य महाप्रभु के साथ था, और चैतन्य महाप्रभु स्वयं अपने हाथों से उस कुत्ते को प्रसाद खिला रहे थे और शिवानंद सेन ने वहां आकर कुत्ते को देखा और कुत्ते को दंडवत प्रणाम करके क्षमा याचना मांगी कि उस दिन मैंने तुमको प्रसाद नहीं खिलाया और तब शिवानंद सेन ने और सभी ने देखा कि कुत्ता चतुर्भुज रूप धारण करके वैकुंठ धाम के लिए प्रस्थान कर रहा हैं। हरि हरि! तो ऐसे थे शिवानंद सेन और ऐसा था उनका कुत्ता यात्री,जिन पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने विशेष कृपा की हरि हरि! और शिवानंद सेन के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का घनिष्ठ संबंध था, पारिवारिक संबंध था। उनके घर वालों के ऊपर भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विशेष कृपा किया करते थे। शिवानंद सेन के तीन पुत्र थे। उसमें से एक कविकर्णपुर नामक पुत्र पर चैतन्य महाप्रभु की विशेष कृपा थी और इसी कविकर्णपुर ने कई ग्रंथ लिखे हैं। गौरगणोदेशदीपिका नामक ग्रंथ कविकर्णपुर की ही रचना हैं। हरि हरि! ठीक हैं! समय बहुत कम हैं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कुछ विशेष परिकरो का आज तिरोभाव तिथि महोत्सव हैं। शिवानंद सेन का तो आज स्मरण करना अनिवार्य हैं। ऐसा मैंने सोचा था आज कुछ कहूंगा लेकिन समय बीत रहा हैं। हरि हरि! लेकिन हम समय का सही उपयोग तो कर रहे हैं,
और अब स्वरूप दामोदर गोस्वामी के बारे मे बता रहा हूं।इनका जन्म नवदीप मे हुआ था और यह चैतन्य महाप्रभु के बचपन के संगी-साथी थें। चैतन्य महाप्रभु ने जब सन्यास लिया तब स्वरूप दामोदर ने भी घर को त्याग दिया, वाराणसी गए और स्वयं सन्यासी बने।उनका नाम पुरुषोत्तम आचार्य था और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब दक्षिण भारत कि यात्रा करके पून: जगन्नाथपुरी लौटे तो उस समय यह पुरुषोत्तम आचार्य,जिनका नाम अब स्वरूप दामोदर होने वाला हैं,उनका स्वरूप नाम तो वाराणसी में पडा,उनका एक नाम स्वरूप हुआ करता था और चैतन्य महाप्रभु इनको दामोदर कहते थे,इस प्रकार उनका नाम हुआ स्वरूप दामोदर।तो यह वाराणसी से आकर चैतन्य महाप्रभु से जगन्नाथपुरी में मिले और फिर आज के दिन तक उन्हीं के साथ रहे। आज तिरोभाव तिथि महोत्सव हैं। वैसे यह चैतन्य महाप्रभु के अंतरंग भक्त थें। यह स्वयं ललिता थे और यह प्रसिद्ध गायक थें, मानो गंधर्व थें और ये विद्वान भी थे मानो बृहस्पति जैसे विद्वान थें। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सचिव के रूप में वह कई प्रकार से चैतन्य महाप्रभु कि व्यक्तिगत सेवा और विशेष सेवा किया करते थे।यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को चंडीदास इत्यादि जो कवि रहे या गीत गोविंद के जयदेव गोस्वामी का गीत यह स्वयं सुनाया करते थें और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के भावों कि पुष्टि भी किया करते थे। हरि हरि!जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को विरह कि व्यथा हो जाती थी तो उनको सांत्वना देने के लिए वहां स्वरूप दामोदर ही हुआ करते थें,और कई प्रकार कि सेवा, सांत्वना करते थें।फिर चैतन्य महाप्रभु के पास रहने के लिए रघुनाथ दास आ गए थे, तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा रघुनाथ दास का खयाल रखना। उनका मार्गदर्शन करो और वह वैसा ही कर रहे थे।तो इस तरह रघुनाथ दास प्रसिद्ध हुए।उनका दूसरा एक नाम हुआ, स्वरूपेर रघु। यह रघुनाथ कोन से हैं? स्वरूपेर रघु, स्वरूप दामोदर के रघुनाथ बन गए स्वरुपेर रघु। हरि हरि!
तो जब रथयात्रा में भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु विशेष नृत्य करने के इच्छुक रहते तो स्वरूप दामोदर को कहते तुम गांँओ और भी कुछ भक्तों को जोड़ देते और स्वरूप दामोदर गोस्वामी गां रहे हैं।गायन हो रहा हैं और चैतन्य महाप्रभु का उदंड नृत्य हो रहा हैं। हरि हरि!
या फिर रथ यात्रा के समय ही चैतन्य महाप्रभु ऐसे कुछ वचन कह रहे हैं। रथ यात्रा के समय चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में जगन्नाथ जी को कह रहे हैं,जो स्वय कृष्ण हैं। उनके साथ संवाद चल रहा हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसी कुछ गोपनीय बातें कह तो रहे हैं लेकिन किसी को समझ में नहीं आ रहा हैं। समझने वाले कुछ ही हैं। एक तो स्वरूप दामोदर गोस्वामी ही हैं और कभी-कभी रूप गोस्वामी। वह रथ यात्रा में सब समय नहीं रहा करते थे।वह तो वृंदावन में षट् गोस्वामी थे। लेकिन स्वरूप दामोदर तो हर रथ यात्रा में चैतन्य महाप्रभु के साथ रहा करते थे।केवल रथ यात्रा के समय ही नहीं, सभी समय । वैसे अहर्निश रात और दिन खासतौर पर रात भर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का साथ देने वाले यह स्वरूप दामोदर ही थें। संगीदामोदर ऐसा संगीत के शास्त्र कि रचना भी स्वरूप दामोदर ने की या कोई और भक्त भी कुछ अपनी कविता या कुछ अपना गद्य पद्य चैतन्य महाप्रभु को प्रस्तुत करना चाहते थें तो चैतन्य महाप्रभु का स्वरूप दामोदर को आदेश था कि पहले तुम देखो!
यह लोग कविता लिखते हैं और निबंध लिखते हैं और मुझे दिखाना चाहते हैं परंतु पहले तुम देखो।अगर यह सिद्धांत की दृष्टि से सही है तब मैं देखूंगा। तो यह स्वरूप दामोदर स्वामी
सावधानी से देखते और पढ़ते थे और फिर सही होता तो श्री चैतन्य महाप्रभु तक उस कविता या निबंध को या लेख को पहुंचा देते थे
नहीं तो वह कूड़ा करकट के डिब्बे में फेंक देते थे।तो यह स्वरूप दामोदर मानो दूसरे महाप्रभु ही थे,ऐसा भी इन के संबंध में कहा जाता हैं।शिव आनंद सेन बंगाल भर के भक्तों को ले आए हैं।
रथ भी तैयार हैं।गुंडींचा मार्जन भी हो चुका हैं और आज के दिन रथ यात्रा हैं। आज की बात कर रहे हैं तो संसार भर के भक्त,
भारत भर के भक्त रथ यात्रा के लिए पहुंच चुके हैं। जगन्नाथ पुरी धाम की जय!और चैतन्य महाप्रभु के समय तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी पहुंच जाते थे ऐसे उत्सव सभी को प्रिय होते हैं और यह जगन्नाथ रथ यात्रा महोत्सव श्री चैतन्य महाप्रभु को भी प्रिय या अधिक प्रिय था ।और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह कभी नहीं छोड़ा
या ऐसा कभी नही हुआ कि रथयात्रा महोत्सव में चैतन्य महाप्रभु सम्मिलित ना हो। वैसे भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो उस रथ यात्रा के केंद्र में थे। और चैतन्य महाप्रभु ने इस रथ यात्रा में सम्मिलित होकर
इस रथयात्रा की महिमा को बढ़ाया हैं।
और रथ यात्रा उत्सव के पीछे जो भाव हैं उसे भली-भांति समझने वाले गोडिय वैष्णव ही हैं। किस कारण से रथयात्रा महोत्सव का आयोजन होता हैं?इसके आयोजक,परयोजक या सम्मिलित होने वाले भक्त बृजवासी होते हैं या उनको ब्रज भाव में होना चाहिए।
यह जो नजरिया हैं, यह तो चैतन्य महाप्रभु और उनके अनुयाइयो या गोडिय वैष्णव संप्रदा के भक्तों का ही हैं।यह जो रहस्य हैं इसे वह ही समझ सकते हैं।या इसको जानते हैं।रथ यात्रा का प्रारंभ तो कुरुक्षेत्र से होता हैं। कुरुक्षेत्र में द्वारका वासी और द्वारकाधीश और बृजवासी और श्रीमती राधारानी का मिलन हुआ।उनका जो मिलन हुआ और ब्रज वासियों का प्रयास कृष्ण को ब्रज धाम ले आने का था।उस समय उनके जो भाव रहे या उनका जो उद्देश्य रहा वह पूरा नही हुआ।फिर मिलेंगे ऐसा कहा तो था लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
सभी बृजवासी कृष्ण को छोड़ने वाले नहीं थे।वह सब कृष्ण को वृंदावन ले आने वाले थे। हरि हरि!लेकिन इतिहास साक्षी हैं।
किसी ने मुझे प्रश्न पूछा था कि क्या बृजवासी, वृंदावन वासी भक्त कृष्ण को या द्वारकाधीश को जब कुरुक्षेत्र में मिले तो क्या कृष्ण उनके साथ गए? क्या वह बृजवासी उनको वृंदावन ले जाने में सफल हुए? तो उत्तर तो है कि वह उस समय नहीं गए,इसे चेतनयचरितामृत में दिया गया हैं।रथयात्रा का विवरण या चैतन्य महाप्रभु का रथ यात्रा के समक्ष आना और नृत्य करना श्री चैतन्य लीला में मध्य लीला का तेरवा अध्याय हैं।चेतनयचरितामृत मे रथ यात्रा का वर्णन हैं। तो वहां पर यह संवाद दिया हैं। श्रीमती राधा रानी और कृष्ण के मध्य का संवाद,जो संपन्न हुआ कुरुक्षेत्र में और श्रीमती राधारानी ने यह प्रस्ताव रखा था कि हम आपको ब्रज धाम मे देखना चाहते हैं। ब्रज धाम में हम लीला खेलना चाहते हैं। ऐसे यह संवाद यह घटना और यह लीला संपन्न हुई। द्वारका वासियो का और बृजवासियो के कुरुक्षेत्र में मिलन का विवरण श्रीमद्भागवत में भी है।श्री सुखदेव गोस्वामी ने इसे सुनाया हैं।
लेकिन यह जो श्रीमती राधा रानी और कृष्ण के मध्य का संवाद हैं यह अति गोपनीय हैं और इसे श्री चैतन्यचरितामृत में हम पढ़ सकते हैं और इसी के साथ यह चैतन्यचरित्रमितामृत बन जाता हैं पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्स। यह एडवांस स्टडी हैं।
तो इस शिक्षा के अनुसार हम समझते हैं की कुरुक्षेत्र से कृष्ण वृंदावन नहीं गए।उन्हें एक आश्वासन देकर पुनः द्वारका ही गए थे और एक वचन कि हां हां मैं वृंदावन धाम आऊंगा।बस अब कुछ ही दुष्ट बचे हैं जिनका मुझे संघार करना है और यह काम होते ही मैं आप लोगों के साथ ब्रज में रहूंगा। आपको मिलूंगा और मैं वृंदावन आऊंगा।
यह जो जगन्नाथ पुरी का मंदिर है यह द्वारिका है या यह कुरुक्षेत्र है और वहां पर रथ यात्रा में रथ को खींचने वाले जो भक्त है वह बृजवासी हैं या बृजवासी भक्तों जैसी भूमिका निभाने वाले हैं तो जो लीला पहले संपन्न नहीं हुई कुरुक्षेत्र से पहले भगवान वृंदावन नहीं गए आज के दिन कृष्ण बलदेव सुभद्रा वह तीनों जाएंगे आज ब्रजवासी वहां इकट्ठे हुए हैं सभी बृजवासी कृष्ण बलदेव सुभद्रा को रथ में विराजमान कराएंगे और ब्रजवासी रथ के घोड़े बनेंगे और रथ को खींचते हुए वह गुडींचा ले जाएंगे।यह गुंडीचा वृंदावन हैं और जगन्नाथ द्वारका हैं या कुरुक्षेत्र हैं।तो आज वह यात्रा या प्रवास या कृष्ण का वृंदावन में पुनरागमन हैं। ऐसे संकल्प के साथ आज वृंदावन वासी कह रहे हैं कि आज हम कृष्ण को ले आएंगे। ऐसे संकल्प के साथ आप भी पहुंच चुके हैं
ठीक हैं। तो अब 7:00 बज गये हैं और अब इसके आगे वाली बातें कि रथ यात्रा के मार्ग में क्या-क्या होगा इसका वर्णन भी हम आपको आज 8:00 बजे की भागवत कक्षा में सुनाएंगे।1 घंटे के बाद हम लोग पुनः मिलेंगे और पुनः पहुंच जाएंगे फिर जगन्नाथ पुरी धाम इस श्रवण कीर्तन और स्मरण के माध्यम से
श्री जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की जय!
श्री जगन्नाथ पुरी धाम की जय!
श्री जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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जप चर्चा,
पंढरपुर धाम,
11 जुलाई 2021
हमारे साथ 782 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद। कुछ इंटरनेट समस्या हो गया था। अभी ज्यादा भक्त नहीं जुड़ पाए हैं। मैं शुरू करता हूं। आज दो बातें महत्वपूर्ण है, 2 उत्सव है। आज एक नहीं दो उत्सव हैं। गुंडिचा मार्जन महोत्सव की जय। इतना तो आपने सोच कर रखा ही होगा। लेकिन उसके साथ ही साथ आज एक और भी उत्सव है और उसका नाम है नेत्र उत्सव। कल रथ उत्सव होगा। रथयात्रा महोत्सव की जय। कल रथ यात्रा होगी। उसके 1 दिन पहले यह नेत्र उत्सव और गुंडिचा मार्जन महोत्सव होता है। आप जानते ही हो या जगन्नाथ भावनामृत हो या कब से आपको जगन्नाथ भावनामृत बनाया जा रहा है। जगन्नाथ की स्नान यात्रा हुई।
भगवान अस्वस्थ थे और उनका आराम चल रहा था। उनका विशेष आहार योजना, भगवान एलोपैथिक गोली नहीं खाते। भगवान जूस वगैरा पी रहे थे। भगवान के विग्रह का निर्माण कहो या सुधार कहो या पेंटिंग भी कहो, यह सब किया जाता है। उसको अनावसर उत्सव कहते हैं। स्नान यात्रा से आज नेत्र उत्सव के दिन तक यानी अनावसर उत्सव के दिन तक मनाया जाता है। यह नाम अनावसर सुनने में और समझने में कठिन है। कल भगवान को नव यौवन वेश पहनाया गया। भगवान को पुनः नवीन और जवान बनाया गया। जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की जय हो। आज वह तैयार हैं। कई सारे भक्त वहां पर लाखों की संख्या में पहुंच चुके हैं। हम अभागी हैं और हमारा दुर्देव है कि हम यहीं बैठे रहे। ऑस्ट्रेलिया में, मॉरीशस में, बेंगलुरु में और हम नहीं पहुंच पाए। जगन्नाथ पुरी धाम की जय। तो मैं वैसे पहुंचा था। पूरी कहानी तो नहीं बताऊंगा।
1977 में आज के दिन, नेत्र उत्सव के दिन जीवन में पहली बार जगन्नाथ पुरी पहुंचा था और मैं जगन्नाथ स्वामी के दर्शन के लिए इतना उत्कंठतित था। सिंह द्वार से मैंने प्रवेश किया और मेरे साथ कुछ भक्त वृंद भी थे। वह जो दिन था, मेरे लिए अस्मरणीय था। 1977 में वह नेत्रों उत्सव का दिन, ऐसा दिन रहा जिसको मै भूल नहीं सकता। आप पहले सुन चुके हो या यह सब बताने के लिए समय नहीं है। पंडाओ ने मुझको और हमारे दल को रोका और कहा कि तुम इस्कॉन के हो? हमने कहा हां। तो वह पंडा मुझे कहे कि तुम ईसाई थे और इस्कॉन वालो ने तुम्हारा धर्मांतर किया है। तुम जन्म से हिंदू नहीं हो। तुम यहां से निकल जाओ। हम आसानी से नहीं निकल रहे थे, संघर्ष खूब चलता रहा। लेकिन उसमे पंडा ही जीत गए। बड़े मोटे पंडा थे और हम लोग तपस्वी पतले दुबले, थोड़े कमजोर ही थे। तो उन्होंने हमको वस्तुत: उठाकर मंदिर के बाहर या सिंह द्वार के बाहर पटक तो नहीं दिया लेकिन वह रख तो दिया था। हरि हरि। फिर नौ दर्शन नेत्र उत्सव के दिन जीवन में पहली बार हम दर्शन के लिए गए। इन पंडाओं ने हमको दर्शन नहीं करने दिया। हरि हरि। लेकिन जब हम इन पांडाओ के साथ लड़ रहे थे, खींचातानी हो रही थी। तो एक भक्त तो रिक्षराज उनका नाम था। मेरे गुरु भ्राता थे और वह अमेरिका से थे। वह भी हमारे साथ थे।
लेकिन वह लड़ाई झगडे में नहीं फंसे। सारे पंडाओ की टीम हमारे साथ व्यस्त थी। हम को रोकने के लिए, हमको बाहर भेजने के लिए व्यस्त थे। रिक्षराज ने उसका फायदा उठाया और रिक्षराज प्रभु जगन्नाथ के दर्शन के लिए गए। वह जन्म से हिंदू नहीं थे। वह जन्म से ईसाई थे। उन्होंने बढ़िया से दर्शन किया। जब हमको पंडाओ ने बाहर रख दिया था। तो हम गिन रहे थे कि सब तो आ गए। लेकिन रिक्षराज को खोज रहे थे, रिक्षराज कहां है? हम जब उनको खोज रहे थे, इधर उधर देख रहे थे। इतने में रिक्षराज प्रभु मंदिर की ओर से बाहर आए और उन्होंने कहा कि उन्हें बहुत अच्छा दर्शन हुआ। उनको तो जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा का बहुत बढ़िया दर्शन हुआ। फिर हमने उन्हीं को गले लगाया क्योंकि वह दर्शन करके आए थे। रिक्षराज प्रभु ने कहा महाराज आपके लिए चरण तुलसी है। उनको जगन्नाथ के चरण की तुलसी भी मिली थी। अंदर वाले पंडाओ ने, इस ईसाई को दर्शन के साथ तुलसी पत्र दिया। लेकिन वह कौन होते हैं? जगन्नाथ ने उन पर उस वक्त कृपा की और अपने चरण की तुलसी उनको दी। हमने सोचा कि जगन्नाथ ने ही चरण की तुलसी रिक्षराज के साथ हमारे लिए भेजी। वह चरण तुलसी का स्पर्श भी और उसको हमने ग्रहण भी किया। उसे हम अपना समाधान मान लिए कि यही हमारे लिए आज जगन्नाथ का दर्शन या जगन्नाथ इसी रूप में, चरण तुलसी के रूप में हमको दर्शन दे रहे हैं। जब चरण तुलसी को ग्रहण किया, तब ऐसा समझे कि जगन्नाथ ने हम में प्रवेश किया और समाधान कर लिया। तो नेत्र उत्सव के साथ-साथ आज गुंडीचा मार्जन का उत्सव भी है।
जगन्नाथ मंदिर से गुंडीचा मंदिर 2 मील दूरी पर है और कल जगन्नाथ रथ में आरूढ़ होकर गुंडिचा मंदिर जाएंगे और वहीं पर एक सप्ताह के लिए रहेंगे। उस मंदिर को तैयार करना होता है और उसको सफाई करनी होती है। सफाई का कार्य आज होता है। गुंडीचा मार्जन वैसे गुंडिचा मंदिर ही कहिए, वही स्थान है जहां पर राजा इंद्रदुम्य जिन्होंने जगन्नाथ और जगन्नाथ मंदिर की स्थापना की थी और उनकी प्राण प्रतिष्ठा की थी। जब राजा इंद्रदुम्य ने सर्वप्रथम जगन्नाथपुरी पूरी आए थे, अब जहां गुंडिचा मंदिर है, उन्होंने वही पर अपना तंबू या डेरा डालकर रुके थे। वही उनका निवास स्थान बना था और फिर वही रहते थे। तो गुंडीचा राजा इंद्रदुम्य की रानी का नाम था इसीलिए मंदिर का नाम गुंडीचा मंदिर रखा गया। वहीं पर राजा के नाम से जगन्नाथपुरी में प्रसिद्ध नरेंद्र सरोवर है। सरोवर एक तालाब है। नरेंद्र मतलब नरो में इंद्र कौन? राजा इंद्रद्युम्न उनके नाम से ही प्रसिद्ध है नरेंद्र सरोवर। जगन्नाथ पुरी के तीर्थ यात्री नरेंद्र सरोवर में स्नान करते हैं। जो कि जगन्नाथ पुरी का विशेष तीर्थ है और फिर जगन्नाथ का दर्शन करते हैं। ऐसी परिपार्टी है। जगन्नाथ के लिए मंदिर को तैयार करना है, सफाई करनी है।
तो 500 वर्ष पूर्व स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस सफाई का कार्य करते थे और ऐसी चैतन्य महाप्रभु की तीव्र इच्छा रहती ही थी कि मैं सफाई करना चाहता हूं, मैं मंदिर साफ करूंगा। वहां के जो अधीक्षक सोचते थे कि यह आपके लिए नहीं है और मंदिर की सफाई, आप झाड़ू लगाओगे, नहीं नहीं। हरि हरि। लेकिन चैतन्य महाप्रभु वहां की सफाई करते थे। वहां के मंदिर के अधीक्षक सारी व्यवस्था करते थे। राजा प्रताप रुद्र का आदेश होता था। चैतन्य महाप्रभु सफाई करना चाहते हैं। तो सारी सुविधा उपलब्ध करो। चैतन्य महाप्रभु असंख्य परीकरो के साथ गुंडीचा मंदिर में जाकर आज के दिन सफाई करते हैं। वह पहले जगन्नाथ के दर्शन करते होंगे। नेत्र उत्सव हुआ यानी नेत्रों के लिए उत्सव हुआ। भगवान का दर्शन, जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु में अपने नैयनो को, नैयनो से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ का दर्शन करते थे और नेत्र उत्सव होता था। फिर गुंडिचा मंदिर के लिए प्रस्थान करते और वहां के सफाई का कार्य शुरू होता। सफाई का कार्य दिन भर चल रहा है। पहले झाड़ू से सफाई कर रहे हैं। सारा धूल कूड़ा करकट इकट्ठा किया जा रहा है ।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस सफाई के कार्य के संचालक बन जाते हैं और अलग-अलग स्थान, अलग-अलग भक्तों को, अपने परिकारो को देते है। तुम यहां पर तुम सफाई करो, तुम यहां पर तुम सफाई करो , तुम मंदिर के परिसर की सफाई करो, तुम यह कमरा साफ करो, तुम रसोई साफ करो। जहां पर कल भगवान का आगमन होगा और गुंडीचा मंदिर में जहां विराजमान होंगे वहां की वेदी, वहां ऑल्टर की सफाई का कार्य स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु किया करते थे। हरि हरि ! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु देखरेख भी करते थे। कौन कैसी सफाई कर रहा है। ऐसा थोड़ी करना होता है तुम मुझे झाड़ू दे दो। स्वयं चैतन्य महाप्रभु उनको सिखाते थे। ऐसे झाड़ू लगाना होता है। वह कहते थे कि अपना-अपना कचरा इकट्ठा करो। श्री चैतन्य महाप्रभु देखते किसने कितना किया। इसने कितना किया, उसने किसने किया। जिसने अधिक कूड़ा करकट का ढेर तैयार किया है उसको शाबाश कहते थे और जिसने कम करा, इसको दंड मिलना चाहिए। आज सब भक्तों को गुलाब जामुन खिलाओ।
यह तुम्हारी सजा है। तुमने धूल कूड़ा करकट थोड़ा ही इकट्ठा किया है, ज्यादा परिश्रम नहीं किया इसलिए तुम को दंड मिलेगा। झाड़ू से सफाई के उपरांत, पोछा लगाया जाता है। पूरे मंदिर में सर्वत्र पोछा लगाते हैं और फिर धीरे-धीरे सरोवर से जल लाया जा रहा है और जल सर्वत्र छिड़काया जा रहा है। मंदिर के फर्श पर, दीवार के ऊपर, छत के ऊपर, सर्वत्र और बाहर प्रांगण में जहां तहां पर जल छिड़काया जा रहा है। जल लाने के लिए कई भक्त जुटे हुए हैं। मंदिर के अधीक्षक ने मिट्टी के घड़े दिए हैं। जो तालाब में कोई घड़े को भरता है और बगल वाले भक्त को दे देता है और वह फिर अपने बगल वाले भक्त को और ऐसे करते करते, जो मंदिर में है या मंदिर के प्रांगण में है, वहां पर उस भक्त या परिकर को जल देते हैं। फिर उस जल का उपयोग किया जा रहा है। मंदिर मार्जन के लिए, सफाई के लिए, घिस के सफाई हो रही है।
जल का उपयोग हो रहा है। यह सब जब जल लाने का कार्य हो रहा है और सफाई का भी कार्य हो रहा है। तब एक दूसरे के साथ कुछ बात करनी है, तो अधिक बोलते नहीं थे। चैतन्य चरितामृत में कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि बस कृष्ण कृष्ण। एक घड़ा ले लिया तो कृष्ण कृष्ण कहते हैं। घड़ा देना है तब कृष्ण कृष्ण बगल वाले को कहता हैं। कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण। यहां पर बोलने की आवश्यकता ही नहीं है। सारे संकेत या संपर्क केवल कृष्ण कृष्ण से हो रहा है। कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण। आप भी कह रहे हो? आप भी मानसिक धरातल पर कल्पना करो। आप भी सोचिए कि आप भी सफाई कर रहे हैं। इस वर्ष के पूर्व में भी आज के दिन जगन्नाथ पुरी में था ।
और नेत्रों उत्सव मैंने भी जगन्नाथ का दर्शन किया । कुछ साल पहले जब मैं गया था । नव कलेवर का वर्ष था । समझते हो नव कलेवर ? हर 12 वर्षों के उपरांत जगन्नाथ का कलेवर मतलब विग्रह , नई मूर्ति तो नव कलेवर ‘कलेवर’ मतलब विग्रह रूप । तो मैं था । तो उस वर्ष तो मुझे पंडा ने कुछ बाहर फेंक नहीं दिया । बढ़िया से जगन्नाथ का दर्शन हुआ और हम गुंडिचा मंदिर भी गए थे और हमने भी गुंदीचा मार्जन किया । तो ऐसा सौभाग्य प्राप्त होता है जब जगन्नाथ पुरी पहुंचते हैं आज के दिन । तो वे तो दर्शन करते ही हैं , नेत्र उत्सव भी होता है और साथ ही साथ जो चाहते हैं सिर्फ हिंदू लोग वह गुंडिचा मंदिर में सफाई का कार्य भी करते हैं । विशेषतः जो गोड़िया वैष्णव है और भी लेकिन गोड़िया वैष्णव इस गुंडिचा मार्जन का महिमा कुछ अधिक जानते हैं । इसका अधिक आस्वादन करते हैं । क्योंकि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि प्रतिवर्ष यह लीला रही । वर्णन तो एक ही बार हुआ है मध्य-लीला में गुंदीचा मार्जन एक अध्याय है, परिच्छेद है । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब दक्षिण भारत के यात्रा करके जब चैतन्य महाप्रभु पहुंचे और वह जगन्नाथपुरी में है तो रथ यात्रा संपन्न हुई । चैतन्य महाप्रभु पहली बार रथयात्रा में भी थे और रथ यात्रा के 1 दिन पहले फिर गुंडिचा मार्जिन भी किए । वर्णन तो एक ही बार हुआ है लेकिन हमें समझना चाहिए कि चैतन्य महाप्रभु जितने वर्ष थे उन्होंने बिताए जगन्नाथपुरी में ,कितने वर्ष बिताए ? 18 साल रहे । हर साल आज के दिन चैतन्य महाप्रभु जरूर यह गुंडिचा मार्जन लीला खेले हैं तो गोड़िया वैष्णव इस लीला को बहुत पसंद करते हैं ।
तो चल रहा है कृष्ण कृष्ण ! कृष्ण कृष्ण ! यह जो जल का उपयोग किया जा रहा है मंदिर मार्जन के लिए ,तो कुछ भक्त क्या कर रहे हैं ? चैतन्य महाप्रभु की भी सहायता कर रहे हैं । चैतन्य महाप्रभु को भी जल चाहिए , ऑल्टर पर सफाई हो रही है । चैतन्य महाप्रभु स्वयं अपने हाथों से …
श्री विग्रहाराधन नित्य नाना
शृंगार-तन्मंदिर मार्जनादौ ।
युक्तस्य भक्तांश्च नियुंजतोऽपि
वंदे गुरोः श्री चरणारविंदं ॥ 3 ॥
अनुवाद:- श्री गुरुदेव मंदिर में श्री श्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में पोयम रत रहते हैं एवं अपने शिष्यों को भी पूजन, श्रृंगार तथा मंदिर के मार्जन में संलग्न करते हैं, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वंदना करता हूं ।
जगत्गुरु , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ‘कृष्णम वंदे जगदगुरुम’ । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ..
अष्टादश-वर्ष केवल नीलाचले स्थिति ।
आपनि आचरि’ जीवे शिखाइला भक्ति ॥
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 1.22 )
अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु अठारह वर्षों तक लगातार जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने अपने खुद के आचरण से सारे जीवों को भक्तियोग का उपदेश दिया।
अपने आचरण से सारे संसार को सिखाते हैं, शिक्षा देते हैं । मंदिर मार्जन, विग्रह आराधना “युक्तस्य भक्तांश्च” अपने भक्तों के साथ गुरुजन करते हैं । यहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आदि गुरु की भूमिका निभा रहे हैं । तो उनकी सहायता कर रहे हैं भक्त जल लाके । चैतन्य महाप्रभु ऑल्टर साफ कर रहे हैं ! और चैतन्य महाप्रभु साफ सफाई भी कर रहे हैं ऑल्टर पर भी , और स्थानों पर भी कर रहे हैं देखरेख भी कर रहे हैं और उनके द्वारा इतना सफाई का कार्य या क्षेत्र कहो और इतनी लगन से वह कर रहे हैं मंदिर का मार्जन मानो उस 100 भक्तों का कार्य अकेले कर रहे हैं । तो उनके कुछ भगवता का प्रदर्शन हो रहा है । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मंदिर मार्जन अतुलनीय है । गुणवत्ता के दृष्टि से भी और परी माणिक दृष्टि से भी उनके साथ कोई भी तुल्य नहीं हो सकता । चैतन्य महाप्रभु की कोई भी बराबरी नहीं कर पा रहा है । चैतन्य महाप्रभु यहां भी है वहां भी है देखरेख भी कर रहे हैं सफाई भी कर रहे हैं कितना सारा क्षेत्र उन्होंने आवरण कर लिये । तो कुछ भक्त जो जल ला रहे हैं और यह भी कहा है कि जल की भी इतनी जरूरत है कि कुछ तो तालाब से जल भर रहे थे उस घड़ो में ।
कुछ तो कुआं से , कुछ दूर गए थे एक कुआं मिला उनको कुआं से वह जल निकाल रहे थे । क्योंकि तालाब के तट पर किनारे इतने सारे भीड़ जल भरने, घड़े भरने वाले तो कुआं तक गए । जो भी पानी का स्रोत है वहां पहुंचकर वहां वहां से जल लाया जा रहा है । जो भक्त चैतन्य महाप्रभु तक जल पहुंचा रहे हैं उसमें से क्या करते हैं भक्त ? कुछ भक्त तो उनके चरणों पर ही धूल डाल रहा है । कोई सफाई हो रहा है वहां दे रहा तो कोई उनके सर्वांग पर जल का अभिषेक कर रहा है । वे इतने कृष्ण भावनामृत या गौरंग महाप्रभु भावनामृत है … ‘जेइ गोर सेइ कृष्ण सेइ जगन्नाथ’ यह भी उनका साक्षात्कार है । या सफाई करने वाले जो है यह गौरंग महाप्रभु तो जगन्नाथ ही है । जगन्नाथ हीं अपने खुद की सेवा में यह सफाई का कार्य कर रहे हैं । कल आने वाले हैं जगन्नाथ लेकिन आ गए जगन्नाथ । जगन्नाथ चैतन्य महाप्रभु है ।
तो कई सारे चतुर भक्त क्या कर रहे थे ? चैतन्य महाप्रभु के ऊपर ही जल डाल रहे थे । चैतन्य महाप्रभु के चरणों पर उनका पाद प्रक्षालन कर रहे थे । यह किसी ने देखा तो कोई आगे बढ़ा और उस जल को अपने अंजलि में इकट्ठा कर रहे हैं और भी थें थोड़ा दूर जाके उसका पान कर रहे हैं । इतने में दूसरा भाग आ गया एइ ! मुझे भी दो , मुझे भी चाहिए मुझे भी चाहिए तो भिक्षा मांग रहा है वह जल मुझे भी दे दो, मुझे भी चरणामृत दे दो । ऐसे भी कार्य हो रहे हैं ।
चैतन्य महाप्रभु ने एक समय दृष्टि दी की कोई ऐसा कार्य कर रहा है, उनके चरणों के ऊपर ही जल डाल रहा है तो अपने एक विशेष परीकरो को उन्होंने देखा , इस बात से चैतन्य महाप्रभु नाराज हुए क्या ? जगन्नाथ के ऑल्टर पर मेरा चरणों का जल ! मेरे चरणों को धो रहे हो ! तो चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर उनके जो सचिव है उनको बुलाया यह जो कौन है ? बदमाश ! कितना घोर अपराध कर रहा है ! इसको डांटों, पीटो !
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने भगवता को छुपाना चाहते हैं ।
पंच-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तरूप स्वरूपकं ।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकं ॥
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि-लीला 7.6 )
अनुवाद:- मैं उन भगवान् श्री कृष्ण को नमस्कार करता हूं जो भक्त, भक्तों के भक्त के विस्तार, भक्त के अवतार, शुद्ध भक्त और भक्त- शक्ति – इन पाँच रूपों में प्रकट हुए हैं ।
वह तो भक्त का रूप या भक्त बन के जगन्नाथ की आराधना कर रहे हैं । इसका प्रदर्शन करना वो करना चाहते हैं , इसको दर्शना चाहते हैं । लेकिन भक्त तो उनको पहचान ही लेते हैं । वह हे कौन ? वह है पूर्ण पुरुषोत्तम श्री भगवान । ” श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य ” यह भक्तों की समझ है । और गौरांग महाप्रभु तो और ही कुछ समझना चाहते हैं । ऐसा समाज शिक्षा देना चाहते हैं लेकिन वह भक्त वह पाठ उनको समझ में नहीं आता है । आता भी है नहीं भी आता है । इस प्रकार यह गुंडिचा मार्जन महोत्सव आज के दिन संपन्न होता है । और फिर यह भी कहा ही है कि; भक्त अनुभव करते हैं की मार्जन तो हुआ मंदिर का अपने हाथों से या सारे सर्वांग से/शरीर से , फिर भी है हाथ भी है मन भी है इस सबका उपयोग किया मंदिर मार्जन के लिए । इस का परिणाम फल क्या हुआ ?
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि जैसे मंदिर शीतल हुआ,स्वच्छ हुआ,चमक रहा था वैसे ही हुए सभी के मन भी । जो जो मंदिर मार्जन कर रहे थे करते हैं उनका मन भी स्वच्छ या चेतना भी …
चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं
श्रेयः कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् । आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति – पद पूर्णामृतास्वादन
सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥
(श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.12 )
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना ।
वहां पर हम मार्जन शब्द को सुनते हैं । चेतना के दर्पण का मार्जन , मन का मार्जन , “मन चंगा तो कठौती में गंगा” जो कहते हैं । तो मन भी स्वच्छ । मन भी शांत और शीतल, ठंडा दिमाग ठंडा जैसे मंदिर शीतल स्वच्छ साफ सुथरा मार्जन जो हुआ तो उसी के साथ ये सभी के दिल , मन , चेतना भी स्वच्छ हुई , साफ-सुथरी हुई । तो आप भी; आप जगन्नाथपुरी तो नहीं पहुंच रहे हो ! या पहुंचे तो होगे परंतु आप में से कुछ जगन्नाथ पुरी से भी जुड़े हुए हैं यह एक संभावना है । लेकिन आप जहां भी हो जगन्नाथपुरी में हो या जगन्नाथपुरी में है तो जगन्नाथ के दर्शन भी करो । नेत्रों उत्सव हुआ और गुंडिचा मार्जन करो । लेकिन जो वहां नहीं है वह अपने अपने मंदिरों का मार्जन करो । इस्कॉन के मंदिर मार्जन या फिर आपका घर एक मंदिर है ।
या अपने घर को एक मंदिर बनाओ ऐसा कई बार कहा जाता है तो बनाया होगा आपने अपने घर को एक मंदिर । बनाया है कि नहीं ? हां ? परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज भक्तों को संबोधित करते हुए मुंडी तो हिला रहे हो, उस मंदिर का मार्जन करो आज । और केवल मंदिर का ही मार्जन नहीं हुआ जैसे हम सुने हैं और पढ़ते हैं तो मंदिर का जो प्रांगण है उसका भी सर्वत्र जब मंदिर का जो परिसर है मंदिर के और जो कक्ष है जो भाग है रसोईघर के सहित उसकी भी सफाई तो आज थोड़ा कुछ महा मार्जन, मंदिर मार्जन योजना बनाओ । विशेष सफाई दिन, तो घर में या मंदिर में जितने भक्त हैं , ब्रह्मचारी, गृहस्थ, मंदिर के जो पूर्णकालिक भक्त वह मंदिर को साफ करें । जहां रहते हैं वहां भी आश्रम को साफ करें । प्रांगण को साफ करें । और गृहस्थ भी वैसा ही कुछ कर सकते हैं , हां ? ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक गृहस्थ भक्त को संबोधित करते हुए ) – गणेश एंड राखी और उनके सहित । तो यह आपके लिए घर के पाठ है । और यह सब करते समय कृष्ण कृष्ण ! कहो कृष्ण कृष्ण ! क्या कहोगे ? कृष्ण कृष्ण ! अब नहीं कह रहे हो तो उस वक्त क्या कहोगे ? कृष्ण कृष्ण ! कृष्ण कृष्ण कहो या …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
कहो या
जय जय जगन्नाथ शचीर नंदन
त्रिभुवने करे जार चरण वंदन ।।१ ।।
नीलाचले शंख – चक्र – गदा – पद्म – धर
नदिया नगरे दण्ड – कमण्डलु – कर ।।२ ।।
केह बोले पूरबे रावण बधिला
गोलोकेर वैभव लीला प्रकाश करिला ।।३ ।।
श्री – राधार भावे एवे गोरा अवतार
हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार ।।४ ।।
वासुदेव घोष बोले करि जोड हाथ
जेइ गौर सेइ कृष्ण सेइ जगन्नाथ ।।५ ।।
१. श्रीजगन्नाथ मिश्र और श्रीमती शचीदेवी के प्रिय पुत्र की जय हो ! सम्पूर्ण त्रिभुवन उनके चरणकमलों की वन्दना करता है ।
२. नीलाचल क्षेत्र में वे शंख , चक्र , गदा और कमलपुष्प धारण करते हैं , जबकि नदिया नगर में उन्होंने संन्यासी का त्रिदण्ड और कमण्डलु धारण किया हुआ है ।
३. कहा जाता है कि पूर्वकाल में श्रीरामचन्द्र भगवान् ने रावण का वध किया था और बाद में श्रीकृष्ण रूप में उन्होंने अपनी गोलोक लीलाओं के वैभव को प्रकट किया ।
४. अब वही भगवान् श्रीकृष्ण राधारानी के दिव्य भाव एवं अंगकान्ति के साथ श्रीगौरांग महाप्रभु के रूप में पुनः अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने चारों दिशाओं में “ हरे कृष्ण ” नाम का प्रचार किया है ।
५. अपने दोनों हाथों को जोड़ते हुए वासुदेव घोष कहते हैं , ” श्रीगौरांग महाप्रभु ही कृष्ण हैं और वे ही जगन्नाथ हैं । ”
ऐसे गीत भी गा सकते हो । “जेइ गौर सेइ कृष्ण सेइ जगन्नाथ” तो हाथ में काम सफाई का और मुख में नाम । भगवान का नाम लेते हुए नाम और काम फिर हमारा काम कृष्ण भावनामृत हो जाएगा । मुख में भी और मन में भी भगवान है । तिरुपुर सफाई मन भी साफ होगा, चेतना साफ होगी । और कृष्ण भावनामृत , जगन्नाथ भावनामृत बनने का आज हमें अवसर है । और इस प्रकार हम दूर होते हुए भी हम निकट पहुंच जाएंगे जगन्नाथ के निकट पहुंच जाएंगे या आपके सेवा भाव देखके जगन्नाथ आपको देखने आएंगे । हरि हरि !! ठीक है ।
॥हरे कृष्ण ॥
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
10 जुलाई 2021
हरे कृष्ण!!!
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर का तिरोभाव तिथि महोत्सव तो संपन्न हुआ किंतु हम ज्यादा कुछ बोल नहीं पाए इसलिए आज सोचा कि क्यों ना आज हम उनको याद करें। तत्पश्चात सोचा कि उन्होंने कई सारे गीत लिखे हैं। जैसा कि आप जानते हो भक्ति विनोद ठाकुर हमारे पूर्वज हैं। हमें अपने पूर्वजों को जानना चाहिए, उनको याद करना चाहिए। हम उनके ऋणी हैं। इसे ऋषि ऋण कहते हैं। जैसे मातृ ऋण होता है। समाज का ऋण होता है, वैसे ही ऋषि ऋण होता है। हम उनके कर्जदार हैं। हम श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के भी ऋणी हैं। उन्होंने कई सारे गीत लिखे हैं। भजनावली, गीतावली, शरणागति नामक ग्रंथ उनके गीतों के संग्रह है। वैसे हम अधिकतर इस्कॉन में उन्हीं के गीत गाते हैं अर्थात उनके ही रचित गीतों को हम गाते हैं। आप याद करो।
मैं नहीं कहूंगा कि हम कौन-कौन से गीत गाते हैं। जब कोई व्यक्ति गाता अथवा बोलता अथवा लिखता है, उसी से उस व्यक्ति की पहचान हो जाती है। श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे, यदि किसी को माइक्रोफोन दे दो व उसको बोलने दो तब उसके मुंह खोलते अथवा बोलते ही पता चलेगा कि वह कौन है। मूर्ख नंबर एक है या कुछ ज्ञानवान है। उसके व्यक्तित्व, उसके चरित्र की असली पहचान तो उसकी वाणी से होती है। वह क्या गाता है, वह क्या बोलता है, वह क्या लिखता है। हरि! हरि!
भक्ति विनोद ठाकुर को जज करने वाले हम कौन से जज हैं। किंतु वे हमारे एक प्रामाणिक पूर्व आचार्य हैं। हम उनके गीत भी गाते हैं, उनके भजन भी गाते हैं।
उन गीतों में से एक
*(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी। (जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥*
*(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन। (जय) यमुनातीर वनचारी॥*
अर्थ: वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।
भक्तिगीत संचयन,जोकि मायापुर से प्रकाशित बांग्ला भाषा ग्रंथ है, उसमें यह भक्ति विनोद ठाकुर के गीत है। मैं थोड़ा देख रहा था- तब मुझे यह गीत भी मिला। वैसे भक्ति विनोद ठाकुर का छोटे-छोटे गीतों का गीतावली नामक संग्रह है। गीतावली अर्थात गीतों की पंक्ति अर्थात गीतों का संग्रह। जैसे दीपावली – दीपों की आवली होती है। वैसे ही इस गीतावली में उन्हीं के गीत हैं। प्रभुपाद जिसे गाए बिना कथा करते ही नहीं थे अर्थात यह गाए बिना वे आगे बोलते ही नहीं थे।
(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन।
(जय) यमुनातीर वनचारी॥।।
यह भी श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित गीत है। उन्होंने सौ से भी अधिक गीत लिखे। अंदर जो है या जो दिमाग में है- वही व्यक्ति बोलता है लिखता है। भक्ति विनोद ठाकुर के इन गीतों के विषय में श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि यह वेदवाणी ही है। वेदवाणी संस्कृत भाषा में है लेकिन उसको ओर थोड़ा सरल बना कर अर्थात जिस भाषा को हम भी समझते हैं अथवा लोक भाषा या चलती भाषा में लिखा है अर्थात आचार्यों ने अपने अपने स्थान की लोकल भाषा में लिखा है। जैसे महाराष्ट्र में तुकाराम महाराज ने मराठी में अभंग लिखे। सूरदास ने – अवधी भाषा में लिखा। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर व इत्यादि के भी कई सारे गौड़ीय गीत हैं, वे अधिकतर बांग्ला भाषा में ही हैं। यह सब आचार्यों के गीत हैं, यह गीत वेद तुल्य वचन हैं, वेदों की वाणी है। इन गीतों व भजनों के लिए हम श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के ऋणी हैं। कई कारणों के लिए हम भक्ति विनोद ठाकुर के ऋणी हैं। उनके ग्रंथ भी हैं, उन्होंने नवद्वीप धाम महात्म्य नामक ग्रंथ भी लिखा है। यह नवद्वीप मंडल परिक्रमा की गाइड पुस्तक है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के नवद्वीप महात्म्य का एक परिक्रमा खंड भी है, प्रमाण खण्ड। उसके बिना हम नवद्वीप मंडल परिक्रमा में एक भी पैर आगे नहीं रख सकते। वह नवद्वीप धाम महात्म्य श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की रचना है।
हरि हरि! हम लोग प्रतिदिन जप करते हैं । श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भी जप किया ही करते थे। वे गृहस्थ थे लेकिन 64 माला का जप करते थे। उनके 10 बच्चे भी थे। आप में किसी के 10 बच्चे हैं? कोई 10 बच्चे वाला है? नहीं। अब अष्ट पुत्र सौभाग्यवती का जमाना चला गया। पहले अष्ट पुत्र सौभाग्यवती भव, ऐसे आशीर्वाद मिलते थे। भक्ति विनोद ठाकुर के दस बालक बालिकाएं थी, इतना बड़ा परिवार था। वे जगन्नाथपुरी के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे। वे अंग्रेजों के जमाने के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे। ऐसी पदवी कुछ ही भारतीयों को मिलती थी। भक्ति विनोद ठाकुर का नाम केदार नाथ दत्त भी था। वे आगे भक्ति विनोद ठाकुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। वह जमाना भी देखिए, थोड़ा कठिन भी था।अंग्रेजों के साम्राज्य का पीक ओवर (उच्च समय) था। लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व 1838 में भक्ति विनोद ठाकुर का जन्म हुआ था। ऐसे कठिन काल में गुलाम थे। एक तरह से यह गुलामगिरी का समय था। ऐसे काल में श्रील भक्तिविनोद दुष्टों का संहार कर रहे हैं।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।* (श्रीमद भगवद्गीता ४.८)
अर्थ:भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
किसी ने घोषित किया कि मैं भगवान हूं। उन्होंने उसको गिरफ्तार किया। वे डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट भी थे।
विनाशाय च दुष्कृताम् किया और वह बेचारा जेल में ही मर गया। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने धर्म की स्थापना की और जगन्नाथ मंदिर के सारे कार्यभार अर्थात मंदिर की देखरेख रखना उनकी ही सेवा थी। भक्ति विनोद ठाकुर निश्चित ही जगन्नाथपुरी में रहा करते थे। उनकी जो डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की कोठी जोकि रथ यात्रा मार्ग पर है, वह आज भी है। वहां पर अब एक गौडीय मठ की स्थापना हो चुकी है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर वहां पर ही रहते थे। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का जन्म वहीं हुआ। ( मैं किसी क्रम से कुछ नहीं कह रहा हूं जो जो उमड़ कर आ रहा है, उसे कह ही रहा हूं।) श्रील भक्ति विनोद ठाकुर रिटायर होना चाहते थे- सेवानिवृत्त होकर बस नवद्वीप धाम में जाकर अपनी साधना भजन करना चाहते थे। वे सातवें गोस्वामी के रूप में प्रसिद्ध होने वाले थे। जैसे रूप सनातन भी रिटायर हुए। वे राजा हुसैन शाह के मंत्री थे। दबीर खास साकर मल्लिक रिटायर होकर चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन से जुड़ गए और वृंदावन पहुंच गए। वैसे ही श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भी मायापुर जाकर अब अपने धर्म की स्थापना करना चाह रहे थे।
लेकिन यह बड़े ही नामी जिलाधिकारी थे।
अंग्रेज सरकार उनको छोड़ना नहीं चाहती थी। वे रिटायर तो नहीं हो पाए किंतु उनको जगन्नाथ पुरी से नवद्वीप के पास जो कृष्णा नगर जिला है, वहां भेज दिया गया। वे वहां के भी जिलाधिकारी हुए किंतु श्रील भक्ति विनोद ठाकुर गोद्रुम द्वीप में रहने लगे जोकि नवद्वीपों में से एक द्वीप है। गोद्रुम द्वीप, शायद कल भी बताया ही था जो कि जालाघिं व सरस्वती नदी के तट पर ही है। वह उनका निवास स्थान बना। डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट भक्ति विनोद ठाकुर अथवा केदारनाथ दत्त, इतने महत्वपूर्ण थे कि अंग्रेज सरकार ने भक्ति विनोद ठाकुर की सुविधा के लिए एक रेल की व्यवस्था की। उनके घर के सामने ही वह रेलवे की पटरी है, जिससे भक्ति विनोद ठाकुर रेल से ही अपने निवास स्थान और कृष्णा नगर के मध्य की यात्रा किया करते थे। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने ही अपने गुरु महाराज, अपने शिक्षा गुरु जगन्नाथ दास बाबा जी की मदद से चैतन्य महाप्रभु का जो जन्म स्थान है, उसको निर्धारित किया। उस समय कहीं सारे मत मतान्तर थे, चैतन्य निमाई का जन्मस्थान कहां पर है, यहां वहां है- इस तट पर है, उस तट पर है, पूर्व में है, पश्चिम में है। गंगा के तट पर है। इस तरह पहले कई सारी विचारधाराएं थी लेकिन अब एक विचारधारा हो गई। जहां अब योगपीठ है, वह श्रील विनोद ठाकुर की ही देन है। जो यह संभ्रम उत्पन्न था, उसको श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने मिटाया। जन्म स्थान भी निर्धारित किया और वहां पर मंदिर की स्थापना भी की। वे कोलकाता में घर-घर जाकर सबसे एक रुपया लेते थे। केवल एक रुपया चाहिए। वे कहते थे कि आपका एक करोड़ या दस हज़ार नहीं चाहिए, मुझे सिर्फ एक रुपया चाहिए। वे अधिक से अधिक लोगों को अवसर देना चाहते थे। मंदिर के निर्माण का प्रारंभ भक्ति विनोद ठाकुर ने ही किया। आगे श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने उसका समापन किया। अब नवद्वीप में योगपीठ मंदिर है। हरि हरि!
(मैं तो यह कह रहा था कि नवद्वीप धाम ग्रंथ श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा लिखा गया है)। वृंदावन के 6 गोस्वामी हैं। उन्ही का समक्ष अथवा काउंटर पार्ट नवद्वीप में भक्ति विनोद ठाकुर बने। जो स्थान षड् गोस्वामी वृन्दों अर्थात जो कार्य षड् गोस्वामियों ने वृंदावन में किया, वह कार्य भक्ति विनोद ठाकुर ने नवद्वीप धाम में किया। उन्होंने मंदिरों की स्थापना या ग्रंथों की रचना, प्रचार का कार्य आदि सब किया । उन्होंने गोद्रुम कल्पतवी नामक ग्रंथ की रचना की, उसी के साथ उन्होंने नामहट्ट की स्थापना की।
*नदिया-गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन। पातियाछे नाम-हट्ट जीवेर कारण॥1॥*
अर्थ:- भगवान् नित्यानंद, जो भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का वितरण करने के अधिकारी हैं, उन्होंने नदिया में, गोद्रुम द्वीप पर, जीवों के लाभ हेतु भगवान् के पवित्र नाम लेने का स्थान, नाम हट का प्रबन्ध किया है।
यह गीत भी भक्ति विनोद ठाकुर का है, इसमें वे लिखते हैं कि नित्यानंद प्रभु ने सभी जीवों के कल्याण के लिए नाम हट्ट प्रारंभ किया। चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुसार नित्यानंद प्रभु सारे भारत में प्रचार कार्य कर रहे थे, वही कार्य श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने नवद्वीप मायापुर अर्थात गोद्रुम द्वीप में पुनः प्रारंभ किया। उन्होंने गोद्रुम कल्पतवी नामक ग्रंथ में वे नामहट्ट का दृष्टिकोण, सारा उद्देश्य, सारी कार्ययोजना, आदि का विवरण दिया। उसकी मदद से हमारे जय पताका स्वामी महाराज ने नामहट्ट का प्रचार बंगाल, उड़ीसा भर में प्रारंभ किया। बड़ा ही यशस्वी सफल प्रयास रहा। सारे विश्व भर में नाम हट्ट फैल रहा है, नामहट्ट कहो या भक्ति वृक्ष कहो। यह सारा भक्तिविनोद ठाकुर का दृष्टिकोण अथवा योजना थी और है। उन्होंने जैव धर्म नामक ग्रंथ लिखा, जैव धर्म अर्थात जीव का धर्म। जो जीव का धर्म अर्थात धर्म के जो तत्व है। धर्मस्य तत्वं गुह्यं…
भक्तिविनोद ठाकुर के हृदय प्रांगण में धर्म के तत्व उदित हो रहे थे। उनको साक्षात्कार हो रहे थे। उन्होंने जैव धर्म नामक ग्रंथ में बड़े ही सुंदर, मनोरंजक पद्धति से गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत की स्थापना की है। हरि नाम चिंतामणि भक्तिविनोद ठाकुर का प्रसिद्ध ग्रंथ है। आप सभी को हरिनाम चिंतामणि का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। जिसमें उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तथा नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर के मध्य के संवाद की रचना की है व हरि नाम की महिमा के साथ साथ जो नाम अपराध होते हैं, उन नाम अपराधों को समझाया है। इसको कहते हैं – नाम अपराध, यह है नाम अपराध। हमें अपराधों को समझना चाहिए ताकि जिससे हम ज्ञान प्राप्त कर सकें कि यह नाम अपराध है फिर हम हरिनाम के विरूद्ध होने वाले अपराध को टाल सकेंगे। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर का हरि नाम चिंतामणि ग्रंथ काफी उपयोगी है। इस प्रकार उन्होंने लगभग एक सौ ग्रंथों की रचना की जो अधिकतर बांग्ला भाषा है लेकिन उन्होंने संस्कृत भाषा में भी ग्रंथ लिखे है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का जमाना ऐसा था कि जब सारे धर्म की इतनी ग्लानि हो चुकी थी कि श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को चैतन्य चरितामृत की प्रति बंगाल में प्राप्त नहीं हो रही थी। वे खूब खोज रहे थे, कहां मिलेगा- कहां है चैतन्य चरितामृत। बहुत प्रयास करने के उपरांत उनको सौभाग्य से उड़ीसा में एक चैतन्य चरितामृत की प्रति प्राप्त हुई। तत्पश्चात श्रील भक्ति विनोद ठाकुर चैतन्य चरितामृत पर एक भाष्य लिखा जिसका उन्होंने नाम अमृत प्रवाह भाष्य दिया। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी चैतन्य चरितामृत पर एक भाष्य लिखा। उन्होंने उसे अनु भाष्य नाम दिया। श्रील प्रभुपाद ने भी जब चैतन्य चरितामृत का अंग्रेजी में अनुवाद किया। जैसा कि उनको भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का आदेश हुआ था। ‘किताबें छापों,अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो’ प्रभुपाद ने भी अमृत प्रवाह भाष्य औऱ अनु भाष्य लिखा। उन्होंने चैतन्य चरितामृत के अध्यायों का जो सार है, या परिचय है, उसमें अमृत प्रवाह भाष्य के आधार पर लिखा है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के योगदान अथवा उनकी देन अथवा उन्होंने जो जो किया अथवा दिया, इस गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिए अर्थात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के लिए इसका व्याख्यान तो हम वैसे भी करने में समर्थ नहीं हैं। उन्होंने इतनी सारी बातें व इतने कार्य किए हैं, वे अनगिनत हैं। उनके कार्य अथवा सफल प्रयास रहे। वे पुस्तक प्रिंटिंग अथवा पुस्तक वितरण तथा विदेशों में भी अपने ग्रंथ भेज रहे थे। यह पुस्तक वितरण की जो स्पिरिट (आत्मा) है, श्रील प्रभुपाद जो पुस्तक वितरण करो, पुस्तक वितरण करो , पुस्तक वितरण करो- जो आदेश देते थे। जब 1896 में श्रील प्रभुपाद जन्में थे अर्थात जिस वर्ष श्रील प्रभुपाद यानि अभय का जन्म कोलकाता में हुआ। उसी वर्ष भक्ति विनोद ठाकुर अपने ग्रंथों को चैतन्य लाइफ एंड परसेप्ट नाम का एक छोटा ग्रंथ विदेशों में इधर उधर अर्थात कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि भेज रहे थे। ऐसा ग्रंथ वितरण का कार्य भी श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने ही प्रारंभ किया। हरि! हरि! क्या कहें, अब यह हरे कृष्ण आंदोलन सर्वत्र फैल रहा है। उन्होंने इसकी भविष्यवाणी भी की थी। चैतन्य महाप्रभु ने यह कहा ही था कि यह हरिनाम नगर आदि ग्राम में फैलेगा।
*पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत)
अर्थ:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव है, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने भी कहा था- एक समय आएगा, जब विदेश से जर्मनी, इंग्लैंड यहां, वहां के लोग भारत आएंगे और नवद्वीप पहुंचेंगे। भारतीयों व बांग्लाइयो के साथ एकत्रित होकर मिलजुलकर वे गाएगें। जय शचीनन्दन जय शचीनन्दन शचीनन्दन गौर हरि। गाइए। आप गा रहे हो? हमारे साथ यूक्रेन के भक्त हैं, अर्जुन है। अन्य भी देशों के भक्त हैं। भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा था कि विदेश के भक्त और भारत के भक्त इकट्ठे होकर गाएंगे। अगर हम आज गाते है, यह श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की भविष्यवाणी सच हो रही है। आज बर्मा, थाईलैंड से भक्त भी हैं, कुछ अफ्रीका से हैं, कुछ रशिया से हैं। कई सारे देशों के भक्त हमारे साथ हैं और वे सब गा रहे हैं, जय शचीनन्दन, जय शचीनन्दन,जय शचीनन्दन, जय शचीनन्दन गौर हरि ।।
हरे कृष्ण!!!
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
9 जुलाई 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण, आप सभी का स्वागत है। 902 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं। गुरु महाराज कांफ्रेंस में एक भक्तों को संबोधित करते हुए “आप लिख रहे हो” 902 स्थानों से भक्त हर जगह जप कर रहे हैं। भक्त सर्वत्र प्रचार कर रहे हैं। इस समय जप भी कर रहे हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
महामंत्र का प और कीर्तन और यह यज्ञ है। संकीर्तन यज्ञ हो रहा है। और उसमें आप भी उपस्थित और सम्मिलित हो रहे हैं। वह भी हररोज यह अच्छा समाचार है। और इसीसे हम श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को भी प्रसन्न कर पाएंगे और गदाधर पंडित को भी। आज श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का तिरोभाव महोत्सव है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर तिरोभाव महोत्सव की जय! और गदाधर पंडित का भी तिरोभाव महोत्सव है। गदाधर पंडित का तिरोभाव हुआ 1534 में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रवेश किए और अंतर्धान हुए। और उसके कुछ समय उपरांत ही गदाधर पंडित प्रभु भी नहीं रहे। वह भी अंतर्धान हुए आज के दिन। यह बात 1534 के बाद की है, श्रील गदाधर पंडित का तिरोभाव। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर 1914 में उनका तिरोभाव हुआ। नवद्वीप मायापुर में गोद्रुम में जालांगी जालांग्री कहना चाहिए था जालांगी कहते हैं जालांगी के तट पर स्वानंद सुखद कुंज नामक स्थान पर जहां भक्तिविनोद ठाकुर का निवास स्थान भी है। वहीं पर उनकी समाधि भी है। आज के दिन वहां पर श्रील भक्तिविनोद ठाकुरा समाधिस्थ हुए।
हरि हरि, तो पहले हम श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का संस्मरण करते हैं और फिर श्री गदाधर पंडित का। थोड़ा ही समय हमारे पास है, और बाद में कुछ घोषणा भी होने वाली है।
हरि हरि, एक तो हम गौड़िय वैष्णवो के साथ जोडकर हम गौड़िय वैष्णव के परंपरा या परिवार भी कह सकते हैं उसका अंग बने हैं। और यह गौरव और अभिमान की बात है कि हम भक्तिविनोद ठाकुर के कुछ लगते हैं। भक्तिविनोद ठाकुर के साथ हमारा कुछ संबंध है। हम संबंध स्थापित कर रहे हैं और साथ ही साथ गदाधर पंडित के साथ भी। भक्तिविनोद ठाकुर तो भक्त रहे। गौड़िय आचार्य रहे और गदाधर पंडित तो भगवान या भगवान की शक्ति में राधारानी ही थे।
एक होता है विष्णु तत्व राधारानी को आप जानते हो। वह राधारानी ही थे गदाधर पंडित। इतना कहने से बहुत कुछ समझ में आना चाहिए। गदाधर पंडित का महिमा महात्म्य। एक आचार्य भक्तिविनोद ठाकुर लेकिन वह भी एक मंजिरी थे, ऐसी मान्यता है। मंजिरी समझते हो गोपियों का एक प्रकार है। छोटी गोपिया जो और भी भोलेभाली होती हैं। ऐसी अनेक लीलाएं हैं जिन लीलाओं में सिर्फ कृष्ण ही है। गोपियों को उन्होंने कहा कि, आप जा सकते हो। लेकिन मंजिरीया तो रहेगी वहां। निकुंज में बिराजो घनश्याम राधे राधे। ऐसी कई लीलाए संपन्न होती है, जहां सिर्फ किशोर किशोरी रहते हैं और मंजिरीया रहती है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एक मंजिरी थे। कमल मंजिरी नामक मंजिरी थी। जो मंजिरीया राधारानी की सेवा करती है। सहायता करते हैं। राधाकृष्ण की सेवा करती है। लेकिन राधा के पक्ष की रहती है। राधा के पक्ष में रहती है। यह भी देखा जाता है कि, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का जहां निवासस्थान है और जहां समाधि भी है, वहा श्रील भक्तिविनोद ठाकुर आराधना करते थे गौर गदाधर की। हम लोग भी ज्यादातर गौर और निताई की आराधना करते हैं। गौरा निताई गौर निताई किंतु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के आराध्य देव या आराध्य विग्रह है गौर गदाधर। आज भी उधर गौर गदाधर है। उनकी आराधना होती है। गदाधर की आराधना किया करते थे, पूजा अर्चना किया करते थे, गौरांग के साथ। गदाधर मतलब क्या राधारनी। गौर निताई मतलब कृष्ण बलराम। गौर गदाधर मतलब राधाकृष्ण ही मान लो। गौर है कृष्ण और गदाधर है राधारानी। तो इनका यह जो भक्तिविनोद ठाकुर के स्वरूप काम है इसमें संकेत होता है। इन दोनों के आज हम तिरोभाव उत्सव मना रहे हैं गदाधर पंडित और श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का साल तो अलग अलग है। आपने ध्यान में रखा होगा ना, वह तो चैतन्य महाप्रभु के समय के हैं गदाधर पंडित।
पञ्च – तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्त – रूप – स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त – शक्तिकम्
मैं नमस्कार करता हूं। मैं नमस्कार सभी को करता हूं सभी को। जो पांच तत्व को नमस्कार करता हूं। उसमें से गदाधर जो भक्तशक्तिकम, भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त – शक्तिकम् गदाधर पंडित जो राधारानी है। पंचातत्व में राधारानी है गदाधर के रूप में। बामें गदाधर जब पंचतत्व की स्थापना होती है। प्राणप्रतिष्ठा होती हैं। हमारे मायापुर मंदिर में मध्य में है भक्तरूप गौर भगवान और बामें गदाधर बाए हाथ मे गदाधर है, जो राधारानी। ऐसा ही स्थान होता है ना राधाकृष्ण होते हैं। राधा बाय हाथ में होती हैं। तो यहां भी पंचतत्व हम देख सकते हैं, वही स्थान गदाधर पंडित वहीं उपस्थित रहते हैं। वहां गदाधर जहां चैतन्य महाप्रभु का निवास स्थान है। योगपीठ गौर गदाधर की आराधना होती है। वहां पर भी गौर गदाधर के विग्रह है। वहां पर यह दोनों साथ रहा करते थे, मित्र थे
गौरांग महाप्रभु और गदाधर पंडित। पंडित भी थे या मित्र पंडित है और सबसे अधिक समय तो वे गदाधर पंडित के साथ ही बिताया करते थे। स्कूल में भी साथ में जाते थे, खेलते भी साथ में, रहते भी साथ में। हरि हरि। राधा कृष्ण तो ऐसे साथ में नहीं रह सकते थे वृंदावन में। सिर्फ एकांत में ही वे साथ रह सकते थे। समाज में तो एक दूसरों के साथ नहीं रह सकते हैं। राधा और कृष्ण दोनों की युवक और युवती है, किशोर किशोरी है। तो समाज के कई सारे बंधन है। थोड़ा ही समय बिताते हैं साथ में और कोई विघ्न आ जाता है। फिर अलग हो जाते हैं और विरह की व्यथा से व्यथित हो जाते। ताकि जितना चाहे उतना समय गदाधर पंडित राधा रानी अब गदाधर पंडित के रूप में कृष्ण के साथ जो गौरांग है उनके साथ अपना समय बिता सकती हैं और कोई रोक टोंक नहीं है। वैसे इस बात को पसंद भी करती थी सची माता। तुम साथ में रहा करो, तुम साथ में रहा करो। तो मानो गौरांग महाप्रभु की छाया, व्यक्ति की छाया जैसे व्यक्ति जहां-जहां जाता है तो उसकी छाया भी जाती है। वैसे ही गदाधर पंडित साथ में ही रहा करते थे तो इस प्रकट लीला में। जो नित्य लीला में संभव नहीं है। राधा कृष्ण का सदैव साथ रहना, उठना बैठना, खेलना, यह सारी लीलाएं संपन्न करना। तो यहां प्रकट लीला में नवदीप मायापुर में साथ में रहने का उनको अवसर प्राप्त हुआ है।
हरि हरि। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब सन्यास ले कर पूरी गए थे तो वहां पर भी गदाधर पंडित पहुंच जाते हैं। चैतन्य महाप्रभु तो वहां रहने वाले थे ही जगन्नाथपुरी में ही अपने मध्य लीला के उपरांत। तो गदाधर पंडित भी वहां पहुंचे हैं और उनको क्षेत्र सन्यास भी दिया है। मतलब तुम छोड़ना नहीं इस पुरुषोत्तम क्षेत्र से बाहर तुम कही नहीं जाना। तुम यहीं रहो तो वे वही रहे सदा के लिए। चैतन्य महाप्रभु भी थे और गदाधर पंडित भी उसी धाम मे। चैतन्य महाप्रभु गंभीरा में हैं और गदाधर पंडित और टोटा गोपीनाथ मंदिर में। टोटा एक गार्डन और वहां के गोपीनाथ उनकी आराधना। चैतन्य महाप्रभु को यह विग्रह प्राप्त हुए गोपीनाथ के और चैतन्य महाप्रभु ने गदाधर पंडित को गोपीनाथ के विग्रह दिए। और कहां की इनकी आराधना करो। टोटा गोपीनाथ कि आराधना करते रहे गदाधर पंडित। फिर वहां पर भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पहुंच जाते थे प्रतिदिन गदाधर पंडित को मिलने जाते थे। और क्या करते हैं गदाधर पंडित से कथा सुनते। श्रीमद् भागवत की कथा सुनाते गदाधर पंडित। तो राधा रानी ही सुना रही है और सवांद हो रहा है गदाधर पंडित और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मध्य में टोटा गोपीनाथ मंदिर में। हरि हरि। तो फिर अब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अंतर्धान हुए। तो कहां अंतर्धान हुए? उनके आराध्य विग्रह गोपीनाथ मे ही प्रवेश किए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु 1534 में।
उसके उपरांत फिर गदाधर पंडित को जीना कठिन हुआ गौरांग महाप्रभु के बिना। तो क्रंदन करते रहे गदाधर पंडित। वैसे राधा रानी क्रंदन करती रहती है विरह में। तो वृद्धावस्था से और कमजोर हो रहे थे गदाधर पंडित। और गोपीनाथ… वैसे भी मैं भक्ति विनोद ठाकुर के संबंध में नहीं कह पाऊंगा। गदाधर पंडित की कथा हो रही है उनका संस्मरण हो रहा है। गोपीनाथ के विग्रह काफी ऊंचे थे और गदाधर पंडित वैसे भी बूढ़े हो रहे थे और उनका शरीर झुक रहा था कुछ इंद्रधनुष जैसा कहो। तो उनके लिए मुश्किल हो रहा था भगवान को मुकुट पहनाना उनके गले में माला अर्पित करना। गोपीनाथ जान गए गदाधर पंडित जो कठिनाई महसूस कर रहे थे उन्हीं के सेवा में। तो गोपीनाथ एक दिन या एक रात बैठ गए पद्मासन में बैठ गए, बैठ गए तो बैठ ही गए। अभी जो हम दर्शन करते हैं खड़े नहीं यह गोपीनाथ बैठे हुए हैं गोपीनाथ। श्रृंगार इस तरह से होता है शायद आपने ध्यान नहीं दिया होगा कभी आप गए हो तो। लेकिन बैठे हैं गोपीनाथ गदाधर पंडित के लिए वे बैठ गए। ताकि आराम से वे गोपीनाथ की आराधना, अभिषेक श्रृंगार, सेवा कर सकते थे। ठीक है, तो उन दिनों में श्रीनिवास आचार्य नाम सुने होंगे पूरा नाम है श्रीनिवास आचार्य।
चैतन्य महाप्रभु की वैसे अब लीला संपन्न हो रही थी, विद्यमान थे चैतन्य महाप्रभु। तो जाजीग्राम से बंगाल में एक स्थान है वहां से श्रीनिवास आचार्य प्रस्थान किए जगन्नाथ पुरी के लिए। और वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से मिलना चाहते थे दर्शन करना चाहते थे। लेकिन वे रास्ते में ही थे तब उनको समाचार मिला कि चैतन्य महाप्रभु गदाधर पंडित के विग्रह टोटा गोपीनाथ में प्रवेश करके अंतर्धान हो चुके हैं। बस यह समाचार इतना दुखद समाचार रहा श्रीनिवास आचार्य के लिए। अब तो वे सोच रहे थे जीने से अब कोई मतलब नहीं है, तो जान ही लेते हैं। फिर गौरांग महाप्रभु ने उनको आदेश दिया स्वप्न आदेश। नहीं नहीं आगे बढ़ो जाओ जगन्नाथ पुरी जाओ और गदाधर पंडित से मिलना। गदाधर पंडित और मुझ में कोई अंतर नहीं है। मैं गदाधर पंडित के रूप में, राधा रानी के रूप में आज भी वहां हू। फिर श्रीनिवास आचार्य स्वयं को संभाले आए जगन्नाथ पुरी, मिले गदाधर पंडित से, उनका स्वागत हुआ, आलिंगन हुआ इत्यादि इत्यादि। मिलन उत्सव हुआ कहो। तो श्रीनिवास आचार्य गदाधर पंडित से भागवत श्रवण करना चाहते थे. गदाधर पंडित कहे ठीक है मैं तैयार हूं मैं सुना सकता हूं भागवत। लेकिन समस्या यह है भागवत का जो पोथी है ग्रंथ है वह लगभग नष्ट हो चुका है।
क्योंकि गदाधर पंडित जब भागवत की कथा सुनाते तब ग्रंथ को हाथ में रखते और अश्रु धाराएं बहती थी और वह भीग जाता था। फिर भीग भीग कर उसके पन्ने खोलना या कागज टूट रहे थे तो वह स्थिति ठीक नहीं थी उस ग्रंथ की। तो गदाधर पंडित कहे श्रीनिवास आचार्य से जाओ बंगाल जाओ और दूसरी भागवत की प्रतिलिपि ले आना। फिर हम सुनाएंगे तुमको भागवत कथा, भागवत का रहस्य, भागवत का मर्म। तो गए श्रीनिवास आचार्य उन्होंने प्रबंधन किया भागवत का एक ग्रंथ लेकर लौट रहे थे। जगन्नाथ पुरी के पास में ही पहुंच चुके थे तो पूछताछ करने लगे कैसे हैं गदाधर पंडित कैसे हैं? ऐसी पूछताछ करने पर उनको जब पता चला कि गदाधर पंडित नहीं रहे। आज के दिन की बात है, आज तिरोभाव तिथी महोत्सव है तो आज के दिन अंतर्धान हो चुके थे। यह समाचार जब श्रीनिवास आचार्य को मिला पता नहीं, हम कल्पना कर सकते हैं कि नहीं, उनके मन की स्थिति कैसी हुई होगी। पहले तो महाप्रभु से मिलना नहीं हुआ, दर्शन नहीं हुआ। और यहां गदाधर पंडित जी मिले तो थे लेकिन उनके साथ और समय बिताना था, भागवत का श्रवण करना था। तो वह भी चल बसे आज के दिन। हरि हरि।
गदाधर पंडित तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
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हरे कृष्ण !
जप चर्चा
आरवड़े धाम से
08 जुलाई 2021
873 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं ।
उसमें आज हरे कृष्ण ग्राम लोगों की संख्या बढ़ चुका है । यहां पर मेरा स्वागत भी हो रहा है । मेरे ही गांव में मेरा ही स्वागत । हरि हरि !! लेकिन अब यह गांव मेरा नहीं रहा । अब यह राधा गोपाल का हो गया ।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ।
जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त वृंद ॥
आज जब मैं आरती कर रहा था , यहां पर तो ऑल्टर पर कई सारे विग्रह है । जय ! राधा गोपाल की जय ! श्री श्री विट्ठल रुक्मिणी की जय ! श्री श्री सीता राम लक्ष्मण हनुमान जी की जय ! गौर निताई की जय ! नरसिम्ह देव भगवान की जय ! श्री श्री पंचतत्व की जय ! इत्यादि इत्यादि । वैसे अच्छा लग रहा था और विचार हो रहा था कि कुछ क्यों ना हम यही रहते हैं । दुनिया में क्यों जाएं हम । दुनिया में क्यों फंसे हम । जिस दुनिया को , आज गाया भी भक्त जब मंगल आरती का गान कर रहे थे दारुब्रह्म प्रभु जी मंगल आरती की गाए तो पहला शब्द उन्होंने गाया …
“संसार-दावानल-लीढ-लोक” संसार कैसा है ? संसार दावानल है । यह लोक तो बहुत परेशान है । तो जब मैं ऑल्टर पर था यह सब विग्रह के साथ प्रातः काल गौर कृष्ण प्रभु पूछ रहे थे क्या आप श्रील प्रभुपाद से मिलने की इच्छा रखते हो ? एक दिन आप श्रील प्रभुपाद से मिलोगे ? तो फिर ऑल्टर पर प्रभुपाद भी है तो मैं सोच रहा था यहां प्रभुपाद हीं तो है या और आचार्य भी है । जय हनुमान ! यहां राम भक्त हनुमान है । कुछ प्रकट है ऑल्टर पर । और कई सारे अप्रकट भी है तो वह तो है ही वहां । क्यों ना हम ऐसे ही जगत में रहे । यह आइडिया अच्छी है ? यह वास्तविक में क्या अच्छे विचार है ? हरि हरि !
“जेई गौर सेई कृष्ण सेई जगन्नाथ”
इसका में विचार कर रहा था । कई सारी बिक रहा ऑल्टर पर तो है लेकिन वह अलग-अलग भी नहीं है । वह सब एक ही है । गोरांग महाप्रभु ने षडभूज दर्शन भी दिया । और वह षडभूज दर्शन में ; जय श्री राम ! राम भी थे धनुष और बाण धारण किए हुए । और वहां कृष्ण भी थे मुरली वादन करने वाले तो वहां गौरांग महाप्रभु भी थे जिनके हाथ में सन्यास लिया कमंडलु और दंड लेके । ऑल्टर में तो अलग-अलग रुप या विग्रह बनके भगवान उपस्थित है या लीला खेलते भी हैं अपने जगत में । गोलक है तो फिर द्वारिका है श्री श्री विट्ठल रुक्मिणी की जय ! तो विट्ठल तो द्वारिकाधीश है । तो वृंदावन से गए भगवान द्वारिका गए तो वे वहां द्वारिकाधीश हुए । गोलक में भी , या वृंदावन में । एक है वृंदावन जहां राधा कृष्ण है । और दूसरा एक है जो श्वेतद्वीप है नवद्वीप है वहां पर गौरांग और नित्यानंद प्रभु है । तो मैं ऐसा कुछ मुझे आभास हो रहा था कि यह सारे विग्रह राधा गोपाल की ओर दौड़ रहे हैं । और राधा गोपाल बन रहे हैं । हम अलग अलग नहीं है हम एक ही हैं । और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु है तो वे गौर भगवान या तो है वे “श्रीकृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नही अन्य” और राधा कृष्ण से भीन्न नहीं है ।
किंतु वह बन जाते हैं भक्त । भगवान बन जाते हैं भक्त । हम तो भक्ति ही हैं या अभी नहीं है बनना चाह रहे हैं पुन्हा जो हम हैं । यह भूल चुके थे हम कि हम विभक्त हैं । तो भक्त बनने का प्रयास चल रहा है । या हम हैं तो भक्त किंतु यहां भगवान बनने का प्रयास कर रहे हैं । फिर अहम् ब्रह्मास्मि भी कहते हैं । मैं ब्रह्म हूं , मैं भगवान हूं । या फिर अहम् भोक्ता , भोगी , बलवान , सुखी ऐसा यह सब आसुरी भाव के साथ हम स्वयं भगवान होने का दावा करते हैं । या फिर कई लोग तो घोषित भी करते हैं हम भगवान हैं । बन गए अब रजनीश भगवान । या और कोई भगवान । आंध्र प्रदेश में कोई कल्की भगवान बन चुका है । उसको इतना भी पता नहीं है कि कल्कि का अवतार कब होता है ? कल्कि कलियुग के अंत में होता है । वह कल की इतना अनाड़ी है । तो क लियुग के प्रारंभ में ही अवतार ले चुका है वह । तो इस प्रकार कई सारे प्रयास/भगवान बनने का प्रयास इस संसार में जीवात्मा भगवान बनने का प्रयास करता है अपने अहम और ममेती के साथ । ब्रह्मस्मि मैं ब्राह्म हूं । या फिर मम जहां मेरा है वह मेरा है हरि हरि !! तो जीव प्रयास करता है भगवान बनने का । किंतु प्रयास भगवान स्वयं भक्त बन रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में । भक्तिका आस्वादन करने हेतु । तो उल्टा है । हम भगवान नहीं हैं । मैं भगवान नहीं हूं, तुम भगवान नहीं हो प्रभुपाद कहां करते थे । हम सब भगवान के नित्य शाश्वत सेवक है । हम तो नित्य दास है । लेकिन यह भ्रमित दास …
माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान ।
जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 20.122 )
अनुवाद:- बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता ।
किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन
किया ।
तो ऐसा भ्रमित बद्ध जीव भगवान बनने का प्रयास करता है । लेकिन भगवान स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भक्त बनना चाहते हैं या भक्त बन गए । तो भक्तों की पदवी बहुत मोटी है । भक्तों का जो स्तर है ऊंचा है । की भगवान भी उसको प्राप्त करना चाहते हैं । भगवान भी दास या भक्त बनना चाहते हैं । तो वह गौर जब भक्त बने और गए जगन्नाथ पुरी, जगन्नाथ पुरी धाम की जय ! आजकल जगन्नाथ स्वामी का दर्शन नहीं तो होता है तो दर्शन बंद है पता है ना । आपको बता चुके हैं । स्नान यात्रा जब हुई उसी दिन से जगन्नाथ का दर्शन बंद है । कोरोना वायरस है इसलिए नहीं । आप के मंदिर में तो कोरोनावायरस है इसलिए लॉकडाउन । मंदिर पर ताले लग गए इसलिए बंद है किंतु जगन्नाथ मंदिर बंद है क्योंकि भगवान के स्वास्थ्य ठीक नहीं है । यहां भी एक भक्त का स्वास्थ्य ठीक नहीं था तो उसको भी निकाल कर एक अलग कमरे में रख दिया । यह थोड़ा बंद करके रख दिए । और फिर स्पेशल डाइट बगैरा, कोई डॉक्टर आए नाड़ी परीक्षा हुई । तो वैसा हो रहा है जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ भगवान बीमार है ।
बुखार है भगवान को । भगवान को बुखार थोड़ी हो सकता है ऐसे आप कहते ही रहते हो भगवान बीमार है भगवान को बुखार है । ऐसे ही कुछ हरे कृष्ण भक्त जगन्नाथपुरी गए थे ऐसे कैसे बुखार है तो फिर पुजारी ने कहा आप में से कोई डॉक्टर वगैरा है ? तो एक भक्त कहा मैं डॉक्टर हूं ! थर्मामीटर है ? हां है ! दे दो मुझे । तो फिर पुजारी गया , पुरोहित पंडा था वहां का और जगन्नाथ के ( बांह के नीचे ) वहां पर थर्मामीटर या मुख में फिर रखा कुछ क्षणों के लिए और बाहर निकाला तो ; अरे 104 ताप मात्रा यह तथ्य है । तो उन लोगों को दिखाया । जय जगन्नाथ ! जगन्नाथ स्वामी का दर्शन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब मंदिर या अनशर उत्सव चल रहा है अब । भगवान का मंदिर अब बंद है । लेकिन जब मंदिर बंद नहीं होता था तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दर्शन के लिए जाते थे । जब पहली बार आए दर्शन के लिए सन्यास लिया और जगन्नाथ पुरी गए , जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करते ही सामने जगन्नाथ जी को देखा तो जग ,जग ,जग जगन्नाथ कहना भी मुश्किल था । गौरांग महाप्रभु का गला अवरुद्ध हुआ । यह भी एक भक्ति का लक्षण है ।
” किवा शिव-शुक-नारद प्रेमे गदगद ”
” भकतिविनोद देखे गोरार संपद ”
( गौर आरती पंक्ति 7 )
जब हम गाते हैं तब फिर पता नहीं चलता कोई ‘गद’ की बात चल रही है । या कुछ गड़बड़ी हो रही है । तो वहां गदगद है । शिव शुक नारद जब भगवान की आरती होती है वहां जाते हैं और ब्रह्मा आरती उतारते हैं ।
” बोसियाछे गोराचांद रत्न-सिंहासने
आरति कोरॆन् ब्रह्मा-आदि देव-गणे ”
( गौर आरती पंक्ति 3 )
स्वयं ब्रह्मा आरती उतारते हैं । और देवता वहां उपस्थित थे । तो वहां नारद मुनि पहुंच जाते हैं , शुकदेव गोस्वामी , शिवजी भी है तो जब वह गान करते हैं नृत्य होता है तो उनका गला गदगद उठता है । फिर गाना कठिन होता है । तो अवरुद्ध होता है । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसा भक्त बने हैं तो फिर बन गए उच्च कोटि के भक्त बन गए । कनिष्ठ अधिकारी के नहीं बने । तृतीय श्रेणी के भक्त नहीं बने या मध्यम अधिकारी नहीं रहे । प्रथम श्रेणी बने और फिर कई हायर क्लास है । ऐसे भक्त बने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । और राधा भी बन गए । चैतन्य महाप्रभु कौन बन गए ? राधा ही बन गए । राधा भक्त है कि नहीं ?
अनयाराधितो नूनं भगवान्हरिरीश्वरः ।
यत्रो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥
( श्रीमद् भगवतम् 10.30.28 )
इस विशिष्ट गोपी ने निश्चित ही सर्वशक्तिमान भगवान् गोविन्द की पूरी तरह पूजा की होगी क्योंकि वे उससे इतने प्रसन्न हो गये कि उन्होंने हम सबों को छोड़ दिया और उसे एकान्त स्थान में ले आये ।
भागवत् में कहा है । यही तो है यही तो है ! “अनयाराधितो नूनं” जो भगवान की आराधना करती है । इसलिए राधा का नाम आराधना हुआ । ” आराधती ” आराधना करने वाली राधा । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बने हैं राधा ही बने हैं ।
राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ ।
चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥
( चैतन्य चरित्रामृत आदि-लीला 1.5 )
अनुवाद:- ” श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । ”
तो फिर राधा भाव में जा राधा के दृष्टिकोण से । राधा की दृष्टि है जब अब यहां चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ स्वामी का दर्शन कर रहे हैं तो दर्शन करने वाली कौन है ? राधा है । तो राधा रानी ने दर्शन किया । राधा रानी के भाव है, दर्शन करते ही सारे भाव उदित हुए । महाभाव ; महाभावा राधा ठाकुरानी का क्या महिमा है ?
महाभाव-स्वरूपा श्री-राधा-ठाकुराणी ।
सर्व-गुण-खनि कृष्ण-कान्ता-शिरोमणि ॥
( चैतन्य चरितामृत आदि-लीला 4.69 )
अनुवाद:- श्री राधा ठाकुराणी महाभाव की मूर्त रूप हैं । वे समस्त सदृणों की खान हैं और भगवान्
कृष्ण की सारी प्रियतमाओं में शिरोमणि हैं ।
महाभावा राधा ठाकुरानी ! हरि हरि !!
बाद में वैसे सर्वभोम भट्टाचार्य थोड़ा परीक्षा किए । यह थोड़े आगे की बातें हैं । अपने घर पर ले गए । और उन्होंने घोषित किया कि … वैसे कई सारी बातें हैं । हरि हरि !!
जग जग कहते हुए वे धड़ाम कर गिर गई वहां फर्श पर दर्शन मंडप में और वहां लौट रहे हैं और क्या-क्या हो रहा है ! तो कुछ लोगों ने सोचा एइ; ढोंगी कहीं का , चौकीदार … गार्ड वगैरह को बुला रहे थे इसको बाहर करो ! यहां से निकालो तमाशा कर रहा है । हमने कई सारे देखे हैं पहले भी । लेकिन चौकीदार आने से पहले ही सार्वभौम भट्टाचार्य जो बड़े आचार्य थे जगन्नाथ पुरी के , उस समय के । तो उन्होंने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को वह अपने निवास स्थान पर ले गए और उन्होंने परीक्षा की । और निष्कर्ष यह निकाला यह भाव नकली नहीं है असली है । और यह केवल भाव ही नहीं है यह महाभाव है । तो वह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो फिर भविष्य में जब जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए जाते थे तो फिर सार्वभौम भट्टाचार्य ऐसी व्यवस्था की साथ में किसी को जाना चाहिए उनको अकेले नहीं भेजना दर्शन के लिए ! और पीछे गरुड़ स्तंभ है ना वहीं से दर्शन कर सकते हैं । क्योंकि आगे बढ़ेंगे तो तो फिर गए काम से । फिर वही …
“महाप्रभोः कीर्तन-नृत्य-गीत
वादित्र-माद्यन्-मनसो रसेन
रोमान्च-कंपाश्रु-तरंग-भाजो
वंदे गुरोः श्री चरणारविंदं ”
( श्री श्री गुर्वष्टक दूसरी पंक्ति )
इनके शरीर में रोमांच होने वाला है यह वहां लौटने वाले हैं क्रंदन करने वाले हैं तो दूर से दर्शन करवाओ । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को गरुड़ स्तंभ के बगल में खड़ा कर देते और चैतन्य महाप्रभु वहीं से दर्शन करते हैं । आगे बढ़ना मना है । दर्शन करते समय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गरुड़ स्तंभ पर अपना हाथ रखते । और जहां हाथ रखते थे वह गरुड़ स्तंभ पिघल गया उनके उंगली के स्पर्श से । और वहां गरुड़ स्तंभ में कुछ चिन्ह बने हैं । थोड़ा गड्ढा बना है चैतन्य महाप्रभु के उंगली स्पर्श के कारण ।
जगन्नाथ पुरी मंदिर में तो मैं कई बार गया हूं । लेकिन कुछ साल पहले जब गया में तो हमारे साथ पंडा थे जो हमें मार्गदर्शन कर रहे थे । तो उन्होंने मुझे उस स्तंभ के पास खड़ा कर दिए । महाराज जी आप यहां खड़े हो जाइए । ठीक है खड़ा हो गया । उन्होंने मेरे हाथ को पकड़ लिया यहां यहां हाथ रखो और यह जो स्तंभ में कुछ , लग रहा है आपको कुछ गड्ढा चिन्ह बना हुआ है ? हां बना तो है । तो उन्होंने कहां यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की उंगली के स्पर्श से यह चिह्न निशान गड्ढा बना हुआ । और ऐसा मुझे खड़ा किए और कहे भी दर्शन करो दर्शन करो तो मेरे लिए वह दर्शन कुछ रोमांचकारी दर्शन था । जब सुना कि चैतन्य महाप्रभु यहीं पर खड़े होते थे , यही हाथ रखते थे , यहीं से दर्शन करते थे वैसा तो निश्चित मैंने दर्शन नहीं किया जेसे चैतन्य महाप्रभु करते थे । किंतु वह दर्शन कुछ विशेष तो रहा ही । साधारण नहीं था कुछ वशिष्ठ था उस दर्शन में ।
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब वहां खड़े होते दर्शन करते जगन्नाथ के दर्शन करते तो … “जेई गौर सेई कृष्ण सेई जगन्नाथ” यह जो बात है जो गौरांग महाप्रभु है जेई गौर सेई कृष्ण ; सेई मतलब वही तो है सेई,जेई जो है गोरांग वही है कृष्णा और वही है जगन्नाथ । और भी लिस्ट आगे पड़ी है लेकिन उस गीत में नहीं लिखा है वही है श्री राम वही है नरसिंह है , वही है पांडुरंग-पांडुरंग-पांडुरंग । वैसे और एक वक्त यहां पर भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यहां से कोल्हापुर से या हरे कृष्ण ग्राम होते हुए पंढरपुर गए । तो पंढरपुर में भी दर्शन किए । जो गरुड़ स्तंभ है पंढरपुर मंदिर में वहां चैतन्य महाप्रभु ने पांडुरंग का दर्शन और शायद एक पेंटिंग(चित्र) में शायद आत्म निवेदन ने वह पेंटिंग बनाया .. I चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में उनको प्रवेश नहीं था । जगन्नाथपुरी में तो ऐसा दर्शन नहीं कर सकते थे । लेकिन विट्ठल मंदिर में तो दूर से दर्शन करने से कुछ दिल खुश नहीं होता ।
चरण दर्शन से या मुख दर्शन से कोई प्रसन्न नहीं होता । केसा दर्शन चाहते हैं ‘चरण दर्शन’ केवल चरण दर्शन नहीं चरण स्पर्श और इतना ही नहीं एक समय की बात है । अब जमाना बदल गया । वैसा दर्शन नहीं हो रहा है लेकिन 150/200 साल पहले या निश्चित ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के समय 500 वर्ष पूर्व विट्ठल का दर्शन कैसे करते थे ? विट्ठल भगवान विग्रह का आलिंगन । ‘मीठीमारु’ उनको गले लगाते थे । एक चित्र है जिसमें श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु विट्ठल भगवान पांडुरंग को आलिंगन दे रहे हैं । वही पांडुरंग गोरांग महाप्रभु हीं है पांडुरंग पांडुरंग का दर्शन कर रहे हैं और पांडुरंग को आलिंगन दे रहे हैं । केवल वही जाने क्या क्या करते रहते हैं बनते हैं क्या क्या ! तो वे जब देखते थे दूर से दर्शन करते थे जगन्नाथ है वहां उनको कृष्ण का दर्शन होता था चैतन्य महाप्रभु को । उनको जगन्नाथ नहीं दिखते । कभी-कभी जगन्नाथ के स्थान पर त्रिभंग ललितम श्याम ‘ त्रिभंग ललित और मुरली वादन करते हुए श्याम सुंदर श्री कृष्ण का दर्शन करते चैतन्य महाप्रभु । आपने कृष्ण को देखा है ? आप में से किसी ने कृष्ण को देखा है ? चैतन्य महाप्रभु उस समय बाजार में पूछ रहे थे वहां जो सिंहद्वार के आगे जो बाजार है । तो लोगों को रोक रोक कर पूछते थे आपने कृष्ण को देखा है ?
मुझे दिखाओ मुझे दिखाओ यहां कोई है किसी ने देखा है कृष्ण को ? जो मुझे दिखा सकता है ? चेतन महाप्रभु बहुत चिंतित थे । तो एक व्यक्ति ने थोड़ा चालाक था भगवान को देखना चाहती हो ? क्या तुमने देखा है ? हां हां देखा है ! चलो दिखाता हूं । तो यह व्यक्ति आगे आगे जा रहा है और गौरांग महाप्रभु पीछे पीछे जा रहे हैं । तो व्यक्ति सिंहद्वार से अंदर और फिर दर्शन मंडप में ले आए । देखो थोड़ा देखो ; आपने कृष्ण को देखा है आपने कृष्ण को देखा है तो वहां पर जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ को देखा तो तो वहां पर जगन्नाथ नहीं थे कौन थे ? कृष्ण का दर्शन । जेई गौर , सेई कृष्ण , सेई जगन्नाथ । और फिर और एक समय की बात है अब थे राजा प्रताप रूद्र वह दर्शन के लिए गए थे राजा प्रताप रूद्र चैतन्य महाप्रभु के समय की बात है वे जगन्नाथ के दर्शन के लिए गए और वे जब जगन्नाथ का दर्शन कर रहे थे ऑल्टर पर देख रहे थे जहां पर जगन्नाथ साधारणतः खड़े होते हैं तो उनको वहां जगन्नाथ के स्थान पर गौरांग महाप्रभु का दर्शन हो रहा था । वहां चैतन्य महाप्रभु खड़े थे । तो राजा प्रताप रूद्र सोच रहे थे यह में क्या देख रहा हूं थोड़ा आंख साफ किए चश्मा को साफ किए तो वही गौरांग महाप्रभु उपस्थित है । उन्होंने पुजारी को ; ए पुजारी थोड़ा जगन्नाथ जी की और देखो जहां जगन्नाथ साधारणतःखड़े होते हैं । क्या देख रहे हो ? क्या देखना होगा ? मैं तो जगन्नाथ को देख रहा हूं । तो पुजारी देख रहा है जगन्नाथ को । और उसी जगन्नाथ को देख रहे हैं राजा प्रताप रूद्र गौरांग महाप्रभु के रूप में । तो हो गया कि नहीं “जेई गौर , सेई कृष्ण , सेई जगन्नाथ” । तो ऐसा ही कुछ लग रहा था यहां पर कई सारे विग्रह है तो वे एक ही है या गोपाल की ओर दौड़ रहे हैं और उन में प्रवेश कर रहे हैं । और ऐसा होता भी है जब श्री कृष्ण प्रकट होते हैं …
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( भगवत् गीता 4.8 )
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
तब बैकुंठ जगत में हर बैकुंठ से वहां के बैकुंठ पति अलग-अलग अवतार अलग-अलग बैकुंठ में निवास करते हैं । तो वह सारे गोलक की ओर जाते हैं । उसमें साकेत से या अयोध्या से वहां अयोध्या भी है । लौकिक जगत में बैकुंठ जगत जगत में । तो वह भी , श्रीराम भी जा रहे हैं पूरा रामदरबार जा रहा है गोलक की ओर । तो सारे प्रवेश कर रहे हैं कृष्ण में । ऐसा वर्णन शास्त्र में मिलता है । और फिर जब कृष्ण प्रकट होते हैं तो बैकुंठ के ; हर बैकुंठ के जो भक्त है अपने अपने भगवानों के या अवतारों के वह सभी सोचते हैं औ भगवान नरसिंह हमारे भगवान हैं । कृष्ण लीला चल रही है । ओ हमारे राम है । तो वैसे भी सभी अवतारों के स्रोत , प्रत्येक आत्मा के अवतार है कृष्ण स्वयं भगवान । ऐसा एक अध्याय भी है श्रीमद्भागवत् के प्रथम स्कंध के 3 अध्याय । सभी आत्माओं के मूल स्रोत, उसमें कुछ 22 अवतारों का उल्लेख है ।
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.3.28 )
अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
बाकी सब अंश है । सभी स्रोत है मूल स्रोत के तो इस प्रकार कृष्ण अवतारी है । और वे अवतार लेते हैं । वही बने हैं नरसिंह है । वही बन जाते हैं राम । बलराम तो बन ही जाते हैं और इतने सारे नाम है । हरि हरि !!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन का जप करते हुए या आराधना करते हुए …
कृष्णवर्ण विधाकृष्ण साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् ।
यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्वजन्ति हि सुमेधसः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 11.5.32 )
कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है ।
भगवान की आराधना कैसे होती है ? यज्ञ करने से । संकीर्तन यज्ञ । जितने भी भगवान है लगभग एक ही है उनके विस्तार है अवतार है हम सबकी आराधना हम करते हैं । एक ही साथ करते हैं कोई बचता नहीं है । किसी को नाराज नहीं करते हम । और फिर देवता भी प्रसन्न होते हैं वैसे हम जब कीर्तन करते हैं और वह भी कीर्तन करते हैं । उनके चिंता हमें नहीं करनी चाहिए । ठीक है ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप * चर्चा
अरावड़े धाम से
07 जुलाई 2021
हरे कृष्ण !
आज 900 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। आपने सुना ? हरे कृष्ण गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
*क्षान्तिरव्यर्थ – कालत्वं विरक्तिर्मान – शून्यता । आशा – बन्धः समुत्कण्ठा नाम – गाने सदा रुचिः ।।*
*आसक्तिस्तद्गुणाख्याने प्रीतिस्तद्वसति – स्थले । इत्यादयोऽनुभावाः स्युर्जात – भावारे जने।।* ( एम 23.18-19)
अनुवाद : जब कृष्ण के लिए भावरूपी बीज का अंकुरण होता है, तब मनुष्य के स्वभाव में नौ लक्षण प्रकट होते हैं । ये हैं- क्षमाशीलता, समय को व्यर्थ न गंवाने के प्रति सतर्कता, विरक्ति , मिथ्या मान का अभाव, आशा, उत्सुकता, भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करने के लिए रुचि , भगवान के दिव्य गुणों के वर्णन के प्रति अनुरक्ति, भगवान् के निवास स्थानों यथा मन्दिर या वृन्दावन जैसे तीर्थस्थान के प्रति स्नेहा ये अनुभाव अर्थात् उत्कट भाव के गौण लक्षण कहलाते हैं । ये सब अनुभाव उस व्यक्ति के हृदय में दृष्टिगोचर होते हैं , जिसमें भगवत्प्रेम अंकुरित होना शुरू हो गया होता है ।
काल का अपव्यय ना करना उचित है। समय का अपव्यय, समय को फालतू नहीं गंवाना नॉट वेस्टिंग टाइम- अव्यर्थ – कालत्वं ऐसे भक्तों का लक्षण बताया है काल का वे अपव्यय नहीं करते। कल मैं सुन रहा था भक्ति सिद्धांतों के प्रमाण, भक्ति के सिद्धांत, भक्तिरसामृत सिंधु देख रहे हो इसमें भक्ति के 64 अंग (आइटम) बताएं हैं (लिखे हैं)। उसमें से एक अंग है “एकादशी”, एकादशी के दिन उपवास करना उसके संबंध में जो महिमा कहो यहां लिखी है उसको पढ़ लूंगा और फिर अपना टॉपिक अव्यर्थ – कालत्वं है यह विषय है। उसकी ओर मुड़ते हैं। समय भी बलवान है और देखते हैं कैसे उसका सदुपयोग हम कर सकते हैं। भगवान भी काल है, काल भगवान की जय ! ब्रह्म वैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति एकादशी के दिन उपवास करता है वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है। (एक एक बात को आप नोट करते जाइए ईथर मेन्टल नोट्स और आप लिख सकते हो) और पवित्र जीवन में अग्रसर होता है। पापों से मुक्त होता है, पवित्र जीवन में अग्रसर होता है। मूल सिद्धांत केवल उपवास करना नहीं है अपितु गोविंद या कृष्ण के प्रति श्रद्धा या प्रेम बढ़ाना है। एकादशी के दिन उपवास करने का असली कारण है इसको अभी सुनिएगा, इस बात ने मेरा ध्यान कल आकृष्ट किया। टाइम यह समय का टॉपिक खोल रहा हूं तो असली कारण है एकादशी के दिन उपवास करने का शरीर की आवश्कताओ को कम करना, श्रवण और कीर्तन या अन्य कार्यों से अपने को भगवान की सेवा में लगाना, उपवास के दिन भगवान की लीलाओं का स्मरण करना, और उनके पवित्र नाम का निरंतर श्रवण करना सर्वश्रेष्ठ होता है। आवश्यकता को कम करना असली कारण बता रहे हैं, शरीर की आवश्यकता को कम करना और कीर्तनीय या अन्य कार्यों को भगवान की सेवा में लगाना ऐसा बता रहे हैं। आवश्यकताओं को एकादशी के दिन कम किया तो समय की बचत हुई, समय बच गया और उस समय का उपयोग फिर श्रवण कीर्तन या भक्ति के प्रकारों में इत्यादि करना है। हरि हरि !
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* इस महामंत्र का हम उच्चारण करते हैं ऐसा भी मेरा विचार है यह काफी बड़ा समय है। महामंत्र को हरे से शुरुआत करके और अंत में भी हरे यह जो 16 नामों का उच्चारण करते हैं यह बहुत अधिक समय है। यदि हम ध्यान पूर्वक जप कर रहे हैं तो इस बात का हम अनुभव करेंगे या मैं करता हूं कि यह बहुत समय है। एक मंत्र का उच्चारण हम करते हैं यह बहुत समय है और फिर यह जो समय है इसका भी हमें सदुपयोग करना है। गवाना नहीं है, खोना नहीं है। नॉट वेस्टिंग टाइम, महामंत्र के समय, मतलब हर महामंत्र के, हर महा मंत्र नहीं है महामंत्र तो एक ही है हर मंत्र हर समय जब महा मंत्र का उच्चारण करते हैं एक-एक महामंत्र का हरे कृष्ण महामंत्र का, उस समय को भी हम कैसे उपयोग करें, ध्यान पूर्वक जप किया अर्थात सदुपयोग हुआ और माइंड लैस चैटिंग और यदि ध्यान नहीं है तो अपने समय का हमने दुरुपयोग किया। मैं यह भी पढ़ रहा था कुछ समय पहले जिस वचन को श्रील प्रभुपाद शायद वो चाणक्य नीति का एकवचन है।
*क्षण एकोपि न लभ्यः स्वर्ण कोटिभिः* एक क्षण भी जो हाथ से गवायां वह छूट गया पुन: उस क्षण को हम प्राप्त नहीं कर सकते। आप कहोगे या कहा है इस वचन में, स्वर्णकोटिभिः मेरे पास कई सारी स्वर्ण मुद्राएं हैं या कोटि-कोटि स्वर्ण मुद्राएं ले लो, आज कल के नोट की कोई कीमत ही नहीं है, मेरे पास बहुत सारे गोल्ड कोइंस हैं , उसको ले लो और मुझे समय वापस करा दो , मुझे समय वापिस दे दो। ऐसा संभव नहीं है। एक एक क्षण की कीमत या मूल्य, मैं कहने जा रहा था कोटि कोटि स्वर्ण मुद्राओं से भी अधिक है यह समय है वैसे हम मूल्य चुका ही नहीं सकते कि हम समय को खरीद सके या समय को वापस ले लें। समय इतना मूल्यवान है और होना भी चाहिए। समय भगवान है।
श्रीभगवानुवाच
*कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।*
(श्रीमद भगवद्गीता ११. ३२)
अनुवाद- भगवान् ने कहा – समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मैं हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ । तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवाय दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे ।
मैं कौन हूं ? मैं समय हूं। आईएम टाइम , काल का एक अर्थ तो
*मृत्यु: सर्वहरश्र्चाहमुद्भवश्र्च भविष्यताम् । कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ।।* (श्रीमद भगवद्गीता १०.३४)
अनुवाद- मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ | स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा हूँ |
“
मृत्यु: सर्वहरश्र्चाहमुद्भवश्र्च हमने काल का दुरुपयोग किया , फिर भगवान काल बनके हमको दर्शन देंगे, मैं मृत्यु भी हूं कहते हैं, मैं मृत्यु के रूप में आता हूं, मैं मृत्यु बनता हूं ,मैं काल बनता हूं और सर्वहरश्र्चाहमुद्भवश्र्च तुमने जो जुटाया है, जो इकट्ठा किया है उसको लात मार के मैं बाहर करता हूं और तथाकथित तुम्हारी संपत्ति को मैं छीन लेता हूं। तुम चोर थे। यह संपत्ति तुम्हारी नहीं है। तुमने कभी स्वीकार नहीं किया, नहीं समझा, यह संपत्ति का मालिक मैं हूं।
*भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।* (श्रीमद भगवद्गीता ५ .२९)
अनुवाद- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम का भोक्ता और समस्त लोकों देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकार मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ को प्राप्त करता है।।
मैं स्वामी हूँ, हमें समय का सदुपयोग करना चाहिए। रेल के सफर में लोग टाइम पास मूंगफली, मूंगफली वाला आता है ट्रेन का सफर बीत नहीं रहा है मूंगफली लेनी है, लंबा सफर है और टाइमपास मूंगफली खाकर और पता नहीं क्या-क्या करते हुए अपने समय को गवांते हैं। शुकदेव गोस्वामी ने भी यहां कहा, अभी-अभी प्रवचन शुरू हुआ है “ओम नमो भगवते वासुदेवाय: ” शुकदेव गोस्वामी की कथा प्रारंभ हुई, शुरुआत में उन्होंने कहा ,
*निद्रया हियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः । दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्ब भरणेन वा ॥* (श्रीमद भागवतम २.१.३)
अनुवाद- ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी ) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों का भरण – पोषण में बीतता है ।
मतलब सोते हुए लोग क्या करते हैं नक्तं अर्थात रात्रि को सोकर, ऐसे गवाते हैं। हरि हरि! व्यवायेन च वा वयः पूरी आयु व्यवायेन मतलब व्यभिचार से या मैथुन आनंद में या फिर रात या दिन में भी, इस प्रकार सारी आयु को गवाते हैं। यहाँ दो बातों का उल्लेख किया, निद्रया हियते एक तरफ सो के या फिर व्यवायेन मैथुन आदि क्रियाओं में, मतलब खान में पान में, तुमको देखना है कि हम अपनी रात का उपयोग कैसे करते हैं। निद्रा में करते हैं। सुना तो होगा ही, इस सिद्धांत को कैसे प्रयोग में लाना है, ज्ञान कैसे कराना है इस पर फिर भाष्य और ज्ञान देना पड़ता है और आवश्यक भी है। ज्ञान अविज्ञान, नॉलेज को कैसे अप्लाई करना है और उसको अमल करना है। यहां शुकदेव गोस्वामी ने कहा, रात बिताते हैं सोने में फिर समझाना होता है। सुना तो है, फिर थोड़ी नींद को कम करो अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज मेक्स मेन हेल्दी वेल्थी एंड वॉइस अंग्रेजी में भी कहावत कही गई। थोड़ा जल्दी सो जाओ, क्योंकि लेट नाइट इसलिए लेट नाइट पार्टी है , मूवी देखनी है यह है वह है और मैथुन आनंद भी है।
अर्ली टू बेड दूसरे जो काम धंधे हैं वह कम हो जाएंगे, शरीर की जो मांगे हैं या उसकी आवश्यकताएं हैं हम पूर्ति नहीं करेंगे, बस सोएंगे, हम जल्दी सोएंगे जल्दी उठेंगे, समय को बचाना है और समय को बचा के उस समय का उपयोग करना है भक्ति में, या भक्ति के अंगों में और कुछ लोगों के लिए या अधिकतर लोगों के लिए जब वह टाइम की बात करते हैं तो कहते हैं टाइम इज मनी, अर्थात समय का उपयोग धन कमाने में, टाइम इज इक्वल टू मनी, समय ही धन है। समय का उपयोग यदि किसी ने, उस व्यक्ति ने, धन कमाने के लिए नहीं किया तो ही इज़ वेस्टिंग हिज टाइम, समय को बर्बाद कर रहा है क्यों ? क्योंकि धन नहीं कमा रहा है। टाइम इज मनी ऐसा उसके दिमाग में उसी खोपड़ी में घुसा हुआ है। लेकिन दूसरा जो कृष्ण भावना भावित भक्त होते हैं वह क्या कहते हैं “टाइम इज कृष्ण”, नोट करो। एक दुनिया के लिए टाइम इज मनी और कृष्ण भावना भावित भक्त कहते हैं टाइम इज कृष्ण अर्थात समय का उपयोग हमने कृष्ण अर्जन के लिए या कृष्ण प्राप्ति के लिए नहीं किया तो फिर क्या किया, हमने समय को गवाया। इस प्रकार के दो उदाहरण दिए इस प्रकार के दो मूल्यांकन होते हैं समय का भी मूल्य एक के लिए समय ही धन है टाइम इज मनी और दूसरे के लिए टाइम इज कृष्ण, चॉइस आपकी ही होती है कि हम किस पक्ष के हैं या हमारी क्या मान्यताएं हैं या इस समय को कैसे मूल्यांकन करते हैं। इसकी कीमत कैसे समझते हैं इसका उपयोग हमें कैसे करना चाहिए हरि हरि !
*कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार।य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।* (श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31)
अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान है और माया अंधकार के समान है। जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता है।
कृष्ण सूर्य सम भी कहा है, कृष्ण कैसे हैं सूर्य के समान है, माया है अंधकार तो हमको
*असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्तोतिर्गमय ॥ मृत्योर् मा अमृतं गमय । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥*
हे मनुष्य एक तो समझ ले वह तो कहा ही है। वरान निगोधका उत्तिष्ठ जागृत, उठो जागो हे जीव और समझो तुमको वरदान मिल चुका है। वरदान , उस वरदराज ने तुम्हें वरदान दिया है। क्या वरदान है ? कि मनुष्य जीवन वरदान है वरान निगोधका, मनुष्य जीवन भी दिया है और यह कृष्ण कॉन्शसनेस मूवमेंट हरे कृष्ण आंदोलन भी भगवान की व्यवस्था है और उसमें कई सारे श्रील प्रभुपाद की जय !उन्होंने सारी व्यवस्था करके रखी है उपलब्ध है साधु संग करोहे मनुष्य और वह भी वरदान है साधु संग प्राप्त होता है तुम अब कीर्तन कर सकते हो अब तुम जप कर सकते हो और वैसे तुमको भगवान ने ही भाग्यवान बनाया है गुरुजनों के पास पहुंचाया है यह वरदान है। उन्होंने तुम्हें महामंत्र दिया है और सेवा भी है साधना भी है वरदराज ने वरदान दिया है। उत्तिष्ठ जागो, इन वरों को प्राप्त करो ,वरदान मिला है इन को समझो इस मनुष्य जीवन का मूल्य समझो।
*कौमार आचरेत्पाज्ञो धर्मान्भागवतानिह । दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यश्रुवमर्थदम् ॥* (श्रीमदभागवतम
७.६.१)
अनुवाद – प्रह्माद महाराज ने कहा : पर्याप्त बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ से ही अर्थात् बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव शरीर का उपयोग करे। यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है। यदि निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
ऐसे प्रल्हाद महाराज भी कहते हैं मनुष्य जीवन इसकी बड़ी महिमा है। इसका सदुपयोग करो अर्थात इस समय का उपयोग करो, समय के साथ रहो , फिर कृष्ण भक्त कहेंगे, समय के साथ रहो। मतलब किसके साथ रहो ? कृष्ण सूर्य सम ,कृष्ण के साथ रहो, डोंट गेट लेट बिहाइंड, यू मिस द बस, तुम लेट हो गए बस चली गई। वैकुंठ के लिए फ्लाइट चली गई, बी ऑन टाइम। समय पर या प्रेजेंट में रहो वर्तमान काल में रहो, भूतकाल की चिंता मत करो, शोक मत करो और भविष्य में कोई भौतिक महत्वकांक्षा मत रखो।
*ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।।* (श्रीमद भगवद्गीता१८. ५४)
अनुवाद- इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है | वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है | वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है | उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है |
न शोचति न काङ्क्षति सोचता नहीं है कि पीछे जो हुआ जो नहीं भी हुआ, यह घोटाला हुआ वह घोटाला हुआ शोक मत करो और भविष्य का भी ज्यादा या कुछ भौतिक महत्वकांक्षी द गोल्स को भी त्यागो इसलिए भूतकाल में नहीं, भविष्य काल में नहीं। हम शोक करते रहते हैं बीते हुए समय में यह नहीं हुआ वह नहीं हुआ हम लोग भूतकाल में हैं और या फिर हम भविष्य में हैं, भविष्य का सोच रहे हैं। इस भौतिक जगत से कुछ ज्यादा आशा आकांक्षा है। भविष्य की उसकी कुछ योजना बना रहे हैं। सो वी आर इन द फ्यूचर लेकिन कहां है, वैष्णव को प्रजेंट में रहना चाहिए। वर्तमान काल में रहना चाहिए अर्थात जो कृष्ण के साथ है वह वर्तमान काल में है या फिर जप कर रहे हैं *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* ध्यान पूर्वक जप कर रहे हैं, इतना सारा समय है, इतने सारे क्षण हैं उसमें *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे* वहां कई सारे क्षण लगते हैं। उस समय उन क्षणों को *क्षण एकोपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभि:* उसका सदुपयोग करते हुए उस हर क्षण का ध्यान पूर्वक जप करते हुए , ध्यान पूर्वक जप नहीं होने का कारण क्या है या फिर हम शोक कर रहे हैं। हम भूतकाल में हैं या (न शोचति न काङ्क्षति) कोई , भविष्य की कोई योजना बना रहे हैं। यह करूंगा फिर वह होगा फिर उसके बाद यह होगा तो जप के समय हमें वर्तमान काल में होना चाहिए अर्थात भगवान के साथ होना चाहिए। माया के साथ नहीं होना चाहिए हरि हरि !
*देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।* ( श्रीमद भगवद्गीता २.१३)
अनुवाद- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता |
हमारी पूरी आयु कौमारं यौवनं जरा यहां शंकराचार्य का कहना है जब हम बालक होते हैं *बालस्तावत क्रीडासक्तः* हम लोग सब समय खेलते रहते हैं खेलते ही रहते हैं। होता है विद्यार्जन का समय वैसे स्टूडेंट लाइफ तो विद्यार्जन के लिए होनी चाहिए, लेकिन खेल रहे हैं। वी आर वैस्टिंग आवर टाइम और फिर आजकल कंप्यूटर गेम्स, वैसे भी आजकल के गेम क्रिकेट हैं या फिर वॉलीबॉल या फिर दिस एंड देट, ऑल वेस्टिंग टाइम, कुछ लोग, बड़े लोग भी खेलते ही रहते हैं। कुछ खेल वैष्णव के लिए ठीक हैं जैसे स्विमिंग है या कुश्ती है। कुछ खेल तो ठीक हैं लेकिन ऐसे फालतू के खेल जैसे कंप्यूटर गेम ने तो हमारे बच्चों को बिगाड़ दिया, बड़ों को बिगाड़ दिया। शंकराचार्य कहते हैं जब तुम बच्चे होते हो तो तुम खेलते रहते हो इस प्रकार समय का अपव्यय होता है और फिर जब युवक बनते हैं तो युवती के पीछे भागते हैं ,युवती की चिंता करते हैं, युवती के साथ सेल्फी खींचते हैं, युवती के साथ डेटिंग होती है। लड़कियों के साथ यह होता है वह होता है और उसका चिंतन होता है, टॉक्स होते हैं। फोन भी सस्ते हो गए और सस्ते फोन पर फिर सस्ती बातें हल्की बातें, हलकट बातें चलती ही रहती हैं और फिर रात और दिन तो युवावस्था, *तरुणस्तावत तरुणी सक्तः* तरुण अवस्था, तरुणी में आसक्त है लिप्त है और फिर बच गई वृद्धावस्था , कौमारं यौवनं जरा, इस अवस्था में चिंता में मग्न रहते हैं फुल ऑफ इंज़ाइटी, इसका क्या होगा उसका क्या होगा। एक तो वृद्धावस्था में अधिक अधिक बीमारियों में व्यक्ति ग्रस्त होता है। उसकी भी चिंता है और भविष्य की चिंता है मैं नहीं रहूंगा कैसे होगा ? मेरे बेटे कैसे संभालेंगे ? दिस दैट , शंकराचार्य कहते हैं तुम्हारे पास फिर कौन सा समय है भाई भगवान के लिए बच्चे थे तो खेलते रहे, बड़े हुए तो यह मैथुन आनंद युवक-युवती के चक्कर में फंस गए और बूढ़े हो गए तो चिंता मग्न, वेयर इज योर टाइम, कौमारं, कुमार अवस्था तो चली गई युवावस्था भी चली गई और बुढ़ापा भी और अधिक अधिक बूढ़े हो रहे हो कब करोगे भगवान का ध्यान, और वह व्यक्ति बूढ़ा ही था वाराणसी में अब व्याकरण पढ़ ही रहा है लेकिन व्याकरण पढ़कर कुछ हरि हरि भगवान को तो नहीं समझ रहा है ऐसे ही पंडित बन चुका है या कर्मकांड कर रहा है। उसको भी शंकराचार्य कहते है “भज गोविंदम भज गोविंदम गोविंदम भज मूढ़ मते , नहीं-नहीं रक्षति, जब मृत्यु आएगी उस समय तुम्हारा यह जो डुक्रिन करणे व्याकरण का एक प्रकार है या यह व्याकरण है यह जो तुम अध्ययन कर रहे हो, इसको रख रहे हो, यह छोड़ दो या उसका उद्देश्य तुम नहीं समझ रहे हो, किस लिए पढ़ना है। व्याकरण या संस्कृत का अध्ययन भाषा का अध्ययन किस लिए करना है इसका उद्देश्य समझो। व्याकरण पढ़ना एक साधन है साध्य नहीं है। भज गोविंदम ! भज गोविंदम ! गोविंदम भज मूढ़मते, हे मूर्खों वहां पर शंकराचार्य ने उस कर्मकांडी व्याकरण के पंडित को मूर्ख कहा मूढ़ मते, फिर ऐसे आजकल के हमारे जो ह्यूमन बींस हैं हमारे जो बंधु बांधव हैं इस पृथ्वी पर पूरी मानव जाति के हम मानव हैं। उसमें से अधिकतर उनको कहना होगा हे मूर्खों ! यु आर रास्कल्स, प्रभुपाद कहा ही करते थे रास्कल्स, कुछ रास्कल ही कहते रहे कुछ साइंटिस्ट रास्कलस मायावादी रास्कलस क्योंकि कृष्ण ने भी कहा ही है.
*न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः । माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ।।* ( श्रीमद भगवद्गीता ७. १५)
अनुवाद- जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |
जो मेरी शरण में नहीं आते हैं वे मूढ़ हैं या दुष्कृतम् है दुराचारी हैं माययापहृतज्ञाना , इनका ज्ञान माया ने चुरा लिया है। इस प्रकार सारा संसार ही वेस्टिंग टाइम अपने समय का दुरुपयोग कर रहे हैं। माया में लगा रहे हैं माया की सेवा में लगा रहे हैं क्योंकि उनके लिए टाइम इज मनी हरि हरि! या फिर क्या कहा जाए धर्म अर्थ काम मोक्ष चार पुरुषार्थ बताए हैं उसमें से दो पुरुषार्थ ओं में लगे हैं। वह कौन सा है ?अर्थ और काम , धर्म अर्थ काम मोक्ष उसमें से कौन सा, धर्म को भूल गए ,मोक्ष की कोई चिंता नहीं ,और बीच में जो दो पुरुषार्थ बचे हैं एक है अर्थव्यवस्था इकोनामिक डेवलपमेंट और इकोनामिक डेवलपमेंट होते ही काम उसका उपयोग काम में लगाना कामवासना में, इंद्रिय तृप्ति में, मनोरंजन में एंटरटेनमेंट, में इस प्रकार दुनिया वाले
*मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया जानिया शुनिया विष खाइनु ।।१।।*
हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके -कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
हरि हरि !
आपका क्या विचार है एनीवे कई सारे निष्कर्ष इस वक्तव्य के हो सकते हैं लेकिन मुख्य बात तो यह है समय का, टाइम मैनेजमेंट सीखना होगा और प्रभुपाद चाहते थे कि 24 आवर्स कृष्ण कॉन्शसनेस, कितना समय अभ्यास करना चाहिए २४ आवर्स ऑफ कोर्स, कुछ घंटे 5 घंटे विश्राम करना है सोना है। दैट इज पार्ट ऑफ द टाइम मैनेजमेंट, हम षड गोस्वामी वृन्दो की श्रील प्रभुपाद की नकल नहीं कर सकते। श्रील प्रभुपाद भी कुछ तीन-चार घंटे ही सोते थे। हम सो जाते थे तो प्रभुपाद जग कर पूरी रात ट्रांसलेशन का कार्य करते थे। इस प्रकार आचार्यों ने, श्रील प्रभुपाद ने एक आदर्श रखा है हम सभी के समक्ष कि कैसे पूरे जीवन का या जीवन की जो कालावधी है लाइफ टाइम कैसा उपयोग करें या फिर उसमें भी 24 आवर्स का जो टाइम है 1 दिन एक रात का कैसा उपयोग करें, फिर प्रातः काल में क्या करें, सांय काल में क्या करें, मोटा मोटी की हमारी जो मॉर्निंग साधना है और जो इवनिंग साधना है वह सैंडविच जो होता है उसमें एक ब्रेड नीचे रखते हैं और एक ऊपर होता है और बीच में काफी टोमेटो चीज, दिस एंड देट फिर वह सेंड हो गया। मॉर्निंग प्रोग्राम मॉर्निंग साधना ब्रह्म मुहूर्त में उठना इत्यादि एक ब्रेड नीचे और ऊपर इवनिंग में पुनः जो बची हुई साधना या फिर संध्या आरती इत्यादि को श्रवण कीर्तन रीडिंग कृष्णा बुक कहो अलग अलग, कार्यों से सेवाओं से भर सकते हो, इस प्रकार हम कृष्ण भावना में व्यस्त रह सकते हैं। लेकिन आप में से कई सारे गृहस्थ भी हो। वीआर हाउसहोल्डर्स आप शायद सन्यासी होंगे या आपके फुल टाइम ब्रह्मचारी ड्यूटीज हैं , मंदिर में लेकिन हम वैसे नहीं हैं हम ऐसा नहीं कर सकते। हम वैसा नहीं कर सकते। तो क्या करें? इस पर चर्चा करो, विचार करो आपने आपके काउंसलर्स के साथ ,कुछ सेशन, ईस्ट गोष्टी रखो और समय का सदुपयोग करना है, समय को घुमाना नहीं है। इस टॉपिक पर चर्चा विचार होना चाहिए नहीं तो समय ऐसे ही जा रहा है। दिन आ रहे हैं दिन जा रहे हैं। वी आर नो कंट्रोल ओवर द टाइम ,ऐसे भी टाइम के ऊपर कंट्रोल ,भगवान के ऊपर कंट्रोल किसी का नहीं हो सकता। कुछ तो विचार होना ही चाहिए समय का, इस समय यह करेंगे उस समय वह करेंगे ताकि उसका सदुपयोग हो कृष्ण कॉन्शियस उपयोग हो। ओके अब यही विराम देता हूं।
गौर प्रेमानन्दे हरी हरी बोल !
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जप चर्चा
आरवडे धाम से
06 जुलाई 2021
हरे कृष्ण ग्राम में मेरा स्वागत हो रहा है , आप आओगे तो आपका भी स्वागत जरूर करेंगे । हरे कृष्ण ग्राम की जय । राधे गोपाल की जय । जहां मेरा जन्म हुआ था वहां पर भगवान ने जन्म लिया , समझे ? राधा गोपाल अभी 11 साल के हो गए । 11 साल पूर्व जिसे मैं समझता था कि मेरी जन्मभूमि है उसी को भगवान ने अपनी जन्मभूमि बनाई , और मैं यह भी कह रहा था कल उसे भी सुन लीजिये । मुझे तो और कुछ कहना है लेकिन यह भी कह देता हूं , एक जन्म तो मेरा यहां हरे कृष्ण ग्राम में हुआ है किंतु असली जन्म , मेरा रियल बर्थ वृंदावन में हुआ जब श्रील प्रभुपाद ने मुझे दिक्षा दी । वृंदावन मथूरा जो भगवान का जन्म स्थान है वह मेरा जन्म सन हुआ ऐसे विचार थे मेरे । मेरे जन्म स्थान पर भगवान ने जन्म लिया राधा कृष्ण गोपाल प्रकट हुए , अपने जन्मभूमि में वृंदावन में , मथुरा में मुझे जन्म दिया । 1972 की बात है । जय श्री प्रभुपाद । श्रील प्रभुपाद ने मुझ पर विशेष कृपा की यह महा मंत्र दिया ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इसी के साथ हमको जन्म प्राप्त होता है , हम जीवित होते हैं । हम हमारा जीवन वापस प्राप्त करते हैं । यह हरे कृष्ण महामंत्र ही जीवन है , यह हरे कृष्ण महामंत्र ही भगवान है । आज एकादशी है , एकादशी दुप्पट खासी ऐसा मराठी में कहते हैं (हंसते हुए) उपवास है लेकिन कुछ लोग आज दुगना खा लेते हैं । जो जितना खाते हैं उसे आधा नहीं उससे दुगना खा लेते हैं । ठीक है । ऐसी बातें तो संसार में चलती रहती है , हरे कृष्ण जगत में भी चलती रहती है । आज एकादशी है , उपवास का दिन है । हम पहले भी बता चुके हैं उपवास , उप मतलब पास , भगवान के पास रहने का यह दिन है । एकादशी के दिन ही क्यों भगवान के पास रहना है ? वैसे हर दिन उपवास का दिन हो , हर दिन उपवास का दिन हो । आप प्रसाद से दृष्टि से उपवास करें ना करें लेकिन उपवास होना चाहिए । भगवान के पास हर दिन हमको होना चाहिए । यह नही कि केवल एकादशी के दिन हम भगवान के सानिध्य में रहे या साथ रहेंगे , हम तो भगवान के साथ सदैव रहना चाहते हैं । सलोख्य मुक्ति , सामिख्य ऐसी अनेक मुक्तियां भी है । भक्त इस प्रकार की मुक्तिया भी नहीं चाहते । भगवान की भक्ति , भगवान की सेवा ही चाहते हैं , और भगवान की सेवा करते हैं तो भगवान के पास ही होंगे ना हम ? नहीं तो कैसी भगवान की सेवा ? मैं भगवान की सेवा कर रहा हूं भगवान कहां है फिर? भगवान वहां नहीं है तो कैसी सेवा कर रहे हो ? जिससे आप भगवान की सेवा कर रहे हो , हम तो चाहते हैं भगवान का दर्शन भगवान संघ , भगवान का सानिध्य , भगवान की सेवा यह सब प्राप्त होता है । इस कलयुग मे ,
कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः । द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥
(श्रीमद्भागवत 12.3.52)
अनुवाद:- जो फल सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से , त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से , प्राप्त होता है , वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है ।
हरि कीर्तन से , जप से ऐसी उपलब्धि हमको प्राप्त होती हैं ।
कृष्ण प्राप्ति कृष्ण प्राप्ति होए जहाँ कोहिते । हम लोग गाते भी हैं । कृष्ण कृपा से हमको गुरु मिलते है और गुरु की कृपा से हमको कृष्ण मिलते हैं । कृष्ण के पास ले जाते हैं । गुरु मंत्र देते हैं , जप करने के लिए गौड़ीय परम्परा में हरे कृष्ण महामंत्र देते हैं । यह महामंत्र ही भगवान है , इस महामंत्र के पास पहुंचना है । महा मंत्र की सिद्धि कहते हैं , मंत्र की सिद्धि को प्राप्त करना है । और यह होता है जब हम ध्यान पूर्वक जप करते हैं । ध्यान पूर्वक , भक्ति पूर्वक जप करेंगे तो मंत्र की सिद्धि होगी और फिर मंत्र के देवता भी होते हैं यह भी बता चुके है , आप शायद भूल जाते हो । हर मंत्र के देवता होते हैं , हरे कृष्ण महामंत्र के देवता राधा कृष्ण है । मंत्र सिद्धि , जप करते-करते मंत्र सिद्ध होती हैं मतलब उस मंत्र के जो देवता है राधा कृष्ण के दर्शन होते हैं । ठीक है । आज आपसे क्या बता दूं , मैं ऐसा जब सोच रहा था तब इस कमरे में यह पंखा चल रहा है । मैंने सोचा इसका कुछ जप के साथ संबंध जोड़ सकते हैं ।
वैसे सीधा संबंध है , एक होता है पावर हाउस , पावर हाउस की पावर ही तो पंखे को चलाती है किंतु पंखा और पावर हाउस के बीच में क्या होता है ? रेगुलेटर होता है । क्या कहते है ? रेगुलेटर ही कहते हैं जिस पर लिखा होता है 1-2-3-4-5 तक उसकी संख्या होती है , आप उसको घुमाते हो । एक पर होता है ? एक पर क्या होता है ? (स्लो स्पीड वहा उपस्थित भक्त )जो भी होता है । तब पंखा बहुत धीरे धीरे चलता है । 2 पर रखा है तो उसकी स्पीड बढ़ती है और फिर जब 5 पर हम रखेंगे तब फुल स्पीड , पूरी रफ्तार के साथ पंखा चलता है । एक पर रखते हैं , पंखा धीरे धीरे चलता है । तब होता क्या है ? टेक्नीकल या इलेक्ट्रिकल भाषा में जो पावर हाउस की ओर से आने वाला जो करंट है उसमें से कम करंट को वह रेगुलेटर की वजह से पंखे तक पहुचता है । इसे रजिस्टेंस भी कहते हैं वह रेगुलेटर रेसिस्ट करता है , अवरोध उत्पन्न करता है । तुम रुक जाओ ।पूरा रुकता नही , थोड़ा करंट जाता है थोड़ा-थोड़ा चालू होता है । पूरा रुकता नहीं थोड़ा थोड़ा करंट पंखे की ओर जाने देता है । रेगुलेटर एक फ़ोर्स है जो करंट को अवरोध उत्पन्न करता है और जब 2 पर होता है तब अधिक करंट विकल्प से बेटर , क्या? गुड कंडक्टर , ब्याड कंडक्टर है । ऐसी भाषा होती है । बेटर कंडक्टर , गुड़ कन्डक्टर , ब्याड कन्डक्टर । 2 पर वह रेगुलेटर कम अवरोध उत्पन्न करता है तब अधिक इलेक्ट्रिसिटी आती है और जब 5 पर जाते हैं तो पूरा , बिना अवरोध के पावर हाउस का पूरा करंट पंखे के पास जाता है और पंखा पूरे स्पीड से घूमता है । हमको को आराम मिलता है , अधिक आराम मिलता है । इसको हम जप के साथ कैसे जोड़े ? क्या संबंध है ? एक और पावर हाउस है , यह कहिए कि भगवान यह पावर हाउस है , वही तो स्त्रोत है ।
अहंम सर्वस्या ऐसा भी भगवान ने कहा है और वही भगवान जब करते समय महामंत्र के रूप में हमारे पास है । वह महामंत्र ही ,
नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥
(चैतन्य चरितामृत अंत्य 20.16)
अनुवाद:- हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।
चैतन्य महाप्रभु ने कहा है , मैंने अपनी पूरी शक्ति हरि नाम में, महामंत्र में , नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- मेरी सारी शक्ति नाम में भर दी है । यह नाम शक्तिशाली है , नाम पावर हाउस है । एक और यह पावरफुल हरि नाम है और यह पावर आत्मा तक पहुंचानी है । ताकि आत्मा भी एमपावर होगा , आत्मा में भी कुछ जान आएगी , कुछ हर्ष , उल्लास , अल्लाह का अनुभव करेगा । हम यहां जप करते हैं तो पंखे में जैसा रेगुलेटर होता है , जब करते समय हमारा मन , माइंड उस काम कार्य वही है जो पंखे का रेगुलेटर का होता है । भगवान , भगवान का नाम फुल पावर है और यह पावर आत्मा के पास पहुंचानी है , आत्मा को पावर देनी है तब बीच में मन आता है। बीच में मन है ही ।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
(विष्णुपुराण 6.7.28 )
अनुवाद:- मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है ॥
हमारा मन ही कारणं बन्धमोक्षयोः , मन ही कारण बनता है । उसका चांचल्य चल रहा है , मन के अपने काम धंधे उद्योग चल रहे हैं । मन सारी दुनिया का चक्कर काट रहा है , ऐसा अगर हमारा मन है तो ऐसा वाला मन अधिक अवरोध उत्पन्न करेगा । भगवान के नाम में जो शक्ति है वह शक्ति को मन रोक देगा । बैड कंडक्टर यह माइंड है । अवरोध उत्पन्न करेगा और भक्ति की शक्ति , हरिराम की शक्ति आत्मा तक नहीं पहुंचेगी और हमारे पल्ले कुछ भी पढ़ना नहीं है । हरि हरि । मन जो अवरोध उत्पन्न करता है , उस अनुरोध को कम करेंगे । रेगुलेटर को 2 पर रख देंगे तब हरी नाम की जो पावर है उसका वहन होगा , उसका फ्लो होगा और एनर्जी भी कहा वहन होती है ? हाय पोटेंशियल टू लो पोटेंशियल ऐसा ही कुछ सिद्धांत है , वहां ही करंट बहता है इलेक्ट्रिसिटी बहता है । वैसे ही भगवान की जितनी भी शक्तिया है , हरिनामा है । वह सारी शक्ति स्वाभाविक है वह आत्मा के और बढ़ेगी या फिर कहो भगवान का जो आत्मा के प्रति स्नेह है स्निग्धता है उसका वहन आत्मा की और होगा । भगवान जो करुणा सिंधु है भगवान का कारुण्य आत्मा की ओर अधिक जाएगा , अधिक पहुंचेगा । जब मन का रेजिस्टन्स या अवरोध कम होगा और कम होगा और कम होगा और कम होगा और कम होगा जैसे पंखे में 1 से 2 तक गए 2 से 3 तक गए और अवरोध कम कम कम होता जाता है और जीरो रेजिस्टेंस , कुछ भी अवरोध नहीं रहता । पूरा का पूरा पावर हाउस का करंट पंखे तक पहुंचता है और फिर ऐसी अवस्था में मन भी ,
भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन,
अभय चरणारविन्द रे।
दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे,
तरह ए भव सिन्धु रे॥1॥
अनुवाद:- हे मन, तुम केवल नन्दनंदन के अभयप्रदानकारी चरणारविंद का भजन करो। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर संत जनों के संग द्वारा भवसागर तर जाओ!
मन ऐसा करने देगा , रोकथाम नहीं लगाएगा । भगवान ही हरिनाम बने हैं , हरिनाम आत्मा तक पहुंचेगा और इसी को कह सकते कि यही भक्ति योग है। भक्ति योग हो रहा है योग मतलब संबंध कहो योग का अर्थ यह है यह संबंध को अपडेट करता है। मन अगर को ऑपरेट करता है तो भगवान आत्मा तक पहुंचेंगे वहां फिर केवल हात मिलाना ही नही वहां तो मिलन और गले लगाने की बातें भी संभव है क्योंकि आत्मा को और हरिनाम को दूर रखने वाला जो मन है वो अभी रास्ते मे नही आएगा तब मन बीच में अपने खेल नहीं खेलेगा।
हरि हरि यही तो बात है जप करते समय हमें वॉच यूवर माइंड मन पर ध्यान दो मतलब ध्यान पूर्वक जप करो मतलब भगवान का तो ध्यान करना है ही है लेकिन मन पर भी ध्यान दो अब वह कहां है कहां है अब कहां है अब कहां है आपका मन तो मन पर ध्यान देने वाला कौन है मन पर ध्यान कौन देता है बुद्धि दे दी है। सत असत विवेक बुद्धि से काम लेना होगा बुद्धि तो है गवर्नर या ड्राइवर या संचालक यह लगाम घोड़े हैं इंद्रिय और लगाम है मन और वह लगाम होते हैं और वो लगाम सारथी के हाथ में होती हैं और वो है बुद्धि इसलिए भी हम कहते रहते हैं कि जप करना भी भक्ति करना भी यह बुद्धू का काम नहीं है।
हे काम नाही एल्या गबाडया चे त्यांला पाहिजे जातीचे यह कार्य बुदु का नही अपितु बुद्धिमान व्यक्ति का कार्य है।
मैं यह सोच रहा था कि करुणा की आशा है कि कोरोनावायरस चला गया लेकिन जब था जब कोरोना के पेशेंट को ऑक्सीजन की जरूरत होती थी, मतलब ऑक्सीजन के तो सभी को जरूरत होती है और पेशेंट को भी कृत्रिम व्यवस्था की गई थी ऑक्सीजन का सप्लाई हो रहा था तो बात तो वही है कि ऑक्सीजन कितना रप्तार में पहुंच रहा है इसको मेडिकल टर्म में अब्जॉर्प्शन कहते हैं ऑक्सीजन गेटिंग अब्जॉर्प्शन इन द ब्लड ऑक्सीजन जब तक 92 तक अब्जॉर्प्शन हो रहा है जितना भी सप्लाई दिया जा रहा है फिर वो फेफड़ों में ब्लड आ जाता है यह प्योर ब्लड है क्योंकि उसमें कार्बन डाइऑक्साइड और कई सारे जो रक्त दूषित है तो उसका शुद्धिकरण करना है उसमें जान डालनी हैं और ऑक्सीजन जो है यह जीवन है यह प्राणवायु है ऑक्सीजन उसको प्राणवायु भी कहते हैं। तो रक्त में ऑक्सीजन कितना शोषित हो रहा है उस पर उसका यश है कोरोनावायरस के पेशेंट का सक्सेस उस पर निर्भर करता था कि रक्त में कितना ऑक्सीजन शोषित हो रहा है।
तो वहां पर अगर ऑक्सीजन शोषित नहीं हो रहा है तो क्या कारण है कोरोनावायरस जो वायरस है वह बीच में आता था ऑक्सीजन तो वहां तक पहुंच गया उस ऑक्सीजन और रक्त खुद के बीच यह वायरस यह वायरस रेजिस्टेंस निर्माण कर रहा है।
वह ऑक्सीजन को रक्त तक पहुंचने नहीं देता यही उसका काम धंधा है। यही उसकी समस्या है यही समस्या है। इस वायरस के साथ कई सारे उपाय मेडिसिन,थेरेपी से क्या करते हैं वो जो वायरस है उसको खत्म करते हैं उस वायरस को पराभूत करते हैं। वहां से हटाते मिटाते उसकी जान लेते है। उसको बाहर कर देते हैं ताकि यह जो ऑक्सीजन उपलब्ध है स्वाभाविक रूप से फेफड़ों में रक्त तक पहुंचकर फिर जो खून भी है ऑक्सीजन से वह भरा है प्राणवायु है तो यह जीवन है। तो वही बात है जैसे हम पंखे की बात कह रहे थे उनको देखना है कि हमारा लक्ष्य होना चाहिए जब करते समय हम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह कितना शोषित हो रहा है आत्मा इसको इतना अप्सोर्ब कर रहा है। वो कितना पान कर रहा है। कितना आस्वादन कर रहा है तो यही है फिर
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
अनुवाद:- मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है ॥
हम बंधन में तो थे ही और हैं भी कुछ हद तक मुक्त भक्त हो सकते हैं। मन का बहुत बड़ा हमारे जीवन में भूमिका है। मन पर मन निग्रह सेल्फ कंट्रोल माइंड कंट्रोल इस पर हमको अभ्यास करना है। प्रभुपाद जी ने एक समय कहा था कि हम कभी तालाब के किनारे हैं या कुआं है हमारे गांव में भी तालाब नहीं था लेकिन अब हो रहे हैं कुहे हुआ करते थे तो वहा अगर आपको आप अगर बैठे हो वहां पानी शांत और संत रहता है उसमें कोई लहरे तरंगे भी नहीं होती पानी स्वच्छ है, पारदर्शक है लेकिन ऐसे स्थिति में अचानक प्रभुपाद ने मॉर्निंग वॉक के समय में अचानक कहां की अचानक क्या होता है नीचे से बुलबुले आते हैं और ऊपर आकर नष्ट होते हैं।
सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कुछ लहरें नहीं कुछ नहीं थी लेकिन अचानक बुलबुले आ गए और नष्ट भी हो गए तो प्रभुपाद ने पूछा ऐसा क्यों तब प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि उस तालाब में उसको यह में नीचे क्या है कचरा है या गंदगी है और वही गंदगी हो सकता है मतलब कुछ तो पूरा ही गंदा हो सकता है ऊपर से नीचे तक गंदा होता है केवल नीचे ही गंदगी नहीं होती यह गंदगी सर्वत्र फैली रहती है।
तो हमारे मन ऐसे भी हो सकते हैं या हमारा जीवन हमारे विचार हमारे विचार गंदे लो थिंकिंग लेकिन मानलो कि हमने कुछ हद तक मन को स्वच्छ किया है थोड़ा हम सुसंस्कृत है थोड़े चरित्रवान है तो भी वह पानी साफ सुथरा दिख रहा था लेकिन अचानक बुलबुले आ गए मतलब अभी भी कुछ कुछ कचरा नीचे है गन्दगी है।
तो हमको क्या करना है जहाँ झा कचरा अटका हुआ है वहां वहां पहुंचकर उसकी सफाई करनी होगी उसको हटाना मिटाना होगा।
हरि हरि मन तो हमारे कर्मों से तो दूसरा भी विषय आगे कहना है। हमारे जो और अप्रारब्ध हम जो पाप करते हैं पाप करते हैं जाने अनजाने में इस जीवन में तो नहीं किया इसमें काम किया लेकिन इसके पहले जन्मों में भी जो जो हमने किया उसका और अप्रारब्ध फिर कूट बीज और प्रारब्ध ऐसे भक्तिरसमृत सिंधु में क्रम बताएं प्रारब्ध कर्म जब संचित होते हैं इकट्ठे होते हैं उसका ढेर बन जाता है कूट मतलब ढेर ही कहो माउंटेन जब अप्रारब्ध का जैसे ये कर्म वो कर्म तो ये कूट हो गया अप्रारब्ध से कूट हो गया और इसमें से इसी कर्म के ढेर में से फिर किसी किसी का समय आ जाता है और फिर बीज अंकुरित होने लगते है और फिर प्रारब्ध कर्म मतलब अब इसी वक्त आज के दिन आज जो हो रहा है वह बीज का फल हम चक रहे हैं। मीठे भी हो सकते हैं कड़वे भी हो सकते हैं या मीठे या कड़वे के दिव्य फल कृष्ण प्रेम ही है वह तो हम यह भी कह सकते हैं हम सभी को यह जो कचरा पड़ा है उस कुएं में या उस तालाब में जो हमारे जीवन में हमारे मन में बहुत कचरा पड़ा हुआ है जन्म जन्मांतर से यह अप्रारब्ध जो है।
तो उसी को समाप्त करना है या साफ करना है उसी ढेर को आग लगाने हैं।
और वही करते है हम जब जप करते हैं मतलब भगवान की शरण लेते हैं। और जब भगवान की शरण लेते हैं।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६ ||
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
तो क्या होता है जो ढेर है प्रारब्ध कर्म का जो ढेर है जो अप्रारब्ध का जो बीज और फिर अंकुरित होना फिर वह फलीभूत हो ना उसके पहले ही स्टॉक है उसी अवस्था में उसको समाप्त करो फिर प्रारब्ध कर्मों को वहां तक पहुंचेंगे ही नहीं और आजकल किया हुआ या पहले कभी किया हुआ पाप कर्म है उसका फल या तो हम इस जीवन में भोंकते हैं या इतना सारा स्टाक है अप्रारब्ध कर्मों का उसमें से कुछ का फल इस जीवन में और बचा हुआ जो स्टॉक है उसका फल चकने के लिए ही तो हमें अगला जन्म लेना पड़ता है तो हमे प्रारब्ध भोगने के लिए हमें शरीर की आवश्यकता है इतना स्टॉक है हमारे इस संचित कर्मों का अप्रारब्ध कर्मो का कितना हो सकता है 10000 लाख 1000000 जन्मो तक आराम से इतने जन्म लेने पड़ सकते हैं और यह सब होना है होता रहता है।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥ – शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21
हिंदी अर्थ 1
हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
जब तक हम क्या नही करते जब तक हम भगवान की शरण मे नही जाते हम भगवान को बीच में नहीं लाते भगवान के शरण में नहीं चाहते हमे या भक्ति के 64 प्रकार है उस प्रकार से भक्ति के जो अंग या प्रकार रूप गोस्वामी प्रभुपाद लिखे हैं भक्तिरामृत सिंधु में लिखा है खासकर नवविधा भक्ती है फिर कहां है 5 प्रधान भक्ति के अंग है उसमें साधु संग है भागवत श्रवण है नाम संकीर्तन है धाम में निवास है और वीग्रह की आराधना है पांच प्रकार हो गए जब तक नहीं करते और उस पांच प्रकार में भी
हरेर्नाम हरेर्नाम हरे मैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥२१ ॥
अनुवाद:- ” इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है । ”
ये हरिनाम महत्वपूर्ण है सर्वोपरि है तो इसको जब हम अपनाएंगे
” येन केन प्रकारेण मन : कृष्णे निवेशयेत ||
” भक्ति रसामृत सिंधु – 1.2.4 , रूप गोस्वामी
अनुवाद:- मन को किसी भी प्रकार से श्री राधा कृष्ण में लगाओ , यही साधना है |
यह हमारे मन को भगवान के नाम में लगाएंगे श्रवण करेंगे सुनेंगे ध्यान पूर्वक जप करने का पूरा अभ्यास करेंगे तो फिर वही मन बंधन मुक्त हो जाएगा या हमारे मुक्ति का कारण बनेगा तो ऐसा करते रहो एकादशी के दिन भी और यह सब को और अधिक बढ़ाना होता है ठीक है समय समाप्त हुआ है।
यह जपा चर्चा बन गया जप रिट्रीट जैसा बन गया है। हमने आपको स्मरण दिलाया कुछ ध्यान पूर्वक जप करना वह विधि-विधान आपको सुनाएं हरी हरी आपको यश मिले साधना भक्ति में यश मिले फिर भगवान भी मिले आपको भगवान से ये भी मेरी प्रार्थना है । ठीक है । हरि बोल ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
5 जुलाई 2021
हरे कृष्ण!
884 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं,जैसे चौरासी कोस ब्रज मंडल परिक्रमा होती हैं।आप सभी का स्वागत हैं।
ओम् अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गोर भक्त वृंद।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। आप में से कई लोग हैप्पी बर्थडे टू यू इत्यादि लिख रहे हो।मैंने किसी को बताया तो नहीं था लेकिन फिर भी आप सबको पता लग ही जाता हैं,वैसे आज व्यास पूजा वाला बर्थडे तो नहीं हैं,लेकिन अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार आज ही के दिन 72 साल पहले की बात हैं, जब अरावड़े गांव में मेरा जन्म हुआ।जन्म तो हुआ लेकिन मैं उस दिन को अपना वास्तविक जन्मदिन नही मानता हूं।जब श्रील प्रभुपाद ने मुझे स्वीकार किया और मुझे दीक्षा दी, दीक्षा के दिन को ही मैं अपना वास्तविक जन्मदिन समझता हूं। हरि हरि!ऐसा एक वचन है कि हर जन्म में माता-पिता तो मिलते ही हैं लेकिन किसी एक दुर्लभ जन्म में ही गुरु मिलते हैं या माता-पिता के द्वारा दिया गया जन्म तो
भगवद्गीता 3.31.1
श्रीभगवानुवाच कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये । खियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ॥१ ॥
भगवान् ने कहा : परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव ( आत्मा ) को पुरुष के बीर्यकण के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है ।
भगवद्गीता 13.22
” पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु || २२ ||”
अनुवाद
इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है | यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है | इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं |
अपने कर्म का और प्रारब्ध का फल व्यक्ति भोगता ही रहता है और जन्म लेता रहता है तो वैसे वाला जन्मदिन भी क्या जन्मदिन है उसको हैप्पी तो नहीं कह सकते क्योंकि फिर पुनः मरने का दिन आने वाला है और फिर पुनः जन्मदिन आने वाला है और यह चलता ही रहता हैं।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥ – शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21
हिंदी अर्थ 1
हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
लेकिन इसका अंत तब होता है जब गुरु जन्म देते हैं जब गुरु मंत्र देते हैं या गुरु कृष्ण को ही दे देते हैं और फिर
भगवद्गीता 4.9
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||”
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
लेकिन इसका अन्त तब होता हैं, जब गुरु जन्म देते हैं। जब गुरु मंत्र देते हैं या गुरु कृष्ण को ही दे देते हैं और फिर पुनर्जन्म नहीं होता। हरि हरि!वृंदावन के भक्त जिस दिन मेरी दीक्षा हुई थी वृंदावन में,मेरा जन्म तो वृंदावन का हैं, मैं वृंदावन में जन्मा था,जहां मेरी दीक्षा हुई थी राधा दामोदर मंदिर के प्रांगण में मेरा जन्म हुआ था। राधा कुंड के प्राकट्य का दिवस था। भक्त जब उस दिन राधा दामोदर मंदिर जाते हैं और उत्सव मनाते हैं यह मुझे बहुत अच्छा लगता हैं। उस समय जब भक्त उत्सव मनाते हैं तो मुझे बहुत प्रसंता होती हैं। हरि हरि।
आदि लीला 9.41
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।
जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥41॥
अनुवाद
जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना
चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।”
तो जन्म हुआ वृंदावन में, या मैं कहूंगा कि प्रभुपाद ने जन्म दिया और मेरा जन्म सार्थक हुआ या मेरा जन्म कैसे सार्थक हो सकता हैं यह श्रील प्रभुपाद ने मुझे बताया
वैसे क्रॉस मैदान में मैं श्रील प्रभुपाद से सर्वप्रथम मिला था।श्रील प्रभुपाद ने मुझे मेरे जीवन का मिशन दिया या श्रील प्रभुपाद ने मुझे मेरे जीवन का उद्देश्य दिया।अरावड़े गांव में मेरा जन्म हुआ।बचपन से ही मैं लोगों के हित की बात सोचा करता था।मेरी चिंता का यही विषय हुआ करता था कि सभी का कल्याण कैसे हो।मैं यही सपना देखता था कि औरों के दुख का मैं कैसे निवारण कर सकता हूं।किंतु आपने सुना ही है कि जब मैं श्रील प्रभुपाद से मिला और मैने श्रील प्रभुपाद को सुना तब श्रील प्रभुपाद ने मुझे बता दिया कि नहीं, नहीं यह सही मार्ग नहीं हैं, ऐसे लोग सुखी नहीं होंगे।तो फिर क्या करना होगा?हमें कृष्ण को सुखी करना होगा।कृष्ण की सेवा करो।पहले माधव सेवा फिर उसके बाद चाहो तो मानव सेवा, पर उस समय मैं तो केवल मानव सेवा का ही सोचा करता था। यही सोचा करता था कि मानव की सेवा कैसे करूं लेकिन श्रील प्रभुपाद ने मुझे माधव सेवा सिखाई।
4.31.14
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः । प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सबहिणमच्युतेज्या ॥१४ ॥
जिस तरह वृक्ष की जड़ को सींचने से तना , शाखाएँ तथा टहनियाँ पुष्ट होती हैं और जिस तरह पेट को भोजन देने से शरीर की इन्द्रियाँ तथा अंग प्राणवान् बनते हैं उसी प्रकार भक्ति द्वारा भगवान् की पूजा करने से भगवान् के ही अंग रूप सभी देवता स्वत : तुष्ट हो जाते हैं।
यह श्रीमद्भागवत का प्रसिद्ध वचन हैं, इस वचन का श्रील प्रभुपाद अपने प्रवचन में पुन: पुन: स्मरण दिलाया करते थे,वह तो सभी को सुनाते थे। मैंने भी इसे सुना और पता नहीं कितने लोगों ने उसको ग्रहण किया। इस विचार ने उनका ध्यान आकर्षित किया या नहीं किया लेकिन मेरा तो इस विचार ने पूर्णरूपेण ध्यान आकर्षित किया कि बस मेरे जीवन को उसी समय सही दिशा प्राप्त हुई और मेरे जीवन में उसी समय क्रांति हुई।
अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से आज के दिन जन्म हुआ। 5 जुलाई उन्नीस सौ संतालीस की बात हैं, आज ही के दिन जन्म हुआ था लेकिन दिन तो मंगलवार था। आज सोमवार हैं। आज मैं वहां जा रहा हूं जहा जन्म हुआ था। यह शायद आपको नहीं पता होगा कि आज मैं अरावड़े जा रहा हूं। साल भर के लिए मैंने कोई भी यात्रा नहीं की थी और यह अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से आज जन्मदिन हैं तो मैं आज जहां जन्मा था वही जा रहा हूं तो क्या यह बात अच्छी हैं या नही या मेरा पुनर मुष्टिक: भव: होगा। चूहे थे और चूहे बन जाओ।ऐसा तो नहीं हो रहा हैं। श्रील प्रभुपाद ने जो जन्म दिया मुझे और प्रभुपाद ने मुझे कृष्ण दिए और श्रील प्रभुपाद ने मुझे सेवा दी। उसी का परिणाम यह है कि वह ग्राम अब अरावड़े नहीं रहा।कुछ लोग तो उसे अरावड़े कहते हैं लेकिन हम हरे कृष्ण भक्तों के लिए अब वह गांव हैं, हरे कृष्ण ग्राम। अब अरावड़े को भूल जाओ।उसका नाम हैं, हरे कृष्ण ग्राम और यह सब श्रील प्रभुपाद के कारण ही संभव हुआ।जब मैं हरे कृष्णा वाला बन गया तो 2 सालों के बाद मैं उस गांव में गया था।एक और भक्त को अपने साथ लेकर गया था शायद नव योगेंद्र स्वामी महाराज थे। उस वक्त वह नव योगेंद्र ब्रह्मचारी थे। बस इतना याद हैं, कि उन्हें भी एक बार अपने साथ ले गया था।उन भक्त को साथ में लेकर में अरावडे ग्राम गया था। हरि हरि। वैसे ही कहने की बात तो नहीं है लेकिन बस कह दे रहा हूं,पता नहीं सब कहना जरूरी हैं भी या नहीं या फिर कहने के लिए बहुत सारी बातें हैं, उन में से कौन सी बात कहनी चाहिए कौन सी बात नहीं,यह मैं नहीं जानता।मैंने कुछ सोचा तो नहीं था कि यह कहूंगा या नहीं कहूंगा लेकिन यह सब दिल की बात बस कह रहा हूं। हरि हरि। तो हमने सत्संग किया और सत्संग में पूरा गांव जुट गया। दिन में फुड फार लाइफ करा और सायंकाल में किसी भी घर में चूल्हा नहीं जला। सारे गांव के लोग इकट्ठे हुए और प्रसाद बनाया। सब ने खीर बनाई और सभी गांव के लोगो ने इकट्ठा होकर उस प्रसाद को ग्रहण किया।फैमिली स्पिरिट।यही कृष्णभावनामृत हैं।
जैसे कृष्ण भी अपने सभी सखाओ के साथ बैठकर भोजन किया करते थे और सायं
काल को सभी लोग र्कीतन के लिए आ गए। दिन में तो सभी यही कह रहे थे कितना अच्छा था लड़का क्या हो गया। सभी में ऐसी टिप्पणियां चल रही थी। कितना अच्छा लड़का था।अब पागल हो गया हैं। फिर तो वह लोग भी पागल हो गए। मैं भी पागल और मुझ पगला बाबा के पीछे वह सब लोग भी पागल हो गए। इसकी रिपोर्ट हमने श्रील प्रभुपाद को भेजी थी।यह बहुत लंबी रिपोर्ट थी और इस रिपोर्ट में हमने यह भी लिखा था कि एक व्यक्ति तुरंत उसी वक्त मुझे आकर मिला और मुझसे कहा कि आज से मैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस मंत्र का 16 माला का जप करूंगा यह मैंने उस रिपोर्ट में लिखा था जो पत्र मैंने श्रील प्रभुपाद को भेजा था। मेरे गांव में जो हमने हरे कृष्णा उत्सव मनाया उससे श्रील प्रभुपाद बहुत ही प्रसन्न थे और उसके उत्तर में श्रील प्रभुपाद ने मुख्य रूप से कहा कि वह जो व्यक्ति हरे कृष्ण मंत्र जपने के लिए तैयार हुआ है उसे अपने गांव मे इस्कान का प्रतिनिधि बना दो। जब यह पढ़ा तो मुझे फिर यह नया विचार आया। श्रील प्रभुपाद मेरे गांव में इस्कान को चाहते हैं। वहां वह प्रतिनिधि चाहते हैं तो इसका अर्थ हैं कि वह इस्कान को चाहते हैं। फिर वही हुआ कि आज हरे कृष्ण ग्राम और राधा गोपाल मंदिर की स्थापना हो चुकी हैं। यह बहुत पहले से ही हो चुकी हैं। अब से 11 साल पहले श्री राधा गोपाल आ गए थे और आज गांव का पूरा नक्शा ही बदल चुका हैं। अब यह गांव भी पहले जैसा गांव नहीं रहा। हरे कृष्ण गांव या हरे कृष्ण ग्राम बन चुका हैं। तो आज मैं उस गांव में जा रहा हूं।हरि हरि। ठीक हैं। कल सायं काल में मैं भागवत का एक श्लोक पढ़ रहा था तो उसमें प्रभुपाद लिखते हैं कि मलेध्वज की बात चल रही हैं। राजा मलेध्वज बिना किसी संशय से शुद्ध भक्त थे। श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं कि मलेध्वज राजा ने कई पुत्रों को, शिष्यों को जन्म दिया और उनको प्रचार प्रसार किया और उनको ही प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी भी दे दी।
सारे विश्व का विभाजन करना चाहिए और कुछ भक्तों को यहां भेजो और कुछ भक्त को वहां भेजो। उन्हें अलग-अलग जगहों की जिम्मेदारी दे दो।प्रभुपाद कह रहे हैं कि ऐसा जरूर करना चाहिए।जब मैंने यह पढ़ा कि प्रभुपाद कह रहे हैं कि प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी अपने पुत्रों को देनी चाहिए।अपने शिष्यों को देनी चाहिए और अगर वयोवृद्ध गुरु हैं,तो उनको थोड़ी राहत देनी चाहिए ताकि वह एक स्थान पर रहकर ग्रंथों की रचना कर सकते हैं और अपना भोजन कर सकते हैं या वहीं से प्रचार कर सकते हैं।यह मैं अपनी तरफ से बोल रहा हूं।हरि हरि। श्रील प्रभुपाद श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज का उदाहरण दे रहे हैं। वह अपने मन को प्रचार कर रहे हैं कि हे दुष्ट मन!तुम कैसे वैष्णव हो? अपनी पूजा लाभ प्रतिष्ठा के लिए या फिर तुम्हारा नाम हो या सर्वत्र बोलबाला हो उसके लिए तुम निर्जन भजन करना चाहते हो। हां! देखो यह महात्मा निर्जन भजन कर रहे हैं। यह तो तुम कपटी हो, ढोंगी हो।आगे श्रील प्रभुपाद लिखते हैं कि यह भक्ति का जो आंदोलन हैं, अपने गुरु या इस्कॉन के जो जीबीसी हैं उनके मार्गदर्शन के अनुसार भक्ति आंदोलन का प्रचार सर्वत्र होना चाहिए।यह आपके लिए ही हैं। निर्जन भजन का समय नहीं हैं, कि एकांत में कहीं बैठे हैं और 64 माला कर रहे हैं या 108 माला कर रहे हैं। वैसे तो ऐसा संभव ही नहीं होगा श्रील प्रभुपाद आगे लिखते हैं कि
भक्ति सिद्धांत महाराज के उदाहरण के अनुसार अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ के भक्तों को प्रचार करना चाहिए। प्रचारक बन के संपूर्ण विश्व में अपनी सेवा प्रदान करें और उसके बाद मैं सोच रहा था कि अपने वयोवृद्ध भक्तों को रिटायर होने दे सकते हैं। इसे गलत मत समझो।वैसे कृष्णभावनामृत भक्त तो चाहे गुरु हो या शिष्य रिटायरमेंट जैसा कुछ हैं ही नहीं।मैं मेरे गुरु भाई महात्मा प्रभु से बात कर रहा था जो कि अमेरिका में बैठे हैं,मैं उनसे पूछ रहा था कि वह एक साल से कोई भी यात्राएं नहीं कर रहे हैं, एक ही स्थान पर हैं तो मैंने उनसे पूछा कि क्या मायापुर आ रहे हैं?
उनहोने कहा कि नहीं नहीं मैं तो अपना भजन कर रहा हूं।तो मैंने पूछा कि क्या आप सेवानिवृत्त हो रहे हैं? क्या आप रिटायर होने वाले हैं?तो उन्होंने बोला कि नहीं नहीं। कोई रिटायरमेंट नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि आई में एक्सपायर बट आई विल नेवर रिटायर।यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। मेरा भी ऐसा ही विचार हैं। और सभी वैष्णवो का ऐसा ही विचार होता हैं। लेकिन एक प्रकार से कुछ दृष्टि से रिटायरमेंट ले सकते हैं।अपने गुरु के जीवन की अंतिम अवस्था में और अभी अंतिम अवस्था ही हैं तो प्रचार कार्य या मैनेजमेंट का कार्य यह शिष्यो को अपने हाथ में लेना चाहिए। इस जिम्मेदारी को अपने कंधों पर लेना चाहिए।इस जिम्मेदारी को निभाना चाहिए।निष्कर्ष में प्रभुपाद कहते हैं कि इस तरह से गुरु एकांत स्थान पर बैठ सकते हैं और निर्जन भजन कर सकते हैं। मैं आज के अवसर पर इस विचार को आपके हृदय में डालना चाहता हूं।यह विचार जो प्रभुपाद ने इस तात्पर्य में कहा है यह मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूं शायद पूरी तरह से वह समय अभी नहीं आया या आ गया हैं। पहले ही बहुत देर हो चुकी हैं। विचार कीजिए और आप सभी ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदारी लीजिए।
रिस्पांस+एबिलिटी= जिम्मेदारी लेने का सामर्थ्य।यह क्षमता लाइए।जैसे परिवार में भी माता-पिता या पिता ऐसी अपेक्षा करते हैं कि उनकी संतान ट्रेनिंग पूरी करके परिवार की जिम्मेदारी संभाले तो हमारा भी यह परिवार हैं।वैसे छोटा परिवार होता हैं, हमारा बड़ा परिवार हैं। वासुदेव कुटुंबकम। यहां फैमिली प्लानिंग नहीं हैं। हम दो हमारे दो और मैं तो सन्यासी हूं। मेरा तो एक भी नहीं होना चाहिए। लेकिन हजारों बच्चे हैं। समझना कठिन हैं। किंतु ऐसा ही हैं। श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों को जब पत्र लिखा करते थे तो ऐसा लिखा करते थे कि मेरे प्रिय आध्यात्मिक पुत्र और पुत्रियों तो ऐसा भी संबंध हैं। आज के दिन जन्मदिन ना होते हुए भी एक प्रकार से जन्मदिन हैं। यह श्रील प्रभुपाद के विचार हैं जो मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूं। यह आपके लिए फूड फॉर थॉट हैं। आप इस पर मनन कीजिए और इस संबंध में कुछ कहना हैं तो अभी कहिए। ठीक हैं। अब मैं यहीं रुकूंगा। हरे कृष्णा।
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*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*4 जुलाई 2021*
हमारे साथ 812 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद। कुरुक्षेत्र धाम की जय। कल हम कुरुक्षेत्र में थे। कुरुक्षेत्र में हम कृष्ण अर्जुन संवाद सुन रहे थे। हम भगवत गीता के चौथे अध्याय के प्रारंभ की चर्चा को सुन रहे थे। कृष्ण बोल ही रहे हैं और कुरुक्षेत्र में संवाद चल ही रहा है और हम उसको सुन रहे हैं। कृष्ण और अर्जुन का संवाद चल ही रहा था और हस्तिनापुर में संजय धृतराष्ट्र को सुना रहे थे। वही संवाद हमें श्रीला प्रभुपाद भगवत गीता यथारूप के रूप में सुनाते हैं। हम जब ग्रंथ पढ़ते हैं तब हमें श्रील प्रभुपाद मानो संवाद सुना रहे हैं। उसी कुरुक्षेत्र में, भगवान एक बार और गए। सूर्य ग्रहण का समय था। भगवान द्वारका से गए और ब्रज वासियों को भी बुलाया था। द्वारका वासी और ब्रज वासियों का महामिलन कुरुक्षेत्र में हुआ। वृंदावन से, ब्रज धाम से राधा और गोपियां भी पहुंची थी। कृष्ण के संवाद वहां पर सभी के साथ हुए। नंद बाबा, यशोदा मैया के साथ, मित्रों के साथ और गायों के साथ भी संवाद उन्होंने किया होगा। वृंदावन से कुरुक्षेत्र में गाय भी आई थी, गायों को भी लाए थे। राधा, गोपीयां और कृष्ण के मध्य में भी बातें हुई।
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |*
*कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||*
(श्रीमद भगवत गीता यथारूप 10.9)
अनुवाद
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
*बोधयन्तः परस्परम्* हुआ। हम उस संवाद को सुनेंगे। कल जो भगवद गीता का संवाद सुन रहे थे। तो जैसे प्राथमिक पाठशाला में हम पाठ पढ़ते हैं। क ख ग पढ़ते हैं। लेकिन वह महत्वपूर्ण तो होता ही है। हमको मूलभूत बातें पढ़ाई जाती है। हम पढ़ते हैं। तो श्रील प्रभुपाद वैसे कहा भी करते थे। यह प्राथमिक विद्यालय के ज्ञान जैसा ज्ञान है। भागवतम् ग्रेजुएशन है और चैतन्य चरितामृत पोस्ट ग्रेजुएशन है। तो आज हम पोस्ट ग्रेजुएशन का जो पाठ्यक्रम है यानी चैतन्य चरितामृत जो ग्रंथ है, के बारे में हम पढ़ेंगे। यह संवाद ऊंचा है और गोपनीय भी है। आशा है, प्रार्थना है कि हम उसके लिए तैयार हैं। हम सुन सकते हैं क्योंकि आप भगवत गीता और भागवतम पढ़े हो। तो धीरे-धीरे आप चैतन्य चरितामृत पढ़ सकते हो। जो यहां पर संवाद है, यह संवाद वैसे जगन्नाथपुरी में हो रहा है। कुरुक्षेत्र का ही संवाद उसकी पुनरावृति हो रही है। जगन्नाथ पुरी में रथ यात्रा के समय, जगन्नाथ रथ यात्रा कुछ दिनों में संपन्न होने वाली है इसलिए हमने यह विषय खोला जा रहा है ताकि हमारी मानसिक तैयारी यात्रा के लिए होगी। हम रथ यात्रा को समझेंगे या रथ यात्रा के भाव को और उसके रहस्य को समझेंगे। हम इस उद्देश्य से इस संवाद को पढ़ रहे हैं। सिंह द्वार से जगन्नाथ पुरी में रथ यात्रा प्रारंभ हो रही है। द्वारकाधीश जगन्नाथपुरी द्वारिका है। वह द्वारकाधीश, जगन्नाथ है। ऐसी भी समझ है। हरि हरि। वैसे द्वारका धाम से कृष्ण ,बलराम और सुभद्रा कुरुक्षेत्र आए और ब्रज धाम से सारे बृजवासी आए। आपको पता है कि बृजवासी इस वक्त क्या करने वाले थे? सारे बृजवासी कृष्ण को वृंदावन लाने वाले थे। यदि आवश्यकता पड़ती तो खींच के लाने वाले थे। वही भाव जगन्नाथ रथ यात्रा के समय के हैं या जगन्नाथपुरी में वह यशस्वी प्रयत्न रहता है। रथ यात्रा प्रारंभ होती है। इस को समझाते समझाते फिर समय निकल जाता है। हम आपको इस संवाद को कब सुनाएंगे। नीलांचल जहां पर जगन्नाथ मंदिर है वहां से रथयात्रा सुंदरांचल तक जाती है। जहां पर गुंडिचा मंदिर है। रथ को खींचने वाले या जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा को खीच के वहां ले जाने वाले बृजवासी होते हैं। उसमें राधा रानी भी है, गोपिया भी हैं और अन्य ब्रज के भक्त भी हैं। तो यहां पर रथ यात्रा प्रारंभ हो रही है। तो संवाद हो रहा है, कृष्ण जो रथ में विराजमान जगन्नाथ है। जो द्वारका से आए है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा रानी के भाव में।
*राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ ।*
*चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥५५ ॥*
*राधा – भाव*
(आदि 1.5)
अनुवाद
श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं ।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में और राधा के कांति को अपना के प्रकट हुए ही थे। राधा रानी जो जगन्नाथ के रथ के समक्ष हैं और उनके रास्ते के रथ के मार्ग पर है। उनके दोनों के मध्य में आदान-प्रदान संवाद होता रहता है। वह संवाद को कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिपि बद्ध किए है। यहां चैतन्य चरितामृत मध्य लीला अध्याय 13 श्लोक संख्या 124। यदि आपके पास है, श्लोक देख सकते हो।
*पूर्वे यैछे कुरुक्षेत्रे सब गोपी – गण ।*
*कृष्णेर दर्शन पाञा आनन्दित मन ।।*
(मध्य लीला 13.124)
अनुवाद
पहले, जब वृन्दावन की सारी गोपियाँ कृष्ण से कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि में मिलीं, तो वे परम प्रसन्न हुई ।
यदि आप पास चैतन्य चरितामृत है, तो उसको खोल सकते हो। हम मध्य लीला अध्याय 13 श्लोक संख्या 124 से कुछ 30 – 35 पयार पढ़ेंगे। अंतर और भावार्थ कहने का प्रयास करेंगे। भाषा भी कठिन है, बांग्ला भाषा है। मेरी मातृभाषा नहीं है और यहां के भावों का क्या कहना? उच्च विचार, हरि हरि या प्रेम के विचार हैं और प्रेम के भाव है और यह भी कठिन समझे जाते ही हैं। तो हम भी, इसको समझ कर, इसको सुनाने का प्रयास करते हैं। यहां पर शुरुआत हुई है। पहले कुरुक्षेत्र में गोपियों, राधा रानी भी पहुंची थी। *कृष्णेर दर्शन पाञा आनन्दित मन* और कृष्ण को मिलकर मन आनंदित हुआ।
*जगन्नाथ देखि ‘ प्रभुर से भाव उठिल ।*
*सेइ भावाविष्ट हआ धुया गाओयाइल ॥*
(मध्य लीला 13.125)
अनुवाद
इसी तरह भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु में गोपी – भाव जाग्रत हआ । इस भाव में मग्न होने के कारण उन्होंने स्वरूप दामोदर से कहा कि वे टेक गायें ।
जगन्नाथ को देखे है। इस दृश्य में कुरुक्षेत्र से जगन्नाथपुरी जा रहा है। कृष्ण है जगन्नाथ और राधा रानी है चैतन्य महाप्रभु। इन दोनों का मिलन हो रहा है और यह भावाविष्ठ हो रहे हैं। फिर कुछ गा भी रहे हैं।
*अवशेषे राधा कृष्णे करे निवेदन ।*
*सेइ तुमि , सेड़ आमि , सेड़ नव सङ्गम ।।*
(मध्य लीला 13.126)
अनुवाद
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान जगन्नाथ से इस प्रकार कहा , आप वही कृष्ण हैं और मैं वही राधारानी हैं । हम पुनः उसी प्रकार मिल रहे हैं , जिस तरह हम अपने जीवन के प्रारम्भ में मिले थे ।
अब राधा रानी कुरुक्षेत्र में कह रही हैं या कही थी। अब जगन्नाथपुरी में वही बातों की पुनरुक्ति हो रही है। तो राधा रानी ने कहा या कृष्ण से निवेदन किया। *सेइ तुमि* आप तो वही हो, *सेड़ आमि* मैं भी वही हूं, *सेड़ नव सङ्गम* किंतु जब हम पुन: बहुत समय के उपरांत मिल रहे हैं। कृष्ण वृंदावन से बहुत समय से दूर थे। द्वारिका में थे। उन दोनों का, कृष्ण राधा का मिलन हो रहा है। यह संगम और मिलन मानो पहली बार हम मिल रहे हैं और उस मिलन से वह भाव में आविष्ठ हो रहे हैं और मिलन उत्सव मना रहे हैं।
*तथापि आमार मन हरे वृन्दावन ।*
*वृन्दावने उदय कराओ आपन – चरण।।*
(मध्य लीला 13.127)
अनुवाद
यद्यपि हम दोनों वही हैं , किन्तु आज भी मेरा मन वृन्दावन – धाम के प्रति आकृष्ट होता है । मेरी इच्छा है कि आप पुनः वृन्दावन में अपने चरणकमल रखें ।
राधा रानी कहती है। आप तो सुन ही रहे हो, सुनो सुनो मतलब ध्यान से सुनो या आत्मा से सुनो और आत्मा को सुनने दो। आप आत्मा हो, केवल कान से नहीं सुनना या कान से सुनी हुई बातों को, इस संवाद को हृदय तक पहुंचाओ, हृदय में आपका वास है। आत्मा हृदय में रहती है या रहता है। जो भी उसका लिंग है।
*श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |*
*ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || ३९ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.39)
अनुवाद
जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है |
श्रद्धा से सुनो। तो राधा रानी कह रही है, कृष्ण से मिली है। कृष्ण के साथ कुरुक्षेत्र में, हम यहां मिल रहे हैं। लेकिन मेरा मन तो वृंदावन की ओर दौड़ता है। मेरा मन तो वृंदावन को ही पसंद करता है, वहां पर राधा रानी कह रही है और यही बात चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ स्वामी को कह रहे हैं। *वृन्दावने उदय कराओ आपन – चरण* यहां मिल रहे हैं अच्छी बात है। लेकिन हम आपसे वृंदावन में मिलना चाहते हैं। आप आइए अपने चरण वृंदावन में वहां पर रखिए।
*इहाँ लोकारण्य , हाती , घोड़ा , रथ – ध्वनि ।*
*ताहाँ पुष्पारण्य , भृङ्ग – पिक – नाद शुनि ।।*
(मध्य लीला 13.128)
अनुवाद
कुरुक्षेत्र में लोगों की भीड़ है ; उनके हाथी , घोड़े तथा घर घर्र करते रथ हैं । किन्तु वृन्दावन में फूलों के बाग हैं और उनमें मधुमक्खियों की गुंजार तथा पक्षियों की चहचहाहट सुनी जा सकती है ।
राधा रानी कह रही हैं, यहां कुरुक्षेत्र में लोग अरण्य है मतलब कई सारे लोग हैं, मतलब उसमें से कुछ फालतू या सांसारिक भी हो सकते हैं। यहां पर हाथी है, घोड़े हैं और रथ चल रहे हैं। यह सब कुरुक्षेत्र से लाए हैं। यहां पर धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र का वर्णन नहीं हो रहा है, युद्ध का वर्णन नहीं हो रहा है। द्वारकाधीश जो द्वारिका में राजा है। वहां से यह सब साथ में हाथी, घोड़ा, पालकी और रथ ले आए हैं। राधा रानी कह रही है कि मुझको यह सब पसंद नहीं है। लोग अरण्य, हाथी, घोड़े और ध्वनि पसंद नही है। *ताहाँ पुष्पारण्य , भृङ्ग – पिक – नाद शुनि* वृंदावन में पुष्प अरण्य हैं। वहां पुष्प खिलते हैं। वहां मयूर और कोयल की नाद हम सुन सकते हैं। कुरुक्षेत्र और वृंदावन में यह भेद या अंतर है। या फिर यह कह सकते हो कि संसार में और धाम में यानी वृंदावन में यह अंतर है।
*इहाँ राज – वेश , सड़गे सब क्षत्रिय – गण ।*
*ताहाँ गोप – वेश , सङ्गे मुरली – वादन ।।*
(मध्य लीला 13.129)
अनुवाद
यहाँ कुरुक्षेत्र में आप राजसी वेश में हैं और आपके साथ बड़े – बड़े योद्धा हैं , किन्तु वृन्दावन में आप सामान्य ग्वालबाल की तरह अपनी सुन्दर मुरली लिए प्रकट हुए थे।
यहां कुरुक्षेत्र में तो आपने राजा का वेश, राजसी वेश पहना हुआ है। द्वारकाधीश जो हो इसलिए राजा जैसा वेश पहने हुए हो। आपके इर्द-गिर्द सारे सिपाही, सैन्य और क्षत्रिय हैं। *ताहाँ गोप – वेश* लेकिन वृंदावन में तो आप गोप वेश में रहते हो। यहां पर तो आप राज वेश में दर्शन दे रहे हो। कई सारे हथियार आपके हाथ में हैं। तलवार, ढाल, धनुष बाण और सुदर्शन चक्र है। किंतु वृंदावन में आप मुरली को धारण करते हो।
*बजे तोमार सङ्गे येइ सुख – आस्वादन ।*
*सेड़ सुख – समुद्रेर इहाँ नाहि एक कण ॥*
(मध्य लीला 13.130)
अनुवाद
यहाँ पर उस सुखसागर की एक बूंद भी नहीं है , जिसका आनन्द मैं वृन्दावन में आपके साथ लेती हूं।
जो वृंदावन का वास और वहां का जो आनंद है। राधा रानी वहां के आनंद को कह रही हैं *सुख – समुद्रेर*। वृंदावन सुख का सागर है। उस सुखसागर या आनंद की तुलना में यहां कुरुक्षेत्र में जिसका हम अनुभव कर रही हैं वह एक कण भी नहीं है। उस सिंधु आनंद के सागर के समक्ष यह तो एक बिंदु भी नहीं है।
*आमा लञा पुनः लीला करह वृन्दावने ।*
*तबे आमार मनो – वाञ्छा हय त ‘ पूरणे ॥*
(मध्य लीला 13.131)
अनुवाद
अतएव मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप वृन्दावन आयें और मेरे साथ लीलाविलास करें । यदि आप ऐसा करेंगे , तो मेरी मनोकामना पूरी हो जायेगी ।
तो राधा रानी निवेदन कर रही हैं। आइए आइए, चलो वृंदावन चलते हैं, वृंदावन लौटते हैं। वहां आप अपनी लीला खेलिए और संपन्न कीजिए। *तबे आमार मनो – वाञ्छा हय त ‘ पूरणे* हे कृष्ण! तब मेरी मनो वाञ्छा पूरी होगी।
*भागवते आछे चैछे राधिका – वचन ।*
*पूर्वे ताहा सूत्र – मध्ये करियाछि वर्णन।।*
(मध्य लीला 13.132)
अनुवाद
मैं पहले ही श्रीमद्भागवत से श्रीमती राधारानी के कथन का संक्षिप्त वर्णन कर चुका हूँ ।
तो श्रीमद् भागवत में कृष्णदास कविराज, जो इस ग्रंथ के लेखक हैं। वह कह रहे हैं कि श्रीमद्भागवत में श्रीमती राधिका का वचन है। तो उसी का उल्लेख यहां पर कर रहे हैं।
*सेइ भावावेशे प्रभु पड़े आर श्लोक ।*
*सेइ सब लोकेर अर्थ नाहि बुझे लोक ॥*
(मध्य लीला 13.133)
अनुवाद
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस भावावेश में अन्य कई श्लोक सुनाये, किन्तु सामान्य लोग उनका अर्थ नहीं समझ सके।
तो उस श्लोक में जो भाव है। *सेइ सब लोकेर अर्थ नाहि बुझे लोक*। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रथ यात्रा में जगन्नाथ के समक्ष नृत्य भी कर रहे हैं और उन्होंने यह श्लोक कहा जो वृंदावन में राधा रानी ने एक श्लोक कहा हुआ। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रथ यात्रा के समय वह श्लोक कहने लगे या उच्चारण करने लगे। किंतु किसी को वह श्लोक समझ में नहीं आ रहा था। क्या कह रहे हैं। सुन तो रहे थे किंतु उसका भाव नहीं समझ पा रहे थे।
*स्वरूप – गोसाजिजाने ना कहे अर्थ तार ।*
*श्री – रूप – गोसाजि कैल से अर्थ प्रचार ।।*
(मध्य लीला 13.134)
अनुवाद
इन श्लोकों का अर्थ स्वरूप दामोदर गोस्वामी को ज्ञात था, किन्तु उन्होंने इसे प्रकट नहीं किया । फिर भी श्री रूप गोस्वामी ने इसका अर्थ विज्ञापित किया है ।
आप जानते हो स्वरूप दामोदर गोस्वामी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सचिव और सहायक, वह स्वयं ललिता ही है। वे तो समझ गए कि चैतन्य महाप्रभु क्या कह रहे थे। लेकिन उन्होंने किसी को भी अर्थ या भावार्थ नहीं सुनाया। किंतु रूप गोस्वामी इसको समझे भी और दूसरों को कहने लगे कि चैतन्य महाप्रभु इस श्लोक के बारे में जो कह रहे हैं उसका यह भावार्थ है।
*स्वरूप सने यार अर्थ करे आस्वादन ।*
*नृत्य – मध्ये सेइ श्लोक करेन पठन ।।*
(मध्य लीला 13.135)
अनुवाद
नाचते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने निम्नलिखित श्लोक पढ़ना शुरू किया , जिसका आस्वादन उन्होंने स्वरूप दामोदर गोस्वामी के साथ किया ।
उसी श्लोक का अब पठन हो रहा है और उच्चारण हो रहा है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी आस्वादन कर रहे हैं और उस वचन को, उन भावों को जो समझ रहे हैं, तो वह भी आस्वादन कर रहे हैं।
*आहश्च ते नलिन – नाभ पदारविन्द योगेश्वरैर्हदि विचिन्त्यमगाध – बोधः ।*
*संसार – कूप – पतितोत्तरणावलम्ब गेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा नः ॥*
(मध्य लीला 13.136)
अनुवाद
गोपियाँ इस प्रकार बोली : हे कमल – नाभ , जो लोग भौतिक संसाररूपी गहरे कुएँ में गिर चुके हैं , उनके लिए आपके चरणकमल ही एकमात्र आश्रय हैं । आपके चरणों की पूजा तथा उनका ध्यान बड़े – बड़े योगी तथा विद्वान दार्शनिक करते हैं । हम चाहती हैं कि वे ही चरणकमल हमारे हृदयों में भी उदित हों , यद्यपि हम सभी गोपियाँ गृहस्थी के कार्यों में संलग्न रहने वाली सामान्य स्त्रीयाँ हैं।
राधा रानी कह रही है *नलिन – नाभ* मतलब पद्मनाभ, हे पदारविन्द आपका स्मरण हृदय प्रांगण में योगी जन करते हैं। तो आप क्या कीजिए? *संसार – कूप – पतितोत्तरणावलम्ब* तो हम जो संसार कूप में गिरे हैं, पतित है। आप थोड़ा सहायता कीजिए। हमें उठाइए और बाहर निकालिए। हमारा उद्धार कीजिए। क्या करके? आप हमारे मन में या ह्रदय में प्रकट हो और हमारा उद्धार कीजिए। ऐसी प्रार्थना राधा रानी ने की थी। वही प्रार्थना चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में कह रहे हैं।
*अन्येर हृदय – मन , मोर मन – वृन्दावन , ‘ मने ‘ वने ‘ एक करि ‘ जानि ।*
*ताहाँ तोमार पद – द्वय , कराह यदि उदय , तब तोमार पूर्ण कृपा मानि ।।*
(मध्य लीला 13.137)
अनुवाद
श्रीमती राधारानी के भाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा , अधिकांश लोगों के लिए मन तथा हृदय एक होते हैं , किन्तु मेरा मन कभी भी वृन्दावन से अलग नहीं होता , अतएव मैं अपने मन और वृन्दावन को एक मानती हूँ । मेरा मन पहले से वृन्दावन है और चूँकि आप वृन्दावन को पसन्द करते हैं , तो क्या आप अपने चरणकमल वहाँ रखेंगे ? इसे मैं आपकी पूर्ण कृपा मानूंगी ।
आगे चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं औरों का हृदय मन होता है। लेकिन *मोर मन – वृन्दावन* मेरा मन तो वृंदावन ही है। आप क्या सुने? *मोर मन – वृन्दावन* चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। मेरा मन ही वृंदावन है। *मने वने एक करि जानि* मेरा मन और वृंदावन एक ही है। मेरा मन श्री वृंदावन है। मैं तो एक ही समझती हूं मेरा मन और वृंदावन। *ताहाँ तोमार पद – द्वय , कराह यदि उदय , तब तोमार पूर्ण कृपा मानि* अगर आप अपने चरण कमल मेरे मन में, जो वृंदावन ही है, वहां रखोगे तो मैं समझूंगी कि आपकी मुझ पर पूर्ण कृपा हुई। आप सुन रहे हो?
*प्राण – नाथ , शुन मोर सत्य निवेदन व्रज – आमार सदन , ताहाँ तोमार सङ्गम।*
*ना पाइले ना रहे जीवन ।।*
(मध्य लीला 13.138)
अनुवाद
हे प्रभु , कृपया मेरी सच्ची विनती सुनें । मेरा घर वृन्दावन है और मैं वहाँ आपका सान्निध्य चाहती हूँ । किन्तु यदि मुझे सान्निध्य नहीं मिला , तो मेरा जीवन दूर्भर हो जायेगा ।
हे प्राण नाथ, राधा रानी कह रही है, चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। मेरे सत्य निवेदन को सुनो, दिल की बात कहूं? कहो कहो। तो राधा रानी कहती है *व्रज – आमार सदन* बस ब्रज ही हमारा भवन है, सदन है, निवास स्थान है। हम ब्रजवासी हैं ब्रज हमारा सदन है। *ताहाँ तोमार सङ्गम* बस हम आपसे वहां मिलना चाहती हैं। हमारा मिलन आपके साथ वृंदावन में हो। *ना पाइले ना रहे जीवन* ऐसा नहीं होगा तो हम जीवित नहीं रह पाएंगे।
*पूर्वे उद्धव – द्वारे , एवं साक्षातामारे , योग – ज्ञाने कहिला उपाय ।*
*तुमि – विदग्ध , कृपामय , जानह आमार हृदय , मोरे ऐछे कहिते ना युयाय ॥*
(मध्य लीला 13.139)
अनुवाद
हे कृष्ण , जब आप पहले मथुरा में रह रहे थे , तब आपने मुझे योग तथा ज्ञान की शिक्षा देने के लिए उद्धव को भेजा था । अब आप स्वयं वही बात कह रहे हैं , किन्तु मेरा मन उसे स्वीकार नहीं करता । मेरे मन में ज्ञानयोग या ध्यानयोग के लिए कोई स्थान नहीं है यद्यपि आप मुझे अच्छी तरह से जानते हैं , फिर भी जानयोग तथा ध्यानयोग का उपदेश दे रहे हैं । ऐसा करना आपके लिए उचित नहीं है ।
पहले आप मथुरा पहुंचे थे और मथुरा में रहते थे। तब आपने उद्धव को भेजा था। उद्धव संदेश के साथ पत्र भी दिया था और कहा था कि हे उद्धव गोपियों को कहना मैं तो सर्वत्र हूं। मेरा ध्यान करो और ध्यान के साथ मेरे सानिध्य का लाभ उठाओ। ऐसा संदेश आप भेजे थे।
*तुमि – विदग्ध , कृपामय , जानह आमार हृदय , मोरे ऐछे कहिते ना युयाय* लेकिन यह क्या उचित था? क्या वो संदेश हम गोपियों और राधा के लिए? ऐसा संदेश नही नही, उचित नही था। यह तो योगियों के लिए संदेश हो सकता है।
*दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः ।*
*ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥१ ॥*
(श्रीमद भागवतम 12.13.1)
अनुवाद:
सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद – क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता – ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ ।
यह योगियों के लिए उचित है किंतु ऐसा संदेश हमारे लिए उचित नही है। आप तो कृपामय हो। आप तो विनोदी भी हो। आप हमारे ह्रदय को जानते हो या नही। ऐसा संदेश हम पर लागू नहीं होता, हमारे लिए उचित नही है। अब भी आप ऐसा कह रहे हो, यह सही नहीं है।
*चित्त कादि तोमा हैते , विषये चाहि लागाइते , यत्न करि , नारि कादिबारे ।*
*तारे ध्यान शिक्षा कराह , लोक हासाला मार , स्थानास्थान ना कर विचारे ॥*
(मध्य लीला 13.140)
अनुवाद
चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , मैं अपनी चेतना आपसे हटाकर भौतिक कार्यों में लगाना चाहती हूँ , लेकिन लाख प्रयत्न करके भी ऐसा नहीं कर पाती । मैं स्वभाव से आपकी ओर उन्मुख हूँ । अतएव आपका यह उपदेश कि मैं आपका ध्यान करूँ , अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होता है । इस तरह आप तो मुझे मारे डाल रहे हैं । आपके लिए अच्छा नहीं है कि आप मुझे अपने उपदेशों का पात्र समड़ ।
कभी-कभी हम सोचती हैं, राधा रानी कह रही हैं। हमारा चित् ध्यान स्मरण आपसे अलग करना चाहती है। आपको भूलना चाहती है। थोड़ा काम धंधे में मन लगाती हैं ताकि कृष्ण को भूल जाए। *यत्न करि , नारि कादिबारे* लेकिन ऐसा प्रयत्न करने पर भी हम आप से अलग नहीं हो सकती।
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |*
*कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.9)
अनुवाद
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
हमारा चित् तो आप में लगा हुआ है और आपके चरण कमलों से चिपका हुआ है। *तारे ध्यान शिक्षा कराह , लोक हासाला मार , स्थानास्थान ना कर विचारे* यह जो शिक्षा है कि हम सर्वत्र है, हमारा ध्यान करो। यह तो ऐसा सत्य है कि आप हमारी जान लेना चाहते हो क्या? ऐसा विचार तो *स्थानास्थान* या किस व्यक्ति को क्या प्रचार करना चाहिए, यह कला आप नही सीखे। योगियों को एक बात कहनी चाहिए, कर्मियों को दूसरी बात कहनी चाहिए, गोपियों को कोई और बात कहनी चाहिए। सद असद विवेक आपको नही है क्या।
*नहे गोपी योगेश्वर , पद – कमल तोमार , ध्यान करि ‘ पाइबे सन्तोष।*
*तोमार वाक्य – परिपाटी , तार मध्ये कुटिनाटी , शुनि ‘ गोपीर आरो बाढ़े रोष ॥*
(मध्य लीला 13.141)
अनुवाद
गोपियाँ योगियों जैसी नहीं हैं । वे आपके चरणकमलों का ध्यान करने एवं तथाकथित योगियों का अनुकरण करने मात्र से कभी तुष्ट नहीं होंगी । गोपियों को ध्यान की शिक्षा देना एक अन्य कार का रुल्न है । जब उन्हें योगाभ्यास करने उपदेश दिया है , तब वे तनिक भी सन्तुष्ट और अधिक नाराज हो जाती हैं ।
हे कन्हिया, हम आपका ध्यान करके हमको संतोष नहीं होता है। हम योगिनी नही बनना चाहती है। हमारे लिए योगी बनना संभव नहीं है। हमे उसमे कोई संतोष नहीं है। तुम ऐसा जब हमको समझाते हो कि हमारा ध्यान किया करो, हम सर्वत्र है, हम तुमसे अलग थोड़ी ही है। यह जो वचन है इसमें आपकी *कुटिनाटी* है। आप का वचन *कुटिनाटी* कपट जैसा होता है। जब हम यह वचन सुनते हैं तब हमको तो क्रोध आता है, हम आपसे अधिक नाराज हो जाती है। आप हमको ऐसा क्यों सुनाते हो?
*देह – स्मृति नाहि यार , संसार – कूप काहाँ तार , ताहा हैते ना चाहे उद्धार ।*
*विरह – समुद्र – जले , काम – तिमिङ्गिले गिले , गोपी – गणे नेह ‘ तार पार ।।*
(मध्य लीला 13.142)
अनुवाद
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , गोपियाँ विरह रूपी महासागर में गिर गई हैं और उन्हें आपकी सेवा करने की अभिलाषा रूपी तिमिंगल मछली निगले जा रही है । शुद्ध भक्त होने के कारण गोपियों को इन तिमिंगल मछलियों से बचाना है । उन्हें जीवन की भौतिक अनुभूति नहीं है , तो ‘ क्यों करें ? गोपियों को योगियों तथा ज्ञानियों द्वारा अभीष्ट मुक्ति नहीं चाहिए , क्या अस्तित्व के सागर से मुक्त हो चुकी हैं ।
जिनको देह की स्मृति नही है, देह का भान नहीं है। तो उनको क्या चिंता। जिन्हे इस संसार रूप कूप की चिंता नहीं है। उनका तो पहले उद्धार हो चुका है क्योंकि हमको तो देह का भान भी नहीं है। उस प्रकार का उद्धार संसारी लोगों जैसा हम नही चाहते। हम तो आपके विरह के समुद्र जल में डूब रही है। आपको क्या करना चाहिए? *तिमिङ्गिले* नाम की मछली से बचाइए। हमे काम वासना से बचाइए। हमें काम से बचाइए। जो काम रूपी नाम की तिमिङ्गिले मछली है उस से बचाइए ताकि वह हमको निगल ना जाए ऐसा कुछ कीजिए। *गोपी – गणे नेह ‘ तार पार* गोपी गणों को हमे उस समुद्र के पार ले जाओ। काम तिमिङ्गिले से हमारी रक्षा करो।
*वृन्दावन , गोवर्धन , यमुना – पुलिन , वन , सेड़ कुजे रासादिक लीला ।*
*सेइ व्रजेर व्रज – जन , माता , पिता , बन्धु – गण , बड चित्र , केमने पासरिला ॥*
(मध्य लीला 13.143)
अनुवाद
यह विचित्र बात है कि आप वृन्दावन की भूमि को भूल गये हैं । भला आप अपने पिता , माता तथा मित्रों को कैसे भूल गये ? आपने गोवर्धन पर्वत , यमुना – तट तथा उस वन को , जहाँ आप रासनृत्य का आनन्द लूटते थे , किस तरह भुला दिया ?
क्या हो जाए? वृंदावन धाम की जय। गोवर्धन की जय। द्वादश कानन वन वहां के कुंजो में, हे प्रभु रास आदि लीलाएं संपन्न हो जाए। *सेइ व्रजेर व्रज – जन , माता , पिता , बन्धु – गण , बड चित्र , केमने पासरिला* वृंदावन के जो ब्रज जन है, उसमे आपकी माता है, आपके पिता है, बंधु गण है, गाय है, बछड़े है, मित्र है, ये है वो है। आप इन सब को कैसे भुल गए? बड़ी विचित्र बात है, अचरज वाली बात है। लगता है कि आप सबको भूल गए हो।
*विदग्ध , मृद , सद्गुण , सुशील , स्निग्ध , करुण , तुमि , तोमार नाहि दोषाभास ।*
*तब ये तोमार मन , नाहि स्मरे व्रज – जन , से आमार दुर्दैव – विलास ॥*
(मध्य लीला 13.144)
अनुवाद
हे कृष्ण , आप समस्त सद्गुणों से युक्त शिष्ट महानुभाव हैं । आप सदाचारी हैं , नम्र हृदय वाले तथा दयालु हैं । मैं जानती हूँ कि आपमें दोष का लेशमात्र भी नहीं है , फिर भी आपका मन वृन्दावनवासियों का स्मरण तक नहीं करता । यह हमारे दुर्भाग्य के अलावा और क्या हो सकता है ?
राधा रानी कह रही है कि आप तो सुसंस्कृत हो, आप तो मृदु हो, आप तो सद्गुणी हो, आप तो सुसुशील हो, आप तो स्निग्ध हो, आप करूण हो। वैसे आप में कोई दोष नही है। हम आपको दोषारोपण नही करना चाहती। तो समस्या क्या है? *तब ये तोमार मन , नाहि स्मरे व्रज – जन , से आमार दुर्दैव – विलास* आप का कोई कसूर नहीं है। यह हमारा दुर्दैव है कि आप ब्रजवासियों को भूल गए हो। हमको भूल गए हो। यह हमारा दुर्दैव है।
*ना गणि आपन – दुःख , देखि ‘ व्रजेश्वरी – मुख , व्रज – जनेर हृदय विदरे ।*
*किवा मार व्रज – वासी , किबा जीयाओ बजे आसि ‘ , केन जीयाओ दुःख सहाइबारे ।।*
(मध्य लीला 13.145)
अनुवाद
मुझे अपने निजी दुःख की परवाह नहीं है , किन्तु जब मैं माता यशोदा का खिन्न मुखड़ा तथा आपके कारण समस्त वृन्दावनवासियों के भग्न हृदयों को देखती हूँ , तो मुझे आश्चर्य होता है कि आप कहीं उन सबको मारना तो नहीं चाहते या आप यहाँ आकर उन्हें जीवनदान देना चाहते हैं ? आप क्यों उन्हें कष्टप्रद स्थिति में जिन्दा रखना चाहते हैं ?
राधा रानी कहती है कि हमारे दुख, विरह, व्यथा को आप भूल जाओ। लेकिन वो ब्रजेश्वरी यशोदा मैया के मुख की ओर तो देखो। *व्रज – जनेर हृदय विदरे* उनके चेहरे को देखती है तो हमारा हृदय वृद्रिण होता है, आपको कोई फरक नही पड़ता क्या? *किवा मार व्रज – वासी , किबा जीयाओ बजे आसि ‘ , केन जीयाओ दुःख सहाइबारे* क्या आप ब्रजवासियों की जान लेना चाहते हो? *किबा जीयाओ बजे आसि* यहां आकर आप उनको जीवन दान नही देना चाहते हों क्या? आप ब्रज वासियों को जीने दो और जीकर उनको दुख झेलने दो। जान ले लेते तो अच्छा होता। लेकिन आप उनकी जान नहीं ले रहे हो। वह जी तो रहे है परंतु वह दुखी हो रहे ऐसा चाहते हो क्या?
*तोमार ये अन्य वेश , अन्य सङ्ग , अन्य देश , व्रज – जने कभु नाहि भाय ।*
*व्रज – भूमि छाड़िते नारे , तोमा ना देखिले मरे , व्रज – जनेर कि हबे उपाय॥*
(मध्य लीला 13.146)
अनुवाद
वृन्दावन के निवासी आपको न तो राजकुमार के वेश में देखना चाहते हैं , न ही वे चाहते हैं कि आप अनजाने देश में महायोद्धाओं की संगति करें । वे वृन्दावन भूमि को छोड़ नहीं सकते और आपकी उपस्थिति के बिना वे सब मर रहे हैं । न जाने उनकी कैसी दशा होगी ?
राधा रानी कह रही है कि आप जो अन्य देश में, ब्रज के बाहर कहीं रहते हो। औरों का संग करते हो। वेश भी आपका राजवेश, कुछ गोपवेश जैसा नही है। ब्रज वासियों को ये सब अच्छा नहीं लगता। प्रदेश में रेहना ,दूसरा कोई वेश पहनना और ब्रज वासियों को छोड़कर औरों का संग करना। *व्रज – भूमि छाड़िते नारे , तोमा ना देखिले मरे , व्रज – जनेर कि हबे उपाय* ब्रज भूमि को हम तो छोड़ना नहीं चाहती। लेकिन ब्रज में रहकर लगभग आपके बिना जान जा रही है। *व्रज – जनेर कि हबे उपाय* अब क्या होगा ? क्या उपाय है?
*तुमि – व्रजेर जीवन , व्रज – राजेर प्राण – धन , तुमि ब्रजेर सकल सम्पद् ।*
*कृपार्द्र तोमार मन , आसि ‘ जीयाओ व्रज – जन , व्रजे उदय कराओ निज – पद ।।*
(मध्य लीला 13.147)
अनुवाद
हे कृष्ण , आप वृन्दावन धाम के प्राण और आत्मा हैं । आप विशेषकर नन्द महाराज के जीवन हैं । आप वृन्दावन भूमि में एकमात्र ऐश्वर्य हैं और आप अत्यन्त कृपालु हैं । कृपा करके आइये और सभी वृन्दावनवासियों को जीवन दीजिये । कृपया वृन्दावन में पुनः अपने चरणकमल रखिये ।
राधा रानी पहले यशोदा माता के बारे में कह रही थी अब नंद बाबा के बारे में कह रही है। *तुमि – व्रजेर जीवन , व्रज – राजेर प्राण – धन , तुमि ब्रजेर सकल सम्पद् ।* ब्रज राज के आप प्राण धन हो। नंदबाबा के आप प्राण धन हो। ब्रज वासियों के आप जीवन हो। आप ही उनकी संपत्ति हो। *कृपार्द्र तोमार मन , आसि ‘ जीयाओ व्रज – जन , व्रजे उदय कराओ निज – पद*
आप तो कृपार्द्र, दयालु हो। आइए आइए ब्रजवासियों को जीवनदान दीजिए और जीवित रखिए। *व्रजे उदय कराओ निज – पद* अपने चरण कमल वृंदावन में रखिए।
*शुनिया राधिका – वाणी , व्रज – प्रेम मने आनि , भावे व्याकुलित देह – मन ।*
*व्रज – लोकेर प्रेम शुनि ‘ , आपनाके ‘ ऋणी ‘ मानि ‘ , करे कृष्ण तारे आश्वासन।*
(मध्य लीला 13.148)
अनुवाद
श्रीमती राधारानी के वचनों को सुनकर भगवान् कृष्ण में वृन्दावनवासियों के प्रति प्रेम जाग्रत हो आया और उनका तन तथा मन अत्यन्त व्याकुल हो उठा । अपने प्रति उनके प्रेम की बात सुनकर भगवान् नेआश्वासन दिया।
अब यह मोड़ है। कृष्ण अब तक राधा रानी को सुन रहे थे और राधा रानी के भाव भक्ति, प्रेम के विचार, विरह की व्यथा सुनकर व्याकुल हुए। अब उनको सारे बृजवासी और वृंदावन याद आ रहे हैं। वह सब भूलते तो नही पर इस प्रसंग में ऐसा कहना पड़ता रहा है कि वे दुबारा सब कुछ स्मरण कर रहे है। *व्रज – लोकेर प्रेम शुनि ‘ , आपनाके ‘ ऋणी ‘ मानि ‘ , करे कृष्ण तारे आश्वासन* कृष्ण राधा रानी से ब्रजवासियों के प्रेम की कहानी सुनते हैं। कृष्ण स्वयं को ऋणी मान रहे है। कृष्ण अपने विचार व्यक्त करेंगे और अपने विचारो का आस्वादन कृष्ण स्वयं भी करेंगे और राधा रानी भी करने वाली हैं और हमको भी आस्वादन करना है।
*प्राण – प्रिये , शुन , मोर ए – सत्य – वचन तोमा – सबार स्मरणे , झुरों मुजि रात्रि – दिने ।*
*मोर दुःख ना जाने कोन जन ।।*
(मध्य लीला 13.149)
अनुवाद
प्रिय श्रीमती राधारानी ! कृपया मेरी बात सुनो । मैं सच कह रहा हूँ । मैं तुम समस्त वृन्दावनवासियों की याद कर – करके रात – दिन रोता रहता कोई नहीं जानता कि इससे मैं कितना दुःखी हो जाता हूँ ।
कृष्ण अपने दिल की बात यहां कह रहे है। हे प्राणप्रिय, सुनो सुनो, मेरे सत्य वचन को सुनो। मैं सच कहता हूं। तुमको तो मैं कभी नहीं भूल सकता हूं। रात दिन आप सभी ब्रजवासियों का ही तो मै रोते हुए स्मरण करता रहता हूं। लेकिन मेरे दुख को कोई नहीं जानता। मैं किसको सुनाऊं? मेरे दुख को कौन समझेगा?
*व्रज – वासी यत जन , माता , पिता , सखा – गण , सबे हय मोर प्राण – सम ।*
*तौर मध्ये गोपी – गण , साक्षात्मोर जीवन , तुमि मोर जीवनेर जीवन ।।*
(मध्य लीला 13.150)
अनुवाद
श्रीकृष्ण ने आगे कहा , वृन्दावन धाम के सारे निवासी – मेरे माता , पिता , ग्वालसखा तथा अन्य सभी मेरे प्राणों के समान हैं । वृन्दावन के सारे निवासियों में से गोपियाँ तो मेरे प्राण के समान हैं और गोपियों में , हे राधारानी ! तुम मुख्य हो । अतएव तुम मेरे जीवन का भी जीवन हो।
वृंदावन के सभी बृजवासी जन, मेरे माता पिता, मेरे सखा, मेरी गाय, मेरा वृंदावन, मेरे लिए सभी प्राण के समान है या मेरे प्राण ही है। उन सभी में गोपिया जो है। वह साक्षात मेरा जीवन है और हे राधा रानी, तुम तो मेरे जीवन का भी जीवन हो।
*तोमा – सबार प्रेम – रसे , आमाके करिल वशे , आमि तोमार अधीन केवल ।*
*तोमा – सबा छाड़ाना , आमा दूर – देशे लत्रा , राखियाछे दुर्दैव प्रबल ॥*
(मध्य लीला 13.151)
अनुवाद
हे श्रीमती राधारानी ! मैं तुम सबके प्रेम के अधीन हूँ । मैं तो एकमात्र तुम्हारे वश में हूँ । तुमसे मेरा विछोह तथा दूर स्थान में मेरा प्रवास मेरे प्रबल दुर्भाग्य के कारण ही हुआ है ।
मैं तो आप सब के अधीन हूं। आप सभी ने मुझे वशीभूत किया हुआ है। आप सभी ने मुझे जीत लिया है। *तोमा – सबा छाड़ाना , आमा दूर – देशे लत्रा , राखियाछे दुर्दैव प्रबल* राधा रानी ने पहले अपने दुर्दैव की बात की थी। अब कृष्ण अपने दुर्दैव की बात कह रहे है। वे कह रहे है कि मैं जो दूर देश में रहता हूं और ब्रज में नही रहता हूं। अन्य स्थान पर रहता हूं। न चाहते हुए भी मुझे रहना पड़ता है। यह दुर्दैव है, बलवान है यह दुर्दैव जो मुझे व्रज से दूर रख रहा है।
*प्रिया प्रिय – सङ्ग – हीना , प्रिय प्रिया – सङ्ग विना , जीये , ए सत्य प्रमाण ।*
*मोर दशा शोने यबे , तार एड दशा हबे , एइ भये दुहे राखे प्राण ॥*
(मध्य लीला 13.152)
अनुवाद
जब किसी स्त्री का उसके प्रेमी से विछोह होता है या कोई पुरुष अपनी प्रिया से विलग होता है , तो उनमें से कोई भी जीवित नहीं रह सकता । यह तथ्य है कि वे एक – दूसरे के लिए जीवित रहते हैं , क्योंकि यदि इनमें से कोई मरता है , तो दूसरा इसे सुनते ही मर जाता है ।
प्रिय और प्रिया से विरह के व्यथा के कारण आदमी आत्महत्या भी कर सकता है। लेकिन वह जानता है कि मैं आत्महत्या करूंगा तो प्रिया भी आत्महत्या करेगी। इसीलिए उसको जीवित देखने के लिए अपनी जान नही लेता या फिर अपने दुख को प्रिया को नही सुनाता ताकि प्रिया दुखी हो। *एइ भये दुहे राखे प्राण* इसलिए प्रिय और प्रिया को जीवित रहते है क्योंकि दूसरे को वह जीवित देखना चाहते हैं।
*सेड़ सती प्रेमवती , प्रेमवान्सेड़ पति , वियोगे ये वाञ्छे प्रिय – हिते ।*
*ना गणे आपन – दुःख , वाञ्छे प्रियजन – सुख , सेड़ दुइ मिले अचिराते ॥*
(मध्य लीला 13.153)
अनुवाद
ऐसी प्रेमवती सती पत्नी तथा प्रेमवान पति , विरह में एक – दूसरे की शुभकामना करते हैं और अपने निजी सुख की परवाह नहीं करते । वे एक – दूसरे के कल्याण की ही कामना करते रहते हैं । ऐसे प्रेमी – प्रेमिका दोनों शीघ्र ही फिर से मिलते हैं ।
वही सती है जो प्रेमवती है और वही पति है जो प्रेमवान है। सती होती है प्रेमवती और पति होता है प्रेमवान। *ना गणे आपन – दुःख , वाञ्छे प्रियजन – सुख , सेड़ दुइ मिले अचिराते* अपने स्वयं के दुख की अधिक चिंता नहीं करेते और जो औरों का सुख चाहता है। तो ऐसे व्यक्ति जो बिछड़ गए है, वियोग हो चुका है। वे तुरंत ही एक दूसरे को मिल जाते है, उनका मिलन हो जाता है।
*राखिते तोमार जीवन , सेवि आमि नारायण , तार शक्त्ये आसि निति – निति ।*
*तोमा – सने क्रीड़ा करि ‘ , निति याइ यदु – पुरी , ताहा तुमि मानह मोर स्फूर्ति ।।*
(मध्य लीला 13.154)
अनुवाद
तुम मेरी अत्यन्त प्रिय हो और मैं जानता हूँ कि तुम मेरे बिना एक क्षण तुम्हें जीवित रखने के लिए ही मैं भगवान् नारायण की पूजा करता हूँ । उनकी कृपामयी शक्ति से मैं तुम्हारे साथ लीला करने के लिए नित्य वृन्दावन आता हूँ । फिर मैं द्वारका धाम लौट जाता है । इस तरह तुम वृन्दावन में सदैव मेरी उपस्थिति का अनुभव कर सकती हो ।
मैं नारायण की आजकल आराधना कर रहा हूं। नारायण की कृपा से क्या मुझे कुछ विशेष बुद्धि, सामर्थ्य और शक्ति प्राप्त हो रही है और इसलिए मैं जीवित भी रह रहा हूं। इसका परिणाम यह भी होता है कि मैं वैसे तुमको समय समय पर मिलने आता हूं। मैं द्वारका में रहता हूं पर वृंदावन मिलने आता हूं। *तोमा – सने क्रीड़ा करि ‘ , निति याइ यदु – पुरी , ताहा तुमि मानह मोर स्फूर्ति* मैं वृंदावन आता हूं। तुम्हारे साथ रास क्रीडा खेलता हूं इत्यादि और पुन: मैं द्वारका लौटता हूं, जब मैं आता हूं तब तुम सुफर्त रहती हो। मेरे संग का लाभ प्राप्त करती रहती हो।
*मोर भाग्य मो – विषये , तोमार ने प्रेम हये , सेइ प्रेम – परम प्रबल ।*
*लुकाजा आमा आने , सग कराय तोमा – सने , प्रकटेह आनिबे सत्वर ।।*
(मध्य लीला 13.155)
अनुवाद
हमारा प्रेम – व्यापार इतना शक्तिशाली इसीलिए है , क्योंकि सौभाग्यवश मुझे नारायण की कृपा प्राप्त है । इससे मैं दूसरों से अप्रकट होकर वहाँ आ सकता हूँ । मुझे आशा है कि शीघ्र ही मैं सबको दिख सकूँगा ।
मैं वैसे छिप छिप कर आता हूं और तुम्हारे साथ क्रीडा करता हूं। किंतु अब क्या होगा? तुरंत ही भविष्य में सचमुच वृंदावन में आकर रहने वाला हूं। वृंदावन में आना जाना होता रहता है छिप छिप कर आता हूं। हे राधे, लेकिन अब वहां आकर मैं प्रकट होंगा और वही रहूंगा। अब कुछ ही समय बाकी है।
*यादवेर विपक्ष , यत दुष्ट कंस – पक्ष , ताहा आमि कैलुं सब क्षय।*
*आछे दुइ – चारि जन , ताहा मारि ‘ वृन्दावन , आइलाम आमि , जानिह निश्चय ॥*
(मध्य लीला 13.156)
अनुवाद
मैं यदुवंश के उत्पाती असुर शत्रुओं को पहले ही मार चुका हूँ और मैंने कंस तथा उनके मित्रों का भी वध कर दिया है । फिर भी दो – चार असुर अभी भी बचे हुए हैं । मैं उन्हें मारना चाहता हूँ और उनका वध करने के बाद मैं शीघ्र ही वृन्दावन लौट आऊँगा। इसे तुम निश्चित जानो ।
यादव के जो विपक्ष में जो भी दुष्ट है , शत्रु है। उनका तो मैंने वध किया हुआ है। जैसे कंस है, उनको तो मेने यमपुरी भेजा है। कइयों की मैंने जान ली है।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।*|
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
दुष्टो का संहार कर चुका हूं। अब दो चार बाकी है। उसके बाद मेरे को कहां आना है? सीधा मैं वृंदावन ही आऊंगा। यह बात निश्चित है।
*सेड़ शत्रु – गण हैते , व्रज – जन राखिते , रहि राज्ये उदासीन हजा ।*
*येबा स्त्री – पुत्र – धने , करि राज्य आवरणे , यदु – गणेर सन्तोष लागिया ।*
(मध्य लीला 13.157)
अनुवाद
मैं वृन्दावन के निवासियों को अपने शत्रुओं के हमलों से बचाना चाहता हूँ । इसीलिए मैं अपने राज्य में रहता हूँ , अन्यथा मैं अपने राजसी पद के प्रति उदासीन हूँ । मैं राज्य में जो भी पलियाँ , पुत्र धन रखता हैं , वे सारे के सारे केवल यदुओं के सन्तोष के लिए हैं ।
मैं भी तो प्रसन्न नही हूं, मै भी तो उदासीन हूं। मुझे भी तो वृंदावन आना है। कृष्ण कह रहे है कि मैं अगर बचे हुए असुरों का संहार करे बिना वृंदावन आ जाऊंगा तो ये असुर और राक्षस वृंदावन पहुंच जायेंगे। वहां उत्पात मचेगा इसलिए मैं दूर रहता हूं। द्वारका रहता हूं। *येबा सेड़ शत्रु – गण हैते , व्रज – जन राखिते।* ब्रजवासियों की रक्षा के लिए दूर रहता हूं। *येबा स्त्री – पुत्र – धने , करि राज्य आवरणे , यदु – गणेर सन्तोष लागिया ।*
यहां मेरा रहना तो वैसे मुझे अच्छा नहीं लगता है। किंतु लेकिन यादुओं की प्रसन्नता के लिए मैं यहां इच्छा नहीं होते हुए भी रहता हूं और यह अंतिम प्रयार है।
*तोमार ये प्रेम – गुण , करे आमा आकर्षण , आनिये आमा दिन दश बिशे ।*
*पुनः आसि ‘ वृन्दावने , व्रज – वधू तोमा – सने , विलसिब रजनी – दिवसे ॥*
(मध्य लीला 13.158)
अनुवाद
तुम्हारे प्रेममय गुण मुड़ो सदैव वृन्दावन की ओर खींचते रहते हैं । वे दस – बीस दिनों में मुडो , निश्चय ही , वापस बुला लेंगे और लौटने पर मैं तुम्हारे तथा व्रजभूमि की सारी बालाओं के साथ रात – दिन विलास करूँगा ।
तुम्हारा जो प्रेम है, तुम्हारी जो भक्ति है मुझे वृंदावन की ओर आकृष्ट कर रही है। बस अब 10–20 दिन की बात है तो मैं पुनः वृंदावन पहुंचने वाला हूं। *पुनः आसि ‘ वृन्दावने , व्रज – वधू तोमा – सने , विलसिब रजनी – दिवसे* पुनः जब वृंदावन आ जाऊंगा। तुम *व्रज – वधू* राधा रानी और गोपियां, तुम्हारे साथ मैं विलास करूंगा। कितने समय के लिए और फिर मुझे क्या करना है? मैं यही तुम्हारे साथ रहूंगा, खेलूंगा, साथ में आनंद लूटेंगे। मिलन उत्सव होगा।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*3 जुलाई 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 776 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हुए हैं। ( यहां कुछ करंट व इंटरनेट का इशू चल रहा है। ये लोग ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं। फिर भी हम प्रारंभ तो कर ही देते हैं।)
आप तैयार हो? यस! ठीक है।
गौरांग!
हम धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे का स्मरण कर रहे हैं। केवल कुरुक्षेत्र का ही नहीं, कुरुक्षेत्र में उपस्थित श्रीकृष्ण का भी स्मरण कर रहे हैं। श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में भगवतगीता सुनाई।
*गीता सुगीताकर्तव्या किमन्य: शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥*
(गीता महात्मय ४)
अनुवाद :- चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।”
भगवतगीता के चतुर्थ अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, “सेना भी है, सेना युद्ध करने के लिए तैयार है।”
अर्जुन उवाच
*सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेऽच्युत । यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।। कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ।।*
( श्रीमद् भगवतगीता १.२१-२२)
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ।
दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को खड़ा करो। पार्थ के सारथी श्रीकृष्ण ने वैसे ही किया है। दोनों सेनाओं के मध्य में पहुंचने पर बहुत कुछ हुआ।
हरि! हरि!
*क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परन्तप।।*
( श्रीमद् भगवतगीता 2.3)
अनुवाद- हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ | यह तुम्हेँ शोभा नहीं देती | हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ।
अर्जुन का हृदयदौर्बल्यं हो रहा था अर्थात उसके मन की स्थिति डांवाडोल हो रही थी।
सञ्जय उवाच
*एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।*
( श्रीमद् भगवतगीता २.९)
अनुवाद:- संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया ।
मैं लड़ाई नहीं करूंगा।
*कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।*
( श्रीमद् भगवतगीता २.७))
अनुवाद:- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें ।
तब उन्होंने शिष्यस्तेऽहं भी कहा।
शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।मैं आपका शिष्य बन रहा हूँ। शिष्यत्व स्वीकार कर रहा हूँ।
शाधि मां – मुझे आदेश उपदेश कीजिए, जिसमें मेरे कल्याण की बात है, वह मुझे सुनाइए। कृष्ण उसे सुना रहे हैं। वे सुनाते सुनाते चौथे अध्याय तक पहुंचे हैं। हम वहां से आपको यह दिव्य ज्ञान सुनाएंगे। कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं। महाभारत में लिखा है। भगवत गीता भी महाभारत ही है। भीष्म पर्व के18 अध्याय हैं। महाभारत इतिहास है। भगवतगीता का उपदेश श्रीकृष्ण ने सुनाया, यह भी इतिहास है, यह तथ्य सत्य है। वहां स्वयं कृष्ण है, अर्जुन है, बहुत कुछ है। अठारह अक्षौहिणी सेना भी है। यह सारा महाभारत है।
श्री भगवानुवाच
*इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।*
( श्रीमद् भगवत् गीता ४.१)
अनुवाद- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया |
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- इमं विवस्वते योगं – यह योग का ज्ञान मैने विवस्वान देवता को सुनाया था। प्रोक्तवानहम – कहा था। यह भूतकाल की बात है। इमं योगं-
यह योग का ज्ञान है। गीता का यह जो ज्ञान है, मैने विवस्वान देवता को सुनाया था। तत्पश्चात विवस्वान्मनवे प्राह।
विवस्वान सूर्य देवता है। वही बातें जो मैंने विवस्वान को सुनाई थी, वही बातें विवस्वान ने मनु को सुनाई थी। पहले प्रोक्तवानहम – कहा था। विवस्वान ने वही बाते मनु को कही। प्राह – वो भी कहा के अर्थ में ही है। तत्पश्चात
मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्। मनु ने जो ज्ञान इक्ष्वाकु राजा को दिया। मैंने जो सुनाया, उसे प्रोक्तवान कहा। विवस्वान ने जो कहा, उसे प्राह कहा। तत्पश्चात मनु ने जो इक्ष्वाकु से बातें कही, उसको ऽब्रवीत् कहा गया है। संस्कृत बीच में आ जाती है।प्रोक्तवान,प्राह,ऽब्रवीत् मतलब कहा, कहा अर्थात विवस्वान ने भी कहा, मनु ने भी कहा।
इतना कहकर कृष्ण चौथे अध्याय के आगे के श्लोक २ में कहते हैं। बड़ी प्रसिद्ध बात कहते हैं।
*एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।*
( श्रीमद् भगवतगीता 4.2)
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत: यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है ।
एवं’ मतलब इस प्रकार। जैसे पहले श्लोक में सुनाया था- प्रोक्तवान, प्राह, अब्रवीत। इस प्रकार परम्पराप्राप्तं अर्थात
परंपरा में इस ज्ञान को राज ऋषि सुनाया करते व सुनते रहे। परम्परा पर जोर दे रहे हैं।
*एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप*
किंतु काल के प्रभाव से यह जो ज्ञान है, जो परंपरा में दिया जाता है उसमें कुछ विकृति आती है। विकृति तो नहीं आनी चाहिए। ढक जाता है। कुछ लोग ‘मेरा विचार, मेरा विचार’ करते हैं अथवा अपना भाष्य सुनाते हैं। वे उस मूल ज्ञान को आच्छादित करते हैं जिसे कृष्ण कहते हैं ।
*स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।*
अर्जुन, इस प्रकार यह ज्ञान नष्ट हुआ। नष्ट नहीं होता है लेकिन ढका जाता है, आच्छादित होता है। कुछ लोग पथभ्रष्ट करते हैं। मनगढ़ंत बातें सुना कर गीता को यथारूप नहीं सुनाते है।
‘नष्टः परन्तप’ कृष्ण बता रहे हैं। पहले कहा कि इस प्रकार परंपरा में ज्ञान प्राप्त किया जाता है। लेकिन काल के प्रभाव से यह ज्ञान आच्छादित होता है अथवा लोग भूल जाते हैं।
इसीलिए अर्जुन को तैयार कर रहे हैं अथवा अर्जुन को बता रहे हैं कि तुम्हें मैं यह ज्ञान दे रहा हूं।
आगे तृतीय श्लोक में कृष्ण कहेंगे। इस क्रम को समझिए। प्रथम श्लोक में क्या कहा था, द्वितीय श्लोक में क्या कहा और अब इस तृतीय श्लोक में क्या कह रहे हैं?
*स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।*
(श्रीमद् भगवतगीता 4.3)
अनुवाद:- आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो।
स एव मतलब वही ज्ञान। जो ज्ञान मैंने विवस्वान को सुनाया था और विवस्वान ने मनु को सुनाया था और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को सुनाया था, वही ज्ञान मेरे द्वारा तुम्हें आज या अभी अभी सुनाया जा रहा है। यह मोक्षदा एकादशी का दिन है। यह महाभारत युद्ध का प्रथम दिवस व प्रातः काल है। अब मैं ऐसी परिस्थिति में कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य में, प्रातः काल के समय व एकादशी के दिन मैं यह ज्ञान तुम्हें सुना रहा हूं। बगल में एक वृक्ष भी खड़ा है, वह भी साक्षी है।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं-
*योगः प्रोक्तः पुरातनः* अर्थात इस पुरातन और शाश्वत ज्ञान को मैं तुम्हें पुनः आज अब यहां कुरुक्षेत्र में सुना रहा हूँ। यह भी महत्वपूर्ण बात है। मैं तुम्हें ही क्यों, औरों को क्यों नहीं सुना रहा?
*स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।*
( श्रीमद् भगवतगीता ४.३)
अनुवाद: आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो।
तुम मेरे भक्त हो, मेरे सखा हो। वैसे और भी भक्त और सखा है लेकिन अर्जुन कुछ विशेष सखा है।
लेकिन प्रिया, प्रियतर ही नहीं अपितु प्रियतम है। कृष्ण ने अर्जुन का चयन किया है। क्योंकि त्वम भक्तोऽसि।
कृष्ण बड़े अभिमान के साथ कह रहे हैं कि हे अर्जुन। तुम मेरे भक्त हो, तुम मेरे सखा हो। इसीलिए रहस्यं ह्येतदुत्तमम् अर्थात जो गीता का रहस्य है जो कि उत्तम है।
*राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ।।*
(श्रीमद् भगवत गीता 9.2)
अनुवाद :- यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है | यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है।
यह राज विद्या है। गीता का ज्ञान राज विद्या है। राजगुह्यं – अत्यंत गोपनीय है। उत्तमं अर्थात उत्तम से परे ज्ञान है, मैं तुम्हें सुना रहा हूं। जब कृष्ण ने चौथे अध्याय के प्रारंभ में यह दो तीन बातें अर्जुन से कही – अर्जुन का संवाद तो चल ही रहा है। प्रश्न उत्तर हो रहे हैं। कॄष्ण को अर्जुन की शंकाओं का समाधान भी करना पड़ेगा। अर्जुन के प्रश्न व संशय हैं, तब चौथे अध्याय के चौथे श्लोक में अर्जुन कहेंगे-
अर्जुन उवाच
*अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।*
(श्रीमद् भगवतगीता BG 4.4)
अनुवाद- अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था।
अर्जुन ने आगे कहा अथवा पूछा। अर्जुन ने कहा कि ‘यह सब कह कर क्या डींग मार रहे हो?’ अपरं भवतो जन्म- आपका जन्म तो अभी-अभी का हुआ है। आप और हम तो रिश्तेदार हैं, सगे संबंधी हैं, मेरी और आपकी उम्र में कोई ज्यादा अंतर तो नहीं है। हम समकालीन हैं, आप और मैं। अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः आपने जो अभी अभी कहा –
*इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।*
मैंने जो यह ज्ञान है, विवस्वान को सुनाया था। यह कैसे संभव है? विवस्वान का जन्म तो बहुत पहले का और आपका जन्म तो अभी-अभी का है? इसलिए यह कैसे सम्भव है कि विवस्वान के समय आपने गीता सुनाई। ‘कथमेतद्विजानीयां’- मैं कैसे इस बात को समझ सकता हूँ। त्वमादौ प्रोक्तवानिति पहले पूर्व काल में अर्थात बहुत समय पहले की बात है, उस समय आपने विवस्वान देवता को ज्ञान दिया था। मैं इसे कैसे स्वीकार करूंगा? कहिए तो सही?
आप अर्जुन के प्रश्न को समझे? शायद आपका भी ऐसा प्रश्न हो सकता है? और होना चाहिए ।कईयों का ऐसा प्रश्न होता है। श्रीभगवान कहते हैं। वे अर्जुन की खोपड़ी में कुछ प्रकाश डाल रहे हैं।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः*
अर्जुन के दिमाग अथवा खोपड़ी में ज्ञान का अंजन डालेंगे। कृष्ण ने क्या कहा-
श्रीभगवानुवाच
*बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।*
( श्रीमद् भगवत गीता 4.5)
अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है।
अर्जुन, हां, समस्या यह है कि ‘बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन’ -अरे अरे अर्जुन, मेरे बहुत सारे जन्म हुए हैं ‘संभवामि युगे युगे’ मैं पहले कई बार जन्म ले चुका हूं। बहूनि मे व्यतीतानि- कई सारे मेरे जन्म पहले व्यतीत हो चुके हैं। मेरे भी और तुम्हारे भी कई सारे जन्म हो चुके हैं। हम दोनों पहले कई बार जन्मे हैं। समस्या क्या है तान्यहं वेद सर्वाणि बहुवचन में कह रहे हैं और तब तुम्हारी भी और मेरे भी और तुम्हारे भी कई सारे जन्म हो चुके हैं। हम दोनों पहले जन्मे थे। वे जन्म मुझे भलीभांति याद है। लेकिन समस्या यह है न त्वं वेत्थ परन्तप अर्थात अर्जुन तुम भूल गए हो।
जब तुम या दुनिया वाले जन्म लेते हो, तब सोचते हो कि हम पहली बार जन्मे हैं। जब हम पूछते हैं कि हाउ ओल्ड आर यू, तब वे कहते हैं कि आई एम 50 ईयर्स ओल्ड, मैं 50 साल का हूं। वे सोचते हैं कि 50 साल पहले तो मैं था ही नहीं। मैंने 50 वर्ष पहले जन्म लिया है, मैं 50 साल से ही हूं। कोई नहीं कहता कि मैं पहले भी था या शाश्वत हूं। यह समस्या है, यह समस्या अर्जुन के साथ भी थी और यही समस्या सारी दुनिया के साथ है।
*तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप* हम भी इस बात को भूल जाते हैं। अर्जुन भूल चुका है या भगवान ने उसे उस परिस्थिति में भुला दिया है व अर्जुन के ऊपर मोह माया लाद दी है। इस प्रकार के विचारों अथवा भ्रम या मोह माया के चक्कर में अर्जुन को फंसा दिया है। अब वे ऐसे भ्रमित अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। भगवान् अर्जुन को सारी गीता की बातें सुना कर अथवा ज्ञान देकर सीधे पटरी पर लाएंगे । तत्पश्चात अर्जुन कहने वाले हैं-
अर्जुन उवाच |
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।।*
( श्रीमद् भगवतगीता 18.73)
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ ।
अब मैं डांवाडोल नही रहा। अब कोई संदेह नहीं रहा।
‘स्थितोऽस्मि’ मैं स्थिर हो गया हूँ और ‘करिष्ये वचनं’ मैं अपने धर्म को निभाउंगा। मैं अपने कर्तव्य और आपके आदेश का पालन करूंगा। हरि! हरि!
अभी इतना ही कह सकते हैं। वैसे मैंने पहले कह ही दिया है कि यह महाभारत है। गीता महाभारत का ही अंग है। महाभारत इतिहास है। सारा घटना क्रम महाभारत अर्थात महान भारत का इतिहास है। इस इतिहास का यह विशिष्टय है कि यह कृष्ण के साथ जुड़ा हुआ है। वह कालावधि जब कृष्ण प्रकट लीला संपन्न कर रहे हैं और लीला खेलते खेलते अथवा संपन्न करते करते वह कुरुक्षेत्र तक पहुंचे हैं। वहां पर भगवान ने ऐसी विशेष परिस्थिति निर्माण की है और वहां पर गीता का उपदेश सुनाया है।
*ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानंद विग्रहः। अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्।।*
( ब्रह्म संहिता श्लोक ५.१)
अर्थ:- गोविन्द के नाम से विख्यात कृष्ण ही परमेश्वर हैं। उनका सच्चिदानंद शरीर है। वे सबों के मूल उत्स हैं। उनका कोई अन्य उत्स नहीं एवं वे समस्त कारणों के मूल कारण हैं।
कई लोग ऐसा नहीं मानते हैं। उनकी शुरुआत यहां से होती है कि भगवान हैं या नहीं? है तो रूप वाले हैं या नहीं? उनका रूप है या नहीं? वे यह भी नहीं जानते कि यदि उनका रूप नहीं है तो लीला खेल सकते हैं या खेलते हैं अथवा नहीं।
वह कुरुक्षेत्र में पहुंचे भी थे या कुरुक्षेत्र में थे। वे भी शायद नहीं जानते। इसलिए वे अपने अलग-अलग गीता पर भाष्य सुनाना चाहते हैं। कई अपने भाष्य की सिद्धि तथा समर्थन के उद्देश्य हेतु भगवान को मानते हैं।
कुछ नहीं मानते हैं या इतना मानते हैं अथवा उतना मानते हैं। जैसे महात्मा गांधी की भी ऐसी ही मान्यता थी। उन्होंने ऐसा लिखा है- माई एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ। उन्होंने सत्य के ऊपर प्रयोग किए। सत्य के ऊपर प्रयोग नहीं करना होता है। प्रभुपाद ने कहा कि अभी तक तुम्हारा सत्य पर प्रयोग ही चल रहा है मतलब तुम सत्य को नहीं जानते हो। ट्रुथ (सत्य) के साथ एक्सपेरिमेंट नहीं करना चाहिए, सत्य को स्वीकार करना चाहिए।
सर्वमेतदृतं मन्ये
यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।
( श्रीमद् भगवतगीता १०.१४)
अनुवाद:- हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूं। हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।
अर्जुन का स्टैंड क्या था, आप जो भी कह रहे हो, यन्मां वदसि केशव अर्थात अभी अभी जो मुझे सुना रहे हो ‘सर्वमेतदृतं मन्ये’ आप जो भी कह रहे हो, सत्य ही कहते हो। सत्य के अलावा आप कुछ नहीं कहते हो। आप जो मुझे सुना रहे हो सर्वमेतदृतं मन्ये’10वें अध्याय में श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा। आप जो कह रहे हो, वह सत्य है, मुझे मंजूर है। मैं इन तथ्यों के साथ प्रयोग नहीं करूंगा महात्मा गांधी तो सत्य के साथ प्रयोग कर रहे थे। वे अपराध कर रहे थे, उनकी समझ है, नासमझी है। भगवान तो कुरुक्षेत्र नहीं गए। यह फिर वही बातें हैं। यह शरीर ही रथ है, इंद्रियां घोड़े हैं। इस प्रकार यह सारा वर्णन कुरुक्षेत्र का होता है। वहां के युद्ध यह दंतकथा, यह माइथोलॉजी है। लोग ऐसा मानते हैं। महात्मा गांधी ने यहां तक कहा था कि गीता का सार है- अहिंसा। हर व्यक्ति अपना अपना सार निकालता है। लोकमान्य तिलक ने जैसे कहा कि गीता का रहस्य है कर्म योग। महात्मा गांधी की समझ में और ही कुछ रहस्य आया। वे भगवान को लड़ने नहीं दे रहे हैं। भगवान् लड़ तो नहीं रहे थे लेकिन भगवान् अर्जुन को युद्ध के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे।
*तस्मात्सर्वेषु कालेषु, मामनुस्मर युध्य च।मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः।।*
( श्रीमद् भगवतगीता ८.७)
अर्थ:- अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिंतन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए। अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।
युद्ध करो। महात्मा गांधी की ऐसी नासमझी है अथवा गलतफहमी है कि भगवान तो हिंसक हो गए। वे हिंसा को प्रमोट कर रहे हैं तो यह कैसे भगवान हैं। नहीं! नहीं! हम नहीं मानते। वह अहिंसा को नहीं समझ रहे हैं कि अहिंसा किसको कहते हैं। हरि! हरि ! वर्ष 1970 में श्रील प्रभुपाद अपने विदेश के शिष्यों के साथ (उस समय विदेश के ही शिष्य थे। जहां तक मुझे स्मरण है, अमृतसर में गीता जयंती का उत्सव संपन्न हो रहा था। श्रील प्रभुपाद को आमंत्रण मिला था। तब प्रभुपाद अपने शिष्यों के साथ गए थे।) अमृतसर से दिल्ली लौट रहे थे, रास्ते में कुरुक्षेत्र आ गया । ट्रेन से यात्रा हो रही थी, जब रेल कुरुक्षेत्र से गुजर रही थी, तब प्रभुपाद ने अपने कंपार्टमेंट की खिड़की में से उंगली करके दिखाया कि वह देखो, वहां पर देखो, यही है धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र। सेना के मध्य में वहां पर कृष्ण खड़े थे और वहां पर उपदेश किया था।
यह अंतर है। कैसे महात्मा?? हरि! हरि!
*श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ज्ञानं लब्धवा शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।*
( श्रीमद् भगवतगीता ४.३९)
अनुवाद:- जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित हैं और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शांति को प्राप्त होता है।
प्रभुपाद की दृढ़ श्रद्धा है, यह इतिहास है। ऐसी घटना घटी थी और एक समय कृष्ण यहां थे। उन्होंने उपदेश सुनाया था। इसलिए ऐसे महात्मा ही परंपरा में आते हैं। एवं परंपरा प्राप्तं उस गीता को यथारूप सुना सकते हैं। जो परंपरा में नहीं है, जो श्रद्धालु नहीं है जिनका विश्वास ही नही है कि कृष्ण कुरुक्षेत्र में पहुंचे भी थे या नहीं।
*गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥*
चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।”(गीता महात्मय ४)
कृष्ण के मुख से वचन निकले थे।
ऐसे लोग भगवत गीता के संबंध में क्या समझेंगे, क्या सुनाएंगे और क्या भाष्य लिखेंगे? यह सारी गुमराही ही होगी। हरि! हरि!
इसलिए भी कहा है-
*सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फ़ला मताः*
( पद्म पुराण)
अर्थ:- यदि कोई मान्यताप्राप्त गुरु- शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता, तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फ़ल है।
संप्रदाय के बाहर या परंपरा के बाहर मंत्र या मंत्रना या भाष्य विफल है। उससे फल प्राप्त नहीं होगा। हरि! हरि! इसलिए आप ‘एवं परंपरा प्राप्तं की महिमा को जानो, समझो। भगवान इसी अध्याय में आगे कुछ श्लोकों के उपरांत कहने वाले हैं-
*तद्विद्धि प्राणिपातेन परिप्रेक्षन सेवया।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।।*
( श्रीमद् भगवतगीता ४.३४)
अनुवाद:- तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।
जो तत्व की दृष्टा है उनसे सुनो। गीता के अध्याय उनसे प्राप्त करो। कृष्ण कहने वाले हैं
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेति तत्वत्तः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सो अर्जुन।।*
( श्रीमद् भगवतगीता ४.९)
अर्थ:- हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक
संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
भगवान को तत्वत्तः समझना है। हम भगवान को तत्वत्तः तभी समझते हैं जब हम परंपरा में गीता को सुनते हैं। तत्पश्चात सुनाते हैं अन्यथा चीटर एंड चीटेड होते हैं। कुछ ठगाने वाले हैं और कुछ ठग जाते हैं। दुनिया इन दो प्रकार के लोगों से भरी पड़ी है । ठगाने वाले है और ठगने वाले हैं,
इसलिए सावधान रहो।
हरे कृष्ण!
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हरे कृष्ण!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
02 जुलाई 2021
गौरांग!
857 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद।
जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद।।
तो कुछ दिन पहले मैं चैतन्य चरितामृत पढ़ रहा था। मध्य लीला 19 अध्याय या परिच्छेद बंगाली में कहते हैं। पूरा तो नहीं पढा कुछ अंश ही पढा मैंने।
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव । गुरु – कृष्ण – प्रसादे पाय भक्ति – लता – बीज ।।
अनुवाद “ सारे जीव अपने – अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे । हैं । इनमें से कुछ उच्च ग्रह – मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह – मण्डलों को । ऐसे करोड़ों भटक र जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है , जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है । कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है ।
तो वहां वह पयार मैंने पढ़ा जिससे हम सभी परिचित हैं। हां परिचित हो कि नहीं युगावतार? ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव। सुनो, अभी तो कोई जप ही कर रहे हैं, कोई सो रहे हैं। जीव जागो जीव जागो हां अलका माताजी सुनो, यह जप चर्चा का समय है। तो ब्रह्मांड भ्रमिते इससे आप परिचित हो कि नहीं? यहां पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रील रूप गोस्वामी को प्रयागराज में दशाश्वमेध घाट पर 10 दिनों तक जो उपदेश किए, उसी के अंतर्गत यह वचन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही कहे। तो कहने वाले महाप्रभु है। अगर हम जान सकते हैं महाप्रभु को, तो फिर हम समझ जाएंगे उनके वचन, उनका उपदेशामृत भी कितना केवल मधुर ही नहीं महत्वपूर्ण भी होना चाहिए। जो उपदेश वे रूप गोस्वामी को सुना रहे हैं। तो साक्षात भगवान ही बोल रहे हैं। और फिर दूसरा एक संवाद कृष्ण अर्जुन का संवाद। वह तो भगवदगीता के रूप में प्रसिद्ध है ही। यहां कृष्ण है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और अर्जुन के स्थान पर यहां श्री रूप गोस्वामी को उपदेश किया जा रहा है। वैसे चैतन्य चरितामृत के अंतर्गत यह उपदेश है। तो चैतन्य चरितामृत बड़ा उच्च अभ्यासक्रम भी है। पोस्ट ग्रेजुएशन सिलेबस है यह चैतन्य चरितामृत का अध्ययन। चैतन्य चरित्रामृत की शिक्षाएं। चैतन्य महाप्रभु कहे ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव। इस ब्रह्मड में भ्रमण करने वाले पुनरपि जनमम मरनम करने वाले जीव तो असंख्य है। उसमें से कुछ जीवो को भगवान भाग्यवान बनाते हैं। उनके भाग्य का उदय कराते हैं। क्या करके?
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव । गुरु – कृष्ण – प्रसादे पाय भक्ति – लता – बीज ।।
उनको भगवान कैसे भाग्यवान बनाते हैं? उनको गुरु के पास पहुंचाते हैं। फिर शुरुआत में वह वर्त्म प्रदर्शक गुरु हो सकते हैं या शिक्षा गुरु हो सकते हैं। फिर वह अंततोगत्वा दीक्षा गुरु भी हो सकते हैं। तो इन गुरुओ के पास भेज कर वे जीव को भाग्यवान बनाते हैं। वैसे भाग्यवान बनाने वाले भगवान ही यहां कह रहे हैं। तो जब गुरु के पास पहुंचा कर उसे भाग्यवान बनाया। गुरु के पास पहुंचाया भाग्यवान बनाया और भी क्या होता है? वे गुरु भगवान की ओर से भक्ति लता का बीज देते हैं उस व्यक्ति को, उस जीवात्मा को, उस भाग्यवान जीव को। भाग्यवान जीव आजकल हम अभियान भी चला रहे हैं। भाग्यवान जीव आप भी बनाते हो, आप प्रचार करते हो आप औरों को प्रेरित करते हो। तो भगवान का एजेंट बनकर या भगवान की ओर से भगवान का प्रतिनिधित्व करके आप भी उन जीवों को भाग्यवान बनाते हो। भक्ति लता बीज देखा तो हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे वह भी भक्ति लता बीज का एक प्रकार हुआ कहो। यह भक्ति लता बीज है नाम बीज है। इतना तो हम पढ़े या सुने होते हैं यह वचन। लेकिन मैं जब पढ़ रहा था चैतन्य चरित्रामृत तो मेरा ध्यान उसके बाद वाला जो वचन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे उससे अधिक आकृष्ट हुआ। या कुछ और अधिक समझ में आया, विचारोत्तेजक था। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे माली हइया करह सिंचन। बीज रोपण ठीक है बीज तो प्राप्त हुआ या जीव भाग्यवान बन गया. उसको बीच प्राप्त हुआ। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं रूप गोस्वामी प्रभुपाद को कह रहे हैं की उस बीज प्राप्त किए हुए भाग्यवान जीव को माली हइया उसको माली बनना चाहिए, उसको किसान बनना चाहिए। और उस बीच का रोपण करना चाहिए। केवल उस बीज को संग्रहित ही नहीं करना है, उस बीज का रोपण करना है माली बनकर। और फिर वह माली बन गया, बीज का रोपण भी किया। और फिर चैतन्य महाप्रभु आगे कहे श्रवण कीर्तन जले करेन सिंचन। पहले तो कहे कि जीव भाग्यवान बनता है या भगवान ही बनाते हैं किसी जीव को भाग्यवान। उसे गुरुजनों के पास पहुंचाते हैं। गुरुजन देते हैं भक्ति लता बीज। बीज है तो उससे फिर आगे बहुत कुछ उत्पादन या निर्माण होता है बीज से। और फिर उस बीज प्राप्त हुए व्यक्ति को फिर माली की भूमिका निभानी चाहिए। किसान की भूमिका निभानी चाहिए।
उस बीज का रोपण करना चाहिए। और फिर श्रवण कीर्तन जले करह सिंचन। हरि हरि। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बता रहे हैं यहां जब व्यक्ति माली बना है, उसने रोपण भी किया, सिंचन भी कर रहा है। तो चैतन्य महाप्रभु बता रहे हैं सावधान माली। उसने जो बीज बोए थे, वह तो उगेंगे और उसके साथ साथ तुम्हारा जो सिचन है जो खाद्य या जल जो पिला रहे हो, खिला रहे हो उस बीज को। तो वह तो अंकुरित होगा, उगेगा। लेकिन साथ ही साथ और कई सारे बीज भी अंकुरित होंगे उगेंगे। कई घास उगेगा, कई कांग्रेस एक घास का प्रकार है उगेगा जिसको यहां कहां है अनर्थ। अनर्थ उत्पन्न होंगे। फिर उस माली के जो अनर्थ है, अन अर्थ अर्थहीन हैं, बेकार है, बेकार का घास है या और भी कुछ उग रहा है। तो माली बन कर उस माली को, किसान को वह जो घास है तृन है और जो फालतू चीजें उग रही है उसे उखाड़ के फेकना चाहिए। ताकि तुम्हारा जो श्रवण कीर्तन का जल है, खाद्य पानी है वह पुष्टि करेगा, तुम्हारे भक्ति लता बीच की पुष्टि करेगा। उसको बांटना नहीं पड़ेगा और बीजों के साथ और घास के साथ। तो फिर यह जो लता है वह उगती रहेगी। चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं माली को यह ज्ञान होना चाहिए। इस लता को हरियाली यहां तो नहीं कहे हैं चैतन्य महाप्रभु। किंतु एक होता है फसल या तो पौधे होते हैं। और लता कुछ और होती है फसल से कुछ भिन्न होती है लता। लता समझते हो? तो इस लता का थोड़ा अधिक ख्याल करना पड़ता है। यह बड़ी नाजुक भी होती है हो सकता है हवा के झोंके के साथ यह टूट सकता है। और इसको सदैव सहारे की आवश्यकता होती है। इसीलिए किसान इसीलिए किसान उसमें कोई डंडे गड्ढे बनाकर उसमें खड़े करते हैं। कुछ मंच बनाते हैं वहां लता को पहुंचाते हैं। उगती रहती है वहांऋ इस प्रकार यह लता होने के कारण उसका अधिक ख्याल करना होगा। संभालना होगा इस लता को। इस लता को भक्तिलता कहां है। भक्ति लता बीज इस बीज से लता उत्पन्न होने वाले हैं। और यहां ब्रह्मांड को भेंद करके इसको ब्रह्मांड के बाहर भी पहुंचाना है। ऊपर तक पहुंचेगी और रास्ते में यह ब्रह्माज्योति से आगे बढ़ना है। ऊंचा करना है। चढ़ना है स्वता को बैकुंठ धाम अगर आ गए तो वही है। उगती जाएगी यह भक्तिलता बीज।
गोलोकधाम वगैरह आ गए तो वही है। और उगती जाएगी यह भक्तिलता। और गोलोक पहुंचेगी फिर श्रीकृष्ण चैतन्य कहो या श्रीकृष्ण उनके चरणों का आश्रय लेगी।और फिर प्रारंभ में जो इस बीज का आरोपण किया था। बोया था और फिर सिंचन भी हुआ। जो अनर्थ है उसका उन्मूलन भी हुआ। और फिर विशेष ध्यान भी दिया। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यहां पर कहते है। हरि हरि, यह पूजा लाभ प्रतिष्ठा के विचार आ जाते हैं। यह बहुत बड़ा अनर्थ है। और कई अनर्थ तो है ही, लेकिन यह कुछ महाअनर्थ भी मन में उठ सकते हैं। मेरी पूजा हो। लाभ हो। मुझे और भी कुछ लाभ हो। प्रतिष्ठा, मैं प्रतिष्ठित हूं। मैं कुछ विशेष हूं। ऐसी मेरी मान्यता है। इस प्रकार के अनर्थ होते है। इनसे बचना है और अनर्थ तो है ही उसकी तुलना में यह पूजा लाभ प्रतिष्ठा का जो विचार है। ऐसा कपटी, अन्यथा विचार, ढोंग, दंभ दर्प अहम यह उसी के अंतर्गत होता है। अहम् ब्रह्मास्मि। माया का आखरी स्तर प्रभुपाद कहते हैं। अहम अहम अहम तो चलता ही रहता है। और फिर जीव ऐसे मायावादी होते हैं। और फिर भगवान को नहीं समझते है। मैं हीं भगवान हूं। अहम् ब्रह्मास्मि ब्रह्म मैं हूं। ब्रह्म में लीन होने का विचार यह बहुत बड़ा अहंकार है। अहंकार की कोई सीमा ही नहीं रही। इनसे बचना होगा। यह पूजा लाभ प्रतिष्ठा के जो विचार है। और बद्धजीव ऐसे अनर्थ से पीड़ित जो व्यक्ति हैं ऐसी कई सारी योजनाएं व्यवस्था ही बनाते रहता है। ताकि उसकी होगी पूजा, उसकी होगी प्रतिष्ठा, उसका होगा लाभ, उसको और कुछ लाभ हो अनर्थोसे बचते हुए देखना है। लता पहुंच जाती है भगवतधाम। भगवान के चरणों का आश्रय लेती हैं. भगवान का आश्रय लेती है। और फिर बीज का रोपन जो हुआ था, उसका अंततोगत्वा फल प्राप्त होगा। और वह फल है कृष्णप्रेम का फल। कृष्णप्रेम उदित होगा। या उसका माली उसका आस्वादन करना चाहेगा। और फिर इतना ही नहीं। अच्छा माली है तो, कितने सारे फल उसको मिलने वाले हैं। बहुत सारे फल। फिर वह उसे चख सकता है। चैतन्य महाप्रभु यहीं पर कही यह भी कहे हैं, मैं माली तो हूं ही. लेकिन मैं अकेला माली कितने सारे फल तोड़ सकता हूं। इस बगीचे में इतने सारे फल, मैं अकेला इकट्ठा कर सकता हूं।
मुझे इसको बांटने वाले चाहिए। तो माली क्या करेगा वह औरों को देगा। या वह फल चख भी रहा है। यह एक आदर्श माली है। निस्वार्थ है। परोपकारी है। तो वहां औरों को बुला लेगा। आ जाओ पार्टी होगी। हम साथ में खाएंगे, चखेंगे,, आस्वादन होगा। और साथ ही में हम ही क्यों कोई और क्यों नहीं? और लोग क्यों नहीं सिर्फ 903 ही क्यों? केवल 903 स्थानों से ही जितने भक्त हैं वहीं आस्वादन कर रहे हैं, इस हरिनाम का। हरि कथा जप चर्चा का। बाकी क्यों नहीं और लोग क्यों नहीं? तो फिर वह याद करेंगे औरों को याद करेंगे। माली सोचेगा कि वह भी यहां पर होते फिर उनसे संपर्क करेगा। और उनके साथ की अपना फल शेयर करेगा यह माली। इस प्रकार यह माली के अलग-अलग भूमिका या सेवा का वर्णन हुआ। यहा चैतन्य महाप्रभु अपेक्षा कर रहे हैं। माली की बात मुझे अच्छी लगी। चैतन्य महाप्रभु ने माली हय्या वह तो हम सुनते ही रहते हैं। पढ़ते ही रहते हैं या मैं तो पढ़ते रहता हूं।ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव । गुरु – कृष्ण – प्रसादे पाय भक्ति – लता – बीज लेकिन फिर आगे कहां। आप माली है या माली बनो। हम माली बनके यह करो वह करो वह करो तो आप भी माली हो या आपको माली बनना है। या अच्छे माली बनो। तो और क्या क्या हमें तो कुछ संकेत भी चैतन्य महाप्रभु ने कुछ कहा है। आपको कुछ स्मरण दिलाया। एक तो माली बनना है। और माली बनके यह सारा करना है। आप क्या कहोगे या और क्या करना चाहिए। यह जो सारी बातें हैं इसको बढ़िया से। इस सेवा को माली होने की, जो जिम्मेदारी है, जिम्मेदार माली। माली मालियों में तो अंतर होता है। मैं अब जहां रहता हूं वहां पर पीछे कई सारे खेत हैं। अलग-अलग किसानों के अलग-अलग माली के कहो। एक में तो खेत में बढ़िया से फसल उगी है। एक में उसके नामोनिशान नहीं है। काफी सारा घास है। अनर्थ है। वही उग रहा है। कांग्रेस उग रहा है। कांग्रेस मतलब पार्टी नहीं एक घास को कांग्रेस कहते हैं। कांग्रेस नाम का एक घास। हर के खेत में माली के कम अधिक प्रयासों के कारण वहां फसल फल या अनाज भी है। वह भी कुछ कम अधिक उसका उत्पादन होता है। यह देखा जाता है. पता नहीं, अब माली कौन होता है या किसान क्या करता है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए कुछ कल्पना नहीं है। या तो शहर में आप जन्मे हो।
बिगड़े लोग आप हो। खेत का नाम आपने सुना है। कोई होते हैं। किसान अपने सुना है लेकिन कुछ पता नहीं है। लेकिन यहां तो चैतन्य महाप्रभु आपको माली बनने के लिए कह रहे हैं। कल फिर आपको पता लगवाना होगा मालिक कौन होता है। क्या-क्या करता है। क्या करना चाहिए। तो आप कहो आप क्या क्या कर रहे हो? क्या सही कर रहे हो क्या गलत कर रहे हो या आपको पता भी चला है क्या? क्या करना चाहिए आपसे हम सुनना चाहते हैं। आप में से कोई माली आपको शायद पता भी ना हो। मुझे नहीं पता मैं माली था। या चैतन्य महाप्रभु मुझे किसान बनने के लिए रहे हैं। और फिर किसान है तो खेत भी कौन सा होना चाहिए, या फिर खेत को कैसे तैयार करना चाहिए। यह सब जानना होगा। बीज तो है लेकिन जब ग्रीष्म ऋतु होता है उस वक्त बीज को नहीं बोना होता है। बीज का रोपन करो और रोपीत करो। बीज का रोपन करो। लेकिन वह तो सुनते ही दौड़े पर खेत की ओर। उसने देखा नहीं कौन सा ऋतु चल रहा है। वर्षा हुई है कि नहीं है। या रोपन के पहले भी खेत में जमीन को तैयार करना होता है। उसको मशागत कहते हैं। उस पर हल चलाते हैं और क्या-क्या करते हैं। बीज बोने के पहले हमें खेत का क्षेत्र तैयार करना होता है। ठीक है. अभी आप बोलिए। आप में से कोई बोलिए। पदमामाली अभी आपको बोलना है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
01 जुलाई 2021
॥ जय श्री कृष्ण चैतन्य , प्रभु नित्यानंद ,
श्री अद्वेत , गदाधर , श्रीवास आदि गोर भक्त वृंद ॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
847 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं । आप सभी का स्वागत है । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज संबोधित करते हुए ) ‘धीर प्रशांत’ और बाकी सभी भक्तों को भी । आज गुरुवार है , आज तो कोई विशेष तिथि नहीं है । या वैष्णव तिथि के अनुसार या पंचांग के अनुसार आज केवल गुरुवार ही है । या जिसको बृहस्पतिवार भी कहते हैं । बृहस्पति जो देवताओं के गुरु । देवताओं के भी गुरु है बृहस्पति । तो यह दिन गुरुवार के नाम से जाना जाता है । वैसे आज एक घटना घटनी चाहिए थी या प्रारंभ होनी चाहिए थी । किंतु प्रारंभ नहीं होने वाली है और वहां है *”दिंडी”* या महाराष्ट्र में जिसको दिंडी कहते हैं । दिंडी यात्रा ना की दांडी यात्रा ।
महात्मा गांधी की दांडी यात्रा गुजरात में और किसी उद्देश्य से वह यात्रा की या पैदल यात्रा की । महाराष्ट्र में दिंडी यात्रा कुछ पिछले 700 वर्षों से चल रही है । और आज के दिन वह प्रारंभ होकर 18 दिनों के उपरांत पंढरपुर में पहुंचती है । यह पदयात्रा दिंडी , वह केवल चलते ही नहीं उसके साथ नाचते भी हैं । तो यह यात्रा करने वाले या दिंडी करने वाले भक्तिको वारकरी कहते हैं । महाराष्ट्र में वार मतलब बार (सप्ताहिक वार वाला वार ) । वार और बार एक ही मतलब है । बारंबार तो जो बारंबार या पुनः पुनः जो आते हैं पंढरपुर विशेषकर जो चल के आते हैं उनको वारकरी कहते हैं । उसमें से कई सारे पताका लेकर भी चलते हैं । और हरे कृष्ण दिंडी वाले भी या हरे कृष्ण भक्तों की दिंडी में भी मुझे याद आ रहा है कि पिछले लगभग 20 सालों से हमारे केशव प्रभु , उद्धव प्रभु , पार्थसारथी प्रभु , या राधा श्याम प्रभु पुणे मंदिर के अध्यक्ष उनकी प्रेरणा से या उनके आयोजन से उनके व्यवस्था से पिछले 20/21 सालों से हरे कृष्णा दिंडी भी चल रही थी लेकिन आज नहीं चलेगी नहीं प्रारंभ होगी जो दूर देव की बात है । पिछले साल भी नहीं हुई और इस साल भी नहीं हो रही जा रही है । यह कोरोना का प्रभाव है । हरि हरि !!
तुकाराम महाराज भी दिंडी में आया करते थे , यात्रा में आया करते थे । यह 500 वर्ष पूर्व की बात है । या450 वर्ष पूर्व की बात है । तो 1 साल नहीं आ पाए बीमार थे । जनानी के लिए तो बड़े लालाइत और बड़े उत्कंठीत् थे । फिर उन्होंने एक पत्र लिखा विट्ठल भगवान को । वह पत्र अभी उपलब्ध है आप उसे पढ़ सकते हो । पत्र लिखकर उन्होंने अपने मित्र के पास दीया । तो उस मित्र ने दिंडी में आने वाले थे तो वे आए भी 18 दिन चल के । 1 दिंडी तो , इस दिंडी में कुछ 5,00,000 वारकरी पैदल यात्रा करते हैं । यह कुछ वर्ल्ड रिकॉर्ड या गिनेस वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी आ सकता है । 5,00,000 या प्लस माइनस कहिए यात्रा करते हुए आते हैं । अलग-अलग स्थानों से आते हैं । एक स्थान तो था तुकाराम महाराज का; देहू गांव ही है । तुकाराम महाराज का जन्म स्थान । या तुकाराम महाराज के जन्म स्थान भी और तुकाराम महाराज के प्रस्थान , बैकुंठ गमन स्थान भी वह देहू या आपको बता ही दें जब कोई एयरलाइन नहीं चलती थी इस पृथ्वी पर लेकिन अब तो एयर इंडिया, एयर फ्रां, या तो गरुड़ एयरलाइंस आजकल इंडोनेशिया देश की एयरलाइंस का नाम है गरुड़ एयरलाइंस । इस समय कोई एयरलाइन नहीं थी । वैसे अमेरिका में कुछ समय पहले (परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज खुद को संबोधित करते हुए ) मैं जब 20/30 पहले जब यात्रा किया करता था तब सिर्फ एक एयरलाइन थी T.W.A उसका नाम था । ट्रांसफर एयरलाइन । तो इस्कॉन के भक्त कहते थे यह ट्रांस डेंटल ( दिव्य ) वर्ल्ड एयरलाइन है । इस जगत के परी वाली ।
तो सचमुच 450 वर्ष पूर्व ऐसे ही एक TWA , वैकुंठ से विमान आया । और लैंड किया पुणे के पास । फिर देहू गांव है । जिसे पुणे को भी एक समय पुण्य नगरी कहते थे तो वह धीरे-धीरे पुण्य नगरी तो भूल गए पुणे का पुणे हुआ अंग्रेजों ने उसको पूणा कहना प्रारंभ किए । तो उस पुण्य नगरी के पुणे के और उस पर उसमे इंद्रायणी पवित्र नदी के तट पर ये देहू गांव तो वहां यह विमान पहुंचा । और तुकाराम महाराज , वैसे उनकी तीव्र इच्छा थी भगवत प्राप्ति की इच्छा यह नहीं कि उनको भगवत प्राप्ति नहीं हुई थी । तो कहना होगा कि भगवत धाम की प्राप्ति कि तीव्र इच्छा थी । और कई दिनों तक वह कीर्तन कर रहे थे ।
जय जय राम कृष्ण हरि ,जय जय राम कृष्ण हरि ,जय जय राम कृष्ण हरि । यह गा रहे थे राम कृष्ण हरि । हरे कृष्ण महामंत्र जैसा ही । तो इसमे बीज मंत्र है हरि । राम कृष्ण हरि । और अपने खुद के अभंग भी गा भी रहे थे । उन्होंने कुछ 4500 अभंग लिखे I भगवान के नाम , रूप , गुण , लीला का वर्णन करने वाले 4500 अभंग की रचना तुकाराम महाराज ने की ।
चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ,
दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित ।
प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते,
वेदे गाय याँहार चरित ॥3॥
अनुवाद:- वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिवय ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।
उनके हृदय प्रांगण में दिव्य ज्ञान प्रकाशित होता । ज्ञानी हि नहीं भगवान प्रकाशित होते ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति ।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
अनुवाद :- जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
अपने ह्रदय प्रांगण में यं “श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं” जो अचिंत्य भगवान का स्वरूप है गुण है रूप है तो तुकाराम महाराज देखा करते थे । भगवान को देखे थे भगवान के साथ भगवान को आह्वान करते थे , भगवान को प्रार्थना करते थे भगवान को देखते थे । भगवान को देखते ही उनकी स्तुती करते थे । उनका रूप माधुर्य का वर्णन करते थे ।
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
कर कटावरी ठेवोनिया
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
तुळसीहार गळा कासे पितांबर
आवडे निरंतर हेची ध्यान
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
मकर कुंडले तळपती श्रवणी
कंठी कौस्तुभ मणी विराजित
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख
पाहीन श्रीमुख आवडीने
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
( अभंग – संत तुकाराम महाराज )
भगवान को देखते हुए, भगवान को देख भी रहे हैं अपने चर्म चक्षु से नहीं देख रहे हैं । चर्म चाक्षु से तो देखा नहीं जा सकता भगवान को ।
अतः श्रीकृष्ण – नामादि न भवेद्ग्राह्यमिन्द्रियैः ।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 17.136 )
अनुवाद:- इसलिए भौतिक इन्द्रियाँ कृष्ण के नाम , रूप , गुण तथा लीलाओं को समझ नहीं पाती । जब बद्धजीवों में कृष्णभावना जाग्रत होती है और वह अपनी जीभ से भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है तथा भगवान के शेष बचे भोजन का आस्वादन करता है , तब उसकी जीभ शुद्ध हो जाती है और वह क्रमशः समझने लगता है कि कृष्ण कौन हैं ।
ऐसा कहा गया है । हमारे जो इंद्रियां है जो कलुषित है दूषित है , अधूरी है । तो इनसे “न भवेद्ग्राह्यमिन्द्रियैः” ऐसे इंद्रियों से , चर्म चक्षु से और अन्य इंद्रियों से श्री कृष्ण के नाम , रूप गुण , लीला देखा समझा नहीं जा सकता । फिर कहा है … “सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः” यदि हम क्या करते हैं ? भगवान के सेवा प्रारंभ करते हैं, सेवा करते हैं, साधना भक्ति करते हैं जिसकी शुरुआत कहां से ? जीह्वा से शुरू करते हैं । जीह्वा के क्या रहे हैं ? एक तो खाने का दूसरा गाने का । तो हमें जब भूख लगती है केवल कृष्ण प्रसाद ही खाएंगे । हरि हरि !! कृष्ण प्रसाद खा खा के तो जो नारद बालक थे वह नारद मुनि हो गए । एक दासी के ही पुत्र थे सेविका के पुत्र थे तो प्रसाद ग्रहण करके वह भक्ति वेदांतश जो कथा सुना रहे थे भागवत कथा हो रही थी चतुर्मास्य के महीने में । तो उनके अनुमति से प्रसाद ग्रहण करते थे यह बालक नारद । तो ऐसे बालक नारद ने हीं भगवान का दर्शन किया । “सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ” एक तो प्रसाद ग्रहण करना है और दूसरा क्या है ?
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
राधा माधव के नाम, रूप, गुण, लीला का गुणगान गाना है । साथ ही उसका श्रवण भी करना है । “सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः” हम देखना चाहेंगे तो नेहि मिलेंगे । अगर वह यदि प्रसन्न होते हैं हमारे सेवा भक्ति से । जिस भक्ति की शुरुआत प्रारंभ जिह्वा से होता है , हो सकता है । “स्वयमेव स्फुरत्यदः” तो यह कौन रोक सकता है ? भगवान स्वयं ही प्रकट होंगे उस जिह्वा पर । उन नेत्रों के समक्ष । फिर हम सुनेंगे भी सुनके जब हम सुनेंगे तो फिर सूंघेंगे जिघ्रन्ति भगवान के चरण कमल भी सुगंधित है । नहीं तो वह कैसे चरण कमल ! कमल तो सुगंधित भी होता है । केवल कोमल ही नहीं होता है या केवल श्यामल या केवल सुंदर ही नहीं होता है कमल सुगंधित भी होता है । तो भागवत कहता है कोई जिघ्रन्ति , व्यक्ति सुन भी सकता है जब वह सुनेगा भगवान के चरण कमलों का वर्णन सुनकर भगवान के चरण कमलों को वह सूंघ सकता है । देख भी सकता है सूंघ भी सकता है । हरि हरि !! तो तुकाराम महाराज भगवान को देख चुके थे और मिल चुके थे । तो यहां आकर भी स्वयं मिलते थे, दर्शन करते थे और उनका साक्षात्कार यह था कि जो यह विट्ठल भगवान है पांडुरंगा पांडुरंगा पांडुरंगा यह तो कृष्ण ही है पांडुरंग । पांडू; पीला फिकासा जिनका रंग है ऐसा भी एक नाम है । तो यह गाय चराने वाले श्री कृष्ण गोपाल, तो गाय चराते समय गाय चलती है या नंदग्राम से वनमें जा रही है वन से गाय लौट रही है । 9,00,000 संख्या में गाय हैं । और मित्रों के भी गाए हैं । जब गाय चलती है तो कुछ धूल उड़ती है । आसमान में उड़ती है उससे कुछ बादल , आसमान में बादल , और धीरे-धीरे क्या करती है वह बादल स्थीर हो जाते हैं या रज है वह जम जाती है आज भी । भगवान के नित्य लीला है । जो ब्रज के रज का जो रंग है उसी रंग के फिर भगवान रंग जाते हैं । और वह रंग कौन सा है ? पांडुरंग । इसलिए विट्ठल को ‘पांडुरंग’ कहते हैं । ‘विट्ठल’ भी कहते हैं । ईट पर खड़े हुए इसलिए विट्ठल-विठ्ठ । ईट पर वह खड़े हैं तो विट्ठल कहलाते हैं । और उनका रंग पांडुरंग । यह जो विट्ठल पांडुरंग है तो
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
( भगवत् गीता 4.9 )
अनुवाद:- हे अर्जुन ! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है , वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है ।
इस विग्रह का जो तत्व है ; इसका साक्षात्कार उनको अनुभव हुआ था इसीलिए वे उनकी मान्यता उनकी साक्षात्कार था कि यह विग्रह साधारण नहीं है । इसको समझाना कठिन है ! तो यह स्वयं भगवान है । इस बिग्रेड की कोई स्थापना नहीं की, प्राण प्रतिष्ठा समारोह संपन्न नहीं हुआ और फिर यह विग्रह बन गए प्राण प्रतिष्ठित । फिर दर्शनीय हुए, पूजनीय हुए इसी बात नहीं । तुकाराम महाराज का यह साक्षात्कार है कि यह भगवान तो द्वारिका से चलकर आए पंढरपुर , तंडिर वन वह सब लीला है । और फिर आए तो वही यहीं पर पुंडलिक को दर्शन दिए और पुंडलिक ने कहा हे प्रभु आप यही रहिए …
( पाण्डुरंगाष्टकम )
महायोगपीठे तटे भीमरथ्या
वरं पुण्डरीकाय दातुं मुनीन्द्रैः ।
समागत्य निष्ठन्तमानंदकंदं
परब्रह्मलिङ्गं भजे पाण्डुरङ्गम् ॥ १ ॥
( आदि शंकराचार्य जी के द्वारा )
यह भीम रथी जो चंद्रभागा का दूसरा नाम भागवत में उसको भीम रथी कहा गया है । उस भीम रथी के तट पर फिर योगपीठ है । महायोग पीठे है ऐसा शंकराचार्य भी अपने अष्टक में गाऐं हैं । तो योगपीठ जैसे मायापुर में योग पीठ या वृंदावन में राधा गोविंद मंदिर जहां है वह योग पीठ । हर धाम में योगपीठ होता है तो पंढरपुर में भी योगपीठ है जहां विट्ठल रुक्मिणी विराजमान है तो इस भगवान को प्रार्थना की पुंडलिक ने और यहीं रुकने के लिए कहा । तो भगवान रह गए । तो ऐसा वशिष्ठ भी है यह पांडुरंग विट्ठल विग्रह का । तुकाराम महाराज ऐसे विग्रह पांडुरंग का दर्शन करने के लिए आया करते थे । दिंडी में आया करते थे । वह दिंडी आज के दिन प्रारंभ प्रतिवर्ष हुआ करती थी आज इस साल नहीं हो रही है । यह एक दिंडी और एक बड़ी दिंडी उसमें दो ढाई लाख वारकरी चलते हैं । फिर दूसरी भी शुरू होती है हम बता भी रहे थे उसी देहू मे बैकुंठ से आ गया विमान , क्योंकि तुकाराम महाराज लौटना चाहते थे । विमान आया और विमान में बैठे और सभी को अभिवादन किए तुकाराम महाराज । और कहे भी …
आह्मी जातो आपुल्या गावा ।
आमचा राम राम घ्यावा ॥१ ॥
( अभंग तुकाराम महाराज )
अनुवाद : हम अपने गांव जाते हैं । हमारा राम राम ले लो ।
हम अपना गांव जा रहे हैं । राम राम । तो गए तुकाराम महाराज । बैकुंठ वासी हुए या गोलोक वासी हुए । वही तुकाराम महाराज जो दिंडी में आया करते थे । ऐसी परंपरा है इस दिंडी की । यह सब दिंडी करने वाले । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज अपने पिताश्री को याद करते हुए ) मेरे पिताश्री भी आया करते थे दिंडी । वैसे बड़ी-बड़ी दिंडी यां तो एक तो आषाढ़ मास में, सबसे बड़ी दिंडी तो हो आषाढ़ मास में फिर कार्तिक में फिर माघ मास में फिर चैत्र मास में । ऐसी 4 विशिष् दिंडी यां चलती है और वैसे फिर हर महीने के शुक्ल पक्ष की जो एकादशी होती है तो प्रति मांस भी यह दिन भी चलती है । मेरे पिताश्री भी आया करते थे । और हम सभी का इस दिंडी में आया करते हैं और रास्ते में कीर्तन और नृत्य करते हुए वह पंढरपुर की ओर अग्रसर होते हैं । बिना गाए, या कीर्तन श्रवण के बिना वह आगे बढ़ते नहीं । तो कीर्तन करते हुए , नृत्य करते हुए साथ में तुलसी भी सिर में ढोलते हुए , वीणा बजाते हुए जब भक्त आते हैं तो कुछ पिछले 1 वर्षों से हरे कृष्ण भिंडी वाले भी । हरे कृष्ण वाले भी बन गए दिंडी या वारकरी । तो यह ऐसी प्रथा कहो या दिंडी महाराष्ट्र में प्रसिद्ध है । न जाने मुझे मालूम नहीं श्रील प्रभुपाद ने कैसे पता लगवाए थे के मैं भी एक दिंडी करने वाले परिवार से या इस प्रदेश से हूं । जिस दिंडी में पदयात्रा चलती रहती है । पदयात्रा करते हैं । तो श्रील प्रभुपाद ने जब पदयात्रा प्रारंभ करना चाह रहे थे तो उन्होंने मुझे याद किया । कृपा करके मुझे याद किया । और मुझे पद यात्रा करने के लिए कहे । तो यह सेवा श्रील प्रभुपाद ने मुझे राधा अष्टमी के दिन श्रील प्रभुपाद राधा पार्थसारथी मंदिर न्यू दिल्ली में थे । राधा अष्टमी उत्सव में सम्मिलित होने के लिए श्रील प्रभुपाद हैदराबाद से दिल्ली आए थे और हम लोग हैं उन दिनों में मैं और मेरे गुरु भ्राता हंसदूत स्वामी मैं भी शामिल थे मेरे साथ में । एक निताई गौर वर्ल्ड ट्रेवलिंग संकीर्तन पार्टी का संचालन कर रहे थे । बड़ी जर्मनी बसेस , मर्सिडीज/Mercedes ; एक बस थी मर्सिडीज । दूसरी थी MAM /म्याम बड़ी आरामदायक , बहुत आनंददायक घूमना पूरे उत्तर भारत में । तो हम सभी यात्री, श्रील प्रभुपाद को मिलने उनका दर्शन करने हम भी आ गए दिल्ली उस राधाष्टमी के उत्सव समय में । तो उत्सव के दरमियान श्रील प्रभुपाद ने कहे बुलक कार्ट संकीर्तन यात्रा प्रारंभ कीजिए । पदयात्रा शुरू करो । वैसे बसेस में प्रारंभ था ही । बसेस का भी , जर्मन की वर्सेस था तो इसका भी अनुज्ञा पत्र ( permit ) खत्म होने जा रहा था । बसेस को वापस भेजना का समय हो चुका था तो हमारे पास कोई ट्रैवलिंग का साधन , वाहन रुकने वाला नहीं था तो यह भी एक कारण था । तो श्रील प्रभुपाद ने हमें रास्ता दिखाएं । उतरो- उतरो बस से उतरो और बेल गाड़ी में बैठो । या बेल गाड़ी चलाओ । वैसे मैं ज्यादा कुछ वाहन चलाना नहीं जानता हूं सिर्फ बेल गाड़ी चलाना जानता हूं । बुलक कार्ट ड्राइवर । मुझे वहां चलाना नहीं आता है लेकिन मैं बेल गाड़ी चला सकता हूं । तो इस प्रकार जो दिंडीयां पदयात्रा ऐं यह एक तरह से महाराष्ट्र में सीमित है । और वैसे हमारे देश में और कुछ स्थानों पर ऐसी यात्राएं होती रहती है । लेकिन सबसे अधिक तो महाराष्ट्र ही प्रसिद्ध है ऐसी यात्रा के लिए । तो ऐसी यात्रा करने के लिए मुझे श्रील प्रभुपाद ने मुझे आदेश दिए और मुझको । केबल महाराष्ट्र के सीमित के अंदर या इंडिया सीमितके अंदर नहीं रखना चाहते थे प्रभुपाद ने तो कहे थे जब हमको पहली यात्रा वृंदावन से मायापुर तक जाओ ऐसा आदेश दिए और और गए भी । तो उस पदयात्रा का बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी का उद्घाटन श्रील प्रभुपाद ने किए वृंदावन में । और यह चल रही थी कुछ पदयात्रा भारत के अंदर श्रील प्रभुपाद ने और एक पत्र लिखें, मेरे दूसरे गुरु भ्राता को लिखें नित्यानंद प्रभु को । नित्यानंद प्रभु अमेरिका में थे वहां एक फार्म के लीडर थे । तो उनको लिखे लोकनाथ स्वामी एक यशस्वी पदयात्रा बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी चला रहे हैं इंडिया में तो हमें भी चाहिए लाखों सारे बुलक कार्ट समग्र विश्व में । और इस प्रकार की लाखों-करोड़ों पदयात्रा सारे विश्व भर में होनी चाहिए ऐसी इच्छा श्रील प्रभुपाद में व्यक्त किए । Big thinking (बड़ी सोच) श्रील प्रभुपाद के सोच । श्रील प्रभुपाद कहा करते थे मेरी बीमारी है ! क्या बीमारी है ? कोरोनावायरस बीमार इत्यादि के बारे में सोच नहीं रहे थे । I could not never think small ( मैं छोटी बात कभी नहीं सोचता हूं ) मोटी बात , उच्च विचार के लिए श्रील प्रभुपाद प्रसिद्ध थे । तो बुलक कार्ट की बात millions of carts all over the world ( लाखों करोड़ों पदयात्रा सारे विश्व भर में ) तो फिर यह जो परंपरा पदयात्रा थी दिंडी की महाराष्ट्र में होती थी तो इस्कॉन जीबीसी ने पदयात्रा मिनिस्ट्री पुरी विश्व भर में स्थापना की । और इस पदयात्रा को मिशन क्या मिशन ? रति नगर और प्रति ग्राम पूरे विश्व भर में हरि नाम को पहुंचाना है । वही दृष्टिकोण जो चैतन्य महाप्रभु कहे थे । भविष्यवाणी । मेरा नाम पहुंचेगा हर नगर ग्राम में इस पृथ्वी पर । वहीं दृष्टिकोण वही उद्देश्य पदयात्रा की बन गई । या 1996 हम श्रील प्रभुपाद के 100 जन्म दिवस मना रहे थे इस साल हम 125 वा जन्म दिवस मना रहे हैं । लेकिन 1996 में जन्म शताब्दी मना रहे थे तो उस बर्ष से कई साल हमने अलग अलग पदयात्रा अलग-अलग देशों में पहुंचाना प्रारंभ किया । और 1996 में ग्रांट टोटाल होई 110 तक । 110 देशों में यह दिंडी पदयात्रा, बुलक कार्ट संकीर्तन पार्टी । या कहीं पर घोड़े का यात्रा चलती । और कहीं-कहीं परसों इसको पालकी में ही गौर निताई को विराजमान कराते थे । तो दिंडी का प्रारंभ जो महाराष्ट्र में दिंडी है । यह परंपरा यह प्रथा कहिए और सर्वत्र इस पर अमल हो रहा है और उसी के साथ …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
इस नाम को फैलाया जा रहा है । इस धन को फैलाया जा रहा है । इस धन को मुफ्त में बांटा जा रहा है । आप भी इस पद यात्रा बुलक कार्ट संकीर्तन मे शामिल हो जाइए ।
पदयात्रा की (जय !) आपका भी योगदान प्रार्थनीय है । सारी यह पदयात्रा और उसी के साथ भगवान का नाम फैलता रहे ।
॥ हरे कृष्ण ॥
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