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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*पंढरपुर धाम से,*
*31 मई 2021*
*हरे कृष्ण!*
आज 804 स्थानों सें भक्त जप चर्चा में उपस्थित हैं।
सभी पहुँच गये? भुले भटके जीव! हरि हरि!
कभी कभी ऐसी कभी बाधाएं उत्पन्न होती हैं जो लक्ष्य तक पहुँचने नहीं देती, हमारे ही अज्ञान के कारण ऐसा होता हैं।नये पासवर्ड का पता नहीं था,वह अज्ञान ही हैं, इसमें हम अटक गये। हरि हरि!
इसलिए कहा गया हैं ज्ञानार्जन करना चाहिए।
वेद पता हैं आपको?वेदों को ज्ञान का स्त्रोत कहा गया हैं और वेद से होते है वैद्य, जानने योग्य भगवान। ज्ञान जरूरी है इसलिए कहा गया हैं।
*ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।*
*चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।*
अनुवाद: – अज्ञान के अंधकार से अंधी हुई आंखों को नाना जनाञ्ञनरूपी शलाका से खोलने वाले श्री गुरु के चरण कमलों में मेरा सादर प्रणाम है।
फिर हम उस पथ पर पहुंच जाएंगे और आगे बढ़ेंगे।हरि हरि! किंतु ज्ञानाञ्जन का फिर प्रेमांजन भी बनाना हैं, परिवर्तन करना हैं।ज्ञानाञ्जन से प्रेमांजन तक
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।*
*यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।*
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
*अनुवाद :* जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में*नयनें गलदश्रु-धारया*हैं । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
अज्ञान से भी कुछ ज्ञान प्राप्त होता हैं, या फिर ज्ञान से भक्ति पूर्वक ज्ञान जब हम प्राप्त करते हैं तो फिर
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन*
यही बातें हम शिक्षाष्टक में भी समझ रहे थें, पता नहीं आप समझे कि नहीं। साधना कर रहे थें,साधनभक्ति कि चर्चा चल रही थीं, पहले पाच अष्टक कहने के बाद चैतन्य महाप्रभु ने कहा
*नयनें गलदश्रु-धारया*
*वदने गद्गद-रुद्धया गिरा।*
*पुलकैर्निचितं वपुः कदा*
*तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त लीला 20.36)
अनुवाद: -हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित
होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी
अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?
*नयनें गलदश्रु-धारया* साधना भक्ति तो ठीक है लेकिन साधना में भक्ति हैं के नही, प्रेम हैं कि नही? प्रेम प्राप्ति साधना कि सिध्दी हैं।
साधन में सिद्ध हो रहे हैं यह कैसे पता चलेगा? उसके कुछ लक्षण हैं, उसके गुण धर्म हैं, वह भावभक्ति हैं।
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन* कदा कब होगा?चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं *नयनें गलदश्रु-धारया*
यह तो मैं कहता ही रहूगा,हम कई दिनों से इस शिक्षाष्टक पर चर्चा कर रहे थें और कर ही सकते हैं कि वैसे प्रतिदिन शिक्षाष्टक की चर्चा हो सकती हैं, यह चर्चा या विचारों का मंथन कभी समाप्त होने वाला नहीं हैं,यह असीम हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी अहर्निश या हर रात्री को अपने साथियों के संग में गंभीरा में शिक्षाष्टक का आस्वादन किया करते थें। हरि हरि!
और आचार्यों ने भी,इस पर चर्चा कि ही है यह बात सत्य हैं कि शिक्षाष्टक में साधनभक्ति, भावभक्ति,प्रेमभक्ति की चर्चा हुई है तो फिर *”भक्तिरसामृत सिंधु”* में रूप गोस्वामी का विषय वही हैं।यह भक्तिरसामृत सिंधु में एक विभाग है,साधनभक्ति दूसरा विभाग हैं। भाव भक्ति तीसरा विभाग हैं और प्रेमभक्ति,और एक साधारण भक्ति भी हैं, इस प्रकार उन्होने भक्तिरसामृतसिंधु के चार विभाग बनाए हैं।अब हम कह सकते हैं शिक्षाष्टक कि यह व्याख्या रूप गोस्वामी ने कि हैं,वह वही नही रुके उनहोने प्रेमभक्ति में माधुर्य रस कि चर्चा की,लेकिन जितनी चर्चा कि वे उससे प्रसन्न नहीं थें,फिर उन्होंनें और चर्चा कि और एक उज्वलनीलमणि नामक ग्रंथ लिखा और उनका पुरा लक्ष्य प्रेमभक्ति था और उसमें भी माधुर्य प्रेम। रूप गोस्वामी ने भी उज्जलनीलमणी में प्रेम की चर्चा की हैं,फिर विश्वनाथ ठाकुर ने *”उज्वलनीलमणी किरण”* नामक ग्रंथ कि रचना की,फिर वह इस चर्चा को और आगे बढाते हैं। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने *”माधुर्य कादंबीनी”* नामक ग्रंथ लिखा हैं। इससे आप परिचित होंगें नही होतो होने चाहिए। माधुर्य कादंबीनी में श्रध्दा से प्रेम तक कि चर्चा हुई हैं।सबसे पहले श्रध्दा, फिर साधुसंग,अनर्थनिवृत्ती, रुचि, आसक्ति,भाव और प्रेम।तो माधुर्य कादंबीनी ग्रंथ में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का भी विषय शिक्षाष्टक ही हैं और उस पर व्याख्या की हैं,दूसरे दृष्टिकोण से उसको लिखा हैं और समझाया हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने *”भजन रहस्य”* नामक ग्रंथ लिखा हैं कि इसमें शिक्षाष्टक कि चर्चा हैं।भक्तिविनोद ठाकुर *”भजन रहस्य”* में अष्टकालीय भजन कि भी चर्चा कर रहे हैं, भगवान कि एक अष्टकालीय लीला होती हैं,एक कालीन लीला होती हैं, उष:काल, प्रात:काल, पूर्वान्ह मध्यान्ह,उपरान्ह,संध्या काल, प्रदोष काल, रात्रि काल इस प्रकार के आठ काल।अलग लीलाएँ भगवान अलग- अलग कालो में संपन्न करते हैं।प्रथम शिक्षाष्टक यह प्रात:काल,उष: काल,द्वितीय शिक्षाष्टक का भजन या स्मरण या रसास्वादन का संबंध प्रातःकालीन, पुर्वान्ह या आगे-आगे वाला मध्यान्ह कालीन लीला फिर उपरान्ह लीला इस प्रकार वह अष्टकालीय लीला का स्मरण,भजन का संबंध इन आठ अष्टको के साथ जोड़ते हैं, और यह चर्चा रोज चलती रहती हैं और निरंतर चलती रहेगी।इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक प्रकार से सूत्र रूप में ही जैसे वेदांत सूत्र हैं,बहुत सारी बातें कहते हैं,कुछ गिने-चुने शब्दों से या वचनों से कहना,वह वचन, वह वाक्य, शब्द सूत्र कहलाते हैं।यह शिक्षाष्टक भी एक सूत्र ही हैं, बहुत कुछ हैं।
*नाम्नाकारि बहुधा निज-सर्व -शक्तिस् तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल:।*
*एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीद्दशमिहाजनि नानुराग:।।*
(श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.16)
अनुवाद;- हे प्रभु हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, आप के पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है,अतः आप के अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविंद, जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं।आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियां भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं। हे प्रभु, यद्यपि आप अपने पवित्र नामों कि उदारता पूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवो पर ऐसी कृपा करते हैं, किंतु मैं इतना अभागा हूंँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूंँ अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता हैं।
महाप्रभु ने कहा ही हैं कि मैंने मेरी सारी शक्ति मेरे नाम में भर दी हैं। ऐसा जब हम महाप्रभु से सुनते है तो फिर दूसरा याद करते हैं,दूसरा सिध्दांत यह हैं कि
*शक्ति शक्ति मयो अधीर:।*
मेरी शक्ति और शक्तिमान में भेद ही नहीं है।
*नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह।*
*पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।।*
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133)
अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान हैं, यह चेतना से परिपूर्ण हैं। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त हैं । भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं ।
हरि हरि!या फिर भक्ति कि व्याख्या की गयी हैं।
*अन्याभिलाषिताशुन्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम्।*
*आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तरुत्तमा।।*
(भक्तिरसामृत सिंधु 1.1.11)
अनुवाद: -मनुष्य को चाहिए कि परमेश्वर कृष्ण कि दिव्य प्रेमा भक्ति किसी सकामकर्म अथवा मनोधर्म द्वारा भौतिक लाभ कि इच्छा से रहित होकर करें। यही शुद्धभक्ति कहलाती हैं।
तो यह भक्ति कैसी हो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस शिक्षाष्टक में कह रहे हैं
*न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।*
*मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताभ्दक्तिरहैतुकी त्वयि।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.29)
अनुवाद: -हे जगदीश, मुझे भौतिक संपत्ति,भौतिकतावादी अनुयायी, सुंदर पत्नी या अलंकारिक भाषा में वर्णित सकाम कर्मों की कामना नहीं है। मैं तो इतना ही चाहता हूं कि मैं जन्म जन्मांतर आपकी अहैतुकी भक्ति करता रहूंँ।
श्रीचैतन्य महाप्रभु भक्ति की व्याख्या इस प्रकार करते हैं
*तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।*
(श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला20.21)
अनुवाद:-जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है ।
इस वचन का क्या कहना! यह वचन तो भक्ति का आधार हैं। *आधी कळस मग पाया* अगर नीवं मजबूत नहीं हैं,तो मकान मजबूत नही होगा।
*तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।*
होना ही नहीं है।कीर्तन सब समय नहीं कर पाओगे, और फिर मैंने कीर्तन कहा तो केवल नाम कीर्तन ही नहीं है, वैसे हमारा सारा आध्यात्मिक जीवन कीर्तन ही हैं, हम भक्तो का सारा जीवन ही कीर्तन हैं, भगवान की र्कीति का ध्यान करने के लिए ही यह जीवन हैं।
*बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |*
*तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.50)
अनुवाद: -भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है | अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है |
यहा जीने की कला बताई गई हैं,ऐसा लिखा है कि *तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना ।* यह जो श्लोक हैं इसे गौडिय वैष्णव गले में धारण करते हैं।जिस प्रकार किसी प्रिय वस्तु को हम आलिंगन करते हैं, या गले लगाते हैं उसी प्रकार *तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव* *सहिष्णुना*,इस श्लोक को हम लोग गले लगाते हैं,गले में बांधते हैं। हृदय के लिए, आत्मा के लिए यह प्रिय मंत्र हैं, या वचन हैं, या विचार हैं। इसके बिना आगे नहीं बढ़ना हैं। हरि हरि!
जैसे कल घोषणा हुई थी उसके अनुसार आज चर्चा हो रही है, चर्चा चलती रहेगी।शिक्षाष्टक के अन्तर्गत कई संवाद भी हैं। आप की ओर से, आपके कोई अनुभव हैं या आपका साक्षात्कार हैं या यह सुनकर आपको अगर कुछ समझ में आया, या कुछ भाव उदित हुए तो उनको भी आप कह सकते हैं,साक्षात्कार हो या फिर कुछ प्रश्न हो, कोई शंका हो तो उसका भी समाधान करने का प्रयास करेंगे।
*पद्ममाली प्रभु जी कह रहे हैं*-“अगर आप लोगो के शिक्षाष्टक के उपर कुछ प्रश्न हैं तो चैट़ में लिख सकते हैं,चैट़ सभी के लिए शुरू हैं।
प्रश्न 1. शिक्षाष्टक में जो तीसरा श्लोक हैं उस को सुन कर हमारी स्थिति दृढ़ हो जाती हैं। जैसे ही वो विचार मन में आता है, तो अहम या गौरव बढ़ जाता है, इस अवस्था से कैसे बचना है?
ऊतर-“ हमें नम्र होना चाहिए। हम सुनते ही हैं कि चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि
*तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन* *कीर्तनीयः सदा हरिः।*
ऐसा नहीं हो कि हमें अपने नम्रता का ही अहंकार हो जाए। मैं कितना नम्र हूँ। ऐसा कोई कहता हैं तो सावधान! *अमानिना मान – देन* वैसे यह आत्मा का स्वभाव हैं, आत्मा का लक्षण हैं। इस तीसरे श्लोक को अगर आप पढोगे तो 26 वैष्णवों के गुण देख पाओगे,उन गुणों में नम्रता, या उन गुणों में है मित्रता, मैत्रीपूर्ण व्यवहार।हमारी मुक्त अवस्था में जैसे ही हम अधिक से अधिक मुक्त होंगें उसी के साथ हमारे आत्मा के गुण भी प्रकाशित होंगें।जैसी हमारी आत्मा होगी हम वैसा ही व्यवहार करेंगे। वैसे भगवद्धाम में हर व्यक्ति *तृणादपि सु – नीचेन* जैसे गुणवान होता हैं।यहां आकर हम लोग बदमाश बन गए, यहां आकर हम लोग अहंकारी बन गए, यहां आकर हम लोग दुर्गुणों कि खान बन गए हैं और फिर हम जप करेंगे तो शिक्षाष्टक कहता ही हैं कि *चेतो- दर्पण -मार्जन*,हमारी चेतना या भावना जो कलुषित हुई हैं, जो दूषीत हुई हैं,जो अच्छादित हुई हैं,उसकी धुलाई और सफाई होंगी, उसके साथ *तृणादपि सु – नीचेन* गुण अधिकाधीक प्रकाशित होंगा,प्रगट होगा और हम स्वाभाविक बनेंगे। हमे अभ्यास नही करना पडेगा।फिर आत्मा जैसे हम व्यवहार करेंगें।”
प्रश्न-इस अवस्था को वास्तव में हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
ऊतर-“कुछ भूत बातों से नहीं मानते उनको लातें चाहिए। यह बातें तो कहीं जा रही हैं कि नम्र बन जाओ, यह भाषा अगर समझ में नहीं आती तो भगवान की दूसरी भी भाषा हैं,उन को दंडित किया जाएगा, पीड़ित किया जाएगा। यह कोरोना वायरस कुछ ऐसा ही हैं।
अमेरिकन जो अभिमानी थे कि हम यह हैं हम वह हैं, हम सुपर पावर हैं,अभी वह सब झुक रहे हैं। हम नम्र नहीं बनेंगे, भक्त नहीं बनेंगे और फिर *अमानिना मान – देन* औरों का सम्मान सत्कार नहीं करेंगे। उसके फिर दुष्परिणाम भोगने पड़ेंगे।हम अपराध करेंगे वैष्णव अपराध होंगे और जानते हो इसका परिणाम क्या होगा?पुनर मुषीक भव: ।पुनर मुषीक भव:।पुनः चूहा बन जाओ।यह बिल्ली मुझे परेशान कर रही हैं, ऐसा चूहे ने कहा। ऐसा प्रभुपाद समझाते थे कि एक चूहा योगी के पास गया और उसने कहा मुझे बिल्ली बना दो फिर उसे कुत्ता परेशान करने लगा फिर वह योगी के पास जाता हैं और कहता है कि मुझे कुत्ता बहुत परेशान कर रहा हैं आप मुझे कुत्ता बनाओ। उसे कुत्ता बना दिया, कुत्ता जब बन गया तो बिल्ली से तो उसकी जान बच गई लेकिन अब शेर परेशान कर रहा हैं। पुनः वो साधु के पास जाकर कहता हैं, मुझे शेर बनाओ।साधु ने कहा बन जाओ शेर, लेकिन जब उसको शेर बनाया तो वह कृतज्ञ नहीं था। उस योगी ने कितने सारे उपकार कीए उसपर उसके बदले वह कृतज्ञ्न हुआ,उस शेर ने योगी को ही शिकार करने का प्रयास किया। जब वह गर्जना करने लगा और योगी का भक्षण करने के लिए आगे बढ़ने के कदम उठाने लगा तो इतने में योगी ने कहा पुनर मुषीक भव:! फिर से चुहा बन जाहो!”
यही होता हैं, जब हम *अमानिन मान देन* नही करते हैं।जब वैष्णव अपराध होते हैं या गुरु अपराध होते हैं, जब हम गुरु भोगी बनते हैं या गुरु त्यागी भी हो सकते हैं।तब भगवान कहेंगे कि तुम जैसे थे वैसे ही बन जाओ। इसीलिए सावधान।जीव जागो। नम्र बनो, सहनशील बनो और दूसरों का सम्मान करने वाले बनो और खुद के लिए सम्मान सत्कार की योजना या व्यवस्था मत बनाओ,नहीं तो जो हमारी हरि नाम में रुचि थी वह भी हम खो बेठेंगें।अगला प्रश्न पूछें।
प्रशन-*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना*
इस सिद्धांत को अपने जीवन में अपनाना हैं या नहीं और अगर अपनाना हैं तो इसे कैसे अपनाएं? खास करके अपने सहकर्मियों के साथ या अभकतो के साथ, क्या उनके साथ भी विनम्र ही रहना हैं,इसे कैसे समझे?
ऊतर-ऐसा कहा गया हैं कि
*असत्सङ्ग-त्याग,-एड़ बैष्णव-आचार ।*
*स्त्री-सङ्गी’-एक असाधु, ‘कृष्णाभक्त’ आर ॥ 87॥*
*अनुवाद*
*वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए।* *सामान्य लोग बुरी*
*तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रीयों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों* *को उन लोगों की भी*
*संगति से बचना चाहिए, जो कृष्ण-भक्त नहीं हैं।”*
इस दुनिया के संग को त्यागो या छोड़ो या दूर से ही नमस्कार करो। अभक्तों से अपने लेनदेन को कम से कम रखों।
यदि आप ऐसे लोगों को उपदेश देते हैं तो उन्हें बुरा लग सकता हैं। भक्त अपनी सहनशीलता से उपदेश देते हैं। एकनाथ महाराज ऐसे ही एक भक्त थे । वह गोदावरी नदी के तट पर रहते थे। वह बहुत सहनशील थे। एक बार वह गोदावरी नदी से स्नान कर लौट रहे थे और एक बदमाश ने तंबाकू खाकर उन पर थूक दिया।उनहोनें लाठि से प्रतिकार नही किया,वह धैर्यपूर्वक गए और फिर से स्नान किया।यह कई बार दोहराया गया, लेकिन उन्होंने अपना आपा नहीं खोया,अंत में उस शरारती व्यक्ति ने हार मान ली और वह एकनाथ महाराज के चरणों में गिर गया। तो एकनाथ महाराज ने उत्तर दिया धन्यवाद,मैं आपका आभारी हूं कि मुझे इतनी बार पवित्र नदी में स्नान करने को मिला। तो ऐसे भक्त हमें उदाहरण देते हैं कि हमें जीवन कैसे जीना चाहिए। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में व्यक्ति अपने सलाहकारों या वरिष्ठ भक्तों से भी परामर्श कर सकता हैं कि कैसे इस परिस्थिति में इस सिद्धांत को अपने जीवन में उतारना हैं।एक होती हैं प्रतिक्रिया और दूसरा प्रतिवचन अर्थात एक होता हैं रिएक्शन और दूसरा रिस्पांस।रिएक्शन विचारहीन और त्वरित होता हैं।हमे रिएक्शन नही रिस्पांस देना हैं।मतलब हमारे साथ कोई भी घटना घटी हो,औरों ने अपमान किया हो या कुछ भी किया उसे पहले ठंडे दिमाग से सोचो,पहले रुको,फिर सोचो और फिर आगे बढ़ो।
पहले सोचो और उस समय कोई सलाह ले सकते हैं साधु शास्त्र और आचार्य की सलाह से हम आगे की कार्रवाई कर सकते हैं अन्यथा इस संसार में केवल यही होता है एक्शन एंड रिएक्शन और इसी से संसार बढ़ता और चलता है यही होता हैं जब हम मांस भक्षण करते हैं हम किसी से इतनी ईर्ष्या करते हैं कि उसे जीवित भी नहीं देखना चाहते। हम उन्हें मार देते हैं। जैसे हम पशुओं की जान लेते हैं और उसको खाते हैं और फिर इसका क्या परिणाम होता हैं? कि तुमने आज मुझे खाया कल मेरी बारी होगी। मैं तुमको खा लूंगा।इसीलिए रिएक्टिव होने की बजाय रिस्पांसिव बनो। सोच समझकर ही आगे बढ़ो और हमेशा यह ध्यान में रखो कि कौन-कौन हैं उस हिसाब से ही व्यवहार करो अभक्तों से कोई लेन-देन रखना हैं या नहीं?उनके प्रति उदासीन होना हैं या कैसा व्यवहार करना हैं, यह सोच समझकर ही निर्णय लो। लेन-देन कई प्रकार के होते हैं,तो सबसे पहले उस व्यक्ति के व्यक्तित्व को पहचानो और फिर व्यवहार करो। बिच्छू वाली बात पर विचार करो। साधु बिच्छू को बचाना चाह रहा था, लेकिन बिच्छू तो अपना डसने का काम कर ही रहा था। साधु ने सोचा और कहां जब बिच्छू अपना धर्म नहीं छोड़ रहा तो मैं अपना धर्म क्यों छोडू मुझे भी तो दयालु होना चाहिए क्योंकि मैं साधू हूँ। दया ही धर्म का मूल हैं।
प्रश्न: जब हर समय जप करना चाहिए तो सुनते समय हम इसे कैसे रोक सकते हैं?
उत्तर – हमें इस श्लोक में कीर्तन का अर्थ ठीक से समझने की आवश्यकता हैं। कीर्तन, यह केवल पवित्र नामों का कीर्तन नहीं है। मैंने अभी कुछ मिनट पहले ही कहा था, भक्त की हर क्रिया कीर्तन हैं। पुस्तक वितरण भी कीर्तन है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा कि प्रिंटिंग प्रेस एक बड़ा मृदंग हैं जो जोर से बजता हैं और कई लोगों तक पहुंचता है। पुस्तकों में भगवान की महिमा हैं और ऐसी पुस्तकों का प्रचार और वितरण ही संकीर्तन हैं। कीर्तन शब्द का अर्थ है भगवान की महिमा फैलाना। यह रूप या गुणों की महिमा या लीलाओं या भगवान का निवास हो सकता हैं।
जब जुहू मंदिर का निर्माण किया जा रहा था, निर्माण स्थल पर बहुत झगडे हो रहे थे, इसलिए भक्तों ने श्रील प्रभुपाद को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव रखा। तब श्रील प्रभुपाद ने कहा कि यह शोर मंदिर निर्माण का हैं, इसलिए यह मेरे लिए कीर्तन है। यह मुझे बिल्कुल भी परेशान नहीं कर रहा है। कीर्तन सुनना भी कीर्तन है। चारों वर्णों और आश्रमों के लोग भगवान हरि की प्रसन्नता के लिए कार्य कर रहे हैं। चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र का कर्तव्य हो, कृष्ण को केंद्र में होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि केवल पुजारी ही कीर्तन कर रहे हैं। सफाई कर्मी भी कीर्तन कर रहे हैं।
अगर कोई दर्शनार्थी मंदिर की सफाई की तारीफ करता है तो यह उसके लिए कीर्तन हैं। जब हम दर्शन करते हैं तो हम भगवान की प्रशंसा करते हैं। पुजारी इस तारीफ का कारण बनते हैं। तो यह पूरा आंदोलन कीर्तन है। प्रसाद का वितरण भी कीर्तन है। हमें रिपोर्ट मिलती है कि भक्त इस कोविड राहत में प्रसाद बांट रहे हैं। यह भी कीर्तन हैं। जैसे ऐसा नहीं है कि अकेले मांस खाने वाले को दण्ड दिया जाता है बल्कि पशु के रखवाले और विक्रेता, कसाई, पैकर, बिचौलिए, खरीदार, रसोइया आदि सभी पाप के भाग हैं। तो इसी तरह भक्ति सेवा में हमारे प्रयास भी इसे गतिविधियों की एक श्रृंखला से जोड़ते हैं। जो कि सभी कीर्तन के भाग हैं। लेकिन हम तो केवल माया की महिमा गाते हैं। बीयर और वाइन का इतना विज्ञापन हैं और बहुत सी चीजें जो वास्तव में खराब हैं। तो जब कहा जाता है कि कीर्तनिया सदा हरि तो कई प्रकार के कीर्तन होते हैं।
अब हम यहीं रुकेंगे। कुछ प्रश्न शेष हैं और हम उन्हें आगामी सत्रों में उठाने का प्रयास कर सकते हैं।
एक भक्त ने अपनी अनुभूति भेजी है कि ये शिक्षाष्टकम कि प्रार्थनाएँ भक्ति जीवन का सार हैं और इसलिए महाप्रभु ने अपनी लीलाओं के अंत में उनकी चर्चा की हैं। यह शिक्षाष्टकम सब कुछ स्पष्ट रूप से देखने के लिए हमारे लिए एक मशाल की तरह हैं। हमें इसे ठीक से समझने और अपने जीवन में समाहित करने का प्रयास करना चाहिए। जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बहुत कुछ करना हैं,
किसी माताजी ने एक कविता भेजी है, आप इसे अवश्य पढ़ें। टिप्पणियाँ और प्रश्न आपसे संबंधित हो सकते हैं या आपको एक नया विचार दे सकते हैं।
ये सत्र एक दर्पण की तरह रहे हैं जिसने हमें दिखाया कि हम इस सीढ़ी पर कहां खड़े हैं। हम भविष्य में किसी दिन इस पर और चर्चा करेंगे। महाप्रभु और इस्कॉन की कृपा से, हरिनाम पूरी दुनिया में हर जगह,हर दरवाजे तक पहुँचाया जा रहा हैं। हमें बस इतना करना है कि इसे प्राप्त करना है। HG मधुर विट्ठल प्रभु ने नृसिंहदेव चतुर्दशी की कथा से अपना विचार भेजा है। उनका कहना है कि कलियुग के लोगों के लिए यह बहुत कठिन है क्योंकि उनकी बुद्धि हिरण्यकश्यप जैसे राक्षसों से भी बदतर है। भक्ति पुरुषोत्तम महाराज कह रहे थे कि यदि हम वैष्णव तिलक और कंठी माला को अंतिम सांस तक बनाए रखें तो यह भी एक उपलब्धि है।
*हरे कृष्ण*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
पंढरपुर धाम,
30 मई 2021
हमारे साथ 785 स्थानों से भक्त जप कर रहें है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। इसे स्कोर कहो या इतने स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हम राधा गोपीनाथ जी की प्रसन्नता के लिए हम सब जप कर रहे हैं। कई सारे नाथ हैं, जगन्नाथ भी हैं। हमारे आचार्य भी हैं, श्रील प्रभुपाद की जय। उन सबकी प्रसन्नता के लिए भी यह स्कोर से घोषणा करते हैं। इतने स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। एक प्रकार से भगवान के चरणों में से यह आहुति है। जब स्कोर की घोषणा होती है, तो यह एक आहुति कह सकते हो। स्वाहा स्वाहा, वह भी आहुति ही होता है आहुति चढ़ती है। निश्चित ही यह भी हम भी जो करते हैं ,वह भी जप यज्ञ ही होता है, आहुति होती है। ऐसा कौन सा यज्ञ है जिसमे आहुति ना चढ़े? तो इस स्कोर के रूप में घोषणा होती है। कितने स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। कितने स्थानों में भक्त उपस्थित हैं। भगवान की प्रसन्नता के लिए हम घोषणा करते हैं। फिर भगवान नोट करते है, हां हां यह भी जप तक रहे हैं, यह भी जप कर रहे हैं, यह भी जप कर रही है, यह भी जप कर रहे हैं। पूरा परिवार जप कर रहा है या फिर कुछ बालिकाएं जप कर रहे हैं। बालिका *का* मतलब छोटा। राधा जब छोटी होती, तब उनको राधिका कहते हैं। गोपिका, बालिका, *का* से लघुत्व(छोटा) का उल्लेख होता है। *का* मतलब छोटा। वैसे तो राधा कभी छोटी हो नहीं सकती। उम्र की दृष्टि से लीला में छोटी मोटी हो जाती है। बालिकाएं जप कर रही हैं। बालक जप कर रहे हैं। आबाल वृद्ध जप कर रहे हैं। पुन: एक दूसरा शब्द आ गया। आबाल वृद्ध *आ* मतलब पर्यंत।
*आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।*
*मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६ ॥*
(श्रीमद्भगवद्गीता 8.16)
तात्पर्य
इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक कहना है। आबाल वृद्ध मतलब बालको से लेकर वृद्धों तक, तो इस सब जप कर रहे हैं। कई सारे नगरों में, ग्रामों में, देशों में, नर भी और नारियां भी जप कर रही हैं। ऐसी घोषणा होती है भगवान, गुरु या गौरंग की प्रसन्नता के लिए कहो। जय गौरंग। गुरुजनों के, आचार्य वृंदो के, गौरंग के और राधा कृष्ण के, जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की जय या विठ्ठल रुकमणी की जय, सीता राम लक्ष्मण हनुमान की प्रसन्नता के लिए यह सब घोषणा हो रही है। यह कहते कहते ही समय बीत गया। जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्त वृंद। शिक्षाष्टक, वह भी आठवां अंतिम शिक्षाष्टक वेदांत जैसा है। वेदांत मतलब वेद का अंत, वेद का सार वैसे ही है यह आठवां शिक्षाष्टक है। जो 7 शिक्षाष्टक हैं, 8 से पहले, उन सभी का सार, अर्थ और भावार्थ इस अष्टक में है। वह आठवां अष्टक का दिन है उसका रसास्वादन कर रहे हैं। फिर आज के दिन, यह भी संयोग की बात है और आज ही राय रामानंद तीरोभाव तिथि महोत्सव है। धीरे धीरे इनसे आपको परिचित होना होगा। हम दो हमारे दो हमारा परिवार खत्म। लेकिन इतने छोटे आप नहीं हो। ऐसी संकीर्ण वृत्ति होनी ही नहीं चाहिए। नहीं तो फिर हम नराधम रहेंगे। हम को नरोत्तम बनना है। तो हमारी दृष्टि कुछ विशाल, दूर दृष्टि और उच्च विचार भी होनी चाहिए। फिर हम को जानना होगा कि राय रामानंद हमारे परिवार के सदस्य हैं।
हमारा जो परिवार के परंपरा के आचार्यवृंद, हमारे पूर्वज हैं। पूर्वज होते हैं और फिर वंशज होते हैं। तो आज राय रामानंद का तिरोभाव दिवस है। जो जगन्नाथपुरी में ही हुआ। जो हम शिक्षाष्टक का रसास्वादन कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रसास्वादन करा रहे हैं। किनको करा रहे हैं? जिनका आज तिरोभाव उत्सव है उन्हीं को रसास्वादन करा रहे हैं। रामानंद को रस रसामृत या भक्ति रसामृत पिला रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राय रामानंद को सुनो सुनो, स्वरूप दामोदर सुनो ऐसा कहीं बार कहे हैं। राय रामानंद का तिरोभाव तिथि महोत्सव है। यह जो शिक्षाष्टक भाव, गुण, अर्थ है या जो गोपनीयता या विचारों की सर्वोच्चता छिपी हुई है या भरी हुई है। ऐसे ही विषय की चर्चा, चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद के मध्य संवाद हुआ। फिर राय रामानंद के चरित्र की चर्चा होती है। जो अभी चर्चा करने का समय नहीं है। जब चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत में थे।
गोदावरी के तट पर कोहड़ नामक स्थान, विद्यानगर भी वहां से दूर नहीं है। वहां यह दोनो मिलते हैं। इन दोनों के मध्य में राय रामानंद और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मध्य का संवाद है। यह एक प्रसिद्ध संवाद है, कई संवाद चैतन्य चरितामृत में है। लेकिन यह संवाद विशेष है, अद्वितीय है। उसका विषय यही माधुर्य लीला है। जब चर्चा और संवाद हो रहा था। इस संवाद में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने, रामानंद को ही वक्ता बनाया है। राय रामानंद के मुख से महाप्रभु बोल रहे हैं या शिक्षाष्टक के रसास्वादन में चैतन्य महाप्रभु खुद ही बोल रहे हैं और गंभीरा में, जगन्नाथ पुरी में राय रामानंद को सुना रहे हैं। किंतु गोदावरी नदी के तट पर जब चैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद का मिलन हुआ। तब चैतन्य महाप्रभु ने राय रामानंद को वक्ता बनाया और महाप्रभु स्वयं श्रोता बने हैं। जब चर्चा हो रही है। तो चर्चा कई दिनों तक चलती रही, पूरी रात चर्चा में बीत जाती थी। तो एक रात्रि को जब यह चर्चा हो रही थी। रस विचार की चर्चा हो रही थी। यह बहुत बड़ा विचार है, रस शास्त्र है। भक्ति के 5 अलग-अलग रस है। इसकी चर्चा हो रही थी। यह बाहरी है और कई बातें राय रामानंद, राधा कृष्ण मंदिर में जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सुनाया था उन्होंने कहा यह ठीक है, यह ठीक है। चैतन्य महाप्रभु उनको प्रेरित कर रहे थे। तुम आगे कहो और कहो। यह उत्तम है और फिर यह सर्वोत्तम है। माधुर्य लीला, श्रृंगार रस की चर्चा प्रारंभ हुई। तो यह सर्वोत्तम है। तो वहीं शिक्षाष्टक का रसास्वादन और उसमें भी जो 8वा शिक्षाष्टक है। यह सर्वोत्तम विचार है, बात है, विषय वस्तु है।
फिर चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद को प्रेरित कर रहे थे और कहो और कहो और कहो। ऐसा समय आया कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राय रामानंद का मुख बंद करने लगे। नहीं नहीं, बस इतना काफी है। अति गोपनीय और बहुत विस्तृत जानकारी के साथ, महाभाव राधारानी ठाकुरानी के संबंध में राय रामानंद बोलने लगे। उनको क्या समस्या है? राय रामानंद तो सभी बातें जानते हैं। उनसे कुछ छुपा नहीं हैं। क्योंकि वह ललिता विशाखा है। स्वयं सखी विशाखा ही है। तो वह सब समय साक्षी रहती है। राधा कृष्ण के लीला की साक्षी और केवल साक्षी ही नहीं, सहायक भी बनती है। राधा कृष्ण की लीला संपन्न होने में पूरा योगदान देती है। राय रामानंद जब बोलते गए तब उन बातों को प्रेम विवृत चर्चा, प्रेम विवृत यह शास्त्र ग्रंथ भी है। महाप्रभु को राय रामानंद को रोकना पड़ा। तो वह राय रामानंद है।
*आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा।*
*यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः॥८॥*
अनुवाद:
एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें – वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं।
8वा अष्टक महाप्रभु ने कहा, नहीं-नहीं महाप्रभु ने नहीं कहा। यह तो महाप्रभु में जो राधा रानी है। श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण न अन्य।
*राधा कृष्ण-प्रणाया-विकितिर हलादिनी शाक्तिर अस्माद
एकात्मनाव आपि भुवी पुरा देहा-भेद: गतौ ताऊ
चैतन्यख्यां प्रकाशं अधुना तद्द्वायं कैक्यं आपत:
राधा-भव-द्युति-सुवलित: नौमी कृष्ण-स्वरूपम।*
(मध्य लीला 1.5)
इन दोनों में से यह जो अष्टक है, इसे राधा रानी ने कहा है। आपको कहा था कि आठवें अष्टक में प्रेम का प्रदर्शन है। साधना, भक्ति और दो श्लोक छठे और सातवें श्लोक हैं। आठवां श्लोक है, शिक्षाष्टक है, भक्ति का प्रदर्शन है। तो प्रेमिका राधा ही है और अपने प्रेम का दर्शन कर रही है। अपना प्रेम जो कृष्ण से है उसको व्यक्त कर रही है। हरी हरी। इसी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जो गोपनीय कारण भगवान के प्राकट्य का भी जो गोपनीय कारण है। राधा को समझना है, राधा भाव को ही तो समझना है इसीलिए तो प्रकट हुए हैं।
*राधा भाव द्युति सुवलितम नौमी कृष्ण स्वरूपम*
उनका उद्देश्य यहां सफल हो रहा है। जब ये शिक्षाष्टक कहा जो की राधा रानी ने स्वयं ही कहा है या महाप्रभु ने कहा है।
अंत: कृष्ण बहिर गौरांग। कृष्ण अंदर छिपे हुए है, राधारानी बाहर से दिखती है।
*राधारानी उवाच:* राधारानी ने कहा। राधा के सारे भाव या भक्ति भाव उदित हो रहे है। इस प्रेम अवतार में जिसका आस्वादन करने के लिए ही महाप्रभु तथा श्रीकृष्ण प्रकट हुए है। वे प्रेम पुरुष भी है। हरि हरि। मर्यादा पुरुष श्रीराम। पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेम पुरुषोत्तम। यहां जो 8वे शिक्षाष्टक का उच्चारण हुआ है जो राधा रानी ने ही किया है। कृष्ण स्वयं राधा रानी बनकर ही उस भाव का आस्वादन कर रहे है। राधा रानी को जान रहे है। यह उद्देश्य सफल हो रहा है। तो राधा रानी ने क्या कहा है इस अष्टक में?
*आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा*।
*यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः* ॥८॥
अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें । वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥
आपकी मर्जी है आप स्वतंत्र हो प्रभु। *आश्लिष्य* आप या तो आलिंगन दे सकते हो या फिर आपकी मर्जी है। *पादरतां पिनष्टु* मैंने तो आपके चरणों का आश्रय लिया हुआ है। आप मुझे अपने चरणों से ठुकरा सकते हो या मुझे चूर्ण बना सकते हो। हरि हरि। *पदार्शनाथ* दर्शन न देकर आप मुझे मर्माहत कर सकते हो । मेरी संवेदनाओं को आप वेदना पहुंचा सकते हो। मेरी जो भावना है, मर्म है *मर्महताम* । तो आश्लिष्य या मैंने पहले भी कहा था संसार में प्रचार होता है ऐसे शब्दों का उपयोग होता है। ठुकरा दो या प्यार करो। मुझे प्रेम कर सकते हो या आलिंगन दे सकते हो या गले लगा सकते हो या मुझे ठुकरा सकते हो। *पादरतां पिनष्टु माम* ।
*यथा तथा वा विदधातु लम्पटो* । मै जानती हूं आप तो लंपट हो और आपके अपनी मर्जी अनुसार आप जो भी करे। कभी संकल्प, कभी विकल्प। तो लंपट जो आप हो । लंपट ऐसे ही करते रहते है। ऐसे वार करते रहते है।
*यथा तथा वा विदधातु लम्पटो* लेकिन यह आध्यात्मिक लंपटता है। हमारे कृष्ण कन्हैया, छोटे कृष्ण रसिक शेखर कहलाते है। रास रसिक कृपामय। रास रसिक जो आप हो या रसिक शेखर हो। चूड़ा मणि हो रसिक शेखरो के इसलिए आप लंपट बन जाते हो या कहलाते हो। लंपट जैसा आपका व्यवहार होता है। लेकिन आपके प्रति मेरा जो विचार, भाव या जो संबंध है। मेरे तो आप सदैव प्राणनाथ हो और मेरा अन्य कोई प्राणनाथ नहीं है। आप ही मेरे प्राणनाथ हो । *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः* । हे नाथ, हे रमण, हे पृष्ट, *क्वासी क्वासी* ऐसा भी राधा रानी का वचन मिलता है रास पंचाध्य के अध्यायों में। राधा रानी मालिनी बनी थी। मान करके बैठी थी। *न चलितम शकलोनी* । मैं तो अभी चल भी नहीं सकती। *माम नय* । मुझे कंधे पर उठाकर जहां चाहे आप लेकर जा सकते हो। ऐसा मान कहो या हट करके राधारानी बैठी थी। कृष्ण ने उस समय क्या किया? हरि हरि। कृष्ण अंतर्ध्यान हुए या कहे ठीक है बैठो ऐसा संकेत दिए और जैसे ही कंधे पर राधा रानी बैठने वाली थी, कृष्ण अंतर्ध्यान हुए। हरि हरि। बेचारी राधा रानी आपकी दासी है। *मे दर्शया स्निध्यम।* इस बेचारी राधा रानी को पुनः दर्शन दो। राधा रानी प्रार्थना कर रही है कि प्रकट हो जाओ। तो यही
*आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा*।
*यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः* ।।
यह जो भाव विचार है, सर्वोच्च विचार है, यह राधा रानी का विचार है। हरि हरि। फिर इसके आगे कोई बात नही है। इस प्रकार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राय रामानंद और स्वरूप दामोदर के साथ जो ललिता और विशाखा ही है। उनके साथ यह चर्चा करते करते अपनी रचनाएं शिक्षाष्टक सीखो और बाकी भागवत भी है, जगन्नाथ नाटक भी है राय रामानंद नाटक लिखे है। राय रामानंद नाटक लिखे जगन्नाथ की प्रसंता के लिए। जगन्नाथ की देव दासिया, जो बालिकाए हुआ करती थी। जगन्नाथ को रिझाने के लिए, जगन्नाथ के शयन के पूर्व उन्हें गीत गोविंद गा कर सुनाया जाता था और आज भी सुनाया जाता है। हम कई बार जब जगन्नाथ मंदिर गए, सायं काल में गए। तो मंदिर में एक जगह गीत गोविंद सुनाते है, बड़ा मधुर गान होता है। गीत गोविंद के गान के साथ ,देव दासिया नृत्य किया करती थी। राय रामानंद की सेवा थी। वे निर्देशक थे उस नाटक के या कहे पूरे कार्यक्रम के निर्देशक थे, जो हर सायं काल होता था। जो युवतियां उसमे भाग लेती। राय रामानंद उनका सारा श्रृंगार भी करते थे और उनको सिखाते भी थे की वस्त्र कैसे पहनने है । यह सब राय रामानंद की सेवा हुआ करती थी। तो ये सेवा वैसी ही है, जैसे राय रामानंद कृष्ण के नित्य लीला में जैसे विशाखा है। राधा कृष्ण की सेवा के लिए विशाखा, और गोपियों को तैयार करती है। ठीक ऐसे ही यहां जगन्नाथ की सेवा , प्रसन्नता के लिए विशाखा बनी है राय रामानंद, वही भूमिका यहां निभा रही है। आज राय रामानंद का तिरोभाव दिवस है। वे पुरुष रूप में जरूर है । हमारे षड गोस्वामी वृंदावन के यह सब गोपियां है, मंजरिया है। *अन्यथा रूपम स्वरूपेण व्यवस्तीथी* । उनका जो स्वरूप है , गोपियां का, सखियों का, मंजीरियो का ऐसे ही राय रामानंद विशाखा है और ऐसी भूमिका चैतन्य महाप्रभु के प्रकट लीला में वे निभाते रहे। यह जो माधुर्य लीला का विषय है, कठिन है समझना । प्रेम के व्यापार को प्रेमी भक्त ही समझ पाते है जो प्रेमी है। जो शुद्ध भक्ति कर रहे है प्रगति कर रहे है, आगे बढ़ रहे है। हरि हरि।
*त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन* ।
*निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्* ॥४५॥
(भगवद गीता 2.45)
अनुवाद: वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है | हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो | समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो |
तीन गुणों से जो परे है, उनके लिए माधुर्य लीला का यह विषय है। हरि हरि। साथ ही साथ हम माधुर्य लीला का औषधि के रूप में हम उसका आस्वादन, श्रवण, कीर्तन कर सकते है ताकि हम शुद्ध हो जाए, मन भी पवित्र हो जाए। ऐसा सामर्थ्य भी है इस रसास्वादन में। लेकिन जो इस का आस्वादन् करते है परंतु साधना भक्ति नही करते और हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन नही करते। कीर्तन कर के, चेतो दर्पण मार्जनम नही करते, ऐसे जनों के लिए, ऐसे अधमो के लिए, ऐसे कामी, क्रोधी, लोभी जनों के लिए यह विषय नहीं है। यह उनके पल्ले नहीं पड़ेगा, उन्हें समझ नहीं आएगा। तो बड़े सावधानी से इस विषय को सुनना है और समझना है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
शिक्षाष्टकम की जय।
राय रामानंद की जय।
जगत गुरु श्रीला प्रभुपाद की जय।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 29 मई 2021
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन,
रति ना जन्मिल केने ताय।
संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले,
जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥
ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ,
बलराम हइल निताइ।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल,
ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥
हा हा प्रभु नन्दसुत, वृषभानु-सुता-युत,
करुणा करह एइ बार।
नरोत्तमदास कय, ना ठेलिह राङ्गा पाय,
तोमा बिना के आछे आमार॥4॥
अर्थ
(1) हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
(2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
(3) जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
(4) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नंदसुत श्रीकृष्ण! हे वृषभानुनन्दिनी! कृपया इस बार मुझ पर अपनी करुणा करो! हे प्रभु! कृपया मुझे अपने लालिमायुक्त चरणकमलों से दूर न हटाना, क्योंकि आपके अतिरिक्त मेरा अन्य कौन है?’’
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 812 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। आप तैयार हो?
जय जय श्रीकृष्णचैतन्य नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥
अर्थ-
श्रीचैतन्यमहाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो।
अब हम शिक्षाष्टक को आगे बढ़ाते हैं अथवा इसका रसास्वादन करते हैं। वैसे हम इसका रसास्वादन कुछ दिनों से कर ही रहे हैं। श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु ने गंभीरा में शिक्षाष्टक का रसास्वादन किया और उन्होंने उस रस को शेयर( बांटा) भी किया अर्थात उन्होंने अपने भाव व्यक्त करते हुए शिक्षाष्टक का आस्वादन स्वरूप दामोदर और रामानंद राय के साथ बांटा। स्वरूप दामोदर और रामानंद राय कितने भाग्यवान पुरुष थे लेकिन हम भी कुछ कम भाग्यवान नहीं है। चैतन्य महाप्रभु ने जिस रस का आस्वादन करवाया अथवा रस को पिलाया,उसे चैतन्य महाप्रभु स्वयं पी भी रहे थे, पिला भी रहे थे। हरि हरि। हम उसको महाप्रसाद कहते हैं। भगवान जो अन्न ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात उनका जो उच्चिष्ट छूट जाता है अथवा भगवान् छोड़ देते हैं, जब हम उसको ग्रहण करते हैं, तब वह महाप्रसाद हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं ही रसास्वादन कर रहे हैं।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैव षडविधम प्रीति-लक्षणम ॥
( श्रीउपदेशामृत श्लोक संख्या 4)
अनुवाद: दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना –
भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
गुह्ममाख्याति पृष्छति भी हो रहा है। वे गुह्ममाख्याति पृष्छति सुना रहे हैं, पूछ रहे हैं। वही रस, चैतन्य चरितामृत की रचना कर कृष्ण दास कविराज गोस्वामी हमारे साथ कर रहे हैं अथवा उन्होंने किया है। इसका एक पूरा अध्याय ही चैतन्य चरितामृत की अन्त्य लीला में अध्याय 20 में दिया गया है। पठन पाठन। वे हम से इस अध्याय का पाठ करवा रहे हैं। इसी के साथ हम सभी या मैं भी आस्वादन कर रहा हूं और वह आस्वादन मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूं। आपको भी आस्वादन करना होगा। कर रहे हो या नहीं? कर रहे हो? इसमें रस है? यदि नहीं है तो नहीं सुनाएंगे?
यह कोई बेल रस है नही है। हरि! हरि! यह रस है या नहीं? आपको मंजूर है कि यह रस है। इसको आप पीजिए। इसका पान कीजिए। किसको पान करना है आत्मा को पिलाना है। केवल कान में नहीं डालना है। कर्णो के माध्यम से इसको आत्मा तक पहुंचाना है। केवल कंठ तक नहीं पहुंचाना है कि कंठस्थ हो गया। हम कहते रहते हैं, जैसा कि शास्त्र भी कहते हैं कि हृदयांगम करो। हृदयांगम करो।हृदय में हम रहते हैं।
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||
( श्रीमद् भगवत् गीता १५.१५)
अनुवाद:-
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ ।
भगवान् कृष्ण ने भी कहा कि- मैं भी हृदय प्रांगण में रहता हूं। कठोपनिषद कहता है कि हमारे हृदय में (दूसरी बात शुरू हो गई) दो पक्षी रहते हैं, एक परमात्मा पक्षी है व एक आत्मा पक्षी है। एक है विभु आत्मा, एक है अणु आत्मा। हम हृदय में रहते हैं इसलिए हमें ह्रदय आत्मा तक इस रस को पहुंचाना है। इसके लिए हमें ध्यानपूर्वक श्रवण करना होगा। ताकि इस रस का कण- कण हम तक पहुंच जाए।हरि हरि। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का यह सातवां शिक्षाष्टक है। आप नंबर गिन रहे हो? कुछ तो लिख भी रहे हैं। हो सकता है कि कुछ या अधिकतर भक्तों के स्मृति पटल पर मैं ही कुछ लिख रहा हूं या मैं सुना रहा हूँ। लेकिन मैं कौन होता हैं। मैं तो केवल शुद्र जीव हूं। चैतन्य महाप्रभु ही लिख रहे हैं या कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिख रहे हैं अथवा श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं। यदि हम उनको ध्यान पूर्वक सुनेंगे तो सीधी बात हमारे ह्र्दय प्रांगण में पहुंच जाती है।
हमारे अंतःकरण में स्मृति पटल है, पटल मतलब पर्दा स्क्रीन। वहां यह सब बातें लिखी जाती हैं, अंकित होती है। उसकी छाप होती है। हरि! हरि!
चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है-
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥7॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 20.39)
अनुवाद : हे गोविन्द, आपके वियोग में एक क्षण मुझे एक युग सा प्रतीत हो रहा है। मेरे नेत्रों से वर्षाधारा के समान अश्रु की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं और मैं सारे जगत् को शून्य सा देखता हूँ।
हरि! हरि!
यह कल से आगे की बात है। यह भावों का खेल है। कल आपको बताया था कि छठवें और सातवें शिक्षाष्टक में भाव भक्ति का उल्लेख हुआ है। भाव भक्ति, साधना भक्ति से ऊपर का स्तर व स्थिति, श्रेणी है। कल वाले श्लोक में भाव व्यक्त हुए ही थे।
नयनें गलदश्रु-धारया वदने गद्गद-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 20.36)
अनुवाद : हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?’
चैतन्य महाप्रभु ने व्याख्या की है। हमनें भी उसको आगे समझाया था। यह भाव और इन भावों का आंदोलन भी हमने कहा था। यह आंदोलन और भी बढ़ता है उसकी लहरें, तरंगे या कोई सुनामी, कोई साइक्लोन भी नहीं (कुछ दिन पहले साइक्लोन आया था। सुनामी, साइक्लोन से खतरनाक भयानक होता है। आपको याद है कि 10 या 15 साल पहले सुनामी आई थी इंडोनेशिया से मोरिशियस तक पहुंच गई थी,साउथ इंडिया मद्रास तक भी आई थी। सुनामी के कारण हिन्द महा सागर में खलबली मच गई थी।) साइक्लोन से बढ़कर सुनामी होती है।
कल वाले छठवें श्लोक के भाव से भी ऊंचा भाव, ऊंची लहरें व तरंगों का वर्णन आज चैतन्य महाप्रभु ने सातवें शिक्षाष्टक का उल्लेख किया है।
युगायितम निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् शून्यायित जगत्सर्वम गोविन्द – विरहेण मे ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 20.39)
अनुवाद: हे गोविन्द, आपके वियोग में एक क्षण मुझे एक युग सा प्रतीत हो रहा है । मेरे नेत्रों से वर्षाधारा के समान अश्रु की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं और मैं सारे जगत् को शून्य सा देखता हूँ।
अब तो हद हो गई अब इसमें कृष्ण को मिस करने की बात, कृष्ण इतने याद आ रहे हैं। इतना स्मरण हो रहा है किंतु मिलन नहीं हो रहा है, वे दर्शन नहीं दे रहे हैं। उनके संबंध में श्रवणं कीर्तनं हो रहा है।
श्रीप्रह्लाद उवाचः श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥
( श्रीमद् भागवतम् ७.५.२३)
प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना ) – शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
श्रवणं कीर्तनं से स्मरण होता है, उनकी यादें सताती हैं। मिलन के लिए उत्कंठा बढ़ती है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं युगायित निमेषेण। निमेष एक कालावधि है। सेकंड का एक अंश है, यहां शब्दार्थ में एक क्षण लिखा है। निमेषेण मतलब एक क्षण लेकिन यहां तो पूरा क्षण भी नही है।
अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटि युगायते त्वामपश्यताम् । कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षता पक्ष्मकृदशाम् ॥
( श्रीमद्भागवतगम 10.31.15)
अनुवाद:- जब आप दिन के समय जंगल चले जाते हैं, तो क्षण का एक अल्पांश भी हमें युग सरीखा लगता है क्योंकि हम आपको देख नहीं पा्तीं और जब हम आपके सुन्दर मुख को जो घुंघराले
बालों से सुशोभित होने के कारण इतना सुन्दर लगता है, देखती भी हैं, तो ये हमारी पलकें हमारे आनन्द में बधक बनती हैं, जिन्हें मूर्ख सृष्टा ने बनाया है।
गोपियों ने गोपी गीत में अपने भाव व्यक्त किए हैं। श्रीमद् भागवत के दसवें स्थान में गोपी गीत का वर्णन है। गोपी गीत में गोपियों ने कहा कि त्रुटि युगायते त्वामपश्यताम् कहा है, चैतन्य महाप्रभु भी कहते हैं। वैसे चैतन्य महाप्रभु यहां गोपी भाव अथवा राधा भाव में ही कह रहे हैं। वह गोपी गीत में भी राधा साथ में है। त्रुटि युगायते त्रुटि मतलब वैसे शब्दार्थ में दिया गया है, मैनें पढ़ा है, उसका कुछ एक क्षण के विभाजन करो अर्थात कुछ उसके 1500 टुकड़े करो। सही संख्या मुझे याद नहीं आ रही है, लेकिन लगभग ऐसा ही है। 1 सेकंड के 1000 से अधिक, उसमें से एक उठा लो, वह जो कालावधि है, वह त्रुटि है। गोपियों के लिए त्रुटि युगायते आए थे। उनके लिए यह कई युगों जैसी है। त्वामपश्यताम्। आपके दर्शन नहीं होने से, आपको नहीं देखने से लग रहा हैं कि त्रुटि युगायते, युगायितम निमेषेण इस निमेष का कुछ अंश युग जैसा लग रहा है। यह विरह की व्यथा भी है। यहां विप्रलंभ स्थिति का भी वर्णन है। यह सब भक्ति रसामृत सिंधु में रूपगोस्वामी ने वर्णन किया है। एक होता है – संभोग अर्थात भगवान के साथ मिलना। विप्रलंभ स्थिति। विप्रलंभ स्थिति- यह मन की स्थिति है। यह भाव की भी स्थिति है।
प्रेम भक्ति का स्तर भाव भक्ति के कुछ दूर नही है। आज का जो शिक्षाष्टक का श्लोक है, प्रेम की बात करेगा। प्रेम भक्ति भाव भक्ति चल रही है या विरह की व्यथा का वर्णन हो रहा है।
युगायितम निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् शून्यायित जगत्सर्वम गोविन्द – विरहेण मे ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 20.39)
अनुवाद : हे गोविन्द, आपके वियोग में एक क्षण मुझे एक युग सा प्रतीत हो रहा है। मेरे नेत्रों से वर्षाधारा के समान अश्रु की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं और मैं सारे जगत् को शून्य सा देखता हूँ।
एक एक क्षण या क्षण का भी अंश युग जैसा लग रहा है।
चक्षुषा प्रावृषायितम्। महाप्रभु पहले वाले अष्टक में कहते हैं –
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला २०.३६)
अनुवाद: हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवाहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?’
महाप्रभु ने अश्रुधारा की बात वहां की है।अश्रुबिंदु की बात नही की। एक बिंदु और तत्पश्चात दूसरा बिंदु,अश्रुधारा। वैसी बात् है। अखंड धारा बह रही है, बिंदु बिंदु नहीं। अश्रुबिंदु नहीं, यहां तो वृष्टि की बात हो रही हैं। चक्षुषा प्रावृषायितम् मेरे आंखों से मूसलाधार वर्षा हो रही है। यह क्यों हो रहा है? शून्यायित जगत्सर्वं गोविन्द – विरहेण मे अर्थात गोविंद के बिना यह जगत् शून्य अथवा जीरो है।
कृष्ण नाम-सुधा करिया पान, जुड़ाओ भकतिविनोद-प्राण। नाम बिना किछु नाहिक आर, चौदाभुवन-माझे॥8॥
अर्थ
श्रीभक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं- आप लोग कृष्ण नाम रुपी अमृत का पान करें जिससे कि मुझे सान्त्वना प्राप्त हो। इन चौदह भुवनों में श्रीहरि के नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
भक्ति विनोद ठाकुर ऐसा गाते हैं। नाम के बिना इस संसार में कुछ नहीं है। नाम बिना किछु नाहिक आर, चौदाभुवन-माझे चौदह भुवनों में श्रीहरि के नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। बाकी तो बेकार है। सार तो भगवान् का नाम है। यदि भगवान् नहीं है तब सारा जगत् शून्य है। भगवान् के बिना शून्य है। जैसे प्रभुपाद भी कहा करते थे। हमनें जो भी उपलब्धि प्राप्ति, धन दौलत इत्यादि हम इकठ्ठा करते हैं एक एक जीरो है, सब जीरो है उनके सामने एक नहीं है। सामने यदि एक नहीं है , तो एक जीरो, दूसरा जीरो, तीसरा जीरो। यह कमाई यह उपलब्धि यह प्राप्ति यह वह… सब एक बड़ा जीरो बन जाती है। वैसे भी यह संसार गोल है। गोल कहो या भूगोल, खगोल कहो यह एक बड़ा शून्य ही है। गोविन्द अथवा कृष्ण के बिना राधा कृष्ण के बिना, हरे कृष्ण हरे कृष्ण के बिना शून्य है। कुछ नहीं है। जो भी है, मुझे कोई परवाह नहीं है, मुझे उसकी जरूरत नहीं है।
मुझे तो भगवान् चाहिए, मुझे तो गोविन्द चाहिए। गोविंद ही मेरे प्राण हैं।
राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर। जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥
( नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित गीत)
अर्थ:-
युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है।
चैतन्य महाप्रभु ने इस शिक्षाष्टक में अपने कुछ भाव व्यक्त किए हैं।
उदगे दिवस ना याय , ‘ क्षण ‘ हैल ‘ युग ‘ – सम । वर्षार मेघ – प्राय अश्रु वरिषे नयन ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४०)
अनुवाद : उद्वेग के कारण मेरा दिन नहीं कटता , क्योंकि हर क्षण मुझे एक युग जैसा प्रतीत होता है । निरन्तर अश्रुपात करने से मेरी आँखें वर्षा ऋतु के बादलों जैसी बनी हुई हैं ।
उद्वेग, खेद के कारण समय बीत नहीं रहा है। ( समय होता तो बताते लेकिन अब.. हमारा समय भी..) जब हम परेशान व दुखी होते हैं, कोई कष्ट होता है। तब लगता है कि समय बीत नहीं रहा है। जब हम किसी प्यारे दुलारे की प्रतीक्षा में होते हैं, सभी को लगता है कि क्या घड़ी बंद है क्या? उनको तो सात बजे आना था? घड़ी काम नहीं कर रही है। हम ऐसे ही कुछ अनुभव भौतिक जगत् में करते ही रहते हैं। वह अनुभव, आध्यात्मिक जगत् के अनुभवों की छाया है। उदगे दिवस ना याय। वैसे भी अंग्रेजी में कहते हैं। ‘व्हेन यू हैव फन। व्हेन यू आर् इन गुड़ टाइम, टाइम फ्लाई।’ समय का पता भी नहीं चलता। अरे सात बज भी गए। अभी अभी तो हमनें शुरुवात की थी। अभी अभी तो मिलन हो रहा था, बातचीत कर रहे थे, यह हो रहा था, वह हो रहा था। समय बीत गया?
व्हेन वी हैव बैड टाइम, टाइम स्टिल.. तब ऐसा लगता है कि इस विरह की अवस्था में मानो घड़ी चल ही नहीं रही है। विरह की इतनी व्यथा का अनुभव या फिर दोनों प्रिय या प्रिया भी इस विरह की व्यथा से ग्रस्त होते हैं, तब लगता है कि
युगायितम निमेषेण । समय बीत नहीं रहा।क्षण ‘ हैल ‘ युग ‘ – सम । बंगला भाषा में एक् क्षण युग के समान हुआ। वर्षार मेघ – प्राय अश्रु वरिषे नयन
मानसून की वर्षा जैसे, नयनों से अश्रु बह रहे हैं।
गोविन्द – बिरहे शून्य ह – इल त्रिभुवन । तुषानले पोड़े , —येन ना याय जीवन ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४१)
अनुवाद गोविन्द के विरह के कारण तीनों जगत् शून्य बन चुके हैं। मुझे ऐसा लगता है कि मैं जीवित ही मन्द अग्नि में जला जा रहा हूँ ।
गोविंद के बिना यह सारा त्रिभुवन शून्य है।तुषानले पोड़े , —येन ना याय जीवन । नले मतलब अग्नि।पोड़े मतलब मैं आग में गिरा तो हूँ लेकिन यह अग्नि शायद मंद है। इसलिए मैं झट से जल कर भस्म नही हो रहा हूँ। यह आग मुझे धीरे धीरे क्यों जला रही है। तुषानले मंद अग्नि मुझे धीरे धीरे ही जला रही है। अच्छा होता यदि एक क्षण में मुझे यह राख बना देती।
कृष्ण उदासीन ह – इला करिते परीक्षण । सखी सब कहे , – ‘ कृष्णे कर उपेक्षण ‘ ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४२)
अनुवाद : भगवान् कृष्ण मेरे प्रेम की परीक्षा लेने के लिए मुझसे उदासीन हो गये हैं और मेरी सखियाँ कहती हैं , ‘ अच्छा हो कि तुम कृष्ण की उपेक्षा करो । ”
यह गोपी भाव है, राधाभाव है। कृष्ण उदासीन ह – इला। कृष्ण हमसे उदासीन हुए हैं या हमसे नाराज हैं और शायद हमारी परीक्षा ले रहे हैं। दर्शन न देकर हमारी परीक्षा ले रहे हैं।सखी सब कहे , – ‘ कृष्णे कर उपेक्षण। कुछ क्षणों के लिए गोपियां सोचती हैं कि वे हमें भूल सकते हैं। हमें वृन्दावन में छोड़ कर मथुरा जा सकते हैं। वे मथुरा की स्त्रियों से प्रसन्न हैं। हमें तो भूल गए हैं। वे अगर भूल सकते हैं, तब हम क्यों नहीं भूल सकती। हम भी सब कृष्ण को भूल जाएंगी। कौन कौन हमारे पक्ष में है अपना हाथ उठाइए। गोपियाँ प्रस्ताव रखती हैं कि कौन कौन कृष्ण को भूलना चाहती हैं, हाथ ऊपर करो। कृष्ण भूल सकते हैं, तो हम भी भूल सकती हैं। यह उपेक्षा की बात है। ऐसा विचार तो आ जाता है। वे भूल सकते हैं तो हम क्यों नहीं भूले।
भूलने के प्रस्ताव को लेकर किसी का हाथ ऊपर नहीं होता। पुनः कृष्ण याद आते हैं। भूलने का प्रयास करने पर भी भूल नहीं सकती। हमारे लिए तो प्रयास करने की जरूरत ही नहीं है। क्या हमें कृष्ण को भूलने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है? हम तो पहले ही भूल चुके हैं, हमें तो आदत पड़ी हुई है। हम तो भगवान् को भूलने में एकदम् एक्सपर्ट ( कुशल) हैं। जहां तक भूलने की बात है, हम नम्बर एक हैं। माया है, ये है, वो है.. कौन परवाह करता है? ऐसे लोगों के लिए वैसे यह भाव राधा या गोपी का भाव समझना कठिन भी है। कुछ अचिन्त्य बातें भी हैं।
हरि हरि!
एतेक चिन्तिते राधार निर्मल हृदय । स्वाभाविक प्रेमार स्वभाव करिल उदय ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४३)
अनुवाद:
जब श्रीमती राधारानी इस प्रकार सोच रही थीं , तब उनमें स्वाभाविक प्रेम के गुण प्रकट हो गये , क्योंकि उनका हृदय शुद्ध था।
ऐसा सोच ही रही थी कि चलो चलो, हम कृष्ण की उपेक्षा करते हैं, ऐसा कुछ विचार था। एतेक चिन्तिते राधार निर्मल हृदय स्वाभाविक प्रेमार स्वभाव करिल उदय , उनके ह्रदय में और प्रेम उदित हुआ और स्मरण उदित हुआ। पुनः वही बात अर्थात मिलन के लिए उत्कंठित हो गयी। भूलने की बात सोच रही थी।लेकिन कैसे भूल सकती हैं। भूल नहीं सकती।
ईर्ष्या , उत्कण्ठा , दैन्य , प्रीढ़ि , विनय । एत भाव एक – ठात्रि करिन उदय ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४४)
अनुवाद- फिर तुरन्त ही ईर्ष्या, अत्यन्त उत्कण्ठा, दैन्य , उत्साह तथा विनय के भाव – लक्षण एक साथ प्रकट हो उठे ।
तब एक साथ यह सारे भाव ईर्ष्या हो गए, लेकिन यह दिव्य अथवा आलौकिक ईर्ष्या है।
यह संसार वाली सांसारिक ईर्ष्या नहीं है। उत्कंठा बढ़ गयी। भक्त अथवा गोपियां अधिक उत्कंठित हो गयी और भक्त भी उत्कंठित हो सकते हैं। वात्सल्य भाव वाले या संख्य रस वाले भी उत्कंठित हो सकते हैं और दैन्य उदित हुआ। दैन्य समझते हो? अच्छा शब्द है। दीन। दीनता से शब्द दैन्य बनता है।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥
अर्थ:- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत २०.२१)
अनुवाद : जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ‘
यह दीनता की बातें है। गर्वित या दर्भ भी कहते हैं। जब हम दर्पण में देखते हैं (दर्पण जानते हो) दर्पण में देखने से हमारा दर्भ बढ़ जाता है। मैं मिस यूनिवर्स हूँ, मैं यह हूँ, वह हूँ। केवल मैं ही तो हूँ। यह जो विचार है। हमारा अहंकार हमारा दर्प/ दम्भ एक नीच भाव अथवा नीच विचार है। दर्पण में देखने से हमें वह दर्प दिखता है। इसलिए दर्पण जो हमें दिखाए हमारा दर्प या जो हमारे दम्भ को बढ़ाये, यह विकार है। हमारे मन की स्थिति है। गोपियों का दर्प बढ़ गया। फिर कभी कभी दंभी बन जाती हैं। राधा रूठ जाती है, मान करके बैठती है। राधा रानी का नाम अथवा एक परिचय माननी है। जो मान करती है।
आप जानते हो कि स्त्रियां भी समय समय पर मान करके बैठी रहती हैं। यह प्रतिदिन घर में चलता रहता है। हरि हरि।
विनयी भाव भी बढ़ गया। सारे भाव एक साथ आन्दोलित हो रहे हैं। यह भाव भक्ति है। यह भाव भक्ति का लक्षण है।
यह सारे दिव्य व अलौकिक भाव है, उनके नाम वैसे ही हैं-ईर्ष्या, दर्प आदि। कभी क्रोध आना,भगवान् कैसे क्रोधित हुए। हरि हरि। यह सब दिव्य भाव व गुण हैं।
एत भावे राधार मन अस्थिर ह – इला । सखी – गण – आगे प्रादि – लोक ये पडिला ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत २०.४५)
अनुवाद उस भाव में श्रीमती राधारानी का मन क्षुब्ध था , अतएव उन्होंने अपनी गोपी – सखियों से उत्तम भक्ति का एक श्लोक कहा । जब यह सब ईर्ष्या, उत्कंठा, दैन्यता आदि भाव और प्रकट हुए, इससे राधा, गोपियों या भक्तों का मन अस्थिर् होता है। वे और कुछ बोलने लगती हैं अपने भाव व्यक्त करने लगती हैं।
सेड़ भावे प्रभु सेड़ श्लोक उच्चारिला । श्लोक उच्चारिते तद्रूप आपने ह – इला ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४६)
अनुवाद: भाव के उस उन्माद में श्रीचैतन्य महाप्रभु ने वह श्लोक सुनाया और ज्योंही उन्होंने श्लोक पढ़ा , उन्हें लगा कि वे श्रीमती राधारानी हैं ।
यह भाव जो उठे हैं, उन भावों के अनुसार विचार भी हो रहे हैं। वे विचार मुख से व्यक्त भी होने वाले हैं। पहले मन में विचार उठते हैं तत्पश्चात मुख से प्रकट होते हैं अर्थात उनका स्रोत हमारा मन होता है, आत्मा में होता है। अंतःकरण में कुछ विचार उठते हैं फिर मन के स्तर पर, वाचा के स्तर पर होते हैं।
एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् । परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥ पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः । श्रेयो दिशल्यभिमतं यद्धादिषु देहिनाम् ॥
( श्रीमद् भगगवतं 4.8.59)
अनुवाद:- इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन, वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति – विधियों के कार्यों में मग्न रहता है , उसे उसकी इच्छानुसार भगवान् वर देते हैं । यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म , अर्थ , काम भौतिक संसार से मोक्ष चाहता तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं ।
हम वाचा से उनको कहते हैं। मन मे कई सारे विचार उदित हो रहे हैं। उन विचारों का मुख से उच्चारण होगा, वे विचार अंतिम और आठंवा शिक्षाष्टक होगा। उन विचारों की यह अभिव्यक्ति होगी अब राधारानी कहेगी। वे कौन से विचार हैं, कल सुनाएंगे।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*28 मई 2021,*
*पंढरपुर धाम.*
हरे कृष्ण, 837 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। *गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!* और अधिक जागो ऐसा नहीं कि सोए थे लेकिन और अधिक जागो। *भज गौरांग कहां गौरांग लह गौरांगेर नाम रे* *जेई जन गौरांग बोलिते सेई आमार प्राण रे।* क्या कहा इस गीत में पूरा गीत तो नहीं समझाने वाला हूं। *भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर नाम रे* यह तो समझते हो आप, भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर कहो ले लो गौरांग का नाम ले लो। गौरांग! गौरांग! गौरांग! वैसे हरे कृष्णा₹ हरे कृष्ण नाम कहेंगे तो वह भी लह गौरांंगेर नाम होगा, क्योंकि हरे कृष्ण मतलब राधा कृष्ण श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु मतलब राधाकृष्ण नाही अन्य कहां तो हरे कृष्ण मतलब हुआ गौरांग का नाम। लह गौरांंगेर नाम हुआ। भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर नाम रे बांग्ला भाषा है यहां। यह तो कोई कठिन काम नहीं है। हिंदी भाषो, मराठी भाषी, गुजराती पंजाबी यह सब जान सकते हैं क्योंकि सभी भाषा का तो उगम तो संस्कृत से ही है। संस्कृत भाषा से बांग्ला भाषा उत्पन्न हुई है। *भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर नाम रे* और फिर आगे का पार्ट बहुत अच्छा है। समझने लायक है। इसको संस्कृत में कहूंगा तो शिक्षाष्टकम तक मुडने वाले हैं।
*जेई जन गौरांग भजे* इसमें भाषांतर की आवश्यकता है? जेई जन गौरांग भजे जेई जो जन लोग गौरांग भजे गौरांग को भजते है तो फिर वह लोग लोग नहीं कहलाते हैं। भक्त कहलाते हैं। गौर भक्त वृंद की जय! *सेई आमार प्राण रे* वही लोग जो गौरांग को भजते हैं, अआमार प्राण रे हमारे प्राण है। राधा कृष्ण प्राण मोर जुगल किशोर या गौरांग ही प्राण नहीं है। गौर भक्त वृंद जेई जन गौरांग भजे वह भक्त वृंद मेरे प्राण है। मुझे प्राण प्रिय है। यही शिक्षा है गौड़ीय संप्रदाय की। जब इस तक पहुंचते हैं हम फिर हम मध्यम अधिकारी फिर उत्तम अधिकारी बनते हैं। कनिष्ठ अधिकारी नहीं रहते। जो केवल गौरांग को भजता है, जिनके केवल राधा कृष्ण ही प्राण है। किंतु भक्त प्राण नहीं है। भक्तों की सेवा नहीं करता, भक्तों से प्रेम नहीं है, साधु संग जो नहीं करता या संतों की तो सेवा नहीं करता, उल्टे अपराध करता है। निंदा भी करता है ऐसा व्यक्ति या साधक यह कनिष्ठ श्रेणी का है। वह कनिष्ठ अधिकारी है। हमको कनिष्ठ अधिकारी नहीं रहना है। कम से कम शुरुआत करो मध्यम अधिकारी बनो। फिर वहां से आगे बढ़ो और भी जीव जागो करो। *उत्तिष्ठित जाग्रत* उठो जागो यह वेदवानी है। वराण विबोधकः यह मनुष्य जन्म जो वरदान है, प्राप्त हुआ है, विबोध इसको समझो। हरि हरि मैं यहीं पर रुकता हूं।
अगला शिक्षाष्टक है छठवां शिक्षाष्टक। जानते हो, हां आपको याद है? (गुरुमहाराज कॉन्फ्रेंस में एक भक्तों को संबोधित करते हुए) अच्छा है और जो नहीं जानते वह भी जान लो। इस शिक्षाष्टक को याद करो ।कंठस्थ करो। हृदयंगम करो।
*नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा।*
*पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे* *भविष्यति॥६॥*
*अनुवाद: हे प्रभु ! आपका नाम कीर्तन करते हुए* *कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी,* *कब आपका नामोच्चारण मात्र से ही मेरा कंठ* *गद्गद होकर अवरुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर* *रोमांचित हो उठेगा ॥६॥*
हरि हरि और भी ऊंची बात कही श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने। रामानंद और स्वरूप दामोदर को उनके विचारों का मंथन हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु के विचारों का मंथन। अधिकाधिक उच्च विचार, सादा जीवन उच्च विचार व्यक्त कर रहे हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु यह शिक्षाष्टक का जो विचार है, ऊंचा है। आनंदाम्बुध्दीवर्धनम कृष्णभावना तो विकसित होते होते या उसकी कोई सीमा ही नहीं। कृष्णभावना की गहराई सीमा नहीं है। ऊंचाई भी है और इसकी कोई सीमा नहीं है कृष्णभावना की। उसी में गोते लगाए जा रहे हैं। इस शिक्षाष्टकम आस्वादन श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु कर रहे हैं। एक बात तो गौर करने की यह है, अब तक शिक्षाष्टक हुए शिक्षाष्टक हुए वह साधना भक्ति के अंतर्गत हैं। साधना भक्ति का उल्लेख वहा हुआ है। और यहां छठवां और सातवां जो शिक्षाष्टक है इसमें भाव भक्ति है। और आठवां अष्टक प्रेम का प्रतीक है। समझ गए की भक्ति कैसे प्रेम से विकसित होती है। या साधक साधना करते हैं और फिर धीरे-धीरे साधन सिद्ध होने लगती हैं। साधना करते करते भाव उदित होने लगते हैं और उसको भाव भक्ति भी कहा है। और इस शिक्षाष्टक में भाव उदित हो रहा है। भाव अधिक गाढ और विकसित होता है तो, पहुंचाता है इस आठवें अष्टक तक। जो प्रेम का प्रतीक है। चैतन्य महाप्रभु *नयनं गलदश्रुधारया* वैसे इसमें प्रश्न भी है, *कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति* ऐसा कब होगा प्रभु आपका नाम नामस्मरण, यह जप, यह नाम संकीर्तन करते करते ऐसी स्थिति कब होगी? कैसी स्थिति जो इस शिक्षाष्टकम में उसका वर्णन हुआ है।
नयनं गलदश्रुधारया मेरे आंखों से अश्रुधाराये कब बहने लगेगी। मैं नाम ले रहा हूं या नामस्मरण हो रहा है। *नयनं गलदश्रुधारया* आंखों से अश्रुधाराये कब बहेगी यह पहला विचार है या प्रश्न है यहां भगवान से प्रश्न पूछा जा रहा है। *वदनं गदगदरुद्धया गिरा* यहां वैसे भक्ति के लक्षण है। किसी व्यक्ति को भक्ति प्राप्त हुई है या उसके भक्ति किस स्तर पर है उसके अलग-अलग लक्षण है। कोई साधना कर रहे हैं साधना भक्ति उनके अलग लक्षण है। या भाव भक्ति उसके अलग लक्षण है। ऐसे अलग भक्तों के लक्षण है। यह लक्षण है भाव भक्ति वालों के। *वदनं गदगदरुद्धया गिरा* मेरा गला कब अवरुद्ध होगा, गदगद होगा? *शिवशुक नारद प्रेमे गदगद* हम लोग संध्या आरती के गीत में अंत में गाते हैं। *शिव-शुक नारद प्रेमे गद्गद्* शिव, शुक, नारद आरती में पहुंचे हैं। शिव पहुंचे हैं, नारद पहुंचे हैं, शुकदेव गोस्वामी पहुंचे हैं। वे भी आरती की शोभा देख रहे हैं। वह भी गा रहे हैं।
लेकिन गाते समय क्या हो रहा है? *प्रेमे गदगद* उनका प्रेम के कारण गला गदगद हो उठा है, अवरुद्ध हो रहा है। तो ऐसे कब होगा? *पुलकैर्निचितं वपुः* मेरा शरीर कब पुलकित होगा या कंपन कब होगा? या जैसे *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन* आंखों से आंसू कब बहेंगे? *रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो* यह भी हम गुर्वाष्टक में गाते हैं। गुरु का अष्टक। *संसार दावानल लीढ लोक* वह अष्टक उसको गुर्वाष्टक कहते हैं। तो कब होगा मेरे रोमांच या कंपन। *तव नाम-ग्रहणे भविष्यति* ऐसे लक्षण कब प्रकट होंगे, उदित होंगे, प्रदर्शित होंगे। मैंं इसका प्रदर्शन नहीं करना चाहूंगा। दुनिया को दिखाने के लिए ऐसेेे लक्षण मुझ में आए ऐसा तो है ही नहीं। फिर वह ढोंगी हुआ या पाखंडी हुआ। जो सच्चा हो झूूठा फेक नहीं हो। कल हम सुन रहेेेे थे माताजी से…।
नकली प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। ऐसे लक्षण कब मुझ में प्रकट होंगे या प्रदर्शित होंगे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब इस पर व्याख्या सुनाई गंभीरा में वे सुना रहेे हैं। चैतन्य महाप्रभु नेेे आगे कहा यह छठवां शिक्षाष्टक कहां, फिर कहां *प्रेम धन बीना व्यर्थ दारिद्र जीवन* , *दास करि वेतन मोरे देहो प्रेम धन*। हरि हरि। बड़ी़ अद्भुत बात महाप्रभु ने यहा कही है। क्योंकि वे अभी अभी वैसेे कह चुके थे पांचवे शिक्षाष्टक में *अयि नन्दतनुज किङ्करं* मैं आपका किङ्करं आपका दास हूं। इस दास को स्वीकार कीजिए, दास की सेवा को स्वीकार कीजिए। मैं आपकी निरंतर सेवा करना चाहता हूं, सेवा को स्वीकार कीजिए। तो यहां इस शिक्षाष्टक की भाषा में वे यहां कह रहे हैं *दास करि वेतन मोरे देहो प्रेम धन* मुझे आपका दास समझ कर, मैं आपका दास तो हूं ही मैं आपकी सेवा कर रहा हूं, तो फिर दास को या सर्वेंट को वेतन मिलना चाहिए ना? मराठी में पगार कहते हैं। तो सैलरी पर हक होता है ना महीने के अंत में, सप्ताह के अंत में, दिन के अंत में। वह बॉस दास को कुछ धनराशि या वेतन देता है। तो मुझे भी दीजिए मुझे भी वेतन दीजिए मिलना चाहिए वेतन। लेकिन चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं किस रूप में आप मुझे वेतन दीजिए प्रेमधन। *वेतन मोरे देहो प्रेम धन* मुझे प्रेम धन दीजिए। पैसा, रुपैया, डॉलर या कोई भी करंसी यह मुझे नहीं चाहिए। मुझे प्रेम के रूप में वेतन या धन दीजिए। प्रेम धन दीजिए यह मेरी अपेक्षा है, महत्वाकांक्षा है प्रेम धन दीजिए। *प्रेम धन बीना व्यर्थ दारिद्र जीवन* और हम समझ सकते हैं यह दरिद्र दरिद्र की बहुत चर्चा चलती रहती हैं। हां बिल्कुल दरिद्रता सर्वव्यापी है।
कुछ लोग अमीर है, कुछ गरीब है। लेकिन दरिद्रता की व्याख्या कहो परिभाषा भिन्न प्रकार से चैतन्य महाप्रभु उसकी परिभाषा किए हैं या सुना रहे हैं। कौन है दरिद्र? जिसको प्रेम धन नहीं मिला है या जिसके पास प्रेम धन नहीं है वह दरिद्र है। उसकी चेतना या भावना की दरिद्रता। तो तथाकथित अमीर से अमीर, करोड़पति, अरबपति भी वैसे इस परिभाषा के अनुसार गरीब है. गरीब बिचारे टाटा या बिरला या अंबानी जो भी है गरीब है। तो गरीबी हटाओ। गरीबी हटानी है तो पहले गरीबी को समझो। जिसको भी प्रेम धन प्राप्त नहीं है वह गरीब है। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं प्रेम धन के बिना मैं गरीब हूं, मैं दरिद्र हूं। और ऐसे दरिद्र का जीवन व्यर्थ है। खाली फोकट, व्यर्थ, अर्थहीन व्यर्थ है यह जीवन। अगर कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं हुआ, प्रेम धन की पूंजी नहीं है जिसके पास या प्रेम धन का फिक्स्ड डिपॉजिट नहीं है वह बेचारा गरीब है। और उसका जीवन व्यर्थ है। *दास कहें वेतन मोरे देह प्रेम धन* साधन भक्ति से या साधना भक्ति से प्रगति करते करते आप यहां भाव तक..। ऐसे भाव यहां उनके अंतर करण में उदित हो रहे हैं।
*रसान्तरावेशे ह – इल वियोग – स्फुरण ।*
*उद्वेग , विषाद , दैन्ये करे प्रलपन ।। 38 ।।*
अनुवाद – कृष्ण के वियोग के कारण महाप्रभु में उद्वेग ,विषाद तथा दैन्य नामक विविध रसों का उदय हो आया । इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु उन्मत्त की तरह बोलने लगे ।
तो विलाप कर रहे हैं। आगे कमेंट है इस शिक्षाष्टक के ऊपर यह रसांतर या रस का आवेग हो रहा है। रस का आंदोलन हो रहा है, लहरें तरंगे उठ रही है एक दूसरे से टकरा रही है। *रसान्तरावेशे ह – इल वियोग – स्फुरण* योग वियोग, कृष्ण को याद कर रहे हैं तो वह वियोग हैं। योगायोग मिलन और फिर बिछड़ जाना इस प्रकार के विचार और उद्वेग यहा लिखा है। उद्वेग, कभी खेद उत्पन्न होता है फिर विषाद दैन्य निराशा उत्पन्न होती हैं। लेकिन यह सारे जो विचार है या भाव है, यह भाव भक्ति चल रही है। साधन भक्ति, भाव भक्ति, प्रेम भक्ति यह सब भाव है। और यह सब दिव्य भाव है, अलौकिक भाव है। इस संसार का बाजार भाव नहीं है और क्या भाव चल रहा हैं। यह भौतिकता तो यहां शुन्य हैं। यह केवल दिव्यता दिव्य उद्वेग है और वह भी दिव्य है। खेद है वह भी दिव्य है।
विषाद या निराशा है वह भी दिव्य है। अलौकिक है। और फिर दैन्य करे फुलापन और फिर उसी के साथ उनकी दीनता दैन्यता, नम्रता, विनम्रता बढ़ रही है। और उन विचारों में कुछ प्रलाप हो रहा है। कुछ बोल रहे है उस दीनता की दशा में। नम्रता विनम्रता के भाव में बोल रहे हैं। जैसे शराबी शराब की नशा में बोलते रहता है। हरि हरि, इसी के साथ इसके आगे का अष्टक चैतन्य महाप्रभु सातवां अष्टक सुनाएंगे। कल सुनाएंगे। सुनते हैं। सुनाते हैं। तब तक के लिए मैं भी अपनी वाणी को विराम देता हूं। और फिर पद्मामाली है या और कोई बोल सकते हैं।
धन्यवाद,
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जपचर्चा*
*पंढरपुरधाम*
*27 मई 2021*
819 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं !
*हरि हरि !!*
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ।*
*श्री अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥*
आप सभी का स्वागत है और अभिनंदन भी है । प्रतिदिन रोज प्रातः काल मैं मिलकर और भक्तों के साथ अपनी साधना करते हो । “कली का धर्म हरि नाम संकीर्तन” । इसको निभाते हो । अपने जीवन में ,अपने हृदय प्रांगण में ,अपने भवन में ,अपने मोहल्ले में यह कार्य प्रातः काल आप आरंभ करते हो । हरि हरि !! इसके लिए भी अभिनंदन इतना ही कहता हूं ।
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ( जय ) !!*
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिक्षाष्टक की ( जय ) !!*
चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं ,किनकी शिक्षाएं ? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जो वास्तविक गुरु है, शिक्षक है । “कृष्णं वन्दे जगत गुरुं” उनकी शिक्षा यह 8 श्लोकों में वे लिखे हैं और सिखाए हैं । हम कुछ दिनों से यह शिक्षाएं पढ़ रहे थे । उन शिक्षाओं की रसास्वादन कर रहे थे । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज कह रहे हैं ) मुझे भी बीच में थोड़ा रुकना पड़ा , शुभ दिन शुभ तिथियां भी आ गई । रुक्मणी का जन्म दिवस , नरसिंह चतुर्दशी महोत्सव की ( जय ) ! ऐसे सब उत्सव आचार्यों की आविर्भाव ,तिरोभाव मनाते मनाते फिर कुछ दिनों के लिए हम यह शिक्षाष्टक अध्ययन ,श्रवण ,आस्वादन एक दृष्टि से खंडित हुआ; हरि हरि !! किंतु जो भी आस्वादन हुआ वही रसास्वादन था । वह भी उतना ही मधुर था , कुछ कम मधुर नहीं था ! तो फिर कुछ खंड हुआ ही नहीं ऐसा भी कह सकते हैं ।
*स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।*
*अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥ ६ ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 1.2.6 )
*अनुवाद:-* सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति ( धर्म ) वही है जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा – भक्ति प्राप्त कर सकें । ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तट हो सके ।
यह तो चल रहा है; यह प्रवाह । अमृत प्रवाह , इसके प्रकार थोड़े अलग है या कुछ भिन्नता है । हां ! होना भी चाहिए । जैसे विभिन्न प्रकार के मसाले होते हैं, अलग-अलग हम स्वाद पसंद करते हैं । लेकिन हेतो ..
*वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे ।*
*यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥ १९ ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 1.1.19 )
*अनुवाद:-* हम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं , जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है । उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है , वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं ।
हे तो आस्वादन ही या तो …
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह भी आस्वादन है ही ,प्रधान या रसास्वादन का यह स्त्रोत है । हरि हरि !!
यह है 5वा शिक्षाष्टक वह कौन सा है ? आप जानते हो 5वा शिक्षाष्टक ? हां ? कौन सा है ? हॉट खिलाओगे तो पता चलेगा सही कह रहे हो या नहीं ! अ से शुरू होता है । कंठ से स्वर निकलना चाहिए ।
*अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।*
*कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.32 )
*अनुवाद:-* हे नन्दतनुज ! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ । कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये ।
यहां है 5वा शिक्षाष्टक । शिक्षाष्टक सुन तो लिया और समझे भी होंगे । कोई अधिक समझे कुछ कम समझे लेकिन पूरा तो कोई नहीं समझता । या फिर हर वक्त हर समय जब हम उसको उसका उच्चारण करते हैं, चिंतन करते हैं उच्च संबंध के कुछ व्याख्या सुनते हैं विश्लेषण श्रवण करते हैं तो फिर और अधिक समझ में आता है । साक्षात्कार और अधिक साक्षात्कार होता है उन वचनों का । यही हम करने का प्रयास करेंगे । “अयि नन्दतनुज किंकरं” तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही बोल रहे हैं । या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु…
*पञ्च – तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्त रूप – स्वरूपकम् ।*
*भक्तावतार भक्ताख्य नमामि भक्त – शक्तिकम् ॥६॥*
( चैतन्य चरितामृत आदि-लीला 7.6 )
*अनुवाद:-* मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो भक्त , भक्त के विस्तार , भक्त के अवतार , शुद्ध भक्त और भक्त – शक्ति – इन पाँच रूपों में प्रकट हुए हैं ।
वह स्वयं बने हैं भक्त । भक्तों की भूमिका निभा रहे हैं । फिर वही भाषा बोल रहे हैं भक्त की भाषा । तो क्या कह रहे हैं ? “अयि नन्दतनुज” अहो अहो ! भगवान के ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहे हैं “अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ” यह संसार में जो स्थिति है जिस परिस्थिति में वे है या फंसे हैं, वध है । “भवाम्बुधौ” मैं गिरा हूं और डूब रहा हूं ,बल्कि मैं मर रहा हूं । यह आपातकालीन स्थिति है । और फिर मरते रहता हूं यह पहली बार नहीं है मरने जा रहा हूं लेकिन यह सब चल ही रहा है ।
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं*
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं* *पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।*
*इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥ २१ ॥*
( शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21 )
*अनुवाद:-* हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
यह जो संसार है भवसागर “भवाम्बुधौ” किंतु अब मुझे समझ में आ रहा है , अब मैं स्वीकार कर रहा हूं “अयि नन्दतनुज किंकरं” मैं पतीत हूं । मेरा पतन हो चुका है आपके धाम से ,वह मेरा भी धाम था एक समय । जहां से में यहां गिर चुका हूं । लेकिन मैं आपका ही तो हूं । और मैं आपका क्या लगता हूं ? “अयि नन्दतनुज किंकरं” एक तो आप किन के क्या लगते हो ? आप नंद महाराज के “तनुज” नन्द महाराज की आप पुत्र हो । ऐसे में नंद तनुज के मे किंकरं हूं , मैं आपका दास हूं । किंकरोमी- किंकरोमी कम से कम अब मेरा मती सही हो गया है और मैं पूछ रहा हूं आपसे किंकरोमी- किंकरोमी मैं क्या कर सकता हूं ? मुझे सेवा दीजिए “सेवा योग्यम् कुरु” । जब मैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहता हूं यही तो कहता हूं । की मैं आपका हूं ,मैं आपका दास हूं । और मुझे सेवा दीजिए । हरि हरि !!
*अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।*
*कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय ॥*
मुझे उठाइए इस भवसागर से मेरा उद्धार कीजिए , मुक्त कीजिए । और आपके चरणों की धूल बनाइए। आपके चरणों के दास मुझे बनाइए । भृत्यसे-भृत्य ,मुझे आपके दास के दास बनाइए । कृपया-कृपया ऐसी कृपा कीजिए “तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय” मुझे आपके गले का हार या सिर के ऊपर जो मुकुट है उसे बनाने की आवश्यकता नहीं है । आपके चरणों की धूल,आपके चरणों के स्पस् ,आपके चरणों की सेवा दीजिए । ऐसी प्रार्थना है इस शिक्षाष्टक में ।
*तोमार नित्य – दास मुइ , तोमा पासरिया ।*
*पड़ियाछों भवार्णवे माया – बद्ध हञा ॥ ३३ ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.33 )
*अनुवाद:-* “ मैं आपका नित्यदास हूँ , किन्तु मैंने आपको भुला दिया है । अब मैं अज्ञान के सागर में पतति हुआ हूँ और बहिरंगा शक्ति द्वारा बद्ध हुआ हूँ ।
“तोमार नित्य – दास मुइ” यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का भाष्य हे इस शिक्षाष्टक के ऊपर का । मैं आपका नित्य दास हूं किंतु में भूल चुका हूं या भूला भटका मैं जीव या गिरा हूं “भवार्न” में “माया-बद्ध हञा” माया ने ऐसे जकड़ लिया है ना तो हिल-डुल सकता हूं । “माया-बद्ध ” या तीन गुणों के , गुड मतलब की डोरी होता है 3 गुण सोइए सत्तो, रज्जो ,तम्मो गुणों की डोरियों ने मुझे बांध लिया है । मुझे कैदी बनाया है यह हथकड़ी-वेडीयां इन गुणों के रूप में । हरि हरि !!
*कृपा करि ‘ कर मोरे पद – धूलि – सम ।*
*तोमार सेवक करों तोमार सेवन ” ॥ ३४ ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.34 )
*अनुवाद:-* “आप अपने चरणकमलों की धूल के कणों में मुझे स्थान देकर मुड़ा पर अहेतुकी कृपा करें , जिससे मैं आपके सनातन सेवक के रूप में आपकी सेवा में लग सकूँ । ”
तो ऐसे दास पर कृपा कीजिए । यहां चैतन्य महाप्रभु पुन्हा-पुन्हा कह रहे हैं कृपा कीजिए और अपने चरणों की सेवा दीजिए , चरणों की धूल बनाइए।
*कृष्ण त्वदीय पद पङ्कज पञ्जरान्तं अद्यैव मे विशतु मानस राज हंसः ।*
*प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तैः कण्ठ अवरोधन विधौ स्मरणं कुतः ते ॥ ३३ ॥*
( मुकुंद – माला – स्तोत्र 33 )
*अनुवाद:-* हे भगवान कृष्ण, इस समय मेरे मन के राजहंस को आपके चरणकमलों के उलझे हुए तनों में प्रवेश करने दो। मृत्यु के समय आपका स्मरण करना मेरे लिए कैसे संभव होगा, जब मेरा गला बलगम, पित्त और वायु से घुट जाएगा ?
ऐसे राजाकुल शेखर ने भी कहे । मेरा मन एक हंस के रूप में राजहंस को आपके चरण कमल का आश्रय मैं प्रवेश हो । “अद्यैव मे विशतु” आज ही हो, अब हो “कृष्ण त्वदीय पद पङ्कज पञ्जरान्तं” आपके चरण कमल ‘कमल’ सदृश है । या मेरे मन को बनने दो हंस या राजहंस । और इस कमल में प्रवेश करने दो , इस कमल के इर्द-गिर्द इसको विचरण करने दो । ऐसा आश्रय दो ।
*पुनः अति – उत्कण्ठा , दैन्य ह – इल उद्गम् ।*
*कृष्ण – ठाञि मागे प्रेम – नाम – सङ्कीर्तन ॥ ३५ ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.35 )
*अनुवाद:-* तब श्री चैतन्य महाप्रभु में सहज दीनता तथा उत्कण्ठा का उदय हुआ । उन्होंने कृष्ण से प्रार्थना की कि प्रेमावेश में महामन्त्र का कीर्तन करने के लिए वे उन्हें सामर्थ्य दें ।
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जो चैतन्य चरितामृत के रचयिता है वही लिख रहे हैं इस प्रकार यह जो हरि हरि !! यस शिक्षाष्टक और फिर इस शिक्षाष्टक की भाष्य कहकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अति उत्कंठित हुए हैं और उसी के साथ “दैन्य ह-इल उद्गम्” उनकी दिनता और बढ़ गई । विनम्रता या …
*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।*
*अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.21 )
*अनुवाद:-* स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ।
यह जो भाव है “अमानिना मानदेन” यह अधिक प्रकट हो रहा है दैन्य चैतन्य महाप्रभु में ।
*विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।*
*पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥*
*अनुवाद:-* विद्या यानि ज्ञान हमें विनम्रता प्रादान करता है , विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से हमें धन प्राप्त होता है जिससे हम धर्म के कार्य करते हैं और हमे सुख मिलता है ।
व्यक्ति जब विनयि होता है तभी वह उचित पात्र बनता है । तो अधिक विनई – अधिक – नम्रता – अधिक पात्रता । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक शिक्षाष्टक से दूसरी शिक्षाष्टक की और जा रहे हैं । इसका उच्चारण कर रहे हैं-स्मरण कर रहे हैं फिर अधिक उत्कंठीत और दैन्य भाव प्रकट हो रहा है । तो फिर वह और दिन भाव में “कृष्ण – ठाञि मागे प्रेम – नाम – सङ्कीर्तन” कृष्ण प्रेम मांग रहे हैं । कृष्ण नाम संकीर्तन मांग रहे हैं । ताकि क्या हो जाए ? “कीर्तनीय सदा हरी” हो जाए । नाम संकीर्तन हमारा जप तप खंडित नहीं हो जाए और अधिक हम उत्कंठीत होके हम अधिक ध्यान पूर्वक जप करें । मुझे यह भी याद आया कि यह जो दैन्य भाव या दास्य भाव चैतन्य महाप्रभु ने प्रकट किया है उसकी अभिव्यक्ति हुई है । इसी को दैवी संपदा भी कहा है ! भगवत् गीता में 16वे अध्याय का सिरसा की है दैवी संपदा तथा आसुरी संपदा । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जो इस शिक्षाष्टक के रूप में जो ऊंचा अभिव्यक्ति प्रकट किए हैं यह है दैवी संपदा । किंतु इसके विपरीत होते हैं आसुरी संपदा । जिसको श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे “भावांबुधौ” या “माया – बद्ध हञा” , “भवार्णवे पड़ियाछों” भवार्णवे मैं पड़ा हूं पतित हूं बद्ध हूं । या कुछ आसुरी संपदा “संपदा” मतलब संपत्ति, आसूरो की संपत्ति , आसुरों के विचार, असुरों के भाव । सुन तो लो ऐसी शिक्षा भी भगवान भगवत् गीता में दे रहे हैं ।
*इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।*
*इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ १३ ॥*
( भगवत् गीता 16.13 )
*अनुवाद:-* आसुरी व्यक्ति सोचता है, आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से मैं और अधिक धन कमाऊँगा । इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढ़कर और अधिक हो जायेगा ।
यह भी मैंने प्राप्त किया है, और वह भी प्राप्त करूंगा मेरे सारे योजनाएं हैं । मेरे कए सारे प्रकल्प है उसी के साथ “प्राप्स्ये मनोरथम्” इतना धन मेरे पास है और भी “भविष्यति पुनर्धनम्” और भी धन को कमाऊंगा , धन को बढ़ाऊंगा । यह डिपाजिट फिक्स डिपाजिट होंगे । कंपाउंड इंटरेस्ट आता जाएगा मेरा धन और भी बढ़ेगा । हरि हरि बोल !! ऐसे विचार वाले लोग को आप जानते हो ? हां ? आप नहीं जानते हो वैसा लोग तो है नहीं सोलापुर में या नागपुर में ? जा होंगे तो हमारे बारे में क्या है ? आपके ऐसे विचार तो नहीं है ? यह सोचने के लिए बाध्य करता है । यह कृष्णा का भगवत् गीता का वचन हरि हरि !! और आगे भी है । …
*असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।*
*इश्र्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ १४ ॥*
( भगवत् गीता 16.14 )
*अनुवाद:-* वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिये जाएंगे । मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ । मैं भोक्ता हूँ । मैं सिद्ध, शक्तिमान् तथा सुखी हूँ ।
और वो मेरा जो शत्रु पक्ष उसको तो मैंने भगाया है मार दिया है या मरवा दिया है । और जो भी है मेरे प्रहार सूची में काफी लोक है कुछ घर वाले भी है शत्रु ,कुछ पड़ोसी है पहले तो मित्र थे अब वन के शत्रु । या जो व्यापारिक भागीदार ( बिजनेस पार्टनर ) या वह सरकार या वह देश यह वह “र्हनिष्ये चापरानपि” मेरे पास सारी डिफेंस मेकैनिज्म (रक्षात्मक प्रतिक्रिया ) है । मेरे पास वकील है ,मेरे पास धन है ,मेरे पास हथियार है ,मेरे पास कुत्ता भी है ; कुत्तों से सावधान ।
*आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।*
*धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥*
( हितो ऊपदेश )
*अनुवाद:-* आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है।
यह भय ‘भय’ से मुक्त के लिए मेरे सारे व्यवस्था है और एक-एक करके में शत्रुओं को मिटाने वाला हूं । देखिए आपको समझ में आ रहा है तो ! यह विचार मायावि विचार है । यह विचार आसुरी संपदा है । इन विचारों ने तो हम को बद्ध बना दिया है । स्वतंत्र कहां है ? स्वतंत्र नहीं है महाशय । यह विचार आसुरी संपदा का पूरा प्रभाव है । और आगे ..”इश्र्वरोऽहमहं” तो तुलनात्मक दृष्टि से यह सोचना इसीलिए यह विपरीत है जो गीता में आसुरी संपदा एकाग्र मन से सुन रहे हैं यह बिल्कुल उसके विपरीत है इस शिक्षाष्टक के विपरीत भाव है ।
“आयि नन्द-तनुज किंकरं पतितं मां विषमे भावांबुधौ”
“इश्र्वरोऽहमहं” वहां दासोस्मी की बात चल रही है । मैं आपका दास हूं प्रभु । दासोस्मी । तो आसुरी संपदा के भावों के अंतर्गत यह जो सारा संसार चलायमान है इसको भौतिकवाद कहते हैं । उसके अंतर्गत “ईश्वरोऽमहं” फिर क्या अहम भोगी, मैं भोगी हूं ( आई एम द इंजॉयर ) । मैं योगी हूं । उस शिक्षाष्टक में तो में योगी हूं । या में भक्ति योगी हूं , भक्ति करना चाहता हूं । और आपके साथ मेरा संबंध सपना करना चाहता हूं । “आयि नन्द-तनुज किंकरं” आप नंद तनुज हो । अब मैं आपका किंकरं का किकरं हूं । और वैसे आप परमेश्वर हो । और यहां क्या विचार है ? “इश्र्वरोऽहमहं” मैं भगवान हूं ! मैं ईश्वर हूं । अहं भोगी । तो भगवान को भोग नहीं लगाना ! मैं भोगी हूं । सारा संसार मेरे भोग विलास के लिए है । या मनुष्य के भोग विलास के लिए ही है यह अमेरिका लोगों के लिए या चाइनीस भोग विलास की सामग्री है अब तक तो टूरिज्म तो चल रहा था आप सब टूरिस्ट बनकर जा सकते हो यहां वहां शिमला या महाबलेश्वर ,हवाई लेकिन अब तो स्पेस में जान सकते हो टूरिस्ट बंद कर स्पेस (अंतरिक्ष ) में जाकर वहां पर आनंद उठा सकते हो ऐसे पर हेड क्या (प्रति व्यक्ति) पीछे क्या खर्चा होगा ? सिर्फ 2 मिलियन डॉलर । 2000 में काम नहीं होगा ! 2 मिलीयन और फिर डॉलर । दिन आप जाकर अंतरिक्ष में आनंद उठा सकते हो , स्पेस टूरिज्म । वही आसुरी संपदा है । वही भोग विलास का विचार है । पृथ्वी का सत्यानाश किया परिवेश का परिवर्तन चल रहा है उसके बाद ग्लोबल वार्मिंग कर दिया । पृथ्वी का तापमान बढ़ा दिया बुखार चढ़ाया पृथ्वी को । अब हम और स्थानों पर जाएंगे और अंतरिक्ष में जाएंगे वहां भोग विलास होगा । अहं भोगी । तो इस भोग विलास की कोई सीमा ही नहीं है । पूरी प्रकृति का शोषण यहां वहां अब तो युद्ध तारों में होंगे (स्टार वॉर्स ) । युद्ध सिर्फ पृथ्वी पर ही नहीं होंगे, भविष्य में युद्ध कहां होंगे तारों पर ( स्टार वॉर्स ) । हरि हरि !! और क्या है ? “इश्र्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं” मैं बढ़िया हूं। और मैं बलवान हूं, कुछ कसरत करूंगा यह करूंगा वह करूंगा, भगवान बनूंगा और वैसे सुखी हूं मैं । हरि हरि !! और ऐसे सब । मैं धनवान हूं या धनी लोगों से घिरा हूं, मेरे से घराने का हूं , मेरे ऐसे उच्च पदस्थ संपर्किय है । हरि हरि !!
*आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।*
*यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानमोहिताः ॥ १५ ॥*
( भगवत गीता 16.15 )
*अनुवाद:-* मैं सबसे धनी व्यक्ति हूं और मेरे आस-पास मेरे कॉलिंग संबंधी है । कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है । मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा । इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं ।
आसुरी संपदा वाला व्यक्ति क्या सोचता है ? वैसे भगवान ने ऐसी सोच दी है या व्यवस्था की है ऐसी सोच हे माया का ही ! या भगवान की माया है !
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।*
*मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ १४ ॥*
( भगवत् गीता 7.14 )
*अनुवाद:-* प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है । किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं ।
यानी मेरी माया,भगवान की माया और उस माया का ऐसा प्रभाव है मम “माया दुरत्यया” तो उस माया के या मायावी विचारों से प्रभावित हुआ व्यक्ति फिर सोचता है “कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया” और कौन है मेरा जैसा कौन है ? हरि हरि !! मेरा जैसा कौन सुंदर है ? मेरे जैसा कौन है लिखा पढ़ा ? मेरे जैसा घराना और कोई घराना ? इत्यादि इत्यादि .. । कुंती महारानी ने कहा है । तो यह कुछ उदाहरण थे । आसुरी संपदा वाले जो जन है, जनता होते हैं इनकी संख्या बहुत बड़ी है इसलिए कहा है …
*मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये ।*
*यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥ ३ ॥*
( भगवत् गीता 7.3 )
*अनुवाद:-* कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है ।
हजारों लाखों में से कोई एक ही भगवान की ओर मुड़ता है और दैवी संप्रदा से प्रभावित होता है और भगवान की शरण आता है और फिर उसको कहने चाहिए ..
*आयि नन्द-तनुज किंकरं पतितं मां विषमे भावांबुधौ* ।
*कृपया तव पाद-पंकज-स्थित-धूली-सदृशं विचिंतय ॥*
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय !!*
*श्रील प्रभुपाद की जय !!*
*॥ गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥*
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 26 मई 2021
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 814 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। क्या आप सब तैयार हो? यस? नो? नहीं नहीं, हां हां। हरि! हरि! नरसिंह चतुर्दशी महोत्सव की जय! संभावना है कि आप अब तक भी नरसिंह चतुर्दशी के मूड़( मनोदशा) में होंगे या हैं। भगवान् कुछ समय पहले ही तो संध्याकाल में प्रकट हुए थे और तत्पश्चात अपनी झलक दिखलाकर अंतर्ध्यान हो गए। उनकी लीला राम जैसी नहीं है जो 11000 वर्षों तक रहे थे अर्थात राम के जन्म की लीला, तत्पश्चात बाल लीला फिर किशोरावस्था की किशोर लीला तत्पश्चात अतंत अंतर्ध्यान हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण 125 वर्ष तक रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु 48 वर्ष रहे। भगवान की लीलाएं कुछ ऐसी भी रही हैं जैसे कोई इमरजेंसी अथवा आपातकालीन स्थिति है अर्थ कोई असुर, किसी भक्त को परेशान कर रहा है। जैसे कि भगवान् कहते हैं
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
( श्रीमद् भगवत गीता ४.७)
अनुवाद:- हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ ।
जब धर्म की ग्लानि होती है, तब भगवान प्रकट होते हैं। जिस प्रकार नरसिंह भगवान् प्रकट हुए थे। जो भी समस्याएं थी, उनको निपटा दिया।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( श्रीमद् भगवत गीता ४.८)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
तत्पश्चात लीला समाप्त। उन्होंने प्रह्लाद महाराज से अपना वात्सल्य प्रकट किया अर्थात प्रह्लाद से प्रेम किया। प्रह्लाद ने भी प्रेम् के वचन कहे। देवी देवताओं को दर्शन दिया, उनकी संस्तुति को भी सुना और कार्य समाप्त। क्विक इन और आउट( शीघ्र ही अंदर और बाहर)। इस प्रकार कई सारे अवतारों की लीलाएं प्रकट और अप्रकट होती रहती है। भगवान कोई विशेष कार्य अथवा कोई आपातकालीन स्थिति हेतु
प्रकट अथवा अंतर्धान होते हैं तत्पश्चात आगे बढ़ते हैं या अपने धाम वापिस लौट जाते हैं। हम वैष्णवों या गौड़ीय वैष्णवों के लिए तो प्रतिदिन उत्सव है। जैसे हमारे कानों के लिए प्रतिदिन श्रवण उत्सव तो है ही। भगवान् के इतने सारे अवतार हैं।
रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु। कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान् यो गोविंदमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
( ब्रह्म- संहिता ५.३९)
अनुवाद:- जिन्होंने श्री राम, नरसिंह, वामन इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत् में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदि पुरष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
या
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( श्रीमद् भगवत गीता ४.८)
कल यह अवतार हुआ तो आज यह अवतार हुआ, फिर यह अवतार हुआ। तत्पश्चात हम उस अवतार की कथा या लीला का श्रवण करते हैं व उत्सव मनाते हैं। केवल विष्णु और कृष्ण या अवतारों के लिए ही उत्सव नहीं होते। अपितु कई सारे वैष्णव भी प्रकट होते हैं या विष्णुतत्व प्रकट होते हैं। पता नहीं किसकी संख्या अधिक है। वैसे वैष्णवों की संख्या अधिक होनी चाहिए।
अद्वैतमच्युतमनादिमनंतरूपम् आद्यं पुराणपुरषं नवयौवनं च। वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविंदमादिपुरूषं तमहं भजामि।।
( ब्रह्म- संहिता ५.३३)
अनुवाद:- जो वेदों के लिए दुर्लभ हैं किंतु आत्मा की विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ हैं, जो अद्वैत हैं, अच्युत हैं, अनादि हैं, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ। भगवान के अनंत रूप हैं।
भक्तों के कितने रूप हैं? कितने वैष्णव हैं, सारा बैकुंठ जगत या सारा गोलोक, साकेत, अयोध्या, वैष्णवों से भरा पड़ा है। वहां की सारी जनसंख्या 100% वैष्णव है। वहां कोई और है ही नहीं। नास्तिक तो है ही नहीं। सारे आस्तिक ही हैं।
आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम्। तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम्।।
( पद्म पुराण श्लोक संख्या 31)
अनुवाद:- ( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा:) हे देवी, यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है, लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है। किंतु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है, उन वैष्णवों की सेवा, जो (वैष्णव) भगवान् विष्णु के सम्बंध में हैं।
विष्णु की आराधना या भगवान के असंख्य अलग अलग अवतारों की आराधना करने वाले वैष्णव कहलाते हैं। सारा वैकुंठ जगत अथवा वैकुंठ लोक वैष्णवों से भरा पड़ा है। गोलोक में वैष्णव ही वैष्णव है। (मुझे तो और कुछ भी कहना है लेकिन…) भगवान् भी प्रकट होते हैं। इस दिन यह भगवान्, उस दिन वह भगवान् , ये अवतार, वह अवतार इत्यादि प्रकट होते हैं और हम उत्सव मनाते हैं। भगवान के भक्त भी अवतरित होते हैं अथवा प्रकट होते हैं। हम उनके जन्म दिवस को भी मनाते हैं। इस तरह से प्राय: या प्रतिदिन कोई न कोई उत्सव अथवा विष्णु का अवतार या किसी वैष्णव का प्राकट्य दिन अथवा जन्मदिन होता ही है। इसी के साथ हमें मजा आता है। हम आनंद लूटते हैं, उत्सव मनाते हैं। वैष्णव कोई उपाधि नहीं है।
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषीकेण हृषिकेश सेवनं भक्तिरुच्यते।।
( भक्तिरसामृतसिंधु १.१.२)
अनुवाद:- भक्ति का अर्थ है समस्त इंद्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं।
संसार में कई सारी उपाधियां हैं। मैं अमेरिकन हूं, मैं भारतीय हूं, मैं यह, वह.. मैं काला, गौरा , स्त्री, पुरुष .. हिन्दू, मुसलमान इत्यादि हूँ, उसका कोई अंत ही नहीं है। हम संसारी लोगों के लिए इस संसार में कितनी सारी उपाधियां / पद होते हैं किंतु वैष्णव कोई उपाधि नहीं है। यदि है तो, यह शाश्वत उपाधि है। आत्मा वैष्णव है। इस उपाधि से मुक्त नहीं होना है। सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं। गर्व से कहो कि हम हिंदू है। हिंदू उपाधि हो गई। हमें इस उपाधि से मुक्त होना है। अतः ऐसी कई सारी उपाधियां हैं जिनसे हमें मुक्त होना है किन्तु वैष्णव होना, यह उपाधि शाश्वत है। जीव की यह शाश्वत पहचान है। जीव कौन है, कैसा है? जीव वैष्णव है। जीव विष्णु की आराधना करता है। वह भगवान की आराधना करता है।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.६४)
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो।
मुझे नमस्कार करो। मुझे विष्णु , राम, नरसिंह को नमस्कार करो। आराधना करो ।
हम वैष्णव तिथियां मनाते हैं, आज वैष्णव तिथि है, पर हम इस संबंध में कितना कह पाते हैं, यह बात दूसरी है।
पहले भगवान् के विषय में कहेंगे। आज भगवान राधा रमन देव जी का प्राकट्य दिवस हैं। आज माधवेंद्र पुरी का जन्म दिवस है । आज श्रीनिवास आचार्य का आविर्भाव दिवस है। परमेश्वरी दास ठाकुर का तिरोभाव दिवस दिवस हैं। श्रीकृष्ण की जलविहार की लीलाएं भी आज ही सम्पन्न हुई थी, उसका भी आज ही सलिल उत्सव मनाया जाता है। यह बंगाल में अत्याधिक प्रसिद्ध है। सलिल विहार! हरि! हरि!
अभी पहले हम राधा रमण देव जी का संस्मरण करते हैं।
गोविन्द जय-जय गोपाल जय-जय।राधा-रमण हरि, गोविन्द जय-जय॥१॥
श्री राधा रमण, वृंदावन के राधा रमण हैं। वे और कहीं के हो भी नहीं सकते। राधा के साथ रमण भगवान कृष्ण का वृंदावन में ही होता है। इसलिए राधारमण वृंदावन के होते हैं। यहां भगवान् राधारमण के प्राकट्य की बात है। आज के दिन राधारमण प्रकट हुए अर्थात आज के दिन वृंदावन के राधा रमण के विग्रह प्रकट हुए थे या भगवान राधारमण के रूप में प्रकट हुए थे। यह कुछ 500 वर्ष पूर्व की बात है। राधारमण, गोपाल भट्ट गोस्वामी की प्रसन्नता के लिए प्रकट हुए या भगवान् ने गोपाल भट्ट गोस्वामी को राधा रमण के रूप में दर्शन दिए। पूर्व में वह शिला थे, एक बार गोपाल भट्ट गोस्वामी, हिमालय में गंडकी नदी पर गए थे। वह नदी काफी पवित्र नदी है। उस नदी में शिलाएं प्राप्त होती हैं। विश्व भर में या भारतवर्ष में जहां-तहां अधिकतर शिलाएं फैल रही हैं अर्थात यह शिला, वह शिला जिनकी आराधना होती है। उन शिलाओं की प्राप्ति गंडकी नदी से होती है। गोपाल भट्ट गोस्वामी जब वहां गए। वे उस नदी में प्रवेश करके स्नान कर रहे थे तब कुछ शिलाएं उनके हाथ में अनायास बिना प्रयास के आ रही थी। वे उठा नहीं रहे थे लेकिन शिलाएं जंप (कूद कर) करके उनके हाथ में पहुंच जाती। वे उनको पुनः नदी के जल में रखने का प्रयास करते, तब वे शिलाएं पुनः उनके हाथ में आ जाती। तब वे समझ गए कि शिलाएं उनको चाहती हैं अर्थात शिलाएं चाहती हैं कि गोपाल भट्ट गोस्वामी उनकी आराधना करें। इसलिए वे उन्हें वृन्दावन में लेकर आए।
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना। श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ। युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
(श्री श्री गुर्वाष्टक श्लोक संख्या 3)
अर्थ:- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
गोपाल भट्ट गोस्वामी विधि पूर्वक उनकी आराधना कर रहे थे। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने हरि भक्ति विलास नामक ग्रंथ लिखा है। यह बड़ा ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है। उस ग्रंथ में अर्चना पद्धति और भी कई सारी तकनीकी विधि-विधानों का उल्लेख हुआ है। उसमें गोपाल भट्ट गोस्वामी ने कई सारी शिक्षाएं लिखी है। वे भी उस अर्चना पद्धति के अनुसार अपनी शिलाओं की आराधना कर रहे थे।
नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ-शरण्याकरौ राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे-रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥
अर्थ:- मैं श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ, जो अनेक शास्त्रों के गूढ़ तात्पर्य विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषी थे, तीनों लोकों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्तमधुप के समान थे।
गोपाल भट्ट गोस्वामी अकेले तो नहीं थे।अन्य भी 5 षड् गोस्वामीवृंद थे। वैसे लोकनाथ गोस्वामी, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, भूगर्भ गोस्वामी भी थे। अन्य गोस्वामी भी विग्रह की आराधना कर रहे थे। रूप गोस्वामी ‘राधा गोविंद’ की आराधना कर रहे थे।
जीव गोस्वामी ‘राधा दामोदर’ की आराधना कर रहे थे। इसी प्रकार अन्य गोस्वामियों के विग्रह सम्पूर्ण, पूर्ण रूप वाले सर्वांग सुंदर हैं लेकिन गोपाल भट्ट गोस्वामी के पास केवल शिला ही थी। भगवान के रूप के सारे अवयव, अंग पूर्ण विकसित या प्रकट हैं, लेकिन उसके दर्शन नहीं थे। गोपाल भट्ट गोस्वामी के मन में भी ऐसी इच्छा प्रकट हो रही थी कि मेरे विग्रह क्यों नहीं हैं? मेरी तो शिला ही है। मैं इनको मुरली अर्पित करना चाहता हूं, मैं इनको मुकुट अर्पित करना चाहता हूं, मैं इनके चरणों की सेवा करना चाहता हूं, मैं उनको जूते पहनने के लिए देना चाहता हूं या कटी प्रदेश अर्थात कमर में कुछ अलंकार, वस्त्र, धोती पहनाना चाहता हूं। उनको कुर्ता पहनाना चाहता हूं इत्यादि इत्यादि।
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।
अर्थ:- जिनके करकमल वंशी से विभूषित हैं, जिनकी नवीन मेघ की-सी आभा है, जिनके पीत वस्त्र हैं, अरुण बिम्बफल के समान अधरोष्ठ हैं, पूर्ण चन्द्र के सदृश सुन्दर मुख और कमल के से नयन हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी भी तत्त्व को मैं नहीं जानता।
इस तरह से वंशीविभूषितकरान्न है अर्थात यदि इनके कर कमल, हाथ है तो बंसी बजाएंगे।
इस प्रकार गोपाल भट्ट गोस्वामी की इच्छा तीव्र होती जा रही थी। ऐसे में किसी दानदाता ने गोपाल भट्ट गोस्वामी को सारे श्रृंगार का सम्मान (अलंकार, विग्रह वस्त्र) दान में दे दिया जबकि अभी तो उनके राधा रमण शिला ही थे। यह एक संकेत था कि अब कुछ होने वाला है। वस्त्र, अलंकार, मुरली, करध्वनि बाजूबंद आदि पहुंचे गए थे। तत्पश्चात आज के दिन भगवान ने राधा रमण का रूप धारण किया अथवा वे राधारमण बने। श्री श्री राधा रमण की जय! (संभावना है, कि हम आपको आज दर्शन कराएंगे) पंचकोसी वृंदावन में गौड़ीय वैष्णवों अथवा गौड़ीय आचार्यों के जो सात विशेष मंदिर हैं, उसमें से एक वृंदावन के राधा रमन अथवा गोपाल भट्ट गोस्वामी के राधा रमण का मंदिर बहुत प्रसिद्ध मंदिर है।
हम जब पहली बार वृंदावन में गए थे, उन दिनों में श्री विश्वम्भर गोस्वामी जो कि गोपाल भट्ट गोस्वामी की परंपरा में आने वाले आचार्य हैं, वे उनकी आराधना करते थे। श्रील प्रभुपाद के साथ उनकी बड़ी मित्रता थी। वे राधा दामोदर में उनसे मिलने के लिए आते थे। हम ब्रज मंडल परिक्रमा में भी उनको बुलाया करते थे। वे कभी-कभी आकर सब भक्तों को कथा भी सुनाया करते थे। हरि! हरि! आज राधा रमण का प्राकट्य दिन है। आज बड़े हर्ष उल्लास का दिन है। किसी तरह आज उनके दर्शन जरूर करना। शायद आज हमारी टीम भी आपको दर्शन कराएगी। वैसे उनके ऑनलाइन दर्शन प्रतिदिन उपलब्ध होते हैं। राधा रमण के दर्शन जरूर कीजिएगा।
आज माधवेंद्र पुरी का आविर्भाव अथवा जन्म दिवस है। माधवेंद्र पुरी का क्या कहना। यदि माधवेंद्र पुरी नहीं होते तो हम लोग गौड़ीय वैष्णव नहीं होते। यह गौड़ीय वैष्णवता हमें या सारे संसार और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भी माधवेंद्र पुरी के कारण ही प्राप्त हुई है। माधवेंद्र पुरी के शिष्य ईश्वर पुरी बने व ईश्वर पुरी के शिष्य श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बने। तत्पश्चात महाप्रभु के शिष्य षड् गोस्वामीवृंद बने। यह गौड़ीय वैष्णवता है।
अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्जवल-रसां स्व भक्ति श्रियम्। हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति कदम्ब सन्दीपितः सदा हृदय – कन्दरे स्फुरतु वः शची नन्दनः।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला १.४)
अर्थ:-श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके ह्रदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपने अहैतु की कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत आकृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने का एक मुख्य उद्देश्य समर्पयितुमुन्नतोज्जवल-रसां अर्थात माधुर्य रस से सारे संसार को आप्लावित करना भी था अर्थात सारे संसार को माधुर्य रस, परकीय भाव अथवा गोपी भाव या राधा भाव का दान करना है। राधा भक्ति देती है, यदि सारे संसार को गोपी जैसी भक्ति सिखानी है, इसलिए इस उद्देश्य से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। ‘समर्पयितुमुन्नतोज्जवल-रसां’ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आकर इस उन्नत उज्जवल रस, भक्ति रस अथवा माधुर्य रस का आस्वादन भी किया और प्रचार और प्रसार भी किया एवं हरे कृष्ण महामंत्र भी दिया। यह माधुर्य रस ही है, माधुर्य भक्ति ही है। इस माधुर्य के रस को प्रकाशित करने वाले माधवेंद्र पुरी थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने माधवेंद्र पुरी को निमित्त बनाया था।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
( श्रीमद भगवत् गीता ११.३३)
अर्थ:- अतःउठो! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीत कर सम्पन्न राज्य का भोग करो। ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।
निमित्तमात्रं माधवेंद्र पुरी हमारे गौड़ीय वैष्णव परंपरा के आदि व प्रथम आचार्य हैं। वैसे वे लक्ष्मीपति तीर्थ के शिष्य थे। माधवेंद्र पुरी ने मध्व सम्प्रदाय में लक्ष्मीपति तीर्थ से दीक्षा ली थी लेकिन मध्व संप्रदाय से और अधिक, कुछ अलग बातें अथवा दिव्य ज्ञान उनके हृदय प्रांगण में प्रकाशित हुआ।
चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥3॥
( गुरु वंदना)
अर्थ:- वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।
इसे ज्ञान, भक्ति, वैराग्य कहा जाए पर यह भगवान की व्यवस्था है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की व्यवस्था से माधवेन्द्र पुरी ऐसे बने।
इस प्रकार ऐसे माधवेंद्र पुरी के हाव भाव भक्ति माधुर्य भक्ति यह सब उनके जीवन में प्रकाशित हुई और उसका प्रचार प्रसार भी किया। उनके कई सारे शिष्य थे उसमें से एक ईश्वर पुरी , जैसा आपको कहा उनके शिष्य बनते हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और फिर उस परंपरा में हम तक यह माधवेंद्र पुरी की शिक्षाएं, उनका अनुभव, उनका साक्षात्कार पहुंचा। एक समय माधवेंद्र पुरी उड़ीसा में थे और वे वृंदावन पहुंचते हैं फिर वहां उनके जीवन में उनके हृदय प्रांगण में माधुर्य भक्ति प्रकाशित होती है या प्रकट होती है।
आज श्रीनिवास का भी आविर्भाव दिवस है उनका चरित्र अद्भुत है, वे बृज वास और गोवर्धन की परिक्रमा किया करते थे। परिक्रमा के मार्ग में जतिपुर आता है आपको याद है ? गोविंद कुंड से जाओ लौठा बाबा तक, वहां से फिर हम मुड़ते हैं और फिर थोड़ी ही दूरी पर एक या दो किलोमीटर पर एक जतिपुर नाम का ग्राम या स्थान आता है। यह जती, यति या माधवेंद्र पुरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जब माधवेन्द्रपुरी परिक्रमा करते हुए राधा कुंड , श्याम कुंड के तट पर पहुंचते हैं, श्याम कुंड के तट पर एक बैठक भी है “माधवेंद्र पुरी बैठक” श्याम कुंड के पूर्वी दिशा में जहां वे बैठा करते थे और सब समय राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ
नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ-शरण्याकरौ राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे-रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥2॥
अनुवाद: मैं श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ, जो अनेक शास्त्रों के गूढ़ तात्पर्य विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषी थे, तीनों लोकों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्तमधुप के समान थे।
राधा कृष्ण के भजन में मस्त रहा करते थे वहां बैठकर वहां भक्ति में या राधा कृष्ण के स्मरण में मग्न रहा करते थे और फिर गोविंद कुंड के तट पर उनके नाम से प्रसिद्ध स्थान है वहीं पर भगवान ने दर्शन भी दिया। वहां बैठे बैठे जप कर रहे थे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। वे थोड़े थके थे परिक्रमा करते करते बैठे तो कुछ झपकी आ गई और भगवान प्रकट हुए। तुम्हारे लिए दूध है। माधवेन्द्रपुरी वे प्रसिद्ध थे अयाचक वृत्ति लिए ,कभी किसी से याचना नहीं करते भिक्षाम देही या दुग्धं देही, प्रसादम देही, देही देही नो, बहुत समय से उन्होंने कुछ खाया पिया नहीं था। भूख प्यास थी लेकिन अयाचक वृत्ति, किसी से मांगते नहीं थे कोई आकर दे देता तो ले लेते थे। किंतु उस दिन गोपाल आ गए और दूध का प्याला दे दिया। यहां भगवान के साथ उनका एक सुंदर संवाद भी है दर्शन संवाद , माधवेंद्र पुरी तुम दूध पी लो फिर मैं वापस आ जाऊंगा यह लोटा ले जाने के लिए और माधवेंद्र पुरी ने दूध पी लिया। बालक नहीं आ रहा था लोटा लेने के लिए लेकिन फिर आ गया, पुनः उन्होंने स्वप्न में देखा और स्वप्न आदेश हुआ यहीं पास में मेरे विग्रह हैं। गोपाल के विग्रह, यहां के पुरोहित पुजारी बहुत समय से मुसलमान या यवनों के भय से मुझे गड्ढे में डालकर, मुझे ढक कर गए हैं। मैं यहां काफी परेशान हूं गर्माहट से , मुझे बाहर निकालो ऐसा स्वप्न आदेश हुआ। अगली सुबह जब वे जगे तब पास के गांव वालों को अपने साथ ले लिया और कुछ हथियार भी लिए फिर जहां बताया था वहां पहुंचकर खुदाई हुई और सचमुच वहां भगवान के विग्रह,जो कि भगवान ही होते हैं। मैं ही वहां हूं ऐसा वह बालक कह कर गया था मुझे वहां से निकालो मैं ही हूं।
हरि हरि !
फिर उसकी स्थापना माधवेंद्र पुरी ने गोवर्धन के शिखर पर की और आराधना करते रहे धीरे-धीरे मंदिर निर्माण हुआ। माधवेंद्र पुरी वहां के अन्य बृजवासी , उनके भी आचार्य बने। वो उनके आदेशों का उपदेशों का पालन करने लगे, सहायता सेवा करने लगे, गाय दान देते रहे ,बड़ी गौशाला हुई ताकि गोपाल के लिए भोग नैवेद्य पकवान बनाए जा सके या अन्य मिष्ठान बनाए जा सकते हैं उस मंदिर का विकास होता रहा और अच्छा प्रचार-प्रसार हो रहा है। एक समय या प्रारंभ में उसकी स्थापना के उपरांत, अन्नकूट महोत्सव मनाया माधवेन्द्र पुरी ने। अन्नकूट मतलब अन्न का पहाड़ और अन्न के पहाड़ में कितने सारे पकवान छप्पन भोग, 56 हजार,या छप्पन लाख भोग भी हो सकते हैं। बहुत बड़ी मात्रा मैं उसके ढेर या पहाड़ से अन्नकूट महोत्सव माधवेंद्र पुरी ने संपन्न किया और उसकी तुलना 5000 वर्ष पूर्व नंद महाराज ने जो पहली गोवर्धन पूजा संपन्न की थी उस समय जैसे पकवान खिलाए थे और गिरिराज गोवर्धन कह रहे थे अन्योर अन्योर और ले आओ और ले आओ, उस समय जैसे ही अन्न के पहाड़ या खीर के तालाब भरे थे और केवल कृष्ण बलराम की उपस्थिति में नन्द महाराज और बृज वासियों ने जब पहला अन्नकूट या गोवर्धन परिक्रमा महोत्सव संपन्न किया था। इसी तरह ही माधवेंद्र पुरी के अन्नकूट महोत्सव की तुलना , उसके साथ की जाती है। माधवेंद्र पुरी की महिमा का व्याख्यान या बखान इस प्रकार और कौन कर सकता है? माधवेंद्र पुरी जैसे माधवेंद्र पुरी ही थे। अद्वितीय, यूनिक ,मैचलेस ,और फिर संस्थापक आचार्य गौड़िय वैष्णव संप्रदाय के फाउंडर आचार्य, प्रथम आदि संस्थापक आचार्य हैं माधवेन्द्रपुरी। श्रीनिवास आचार्य का भी आज आविर्भाव दिवस है, यह गोपाल भट्ट गोस्वामी के शिष्य थे और यह श्री षडगोस्वामीअष्टक जो है
कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भोनिधी श्रीराऽधीरजन-प्रियौ प्रियकरौ निर्मत्सरौ पूजितौ। श्रीचैतन्यकृपाभरौ भुवि भुवो भारावहन्तारकौ वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥1॥
अनुवाद – मैं, श्रीरूप, सनातन, रघुनाथभट्ट, नघुनाथदास, श्रीजीव एवं गोपालभट्ट नामक इन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीकृष्ण के नाम-रूप’गुण-लीलाओं के कीर्तन, गायन एवं नृत्यपरायण थे, प्रेमामृत के समुद्रस्वरूप थे, विद्वान एवं सर्वसाधारण जनमात्र के प्रिय थे तथा सभी के प्रियकार्यों को करने वाले थे, मात्सर्यरहित एवं सर्वलोक पूजित थे, श्रीचैतन्यदेव की अतिशय कृपा से युक्त थे और भूतल पर भक्ति का विस्तार करके भूमि का भार उतारनेवाले थे।
नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ लोकांना हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ शरण्याकरौ।राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनान्देन मत्तालिकौ वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।२।।
अनुवाद – मैं. श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो अनेक शास्त्रों के गुढतात्पर्य विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषी थे, तीनों लोकों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे, एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्तमधुप के समान थे।
श्रीगौराङ्ग-गुणानुवर्णन-विधौ श्रद्धा-समृद्धयान्वितौ पापोत्ताप-निकृन्तनौ तनुभृतां गोविन्द-गानामृतैः आनन्दाम्बुधि-वर्धनैक-निपुणौ कैवल्य-निस्तारको वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ।।३।।
अनुवाद – मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीगौरांगदेव के गुणानुवाद की विधि में श्रद्धारूप-सम्पत्ति से युक्त थे, श्रीकृष्ण के गुणगानरूप-अमृत की वृष्टि के द्वारा प्राणीमात्र के पाप-ताप को दूर करनेवाले थे, तथा आनन्दरूप-समुद्र को बढाने में परमकुशल थे, भक्ति का रहस्य समझा कर, मुक्ति की भी मुक्ति करनेवाले थे।
त्यक्त्वा-तूर्णमशेष-मण्डलपति-श्रेणी सदा तुच्छवत् भूत्वा दीन-गणेशकौ करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ गोपीभाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहु वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।४।।
अनुवाद – मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की बारंबार वन्दना करता हूँ कि, जो समस्त मण्डलों के आधिपत्य की श्रेणी को, लोकोत्तर वैराग्य से शीघ्र ही तुच्छ की तरह सदा के लिये छोडकर, कृपापूर्वक अतिशय दीन होकर, कौपीन एवं कंथा (गदडी) को धारण करनेवाले थे, तथा गोपीभावरूप रसामृतसागर की तरंगों में आनन्दपूर्वक निमग्न रहते थे।
कूजत्-कोकिल-हंस-सारस-गणाकीर्णे मयूराकुले नानारत्न-निबद्ध-मूल-विटप-श्रीयुक्त-वृन्दावने । राधाकृष्णमहर्निशं प्रभजतौ जीवार्थदौ यो मुदा वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।५।।
अनुवाद – मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो कलरव करनेवाले कोकिल-हंस-सारस आदि पक्षिओं की श्रेणी से व्याप्त, एवं मयूरों के केकारव से आकुल, तथा अनेक प्रकार के रत्नों से निबद्ध मूलवाले वृक्षों के द्वारा शोभायमान श्रीवृन्दावन में रातदिन श्रीराधाकृष्ण का भजन करते रहते थे, तथा जीवमात्र के लिये हर्षपूर्वक परमपुरुषार्थ देनेवाले थे।
संख्यापूर्वक-नामगाननतिभिः कालावसानीकृतौ निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालको ।।६।।
अनुवाद – मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामीयों की वन्दना करता हूँ कि, जो अपने समय को संख्यापूर्वक नाम-जप, नाम संकीर्तन, एवं संख्यापूर्वक प्रणाम आदि के द्वारा व्यतीत करते थे; जिन्होंने निद्रा-आहार-विहार आदिपर विजय पा ली थी, एवं जो अपने को अत्यन्त दीन मानते थे, तथा श्रीराधाकृष्ण के गुणों की स्मृति से प्राप्त माधुर्यमय आनन्द के द्वारा विमुग्ध रहते थे।
राधाकुण्ड-तटे कलिन्द-तनया-तीरे च वंशीवटे प्रेमोन्माद-वशादशेष-दशया ग्रस्तौ प्रमत्तौ सदा। गायन्तौ च कदा हरेर्गुणवरं भावाभिभूतौ मुदा वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।७।।
अनुवाद – मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि जो प्रेमोन्माद के वशीभूत होकर, विरह की समस्त दशाओं के द्वारा ग्रस्त होकर प्रमादी की भाँति, कभी राधाकुण्ड के तटपर, एवं कभी वंशीवटपर सदैव घूमते रहते थे. और कभी-कभी श्रीहरि के गुणश्रेष्ठों को हर्षपूर्वक गाते हुए भावविभोर रहते थे।
हे राधे ! व्रजदेविके ! च ललिते ! हे नन्दसूनो, ! कुत: श्रीगोवर्धन-कल्पपादप-तले कालिन्दिवन्ये कुतः । घोषन्ताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर्महाविह्वलौ वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।८।।
अनुवाद – मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो ‘हे व्रजकी पूजनीय देवी ! राधिके ! आप कहाँ हो? हे ललिते ! आप कहा हो? हे व्रजराजकुमार ! आप कहाँ हो ? श्रीगोवर्धन के कल्पवृक्षों के नीचे बैठे हो, अथवा कालिन्दी के कमनीय कूलपर विराजमान वनसमूह में भ्रमण कर रहे हो क्या ?’ इस प्रकार पुकारते हुए विरहजनित पीडाओं से महान विह्वल होकर, व्रजमण्डल में चारों ओर भ्रमण करते रहते थे।।
यह रचना श्रीनिवास आचार्य की है। चैतन्य महाप्रभु की पहली टीम तो षड गोस्वामी गण ही थे और फिर जो अगली पीढ़ी रही यह सेकंड जनरेशन आचार्य षड गोस्वामी वह ६ थे, बाद में तीन और हो जाते हैं उनको आचार्य “त्रय” कहते हैं तीन आचार्य “श्यामानंद ,नरोत्तम और श्रीनिवास” वैसे यह सभी एक समय ,एक साथ ब्रज में ही थे. वे तीनों ही पूर्व भारत से थे। वे बंगाल, मणिपुर, उड़ीसा क्षेत्र के थे किंतु एक समय यह “त्रय” आचार्य वृंदावन में थे और यह तीनों ही तीन अन्य गोस्वामी से शिक्षित, दीक्षित थे। जैसे श्रीनिवासाचार्य गोपाल भट्ट गोस्वामी के शिष्य थे और नरोत्तम लोकनाथ गोस्वामी के शिष्य थे श्यामानंद ह्रदय चैतन्य के शिष्य थे। जीव गोस्वामी ने इनको यह पदवी दी है कि तुम हो गए श्यामानंद ,पंडित! और नरोत्तम दास, ठाकुर! इस तरह एक को पंडित की पदवी दी दूसरे को ठाकुर की पदवी दी और श्रीनिवास आचार्य तुम होगे आचार्य! उनको यह आचार्य पदवी दी। पदवी देने वाले जीव गोस्वामी थे और फिर इन तीनों को बंगाल में प्रचार करने के लिए भेजा ।प्रचार कैसे करेंगे ? बुक्स आर द बेसिस ग्रंथ ही आधार हैं। उस समय गौड़िय ग्रंथों की लिपि या पांडुलिपि बहुत बड़ा भंडार था। इनको दो कार्टस में भर दिया और इन तीनों ने , श्यामानंद पंडित नरोत्तम दास ठाकुर और श्रीनिवासाचार्य बंगाल की ओर प्रस्थान किया और रास्ते में बिहार बंगाल में, विष्णुपुर नाम का स्थान जब आया , तब रात्रि के समय वहां पर पड़ाव हुआ। उसी रात्रि को बड़ी दुर्देव की घटना घटी , क्या हुआ ? सारे ग्रंथों की चोरी हुई। जो ग्रंथ इन तीनों के लिए या सभी गौड़ीय वैष्णव के लिए प्राणों से प्रिय थे उन शास्त्रों के ग्रंथों के रूप में वांग्मय मूर्ति भगवान ही थे। ऐसी संपत्ति की चोरी हुई। फिर क्या कहना, अगले दिन जब चोरी का पता चला वह सभी अत्यंत व्याकुल हुए और खोज प्रारंभ हुई, लेकिन श्रीनिवास आचार्य ने कहा कि मैं इन ग्रंथों को जरूर ढूंढ निकलूंगा। नरोत्तम दास और श्यामानंद तुम आगे बढ़ो , और फिर श्यामानंद उड़ीसा गए और नरोत्तम दास बंगाल ।
अब श्रीनिवासाचार्य ग्रंथो को खोज रहे थे, खोजते खोजते पता चला कि वहां का राजा ही डाकू की तरह था या चोर था। उसे स्वयं चोरी करने की आवश्यकता नहीं थी। वह अपने दलों को भेजता था चोरी करने या डाका डालने के लिए वीरहमवीर उस राजा का नाम था। श्रीनिवासाचार्य खोजते खोजते पता लगाते लगाते राज महल में राजा के पास पहुंचे और श्रीनिवासाचार्य के सानिध्य में, इस राजा ने स्वीकार किया कि हां मैं ही चोर हूं मैंने ही चोरी करवाई मुझे माफ कीजिए क्षमा कीजिए उनके चरण पकड़ रहा था. आप ने चोरी की ? कहां है ग्रन्थ दिखाओ तो सही, और राजा ने व्यवस्था की , ग्रंथों को लेकर आओ। फिर जैसे ही ग्रंथों को वहां लाया गया श्रीनिवासाचार्य साष्टांग दंडवत प्रणाम कर रहे हैं। ग्रंथों को छू रहे हैं और व्याकुल हो रहे हैं क्रंदन कर रहे हैं उन ग्रंथों के दर्शन और स्पर्श से और श्रीनिवास आचार्य के हाथ , ग्रंथों का स्पर्श कर रहे हैं। तो राजा वीरहमवीर ने श्रीनिवास आचार्य के चरणों को पकड़ा वो क्षमा याचना मांग रहे हैं। आप देख रहे हो ग्रंथों का खजाना है यह , यह भगवान की संपत्ति है, भगवान ही है। ग्रंथों की आराधना होती है, श्रीनिवास आचार्य ग्रंथ लेकर बंगाल पहुंचते हैं। श्रीनिवासाचार्य से कई सारे वैष्णव आके मिलते हैं। जहां-तहां इस तरह उनके चरित्र का वर्णन आता है कि वह कैसे कहां कहां गए। शांतिपुर गए ,श्रीखंड गए, या सर्वत्र जाते हैं, जगन्नाथपुरी जाते हैं वहां और भक्तों से भी मिलते हैं। कुछ विशेष मुलाकातें भक्तों के साथ, उसका भी वर्णन हम देखते हैं ।
हरि हरि !
परमेश्वरी ठाकुर आज उनका भी तिरोभाव तिथि महोत्सव है। गौण गणोदेश दीपिका के अनुसार वह एक ग्वाल बाल मित्र थे अर्जुन नाम के , कृष्ण लीला में वे अर्जुन थे। अब परमेश्वरी ठाकुर के रूप में श्रीचैतन्य महाप्रभु की लीला में , उन्होंने योगदान दिया और वैसे यह परमेश्वरी दास ठाकुर नित्यानंद प्रभु के परिकर हैं। ठीक है अब मै यहीं विराम देता हूँ।
हरे कृष्ण , गौर प्रेमानंदे , हरि बोल !
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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा पंधरपुर धाम से*
*दिनांक 25 मई 21*
जय नरसिंह , श्री नरसिंह , जय जय नरसिंह । प्रल्हादेश । ओम नमो भगवते नरसिंहाय । वैसे ओम नमो भगवते वासुदेवाय होता है वैसे ओम नमो भगवते नरसिंहाय आज है , या वासुदेव ही बनते हैं । वासुदेव सर्वमिदी , वासुदेव ही नरसिंह बनते हैं फिर ओम नमो भगवते नरसिंहाय । राम आदि वासुदेव ही बनते है , सर्वमेस्ष्ट नाना अवतार , वासुदेव कृष्ण के कई सारे अवतार है । वह सभी भगवान है । ओम नमो भगवते मतलब भगवान , भगवान को नमस्कार । नमः भगवते , भगवते नमः , भगवान को नमस्कार । आज प्रकट होने वाले भगवान नरसिंह देव , नरसिंह चतुर्दशी महोत्सव की जय । उनको हमारा प्रणाम , आप भी प्रणाम करना चाहोंगे , कोई जबरदस्ती तो नहीं है लेकिन , हरि हरि । भगवान को नमस्कार कीजिए । ओम नमो भगवते नरसिंहाय , जैसे हम कहते हैं वैसे हमको करना चाहिए । जैसे हम कहते हैं वैसे हमको सोचना चाहिए और वैसे हमको करना चाहिये । फिर क्या होगा ?
*एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् । परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥५१* ॥ *पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः ।* *श्रेयो दिशल्यभिमतं यद्धादिषु देहिनाम् ॥ ६ ॥*
(श्रीमद्भागवत 4.8.59)
*अनुवाद :* इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन , वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति – विधियों के कार्यों में मग्न रहता है , उसे उसकी इच्छानुसार भगवान् वर देते हैं । यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म , अर्थ , काम भौतिक संसार से मोक्ष चाहता तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं ।
वाचा से कहा फिर मन पूर्वक कहा ,
*मनो मध्ये स्थितो मंत्र मंत्र मध्ये स्थितं मन मनो मंत्र समायुक्तम येतधी जप लक्षण ।*
मंत्र को मन में स्थित किया और फिर काया उससे भी कुछ सिर को झुकलिया या साष्टांग दंडवत प्रणाम किया , यह फिर कायेन मनसा वाचा हुआ । जैसे हम कहते हैं वैसा ही हम सोचे या सोचना और कहना , या कई बार हम कहते तो है लेकिन सोचते नही । कहते एक है और कहीं सोचते और ही है , ऐसा भी कई बार होता है । हरि हरि । यह अभी थोड़ी देर आपको शिक्षा या स्मरण दिलाया जा रहा है । वैसे मैंने यह सोचा तो नहीं था कि यह सब कथा के अंतर्गत होगा लेकिन अब यह सब भगवान ही प्रेरणा देते हैं और कुछ बातें बुलवाते है । केवल हमने कहा ही नहीं है , ओम नमो भगवते नर्सिंहाय और उनके कई सारे नाम है । वैसे नरसिंह सहस्त्र नाम भी हैं , नरसिंह के हजार नाम है लेकिन नरसिंह कृष्ण ही है तो नरसिंह के भी नाम है । जो इन नामों का उच्चारण करेंगे , वह कहते ही है ओम नमो भगवते नरसिंहाय , इत्यादि इत्यादि नाम कहेंगे फिर नमः कह ही रहे हैं । नमस्कार भी हमने किया ।
*“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |*
*मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||”*
(भगवद्गीता18.65)
अनुवाद
सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
यह जो कृष्ण ने गीता में कहा है उसको भी हमको आज करना है । उनका स्मरण करना है , आज नरसिंह भगवान का स्मरण करना है आज उनका दिन है , उनके प्राकट्य का दिन है । *मन्मना भव मद्भक्तो* उनके भक्त बनना है । प्रल्हादेश , भगवान का एक नाम है । आपने सुना है? *प्रल्हादेश* जय नरसिंह श्री नरसिंह , जय जय नरसिंह । प्रल्हादेश मतलब क्या? प्रह्लाद जमा ईश , प्रल्हाद के ईश आप ईश हो , ईश्वर हो , परमेश्वर हो किनके ? प्रह्लाद के , प्रल्हादेश । प्रह्लाद के ईश तो फिर हमारे भी है । *मन्मना भव मद्भक्तो*
हमको नरसिंह भगवान का भक्त बनना है वैसे यह कोई नई बात नहीं है , चलो आज भगवान के भक्त बनते हैं , हम सदा के लिये ,सदैव ही हम भगवान के भक्त हैं , आज स्मरण दिलाया जा रहा हैं । हां , हा , आप भगवान के भक्त हो ही , नित्य दास हो । *मन्मना भव मद्भक्तो* उनका स्मरण करना है, उनका भक्त बनना है और मध्य आदि उनकी आराधना करनी है इसलिए आज यज्ञ भी है , यह आराधना ही है । इस यज्ञ के माध्यम से हम आराध्या करेंगे , प्रार्थना करेंगे , नरसिंह भगवान की आराधना करेंगे , स्वागत करेंगे , उनकी अर्चना करेंगे उनका स्वागत करेंगे और प्रणाम करेंगे ।
*मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |*
नमस्कार भक्ति का अंग है ।
*नमस्ते नरसिम्हाय प्रह्लाद आल्हाद दायिने* प्रतिदिन हम ऐसी प्रार्थना करते हैं , श्रील प्रभुपाद ने हमको यह प्रार्थना सिखाई है । हमने कल या परसों कहा था कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नरसिंह भगवान को जगन्नाथपुरी मंदिर में यह प्रार्थना करते थे जो प्रार्थना हम करते रहते हैं , नमस्ते नरसिंहाय प्रह्लाद अल्लाह दायिने । प्रल्हाद को अल्लाह देने वाले , दायिने मतलब मेरा प्रणाम , शुरुआत में नमः है ना ? नमः सब जगह जुड़ेगा । नमस्ते नरसिंहाय । नमस्ते प्रल्हाद आल्हाद दायिने । नमस्ते शीलटंका नखालये, यह थोड़ा संस्कृत का ज्ञान हुआ , शुरुवात में कहा है ।नरसिंह भगवान की जय । वह विघ्नहर्ता है । वैसे हम गणेश के बजाय , वैसे गणेश विघ्नहर्ता है , हम वैष्णव नरसिंह भगवान की शरण लेते हैं उनके आश्रय में जाते हैं और उन्हीं से हमारे विघ्न का विनाश करवाते हैं । वैसे अंततोगत्वा तो वही करते हैं , हम गणेश जी के पास जाते हैं या हम सीधे ही जाते हैं । बीच में कोई व्यक्ति नहीं , हम सीधे नरसिंह भगवान के पास जाते हैं और वह प्रसिद्ध भी है , भक्तिविघ्न विनाशक नरसिंह भगवान की जय । यह भगवान का नाम भी है और यह भगवान का विशिष्ठ भी है ।
भक्ति विघ्न विनाशक , भक्ति के विघ्नों का नाश करने वाले , जैसे प्रल्हाद महाराज के भक्ति में विघ्न बन रहे थे तो हिरण्यकश्यपु का ही विनाश किया । उस विघ्न को हटाया मिटाया , हिरण्यकशिपु को मिटा दिया । हरि हरी । संभावना है , निश्चित ही है वह हिरण्यकशिपु हम ही है , छोटे मोटे हम हिरण्यकशिपु है । यह नही की उंगली करके दिखाये वह हिरण्यकश्यपु । हमें भी हिरण्यकशिपु छुपा हुआ है , हमारे भाव में , हमारे कार्यकलापों में , यही प्रार्थना करे कि नरसिंह भगवान प्रगट होकर हममें जो कुछ हिरण्यकशिपु का अवशेष बचा है , दुनियावाले हिरण्यकशिपु को हीरो बनाते रहते हैं । बॉलीवुड का कोई हीरो भी हिरण्यकशिपु ही होता है । हिरण्यकशिपु मतलब ? हिरण्य मतलब सोना , जो सोना चांदी चाहता है , संपत्ति जुटाना चाहता है तो वह हो गया हिरण्यकशिपु या हिरण्य मतलब सोना । बॉलीवुड हीरो भी होते हैं वह धन जुटाना चाहते हैं और कश्यपू मतलब पलंग या बेड जिस पर हम सोते है । वहीं पर ,
*निद्रया हियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः । दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्ब भरणेन वा ॥ ३ ॥*
(श्रीमद्भागवत 2.1.3)
ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी ) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों भरण – पोषण में बीतता है ।
हम सब , दुनियावाले हिरण्यकशिपु के चेले , शुकदेव गोस्वामी ने कहा है आप मुझे आप दोष नहीं देना । श्री शुकदेव गोस्वामी उवाच , उन्होंने कहा हिरण्यकशिपु की परिभाषा वह भी सुना रहे है , कौन है यह हिरण्यकशिपु ?
*निद्रया हियते नक्तं* रात्रिको गवाते है और *व्यवायेन च वा वयः* वय मतलब आयु , तुझ वय काय बाबा? आयु। व्यवायेन मतलब स्त्री पुरुष संघ में, स्त्री संग में पुरुष संग में अपना जीवन , अपनी आयु अपनी रात बिताते रहते हैं । हरि हरि । ऐसे लोग ही हमारे हीरो होते हैं । हरि हरि । मुझे जल्दी बताना होगा , सात दिनों की कथा तो नहीं है । सात दिवस की कथा तो नहीं है लेकिन अब हमारी प्रार्थना यह होनी चाहिए कि हमें जो हिरण्यकशिपु है ,
*“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||”*
(भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
परित्राणाय साधुनाम आप प्रगट होते हो । मुझे पहले साधु तो बना दो , अगर हम साधु है तो फिर हमारी रक्षा होगी । हम सोच रहे हैं कि हमारी भगवान रक्षा क्यों नहीं कर रहे ? क्यों नहीं कर रहे? क्यों नहीं कर रहे? तुम साधु नहीं हो इसलिए रक्षा नहीं कर रहे हैं , साधु बनकर तो देखो ।
*सत्यं विधातुं निजभृत्यभाधित व्याप्ति च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः ।* *अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्द्वान् स्तम्भे सभायां न मगं न मानुषम् ॥*
(श्रीमद्भागवत 7.8.17)
अपने दास प्रहाद महाराज के वचनों को सिद्ध करने के लिए कि वे सत्य हैं – अर्थात यह सिद्ध करने के लिए कि भगवान् सर्वत्र उपस्थित हैं , यहाँ तक कि सभा भवन के खभे के भीतर भी हैं – भगवान् श्री हरि ने अपना अभूतपूर्व अद्भुत रूप प्रकट किया । यह रूप न तो मनुष्य का था , न सिंह का । इस प्रकार भगवान् उस सभाकक्ष में अपने अद्भुत रूप में प्रकट हुए ।
भागवत में कहा है *स्तम्भे सभायां न मगं न मानुषम्संभ्रमा* भगवान प्रकट हुए , स्तंभ से प्रकट हुए और कैसे थे ? नर भी नही थे , पूरे पशु जैसे भी नहीं थे और मनुष्य जैसे भी नहीं थे । नरहरि थे , *केशवधृत नरहरि रूप* नर मतलब मनुष्य हरि मतलब सिंह , नरहरी जो भगवान का नाम है । हरि मतलब क्या होता है ? हरि मतलब सिंह होता है ।हरि इस शब्द का एक मतलब या शब्दार्थ सिंह होता है । हरी मतलब सिंह तो नरहरी मतलब नर्सिंग । हिरण्यकश्यपु ने भी देखा उस स्तंम्भ से भगवान प्रकट हुए और उन्होंने क्या किया ? *परित्राणाय साधुनाम* प्रल्हाद महाराज की जय । प्रल्हाद की रक्षा की , कैसे रक्षा की ? *विनाशाय च दुष्कृताम् |* उस दृष्ट हिरण्यकश्यपु का संहार करकेब। हमारी प्रार्थना होनी चाहिए कि भगवान हममें या संसार में जहां कहा यह हिरण्यकशिपु छुपा हुआ है ,यह वायरस है ,कोरोनावायरस है । क्या कोरोनावायरस को मारें भगवान की हिरण्यकश्यपु को मारे ? आप क्या चाहोगे? आपकी प्रार्थना क्या होगी? हरि हरि । अरे भाई कितने वायरस को मारेंगे , कितने सारे वायरस है । एक को मार दिया तो दूसरा पैदा हो जाता है , तीसरे को मारा तो चौथा पैदा होता है कुछ ब्लैक फंगस उत्पन्न हुआ तो किसको किसको मारोगे?
मैं ऐसे नही मरूँगा ,अंदर नहीं मारना , बाहर नही मारना , पशु नही मारेगा , मनुष्य नही मारेगा , यह वायरस नही मारेगा , यह जन्तु नही मारेगा ,तो क्या हम मृत्यु से बचेंगे? मृत्यु से बचना नही है , मृत्यु तो होनी ही है, एक बार तो मृत्यु होनी ही है ।
*“जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |*
*तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि || २७ ||”*
(भगवद्गीता 2.27)
अनुवाद
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए |
सर्वोत्तम बात यह है कि हम में जो हिरण्यकशिपु है या हममे जो काम है , लोभ हैं , क्रोध है , मद है , मोह है , मत्सर्य है इन शत्रुओका नरसिंह भगवान विनाश करें और हमें भगवान भक्त बना दे । हमें भगवान भक्ति दे, हिरण्यकशिपु शीलटंका नखालये अपने नखों को उन्होंने शीला बनाया । नखालये , नख आप जानते है ? मिश्रा जी ? नख , नाखून । आलय मतलब कई सारे बड़े तिष्ण नाखून है नरसिंह भगवान के , इसलिए नरसिंह भगवान का एक नाम नखालये है । ऐसे नखालये को मेरा नमस्कार । जिन नाखूनों से , नाखून उस सूची में नहीं था ना? मैं ऐसे नहीं मारा जाऊंगा , मैं वैसे नहीं मारा जाऊंगा तो नाखून उसमें नहीं था इसलिए नाखून । हिरण्यकशिपु का पता नहीं किस को ठगाने का प्रयास चल रहा था लेकिन ठग के लिये यहां भगवान महा ठग बने हैं । महा ठग नरसिंह भगवान की जय । (हसते हुए )है , वह ठग है तो भगवान उन ठगों के लीडर हैं । चोर है तो फिर वह उनके भी , चोरों के भी लीडर है । हरी हरी। *इतो नरसिंह ततो नरसिंह , यतो यतो यामी ततो नरसिंह* भगवान नरसिंह सर्वत्र हो , यहां हो , वहां हो , अंदर हो , बाहर हो , *बहिर नरसिंह , हृदये नरसिंह , नरसिंहाम आदि शरणम प्रपद्ये* ऐसे नरसिंह भगवान के में शरण में जाता हूं , उनको बारंबार प्रणाम करता हूं । यह प्रार्थना है जो अभी हमने आपको सुनाई । नमस्ते नरसिंहाय से लेकर शरणं प्रपद्ये प्रपद्ए तक और एक प्रार्थना हम उसीके साथ गाते हैं , प्रभुपाद ने हमको सिखाई है , वह है जय जगदीश हरे । यह दशावतार स्त्रोत्रों में से एक स्त्रोत्र है । *तवकर कमलवरे नखम अद्भुत श्रृंगम दलित हिरण्यकश्यपु तनु भृंगम केशव ध्रुता नरहरि रूपा जय जगदीश हरे , जय जगदीश हरे* यह गीत गोविंद में यह दशावतार स्तोत्र आता है। कवि जयदेव गोस्वामी की यह रचना है , यह प्रार्थना हम प्रतिदिन करते ही हैं आज भी हमको करनी है । *केशव धृत नरहरि रूप* केशव धृत मतलब केशव ने धारण किया या केशव ही नरहरी बने । केशव धृत राम शरीर , केशव धृत कृम रूप ।10 अवतार के लिए कहा है शे
केशव धृत , केशव धृत बुद्ध शरीर। यह केशव ही है जो कृष्ण से अलग नहीं है कृष्ण ही है इस रूप में , नरसिंह रूप में आज के दिन सतयुग में देखिए । कुछ 15 20 लाख वर्ष पूर्व की बात है और उस दिन भी जब यह वैशाख शुक्ल चतुर्दशी आ गई तो उस समय भी वैशाख मास चलता था और शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष चलता था और जब चतुर्दशी आ गई , आज चतुर्दशी है । यह इतिहास है , हमारे शास्त्र में पुराना इतिहास है । भागवत पुराण है तो ऐसी अचूक जानकारी और ध्यान देने वाले यह ग्रंथ है । भागवतम से पता चलता है वैसे सातवें स्कंध में भगवान नरसिंह की कथा है , कई अध्यायो में यह नरसिंह भगवान की कथा आती है । प्रारंभ से लेकर आठवां , नौवा इस तरह दसवां अध्याय , लगभग 10 अध्याय में नरसिंह भगवान की सप्तम स्कंध में कथा आती है । अधिक समय शुकदेव गोस्वामी ने नरसिंह भगवान के साथ बिताया है । नरसिंह भगवान की कथा फिर प्रल्हाद आ गए , प्रल्हाद का सब चरित्र आ गया तो उसका भी आपको अध्ययन करना है , पढ़ना है, सुनना है, सुनाना है । ठीक है अब मुझे रुकना है । क्योंकि यज्ञ का समय हो चुका है । ठीक है । बने रहिए । जप पूरा कीजिए मैं जहां हूं वहां से ही जब करते रहते हैं । जप में लगे हो अदृश्य मत हो जाओ । ठीक है । हम यही रुकते है ।
नरसिंह चतुर्दशी महोत्सव की जय ।
प्रल्हाद महाराज की जय ।
नरसिंह भगवान की जय।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 22 मई 2021
हरे कृष्ण!!!
इस कॉन्फ्रेंस में जप करने वालों की संख्या में भी वर्धन अथवा वृद्धि हो रही है। स्वागत है। हरि! हरि! हमारे साथ मंगोलिया के भक्त भी जप कर रहे हैं। निश्चित ही अब वे भारतीय हैं। हमारे साथ कई देशों से भक्त जप कर रहे हैं, आप सब का स्वागत है। वैसे देश इत्यादि का कोई भेद नहीं है। सभी अपने ही है, सभी भारतवासी हैं। एक समय भारत पूरी पृथ्वी पर फैला हुआ था और आज भी है, उसके कुछ अवशेष सर्वत्र पृथ्वी पर अब भी पाए जाते हैं। जिसे सिद्ध कर सकते हैं कि यह भारतवर्ष जो अब की इंडिया है अर्थात अब का जो भारत है अथवा भारत का जो नक्शा है, वह ऐसे सीमित नहीं था। पूरी पृथ्वी पर राजा परीक्षित या युधिष्ठिर महाराज राज करते थे। हरि! हरि! हमारा इस प्रकार कुटुम्ब है। वसुधैव कुटुम्बकम्। आप वसुधैव कुटुम्बकम् मानते हो? आप नहीं ! मैं एक बार श्रील प्रभुपाद का मुम्बई रूम कन्वरसेशन प्रवचन सुन रहा था, एक बार श्रील प्रभुपाद से किसी ने पूछा कि क्या आप वसुधैव कुटुम्बकम् मानते हो? श्रील प्रभुपाद ने कहा- हां! हम मानते तो हैं, लेकिन दुनिया नहीं जानती। वैसे प्रभुपाद ने कुछ दूसरे शब्दों में कहा था। कहने का आशय यह था कि कुटुंब तो ठीक है, वसुधैव कुटुम्बकम्। कुटुंब मतलब परिवार, हमारा परिवार कितना बड़ा है। वसुधैव यानि पृथ्वी पर जितने लोग हैं, वे हमारे कुटुंब अथवा हमारे परिवार के हैं। कुटुंब तो ठीक है, हम सभी कहते रहते हैं वसुधैव कुटुम्बकम् लेकिन इस परिवार के मुखिया के बारे में क्या कहना है अर्थात इस परिवार के मुखिया कौन हैं? वह भगवान श्रीकृष्ण हैं। वसुधैव कुटुंबकम का कुछ मतलब निकलता है, अथवा यह बात अर्थपूर्ण होगी। अगर हम कृष्ण को जानते अथवा मानते हैं। कृष्ण केंद्र बिंदु हैं, कृष्ण लीडर (नेता) हैं अर्थात कृष्ण नेतृत्व करते हैं। भगवान् कहते हैं कि वे हम सभी के बीज प्रदान करने वाले पिता हैं।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।
( श्रीमद् भगवतगीता १४.४)
अनुवाद:हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव है और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ ।
जब कृष्ण को स्वीकार करेंगे, तब फिर वसुधैव कुटुम्बकम् होगा। फिर कोई अपना पराया नहीं रह जाता। सभी अपने ही हैं।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
अर्थात् : यह मेरा है, यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है, इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है।
यह मैं तू, मैं तू या अयं निजः परो वेति की बात नहीं रह जाती। ये मेरे हैं, यह अपने हैं। परो अथवा यह पराए हैं। तब परो वेति यह बात नहीं रह जाती। यह सभी अपने ही हैं। ये अपने ही भगवान के हैं, अपने ही कृष्ण के हैं। उसी भावना का नाम कृष्णभावना है। व्यक्ति जब कृष्णभावना भावित हो जाता है, तत्पश्चात यह वसुधैव कुटुम्बकम् जो परिकल्पना अथवा संकल्पना है, अर्थात हमारी संस्कृति का यह एक वचन अथवा जो वाक्य है, वह सिद्ध होता अथवा उसका साक्षात्कार होता है। हम इस प्रकार कृष्णभावना भावित होंगे। सभी हमारे ही हैं। कोई मित्र, कोई शत्रु नहीं है। हरि! हरि!
ईस्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।प्रेममैत्रीकृषोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥
( श्रीमद् भागवतम् 11.2.46)
अनुवाद:- द्वितीय कोटि का भक्त, जो मध्यम अधिकारी कहलाता है, भगवान् को अपना प्रेम अर्पित
करता है, वह भगवान् के समस्त भक्तों का निष्ठावान मित्र होता है, वह अज्ञानी व्यक्तियों पर दया
करता है जो अबोध है और उनकी उपेक्षा करता है, जो भगवान् से द्वेष रखते हैं।
तत्पश्चात हम भगवान् से प्रेम करेंगे। सभी जीवों से हमारा मैत्रीपूर्ण व्यवहार होगा। संसार का जो द्वंद है, वह समाप्त होगा। अपना पराया यह भी द्वंद है, शत्रु मित्र यह भी द्वंद है, देशी विदेशी यह भी द्वंद है, काले गोरे यह द्वंद है, स्त्री- पुरुष यह भी बहुत बड़ा द्वंद है। यह संसार द्वंदो से भरा हुआ है और हम लोग द्वंदो द्वारा पीसे जा रहे हैं।
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||
( श्रीमद् भगवतगीता ४.२२)
अनुवाद: जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं।
हम जब कृष्णभावना भावित होंगे, तब सारे संसार के लोग हमारे परिवार के हैं, सारे संसार के लोगों को मिलाकर एक कुटुंब बनता है, हम इस बात को स्वीकार करेंगे और द्वंद्व से परे पहुंच जाएंगे। द्वन्द्वातीतो विमत्सरः द्वंद्व से अतीत व मात्सर्य से रहित बनेंगे। मानव जाति अर्थात एक एक मनुष्य का जो एक शत्रु मात्सर्य है,
मात्सर्य परा अन्य उत्कर्ष असहनीयं
( श्रीधर स्वामी)
उससे औरों का उत्कर्ष सहन नहीं होता। अन्यों की प्रगति और विकास, औरों की उन्नति असहनीय है। इसी को मात्सर्य कहते हैं।
कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति जब कृष्णभावना भावित होगा, वह द्वन्द्वातीतो विमत्सरः अर्थात मात्सर्य से रहित होगा। यह लाभ ही लाभ है। पूरा संसार, पूरा ब्रह्मांड (कम् से कम् पृथ्वी की बात तो कर ही सकते है) सारी पृथ्वी माता लाभान्वित होगी। पृथ्वी पर जितने भी मनुष्य हैं, लगभग 700 करोड़ , हम सभी लाभांवित होंगे। तब हमारा एक परिवार होगा। इसके टुकड़े नहीं होंगे। जैसे हमने उसके टुकड़े किए हैं। ५००० वर्ष पूर्व या उससे पहले इस पृथ्वी पर भारतवर्ष था। तब सम्राट हुआ करते थे। राजाओं के राजा को सम्राट कहते हैं अर्थात कई सारे राजाओं को मिलाकर एक सम्राट होता था। उनके एंपायर चलते रहते थे। युधिष्ठिर महाराज या परीक्षित महाराज या उससे पूर्व भी कई सारे महाराज हुए थे। विशेषकर महाभारत काल का जो समय है, (लगता है कि मैं यही बाते कहता रहूंगा अभी, मैंने अगला शिक्षाष्टक बताने के विषय में सोचा तो था)
हरि! हरि!
कलि आ धमका, उसने सारे संसार अथवा पृथ्वी के टुकड़े कर उसको बांट लिया जैसे पैतृक संपत्ति को बच्चे बांटते हैं। बच्चे जब छोटे होते हैं, सब मिल जुल कर रहते हैं लेकिन फिर बड़े हो जाते हैं, शादीशुदा हो जाते हैं तब यह सब विभाजन का विचार आ जाता है। मात्सर्य भी होता है, प्रतियोगिता भी चलती है। इसलिए सारी संपत्ति, धन दौलत के टुकड़े अथवा विभाजन होता है। तत्पश्चात उसके लिए लड़ाई होती है। होती है या नहीं आप जानते हो?? उड़ीसा में होती है? मोरिशियस में होती है? मोरिशियस भी तो दुनिया में है। सभी देशों में होती है। हरि! हरि! वैसा ही हुआ। कलियुग अर्थात कलि के साथ धीरे-धीरे विभाजन प्रारंभ हुआ। एक के अनेक देश बन गए। भारतवर्ष अथवा भारतदेश था। उसके छोटे मोटे मिलकर कुछ 200 से अधिक ही कहते हैं, देश बन गए। जैसे आप न्यूयॉर्क में जाओगे। प्रभुपाद कमेंट ( टिप्पणी) किया करते थे – न्यूयॉर्क में यूएनओ अर्थात यूनाइटेड नेशंस आफ ऑर्गेनाइजेशन (संयुक्त राष्ट्र संघ) है। वहां पर जो संयुक्त राष्ट्र संघ की जो इमारत है, वहां सभी देशों के झंडे हैं। वहां सभी देशों ने अपना अपना झंडा लहराया हुआ है। आप उन्हें गिन सकते हो कि कितने देश हैं। वह लगभग 200 के आस पास होंगे। उसका नाम यूएनओ (यूनाइटेड नेशन आर्गेनाईजेशन) है लेकिन प्रभुपाद कहा करते थे कि किस तरह का यूनाइटेड (संगठन) है यह डिस यूनाइटेड नेशन (असंगठित देश) है। पहले एक समय यह यूनाइटेड (संगठित) था, अब यह डिस यूनाइटेड अर्थात असंगठित है। तब भी आप कह रहे हो, यूनाइटेड नेशन। श्रील प्रभुपाद किसी पब्लिक उत्सव अथवा पंडाल प्रोग्राम में कहा करते थे, उन प्रोग्रामों में कई देशों के भक्त रहा करते थे। हमने भी देखा प्रभुपाद मुम्बई व अन्य कई स्थानों पर भक्तों की ओर इशारा करते हुए कहते थे कि यह भक्त जापान से हैं और यह भक्त अफ्रीका से हैं, काडाकूट निग्रो है। (आप काडाकूट निग्रो ) समझते हो? यह जर्मन है, यह इंग्लिश मैन है। यह अमेरिकन, यह कैंडियान, यह ऑस्ट्रेलियन.. प्रभुपाद कहा करते थे कि यह यूनाइटेड नेशन है। अंडर द बैनर ऑफ़ गौरांगा। गौरांगा! गौरांगा! कौन सा झंडा लहरा रहा है? गौरांग महाप्रभु का झंडा लहरा रहा है।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
( श्री श्री शिक्षाष्टकम)
अर्थ:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
प्रभुपाद इसे यूनाइटेड नेशन ऑफ द स्पिरिचुअल वर्ल्ड कहा करते थे। हरि! हरि!
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || २२ ||
(श्रीमद् भगवतगीता ४.२२)
अनुवाद: जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं।
यह जो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः है, जहां पर
भगवान् ने द्वन्द्वातीतो विमत्सरः कहा, वहां पर भगवान् ने यदृच्छालाभसंतुष्टो कहा है।यदृच्छा अर्थात उनकी इच्छा से जो भी प्राप्त होता है अथवा है, लाभ हुआ है, शुभ लाभ हुआ है, उसमें संतुष्ट रहो। यह मात्सर्य छोड़ो।
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||
( श्रीमद् भगवतगीता- ३.३७)
अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
यह काम व क्रोध भी छोड़ना होगा। जब तक काम है, महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् है। यह काम कैसा है? इस काम को जितना खिलाओ पिलाओ, इसकी भूख प्यास बढ़ जाती है। यह कामवासना कभी तृप्त होने वाली नहीं है। इसको नॉट करो। भगवान् ने गीता के तृतीय अध्याय के अंत में अथवा अर्जुन के उस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा।
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||
( श्रीमद् भगवतगीता ३.३६)
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो |
यह चर्चा आगे बढ़ ही रही है, अर्जुन ने कहा था कि यह कौन है? यह क्या है? शक्ति या व्यक्ति कौन है?
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||
( श्रीभगवत् गीता ३.३६)
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो |
किसके द्वारा पापं चरति पुरुषः हम पाप करते ही रहते हैं। अर्जुन आगे पूछते हैं- यह क्यों होता है? कौन करता है? कौन करवाता है? अर्जुन आगे कहते हैं अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय – इच्छा नहीं होते हुए भी। जैसे यह जानते हैं कि यह शराब खराब है। यह है, वह है। यह मना है। यह यम है।
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः बहाचर्य तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्थनम् ॥
( श्रीमद् भागवतम् 3.28.4)
अर्थ:- मनुष्य को चाहिए कि अहिंसा तथा सत्य का आचरण करे, चोरी से बचे और अपने निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करे। वह विषयी जीवन से बचे, तपस्या करे, स्वच्छ रहे, वेदों का अध्ययन करे और भगवान परमस्वरूप की पूजा करे ।
यह यम है। इस यम के राजा यमराज हैं। यह जो यम है, उसका उल्लंघन किया। उसका उल्लंघन किया, तो राजा तैयार है। यह जानते हुए भी अनिच्छन्नपि इच्छा नहीं होते हुए भी पापं चरति अर्थात चरता हैं। जैसे गाए चरती हैं, पशु चरते हैं। वह घास खाती है। मनुष्य क्या करते हैं? पापं चरति। पाप खाते हैं। इस शब्द को नोट करो। पाप चरते ही रहते हैं। पशु जैसे चरते ही रहते हैं। मनुष्य भी पापी जन चरते ही रहते हैं। ऐसा क्यों होता है? यह कौन करवाता है? ऐसा प्रश्न जब अर्जुन ने पूछा है तब उसके उत्तर में कृष्ण कहते हैं- गीता के तृतीय अध्याय के अंत में अर्जुन ने प्रश्न पूछा है, आप इस भाग को पढ़िए। अथ केन प्रयुक्तोऽयं – भगवान् ने तृतीय अध्याय के अंत तक उसका उत्तर दिया है। वैसे यह पूर्ण प्रश्न है, पूर्ण उत्तर है। अर्जुन का एकदम परफेक्ट क्वेश्चन है व भगवान् का एकदम परफेक्ट आंसर है। हमें इस प्रश्नोत्तर को भी समझना चाहिए। प्रश्न को भी समझना चाहिए तत्पश्चात हमें उत्तर को भी समझना चाहिए। गीता के तृतीय अध्याय के अंत में भगवान् कहते हैं
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।।
( श्रीमद् भगवतगीता 3.37)
अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
भगवान् कहते हैं कि तुमने पूछा पूछा ना, हमसे पाप कौन करवाता है? अनिच्छन्नपि- अर्थात इच्छा ना होते हुए भी।
काम एष क्रोध एष
इन दो के नाम लिए। वैसे छह के नाम लेने चाहिए थे। लेकिन दो के नाम लेकर फिर इत्यादि आ जाता है। यह तुम्हारे षड् रिपु अर्थात शत्रु हैं और उसका मुखिया है मिस्टर लस्ट। प्रभुपाद कभी कभी कहा करते थे- यह जो काम है, इस काम का जो अनुज (बाद में जन्म लेने वाला) है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते | सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ||
( श्रीमद् भगवतगीता २.६२)
अनुवाद: इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
काम से क्रोध या काम के बाद क्रोध जन्म लेता है अथवा उत्पन्न होता है। उसी वचन में काम एष क्रोध एष अर्थात इस काम का आगे परिचय देते हुए कृष्ण कहते हैं
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||
अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
महाशनो महापाप्मा, यह खिलाने पिलाने की बात है। यह जो काम है इसका पेट कभी भरने वाला नहीं है। वह कभी संतुष्ट होने वाला नहीं है। जितना भी खिलाओ, काम वासना की पूर्ति का प्रयास करो और मांगेगा और मांगेगा। इसलिए उदाहरण दिया ही जाता है – अग्नि जल रही है तो ऊपर से हम घी या तेल या पेट्रोल उसमें डालते रहेंगे। क्या ऐसी अग्नि को बुझा सकते हो? आग जल रही है और हम उस अग्नि को खिला रहे हैं, तेल और लकड़ी आदि डाल रहे हैं। यह सही तरीका नहीं है। यह आग तो धधकती रहेगी। यह अग्नि महा ज्वाला अथवा ज्वालामुखी बनेगी। अग्नि की जो शिखाएं होती हैं। वे गगनचुंबी शिखाएं गगन को छूने लगेगी। ऐसा प्रलय विनाश के समय होता है। काम एष क्रोध एष।
कृष्ण ने कहा है-
यदृच्छालाभसंतुष्टो
जो भी प्राप्त हुआ है। तुम्हारी जितनी भी जरूरत है और जो प्राप्त हुआ, वही प्राप्त करो। वो भी तुम्हारी जरूरत है, उसमें ही संतुष्ट रहो।
यदृच्छालाभसंतुष्टो या जैसा ईशोपनिषद में कहा है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्।
(ईशोपनिषद मन्त्र१)
अर्थ:- इस ब्रह्मांड के भीतर की प्रत्येक जड़ और चेतन वस्तु भगवान द्वारा नियंत्रित है और उन्हीं की संपत्ति है। अतः मनुष्य को चाहिए कि अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करे जो उसके लिए आवश्यक है और जो उसके भाग के रूप में नियत कर दी गई है। मनुष्य को यह भली-भांति जानते हुए कि अन्य वस्तुएं किसकी है, उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए।
तेन त्यक्तेन भगवान ने हर जीव के लिए कोटा बनाया है। चींटी के लिए इतना, हाथी के लिए इतना, मनुष्य के लिए इतना। इस मनुष्य के लिए इतना, उस मनुष्य के लिए उतना। उसी से संतुष्ट हो जाओ। ऐसे संतुष्ट होने से हम कृष्ण भावना भावित होंगे। यह विचार भी आदेश- उपदेश भी कृष्ण का है। हम उसको समझेंगे। उस पर हम अमल करेंगे तब हम कृष्ण भावना भावित होंगे। हरि! हरि! 5000 वर्ष पूर्व, राजा परीक्षित के बारे में आप जानते हो, उन्होंने कलि को ऐसे माफ किया। उसको चार स्थान दिये (आप जानते हो कौन से चार)
सूत उवाच अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ । द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः॥
( श्रीमद् भागवतम् 1.17.38)
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा : कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी, जहाँ जुआ खेलना , शराब पीना, वेश्यावृत्ति तथा पशु – वध होते हों।
जहां मांस भक्षण होता है, वहां रहो। जहां अवैध स्त्री सङ्ग होता है, वहां रहो। जहां जुआ खेला जाता है, अथवा झूठ व असत्य वचन बोले जाते हैं, या ऐसे कार्य होते है। जहां नशापान होता है पांचवा भी स्थान दिया, पांचवा स्थान धन है। उसमें
ब्लैक मनी है। काला बाजार व काला धन। वहां भी कलि रहेगा, सम्पति में कलि रहेगा।
यदृच्छालाभसंतुष्टो जितनी आवश्यकता है या जितना भगवान् ने दिया है, उससे अधिक चाहिए और चाहिए और चाहिए।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः |कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्र्चिताः ||
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः | ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ||
( श्रीमद् भगवत गीता १६.११-१२)
अनुवाद: उनका विश्र्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है | इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है | वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं |
यह कलयुग का लक्षण है। अन्यायेनार्थसञ्चयान्। अर्थ की प्राप्ति। अर्थ को येन केन प्राकरेण ।
इस प्रकार सारा संसार, सारी मानव जाति, सारे देश प्रतियोगिता में लगे हुए हैं। कौन बनेगा करोड़पति? कौन बनेगा नंबर वन, सबसे धनी व्यक्ति इस संसार में कौन है। मैं नम्बर वन (एक ) में चल रहा था लेकिन अब मैं नंबर दो में आ गया। मैं दुबारा नम्बर वन कैसे बन सकता हूँ। व्यक्तिगत व्यक्ति है, देश है, ये सुपर पावर है। सुपर पावर मतलब सारी इकोनॉमिक डेवलोपमेन्ट के आधार पर सुपर पावर है। जिसके पास अधिक आर्मी है, यह भी संपत्ति है। लोग उसी को संपत्ति मानते हैं या जिसके पास अधिक बम या मिसाइल है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस। चाइना के पास लाठी है या लाठी दिखा रहा है, अमेरिका भी दिखा रहा है कि मेरे पास भी है मेरी लाठी देखो। मेरी लड़की बड़ी है। अब हम थोड़ा इकट्ठे हो जाते हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडिया, जापान। हम एक टीम बनाते हैं और चाइना को हमारी लाठी दिखाते हैं। इस तरह से चलता है। डिफरेंट कांबिनेशंस पेर्मिताशन्स ( क्रमचय और संचय ) इस प्रकार कलि का अपना सारा लीला या खेल चल रहा है । इतने सारे देशों को या इन देशों के मनुष्यों को कठपुतली बना कर नचा रहा है। एक दूसरे के साथ टकरा रहा है। हरि हरि। इसी के कारण वसुधैव कुटुम्बकम् कहा है ? विषय तो वह था। वसुधैव कुटुम्बकम् । पृथ्वी पर हम जो सारे लोग हैं, हम एक परिवार हैं। हिंदी चीनी भाई भाई हैं। हम सभी भाई भाई भाईबन्धुता की बात चल रही है पर जब तक पिता का ही पता नही। फिर हम कैसे भाई भाई हैं? यह भाई चारे की बात तो चलती ही रहती है। लेकिन पिता कौन है, उनको पहचानो फादर कृष्ण और राम है। कोई उनको अल्लाह नाम देता है, जेहोवा नाम देता है। ठीक है वो नाम दो। कृष्ण के विष्णु सहस्त्रनाम है और भी नाम हो गए जेहोवा एक और नाम है अल्लाह दूसरा नाम है। किन्तु नामी तो वही है। एक ही भगवान् का नाम ये भी नाम है लेकिन व्यक्ति तो एक है। हे अल्लाह नाम देने से व्यक्ति अलग नहीं हो जाता, वे अलग भगवान् नहीं हुए। नाम अलग हुआ। वही व्यक्ति अथवा वही भगवान का। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जब हम इस का जप करते हैं कीर्तन करते हैं, हम सभी के बीच में जो दूरी है, वह समाप्त हो जाती है। यदि हम सबके बीच में कोई दीवारें हैं, वह गिर जाती हैं। हमने कई सारी उपाधियों को अपनाया है। मैं थाईलैंड से हूं, मैं मारिशियस से हूं, मैं इंडियन हूं, मैं चाइनीस हूं,
सर्वोपाधि – विनिर्मुक्त तत्परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश – सेवनं भक्तिरुच्यते ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत १९.१७०)
अनुवाद : भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी , पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना । जब आत्मा भगवान की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं । मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं । ‘
इस तरह से कृष्ण भावना भावित होना और उसमें भी केवल हरेर्नामैव केवलम् ही संसार की समस्याओं का समाधान है। हरि! हरि ! कृष्णभावना भावित होना व औरों को कृष्ण भावना भावित बनाना इन उलझनों का सुलझन है।
कृष्णवर्ण तविषाकृष्णम साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैजन्ति हि सुमेधसः ॥
( श्रीमद्भागवतगम 11.5.32)
अनुवाद: कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है ।
इस प्रकार जब हम एकत्र होकर या संकीर्तन करते हैं,जब हम एकत्र होकर जप करते हैं जप योग करते हैं, जप यज्ञ करते हैं। तब यह सारे गलत फहमियां, सारी उपाधियां काम, क्रोध ,लोभ ,मद, मोह, मात्सर्य समाप्त हो जाते हैं। यह शत्रु है परम विजयते मतलब काम क्रोध का पराजय। ऐसी प्रवर्ति का पराजय। कृष्ण की विजय व कृष्ण भक्तों की विजय, गीता के अंतिम वचन में भी कहा है
यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः | तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम ||
( श्रीमद् भगवतगीता १८.७८)
अनुवाद: जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन है, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
जहां कृष्ण और अर्जुन जैसी टीम है, वहां पर वैभव भी है, विजय भी है । विशेष शक्ति भी है। नीति नियम भी है। यहां चार बातों का उल्लेख किया है। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम। जहां कृष्ण और अर्जुन होते हैं, जहां भक्त और भगवान होते हैं, वहां वैभव, विजय भी है। विशेष शक्ति का प्रदर्शन भी होगा, नियमों का पालन भी वहां होता है । हम यहीं पर विराम देते हैं।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*21 मई 2021,*
*पंढरपुर धाम.*
हरे कृष्ण, 850 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। हरि हरि, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! *ओम नमो भगवते वासुदेवाय* कहे या फिर क्या रहे वैसे कह सकते हैं। आज हैं शुभ दिन, पता था आपको? आज है नवमी वैशाख नवमी आज के नवमी का एक नाम तो सीता नवमी और दूसरा जान्हवा नवमी भी कह सकते हैं। आज के दिन सीता मैया का, *सीता माता की जय!* जन्मदिवस है। जन्मोत्सव है। और जान्हवा माता बंगाल में जो प्रकट हुई नित्यानंद की भार्यां उनका जन्मोत्सव है और मधुपंडित हमारे एक आचार्य हुए तो उनका आज तिरोभाव दिवस है। इस प्रकार से यह जो आज का दिन है, विशेष है। शुभ तिथि शुभ दिन है।
हम हल्का सा संस्मरण करेंगे इन तीनों का। संस्मरण मतलब श्रवण कीर्तन होता है और फिर संस्मरण या के स्मरण होता है। मैं कुछ कीर्तन करूंगा। मतलब हरे कृष्ण हरे कृष्ण नहीं। कीर्तन मतलब हमें झठ से याद आता है, हरे कृष्ण हरे कृष्ण। किंतु कीर्तन मतलब कीर्ति, नाम कीर्तन होता है, रूप कीर्तन होता है, गुण कीर्तन होता है, लीला कीर्तन होता है, धाम कीर्तन होता है। यह सारे प्रकार है कीर्तन के और ऐसा कीर्तन होता है जब और जब हम सुनते हैं उसे तब श्रवण कीर्तन होता है। संस्मरण स्मरण होता है। तो अब हम क्या कह सकते हैं? यह पामर क्या कह सकता है? सीता माता के संबंध में या वैसे सीता मैया से कौन परिचित नहीं है। *सीताराम जय सीताराम सीताराम जय सीताराम सीताराम जय सीताराम*
*अयोध्यावासी राम राम राम दशरथनंदन राम* दशरथ नंदन राम और जानकीजीवन राम और वहां जानकी सीता के जीवन श्रीराम। और पतितपावन राम और केवल राम ही पतितपावन नहीं हैं। सीता भी पतितपावन है। दोनों सीताराम दोनों मिलकर पतितो का उद्धार करते हैं। दोनों मिलकर हम सभी के उध्दार के लिए उनके लीलाएं हुई।
आज के दिन जनकपुर में जब राजा जनक खेत को जोत रहे थे हल के साथ। तो हल अटक गया। बैल पूरी ताकत के साथ खींचने का प्रयास कर रहे थे किंतु कोई आगे नहीं बढ़ पाया। तो राजा जनक ने देखा थोड़ा मिट्टी को हिलाकर थोड़ा सा गड्ढा करके देखा उन्होंने। तो वहां पर एक संदूक है और संदूक को खोलते हैं तो देखते हैं सीता मैया की जय। सीता ऐसे जन्मी, ऐसे प्रकट हुई तो है कि नहीं यह *जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं* यह साधारण जन्म नहीं है। जैसे हम आप जन्म लेते हैं। ना तो सीतारानी जीवात्मा है। यह है भगवान की अल्हादिनी शक्ति, राम की अल्हाादिनी शक्ति राम को अल्हद देने वाली शक्ति। यह जीव तत्व नहीं है। यह शक्ति तत्व है। अल्हाद देने वाली शक्ति सीतारानी की जय! जैसे राधारानी भी वृषभानु को मिली यमुना में, कमल में, तो उसको लेकर आए कीर्तिदा को दिए। वैसे ही जनक राजा सीता को लाएं और अपने धर्म पत्नी को दे दिए। तो इस प्रकार यह अद्भुत जन्म लेने वाली सीता है।
सीता स्वयंवर होता है। तब सीता है वधू तो वर कौन होंगे, राम ही हो सकते हैं। राम ने उस धनुष को उठाया और टुकड़े भी हो गए। आगे बढ़ी फिर सीता वरमाला लेकर और पहनाई श्रीराम को। माल्यार्पण हुआ और उसी के साथ हो गए एक दूसरे के। इस लीला मैं यह नहीं कि वह पहले एक दूसरे के नहीं थे। राम भी शाश्वत है तो सीता भी शाश्वत है। यह प्रकट लीला हो रही है इस धरातल पर। अयोध्या में या फिर जनकपुरी में यह प्रकट लीला हो रहि हैं। भगवत धाम में सीताराम की लीला नित्यलीला है। धाम भी नित्य है। बैकुंठ धाम वैकुंठ से भी ऊंचा है साकेत धाम। अयोध्या धाम बैकुंठ से भी ऊंचा है और साकेत धाम से सिर्फ गोलोक ही ऊंचा है। बैकुंठ और गोलोक मध्य में है अयोध्या जहां नित्य लीलाएं संपन्न होती है। सीताराम कोई नए नहीं है या यहां संबंध कोई नया तो स्थापित नहीं हो रहा है प्रकट लीला में। सीता स्वयंवर सीता राम ने एक दूसरे को अपनाया है। सीताराम की जय! पहले तो सीता ने पतिव्रत अपनाया है। पतिव्रत, कई प्रकार के व्रत होते हैं स्त्रियों के लिए तो मुख्य पतिव्रत होता है। राम ने भी संकल्प लिया है और वह है एक पत्नीव्रत। एक पत्नीव्रत, जब सीता माला पहना रहे थे *सीताया पतये नमः* कहते हैं, मतलब राम कैसे हैं सीता के पति है। जब सीता के पति बन रहे थे राम, विवाह उत्सव में तो उस समय वहां पर कई सारी नारियां स्त्रिया थी। उनका दिल ललचा रहा था।
उनके मन में विचार आया आ रहा था। मैं भी, मैं भी, मुझे भी। मुझे भी राम जैसे पति मिल सकते हैं। मैं भी चाहती हूं कि राम जैसे पति मुझे मिले। राम जान तो गए वहां के उपस्थित सभी स्त्रियों के दिल के बात किंतु उन्होंने जो व्रत लिया है एक पत्नी व्रत है, उसको निभाना है। तो फिर होता क्या है, यह जो सारी नारियां है। मिथिला के जब राम प्रकट होते हैं कृष्ण के रूप में। कृष्ण ही वैसे राम बनते हैं। तो फिर स्वयं कृष्ण, स्वयं भगवान, *कृष्णस्तु भगवान स्वयं* जब वृंदावन में प्रकट हुए। वहां पर गोपियों का एक प्रकार है मिथिलावासी गोपिया कहते हैं। ऋषिचरा गोपियां वैसे कई प्रकार की गोपियों के प्रकार हैं। उसमें से एक है मिथिलावासी गोपिया जो स्त्रियां चाहती थी हमको राम जैसा पति मेरे पुरुष मिले तो उनकी इच्छा पूर्ति भगवान ने कृष्ण अवतार में की।
ठीक है, हमारे पास मरने के लिए समय नहीं है। समय तो बीत रहा है। रामायण की जो काव्य है। त्रेतायुग में तो इसके नायक है श्रीराम और इसकी नायिका रही सीता महारानी। तो उनकी सारी लीलाए और फिर अयोध्या में शुरुआत में या अयोध्याकांड के अंतर्गत भी लीलाए हुई ।और फिर युद्धकांड जो लंका में हुआ उसके उपरांत भी सीताराम लौटे अयोध्या में ।राम का राज्याभिषेक हुआ। राम तो 11000 वर्षों तक इस धरातल पर अपनी लीला खेलते रहे। सीता और राम की उन दोनों की लीला भी इतने वर्षों तक होती रही। आप जानते हो आप पढ़े हो आज भी पढ़ो। और जब अरण्यकांड में सीता का अपहरण हुआ और फिर सीता को पहुंचाया लंका में अशोकवन मे उस राक्षस रावणने तो, उस समय राम और सीता के बिरह की व्यथा कौन समझ सकता है। दोनों बिछड़ गए हैं। दोनों भी व्याकुल है एक दूसरे के लिए या मिलन के लिए। तो इस लीला के अंतर्गत दोनों के जो भाव है वह विप्रलंब भाव है। जिसको राधा और कृष्ण भी अनुभव करते हैं वृंदावन में। सीता और राम उनकी स्थिति का वर्णन हुआ है। और उसी के साथ यह रामायण भी श्रृंगार रस कहिए माधुर्य रस या लीला माधुर्य प्रकट हुआ है।
हरि हरि, वैसे रामलीला जब है तो 9 दिनों तक रामकथा चलती है। भागवत कथा तो 7 दिनों तक होती है ।सप्ताह तक चलती है लेकिन रामायण की कथा 9 दिनों तक होती है। हमारे पास तो 9 मिनट ही है। तो हम क्या कह सकते हैं। अंततोगत्वा विजयादशमी के दिन राम विजयी हुए। राम का विजय हुआ विजयादशमी लंका में। तो उसके उपरांत ततोः सीता राम की कथा शुकदेव गोस्वामी भी सुनाए हैं। भागवत में रामायण भी आता है। भागवत के नवम स्कंध में दूसरे अध्याय में शुकदेव गोस्वामी ने रामायण सुनाए है। वहां शुक उवाच शुकदेव गोस्वामी लिखते हैं, वह कौन सा कांड? युद्ध कांड युद्ध हो भी गया उसके उपरांत
*ततो ददर्श भगवानशोकवनिकाश्रमे ।*
*क्षामां स्वविरहव्याधि शिशपामूलमाश्रिताम् ॥ ३० ॥*
अनुवाद – तत्पश्चात् भगवान् रामचन्द्र ने सीतादेवी को अशोकवन में शिशपा नामक वृक्ष के नीचे एक छोटी
सी कुटिया में बैठी पाया। वे राम के वियोग के कारण दुखी होने से अत्यन्त दुबली-पतली हो गई
थीं।
तो राम अशोक वाटिका में जाते हैं और *ददर्श भगवानशोकवनिकाश्रमे* अशोक वन में राम ने सीता को देखा। *क्षामां* अत्यंत दुबली पतली सीता को देखा। *स्वविरहव्याधि* व्याधि से ग्रस्त सीता को देखा कौन सी व्याधि? विरह व्याधि। और कहां देखा? शिशप के पेड़ के नीचे उन्होंने सीता को देखा या राम ने दर्शन किया सीता का। कैसे दिखी सीता शुकदेव गोस्वामी सुना रहे हैं और फिर सीता ने भी देखा राम को।
*रामः प्रियतमां भार्यां दीनां वीक्ष्यान्वकध्पत ।*
*आत्मसन्दर्शनाहादविकसन्मुखपङ्कजाम् ॥ ३१ ॥*
अनुवाद – अपनी पनी को उस दशा में देखकर भगवान् रामचन्द्र अत्यधिक दयार््र हो उठे। जब वे पत्नी के
समक्ष आये तो वे भी अपने प्रियतम को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और उनके कमल सदृश मुख
से आह्वाद झलकने लगा।
*रामः प्रियतमां भार्यां* कैसे राम? जिनकी भार्या है प्रियतमां अति प्रियतम अत्यंत प्रिय श्री राम को उनकी जो भार्या है। उस भार्या ने कहां तो है *दीनां* बेचारी जब बिछड़ गई थी। उस सीता *आत्मसन्दर्शना* आत्म मतलब राम, राम को देखा केवल दर्शन ही नहीं कहा *आत्मसन्दर्शना* सम्यक प्रकार का दर्शन किया। तो क्या हुआ *आल्हादविकसन्मुखपङ्कजाम्* तो विरह की व्यथा से जो मर रही थी लगभग सीता के जान में जान आई। बहुत समय के उपरांत पहली बार जब से अपहरण हुआ था आल्हाद का अनुभव कर रही है। *विकसन्मुखपङ्कजाम्* उसी के साथ उसके मुख की जो कली है कमल सदृश जिसका मुख मंडल है वह प्रफुल्लित हुआ विकसित हुआ₹। आत्मसन्दर्शन और फिर आल्हाद भी राम का दर्शन किया फिर आल्हादित हुई। चेहरा मन का सूचक है कहो। चेहरे पर अभी वह आल्हाद छलक रहा था। तो ऐसे सीता को फिर राम भी देखें दोनों एक दूसरे को देख रहे हैं फिर मिलन हुआ, अलिंगन हुआ है। और इस तरह….। *श्री श्री सीताराम की जय।* तो ऐसी सीता… थोड़ा ही कहा है और कह रहे हैं। ऐसी सीता इतनी सी थोड़ी है सीता, और भी है सीता, बहुत कुछ है सीता। लेकिन फिर कहना पड़ता है ऐसे सीता का आज है जन्मदिन। *सीता नवमी महोत्सव की जय।*
और फिर जान्हवा माता का भी जन्मदिन आज ही है नवमी के दिन। जान्हवा कह रहे हैं लिख लीजिए कभी-कभी लोग भ्रमित हो जाते हैं। एक है जान्हवी जाह्नवी तो है गंगा *जाह्नवी तट वने जगमन लोभा* जो आरती होती है गौर आरती गंगा के तट पर होती है। तो गंगा का एक नाम है जाह्नवी और यह है जान्हवा उसको मिक्स मत करिए। तो यह जान्हवा नित्यानंद प्रभु की भार्या है। एक गौरांग और दूसरे नित्यानंद *बलराम होइलो निताई* जो बलराम बने हैं नित्यानंद और फिर नित्यानंद प्रभु की बनी है यह भार्या जान्हवा माता। इनका जन्मदिन आज सूर्य दास सारकेल नाम के एक सज्जन थे जिनकी दो पुत्रीया रही एक वसुधा और दूसरी जान्हवा। नित्यानंद प्रभु ने इन दोनों को अपनी पत्नियों के रूप में स्वीकार किया। हरी हरी। वसुधा से एक पुत्र जन्मा वह विशेष था उनका नाम वीरभद्र था। जो भविष्य में बडे़ होने के बाद वे दीक्षित हुए थे जान्हवा माता से। वह समय आ गया जब चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु नहीं रहे वह अंतर्धान हुए। तो उस समय यह जो गौडीय वैष्णव संप्रदाय उसकी अध्यक्षा, उसकी रक्षक, उसकी संचालक के लिए कहिए जान्हवा माता ने ही यह कार्य संभाला। जो कार्य संकीर्तनेक पितरों गौरांग और नित्यानंद प्रभु ने जिस संकीर्तन आंदोलन के प्रारंभ किया। तो एक समय संकीर्तन आंदोलन की स्थापना या रक्षा उसका विस्तार उसका संचालन स्वयं जान्हवा माता किया करती थी। हरि हरि।
जानवा माता के कई सारे शिष्य, कई सारे अनुयायी थे। वह एक आचार्या ही थी। आचार्य आचार्या। उनके कई सारे असंख्य शिष्य थे जो *जा रे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश* कर रहे थे। या जान्हवा माता से शिक्षा ग्रहण करके उच्च शिक्षा का प्रचार प्रसार कर रहे थे सर्वत्र। जब नरोत्तम दास ठाकुर प्रथम गौर पूर्णिमा उत्सव मनाए वहां पर भी जान्हवा माता थी। उन्हीं की अध्यक्षता में यह गौर पूर्णिमा उत्सव केचुरी ग्राम जो पद्मावती नदी के तट पर है. एक बड़ा महान उत्सव पहला गौर पूर्णिमा उत्सव मतलब गौरांग महाप्रभु आविर्भाव महोत्सव मनाया जा रहा था। तो उस उत्सव की अध्यक्षता भी जान्हवा माता ने संभाली।
वहां कई सारे विग्रहों की स्थापना हुई। छह अलग-अलग प्रकार के सभी विग्रहों की स्थापना हुई। उन विग्रहों कि प्राण प्रतिष्ठा करने वाली भी जान्हवा माता हि थी। बेशक आचार्यों के और भक्तों के संग में संपन्न हुआ। जान्हवा माता को एक समय पता चला कि वृंदावन में गोपीनाथ की आराधना हो रही है, किंतु साथ में राधारानी नहीं है राधा रानी के विग्रह नहीं है। तो जान्हवा माता ने तुरंत व्यवस्था की और राधा रानी की मूर्ति बनाकर वृंदावन राधा रानी को भेजा गया। और फिर गोपीनाथ के साथ राधा रानी की भी आराधना वृंदावन में होने लगी। हां फिर जान्हवा माता भी स्वयं वृंदावन गई। जान्हवा माता ने ही उस समय राधा गोपीनाथ की आराधना की। राधा गोपीनाथ के लिए कई सारे व्यंजन बनाए कई सारे भोग खिलाएं। आरती उतारी, स्वयं ही आराधना कर रही थी राधा गोपीनाथ की जान्हवा माता। जब राधा कुंड गई तो वहां पर उन्होंने राधा गोपीनाथ के दर्शन किए, आराधना भी की और गोपीनाथ ने दर्शन दिए हैं जान्हवा माता को। यह जान्हवा अनंग मंजरी है।
राधा रानी की बहन अनंग मंजरी और भ्राता श्रीदामा है, यह भाई बहन है। तो राधा की बहन अनंग मंजरी ही जान्हवा के रूप में प्रकट होती है ऐसा भी शास्त्र में वर्णन है। अनंग मंजरी कहो या जान्हवा माता को दर्शन दिए हैं गोपीनाथ ने। राधा कुंड के तट पर जान्हवा बैठक भी है। राधा गोपीनाथ के मंदिर के निकट ही एक स्थान है उसे जान्हवा बैठक कहते हैं। बैठे थे आप समझते ही हो जहां बैठी और ध्यान किया स्मरण किया राधा कृष्ण का जान्हवा माता ने तो वह स्थान भी है।जान्हवा बैठक वृंदावन में राधा कुंड के तट पर। तो फिर से जैसे सीता जीव नहीं है या जीव तत्व नहीं है। जैसे राधा कृष्ण, कृष्ण की होती है राधा आल्हादिनी शक्ति। तो उसी प्रकार बलराम की भी होती हैं आल्हादिनी शक्ति रेवती। तो यहां गौर नित्यानंद लीला में नित्यानंद की भार्या उनके आल्हादिनी शक्ति के रूप में प्रकट हुई। नित्यानंद प्रभु को भी आल्हाद दिया और फिर नित्यानंद प्रभु नहीं रहे तो उनके प्रारंभ किए कार्य को आगे बढ़ाएं और आल्हाद देती रहीं और देती ही रहती है। यह शाश्वत जोड़ी है नित्यानंद और जान्हवा।जान्हवा देवी का जन्मदिन आज मना रहे हैं।
और फिर अति संक्षेप में मधु पंडित। आज उनका तिरोभाव तिथि है *जे अनिल प्रेमधन* तो वह गाने का समय नहीं है। कोथा गेला मधु पंडित ठाकुर आज के दिन।
*जय राधा गोपीनाथ राधा गोपीनाथ राधे*
*मधुपंडितेर प्राणधन हे*
हम लोग ऐसे ही अलग-अलग विग्रह का नाम लेते हैं और इनका उनका स्मरण करते हैं। उनके जो पुजारी रहे, आराधक रहे। फिर कहते हैं इनके प्राण धन ये उनके प्राण धन वे। राधा गोपीनाथ थे प्राणधन मधु पंडित के। आजकल तो राधा गोपीनाथ वृंदावन में नहीं है 500 वर्ष पूर्व जरूर थे। मधु पंडित उनकी आराधना करते थे। राधा गोपीनाथ हमारे प्रयोजन विग्रह है। संबंध विग्रह, अभिदेय विग्रह और प्रयोजन विग्रह है। तो प्रयोजन विग्रह जो प्रेम है उसके विग्रह है राधा गोपीनाथ। मधु पंडित उनकी आराधना करते थे। अगर आपको उन विग्रह का दर्शन करना है तो आपको जयपुर जाना होगा।
हम कई बार गए हैं, आप भी गए होंगे। तो वह विग्रह जयपुर में है। यह मधु पंडित वैसे गदाधर पंडित.. आपको याद है गदाधर पंडित? चैतन्य महाप्रभु के परिकर और पंचतत्व के एक सदस्य। जिन्होंने जगन्नाथपुरी में क्षेत्र संन्यास लिया था और स्वयं गदाधर पंडित टोटा गोपीनाथ की आराधना करते थे। तो उस गदाधर पंडित के शिष्य थे मधु पंडित। और यह भी एक छोटी जानकारी जब नरोत्तमदास ठाकुर बंगाल के लिए प्रस्थान कर रहे थे सारे गौडीय ग्रंथ लेकर बैलगाड़ी में लोड करके। उनको प्रस्थान करना था, जाना था बंगाल की और। तो नरोत्तम दास ठाकुर गोपीनाथ के दर्शन के लिए गए। तो उस समय मधु पंडित ने राधा गोपीनाथ के गले का हार नरोत्तम दास ठाकुर को पहनाया था और विजयी हो, यशस्वी हो ऐसा आशीर्वाद दिया। तो वह मधु पंडित जी का तिरोभाव उत्सव हम मना रहे हैं।
*मधु पंडित तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय।*
*सीता नवमी महोत्सव की जय।*
*जान्हवा नवमी महोत्सव की जय।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण !!*
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम*
*20 मई 2021*
*हरि बोल !*
*’गौरांग’ बलिते हबे पुलक-शरीर ।*
*’हरि-हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर ॥*
*हरि हरि !!*
866 स्थानो से भक्ति जप कर रहे हैं ।
*जय जय श्री चैतन्य !*
आप सभी तैयार हो ? यानी सदैव तैयार रहना । किसी भी समय चाहे दिन हो या रात हो सदैव तैयार रहना चाहिए ।
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ।*
*जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ॥*
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय !* *श्री शिक्षा अष्टक की जय !* *चैतन्य चरितामृत की जय !* शिक्षाष्टक के रसास्वादन को आगे बढ़ाते हैं । शिक्षाष्टक का रसास्वादन कौन नहीं करना चाहेगा ! है कोई ? आप सभी चाहते हो । हां ? ठीक है । कुछ तो संकेत कर रहे हैं अपनी चाह । प्रथम, द्वितीय, तृतीय ..शिक्षाष्टक अब तक हमने पढ़े हैं , सुने हैं और यथासंभव समझे हैं और रसास्वादन हुआ है । तो प्रथम शिक्षाष्टक में …
*चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महा-दावाग्नि-निर्वापणं*
*श्रेयः-कैरव-चंद्रिश्रेयःका-वितरणं विद्या-वधू-जीवनम् ।*
*आनंदांबुधि-वर्धनं प्रति-पदं पूर्णामृतास्वादनं*
*सर्वात्म-स्नपनं परं विजयते श्री-कृष्ण-संकीर्तनम् ॥ 12 ॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.12 )
*अनुवाद:-* श्री कृष्ण संकीर्तन की परम विजय हो, जो हमारे चित्त में बरसों से संचित मलको साफ करने वाला तथा बारंबार जन्म मृत्यु रूपी महाग्नि को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगल रूपी चंद्रिका का वितरण करता है । समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधू का यही जीवन (पति) है । यह आनंद के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्री कृष्ण-नाम हमें नित्य बांछित पूर्णामृत का आस्वादन कराता है ।
परं विजयते श्री-कृष्ण-संकीर्तनम् या कृष्ण कीर्तन या हरे कृष्ण महामंत्र की जय ! और उसका महिमा का गान सात अलग-अलग हरि नाम की वेशिष्ठ्य प्रथम शिक्षाष्टक में चैतन्य महाप्रभु कहे हें ।
दितीय शिक्षाष्टक में चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा …
*नाम्नाम् अकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिः*
*तत्रार्पिता नियमितः स्मरणेन कालः ।*
एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि*
*दुर्दैवं ईदृशम् इहाजनि नानुरागः ॥ 16 ॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.16 )
*अनुवाद:-* हे भगवान! आपका अकेला नाम ही जीवो का सब प्रकार से मंगल करने वाला है । ‘कृष्ण’ ‘गोविन्द’ जैसे आपके लाखों नाम हैं । आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियां अर्पित कर दी है । इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई भी नियम नहीं है । हे प्रभो ! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम द्वारा अत्यंत ही सरलता से भगवत प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किंतु मैं इतना दूर भाग्यशाली हूं कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है ।
मैंने सारी शक्ति यानी कृष्ण की शक्ति कृष्ण के नाम में भरी हुई है । और जब कीर्तन के कोई कठिन नियम नहीं है । यह सब होते हुए भी दूर्देब की बात है “नानुरागः” मुझ में तो यह अनुराग उत्पन्न ना नहीं हुआ तू श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे मैं बताता हूं .. “जेइरुपे कृष्ण-प्रेम उपजये” ! किस प्रकार जप करने से प्रेम उत्पन्न होगा ? तो फिर तृतीय शिक्षाष्टक कहे …
*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।*
*अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥ 21॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.21 )
*अनुवाद:-* स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ।
और फिर उसका परिणाम क्या होगा ? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ शर्ते बताएं । इस प्रकार की मन की स्थिति है तो क्या होगा ? फिर “कीर्तनीयः सदा हरिः”, I
तो अब चतुर्थ शिक्षाष्टक आप जानते हो ? चौथा शिक्षाष्टक ? कौन जानता है ? हां ? हां भक्त चैतन्य जानता है । और कौन कौन जानता है चौथा शिक्षाष्टक ! वैसे सभी शिक्षाष्टक आपको पता होने चाहिए । कंठस्थ करो,याद करो, हरि हरि !! करोगे ? यह आपके लिए घर का पाठ है । यह चैतन्य चरितामृत सार है यह सभी ग्रंथों का सार है यह शिक्षाष्टक । इसको कंठस्थ कीजिए फिर ह्रदयगं भी करना है ही । तो चौथा है …
*न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।*
*मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥29॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.29 )
अनुवाद:- हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ।
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे ..इस अष्टक में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रार्थना कर रहे हैं । यह सारे शिक्षाष्टकं प्रार्थना ही है । और उसमें विशेष प्रार्थना इस चौथे शिक्षाष्टक में ! क्या प्रार्थना है? “भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि” प्राप्त हो । क्या प्राप्त हो ? आपकी भक्ति प्राप्त हो । वह भक्ति कैसी हो ? “अहैतुकी त्वयि” भक्ति का दान दीजिए प्रभु । यह प्रार्थना है । क्योंकि भक्ति करने वाले जो होते हैं बस अभी तो अहैतुकी भक्ति ना तो मांगते हैं या ना तो जानते हैं ना तो करते हैं “अहैतुकी भक्ति” नहीं होती है उनसे अधिकतर लोगों से ,अधिकतर धार्मिक जनों से । उनकी भक्ति मिश्र भक्ति होती है । कैसा मिश्रण होता है ? एक तो कर्म मिश्र भक्ति होती है ! ज्ञान मिश्र भक्ति होती है । योग मिश्र भक्ति भी हो सकती है । अधिकतर उल्लेख करू मिश्र और ज्ञान मिश्र भक्ति का उल्लेख मिलता है इसको हम चैतन्य चरितामृत में पढ़ते हैं ।
*कृष्ण – भक्त – निष्काम , अतएव ‘ शान्त ‘ ।*
*भुक्ति – मुक्ति – सिद्धि – कामी – सकलि ‘अशान्त’ ॥ 149 ॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 19.149 )
*अनुवाद:-* ” चूँकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है , इसलिए वह शान्त होता है । सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं , ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं; अत: वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते ।
कुछ धार्मिक लोग भक्ति कर रहे हैं लेकिन केसी भक्ति ? कामना के साथ भक्ति है । कैसी कामना है ? भुक्ति की कामना है । और किस प्रकार की कामना हो सकती है ?
मुक्ति की कामना हो सकती है । “भुक्ति – मुक्ति – सिद्धि – कामी – सकलि ‘अशान्त” I जब तक कामना है तब तक शांति बनी रहेगी । “कृष्ण – भक्त – निष्काम अतएव ‘ शान्त ” किंतु कृष्ण भक्त निष्काम होते हैं । इसलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यहां अहेतुकी भक्ति मतलब दूसरे शब्दों में भी कहा जा सकता है निष्काम भक्ति । मुझे निष्काम भक्ति प्राप्त हो । “सकाम” नहीं । फिर कैसी कामना ? भुक्ति कामना, मुक्ति कामना एसी सकाम भक्ति मुझे नहीं चाहिए । मुझे निष्काम भक्ति चाहिए । या उहेतुकी भक्ति चाहिए । किंतु उसके पीछे कोई भौतिक हेतु नहीं हो । कोई प्राकृत हेतु नहीं हो । हरि हरि !!
तो यही बातें श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं । मुझे अहेतुक की भक्ति दीजिए । इतना ही कह सकते थे “भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि” समाप्त फिर एक पंक्ति में काम हो गया । एक ही पद में “भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि”, एसी-एसी मुझे भक्ति दीजिए । उसी को ही कहा जाता है दूसरे शब्दों में जैसे हम थोड़े केहे ही रहे हैं ! चैतन्य महाप्रभु ने कहा है ! ऐसी भक्ति दीजिए । और वैसी भक्ति मत दीजिए । निष्काम अहेतुकी भक्ति दीजिए । सकाम या हेतु पूर्वक भक्ति ना दीजिए यह बातें वैसे ही है जैसे कल (“परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज” कह रहे हैं ) मैं के ही रहा था ।
*स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।*
*सर्वे विधि – निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥ 113 ॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लिला 22.113 )
*अनुवाद:-* “कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं । उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए । शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने चाहिए । ”
गोपिया क्या करती है सब समय ? भगवान का स्मरण करती है । इतना कहना ही पर्याप्त था लेकिन आगे फिर यह भी कहा है “स्मर्तव्यो न जातुचित्” कभी भगवान को नहीं भूलती । भगवान का सदैव स्मरण करते थे । “स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित्” तो दोनों शब्दों का दोनों दृष्टिकोण से उसको कहा है । भगवान स्मरणीय है । भगवान का सदैव स्मरण करना चाहिए । और दूसरा दृष्टिकोण क्या है ? भगवान का कभी विस्मरण नहीं हो । ( सदैव याद रखना कभी नहीं भूलना ) कहने से बात पूरी हो जाती है । इसी को कहते हैं विधि और निषेध, यम यह है और नियम यह है । तो यहां पर भी हम देख रहे हैं चैतन्य महाप्रभु इस शिक्षाष्टक में या अहेतुकी भक्ति मांग रहे हैं । साथ में यह भी कह रहे हैं इस प्रकार की भक्ति मुझे नहीं चाहिए । सकाम भक्ति मुझे नहीं चाहिए । तो उसका खुलासा करते हुए श्री कृष्ण चरित नाम प्रभु कहे हैं “न धनं न जनं न सुंदरीं, कवितां वा जगदीश कामये।” यह सब जो कर्मी होते हैं या जो भुक्ति कामि होते हैं , अधिकतर अधार्मिक होते हैं और कुछ धार्मिक भी होते हैं । उन्हें कर्मी भी कहते हैं । वहकर्मी है कर्मी । कर्मी में भी दो प्रकार होते हैं ! कुछ तो भौतिकवादी होते हैं । और कुछ तो धार्मिक होते हैं किंतु देवी देवता की पुजारी बन जाते हैं । देवी देवताओं के पास पहुंचकर फिर धनम् देहि जनम् देहि , देही-देही ; देते जाओ देते जाओ इसके लिए फिर यज्ञ भी करेंगे । तो यह सब जय श्री कृष्ण कहे हैं गीता में …
*काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।*
*क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ 12 ॥*
( श्रीमद्भगवद्गीता 4.12 )
*अनुवाद:-* इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं । निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है ।
महत्वाकांक्षा लेके कुछ जन क्या करते हैं ? “यजन्त इह देवताः” मतलब इस संसार में देवताओं की आराधना करते हैं, यज्ञ करते हैं उन्हें प्रसन्न करने के लिए । क्या नहीं करते देवताओं को प्रशन्न करने के लिए । लेकिन इसके पीछे …
*कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।*
*तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ 20 ॥*
( श्रीमद्भगवद्गीता 7.20 )
अनुवाद:- जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं ।
श्री कृष्ण कहै ! ‘कामै’ मतलब कामने , काम-वासना यह क्या करते हैं ? ‘र्ह्रतज्ञानाः’ उस कामीका यह जो कामना है उसका ज्ञान चुरा लेती है । और फिर वैसा ज्ञान रहित ही हो गया । ज्ञानी हुआ, मूर्ख हुआ फिर ‘प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः’ ध्यान पूर्वक सुनिए कृष्ण क्या कह रहे हैं ! ऐसे लोग ‘कामैस्तैस्तै’ मतलब उनके द्वारा जो काम ही है वह शरण में जाते हैं किसकी ? ‘प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः’ और और देवताओं के शरण में जाते हैं मतलब मेरी शरण में नहीं आते हैं , मेरे शरण में कौन आते हैं …
*बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।*
*वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ 19 ॥*
( श्रीमद्भगवद्गीता 7.19 )
*अनुवाद:-* अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है ।
जो ज्ञानवान है मेरी शरण में यानी कृष्ण की शरण में आता है । और ‘कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः’ जो ज्ञान रहीत हैं उनका कामवासना ने उनका ज्ञान चुरा लिया है । वह लोग
‘प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः’ देवताओं के शरण में जाते हैं । तो यहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं एक तो कृष्ण की भक्ति मांग रहे हैं, ‘भवताद् भक्तिर् अहैतुकी त्वयि’ कृष्ण भगवान की भक्ति मुझे चाहिए । वैसे देवताओं की पुजा उसे भक्ति कहा ही नहीं जा सकता । उसको भुक्ति कहा जा सकता है । भक्ति तो कृष्ण की ही होती है या कृष्ण के और चारों की हो सकती है …
*आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधन परम् ।*
*तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥ 31 ॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लिला 11.31 )
*अनुवाद:-* ( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा 🙂 हे देवी , यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है , लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है । किन्तु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णवों की सेवा , जो भगवान् विष्णु से सम्बन्धित हैं ।
परम आरधना तो कृष्णु या कृष्ण की अवतारों की हो शक्ति है । देवताओं की आराधना लोक करते तो है उस आराधना को हम भक्ति कह नहीं सकते उसको शास्त्रों में उसे भुक्ति कहा है । वह भोगी है । देवी देवताओं के पुजारी भोगी हैं । और फिर रोगी बन जाते हैं । लेकिन कृष्ण का भक्त योगी होता है या भक्ति योगी होता है । ‘ न धनं न जनं ‘ मुझे न धन चाहिए, न अनुयाई कुछ मशहूर हीरो (कलाकार) मेरे कई सारे चाहने वाले और मुझे अनुसरण करने वाले अनुयाई हो कोई सुंदर स्त्री का उपभोग मैं नहीं लेना चाहता हूं । ना कोई बड़ा कवि बनू । हरि हरि !! और कई बातों का बिस्तार करू कल्पना करके या .. “जोन देखें रवि ते देखें कवि” ऐसी एक कहावत है । जो कवि होते हैं ऐसी कुछ बातें हैं देखते हैं या लिखते हैं जो रवि मतलब सूर्य जिसको सूर्य भी नहीं देखता उसको कवि देखता है । ऐसी मन गठन कथा है । ऐसे होते हैं सांसारिक कवि । तो ऐसा कवि भी नहीं बनना चाहता हूं में । और है जगदीश ऐसी कोई कामना नहीं है । यह एक भाग हुआ , यह कर्म मिश्र भक्ति का भाग हुआ । और दूसरा भाग है ज्ञान मिश्र भक्ति । और वह क्या है ? “जम्मनि जन्म नीश्वरे” जो ज्ञान योगी या ज्ञान मिश्रा भक्ति करने वाले उनकी कामना होती है मुक्ति । मुक्ति को पिसाची कहा है । या हमारे आचार्य कहे हैं …
“कईवल्यम नरकायते” ( चैतन्य-चद्रा मृत 5 ), कईवल्य मुक्ति नरक से भी हिन है । मुझे मुक्ति नहीं चाहिए । वही बात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह कह रहे हैं “मम जम्मनि जन्म नीश्वरे” पुनहा पुनहा मुझे जन्म लेना पड़े तो भी मैं तैयार हूं मैं कहां कह रहा हूं कि मुझे मोक्ष दो ! पुनः पुनः मुझे जन्म देना चाहते हैं तो मैं तैयार हूं प्रभु । मेरे हो जाए कई सारे जन्म लेकिन हर जन्म में क्या हो “भवताद् भक्तिर् अहैतुकी त्वयि” मुझे आपकी भक्ति अहेतुकी भक्ति प्राप्त हो । फिर मैं बैकुंठ या गोलक जा कर आपके सन्निधि में ” “सार्ष्टि” , “सालोक्य” , “सारूप्य”, “सामीप्य” यह चार प्रकार की मुक्ति है । और “सायुज्य” तो ..ठीक नहीं है । मुक्ति के पांच प्रकार बताए गए हैं । “सायुज्य” तो चाहिए ही नहीं । जिसने ज्योत में ज्योत मिलाने की बात या ब्रह्म में लीन होने की बात अहम् ब्रह्मास्मि यह साक्षात्कार की बात जिसकी चर्चा शंकराचार्य किए हैं ‘तत्वमासी’ अहम् ब्रह्मास्मि यह सब मोक्ष की कामना यह मुझे नहीं चाहिए । मुक्ति की कामना यानी भक्ति खत्म । ‘मेंहीं भगवान हूं’ मैं ही ब्रह्म हूं कौन किसकी भक्ति करेगा । तो इस प्रकार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रार्थना कर रहे हैं तो आगे अपने शब्दों में भी कहे ही हल्का सा आभास …
*” धन, जन नाहि मागों, कविता सुन्दरी ।*
*” शुद्ध-भक्ति ‘देह’ मोरे, कृष्ण कृपा करि ” ॥ 30 ॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लिला 20.30 )
*अनुवाद:-* “हे कृष्ण, मैं आपसे न तो भौतिक संपति चाहता हूं, न अनुयायी, न सुंदर स्त्री सकाम कर्मों का फल चाहता हूँ । मेरी तो भी यही प्रार्थना है कि आप अपनी अहेतुकी कृपा से मुझे जन्म-जन्मांतर अपनी शुद्ध भक्ति प्रदान करें ।
यह बांग्ला भाषा में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस शिक्षाष्टक पर अपना भाष्य कहो या अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को सुना रहे हैं । व्यक्त कर रहे हैं राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को । तो उन्होंने कहा नहीं मांगता हूं न धनं न जनं नहीं मांगो ,कविता सुंदरी नहीं चाहिए, केवल शुद्ध भक्ति दीजिए । ‘कृष्ण कृपा करी’ ऐसी कृपा करो कृष्ण मुझे शुद्ध भक्ति प्रदान करो ।
*अति – दैन्ये पुनः मागे दास्य – भक्ति – दान ।*
*आपनारे करे संसारी जीव – अभिमान ॥ 31 ॥*
( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लिला 20.31 )
*अनुवाद:-* अपने आपको भौतिक जगत् का बद्धजीव समझते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त दीनतापूर्वक पुनः भगवान् की सेवा प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की ।
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह शिक्षा अष्टक का उच्चारण करते समय या इसे किया , न धनं न जनं कह रहे हैं और उनका विचारों का मंथन भाव उदित हो रहे हैं, केवल उदित ही नहीं हो रहे हैं भावो का आंदोलन , सुनामी चल रही है उनके ह्रदय प्रांगण में , भावों तरंगें, लहरें । तो हुआ क्या यहां कृष्णदास कविराज गोस्वामी अपने भाष्य कर रहे हैं यहां ! वह कह रहे हैं कि .. “अति – दैन्ये पुनः मागे दास्य – भक्ति – दान ।” तो यह जो चतुर्थ शिक्षाष्टक न धनं न जनं यह के ही रहे थें । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अधिक देन्य, दीनता वही “तृणाद् अपि सुनीचॆन तरोर् अपि सहिष्णुना” यह जो है वो देन्य से दीनता , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अधिक विनम्र हुए अपने देन्य अधिक प्रदर्शन करने लगे । हरि हरि !! क्योंकि जितना अधिक देन्य उतना अधिक व्यक्ति पात्र बनता है विद्यां ददाति विनयं,
*विनयाद् याति पात्रताम्।*
*पात्रत्वात् धनमाप्नोति,*
*धनात् धर्मं ततः सुखम्॥*
*अनुवाद:-* विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।
वह सिद्धार्थ याद रखिए, “विनयाद् याति पात्रताम्” । तो विनय कि भी मात्रता होती है । व्यक्ति विनई तो है लेकिन कितनी विनई है ? हल्का सा है या अधिक है, अति विनई है । वह भी तरत्तम भाव है । अच्छा, बेहतर, श्रेष्ठ । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सबसे श्रेष्ठ है । ऊंचे देन्य उनमें उत्पन्न हुआ । अधिक देन्य तो अधिक पात्रता भी हे भक्ति प्राप्ति का । और फिर कहें है .. *”आपनारे करे संसारी जीव – अभिमान”* स्वयं को मैं भी एक संसार में जैसे लोग होते हैं ‘संसारी’ संसार के लोग जैसा चेतन महाप्रभु भी सोच रहे थें मैं भी संसार का पति व्यक्ति हूं तो चैतन्य महाप्रभु ही स्वयं को “आपनारे करे संसारी जीव – अभिमान” हम भी इस संसार के अन्य लोगों जैसे पतीत हैं ऐसा सोच कर
*महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम् ।*
*नि:श्रेयसाय भगवन्कल्पते नान्यथा क्वचित् ॥ 4 ॥*
( श्रीमद्भागवतम् 10.8.4 )
अनुवाद:- हे महानुभाव, हे महान भक्त, आप जैसे पुरुष अपने स्वार्थ के लिए नहीं अपितु दिनचीत्त गृहस्थों के लिए ही स्थान-स्थान पर जाते रहते हैं । अन्यथा इस तरह जगह-जगह घूमने में उन्हें कोई रुचि नहीं रहती ।
‘दिन चेतसा’ जैसे नंद महाराज ,,जब गर्गाचार्य उनके निवास स्थान पर आ गए गर्गाचार्य मथुरा से गोकुल आए और नंद भवन पहुंचे तो नंद महाराज ने उनका स्वागत किया गर्गाचार्य का । ‘कर्वामी कीम्’ हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ? ऐसा पूछा भी । तो वहां पर नंद महाराज कहते हैं “गृहिणां दीनचेतसाम्” हम कैसे हैं तो वहां परभी नंद महाराज संसार के ग्रृहस्त लोग जैसे होते हैं उनकी मन की जो स्थिति होती है या विचारों के भी स्थिति तो वैसा ही खुद को नंद महाराज मैं भी ऐसा ही एक गृहस्थ हूं ‘ । गृहस्थ तो हूं ही और ऐसा कह कर नंद महाराज “गृहिणां दीनचेतसाम्” हम ग्रुप से कैसे होते हैं ? दिन मतलब दीन हीन गरीब, गरीबी किस में ‘चेतसाम्’ जहां तक चेतना भावना भाव भक्ति के बात है “दीनचेतसाम्” । तो श्री कृष्णा चेतन महाप्रभु फिर चाहे सोचने लगे मैं भी वैसा ही “दीनचेतसाम्” “गृहिणां”,, सन्यासी तो थे लेकिन सोच रहे हें । हम भी वैसे ही है । तो उनमें दैन्य और अधिक बढ़ा ।
“अती दैन्य पून: मांगे’ दास्य भक्ति दान” और भक्ति का दान मांगने लगे । और आगे के लोक में उमंग जो है भक्ति दान की मांग पांचवे शिक्षाष्टक में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहेंगे फिर उसको कल कहा जाएगा । तो तब तक के लिए आप आज बिना सुने उस पर और विचार कीजिए सोचे ,विचारों का मंथन कीजिए । या रसास्वादन कीजिए इस शिक्षाष्टक का भी । और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के भावों को कौन जान सकता है लेकिन चैतन्य महाप्रभु चाहते तो है कि हम सीखें, समझे इसीलिए तो उन्होंने रसास्वादन या यह शिक्षाष्टक राय रामानंद और स्वरूप दामोदर के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । ताकि एक दिन भविष्य में 21वीं सदी में जो भी लोकजन होंगे …
पृथिवीते अच्छे यत नगरादि ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार हइवे मोरा नाम ॥ 126 ॥
( चैतन्य भागवत अंत्य-खंड 4.126 )
*अनुवाद:-* पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
यह शिक्षाष्टक भी पहुंचे । हर नगर हर ग्राम में । और वहां पर लोग उसको पढ़ें सोने श्रवण करें और फिर चैतन्य महाप्रभु की उपेक्षा था, भविष्यवाणी थी उसकी पूर्ति हेतु श्रील प्रभुपाद चैतन्य चरितामृत का भाषांतर किए अंग्रेजी भाषा में और फिर काहे की अब आप सब शिष्य मंडली क्या करो ? इसका अधिक जितना हो सके अन्य भाषाओं में अनुवाद करो और उसका छपाई करो । उसके बाद मेरे ग्रंथों का उसका वितरण करो । बेशक मेरे ग्रंथों की अध्ययन करो बेशक यह तो है ही । तो इस प्रकार यह 500 वर्ष पूर्व कहे हुए वचन या इस शिक्षाष्टक का रसास्वादन गंभीरा में प्रारंभ हुआ और अब यह ‘सोशल मीडिया’ माध्यम से घर-घर पहुंच रहा है । केवल नगर में नहीं नगर में से घर घर मैं ।
*पदार्थाः संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा ।*
*विप्रैर्भागवतीवार्त्ता गेहे गेहे जने जने ॥ 73 ॥*
( पद्म पुराण 6.193.73 )
मैं भक्ति का प्रचार करूंगा, भक्ति को कहां कहां तक पहुंचाऊंगा ? जने जने हर व्यक्ति तक, गेहे गेहे हर घर में तक मैं पहुंच जाऊंगा । तो गुड़िया वैष्णव की यह योजना है । श्रीला प्रभुपाद ऐसे व्यवस्था करके गए उसके सु व्यवस्था के अनुसार यह शिक्षाष्टक का रसास्वादन आपतक पहुंचाया जा रहा है , आपको भी उसे और आगे पहुंचाना है ।
*यार देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।*
*आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ‘ एइ देश ॥ 128 ॥*
( चैतन्य चरितामृत मध्य-लिला 7.12 )
अनुवाद:- ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
कृष्ण उपदेश करना है । ठीक है !
*॥”गौर प्रेमानंदे” हरि हरि बोल ॥*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 19 मई 2021
हरे कृष्ण।
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 871 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि! हरि! गौरांगा!
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।
आजकल श्रीचैतन्य महाप्रभु द्वारा किए गए शिक्षाष्टकम के रसास्वादन पर विषय चल रहा है। चैतन्य महाप्रभु के साथ हम भी आस्वादन कर रहे हैं अर्थात हम भी उनके द्वारा आस्वादन की हुई बातों का, उनके जूठन अथवा उच्छिष्ट के प्रसाद का चर्वण व आस्वादन कर रहे हैं। हम भी महाप्रभु के चरण कमलों का अनुसरण करते हुए (अनुकरण नहीं अपितु अनुसरण करते हुए ) कुछ प्रयास कर सकते हैं अथवा कर रहे हैं अर्थात हम उनके शिक्षाष्टकम के रसास्वादन का प्रयास कर रहे हैं। यह रसास्वादन भी साधना भक्ति के अंतर्गत आता है। क्या आपको शिक्षाष्टक का तीसरा अष्टक याद है? तीसरा अष्टक कौन सा है? सभी अष्टक आपको याद होने चाहिए। आपको कंठस्थ करने चाहिए। यह आपके लिए गृह कार्य है। आपको कुछ श्लोक, कुछ मंत्र, कुछ अष्टक, कुछ प्रार्थनाएं कंठस्थ होनी ही चाहिए। हर गौड़ीय वैष्णव को यह शिक्षाष्टक कंठस्थ करना चाहिए।
यह भी कहना होता ही है कि इसको ह्रदयंगम करना चाहिए। हम आपको कई बार कह चुके हैं। कंठ में बिठाना एक बात है और हृदय में इसकी स्थापना करना दूसरी बात है। यह ऊंची बात है। जैसे तोता रटता है, वे कंठस्थ बातें होती हैं। तोता भी कभी-कभी राम राम करता है।जैसा भी उसको सिखाते हैं लेकिन उसका राम का उच्चारण या अन्य कोई भी शब्द कंठस्थ तक ही सीमित रहता है। कंठस्थ का अर्थ यह भी होता है ‘रेडी टू गो’ अर्थात कंठस्थ है, कंठ में बैठा हुआ है। केवल उसका उच्चारण करने की देरी है। वह तैयार है, उसको कंठस्थ कहते हैं। हमें उसको कंठस्थ के साथ ह्रदयंगम भी करना चाहिए। हमें उसका उच्चारण अर्थात कीर्तन करना चाहिए। कीर्तन करने का अर्थ है कि श्रवण करना। जब कीर्तन और श्रवण होगा, तब उसका स्मरण होगा। अतः ह्रदयंगम होगा अर्थात हृदय में बात बैठेगी।
ठीक है!
हमें अभी शिक्षाष्टक का रसास्वादन करना है। तीसरा शिक्षाष्टक है-
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.२१)
अनुवाद : जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है, वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ‘
याद रखिए, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हमारे लिए कल कहा था। हम इसको काल की दृष्टि से सोच रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु तो यह सब शिक्षाष्टक कहा ही करते थे, हर समय इसका रसास्वादन चलता ही रहता था, आज भी कर रहे हैं, ऐसा समझना होगा। कल जो रसास्वादन हो रहा था उसके अंतर्गत दूसरे अष्टक में चैतन्य महाप्रभु ने कहा था। (उसको याद रखने से यह शिक्षाष्टक हम और अधिक अथवा भली-भांति समझेंगे।)
नाम्नामकारि बहुधा निज – सर्व – शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।। 16 ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत २०.१६)
अनुवाद ” हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ, अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।
मेरा दुर्दैव है कि इस महामंत्र में मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है। द्वितीय अष्टक में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा भाव व्यक्त किया है। चैतन्य महाप्रभु ने रसास्वादन करते समय स्वयं को दुर्दैवमीदृश कहा है अर्थात कहा है कि महामंत्र अथवा इस नाम जप में मेरा अनुराग नहीं हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि मैं तुमको उपाय बताऊंगा,
ये – रूपे लइले नाम प्रेम उपजय । ताहार लक्षण शुन , स्वरूप – राम – राय ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला २०-२१)
अनुवाद:- श्रीचैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , ” हे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , मुझसे तुम उन लक्षणों को सुनो , जिस प्रकार मनुष्य को अपने सुप्त कृष्ण – प्रेम को सुगमता से जागृत करने के लिए हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करना चाहिए ।
मैं तुमको उपाय बताऊंगा कि कैसे जप करने से प्रेम उत्पन्न होगा। हमें धीरे-धीरे तीसरे शिक्षाष्टक की ओर मुड़ना है। हम मन की कैसी स्थिति में जप करें जिससे प्रेम उत्पन्न हो, यह बात मैं कहूंगा,
ये – रूपे लइले नाम, वही बात इस शिक्षाष्टक के तीसरे श्लोक में श्री चैतन्य महाप्रभु उसका उत्तर दे रहे हैं अथवा उसका खुलासा कर रहे हैं। उसका स्पष्टीकरण हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.२१)
अनुवाद : जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है, वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है ।
हमारे मुख से मुश्किल से नाम भी नहीं निकलता क्योंकि अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा था। नाम बड़ा मुश्किल से निकल रहा था। नाम को बाहर निकालने के लिए हमें मजबूर होना पड़ता है
लेकिन अब चैतन्य महाप्रभु इस तृतीय शिक्षाष्टक् के अंत में कह रहे हैं कि कीर्तनीय सदा हरि।
नाम जप कुछ खंडित हो रहा था, नाम जप कुछ नियमित नहीं हो रहा था, नाम जप कुछ ध्यानपूर्वक भी नहीं हो रहा था लेकिन अब चैतन्य महाप्रभु ने तीसरे शिक्षाष्टक में जो उपाय बताया है – उसके बाद अब क्या हो रहा है? कीर्तनीय सदा हरि- अब तो कीर्तन हो रहा है, सदैव कीर्तन हो रहा है। अखंड कीर्तन हो रहा है, अखंड जप हो रहा है। अखंड कीर्तन या अखंड जप हो सकता है लेकिन कब हो सकता है? इस अष्टक में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ शर्ते बता रहे हैं। इस तृतीय अष्टक का अंग्रेजी में जो भाषांतर है, उसमें भक्त कहते हैं
मन की ऐसी स्थिति में भगवान् के नाम का जप कर सकता है।
मन तो वही है लेकिन जब मन की ऐसी स्थिति होगी, तब ही व्यक्ति प्रभु का नाम सदैव ले सकता है। सतत ले सकता है।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।।
( श्रीमद् भगवतगीता १०.१०)
अनुवाद:जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
या
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥ ६ ॥
( श्रीमद्भागवतगम १.२.६)
अनुवाद:- सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति ( धर्म ) वही है जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा – भक्ति प्राप्त कर सकें । ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तट हो सके ।
अहैतुक्यप्रतिहता मतलब अखंड। मन की ऐसी स्थिति में अर्थात जब मन की ऐसी स्थिति बनेगी तब व्यक्ति निरंतर नाम लेता जाएगा। रोकने पर भी रुकने का नाम नहीं लेगा। जैसे हरिदास ठाकुर। वह मन की कौन सी स्थिति है? (यह हल्का सा शब्दार्थ और भाषांतर देखते हैं) चैतन्य महाप्रभु ने इस अष्टक के ऊपर अपना भाष्य भी सुनाया ही है, उसको भी पढ़ना है। हरि! हरि!
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।211
अनुवाद :जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ‘
तृणादपि सु -नीचेन तृण मतलब घास। घास से भी अधिक नम्र। आप भी विचार करो, कल्पना करो। थोड़ा दिमाग लड़ाओ कि क्या कहा जा रहा है। यह कठिन है लेकिन यहां पर कठिन कार्य ही करने के लिए ही चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। घास के तिनके से भी अधिक विनम्र बनो। घास को कई लोग ठोकर मारते रहते हैं। उसी पर चलते रहते हैं लेकिन वह तिनका कभी शिकायत नहीं करता है। वह तिनका ऐसा विनम्र होता है। ‘तृणादपि सु -नीचेन’
हरि! हरि!
तरोरिव सहिष्णुना- जहां तक नम्रता की बात थी,
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि शुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ||
( श्रीमदभगवदगीता ५.१८)
अनुवाद: विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
भगवान ने ब्राह्मणों के दो गुण बताएं हैं ‘विद्याविनयसंपन्ने’ अर्थात ब्राह्मण के दो मुख्य लक्षण बताए हैं। ब्राह्मण विद्वान होता है, वेदपाठत भवे विप्र: अर्थात वेद पाठ करने वाला होता है।
उसने वेदों का अध्ययन किया है, ब्राह्मण विद्वान भी होते हैं और विद्याविनयसंपन्ने भी होते हैं, विनयी व विनम्र होते हैं। सभी बातें वैदिक वांग्मय में कही ही है।
विद्या ददाति विनियम
( हितोउपदेश संख्या ५)
विद्या विनय देती है। विद्या हम में विनय उत्पन्न करती है।
विनयी और विनम्र नही होने का कारण हम अनाड़ी हैं। हम जब ज्ञान का अर्जन करेंगे, तब हम समझ जाएंगे कि हम कितने छुद्र हैं, कितने लहान है, हम छोटे हैं। हम ही केवल संसार में नहीं हैं, अनेक जीव हैं। वे भी तो हैं ही। वे भी भगवान के हैं। हरि! हरि! विद्वान स्वभाविक ही नम्र होते हैं।
तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।211
अनुवाद : जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है ।
तरु मतलब वृक्ष या वनस्पति। तरोरिव या तरोर्पि। प्रकार से इसका उल्लेख हुआ है। तरोरिव या तरोर्पि कहो। सहिष्णुना-यहां सहनशीलता की बात है। यह मन की स्थिति चल रही है। पहली स्थिति नम्रता है, दूसरी सहनशीलता
मतसर्ता परा उत्कर्ष असहनीयं
( श्रीधर स्वामी)
उससे नफरत उत्पन्न होती है, हमसे औरों का उत्कर्ष, विकास प्रगति सहन नहीं होती। हमें सहनशील होना चाहिए। हरि! हरि!
कितना सहनशील होना चाहिए? यहां पहले भी नम्रता की बात आयी। वहां पर भी तिनके का उल्लेख हुआ। यहां सहनशीलता की बात अर्थात यहां वृक्ष या वनस्पति का उल्लेख है। घास का तिनका या घास ही कहो या पौधा कहो, वृक्ष कहो, उसकी सहनशीलता वृक्ष जैसे सहन करता है। जैसे कल कोस्टल एरिया कोंकण, गोवा, मुंबई, गुजरात यह जो आंधी तूफान वर्षा का दृश्य आपने देखा क्या हो रहा था, मनुष्यों का तो क्या कहना। इतना दिखाई नहीं दिया मनुष्यों का क्या हाल हो रहा था वैसे ही सारा जगत कोरोना वायरस से पीड़ित और फिर इसके ऊपर से यह आदिदैविक समस्या या ताप और फिर मनुष्यों से अधिक तो वृक्ष परेशान थे लेकिन बेचारे सहन कर रहे थे। अतः सहनशीलता का उदाहरण देते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पक्षियों का उदाहरण दे रहे हैं वृक्ष जैसे सहनशील होते हैं तरोरपी सहिष्णुना उसी वृक्ष की छत्रछाया में आप आराम कर रहे हो। आप में से कोई बदमाश क्या कर सकता है कुल्हाड़ी लेकर उसी वृक्ष की कोई शाखा तोड़ सकता है। वृक्ष शिकायत नहीं करता, सहन करता है।
चोरी कर रहे हो ना आप और फल भी वृक्ष के हैं। तुम चोर हो उस वृक्ष से अनुमति भी नहीं ली, वृक्ष को निवेदन भी नहीं किया कि क्या मैं फल ले सकता हूं ? आपने उस वृक्ष को प्रणाम भी नहीं किया वांछा कल्पतरुभश्चय यहां पुनः पुनः तरु आ गया वांछाकल्पतरू, वृक्ष कैसे होते हैं या कई वृक्ष हरि हरि ! भगवत धाम में सभी वृक्ष कल्पतरु (डिजायर ट्री) ही होते हैं। लेकिन इस संसार में भी वृक्ष वैसे वांछा कल्पतरु होते हैं। नारियल का वृक्ष है वह कुछ कम कल्पवृक्ष नहीं है इतनी सारी वांछाये उनकी पूर्ति करता है। एनीवे यह सब कहते कहते समय बीत रहा है। हम उस वृक्ष को हानि पहुंचाते रहते हैं लेकिन वह सहिष्णुना वह सहन करता है। अतः सहनशीलता ऐसे मन की स्थिति, एक शर्त है। फिर यह दो बातें हुई तृणादपि सु – नीचेन एक नम्रता की बात हुई और तरोरिव सहिष्णुना वृक्ष जैसी सहनशीलता हुई और क्या है अमानिना मान –
देन अमानिना एक शब्द है और मान – देन यह दो मूल शब्द , तो अमानिना है और मान – देन है। इसका संस्कृत की तृतीया विभक्ति में जब उपकरण के रूप में शब्द का प्रयोग होता है तो तृतीया का प्रयोग होता है। अर्थात उसका हो गया अमानी का अमानिना हुआ। जो व्यक्ति अमानिना बनके मतलब अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता है या ना कोई योजना बनाता है कि मेरा मान सम्मान सत्कार हो, ऐसा विचार भी नहीं करता और ऐसी परिस्थिति को भी उत्पन्न नहीं करता मुझे मान सम्मान मिले इसको अमानि एक बात और उसी के साथ जुड़ी हुई एक और बात खुद के लिए तो मान सम्मान की अपेक्षा नहीं करते हो तो यह अच्छी बात है। थोड़ी नकारात्मक बात भी हो सकती है लेकिन यह सकारात्मक ही है। किन्तु लग सकती है कि कोई नकारात्मक बात कही जा रही है या करने के लिए कही जा रही है। अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा मत करो, ये नकारात्मक बात, ऐसा कोई सोच सकता है। परन्तु ये बात भी सकारात्मक ही है। यहां फिर मान- देन मान – द व्यक्ति को कैसा होना चाहिए ऐसे शब्द भी हैं बढ़िया-बढ़िया संस्कृत में मान -द , द मतलब देने वाला, मान देने वाला ,अर्थात ऐसा मान देने वाला बनकर, बनो मान -देन यहां संक्षिप्त में कुछ ही शब्दों में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह उपाय है
ये – रूपे लइले नाम, नाम प्रेम उपजय मन की कैसी स्थिति में जप करने से प्रेम उदित होगा ताहार लक्षण शुन , स्वरूप – राम – राय उसके लक्षण मैं बताता हूं। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था और फिर लक्षण बताएं या मन की ऐसी स्थिति समझाई। ऐसा करोगे तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः ऐसा व्यक्ति सदैव और प्रेम पूर्वक, सदैव तो कह सकते हैं सदा की बात कही जा रही है या जप कर सकते हैं। इसलिए इसे नोट कीजिए चैतन्य महाप्रभु ने क्या कहा संक्षिप्त में चैतन्य महाप्रभु जो इस पर भाष्य सुनाएं है वह है
उत्तम हा आपनाके माने तृणाधम ।
दुइ – प्रकारे सहिष्णुता करे वृक्ष – सम ।।२०. २२॥ (चैतन्य चरितामृत अन्तय)
अनुवाद ये उसके लक्षण हैं , जो हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करता है । यद्यपि वह अति उत्तम होता है , किन्तु वह अपने आपको धरती की घास से भी तुच्छ मानता है और वृक्ष की तरह वह दो प्रकार से सब कुछ सहन करता है ।
उत्तम हा आपनाके माने तृणाधम संभावना है कि कई भक्त वैसे नम्र ही हैं और फिर मानते भी हैं और उनका सारा व्यवहार भी ऐसा होता है तृण से भी अधम तृणाधम या उत्तम होते हुए या उत्तम भक्त होते हुए भी जैसे सनातन गोस्वामी या और भी कई सारे उदाहरण हैं वैसे जो अधिक उत्तम या उत्तमोत्तम भक्त हैं वे स्वयं को अधमाधम मानते हैं। जो कनिष्ठ भक्त होते हैं थर्ड क्लास वही स्वयं को उत्तम मानते हैं या स्वयं को महान मानते हैं। मैं कुछ विशेष हूं ऐसा उनका अहंकार होता है। कनिष्ठ अधिकारी से जब वह मध्यम अधिकारी बन गया तब वह स्वयं को अधिक अधम मानेगा, अधिक नम्रता पूर्ण व्यवहार करेगा। जब कनिष्ठ से बन गया मध्यम अधिकारी और मध्यम से उत्तम, नरोत्तम दास ठाकुर तब वे स्वयं को अधिक से अधिक अधम मानने लगते हैं तृणाधम तृण से भी अधिक अधम ऐसे चैतन्य महाप्रभु यहां समझा रहे हैं
वृक्ष येन काटिलेह किछु ना बोलय । शुकाञा मैलेह कारे पानी ना मागय ।। २०.२३ ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय)
अनुवाद ” जब वृक्ष को काटा जाता है , तब वह कुछ बोलता नहीं है और सूखते रहने पर भी कभी किसी से पानी नहीं माँगता । इसको तो हमने थोड़ा समझाए था चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं किसी पेड़ को कोई काटता है तो ना बोलें वृक्ष कुछ प्रत्युत्तर में नहीं कहेगा केवल सहन करते जाएगा और कभी सूख रहा है जल नहीं है तो पानी को नहीं मांगेगा मेरा यह करम है ऐसा मानते हुए उसको सहन करते जाएगा उनकी इच्छा से जो भी प्राप्त होगा उसी में समाधान या संतुष्ट रहकर, ऐसे वृक्ष पानी नहीं मिला तो भूखे प्यासे रहेंगे।
पेड़ ये मागये , तारे देय आपन – धन ।धर्म – वृष्टि सहे , आनेर करये रक्षण ।। २०. २४ ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय)
अनुवाद ” वृक्ष हर किसी को अपने फल , फूल तथा जो भी उसके पास होता है , दे देता है । वह तपती धूप तथा वर्षा की झाड़ी को सहन करता है , फिर भी वह अन्यों को आश्रय देता है। कोई धन मांगता है और कोई आता है मांगने तो उसको दे देते हैं उसको जरूरत है
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ॥४॥ उपदेशामृत
अनुवाद- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना।
भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं। ऐसे यह संतों के लक्षण हैं भक्तों के लक्षण हैं। पेड़ ये मागये, तारे देय आपन – धन, तरन्ति देव का उदाहरण है हरि हरि ! उन्होंने दे दिया अन्न भी दिया और यह भी दिया और जो कुछ बचा था उसे गृहण करने ही वाले थे उपवास के बाद, उपवास को तोड़ना था पारण का समय आ गया इतने में अलग अलग व्यक्ति आ गए उन्होंने मांगा मुझे भी दो, मुझे भी दो, मुझे भी दो, तरन्ति देव देते गए देते गए। मेरा क्या होगा यह विचार बाद में, पहले उनको चाहिए उनको जरूरत है उन्हें इसका अभाव है। तारे देय आपन – धन हरि हरि ! धर्म – वृष्टि सहे , आनेर करये रक्षण इसी प्रकार स्वयं तो सहन करेंगे, मूसलाधार वर्षा हो रही है औरों की रक्षा का पहले विचार होगा चिंता होगी धर्म – वृष्टि सहे , आनेर करये रक्षण, उत्तम वैष्णव बनके निर अभिमानी होना चाहिए। अभिमान निर अभिमान ,अहम यह तो सारा अहंकार का ही खेल है। एक अहम एक न अहम या अहम हैं मैं एक आत्मा हूं, भगवान का अंश दास हूं यह अहम है ठीक है। लेकिन ना अहम् मैं यह शरीर नहीं हूं और यह मम जो है अहम मम,यह मैं नहीं हूं यह मेरा नहीं है।
ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥
यह सारी संपदा भगवान की है उन्होंने मेरे लिए कुछ कोटा निश्चित किया हुआ है मेरी जितनी आवश्यकता है उसके अनुसार उतना ही मुझे रखना चाहिए तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः और जो अधिक धन है उसका संग्रह मैं नहीं करूंगा।
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः । बहाचर्य तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्थनम् ॥
(श्रीमदभागवतम ३.२८.४)
अनुवाद- मनुष्य को चाहिए कि अहिंसा तथा सत्य का आचरण करे, चोरी से बचे और अपने निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करे । वह विषयी जीवन से बचे , तपस्या करे , स्वच्छ रहे , वेदों का अध्ययन करे और भगवान परमस्वरूप की पूजा करें।
यह यम कहलाते हैं यम नियम,अहिंसा सत्य अस्तेय अस्तेय मतलब चोरी करना, ब्रह्मचर्य का पालन और असंग्रह संग्रह नहीं करना, (होल्डिंग एक्यूमिलेशन) इससे बढ़ता है अहंकार चैतन्य महाप्रभु फिर यहां कह रहे हैं।
उत्तम हा वैष्णव हवे निरभिमान । जीवे सम्मान दिले जानि ‘ ‘ कृष्ण ‘ – अधिष्ठान ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय २०.२५)
अनुवाद ” यद्यपि वैष्णव अति उच्च व्यक्ति होता है , तो भी वह निरभिमानी होता है और हर एक को कृष्ण का रहने का स्थान समझकर उसका आदर करता है।
निरभिमान बने जीवे सम्मान दिले जानि ‘ ‘ कृष्ण ‘ – अधिष्ठान और जीव औरों का सम्मान क्यों करें ? जीवे सम्मान दिवे और जीवों का सम्मान करना चाहिए क्यों ? जानि , जानकर क्या जानकर? कृष्ण अधिष्ठान, वह भी कृष्ण के हैं या उनमें भी कृष्ण हैं।
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || (श्रीमद भगवद्गीता १५. १५)
अनुवाद- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
उनमें भी कृष्ण हैं उनके साथ भी कृष्ण हैं वह कृष्ण के हैं इन बातों को जानकर जीव सम्मान दें या स्वयं भगवान कह रहे हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु।
एइ – मत हञा येड़ कृष्ण – नाम लय ।श्री कृष्ण – चरणे तौर प्रेम उपजय ।। ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय २०. २६)
अनुवाद – यदि कोई इस तरह से कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करता है , तो वह निश्चय ही कृष्ण के चरणकमलों के प्रति अपना सुप्त प्रेम जागृत कर लेगा ।
यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कॉमेंट्री या भाष्य है तृणादपि सु – नीचेन अष्टक के ऊपर, वह भाष्य ही समझा कर चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं यही मत, इस प्रकार मन की स्थिति में , कोई भगवान का नाम लेता है कृष्ण चरणे तौर प्रेम उपजय, श्रीकृष्ण के चरणों में चरण कमलों में उसका प्रेम उत्पन्न होगा (जागृत होगा) वह भाग्यवान बनेगा। दुर्देव , मैं दुर्देव हूं ऐसा कह रहा था अब भाग्योदय हुआ ऐसे मन की स्थिति में ,
कहिते कहिते प्रभुर दैन्य बाडिला । ‘शुद्ध – भक्ति ‘ कृष्ण – ठाजि मागिते लागिला ॥ (चैतन्य चरितामृत अन्तय २०. २७)
अनुवाद- जब श्रीचैतन्य महाप्रभु इस तरह बोल रहे थे , तभी उनका दैन्य बढ़ गया और वे कृष्ण से शुद्ध भक्ति सम्पन्न कर पाने के लिए प्रार्थना करने लगे।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस शिक्षाष्टक का जब वे रसास्वादन कर रहे हैं शिक्षाष्टक को कहें फिर भाषण सुना रहे हैं तो क्या हुआ ? दैन्य बाडिला, वे अधिक दैन्य को प्राप्त हुए दैन्य अर्थात अधिक दीन उनका ऐसा मन हुआ दीन हीन शुद्ध – भक्ति ‘ कृष्ण – ठाजि मागिते लागिला और इस प्रकार जब वे इस शिक्षाष्टक का रसास्वादन कर ही रहे थे और सिर्फ रसास्वादन करते करते नम्र हो गए या विनम्र हुए अधिक नम्र हुए विनयी हुए, विनय ददाति पात्रता, यह छोटा सिद्धांत है जो विनयी होता है वह पात्र बन जाता है (ही बिकम डिजर्विंग कैंडिडेट) विनयी नम्र व्यक्ति पात्र बनता है। चैतन्य महाप्रभु क्या करने लगे ? शुद्ध – भक्ति ‘ कृष्ण – ठाजि मागिते लागिला, कृष्ण भक्ति मांगने लगे, मुझे भी कृष्ण भक्ति दीजिए कृष्ण भक्ति दीजिए सेवा योग्यं कुरु, सेवा करने के लिए योग्य बनाइए, मुझे मुझे सेवा दीजिए ऐसी प्रार्थना श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु करने लगे।
प्रेमेर स्वभाव याहाँ प्रेमेर सम्बन्ध । सेड़ माने , – ‘ कृष्णे मोर नाहि प्रेम – गन्ध ‘ ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय २०. २८)
अनुवाद- जहाँ भी भगवत्प्रेम का सम्बन्ध होता है , इसका स्वाभाविक लक्षण यही है कि भक्त अपने आपको भक्त नहीं समझता । बल्कि वह सदैव यही सोचता है कि उसमें कृष्ण के प्रति रंच मात्र भी प्रेम नहीं है ।
अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह भी कह रहे हैं की मुझ में तो कृष्ण के चरणों में जो प्रेम होना चाहिए, उसकी गंध भी नहीं हैं मुझे प्रेम दीजिए, प्रेम चाहिए प्रेममयी सेवा दीजिए।
ठीक है अब मैं यहीं विराम करता हूं उसके बाद चौथा शिक्षाष्टक चैतन्य महाप्रभु कहेंगे ।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 18 मई 2021*
हरे कृष्ण । 850 स्थानों से आज जप हो रहा है। गौरांग । गौरांग । आप क्या कहोगे ? नित्यानंद ! गौरांग नित्यानंद! गौरांग नित्यानंद! आप थक गए। हरि हरि। ठीक है।
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद।*
*जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद।।*
शिक्षाष्टक , चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला अध्याय 20 श्लोक संख्या 16 । स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही रसास्वादन कर रहे हैं । अपने ही अष्टक का , शिक्षाष्टक का स्वयं ही महाप्रभु रसास्वादन कर रहे हैं । मनन कर रहे हैं ऐसा भी कह सकते हैं । श्रवनम कीर्तनम के उपरांत मनन करना होता है , मननशील फिर वह मुनि भी होते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वैसे भी आदर्श हमारे समक्ष रख रहे हैं , शिक्षाष्टक लिखा भी है फिर कह कर उस पर चिंतन कर रहे हैं, रसास्वादन कर रहे हैं ।द्वितीय शिक्षाष्टक जो चैतन्य महाप्रभु ने कहा और आप जानते हो कहापर कहा , उन्होंने कहा पर कहा ? जगन्नाथ पुरी ही है । जगन्नाथ पुरी धाम की जय। और गंभीरा है और साथ में राय रामानंद और स्वरूप दामोदर है उनसे कहा और उनको किसलिए कहा यह भी हमने एक दिन कहा था ताकी हम साधक उनको एक दिन सुनेंगे । चैतन्य महाप्रभु ने एक समय जो कहा , चैतन्य महाप्रभु चाहते थे एक दिन हम उसको सुने । हमारे भाग्य का उदय हो चुका है इसलिए आज हम उसको सुन रहे हैं ।
*नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।*
*एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि*
*दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥16॥*
(चैतन्य चरितामृत अंत लीला 20.16)
*अनुवाद:- हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।*
ऐसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने मुखारविंद से कहा । जैसे गीता के संबंध में कहा है की गीता वह वचन है जो ,
*गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः ।*
*या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥*
(गीता महात्म 4)
*अनुवाद : चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।*
भगवद गीता भगवान के मुखारविंद से निकले हुए वचन है और यहां यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का शिक्षा अष्टक है । उन्होंने कहा *नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता* थोड़ा शब्दआदि , भाषांतर संक्षिप्त में समझते हैं और फिर चैतन्य महाप्रभु के भाष्य को भी समझते हैं । *नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता* श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा , मैंने मेरे नाम में सर्वशक्ति , सारी शक्तियां भर दी है । नाम वैसे नामी भी है । नाम नामी भी है इस नाम में जो नामी भी है , मतलब कृष्ण ही है , भगवान ही है , भगवान का नाम भगवान ही है ।
शक्ति और शक्तिमान या नामि और कृष्ण में भेद नहीं है , या कृष्ण को उनके शक्ति से अलग नहीं किया जा सकता । मायावादी यह करने का प्रयास करते हैं या फिर वह मानते हैं की उनकी शक्तियां नहीं है । ठीक है , यह अलग विषय है । भगवान ने अपने सारी शक्तियां इस नाम में भरी । नाम शक्तिमान है ।
*स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न काल* और क्या छूट है ? यह शक्तिमान नाम के उच्चारण के लिए कोई , *नियमितः स्मरणे न कालः* काल वगैरह का कोई बंधन नहीं है, कोई नियम नहीं है । नियम क्या है? जप करो । नियम क्या है ? कीर्तन करो , यही नियम है । हरि हरि । ध्यान पूर्वक जप करो यह नियम है । कोई नियम नहीं है , कोई *स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न काल*
नामस्मरण के लिए कोई नियम नहीं है , कोई बंधन नहीं है ऐसा कहा है तो क्या नियम नहीं है क्या ? कोई भी नियम नहीं है ? ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए , जब चैतन्य महाप्रभु ने कहा कोई नियम नहीं है । समाप्त हुआ , चुप । यह किंतु की बातें थोड़ी आ ही जाती है और फिर कहना पड़ता है कि हां! नियम क्या है ? ध्यान पूर्वक जप करना यह नियम है । हरि हरि । फिर इस नियम को समझना पड़ता है । ध्यान पूर्वक जप करो तो वह ध्यान पूर्वक जप कैसे करना होता है या क्या-क्या करने से ध्यान पूर्वक जप नहीं होता है ? नाम अपराध करने से ध्यान पूर्वक जप नहीं होगा इसीलिए ध्यान पूर्वक जप करना है तो अपराध नहीं करने चाहिए ।
*अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम कृष्ण माता,कृष्ण पिता, कृष्ण धन-प्राण॥3॥*
*अनुवाद:- पवित्र नाम के प्रति अपराध किए बिना, कृष्ण के पवित्र नाम का जप कीजिए। कृष्ण ही आपकी माता है, कृष्ण ही आपके पिता हैं, और कृष्ण ही आपके प्राण-आधार हैं। ”*
भक्तिविनोद ठाकुर कहते है , अपराध से शून्य होकर जब करो यह नियम है । भक्ति विनोद ठाकुर ने एक ग्रंथ की रचना की है , वह हरीनाम चिंतामणि है । यह हरिनाम चिंतामणि ग्रंथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और नामचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के मध्य का संवाद है और इस संवाद के अंतर्गत यह 10 नाम अपराध कैसे टालने होते हैं या उस 10 नामापराध को समझाया है ।
*साधु निंदाम , सताम निंदाम महद अपराध* साधु निंदा यह एक महान अपराध है । यहा से शुरुआत होती है वैसे यह 10 नाम अपराध की बातें पद्मपुराण में भी कही है और फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और हरिदास ठाकुर ने इस पर चर्चा की है उनके मध्य का संवाद है । हरिनाम का महिमा और अपराधो से कैसे बचे यह सब बाते हरिनाम चिंतामणि में समझाई है । फिर कहना होगा कि कोई नियम नहीं है , कोई नियम नही है , नियम है ! हरिनाम चिंतामणि पढ़ो । सब समय भगवान का स्मरण करना इतना ही गोपिया जानती थी । *सततम् स्मरतः विष्णो* *विस्मरतो न जायतो चित* अब थोडी विस्तार से चर्चा शुरू हो गई लेकिन मैं ज्यादा नहीं कहूंगा । गोपियों का क्या वैशिष्ठ है ? वह स्मरण करती है बस इतना ही करने से पर्याप्त है लेकिन वह भगवान को कभी भूलती नहीं थी । वही बात कही है सब समय भगवान का गोपियां स्मरण करती थी , इसीको दूसरे शब्दों में कैसे कहा जाता है ?
*विस्मरतो न जायतो चित*
वह भगवान को कभी नहीं भूलती थी । यहां नियम नहीं है लेकिन नियम है , क्या नियम है? ध्यान पूर्वक जप करो । ध्यान पूर्वक जप करो यह नियम है । यह जब कहा तो यह कहना पड़ता है ,
*अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम कृष्ण माता,कृष्ण पिता, कृष्ण धन-प्राण॥3॥*
*अनुवाद:- पवित्र नाम के प्रति अपराध किए बिना, कृष्ण के पवित्र नाम का जप कीजिए। कृष्ण ही आपकी माता है, कृष्ण ही आपके पिता हैं, और कृष्ण ही आपके प्राण-आधार हैं। ”*
अपराधो से बचकर भगवान का नाम स्मरण करो , ध्यान करो ।
*एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि*
चैतन्य महाप्रभु आगे इस द्वितीय शिक्षाष्टक में क्या कहा ? *एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि* इस प्रकार आपने कितनी सारी कृपा मुझ पर की है , इतनी सारी कहां है , है ना ? मैं अपना नाम दे रहा हूं , नाम लो । भगवान ने हमको नाम दिया है या परंपरा में हमारे आचार्य को दिया उन्होंने हमको नाम दिया , नाम में सर्वशक्ति है। यह मंत्र शक्तिमान है । *एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि* यह कृपा ही है ना? मुझे आपने नाम दिया , कैसा नाम दिया ? पूर्ण शक्ति के साथ या शक्तिमान नाम दिया , इतना ही नहीं , जप करने का कोई नियम भी नहीं है यह भी आपको छूट है , कोई नियम नहीं है।
*पात्रापात्र – विचार नाहि.नाहि* *स्थानास्थान येइ याँहा पाय , ताँहा करे प्रेम – दान ।।23 ।।*
(चैतन्य चरितामृत आदि 7.23)
*अनुवाद भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है , इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं । उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी । जहाँ कहीं भी अवसर मिला , पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया ।*
इसीलिए चैतन्य महाप्रभु अष्टक में कहते हैं , *एतादृशी* इस प्रकार आपने मुझ पर विशेष कृपा तो की है । *भगवन्ममापि* यहां किंतु या तथापि है ऐसा किया आपने , कृपा तो की है , किंतु समस्या क्या है ? मेरी समस्या है? *दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः* किंतु इस नाम में *नअनुराग* अनुराग होना चाहिए , अनुराग मतलब आसक्ति। अनुराग होना चाहिए लेकिन वह नही है इसलिए न अनुराग और यह मेरा दूरदैव है । इस महामंत्र में अ जनी मतलब उत्पन्न नहीं हुआ क्या उत्पन्न नहीं हुआ अनुराग: अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ दुर्दैवम इदशम इस महामंत्र मे अ जनी उत्पन्न नहीं हुआ अनुराग ऐसी हल्की सी समझ है इस शिक्षाष्टक का भाषांतर है कहो ऐसा भावार्थ हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस पर भाषा लिखते हुए कहते है।
*चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.17*
*अनेक – लोकेर वाञ्छा – अनेक – प्रकार । कृपाते करिल अनेक – नामेर प्रचार ।।17 ।।*
*अनुवाद ” चूंकि लोगों की इच्छाओं में विविधता है , इसीलिए आपने कृपा करके विविध नामों का वितरण किया है।*
लोग अनेक है तब उनकी वाणी भी इच्छा भी अनेक प्रकार की है। इसीलिए अनेक नाम भी है या फिर अनेक नामों का प्रचार करते हैं। हरि हरि या कर्मकांड भी है ध्यान कांड भी है क्योंकि अलग-अलग वांछा है। अनेक – लोकेर वाञ्छा अनेक प्रकार
*एको बहूनांम यो विदाधती कामां* *कथा उपनिषद 2.2.1*
ऐसा भी कहा है।
वह एक भगवान क्या करते हैं एको बहू नाम बहुतों की अनेकों की वांछा कामना को पूर्ति करती है। एको बहूनाम विधदाती कामां ये इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। हरि हरि
*चैतन्य चरितामृत अन्त्य 20.18*
*खाइते शुइते यथा तथा नाम लय । काल – देश – नियम नाहि सर्व सिद्धि हय ॥18 ||*
*अनुवाद ” देश या काल से निरपेक्ष जो व्यक्ति खाते तथा सोते समय भी पवित्र नाम का उच्चारण करता है , वह सर्व सिद्धि प्राप्त करता है ।*
कोई अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है, इसलिए कहे है एक तो लोगों की अनेक प्रकार की वांछा है तो उस वांछा का विचार करना होगा यदि वांछा, इच्छा ही इस प्रकार की है तो किस प्रकार अनुराग उत्पन्न होगा और दूसरी बात खाइते शुइते यथा तथा नाम लय सब समय नाम लो खाइते शुईते खाते समय सोते समय सपने में भी नाम लेना चाहिए और फिर आगे
*चैतन्य भागवत*
*पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम*
*पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।*
*( चैतन्य भागवत अन्त्य – खण्ड ४.१.२६ )*
स्थान-अस्थान नाही विचार पात्र-अपात्र नाही विचार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब कीर्तन करते कीर्तन का प्रचार करते तो कहां पर कीर्तन करते थे।
*चैतन्य चरितामृत आदि लीला 7.23*
*पात्रापात्र – विचार नाहि.नाहि स्थानास्थान येइ याँहा पाय , ताँहा करे प्रेम – दान ।।23 ।।*
*अनुवाद:- भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है , इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं । उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी । जहाँ कहीं भी अवसर मिला , पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया ।*
स्थान-अस्थान का विचार नहीं करते और पात्र अपात्र का भी विचार नहीं करते सर्वत्र और सभी को महामंत्र देते हैं। उनके समक्ष श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कीर्तन करो सब समय कीर्तन करो कोई नियम नहीं है।
खाइते शुईते यथा तथा नाम लय काल देश नियम नाहि सर्वसिद्धि होय कोई नियम नही है तुम सिद्ध हो जाओगे। हरि हरि कीर्तन करना जप करना छोड़ना नहीं चाहिए अपराध भी हो रहे हैं तब भी नही छोड़ना चाहिए।
किसी ने कहा महाराज मैं जप को रोकना चाहता हू,मैं जप करना नहीं चाहता हूं जब पूछा गया फिर उन्होंने कहा मुझसे अपराध हो रहे हैं।
मुझसे अपराध हो रहे हैं हरिनाम के सम्बंध में मुझसे अपराध हो रहे हैं।
मुझे जप नहीं करना, मुझसे नाम अपराध हो रही है इसलिए अच्छा है कि मैं नाम ही नहीं लु या कीर्तन ही नहीं करू, यह मुर्खता होगी फिर ये महा अपराध होगा जप कर रहे और अपराध कर रहे हैं या तो अपराध है ही किंतु जब भी छोड़ देंगे यह सोच कर कि हम से अपराध होते हैं तो वह महा अपराध या महामूर्खता होगी क्योंकि हरिनाम में शक्ति है सामर्थ्य है फिर अगर स्पर्धा होगी ऐसा मैं कह रहा हूं एक अपराध कर रहा है,अपराध कर रहा है अपराध कर रहा है और जप भी कर रहा हैं जप भी कर रहा है जप भी कर रहा है कीर्तन को नहीं छोड़ रहा है। तो जीत किसकी होगी अपराधों की जीत होगी कि हरिनाम की जीत होगी सोचो तो सही वैसे शास्त्रों में ऐसा एकवचन भी है मुझे अभी याद नहीं आ रहा है। तो हम इतना भी अपराध नहीं कर सकते जो हरिनाम उसको ठुकरा के या परास्त नहीं कर सकता ऐसा तो संभव ही नहीं है क्योंकि कृष्ण ने कहा है क्या करो
*भगवद्गीता 18.66*
*“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६ ||”*
*अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।*
मामेकं शरणं व्रज मेरी शरण में आओ अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः बस मेरी शरण में आओ
*जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥6॥*
*निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान् के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक वयवहार करो।*
तो हरि नाम का आश्रय ही हरि की शरण है तो हरी नाम की हमने शरण ली या हरीनाम की हमनें शरण ली
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो हमसे जो भी पाप या अपराध होगे उसके परिणामों से उसके फल से हम मुक्त होंगे वह आश्रय को बनाए रखेंगे खाइते शुईते नाम लय नाम लेते रहेंगे नाम का आश्रय लेते रहेंगे परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तन संकीर्तन आंदोलन की जय हो और संकीर्तन आंदोलन के भक्तों की जय होगी विजय असो
नाम के बल पर पाप करना भी एक नाम अपराध है हंसते हुए इसको टालना चाहिए। हरि हरि
काल देश नियम नाहि सर्वसिद्धि हय।
*चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.19*
*” सर्व – शक्ति नामे दिला करिया विभाग । आमार दुर्दैव , -नामे नाहि अनुराग !! ” ॥19 ॥*
*अनुवाद :-” आपने अपने हर नाम में अपनी पूरी शक्ति भर दी है , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मुझमें आपके पवित्र नाम के कीर्तन के प्रति कोई अनुराग नहीं है । “*
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने द्वितीय शिक्षाष्टक का ही था अब स्वयं भाषा कह रहे हैं।
उन्होंने कहा की मेरा दुर्दैव हैं कि मेरा अनुराग उत्पन्न नही हो रहा हैं।यह जब हम सुनते हैं तो हमको सोचना होगा कि ऐसा विचार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हमारे दिमाग में डालना चाहते हैं या हमारे मन में ऐसे विचार स्थापित करना चाहते हैं। चैतन्य महाप्रभु और उनका हरिनाम में अनुराग नहीं होने का कोई संभावना ही नहीं है।
लेकिन यह जो यहां पर कह रहे हैं। आमार दुर्दैव यह चैतन्य महाप्रभु का दुर्दैव नहीं है या है ऐसा कुछ कह रहे हैं। उनकी यह नम्रता है लेकिन ऐसा हमें हमारी ही हालत ऐसी है हमारा दुर्दैव है महाप्रभु का तो दुर्दैव नहीं है। क्या दुर्दैव नामे नाही अनुराग नाम में अनुराग नहीं है। आप क्या कहोगे बात सही है या हैं तो पूरा नहीं है उतना नहीं है या नहीं कि बिल्कुल ही नहीं है लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं है,पूरा नही हैं। सही है या गलत क्या कहोगे अनुराग नहीं है ऐसा कहोगे कि नहीं *होनेस्टी इस द बेस्ट पॉलिसी* या हाथ ऊपर करो अगर आप को कहना है कि मेरा अनुराग नहीं है मुझे अनुराग नहीं है नाम में तो हाथ ऊपर करो यहां अधिकतर है नही पुरे ही भक्तों ने हाथ ऊपर किये हैं ठीक है।
पूरे सौ प्रतिशत सोच रहे हैं यह विचार चैतन्य महाप्रभु ने व्यक्त किया है यह हमारे लिए है आमार दुर्दैव नामे नाहि अनुराग ठीक है हाथ नीचे कर लो और फिर चैतन्य महाप्रभु ने कहा।
*चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.20*
*ये – रूपे लइले नाम प्रेम उपजय । ताहार लक्षण शुन , स्वरूप – राम – राय ॥*
*अनुवाद :- श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , ” हे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , मुझसे तुम उन लक्षणों को सुनो , जिस प्रकार मनुष्य को अपने सुप्त कृष्ण – प्रेम को सुगमता से जागृत करने के लिए हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करना चाहिए ।*
चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं मेरा अनुराग नहीं है मेरा अनुराग नहीं है हरिनाम में तुम्हारा भी तुम सुन रहे हो तुम्हारा भी अनूराग नही है तो सुनो क्या सुनो
*ये – रूपे लइले नाम प्रेम उपजय* हम कैसा नाम ले कैसे नाम का जप करें कीर्तन करें प्रेम उपजाय जहां से प्रेम जागृत होगा प्रेम उदित होगा कैसे जप करने से कैसे क्या करने से क्या करना होगा अनुराग तो नहीं है तो फिर चैतन्य महाप्रभु कहते हैं मैं बताता हूं तुम्हें तुम्हारा अनुराग नहीं है तो तुम अनुरागी कैसे बन सकते हो और कृष्ण प्रेम को कैसे जागृत कर सकते हो उदित कर सकते हो उसका अनुभव कर सकते हो इस बात को मैं कहूंगा सुनो राय रामानंद और स्वरूप दामोदर ऐसा कहकर फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आगे का तृतीय अष्टक कहा उस तृतीय अष्टक में इस रहस्य का वर्णन हैं या कैसा जप करें ताकि कृष्ण प्रेम उत्पन्न हो अनुराग उत्पन्न हो तो इस रहस्य का उद्घाटन अब कल हि होगा। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से हम सुनेंगे कल की कक्षा में कहो तब तक आज जो जो चैतन्य महाप्रभु ने कहा इस द्वितीय के अष्टक के संबंध में उसी पर और विचार करो चिंतन करो मनन करो अध्ययन करो ठीक है गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
17 मई 2021
पंढरपुर धाम से,
हरे कृष्णा!
875 स्थानों से भक्त हमारे साथ जुड़कर जप कर रहे हैं।
हरि हरि, गौर हरि!!
जानते हो कि उन्हें हरि क्यों कहते हैं? क्योंकि वह हर दुखः को हर लेते हैं। वह दुखहर्ता हैं, इसलिए उन्हें हरि कहते हैं।वह मनोहर भी हैं, क्योंकि वह मन को भी हर लेते हैं।पंढरपुर में कहते हैं,”वासुदेव हरि हरि” और हम गोडिय वैष्णव कहते हैं कि केवल हरि हरि ही मत कहो गौर हरि कहो। *गौर हरि*।अब बताओ क्या कहोगें?
*हरि हरि गौर हरि*
*जय-जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त* *वृंद।*
*श्री शिषटाषटक की जय*!
हम कई दिनों से शिष्टाषटक का रसास्वादन कर रहे हैं। अपनी प्रकट लीला में तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं 500 वर्ष पूर्व जगन्नाथपुरी में शिष्टाषटक का रसास्वादन करते रहे,किंतु क्योंकि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की सभी लीलाएं नित्य लीलाएं हैं, इसीलिए यह कह सकते हैं कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आज भी इस शिष्टाषटक का रसास्वादन कर रहे हैं। भगवान के चरण चिन्नहो का अनुगमन करते हुए हमें भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के शिष्टाषटक का रसास्वादन करना चाहिए। शिष्टाषटक कैसा हैं? यह अस्वादनीय हैं। पालन करने योगय हैं।
(चैतन्यचरित्रामृत अंत: लीला अध्याय 20 श्लोकसंख्या 11)
नाम – सङ्कीर्तन हैते सर्वानर्थ – नाश ।
सर्व – शुभोदय , कृष्ण – प्रेमेर उल्लास।।
*अनुवाद*
*एकमात्र भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन करने से मनुष्य समस्त* *अवांछित अभ्यासों से मुक्त हो सकता है । यह समस्त सौभाग्य के” *उदय कराने तथा कृष्ण – प्रेम की तरंगों के प्रवाह को शुभारम्भ कराने* *का साधन हैं।*
शिष्टाषटक का आस्वादन करते हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को संबोधित कर रहे हैं और कह रहे हैं कि नाम संकीर्तन करने से सभी अनर्थो का नाश हो जाता हैं,अनर्थ अर्थात बेकार की बातें। हम बेकार की बातों को लेकर बैठे हैं।या कह सकते हैं कि हम अनर्थो की आकांक्षा लेकर बैठे हैं। कैसी आकांक्षाएं? पापके विचारों की, काम क्रोध,लोभ इन सब विचारों की।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं कि नाम संकीर्तन करने से सभी अनर्थो का नाश हो जाएगा। हरि हरि।।
और शुभ का लाभ होगा। शुभ का उदय होगा, इससे भक्ति प्राप्त होगी। नाम संकीर्तन करना भक्ति ही हैं। भक्तिरसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी भक्ति के 6 लक्षणों के बारे में बता रहे हैं। उसमें से एक हैं, शुभदा।भक्ति शुभ देने वाली हैं। मंगल दायक हैं। वही बात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। सर्व शुभ उदय होगा और कृष्ण प्रेम का उदय एवम् विकास प्राप्त होगा या कृष्ण प्रेम जागृत होगा।
M 22.107
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय।
श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।107॥
*अनुवाद*
*”कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है।* *यह ऐसी बस्तु नहीं*
*है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा* *कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता*
*है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।”*
यह सिद्धांत है कि नाम संकीर्तन करने से चित् शुद्ध होगा और कृष्ण प्रेम प्राप्त होगा या जागृत होगा। कृष्ण प्रेम तो अभी भी हैं, लेकिन अभी सुप्त अवस्था में हैं।यह नाम संकीर्तन उस प्रेम को उदित करेगा। थोड़ी सी इस प्रकार की प्रस्तावना श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहकर अब जो प्रथम शिष्टाषटक हैं उसको भी स्वयं ही कहेंगे।हमें यह स्मरण रहे कि अभी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के गंभीरा में हैं और राय रामानंद और स्वरूप दामोदर के साथ हैं। रात्रि का समय हैं और रात्रि का जागरण हो रहा हैं। जैसे हमारे देश में देवी का जागरण चलता रहता हैं, लोग पूरी पूरी रात भर देवी के या देवी देवताओं के गुण गाते रहते हैं। जागरण होता हैं। हरि हरि।। कृष्ण ने स्वयं कहा हैं कि
काङ् क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: |
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा
(भगवद्गीता 4.12)
*अनुवाद*
*इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे* *देवताओं की पूजा करते हैं | निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को* *सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता हैं |*
देवी जागरण,देवता जागरण या देवी देवताओं की आराधना के पीछे क्या उद्देश्य होता हैं?*आकांक्षाओं की पूर्ति*
लोग देवी देवताओं की पूजा अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए करते हैं और अपने किए हुए कार्यों का फल प्राप्त करने के लिए देवी देवताओं की पूजा करते हैं और जब फल प्राप्त होगा तो उसका भक्षण करेंगे, उसको खाएंगे।इन लोगों को कर्मी कहते हैं।कर्मी, ज्ञानी,योगी में से कर्मी कौन होते हैं? जो कि अपने कर्मों के फल को स्वयं ही भोगना चाहते हैं। इसलिए देवी देवताओं के पुजारी कर्मी होते हैं। तो हमारे देश में जागरण तो होते रहते हैं,लेकिन जो चैतन्य महाप्रभु का जागरण हो रहा हैं वह दिव्य हैं, आलौकिक है़ं,गुनातीत हैं।
अन्याभिलाषिता-शून्यं ज्ञान-कर्माद्य्-अनावृतम् ।
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिर् उत्तमा
(भक्ति रसामृत सिंधु 1.1.11)
उत्तम भक्ति की चर्चा कथा या आस्वादन करते हुए यह जागरण हो रहा था। मैं यह कहना चाह रहा था कि परिस्थिति समझो जिसके अंतर्गत श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने शिष्टाषटक का आस्वादन किया। अभी तक जो भी कहा गया था, वह परिचय या प्रस्तावना थी।अब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रथम शिष्टाषटक कहेंगे।
Ant 20.12
चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः कैरव -* *चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति -* *पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण -* *सङ्कीर्तनम् ॥12 ॥
*अनुवाद*
*” भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो* *हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी* *प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन* *उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य* *रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन* *है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय* *सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति* *पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना*
हरि हरि!!
ऐसी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा। मैं कहने जा रहा था चैतन्य महाप्रभु ने ऐसे कहा,लेकिन फिर विचार आया कि नहीं, नहीं ऐसे नहीं कहा होगा। ऐसे तो मैंने दौहराया हैं। जाने उनके कैसे भाव रहे होंगे। इसे कहते हुए उनके मन की स्थिति कैसी रही होगी।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का तो मन ही वृंदावन हैं। हरि हरि।। जिनके मन में हरि बसे हैं।वैसे भगवान तो सभी के मन में बसे होते ही हैं। लेकिन चैतन्य महाप्रभु तो इसका अनुभव करते थे।यहां तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृष्ण का साक्षात्कार करते हुए राधा भाव में बोल रहे हैं। पूर्ण कृष्णभावनाभावित राधा के मन में कृष्ण भावना विकसित हुई हैं और कृष्ण प्रेम उल्लसित हो चुका हैं और पूरी समझ के साथ कह रहे हैं।”चेतो दर्पण मार्जनम्”, यह कहने पर जो भाव उदित होते हैं, उन्ही भावो के साथ चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रथम शिष्टाषटक का उच्चारण किया। मैंने तो अपनी समझ के अनुसार ही आपको बताया हैं। मेरी समझ की कुछ सीमा हैं, उसी के अनुसार बताया कि ऐसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा होगा। ऐसे भावों से युक्त श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह प्रथम शिष्टाषटक कहा।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के द्वारा इस शिष्टाषटक का रसास्वादन हो रहा हैं, तो वह अब क्या करने वाले हैं? वह शिष्टाषटक पर अपना विचार प्रस्तुत करने वाले हैं। जिसको हम टीकाकरण या भाष्य भी कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं ही स्वयं के रचित शिष्टाषटक पर भाष्य सुनाया या समझाया। वहां तो राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को समझा ही रहे हैं।उसी के साथ हमें यह भी समझना होगा कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हम को समझाना चाहते हैं। निमित्त तो राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को बनाया हैं, लेकिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हमें ही सिखाना चाहते हैं। उनका लक्ष्य तो हम लोग हैं। हमारे लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इस शिष्टाषटक की रचना भी की है और शिष्टाषटक का भाष्य भी सुना रहे हैं।
जैसे भगवद्गीता अर्जुन के लिए नहीं थी,अर्जुन तो केवल निमित्त मात्र थे। भगवान तो हमको भगवद्गीता सुनाना चाहते थे। हम जो भगवान से बिछड़ गए हैं।हमारे जैसे भूले भटके जीवो को श्री कृष्ण गीता का उपदेश सुनाना चाह रहे थे और उसके लिए निमित बनाया अर्जुन को। कृष्ण ने ही पूरी परिस्थिति का निर्माण किया, उस परिस्थिति में अर्जुन को पहुंचाया और अपनी माया के प्रभाव से अर्जुन को भ्रमित भी किया और संभ्रमित में अर्जुन ने फिर कृष्ण से कहा भी
“कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ७ ||”
(भगवद्गीता 2.7)
अनुवाद
*अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ* *और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ* *कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं* *आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |*
“श्री कृष्ण वंदे जगत गुरु”, मैं आपका शिष्य बन रहा हूं। हें जगद्गुरु श्री कृष्ण,यह शिष्य जो आपकी शरण में आया हैं, उसे कृपया उपदेश दीजिए और फिर अर्जुन को जो भगवान ने उपदेश दिया वह हमारे लिए भी हैं। श्री कृष्ण ने जो उपदेश दिया वह हैं भगवद्गीता और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जो उपदेश दिया वह हैं शिष्टाषटक।
यहां नाम संकीर्तन की बात हो रही हैं। कुछ दिनों पहले ही मैंने यह बात सुनाई थी कि जो प्रथम शिष्टाषटक हैं, इसमें विशेष विशेषण हैं। विशेष्य हैं श्री कृष्ण संकीर्तन और इसके 7 विशेषण हैं, या 7 एडजेक्टिव हैं। *परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम्*। संकीर्तन की विजय हो। श्री कृष्ण संकीर्तन कैसा हैं? उसके लिए 7 बातें कहीं गई हैं। सात प्रकार से सात वैशिष्ट्ठो के साथ कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इस संकीर्तन का वर्णन किया हैं और वह हैं “*चेतो दर्पण मार्जनम्*” नाम संकीर्तन करने से चेतना का जो दर्पण हैं, जो आईना हैं, वह स्वच्छ होगा और यह भवदावागनि बुझेगी ,संसार जो दावाग्नि हैं, इसको कभी-कभी जंगल भी कहा जाता हैं और इसीलिए दावाग्नि शब्द का उपयोग हुआ हैं। यानी जंगल की आग।इस संसार में आग लगी हुई हैं और यह संकीर्तन उस आग को बुझा सकता हैं।
*भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं*
यह दूसरी बात हैं।और तीसरी बात क्या हैं?तीसरी बात हैं-
*श्रेयः कैरव -चन्द्रिका – वितरणं*
अभी-अभी जहां आग लगी हुई थी या फिर पूरे संसार की आग तो नहीं लेकिन हमारा जो संसार हैं, हमारा जो जगत हैं, हमारा परिवार हैं, या फिर हम खुद ही हैं अर्थात हमारा जो व्यक्तिगत संसार हैं, वो आग बुझेगी और उसी स्थान पर फूल खिलेंगे। जैसे ग्रीष्म ऋतु के बाद वसंत ऋतु आती हैं और मंद शीतल हवाएं बहने लगती हैं।फूल खिलते हैं हरियाली छा जाती हैं।
जैसे ग्रीष्म ऋतु में जो अनुभव होता हैं, उस आग का निर्वापन, उसका दमन, उसका शमन करके फिर उसी स्थान पर क्या होगा?
कैरव यानी पुष्प खिलेंगे।श्रेयस होगा एक श्रेयस होता हैं और एक प्रेयस होता हैं यानी लाभ।वैसा लाभ होगा, जीवन में वैसी क्रांति होगी । आप उस स्थान की कल्पना कर सकते हो जहा अभी-अभी आग लगी थी और क्रांति हुई और आग बुझ गई और उसी स्थान पर हरियाली छा गई। पुष्प खिले और शीतल सुगंधित मंद मंद हवा बहने लगी। जैसी यह क्रांति हैं वैसी ही क्रांति श्री कृष्ण संकीर्तन कर देता हैं। भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं के स्थान पर होगा श्रेयः कैरव चन्द्रिका – वितरणं। उसके बाद चौथा हैं।
*विद्या – वधू – जीवनम्*
यह नाम संकीर्तन विद्या वधू का जीवन हैं।अथार्त लाइफ ऑफ द वाइफ ऑफ नॉलेज। ज्ञान की वधू का जीवन या दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि नाम संकीर्तन करने से आप विद्वान भी हो जाएंगे। विद्या को ग्रहण करेंगें।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥७ ॥
(श्रीमद भागवतम 1.2.7)
*अनुवाद*
*भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहेतुक ज्ञान* *तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।*
वासुदेव की नाम संकीर्तन वाली भक्ति करने से, श्रवणं कीर्तन करने से, श्रवणं कीर्तन करते हैं, तो स्मरण होता हैं फिर ध्यान होता हैं।
श्रीप्रह्लाद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा* *तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४ ॥
(श्रीमद भागवतम 7.5.23)
*प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप ,* *साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना ,* *उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना ,* *षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से* *प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप* *में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा ,* *वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ* *स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की* *सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान* *व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।*
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले ।
स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।
यह नाम संकीर्तन ज्ञान आंजन और केवल ज्ञान आंजन ही नहीं प्रेम आंजन स्तर तक हमें यह नाम संकीर्तन पहुंचा सकता हैं।पहले जो व्यक्ति बुद्धू था,अब बुद्धिमान हो गया। यह नाम संकीर्तन बुद्धू को बुद्धि देगा।
“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||”
(भगवद्गीता 10.10)
*अनुवाद*
*जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान* *प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |*
यह चार वैशिषठ हुए।और पांचवा हैं-
*आनन्दाम्बुधि – वर्धनं*
आनंद बढ़ाने वाला।आनन्दाम्बुधि अर्थात आनंद का सागर और कैसा आनन्दाम्बुधि हमेशा बढ़ने वाला सागर। जिसका कोई किनारा ही नहीं हैं। वैसे मेरा अनुभव तो यह हैं कि हर समुद्र का तट होता हैं, किनारा होता हैं। समुद्र के जल की केवल वही तक ही पहुंच होती हैं। समुद्र की लहरें तरंगे या जल उससे आगे नहीं बढ़ती हैं। हमारे अनुभव का जो समुद्र हैं उसकी भी एक सीमा हैं, किंतु यह नाम संकीर्तन जो है इसे करने से आनंद प्राप्त होने वाला हैं और यह आनंद वधिर्त होने वाला है कितना आनंद?आनंदम बुद्धि वर्धनम। बढ़ने वाला आनंद। विस्तारित होने वाला आनंद का सागर,उसी को इस पांचवें वशिष्ठ में बताया गया है और छठवां वैशिष्ठ क्या हैं?
*प्रति -पद पूर्णामृतास्वादन*
और व्यक्ति पग पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करेगा। पहले जहर पी रहा था।कैसे जहर पी रहा था?मनुष्य जीवन पाकर भी राधा कृष्ण का भजन नहीं कर रहा था तो जानते बुझते हुए विश ही पी रहा था
manusya-janama paiya radha-krsna na bhaijiya
janiya suniya bisa khainu
मानव जीवन मिलने पर भी अगर कृष्ण का भजन नहीं कर रहा हैं, पूजन नहीं कर रहा हैं, राधा कृष्ण के शरण में नहीं आ रहा हैं और
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा* *तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४ ॥
(श्रीमद भागवतम 7.5.23)
इसमें से अगर कुछ भी नहीं कर रहा हैं तो क्या कर रहा हैं? जानते बुझते हुए विश खा रहा हैं। किंतु नाम संकीर्तन करना मतलब अमृत का पान करना हैं। पूर्ण अमृत आस्वादन, पद पद पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करना और सांतवी बात हैं
*सर्वात्म – स्नपनं*
स्नान होगा किस का स्नान होगा? आत्मा का स्नान होगा। मन को भी आत्मा या सेल्फ कहा जाता हैं। मैंने बताया था कि 7 आइटम हैं सेल्फ के अंदर जिसका उल्लेख होता हैं।सेल्फ में सात अलग-अलग चीजें शामिल हैं। आत्मा, मन, बुद्धि, शरीर और भी हैं। तो सर्वात्मस्नपनं इन सब का स्नान होगा, अभिषेक होगा और आनंदम्बुद्धिवर्धनं हो रहा हैं। आनंद का सागर जब गोते लगाए तो हो गया सर्वात्मस्नपनं।व्यक्ति पूरा भीग जाएगा और कृष्ण भावनाभावित होगा। उसकी आत्मा भी कृष्ण भावनाभावित,उसका मन भी कृष्णभावना भावित, बुद्धि भी कृष्ण भावनाभावित। भगवान स्वयं ही उसे बुद्धि दे रहे हैं।भगवान स्वयं सुविचार दे रहे हैं। तो हो रहा हैं ना सर्वात्मस्नपनं शरीर का भी हो रहा हैं। स्वास्थ्य ठीक रहेगा। व्यक्ति स्वस्थ भी रहेगा।जहर पीने से मर जाते हैं,लेकिन जब अमृत का पान करेंगे तो आयुष्मान भव:।
और केवल जीने के लिए ही नहीं जीना। जी कर कुछ करना भी हैं। स्वस्थ जीवन ही जीवन हैं, नहीं तो जीवित होते हुए भी मरण ही हैं। आजकल लोग मरने से पहले मर जाते हैं। जीवित हैं, लेकिन लेटे रहते हैं,अस्पताल में होते हैं या उनके शरीर के अलग-अलग अंग कार्य नहीं कर रहे होते,तो वह मरण ही हैं।जो आत्मा कृष्ण भावना भावित हैं या भक्त हैं या व्यक्ति हैं, भगवान की सेवा में उनका शरीर भी स्वस्थ एवं सक्रिय रहता हैं और फिर *परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनं*।
ऐसे संकीर्तन आंदोलन की जय हो!
यह कौन कह रहा हैं? यह चैतन्य महाप्रभु ने घोषणा की।
*संकीर्तन आंदोलन की जय*
और *संकीर्तन आंदोलन से जुड़े हुए सभी भक्तों की जय*
विजयी भव:।।
और
इस आंदोलन की भी जय हो!!
और
इस आंदोलन के सभी सदस्यों की भी जय हो!!
*गोर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!*
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय*
*श्रील प्रभुपाद जी की जय।*
*हरे कृष्णा।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*16 मई 2021*,
*पंढरपुर धाम*
हरे कृष्ण, 865 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि हरि। *जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद, जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद।* मतलब आप समझ ही गए होगे कि चैतन्य चरितामृत से कुछ चर्चा होने वाली है। कृष्णराज कविराज गोस्वामी की ऐसे ही हर अध्याय को प्रारंभ करते हैं। *जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद, जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद।* तो हम शिक्षाष्टक की ओर मुड़ते हैं। इसके लिए फिर हम गंभीर स्थान पर पहुंच जाते हैं। जब मैं कहता हूं गंभीर स्थान तब आपको याद आता है, मैं कौन से स्थान के बारे में बात कर रहा हूं? गंभीर स्थान मतलब गंभीरा। जगन्नाथपुरी में गंभीरा, जहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु काशी मिश्रा भवन में रहते थे। काशी मिश्रा, एक पुरोहित जगन्नाथपुरी के थे। जो उनका भवन था, वह काशी मिश्रा भवन कहलाता था और आज भी कहलाता है, हम वहां जा सकते है। जगन्नाथपुरी में, गंभीरा में, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रात्रि का समय है और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राय रामानंद और स्वरुप दामोदर के साथ विराजमान है।
*स्वरूप , रामानन्द , -एड दुइजन – सने ।*
*रात्रि – दिने रस – गीत – श्रोक आस्वादने ॥ ४ ॥*
(अंतिम लीला 20.4)
अनुवाद
वे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , इन दो संगियों के साथ रात – दिन दिव्य आनन्दमय गीतों तथा श्लोकों का आस्वादन करते थे ।
दोनों की संगति में पूरी रात बीत जाती थी, रसास्वादन करते थे। तो रसास्वादन कई प्रकार के होते हैं। गीत गोविंद का भी रसास्वादन है। कृष्ण करुणामृत का भी रसास्वादन है। जगन्नाथ वल्लभ नाटक का रसास्वादन है। कभी श्रीमद्भागवत का रसास्वादन है और तो कभी अधिकतर शिक्षाष्टक का रसास्वादन करते हैं। तो यहां पर चैतन्य चरितामृत अंतिम लीला अध्याय 20 में शिक्षाष्टक का आस्वादन की चर्चा हुई है। जिसका उल्लेख हम कुछ दिनों से कर रहे थे। बीच में दो दिन नहीं हुआ उसके पहले किये थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रसास्वादन करने वाले है। चैतन्य महाप्रभु उस रस को बांट रहे हैं, ललिता और विशाखा के साथ, राय रामानंद और स्वरूप दामोदर, ललिता और विशाखा है। तो वह रसास्वादन कृष्णराज कविराज गोस्वामी हमारे साथ बांट रहे हैं। देखिए यह माधुर्य रस का रसास्वादन है या कृष्ण प्रेम का क्योंकि चर्चा तो वैसे नाम संकीर्तन की हो रही हैं। हरी नाम की चर्चा हो रही है और हरी नाम गोलाक प्रेम धन है। गोलोक वृंदावन का प्रेम धन महाप्रभु लेकर आए हैं और तुलसी महामंत्र संकीर्तन का रसास्वादन है। यह शिक्षाष्टक तो उसी संकीर्तन की टीका है, महिमा है या महात्म्य है। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हर रात्रि को एक एक शिक्षाष्टक लेते है। उस संबंध में जितने सारे भाव उदित होते हैं उनके हृदय में, उनके हृदय प्रांगण में मोरा मन वृंदावन भी कहते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मेरा मन वृंदावन ही है। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन पहुंच जाते रसास्वादन करते हुए। हरि हरि। उन्ही की कृपा से भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हमको भाग्यवान बनाया है। देखिए हम आज प्रातः काल चर्चा कर रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु की रसास्वादन की, रात्रि के समय होती रही। किंतु हम प्रातः काल में शुभ सामाचार हमको सुनने को मिल रहा है। वही रस हम भी रसास्वादन कर रहे हैं। उसका श्रवण और कीर्तन करते हुए, स्मरण के साथ हम रसास्वादन करने का परम सौभाग्य हम सभी को प्राप्त है। तो *गुरु गौरंग जयत:* यह गुरु की कृपा है और गौरंग की कृपा है।
*कोन दिने कोन भावे श्लोक – पठन ।*
*सेइ लोक आस्वादिते रात्रि – जागरण ॥७॥*
(अंतिम लीला 20.7)
अनुवाद
कभी – कभी महाप्रभु किसी विशेष भाव में डूब जाते और उससे सम्बन्धित लोक सुनाकर तथा उसका आस्वादन करते हुए रातभर जगे रहते ।
तो कोई एक श्लोक किसी एक रात्रि को चैतन्य महाप्रभु उसका पाठ करते यहाँ लिखा है *श्लोक – पठन । सेइ लोक आस्वादिते रात्रि – जागरण* और उसी श्लोक का श्रवण कीर्तन स्मरण के साथ उनकी पूरी रात बीत जाती। उस माधुरी रस में, जो दुनिया वालों की रात काम रस में, कामुकता में है। तो दुनिया वाले पूरी रात बिना सोए बिता सकते हैं ।
जैसे श्री शुकदेव गोस्वामी कहते हैं *निद्रया हियते नक्तं* दुनिया वाले कामी, क्रोधी, लोभी होते हैं। कामी लोग क्या करते हैं? *निद्रया हियते नक्तं* निद्रा में कभी जग भी जातें हैं, सोते ही नहीं और क्या करते हैं? व्यवायेन च वा वयः मैथुन आनंद में जाग सकते हैं। हरि हरि। मैथुन के जहर का पान करते हुए पूरी रात जाग सकते हैं । हरि हरि। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के भक्त, अनुयायी माधुर्य रस का रसास्वादन करते हुए, पूरी रात बिताते। हमारे षठ गोस्वामी वृंद भी लगभग सोते ही नहीं, घंटे या 2 घंटे के लिए सो जाते हैं। सोइए सोइए थोड़ा, विश्राम कीजिए, उनसे निवेदन करना पड़ता था, उनके हाथ पैर पकड़ना पड़ता था। विश्राम तो करो, पूरी रात जगते रहते हो। हरि हरि। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु माधुर्य रस का आस्वादन करते हुए शिक्षाष्टक के श्लोकों का भाष्य और भाव का रसास्वादन रात्रि जागरण में करते रहे।
*कोन दिने कोन भावे श्लोक – पठन । सेइ लोक आस्वादिते रात्रि – जागरण ॥७।।*
(अंतिम लीला 20.7)
अनुवाद
कभी – कभी महाप्रभु किसी विशेष भाव में डूब जाते और उससे सम्बन्धित लोक सुनाकर तथा उसका आस्वादन करते हुए रातभर जगे रहते ।
*आस्वादन करते हुए रातभर हर्षे प्रभु कहेन – शुन स्वरूप – राम – राय । नाम – सङ्कीर्तन – कलौ परम उपाय ॥८।।*
(अंतिम लीला 20.8)
अनुवाद
श्री चैतन्य महाप्रभु ने परम हर्ष में कहा , हे स्वरूप दामोदर तथा रामानन्द राय , तुम मुझसे जान लो कि इस कलियुग में पवित्र नामों का कीर्तन ही मुक्ति का सर्वसुलभ साधन है ।
यह बात आपको हमने सुनाई थी। सुनो सुनो स्वरूप और राय रामानंद। वैसे इस प्रकट लीला में तो उनके नाम राय रामानंद और स्वरूप दामोदर है। किंतु जब यह रसास्वादन हो रहा है। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में स्वयं ही राधा भाव में है और स्वयं अगर राधा भाव में है, तो राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को भी वे नित्य लीला में शामिल करा। यह तो प्रकट लीला है जो 500 वर्ष पूर्व हुई थी। लेकिन जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की नित्य लीला है या श्रीकृष्ण की जो नित्य लीला है। उसमें श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भी है। ललिता सखी और विशाखा सखी है, राय रामानंद और स्वरूप दामोदर है। ललिता राय रामानंद है और विशाखा स्वरूप दामोदर है। मतलब इन दोनों को संबोधित करते हुए यानी ललिता और विशाखा को संबोधित करते हुए, राधारानी ही बोल रही हैं। नाम संकीर्तन ही परम उपाय हैं। यह वचन राधा भाव में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। शास्त्र तो कहते ही हैं *हरिनाम एव केवलम*। कृष्ण भी कहते हैं। फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी मध्य लीला के अंतर्गत कह रहे हैं।
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरे मैव केवलम् ।*
*कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥२१॥*
(मध्य लीला 6.242)
अनुवाद
इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है ।
*ए राधा भावेर गौर् अवतार हरे कृष्ण नाम गौर कैइला प्रचार।* वह गीत भी हम गाते हैं। राधा भाव में गौरंग महाप्रभु का अवतार, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतार हुआ है। उस राधा भाव में *हरे कृष्ण नाम गौर कैइला प्रचार*। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* का प्रचार करा है। कृष्ण ने प्रचार किया, राधा भी साथ में है। राधा भाव में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रचार किया। तो फिर गंभीरा में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा ही बने हैं। राधा तो है ही, *अंत: कृष्ण बहिर गौर* कृष्ण अंदर है या कृष्ण छुपे हुए हैं। बहिर गौर बाहर राधा रानी है। ऐसा चैतन्य भागवत में कहा है। बाहर राधा रानी इसीलिए अंग भी गौरांग है। राधा रानी का ही अंग है। *अंत: कृष्ण* कृष्ण अंदर है। बाहर गौरंग है। राधा रानी के अंग का रंग। तो राधा भाव में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। *नाम संकीर्तन कलौ परम् उपाय्।*
*सङ्कीर्तन – यज्ञे कलौ कृष्ण – आराधन ।*
*सेड़ त ‘ सुमेधा पाय कृष्णेर चरण ।।९।।*
(अंतिम लीला 20.9)
अनुवाद
इस कलियुग में कृष्ण की आराधना की विधि यह है कि भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन द्वारा यज्ञ किया जाय । जो ऐसा करता है , वह निश्चय ही अत्यन्त बुद्धिमान है और वह कृष्ण के चरणकमलों में शरण प्राप्त करता है।
देखो आगे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में क्या कह रहे हैं। उन्होंने कहा कलयुग में कृष्ण की आराधना कैसी होती है? संकीर्तन यज्ञ करने से कलयुग में कृष्ण की आराधना होती है। *सेड़ त ‘ सुमेधा पाय कृष्णेर चरण*। ऐसा ही बुद्धिमान व्यक्ति जब संकीर्तन करता है या संकीर्तन यज्ञ करके कृष्ण की आराधना करता है। तो ऐसा ही बुद्धिमान व्यक्ति सुमेधा, धुमेधा नहीं। *पाय कृष्णेर चरण* उनको कृष्ण के चरण प्राप्त होंगे। यह बात तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में अपने शब्दों में कहे। तो मैंने अभी-अभी जो कहा इसका कोई सबूत भी है और शास्त्र का आधार भी है। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उदाहरण दिया है। जो मैंने कहा, *सङ्कीर्तन – यज्ञे कलौ कृष्ण – आराधन ।*
*सेड़ त ‘ सुमेधा पाय कृष्णेर चरण* ऐसी मेरी मन की बात या मेरी बात सुना रहा हूं। यह उटपटांग बात नहीं है। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत के 11वे स्कंद के पांचवे अध्याय में 32वा श्लोक का उदाहरण दिया है।
*कृष्णवर्ण विधाकृष्ण साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् ।*
*यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्वजन्ति हि सुमेधसः ॥ ३२ ॥*
(श्रीमद् भागवत 11.5.32)
अनुवाद
कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है ।
वैसे आप इस श्लोक से परिचित होंगे, परिचित होना चाहिए। नहीं परिचित हैं, तो उसको नोट करिए बहुत महत्वपूर्ण भागवत का वचन है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इसका उदाहरण दिया। मैंने अभी जो कहा राय रामानंद और स्वरूप दामोदर, यह केवल मेरी ही बात नहीं है। यदि मैंने यह बात कही है तो श्रीमद्भागवत इसका आधार है और उस भागवत का यह श्लोक है। जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं कहा उसका भावार्थ और शब्दार्थ वही है। *सङ्कीर्तन – यज्ञे कलौ कृष्ण – आराधन ।* *सेड़ त ‘ सुमेधा पाय कृष्णेर चरण ।।९।।*
तो कृष्ण प्रकट होंगे और फिर अभी तो समय कहां हैं।
यह जो श्लोक है श्रीमद भागवत का करभाजन मुनि नवयोगेंद्र में से एक योगेंद्र या मुनि कहो करभाजन मुनि रहे। निमी राजा के संवाद के अंतर्गत संवाद हो रहा था। *निमी राजा उवाच* राजा निमी ने पूछा।
*श्री गजोवाच कस्मिन्काले स भगवानिक वर्ण : कीडशो नृभिः ।*
*नाम्ना वा केन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम् ॥१ ९ ॥*
(श्रीमद भगवतम 11.5.19)
अनुवाद
राजा निमि ने पूछा । भगवान् प्रत्येक युग में किन रंगों तथा रूपों में प्रकट होते हैं और वे किन नामों तथा किन – किन प्रकार के विधानों द्वारा मानव समाज में पूजे जाते हैं ?
इसको विस्तार से तो नहीं कह सकेंगे ।
प्रश्न ये था की कसमिन काले किस युग में भगवान ( किम वर्ण:) किस युग में किस वर्ण में किस रंग के भगवान बन जाते है कौनसा वर्ण धारण करते है। उनका नाम कौनसा होता है । किस नाम से वे जाने जाते है। केन विधि न पूज्यते। उस भगवान की उस युग में किस विधि से आराधना होती है । ऐसा प्रश्न पूछे है राजा निमित। राजा मुनि और राजा कर्मभाजन। उसके उत्तर में सतयुग में , त्रेता युग में , द्वापर युग में , भगवान किस किस रूपो में प्रकट होते है, किन नामो से वे जाने जाते है। उनका वर्ण कौनसा होता है। ये सारा समझाए है। फिर कलयुग के भगवान के प्राकट्य के चर्चा का समय आया तो वहा कर्मभाजन मुनि कहे कृष्ण वर्णम, वे क्या करेंगे कौनसी लीला खेलेंगे। कृष्ण वर्णम । कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे कृष्ण का वर्णन करेंगे। कृष्ण के नामो का उच्चारण करेंगे। यह उनकी लीला होगी। कृष्ण वर्णम तू तृषा अकृष्णम। किंतु तृषा मतलब कांति या रंग। अकृष्णम मतलब, वे काले नही होंगे, फिर कैसे होंगे? वे गोरे होंगे। गौरंगा गौरांगा गौरा गौरा गौरा। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बारे में कर्मभाजन मुनि कहे। भगवान कलियुग में प्रकट होंगे कृष्ण वर्णम । हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार। हरे कृष्ण महामंत्र का प्रचार करेंगे। कृष्ण कृष्ण गाएंगे, नाचेंगे, नृत्य होगा , लेकिन वे गौर वर्ण के होंगे।
*कृष्णवर्ण विधाकृष्ण साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् ।*
*यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्वजन्ति हि सुमेधसः ॥ ३२ ॥*
(श्रीमद भगवतम 11.5.32)
अनुवाद
कलियुग में , बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन ( संकीर्तन ) करते हैं , जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है । यद्यपि उसका वर्ण श्यामल ( कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है । वह अपने संगियों , सेवकों , आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है ।
उनके कई सारे परिकर होंगे। उनके कई सारे अंग होंगे उपांग होंगे। इस प्रकार के परिकर जिनके साथ और परिकर भी होंगे। और फिर ये सभी पार्षद होंगे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के और यही अस्त्र का कार्य करेंगे। वैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अलग से कोई अस्त्र लेकर प्रकट नही होने वाले है कलियुग में । परशुराम जैसी कुलाहड़ी उनके पास नहीं होंगी। राम जैसा धनुष बाण नही होगा। कृष्ण जैसा सुदर्शन चक्र नही होगा। वराह भगवान के जैसी गदा भी नही होगी। तो और कोई शस्त्र अस्त्र नही होगा। उनके जो भक्त है वे ही शस्त्र अस्त्र बनेंगे, सहायता करेंगे और विनाशय च दुष्कृतम । जो दुष्टता है, दुष्कृति है। लोगो में मनुष्यों में , उन दुष्प्रवातियो का विनाश करेंगे। हरिनाम अस्त्रों का उपयोग करेंगे।
*साङ्गोपाङ्गासपार्षदम् यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्वजन्ति* ये करेंगे क्या? यज्ञ करेंगे कौनसा यज्ञ करेंगे? संकीर्तन यज्ञ करेंगे। और ये संकीर्तन यज्ञ करते हुए ही वे भगवान की आराधना करेंगे। वे होंगे सुमेध स: । बुद्धिमान लोग। कौन बुद्धिमान है, कैसे होगा परीक्षण निरक्षण ? संकीर्तन कर रहे हो। संकीर्तन करने वाले ही बुद्धिमान है। बाकी सब बुद्धू है। हरी बोल । आप सब बुद्धिमान वयक्तियों की जय हो। आपकी जय हो। आप बुद्धिमान निकले। आपकी पहचान क्या है आप बुद्धिमान हो। यज्ञ संकीर्तन प्राय यजन्ति ही। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। आप हरि नाम का संकेतन करके भगवान की आराधना कर रहे हो। तो फिर ऐसे बुद्धिमान लोग, लोग नहीं रहते वह भक्त बन जाते हैं। उनका स्वागत है और ऐसे बुद्धिमान लोगों की संख्या बढ़ानी है। हरि हरि। *ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते* तो जब व्यक्ति को बुद्धि प्राप्त होती है। जैसे व्यक्ति अधिक संकीर्तन करता है अधिक आराधना करता है वैसे ही भगवान अधिक बुद्धि देते हैं। अधिक संख्या में करोगे तो अधिक बुद्धि मिलेगी ऐसा कृष्ण कहे है गीता में। श्लोक भगवद। गीता। *तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्*।
*ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते* ॥१०॥।
(श्रीमद भगवदगीता 10.10)
अनुवाद:
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
गीता में कहे है भगवान । गीता में कहे है , भागवत में कहे है, या पुराण में कहे है यह थोड़ा पता होना चाहिए। और फिर गीता में कहे है 10वे अध्याय में कहे है। यह सब आपको भगवान की वकालत करनी होगी। कृष्ण भावनामृत का पचार पसार करना है तो आपको उधारण देंगे होंगे। जैसे वकील अलग अलग संविधान का उदहारण करते है अलग अलग कानून का उदहारण करते है। यह कानून ये कानून। अपनी बात को सिद्ध करते है। ऐसे ही भगवान उनको बुद्धि देते है जो अपनी नित्य साधना भक्ति करते है। और इस प्रकार प्रभुपाद भी कहा करते थे 24 घंटे। *स्वतत युक्तानाम* कितने समय के लिए भक्ति करनी है। हम पागल थोड़ी है। ये हरे कृष्ण वाले तो पागल है।
हम तो दो मिनट करते है जब उठते है राम राम कहते है और सोने के पहले करते है। कितनी मिनट हो गई 4 मिनट। ले लो भगवान खुश हो जाओ। तुम्हारे लिए 4 मिनट और हमारे लिए 23 घंटे और 56 मिनट हमारे लिए। भगवान के लिए 4 मिनट दिए है यह क्या कम बलिदान है क्या। 4 मिनट दिए है हमने भगवान को। किंतु भगवान की मांग है, अपेक्षा है, की उनकी सेवा करे। गंगोघम । जैसे गंगा गंगा सागर में मिलती है। सागर और गंगा का मिलन जहा होता है उसे गंगा सागर कहते है। कुंती महारानी ने कहा ही प्रभु मेरी भक्ति कैसी हो? गंगोघम । गंगा+ऊ+हम = गंगोघम। *तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्*।
ऐसे व्यक्ति को मैं बुद्धि देता हूं। जब मनुष्य को बुद्धि प्राप्त होती है, तो बुद्धि का उपयोग किसके लिए करता है? मेरी ओर आने के लिए, मुझे प्राप्त करने के लिए। *येन मामुपयान्ति ते* । दुनिया तो जा रही है । चंद्र पर जा रही है, मंगल पर जाना चाहती है। किंतु बुद्धिमत्ता है? बुद्धि नही है, यह बेकार है, यह सारे प्रयास। वे कहा कहा जाना चाहते है। इस पृथ्वी पर ही जाना चाहते है। हरि हरि। पृथ्वी का सब सत्यानाश कर दिया। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि कर दी। पृथ्वी का बुखार बढ़ा दिया हमने। जंगलों को कांटा और क्या क्या सब पर्यावरण का सत्यानाश करते हुए पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। तो कैसे रहेंगे उसकी गोद में। पृथ्वी माता की गोद में।
सात माताओं में से हमारे वैदिक वांग्मय में कहा है की पृथ्वी हमारी माता है। ऐसी समझ और लोगो की जी की बुद्धू है उनकी नही है, इस देश के और दूसरे देश के। ऐसा भाव उनका , ऐसा दृष्टिकोण नही है पृथ्वी को देखने का की पृथ्वी उनकी माता है। इस माता की कई तरह से बर्बाद किया जा रहा है। दुशाशन जैसे द्रोपदी के वस्त्र का हरण कर रहा था। दुष्ट जो था। वैसा ही इस संसार के लोग या ब्राजील के लोग। ब्राजील नाम का एक देश है। वहा अमेजन जंगल है और भी देश है जिसमे जंगल है। तो उस जंगल को काट रहे है। तबाह कर रहे है। ये पृथ्वी के ऊपर जो वृक्ष है , लता भेली है, हरियाली है ये वैसे पृथ्वी माता की पहनी हुई साड़ी है। फूल से एंब्रॉयडरी हो गई साड़ी की। फूल भी है और भी रंग बिरंगी चीजे है। दुशाशन जो है इस संसार के । जी इसका भोग लेना चाहते है। काटते जा रहे है, पेड़ों को काटते जा रहे है। साफ करते जा रहे है। जंगल में मंगल नही , अमंगल हो रहा है । वही पर कतल खाने खोलते है, फैक्ट्री खोलते है फिर धुआं आता है। ऑक्सीजन की कमी होना कभी सोचे हो? आपको तो पता होगा, निसर्ग से पेड़ों से पेड़ में जो हरे पत्ते है उन पत्तो से ऑक्सीजन निकलता है।
ऑक्सीजन का सबसे बड़ा माध्यम है ये जंगल। इस पृथ्वी में कई सारे जंगल है। और ऑक्सीजन वही उत्पन हो रहा था। लेकिन अब हम उसी को ही काट रहे है। दुष्ट दुशाशन। ये पृथ्वी माता ने जो पहनी हुई साड़ी है उसका हनन कर रहे है। तो फिर उसके परिणाम भोगने होंगे। वैसे भोग ही रहे है। सारा संसार भोग रहा है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होना और फिर अब साइंटिस्ट माफी मांग रहे है और कह रहे है अब कोई दूसरा गृह ढूंढो। चंद्रमा पर जाओ, मंगल पर जाओ। अब आपकी लाइफ बोट की जरूरत पड़ेगी। मुख्य नौका के साथ लाइफ बोट होती है। अगर मुख्य नौका में पानी भर जाता है तो क्या करते है लोग, लाइफ बोट में चढ़ जाते है। तो वैसा ही प्रस्ताव रखा जा रहा है, नेता कहो या साइंटिस्ट के द्वारा। की इस पृथ्वी को भूल जाओ और दूसरे ग्रहों पर जाओ। ये प्रस्ताव कैसा है? क्या है संभव है? और उसी में दिमाग लगा रहे है। विनाशकाले विपरीत बुद्धि।
विनाश का काल आ चुका है। और समय से आ टपका है। लोगो की विपत्ति बुद्धि काम कर रही है। इसलिए वो सारा विनाश कर रहे है। हमारे स्वास्थ्य का विनाश कर रहे है, मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य का नष्ट कर रहे है। हमारी जीवन शैली और आहार के कारण ही ये वायरस उत्पन्न हो रहे है। अभक्षण भी ही रहा है। चीन के युहान शहर में यह शुरू हुआ। वहा के लोग क्या नही खाते। सांप का सूप पीते है, केकड़े खाते है, चीटियां खाते है। तो ऐसा खाकर कैसा दिमाग आएगा। जैसा अन्न वैसा मन। जैसा अन्न खायेंगे वैसा ही मन होगा। ऐसे हमारे नेता है तथाकथित नेता। राजनेता कहो, शास्त्रज्ञ कही ये कहो वो कही, समाज सुधारक कहो। वे अंधे है और हम उन्ही के पीछे जा रहे है। तो हम भी गड्ढे में गिरने वाले है तो सावधान। रुको और सोचो कुछ करने से पहले। तो बुद्धिमान कौन और बुद्धू कौन यह समझ जाओ। यह तो कहा है जो भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का संकीर्तन यज्ञ करेंगे संकीर्तन यज्ञ को और फैलाएंगे। जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश। ये करेंगे, तो वे होंगे बुद्धिमान। तो ऐसी बुद्धि आप सब को भगवान दे। इसी प्राथना के साथ अपनी वाणी को विराम देते है।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 15.05.2021
हरे कृष्ण!!!
गौरांगा!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 877 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। सुन लिया? यह अच्छी खबर है। संख्या अच्छी है इसलिए अच्छी खबर है। आज की ताजी खबर है। यहां इतने सारे भक्तों का जीव जागो हुआ है।
जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले।
कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥1॥
भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे।
भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥2॥
तोमार लइते आमि हइनु अवतार।
आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥3॥
एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि।
हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥4॥
भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया।
सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥5॥
(1) श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे?
(2) तू इस जगत में यह कहते हुए आया था, ‘हे मेरे भगवान्, मैं आपकी आराधना व भजन अवश्य करूँगा,’ लेकिन जगत में आकर अविद्या (माया)में फँसकर तू वह प्रतिज्ञा भूल गया है।
(3) अतः तुझे लेने के लिए मैं स्वयं ही इस जगत में अवतरित हुआ हूँ। अब तू स्वयं विचार कर कि मेरे अतिरिक्त तेरा बन्धु (सच्चा मित्र) अन्य कौन है?
(4) मैं माया रूपी रोग का विनाश करने वाली औषधि “हरिनाम महामंत्र” लेकर आया हूँ। अतः तू कृपया मुझसे महामंत्र मांग ले।
(5) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने भी श्रीमन्महाप्रभु के चरण कमलों में गिरकर यह हरे कृष्ण महामंत्र बहुत विनम्रता पूर्वक मांग लिया है।
पिशाचीर कोले – हम सब माया रूपी पिशाचीर की कोले अर्थात गोद में लेटे हुए हैं। हम लोग गोद में केवल रात्रि को ही नहीं लेटते अपितु हम दिन में भी लेटे ही रहते हैं। हम माया में ही है, इसलिए रात दिन लेटे ही रहते हैं।
माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान। जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २०.१२२)
अनुवाद: बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सर्जन किया।
गौरांगा!
गौरांग की कृपा से, हम जो यहां उपस्थित हैं, वे तो जग रहे हैं, नहीं नहीं, अपितु जग चुके हैं। इतना नहीं कह सकते कि वे पूरी तरह जगे हैं या नहीं किन्तु आँखें तो खोल रहे हैं। आंखें खोल कर फिर कान भी खोल कर सुन रहे हैं। जैसे जैसे हम अधिक अधिक सुनते जाएंगे, वैसे वैसे ही हम अधिक अधिक जगने वाले हैं। सोने वालों, जागो।
ॐ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मॄत्योर्मा अमॄतं गमय ॥
अर्थ: हे प्रभु! असत्य से सत्य, अन्धकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर मेरी गति हो ।
तब तमसो मा ज्योतिर्गमय होगा।
मा, मतलब ‘मत’ सोना या अंधेरे में मत रहना। ज्योतिर्गमय, ज्योति की ओर जाओ। ज्ञान की ज्योति की ओर जाओ। ज्ञान की ज्योति भगवान् ही है। हरि! हरि!
मेरे मन में कई विचार आ रहे थे। वैसे सभी के मन में विचार उदित होते ही हैं। हम जब जगे होते हैं, केवल तभी नहीं अपितु हम रात्रि के समय सो जाते हैं लेकिन मन तो सोता नहीं हैं। इसलिए हम सपने देखते हैं। यह निरिक्षण है कि जब हम स्वप्न देखते हैं तब भी हमारा मन सक्रिय होता है। हरि! हरि!
जैसा कि मैंने कहा कि मैं सोच रहा था। सोचने वाला मन होता है।
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो बचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करी हरेमन्दिरमार्जनादिषु श्रुति चकाराच्युतसत्कथोदये ॥१८ ॥ मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशी तद्धत्यगात्रस्पर्शासङ्गमम् । प्राणं च तत्पादसरोजसा श्रीमनुलस्या रसनां तदर्पिते ॥१ ९ ॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्बया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥ २० ॥
( श्रीमद् भागवतं ९.४.१८-२०)
अनुवाद:- महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में, अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने – बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन, को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श- इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में अपनी घ्राण इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान की सेवा करने में लगाया। निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा। वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे। भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त होने की यही विधि है ।
सोचना कोई खराब चीज़ नहीं है, सोचना मतलब माया नहीं है। लेकिन सोच किस प्रकार की है, उस पर निर्भर करता है कि वह माया है या कृष्ण है। मैं सोच तो रहा था। (यह सुनकर आप यह नहीं सोचना कि महाराज माया में थे। महाराज सोच रहे हैं अर्थात माया में हैं। मुझे उम्मीद है, आप ऐसा नहीं सोचोगे )
कल जो अक्षय तृतीया थी। पता नही पर मेरे मन में यह विचार उदित हुआ कि कल की अक्षय तृतीया क्या केवल कल ही थी? इस संसार ने कितनी अक्षय तृतीया देखी हैं। गत वर्ष, उससे पूर्व, 5 वर्ष पूर्व, 10 वर्ष पूर्व भी।
500 वर्ष पूर्व माधवेंद्रपुरी ने क्षीर चोर गोपीनाथ की खीर ग्रहण की थी। 5000 वर्ष पूर्व अक्षय तृतीया के दिन द्रौपदी का वस्त्र हरण हो रहा था। तब कृष्ण प्रकट हुए थे। अक्षय तृतीया पर भगवान् परशुराम प्रकट हुए थे। अक्षय तृतीया थी इसलिए कल हम आपको आधा घंटा सुनाते रहे कि अक्षय तृतीया के दिन यह हुआ, अक्षय तृतीया के दिन वह हुआ। लेकिन एक ही साल ही नहीं हुआ। हजारों, लाखों, करोड़ो अक्षय तृतीया इस संसार ने देखी है। वह लिस्ट आपको सुनाते सुनाते एक बात तो रह ही गयी। अक्षय तृतीया के दिन ही सतयुग प्रारंभ होता है। वैसे अन्य युगों के विषय में कहा है लेकिन सतयुग के विषय में कम् ही कहा है। सतयुग अक्षय तृतीया के दिन प्रारंभ होता है। जो जानकार है अथवा जो ज्ञानवान है।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।
( श्रीमद् भगवत गीता ८.१७)
अनुवाद:- मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।
भगवत गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि ब्रह्मा के एक दिन में सहस्त्र युग होते हैं। सहस्त्र युगों का एक दिन होता है। एक सहस्त्र युग, दूसरा सहस्त्र युग, यह महायुग कहलाते हैं।
महायुग मतलब सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग को मिलाकर जब युगों अथवा काल की गणना हुई, उसको युग कहते हैं। ऐसे हजार युग जब बीतते हैं तब ब्रह्मा का एक दिन होता है। ब्रह्मा के एक दिन में हजार बार सतयुग भी आता है। जब जब सतयुग आता है तब वह अक्षय तृतीया के दिन ही प्रारंभ होता है। इसी को शास्त्र कहते हैं। हरि! हरि!
इसी को ज्ञान कहते हैं, यह ज्ञान है। एक दृष्टि से काल की गणना का ज्ञान, इस सृष्टि का ज्ञान या फिर ब्रह्मा होने का ज्ञान अर्थात यह ज्ञान कि ब्रह्मा है, ब्रह्मलोक है और उनकी आयु इतनी लंबी है, इसका ज्ञान और उनका एक दिन इतने युगों का होता है लेकिन यह ज्ञान किसको है? लोग ऐसे ज्ञान से रहित हैं।
श्रुतिशास्त्र निन्दनम
वैदिक साहित्य जैसे चारों वेदों तथा पुराणों की निंदा करना
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला तात्पर्य 8.24)
हम लोग जप कर रहे हैं लेकिन अधिकतर लोग जप भी नही करते, तब वह महाअपराध व महापाप हुआ। हम जप भी कर रहे हैं लेकिन साथ में एक अपराध भी कर रहे हैं, ‘श्रुतिशास्त्र निन्दनम’ अर्थात श्रुति शास्त्र की निंदा मतलब श्रुति शास्त्र को स्वीकार ही नहीं करते, उसको पढ़ते ही नहीं, उसको सुनना ही नहीं है। यदि पढ़ सुना लिया फिर कहना कि यह माइथोलॉजी ( काल्पनिक) है। ऐसे ही दन्त्य कथा है। काल्पनिक कथाएँ हैं। यह इतिहास नहीं है। जो संसार कहता हैं, ऐसा ही कहना, यह श्रुति शास्त्र निन्दनम हुआ। फिर हो गया प्राप्त…
हरि! हरि! कल अक्षय तृतीया थी , हम अक्षय तृतीया की ही महिमा सुन रहे थे । हमनें अक्षय तृतीया के ही दिन जो इतनी सारी घटनाएं हुई, सुनाई किंतु केवल उतना ही नहीं, और भी बहुत कुछ है। हर वर्ष अक्षय तृतीया आती है, तो कुछ न कुछ विशेष घटनाएं भी घटी होगी। निश्चित उसका भी हमको ज्ञान नही है। जो भी है, काफी हैं। एक दृष्टि से पूर्ण ज्ञान भी है।
ओम पूर्ण मदः, पूर्णमिदं, पूर्णात पूर्ण मुदच्यते,पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेववशिष्यते ( ईशोपनिषद)
अनुवाद: भगवान पूर्ण हैं और पूर्ण से जो भी उत्पन्न होता है वह भी पूर्ण ही है ।
वह भी ज्ञान है, पूर्ण है। अगर हम संसार का अवलोकन करेंगे, पता चलेगा कि यह जो ज्ञान की बातें, सत्य कथाएं व बातें, इतिहास, पुराण हैं अथवा महाभारत हैं, रामायण हैं। इसके विषय में किसको पता है। अधिकतर लोगों को पता ही नहीं है। पंद्रह प्रतिशत लोग तो नास्तिक हैं। न अस्ति न अस्ति, हम नास्तिक हैं। ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है। हम बड़े ईमानदार हैं और कहते हैं कि भगवान् नहीं हैं लेकिन भगवान् हैं। यह कहने वाले भी हमारे इसाई, मुस्लिम, यहूदी हुए, अन्य भी धर्म है। उनको भी ये ज्ञान कहां है? उनका ज्ञान का इतिहास अर्थात वे एडम और इव का ही नाम लेते हैं कि वे इतने हजार वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। डार्विन की थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन तो है ही। पहले अमीबा था, उनको विठोबा का पता नहीं। अमीबा का पता है। उनको भगवान् जो ‘बा’ है, उसका पता नहीं है। इनको भगवान् का भी पता नहीं है। ब्रह्मा भी है, कौन जानता है व कौन ब्रह्मा को स्वीकार करता है, फिर भगवान् तो दूर की बात है, ब्रह्मा को कौन जानता है। अगर वे जानते हैं तो वानर को जानते हैं। बंदर को जानते हैं कि हम बंदर की औलाद हैं। ऐसा डार्विन ने घोषित किया। रेवोलुशन हुई थी, तब हम आप मनुष्य बने। आपका क्या विचार है, आप या हम बंदर की औलाद हैं या ब्रह्मा की औलाद हैं। 30-35% मनुष्य इस पृथ्वी पर ईसाई हैं। उनको यह ज्ञान नहीं है। तब ये भूल जाओ कि अक्षय तृतीया क्या होती है। रामायण, महाभारत यह और वह अथवा परशुराम प्रकट हुए थे, यह सब अवतार और ना ही वैकुंठ, न ही गोलोक का आईडिया उनके लिए बहुत दूर की बातें हैं। कोई नहीं समझता। शून्य, लगभग शून्य । वे काल की गणना शुरू करेंगे। बी.सी. या ए.डी. से अर्थात उन्होंने क्राइस्ट (ईसा मसीह) को बीच में ला दिया, उनके पहले का इतिहास या पहले का घटनाक्रम २००० वर्ष पहले का बिफोर क्राइस्ट कहलाता है और बाद का, आफ्टर क्राइस्ट कहलाता है। बिफोर क्राइस्ट को हम खींचते खींचते १००० वर्ष पूर्व ऐसा हुआ था या तीन हजार वर्ष पूर्व ऐसा हुआ था, दस हजार वर्ष पूर्व ऐसा हुआ था तत्पश्चात समाप्त, आगे बढ़ नहीं सकते। कुछ नहीं कह सकते। कहां इस प्रकार का यह ज्ञान अर्थात कुरान / बाइबल या और जो उनके शास्त्र जो ज्ञान देते हैं और कहां ये हमारे शास्त्र।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ | ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।
( श्रीमद् भगवत गीता१६.२४)
अनुवाद:- अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है । उसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके।
कृष्ण कहते हैं कि शास्त्र प्रमाण है किंतु कौन सा शास्त्र प्रमाण है।
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकीपुत्र एव ।। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।
अर्थ:- आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा।” (गीता महात्म्य ७)
भगवत गीता शास्त्र है या वेदान्त शास्त्र है। वेद पुराण शास्त्र है। महाभारत शास्त्र है। रामायण शास्त्र है। यह सारे मनुष्यों के लिए है तो सही लेकिन सभी तो पूरे मनुष्य बने ही नही हैं। उनमें कुछ दानवी प्रवृत्ति रहती ही है। सभी पूरे मानव नहीं हुए।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
(श्रीमद् भगवत गीता ४.११)
अनुवाद: जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।
कुछ ही स्वीकार करते हैं कि भगवान् है, हां हैं। इसलिए भी उनको इतना सा कुछ भी ज्ञान प्राप्त है, उनके शास्त्र उनको उतना ही ज्ञान देते हैं लेकिन कुछ का ज्ञान जीरो ही है। नास्तिक हो गए हैं। जैसे हमारे वैज्ञानिक भाई अथवा शास्त्रज्ञ हुए। अभी यहां दूसरा विचार सम्मिलित करने का समय नही है लेकिन हल्का सा कहा जा सकता है कि एक होता है प्रत्यक्ष वाद। दूसरा होता है परोक्ष वाद। यह दो प्रसिद्ध प्रमाण भी हैं। वैसे परोक्ष वाद को श्रुति प्रमाण भी कहते हैं। प्राचीन काल में जो हुआ, अर्थात जो घटनाएं घटी। घटनाएं केवल इस ब्रह्मांड में ही घटी। ऐसी बात नही हैं। घटनाएं घटती ही रहती हैं। इस ब्रह्मांड से परे भी।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः | यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।।
( श्रीमद् भगवत गीता ८.२०)
अनुवाद : इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता। |
सनातन जगत है या वहां की घटनाएं, वहां की लीलाएँ, यह सब परोक्ष वाद अथवा श्रुति प्रमाण में आती हैं।
इस संसार का जो वाद अथवा इज्म है, वह प्रत्यक्ष वाद है। जो वैज्ञानिक इस संसार की अध्यक्षता कर रहे हैं, वे वैज्ञानिक ही शास्त्रों के गुरु हो गए हैं अर्थात वैज्ञानिक अर्थात प्रत्यक्ष वादी जो भी कहेंगे, दुनिया केवल मुंडी( सिर) हिलाती है। यस, यस! ‘शास्त्रज्ञ कह रहे हैं अवश्य सत्य ही होगा’। लेकिन जब कोई साधु कुछ बताता है तो कहते हैं कि हम अंधाधुंध इसका अनुसरण नहीं करते। वे शास्त्रज्ञ को तो अंधाधुंध अनुसरण करते हैं। हमें इस प्रत्यक्षवाद से बचना है।
प्रभुपाद दो मेंढकों के माध्यम से समझाते हैं कि एक पैसिफिक महासागर में रहने वाला मेंढक, कुएं में रहने वाले मेंढक को मिलने के लिए आ गया। कूपमंडूक। कूप मतलब कुंआ। मंडूक मतलब मेंढक।कूपमंडूक इस संसार में व्यक्ति भी हैं। प्रभुपाद उसको ही समझा रहे हैं। कूप में रहने वाले मंडूक ने कहा-मेंढक महाशय! आपका स्वागत है, कहां से आए हो, कहां रहते हो? तब उस मेंढक ने कहा कि मैं पैसिफिक् महासागर में रहता हूँ।
तब कूप में रहने वाले मंडूक ने पूछा- अच्छा! वह कितना बड़ा है? क्या बहुत बड़ा है? क्या मेरे कुएं से दुगना है क्या?पैसिफिक् महासागर में रहने वाले मेढ़क ने कहा, नहीं! नहीं! इससे कई गुणा बड़ा है।तब कूप में रहने वाले मंडूक ने पूछा- क्या वह चार गुना हो सकता है। तब दूसरे मेंढक ने उत्तर दिया कि नहीं नहीं, इससे कई गुना ज्यादा बड़ा हैं। तब कूप में रहने वाले मंडूक ने पूछा- क्या दस गुना या सौ गुना बड़ा है? वैसे इसकी क्या तुलना हो सकती है। लाखों करोड़ो कुएं भी छोटे से होते हैं। उस कुएं की तुलना पैसिफिक महासागर के साथ कैसे हो सकतीहै।
कितना बड़ा है कोई कह सकता है क्या?। कुएँ में रहने वाला मेंढक केवल कह ही नही रहा था, वह साथ साथ अपना पेट फूला कर दिखा भी रहा था। चौगुना है क्या या दस गुना है क्या? ऐसा कहते कहते वो अपने पेट को फूला रहा था तब विस्फोट हुआ व उसका अस्तित्व समाप्त हो गया अर्थात वह नहीं रहा। इस संसार की यह समस्या है। यह संसार जितना अज्ञानी है और उतना ही रात दिन शास्त्रज्ञ के प्रयास चल रहे हैं। वह अपनी इन्द्रियों की मदद से अधिक अधिक जानकारी प्राप्त करते हैं। वह सारी जानकारी प्रत्यक्ष होती है। अक्ष मतलब आँखें भी होता है, केवल आँखें ही नहीं, नासिका और इन्द्रियों का भी ज्ञान का साधन इंद्रियां तथा मन ही होता है। उनकी बुद्धि जैसे विनाशकाले विपरीत बुद्धि होती है। सदा के लिए उनकी बुद्धि अथवा दिमाग उल्टा काम करता है।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ||
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१५)
अनुवाद: जो निपट मूर्ख हैं, जो मनुष्यों में अधम है, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते।
कृष्ण ने कहा – संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक दुष्कृतन होते हैं, दूसरे सुकृतिन होते हैं।
सुर और असुर, ये दो प्रकार के लोग हैं। एक हैं सुकृतिन, दूसरे हैं दुष्कृतन। अच्छा या पुण्य कृत्य करने वाले या पाप कृत्य करने वाले। जो दुष्कृतिन होते हैं- वे भी चार प्रकार के होते हैं। (अभी विस्तार से नही सुना सकते) चार प्रकार के लोग मेरी शरण में नहीं आते उनको दुष्कृतिन कहा गया है।
वे भगवान् की ओर नहीं आते व, भगवान् की शरण नहीं लेते हैं।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते मेरी शरण में नहीं आते।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन | आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ||
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१६)
अनुवाद: हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
भगवान् ने एक के बाद एक वचन कहे हैं। चार प्रकार के लोग मेरी शरण में नहीं आते- वे हिन्दू भी हो सकते हैं, मुसलमान भी हो सकते हैं, जन्म तो हुआ इस धर्म या उस धर्म में लेकिन उन्हें धर्म का ज्ञान नही है या उनके अपने जो शास्त्र हैं, उनका किन्चित सा ज्ञान है। जैसे कुँए में जितना जल है। कहां कुँए का जल और कहां महासागर का जल। उसी प्रकार उनकी उतनी ही शरण है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||
( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६)
अनुवाद: समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
वे अन्य धर्मो के अनुयायी हैं, उनके भी शास्त्र हैं। उन से भी ज्ञान प्राप्त होता है लेकिन कितना ज्ञान? जैसे कुँए में जितना जल होता है, बस उतना। दूसरे जो गौडीए वैष्णव हैं, वे परम्परा से ज्ञान प्राप्त करते हैं
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||
( श्रीमद् भगवतगीता 4.2)
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत : यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
भगवान् से कोई बात छिपाते नहीं हैं। वे चार प्रकार के लोग होते हैं।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ । यदि वे दुखी होते हैं, तब भगवान् के पास आते हैं। भगवान् के पास आना भी चाहिए। अर्थार्थी- जिन्हें धन की आवश्यकता है, चलो, भगवान् के पास दौड़ते हैं। जिसे कोई जिज्ञासा है अथवा भगवान के सम्बंध में कोई जिज्ञासा है,
अथातो ब्रह्म जिज्ञासा
( वेदान्त सूत्र १.१.१)
अनुवाद:- अतः अभी ब्रह्म ( पूर्ण पुरषोत्तम भगवान्) के विषय में प्रश्न पूछने चाहिए।
कुछ ज्ञान हैं वे भी आगे बढ़ते हैं और ज्ञानार्जन करते हैं। चार प्रकार के लोग मेरी और आते हैं, चार प्रकार के लोग मेरी ओर नहीं आते। भगवान् की ओर जो आते हैं।
माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान। जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 20.122)
अनुवाद: बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता।
किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन किया।
भगवान् ने जीवों पर कृपा करने के लिए वेद, पुराण दिए हैं। अन्य शास्त्रों का भी नाम होना चाहिए किन्तु इस श्लोक में नहीं है। यह सारे शास्त्र भगवान् ने दिए हैं। यह भगवान् की कृपा है। यह शास्त्र कोई हिन्दू शास्त्र नहीं है, यह भगवान् के दिये हुए शास्त्र हैं। सभी मनुष्यों के लिए हैं। आप जो भी हो आप मनुष्य हो, आपके लिए है।आप चाइनीज हो सकते हैं, आप मुसलमान हो सकते हो, आप हिन्दू हो सकते हो, आप इस में वैसे कुछ भी नहीं होते हो लेकिन आपने मान लिया है कि मैं चाइनीज़ हूँ या ईसाई हूँ, मैं हिन्दू हूँ, या काला हूँ।
सर्वोपाधि – विनिर्मुक्त तत्परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश – सेवनं भक्तिरुच्यते ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१७०)
अनुवाद: भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान की सेवा करता है , तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं । मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं । ‘
वैसे यह ज्ञान आत्मा के लिए है, शरीर के लिए नहीं। यह हमारे मन के लिए भी नहीं है। कल हमनें अक्षय तृतीया के सम्बंध में सुनाया था, तब मैं कल दिन में सोच रहा था व जप के समय भी सोच रहा था। ऐसे विचार आ रहे थे। बहुत सारे विचार तो कह भी नहीं पाया लेकिन कुछ विचार आपके साथ शेयर किए हैं। आप लोग भी विचार करो। विचार करते हो या नहीं? किसी पाश्चत्य देश के तत्ववेत्ता ने कहा है “मैं विचार करता हूँ। इसलिए मैं हूँ।” मैं हूँ, यह होना चाहिए। आप हो, आप कैसे दावा कर सकते हो? आप हो। मैं सोचता हूँ। इसलिए मैं हूँ। आप हो या नहीं? न तो आप हिल रहे हो, न आप डुल रहे हो। कैसे पता चलेगा? आप सोचते तो होंगे। आप सोच रहे हो या नहीं? अगर आप सोचते हो तो मतलब आप हो अन्यथा आप निर्जीव हो। आप नहीं हो। इसलिए सोचा करो। कृष्ण ने कहा भी हैं
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||
( श्रीमद् भगवत गीता 18.65)
अनुवाद: सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
कृष्ण का स्मरण करने के लिए अपने मन का प्रयोग करो। कृष्ण के द्वारा कही हुई, शास्त्रों में दी हुई बातों पर विचार करने के लिए, कुछ समझने के लिए, समझ कर कुछ औरों को समझाने के लिए अपने मन का प्रयोग करो। मन्मना, विचारवान बनिए। आप सब सोचा करो। कृष्ण के विषय में सोचो।
सोचते रहो ,यहीं चिंतन है। चिंतन करते रहो। ठीक है। यहीं विराम देते हैं।
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण!*
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम*
*दिनांक 14 मई 2021*
आज बहुत ही विशेष दिन और मुहूर्त हैं। आज साडे तीन मुहूर्तो में से एक अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त, शुभ दिन हैं ।
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल*
*शुभ दिन, शुभ घड़ी, शुभ मुहूर्त।*
मुझे एक सूची प्राप्त हुई हैं, इसमें प्राचीन काल में युग युगांतर से आज के दिन कौन सी घटनाऐं घटी इसका उल्लेख हैं।यह दिन अक्षय फल प्रदान करने वाला हैं।कैसा फल? जो अक्षय हो, जिसका क्षय नहीं हो। एक क्षय रोग भी हैं।कया आप जानते हो? टी.बी., टी बी को क्षय रोग कहते हैं।आप जानते ही होगें, जिसका क्षय होता हैं, तो क्या होता है? किंतु यह जो दिन हैं और यह दिन जो फल देता हैं, वह अक्षय फल देता हैं। घटता नहीं, बढ़ता हैं।यहा जिस क्रम से भी अलग-अलग बातें लिखी हैं,वो बता रहा हूँ ।आज के दिन ही, *श्रील प्रभुपाद की जय* श्रील प्रभुपाद ने 1953 मे वह 16 मई का दिन था, आज कौन सी तारीख हैं?आज इस साल 14 मई हैं और 1953 में यह 16 मई थी। इस दिन श्रील प्रभुपाद ने झांसी में भक्तों के संघ (लीग ऑफ डिवोटी) की स्थापना की। इस्कॉन की स्थापना तो बाद में न्यूयॉर्क में हुई।उसके पहले श्रील प्रभुपाद ने सर्वप्रथम एक संगठन की स्थापना की। उसका आयोजन भी किया था। उसका नाम अंग्रेजी में लीग ऑफ डिवोटीज रखा था।हिंदी में सार्वभौम सभा, ऐसा कुछ कहते हैं। उसकी स्थापना आज के दिन श्रील प्रभुपाद ने की। हरि बोल।झांसी के भक्त कहते हैं कि इस्कॉन का झांसी में गर्भधारण हुआ था गर्भधारण समझते हो कन्सीवड (conceived) मतलब गर्भधारण (conception)। तो आज के दिन इस्कॉन का झांसी में गर्भधारण हुआ।गर्भावस्था के समय (प्रेगनेंसी पीरियड) में प्रभुपाद वृंदावन में थे और न्यूयॉर्क में गए तो फिर 1966 मे इसकी डिलीवरी हुई। इस्कॉन का गर्भधारण झांसी में हुआ और न्यूयॉर्क में उसकी डिलीवरी हुयी,आज के दिन गर्भ धारण हुआ।आज श्री परशुराम एवं श्री हयग्रीव जयंती भी है।राम तीन हैं। श्री राम हैं, बलराम हैं और परशुराम। जिनके हाथ में कुल्हाड़ी होती है वह परशुराम हैं।और हयग्रीव?ग्रीव मतलब गर्दन और उनका मुख जो था वह घोड़े जैसा था। एक अवतार में आपने देखा होगा, दर्शन किया होगा। हयग्रीव भगवान और परशुराम भगवान यह उनका प्राकट्य दिन या अवतार दिन हो गया।
*संभवामि युगे युगे*
परशुराम भगवान और हयग्रीव भगवान आज ही के दिन,अक्षय तृतीया के दिन प्रकट हुए। आगे बढ़ते हैं जगन्नाथपुरी में जो रथ यात्रा होती हैं, हर वर्ष रथ यात्रा के लिए नया रथ बनाया जाता है। शायद आपको पता नहीं होगा प्रतिवर्ष वहां पर नया रथ होता है। तो आज के दिन जगन्नाथपुरी में नए रथ के निर्माण का कार्य शुरू होता हैं । आज वहां तैयारी हो रही हैं, हर वर्ष होती हैं। इस साल भी आज रथ निर्माण का कार्य प्रारंभ होगा। जगन्नाथ पुरी से बद्रिकाश्रम चलते हैं। बद्रिकाश्रम में आज दर्शन खोलते हैं। शीतकाल में अक्टूबर-नवंबर में बद्रीनाथ मंदिर बंद होता हैं। लॉकडाउन जैसे कह सकते हैं। लॉकडाउन से भी अधिक गंभीर स्थिती क्योंकि वहां कोई नहीं रहता, पुजारी, पुरोहित, दर्शन आरती कुछ भी नहीं। लेकिन जो भी सामग्री हैं, भोग की सामग्री, पूजा की सामग्री सब की व्यवस्था वहां पर करके रखी जाती हैं। लेकिन वहां पर जो पास में आर्मी का कैंप होता हैं उनके अनुभव ऐसे रहे हैं, कि वहां पर शंख ध्वनि की आवाज और घंटा बजने की आवाज वे सुनते रहते हैं। वहां के मूल पुरोहित नारद मुनि हैं और देवता भी आते होंगे और वह सेवा पूजा संभालते हैं। सारे देवता जो हैं, वह सारे नीचे उतर आते हैं। अलग-अलग प्रयाग हैं, देवप्रयाग, यह प्रयाग, वह प्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार तक नीचे पहुंच जाते हैं। लेकिन बद्रीनाथ में पूजा चलती रहती हैं, तो आज के दिन फिर मंदिर पुनः खुलते हैं। दर्शन खुलता हैं। फिर सेवा पूजा शुरू हो जाती हैं।आज कई सारे लोग बद्रिकाश्रम पहुंचे होंगे।*बद्रिकाश्रम धाम की जय*।
बांके बिहारी वृंदावन में एक विशेष मंदिर हैं।विशेष विग्रह और विशेष दर्शन।आज उनके चरणो के दर्शन होते हैं। मेरे मतानुसार आज एक ही दिन उनके चरण दर्शन होते हैं।आज के दिन बांके बिहारी के दुर्लभ चरण दर्शन होते हैं, आज के दिन यानी अक्षय तृतीया के दिन। आप नोट करो या याद रखो।वैसे आप श्रुति धर तो हो ही। एक बार सुन लिया तो याद रहता हैं।आपके लिए लिखने की कोई आवश्यकता नहीं । ठीक हैं।हम स्मार्ट तो नहीं लेकिन हमारा फोन तो स्मार्ट हैं। तो आप भी स्मार्ट बनीए। स्मार्टफोन के मालिक स्मार्ट होने चाहिए।आज कृष्ण और सुदामा के मिलन का दिन भी हैं। सुदामा को उनकी पत्नी ने जिनका नाम सुशीला था उन्होंने अपने पतिदेव को भेजा। जाओ, कुछ सहायता की मांग करो। तो आज के दिन सुदामा द्वारका गए।
*रुक्मिणी मैया की जय*
रुक्म्मिणी और द्वारकाधीश जिस महल में रहते हैं,उस महल में सुदामा और द्वारकाधीश का आज के दिन मिलन हुआ। अब महाभारत की ओर जाते हैं, हां कृष्ण और सुदामा मिलन यह भी महाभारत काल की ही घटना है। द्रोपदी चीर हरण से रक्षण भी आज ही के दिन हुआ।वैसे द्रौपदी वस्त्र हरण प्रसिद्ध हैं और उससे भी अधिक प्रसिद्ध है द्रोपदी की लज्जा की रक्षा।आज के दिन, उस लीला का स्मरण करो। देख रहे हो आप?सभा हैं, द्रोपदी हैं, बिचारे पांडव असहाय अवस्था में वहां बैठे हैं। और जब द्रोपदी ने पुकारा हे कृष्ण! हे गोविंद!तो कृष्ण गोविंद वहां प्रकट हुए हैं और फिर साड़ी की सप्लाई प्रारंभ हुई।नंदग्राम में वृंदावन में आज के दिन ब्रज मंडल में पावन सरोवर का प्राकट्य हुआ हैं।
*नंदग्राम धाम की जय*
नंदग्राम में प्रसिद्ध सरोवर हैं, पावन सरोवर। उसकी क्या महिमा हैं? आप हमारी ब्रजमंडल दर्शन किताब मे पढ़ लेना। आज से चंदन यात्रा प्रारंभ होती हैं। यह ग्रीष्म ऋतु हैं और इतनी गर्माहट चल रही हैं। कृष्ण को वन में जाना ही पड़ता था ठंडी हो, गर्मी हो, वर्षा हो। तो विशेष चंदन लेपन *सर्वांगे हरिचंदन सुललितम* इस्कॉन के सभी मंदिरों में, सिर्फ इस्कॉन ही नहीं कृष्ण के सभी मंदिरों में आज चंदन लेपन प्रारंभ होता हैं और यह 21 दिन तक चलेगा।
तो आपको भी चंदन घिसने की सेवा, चंदन लेपन की सेवा करनी चाहिए और फिर चंदन से लिप्त कृष्ण की फोटो भी आप खींच सकते हो। उसको प्रसारित कर सकते हो, औरों को दर्शन करा सकते हो। यह
आज से शुरू होने वाला हैं।इस्कॉन के कई मंदिरों में स्पर्धा भी चलती है । लॉकडाउन भी हैं तो देखते हैं इस्कॉन के पुजारी कैसे-कैसे दर्शन कराते हैं और विशेष दर्शन आंध्र प्रदेश में जो सिम्हाचलम है, यह सिम्ह मतलब नरसिम्ह और अचल मतलब पर्वत। पर्वत के शिखर पर नरसिम्ह विराजमान है तो आज के दिन उन नरसिम्ह भगवान का चंदन लेपन होता हैं या दर्शन होता हैं । केवल नरसिम्ह भगवान के ही नहीं वराह भगवान के भी दर्शन होते हैं।यह सिम्हाचल पर्वत आंध्र प्रदेश विशाखापट्टनम के पास है। यह प्रसिद्ध मंदिर है। आंध्र प्रदेश में नौ अलग-अलग नव नरसिम्ह मंदिर हैं, उसमें से यह प्रसिद्ध हैं। यहां केवल नरसिंह भगवान के दर्शन नहीं हैं अपितु प्रल्हाद महाराज की प्रार्थना और इच्छा अनुसार वराह भगवान के भी दर्शन है। । प्रल्हाद महाराज ने प्रार्थना भी कि हे प्रभु आपने नरसिंह भगवान के दर्शन तो दे दिये लेकिन आपने मेरे चाचा हिरण्याक्ष का वध करने वाले वराह भगवान के दर्शन नहीं दिये। हिरण्यकशिपु का वध करने वाले नरसिम्हा हैं और मैं हिरण्याक्ष का वध करने वाले वराह भगवान के भी दर्शन करना चाहता हूं। इस विग्रह में दो दर्शन साथ हैं। एक ही विग्रह में दो दर्शन हैं, नरसिंह और वराह। वराहलक्ष्मी और नरसिंह। आज यहां विशेष दर्शन प्राप्त होता हैं और आज चंदन लेपन भी होता है। आज के दिन अक्षय की बात चल रही हैं। अक्षय तृतीया पर सूर्यदेव द्वारा पांडवों को अक्षय पात्र प्रदान किया गया। सूर्य देव पांडवों को अक्षय पात्र देते हैं और उसी में द्रोपदी भोजन बनाती हैं। आप जानते ही हो, एक दिन दुर्वासा मुनि अपने सारे अनुयायियों के साथ आ गए। तो उस समय उस अक्षय पात्र की महिमा का पता चला। वह लीला तो प्रसिद्ध है। वह अक्षय पात्र कभी खाली नहीं हुआ था। समाप्त नहीं हुआ था। वह अक्षय पात्र आज के दिन सूर्यदेव ने पांडवों को दिया। कुबेर को धन प्राप्ति और पदप्राप्ति भी आज के दिन हुई। यह कहां-कहां से अलग-अलग शास्त्रों से पुराणों से जानकारी प्राप्त हुई है। शास्त्रों की बात है तो माननी ही पड़ेगी। कुबेर को धन की प्राप्ति हुई । पद की प्राप्ति हुई। कई लोग आज के दिन धन प्राप्ति करते हैं। सोने चांदी का काफी बड़ी मात्रा में क्रय वक्रय होता रहता हैं।यह दिवस और भी कई प्रकार के संपत्ति को जुटाने का या खरीदने का होता हैं। मैं तो कहुगा कि आज के दिन आप प्रेम धन को ही प्राप्त कीजिए। यह सब के लिए ठीक है , क्योंकि यह सूचना मिली हैं कि आज खरीदारी का दिन है।
परिवार में ईष्ट गोष्टी होंगी और पत्नी लिस्ट बनाकर तैयार करेगी। प्रभुजी प्रभुजी हमारे पास कार नहीं है। मोटरसाइकिल से हम कब तक घूमेंगे। यह लज्जास्पद बात हैं और भी कई चीज हैं।
परतुं आप तो वैष्णव हो।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
इस प्रेम धन की प्राप्ति के बिना हम निर्धन हैं। वैसे हम कोई भी संपत्ति या धन जुटा ले,लेकिन अगर प्रेम धन नहीं हैं हमारे पास तो हम निर्धन हैं।यह मत्स्य पुराण में लिखा है। गंगा माता का पृथ्वी अवतरण भी आज ही के दिन हुआ हैं। गंगा माता एक समय केवल स्वर्ग में ही थी। स्वर्ग से गंगा आज ही के दिन पृथ्वी पर पहुंच गई। गंगा माता की जय! बद्रिकाश्रम में पुनः लौटते हैं। बद्रिकाश्रम में व्यास गुफा है। व्यास गुफा में गणेश गुफा भी है। गणेश व्यस देव जी के सचिव या सेक्रेटरी रहे हैं।आज ही के दिन महाभारत की रचना का प्रारंभ हुआ। व्यासदेव जो महाभारत के रचईयता है। सभी वैदिक वाग्ड़मय की रचना व्यासदेवने यही से की। बद्रिकाश्रम में हम भी गए थे, कई बार गए। एक बार 1977 में गए थे। उस समय श्रील प्रभुपाद का स्वास्थ्य ठीक नहीं था इसीलिए हम वृंदावन आए थे। रात को हम पुस्तक वितरण की रिपोर्ट प्रभुपाद को दे रहे थे। प्रभुपाद अपनै कक्ष में ही थे।तो हमने कहा कि, प्रभुपाद हम बद्रिकाश्रम में व्यास गुफा मे गए थे और आपकी भगवदगीता यथारूप व्यासदेव को दिखाइ। प्रभुपाद ने सुना तो हंस रहे थे.,प्रसन्न थे। उसी गुफा में जहां महाभारत की रचना हुई मतलब भगवतगीता की भी रचना हुई।
भगवदगीता भी महाभारत के युद्ध के बारे मे ही हैं। भीष्म पर्व के 18 अध्याय है। वह 18 अध्याय भगवदगीता हैं। यह अक्षय तृतीया ही उस महाभारत की रचना के प्रारंभ का दिन हैं। दुर्गा माता की जय!
दुर्गा माता *विनाशायच दुष्कृताम* भी दुष्टों का संहार करती हैं।भगवान की लीला में भगवान की सहायता करती हैं। आज के दिन महिषासुर का वध दुर्गा माता ने किया। महिषासुर का बड़ा प्रसिद्ध चित्र आपने देखा होगा। दुर्गा माता के हाथ में त्रिशूल हैं और महिषासुर को लेटाया हुआ है। उसके ऊपर वह खढ़ी हुई है। उसकी जान ले रही है। वह लीला,महिषासुर के वध का दिन आज ही है।
उड़ीसा में क्षीरचोर गोपीनाथ रेमुणा मे बालेश्वर नाम का शहर है। उसी के कुछ अंतर पर रेमुणा नाम का स्थान है। वहां के क्षीरचोर गोपीनाथ हैं। आज ही के दिन उन्होंने माधवेंद्र पुरी के लिए क्षीर की चोरी की है । इन दिनों में माधवेंद्र पुरी वृंदावन से वहां पर पहुंच गए थे।भगवान ने अपनी क्षीर प्रसाद की चोरी की और अपने पीछे रखी थी।तब पुजारी सो रहा था। उसको भगवान ने कहा, “उठ जाओ मेरे पास पीछे एक लोटा है,क्षीर का। माधवेंद्रपुरी को ढूंढो। तुमको पहले ही प्रसाद वितरण करना चाहिए था। माधवेंद्र पुरी को खिलाना चाहिए था। खिलाया नहीं तुमने। कैसे पुजारी हो तुम,अभी जाओ।” आज के दिन माधवेंद्र पुरी के लिए गोपीनाथ ने क्षीर चुराई और माधवेंद्र पुरी ने प्राप्त की। इसे अमृतकेलि नाम से जाना जाता है।श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के तृतीय अध्याय में 22 अवतारों की सूची हैं।ऋषभदेव उनमेसे एक हैं।
।*एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।*
*इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥*
ऋषभदेव ने पूरे साल भर उपवास किया था। और फिर आज ही के दिन उन्होंने उपवास को तोड़ा। अक्षय तृतीया के दिन।और भी कई सारी बातें हैं। और भी बड़ी महत्वपूर्ण बातें हैं। किंतु समय भी महत्वपूर्ण है। समय भी कृष्ण हैं। समय मूल्यवान हैं कि नहीं। कैसे कहेंगे?मैं भी सोच ही रहा था। कालअस्मि भगवान ने कहा मैं ही काल हूं। काल अगर भगवान हैं, तो भगवान धनवान हैं। भगवान मूल्यवान है। तो काल भी मूल्यवान है। कीमती है। इस मूल्यवान समय का उपयोग भी हमें इस मूल्यवान मनुष्य जीवन के उपयोग में व्यतीत करना चाहिए। हमें सूचना मिली थी कि आज ही के दिन हमारी हेल्पलाइन का उद्घाटन होगा। तो देखते हैं क्या-क्या तैयारी हुई है। हेल्पलाइन में आपको केवल मदद लेनी ही नहीं है बल्कि देनी भी है। मदद करने का सेवा करने का भी अवसर है। धन कमाने का ही नहीं धन का सदुपयोग करने का भी दिन है। दान देने का भी दिन है। तो आप दानी बनो। जिस प्रकार से भी आप सेवा दान दे सकते हैं। दान मतलब केवल धन ही नहीं, जो भी सेवा कर पाओ। चर्चा चल ही रही थी कई दिनों से और कई प्रकार के मदद की आवश्यकता है। मदद कीजिए। मदद कीजिए। आप ऑक्सीजन दे सकते हो। दवा दे सकते हो। सलाह दे सकते हो। सहानुभूति दे सकते हो। कई प्रकार के प्रेजेंटेशन भी हो रहे थे। एक प्रकार से जीवनदान दो। लोगों की जान बचाई तो जीवनदान दिया आपने। आपका कारणीभूत हो। यह कोरोनावायरस खराब तो था परिस्थिति और भी खराब हुई। उसे रोकने के लिए prevention is better than cure की बात चल रही है। तो देख लो क्या क्या कर सकते हो। आज के दिन भी या फिर आज से शुरुआत करो। इस शुभमुहूर्ता अक्षय तृतीया के दिन से। आपका स्वागत है।
आज हमारा कॉन्फ्रेंस हाउसफुल हो गया।
शुभ समाचार आपके लिए। शुभ प्रभात समाचार आपके लिए। 1000 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए। अधिक भी हैं। लेकिन अभी तो यहां हॉल खचाखच भरा हुआ है भक्तों से। कोई स्थान रिक्त नहीं है। ठीक है।
*हरि बोल।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण !!*
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम*
*दिनांक 13 मई 2021*
आज 864 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । आप तैयार नहीं हो ! आप सभी रुकना नहीं चाहते हो । यह दोनों भी अमृत है । ‘नामामृत’ और ‘गौर कथा अमृत’ । नाम भी अमृत है लीला भी अमृत है ।
*श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।* *अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ 23 ॥* *इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।* *क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ 24 ॥*
(श्रीमद भागवतम् 7.5.23-24 )
*अनुवाद:-* प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं इन नाम का श्रवण कीर्तन या जिला का श्रवण कीर्तन एक ही है । नाम ही है लीला । नाम है भगवान , लीला भी है भगवान और रूप तो है ही भगवान आप जानते हो । फिर कीर्तन हम नाम का करें या रूप का करे कीर्तन या लीला का कीर्तन या धाम का कीर्तन, परीकरो का कीर्तन यह सभी हरि कीर्तन ही है या कृष्ण कीर्तन ही है । यही है *श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं* I इस श्रवण का स्मृति फल स्मरण में होना ही चाहिए / होता है *श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं* ।
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ;*
*जयअद्वेत-चंद्र जय गोर भक्त वृंद ।*
मतलब आप समझ गए मैं कुछ चैतन्य चरितामृत से पढ़ने जा रहा हूं । हां आपका अंदाजा ठीक है । कुछ दिनों पहले हम शिक्षा अष्टक की बात कर रहे थे । चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं और उसका है अष्टक या 8 शिक्षाएं शिक्षा अष्टकम । यह चैतन्य चरितामृत के अंतिम लीला के अंत में इसकी रचना हुई है या उसका उल्लेख हुआ है । इसीलिए मैं कह रहा था कि यह कुछ सार ही होना चाहिए जो अंत में कहा जा रहा है । यह महत्वपूर्ण होता है । कृष्णा दास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरितामृत की रचना समापन इस शिक्षा अष्टक के साथ करते हैं । वैसे भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के लीलाएं हरिनाम हरिनाम का गौरव गाथा गाती है । हरि हरि !! यह चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य मैं हरी नाम का महिमा वर्धित किया हुआ है ।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||*
( भगवत् गीता 4.8 )
*अनुवाद:-* भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
धर्म की स्थापना हेतु मैं प्रकट होता हूं तो इससे स्पष्ट हुआ ही चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए क्यों ?
*”धर्मसंस्थापनार्थाय” ।*
कौन सा धर्म है कलियुग का ?
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।*
*कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥*
( चैतन्य चरितामृत आदि लीला 17.21 )
*अनुवाद:-* “ इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है । ”
यह तो पहले बता चुके हैं । वैदिक वांग्मय या शास्त्र या कलि संतरण उपनिषद; तो यह वेद वाणी है ही और वेद वाणी सत्य होती है ।
*सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।*
*न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥*
( भगवत् गीता 10.14 )
*अनुवाद:-* हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं |
यह बात है । आप जो भी कहते हो अर्जुन ने कहा सत्य ही कहते हो । सत्य के अलावा आप कुछ नहीं कहते हो ।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वेद के वाणी अनुसार उन्होंने हरि नाम संकीर्तन धर्म की स्थापना की है । और वही बातें शिक्षा अष्टक से हम समझते हैं । यह है शिक्षा चैतन्य महाप्रभु की । या हरेर्नामैव केवलम् यह शिक्षा है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की । या उचित होगा अगर हम कहते हैं ; श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिक्षा अष्टक मैं और फिर यह जो शिक्षा अष्टक के अध्याय जो है अंतिम लीला चैतन्य चरितामृत का 20 अध्याय इसमें चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का भाष्य , शिक्षा अष्टक के ऊपर कहा हुआ भाष्य का उल्लेख है । तो पढ़ते हैं आगे …यह में 2 दिन पहले पढा हुआ था उस अध्याय को ।
*सेई सेई भावे निज – श्लोक पढ़िया ।*
*श्लोकेर अर्थ आस्वादये दुइ – बन्धु लञा ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंतलीला 20.6 )
*अनुवाद:-* वे अपने बनाये श्लोक सुनाते और उनके अर्थ तथा भाव बतलाते । इस तरह वे अपने इन दो मित्रों के साथ उनका आस्वादन करके आनन्द लेते ।
अंतिम अध्याय का 6टा श्लोक कहा है 2 बंधुओं को साथ लेकर । कौन 2 बंधु ? स्वरूप दामोदर और राय रामानंद । स्वरूप दामोदर है ललिता और राय रामानंद है विशाखा । इनको दो बंदूक कहां है इस गोर लीला में । कृष्ण लीला में यह दोनों सखियां हैं और फिर सखियां राधा रानी की होती हैं , सखा होते हैं कृष्ण के । तो यह दोनों सखियां हे राधा रानी के यहां चैतन्य महाप्रभु के अंतिम लीलाओं में जगन्नाथपुरी में , गंभीरा में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब राधा भाव में ही है । राधा महाभावा ठाकुरानी राधा , उसी भाव का आस्वादन कर रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भाव ।
*राधा कृष्ण-प्रणय- विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह- भेदं गतौ तौ ।*
*चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चै क्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलिंत नौमि कृष्ण-स्वरूपम् ॥*
(चैतन्य चरितामृत आदिलीला 1.5 )
*अनुवाद:-* श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्या अभिव्यक्तियाँ है । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं , किंतु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है । अब यह दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्री कृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूं, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधा रानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं ।
तो इन 2 बंधुओं को साथ में लेकर … *श्लोकेर अर्थ आस्वादये* और श्लोकों का आस्वादन कर रहे हैं । यह जो 8 श्लोक है शिक्षा अष्टक के उसका आस्वादन कर रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ।
*कोन दिने कोन भावे श्लोक – पठन ।*
*सेइ लोक आस्वादिते रात्रि – जागरण ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंतलीला 20.7 )
*अनुवाद:-* कभी – कभी महाप्रभु किसी विशेष भाव में डूब जाते और उससे सम्बन्धित लोक सुनाकर तथा उसका आस्वादन करते हुए रातभर जगे रहते ।
तो यह हर रात्रि की बात है । हर रात्रि को इनमें से एक श्लोक या शिक्षा अष्टक से एक श्लोक को ; *”कोन दिने कोन भावे श्लोक – पठन”* *”सेइ लोक आस्वादिते रात्रि – जागरण”* पहले इस श्लोक का भाव हो रात्रि को जिस प्रकार का मनोदशा या भावनाएं उदित हो रहे होंगे तो उसके अनुसार शिक्षा अष्टक में से या उसके अनुरूप श्लोक का चयन करते श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और *श्लोक-पठन* उस श्लोक का पाठ करते या उस श्लोक के जो भाव है उसी भवसागर में फिर वह गोते लगाते । और इस प्रकार उनकी रात्रि जागरण उस भाव का आस्वादन करते-करते उस भाव के जो तरंगे हैं उसमें तेरे ते , गोते लगाते ; पूरी रात बीत जाती है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ।
*आस्वादन करते हुए रातभर हर्षे प्रभु कहेन , – ” शुन स्वरूप – राम – राय ।*
*नाम – सङ्कीर्तन – कलौ परम उपाय ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंतलीला 20.8 )
*अनुवाद:-* श्री चैतन्य महाप्रभु ने परम हर्ष में कहा , “ हे स्वरूप दामोदर तथा रामानन्द राय , तुम मुझसे जान लो कि इस कलियुग में पवित्र नामों का कीर्तन ही मुक्ति का सर्वसुलभ साधन है ।
तो उसी भाव में जो अलग-अलग उदित हो रहे हैं किसी एक रात को चैतन्य महाप्रभु ने अपने दोनों बंधुओं को *हर्षे प्रभु कहे* हर्ष और उल्लास के साथ उन्होंने कहा *शुन स्वरूप – राम – राय ।* उन दोनों को संबोधित करते हुए । यह नहीं कि वह सुन नहीं रहे थे , लेकिन सुनो सुनो का कहने के पीछे तात्पर्य यह है कि सुनो सुनो यह बात बहुत महत्वपूर्ण है । ध्यानपूर्वक सुनो; मैं अभी जो कुछ कहने जा रहा हूं *”शुन स्वरूप – राम – राय “* *”नाम – सङ्कीर्तन – कलौ परम उपाय”* I और दोनों बंधुओं का ध्यान आकृष्ट करते हुए उन्होंने देखा कि वह और गौर के साथ सुन रहे हैं । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वहां गंभीरा में अपने दोनों बंधुओं से कह रहे हैं “नाम संकीर्तन” हे राय रामानंद हे स्वरूप दामोदर *”नाम – सङ्कीर्तन – कलौ परम उपाय”* I कलियुग में परम उपाय एक ही है नाम संकीर्तन । तो शास्त्र का वाणी है ही । *”हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।*
*कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥”* एसे बच्चन है शास्त्रों में ।
*इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मष नाशनम् ।*
*नातः परतरोपाय सर्व वेदेषु दृश्यते ॥*
( कलि संतरण उपनिषद )
यह जो 16 शब्दों वाला ,32 अक्षर यह जो महामंत्र है *”कलिकल्मष नाशनम्”* कली के कल्मष नाश करने वाला है ।
*कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः ।*
*कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥*
( श्रीमद भागवतम् 12.3.51 )
*अनुवाद:-* हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।
कलियुग में तो भागवत कहता है दोष ही दोष होंगे किंतु *अस्ति ह्येको* हे एक महान गुण इस कलयुग का *”कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्”* यह शास्त्र के वानी है ही और यहां स्वयं भगवान …
*एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।*
*इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥*
( श्रीमद भागवतम् 1.3.28 )
*अनुवाद:-* उपयुक्त सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंत ( कलाएं ) हैं, लेकिन श्री कृष्णा तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान है । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों को द्वारा उपद्रव किए जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान; भगवान से बढ़कर *”श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण ना ही अन्य”* वह कह रहे हैं कलयुग में एक ही उपाय है राय रामानंद हे स्वरूप दामोदर और वह है नाम संकीर्तन । तो यह चैतन्य महाप्रभु की दिल की बाते है या सत्य वचन है ये । तो ऐसी है भगवान की कार्यनीति । जो कहते हैं …
*मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।*
*हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥*
( भगवत् गीता 9.10 )
*अनुवाद:-* हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
मेरी अध्यक्षता के अनुसार यह सारा संसार चलता है । वे अपने विचार, योजना बता रहे हैं राय रामानंद और स्वरूप दामोदर से । आपने सुनी बात ? सुन रहे हो ? आपको हम कहेंगे सुनो सुनो !! श्यामवनवाली , राधाचरण , कृष्णकांत नागपुर से सुनो सुनो !! क्या सुनो ? वही बात सुनो जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को सुनाएं । अच्छा होता कि उस समय आप सुनते । 500 वर्ष पूर्व लेकिन ठीक है दूरर्देव से उस समय नहीं सुने किंतु अब तो सुनो ! निशा अवसर प्राप्त कर आए हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । जो छोड़ दिए हैं 500 वर्ष पूर्व जो चैतन्य महाप्रभु सुनाया करते थे उपदेश या शिक्षाष्टक उसका भाष्य तो अब तुम सकते हैं हम ।
चैतन्य महाप्रभु सुना रहे हैं ! यह चैतन्य चरितामृत एक माध्यम है या चैतन्य चरितामृत ही चैतन्य महाप्रभु ही है यह दोनों अभिन्न है । लगता तो है कि यह जूम कॉन्फ्रेंस हो रही है ,इसमें कोई वक्ता है , वह ये सुना रहे हैं । हम सुन रहे हैं ! लेकिन इसको भूल भी सकते हैं । यह सारी जो व्यवस्था का उद्देश्य है यही है कि भगवान का संदेश, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की उपदेश ,शिक्षाष्टक हम तक पहुंचे और पहुंच रहा है । तो फिर चैतन्य महाप्रभु 500 वर्ष पूर्व गंभीरा में राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को बात सुनाई तो वैसे ही बात , वैसी घटना घट रही है । वही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मुझे और आप को सुना रहे हैं ।
भगवान बहुत व्यक्तिगत है । उन्होंने जो कहा था लिखा जा चुका है चैतन्य चरितामृत के रूप में । उसकी रचना हो चुकी है । और फिर “शब्द योनीत्वात् ” वह शब्द बनते हैं स्रोत । शास्त्र बनते हैं स्रोत, उद्गम । और हम उन्हीं बातों को आज भी सुन सकते हैं या “शास्त्र चक्षुशा” शास्त्र का पहनो चश्मा देखो और सुनो भी । 500 वर्ष पुरानी, पुराना जो दृश्य है और संवाद है और यह संवाद या भगवान की लीला यह समझ है कि यह शाश्वत है । “पूरा अपि नवम” पुराण की बातें कभी पुरानी नहीं होती । “पूरा अपि नवम” पुरानी और प्राचीन होते हुए भी यह नई सी रहती है । क्योंकि वह शाश्वत है । समझ लो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आपसे बात कर रहे हैं । या श्रीला प्रभुपाद भी इस बात पर जोर दिया करते थे । भगवत् गीता के संबंध में । अर्जुन ने 5000 वर्ष पूर्व भगवत् गीता सुनी और वही भगवत् गीता उपलब्ध है । अगर आज हम सुनते हैं पढ़ते हैं भगवत् गीता यथारूप में तो अंतर नहीं है । अर्जुन ने गीता सुनि कुरुक्षेत्र के मैदान में । और हम सुन रहे हैं अपने घर बैठे बैठे । या हो सकता है हमारा घर कोई कुरुक्षेत्र हो सकता है कुछ घर में ! कुछ युद्ध होते रहते हैं छोटे-मोटे लड़ाइयां चलती रहती हैं तो उस हिसाब से यह कुरुक्षेत्र हुआ ।
तो वही संवाद गीता पढ़ते हो तो …श्री भगवान उवाच अपने स्थान पर है ही ; अर्जुन के स्थान पर हमें बिठाना चाहिए और समझना चाहिए कि यह बात मुझे सुना रहे हैं । वैसे भी अर्जुन ने जो प्रश्न है वह अर्जुन के नहीं है , यह प्रश्न मेरे, आपके , तुम्हारे अर्जुन ने पूछे हैं । और इसके उत्तर उस समय अर्जुन को दिए लेकिन यह उत्तर हमारे लिए हैं । और जो उत्तर में कहा वह सत्य है तो उस समय भी लागू था और आज भी वही लागू होता है । वैसे ही यह चैतन्य महाप्रभु की बातें खासकर कि यह जो शिक्षाष्टक का रसास्वादन श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु कर रहे हैं यह शिक्षा अष्टक के भाष्य सुना रहे हैं चैतन्य महाप्रभु । इसे हम सीधे सुन पा रहे हैं । तो यह हो गई ! क्या हो गई ?
*ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव ।*
*गुरु – कृष्ण – प्रसादे पाय भक्ति – लता – बीज ॥*
( चैतन्य चरित्रामृत मध्यलीला 19.151 )
*अनुवाद:-* सारे जीव अपने – अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे । हैं । इनमें से कुछ उच्च ग्रह – मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह – मण्डलों को । ऐसे करोड़ों भटक र जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है , जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है । कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है ।
तो भगवान ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसी योजनाएं ,ऐसी परिस्थिति हमारे जीवन में उत्पन्न किए हैं ताकि हम उनको सुने ; उनको सुन रहे हैं । हरि हरि !! ठीक है !आगे पढ़ेंगे …यह शिक्षाष्टक का भाष्य ।
*॥ निताई गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल ॥*
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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 12 मई 2021
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 881 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हरिबोल!!!
हरे कृष्ण!!! आप सब का स्वागत है। आप कुछ समय से जप तो कर ही रहे हो। जब हम जप करते हैं तब हम कृष्ण को पुकारते हैं और कृष्ण प्रकट हो जाते हैं। तब हम उन प्रकट हुए श्रीकृष्ण को संबोधित कर सकते हैं अथवा हमनें नाम के रूप में जिन श्रीकृष्ण को प्रकट कराया है, हम उनके साथ संवाद कर सकते हैं।
कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार।
नाम हइते हय सर्व जगत निस्तार ।।
(चैतन्य चरितामृत 1.17.22)
अनुवाद:- मनुष्य उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है । इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है। जो कोई भी ऐसा करता है , नाम के रूप में कृष्ण और राधा भी प्रकट होते हैं अथवा अवतार लेते हैं। तब हम उस राधा कृष्ण को प्रार्थना कर सकते हैं या उनका स्तूतिगान अथवा उनको नमस्कार कर सकते हैं। ऐसे श्रीभगवान को बारंबार प्रणाम है।
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
उस प्रकट हुए राधा माधव कहो या राधा गोविंद या राधा मदन मोहन या राधा गोपीनाथ अथवा राधा गोपाल या राधा पंढरीनाथ कहो, उनके कई नाम हैं। कृष्ण से बात करो। अपना दिल खोलो या अपनी कोई व्यथा है, तो वह भी कृष्ण राधा के साथ शेयर करो। यदि कोई खुशियां है, उनके साथ अपनी खुशियां भी मनाओ। कृष्ण को कहो। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह भगवान् है।
तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली – लब्धये कर्ण – क्रोड़ – कडुम्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम् । चेतः – प्राङ्गण – सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां नो जाने जनिता कियद्धिरमृतैः कृष्णेति वर्ण – द्वयी ॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला १.९९)
अनुवाद ” मैं नहीं जानता हूँ कि ‘ कृष् – ण के दो अक्षरों ने कितना अमृत उत्पन्न किया है। जब कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया जाता है, तो यह मुख के भीतर नृत्य करता प्रतीत होता है। तब हमें अनेकानेक मुखों की इच्छा होने लगती है । जब वही नाम कानों के छिद्रों में प्रविष्ट होता है, तो हमारी इच्छा करोड़ों कानों के लिए होने लगती है और जब यह नाम हृदय के आँगन में नृत्य करता है, तब यह मन की गतिविधियों को जीत लेता है, जिससे सारी इन्द्रियाँ जड़ हो जाती हैं । ”
इन दो अक्षरों में कितना सारा आनंद भरा हुआ है। हरि! हरि!
इसे अक्षर कहो या नाम कहो अथवा पूरा मंत्र कहो, यह सच्चिदानंद विग्रह अवतार है। हमें इसका अनुभव करना है। यह कोई खोखले शब्द नहीं है। ये निर्जीव अक्षर अथवा शब्द नहीं है, यह सजीव है। सच्चिदानंद हैं।
नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह।
पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।।
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133)
अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान है, यह चेतना से परिपूर्ण है। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त हैं। भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं ।
ऐसा भी कहा है, भगवान् का नाम चिंतामणि है। ब्रह्मा जी ने भी ऐसा कहा है।
चिन्तामणिप्रकरसद्यसु कल्पवृक्ष-लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् । लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
( ब्रह्म संहिता ५.२९)
अनुवाद-जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों
लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुषकी सेवा कर रही हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्दका मैं भजन करता हूँ।
भगवान् का धाम कैसा है? चिन्तामणिप्रकरसद्यसु चिंतामणि धाम और नाम भी चिंतामणि है। ‘नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह’ । चैतन्य की मूर्ति है चैतन्य। इस महामन्त्र में चेतन है अर्थात यह मंत्र चेतन हैं। एक होता है जड़ और दूसरा होता है चेतन। ‘चैतन्य रस विग्रह’ रस की खान है।
रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्धवानन्दी भवति।
(तैत्तिरीय उपनिषद २.७.१)
अनुवाद:- पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् दिव्य रसों के आगर हैं या साक्षात रस हैं। उन्हें प्राप्त करके ही आत्मा वास्तविक रूप में, दिव्य रूप से आनंदित बनता है।
वेदों , उपनिषदों में कृष्ण को ऐसा कहा है ‘रसो वै सः।’ स: अर्थात भगवान्। वै रस हैं। रसामृतसिंधु हैं। रस की मूर्ति हैं। रस
विग्रह हैं। विग्रह कहो या मूर्ति कहो, एक ही बात है या फिर रसखान कहो, वही बात है। भगवान का नाम नित्य है। उनका नाम भी नित्य है। हमारा शरीर नित्य नहीं होता। शरीर समाप्त हुआ तो नाम भी समाप्त हुआ। भगवान् नित्य हैं, शाश्वत् हैं। सत चित आनन्द हैं। सत अर्थात शाश्वत। भगवान सत अर्थात शाश्वत हैं, चित हैं या चैतन्य की मूर्ति हैं। चित्त मतलब पूर्ण ही है। फुल ऑफ नॉलेज (सम्पूर्ण ज्ञान) है। आनन्द से पूर्ण हैं । नित्य और शुद्ध हैं, यह नाम शुद्ध है।
यह नाम जप हमें शुद्ध बनाएगा। जब हम इस शुद्ध नाम के संपर्क में आएंगे तब ही हम शुद्ध होंगे और शुद्ध नाम जप करेंगे। यह नाम कृष्ण है।
कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार।
य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31)
अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान है। जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता है।
जैसे सूर्य की किरणें, सारे संसार को स्वच्छ कर देती हैं। यदि कहीं मल मूत्र का भी विसर्जन हुआ है या यह हुआ है, वह हुआ है।तब सूर्य की किरणें उसको तपाती भी हैं और उसमें जो अशुद्धि अथवा खराबी होती है, उसको सुधार देती हैं।
कृष्ण सूर्य सम हैं और यह नाम कृष्ण है। जब हम जप या कीर्तन करते हैं, तब हम इस नाम रूपी कृष्ण के सम्पर्क में आते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जब हमसे ध्यानपूर्वक, श्रद्धापूर्वक, प्रेमपूर्वक कीर्तन व जप तब हम नित्य शुद्ध होंगें अर्थात हमारा शुद्धिकरण पूर्ण होगा। तत्पश्चात हमारा नाम जप शुद्ध नाम जप होगा। भगवान तो शुद्ध हैं ही, भगवान का नाम भी शुद्ध है ही और हम इस जपयोग के माध्यम से उनके संपर्क में आएंगे, तब हम भी शुद्ध होंगे। योगायोग, हम भगवान् के सामने होंगे। भगवान् की शक्ति, भक्ति, ध्यान भी का आवाहन हमारी ओर होगा अथवा हमारी और संक्रमण होगा।
नाम्नामकारि बहुधा निज – सर्व – शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।। ( श्री चैतन्य चरितामृत २०.१६)
अनुवाद ” हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं है । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है ।
इस हरि नाम में शक्ति है। हम उस शक्ति से युक्त होंगे। उस भक्ति की शक्ति अथवा भगवान की शक्ति से युक्त होंगे। भगवान् मतलब शक्तिमान। नित्य, शुद्ध, मुक्त यह नाम की परिभाषा कहो या नाम का महात्मय। इस वचन में भी कहा गया है।
नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह।
पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।।
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133)
अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान है, यह चेतना से परिपूर्ण है। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त है । भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं ।
नित्य, शुद्ध तथा मुक्त- यह नाम के सारे विशिष्ट या विशेषण भी हैं। नाम कैसा है? नित्य व शुद्ध है, नाम कैसा है? मुक्त है। नाम भी मुक्त है। इसलिए जो स्वयं ही मुक्त है, वह अन्यों को मुक्त कर सकता है। नाम मुक्त है, भगवान् मुक्त हैं। वे जपकर्ता को भी मुक्त करेंगे। हम मुक्त होंगे। हम मुक्त होंगे मतलब क्या होता है, नहीं कहेंगे।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
( श्रीमद् भगवक्तगीता ४.९)
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
अंततोगत्वा हम जीवनमुक्त भी हो सकते हैं। जीवित तो हैं, इसी संसार में भी हैं, इसी शरीर में भी है। किन्तु मुक्त है। मुक्त किससे है? ये षड् रिपु से भी मुक्त हैं, हमारे छह अलग-अलग शत्रु हैं।
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।।
( श्रीमद् भगवतगीता ३.३७)
अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
कृष्ण ने कहा है- अर्जुन नोट करो, नोट करो, प्लीज नोट करो। विद्धयेनमिह वैरिणम् यह जो काम है, वैरी है, वैरी। वह तुम्हारा मित्र नहीं है, उसको गले मत लगाओ। आई लव यू मत कहो। यह समझो कि यह तुम्हारा शत्रु है। मित्र नहीं है, दूर रहो। कृष्ण आगे कहते हैं, यही इसको ठार करो। मराठी में कहते हैं, इसकी जान लो। यह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य हमारे शत्रु है। हम भगवान् के नाम अथवा कृष्ण के नाम का आश्रय लेंगे।
जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥6॥
( उदिल अरुण- श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित)
अर्थ: निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान् के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक व्यवहार करो।
उन शत्रुओं को भगवान संभालेंगे। हमारे बस का रोग नहीं है। बस! हम क्या कर सकते हैं।
कृष्ण ने कहा ही है-
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।
( श्रीमद् भगवक्तगीता ७.१४)
अनुवाद: प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।
मेरी माया बड़ी जबरदस्त है, इसके साथ लड़ना, इसके चंगुल से बचना या माया को अकेले परास्त करना, ऐसा न तो हुआ है और ना ही होगा।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।
( श्रीमद् भगवक्तगीता १८.६६)
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत।
इसलिए मामेकं शरणं व्रज- मेरी शरण में आओ फिर मैं माया को संभाल लूंगा। माया मेरी है ना, मेरी माया है।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।
( श्रीमद् भगवतगीता ९.१०)
अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।
बस तुम अपना धर्म करो। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।
मेरी शरण में आओ, फिर मैं संभाल लूंगा। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः मैं तुम्हें इस काम, क्रोध, लोभ, मद्, मात्सर्य से मुक्त करूंगा। मैं परास्त करूंगा। नित्य, शुद्ध, मुक्त और आगे कहा है कि नाम पूर्ण है –
ॐ पूर्ण मदः, पूर्णमिदं ,पूर्णात पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेववशिष्यते ( ईशोपनिषद) अनुवाद :भगवान पूर्ण हैं और पूर्ण से जो भी उत्पन्न होता है वह भी पूर्ण है ।
भगवान् का नाम पूर्ण है। यदि यही नाम ले लिया
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। तो हम तो पूर्ण हैं।
इसमें अन्य सारे नामों का उच्चारण भी हुआ। अन्य सारे भगवान के अवतारों , अंशों, अंशाशो के भी नाम का उच्चारण हुआ।
नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह।
पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।।
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133)
अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान है, यह चेतना से परिपूर्ण हैं। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त है । भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं।
यह सारी सिद्धांत की बातें हैं। अभिनत्वात। नाम और नामी। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण -यह नाम है। नामी कौन है? नामी कृष्ण हैं, नाम कृष्ण हैं। किसका नाम कृष्ण है? कृष्ण का नाम कृष्ण हैं। जैसे सुख और सुखी, सुख एक अनुभव या विशिष्ट है। जिसके पास सुख है, उसे सुखी कहते हैं। सुख सुखी, दुख दुखी, धन धनी वैसे ही नाम नामी। नाम नाम है। नामी मतलब वह व्यक्ति अथवा श्री कृष्ण का व्यक्तित्व है।
उनका नाम कृष्ण हैं। नाम और व्यक्तित्व। नाम मतलब नाम और नामी अर्थात व्यक्तित्व। यहां पर कहा गया है कि
‘अभिनत्वात नाम नामीनो’
इसलिए जब भगवान का नाम पुकारा जाता है, जो कि नाम से अभिन्न है तब भगवान प्रकट हो जाते हैं। जब द्रौपदी ने पुकारा- हे कृष्ण! गोविंद! क्या उस सभा में कृष्ण थे? नही थे। किंतु नाम पुकारते ही उन्होंने द्रोपदी की रक्षा की। द्रोपदी की लाज बचाई, कई मील लंबी साड़ी सप्लाई की। इतनी लंबी साड़ी संसार में किसी हैंडलूम में न तो बनी है और न ही बन सकती है। भगवान एक लंबी साड़ी सप्लाई करते गए और बेचारा और मूर्ख दुशासन (नाम भी क्या है? देखो, दुशासन!) को परास्त किया। नाम को पुकारते ही नामी प्रकट हुए। पुकारा नाम को और प्रकट हुए नामी। ऐसा नहीं कि एक ही बार नाम पुकारा गया और कृष्ण प्रकट हुए। कृष्ण ऐसे ही प्रकट होते हैं। द्रोपदी जैसे भावों के साथ असहाय हो कोई पुकारे। अन्य किसी का सहारा नही है। डॉक्टर का इंजीनियर का वकील का पड़ोसी का,
देहापत्य कलत्रादिष्यात्म सैन्येष्वसत्स्वपि । तेषां प्रमनो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥
( श्रीमद् भागवतम २.१.४)
अनुवाद:- आत्मतत्त्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते , क्योंकि वे शरीर, बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यंभावी मृत्यु को नहीं देख पाते ।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा कि यह सारा तो झूठ- मुठ का सैन्य है भाई। यह देह तुम्हारा, ये अपत्य, यह बाल बच्चे पत्नी इत्यादि यह सब तो झूठ मुठ का सैन्य है। कृष्ण जब सहायता करेंगे, तब पूर्ण सहायता होगी। इसलिए भी हम कह रहे हैं कि डॉक्टर की केयर (देखभाल) भी ठीक है, लेकिन उनकी अपनी एक सीमा है। डॉक्टर फिर अंत में कहते हैं कि हमारे हाथ खड़े हैं, हम कुछ नहीं कर सकते, अब सब कुछ भगवान पर निर्भर करता है अथवा आगे भगवान की मर्जी।
ये दोनों के कॉन्बिनेशन (संयोग) से है। भगवान की सहायता करने वाले भगवान ही हैं। इस प्रकार यह नाम की महिमा भी है। जब उनका संस्मरण हो, उसको याद करें, समझे, नाम को समझें। यदि नाम को समझेंगे तभी नामी को समझेंगे और नामी का भगवत साक्षात्कार होगा। ठीक है। मैं आपके लिए कामना करता हूं कि आप सफल यशस्वी जप करने वाले बनो।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 11 मई 2021*
850 स्थानों से भक्त जुड़े है । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । आज गदाधर पंडित आविर्भाव दिवस है । गदाधर पंडित की जय ।
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृन्द।*
हरि हरि । गदाधर पंडित पंचतत्व में से एक है । गदाधर पंडित पंचतत्व के एक सदस्य है । पंचतत्व , पांच तत्व हर एक का अपना एक तत्व है और गदाधर पंडित का भी अपना तत्व है । गौर भगवान कहते हैं या कृष्ण कहते है ,
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |*
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||*
(भगवद्गीता 4.9)
*अनुवाद*
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
मुझे और फिर मेरी लीलाओं को जो तत्वता जानता है उसका कल्याण निश्चित है उसका उद्धार निश्चित है ।
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति* पुनः जन्म नहीं होगा तुम मेरे धाम लोटोगे । पंचतत्व में एक गदाधर पंडित तत्व भी है जिन को जानना या उनका तत्व समझना कोई मामूली बात नहीं है। फिर भी हम उनको समझने की कोशिश करेंगे । उनके संबंध में शास्त्रों में वर्णन है , उल्लेख है आचार्य ने वर्णन किया है। एक गदाधर पंडित कौन है ? कहां है ? इस को नोंद कीजिएगा । अगर आपकी समझ में नहीं आ रहा है , यह गदाधर पंडित कौन है? दक्षिने निताईचंद बामे गदाधर , जब पंचतत्व का हम दर्शन करते हैं तब मध्य में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु होते हैं और उनके दाहिने बगल में नित्यानंद प्रभु रहते हैं और बाही बगल में जो व्यक्तित्व होता है , जिनका हम दर्शन करते हैं वह गदाधर पंडित है । हरि हरि । गदाधर पंडित , राधारानी ही गदाधर पंडित कर रूप में प्रकट हुई है ।
यह जब कहते हैं तब यह भी कहना होगा , यह सब कहते कहते गदाधर पंडित की चर्चा कुछ कम होगी लेकिन विचार आ गया है तो सुन लो , एक राधा रानी चैतन्य महाप्रभु के साथ है ही। *श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य* कृष्ण और राधा चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं ही लेकिन गदाधर के रूप में भी राधारानी प्रकट हुई है। और आपको यह बता दें कि एक श्री गदाधर भी है , एक है गदाधर पंडित और गौर लीला मे दूसरा व्यक्तित्व श्री गदाधर है । वह राधा रानी ही है या गदाधर के रूप में राधा रानी की कांति प्रकट हुई थी । श्री गदाधर परिकेरों में रहा करते थे , और यह गदाधर पंडित है । आप जानते हो कि भगवान की नित्य लीला में , वृंदावन में या गोलोक में भी जो वृंदावन है , वहां राधा और कृष्णा मिल नहीं सकते थे या कुछ समय के लिए ही मिलना होता था या छिप छिप के मिलना पड़ता था ।
एक दूसरे को देखना भी है तो तिरछी नजरों से देखना पड़ता था , वहां कई सारे बंधन है रुकावटें है लोक व्यवहार है या कहां जा रहे हो ऐसे रोक है इसको करना पड़ता है और करते हैं इसलिए राधा और कृष्ण सब समय साथ में नहीं रह सकते । जब कृष्ण श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हो रहे थे तब राधा ने सोचा कि यह अवसर अच्छा है, मैं भी प्रकट हो जाऊंगी किंतु स्त्री बनके नहीं मैं पुरुष रूप धारण करूंगी और फीर श्री कृष्ण के साथ मे जितना जी चाहे , मैं उनका अंग संग कर सकती हूं इस विचार के साथ यह प्राकट्य हुआ ऐसे हमें समझ में आता है राधा रानी का गोलोक में यह विचार है । वह प्रकट हो गए आज के दिन आज गदर पंडित का आविर्भाव दिन है। वह मायापुर में प्रकट हुए हैं जहां चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए थे । वह एक ही गांव में प्रकट हुए थे , और पंच तत्व के जो सदस्य है वह कोई बांग्लादेश में कोई बंगाल में प्रकट हुए थे । वह दूसरे पीढ़ी के थे , बुजुर्ग थे ,चैतन्य महाप्रभु के पहले ही प्रकट हुए थे । गदाधर पंडित चैतन्य महाप्रभु के समकालीन रहे। लगभग एक ही उम्र वाले और एक ही गांव में प्रगट हुए जन्मे है और बचपन से ही वह साथ में रहे और खेला करते थे उनकी पढ़ाई भी साथ में हुई जिसको हम लंगोटी यार कहते हैं वैसे वह यार थे मित्र थे। हरि हरि । 1 दिन की बात है , चैतन्य महाप्रभु खोज रहे थे कहां है ? कहां है? कृष्ण कहां है ? मेरे कृष्ण कहां है?
*हे राधे व्रजदेविके च ललिते हे नन्दसूनो कुतः श्रीगोवर्धन – कल्पपादप – तले कालिन्दीवन्ये कुतः घोषन्ताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर्महाविह्वली वन्दे रूप – सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव – गोपालको*
*अनुवाद:- वृन्दावन के छः गोस्वामी , श्री रूप गोस्वामी , श्री सनातन गोस्वामी , श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी , श्री रघुनाथ दास गोस्वामी , श्री जीव गोस्वामी तथा श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी के प्रति मैं अपने आदरयुक्त प्रणाम अर्पण करता हूँ , जो वृन्दावन में अति उच्च स्वर में घोष करते हुए सर्वत्र विचरण करते थे , ” हे वृन्दावनेश्वरी , हे राधारानी ! हे ललिता ! हे नन्द महाराज के पुत्र ! आप सभी अब कहाँ हो ? क्या आप गोवर्धन की पहाड़ी पर हो ? अथवा यमुना के तट पर स्थित वृक्षों के तले हो ? कहाँ हो आप ? ‘ ‘ इस प्रकार की भावनाओं से प्रेरित होकर उन्होंने कृष्णभावनामृत का आचरण किया ।
ऐसी बात षठ गोस्वामी वृन्द कृष्ण की तलाश में सर्वत्र दौड़ते हैं और पूछते हैं , कहां है ? कहां है? कहां मिलेंगे ? श्रीकृष्ण तब निमाई ही थे । एक समय वैसे पूछ रहे थे कहां है? कहां है? तब उनको बताया गया कि तुम्हारे भगवान या तुम्हारे कृष्ण तुमसे दूर थोड़ी है , वह तुम्हारे साथ है , तुम्हारे अंदर है ,तुम्हारे ह्रदय में है ऐसे सुनते ही निमाई ने क्या किया ? अपने उंगलियों से , नाखूनों से अपने वक्षस्थल की खुदाई शुरू की , चीरफाड़ कियजैसे हनुमान ने किया था , वैसा ही प्रयास जब हो रहा था तब गदाधर पंडित वही थे उन्होंने बड़ी युक्ती पूर्वक निमाई को रोका , जो स्वयं को हानि पहुंचा रहे थे , खून खराबा हो रहा था । यह बात वैसे दूर से ही सचिमाता देख रही थी , जिस प्रकार से निमाई को सचिनन्दन को गदाधर पंडित ने समझाया बुझाया था । सची माता गदाधर पंडित से बहुत प्रसन्न हुई और कहा कि तुम सब समय साथ में रहा करो , निमाई के उपर नजर रखो , उसकी रक्षा किया करो और यह गदाधर पंडित तो चाहते ही थे ।
कृष्ण का जो अब श्रीकृष्ण चैतन्य बने हैं उनका अंग संग चाहते थे , वह नवदीप लीला में वह साथ में रहे फिर जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का निमाई संन्यास हुआ , चैतन्य महाप्रभु अब जगन्नाथपुरी में रहने लगे तब गदाधर पंडित भी वहां आ गए और चैतन्य महाप्रभु ने वैसे उनसे संकल्प करवाया , “तुम जगन्नाथपुरी में ही रहना” उनको धाम सन्यास दिया । औपचारिक दृष्टि से सन्यास नहीं था , संकल्प करवाया तुम जगन्नाथपुरी में रहोगे , जगन्नाथपुरी को छोड़कर कहीं नही जाओगे , जिसको क्षेत्र संन्यास कहते हैं । जगन्नाथपुरी श्री क्षेत्र भी कहलाता है , श्री क्षेत्र मतलब राधा रानी का उल्लेख होता है , लक्ष्मी कहो या राधा रानी कहो । जगन्नाथपुरी को पुरुषोत्तमक्षेत्र भी कहते हैं , पुरुषोत्तम के नाम से भी प्रसिद्ध है और श्री क्षेत्र भी कहते हैं , राधा रानी श्री है , राधा का क्षेत्र है , तुम यही रहो कहा । गदाधर पंडित जगन्नाथ पुरी में रहने लगे और वह पंडित थे उनके पांडित्य का क्या कहना ? यह गदाधर पंडित प्रकांड विद्वान थे , खास करके श्रीमद्भागवत के मर्मज्ञ थे । गदाधर पंडित जगन्नाथ पुरी में टोटा गोपीनाथ , एक टोटा गोपीनाथ है , गोपीनाथ के विग्रह प्राप्त हुए वहां जहाँ टोटा गोपीनाथ मंदिर है । गदाधर पंडित गोपीनाथ की आराधना के पुरोहित या पुजारी बने । देखिए गदाधर पंडित स्वयं राधा रानी है और वहां आराधना कर रहे हैं ।
*आश्विष्य वा पाद – रता पिनष्टु माम् अदर्शनान्मर्म – हता करोतु वा ।*
*यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राण नाथस्तु स एव नापरः ।।*
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य 20।47 )
अनुवाद “ अपने चरणकमलों पर पड़ी हुई इस दासी का कृष्ण गाढ़ आलिंगन करें या अपने पांवों तले कुचल डालें अथवा कभी अपना दर्शन न देकर मेरा हृदय तोड़ दें । आखिर वे लम्पट हैं और जो चाहें सो कर सकते हैं , तो भी वे मेरे हृदय के परम आराध्य प्रभु हैं । ‘
राधारानी के प्राणनाथ, गोपीनाथ, राधानाथ कि वह गोपीनाथ मंदिर में आराधना करने लगे और वह श्रीमद्भागवत की कथा भी सुनाया करते थे । हरि हरि । शुकदेव गोस्वामी ने कथा सुनाई लेकिन यह श्रीमद्भागवत के कथा का श्रवण शुकदेव गोस्वामी , राधारानी के भक्त , शुकदेव गोस्वामी का एक नाम शुकेष्ट है , शुक इष्ट , जिनकी इष्टा स्त्री लिंग में इष्टा कहते है , राधा रानी है। राधा रानी जिनकी इष्टा है वह शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को भागवत कथा सुनाई और वहां वैसे कहा भी है ।
*चारि वेद दधि भागवत मथुलेना सुके खाइलेनु परिक्षिता*
चार वेद दही है और भागवत नवनीत है , माखन है , और यह नवनीत भागवत बन गया तब फिर क्या किया ? शुकदेव मतीलेन शुके , शुकदेव गोस्वामी ने इस इस भागवत अमृत का और आगे मंथन किया है और राजा परीक्षित को भागवद का पान कराया । यहा अभी जगन्नाथपुरी में क्या हो रहा है ? टोटा गोपीनाथ मंदिर में स्वयं राधा रानी गदाधर पंडित के रूप में भागवत की कथा सुनाया करती थी या करते थे।
गदाधर पंडित के रूप में भागवत की कथा सुनाया करती थी या करते थे और फिर जो वक्ता है गदाधर पंडित और श्रोता बन जाते थे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो प्रतिदिन गंभीरा से जहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रहा करते थे वहां से टोटा गोपीनाथ मंदिर आते थे गदाधर को मिलने के लिए और गदाधर से कुछ गुह्यम आख्याति…
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति ।*
*भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ॥४॥*
*अनुवाद :- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना -भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।*
हम तो कल्पना भी नहीं कर सकते जब गदाधर पंडित जी तो राधा रानी है वहा पर भागवत को सुना रहे हैं तो कितना रस आ रहा है और कितना रस उससे निकालते होंगे उस रस का मंथन करके हरी हरी और उसका पान करते थे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हम पढ़ते, सुनते हैं कि जब गदाधर पंडित भागवत कथा सुनाते थे तो उनके भाव का क्या कहना यह सब राधा की भाव है और उनकी व्याकुलता का क्या कहना और आगे
*नयनें गलदश्रु-धारया*
*वदने गद्गद-रुद्धया गिरा।*
*पुलकैर्निचितं वपुः कदा*
*तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥ 36॥*
*अनुवाद :- हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?’*
इस भाव का क्या कहना गदगद रुद्धया गिरा उनका गला गदगद हो उठना शरीर में रोमांच होना इसी के साथ वह कथा सुनाया करते थे और जो जो बातें सुखदेव गोस्वामी कहने के लिए टालते थे और इसलिए हम जानते हैं कि राधा का नाम भी
*अनयाराधितो नूनं भगवान्हरिरीश्वरः । यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥२८ ॥*
*श्रीमद्भागवत 10.30.28*
*अनुवाद:- इस विशिष्ट गोपी ने निश्चित ही सर्वशक्तिमान भगवान् गोविन्द की पूरी तरह पूजा की होगी क्योंकि वे उससे इतने प्रसन्न हो गये कि उन्होंने हम सबों को छोड़ दिया और उसे एकान्त स्थान में ले आये ।*
ऐसा ही कह कर सुखदेव गोस्वामी चुप हो गए पंच अध्याय में और जहां पर कहीं भी राधा रानी का नाम लेना भी कठिन था उनके लिए अगर राधा का नाम लेते तो वह भाव विभोर होते और कथा भी ठप हो जाती यहां तो कोई राधारानी के लिए समस्या नहीं है राधारानी गदाधर पंडित के रूप में सारी गोपनीय बातें सुनाते और भागवत लेकर बैठे वह तो अपनी सारी अश्रुधारा से वह ग्रंथ भीग जाता पृष्ठ खराब हो जाते थे समय-समय पर उसका नवीनीकरण या नया ग्रंथ का उनको उपयोग करना पड़ता था हरि हरि और भी यह सब बातें हैं या कथा श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सुनते गदाधर पंडित के मुखारविंद से इस प्रकार दोनों का राधा कृष्ण और राधा का मिलन यहां हुआ करता था टोटा गोपीनाथ मंदिर में फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मध्य लीला में वैसे समय-समय जगन्नाथ पुरी से प्रस्थान करते गए दक्षिण भारत, बंगाल गए तो जब उनको वृन्दावन जाना था गदाधर पंडित साथ में जाना चाहते थे तब चैतन्य महाप्रभु रोक लेते थे नही तुमने क्षेत्र सन्यास दिया है तुम यहीं रहो चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन के लिए प्रस्थान कर रहे थे वृंदावन के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान कर रहे थे तो मतलब अपने धाम लौट रहे थे या अपने धाम को भेट देना चाहते थे तो गदाधर पंडित भी साथ में पीछे पीछे जा रहे हैं समय-समय पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नोट करते थे गदाधर पंडित रुक जाओ वापस जाओ जगन्नाथपुरी जाओ फिर चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ रहे हैं।
भाव विभोर होकर कीर्तन के साथ फिर देखते हैं गदाधर पंडित अभी भी पीछा नहीं छोड़ रहे वो कटक तक महाप्रभु के पीछे पीछे क्योंकि इस समय तो चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं तो राधा रानी नहीं जाना चाहेंगे क्या कटक से भी आगे बड़े चैतन्य महाप्रभु और एक नदी आ गई मार्ग में तो बोट से उसको पार करना था तब चैतन्य महाप्रभु चढ़े उस बोट में और गदाधर पंडित भी साथ में चढ़ना चाहते थे लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने साफ मना कर दिया नही वही रुको बिलकुल हिलना नही और फिर नौका आगे बढ़ी और उसी के साथ गदाधर पंडित
धड़ाम करके गिर जाते हैं।
विरह की व्यथा से प्रसिद्ध होते हैं और वह दृश्य मानो लगभग वैसा ही रहा जैसे सोडूनिया गोपी ना कृष्ण मथुरे सी गेला कृष्ण को जब या अक्रूर ले जा रहे थे कृष्ण बलराम को वृंदावन तब ऐसे लगता होगा वाटे जावे त्यांच्या बरोबरी तो गोपी और राधारानी सभी जाने की इच्छा तो रखते थे लेकिन संभव नहीं था कृष्ण ने भी रोकने का हर प्रयास किया था वह सफल नहीं हुई कृष्ण जब रथ में आरूढ़ होकर मथुरा के लिए प्रस्थान किया तब जैसे उनकी मन की स्थिति हुई राधारानी और गोपियों की वैसे ही वह भाव हो गई यहां गदाधर पंडित का हो रहा था और बेचारे लौट गए और फिर उसके बाद काफि लीलाए हैं हमने जो कहा चैतन्य महाप्रभु टोटा गोपीनाथ मंदिर जाना होता था गदाधर पंडित से भागवत कथा श्रवण करने तब अंतिम लीलाओं में या 6 साल तक चैतन्य महाप्रभु ने प्रवास किया चैतन्य लीला के मध्य लीला के 12 वर्ष 18 वर्ष और फिर 24 वर्ष 6 साल प्रचार किया और फिर वापस आए जगन्नाथपुरी में और फिर चैतन्य महाप्रभु लौटते हैं आने के बाद वहां चैतन्य महाप्रभु 12 साल रहे। उन्होंने 18 साल चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रहे गदाधर पंडित और चैतन्य महाप्रभु का सदैव मिलन होता रहा टोटा गोपीनाथ मंदिर में और स्थानों में भी और हम जानते हैं आप भी जानते हो गदाधर पंडित के विग्रह उनकी सेवा करते थे गदाधर पंडित गोपीनाथ के विग्रह में ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रवेश किया या तो आप सभी लोग जानते हैं गदाधर के गोपीनाथ में प्रवेश किया अंतर्धान हुए लीलाओं का समापन कराए गोपीनाथ हरि हरि और जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रस्थान किया ज्यादा समय के लिए गदाधर पंडित रह नहीं पाए तो वह भी पीछे से उन्होंने प्रस्थान किया जगन्नाथ पुरी हरि हरि गदाधर पंडित आविर्भाव महोत्सव की जय
चैतन्य महाप्रभु की जय
एक छोटी सी बात है वैसे बात तो कहते ही है हम यह गौड़ीय वैष्णव एक कई कई पर तो केवल गौरांग महाप्रभु की ही केवल आराधना होती है भक्ति सिद्धांतों सरस्वती ठाकुर राधा कृष्ण के विग्रह के साथ केवल चैतन्य महाप्रभु की स्थापना करते हैं और फिर पंचतत्व के विग्रहों की भी आराधना होती है। जैसे आज पंचतत्व मायापुर में है। मायापुर चंद्रोदय मंदिर में आप देखते हो और भी वीग्रह की आराधना होती है गौर गौरांग और गौर नित्यानंद आराधना वैसे गौर निताई की आराधना काही प्रचलित हैं लेकिन गौर गदाधर की भी आराधना होती है वैसे भक्तिविनोद महाराज जी का जो स्वानंद सुखदा कुंज गोदरूम द्वीप में हैं और उनकी समाधि भी हैं जहां वहां पर गौर गदाधर हैं और वैसे योगपीठ में भी जो चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थान हैं वहां पर भी हैं। क्योंकि वही गौर गदाधर साथ मे ही रहा करते थे वहां उनकी बाल लीलायें किशोर लीलाए सम्पन्न हुई हैं।
यहां थोड़ा भाव अलग है एक कृष्ण और गदाधर हैं मतलब राधारानी हैं एक प्रकार से ये राधा कृष्ण की आराधना ही हैं गौर गदाधर और गौर नित्यानंद ये कृष्ण बलराम हैं और वैसे गौरांग महाप्रभु भी हैं तो श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण की आराधना पंचतत्व की आराधना भी हैं।
हरि हरि
हरि बोल🙏🏻
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 10 मई 2021*
*हरे कृष्ण!*
856 स्थानो से भक्त जप् कर रहे हैं।
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद, जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त* *वृंद।*
आप सब तो जप करने के मूड में हो,करते रहो। किंतु हरि नाम की महिमा या कृष्ण की महिमा भी सुननी चाहिए।जब हमें हरि नाम की महिमा का पता चलेगा तब हम और भी अच्छे से,अधिक
ध्यान पूर्वक, जप या कीर्तन करेंगें और प्रेम से गाते रहेंगे।हरि हरि।प्रभुपाद कहा करते थे कि हमें जप करते समय उस प्रकार से भगवान को पुकारना हैं जैसे एक रोता हुआ बच्चा अपनी मां को पुकारता हैं और हम बच्चे तो हैं ही।जैसे बच्चे को कुछ भी चाहिए हो तो वह रोता हैं और रो कर अपने विचार या इच्छा व्यक्त करता हैं। वह कोई अलग से भाषा नहीं जानता। इसलिए श्रील प्रभुपाद कहा करते थे कि जैसे एक बालक अपनी मां के लिए रोता हैं उसी प्रकार हमारा जप करना भी एक रोने के जैसा होना चाहिए कि जैसे हम रोकर भगवान को पुकार रहे हैं।हरि हरि। बच्चे की जो मां को पाने की इच्छा की जो तीव्रता होती हैं,वैसी ही तीव्रता भगवान को पाने कि होनी चाहिए। बच्चा तो लगातार रोता ही रहता हैं।
*अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी:।*
*तिव्रेन भक्ति योगेन यजेत पुरुष परम्।*
*(श्रीमद भागवतम् 2.3.10)*
भगवान की भक्ति तीव्र होनी चाहिए और इसका सातत्य
*(भगवद् गीता 10.10)*
*“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |*
*ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||”*
*अनुवाद*
*जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान* *प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |*
भक्ति कैसी होनी चाहिए?*सततयुक्तानां*।जप तो करना हैं ही।कलियुग में और कोई काम की बात हैं ही नहीं।
*हरेन म हरेनाम हरेन मेव केवलम् । कलौं नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव* *गतिरन्यथा ।।21 ।।*
*(चैतनय चरित्रामृत आदि लीला 17.21)*
*अनुवाद*
*“ इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र* *नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के* *पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य* *कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं हैं।*
हरि नाम की महिमा जितनी अधिक हम सुनते और सुनाते रहेंगे उतना ही हम जप और कीर्तन करते रहेंगे और भगवान को पुकारते रहेंगे। रोते रहेंगे कि हे प्रभु!आप ने जगाई और मथाई का भी उद्धार किया था,मेरा भी कीजिए।
*dina-hina jata chilo, hari-name uddharilo,*
*tara sakshi jagai madhai*
*(हरि हरि बिफले, नरोत्तम दास ठाकुर के द्वारा)*
आप ने जगाई मथाई जैसे पापी का भी उद्धार किया,मेरा भी कीजिए या फिर अजामिल का भी आपने उद्धार किया, वाल्मीकि का भी उद्धार किया, वह तो आपका नाम भी ठीक से नहीं ले पा रहे थे।शुरुआत में ऐसा होता हैं। वह तो राम राम नही कह कर मरा मरा कह रहे थे। मरा मरा का ही र्कीतन करते करते,राम ने उनहें दर्शन दे दिये। वह राम की लीलाओं का दर्शन करने लगे और लिखने लगे।
प्रभु आपने ऐसे असंख्य जीवों का उद्धार किया हैं, मुझ पर भी अपनी कृपा दृष्टि करें। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* यह भगवान से प्रार्थना हीं हैं । हम हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण इन भावों के साथ ही करते हैं,कि हे प्रभु! मेरा भी उद्धार और कल्याण करें। हे प्रभु! मुझे भी सेवा के योग्य बनाइए।
इन विचारों के साथ हम जप कीर्तन और पूरी भक्ति करते हैं।भक्ति के कई प्रकार हैं, इसीलिए इसे नवधा भक्ति कहा जाता हैं और इसमें श्रवन सबसे महत्वपूर्ण हैं।कीर्तन और स्मरण की भी बहुत महिमा हैं। कल हम शिषटाषटक पर चर्चा कर रहे थे।
कल हमने इस निम्नलिखित श्लोक पर चर्चा की
*चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः कैरव -* *चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति -* *पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण -* *सङ्कीर्तनम् ॥12 ॥*
* अनुवाद*
*” भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो* *हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी* *प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन* *उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य* *रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन* *है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय* *सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति* *पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना*
*(अंत: लीला 20.12)*
शिषटाषटकम् महाप्रभु की देन हैं, या भेट हैं। यह शिषटाषटकम् चेतनय चरित्रामृत के अंत में दिया गया हैं। इसे अंत: लीला का अंत कहते हैं।अंत: लीला के अंतिम अध्याय,अध्याय संख्या 20 में शिषटाषटकम् का उल्लेख हुआ हैं या रचना हुई हैं। अंत में जो बात कही जाती हैं वह सार की बात होती हैं, सबसे महत्वपूर्ण बात वही होती हैं। जैसे किसी को कहना हो कि यह करना मत भूलना। इस ग्रंथ में नाम,रूप, गुण, लीला का गुणगान हैं। अंत में क्या कहा हैं?अंत में सार की बात कही हैं, यानी यह 8 श्लोक कहे गए हैं। वैसे भी चैतनय चरितामृत उच्च स्नातक शिक्षा हैं और उसमें भी सर्वोपरि नाम का अध्याय हैं।
जप करने वालों के लिए यह बड़ा ही महत्वपूर्ण अध्याय हैं। अध्याय की शुरुआत में क्या कहा गया हैं?
*जय-जय श्री चैतन्य जय नित्यानंदा श्री अद्वैत चंद्र जय गौरव भक्त* *वृंद*
वैसे तो हर अध्याय की शुरुआत ऐसी ही होती हैं। कृष्णदास कविराज गोस्वामी ऐसे ही हर अध्याय की शुरुआत करते हैं।
*एइ – मत महाप्रभु वैसे नीलाचले । रजनी – दिवसे कृष्ण – विरहे* *विह्वले ।।3 ।।*
*अनुवाद*
*जब श्री चैतन्य महाप्रभु इस तरह से जगन्नाथ पुरी ( नीलाचल ) में* *निवास कर रहे थे , तब वे रात – दिन लगातार कृष्ण* *के विरह से* *अभिभूत रहते थे*
*अंत: लीला 20.3*
इस प्रकार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नीलांचल जगन्नाथपुरी में रहे अगर हम कहते हैं इस प्रकार रहे तो आप पूछेंगे किस प्रकार? तो यह इससे पहले के शलोक में लिखा गया हैं। वह रात और दिन विरह की व्यथा में व्याकुल रहे।
*स्वरूप , रामानन्द , -एड दुइजन – सने । रात्रि – दिने रस – गीत -* *श्रोक आस्वादने ॥4 ॥*
*अनुवाद वे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , इन दो* *संगियों के साथ रात – दिन दिव्य आनन्दमय गीतों तथा श्लोकों का* *आस्वादन करते थे*
*अंत: लीला 20.4*
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब बस राधा ही बचे हैं। राधा जैसा ही उनका व्यवहार हैं और राधा के भाव ही प्रकट कर रहे हैं। वैसे तो चैतन्य महाप्रभु राधा-कृष्ण हैं, लेकिन कृष्ण होते हुए भी कृष्ण मुख्य पृष्ठभूमि पर नहीं हैं। अभी तो राधा का ही भाग लिया हैं।
*राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि* *पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब* *द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥५५ ॥ राधा – भाव*
*अनुवाद*
*” श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा* *ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण* *अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप* *से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण* *चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ ,* *क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा* *अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं।*
*(आदि लीला 1.5)*
राधा का भाव है और राधा की कांति भी हैं इसीलिए तो वह गोरांग हैं।
*तप्त-कांचन गौरांगी राधे वृंदावनेश्वरी वृषभानु सुते देवी प्रणमामि* *हरि-प्रिये ध्वनि श्रील प्रभुपाद*
और यह गौरंगी बन गई गौरांग,अपने गौर वर्ण के कारण।दोनों ही गौर वर्ण के हैं। हरि हरि।
*स्वरूप , रामानन्द , -एड दुइजन – सने । रात्रि – दिने रस – गीत -* *श्रोक आस्वादने ॥4 ॥*
*अनुवाद*
*वे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , इन दो संगियों के* *साथ रात – दिन दिव्य आनन्दमय गीतों तथा श्लोकों का आस्वादन* *करते थे ।*
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रात और दिन श्लोकों का आस्वादन कर रहे हैं।नीलांचल जगन्नाथपुरी में गंभीरा नामक स्थान है जहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रह रहे हैं।
*नाना – भाव उठे प्रभुर हर्ष , शोक , रोष । दैन्योद्वेग – आर्ति उत्कण्ठा ,* *सन्तोष ॥5 ॥*
*अनुवाद*
*वे विविध दिव्य भावों के लक्षणों यथा हर्ष , शोक , रोष , दैन्य ,* *उद्वेग , संताप , उत्कण्ठा तथा सन्तोष का आस्वादन करते ।*
*अंत: लीला 20.5*
राधा रानी इस प्रकार के दिव्य भाव प्रकट कर रही हैं। शोक का भाव। तो कया राधा रानी शौक करती हैं? कृष्ण ने तो भग्वद्गीता में कहा है कि शौक मत करो।
*सर्वधर्मान्परित्यज्य माम् एकम् शरणं व्रज ।*
*अहं त्वा सर्व-पापेभ्यो मोक्ष-यिष्यामि मा शुचः॥*
*भगवद गीता 18.66*
तो क्या राधारानी इतनी सी शिक्षा भी नहीं समझी?
शौक भी दो प्रकार के होते हैं। हम जो,जो करते हैं वह प्राकृतिक शौक होता हैं। इस संसार का क्रोध भी होता हैं, लेकिन यहां अध्यात्मिक शोक और क्रोध की बात हो रही हैं। अर्जुन को भी भगवान क्रोधित करना चाहते थे,तभी तो लड़ाई होती।यह क्रोध दिव्य क्रोध हैं।इस क्रोध को भगवान के चरणों में अर्पित किया जा रहा हैं। मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो और अपने क्रोध का प्रदर्शन करो और लड़ो।हरि हरि।
*नाना – भाव उठे प्रभुर हर्ष , शोक , रोष । दैन्योद्वेग – आर्ति उत्कण्ठा ,* *सन्तोष ॥5 ॥*
*अंत: लीला*
*अनुवाद*
*वे विविध दिव्य भावों के लक्षणों यथा हर्ष , शोक , रोष , दैन्य ,* *उद्वेग , संताप , उत्कण्ठा तथा सन्तोष का आस्वादन करते ।*
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु में कई सारे भाव उत्पन्न हो रहे हैं तो* *सावधान हमको सावधान होना चाहिए*
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दुखी उत्कंठित या दैन्य भाव प्रकट कर रहे हैं। उनकी दीनता की कोई सीमा ही नहीं है। हर भाव की आपस में प्रयोग प्रतियोगिता चल रही हैं। एक भाव दूसरे भाव का दमन करता हैं। यह भावों का खेल या आंदोलन चल रहा हैं। इसलिए आपको यहां समझाया जा रहा है कि राधा के मन में यह भाव उठ रहे हैं।
*सेई सेई भावे निज – शोक पड़िया । श्रोकेर अर्थ आस्वादये दुइ -* *बन्धु लञा ॥6 ॥*
*अनुवाद*
*वे अपने बनाये श्लोक सुनाते और उनके अर्थ तथा भाव बतलाते ।* *इस तरह वे अपने इन दो मित्रों के साथ उनका आस्वादन करके* *आनन्द लेते ।*
*अंत: लीला 20.6*
नीज श्लोक मतलब यह शिषटाषटकम्, इसकी शुरुआत चेतो दर्पण माध्यम से होती हैं।
*आश्विष्य वा पाद – रता पिनष्टु माम् अदर्शनान्मर्म – हता करोतु वा ।* *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राण नाथस्तु स एव नापरः ।।47*
*अनुवाद*
*“ अपने चरणकमलों पर पड़ी हुई इस दासी का कृष्ण गाढ़ आलिंगन* *करें या अपने पांवों तले कुचल डालें अथवा कभी अपना दर्शन न* *देकर मेरा हृदय तोड़ दें । आखिर वे लम्पट हैं और जो चाहें सो कर* *सकते हैं , तो भी वे मेरे हृदय के परम आराध्य प्रभु हैं ।*
*अंत: लीला 20.47*
यह राधा का प्रेम है और यह राधा ही बोल रही है यह राधा का ही वचन हैं। आपको छोड़कर हें! प्राणनाथ मेरा और कोई नहीं हैं। अब आप जैसे भी मेरे साथ व्यवहार करो जैसे हम अपनी भाषा में कहते हैं कि ठुकरा दो या प्यार करो आप हमारे साथ कैसे भी व्यवहार करते रहो। हमें कोई परवाह नहीं हैं। एक बात तो पक्की है कि आप हमारे प्राणनाथ हो। यह आठवां अष्टक राधा ही बोल रही हैं।
दो बंधु हैं।स्वरूप दामोदर और रामानंद राय। जैसे ललिता विशाखा को राधारानी अपने पास में बुलाकर श्लोकों का आस्वादन कर रही हो। एक श्लोक ले लिया-
*अयि नन्द – तनुज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधी । कृपया तव* *पाद – पकज स्थित – धूली – सदृशं विचिन्तय ।। 32 ॥*
*अनुवाद*
*” हे प्रभु , हे महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण ! ‘ मैं आपका सनातन* *सेवक हूँ , किन्तु अपने ही सकाम कर्मों के कारण मैं अज्ञान के इस* *भयावह समुद्र में गिर गया हूँ । अब आप मुझ पर अहेतुकी कृपा करें* *मुझे अपने चरणकमलों की धूलि का एक कण मानें ।*
*अंत: लीला 20.32*
और पूरी रात भर इस श्लोक का रसास्वादन कर रहे हैं। संबंध के विचार व्यक्त कर रहे हैं और विचारों में तल्लीन हैं और डूब कर गोते लगा रहे हैं और प्रेम सागर में ही वे नहा रहे हैं।
इसी अध्याय में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने ही रचना किए हुए 8 श्लोकों पर भाष्य भी कहां हैं। उनका रसास्वादन करते हुए सुना रहे हैं और बांट रहे हैं।ललिता- विशाखा के साथ राधा रानी यह बांट रही हैं। अध्याय में केवल श्लोक ही नहीं हैं,बल्कि चैतन्य महाप्रभु का अपना खुद का भाषय हैं। चैतन्य महाप्रभु ने ही इन 8 श्लोको की रचना की हैं।ज्यादा कुछ रचना नहीं की केवल यह 8 श्लोको की ही रचना की हैं।
हम जो भी सुनते पढ़ते हैं उस पर हमें और विचार करना चाहिए ।इसे विचारों का मंथन कहते हैं जो भी हमको समझ आ रहा है जो भाव उत्पन्न हो रहे हैं उन्हें कहना और लिखना चाहिए।
BG 10.9
*“मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |*
*कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||”*
*अनुवाद*
*मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा* *में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे* *विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते* *हैं*
बोधयन्तः परस्परम् कर सकते हैं।और इसी में रमन होना चाहिए।
हरे कृष्ण महामंत्र की महिमा शिषटाषटकम् के रूप में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इसका संस्मरण करते हुए पूरी रात भर जागते थे और इन भावों और विचारों में डूबे रहते थे।
*नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले*
*श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।*
*नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे*
*निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥*
*जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,*
*श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*,
*9 मई 2021*,
*पंढरपुर धाम*
आप सभी का स्वागत है। 856 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। जैसे छप्पन भोग होते हैं वैसे ही आहुति हो रही है। 856 स्थानों से हम आहुति दे रहे हैं। नाम यज्ञ और संकीर्तन यज्ञ कर रहे हैं और आहुति दे रहे हैं। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* आहुति दे रहे हैं।
*कृष्ण वर्णन त्वीश अकृष्ण, संगे पंगस्त्र पार्षद।*
*यज्ञे संकीर्तन प्राये, यजन्ति सुमेधसा।*
(श्रीमद भागवतम 11.5.32)
अनुवाद
उनका वर्ण श्याम नही होगा तथा वे सदैव भगवान के नामों का कीर्तन करेंगे। वे सदैव अपने पार्षदों से घिरे रहेंगे । कलियुग में बुद्धिमान लोग संकीर्तन आंदोलन में सम्मिलित होंगे ।
ऐसी आहुति और यज्ञ बुद्धिमान लोग करते हैं। ऐसा श्रीमद्भागवत का कहना है।
*महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |*
*यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः || २५ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.25)
अनुवाद
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ |
ऐसा भी भगवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं। यज्ञ तो कई प्रकार के होते हैं। लेकिन जो जप यज्ञ है, इसे जप योग भी कहा जाता है। तो कृष्ण ने इसका नाम जप यज्ञ दिया है। तो कई प्रकार के यज्ञो में जप यज्ञ श्रेष्ठ है और *मैं जप यज्ञ हूं* भगवान कह रहे हैं। *यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि* अहम् अस्मि मतलब मैं हूं। सभी यज्ञों में *अहम् यज्ञोस्मि* मैं जप यज्ञ हूं। तो हम अपने अपने 856 स्थानों से जहां भी हैं, वहां जप यज्ञ हो रहा हैं। हरि हरि। यह जप यज्ञ कलयुग का धर्म है।
*कृते यद्धयायतो विष्णुं त्रेताया यजतो मखैः ।*
*द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥ ५२ ॥*
(श्रीमद भगवतम 12.3.52)
अनुवाद
जो फल सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में
भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से, प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण
महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है।
*त्रेताया यजतो मखैः* त्रेता युग का धर्म यज्ञ करना है। त्रेता युग में यज्ञ होते थे। वह भिन्न प्रकार के यज्ञ थे। स्वाहा स्वाहा कहकर अग्नि प्रज्वलित करना और ॐ कहकर आहुति चढ़ाना। वैसे यज्ञ त्रेता युग में होते थे और कलयुग में भी हम यज्ञ करते हैं। बुद्धिमान लोग यज्ञ करेंगे। लेकिन वह यज्ञ, जप यज्ञ होगा। वह संकीर्तन यज्ञ होगा। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* यह जप यज्ञ है। आप जप करते रहिए। सारा परिवार एकत्रित होकर यज्ञ सकता है। पड़ोसियों को, मित्रों को और सगे संबंधियों को साथ में लेकर या वे जहां पर भी हैं वहां पर वे यह यज्ञ करें। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पूरे संसार के लिए संकीर्तन यज्ञ करने की संस्तुति की है। उन्होंने इसकी भविष्यवाणी भी करी थी कि संसार ऐसा भी करेगा और चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी सच होती ही है, होनी ही चाहिए और हो रही है। हम देखते हैं यहां क्या क्या हो रहा है, यज्ञ हो रहा है, जप और जपा टॉक (जप चर्चा) हो रहा है। विश्व भर के भक्त इसमे सम्मिलित है। यहां यह एक टीम है और विश्व भर में अनेक टीम है, जो जप कर रहे हैं और कीर्तन कर रहे हैं।
*चेतो – दर्पण – मार्जन भव – महा – दावाग्नि – निर्वापणं श्रेयः कैरव – चन्द्रिका – वितरणं विद्या – वधू – जीवनम् आनन्दाम्बुधि – वर्धन प्रति – पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म – स्नपन पर विजयते श्री – कृष्ण – सङ्कीर्तनम् ॥12 ॥*
(चैतन्य चरितामृत, अंतिम लीला 20.12)
अनुवाद
भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना है।
इसी के साथ *चेतो – दर्पण – मार्जन* भी कर रहे हैं। *चेतो – दर्पण – मार्जन* चेतना का जो दर्पण है (मिरर ऑफ द कॉन्शसनेस)।
*चिन्तामपरिमेया च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।* *कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥११ ॥* *आशापाशशर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ईहन्ते* *कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥ १२ ॥*
(श्रीमद्भगवद्गीता 16.11-12)
अनुवाद
उनका विश्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है । इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं
उस पर कोई कलंक, कोई दाग , कोई भौतिक इच्छा, आकांक्षा या कोई *आशापाशशर्बद्धाः* आशा के पाश, हमारी चेतना में, भावना में और विचारों में है। तो उन सबको यह संकीर्तन या हरे कृष्ण जप यज्ञ क्या करता है? *चेतो – दर्पण – मार्जन* उसको साफ करता है और उसको स्वच्छ करता है। जब चेतना का दर्पण स्वच्छ होगा, साफ होगा और कलंक रहित होगा। तो फिर जैसे आईने पर धूल जमी हुई है। तब हमने वह आईना आमने सामने रखा। तब हम उस आईने में देख नहीं पाते क्योंकि आईना तो है, लेकिन आईने के ऊपर धूल है। तो हम स्वयं को उस आईने में नहीं देख पाएंगे। आईने पर कुछ दिखने वाला नहीं है। आप भी नहीं दिखओगे और कुछ भी देखने वाला नहीं है। तो वैसे ही जब यह चेतना और भावना इसी को अंतःकरण भी कहते हैं। मन, बुद्धि और अहंकार से बना हुआ अंतःकरण और उसी के साथ जुड़ा हुआ है। इस प्रकार अंतःकरण हमारी आत्मा को ढक लेता है, अच्छादित कर देता है। ऐसे हम माया से हम मुक्त होते हैं।
*माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान।*
*जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥ 122॥*
(चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला 20.122)
अनुवाद
बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता।
किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन
किया।
*माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान।* उसको खुद का ज्ञान भी नहीं होता है। वह कौन है? है कि नहीं? मैं केवल पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश का पंचमहाभूत का बना हुआ पुतला हूं। इतना ही पता चलता है और फिर इसके साथ जुड़े रहते हैं। इस शरीर को चलाएं मान करते हैं। हमारा मन, हमारी बुद्धि और हमारा अहंकार, कृष्ण ने कहा *विमूढ़ आत्मा कर्ता अहम इति मन्यते।* विमूढ़ आत्मा केवल मूढ़ ही नहीं कहा। इसको विमूढ़ भी कहा मतलब पहली श्रेणी का मूर्ख। विमूढ़ आत्मा क्या करता है? *विमूढ़ आत्मा कर्ता अहम इति मन्यते।* इसकी मान्यता होती है, ऐसा मानता हैं, लेकिन ऐसा होता तो नहीं हैं। ऐसा तथ्य सत्य या हकीकत नहीं होती। किंतु मानकर बैठा रहता है कि *कर्ता अहम इति मन्यते*। ऐसा मान कर बैठता है मतलब *माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान* खुद का भी ज्ञान नहीं होता। फिर आत्मा का ज्ञान नहीं होता और फिर परमात्मा या भगवान का ज्ञान नहीं होता। हमारा जो भगवान के साथ संबंध है उसका ज्ञान नहीं होता। *चेतो – दर्पण – मार्जन* यह *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* , इसका ध्यान या इसका ध्यानपूर्वक जप या अपराध रहित *अपराध शून्य होइया लओ कृष्ण नाम* । अपराध से शून्य होकर जब हम मंत्र मेडिटेशन, हम ध्यान करेंगे। अब यज्ञ कह रहे थे और अब ध्यान कह रहे हैं। यह यज्ञ भी है। त्रेता युग में यज्ञ होते थे। कलयुग में भी हम यज्ञ करेंगे। लेकिन जप यज्ञ होगा। सतयुग में ध्यान होता था। यह नहीं कि हम कलयुग में ध्यान नहीं करेंगे। ध्यान करेंगे, मेडिटेशन होगा। लेकिन मंत्र मेडिटेशन होगा। भगवान के नाम का स्मरण या ध्यान होगा। द्वापर युग आ गया, तो द्वापर युग में भगवान के विग्रह की अर्चना होती है और आराधना होती है। कलयुग में भी हम अर्चना करेंगे। तो कैसी अर्चना करेंगे? यही तो भागवत कह रहा है। *यज्ञे: संकीर्तन प्राय यज्जन्तिहि सुमेध्स:* यज्जन्तिहि मतलब अर्चना, आराधना या पुजन्ति। जो बुद्धिमान लोग हैं, वह कलयुग में भगवान की आराधना करेंगे और अर्चना करेंगे। कैसे करेंगे? यज्ञ करके। केवल यज्ञ करके नहीं कहा। साथ में कहा है कि किस प्रकार का यज्ञ? संकीर्तन यज्ञ। तो संकीर्तन यह विशेषण हुआ। विशेष्य और विशेषण व्याकरण में आता है। विशेष्य यज्ञ और उसका विशेषण संकीर्तन है। हरि हरि। काले सांवले कृष्ण, कृष्ण विशेष्य है। तो विशेषण क्या है? काले और सांवले। कैसे हैं कृष्ण? काले और सांवले। *घन इव श्याम* वह घनश्याम है। इसको विशेष्य विशेषण कहते हैं, जो व्याकरण में चलता है। इस भागवत के 11वे स्कंध का पांचवा अध्याय श्लोक संख्या 32।
*कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्* ।
*यज्ञै: सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधस:*
(श्रीमद भागवतम 11वा स्कंध, 5वा अध्याय, 32वा श्लोक)
भावार्थ : कलियुग में, बुद्धिमान व्यक्ति के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन (संकीर्तन) करते है, जो निरंतर कृष्ण के नाम का गायन करता है। यद्यपि उसका वर्ण श्यामल (कृष्ण) नही है किंतु वह साक्षात कृष्ण है । वह अपने संगियों, सेवकों, आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है।
इसमें कहा है यजन्ति सुमेधस: , बुद्धिमान लोग, उपजाऊ मस्तिष्क वाले , वे क्या करेंगे, यज्ञ करेंगे कौन सा यज्ञ करेंगे संकीर्तन यज्ञ करेंगे। यज्ञ करेंगे सब , इतना ही कहते सब तो अपने मन की करते, मनमानी करते। यज्ञ करेंगे बुद्धिमान लोग, इतना कहकर यह नहीं रुकता। तुरंत ही कहा यज्ञ संकीर्तन प्राय, वो यज्ञ संकीर्तन यज्ञ होना चाहिए। इस प्रकार संकीर्तन यज्ञ करके आप यजन्ती सुमेधस:, अर्चनः । कलियुग में ये नाम स्मरण कृष्ण कीर्तन, श्रवणं कीर्तन करके एक ही साथ हम सब तृप्त या ध्यान भी करते है। त्रेता युग का यज्ञ भी करते है और द्वापर युग की अर्चना भी करते है। केवल क्या करके? सिर्फ हरि नाम संकीर्तन करके। इसीलिए कहा है –
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं*
*कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा* ।
ना ही कर्म के द्वारा, ना ही ज्ञान और न ही योग के द्वारा इसलिए तीन बार कहा नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव । जिस प्रकार का ध्यान सतयुग में होता था वैसा नही , वैसा ज्ञान नही जो त्रेता युग में और न ही वैसी अर्चना जो द्वापर युग में होती थी । इसलिए नास्त्यैव गतिरन्यथा । जैसा की मैं शुरुआत में कह रहा था की ये जो नाम संकीर्तन है जप यज्ञं है , नाम यज्ञं है ये करने का जो फल है या श्रुति फल कहो। जिसको श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टक में कहते है। जैसे कृष्ण की शिक्षा है भगवद्गीता, ऐसे ही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है शिक्षाष्टक। आठ प्रकार की शिक्षाएं है। पहली शिक्षा है–
*चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्*
*श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम्* ।
*आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्*
*सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम्* ॥१॥
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है।
ये पहला श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का शिक्षाष्टक है। और उस पहली शिक्षा में पहली बात कही है चेतोदर्पणमार्जनं। जो प्रथम शिक्षा है और परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तन के साथ समाप्त होने वाला प्रथम शिक्षाष्टक्म है। इसमें भी वही विशेष्य है। विशेष्य है परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तन। विशेष्य अर्थात कुछ विशेष है लेकिन उसकी क्या विशेषता है उसको कहते है विशेषण। इस शिक्षाष्टकम में चेतो दर्पण मार्जनं जो है उसके सात विशेषण है, ऐसा भक्ति विनोद ठाकुर ने अपने भाष्य में समझाया है । तो उन सात विषष्ठों में पहला विशिष्ट है या कहो लाभ है फायदा है। जप, कीर्तन करने के क्या फायदे है। या कहो क्या महिमा है। तो ये भी सात अलग अलग चेतो दर्पण मार्जन्म जहा अम आएगा ना वहा एक पूरा आ गया।
*चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्*।
दूसरा हुआ
*श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम्* ।
इस श्लोक के जो चार पद है हर पद में दो दो विशेषण है। सातवा हुआ
*सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम्*।
ये किसके संबंध में कहा जा रहा है परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम। ऐसे संकीर्तन की जय हो। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पहले ही घोषित किया की विजय होगी श्री कृष्ण संकीर्तन की। गीता में भी कहे है भगवान जहा योगेश्वर कृष्ण और अर्जुन जैसे धनुरधारी होंगे वहा तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम। अंतिम श्लोक है भगवद गीता का।
*यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः* ।
*तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम* ॥७८॥
(श्रीमद भगवदगीता अध्याय 18, श्लोक 78)
अर्थात: जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
भगवद गीता में भी कहा है की विजय निश्चित है। इसी बात को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विजय घोषित कर रहे है शिक्षाष्टकम् में । संकीर्तन आंदोलन की विजय होगी। संकीर्तन की विजय होगी। और संकीर्तन करने वालो की भी विजय होगी। संकीर्तन आंदोलन के सदस्यों की, जप करने वालो की विजय होगी। विजय कैसे कहोगे।
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः* ।
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन*॥९॥
(श्रीमद भगवदगीता। अध्याय 4, श्लोक 9)
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
इन शब्दों में भी कह सकते है की विजय की परिभाषा ही है। जो भगवान को जनता है और उनके नाम का जप कीर्तन जो करता है। फिर इस नाम के तत्त्व को जानकर की नाम और नामी एक ही है, अभिन्न है। हरि हरी। जो इस बात को जानेगा की नाम ही भगवान है। ऐसा व्यक्ति जब शरीर त्यागता है *पुनर्जन्म नैति मामेति*। पुनः जन्म नही होगा। कृष्ण कहते है। अगर हम थोड़ा संस्कृत समझते है तो इसको भली भांति समझेंगे। जो कृष्ण कहते है पुनर्जन्म नैति। ऐसा व्यक्ति पुनः जन्म प्राप्त नहीं करेगा। तो फिर किसको प्राप्त करेगा मामेति। भगवान कह रहे है कि मेरी ओर आएगा। पुनः जन्म की ओर नही जायेगा मेरी ओर आएगा। यह है विजय।
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्*। *इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे*
यह है पराजय और पुनर्जन्म नैति, यह है विजय। यही बात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे है। परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्। संकीर्तन आंदोलन की जय, और संकीर्तन करने वाले, कीर्तन में सम्मिलित होने वाले जप कर्ताओं की जय। आप सभी की भी जय। आज के आनंद की जय। आप सभी जप करने वालों की भी जय। सदा जप करते रहिए। कीर्तन करते रहिए और यह हमारी साधना का मुख्य अंग है। ये नही कि हम और साधना नही करते है, श्रवणं कीर्तनं विष्णु स्मरणम , स्मरण तो करना ही है, और भी कई है नवदा भक्ति भी है, यहाँ भक्ति के अंग के साथ हम जप और कीर्तन भी करते है। कीर्तन एक कलि कलेर धर्मम् हरी नाम संकीर्तन है। कलियुग का धर्म है नाम संकीर्तन। धन्यवाद। जपा टॉक की शुरुआत में हम 856 थे अब हम 896 हुए।
हरी हरि।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 8 मई 2021
हरे कृष्ण!!!
हरि बोल!!
अर्जुन, सखी वृंद और बाकी सभी को भी हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 871 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। आप उनमें से एक हो, स्वागत है। आप सभी ठीक हो? साधना सिद्ध एंड कंपनी? यदि आप पूरे ठीक भी नहीं हो तब यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आपको ठीक कर देगा। इस हरे कृष्ण महामंत्र में ऐसी शक्ति है। इस हरे कृष्ण में ऐसा सामर्थ्य है क्योंकि हरे कृष्ण हरे कृष्ण ही कृष्ण है। हरि! हरि!
भगवान् के आश्रय में रहो।
जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥
(भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित गीत…७)
अनुवाद:- जीवों का कल्याण करने के लिए ही यह सुमधुर नाम जगत में प्रकट हुआ है जो अज्ञानरुपी अंधकार से परिपूर्ण हृदयरूपी आकाश में सूर्य की भाँति उदित होकर, सारे अज्ञान को दूर कर प्रेमाभक्ति को प्रकाशित कर देता है।
नाम का आश्रय ही भगवान का आश्रय है।नाम ही भगवान है। यदि आपको मदद चाहिए तो कहो हरे कृष्ण, हरे कृष्ण तब भगवान् मदद देंगे, भगवान मदद करेंगे या अपने किसी भक्त को प्रेरित करेंगे जिससे वह आपको भगवान की ओर से मदद करेगा। हरि! हरि! कृष्ण की ओर से व चैतन्य महाप्रभु की ओर से ऐसी मदद श्रील प्रभुपाद कर रहे हैं। श्रील प्रभुपाद की ओर से उनके शिष्य और प्रशिष्य (जिसमें आप सब आते हो।) वैसे प्रप्रशिष्य भी होते हैं, मदद कर रहे हैं। भगवान की ओर से, कृष्ण की ओर से, श्री चैतन्य की ओर से व इस्कॉन संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद की ओर से हमें भगवान की मदद औरों तक पहुंचानी है अथवा एक दूसरे के पास पहुंचानी है। इन दिनों में तो बहुत सहायता चाहिए। आपातकालीन स्थिति उत्पन्न हुई है। हरि! हरि! यह इमरजेंसी है। कई सारे लोग आईसीयू में हैं अर्थात गहन चिकित्सा केंद्र में पहुंचे हैं। इसलिए उनकी मदद अथवा सहायता करनी है। दीन दुखियों की मदद करनी है। सभी तो दुखी हैं ही और क्यों नहीं होंगे, हम दुखालय में जो हैं। दुखालयम् में हैं फिर हम इस दुखालय में सुखी कैसे होंगे। अच्छी बात तो यह होगी कि यहां से निकल पड़ो, यहाँ से बाहर निकलो। स्वास्थ्य के लिए अथवा कोरोनावायरस के लिए जो भी सहायता चाहिए, आप सहायता करो। हरि! हरि! किंतु यह तो प्रयास होगा केवल लोगों को इस बीमारी से मुक्त करने के लिए। जिसे भी सहायता की जरूरत है, हमें लोगों के सम्पूर्ण ठीक होने तक सहायता जरूर करनी चाहिए अथवा करनी है। हम शरीर भी हैं, हम मन भी हैं, हम आत्मा भी हैं। हमें शरीर, मन, बुद्धि के ठीक होने की चिंता करनी है। तुम शरीर नहीं हो, चिंता मत करो, ऐसा कहने का यह समय नहीं है। हम शरीर भी हैं। हमें भक्ति करने के लिए स्वस्थ शरीर भी चाहिए।
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।।
( महाकवि कालिदास द्वारा रचित कुमारसम्भव से)
अर्थ : शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है। अर्थात शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पहला सुख निरोगी काया।
ऐसा भी वैदिक वांग्मय का एक वचन व वाक्य है।
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
शरीर ही पहला साधन है। वैसे पहले हमें हमेशा साध्य को निर्धारित करना चाहिए। इस वचन में साध्य धर्म है, साध्य क्या है? धार्मिक बनना है। हम लोगों की भाषा में अथवा हरे कृष्ण वालों की भाषा में साध्य क्या है? कृष्ण भावना भावित होना है। यह लक्ष्य है, यह साध्य है, यह ध्येय है। हर साध्य का साधन होता है। जब साधना में सिद्धि होती है तब साध्य प्राप्त होता है। कृष्ण भावना भावित होना और अंततोगत्वा गोलोकधाम वापिस लौटना यह जो साध्य है, इसका पहला साधन शरीर बताया गया है। पहला साधन शरीर है, हम औऱ साधनों का भी उपयोग प्रयोग करेंगे लेकिन उनका उपयोग भी तो शरीर ही करेगा। जैसे लिखने के लिए पेन चाहिए, पेन साधन हुआ किन्तु जब तक हाथ या उंगली उसको पकड़ेगी नहीं, पेन पेंसिल बेकार है। इस प्रकार जो भी साधन है अर्थात यह जो आदि मूल साधन है, उन साधनों का उपयोग यह शरीर ही करता है। हरि! हरि! यह जिव्हा भी साधन है, मुख भी साधन है, कान भी साधन है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है फिर हम साधना भक्ति के साधनों को जुटा नहीं सकते। उसको प्राप्त नहीं कर सकते या उसको पकड़ नहीं सकते अथवा उसका उपयोग नहीं कर सकते। थोड़ा समझा रहा हूं कि कैसे शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् है। खलु अर्थात निश्चित ही। शरीर निश्चित ही धर्म का प्रथम साधन है। शरीर को इसीलिए स्वस्थ रखा जाना चाहिए। स्वस्थ शरीर का उपयोग एक धर्म के साधन के रूप में होना चाहिए। वैसे सब कहने के लिए समय तो नहीं है लेकिन … मान लो, कोई अंधा है या किसी को मोतियाबिंद है (आंखों की बीमारी) उसके लिए आई कैंप अथवा आई ऑपरेशन कैंप लगते हैं। जैसे कोई अंधा है या उसकी दृष्टि में कुछ दोष है, डॉक्टर ठीक कर देते हैं। मैं कहता ही रहता हूं कि उन्हीं की दृष्टि को ठीक करो या उनके आंखों का ऑपरेशन करो जिन्हें आँखे अथवा दृष्टि प्राप्त होते ही, वे उस दृष्टि से कृष्ण का दर्शन करने चाहे। दूरदर्शन नहीं अपितु कृष्ण दर्शन, यदि दूरदर्शन देखने जा रहे हो तो अंधे ही रहो। बेकार है। यदि आँखे हैं, तो भी बेकार है, जो कृष्ण का दर्शन ना करें, राम का दर्शन ना करें।
पापाची वासना नको दावू डोळा। त्याहुनि आंधळा बराच मी-
( सन्त तुकाराम)
(भगवान्, मुझे इस जगत के पाप मत दिखाइए, इससे अच्छा है कि मैं अंधा रहूं)
सन्त तुकाराम महाराज कहते हैं कि मुझे अंधा ही रखो, मुझे अंधा ही बना दो। मेरी दृष्टि अथवा आंखों का उपयोग आपके दर्शन के लिए या गीता भागवत पढ़ने के लिए या वह मार्ग दिखाने के लिए हो। मंदिर किस तरफ है? जगन्नाथपुरी का रास्ता किस तरफ है। इस तरह से आंखों के बहुत सारे उपयोग हैं। इस प्रकार आंखें साधन बन जाती हैं। अतः स्वस्थ शरीर चाहिए, आंखें चाहिए। कान तंदुरुस्त हो। जैसे जब कोरोना होता है, तब हम नासिका से गन्ध नहीं ले पाते मतलब वह साधन ठप्प हो गया, बंद हो गया, काम नहीं कर रहा है। हमें स्वस्थ शरीर चाहिए, इसीलिए भी हमें योगा करना चाहिए। योगा, आसन, व्यायाम करना चाहिए ताकि हमारा शरीर स्वस्थ रहे। शरीर स्वस्थ इसलिए रहना चाहिए ताकि हम उसे भगवत प्राप्ति का साधन बना सकें। जैसे कई सारे राजा हैं- राजा कुलशेखर या राजा अम्बरीष जोकि कहते हैं कि
सवै मनः कृष्णपदारविन्दयो चांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेमन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥१८ ॥ मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्धृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥
पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः॥
( श्रीमद् भागवतम् ९.४.१८-२०)
अनुवाद:- महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में , अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने – बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों, यथा मथुरा तथा वृन्दावन, को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श – इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में, अपनी घ्राण – इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान की सेवा करने में लगाया। निस्सन्देह , महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा। वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत: मुक्त होने की यही विधि है ।
राजा अम्बरीष कहते हैं कि
मैं अपने मन से भगवान के चरण कमलों का ध्यान करना चाहता हूं। चरणों से चलकर मंदिर में दर्शन के लिए जाना चाहता हूं। कानों से मैं कृष्ण कथा तथा हरिनाम सुनना चाहता हूं। हरि! हरि! भागवतम में राजा अम्बरीष का चरित्र पढ़ो। वे काफी आदर्श राजा व आदर्श मानव रहे। वे अपने हाथों को मंदिर मार्जन के लिए प्रयोग करते थे। वे शरीर के हर अवयव अर्थात भाग का प्रयोग करते थे। वे लिखते हैं कि मैं यह करता हूं और मैं वह करना चाहता हूं। मैं अपने हाथों से यह करूंगा, कानों से यह करूंगा, पैरों का इस प्रकार उपयोग करूंगा। नासिका से भगवान् को चढ़ाए हुए फूल अगरबत्ती हैं, उसको सूंघना चाहूंगा। आ..ह… जैसे चार कुमारों ने तुलसी की गंध को सूंघा था।
वैसे भगवान ने भी कहा है कि पृथ्वी में जो गंध है, वह मैं ही हूं। कहीं भी कोई गंध है, वह पृथ्वी के कारण है। यह पृथ्वी का विशिष्ट ही है।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्र्चास्मि विभावसौ | जीवनं सर्वभूतेषु तपश्र्चास्मि तपस्विषु ।।
( श्रीमद् भगवक्तगीता ७.९)
अनुवाद: मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ। मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ।।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि पृथ्वी में जो गंध होती है, वह मैं हूं। पृथ्वी का ही गंध पुष्पों में आ जाता है। पृथ्वी का ही गंध धूप अगरबत्ती में आ जाता है, चाहे जहां भी गंध, सुगंध है। भगवान् कहते हैं कि वो मैं हूं। कभी कभी हम फूल को सूंघते हैं। आ….ह…ह.. बहुत अच्छी है। यदि हम कभी डिप्रेशन अर्थात निराश होते हैं तब हम फूल को सूंघते ही कहते हैं- आह…ह…। यह भाव कृष्ण के कारण है। हरि! हरि! शरीर का सदुपयोग और दुरुपयोग होता ही है। उपयोग और दुरुपयोग। शरीर का उपयोग भगवान की सेवा अथवा कृष्ण की सेवा में ही करना चाहिए।
एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् । परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥५१ ॥ पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः । श्रेयो दिशल्यभिमतं यद्धादिषु देहिनाम् ॥ ६ ॥
( श्रीमद् भागवतम् ४.८.५९)
अनुवाद:-
इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन , वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति – विधियों के कार्यों में मग्न रहता है, उसे उसकी इच्छानुसार भगवान् वर देते हैं । यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म , अर्थ , काम भौतिक संसार से मोक्ष चाहता तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं ।
कायेन मनसा वाचा समर्पयामि। हम लोग जब संन्यास लेते हैं तब हमारा त्रिदंड होता है क्योंकि सन्यासी भगवान् की सेवा कायेन अर्थात काया से, मनसा, वाचा से करते हैं। भगवान् की सेवा करनी है, इसलिए अपने शरीर का उपयोग करना है लेकिन वो शरीर स्वस्थ तो हो। पूरा संसार एक बहुत बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है। पूरे मानव जाति के समक्ष बहुत बड़ी समस्या है। हमारे जमाने में अर्थात हमारे समय में हमनें ऐसा कभी नहीं देखा था। क्या आप में से किसी ने देखा था पहले? भूतो न भविष्यति। भूतकाल में हुआ होगा लेकिन लेकिन वर्तमान काल में तो हमने ऐसा कभी देखा नहीं था। हम सब ऐसी गंभीर स्थिति में फंसे हैं। कोई बचा हुआ नहीं है। हम सभी को सहायता चाहिए । हम सभी को सहायता करनी चाहिए। क्या आप समझें कि हम क्या कह रहे हैं। हम सभी को सहायता चाहिए। सहायता! सहायता!
हम सब को मदद करनी चाहिए।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ।।
( उपदेशामृत श्लोक ४)
अनुवाद: दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना -भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
ददाति प्रतिगृह्णाति का समय आ चुका है। दीवान-घेवान, आदान-प्रदान अथवा गिव एंड टेक। गुह्ममाख्याति पृष्छति। दिल की बात या कुछ सहानुभूति की बात। हम प्रोत्साहन, प्रेरणा, समर्थन, सहानुभूति के कुछ शब्द कह सकते हैं। वह भी एक सहायता है।
गुह्ममाख्याति पृष्छति थोड़ा पूछताछ भी करो कि आप कैसे हो या क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूं ? मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं? गुह्ममाख्याति पृष्छति । श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद ने यह फॉर्मूला हमें दिया है। ददाति प्रतिगृह्णाति। कुछ सहायता दो, सहायता लो, गिफ्ट दो या गिफ्ट लो या दवा दो अथवा दवा लो या सलाह दो, सलाह लो। यह भी गुह्ममाख्याति पृष्छति हुआ। कुछ सलाह दो,
कुछ जानकारी शेयर करो। कल मैं पढ़ रहा था उसमें लिखा था कि कोरोना वायरस की निरक्षरता अर्थात अज्ञानता ही हमारे पीड़ित होने का कारण है। (निरक्षरता तो आप जानते ही हो)। लोग भली भांति वह समझ नहीं रहे हैं कि यह कोरोना वायरस होता क्या है। थोड़ा समझना कठिन भी है। यह डॉक्टर अथवा सरकार नियम बता रही है यह करो, वह करो, मास्क पहनो। सोशल डिस्टेंस रखो। हाथ साफ करो इत्यादि। यह लो,वह लो लेकिन हम समझ नहीं रहे हैं अथवा समझना ही नहीं चाहते हैं। मैं सोच रहा था कि श्रील प्रभुपाद कहा करते थे कि मेरे शिष्यों के अनुयायियों के साथ यह भी एक समस्या है। वे माया से डर नहीं रहे हैं । यह अच्छा नहीं है। माया जबरदस्त है।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
(श्रीमद् भगवक्तगीता ७.१४)
अनुवाद: प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है।किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।
हमें माया से डरना चाहिए। सावधान होना चाहिए। दूर रहना चाहिए किन्तु वे डर नहीं रहे हैं। इसी प्रकार आजकल कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि हम कोरोना को नहीं मानते हैं अथवा मेरा विश्वास नहीं है। ऐसा कहने वाले लोगों को भी हम जानते हैं। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति भी ऐसा कहा करते थे और भी कई अन्य लोग हैं, जो कहते हैं। मुझे परवाह नहीं है। मुझे कोई चिंता नहीं है। मैं नहीं जानना चाहता हूं, मैं कुछ नहीं करूंगा। इस प्रकार हम अनाड़ी रहते हैं। हमें पता नहीं चलता कि यह कोरोना वायरस क्या है। कैसे बचना है, इसकी अवेयरनेस( जागरूकता) को बढ़ाने की जरूरत है ताकि अधिक से अधिक लोग भली भांति उससे अवगत हो सकें और समझे व इस से दूर रहें और बचे। जैसा कि श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद ने उपदेशामृत में कहा है और हम भी उसको सुना ही रहे हैं।
गुह्ममाख्याति पृष्छति की बात कही, ददाति प्रतिगृह्णाति की बात कही। अब आगे वे भुड.कते भोजयते कहते हैं कि औरों को प्रसाद खिलाओ, केवल खिलाना नहीं है। केवल वेजीटेरियन नही होना है कृष्णटेरियन होना है। प्रसाद बांटो, प्रसाद खिलाओ। प्रसाद खाओ, प्रसाद ग्रहण करो। गिव एंड टेक। अन्न महादान के रूप में प्रसिद्ध है। यह सब इस्कॉन कर रहा है अर्थात इस प्रकार की सहायता की ऑफर इस्कॉन और फुल टाइम भक्त ही नहीं अपितु संघ (काँग्रेशन) के भक्त भी कर रहे हैं। इस्कॉन केवल मंदिर के आंगन तक ही सीमित नही है। जहां भी इस्कॉन के अनुयायी हैं, शिक्षित, दीक्षित भक्त हैं, वहां पर इस्कॉन है। आपका घर इस्कॉन है। आप इस्कॉन हो। यू आर द मेंबर ऑफ इस्कॉन। आप चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन के सदस्य हो। इस प्रकार से कई प्रकार से सहायता ली और दी जा रही है, हमें भी सम्मिलित होना है। प्रत्येक को भाग लेना है, सहायता सभी को चाहिए। इसलिए हम सहायता लेंगे भी और हम सहायता सभी को देंगे भी। यथाशक्ति यथासंभव। कोई भी साक्षी बनकर बैठा नहीं रहेगा, इमरजेंसी है। युद्ध का समय है। जब कोई देश युद्ध के मैदान में उतरता है तब कभी कभी वहां की महिलाएं और बच्चे भी बंदूक इत्यादि चलाना सीखते हैं या किसी ना किसी प्रकार की सहायता करते हैं। उस देश के सभी वासी किसी न किसी प्रकार से युद्ध के भाग में लेते हैं। इसे वॉर फुटिंग कहते हैं। केवल कुछ सैनिक ही लड़ाई नहीं लड़ेंगे अपितु उस लड़ाई का सभी अंग बनते हैं। यह लड़ाई नहीं है युद्ध है। बैटल जो है वह छोटी मोटी लड़ाइयां होती है। वॉर (युद्ध) बड़ें होते हैं वर्ल्ड वार। जैसे फर्स्ट वर्ल्ड वॉर, सेकंड वर्ल्ड वॉर। यह बैटल नहीं है। यह युद्ध है। हमें मैदान में उतरना है। जो भी हम कर सकते हैं, करना है। हम इस सब के अंग हैं।
हमारी गवर्निंग बॉडी कमीशन में भी चर्चाएं हो रही हैं, कई आदेश उपदेश दिए जा रहे हैं, योजनाएं बन रही हैं। भारत में इस्कॉन ब्यूरो आईआई आई नाम का एक कमेटी है। वेस्टर्न डिसीज़ संसाधन और टेंपल तो पहले ही कर रहे हैं। हम सब व्यस्त हैं। मैं भी व्यस्त हूँ परंतु यह पर्याप्त नहीं है और व्यस्त होना होगा। आप मंदिर व संघ के सभी भक्तों को मैदान में उतरना है। सहायता लेनी है, सहायता देनी है। हर व्यक्ति को हर फैमिली को, हर मंदिर को, ठीक है। हरि! हरि! सुरक्षित रहिए! इस पर थोड़ा और विचार हो। हम कई दिनों से चर्चा तो कर रहे हैं। इस फोरम में इष्ट गोष्टी तो हो रही है। हम इसको जारी रखेंगे। इसको एक आकार शेप देना है। हेल्पलाइन की स्थापना करनी है। उसके लिए सारे साधन व सिस्टम को रन करने वाले भक्त भी चाहिए। एक तरह से एक संगठन ही कहो, हमें संगठित होना है। विशेषतया संपर्क को बढ़ाना है। किसे हेल्प चाहिए, कौन हेल्प कर सकता है, यह सब कनेक्शन जोड़ने हैं। कौन हमें प्रसाद खिला सकता है। जैसे नागपुर में प्रसाद खिलाया जा रहा है, हमारे डॉ श्याम सुंदर शर्मा एवं कर्णामृत की टीम अस्पतालों में प्रसाद पहुंच रही है। शायद घरों में भी। इस प्रकार सब शहरों में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। भक्ति वेदांत हॉस्पिटल के डॉक्टर भी अपनी ओर से सहायता कर ही रहे हैं। आपके साथ भी उनकी मुलाकात हुई थी। वे भी अपनी ओर से सहायता कर ही रहे हैं। मैं यही विराम देता हूं।
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*7 मई 2021,*
*पंढरपुर धाम.*
822 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं। आज है एकादशी तो अभी-अभी श्रवण कीर्तन महोत्सव शुरू होने जा रहा है। इस्कॉन कीर्तन मिनिस्ट्री द्वारा यह कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इसके लिए कार्यक्रम का सादरीकरण मेरे साथ होने जा रहा है। एक के बाद एक ऐसे घोषणा हो चुकी है। आपने पढ़ा सुना होगा। यहां पर डेढ़ घंटा, प्रातकाल डेढ़ घंटा सायंकाल ऐसे कथा कीर्तन होगा। तो इसके आगे अब मेरे लिए है और यहां अंग्रेजी में होगा। आप समझ जाओगे और फिर हम गाएंगे भी पंकजांग्री प्रभु के स्मरण में, जे अनिलो प्रेमधन यह गीत गाएंगे। कीर्तन होगा फिर बने रहे हमारे साथ। हम सभी भक्तों का स्वागत करते हैं। कीर्तन मिनिस्ट्री एकादशी श्रवण कीर्तन महोत्सव की तरफ से यहां महोत्सव शुरू होने जा रहा है। इसकी शुरुआत मुझसे हो रही है। अभी श्रवण कीर्तन करेंगेँ आज मैं गौर कथा करूंगा। उसके बाद मुझे गाने को अच्छा लगेगा, जे अनिलो प्रेमधन। आप समझ सकते हो क्यों, किस लिए यह गीत में गाने जा रहा हूं। अभी थोड़े दिन पहले हमने मेरे प्रिय गुरुबंधु पंकजांग्री प्रभुजी को खोया है, इसलिए यह गीत हम गाने जा रहे हैं। हम सभी यह गीत गाएंगे उसके बाद हरे कृष्ण कीर्तन भी करेंगे। फिर से एक बार आप सभी को उपस्थित रहने के लिए धन्यवाद देता हूं और आप सभी का स्वागत करता हूं।
*जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद।*
*जय अद्वैतचंद्र गौरभक्त वृंद।।*
हम आज चैतन्य चरित्रामृत के मध्य लीला के आठवें अध्याय में से चैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद इनकी भेट चर्चा संवाद इसके लिए समय तो मर्यादित है। हमें संक्षिप्त में बोलना होगा। मैं इस महान भेंट की कुछ अवलोकन या टिप्पणी कहूंगा। श्रीचैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद। जैसे कि चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत यात्रा के लिए निकले थे। हरि हरि, सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु से कहा था रास्ते में आप राय रामानंद से जरूर मिलना। जो आंध्र प्रदेश में कोहूड नामक स्थान पर जो गोदावरी नदी के तट पर हैं वहां पर रहते हैं। महाप्रभु ने यह बात ध्यान में रखी थी। और वह भी उत्साहित है, राय रामानंद से मिलने के लिए। महाप्रभु ने अपने प्रवास की शुरुआत की।
मैं कल यह पढ़ रहा था, इस अध्याय में मैंने पढ़ा की गोदावरी के तट पर आने से पहले श्रीचैतन्य महाप्रभु सिंम्हाचल रह रहे थे। सिंम्हाचल नरसिम्हाक्षेत्र
*नृसिंह देखिया कैल दण्डवत्प्रणति ।* *प्रेमावेशे कैल बह नृत्य – गीत – स्तुति ।।*
*(CC madhyalila 8.4)*
*अनुवाद: मन्दिर में भगवान् नृसिंह के* *अर्चाविग्रह का दर्शन करके श्री चैतन्य महाप्रभु* *ने दण्डवत प्रणाम किया । फिर प्रेमावेश में* *उन्होंने अनेक प्रकार से नृत्य किया , कीर्तन* *किया और स्तुतियाँ कीं ।*
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आगमन हुआ और उन्होंने भगवान नरसिम्हा देव के दर्शन लिए। और उन्होंने नरसिंह देव को साष्टांग दंडवत किया और फिर प्रार्थनाएं अर्पित की। और फिर उन्होंने
*श्री – नृसिंह , जय नृसिंह , जय जय नृसिंह* *प्रह्लादेश जय पद्या – मुख – पद्म – भृग ” ।।*
*(CC madhyalila 8.5)*
*अनुवाद: ” नृसिंहदेव की जय हो ! नृसिंहदेव* *की जय हो ! प्रह्लाद महाराज के प्रभु नृसिंहदेव* *की जय हो , जो भौरे के समान लक्ष्मीजी के* *कमल सदृश मुख को देखने में सदैव लगे रहते हैं।*
यह प्रार्थना गायी। इस प्रार्थना के संकलनकर्ता है श्रीधर स्वामी और महान आचार्य जो भगवतम के टिप्पणी करता है। श्रीधर स्वामी नरसिंह भगवान की अर्चना करते थे। उनके इष्ट देव नरसिंह भगवान थे और उन्होंने नरसिम्हा देव की यह प्रार्थना रची और चैतन्य महाप्रभु ने उसी प्रार्थना का गान किया।
*एइ – मत नाना श्लोक पड़ि ‘ स्तुति कैल ।* *नृसिंह – सेवक माला – प्रसाद आनि ‘ दिल ॥*
*(CC madhyalila 8.7)*
*अनुवाद: इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने* *शास्त्रों से अनेक श्लोक सुनाये । तब नृसिंहदेव* *के पुजारी ने महाप्रभु को मालाएँ तथा प्रसाद* *लाकर दिया ।*
उसके बाद वहां पर पुजारी आए। उनके पास माला थी। भगवान नरसिम्हा देव की पहनी हुई माला थी और उन्होंने वह महाप्रभु अर्पित किया। महाप्रभु नरसिम्हा देव के सामने खड़े रहकर उनका दर्शन कर रहे थे। वहां पर पुजारी आ गए उन्होंने नरसिम्हा देव की महा माला और प्रसादम महाप्रभु को अर्पित किया। यही वह भाग था जो मुझे आपसे कहना था। बराबर यही भाग नहीं कह सकते। मुझे तो राय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु के भेट उनका संवाद चर्चा इसके बारे में बोलना है। लेकिन मुझे मैंने यहां भाग पड़ा तो मुझे याद आये, पंकजांग्री प्रभु। जाहिर सी बात है नरसिंम्हा देव और पंकजांग्री प्रभु। इसलिए मैंने सोचा कि मुझे कम से कम यह भाग तो आपसे कहना चाहिए। तब जैसे मेरी नजरों के सामने नरसिंह देव भगवान और पंकजांग्री प्रभु आए, जो हमेशा उनकी सेवा में रहते थे। जैसे की हम नरसिंह देव भगवान के सामने आते थे तो पंकजांग्री प्रभु तुरंत से कुछ फूल या फूल माला के साथ आते थे। और वहां हमारी तरफ से भगवान को प्रार्थना अर्पित करते थे। वह सिर्फ नरसिंहदेव की सेवा नहीं करते थे बल्कि नरसिंह देव के भक्तों की भी सेवा करते थे। कृपया इसके लिए प्रार्थना करो उसके लिए प्रार्थना करो ऐसी विनंती आती थी उनको हमेशा, इस्कॉन के विश्वभर के शिष्य के तरफ से। मायापुर के भक्त भी जो मेरे शिष्य है, वह भी भागते थे पंकजांग्री प्रभु के पास और कहते थे, आज गुरु महाराज का जन्मदिन है, यह है वह है गुरु महाराज के लिए प्रार्थना कीजिए नरसिंह देव के पास। और वह भी वैसे ही करते थे। तो यह लीला मुझे अपने मायापुर के नरसिंह भगवान की याद दिलाई हमारे पंकजांग्री प्रभु की याद दिलाई। और यह बात मैं टाल न सका।
चैतन्य महाप्रभु ने सिम्हाचल के नरसिंह देव मंदिर को भेट दी। सिम्हाचल पर्वतों के शिखर पर सिम्हाचल वह दर्शन है। चैतन्य महाप्रभु ने वहां पर भेट दी। दर्शन के बाद वह गोदावरी के तट पर आए। उसके आसपास पूरा जंगल है। चैतन्य महाप्रभु इस निष्कर्ष पर आए, उन्होंने कहा जमुना मैया की जय! यह गोदावरी नहीं है यह जमुना है। इसके आसपास वन है। यह वृंदावन है। चैतन्य महाप्रभु बहुत ही उत्साहित और प्रेमावेश भावावेश हो गए। कीर्तन और नृत्य करने लगे। कीर्तन और नृत्य करते रहें किसी को पता नहीं, कब तक, कितनी देर बस कीर्तन नृत्य चलता ही रहा। यह है चैतन्य महाप्रभु, उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के कृष्णप्रेम कृष्णभावनामृत का यहां पर प्रदर्शन किया। यहां पर समझ में आता है कि, वह कितने ज्यादा कृष्णभावनाभावित थे। वह राधाभाव के साथ आए थे। राधाभाव लेकर कृष्ण, चैतन्य महाप्रभु बन गए वृंदावन में, वृंदावन में नहीं हर समय। महाप्रभु गोदावरी पार कर गोदावरी के तट पर बैठे थे। उन्होंने देखा कि एक तरफ से शोभायात्रा आ रही है और वहां पर कोई तो रथ के मुख्य स्थान पर बैठा है। उसमें कई सारी ब्राम्हण भी थे जो मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। शायद वह कोई मंत्री या गवर्नर थे। उनकी यहां शोभायात्रा थी तो चैतन्य महाप्रभु तुरंत खड़े हो गए। और उन्होंने कहां हो यही है वह राय रामानंद। यही सोचते हुए वहां राय रामानंद तरफ दौड़ने लगे। परंतु दूसरे ही क्षण वह सोचने लगे मैं तो संन्यासी हूं मैं तो बडा हू इसी सोच के साथ महाप्रभु नीचे बैठ गए।
राय रामानंद