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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*30 जून 2021*
*पंढरपुर धाम से*
*हरे कृष्ण !*
आज 849 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। तो आप तैयार हो?
*हरि हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः। यादवाय माधवाय केशवाय नमः॥1॥*
*गोपाल गोविंद राम श्री मधुसूदन। गिरिधारी गोपीनाथ मदनमोहन॥2॥*
(नरोत्तम दास ठाकुर-भजन)
आज मैं जब मंगला आरती कर रहा था, मंगला आरती गाने वाले भक्त ने आरती में ये पूरा गीत सुनाया। ये श्री नरोत्तम दास ठाकुर की रचना है, उनके भाव हैं, उनकी भक्ति है या उनके विचार हैं, इस गीत के माध्यम से वो विचार, वो भाव प्रकट कर रहे हैं।
हमारे आचार्य नरोत्तम दास ठाकुर की जय !
हमे उनसे ये सीखना होता है और यदि कोई भाव भक्ति सीखे फिर क्या कहना या जो भी सीखते हैं या सुनते हैं उससे हमारा भक्ति भाव उदित हो, प्रेम उदित हो, यही लक्ष्य होता है। हमारे नरोत्तम दास ठाकुर जैसे आचार्य जब बृज में रहे और पता है कब रहे ? षड गोस्वामी वृंदों के समय रहे, या लगभग ऑलमोस्ट चैतन्य महाप्रभु के समय वे रहे। नरोत्तम! नरोत्तम! उनके चरित्र की बात शुरू हो जाती है या चैतन्य महाप्रभु एक समय वह कहने लगे नरोत्तम ! नरोत्तम ! किसी को कुछ समझ में नहीं आया यह क्या नरोत्तम !नरोत्तम! कह रहे हैं ? कौन है क्या है ये नरोत्तम ? चैतन्य महाप्रभु ने नरोत्तम के नाम का उच्चारण किया। नरोत्तम के प्राकट्य के पहले ही वो पुकार रहे थे मानो भविष्यवाणी कर रहे हों। एक महान भक्त प्रकट होंगे उनका नाम होगा नरोत्तम ! नरोत्तम दास ठाकुर ! वे फिर वृंदावन पहुंच गए। वे षड गोस्वामी वृंदों से मिलना चाहते थे। बढ़िया होता या ये सर्वोत्तम बात होती कि वे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु से ही मिलते किंतु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तब तक अंतर्ध्यान हो चुके थे। उन्होंने जगन्नाथपुरी में टोटा गोपीनाथ में प्रवेश किया और अपनी लीला को अप्रकट किया। चैतन्य महाप्रभु के अन्य जो अनुयायी और षड गोस्वामी वृंद बचे थे वे अब उनसे मिलना चाहते थे। नरोत्तम दास ठाकुर उनके मिलन हेतु वृंदावन आ जाते हैं लेकिन उनके वृंदावन पहुंचते-पहुंचते अधिकतर षड गोस्वामी वृंद नहीं रहे और बचे हैं तो केवल जीव गोस्वामी , वैसे लोकनाथ गोस्वामी भी हैं और कुछ गोस्वामी और बचे हैं।
उनका अंग संग नरोत्तम दास ठाकुर को प्राप्त हुआ और इस अंग संग ने उनके विचारों में क्रांति की, क्रांति और भाव उमड़ आए हैं। उनके हृदय प्रांगण में भक्ति भाव आंदोलित हो रहे हैं। वो भाव, कुछ विचार उस समय के षड गोस्वामी और वृंदावन के संबंध में, राधा कृष्ण के संबंध में। वैसे नरोत्तम दास ठाकुर ने कई सारे गीत लिखे हैं प्रेम भक्ति चंद्रिका प्रार्थना, ऐसे उनके गीतों का संग्रह है। श्रील प्रभुपाद ने हम भक्तों को, इस्कॉन के सदस्यों को, अनुयायियों को, नरोत्तम दास ठाकुर के गीत दिए, और उनको गाने के लिए प्रेरित किया। इस्कॉन में हम अधिकतर नरोत्तम दास ठाकुर के गीत ही गाते हैं, इस्कॉन मतलब वर्ल्ड वाइड या श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के गीत गाते हैं या कुछ लोचन दास ठाकुर के गीत हैं, अन्य आचार्यों के थोड़े थोड़े गीत गाते हैं लेकिन अधिकतर श्री नरोत्तम दास ठाकुर और श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के गीत की प्रस्तुत किए और हम सभी को प्रेरित किया उनको गाने के लिए भजन के रूप में या भजन संध्या इत्यादि। यह उसमें से एक विशेष गीत है अतः उसको पढ़ने का या पढ़कर सुनाने का विचार है।
*हरि हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः। यादवाय माधवाय केशवाय नमः।।*
ऐसे शुरुआत करते हैं हरि, हरि कहा है और हरये भी कहा है। हरी कहा, तो हे हरि !संबोधन हुआ और फिर जब उनको नमस्कार करने की बात कह रहे हैं या विचार हो रहा है उनको नमस्कार तो हरये! हरि का होता है हरये नमः, जैसे राम का रामाये नमः होता है, वैसे ही हरि का हरये होता है। चतुर्थी में हरि हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः हे कृष्ण और यादवाय नमस्कार करना है तो यादवाय अर्थात यादव को मेरा नमस्कार। “यादवाय माधवाय केशवाय नमः” भगवान का नाम बहुत कुछ कहता है, इट्स मीनिंग फुल। यंहा सारे मीनिंग या अर्थ कहने का समय नहीं है किंतु आई एम जस्ट पॉइंटिंग आउट, आप समझ लो जब हम कहते हैं या नरोत्तम दास ठाकुर के यादवाय, यदुवंश के यादव अर्थात श्री कृष्ण आपको नमस्कार, माधवाय तो माधव को नमस्कार, यादवाय नमः माधवाय नमः केशवाय नमः तो यह सब नमस्कार चल रहे हैं। माधव को, महालक्ष्मी के पति माधव या कृष्ण को संबोधित किया जा रहा है। कृष्ण की लक्ष्मी वैसे महालक्ष्मी है, वह राधा है। माधव, मतलब राधा के पति, ये ऐसा ज्ञान हमको मिलता है, ऐसा हम को समझना चाहिए। माधवाय, भगवान का हर नाम कुछ वैशिष्ट है, कुछ लीला है, भगवान के अन्य भक्तों के साथ संबंध या भगवान के धाम या ऐसा नामकरण है या ऐसे नाम हो जाते हैं “विष्णु सहस्त्रनाम” है।
यह सहस्त्र बातें कहते हैं, लेकिन कहते हैं एक ही व्यक्ति के संबंध में, एक व्यक्ति का व्यक्तित्व, चरित्र या नाम, रूप, गुण, लीला, स्मरण दिलाते हैं। यह अलग अलग नाम (व्हाट इज देयर इन द नेम) नाम में क्या है? फिर क्या कहना है कि नाम में सब कुछ है, या नाम ही सब कुछ है या नाम ही तो भगवान है। व्हाट इज इन द नेम? देयर इज़ सो मच इन द नेम, एवरीथिंग इज द नेम, *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* बहुत कुछ, यह सब कुछ हम कहते हैं जब हम हरे कृष्ण कहते हैं। जप करते हैं इन नामों का 16 नाम हैं महामंत्र में, हरे कृष्ण महामंत्र मंे कितने नाम हैं ?16 नाम हैं, 32 अक्षर हैं,16 नाम हैं जिसमे कुछ नाम राधा के हैं, कुछ कृष्ण के हैं लेकिन फिर कहा
*गोपाल गोविंद राम श्री मधुसूदन।गिरिधारी गोपीनाथ मदन-मोहन।।*
एक और नाम आ गया *गोपाल* केवल गोपाल कह दिया। गोपाल, गोपाल, गोपाल कहो गोपाल, कितनी सारी बातें याद आ जाती हैं, याद आनी ही चाहिए। गोपाल अर्थात गाय के रखवाले, गोपाल फिर गाय भी याद आती है , गोपाल भी याद आते हैं, ग्वाल बाल या गोपाल। वैसे कृष्ण ही गोपाल नहीं हैं, बृज का हर व्यक्ति गोपाल है। हम उनको वृंदावन में गोप कहते हैं। वहां या फिर तो गोप हैं या फिर गोपियां हैं। गोप कहो या गोपियां एक ही बात है। गोप “प ” का मतलब पालक ,गोपाल थोड़ा विस्तार से कहा, कृष्ण स्मरणीय है। प्रातः स्मरणीय सदैव स्मरणीय, नाम लेते ही गोपाल कहते ही कितनी सारी यादें आ जाती हैं। आ सकती हैं आनी चाहिए। गोविंद ! फिर कहा *गोविंद* इस नाम पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। बहुत बड़ा प्रवचन या कथा हो सकती है। *गोविंद* नाम लेके इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले।
गोविंद इस नाम पर इसका निरूपण इसकी कथा और हो सकती है। कोई ये कह सकता है गोपाल गोविंद राम, आप राम कहते हो नरोत्तम दास ठाकुर लिख रहे हैं राम तो बलराम भी हैं, श्रीराम भी हैं, परशुराम भी हैं यह सब याद आ जाते हैं, राम कहने से, ऐसे भगवान याद आते हैं। *मधुसूदन* मधु नाम का राक्षस था सूदन उसका वध करने वाले मधुसूदन उनका नाम ही हुआ मधुसूदन या केशी दमन, दमन मतलब दमन या कालिया दमन तो मधुसूदन नाम ही हुआ। “मधु कैटभारै” दो थे, दोनों का वध किया। कैटभारै मतलब मधु कैटभारै” रै” यह संस्कृत की शैली है आप सुने होंगे मधु कैटभा +रै , अरि का मतलब शत्रु और अरि का संबोधन हुआ अरे मतलब अहो, हे मधु और कैटभ के शत्रु मधु कैटभ हरि हरि! गिरधारी क्या कहा *गिरिधारी* क्या मधुर लीला है और शब्द कहा केवल गिरिधारी या केवल नाम उच्चारण हुआ कहा गिरधारी, उसके साथ कितनी सारी बातें जुड़ी हुई हैं। सारा इतिहास, लीला, सारा इतिहास ही है। गोपीनाथ ! कृष्ण कैसे हैं ? गोपीनाथ, वृंदावन में वह गोपीनाथ हैं और मदन मोहन हैं, मदन को भी मोहित करते हैं। अरे किंतु राधा रानी तो मदनमोहनमोहिनी हैं ऐसी चर्चा प्रारंभ हो सकती है। कंपटीशन बिटवीन राधा एंड कृष्ण थोड़ा तेजी से आगे बढ़ना होगा। श्रीचैतन्य नित्यानंद ,श्रीअद्वैत सीता, नरोत्तम दास ठाकुर अब तक तो वृंदावन कृष्ण की बातें स्मरण कर रहे थे। अलग-अलग नामों का उच्चारण करते हुए अब से नवदीप की ओर बढ़ रहे हैं और नवदीप में श्रीकृष्ण हैं
*श्रीचैतन्य-नित्यानंद-श्री अद्वैत-सीता। हरि गुरु वैष्णव भागवत गीता।।*
श्रीचैतन्य श्रीनित्यानंद श्रीअद्वैत सीता भी कहा यह सीता कौन है? अद्वैत आचार्य की भार्या, सीता ठकुरानी। हरि गुरु वैष्णव भागवत गीता। नरोत्तम दास ठाकुर याद कर रहे हैं पुनः हरि, गुरु, वैष्णव, भागवत, गीता, और कुछ भक्त गलती से कहते हैं भगवत गीता, इसको गाते समय भगवत गीता ही कहते हैं मतलब एक ही शास्त्र हुआ लेकिन यहां तो नरोत्तम दास ठाकुर ने दो ग्रंथों का उल्लेख किया है। भागवत गीता यह नहीं कि भगवत गीता तो यह गलत उच्चारण सावधान नहीं होने से, साधु सावधान ! सावधान होकर हमें पढ़ना भी चाहिए। नोट करना चाहिए और वैसे ही उच्चारण भी करना चाहिए। हर एक का स्मरण कर रहे हैं हरि का, गुरु का, वैष्णव का, केवल हरि का ही नहीं हरि से गुरु को अलग नहीं किया जा सकता। गुरु गौरांग जयते कहा है या गुरु हरी केवल गुरु ही नहीं, वैष्णव भी हैं और भागवत है, गीता है। अब षड गोस्वामी वृंदो का स्मरण करते हुए उनके नामों का स्मरण कर रहे हैं।
*श्री रूप सनातन भट्ट-रघुनाथ। श्री जीव गोपाल भट्ट दास-रघुनाथ॥4॥*
यह षड गोस्वामी वृंद हैं। नरोत्तम दास ठाकुर भली-भांति परिचित थे इन षड गोस्वामियों के चरित्र से, हमें भी उनके चरित्रों का अध्ययन और फिर संस्मरण करना चाहिए। हरि हरि !
यह हमारे फाउंडर आचार्य हैं, गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के यह फाउंडर आचार्य हैं फाउंडिंग फादर्स हैं । वैसे हैं तो गौरांग और नित्यानंद
*आजानुलम्बित – भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक – पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥*
( चैतन्य भागवत १.१)
अनुवाद – मैं भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक, सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया ।
संकीर्तन आंदोलन के पिता हैं गौरांग और नित्यानंद । फर्स्ट जेनरेशन ऑफ आचार्य कहो, गौरांग और नित्यानंद के दौरान कोई है तो यह षड गोस्वामी वृंद हैं। इस आंदोलन के संस्थापक गौरांग महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु और षडगोस्वामी टीम है।
*एइ छह गोसाँईर करि चरण वंदन। जहाँ होइते विघ्न-नाश अभीष्ट-पुरण॥5॥*
यह जो छः गोस्वामी हैं इनके चरणों की मैं वंदना करता हूं। जीव गोस्वामी, उन षडगोस्वामी वृंद में जो बचे थे वे सेकंड जेनरेशन आचार्य कहो, जीव गोस्वामी नरोत्तम दास ठाकुर के शिक्षा गुरु बने हैं और फिर कहना ही पड़ेगा लोकनाथ गोस्वामी नरोत्तम दास ठाकुर के दीक्षा गुरु हैं। लोकनाथ गोस्वामी के एक ही शिष्य थे और वे थे नरोत्तम दास ठाकुर। इस तरह दीक्षा गुरु लोकनाथ गोस्वामी और शिक्षा गुरु जीव गोस्वामी, वैसी शिक्षा वह ग्रहण कर रहे हैं, जिससे वे वंदना कर रहे हैं । षड गोस्वामी वृंद के चरणों की वंदना करने के लिए उनको सिखाया जा रहा है, उनको शिक्षा दी जा रही है, वंदना कर रहे हैं। हमको भी देख देख कर कि नरोत्तम दास ठाकुर और क्या-क्या करते हैं, क्या क्या सोचते हैं, किसकी वंदना करते हैं, कौन है इष्ट देव इत्यादि इत्यादि, हमे भी वैसे ही करना है। हमारे गुरुजन हैं, हमारे आचार्य हैं नरोत्तम दास ठाकुर। जो हमारे शिक्षा दीक्षा गुरु हैं, वे सीखेंगे इन आचार्यों से और परंपरा में, फिर हमको भी सीखना है और हमको सिखाना भी है। हममें से हर एक की दो भूमिकाएं हैं सीखना है सिखाना है, पठन और पाठन याद रखो ऐसे शब्द पाठन पढ़ना है और पढ़ाना है , सीखना है और सिखाना है श्रवण करना है और फिर क्या? कीर्तन करना है। श्रवण तो हम सीख रहे हैं सुन रहे हैं और फिर जो सीखा सुना है उसका कीर्तन करना है, औरों के साथ शेयर करना है। ऐसा करते हुए हम आचार्य को देखते ही रहते हैं।
*जहाँ होइते विघ्न-नाश अभीष्ट-पुरण* कह रहे हैं। जब मैं षड गोस्वामी के चरणों की वंदना करूंगा तो विघ्न नाश होगा, भक्ति में कोई विघ्न है, कोई रुकावट है, कोई बाधा है, वह हटेगी, वह मिटेगी, विघ्नों का नाश होगा। आचार्यों के चरणों की वंदना या आचार्यों के चरणों का अनुसरण करने से विघ्न नाश और अभीष्ट पुरण, अभीष्ट मतलब मनोकामना, मनोकामना भी पूर्ण होगी। हम वैष्णव हैं, हमारी मनोकामना तो अलौकिक ही होगी और होनी भी चाहिए। वह मनोकामना, वह भी पूरा करने में हम समर्थ होंगे यदि हम हमारे आचार्यों के चरणों की वंदना करते हैं।
*एइ छइ गोसाँई जार-मुइ तार दास। तां सबार पद-रेणू मोर पंच-ग्रास॥6॥*
यह जो षड गोस्वामी वृंद हैं यह स्वामी हैं और मैं उन का दास हूं। मुइ तार् दास् मुइ तारा दास् नहीं, तार दास ये बंगला भाषा है। उनका मुइ तार् दास् मतलब मैं तार उनका दास हूं। ता सबार पद-रेणु मोर पंच-ग्रास् , अब उनके चरणों की धूलि ही मेरा ग्रास या घास भोजन है हरि हरि ! यह उनके आदेशों का पालन करना, आदेश तो मुख से मिश्रित होते हैं।
हरि हरि ! वपु सेवा, वाणी सेवा, उनकी वाणी सेवा करना ही मेरा जीवन है।
*तांदेर चरण-सेवी-भक्त-सने वास। जनमे-जनमे होए एइ अभिलाष॥7॥*
उनके चरणों की सेवा भक्त-सनॆ बास्, उनके चरणों की सेवा और भक्तों का संग जनमॆ जनमॆ होय् एइ अभिलाष् बस यही, *मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि* चैतन्य महाप्रभु ने कहा अगर मुझे पुनः पुनः जन्म लेना पड़े आई एम रेडी मैं तैयार हूं। लेकिन हो क्या उनके चरणों की सेवा षड गोस्वामी वृंदों के, पूर्व आचार्यों के चरणों की सेवा और भक्तों का संग मुझे हर जन्म में मिले यह मेरी अभिलाषा है।
*एइ छइ गोसाइ जबे ब्रजे कोइला वास। राधा-कृष्ण-नित्य-लीला करिला प्रकाश॥8॥*
यह षड गोस्वामी वृंदावन में रहते थे, कॊइला बास् इन्होंने बृज में निवास किया उस समय क्या ? राधा-कृष्ण-नित्य-लीला कॊरिला प्रकाश, राधा कृष्ण की नित्य लीला को भी प्रकाशित किया। राधा कृष्ण की नित्य लीलाओं को उन्होंने ध्यान में अवलोकन करके उसका दर्शन करते और उन लीलाओं के संबंध में वे कहते सुनाते, स्पेशली उन्होंने बहुत सारे ग्रंथ लिखे हैं। *भक्तिरसमृत सिंधु* लिखा है या *वृहद भागवतामृत* लिखा या कई सारे अष्टक लिखे हैं। हरि हरि !
उज्जवल नीलमणि लिखते हैं, कई सारे ग्रंथ यह षड गोस्वामी वृंद ने लिखे हैं और जीव गोस्वामी का तो क्या कहना मैचलेस, उन्होंने जितने ग्रंथ लिखे हैं वह सिद्धांत के भी ग्रंथ हैं, लीलाओ के भी ग्रंथ हैं। जीव गोस्वामी का गोपाल चंपू ग्रंथ प्रसिद्ध है। नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं उन्होंने राधा कृष्ण की नित्य लीला को प्रकाशित किया, दर्शाया, दिखाया, सुनाया। कह कर और लिख कर उसी समय के लोग सुनते, लेकिन यदि कुछ बात लिखी जाती है तो 500 वर्षों के उपरांत अब 2021 में आज भी षड गोस्वामी, उस लीला का प्रकाशन हो रहा है। हम उनके ग्रंथ पढ़ते हैं तो लीला का प्रकाशन कर रहे हैं, हमारे साथ शेयर कर रहे हैं आज भी और सदा के लिए बुक्स आर द बेसिस । उसी को प्रभुपाद ने आगे और समझाया है। अंग्रेजी में प्रिंट बुक्स एज मेनी लैंग्वेज एज पॉसिबल, प्रभुपाद ने कहा। यह ग्रंथ संस्कृत में या बंगला भाषा में थे, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का आदेश था, सारा पाश्चात्य जगत इससे वंचित है, डिप्राइव्ड ऑफ दिस अपॉर्चुनिटी उनको कैसे पता चलेगा वह यदि अपनी अंग्रेजी भाषा में नहीं पढ़ सकते, राधा कृष्ण लीला यह सब बातें या भगवत गीता, भागवतम, चैतन्यचरितामृत, फिर श्रील प्रभुपाद ने वैसा ही किया अंग्रेजी भाषा में उसको अनुवादित किया। तात्पर्य भावार्थ लिखा उन को समझाने के लिए। जब यह ग्रंथ अंग्रेजी में बने तो प्रभुपाद ने अपने शिष्यों से कहा कि (जब वे व्यास आसन पर आसीन थे लॉस एंजेलिस में) प्रभुपाद ने कहा नाओ प्रिंट बुक्स इन मेनी लैंग्वेज एज पॉसिबल, श्रील प्रभुपाद ने इसी के साथ विस्तार किया कि अंग्रेजी ग्रंथों का मुझे मेरे गुरु महाराज ने कहा था अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। अतः मैंने अंग्रेजी भाषा में ही ग्रंथ लिखें, अब तुम शिष्य इसका अनुवाद और प्रकाशन अपनी अपनी भाषा में या अधिक से अधिक भाषा में करो ,वैसा ही किया और वैसे ही कर रहे हैं। श्रील प्रभुपाद के डिसाइपल्स शिष्य और ग्रैंड डिसाइपल्स और फ्यूचर में ग्रेट ग्रैंड डिसाइपल्स, जिसको हम फैमिली बिजनेस भी कहते हैं। आवर बुक प्रिंटिंग ,ऐसा फैमिली बिजनेस, इसी के साथ जो षड गोस्वामी वृंदों ने राधा कृष्ण की लीलाओं को प्रकाशित किया, वह उपलब्ध किया जा रहा है।
*आनंदे बोलो हरि भज वृंदावन। श्री गुरु-वैष्णव-पदे मजाइया मन॥9॥*
सभी आनंद से बोलो हरि हरि ! आप बोल भी नहीं रहे, तो फिर आनंद से बोलने की तो बात ही दूर है हरि हरि !गौर हरि !
केवल हरि हरि नहीं कहना है गौर हरि भी कहना है। आनंदे बोलो हरि भज बृंदावन, दो बात कहे हैं। एक तो आनंदे बोलो हरि हरि मतलब *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* यह हुआ आनंदे बोलो हरि, आनंद से बोलो यह महामंत्र और क्या भजो वृंदावन, और वृंदावन को भजो, वरशिप वृंदावन कैसे करना होता है ?आप कल्पना करो वृंदावन वास करो या वृंदावन का स्मरण करो। श्री-गुरु-वैष्णव-पदे मजाइया मन् मेरा मन तल्लीन हो, किस में ? श्री गुरु और वैष्णव के चरणों में , मेरा मन स्थित हो, उनकी सेवा में स्थिर हो और अंतिम पंक्ति है।
*श्री-गुरु-वैष्णव-पाद-पद्म करि आश। नाम-संकीर्तन कहे नरोत्तम दास॥10॥*
मैं आशा करता हूं क्या आशा है ? श्री-गुरु-वैष्णव-पाद-पद्म , ऐसे चरण कमल प्राप्त हो, चरण कमलों का सानिध्य प्राप्त हो, चरण कमलों की सेवा प्राप्त हो, उनके आदेश का पालन करने का अवसर प्राप्त हो, ऐसी बुद्धि मुझको प्राप्त हो, नाम-संकीर्तन कहॆ नरोत्तम दास्, इन शब्दों में नरोत्तम दास ठाकुर नाम संकीर्तन गा रहे हैं।
नरोत्तम दास ठाकुर की जय हो ! और उनके सारे भजन संग्रह की जय !
हरि बोल !
निताई गौर प्रेमानन्दे !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
29 जून 2021
हरिबोल । हरे कृष्ण । 900 सहभागीयो की जय । गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल । गौरांग । गौर भक्त वृंद की जय । आज की माला हम श्रील वक्रेश्वर पंडित को पहनायेंगे । मुझे किसी ने पहनाई है , मै वक्रेश्वर पंडित को यह माला पहनाना चाहूंगा । आविर्भाव तिथी महोत्सव की जय । वक्रेश्वर पंडित का नाम आपने सुना होगा और वैसे आज आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी है । आज के दिन वक्रेश्वर पंडित आविर्भूत हुये और अभी बताते है उनका जो तिरोभाव है वह किस दिन हुआ ? आषाढ मास कृष्णपक्ष षष्ठी को हुआ , आपने नोंद किया है । पंचमी को उनका आविर्भाव, आविर्भाव समझते हो न? गौड़ीय वैष्णव की भाषा है , आविर्भाव , तिरोभाव कहते है । आविर्भाव जन्मदिवस कहते है और गोलोक गमन दिवस तिरोभाव तिथी ।
उन्हीका स्मरण करते हुए मै आज जप कर रहा था ।इनका स्मरण कैसे किया जाता है ? विधी वही है ।
श्रीप्रह्वाव उ्वच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं बन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णी भक्तिश्चेत्रवलक्षणा ।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥
(श्रीमद भागवद् 7.5.23-24)
*अनुवाद:* प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना, घोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना
करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना)-शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
श्रवण कीर्तन यदि आपने विष्णू का , कृष्ण का किया आप स्मरण करोगे । विष्णु , कृष्ण के सम्बंध में सूनोगे , कहोगे तब उनका स्मरण होगा । मैने जो पढ़ी सुनी बाते है या चरित्र ही कहो , वक्रेश्वर पंडित के चरित्र का मे श्रवण किर्तन कर रहा था , या सून रहा था । महा मंत्र का जप भी चल रहा है और साथ मे चरित्र को पढ़ रहा था । यह फटाफट हो रहा था । श्रवन भी हो रहा है , वक्रेश्वर पंडित के सम्बंध में श्रवन भी हो रहा है । उनके सम्बंध का कीर्तन मै आपको सुनाऊंगा ऐसा भी सोच रहा था ,तो कीर्तन की योजना मे बना रहा था ऐसा कहो । हुआ , वक्रेश्वर पंडित के श्रवण और कीर्तन से मुझे स्मरण हो रहा था । हरे कृष्ण हरे कृष्ण तो कर ही रहे थे और साथ में वक्रेश्वर पंडित का स्मरण भी हो रहा था ।
शुद्ध-भकत-चरण-रेणु,
भजन अनुकूल।
भकत सेवा, परम-सिद्धि,
प्रेम-लतिकार मूल॥1॥
अनुवाद:- शुद्ध भक्तों की चरणरज ही भजन के अनुकूल है। भक्तों की सेवा ही परमसिद्धि है तथा प्रेमरूपी लता का मूल (जड़) है।
ऐसा भक्तिविनोद ठाकूर ने लिखा है । शुद्ध-भकत-चरण-रेणु,
शुद्ध भक्त के चरण की रेणु हम हमारे मस्तक पर उठाते है । मतलब ही उन के चरणो का आश्रय हम लेते है , मतलब उन्ही का आश्रय लेते है । उनके कार्यकलापो का हम अनुगमन करते है ।
महाजनों यतो पंथ गता विधि येन गतः
महाजन जैसे गये , जैसे चले , जैसे रहे और जीस पथ पर वह आगे बढे ।
महाजनों येन गतः हम वैसा करते है जब शुद्ध भक्त के चरित्र को हम सुनते है । मराठी मे कहते है , बोले तैसा चाले त्याची वंदावी पाऊले ,
जो जैसा बोलता है वैसे ही चलता है , त्याची वंदावी पाऊले , उनके चरनो का अनुसरण करना है । अनुकरण नही कहा है । अनुसरण करना चाहिये अनुकरण नही । अनुसरण करना चाहिए उनके पद चिन्होंका । यह विधि तो है ही । हरी हरी । श्रील वक्रेश्वर पंडित की जय । उनका चरित्र महान है । त्तुंग विद्या थी , ऐसी एक जानकारी उपलब्ध है ,अष्ठ सखियो मे से एक सखी है तुंग विद्या , मायापुर मे राधा माधव के अल्टर पर अष्ट सखिया है । तुंग विद्या । हरी हरी । उनके शुद्ध भक्त का क्या कहना ? कितने शुद्ध भक्त थे ? केवल शुद्ध भक्त ही थे । शुद्ध सोना , शुद्ध भक्त । हरी हरी । वक्रेश्वर पंडित तो पंडित भी थे पांडित्य के लिए प्रसिद्ध थे , विद्वान थे और साथी साथ वह भक्त थे , किर्तनिया थे किर्तनिया समजते हो ? जो कीर्तन करते है कीर्तनकार , कीर्तनकार को किर्तनिया कहते है , किर्तन करनेवाले । वक्रेश्वर पंडित पंडित थे , विद्वान थे , किर्तनिया थे और उनकी विशेष ख्याती उनके नृत्य के लिये है ।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।
अनुवाद:- श्रीभगवान् के दिवय नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
वह कीर्तन कैसा ? या निश्चितही वह संकीर्तन नही हो सकता , जिस किर्तन के साथ मे नृत्य नही हो रहा हो । वक्रेश्वर पंडित अपने नित्य के लिए प्रसिद्ध है । चैतन्य महाप्रभू के जितने भी परिकर थे , असंख्य परीकर थे । वह भी किर्तन करते और वह भी नित्य करते किंतु वक्रेश्वर पंडित उन सबमे श्रेष्ठ ते प्रथम क्रमांक के थे । उन्होंने सारे रेकॉर्ड तोड दीये , गिनिस बुक रेकॉर्ड तोड दिया (हसते हुये) आप जानते हो ? इनका भी नाम होना चाहिए था । ठीक है , उन मूर्खो ने तो वक्रेश्वर पंडित का नाम नोंद नही किया है लेकिन वह किर्तन करते थे । 72 घँटों तक उनका किर्तन और नित्य चलता रहता था , इसको बंगालमें 24 प्रहर कहते है , कभी कीर्तन अष्ट प्रहर का होता है , अष्ट प्रहर मतलब 24 घन्टे , एक प्रहर तीन घंटे का होता है । यह कीर्तन भी प्रसिद्ध है । तीन दिवस तीन रात्री तक अखंड कीर्तन होते है।
वक्रेश्वर पंडित ने ऐसा भी रेकॉर्ड किया है । 24 प्रहर कीर्तन , कीर्तन प्रारंभ हुआ तो उनका नित्य प्रारंभ हुआ और फिर एक दिन वह रात, दुसरा दिन दुसरी रात , तिसरा दिन तिसरी रात वह बिनारुके नित्य करते रहे , नित्य करते रहे । और पूरे भावावेश मे नृत्य हो रहा है या उनकी आत्मा ही नाच रही है । शरीर केवल साथ दे रहा है ।हरी हरी । कभी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभू स्वयम् कीर्तनिया बनते , कीर्तन करते और वक्रेश्वर पंडित नृत्य करते थे । ऐसे भी कीर्तन जमते थे , संपन्न होते थे , फिर क्या कहना ? ऐसे किर्तन ऐसे नृत्य का । एक समय ऐसा कीर्तन हो रहा था , चैतन्य महाप्रभू कीर्तन कर रहे थे और वक्रेश्वर पंडित नृत्य कर रहे थे और बीच मे ही वक्रेश्वर पंडित श्रीकृष्ण महाप्रभु के चरनो में पड़े , उनके चरण पकड लिये और कहने लगे महाप्रभु मुझे दस हजार गंधर्व दीजिए , गंधर्व अपने गायन के लिए प्रसिद्ध होते है । दस हजार गंधर्व जायेंगे तो मैं क्या करूंगा ? आपके प्रसन्नता के लिये मै नृत्य करुंगा ।
चैतन्य महाप्रभु भी कहते , हे वक्रेश्वर पंडित तुम मेरे पंख हो और मैं हवा में उड़ान भरता हूं । चैतन्य महाप्रभु भी उदंड उदंड कीर्तन और नृत्य किया करते थे । वक्रेश्वर पंडित ने देवानंद पंडित पर विशेष कृपा की , संक्षिप्त में यह कहना होगा । देवानंद पंडित कुलिया के , अभी का नवदीप शहर है उसका पहले नाम कुलिया है । एक फुलिया भी है जो शांतिपुर के पास हरिदास ठाकुर एक गुफा में रहा करते थे , नामाचार्य हरिदास ठाकुर रहते थे वह फुलिया है और गंगा के तट पर कुलिया है आपका जो नवदीप शहर है । हरि हरि । यह देवानंद पंडित भागवत कथा सुना रहे थे , श्रीवास ठाकुर या श्रीवास पंडित आपको झट से पता होना चाहिए जब हम श्रीवास पंडित कहते है , जिनका श्रीवास आंगन है । वह उस कथा का श्रवण कर रहे थे और किसी प्रसंग को जब शिवास पंडित ने सुना तो भावविभोर हो गए , भावेश में आए , रोमांचित हुए फिर लौटने लगे । कथा में बहुत बड़ी धर्म सभा हो रही थी , कथा में कई सारे जुड़े थे । उनमें से कुछ लोगों ने सोचा यह कौन है ? जो कथा में विघ्न डाल रहा है । वह देवानंद पंडित के कुछ शिष्य थे जो ऐसा सोच रहे थे । उन्होंने श्रीवास ठाकुर को उठाया और बाहर कर दिया , बाहर फेंक दिया , दरवाजे के बाहर फेंक दिया । इस बात का जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को पता चला तब चैतन्य महाप्रभु देवानंद पंडित पर बहुत नाराज थे । कैसा है यह भागवत कथाकार?
भागवत पढ़ भागवत स्थाने ।ऐसा सिद्धांत है । श्रीमद् भागवत को व्यक्ति भागवत के पास जाकर भागवत कथा का श्रवण करना चाहिए । चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कैसा है यह भागवत कथाकार ? यह भागवत नहीं है । भागवत पढ़ , भागवत को पढो , कहां ? भागवत स्थानी , जो भागवत है , स्वयं भागवत है , व्यक्ति भागवत है या महा भागवत है , उनसे पढ़ो , उनसे सुनो । चैतन्य महाप्रभु ने जब सुना , अपराध किया तो था देवानंद पंडित के शिष्यों ने लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने यह विचार किया कि देवानंद पंडित ने देखा तो था कि उनके शिष्य क्या कर रहे हैं , श्रीवास ठाकुर के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं। इस बात को सुनकर चैतन्य महाप्रभु देवानंद पंडित से बड़े नाराज थे । फिर कुछ समय बीत गया और भाग्य से यह देवानंद पंडित चैतन्य महाप्रभु के भक्तों के साथ या हो सकता है क्योंकि मुझे तो पूरा याद नहीं है श्रीवास ठाकुर को कैसा संघ प्राप्त हुआ और उसके संगति में वह फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भी जान गए देवानंद पंडित जान गए फिर मान गए या चैतन्य महाप्रभु की जो भगवदता है गौर भगवान है वह इनको वे नहीं जानते थे पहले लेकिन अब गौड़ीय वैष्णव के संपर्क में आने से या ज्ञान भी हुआ और फिर चैतन्य महाप्रभु के भक्त बने या चैतन्य महाप्रभु के भक्त बने या चैतन्य महाप्रभु को समझ गए मतलब क्या समझना पड़ता है।
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।211
अनुवाद “ जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ‘
यह समझना पड़ता है औरों का सम्मान करना चाहिए यह शिक्षा मिलती है चैतन्य महाप्रभु से या चैतन्य महाप्रभु को समझने से ऐसे हम ऐसा व्यक्ति सदाचारी बनेगा वैष्णव सेवक होगा वैष्णव का सम्मान करने वाला होगा तो वैसा ही हुआ देवानंद पंडित वैसे ही बन गया अमानी न मान देन करने वाले तो फिर और एक समय की बात है उसी कुलियां में हमारे वक्ररेश्वर पंडित नृत्य कर रहे थे कीर्तन हो रहा था और यह नृत्य कर रहे थे तो देवानंद पंडित वहां पहुंच गए और कीर्तन और नित्य हो रहा है वकरेश्वर पंडित का और यह कीर्तन और नृत्य मुख्यता नित्य कीर्तन के साथ नृत्य चलता रहा घंटों तक चलता रहा 6 घंटे इतना चलता रहा है वकरेश्वर पंडित का तो यह पूरे शहर की बात बन गई कीर्तन और नृत्य सारे शहर के लोग आ रहे थे बड़ी भीड़ हो रही थी और फिर देवानंद पंडित क्या कर रहे थे वह वकरेश्वर पंडित की नृत्य में कोई बाधा उत्पन्न ना हो किसी प्रकार की रुकावट ना हो इसीलिए वह भीड़ को संभाल रहे थे लोगों को दूर रहे थे पीछे हटो पीछे हटो थोड़ा पीछे हटो नृत्य के लिए कोई स्थान तो होना चाहिए ना आप बिल्कुल पास आगे खड़े हो दूर रहो दूर रहो और पिछे हटो इस तरह की भूमिका निभा रहे थे।
वकरेश्वर पंडित की बहुत सेवा ही कर रहे थे या वकरेश्वर पंडित का सत्कार सम्मान ही कर रहे थे यह कीर्तन जब समाप्त हुआ वकरेश्वर पंडित बड़े प्रसन्न थे देवानंद पंडित से और फिर उन्होंने कहा कृष्ण भक्ति हो उन्होंने आशीर्वाद दिया कृष्ण भक्ति हो तो अच्छे कृष्ण भक्त बनो और फिर या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वैसे चैतन्य महाप्रभु ने सन्यास भी लिया था चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रहा करते थे वहां से वह बंगाल आ गए गंगा माता सची माता और भक्तों को मिलने के उद्देश्य से चैतन्य महाप्रभु जब कुलिया में थे और वकरेश्वर पंडित से मिले और वकरेश्वर पंडित से उन्होंने देवानंद पंडित के संबंध में समाचार सुना एक समय का वह अपराधी देवानंद अपराध करने वाला अपराध करने वाला है वह देवानंद पंडित अब एक महान वैष्णव सेवक बन चुका है। वैष्णव सेवक बन चुका है कैसे उन्होंने सेवा की सहायता के जब कीर्तन नृत्य हो रहा था तो यह रिपोर्ट जब यह समाचार जब चैतन्य महाप्रभु ने सुना तो बहुत प्रसन्न हुए पहले वह नाराज हुए थे देवानंद पंडित और उनके सहयोगी ने जो श्रीवास ठाकुर के साथ जो व्यवहार किया था उससे वह चैतन्य महाप्रभु नाराज थे और अब अपराधी के अब वैष्णव सेवक बन गए देवानंद पंडित इसका समाचार सुनकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न हुए और पाप भंजन अपराध भंजन ऐसे कुलिया को कहते हैं अपराध भंजन स्थली जिन्होंने जिन्होंने पहले अपराध किए थे और उनको चैतन्य महाप्रभु अपने करुणा से भी कहो या उन लोगों के कुछ कार्यों में चरित्र में परिवर्तन देखकर चैतन्य महाप्रभु अपने अपराधों से मुक्त कर रहे थे। अपराध भंजन लीला चैतन्य महाप्रभु कि वहां हुई तो ठीक है यहां से चैतन्य महाप्रभु जब रामकेलि गए तो वकरेश्वर पंडित साथ में थे रामकेलि वह स्थान है जहां रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी नवाब हुसेन शाह के दरबार में मंत्री भी थे। तो चैतन्य महाप्रभु के साथ वकरेश्वर पंडित का वहां गमन या आगमन हुआ था और फिर भविष्य में वकरेश्वर पंडित जगन्नाथ पुरी में भी पहुंच जाते हैं और पूरी के निवासी बनते हैं।
जहां चैतन्य महाप्रभु नीलांचल निवासाय नीलाचल के निवासी बन गए थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो वकरेश्वर पंडित भी अन्य और कई सारे परिवार के साथ वकरेश्वर पंडित भी जगन्नाथपुरी में रहे। और वहां पर भी उनका नृत्य कीर्तन और नृत्य तो चलता ही रहा या रथयात्रा में भी जब रथयात्रा के समक्ष भी जब कीर्तन होते थे और यह नृत्य कीर्तन तो हर रोज की बात थी। कीर्तन से चैतन्य महाप्रभु को अलग नहीं किया जा सकता है जहां चैतन्य महाप्रभु वहा कीर्तन और जहां कीर्तन वहा वकरेश्वर पंडित पहुंच जाते हैं और केवल वह कीर्तन ही नहीं करते वे जरूर नृत्य करते थे। या नृत्य करना मतलब वैसे अपना और अपने हर्ष का ही प्रदर्शन है व्यक्ति जब नाचता है मतलब वह प्रसन्न है अपनी प्रसन्नता की पराकाष्ठा है कहो व्यक्ति जब खुश होता है फिर नाचता है नृत्य करता है तो हम कल्पना कर सकते हैं कितना कीर्तन के आनंद में वह गोते लगाते होंगे वकरेश्वर पंडित कीर्तन जब सुनते तो हर्षित होते।
चेतोदर्पणमार्जनंभवमहादावाग्नि-
निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
अनुवाद:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
उनका आनंद वर्धित होता और अपने आनंद का वह प्रदर्शन करते उनके लिए स्वाभाविक था कोई दिखावा तो नहीं है वीडियो शूटिंग हो रहा है चलो नाचते हैं हंसते हुए नई नाचने वाले लोग भी जब शूटिंग होता है तो जब फोटोग्राफी होता है तो झट से ऐसे खड़े थे तो वीडियोग्राफी शुरू होते ही वह नाचना शुरू करते हैं कैमरा के सामने आते हैं यह दिखाने के लिए कि मैं कितना बड़ा भक्त हैं तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अंतर्धान होने के उपरांत वकरेश्वर पंडित गंभीरा में रहने लगे अब गंभीरा कहते ही आपको गंभीर होना चाहिए झट से उस स्थान का स्मरण होना चाहिए जगन्नाथपुरी में जहां चैतन्य महाप्रभु रहे काशी मिश्रा भवन जिसको कहते हैं काशी मिश्र के भवन में काशी मिश्र तो वहां नहीं रहते लेकिन उनका भवन था राजा प्रताप रूद्र ने यह ऐसी व्यवस्था की थी चैतन्य महाप्रभु के निवास की काशि मिश्र भवन में व्यवस्था की थी। तो यह वकरेश्वर पंडित वहीं रहने लगे जहां चैतन्य महाप्रभु मतलब नहीं उस गंभीर में नहीं उस काशि मिश्र भवन में रहने लगे काशी मिश्र भवन में गंभीर एक छोटा सा संकीर्ण स्थली है कक्ष है वहां तो चैतन्य महाप्रभु रहते थे वहां नहीं रहते लेकिन वहां और भी कक्ष है तो वहां रहते थे और इतना ही नहीं वहां के जो भी वीग्रह राधा राधा कांत चैतन्य महाप्रभु के समय भी वहां वो विग्रह थे तो उस विग्रह की आराधना करते थे। और बाद में आराधना की जिम्मेदारी भी वकरेश्वर पंडित की ही रही। वकरेश्वर पंडित के कई सारे शिष्य भी थे उसमें गोपाल गुरु गोस्वामी एक विशेष शिष्य रहे उनके गोपाल गुरु गोस्वामी यह नाम जब हम कहते हैं, आप जब सुनते हो तो आपको याद आना चाहिए कि हम समय-समय पर महामंत्र का जो भाष्य है उसका उल्लेख करते हैं आपको उसके पाठ पढ़ाए हम तो वो भाषा गोपाल गुरु गोस्वामी का है।
सेवा योग्यम कुरु मुझे सेवा के लिए योग्य बनावो मया सह मा स्वांगि कृत्य मेरा स्वीकार करो हे प्रभु और रमस्व मेरे साथ रमिये प्रभु रामेश्वर और यह भी भाष्य है यह भी भाव है वैसे हर एक का यह भाव कृष्ण कहते हैं तो स्व माधुरी न आकर्षय कृष्ण कहते हैं तो यह भाव है यह प्रार्थना है अपने माधुरी और से अपने माधुरी जो है रूप माधुरी या रूप माधुरी लीला माधुरी वेनु माधुरी प्रेम माधुरी से मुझे आकृष्ट कीजिए तो यह जो भाव ये भाष्य गोपाल गुरु गोस्वामी का जो गोपाल गुरु गोस्वामी वैसे चैतन्य महाप्रभु के समय भी थे और गोपाल गुरु गोस्वामी और चैतन्य महाप्रभु के बीच घनिष्ठ सम्बंध था विशेष सम्बंध था। वह गोपाल गुरु गोस्वामी वकरेश्वर गोस्वामी के शिष्य थे। जिस गोपाल गुरु गोस्वामी के ध्यानानंद थे ऐसी ख्याति है वकरेश्वर पंडित जी की वकरेश्वर पंडित आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय।
यह चरित्र भी अपने अपने समक्ष रहिए रखिए स्मरण कीजिए वकरेश्वर पंडित प्रातः स्मरणीय है या सदैव स्मरणीय है। चैतन्य महाप्रभु का हर्ष और हर परिकर हर वैष्णव कुछ विशेष उनके जीवन के पहलू होते हैं उनके वैशिष्ट्य होते हैं उनका स्मरण हमें करना चाहिए और उनके गुण कैसे हम मे आ सकते हैं ऐसा प्रयास ऐसी प्रार्थना आज के दिन हम श्रील वकरेश्वर पंडित के चरणों में प्रार्थना करते हैं। हमें करनी चाहिए कि हमें वह अवश्य।आश्रय दें हमें वह प्रेरणा दे ताकि हम उनके चरण कमलों का अनुसरण करें कीर्तन में जरूर नाचे कीर्तन में नाचा करो कीर्तन में नृत्य किया करो नहीं तो कैसे आप वकरेश्वर पंडित के कैसे अनुयाई हरि हरि और भी उनके चरित्र का स्मरण करो और वैसे बनो वह जैसे वह हमको बना दे ऐसी प्रार्थना के साथ अपनी वाणी को यहा विराम देते हैं आप में से किसी को कुछ कहना है या आप लिख सकते हो।
हमने सब तो नहीं कहा ऐसी कुछ बात है जो अब याद आ रही है तो आप उसको लिख लो नोटबुक में भी लिख सकते हो या यहां पर लिखना चाहते हो तो चैट बॉक्स में भी लिखना हो तो आपका स्वागत है या आपके कोई साक्षात्कार है किसी बात का ज्ञान हुआ अनुभव हुआ तो उसको भी लिख सकते हो हरि बोल हरे कृष्ण।
अकिंचन भक्त प्रभु जी द्वारा प्रश्न :-
जैसे हमने देवानंद पंडित प्रभु जी के प्रसंग में देखा हैं कि अपराध तो किसी अन्य वैष्णव का किया था पर सेवा किसी अन्य वैष्णव की हैं तो क्या हम हमारे जीवन मे इसे अपना सकते हैं यदि कभी किसी वैष्णव के चरणों मे अपराध हो और हम किसी अन्य वैष्णव की सेवा करे तो क्या हम अपराध रहित हो सकते हैं ?
गरूदेव ऊवाच:- वहां तो भाव का प्रश्न हैं एक बार जब आप वैष्णव सेवा करना प्रारंभ किये तो आप अन्य वैष्णवों की सेवा ही करने वाले हो या जिस वैष्णव के चरणों मे अपराध किया था उनके चरणों मे भी आपका सेवा भाव उदित हुआ है या होना ही चाहिए ये भाव की ऊंचाई हैं या आप किस स्तर पर हो आप वैष्णव अपराधी हो या वैष्णव सेवक हो तो कुछ वैष्णव की सेवा आप कर रहे हो तब धीरे धीरे फिर और वैष्णवों की भी सेवा करो तब आपको मेवा मिलेगा आप तयार हुए होँगे जिसके चरणों अपराध किया था उनकी भी क्षमा याचना मांगने के लिए आप तयार होंगे और वे वैष्णव भी आपको माफ करेंगे जब वकरेश्वर पंडित प्रसन्न हैं देवानंद पंडित के सेवा भाव से वैष्णव सेवा से इस बात का समाचार सुनते हैं को श्रीवास पंडित तब वो भी माफ कर देते हैं शायद कोई वैष्णव होते हैं वो इतना गम्भीरता से कोई वैष्णव अपराध नही लेते किसीने अपराध तो किया लेकिन वो उस व्यक्ति को अपराधी मानते नही ऐसे महान वैष्णव भी होते है लेकिन किसीने लक्ष्य पूर्वक देखा कि हा इसने अपराध किया हैं और उन्होंने सुना कि अरे हा ये वैष्णव सेवा भी कर रहा है इन्होंने ऐसे ऐसे वैष्णव की सेवा की सत्कार सन्मान किया तो मुझे इन से कोई दिक्कत नही हैं इन्हें मैं भी माफ करता हु इसी प्रकार से अपराधी और जिसके चरणों मे अपराध किया है उनके साथ का व्यवहार और उनसे उचित आदान प्रदान करे तो ठीक हो सकता हैं।
हरे कृष्ण ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
28 जून 2021
हरे कृष्ण!
आज 902 स्थानों से भक्त जप चर्चा में उपस्थित हैं। हरि हरि!
क्या आप सब तैयार हो? आप विद्यार्थी हो तो,विद्यार्थियो के लिए पेन और पेपर, नोटबुक इत्यादि अनिवार्य होता हैं। अगर आप गंभीर विद्यार्थियों हो तो। आज कि चर्चा मे मैं सोच रहा था कि हम कल जो चर्चा कर रहे थें उसी कों आगे बढा़गऐ। उसी प्रकार कि चर्चा करेंगे। इंद्रिय्निग्रह, मननिग्रह और बुध्दि कि भूमिका हमारे जीवन में क्या हैं? हमारे इस जीवन कि यात्रा में इंद्रिय, मन, बुध्दि इनकी क्या भूमिका हैं? हम भक्तियोगी बनेंगे।भक्ति करेंगे।लक्ष्य तो भक्ति ही हैं। कल कि चर्चा भी भगवत गीता से ही थीं। भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक संख्या 36 से। इस अध्याय का नाम वैसे कर्मयोग भी हैं।हमे कर्म योग से आगे बढ़ना हैं।हमे कर्मयोग से ज्ञानयोग, ज्ञान योग से अष्टांग योग और फिर भक्ति योग पर आना हैं।सर्वोपरि तो भक्ति योग हैं। यह कर्म योग भी एक साधन हैं, साध्य नहीं हैं। समय ज्यादा नहीं होता इस लिए हम मुद्दे पर आते हैं।
अर्जुन ने हम सभी कि ओर से प्रश्न पुछा हैं,इस प्रश्न को आप ने सुना हैं। मैं सुनाता रहता हूँ।
“अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 3.36)
अनुवाद:-अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो |
हम जब पाप करते हैं,करते हैं कि नहीं? नहीं आप नही करते हो! ठीक हैं, आप पहले करते थे या उतना नहीं करते जितना पहले करते थें। ‘इमानदारी सबसे अच्छी नीति हैं’ अर्जुन तो इमानदार हैं, इसलिए भगवान से पुछ रहे हैं या फिर हमारी ओर से पुछ रहे हैं।
यह सब बताते बताते इस में ही समय बीत जाता हैं। हम जो पाप करते हैं,कभी कभी इच्छा नहीं होते हुए भी या फिर जानते हुए भी कि यह पाप हैं,तो भी हम पाप कर बैठते ही हैं।
“अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |”
“अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||”,
बलपूर्वक हमें कोई खींचता हैं, या ढकेलता हैं और पाप करवाता हैं। कौन करवाता हैं? मेरी तो इच्छा नहीं हैं। ऐसा अगर हमारा प्रश्न हैं। इसका भगवान उत्तर देने वाले हैं। इस उत्तर को वह भक्त समझेंगे, भक्त तो नहीं कहना चाहिए था। जिन से पाप होता हैं। जिनका प्रश्न ही अर्जुन जैसा हैं,अर्जुन जैसा प्रश्न है तो कृष्ण ने जो उत्तर दिया हैं, उस उत्तर को हम समझेंगे। अगर यह हमारा प्रश्न नहीं हैं, तो फिर भगवान का जो उत्तर है वह हमको समझ में नहीं आएगा, हम स्वीकार नहीं करेंगे।पूर्ण प्रश्न पूर्ण उत्तर,यह प्रश्न भी पूर्ण हैं।अर्जुन सभी बध्दजीवों कि ओर से प्रश्न पूछ रहे हैं और कृष्ण उसका मु तोड़ उत्तर दे रहे हैं। ऐसा कुछ आपका प्रश्न है? आपके मन में ऐसा प्रश्न कभी खड़ा होता है? जैसा प्रश्न अर्जुन ने पूछा हैं?हा या नहीं?जो रंगपुरी नागपुर से हैं, उनका तो यह प्रश्न हैं या पहले हुआ करता था या अभी भी हैं, वैसा कुछ हद तक। कुछ लगभग 7 श्लोकों में या फिर 7 वाक्यों में भगवान इसका उत्तर देते हैं। इस भगवतद्गीता के तृतीय अध्याय के अंत तक इसका उत्तर चलता रहेगा। श्री कृष्ण कहते हैं उत्तर में..
“श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 3.37)
अनुवाद:-श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
अरे! अरे! अर्जुन! यह जो तुमसे पाप करवाता हैं,यह पाप करवाने वाला काम हैं, तुम से पाप करवाने वाला क्रोध हैं।काम और क्रोध उत्पन्न होता हैं,किससे? ‘रजोगुणसमुद्भवः’ उद्भव मतलब उत्पन्न, उत्पन्न होता हैं,प्रगट होता हैं, किस से,रजोगुण से
“प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |
अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 3.27)
अनुवाद:-जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
कृष्ण ने गीता में कहा है, हम जो कार्य करते है,यह कार्य हमसे कोई करवाता हैं। कृष्ण ने कहा..
“प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |”गुणै: मतलब गुणों द्रारा। हम जो सारे कार्य करते हैं, वह ये अलग अलग गुण हमसे करवाते हैं। “गुणै: कर्माणि सर्वशः |”
अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || किंतु जो मूढ़ हैं, वह समझता हैं, कि मैं कर रहा हूं। ‘कर्ताहमिति’ कर्ता एक महत्वपूर्ण शब्द हैं। मन्यते,हम लोग ऐसा मान बैठे हैं कि हम लोग कर रहे हैं या कर्ता मैं हूं। नहीं नहीं।कृष्ण कह रहे हैं। कोई तुमसे यह कार्य करवा रहा हैं , और वह प्रकृति के तीन गुण हैं,उस में से रजोगुण हैं, रजोगुण से उत्पन्न होता हैं, काम और क्रोध।आगे कृष्ण कहेंगे कि यह शत्रु हैं और फिर यह तुम्हें व्यस्त रखता हैं,किस में? पाप में व्यस्त रखता हैं। कोन करवाता हैं ‘अनिच्छन्नपि’।आपकी इच्छा नहीं होते हुए भी ‘काम एष क्रोध एष’ और फिर तमोगुण से उत्पन्न होने वाले भी शत्रु हैं। मद, मोह,मात्सर्य और फिर ओर गिर जाते हैं ओर पतीत हो जाते हैं,ओर पापी हो जाते हैं।किस से?तमोगुण से उत्पन्न मद ,मोह, मात्सर्य से और यह युग हैं तमोगुण का। हरि हरि!
और फिर आगे
“महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||”
अब भगवान कह रहे हैं कि दो शत्रु हैं।काम और क्रोध।भगवान ने दो के ही नाम लिए हैं।वैसे कुल मिला कर छ: हैं। इनका मंडल हैं।षडरिपू जिसे कहते हैं-काम,क्रोध,लोभ, मद, मोह, मात्सर्य और यह पाप करवाते हैं। हमको पाप बुद्धि देते हैं। विधि मतलब समझो।कृष्ण कह रहे हैं कि विधि मतलब जान लो,समझ लो। समझ में आया?कई स्थानों पर विधि-विधि मतलब संस्कृत में सुनोगे या शास्त्रों में सुनोगे तो उसका अर्थ है विधि मतलब तुम को यह समझना चाहिए। समझ रहे हो!
“विद्धयेनमिह वैरिणम् ||” हे अर्जुन! तुम्हारा यह शत्रु है और आगे कृष्ण कह रहे हैं…
“धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 3.38)
अनुवाद:-जिस प्रकार अग्नि धुएँ से, दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है ।
यह जो शत्रु है काम क्रोध लोभ मोह इत्यादि इनका प्रभाव अलग अलग व्यक्ति के जीवन में कुछ कम अधिक हो सकता है या व्यक्ति के ऊपर अलग-अलग प्रभाव, उसकी मात्रा कम या अधिक हो सकती हैं। कभी-कभी क्रोध आता आता हैं, कभी हम सदैव क्रोध के मनोभाव में रहते हैं और क्रोध आया तो कोई गाली देता हैं, तो कोई क्या करता हैं? बंदूक से गोली खिलाता हैं। अंतर हुआ कि नहीं?यहां कृष्ण एक उदाहरण के साथ कह रहे हैं,जैसे अग्नि को धुआँ ढ़कता हैं, जहाँ आग होती हैं, वहा धुआँ होता हैं।तो धुआँ अग्नि को ढ़क लेता हैं,लेकिन थोड़ी देर के लिए ढ़क लेता हैं। कभी होता हैं, कभी नहीं होता हैं। कभी अधिक होता हैं, कभी कम होता हैं, कभी चंचल भी होता हैं। पूरा पकड़ के पूरा ढ़कता नहीं हैं। तो वह एक स्थिति हैं या वह एक मात्रा हैं। काम ,क्रोध इत्यादि शत्रुओं का प्रभाव कैसा हो सकता हैं? “धूमेनाव्रियते वह्नि” मतलब अग्नि को धुआँ ढ़कता हैं। यह दूसरा उदाहरण हैं, यहाँ तीन प्रकार कि श्रेणीयाँ या स्तर बताएं गये हैं “र्यथादर्शो मलेन च |” मान लो आपके पास आईना हैं, होता ही हैं। वह ढ़क जाता हैं,धूल से ढ़क जाता हैं।आईने का धूल से ढकना यह थोड़ा अधिक हुआ। धुआँ अग्नी को ढ़कता हैं,और धूल आईने को उससे अधिक ढ़क देती हैं और तीसरा हैं, यह जबरदस्त आवरण हैं या बंधन है और वह है
“यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||”
जैसे गर्भ में भ्रूण होता हैं, छ: महीने का बालक जो गर्भ में हैं,उसको गर्भ ढ़कता हैं,वह ढ़कना जबरदस्त ढकना हुआ। ना तो हिल सकता हैं, ना डूल सकता हैं,न ही वहां प्रकाश की किरण पहुचती हैं,काम ,क्रोध का बड़ा प्रभाव हैं।कितना प्रभाव? जैसे गर्भ में भ्रूण के ऊपर वाला जो आवरण हैं, गर्भ के कारण ही हैं।यहा कृष्ण बता रहे हैं कि काम का या क्रोध का जो प्रभाव हैं, उसकी मात्रा कम अधिक हो सकती है।
“आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 3.39)
अनुवाद:-इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है |
जो धुआँ ढ़कता हैं, अग्नि को,धूल ढ़कती है आईने को वैसा ही गर्भ ढ़कता हैं, भ्रूण को, हमारे जीवन में कौन ढ़कता है? किसको ढका जाता है? या कृष्ण कहते हैं हमारा जो ज्ञान है,ज्ञान को यह काम ढकता हैं। काम,क्रोध,मद,मोह यह सारे जो षडरिपू है यह हमारे ज्ञान को ढक लेते हैं या तो ज्ञान को ढक लेते हैं या ज्ञान को चुरा लेते हैं।
“कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः |
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||”
(श्रीमद्भगवतगीता 7.20)
अनुवाद:-जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं |
काम के द्वारा,क्रोध के द्वारा बुद्धि नष्ट हो जाती हैं ,वैसे इस वचन में तो काम का ही नाम ले रहे हैं। काम सारे शत्रुओं का लीडर हैं, इसलिए उसका नाम अधिक लिया जाता हैं या फिर काम से ही क्रोध उत्पन्न होता हैं।मिस्टर लस्ट का यंगर ब्रदर (छोटा भाई)क्रोध हैं , या अनुज क्रोध हैं। पहले काम उत्पन्न होता हैं, काम की पूर्ति नहीं होती तो क्रोध उत्पन्न होता हैं।और काम की पूर्ति हो रही हैं तो अच्छा लग रहा हैं। सारी सुख सुविधा काम वासना कि पूर्ति के लिए प्राप्त हो रही हैं। उपलब्ध हो रही हैं।इस तरह हम लोभी बन जाते हैं।काम का चस्का लग जाता हैं,उस काम के पीछे और चाहिए!इस लोभ या काम तृप्ति कि योजना में अगर कोई बाधा उत्पन्न होती हैं, रुकावट होती हैं, देरी होती हैं, तो क्रोध उत्पन्न होता हैं।और अगर बढ़िया से चल रहा हैं, सुख सुविधा प्राप्त हो रही हैं, हम उपभोग उठा रहे हैं, तो हम लोभी, लालची बन जाते हैं।काम से ही उत्पन्न होते हैं, क्रोध या लोभ,आगे आगे वाले शत्रु भी काम से ही आते हैं। काम ही लीडर ( नेता)हैं। आगे कृष्ण कहते हैं “कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः”
काम के कारण हम ज्ञान रहित होते हैं, या जब हम कामी होते हैं,क्रोधी होते हैं, लोभी होते हैं तो यह शत्रु क्या करता हैं?बुद्धि नष्ट कर देता हैं।
आगे कृष्ण ने कहा हैं-
भगवद्गीता 3.40
“इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् || ४० ||”
अनुवाद
इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं | इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता हैं
यह जो शत्रु हैं, जिनका अध्यक्ष यह काम हैं।
हमारे जीवन में या हमारे शरीर में यह जो काम इत्यादि शत्रु हैं, इनहोने अपना अड्डा बना लिया हैं या फिर 3 अड्डे बना लेते हैं। तीन स्थानों पर इनका देश बन जाता हैं। वह कौन-कौन से हैं? इंद्रियानी, अगर इंद्रिय तृप्ति हो रही हैं, तो इंद्रियों में इन शत्रुने अपना स्थान बना लिया हैं और यह शत्रु धीरे-धीरे इन द्वारों से प्रवेश करते हैं।भगवद्गीता में इंद्रियों को द्वार कहा गया हैं।
कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा हैं-
भगवद्गीता 5.13
“सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी |
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् || १३ ||”
अनुवाद
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है |
इस शरीर को पूर भी कहा हैं, नगर कहा हैं। जैसे नगर के दरवाजे होते हैं वैसे ही इस शरीर में 9 दरवाजे हैं। इन दरवाजों पर कोई चौकीदार नहीं हैं। कोई रखवाली नहीं कर रहा हैं। ऐसे ही द्वार खुले हैं। इंद्रियों के विषय इन दरवाजों से प्रवेश करके कहां पहुंचते हैं?मन तक पहुंच जाते हैं।पूरा कनेक्शन और वायरिंग ऐसी ही हैं।
भगवद्गीता 2.62
“ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||”
अनुवाद
इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |
कृष्ण ने सब कुछ गीता में कहा हैं,हम लोग मूर्ख हैं और मूर्ख ही रहेंगे कि हम लोग गीता पढ़ते नहीं हैं और फालतू की चीजें पढ़ते रहते हैं।हम लोग विद्यालय और विश्वविद्यालय में पढ़ते रहते हैं,जहां आत्मा की हत्या होती हैं। प्रभुपाद इन्हें बूचड़खाना या स्लॉटर हाउस कहते हैं जहा आत्मा का ज्ञान नहीं होता।हरि हरि!जब मन विषयों का ध्यान करता हैं,तब वहा काम अपना अड्डा बना लेता हैं।आधुनिक सभ्यता में ध्यान और मेडिटेशन चलता रहता हैं, टेलीविजन देखते रहते हैं और ऐसे ही बहुत कुछ चलता ही रहता हैं। मौज उड़ाते रहते हैं।जिससे यह शत्रु कहां तक पहुंच गया हैं?यह शत्रु मन तक पहुंच गया हैं। शत्रु ने मन को टेकओवर कर के वहां भी अपना अड्डा बना लिया हैं। पहले इंद्रियों को काबू किया, फिर मन तक पहुंच गया। फिर तीसरा हैं बुद्धि और क्योंकि हम बुद्धू हैं इसलिए हमारी बुद्धि काम नहीं करती।सद्- असद विवेक नहीं है,जिससे यह बुद्धि तक पहुंचता हैं।मन में इस संसार को उपभोग के लिए विचार आते रहते हैं। वैज्ञानिक लोग बहुत बुद्धिमान कहलाते हैं।परंतु वैज्ञानिक हो या नेता हो या बुद्धिजीवी लोग हैं,जो अपनी बुद्धि को बेंचते हैं और अपनी बुद्धि को बेच कर अपनी जीविका चलाते हैं, उन लोगों को बुद्धिजीवी कहते हैं। यह सब लोग ही बुद्धू हैं। काम, क्रोध ने उनके ज्ञान को चोरी किया हुआ हैं।
भगवद्गीता 7.15
” न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः |
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || १५ ||”
अनुवाद
जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |
भगवान कह रहे हैं जो मूढ हैं,वह मेरी शरण में नहीं आते।चार प्रकार के ऐसे लोग हैं,जो भगवान की शरण में नहीं आते।इनमें से एक हैं, जिनकी बुद्धि को माया ने हर लिया हैं। कुछ लोग नरोत्तम होते हैं और कुछ लोग नराधम होते हैं। जो लोग नराधम होते हैं,माया उनके ज्ञान को चुरा लेती हैं। यह लोग भगवान की शरण में नहीं जाते।
जब बुद्धि को टेकओवर किया तो यह शत्रु तो हैं ही जिनका मुख्य बेस बुद्धिमता हैं, इंटेलिजेंस हैं। क्या आप जानते हैं कि सरकार भी इस प्रकार ही चलती हैं। सरकार का जो सबसे मुख्य विभाग होता हैं वह हैं इंटेलिजेंस।जब इंटेलिजेंस फेल हो जाता हैं, तब शत्रु हमला करता हैं इसीलिए यह विभाग रात दिन व्यस्त रहता हैं। इनका पूरा नेटवर्क होता हैं। हर वक्त यह नजर रखते हैं। अगर यह इंटेलिजेंस विभाग फेल हुआ तो जासूस उसका फायदा उठाते हैं।वैसे ही हमारे जीवन में बुद्धि को काम ने घेर लिया हैं।इसी के साथ बुद्धि का चक्का जाम हो गया हैं। जिससे बुद्धि काम नहीं करेगी। जैसे कि मैं कल आपको बता रहा था कि बुद्धि भी एक वाहन चालक की तरह ही हैं, जिसका रथ यह शरीर हैं और इंद्रियां घोड़े हैं और मन लगाम हैं। लगाम चालक के हाथ में होती हैं। तो जो इंटेलिजेंस विभाग हैं, यानी कि जो बुद्धि हैं उसका संचालन सही प्रकार से होना चाहिए। लेकिन हम ढीले ढाले हैं ।यह काम आगे बढ़ता गया ।इसे दरवाजे पर भी रोका नहीं गया,भगाया नहीं गया,इसकी हत्या नहीं की गई,इसकी जान नहीं ली गई। फिर यह काम आगे बढ़ा, मन तक पहुंच गया और मन पर भी इसने कबजा कर लिया। काम,क्रोध,लोभ,मद और मत्सरय ने मन में घर बना कर यही विचारो को फैला दिया। जिससे मन में काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सरय के विचारों का मंथन होने लगा और फिर वहां से आगे बढ़कर शत्रु ने इंटेलिजेंस पर कब्जा किया यानी बुद्धि को भ्रष्ट किया जिससे क्या हुआ विनश्यति सब खत्म।
भगवद्गीता 2.62
“ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||”
अनुवाद
इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |
द्वितीय अध्याय में भगवान ने यह सब समझाया हैं कि जैसे ही व्यक्ति विषयों का ध्यान करता हैं, विषयों का ध्यान करते करते कामवासना जगती हैं, व्यक्ति कामी बनता हैं।
और जब काम की पूर्ति नहीं होती, कोई विघ्न आता हैं या देरी होती हैं, तो क्रोध उत्पन्न होता हैं। व्यक्ति मोहित होता हैं और स्मृति भम्रित होती हैं और फिर भगवान ने बुद्धि नाशो कहा हैं। इसका परिणाम होता हैं कि बुद्धि का नाश हो जाता हैं और जब बुद्धि का नाश हुआ तो विनश्यति।व्यक्ति में अगर बुद्धि ही नहीं हैं, व्यक्ति बुद्धू हैं तो विनाश होना ही हैं। जिससे वह नरक जाएगा।वैसे भी भगवान ने खुद ही काम ,क्रोध,लोभ को नरक के तीन द्वार कहा ही हैं।
भगवद्गीता 3.42
“इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः || ४२ ||”
अनुवाद
कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है ।
कल मैं इस वचन को कह रहा था।
कर्मेंद्रियां जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं।मन इंद्रियों से बढ़कर हैं। बुद्धि मन से भी उच्च हैं और आत्मा बुद्धि से बढ़कर हैं। इस प्रणाली पर कल हम चर्चा कर रहे थे।कृष्ण ने कहा जो अभी कहना रह गया था-
भगवद्गीता 3.41
“तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् || ४१ ||”
अनुवाद
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप का महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो । यह काम जो शत्रु है इसका कहां-कहां निवास होता हैं?
तीन स्थान हैं।इंद्रिय,मन और बुद्धि और फिर सार रूप में कृष्ण कहते हैं कि इसलिए इंद्रियों पर निग्रह रखो।शुरुआत कहां से करनी हैं? इंद्रियों पर निग्रह रखकर।गेट पर ही शत्रु को रोक लो या वहीं से गोली चलाकर शत्रु की जान ले लो।शत्रु रहेगा ही नहीं तो आगे बढ़ेगा ही नहीं। मन तक नहीं पहुंचेगा और मन तक नहीं पहुंचेगा तो बुद्धि तक तो पहुंच ही नही सकता।
अंत में कृष्ण कह रहे हैं
भगवद्गीता 3.43
” एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्ताभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || ४३ ||”
अनुवाद
इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत) से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रूपी दुर्जेय शत्रु को जीतो |
यह इस अध्याय का अंतिम वचन हैं या हम यह कह सकते हैं कि जो शिक्षा का हम अध्ययन कर रहे हैं यह श्लोक उसका सार हैं और इसमें हमारा शिक्षक कौन हैं? स्वयं भगवान श्री कृष्ण। सारे ज्ञान के स्रोत कृष्ण हैं।
“कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्-आदि शंकराचार्य”
आपको कृष्ण स्वयं शिक्षा दे रहे हैं। इस संसार का कोई फालतू बेकार का तथाकथित शिक्षक नहीं है। स्वयं भगवान शिक्षक बने हैं।भगवान कह रहे हैं कि अपने आप को मन,बुद्धि और भौतिक इंद्रियों से परे जानकर कृष्ण भावनामृत की आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम रूपी शत्रु को जीतो।हे महाबाहु!क्या फायदा तुम्हारे महाबाहू होने का?अपने बाहू का उपयोग करो और शत्रु को जीतो।
जहि का मतलब हैं मारना। किल दा एनीमी।अगर आपके घर में कभी सांप घुस जाता हैं, तो क्या आप उसको आधा मार कर छोड़ देते हो? क्या यह सोचते हो कि चलो उसको थोड़ा पीट दो और फिर उसे रहने दो।उसे पूरी तरह मारते हो ना।अगर नहीं मारेंगे तो क्या होगा? वह पुनः तैयार हो जाएगा।सांप को मार दो।कामरुपी या क्रोध रूपी शत्रु को मारो।यह शत्रु हमारे ज्ञान की चोरी करते हैं और हम कामांध बन जाते हैं, क्रोधांध,लोभांध बन जाते हैं। काम,क्रोध,लोभ यह सारे शत्रु हम को अंधा बना देते हैं।फिर हमें कुछ दिखता ही नहीं हैं। इसीलिए इनकी जान लो। पहले इसको जान लो फिर इसकी जान लो। यदि हम इन शत्रुओ को जानते ही नहीं तो इनकी जान कैसे लेंगे?इसीलिए कृष्ण ने शुरुआत में ही कहा कि यह तुम्हारा वेरी हैं, यह तुम्हारा शत्रु हैं और शत्रु जब तक जीवित हैं और कार्यरत हैं तो हमको सुख पूर्वक या शांतिपूर्वक जीवन नहीं जीने देगा।सार रूप में कहे तो अर्जुन ने पूछा था कि कौन हैं जो मुझे परेशान करता हैं, मुझसे बलपूर्वक पाप करवाता हैं? तो कृष्ण ने कहा था कि अर्जुन काम ही हैं, जो तुमसे कार्य कराता हैं, क्रोध पाप करवाता हैं। लोभ पाप करवाता हैं। निष्कर्ष में कृष्ण कह रहे हैं कि शत्रु का विनाश करो और साधु बनो। मराठी में सहा को 6 कहते हैं और धु मतलब धोना।अगर हमारी चेतना और हमारी भावना से हमने उसको मिटा दिया।उसको हमने धो दिया। 6 शत्रुओ को धो दिया और बन गए साधु।काम,क्रोध की धूल को मिटा देना,हटा देना,उसकी जान लेना।उससे क्या होगा? हमारा जीवन एकदम शांत हो जाएगा। हम जितेंद्रिय हो जाएंगे।हम प्रशांत बनेंगे और फिर एक ही वचन में भगवान ने कहा हैं कि जो जितेंद्रीय हैं, जिन्होंने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हैं। जिनकी इंद्रियां नियंत्रित हैं, वह शांत हैं और जो शांत होगा वह परमात्मा को प्राप्त कर सकता हैं।
भगवद्गीता 6.7
“जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः |
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: || ७ ||”
अनुवाद
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है | ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं |
ठीक हैं। यहां समय समाप्त हो गया हैं।अगर आपके कोई प्रश्न है तो आप लिख लीजिए उसे अगले सेशन में ले सकते हैं।
हरे कृष्णा!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*27 जून 2021*
हरि हरि।
हरे कृष्ण। हमारे साथ 838 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। गौरंग, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
आप बड़े उत्साही लग रहे हो, क्या बात है। हरि हरि। कुछ मन के संबंध में या कहो मन की बात करने का विचार हो रहा है। मैं जब मन की बात कह रहा हूं, तो मैं वैसे मन से संबंधित बात करने का सोच रहा हूं। मन जानते हो? मन को जानना कठिन है। मन सूक्ष्म है और तत्वों को जानना जो स्थूल है जिनकी संख्या कुछ 104 है, ऐसा शास्त्रीज्ञ कहते हैं। अलग अलग धातु है किंतु मन, बुद्धि और अहंकार, यह स्थूल तत्वों की तुलना में और भी सूक्ष्म है। वैसे शास्त्रीज्ञो ने अलग अलग धातुओं के नाम दिए। लेकिन भगवान ने तो 5 ही नाम दिए हैं – पृथ्वी, आग, तेज, वायु, आकाश।
*भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |*
*अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || ४ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 7.4)
अनुवाद
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियाँ हैं |
फिर आगे कृष्ण कहते हैं कि मन, बुद्धि और अहंकार।
*अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा*। यह सारे स्थूल तत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश है और मन बुद्धि अहंकार सूक्ष्म तत्व है। जिसको अंतःकरण कहते हैं। जिसको हम सूक्ष्म शरीर कहते हैं। वह मन, बुद्धि और अहंकार से बना है। जिसको भगवान अपनी बहिरंगा शक्ति कहते हैं। बहिरंगा शक्ति के अंतर्गत है। *भिन्ना प्रकृतिरष्टधा* यह भिन्ना प्रकृति है। तो मन, बुद्धि और अहंकार में, मन के बारे में कहना कठिन है। थोड़ा मानना ही पड़ेगा कि हम पर मन की विशेष भूमिका है और विशेष प्रभाव है। हमसे दिनभर कहीं सारे कार्य भी यह मन ही करवाता है। इसीलिए शास्त्रों में कहा है।
*मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।*
*बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥*
(उपनिषद)
अनुवाद
मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है ।
श्रील प्रभुपाद इसको बारंबार कहा करते थे। *मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।* संस्कृत भी सरल ही है। *मन एव* मन ही है। एव मतलब निश्चित ही। मनुष्याणां मतलब सभी मनुष्यों के लिए, केवल भारतीय मनुष्यों की बात नहीं हो रही है। सभी मनुष्यों की बात हो रही है। जो पहले थे, अब हैं और भविष्य में होंगे और जो जहां भी हैं। उन सब की कहानी एक ही है। उन सभी के संबंध में कहा जा रहा है। फिर वह देशी या विदेशी हो या स्त्री हो या पुरुष सबके मन होते है। यह बताया जा रहा है कि मन क्या होता है? मन ही बनता है कारण। किस-किस का कारण बनता है? दो बातें कही हैं। बंधन का कारण। क्या है बंधन का कारण? एक ही शब्द में उत्तर देना है। तो वह उतर होगा – मन। बंधन का कारण मन है। हम जो बद्धजीव कहते हैं जिसने हमको बनाया। किसने हमको बद्ध बनाया और बांध दिया है? मन ने। *मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।* यो आ गया। यह दो बातों का उल्लेख हुआ है इसलिए *बन्धमोक्षयोः*। हरि हरि। तो बंधन का कारण मन है और यही मन मोक्ष और मुक्ति का भी कारण बन सकता है। हम किसके कारण बद्ध हैं? मन के कारण। हम मुक्त बनना चाहते हैं या मोक्ष को प्राप्त करना चाहते हैं। वह कैसे संभव होगा? मन के कारण। मन हमको बांध देता है और वही मन हमको छोड़ भी दे सकता है और मुक्त भी कर सकता है। हरी हरी।
*उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |*
*आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः || ५ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 6.5)
अनुवाद
मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे | यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी |
भगवत गीता के छठे अध्याय में जिस अष्टांग योग का लक्ष्य मुक्त होना या मोक्ष प्राप्ति है। अष्टांग योग में ध्यान करना सिखाया जाता है और समाधि या भगवान का ही ध्यान, भगवान के रूप का ध्यान या स्मरण अष्टांग योग पद्धति का लक्ष्य है। तो वहां पर भगवान मन के संबंध में बता रहे है। आप अधिक जानना चाहते हो। तो भगवत गीता का छठा अध्याय दृढ़तापूर्वक पढ़िएगा। यह एक प्रकार का सेमिनार कहो। अर्जुन को समझा रहे हैं – मन के कार्यकलाप, मन की चंचलता।
*चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |*
*तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 6.34)
अनुवाद
हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |
यह मन के संबंध में निरूपण हुआ है या कुछ चर्चा हुई है। तो वह एक स्थान है शास्त्रों में भगवद गीता का छठवां अध्याय। हरी हरी। तो वहां पर मैंने जैसे बताया कि उस श्लोक का उदाहरण दिया ही है। तो कृष्ण कहते हैं,भगवत गीता में *आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः* उसी श्लोक का जो पहला पहले 2 पद है उसमें कृष्ण कहते हैं। *उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |* इस श्लोक में केवल आत्मा की बात हुई है। आप कहोगे इसमें भगवान मन का नाम तो ले ही नहीं रहे है। तो यहां आत्मा मतलब आत्मा भी है और शास्त्रों में मन को भी आत्मा कई स्थानों पर कहा हैं। यहां तक की शरीर को भी आत्मा कहा गया है। हमारा आत्मा के रूप में उल्लेख होता है। तो कृष्ण कह रहे हैं कि *आत्मैव ह्यात्मनो*। *उद्धरेदात्मनात्मानं* आत्मा का उद्धार करना चाहिए। आत्मा का आत्मा से उद्धार करना चाहिए। यहां पर एक आत्मा है, जो हम हैं। उसका उद्धार कैसे करना चाहिए? आत्मा से मतलब मन से। मन से, मन के माध्यम से, मन की मदद से, अपना खुद का यानी आत्मा का उद्धार या भक्ति करनी चाहिए। *नात्मानमवसादयेत्* उसी का दूसरा अंश है। कृष्ण कह रहे है कि आपका मन, आत्मा को गिराता नहीं है, उसका पतन नहीं कराता है। दोनों बातें कही है। मन से क्या करो? मन का उपयोग करो। मन की मदद से आत्मा का उद्धार करो। देखना कि आपका मन आपको गिरा नहीं रहा है। आपका पतन नहीं करा रहा है। यह एक अंश है। उसी श्लोक में, उसी वचन में, उसी वाक्य में कहिए, कृष्ण आगे कहते हैं। *आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः*। किंतु आपका मन दो प्रकार की भूमिका निभा सकता है। आपका मन आपका बंधु , सखा या साथी बन सकता है और हमको बनाना भी चाहिए। आपको यह निश्चित करना चाहिए कि आपका मन आपका शत्रु नहीं बनता है। *आत्मैव* मतलब मन है। मन आत्मा का बंधु है या फिर दुर्देव से मन ही बन सकता है, रितु मतलब शत्रु। आत्मा का शत्रु बन सकता है। हरि हरि। तो समझ में आ रहा है? तो इतना समझने पर हमको देखना है कि हमारे मन को हमारा मित्र बनाना है या बंधु बनाना है या हमारा सहायक बनाना है।
*नंदन अभय चरण
अभय चरण अरविंद रे
भज हूँ रे मन श्री नंद नंदन
अभय चरण अरविंद रे ।
दुर्लभ मानव जनम सतसंगे,
तर आये भव सिंध रे ।
अभय चरण अरविंद रे
शीत आ तप मात बरीशन,
एह दिन यामनी जाग रे ।
अभय चरण अरविंद रे
विफले से बिनु कृपण दुर्जन,
चपल सुख नव लाग रे ।
अभय चरण अरविंद रे
श्रवण र्कीतन स्मरण वंदन,
बाद से मन दास रे ।
अभय चरण अरविंद रे
पूजन सकी जन आत्म निवेदन,
गोविन्द दास अभिलाष रे ।
अभय चरण अरविंद रे
भज हूँ रे मन श्री नंद नंदन
अभय चरण अरविंद रे ।
अभय चरण अरविंद रे*
यह प्रार्थना है। हम मन को प्रार्थना कर सकते हैं। मन क्या करो? *भज हूँ रे मन* मन भज लो। अभय चरण अरविंद के चरण को भज लो। ऐसी हम मन को प्रार्थना कर सकते हैं या निवेदन कर सकते हैं। कितना हम आपको समझाया थोड़े समय में? वैसे मन को समझाने वाली बुद्धि होती है। मन के उपर बुद्धि का अधिकार है या मन का मालिक ही कहो। इसको अनुक्रम कहते हैं। जिसमें एक के ऊपर दूसरा अधिकारी होते हैं। इसको समझाते हुए भगवद गीता में कृष्ण कहते है।
*इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |*
*मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः || ४२ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.42)
अनुवाद
कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है ।
हमारी जो इंद्रियां हैं *पराणी* परे है या श्रेष्ठ है। इंद्रियों के जो विषय हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध, हमारी इंद्रियां उससे श्रेष्ठ है, *इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः*। आगे कृष्ण क्या कहते हैं? *परं मनः* मतलब इंद्रियों से श्रेष्ठ है मन। इंद्रियों के विषयों से श्रेष्ठ इंद्रियां है और इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। वैसे कृष्ण कहते ही है।
*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |*
*मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || ७ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 15.7)
अनुवाद
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
मन भी एक इंद्रिय है। *मनःषष्ठानीन्द्रियाणि* उसको छठा इंद्रियां कहा गया है और यह राजा है, प्रमुख है। इंद्रियों के ऊपर मन का अधिकार है या पद है। यह भगवत गीता के तृतीय अध्याय में है। *मनसस्तु परा बुद्धिर्यो*। कृष्ण कह रहे हैं कि मन से श्रेष्ठ है बुद्धि और इस बुद्धि से श्रेष्ठ है – *स:* यानी आत्मा। जो बुद्धि से श्रेष्ठ है वह है आत्मा और आत्मा से श्रेष्ठ है परमात्मा और परमात्मा से भी श्रेष्ठ हैं भगवान जो पूर्ण है।
आप देख रहे हो? जो इंद्रियों के विषय है, वो सबसे निम्न स्तर पर है। उनसे ऊंची है इंद्रियां, उनसे ऊंचा है मन, मन से श्रेष्ठ है बुद्धि, बुद्धि से श्रेष्ठ है आत्मा फिर परमात्मा। यहां मन की चर्चा कर रहे है। कैसे नियंत्रण करे? मन को हमे अपना बंधु बनाना है, शत्रु नहीं बनाना है। शत्रु तो ना जाने कब से हमारा मन रहा ही है। इसलिए संसार में हमारा चलता रहा।
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।*
*इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥* (शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-2)
अनुवाद
हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं*। शत्रु मन के कारण ही हमने बहुत सारे कार्य करवाए है।
*अर्जुन उवाच*
*अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |*
*अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ३६ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.36)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो |
अर्जुन ने ऐसा प्रश्न पूछा। इच्छा नहीं होते हुए ऐसा पाप होता ही है, लगता है जैसे पाप कोई करवा रहा है। कौन है वो पापी ? कृष्ण गीता में कहते है, उत्तर दे रहे है: काम और क्रोध है।
*श्री भगवानुवाच*
*काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |*
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || ३७ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.37)
अनुवाद
श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
षठ रिपु होते है। यह हमारे मन में ही बसे रहते है। इन्होंने अपना घर हमारे मन में बना लिया है। मन में है , काम मन में है, क्रोध मन में है लोभ। मन को घेर लिया है, मन को ही घर बना लिया है। यह सारे शत्रु हमला करते ही रहते है। जीवन में सारे कार्य उन्ही के प्रभाव से होते है। तो कैसे इस मन को सुधारना है? ऐसे शत्रु रूपी मन को मित्र बनाना है ताकि जो हम बद्ध थे वह मुक्त हो सकेंगे।
*मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।*
*बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥*
(उपनिषद)
अनुवाद
मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है।
हरि हरि। ऐसा समझाया है कि मन के ऊपर है बुद्धि, तो बुद्धि का प्रयोग करते हुए, बुद्धि मतलब सही गलत का पता लगाने वाली। यह अनुकूल है या प्रतिकूल है, सही है या गलत है, पाप है या पुण्य है, यह जड़ है या चेतन है। यह बुद्धि से निर्धारित होता है। वैसे भी बुद्धि को चालक कहा है, यह शरीर है रथ, इंद्रियां हैं घोड़े, मन है लगाम। चालक के हाथ में लगाम है, उसमे बुद्धि की भूमिका है। बुद्धि के हाथ में लगाम है और फिर लगाम से घोड़ों को रोकना है, बढ़ाना है, स्पीड को बढ़ाना है। चालक भी यही करता है, तो वही भूमिका हमारे जीवन में बुद्धि की है। भगवान का भक्त बुद्धु का कार्य नहीं अपितु बुद्धिमान का कार्य है।
*बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |*
*वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || १९ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 7.19)
अनुवाद
अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |
बुद्धिमान व्यक्ति ही भगवान को प्राप्त कर सकता है। कृष्ण भजे सेई बने चतुर। जो कृष्ण को भजता है वह बड़ा चतुर है। बुद्धि के ऊपर भगवान ने कहा है बुद्धि के ऊपर है आत्मा। आत्मा परेशान है। मदद मांग रही है, वह मुक्त होना चाहता तो है। दिमाग लड़ेएगा प्रार्थना करेगा, तो उस आत्मा को भगवान बुद्धि देंगे। बुद्धि तो सभी में होती है, उसको कुशार्ग बुद्धि देंगे। फिर वो ध्यान देगा। ये कब होगा दादामी बुद्धि योगम।
*तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |*
*ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.10)
अनुवाद
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
जो साधना भक्ति में लगे हुए है और इसको करना ही चाहते है, अखंड और प्रीति पूर्वकम। ऐसा व्यक्ति जो प्रार्थना भी कर रहा है, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। प्रार्थना कर रहा है तो भगवान वो प्रार्थना सुनेंगे। सतत प्रार्थना हो रही है।
*तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |* जितनी प्रीति है उतने प्रीति पूर्वक प्रार्थना कर रहा है। तो फिर ऐसे व्यक्ति को भगवान क्या करते है? भगवान उसको बुद्धि देते है। परमात्मा, जो हृदय के प्रांगण में है, वही पर जहां इंद्रियां है शरीर है, मन है, उसी शरीर में बुद्धि भी है, और आत्मा भी है और वही परमात्मा भी है। वे परमात्मा, वे भगवान हमको बुद्धि देंगे। इस बुद्धि का प्रयोग हम अपने पर लगाएंगे। ध्यान पूर्वक जप हो रहा है या नही हो रहा। यह सब के बारे में सोचेंगे। हरि हरि। नही तो जो विनाश काले विपरीत बुद्धि है। वह तो सदियों से प्राप्त हो ही रही थी। उस स्थान पर सद बुद्धि, विचार, उस स्थान पर भगवान देंगे, भगवान के भक्त देंगे। भगवान ने अर्जुन को बुद्धि दी है। वह ज्ञान आपके और हमारे काम का भी है। भगवान को पुनः बोलने की आवश्यकता नहीं है। वैसे हम बद्ध है, तो अर्जुन भी कुरुक्षेत्र के मैदान में बद्ध था, या उसको बुद्धि देना चाहते थे। तो ऐसा आयोजन किया और उसको बुद्धि प्रदान करी।
*अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || ७३ ||*
(श्रीमद भगवत गीता 18.73)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
अर्जुन ने कहा था नष्टो मोह: कोई संदेह नहीं रहा, मैं स्थिर हो गया हूं। युद्ध करने के लिए मैं तैयार हूं, मैं क्षत्रिय हूं। चलो चलते है रथ को आगे बढ़ाओ। भगवद गीता के रूप में भगवान हमको बुद्धि दे रहे है, वह भगवद गीता है और भी शास्त्र है वैसे।
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |*
*कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||*
(श्रीमद भगवत गीता 10.9)
अनुवाद
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
श्रवण से, अध्ययन से, बोधयन्तः परस्परम् से हम बुद्धिमान बन जायेंगे। हम अच्छे चालक बन जायेंगे। कहते है यह जीवन एक यात्रा है तो चालक अगर विशेषज्ञ है तो कोई दुर्घटना नही होगी, वह लक्ष्य तक पहुंचा देगा। दिन पर दिन हमको बुद्धिमान होना ही है। बुद्धिमान होने के लिए अपने मन को परिवर्तन करना होगा। फिर क्रांति होगी। जो पहले मन शत्रु जैसा कार्य कर रहा था। हरि हरि।
*जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः |*
*शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: || ७ ||*
(श्रीमद भगवत गीता 6.7)
अनुवाद
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है | ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं |
कृष्ण पुनः कहते ही है *जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।* जिन्होंने इंद्रियों को जीता है और फिर मन को भी जीता है, क्योंकि मन को जीते बगैर इंद्रियों को जीत नही सकते। फिर स्वाभिक है वो शांत बनेगा। मन की शांति कब इंद्रिय निग्रह करने से। क्षमा:, दम:, तप:, यह करने से फिर इंद्रिय निग्रह हुआ। मन शांत है। फिर शांत मन में परमात्मा समाधिस्य। फिर आप परमात्मा से मिलेंगे, परमात्मा का दर्शन करेंगे। मैं ऐसे सोच रहा था कि एक कुआं है उसके किनारे आप खड़े हो। जल कि तरंगे है।
अगर ऊपर से पत्थर फैंकोगे तो आप स्वयं को नही देख पाओगे और अगर तरंगे नही है, तो आप स्वयं को देख सकते हो। उसी प्रकार *जितात्मनः प्रशान्तस्य*। मन जब शांत होगा। जिसको पतंजलि योग में कहा है निरोग। हमारे चित चेतना। इसमें मन भी है। कई सारे संकल्प, विकल्प चलता रहता है। विरोग: उसका दमन होगा। *योगः चित्त – वृत्ति निरोधः* मन की भाषा बताई है। वो योगी बन गए। भगवान के साथ इसका संबंध स्थापित करता है जिसे योग कहते है। हरि हरि।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 26 जून 2021
हरे कृष्ण!!!
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 810 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन।
(जय) यमुनातीर वनचारी॥
अर्थ
वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।
जय राधे! जय कृष्ण! जय वृन्दावन!
आप तैयार हो? मुकुंद माधव तैयार है।
ठीक है। कल जिस सेवाकुंज का उल्लेख हुआ था, उस सेवा कुंज में जीव गोस्वामी ने श्यामानंद दुखिया कृष्ण को सफाई की सेवा दी थी। आपको समझ में आ रहा है कि सेवाकुंज कहां है?
वर्तमान में राधा दामोदर मंदिर जहां पर है वह 500 पूर्व भी वहीं पर था। इस राधा दामोदर मंदिर के सेवक व संचालक जीव गोस्वामी थे। जीव गोस्वामी ने श्यामानंद दुखिया कृष्ण को विशेष सेवा दी थी। वे अध्ययन इत्यादि तो कर ही रहे थे। जीव गोस्वामी, उनके शिक्षक अथवा आचार्य थे। दुखिया कृष्ण, नरोत्तम दास ठाकुर, श्रीनिवासाचार्य यह बड़े-बड़े नाम हैं जोकि हमारे पूर्ववर्ती आचार्य हैं, वे जीव गोस्वामी के विद्यार्थी बने थे अथवा उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। जीव गोस्वामी कितने महान आचार्य थे, इसकी आप कल्पना कर सकते हो। मुझे तो आपसे बहुत कुछ कहना है। देखते हैं, क्या क्या कहा जाएगा।
मैं पहले आप का ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा था अथवा आपको समझाना चाह रहा था कि समझ जाओ कि यह सेवाकुंज कहां है।
जहां पर दुखिया कृष्ण सफाई की सेवा अथवा झाड़ू वाले बन गए थे। तत्पश्चात उनका उसी कुंज में नामकरण भी हुआ था और वे श्यामानंद बने। श्रील प्रभुपाद भी विदेश जाने से पहले अर्थात 1965 से पहले और 1965 में भी राधा दामोदर मंदिर में ही कई वर्षों तक रहे। तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना की। जब वे पुनः भारत लौटे, तब उन्होंने वर्ष 1972 में सर्वप्रथम कार्तिक उत्सव का आयोजन किया। श्रील प्रभुपाद ने अपने कुछ शिष्यों को उसमें आमंत्रित किया। वह उत्सव, कार्तिक मास में पूरा 30 दिवस संपन्न होने वाला था। वह एक दो दिन की बात नहीं थी अपितु श्रील प्रभुपाद के सानिध्य में ही कार्तिक उत्सव संपन्न होने वाला था। श्रील प्रभुपाद ने कुछ शिष्यों को बुलाया अथवा आमंत्रित किया। मुझे भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। हम कार्तिक मास में, वृन्दावन के सेवा कुंज में बने राधा दामोदर मंदिर में श्रील प्रभुपाद का सङ्ग करते रहे। शरद पूर्णिमा का दिन आया, वैसे यह अश्विन मास की पूर्णिमा होती है। अगले दिन कार्तिक मास प्रारंभ होता है। उस कार्तिक पूर्णिमा के दिन में प्रातः काल में श्रील प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक ( प्रातः काल की सैर) पर गए । (वे कहां गए होंगें?) श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों को साथ लेकर सेवा कुंज में ही प्रातः काल की सैर पर गए। इस सेवा कुंज की क्या विशेषता है? इसका हम कुछ तो उल्लेख कर चुके हैं। इस सेवा कुंज की ख्याति यह है कि हर रात्रि को वहां रास क्रीडा संपन्न होती है। शरद पूर्णिमा की रात्रि को ही सबसे विशेष रास कीड़ा संपन्न हुई या होती रहती है। जिस दिन यह रास क्रीड़ा सम्पन्न होने वाली थी, उस प्रात:काल प्रभुपाद अपने शिष्यों को सेवा कुंज में ले कर गए। मॉर्निंग वॉक वहीं हुआ व मॉर्निंग टॉक भी वहीं हुआ। वॉक एंड टॉक। प्रभुपाद वॉक(सैर) भी करते थे और टॉक भी, वॉक(सैर) एक बहाना होता था। (स्पाइस ए वाक विथ टॉक।) जब हम प्रभुपाद से टॉक सुनते तब श्रील प्रभुपाद के साथ मॉर्निंग वॉक करना और भी मजेदार बन जाता था। प्रभुपाद उस वाकिंग के समय थोड़ा जप भी करते लेकिन अधिकतर चर्चा (टॉक) ही होती थी या कुछ प्रश्न उत्तर भी चलते थे।
उस प्रातः काल को श्रील प्रभुपाद का मॉर्निंग वॉक सेवा कुंज में हुआ और दिन में श्रील प्रभुपाद ने दीक्षा दी। आपने प्रभुपाद के एक शिष्य गुरुकृपा का नाम सुना होगा? जोकि एक विशेष सेवा किया करते थे। उनका दल बाहर जाकर फंडरेजिंग करता था। गुरु कृपा प्रभु ने श्री कृष्ण बलराम मंदिर के निर्माण के लिए काफी फंडरेजिंग ( धन एकत्रित) किया । उनकी एक पूरी टीम थी जिन्होंने धन एकत्रित किया। श्रील प्रभुपाद ने उनको सन्यास दिया व अन्य भी कुछ भक्तों को दीक्षा व संन्यास दिया। मेरी प्रथम दीक्षा भी उसी दिन अन्यों के साथ हो सकती थी किंतु श्रील प्रभुपाद ने मुझे और द्रविड़ दास ब्रह्मचारी जोकि मुंबई के थे, हम दोनों को एक सेवा दी थी। हम दोनों वहां मुंबई से गए थे। वैसे तो अन्य भक्त भी गए थे।
श्रील प्रभुपाद ने हम दोनों को शरद पूर्णिमा के पहले ही आगरा भेजा था। यह मैं इसलिए भी बता रहा हूं जैसे जब जीव गोस्वामी राधा दामोदर मंदिर, सेवा कुंज में थे तब उन्होंने दुखिया कृष्ण या श्यामानंद को सेवा दी थी, वैसे ही जब राधा दामोदर मंदिर में श्रील प्रभुपाद थे,उन्होंने मुझे भी सेवा दी। श्रील प्रभुपाद ने हमें आगरा भेजा। आगरा में जो अनाज की मंडी है, वहां से हमें बहुत सारा अनाज, घी, तेल, गुड इत्यादि सामग्री को इकठ्ठा करने के लिए कहा ताकि उस कार्तिक मास में जो अन्नकूट या गोवर्धन पूजा उत्सव होता है, उसे मनाया जा सके। श्रील प्रभुपाद उस विशेष अन्नकूट उत्सव को मनाना चाहते थे। उन्होंने कहा, “उसके लिए जो भी सामग्री चाहिए, तुम जाकर उसे लेकर आओ, इकठ्ठा करो।” निश्चित ही सब मुझे धाम में ही लाना था। प्रभुपाद ने मुझे और द्रविड़ प्रभु को यह सेवा दी जिसके कारण हम शरद पूर्णिमा के दिन वहां नहीं थे। इसलिए उस दिन हमारी दीक्षा नहीं हुई लेकिन जब हम वापिस लौटे, तब हम बहुत सारी साम्रगी गेहूं, चावल, सूजी, शक्कर, गुड़ इत्यादि एक टेंपो भर कर लाए।श्रील प्रभुपाद बहुत ही प्रसन्न थे। श्रील प्रभुपाद ने हमारी दीक्षा भी बहुलाष्टमी के दिन ही कर दी। बहुलाष्टमी जो राधा कुंड का प्राकट्य के दिन होता है, उस दिन श्रील प्रभुपाद ने उसी राधा दामोदर मंदिर में हमें दीक्षा दी। हरि! हरि!
जिस सेवा कुंज में ललिता ने दुखिया कृष्ण को मंत्र भी दिया था, तिलक भी दिया था अर्थात उनके ललाट पर तिलक धारण किया था और नाम भी दिया था कि तुम्हारा नाम श्यामानंद। मैं सोच रहा था कि उसी सेवाकुंज में राधा कुंड के प्राकट्य के दिन राधा दामोदर मंदिर के बगल वाले आंगन (कोर्टयार्ड) में जिसमें 64 समाधियां बनी हुई है, हमें दीक्षा दी। राधा दामोदर मंदिर में 64 अलग अलग गौड़ीय आचार्यों की समाधियां है। मुख्य रूप से श्रील रूप गोस्वामी की समाधि है। जीव गोस्वामी की भी समाधि है। रूप गोस्वामी का भजन कुटीर भी है। वहां राधा दामोदर विद्यमान ही हैं। उस समय दामोदर मास था और मंदिर में राधा दामोदर के विग्रह हैं ही, साथ ही साथ उसी मंदिर में गोवर्धन शिला भी है। भगवान ने सनातन गोस्वामी को गोवर्धन शिला दी थी। सनातन गोस्वामी, वृद्धा अवस्था में भी अपनी साधना को नहीं छोड़ रहे थे। सनातन गोस्वामी प्रतिदिन पूरे गोवर्धन की परिक्रमा किया करते थे। भगवान को दया आ गई। भगवान ने दर्शन दिया और शिला भी दे दी और कहा कि सनातन यह शिला ले लो। गोवर्धन शिला ले लो। बस इसी शिला का ही परिक्रमा किया करो। पूरे गोवर्धन की परिक्रमा का फल तुम्हें इस शिला की परिक्रमा करने से होगा।
हरि! हरि! वह शिला राधा दामोदर मंदिर में थी और है भी। मैं यह सब बता रहा हूं। इसे सेवा कुंज का महिमा कहो या फिर सेवा कुंज में जो राधा दामोदर मंदिर है, उसकी महिमा कहो या फिर श्रील प्रभुपाद की महिमा और कार्तिक मास की महिमा या 64 आचार्यों अर्थात वहां जो पूर्व आचार्यों की समाधियां है, उनकी महिमा कहो। यह राधा कुंड के प्राकट्य की भी महिमा है।
ऐसे कई सारे स्थानों या लीलाओं से यह युक्त स्थान, दिवस अथवा वर्ष था। मैं समझता हूं कि यह मेरा भाग्य भी है। श्रील प्रभुपाद ने उसी सेवा कुंज में मुझे भी सेवा दी। “जाओ! गोवर्धन पूजा के लिए सामग्री लेकर आओ”। मैनें अन्य भी सेवाएं की। “श्रील प्रभुपाद के लिए जलेबी लेकर आओ।” श्रील प्रभुपाद के जो कुक (रसोइया) अर्थात यमुना माता व जो अन्य रसोइया थे, वे कई सारे पकवान और मिष्ठान बनाते थे किंतु वे जलेबी नहीं बना सकते थे। इसी सेवा कुंज में वृंदावन में ही एक मार्केट है जिसका नाम लोई बाजार है। उस लोई बाजार में श्रील प्रभुपाद के जमाने में एक प्रसिद्ध जलेबी वाला था, वहां की जलेबी श्रील प्रभुपाद पसंद करते थे। मुझे भेजा जाता था कि प्रभुपाद के लिए जलेबी लेकर आओ। मैं श्रील प्रभुपाद के लिए गरमा गरम जलेबी लेकर आता था। इस प्रकार सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ। इसे पर्सनल सर्विस या पर्सनल इंस्ट्रक्शन कहा जाए, उन दिनों में श्रील प्रभुपाद हमें कीर्तन के लिए भेजा करते थे कि जाओ, कार्तिक मास में वृंदावन में कीर्तन करो।
वह कीर्तन पंचकोशी वृंदावन में होता था। श्रील प्रभुपाद ने हमें राधा दामोदर मंदिर से कृष्ण बलराम मंदिर तक कीर्तन करते हुए जाने के लिए कहा। अच्युतानंद स्वामी और कई सारे वरिष्ठ स्वामी व भक्तगण थे। हम सब मिलकर प्रभुपाद के आदेशानुसार कीर्तन करते हुए पंचकोशी वृन्दावन परिक्रमा मार्ग की उल्टी दिशा में जाते थे। राधा मदन मोहन से हम भक्ति वेदांत गौशाला जहां अब है, वहां जाते थे। रास्ते में कालिया दाह आदि पर भी जाते थे। उस समय भक्ति वेदांत गौशाला तब वहां नही हुआ करती थी। हम छोटी छोटी गलियों में से होते हुए रमन रेती पर कृष्ण बलराम मंदिर की भूमि तक जाते। उन दिनों अथवा सन 1972 में वहां मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हो ही रहा था। फाउंडेशन के लिए खुदाई हो रही थी। जहां पर कोर्टयार्ड( आंगन) बनना था, वहां एक वृक्ष था जो आज भी है। तमाल वृक्ष।
प्रभुपाद जब डिजाइनर अथवा आर्किटेक्ट को निर्देश दे रहे थे तब वे अपना दृष्टिकोण अथवा अपना विजन शेयर कर रहे थे। उन्होंने कहा था कि इस पेड़ को हाथ नहीं लगाना। इस पेड़ को सुरक्षित रखना है। इसलिए उस वृक्ष को सुरक्षित रखने के लिए वहाँ आंगन बना। अभी जो वृक्ष है। यह दूसरा या तीसरा वृक्ष है। 1972 में जब हम तमाल वृक्ष के पास खड़े होते, तब वह 5 फीट कुछ इंच का था अर्थात इतने ही कदवाला वह वृक्ष था।
हम सब वहां तक कीर्तन करते हुए जाते। वहां रमणरेती है, जहां पर कृष्ण (राधा रमण) राधा के साथ रमे रहते हैं या कृष्ण बलराम का रमण करते हैं । वहां गोचारण भूमि भी है, जहां कृष्ण अपने मित्रों के साथ गोचारण किया करते हैं। वहां गोचारण लीला भी है ।गायों के साथ कृष्ण वहां रमते हैं।
जब उस कृष्ण बलराम मंदिर में राधा श्यामसुंदर मंदिर की स्थापना हुई, तब श्रील प्रभुपाद यह दर्शाना चाहते थे कि इसी रमणरेती में राधा श्याम सुंदर की लीला संपन्न होती रहती है। जब इसी रमण रेती में कृष्ण बलराम की प्राण प्रतिष्ठा हुई, तब कृष्ण बलराम के विग्रह के बगल में एक गाय व बछड़ा भी रखा गया। बछड़े के गले में जो डोरी है, कृष्ण ने उस डोरी को पकड़ा हुआ है और बलराम ने गाय की डोरी को पकड़ा हुआ है। प्रभुपाद दिखा रहे हैं कि यह सारी लीला वहां होती रहती है।उन्होंने उस लीला को इस विग्रह के रूप में प्रकट करवाया। हमें याद है कि रमणरेती में पहुंचकर हम उस रमणरेती को प्रणाम करते या उस रेती को ही साक्षात दंडवत प्रणाम भी करते या हम कभी कभी उस रेती में लोट भी लेते थे। कभी-कभी हम एक दूसरे के ऊपर रेती फेंक भी देते , जिससे हमारा अभिषेक भी उस रेती से हो जाता। क्या कहना, श्रील प्रभुपाद के कृपा से हमें भी ऐसा भाग्य प्राप्त हुआ। हरि! हरि! तत्पश्चात हम कीर्तन करते हुए वापिस राधा दामोदर मंदिर लौट आते। इस तरह हम प्रभुपाद का सङ्ग और प्रभुपाद की सेवा या कई प्रकार की सेवा या श्रवण की सेवा करते। श्रवण की सेवा तो मुख्य सेवा है।
श्रीप्रह्लाद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥
( श्रीमद् भागवतं 7.5.23-24)
अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
श्रवणं कीर्तनं .. अर्थात नवधा भक्ति। भक्ति मतलब सेवा जिसे डिवोशनल सर्विस भी कहते हैं। श्रवण सेवा है, जैसे आप अभी सेवा कर रहे हो। आप निष्क्रिय नहीं हो, आप बेकार नहीं बैठे हो, आप सेवा कर रहे हो। श्रवण करना एक सेवा है, बहुत बड़ी सेवा है या प्रथम सेवा है। श्रवण सर्वोपरि सेवा है। श्रील प्रभुपाद ने हम शिष्यों को पूरे कार्तिक मास में कीर्तन करवाया।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
यह गाना भी कीर्तन हुआ। जय राधा माधव कुंज बिहारी यह भी कीर्तन है। है या नहीं?
श्रील प्रभुपाद, यह कीर्तन किए बिना तो आगे कथा किया ही नहीं करते थे। वे पहले यह कीर्तन सुनाया करते थे। पूरे महीने भर प्रातः काल में भागवत की कक्षा होती थी।
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।
( श्रीमद् भगवातम १.२.१८)
अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से ह्रदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
राधा दामोदर मंदिर में श्रील रूप गोस्वामी की समाधि, रूप गोस्वामी का भजन कुटीर आमने सामने ही है। हम लोग उसके बीच में बैठा करते थे। वहां पर कुछ तमाल वृक्ष भी थे। हम उसकी छत्रछाया में बैठा करते थे, वह वृक्ष तो कल्पवृक्ष है।
दीव्यद्वन्दारण्य-कल्प-द्रुमाधः-श्रीमद्लरतनागर-सिंहासनस्थौ श्रीमद्राधा-श्रील-गोविन्द-देवी प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ स्मरामि । ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.16)
अनुवाद: श्री श्री राधा-गोविन्द वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों के मन्दिर में तेजोमय सिंहासन के ऊपर विराजमान होकर अपने सर्वाधिक अन्तरंग पार्षदों द्वारा सेवित होते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
श्रील प्रभुपाद हम सभी को उसके नीचे ही भागवत अमृत व सांय काल को भक्तिरसामृतसिंधु का पान कराते थे। श्रील प्रभुपाद ने पहले ही योजना बनाई थी कि जब मैं 1972 के कार्तिक मास में राधा दामोदर मंदिर में जाऊंगा , मैं भक्तिरसामृतसिंधु सुनाऊंगा।
(प्रद्युम्न जो प्रभुपाद के सेक्टरी ( निजी सहायक) थे, प्रभुपाद ने उनसे पहले ही कह दिया था।)
उस समय भक्तिरसामृतसिंधु किताब छप चुकी थी या उसका मैनुस्क्रिप्ट तैयार था। मुझे भी पूरा याद नहीं है। इस्कॉन के भक्तों के लिए भक्तिरसामृतसिंधु नया ग्रंथ भी था। श्रील प्रभुपाद, यह रूप गोस्वामी का ग्रंथ, राधा दामोदर मंदिर के आंगन में रूप गोस्वामी की समाधि व भजन कुटीर के पास में उसी स्थान पर जहां सभी षड गोस्वामी वृंद इकट्ठा हुआ करते थे अर्थात जहां उनकी सभा में शास्त्रार्थ हुआ करता था।
नाना – शास्त्र – विचारणैक – निपुणौ सद् – धर्म संस्थापकौ लोकानां हित – कारिणौ त्रि – भुवने मान्यौ शरण्याकरौ राधा – कृष्ण – पदारविंद – भजनानंदेन मत्तालिकौ वंदे रूप – सनातनौ रघु – युगौ श्री – जीव – गोपालकौ।।
(श्री श्री षड् गोस्वामी अष्टक)
अनुवाद : – मै , श्रीरुप सनातन आदि उन छ : गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की , जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे , भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे , जनमात्र के परम हितैषी थे , तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे , एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे ।
अर्थात सभी छह गोस्वामी , एक ही समय पर एक स्थान पर इकट्ठे होकर शास्त्रों पर चर्चा, विचार विमर्श किया करते थे।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||
( श्रीमद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद: मेंरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
या
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति। भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीति- लक्षणम्।।
( श्री उपदेशामृत श्लोक 4)
अनुवाद: दान में उपहार देना, दान स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
श्रील प्रभुपाद उसी स्थान पर बैठकर हम शिष्यों को प्रतिदिन यह भागवत कथा सुनाया करते थे। सांय काल को भक्तिरसामृतसिंधु सुनाया करते थे। मुझे याद है कि प्रद्युम्न प्रभु या कोई अन्य भक्त उस नेक्टर आफ डिवोशन को पढ़ता और श्रील प्रभुपाद उस पढ़ने वाले को बीच-बीच में रोक कर अपने कमेंट अथवा टीका टिप्पणी करके उसका अर्थ समझाते । श्रील रूप गोस्वामी का जो भक्तिरसामृतसिंधु नामक ग्रंथ है, श्रील प्रभुपाद ने उसका अनुवाद अथवा सारांश रूप में लिखा है। जैसे श्रील प्रभुपाद का श्रीकृष्ण नामक ग्रंथ है, वह यह श्रीमद्भागवतम् के दसवें स्कंध का सारांश है। भागवतम् के दसवें स्कंध में 90 अध्याय हैं, श्रील प्रभुपाद ने श्रीकृष्ण ग्रंथ में भी एक एक अध्याय को सारांश रूप में लिखा है। श्रील प्रभुपाद ने उसी प्रकार से भक्तिरसामृतसिंधु की रचना भी की है।
इस प्रकार प्रभुपाद ने भक्तिरसामृतसिंधु का जो अनुवाद व संक्षिप्तीकरण किया था, एक शिष्य उसको पढ़ता और श्रील प्रभुपाद उसको कमेंट देते। कहने का आशय यह है कि हम सब भी वह सेवा कर ही रहे थे। श्रवण कीर्तन और फिर स्मरण भी सेवा ही है। श्रवण कीर्तन किया लेकिन स्मरण नहीं हुआ तो वह कैसा श्रवण कीर्तन है जो हमें विष्णु अथवा कृष्ण का स्मरण नहीं दिलाएगा।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्।।
श्रवण कीर्तन हो रहा है।
विष्णोः श्रवणं,
विष्णोः कीर्तनं,
विष्णोः स्मरणं,
विष्णोः पादसेवनम्,
विष्णोः अर्चनं…. यह विष्णु का सृष्टि रूप हुआ। जैसे भानु का भानौ हुआ। भानु अर्थात सूर्य, सूर्य का कहना है भानो। नवधा भक्ति मतलब कृष्ण की नौ प्रकार की सेवा। श्रवण कीर्तन का फल है श्रुति, हम ऐसा संस्मरण भी जितना भी कर पा रहे थे। वह भी सेवा है। हमें श्रील प्रभुपाद के सानिध्य में उस कार्तिक मास में करने का अवसर भी श्रील प्रभुपाद ने ही दिया।
यदि प्रभुपाद ना होयते तो कि होयता।
जय पताका स्वामी महाराज ने ऐसा एक गीत भी लिखा है।
अगर श्रील प्रभुपाद नहीं होते, बहुत कुछ नहीं होता या कुछ भी नहीं होता । निश्चित ही हम आज 1972 के कार्तिक मास की यह सारी बातें आपसे नहीं कहते। हम भी नहीं होते या होते तो हम लोकनाथ स्वामी नहीं होते अथवा और कुछ हुए होते और आप भी होते किंतु आज मेरे समक्ष या मेरी सारी बातें सुनने के लिए मेरे साथ नहीं होते।
हरि! हरि!
श्रील प्रभुपाद की जय!
कार्तिक महोत्सव की जय!
शरद पूर्णिमा की जय!
गोवर्धन पूजा की जय!
राधा दामोदर की जय!
जीव गोस्वामी की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
श्यामानंद प्रभु की जय!
वृन्दावन धाम की जय!
श्री गौर निताई की जय!
श्री कृष्ण बलराम की जय!
श्री राधा श्याम सुंदर की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
25 जून 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण, हरि हरि बोल, 845 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं।
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद,
जय अद्वैतचंद्र जय गौरभक्त वृंद।
गौर कथा नहीं किंतु गौर भक्तों की कथा तो करेंगे ही आज। मुकुंद दत्त का तिरोभाव महोत्सव कल था। कल तो हम व्यस्त रहें थे, जगन्नाथ स्नान यात्रा कथा लीला में। उनका संस्मरण हो नहीं पाया याद करेंगे हम उनको भी मुकुंद दत्त। आज है और एक तिरोभाव श्यामानंद पंडित। हमको तो याद करना ही होगा। आज इस प्रकार यह दो गौरभक्त, गौर परीकर। वैसे मुकुंद दत्त तो परीकर थे ही किंतु, श्यामानंद दूसरी पीढ़ी के भक्त थे वह चैतन्य महाप्रभु के समकालिन नहीं थे। कुछ समय उपरांत उनका प्राकट्य हुआ। और उन्होंने अपना प्रचार कार्य किया जीव गोस्वामी के साथ नरोत्तम दास ठाकुर के साथ। हरि हरि, पहले याद करेंगे मुकुंद दत्त, मुकुंद दत्त की जय! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कहो या निमाई के कहो तब वह निमाई ही थे। निमाई तो वह बने रहे सब समय सची माता के लिए, किंतु नीम के पेड़ के नीचे प्रकट हुए निमाई। इसी समय मुकुंद दत्त भी थे मायापुर में। बालमित्र थे निमाई के मुकुंद दत्त। दोनों साथ में ही पाठशाला जाया करते थे। वैसे गदाधर पंडित भी चैतन्य महाप्रभु के बचपन के मित्र थे। वैसे ही मुकुंदा दत्त और एक मित्र थे। मुकुंदा दत्त अपने गायन के लिए प्रसिद्ध थे। मुकुंद दत्त जैसा शायद ही कोई और एक गायक होगा। मुकुंद दत्त कौन थे, कृष्ण लीला में, ब्रज में दो प्रसिद्ध गायक थे।
व्रजे स्थितो गायको यो,
मधुकंठो ,मधुव्रतो, मुकुंद वासुदेवो तौ।
दतो गौरांग गायको गौरोगणोदेशादिपिका।
किबा मंत्रा दिला गोसाईं, किबा तार बल।
जपिते जपिते मंत्र करिला पागल।
कृष्ण लीला में मधुकंठ और मधुव्रत नाम के दो प्रसिद्ध गायक थे। कृष्ण लीला के समय के गायक अब गौरांग महाप्रभु के प्रकट हुए। एक रहे मुकुंद और दूसरे रहे वासुदेव। तो आज हम मुकुंद दत्त की बात कर रहे हैं। वैसे युही समझ में आता है कि गौरांग महाप्रभु ही है कृष्ण। वृंदावन और मायापुर अभिन्न है। कृष्ण के परीकर गौरांग महाप्रभु के समय प्रकट होते हैं। जैसे मुकुंद दत्त प्रकट हुए। गौरांग, निमाई पंडित उनके विद्या विलास का वर्णन चैतन्य भागवत में हुआ है। निमाई पंडित अपने शास्त्रार्थ से पांडित्य से मुकुंदा दत्त को परास्त करते थे। चिढ़ाते थे, दोबारा मिलेंगे, तैयारी करके आओ, यही चर्चा करेंगे, निमाई बताते थे मुकुंद दत्त को। मुकुंद वैसे टाल देते थें मिलना निमाई से। क्योंकि जब भी मिलते थे निमाई, ऐसे ही कुछ पांडित्य का दर्शन कर ही देते निमाई। हरि हरि, उन दिनों में मुकुंद दत्त प्रार्थना करते थे कि, निमाई कृष्ण भक्त कब होगा? पंडित तो है कृष्ण भक्त नहीं है। कृष्ण की भक्ति नहीं करता। कृष्ण के नामों का गान नहीं करता। ऐसे मुकुंद दत्त प्रार्थना किया करते थे। मेरा मित्र निमाई कृष्ण भक्त हो। निमाई भक्त बन गए। गया गए और दीक्षित होकर लौटे। जब वह लौटे निमाई कृष्ण भक्त बने थे। अब वह पांडित्य का प्रदर्शन नहीं कर रहे थे। सदैव वह नाम गांन ही कर रहे थे।
किबा मंत्र दिला गोसाईं, किबा तार बल,
जपिते जपिते मंत्र करिला पागल।
ऐसा अब वह पूछ रहे थे क्या हुआ, किस मंत्र से मैं पागल हूंआ। सभी मुझे पगला बाबा कह रहे हैं। एक समय के निमाई पंडित बन गए हरिनाम के भक्त। हरिनाम का ही जप किया करते थे। इस बात से मुकुंद दत्त बड़े प्रसन्न हुए। नीमाई के विश्वंभर के भावों की पुष्टि करते, भाव का वर्धन भाव विकसित होते मुकुंद दत्त के गायन श्रवण से। हरिहरि, जिस दिन से चैतन्य महाप्रभु अपने सप्त प्रहरिया लीला का प्रदर्शन करने वाले थे। कई प्रकार के रंग का दर्शन अपने भक्तों के लिए परीकरो के लिए भगवान के रूप में। गौर भगवान के रूप में वह लीला एक अति महत्वपूर्ण लीला है। मायापुर में श्रीवास ठाकुर के भवन में या प्रांगण में संपन्न होने जा रही थी तो उस का शुभारंभ मुकुंद दत्त के गायन से। मुकुंद दत्त जैसे अपना गायन प्रारंभ किया चैतन्य महाप्रभु अपने मूड में आए। भगवता का प्रदर्शन वहा हुआ है। पहली बार औपचारिक रूप से चैतन्य महाप्रभु सबको दर्शन देंगे, भगवान के रूप में या गौर भगवान के रूप में। इसके पहले अगर कोई उनको पूछते थे आप भगवान हो क्या? आप गौर भगवान हो, कृष्ण भगवान हो? तो महाप्रभु मना करते उनको चुप कराते। किंतु आज वहां खुल्लम खुल्ला दर्शन देंगे अपने रूप का। उस लीला का प्रारंभ हुआ मुकुंद गायन से। मुकुंद दत्त के मधुर गान से। और फिर कईयों को दर्शन दीया महाप्रभु ने। इक्कीस घंटो तक दर्शन दिए, दर्शन दिए, दर्शन दिए। मुकुंद दत्त तो बाहर ही थे प्रवेश द्वार पर। क्योंकि चैतन्य महाप्रभु एक के बाद एक ऐसे असंख्य को दर्शन दिए, अंदर बुला कर लेकिन, मुकुंद नहीं बुला रहे थे। कुछ भक्तों ने महाप्रभु से कहा, “प्रभु प्रभु आपने मुकुंद दत्त को दर्शन नहीं दिया, वह बाहर है, वह भी तो इंतजार कर रहे हैं आप उनको क्यों नहीं बुला रहे हो” तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं नहीं बुलाउंगा उसका चेहरा भी मैं नहीं देखना चाहता हूं। भक्त पूछने लगे क्या हुआ? चैतन्य महाप्रभु कुछ कारण बताने लगे और था भी कारण, वह मुकुंद मायावादी है मायावादी का वह कभी-कभी गुण गाता है। चैतन्य महाप्रभु एक शास्त्र का नाम लेकर बताने लगे, उस शास्त्र का प्रचार करता है। वह मायावादी हैं।
फिर कब दर्शन देंगे उसको भक्त पूछने लगे। तब महाप्रभु ने कहा शायद 10000 वर्षों के उपरांत मैं उसको दर्शन दूंगा। और यह बात जब मुकुंद दत्त ने सुनी वह बाहर थे प्रवेश द्वार पर। तो इतने हर्षित हुए नाचने लगे कूदने लगे, प्रभु मुझे मिलेंगे मिलेंगे 10000 वर्षों के उपरांत मुझे दर्शन मिलेंगे लेकिन, मिलेंगे तो सही। तो इस प्रकार के हर्ष उल्लास के बात चैतन्य महाप्रभु ने सुनी। तो महाप्रभु ने कहा मुकुंद दत्त को बुलाओ। चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न थे। मुझे चाहता ही है इतनी हजारों जन्मों तक रुकने के लिए राह देखने के लिए तैयार हैं। सहनशीलता को देखो इसकी। चैतन्य महाप्रभु ने उनको बुला लिया गले लगा लिया मुकुंद दत्त को। ऐसे कुछ विनोद जैसी बात भी कहो, चैतन्य महाप्रभु किया करते थे मुकुंद दत्त के साथ। और एक समय मुकुंद दत्त का प्रसिद्ध गायन रहा। यह गायन चंद्रशेखर आचार्य के भवन में हुआ। चंद्रशेखर आचार्य महाप्रभु के मौसा लगते थे। चैतन्य महाप्रभु के मौसी के यह पति थे। और इनका भवन वहीं हुआ करता था जहां श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर में गौड़िया मठ की स्थापना की। चैतन्य गौड़ीय मठ प्रसिद्ध है। वहां पर मुख्य नाटिका संपन्न होने जा रही थी। उस नाटिका में चैतन्य महाप्रभु लक्ष्मी का किरदार निभाने जा रहे थे। वह तो है ही स्वयं लक्ष्मी राधारानी। श्रीकृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नहीं अन्य। उनकी भूमिका लक्ष्मी की भूमिका थी। सब तैयारी हुई। मेकअप वगैरह हुआ। प्रारंभ में मंगल गान या गायन हुआ मुकुंद दत्त का। उसी के साथ मंच बन गया। वैसे मंच बन ही गया था लेकिन मन का जो मंच है, हमारे मन की तैयारी कहो। मुकुंदा दत्त ने कई सारे गीत गाए, गायन किया। मुकुंद दत्त के गायनने वहां का वातावरण या सब का मूड परिवर्तन हुआ। या अनुकूल बना दिया सबका मन। उसी से मंच बना ताकि उस नाटक की जो घटना लीला थी उसने उनका मन प्रवेश करें यह हुआ मुकुंद दत्त के गान से।
हरि हरि, अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेने वाले थे। समय बीत रहा था। महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को कहा आपने संन्यास लेने की योजना। और फिर नित्यानंद प्रभु ने केवल 3 व्यक्तियों से इस रहस्य का उद्घाटन किया। तीन व्यक्तियों को केवल बताया। और पुनः वह थे चंद्रशेखर आचार्य, गदाधर पंडित और मुकुंद दत्त। जब निमाई गए मायापुर से कटवा, तब केवल यह चार लोग ही थे मायापुर के। मायापुर के और किसी व्यक्ति को सची माता को वैसे संकेत हुआ था और कोई नहीं जानता था, जो गिने-चुने कुछ ही व्यक्ति थे। जैसे हमने कहा जिनको निमाई सन्यास के बात का पता भी चला, जो कटवा भी चले गए और वे थे मुकुंद दत्त। हम समझ सकते हैं मुकुंद दत्त कितने अंतरंग परिकर या भक्त थे चैतन्य महाप्रभु के। सन्यास के उपरांत चैतन्य महाप्रभु जब शांतिपुर आए और शांतिपुर में सची माता से और औरो से। यहां पर भी मायापुर के सभी जन शांतिपुर मे चैतन्य महाप्रभु से मिले। सची माता ने आदेश दिया निमाई को जगन्नाथपुरी में रहो बेटा। फिर जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान किए। जाना तो सभी चाहते थे महाप्रभु के साथ किंतु यह संभव नहीं था। संन्यास ले रहे चैतन्य महाप्रभु लिया हुआ है। तो अब सभी को त्यागेंगे चैतन्य महाप्रभु अपने सगे संबंधियों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ेंगे। पुनः कुछ ही भक्त उनके साथ में थे और उसमें भी पुनः चयन हुआ मुकुंद दत्त का। मुकुंद दत्त थे, नित्यानंद प्रभु थे, जगदानंद पंडित, दामोदर पंडित और स्वयं गौरांग महाप्रभु थे। पांच व्यक्तियों ने प्रस्थान किया जगन्नाथपुरी के लिए। तो रास्ते में मुकुंद अपना गान सुनाया ही करते थे चैतन्य महाप्रभु को। हरि हरि। तो अब चैतन्य महाप्रभु रहने लगे हैं जगन्नाथपुरी में। मुकुंद दत्त जरूर लौटे हैं मायापुर किंतु बारंबार जगन्नाथपुरी जाते थे और भक्तों के साथ। जैसे शिवानंद सेन यात्रा ले जाते मायापुर से। तो मुकुंद दत्त जरूर जाते थे चैतन्य महाप्रभु को मिलने और अपना गायन सुनाने के लिए। ऐसे मुकुंद दत्त जो कृष्ण लीला के गायक गौर लीला में प्रकट होकर गौरांग महाप्रभु को रिझाते रहते प्रसन्न करते रहते और भक्तों को भी अपने गायन के साथ। वैसे और भी कई सारी लीलाए हैं या घटनाए हैं इसमें से एक मैं कहना चाहूंगा गदाधर जो गदाधर पंडित, श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्वेता गदाधर जो गदाधर पंडित पंच तत्व के एक सदस्य गदाधर पंडित, जो राधा के अवतार है। तो मुकुंद दत्त मिलन कराएं गदाधर पंडित का पुंडरीक विद्यानिधि के साथ। जो राजा वृषभानु ही प्रकट हुए थे और गदाधर पंडित उनसे दीक्षित भी हुए। पुंडरीक विद्यानिधि के पास गदाधर पंडित को ले गए और पुंडरीक विद्यानिधि यह स्वयं राधा रानी के पिता श्री राजा वृषभानु ही थे। तो गदाधर पंडित पुंडरीक विद्यानिधि के शिष्य बने यह व्यवस्था भी मुकुंद दत्त कि ही थी। मुकुंद दत्त की जय।
अब समय थोड़ा ही बचा है। श्यामानंद पंडित तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय। तो यह श्री कृष्ण मंडल नाम के उड़ीसा के सज्जन के पुत्र रहे। उनका नाम उन्होंने दुखिया रखा था। इस मंडल महाशय के कई पुत्र और कई पुत्रीया हो चुके थे। लेकिन वह सब मर गए एक एक करके या जन्म लेते ही मर रहे थे। तो जब अब श्यामानंद बाद में नाम होगा श्यामानंद उनका नाम वे दुखिया रखे। तो यह बच गया जीता रहा। यह बालक और बड़ा प्रकांड विद्वान बचपन से ही था और गौर नित्यानंद का भक्त था। गौर नित्यानंद की कथाएं सुनता था और सुनी हुई कथाओं को औरों को हुबहू सुनाता था। संस्कृत व्याकरण न्याय इत्यादि का अध्ययन बचपन में ही इसने पूरा किया। और इनके बारे में कहां जा रहा यह बहुत एक विशेष व्यक्ति तो बनेगा ही। यह श्यामानंद पंडित एक विख्यात होगा श्यामानंद पंडित। अपने पिताजी के प्रेरणा से ही उन्होंने शिष्यत्व अपनाया फिर वे गए अंबिका कलना। और अंबिका कलना में गौरी दास पंडित के शिष्य ह्रदय चैतन्य, उनके शिष्य बने यह दुखिया कृष्ण। बने शिष्य बने जब, तो उनका नाम कृष्णदास रखें। फिर दुखिया कृष्ण भी कहते हैं पहले का नाम दुखिया और अब कृष्ण तो दुखिया कृष्ण। ह्रदय चैतन्य गुरु महाराज ने उनको वृंदावन जाने के लिए कहा और वृंदावन जाकर जीव गोस्वामी से शिक्षा ग्रहण करो ऐसा आदेश दिया। तो बड़े प्रसन्न हुए यह दुखिया कृष्ण और वृंदावन जाकर वे अध्ययन करने लगे शास्त्रों का अध्ययन। जीव गोस्वामी उनके बन गए शिक्षा गुरु जो सेवा कुंज मे ही रहते थे।
उसी समय जीव गोस्वामी से शिक्षा ग्रहण करने वाले कई सारे गौडीय वैष्णव थे। जीव गोस्वामी ही गौडीय वैष्णव के रक्षक और प्रशिक्षक थे। प्रशिक्षण देने वाले शिक्षा गुरु आचार्य। हरि हरि। एक विशेष सेवा भी दी जीव गोस्वामी ने, मुझे कुछ सेवा दीजिए, मुझे कुछ सेवा दीजिए। तो जीव गोस्वामी कहे तुम यहां जो वन है उसमें एक कनक कुंज है वहां तुम झाड़ू लगाया करो उसे साफ सुथरा रखा करो। वह स्थान राधा कृष्ण के रास क्रीडा का स्थल है। रात्रि में भगवान की रास क्रीडा वहा संपन्न होती और प्रात काल में यह दुखिया कृष्ण वहां पहुंचकर उस को साफ सुथरा करते। एक प्रात काल की बात है या उस प्रातकल के पहले वहां पर एक विशेष रास क्रीडा संपन्न हुई थी। कुछ प्रतियोगिता संपन्न हुई नृत्य प्रतियोगिता। जब कृष्ण नृत्य करते हैं तो असंख्य गोपियां वहां खड़ी होकर कृष्ण का, नटवर का नृत्य देखती। फिर कृष्ण दर्शक बनते और गोपियां नृत्य करती, राधिका नृत्य करती। ऐसा रास नृत्य जमा था उस रात्रि के समय। तो उस रात्रि को नृत्य करते समय राधा रानी के पायल का एक नूपुर वहा गिर गया या ऐसे भी सुनने में आता है कि राधा रानी ने हीं उसे गिरा दिया। राधारानी कुछ विशेष भक्तों के ऊपर कृपा करना चाह रही थी तो गिर गया कहां नूपुर। रास क्रीडा समाप्त हुई फिर राधा कृष्ण उनका शयन भी हुआ। सेवा कुंज में आज भी ऐसे करते हैं, वहां सेवा कुंज में शय्या तैयार करके रखते हैं। ऐसी मान्यता है कि आज भी सेवा कुंज में हर रात्रि को रास क्रीडा संपन्न होती है। वहां किशोर किशोरी के लिए शय्या तैयार करते हैं। तो उस रात्रि को भी शैय्या तैयार की शयन हुआ। रास क्रीडा के उपरांत कई सारी गोपियां छुप छुप कर राधाकृष्ण को निहार रही थी या दर्शन कर रही थी। फिर अंततोगत्वा सभी प्रस्थान कर गए, कृष्ण लौटते हैं नंदग्राम, राधा रानी लौटती है बरसाने। तो वहां लौटने पर राधा रानी देखती है एक नूपर गिर गया। फिर उसने बुलाया ललिता को बुलाया जाओ जाओ जाओ और क्या वहीं पर तो भी सेवा कुंज में जहां हम रात्रि को नृत्य कर रहे थे रास क्रीडा में वहीं पर तो गिरा होगा नूपुर। तो जाओ ढूंढ कर ले आओ। ललिता जाती है, अब तो पूरा सूर्योदय हो चुका था। तो ललिता एक बुढ़िया बनती है बूढ़ी औरत का वेश धारण करके पहुंच जाती है। वहां खोजने लगती है, खोजती है, देखती है उसको नहीं मिलता है वह नूपुर।
फिर उसने देखा वहां एक व्यक्ति झाड़ू लगा रहे हैं, तो ललिता ने सोचा अभी वह बुढ़िया बन कर ललिता वहां है और सोच भी रही है। शायद इस व्यक्ति को मिला होगा सफाई करते वक्त इस व्यक्ति को मिला होगा वह नूपुर। उसने पूछा या उसने कहा कि मेरे बहू का इस बुढिया ने कहा मेरे बहू का नूपुर यहां गिरा हुआ है मैंने सर्वत्र खोजा पर मिला नहीं। आप को मिला क्या? तो वह कहे दुखिया कृष्ण हां हां मिला तो सही लेकिन वहां कोई साधारण स्त्री का नूपुर नहीं है। तुम तो कह रही हो तुम्हारे बहू का नूपुर गिरा है नहीं नहीं यह कोई साधारण नहीं है। पर उन्होंने स्वीकार तो किया मिला वह नूपुर। जब वह देखे थे तब इतना उज्जवल नीलमणि की तरह सुवर्ण तेज की तरह उससे प्रभा निकल रही थी। और वह दिव्य था, अलौकिक था वह नूपुर। इसको जब दुखिया कृष्ण ने उठाया था, स्पर्श किया था तब वह रोमांचित हुए थे। उसको उन्होंने अपने सिर पर धारण किया, उसको चूम रहे थे, गले लगा रहे थे उस नूपुर को। और फिर उनको सफाई का कार्य करना था, तो एक गड्ढा बनाएं और उसको एक वस्त्र में लपेट कर उस गड्ढे में रख दिए, फिर अपनी सेवा कर रहे थे सफाई की। तो दुखिया कृष्ण ने कहा हां हां मिला तो सही लेकिन वह साधारण स्त्री का नहीं हो सकता नूपुर। तो फिर उस बुढ़िया ने कहा हां नहीं नहीं नहीं वैसे यह नूपुर तो श्रीमती राधा रानी का है। तुम कह रही हो कि यह नूपुर श्रीमती राधा रानी का है तो तुम कौन हो? बुढ़िया ने कहा आंखें बंद करो। फिर दुखिया कृष्ण ने अपनी आंखें बंद की और बुढ़िया ने अपना वेश बदला। अपना ललिता सुंदरी का मूल रूप धारण किया। अब अपनी आंखें खोल दो और जैसे ही दुखिया कृष्ण ने आंखें खोली तो वह दर्शन ललिता सुंदरी का ललिता का दर्शन…। इसके बारे में हम क्या कह सकते हैं? प्रसन्न हो गए दुखिया कृष्ण और वे मान गए हां हां तुम जो कह रही हो यह राधा रानी का नूपुर है तुम ललिता हो ही। फिर उस नूपुर को लाए दुखिया कृष्ण और ललिता को दे दिए। फिर ललिता ने ही उस नूपुर को दुखिया कृष्ण के सिर पर और उन के भाल पर धारण किया।
उसी के साथ उस नूपुर का चिन्ह बन गया मानो राधा रानी के चरणों का ही चिन्हा वहा बन गया। और ललिता ने एक मंत्र भी जो मंत्र में गाती हो और इस मंत्र के गान से राधा रानी मुझसे प्रसन्न होती है वह मंत्र में तुमको देती हूं, वह मंत्र भी मैं तुमको देती हूं। वह मंत्र भी दिया और उसी के साथ यह भी कहा कि तुम्हारा नाम होगा श्यामानंद श्यामा राधा रानी का नाम है श्यामानंद। तो एक प्रकार से ललिता ने वहां दुखिया कृष्ण को दिक्षा ही दी। मंत्र भी दिया, नाम भी दिया और तिलक धारण करवाया और वह नूपुर लेकर वह प्रस्थान की ललिता, अदृश्य हो गई। और फिर यह भी हुआ कि जब नूपुर का स्पर्श कराई ललिता श्यामानंद को अब श्यामानंद नाम हो चुका उसी के साथ दुखिया कृष्ण के रूप में कुछ परिवर्तन हुआ। और सौंदर्य बढा अधिक सुंदर दिखने लगे और तेजस्वी ओजस्वी उनका व्यक्तित्व हुआ। ऐसे श्यामानंद अब जीव गोस्वामी के पास पहुंच गए। अब उनको पहचानना भी थोड़ा कठिन था, ए कौन हो तुम? वही दुखिया कृष्ण था मैं अब श्यामानंद हूं श्यामानंद। उन्होंने सब अपना अनुभव कह के सुनाया। तब से दुखिया कृष्ण हो गए श्यामानंद और जीव गोस्वामी ने उनको श्यामानंद पंडित की उपाधि दी। तो उनका जीवन चरित्र वैसे विस्तृत है। इतना ही याद रखिए। आप पढ़ सकते हो सुन सकते हो दिन में और।
श्यामानंद पंडित तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण !!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
24 जुन 2021
जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,
श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
850 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं ।
जय जगन्नाथ स्वामी की !
जगन्नाथ पुरी धाम की !
आज प्रातः काल तो हमने पता नहीं आपने भी ऐसा किया है कि नहीं या हमने तो जगन्नाथपुरी में ही विदाई प्रातः काल । मन दौड़ रहा था, पंढरपुर से जगन्नाथपुरी की ओर । तो हर दिन विशेष होता ही है कम या अधिक तो आज का दिन भी कुछ कम विशेष नहीं है । आज का दिन महान है । आज जगन्नाथ स्नान यात्रा महोत्सव की ( जय ! ) । जगन्नाथ का स्नान यात्रा का दिन है । हमारे तुम्हारे स्नान का दिन नहीं है । किसे परवाह है ! कोई याद नहीं करना चाहेगा । हमारे तुम्हारे स्नान की । किंतु जब होता है जगन्नाथ स्वामी का होता है स्नान , जिसको अभिषेक कहते हैं । उस अभिषेक महोत्सव का क्या कहना ! जगन्नाथ का स्नान बन जाता है एक उत्सव । या कृष्ण का स्नान या भगवान का अभिषेक एक विशेष महोत्सव ।
आज के दिन ही ऐसा इतिहास है राजा इंद्रद्युम्न जो जगन्नाथ के अनन्य भक्त रहे । या उनकी भक्ति का महीना क्या कहना ! वह कैसे खोज रहे थे भगवान को , ( You will seek me and find me) कहा है । खोजने पर मिल जाते हैं कोई बात या व्यक्ति प्राप्त हो जाएंगे । seek you will find . तो वैसे ही हुआ उसकी लंबी कहानी का इतिहास है । कैसे मिले अंततोगत्वा मिलना ही पड़ा भगवान को , दर्शन देना ही पड़ा राजा इंद्रद्युम्न को ।
पहले जो नीलमाधव थे, मैं इतिहास नहीं बताना चाहता हूं ! तो नीलमाधव उनके पकड़ में नहीं आए । उनका दर्शन नहीं हुआ या अदृश्य हुए । और आकाशवाणी हुई मैं एक कास्ट के रूप में तुम को प्राप्त हो जाऊंगा । तो उसी को कहते हैं “दारुब्रह्म” । दारू , कास्ट यानी लकड़ी , ब्रह्म एस्से लकड़ी के रूप में मैं तुम्हें प्राप्त हो जाऊंगा । वह लकड़ी साधारण नहीं होगी,इस संसार के प्राकृतिक लकड़ी नहीं होगी । वह ब्रह्म ही होगी , दारुब्रह्म के रूप में । दारुब्रह्म के रूप में प्राप्त हुए भगवान । और फिर कई विघ्न आते रहे भगवत प्राप्ति या जगन्नाथ प्राप्ति के मार्ग में । और हर विघ्न फिर अधिक अधिक उत्कंठा उत्पन्न कर रहा था इंद्रद्युम्न महाराज के जीवन में । भगवत प्राप्ति के लिए उत्कंठा । तो दारुब्रह्म के रूप में प्राप्त हुए भगवान, फिर मूर्ति बनाने की प्रयास और उसमें कई सारी विफलता , उनके कई सारे प्रयास । तो अंततोगत्वा विश्वकर्मा ही आए, राजा इंद्रद्युम्न को पता नहीं था कि विश्वकर्मा थे जो, सुतार ( Carpenter ) , के रूप में आए । और उन्होंने कुछ हद तक सफलता प्राप्त हुई । वैसे पूरी सफलता प्राप्त हुई । फिर उन्होंने उस दारुब्रह्म के तीन मूर्तियां बनाई । जिनके प्राप्ति पर राजा इंद्रद्युम्न ने सोचा कि यह तो भगवान ऐसे कुरूप या विद्रूप थोड़े हो सकते हैं ? तो फिर आए थे नारायण नारायण ; नारद मुनि आए और फिर उन्होंने पूर्व घटी हुई लीलाएं सुनाइए और कहा कि कृष्ण और बलराम , सुभद्रा यह जो रूप देख रहे हो ना राजा को कह रहे हैं, ऐसे ही रूप के बने थे जगन्नाथ , बलदेव , सुभद्रा या कृष्ण , बलराम , सुभद्रा । यह अपूर्ण या अधूरा भगवान नहीं है यह संपूर्ण है । यानी पूर्ण से भी पूर्णतम है । आप आगे बढ़ीए । प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हो । और भी इतिहास है ।
आज के दिन इंद्रद्युम्न राजा ने प्राण प्रतिष्ठा की होगी । वैसे मैं तो यह कह रहा हूं मुझे उचित नहीं लग रहा है प्राण प्रतिष्ठा की ! नहीं । वह जो विग्रह बने थे वह प्राण से पूर्ण थे । वह दारुब्रह्म में , उस कास्ट में भगवान ने पहले ही प्राण डाल चुके थे । वह परम ब्रह्म ही था वह लकड़ी या कास्ट । तो प्राण प्रतिष्ठा हुई यह कहना उचित नहीं होगा किंतु अभिषेक किया । ज्येष्ठ पूर्णिमा थी जैसे आज है । और यह अति प्राचीन काल की बात है आज के दिन जगन्नाथपुरी में राजा इंद्रद्युम्न ने भगवान का अभिषेक किया । और फिर उसी अभिषेक के साथ भगवान प्रकट हुए या दर्शन देने लगे । जगन्नाथ , बलभद्र , सुभद्रा की ! (जय) ।
जगन्नाथ , बलभद्र , सुभद्रा के में प्रकट हुए । तो आज का जगन्नाथ स्नान यात्रा का दिन जगन्नाथ , बलभद्र , सुभद्रा का प्राकट्य दिन भी माना जाता है । तो तब से हजारों लाखों बरसों से ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन जगन्नाथपुरी में यह स्नान यात्रा संपन्न होती है । और आज भी होगी । तैयारियां हो रही है । तो आज के दिन जगन्नाथ , बलदेव , सुभद्रा के विग्रह को वैसे साल में दो ही बार भगवान के विग्रह मंदिर से बाहर आते हैं या लाए जाते हैं । तो आज का दिन वह 2 दिन में से 1 दिन है । तो मंदिर के बाहर प्रांगण में कहे या आनंद बाजार या जगन्नाथ प्रसाद का क्रय विक्रय होता है और जहां आप भी गए होंगे, आपने भी जगन्नाथ प्रसाद वहां बैठकर आस्वादन किया ही होगा उसी स्थान पर उसी क्षेत्र में विशेष वेदीयां है । और पूरी सजावट होती है और जगन्नाथ बलभद्र सुभद्रा के विग्रह वहां पर स्थापना वहां होती है । और फिर वहां से वह स्थान ऊंचा है तो सामने सिंह द्वार जगन्नाथ पुरी का जो मुख्य द्वार है वह सिंह द्वार है । उस द्वार पर जो आगे मैदान है जो वैसे रथ यात्रा प्रारंभ होती है वहां फिर हजारों लाखों की भीड़ इकट्ठी होती है और दर्शन होता है अभिषेक का । तो फिर पुनः कहेंगे कि जगन्नाथ पुरी में दो बार , वैसे जगन्नाथपुरी में उत्सव होते ही रहते हैं । जगन्नाथ पूरी कई सारे उत्सव के लिए प्रसिद्ध है । शायद इतने उत्सव और कहीं होते होंगे जितने जगन्नाथ पूरी में उत्सव मनाए जाते हैं । लेकिन फिर दो उत्सव है जिसमें अधिक संख्या में यात्री वहां पे पहुंच जाते हैं तो वह 2 दिनों में से एक है । स्नान यात्रा ii youऔर फिर जगन्नाथ रथ यात्रा । वैसे स्नान यात्रा महोत्सव के साथ श्रंखला प्रारंभ होती है स्नान यात्रा और फिर स्नान यात्रा का दर्शन । हरि हरि !! स्नान यात्रा का दर्शन अच्छा है तो पूरे विधि पूर्वक जगन्नाथ का स्नान होता है । और यहां वर्षा ऋतु है तो हवा में थोड़ी ठंडक है । तो भगवान का जहां स्नान हो रहा था तो संभावना है कि कोई खिड़की खुली तो ठंडी हवा ने भगवान के स्वास्थ्य बिगाड़ दिया । भगवान बीमार होते हैं इस अभिषेक के साथ भगवान की बीमारी प्रारंभ होने वाली है । तो यहां एक अच्छी समाचार है । और उसी समय है यह एक खराब समाचार ही है । स्नान यात्रा का महोत्सव के दिन तो बढ़िया है स्वागत है विशेष दर्शन है । जी भर के देखो । अखियां प्यासी है तो देखो ! जगन्नाथ को देखो , बलदेव , सुभद्रा को देखो । और फिर प्रार्थना भी करो ।
“जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतु में” हे जगन्नाथ स्वामी क्या हो जाए “नयन पथ गामी भवतु” मेरे नयन का आंखों का जो मार्ग है “नयन पथ” मैं जहां भी देखूं वहां मुझे आपका सर्वत्र दर्शन हो ।
स्थावर – जङ्गम देखे , ना देखे तार मूर्ति ।
सर्वत्र हय निज इष्ट – देव – स्फूर्ति ॥
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 8.274 )
अनुवाद ” महान् भक्त अर्थात् महाभागवत अवश्य हर चर तथा अचर को देखता है , किन्तु वह उनके बाह्य रूपों को नहीं देखता । प्रत्युत वह जहाँ कहीं भी देखता है , उसे तुरन्त भगवान् का स्वरूप प्रकट होते दिखता है । ”
ऐसे चैतन्य महाप्रभु कहे थे राय रामानंद को । तो ऐसा हो । मुझे आपकी स्पूर्थी सर्वत्र हो,सब समय हो । आपको मेरे नयन के आंखों के तारे आप बने या मैं जहां भी देखूं वह जो मेरे नयनो का मार्ग है उस मार्ग पर आप मुझे दिखे । ऐसी प्रार्थना उसका ही पूरा जगन्नाथ अष्टक ही है । तो आज के दिन तो भगवान दर्शन देते हैं किंतु भगवान जब बीमार हो जाते हैं स्नान के उपरांत तो फिर दर्शन नहीं । फिर डॉक्टर आते हैं जांच पड़ताल होती है डायग्नोसिस होता है और प्रिसक्रिप्शन क्या ? बेड रेस्ट । No visitors( कोई आगंतुक नहीं ) । तो सारे द्वार बंद आज । या कल से । तो आज आप जा रहे हो या गए होंगे तो ठीक है दर्शन होगा ही लेकिन कल नहीं जाना जगन्नाथ मंदिर या जगन्नाथ पुरी । आने वाले 2 हफ्ते के लिए जगन्नाथ का मंदिर बंद होगा । दर्शन नहीं होंगे । या फिर दर्शन चाहते ही हो जगन्नाथ का । स्नान यात्रा हुई तो अब एक के बाद एक उत्सव संपन्न होते रहेंगे । भगवान बीमार हो जाते हैं तो फिर और उत्सव कहो और विधि विधानोसे भगवान की सेवा, अर्चना वह भी एक दृष्टि से उत्सव भी होता है लेकिन वह पर्दे के पीछे वह सब होता है । हम और आप उस में शामिल नहीं कर पाते । तो इसी समय जब भगवान बीमार होते हैं जगन्नाथ , बलदेव , सुभद्रा विग्रह या रूप का कुछ मरा मत कहो कहना तो ठीक नहीं लगता है कुछ नवीकरण कुछ मरम्मत विशेषकर चित्र अंकित करते हैं । विग्रह का चित्र अंकित होता है । और फिर अगला उत्सव होता है नेत्रों उत्सव । तो स्नान यात्रा के दिन आपने दर्शन किया और फिर इतने दिनों के लिए दर्शन नहीं । भगवान दर्शन नहीं दे रहे हैं । भगवान अस्वस्थ है या अस्वस्थ होने का लीला खेल रहे हैं । भगवान कभी बीमार हो सकते हैं क्या ? यह उनकी लीला है । हम बीमार होते हैं कुछ कोरोना कुछ लक्षण दिखते हैं , कुछ बुखार आ गया कुछ खांसी कुछ उसको आप कह सकते हैं ए’ यह मेरी लीला है । कोरोना लीला खेल रहा हूं मैं । लीला मतलब जो स्वइच्छा से होता है । तो भगवान तो स्वइच्छा पूर्वक बीमार होना पसंद करते हैं । उनके कोई कर्म का फल नहीं होता है । हमारे कर्म का फल हम भोंगते हैं रोग के रूप में ।
“न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यत ॥
( भग्वत् गीता 4.14 )
अनुवाद:- मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ | जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह कभी भी कर्मों के पाश में नहीं बँधता ।
“न मां कर्माणि लिम्पन्ति” मेरे अपने कर्म से नहीं लेपायामान नहीं होता या में कर्मी नहीं हूं । कर्मी को अपने कर्म का फल चाहिए होते हैं । फ्रुटिव वर्कर प्रभुपाद कहते हैं । भगवान ऐसे तो है नहीं । भगवान का विग्रह हमेशा सच्चितानंद विग्रह हे भगवान । इसमें रोग बीमारी का कोई स्थान ही नहीं है । हमारा शरीर कैसा है । ‘शरीरं व्याधि मंदिरं’ यह भी जान लो । भगवान का रूप और हमारा रूप तुलना ही नहीं है जमीन आसमान का अंतर है जैसे कहते हैं । कब समझेंगे ? भगवान का रूप शास्वत है । और हमारे क्या इस भरोसा इस जिंदगी का हमारा शरीर तो क्षणभंगुर है । इसका कई भंग हो सकता है । बीमार तो होता ही रहता है । ‘शरीरं व्याधि मंदिरं’ है ; व्याधि का मंदिर है । तो स्नान यात्रा के बाद फिर आम जनता को भगवान पुनः दर्शन देते हैं । तो इतने दिनों के लिए दर्शन नहीं हुआ , सभी उत्कंठित होते हैं , भूखे प्यासे होते हैं और फिर नेत्रों उत्सव । रथ यात्रा के 1 दिन पहले यह नेत्र उत्सव होता है । यानी नेत्रों के लिए उत्सव । जैसे कर्ण उत्सव होता है ; कानों के लिए उत्सव जब हम हरि कथा सुनते हैं । कर्णो के लिए उत्सव । जीव्हा के लिए उत्सव, कल का उत्सव कैसा रहा ? दही चिवड़ा वगैरा ? ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्त को संबोधित करते हुए ) “शांत रूपिणी” कुछ दही चिवड़ा वगैरा भोग लगाया कि नहीं ? हां ? तो जीव्हा के लिए उत्सव होता है । कल जीव्हा के लिए उत्सव होता था । निर्जला एकादशी के दिन श्रवण उत्सव था । कर्ण उत्सव था तो फिर एक नेत्र उत्सव रथ यात्रा के 1 दिन पहले भगवान के पट खुलते हैं । सारे द्वार खुलते हैं और आपका स्वागत होता है । और जाओ भगवान के विग्रह का खूब दर्शन करो । हरि हरि !! चातक पक्षी तरह कहो । हरि ! मंदिर जब जाते हैं तो कईयों का या सभी का या अनुभव हो सकता है जगन्नाथ को देखते रहते हैं तो वहां के गार्ड और पुलिस वह तो आपको 1 मिनट में आपको आगे बढ़ाने चाहते हैं या भगाना चाहते हैं । लेकिन कई भक्त हमारे जैसे कहीं ना कहीं छुप के चौकीदार के नजर से छुपके अधिक से अधिक समय बिता के जगन्नाथ के रूप माधुर्य का दर्शन करना ही चाहते हैं । लगता है कि ऐसा दर्शन सदैव करते रहे और कहीं आने जाने की आवश्यकता है बस देखते रहो जगन्नाथ को । और वह दर्शन,देखने वाला तो वह आत्मा ही होता है आंखें नहीं होती फिर , आंखें नहीं रही जाती । देखने में दृष्टा , दर्शन के दृष्टा होते हैं देखने वाले I see or seer होता है अंग्रेजी में । मतलब देखने वाला दृष्टा दृश्य को देखता है । उसको हम दर्शन कहते हैं । तो वह है दृष्टा आत्मा । और दृश्य है भगवान का दर्शन । फिर उसके अगले दिन जगन्नाथ रथ यात्रा महोत्सव शुरू हो गये । तो सब शुरू हो गए एक के बाद एक उत्स्व ।
फिर रथ यात्रा के आरूढ़ के लिए जगन्नाथ बाहर आएंगे । कई साल गए थे रथ यात्रा में । ऐसे ही याद आ रहा है । हमने मैनेज किया सिंहं द्वार से हम अंदर गए । जगन्नाथ के कोर्टयार्ड मे पहुंच गए और भी कई पहुंचे थे । तो पांडू विजय नामका उस्तव होता है । पांडू विजय मतलब जगन्नाथ विग्रह को अपनी वेदि से उठाके लाते हैं । यह सब बढ़िया से वर्णन सुनाएं हैं चैतन्य चरितामृत में । और फिर जगन्नाथ के रथ में स्थापना करते हैं । तो वेदि से लेकर रथ में जो वेदि है वहां पर स्थापना करना उसका नाम पांडू विजय है । तो ऐसे जब हो रहा था हम कोर्टयार्ड में थे । तो जगन्नाथ भगवान के पुजारी जो 50 की संख्या में उनको उठाते हैं आगे रखते हैं फिर उठाते हैं आगे रखते हैं ऐसे करते हुए ला रहे थे तो दर्शन मंडप से फिर बाहर अब जगन्नाथ आ रहे थे द्वार से । मैं सामने एक चबूतरे पर बैठा था । ऊंचा स्थान था वहां पर बैठा था तो , ऐसा मुझे लगा कि भगवान जब मंदिर के बाहर आ रहे थे तो उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ी । और मैंने भी देखा जगन्नाथ को । और जगन्नाथ ने मुझे भी देखे । मुझे ही देखा । वह जो अनुभव रहा तो मन में कुछ गहरा भाव , जगन्नाथ ने मुझे अपनी बड़ी बड़ी आंखें जो “पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादरन्दि नेत्रात्” वह नयन या पद्म नयनि जगन्नाथ ने मुझे देखा उन्होंने दृष्टिपात किया मुझ पर । ऐसा महसूस या मुझे । और फिर मैं बहुत हर्षित हुआ जगन्नाथ ने मुझे देखा । और वह दिन रथ यात्रा का था । कुछ 10 / 7 साल की बात है यह । तो फिर जगन्नाथ रथ यात्रा आरंभ होके गुंन्डिचा मंदिर जाता है । और वहां रहते हैं 1 हफ्ते भर के लिए । तो 2 मंदिर में रहते हैं जगन्नाथ स्वामी जगन्नाथ । एक तो जहां सदैव रहते हैं या 51 सप्ताह के लिए । और फिर कहा जा सकता है नीलाचल में रहते हैं । लगभग 51 सप्ताह के लिए । और 1 सप्ताह के लिए सुंदराचल में रहते हैं । तो सुंदराचल में गुंडिचा मंदिर है । और राजा इंद्रद्युम्न के पत्नी का नाम गुंडिचा जिनके , या स्वयं मुझे स्मरण हो रहा है जिनका कोई आपत्य नहीं था कोई बच्चे नहीं । तो भगवान ही आके उनके निवास स्थान पर या उनका गुंड़िचा मंदिर और वहां जगन्नाथ का जाना , रहना मतलब राजा इंद्रद्युम्न और रानी गुंड़िचा के पुत्र रूप में भगवान का रहना । वैसे गुंड़िचा वृंदावन है । निलाचल जो द्वारिका है या कुरुक्षेत्र है या कुरुक्षेत्र से या द्वारिका से रथयात्रा के दिन वृंदावन लाया जाता है । लाने वाले ब्रजवासी होते हैं । जगन्नाथ स्वामी बड़े ही प्रसन्न या अधिक प्रसन्न । ब्रज के भक्तों के साथ उनका मिलन , गुंडिचा मंदिर में होता है । तो वहां के भाव भी अलग है । वहां के भाव तो ब्रज भाव है ।
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः ॥
( चैतन्य मञ्जुषा ( श्रीमद्भागवतम् की एक टीका )
अनुवाद:- भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद्भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है ।
यह जो वैष्णव के सिद्धांत है उसके अनुसार यहां, उसके अनुरूप यह गुंडिचा मंदिर या वृंदावन वासी जेसी हिं बातें हैं । और वहां के भाव, वहां की भक्ति,वहां की प्रेम न्यारा है, ऊंचा है ,सर्वोपरि है । और भी उस्तव होते हि रहते हैं । हेरापंचमी नामका उस्तव होता है । जब लक्ष्मी आती है जगन्नाथ मंदिर से लड़ाई करती है अभी अभी आता हूं कहकर प्रभु जी आप यहां आए यह लोग आपको ले आए लेकिन आप कितने दिन हुए आपने नहीं लौटे हो । और तुम लोगों ने भी नहीं लौटाया । और वह लक्ष्मी लड़ाई करती है । थोड़ी पिटाई करती है वहां के भक्त की मदद से । बड़ी मधुर लीला है । हीरा पंचमी मतलब पांचवा दिन आज पूर्णिमा है ना, प्रतिपदा,द्वितीया,तृतीया,चतुर्थी ऐसे ही सब । तो पंचमी के दिन हेरा पंचमी होगी । तो चैतन्य महाप्रभु अपने प्रकट लीला में और वह भी एक उस्तव उसमें भी आता है । गुंड़िचा मार्जन नामका उस्तव जिसमें नेत्रों उस्तव होता है रथ यात्रा के 1 दिन पहले । और फिर वहां गुंड़िचा मार्जन महोत्सव भी होता है । चैतन्य महाप्रभु स्वयं अपने परी करो के साथ जाया करते थे और मंदिर का मार्जन । गुंड़िचा मंदिर को तैयार करना है । ताकि जगन्नाथ वहां आके रह सके । तो फिर उल्टा रथ , रथयात्रा के दिन उल्टा रथ गुंड़िचा मंदिर की ओर रुक जाता है । और फिर गुंडिचा मंदिर से पुनः जगन्नाथ मंदिर आते हैं । तो उस रथ यात्रा को उल्टा रथ कहते हैं । तो गुड़िय वैष्णव को अच्छा नहीं लगता यह उल्टा रथ । या उनको वृंदावन ले जा रहे हैं तब वह खुश होते हैं । लेकिन जब उनको लौटाने का समय होता है तो बड़े दुखी होते हैं । हरि हरि !! या विरह की व्यथा को वे पीड़ित होते हैं । ठीक है !
॥ गोर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा- 23-06-2021
पंढरपुर धाम से
हरे कृष्ण !
आज 884 स्थानों की जय ! कुछ दिन पहले ही हमने निर्जला महोत्सव मनाया और आज दही चिवड़ा महोत्सव की जय ! करि बारे जिब्हा जाए अर्थात जिब्हा पर विजय प्राप्त करना है। जितेंद्रिय बनना है, जीत इंद्रिय बनना है। एक दिन जल का पान भी नहीं किया और जिह्वा पर विजय प्राप्त किया और आज दही चिवड़ा या दुग्ध चिवड़ा भी हो सकता है, खूब ग्रहण करेंगे।
अभी तो कथा होगी और दिन में आप इसे प्रैक्टिकली भी मना सकते हो आज यह इस्कॉन के सभी मंदिरों में मनाया जाता है। आप सभी अपने अपने घरों में भी यह उत्सव मनाओ। आपको यह बताया जाएगा कि यह “दही चिवड़ा महोत्सव”क्या होता है, जो आज के दिन ही 500 वर्ष पूर्व संपन्न हुआ पानी हाटी नामक ग्राम में, जो बंगाल में है कोलकाता से लगभग दस मील की दूरी पर जहां नित्यानंद प्रभु आज के दिन उपस्थित थे। वैसे इस दही चिवड़ा महोत्सव का वर्णन कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरितामृत अंतिम लीला षष्ठ परिच्छेद, अध्याय को परिच्छेद भी बांग्ला भाषा में कहते हैं और उसमें लगभग चालीस एक श्लोक वहां से दही चिवड़ा महोत्सव का वर्णन शुरू होता है। आप नोट करो, आप पढ़ सकते हो, आपको भी यह कथा सुनानी होगी आप प्रचारक हो आप यारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश करने वाले भक्त हो तो ध्यान से सुनो या प्रेम पूर्वक सुनो श्रद्धावान लभते ज्ञानम् श्रद्धा से सुनो तो ज्ञान प्राप्त होगा ज्ञानार्जन होगा और फिर हरि हरि इसको विज्ञान भी बनाना है, इसको प्रैक्टिकल रूप भी देना है।
इस विज्ञान को, उत्सव को, जो दिन में दे सकते हो या उसका अनुभव करना है वह भी ज्ञान ही है। इस ज्ञान को स्टोर करके नहीं रखना है। नॉट जस्ट अक्यूमुलेशन बट अस्स्मिलेशन आप हो? अक्यूमुलेशन नहीं अस्स्मिलेशन , यही हुआ ज्ञान का विज्ञान या केवल इंफॉर्मेशन के रूप में नहीं रखना है ट्रांसफॉर्मेशन चाहिए हरि हरि ! केवल जानकारी के रूप में उसको संग्रहित नहीं करना है। हम परिवर्तन देखना चाहेंगे, क्रांति हो, जो भी ज्ञान, जो भी सुनी हुई बातें हैं उससे हमारे जीवन में क्रांति हो या रिवॉल्यूशन इन कॉन्शसनेस भाव में, विचारों में क्रांति हो ,एनी वे यह बताते बताते समय बीतता जा रहा है भूमिका बनाते बनाते। चैतन्य महाप्रभु ने ही नित्यानंद प्रभु भेजा था कि जाओ बंगाल में प्रचार करो। तब नित्यानंद प्रभु ने कुछ विशेष, जिनको द्वादश गोपाल भी कहते हैं उन भक्तों को साथ में लिया और बंगाल गए और सीधे पानी हाटी गए।
वह पहला गंतव्य स्थान रहा और वहां रहने के उपरांत कई सारी लीलाएं संपन्न हुई। बहुत समय तक नित्यानंद प्रभु वहां रहे, आज के दिन एक विशेष घटना घटी वहां दही चिवड़ा महोत्सव संपन्न हुआ पानी हाटी में, जो गंगा के तट पर ही है। गंगा के तट पर ही पानी हाटी में नित्यानंद प्रभु , आज के दिन एक वृक्ष के नीचे अपने अंतरंग भक्तों के साथ बैठे थे और उस मंडली में रघुनाथ दास गोस्वामी, अभी तक वह गोस्वामी नहीं बने थे या गोस्वामी के रूप में उनकी ख्याति नहीं थी। वह एक जमीदार के सप्तग्राम के पुत्र थे और वे भी वहां पानी हाटी में पहुंचकर नित्यानंद प्रभु के सत्संग में बैठे थे। तभी कुछ भक्तों ने नित्यानंद प्रभु को कहा प्रभु ! प्रभु ! रघुनाथ आया है और फिर नित्यानंद प्रभु ने इशारा किया रघुनाथ आगे आओ, आगे आओ रघुनाथ ! किन्तु वह आगे नहीं आ रहे थे हरि हरि !
तब नित्यानंद प्रभु ने कहा, चोर कहीं का, पीछे छुप कर बैठे हो, मैं तुमको दंड देता हूं। तभी नित्यानंद प्रभु उठे और जहां रघुनाथ दास थे वहां पहुंच कर उन्होंने अपने चरण कमलों को रघुनाथ के सिर पर धारण किया। यह भी एक दंड हुआ या वरदान हुआ आप सोचो और नित्यानंद प्रभु ने कहा दंड के रूप में आप को क्या करना होगा , हमारे सारे भक्तों को दही चिवड़ा खिलाओ। अब तो थोड़ा वर्षा के दिन हैं लेकिन अधिकतर उस वर्ष गर्मी के दिन थे। आज के दिन 500 वर्ष पूर्व, गर्मी के दिनों में ठंडक उत्पन्न हो, दही ठंडा होता है इसलिए दही चिवड़ा खिलाओ, हम गर्मी से परेशान हैं। रघुनाथ, अभी तो रघुनाथ दास गोस्वामी ही कहेंगे, वह बड़े हर्षित हुए, तैयार हुए और उन्होंने सारी व्यवस्था भी कर ली। उन्होंने खूब सारा दही और चिवड़ा, दूध, घी खरीद लिया, इकट्ठा किया। पानी हाटी में जितना भी दूध था जितना दही था जितना चिवड़ा था।
चिवड़ा , समझते हैं मराठी में इसे पोहा भी कहते हैं, सुदामा की कथा भी सुनाई थी चिवड़ा अर्थात इसे चिप राईस कहते हैं। राईस के तीन प्रकार हैं एक राइस या तंदूल भी कहते हैं। राइस को कभी-कभी पफ्फड़ राईस भी कहते हैं उसको फुलाते हैं तो पफ्फड़ राईस बनता है और कभी-कभी उसको फ्लैट बनाते हैं तब उसको फ्लैट राइस कहते हैं। यह फ्लैट राइस था और नित्यानंद प्रभु और कई भक्त भी जुड़ गए और वे परोस रहे थे। प्रसाद वितरण हो रहा था। धीरे-धीरे जब ये समाचार, और गंध पहुंचा गांव में, तब, सारे पानी हाटी के लोग दौड़ पड़े और उनको भी यह चिवड़ा खिलाया जा रहा था। जहां नित्यानंद प्रभु बैठे थे नित्यानंद प्रभु की जय !
नित्यानंद प्रभु की लीला का श्रवण करने का उद्देश, दर्शन करना भी होता है। अतः आप सभी नित्यानंद प्रभु का दर्शन कीजिए। अब नित्यानंद प्रभु दही चिवड़ा ग्रहण कर रहे हैं उनके सभी संगी साथी खूब दही चिवड़ा जी भर के खा रहे हैं, ग्रहण कर रहे हैं। वह जो स्थान था, वृक्ष के नीचे, वह भी भर गया और फिर अन्य जो लोग आ रहे हैं वह गंगा के तट पर जाकर खड़े-खड़े ही दही चिवड़ा ग्रहण कर रहे हैं। वैसे उनके पास दो कुल्लड़ हैं एक में दही चिवड़ा है और एक में दुग्ध चिवड़ा है।
सारा गंगा का तट भी लोगों से भर गया। फूड फॉर लाइफ चल रहा है। भंडारा हो रहा है लोगों की भीड़ उमड़ आई है। जब गंगा का तट प्रसाद ग्रहण करने वालों से खचाखच भर चुका है, अब लोग गंगा में प्रवेश कर रहे हैं और गंगा के जल में घुटने तक पानी है या कमर तक पानी है वहां खड़े होकर दही चिवड़ा का आनंद लूट रहे हैं। ये समाचार अब धीरे-धीरे अन्य गांवों तक पहुंच गया, अन्य गांव के लोग पहुंच गए। वैसे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जैसे यह घटना घटी वैसा ही वर्णन कर रहे हैं। उसमें केला भी मिला रहे थे और कुछ मिश्री और शक्कर भी मिलाई जा रही थी। कुछ स्पेशल दही चिवड़ा चाहिए उसमे कपूर भी मिलाया जा रहा था। स्पेशल प्रिपरेशन, यह सादा दही चिवड़ा नहीं था वेरी स्पेशल था। अब और दही और चिवड़े की आवश्यकता थी।
गांव के दुकानदार अपना अपना दुकान खोल रहे थे और रघुनाथ दास गोस्वामी जमीदार के पुत्र जो बड़े अमीर थे और अपने धन का उपयोग (अन्न दान महादान भी कहते हैं) अन्नदान फूड फॉर लाइफ प्रसाद वितरण के लिए सारा इवेंट स्पॉन्सर किया। अन्नामृत कार्यक्रम के स्पॉन्सर रघुनाथ दास अकेले है। ही वाज स्पॉन्सरिंग द प्रोग्राम , हजारों लाखों लोग जो नए-नए दुकानदार आ रहे थे अपनी सामग्री बेच रहे थे दही दूध चिवड़ा केले इत्यादि बिका पदार्थ या व्यंजन बेच रहे थे और जब उनका सारा माल बिका , उन्हीं दुकानदारों ने कुछ धनराशि तो ले ही ली थी। यह क्रय विक्रय हो रहा था। फोकट का माल नहीं था, मुफ्त में नहीं दे रहे थे। वह चिवड़ा और दही बेच रहे थे, उन्होंने जब दुकान का सारा दही चिवड़ा बेच दिया और वह समाप्त हुआ इतने में उनको भूख लग गई और उन दुकानदारों को फ्री में दिया। आपने तो ये चिवड़ानहीं छोड़ा, हमें बेच दिया किंतु हमारा यह प्रसाद कृष्ण का प्रसाद है, वह सभी के लिए फ्री (मुफ्त) है। उन लोगों को भी रघुनाथ दास वह प्रसाद खिला रहे थे और जब यह नित्यानंद प्रभु दही चिवड़े का आनंद लूट रहे थे तभी बीच में राघव पंडित आ गए।
यह राघव पंडित भी एक विशेष व्यक्तित्व हैं एक स्पेशल पर्सनैलिटी हैं जो इसी पानी हाटी के थे और दमयंती नामक उनकी बहन भी थी। यह दोनों ही वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के लिए कई सारे भोग प्रतिवर्ष बनाया करते थे और यह सारे भोग, सूखा भोजन मिष्ठान, जो बहुत समय के लिए टिकने वाले पदार्थ, बनाकर यह अपनी झोली भर के जगन्नाथ पुरी ले जाते थे। चैतन्य चरितामृत में राघवेंद्र झोली ऐसी बात है राघवेंद्र झोली मतलब राघव गोस्वामी की झोली, यह भर के ले जाते थे और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सालभर राघव पंडित का वह थोड़ा-थोड़ा प्रसाद ग्रहण करते थे। यह राघव पंडित जी इसी पानी हाटी के थे वे अब नित्यानंद प्रभु के पास आए और उन्होंने कहा, आपके लिए हमने विशेष भोजन बनाकर तैयार रखा है और आप केवल दही चिवड़ा ही खा रहे हैं। नित्यानंद प्रभु ने कहा कि हां हां ठीक है तुमने बनाया है पर अभी तो मैं भोजन कर ही रहा हूं तुम्हारे घर में लंच प्रसाद या डिनर प्रसाद में आ जाऊंगा। तब नित्यानंद प्रभु कहे कि यह मेरी आदत ही है मेरा ऐसा स्वभाव ही है मेरे परिकरों के साथ ,मित्रों के साथ ग्वाल वालों के साथ यमुना के तट पर वन भोजन करने का मेरा अभ्यास नित्य लीला है, उसी नित्य लीला में मैं आनंद लूट रहा हूं। अतः मुझे इनके साथ भोजन करने दो और इतना कहकर नित्यानंद प्रभु ने राघव पंडित से कहा तुम बैठ जाओ और उनको भी दही और चिवड़ा खूब खिलाया। एक विशेष घटना घटती है नित्यानंद प्रभु चाहते थे कितना बढ़िया होता स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस उत्सव में होते और वह भी दही चिवड़ा का आनंद लूटते। ऐसे याद कर रहे थे चैतन्य महाप्रभु को ध्यान अवस्था में आवाहन कर रहे थे।
प्लीज कम !प्लीज कम !आमंत्रित कर रहे थे और इसका परिणाम यह हुआ कि चैतन्य महाप्रभु वहां पहुँच गए और यह दोनों प्रभु, गौरांग और नित्यानंद अब टीम कंपलीट हुई। यही तो वृंदावन के ,कृष्ण बलराम हैं, नवदीप के गौर नित्यानंद, अब भोजन हो ही रहा था नित्यानंद प्रभु, बलराम होयले निताई, नित्यानंद प्रभु अपने मित्रों के साथ भोजन कर ही रहे थे। अब बस कमी थी कृष्ण की, फिर कृष्ण को भी बुलाये ,चैतन्य महाप्रभु भी वहां पधार गए। अब दोनों प्रभु या एक प्रभु और एक महाप्रभु चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु वह दृश्य देख रहे थे। यह वैसी ही लीला संपन्न हो रही थी जैसे वृन्दावन में असंख्य ग्वाल बालों के साथ कृष्ण बलराम भोजन किया करते थे या सभी के मध्य में वह भोजन करते थे। यह दोनों प्रभु ऐसे ही दृश्य देख रहे हैं और बड़े हर्षित हैं, फिर क्या होता है यह दोनों अब भीड़ के मध्य में घूम रहे हैं और नित्यानंद प्रभु क्या करते हैं ? ऐसा होता ही था, जब ग्वाल बाल भोजन करने बैठते हैं और अपने घर का या अपनी मैया का बनाया विशेष भोजन कृष्ण बलराम को वह खिलाया करते थे वही अब यहां पानी हाटी में आज के दिन हो रहा था।
दोनों प्रभु जा रहे हैं, घूम फिर रहे हैं, देख रहे हैं। नित्यानंद प्रभु हर प्रसाद ग्रहण कर्ता के (थाली नहीं थी कुल्लड़ से) मिट्टी के पात्र से कुछ लेते और चैतन्य महाप्रभु के मुख में डाल देते और चैतन्य महाप्रभु उसको ग्रहण करते और नित्यानंद प्रभु फिर नेक्स्ट पर्सन उनके पात्र से वे दही चिवड़ा या दुग्ध चिवड़ा उठाते और चैतन्य महाप्रभु को खिलाते। वहां के सभी लोग जो प्रसाद ग्रहण कर रहे थे या करने वाले थे, वह नित्यानंद प्रभु को देख रहे हैं। यह भी समझना होगा चैतन्य महाप्रभु उपस्थित हैं किंतु सभी नहीं देख पा रहे हैं ऐसा कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने लिखा है
अद्यापिह सेई लीला करे गौर राय ।कोन कोन भाग्यवान देखिबारे पाय ।। (चैतन्य चरितामृत मध्य 10.283 )
कोई कोई भाग्यवान चैतन्य महाप्रभु की उपस्थिति को देख रहे हैं लेकिन अधिकतर नहीं देख रहे हैं। उनको समझ में नहीं आ रहा कि नित्यानंद प्रभु क्यों झुकते हैं प्रसाद का कुछ कण उठाते हैं और लगता है वह किसी के मुख में डाल रहे हैं और देखने वाले यह भी देखते हैं कि नित्यानंद प्रभु के हाथ से वह प्रसाद जो उन्होंने मुख् में डाल दिया लेकिन वह गिर नहीं रहा, कहीं वह अदृश्य हो रहा है। सभी को अचरज हो रहा है, यह तो चमत्कार ही हो रहा है जिसको सभी देख रहे हैं हरि हरि! इस प्रकार ऐसी लीला आज के दिन पानी हाटी में दही चिवड़ा महोत्सव के रूप में संपन्न हुई। पानी हाटी, हट मतलब बाजार, मतलब मार्केटप्लेस , यह पानी हाटी – मार्केट प्लेस ऑफ द राइस है।
यहां का राइस अर्थात बंगाल का राइस, इंडिया को अधिकतर राइस की सप्लाई बंगाल से ही होटी है उसमें से भी पानी हाटी में राइस के बड़े व्यापार चलते हैं। उसी पानी हाटी में यह दही चिवड़ा महोत्सव भी संपन्न हुआ और जिस पानी हाटी के यह राघव पंडित और दमयंती जो चैतन्य महाप्रभु के लिए कई राइस के पदार्थ, कई प्रकार के मिष्ठान भी, राइस से सब बनता है वो बनाया करते थे, पकाया करते थे और भेजा करते थे या स्वयं चैतन्य महाप्रभु की प्रसन्नता के लिए ले जाते थे। उस पानी हाटी के लिए मशहूर कहा, तो यह कहना होगा ,वर्ल्ड फेमस जगह या उत्सव बन चुका है। आपको यह बता दें कि परम पूज्य भक्ति चारू स्वामी महाराज के प्रयास से पानी हाटी में अब इस्कॉन की स्थापना हो चुकी है।
पानी हाटी एक नगर है एक बड़ा ग्राम है वहां इस्कॉन की स्थापना हुई है। इस्कॉन का प्रोजेक्ट धीरे-धीरे आकार ले रहा है। परम पूज्य भक्ति चारू स्वामी महाराज की जय ! उन्होंने यह प्रारंभ किया और यह पानी हाटी बंगाल में हुआ। अब अमेरिका में एक न्यू पानी हाटी बन चुका है। न्यू पानी हाटी जैसे, न्यू वृंदावन है, न्यू जगन्नाथपुरी है, विदेश में अमेरिका में न्यू मायापुर भी है, इसी प्रकार न्यू पानी हाटी, जो अमेरिका का अटलांटा शहर है नाम सुना होगा, अटलांटा का नाम इस्कॉन ने रखा है न्यू पानी हाटी। यहां के गौर निताई के विग्रह बड़े प्रसिद्ध हैं। प्रभुपाद जब अटलांटा गए थे, श्रील प्रभुपाद वहां गौर निताई का दर्शन करके भावविभोर हुए थे। वहां अटलांटा के तो गौर निताई की गौरव गाथा कहना प्रारंभ की थी किंतु श्रील प्रभुपाद का गला गदगद हो उठा।
अटलांटा, अब उसका नाम न्यू पानी हाटी है। ऑल इस्कॉन टेंपल ,इस्कॉन पंढरपुर में भी आज बहुत बड़ा उत्सव मनाया जा रहा है। यह इस्कॉन पंढरपुर में भी और विशेष उत्सव न्यू पानी हाटी अटलांटा में भी मनाया जाएगा। यह दही चिवड़ा महोत्सव वैसे हिज होलीनेस जय पताका स्वामी महाराज ने अटलांटा में प्रारंभ किया और कुछ वर्षों पहले 20-25, 30 वर्षों के पहले ही यह प्रारंभ हुआ और बड़े धूमधाम से मनाते हैं। एक बार मैं भी अटलांटा में था आज के दिन तो मैंने वहां की शोभा देखी है और वहां का दही चिवड़ा भी मैंने चख लिया है, मुझे याद है। आप सभी अपने-अपने मंदिरों में अपने अपने घरों में, आपके घर मंदिर हैं। आपके अपने घरों में ऑल टर्स होंगे ही, नहीं तो आपका घर कैसा मंदिर और आप कैसे गौड़ीय वैष्णव ? गौर निताई को या गौर निताई के चित्र तो होंगे ही आपके ऑल्टर में, आप दही चिवड़ा का भोग लगाओ। आज के दिन गौर निताई दही चिवड़ा का भोग करना पसंद करते हैं। मैया मोहे माखन भावे, जैसे कन्हैया को माखन पसंद होता है उनको हर दिन माखन पसंद होता है लेकिन एक तारीख आज के दिन यह दही चिवड़ा पसंद होता है या दूध चिवड़ा पसंद होता है। जाओ आप शॉपिंग करो या स्पॉन्सर करो दही चिवड़ा महोत्सव स्पॉन्सर करो ,अपने अपने घरों में, खरीद लो दही चिवड़ा केले भी खरीदना और देखो, कैसे उसका और भी स्वाद बढ़ा सकते हो फिर भोग लगाओ। इस लीला का स्मरण करो या पुनः इस लीला को आप कह सकते हो। आपके घर में चैतन्य चरितामृत भी होना चाहिए फुल सेट नहीं है तो उसको भी शॉपिंग करो और अंतिम लीला छठे अध्याय में जैसा हमने कहा उसको पुनः पढ़ सकते हो या पढ़ा सकते हो। आप औरों को भी कथा सुनाओ, जो नहीं सुन रहे हैं अभागीजन, उनको भी भाग्यवान बनाओ। औरों को यह कथा सुनाओ , परिवार वालों को सुनाओ या अपने फोन पर ऑनलाइन टीचिंग करते हो उसमें से ऑनलाइन प्रीचिंग करो या फोन पर बताओ। भक्ति वृक्ष के आपके जो मित्र हैं या सदस्य हैं या आप इस्कॉन के सर्वेंट लीडर हो तो अपने सदस्यों को यह लीला सुनाओ। गौर किशोर तुम भी सुनाओ , सभी सुना सकते हैं। ठीक है हरे कृष्ण! यह कथा सुनो और दही चिवड़ा भी खाओ एंड बी हैप्पी , सेइ अन्नामृत पाओ, ऐसा कहते है और फिर क्या? सो जाओ। ऐसा नहीं करना, सेइ अन्नामृत पाओ और फिर राधा-कृष्ण या गौर निताई गुण गाओ।
प्रेमे डाको चैतन्य नेताई, प्रेम से कहो गौरंगा ! नित्यानंद! गौरंगा ! नित्यानंद ! गौरंगा ! नित्यानंद !
आप थक गए हो, नहीं , ठीक है अब मैं अपनी वाणी को यहीं पर विराम देता हूं। और आप अपनी वाणी का उपयोग करो। अभी जप करो और यह लीला कथा औरों को सुनाओ और दही चिवड़ा भी ग्रहण करो , यथासंभव वितरण करो , लॉकडाउन की स्थिति है हम जानते हैं। यदि यथासंभव पॉसिबल है इष्ट मित्रों को इकट्ठा करो, नेबर्स एंड फ्रेंड्स एंड बिजनिस सर्कल, आपका लंच ब्रेक में , यदि आप कोई ऑफिसर वगैरह हो तो आप के दफ्तर में, आपकी वर्किंग प्लेस में तो आप दही चिवड़ा बांटो और सभी जीवो को अधिक से अधिक जीवों को जोड़ो इस लीला के साथ। इस लीला का स्मरण दिलाओ दही चिवड़ा खिलाओ।
गौर प्रेमानंदे !
हरि हरि बोल!
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*22 जून 2021*
हरे कृष्ण । गौरांग जगन्नाथ स्वामी सुन रहे हो ? हरि हरि । 918 स्थानों से जप हो रहा है । पांडव निर्जला एकादशी महोत्सव की जय । और केवल निर्जला एकादशी की ही जय नहीं है , जिन्होंने भी पांडव निर्जला एकादशी को मनाया उन सभी की भी जय हो । आप ने मनाया निर्जला ? प्रवीण भोसले निर्जला की क्या ? निर्जला ! जल भी नहीं । आपका अनुभव कैसा रहा ?यह एक जीत हुई । जिन्होंने भी कल की निर्जला एकादशी मनाई उनकी जय हो । ऐसा तो कहा ही, कह ही चुका हूं ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
का श्रवण , कीर्तन हो रहा था । और फिर हरिकथा यानी हरी के वचन , हरि के कुछ सूत्र या सुक्त स्थिति को पढ़ रहा था , पढ़ना भी श्रवण ही है । मैंने उसका आनंद लिया । सुनील आपने उसका आनंद लिया ? सुनील यूएसए से है । अमेरिका में बैठे हैं । मैंने आनंद लिया , मुझे नहीं लगता कि किसीको परेशानी हुई होगी । कुछ परेशानी हुई ? कष्ट हुआ ?दुख हुआ ? नहीं । वैसे आप लिख भी रहे हो । आनंद ही आनंद गड़े ।
कैवल्य नरकायले त्रिदशपूराकाश पुष्पायते दुन्तेिन्द्रियकालसर्पपटली प्रोत्सातदष्टापते । विषं पूर्णसुखायते विधिमहेन्द्रादिक्ष कोटायते यत्कारुष्पकटाक्षवैभववतां तं गौरमेव स्तुमः ।।
यह सारा जगत ही सुखमय ऐसा अनुभव कर रहा था । यह अनुभव की बात है , जब हम अभ्यास करते हैं तो हम भी अनुभव करते हैं । जो सुनी हुई बातें हैं उस पर अमल करते हैं फिर ध्यान का विज्ञान हो जाता है । उसको प्रैक्टिकली करते हैं तो प्रेक्टिकल अनुभव , व्यक्तिगत अनुभव भी हमे होता है । श्रील प्रभुपाद कहा करते थे कि जो भोजन कर रहा है , बढ़िया से भोजन कर रहा है , उसको अलग से पूछने की आवश्यकता नहीं है कि , “तुम सुखी होंगे तुम भोजन कर रहे हो ?” पूछने की आवश्यकता नही होती । तूम आनंद ले रहे हो , तुम बड़े प्रसन्न और सुखी होंगे भोजन कर रहे हो , किसी को बताने की आवश्यकता नहीं होती भोजन करने वाले को कि हम हमारे भोजन का आनंद ले रहे हैं । वैसे ही जिन्होंने भी कल के पर्व को मनाया , पांडव निर्जला एकादशी महोत्सव को मनाया , मुझे विश्वास है , पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं की आपका अनुभव सुखद ही हुआ होगा । वैसे तपस्या तो होती ही है , एकादशी मतलब तपस्या का दिन होता है और कल के एकादशी में तपस्या का क्या कहना ? (हँसते हुए) जल भी नहीं पीना , केवल हवा खाना और केवल हवा ही नहीं वैसे आप अमृत पी रहे थे । आपने तपस्या की , मैं सोच रहा था वैसे जो तपस्या करते रहते हैं तब समय बितता नहीं । शायद आपमे से कई साधक घंटे गिन रहे थे । यह शाम का बित जाएंगी ? यह रात कब भी जाएंगी? दूसरे दिन के 6:00 कब बजेंगे? ताकि ठीक 6:00 बजे मैं खा लूंगा पी लूंगा । ऐसे हम कुछ दिन पहले कह रहे थे । हरि हरि।
राजपुत्र सिरंजीव, मुनिपुत्र मा जीव ।
मुनि पुत्र तपस्या करते रहते हैं तो ऐसा जीवन कब बितेगा? कब समाप्त होगा ? तपस्या जब करते है तो उसका फल आनंद ही है , सुख ही है ।
तस्मात् कहा । ऋषभदेव ने कहा पुत्रों तपस्या करो , तपस्या करो ।
ऋषभ उवाच नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान्कामानहते विड्भुजां ये । तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद्यस्माद्ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ॥
(श्रीमद भागवत 5.5.1)
अनुवाद:- भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा – हे पुत्रों , इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन- -रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर – सूकर भी कर लेते हैं । मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने को तपस्या में लगाये । ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है , तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है , जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है ।
तपस्या करो ताकि शुद्धिकरण होगा और फिर क्या होगा ?
ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् , तुम परम ब्रह्म सुख या अनुभव करोगे । हरि हरि । भगवत गीता में भी आठवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः |
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: ||
(भगवद्गीता 6.7)
अनुवाद:- जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है | ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं |
पूरा नहीं समझाएंगे । जितात्मनः , इंद्रियों पर निग्रह जो करेंगे और इंद्रियों पर निग्रह करने का एकादशी का दिन होता है । कल तो पूरा ही निग्रह रहा ।
वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं जिह्वावेगमुदरोपस्थवेगम्।
एतान्वेगान्यो विषहेत धीरः सर्वामपीमां पृथिवीं स* शिष्यात् ॥
(उपदेशामृत १)
अनुवाद – वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन की मांगों को, क्रोध की क्रियाओं को तथा जीभ, उदर एवं जननेंद्रियो के वेगो को सहन कर सकता है, वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य है।
हमारी इंद्रियां हमको ढकेलती रहती हैं । कल जीव्हा वेगम नहीं हुआ (हंसते हुए) खिलाने पिलाने की , खाने पीने की याद दिलाती रहती हैं । ऐसे हमको ढकेलती रहती है फिर खाना या पीना पड़ता ही है अन्यच्छन्ति । लेकिन कल आप सभी ने अभ्यास किया जो जीवा की मांग है उसके और आपने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया । तो आप कैसे हो गए जीतात्मनः , अपने इंद्रियों को जीता और प्रशांत से , इसी से व्यक्ति शांति को प्राप्त करते हैं । ओम शांतिः , जितात्मानः होने से इंद्रिय निग्रह फिर , बुद्धि निग्रह , शम: दम: तप: तपस्या करने से , शम से , दम से फिर प्रशांतस्य परमात्मा समाहित , ऐसे व्यक्ति के लिए परमात्मा दूर नहीं है । कल और आज प्रातः काल हम भगवान के अधिक निकट पहुंचे हैं । हरि हरि । कृष्ण ने हम सभी को अपने ओर और अधिक आकृष्ट किया है । कल की एकादशी की साधना जो आपने संपन्न की , उसकी तपस्या भी की । 64 मालाये तो कइयों ने किए है लेकिन कुछ भक्त तो जब करते ही रहे । प्रल्हाद महाराज हिमाचल प्रदेश से , उन्होंने 112 माला का जप किया । सोलापुर के परमहंस , उन्होंने 128 माला की । और कई बता रहे हैं रात भर जगते रहे , कीर्तन किया , जप किया , अध्ययन किया । खाया नहीं , सोये नही और मीटिंग का तो कोई प्रश्न ही नहीं है (हंसते हुए) कृष्ण से आप मिल रहे थे । कृष्ण के साथ थे । उपवास का मतलब वही होता है ना ?उपवास मतलब , भगवान के पास । कल हम कृष्ण के अधिक पास पहुंचे । कृष्ण! कृष्ण यह जो नाम है , एक तो कृष है और फिर ण है । कृष्ण क्या करते हैं ? कृष मतलब हमको आकृष्ट करते हैं , पास में लाते हैं और फिर ण उस व्यक्ति को आनंद देते हैं । ऐसा बढ़िया नाम भी है और उनका बढ़िया काम भी है । य: आकर्षिती कृष्ण: यह तो परिभाषा है ही , कृष्ण नाम की , भगवान की । हे कृष्ण या जो सभी को आकृष्ट करें वह कृष्ण। कृष्ण हमको आकृष्ट करते हैं और आनंद देते हैं । ऐसे आनंद का आनंद आप सभी ने लूटा है । लूट सके तो लूट राम नाम के हीरे मोती बिखराऊ में गली गली । यह उसका भी आनंद है और आनंदित होते हैं । हम भी कीर्तन करते हैं , हम भी जप करते हैं और फिर यह कृष्ण को हम औरों को देते हैं । यह बढ़िया कृष्ण है , ऐसे कृष्ण है , वैसे कृष्ण है , अपने अनुभव की बात हम औरोके बताते हैं और फिर उनके साथ हम हरे कृष्ण महामंत्र बाटतें हैं मतलब हम क्या करते हैं ?
कृष्ण से तोमार कृष्ण दिते पार,
तोमार शकति आछे।
आमि त’ कांगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बलि’,
धाइ तव पाछे पाछे॥
(ओह वैष्णव ठाकुर दोहरा सागर , भक्तिविनोद ठाकुर)
अनुवाद:- कृष्ण आपके हृदय के धन हैं, अतः आप कृष्णभक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं। मैं तो कंगाल, (दीन-हीन) पतितात्मा हूँ। मैं कृष्ण-कृष्ण कह कर रोते हुये आपके पीछे-पीछे दौड़ रहा हूँ।
यह हो सकता है कि कुछ लोग हमसे मिलते हैं और कहते हैं , आपके पास कृष्ण है । आप इतना आनंदित क्यों होते हो? हरे कृष्ण के लोगो के चेहरे पर हास्य होता है और यह दुनिया वालों के चेहरे तो दुखी होते हैं । हरे कृष्ण वालों के चेहरे हंसमुख होते हैं । जप करते हैं और आनंदित रहते हैं । वह आनंद चेहरे पर झलकता है तब वह आनंद देखकर कुछ लोग पूछते हैं कि उस कृष्ण को मुझे भी दीजिए ।
कृष्ण से तोमार कृष्ण दिते पार,
तोमार शकति आछे।
आमि त’ कांगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बलि’,
धाइ तव पाछे पाछे॥
उस कृष्ण को मुझे देने की क्षमता आप रखते हो , मुझे भी कृष्णा दो , फिर वैष्णव का यह धर्म ही है , मैं फर्ज कहने जा रहा था , फर्ज ऐसा ही शब्द है । कर्तव्य कहो , सर्वोत्तम शब्द तो धर्म ही है । यही हमारा धर्म है , जीव का धर्म है कि हम औरों को भी कृष्ण को दें । कृष्ण नाम के रूप में कृष्ण को दें या भगवत गीता , भागवतम के रूप में औरों को कृष्ण दे या कृष्ण प्रसाद के रूप में कृष्ण को दें या किसी उत्सव में आमंत्रित करें और जगन्नाथ का दर्शन दे । जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव की जय । उत्सव प्रिय मानव: मनुष्य को उत्सव प्रिय होते हैं । किसी उत्सव में बुला लिया इस प्रकार हम औरों को कृष्ण का परिचय देते हैं ताकि वह भी सुखी हो जाए । कोई दूसरा मार्ग नहीं है , यहां सुखी बनने का एक ही मार्ग है जिव का कृष्ण के साथ संबंध स्थापित होते ही जीव सुखी होता है । कृष्ण आनंद की मूर्ति है , आनंद की खान है ।
शांताकारम भुजगशयनम पद्मनाभम सुरेशम ।
(विष्णु सहस्रनाम)
शांत , शांत आकार के भगवान है , भगवान आनंद की मूर्ति है । ऐसे भगवान के साथ संबंध स्थापित होते ही क्या होता है? वह आनंद जीव को भी प्राप्त होता है और फिर आनंद के सागर में गोते लगाता है और वह शांति भी प्राप्त करता है। शांति का जो स्रोत है वह भगवान ही है । उनके साथ योग होने से , योग मतलब लिंक , और वह भी भक्ति योग की लिंक , दूसरे लिंक में थोड़ा शॉर्ट सर्किट होता है । कर्मयोग , ध्यानयोग , अष्टांगयोग लेकिन कृष्ण ने कहा है ,
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ||
(भगवद्गीता 6.47)
अनुवाद:- योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकामकर्मी से बढ़कर होता है | अतः हे अर्जुन! तुम सभी प्रकार से योगी बनो
सभी योगियों में भक्ति योगी श्रेष्ठ है । भक्ति योग में 100% जीव और भगवान के बीच में आदान-प्रदान प्रारंभ होता है । हरि हरि । एकादशी के दिन और कल के विशेष एकादशी के दिन एक सुअवसर हमको प्राप्त हुआ और उस अवसर ने हम सभी को और सुखी और शांत बना दिया । परमात्मा समाहित: बता दिया । भगवान के अधिक निकट पहुंच जाते हैं । उसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया है ऐसा अनुवाद में प्रभुपाद ने लिखा है । परमात्मा समाहित , भगवान को वह प्राप्त करता है या अधिक अधिक प्राप्त करता है । परमात्मा भगवान प्राप्त है तो जीवन सफल है । भगवान को जान लिया है तो फिर आपने सब कुछ जान लिया , वही बात है । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । आप में से कई भक्त अपने अनुभव लिख ही रहे थे , एकादशी महोत्सव का अनुभव लिख रहे थे । हमारी चिरडोंन कि महालक्ष्मी माताजी की सास 96 वर्ष की थी , वह भी जप वैगेरे किया करती थी उन्होंने अपने शरीर को इस पवित्र पर्व के दिन त्यागा है । आप सब प्रार्थना कीजिए , पद्मावली ने नोंद ली होगी शायद नही ली होंगी , हम आपको याद दिलाते है । हरे कृष्ण महामंत्र एक बार सब कहिए और उनकी आत्मा को भगवान शांति दें , अपने चरणों का आश्रय दे ऐसी प्रार्थना करते हुए हम ,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्णा
कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
मैं भी उनको भली-भांति जानता था , वैसे वह हमारे रक्त संबंध में आते हैं , मैं उनको बचपन से जानता था । वह अभी हमारे बीच नहीं है । एकादशी के दिन भगवान की ओर लौटने का मन बना लिया और वैसा ही हुआ । उनकी भी जय हो । ठीक है । आपके कल के कोई अनुभव है , एकादशी महोत्सव जो आपने संपन्न किया , इतना सारा जप किया , तप किया तो आपकी एकादशी कैसी रही ? कोई कहना चाहते हैं या लिखना चाहते हैं , आप बता सकते हो हम आप को समय देते हैं ।
हरे कृष्ण ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
21 जून 2021
हरे कृष्ण!
नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने।
श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गोर भक्त वृंद।हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|
कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा||
नमो महा-वदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नामने गोर-तविशे नमः ॥
ओअम् अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।
मैं यहां इस सेशन को विराम देने का विचार कर रहा हूं।
मैंने अपनी 64 माला का जप आपके समक्ष ही अभी अभी कुछ समय पहले पूर्ण किया हैं हरि हरि!
आज के मेरे 64 माला का वैशिष्ट्य यह रहा कि मैंने अपनी 64 माला एक साथ अखंड पूरे की।मुझे नहीं याद कि आज से पहले मैंने कभी भी अपनी माला ऐसे एक साथ अखंड ही 64 माला की हो।मैं निरंतर जप करता रहा।हरि नाम प्रभु की जय।यहां रुकने के लिए,हमारे साथ जप करने के लिए आप सभी का शुक्रिया।आप में से बहुत से लोग आ रहे थे और जा रहे थे,लेकिन ज्यादातर तो यहीं रुक कर जप कर रहे थे।
आप में से अधिकतर ने ही मेरा साथ दिया, इसके लिए आप सभी का धन्यवाद। इसके लिए मैं अपनी प्रसन्नता भी वक्त व्यक्त करता हूं। हरि हरि!अब मैं कुछ पठन-पाठन करूंगा।इससे विषयांतरण तो नहीं कह सकते क्योंकि विषय तो वही हैं। पहले हरि नाम चल रहा था,अब हरि कथा का श्रवण करेंगे और पढ़ेंगे।पठन-पाठन करेंगे।आज सचमुच ही उपवास हो रहा हैं। वैसे तो हर एकादशी उपवास होता ही हैं। लेकिन आज निर्जला उपवास हो रहा हैं।आज जल भी नहीं ले रहे हैं।आज जल भी नहीं ग्रहण करना।कोशिश कीजिए की जलपान भी न करें। जलपान नहीं कर सकते लेकिन अमृतपान तो चल ही रहा हैं।हरि नामामृत का अमृत पान तो चल ही रहा हैं।कौन सा पान अच्छा हैं? जलपान या अमृत पान।हरि हरि!
शुकदेव गोस्वामी जब कथा सुना रहे थे,जब दसवें स्कंध की कथा का प्रारंभ हुआ,तो शुकदेव गोस्वामी ने आराम करने का संकेत किया।चलो थोड़ा आराम करते हैं।या तुम अब आराम करो।थोड़ा जलपान करो।इसके लिए क्या राजा परीक्षित तैयार थे?नहीं बिल्कुल नहीं।उनका प्रत्युत्तर यह रहा कि इस जलपान ने हीं तो मेरे जीवन को बिगाड़ दिया हैं।इसी की वजह से मुझे मृत्यु प्राप्त हो रही हैं।मुझे उस दिन प्यास लगी थी और मैं जल की खोज में था और खोजते खोजते शमीक ऋषि के आश्रम पर गया।मुझे जल चाहिए। थोड़ा जल तो दो।लेकिन किसी ने जल नहीं दिया और फिर राजा परीक्षित ने जो भी किया हम जानते ही हैं।उन्होंने सर्प को गले में लटकाया और उनके पुत्र श्रृंगी आए और उन्हें श्राप दिया।यह सब सोचकर राजा परीक्षित ने कहा कि अगर उस दिन मुझे उस जल की चाह नहीं होती। तो मैं इस आपत्ति में नहीं फसता और पुण: आप जल पीने के लिए कह रहे हो।नहीं नहीं। अब और जलपान नहीं करना या कुछ भी खाना पीना नहीं हैं।
आप तो मुझे अमृत पिला रहे हो तो मुझे जल की क्या चिंता?इस अमृत के समक्ष उस जल का क्या मूल्यांकन हैं।हरि हरि!इसीलिए यह अमृत पान करते रहो।अमृत के कई प्रकार हैं।यह नामामृत एक प्रकार का अमृत हैं और भी अमृत हैं।दर्शनामृत,कथामृत भी हैं।कई प्रकार के अमृत है़ं।
अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् । हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 1 ॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम् । चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 2 ॥
वेणुमधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ । नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। 3 ।।
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् । रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 4 ॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम् । वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 5 ॥
गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा । सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 6 ॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् । दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 7 ॥
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा । दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 8 ॥
भगवान से संबंधित सब कुछ अमृत ही हैं।कृष्ण मधुर हैं।उनका नाम मिश्री की तरह हैं।जैसे मिश्री को आप कही से भी खाओ।ऊपर से,नीचे से,बगल से,पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण कहीं से भी खाओ।मिश्री मीठी ही लगेगी।क्योंकि मिश्री का स्वाद मीठा होता हैं। वैसे ही कृष्ण भी, कृष्ण का नाम,लीला,कथा या धाम सब मीठा हैं। उनका वदनम् मीठा हैं।वह जो भोजन करते हैं,उसके बाद भगवान विश्राम करते हैं। वह भी मीठा हैं।भगवान जब श्रीरंगम में विश्राम करते हैं,तो उनको देखने के लिए लोग दूर-दूर से पहुंच जाते हैं।हरि हरि!तो जपते रहिए और इस अमृत से प्रसन्न रहिए।एक बार अगर आपकी आत्मा इस अमृत से संतुष्ट हो गयी तो आपके शरीर को फिर पानी कि ज़रुरत नहीं,फिर आपको खाना भी नहीं चाहिए होगा।आपको यह शरीर भी नही चाहिए होगा।आप खुश होगें,आपकी आत्मा कृष्ण के साथ खुश होगी। ना होगा शरीर, ना होगी भूख।नही तो हमेशा आपको इस शरीर के रखरखाव में बहुत कष्ट करने पडते हैं।आपका दिन-रात इसके रखरखाव में जाता हैं।आप बस शरीर कि सेवा में ही व्यस्त रहते हैं। आज यह विषय बंद हो गया हैं। भविष्य में शरीर कि जरुरत नहीं है
जप करिये!
“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।”
“हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।”
और खुश रहिये।
बहुत हो गई भूख और प्यास।अगर हमारी आत्मा,नही हम हमारी आत्मा नहीं कह सकते।आत्मा हैं, तो दो बातें हैं। एक मै हुआ और एक हमारी आत्मा हुई। ऐसी बात नहीं हैं कि आत्मा का शरीर हैं। अहम और मम। यह हमारी आत्मा नहीं हैं। मैं आत्मा हूं।यह सही समझ हैं।भूख प्यास जो शरीर की मांगे हैं और इस भूख प्यास को बुझाने के लिए कितना ही प्रयास हम न जाने कब से कर रहे हैं और भूख प्यास तो कभी बुझते नहीं।कभी शांति नहीं मिलती।कभी पेट भरता हैं,तो हमे लगता हैं कि कुछ समय के लिए भर गया हैं।परंतु भरते भरते ही खाली होने लगता हैं। इस संसार का ऐसा ही स्वभाव हैं। खाली होना, भर जाना, खाली होना, भर जाना। यह इस संसार का द्वंद हैं।जन्म जन्मांतर से हमारा इस पेट को भरने का प्रयास चल रहा हैं। पेट भरने के लिए इस शरीर कि व्यवस्था,परिवार की व्यवस्था,कर्मठ प्रयास,उग्र प्रयास करना पड़ता हैं। इतने हम व्यस्त हो जाते हैं कि मरने के लिए समय नहीं हैं। यह सत्य बात हैं। आपको अधिक पता हैं।मैं तो थयोरिटीकल बोल रहा हूँ लेकिन आप तो प्रैक्टिकल हैं। आपको ज्यादा अनुभव हैं।रात दिन लगे रहो। किस के लिए?पेट की पूजा के लिए। हम पेटू बन जाते हैं।हरि हरि!
आत्मा का पेट भर दो! अमृत को खिलाओ पिलाओ। आत्मा जब तृप्त होगी और तृप्त तो होगी ही। होती ही हैं,जैसे शरीर मांग करता हैं,वैसे ही यह भी मांग करती हैं,इसे खिलाते पीलाते जाओ।ऐसा करने से जब आत्मा तृप्त हो जाती हैं तो-
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन||”
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद: -हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
हमारा पुनर्जन्म नहीं होगा और इस संसार के चक्र का हो गया पूर्ण विराम।यह सब कुछ संभव हैं।पहले हो चुका हैं। अब हमारी बारी हैं। इस सुअवसर सा अर्थपूर्ण जीवन हमें प्राप्त हुआ हैं। आज का दिन महान हैं। निर्जला एकादशी हैं। साल भर की जितनी एकादशी होती हैं, उसका पालन करने में हमसे अगर कोई भूलचूक हुई तो इसको करने से सब पूर्ण हो जाएंंगी।ऐसी चूकभूल पांडवों के समय में भी हुआ करती थी।भीम प्रभु को इसमे भी उपवास बहुत कठिन हो जाता था। उनका शरीर ही ऐसा था कि उसकी बड़ी मांग रहती थीं। उनके शरीर कि मांग बहुत थी, इस कारण वह एकादशी व्रत नहीं कर पाते थे।उनसे कुछ अपराध होते थे।
कुछ नियमों का पालन नहीं होता था।तो फिर भगवान ने उनसे कहा कि कम से कम एक एकादशी का तो पालन करो।भीम के कारण हमें यह एकादशी मिली हैं, और इससे हमें बड़े फायदे हो रहे हैं।इस एकादशी को हम अच्छे से पूर्ण करेंगे।यह उपवास कि बात हैं।नहीं खाना नहीं पीना यह तो एक नियम हैं ही,लेकिन मुख्य नियम तो उपवास मतलब भगवान के पास, भगवान के पास,अधिक अधिक और अधिक पास पहुंचने का यह शुभ अवसर हैं। एकादशी के दिन ना खाना खाना हैं, ना सोना हैं। ऐसे भी कुछ करते हैं। पद्ममाली प्रभु आज प्रातकाल: में कह रहे थे कि कुछ लोग एकादशी के रात्रि को गांव में पूरी रात भर भजन गाते रहते हैं।तुकाराम महाराज के अभंग लगाते रहते हैं। हम भी जब बच्चे थे तो हम भी बड़ों के साथ पूरी रात भर जग कर भजन कीर्तन मे सम्मिलित होते थे।यह भी एक विधी हैं।खाना नहीं, सोना नहीं।
हम आत्मा की जो मांग है, उसकी पूर्ति करते रहते हैं। आज चूल्हा जलाने कि आवश्यकता नहीं हैं। रामलीला रसोई को ताला लगाया हैं या रसोई को छुट्टी दी?आज समय ही समय हैं,अगर खान पान ही नहीं हैं, तो फिर मल मूत्र विसर्जन इत्यादि में भी हमारा समय नही बीतता हैं।वह भी बचता हैं। और जब पेट भरता हैं, तो नींद आ जाती हैं। पेट खाली हैं, तो नींद नहीं आती। हम लोग देखते ही रहते हैं, पेट में कौवे चिल्लाते हैं, वह हमें जगाते हैं।
बाकि एकादशी में भी अन्न तो हम खाते नहीं। दाल इत्यादि नहीं खाते। और फिर आज के दिन तो कुछ भी नहीं लेतें,जल भी नही, इस प्रकार शरीर की जो सारी मांग हैं, वह पूरी शून्य करा कर हम मुक्त हो जाते हैं।आज बस आत्मा का ख्याल करते रहो। आत्मा की खुराक, खान-पान की ओर ध्यान दो। यही तो बात हैं आत्मा कब से भूखा और प्यासा हैं। इस चमड़ी के पेट को या इस को खिलाते पिलाते हम इतने व्यस्त रहें हैं कि हमने आत्मा के पेट कि ओर ध्यान ही नहीं दिया। हरि हरि!
और आत्मा को भगवान से अलग किया, वियोग हुआ, योग होना चाहिए था, वियोग हुआ और इसीलिए हम लोग दुखी हैं। लगता है कि हमारा शरीर दुखी हैं, मन दुखी हैं। उसका आधार हैं आत्मा,आत्मा दुखी हैं। उसको हमने भगवान से अलग किया हैं ।
भगवान को अपने देश में छोड़ के हम परदेस आ गए। यह ब्रह्मांड परदेस हैं। हम परदेसी हुए और भूल गए।स्वयं को भूल गए,भगवान को भूल गए, इसीलिए हम दुखी हैं। वैसे आत्मा दुखी हैं,लेकिन हमे लगता हैं कि शरीर दुखी हैं। हमे लगता हैं, शरीर की कुछ मांग है, नहीं मांग तो आत्मा की है और वह मांग हैं,”कृष्ण”। आत्मा को कौन चाहिए? आत्मा को चाहिए, “कृष्ण”। बस।जैसे मछली को क्या चाहिए होता है? ज़ल चाहिए होता हैं। वैसे आत्मा को चाहिए,”कृष्ण”। लेकिन हम माया को देते रहते हैं, माया को खिलाते पिलाते रहते हैं और फिर यही हैं, यह सब देहात्म बुद्धि हैं।हम भगवान को भूल गए और स्वयं को भी भूल गए।मैं आत्मा हूं।इस बात को ही भूल गए। इस सत्य को, तत्व को ही भूल गए।हमने शरीर को बनाया और बस शरीर की सेवा करते रहो। उस शरीर के साथ सब जोड़ दिया। यह सारी इंद्रिया जोड़ दी हैं, फिर इंद्रियों के विषय हैं, इंद्रियों में लगी हुई आग और फिर हाय हाय हाय हाय यह सारा भ्रम हैं।यह सारा भ्रम हैं।
“माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान।”
“जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥”
(श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 20.122)
अनुवाद: -बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता।
किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन किया।
अब तक तो हम भूले भटके जीव थे,लेकिन भगवान कि कृपा से हमारा चयन हो चुका हैं और आज के इस एकादशी के दिन हम कुछ समय से, बहुत समय से लगे हुएं है। दुनिया क्या क्या कर रही हैं और हम, हम तो हरे कृष्ण हरे राम कर रहे हैं। दम मारो दम..दुनिया दम मार रही हैं, बोलो सुबह शाम…क्या, क्या पी रही हैं,क्या क्या खा रही हैं और हम लोग अमृतपान कर रहे हैं। इसको भाग्य नहीं कहोगे तो किसको भाग्य कहोगे! यही है…
“ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव । गुरु – कृष्ण – प्रसादे पाय भक्ति – लता – बीज ।।”
(श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला19.151)
अनुवाद:-“ सारे जीव अपने – अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे । हैं । इनमें से कुछ उच्च ग्रह – मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह – मण्डलों को । ऐसे करोड़ों भटक र जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है , जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है । कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है ।
कुछ समझ में आ रहा हैं कि कैसे आप भाग्यवान हो?हो कि नहीं? ठीक हैं। आपका जप आपको और आगे बढ़ाना हैं या फिर और साधना, सेवा हैं। तो लगे रहो। बीच में मैंने अंग्रेजी बोलना बंद कर दिया कुछ और भी भक्त आए थें।ऑस्ट्रेलियन,अफ्रीकन, यूक्रेन, यूरोप से भक्तो ने ज्वाइन किया था। दिन का समय हैं। तो…ठीक हैं।
गोरांग!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
निर्जला एकादशी महोत्सव कि जय!
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि जय!
श्रील प्रभुपाद कि जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*पंढरपुर धाम*,
*20 जून 2021*
हरि हरि।
गौरंग, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
हमारे साथ 785 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।आज का दिन विशेष है। आज रविवार है। सूर्य का दिन है। रवि मतलब सूर्य। आप जानते हो कि आज दिन में मेगा वेबीनार होगा। तो यह भी आज संपन्न होगा इसलिए आज एक विशेष दिन बन रहा है। इस महान दिन बनने का और भी कुछ कारण है। आज बलदेव विद्याभूषण प्रभु का तिरोभाव महोत्सव की जय। आज गंगा माता गोस्वामिनी का आविर्भाव दिवस या जन्मदिवस भी है।
आइए हम थोड़ा संस्मरण करते हैं। यह दोनों ही गौडीय वैष्णव संप्रदाय के आचार्य रहे। बलदेव विद्याभूषण वेदांत, गौडीय वेदांत आचार्य कहलाते थे। गंगा माता गोस्वामिनी भी आचार्या थी। हम भाग्यवान हैं कि हम उन्हीं की परंपरा से आज या कल जब भी हम जुड़े हैं। यह हमारा संबंध उनकी परंपरा से, श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु की परंपरा से और गंगा माता गोस्वामिनी की परंपरा से हम जुड़े हैं। यह भाग्य की बात है या कहो उन्होंने हमको जोड़ा। उनकी भी कुछ भूमिका होगी। जो हम गौडीय संप्रदाय से जुड़े हैं। इस्कॉन से जुड़े हैं और इस्कॉन के वर्तमान वक्ता, आचार्य और गुरुवृंदो के साथ हम जुड़े हैं। यह उन्हीं की ही कृपा प्रसाद है। हरि हरि। बलदेव विद्याभूषण, नाम भी सुंदर है। एक तो बलदेव और विद्याभूषण।
*तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।*
*अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥ २१ ॥*
(श्रीमद भगवतम 3.25.21)
तात्पर्य:
साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भाव रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है
और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।
*साधवः साधुभूषणाः* साधु के अपने आभूषण होते हैं जिससे वे सुशोभित होते हैं। बलदेव विद्याभूषण, विद्या ही उनका आभूषण रहा। वह प्रकांड विद्वान रहे। जन्म की दृष्टि से देखा जाए, तो रेमुना में जन्मे थे। रेमुना के शिरचुर गोपीनाथ का मंदिर जहां विद्यमान है, वही उनका जन्म हुआ था और फिर वहां से वृंदावन पहुंच जाते हैं और विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के चरण आश्रित बन जाते हैं। फिर विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर से ही शिक्षित और दीक्षित भी होते हैं। यही बलदेव विद्याभूषण गोविंद भाष्य लिखने वाले हैं। वेदांत सूत्र के ऊपर उन्होंने भाष्य लिखा। उन्होंने क्यों और किस लिए लिखा? इसके पीछे एक इतिहास है। विशेष परिस्थिति उत्पन्न हुई थी। उन दिनों में यह लगभग 300 वर्ष पूर्व की बात है। वैसे सन 1706 में जयपुर के राजा का संदेश आता है या आमंत्रण आता है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के लिए आप जयपुर पधारिए, क्यों? क्योंकि जयपुर में गौडीय संप्रदाय के विग्रह है। गौडीय संप्रदाय के आचार्यों द्वारा सेवित विग्रह एक समय वृंदावन में थे। उनको जयपुर में स्थानांतरित किया गया था। उसमें राधा गोविंद, राधा दामोदर, राधा विनोद जैसे कई विग्रह राधा श्यामसुंदर, राधा गोपीनाथ है।
हमारे गौडीय के आचार्यों के विग्रह जयपुर में पहुंचे थे। तब जयपुर बना ही था, नव वृंदावन कहो। किंतु तब जयपुर में श्री संप्रदाय के रामानंदी प्रचारक पहुंचे थे और वह गौडीय वैष्णव आचार्यों को या भक्तों को विग्रह की आराधना नहीं करने दे रहे थे। कुछ विघ्न डाल रहे थे। वह कह रहे थे कि आपको अधिकार नहीं है, विग्रह की आराधना का अधिकार नहीं है क्योंकि आपका संप्रदाय जो है गौडीय संप्रदाय वह प्रमाणिक नहीं है, क्यों? आपका वेदांत सूत्र पर भाष्य कहां है? हमारा तो देखिए भाष्य है। हम रामानुजाचार्य संप्रदाय के हैं, श्री संप्रदाय के हैं। यह हमारा भाष्य है।
हमारा भाष्य रामानुज द्वारा लिखा हुआ है और मध्वाचार्य का भाष्य है और विष्णु स्वामी द्वारा लिखा हुआ वेदांत सूत्र का भाष्य है और निंबार्क द्वारा लिखा हुआ भाष्य है। कोई द्वैत सिद्धांत वाला है और कोई विशिष्ट अद्वैत सिद्धांत वाला है या द्वैत अद्वैत सिद्धांत वाला है। ऐसे उनके सिद्धांतों के नाम है। लेकिन आपका वेदांत सूत्र का भाष्य कहां है? इसीलिए आपको विग्रह की आराधना का अधिकार नहीं है इसलिए आप प्रमाणिक ही नहीं हो। राजा ने ही आमंत्रण भेजा था ,विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर को आप आइए और इस परिस्थिति को संभालिए। तो वह वृद्ध अवस्था को प्राप्त थे। उनके जाने की संभावना नहीं थी। तो उन्होंने बलदेव विद्याभूषण को जयपुर भेजा। जयपुर में बलदेव विद्याभूषण वेदांत सूत्र पर भाष्य लिखें। वे थोड़ी लिखें वैसे गोविंद ने, जो राधा गोविंद गौडीय वैष्णव के राधा गोविंद या रूप गोस्वामी के द्वारा सेवित राधा गोविंद। यह उन दिनों में रामानदी, राधा गोविंद को एक दूसरे से अलग किए थे। गोविंद के कहीं एक स्थान पर आराधना हो रही थी। तो राधा रानी की कोई दूसरे स्थान पर आराधना हो रही थी।
*राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ ।*
*चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥५५ ॥*
(आदि 1.5)
अनुवाद:
श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं ।
यह जो भाव है, राधा कृष्ण का घनिष्ट और माधुर्य संबंध है। यह ऊंचे भाव जो समझने का गौडीय वैष्णव को ही अधिकार है। उनके नासमझी के कारण राधा और गोविंद को अलग किए थे। बलदेव विद्याभूषण ने जयपुर में खूब प्रार्थना की राधा गोविंद को, खूब ध्यान किया। हरि हरि। खूब निवेदन किया ताकि कुछ उलझने सुलझ सके। गौडीय संप्रदाय के भक्तों के समक्ष जो समस्या खड़ी की गई थी, उसका कुछ उपाय हो। गोविंद गोविंद गोविंद गोविंद। फिर गोविंद ने दिव्य ज्ञान हृदय प्रकाशित किया। बलदेव विद्याभूषण को हृदय प्रांगण में वेदांत सूत्र के भाष्य को प्रकाशित किया। श्री गोविंद के विग्रह श्रुतलेख दे रहे थे और बलदेव विद्याभूषण लिखते जा रहे थे। जैसे श्रील व्यास देव कह रहे थे और गणेश जी लिखते जा रहे थे। वैसे ही यहां बलदेव विद्याभूषण लिखें। जैसे-जैसे प्रेरणा और स्फूर्ति भगवान दे रहे थे। तो उन्होंने वेदांत सूत्र एक विशेष ग्रंथ है। इसमें सूत्र होते हैं। इसका नाम ही है सूत्र। सूत्र मतलब सूत्र, बड़ा ही संक्षिप्त होता है।
*ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञ : स्वराद तेने ब्रह्म हदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।*
*तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥१ ॥*
(श्रीमद भगवतम 1.1.1)
अनुवाद:
हे प्रभु , हे वसुदेव – पुत्र श्रीकृष्ण , हे सर्वव्यापी भगवान , मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ । मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता है , क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति , पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं । वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र है क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं । उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया । उन्हीं के कारण बड़े – बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं , जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है । उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड , जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं , वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं । अत : मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं । मैं उनका ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे ही परम सत्य हैं।
*जन्माद्यस्य यत:* एक सूत्र हो गया। वेदांत सूत्र में ऐसे 550 सूत्र हैं। वेदांत सूत्र में थोड़ा सावधान रहें। यह देखिए आपको वेदांत सूत्र दिखाते हैं, यह वेदांत सूत्र इतना महान है। जितने सारे ग्रंथ हैं, शास्त्र हैं उसमें वेदांत का नाम है। वेदांत जो उपनिषद का सार है कहो। हरि हरि। वेदों का सार है उपनिषद। उपनिषद का सार है, वेदों का अंत है। वेदांत सूत्र है। छोटे-छोटे सूत्र हैं। *अथातो ब्रह्म जिज्ञासा* आपने सुना होगा। वह वेदांत सूत्र ही है। पहला वेदांत सूत्र तो यही है, *अथातो ब्रह्म जिज्ञासा*। *जन्माद्यस्य यत:* द्वितीय है।
*शास्त्र योनित:* तृतीय है, कुछ अक्षर है। उसमें कोडिंग भाषा है इसलिए उसको समझने में कठिन होते हैं। यह सूत्र और भी कई सारे सूत्र हैं। नारद भक्ति सूत्र है। शांडिल्य सूत्र है। ऐसे कई सारे सूत्र हैं नामक ग्रंथ है। यह श्रील व्यास देव की रचना वेदांत सूत्र है। ऐसे गौडीय वैष्णव वेदांत सूत्र पर भाष्य नहीं लिख रहे थे। यह समझ के साथ कि वेदांत सूत्र भाष्य लिखा हुआ है। *भाष्यो अयम ब्रह्मसूत्रानाम* ऐसा पद्म पुराण में उल्लेख है। ग्रंथ राज श्रीमद्भागवत वेदांत सूत्र का भाष्य है। ऐसा पद्म पुराण में लिखा है और इसको सभी स्वीकार करते हैं। जिसको श्रील प्रभुपाद कहते थे कि यह वेदांत सूत्र का प्राकृतिक भाष्य है। तो जिन्होंने ब्रह्म सूत्र या व्यास सूत्र या वेदांत सूत्र सुना है, इस सूत्र के अलग-अलग नाम है। इसको श्रील व्यासदेव लिखे। उन्होंने ही इस वेदांत सूत्र समझने में कठिन होते हैं। सूत्र रूप में होते है।
बड़े सूक्ष्म और संक्षिप्त होते हैं। उसको थोड़ा खोल कर उसकी स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है। उसका खुलासा करके आए सुनाने की आवश्यकता होती है। श्रील व्यास देव ने वह स्पष्टीकरण दिया। विस्तार से उन सूत्रों को समझाया। कौन से ग्रंथ में? वह ग्रंथ है ग्रंथ राज श्रीमद् भागवत। वेदांत सूत्र का भाष्य श्री ग्रंथ राज श्रीमद् भागवत हुआ। गौडीय वैष्णव समझ रहे थे कि ग्रंथ राज श्रीमद्भागवत पहले से ही वेदांत सूत्र का भाष्य है। तो उन रामानंदियों के समाधान के लिए है या और कोई पूछता है, कहां है आपका भाष्य? तो बलदेव विद्याभूषण भाष्य लिखे। लिखे क्या गोविंद ही लिखवाए उनसे। तो उस भाष्य का नाम फिर गोविंद भाष्य दिया। तो बलदेव विद्याभूषण द्वारा रचित जो वेदांत सूत्र का भाष्य बना, जो गौडीय भाष्य बना गोविंद भाष्य है। बड़ा प्रसिद्ध भाष्य है और इसी को अचिंत्य भेदा भेद तत्त्व कहते है। जिसे सिद्ध किया है कि गोविंद भाष्य में अचिंत्य भेदा भेद का सिद्धांत पेश करा है।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 19 जून 2021
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 842 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं।
हरे कृष्ण!
द्वारकाधीश की जय!
विप्र सुदामा की जय!
सुदामा भी गृहस्थ थे। हम उनकी लीला कथा पूरी नहीं सुनाएंगे परंतु उनकी भाव भक्ति को समझने का प्रयास करेंगे। सुदामा द्वारिका पहुंचे हैं। सुन रहे हो ना? ध्यान से सुनो। आत्मा को सुनने दो। यह प्रसंग श्रीमद भागवतम के दसवें स्कंध के 81वें अध्याय में वर्णित है।
श्रोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दितः । जगाम स्वालयं तात पथ्यनवज्य नन्दितः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.81.13)
अनुवाद:- अगले दिन ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता आत्माराम भगवान् कृष्ण द्वारा सम्मानित होकर सुदामा घर के लिए चल पड़ा। हे राजन् , वह ब्राह्मण मार्ग पर चलते हुए अत्यधिक हर्षित था।
दूसरे दिन सुदामा ने जगाम स्वालयं अर्थात सुदामापुरी के लिए प्रस्थान किया। द्वारिका में क्या हुआ था? विश्वभावेन अथवा विश्वंभर अर्थात जो विश्व के पालनहार हैं या कहा जाए कि जो सारे विश्व का पालन पोषण भरण करते हैं, स्वसुखेनाभिवन्दितः
उन विश्वंभर ने, द्वारिका में सुदामा का स्वागत सत्कार सम्मान किया था। सुदामा एक रात द्वारिका बिताने के बाद ‘जगाम स्वालयं’ अर्थात अपने गांव के लिए प्रस्थान कर रहे हैं।
स चालब्वा धनं कृष्णान्न तु याचितवान्स्वयम् । स्वगृहान्ब्रीडितोऽगच्छन्महद्दर्शननिवृतः ॥
( श्रीमद्भागवतम् 10.81.14)
अर्थ:- यद्यपि सुदामा को बाह्य रूप से भगवान् कृष्ण से कोई धन प्राप्त नहीं हुआ था , फिर भी वह अपनी ओर से कुछ भी माँगने में अत्यधिक सकुचा रहा था। वह यह अनुभव करते हुए पूर्ण सन्तुष्ट होकर लौटा कि उसने भगवान के दर्शन पा लिये हैं ।
जब सुदामा द्वारका से वापिस निकल पड़े हैं व आधे रास्ते में हैं, उनको याद आया कि क्या हुआ था। वे कह रहे हैं कि “स चालब्वा धनं कृष्णान्न। “मुझे तो कृष्ण से कुछ धन नहीं मिला। कृष्ण ने मुझे कुछ भी नहीं दिया। उन्होंने दिया भी नहीं ‘याचितवान्स्वयम्’ और मैनें पूछा और मांगा भी नहीं। यह बात उनको रास्ते में ही याद आ गयी। सुदामा वैसे उस उद्देश्य से द्वारिका नहीं गए थे अपितु ऐसा कहना चाहिए कि उनको भेजा गया था। उनको उनकी धर्मपत्नी ने भेजा था। जाओ, तुम्हारे मित्र जो द्वारकाधीश हैं, वे कुछ जरूर देंगे। हे पतिदेव, तुम दरिद्र ब्राह्मण हो और आपके मित्र द्वारकाधीश हैं, वे धनवान हैं, जाओ। सुदामा वहां गए थे, वहां रहे भी थे लेकिन भगवान् ने न तो उन्हें धन दिया था और न ही सुदामा ने धन मांगा था। सुदामा सोच रहे थे कि उन्होंने धन दिया भी नहीं और मैंने मांगा भी नहीं। यह बहुत अच्छी बात हुई। मैंने कुछ मांगा नहीं। सुदामा स्वयं की स्तुति कर रहे हैं कि मैंने मांगा नहीं। वे उसके बदले में स्मरण कर रहे हैं कि उनकी जो द्वारका की यात्रा थी, उसमें उनको एक रात्रि को द्वारकाधीश के साथ ही रहने का अवसर प्राप्त हुआ व उनके भगवान् द्वारकाधीश के साथ जो भी अनुभव हुए थे वह उसका स्मरण कर रहे हैं। उन्होंने कहा
अहो ब्रह्मण्यदेवस्य या ब्रह्मण्यता मया । यहरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो विभ्रतोरसि ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.81.15)
अनुवाद:- [ सुदामा ने सोचा ] भगवान् कृष्ण ब्राह्मण – भक्त के रूप में विख्यात हैं और अब मैंने स्वयं इस भक्ति को देख लिया है । निस्सन्देह लक्ष्मीजी को अपने वक्षस्थल पर धारण करने वाले उन्होंने सबसे दरिद्र भिखारी का आलिंगन किया है ।
मैंने ब्रह्मण्यदेव की ब्रह्मण्यता को अपनी आंखों से देखा है। कृष्ण जो द्वारकाधीश हैं।
नमो ब्रह्मण्य-देवाय गो-ब्राह्मण-हिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोबिन्दाय नमो नमः ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला13.77)
अनुवाद: मैं उन भगवान् कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ, जो समस्त ब्राह्मणों के आराध्य देव हैं, जो गायों
तथा ब्राह्मणों के शुभचिन्तक हैं तथा जो सदैव सारे जगत् को लाभ पहुँचाते हैं। मैं कृष्ण तथा गोविन्द के नाम से विख्यात भगवान् को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
सुदामा सोच रहे थे कि कृष्ण की ब्रह्मण्यदेव को मैंने देखा है। ब्रह्मण्य क्या होता है या भगवान् को ब्रह्मण्यदेव क्यों कहते हैं? क्योंकि वे प्रसिद्ध हैं, भगवान् ब्राह्मणों के पुजारी बन जाते हैं। भगवान् ब्राह्मणों का सत्कार सम्मान करते हैं। भगवान् ब्राह्मणों की पूजा अर्चना करते हैं। ऐसे भगवान् को ब्रह्मण्यदेव कहते हैं। सुदामा ने कहा कि मैंने देखा अथवा दृष्टा अथवा यह मैंने अनुभव किया है।।
यहरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो विभ्रतोरसि
मैं केवल दरिद्र ही नहीं, मैं दरिद्रतम् हूँ । मेरे जैसा दरिद्र ढूंढ कर भी नहीं मिल सकता है लेकिन उन ब्रह्मण्यदेव ने जो अपने वक्ष स्थल पर लक्ष्मी को धारण करने वाले हैं। उन द्वारकाधीश, ब्रह्मण्यदेव ने मुझे गले लगाया। उनके उस वक्षस्थल का मैंने भी स्पर्श किया। उन्होंने मेरे वक्षस्थल का स्पर्श किया। ऐसे स्पर्श का अधिकार तो लक्ष्मी को होता है उरसी अर्थात सीना या वक्षस्थल। जिस वक्षस्थल पर लक्ष्मी को धारण करते हैं। वह मुझे स्थान दिया, मुझे गले लगाया।
क्वाहं दरिद्रः पापीयान्क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः । ब्रह्मबन्धुरिति स्माई बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.81.16)
अनुवाद:- मैं कौन हूँ ? एक पापी , निर्धन ब्राह्मण और कृष्ण कौन हैं ? भगवान् , छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण, तो भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया है ।
सुदामा ने द्वारका में जो जो अनुभव किए थे, वह उनके विषय में आगे कह रहे हैं कि उस महल में, जहां रुक्मिणी द्वारकाधीश रहते हैं। वैसे अन्य भी कई सारे महल हैं लेकिन यह विशेष महल है। भगवान् अपनी पटरानी रुक्मिणी के साथ निवास करते हैं।
वहां पर उनके क्या क्या अनुभव रहे हैं। वे कह रहे थे कि कहां मैं दरिद्र, केवल दरिद्र ही नहीं। पापीयान्कव अर्थात मैं पापी हूँ, वैसे वह पापी तो नहीं है। यह उनकी विनम्रता है जो कह रहे हैं कि कहां मैं दरिद्र और पापी और कहां श्री कृष्ण?
क्वाहं दरिद्रः पापीयान्क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः । ब्रह्मबन्धुरिति स्माई बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 10.81.16)
अनुवाद:- मैं कौन हूँ ? एक पापी, निर्धन ब्राह्मण और कृष्ण कौन हैं ? भगवान् , छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण । तो भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया है ।
पर श्री कृष्ण निकेतन हैं, उनके वहां तो श्री का निवास है। रुक्मिणी भी श्री है, वह भी लक्ष्मी है। कहां मैं दरिद्र अर्थात निर्धन और कहां द्वारकाधीश जो श्री के निकेतन हैं। लक्ष्मी नारायण हैं या रुक्मिणी द्वारकाधीश हैं। भगवान् सर्वसम्पन्न हैं परंतु
ब्रह्मबन्धुरिति, मैं कोई योग्य ब्राह्मण नहीं हूं।
बाहुभ्यां परिरम्भितः ऐसे श्री निकेतन ने, श्री निवास ने अपने दोनों बाहु से मुझे गाढ़ अलिंगन दिया। हरि! हरि!
निवासितः प्रियाजुष्टे पर्यड़े धातरो यथा । महिष्या बीजितः श्रान्तो बालव्यजनहस्तया॥
(श्रीमद् भागवतम् 10.81.17)
अनुवाद:- उन्होंने मेरे साथ अपने भाइयों जैसा बर्ताव किया और अपनी प्रियतमा के पलंग पर बैठाया और चूँकि मैं थका हुआ था , इसलिए उनकी रानी ने चामर से स्वयं मुझ पर पंखा झला ।
सुदामा इस बात को भी याद कर रहे हैं कि भगवान् ने मुझे उसी पलंग पर बिठाया जहां स्वयं द्वारकाधीश, अपनी पटरानी रूक्मिणी के साथ विराजमान हुआ करते हैं। मुझे वहीं स्थान दिया, द्वारकाधीश ने मेरी अर्चना की। यह अर्चना हुआ
शुश्रूषया परमया पादसेवाहनादिभिः । पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत् ॥
(श्रीमद्भागवतम 10.81.18)
अनुवाद:- यद्यपि वे समस्त देवताओं के स्वामी हैं और समस्त ब्राह्मणों के पूज्य हैं फिर भी उन्होंने मेरे पाँवों की मालिश करके तथा अन्य विनीत सुश्रूषाओं द्वारा मेरी इस तरह पूजा की, मानो मैं ही देवता हूँ ।
भगवान् ने मेरी सेवा की, मेरे पाद प्रक्षालन भी किया। विप्रदेवेन देववत् ।
दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ।।
( श्रीमद् भागवातम 12.13.1)
अनुवाद्:- सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण, इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद – क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता – ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ । देवी देवता भगवान् द्वारकाधीश की जिस प्रकार पूजा करते है। वैसे ही द्वारकाधीश ने मेरी पूजा की जैसे देवता भगवान् को पूजते हैं।
*बसियाछे गौराचाँदेर रत्न-सिंहासने।
आरति करेण ब्रह्मा-आदि देवगणे॥3॥
( संध्या आरती)
अनुवाद:- चैतन्य महाप्रभु सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं तथा ब्रह्माजी उनकी आरती कर रहे हैं अन्य देवतागण भी उपस्थित हैं।
हम संध्या आरती में गाते हैं कि ब्रह्माजी आरती उतारते हैं और असंख्य देवता वहां प्रस्तुत हैं।
शिव-शुक नारद प्रेमे गद्गद्। भकति-विनोद देखे गौरार सम्पद॥7॥
शिवजी, नारद जी, शुकदेव गोस्वामी पहुंचे हैं। सब भगवान् की स्तुतिगान कर रहे हैं। उनका गला गदगद हो रहा है, वे सब भगवान् की आराधना करते हैं, जिनकी सब आराधना करते हैं, उन भगवान् ने मेरी आराधना की। विप्रदेवेन देववत्
सुदामा कह रहे हैं।
अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यच्चैर्न मां स्मरेत् । इति कारुणिको नूनं धन मेऽभूरि नाददात् ॥
( श्रीमद्भागवतम 10.81.20)
अनुवाद:-यह सोचकर कि यदि यह निर्धन बेचारा सहसा धनी हो जायेगा , तो वह मदमत्त करने वाले सुख में मुझे भूल जायेगा , दयालु भगवान् ने मुझे रंचमात्र भी धन नहीं दिया।
सुदामा कहते हैं कि मैं निर्धन हूँ। ऐसे निर्धन को यदि धन प्राप्त होगा तब माद्यच्चैर्न। शायद मैं धन के नशे में आ जाऊंगा। मैं धनाढ्य अर्थात धन सम्पन्न बनूंगा,धन व्यक्ति को अंधा बनाता है। जो काम से अंधा होता है, उसे कामांध कहते हैं। जब व्यक्ति क्रोधित होता है, उसे कुछ दिखता नहीं है। कुछ समझ नही आता। उसका ज्ञान शून्य होता है वह क्रोधांध कहलाता है। कामांध, क्रोधांध, धनांध, यदि मुझे धन प्राप्त होगा तब शायद मैं वैसा ही बन जाऊंगा।’मां स्मरेत्’ द्वारकाधीश ने ऐसा सोचा होगा कि यदि मैं इस निर्धन को धन दूंगा तो यह धन का दुरुपयोग करेगा।
असीतल शिते तर जमतील भुतेः आपल्या भरभराटीचा काल असेल तर आपल्याभोवती माणसे गोला होतात।
तत्पश्चात धनी लोग कुछ पार्टी भी रखते हैं।
जब लोग मिलने आते हैं, तब बहुत कुछ होता है। वह व्यक्ति व्यस्त हो जाता है- शॉपिंग के लिए मिडल ईस्ट जाता है, यहां जाता है, वहां जाता है। लेकिन जब हरे कृष्ण वाले रथयात्रा के लिए बुलाते हैं तब कहता है कि मेरे पास मरने के लिए भी समय नहीं है।
भगवान् ने ऐसा कुछ सोचकर कि मैं ऐसा बन सकता हूँ या मेरी लाइफ स्टाइल ऐसी हो सकती है अथवा ऐसी मेरी विचारधारा बन सकती है, ऐसा ही मेरा कुछ होगा।
इति कारुणिको नूनं धन मेऽभूरि नाददात् ऐसा सोचकर उन करुणानिधान द्वारकाधीश ने मुझे कुछ भी धन नहीं दिया। अच्छा हुआ धन नहीं दिया। भगवान् ने सोचा होगा कि इसको धन देंगे तो यह बिगड़ जाएगा।
इस बात से सुदामा प्रसन्न हैं। भगवान् ने मुझे बिगड़ने से बचाया। ( ईलाज से बेहतर रोकथाम है) प्रीवेंशन एज बेटर दैन क्योर। इस प्रकार सुदामा भगवान् की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए आगे सुदामापुरी की ओर आगे बढ़ रहे हैं। हरि! हरि!
इसे कृष्ण भावनामृत कहते हैं। यह सुदामा के जो विचार अथवा भाव हैं, सुदामा की जो यह भक्ति है, सुदामा का जो इस प्रकार का संस्मरण है। वहां भेंट द्वारका भी कहलाता है, जहां कई सारे महल हुआ करते थे। द्वारका को भेंट देकर लौटने वाले सुदामा के द्वारकाधीश के प्रति विचार अथवा भाव अथवा प्रेम ही कृष्णभावनामृत कहलाता है।
(इसी में आ गया है न?)
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥(शिक्षाष्टक 4)
अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ॥
मुझे यह नहीं चाहिए, मुझे वो नहीं चाहिए।बस इस लीला में आगे बढ़ोगे तब देखोगे कि भगवान् ने सुदामा को सब कुछ दिया है।
वैकुंठ जैसी सम्पति व वैभव भगवान् ने वहां पहुंचा दिया था। सुदामा को कैरी करने अथवा बोझ उठाने की भी आवश्यकता नहीं है। भगवान् ने होम डिलीवर कर दी है। जैसे ही सुदामा वहां पहुंच जाएंगे, उनको पता चल ही जायेगा।
इति तचिन्तयनन्तः प्राप्तो नियगृहान्तिकम् सूर्यानलेन्दुसङ्काशविमानः सर्वतो वृतम् ॥
विचित्रोपवनोद्यान : कूजविजकुलाकुलैः । प्रोत्फुल्लकमुदाम्भोजकहारोत्यलवारिभिः ॥ जुष्टं स्वलङ्क तैः पुम्भिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः । किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् ।।
( श्रीमद् भगवातम 10.81.21-22-23)
अनुवाद:- [ शुकदेव गोस्वामी ने कहा ] : इस प्रकार अपने आप सोचते – सोचते सुदामा अन्ततः उस स्थान पर आ पहुँचा , जहाँ उसका घर हुआ करता था । किन्तु अब वह स्थान सभी ओर से ऊँचे भव्य महलों से घनीभूत था, जो सूर्य, अग्नि तथा चन्द्रमा के सम्मिलित तेज से होर वहाँ आलीशान आँगन तथा बगीचे थे , जो कूजन करते हुए पक्षियों के झुंडों से जलाशयों से सुशोभित थे , जिनमें कुमुद , आभोज, कहार तथा उत्पल नामक कमल खिले हुए थे। अगवानी के लिए उत्तम वस्त्र धारण किये पुरुष तथा हिरनियों जैसी आँखों वाली स्त्रियाँ खड़ी थीं । सुदामा चकित था कि यह सब क्या है ? यह किसकी संपत्ति है ? और यह सब कैसे हुआ ? सुदामा वहां पर पहुंचते हैं। उनको लगता है -किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् अरे मैं कहां गया।
सुदामा, सही स्थान पर सुदामापुरी पहुंचते हैं परन्तु उनको लगता है कि ‘किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत्’ अरे मैं कहां आ गया? वह सही स्थान पर ही आए थे पर भगवान् ने सुदामापुरी का चेहरा ही बदल दिया था। वह स्थान और पत्नी को भी पहचान नहीं पा रहे थे। उनकी धर्मपत्नी ऐसे सज धज कर आई कि किसी को बताना पड़ा कि यह आपकी धर्मपत्नी है। सुदामा सोच थे कि “यह लक्ष्मी कहां से आ रही हैं” हरि! हरि!
यदि भगवान् देना चाहेंगे तब वे छप्पड़ फाड़ कर भी दे सकते हैं। हरि! हरि!
ॐ नमो भगवते उपशमशीलायोपरतानात्याय नमोऽकिञ्चनविनाय ऋषिऋषभाय नरनारायणाय परमहंसपरमगुरवे आत्मारामाधिपतये नमो नम इति ॥
( श्रीमद्भागवतम 5.19.11)
अनुवाद:- मैं समस्त सन्त पुरुषों में श्रेष्ठ श्रीभगवान् नर – नारायण को सादर नमस्कार करता हूँ वे अत्यन्त आत्मसंयमित तथा आत्माराम हैं, वे झूठी प्रतिष्ठा से परे हैं और निर्धनों की एकमात्र सम्पदा है। वे मनुष्यों में परम सम्माननीय समस्त परमहंसों के गुरु हैं और आत्मसिद्धों के स्वामी हैं । मैं उनके चरणकमलों को पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ।
भगवान् को नमोऽकिञ्चनविनाय कहा है। भगवान् वित्त/ सम्पति है। भगवान् किसकी सम्पति बन जाते हैं? ऽकिञ्चनविनाय अर्थात जो निष्किञ्चन, निष्काम भाव वाले भक्त होते हैं। भगवान् उनकी प्रोपर्टी अथवा सम्पति स्वयं बन जाते हैं। भगवान् ने स्वयं को द्वारिका में दिया ही था। भगवान् ने आलिंगन अथवा प्रेम दिया था और क्या चाहिए। यही बात है आपको भगवान् चाहिए या भगवान् की सम्पति चाहिए। वह दुर्योधन गरीब बेचारा उसको तो नारायणी सेना मिल गयी। उसने सोचा कि मैं केवल एक व्यक्ति कृष्ण से क्या करूंगा। मुझे उनकी अक्षौहिणी सेना प्राप्त हुई है। मैंने अर्जुन को ठगा दिया। उसको केवल एक ही व्यक्ति मिला और वह भी युद्ध नहीं खेलेगा। मुझे इतनी सारी बड़ी सेना मिल गयी। वास्तव में कौन ठगा गया था, अर्जुन या दुर्योधन? हरि! हरि! सुदामा चरित्रवान थे। वह भगवान् के मित्र के रूप में प्रसिद्ध है। वे निर्धन थे, ऐसे थे, वैसे थे, कौन परवाह करता है। किसको चिंता है।
सुदामा का स्मरण होता है तब यह स्मरण होता है कि वह कृष्ण के मित्र हैं। यह पहले याद आ जाता है। उनकी अर्थव्यवस्था कैसी थी, बैंक बैलेंस था या नहीं था। निश्चित ही बाल बच्चों को कुछ असुविधा हो रही थी। लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी वे द्वारकाधीश को नहीं भूले। वैसे वह कुछ मांगने के लिए द्वारका नहीं जाना चाहते थे। नहीं! नहीं! मांगने नहीं जाऊंगा। पत्नी आग्रह कर रही थी, जिद लेकर बैठी थी। अतंत वह तैयार हो गए लेकिन वे सोच रहे थे कि इस बहाने से द्वारकाधीश के दर्शन हो जाएगें। हम कब से नहीं मिले। बहुत समय से नहीं मिले। उज्जैन अवंतिपुर में साथ में पढ़ते थे। तब से नहीं मिले। एक विद्यार्थी द्वारकाधीश धनाढ्य, एक सम्पन्न राजा बन गया और दूसरा विद्यार्थी सुदामा एक दरिद्र ब्राह्मण बना, लेकिन दरिद्रता, सुदामा की पहचान नहीं है। कहते तो दरिद्र सुदामा है लेकिन क्या सुदामा जैसा धनी व्यक्ति कोई औऱ था? वह धनाढ्य थे।
कृष्ण प्रेम बिना दरिद्र जीवन। चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टकम के भाष्य में कहते हैं, कृष्ण प्रेम बिना जो जीवन है, वह जीवन नहीं है। कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं है तो वह व्यक्ति निर्धन है। समझ तो यह है कि यह हमारे भावों की गरीबी है। यदि हमारे भाव या विचार नीच हैं, तब व्यक्ति गरीब है। कृष्ण भावना भावित व्यक्ति श्रीमान, धनी होता है। यह वैल्यूज की बात है कि हम किसको सम्पति समझते हैं। सबसे बड़ी सम्पति है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे।।
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥
अर्थ
(2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
यह सम्पति गोलोके प्रेम धन सर्वोत्तम सम्पति है। कृष्ण सम्पति है। कृष्ण को ही जिन्होंने अपनी प्रोपर्टी बनाया है,उनका नाम व उनका धाम है।
भगवान् की लीलाएँ हैं, यह धन है। यह धन ही आत्मा को प्रसन्न करेगा। इस धन की प्राप्ति से आत्मा आत्माराम बनेगी। आत्मा में आराम। हरि! हरि!
सुदामा का आदर्श हम सभी के समक्ष है।
गौर प्रेमानन्दे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
18 जून 2021,
पंढरपूर धाम.
हरे कृष्ण, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल 929 स्थान भक्त जप के लिये भक्त जुड गये है
जय राधा माधव,
जय कुन्ज बिहारी।
जय गोपी जन बल्लभ,
जय गिरवरधारी।
यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन,
जमुना तीर बन चारि।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु महाराज कांफ्रेंस में एक भक्त को संबोधित करते हुए, “आप तैयार हैं।” श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के या तो अविर्भाव या तिरोभाव के उपलक्ष्य में श्रील प्रभुपाद बोल रहे थे, तब उन्होंने एक विशेष श्लोक उद्धृत किया। जिसका मुझे स्मरण हो रहा था। पिछले कुछ दिनों से मैं सोच रहा था उस श्लोक यह वचन के संबंध में। आज वही बात या श्लोक आपको सुनाते हैं। और वह है या तो आप उसे याद रखिए या लिख लीजिए। यह वचन इसका कोई संदर्भ त प्राप्त नहीं है। कहां से है यह वचन श्लोक, किंतु है तो है। यह सत्य वचन।
राजपुत्र चिरंजीव ऐसी शुरुआत है।
राजपुत्र चिरंजीव मुनिपुत्र मा जीव।
जीवो वा मरो वा साधो, मा जीवो मा मरो खट्टिका-।।
ऐसे सुनने में भी अच्छा लगता है। वैसे आप सुनोगे या पढ़ोगे जीव, जीवो वा मरो वा साधो,मा जीवो मा मरो खट्टिका- जीव जीवों की पुनरावृत्ति हुई है। या तो जीव को ही संबोधित किया है। या जीते रहो ऐसा भी संकेत किया है। राजपूत्र चिरंजीव यह अलग-अलग पार्टिज् है। चार पार्टीज् को यहां पर चुनाव हुआ है। या चार प्रकार के लोग, एक है राजपुत्र, दूसरा है मुनिपुत्र, तीसरा है साधु और चौथा है खट्टीक मतलब कसाई। और इन चारों को अलग-अलग उपदेश दिए जा रहे हैं। या कह सकते हैं, उनको आशीर्वाद दिया जा रहा हैऋ या शाप दिया जा रहा है। या फिर कहो कि, उन सभी का राजपूत्रका, मुनि पुत्र का, साधु का और कसाई का भविष्य बताया जा रहा है। तुम्हारा भी भला हो या तुम्हारा मुंह काला हो। वैसे सभी श्रेणीके है। यहां पर या सभी श्रेणी के लोगों का उल्लेख होता है। यहां पर ऐसे नहीं कहा जा सकता है, किंतु मोटा मोटी, इस संसार के जो लोग हैं उनमें हम भी हैं। वैसे हम थोड़े अलग श्रेणी के हो गए है संसार से। हो सकता है, वह लागू नहीं होगा हमको। लेकिन हम भी तो फिट होंगे इसमे से ही किसी एक श्रेणी में या प्रकार में। तो यह हमारा भविष्य है। यह उन लोगों का भविष्य है। हरि हरि, आप भी समझ सकते हो। आपका भविष्य है।ध आपका गंतव्य स्थान कौन सा होगा। या फिर और भी जो जन है। हो सकता है, आपके परिवार के जन या पड़ोसी वृंद या अन्य आपके देशवासी हैं या और भी अन्य कई कई सारे लोग आप शायद बता भी सकते हो उनका भविष्य।
कई सारे लोग जानना भी चाहते हैं। हाथ दिखाते हैं। स्वामीजी आप हाथ देखते हो। जैसे मै हीं एक बार आ रहा था मास्को रशिया से दिल्ली आ रहा था हवाईजहाज में। वहां भी भोजन परोसते हैं। हवाईसुंदरी आई और हमको पूछ रही थी, स्वामीजी क्या लोगे मछली या मुर्गी? मछली खाना पसंद करोगी या मुर्गी खाना पसंद करोगे? हम तो चुप बैठे थे। लेकिन हमारे साथ, मेरे बगल में 2 माताएं बैठे थे। एक थी मां और दूसरी उसकी बेटी बैठी थी। उन्होंने तो भरपेट खाया। एक ने चिकन खाया दूसरी ने मछली खाई पेट जब भर गया तो, जो मम्मी थी मेरी ओर मुड़कर मैं कहां पर बैठा था उसने पूछा स्वामी जी हाथ देखते हो/ मतलब हमारा भविष्य बता सकते हो? यह बात जब उसने पूछा वैसे मैं तो नाराज था। यह जो मां बेटी थे वह दोनों भारतीय थे। मेरे बगल में बैठ कर उन्होंने एकने चिकन और एकने मछली खाई। मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। उन्होंने ऐसा नहीं खाना चाहिए था, साधु के बगल में बैठ कर। और फिर जब स्वामीजी हाथ देखते हो ऐसे पूछा मुझे और भी थोड़ा क्रोध आया हल्का सा। मैंने वह व्यक्त तो नहीं किया शब्दों मे। लेकिन फिर सोचता रहा कि अगर पहली बार पूछा, फिर दोबारा पूछ रही थी। मैं सोच रहा था और एक बार पूछती है तो फिर बता ही दूंगा इसका भविष्य। और मैंने उत्तर तैयार करके रखा था। तुमने क्या खाया मुर्गी को खाया, तो तुम्हारा भविष्य है तुम मुर्गी बन जाओगी। यही तुम्हारा भविष्य है। और जिसने मछली को खाया वह बन जाएगी मछली। यही उसका भविष्य है। यहां कहां है खट्टीक खट्टीक का उल्लेख हुआ है। खट्टीक कसाई सिर्फ कसाई ही नहीं। जो मांस को बेचेगा, उसे पकाएगा फिर परोसेगा उसे खाएगा तो उन सब का भविष्य क्या है। मांस आज तुम मुझे खा रहे हो अगली बार मैं तुम्हें खाऊगा। मांस मां मैं का संकेत होता है और स वह का होता है मैंने उसको खाया। वह मुझे खाएगा। ऐसा चलता रहेगा फिर यहां कहां है हे खटीक मांस भक्षक या फिर साथ में और कोई पाप होते ही रहता है। हे
व्यभिचारी, व्यभिचार या फिर चार जो महापाप है। मांस भक्षण एक हैं, नशापान दूसरा है, अवैध स्त्री पुरुष संग तीसरा है जुवा इत्यादि खेलना चौथा है। इन सब के लिए क्या कहा है, मां जीव मां मरो तुमको जीना भी नहीं चाहिए। ऐसा जीवन जी रहे हो मरो उससे। मरोगे तो सीधे नर्क जाओगे। तो तुम्हारा जीवन भी नारकीय जीवन होगा। अब भी तुम नरकीय जीवन ही जी रहे हो। नरक जैसे परिस्थिति में ही जी रहे हो। और तुम मरोगे तो असली नरक जाने वाले हो। तो तुम क्या करो मा जीव मां मरो कठिन है, क्या करे? बेचारा उसको कहां जा रहा है। तुम जीना नहीं तुम मरना नहीं। दोनों भी परिस्थिति महा भयानक है, इस खटीक के लिए। कसाई के लिए। ऐसा उपदेश उसके जानकारी के लिए कहा। ऐसा उसके भविष्य के लिए कहा। तुम्हारा क्या हाल अब है और क्या होने वाला है इसीलिए कहां मां जीव मां मरो। हरि हरि, किंतु जो साधु है, संत है, महात्मा है महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः |
महात्मा या साधु वह है कौन है। कृष्णा ने कहा दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः जिसने भी प्रकृति का आश्रय लिया हुआ है। श्रीमती राधा रानी की जय! बोलो श्री राधे श्याम। जिन्होंने सीधे राधारानी के चरणों का आश्रय लिया हुआ है। या फिर सीधे नहीं कभी डायरेक्टली इनडायरेक्टली राधारानी का ही आश्रय लिया हुआ है। राधा के चरणों का आश्रय लिया है। राधा के चरणों का आश्रय लेते हुए फिर हमारे वंदे गुरु श्रीचरणारविंदम हमने गुरु की भक्तों की महात्माओं की शरण ली हुई है। वह शरणागति वह आश्रय भी राधा का ही आश्रय है। हरि हरि, या उस आश्रय का विषय होता, आश्रय और विषय। हम हैं आश्रित, राधा के आश्रित होते हैं। परंपरा में आचार्यों के आश्रय में हम आते हैं। उनकी माध्यम से, उनके जरिए, उनको केंद्र में रखते हुए हमारा संबंध है राधारानी के चरणों के साथ होता है। राधारानी की जय! महारानी की जय! और जिन्होंने राधारानी के चरणों का आश्रय लिया हुआ है। राधे तेरे चरणों की यदि धूल मिल जाए वृंदावन में प्रार्थना करते हैं। आप भी जहां कहीं भी हैं प्रार्थना कर सकते हैं। राधे तेरे चरणों की यदि धूल जो मिल जाए तो क्या होगा? तकदीर बदल जाए मेरी तकदीर बदलेगी। तो ऐसे संत महात्मा साधु जो है या साधु बन रहे हैं बने हैं उनके लिए क्या कहा गया जिवो वा मरो वा कोई अंतर नहीं है। तुम जीवित हो तो भी राधा रानी के साथ हो या राधा कृष्ण के साथ हो। कृष्ण के चरणों में हो। राधा-कृष्ण भी है, परीकर भी है, भक्त भी है, संत समागम है।
साधु संग साधु संग सर्व शास्त्र कय
लव मात्र साधु संग सर्व सिद्धि हय
( चैतन्य चरित्रामृत मध्य 22.54)
साधु संग भी प्राप्त हो रहा है तो तुम तो पहुंच गए या पहुंचे हुए महात्मा हो। तो तुम जीवन मुक्त हो ऐसा भी कहा जाता है। जीवित तो हो तुम इस संसार में लगता है कि संसार में हो, इस शरीर में हो किंतु तुम मुक्त हो। इसी शरीर में जहां भी हो वहां जीते रहो। जिवो वा मरो वा या मर भी जाते हो तो सीधे भगवद्धाम लौटोगे। और यहां जो अनुभव कर रहे थे वही अनुभव तुम्हें फिर भगवद्धाम में होगा। तो तुम जीते रहो या मरते रहो कोई फर्क नहीं है साधु के लिए सब एक ही बात है। तो साधु के लिए कहा ए साधो जिवो वा मरो वा एक ही बात है। यह दो चरम हुए, एक तो कसाई कि बात कसाई को कहां मा जिवो मा मरो तुमको जीना भी नहीं चाहिए तुमको मरना भी नहीं चाहिए। दोनों स्थिति में तुम्हारी हालत बहुत भयानक है। और साधु के लिए कहा जिवो वा मरो वा कोई फर्क नहीं है।
तुम जीवित हो इसी शरीर में हो जीते रहो। या फिर मृत्यु भी हो जाती है तो भगवत प्राप्ति निश्चित है तो जिवो वा मरो वा। अब बच गया राजपुत्र चिरंजीव कहां है, किंतु हे तुम राजपुत्र हो तो तुम जीते रहो। क्योंकि राजपुत्र होगे या तुम राजपुत्र बने हो तो यह तुम्हारे पूर्व जन्म के कुछ पुण्य का यह फल है जो तुम राजपूत्र बने हो। ताकि भोग विलास तुम कर सकते हो या फिर पुण्यात्मा स्वर्ग में भी पहुंच जाते हैं। स्वर्ग में वहां का सोमरस पेय.. स्वर्ग में तो लोग खाते कुछ कम है पीते ही रहते हैं। खाने में कुछ कष्ट या परिश्रम भी करना होता है पीने में तो कुछ कष्ट नहीं करना होता है। वह बस आनंद लेता है। तो स्वर्ग में पहुंचे हुए पुण्यात्मा है इसीलिए स्वर्ग में पहुंचे है या कोई राज पुत्र बना हुआ है। भोग विलास चल रहे हैं। तो होता क्या है जब व्यक्ति के पुण्य कर्म का जो फल है ऐशो आराम विलासिता पूर्ण जीवन जीता रहता है, सुख उपभोगता है। जैसे सुख का उपभोग करेगा तो उसी के साथ उसका क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति उसका पुण्य क्षीण होता है, कम होता है, घटता है। तो उसका भविष्य क्या है फिर? पुण्य क्षीण होगा फिर मृत्युलोक पहुंचेगा।
स्वर्ग लोक में था या फिर वह राजपूत्र नहीं रहेगा। अगले जन्म में कोई शुद्र पुत्र बन सकता है। क्योंकि पुण्य फल से राजपुत्र बन गया, स्वर्गवासी बन गया किंतु उसी के साथ उसका पुण्य क्षीण घटते जाने वाला है। और जैसे घटेगा उसी के साथ फिर वापस चौक में। फिर कोई पापी तापी योनि में या परिवार में या वर्ण मे शुद्र योनि में कई जन्म लेगा। इसीलिए उसको कहा है राज पुत्र तुम जीते रहो तुम जीते रहो। क्योंकि जैसे मरण होगा तुम्हारा फिर तुम्हारा भविष्य कुछ उज्वल नहीं है। फिर तुम्हारा भविष्य अच्छा नहीं है तुम्हारा भला नहीं होगा तो फिर जीते रहो। और फिर मुनिपुत्र मा जीव कहां है। राजपूत्र चिरंजीव किंतु तुम मुनिपुत्र मुनि के पुत्र हो इसीलिए मा जीव। यह समझना कठिन है। तुम जीना नहीं क्योंकि मुनि पुत्र हो। तो वह क्या करेंगे? तपस्या करेंगे कठोर तपस्या होगी, कई सारे असुविधा है। फिर प्रातः काल में जाड़े के दिनों में उठना है फिर ठंडे पानी से स्नान करना है और मित भुख रहना है, यह मत खाओ, यह नहीं खाओ, यह तो खा सकते हो और इतना ही खा सकते हो। कई सारे नियम है, कई सारी कठोर तपस्या है असुविधा है इस तुम्हारे तपस्वी के जीवन में। या जो मुनि पुत्र तुम बने हो तो तुम्हारे पिताश्री तुमसे करवा रहे हैं सारी साधना। किंतु यह तपस्या का जीवन जैसे पूरा होगा या पूरी तपस्या हुई तो यह तपस्या क्या करने वाली है, तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्ध्येद्यस्माद्
ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम ऐसे ऋषभदेव कहे अपने पुत्रों से। या मुनी पुत्रों की बात चल रही है तो ऋषभदेव भी अपने पुत्रों को मुनि के पुत्रों जैसे ही उनके पुत्र या उनसे वह साधना करवा रहे थे। उनको उपदेश कर रहे हैं, हे पुत्रों क्या करो? तपस्या करो तपस्या करो। तप करो, तप करोगे तो क्या होगा? शुद्ध्येद्यस्माद् जिससे
तुम शुद्ध बनोगे। तुम्हारे चेतना का चेतोदर्पण मार्जनम होगा, चेतना का दर्पण चमकेगा। और फिर क्या होगा? तुम शाश्वत सुख को प्राप्त करोगे। ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् अनंत सुख तुम्हारी प्रतीक्षा में है। यह तपस्या का जीवन समाप्त होते ही यह ब्रह्मानंद, परमानंद, भक्त्यानंद तुमको प्राप्त होना है। इसीलिए पूरा करो इस तपस्या को, तपस्या की जीवन को जल्द से जल्द भी कह सकते हैं पूरा करो। ताकि कोई और असुविधा नहीं हो या कुछ और असुविधा भी महसूस हो रही थी तो वह भी नहीं होगा. तुम्हारा जीवन स्वाभाविक होगा और तुम इस जीवन का आनंद लूटोगे। इसीलिए मुनि पुत्र मा जीव इस तरह का जीवन थोड़ा जल्दी समाप्त करो यह तपस्या का जीवन असुविधा का जीवन। हरि हरि। ठीक है तो यह मूल विचार हैं।
राजपुत्र चिरंजीव, मुनिपुत्र मा जीव, जीवो वा मरो वा साधो, मा जीवो मा मरो खट्टिका-
हे कसाई तुम, मा जीवो मा मरो, साधु मरो नहीं मरो, राजपूत्र जीते रहो, हे तपस्वी मुनि पुत्र मा जीव जल्दी समाप्त करो, यह तपस्या का जीवन और सिद्धि को प्राप्त करो। कृष्ण तुम्हारी प्रतीक्षा में है आनंद ही आनंद तुम लूटोगे। हरि हरि। तो ऐसे हम इस शरीर के साथ समाप्त तो नहीं होते या इससे कई सारे बातें कई सारे विचार आगे आ सकते हैं, सोचे जा सकते हैं। एक तो जीव अमर है और पुनर्जन्म है। कई सारे या चारवाक परंपरा की मंडली है तो वह कहेंगे ओ किसने देखा है भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः एक बार बन गई राख इस शरीर की, राम नाम सत्य है राम नाम सत्य है स्मशान घाट भूमि पहुंचा दिया और बन गई राख सब खत्म। ऐसे कहने वाले भी कई मिलेंगे। लेकिन वे तो अनाड़ी है। या फिर कोई कहेंगे बौद्ध पंथीय कहेंगे शुन्यवाद बस अपने अस्तित्व को समाप्त करना है। वह भी संभव नहीं है क्योंकि आत्मा अजर अमर है और शुन्य या अस्तित्व हिन बन नहीं सकता। या फिर जो मायावादी या निराकार वादी है वे अहं ब्रह्मास्मि कि बात कहेंगे। मैं ब्रह्म हूं, ब्रह्म में ज्योत मे ज्योत मिलाने की बात वे करते हैं। उनकी समझ भी ठीक नहीं है।
भगवान के चरण कमलों का अनादर करते हैं वे मायावादी। इसीलिए फिर भागवत ने कहा है पतन्त्यध:। तो ज्योत मे ज्योत मिलाने का प्रयास तो होता है, विचार तो होता है लेकिन वैसे होता तो नहीं संभव ही नहीं है। आत्मा को परमात्मा में या ब्रह्म में मिलाया नहीं जा सकता। हरि हरि। वह अलग रहता ही है अलग है ही। ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: हैं जीव अंश है तो अंशी नहीं बन सकता सदा के लिए अंश है और अंश रहेगा ही। तो मायावादी भी नहीं जानते हैं, यह उनका भी आत्म साक्षात्कार ठीक नहीं है। बौद्ध पंथियों का आत्म साक्षात्कार का ज्ञान सही नहीं है और चारवाक जो भौतिकवादी है वे तो आत्मा को मानते ही नहीं है। देहात्मबुद्धि देह ही उनका आत्मा है। और जो ईसाई है मुसलमान है उनको भी पूरा ज्ञान नहीं है। तो वह भी समझते हैं कि ओह यह मनुष्य जीवन ही अंतिम जीवन है। इसके बाद दो बातें होगी या तो हम हम नहीं वे स्वर्ग जाएंगे या फिर उनको नरक भेजा जाएगा। तो उनका पुनर्जन्म में कोई विश्वास नहीं है। विश्वास नही होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अंधे ने कहा कि सूर्य नहीं है तो सूर्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होता अंधे के कहने से। तो ऐसे कोई कहता है की पुनर्जन्म नहीं है, पुनर्जन्म में हमारा विश्वास नहीं है। तुम्हारा विश्वास हो या नहीं हो ऐसा ही होगा जो इस श्लोक में कहा है।
भविष्य तो निश्चित है। किस प्रकार का है, वह अलग बात है। लेकिन तुम रहोगे कहीं ना कहीं तुम रहोगे। इस शरीर में, उस शरीर में, स्वर्ग में, नर्क में, बैकुंठ में, गोलोक और यह मनुष्य शरीर अंतिम शरीर नहीं है। ….shall not kill तो कहां है बाइबिल में। उनके विकएंड कमांडमेंट्स मांस भक्षण मत करो। पशु हत्या मत करो। तो फिर तुम कर ही रहे हो मांस भक्षण तो वही नियम लागू होगा। आज तुमने मुझको खाया है, मैं तुमको कल खाऊंगा। छोडूंगा नहीं मैं तुम्हें ऐसे ही छोडूंगा नहीं। जीवो जीवस्य जीवनम ऐसा भी नियम है। ऐसा प्रकृति का नियम है। एक जीव दूसरे जीव को खाएगा। एक जीव दूसरे जीव के ऊपर निर्भर रहता है। या उसका भक्षण करता है उसके पालन-पोषण के लिए दूसरे जीव को खाता है। इसी तरह से उसका सेवन करता है। उस पर निर्भर रहता है। जीव जीवस्य जीवनम यह जो नियम है, यह भगवान के नियम है। हर देश का अपना-अपना कायदा हो सकता है। कायदा कानून नियमावली अपनी-अपनी हो सकती हैं। लेकिन भगवान के नियम सभी के लिए लागू होते हैं। हम क्रिश्चियन है तो हमारे लिए नियम हम हिंदू है तो हमारे लिए नियम। आप हिंदुओं के नियम हमको मंजूर नहीं है। हम बौध्द पंथी हैं बौद्ध अरे बुद्ध बनो बुद्ध बनो बौद्ध पंथी बनो क्योंकि हमारे कर्मा के नियम तो हम स्वीकार नहीं करते। मानते नहीं तो आप खूब पाप करो।
आपको उसका कोई फल भोगना नहीं पड़ेगा। इसलिए धर्म परिवर्तन करो। ऐसा प्रचार करते रहते हैं। लेकिन जो भी बनो, यह जो नियम है हम को छोड़ेंगे नहीं। हमको जहां भी हो वहां से बाहर निकाल कर, मैदान में निकाल कर हमें जो नियम है। प्रकृति के नियम है। मयाध्यक्षेण प्रकृति इस प्रकृति की नियामक भगवान है। भगवान भी एक है और उनके प्रकृति भी एक हैं। अमेरिकन के लिए एक और चाइनीज के लिए दूसरी क्रिश्चियन के लिए तीसरी हिंदू के लिए चौथी हमको इसाई है उनके लिए पांचवी और हम नास्तिक है तो हमारे लिए छठवी ऐसा नहीं है। ऐसा कुछ नहीं होता है। जैसे यहां कहां है, ऐसा ही भविष्य है। ऐसा ही होगा। इसीलिए जहां आदेश है उपदेश है क्या भविष्य कहां है, राजपुत्र चिरंजीव, मुनिपुत्र मा जीव जीवो वा मरो वा साधो, मा जीवो मा मरो खट्टिका-
अभी समय हो गया 7:30 बज गए। हम यहीं पर रुकेंगे। अगर कोई प्रश्न है तो आप लिख लो उस पर चर्चा भी करो।
ठीक है, हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
17 जून 2021
928 स्थानो से भक्त जब कर रहे हैं । ठीक है !अभयचरणारविंद । तो अच्छा दृश्य है जब आप सबको जप करते हुए देखते हैं । हरि हरि !! और ऐसे मैं ही आपको नहीं देखता हूं , आप मुझे भी देखते हो या नहीं ? आपको जप करते हुए मुझे भी प्रसन्नता होती है । संभावना है कि आप मुझे जप करते हुए भी प्रसन्न होंगे । यहां तो कई सारे जप करते हैं । 928 स्थानों से हैं । जप करने वाले तो कुछ 1000/ 1500 तो आराम से हे ही । तो इतने सारे , कई साथ जप करते हैं । तो यह हो गए भी संकीर्तन ही हुआ । कर रहे हैं कीर्तन , कर रहे हैं जप किंतु जब मिलजुल कर रहे हैं ZOOM कॉन्फ्रेंस कल को इकट्ठा करती है । एक मंच बनता है या फोरम कहो , एक मंच पर हम जप करते हैं । यह बहुत शक्तिशाली अनुभव है । हरी हरी !! तो हम दूसरों से प्रेरित होते हैं । वह भी जप कर रहा है यह भी जप कर रहा है और यह करना सही है । सभी जप कर रहे हैं । मैं पागल नहीं हूं । (परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्तों को संबोधित करते हुए) करुणा भी पागल नहीं है अकेले जप कर रहे हैं ! ऐसी तो बात नहीं हैं । अभी तो 1000 भक्त जप कर रहे हैं ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
वहां ऑस्ट्रेलिया में भी धिर प्रशांत भी जप कर रहे हैं । क्या करना सही है ? सभी जगह, नगर आदी ग्राम तो नहीं पहुंचे अबतक । कई नगरो में कई ग्राम में पहुंचे तो है लेकिन..
पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम ॥
(श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 25.264)
अनुवाद:- इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा ।
इस पृथ्वी पर जितने नगर आदि ग्राम है इतने तो हम नहीं पहुंचे हैं किंतु मंजिल कुछ दूर नहीं है । वह दिन आने वाला है । अच्छे दिन आएंगे । और यह कोई सरकार की मोदी की घोषणा या भविष्यवाणी नहीं है । यह भविष्यवाणी तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की (जय) ! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी हे तो उन्होंने कहा भविष्यवाणी की “पृथ्वीते आछे यत” पृथ्वी पर जितने हैं नगर आदी ग्राम “सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम” ऐसा होना ही है । भारत में अच्छे दिन आएंगे या नहीं आएंगे कौन जानता है, कब आएंगे ? हरि हरि !! किंतु इस अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्ण भावना मृत संघ में तो अच्छे दिन आएंगे । आने वाले ही हैं ! यह हरि नाम सर्वत्र फेल के रहने रहना ही है ।
यह हरि नाम हरि ही है । तो कहने वाले ने या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा मेरा नाम “पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम” ,”सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम” मेरे नाम का प्रचार होगा । मेरा नाम पहुंचेगा हर नगर ग्राम में । भगवान क्या कह रहे हैं ? मैं पहुंचुगा । मुझ में, मेरे नाम में कोई अंतर नहीं है । तो मेरा नाम पहुंचेगा जो मैं कह रहा हूं तो सब कहे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु 500 वर्ष पूर्व की बात है तो मेरा नाम है तो मैं ही पहुंचुगा । तो भगवान जो भी इच्छा करते हैं , भगवान की इच्छा शक्ति भी है और कई सारे शक्तियां भी है । जैसे कि भगवान की ज्ञान सकती है , भगवान की इच्छा शक्ति है , भगवान की क्रिया सकती हैं ।
तो भगवान इच्छा करते ही हो गया यह जो कोई विचार मन मे प्रकट हो जाए तो ,तो हो गया बाकी सब व्यवस्था हो जाती है भगवान के अलग-अलग शक्तियों और व्यवस्था के अनुसार । इनको मिलना तो कोई खराब बात नहीं है , ऐसे कई सारे उदाहरण है । राजा प्रताप रूद्र तो भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से नहीं मिल रहे थे । यह राजा है फिर मैं सन्यासी हूं । सन्यासी क्यों मिलेगा ? राजा है तो तो फिर उसके साथ जुड़ा रहता है कामिनी और कांचन के मामले जुड़े रहते हैं । कुछ हिरणय , सोना कश्यपू , खइच आराम एसा जुड़ा रहता है तो चैतन्य महाप्रभु उस दृष्टि से सोच रहे थे नहीं नहीं मैं नहीं मिलना चाहूंगा । किंतु जब उस रथयात्रा के दिन देखा और रथ यात्रा आ रही है । जगन्नाथ पुरी धाम की ( जय ) , जगन्नाथ रथ यात्रा महोत्सव की ( जय ) । रथ बन रहा है । और स्नान यात्रा भी आ रही है तो रथयात्रा भी होगी । तो रथ यात्रा के दिन जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने देखा राजा प्रताप रूद्र को देखा ! कैसे देखा ? बड़े विनम्र भाव में देखा ।
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना ।
अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.21 )
अनुवाद:- “ जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ‘
उनके मुंख में भी नाम है । जय जगन्नाथ ! जय जगन्नाथ ! भी कह रहे हैं राजा साथ में मुख में नाम हाथ में काम और राजा काम कर रहा है ! कौन सा ? झाड़ू पोछा लगा रहे हैं । राजा के हाथ में है झाड़ू वैसे तलवार भी थी लेकिन बगल में लटक रही है , तलवार को छु भी नहीं रहे हैं , लेकिन हाथ में लिया है झाड़ू । राजा के हाथ में झाड़ू और जगन्नाथ के समक्ष जिस मार्ग पर चलेंगे जगन्नाथ उस मार्ग को, उस रास्ते को कर रहे हैं साक्षात स्वयं पूरी के राजा प्रताप रूद्र । राजा प्रताप रूद्र झाड़ू लगा रहे हैं । तो यह जब देखा , तो फिर चैतन्य महाप्रभु सोच रहे थे तो उन्होंने अपना इरादा बदल दिया इनको मुझे मिलना चाहिए । हरि हरि !!
ऐसी करनी करो ताकि भगवान हमें मिलने या देखने आएंगे । ऐसे श्रील प्रभुपाद कहा करते थे । तुम मिलना चाहते हो तो फिर भगवान मिलेंगे , नहीं मिलेंगे किंतु भगवान फिर तुम से मिलने चाहते हैं तुम ऐसे कार्यकलापों में लगे हो बड़े विनम्र भाव से , प्रेम मई सेवा कर रहे हो । तो फिर भगवान तुमको मिलना चाहेंगे तो फिर कौन रोक सकता है ? क्या भगवान को कौन रोक सकता है ? तो यहां वैसे चैतन्य महाप्रभु राजा प्रताप रूद्र को देख तो रहे थे ही किंतु ऐसा मिलना चाहिए जब चैतन्य महाप्रभु सोचे तो मतलब निकट से मिलना चाहिए । जय कांत में कुछ मिलना चाहिए ऐसा नहीं कि कोई भीड़ भाड़ मैं या जहां शोर शराबा है । तो कुछ दूरी भी है मैं यहां हूं । राजा प्रताप रुद्र दूर झाड़ू लगा रहे हैं तो मैं मिलना चाहूंगा आमने सामने । तो जैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उन्होंने इच्छा की तो चैतन्य महाप्रभु के मन में इच्छा जगी तो हो गया काम । जय श्री राम ! हो गया काम । तो चैतन्य महाप्रभु सोचते हैं कि मैं राजा प्रताप रूद्र से मिलना चाहता हूं या कह रहे हैं कि भगवान बस भगवान की जैसी इच्छा होती है तो , तो सारी व्यवस्था हो जाती है । उनके खुद के हाथ से पैर से या कुछ करना नहीं होता है । भगवान कोई घटना चाहते हैं । रासक्रीडा चाहते हैं ।
श्रीबादरायणिरुवाच भगवानपि ता रात्रिः शारदोत्फुल्लमल्लिकाः ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥
( श्रीमद् भगवतम् 10.29.1 )
अनुवाद:- श्रीबादरायणि ने कहा : श्रीकृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण भगवान् हैं फिर भी खिलते हुए चमेली के फूलों से महकती उन शरदकालीन रातों को देखकर उन्होंने अपने मन को प्रेम – व्यापार की ओर मोड़ा । अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति का उपयोग किया ।
उस शरद पूर्णिमा के रात्रि को भगवान ने कुछ मल्लिका, कुछ पुष्प खिले हैं यह भी देखा और यह पूर्णिमा की रात्रि है यह भी अनुभव किया । चंद्रमा , “रन्तुं” रमने की इच्छा हुई श्री कृष्ण मन में “रन्तुं” इच्छा होते ही सारी व्यवस्था हो गई । और कुछ ही क्षणों में रास क्रेडा प्रारंभ हुई । तो बृंदा देवी और कार्यक्रम के प्रबंधक और उसकी सहायता में असंख्य गोपियां उनके अलग-अलग जिम्मेदारियां होती हैं । तो वहां वाद्य पहुंच गए । सर्वत्र पुष्ण खिल गए । और आकाश में तारे टीम टीम आ रहे हैं । सजावट भी हो गए । और भगवान ने भी मुरली बजाई । तो उस मुरली के नाथ को भी सुनी सभी गोपियों ने । अपने अपने घरों में । और जो भी काम कर रही थी सारे काम धंधे वही ठप हो गए । और सारी दौड़ पड़ी उस वन की ओर जिस वन में कृष्ण पहुंचे थे और जहां से मुरली का वादन किए थे मुरली वादक ने मुरली को मस्त-मस्त मुरली को सुनाया था । और जहां से वृंदा देवी ने भी अपने कई सारे दूती (स्त्रियां दूती )स्त्रीलिंग में । वह भी भेजें । ऐसे तोते भी होते हैं । वह पत्र व्यवहार या सूचना देने का कार्य करते हैं । तो यह सब श्री कृष्ण भगवान , “भगवानपि ता रात्रिः” भगवान होते हुए भी यह “रन्तुं” रमने की इच्छा हुई । इच्छा होते ही सारी व्यवस्था हो गई । हरि हरि !!
तो वहां पर भी ; तो जगन्नाथपुरी को लौट आईए , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसी इच्छा की राजा प्रताप रूद्र से मिलना चाहिए तो उसी रथयात्रा के दरमियान जय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते करते करते गुंडिचा मंदिर की ओर रथ प्रस्थान कर रहा था । किंतु फिर ऊपलूध कहते हैं, फिर भोग लगाने का समय हुआ जगन्नाथ का भोग तो फिर रथ को रोके , भोग लग रहा है तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बगल के उद्यान में पहुंच गए । थके थे, लेट गए । तो उसी समय सार्वभौम भट्टाचार्य आदि भक्तों ने राजा प्रताप रूद्र को कहे जाओ जाओ यही समय है जाओ मिलो महाप्रभु से जाओ उनके चरणों की सेवा करो । और उनकी चरणों की सेवा , मालिश करो कुछ राहत दो । महाप्रभु ने बहुत कीर्तन नृत्य किए हैं । उनको आराम दो । और मसाच करते समय गोपी गीत गाना हां ! गोपी गीत गाओगे तो चैतन्य महाप्रभु के जो भाव है रथ यात्रा के समय वीरह भाव या गोपी भाव है राधा भाव इसकी पुष्टि होगी । महाप्रभु और प्रसन्न होंगे । उनसे जो गोपी गीत गा रहे हैं । पास से सेवा भी कर रहे हैं । मुख में है गोपी गीत , हाथ में है चरणों की सेवा । ऐसा करोगे तो मिल जाएंगे चैतन्य महाप्रभु, तुमको गले लगाएंगे । पहले से तुम्हारा मुंख भी नहीं देखना चाहते थे । और ऐसे तुम्हारे मन की स्थिति में राजा प्रताप रूद्र श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तुमको गाढ़ आलिंगन देंगे ।
तो जब भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपना मन बना लिया राजा प्रताप रूद्र को मिलने का तो तब से फिर उस मिलन उस बल्लभ उद्यान उस उद्यान का नाम जगन्नाथ बल्लभ उद्यान में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे गाढ आलिंगन देने तक फिर सारी व्यवस्था के बाद यह होगा उसके बाद वह होगा उसका परिणाम क्या होगा श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राजा प्रताप रूद्र को मिलेंगे और गाढ आलिंगन देंगे । फिर सारी व्यवस्था , क्रिया शक्ति या अलग-अलग शक्तियां या युक्तियां कार्यार्न्वीत होती है । और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु या कृष्ण कहो उनकी इच्छा की पूर्ति होती है । हरि हरि !! तो मैं यह इसलिए कह रहा था कि चैतन्य महाप्रभु ने इच्छा की है और इच्छा को छिपा के नहीं रखे हैं उसको घोषित किए । और वह इच्छा जिसको हम भविष्यवाणी कह रहे हैं, चैतन्य महाप्रभु के भविष्यवाणी । “पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम” तो भगवान की अगर ऐसी इच्छा है भगवान की ऐसी भविष्यवाणी है तो क्या होगा ? यह सच होके ही रहेगी । अब तो हम सब अनुभव कट रहे हैं कि हरिनाम कितने सारे नगरों में और कितने सारे ग्रामों में या पद यात्रा के माध्यम से कितने सारे ग्रामों में वैसे कुछ तो हम रिकॉर्ड रखते हैं कुछ संख्या है किंतु असंख्य ग्राम हो रहे हैं जहां बिहारी नाम यह नाम हट्ट भी खुले हैं । बंगाल उड़ीसा में और स्थानों पर भी । वैसे नित्यानंद प्रभु ने …
नदिया-गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन ।
पातियाछे नाम-हट्ट जीवेर कारण ॥1॥
अनुवाद:- (1) भगवान् नित्यानंद, जो भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का वितरण करने के अधिकारी हैं, उन्होंने नदीया में, गोद्रुम द्वीप पर, जीवों के लाभ हेतु भगवान् के पवित्र नाम लेने का स्थान, नाम हाट का प्रबन्ध किया है ।
आनंद प्रभु ने नाम हाट्ट खुले हैं ।
(श्रद्धावान जन हे, श्रद्धावान जन हे)
( हे सच्चे, वफादार वयक्तियों, हे श्रद्धावान, विश्वसनीय लोगों, हे भाइयों! )
श्रद्धा बांन लोग उस नाम हट्ट मैं आएंगे । हाट्ट मतलब दुकान/बाजार हाट्ट । मराठी में चलता है बाजार हाट्ट । तो नाम हाट्ट । पवित्र नाम का बाज़ार । तो नित्यानंद प्रभु ने शुरू किया था जब चैतन्य महाप्रभु में नित्यानंद प्रभु को आदेश दिया था जाओ …दरवाजे से दरवाजे तक आ जाओ बंगाल को और हरी नाम को प्रचार करो । मैंने तो भविष्यवाणी की है । “सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम” उसे सच करके दिखाओ । हे नित्यानंद , हे हरिदास । तो उसी योजना को आगे भक्ति विनोद ठाकुर आगे बढ़ाएं । श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर । गलती कुछ भक्ति विनोद ठाकुर उन दिनों में भी यह बंगाल में सिर्फ चल रहा था हरि नाम का प्रचार प्रसार । तो श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर गोडिय मठ के स्थापना कीए । और सारे भारत भर में फैलाएं । भारत में 60 गोडिय मठ की स्थापना किये ।और 4 मठ भारत के बाहर विदेशों में 4 मठ । तो इस प्रकार 64 मठो कि स्थापना किए श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर । और फिर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर 1992 में कोलकाता में अभय बाबू से कहें तुम बड़े बुद्धिमान लगते हो, तुम अंग्रेजी भाषा में विदेश में प्रचार करो । तो उस आदेश का पालन करने के लिए पूरे जीवन भर तैयारी कर रहे थे अभय बाबू । फिर 1922 में अभय बाबू थे लेकिन फिर 1932-1933 में “अभयचरणारविंद” अभयचरण बने ।
उनका नाम “अभयचरणारविंद” और फिर मुझे याद आ रहा है कि 1950 में वैष्णव ने उनको भक्ति वेदांत उनको एसी पदवी दी “भक्तिवेदांत” । 1958 में सन्यास लिए तो, तो फिर हुआ । तो स्वामी भी जुड़ गया तो इस प्रकार उनके नाम ‘अभयचरण’ था ‘अभयचरणारविंद’ भक्तिवेदांत’ हो गए और फिर सन्यास लिए ‘अभयचरणारविंद’ या अभयचरण को संक्षिप्त में ‘अभयचरण भक्तिवेदांत स्वामी’ हो गए । और फिर विदेश में प्रचार पहुंचाए ‘भक्तिवेदांत स्वामी’ तो फिर पहले ‘स्वामी जी स्वामी जी’ विदेश के न्यू यॉर्क के युवक-युवतीयां । तो उन्होंने पता लगवाया की ‘भक्तिवेदांत स्वामी’ के गुरु महाराज को उनके शिष्यों प्रभुपाद उन्हें कहते थे । तो अब अमेरिकन शिष्यों ने भी 1 दिन मिले स्वामी जी से और कहेकी स्वामी जी स्वामी जी क्या हम आपको भी प्रभुपात कह सकते हैं ? तो स्वामी जी मान गए । तो फिर नाम हो गया ‘अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की ( जय ) । तो अभयचरण को या A.C संक्षिप्त में । यह AC मतलब एयर कंडीशन बगैरा कुछ संबंध नहीं है यहां । A.C मतलब अभय चरण । तो यह श्रील प्रभुपाद इस हरि नाम को, मतलब देखिए कैसे जो चैतन्य महाप्रभु की इच्छा जो घोषणा किए 500 वर्ष पूर्व । धीरे धीरे वह भविष्यवाणी सच की जा रही है । श्रील प्रभुपाद इसको और आगे बढ़ाया ।
फीर श्रील प्रभुपाद बन गए जैट् एज् परिब्राकाचार्य । जंबो जेट में ब्रह्मण करने लगे । और 14 बार सारे विश्व का भ्रमण किये । और जहां जहां गए वहां वहां ऐसी भगवान की व्यवस्था से ही ; वहां मांग रहा हरि नाम का, हरि नाम का तो हो या हरि की कहो मांग रही । हरि हरि !! उन जीवो में में कुछ भगवान ने कुछ ऐसी इच्छा लालसा प्रकट की । मांग थी उनकी । हमें कृष्ण चाहिए ! हमें कृष्ण चाहिए ! हमें कृष्ण प्रसाद चाहिए । हमको यह चाहिए प्राचीन भारत की संस्कृति हमें चाहिए । हम सुसंस्कृत होना चाहते हैं । सही मायने में । आधुनिक जगत के लोग असभ्य है । उसको सु संस्कृत कहा नहीं जा सकता । दुनिया कहे सही यह यह आधुनिक सभ्यताएं है । वास्तविक में हम और असभ्यता हो रहे हैं । तो इसीलिए पछता रहे हैं । और हताश हो रहे हैं । और हिप्पी बने थे । आधुनिक सभ्यताओं का परिणाम क्या ? वह आपको हिप्पी बनाता है । किंतु श्रील प्रभुपाद ने उन हिप्पीस् को दीया भगवान का नाम दीया , भगवान को दिया , भगवान का प्रसाद दिया , भगवान की गाय की रक्षा की , सेवा दी । थे गौ भक्षक, प्रभुपाद ने उनको गौ रक्षक बनाया । और …
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् ।
एको देवो देवकीपुत्र एव ॥
एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि ।
कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥
(गीता महात्म्य ७)
अनुवाद:- आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा ।
और दिया फिर वृंदावन धाम , मायापुर धाम दिए । उनको तो कुछ जेरूसलम या मैक्का पता था क्या महीमा है जेरूसलम का , क्या है मैक्का का ? वृंदावन,मायापुर धाम की तुलना में वह नगण्य है । उससे कुछ प्यास पूछ नहीं रही थी जीवात्मा की । हरि हरि !! तो श्रील प्रभुपाद ने इस हरि नाम का और भी आगे … या हम कह सकते हैं ‘अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ” का स्थापना करके संस्थापक आचार्य बने श्रील प्रभुपाद 1966 मे । यह सारी व्यवस्था किसलिए काकी इस्कॉन की भी व्यवस्था स्थापना हुई । यह मंच बन गया । और यह सब के पीछे उद्देश्य क्या है ? या लक्ष्य क्या है ? “पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम” मेरे नाम का प्रचार सर्बत्र होगा ।
चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति – पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लिला 20.12 )
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना ।
सङ्कीर्तन् आंदोलन के ( जय !) तो यह सब हम देख रहे हैं । इसी फोरम में इतने सारे भक्त जप कर रहें हैं । कितने नगरो कि , कितने ग्रामो से यहां एकत्रित हुए हो । मायापुर से बैठे हो । और कहां कहां से आप हो । नागपुर के हैं , सोलापुर हैं, पंढरपुर के हैं । कई सारे पुर भी हो गए , कई सारे नगर भी हो गए । कई सारे हरे कृष्ण ग्राम भी बन गए गांव । मारवाड़ी के भी हैं । और भी कई गांव के कहां कहां से हो आप ? सेक्स वीडियो गांव और नगर है । हमारे सामने ही बैठे हैं । कई सारे स्थानों से । 934 मॉरीशस के गांव के नगरों में, यहां थाईलैंड, बर्मा है , या नेपाल के भक्त जप कर रहें हैं । कुछ साउथ अफ्रीका से हैं , यूक्रेन के भक्त , रशिया जिनके रात अभी वह तो विश्राम कर रहे हैं । संध्या आरती की हो गई । संध्या आरती और मंगला आरती के बीच में कुछ विश्राम कर लेते हैं । तो कुछ विश्राम कर रहे हैं तो कुछ जगे हैं । यह सब उठते ही कीर्तन कर रहे हैं, गा रहे हैं । तो यह सब दृश्य देख के दिल खुश होता है । मेरा तो होता है ।
आपने तो कुछ कहा नहीं । लेकिन आप के मुख के हंसी से पता चल रहा है इतना तो देख रहा हूं । सुनता नहीं रहा हूं लेकिन मुख दिमाग का पटचित्र होता है । आप कीजिए शरीर के जो हाव भाव है से पता चलता है कि आप प्रसन्न होनी चाहिए । शुद्ध भक्त प्रसन्न हो कि नहीं ? प्रसन्न तो लग रहे हो । ठीक है ! चांट् हरे कृष्णा एंड बी हैप्पी ( हरे कृष्ण जप कीजिए और खुश रहिए ) । और औरों को भी खुश देखना चाहते हो ! चाहते हो कि या नहीं ? आप कौन हो ? पर दुखे दुखि या सुखी ? दो प्रकार के लोग होते हैं ! औरों का दुख देखकर कुछ लोग दुखी होते हैं । तो ऐसे भी राक्षस है आधुनिक सभ्यताओं के; असभ्यता के लोग पर दुखे सुखी । औरों का दुख देखकर सुखी हो जाती है । लेकिन आपतो वैष्णव हो ।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
( भगवत् गीता 5.29 )
अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है ।
आप औरों की मित्रों भी हो । औरों को सुखी देखना चाहते हैं तो उनको भी जप करने के लिए प्रेरित करो । यह देखो कहीं ना कहीं शुरुआत कर सकते हैं । जप से शुरू कर सकते हैं या गीता का अध्ययन से शुरू कर सकते हैं । मंदिर का दौरा शुरू कर सकते हैं । कहीं ना कहीं उनके अपनी श्रद्धा और समझ के साथ या जो भी उसके अनुरूप जिसके लिए वह तैयार है उनको जोड़िए । कृष्ण के साथ जब वहां जुड़ जाता है सभी सुखी हो जाते हैं । कृष्ण बहुत मीठी है । कृष्ण का नाम मीठा है , कृष्ण के गीतामृत है, कृष्ण के प्रसाद का क्या कहना ! कृष्ण के दर्शन मधुर है…
“मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं” तो देख लो । तो लगे रहो । ठीक है ।
॥ हरे कृष्ण ॥
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जप चर्चा – 16-06-2021
पंढरपुर धाम से
हरे कृष्ण !
आज 940 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। जय ! मधुर विट्ठल,
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।
अर्थ- मैं घोर अज्ञान के अन्धकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आखें खोल दीं । मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ । श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे जिन्होने इस जगत् में भगवान् चैतन्य की पूर्ति के लिये प्रचार योजना (मिशन) की स्थापना की है ?
आज प्रातः काल में मंगला आरती मैंने ही गायी या मंगला आरती का कीर्तन आपने सुना या नहीं सुना? आपने भी अपने-अपने मंदिरों में गायी होगी या अपने घरों में (आपके घर ही मंदिर हैं) गाने वाले होंगे। अतः सबको ध्यान पूर्वक गाने का, गायन करने का प्रयास हुआ हरि हरि ! जब ध्यान पूर्वक या प्रार्थना पूर्वक कुछ गाते हैं, कीर्तन होता है तो श्रवण होता ही है। तब हम प्रसन्न होते हैं क्योंकि कुछ भाव भी उदित होते हैं या कहो कि जो कुछ हम गाते हैं उसका भावार्थ समझ में आता है। भावार्थ के कुछ साक्षात्कार या अनुभव होते हैं जिसको हम गाते हैं, उसको जब हम ध्यान पूर्वक गाते हैं प्रार्थना पूर्वक गाते हैं तो ऐसा ही कुछ हो रहा था, फिर सोचा कि आज के जपा टोक में उसी की चर्चा करेंगे। मतलब टॉपिक होगा “गुरुअष्टक” गुरु जमा अष्टक गुरुअष्टक, अष्टक कई होते हैं कुछ समय पहले हम शिक्षाअष्टक पढ़ रहे थे गोस्वामीअष्टक, दमोदराष्टक, अष्टक ही अष्टक। इस अष्टक को गुरुअष्टक, गुरु का अष्टक कहते हैं। गुरुअष्टक, अष्टक 8 होते हैं। “वंदे गुरोः श्री चरणारविन्दं” इस अष्टक में यह गुरु की वंदना है। वंदे गुरोः श्री चरणारविन्दं” यह बात, यह भाव है। अहम वंदे, वंदे गुरोः श्री चरणारविन्दं, श्री गुरु के चरण कमलो की मैं वंदना करता हूं। वंदे गुरोः हम ही आपको याद दिलाते रहते हैं उच्चारण की बातें हैं वंदे गुरु नहीं कहना है। वंदे गुरु श्री चरणारविन्दं यह गलत हुआ वंदे गुरोः कहना है गुरोः ठीक है आप नोट कर रहे हो। वंदना करने वाले हम हैं जो गाते हैं , इसलिए अहम वंदे मैं वंदना करता हूं गुरोः चरणारविन्दं। अहम वंदे जैसे वंदे मातरम होता है वंदे मातरम, मतलब अहम वंदे अहम मातरम वंदे , मातरम, माता, पृथ्वी माता या भारत माता, माताएं अलग-अलग हैं सात प्रकार की माताएं हमारी संस्कृति में बताई हैं। एक एक अष्टक का यथासंभव स्मरण करेंगे। इस अष्टक में गुरोः की वंदना है, गुरोः की महिमा है, ऐसे गुरोः के चरणों की मै वंदना करता हूं। हर अष्टक में गुरु की महिमा या आचार्यों का महिमा का गान हुआ है और फिर हर वक्त कहा गया है वंदे गुरो श्री चरणारविन्दं। यह श्रील विश्वनाथ ठाकुर की रचना है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर प्रभुपाद की जय ! हमारी परंपरा के महान आचार्य रहे लगभग 300 वर्ष पूर्व की बात है। चैतन्य महाप्रभु के उपरांत हरि हरि ! बलदेव विद्याभूषण के समय, बलदेव विद्याभूषण, जिन्होंने गोविंद भाष्य लिखा, उनके गुरु ही थे श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर, जो एक समय गौड़ीय संप्रदाय के रक्षक, संरक्षक रहे। उनके यह विचार, यह भाव हैं इस गुरुअष्टक के रूप में, हरि हरि यह उनके साक्षात्कार हैं। शास्त्रों में जो वर्णन हुआ है आचार्यों के बारे में, उनकी महिमा का गान हुआ है उसी पर यह आधारित है। ये गुरुः तत्व भी है या गुरुःतत्व का उल्लेख हो रहा है। गुरु की महिमा का उल्लेख हो रहा है।
संसार-दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥
अर्थ – श्रीगुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) कृपासिन्धु (भगवान्) से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। जिस प्रकार एक मेघ वन में लगी हुई दावाग्नि पर जल की वर्षा करके उसे शान्त कर देता है, उसी प्रकार श्री गुरुदेव सांसारिक जीवन की प्रज्वलित अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
संसार-दावानल-लीढ-लोक,यह संसार कैसा है ?दावानल है। दावानल, मतलब जहां आग लगी हुई है। संसार को आग लगी हुई है, संसार दावानल लीड लोका मतलब पीड़ित होना संसार को आग लगी है और इस आग में यह संसार आग से पीड़ित है जब आग लगती है तो कुछ बुझाने की व्यवस्था होनी चाहिए। उस आग को बुझाने की व्यवस्था है गुरु और आचार्य। त्राणाय मतलब यह संसार पीड़ित है, त्रसित है, सारा संसार परेशान है। उनको कुछ राहत देने के लिए,उस कष्ट से मुक्त करने के लिए त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम् , करुणा का उपयोग होगा। गुरु की करुणा, श्री गुरु करुणा सिंधु ,अधम जनार बंधु, वह भी आगे कहा ही है घनाघनत्वम्, घन मतलब बादल, जब ग्रीष्म ऋतु होती है। यहां की गर्मी को शीतलता देने के लिए, ठंडक उत्पन्न करने के लिए कहो या राहत देने के लिए कहो , शीत आतप वात वारिषण फिर वर्षा की आवश्यकता होती है। तब बादल जिनको जलद भी कहते हैं कुछ ज्यादा तो नहीं कहूंगा नहीं तो यह अष्टक पूरा नहीं होने वाले हैं। जलद अर्थात जल देने वाला, इसीलिए बादल को जलद कहते हैं, जलद आ चुके हैं। गुरु बनते हैं जलद या बादल घनाघनत्वम् बादल जैसी जल की वृष्टि करते हैं या फिर कोई फॉरेस्ट फायर भी है। आग लगी है गर्मी के कारण या सचमुच आग लगी है तो उसको बुझाने के लिए यदि वृष्टि हो जाए तभी मामला समाप्त हो। त्राणाय कारुण्य- गुरु की ऐसी करुणा , प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य , यदि प्राप्त हो जाए, क्योंकि गुरु कैसे हैं ? गुणार्णवस्य अर्थात गुण अर्णव है। अर्णव मतलब सागर या समुद्र, गुणार्णव गुरु गुण की खान हैं, करुणा के सागर हैं, घनाघनत्वम् , वृष्टि हो जाए करुणा की, या ऐसी वृष्टि करते ही हैं। करुणा की दृष्टि की वृष्टि करने वाले गुरु के चरणों की मैं वंदना करता हूं। आगे बढ़ते हैं बढ़ना ही होगा।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥
अर्थ – श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
एक-एक करके गुरु के अष्टकों में,आचार्यों के एक एक कार्यकलाप , कि वे कैसे कैसे कार्य करते रहते हैं कैसे वह व्यस्त रहते हैं। आचार्य ने जगते सिखाये, अपने आचरण से सारे संसार को सिखाते हैं या अलग अलग सेवा में जोड़ देते हैं कौन-कौन सी सेवा या कार्य बताएं हैं। पहला है वे क्या करते रहते हैं ? महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत, महाप्रभु का कहो या महाप्रभु द्वारा सिखाया हुआ कहो यह कीर्तन है साथ में नृत्य भी है। वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन, उसी में तल्लीन रहते हैं कीर्तन श्रवण कीर्तन में नृत्य भी हो रहा है वादित्रमाद्यन्- मतलब वाद्य बज रहे हैं संकीर्तन हो रहा है। कीर्तन हो रहा है कीर्तन करते रहते हैं और जब वे कीर्तन करते रोमांचित होते हैं तब औरों को भी कराते हैं अर्थात औरों को भी ऐसे कीर्तन में जोड़ देते हैं या औरों के साथ भी कीर्तन करते हैं। वाद्य बज रहे हैं नृत्य हो रहा है फिर रोमांच हो रहा है -कम्पाश्रु- यह सारे भाव भी उदित हो रहे हैं -कम्पाश्रु-तरंग-भाजो ऐसा वह सब महसूस करते हैं। कई सारे भाव, उनके सर्वांग ऐसे भावों का कुछ दर्शन भी होता है वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।
फिर आगे बढ़ते हैं
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ। युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥3॥
अर्थ- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
अब वे विग्रह की आराधना करते हैं और करवाते हैं दोनों को समझना होगा। यहां लिखा है युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि , गुरु जन युक्त होते हैं। दे आर इकुप्ड उनको साथ या संग प्राप्त होता है। शिष्यों को, भक्तों को साथ में लेकर वे विग्रह की आराधना, राधा दामोदर, राधा गोविंद, राधा मदन मोहन, राधा पंढरीनाथ, राधा पार्थ सारथी, लाइक दैट विग्रह की आराधना करते हैं। आराधना के अंतर्गत श्रृंगार है फिर मंदिर मार्जन भी है। सारा श्रंगार सारा डेकोरेशंस, माल्यार्पण, पुष्प अभिषेक बहुत कुछ होता है विग्रह आराधना के अंतर्गत, आचार्य वृंद ऐसे व्यस्त रहते हैं। अतः विग्रह की आराधना में, ऐसे गुरुजनों की, आचार्यों के चरणों की मैं वंदना करता हूं। फिर कीर्तन भी करते हैं विग्रह की आराधना भी करते हैं और क्या-क्या करते हैं यह मोटे मोटे आइटम है। वैसे यह इस्कॉन की अलग-अलग एक्टिविटी भी है या अलग-अलग प्रकार की साधना है। नेक्स्ट आइटम है
चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥
अर्थ -श्री गुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात् चबाए जाने वाले, पेय अर्थात् पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले – इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
अपने लिए नहीं कुछ दिखा रहा पहले तो भगवान को भोग लगाएंगे, चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- अभी भोग लगाया, तो बन गया भगवत प्रसाद , क्या वैशिष्ट है गुरुजनों का इसके साथ क्या महिमा जुड़ी हुई है ? स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान् कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव, जब गुरु जन देखते हैं हरि भक्तों का संघ संघान मतलब कई सारे हरि भक्त, शिष्य या विजिटर्स वह भी भक्त हैं। कई बार हम कहते हैं नॉन डिवोटी देयर आर सम डिवोटी एंड सम नॉन डिवोटइस इनमें से कोई डिवोटी है और कोई नहीं वैसे सभी डिवोटीज ही हैं। सभी जीव वैसे भक्त ही हैं या हो सकता है उनका डिवोशन थोड़ा सुप्त अवस्था में हो ,उनको भी या औरों को जब प्रसाद लेते हुए गुरुजन देखते हैं तो कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव तब वे भी तृप्त हो जाते हैं। या मिड डे मील बच्चों की स्कीम चल रही है, अन्नामृत कोरोना वायरस की परिस्थिति में प्रसाद बांटा जा रहा है, जो प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं अन्यो को सभी को प्रसाद ग्रहण करते हुए देखकर वे प्रसन्न हो जाते हैं। फिर व्यवस्था भी करते हैं। यह सारी व्यवस्था भी है कीर्तन हो, तो कीर्तन की व्यवस्था करते हैं, सर्वत्र कीर्तन हो या नगर संकीर्तन हो, मंदिर के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। फिर विग्रह की आराधना मैं जोड़ देते हैं पूरे गांव को और फिर प्रसाद वितरण ,फूड फॉर लाइफ श्रील प्रभुपाद ने शुरू किया और जब देखते हैं यह प्रसाद वितरण हो रहा है तो वह देखने आते हैं कि कहां प्रसाद वितरण हो रहा है। वे स्वयं भी प्रसाद वितरण करते हैं या कहीं से रिपोर्ट आ रहे हैं प्रसाद वितरण की। चलो गोविंदा रेस्टोरेंट खोलो ताकि लोग ऑल ओवर द वर्ल्ड जो रेस्टोरेंट में आएंगे उनको भी युक्ति पूर्वक प्रसाद ही खिलाया जाएगा। ऐसी सारी व्यवस्था गुरुजन करते हैं ताकि अधिक से अधिक लोग प्रसाद ग्रहण करेंगे और जब वे लोग प्रसाद ग्रहण करते हुए उनको देखते हैं तब वे भी तृप्तिम प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसे गुरु के चरणों की मैं वंदना करता हूं।
ओके तो कीर्तन नृत्य इत्यादि हुआ खूब विग्रह की आराधना हो रही है विग्रह की आराधना के अंतर्गत यह 56 भोग या चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- भी है और उस प्रसाद का वितरण भी हो रहा है। अब और क्या-क्या करते हैं इस्कॉन में या वैष्णव संप्रदाय में, पांचवा अष्टक है।
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार- माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥
अर्थ- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
यह सभी महत्वपूर्ण है, कीर्तन भी महत्वपूर्ण है ,विग्रह आराधना, कृष्ण की आराधना और उससे अधिक क्या महत्वपूर्ण हो सकता है
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥ (श्रीमद भगवद्गीता 9.34)
अनुवाद- अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे।
मेरी आराधना करो मुझे नमस्कार करो लेकिन मन्मना भी है मेरा स्मरण करो तो क्या होता है राधा माधव या जो भी विग्रह है राधा माधव नाम लिया है हमारे परंपरा के या राधा माधव मायापुर में भी हैं। हरि हरि उनकी लीला का, नाम का, रूप का, गुण का, धाम का, परीकरों का, क्या करें? प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य, जो श्रवण कीर्तन करते हैं कथा कीर्तन में व्यस्त हैं तल्लीन हैं कीर्तनीय सदा हरी चल रहा है और नित्यम भागवत सेवा भी चल रहा है श्रवन्ति गायन्ति भी चल रहा है, कथाएं कीर्तन हो रहे हैं, यह कथाएं कीर्तन या नाम रूप गुण लीला का कीर्तन करते हैं और करवाते हैं। पहले करते हैं फिर अन्य लोगों को और भक्तो को सुनाते हैं। फिर उनको आदेश देते हैं
यारे देख, तारे कह ‘कृष्ण’-उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हा तार’ एइ देश ॥
अनुवाद “हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।”
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा या सुनो सुनो हरिदास !सुनो नित्यानंद ! प्रति घरे केय जाय, सभी घरों में जाओ डोर टू डोर और लोगों को जगाओ जीव जागो! जीव जागो ! और फिर ग्रंथों का वितरण करो, जिसमें कथा है लोग पढ़ेंगे या जब इकट्ठे होंगे , कुछ कथा कुछ उपदेश सुनाओ। उनको मंदिर में बुलाओ हरि हरि ! यह बड़ा पार्ट है यह *माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्, प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य इसका आस्वादन करते हैं। भगवान की लीला कथा करते हैं और फिर करवाते हैं ऐसे गुरुजनो के चरणों की मैं वंदना करता हूं और आगे बढ़ते हैं
निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया।तत्राति-दक्ष्याद् अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥6॥
अर्थ- श्रीगुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्री श्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यन्त श्रेष्ठता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
यह और भी ऊंची बात है निकुंज यूनो मतलब युवक और युवती निकुंज में विराजो घनश्याम राधे राधे, तो निकुंज में विराजित युवक और युवती , किशोर और किशोरी रति-केलि-सिद्धयै और वहां उनकी रति केली या हो सकता है जल केली कुछ प्रेम केली संपन्न हो रही है. निकुंजो में तब आचार्य वृंद क्या करते हैं ? ऐसा उनका संबंध है या स्वरूपेण व्यवस्थिति अपने स्वरूप में जब वे स्थित होते हैं तो उस स्थिति में वे राधा कृष्ण की लीला की सिद्धि में, उनके मिलन में और उस लीला को संपन्न करने में सफलतापूर्वक उस में सम्मिलित होते हैं। ऐसे आचार्य हैं अभी वे पधार चुके हैं इस धरातल पर धर्म की स्थापना के लिए आते हैं ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
लेकिन कुछ आचार्य ऐसे होते हैं जो स्वयं जैसे षड गोस्वामी वृंद हैं जो स्वयं ही गोपियां हैं मंजरियाँ हैं। यह क्या करती हैं मंजरियाँ ?या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया। यालि मतलब गोपियाँ यलि मतलब भ्रमर यालि गोपी अकारांत होगा तो गोपी होगा नोट करो ताकि आप जब पढ़ोगे संस्कृत के श्लोक वगैरह तो आपको समझ में आ सकता है कि यहां पर भ्रमर की बात हो रही है या गोपी की बात हो रही है। युक्तिर् अपेक्षणीया गोपियां आचार्य गण क्या करते हैं ? गोपियों की सहायता करते हैं जो गोपियां भगवान की सेवा कर रही हैं ऐसे गोपियों की सहायता करते हैं। ललिता विशाखा आदि जट सखी वृंद चरणारविन्दम् उनके सखी ललिता विशाखा और जो गोपियां हैं उनका काफी बड़ा नेटवर्क है। तत्राति-दक्ष्याद् अतिवल्लभस्य जहां पर यह लीलाएं संपन्न हो रही है उनको निकुंजो में किशोर किशोरी की और अष्ट सखियां गोपियां सहायता कर रही हैं। तत्र मतलब वहां पर लीला में तत्राति-दक्ष्याद् , गुरु जन आचार्य वृंद अति दक्ष होते हैं कुशल होते हैं वेरी-वेरी एक्सपोर्ट वे दक्ष भी हैं अति दक्षता और साथ ही साथ अतिवल्लभस्य दक्ष भी हैं अति वल्लभ भी हैं मतलब प्रिय भी हैं। डियर टू कृष्णा डियर टू राधा , कृष्ण के प्रिय हैं ऐसे गुरुजनों कि मैं वंदना करता हूं।
साक्षाद्-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः। किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥7॥
अर्थ- श्रीभगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्री गुरुदेव को स्वयं श्रीभगवान् ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी श्रुति-शास्त्र व प्रामाणिक अधिकारिओं ने स्वीकार किया है। भगवान् श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे अतिशय प्रिय प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
उनकी पोजीशन क्या है ? वे साक्षाद्-धरित्वेन, धरित्वेन इनसे हरित्वेन हुआ तृतीय विभक्ति में , तो समस्त शास्त्रों में उल्लेख हुआ है उक्तस्तथा मतलब कहां है? समस्त शास्त्रैः में ,साक्षाद्-धरित्वेन, साक्षात हरि हैं क्योंकि हरि का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए उनको पदवी साक्षात हरि की दी है। जैसे प्रधानमंत्री का कोई प्रतिनिधि आता है, आपके घर आए तो, मानो प्रधानमंत्री आ गए। प्रधानमंत्री का कोई प्रतिनिधित्व करते हुए, तब आप उनका वैसे ही स्वागत सम्मान सत्कार करोगे, मानो स्वयं प्रधानमंत्री का ही कोई संदेश उपदेश आपके लिए कुछ भेंट लेकर आए हैं। आप उनका स्वागत सम्मान सत्कार करते हो। वैसे ही प्रतिनिधि का जिसका वह प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। साक्षाद्-धरित्वेन और यह सब सभी शास्त्रों में कहा है उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः, मतलब साधु संग महात्मा संतो के द्वारा भी ऐसे ही कहा है या दूसरे शब्दों में शास्त्रों में कहा है साक्षाद्-धरित्वेन इसका उल्लेख शास्त्रों में हुआ है और सब विधि संतो के द्वारा भी इस बात की पुष्टि की हुई है कि हां! हां! साक्षात हरी है किंतु रुको ! रुको! डोंट मिसअंडरस्टैंड, इसी का फायदा उठाते हैं कुछ लोग आई एम गॉड और मैं फलाना भगवान हूं भगवान हूं भगवान हूं क्योंकि साक्षाद्-धरित्वेन कहा है शास्त्रों में तो घोषित करते हैं कि हां हां यह भगवान है यह जो गली में घूमते रहते हैं कई सारे भगवान कोई शॉर्टेज नहीं है लेकिन यह प्रतिनिधि भगवान के प्रिय हैं इसलिए साक्षाद्-धरित्वेन मतलब भगवान के दास हैं भगवान के सेवक हैं। भगवान के प्रिय हैं हमने तो कहा ही था अतिवल्लभस्य यह भगवान के प्रिय हैं। यहां प्रभु पाद कहा करते थे आई एम नॉट गॉड ,यू आर नॉट गॉड ,वी आर ऑल इंटरनल सर्वेंट ऑफ गॉड, मैं भगवान नहीं हूं यह घोषणा किया करते थे आप भी भगवान नहीं हो। हम सभी भगवान के नित्य दास हैं तो वही बात है. किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य यह किंतु आ गया, वह प्रिय है भगवान के अति प्रिय व्यक्ति हैं। अंतिम अष्टक है
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि। ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥
अर्थ -श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए।
इनका प्रसाद मिल जाए यस्य मतलब जिनका यस्यप्रसादाद् जिनका प्रसाद प्राप्त हो जाए, भगवदप्रसादो फिर भगवान का प्रसाद प्राप्त होगा। इनकी कृपा होगी तो फिर भगवान की कृपा होगी। इन्होंने रिकमेंड किया फिर भगवान स्वीकार करेंगे इनकी सेवा को या इन्ही को, किंतु यस्याऽप्रसादन्न् इनकी कृपा नहीं होंगी या इनका अनुग्रह नहीं होगा यस्यप्रसादाद् ऊपर कहा है दूसरी पंक्ति में कहा है यस्य अप्रसादन आपको यह नोट करना है और ऐसा कहना ही होगा लिखा तो है ही यस्याऽप्रसादन्न् यस्य प्रसादं यस्य मतलब जमा, ऽप्रसादन्न् अ मतलब नहीं, की बात है। इनका प्रसाद यह प्रसाद की कृपा प्राप्त होगा तो भगवान का प्रसाद प्राप्त होगा और इनकी कृपा प्रसाद दृष्टि हम पर नहीं पड़ेगी तो न गति कुतोऽपि। फिर कोई गति नहीं है। नो फ्यूचर अपने गंतव्य स्थान तक हम नहीं पहुंचेंगे। जो गोइंग बैक टू गॉड हेड भी है या कृष्ण प्रेम प्राप्ति पंचम पुरुषार्थ प्राप्ति लक्ष्य है। उस लक्ष्य तक न गति कुतोऽपि , अभी किसी हालत में ऐसी गति ऐसी सद्गति नहीं होगी मतलब अधोगति होने की संभावना है। सावधान! और फिर बिल्कुल अंतिम वचन है ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं , ऐसे गुरुजनों का मैं ध्यान करता हूं ध्यायन या ध्यान करते हुए स्तुति गान करते हुए यशस्त्रि-सन्ध्यं यशोगान करते हुए मतलब संध्या का उल्लेख है तीन बार तो करता ही हूं मैं प्रातः मध्यान्ह सांयकाल जो त्रि संध्या है वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्वं। ओके ठीक है
निताई गौर प्रेमानंद
हरि हरि बोल आप और भी देखो, इसको पढ़ो ,सुनो और सीखो समझो, उसका अर्थ भी भावार्थ भी और गूढ़ अर्थ भी और फिर ऐसी समझ के साथ फिर वंदना संभव है। वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्वं जो आप कहते रहते हो गाते रहते हो तो समझ के साथ गाओ।
श्रील प्रभुपाद की जय!
हरी बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
15 जून 2021
913 स्थानों से आज जप हो रहा है । गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल । ओम नमो भगवते वासुदेवाय । भागवतम का श्लोक पढेंगे इसीलिये ओम नमो भगवते वासुदेवाय कहा । श्रीमद्भागवत तृतीय स्कंध , अध्याय नववा और श्लोक संख्या 5 है । स्वजन शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति अध्याय का शीर्षक है , और स्वयं ब्रह्मा जी यह स्तुती कर रहे हैं , और भगवान के उपस्थिति में यह स्तुति कर रहे हैं , वहां भगवान उपस्थित है । भगवान प्रत्यक्ष है , समक्ष है और स्तुति हो रही है । यह सृष्टि नहीं हुई है , ब्रह्मा की यह सृष्टि हुई है और ब्रह्मा आगे सृष्टि करेंगे। सर्ग उपसर्ग , आगे उस समय ब्रह्मा ने भगवान से कहा । मानो जो बात कहने वाले हैं भगवान को पता नहीं है ऐसी तो बात नहीं है , फिर भी स्तुति कर रहे हैं । आप ऐसे हो या कुछ विशेष बात ब्रह्मा जी ने कही है । शास्त्र का महिमा , शास्त्र की उपयोगिता , शास्त्र का श्रवण इससे क्या प्राप्त नहीं होता ? सब कुछ प्राप्त हो सकता है । यहां तक कि दर्शन भी हो सकता है , केवल दर्शन ही नहीं ,भगवान को स्पर्श भी कर सकते हैं । शास्त्र के वाणी को सुनकर या पढ़कर । इसको हम आगे कहेंगे लेकिन पहले ब्रह्मा जी को सुनते हैं । आप किस को सुन रहे हैं ? आज के वक्ता कौन हैं ? ब्रह्मा ! ब्रह्मा है कि नहीं?( हंसते हुए ) हमारी शुरुआत यहां से होती है , ब्रह्मा है कि नहीं ? ब्रह्मा है और ब्राह्मलोग भी हैं । ब्रह्मा ने कहा ,
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् । भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥
(श्रीमद्भागवत 3.9.5)
अनुवाद पढ़ते है , हे प्रभु , संबोधन हो रहा है , हे प्रभु । आपको ध्यान से सुनना होगा ,एक एक अक्षर सुनना होगा , इस मे एक फो वाक्य है तो जितने भी वाक्य है , जितने भी शब्द है , उन शब्दों में जितने भी अक्षर है, अक्षर अक्षर की सुनना होगा , कुछ भी छोड़ना नही है । हे प्रभु , जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्ध को अपने कानों के द्वारा सूंघते हैं ,
पता नही आपने पूरा सुना कि नहीं ? पूरा भाषांतर समझा कि नहीं ? समझाएंगे आपको ।
वे आपकी भक्ति – मय सेवा को स्वीकार करते हैं । उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते ।
तात्पर्य पढ़ लेते है , भगवान् के शुद्ध भक्तों के लिए भगवान् के चरणकमलों से परे कुछ भी नहीं है । है कुछ भी ? नही है । और भगवान् जानते हैं कि ऐसे भक्तों को उससे अधिक कुछ चाहिए भी नहीं । तु शब्द विशेष रूप से इस तथ्य को स्थापित करता है । भगवान् भी उन शुद्ध भक्तों के हृदय – कमलों से विलग होना नहीं चाहते । शुद्ध भक्त तथा भगवान् के बीच का यह दिव्य सम्बन्ध होता है । चूँकि भगवान् ऐसे शुद्ध भक्तों के हृदयों से विलग नहीं होना चाहते , अत : यह समझा जाता है कि वे निर्विशेषवादियों की अपेक्षा उन्हें विशेष रूप से अधिक प्रिय हैं । भगवान् के साथ शुद्ध भक्त का सम्बन्ध इसलिए विकसित होता है , क्योंकि भक्त द्वारा वैदिक प्रमाण के वास्तविक आधार पर भगवान् की भक्तिमय सेवा की जाती है । ऐसे शुद्ध भक्त संसारी भावनावादी ( भावुक ) नहीं होते , अपितु वे वस्तुतः यथार्थवादी होते हैं , क्योंकि उनके कार्यों का समर्थन उन वैदिक अधिकारियों द्वारा होता है जिन्होंने वैदिक ग्रन्थों में उल्लिखित तथ्यों को श्रवण करके ग्रहण किया है । परया शब्द अत्यन्त सार्थक है । पराभक्ति या ईश्वर का स्वतःस्फूर्त प्रेम भगवान् से घनिष्ठ सम्बन्ध का आधार होता है । भगवान् के साथ सम्बन्ध की यह चरमावस्था प्रामाणिक स्रोतों से यथा भगवद्गीता तथा भागवत से , भगवान् के विषय में ( उनके नाम , रूप , गुण , इत्यादि ) भगवान के विशुद्ध भक्तों के मुख से सुनकर प्राप्त की जा सकती है ।
तात्पर्य समाप्त हुआ ।
इस श्लोक में इस वचन में ब्रह्मा ने क्या कहा है ? यहां तात्पर्य पढ़ लिया किंतु मेरा ध्यान और मुझे आकृष्ट कर रहा था जब मैंने यह श्लोक कल पढ़ा । मैं उस बात की और भी आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं या उस बात को भी आप लिख ले । श्रील प्रभुपाद ने भी तात्पर्य में संकेत किया है । ब्रह्मा जी कह रहे हैं ये मतलब जो लोग , क्या करते हैं ?
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् ।
ब्रह्मा जी कह रहे हैं , आपके चरण कमल , त्वदीयचरणाम्बुज इसको भी लिख लेना । एक-एक शब्द को लिखना है । त्वदीय मतलब आपके , आपके क्या ? आपके चरण । और आपके चरण कैसे
हैं ? त्वदीयचरणाम्बुज , अंबुज कमल सदृश है । आपके चरण कमल , चरण कमली कहते हैं । हस्त कमल , चरण कमल और फिर वह अगर कमल है , कमल सदृश है तो उसमें फिर गंध भी होना चाहिए । कोशगन्धं , आपके चरण कमल का जो सुगंध है । समझ में आ रहा है ? एक तो आपके चरण कमल है । प्रभुपाद ने लिखा है , भगवान निर्गुण निर्विशेष नहीं है , भगवान सविशेष है , भगवान का रूप है , नाम है , गुण है , लीला है , धाम है । भगवान है , भगवान का रूप है और यहां चरण कमल है । चरण कमल सदृश है , कमल का वैशिष्ट क्या होता है ? वह सुगंधीत होता है । दिखने में भी सुंदर और सुंघने भी सुगंधित होता है । आप देखिए कि अभी आगे ब्रह्मा जी क्या कह रहे हैं , आप ऐसे हो , आपके चरण कमल ऐसे हैं , इसमें सुगंध भी है । आगे क्या होता है ?
जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् भक्तवृंद आपके चरण कमल का जो सुगंध है उसको सूंघ लेते हैं । आपके चरण कमल को सूंघ लेते हैं । कब और कैसे ? कर्णविवरैः एक तो कान से सूंघ लेते हैं । यह अंतर है या यह विशेषता है आपके चरण कमलों के गंध हो भक्त कानों से सूंघ लेते हैं । कानों से कैसे सूंघते हैं ? श्रुतिवातनीतम्
श्रुति , शास्त्र को श्रुति कहते हैं । एक श्रुति शास्त्र ,एक स्मृति शास्त्र। श्रुति शास्त्र का जो वात है , वायु है या शब्द है । श्रुति के शास्त्र के जो वचन है । जो वचन भगवान के चरण कमलों का वर्णन कर रहे हैं और भगवान के चरण कमलों के सुगंध का वर्णन कर रहे हैं ऐसे वचन , ऐसे शब्द इसको श्रुति , श्रुतिवात कहां है ।
शब्द योनि वात , नित मतलब ले जाना । नेता होता है , हमको ले जाने वाले । हमारा नेतृत्व करने वाले , ले जाने वाला। शास्त्र श्रुति वात , शास्त्र के जो वचन है , जो वर्णन करते हैं वह ध्वनि जब कर्णविवरे कानों के माध्यम से आत्मा तक पहुंच जाते हैं । सुनने वाला तो आत्मा ही होता है , आत्मा जब सुनता है तो आत्मा उसको सूंघता है । क्या सुनने के बात है ? जो पच्शती की बात है फिर पहचानते की बात तो होती है,
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जा नं वा गुणान्वितम् |विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ||
(श्रीमद्भगवद्गीता15.10)
अनुवाद:-मूर्ख न तो समझ पाते हैं कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है, न ही वे यह समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है । लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान से प्रशिक्षित होती हैं, वह यह सब देख सकता है ।
वही शास्त्रों की बात सुन ली तो पपश्चन्ति देखते हैं । सुनते हैं , देखते हैं , स्पर्श करते हैं हमारी इंद्रियों से ज्ञानेंद्रियों से , आत्मा की भी ज्ञान इंद्रियां है । इंद्रिय अनुभव करते हैं , इंद्रियों को ध्यान होता है , इंद्रियों को साक्षात्कार होता है । फिर आँखे देखती है , सुनने से
श्रुतिवातनीतम् आंखें देखती है आत्मा की आंखें देखती है ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचने सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।यंश्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥
(ब्रम्हसंहिता 5.58)
अनुवाद:-जो स्वंय श्यामसुंदर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रञ्जित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अन्तर्हृदय में दर्शन करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
संत महात्मा देखते हैं । सुनते हैं , सुनते सुनते देखते हैं या वह शब्द दिखाते हैं । वैसे लव और कुश जब रामायण गाती , रामायण गा रहे थे तब अलग-अलग वनों में जहां भी वह रामायण की कथा करते तो ऋषि मुनि सुनते थे , वह अपना अनुभव कहते हैं ऐसा रामायण में लिखा है , “आप तो यह सारी बातें सुना रहे हो , यह सारी बातें लीला सुना कर आप हमें दिखा रहे हो , हमें लगता है कि हम लीला देख रहे हैं , आप तो उस लीला को सुना रहे हो लेकिन हमारा तो अनुभव यह हो रहा है कि हम उस लीला को देख रहे हैं । सुना के आप हमको लीला दिखा रहे हो ।” ऐसा वह ऋषि मुनि अपना अनुभव कहते हैं ।
ऑडियो हो रहा है , लेकिन ऑडियो वीडियो में परिणत हो रहा है । इस प्रकार सभी जो आत्मा की ज्ञानइन्द्रिया है , श्रवण से अलग-अलग इंद्रियों को अलग-अलग ज्ञान होता है । भक्तिरसामृतसिंधु में एक यह भी उदाहरण मिलता है , श्रील प्रभुपाद ने लिखा है या किसी आर्चक या आराधक , आराधना करने वाला एक ब्राह्मण , बेचारा थोड़ा गरीब ही था । कुछ अधिक साधन सामग्री जुटा नहीं सकता था तो एक समय उसने मन ही मन में भगवान की विशेष आराधना करने का संकल्प किया । मन ही मन में वह क्या कर रहा था ? जैसे शास्त्रों में कहा है ,
कैसे आराधना होती है उसका पालन कर रहा था
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् । भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥५ ॥ श्रीमद्भागवत 3.9.5
अनुवाद:- हे प्रभु , जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्ध को अपने कानों के द्वारा सूंघते हैं , वे आपकी भक्ति – मय सेवा को स्वीकार करते हैं । उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते ।
श्रुतिवातनीतम् अर्चना पद्धति भी शास्त्र है यहां यदुनंदन आचार्य आरती उतार रहे हैं अर्चना हो रही है पुणे में ऐसा है तू मन से ही गए गंगा गए जमुना गए सरस्वती गए और सारा जल इकट्ठा किया भगवान का अभिषेक किया भगवान का श्रृंगार हुआ फिर भगवान के लिए उन्होंने खीर बनाई तो ख़िर जब पिलानी होती है रात्रि को खीर बना के रखें मंगलबाल को भगवान को खिलाएंगे प्रातःकाल जब भगवान को खीर खिलाने थी और ख़िर ठंडी होने से और भी मीठी होती है।
ऐसा अनुभव है तो वह देखना चाहते थे कि अभी ठंडी हुई कि नहीं थोड़ा स्पर्श करके देखना चाहते थे अभी ख़िर पकाने के बाद की बात बता रहा हूं कहानी बता रहा हूं तो फिर ठंडी है कि नहीं यह देखना चाह रहे थे यह सब मन में हो रहा है। इसका ध्यान हो रहा है ऐसे शास्त्रों के वचन है श्रुतिवातनीतम् कैसे-कैसे अर्चना होती है अर्चना करनी होती है भगवान को खीर खिलानी चाहिए ख़िर ठंडी होनी चाहिए तो ठंडी है कि नहीं है देखने के लिए उन्होंने जब उन्होंने स्पर्श किया तो उनका हाथ जल गया उंगली जल गई क्योंकि वो ख़िर इतनी ठंडी नही थी गरमा-गरम मामला था गर्म ही थी तो उनका हाथ जब जल गए तो उनकी समाधि टूट गई तो देखते हैं तो उनकी उंगली सचमुच जल गई है और वह अनुभव कर रहे थे कि यह गर्म है खीर और यह बात भगवान बैकुंठ में लक्ष्मी के साथ हैं उन्होंने देखा यह ब्राह्मण की उंगली जल गई तो वह हस रहे थे तब लक्ष्मी जी ने पूछा प्रभु जी प्रभु जी क्यों हंस रहे हो तब भगवान ने कहा वो देखो उधर सोलापुर में तो केवल वह सुन रहे थे स्मरण कर रहे थे सुनने के उपरांत स्मरण होता है वह स्मरण फिर दर्शन है साक्षात्कार है ऐसे साक्षात्कार संभव है। जब कर्णविवरैः कानों से जब कथा का कानों में प्रवेश होता है। श्रुतिवात हवा का या ध्वनि का जैसे यह हवा बह रही हैं ऐसे नहीं उसमें ध्वनि होती है शब्द है शब्द से कानों से जब हम शास्त्रों के वचन जब सुनते हैं। तो उन वचनों के मदद से हम देख सकते हैं सूंघ सकते हैं स्पर्श कर सकते हैं शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध यह पांच अनुभव होते हैं ज्ञानेंद्रियां 5 है तो पांच प्रकार के अनुभव है यह इंद्रियों के विषय होते हैं इंद्रियों के ज्ञानेंद्रियों के यह विषय है शब्द एक विषय है शब्द सुन लिया फिर स्पर्श यह अनुभव है साक्षात्कार है शब्द स्पर्श रूप रूप मतलब दर्शन देखना है यह एक साक्षात्कार है शब्द स्पर्श रस टेस्ट एक अनुभव है गंध जो पृथ्वी से उत्पन्न होता है तो यह अनुभव संभव है यह दर्शन संभव है कहोकर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् हम यही पर हैं यहीं बैठे बैठे हम जब सुनते हैं पढ़ते हैं।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ | ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि || २४ || भगवद्गीता 16.24
अनुवाद:-अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है । उसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके।
तस्माशास्त्रं प्रमाणं ते वैसे कृष्ण ने कहा हैं शास्त्र है प्रमाण यह श्रुति शास्त्र या वेद स्वयं सिद्ध है।
इन्होंने जो भी कहा है वह सच ही कहा है सच के अलावा और कुछ नहीं कहा है तो जब हम उनको सुनते हैं श्रद्धा के साथ सुनते हैं।
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥१८ ॥
श्रीमद्भागवत 1.2.18.
अनुवाद:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी
यह भागवत का श्रवण गीता का श्रवण गीता भागवत करिती श्रवण अखंड चिंतन विठोबा चे तूका मन्हे जो भी गीता भागवत का अध्ययन श्रवण करेगा उसको चिंतन होगा ध्यान होगा उसकी समाधि लगेगी बाह्य ज्ञान नहीं रहेगा वह तल्लीन होगा।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||
भगवद्गीता 10.9
अनुवाद:-मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | उसका चित्त भगवान में लगा रहेगा भगवान में चित्त और फिर बाकी सब बातों की सुध बुध नहीं रहेगी वह कौन थी वो हा यज्ञ पत्नियां थीं वृंदावन की यज्ञ पत्नियां यज्ञ करने वाले जो कर्मकांडी ब्राह्मण थे फिर उनकी पत्नियां तैयार हुई कृष्ण भूखे है कृष्ण को भूख लगी है तब ब्राम्हणोंने कुछ भी नही दिया। सब कुछ देना तो दूर रहा
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः || २६ ||
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ |
भी नहीं दिया फुल नहीं फुलाची पाखड़ी मराठी में कहते हैं फूल भी नहीं दिया और फूल की पंखुड़ी भी नहीं दी तो फिर कृष्ण के मित्र गए उनकी पत्नियों के पास कृष्ण यहां बगल में ही अशोक वन में है और उनको भूख लगी है ऐसा भू शब्द सुनते ही ख तो कहने के पहले ही वह सारी स्त्रियां चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद-
स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्।
चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद-
स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्।
कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥
श्री गुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात् चबाए जाने वाले, पेय अर्थात् पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले – इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
भगवत प्रसाद या भोग चार प्रकार का कुछ खाने का कुछ पीने का कुछ चबाने का ऐसे छप्पन भोग लेकर दौड़ पड़ी जहां कृष्ण थे लेकिन कृष्ण तो अकेले नहीं थे बहुत बड़ी भीड़ थी ग्वाल बालकों की भीड़ थी कृष्ण को भूख लगी है तो कृष्ण को कैसे पहचाना जाए तो यह भी कृष्ण नहीं है यह अभी कृष्ण नहीं है ये भी नहीं है तो फिर वो सीधे-सीधे आगे बढ़ती गई और फिर कृष्ण उन्होंने ढूंढ निकाला कृष्ण कैसे त्रिभंग ललित खड़े थे और उनका हाथ बलराम के कंधे पर था और वह श्याम सुंदर और मुरलीधारण किए है मोर मुकुट है।
बंसी विभूषित करात् नवनीरद आभात् पीताम्बरात् अरुण बिंबफल अधरोष्ठात् । पूर्णेन्दु सुंदर मुखात् अरविंद नेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्वं अहं न जाने ।।
अनुवाद :- जिनके कर – पल्लव वंशी – विभूषित हैं , जिनके सुंदर शरीर की आभा नए बादलों जैसी घनश्याम है , जिन्होंने पीताम्बर धारण किया हुआ है , जिनके अधरोष्ठ सूर्य के समान अरुण रंग के फल जैसे हैं , पूर्णेन्दु चन्द्रमा के समान जिनका अतुलित सौन्दर्य – माधुर्य है , जिनके नेत्र कमल – दलतुल्य हैं , ऐसे कृष्णचन्द्र परमानन्द के तुल्य और कोई वस्तु है ही नहीं । सच्चिदानन्दघन आनन्दकन्द परमानन्द श्रीकृष्णस्वरूप से भिन्न कोई तत्त्व है ऐसा में नहीं जानता । श्रीकृष्णस्वरूप ही सर्वोपरि तत्त्व है ।
पितांबर वस्त्र पहने हैं बिंबफल अधरोष्ठात् भगवान के होठ लाल जैसे बिंब का फल वृंदावन में एक विशेष फल मिलता है लाल होता है फल वैसे ही उनके होठ थे बंसी विभूषित करात् नवनीरद आभात् और उनके हाथ बंसी से सुशोभित थे तो वह क्या कर रही थी उन्होंने जो जो वर्णन सुना था कृष्ण के सौंदर्य का रूप का वर्णन उन्होंने सुना था पढ़ा था पहले तो जब यहां आई है और कृष्ण को ढूंढा है तो उनको खोज रही है जिनके बारे में सुना था वह कैसे दिखते हैं किस वर्णों के वस्त्र पहनते हैं तब उन्होंने इसी प्रकार से सभी ओर देखा यह भी नहीं है यह भी नहीं है ये भी नहीं है फिर उन्होंने पहचान लिया हा यही है कृष्ण फिर खूब उनको प्रसाद खिलाया बिठाके तो जैसे सुना था जैसे पढा था राधा कृष्ण के संबंध में वैसे ही कृष्ण दिखे थे कोई भेद नहीं था। यह चतुर कुमार चार कुमार है उनके संबंध में भी कहा जाता है वह भी जब द्वारपाल के पास गए और फिर भगवान भी वहां आये अति आवश्यकता थी हंसते हुए तो उन्होंने भगवान को पहचान लिया वह जहां भी थे उन्होंने भगवान का वर्णन सुनाया था भगवान कैसे दिखते हैं तो मन ही मन में उन्होंने देखा था वैसे उनका दर्शन किया था तो जब वह वैकुंठ गए तो उनको शाश्वती हो गए कि वैसे ही जैसे कि तैसे कुछ भी अलग नहीं थे वैसे ही कृष्ण दिखे वहा विष्णु नारायण दिखे ऐसी व्यवस्था भगवान ने ही की है।
हम मनुष्य को भगवान ने यह शास्त्र दिए हैं शास्त्र नहीं होते तो फिर हम यहीं के यहीं रह जाते कुछ भी हम को पता नहीं चलना था भगवान है कि नहीं है तो वह कैसे हैं कैसे दिखते हैं और उनका अंग कैसे सुगंधित है और यह है वह है और केवल शास्त्र भगवान के रूप का भी वर्णन या अनुभव नहीं कराता दर्शन नहीं कराता धाम का वर्णन है भगवान के परिकरो का वर्णन है परिकरों के साथ जो खेल खेलते हैं। उनका वर्णन है इस प्रकार शास्त्रों की मदद से शास्त्र योनित्वा शास्त्र योनि है शास्त्र स्त्रोत है सोच है ज्ञान का स्रोत है शब्द योनित्वा कहां है शब्द है योनि और ऐसे शब्द से वैसे सृष्टि भी होती हैं। यह शब्द का बहुत खेल है या शब्द परब्रह्म शब्द ब्रह्मा भी है ऐसा भी वचन है और भगवान कैसे वांग्मय मूर्ति है वाङ्ग मतलब वाक्य जैसे श्रीमद्भागवत है यह श्रीमद्भागवत वाङ्गमय मूर्ति है। भगवान का वीग्रह है इन वाक्यों से ही भगवान प्रकट होते हैं। यह वाक्य वचन भगवान से अलग नहीं है और यह सारा जो ज्ञान है साक्षात्कार है यह इसकी विधि है।
तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि । नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि यत् शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ ११ ॥ श्रीमद्भागवत1.5.11
अनुवाद :- दूसरी ओर , जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम , यश , रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है , वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है । ऐसा दिव्य साहित्य , चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो , ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना , गाया तथा स्वीकार किया जाता है , जो नितान्त निष्कपट होते हैं ।
शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः साधु नित्यम भागवत सेवया करते हैं शृण्वन्ति गायन्ति भी उनका चलता रहता है और फिर इसी के साथ होता हैं।ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् ।
फिर सूँघते हैं या सुनते सुनते सुन भी रहे हैं और फिर इसी को कहा है ज्ञान का हो जाता है।
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यसूयवे |*ल
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽश्रुभात् || १ ||
भगवद्गीता 9.1
अनुवाद:-श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसीलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे |
ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण जो ब्रम्ह को जान लेते हैं वो ब्राम्हण हैं या वैष्णव जान लेते हैं भगवान को इन शास्त्रों के आधार से इन शास्त्रों की मदद से तो सारी शुरुआत होती है श्रवण से कहो या और अध्यन से कहो अध्यन में कोई अंतर नहीं है अध्ययन ही श्रवण है। शब्दों को जब हम पढ़ते हैं तो उसको सुनते हैं और वह हमने प्रवेश करते हैं हमको दिखाते हैं।
श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म,
वन्दो मुइ सावधान मते।
याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥1॥
अनुवाद:- हमारे गुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) के चरणकमल ही एकमात्र साधन हैं जिनके द्वारा हम शुद्ध भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मैं उनके चरणकमलों में अत्यन्त भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होता हूँ। उनकी कृपा से जीव भौतिक क्लेशों के महासागर को पार कर सकता है तथा कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है।
कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते दिव्य ज्ञान ह्रदय प्रकाशीतो वो दिव्य ज्ञान प्रकाशित होता है।जो हम सुनते हैं साधु शास्त्र आचार्य और साधु भी और आचार्य भी इन शास्त्रों के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसी साधना है केवल शास्त्र के वचन ही आचार्य एवं परंपरा से प्राप्त होता है और हम सुनते हैं।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: |
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || २ || भगवद्गीता 4.2
अनुवाद:-इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है |
शास्त्र के वचन सुनाते हैं इसीलिए बुक्स आर द बेसिस प्रभुपाद जी ने कहा है ग्रंथ ही आधार है उन ग्रंथों की ही बनाते है आधार औऱ आचार्य इन ग्रंथों को बनाते है अभ्यासक्रम और फिर विश्वविद्यालय में सांदीपनि मुनि का अपना एक विश्वविद्यालय था तो वे आचार्य और फिर कृष्ण बन गए विद्यार्थी बलराम सुदामा भी आगए। और फिर साधु शास्त्र आचार्य है साधु संग साधु संग सर्वे शास्त्र कहे लव मात्र साधु संग सर्व सिद्धि होय साधु संग में क्या होता है साधु संग में यह श्रवण कीर्तन होता है कपिल भगवान ने क्या कहा मम वीर्य सम विधो सताम प्रसंगात मतलब साधु संघ के प्रसंग में बैठक में संघ में सताम प्रसंगात मम वीर्य सम विधो मेरे वीर्य और सौंदर्य का वर्णन होता है यही होता है साधु संग में पुनः शास्त्रों के वचन ही हमको सुनाते हैं अपने अनुभव के साथ सुनाते हैं।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानंज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || ३४ ||
भगवद्गीता 4.34
अनुवाद:-तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है |
उन्होंने तत्व का दर्शन किया हुआ उन्होंने भलीभांति समझाया है तो वो हम को समझाते हैं शास्त्रों के आधार से ही समझाते हैं और हमको दर्शन देते हैं भगवान का दर्शन देते हैं हरि हरि ठीक है तो इसी तरह इसको याद रखिए तृतीय स्कंध के नववें अध्याय का पांचवां श्लोक था।
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् । भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥५ ॥ श्रीमद्भागवत 3.9.5
अनुवाद:- हे प्रभु , जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्ध को अपने कानों के द्वारा सूंघते हैं , वे आपकी भक्ति – मय सेवा को स्वीकार करते हैं । उनके लिए आप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते ।
आगे भी है ठीक है हरे कृष्ण
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
14 जून 2021
हरे कृष्ण!
905 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।905 स्थानों की जय और केवल स्थानों की ही जय नहीं बल्कि उन स्थानों में जप करने वाले आप सभी की जय हो। परम विजय पर श्री कृष्ण संकीर्तन।संकीर्तन आंदोलन की जय हो और संकीर्तन करने वाले,गाने वालों की भी जय हो।जप करना कलियुग का धर्म हैं। यतो धर्म: ततो जया। जहां है धर्म वहां है जीत। जहां धर्म है वहां जीत है वहां विजय हैं।
भगवद्गीता 16.7
“प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः |
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते || ७ ||”
अनुवाद
जो आसुरी हैं , वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । उनमें न तो पवित्रता, न उचित आचरण और न ही सत्य पाया जाता है ।
हरि हरि!कल बिंद्रा जी कुछ कह रहे थे। वह भी भगवान के विचार सुना रहे थे या प्रभुपाद की महिमा का गान कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद की जय।मूल वक्ता तो गोविंद हैं,भगवान श्रीकृष्ण हैं,गोविंदम आदि पुरुषम् तम अहम भजामि।उन्होंने ही आसुरी संपदा और देवी संपदा नामक अध्याय में यह श्लोक बताया हैं,भगवद्गीता के 16 वें अध्याय में बताया हैं कि असुर नहीं जानते।प्रवृत्ति मतलब करनीय कार्य,करने योग्य कार्य,करने योग्य कार्यों को प्रवृत्ति कहां हैं और निवृत्ति मतलब ना करने योग्य कार्य।प्रवृत्ति और निवृत्ति,करने योग्य कार्य और ना करने योग्य कार्यों को असुर लोग नहीं जानते।हरि हरि!असुर डूस एंड डोंटस नहीं जानते।डूस अर्थात प्रवृत्ति और डोंटस अर्थात निवृति।
प्रवृत्ति और निवृत्ति को और भी शब्दों में कहा हैं, उपादेय मतलब उपयोगी।उपादेय एक प्रकार का सदाचार और ऐय मतलब दुराचार।जो नहीं करना चाहिए। कुछ लोग शिष्ट होते हैं और कुछ लोग दुष्ट होते हैं। इस संसार में यह दो प्रकार के ही लोग होते हैं। पुन्ह: कृष्ण ने गीता में कहा हैं कि कुछ लोग देवता के जैसे होते हैं।
देव आसुर एव च:। जो शिष्ट होते हैं,उनके आचरण को शिष्टाचार कहा जाता हैं।आपने सुना होगा शिष्टाचार,शिष्टो का आचार, शिष्टाचार कहलाता हैं और दुष्टों का आचार दुष्टाचार कहलाता हैं। आशा हैं, कि आप मुख्य बिंदु लिख रहे होंगे या मन ही मन में लिख रहे होंगे जो कि विश्वसनीय नहीं हैं। मन में लिखे गए मुख्य बिंदु तो मिट भी सकते हैं इसलिए आपको लिखना भी चाहिए।दुष्ट लोग होते हैं भारवाही, वह ऐसे ही इस संसार में बोझ ढोते रहते हैं, उनको भारवाही कहते हैं। भार अर्थात वजन। बोझ का वहन करते हैं। उसे ढोते हैं,जैसे गधे होते हैं। गधे की क्या खासियत हैं? कि वह बोझ ढोता ही रहता हैं।
कुछ लोग भारवाही होते हैं और कुछ लोग सारग्राही होते हैं।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय-संत कबीरदास।
जो सार है उसको संभाल कर रखना चाहिए और थोथा को उड़ाना चाहिए।दिन भर या रात भर भी हमको दो प्रकार के विचार आते रहते हैं।शास्त्र में उन्हें संकल्प और विकल्प कहा हैं। जीवन भर संकल्प- विकल्प यही चलता रहता हैं। संकल्प मतलब कुछ फायदेमंद कृत्य करने का संकल्प लेना।जैसे मैं आज से रोज 16 माला करूंगा यह संकल्प हैं। मैं 4 नियमों का पालन करूंगा यह संकल्प हैं। मैं प्रात: काल में ब्रह्म मुहूर्त में उठूंगा और उठ कर अपनी साधना करूंगा यह संकल्प हैं और कई सारे विकल्प भी होते हैं। प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः- हम आसुरी प्रवृत्ति के हैं।हमारी प्रवृत्ति आसुरी हैं। हम दुष्ट हैं। जो करना चाहिए वह नहीं करते हैं, ब्रह्म मुहूर्त में उठना चाहिए नहीं उठते हैं। अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज मेक अ मैन हेल्थी वेल्थी एंड वाइस। प्रात: काल में उठने का संकल्प लेने की बजाए हम मीठी नींद का आनंद लुटते हैं। प्रातः काल की नींद मीठी समझी जाती हैं। हम सब कुछ उल्टा पुल्टा करते हैं।संकल्प जो करना चाहिए उसी को विकल्प करते हैं, उसी को पर्याय बना देते हैं और मन की द्विधा स्थिति में बने रहते हैं।विधा मतलब प्रकार।जैसे चतुर विधा, नवविधा भक्ति के 9 प्रकार हैं।मन की स्थिति ऐसी हैं कि करें या ना करें? ऐसा प्रश्न बना रहता हैं, कि करें या ना करें और अगर हम दुष्ट हैं तो जो नहीं करना चाहिए वही करते हैं।
विनाश काले विपरीत बुद्धि।विनाश काल में हमारा दिमाग उल्टा पुल्टा चलता हैं।हरि हरि और भगवान से सन्मुख होने की बजाए भगवान से विमुख हो जाते हैं। भगवद्धाम लौटने की बजाए नर्क जाएंगे।भगवान ने नर्क के तीन द्वार कहे हैं।काम, क्रोध और लोभ।ऐसे तो 6 द्वार हैं लेकिन भगवद्गीता में भगवान ने 3 नाम लिए हैं हम वैकुंठ की ओर बढ़ने की बजाए नरक की ओर बढ़ते हैं।
2.63 भगवद्गीता
“क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || ६३ ||”
अनुवाद
क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है | जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाति है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है |
भगवद्गीता में भगवान ने कहा हैं कि
2.62
“ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||”
अनुवाद
इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |हमारा पतन होता है हम नीचे गिरते रहते हैं हम नीचे गिर रहे हैं हम क्रोधित हुए उससे और नीचे गिर गए उससे और अधिक अधिक विपरीत बुद्धि होती है काम में दिमाग काम ही नहीं करता।स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति मतलब विनाश और साधारण विनाश नहीं।
भगवान ने प्र उपसर्ग का प्रयोग किया हैं, इसीलिए सावधान।प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः। इसलिए प्रवृत्ति निवृत्ति को समझ लेना चाहिए और उसमें से जो सार की बात हैं, उसे हमें अपनाना चाहिए और उसी प्रकार हमारा व्यवहार होना चाहिए और दुष्ट आचार से बचना चाहिए।इसी को मूल्य कहते हैं। जीवन में कुछ सिद्धांत होने चाहिए जो मूल्यवान हैं, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास होना चाहिए। लेकिन हम जानते नहीं हैं कि क्या मूल्यवान है और क्या बेकार हैं। मूल्यवान प्रेम हैं। प्रेम उपादेय हैं और काम ऐय हैं। काम को स्वीकार करना भारवाही हैं और प्रेम को स्वीकार करना सार ग्राही हैं। सद असद विवेक बुद्धि। सद् मतलब शाश्वत।सद् असद् को पहचान करना आना चाहिए। उसी पहचान करने की क्षमता को कहा गया हैं,सद असद् विवेक बुद्धि।अब मैं आपके साथ जो चैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद के बीच में संवाद हुआ उसको शेयर करना चाहता हूं।
उनके बीच में संवाद चल रहा था तो एक रात की बात हैं, जिसमें सद् असद् अथवा संकल्प विकल्प के प्रश्न उत्तर चल रहे हैं। सार ग्राही-भाव ग्राही, डुस एंड डॉनट्स,शिष्टाचार और दुराचार, सद- असद विवेक या मूल्यांकन इन सब बातों पर विचार इस संवाद में हुआ है। उसी के कुछ जरूरी अंश आपके साथ सांझा करेंगे।
चेतनय चरितामृत 8.245 मध्य लीला
प्रभु कहे , – ” कोन्विद्या विद्या – मध्ये सार ? ” । राय कहे , – ” कृष्ण – भक्ति विना विद्या नाहि आर ” | 245 ॥
अनुवाद एक अवसर पर महाप्रभु ने पूछा , “ सभी प्रकार की विद्याओं में कौन – सी विद्या सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , ” दिव्य कृष्ण – भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई विद्या महत्त्वपूर्ण नहीं है । ”
हे राय रामानंद बताओ कि विद्या में श्रेष्ठ विद्या कौन सी हैं?और राय रामानंद कह रहे हैं कि कृष्ण भक्ति ही सबसे बड़ी विद्या है जो विद्वान है वह भक्ति को ही अपनाएंगे।
जेइ कृष्ण बजे सेइ बडा चतुर। जो कृष्ण को भजता हैं, वह बहुत ही चतुर हैं।कृष्ण की भक्ति करने वाला सबसे बड़ा विद्वान हैं और कृष्ण भक्ति के बिना और कोई विद्या हैं ही नहीं। वह कैसा विद्वान हुआ जो आपको भक्ति करने के लिए प्रेरित ना करें?
मध्य लीला 8.246
‘ कीर्ति – गण – मध्ये जीवेर कोन्बड़ कीर्ति ? ‘ । ‘ कृष्ण – भक्त ‘ बलिया याँहार हय ख्याति ॥ 246 ॥
अनुवाद तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से पूछा , “ समस्त यशस्वी कार्यों में कौन – सा कार्य सर्वाधिक यशस्वी है ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ वह व्यक्ति जो भगवान् कृष्ण के भक्त के रूप में विख्यात है , वही सर्वाधिक यश तथा कीर्ति भोगता है । ”
सबसे बड़ा कीर्तिमान किसको कहेंगे?कृष्ण भक्त होना ही सर्वोत्तम कीर्ति हैं। यह सबसे बड़ा परिचय हैं। कहा तो बहुत कुछ जा सकता हैं कि यह ऐसा है वैसा हैं, लेकिन जो सबसे बड़ी पहचान की जा सकती हैं वह हैं कि यह कृष्ण भक्त हैं। बस खत्म और कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं हैं। यह कृष्ण भक्त हैं। यही कीर्ति सर्वोत्तम कीर्ति हैं। अगर नाम करवाना ही हैं तो कैसा नाम करवाओ? कुछ लोग तो पापियों में नामी होते हैं।पापियों में नंबर वन पापी होते हैं। हरि हरि।
संपत्तियों में सबसे बड़ी संपत्ति कौन सी है।
मध्य लीला 8.247
‘ सम्पत्तिर मध्ये जीवेर कोन्सम्पत्ति गणि ? ‘ । ‘ राधा – कृष्णे प्रेम याँर , सेड़ बड़ धनी ‘ 247 ।।
अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ धनवानों में सर्वोच्च कौन है ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ जो राधा तथा कृष्ण के प्रेम का सबसे बड़ा धनी है , वही सबसे बड़ा धनवान है । ‘
जिस व्यक्ति को राधा कृष्ण का प्रेम प्राप्त हुआ है वही सबसे बड़ी संपत्ति हैं।
जिसको राधा कृष्ण के प्रेम की संपत्ति प्राप्त हैं, वही धनवान हैं, वही धनी हैं और फिर कह रहे हैं कि तुम धन्य हो क्योंकि तुम धनी हो। क्योंकि तुमने कृष्ण प्रेम के धन को प्राप्त किया हैं, चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं कि कृष्ण प्रेम के बिना जो जीवन हैं वह दरिद्र का जीवन हैं।
मध्य लीला 2.40
शुन मोर प्राणेर बान्धव नाहि कृष्ण – प्रेम – धन , दरिद्र मोर जीवन , ।। देहेन्द्रिय वृथा मोर सब ।। 4010
अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , “ हे मित्रों , तुम लोग मेरे प्राण हो , अतएव मैं तुम्हें बतलाता हूँ कि मेरे पास कृष्ण – प्रेमरूपी धन नहीं है । इसलिए मेरा जीवन दरिद्र है । मेरे अंग तथा इन्द्रियाँ व्यर्थ हैं
ऐसा चैतन्य महाप्रभु ने शिष्टाष्टक में कहा हैं, जिसको कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं हैं वह दरिद्र ही हैं आगे पूछ रहे हैं-
सभी दुखों में सबसे बड़ा दुख कौन सा है यह सबसे अधिक दुख कौन सा हैं?
मध्य लीला 8.248
‘ दुःख – मध्ये कोन दुःख हय गुरुतर ? ‘ । ‘ कृष्ण – भक्त – विरह विना दुःख नाहि देखि पर ‘ | 248 ।।
अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ समस्त दुःखों में कौन – सा दुःख सर्वाधिक कष्टदायक है ? ” श्री रामानन्द राय ने उत्तर दिया , ” मेरी जानकारी में कृष्ण – भक्त के विरह से बढ़कर कोई दूसरा असह्य दुःख नहीं है । ”
कृष्ण भक्तों को मिल नहीं पा रहे हैं या बहुत समय से नहीं मिले हैं तो ऐसे भक्तों के लिए ऐसा समय व्यतीत होना ही सबसे बड़ा दुख हैं। जिसको सोचे तो हम समझ सकते हैं कि हमें वैष्णव से प्रेम हैं या नहीं हैं? हम वैष्णव को याद करते हैं या नहीं? लेकिन जो सोचता है कि वैष्णव संग के बिना जीवन व्यर्थ हैं या दुखमय हैं। जो साधु संग के महत्व को जानता हैं वही वास्तव विरह को जान सकता हैं। जैसे कोरोनावायरस में अभी साधु संग प्राप्त नहीं हो रहा हैं, हम संतो को और भक्तों को नहीं मिल पा रहे हैं।केवल परिवार के सदस्यों से घिरे रहते हैं।1 साल बीत गया हैं। या कई महीने बीत गए। हम सत्संग में नहीं जा पाए। हरि हरि।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति ।
भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ॥४॥
अनुवाद
दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की
बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना –
भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
उपदेशामृत 4
गुह्ममाख्याति पृष्छति भी नहीं हो रहा है। ददाति प्रतिगृह्णाति नहीं हो रहा हैं। ऑनलाइन प्रोग्राम तो होते हैं,लेकिन प्रसाद ना तो खा सकते हैं ना खिला सकते हैं ,दिखा देते हैं लेकिन देखने वाला देखता ही रहता है।सुंघ भी नही सकता। भक्तों का संग प्राप्त ना होने से दुखी होना भक्तों के लिए स्वभाविक हैं। ऐसा दुख आध्यात्मिक दुख हैं। इसको दुख कहा गया हैं लेकिन यह आध्यात्मिक सुख हैं।
सभी जीवो में मुक्त किसको कहेंगे?
मध्य लीला 8.249
‘ मुक्त – मध्ये कोन्जीव मुक्त करि ‘ मानि ? ‘ । ‘ कृष्ण – प्रेम याँर , सेड़ मुक्त – शिरोमणि ‘ ।। 249 ।।
अनुवाद तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ समस्त मुक्त पुरुषों में किसे सबसे महान् माना जाए ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , ” जो कृष्ण – प्रेम से युक्त है , उसे ही सर्वोच्च मुक्ति प्राप्त है ” ।
जिस व्यक्ति को कृष्ण प्रेम प्राप्त हुआ हैं, वह मुक्त शिरोमणि हैं या मुक्त चूड़ामणि में वह व्यक्ति सबसे श्रेष्ठ हैं। मोक्ष से भी ऊंची मुक्ति हैं, कृष्ण प्रेम प्राप्ति।कुछ लोगों के चार पुरुषार्थ होते हैं।उनकी पहुंच मोक्ष तक होती हैं।
“तरि दश पुर आकाश पुष्पायते । कैवल्यम नरकायते।।”
लेकिन मोक्ष किसे चाहिए केवलम नरकायते। अगर पंचम पुरुषार्थ को प्राप्त करना चाहते हैं तो कृष्ण प्रेम प्राप्त करें।कृष्ण की प्रेममयी सेवा प्राप्त करना ही सर्वोत्तम प्रकार की मुक्ति हैं।भक्त मुक्त होता हैं। गीतों में सबसे श्रेष्ठ गांन कौन सा हैं?
मध्य लीला 8.250
गान – मध्ये कोन गान जीवेर निज धर्म ? ” राधा – कृष्णेर प्रेम – केलि ‘ येइ गीतेर मर्म ।। 25011
अनुवाद- तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से पूछा , “ अनेक गीतों में से किस गीत को जीव का वास्तविक धर्म माना जाए ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , ” श्री राधा तथा कृष्ण के प्रेम का वर्णन करने वाला गीत अन्य समस्त गीतों से श्रेष्ठ है । ”
राधा कृष्ण की प्रेम केलि। राधा कृष्ण की जो लीलाएं या कथाएं हैं यही श्रेष्ठगान हैं। इससे कोई और ऊंचा या श्रेष्ठ गान नहीं हो सकता।
चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद-
स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्।
कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥
श्री गुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात् चबाए जाने वाले, पेय अर्थात् पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले – इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
गुरुजन भी राधा कृष्ण प्रेम केली का ही गान करते रहते हैं।केली अर्थात लीला।
M 8.251
श्रेयो – मध्ये कोन श्रेयः जीवेर हय सार ? ‘ । ‘ कृष्ण – भक्त – सङ्ग विना श्रेयः नाहि आर ‘ || 251 ॥
अनुवाद तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ समस्त शुभ तथा लाभप्रद कार्यों में से जीव के लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य कौन – सा है ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ एकमात्र शुभ कार्य कृष्ण – भक्तों की संगति है । ”
एक श्रेय होता हैं, एक प्रेय होता हैं। हमारा ध्यान श्रेय पर होना चाहिए। सबसे अधिक श्रेयस्कर बात कौन सी हैं? कृष्ण भक्त के संग के बिना कुछ भी श्रेयस्कर नहीं हैं। कृष्ण भक्तों का संग ही श्रेयस्कर हैं, सर्वोपरि हैं। क्योंकि संग से ही सभी सिद्धि मिलती हैं।
‘साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सङ्ग’- सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र ‘ साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.५४)
अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।
साधु संग हो या भक्त संग, शिक्षा गुरु संग या दिक्षा गुरु संग, आचार्यों का संग यह सब संग होते ही इन सब के संग का क्या प्रभाव होता हैं? सर्व सिद्धि होए। सब सिद्धि प्राप्त हो जाती हैं। साधु संग से हम पवित्र होते हैं, इसलिए साधु संग को कहा हैं कि यह श्रेयसकर हैं।
M 8.252
‘ काँहार स्मरण जीव करिबे अनुक्षण ? ‘ । ‘ कृष्ण ‘ – नाम – गुण – लीला – प्रधान स्मरण ‘ ।। 252
अनुवाद- श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ सारे जीव किसका निरन्तर स्मरण करें ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , करने की मुख्य वस्तु सदैव भगवान् के नाम , गुण तथा लीलाएँ हैं । ”
प्रश्न यह हैं, कि जीव को हर क्षण किसका ध्यान करना चाहिए? यह प्रश्न उत्तर रामानंद और महाप्रभु के बीच में हो रहे हैं।प्रश्न पूछ रहे हैं महाप्रभु और उत्तर दे रहे हैं राय रामानंद। यहां उल्टा हो रहा हैं। गीता में तो अर्जुन ने प्रश्न किए थे और भगवान कृष्ण ने उसके उत्तर दिए थे। यहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रश्न पूछ रहे हैं और उसके उत्तर हमें राय रामानंद के मुखारविंद से दिला रहे हैं।एक प्रकार से हमें साधु संग यानी की राय रामानंद का संग प्राप्त हो रहा हैं। प्रश्न हैं कि हमें हर क्षण किसका स्मरण करना चाहिए?
उत्तर हैं कि कृष्ण के नाम का स्मरण करो। उनके रूप का स्मरण करो,गुण का स्मरण करो, लीला स्मरण करो। यही इस प्रश्न का उत्तर हैं। कीर्तन के कई प्रकार हैं। नाम कीर्तन,गुण कीर्तन,लीला कीर्तन और इनका जब श्रवण करते हैं तो स्मरण होता हैं।
ŚB 7.5.23-24
श्रीप्रह्राद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ २३ ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ २४ ॥
इसके संबंध में श्रवण करेंगे तो स्मरण होगा।किस का स्मरण करना चाहिए?यह कहा गया है कि कृष्ण के नाम का स्मरण करो।उनकी लीला का, गुण का, धाम का और परिकर का भी स्मरण करो। यह स्मरणीय हैं। प्रातः स्मरणीय।या सदैव स्मरणीय हैं। कीर्तनया सदा हरि। अगला प्रश्न हैं कि सर्वश्रेष्ठ ध्यान कौन सा हैं?
M 8.253
‘ ध्येय – मध्ये जीवेर कर्तव्य कोन्ध्यान ? ‘ । ‘ राधा – कृष्ण – पदाम्बुज – ध्यान – प्रधान ‘ | 253 ।।
अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने और आगे पूछा , “ समस्त प्रकार के ध्यानों में से कौन – सा ध्यान जीवों के लिए आवश्यक है ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , ” प्रत्येक जीव का प्रधान कर्तव्य यह है कि वह राधाकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करे । ”
राधा कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान ही प्रधान ध्यान है।
सवै मनः कृष्णपदारविन्दयो चांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेमन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥१८ ॥ मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्धृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥ १ ९ ॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥२० ॥
9.4.18
महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में , अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने – बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन , को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श – इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में , अपनी घ्राण – इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में , अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं चौबीसों घण्टे भगवान की सेवा करने में लगाया । निस्सन्देह , महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा । वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत : मुक्त होने की यही विधि है ।भगवान के चरण कमलों का ध्यान ही श्रेष्ठ ध्यान है।
M 8.254
सर्व त्यजि जीवेर कर्तव्य काहाँ वास ? ‘ । ‘ व्रज – भूमि वृन्दावन याहाँ लीला – रास ‘ 254
अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ जीव को अन्य सारे स्थान त्यागकर कहाँ रहना चाहिए ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ उसे वृन्दावन या व्रजभूमि नामक पवित्र स्थान में रहना चाहिए , जहाँ भगवान् ने रासनृत्य किया था ”
वही बात हैं, कर्तव्य- अकर्तव्य संकल्प- विकल्प। व्यक्ति को सब स्थान छोड़कर कौन से स्थान पर जाकर वास करना चाहिए या रहने योग्य कौन सा स्थान हैं? उत्तर में राय रामानंद कहते हैं कि व्रज – भूमि वृन्दावन याहाँ लीला – रास
वृंदावन धाम की जय! वृंदावन भूमि वास, ब्रज वास या मायापुर वास, धाम वास जहा भगवान ने अपनी लीला संपन्न की हैं। जहां भगवान खेले हैं वहां का वास सर्वोत्तम वास हैं।
अगला प्रश्न है कि अगर श्रवण करना हैं, तो किस का श्रवण करें?
M 8.255
‘ श्रवण – मध्ये जीवेर कोन्श्रेष्ठ श्रवण ? | ‘ राधा – कृष्ण – प्रेम – केलि कर्ण – रसायन ‘ ।। 255 ।।
अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ सुने जाने वाले समस्त विषयों में से कौन – सा विषय समस्त जीवों के लिए सर्वोत्तम है ? ” रामानन्द राय ने उत्तर दिया , “ राधा तथा कृष्ण के प्रेम – व्यापार के विषय में श्रवण करना कानों को सर्वाधिक सुहावना लगता है । ”
उत्तर में कहा गया है कि राधा कृष्ण की प्रेम लीला कानों के लिए रसायन हैं, कानों के लिए अमृत हैं।
अंतिम प्रश्न है कि अगर आराधना करनी है तो किस की आराधना करें?
किसकी आराधना को प्रधान आराधना माने।
M 8.256
‘ उपास्येर मध्ये कोनुपास्य प्रधान ? ‘ । ‘ श्रेष्ठ उपास्य – युगल राधा – कृष्ण ‘ नाम ‘ | 256
अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा , “ समस्त पूजा के योग्य ( उपास्य ) वस्तुओं में से ने उत्तर दिया , “ प्रधान पूजा योग्य वस्तु राधाकृष्ण का नाम – हरे कृष्ण मन्त्र है । ”
इसे नोट करें। उत्तर मे राय रामानंद ने कहा कि सर्वश्रेष्ठ उपासना युगल अर्थात दो।राधा कृष्ण का नाम ही सर्वश्रेष्ठ उपास्य हैं।
11.5.32
कृष्णवर्ण विधाकृष्ण साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्वजन्ति हि सुमेधसः ॥ ३२ ॥
कलियुग में,बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता हैं । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण हैं । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है । यह भागवत का सिद्धांत हैं कि कलयुग में किसकी उपासना करनी चाहिए? संकीर्तन यज्ञ करना ही आराधना उपासना हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह सबसे श्रेष्ठ उपासना हैं निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।ठीक हैं। हरे कृष्णा।
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*हरे कृष्ण*,
*पंढरपुर धाम*,
*13 जून 2021*
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। आज रविवार है । रवि का वार है। सूर्य का वार है “रविवार” । यह जानकारी सही तो नही है लेकिन कुछ लोग समझ कर बैठे है की छह दिनों में भगवान ने श्रृष्टि की और सातवे दिन जो की रविवार का दिन था, भगवान ने विश्राम किया।
कई लोग भगवान के चरण कमलों का अनुसरण करते हुए विश्राम करते हैं। हमारे भी जप सेशन के कुछ भक्त विश्राम करते होंगे या देरी से उठते होंगे इसलिए रविवार को हमारी संख्या कुछ घट जाती है । यह अच्छी बात नहीं है। लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं? पहले भी हम थोड़ा संकेत तो किए थे। हरि हरि। लेकिन यह विषय नहीं है ।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानात्र्ज नशला कया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।*
यह वर्ष 2021, यह वर्ष श्रील प्रभुपाद के 125वी सालगिरा का वर्ष है। इस्कॉन यह उत्सव मना रहा है।
इसके अंतर्गत कई सारे कार्यक्रम संपन्न हो रहे हैं । इस संबंध में, इसकी सूचना हम पहले भी दे चुके हैं । इस्कॉन के सभी मंदिरों ने पूर्ण भारत को और हमारे प्रचार क्षेत्र के मंदिरों के अधिकारियों ने संकल्प लिए हैं। किसी ने कहा है की हम 125 लीलामृत पुस्तक वितरण करेंगे।
किसी ने कहा 125 घंटे अखंड कीर्तन करेंगे। भारतीय सरकार ने कल ही इस्कॉन को एक अच्छी खबर दी है। जो भी मिनिस्ट्री सम्मिलित है, उन्होंने कहा है कि एक सिक्का बनेगा। लिमिटेड कॉपी होगी। इसी अवसर पर 125 सालगिरह के उपलक्ष में भारत सरकार एक सिक्का रिलीज कर रही है। इसमें सभी सम्मिलित हो रहे हैं । हरि हरि। आज मैं ज्यादा नहीं बोलूंगा। मैं दूसरों को बोलने का मौका दूंगा। आज कई प्रकार की श्रंखलाएं चल रही है। उसी के अंतर्गत ये जो महा वेबीनार जो 20 तारीख को संपन्न होने जा रहा है। उसका उद्देश्य यही है की 125 वीं सालगिरह के लिए, युवकों को इसमें संबोधित किया जाए। युवकों को श्रील प्रभुपाद का परिचय दिया जाएगा कि कौन श्रील प्रभुपाद है?
इस्कॉन संस्थापक आचार्य श्रील प्रभुपाद की जय। इसमें कई महीनो के गान या वचन हो सकते है। इसको सुनाने वाले हैं डॉक्टर विवेक बिंद्रा। मुझे उनका एक प्रेजेंटेशन कल ही प्राप्त हुआ। पहले कभी वे प्रभुपाद के संबंध में संबोधन किए थे। फिर उनका परिचय देते हुए या उनका गुणगान गाते हुए कहते हुए किए थे। उसको आज मैं आपके साथ शेयर करना चाहता हूं। आपको इस वेबीनार के जो प्रवक्ता है डॉक्टर विवेक बिंद्रा जो प्रभुपाद के अनुयाई है, उनके बारे में भी पता चलेगा । वह परम पूजनीय गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज के दीक्षित शिष्य है। जो दिल्ली में स्थित है ।
आप सुनिएगा उनके शब्दों में, प्रभुपाद का परिचय, प्रभुपाद का गुणगान और मैं सोच रहा था कि यह छोटा वीडियो है कुल 15 मिंटो का है। समय बचता है तो फिर आप में से कुछ वक्ता बन सकते हैं और आप संक्षिप्त में प्रभुपाद के संबंध में कुछ सुना सकते हो । प्रभुपाद के बारे में बता सकते हो कि कौन है प्रभुपाद, क्या किया प्रभुपाद ने। आप कैसे प्रभावित हुए हो श्रील प्रभुपाद से। प्रभुपाद की महिमा का गान कर सकते हो । मै सोच रहा हूं देखते हैं यह कैसे काम करता है पहले हम यह सुन लेते हैं।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 12 जून 2021
हरि हरिबोल!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 909 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। आप सब का स्वागत है। क्या आप सब तैयार हैं?
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:
*जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥1॥
अर्थ: श्रीचैतन्यमहाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो।
आज हम भागवतम और चैतन्य चरितामृत दोनों ग्रंथों से चर्चा करेंगे। हरि! हरि! कल आपने अथातो ब्रह्मजिज्ञासा
(वेदांतसूत्र (१.१.१) के विषय में सुना था।
जो ब्रह्मजिज्ञासु होते हैं, वही मनुष्य है। यह बात भागवत के प्रथम स्कंध के दूसरे अध्याय के दसवें श्लोक में संक्षिप्त रूप में अर्थात एक भाग जो जिज्ञासा का उल्लेख करता है, में भी कही गई है।
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिलाभो जीवेत यावता । जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थों यश्वेह कर्मभिः ॥
( श्रीमद्भागवतम् 1.2.10)
अनुवाद:- जीवन की इच्छाएँ इन्द्रियतृप्ति की ओर लक्षित नहीं होनी चाहिए । मनुष्य को केवल स्वस्थ जीवन की या आत्म – संरक्षण की कामना करनी चाहिए , क्योंकि मानव तो परम सत्य के विषय में जिज्ञासा करने के निमित्त बना है । मनुष्य की वृत्तियों का इसके अतिरिक्त, अन्य कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए ।
(आप इसे नोट भी कर सकते हैं) जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा। मनुष्य जीवन का लक्ष्य जिज्ञासा के लिए है। कैसी जिज्ञासा के लिए? कोई भी जिज्ञासा नहीं। क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूं कई सारे पूछताछ के काउंटर होते ही हैं, लोग जिज्ञासा करते हैं कि इसका क्या भाव है, आदि आदि। वैसी जिज्ञासा नहीं, तब कैसी जिज्ञासा? जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा अर्थात जीव को तत्व या भगवान या भगवान् के तत्व के संबंध में भी जिज्ञासा करनी चाहिए। सूत गोस्वामी ने यह बात कही। वैसे जिज्ञासा तो अभी है। शौनक आदि मुनियों ने जिज्ञासा की थी। श्रीमद् भागवतम् में यह संवाद नैमिषारण्य में हो रहा है। सूत गोस्वामी आसनस्थ है अर्थात आसन पर आरूढ़ है। वहां ८८००० ऋषि मुनि एकत्रित हुए थे। दोनों में संवाद हो रहा था। जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा। वैसे शौनक मुनि, अन्य मुनियों की ओर से कई सारी जिज्ञासाएं कर रहे थे।
यह 10 वां श्लोक था, तत्पश्चात अगले श्लोक में कहा है जोकि सिद्धांत की दृष्टि से भागवतं का बहुत बहुत महत्वपूर्ण श्लोक अथवा वचन है। वैसा ही महत्वपूर्ण वचन चैतन्य चरितामृत में भी है। निश्चित ही हम सुनाएंगे। इससे यह भी सिद्ध होगा कि श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक ही हैं। जब हम इस तत्व अथवा सिद्धांत को सुनेंगे तब हमें साक्षात्कार होगा कि श्री कृष्ण और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु में कोई भेद नहीं है।
नमो महा – वदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते । कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौर – त्विषे नमः ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.53)
अनुवाद ” हे परम दयालु अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमस्कार करते हैं ।
बस नाम का भेद है। एक का नाम कृष्ण है और दूसरे का नाम कृष्ण चैतन्य है। साथ में चैतन्य जोड़ दिया बस। श्रीकृष्ण द्वापर युग के अंत में प्रकट हुए थे। तत्पश्चात वे पुनः प्रकट हुए और उन्होंने कृष्ण नाम के अंत में चैतन्य जोड़ दिया। श्रीकृष्ण, चैतन्य की मूर्ति बने। जैसा गुण है वैसा ही उनका नाम हुआ। इसलिए वे श्रीकृष्ण चैतन्य हुए।
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
(श्रीमद् भागवतं 1.2.11)
अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को बहा , परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं।
श्रील प्रभुपाद इस श्लोक का उदाहरण बारंबार किया करते थे। वैसे भी यह आधारभूत मंत्र है। तत्पश्चात मंत्र से तंत्र होते हैं फिर तंत्र से यंत्र बनते है।
वदन्ति अर्थात कहते हैं,( कौन कहते हैं) वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं जो तत्ववित्त है, वित मतलब जानकार। तत्ववित्त कहो या तत्ववेता कहो, एक ही बात है। तत्ववेता वदन्ति अर्थात वे तत्ववेता कहते हैं कि तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। भगवान का तत्व अद्वय है, द्वयम् मतलब दो।अद्वय अर्थात दो नहीं हैं। उसके साथ में अ जोड़ दिया है। इस वचन में यह बताया जा रहा है कि भगवान को तीन रूपों व स्वरूपों में जाना जा सकता है। भगवान् मुख्य तीन स्वरूपों में हैं, किंतु वे तीनों स्वरूप एक ही हैं।यज्ज्ञानमद्वयम्।
यह शब्द भी महत्वपूर्ण है । तीन अवस्थाओं व तीन स्वरूपों में भगवान को जाना जा सकता है। वे स्वरूप हैं।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।
ब्रह्मेति एक हुआ। ब्रह्म और इति। इति मतलब यह (दिस वन)। तत्पश्चात परमात्मेति हुआ, भगवानिति शब्द्यते। इन तीन शब्दों में कहो। ब्रह्म एक शब्द हुआ, परमात्मा दूसरा और भगवान तीसरा शब्द हुआ। इन नामों से भगवान का तत्व जाना जाता है अर्थात इन तीन स्वरूपों में भगवान को जाना जा सकता है।
वे ब्रह्मेति,परमात्मेति,भगवानिति है। हरि! हरि! वे अद्वय अर्थात तीनों एक ही हैं। यही बात चैतन्य चरितामृत में आदि लीला के प्रथम अध्याय श्लोक संख्या 3 में वर्णित है। भागवतम् में भी प्रथम स्कंध के द्वितीय अध्याय अर्थात प्रारंभ में ही यह तत्व की बात कही गई है। वही तत्व चैतन्य महाप्रभु पर भी लागू होता है। इसलिए चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में ही इसका वर्णन है। जैसे भागवतम् में व्यासदेव लिखते हैं, वैसे ही कृष्ण दास गोस्वामी, चैतन्य चरितामृत में लिखते हैं-
यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु – भा । य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश – विभवः ।। षड् – ऐश्वर्यः पूर्णो य इह भगवान्स स्वयमयं न चैतन्याकृष्णाजगति पर – तत्त्वं परमिह ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला १.३)
अनुवाद- जिसे उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म कहा गया है , वह उनके शरीर का तेज मात्र है और जो भगवान अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में जाने जाते हैं, वे उनके अंशमात्र हैं । भगवान चैतन्य छहों ऐश्वर्यों से युक्त स्वयं भगवान् कृष्ण हैं । वे परम सत्य हैं और कोई भी अन्य सत्य न तो उनसे बड़ा है, न उनके तुल्य है ।
वे कहते हैं कि उपनिषदों में कभी कभी यह संकेत होता है या यह सुनने में आता है कि यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि अर्थात अद्वैय यह दो नहीं है अर्थात यह भगवान से अलग नहीं है। यहां ब्रह्म की बात हो रही है। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दते। ब्रह्म जिसका उल्लेख उपनिषदों में मिलता है। यह क्या है? तदप्यस्य तनु – भा अर्थात इसी को ब्रह्म ज्योति कहा है। इसमें ही मायावादियों की अहं ब्रह्मास्मि वाली बातें आ जाती हैं। यह जो ब्रह्म अथवा ब्रह्म ज्योति है। यह तनु की भा है। तनु मतलब विग्रह या शरीर। भा मतलब प्रकाश। यह ब्रह्मज्योति जो है, यह चैतन्य महाप्रभु के विग्रह का प्रकाश है।
भगवान स्वयं प्रकाशित हैं। भगवान प्रकाश के स्तोत्र हैं। जिस प्रकाश को शास्त्रों में ब्रह्मज्योति कहा है।, वह ब्रह्मज्योति, उस विग्रह अथवा इस रूप, मूर्ति से अलग नहीं है और न ही अलग की जा सकती है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश। सूर्य व सूर्य की रश्मि अथवा किरणें। यह नहीं कह सकते कि यह देखो कि यह सूर्य की किरणे हैं और यह सूर्य है। सूर्य और सूर्य की किरणें दो नहीं हैं। सूर्य से ही किरणे आती हैं। किरण को अलग नहीं किया जा सकता। सूर्य प्रकाश का स्तोत्र है। हम प्रायः सुनते रहते हैं कि कृष्ण सूर्य सम अर्थात कृष्ण कैसे हैं। कृष्ण सूर्य के समान है। सूर्य की रश्मि अथवा सूर्य का प्रकाश है। यहां कृष्ण और कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की बात हो रही है। उनके अंग से निकलने वाली जो कांति है या प्रकाश है उसका नाम ब्रह्म ज्योति है। भगवान की ज्योति,भगवान से अलग नहीं है। इसीलिए अद्वय कहा गया है। चैतन्य चरितामृत में ब्रह्मेति की बात हुई। य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश – विभवः, जिस को परमात्मा कहते हैं।आत्मान्तर्यामी पुरुष, यह परमात्मा अंश – विभवः है अर्थात अंश है। ब्रह्म ज्योति भी भगवान का ही अंश है। अंशी कौन है? भगवान। कल हम अंश और अंशी के विषय में चर्चा कर रहे थे। श्रीकृष्ण भगवान अंशी हैं। श्री गौर भगवान चैतन्य महाप्रभु अंशी हैं। यह दोनों एक ही हैं। एक अंश ब्रह्म ज्योति है।
अंशी के अंश है। भगवान का व्यक्तित्व है, उनका रूप है, उनका विग्रह है। ‘श्री विग्रह’ जिसकी आराधना भी होती है, उन्ही विग्रह से ज्योति निकलती है। वह भी एक अंश है। ब्रह्म ज्योति भी अंश है और परमात्मा भी भगवान् का अंश है। ब्रह्मज्योति के और परमात्मा दोनों के स्तोत्र भगवान हैं।परमात्मा भी स्वतंत्र नहीं है। परमात्मा का स्वरूप और अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है। वह भगवान पर ही निर्भर है व भगवान से ही उत्पन्न होता है ।लेकिन हम ऐसा कोई इतिहास भी नहीं कह सकते कि फलाने दिन अथवा उस कल्प में सृष्टि के प्रारंभ में परमात्मा नहीं थे। हम ऐसी बात नहीं कह सकते। ऐसा कोई समय नहीं था जब भगवान नहीं थे, ऐसा कोई समय नहीं था जब परमात्मा नहीं थे, ऐसा कोई समय नहीं हो सकता कि जब ब्रह्म ज्योति अर्थात भगवान के अंग से निकलने वाली जो कांति है, वह नहीं थी। हम पुनः सूर्य की ओर बढ़ते हैं । श्रील प्रभुपाद सूर्य का उदाहरण दिया करते थे।
सूर्य की किरणों की तुलना ब्रह्म ज्योति से की गई है। जब हम दूर अर्थात पृथ्वी से ही सूर्य की ओर देखते हैं तब हमें एक गोलाकार दिखाई देता है , उस गोलाकार की तुलना परमात्मा के साथ की गई है। जब सूर्य ग्रहण लगता है। तब वह हमें दिखाई नहीं देता है। सूर्य छिप जाता है। वह परमात्मा हुआ। इससे सूर्य का ज्ञान पूरा नहीं हुआ, हमनें केवल सूर्य की किरणें देखी अथवा सूर्य को देखा लेकिन इससे सूर्य का ज्ञान पूरा नहीं होता। अगर हम सूर्य पर पहुंच जाए जो कि कठिन है, हम भस्म हो जाएंगे। यदि पहुंचना सम्भव हो जाए। वह सूर्य देवता हैं
“श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||
( श्रीमद् भगवतगीता 4.1)
अनुवाद: भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।
भगवान् ने बहुत लाखों वर्ष पूर्व भगवत गीता का ज्ञान सूर्यदेव को दिया था। हम नहीं लेकिन कोई ना कोई तो वहां जा सकता है। वहां सूर्य देवता है जोकि एक रथ में विराजमान है। इस रथ के सात घोड़े हैं
रवि, सोम, मंगल, बुध आदि सात घोड़े हैं। वहां सारी व्यवस्था है। पूरा लोक है। कई सारे जन है। जब हम यह विशेषकर सूर्य का दर्शन करते हैं और यहां दूर से नमस्कार करते हैं और हम समझते हैं कि सूर्य गोलाकार है। समाप्त। इतना ही हमारा ज्ञान होता है। लेकिन हम वहां पहुंचकर सेल्फी वगैरह खींच सकते हैं। सूर्य देवता के पास खड़े होकर सेल्फी खींचकर दिल्ली या फिर जहां के भी हम हैं, वहां लौट कर दिखाएंगे कि हम सूर्य से लौटे हैं। देखो यह सेल्फी है। वैसे सूर्य देवता का दर्शन या उनसे हाथ मिला कर आना, यह भगवान की तुलना जैसे ही है। भगवान का व्यक्तित्व है, नाम है, रूप है, गुण है, भगवान् लीला खेलते हैं। ब्रह्म ज्योति का अपना कोई अलग से नाम, धाम, काम नहीं होता। वह तो भगवान् की ज्योति है।
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||
( श्रीमद् भगवतगीता 15.15)
अनुवाद : मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।
परमात्मा, सभी के हृदय प्रांगण में विराजमान हैं। ब्रह्मज्योति सर्वत्र है, प्रकाश सर्वत्र होता है। परमात्मा हमारे हृदय में है। हम उनको ही भगवान् कह देते हैं। भगवान् लेकिन तकनीकी रूप से भगवान नहीं हैं।वह परमात्मा है। सुनने में आता है और ब्रह्म संहिता में भी कहा है
एकोऽप्यसो रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः । अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुष तमहं भजामि ॥
( ब्रह्म संहिता 5.35)
अनुवाद – शक्ति और शक्तिमान दोनों अभिन्न ( भेदरहित ) एक ही तत्त्व हैं । करोड़ों – करोड़ों ब्रह्माण्डकी रचना जिस शक्तिसे होती है , वह शक्ति भगवान्में अपृथकरूपसे अवस्थित है सारे ब्रह्माण्ड भगवान्में अवस्थित हैं तथा भगवान् भी अचिन्त्य – शक्तिके प्रभावसे एक ही साथ समस्त ब्रह्माण्डगत सारे परमाणुओंमें पूर्णरूपसे अवस्थित हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ ॥
भगवान् कहाँ कहाँ हैं? अण्डान्तरस्थ अर्थात ब्रह्मांड में भगवान हैं। यहां विष्णु का उल्लेख होता है। क्षीरोदकशायी विष्णु परमात्मा है। ब्रह्मांड के गर्भोदकशायी विष्णु हैं विष्णु के तीन प्रकार है इनको भी अवतार कहा जाता है। पुरुष अवतार। पूरे ब्रह्मांड का एक परमात्मा है। यदि ब्रह्मांड को एक रूप, एक शरीर, एक विग्रह हम मान लेते हैं जैसे कि हमारा शरीर है। हमारे शरीर में परमात्मा है। यह हमारा पिंड हुआ। यह जो ब्रह्मांड रूपी शरीर है उसके परमात्मा गर्भोदकशायी विष्णु हैं। हमारे शरीर, हृदय में जो परमात्मा है, वह क्षीरोदकशायी विष्णु हैं। क्षीरोदकशायी विष्णु हमारे ह्र्दय में ही नहीं हैं अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं अपितु भगवान् कण कण में हैं। आपने सुना है? आप सुनते रहते हो।कण कण में जो भगवान् है, वह परमात्मा है। ब्रह्मज्योति और परमात्मा के स्त्रोत भगवान् हैं। जो अपने धाम में निवास करते हैं इस धरातल पर भी प्रकट होते हैं।
कृष्ण जिनका नाम है,
गोकुल जिनका धाम है।
ऐसे श्रीभगवान को बारम्बार प्रणाम है।
ज्योति को प्रणाम करना कठिन है। ज्योति आपके साथ बात इत्यादि नहीं करेगी। जो मायावती अद्वैतवादी या निराकार, निर्गुण वाले होते हैं, वह ब्रह्म की उपासना करते हैं। प्रकाश की उपासना करते हैं
और प्रकाश बनना चाहते हैं। ज्योत में ज्योत मिलाना चाहते हैं। जिनको आप योगी कहते हैं। वैसे योगियों के भी कई प्रकार हैं। लेकिन उसमें से जो ध्यान लगाने वाले योगी हैं।
दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
(श्रीमद भागवतम 12.13.1)
सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद – क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि प्र में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता – ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ ।
श्रीमद्भागवत के द्वादश स्कंध में यह वचन है कि ध्यान अवस्था में योगी देखते अथवा, दर्शन करते हैं अर्थात वे अपने हृदय प्रांगण में जो विराजमान परमात्मा है उनका दर्शन करते हैं। निराकार निर्गुण मायावादी इत्यादि ब्रह्म ज्योति की उपासना करते हैं। प्रकाश और ब्रह्म ज्योति बनना चाहते हैं। ज्योत में ज्योत मिलाने की बात करते हैं। यह योगी पार्टी परमात्मा की खोज में है। परमात्मा का दर्शन चाहती है।
जो भक्ति योगी होते हैं, (आप जैसे भक्ति योगी) वे केवल ब्रह्म ज्योति का साक्षात्कार या दर्शन या केवल परमात्मा का ही ध्यान ( समाधि में रत जो अष्टांग योगी होते हैं, वे भी ध्यान करते हैं) से प्रसन्न नहीं होते। भक्ति योगी भगवान तक पहुंच जाते हैं।
कृष्णस्तु भगवान स्वयं
कृष्ण, भगवत गीता में कहते हैं।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||
( श्रीमद् भगवतगीता 10.8)
अनुवाद:-मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत हैं | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
भगवान् से सब कुछ निकलता है व प्रभावित होता है। वे कृष्ण हैं, राम व कई उनके अवतार हैं। संभवामि युगे युगे भी चलता रहता है।
ऐश्र्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्र्चैव षण्णां भग इतींगना।
( विष्णु पुराण 6.5.47)
अनुवाद:- ‘ पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् उन्हें कहा जाता है जो छह ऐश्वर्यों से परिपूर्ण हैं- जिनके पास पूर्ण बल, यश, धन, ज्ञान, सौंदर्य और वैराग्य है।
चैतन्य चरितामृत में पहले अध्याय के तीसरे श्लोक की तीसरे पंक्ति में कहा है ,जहां ब्रह्म और परमात्मा का उल्लेख हुआ था। जो भगवान् है वह तो यही है। चैतन्य चरितामृत में कहा जा रहा है- यही है अर्थात चैतन्य महाप्रभु हैं।
वे ब्रह्म, परमात्मा और स्वयं षड् ऐश्वर्य पूर्ण हैं। ऐसे ऐश्वर्य आपको ब्रह्म या परमात्मा में नहीं मिलेंगे। यह भगवान् का विशिष्ट है, भगवान की पहचान है। यह षड् ऐश्वर्य पूर्ण हैं। ऐश्र्वर्यस्य समग्रस्य
वीर्यस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्र्चैव अर्थात वे षड् ऐश्वर्य पूर्ण भगवान् होते हैं। यह ब्रह्म, परमात्मा में ऐश्वर्य नहीं होता। यह षड ऐश्वर्य केवल पूर्ण भगवान में ही होते हैं।
भगवान् स्वरूप में सब प्रकट होता है।
यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु – भा । य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश – विभवः ।। षड् – ऐश्वर्यः पूर्णो य इह भगवान्स स्वयमयं न चैतन्याकृष्णाजगति पर – तत्त्वं परमिह ॥
अनुवाद- जिसे उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म कहा गया है , वह उनके शरीर का तेजमात्र है और जो भगवान अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में जाने जाते हैं , वे उनके अंशमात्र हैं । भगवान चैतन्य छहों ऐश्वर्यों से युक्त स्वयं भगवान् कृष्ण हैं । वे परम सत्य हैं और कोई भी अन्य सत्य न तो उनसे बड़ा है , न उनके तुल्य है।
न चैतन्याकृष्णाजगति पर – तत्त्वं परमिह (इस पर हमारा ध्यान जाना चाहिए, कि क्या कहा है) दोनों का नाम लिया है। चैतन्याकृष्णा। कृष्ण से या कृष्ण चैतन्य से ऊंचा तत्व इस संसार में नहीं है। पर – तत्त्वं परमिह अर्थात ब्रह्मांड में या संसार में श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक ही है।इनसे और कोई और ऊंचा तत्व नहीं है। भगवान् गीता में कहते हैं। मेरे से कोई ऊंचा नही हैं। यहां पर भी कहै जा रहा है हरि! हरि!
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय | मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||
( श्रीमद् भगवतगीता 7.7)
अनुवाद: हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं कि उनसे कोई और ऊंचा तत्व या व्यक्तित्व नहीं हैं। श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसे व्यक्तित्व हैं। एक ही बात दोनों ग्रंथों में अर्थात श्रीमद् भागवतम् और चैतन्य चरितामृत में हैं। दो लेखक हैं, दो भाषाएं हैं एक में संस्कृत है, एक में बंगाली है। एक के रचयिता श्रील व्यासदेव है और दूसरे के कृष्णदास कविराज गोस्वामी है । दोनों ने एक ही सिद्धांत कहा है। इसे भली भांति ही समझियेगा व और अधिक अध्ययन करके आप अपना समाधान करो। आपस में चर्चा करो।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||
( श्रीमद् भगवतगीता 10.9)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
ऐसा करने के उपरांत भी कोई प्रश्न बचता है तब आप कल चैट बॉक्स में टाइप कीजिएगा उस पर विचार करेंगे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे।।
कल मिलेंगे।
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जप चर्चा
11 जून 2021
पंढरपुर धाम
हरे कृष्ण, 816 स्थानों से भक्त जप के लिए आज जुड़ गए हैं। मस्तिष्क के लिए भोजन कभी कभी कहते हैं। आज का विचार कह सकते हैं। केवल विचार ही नहीं सुविचार अच्छा विचार। मस्तिष्क के लिए खुराक आप चाहते हो कि, पेट भर गया? पेट कभी भरता नहीं। आपकी चाह कुछ बढती रहती है। आप लोभी बन जाते हो। लोभ बढ़ता है और फिर और मांग बढ़ने लगती है। अन्योर, अन्योर, और दे दो, और दे दो।
हरि हरि, आप जब चाहते हैं। जिसकी चाह होती हैं या इच्छा होती हैं वह चीज कहो पहले भी उसका अस्तित्व होता है। मैं फिर सिद्धांतों की बात कर रहा हूं, उसको ध्यान से सुनिएगा। वह चीज या चाह है, वह चाह है पहले ही उसका अस्तित्व रहता है। दोनों साथ में ही होते हैं। वह चाह, कोई इच्छा है और फिर जो चाहते हैं। उसका अस्तित्व पहले ही होता है। वांच्छा कल्पतरुभैष्य हम करते हैं। वांच्छा फिर वांच्छा कल्पतरु भी होता ही है। कल्पतरु आपकी इच्छाएं पूरी करने वाला वृक्ष। हमारी इच्छा भी होती ही है, इच्छा पूरी करने वाला वृक्ष भी होता है। यह दोनों संबंधित ही है।
हरि हरि, जैसे हिरण कभी रेगिस्तान पहुंच जाए तो, रेगिस्तान में वह जल देखाता है। वहां उसके प्यास और भी बढ़ जाती है। रेगिस्तान में उसके प्यास और भी बढ़ जाती हैं। और तीव्र इच्छा भी होती हैं पानी के लिए। पानी के लिए वह दौड़ता है। खोजता है जल को, लेकिन रेगिस्तान में जल कहांका। वहां तो जो जल दिखता है उस जल का नाम है मृगजल। मृगजल कुछ दूरी पर दिखता है तो, हिरण को लगता है कि वहां पर जल है। पास जाने पर पता चलता है अरे यहां तो जल ही नहीं हैं। फिर इधर उधर देखता है फिर से वह कुछ दूरी पर पुनः मृगजल दिखता है। क्योंकि उसके अंदर जल की तीव्र इच्छा होती है। जल की चाह है। पानी कितनी मांग है। उसको इतनी प्यास लगी हैं। उसको बुझाने के लिए जल की खोज में है। किंतु उससे मृगजल ही दिखता है। हिरण को चाहिए जल। जिसको वह देख रहा है वह नहीं है जल। वैसे जल का अस्तित्व है। हिरण को जल की आवश्यकता है। सभी जीवो को जल की आवश्यकता है। पानी को वैसे जीवन भी कहा है। सभी जीव चाहते हैं पानी। या रेगिस्तान में हिरण भी चाहता है पानी। हिरण रेगिस्तान में पानी को ढूंढ रहा है। रेगिस्तान में पानी नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि पानी है ही नहीं। पानी का अस्तित्व है। और खोजते जाएगा, खोजते जाएगा तो कभी रेगिस्तान से राजस्थान से हरियाणा तक पहुंच जाएगा। रेगिस्तान से जयपुर जोधपुर पहुंच जाएगा। वहां उसको जल मिल जाएगा और जल पीकर वह अपनी प्यास बुझा सकता है।
हरि हरि यह सब कहने का तात्पर्य क्या है, हम भी भगवान को चाहते हैं। चाहते हो कि नहीं? मैंने कहा हम, हममें केवल मैं नहीं, आप भी आते हो। इसलिए पूछा कि आप चाहते हो कि नहीं क्योंकि मैंने हम कहां। तो हममें आप भी आ गए। हम चाहते हैं भगवान को। हम भगवान को चाहते हैं, मतलब क्या इसका अर्थ क्या हुआ? भगवान होने चाहिए। वह हिरण जल को चाहता था। चाहता है। सभी के जीव चाहते हैं जल को। जल का अस्तित्व होता है। तो फिर सभी जीव चाहते ही हैं जल को या हिरण भी। तो उसी प्रकार जब जीव चाहते हैं।
दर्शन दो घनश्याम मोरी अखियां प्यासी रे
हमारी ओर से मीराबाई भी वही राजस्थान की मीराबाई कह के गई उसकी आंखें प्यासी हैं। उनकी आंखें प्यासी थी। हिरण का मुख प्यासा था। मीराबाई को लगी है प्यास। मीराबाई के आंखों पर लगी है प्यास। तो प्यास कैसे बुझेगी, घनश्याम के दर्शन से बुझेगी। मीराबाई ने कहा या जीवो में कहां। सभी जीवो में नहीं मनुष्य में कहो भगवान के दर्शन की लालसा, भगवान के दर्शन की इच्छा जो उत्पन्न होती हैं। भगवान की कृपा से जिज्ञासु बनता है जीव। जिज्ञासु बनना चाहिए जीव को मनुष्य शरीर में। जीव वैसे कहा है वेदांत सूत्र में, आप मनुष्य हो कि नहीं या मनुष्य बने हो कि नहीं। यह कैसे सिद्ध होगा, वेदांत सूत्र सुना होगा।
वेदांत सूत्र या व्यास सूत्र भी कई कई नाम है उसके। तो पहला सूत्र है, “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” अथ मतलब अब, अतः मतलब इसलिए। तुम अब मनुष्य बने हो ब्रह्म जिज्ञासा करो। जिज्ञासु बनो। ब्रह्म जिज्ञासा करते हो मतलब तुम मनुष्य बन गए हो नहीं तो, द्विपाद पशु। द्विपाद पशु, दिखते तो हो मनुष्य जैसे लेकिन अथातो ब्रह्म जिज्ञासा नहीं है, जिज्ञासु नहीं हो तुमको भगवान के दर्शन की लालसा इच्छा नहीं है, तुम्हारे आंखों को भगवान के दर्शन की प्यास तुम मनुष्य नहीं हो। महत्वपूर्ण बात तो यही है, जिज्ञासा है भगवान के संबंध में तो भगवान भी हैं। कई लोग कहते हैं, भगवान नहीं हैं। तो भगवान नहीं है ऐसी बात नहीं है। भगवान का अस्तित्व नहीं हुआ, उनके लिए नहीं है। भगवान का अस्तित्व है. हां उनके लिए भगवान नहीं है। मतलब वह मनुष्य, मनुष्य बने हैं नहीं है।
आहार, निद्रा, भय, मैथुन बहुत व्यस्त हैं, किस में आहार, निद्रा, भय, मैथुन हो गया तो जीवन सफल। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ऐसा कहा है, मनुष्य का वैशिष्ट्य क्या है? अथातो ब्रह्म जिज्ञासा है। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः व्यक्ति जब धार्मिक बनता है। धर्म को अपनाता है वही एक विशेषता है मनुष्य जीवन की। बाकी तो काम धंधे पशु जैसे ही है आहार निद्रा भय मैथुन सामान्य पशु और मनुष्यो में।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो किंतु धर्म ही एक अतिरिक्त विशेषता है। आहार निद्रा भय मैथुन तो सामान्य है, पर धर्म अतिरिक्त है। हम धार्मिक बनते हैं। कृष्ण भावनामृत बनते हैं या बनने के लिए साधना करते हैं। तो फिर हम मनुष्य हैं इसीलिए कहा है, अथातो आप मनुष्य बने हो अब जिज्ञासु बनो। प्रश्न पूछो मैं कौन हूं?
के आमि, ‘केने आमाय जारे ताप-त्रय सनातन गोस्वामी ऐसे प्रश्न पूछ रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को ही। मैं कौन हूं और मुझे इतने सारे कष्ट क्यों भोगने पड़ते हैं। ताप-त्रय नहीं चाहते हुए भी।
भगवान है। कृष्ण का अस्तित्व है। हरि हरि, यह मुझे भी अलग से घोषणा करने की जरूरत नहीं है या फिर मैं अलग से ट्रस्ट का निर्माण कर रहा हूं। ओ कृष्ण का अस्तित्व है। मेरे कहने के पहले ऐसा समय नहीं था। कृष्ण ने कहा है, “मैं नहीं था, तुम नहीं थे, हे अर्जुन यह राजा नहीं थे। और हम सब अभी हैं मैं हूं तुम हो मेरे समक्ष रथ में विराजमान हो और राजा वहा खड़े हैं भविष्य में भी रहेंगे।” हमें जो भगवत प्राप्ति की लालसा है। इच्छा है। यह साक्षी है जैसे भगवान के अस्तित्व का। जैसे वह हिरण को लगी है पानी की चाह। हिरण को लगी है प्यास। पानी है, पहले पाने की चाह, पानी की प्यास इन दोनों का एक ही समय अस्तित्व है। जीव भगवान को चाहता है। वह जिसको चाहता है, वह भगवान भी है। और उसकी चाह भी हैं। आध्यात्मिक जगत में तो भगवान को सदैव ही चाहते हैं।
हम सदैव चाहते हैं। भगवान की चाहत जो है उनके निकट भी रह सकते हैं। हम सायुज्य सालोक्य सामिप्य सार्ष्टी सारूप्य यह मुक्ति के प्रकार हैं। यह मुक्तिया भी कहे हैं। जीव तो भगवान के सानिध्य सालोक्य उसी लोक में वैकुंठा में ही रहते हैं। जो जीव उनको सालोक्य मुक्ति प्राप्त हुई है। सामिप्य है। सालोंक्य हैं। सारूप्य है रूप भी भगवान जैसा ही। वैकुंठ में जाओ तो आप थोड़ा कठिनाइयां महसूस करोगे। अरे इसमें भगवान कौन है और भक्त कौन है। एक जैसे ही दिखते हैं। सारूप्य मुक्ति में। फिर आपको थोड़ा निहारना होगा उनके गले में क्या है? कौस्तुभ मणि है। हां यह कृष्ण है और बाकी हो गए फिर भक्त। सार्ष्टी मुक्ति भगवान जैसा वैभव। बाप जैसा बेटा कहो। वहा वैभव की क्या कमी है। किसी के बाप का थोड़ी है हम कहते रहते हैं गोलोक में बैकुंठ में हम कह सकते हैं। यह जो प्रॉपर्टी हैं, यह मेरे बाप की ही है। कौन है मेरे बाप, मेरे बाप विठोबा है। अहम बीजप्रदःपिताः
राधा कृष्ण पिता है तो कृष्ण की प्रॉपर्टी उनके पुत्रों की पुत्रीयों की होती है। ईशावास्यमिदं सर्वं कहां हुई है। इस प्रकार की मुक्तिया भी कई लोगों को प्राप्त होती है। सायुज्य मुक्ति भी है। यह मुक्ति वैष्णव नहीं चाहते हैं। कैवल्यं नरकायम, तो आप समझ गए कि, मैं कुछ महत्वपूर्ण बात बताना चाहता हूं। पानी की जो चाह या प्यास है। तो पानी तो होता ही है, होना ही चाहिए। तभी तो पानी की प्यास की व्यवस्था की है। यह दोनों व्यवस्था भगवान की ही है। भगवान ने पानी भी निर्माण किया या भगवान की एक शक्ति ही है, जल, पानी। पृथ्वी आप तेज वायु आकाश पंचमहाभूत है इन पंचमहाभूत में से एक तत्व पानी हे भगवान की शक्ति है और फिर जीवो में भगवान ने यहां वैसे शरीर के लिए भी पानी चाहिए।
जो है ब्रह्मांड में वह है हमारे पिंड में। तो हमारा जो पिंड है, जो योनिया है 8400000 योनिया हैं, इनका भी जो अस्तित्व है, यह जो बने हैं वे भी पृथ्वी आकाश वायु के मिश्रण से ही बने हैं। हरि हरि। फिर शरीर के लिए पानी चाहिए जो बाहर पानी होता है, उसको अंदर कर लेता है उसको पी लेता है। ताकि मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना पिण्डे पिण्डे मतिः भिन्ना” ताकि पिण्ड भी बना रहे। ब्रह्मांड के साथ पिण्ड भी बना रहे। क्योंकि ब्रह्मांड और पिंड उसी धातु के है बनावट एक ही है, एक ही तत्व है। एक जैसे वैसे कम अधिक मात्रा में। तो उस जीवो में, शरीरों में, योनियों में भगवान ने यह इच्छा पानी की इच्छा या अन्न की भी इच्छा अन्नादभवंती भूतानि अन्न के बिना जी नहीं सकते पानी ही जीवन है इसकी आवश्यकता है। इसकी बहुत बड़ी मांग है। अन्न, पानी, हवा इसकी बहुत बड़ी मांग है। जो बाहर होता है जिसको हम अंदर लेते ही रहते हैं। तो इसकी जो मांग है इस मांगों से ही पता चलता है कि इन तत्वों का अस्तित्व है।
और उसकी पूर्ति भी होती है। तो जीव अथातो ब्रह्मजिज्ञासा जिज्ञासु बनता है। भगवान को फिर चाहता है, सुन सुन के फिर और भी इच्छा बढ़ जाती है। वैसे रुक्मिणी सुन सुन कर मुकुंद के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम के संबंध में, द्वारकाधीश के संबंध में सुन सुन कर और अधिक अधिक इच्छा जगती रही। और फिर इच्छा इतनी तीव्र हुई कि उन्होंने फिर सोचा कि मेरा विवाह होगा तो कृष्ण के साथ द्वारकाधीश के साथ ही। और हे देवी नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ऐसी प्रार्थनाएं लेकर वह देवी के पास पहुंचती है यहां कौण्डिन्य पुर मे रुक्मिणी पहुंची और गोपियां पहुंची वहां जमुना के तट पर कात्यायनी देवी के पास। तो उस प्रार्थना के अनुसार भी भगवान प्राप्त हुए। हरि हरि। तो भगवान है, कृष्ण है, उनका अस्तित्व है। यह कहने के साथ-साथ मुझे ऐसा लगता है कि मैंने इसे स्पष्ट रूप से कह दिया है। या उसी किसी को थोड़ा और एक प्रकार से भी हम समझ सकते हैं।
भगवान ने हमको कहा ही है हमको कहां, अर्जुन को कहा ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः हम भगवान के अंश हैं। ममैवांशो मम एव अंशः। मैं ज्यादा व्याख्या नहीं करूंगा मम एव अंशः हम जो अंश हैं, जो बोल रहे हैं उनके हम अंश है। यहां तो कृष्ण भगवान उवाच भगवान श्री कृष्ण बोल रहे हैं अर्जुन से कह रहे हैं। मम एव अंशः जो जीव है वह मेरे ही अंश है और किसी दुर्गा शिवा काली ब्रह्मा इनके अंश नहीं है मम एव अंशः। एव पर ध्यान देना होगा, एव को रेखांकित करना होगा। हम ऐसे ही झट से कह देते हैं ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मम एव अंशः ऐसे तीन शब्द है। ममैवांशो मम एव अंशः मेरे ही अंश है और किसी के नहीं है यह तात्पर्य है। इसीलिए एव इस शब्द का या अव्यय का उपयोग हुआ है। सभी जीव मेरे ही अंश है। और फिर इसीलिए भी सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो और मैं ही सबके हृदय प्रांगण में हूं। हमारे ह्रदय में जो भगवान है जो सुनते रहते हैं, वह कौन से भगवान हैं? कृष्ण भगवान ही तो बोल रहे हैं यहां और वे तो घोषित कर रहे हैं मैं तुम्हारे ह्रदय में हूं। तो उस भगवान के हम अंश है।
कृष्ण कहे मम एव अंशः हम अंश हैं। तो टेक्निकली फिर भगवान हो गए अंशी इसको पहले भी हम कहे हैं तो समझ जाओ। एक होते हैं अंशी मतलब पूर्ण या स्रोत। और फिर अंशी के होते हैं अंश तो हम हैं अंश, अंशी भगवान के। अंशी मतलब एंशी नहीं मराठी में कहते हैं एकोणएंशी, एंशी,एक्याएंशी, ब्याएंशी तो वह एंशी नहीं है यह मराठी भाषिक भक्त यह अंशी चल रहा है। तो भगवान है अंशी और हम हैं अंश। और फिर यह थोड़ा निरीक्षण और परीक्षण करने से यह पता चलता है इस संसार में की अंश अंशी की ओर दौड़ता रहता है। अंश अंशी को प्राप्त करना चाहता है और प्राप्त होता ही है अंततोगत्वा। या जैसे निम्नगाना यथा गङ्गा जो जल होता है, फिर नदी का जल है और भी कई सारे कूए का जल है या यहा का जल वहा का जल।
यह जो जलाशय है यह अंश हुआ आंशिक जल वहा है। तो इस जल का यह जल अलग-अलग स्थानों पर या नदी भी बह रही है। विशेष रूप से हमारे काम की नदी है अभी जैसे हम सुना रहे हैं समझा रहे हैं। तो मान लो नदी है अंश या नदी में जो जल है वह अंश है आंशिक रूप में है। तो अंशी कौन है इसमें? अभी तो आपका मुंह हमने बंद करके रखा है सारे म्युटेड हो या बोलोगे तो भी फिर सुनाई नहीं देगा। तो समुद्र सागर है अंशी जिसका जलाशय असीम है अनंत है तो समुद्र है अंशी। और दूसरे जो अलग-अलग जलाशय या नदी का जो जल है वह है अंश। तो क्या देखा जाता है? यह जो अंश है आंशिक जल है नदी के रूप में तालाब कुआं यह सारे सागर की ओर इनका प्रवास चलता रहता है।
निम्नगाना निम्नग नदी को कहा ही है निम्नग नदी का एक नाम है। संस्कृत में निम्न मतलब नीचे ग मतलब जाने वाली। निम्न तो पृथ्वी पर पृथ्वी का जो सबसे नीचा स्थान होता है वह होता है समुद्र। और वहां से फिर सारी ऊंचाई नापी जाती है। समुद्र के लेवल से यह हजार फिट है यह हो गया 5000 मीटर और हिमालय का शिखर इतना ऊंचा है। समुद्र का जो लेवल है वह सबसे नीचा माना जाता है और वहां से सारी ऊंचाई गिनी जाती हैं। तो निम्नग नदी पहाड़ या जहां-तहां से पहाड़ से यह अधिकतर उत्पन्न होती है विस्तृत होती है और फिर समुद्र की ओर वह दौड़ती रहती है। तो समुद्र होता है अंशी, और फिर कुवे का भी जल है नीचे से पृथ्वी से वैसे सागर की और ही बहता जाना उसका प्रयास रहता है। या तालाब का जल, कुवे का जल, यह जल वह जल सभी तो अंश रूप में है, और सभी अंशी की ओर जाने के प्रयास में अहर्निश लगे रहते हैं। या नदी के रास्ते में कोई रूकावट डाल दी बांध डाल दिया तो कभी-कभी नदी क्या करती है, उसे तोड़ के, तोड़फोड़ के दौड़ पड़ती है समुद्र की ओर। कोई रोक नहीं पाता। हरि हरि ! और फिर हम लोग जो आग जलाते हैं, जलाते हैं कि नहीं आपके चूल्हे की आग ? वह आग किस और और जाती रहती है ? ऊपर जाती है। वैसे आग की जो ज्वालाएँ है उसे शिखा कहते है। दीपशिखा दीपक की भी शिखा उसकी चोटी।
हम देखते हैं कि आग ऊपर जाते रहती है। आग हमेशा ऊपर की ओर जाती हैं और पानी नीचे की ओर जाता है समुद्र की ओर। आग जाती रहती है अग्नि जाती रहती है फिर हम चिंता करते हैं, आग है या आग लगी है जंगल को, दावाग्नि आसमान की ओर ऊपर जाती दिखती है। तो ऊपर क्यों जाती है ? या फिर ठीक है, जो कोई छोटी आग है या ज्यादा बडी आग है, यह सारी आग का अंश है, तो आग और अग्नि का अंशी कौन है? कौन है अग्नि का अंशी ? कौन है ? सारे कहो, हां ऊपरवाला, ऐसे ऊपर करके दिखा रहे हैं, कौन है ? संकेत तो मिल रहा है आपको, सूर्य है सारे अग्नि का तेज का, प्रकाश का स्रोत सूर्य है।
सूर्य का गोला जल रहा है, आग बबूला है, तो वह है अंशी। सारी जो आग है, अंशी की और जाने का प्रयास या दौड़ती रहती है। तो इतना ही अभी कहते हैं और फिर निष्कर्ष यही हुआ कि, तो हम हैं अंश और अंशी कौन है? अंशी है भगवान। तो अंश का जीव का भगवान की और जाना क्या है, यह स्वाभाविक है। सिद्धांत क्या है अंश अंशी की ओर जाता है, अंश अंशी को प्राप्त करना चाहता है। अंश अंशी का अंग बनना चाहता है। ऐसा नियम है, सृष्टि का ऐसा नियम है और भी कई उदाहरण मिलेंगे पर समय बीत रहा है, तो जीव जो अंश है अंशी भगवान का उस जीव का भगवान की और जाना, वापिस अपने घर जाना, भगवान के धाम जाना, हाथी है ना घोड़ा है लेकिन जाना तो है पैदल ही है ,जाना है पदयात्रा करते जाओ, या वहां से विमान आएगा आपको लेने के लिए। तो वही जाना है, वह स्वाभाविक है। तो बाकी सब आना जाना तो कृत्रिम है, निसर्ग के विरुद्ध जाना है। हम माया के अंश नहीं है, हम किस के अंश है?
भगवान के अंश हैं? तो माया की ओर जाना, इसलिए उसे कहा भी है वह विमुख हुआ। एक है विमुखता और दूसरा है सन्मुखता। तो भगवान की ओर जाना यह सन्मुख सही है,.और उल्टी और जाना विमुखता है, मूर्खता है।
अवजानन्ति मां मूढा है चार प्रकार के लोग मेरी ओर नहीं आते.है
” न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः |
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || १५ ||”
अनुवाद
जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |
और चार प्रकार के लोग मेरी ओर आते है गीता में कृष्ण कहे हैं
“चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || १६ ||”
अनुवाद
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी |
तो चार प्रकार के लोग मेरी और आते हैं और चार प्रकार के लोग हैं जो मुझसे दूर जाते हैं। तो एक पार्टी है स्विकृतिनः सज्जन होते हैं और दूसरे होते हैं दुष्ट या दुर्जन, जो दूर जाते हैं उल्टा काम धंधा करते हैं। जीव के लिए, पहले तो हमें समझना चाहिए हम जीव है। मैं जीव हूं शरीर नहीं हूं , मैं मन भी नहीं हूं, मैं बुद्धि भी नहीं हूं, आध्यात्मिक जीव हु तो उस आत्मा का जीवात्मा का भगवान की ओर जाना ही स्वाभाविक है और ऐसा प्रयास करना चाहिए। हित्वा अन्यथा रुपम स्वरूपेन व्यवस्थितः बाकी सब काम धंधे या रूप भी, स्वरूप भी हित्वा त्याग कर स्व-रुपेण व्यवस्थितिः अपने रूप में ये जीव कृष्ण दास एइ विश्वास कर लो तो आर दुख नाय तो जीव का जो स्वरूप है यह कृष्णदास है कृष्ण का दास है। तो दास का स्वामी की ओर जाना स्वाभाविक है। ठीक है, तो लगे रहो और थोड़ा समझ भी जाओ। थोड़े कुछ तर्क कहो या कुछ न्याय की मदद से आश्वस्त हो जाओ की आप कौन हो? क्या लक्ष्य है? कृष्ण की और आगे बढ़ते रहो, पीछे मुड़कर नहीं देखना। ऐसे निष्ठावान बनो। ठीक है, हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
10 जून 2021
848 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं । ( एक भक्त को संबोधित करते हुए परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज ) हे राम नाथ ! तुम्हारा भी लोकेशन । ब्रह्म देश (लैंड मार्क), ब्रह्मा का नाम वैसे, ब्रह्म का देश हुआ करता था ‘ब्रह्म देश’ । अभी और कुछ नाम रखा है । जैसे भारत का नाम इंडिया हो गया । हरि हरि !! पाकिस्तान तो कोई खली स्थान , या था एक समय हिंदुस्तान । भागवत में जैसे हम कल पढ़ रहे थे देवताओं ने कहा इस पृथ्वी को ही भारत कहा । जो इंडिया बचा हुआ है उसको भारत कह रहे हैं । भारत माता की ( जय ! ) । भारत भूमि का महिमा का गान स्वयं देवता ही कर चुके हैं ।
एतदेव हि देवा गायन्ति अहो अमीषां किमकारि शोभनं प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः ।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि नः ॥
( श्रीमद् भगवतम् 5.19.21 )
अनुवाद:- चूँकि आत्मसाक्षात्कार के लिए मनुष्य – जीवन ही परम पद है , अतः स्वर्ग के सभी देवता इस प्रकार कहते हैं – इन मनुष्यों के लिए भारतवर्ष में जन्म लेना कितना आश्चर्यजनक है । इन्होंने भूतकाल में अवश्य ही कोई तप किया होगा अथवा श्रीभगवान् स्वयं इन पर प्रसन्न हुए होंगे । अन्यथा वे इस प्रकार से भक्ति में संलग्न क्योंकर होते ? हम देवतागण भक्ति करने के लिए भारतवर्ष में मनुष्य जन्म धारण करने की मात्र लालसा कर सकते हैं , किन्तु ये मनुष्य पहले से भक्ति में लगे हुए हैं ।
देवों ने गान किया ,भारत भूमि के महिमा का गान किया । जिस गान को स्वयं सुकदेव गोस्वामी महाराज सुना ए राजा परीक्षित महाराज को । राजा परीक्षित ही जो भारत बंसी , इसलिए उनको भरत या इसलिए भी उनको इस देश का या इस पृथ्वी का नाम भारत हुआ । तो भागवत् में भारत भूमि की गौरव गाथा गाई है । देवता गा रहे हैं । सुकदेव गोस्वामी उनको सुनाएं । और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु …
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार ।
जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥
( चैतन्य चरितामृत आदि-लीला 9.41 )
अनुवाद:- जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना
चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।
ऐसे चैतन्य महाप्रभु ने कहे ,भारत भूमि के उल्लेख किया । यही तो बात है “करि’ कर पर-उपकार” । भारत भूमि के क्या वैशिष्ट्य है ? यहां के जन परोपकारी होते हैं , औरों को उपर करते हैं । हरि हरि !! अगर नहीं करते हैं तो वो नहीं रह गए तथाकथित भारतीय या हो गए इंडियन । फिर परोपकार नहीं करते । हरि हरि !!
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”
एशी भी वाणी है । जननी और जन्मभूमि या जब कहा जा रहा है “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है ऐसा देवताओं ने कहा भी । वह जन्मभूमि भारत भूमि है । भारत भूमि हे तो फीर “स्वर्गादपि गरीयसी” । अमेरिका भूमि अभी अमेरिकन भूमि बन गई । या कई सारी भूमि अब पाकिस्तान इस स्थान उसस्थान बन गए । उन संस्थान की जन्मभूमि यों को “स्वर्गादपि गरीयसी” इंसानो .. उनको नहीं कहा जा सकता । इस भारत भूमि को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ भूमि क्यों कहा है ? कोई अंतर तो होगा ? और वह है ..और भूमिया और स्थान भोग भूमिया है ‘भोग भूमि’ । स्वर्ग भोग भूमि है । और अमेरिका का क्या कहना ! लैंड ऑफ अपॉर्चुनिटी (अवसर की भूमि) भोगी भाग चलते हैं । भोग विलास चलते हैं । हो सकता है रसिया, चाइना, अनफॉर्चूनेटली (दूरदेव से) इंडिया भो है । तो वह स्थान भोग भूमि हो गई । तो फिर कुछ पॉकेट से ही रहेंगे जो हम भारत भूमि कह सकते हैं । आपने अपने घर ही एक तो भोग भूमि और दूसरा तपोभूमि तो भारत भूमि का यह विशेष वैशिष्ट्य है ‘तपोभूमि’ ,जहां तप होता है । जहां के जन तपस्या करते हैं । मुझे पहला आदेश भगवान ने ब्रह्मा को दिए प्रथम जीव जो प्रकट हुए , और ऐसा समय था कि बस एक भगवान और एक ही जीब ब्रह्मांड में थे । भगवान ने; भगवान कहे ‘तप’ ‘तप’ ब्रह्मा समझ गए ओ’ ‘तपस्या’ तपस्या करनी चाहिए । और उन्होंने तपस्या की । और यह बन गए तपोभूमि ।
ऋषभ उवाच नार्य देहो देहभाजां नलोके कष्टान्कामानहते विड्भुजा ये ।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम् ॥
( श्रीमद् भगवतम् 5.5.1 )
अनुवाद:- भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा – हे पुत्रो , इस संसार समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन – रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर – सूकर भी कर लेते हैं । मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने लिए वह अपने को तपस्या में लगाये । ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है , तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलता है , जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है ।
भगवान ऋषभदेव पुत्रों को कहें पुत्रों , क्या करो ?
“तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धधेरास्माद्ब्रह्मसौख्य वनन्तम्” तपस्या करो तपस्या करो ! यह भारत भूमि तपोभूमि है । तपस्या करने से क्या होता है ? येन सत्त्वं शुद्धधे , फिर शुद्धिकरण होता है , दिमाग जो मेली हे ही , खतरनाक तो दिमाग , मन का प्रदूषण …
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥
( श्रीमद् भगवतम् 12.3.51 )
अनुवाद:- हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।
कली के कई दोष यह हमारे मन में घुस जाते हैं । मनको कलुषित बनाते हैं । यह तप क्या करता है ? ‘येन सत्त्वं शुद्धधे’ शुद्धीकरण करता है ।
Ant 20.12
चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् । आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति – पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥
( चैतन्य चरितामृत अन्त्य-लीला 20.12 )
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनता है ।
और ऐसा होने पर ही “ब्रह्मसौख्य वनन्तम्” फिर उस तपस्वी को ऐसे भारतीयों को यह जो सुख मिलता है ! कितना सुख? “ब्रह्मसौख्य वनन्तम्” । ब्रह्म सुख या परम ब्रह्म सुख या कृष्णानंदी कहिए । यह जो ब्रह्म सुख इस शब्द को सुनने से ब्रह्मानंद यह माया बाद हुआ । और तपस्या करो और शुद्धीकरण करो । और फिर कृष्णानंद को प्राप्त करो । आप आनंद में हो ना तो चाहते हो हमारा स्वभाव ही है आनंदमय । हरि हरि !! “आनन्दमयोऽभ्यासात्”
( वेदांत सूत्र 1.1.12 )
भगवान के लिए कहा है । भगवान स्वयं ही आनंदमय मूर्ति है । हम उनके अंश है तो हम भी आनंदमय स्वभाव से हैं । यह आनंद में स्थिति “ब्रह्मसौख्य वनन्तम्” यह संसार का सुख आता है तो फिर खत्म हो गया । आता है जाता है । सुख का ऋतु , दुख ऋतु यह चलता रहता है किंतु ऐसा भविष्य भी हमारा प्रतीक्षा कर रहा है कि हम, सुख क्या होता है ? उसको सुख नहीं कहा गया है उसको आनंद कहा गया है । सुख का परिणाम दुख में परिणत होता है । यह नोट करो । कब सिखों गे समझोगे ? आनंद का कोई प्रतिक्रिया नहीं है । आनंद की प्रतिक्रियाएं और आनंद है । क्रियाएं, प्रतिक्रियाएं । तो सुख की प्रतिक्रिया हे दुख । लेकिन आनंद की प्रतिक्रिया है तो आनंद ही है । तो यह होता है तपस्या करने से । यह जप करना भी तप है ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥*
यह भी तप है । भगवान गीता में कहे हैं शरीर से तप होता है । फिर वाचा से होता है या फिर वाणी से होता है ।
“कायेन मनसा वाचा” मन से होता है । तो यह भारत भूमि तपोभूमि है । और स्थान सब भोग भूमियां है । तो इस भारत भूमि को हमें और समझना है । हरि हरि !! और भगवान …
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( भगवत् गीता 4.8 )
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
जो कहे, मैं प्रकट होता हो तो; भगवान के प्राकट्य इस पृथ्वी पर ही होता है या भारत भूमि पर होता है । ज्यादातर मेरा कहना है कि भारत पर ही होता है । फिर …
प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम ।
विहितवहित्रचरित्रम खेदम ।
केशव धृतमीनशरीर जय जगदीश हरे ॥
( दशावतार स्तोत्र – श्री जयदेव गोस्वामी )
मत्स्य अवतार तो सागर में या तो कछुआ भारत भूमि में प्रकट नहीं हुए । 10 अवतारों से 2 अवतार जलचर रहे । जल में विचरण किया । 2 अवतार तो वनचर रहे । 1 नृसिंह 2 बन में रहते हैं ना नृसिंह और वराह यह भी वनचर ही होते हैं । कृष्ण प्रकट होते हैं तो वह वृंदावन में प्रकट होते हैं । तो भगवान इंडिया में क्यों प्रकट होते हैं ? यानी पृथ्वी पर होते हैं ? तो भगवान का अपने निजी स्थान इस पृथ्वी पर है । पृथ्वी से कुछ उनका संबंध है ! ऐसे स्थान भी फिर क्यों ना वह वृंदावन ही नहीं है । या अयोध्या धाम की भी है । मायापुर धाम की भी है । जगन्नाथ पुरी धाम की जय ! पंढरपुर धाम की जय ! द्वारका धाम की जय ! बद्रीका आश्रम धाम की जय ! यह जो धाम है यह भारत के वैशिष्ट्य है । विशेष स्थान है । यह अन्यत्र नहीं है । हरि हरि !! सारे यह जो पवित्र नदियां हैं …
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
( स्नान मंत्र )
यह पवित्र नदियां है ,जॉर्डन रिवर ,मिडिल ईस्ट में इसको पवित्र मानते हैं । होता है । लेकिन खत्म हो गया और कोई इस पृथ्वी पर भारत के बाहर कोई पवित्र नदी तो है ही नहीं ! हरि हरि !! और फिर …
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
( भगवत् गीता 4.2 )
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत : यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है ।
तो फिर भगवान भी प्रकट होते हैं । भगवान तो प्रकट होते ही हैं यहां भारत में और फिर संत महात्मा आचार्य …
आचार्य मां विजानीयान्नवमन्येत कर्हिचित् ।
न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरु ; ॥
( श्रीमद् भागवतम् 11.17.27 )
अनुवाद:- मनुष्य को चाहिए कि आचार्य को मेरा ही स्वरूप जाने और किसी भी प्रकार से उनका अनादर नहीं करे । उन्हें सामान्य पुरुष समझते हुए उनसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखे क्योंकि वह समस्त देवताओं के प्रतिनिधि है । या मैं ही आचार्य के रूप में प्रकट होता हूं । आचार्य समकक्ष हैं ।
साक्षाद्धरित्वेन समस्त-शास्त्रैर्
उक्तस्तथा भाव्यत एव सद्भिः ।
किंतु प्रभोर्-यः प्रिय एव तस्य
वंदे गुरोः श्री चरणारविंदं ॥ 7 ॥
( श्रीगुरुर्वाष्टकम )
अनुवाद:- समस्त शास्त्र स्वीकार करते हैं कि श्री गुरु में भगवान श्री हरि के समस्त गुण विद्यमान रहते हैं और महान संत भी उन्हें इसी रूप में स्वीकार करते हैं । किंतु वास्तव में वे भगवान को अत्यंत प्रिय है , ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वंदना करता हूँ ।
ऐसे आचार्य यही प्रकट होते रहेंगे । या कभी कबार बहुत ही कम समय आते है जैसे की ‘जीसस क्राइस्ट’ एक ‘जीसस क्राइस्ट’ या एक मोहम्मद पैगंबर । यहां एक वहां एक ऐसे ही । लेकिन इस भारत में या महाभारत 5000 वर्ष पूर्व का इतिहास खोल के मतलब कि यह महाभारत हम खोल कर देखेंगे तो पता चलेगा कि कितने सारे महानुभाव महात्मा ऋषि , मुनि असंख्य सिर्फ एक ही नहीं जैसे की जीसस जो भगवान के पुत्र थे । ठीक है यह बहुत बढ़िया है इसाई मसीहा भगवान के पुत्र हैं अच्छे पुत्र हैं इसीलिए फिर उनका उल्लेख हो रहा है लेकिन भारत भूमि में कितने अच्छे और सच्चे और यहां तक की बहुत अच्छे ठीक है तुला नहीं करनी चाहिए लेकिन कई सारे रामायण काल, फिर महाभारत काल, और सब समय ऐसे आचार्य प्रकट होते ही रहते हैं । या उनको भगवान भेजते ही रहते हैं इसी भारत भूमि में । उसमें कितने सारे महिमा भर जाता है …
भवव्दिधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तस्थेन गदाभृता ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.13.10 )
अनुवाद:- हे प्रभु, आप जैसे भक्त,निश्चय ही, साक्षात पवित्र स्थान होते हैं। चूँकि आप भगवान् को अपने हृदय में धारण किए रहते हैं,अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थ स्थानों में परिणत कर देते हैं ।
और वे जहां भी जन्म लेते हैं या जहां वे रहते हैं उनके स्थान बन जाते हैं, तीर्थ स्थान बन जाते हैं । “तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि” और इसी भारत भूमि में भगवत गीता प्राप्त हुए ।
“धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥
( भगवत् गीता 1.1 )
अनुवाद:- धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
तो ऐसे स्थान भी कहा है ! धर्म क्षेत्र कहा है । जितने क्षेत्र आपको भारत में मिलेंगे धर्मक्षेत्र और ऐसे नहीं मिलेंगे आपको । हर एक कदम में इस भारत भूमि पर यानी पग-पग पर तीर्थक्षेत्र है । पवित्र स्थल , पवित्र नदियां , पवित्र महात्मा मिलेंगे , पवित्र ग्रंथ मिलेंगे ।
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥
( भगवत् गीता 15.15 )
अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है । मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ । निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ ।
मुझे जानने के लिए , मैंने ही की हुई व्यवस्था है भगवान कह रहे हैं ! वह व्यवस्था है वेद । “अहं ऐव वेद्यः” वैद्य हे भगवान । मतलब जानने योग्य (वर्थनोइंग) । और ऐसे वैद्य भगवान को कैसे जाना जा सकता है ? वेदों से । इसीलिए शास्त्रों में कहां है भगवान कैसे हैं ? श्रुति गोचरः या शब्द गोचरः । गोचरः मतलब हम जान सकते हैं कैसे ? श्रुति से । श्रवण से या श्रुति शास्त्रों के अध्ययन से और स्मृति से । तो श्रुति और स्मृति दोनों शास्त्रों के मदद से हम भगवान को जान सकते हैं । तो ऐसे शास्त्र यही उपलब्ध कराएं । वैसे यह सर्वत्र उपलब्ध कराए जा सकते हैं । श्रेया प्रभुपाद ने वैसी व्यवस्था की है । गीता,भागवत् 18 पुराण, वेदांग,उपवेद,महाभारत मैं ही 1,00,000 श्लोक है । सारे पुराणों की श्लोकों की संख्या 4,00,000 है । उसमें फिर 18,000 मंत्र या श्लोक श्रीमद्भागवतम् के हैं ।
24,000 श्लोक रामायण के हैं । फिर यह जो सारा वैदिक वांग्मय जो है या फिर इसकी वांग्मय मूर्ति भी है । यह भी यही उपलब्ध है । इसीलिए पुराने अच्छे समय में, बदल गया और आ गया कली आ धमका । और अपना पराया शुरू हो गया । एक समय तो सारा संसार के लोग जो जहां पर भी है इस पृथ्वी पर तो आप कहां से हो ? , आप कौन हो ? मैं भारतीय हूं । फिर जावा सुमात्रा है या इंडोनेशिया है यहां वहां या फिर एक समय प्राचीन भारतीय संस्कृति पूरी पृथ्वी पर थी । इसके कई सारे सबूत हैं । हरि हरि !! तो मैं भारतीय हूं । एक समय सभी कहते थे लेकिन कली आ गया और वाद विवाद शुरू हुआ तू-मैं, तु-मैं , अहं त्वम यह द्वंद आ गया और उसी के साथ सारे संसार के विभाजन हुए । और उसी के साथ सारा संसार भी वंचित हो गया । जो है भारतीयता ! इससे वे वंचित हुए । हरि हरि !! तो इस भारत भूमि का महिमा तो हे तो सास्वत हेतो अनंत । या श्रीला प्रभुपाद भी जब एक समय इंग्लैंड में थे पत्रकार परीछद् में पूछा गया स्वामी जी आप इंग्लैंड क्यों आए हो ? हमारे देश को ? उस समय कहे थे उसके उत्तर में ..कि मैं आपको भारतीयता देने आया हूं ।
मैं भारतीय संस्कृति बांटने आया हूं । यह सब अलग शब्द में श्रील प्रभुपाद कहे होंगे । सटीक उद्धरण मिलता नहीं है । लेकिन श्रील प्रभुपाद इस भाव से कह रहे थे । मैं आपके ऊपर कुछ उपकार करने आया हूं । इस वक्त में लेने नहीं आया हूं, भारत के लोग जब भी जाते हैं विदेश कुछ मांगने के लिए जाते हैं । हमको यह दे दो वह दे दो ! लेकिन मैं मांगने नहीं आया हूं मैं देने आया हूं । क्या दूंगा ? वैसे में भारतवर्ष का जो धन है वह धन आपको दे दूंगा ! देना चाहता हूं । यह भारतीय संस्कृति इस देश की संपत्ति है । भारत के जो गीता,भागवत् शास्त्र है यह हमारी संपत्ति है । और फिर क्या कहना यह जो भगवान का जो नाम है यह तो हीरे मोती संसारी हीरे मोती नहीं, आध्यात्मिक जगत की हीरे मोती ऐसा मूल्यवान है यह ..
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह सारी भारतीयता, यह सारी भारत की संपत्ति का में वितरण करने आया हूं । इसको मैं होम डिलीवरी देने आया हूं । इसके बदले में मैं कुछ नहीं चाहता हूं । कृपया इसको स्वीकार कीजिए । तो श्रील प्रभुपाद जो भी कहे उन पत्रकारों को वें अपने शब्दों में । वैसे देवताओं ने भारत भूमि का गान किया और श्रील प्रभुपाद अपने साक्षात्कारो के साथ भारत भूमि का वैभव गान भी कर रहे थे । भारत की असली संपत्ति की पहचान कर रहे थे । और मैं इसको वितरण करने आया हूं ऐसा उन्होंने कहा । तुम लोग भी आए और श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा अपने भारत को गुलाम बनाया । और आप सभी ने हमारे भारत को शोषण किया । और जिस चीज को अपने मूल्यवान समझा उसको तो आप ने लूट लिया । कोहिनूर हीरा समेत । वह भी आपने लंदन म्यूजियम में रखा है सभी जिसे देख सकते हैं । और कई सारी चीजे ।
लेकिन वैसे आप लोग जाकर वायसरॉय (राज प्रतिनिधि) या गवर्नर (राज्यपाल) जो रहते हैं , भारत के असली संपत्ति को नहीं पहचाने । वह भारत रत्न श्रील प्रभुपाद । श्रील प्रभुपाद की (जय) । भारत रत्न श्रील प्रभुपाद । वाकी तो तथाकथित जो भारत रत्न है वह कोयले ही है । वह रत्न नहीं है वह कोयला है । कोयले का क्या वैशिष्ट्य है ? जितना घिशोगे क्या होगा ? और काला ! तो काले पन की चमक धमक और प्रकट होगी । और घिशो क्या मिलेगा ? और ज्यादा काला । एक प्रकार से यह काले लोग या इनके धंधे भी काले विशेषकर उनके भाग काले । हरि हरि !! यह अंधे और अनाड़ी या फिर कह सकते हैं जो भारत के महिमा का, भारत के असली संपत्ति को नहीं पहचाने, नहीं देखे तो अंधे ही तो हो गए । अंदर के विचार भी नीच विचार । हरि हरि !! उसमें से कुछ होंगे । कुछ रत्न सम डिग्री । लेकिन रत्न कहना है भारत रत्न तो श्रील प्रभुपाद थे या श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती रत्न ऐसे सब । यह महात्मा भारत रत्न होते हैं ।
फिर वो माधवाचार्य,रामानुचार्य,विष्णु स्वामी इत्यादि इत्यादि । हमारे जो पूर्वज रहे । भारत के जनता के पूर्व आचार्य । हरि हरि !! या पितामह भीष्म, और बहुत सारे नाम । तो वे रचना रहे । तो श्रील प्रभुपाद कह रहे थे आप तो पहचाने नहीं देश को, हमारे देश के असली संपत्ति को । जिस संपत्ति को अपने पीछे छोड़ा मैं उस संपत्ति को लेकर आया हूं । होम डिलीवरी देने आया हूं । कृपया इसको ग्रहण कीजिए । तो श्रील प्रभुपाद , भारत भूमि जो इंडिया लिमिटेड नक्शा बन गया इस भारत भूमि का विस्तार श्रील प्रभुपाद करने का उनका एक सफल प्रयास उनका रहा । और प्रयास जारी ही है । एक सभा में हमारे शिवराम स्वामी महाराज कह रहे थे ! उन्होंने कहा कि ऐसा उनका अनुभव रहा और मेरा भी रहा ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज कह रहे हैं ) उदाहरण दे रहा हूं । उन्होंने कहा जो इस्कॉन के मंदिर है इस फोन के विभिन्न आए समुदाय है, इस्कॉन के अनुयाई जहां-जहां यह कृष्ण भावना मृत होने का अभ्यास कर रहे हैं, साधना कर रहे हैं फिर वह स्थान कोई घर ही क्यों ना हो । या कोई इस्कॉन टेंपल भी ना हो , न्यू वृंदावन, न्यू मायापुर , न्यू जगन्नाथ पुरी ऐसे बड़े बड़े प्रोजेक्ट भी, 1000 एकड़ जमीन 500 एकड़ जमीन कई सारे स्थानों पर श्रील प्रभुपाद ने स्थापना की फिर गौशाला भी वहां हुई और जो गौ भक्षक से उनको गौ रक्षक बनाएं । और वहां पर गुरुकुल विद्यालय स्थापित हुए ।
कहां पर ग्रंथों का गीता भागवत् का अध्ययन होने लगा और गीता भागवत का वितरण होने लगा । और वहां पर परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम , हरि नाम का संकीर्तन केबल मंदिर में या घर में ही नहीं , भक्ति जाने लगे जा रहे हैं हरे कृष्ण लोग – हरे कृष्ण लोग नाम ही हुआ फिर हरे कृष्ण कीर्तन , मृदंग करताल के साथ कीर्तन करने वाले लोगों को कहने लगे हरे कृष्ण लोग वह है । तो इस प्रकार से श्रील प्रभुपाद ने जगन्नाथ रथ यात्रा प्रारंभ किए सैन फ्रांसिस्को में । गोल्डन गेट नेशनल पार्क में । वह धीरे-धीरे मैनहैटन ,न्यू यॉर्क मैं रथ यात्रा, लंदन में रथ यात्रा होती रही । तो वह अमेरिका नहीं रहा, लंदन नहीं रहा जहां जगन्नाथ रथ यात्रा होती है वह जगन्नाथपुरी बन जाती है उस स्थान । इस प्रकार यह ( International Society for Krishna consciousness ) अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ के माध्यम से यह जो भारतीयता है । उसका प्रसारण उसका विस्तार और उसकी स्थापना इस पृथ्वी पर होना प्रारंभ हो चुका है । और चैतन्य महाप्रभु ने कहा है .. यह केवल अगले 9500 बरसों में होने वाला है ।
पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम ॥
( चैतन्य भागवत अन्त्य – खण्ड 4.1.26 )
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
चैतन्य महाप्रभु ने पृथ्वी कहे एक समय जिसे भारत रहा सारे पृथ्वी पर वैसे ही पुनः वैसा आकार लेगा पृथ्वी पर फेलेगा । इस पृथ्वी के सभी नगरों में ग्रामों में क्या होगा ? “सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम” मेरे नाम का प्रचार होगा ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
सभी शहरों और ग्रामों में यह पूरे पृथ्वी पर तो उस समय केवल कीर्तन ही नहीं होने वाला है ! मंदिर भी होंगे, और बड़े-बड़े गौशालाऐं भी होंगे । तो फिर यात्राएं भी होगी उन स्थानों पर । प्रसाद वितरण होगा । यह पूर्ण फॉर लाइफ चलेगा ।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः ॥
( भगवत् गीता 9.26 )
अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ ।
और शास्त्र का अध्ययन …
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् ।
एको देवो देवकीपुत्र एव ॥
एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि।
कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥
(गीता महात्म्य 7)
अनुवाद:- “आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा ।”
एक ही शास्त्र पर्याप्त है वह है गीता । साथ में कहे भगवतम् भी है । किताब हीं आधार है । तो हर नगर में हर ग्राम में यह गीता भागवत का वितरण भी होगा और इसका अध्ययन भी करेंगे लोग । तो ऐसा भविष्य स्वयं भगवान कहे हैं । और कहें भी है ! “परम विजयते श्री कृष्णा संकीर्तनं” । यह संकीर्तन आंदोलन विजय ही होगा । सर्वत्र फेलेगा ।
यतो धर्मः ततो जयः (या, यतो धर्मस्ततो जयः)
( महाभारत )
“जहाँ धर्म है वहाँ जय (जीत) है।”
और सत्यमेव जयते , अंततोगत्वा सत्यमेवा जयते यानी सत्य की जीत होती है, सत्य की स्थापना होती है । तो यह सब होने वाला है भाइयों ,बहनों , मित्रों, शिष्यों , बॉयज एंड गर्ल्स । हरि हरि !! ठीक है मैं यहां रुकता हूं ।
॥ हरे कृष्ण ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनाँक – 09-06-2021
गौरंगा ! नित्यानंद ! गौर प्रेमानंदे …. हरि हरि बोल !
आज हमारे साथ 836 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। जो जप टॉक को सुनेंगे, कुछ कम होंगे या बढ़ेंगे, वे बढ़ते ही रहते हैं। कुछ तो जप टॉक के लिए आ जाते हैं पता नहीं जप कब करते होंगे या करते तो होंगे, थोड़ा देरी से उठते होंगे, इसीलिए सीधे टॉक में पहुंच जाते हैं। संकेत कब पहुँचता है जप में या जप टॉक में? ठीक है आप प्रेरित तो हो ही।
ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय
यहां भागवत से कुछ बातें आपको सुनाने का विचार हो रहा है 5 स्कंध 19 अध्याय 21 श्लोक , आज हम सुनेंगे।
एतदेव हि देवा गायन्ति—अहो अमीषां किमकारि शोभनं प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरि: । यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि न: ॥
(श्रीमद भागवतम 5.19.21)
अनुवाद: चूँकि आत्मसाक्षात्कार के लिए मनुष्य – जीवन ही परम पद है , अतः स्वर्ग के सभी देवता इस प्रकार कहते हैं – इन मनुष्यों के लिए भारतवर्ष में जन्म लेना कितना आश्चर्यजनक है । इन्होंने भूतकाल में अवश्य ही कोई तप किया होगा अथवा श्रीभगवान् स्वयं इन पर प्रसन्न हुए होंगे । अन्यथा वे इस प्रकार से भक्ति में संलग्न क्यों कर होते ? हम देवतागण भक्ति करने के लिए भारतवर्ष में मनुष्य जन्म धारण करने की मात्र लालसा कर सकते हैं , किन्तु ये मनुष्य पहले से भक्ति में लगे हुए हैं ।
“एतदेव हि देवा गायन्ति ” देवताओं को सुनेंगे, आज देवताओं का टोक है।
देवा ऊच्चु : या गायन्ति, यह जम्बूद्वीपे भरतखण्डे करिष्यामि , जब कुछ यज्ञ का संकल्प लेते हैं तब संकल्प में हम कहते हैं जम्बूद्वीपे तो वह जम्बूद्वीप है। अलग-अलग द्वीप हैं। सात द्वीप हैं और उसमें से एक द्वीप है जम्बूद्वीप अर्थात हमारा द्वीप। जिस द्वीप में हम रहते हैं उस द्वीप का नाम है जम्बूद्वीप और हर द्वीप में अलग-अलग वर्ष होते हैं। जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में या भरतखंड में हम रहते हैं, हम भारत में रहते हैं, हम भारत में जन्मे हैं इस भारतवर्ष की महिमा, माहात्म्य को देवता ने गाया है।
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्र मरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवैः वेदैः साँगपदक्रमोपनिषदैः गायन्ति यं सामगाः। ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मै नमः॥
(श्रीमद भागवतम 12.13.1)
अर्थ- ,ब्रह्मा,वरुण,इन्द्र,रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं,सामवेद के गाने वाले अंग,पद,क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं,देवता और असुर गण जिनके अन्त को नहीं जानते, उन नारायण देव के लिए मेरा नमस्कार है।
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्र मरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवैः देवता जो स्तुति गान करते रहते हैं , उन्होंने एक समय स्तुति का गान किया। यह कहा ही है देवा गायन्ति, क्या गा रहे हैं ? भारत भूमि की महिमा का गान कर रहे हैं या भारतीय होने की महिमा को कह रहे हैं और अपनी अभिलाषा भी व्यक्त कर रहे हैं या वैसे पहले कह रहे हैं जो भारत में जन्मे हैं वे भाग्यवान हैं और हमारे भाग्य का कब उदय होगा ताकि हम भी भारत में जन्म ले सकते हैं कौन कह रहे हैं ? देवता कह रहे हैं। दुर्देव से हम तथाकथित भारतीय हम जो इंडियन बने हैं वे स्वर्ग जाना चाहते हैं। स्वर्गवासी बनना चाहते हैं किंतु ,सुनो ! देवता कहते हैं मूर्खों, यह विचार छोड़ो। हम देवताओं के भाग्य का उदय कब होगा ताकि हम भारतीय बनेंगे। हम भारत में जन्म लेंगे। आइए उन देवताओं के विचार उनके शब्दों में सुनते हैं जिसको शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को सुनाया है , लगभग दस वचन हैं। मैं केवल भाषांतर ही पढ़कर सुनाना चाहता हूं।
एतदेव हि देवा गायन्ति अहो अमीषां किमकारि शोभनं प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः । यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि नः ॥
(श्रीमदभागवतम 5.19.21)
भाषांतर ध्यान से सुनिए, सावधान होकर एकाग्र चित्त होकर सुनिए। कौन सुना रहे हैं वक्ता कौन है ? देवता। देवता, आपसे कुछ बात करना चाह रहे हैं।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैव षडविधम प्रीति-लक्षणम्
(उपदेशमृत -4)
अनुवाद – दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना -भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
गुह्ममाख्याति पृष्छति कहिये, उनके दिल की बात केवल मन की बात ही नहीं, अपने दिल की बात देवता सुना रहे हैं तो सुनो चूँकि आत्मसाक्षात्कार के लिए मनुष्य – जीवन ही परम पद है , अतः स्वर्ग के सभी देवता इस प्रकार कहते हैं – इन मनुष्यों के लिए भारतवर्ष में जन्म लेना कितना आश्चर्यजनक है। इन्होंने भूतकाल में अवश्य ही कोई तप किया होगा अथवा श्रीभगवान् स्वयं इन पर प्रसन्न हुए होंगे। अन्यथा वे इस प्रकार से भक्ति में संलग्न क्यों कर होते ? हम देवतागण भक्ति करने के लिए भारतवर्ष में मनुष्य जन्म धारण करने की मात्र लालसा कर सकते हैं , किन्तु ये मनुष्य पहले से भक्ति में लगे हुए हैं ।
सुनो , इसीलिए आप को ध्यान पूर्वक सुनना होगा क्योंकि मैं इस पर भाषण नहीं दे पाऊंगा। स्वर्ग के सभी देवता इस प्रकार कहते हैं सुनो ,
चूँकि आत्मसाक्षात्कार के लिए मनुष्य – जीवन ही परम पद है , अतः स्वर्ग के सभी देवता इस प्रकार कहते हैं – इन मनुष्यों के लिए भारतवर्ष में जन्म लेना कितना आश्चर्यजनक है। इन्होंने भूतकाल में अवश्य ही कोई तप किया होगा अथवा श्रीभगवान् स्वयं इन पर प्रसन्न हुए होंगे। अन्यथा वे इस प्रकार से भक्ति में संलग्न क्यों होते ? सुन रहे हो ? आपकी आत्मा को ध्यान पूर्वक सुनना है और आत्मा को ही समझना है। और आशा है कि समझ ही रहे होंगे। हम देवतागण भक्ति करने के लिए भारतवर्ष में मनुष्य जन्म धारण करने की मात्र लालसा कर सकते हैं , किन्तु ये मनुष्य पहले से भक्ति में लगे हुए हैं ।
किं दुष्करैर्नः क्रतुभिस्तपोव्रतै र्दानादिभिर्वा धुजयेन फल्गुना । न यत्र नारायणपादपङ्कज स्मृतिः प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात् ॥ .
(श्रीमद भागवतम 5.19.22)
अनुवाद: देवता आग कहते हैं – वैदिक यज्ञों के करने, तप करने, व्रत रखने तथा दान देने जैसे दुष्कर कार्यों के करने के पश्चात् ही हमें स्वर्ग में निवास करने का यह पद प्राप्त हुआ है । किन्तु हमारी इस सफलता का क्या महत्त्व है ? यहाँ हम निश्चय ही भौतिक इन्द्रियतृप्ति में व्यस्त रहकर भगवान् नारायण के चरणकमलों का स्मरण तक नहीं कर पाते। अत्यधिक इन्द्रिय तृप्ति के कारण हम उनके चरणकमलों को लगभग विस्मृत ही कर चुके हैं ।
हरि हरि ! सुन रहे हो देवता क्या कह रहे हैं स्वर्ग तक पहुंचे लेकिन हमारा काम धंधा क्या चल रहा है। इंद्रिय तृप्ति में व्यस्त रहते हैं कि हम नारायण के चरण कमलों को ही भूल गए। अत्यधिक इंद्रिय तृप्ति के कारण हम लगभग उनके चरणों को विस्मृत ही कर चुके है। जैसे देवताओं का कोई इंटरव्यू ले रहा है या शुकदेव गोस्वामी इंटरव्यू लिए बिना ही देवताओं के विचार वैसे ही जानते हैं हरि हरि! यह सब देवता जो भी कह रहे हैं सच ही कह रहे हैं। सच के सिवा और कुछ नहीं कहते देवता।
कल्पायुषा स्थानजयात्पुनर्भवात् क्षणायुषां भारतभूजयो वरम् । क्षणेन म न कृत मनस्विनः सन्न्यस्य संयान्त्यभय पदं हरेः ॥
(श्रीमद भागवतम 5.19.23)
अनुवाद – ब्रह्मलोक में करोड़ों – अरबों वर्ष की आयु प्राप्त करने की अपेक्षा भारतवर्ष में अल्पायु प्राप्त करना श्रेयस्कर है , क्योंकि ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेने के बाद भी बारम्बार जन्म तथा मरण के चक्र में पड़ना होता है । यद्यपि मर्त्यलोक के अन्तर्गत भारतवर्ष में जीवन अत्यन्त अल्प है किन्तु यहाँ का वासी पूर्ण कृष्णभक्ति तक पहुँच सकता है और भगवान् के चरणकमलों में अर्पित होकर इस लघु जीवन में भी परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार उसे वैकुण्ठलोक प्राप्त होता है जहाँ न तो चिन्ता है , न भौतिक शरीर युक्त पुनर्जन्म ।
कुछ पल्ले पड़ रहा है नोट कर रहे हो क्योंकि कृष्ण ने जैसे कहा है
आब्रह्मभुवनाल्लोकाःपुनरावर्तिनोऽर्जुन | मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते || (श्रीमद भगवद्गीता 8.16)
अनुवाद- इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है | किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता |
ब्रह्मलोक प्राप्ति मतलब ,जन्म मृत्यु इस चक्र से मुक्ति तो नहीं है। क्षीणे: पुनरावृति मृत्युलोक: अर्थात पुनः हम जन्म ले सकते हैं। यद्यपि मृत्यु लोक के अंतर्गत भारतवर्ष में जीवन अत्यंत अल्प है। हम सौ साल भी नहीं जीते सौ साल तो कम से कम जीना चाहिए था इस कलयुग में, आगे कलयुग में यह आयु और भी घटने वाली है। 15 साल का व्यक्ति वेरी ओल्ड, 15 / 20 साल , मतलब बहुत बूढ़ा हो गया। जैसे अभी 70 /80 साल का बहुत बूढ़ा माना जाता है। तो ऐसा भविष्य है हरि हरि ! देवता यह सब कुछ जानते हैं। किंतु, यहां का वासी , पूर्ण कृष्ण भक्ति तक पहुंच सकता है। यह भारत की बात हो रही है और भगवान के चरण कमलों में अर्पित होकर इस लघु जीवन में भी परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है। आपके बारे में बात हो रही है. इस प्रकार उसे वैकुंठ प्राप्त होता है। जहां ना तो चिंता है ना भौतिक शरीर युक्त पुनर्जन्म , हरि हरी ! देवता कह रहे हैं कि भारत में जन्मे जो मनुष्य है अल्पायु तो है लेकिन उतना समय ही पर्याप्त है। वे भक्त होकर होकर मुक्त होंगे, वैकुंठ को प्राप्त कर सकते हैं। इस वैकुंठ में ना तो चिंता है ना तो पुनर्जन्म। यहां चिंता है कि नहीं ?थोड़ी चिंता तो है सम एंजाइटी हरि हरि ! अर्थात सभी मुक्त होना चाहते हैं। अतः देवता कह रहे हैं कि भारतवासी जो भक्ति करते हैं और मुक्ति को प्राप्त करते हैं। चिंता से मुक्त होते हैं।
न यत्र वैकुण्ठकथासुधापगा न साधवो भागवतास्तदाश्रयाः । न यत्र यज्ञेशमखा महोत्सवाः सुरेशलोकोऽपि न वै स सेव्यताम् ॥
(श्रीमद भागवतम 5.19.24)
अनुवाद – जहाँ श्रीभगवान् की कथा रूपी विशुद्ध गंगा प्रवाहित नहीं होती और जहाँ पवित्रता की ऐसी नदी के तट पर सेवा में तल्लीन भक्तजन नहीं रहते , अथवा श्रीभगवान् को प्रसन्न करने के लिए जहाँ संकीर्तन – यज्ञ के उत्सव नहीं मनाये जाते , ऐसे स्थान में बुद्धिमान पुरुष के लिए रुचि नहीं होती । क्योंकि ( इस युग में विशेषकर संकीर्तन – यज्ञ की संस्तुति की गई है ) ।
और भी बड़ी सुंदर बात, देवता कहे हैं। इसको हिंदी में सुनिए क्या कह रहे हैं जहां भगवान की विशुद्ध गंगा रूपी कथा प्रवाहित नहीं होती एक बात और भी बातें हैं और जहां पवित्रता की ऐसी नदी के तट पर सेवा में तल्लीन भक्तजन नहीं रहते – अर्थात यह सब स्वर्ग में नहीं होता है ऐसा कहना है कथासुधापगा ,भगवान की कथा की गंगा प्रवाहित नहीं होती ,स्वर्ग में नहीं होती हरि हरि! वहां संकीर्तन नहीं होता और उसमें संकीर्तन यज्ञ,
कृष्णवर्ण विधाकृष्ण साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्वजन्ति हि सुमेधसः ।। (श्रीमद भागवतम 11.5.32)
अनुवाद: कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है ।
यज्ञे संकीर्तन प्राये, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और सभी अन्य अवतार इस भारत में ही प्रकट होते हैं। स्वर्ग में प्रकट नहीं होते , वृंदावन धाम की जय ! सारे ब्रह्मांड में एक ही वृंदावन है और वह वृंदावन आप के बगल में है। ऑस्ट्रेलिया से भी ज्यादा दूर नहीं है 10/12 घंटे में ऑस्ट्रेलिया से आराम से वृंदावन पहुंचा जा सकता है। व्यक्ति, नागपुर से तो वृंदावन ओवरनाइट ट्रेन से पहुंच जाये। ऐसा वृंदावन स्वर्ग में नहीं है, इसीलिए देवता दुखी हैं।
प्राप्ता नृजातिं त्विह ये च जन्तवो ज्ञानक्रियाद्रव्यकलापसम्भृताम् । न वै यतेरन्नपुनर्भवाय ते भूयो वनौका इव यान्ति बन्धनम् ॥
(श्रीमद भागवतम 5.19.25)
अनुवाद – भक्ति के लिए भारतवर्ष में उपयुक्त क्षेत्र तथा परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं , जिस भक्ति से ज्ञान तथा कर्म के फलों से मुक्त हुआ जा सकता है। यदि कोई भारतवर्ष में मनुष्य देह धारण करके संकीर्तन यज्ञ नहीं करता तो वह उन जंगली पशुओं तथा पक्षियों की भाँति है जो मुक्त किये जाने पर भी असावधान रहते हैं और शिकारी द्वारा पुनः बन्दी बना लिए जाते हैं ।
हरि हरि ! बैकुंठ में भक्ति के अनुकूल ना तो परिस्थिति है और ना ही क्षेत्र या स्थान है। और भक्ति की महिमा भी गए रहे हैं। हरी हरी ! ऐसे भी कुछ मनुष्य भारत में हैं ही भारत में जन्मे हैं।
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।जन्म सार्थक करि’ कर पर-उपकार ॥
(आदि लीला 9.41)
अनुवाद – जिसने भारतभूमि (भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।
लेकिन वे परोपकार नहीं करते ,भारत में जन्मे हैं। चरणामृत पीने की बजाय शराब ही पीते हैं। उनका क्या कहना, अतः देवता कह रहे हैं ? वे जंगली पशु ही हैं, वैसे भी भारत भूमि में कुछ राक्षस भी हैं।
यैः श्रद्धया बर्हिषि भागशो हवि निरुप्तमिष्टं विधिमन्त्रवस्तुतः । एकः पृथङ्नामभिराहुतो मुदा गृह्णाति पूर्णः स्वयमाशिषां प्रभुः ॥
(श्रीमद भागवतम 5.19.26)
अनुवाद: भारतवर्ष में परमेश्वर द्वारा नियुक्त विभिन्न अधिकारी स्वरूप देवताओं – यथा इन्द्र , चन्द्र तथा सूर्य – के अनेक उपासक हैं , जिन सभी की पृथक् – पृथक् विधियों से पूजा की जाती है। उपासक इन देवताओं को पूर्ण ब्रह्म का अंश मानते हुए अपनी आहुतियाँ अर्पण करते हैं, फलतः श्रीभगवान् इन भेंटों को स्वीकार करते हैं और क्रमशः इन उपासकों की कामनाओं तथा आकांक्षाओं को पूरा करके उन्हें शुद्ध भक्ति पद तक ऊपर उठा देते हैं । चूँकि श्रीभगवान् पूर्ण हैं , अतः वे उनको मनवांछित वर देते हैं , चाहे उपासक उनके दिव्य शरीर के किसी एक अंश की पूजा क्यों न करते हो ।
हरि हरि अर्थात भगवान के साथ देवताओं की भी उपासना होती है ऐसा देवता कह रहे हैं। यहां अलग से देवताओं की उपासना नहीं करनी है। भगवान के साथ यज्ञ होता है तो वहां देवताओं का आवाहन भी किया जाता है। उनका जो भी हिस्सा है उनको भी प्रसाद के रूप में आहुति चढ़ाते हैं, वैसे यज्ञपुरुष तो भगवान ही होते हैं, किंतु यज्ञों में देवताओं को आमंत्रित किया जाता है और देवताओं का हिस्सा भगवान का उच्छिष्ट, अर्पित किया जाता है। हरी हरी इस प्रकार यहां कहा है की भगवान की और फिर देवताओं की भी आराधना उपासना होती है। देवताओं को वैसा ही अधिकार है, हरि हरि और फिर क्योंकि भगवान पूर्ण हैं अतः वे उनको मनोवांछित वर देते हैं चाहे उपासक उनके दिव्य शरीर के किसी एक अंग की पूजा क्यों ना करते हो। देवता भगवान के अंग के एक अंश हैं। किंतु भगवान अंशी हैं। यह तात्पर्य आपको पढ़ने होंगे मुझे अभी समय नहीं है निश्चित ही आपको कुछ शंका यह प्रश्न उत्पन्न होने वाली है।
सत्यं दिशत्यर्थितमर्थितो नृणां नैवार्थदो यत्पुनरर्थिता यतः । स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छता मिच्छापिधानं निजपादपल्लवम् ॥
(श्रीमद भागवतम 5.19.27)
अनुवाद : पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् उस भक्त की भौतिक कामनाओं की पूर्ति करते हैं , जो सकाम भाव से उनके पास जाता है , किन्तु वे भक्त को ऐसा वर नहीं देते जिससे वह अधिकाधिक वर माँगता रहे । फिर भी , भगवान् प्रसन्नतापूर्वक ऐसे भक्त को अपने चरणकमलों में शरण देते हैं, भले ही वह इसकी आकांक्षा न करे और शरणागत होने पर उसकी समस्त इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं । यह श्रीभगवान् की विशेष अनुकम्पा है ।
यहां कुछ
अकामः सर्व – कामो वा मोक्ष- [ -काम उदार – धीः । तीव्रेण भक्ति – योगेन यजेत पुरुषं परम् ॥
अनुवाद : जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है , वह चाहे सकाम हो या निष्काम अथवा मुक्ति का इच्छुक हो , उसे चाहिए कि सभी प्रकार से परमपूर्ण भगवान् की पूजा करे ।
हो सकता है कोइ अकाम है, कोई कामना ही नहीं है या फिर सभी प्रकार की कामनाएं उसमें हैं या मोक्षकाम: मोक्ष की भी कामना है। तब सभी पार्टी के लिए सभी के लिए एक ही रिकमेंडेशन है। कि वे क्या करें ? तीव्रेण भक्ति – योगेन भगवान की भक्ति करनी चाहिए ,भगवान की भक्ति करें। तब फिर भगवान, यदि कुछ कामना है उस सकाम भक्त की, भगवान पूर्ति करेंगे ।
हरि हरि ! ऐसा देवता कह रहे हैं। यहां आपको अलग से देवता का पुजारी बनने की आवश्यकता नहीं है अर्थात कृष्ण के पुजारी बनो , बाकी सब की पूजा हो जाएगी। कृष्ण कैसे हैं ?कृष्ण है वांछा कल्पतरू, डिजायर ट्री, तुम्हारी सारी इच्छा या तो पूरी करेंगे या कुछ भौतिक इच्छा है तो उसको मिटायेंगे।
स्थानाभिलाषी तपसि स्थितोऽहं त्वां प्राप्तवान्देव – मुनीन्द्र – गुह्यम् । काचं विचिन्वन्नपि दिव्य – रत्न स्वामिन्कृतार्थोऽस्मि वरं न याचे ॥
(मध्य लीला 22. 42)
अनुवाद : जब ध्रुव महाराज को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वर दे रहे थे , तब उन्होंने कहा था : ‘ हे प्रभु , चूँकि मैं ऐश्वर्ययुक्त भौतिक पद की खोज में था , इसलिए मैं कठिन तपस्या कर रहा था । अब तो मैंने आपको पा लिया है, जिन्हें बड़े – बड़े देवता , मुनि तथा राजा भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त कर पाते हैं । मैं तो एक काँच का टुकड़ा ढूँढ रहा था , किन्तु इसके बदले मुझे बहुमूल्य रत्न मिल गया है । अतएव मैं इतना सन्तुष्ट हूँ कि अब मैं आपसे कोई वर नहीं चाहता ।
वरं न याचे, ध्रुव महाराज ने कहा स्वामिन्कृतार्थोऽस्मि वरं न याचे, क्या वर मांगना है ? वर मांगने के लिए ही तो ध्रुव महाराज ने सारे ध्यान ,धारणा ,तपस्या, की थी। कुछ बहुत बड़ी महत्वकांक्षा थी। किंतु वे भगवान की आराधना कर रहे थे लेकिन, सकाम आराधना थी। फिर भगवान प्रसन्न हुए, दर्शन दिए और जब कहा कि आओ और आकर वर मांगो, ध्रुव महाराज ने कहा कृतार्थोअस्मिन मैं कृतार्थ हुआ मैं कृत कृत हुआ। स्वामी वरं न याचे , अब मुझे कोई वर नहीं चाहिए। आपका दर्शन ही वरदान है। जो भी वर मांगने का , मैं सोच रहा था ? कि मुझे कुछ कांच के टुकड़े मिल जाए। जब रास्ते में कोई एक्सीडेंट वगैरा होता है, तब कांच के हजारों लाखों टुकड़े ही टुकड़े सर्वत्र होते हैं उसमें से एक टुकड़ा उठाओ, ऐसा ही कुछ में ढूंढ रहा था लेकिन अब तो मुझे हीरे मोती जवाहरात मिले, आप मिले आपका दर्शन हुआ। स्वामी वरं न याचे अब मुझको कोई वर नहीं चाहिए। अतः भक्ति का फल ऐसा है। भगवान की भक्ति करेंगे यदि हमारी कोई अन्य कामना है तो उसको मिटा सकते हैं, इसीलिए कहा है
अकामः सर्व – कामो वा मोक्ष- [ -काम उदार – धीः तीव्रेण भक्ति – योगेन यजेत पुरुषं परम् ॥
परम पुरुष की आराधना करनी चाहिए।
यद्यत्र नः स्वर्गसुखावशेषितं स्विष्टस्य सूक्तस्य कृतस्य शोभनम् । तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म नः स्याद् वर्षे हरिर्यद्भजतां शं तनोति ॥
(श्रीमद भागवतम 5.19.28)
अनुवाद : यज्ञ , पुण्य कर्म , अनुष्ठान तथा वेदाध्ययन करते रहने के कारणस्वरूप हम स्वर्ग लोक में वास कर रहे हैं , किन्तु एक दिन ऐसा आएगा जब हमारा भी अन्त हो जाएगा । हमारी प्रार्थना है कि उस समय तक यदि हमारे एक भी पुण्य शेष रहें तो हम मनुष्य रूप में भगवान् के चरणकमलों का स्मरण करने के लिए भारतवर्ष में जन्म लें । श्रीभगवान् इतने दयालु हैं कि वे स्वयं भारतवर्ष में आते हैं और यहाँ के वासियों को सौभाग्य प्रदान करते हैं ।
हरी हरी , वर्षे मतलब भारतवर्ष में प्रकट होते हैं शं तनोति ,कल्याण करते हैं भगवान भारत में प्रकट होते हैं और फिर भारतवासियों का कल्याण करते हैं या सभी भगवान की भक्ति करते हैं और उनका कल्याण होता है। हमारा कब कल्याण होगा ? हमें भी ऐसे भारतवर्ष में जन्म का सौभाग्य प्राप्त हो ताकि हम भगवान के चरण कमलों का स्मरण कर सकें। इसलिए हमें भारत में जन्म प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना है। ठीक है , आप भी इसे पुनः तात्पर्य के साथ पढियेगा। यह पांचवा स्कंध का 19 वां अध्याय 21 वे श्लोक से 28 श्लोक तक ,
आज यहीं विराम देते हैं।
हरे कृष्ण !
गौर प्रेमानन्दे !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*8 जून 2021*
*हरे कृष्ण*
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।सभी अपने हाथ ऊपर कर रहे हैं । 845 स्थानों से आज जप हो रहा है , बहुत अच्छा । न जाने क्यों किसी ने हाथ ऊपर कर रखे हैं , अपने हाथों उपर मत करो , नीचे कर लो । धन्यवाद । राजा कुलशेकर की जय । ऐसे थे राजा कुलशेखर । कैसे थे ? एक बार क्या हुआ ? वह रामायण की कथा सुन रहे थे , वह प्रसंग था नासिक में शूर्पणखा आ गई और फिर लक्ष्मण ने कार्रवाई की , उसको अपमानित किया , दंडित किया और फिर वह बिचारी शूर्पणखा नासिक के पास में ही जन स्थान है जहां खल दूषण इत्यादि 14000 सैनिक जो रावण की थे , वहां उनका बैस था वहां पर गई । हरि हरि । राम और लक्ष्मण ने खासकर के लक्ष्मण ने किया हुआ अपमान की बात उसने कही , बदला लो । यह खल दूषण इत्यादि राम और लक्ष्मण के साथ लड़ने के लिए तैयार हुए । फिर ऐसे उस समय भी राम अकेले ही गए । सीता को पीछे छोड़ दिया लक्ष्मण उनकी रक्षा कर रहे हैं और राम अकेले ही जा रहे हैं खल दूषण के साथ युद्ध खेलने के लिए और उनको उनका विनाश करना है ।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||*
(भगवदगीता 4.8)
*अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |*
राम संघार करेंगे , इस इरादे के साथ वह आगे बढ़ रहे हैं । अपना धनुष्य बाण साथ में है । यह प्रसंग जब राजा कुलशेखर सुन रहे थे तब अचानक कथा सुनते सुनते ही वह बीच में कहने लगे कि तैयार हो जाओ ! किनको कह रहे हैं तैयार हो जाओ? सैनिको तैयार हो जाओ , घोड़े कहां है? हथियार कहां है? हमला करो जन स्थान की ओर आगे बढ़ो । वह दक्षिण भारत में हो सकता है श्रीरंगपुर में यह कथा सुन रहे थे और उनके संगीसाथी और कुछ सैनिक भी बैठे होगे उनको वह तैयार कर रहे हैं । ऐसा हुआ , इस प्रकार राजा कुलशेखर यह रामायण की कथा के श्रवण के समय इतने तल्लीन हुए , उस लीला में लीन हुए या मग्न हुए , उससे प्रभावित हुए , प्रेरित हुए और वही आवेश में आ गए । उनको राम दिख रहे थे लेकिन वह यह देख रहे थे कि राम अकेले ही 14000 सैनिकों से , राक्षसों से लड़ने जा रहे हैं । राजा कुलशेखर सोच रहे थे , हमको भी सहभाग लेना होगा ,सहायता करनी होगी हमको भी राम की सेवा में वहां पहुंचना चाहिए ,यह हमारा कर्तव्य है। यह मानो कि वह स्वयं को समझ रहे कि हम राम के सैनिक है । मैं राजा हूं और यह सैनिक , यह सेना यह राम की सेना है । जय श्रीराम ।जय श्रीराम । कहते हुए राजा कुलशेखर अपनी सेना को युद्ध करने के लिए प्रेरित कर रहे थे । इस प्रकार वह आवेश में आ गए । ऐसे थे उनके भाव , ऐसी थी उनकी भक्ति (हंसते हुए) रामायण सुन रहे हैं , रामलीला का श्रवन हो रहा है । जो रामलीला कुछ नौ- दस लाख वर्षों पूर्व संपन्न हुई उस लीला को जब सुन रहे थे तब उनका अनुभव यह रहा कि ,
*अद्यापिह सेई लीला करे गौर राय ।*
*कोन कोन भाग्यवान देखिबारे पाय।।*
गौर राय नहीं थे रामचंद्र थे अद्यापिह , आज भी अब भी क्योंकि भगवान की लीलाएं शाश्वत है , सदैव संपन्न होती रहती है , राजा कुलशेखर के लिए वह लीला प्राचीन काल में , फार वर्षा पूर्वीची गोष्ट , मराठी में जब कोई गोष्ट या कहानी सुनाते हैं तब बोलते हैं फार फार वर्षा पूर्वीची गोष्ट! बहुत बहुत समय पहले , बहुत समय पहले ऐसी घटना घटी । लेकिन वह घटना घटी भी और घट भी रही है ।
*पुरानवपि नवम* की बात है । वह घटना , लीला पुरानी या प्राचीन होते हुए भी नवम , नई सी है । ऐसे राजा कुलशेकर के साक्षात्कार रहे । वह लीलाओ का श्रवण करते तो उन लीलाओं का दर्शन भी करते थे । हरि हरि।
उनकी प्रार्थनाएं है ,
*तत्त्वं प्रसीद भगवन्कुरु मय्यनाथे विष्णो कृपां परमकारुणिकः खलु त्वम् । संसारसागरनिमग्नमनन्त दीन मुद्धर्तुमर्हसि हरे पुरुषोत्तमोऽसि ॥*
(मुकुंद माला)
*अनुवाद:-अनुवाद हे परमेश्वर ! हे विष्णु ! आप परम दयालु हैं । अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हों और इस असहाय प्राणी को अपनी कृपा प्रदान करें । हे अनन्त भगवान् , भवसागर में डूब रहे इस दुखियारे को आप उबार लें । हे भगवान् हरि , आप ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं ।*
वह राजा कुलशेकर प्रार्थना कर रहे हैं , जिनको प्रार्थना कर रहे हैं उन को संबोधित भी करना होता है । डायरेक्टली या इनडायरेक्टली जिस किसी को प्रार्थना करते हैं । यह तो भगवान को प्रार्थना कर रहे हैं , इस प्रार्थना में वह भगवान को संबोधित कर रहे हैं । हरि हरि। राजा कुलशेखर ने चार संबोधनो का प्रयोग किया हुआ है । वैसे इस प्रार्थना में चार पाद है , पूरे प्रार्थना में या पूरे इस प्रार्थना में 4 पंक्तियां हैं ,पाद है । हर पद में एक एक संबोधन है , पहला तो है भगवन , हे भगवान , द्वितीय पंक्ति में है विष्णोः नाम तो विष्णु है लेकिन विष्णोः संबोधन होता है याद रखिये ।या फिर भानु का भानो होगा यह व्याकरण हुआ । भगवान का भी भगवन हुआ । नाम तो भगवान है पर संबोधन भगवान हुआ । यह विष्णु सहस्त्रनामो में से , अनंत नामों में से और एक नाम विष्णु है । तीसरी पंक्ति में अनंत , भगवान अनंत है । अनंत का संबोधन अनंत ही होता है । राम का संबोधन राम ही होता है । वैसे राम: संबोधन होता है , विसर्ग घटता है । अनंत का संबोधन अनंत किया हुआ है और चौथे पंक्ति में हरे कह कर संबोधित किया है । हरि का , जय जय राम कृष्ण हरि , हहरि का संबोधन हरे हुआ है । वैसे हम भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहते हैं तो जो हरे है वह हरा मतलब राधा , हरा का संबोधन हरे हुआ है । हरी का संबोधन भी हरे ही है , और यहाँ हरी का संबोधन किया है । यह चार संबोधन हुए , इस प्रार्थना में उन्होंने चार संबोधन किए हैं । हरि हरि । यह भगवान का स्मरण किया है । भगवान का स्मरण किया और विष्णु का स्मरण किया है, अनंत का स्मरण किया है । उल्लेख या स्मरण होता है फिर हरि का स्मरण किया है जो हर लेते हैं , *पापम हरति* वह चाहते हैं कि भगवान हमारे पाप को हर ले तो चलो हरि का स्मरण करते हैं अभी उनको हरे कहते हैं फिर वह समझ जाएंगे मुझे हरे क्यों कह रहा है? यहां मैं कुछ हर लू या ऐसा कुछ यह प्रार्थना करना चाहता है इसलिए मेरा हरि के रूप में स्मरण कर रहा है । वैसे प्रार्थना करने वाले वह कुछ सोच समझकर विशेष संबोधन का उपयोग करते हैं । हरि हरि ।
*तत्त्वं प्रसीद भगवन्कुरु मय्यनाथे विष्णो कृपां परमकारुणिकः खलु त्वम् । संसारसागरनिमग्नमनन्त दीन मुद्धर्तुमर्हसि हरे पुरुषोत्तमोऽसि ॥४ ९ ॥*
*अनुवाद:-अनुवाद हे परमेश्वर ! हे विष्णु ! आप परम दयालु हैं । अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हों और इस असहाय प्राणी को अपनी कृपा प्रदान करें । हे अनन्त भगवान् , भवसागर में डूब रहे इस दुखियारे को आप उबार लें । हे भगवान् हरि , आप ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं ।*
तत्वम प्रसिद्ध तो प्रार्थना तो यह है कि प्रसिद्ध मतलब आपका प्रसाद चाहिए। या मुझ पर प्रसन्न हो जाए प्रभु मुझ पर प्रसन्न हो जाइए कृपाम और आगे कहा कुरूम क्या कुरु मुझ पर कृपा कीजिए और कृपा करके प्रसन्न हो जाइए किस पर कृपा करनी है,मुझ पर मई मुझ पर कृपा करनी है मैं कैसा हूं अनाथे मैं अनाथ हूं। अगर आप कृपा करोगे तो मैं सनात बन जाऊंगा अब तो अनाथ हूं। जैसा जो कुत्ता जिसको देखकर गले में बेल्ट वगैरे नहीं है उसका कोई मालिक नहीं है तो वह अनाथ है।
तो मुंसिपल पार्टी की गाड़ी आएंगी और उसको पकड़ कर ले जाती है। ऐसा में हूं लेकिन मैं ऐसा मैं नहीं रहना चाहता हूं मुझे सनात बनाइए मुझ पर कृपा कीजिए मेरे गले में कंठी माला बांध दीजिए किसी को प्रेरित कीजिए।
हरि हरि ताकि मेरे कोई मालिक हो परमकारुणिकः खलु त्वम् हम आपको कृपा करने के लिए कह रहे हैं।
क्योंकि आप
*परम करुणा, पहुँ दुइजन, निताई गौरचन्द्र।*
*सब अवतार, सार-शिरोमणि, केवल आनन्द-कन्द॥1॥*
*अनुवाद:-श्री गौरचंद्र तथा श्री नित्यानंद प्रभु दोनों ही परम दयालु हैं। ये समस्त अवतारों के शिरोमणि एवं आनंद के भंडार हैं।*
*परम करुणा, पहुँ दुइजन, निताई गौरचन्द्र।* क्योंकि आप करुणा के सागर हो करुणा की मूर्ति हो या कृपा के सागर हो तो कुछ बिंदु उस कृपासिंधु में से कुछ कृपा के बिंदु छिड़काइए इस पतित के ऊपर खलु त्वम् निश्चित ही राजा कुलशेखर कह रह हैं निश्चित ही आप खलू त्वम कह रहे हैं निश्चित ही आप कैसे हो परम करुना तो ऐसे भी समझ है प्रार्थना करने वाले की और हम जैसे देखते हैं कभी हम मंदिर से किसी के यहां जाते है कुछ सेवा के लिए तब हम कहते है यह धनी जरूर है तो थोड़ा पता लगवा कर जाते हैं प्रचारक जाते हैं प्रचार करने के लिए या किसी को सदस्य बनाया के लिए तो उनको पता होता है कि यह व्यक्ति धनी है सुना है कि वह दानी भी है।
तो वहां पहुंच जाते हैं तो उसी तरह हमें धन की आवश्यकता है तो चलो धनी के पास जाते हैं हमें कृपा की आवश्यकता है तो चलो कृपालु के पास जाते हैं जो कृष्ण है कृपालु या भक्तवत्सल है। तो आगे राजा कुल शेखर यहां प्रार्थना किए है।
*संसारसागरनिमग्नमनन्त दीन मुद्धर्तुमर्हसि हरे पुरुषोत्तमोऽसि* वह कहे है मैं अनाथ हूं ऐसे अनाथ पर कृपा कीजिए और यहां कह रहे हैं कि मैं कैसा हूं संसारसागरनिमग्नमनन्त दिनम मतलब गरीब बेचारा आगे एक वैष्णव भजन में कहा जाता हैं।
*ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ।*
*दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥*
*अनुवाद :- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।*
*दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ* दीन बोला गया हैं और एक दिन होता है उसका मतलब दिवस है और दीन मतलब गरीब होता है।
1 दिन 1 दीन यह रस्वदिर्ग का अंतर है। इसकी और भी ध्यान देना होता है। 1 दिन 1 दीन तो यहां दीन चल रहा है।
मैं दीन हु संसार सागर में डूब गया हूं। कभी-कभी ऊपर आता हूं फिर डूब जाता हूं ऐसा ही हाल चल रहा है। संसारसागर निमग्न आ ऐसे भी याद रखिए आप भी तो प्रचार करोगे वैसे प्रचार के पहले आचार भी तो करना है। ऐसे कुछ नियम है और संसारसागर निग्मन यह हमारी स्थिति है। यह तो संसार है सागर भवसागर और उसमें हम निमग्न हम है। श्रीमद्भागवत में तो कहा है यह फॉरेस्ट ऑफ एन्जॉयमेंट है यह वन है जंगल है कैसा जंगल है जहां इंद्रिय तर्पण के प्रयास हो रहे हैं हरि हरि।
उसी के साथ अंनत को जोड़ दिया है। यह प्रार्थना अंनत को हो रही है। जिसमें हम मग्न है या डूबे हैं डूब के मर रहे हैं वह भी है सागर है कुआं नहीं है कुए में मरा थोड़ा कठिन है पानी थोड़ा कम होता है बच भी सकते हैं मरने का प्रयास करने के उपरांत भी कुए में नहीं मरेंगे लेकिन सागर में जरूर मरेगा व्यक्ति सागर का कोई अंत ही नहीं है। सागर भी अनंत होता है ऐसा कुछ विचार होगा राजा कुलशेखर का इसलिए सागर भी है अनंत या असीम कहो किनारा रहित एक दृष्टि से जहां भी देखो सागर ही सागर है और हम उसमें मर रहे हैं फिर अनंत प्रार्थना हो रही है अनंत को ऐसे असीम सागर से बचाइए है अनंतशेष या अनंत भगवान का नाम है।
उद्धरतुम अरहसी और सागर है तो सागर उद्धार कीजिए उद्धरतुम मतलब आप उद्धार करने योग्य है। या उद्धार करने में आप समर्थ हो इसलिए कहां है उद्धरतुम प्रत्यय का उपयोग हुआ है। इसके लिए उसके लिए तो उद्धार करने के लिए उद्धरतुम अरहसी मतलब आप ऐसा कर सकते हो मुझे पता है मुझे जानता हूं कई सारे उदाहरण है गजेंद्र मोक्ष का है उनका है इतिहास साक्षी है। आपने कइयों का उद्धार किया है। उद्धरतुम अरहसी हे हरे हे हरि आप उद्धार कीजिए पुरुषोत्तमह असी असी मतलब आप हो त्वम असि अहम अस्मि मैं हूं आप हो त्वम असि आप कौन हो पुरुषोत्तमह असि आप पुरुषोत्तम जो हो जय जगन्नाथ
जगन्नाथ को भी पुरुषोत्तम कहते हैं। जगन्नाथपुरी को पुरुषोत्तम क्षेत्र कहते हैं। पुरुषोत्तम क्षेत्र का नाम ही हुआ पुरुषोत्तम क्षेत्र उस धाम के धामी है पुरुषोत्तम जगन्नाथ और उस धाम का नाम और क्षेत्र का नाम है पुरुषोत्तम क्षेत्र पुरुषोत्तम तो आप पुरुषोत्तम हो पुरुषों में उत्तम गोविंदम आदि पुरुषम तम हम भजामि आप पुरुषोत्तम हो आप इस संसार में गिरे हुए और फिर ये प्रार्थना वैसी ही है जैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा क्या करू
*चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला20.32*
*अयि नन्द – तनुज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधी । कृपया तव पाद – पकज स्थित – धूली – सदृशं विचिन्तय ।। 32 ॥*
*अनुवाद ” हे प्रभु , हे महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण ! ‘ मैं आपका सनातन सेवक हूँ , किन्तु अपने ही सकाम कर्मों के कारण मैं अज्ञान के इस भयावह समुद्र में गिर गया हूँ । अब आप मुझ पर अहेतुकी कृपा करें । मुझे अपने चरणकमलों की धूलि का एक कण मानें । ‘*
वही प्रार्थना है दूसरे शब्दों में है चैतन्य महाप्रभु ने वेसी प्रार्थना की है या हमको सिखाइए हैं और राजा कुलशेकर यह भाव वही है शब्द कुछ भिन्न है। हे पुरुषोत्तम इस दिन का उद्धार कीजिए संसार सागर से उद्धार कीजिए और प्रसन्ना होइए इस अनाथ के ऊपर हे भगवान विष्णु क्योंकि आप करुणा के निश्चित के आप करुणा के सागर हो कृपा करो *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* तो यह महामंत्र भी कह रहे हैं और महामंत्र कहते समय क्योंकि महामंत्र तो प्रार्थना है तो राजा कुलशेखर ने जो प्रार्थना की और इसकी रचना हुई है यह प्रार्थना हमारे लिए उपलब्ध है तो यह प्रार्थना हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते समय ऐसी प्रार्थना कर सकते हैं ऐसे भाव ऐसी प्रार्थना करते हुए हम जप करते हैं। ऐसे भाव के बनते हैं या ऐसे विचार मन में उठते हैं या उठने चाहिए जब हम संबोधित कर ही रहे हैं किन को हमारा संबोधन है हरे कृष्ण हरे कृष्ण ही है फिर आगे हरे राम है तो कुछ परिवर्तन तो नहीं है राम भी कृष्ण ही है 8 बार हरे हरे कहते हैं चार बार कृष्ण कृष्ण कहते हैं चार बार राम-राम कहते हैं तो हम राधा और कृष्ण को संबोधित करते हैं। राधा और कृष्ण को प्रार्थना करते हैं प्रार्थना मतलब प्रार्थना में कुछ कहते हैं तो यह विचार हम कह सकते हैं सुना सकते हैं राधा को कृष्ण को सुना सकते हैं।
हरि हरि गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ठीक है तो याद रखिए यह उन 49 नंबर की मुकुंद माला की प्रार्थना है। यहां तात्पर्य भी लिखा है तो आप देख लो इंटरनेट से इसको प्राप्त करो यह इस्कॉन बुक शॉप पर भी उपलब्ध हैं ठीक है मैं रुकता हूं हरि हरि
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*पंढरपुर धाम से,*
*7 जून 2021*
*हरे कृष्ण!*
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!*
आज 840 स्थानों से भक्त जप चर्चा में उपस्थित हैं।
इन उपस्थित भक्तों कि जय!
*माधव हरि कि जय!*
*हरि हरी!गौर हरि कि जय!*
*जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥*
जो मैंने कहा उससे आप अंदाजा लगा सकते हो कि आज चैतन्य महाप्रभु के संबंधित कुछ कथा या चर्चा होने वाली हैं।
आज हैं…श्रील वृंदावन दास ठाकुर आविर्भाव तिथि।
*श्रील वृंदावन दास ठाकुर आविर्भाव तिथि महोत्सव कि जय!*
“वृंदावनदास ठाकुर”, हरि हरि!जिन्होंने चैतन्य भागवत कि रचना कि, ये उनका परिचय हैं और जो स्वयं श्रील व्यास देव ही थें। कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरितामृत मे लिखा हैं-
*कृष्ण – लीला भागवते कहे वेद – व्यास । चैतन्य – लीलार व्यास* *वृन्दावन – दास ।।*
*(चैतन्य चरितामृथम,आदि लीला, 8.34)*
अनुवाद: -जिस तरह व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत में कृष्ण की सारी लीलाओं का संकलन किया है , उसी तरह ठाकुर वृन्दावन दास ने चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का वर्णन किया हैं ।
कृष्ण लीला के रचईयता, जिन्होंने श्रीमद् भागवत लिखा था वह श्रील व्यासदेव ही अब वृंदावन दास ठाकुर के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने चैतन्य भागवत लिखा। जिन श्रील व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत लिखा था ,उनही श्रील व्यासदेव ने अब चैतन्य भागवत लीखा हैं। कृष्णदास कविराज गोस्वामी आगे लिखते हैं
*चैतन्य – मङ्गल ‘ शुने यदि पाषण्डी , यवन । सेह महा – वैष्णव हय* *ततक्षण ।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत,आदि लीला, 8.38)
अनुवाद:-यदि बड़ा से बड़ा नास्तिक भी चैतन्य मंगल को सुने , तो वह तुरन्त महान् भक्त बन जाता है ।
चैतन्य भागवत कि रचना करने वाले कोई साधारण मनुष्य नहीं हो सकतें। चैतन्य भागवत जैसा ग्रंथ लिखने का कार्य कोई मनुष्य नहीं कर सकता। ऐसा हैं भी,कोई यदि चैतन्य भागवत को देखेगा पढेगा, तो वह भी कहेगा कि यह किसी साधारण लेखक मनुष्य कि रचना हो ही नहीं सकती। कृष्णदास कविराज गोस्वामी आगे लिखते हैं-
*मनुष्ये रचिते नारे ऐछे ग्रन्थ धन्य । वृन्दावन – दास – मुखे वक्ता श्री -* *चैतन्य ।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत’आदि लीला, 8.39)
अनुवाद: -इस पुस्तक का विषय इतना भव्य है कि लगता है मानो श्री वृन्दावन दास ठाकुर की रचना के माध्यम से साक्षात् श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं बोल रहे हों
*चैतन्य भागवत कि जय…!*
हम यहां कह तो रहे हैं और हम सब जानते हैं कि चैतन्य भागवत कि रचना वृंदावन दास ठाकुर ने की जो श्रील व्यास देव ही हैं।लेकिन कृष्णदास रविदास गोस्वामी कहते हैं, नही-नही इसके वक्ता तो स्वयं चैतन्य महाप्रभु ही है, या दूसरे शब्दों में इसको कहा जा सकता है कि, चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन दास ठाकुर को निमित्य बनाया या उनसे लिखवाया तो उसके लेखक तो स्वयं चैतन्य महाप्रभु और वक्ता भी स्वयं चैतन्य महाप्रभु ही हैं और वृंदावन दास ठाकुर जो श्रील व्यास देव, प्रगट हुए हैं।उनको चैतन्य महाप्रभु ने निमित्य बनाया हैं।
*वृन्दावन – दास – पदे कोटि नमस्कार । ऐले ग्रन्थ करि ‘ तेंहो तारिला* *संसार ।।*
*(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 8.40)*
अनुवाद: -मैं वृन्दावन ठाकुर के चरणकमलों पर कोटि – कोटि प्रणाम हूँ । उनके अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति सभी पतितात्माओं के उद्धार के लिए ऐसा अद्भुत ग्रंथ नहीं लिख सकता था।
कृष्णदास कविराज गोस्वामी,चैतन्य चरितामृत के लेखक कह रहे हैं कि वृंदावन दास ठाकुर के चरणों में कोटि-कोटि नमस्कार।वह नमस्कार कर रहे हैं,तो हम भी नमस्कार करते हैं।आज के दिन को कोटि कोटि नमस्कार।वृंदावन दास ठाकुर के चरण कमलों में कोटि कोटि नमस्कार।*अनुग्रहितो स्मि*
आपके अनुग्रह से संसार को और फिर हमें चैतन्य भागवत प्राप्त हुआ हैं और पहले आपको प्राप्त करना होगा फिर आप कह सकते हो हम आपके आभारी हैं। हरि हरि!
आपने जो इस ग्रंथ की रचना करके चमत्कार किया हैं,आपके चरणों में हमारा नमस्कार।कैसा ग्रंथ? *तारिला संसार* जिस ग्रंथ ने इस सारे संसार को तार लिया या इस संसार को तारने की क्षमता रखने वाला यह ग्रंथ हैं, चैतन्य भागवत।
*ताँर कि अद्भुत चैतन्य चरित – वर्णन । याहार श्रवणे शुद्ध कैल त्रि -* *भुवन ।।*
(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 8.42)
अनुवाद:-अहा ! चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का कैसा ही अद्भुत वर्णन उन्होंने दिया है । तीनो लोकों में जो भी उसे सुनता है , वह शुद्ध ( पवित्र ) हो जाता है ।
इस चैतन्य भागवत के श्रवण से सारा त्रिभुवन शुध्द होता है, पवित्र होता हैं।
*गौरांगेर दु’टि पद, याँर धन सम्पद, से जाने भकतिरस-सार।*
*गौरांगेर मधुर लीला, याँ’र कर्णे प्रवेशिला, हृदय निर्मल भेल ता’र*॥*1॥*
अनुवाद:-श्रीगौरांगदेव के श्रीचरणयुगल ही जिसका धन एवं संपत्ति हैं, वे ही वयक्ति भक्तिरस के सार को जान सकते हैं। जिनके कानों में गौरांगदेव की मधुर लीलायें प्रवेश करती हैं, उनका हृदय निर्मल हो जाता है।
*गौरांगेर मधुर लीला, याँ’र कर्णे प्रवेशिला, हृदय निर्मल भेल ता’र*
जैसे हम इस गीत में सुनते ही हैं। *गौरांगेर मधुर लीला* गौरांग कि मधुर लीला का वर्णन जो वृंदावन दास ठाकुर ने किया है , *याँ’र कर्णे प्रवेशिला* जीव के कर्णो में और फिर कर्णों से ह्रदय में प्रवेश करेगी,ह्रदय तक पहुंच जाएगी। फिर यह लीला आत्मा को स्पर्श करेगी, और फिर तार ह्रदय निर्मल भय, उस व्यक्ति का हृदय निर्मल होगा,ऐसा हैं, चैतन्य भागवत। ऐसा भाष्य स्वयं कृष्ण दास कविराज गोस्वामी कर रहे हैं । हरि हरि!
आज के दिन वृंदावन दास ठाकुर का जन्म हुआ।आज के दिन मतलब 500 वर्ष पूर्व।वह समय था जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का, निमाई का सन्यास हो चुका था और सन्यास के ऊपरांत कुछ 4 वर्ष बीत चुके थे।जब चैतन्य महाप्रभु 29 साल के थे और चैतन्य महाप्रभु की मध्य लीला संपन्न हो रही थीं,तब वृंदावन दास ठाकुर जन्मे थे।श्रीवास ठाकुर को तो आप जानते ही हो, श्रीवास आंगन को आप जानते ही हो,जो मायापुर में हैं। श्रीवास और श्रीनिधि,श्रीपति,श्रीराम ऐसे चार भाई थें। मुझे पता नहीं कि किस भाई की,लेकिन श्रीवास के एक भाई कि पुत्री नारायणी थीं।”नारायणी कि भक्ति और भाव का क्या कहना”!चैतन्य महाप्रभु का अंग-संग जिस नारायणी को प्राप्त था और चैतन्य महाप्रभु के उच्चिष्ट को महा महाप्रसाद को ग्रहण करने वाली कृपा पात्र नारायणी के पुत्र के रूप में वृंदावन दास ठाकुर जन्में, प्रकट हुए। एक समय नारायणी का विवाह हुआ और यह सब डिटेल्स भी हैं, कि जब वह गर्भवती थीं तो विधवा भी हो गई। नारायणी ने वृंदावन दास ठाकुर का लालन-पालन मामगाछी में किया।नवद्वीप में एक द्वीप हैं जिसे गोद्रुमव्दीप कहते हैं। गोद्रुमव्दीप में है मामगाछी।आप लोग परिक्रमा नहीं करते यह समस्या हैं, इसलिए समझ में नहीं आता, कौन सी लीला कहां हुई, और कौन से भक्त परिकर कहां रहे, कौन सा कार्य किसने किया।परिक्रमा में जाया करो! नवद्वीप मंडल परिक्रमा, वृंदावन ब्रजमंडल परिक्रमा मे जाया करो!हम जब परिक्रमा में जाते हैं तो वृंदावन दास ठाकुर जहा रहे और संभावना हैं, वहीं ग्रंथों की रचना भी की होगी उन्होंने चैतन्य भागवत वही लिखा होगा। वहा हम रुकते हैं, परिक्रमा का रात्रि का पड़ाव तो नहीं होता मार्ग में या कई बार हम वहां सुबह का नाश्ता करते हैं। वहा पहुँच जाते हैं और खूब कथाएं होती हैं, वृंदावन दास ठाकुर का संस्मरण होता हैं, वृंदावन दास ठाकुर का निवास स्थान और उनके सेवित विग्रह भी वहा हैं।हरि हरि!
उनहोने अपने ग्रंथ का नाम पहले तो चैतन्य मंगल ही दिया था लेकिन जब पता चला कि चैतन्य मंगल नाम का एक ग्रंथ लोचन दास ठाकुर ने पहले ही लिखा हैं, यह श्री खंड के, एक क्षेत्र हैं।बांग देश का या बंगाल का श्रीखंड क्षेत्र,वहा के लोचन दास ठाकुर ने चैतन्य मंगल लिखा हैं,तो उनहोने अपने चैतन्य मंगल का नाम परिवर्तन करके चैतन्य भागवत नाम रखा। हरि हरि!
मुरारी गुप्त ने भी ग्रंथ लिखा हैं। मुरारी गुप्त मायापुर के ही थें।वह चैतन्य महाप्रभु के परिकर थें। उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य चरित्रामृत नाम का ग्रंथ लिखा हैं। और फिर जब कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने ग्रंथ लिखा तो फिर उन्होंने अपने ग्रंथ का नाम रखा चैतन्य चरितामृत। लेकिन मुरारी गुप्त ने श्री कृष्ण चैतन्य चरितामृत नाम का ग्रंथ पहले ही लिखा हुआ था ।ऐसे अलग अलग नाम *चैतन्य मंगल* फिर *चैतन्य भागवत*, *श्रीकृष्ण चैतन्य चरितामृत* वैसे ये तीन ग्रंथ चैतन्य लीला के कई सारे ग्रंथ हैं, किंतु यह तीन गौडीय वैष्णव द्वारा लिखे हुए हैं। हरि हरि!
हमको जो मान्य हैं, या स्वीकृत हैं, उसमें से यह मुख्य मुख्य ग्रंथ है। चैतन्य मंगल,श्रीकृष्ण चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत, और चैतन्य चरित्रामृत हैं। चैतन्य चरितामृत बाद में लिखा गया हैं, यह देरी से लिखा गया।बाकी तीन ग्रंथ वह हैं जो नाम मैंने पहले बताएं हैं।यह ग्रंथ चैतन्य महाप्रभु जब थें,जब लीलाएं संपन्न हो रही थी उसी समय लिखे हुए हैं,किंतु चैतन्य चरित्रामृत वृंदावन में राधा कुंड के तट पर लिखा गया उस समय चैतन्य महाप्रभु के अंतर्ध्यान होने के 50-60 वर्षों के बाद चैतन्य चरित्रामृत ग्रंथ लिखा गया।उस वक्त कृष्ण दास कविराज गोस्वामी की वृद्धावस्था चल रही थी। हरि हरि! हमको यह सभी ग्रंथ पढ़ने चाहिए और इनमें से दो ग्रंथों का इस्कॉन में अधिक प्रचार हैं।वैसे चैतन्य मंगल भी हैं। श्री कृष्ण चैतन्य चरित्रामृत संस्कृत में हैं और बाकी तीन जिनका हम उल्लेख कर रहे हैं,वह बंगला भाषा में हैं।चेतनय भागवत पर गोडिय भाष्य श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने लिखा हैं, इसलिए चेतनय भागवत गौड़ीय संप्रदाय,गोडी़य मठ और इस्कॉन में भी प्रसिद्ध हैं कयोकि श्रील प्रभुपाद के गुरु महाराज ने इस भाष्य को लिखा और समझाया हैं।श्रील प्रभुपाद ने चैतन्य चरित्रामृत का अंग्रेजी में अनुवाद किया और अब चेतनय चरित्रामृत ही इस्कॉन में अधिक प्रचलित हैं, किंतु इस बात को नोट करना होगा कि चेतनय चरित्रामृत एक दृष्टि से अधूरा ग्रंथ हो जाता हैं।वैसे पूर्ण भी है
*ओम पूर्ण मदः, पूर्णमिदं ,पूर्णात पूर्ण मुदच्यते,पूर्णस्य पूर्णमादाय* *पूर्णमेववशिष्यते*
*( ईशोपनिषद)*
*अनुवाद:भगवान पूर्ण हैं और पूर्ण से जो भी उत्पन्न होता है वह भी* *पूर्ण हैं।*
इस सिद्धांत के अनुसार पूर्ण भी हैं, किंतु फिर भी अधूरा ही हैं।कयोकि
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने जब चैतन्य चरित्रामृत को लिखा तो उन्होंने उन लीलाओं को लिखा ही नहीं या संक्षेप में लिखा जिन लीलाओं का वर्णन वृंदावन दास ठाकुर ने अपने चैतन्य भागवत में किया था, तो जो लीलाएं चैतन्य भागवत में हैं, वह चैतन्य चरितामृत में या तो संक्षिप्त में मिलेंगी या मिलेंगी ही नहीं और जिन लीलाओ को कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरितामृत में विस्तार से लिखा हैं,वह लीलाएं आपको चैतन्य भागवत में नहीं मिलेंगी। इसीलिए जब चेतनय भागवत और चेतनय चरितामृत को मिलाते हैं तब हमें एक पूर्ण चित्र मिलता हैं,” एक पूर्ण ग्रंथ”।तब चेतनय लीला का संपूर्ण वर्णन हमको प्राप्त होता हैं।वृंदावन दास ठाकुर जिनहोनें चैतन्य भागवत लिखी हैं उन्होंने चेतन महाप्रभु की नवदीप लीलाएं बहुत ही विस्तार से लिखि हैं।उनकी बाल लीला उनकी किशोरावस्था विद्या विलास इत्यादि इत्यादि और निमाई संयास
वृंदावन दास ठाकुर की चेतनय भागवत में निमाई संयास तक आदि लीला होती हैं या उसे आदि खंड कहते हैं।चेतनय भागवत में खंड चलते हैं,जैसें आदि खंड,मध्य खंड इसी को कृष्ण दास कविराज गोस्वामी आदि लीला,मध्य लीला, अंत: लीला कहते हैं। चेतनय भागवत में खंड कहां हैं और चेतनय चरितामृत में केवल लीला ही कहा हैं।जब चैतन्य महाप्रभु के पिता जी नहीं रहें, तब चैतन्य महाप्रभु उनकी श्राद्ध क्रिया के लिए गया गए और वहां पर ईश्वर पुरी के साथ मिलन हुआ और ईश्वर पूरी से दीक्षित हुए।यहां तक चेतनय भागवत का आदि खंड हैं और ईश्वर पूरी से दीक्षित होने से लेकर चैतन्य महाप्रभु की सन्यास दीक्षा तक यानी निमाई संयास तक(उस वक्त चैतन्य महाप्रभु 24 साल के हुए थे ) मध्य खंड हैं। आदि खंड और मध्य खंड में चैतन्य महाप्रभु की विस्तार से नवदीप लीलाएं हैं। उनके जन्म से लेकर सन्यास तक की लीलाएं हैं। किंतु चेतनय चरितामृत मे कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने आदि लीला को संक्षिप्त में लिखा हैं और चेतनय चरित्रामृत में चैतन्य महाप्रभु की जो जगन्नाथपुरी में मध्य लीला और अंत लीलाएं हैं वहा कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने विस्तार से लिखा हैं किंतु उस लीला का वर्णन वृंदावन दास ठाकुर ने अपनी चेतनय भागवत में संक्षिप्त में किया हैं। हरि हरि!वृंदावन दास ठाकुर नित्यानंद प्रभु के शिष्य भी रहे।उनको चैतन्य महाप्रभु का अंग संग या दर्शन तो प्राप्त नहीं था, यहां तक कि जब नवद्वीप लीलाएं संपन्न हो रही थी तब तक वृंदावन दास ठाकुर जन्में भी नहीं थे किंतु आगे चैतन्य महाप्रभु तो जगन्नाथपुरी में रहे और चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को भेजा कि जाओ बंगाल जाओ वहां जाकर प्रचार करो।
जब उन्हें आदेश हुआ तब नित्यानंद प्रभु बंगाल आए और नाम हट का खूब प्रचार प्रसार किया। हरि नाम का प्रचार किया। उस समय वृंदावन दास ठाकुर नित्यानंद प्रभु के शिष्य बन जाते हैं। इसीलिए चेतनय भागवत में नित्यानंद प्रभु की लीलाओं का अधिक वर्णन मिलेगा और चेतनय चरित्रामृत में नित्यानंद प्रभु की लीलाओं का संक्षिप्त में वर्णन हैं इस प्रकार चैतन्य भागवत और चैतन्य चरितामृत को हम तुलनात्मक दृष्टि से भी समझ सकते हैं। चैतन्य चरित्रामृत में कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने संस्कृत का अधिक प्रयोग किया हैं। इसमें वह कई सारे शास्त्रों से उदाहरण देते हैं और सिद्धांतों और तत्वों की बात करते हैं। किंतु चेतनय भागवत तो लीला प्रधानय हैं चेतनय भागवत में माधुर्य भी हैं रसिक लोग इसका अधिक आस्वादन करते हैं।हरि हरि।
इस तरह व्यास देव ने चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं में हिस्सा लिया या प्रवेश किया या उनकी जो ग्रंथों की लिखने की सेवा हैं उसको उन्होंने चेतनय लीला में भी पूरा किया। जिस प्रकार चैतन्य महाप्रभु श्री कृष्ण ही हैं, श्री कृष्ण और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अभिन्न हैं उन में कोई भेद नहीं हैं, वैसे ही वेदव्यास और वृंदावन दास ठाकुर में कोई भेद नहीं हैं दोनों अभिन्न हैं ।श्री कृष्ण,श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में नवद्वीप में प्रकट हुए। और उनके साथ साथ श्रील व्यास देव भी प्रकट हुए।एक दृष्टि से व्यास देव भगवान के शक्तावेश अवतार ही हैं। कृष्ण तो अवतारी ही हैं, अवतारी प्रकट हुए चैतन्य महाप्रभु के रूप में और श्रील व्यास देव जो शक्तावेश अवतार हैं आज ही के दिन वृंदावन दास ठाकुर के रूप में प्रकट हुए।पूरा गोडीय वैष्णव आज के दिन वृंदावन दास ठाकुर का आविर्भाव दिवस मनाएगा। वृंदावन दास ठाकुर तिथि आविर्भाव महोत्सव की जय। चैतन्य भागवत को सुनो और पढ़ो और जो कृपा की वृष्टि वृंदावन दास ठाकुर ने की हैं
उसमें नहाओ या गोते लगाओ और हमारे लिए
*वृन्दावन – दास – पदे कोटि नमस्कार ।*
*ऐले ग्रन्थ करि ‘ तेंहो तारिला संसार ।।*
*आदि लीला 8.40*
*अनुवाद*
*मैं वृन्दाव ठाकुर के चरणकमलों पर कोटि – कोटि प्रणाम हूँ । उनके* *अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति सभी पतितात्माओं के उद्धार के लिए* *ऐसा अद्भुत ग्रंथ नहीं लिख सकता था*
हम को तारने के लिए,हम को बचाने के लिए या हमारे उद्धार के लिए जिन्होंने पहले श्रीमद्भागवत लिखा था, उन्होंने अब चैतन्य भागवत भी लिखा हैं। इसका जरूर श्रवण,कीर्तन और अध्ययन करो।इसका पठन और पाठन करो। इसे पढ़ो और सुनाओ। इससे वृंदावन दास ठाकुर हमसे और आपसे प्रसन्न होंगे।अगर चेतनय भागवत नहीं पढ़ा तो क्या होगा? श्रुति शास्त्र निंदनम्। इसकी कल हम चर्चा कर रहे थे
*श्रुति-शास्त्र -निन्दनम्*
*वैदिक शास्त्रों अथवा प्रमाणों का खंडन करना*
*चौथा नाम अपराध*
चौथा नाम अपराध क्या हैं? शास्त्रों की निंदा करना और सबसे बड़ी निंदा क्या हैं? शास्त्रों का अध्ययन ही ना करना इसलिए चेतनय भागवत भी जरूर पढ़िए। यह अलग-अलग स्थानों पर बांग्ला भाषा में, हिंदी भाषा में उपलब्ध हैं।आप श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का गोडीय भाष्य भी पढ़ सकते हो।मैं आपको चेतनय भागवत दिखाता हूंँ फिर हम यही रुकेंगे। बस आप को दिखाने के बाद मैं अपनी वाणी को यहीं विराम दूंगा। यह चेतनय भागवत हैं(गुरु महाराज चैतन्य भागवत् को दिखाते हुए) वृंदावन दास ठाकुर द्वारा रचित। जो मैं दिखा रहा हूं यह हिंदी में हैं। नीचे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का गोड़ीय भाष्य हैं। इसे प्राप्त करने के कई सारे जरिए हैं।इंटरनेट से भी देख सकते हैं। अंग्रेजी में चेतनय भागवत पर कई सारे टॉक्स हैं।ठीक हैं।*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम,
06 जून 2021
हरि बोल, गौरंग।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल आप खुश हो जाते हो। बंगाली भाषा में बाहुतुले कहते है।
हरि हरि। आप बहुत उत्साहित लग रहे हो। वैसे आप भी हमेशा तैयार रहते हो। आप जप तो कर ही रहे थे और कर ही रहे हो। यह जप करने से और भी उत्साही बन जाते हैं। उत्साहवर्धक जप होता है और होना भी चाहिए। हरि हरि। तो आज एकादशी भी है। है कि नहीं? मराठी लोग समझेंगे एकादशी के दिन दुगना खाते हैं। एकादशी के दिन लोग ज्यादा खा लेते हैं। इस्कॉन में भी एकादशी होती है। उपवास लगभग होता ही नहीं, कई सारे निर्जला ही करते हैं, अल्पाहार भी करना चाहिए। वैष्णव के 26 गुण हैं और उसमें एक है मित भुक। मित मतलब सीमित भोजन। इसको हम उपवास कहते हैं। उपवास का गहरा और गंभीर अर्थ है। तो उप मतलब पास और वास मतलब रहना, पास में रहना, उपवास मतलब पास में रहने का दिन है। साधक को पास में रहना चाहिए। किसके पास रहना चाहिए?
भगवान के पास रहने का, भगवान के निकट जाने का, पहुंचने का या अधिक निकट पहुंचने के लिए प्रयास का एकादशी दिन है। हरि हरि। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे करने से क्या होता है? यह राधा है, कृष्ण है, एकादशी है, पास में जाने का दिन है मतलब उपवास का दिन है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण ही तो भगवान है। हम निकट कैसे जाएंगे? जप करते हुए जाएंगे। हम उनके पास जाते हैं। अधिक पास जाने का क्या अर्थ है? उसका क्या माध्यम है या मंच है? वह महामंत्र है इसको हम इस तरह समझ सकते हैं। हरि हरि। हम ध्यानपूर्वक जप करेंगे और उपवास करेंगे। तो और पास पहुंच जाएंगे। हरि हरि। मुझे कुछ कहना है आपसे इसलिए मैं थोड़ा मंच बना रहा हूं। संक्षिप्त में कहना है और राजा कुलशेखर की प्रार्थना भी सुनानी है। उसके अलावा एकादशी का दिन है। तो ध्यानपूर्वक जप करना चाहिए। हरि हरि। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि ध्यानपूर्वक जप नहीं हो पाता? जप मतलब ही ध्यान या नाम स्मरण या मंत्र मेडिटेशन इसको कहते हो। ध्यान क्यों नहीं लगता?
ध्यानपूर्वक जप क्यों नहीं होता? इसके कारण बताए हैं। एक मुख्य कारण अपराध होते हैं। हमसे नाम अपराध होते हैं। अपराधों के भी कई प्रकार हैं। उसमें से जो नाम अपराध करने से हमारा ध्यानपूर्वक नहीं होता। मतलब उपवास नहीं होता। निर्जला भी कर रहे हैं, कुछ अल्पाहार भी ले रहे हैं या फलाहार भी हो रहे हैं या दुग्ध पान से ही निभा रहे हैं। तो भी उपवास कर भी रहे हैं और उपवास हो भी नहीं रहा। खानपान की दृष्टि से उपवास हो रहा है। किंतु भगवान के पास पहुंचना है। भगवान के सानिध्य को अनुभव करना है। इतना ही नहीं वैसे भगवान का दर्शन भी करना है। भगवान के पास जाएंगे तो दर्शन होगा ही ना। हरि हरि। मंत्र मेडिटेशन मतलब ध्यान। भगवान के रूप का भी ध्यान। *सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी कर कटावरी ठेवोनिया* भगवान का ध्यान और भगवान को याद कर रहे हैं, स्मरण पर भी कर रहे हैं और देख भी रहे हैं। देख कर ध्यान कर रहे हैं। भगवान को निहार रहे हैं। इसको ध्यान कहते हो।
उपवास होगा तब पास पहुंचेंगे, तो ध्यान भी होगा। किंतु ध्यान नहीं लगता, उपवास नहीं होता, भगवान के पास नहीं पहुंचते, ध्यानपूर्वक जप नहीं होता क्योंकि हमसे अपराध होते हैं और यहां पर नाम अपराध की बात चल रही है। यह जो नाम अपराध है, फिर विधि निषेध की बात से सोचा जाए तो जप करें या ध्यानपूर्वक जप करें यह विधि है। निषेध क्या है? अपराध ना करें। तो ध्यानपूर्वक जप करो और क्या मत करो? अपराध करो मत करो। 10 नाम अपराध है। भक्ति रसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी ने इन 10 नाम अपराधों का उल्लेख किया है। वह भी 10 नाम अपराध रूप गोस्वामी के मनगढ़ंत बातें नहीं है। उन्होंने यह 10 नाम अपराध नहीं बनाए, उसकी सूची नहीं बनाई। पद्मपुराण में 10 नाम अपराधों का जिक्र आता है। हरि हरि। इस संसार को ऐसे सृष्टि के प्रारंभ से ऐसे 10 नाम अपराध पता ही है। तो 10 नाम अपराध, श्रील प्रभुपाद की कृपा से, भक्ति रसामृत सिंधु संस्कृत ग्रंथ का अंग्रेजी में अनुवाद किया और फिर भक्तों की मदद और कृपा से प्रभुपाद के अनुवादित भक्ति रसामृत सिंधु अंग्रेजी ग्रंथ और हिंदी में और कई भाषाओं में हैं। 10 नाम अपराधो से हमको अवगत होना चाहिए मतलब हमे पता होना चाहिए ताकि हम क्या करें? अपराध नहीं करे। अपराध पता ही नहीं है तो अपराध कैसे करोगे? तो आपको 10 नाम अपराधो से अवगत होना चाहिए, आपको पता होना चाहिए। ताकि आप अपराधो को टाल सकते हो। मुझे पता ही नहीं था कि इसको नाम अपराध कहते हैं। अरे मैंने तो वैष्णव अपराध किया। संतों और साधु की निंदा करना अपराध है। यह सूची में पहला अपराध है। बहुत बड़ा अपराध है। साधु की निंदा नहीं करना। निंदा करना या अपराध करना उसके अंतर्गत बहुत कुछ करना।
*एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् ।*
*परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥ ५१ ॥* *पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः ।*
*श्रेयो दिशल्यभिमतं यद्धादिषु देहिनाम् ॥ ६० ॥*
(श्रीमद भगवतम 4.8.59)
तात्पर्य:
इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन , वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति – विधियों के कार्यों में मग्न रहता है , उसे उसकी इच्छानुसार भगवान् वर देते हैं । यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म , अर्थ , काम भौतिक संसार से मोक्ष चाहता तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं ।
*कायेन मनसा वचसा* अपराध कैसे होते हैं?
शरीर से अपराध हो सकते हैं। कोई थप्पड़ मरेगा, वचसा से कोई गाली गलौज होगा, मन से ईर्ष्या द्वेष के विचार होंगे। हरि हरि। हम तो पूरी व्याख्या करने का समय तो मिलता ही नहीं। इस बात को समझो, नोट करो। कई बातें तो नई नहीं है। हम जब इस्कॉन से जुड़ते ही, यह शिक्षा दी जाती है, प्रारंभ में ही, जब हम नए भक्त होते हैं। हमारे मंदिरों में प्रतिदिन जप प्रारंभ करने के पहले 10 नाम अपराधों का उल्लेख होता है। 10 नाम अपराध सब गिनाए जाते हैं। सब मिलकर कहते हैं। हरि हरि। जब दीक्षा होती है, तब दीक्षा के समय भी श्रील प्रभुपाद ने ऐसा प्रारंभ किया। 16 माला का प्रतिदिन जप करो। ऐसा आदेश उपदेश भी होता है। आपको माला दी जाती है और आपका नाम यह है कृष्ण दास या धीर गौरांग दास। उस समय 10 नाम अपराध दिखाएं और सुनाएं जाते हैं। जो बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। हिंदू जगत में कहो, हिंदुओं को पता नहीं होता है, नाम अपराधी होते हैं, वह नाम तो लेते रहते हैं। वह हरे कृष्ण वाले नहीं है। नाम जप करने वाले, कीर्तन करने वाले, दुनिया करती है। हिंदू भी करते हैं। लेकिन और कई जन लोग साधक, हिंदू इनको अपराधों की कोई चिंता नहीं होती। अपराधों के बारे में कोई उनको सुनाता ही नहीं, कोई सुनता ही नहीं, कोई पालन नहीं करता और कीर्तन भी हो ही रहा है। जप भी हो ही रहा है और साथ में अपराध भी हो रहे हैं। तो फिर क्या नहीं होगा? यह कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं होने वाला है। अपराधियों के लिए कृष्ण प्रेम या कुछ प्रेम का हल्का अनुभव होगा। किंतु जो प्रेम का सागर है।
*चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति – पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥12 ॥*
(अंतिम लीला 20.12)
अनुवाद:
भगवान कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना।
*आनन्दाम्बुधि – वर्धन* प्रति – पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन* इसका साक्षात्कार नहीं होगा। जो जप भी करते हैं और साथ ही में अपराध भी कर रहे हैं। सावधान या साधु सावधान, तो यह 10 नाम अपराध हमको पता होने चाहिए और याद रखना चाहिए।
हमको 10 नाम अपराध पता होने चाहिए। हमें याद रखने चाहिए। याद रखेंगे तो हम उन अपराधों को टाल सकते हो। हरी हरी। जो भी भक्त अपने आपको वैष्णव मानते हैं उनको यह 10 नाम अपराध नहीं करने चाहिए। ताकि उनको कृष्ण प्रेम प्राप्त हो सके जो जीवन का लक्ष्य है। इस्कॉन मंदिरों में ऐसे अंग्रेज़ी में भक्त हर प्रातः काल को कहते है । जो अपने आप को वैष्णव मानते हैं उनको यह दस नाम अपराध टालना चाहिए ताकि उन्हें ताकि शीघ्र अति शीघ्र कृष्ण प्रेम प्राप्त हो जीवन का जो इस मनुष्य जीवन का लक्ष्य हैं।
प्रेम प्राप्त हो या प्रेममयी सेवा प्राप्त हो।
*पहला नाम अपराध*
साधु निंदा हैं। महाभागवतो की निंदा करना अपराध है। इसका अर्थ यह नहीं है कि छोटे मोटे महाभागवत है जैसे कि भक्त चैतन्य की हम निंदा कर सकते हैं। ऐसी बात नहीं हैं कि कोई नया है, यह छोटा है उनके चरणो में अपराध कर सकते हो। बड़े जो महात्मा है, महाभागवत हैं जैसे प्रभुपाद उनके चरणों में अपराध नहीं करना चाहिए। ऐसी बात नहीं हैं कि कोई महाभागवत या लघु भागवत है, तो उनके चरणों में भी और कोई भागवत, महात्मा व साधू अपराध नहीं करना चाहिए। हरि हरि। *जीवे दया वैष्णव सेवन*। जितने भी जीव है, उन पर दया दिखानी चाहिए। किसी भी की निंदा नहीं करना चाहिए। हरि हरि।
*दूसरा नाम अपराध*
यह जो देवी देवता है, यह भगवान से स्वतंत्र नहीं हैं। ना ही भगवान के समक्ष हैं। देवी देवता स्वतंत्र नहीं है। बस कृष्ण ही स्वतंत्र है, भगवान ही स्वतंत्र हैं, अभिज्ञ स्वराट। सारे देवता भी भगवान पर ही निर्भर हैं। भगवान से ही नियंत्रित है। भगवान की अध्यक्षता सभी के ऊपर हैं। जिनमें देवी देवता भी सम्मिलित हैं और देवता स्वतंत्र नहीं है। भगवान की श्रेणी के नहीं है। हरि हरि। जो विष्णु तत्व के होते हैं उन्हें भगवान कहते हैं। तो ऐसे कुछ शक्ति तत्व भी देवी हैं। देवी तो शक्ति हों गयी। हरि हरि। भगवान की शक्ति के कई प्रकार हैं।
*न तस्य कार्य करणं च विद्यते
न तत्समश्चाभ्यधिकश दृश्यते ।*
*परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते
स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च ॥ ८ ॥*
(श्वेताश्वर उपनिषद 6.8)
ब्रह्मा भी जीव है। ब्रह्मा जीव तत्त्व हैं। जैसे की आप जीव हो, मैं जीव हूँ, तो ब्रह्मा भी जीव हैं, जीव तत्त्व हैं। तो विशेष कुछ भगवान अनंत काल की शक्ति और कुछ विशेष शक्ति प्रदान करते हैं और किसी जीव को पद देते हैं। आप ब्रह्मा बनो, आप यह बनो, आप इंद्र बनो, आप चंद्र बनो। वास्तव में वो जीव ही होते हैं और कुछ विशेष हो सकते हैं। शक्ति हैं या देवी देवता शक्ति है और कुछ अलग अलग श्रेणियां हैं। वैसे जीव भी तटस्थ शक्ति है। तो यह समझना है कि भगवान भी विष्णु तत्व होते हैं। विष्णु तत्व नाम का एक तत्व हैं। हर एक का एक तत्त्व होता हैं। जीव तत्व हैं या शक्ति तत्व हैं। कई सारे नाम तत्व है। हर एक का तत्व होता हैं। तत्त्वता जानना है। एक विष्णु तत्व है और दूसरा जीव तत्व है और शक्ति तत्व भी है। हरि हरि। तो औपचारिक दृष्टि से हम देवी देवताओं की आराधना या उपासना तो नहीं करते किंतु उनकी भी तो निंदा नहीं करनी है। उनका भी सत्कार सम्मान हमें भी करना हैं। यदि हम सत्कार सम्मान नहीं करेंगे। तो हम अपराध करेंगे।
*तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना ।*
*अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।*
(अंतिम लीला, 20.21)
अनुवाद:
जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है ।
तो वैष्णव *अमानिना मान – देन* चींटी का भी सत्कार सम्मान करेगा। तो देवताओं का क्यों नहीं? हरि हरि।
*तीसरा नाम अपराध*
गुरु अवज्ञा या अवेलहना –
गुरु के दिए हुए आदेश का पालन नहीं करना। यह गुरु अवज्ञा है। ऐसे करने से होता है नाम अपराध। मेंने तो वैष्णव अपराध किया यह नाम अपराध का इससे क्या संबंध है ?
क्यूँकि नाम भगवान हैं और वैष्णव भगवान को प्रिय हैं और हर जीव भगवान को प्रिय हैं। ऐसे भगवान के प्यारे दुलारे जीव की निंदा करी, तो भगवान हमसे अप्रसन्न होंगे, ऐसा संबंध है। भगवान हम आपका थोड़ी बिगाड़ हैं। यह हरी नाम, हम तो बस जीव को पीट रहे है। लेकिन भगवान को जीव इतने प्रिय है। देवी देवता भी प्रिय हैं और फिर गुरु तो भगवान को विशेष प्रिय है। उनके आदेशों का पालन नहीं किया, तो फिर गुरु अवज्ञा हुई या फिर हम गुरु भोगी बनें या गुरु द्रोही बनें या फिर गुरु त्यागी बनें। श्री गुरु के चरणो में तो इस प्रकार के अपराध हो सकते हैं। गुरु भोगी बनके ,गुरु द्रोही बनके या फिर गुरु त्यागी बनके तो यह है गुरु अवज्ञा। तो हमें सावधान रहना चाहिए। ऐसा करेंगे तो हम नाम अपराध कर रहे है। हरि हरि। यदि गुरु ने ही कहा कि ध्यानपूर्वक जप करो या फिर दस नाम अपराधों का पालन करो। अगर हमने नहीं किया तो गुरु अवज्ञा हो गयी। हरी हरी। ऐसा संबंध है।
*चौथा नाम अपराध*
श्रुति शास्त्र निंदनम –
इसमें साधू निंदा, देवी देवता निंदा या फिर गुरु की निंदा हो सकती हैं या गुरु के चरणों में अपराध करना। *श्रुति शास्त्र निंदनम* सभी शास्त्रों की निंदा करना या धिक्कार करना या फिर कई प्रकार से निंदा हो सकती हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए।
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।*
*भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥१८ ॥*
(श्रीमद् भागवत 1.2.18)
अनुवाद:
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
*नित्यं भागवतसेवया* करना चाहिए। यदि शास्त्र अध्ययन ही नहीं किया, तो फिर कुछ नहीं किया। शास्त्र के वचन आपने पढ़ा ही नहीं, आपने सुना ही नहीं, तो फिर यह घोर अपराध या महा अपराध हुआ। कई प्रकार के भाष्य सुनाना, शास्त्र व्याख्या, मायावाद या अद्वैतवाद यह भी एक प्रकार की निंदा हुई। कुछ लोग कहते है कि हम लोग केवल वेदों को मानते हैं जैसे आर्य समाज नाम का समाज। हम लोग केवल श्रुति को मानते है, स्मृति को नहीं मानते। ऐसे भी लोग है तो श्रुति शास्त्र निंदनम हो गयी। कई विभन्न प्रकार से शास्त्रों की निंदा लोग करते ही रहते हैं। इस पर विचार करो। विचारों का मंथन और आपस में चर्चा करो।
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |*
*कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||*
अनुवाद:
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
*बोधयन्तः परस्परम्* किस प्रकार से शास्त्रों की निंदा कर सकते हैं। उसके बाद शास्त्रों को पढ़ा लेकिन उसका पालन नहीं करना तो फिर यह श्रुति शास्त्र निंदा ही हैं । शास्त्रों का ज्ञान अर्जित तो किया किंतु उसका विज्ञान नहीं बनाया या अमल नहीं किया तो फिर यह श्रुति शास्त्र निंदा ही हैं।
*पांचवा नाम अपराध*
हरि नामनी कल्पनम
हरि नाम एक कल्पना हैं। जो लोग हरि नाम को नहीं जानते। हरि नाम के तत्व को नहीं जानते।
*नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह।*
*पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।।*
(मध्य लीला 17.133)
अनुवाद:
भगवान का नाम चिन्तामणि के समान हैं, यह चेतना से परिपूर्ण हैं। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त हैं । भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं ।
*अभिनत्वात नाम नामीनो* इस बात को नहीं जानते या फिर सुनने पर भी जानते नहीं या मानते नहीं। भगवान और भगवान का नाम अभिन्न हैं। *अभिनत्वात नाम नामीनो* तो हरि नाम कल्पना नहीं है। अगर हरि नाम कल्पना हैं। तो हरि भी कल्पना हुए। हरिनाम कल्पना नहीं है। यह कल्पना नहीं है। भगवान के नाम हजार से भी अधिक हैं। भगवान के रूप, लीला, गुण, धाम या उनके परिकर का उल्लेख करता है। यह सब सत्य है और तथ्य है। तो यह कल्पना नहीं है।
*छठा नाम अपराध*
अर्थवाद
कई सारे अर्थ जो अधिकतर अनर्थ ही होते हैं। कहना या यह भी कहना कि हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहने की क्या आवश्यकता है? हम तो कोई भी नाम ले सकते हैं। फिर भक्त कहते हैं कोका कोला कोका कोला नाम लेते हैं। नाम ही लेना है ना। तो कोका कोला भी तो एक नाम है या कोई भी नाम। अरे मूर्ख! कोई भी नाम नहीं, हरि का नाम है, हरी के नाम का जप करना है। हरे सोहम हरे सोहम सोहम सोहम हरे हरे , तो फिर किसी ने व्याख्या चल रहा है। तथात्वादः। तो हरे कृष्ण कहने के बजाय वृंदावन में एक पार्टी है, एक आश्रम है। उस आश्रम का नाम ही है सोहम आश्रम हे। शायद सोहम आप शब्द आप सुने होंगे लेकिन समझे नहीं होंगे। सोहम मतलब जैसे सह:, सह: मतलब वह: स के आगे विसर्ग (:), तो संस्कृत में जो संधि होती है, साथ में सह और अहम, सह – वह अहम – मै, इन दो शब्दों को साथ में कहते हैं तो संधि के अनुसार उसे सोहम। अ का आलोक भी होता है, अ का लोप होता है, स का सो होता है और हम बचता है, सोहम सोहम, तो वो पार्टी क्या कहती है, हरी सोहम, हरे सोहम यह मायावाद, पक्का मायावाद हुआ। सोहम मतलब वह जो है जो भगवान जो है वह भगवान मैं हूं, वह भगवान मैं हूं, स अहम, स अहम, आप समझ रहे हो? आप तो नहीं समझोगे। आप वैष्णव हो, लेकिन कुछ लोगों ने ऐसा समझ के रखा है। वह मैं ही हूं सोहम। तो हरे सोहम हरे मतलब राधा, राधा और मैं राधा और मैं मैं मैं राधा राधा, तो कृष्ण के स्थान पर कृष्ण को उड़ा दिया और उस स्थान पर स्वयं को बिठा लिया और मंत्र क्या हुआ? हरे सोहम हरे सोहम सोहम सोहम हरे हरे। तो यह हद हो गई। यह अर्थ वाद है। यह एक बहुत बड़ा गलत व्याख्या है। ऐसे कई सारे भाष्य, तो ऐसी कल्पना करके बैठे हैं। ऐसी मान्यताएं बनी है और ऐसे जप करते हैं। कितना महा अपराध हुआ? मायावादी क्या, मायावादी कल बताया था, मायावादी कृष्ण अपराधी मायावादी कृष्ण अपराधी। तो यह मायावाद और यह कृष्णा अपराधी, तो यह तो केवल 5 ही हो गए। हरि हरि। तो 5 हो गए कि 6 हो गए, 6 हो गए।
*सातवां नाम अपराध*
हरि नाम के बल पर पाप करना।
*नाम्नामकारि बहुधा निज – सर्व – शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः* ।
*एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः* ।। 16 ।।
अनुवाद:
हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हैं , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।
चैतन्य महाप्रभु कहे, मैंने सारी अपनी शक्तियां इस हरि नाम में भर दी है। यह हरि नाम शक्तिमान है, बलवान है। तो चलो हम क्या करते हैं? पाप कर लेंगे उसके बाद क्या करना? हरे कृष्ण हरे कृष्ण करना ही है। तो हरि नाम हमको शुद्ध बना देगा। तो ऐसे इस हरि नाम जो बलवान शक्तिमान हरि नाम के बल पर पाप करना, गंगा तेरा पानी अमृत तो चलो अब कुंभ मेला आ गया चलते हैं। डुबकी लगा कर आते हैं सारे पाप धुल जाएंगे और फिर किनारे जब आएंगे तो चाय पी लेंगे। चाय तो कुछ भी नहीं शराब पी लेंगे। तो रास्ते में चाय की दुकान आ गई और उसमें लिखा भी है की आखिरी चाय की दुकान। तो चलो चाय पी ही लेते हैं, पी लेते हैं, चाय पी लेते हैं। तो क्योंकि स्थान पर जाकर कथा तो सुननी है जप तो करना ही है, तो शुद्ध तो हो ही जाएंगे। तो इस प्रकार का जो बहुत ही आम प्रक्रिया है। यह सब चलता रहता है। सभी धर्मों में चलता रहता है। हिंदू धर्म में चलता है कि हम धार्मिक हैं। भगवान की कृपा से या जप तप से शुद्ध तो होने वाले हैं ही। तो बीच में थोड़ा-थोड़ा पाप कर लिया। तो क्या दोबारा यह करना है? वह करना है तो यह यह जो ठगाई है यह धोखा धडी है। यह नाम अपराध है। हरि हरि। इसको कुंज रसोतवच कहा है। कुंजन कुंजन मतलब हाथी लिखो कुंजर मतलब हाथी लिखेगा रामलीला लिख ले। यह मूल शब्दों के हम लोग आती और क्या-क्या जानते हैं? कुंजर तो नहीं जानते हाथी जब स्नान करता है। तालाब में नदी में जहां-तहां और किनारे आते ही क्या करता है? आकर सारी धूल को अपने यहां पर फेंक देता है। क्या फायदा? उस स्नान का क्या फायदा उस जप तप का यह कहो। तो यह सातवां नाम अपराध है।
*आठवां नाम अपराध*
तो पूरा कर ही लेते हैं पता नहीं आज क्या क्या होने वाला था। प्रेजेंटेशन उसका क्या होगा? तो आठवां है, शास्त्र है वेद। वेद में कर्मकांड सेक्शन है। कर्मकांड विभाग, कर्मकांड, ज्ञानकांड। केवल विषय भांड यहां हम लोग गोडिया वैष्णव कहते हैं। यह कर्मकांड तो एक जहर का प्याला है। तो इस कर्मकांड के अंतर्गत कई सारे पुण्य कृत भी कहे हैं। विधि है कि यह पुण्य करो ,यह वह पुण्य करो तो वह पुण्य कर दिए। जो कर्मकांड में कहे हैं उसमें देवी देवता की पूजा भी है, यज्ञ भी है। यह है वह है ऐसे कई सारे कई लोग एकादशी के उपवास से कर्मकांड के रूप में भी करते हैं। कई संकल्प लेते हैं। कर्मकांड कई लोग उपवास करते हैं शुक्रवार को सोमवार को हो शनिवार उपवास। यह सब कर्मकांड चलता रहता है। नवस मराठी में नवस, तो यह कर्मकांड है। कई विधियां बताई हैं। पुण्य कृत्य करने के लिए कहे हैं। उसकी तुलना भक्ति के साथ करना भक्ति के कार्य भक्ति के कृत्य श्रवण कीर्तन विष्णु स्मरणम जो नवविधा भक्ती है और उसमें फिर हरे कृष्ण हरे कृष्ण भी है। यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण और यह पुण्य कृत्य प्रारंभिक अस्पताल है। समाज सेवा देश सेवा है। मानव सेवा मानव सेवा ही है। माधव सेवा यह लोग कहेंगे। मानव सेवा ही माधव सेवा है। ऐसा बकवास करने वाले वह समझते नहीं माधव की सेवा क्या होती है। तो दोनों की तुलना नहीं हो सकती। पुण्य श्रवण कीर्तन, यह श्रवण कीर्तन करना ही पुण्य कृत्य है। पुण्य आत्मा माने जाते हैं। लेकिन पुण्य पुण्य एक पुण्य तो सतोगुणी में होता है। सत्वगुणी लोग पुण्य कृत्य करते हैं। लेकिन जो गुणातीत होते हे। जो शुद्ध सत्व को प्राप्त होते हैं वह भी पुण्य है, तो भक्ति के कृत्य जो है, भक्ति का कृत्य तो गुणातीत होता है। शुद्ध सत्त्व के स्तर पर होता है और कर्मकांड के कई कार्य कृत्य विधि वह पुण्य होता है। सत्व के स्तर पर होता है। तो पुण्य आत्मा बनो। जैसे कर्मकांड भाग में बताया है। तो स्वर्ग जाओगे।
*अन्तवत्तुफलंतेषांतद्भवत्यल्पमेधसाम् |*
*देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्तायान्तिमामपि || २३ ||*
(भगवद गीता 7.23)
अनुवाद
अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं | देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं |
*नौवा नाम अपराध*
आपको वैकुंठ जाना है, गोलोक जाना है। भगवत प्राप्ति करना चाहते हो। तो भक्ति करनी होगी, भक्ति करनी होगी। जप करना होगा। हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना होगा। यह दोनों में अंतर है। बहुत अंतर है तो एक तो भौतिकता है, अच्छी भौतिकता है, सत्व गुण है। लेकिन है तो भौतिकता और यह प्रभुपाद या गौडिया वैष्णव इसे भली-भांति समझाएं हैं और व्यक्ति हिंदू ही रह जाता है। यह बातें नहीं समझने से इसको हम पसंद नहीं करते हैं। जब वह कहे गर्व से कहो हम हिंदू हैं। तो हम इस बात को तो तुम हिंदू क्या कहेगा एक ही बात है एक ही बात है। एक बात नहीं है एक ही बात है कहना ही अपराध है। एक ही बात है कहना या तुलना करना पुण्य, पुण्य कृत्य और भक्ति के यह अपराध है। यह नाम अपराध है। हरि हरि। तो नया अश्रद्धालु को प्रचार करना, जो अश्रद्धालु हैं उन्हें प्रचार करना
तो फिर क्या करें? सारा संसार तो श्रद्धा विहीन है। जब कहां है? जा रे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश। यहां कहां गया है कि श्रद्धा विहीन को प्रचार करना अपराध है। अश्रद्धालु को प्रचार करना तो इसको इस प्रकार से भी समझ सकते हैं कि जब हम व्यक्ति को श्रद्धा विहीन कहते हैं। तो श्रद्धा विहीन भी समझ सकते हैं। हर एक का आस्था अलग अलग होता है, ओके ही है जो 10% आस्था है, यह 30 प्रतिशत आस्था वाला है, उसके पास 75% आस्था है उसके पास 100% आस्था है तो हर व्यक्ति को श्रद्धा विहीन भी कह सकते हैं, उसके पास 10% है तो कितना कम है 90% कम है, ऐसे 50-50 चल रहा है 50% आस्था है, 50% कम है। तो उस व्यक्ति का लेवल या स्तर या श्रेणी या कितनी श्रद्धा है उसके अनुसार उस व्यक्ति को हमें प्रचार करना चाहिए। पहले निदान होता है। कितना बुखार है? उसके अनुसार गोली देगा कुछ कम या अधिक। तो कुछ कुछ गोपनीय बाते है शास्त्रों में या भगवान के प्रेम की बातें हैं। यहां राधा कृष्ण के प्रेम के व्यापार जो है।
*राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ* । *चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम्* ॥५५ ॥ राधा – भाव
(आदि लीला 1.5)
अनुवाद:
श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं ।
यह तो लोगों के पल्ले पढ़ने वाली बातें नहीं हे। आप उनको सुनाओगे कि रासलीला की बातें तो यह होगा *आत्मबध मान्यते जगत*। इसको भी नोट करो। इस संसार के लोग क्या समझते हैं? हम भी वैसे ही है और कृष्ण भी हमारे जैसे ही है। देखो कृष्ण कितने कामुक हैं। बाकी लोग अप वचन कहते रहते हैं। कैसा है तुम्हारा भगवान जो युवतियों के साथ मिलता रहता है, खेलता रहता है, नाचता रहता है। नंगा नाच करता है। ऐसे भी लोग कहेंगे कुछ मसाला मिल जाएगा। आपने ऐसा कुछ कहना तो नहीं लेकिन आप उस को पचा नहीं पाए उसको उल्टी हो रही है और वह अपराध के वचन काटा जाएगा इसीलिए जो केजी का स्टूडेंट है उसको पीएचडी की बातें तो सिखाई नहीं जा सकती हैं। पहली चीज पहले ही आती है। एबीसी से शुरुआत करनी होगी कुछ शब्द सिखाओ फिर कुछ वाक्य सिखाओ निबंध सिखाओ। फिर श्रील प्रभुपाद जी कहते हैं कि पहले गीता पढ़नी चाहिए, फिर भागवत पढ़ना चाहिए, फिर भागवत का जो दसवां स्कंध और पंच रास अध्याय, उसे क्रम से भागवत को पढ़ना चाहिए। उछाल नहीं लगाना चाहिए। जो अधिकतर हमारे देश में होता है। भागवत कथाकार और भी उसमें से फिर कुछ सहाजिया भी बन जाते हैं और भागवत कथा में रासलीला भी करते हैं और यह सब पाखंड चलता रहता है। स्वयं कथाकार ही भगवान बन जाएंगे और यह बड़ा खतरनाक मामला है। सावधान रहना चाहिए। कहते हैं कि वैसे इसाई मसीहा जीसस क्राइस्ट ने भी कहा वैसे मुझे बहुत कुछ कहना है पर अभी नहीं मैं कहूंगा जब आप तैयार होंगे तब मैं कहूंगा और फिर वह वैसे कहकर भी प्रस्थान किए। मैं वापस आऊंगा। तब सुनाऊंगा आप जितना समझ सकते हो। तो यह प्रचार करना भी कला है, शास्त्र है।
यह एक कला और विज्ञान है। तो उसमें हमें निपुण होना चाहिए और उस व्यक्ति के स्तर के अनुसार, लेवल के अनुसार उसको प्रचार करना चाहिए। जैसे कीर्तन तो हो सकता है। प्रसाद लेना होगा। फिर नाम कीर्तन। तो सभी से करवा सकते हैं। कोशिश तो कर सकते हैं प्रयास तो कर ही सकते हैं। देखते हैं कई बार जब कई लोग इकट्ठे होते हैं पदयात्रा में हमारा अनुभव ऐसा रहा, तो हम कहते हैं हाथ उठाइए तो वहीं से पता चलता है कि कौन से श्रद्धावान और कौन श्रद्धा विहीन है। तो अगर वह हाथ ऊपर करें तो हां हां उनमें आस्था है और कुछ लोग तो ऐसे ही विवेकानंद की तरह खड़े होते हैं स्तब्ध हो कर और फिर जब लोगों को बोलते हैं कहो हरे कृष्ण तो जो श्रद्धालु हैं वह कहेंगे हरे कृष्ण लेकिन कुछ लोग ऐसे मिलेंगे पहले उनका होंठ खुलता तो है लेकिन हरे कृष्ण कहते ही वह मुख बंद कर लेते है, होठ बंद हो जाएंगे उनके और खोलने की बजाय जब कहा हरे कृष्ण कहो कहने का समय आया तो वह अपने होंठ बंद कर लेते थे। जो भी है कीर्तन सुन तो लिया वे बने तो रहे, कुछ तो आस्था है। कुछ लोग क्या करेंगे, कुछ लोग तो उनको हरे कृष्ण आप कहोगे तो गाली गलौच शुरू करेंगे।
विदेश में हम कई बार जब नगर कीर्तन वगैरह में जाते हैं। तो और जब कहते हैं कि आप हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण कीजिए तो कहते हैं जाओ कुछ काम करो कोई नौकरी पकड़ो। हमको भी जॉब दे रहे हैं। हरे कृष्ण महामंत्र जप करने का और आप कह रहे हो कि कुछ काम धंधा करो जाओ कोई नौकरी ढूंढो। तो फिर भक्त कहेंगे यही हमारी जॉब है हम पहले से ही अपने कार्य में हैं। आप कह रहे हो कि जॉब करो तो यही हमारी जॉब है हम अपनी जॉब कर रहे हैं हम अपनी जॉब से प्रेम करते हैं और कुछ लोग तो वहां से निकल जाएंगे। कुछ लोग शांति से निकल जाएंगे कुछ लोग तो कई प्रकार के प्रतिक्रिया या जवाब होंगे तो उससे पता चलेगा कि कितनी आस्था कम है या कितना आस्था ज्यादा है। तो उसके अनुसार हमने किसी को प्रसाद भी दे रहे थे। दिल्ली मंदिर में कोई आदमी एक महिला के साथ वहां से जा रहे थे। तो हमने कहा कृपया कर के प्रसाद ले लीजिए। तो उन्होंने कहा नहीं नहीं हमने अपना खाना खा लिया और हम अभी इस होटल से आ रहे हैं। नहीं प्रसाद नहीं चाहिए हमें नहीं चाहिए । हरि हरि। तो प्रचार करना श्रद्धा विहीन लोगो को अपराध है।
*दसवा नाम अपराध*
हरि नाम में श्रद्धा नहीं होना। यह दसवें नाम अपराध का एक हिस्सा है, एक अंग है। हरि नाम में श्रद्धा ही नहीं होना। प्रचार करना श्रद्धा विहीन लोगो को ऐसा चल ही रहा था। जो श्रद्धालु नहीं है उनको प्रचार नहीं करना चाहिए। लेकिन यहां अभी क्या चल रहा है? आप स्वयं ही श्रद्धालु नहीं हैं। आप स्वयं ही जब जप कर रहे हैं मेरी श्रद्धा नहीं है। हरि नाम में श्रद्धा नहीं है। तो यह हद हो गई। अपराध के नाम पर अपराध। मेरी श्रद्धा नहीं है हरि नाम लेने में। इसे ऐसे ही समझा सकते हैं कि हम श्रद्धालु नहीं है। श्रद्धा नहीं है लेकिन श्रद्धा तो है किंतु क्या नहीं है दृढ़ श्रद्धा नहीं है निष्ठा नहीं है, श्रद्धा से प्रेम तक की सोपान है। तो माधुरी कादंबिनी के अनुसार श्रद्धा होनी चाहिए।
श्रद्धा को बढ़ाना चाहिए। श्रद्धा बढ़ाते जाएंगे, बढ़ाते जाएंगे, बढ़ाते जाएंगे। तो दृढ़ श्रद्धा होगी और फिर उसका नाम है दृढ़ श्रद्धा। दृढ़ श्रद्धा के स्तर का नाम है निष्ठा। हमको निष्ठावान होना चाहिए हम श्रद्धालु तो है लेकिन निष्ठावान नहीं है। तो श्रद्धा से कुछ तो काम बन ही जाएगा। अब श्रद्धा नहीं होना अपराध है। हरी नाम के प्रति श्रद्धा नहीं होना अपराध है और साथ ही इसी दसवें अपराध का हिस्सा है। वह क्या है? कई सारे आदेश उपदेश सुनने के उपरांत भी भौतिक आसक्ति बनाए रखना। प्रात काल उठो लेकिन सोने में इतनी आसक्ति हैं। उठना ही नहीं होता। भौतिक आसक्ति कई प्रकार की आदतें हैं, बुरी आदतें हैं। कई प्रकार के असत्संग हैं। बुरे लोगों का संग है। दुर्जनो के साथ उठना बैठना चलता ही रहता है। आसक्ति हैं या इंटरनेट की आसक्ति है या फिर कई प्रकार की आसक्ति हैं, यह खाने की आसक्ति है। यह करने की आसक्ति है, आसक्ति आसक्ति आसक्ति। जब तक इस प्रकार की आसक्तियां है तो कई बार बारंबार यह सारे उपदेश सुनने के उपरांत भी गुरु की अवज्ञा ही हो रही है। पहले बताया था इसका पालन नहीं किया वह आसक्त है तो यह आसक्तियां जो है,
*चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः* |
*कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्र्चिताः* || ११ ||
*आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः* |
*ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्* || १२ ||
(भगवद गीता 16.11-12)
अनुवाद:
उनका विश्र्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है | इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है | वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं |
जैसे श्री कृष्ण कहते है। आशा के पास सैकड़ों है हजारों हैं। इस पर कार्यवाही करनी होगी लेकिन फिर यह भी कहना होगा या याद रखना होगा। हमें नहीं पता कि क्या पहले आएगा आसक्ति। तो हरी नाम में बनानी है। आप जानते हो आसक्ति नाम का एक स्तर है। श्रद्धा, साधु संग, भजन क्रिया, अनर्थ निवृति, निष्ठा, फिर रुचि, फिर आसक्ति, फिर भाव और प्रेम। नाम में आसक्ति, भगवान में आसक्ति, भगवान के भक्तों की सेवा में आसक्त होना। यह एक भक्ति का स्तर है स्थिति है श्रेणी है यह दोनों प्रकार के आसक्ति हैं। एक विधि है एक निषेध है तो वैसे उपाय तो यह है कि जब हम *परम दृष्ट्वा निवृत्ते*। ऊंचा स्वाद ऊंचा स्वांग। हरि नाम में हरि नाम का आस्वादन करेंगे। तो हम अनुभव करेंगे कुछ हमारा निजी अनुभव होगा। इस हरिनाम जप में, उसमें हम आनंद लूटेंगे। तो वह ऊंचा स्वाद है तभी तो संसार भर की जो आसक्तियां हैं उन को ठुकरा सकते हैं। उनसे मुक्त हो सकते है। तो वैसे भी सिद्धांत तो है ही।
*वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः* ।
*जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम्* ॥७ ॥
(श्रीमद् भागवत 1.2.7)
अनुवाद:
भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहेतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है ।
तो हमें जप करते ही रहना चाहिए। जप करते ही रहना चाहिए ताकि क्या हो जाए? थोड़ा आस्वादन हो जाए। कुछ हरि नाम से आसक्त हो जाएं। कुछ और एक हायर टेस्ट हो, संसार की आसक्तियों को हम ठुकरा सकें। संसार के जो प्रलोभन है उनको ठुकराएं। आपके पास शक्ति चाहिए, सामर्थ चाहिए ताकि संसार जो हमें दे रहा है इसको खाओ इसको पियो इसको गले में लगाओ यह वह, यह ऐसा है वैसा है। सुबह-शाम माया की बमबारी चलती रहती है। वैभव माया का तो है ही। उसे नहीं कहने के लिए शक्ति चाहिए बुद्धि चाहिए या फिर अधिक अधिक जप करते हुए अधिक से अधिक सत्संग किया, अधिक श्रवण और कीर्तन किया एकादशी का उपवास किया और यह सब पांच महा साधन कहें। आपको बता दें, वैसे तो 64 साधन है, 64 भक्ति के अंग भक्ति रसाअमृत सिंधु में लिखे हैं और फिर बोला गया कम से कम पांच तो करो और उनके नाम हैं। एक साधु संग है, दूसरा है नाम संकीर्तन, तीसरा है
भागवत श्रवण, चौथा है धाम वास और पांचवां है, यह क्रम आगे पीछे भी हो सकता है, पांचवा है विग्रह आराधना, यह पांच महा साधन है। बहुत जरूरी, सरकार ने कहा है जो जरूरी हैं उनकी दुकानें खुली रहेंगी, यह जरूरी है, कोरोना की पहली लहर में शराब की दुकानें खुली रहेंगी, सबसे जरूरी। जीना तो जीना शराब के बिना कैसे जिएंगे सबसे जरूरी है। तो शराब है दुनिया वालों की लिस्ट में। जरूरत की एक लिस्ट होती है। हम गौडीय वैष्णव की लिस्ट में यह पांच मुख्य बातें है। साधु संग है, भागवत श्रवण है, नाम संकीर्तन है, धाम वास है। अपने घर को ही धाम बनाओ इस्कॉन मंदिर जाओ। अगर आप पंढरपुर आ सकते हो, वृंदावन जा सकते हो, तो उसे बढ़िया कुछ नहीं है। लेकिन अपने घर को मंदिर बनाओ। घर को धाम बनाओ। धाम में रहो और अर्चना करो। देवघर बनाओ। ऑल्टर को केंद्र बनाओ। तो यह 10 नाम अपराध है इसके आगे कहा भी है इसको 11 तो नहीं कहा है। लेकिन ध्यानपूर्वक जप नहीं करना, यह भी एक अपराध है और फिर यह भी कहा है कि ध्यानपूर्वक जप नहीं करने से अपराध भी हो जाते हैं। ऐसा संबंध है। तो ध्यानपूर्वक जप करने का पूरा प्रयास करें और अधिक से अधिक ध्यान होगा। जब हम अधिक से अधिक अपराधों से बच जाएंगे। अधिक अधिक अपराधों से अधिक अधिक बच जाएंगे तो अधिक अधिक ध्यान लगेगा। ध्यान होगा ध्यानपूर्वक जप होगा। मेरे हिसाब से बहुत लंबा हो गया है। आखिरी मे, मैं कहूंगा आज एकादशी का दिन है तो श्रवण अधिक करना चाहिए ऐसी योजना तो नहीं थी लेकिन ऐसा हो गया।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
निताई गौर प्रेमानदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 05 जून 2021
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 805 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं।
गौरांगा!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
जय सखी वृंद! तुम्हारी पुत्री भी आज सम्मिलित हुई है, यह बहुत अच्छा है। अपने मित्रों, सगे संबंधियों के साथ जप करो! संकीर्तन आंदोलन मतलब जब हम सामूहिक रूप से जप करते हैं अर्थात हम सभी को मिलकर सारे संसार के ( सारे संसार के साथ नही, अर्थात माया के साथ नहीं) लोगों के साथ जप, कीर्तन, भक्ति करनी है अथवा अधिक अधिक लोगों अथवा जीवों को जोड़ना है। वे जीव आपके परिवार के सदस्य भी हो सकते हैं या आपके देशवासी हो सकते हैं अथवा पूरी मानव जाति हो सकती है। यह कृष्ण भावना सभी जीवों के लिए है।
संघे शक्ति कलौयुगे। कलियुग में संगठित होने की महिमा है। संगठन में नंबर्स का मामला भी है। यदि अधिक लोग हैं, तब अधिक शक्ति का प्रदर्शन भी होगा। आप भी औरों के प्रति ऐसे ही दयालु बनिए। जैसे हम कहते हैं कि मैं तो जप कर रहा हूं, अच्छा है कि आप जप कर रहे हो परंतु यह और भी अच्छा होगा जब आप दूसरों को जप करने के लिए प्रेरित करते हो। हरि! हरि!
राजा कुलशेखर के भी ऐसे ही प्रयास रहे हैं जिनकी हम प्रार्थनाएं पढ़ रहे हैं। हमनें कल कुछ उनकी प्रार्थनाएं पढ़ी थी। कुछ आज पढे़गें। यह कहा जा सकता है कि वे प्रार्थना करते हुए, सारे संसार के लोगों को प्रेरित कर रहे हैं अर्थात राजा कुलशेखर कृष्ण भावना भावित होने की प्रेरणा दे रहे हैं।
कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान्त मद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ॥३३ ॥
अनुवाद :- हे भगवान् कृष्ण , इस समय मेरे मन रूपी राजहंस को अपने चरणकमल के डण्ठल के जाल में प्रवेश करने दें । मृत्यु के समय जब मेरा गला कफ , वात तथा पित्त से अवरुद्ध हो जाएगा , तब मेरे लिए आपका स्मरण करना कैसे सम्भव हो सकेगा ?
ऐसी कई सारी प्रार्थनाएं है। उसमें से कुल ५३ प्रार्थनाएं इस मुकुंद माता स्तोत्र में हैं। राजा कुलशेखर ने प्रार्थना की है और हमें प्रार्थना करना सिखा रहे हैं। आचार्यों अथवा राजऋषियों का ऐसा प्रयास बना रहा है कि अधिक से अधिक लोग यह प्रार्थना करें, भक्ति करें, जप करें, कीर्तन करें, आत्मनिवेदन करें अर्थात भगवान की शरण ले। नवधा भक्ति करें। हरि! हरि! हमें भी यह करना है। इस भक्ति को केवल स्वयं तक सीमित नहीं रखना है। वैसे भी कहा गया है कि भक्ति भक्तों से प्राप्त होती है। ऐसे भक्ति का संचार व प्रचार-प्रसार होता है अथवा वृद्धि होती है। एक भक्त दूसरे भक्त को भक्ति देता है। यह बातें भी है। हम आपको कुछ उपदेश कर रहे हैं। कुछ आदेश अथवा कुछ गृहकार्य भी दे रहे हैं। लेकिन हमें राजा कुलशेखर की प्रार्थनाएं भी करनी है, सुननी है, समझनी है। कल हमने कुछ प्रार्थनाएं अध्ययन की थी और आज भी हम कुछ प्रार्थनाएं पढ़ेंगे।
त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे निन्दन्तु गुरवो जनाः । तथापि परमानन्दो गोविन्दो मम जीवनम् ॥३ ९ ॥
अनुवाद:- चाहे मेरे सारे कुटुम्बीजन मेरा परित्याग कर दें और मेरे वरिष्ठजन मेरी निन्दा करें , फिर भी परम आनन्दमय गोविन्द मेरे प्राणाधार बने हुए हैं ।
राजा कुलशेखर इस प्रार्थना में कह रहे हैं। राजा कुलशेखर राजा अथवा राजऋषि थे। वे श्री संप्रदाय के राजऋषि थे। रामानुजाचार्य का जो श्री संप्रदाय है, उसमें वे एक आचार्य की भूमिका भी निभा रहे थे।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
( श्रीमद् भगवतगीता 4.8)
अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
वे भगवान की ओर से धर्म की स्थापना कर रहे हैं, उन्होंने भगवान का कार्य किया। राजा का कार्य ऐसा ही होता है, वे पहले नागरिक होते हैं। राजा, राजऋषि, भगवान के प्रतिनिधि होते हैं और फिर परित्राणाय साधुनाम भी है। यह राजा का ही कर्तव्य होता है।
क्षतात त्राय ते इति क्षत्रियः।
अर्थ:- क्षति( पाप, अधर्म, कष्ट, शत्रु आदि सर्व प्रकार की क्षति) से रक्षा करना सच्चे क्षत्रिय का परम् कर्त्तव्य होता है।।
राजऋषि परित्राणाय साधुनाम भी करते हैं, वे विनाशाय च दुष्कृताम अर्थात दुष्टों का संहार करते हैं या असुरों को दंडित करते हैं अथवा वे अपने राज्य में असुरी प्रवृति का दमन करते हैं और जो समाजकंटक है, उनको उखाड़ कर समूल नष्ट करते हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
( श्रीमद् भगवत गीता ४.८)
अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
भगवान, धर्मसंस्थापनार्थाय अर्थात धर्म का संस्थापना का कार्य करते हैं और राजा, ऋषियों की मदद से भगवान का यह कार्य करते हैं। वे राजऋषि कहलाते हैं। वे इस प्रार्थना में कह रहे हैं कि
त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे निन्दन्तु गुरवो जनाः । तथापि परमानन्दो गोविन्दो मम जीवनम् ॥३ ९ ॥
अनुवाद:- चाहे मेरे सारे कुटुम्बीजन मेरा परित्याग कर दें और मेरे वरिष्ठजन मेरी निन्दा करें , फिर भी परम आनन्दमय गोविन्द मेरे प्राणाधार बने हुए हैं ।
संभव है कि भगवान या गोविंद का भक्त बनने से मेरे परिवार के कुछ सदस्य मुझे त्याग सकते हैं। ‘यह हरि कृष्ण वाला कहीं का।’ नफरत कर सकते हैं। ईर्ष्या द्वेष हो सकता है। भेद कर सकते हैं। साम, दाम, दंड, भेद। त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे। बंधु बांधव मुझे त्याग सकते हैं। ऐसी संभावना है, ऐसा होता रहता है। हम सभी का अनुभव है, हम जो भक्त बन रहे हैं। कईयों को यह बात पसंद नहीं होती है। हरि! हरि! वे हमें त्याग देते हैं, हमें अलग कर देते हैं। हो सकता है कि वे हमें अपने उत्सवों में ही नहीं बुलाएं। यह हम सभी का अनुभव है। पिता हिरण्यकश्यिपु ने क्या किया था जब उनका पुत्र भक्त बन गया था, वह विश्व प्रसिद्ध बात है। जब कोई भक्त बनता है, तब लगभग कम् या अधिक वैसा ही होता है। दुनिया वाले भक्तों के साथ, वैष्णवों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं। राजा कुल शेखर कह रहे हैं कि वे करें, सही। त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे निन्दन्तु गुरवो जनाः । वे निंदा करेंगे, टीका टिप्पणी होगी।
जब हम हरे कृष्ण वाले बनें थे और जब हम लोग प्रचार के लिए निकलते थे। तब उस समय लोग हमें देखते ही पुनः एक ग्रामोफोन रिकॉर्ड चला देते थे, उन दिनों में चलता था – दम मारो, मिट जाए गम’। हरे कृष्णा हरे राम। वे गीत इतनी जोर से सुनाते, सब हमारी ओर संकेत करते हुए कहते कि तुम हो, वे दम मारने वाले । वे हरे कृष्ण वाले भक्तों को नहीं समझते थे इसलिए इस प्रकार की टीका टिप्पणी चलती रहती थी कि हरे कृष्ण वाले ऐसे हैं, धिक्कार है इन हरे कृष्ण वालों पर। हरे कृष्ण वाले अमेरिकन एजेंट है। यह सी.आई.ए. हैं। क्यों नहीं। टॉक ऑफ टाउन, टॉक ऑफ द मुंबई, टॉक ऑफ इंडिया। इन शब्दों में निंदा हुआ करती थी। राजा कुलशेखर कहते थे – निंदंतु अर्थात निंदा करने दो। हरि! हरि! मुझे परवाह नहीं है।
तथापि परमानन्दो गोविन्दो मम जीवनम् ।
बस मेरा तो जीवन गोविंद है। तथापि लोग ऐसा कहेंगे, करेंगे, ऐसा व्यवहार करेंगे, हमें त्याग देंगे, निंदा होगी, यह वह होगा। बहुत कुछ हो सकता है। जब मीराबाई भी भक्त बनी थी तो उसको पीने के लिए जहर ही दे दिया था, मारपीट भी चल ही रही थी किंतु तथापि बस मेरे गोविंद, कैसे गोविंद? परमानन्दो गोविन्द अर्थात परमानंद देने वाले हैं। दुनिया वाले आनंद नहीं दे रहे हैं। कुछ सुख का वर्धन करने, वचन नहीं कह रहे हैं। मुझे परवाह नहीं है। मुझे पर्याप्त आनंद मिल रहा है। भगवान मुझे आनंद दे रहे हैं। मैं आनंद के सागर में गोते लगा रहा हूं।
चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति – पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१२)
अनुवाद :- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना।
मेरा सर्वात्म – स्नपन हो रहा है। स्नान कर रहा हूँ। सर्वात्म – स्नपन। (शब्दों का सिलेक्शन भी है।) यहां गोविंद कहा है। कोई कह सकते हैं कि भगवान के कई सारे नाम है। विष्णुसहस्त्र नाम है। गोविंद ही क्यों कहा है। गोविंद से आपको कुछ ध्वनित् हो रहा है? गोविंद मतलब आनन्द की बात है। गो मतलब इंद्रियां अर्थात इन्द्रियों को आनन्द देने वाले भगवान्। इसलिए उनका नाम गोविंद हैं या गायों को आनंद देने वाले अथवा भूमि को आनंद देने वाले। यह तीन अर्थ कहे ही जाते हैं। इंद्रियों, गायों, भूमि को आनंद देने वाले गोविंद हैं। मैं तो आनंद के स्तोत्र के साथ में जुड़ा हूं। मुझे परवाह नहीं है, दुनिया वाले ठकुरा दे या प्यार करें। आई केयर फ़ॉर कृष्ण और गोविंद। आप समझ रहे हो। मुकुंद माधव तुम समझ रहे हो? यह विचार है।
यह प्रार्थना राजा कुल शेखर के विचार हैं। हमें भी ऐसे विचार वाले बनना है। हमें भी ऐसी प्रार्थना करनी है। हमारे भाव हमारे विचार कब ऐसे होंगे? ऐसे विचारों को पढ़कर तोते की तरह रटने कर नकल करने की बात नहीं है। शास्त्रों में जो कहा गया है, हम भी कहते हैं। लेकिन यह हमारी भी आवाज हो, हम भी कहे, ऐसे विचार ही, हमारे विचार बन जाए। तहे दिल से हम भी ऐसा कहें। यह साक्षात्कार की बातें हैं। ज्ञान को विज्ञान बनाने की बात है।
ज्ञान विज्ञानसहितं ..
हे गोपालक हे कृपाजलनिधे हे सिन्धुकन्यापते हे कंसान्तक हे गजेन्द्रकरुणापारीण हे माधव । हे रामानुज हे जगत्त्रयगुरो हे पुण्डरीकाक्ष मां हे गोपीजननाथ पालय परं जानामि न त्वां विना ॥४४ ॥
( मुकंद लीला श्लोक संख्या 44)
अनुवाद:- हे युवा गोप ! हे करुणासिन्धु ! हे सागरकन्या लक्ष्मी के पति ! हे कंस के संहारक ! हे गजेन्द्र के करुणामय उद्धारक ! हे माधव ! हे बलराम के अनुज ! हे तीनों लोकों के गुरु ! हे गोपियों के कमलनयन प्रभु ! मैं अन्य किसी को आपसे बढ़कर महान् नहीं जानता । कृपया मेरी रक्षा करें ।
जैसे हम किसी को प्रार्थना करते, कहते हैं। प्रार्थना करने वाला किसी को प्रार्थना करता, सुनाता है। वैसे ही यहां राजा कुलशेखर की प्रार्थना है। वे जिनकी प्रार्थना कर रहे हैं, उनके नाम भी यहां गिनवाये जा रहे हैं। ये नाम एक संबोधन के रूप में आ जाते हैं। जो आठ विभक्तियाँ होती हैं, उनमें एक संबोधन है। यह जो प्रार्थना है, संबोधनों से भरी हुई है। हम किसी को संबोधित कर रहे हैं। प्रार्थना अर्थात एड्रेस ( संबोधन) करते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण यह भी एक प्रार्थना है। पूरे के पूरे जो 16 शब्द हैं, नाम हैं। यह सारे संबोधन हैं। हरे संबोधन है, कृष्ण संबोधन है। इसी तरह सब संबोधन ही संबोधन है। यहां पर भी है संबोधन में हे या अहो या अरे ऐसे कई शब्दों का प्रयोग होता है। अभी तो हे गोपालक्। गाय का पालन करने वाले। हे कृपाजलनिधे । जलनिधि अर्थात समुद्र। कृपाजलनिधे अर्थात कृपा के सागर। हे सिन्धुकन्यापते , सुना? क्या संबोधन है? वैसे नाम है सिंधुकन्यापति! यह लक्ष्मी का नाम है। पति का संबोधन पते हुआ। सिन्धुकन्यापते! सिन्धुकन्या – समुंदर की कन्या लक्ष्मी है। जब समुद्र मंथन हुआ था तब सुर और असुरों ने मंथन किया था 14 रत्न निकले थे। उन में से एक रतन स्वयं लक्ष्मी थी जो समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई थी। इसीलिए लक्ष्मी को सिंधु कन्या कहते हैं । इस लक्ष्मी को सिंधु कन्या कैसे कहते हैं? मुझे याद आ रहा है। आप नोट भी कर सकते हो। आठवें स्कंध के आठवें अध्याय का आठवां श्लोक (8.8.8) में वर्णन है
ततधाविरभूत्याक्षाच्छी रमा भगवत्परा । रञ्जयन्ती दिश : कान्या विद्युत्सौदामनी यथा ॥
( श्रीमद् भागवतम् ८.८.८)
अनुवाद:- तब धन की देवी रमा प्रकट हुई जो भगवान् द्वारा भोग्या है और उन्हीं को समर्पित रहती हैं। वे बिजली की भाँति प्रकट हुई और उनकी कांति संगमरमर के पर्वत को प्रकाशित करने वाली बिजली को मात कर रही थीं।
इस श्लोक में उल्लेख है कि कैसे लक्ष्मी, सिंधु कन्या के रूप में प्रकट हुई। वैसे अष्टलक्ष्मियां भी होती हैं। पुनः एक और आठ का आंकड़ा लक्ष्मी के साथ जुड़ गया। सिंधुकन्यापते! हे कंसान्तक! आप समझते हो कि कंस का अंत करने वाले कौन हैं। हे गजेन्द्रकरुणापारीण। हे गजेंद्र! गजेंद्र पर कृपा करने वाले। आपने पूरी कृपा की है। आधी कृपा या थोड़ी कृपा नहीं की। पूरी कृपा की है। गजेन्द्रकरुणापारीण। भागवत में गजेंद्र मोक्ष लीला है। यह संबोधन में कह रहे हैं। स्मरण कर रहे हैं। गजेन्द्रकरुणापारीण। उस गजेंद्र ने असहाय होकर ( तालाब में उसका संघर्ष चल रहा था) और उसी ने वहीं से अपनी सूंड में फूल उठाया और भगवान् को फूल अर्पित किया।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति | तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः ||
( श्रीमद् भगवतगीता ९.२६)
अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।
उसने भगवान को ऊपर की दिशा में फूल अर्पित किया। भगवान् ऊपर रहते हैं ना अर्थात ऊपर कहीं होते हैं। भगवान ने गजेंद्र की प्रार्थना भी सुनी। गजेंद्र अपने ढंग से प्रार्थना कर रहे थे, फूल अर्पित कर रहे थे। भगवान् ने पूरी कृपा की। भगवान स्वयं गरुड़ पर विराजमान होकर आए और उस मगरमच्छ को काटा, उसकी जान ली व गजेंद्र को बचाया अथवा मुक्त किया। भगवान् ने उन्हें उस हाथी के शरीर से भी मुक्त किया। पहले कोई शाप मिला था जिसके कारण वे हाथी बने थे। हाथी के शरीर से मुक्त किया। मुक्त हो गजेंद्र चतुर्भुज में आ गए। भगवान् ने उनको गरुड़ पर पीछे बिठाया। ‘बैक टू होम, बैक टू बैकुंठ’
जैसे स्कूटर का चालक कोई स्कूटर लेकर आता है और अपने जैसे किसी को पीछे बैठा देता है, पीछे बैठ जाओ, मेरे पीछे अपनी सीट ग्रहण करो। वैसे ही भगवान् स्वयं आए। गरुड़ पर बिठाकर गजेंद्र को भगवत धाम ले गए, यह उदाहरण है। भगवान् ने छप्पर फाड़ कर कृपा की। हे माधव! जो कि लक्ष्मी के पति नारायण भी हैं । राधा भी लक्ष्मी हैं, वृंदावन की महालक्ष्मी हैं। राधा के पति माधव। राधा माधव। हे रामानुज! यहां रामानुजाचार्य की बात नहीं हो रही। हे राम के अनुज! यहां राम मतलब बलराम! बलराम के अनुज श्री कृष्ण हैं। बलराम बड़े भ्राता हैं। बलराम सातवें सुपुत्र हैं व उनके बाद में जन्मा हुआ अनुज। अनुज अर्थात अनु और ज। अनु मतलब बाद में , ज मतलब पीछे से जन्मा हुआ। हे रामानुज अर्थात श्री कृष्ण! बलराम के छोटे भाई श्रीकृष्ण! कृष्ण कन्हैया, दाऊ जी का भैया! दाऊ जी का भैया, कृष्ण कन्हैया।। हे जगत्त्रयगुरो। आप जगत् त्रय स्वर्ग, मृत्यु, पताल लोक इन तीनों के गुरु हो। सीधी भाषा में आप जगतगुरु हो। हे जगत्त्रयगुरो, हे पुण्डरीकाक्ष! प्रार्थना भी हो रही है और इसी के साथ प्रार्थना में भगवान् को सम्बोधन होता है। भगवान के अलग अलग गुणों का अथवा लीलाओं, रूप का स्मरण करते हुए संबोधन व प्रार्थना हो रही है। एक एक संबोधन या तो नाम, रूप, गुण , लीला या धाम है। हम ब्रह्म ज्योति को प्रार्थना नहीं कर सकते। भगवान् निराकार हैं। भगवान् निर्गुण हैं। भगवान् प्रकाश हैं, भगवान् ज्योति हैं। उनका कोई रूप, गुण नहीं है, नाम नहीं हैं, धाम नहीं हैं। क्या फिर ब्रह्म ज्योति को प्रार्थना करोगे? क्या ब्रह्म ज्योति आपकी प्रार्थना सुनेगी? यह एक बहुत बड़ी समस्या है।
प्रभु कहे, मायाबादी कृष्णे अपराधी।ब्रह्म’, ‘आत्मा, “चैतन्य’ कहे निरवधि ॥
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १७.१२९)
अनुवाद:- श्रीचैतन्य महाप्रभ ने उत्तर दिया, “मायावादी निर्विशेषवादी लोग भगवान् कृष्ण के सबसे बड़े अपराधी हैं। इसीलिए वे मात्र ‘ब्रह्म,’ ‘आत्मा’ तथा ‘चैतन्य’ शब्दों का उच्चारण करते हैं।
इसको नोट करो। मायावादी कृष्ण अपराधी। ऐसे छोटे छोटे नोट लिख सकते हो। दो ही शब्द हैं लेकिन इसमें बहुत कुछ कहा है। मायावादी कृष्ण अपराधी। कृष्ण मतलब सः कृषति सः कृष्ण, कृष्ण कैसे आकर्षित करते हैं?कृष्ण अपने नाम से आकर्षित करते हैं । मायावादी अपराध करते हैं। मायावादी कृष्ण अपराधी कैसे? वे धाम को नहीं समझते। भगवत धाम इत्यादि नहीं लौटते। उनको धाम का पता ही नहीं हैं। बस उन्हें केवल प्रकाश का साक्षात्कार हुआ है। अहम ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं । मायावादी प्रार्थना नहीं कर सकते। कोई क्या कर सकता है। हरि! हरि! जो ज्ञानी होते हैं वे मायावादी होते हैं। कर्मकांड, ज्ञान कांड केवल विषेर भांड’।
ज्ञानी मायावादी होते हैं। ब्रह्मवादी होते हैं, वे प्रार्थना करते हैं। जो कर्मी होते हैं अर्थात जो देवी देवता के पुजारी होते हैं।
अन्तवत्तुफलंतेषांतद्भवत्यल्पमेधसाम् | देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्तायान्तिमामपि ||
( श्रीमद् भगवतगीता ७.२३)
अनुवाद:- अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं।
वे प्रार्थना करते हैं, कुछ लोग प्रार्थना करते हैं। कुछ लोग प्रार्थना करते ही नहीं। अर्थात कुछ लोग देवी देवता की प्रार्थना करते हैं। मायावादी किसी की प्रार्थना नहीं करते। देवी देवताओं को भी प्रार्थना नहीं करते और कृष्ण को भी प्रार्थना नहीं करते।
इस संसार में बड़ी बड़ी पार्टी है, वैसे वे धार्मिक तो कहलाती हैं। हरि! हरि! प्रार्थना वैष्णव करते हैं। हे पुंडरीकाक्ष मां हे गोपीजननाथ ! अंत में कहा है कि हे गोपीजनों के नाथ या राधा नाथ पालय यह प्रार्थना है कि पालन करो। रक्षा करो। बचाओ बचाओ।
कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! हे । कृष्ण कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण कृष्ण ! कृष्ण ! हे । कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्णः कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्णा रक्षमाम् । कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! पाहि माम् ॥ राम ! राघव ! राम ! राघव ! राम ! राघव ! रक्ष माम् । कृष्णः केशव ! कृष्ण ! केशव ! कृष्ण ! केशव ! पाहि माम् ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ७.९६)
अनुवाद महाप्रभु कीर्तन कर रहे थे . कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! हे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्णः कृष्ण ! कृष्ण ! हे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! रक्ष माम् कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! पाहि माम् अर्थात् ” हे भगवान् कृष्ण ! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरा पालन कीजिये । ” उन्होंने यह भी कीर्तन किया राम ! राघवा रामा राघव ! राम ! राघव ! रक्ष माम् । कृष्ण ! केशव ! कृष्ण ! केशव ! कृष्ण ! केशव ! पाहि माम् । अर्थात् हे राजा रघु के वंशज ! हे भगवान् राम ! मेरी रक्षा करें । हे कृष्ण , हे केशी असुर के संहारक केशव , कृपया मेरा पालन करें ।
हे पुण्डरीकाक्ष मां हे गोपीजननाथ पालय परं जानामि न त्वां विना ।।
इस प्रार्थना में पालय कहा है, वह रक्षमाम ही है। इस प्रार्थना में मां भी कहा है। मेरी रक्षा करो।जानामि न त्वां विना।
आपके बिना मैं और किसी को जानता ही नहीं हूं। पालन करने तथा रक्षा करने में आप ही सर्वसमर्थ व सक्षम हो। ब्रह्मज्योति मेरी रक्षा नहीं कर सकती। देवी देवता भी मेरी रक्षा नहीं कर सकते।
परं जानामि न त्वां विना। हरि! हरि!
उत्तरोवाच पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते । नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.8.9)
अनुवाद:- उत्तरा ने कहा : हे देवाधिदेव , हे ब्रह्माण्ड के स्वामी , आप सबसे महान् योगी हैं । कृपया मेरी रक्षा करें , क्योंकि इस द्वैतपूर्ण जगत में मुझे मृत्यु के पाश से बचानेवाला आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है ।
उत्तरा ने भी प्रार्थना की थी- रक्षा करो। रक्षा करो। उनके बालक की रक्षा करो। उत्तरा ने प्रार्थना की गर्भ में परीक्षित महाराज की रक्षा करो। उत्तरा ने प्रार्थना की थी महाबाहो, आप बलवान हो। सुंदर हो, ऐसा नहीं कहा कि सुंदर भगवान् रक्षा करो रक्षा करो। सौंदर्य कैसे रक्षा करेगा। आपका बल रक्षा करेगा। ‘स्ट्रांग आर्म्स’ शक्तिशाली भुजाएं यह रक्षा करेगी। इसलिए प्रार्थना करने वाले सोचकर ही संबोधन करते हैं। महाबाहो यह संबोधन है। महाबाहु का संबोधन महाबाहो हुआ। ठीक है। जानामि न त्वां विना । हमनें कल प्रार्थनाएं प्रारंभ की थी लेकिन आज भी पूरी नही हुई। वैसे बहुत बची है लेकिन जो हमनें चुनी थी, उसमें से भी कुछ बची है,अब यह कल ही होगी। ठीक है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*4 जून 2021,*
*पंढरपुर धाम.*
*गौरांग बोलिते हबे पूलक शरीरे,*
*हरि हरि बोलिते नयन पाबे नीर।*
हरे कृष्ण, आप सब तैयार हो। पेन पेपर भी तैयार है। गुरु महाराज काँन्फ्ररन्स में भक्त को संबोधित करते हुए, “आप विद्यार्थी हो सही है ना ऐसा कहा जाता है, विद्यार्थी बिना लेखनी के ऐसा लगता है, जैसे नाई बिना वत्सरेके। वह नाई कैसा जिसके पास वत्सरा नहीं है। वह विद्यार्थी कैसा जिसके पास लेखनी नहीं है। आप देख लो कुछ लिख लेने योग्य बातें भी हो सकती हैं। याद रखने योग्य बातें हो सकती हैं। जो सुन रहे हैं तो उसको याद कर रहे हैं। लेकिन सदा के लिए याद रखना चाहते हैं तो लिख सकते हैं। या भविष्य में उन्हें हमें कुछ याद दिलाने के लिए हमारे पास कुछ चाहिए। कुछ नोट कुछ लिखा हुआ चाहिए। ठीक है, लेकिन इसका महिमा सारा लिखने का महत्व अभी नहीं कहूंगा।
मुकुंदमालास्तोत्र नामक ग्रंथ महाराज कुलशेखर की प्रार्थनाएं। जब मैं इन प्रार्थना को पढ़ रहा था तो सोचा कि क्यों ना मैं इसमें से कुछ प्रार्थना है आपको भी बोलू। आपके साथ भी चर्चा करू। अगर आपको कोई एतराज ना हो तो हम आपको सुना सकते हैं। राजा कूलशेखर हरि हरि एक प्रकार से हुए आचार्य भी रहे। राजा कुलशेखर और अलवार। अलविर दक्षिण भारत के तमिलनाडु के भक्तों का कवियों का एक प्रकार रहा। इनकी रचनाएं प्रसिद्ध है। वह गाया करते थे। नृत्य किया करते थे। भजन किया करते थे। सारा अपनी भक्ति का प्रदर्शन। उसने से एक राजा कुलशेखर। इनकी कुछ प्रार्थनाएं श्रील प्रभुपाद भी हमको पुनः पुनः सुनाया करते थे। श्रील प्रभुपादने इन प्रार्थना को ग्रंथ रूप में प्रकाशित करने का विचार किया। श्रील प्रभुपाद ने ही जो प्रार्थनाएं हैं, इसके शब्दार्थ और भाषांतर और भावार्थ लिखें। प्रारंभ के कुछ लिखें उसके बाद श्रील प्रभुपाद के जो शिष्य है उन्होंने लिखा। यह रचना वैसे श्रील प्रभुपाद और उनकी शिष्य इनके द्वारा है। मैंने कुछ प्रार्थना सुनी हुई है जो आपको सुनाते हैं। यह राजा कुलशेखर के विचार जो उच्च विचार हैं। और हमको भी बनना है कैसे बनना है, उच्च विचार वाले बनना है। सादा जीवन उच्च विचार। आजकल उल्टा है, सादा विचार और उच्च जीवन। पशुवत जीवन जी रहे हैं या फिर जी ही रहे हैं सोच नहीं रहे हैं। विचार है ही नहीं उच्च विचार है मतलब कि चरित्रहीन समाज बन गया। समाज को देश को पूरे मानव जाति को चाहिए उच्च विचार। सुन लीजिए कुछ उच्च विचार। या फिर कहते हैं ना f*ood for thoughts* पेट के लिए भोजन को आप.भूलते
नहीं। पेट के लिए भोजन हम देते ही है। मस्तिष्क के लिए कुछ खुराक। उसके पोषण के लिए भोजन के लिए मस्तिष्क के लिए कुछ विचार उच्च विचार food for thoughts.
*जयतु जयतु देवकीनंदनोयम*
*जयतु जयतु पृथ्वीभारनाशो मुकुन्दः*
यहां पर अयम लिखा है। यह प्रार्थना चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ रथ यात्रा के समय जगन्नाथ जी को किया करते थे। राजा कुलशेखर की प्रार्थनाएं महाप्रभु अर्पित किया करते थे। जय जगन्नाथ! जगन्नाथ की चरणों में। यहां अयम लिखा है वहा अस चरितामृतम लिखा है। वैसे दोनों का अर्थ ही है।
*जयतु जयतु देवकीनंदनोयम*
*जयतु जयतु पृथ्वीभारनाशो मुकुन्दः*
*जयतु जयतु कृष्णो वृष्णिवंशो प्रदीपः*
*जयतु जयतु मेघश्यामलः कोमलाङ्गः*
यह प्रार्थना है। प्राचीन काल में ऐसे कई प्रार्थना बोलते थे। तो सुनते सुनते ही प्रार्थना कोई सुना रहा है पर हम सुन रहे हैं तो समझ में आ जाती थी प्रार्थना। क्या प्रार्थना है, यह स्तोत्र तो है ही मुकुंदामाला स्तोत्र। लेकिन हमको समझ में नहीं आती भाषा संस्कृत भाषा है। और हम कलयुग के जीव हैं। *जयतु जयतु देवकीनंदनोयम* जय हो जय हो, किनकी जय हो? कृष्ण की जय हो कैसे कृष्ण जो देवकीनंदन है। वृष्णि वंशज कृष्ण की जय हो। जो वृष्णि वंशज है या वृष्णि वंश के कुलदीपक है।
*जयतु जयतु मेघश्यामलः कोमलाङ्गः* हे प्रभु आपकी जय हो। हे प्रभु, हे भगवान, हे जगन्नाथ कैसे हो आप मेघश्यामल। आपका रंग कैसा है? उनका रंग कैसा है मेघश्यामल। आकाश में आज हम देख रहे हैं बादल छाए हुए हैं। एकदम नए ऐसे मान्सून के बादल आए हुए हैं। वैसा रंग है वैसे रंग वाले आप हो। मेघ मतलब बादल श्यामल बादल से श्याम वर्ण है। आपका मेघश्यामलःकोमलाङ्गः देखने के लिए है। आप शामल हो। स्पर्श गर हम कर सकते हैं आपका आप कोमल हो।
*जयतु जयतु पृथ्वीभारनाशो मुकुन्दः* मुकुंदा हो मुकुंदा मतलब मुक्ति देने वाले किसको मुक्ति दिया आपने *पृथ्वीभारनाशो मुकुन्दः* संभवामि युगे युगे आप प्रकट होते हैं *विनाशायच दुष्कृताम* दुष्टों का संहार करते हो। दुष्टों का बोज पृथ्वीको महसूस होता है। “यह बोज है मेरे लिए साधुसंत भी है लेकिन वह बोज नहीं है लेकिन यह दुष्ट बोज है आप प्रकट होत हो” पृथ्वीभारनाशो मुकुन्दः यह और एक प्राथर्ना है। हम ज्यादा भावार्थ या तात्पर्य कि ओर नहीं मुडेंगे।
*मदनपरिहर स्थीतिम मदीये मनसी मुकुन्द
पदारविन्द धाम्नी*
*हर नयन कृषानुना कृसो सी स्मरासी ना चक्रा पराक्रमं मुरारीही*
यह जो प्रार्थना है। इस प्रार्थना में राजा कुलशेखर प्रार्थना करते हैं। ऐसे में कहते रहता हूं हमको प्रार्थना नहीं करनी आती तो आचार्यने जो प्रार्थना की है देख हम सीख सकते हैं। और फिर वैसे प्रार्थना हम कर सकते हैं। तो वह कह रहे हैं जो मदन होते हैं। कामदेव मदन जो मोहित करते हैं। भ्रमित करते हैं अपने बाणो से। उनके पास पांच प्रकार के बाण होते हैं। पुष्प बाणो से हमको घायल कर सकते हैं। फिर हम गए काम से और फिर कामवासना इतनी उमड़ आती है। उमड आती है कामवासना। काम का आवेग आवेश होता है। जब कामदेव मदन या अंनग ऐसे उसके कई नाम है। कंदर्प भी कहते हैं, *कंदर्प कोटीकमनीय* प्रार्थना यह है या मदन को जैसे चेतावनी दी जा रही है। धमकी दी जा रही हैं। यहां से हटो, यहां से चले जाओ। मदन कामदेव तुम्हारे बाणो की वर्षा अब नहीं करना। मेरे मन में ऐसी कोई खलबली मत मचाना काम की आवेग या आवेश से अरे है काम मैंने तो अपने *मनसी मुकुन्दपदारविन्द धाम्नी* मेरी तो अपने मन में मुकुंद पदारविंदा धारण किए हैं। मेरा मन मेरा दिल, मेरा जीवन अब मुकुंद का धाम या निवास बन चुका है। तुम यहां से चले जाओ खाली करो यह जगह। चले जाओ यहां से यहां भगवान निवास करेंगे। *मनसी मुकुन्दपदारविन्द धाम्नी* धाम बनाएंगे हृदय प्रांगण को। और तुम भूल गए क्या मेरे *नयन कृषानुना कृसो सी* एक बार जब शिवजी ने तीसरी आंख खोली थी। तो जैसे ही उन्होंने आंख खोली आगबगुले हुए शिवजी आगसे। उन्होंने तुम को जलाया है। याद नहीं है तुमको इसीलिए तो तुम अंनग कहलाते हो। तुम्हारे अंग को जलाया बिना अंग वाले तुम बन गए। और साथ ही साथ *स्मरासी ना चक्रा पराक्रमं मुरारीही* मेरे मुरारी भगवान कृष्ण मुरारी के चक्र सुदर्शन चक्र का पराक्रम तुम नहीं जानते हो। सावधान सुदर्शन चक्रधारी मुरारी निवास करेंगे *मोर मन वृंदावन* चैतन्य महाप्रभु कहां करते हैं, “मेरा मन है वृंदावन है” मेरे मन रुपी वृंदावन में अब कृष्ण निवास करेंगे। कृष्ण निवास करेंगे और उनके पास चक्र है। यह सुदर्शन चक्र। सावधान, दूर रहो हटो यहां से मैं प्रेम प्राप्त करना चाहता हूं। हरि हरि, ठीक है अब आगे बढ़ते हैं।
मज्जन्मनः फलम् इदम् मधुकैटभारै*
*मत् प्रार्थनिय मदनुग्रह एष एव*
*त्वद् भृत्य भृत्य परिचारक भृत्य भृत्य*
*भृत्यस्य भृत्य इति माम् स्मरलोकनाथ*
यह तृणाद् अपि सुनिचेन जैसि बात है, या विचार है या भाव है। पहले कुलशेखर भगवान को संबोधित कर रहे है, मधुकैटभारै, मधुकैटभ नाम के दो राक्षस, मधु एक कैटभ दूसरे, मधुकैटभारै कह रहे है, संभोदन है तो भारे। कैटभ अरि वैसे, मधु और कैटभ और जमा अरि है। भगवान आप कैसे हो, मधु और कैटभ के अरि हो, अरि मतलब शत्रु। मुरारी, मुर के शत्रु या मधुकैटभारै। तो, हे मधु और कैटभ के शत्रु
हे मधु और कैठभ के शत्रु,मैं भी अपने जन्म को सफल बनाना चाहता हूं, मज्जन्मन फलम इदम् तो मैं कैसे समझूंगा कि मेरा जीवन सफल हुआ? तो वह कहते हैं राजा कुल शेखर आगे की मेरी प्रार्थना है, मत् प्रार्थनीय मेरी एक विशेष प्रार्थना है,.हे प्रभु प्रार्थना है,. अनुग्रहएव एष क्या इस प्रकार का अनुग्रह आपका मुझ पर हो सकता है.? कैसा अनुग्रह चाहते हो राजा कुल शेखर कहते हैं,
*त्वद भ्रत्य भ्रत्य परिचारक भ्रत्य भ्रत्य*
*भ्रत्यस्य भ्रत्य इति मां स्मरा लोकनाथ ।।*
पुनः भगवान को संबोधित कर रहे हैं हे। लोकनाथ या त्रिभुवन सुंदर, लोकनाथ,एकनाथ हे.नाथ आप हो नाथ और मैं हूं दास। इति मां स्मरा क्या आप मेरा स्मरण करोगे? इस रुप में मेरी क्या पहचान हो इसको आप स्मरण करोगे? ऐसी मेरी पहचान हो,
त्वद भ्रत्य भ्रत्य परिचारक भ्रत्य भ्रत्य त्वद आपका जो भ्रत्य है भ्रत्य मतलब सेवक त्वद भ्रत्य भ्रत्य मतलब भ्रत्यस्य भ्रत्य आपके भ्रत्य का भ्रत्य परिचारक मतलब है सेवक । आपके परिचारक के भ्रत्यस्य भ्रत्य ऐसे 6 बार भ्रत्य भ्रत्य भ्रत्य भ्रत्य भ्रत्य भ्रत्यस्य भ्रत्य ऐसे 6 बार कहे, मतलब सेवक के सेवक के सेवक के सेवक के सेवक। शायद मैंने 6 बार कहा, तो मैंने भाषांतर के अनुरूप नही कहा ऐसे ही कहा। केवल आपके सेवक का ही सेवक नहीं, आपके सेवक के सेवक के सेवक के सेवक के सेवक का सेवक मुझे बनाओ। यह पदवी बड़ी पदवी हैै। पदोन्नति हो गई पहले मैं आपके सेवक का सेवक था, अब मैं आपके सेवक के सेवक के सेवक का सेवक बनूंगा। तो और पदोन्नति हो गई और पदोन्नति हो गई यहां यह पदोन्नति है बस यही मत् जन्मनः फलम् इदं । तो ऐसा अगर मुझे स्वीकार कर सकते हो माम् स्मरः हे लोकनाथ तो मैं अपना जीवन सफल होगा यह मान लूंगा। ठीक है आगे मैं श्लोक संख्या नहीं कहूंगा
27 वा है यह श्लोक
*नमामि नारायणपादपङ्कजं करोमि*
*नारायणपूजनं सदा ।*
*वदामि नारायणनाम निर्मलं स्मरामि* *नारायणतत्त्वमव्ययम् ॥*
यह प्रार्थना है इसमें नमामि करोमि वदामि स्मरामि ऐसे चार क्रियाएं है ,कहीं यह आप लिख कर रख सकते हो ।अहम् नमामि मैं नमस्कार करता हूं, जो लिखा नहीं होता इस श्लोकों में, सर्वनाम् कई जगह लिखा नहीं होता, कईबार नही लिखा होता है
लेकिन हम को समझना चाहिए ।.यहां अहम् छुपा हुआ है । नमामि है करोमी है तो अहम नमामि अहम करोमी होता है। स करोति वह कर्ता है त्वम करोति ऐसे क्रियापद बनते हैं। संस्कृत में तो अहम नमामि अहम नारायणपादपङ्कजं नमामि यह गद्द हुआ कविता से वाडःम्य बना दिया ।
तो नारायण का नाम मैं उच्चारण करूंगा। स्मरामि अहं स्मरामि *स्मरामि नारायणतत्त्वमव्ययम्* स्मरामि और मैं स्मरण करूंगा या स्मरण करता हूं नारायण का जो तत्व है। नारायण का तत्व समझता हूं और याद करता हूं। यह अव्ययी है या अक्षयी है। व्यय मतलब खर्च होना और अव्यय मतलब खर्च नहीं होना। ऐसे शब्द आप समझ सकते हो, हम सुनते तो रहते हैं व्यय अव्यय। व्यय मतलब खर्च, आपने कुछ खर्च किया कुछ घट गया। अव्यय मतलब कुछ घटता नहीं। भगवान कभी घटते नहीं, कभी कम नहीं होते अव्यय। तो नारायण का जो अव्ययी तत्व है, नारायण स्वयं अव्यय हैं। उनका में स्मरण करता हूं। ऐसी प्रार्थना है। अगले स्त्रोत्र के लिए हमें तेजी से आगे बढ़ना होगा। अगला स्त्रोत्र 33 क्रमांक का है। जिसको श्रील प्रभुपाद सदैव कहां करते थे आपने भी जरूर सुना होगा। और यह कंठस्थ भी होना चाहिए और भी स्त्रोत्र कंठस्थ होने चाहिए।
*कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान्तं अद्यैव मे विशतु* *मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः* *कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ॥ ७ ॥*
तो क्या कह रहे हैं? क्या भाव देखिए, कैसे हैं उच्च विचार राजा कुल शेखर के। हरि हरि।*त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान्तं* एक तो आपके जो चरण कमल है त्वदीय, त्वदीय आपके मदीय मेरे त्वदीय मदीय। *कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान्तं* आपके चरण कमल और कई फुल है या फूलों का गुच्छ है पद्म फूल। या भगवान के चरण कमलों की तुलना वह पद्म के साथ पंकज से कर रहे हैं। हरि हरि।*अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः* मेरा मन है हंस राजहंस है और आपके चरण कमल कमल सदृश्य है। तो प्रार्थना यह है कि ,*विशतु* मेरे मन को जो हंस है उसको प्रवेश करने दो आपके चरण कमलों में। या आपके चरण कमल जहां है वहां मेरे मन को भ्रमण करने दो। या आपके चरण कमलों की प्रदक्षिणा करने दो। मेरे मन को कृष्ण पदारविंदं का स्मरण करने दो। कब? अद्यैव अभी-अभी केवल आज ही नहीं अभी-अभी। कल करे सो आज आज करे सो अब की बात है। *अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः* क्योंकि *प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते* प्राण प्रयाण का समय जब आएगा, कफ पित्त वायु का जो शरीर बना हुआ है। कुछ कफ की मात्रा शरीर में और बढ़ जाती है तो कंठ से घूर घूर आवाज आता है। *कण्ठावरोधनविधौ* और कंठ का अवरोधन जब होगा तो *स्मरणं कुतस्ते* आपका स्मरण कठिन होगा प्रभु कठिन होगा। तो ऐसा करो कि जब प्राण तन से निकले तो क्या हो? गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले। या फिर यह भी है कि मैं स्थगित नहीं करना चाहता हूं आपका स्मरण, आपकी सेवा, आप की शरणागति, बूढ़े होने के बाद देखूंगा या देखा जाएगा। *अद्यैव* आज अब या पता नहीं फिर कैसी परिस्थिति में फसोगे। अभी अभ्यास करो, अभी याद करो, अभी शरण में जाओ।
*कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान्तं अद्यैव मे विशतु* *मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः* *कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ॥ ७ ॥*
ठीक है, तो मुझे लगता है मैंने जितने स्तोत्रो का चयन किया था, उसमें से आधे ही हो गए और समय तो पूरा हुआ। तो फिर बचे हुए जो स्तोत्र है हम आपको कल सुनाएंगे। आज जो सुने हैं ऐसे विचार के आप बनो। नोट किया ना? ठीक है अच्छे भक्त हो आप। सच्चे बनो। कच्चे मत रहना पक्के बन जाओ। हरि हरि।
*राजा कुल शेखर की जय।*
*मुकुंद माला स्तोत्र की जय।*
*श्रील प्रभुपाद की जय।*
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।*
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण !*
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम*
*03 जून 2021*
*हरी हरी ! गौर हरी !*
802 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं ।
हरि बोल ! कुछ प्रश्न उत्तर की ओर मुड़ते हैं ।
( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज भक्तों के द्वारा दिए गए प्रश्नों पत्र पढ़कर पूछे गए, प्रश्नों के उत्तर दे रहे हैं । )
तो यह कौन है ? पहला प्रश्न ! इस्कॉन यूथ फॉर्म (युवा गोष्टी )अमरावती की ओर से ! :- यह क्या अंतर है मन में , चित्त में और अंतकरण में ? वैसे यह जो प्रश्न है ! कथा के उत्तर आप ( भक्त ) भी दे सकते हो या आप में से कई सारे दे सकते हो । इसका भी कुछ अगर व्यवस्था होती है यह प्रश्न मुझे पूछने की वजह …
*मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।*
*कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥*
( भगवत गीता 10.9 )
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं ।
आप एक दूसरे को परस्पर बोध कर सकते हो । आपके जो टीम मेंबर हैं या आप काउंसली हो किसी काउंसीलर के , ऎसे ही, जो भक्त हैं ..आप के संपर्क में, आपके भक्ति वृक्ष के भक्त, या मंदिर के भक्त हैं ओर ,और भी ब्रह्मचारी हैं मंदिर में ऐसे ही इस्कॉन यूथ फोरम, दूसरे विद्यार्थी हैं तो आप से कोई अधिक जानकार, अधिक प्रगत कर , अधिक ज्ञानी भक्त होता ही है उनको ढूंढना चाहिए । और उनसे प्रश्न पूछना चाहिए । वैसे प्रश्न पूछना यह बुद्धिमता का लक्षण है । बुद्धिमान व्यक्ति प्रश्न पूछता है, क्योंकि बुद्धिमत्ता का लक्षण है प्रश्न पूछना या *अथातो ब्रह्म जिज्ञासा* ! ( वेदांत सूत्र 1.1.1 ) । वेदांत कहता है कि अब तुम मनुष्य बने हो अब अतः इसलिए ब्रह्म जिज्ञासा हो जाए । अब तक तो जड की जिज्ञासा या रोटी,कमरा,मकान संबंध की जिज्ञासा या बाजार भाग की जिज्ञासा, संसार तो प्रश्न उत्तर से भरा पड़ा है । चाहे वह कोर्ट कचहरी में है या सब्जी के बाजार में है यहां वहां सभी जगह या कक्षा में है । प्रश्न उत्तर तो चलते ही हैं और ऐसा भी है कि जब पंक्ति बोलते हैं लगता है कि उनका भी कुछ चल रहा है बोध यंन्तः परस्परम् या कुछ पूछताछ कर रहे हैं ।
किंतु प्रश्न पूछना या जिज्ञासा कैसी होनी चाहिए ब्रह्म जिज्ञासा ! तो फिर आप बुद्धिमान हो नहीं तो बुद्धू हो । ठीक है मैं आपका स्वागत करता हूं । आपके प्रश्नों का स्वागत है उसके साथ में यह भी सुझाव दे रहा हूं की हर वक्त आप को मेरी ओर दौड़ने की आवश्यकता नहीं है आप मूड सकते हो अपनी और (एक भक्तों को संबोधित करते हुए ) ,श्याम सुंदर प्रभु या उनके शुभांगी माताजी के पूछ सकते हैं वे अधिक लिखी पढ़ी है शास्त्र का ज्ञान है ऐसे ही सब । इसके लिए भी फिर थोड़े नम्रता की आवश्यकता भी होगी । यहां तक कि आप बच्चों से भी पूछ सकते हो । देवहूति माता ने कपिल देव से प्रश्न पूछ रही थी , आप जानते हो श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंद में , कपिल भगवान ने दिया दीया उपदेश किस को ? देवहूति को । कई सारे अध्याय हैं और संवाद है । तो मां पूछ रही है बेटे से । अथातो ब्रह्म जिज्ञासा हो रहा है ।
आप किसी को ढूंढ सकते हो मिल जाएंगे । हरि हरि !! और यूथ फॉरम् में भी । जब प्रश्न पूछे जाते हैं तब आप उत्तर भी लिख सकते हो । एसीबी व्यवस्था हम लोग करते ही रहते हैं । तो हर प्रश्न का उत्तर होता ही है । ठीक है ! हरि हरि !! ( एक भक्तों को संबोधित करते हुए ) राधा कुंड बैठे हुए हो । हां ! आपस में प्रश्न उत्तर किया करो मंदिर में । भक्तों के इष्ट गोष्टी में कहो , ताकि हर प्रश्न का उत्तर मुझे देने की आवश्यकता नहीं । हरि हरि ! तो क्या है ? क्या अंतर है मन ,चित्त और अंतकरण में ? यह सूक्ष्म शरीर है अंतकरण ।
उसमे आते हैं मन , बुद्धि , अहंकार । तो मन तो आ गया, हर एक का फिल्म लक्षण है । इसको कहते हैं ‘मन’ । यह है बुद्धि , यह है अहंकार । “भिन्न प्रकृर्ति अष्टद्धा” भगवान इसको कहे हैं मेरी 8 प्रकार की भिन्न प्रकृति हैं, 5 स्थूल प्रकृति है ; पृथ्वी,अग्नि,वायु,आकाश,जल और फिर यह 3 मन बुद्धि अहंकार यह भि भिन्न प्रकृति है भगवान के । और यह भगवान की शक्ति है तो मन बुद्धि अहंकार से बन जाता है हमारा सूक्ष्म शरीर उसी को अंतकरण कहते हैं । या अंतकरण उसे कहते हैं जब उसके साथ चेतना का कुछ लक्षण उसमें मिश्रित रहता है चेतना भी । तो आत्मा के कारण चेतन । तो जड़ और चेतन मन,बुद्धि,अहंकार तो जड़ है । और उसके साथ फिर कुछ या आत्मा के कुछ लक्षण दिखते हैं सूक्ष्म शरीर में । तो वही है ‘चित्त’ , “मच्चित्त्तः” कृष्ण गीता में कहते हैं तुम्हारा चित्त मुझ में लगा दो । “मद्गतप्राणः” तो च्चित का संबंध चेतना से है । और चेतना होती है आत्मा की फिर उसको चेक ना कहो या भावना कहो तो यह मन,बुद्धि,अहंकार साथ फिर चेतना भी दिखती है । तो फिर उसी से यह अंतकरण हमारा जो शरीर का कारण कहो या आधार कहो, जब मृत्यु होती है तो यह अंतकरण स्थूल शरीर से अलग होता है । जब मृत्यु होती है तब मन,बुद्धि,अहंकार से लिपटा रहता है , लिप्त रहता है आत्मा । आत्मा के ऊपर दो आवरण होते हैं ; स्थूल शरीर का 1 , सुख में शरीर का 2 रा आवरण । जब स्थूल शरीर को हम त्यागते हैं लेकिन यह सूक्ष्म शरीर या अंतकरण हमको छोड़ता नहीं उसमें हम बद्ध रेहते हैं । तो वह अलग रहता है । और फिर …
*देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।*
*तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥*
( भगवत् गीता 2.13 )
अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है । धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता ।
तथा देहांतर होता है तो स्थूल शरीर से अंतकरण अलग होता है और फिर “तथा देहांतरण” दूसरे शरीर में प्रवेश करता है । हरि हरि ! ठीक है इतना ही कहते हैं । और भी प्रश्न है !
क्या हमारे पूर्व जन्म की जो कर्म या फिर कर्म का जो परिणाम या फल है वह हमको प्रभावित करता है क्या आध्यात्मिक जीवन में ? या जप करने में ?
“उत्तर”:- निश्चित ही । हं हं ! हरि हरि ! तो भगवान की भक्ति जो प्रेम पूर्वक,ध्यान पूर्वक जो करनी होती है और हम कर नहीं पाते क्यों ? क्योंकि हमारे पूर्व जन्म के कर्म है । सिर्फ पूर्व जन्म के ही नहीं है,इस जन्म के भी यह कल रात को किया गया कोई कर्म हमको परेशान कर सकता है । उसी का स्मरण हो सकता है । यही तो होता है जब हम कर्म करते हैं, कृत्य करते हैं वह कर्म तो क्षणिक होता है । कर्म तो समाप्त हो गया लेकिन पीछे जो छूटता है वह है कर्म की वासना । पाप किया फिर पापकी वासना तो पीछे रे ही जाती है और फिर वह पाप की वासना एक बीज के रूप में हमारे अंतकरण में चेतना में,भावना में बनी रहती है । और फिर वह भी बीज अंकुरित होता है फिर कहां है प्रारब्द्ध कर्म और फिर अप्रारब्द्ध प्रकट हुआ या भक्ति रसामृत सिंधु में यह सब समझाया है । तो जब जब बारी आती है अलग-अलग कर्म वासना और बीज और फिर इसको अंकुरित होना तो उसी के अनुसार आज के दिन यह यह होना है । कल या परसो या नरसो, भूतकाल में कई सारे जन्म तो उस पापका स्वरूप का परिणाम आंश भोगना होगा । चोरी तो कब की की हुई थी लेकिन देरी से चोर पकड़ा गया तो अब उसका फल चखेगा वह ,चोरी का जो फल कर्म फल तो आज के आज के जप के समय भक्ति के समय कोई पहले की कोई कार्य है उसकी परिणाम या पहले के पापका जो परिणाम है फल है वह धीरे-धीरे खुलने लगता है । और परेशान करता रहता है कई प्रकार से ।
*एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् ।*
*परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 4.8.59 )
इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन , वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति – विधियों के कार्यों में मग्न रहता है , उसे उसकी इच्छानुसार भगवान् वर देते हैं ।
काया को परेशानी शरीर को या मन को या वाचर में और फिर जिसको हम पाप त्रय कहते हैं । आदि देविक आदि भौतिक आदि आध्यात्मिक कष्ट फिर हम भोंगते रहते हैं हरि हरि ! हां जरूर । यही तो बात है शास्त्र में ।
और भी बहुत सारे प्रश्न है !
तो भक्ति जब करते हैं या जब हम जप करते हैं तो हम तब क्या करते हैं ?…
*चेतो दर्पण मार्जन भव महा दावाग्नि निर्वापणं श्रेयः कैरव चन्द्रिका वितरणं विद्या वधू जीवनम् ।* *
*आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम् सर्वात्मंस्नपनं परं विजयते श्री कृष्ण सङ्कीर्तनम् ॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.12 )
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना ।
साफ करते हैं, हमारे आईने साफ करते हैं कई सारे धूल जमी हुई है कई सारे कलंक या दाग लगे हुए हैं हमारे चेतना को हमारे चरित्रे में कई दाग उसकी सफाई करते हैं हम जब हम जप करते हैं । या फिर जप करते समय हम क्या करते हैं हमें समझ में आना चाहिए ! जप करते हैं तो हम लोग प्रयास तो होता है यह लक्ष्य तो है जप करना मतलब भगवान की शरण ले रहे हैं ।
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।*
*अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ॥*
( भगवत् गीता 18.66 )
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
मेरी शरण में आओ तो भक्ति कर रहे हैं कई प्रकार से हम । नवविधा भक्ती हो रही है …
*श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।* *अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ 23 ॥* *इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।* *क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ 24 ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 7.5.23-24 )
प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
तो उसी में यह श्रवण कीर्तन हो रहा है,नामस्मरण हो रहा है तो भगवान की हम शरण ले रहे हैं । और हम किए हुए पाप जाने अनजाने उसकी क्षमा मांग रहे हैं । ‘क्षमश्व’ दया करके मुझे माफ कर दीजिए । ऐसे विचार है और फिर हम जब शरण ले रहे हैं तो फिर होता क्या है ? कृष्ण संभालते हैं । “अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः” तुम मेरी शरण लो यह तुम्हारे लिए कार्य है । तुम मेरे शरण लो तो तुम हो गए धार्मिक । तो तुम पहले जो अधार्मिक थे , पापी थे उस समय किए हुए जो कृत्य है उसका फल जो है तुम को भोगना नहीं होगा । यह बात ध्यान दीजिए ..”अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि” मैं तुमको मुक्त करूंगा इस बात से या उस पाप के पलते उसका जो परिणाम निकलने वाला है उसकी शायद बारी आज है या दोपहर को है या रात्रि को है यहां वह हो रहा है । तो वह फल हमको भोगना नहीं होगा, परिणाम को भोगना नहीं होगा भगवान उसको विफल कर देंगे । ”अहं त्वां सर्वपापेभ्यो” “अंह” कौन बोल रहे हैं ? कृष्ण बोल रहे हैं “त्वां” तुम्हारे “पापेभ्यो” पापों से पापात नहीं कह रहे हैं पापात तो मतलब एक पाप से “पापेभ्यः” ” रामात रामाभ्यः” मतलब पापों से समस्त पापों से क्योंकि तुम पूरी शरण ले रहे हो ..”सर्वधर्मान्परित्यज्य” तो शरण भी पूरी है तो तुम्हारे सारे पापों के फल से मैं तुम्हें मुफ्त करूंगा “मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः” अभी डरो नहीं भगवान कह रहे हैं । हरि हरि !
निश्चित ही हम भक्ति कर रहे हैं, भक्ति के जीवन में या जप मैं तो समय आसकता है , आता है इस पाप के फल को उस पाप फलको चखने का कहो लेकिन अगर हमारी शरणागति पूरी है प्रार्थना हो रही है कृष्ण से हरि हरि ! तो फिर भगवान संभाल लेते तो वही है “ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मासात कुरुते तथा” जो ज्ञान की अग्नि है जो अब हम और आप सुन रहे हैं कुछ ज्ञान की बात या शास्त्र की बात सुन रहे हो उसी के साथ यह ज्ञान की जो अग्नि है यह 2 लक्षण एक तो प्रकाश देती है अग्नि से , और दूसरा अग्नि में दाहक शक्ति होती है किसी को जलाने की शक्ति होती है । यह जो ज्ञान अग्नि की ज्योति है यह ज्ञान की ज्योति क्या करती है ? एक तो .. “तमोशो मांम ज्योर्तिर्गमय” अंधेरे से निकलते हैं प्रकाश की ओर आते हैं या जीवन को प्राप्त करते हैं । और क्या होता है ? अग्नि की जो दाहक शक्ति होती है, अग्नि की जो जलाने की शक्ति होती है हमारे जो पाप के बीज है या फिर इसके ऊपर के स्तर भी हो सकते हैं । तो फिर उसका अंकुरित हुआ है वह पौधा अब वृक्ष बन रहा है फल लगेंगे ।और फिर कहना है तो, समय होता तो और भी कह सकते हैं ।
कुछ कड़वे फल है कुछ मीठे फल है । इसका फल तो या तो स्वर्ग प्राप्त हो सकती है या इसका नतीजा नर्क प्राप्ति भी हो सकती है तो तो आमतौर पर तो दो प्रकार के कार्य हम पाप और पुण्य कर्म करते हैं । तो भगवान की शरण जो हम भक्ति करते हुए लेते हैं जप के समय हमारी जो शरणागति है , भगवान की जब शरणागति ली है तो भगवान जिम्मेदारी लेते हैं वह हमको संभालते हैं हमारे सभी कार्य को । वह संभाल लेंगे बिगड़ी बात को भी तो जो भी पाप है यानी पाक के बीच है पापकी राशि है कहो उसको लगाई जाएगी आग उसकी होगी राक । और फिर होगी ..”मोक्षयिष्यामि” आप मुक्त हो जाएंगे वह पाप का जो परिणाम फल हमको भोगना नहीं पड़ेगा । हरि हरि ! इसीलिए कल भी शायद हमने कहा, नहीं तो हमारे कई सारे जन्म हमारे प्रतीक्षा में हैं । कौन जानता है ? 10 है कि 100 है कि 1000 है कि 1,00,000 हैं । या वैसे जब तक हम भगवान के शरण में नहीं आते तब तक यह …
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं*
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।* *इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥* (शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् श्लोक 21)
अनुवाद:- हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
यह चलता रहेगा । जैसे ही हम “मामेकं शरणं व्रज” करेंगे !
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
जब हम करते हैं मतलब यह हम
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ॥”
यह सब हो जा रहा है । जब हम इसको अनुसरण करते हैं जो गीता का सार है एक ही प्रकार से कृष्ण अर्जुन के संवाद लगभग समाप्त ही है यह कुछ अंतिम भजन भगवान के ही रहे हैं उसका पालन हम करते हैं जब हम जप करते हैं,कीर्तन करते हैं ..
*कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै: ।*
*द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥*
( श्रीमद् भगवतम् 12.3.52 )
अनुवाद:- जो फल सत्य युग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान के चरणकमलों की सेवा करने से, प्राप्त होता है, वही कलयुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है ।
जप यज्ञ करते हैं, तो वह अगर ठीक से करें पर पूरी तरह से शरणागति के साथ जिसको हम ध्यान पूर्वक कहते हैं या फिर अपराध रहित कहते हैं, अपराध रहित जप करना, ध्यान पूर्वक जप करना अगर किया तो हमने गीता के उपदेश का पालन किया हमने या गीता का सार रूप में जो उपदेश हम करेंगे और उसे हम पूरे लाभान्वित होंगे । और यही है इसी में है ( prevention is better than cure) इलाज से बेहतर रोकथाम है तो आप सो नहीं रहे हो । कोरोनावायरस को कैसे रोकना ( prevent ) करना चाहिए , हम उसके लिए क्या-क्या कार्य कर सकते हैं , कैसी सावधानी बरतते हैं ताकि यह कोरोनावायरस पॉजिटिव आप और हम ना बने उसी की, यह करो वह करो ताकि प्रस्तुतीकरण मैं भी एक के बाद एक उपरांत कई प्राधिकरण डॉक्टर्स आपको वह बातें बता रहे हैं लेकिन वह थोड़ा ,थोड़े समय के लिए गोली हुआ उस से कैसे बच सकते हैं इस महामारी से यानी कोरोनावायरस से लेकिन यह तब फिर कुछ थोड़ा सा प्रेयस भी हुआ .जहां तक श्रेयस की बात है अरे अरे केबल इस महामारी से उस रोग से उस रूप से बचने के लिए क्या क्या सावधानी बरतनी चाहिए ऐसा ही मत सोचो हमको क्या करना चाहिए उसको रोकने के लिए, हमारे जो भविष्य जीवन है या हमारे कितने सारे जन्म हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं हमने जो जो किया है जो पाप किया है अधिकतर पाप ही किया है तो हमको क्या करना चाहिए ताकि ?
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।*
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥*
( भगवत् गीता 4.9 )
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है ।
अगर पुनर्जन्म नहीं होगा तो तो फिर उसी के साथ जन्म ही नहीं होगा तो मृत्यु भी नहीं होने वाली है । जन्म नहीं होगा तो तो फिर इस शरीर ही प्राप्त नहीं होगा जो सारे रोगों की खान है । “शरीरंव्याधि मंदिरं” शरीर कैसा है ? व्याधि का मंदिर है । और फिर पुनर्जन्म ही नहीं होगा तो बुढ़ापा भी नहीं है तो असुविधाएं जो है कृष्ण के शब्दों में चार हैं समस्याएं हैं ..
*इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।* *जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥*
( भगवत् गीता 13.9 )
अनुवाद:- इंद्रिय तृप्ति के विषयों का परित्याग अहंकार का अभाव जन्म मृत्यु वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति ।
तो बुद्धिमान व्यक्ति वहां है जो सारे भविष्य के जन्मों को टाल सकता है । तो वह हासिल होगा भक्ति करने से या भगवान की शरण लेने से । और कलयुग में नाम स्मरण से और उसी के साथ कई सारे संबंधित बात फिर तो है विधि निषेध भी । हरि हरि !! और भी कई सारे प्रश्न तो है परंतु देखते भविष्य की प्रस्तुतीकरण में । उसको भी प्रश्न देने का प्रयास करेंगे । गौरांग । इसकी भी चर्चा आपस में करो । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्तों को संबोधित करते हुए ) सुंदर कृष्ण ; मंदिर के भक्त इकट्ठे होकर ब्रह्मचारी के अंतर्गत में जो कोई प्रश्न उठते हैं इसके चर्चा आगे हो सकते हैं या अपने काउंसलर के साथ बात हो सकती है । या फिर श्री प्रभुपाद के ग्रंथ को पढ़िए या गीता पढ़ो । महात्मा गांधी भी कहा करते थे जब कोई प्रश्न परेशान करते थे इसका क्या उत्तर है ? इसका क्या उत्तर है ? ऐसे ही प्रश्न या कुछ संकाय अपने मन में थी तो फिर ऐसा अपना अनुभव बताते । जब वह किताब खोलते तुरंत ही उनको वही मिल जाता । जिस प्रश्न का उत्तर वह ढूंढ रहे थे वह क्या है जब हो गीता को खोलते तो जिस उत्तर के खोज में वे थे उनको वहां गीता में मिलता । तो यह भी करना ही होता है । तो कीर्तनया सदा हरी या …
*नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।*
*भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 1. 2.18 )
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
दिन में भी आपको पढ़ना चाहिए गीता भागवत् ।
*गीता भागवत करीति श्रवण , अखंड चिंतन विठोबाचे*
( संत तुकाराम के द्वारा )
अनुवाद:- जहां भगवद्गीता और भागवत का अनवरत पाठ और भगवान विट्ठल चिंतन होता है ।
आपको खुद को उत्तर मिलेंगे । या फिर भगवान बैठे हैं चैत्य गुरु है । पहले गुरु हैं भगवान ही है !
“कृष्णं वंदे जगतगुरुं” तो “दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित” आपके मन में भी प्रकट कराएंगे । क्रांति होंगे । ( Seek you will find, ढूंढो तुम पाओगे ) । आप खोजो प्राप्त होगा । ठीक है ।
*॥ हरे कृष्णा ॥*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 02 जून 2021
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 864 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरिबोल! स्वागत है। इतनी लोकेशन्स! आप खुश हो? यस! चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी (हरे कृष्ण का जप करो और खुश रहो)। जब हम आपको जप(चैटिंग) करते हुए देखते हैं तब हम भी हैप्पी( खुश) हो जाते हैं। आप को खुश देख कर हम भी खुश हो जाते हैं और आप को दुखी देखकर हम भी दुखी हो जाते हैं।
पर दुख: दुखी
कुछ लोग बदमाश भी होते हैं। भक्ति विनोद ठाकुर एक गीत में कहते हैं, पर सुखे दुखी। यह मंत्र याद रखो,छोटे छोटे शब्द अर्थात छोटे छोटे सूत्र हैं। कुछ लोग ‘पर दुखे दुखी’ होते हैं अर्थात अन्यों का दुख देखकर वे भी दुखी होते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पर सुखे दुखी अर्थात जब वे अन्यों को सुखी देखते हैं तब वे दुखी हो जाते हैं। आप दोनों में से कौन से हो? पर दुखे दुखी या पर सुखे दुखी? इसके विषय में सोचो।
मातृवत् परदारेषु परद्रव्याणि लोष्ठवत्। आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पण्डितः॥
( चाणक्य नीति)
अर्थ:-
दूसरे की पत्नी को अपनी माँ की तरह, दूसरे के धन को मिट्टी के समान, सभी को अपने जैसा जो देखता है वो ही पंडित (ज्ञानी) है।
वैसे सभी जीव आत्मवत् हैं। मेरे जैसे हैं या मेरे हैं अर्थात सभी जीव भगवान या मेरे कृष्ण के ही हैं।आत्मवत्। जैसे मैं खुद के लिए प्रिय हूँ, वैसे ही अन्य जो विष्णुजन हैं (अच्छा शब्द है) या महाजन (विष्णुजन अर्थात विष्णु के लोग) वे भी हमारे ही हैं या मेरे जैसे ही हैं। इसीलिए हम औरों का दुख देखकर, दुखी होते हैं। यः पश्यति सः पण्डितः। उसको पंडित कहा है। वह व्यक्ति ज्ञानी होता है। वह ज्ञान से भरा होता है। आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पण्डितः॥ ऐसा यह चाणक्य नीति का वचन है।
हरि! हरि! एक बार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब वाराणसी में थे तब उन्होंने सनातन गोस्वामी को मृगारी ( मृगारी अथवा मृग और अरि। मृग मतलब पशु और अरि मतलब शत्रु) का जीवन चरित्र सुनाया था। (जप करते समय महाप्रभु द्वारा कही हुई बातें विचार में आ रही थी। उसे संक्षिप्त में ही कहना होगा) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा- नारायण! नारायण! ( कौन आया होगा) नारद मुनि आए होंगे। नारद मुनि की ऐसी ही ख्याति है। नारद मुनि,आकाश मार्ग से जा रहे थे, उन्होंने मृगारी शिकारी को देखा। वे नीचे उतरे। उन्होंने जमीन को तो स्पर्श नहीं किया पर कुछ संवाद हुआ। नारद मुनि ने मृगारी से कहा, ‘यह क्या कर रहे हो, इसे बंद करो। यह हिंसा मत करो।’
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः । बहाचर्य तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्थनम् ॥
( श्रीमद्भागवतगम ३.२८.४)
अनुवाद:-
मनुष्य को चाहिए कि अहिंसा तथा सत्य का आचरण करे , चोरी से बचे और अपने निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करे। वह विषयी जीवन से बचे , तपस्या करे, स्वच्छ रहे , वेदों का अध्ययन करे और भगवान परमस्वरूप की पूजा करे।
वे उसे ‘अहिंसा परमो धर्मः, धर्महिंसा तदैव च:’ ऐसा प्रवचन सुनाने लगे लेकिन वह शिकारी मान नहीं रहा था। नारद मुनि, उसे बता अथवा स्मरण दिला रहे थे कि “तुम पशुओं की हत्या करके, इन में से कुछ पशुओं को खा जाते हो, तुम्हें पता है, इसका परिणाम क्या होगा? यही तुम्हारा आहार होता है। तुम चिकन या बीफ खाते हो, न जाने, क्या-क्या खाते हो और कहते ही रहते हो। मांस भक्षण करते रहते हो। इसका परिणाम क्या है? क्या तुम्हें पता है? मांस, क्या कभी इसका अर्थ समझा है? मृगारी बोला- नहीं! कृपया समझाइए। नारद मुनि बोले- “मांस अर्थात तुम जिसे आज खा रहे हो, भविष्य में वहीं तुम्हें खाएगा।”
मृगारी शिकारी कहने लगा – ” मैं इस पर विश्वास नहीं करता।” जब पुनर्जन्म ही नहीं है। तब कैसे खायेगा…
यावत जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः भवेत।।
( चार्वाक मुनि)
अर्थ:- जब तक मनुष्य जीवन है, तब तक घी खाए। यदि आपके पास धन नहीं हैं, तो मांगिए, उधार लीजिए या चोरी कीजिए, किन्तु जैसे भी हो घी प्राप्त करके जीवन का भोग कीजिए। मरने पर ज्यों ही आपका शरीर भस्म हो जाएगा, तो सब कुछ समाप्त हो जाएगा।
यह चार्वाक मुनि का दर्शन है। हरि! हरि! जब शरीर समाप्त होता है तब सब कुछ समाप्त हो जाता है। श्रील प्रभुपाद जब वर्ष 1975 में मास्को में थे। वहां कोत्सवकी नामक एक तथाकथित विद्वान, प्रोफेसर से संवाद हो रहा था तब उन्होंने भी कहा था कि स्वामी जी जब बॉडी इज फिनिश्ड, एवरीथिंग इज फिनिश्ड (जब शरीर समाप्त हुआ, सब समाप्त हुआ)। इस प्रकार की मान्यता वाले लाखों या करोड़ों मिलेंगे अकेला मृगारी ही ऐसा नहीं था। तब उसने, नारद मुनि से कहा कि हम पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते।
अब्राहिम लिंकन, यहूदी, ईसाई, मुस्लिम की मान्यता भी यही है कि पुनर्जन्म नहीं होता। ईसाई तो यह समझते हैं कि यह मनुष्य जीवन ही आखरी जन्म है लेकिन यह केवल मान्यताएं ही है। यह सत्य नहीं है। ‘हम पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते,नहीं मानते।’ जैसे ऐसा कहने वाले, वैसे ही लोग हैं जैसे किसी अंधे ने कहा कि मैं सूर्य में विश्वास नहीं रखता अर्थात सूरज में मेरा विश्वास नहीं है, अनाड़ी या बुद्धू कहीं का। तुम्हारे पास सूर्य को देखने के लिए आँखें ही नहीं है और बातें तो कर रहे हो कि मैं सूर्य के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। इस दुनिया वालों अथवा इसाईयों की ऐसी ही बात है। वैसे शास्त्र चक्षुषा अर्थात शास्त्र हमें दृष्टि देते हैं। ज्ञान देते हैं संस्कृत में चश्मे को उपनेत्रम कहते हैं। उपनेत्रम- जब धुंधला दिखता है, तब हम चश्मे का प्रयोग करते हैं। तत्पश्चात हमें स्पष्ट दिखाई देने लगता है। वैसे ही, शास्त्रों का चश्मा पहन कर जब हम देखने लगेंगे, तब हमें भी दिखाई देने लगेगा। अन्य भी कई सारे शास्त्र कुरान आदि हैं लेकिन इनमें से कुछ दिखता है परंतु कुछ धुंधला दिखता है। अधिक स्पष्ट नहीं है।
सुन रहे हो?
तब मृगारी ने देखा कि १००० वर्ष पहले मर्गारी एक हिरण बन गया है। जिस हिरण की मर्गारी ने हत्या की थी, वह शेर बन गया था। अब मर्गारी हिरन बन गया है, शेर, हिरण का पीछा कर रहा है। सहायता! सहायता! सहायता! बचाओ! बचाओ! बचाओ! कहते हुए नारद मुनि के चरणों में आकर गिरा। नारद मुनि ने कहा कि अब दस हजार वर्षों के उपरांत का दृश्य देखो, मांस जिसको तुमने आज खाया है, अर्थात जिसकी तुमने जान ली है, वही भविष्य में तुम्हारी जान लेगा। नारद मुनि ने उसे कई जन्म जन्मांतर का दृश्य दिखाए। यह जो शब्द है, इसके साथ सिद्धांत जुड़ा हुआ है। वह सब सिद्ध हो रहा है। हम कहते सुनते ही रहते हैं कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। मृगारी कुछ मान गया था लेकिन वह कुछ समझ रहा था लेकिन स्वीकार नहीं कर रहा था। भविष्य में लात या हथियार कहो या जो भी इन उलझनों का सामना उसे करना पड़ रहा था। उसे देख वह धीरे-धीरे सीधा हुआ, पटरी पर आया।भगवान के प्रतिनिधि नारद मुनि की पूरी शरण ली। बचाइए, बचाइए ,ऐसे भविष्य से बचाइए।
हम सभी का भी ऐसा भविष्य है। हमारे दुर्भाग्य से एक दो नहीं बिलियन ट्रिलियन जन्म हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥ – शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21
अर्थ-
हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं सब होने वाला है। मृगारी का भी होने वाला था लेकिन बच गया। कैसे बच गया? उसने नारद मुनि की शरण ली, उसने भगवान के प्रतिनिधि की शरण ली। नारद मुनि ने उसको मंत्र दिया और नारद मुनि ने उसे कहा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आजसे चार नियमों का पालन करना। आज से मांस भक्षण नहीं करना।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति | तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः ||
( श्रीमद् भगवतगीता ९.२६)
अनुवाद:
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ ।
नो मटनम चिकनं, रैटम। लोग पता नहीं, क्या-क्या नहीं खाते? तुम नियमों का पालन करना। अच्छा, ठीक है। तब मृगारी ने अपनी पत्नी को साथ लिया। दोनों पति पत्नी भक्ति करने लगे, विशेष रूप से श्रवण कीर्तन करने लगे। उसमें भी वह विशेष रूप से हरे कृष्ण महामंत्र का जप करने लगे।
वह सोच रहा था सारी व्यवस्था हो जाएगी लेकिन मेरी पेट पूजा का क्या होगा। मेरे खान पान की व्यवस्था का क्या होगा। भगवान् ने वादा किया है कि चिंता मत करो।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९.२२)
अनुवाद:-
किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ ।
भगवान् कहते हैं कि मेरे भक्त की जो भी आवश्यकता है, उसकी पूर्ति मैं करता हूं। हाथी को कौन खिलाता है? हाथी कोई नौकरी करता है? उसकी कोई फैक्ट्री है या उसकी कोई जॉब है? भरपेट खाता है या नहीं? चींटी को कौन खिलाता है। क्या चींटी का कोई उद्योग है? उसको कोई काम धंधा नहीं है , केवल खाने का है। वह दिन भर खाती ही रहती है। बस अधिक खाने की चिंता तो मनुष्य को ही होती है ।अन्य योनियों में कोई चिंता नहीं होती।
एको प्रकार एको बहूनांम यो विदाधती कामां
( कठोपनिषद 2.2.13)
कहा ही है और सत्य ही है। एको बहूनांम अर्थात एक व्यक्ति और वह भगवान् हैं यो विदाधती कामां अर्थात सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति होती ही रहती है। कभी देर हो सकती है लेकिन भगवान के दरबार में अंधेर नहीं हो सकती।
नारद मुनि ने कहा कि भगवान् कहते हैं कि
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६)
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत।
नाम का आश्रय लो, जप करो। जब यह बड़े ध्यान पूर्वक जप कर रहे थे, वे जप में तल्लीन थे। तब लोग उनसे मिलने के लिए आने लगे। ओह! मृगारी। मृगारी के जीवन में इतना क्रांति, इतना परिवर्तन हुआ। वह पूरी तरह कृष्ण भावना भावित हो गया। लोग जब उनको मिलने के लिए आते, तब वे साथ में कोई न कोई भेंट लेकर आने लगे। मृगारी और उसकी पत्नी की जो भी आवश्यकता थी, वे सारी पूरी हो रही थी। उनके लिए वो भेंटे पर्याप्त से भी अधिक थी। इसलिए वे अधिक वस्तुएं थी, वे उसको बांटने लगे। उनका वितरण करने लगे। हरि! हरि! ब्राह्मण और वैष्णव दान लेते भी हैं और दान देते भी हैं। ऐसा करने लगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को आगे बताया कि एक समय की बात है, नारद मुनि पुनः आकाश मार्ग से जा रहे थे, उनको हरे कृष्ण की ध्वनि सुनाई दी।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कोई व्यक्ति बहुत ही गंभीरता से ध्यानपूर्वक व्याकुल होकर भगवान् के नामों का उच्चारण कर रहा है। नारद मुनि को याद आया, अरे! यह तो मृगारी है। नारद मुनि जब नीचे उतरे, मृगारी ने देखा कि नारद मुनि वहां कुछ दूर खड़े हैं। वे नारद मुनि की ओर जाने लगे। नारद मुनि अपने शिष्य मृगारी को अपनी ओर आते हुए देख रहे थे लेकिन नारद मुनि ने यह नोट किया कि वह उनकी ओर सीधे व तेजी से दौड़कर नहीं आ रहे हैं अपितु बीच-बीच में रुक रुक कर, झुकते हुए और कुछ रास्ता साफ करते हुए, टेढ़े मेढे होकर आ रहे हैं। मृगारी बहुत समय के उपरांत नारद मुनि के पास पहुंचे। तब मृगारी ने नारद मुनि को दंडवत प्रणाम इत्यादि किया। तत्पश्चात नारद मुनि ने कहा कि शिष्य यह सब क्या है? तुम्हें तो मुझे देखते ही दौड़ना चाहिए था लेकिन तुम तो इतनी मंद गति से चल रहे थे, झुक रहे थे। यहां वहां जा रहे थे। ऐसा क्यों? इसके उत्तर में मृगारी ने कहा- कृपया मुझे क्षमा कीजिए। मैं भी वैसे ही करना चाह रहा था अर्थात दौड़कर आपके चरणों में गिरना चाह रहा था किंतु कैसे करता? कैसे दौड़ता, रास्ते में कई सारी चीटियां थी। यदि मैं ऐसे ही दौड़ के आता तब मैं कईयों की जान ले लेता। इसलिए मैं रास्ता साफ करके आ रहा था जैसे जैन मुनि इत्यादि जोकि अहिंसा का पालन करते हैं। उनकी तरह मैं भी रास्ता साफ करते करते चीटियों को हटाते हटाते आ गया। थोड़ी देर तो हुई है। माफ कर दीजिए। जब मृगारी ने यह स्पष्टीकरण दिया, तब नारद मुनि यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने मृगारी को आलिंगन दिया। इस मृगारी की प्रगति तो देखिए। यह ‘नंबर वन किलर’ आप सब की जान लेने वाला मृगारी आज उच्च कोटि का अहिंसक बन गया है।
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् । अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥
( श्रीमद्भागवतम् ३.५.२१)
अर्थ:-
साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भाव
रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है
और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।
उसकी करुणा तो देखो। उसने जीवों में दया का प्रदर्शन किया है। नामे रुचि, जीवे दया, वैष्णव सेवनं। यह हुआ भी कैसे? उसने नारद मुनि से अपना संबंध जोड़ा, संबंध स्थापित हुआ। उसने उन्हें परंपरा के आचार्य के रूप में स्वीकारा। मृगारी ने नारद मुनि द्वारा दिया गया उपदेश विशेष रूप से हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इस मंत्र का जप व कीर्तन किया, नियमों का पालन किया, सत्संग किया, दान धर्म भी किया। प्रचार किया। यह प्रत्यक्ष दृष्टांत है। यह हरि नाम की महिमा है। हरिनाम ही ऐसा परिवर्तन ला सकता है। हरि! हरि! इसलिए जप करते रहिए। चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी (हरे कृष्ण का जप करिए और खुश रहिए) जैसे मृगारी प्रसन्न हुआ था। (अब वैसे में मृगारी का क्या होगा।)
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
( श्रीमद् भगवतगीता ४.९)
अनुवाद:
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
पुनर्जन्म होता तो है ही लेकिन मृगारी जैसे व्यक्ति जोकि साधक बना। उसमें भाव उत्पन्न हुए और उसनें प्रेम को प्राप्त किया।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।
हरे कृष्ण!!!
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*हरे कृष्ण*
*पंढरपुर धाम से*
*1 जून 2021*
हरे कृष्ण ।
*गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।*
*‘हरि हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर॥1॥*
अनुवाद:- वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे?
823 स्थानों से आज जप हो रहा है । निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । या फिर ,
*गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।*
*‘हरि हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर॥*
नरोत्तम दास ठाकुर गा रहे हैं और कह रहे हैं , ऐसे मुझे स्मरण हुआ , अनायास ऐसे ही उच्चारण हुआ इस वचन का , नरोत्तम दास ठाकुर के इस गीत का उच्चारण हवा । गीत की पहली पंक्ति है कबे हबे , कब होगा ? *गौरांङ्ग’ बलिते* जब मैं गौरांग गौरांग गौरांग कहूंगा तब *पुलक शरीर* मेरा शरीर पुलकित कब हो उठेगा? रोमांचित कब होगा ? गौरांग गौरंगा कहने से , गौरांग बोलिते हबे पुलक शरीर या हरे कृष्ण बोलिते हबे पुलक शरीर एक ही बात है । और आंखों में अश्रु कब भर आएंगे ?
*नयनें गलदश्रु-धारया वदने गद्गद-रुद्धया गिरा।*
*पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥*
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य 20.36)
अनुवाद
हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित
होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?’
इस प्रकार हमारे आचार्यो के ग्रँथ है या गीत है , भजन है । इसमें भी शिक्षाष्टक के भाव या भाष्य हम देखते है । हरि हरि । शिक्षाष्टक की ओर उंगली दिखाते हैं यह अलग अलग भाषा अलग अलग भजन वही स्रोत हो जाता है । आचार्यो के ग्रंथावली या गीतावली का स्त्रोत बन जाता है । हरि हरि। हम जप करते हैं , वैसे कुछ प्रश्न उत्तर भी करने है । आपने पूछे हुए प्रश्नों के उत्तर देने है । कुछ बचे हुए प्रश्नों के उत्तर भी देने हैं किंतु और भी कुछ विचार मेरे मन में उदित हो रहे थे , मैं सोच रहा था उसे थोड़ा संक्षिप्त में कहता हूं फिर प्रश्न उत्तर के तरफ मुड़ते हैं । हम जप करते हैं तो यह जप योग भी हैं और इसका लक्ष भगवान का ध्यान है , स्मरण है, समाधि है । यह एक पतंजलि का सूत्र है , पतंजलि योग जो अष्टांग योग भी कहलाता है । एक बड़ा ही महत्वपूर्ण सूत्र , नारद भक्ति सूत्र उसमें एक सूत्र है , *चित्त वृत्ति निरोध*
अनुवाद:- महर्षि पतंजलि ने योग की परिभाषा करते समय इस प्रकार की है- ”योगश्चित्त वृत्ति निरोध:” चित्त की वृत्तियों का रोकना ही योग है। ”युज्यते असौ योग:” अर्थात् जो युक्त को करें अर्थात् जोड़े वह योग है। अर्थात् आत्मा व परमात्मा को युक्त करना ही योग है। महर्षि व्यास ने ”योगस्समाधि” कहा है।
बहुत महत्वपूर्ण और विशेष , महान , शक्तिमान कहो ऐसा यह सूत्र है । *चित्त वृत्ति निरोध* परिवार नियोजन में आपने निरोध निरोध का सुना होगा , वहा निरोध चलता है । निरोध या विरोध या दमन ऐसे शब्दार्थ निरोध के अर्थ हो सकते है । *चित्त वृत्ति निरोध* चित्त में जब वृत्तियां उत्पन्न होती है उन वृत्तियों को मतलब हम जो सोचते ही रहते हैं या सोचते हैं कही घटनाएं घटती है , हम सुनते हैं या अलग अलग प्रकार के ज्ञान को चित्त के पास , मन के पास वह पहुंचाता है । हमारे चित्त में , मन में कई सारे विचार , कई सारे क्रिया प्रतिक्रियाये या कहीं फिर मन डामाडोल भी हो सकता है , कई सारे भाव , कही सारे विचार , तरंगे या फिर सुनामी भी ऐसा होता है ।हरि हरि । यह पतंजलि सूत्र कहता है , जो पतंजलि योग का सूत्र है भगवान के साथ संबंध स्थापित करने का यह सूत्र या मंत्र है , विधि है , उपाय है । *चित्त वृत्ति निरोध* कई तरंगे , कई विचार , क्रिया प्रतिक्रिया मन के स्तर पर जो होती है , या फिर ग्राफ के कर्व कहो उसको सीधा करो । मन को स्थिर करो , मन को शांत करो , यह लक्ष्य है ताकि हम समाधि की ओर , ध्यान की ओर या फिर ध्यान पूर्वक जप कि और आगे बढ़ सकते हैं ।
*मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |*
*मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||*
(भगवद्गीता 18.65)
अनुवाद
सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
दूसरे शब्दों में झट से अगर कहना है तो जप के समय यह चित्त वृत्ति निरोध करना है। चित्त में उत्पन्न होने वाली जो वृत्तिया है या जो विचार है जो लहरें तरंगे है उसको वहीं पर दमन करो , वहीं पर उनका विरोध करो, उनको सीधा करो । आपको यह समझाते हुए विस्तार हो ही जाता है । आपके बुद्धि का उपयोग करो।
मन के ऊपर बुद्धि है ।
*शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |*
*ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||*
(भगवद्गीता 18.42)
अनुवाद
शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं |
ब्राह्मणों के लक्षण या गुण शमह दमह , इंद्रिय निग्रह । इसको शमः दमः भी कहा है । जप के समय हमे यह प्रयास करना है जो हर रोज के चालू विषय है , उसका विचार ना करें , उसके प्रभावित ना हो । फिर आप पूछोगे फिर कैसे करें? या अभी मैं उत्तर देने वाला नहीं हूं , कठिन तो है ।
*चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |*
*तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||*
(भगवद्गीता 6.34)
अनुवाद
हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |
इससे मन चंचल होता है । मन को स्थिर करना है , यह अभ्यास है कि अबकी जो मेरी स्थिति है , परिस्थिति है या जो ककैमटिक चेंजेस या कोरोनावायरस है या कुछ नौकरी चली गई , दिवाला निकल रहा है , इस तरह कई सारे या यह हुआ है , फैमिली रिलेशन में कुछ बिगाड़ आया है इस तरह कई सारे हजारों विषय होते ही है सोचने के लिए। ऐसा सुखदेव गोस्वामी ने कहा है सोचने के लिए हजारों विषय होते हैं और संक्षिप्त में इतना ही कहूंगा कि यह जो शिक्षाष्टक है जो चालू विचार है , विषय है कई सारी बातें हम को प्रभावित कर रही है । मेरा क्या होगा ? मेरे बारे में सोचो , उसका क्या होगा उसका क्या होगा उसका क्या होगा? सोचती फिर कांक्षति चलता है । उसके बारे में हम सोचते हैं या फिर लैविटेशन या फिर भविष्य में कुछ आकांक्षा है तो इसके ऊपर भी उठना है । भूतकाल और भविष्य काल मैं नहीं रहना है , वर्तमान काल में रहना है । उसके लिए फिर जो शिक्षाष्टक के विचार है , शिक्षाष्टक में जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भाव व्यक्त कीये है , कई सारे भाव है । और भाव का समुद्र है या प्रेम का सागर है । वह दूसरे तीसरे विचार छोड़ने के लिए कुछ नए नए विचार तो मन में आने चाहिए तभी तो पुराने विचार या परेशान करने वाले विचारो को हम त्याग सकते हैं । हमको प्रयास करना है , अभ्यास करना है , आज की जो स्थिति है , परिस्थिति है , जिससे मन की स्थिति हुई है , चित्त वृत्ति निरोध करना है । स्थिर करना है , चित्त में विचलितता ना हो । शिक्षाष्टक के सहारे से हम यह कर सकते है , महाप्रभु ने जो दिए हुए विचार है जो निश्चित ही उच्च विचार हैं और जो बातें हमको नीच विचार , हो सकता है पाप बुद्धि के विचार हम को परेशान कर रहे हो , मुझे भी देखो , मुझे देखो, मुझे भी गले लगाओ , खाओ पियो आओ जाओ यह जो विचार परेशान करते रहते हैं , उसमें से कई सारे नीच विचार भी होते ही है । लो थिंकिंग या नो थिंकिंग के स्थान पर जो उच्च विचार है , श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के जो शिक्षाष्टक के उच्च विचार है वह विचारों से हमारा दिल, हमारा मन भर देना है , हमारी चेतना , भावना वह भाव से उदित हो सकते हैं । हम पुनः पुनः सोचेंगे तो हम उस भाव के उस विचारों से बन सकते हैं । विचारों को सुनेंगे , श्रवण करेंगे , मनन करेंगे कॉन्टेमिनेशन और फिर वह अब्सॉर्ब होगा जैसे ऑक्सीजन को ब्लड में अब्सॉर्ब करने की बाते आजकल चलती रहती है। हरी हरी । इस विचार का विचार में अब्सॉर्ब होना या उसको अंदर लेना । जैसे स्पंज होता है , जल को या कोई द्रव को कोई शाही को खींच लेता है और फिर उसी रंग का उसी स्वभाव का वह बन जाता है । स्पांज गिला ठंडा भी बन सकता है या नीला बन सकता है । चित्त वृत्ति निरोध है , चित्त की वृत्तियां है यह विचार शिक्षाष्टक के विचार है ।
*चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति – पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ।।*
(चैतन्य चरितामृत अंत 20.12)
अनुवाद ” भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना।
*नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।*
*एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः।।*
अनुवाद:- हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।
कई इस्कॉन टेंपल में प्रात काल में जप के पहले भी शिक्षाष्टक का पाठ होता है और फिर 10 नाम अपराध क्या है , 10 नाम अपराध का भी स्मरण दिलाया जाता है , जिसको हम 10 नाम अपराध कहते हैं। फिर *वांछा-कल्पतरूभयशच कृपा-सिंधुभय एव च पतितानाम पावने भयो वैष्णवे नमो नमः*
*जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द ॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* आगे बढ़ता हैं ।
जप की शुरुवात शिक्षाष्टक के पाठ से होती है ।
उस विचार वाले हम बनेंगे । फ्रेश अभी-अभी पाठ किया , अभी-अभी स्मरण किया , आभी-अभी प्रार्थना की ,
*अयि नन्द – तनुज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधी ।* *कृपया तव पाद – पकज स्थित – धूली – सदृशं विचिन्तय ।।*
(चैतन्य चरितामृत 20.12)
अनुवाद ” हे प्रभु , हे महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण ! ‘ मैं आपका सनातन सेवक हूँ , किन्तु अपने ही सकाम कर्मों के कारण मैं अज्ञान के इस भयावह समुद्र में गिर गया हूँ । अब आप मुझ पर अहेतुकी कृपा करें । मुझे अपने चरणकमलों की धूलि का एक कण मानें । ‘
जप के समय ऐसे विचार करके भगवान से हम कहते हैं कि मैं ऐसे विचारों का हूं प्रभु और मुझे आपकी सेवा में लगाइए आपके चरणों की धूल बनाइए।
*न धनं न जनं न सुंदरीं*
*कवितां वा जगद्-ईश कामये*
*मम जन्मनि जन्मनीश्वरे*
*भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥4॥*
*अनुवाद:-) हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।*
मुझे इसमें से कोई चीज नहीं चाहिए मुक्ति तो ले लो नही मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि मुझे मुक्ति भी नहीं चाहिए फिर तुमको क्या चाहिए फिर भगवान पूछते हैं बता वो मुझे आपकी अहैतुकी भक्ति चाहिए। तो यह सारे जो शिक्षाअष्टक के मतलब भगवान के श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के विचार यह उच्च विचार है। यह विचार सर्वोपरि है, और वो सूत्र रूप में है बहुत कुछ सूत्र इसमें भरा है। इन 8 पंक्तियों में 8 अष्टकों में है। यह जो चित्त वृत्ति निरोध करने के लिए चित्त की जो वृत्ति को निरोध हैं चित्त में उत्पन्न हो जाएगी प्रतियां है विचार है कहो या लहरे तरंगे है प्रतिक्रिया है जो वहां चल रहा है उसका प्रतिकार करना है उससे लड़ना है उस को परास्त करना है उन विचारों को परास्त करना है। उनको वहां से भगाना है मिटाना है। या उनको लेंटाना ना है मेक द फ्लाइट तरंगों को सीधा बनाना है यह करने के लिए हम भगवान की सहायता लेते है। और वो कैसे *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* मदद करो मदद करो मदद करो देखो ये शत्रु ये शत्रु ये शत्रु यहां वह मदद करो मदद करो हरे कृष्ण हरे कृष्ण तो यह मदद करो मदद करो है भाव तो मदद करो ही है। तो हम नाम के शरण में भी जाते हैं।
*नामाश्रय करी जतने तुम्ही*
भगवान का आश्रय लिया हुआ है।
*भगवद्गीता 7.14*
*” दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |*
*मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || १४ ||”*
*अनुवाद :- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |*
जिसने भगवान की शरण ली हुई है। माया से वो लड़ सकते हैं माया से वो बच सकते हैं। तो इसी तरह हम को सक्रिय होना होगा ठीक है।
*प्रश्न 1) अनिरुद्ध स्वरूप प्रभु जी ने पूछा हैं,*
*जिस प्रकार शिक्षाष्टक में भक्ति के अलग अलग स्तर दिए गए है तो हम किस स्तर पर हैं यह कैसे समझें?*
गुरुमहाराज ऊवाच:-
जो अलग अलग स्तर है जैसे साधना भक्ति का स्तर है,प्रेमा भक्ति का स्तर है, तो हम किस स्तर पर है उसे कैसे समझें जब हम शिक्षाष्टक को समझ जाएंगे तो हम फिर देख सकते हैं या फिर एक भक्त ने कल के सत्र में अपना क्या अनुभव रहा हैं उसमें उन्होंने कहा था या उनको लगा कि है शिक्षाष्टक की जो बात है यह एक आईने की तरह है।जो हम सामने रखते तो पता चलता है कि देखो कितनी सारी गंधगी हैं ये देखो कितने सारे गंधे विचार तुम्हारे हॄदय में हैं।और आगे श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं क्या कह रहे हैं।
*नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि*
*दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥2॥*
*अनुवाद:- हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।*
यह मेरा दुर्दैव हैं कि मुझे कोई अनुराग ही नहीं है। ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी अगर हम ईमानदार है तो फिर हम भी समझ सकते हैं हमारा भी ऐसे ही हाल है क्या हमारे में भी रुचि नहीं है। तो हम समझ सकते हैं यह आईना है। आप आईने में देख रही हो तब
*नयनें गलदश्रु-धारया*
*वदने गद्गद-रुद्धया गिरा।*
*पुलकैर्निचितं वपुः कदा*
*तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥ 36॥*
*अनुवाद :- हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?’*
तो कुछ अश्रुधारा तो दिख ही नहीं रही है। हरि हरि तो हम समझ सकते हैं कि हम किस स्तर पर है। या इसी तरह हमारे विचारों को हमारे विचार हमारे भाव को हम परख सकते हैं तुलना की दृष्टि से देख सकते हैं। फिर हम को पता चलेगा यह लगना चाहिए कि हम कहां है किस तरह किस सोपान पर है। कहां तक पहुंचे हुए महात्मा हम हैं पोहोंचे हैं या पहुंच नहीं रहे हैं, या फिर आप अपने वरिष्ठ भक्तों के साथ भी चर्चा कर सकते हो आपके शिक्षागुरु से भी बोल सकते हो।
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति ।*
*भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ॥४॥*
*अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।*
और फिर निष्कर्ष पर पहुंचो कि हम इस स्तर पर है, और यह जानना भी उपयोगी है। ताकि हम जो हमारी कमजोरी और ताकत हैं उसे जान सकें कि मैं यहां पर मजबूत हो या स्ट्रांग हु या फिर यहां मैं कमजोर हूं फिर हम उससे आगे की जो योजना है कैसे आगे बढ़ना है उसकी योजना बना सकते हैं। यह जानना अच्छा है इसको सिंहावलोकन भी कहते हैं। जैसे वन में सिंह जो वन के राजा केसरी उनकी खासियत है वह क्या कहते हैं सिंह सिंहावलोकन करते हैं। सिंह दौड़ता है कही जाता है फिर रुकता है और देखता है मैं कितनी दूर आया हूं मैं कहां हूं और मंजिल अभी कितनी दूर है। इसका अवलोकन करता है उस पर विचार करता है इसीलिए वह राजा है। लेकिन और जो कुत्ते बिल्ली चिड़िया खरगोश है या लोमड़ी जो होते हैं वानर होते हैं वह सिर्फ यहां से वहां जाते रहेते हैं वह सोचते नहीं है हम कहां से निकले थे कहा जा रहे हैं या हमारी जो स्पीड है वह बराबर चल रही है या बढ़ाना पड़ेगा या गिअर को बढ़ाना पड़ेगा या डायवर्जन लेना पड़ेगा या कोई खड़ा है खड़ा है या इधर से जाना होगा या रुक कर उस पर विचार करना होगा औऱ फिर आगे बढ़ना होगा यह सिंह करता रहता हैं। लेकिन अन्य जो पशु है उस पर विचार नहीं है उस पर सोचते नहीं है तो हम को पता लगवाना चाहिए कि हम किस स्तर पर पहुंचे हैं।
*प्रश्न 2) संदीप प्रभु पूछ रहे है,हम दिन में जो भी कार्य करते हैं तो उस समय क्या हम भगवान का नाम स्मरण कर सकते हैं?*
गुरुमहाराज ऊवाच:-
हां हां क्यों नहीं या वही तो है
*भगवद्गीता 18.65*
*“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |*
*मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||”*
*अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |*
लेकिन मन में जो हमारा जप तो होता ही हैं और जैसे कि हम कम से कम 16 माला का जप करते हैं या कई भक्त इससे ज्यादा माला जप करते हैं। वह जो मालाए है उन्हें मन में नहीं करनी है उसका उच्चारण करना है *प्रभुपाद जी ने मुझे ही कहा था कि जप करते समय जिव्हा पर कंपन होना चाहिए* जिव्हा हिलनी चाहिए होटो का उपयोग होना चाहिये और उसको सुनना चाहिए सुनने से हम अधिक प्रभावित होते हैं। यह जो श्रवण है वह बहुत ज्यादा शक्तिशाली है। कोई सोया है तो कोई कभी-कभी उसको कभी कभी हिलाया भी उसको स्पर्श किया तो वह जगेगा नहीं लेकिन उसका यदि जोर से नाम लिया जैसे गोविंदा या जो भी नाम है तो वह झट से उठेगा वैसे मुझे एक डॉक्टर ने भी कह रहे थे कि जब व्यक्ति मरणासन्न हो मरने जा रहा है अभी मर सकता है तभी मर सकता है तो यह मेडिकल फील्ड का उनका ऑब्जरवेशन निरीक्षण बता रहे थे यह शरीर धीरे-धीरे मृत्यु की अवस्था मे जाने लगता है अलग-अलग अवयव अलग-अलग इंद्रिय भी अभी काम नहीं करती है बंद हो जाता है पर आखरी जो अंग अच्छा या बचा हुआ होता हैं वो होता हैं सुनने का मतलब हमारे दो कर्ण है वो सचेत रहते हैं। यदि हम उसे स्पर्श करे तो उसको ध्यान नहीं होगा या उसको कुछ फूल वगैरा दे दो नाक के पास तो वह सुंग नही पाएगा उसको ज्ञान नहीं होगा या फिर उनकी आंखों के सामने उंगली करोगे और दिखाओगे कि बोलो कितनी उंगलियां है तो उत्तर नहीं देगा तो अधिकतर जो इंद्रिय है वह मृत अवस्था में ही होती है। लेकिन जो श्रवण इंद्रिया है सेंस ऑफ हियरिंग जो है वह कह रहे थे कि वह आखरी इंद्रिय है जो आखरी में मृत होता है। तो यह जो श्रवण है श्रवण से हम अधिक से अधिक प्रभावित होते हैं।
एक समय तो रेडियो चलता था और ऑडियो चलता था लेकिन जब ऑडियो और वीडियो टेलीविजन में आया गया फिर यह संसार अधिक प्रभावित होने लगा ऑडियो चल रहा था और वीडियो के साथ ऑडियो भी है। तो यह जो हियरिंग है इस कलीयुग में हमारा जो चित्तवृत्ति निरोध करना है चित्त में जो कई सारे विचार उत्पन्न हो रहे हैं उसको चुप करना है चुप बैठो ये मन तुम चुप बैठे हो यह जो ध्वनि है हरे कृष्ण हरे कृष्ण सुना सकते हो उस मन को तो फिर वह चित्त वृत्ति विरोध करने में उनको मदद करेगा और जो विचार हैं विचार में रोकथाम डाली जा सकती है। उनको परास्त किया जा सकता है। साउंड इज वेरी पावरफुल ध्वनि से ही शुरुआत में ध्वनि होती है ऐसा शास्त्रों का सिद्धांत है बाइबल में भी ध्वनि का उल्लेख हैं। कलीयुग में यह मन में जप करने का विधि नहीं है या है भी तो हमारे के लिए नहीं है साधकों के लिए के लिए नहीं है वो केवल हरिदास ठाकुर के जैसे भक्तों के लिए है। तो हमारे लिए उसे उच्च स्वर से या करे याफिर कीर्तन करे तो उसमे स्वर होता है ताल होता है और वाद्य भी होते हैं। हमे जप के समय उच्चारण करना चाहिए ताकि हमारे मन में जो कुछ हो रहा है उससे ऊपर आसके उसमें परिवर्तन लाना है क्रांति करनी है यह जो ध्वनि है हमें ले जा सकता है।
*नाम्नामकारि बहुधा निज – सर्व – शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।। 16 ।।*
*अनुवाद:- ” हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हैं , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।*
सारी शक्ति जो है उसका नाम में उपयोग होगा या तो दिन में वैसे आप मन में नाम स्मरण कर सकते हो या जप कर सकते हो और वैसे भी कहां है की *हाथ में काम मुख में नाम* हो भगवान का नाम लेते हुए काम करो या अर्जुन को भगवान ने कहा है।
*भगवद्गीता 8.7*
*“तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |*
*मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः || ७ ||”*
*अनुवाद:- अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए | अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे |*
यह व्यवहारिक बात है और संभव होनी चाहिए या इसी लिए भगवान भगवद्गीता में कह रहे हैं *मामनुस्मर युध्य च* दो कार्य करो एक ही साथ दो कार्य करो कौनसे दो कार्य माम अनुस्मरन मेरा स्मरण करो वैसे उल्टा कहना चाहिए था युद्ध करो कैसे मेरा स्मरण करते हुए केवल युद्ध ही नहीं करना *भगवान ने अर्जुन से कहा मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करोगे तो यह भक्ति योग हुआ* या जो तुमने किया जो *“यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |*
*भगवद्गीता 9.27*
*“यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |*
*यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् || २७ ||”*
*अनुवाद:-हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो |*
वह सेवा कार्य या कार्य का फल भी तुमने मुझे अर्पित किया मुझे स्मरण करते हुए तुमने यदि कार्य किया तो वैसे यही तो करना है दोनों साथ में करना है केवल स्मरण भी कर सकते हैं। लेकिन कार्य के साथ भी स्मरण करना है।
योगस्त कुरु कर्माणि गीता में भगवान ने कहा है योग में स्थित हो जाओ या कृष्णभावना में स्थित हो जाओ और फिर कार्य करो ठीक है हम यहां रुकते हैं और आगे के जिन भक्तों के प्रश्न हैं उनके आगे हम उत्तर देने का प्रयत्न करेंगे।
हरे कृष्ण🙏🏻
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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