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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*30 अप्रैल 2021,*
*पंढरपुर धाम.*
हरे कृष्ण, आज समय हो भी गया लेकिन हमें पता नहीं चला, मैं तो जप करते ही रहा। 840 स्थानो से भक्त जब के लिए जुड़ गए हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! हरि बोल, आप सभी कैसे हो, आनंद में होना? सुखी रहो, भगवान आप सब को सुखी रखे। सुख पर आपका अधिकार है। वैसे दुख से कोई संबंध ही नहीं है, किंतु हमने की गलती और हम पहुंच गए यहां ब्रह्मांड में और भोग विलास करने लगे। फिर भोग का परिणाम रोग ऐसा नियम हे ही, इसको टाल नहीं सकते। यहां आए और सुखी होने का प्रयास जारी रहा लेकिन इस संसार का सुख ही हमारे दुख का कारण बनता है। हरि हरि, सुखी रहो मैंने कहा तो सुखी रहो, आनंद में रहो यही चाहिए था। आनंदमवृद्धिवर्धन आपके जीवन में आनंद की वृध्दि हो। सुख का फल या सुख का परिणाम दुख है, लेकिन आनंद का परिणाम आनंद का फल और आनंद हैं। वह आनंद बढ़ता रहता है सुख और दुख यह द्वंद्व है। संसार में सुख और दुख द्वंद्व है। जैसे पाप और पुण्य स्वर्ग और नरक यह द्वंद्व है, लेकिन आनंद का द्वंद्व नहीं है बस आनंद ही आनंद है। आनंद का कोई दुष्परिणाम नहीं है। सुख का परिणाम दुख। * “ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते* भगवान ने कहा है, मैं इस विचार को आगे बढ़ाना नहीं चाहता हूं आप समझ गए होंगे। इस संसार में सुखी होने का प्रयास नहीं करना। आनंद लूटा करो भक्ति का आनंद, कृष्ण का आनंद आनंद ही आनंद है आध्यात्मिक जीवन में। अध्यात्मिक कार्यकलापों का फल है, परिणाम है आनंद।
हरि हरि, अगर कहीं हमसे गलतियां हुई है, चूक हुई है या कभी पाप पुण्य भी हुआ है वैसे पुण्य भी अच्छा नहीं है किंतु पाप से अच्छा है। पुण्य भी ठीक नहीं है। भक्ति के कर्मों के साथ पुण्य की तुलना नहीं हो सकती। ऐसे कर्मों के साथ भक्ति की तुलना करोगे तो अपराध कर बैठोगे। पुण्य अपने स्तर पर हैं। पापके साथ जुड़ा हुआ है पुण्य लेकिन इस द्वंद्व के पाप और पुण्य के परे हैं आनंद। हरि हरि, पाप करेंगे तो हम नरक जाएंगे *अधोगच्छन्ति तामसः* और पुण्य करेंगे तो *ऊर्ध्वम गच्छन्ति स्वर्ग* जाएंगे किंतु भक्ति करेंगे *हरे कृष्ण ^हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह भक्ति है, श्रवण कीर्तन यहां भक्ति हैं। तो ऐसी भक्ति करेंगे हम तो स्वर्ग और नरक से भी परे पहुंच जाएंगे, वैकुंठ पहुंच जाएंगे, भगवत धाम लौटेंगे। *कृष्णप्राप्ति हय जहां हयते* कृष्ण प्राप्ति होगी। हरि हरि, तो कई लोग पुण्य कर्मों को धार्मिक कृत्य समझते हैं। उसमें धार्मिकता कुछ आंशिक रूप से होती भी है किंतु भगवान नेे कहा *सर्वधर्मानपरित्यज्य* उसको भी आप त्याग दो। फिर वो कर्मकांड जो होता है हम यज्ञ करते हैं, देवताओं को प्रसन्न करने केेेे लिए यज्ञ करते हैं, तो यह पुण्य कर्म हुआ पुण्य विधान हुआ लेकिन हुआ तो कर्मकांड। *देवान्देेवो यजो यान्ति* ऐसा श्रीकृष्ण ने कहा है आप देवताओं के पुजारी बनाओगे तो फिर ठीक है स्वर्ग जाओ। हरि हरि, स्वर्ग में है सुख किंतु आत्मा को सुख नहीं चाहिए। सुख से आत्मा प्रसन्न नहीं होने वाला है। आत्मा तो स्वभाव से ही आनंदमय होता है। सत चित आनंद, भगवान सच्चिदानंद है। भगवान सच्चिदानंद विग्रह है। और हम उनके अंश है
*“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः* इसीलिए हम भी फिर हो गए सच्चिदानंद। अंशी मतलब पूर्ण कौन है पूर्ण?
*ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।*
*पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥*
अनुवाद भगवान् परिपूर्ण हैं और चूँकि वे पूरी तरह से पूर्ण हैं , अतएव उनसे होने वाले सारे उद्भव जैसे कि यह दृष्य जगत , पूर्ण इकाई के रूप में परिपूर्ण हैं । पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है , वह भी अपने आप में पूर्ण होता है । चूँकि वे सम्पूर्ण हैं , अतएव उनसे यद्यपि न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती हैं , तो भी वे पूर्ण रहते हैं ।
भगवान पूर्ण है। पूर्ण को संस्कृत भाषा में अंशी कहते हैं। और उस पूर्ण का भाग अंश हुआ तो मम एवं अंश ऐसे कनेक्शन जुड़ जाते हैं। मम एवं अंश जीवलोके जीवभूत सनातन मम एवं मेरा ही तो अंश है। कौन कह रहे हैं, गीता के वक्ता कौन हैं, श्रीभगवानुवाच तो भगवान कह रहे हैं।
*“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |*
*मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||*
*(भगवत गीता 15.7)*
*अनुवाद*
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
ममैवांशो तू मेरा ही अंश है। मैं सच्चिदानंद हूं तो फिर जीव भी सच्चिदानंद है। सोने की खान है, उसमें से कुछ सोना ले लिया। उससे सोने की कुछ गहने, अलंकार, अंगूठी बनाई तो वह भी सोना है। सोने की खान में भी सोना है वह पूर्ण सोना है। वह टनो में सोना है और उसमें से कुछ तोला या कुछ ग्राम की अंगूठी बनाई तो फिर भी वह दोनों भी सोना है। तो उसी प्रकार कृष्ण के मम एवं अंश मेरा ही तो जीव मेरा ही तो अंश है। इसी प्रकार अगर मैं सच्चिदानंद हूँ तो मेरे अंश भी सच्चिदानंद है। जीव सच्चिदानंद है उस शब्द का उच्चारण किया, तो मुझे यह ध्वनित हो रहा है मम एव अंश भगवान कह रहे हैं। तो मेरा ध्यान एव की तरफ जा रहा है मम अंश भगवान कह सकते थे, लेकिन सचमुच ही जानबूझकर भगवान कह रहे हैं। मम एवं अंश यह जीव मेरा ही अंश है। मम एवं और किसी का नहीं है। जीव जीवात्मा केवल और केवल मेरा ही अंश है और किसी का नहीं है। और हम और किसी देवी देवता के तो अंश है ही नहीं। कुछ इस तरह से हमें समझना होगा। आत्मा देवी देवता का अंश नहीं है। वैसे समझ तो यह है कि देवी देवता भी भगवान के अंश है। देवी देवता भी आत्मा है। कृष्ण ही उनको कुछ विशेष शक्तियां अधिकार देते हैं उनसे महान कार्य करवाते हैं। ब्रह्मा भी इसमें शामिल है। ब्रह्मा भी आत्मा है। जैसे आप आत्मा हो, मैं आत्मा हूं और कई सारे आत्माएं हैं। ब्रह्मा भी आत्मा है। वही आत्मा जिस के आकार की बात कर रहे हैं हमारे बालों के नोक का एक हजारवा भाग है आत्मा की साईज। ब्रह्मा भी आत्मा है। हरि हरि, यह देवता स्वयं ही आत्मा है। ममैवांशो हम केवल और केवल भगवान के अंश है। कौन बोल रहे हैं.
हरि हरि वैसे अंश की बात है तो विभिन्न अंश अभिन्न अंश ऐसे भी शब्द का प्रयोग होता है। भिन्न अंश तो हम जीव भगवान के अंश हैं।
*एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।* *इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ २८ ॥* *(श्रीमद भगवतम 1.3.28)*
अनुवादः उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के तृतीय अध्याय में भगवान के सभी अवतारों का उल्लेख हुआ। 22 अवतारों का उल्लेख हुआ 24 का होना चाहिए था, लेकिन 22 का ही हुआ। और फिर उनका एते मतलब इन सभी का जिसका जिसका मैंने उल्लेख किया, सूत गोस्वामी बोल रहे हैं। सूत गोस्वामी का वचन है। तो एते *एते चांशकलाः पुंसः * तो यह भी अवतार है। अवतार भी अंश है या फिर अंशांश है, और फिर जीव भी है। *कृष्णस्तु भगवान स्वयं* किंतु कृष्ण स्वयं भगवान है। और कई सारे अवतार यह आंशिक भगवान है और जीव भी भगवान का अंश है। तो इन दोनों में एक तो विभिन्ना अंश भिन्न नहीं है। भगवान के विभिन्न अवतार है। भगवान कहते हैं संभवामि युगे युगे तो वह भगवान से भिन्न नहीं है और वे सभी अच्युत कहलाते हैं। जो छूत नहीं होते। अवतारों का पतन नहीं होता। अवतार लेते हैं और अवतार कभी अपने कृत्य से कार्यों से बद्ध नहीं होते।
*न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा* ऐसी श्रीकृष्ण ने कहा है भगवतगीता में। तो यहां लागू होता है अवतारों को भी। *मां कर्माणि लिम्पन्ति* यहां अवतार लेपायमान नहीं होते इन अवतारों का पतन नहीं होता। यह कभी बध्द नहीं बनते। यह सदैव मुक्त ही रहते हैं। यह भगवान है। भगवान के अवतार हैं किंतु वह भी अंश है। और अवतारों में कई प्रकार है। अंश, अंशांश किंतु जीव को भिन्न अंश कहां है। विभिन्न अंश भिन्न अंश जीव का पतन होता है। *भोगवांच्छा करे निकटस्थ माया तारे झपटिया धरे* भोगवांच्छा की तो जीव का पतन होता है और इस संसार में आकर वह भोग भोगने लगता है। फिर उसी भोगो से रोग होता है। या भोग भोगने का उद्देश्य सुख प्राप्ति होता है किंतु शुरुआती सुख का परिणाम तो दुख में ही होता है। जो कुछ भी है हम भगवान के अंश हैं। अवतारी भगवान है तो उनके हम अंश हैं लेकिन हम देवी देवता के जो 33 करोड़ देव हैं उनके अंश नहीं है। हम या किसी के विषय में यह सब बात हो रही हैं, वैसे कृष्ण ने जो कहा है 15वें अध्याय 15 वा श्लोक,
*“सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो*
*मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |*
*वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो*
*वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ ||”*
*(भगवत गीता 15.15)*
अनुवाद
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला है।
भगवान ने कहां है क्या कहा, *सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो* मैं सभी के ह्रदय में विराजमान हूं। कृष्ण ने कहा है, सभी के ह्रदय में मैं विराजमान हूं। इंद्र गौज्जम से लेकर इंद्र तक या चींटी से लेकर हाथी तक जितनी भी योनिया है और वे जहां भी है मनुष्य भी इसमें शामिल है। मनुष्यनाम चतुलक्ष्णाम मनुष्य के भी 400000 प्रकार के योनि जितने भी है, जहां भी है। अमेरिकन्स के हृदय में भी भगवान है क्या? हां हां और कौन से भगवान हैं, जो यहां कह रहे हैं *सर्वस्य चाहं ह्रदी* आहम कौन है यहां भगवान है। सन्निविष्टो मैं निवास करता हूं, रहता हूं सभी के ह्रदय में। जिनको हम परमात्मा कहते हैं ह्रदय में जो विराजमान होते हैं। हम सभी के ह्रदय में परमात्मा है, देवी देवता नहीं है, इसे आप अच्छे से समझ लीजिए। देवी देवता हमारे ह्रदय में नहीं है या भूत पिशाच हमारे ह्रदय में नहीं है या मातृ पितृ हमारे ह्रदय में नहीं है हम सभी के ह्रदय में भगवान निवास करते हैं। हरि हरि। तो स्वभाव से सहज रूप से हम लोग आनंद की मूर्ति है सच्चिदानंद है। उस आनंद को हमने जब प्राप्त किया, अनुभव किया तो फिर हम इस संसार के सुख की चिंता कभी नहीं करेंगे सुख को मारो गोली।
*न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।*
*मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥*
अनुवाद – सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।
भगवान की अहैतुकी भक्ति जब प्राप्त होती है तो चैतन्य महाप्रभु भी कह रहे है फिर मुझे परवाह नहीं है यह सब संसार की, धन-दौलत संपत्ति प्राप्त हो नहीं हो या जैसे भी आप रखोगे हम तैयार हैं। और मुक्ति का आनंद भी हम चखना नहीं चाहते। *मम जन्मनि जन्मनीश्वरे* जन्म जन्मांतर के लिए ईश्वरे मतलब ईश्वर में परमेश्वर में या परमेश्वर की भक्ति हमें प्राप्त हो। *मोर एइ अभिलाष, विलासकुंजे दिओ वास* *आर न करिह मने आशा* और कोई आशा फिर बचती नहीं या हम जब कृष्णानंद का अनुभव करते हैं। इसीलिए निमंत्रण दे रहे हैं भगवान आनंद का आओ कीर्तन करो फिर कीर्तनानंद, श्रवणानंद, स्मरणानंद आनंद ही आनंद। नवविधा भक्ती है और यह भक्ति आनंद प्रदान करेंगी आत्मानिवेदन फिर क्या आनंद ही आनंद। *अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः* हमने किए हुए पापों से मुक्त होंगे। सारे संसार में दो प्रकार के कार्य हम करते रहते हैं पाप और पुण्य। तो पुण्य का फल भी अच्छा नहीं है स्वर्ग प्राप्ति है, स्वर्ग का आनंद है। लेकिन भक्ति प्राप्ति के समक्ष स्वर्ग का आनंद तो तुच्छ है।
हरि हरि। ठीक है तो आप और विचार कीजिए, इन विचारों का मंथन इन विचारों का आपस में कुछ *बोधयंन्तः परस्परं* कर सकते हो और भक्तों के साथ इसी चर्चा को आगे बढ़ा सकते हो। परिवार में पति पत्नी एक साथ या घर में कोई इष्ट गोष्टी हो सकती हैं। क्यों नहीं? वैसे शिव और पार्वती सब समय ऐसी चर्चा करते रहते हैं। फिर भक्तों भक्तों के बीच में, काउंन्स्ली काउंसलर के बीच में ऐसी चर्चा होती है, हमारे भक्ति वृक्ष कार्यक्रम में भी यह चर्चा का विषय हो सकता है। फिर जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश तो करना ही होता है, तो उसके अंतर्गत भी यह उपदेश अभी आप जो सुन रहे हो इस उपदेश को औरों के साथ शेयर करो। ताकि वह सुखी हो जाए सुखी नहीं कह सकते आनंदमय जीवन का वे अनुभव करे। तो सुख का पीछा छोड़ो, जब तक सुख का पीछा नहीं छोड़ोगे तब तक दुख आपका पीछा नहीं छोड़ेगा। सरल सूत्र है केवल सुख नहीं मिलेगा, एक खरीदे और तीन मुफ्त पाइए ऐसा भी कहते हैं। आप एक वस्तु खरीद लो तो साथ में आपको यह दो आइटम फ्री मिलेंगे, दो खरीदो तो पांच मिलेंगे, पांच खरीदो तो दस मिलेंगे ऐसे ठगाते हैं आपको यह मॉल वाले। तो वैसे ही जो भी इंद्रिय भोग के विषय या वस्तु को हम लोग खरीदते हैं प्राप्त करते हैं, उसके साथ उस वस्तु को खरीदने के लिए आपको कुछ पैसे कुछ मूल्य चुकाने होते हैं। लेकिन फ्री में क्या आता है? दुख फ्री में आता है। सुख प्राप्ति के लिए तो पैसा लगता है लेकिन आपको दुख फ्री मिलेगा। जब हम सुख की वस्तु को खरीदते हैं सुख प्राप्ति के लिए तो बुद्धिमान व्यक्ति जानता है..
*“ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते |*
*आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || २२ ||”*
( भगवद गीता 5.22)
अनुवाद
बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |
लेकिन जो बुद्धिमान व्यक्ति है वह जुटाएगा ही नहीं, खरीदेगा ही नहीं वह वस्तुए, वह इंद्रिय भोग के साधन। इससे क्या हुआ *ये हि संस्पर्शजा भोगा* कुछ तो भोग कुछ तो सुख का अनुभव किया लेकिन *दु:खयोनय एव ते* वही सुख बनेगा दुख का स्त्रोत दुख की योनि। लेकिन जो बुद्धिमान होते हैं वह क्या करते हैं *आद्यन्तवन्तः कौन्तेय* हे कौन्तेय अर्जुन.. वैैसे शुरुआत में सुख तो मिला लेकिन उसका अंत हुआ मतलब दुख मिला। तो ऐसे आदि और अंत होने वाले, शुरुआत और उसका अंत होने वाले सुख की शुरुआत होते होते ही आ गया दुख आ गया, तो यहां आदि अंत आदि अंत। सुख कि शुरुआत फिर उसका अंत तो सुख का अंत मतलब दुख। *न तेषु रमते बुधः* ऐसे झंझटो में, ऐसे काम धंधे में, ऐसे शॉपिंग करने में *न तेषु रमते बुधः* रममान नहीं होते। कौन नहीं होते? जो बुद्धिमान होता है *न तेषु रमते बुधः*। ऐसा शॉपिंग ही नहीं करेगा उसे दूर रहेगा मतलब सुख से और दुख से दूर रहेगा इन दोनों के परे। क्योंकि आत्मा को आनंद चाहिए, आत्मा को सुख नहीं चाहिए ठीक है हम यही रुकते हैं।
*झूम के भक्तों द्वारा पूछे गए प्रश्न*
*प्रश्न 1)* किस प्रकार हम जप करते समय यह भाव बनाकर रखें कि हम जो जप कर रहे हैं वह गुरु और गौरांग की प्रसन्नता के लिए कर रहे हैं, हमारी प्रसन्नता के लिए नहीं या हमारा उसमें कोई उद्देश्य ना रहे केवल भगवान और गुरु की प्रसन्नता के लिए हम हरिनाम कर रहे हैं ऐसा भाव कैसे बना कर रखें?
*गुरुमहाराज द्वारा उत्तर* –
*गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य* ऐसा हम गाते रहते हैं गुरु पूजा में। हमारे विचारों में ऐक्य हो नही तो *बहुशाखा ही अनंताश्च* कई सारे विचार, हमारे शाखा, उपशाखा, यह विचार, वह विचार और कही पहुंचा देता है। तो *गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य* चित्त मे ऐक्य, चित्त मे एकाग्रता एक अग्रता का स्वागत है ऐसी अपेक्षा होती रहती हैं। जब प्रभुपाद मुझे भी कहे मुंबई में, अस्वस्थ थे प्रभुपाद थोड़े नहीं बहुत अस्वस्थ थे। तब हम बारी-बारी से प्रभुपाद के लिए कीर्तन किया करते थे। मैंने कीर्तन के बीच में पूछा था श्रील प्रभुपाद से हम और क्या कर सकते हैं आपके लिए श्रील प्रभुपाद। तो प्रभुपाद संक्षिप्त में कहे मुझे, मैं और प्रभुपाद बस दोनों ही थे। प्रभुपाद के बेडरूम में ही प्रभुपाद बेड पर लेटे थे। प्रभुपाद कहे *आर न करिह मने आशा* इतना ही कहें। *गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य, आर न करिह मने आशा* और आशा आकांक्षा ना रखें। गुरु को प्रसन्न करना है तो फिर *यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो* ऐसा संबंध है। गुरु को प्रसन्न किए तो फिर भगवान प्रसन्न होते हैं। ऐसा नरोत्तम दास ठाकुर ने हीं इस गुरु पूजा गीत में कहां है, जिसे इस्कॉन में गुरु पूजा गीत बनाया है तो उससे ऐसी शिक्षा मिलती हैं ऐसा मार्गदर्शन होता है।
*प्रश्न 2)* जब हम शास्त्र पढ़ते हैं तो ज्ञान तो मिलता है लेकिन उस अर्जित ज्ञान को वास्तविक जीवन में कैसे बनाए रखें या टिकाए रखें?
*गुरु महाराज द्वारा उत्तर*
भक्तों के साथ संग है तो फिर उसके रिमाइंडर्स भी हमको मिलते जाएंगे *बोधयन्तः परस्परं* होगा हम कहीं भटक जाते हैं तो वे सुधारेंगे हमको। जो हमारे काउंसलर्स या साधु जिनका हम संग करते हैं और जो भी आनंद का आस्वादन करेंगे तो फिर धीरे-धीरे चस्का लगना चाहिए। प्रभुपाद एक समय ऐसा भी कहे कि लोग जो अल्कोहलिक या ड्रग एडिक्ट बनते हैं वे एक दिन में नहीं बनते हैं। थोड़ी शराब पी ली हफ्ते में एक बार फिर बाद मे हफ्ते में दो बार फिर धीरे-धीरे हर रोज पीने लगे और फिर उसके बिना क्या जीना शराब के बिना। तो वैसे ही यह भक्ति, हरिनाम, जप, कीर्तन ऐसे करते जाएंगे भक्तों के संग में, भक्तों के रिमाइंडर के साथ तो इससे *चेतोदर्पण मार्जणम* होना ही है। इससे आनंद प्राप्त होना ही है आत्मा को आनंद प्राप्त होना ही है। आत्मा स्वयं आश्वस्त हो जाएगा, स्वयं अनुभव करेगा, साक्षात्कार करेगा, चस्का लगेगा फिर इसको छोड़ेगा नहीं। *नित्यं भागवत सेवया भगवती उत्तम श्लोके भक्तिर भवती नैष्ठिकी* तो नित्य इसको करते रहे साधना भक्ति को। *भक्तिर भवती नैष्ठिकी* हम निष्ठावान बनेंगे यूटर्न नहीं लेंगे ऐसा होगा प्रतिदिन।
और यह भी देखना पड़ता ही है साधकों को कि हमसे कोई अपराध तो नहीं हो रहे हैं। इसीलिए हमारे मंदिरों में इस्कॉन मंदिरों में प्रातः काल जप प्रारंभ करने के पहले या कहीं पर शिक्षाष्टक का पाठ होता है *चेतोदर्पण मार्जणम* और उसके उपरांत से 10 नाम अपराध जो है उसका भी स्मरण दिलाया जाता है। और फिर भक्तों को जप करते समय, दिन भर और सेवा भक्ति साधना करते समय उन अपराधों से बचना है। तो केवल विधि ही नहीं निषेध भी है दोनों को याद रखना है। विधि का पालन करते समय जो निषिध्द बातें हैं, अपराध हैं इससे बचना है, उसे टालना है अन्यथा फिर…। एक भक्त माया में चला गया था फिर भगवान ने पुनः कृपा की उस पर और वह लौट आया। जब लौटा तो उसने कहा कि, उसने स्वीकार किया कि मैंने यह अपराध किया था, वह अपराध किया था, यह किया, वह किया। इसी कारण मेरी जो हरिनाम में रुचि है या भक्ति में रुचि है भगवान में रुचि है वह कुछ कम होती गई। और फिर मेरे कार्यकलापों ने मुझे लात मार के वहां से भगा दिया। तो पुनः यह अपराध नहीं करूंगा मैं ऐसा उस भक्त ने संकल्प लिया। कृपा करके मुझे और एक मौका दीजिए मैं फिर से वह अपराध नहीं करूंगा। हरि हरि।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
दिनांक 29 अप्रैल 2021
हरे कृष्ण !
आज इस जप चर्चा में 821 स्थानों से भक्त जब कर रहे हैं ।
यहां पर मायापुर से भक्त भी जप कर रहे हैं और मायापुर के वृक्ष भी पीछे दिख रहे हैं , बीड भी है ,नागपुर भी है, सूरत भी है , यूक्रेन भी है, और ऐसे सभी जगह से ।विराट रूप ही है कहो ,’विराट दर्शन है’ । पूरा विश्व एक ही जगह पर ऐसी सुविधा इंटरनेट करता है या सोशल मीडिया करता है ,थाईलैंड से भी इकट्ठे हो जाते हैं ।
हरि हरि !!
तो आप सभी का स्वागत है । और सभी भक्तों का भी । ‘सु स्वागतम कृष्ण’ या राम , हम रथ यात्रा के समय में भी सुस्वागतम जगन्नाथ…सुस्वागतम जगन्नाथ…ऐसा गाते रहते हैं,वैसे भक्तों का का भी स्वागत हम कर सकते ही नहीं ! करना चाहिए । हरि हरि !! ऐसा स्वागत भगवान भी किए, जब नारद मुनि आते हैं उनका भी स्वागत करते हैं या सुदामा आता है तो भी स्वागत करते हैं । हरि हरि !! सुदामा गरीब बिचारे, द्वार रखवाले उनको आने देने नहीं आ रहे थे अंदर किंतु कृष्ण ने देखा ‘सुदामा’ को, कृष्ण उस समय बैठे हुए थे ,रुक्मणी के साथ एक विशेष मूल्यवान आसन के ऊपर भगवान रुक्मणी को वही छोड़े और आसन भी वही छोड़े और दौड़ पड़े सुदामा के स्वागत के लिए । हरि हरि !! भगवान स्वागत करते हैं भक्तों का । हरि हरि !!
नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च ।
जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥
अनुवाद :- “हे प्रभु! आप गायों तथा ब्राह्मणों के हितेषी हैं और आप समस्त मानव समाज तथा विश्व के हितेषी हैं ” ।
प्रिय भक्त ब्राह्मण हैं जिसे सुदामा थे या जैसे गायों के भो हितेषी हैं , सभी के हितेषी हैं । सभी भगवान के ही हैं । भगवान सभी का स्वागत करते रहते हैं, हरि हरि !! जिनका स्वागत , सम्मान, सत्कार भगवान भी करते हैं ।
श्रीभगवानुवाच अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥६३ ॥
अनुवाद:- भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ । निस्सन्देह , मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ । चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ । मुझे मेरे भक्त ही नहीं , मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं ।
( श्रीमद् भागवतम् 9.4.63 )
वह भक्तों के पराधीन भी कहते हैं । मैं उनके अधीन हूं ! आप किन के अधीन हो ?
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || १० ||
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
( श्रीमद् भगवद गीता 9.10)
आप जब कहने वाले! सारे चर अचर का संचालन आप करते हो ऐसा आपने कहा , सब कुछ मेरे अध्यक्ष में होता है । वही वही श्री कृष्ण भागवत् में कहते हैं …’अहं भक्तपराधीनो’ , मैं भक्तों के अधीन हूं । तो यह है भगवान भक्तों से जो प्रेम है । ‘कृष्णा आपसे प्रेम करते हैं’ । हरि हरि !! कृष्णा हम से प्रेम नहीं करेंगे तो और कौन करेगा ! क्यों हमें कृष्ण प्रेम करते हैं ? कृष्ण हम सभी के लिए…
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः |
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता || ४ ||
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ |
( श्रीमद् भगवद गीता 14.4 )
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः |
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च || १७ ||
अनुवाद:- मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ | मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ | मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ |
( श्रीमद् भगवद गीता 9.17 )
मैं सभी का बीज हूं, मैं ही स्रोत हूं, त्वमेव माता त्वमेव पिता , परमपिता जो है तो वह कैसे माता-पिता जो अपने आपत्य से प्रेम ना करें ! तो कृष्ण खूब प्रेम करते हैं सभी जीवो से प्रेम करते हैं । हरि हरि !! परजीवी पति के प्रेम है । भगवान का कोई भी अपवाद नहीं है । हरि हरि !! ऐसे जीव जो संसार भर में बिखरे हुए हैं उन चीजों को हमें पहचानना चाहिए । उनसे हमें भी प्रेम करना चाहिए । वह हमारे ही हैं और फिर हम पिता कृष्ण है माता कृष्ण है । तो सारे जीव मिलकर एक परिवार हुआ । तो अच्छा दृष्टिकोण दूरदृष्टि कहो या उच्च विचार कहो यह हमारे तुम्हारे की बात नहीं है , यह संस्कृति है ,भारतीय संस्कृति सभी के लिए हैं जिस संस्कृति में ,संस्कृत भाषा में और संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है । संस्कृत भाषा में कहते हैं …
अयं बन्धुरयंनेति गणना लघुचेतसाम्
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
अनुवाद:- यह अपना बंधु है और यह अपना बंधु नहीं है इस तरह की गणना छोटे चित वाले लोग करते हैं । उदार हृदय वाले लोगों की तो (संपूर्ण) धरती ही परिवार है ।
( महोपनिषद 4.71 )
इस पृथ्वी पर जितने लोग हैं वह सभी मेरे बंधु है ऐसा नहीं है फिर वह जहां भी है पृथ्वी पर हो या चंद्रमा में भी हो या पूरे ब्रह्मांड में है और फिर अनंत कोटि ब्रह्मांड भी है और सारे ब्रह्मांड भरे पड़े हैं जीबों से और वैज्ञानिक लोग भी अभी उनके दिमाग में कुछ प्रकाश पढ़ रहा है कि, वह भी स्वीकार कर रहे हैं कि बहुत सारे ब्रह्मांड है । लेकिन एक ब्रह्मांड का पूरा पता नहीं किंतु उनको ऐसा आभास हो रहा है कहो और भी ब्रह्मांड होनी चाहिए । हम गीता भागवत पढ़ेंगे तो …
एकोऽप्यसो रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः । अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुष तमहं भजामि ॥३५ ॥
अनुवाद:- शक्ति और शक्तिमान दोनों अभिन्न ( भेदरहित ) एक ही तत्त्व हैं । करोड़ों – करोड़ों ब्रह्माण्डकी रचना जिस शक्तिसे होती है , वह शक्ति भगवान्में अपृथकरूपसे अवस्थित है सारे ब्रह्माण्ड भगवान्में अवस्थित हैं तथा भगवान् भी अचिन्त्य – शक्तिके प्रभावसे एक ही साथ समस्त ब्रह्माण्डगत सारे परमाणुओंमें पूर्णरूपसे अवस्थित हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ ।
( श्रिब्रह्म संहिता 5.35 )
यह कहां कहां हूँ ? कृष्ण कहते हैं , अण्डान्तरस्थ :- ब्रह्मांड और अणु में हूं । पूरे ब्रह्मांड में मैं हूं ।
एक समय हमारे ब्रह्मांड के ब्रह्मा को भी पता नहीं था कि और भी ब्रह्मांड है क्या ? तो हमारे ब्रह्मा और देवता भी जब कृष्ण द्वारका में, द्वारिका वासी बने थे उनके दर्शन के लिए कुछ या सलाह के लिए पहुंच जाते हैं देवता । तो ब्रह्मा एक समय आए ,तो उनके चौकीदार कहे रुक जाइए यहां क्यों आए हैं ? द्वारिकाधीश से मिलना है । तो पहले पूछ कर आते हैं । हम तो यह लीला कथा प्रारंभ होती है । हम तो कुछ सिद्धांत के बात कर रहे हैं किंतु यह फिर सिद्धांत लीला कथा भी मदद करती है सिद्धांत को समझने के लिए । तो चौकीदार गए पूछने के लिए द्वारिकाधीश कृष्ण से पूछें ब्रह्मा आपसे मिलने के लिए आए हैं । और भगवान कहे कौनसे ब्रह्मा ? तो पूछके आओ । तो चौकीदार द्वार के गेट पर पहुंचे और कहां, हां हां !! मिल तो सकते हैं लेकिन पहले भगवान जानना चाहते हैं आप कौन से ब्रह्मा हो ? तो ब्रह्मा का दिमाग चकरा गया क्या प्रश्न है ? कौन सा ब्रह्मांड का ब्रह्मा ? कई सारे ब्रह्मांड होते हैं क्या ? तो ठीक है बता दो मैं चतुर्मुखी ब्रह्मा या चतुस कुमारो के पिता श्री ब्रह्मा आए हैं । तो वह आए जब , तो ब्रह्मा को स्वागत किए । सुस्वागतम , ऊप बसतुः, बैठिए और उनको आसन वगैरा दिए । तो ब्रह्मा ने…
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ॥ १ ॥
अनुवाद:- इस सूत्र में ब्रह्मविपयक विचार आरंभ करने की बात कह कर यह सूचित किया गया है कि ब्रह्म कौन है ? उसका स्वरूप क्या है ? वेदांत में उसका वर्णन किस प्रकार है ?
(वेदांत दर्शन 1.1.1)
जिज्ञासा की । एक ब्रह्मा है , एक ब्रह्म है इसमें भ्रांत नहीं होना चाहिए । ब्रह्मा एक व्यक्ति है और ब्रह्म तो ..
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥११ ॥
अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को बहा , परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं
( श्रीमद् भागवतम् 1.2.11 )
और फिर ब्राह्मण भी है ।
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते |
वेदाभ्यास भवति विप्र ब्रह्मम जानति ब्राह्मणः ||
अनुवाद:- जन्म से सब शुद्र होते हैं | जो वास्तव में सही संस्कार अनुसरण करते हैं , उसका दूसरा जन्म होता है ( द्विज संस्कार) , जो वेदों को पढ़ता है और समझता है वह है एक बुद्धिमान व्यक्ति बनता है और जब ब्रह्म को समझता है उसी के साथ सृष्टि का स्रोत जान लेता है तभी वह ब्राम्हण कहलाता है ।
( स्कंद पुराण 18.239.31-34 )
जो ब्रह्म को जानता है उनको ब्राह्मण कहते हैं । तो फिर वह जिज्ञासा कर रहे थे । ‘ब्रह्मा’ ब्रह्म जिज्ञासु होके पूछे उन्होंने, ऐसा क्यों आपने पूछा ? कि कौन सा ब्रह्मा आए हैं ? तब श्री कृष्ण ..
द्वारिकाधीश की ( जय )
उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर कह के नहीं सुनाया । उस ज्ञान का विज्ञान बनाकर कहे या कुछ प्रत्यक्ष के साथ समझाना चाह रहे थे । और समझाया भी । थोड़ी देर में चतुर्मुखी ब्रह्मा ने देखें कि और एक व्यक्ति पहुंच गए हैं ,जिनके पांच मुख है और भगवान को साष्टांग दंडवत प्रणाम किए। और उनको आसन दिए हैं । फिर षढ़मुखी ब्रह्मा , सप्तमुखी, दसमुखी , सहस्र मुखी, और लक्ष्यमुखी ऐसे व्यक्ति आते गए और सभी के लिए भगवान व्यवस्था कर रहे हैं अपनी इच्छा शक्ति से यह सब ..
न तस्य कार्य करणं च विद्यते
न तत्समश्चाभ्यधिकश दृश्यते ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते
स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च ॥ ८ ॥
अनुवाद:- उनके शरीर और इंद्रिया नहीं है, उनके समान और उन से बढ़कर भी कोई दिखाई नहीं देता, उनकी पराशक्ति नाना प्रकारकी ही सुनी जाती है और वह स्वभावविकी ज्ञान क्रिया और बल क्रिया है ।
(श्वेताश्वर उपनिषद 6.8)
यह भी भगवान की पहचान है ,ऐसे भगवान है । दो वास्तविक में सब कुछ जानते हैं और बल भी स्वाभाविक है ,वे बलवान है । उनको दंड ,बैठक ,कसरत ,व्यायाम करने की आवश्यकता नहीं भगवान बनने के लिए । भगवान ऐसी व्यवस्था की है हम सभी के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध कराए हैं भगवान और जब सभी ने अपने अपने स्थान ग्रहण किए और अभी समझ चुके थे कि जो पधारे हुए व्यक्ति या है ! वह ऐक ऐक ऐक ब्रह्मा है और जिस ब्रह्मांड का में ब्रह्मा हूं यह सबसे छोटा ब्रह्मांड होना चाहिए इसलिए मेरे मुख तो चार है । चार से कोई कम वाला ब्रह्मा है नहीं औरों के पांच है दस है , बिस है, पचास है , सो है, हजार है , लाखों है । अधिक सिर क्यों है ? क्योंकि अधिक व्यवस्था है , अधिक निर्माण का कार्य ब्रह्मा का हे और यह ब्रह्मा के नौकरी है । और ब्रह्मांड अधिक बड़े बड़े हैं आकार में और वहां के सृष्टि की भी और अधिक अधिक बड़ी है। तो इसीलिए अधिक सिर वाले ब्रह्मा है ऐसा हमारे चतुर्मुखी ब्रह्मा समझ गए । और फिर कहते हैं कि सभी ब्रह्मा के मध्य में हमारे चतुर्मुखी ब्रह्मा सोच रहे थे मैं कोई चूहा हूं या मच्छर हूं मैं कुछ भी नहीं हूं उनके बगल में बैठे हुए विशालकाय ब्रह्मा और उनके कितने सारे सिर है उनके मध्य में से एक छोटा सा चींटी बैठी है । हरि हरि !! तो ज्ञान हुआ ना हमको घर बैठे बैठे ज्ञान हुआ । इतने सारे ब्रह्मांड है और इतने सारे ब्रह्मा भी हैं ।
शास्त्र जो शास्त्रज्ञ को पता नहीं है । हरि हरि !! उनकी जो ज्ञान प्राप्ति विधि को वे अपनाए हुए हैं सिर्फ शास्त्रज्ञ ही नहीं उनके कई सारे चेले हैं ,कलीर चेले , कली का चेला । तो वह कैसे ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं किस विधि से या किस साधन से अपनी इंद्रियों से । जिसको प्रत्यक्ष ज्ञान, प्रत्यक्ष अनुमान और श्रुति यह अलग-अलग प्रमाण है । तो एक प्रमाण है श्रुति प्रमाण या श्रुति शास्त्र को पढ़ लिया शास्त्रों की बातें सुन ली तो हुआ ज्ञान लेकिन अधिकतर लोग इस संसार के विशेषकर के कलयुग के उनका विश्वास उनके इंद्रियों में है , आंखों में है, कानों में है, नासिका में है । वह देखना चाहते हैं उसकी मान्यता भी है । हम देखेंगे तो मान जाएंगे उसको स्वीकार करेंगे । तो वह अपनी आंखों से देखना चाहते हैं हरि हरि !! फिर आंखों की तो सीमित क्षमता है , अधिक कम हे । जहां तक सूक्ष्म बस्तू या कोई जंतु भी कहो, कीटाणु , कीड़े सूक्ष्म हे तो इन खुली आंखों से देखा नहीं जा सकता । तो शास्त्रज्ञ क्या करते हैं ? वे माइक्रोस्कोप का ,सूक्ष्म दर्शक यंत्रों का व्यवहार करते हैं । लेकिन सूक्ष्म दर्शन यंत्रों के भी क्षमता को बढ़ाने का प्रयास, जब करते ही रहते हैं या मैग्नीफाइंग ग्लास ( आवर्धक लेंस ) उसके भी सीमा है । उसके परे जो है जैसे आत्मा है इतना सूक्ष्म है कितना यह बताया गया है शास्त्रों में …
केशाग्र – शत – भागस्य शतांश – सदृशात्मकः ।
जीवः सूक्ष्म – स्वरूपोऽयं सङ्ख्यातीतो हि चित्कणः ॥ १४० ॥
अनुवाद:- “ यदि हम बाल के अगले भाग के सौ खण्ड करें और इनमें से एक खण्ड लेकर फिर से उसके सौ भाग करें , तो वह सूक्ष्म भाग असंख्य जीवों में से एक के आकार के तुल्य होगा । वे सब चित्कण अर्थात् आत्मा के कण होते हैं , पदार्थ के नहीं । ‘
( चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला 19.140 )
केस का अग्रभाग , उसका क्या करना है, उसके दो टुकड़े करो, कर लिए । उससे एक उठाओ, उठा लिआ । उसके और सो टुकडे करो । एक उठाया तो वह है आत्मा का आकार । तो कहां है आपके पास, वैज्ञानिकों के पास ऐसा माइक्रोस्कोप जो आत्मा का दर्शन आपको दे । यह संभव नहीं है । इसलिए सर्जन वगैरा ऑपरेशन के समय शरीर के सारे कणो को देख चुके हैं । देखते रहते हैं लेकिन उन्होंने आत्मा को नहीं देखें ।
कई साल पहले 20/30 साल पहले की बात है , कुछ डॉक्टरो ने प्रयास किया आईसीयू में गए जहां से लोग या जहां जाने पर थोड़े ही लौटते हैं वहां से आगे बढ़ते हैं, वे अपना शरीर छोड़ देते हैं । तो वैज्ञानिक गए विशेष कैमराओं के साथ । और जहां जहां आईसीयू मैं रोगी मरने की स्थिति में जाते हैं तो वहां उस कैमरा को तैयार रखते, और उनका विचार यह होता की जैसे ही आत्मा शरीर को त्याग ता है उस समय फोटो खींच लेंगे । आत्मा का हम फोटो निकालेंगे । तो वे प्रयास करते रहे करते रहे लेकिन प्रेस करते ही रहे तो भगवान ने उनको थोड़ा यस दे दिया, उन्होंने दावा किया कि हां हमने आत्मा की फोटो खींच ली है और वह ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में (Times of India) उनके प्रथम पने पर उसको प्रकाशित भी किए थे , उनके दावे के अनुसार । कि यह फोटो आत्मा का है । वह तो कुछ परछाई जैसा दिख रहा था क्योंकि आत्मा तो व्यक्ति है । तो कुछ यस उनको मिला फोटो खींचने के लिए । कितना सत्य तथ्य था किंतु तो कुछ संकेत उनको प्राप्त हुआ है कि , हां हां !! मृत्यु होती है मतलब आत्मा शरीर से अलग होता है और आत्मा है , हे सूक्ष्म किंतु यह वैज्ञानिक, डॉक्टरो, इंजीनियर यह सब प्रतेक्ष वादी मंडली है । इस विधि से ज्ञान प्राप्त करना काफी कष्टदायक भी है महंगा भी है और बहुत समय भी बीत सकता है ।
तो भगवान हर अणु में है और हर ब्रह्मांड में है । और कई सारे ब्रह्मांड है कहना कहते हम कम से कम अभी यह वैज्ञानिक स्वीकार कर रहे हैं कि और भी ब्रह्मांड है । तो उनको केबल आभास या कुछ संकेत भी हो रहा है । लेकिन यह आत्मा का होना और परमात्मा का भी । आत्मा नहीं होंगे तो परमात्मा कैसे होंगे! परमात्मा की भगवान का अंश है आत्मा और कई सारे ब्रह्मांड भी है, यह ज्ञान तो ब्रह्मांड के सृष्टि से पहले यह ज्ञान क्योंकि वेदों का पूराणों का ,शास्त्रों का जो ज्ञान है, एक तो यह अपुरुषेय है और यह सृष्टि से पहले शास्त्र थे यह ज्ञान का तो यह सब सदैव के लिए बना रहता है ज्ञान । पहले भी ब्रह्मांड थे हरि हरि !! और फिर प्रलय हुआ तो सभी ब्रह्मांडों में प्रवेश किया महाविष्णु में । वह भगवान की विशेषताएं हैं । भगवान के एक उश्वास के साथ , ‘स्वास’, ‘उश्वास’, हम तो मिनट में कुछ 15 या 20 बार ये श्वास और उश्वास चलता ही रहता है । कितने सारे ऑक्सीजन की जरूरत होती है । इसीलिए ऑक्सीजन का कमी चल रहा है लेकिन भगवान जब उश्वास लेते हैं उसी के साथ आप सारे ब्रह्मांड की सृष्टि होती है । भगवान के एक रोम-रोम से एक-एक ब्रह्मांड उत्पन्न होता है । सृष्टि हुई फिर पालन हुआ अब प्रलय के समय फिर भगवान पुनः जब सांस लेते हैं तो उसी के साथ साथ सारे ब्रह्मांड पुनः महाविष्णु में प्रवेश करते हैं । तो केवल महाविष्णु एक श्वास और अश्वास लेते हैं ? नहीं ! वह शाश्वत है , तो भगवान उश्वास यह सृष्टि हुई और श्वास लिया तो प्रलय हुआ। तो कितनी बार सांस के लिए ? असंख्य बार ,बारंबार यह सृष्टि प्रलय सृष्टि प्रलय तो संबंध का ज्ञान, प्रलय का संबंध का ज्ञान साश्वत है और यही है महिमा ,महात्म । गीता भागवत या वेद पुराणों का । तो इसको पढ़ लो, सुन लो, तुरंत ज्ञान हमको ज्ञान हुआ । तो ” दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित” । ह्रदय में ज्ञान प्रकाशित हुआ । हृदय में क्यों ? ह्रदय में रहने वाले उस भगवान उस आत्मा को ज्ञान देते हैं ।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ॥ १ ॥
अनुवाद:- मैं घोर अज्ञान के अन्धकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आखें खोल दीं । मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ ।
( श्री गुरु प्रणाम मंत्र 1)
यह सारे प्रयोग करो और यह और वह , अंतरिक्ष में जाओ अंतरिक्ष विमान स्टेशन बनाओ । 400 माइल दूर आकाश में और फिर सारे प्रयास प्रयोग करते जाओ । और फिर थोड़ा कुछ पता चलता है , माइक्रोस्कोप में कीटाणु देखने के लिए जो सूक्ष्म उसको पता लगाने की माइक्रोस्कोप यंत्र या दूरदर्शक यंत्र वैज्ञानिक अपनी आंखों की क्षमता को बढ़ा-बढ़ा के सूक्ष्मती अति सूक्ष्म है उसे देखने का और ज्ञान प्राप्त करने का जो प्रयास जो दूर दर्शक है लेकिन आंखों के भी मर्यादा है और यह सारे यंत्र माइक्रोस्कोप और टेलीस्कोप की भी सिमा है । लेकिन यह सारा ज्ञान तो शास्त्र चक्षुसा… यह टेलीस्कोप यह माइक्रोस्कोप को फेक दीजिए और क्या करिए शास्त्र का चश्मा पहनो । शास्त्रों को अपनी आंखें बनाओ । आप जैसे अंधे हो कुछ दिखता नहीं है तो शास्त्रों का उपयोग करो । कुरान से ज्यादा पता नहीं चलेगा ! पुराण चाहिए । बाइबिल में भी कुछ ज्ञान है । जेब के डिक्शनरी जैसा और फिर बड़ा और बड़ा, तमाम भाग जेसे ।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५॥
अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूं और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति, होती है । मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूं । निसंदेह मैं वेदांत का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूं ।
( श्रीमद्भगवद्गीता 15.15 )
कृष्ण कहे हैं । वेदों से मुझे आप जान सकते हो और केवल भगवान को जान नहीं सब कुछ जान सकते हैं । भगवान के शक्ति को भी जान सकते हैं । भगवान के सृष्टि को भी जान सकते हैं और ऐसे कुछ नहीं बचता जिसको जान नहीं सकते । जानने योग्य हैं जितने भी क्षमता है जीत की जानने की उतना सारा जान सकता है ।
सृष्टि के पहले एक शब्द था बाइबिल में भी कहा है । और वह शब्द था भगवान के साथ । “वह शब्द था भगवान” । सृष्टि के प्रारंभ में है या सृष्टि के पहले भी यह सारे शब्द ”शब्दों योनित्वा” शब्दों से भरे पड़े हैं । शब्द परमब्रह्मा भी कहा जाता है , शब्द ही परम ब्रह्म है । यह सारे शब्द शास्त्रों से, भगवान के साथ जो शब्द है यानी भगवान की जो शब्द है तो ऐसी सुविधा तो भगवान ने की है ताकि हम ज्ञान अर्जन प्राप्त कर सकें । हम ज्ञानवान बन सकते हैं तो इसीलिए भगवान के जो व्यवस्था है साधु ,शास्त्र ,आचार्य के मदद से हम सब कुछ जान सकते हैं । जो जो जानने योग्य है, जानने की क्षमता आत्मा रखता है ! वह सब जाना जा सकता है । साधु ,शास्त्र ,आचार्य के मदद से ।
“याची देही याची डोळा” मराठी में कहते हैं
अर्थ :- इसी शरीर में इन्हीं आंखों से आप देख सकते हो या अंत चक्षु से आप देख सकते हो । इसी जन्म में और इन आंखों से आप भगवान देख सकते हो और भगवान के सृष्टि को भी देख सकते हो । जो जो प्रयोग कर रहे हैं उन सब को पता नहीं , वह भगवान को खोज रहे हैं जाने अनजाने में सारे जीव प्रयास कर रहे हैं कि कृष्ण को देखने के लिए ( Everybody is looking for Kṛṣṇa ) ऐसा जॉर्ज हैरिसन ने भी कहा हे । सबको पता नहीं है की खोज में वे हें । सभी जीब ,जीव किसको खोजेगा ? भगवान को ही खोजेगा । उसका जो स्रोत है लेकिन बाहर से लगता है कि वे सृष्टि की खोज कर रहे हैं या इस ब्रह्मांड में कुछ खोज रहे हैं । हरि हरि !! तो यह है प्रत्यक्ष प्रमाण और शास्त्र प्रमाण कहो या श्रुति प्रमाण । सुन लिया,पढ़ लिया,समझ लिया । तो दोनों में बहुत अंतर है , प्रतेक्ष प्रमाण आंखों के समक्ष जो देखेंगे वही है । हरि हरि !! भगवान कहां पर है, भगवान को किसने देखा, भगवान हे नहीं । अगर है तो हम कहते हैं दिखाओ भगवान को , अगर नहीं दिखा हो सकते तो वह है नहीं, ऐसे ही । तर्क वितर्क लेके संसार बैठा हुआ है दुरर्देव से । दुरर्देवि बंधुओं के लिए मैंने कई सारे विषय के उपर मैंने प्रस्तुतीकरण कर लिया अलग-अलग कर । तो उन पर भी कृपा की है और यह कृपा फिर…
यार देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।
आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ‘ एइ देश ॥१२८॥
अनुवाद:- ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
(चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला 7.128 )
यह सब सब को उपदेश करके हो सकती है, पर दुखेर दुखी भी हो सकती है । आप वैष्णव हो आपको दया नहीं चाहिए । संसार के दुखी लोगों को देखकर आपको दुखी होना चाहिए तो प्रभुपाद ऐसे दुखी हुए संसार के स्थिति को देखकर । तो प्रभुपाद वृंदावन छोड़ कर सीधे न्यूयॉर्क गए और फिर वहां से 14 बार पूरा पृथ्वी का भ्रमण किए और जहां भी गए श्रील प्रभुपाद वहां वहां पर उन्होंने कृष्ण का उपदेश दिया । अपने रचित भाषांतरित ग्रंथों का वितरण करने के लिए सभी को प्रेरित किया । प्रसाद वितरण करवाएं । हरि हरि !! बहुत कुछ श्रिल प्रभुपाद ने किए । कृष्ण उपदेश किया ही करते थे ।
श्रीला प्रभुपाद की ! ( जय )
उनका पथों का अनुसरण कीजिए या उन्होंने प्रारंभ किए कार्य को हमें आगे बढ़ाना है और इसीमे संसार का कल्याण,उद्धार,सुख,शांति संभव है ।
हरि हरि !!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 28 अप्रैल 2021
हरे कृष्ण!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ८५२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरि! हरि!
कोरोना बढ़ रहा है, आप भी करुणा की प्राप्ति के लिए दौड़ रहे हो। इसी के कारण आज कुछ अधिक संख्या में उपस्थित हो। हल्की सी संख्या बढ़ चुकी है। आपका स्वागत ही है, धन्यवाद कोरोना। कोरोना का आभार मानना होगा, कोरोना नहीं होता तब आप में से कुछ जप नहीं करते अथवा हमारे साथ नहीं करते।
कोरोना है तो आप को करुणा चाहिए। कोरोना से बचने के लिए आपको करुणा चाहिए। भगवान् करुणासिन्धु, दीनबन्धु हैं। दीनबन्धु दीनानाथ, मेरी डोरी तेरे हाथ। हमारी डोरी भगवान् के हाथ में है, उस दीनबंधु की ओर दौड़ पड़ो। हरि! हरि! वह करुणासिन्धु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी रहे।
नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते
कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।।
अनुवाद:- हे परम् करुणामय व दानी अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं।
वदान्याय अर्थात करुणा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कारुण्य की मूर्ति हैं। वे उदार व दयालु हैं।
*श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥*
*पतितपावन हेतु तव अवतार। मोसम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥2॥*
*हा हा प्रभु नित्यानन्द! प्रेमानन्द सुखी। कृपावलोकन कर आमि बड़ दुःखी॥3॥*
*दया कर सीतापति अद्वैत गोसाइ। तव कृपाबले पाइ चैतन्य-निताइ॥4॥*
*हा हा स्वरूप, सनातन, रूप, रघुनाथ। भट्टयुग, श्रीजीव, हा प्रभु लोकनाथ॥5॥*
*दया कर श्रीआचार्य प्रभु श्रीनिवास। रामचन्द्रसंग मागे नरोत्तमदास॥6॥*
अर्थ
(1) हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन है?
(2) हे प्रभु! पतितों को पावन करने हेतु ही आपका अवतार हुआ है, अतः मेरे समान पतित आपको और कहीं नहीं मिलेगा।
(3) हे नित्यानंद प्रभु! आप तो सदैव गौरांगदेव के प्रेमानन्द में मत्त रहते हैं। कृपापूर्वक मेरे प्रति आप दृष्टिपात कीजिए, क्योंकि मैं बहुत दुःखी हूँ।
(4) हे अद्वैतआचार्य! आप मुझपर कृपा कीजिए क्योंकि आपके कृपाबल से ही चैतन्य-निताई के चरणों की प्राप्ति संभव हो सकती है।
(5) हे श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी! हे श्रील सनातन गोस्वामी! हे श्रील रूप गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथदास गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी! हे श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी! हे श्रील जीव गोस्वामी! तथा श्रील लोकनाथ गोस्वामी! आप सब मुझपर कृपा कीजिए, ताकि मुझे श्री चैतन्य-चरणों की प्राप्ति हो।
(6) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना कर रहे हैं, ‘‘हे श्रीनिवास आचार्य! आप मुझपर कृपा करें, ताकि मैं श्रीरामचन्द्र कविराज का संग प्राप्त कर सकूँ। ’’
सुना सदासिंधु, मांग रहे हो? दया चाहिए? नामतो है, सदा सिंधु। अच्छा नाम है, कृष्ण करुणा सिंधु हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु महा महा वदान्य अर्थात दयालु व कृपालु हैं।
नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं कि हे चैतन्य महाप्रभु, तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे। कहना तो आसान है किंतु यदि हम इसका अनुभव कर सकते हैं, व समझ सकते हैं कि यस!यस! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सचमुच दयालु हैं। वैसे और भी कोई दयालु होगा किन्तु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जैसा दयालु और कोई नहीं है। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे।
“मोसम पतित प्रभु ना पाइबे आर ” अर्थात मेरे जैसा कोई पतित तो है ही नहीं। बजरंगी! इस बात को मानते हो? हरि! हरि!
पतितपावन हेतु तव अवतार। हे महाप्रभु श्रीकृष्ण चैतन्य, आप पतित पावन हेतु प्रकट हुए हो अर्थात पतितों को पावन बनाने हेतु अथवा पतितों का उद्धार करने हेतु आप प्रकट हुए हो। परंतु उन पतितों में मेरे जैसा पतित तो आपको कोई मिलेगा ही नहीं। मैं इतना पतित हूँ, ईमानदारी ही बेस्ट पालिसी है। अगर हम ईमानदार बन कर स्वीकार कर सकते हैं कि हम पतित हैं। गर्व से तो नहीं कहना है, लेकिन कहना तो चाहिए कि हम पतित हैं।
हम पतित हैं, तो कहना भी चाहिए। अगर आप पतित नहीं हो तो आपको भगवान् की क्या जरूरत है। आप पहले ही पहुंचे हुए महात्मा हो फिर भगवान् की क्या आवश्यकता है। हम पतित हैं इसलिए
*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥*
( शिक्षाष्टकम श्लोक 3)
अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है।
हमें बड़ा विन्रम होना चाहिए। हरि! हरि!
हम पतित तो हैं ही, तृणादपि सुनीचेन। जैसे एक वृक्ष भी हर बात को सहन करता है। हरि! हरि! हमें भी एक वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर अमानिना मानदेन अर्थात अपने लिए मान कि अपेक्षा नहीं करने वाला और सदैव औरों का सादर सत्कार सम्मान करने के लिए तैयार रहने वाला बनना चाहिए। ऐसी मनोस्थिति में ही कीर्तनीयः सदा हरिः सम्भव है।
कीर्तन सम्भव है अथवा जप सम्भव है अथवा भक्ति सदैव करना संभव है। यह तभी संभव है, यह शर्ते है, हरि! हरि! (मैं इस बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहता हूँ)
बढ़ाना तो चाहिए, आपको सोचना तो चाहिए। मैंने विषय तो दे दिया। इस सम्बंध में औऱ अधिक सोचिए। विचारों का मंथन करो। हरि हरि!
मुझे कल का दिन याद आ रहा है । कल हमनें चैत्र पूर्णिमा और कइयों के आविर्भाव तिथि महोत्सव मनाया अथवा स्मरण किया। हम श्यामानंद पंडित और नरोत्तम दास ठाकुर का भी स्मरण कर रहे थे। । जीव गोस्वामी ने इनको नाम दिए- श्यामा नंद पंडित। श्यामा नंद पंडित के सम्बंध में जब मैं बात कर रहा था एक तो मैंने उनके गुरु का नाम गलत कहा। मैं ह्र्दयनन्द ही कहता रहा, श्यामा नंद पहले दुखी थे फिर उनका नामकरण हुआ। ‘तुम्हारा नाम दुखी कृष्ण होगा , ये नाम देने वाले उनके गुरु ह्रदय चैतन्य थे, जोकि गौरीदास पंडित के शिष्य थे।
ह्रदय चैतन्य के शिष्य दुखी कृष्ण बनें। जहां पर दुखी कृष्ण दीक्षित हुए और जहां गौरीदास पंडित और ह्रदय चैतन्य भी रहते थे, वह स्थान अम्बिका कालना कहलाता है। कल मुझे वह भी नहीं याद आया था। अम्बिका कालना नाम का स्थान निश्चित रूप से आज भी है। हम भी कई बार वहां गए हैं, आप भी जा सकते हो। चैतन्य महाप्रभु भी वहां गए थे, गौरीदास पंडित से मिले थे। इतनी सारी लीलाएँ वहां हुई थी। जो अम्बिका कालना नवद्वीप में जो ऋतु द्वीप है, उसके पास में ही है। ऋतु द्वीप कहो या सुमन्द्र गढ़ नाम का स्थान है। जहाँ पर परिक्रमा के भक्त जाते हैं, वहा चंपा हाटी भी है। जब हम चंपा हाटी सुमन्द्रगढ़ से और आगे बढ़ेंगे और नवद्वीप नगर शहर से आगे हम ऋतु द्वीप पर आ आगे बढेगें, तब हम अम्बिका कालना पर पहुंचेंगे।
इसलिए मैं, श्यामानंद पंडित के सम्बंध में यह थोड़ा सुधार करके या थोड़ा अधिक आपको बता रहा हूँ। वैसे कल बंसीवदन ठाकुर का भी आविर्भाव अथवा जन्म तिथि रही किन्तु कल समय के अभाव के कारण उनका स्मरण नहीं कर पाए लेकिन ये चरित्र अथवा ये भक्त, गौर पार्षद अथवा परिकर विशेष थे। इसलिए सोचा कि कल उनका स्मरण नहीं पाए थे, कुछ नहीं कह पाए तो आज करते हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा करके जगन्नाथपुरी लौट आए और अब वे बंगाल की यात्रा पर गए। उनको शची माता और गंगा माता का दर्शन करना था। इस समय चैतन्य महाप्रभु और कई भक्तों से भी मिलने वाले हैं। हरि हरि!
उस दरिम्यान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप में कुलिया पुंहच गए अर्थात आज का जो शहर है।
उसका एक समय नाम कुलिया ग्राम भी था। यह 500 वर्ष पूर्व की बात है, नवद्वीप शहर तो अभी पिछले कुछ 100 या 200 वर्षों पूर्व की ही बात है अर्थात 100-200 वर्षों पूर्व उसकी स्थापना अथवा विकास हुआ था। उसका नाम नवद्वीप है या उसको शहर को नवद्वीप कहकर पुकारते हैं। कुलिया में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आ पुंहचें। वहां उन्होंने कईयों को उनके पापों व अपराधों से मुक्त किया। उसमें देवानंद पंडित भी एक बड़ा नाम है। उन्होंने भी श्रीवास ठाकुर के चरणों में एक बहुत बड़ा अपराध किया था।
चैतन्य महाप्रभु कुलिया में पहुंच गए। उन दिनों में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, माधव दास नाम के गृहस्थ भक्त के निवास स्थान पर निवास कर रहे थे। चैतन्य महाप्रभु लगभग एक सप्ताह के लिए वहां रुके। इस पूरे सप्ताह में वे कई पापियों का उद्धार करने वाले हैं। वह कुलिया स्थान पाप भंजन नाम से भी प्रसिद्ध हुआ।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब माधव दास के निवास स्थान पर रह रहे थे। तब कल अर्थात चैत्र पूर्णिमा के दिन वहां एक बालक का जन्म हुआ। वह बालक ही भविष्य के बंसीवदन ठाकुर बनने वाले थे। वह श्रीकृष्ण की बंसी के अवतार थे। भगवान् की बंसी ने अवतार लिया था, यह बालक बंसीवदन ठाकुर बन गया। हम यह भी समझ सकते हैं कि कल के दिन अर्थात चैत्र पूर्णिमा के दिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुलिया में थे। यह उस वर्ष की बात है, जब चैतन्य महाप्रभु बंगाल गए थे। चैतन्य महाप्रभु की इस बालक के प्रति विशेष कृपादृष्टि रही। स्नेह भी रहा। हरि! हरि! पूरा चरित्र मैं जानता भी नही हूँ और पूरा चरित्र पता भी नही है कि उपलब्ध है भी या नहीं। लेकिन जो भी उनके सम्बंध में लिखा है – उतना ही कह सकते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब संन्यास
लिया ही था। यह थोड़ा आगे पीछे की बात थी या होने वाली है। ऐसा कहना उचित होगा कि केवल चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लिया था अर्थात वे नवद्वीप से प्रस्थान कर चुके थे अर्थात प्रस्थान करके संन्यास लिया और अब वे पुनः लौट रहे हैं।उस समय बंसी वदन ठाकुर मायापुर योगपीठ जाते हैं और वहीं विष्णुप्रिया के सङ्ग में रहने लगते हैं।विष्णु प्रिया की सेवा औऱ सङ्ग प्राप्ति हेतु वे योगपीठ गए और वही उनके चरणों व सेवा में रहने लगे। विष्णुप्रिया के सङ्ग सेवा से व विष्णु प्रिया की भाव व भक्ति से बंसीवदन ठाकुर भी प्रभावित हो ही गए। उन दिनों में विष्णुप्रिया की विरह की व्यथा से जान जा रही थी। बंसीवदन ठाकुर भी उसी विरह के कारण अव्यथित हो रहे थे। अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का न तो दर्शन, ना ही सङ्ग प्राप्त हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु संन्यास ले कर प्रस्थान कर चुके हैं। विष्णु प्रिया और बंसीवदन ठाकुर दोनों खूब जप किया करते थे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
विष्णुप्रिया हरे कृष्ण महामंत्र का जप करती थी। बंसीवदन ठाकुर जो कि भगवान की बंसी ही थे, वे भी हरे कृष्ण महामंत्र का जप और कीर्तन किया करते थे। अब तो उनके मुखारविंद से ही हरे कृष्ण महामंत्र निकलता था। बंसी ध्वनि से निकलने वाले वचन या वाक्य या गीत अब बंसीवदन ठाकुर स्वयं जो बंसी के अवतार हैं, मानो बंसी ने ही रूप धारण किया है। बंसी ही बंसीवदन ठाकुर बनी है। बंसी में जो छिद्र होते हैं, उससे वृंदावन में जो वचन निकलते थे, वही वचन, वही भाव, वही भक्ति के भजन, वही कीर्तन उनके मुखारविंद से निकल रहा है। एक समय यह दोनों विरह के मारे मर रहे थे। इन दोनों ने संकल्प किया कि अब जीने से कोई मतलब नहीं है। महाप्रभु का सानिध्य, दर्शन अगर प्राप्त नहीं हो सकता है तो चलो हम जान देते हैं। उन्होंने सारा अन्न व खाद्य पेय वर्जित कर दिया अर्थात उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया। केवल *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* चल रहा है लेकिन और कोई खान-पान नहीं करेंगे। भगवान् जान गए। भगवान कैसे जान गए? क्या किसी ने उनको फोन किया, ईमेल मैसेज भेजा या चैतन्य महाप्रभु ने फेसबुक पर शची माता का लेख पड़ा। नहीं। भगवान को कोई जरूरत नहीं है। ऐसे होते हैं भगवान। भगवान् सब जानते हैं। सर्वज्ञ हैं। हरि! हरि!
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने विष्णु प्रिया और बंसीवदन ठाकुर को दर्शन दिया। श्राव्य दृश्या जैसा कि महामंत्र के भाष्य में कहा गया है। (समय तो हो गया है, मुझे विराम देना होगा) चैतन्य महाप्रभु ने दर्शन भी दिया और आदेश भी दिया- नहीं! नहीं! प्रसाद ग्रहण करो, तपस्वी बनकर थोड़ा कम कर सकते हो। कम खाओ। मित्तभुक्त भक्त बनो। वैसे वैष्णव का गुण भी होता है – मित्तभुक्त। मित्त मतलब कम। अमित्त मतलब बहुत ज़्यादा। भोजन किया करो, प्रसाद ग्रहण करो एवं आदेश दिया कि मेरी मूर्ति बनाओ। मुझ जैसे विग्रह बनाओ और उन्हीं की आराधना करो, उन्हीं का दर्शन करो, उन्हीं को नमस्कार करो। विग्रह की आराधना करके क्या होगा?
*मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।।*
( श्रीमद् भगवतगीता 18.65)
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो।
भगवत गीता में कृष्ण ने यह चार कार्य करने के लिए कहा है। भगवान के जो विग्रह हैं अथवा भगवान विग्रह के रूप में प्रकट होते हैं। फिर हम यह चार कृत्य आसानी से कर सकते हैं। विग्रह का स्मरण करो।
*श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना श्रृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ। युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥*
अर्थ:- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्री श्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
विग्रह भगवान के अवतार माने जाते हैं। मूर्ति अथवा विग्रह भगवान का अवतार हैं अर्थात कृष्ण स्वयं हैं। मन्मना- मेरा स्मरण करो, मद्भक्तो अर्थात मेरे विग्रह के भक्त बनो। वैसे होते ही हैं, कोई जगन्नाथ का भक्त है, कोई राजा रणछोड़ का भक्त है, कोई बालाजी का भक्त है, कोई कृष्ण कन्हैया लाल राधा मदन मोहन के भक्त हैं, कोई राधा गोविंद का भक्त है, मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु अर्थात भगवान की आराधना करो। भगवान का विराट रूप है, ऐसे कैसे उनकी आराधना करोगे, विराट रूप को कैसे माल्यार्पण करोगे? विराट रूप तो सर्वत्र है। मां नमस्कुरु – कैसे नमस्कार करोगे। यहां देखें, वहां देखें क्या करोगे, कोई सामने हो तो उसको नमस्कार कर सकते हैं। इसलिए भगवान विग्रह के रूप में प्रकट होते हैं।
इसलिए भगवान् ने गीता
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु करने के लिए कहा है। यह करने के लिए आसान होता है, यह व्यवहारिक है। महाप्रभु का आदेश था, विग्रह की आराधना करो। मेरे जैसे विग्रह बनाओ। विग्रह और भगवान में कोई अंतर नहीं है। उस विग्रह की फिर प्राण प्रतिष्ठा होती है। भगवान जैसा दिखने वाला रुप या मूर्ति बनाई जाती है। कोई कारीगर बनाता है। जयपुर् या पंढरपुर में, फिर प्राण प्रतिष्ठा हुई तो फिर वह स्वयं भगवान् हुए। विष्णु प्रिया और बंसीवदन ठाकुर ने ऐसा ही किया। कुछ समय बीत गया। विष्णुप्रिया भी नहीं रही। बंसीवदन ठाकुर, महाप्रभु के विग्रह को कुलिया लाए और स्थापना व आराधना की। वे विग्रह आज भी नवद्वीप शहर में 500 वर्ष पूर्व के कुलिया में आज भी हैं। जब हम नवदीप मंडल परिक्रमा में जाते हैं, वहां पर हम जरूर जाते हैं। धामेश्वर महाप्रभु! बड़े ही सुंदर विग्रह हैं। वहां पर पादुका भी है। ऐसा कहना है कि चैतन्य महाप्रभु की पादुका आज भी वहां है। हमनें भी चैतन्य महाप्रभु की पादुका अपने सर पर धारण की। जो भी वहां दर्शन के लिए जाते हैं, वहां के पुजारी कृपा करते हैं।
चैतन्य महाप्रभु की पादुका का भी दर्शन और स्पर्श होता है। यह जो महाप्रभु का विग्रह हैं, उनके चरणों में बंसीवदन ठाकुर को भी चिन्हांकित किया गया है, ऐसी जानकारी उपलब्ध है। वहां पर जो बेस है अर्थात जिस पर भगवान खड़े हैं, वहां बंसीवदन ठाकुर का भी चित्र है, हमनें देखा तो नहीं, पढ़ा सुना है। इस प्रकार बंसीवदन ठाकुर का उस विग्रह के साथ एक घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ है। आज भी जब महाप्रभु का दर्शन करते हैं। ५०० वर्ष पूर्व के कुछ ही चिन्ह या कुछ ही मूर्तियां विग्रह आज भी हैं। वे कुछ ही गिने-चुने, जिसे उंगलियों पर गिना जा सकता है। उसमें से यह एक विग्रह है। विष्णु प्रिया और बंसीवदन ठाकुर ने बनाया या चैतन्य महाप्रभु स्वयं वह विग्रह बन गए। उन दोनों ने उनकी आराधना की। ऐसे रहे बंसीवदन ठाकुर। ऐसी भक्ति ऐसा चरित्र बड़ा ही विरला है। हरि! हरि! सारे गौड़ीय वैष्णव और गौड़ीय भक्त विशेष है। दुनिया भर के जो भक्त हैं या रामायण पीरियड के भक्त या महाभारत काल के भक्त या प्राचीन काल के भक्त, उन भक्तों से भिन्न हैं, यह गौड़ीय भक्त या गौरांग महाप्रभु के भक्त। ऐसा सनातन गोस्वामी वृहद भागवतामृत के प्रारंभ में लिखते हैं कि गौड़ीय वैष्णव का विशिष्ट है।
*आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता।*
*श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्। श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः।।*
( चैतन्य मञ्जूषा)
अर्थ:- भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्री मद्भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही पुरुष पुरुषार्थ है- यही श्रीचैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम् आदरणीय है।
ऐसा चैतन्य महाप्रभु का भी मत है और सनातन गोस्वामी ने भी कहा है कि सभी भक्तों में जो भक्त व्रजेन्द्रनन्दन अथवा नंद नंदन के भक्त हैं, या फिर ब्रज के भक्त और ब्रज के भगवान् अथवा वृंदावन के भगवान् श्रीकृष्ण व उनके भक्त हैं, उनका भक्ति भाव, रागानुगा भक्ति संसार में सर्वोपरि है। संसार में जितने भी भक्त हुए हैं या भविष्य में होंगे भी, उन सभी में व्रजेन्द्रनन्दन के भक्त अथवा वृंदावन के भक्त, श्रीकृष्ण के भक्त लेकिन श्रीकृष्ण कई अवतारों में प्रकट होते हैं, उन अवतारों के भक्त हैं, जैसे श्रीकृष्ण द्वारका में भी हैं, उनके भी भक्त हैं। श्रीकृष्ण मथुरा में है, उनके भी भक्त हैं किंतु
*वृन्दावन परितज्य पदमेकं न गच्छति।*
( श्रीमद्भागवतगम 10.1.28 तात्पर्य)
श्रीकृष्ण,वृंदावन को त्याग कर एक कदम भी बाहर नहीं जाते।
नहीं जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण जो द्वारिका में हैं, वे पूर्ण हैं, मथुरा में पूर्णतर हैं और वृंदावन में पूर्णतम् हैं, ऐसे श्रीकृष्ण भगवान के भक्त भी, उनकी भक्ति भी और भक्तों की भक्ति पूर्ण हो सकती है। कोई पूर्णतर भक्ति वाले भी हैं किंतु गौड़ीय वैष्णव या ब्रज के भक्त यह पूर्णतम भक्त हैं। उनकी भक्ति कृष्ण भावनामृत में पूर्ण विकसित है। हरि! हरि! आगे फिर कभी कहेंगे, अभी यहीं पर विराम देते हैं।
हरे कृष्ण!!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 27 अप्रैल 2021*
890 स्थानों से आज जप हो रहा है । जय राम श्री राम जय जय राम ऐसे हनुमान गाया करते थे । हनुमान अपने प्रभु के गुण गाते थे , जय हनुमान आज चैत्र पूर्णिमा है , कुछ लोगो को पता नहीं था ,पहली बार सुन रहे है , पंचांग को देखा करो , चंद्रमा को तो देखा ही होगा , मैंने भी देखा ही है कल रात को भी देखा था आज प्रात भी देखा है और आज का चंद्रमा थोड़ा विशेष था ऐसे समाचार में भी आया था । सुपरमून, चंद्रमा का आकार थोड़ा बड़ा हो जाता है क्योंकि वह जरा पृथ्वी के अधिक निकट पहुंचता है , अधिक निकटतम पहुंचता है और फिर दूर जाता है, सुपरमून बड़े आकार वाला और केवल सुपरमून ही नहीं गुलाबी रंग के चंद्रमा का भी हमने प्रात काल ब्रम्हमुहूर्त में दर्शन किया । आज चैत्र पूर्णिमा है और यह श्रीकृष्ण की भी रास पूर्णिमा है , वसंत राज , वसंत ऋतु भी चल रहा है । यह 2 महीने है चैत्र वैशाख , चैत्र की पूर्णिमा है । चैत्र वैशाख 2 मास का वसंत ऋतु होता है , प्रात काल में हम कई सारे पक्षियों की चहक चुन रहे थे , पंढरपुर में कोयल भी गा रही थी तब पता चला कि हां वसंत ऋतु है , वसंत ऋतु में आज की पूर्णिमा के दिन श्री कृष्ण की रासक्रीड़ा होती है ।यह विशेष रासक्रीड़ा खेलते हैं , रासक्रीड़ा वैसे हर रात्रि को होती है और फिर एक विशेष रास क्रीडा शरद पूर्णिमा की और फिर आज की वसंत ऋतु में चैत्र पूर्णिमा में कृष्ण की रासक्रीड़ा और भी प्रसिद्ध है । हरि हरि ।
और वैसे आज बलराम रास पौर्णि भी है। रास खेलने वाले रास मतलब डांस , नृत्य कृष्ण रास क्रीड़ा खेलते हैं और कृष्ण के स्वरूप है जो स्वयं रूप ही है जो स्वयं प्रकाश है , बलराम । कृष्ण और बलराम यह दो ही रासक्रीड़ा सकते हैं , राम नही , नरसिम्हा नहीं और कोई नहीं । अद्वैत अच्युतम अनादि भगवान के अनंत रूप है , ऐसे आदिरूप , मूल रूप श्री कृष्ण है , बलराम नंबर दो का रूप है । तप और सिद्धांत की बातें भी हो रही है ।
बलराम जब द्वारका से वृंदावन आए , अकेले ही आए , अकेले को ही भेजा द्वारका वासियों ने , दोनों को नहीं भेजना चाहते थे । दोनों जाते तो फिर गए काम से शायद लौटेंगे नहीं ऐसा सोचकर द्वारका वासियों ने कृष्ण को द्वारिका में रखा और बलराम को भेजा , आप जाओ, आप जा सकते हो, आप कुशल मंगल पूछ कर आओ मिलो और यहाँ का समाचार ब्रज वासियों को दो । बलराम जी आए वृंदावन और 2 मास रहे । चैत्र वैशाख के दो मास बलराम वृंदावन में रहे सभी से मिल रहे थे , सभी से मिले , नंद बाबा यशोदा को मिले , ग्वाल बालको को मिले , गोपियों को भी मिले और बलराम की अपनी खुद की गोपियां है । अपने गोपियों के साथ अधिकतर गोपियां कृष्ण की गोपियां है लेकिन बलराम की भी गोपिया है , बलराम का भी माधुर्य रस सम्बंध कुछ ब्रज की युतियों के साथ है , उन बृजबालाओं के साथ बलराम ने आज पूर्णिमा की रात्रि को रास क्रीडा खेली । वृंदावन में एक रामघाट है , आप को ब्रज मंडल परिक्रमा में जाना होगा तब यह सब आपको पता चलेगा , कौन सा स्थान कोनसी लीला स्थली ब्रज में कहा है ? रामघाट जय जय ।उस स्थान का नाम रामघाट हुआ क्योंकि वहा बलराम गोपियों के साथ महारास खेले । आज वह महारास की पूर्णिमा है उसे पढियेगा श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में या श्रील प्रभुपाद का लीला पुरुषोत्तम नामक ग्रँथ है , कृष्ण बुक उसमें एक अध्याय आपको मिलेगा बलराम की वृंदावन में भेट और उसी के अंतर्गत बलराम की रास क्रीडा आज की रात्रि को बलराम खेलें । जय बलदेव , जय बलराम। रासलीला महोत्सव की जय। हरि हरि। इसी चैत्र पूर्णिमा के दीन श्यामानंद पंडित भी जन्मे ।
श्यामानंद पंडित आविर्भावतिथि महोत्सव की जय । इनका जन्म उड़ीसा में हुआ।और इनके पहले , उनके कई भाई-बहन जन्म ले चुके थे , लेकिन जन्म लेते ही वह मर जाते थे । इसलिए माता-पिता दुखी थे तो जब आज के दिन रामानंद पंडित का जन्म हुआ तब इस बालक का नाम रखा दुखिया ,स्वयं दुखी थे , शायद यह भी हम को दुख देने वाला है लेकिन कुंडलि पढ़ी तब पता चला कि यह जीते रहेगे इनकी दीर्घायु होंगी और यह महान भक्त संत होंगे और बाल अवस्था में ही ऐसे लक्षण दिखने लगे । यह गौर नित्यानंद की कथा का श्रवण किया करते थे , उस श्रवण में तल्लीन होते थे कानों से वह नित्यानंद की लीलाएं कथाएं सुन रहे है , आंखों से अश्रु बह रहे हैं , शरीर में रिमांच है , बाल अवस्था में ऐसी स्थिति होने लगी इस बालक की , दुखिया जिसका नाम था । वह गौर भक्तों का संग चाहते थे , उड़ीसा से वह बंगाल में आए और नवद्वीप में आकर हृदय चैतन्य के शिष्य बने । जो हृदय चैतन्य या गौड़ीय वैष्णव यह समय वैसे चैतन्य महाप्रभु के अंतर्धान होने के उपरांत तुरंत की बातें है अभी अभी चैतन्य महाप्रभु यह धरातल पर थे लेकिन अभी नहीं रहे ।
तभी श्यामानंद , हृदयानंद प्रकट हुए। उन्होंने आदेश दिया उनकी इच्छा भी थी वृंदावन जाने की तो जब दीक्षा हुई हॄदयानंद आचार्य ने दुखिया को दिशा दि और उसका नाम दुखिया कृष्ण या दुखी कृष्ण रखा । दुखी कृष्णा वृंदावन आए और वहां के उस समय के जो गौड़ीय वैष्णव थे उनके संपर्क में आए । जीव गोस्वामी थे अन्य गोस्वामी थे अभी धीरे-धीरे नही रहे उन्होंने प्रस्थान किया था , परलोक या गोलोक के लिए वह पधारे थे लेकिन जीव गोस्वामी थे लोकनाथ गोस्वामी थे और श्रीनिवास आचार्य भी वहां पहुंचे थे और नरोत्तम दास ठाकुर भी थे । वैसे तीनों की टीम बन जाती है , श्रीनिवास आचार्य ,नरोत्तम दास ठाकुर और श्यामानंद पंडित । जीव गोस्वामी ने ही इन तीनों को यह पदविया दी , एक को कहा तुम श्रीनिवास आचार्य ,नरोत्तम तुम नरोत्तमदास ठाकुर और श्यामानंद तुम श्यामानंद पंडित ऐसे उपाधिया दी , लेकिन यह श्यामानंद बने कैसे ? श्यामानंद नाम कैसे हुआ यह बड़ी रहस्यमई घटना घटी । जीव गोस्वामी ने दुखिया कृष्णा को एक के सेवा दी , जब भगवान हर रात्रि को सेवा कुंज में रासक्रीड़ा खेलते हैं उनके रासक्रीड़ा के उपरांत तुम प्रातकाल में या ब्रह्म मुहूर्त में वहा जाना और वहां सफाई का काम तुम करना, झाड़ू पोछा तुम लगाओ तब बड़े आराम के साथ , प्रसन्न चित्त इस प्रकार की सेवा करने लगे , कर रहे थे।
करते करते वे जब रास क्रीड़ा क्षेत्र की सफाई करते तो रास क्रीड़ा का स्मरण भी किया करते थे कैसी हो संपन्न हुई होगी आज रात्रि की रासलीला भगवान की हर रात्रि को रासलीला होती है हर रात्रि को होती हैं। तो वो हाथ से सफाई भी कर रही है मन तो खाली है मन व्यस्त है मन को व्यस्त रखो वह तो दुखिया कृष्ण ही थे अपने मन को व्यस्त रखते थे मन मे
*मनो मध्ये स्थितो मंत्र मंत्र मध्ये स्थितं मन मनो मंत्र समायुक्तम येतधी जप लक्षण ।*
मन में मन्त्र को स्थिर करते थे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* भी गा रहे हैं और उसी मन से फिर जब गा रहे हैं तो उनको स्मरण भी हो रहा है। वही स्थान पर रासलीला भगवान खेला करते थे हर रात्रि को और ऐसा स्थान का प्रभाव भी है आप समझ सकते हो हम जहां भी जाते हैं हरी हरी सिनेमाघर जाते हैं दुर्दैव से सिनेमा घर जाओगे तो क्या याद आएगा अभी सिनेमा शुरू भी नहीं हुआ तो पहले ही नट नटी की याद आएगी ऐसा प्रभाव होता है हर स्थान का प्रभाव होता है। स्थान प्रभाव डालता ही है उन लोगों पर जो वहां रहते हैं या पहुंच जाते हैं। तो ऐसा हर स्थान का प्रभाव है कई स्थान तमोगुण है कई स्थान रजोगुण संपन्न है तो कई स्थान सत्वगुण का प्राधान्य है तो कुछ तान तो गुनातीत है।
शुद्ध सत्व गुण वाले हैं वृंदावन धाम की जय और इस स्थान का क्या कहना जहा भगवान रास क्रीड़ा खेलते हैं और कहीं भी जाएगा जो साधक हैं उनको ऐसा ट्रेनिंग दिया जाता है कि स्मरण किया करो यह दुखीकृष्ण जीवगोस्वामी के अभी शिष्य बने फिर शिक्षा शिष्य बने श्री हृदयानंद आचार्य के वह दीक्षा शिष्य थे और यहां जीवगोस्वामी से शिक्षा लिए।
रासलीला का स्मरण करते समय वह सफाई का कार्य कर ही रहे थे तो जल्दी बताना होगा समय खत्म हो रहा है। हरी हरी मरने के लिए समय नहीं है वैसे नहीं मरेंगे हम यह कथा सुनेंगे इस कथावो को यदि हम हॄदयांगम करेंगे फिर नहीं मरेंगे या मर भी जाएंगे तो यह हमारी आखरी मृत्यु होगी पुन्हा नही जन्म लेंगे
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं*
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥ -*
*शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21*
*अनुवाद:-हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।*
तो इसी लिये हमारे पूर्ववर्ती आचार्य को के चरित्र सुनना चाहिए कृष्ण के चरित्र के साथ राम के चरित्र के साथ हनुमान का चरित्र भी हमको पढ़ना चाहिए और साथ ही ये श्यामानंद प्रभु की बातें चल रही है अभी तक तो वो दुखिया कृष्ण ही हैं। तो वह जब सफाई कर रहे थे तो सफाई करते करते वैसे राधा ने ही ये योजना बनाई थी ऐसा समझ में आता है क्या किया राधा ने अपने चरण का जो नूपुर है एक नूपुर गिर गया भी कह सकते हैं या गिरा दिया भी कह सकते हैं।
तो गिरा ही दिया राधारानी ने ऐसी कृपा करना चाहती थी दुखिया कृष्ण के ऊपर इस रासक्रीड़ा के उपरांत वो जरूर आएगा और उसको दर्शन होगा। उसको स्पर्श होगा इस नूपुर का ऐसी कृपा करने के उद्देश्य से ही राधा रानी ने एक नूपुर वहीं छोड़ दिया या गिर गया तो उसके बाद दुखिया कृष्ण आ गए जब सफाई कर रहे थे तब सफाई करते करते वह स्थान पर पहुंचे जहां वह नूपुर रखा था ऐसी चमक-दमक थी उसकी उसकी किरणें सोनेरी रंगों की थी वहां जे स्वर्ण किरणे निकल रहित थीं और उसके बाद उसकी ओर ध्यान गया और उन्होंने उसको उठा लिया और उनके शरीर में रोमांच होने लगा उस नूपुर के दर्शन और स्पर्श मात्र से उस नूपुर का स्पर्श मात्र भी राधा का ही स्पर्श था। उसको उन्होंने एक वस्त्र में बांध कर रख दिया और सफाई करने लगे तो राधा प्रात काल में अपने घर पर पहुंच गई और घर पर पहुंचने पर पता चला नुपुर कहां है एक नूपुर नहीं है उसने ललिला सखी को बुलाया और कहा कि जाओ जाओ जहां रात्रि में रासक्रीड़ा हो रही थी ना तो उस रात की रासकीड़ा विशेष रही थी तो वहां स्पर्धा थी राधा नृत्य करती थी फिर कृष्ण नृत्य करते दोनों में स्पर्धा होती थी और फिर अलग-अलग सखियों के मध्य में भी स्पर्धा होती थी।
तुम सखी ललिता विशाखा के साथ और इस तरह होती थी तो राधा ने ललिता को बुलाया ललिता सुंदरी पहुंची तो कहा कि जाओ जाओ मेरा नूपुर ढूंढ के लेकर आओ तो ललिता भागे दौड़े गई उस रास क्रीड़ा स्थान पर और उसने देखा कि वहां एक साफ सफाई कर रहा था वो दुखिया कृष्ण झाड़ू लगा रहा था तो उसने पूछा कि तुम्हे यहां नूपुर मिला तो पहले तो उसने कुछ नहीं कहा फिर वह एक गोपनीय बात भी थी यह मूल्यवान तो था ही ये नूपुर तो ठीक है हमें रुकना चाहिए तो तुम कौन हो तो ललिता ने कहा कि अपनी आंखें बंद करो तो दुखिया कृष्ण ने अपनी आंखें बंद की तो ललिता ने अपना दर्शन दिया वैसे तो ललिता वहां थी ही किंतु दिव्य दर्शन दिया दुखियाकृष्ण को दिव्य दर्शन भी हुआ और फिर ललिता ने अपना परिचय भी दिया कि मैं राधा दासी हूं और राधा ने ही मुझे भेजा है वह नूपुर जो तुमको मिला है वह राधा रानी का है कृपया दे दो तो श्यामानंद ने नूपुर को जो वस्त्र में बांधकर रखा था वो लौटा दिया ललिता को दे दिया ललिता ने उस नूपुर को अपने हाथ में लेकर दुखियाकृष्ण के कपाल पर रखा और उसको चिन्हित किया और बाद में उसका चिन्न बन गया श्यामानंद के कपाल पर राधा रानी के नूपुर का चिन्ह बन गया।
हमेशा के लिए बन गया और उस समय ललिता ने दुखियाकृष्ण को और एक नाम दिया तुम्हारा नाम होगा श्यामानंद शाम आनंद नहीं श्यामानंद श्यामानंद राधानंद तो पहले की दुखिया बन गए दुखियाकृष्ण फिर बन गए श्यामानंद फिर बन गए श्यामानंद पंडित जीव गोस्वामी ने पंडित की उपाधि दी तो ऐसे श्यामानंद पंडित का आज आविर्भाव दिवस आज पूरा गौड़ीय वैष्णव जगत मना रहा है।
ठीक है हरि हरि हनुमान जी को तो आप जानती हो लेकिन हनुमान भगवान नहीं है इतना तो समझ लो कुछ लोग कहते है लॉर्ड हनुमान ,लॉर्ड हनुमान हमारे देश में या फिर कहीं पर भी जब कोई अपने सिद्धि का प्रदर्शन करता है या कोई चमत्कार करता हैं जो हनुमानजी ने किया अपनी सिद्धि का दर्शन जैसे कहि उड़ान भरना हैं जैसे लंका हवाई मार्ग से गए तो फिर ये सब जो चमत्कार देखे सुने तो वह चमत्कार देखकर व्यक्ति नमस्कार करता है। उनको भगवान समझते है तो हनुमान भगवान नहीं थे भगवान तो श्रीराम हैं और हनुमान है रामदास,राम भक्त हनुमान की जय…..
यह राम भक्ति है जो कृष्ण भक्ति है भक्ति के अंतर्गत जो दास्य नाम की जो भक्ति है नवविधा भक्ति मे से जो श्रवण,कीर्तन और दास्यम,साँख्यम,आत्मनिवेदनम इसमे से जो दास्य हैं इस दास्य भक्ति जे सर्वोपरि अधिकारी या भक्त या आप कह सकते हैं आचार्य वह हनुमान हैं।
हनुमान जैसा दास संसार में नहीं है तो ऐसे हनुमान का आज जन्म दिवस है हनुमान जयंती है।
*हनुमान जयंती महोत्सव की जय गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल*
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*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 26 अप्रैल 2021*
*हरे कृष्ण!*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे* *हरे।।*
808 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
*हरि हरि।*
*हरि हरि बोल गोर हरि बोल मुकुंद माधव गोविंद बोल!*
ऐसे गाते जाइए।
*भज गौरांग, कहो गौरांग*
*लह गौरांगेर नाम रे,*
*जेई जना गौरंगा भाजे,*
*सेई होय अमार प्राण रे,*
*जो गोरांग का भजन करते हैं,वह हमारे प्राण हैं।*
क्या गोरांग का भजन करने वाले आपके प्राण हैं?क्या आपके लिए वह प्राणों से प्रिय हैं? अगर नहीं हैं,तो होने चाहिए।केवल गोरांग ही नहीं,बल्कि गोरांग को भजने वाले, गोरांग का नाम लेने वाले सभी भक्त हमारे प्राण होनें चाहिए।ऐसे गोर भक्त जो गोरांग गोरांग गोरांग कहते हैं,या नित्यानंद नित्यानंद नित्यानंद कहते हैं या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे कहते हैं यह सभी हमारे प्राण होने चाहिए क्योंकि यह भी गौरांग का भजन करना ही हुआ।
*भज गौरांगो, कहो गौरांगो,*
*लहा गौरांगेरो नाम रे।*
ऐसे भक्तों का संग किया करो,ऐसे भक्तों कि या संतों की सेवा किया करो।
*हरि हरि।*
जिस विषय पर हम पिछले 2 दिनों से चर्चा कर रहे हैं, उसी को आगे बढ़ाते हैं।हम आत्मा की बात कर रहे थे,यह आत्मा की बात हैं,या आत्मा की समझ की बात या आत्मसाक्षात्कार की बात।
आत्मा को समझेंगे तभी तो आत्म साक्षात्कार होगा। नास्तिक तो जानते ही नहीं क्योंकि वह मानते ही नहीं।लेकिन जो आस्तिक हैं, या धार्मिक हैं, वह भी आत्मा को भलीभांति नहीं जानते। उनकी आत्मा की समझ का ज्ञान कम अधिक ही हैं। किसी का कम है किसी का अधिक हैं। ज्यादा या कम। वह कुछ कुछ जानते हैं। कोई थोड़ा अधिक जानता हैं और कोई थोड़ा और अधिक जानता हैं लेकिन अधिकतर पूरा नहीं जानते। जैसे कि गोडिय वैष्णव इस ज्ञान को जानते हैं, या वैष्णव परंपरा में आने वाले भक्त इस ज्ञान को जानते हैं। परंपरा अनुगामी अनुयायी जानते हैं।
*एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।*
*स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।*
*भगवद्गीता ४.२*
*अनुवाद-*
*इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु – परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया* *और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह* *परम्परा छिन्न हो गई ,अत : यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया* *लगता हैं।*
कृष्ण यह घोषणा कर चुके हैं,कि हे अर्जुन!इस ज्ञान को परंपरा में रहकर ही जाना जा सकता हैं।जो परंपरा में नहीं है या जिन्होंने अपनी खुद की नई परंपरा बना ली हैं या फिर जो परंपरा से पूरी तरह से नहीं जुड़े हुए हैं,जिनका परंपरा से घनिष्ठ संबंध नहीं है।कुछ समझ और संबंध हैं,उनकी नासमझी को हम समझने का प्रयास कर रहे हैं।यह लोग क्या समझते हैं और क्या नहीं समझते हैं। ग्रीस के पलैटों इसे समझ गए थे। यह बहुत समय पहले की बात हैं। वह आत्म साक्षात्कारी थे।वह जानते थे कि शरीर और आत्मा दो अलग-अलग चीजें हैं। शरीर मरता हैं, लेकिन आत्मा अमर हैं या शाश्वत हैं। शरीर एवं आत्मा दो अलग-अलग चीजें हैं। उनका कहना था कि मृत्यु का अर्थ है आत्मा का शरीर से अलग होना। आत्मा जब शरीर से अलग होती है तो उसी को मृत्यु कहते हैं।ऐसा उन्होंने लिखा भी और ऐसा वह प्रचार भी कर रहे थे। यह समझ आत्मा के दायरे तक सही हैं। उस समय की सरकार इस प्लेटो से नाराज थी और ऐसा आदेश जारी किया गया था कि उसकी जान ले लो।प्लेटो ने कहा कि अगर आप मुझे पकड़ सकते हैं,तभी आप मुझे मारोगे।आप मुझे मारने की योजना तो बना रहे हैं लेकिन मार तो तभी पाएंगे जब आप मुझे पकड़ पाएंगे। इस वचन में वह आत्मा की बात कर रहे थे क्योंकि आत्मा को तो पकड़ा नहीं जा सकता।उनका मानना था कि आप लोग तो शरीर को मारेंगे लेकिन मैं तो शरीर नहीं हूं मैं आत्मा हूं।
*“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।*
*न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।*
*भगवद्गीता २.२३*
*अनुवाद*
*यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा* *सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया* *या वायु द्वारा सुखाया जा सकता।*
आत्मा को किसी अस्त्र या शस्त्र से मारा नहीं जा सकता।आत्मा की हत्या संभव ही नहीं हैं।हम आत्महत्या-आत्महत्या तो करते रहते हैं, लेकिन आत्मा की हत्या संभव नहीं हैं। यहां पर शरीर को आत्म माना गया हैं।शरीर को भी आत्म माना जाता हैं। आत्मा मतलब मैं।
शरीर की हत्या होती हैं,आत्मा की हत्या संभव नहीं हैं। इस बात को प्लेटो भली-भांति समझ गए थे। आत्मा के संबंध में अलग-अलग धर्मों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। आत्मा का स्त्रोत,आत्मा का प्रवास, और आत्मा का गंतव्य इन सब के बारे में यहां चर्चा हुई हैं। मैं थोड़ा आगे पीछे की बातें कर रहा हूं।बौद्ध पंथी का मत या समझ यह है कि यह जो मुक्ति हैं, मुक्ति अर्थात किस से मुक्त होना हैं? एक तो दुख से मुक्त होना हैं, यह बात तो उन लोगों को समझ आ चुकी हैं। जैसा कि कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा हैं, दुखालयम अशाश्वतम्।
*मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।*
*नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:।।*
*भगवद्गीता ८.१५*
*अनुवाद*
*मुझे प्राप्त करके महापुरुष जो भक्ति योगी* *हैं,कभी भी दुखों से* *पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते,क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त* *हो चुकी होती हैं*
यह संसार दुखों का आलय हैं और मुक्त होने का अर्थ हैं। इस संसार के दुखों से मुक्त होना। यह संसार दुख आलय हैं और अश्वातम अर्थात शाश्वत नहीं है। उनके कहना हैं कि कुछ भी शाश्वत नहीं है और उसमें आत्मा भी सम्मिलित हैं, कि आत्मा भी शाश्वत नहीं हैं। उनकी समझ हैं कि आत्मा का भी आया राम गया राम होता हैं। एक दिन हमारी आत्मा और आत्मा की ज्योति बुझ जाएगी। ऐसा उनका मानना हैं और उस समय आत्मा समाप्त हो जाएगी। उनके हिसाब से आत्मा का अस्तित्व समाप्त होना ही निर्वाण हैं। ईसाई धर्म या मुस्लिम लोगों का पुनर्जन्म में विश्वास नहीं हैं। उनकी समझ है कि मनुष्य जीवन ही आखिरी जीवन हैं। यह अंतिम जीवन हैं। इसके बाद जीवन नहीं हैं। जब ईसाइयों की या मुसलमानों की मृत्यु होती हैं और उन को मकबरे में दफनाते हैं,उनकी समझ यह हैं कि हमें मकबरे में दफनाया जाता हैं। जिसे हम समाधि कहते हैं। हम हर किसी को समाधि में नहीं रखते। हिंदू धर्म में या सनातन धर्म में इस शरीर को भस्म कर देते हैं और अगर अभी भी वह अगर शरीर के साथ संबंध तोड़ नहीं रहा हैं, वही अटका हुआ हैं तो गंगा के जल से छोड़ता हैं। यह अंतिम संस्कार हैं। कई सारे संस्कार होते हैं। इसी अंतिम संस्कार के साथ आत्मा को शरीर से अलग किया जाता हैं।
मृत्यु होने पर आत्मा शरीर से अलग होता हैं, लेकिन तो भी कुछ ना कुछ संबंध बना रहता हैं।आत्मा के शरीर से सारे संबंधों को तोड़ने के लिए,उसे मिटाने के उद्देश्य से अंतिम संस्कार किया जा सकता हैं। ताकि आत्मा आगे बढ़ सके।आत्मा को किसी ओर योनि को प्राप्त करना हैं।स्वर्ग जाना हैं या नर्क जाना हैं या भगवद् धाम जाना हैं।आत्मा का शरीर के साथ स्थूल या सूक्ष्म संबंध हैं। उसे अंतिम संस्कार के द्वारा मिटाया जाता हैं। ईसाइयों और मुसलमानों की समझ यह है कि जब मृत्यु हुई तो आत्मा शरीर से अलग हुई तो भी आत्मा उसी शरीर के इर्द-गिर्द लटकता या भटकता रहता हैं और फिर वह व्यक्ति पुनः जीवित होगा।यह उनकी समझ हैं और फिर कयामत के दिन पर फैसला होगा। जैसा बोओगे वैसा काटोगे। ऐसी समझ हैं। इसका फैसला जजमेंट के दिन पर होगा यानी उनके हिसाब से कयामत के दिन पर। उनकी समझ के अनुसार पुनर्जन्म नहीं है दो ही पर्याय हैंं।
*” बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।*
*वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।*
*भगवद्गीता ७.१९*
*अनुवाद*
*अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह* *मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है |* *ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |*
वह मानकर बैठे हैं कि मनुष्य जीवन आखिरी जीवन है और फिर जब पुनः जीवित होंगे तो सब साथ होंगे।ऐसा ईसाइयों में खास रूप से देखा जाता है कि अपने परिवार के लिए एक पूरा प्लॉट खरीद लेते हैं। ताकि एक परिवार को एक जगह पर एक साथ दफनाया जा सके और परिवार के सदस्यों की जब एक के बाद एक मृत्यु होगी तो उन्हें वही कब्र में दफनाया जा सके और उनकी समझ यह है कि जब वह पुनः जीवित होंगे तो सारा परिवार पुनः जीवित होगा।सारे परिवार के सदस्य वहां एक साथ एक ही जगह पर रहेंगे क्योंकि आसकती इतनी जबरदस्त हैं।इसलिए वह ऐसा चाहते हैं कि सब मृत्यु के बाद भी साथ मे रहे। ऐसी उनकी मान्यता हैं, लेकिन यह हकीकत नहीं हैं। कयामत के दिन पर जब फैसला होगा तब उनके हिसाब से दो ही प्रकार के फैसले होते हैं एक तो स्वर्ग या नर्क और फिर तुम सदा के लिए नर्क में या स्वर्ग में रहो। हरि हरि और तो और कुछ ऐसे मुस्लिम बंधु हैं जो कि जिहाद को मानते हैं। जो जिहादी होते हैं उनके अनुसार अगर हम इस्लाम का प्रचार करते हुए मरते हैं या जो इस्लाम के विरोधी हैं उनकी जान लेते हुए मरते हैं तो आंतकवादी बन कर या मानव बंम अगर बनते हैं तो और बंम को चालू करके विस्फोट होते होते अल्लाह बोलते हुए मरते हैं तो आपको पुनः जन्म नहीं लेना पड़ेगा।
इस प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा।आप सीधे अल्लाह को प्राप्त करोगे। इस प्रकार अगर आपने करा तो आपके लिए नर्क तो हैं ही नहीं।अच्छा! यह अमरीकी मुस्लिमों के खिलाफ हैं। तो चलो विमान को उड़ा देते हैं और सब को मार देते हैं। कैप्टन को वहां से निकाल देंगे और हम खुद ही कैप्टन बनेंगे और जो न्यूयॉर्क में ट्विन टॉवर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर है उसी को उड़ा देते हैं और उस समय अगर हम अल्लाह कहते हैं तो हम सीधे अल्लाह के धाम जाएंगे। अल्लाह को प्राप्त करेंगे। हमारे लिए कयामत के दिन पर फैसला नहीं होगा। फैसला तो औरों के लिए होगा। हमारा तो उसी वक्त ही फैसला होगा और हम तुरंत ही अल्लाह को प्राप्त होंगे। और हम मुक्त हो जाएंगे ।हमें इस बात की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी कि हमें दफनाया जाएगा और हमारा नंबर जब आएगा।हम पुनः जीवित होंगे और फैसले का दिन आएगा और तब फैसला होगा। ऐसा हमारे साथ नहीं होने वाला आदि। लोग ऐसा सोचते हैं ऐसा होने पर हो सकता है कि हम नरक में भी चले जाए तो इन सब से बचना है तो जिहादी बन जाओ।तो देखो इन लोगों का कैसा धर्म हैं।कैसे-कैसे इनके कर्म हैं और कैसी इनकी समझ हैं। इनके हिसाब से इस तरीके से यह मुक्त हो सकते हैं। इनके हिसाब से पुनर्जन्म तो हैं ही नहीं और यह मनुष्य जीवन ही अंतिम जीवन हैं। हम पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते ऐसा यह लोग कहते हैं। अरे मूर्ख! तुम्हारा विश्वास नहीं है तो इससे भगवान तो समाप्त नहीं होंगे हमारे विश्वास होने या ना होने से जो हकीकत हैं उसमें तो कोई परिवर्तन तो हो नही जाएगा। उल्लू को जैसे रात में दिखता हैं, दिन में उसे दिखता ही नहीं हैं। सूर्य उदय होते ही उसकी आंखें बंद हो जाती हैं। उसको दिखना बंद हो जाता हैं। इसलिए यह बात कौन कह रहा हैं?उल्लू कह रहा है कि मेरा सूर्य में विश्वास नहीं हैं।दिखता ही नहीं हैं और वह बक रहा हैं। हरि हरि। ऐसे ही कोई कहे कि मेरा मृत्यु में विश्वास नहीं हैं, तो क्या वह मृत्यु से बच जाएगा? मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता, पुनर्जन्म समझते हो?ऐसा भगवान स्वयं के लिए कहते हैं संभवामि युगे युगे।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।*
*भगवद्गीता ४.८*
*अनुवाद*
*भक्तों का उद्धार करने दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से* *स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं।*
भगवान पुनः पुनः प्रकट होते हैं,तो भगवान के संबंध में हम इस शब्द का प्रयोग करते हैं। लेकिन पाश्चात्य देशो में या ईसाई और इस्लाम धर्म में जीव का पुनः पुनः एक शरीर में आना इसे यह रिइनकारनेशन कहते हैं।विश्वास होने या ना होने से फर्क नहीं पड़ता। पुनर्जन्म तो होता ही हैं।
हरि हरि।
और वैसे कृष्ण ने भी कहा है
नित्यो नित्यानाम भगवान भी नित्य हैं और जीव भी नित्य हैं।
*नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।*
*तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वतीनेतरेषाम् ॥ १३ ॥*
*कथा उपनिषद २.२.१३*
और कृष्ण ने कहा कि तथा देहांतर प्राप्तिर भी हैंं।
*“देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |*
*तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति || भगवद्गीता २.१३ ||”*
*अनुवाद*
*जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बालयावस्था* *तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता* *है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है |* *धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता |*
जैसे इस शरीर में भी हम देखते हैं कि हम बालक का शरीर छोड़कर युवा शरीर को प्राप्त करते हैं, युवा शरीर छोड़कर वृद्धावस्था प्राप्त करते हैं ,यह अलग-अलग शरीर ही हैं। तो एक ही जीवन में शरीर में परिवर्तन हुआ। उसी प्रकार मृत्युपरान्त एक और बड़ा बदलाव आएगा। दूसरी देह की प्राप्ति होगी। कोई भी शरीर प्राप्त हो सकता हैं। राजा भरत थे तो राजा लेकिन अगले जन्म में हीरन बन गए।
*karmaṇā daiva-netreṇa*
*jantur dehopapattaye*
*striyāḥ praviṣṭa udaraṁ*
*puṁso retaḥ-kaṇāśrayaḥ*
*श्रीमद् भागवतम् ३.३१.१*
अपने कर्मों के अनुसार हमें सत् या असत् योनि प्राप्त होती हैं। यहां कृष्ण ने कहा हैं कि
*” ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |*
*जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || १८ ||”*
*भगवद्गीता १४.१८*
*अनुवाद*
*सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी*
*पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित* *तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक *लोकों को जाते हैं ।*
आप या तो ऊपर के लोको में जा सकते हो या नीचे के लोको में या स्वर्ग में या नरक में। कोई सी भी योनि प्राप्त कर सकते हैं। हमें या तो इसका ज्ञान नहीं है या आधा ज्ञान हैं। जैसे पशु शरीर में आत्मा नहीं है आत्मा केवल मनुष्य शरीर में होती हैं, इसलिए पशुओं को काटो मारो खाओ,कोई पाप नहीं लगेगा। किंतु इस पर अब धीरे-धीरे खोज हो रही हैं। आत्मा के अस्तित्व के संबंध में बहुत सी खोजे हो रही हैं या चेतना पर बहुत अनुसंधान हो रहे हैं।
वैज्ञानिक इस पर बहुत अनुसंधान कर रहे हैं कि भावना या चेतना हैं या नहीं। इस पर बहुत सा धन खर्च कर रहे हैं कि पुनर्जन्म होता है या नहीं। कोई उन्हें बताएं कि गीता भागवत पढ़ो, आत्मा का तुरंत ज्ञान हो जाएगा।कोई खर्चा पानी नहीं हैं। यह लोग खोज में बहुत सी धनराशि खर्च कर रहे हैं।इनको ऐसे दो हजार मनुष्य मिले हैं,जिन्होंने कहा हैं कि इससे पहले जन्म में मैं यह था या यहां जन्मा था, वहां जन्मा था इस तरह से मेरी मृत्यु हो गई। कुछ लोगों को ऐसी यादें हैं। भगवान उनको ज्ञान दे रहे हैं। तो उनके पास यह लोग झट से पहुंचकर उनसे जान रहे हैं और वह व्यक्ति बता रहा हैं कि मैं इस जन्म में यह था ऐसे दो हजार मनुष्य उनको मिल चुके हैं जिन्होंने अपनी आपबीती बताई हैं और यह लोग अब धीरे-धीरे घोषित कर रहे हैं,कि हां हां पुनर्जन्म होता हैं। लोग सत्य की तरफ मुड़ रहे हैं।कुछ लोग गीता भागवत को नहीं मानते। उन्हें लातों के साथ अब माया मनवा रही हैं या उनकी खोपड़ी में कुछ प्रकाश डाल रही हैं। यह आत्मा एक बहुत बड़ा विषय हैं। आत्मा का ज्ञान एक बहुत बड़ा विषय हैं और पूरा संसार आत्मा और परमात्मा की खोज में हैं। जाने अनजाने लोग इसे जानने और समझने का प्रयास तो कर रहे हैं और कुछ इंकार कर रहे हैं कि ऐसा नहीं हैं, लेकिन यह ज्यादा समय नहीं चलेगा। हरि हरि।। अब यहां रुकेंगे।
आप गीता भागवत पढ़ते रहो।गीता भागवत को पढ़ोगे तो आप भी आत्मसाक्षात्कारी बनोगे।भगवद् साक्षात्कारी बनोगे
*गीता भागवत करिती श्रवण। अखंड चिंतन विठोबाचे*
*(संत तुकाराम)*
और
*जीवेर स्वरूप हय कृष्णनेर नित्य दास*
*(भक्ति विनोद ठाकुर)*
मैं जीव हूं और यह जीवात्मा कृष्ण का दास हैं। मित्र भी हो सकता है ऐसा अगर जान लेंगे तो भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं कि कोई दुख नहीं होगा और यहां केवल दुख ही दुख नहीं हैं,यहां सुख भी हैं।
वैष्णवो के लिए यह संसार सुखालय हैं।
*विश्वम पूर्ण सुखायते*
*(प्रभोदानंद सरस्वती)*
या भक्त सुख का अनुभव कर सकते हैं। आत्मानंद या परमानंद या कृष्णानंद या हरिनाम आनंद। आनंद ही आनंद।। ठीक हैं तो आप इन बातों को सुनकर समझ कर और इस पर अमल करके आनंद लूटीये।
*आनंदी आनंद गडे , इकडे तिकडे चोहीकडे।*
*निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल*
*हरे कृष्ण*
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*जप चर्चा,*
*पंढरपुर धाम*
*25 अप्रैल 2021*
हरे कृष्ण! 745 स्थानों से भक्त हमारे साथ जुड़े हैं। गौरंग गौरंग नित्यानंद नित्यानंद गौरंग नित्यानंद गौरंग नित्यानंद। हरि हरि। वृंदावन में कहेंगे दाऊजी के भैया आपकी बारी है कहो दाऊजी के भैया कृष्ण कन्हैया कहो। हे कृष्ण कन्हैया, कृष्ण कन्हैया दाऊ जी का भैया। फिर कोई पूछता है डाकोरमा कौन छे? आप गुजराती हो? तो फिर आपकी परीक्षा होगी कि आप गुजराती हो इसका उत्तर दे सकते हो डाकोरमा कौन छे? राजा रणछोड़ छे। अगर आपने ऐसा कह दिया तो आप गुजराती हो इसका मतलब आपने परीक्षा पास कर ली। डाकोरमा कौन छे? डाकोर में कौन है? राजा रणछोड़ है इतना तो पता होना चाहिए। लेकिन कई को इतना भी पता नहीं होता। डाकोरमा कौन छे? राजा रणछोड़ छे। वृंदावन में कृष्ण कन्हैया, कौन है कृष्ण कन्हैया? वह दाऊजी के भैया है। दाऊजी मतलब दादा, बड़े दादा। महाराष्ट्र में बड़े दादा, बड़े भैया को दादा कहते हैं।
कृष्ण कन्हैया कौन है? दाऊजी के भैया कौन है, बलराम के भाई कौन है? कृष्ण कन्हैया। यह वृंदावन की बात हुई तो फिर मायापुर जाओ, वहां चलता रहता है – गौरंग नित्यानंद गौरंग नित्यानंद। वही गौरंग वही कृष्ण *नंदनंदन जय सचि सुत हुइलो सई बलराम हुईलो निताई*। यह सचिनंदन थे या नंदनंदन थे – मायापुर में श्रीकृष्ण वही सचिनंदन बन जाते हैं। *बलराम हुईलो निताई* वही बलराम नित्यानंद बन जाते हैं। यही बलराम नित्यानंद है आपको सुना चुके हैं। आपको याद है ना? याद रखा करो। कलयुग में मायापुर में प्रकट होने वाले गौर निताई है। द्वापर में कृष्ण बलराम, त्रेता युग में राम लक्ष्मण थे। हरि हरि। यह तो अच्छी बातें हैं और मैं जो कहने वाला हूं वह बुरी बातें तो नहीं है। बुरी बातें वैसे कल बात कर रहे थे। उसकी और चर्चा करते हैं, आत्मा की चर्चा है। हम सभी आत्मा हैं। हर शरीर में आत्मा है। लेकिन ऐसा सब समझते नहीं है।
आत्मा तो केवल मनुष्य शरीर में ही है और शरीर में आत्मा नहीं है ऐसा हो सकता है क्या? लेकिन ऐसा प्रचार संसार भर में होता है या ईसाई ऐसा प्रचार करते हैं। उनका ज्ञान अधूरा है। तो वह अधूरे ज्ञान का ही प्रचार करते हैं। वह झूठ का प्रचार प्रसार करते हैं। यह झूठ है या आधा सच है या अज्ञान है। वह अज्ञानता का प्रचार करते हैं। प्रचार तो ज्ञान का होना चाहिए, सत्य का होना चाहिए। लेकिन अज्ञान का प्रचार होता है। वैज्ञानिक इत्यादि मंडली अज्ञान का प्रचार करती है। शास्त्रों की भाषा में परा विद्या और अपरा विद्या, ऐसे विद्या के दो प्रकार कहे हैं। *परा विद्या आध्यात्मिक विद्या विद्यानाम्*। यह परा विद्या उच्च (सुपीरियर) ज्ञान है और अपरा हीन (इनफीरियर) ज्ञान है। जड़ के संबंध की विद्या कहो और चेतन के संबंध की विद्या, चेतना, आत्मा, परमात्मा कहो। यह सब आध्यात्मिक ज्ञान की बातें, यह परा विद्या है और संसार भर का ज्ञान या मिट्टी का ज्ञान, कुछ भूगोल है, कुछ खगोल है इस संबंध का जो ज्ञान है, यह अविद्या है या अपरा विद्या है। तो अधिकतर प्रचार अपरा विद्या का ही होता है।
आजकल के शिक्षा प्रणाली में आत्मा और परमात्मा को बाहर निकाल दिया गया है। केवल मिट्टी का अध्ययन करो, रसायनिक विज्ञान का अध्ययन करो। हरि हरि। तो वैज्ञानिक इत्यादि मंडली तो अविद्या या अपरा का प्रचार करती ही है। परा अपरा विद्या का प्रचार इस संसार में है। यह जो आज की ताजा खबर(ब्रेकिंग न्यूज़) या प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। आप जानते हो ना इलेक्ट्रॉनिक मीडिया? जो टेलीविजन है और यह सोशल मीडिया इसमें अधिकतर प्रचार या संसार भर की कई सारी किताबें हैं, पुस्तकालय है, विश्वकोश है। यह सारे अविद्या से भरे पड़े हैं। हरि हरि। कुछ परा विद्या, सुपीरियर नॉलेज आत्मा के संबंध का ज्ञान, परमात्मा या भगवान के संबंध का ज्ञान का प्रचार अलग-अलग धर्म करते हैं। लेकिन दुरदेव से उनका ज्ञान भी कुछ अधूरा ही है। हरि हरि। यह अज्ञान ही है। हम कल भी बात कर रहे थे और आज भी बात थोड़ा आगे करना चाह ही रहे हैं। मुझे एक लेख(आर्टिकल) मिला। इसको निबंध भी कह सकते हो। उसमें आत्मा का मूल(ओरिजन), आत्मा की यात्रा(जर्नी), आत्मा का गंतव्य(डेस्टिनेशन)।
इसकी चर्चा इसमें की हुई है। हिंदी भाषा में वे जो लिखे हैं आत्मा का स्त्रोत यानी सोर्स, आत्मा कहां से, कैसे और किससे उत्पन्न हुआ। फिर उत्पन्न हुआ तो संसार में कैसे उसका प्रवास कहो, उसकी जर्नी कहो। कहां-कहां वह आता जाता है और फिर अंततोगत्वा उसका गंतव्य, उसका लक्ष्य और किस लक्ष्य तक वह पहुंचता है। तो अलग-अलग धर्मों में या इस पृथ्वी पर जिन धर्मो का प्रचार, प्रसार और उसके अनुसार आचरण भी करते हैं। तो यह आत्मा का स्त्रोत, आत्मा का प्रवास इस संसार में या शरीरों में या कितने शरीरों में प्रवास करता है और अंततोगत्वा वह कहां पहुंचता है, लक्ष्य क्या है। इसके संबंध में संसार को जो ज्ञान है या जो अलग-अलग धर्म ग्रंथ हैं अलग-अलग धर्मों के और उनका जो प्रचार होता है उसमें सारी भिन्नता है। *जत् मत् तत् पथ्* जितने भी मत हैं उतने पथ है। वह खूब प्रचार करते रहते हैं और प्रचार कर करके उन्होंने जैसे ईसाई धर्म है। जो एक तिहाई संसार की आबादी में ईसाई बन चुके हैं। एक चौथाई हिस्सा इस्लाम है और हिंदू धर्म तृतीय स्थान पर आता है जिसमें से 15% मनुष्य हिंदू है। 7–8% बौद्ध धर्म का है। हरि हरि। बचे हुए 10,12 या 15 प्रतिशत में पूरे नास्तिक ही है। उन्होंने घोषित करा हुआ है कि वह भगवान पर विश्वास नहीं करते है।
आत्मा या परमात्मा नहीं मानते और उन्हें घोषित करा है। वह बेशर्म हैं, उनको ऐसा कहने पर कोई लज्जा महसूस नहीं होती या कभी रूबाब के साथ कहेंगे कि हमारा विश्वास नहीं है। हरि हरि। दुरदेव से या जैसे भी भगवान ही वैसे उनसे कहलवाते हैं कि भगवान नहीं है। ऐसा कौन कहते हैं, लोग तो कहते हैं। लेकिन उनको कौन निर्देश देता है? भगवान देते हैं। वही बात मैं आपको कभी-कभी बताता हूं। तुम्हारी पिताजी से मिलना है। बालक ने कहा देख कर आता हूं। वह देखने गया घर में पिताजी है कि नहीं। उनके पिताजी इनके मित्र को जो द्वार पर खड़े हैं मिल सकते हैं या नहीं यह बालक उनको बताना चाहता है। तो जब बालक अपने पिताजी से मिलता है, वह पटेल है ना आपसे मिलने आए हैं, मिलना चाहते हैं। वह पटेल से मिलना नहीं चाहते। तो फिर उन्होंने बालक को कहा, अपने पुत्र को कहा कि उनको बता दो कि मैं घर में नहीं हूं। तो बालक भागे दौड़े द्वार पर आता है और पटेल जी से कहता है और क्या कहता है? मेरे पिताजी ने कहा कि वह घर में नहीं है। आप सुने और समझे? मेरे पिताजी ने कहा कि वह घर में नहीं है। बिल्कुल ऐसी ही बात है कि अगर कोई कहता है भगवान नहीं है, तो किसने कहा? भगवान ने ही कहा। ऐसी तुम्हारी समझ है। नास्तिक के हृदय प्रांगण में भगवान बैठे हुए हैं। यही नहीं कि केवल आस्तिक के हृदय प्रांगण में ही भगवान बैठे हुए होते हैं।
*सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो*
*मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |*
*वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो*
*वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 15.15)
*अनुवाद*
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
समझ तो यह है कि पशु, पक्षी ,जीव जंतु सभी के हृदय प्रांगण में, जितना उनका छोटा बड़ा ह्रदय होगा, वहां भगवान वहां बैठे हैं यह समझ है। सभी मनुष्यों के हृदय प्रांगण में तो बैठे हैं ही। वह नास्तिक हो या आस्तिक हो। वहां बैठकर भगवान क्या करते हैं? उन्होंने ही कहा है *श्रीभगवान उवाच*, *सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो* *मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |* सभी के हृदय प्रांगण में मैं विराजमान होकर। फिर मैं क्या करता हूं?
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |*
*मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || ११ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.11)
अनुवाद:- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है | *ये यथा मां प्रपद्यन्ते* व्यक्ति कितनी मेरी शरण में आया है। उस के अनुसार या तो उनको मेरा स्मरण दिलाता हूं *मत्तः स्मृति* या फिर मैं उनको ज्ञान देता हूं। जितना शरण में आया है, मैं इतना ज्ञान देता हूं। मैं प्रकट होता हूं। जो मेरी शरण में नहीं आना चाहता है, मुझे नहीं मानता है, *अपोहनं च* मैं उसको अज्ञान देता हूं, अज्ञान में उसको गोते लगवाता हूं। उससे कहलवाता हूं कि भगवान नहीं है, भगवान नहीं है। अंदर से भगवान ही ऐसा विचार देते है। तर्क, वितर्क,लॉजिक, आर्गुमेंट, रीजनिंग अंग्रेजी में बड़े रुबाब के साथ कहते हैं। यह तर्क वितर्क जो है या तर्क वितर्क की बातें जो लोग करते हैं। मुझे तो आपसे आत्मा की ही बातें करनी थी। लेकिन कुछ और ही बातें शुरू हो गई। लेकिन यह सब एक दूसरे से संबंधित है। तो संसार में भगवान नहीं है और भगवान है तो कई लोग आश्वस्त हैं कि भगवान हैं। पूरे दावे के साथ कह सकते और उनका अनुभव भी है कि भगवान है। उनके पास कई सारे सबूत है, शास्त्रों के उदाहरण है। जिनकी मदद से वह समझा सकते हैं, उनकी आस्था जो है औरों को वह कह सकते हैं। यह सिद्ध करने के लिए कि भगवान है। उसी तरह जो भगवान को नहीं मानते उनके पास भी सारा मसाला है औचित्य(जस्टिफिकेशन) है। जिसको हम कहते हैं सारे तर्क वितर्क कर बैठे हैं कि भगवान नहीं हैं। कैसे हो सकते है भगवान? इतने सारे लोग मर रहे हैं, इतने सारे लोग पीड़ित हैं।
भगवान होते तो ऐसा थोड़ी ना होने देते। हरि हरि। जो भगवान नहीं है कहने वालों के पास भी सारा तर्क वितर्क है, लॉजिक या रिजनिंग है। उनके जन्म लेने के पूर्व यह तर्क वितर्क था। यह तर्क वितर्क तब से है जब से यह सृष्टि बनी है। तो दोनों ही हैं। भगवान है इस को सिद्ध करने के लिए सारे सबूत हैं। भगवान नहीं है जिसको कहना है उनके लिए भी सारी तैयारी है, सारे विचार और तर्क वितर्क है। इन दोनों की सृष्टि करने वाले भी भगवान ही हैं। भगवान ने ऐसी सारी व्यवस्था करके रखी हुई है। तो हमारा कहना जो भगवान नहीं है, भगवान नहीं है कहने वालों का वह भी स्वतंत्र नहीं है। *मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः*। भगवान गीता में कहते हैं कि *मम वर्त्मा* मतलब मेरा मार्ग, मेरे द्वारा बनाए हुए मार्ग। सारे संसार के लोग भगवान के द्वारा बनाए हुए मार्ग हैं, उसी पर चलते हैं कोई स्वतंत्र नहीं है। फिर वह आस्तिक है या नास्तिक है, सुर है या असुर है, दो प्रकार के ही लोग इस संसार में होते हैं। तमोगुण भी तो भगवान ने बनाया है।
*प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |*
*अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || २७ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.27)
अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
इस संसार में अहंकार जो है वैसे अहंकार एक तत्व है या सूक्ष्म धातु है। मन, बुद्धि और अहंकार। तो इस संसार में अहंकार उपलब्ध है। अहंकार का स्त्रोत क्या है? तमोगुण से अहंकार उत्पन्न होता है। *तम* मतलब ही अंधेरा होता है। हरि हरि। सत्वगुण है, रजोगुण है, तमोगुण है। इतना काफी है, मैं दूसरी बातें नहीं करने वाला हूं। तो अज्ञान का प्रचार, कुछ लोगों को या कुछ धर्मों में होता है क्योंकि उनको उतना ही ज्ञान है। फिर वह उतना ही प्रचार करते हैं। जैसे हम कल भी कह रहे थे और यहां पर भी लिखा हुआ है। इस्लाम में, जब स्त्री और पुरुष का समागम होता है। जब लिंगइक क्रिया होती है। धारणा शायद आप यह समझते हो।
आत्मा ने गर्भ में प्रवेश कर लिया। ईसाई धर्म में, आत्मा गर्भ में कब प्रवेश करता है? इस संबंध में कई मत मतमातनतर हैं। तो उनके भी कई सारे मत हैं। कई सारे संप्रदाय हैं। लेकिन अधिकतर मान्यता यह है कि 120 दिनों के बाद गर्भ में आत्मा का प्रवेश होता है। जैसे कल कहा था कि 120 दिनों के पहले आप आराम से गर्भपात वगैरह कर सकते हो। गर्भपात करो कोई पाप नहीं है। आप पाप से मुक्त हो। आत्मा का अंततोगत्वा क्या होता है? बौद्ध धर्म ऐसा कहेंगे। बौद्ध धर्म श्रीलंका, थाईलैंड, कंबोडिया, बर्मा और लाओस में उपस्थित है। आप इसको सुनिए मैं अंग्रेजी में पढ़ रहा हूं। मृत्यु के समय जो भी साक्षात्कारी है। जीवन भर साधना कर रहा था, बौद्ध साधना अब जब मृत्यु हो रही है तब वह साक्षात्कारी पुरुष उसका निर्वाण होगा। जिसको आप अपनी भाषा में मोक्ष कहते हो। मोक्ष को निर्वाण कहते है। निर्वाण अथार्थ: आत्मा की ज्योति मृत्यु के समय बुझ जायेगी। तो यह ऐसे ही समझा जा सकता है जैसे मोमबत्ती को आप बुझाते हो। इसको निर्वाण कहते है, या शून्यवाद कहते है। अंततोगत्वा क्या प्राप्त करना है शून्यवाद। हम जो भी थे अब वे नही रहेंगे हम। हम शून्य बनेंगे। क्योंकि समझ ये भी है की जब तक हम जीते रहेंगे हमे भुगतना पड़ेगा। क्योंकि जब तक हम जीवित है , इच्छाएं है, यही इच्छाएं हमारे दुखो का कारण है। ऐसा बुध देव ने प्रचार किया था।
उन्होंने अपने ग्रंथो में भी समझाया है की इच्छाएं ही वजह है जिसकी वजह से हम भुगतना पड़ता है। संसार के दुखो से कैसे मुक्त हो सकते है उसके लिए अपने अस्तित्व को समाप्त करो, शून्य बन जाओ। निर्विशेष शून्यवादी पाश्चात्य देश तारीने। निर्विषेष वाद, मायावादियों का अद्वैतवादियों का और यह दूसरा है शून्य वाद। आत्मा का क्या हुआ उसकी मृत्यु हो गई। हरी बोल। तो क्या आत्मा की मृत्यु हो गई ऐसा कहने से सच में आत्मा की मृत्यु हो जाती है? कृष्ण तो बहुत कुछ कहे है, लेकिन दुनिया तो बहुत कुछ अलग अलग कहती रहती है। अलग अलग धर्मो की अपनी मान्यताएं है। केवल मान ने से क्या होता है। इसी बात को प्रभुपाद भी कहा करते थे। जैसे एक पक्षी है उसका कोई पीछा कर रहा है जैसे शेर या बाघ या और कोई पशु तो ये पशु अपनी जान बचाने के लिए दौड़ रहा है , पीछे देखता है और फिर दौड़ता है। तो फिर पीछा छूट नही रहा है, पशु जो बलवान है जो पीछा कर ही रहा है। उसकी जान ही लेगा। तो जो अपनी जान बचाने के लिए पक्षी दौड़ रहा था वो क्या करेगा , वो गढ़ा बनाएगा। गढ़ा बनाकर अपना सर उस में दाब देगा। और सोचेगा की जो पशु पीछा कर रहा था वो पीछे नहीं आ रहा है। मैं अब सुरक्षित हु। ऐसा व्यवहारिक जीवन में करते है, लेकिन होता क्या है कुछ ही क्षणों में पीछा करने वाला पक्षी आ जाता है और उसको पूछ से बाहर निकाल कर खा लेगा। तो केवल मानने से की आत्मा अब नही रही , निर्वाण हुआ। वैसे आत्मा का जीवन समाप्त नहीं हो सकता।
*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः* ।
*मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति* ॥७॥
(श्रीमदभगवदगीता 15.7)
अनुवाद: इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । कृष्ण कहे है जीव आत्मा मेरा अंश है और ये अंश अंश ही रहेगा सदा के लिए। या कृष्ण जब भगवद गीता में अपना गीत सुनाने लगे ।
*न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः*।
*न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्* ॥१२॥
(श्रीमदभगवदगीता 2.12)
अनुवाद : ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊँ या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे | देखा जाए तो भगवद गीता यही से शुरू होती है । भगवान आत्मा का ज्ञान देते है अर्जुन को , उस ज्ञान के अंतर्गत कृष्ण ने कहा , हे अर्जुन ऐसा कभी समय नहीं था जैसे आजकल की विचार धारा ही की आत्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं । आत्मा ऐसे ही आ जाता है और प्रवेश कर लेता है गर्भ में 120 दिनों के बाद । लेकिन भगवान यह स्पष्ट कह रहे है की ऐसा समय कभी नही था की मैं कभी नही था और तुम भी भूत काल में थे और ये सब राजा महाराजा जो युद्ध भूमि में एकत्रित हुए है ये भी थे और अभी भी है । मैं हु और तुम भी मेरे समक्ष हो और ये सेनाएं भी है। भूतकाल में तो हम थे और वर्तमान में तो हम है ही और भविष्य में भी ऐसा समय कभी नही होगा जब हम नही रहेंगे और ये बाकी के राजा भी नही रहेंगे।
क्या भगवान आत्मा की ही बात कर रहे है या फिर भगवान जानते है और ऐसा ही होता है। राजा राजा नही रहेंगे और भी कुछ बन सकते है मुक्त हो सकते है। तो राजाओं के शरीर में आत्मा है , और जो तुम्हारे शरीर में आत्मा है, और मैं तो परमात्मा हु, तो हम सदा के लिए रहेंगे। कही ना कही रहेंगे, किसी ना किसी रूप में , शरीर में रहेंगे। यह सत्य है। आत्मा शाश्वत है , ना जायते ते न म्रियते । कुछ शास्त्रों में कहते है की आत्मा था नही या मृत्यु होती है। लेकिन कृष्ण कह रहे है की आत्मा न जायते , आत्मा का जन्म नही हुआ है। न म्रियते , ना ही किसी आत्मा की मृत्यु होने वाली है। आत्मा रहेगा , बाकी ये निर्वाण और शून्यवाद को भूल जाओ इसका कोई स्थान ही नही है। हरी हरी।
इसी लेख में उल्लेख हुआ है की हरे कृष्ण वालो को भी ज्ञान दिए है। और लिखा है की वेद वेदांत , शंकराचार्य का एक अद्वैत वेदांत है । और विष्णु का है द्वैत वेदांत। आत्मा की प्रेम भक्ति भगवान है। आत्मा का भगवान से प्रेम या प्रेम मई सेवा, यही प्रेम मई सेवा आत्मा को मुक्त करेगी। शरीर से मुक्त करेगी, माया से मुक्त करेगी। कृष्ण से मुक्त करने वाली नही है, माया से मुक्त हुआ, मोक्ष प्रपात किया लेकिन आत्मा का अस्तित्व समाप्त नही होता है। प्रभुपाद के एक अनुयाई रहे जॉर्ज हैरिसन जो की इंग्लैंड के थे।
बड़े प्रसिद्ध गायक रहे। प्रभुपाद से जब पूछा गया था की आपने जॉर्ज हैरिसन को कोई आध्यात्मिक नाम दिया है या नही , तो प्रभुपाद ने कहा था की उनका नाम हैरिसन जो है वह आध्यात्मिक ही है। जॉर्ज हैरिसन प्रचार में कहा करते थे की अगर आप राम और कृष्ण का नाम जपोगे तो आप मुक्त हो जाओगे। वह केवल प्रचार ही नही करते थे वे “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ” का कीर्तन भी करते थे। और उन दिनों में उन्होंने रिकॉर्डिंग एल्बम भी बनाई हरे कृष्ण कीर्तन की। 50 वर्ष पूर्व की बात है। उस समय ग्रामों फोन चलते थे। आपको शायद पता भी नही होगा की ग्रामों फोन क्या होता है।
कई बुजुर्ग शायद जानते होंगे। पहल ग्रामों फोन खरीद ते थे और उसको बजाया करते थे। देवानंद जो की एक कलाकार थे उसके गाने भी बजा करते थे। दम मारो दम मिट जाए गम, उसने भी हरे कृष्ण हरे राम का गलत प्रचार किया था। उस समय मैं जुड़ा ही था और जब प्रचार करने के लिए जाते मुंबई डाउनटाउन में तो हम में से हरे कृष्ण वाले उस समय में भी अंग्रेज हुआ करते थे कुछ भक्त, तो हम देखते ही जब हम वहा से गुजरते तो वो दोडते हमारी तरफ और फिर ये गाना चलाते दम मारो दम। और इतनी तेज आवाज कर देते ताकि हम भी सुने। और कहते की ऐसे ही है हरे कृष्ण वाले, पहल हरे कृष्ण कहते है और फिर गांजा फूंकते है।
लेकिन उनको पता नही था की हरे कृष्ण वाले तो चाय भी नही पीते। प्रभुपाद ने 1966 में जब पहले बैच को दीक्षा दे रहे थे तो संकल्प करवाया चार नियम पालन करवाए, किसी भी प्रकार का नशा नहीं करना, चाय भी नही पीनी है। पर कुछ लोग कहते की चाय ही मना करी है लेकिन कॉफी तो पी सकते है। कोल्ड ड्रिंक भी नही कोकोकोला वाली । एक समय जब हमने ग्रामों रिकॉर्ड बनाई थी। तो वो टॉप 10 में जॉर्ज हैरिसन का हरे कृष्ण की रिकॉर्डिंग टॉप 10 में आ गई थी । हरे कृष्ण की धुन उन्होंने गाई थी हरे कृष्ण भक्तों के साथ ही। हमारी जमुना माताजी, जिन्होंने गोविंदम आदि पुरषाम गीत गाया है मेरी गुरु बहन ही है और अन्य भक्तो के साथ मिलकर गाया। उसमे गिटार बजा कर कीर्तन किया।
यह हरे कृष्ण महा मंत्र का कीर्तन विश्व भर में प्रसिद्ध हुआ ग्रामों फोन रिकॉर्ड के साथ। तो इसमें लिखा है की जॉर्ज हैरिसन ने कहा था की अगर आप राम या कृष्ण का भजन करते है तो आप मुक्त हो जाओगे। यह जो हरे कृष्ण आंदोलन है , इस्कॉन उनकी ही फिलॉस्फी ऐसी है जिसको जॉर्ज हैरिसन मान गए। और उसी फिलासफी के अनुसार वे कृष्ण कीर्तन करते थे। और अधिकतर जो भारतीय परंपरा है , या धर्म है उनके समझ भी ऐसी ही है।
लेकिन अद्वैत वेदांत की बात भी लिखी है। उनका अद्वैत वेदांत, शंकराचार्य के अनुयाई, उनकी समझ ये है की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। क्योंकि इस लेख में मूल , यात्रा और गंतव्य की चर्चा हुई है। निर्कारवादी जो है उनकी भी यही समझ है की आत्मा लीन होती है परमात्मा में। जो की सच नहीं है। या कुछ होता भी है तो पुनः गिर जाता है। अगर हरे रंग का पक्षी हरे वृक्ष में जाकर बैठ गया तो आप कहोगे की वो लीन हो गया। तो वो पक्षी वृक्ष में जाकर लीन नही हुआ है, उसका अस्तित्व समाप्त नही हुआ है। आप देख सकते हो की पक्षी शाखा पर बैठा हुआ है, पक्षी भी है और वृक्ष भी है।
रामानंद आचार्य का विशिष्ट अद्वैत सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार नदी का पानी सागर में मिल जाता है। तो कोई कह सकता है की नदी सागर में मिल जाती है। तो नदी लीन हुई सागर के साथ। जल के बिंदु है अगर उसका विभाजन करोगे तो उसके जो एटम है उसका विनाश नही होता है। सागर में प्रवेश तो हुआ नदी के जल का लेकिन वो एक कभी नही होते । सागर का जल रहता ही है, और नदी का जल भी रहता ही है। इसको रामानुजाचार्य विशिष्ट अद्वैत सिद्धांत कहे। मतलब द्वैत सिद्ध हुआ। आत्मा समाप्त नही हुआ। प्रभुपाद कहते है की निरंकार निर्गुण वालो की जो बात है आत्महत्या । शरीर की मृत्यु हो सकती है लेकिन आत्मा की मृत्यु नही होती है। लेकिन सोचते है की आत्मा के अलग अस्तित्व को समाप्त करेंगे। हमको समझना चाहिए। *माया मुक्त जीवेरा नही स्वतः कृष्ण ज्ञान।* केवल शरीर नही होता स्वतः में आत्मा भी है। उनको प्रपात करना है इसलिए मनुष्य जीवन है।
शरीर को समझ लिया, खाते रहे सोते रहे तो क्या हो गया जीवन सफल? ऐसी गुमराही से बचो।
मेने नही सोचा था की इतना समय हो जायेगा आज। पर जब आप आनंद लूट ते रहते हो तो पता ही नही चलता की समय कैसे बीत जाता है।
निताई गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 24 अप्रैल 2021*
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 806 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे थे। स्थान (लोकेशन) जप करते अपितु इन स्थानों पर जो इतने सारे भक्त हैं, वे जप कर रहे थे। आप सभी भक्तों का स्वागत है, कृष्ण आपसे प्रसन्न हैं। आप जो जप कर रहे हो, आप कृष्ण को पुकार रहे हो। कृष्ण! कृष्ण..! हरे कृष्ण! यह पुकार है। हरि! हरि!
पुकारते रहिए व कृष्ण के साथ अपना संवाद जारी रखिए। अपने दिल की बात कृष्ण को कहकर सुनाइए।
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्यति पृच्छति। भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीति-लक्षणम।*
( उपदेशामृत श्लोक ४)
अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान- स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं।
हम वैष्णवों के साथ षड्विधं प्रीति-लक्षणम करते ही रहते हैं तथा हम जप के समय ऐसा संवाद सीधे कृष्ण के साथ अथवा कृष्ण के नाम के साथ करते हैं। कृष्ण का नाम ही कॄष्ण है। जब हम उनका नाम लेते हैं, तब कृष्ण प्रकट होते हैं। नाम लेने पर कृष्ण प्रकट होते हैं। तत्पश्चात उनके साथ हमारा संवाद अर्थात गुह्यमाख्यति पृच्छति होता है। आख्यति अर्थात कहना।पृच्छति अर्थात पूछना। हरि! हरि!
कृष्ण भगवतगीता में आत्मा के सम्बंध में कहते हैं। भगवान् भगवतगीता के द्वितीय अध्याय के प्रारंभ में आत्मा की चर्चा कर रहे हैं। भगवान्, आत्मा का ज्ञान दे रहे हैं जिससे अर्जुन को आत्म- साक्षात्कार अथवा आत्मा का ज्ञान हो सके।”तुम शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो।”श्रीकृष्ण का यहां यह कहने का उद्देश्य अथवा प्रयास हो रहा है।
उसी के अंतर्गत कृष्ण कहते हैं
*आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता २.२९)
अनुवाद:- कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते।
इस आत्मा के सम्बंध में कुछ लोग इसे अचरज के साथ देखते हैं। वे समझते नहीं हैं, इसलिए आश्चर्य के साथ देखते हैं। आश्चर्यवद्वदति अर्थात आश्चर्य के साथ उसके सम्बंध में बात करते हैं। उनको अचरज लगता है, देखते हैं, तत्पश्चात कहते हैं। यह सारी गोपनीय बातें हैं।
यह आत्मा अति सूक्ष्म तत्व है। इसके सम्बंध में लोग आश्चर्यवद्वदति,आश्चर्यवत्पश्यति,
आश्चर्यवत्शृणोति अर्थात अचरज के साथ सुनते हैं – क्या, सचमुच! उनके ऐसे उदगार भी होते हैं। यह सब करने के बाद श्रुत्वाप्येन अर्थात सुनने पर भी वे “वेद न चैव कश्चित्’ इस आत्मा के सम्बंध में थोड़ा थोड़ा ही समझते हैं।
एक दिन तो पूरा समझेगें लेकिन प्रारंभ में जब चर्चा होती है, श्रवण, कीर्तन, अध्ययन होता है –
शृणोति अर्थात सुनते हैं, वदति अर्थात बोलते हैं, पश्यति अर्थात देखते हैं। यह आत्मा का दर्शन है। प्रारंभ में थोड़ा थोड़ा समझ आने लगता है अथवा पल्ले पड़ने लगता है। उसके अनुसार व्यक्ति बोलता या देखता है। देखने सुनने पर भी पूरा समझता नहीं है।
संसार के लोग आत्मा के सम्बंध में बोलते, लिखते, कहते व देखते और समझते हैं। उससे पता चलता है कि कृष्ण ने भगवतगीता में कहा है, वेद न चैव कश्चित् अर्थात यह सब करने के उपरांत भी पता चलता है कि उनको आत्मा के विषय में ज़्यादा समझ में नहीं आ रहा है। मैं एक आर्टिकल अथवा लेख पढ़ रहा था। विश्व के ५ महान् धर्म। यहूदी धर्म, बौद्ध धर्म, क्रिस्टियन्स, इस्लाम धर्म, हिन्दू धर्म। सभी इन्ही के संस्करणों में विश्वास रखते हैं। इस लेख में लिखा है कि इस संसार में जो अलग अलग धर्म हैं, वह सभी आत्मा के अस्तित्व को कम या अधिक मात्रा में स्वीकार करते हैं फिर लोग कहते हैं कि मैं आत्मा में विश्वास करता हूँ। लेकिन वह पूर्ण विश्वास नहीं होता, कुछ कम या अधिक होती है। उसी के साथ कई मत- मतान्तर फैल जाते हैं। यदि किसी से पूछे तो कोई कहेगा, ” मेरा विश्वास १० प्रतिशत है।” और आपका ५०%, और आपका क्या कहना है? वह कहेगा कि मेरा विश्वास ७५% तक है परंतु गौड़ीय वैष्णव कहते हैं कि हमारा विश्वास १००% है। श्रद्धा ही नहीं अपितु मेरी दृढ़ श्रद्धा है। मैं विश्वस्त हूँ। प्रभुपाद ने जैसे पूछा था “क्या आप विश्वस्त हो?”
यह संसार ऐसे ही विश्वास पर चलता रहता है। इतना विश्वास या उतना विश्वास या मैं विश्वास नहीं करता या आप कितना विश्वास रखते हो? इसी के साथ कई सारे
मत- मतान्तर और उसके साथ यत मत तत् पथ भी है। मेरा जो मत है, वही सत्य है, वही सही है। यत मत तत् पथ। तत्पश्चात ऐसी भी गलत धारणा है कि सभी अपने लक्ष्य को प्राप्त करेंगे ।
हरि हरि!
इस प्रकार झूठ- मूठ का प्रचार या आधे सत्य का प्रचार (यह आधा भी नहीं हो सकता है। केवल १% सत्य) का ज्ञान हुआ है या हम स्वीकार करते हैं। अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है। संसार भर में या तो आत्मा की बात चल रही है या परमात्मा की जो भगवान् है। आत्मा और परमात्मा के सम्बंध में संसार का ज्ञान अधूरा है या जीरो है या कह सकते हैं कि है ही नहीं। लेकिन जो कहते हैं कि मैं स्वीकार करता हूँ। मैं मानता हूं, मेरा विश्वास है, उस विश्वास की भी कई मात्राएं हैं। इसी के साथ यह टुकड़े- टुकड़े यह विभाजन हुए हैं। इस लेख (आर्टिकल) में आगे कहा है कि वे आत्मा को अलग अलग नाम देते हैं। आत्मा को अलग अलग सम्बोधन होते हैं। अलग अलग प्रकार की समझ होती है। मृत्यु के बाद आत्मा बचती है या मृत्यु के उपरान्त जो बचती है, वह आत्मा है। वैसे अभी अभी तो कहा कि अधिकतर लोग स्वीकार करते हैं कि आत्मा का अस्तित्व मृत्यु के उपरान्त भी बना रहता है लेकिन सभी विश्वास नहीं रखते हैं। जब शरीर समाप्त होता है, तब सब कुछ समाप्त हो जाता है। मास्को में श्रील प्रभुपाद के साथ कोटसत्वकी का वाद- विवाद चल रहा था। ” स्वामी जी शरीर समाप्त हुआ तो सब कुछ समाप्त हुआ। ” फिर चार्वाक एंड कंपनी की यही बात है
*यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्*
*ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः भवेत्।।*
( चार्वाक मुनि)
अनुवाद:- जब तक मनुष्य जीवित है, तब तक घी खाए। यदि आपके पास धन नहीं है तो मांगिए, उधार लीजिए या चोरी कीजिए, किन्तु जैसे भी हो घी प्राप्त करके जीवन का भोग कीजिए। मरने पर ज्यों ही आपका शरीर भस्म हो जाएगा, तो सब कुछ समाप्त हो जाएगा।
जब यह शरीर राख हो जाता है, ‘पुनरागमनं कुतः भवेत्’ तब पुनरागमनं या पुनर्जन्म नहीं होता है, भूल जाओ। ऐसा नहीं कि विदेश में ही यह गलत धारणाएं हैं और वे ही आत्मा को पूरी तरह से नहीं समझते हैं। नहीं! अपितु हमारे देश में देशी लोग भी इसे नहीं समझते अथवा स्वीकार नहीं करते। देश – विदेश में चर्चा का विषय जिसे अंग्रेजी में रिइनकारेशन (reincaration) कहते हैं। क्या व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है? जब पुनर्जन्म की बात होती है, तब संसार पुनः बंट जाता है अर्थात संसार के कुछ लोग पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और कुछ पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते। मुझे याद है कुछ वर्ष पूर्व, कुछ बौद्ध पंथीय प्रचार कर रहे थे, उनको धर्मांतरण करवाना था। हिंदुओं को बौद्ध पंथी बनाना था। वे कह रहे थे- जॉइन अस, जॉइन अस (बौद्ध धर्म को स्वीकार करो।) वे बता रहे थे कि हम पुनर्जन्म को नहीं मानते लेकिन हिन्दू धर्म में तो अगले जन्म या अगले के अगले जन्म में कर्म का फल भोगना होगा। इस कर्म थ्योरी या पुनर्जन्म अर्थात कर्म का फल अधिकतर दुख ही होता है। दुख भोगना ही पड़ेगा। लेकिन आप अगर बौद्धपंथी बनोगे, तब ऐसा कोई झंझट नहीं है। हम पुनर्जन्म को नहीं मानते। हरि !हरि!
आपकी समस्या का हल हो गया। आपको परेशान नहीं होना पड़ेगा, दुख नहीं भोगना पड़ेगा। बस बुद्धं शरणं गच्छामि अर्थात आप केवल बुद्ध की शरण में आ जाओ। ऐसी गुमराही का प्रचार हो रहा है। हरि! हरि!
इस प्रकार आत्मा के सम्बंध में कई सारी गलत धारणाएं है। यह आत्मा के सम्बंध में समझ है, हमारी आत्मा के सम्बंध में कितनी समझ है-आधी है या ७५% है या हम इसे स्वीकार करते हैं। वह समझ, गलत भी हो सकती है। समझ, असमझ। कोई आत्मा को केवल ५० % समझता है और ५०% नहीं समझता। इस लेख में आत्मा के सम्बंध में लिखा है “इसकी मूल यात्रा और गंतव्य की कल्पना करें। यह विशिष्ट प्रकार से अलग है।”संसार भर में जो अलग अलग धर्म है, क्रिस्टियन, इस्लाम, बौद्ध और इसमें हिंदुओं का भी नाम दिया हुआ है। इन सब की आत्मा के सम्बंध में अलग अलग समझ है। आत्मा के स्त्रोत के सम्बंध में अलग अलग धारणाएं है। इस आत्मा का स्त्रोत क्या है? इसके सम्बंध में कई सैकड़ों- हजारों विचार है। आजकल कलियुग में तो कहा जाता है ये जो ‘इज्म’ है ना, जैसे हिन्दुज्म अथवा बुद्धिज़्म और फिर गांधीइज्म, या कम्युनिज्म, नेशनलइज्म, अर्थात यह जो अलग अलग प्रकार के मत – मतान्तर हैं। कलियुग में इंडिविजुअलिज्म अर्थात जितने व्यक्ति हैं, उतने ही इज्म कलियुग में बन जाते हैं, यदि वे अगर किसी परम्परा अथवा सम्प्रदाय से जुड़े हुए नहीं हैं।
*सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः*
( पदम् पुराण)
अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता, तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फल है।
*एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता ४.२)
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा। किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
आपने जो ज्ञान प्राप्त किया है, सुना अथवा पढ़ा है। यदि वह वैष्णव परंपरा या प्रामाणिक सम्प्रदाय में प्राप्त नहीं किया है,
तब ‘सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः है।
यह बहुत महत्वपूर्ण वाक्य या समझ अथवा ज्ञान है,
*शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||*
( श्रीमद् भगवतगीता १८.४२)
अनुवाद:- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं।
इस ज्ञान को परम्परा अथवा सम्प्रदाय में सीखना, समझना चाहिए। हमें सम्प्रदाय की ओर से ही प्रचार व प्रसार करना चाहिए। वे प्रामाणिक परंपराएं कौन सी हैं, उनके नाम भी दिया है। वे चार परंपराएं है, परंपरा में ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
“सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः।”
अधिकतर मनुष्य इस समय परंपरा से जुड़े नहीं है। सम्प्रदाय से उनका कोई सम्बंध नहीं है, वे जानते ही नहीं कि सम्प्रदाय होता भी है। परम्परायें है भी या नहीं हैं। इसका उनको न तो कोई ज्ञान है और न ही कोई चिंता है। फ़िर क्या होता है- इंडिविजुअलिज्म, तब हर व्यक्ति कहेगा- मुझे लगता है या मेरा विचार है। ‘यह सब संसार में चलता रहता है व चल रहा है। भागवत धर्म नहीं अपितु मनोधर्म अर्थात जितने मन हैं, उतने धर्म चल रहे हैं। मन चंचल है, बुद्धि में परिवर्तन होता रहता है। उसमें स्थिरता नहीं है। उसी के कारण, मेरी आज यह विचारधारा है तो आने वाले कल में अन्य अथवा दूसरी होगी। प्रातः काल में एक है, सायं: काल तक मेरे मन बुद्धि में परिवर्तन आ जायेगा।
आत्मा के रहस्य का दुनिया को पता नहीं चल रहा है क्योंकि वे परंपरा में आत्मा के विषय में पढ़ते या सुनते ही नहीं है और जो वैज्ञानिक मंडली है, उनका इज्म प्रत्यक्षवाद चलता है। साम्यवाद, गांधीवाद यह वाद फिर वह वाद। सारे वाद विवाद के अंतर्गत यह वैज्ञानिक मंडली यह प्रत्यक्षवादी होती है। “जब तक हम देखेंगे नहीं, तब तक विश्वास नहीं करेंगे।” वैसे ऐसी भाषा तो नहीं बोलते लेकिन क्या जीवन का कोई लक्षण व चेतना है कि आत्मा का स्तोत्र क्या है? आत्मा केमिकल कांबिनेशन से अर्थात अलग-अलग रसायनों में संयोग से उत्पन्न हुआ। हरि! हरि! कुछ लोग कहते हैं कि पशुओं में आत्मा नहीं होती है। आत्माएं केवल मनुष्य में होती है। पशु में आत्मा नहीं होती इसलिए पशु को काट सकते हैं, खा सकते हैं। ऐसी हत्याओं से पाप नहीं लगेगा क्योंकि उनमें कोई जीवन नहीं है। हरि! हरि!
इसी लेख में लिखा है कि कुछ धर्मों में मान्यता है कि जब स्त्री पुरुष का मिलन अथवा लैंगिक संयोग हुआ (उसे कन्सेप्शन भी कहते हैं), उसके 80 दिनों के उपरांत उस गर्भ में आत्मा का प्रवेश होता है। ना जाने कहां से उनको इस सत्य का उद्घाटन अथवा खुलासा हुआ। आगे, वह कहते हैं कि 80 दिन से पहले आप गर्भपात कर सकते हो, क्योंकि वहां आत्मा आदि नहीं होती है। 80 दिनों के बाद ही वहां पर आत्मा का प्रवेश होता है। यदि 80 दिन से पहले आपने (अबॉर्शन) गर्भपात किया, तब उसमें कोई पाप नहीं होगा। यह दर्शन काफी सुविधाजनक है कि हम पाप से मुक्त हैं क्योंकि आत्मा ने गर्भ में प्रवेश नहीं किया है। अरे मूर्ख! जब तक आत्मा नहीं है तब तक वैसे गर्भ में जो बालक है, वह बढ़ तो रहा है ना। प्रारंभ में वह एक छोटे से मटर के दाने जैसा होता है, धीरे-धीरे वह आकार में बढ़ता है, उसमें कुछ गतिविधियां भी होती रहती हैं लेकिन वह तब तक नहीं हो सकती जब तक उसमें लाइफ नहीं आती अर्थात जीवन नहीं आता। जीवन तो मिलन के प्रथम दिन से ही अर्थात कन्सेप्शन अथवा जब इंटर कोर्स हुआ, उसी समय आत्मा ने प्रवेश किया था। ऐसा नहीं कि 80 दिनों के बाद आत्मा ने प्रवेश किया। हरि! हरि!चार्वाक मुनि आदि की ऐसी गलत धारणा है कि शरीर समाप्त हुआ, तो आत्मा भी समाप्त हुई।
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम। इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाअपारे पाहि मुरारे।।*
( भज गोविन्दम.. (२१)
अनुवाद:- बार- बार जन्म, बार बार मृत्यु, बार बार मां के गर्भ में शयन कराने वाले इस संसार से पार जा पाना अत्यंत कठिन है, हे कृष्ण मुरारी कृपा करके मेरी इस संसार से रक्षा करें।
कइयों की गलत धारण यह है कि मनुष्य जीवन आखिरी जीवन है। इसके बाद और जन्म आदि नहीं होगा। संसार भर के लोगों को ८४ लाख योनियां का यह ज्ञान नहीं है।
*जलजा नव लक्षाणि स्थावरा लक्ष विंशति। कृमयो रुदसङ्खयाकाः पक्षिणां दशलक्षकम्। त्रिंशल्लक्षाणि पशवश्र्चतुर्लक्षाणि मानुषाः।।*
( पद्म पुराण)
अनुवाद:- जल में रहने वाली योनियां नौ लाख हैं, स्थावरों (वृक्षों तथा पौधों) की संख्या बीस लाख है। कीटकों तथा सरीसृपों की योनियां ग्यारह लाख हैं और पक्षियों की १० लाख । पशुओं की योनियां तीस लाख हैं तथा मनुष्यों की योनियां चार लाख हैं।
अगर विकास होता है जैसा कि डार्विन थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन में वर्णन है। एक ही आत्मा, एक शरीर से दूसरे शरीर में, दूसरे से तीसरे शरीर में जाती है। वह अधिक अधिक विकसित शरीरों में प्रवेश करती है। क्रमिक जीव जंतु अथवा वायरस यह भी एक योनि है। पंछी की योनि फिर जो रेप्टाइल्स होते हैं, वृक्ष , पशु , मनुष्य इसमें अधिक अधिक विकसित शरीरों में आत्मा प्रवेश करता रहती है। यह सारा संसार अज्ञान से भरा पड़ा है व आत्मा के सम्बंध में बहुत कुछ मान कर बैठा है लेकिन खुद का ही ज्ञान नहीं है।
*माया- मुग्ध जीवेर नाहि स्वत: कृष्ण ज्ञान। जीवेर कृपाय कैला कृष्ण वेद- पुराण।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक १०.१२२)
अनुवाद:- बद्ध जीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्ण भावना को जाग्रत नहीं कर सकता किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकि कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सृजन किया।
जीव इस संसार में माया से मुग्ध होता है। सभी जीवों की बात चल रही है। ‘अरे! हम तो क्रिस्चियन है, तुम अपनी हिन्दू की माया अपने साथ रखो। हमें इस माया से कुछ लेना देना नहीं है।’ ऐसा कोई भी नहीं कह सकता। माया तो माया है। माया भारतीय, अमेरिकन, हिन्दू या क्रिस्चियन नहीं है। माया , माया है। भ्रम तो भ्रम है।
माया- मुग्ध जीवेर नाहि स्वत: कृष्ण ज्ञान। जिस प्रकार के भ्रम में देश व विदेश के भी लोग भ्रमित हैं, अन्य धर्मों के भी लोग सम्भ्रमित हैं। वह भ्रम तो यहां भी है। हिन्दू भी उसी भ्रम से भ्रमित हैं। भारतीय या चार्वाक है या विदेशी दार्शनिक हैं, वे सब एक ही भाषा बोलते हैं। हरि! हरि! कृष्ण ने तो कृपा की है। जीवेर कृपाय कैला कृष्ण वेद- पुराण। कृष्ण ने वेद पुराण बनाए है। ताकि इस संसार के जीव जो कहीं के भी हो सकते हैं पृथ्वी, स्वर्ग या नरक या जहां भी है, इस ब्रह्मांड में है या अन्य ब्रह्मांडो से हो सकते हैं। उन सभी के लिए कृष्ण ने वेद- पुराण कहे हैं। महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से कहा कि कृष्ण ने कृपा की है।
*सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।*
( श्रीमद् भगवतगीता १५.१५)
अनुवाद: मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ । निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।
आप समझते हो? भगवान् ने क्या कहा।अहमेव वेद्यो -” वेद मैं हूँ अर्थात जानने योग्य मैं ही हूँ। कैसे जानोगे? वेदै अर्थात वेदों की मदद से। वेद चार हैं। इसलिए बहुवचन में वेदै कहा गया है। वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो – मैं जाना जा सकता हूँ लेकिन समस्या यह है कि ये वेद पुराण परम्परा में पढ़े नहीं जा रहे हैं। परम्परा में उस ज्ञान का प्रचार व प्रसार नहीं हो रहा है। इसलिए संसार भर में कई तथाकथित शास्त्र भी बने है। पुराण ही नहीं, फिर कुरान भी हो गया। पुराणों , वेदों , गीता भागवतं में १०० प्रतिशत ज्ञान है। भगवान् कहते हैं कि वेदों की मदद से ‘मैं जैसा हूँ, उतना ही जाना जा सकता हूँ।’ इसलिए कहा भी है।
*एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकीपुत्र एव ।। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।*
(गीता महात्म्य ७)
“आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण। एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, *हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे।।* केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा ।”
एक शास्त्र पर्याप्त है। लोगों अथवा दुनिया ने दुनिया भर के कई शास्त्र बनाए हैं। किसी शास्त्र ने आधा सत्य लिखा है। किसी में 10% है तो किसी में हो सकता है कि १०० प्रतिशत ही गलत हो। इसलिए अलग अलग यत् मत तत् पथ भी हो जाते हैं। कई सारे मजहब भी हो जाते हैं। एक समय २००० वर्ष पूर्व क्रिस्टियन्स थी लेकिन अभी क्रिस्टियन्स के कितने प्रकार हैं। नो आईडिया, उनके सैंकड़ों विभाजन हो चुके है। उसको मजहब कहते हैं। अगली पीढ़ी उसमें कुछ जोड़ती व घटाती रहती है, परिवर्तन करती है। कुछ क्रांतिकारी विचार को स्थापित करने का प्रयास करती है। इसी साथ कन्फ्यूजन अर्थात यह संभ्रम बढ़ता ही रहता है। यह विषय तो बहुत बड़ा है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। अभी इतना ही आपसे कह दिया है लेकिन अभी यहीं विराम देते हैं। कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है, तो आप पूछ सकते हैं।
प्रश्न:- यदि गलती से किसी कीट, पतंगे, मच्छर को मार देते हैं क्या वह पाप है? क्या करना चाहिए।
गुरु महाराज:- कृष्ण की शरण में जाना होगा।
कृष्ण कहते हैं-
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६)
अनुवाद:-समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत।
आपके द्वारा जाने अनजाने किए हुआ पापों के फल से आप को मुक्त किया जाएगा। शरणागति अनिवार्य है। भगवान की शरण या भगवान के नाम की शरण आवश्यक है। वैसे जो गृहस्थ हैं, (अभी मैं पढ़ रहा था) वे पांच प्रकार के पाप करते ही रहते हैं। जब वे चूल्हा जलाते हैं, तब कई सारे जीव जंतुओं को मार देते हैं। जब घर की झाड़ू से सफाई करते हैं, तब कई जीव जंतुओं को अपनी जान गंवानी पड़ती है। जब चक्की पीसते हैं, ( वैसे अब ऐसा नहीं होता, कुछ समय पहले माताएं ऐसा कार्य करती थी) तब भी कहीं जीवों को मारते हो। इस तरह से और भी दो है। इस प्रकार कई जीव जंतु की जान जाती है। शास्त्र में आपकी जानकारी के लिए, आप गृहस्थ हो, घर में हो। आप यह पाप नहीं चाहते हुए जाने-अनजाने करते हो। इसलिए मुक्त होना है तो भगवान की शरण ग्रहण करो। ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’
अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है दूसरा उपाय नहीं है, दूसरा उपाय नहीं है।
प्रश्न:- भगवत गीता में कर्म थ्योरी( सिद्धांत) कहां दिया गया है?
गुरु महाराज:- सर्वत्र है,
*कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्र्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।।*
(भगवतगीता ४.१७)
अनुवाद: कर्म की बारीकियों को समझना अत्यन्त कठिन है ।अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है।
भगवान का ऐसा एकवचन हैं। भगवान कह रहे हैं – हे अर्जुन, इन कर्मों को समझो और कर्म के प्रकारों को भी समझो। एक कर्म होता है, दूसरा विकर्म होता है। कर्म मतलब पुण्य कर्म और विकर्म मतलब पाप। अकर्म अर्थात भक्ति का कर्म। कर्म की गति गहन है।
*ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता१४.१८)
अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।
सद्गुण में किया हुआ कर्म का फल है ऊर्ध्वम गच्छति। अधो गच्छन्ति तामसाः अर्थात जो पाप कर्म करते हैं, वे नीचे पाताल लोक जाते हैं। यह सब कहां है गीता में कर्म के नियम है। गीता का ज्ञान सर्वत्र है। गीता में भी है।
*बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता २.५०)
अनुवाद:- भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है। अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है।
कृष्ण गीता में कहते हैं –
योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात योग ही है।योग की अवस्था में कर्म करो अर्थात कृष्ण भावना भावित होकर कर्म करो।
*योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय । सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता २. ४८)
अनुवाद:- हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो।
ऐसी समता योग कहलाती है।
पहले योग में स्थित हो जाओ। तत्पश्चात कुरु कर्माणि। योगी भव:। योग अर्थात कर्म ही है। इसलिए कर्म योग, ज्ञान योग, अष्टांग योग कहा गया है। भक्ति योग भी कहा है।
*योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता ६.४७)
अनुवाद:- और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।
योग क्रिया ही है। अलग अलग भक्ति अथवा कृष्ण भावना के स्तर की क्रियाएं हैं। इसलिए एक का नाम कर्मयोग हुआ। जब थोड़ा कृष्णभावनाभावित हुए, तब ध्यान योग हुआ। यदि और कृष्ण भावनाभावित है, तब आष्टांग योग हुआ। जब कृष्ण भावना पूरी विकसित हुई तब योगिनामपि सर्वेषां अर्थात कृष्ण कहते हैं कि भक्तियोगी हुआ। कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना एक भी क्षण जी नहीं सकता। हम रात दिन अहर्निश कर्म करते रहते हैं। हमारी कई प्रकार की क्रियाएं हैं। कितने सारे क्रिया पद हैं। पाणिनी व्याकरण में दो हजार धातु हैं। तत्पश्चात 2,000 धातुओं में अलग-अलग प्रत्यय लगाने से और भी कई सारी धातुएं क्रियाएं बन जाती हैं। एक तरफ कर्म ही है लेकिन वह कृष्णभावनाभावित करने से उसका नाम भक्ति योग होता है अन्यथा वह कर्म है कोई पुण्य कर्म कोई पाप कर्म आदि।
प्रश्न:- हम सुनते हैं कि आध्यात्मिक जीवन में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करनी है। उसके लिए भौतिक चेतना का अंत करना होगा। वास्तविक जीवन में उस अवस्था को कैसे प्राप्त कर सकते हैं जहां पर भौतिक चेतना नहीं रहेगी और हम 100% कृष्णभावनाभावित जाए ।
गुरु महाराज :- भक्ति योगी बनो और तत्पश्चात
*एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् । परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥* *पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः । श्रेयो दिशल्यभिमतं यद्धादिषु देहिनाम् ॥*
( श्रीमद्भागवतगम ४.८.५९)
अनुवाद:- इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन , वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति – विधियों के कार्यों में मग्न रहता है , भगवान् उसे उसकी इच्छानुसार वर देते हैं । यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म , अर्थ , काम भौतिक संसार से मोक्ष चाहता तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं ।
तीन प्रकार की क्रियाएं अथवा अवस्थाएं होती हैं। हमारे कुछ कृत्य कायिक अथवा शारीरिक, वाचा और कुछ बोलते हैं और मनसा कुछ कार्य मन से होते हैं अर्थात कुछ सोचते हैं। यह सारी क्रियाएं कृष्ण भावना भावित हो कर हम करेंगे अथवा कहेंगे या सोचेंगे।
*अन्याभिलाषिता – शून्यं ज्ञान – कर्माद्यनावृतम् । आनुकूल्येन कृष्णानु – शीलनं भक्तिरुत्तमा ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१६७)
अनुवाद:- जब प्रथम श्रेणी की भक्ति विकसित होती है , तब मनुष्य को समस्त भौतिक इच्छाओं , अद्वैत – दर्शन से प्राप्त ज्ञान तथा सकाम कर्म से रहित हो जाना चाहिए । भक्त को कृष्ण की इच्छानुसार अनुकूल भाव से उनकी निरन्तर सेवा करनी चाहिए।
ऐसा कृष्ण भावना का जीवन जिसमें अन्य अभिलाषा शून्य हो जाती है और अन्य कोई चिंता नहीं रहती सिर्फ कृष्ण का चिंतन होता है। कृष्ण भावना चिंतन रहता है। ज्ञान – कर्माद्यनावृतम् अर्थात ज्ञान से मुक्त, कर्म से मुक्त, योग से मुक्त।
*कृष्ण – भक्त – निष्काम , अतएव ‘ शान्त ‘ । भुक्ति – मुक्ति – सिद्धि – कामी – सकलि अशान्त ‘ ।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१४९)
अनुवाद:- चूँकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है, इसलिए वह शान्त होता है। सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं , ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं ; अत : वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते ।
भुक्ति की कामना नहीं है, मुक्ति की कामना नहीं है, सिद्धि की कामना नहीं है। कृष्ण भक्त निष्काम अतएव शांत। वह कृष्णभावनाभावित हुआ है तो फिर वह शांत है। नेति, नेति, नेति नहीं है यह कृष्णभावनामृत नहीं है। यह कर्मकांड है। यह भी कृष्णभावना नहीं है, यह ज्ञान कांड है।
*कर्म कांड, ज्ञान कांड केवल विषेर भांड।*
यह सब हम अपने जीवन से हटाएंगे । यह अलग अलग भाव और क्रिया कलाप और ऐसे लोग का भी त्याग करेंगे।
*असत्सङ्ग-त्याग,-एड़ बैष्णव-आचार ।स्त्री-सङ्गी’-एक असाधु, ‘कृष्णाभक्त’ आर ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत २२.८७)
अनुवाद:- वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रीयों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कृष्ण-भक्त नहीं हैं।”
हम असत्सङ्ग टाल रहे हैं।
तत्पश्चात वैष्णवों जैसा आचरण होगा जिसमें असत्सङ्ग-त्याग होता है। यह श्रद्धा से प्रेम तक है। पहले श्रद्धा थी, फिर साधु सङ्ग हो रहा है। साधु ने हमें भजन क्रिया सिखाया। भजन क्रिया कर रहे , तब हम अनर्थों से मुक्त हो गए हैं। हम कृष्ण भावना में फिक्स्ड हो चुके हैं। वहां से अब नो यू- टर्न। रुचि बढ़ रही है, हम आसक्त हुए हैं। हमें कृष्ण का चस्का लगा हुआ है। भावों का अनुभव हो रहा है। तत्पश्चात कृष्ण प्रेम के फल को चख रहे हैं। हम सीढ़ी चढ़ रहे हैं। पहले श्रद्धा के सोपान पर थे और ऊपर चढ़े, साधु सङ्ग कर रहे हैं। यह साधु सङ्ग करते रहना होगा। यह नहीं कि प्रारंभिक अवस्था में ही हमें साधु सङ्ग चाहिए अपितु साधु सङ्ग सदा के लिए होगा। नहीं, अभी हम भजन क्रिया कर रहे हैं, तो साधु सङ्ग नहीं चाहिए या अब हम निष्ठावान हो गए हैं तो अब हर चीज़ पर विराम देते हैं। साधु सङ्ग नहीं होगा, भजन क्रिया नहीं होगी। ऐसे आप रोक नहीं सकते, यह सब आधार बन जाते हैं, उसी पर हम अलग अलग मन्जिलें खड़ी करते हैं। गगनचुंबी भक्ति के प्रासाद हम ख़ड़े कर सकते हैं। पहले हमारी श्रद्धा थी, फिर निष्ठा हो गयी। निष्ठा आधार बन गया। रुचि बढ़ रही है । रुचि बढ़ती जाएगी व रुचि को बढ़ाना है। फिर आसक्त हो जाएंगे। उसके बिना जी नहीं सकेंगे।
*युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥*
( शिक्षाष्टकम ७)
अनुवाद:- हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा हैं तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है।
हरि! हरि!
अतंतः पहुंच गए। साधु सङ् ही है। वैकुंठ या गोलोक जाना है, वहां साधु ही साधु है। वहां औऱ कोई है ही नहीं। आप साधु से दूर कहीं जा ही नहीं सकते। वैकुंठ जाना है, गोलोक जाना है साधुओं के अधिक निकट अर्थात निकटर अथवा निकटतम जाना होगा। ऐसे होते होते तुम भी साधु बन जायोगे। आप १००% साधु या साध्वी बनोगे। कोई १०%, कोई ५०% , कोई १००% साधु बन चुका है। कोई कनिष्ठ अधिकारी है। अधिकारी तो है लेकिन कनिष्ठ है। कोई मध्यम अधिकारी है। यदि अधिकारी हो कोई उत्तम अधिकारी हो। हमें भी उत्तम बनना है। यह सारा कृष्ण भावना का जो जीवन है, उसी उद्देश्य से है ताकि हम कृष्णभावनाभावित हो पाए। ऐसा नहीं कि हम कृष्णभावनाभावित हो गए तो निष्क्रिय हो जाएंगे। कोई कर्म करेंगे, नहीं। नहीं! वह मायावाद है। हम व्यस्त रहेंगे, सक्रिय रहेंगे। आत्मा जब १००% कृष्णभावनाभावित हो जाती है। आत्मा सक्रिय हो जाता है। आत्मा की इन्द्रिय भी सक्रिय होती है।
*सर्वोपाधि – विनिर्मुक्त तत्परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश – सेवनं भक्तिरुच्यते ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत १९.१७०)
अनुवाद:- ” भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना । जब आत्मा भगवान की सेवा करता है , तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं । ‘
शुद्ध भक्त का अपराध शून्य जीवन भी होता है। यह भी अनुभव किया है। सारे अपराधों से मुक्त। यदि हम वैष्णव अपराध- करते ही रहेंगे, तब हम कैसे शुद्ध भक्त बनेंगे, व अनुभव भी कैसे करेंगे। हरि! हरि! हर दिन हमें तरक्की करनी है।
हर दिन हमें ऊपर वाले सोपान पर चढ़ना है। हरि! हरि! मुझे अब गुरु की जरूरत नहीं। गुरु के सर पर पैर रखते हुए हम छलांग मारेंगे कि मुझे अब गुरु की आवश्यकता नहीं। ऐसा भी नहीं है। है ही नहीं।
श्री गुरु वैष्णवः भगवत गीता। हमें सब अवस्थाओं में इनकी आवश्यकता होती है। ठीक है।
समय हो चुका है।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*पंढरपुर धाम से*
*23 अप्रैल 2021*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
श्रवण संकीर्तन महोत्सव की जय! हर एकादशी पर कीर्तन मिनिस्ट्री महोत्सव का आयोजन करती है इस महोत्सव का नाम हैं श्रवण कीर्तन महोत्सव। हम इस दिन पर श्रवण और कीर्तन करते हैं। इस तिथि का चुनाव हुआ है ज्यादा से ज्यादा श्रवण और कीर्तन करने के लिए। भगवान को याद करना है श्रवण कीर्तन श्रवणोत्सव कीर्तनोत्सव के साथ। कीर्तन मिनस्ट्री की तरफ से अलग-अलग कार्यक्रम आयोजित होते हैं। उसमें से मुख्य है कीर्तन। अलग-अलग कीर्तनकार कीर्तन करते हैं, हरे कृष्ण कीर्तन! दिन भर ज्यादा से ज्यादा कीर्तन करते हैं, मुलतः कीर्तन और भजन। एकादशी का दिन भजन करने का दिन है। भक्त कम भोजन करते हैं या फिर भोजन करते ही नहीं। काफी सारे भक्त है जो निर्जला एकादशी करते हैं। वह पानी भी नहीं पीते वह सिर्फ अमृत का पान करते हैं। पानी क्यों पिया जाए जब हरिनामामृत है! कम भोजन अन्न नहीं लेते और ज्यादा भजन। उस दिन वह भजनानंदी बनते हैं।
समाधिनाम काम बाद में हम कुछ अलग ढंग से बोलते हैं, हम बोलते हैं काम पहले और फिर समाधि बाद में। किंतु एकादशी के दिन हम इसका उल्टा कर सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा भजन कर सकते है, ध्यान कर सकते हैं। समाधि, यहां फिर समाधिस्थ बनने की कोशिश कर सकते हैं। तो यह दिन भजन का दिन है। हम भजनानंदी बन सकते हैं। हम ज्यादा से ज्यादा कीर्तन करते हैं, जप करते हैं। भक्तगण एकादशी के दिन अधिक संख्या में जप करते हैं। एकादशी के दिन अलग-अलग भक्तों के अलग-अलग प्रण होते हैं । हमें भी कुछ भक्त पता है। बहुत सारे भक्त 64 माला का जाप करते हैं। कुछ भक्त 32 माला का जाप करते हैं, तो कुछ 25 माला का जाप करते हैं। हमें यह देखना है कि हर एक भक्त एकादशी के दिन अधिक माला का जप करें।
कीर्तन मिनिस्ट्री के श्रवण कीर्तन महोत्सव के हिस्सा होने के नाते हमें कुछ अग्रणी भक्तों को बोलने के लिए बुलाते हैं। वह क्या बोलते हैं? किसके बारे में बोलते हैं? वह बोलते हैं हरिनाम की महिमा के बारे में! हम उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, हरिनाम महिमा के बारे में ज्यादा से ज्यादा बोलने के लिए। उस पर ध्यान देने के लिए हरिनाम महात्म्य और गौरांग की कीर्तन लीला वही उनके प्रवचन का विषय होना चाहिए।और नाम महिमा उन्होंने भी जप किया है, हरिनाम महिमा या फिर ढूंढ सकते हो हमारे शास्त्रों में। *हर्रेनाम हर्रेनाम हर्रेनामेव केवलम् । कलौं नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ।।* यह भी हरिनाम की महिमा है। कुछ अग्रणी भक्त या फिर प्रवचन कर्ता हरिनाम का जप या कीर्तन करते है और फिर हम भी गंभीर हो जाते है। जब हम हरि नाम का महिमा सुनते हैं तो हम भी सब और महामंत्रका जप करने केेे लिए ज्यादा गंभीर हो जाते है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरेेे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
और फिर हम अधिक गंभीरता पूर्वक ध्यानपूर्वक हरिनाम जप करते हैं। मंत्र ध्यान करते हैं। यह महत्वपूर्ण हैै कि हम श्रवण करें हरिनाम महिमा का। जाहिर सी बात है की, हर एकादशी पर हम सब सभी कुछ नहीं करते है। अलग-अलग एकादशी पर हम अलग-अलग चीजें प्रस्तुत करते हैं। कुछ एकादशी पर हम साथ में जपा करते हैं, पूरे 7 दिनोंं के नहीं बस एक डेढ़ घंटे केे लिए। भक्त मंत्र ध्यान और कीर्ततन में अग्रणी हिस्सा लेतेे हैं और वह अपनी अलग-अलग तकनीक सिखाते हैं। वह एक नियम पुस्तिका प्रस्तुत करते हैं, कैसे जप करना चाहिए, कैसेेेे ध्यान पूर्वक जप करना चाहिए ऐसे कई सारी जप चर्चा होती है। और फिर हम हमारे प्रस्तुतकर्तााओं को भजन करने के लिए प्रोत्साहित करतेे हैं, जो इस श्रवण कीर्तन उत्सव का एक भाग है। तो वह भजन गाते है। वैष्णव भजन जो भक्तिविनोद ठाकुर के भजन है वे वह गातेे हैं। नरोत्तम दास ठाकुर के भजन गाते हैं। श्रील प्रभुपाद ने हमें बहुत सारेेेे वैष्णव भजन से अवगत कराया है। हम इस्कॉन में हम मूलतः कीर्तन और भजन करते हैं। हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन और वैष्णव भजन का गान करते हे। कुछ प्रस्तुत कर्ता है जो वैष्णव भजन गाते हैं और फिर हम उनको उसका अर्थ बताने केेे लिए भी कहते हैं। भजनों में भाव और भक्ति, तत्वज्ञान का वर्णन होता है। बहुत बार ऐसा होता है की, हम भजन गाते हैं लेकिन हमें पता नहीं होता कि हम क्या गा रहेे हैं। हम सिर्फ तोते के जैसे गाते हैं। हमेंं पता होना चाहिए कि हम क्या गा रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद सिर्फ भजन गाते नहीं थे बल्कि उन्होंने कुछ भजनों का अर्थ लिखा है बोला है। हम भी ऐसेे ही कुछ तो कोशिश करते है। एकादशी केे दिन हम कोई एक भजन लेते हैं उसका अर्थ बताते है उसेेे गाते हैं। कीर्तन मिनिस्ट्री और एक कोशिश करती है कि, हम आपको कुछ टिप्स देते हैं कि कैसे भजनों का उच्चार किया जाए, मंत्र श्लोक का कैसे अच्छे से उच्चार किया जाए। हमें यह सब कुछ ठीक से नहीं आता है या फिर यह हमारी भाषा नहीं है। संस्कृत या फिर बंगाली यह हमारी मातृभाषा नहीं है। जाहिर सी बात है कि हमें हिंदी और मराठी भी पता ना हो क्योंकि हम भारतीय नहीं हैं। जिन की भाषा संस्कृत शब्दों से भरी हैं या फिर एक जैसे उच्चार हो संस्कृत तो, विशेषता वह प्रभुजी और माताजी जो विश्वभर से है उनको सीखने की जरूरत है। सही से उच्चारण करना सीखना चाहिए क्योंकि हम इसमें ठीक नहीं है। कीर्तन मिनिस्ट्री यह भी देखना चाहती है कि हम सभी संस्कृत बंगाली हिंदी शब्दों का सही से उच्चारण कर सके। मुझे लगता है शायद आज हमारो नित्यानंद प्रभु प्रस्तुतीकरण कर रहे हैं। आज वे कैसे सही से संस्कृत उच्चारण हो इसका प्रस्तुतीकरण कर रहे हैं।
आप सभी का फिर से एक बार मैं स्वागत करता हूं और धन्यवाद देता हूं कि आप इस कार्यक्रम से जुड़ गए हो। आज का प्रथम प्रस्तुत करता मैं हूं और आज मैं गाने जा रहा हूं, यशोमती – नन्दन , ब्रजवर नागर , और उसके बाद मैं हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करूंगा। वक्त की मर्यादा है, मैं इस भजन का अर्थ बताऊंगा यह भजन बहुत ही सरल है। यह भगवान के विविध नामों से भरा श्रीकृष्ण और बहुत सारे नाम जिनके पीछे का मतलब है उनकी लीला उनका बाकी भक्तों के साथ संबंध, वह वृंदावन के निवासी हैं। कृष्ण को लाखों करोड़ों नाम मिले हैं उसी में से कुछ नाम यहां पर है। इस भजन में भक्तिविनोद ठाकुर ने एक साथ लाए हैं। इसी तरह से नाम एकत्रित आए हैं। यशोमती नंदन आप समझ सकते हो। यह सभी नाम बहुत विशेष है। जैसे ही हम यह भजन गाने को शुरुआत करते हैं हम महसूस कर सकते हैं, यह समझ सकते हैं की, कृष्ण के अर्चविग्रह यहां उस नाम के पीछे का लीला या फिर कोई भक्त जो भगवान कृष्ण के संग आया है। तुरंत ही हम समझ पाते हैं
*यशोमती – नन्दन , ब्रजवर नागर , गोकुल -* *रञ्जन कान । गोपी – पराणधन , मदन – मनोहर* , *कालीय – दमन – विधान ।। अमल हरिनाम अमिय – विलासा ।* *नवीन नागरवर ।, वंशीवदन सुवासा ।। ब्रज – जन – पालन ,* *असुरकुल – नाशन , विपिन – पुरन्दर , नन्द -* *गोधन – रखवाला । गोविन्द , माधव , नवनीत -* *तस्कर , सुन्दर नन्दगोपाला ।। यामुन – तटचर ,* *गोपी – वसनहर , रास – रसिक कृपामय ।* *श्रीराधा – बल्लभ , वृन्दावन – नटवर ,* *भकतिविनोद आश्रय ।।*
अनुवाद – ब्रजके श्रेष्ठ नागर जो समस्त गोकुलवासियोंको आनन्द प्रदान करनेवाले , गोपियोंके प्राणधनस्वरूप साक्षात् मदन ( कामदेव ) के मनको भी हरण करनेवाले एवं कालीयनागका दमन करनेवाले हैं , उन श्रीयशोदानन्दनकी जय हो । उनका नाम अमल है अर्थात् चिन्मय है तथा अमृतके समान है और वे नवीन नागर ( श्रीकृष्ण ) विपिन ( द्वादशवनों एवं उपवनों ) के राजा हैं , उनके श्रीमुख ( अधरों ) पर वंशी सुशोभित हो रही है । ब्रजवासियोंका पालन एवं असुरोंका विनाश करनेवाले , नन्द महाराजकी गायोंकी रक्षा करनेवाले और माखनचुरानेवाले नन्दनन्दनकी जय हो । जिनके गोविन्द , माधव आदि अनेक नाम हैं , जो यमुनाके किनारे नाना प्रकारकी लीलाएँ करते हैं , गोपियोंके वस्त्रोंको हरण करनेवाले हैं तथा उनके साथ रास रचानेवाले हैं । भक्तिविनोद वृन्दावनके उस श्रेष्ठ नट श्रीराधाबल्लभजीके ( राधाजीके प्रणानाथ ) श्रीचरणोंमें आश्रय ग्रहण करता है ।
यशोमती नंदन कहते ही हमे तुरंत स्मरण होता है यशोदा मैया का, यशोदा मैया की जय! यशोमती नंदन, नंदन मतलब पुत्र यशोमती नंदन सचिनंदन नंदन! नंदन मतलब पुत्र आप लिख कर लो अब जब भी गाओगे देवकीनंदन कौशल्या नंदन,
यशोमती – नन्दन , ब्रजवर नागर वे वह है जो वृंदावन में रहते हैं। जो वृंदावन वासियों को अति प्रिय है।
गोकुल – रञ्जन कान इस भजन में जो शब्दों की श्रृखला है। उसने यह शब्द कान्हा सम्मिलित हुआ है जो इस पद को पूर्ण करता है। यहां पर कुछ बदलाव किए गए कान्हा का कान बन गया है।
गोकुल – रञ्जन कान मतलब वह कृष्णा जो पूरे गोकुल का मनोरंजन करते हैं।
गोकुल – रञ्जन कान ।
गोपी – पराणधन , मदन – मनोहर, कालीय – दमन – विधान।।
गोपी – पराणधन, पराणधन क्या है? यह शब्द इसमें आया प्राण क्या है? राधा कृष्ण प्राण मोर, इस भजन में पराण लिखा है। हम गाते हैं गोपी पराणधन कृष्ण गोपियों के प्राण है। और वह मदन मनोहर है और वह मनोहर मन को हरने वाले है। उन्होंने मदन का मन हर लिया है। मदन मतलब कामदेव काम के देवता कई सारे नाम है। उनको अनंग भी कहते हैं। अनंग इसलिए कहते हैं, अनंग मतलब जिनको शरीर नहीं है। उनका शरीर उन्होंने खो दिया है। शिवजी ने उनके शरीर को भस्म किया यह एक अलग लीला है। *कंदर्पकोटि कमनिय विशेष शोभम* मदन मनोहर है कालीय – दमन – विधान और वे कालिया का दमन करने वाले हैं। उन्होंने कालिया का वध नहीं किया दमन किया। इसीलिए इसे कालिया वध नहीं कहा जाता कालिया दमन कहते हैं। तो वह कालिया का दमन करने वाले है। उन्होंने कालिया का दमन किया कालिया के फनों पर वे नाच रहे थे। उसको डांट भरी और कहा कि यहां से निकल जा और कालिया ने वैसे ही किया। श्रील प्रभुपाद ने फिजी में कालिया का मंदिर स्थापित किया, उसमे नाग पत्नियां भी है और कृष्ण कालिया के फनों पर है।
अभी मुझे थोड़ी गति बढ़ानी होगी, क्योंकि मुझे गाना भी हैं, मुझे हरेकृष्ण महामंत्र को भी गाना है। अमल हरिनाम अमिय – विलासा । काश हम सभी अमल हरिनाम ले पाए या फिर और कही पर भक्तिविनोद ठाकुर ने लिखा है।*अपराध शुन्य हय कृष्णनाम* ना जाने कब मैं अपराध शुन्य नाम जप करूंगा! ना जाने कब अपराध विरहित जप करूंगा। वह शुद्ध नाम जप होगा वही बात यहां पर अमल हरिनाम। अमल मतलब धूली! अपराधों की धुली उस धूली से मुक्त होकर अगर मैं जप करूंगा तो अमिया विलासा तभी मैं सुखी हो जाऊंगा। मैं आत्माराम बनूंगा। मेरी आत्मा स्वयं समाधानी बनेगी। अगर मैं अमल हरिनाम करूंगा विपिन – पुरन्दर विपिन मतलब वन वह सच में वन के ईश्वर है फिर कोई सखी आती है और कहती हैं, नहीं नहीं! राधारानी वृंदावनेश्वरी है। राधा वृंदावन की ईश्वरी है, कृष्ण तुम नहीं हो। उसके बाद उनका युद्ध शुरू होता है। सारे गोप और गोपियां झगड़ा करने लगते हैं। वृंदावन के ईश्वर कौन हैं? कृष्ण है कि राधा है?
विपिन – पुरन्दर कृष्णा सभी के ईश्वर है। हम भी समझ सकते हैं कि कृष्ण 7 वन के ईश्वर है बाकी 5 वन के के बलराम ईश्वर है।
यह सब उनके पिता की संपत्ति हैं, नंद महाराज की संपत्ति। *आराध्य भगवान ब्रजेश तनय* नंद महाराज ब्रज के ईश हैं, नंद महाराज वृंदावन के स्वामी है मालिक है, वे और एक ईश्वर है। और उनके पुत्र उसका विभाजन कर रहे है। ठीक है यह वन कृष्ण का है और यह वन मेरे लिए हैं यह बलराम जी कह रहे हैं और एक ब्रज के ईश्वर। *नवीन नगरवर* कृष्ण ब्रज के नायक है, वे सर्वोत्तम है। उनके सौंदर्य में सदा अति नवीनता रहती है
*आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनंच*
*वंशी वदन सुवास*। सिर्फ एक नाम और हम बहुत कुछ उसके ऊपर बोल सकते हैं, बहुत कुछ हमें याद भी दिलाता है। कृष्ण वंशी धारी है और उनके पास कितने तरह के वंशी हैं? वे बंसी बजाने वाले हैं और वहां पर असीमित महिमा है उस वंशी की, उन वंशी बजाने वाले की असीमित महिमा है। वंशी वदन वह वही है जो वह है। और सुवास! सु का मतलब है अच्छा और वास मतलब संस्कृत भाषा में वास के अनेक मतलब है इसलिए संस्कृत बहुत सुंदर भाषा है। वहां पर एक ही शब्द के अलग-अलग मतलब है। वास का एक और मतलब है रहने का स्थान भी होता है निवास। और यहां पर वास का मतलब *वासांसि जीर्णानि यथा विहाय* कृष्ण ने यहां पर कहा वास का मतलब कपड़े हैं। तो सुवास मतलब ऐसे भगवान जिन्होंने अच्छी तरह से कपड़े धारण किए हैं। और भक्तिरसामृतसिंधु मैं इसका वर्णन आता है कि, कैसे भगवान पुरी बारीकी से कपड़े धारण करते हैं। हमें भगवान का श्रृंगार करने में बहुत समय बिताना चाहिए। तो सुवास यह सिर्फ एक शब्द है और उसी से हम बहुत कुछ बात कर सकते हैं और याद कर सकते है।
*ब्रज-जन-पालन, असूर-कुल-नाशन*,
*नन्द-गोधन-रखवाला।*
तो यह वैसा ही है जैसे
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || 8||*
तो भगवदगीता से यह बात है या यहां पर हम देख रहे हैं इस भजन में कि *ब्रज-जन-पालन* कृष्ण ब्रज वासियों के संरक्षक है, रक्षक है, तो यह हुआ *परित्राणाय साधुनां*। और *असुर-कुल-नाशन* और *विनाशायच दुष्कृताम्* वे असुरो को मारने वाले और उनका विनाश करने वाले हैं। आसुरी शक्तियां और आसुरी मानसिकता का विनाश करने वाले हैं। *नंद गोधन रखवाला* सबसे पहले गाये संपत्ति है धन है। किन की संपत्ति है यह? नंद गोधन गाये नंद महाराज की संपत्ति है धन है। और रखवाला नंद महाराज के गायों का ध्यान रखने वाले उनका रक्षण करने वाले कृष्ण है नंद गोधन रखवाला। यह वही एक कृष्ण का नाम है गायों की देखभाल करने वाले, गायों का पालन करने वाले गोपाल। हरि हरि। और गायों की देखभाल करना उनका पालन करना यह धर्म है। *धर्मसंस्थापनार्थाय* मैं धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित हुआ हूं, तो गायों का पालन करना यह भी एक धर्म है। भगवान ने भी यशोदा से यही कहा तुम मेरे लिए इतना चिंतित क्यों होती हो? ओ मुझे जूते पहनने चाहिए, मुझे छाता लेना चाहिए, चिंता मत करो! आओ हम सब मिलकर गायों का पालन करते हैं और वही धर्म है! वही हमारा कर्तव्य है! या हम उस तरह के कर्तव्य का पालन करते हैं। हम गायों की देखभाल करने के उस धर्म का पालन करते हैं फिर *धर्मो रक्षति रक्षतः* तब धर्म हमारी रक्षा करेगा। हमें हमारी रक्षा करने के लिए अलग से कुछ प्रयास करने की जरूरत नहीं है। तो ऐसे कृष्ण तर्क वितर्क बहस कर रहे थे। यह बहस तर्क वितर्क वे यशोदा मैया के साथ कर रहे थे।
*गोविन्द माधव, नवनीत-तस्कर,*
*सुन्दर नन्द-गोपाला॥3॥*
गोविन्द माधव बस तीन अक्षर और इन में बहुत कुछ कहा है, गोविन्द गोविन्द गोविन्द गोविन्द। कृष्ण के सभी नामों में से गोविन्द एक सुंदर नाम है। फिर हमें स्मरण होता है कि इंद्र ही है जिन्होंने कृष्ण को गोविन्द नाम दिया है। फिर गो का मतलब है गाय, गो का मतलब है भूमि, गो का मतलब है इंद्रिया। इसका मतलब है की कृष्ण गायों को आनंद देते हैं, भूमि को आनंद प्रदान करते हैं, इंद्रियों को आनंद प्रदान करते हैं इस तरह के अर्थ है गोविन्द नाम के। माधव यह कृष्ण के सुंदर नाम उनमें से एक नाम है राधा माधव। मा का अर्थ है लक्ष्मी, ध का अर्थ है पति जो लक्ष्मी के पति है। यहां पर तो इसका अर्थ है महालक्ष्मी के जो पति है। वह राधा है राधा महालक्ष्मी है। धव का अर्थ है पति, जब किसी स्त्री का पति नहीं होता है तब उसे विधवा कहा जाता है पति के बिना। और पति के साथ जो स्त्री होती है उसे साधवा कहते है।
माधव ध का अर्थ है पति और मा का अर्थ है लक्ष्मी कृष्ण लक्ष्मी के पति है। और वे लक्ष्मी नारायण के रूप में भी है और सीताराम कृष्ण राम है वहां पर और राधा रानी सीता के रूप में है और कृष्ण नारायण बन जाते हैं और राधा लक्ष्मी बन जाती हैं तो वह माधव है। *नवनीत- तस्कर* कृष्ण चोर है। क्या? भगवान और चोर? यह कैसे संभव है? हां कृष्ण चोर के नाम से जाने जाते हैं। परंतु नवनीत- तस्कर है। वे माखन चोर के नाम से जाने जाते हैं। हरि हरि। तो ऐसे मधुर है कृष्ण, माखन से भी ज्यादा मीठे मधुर है। उनको माखन बहुत अच्छा लगता है *मैया मोहे माखन भावे* कृष्ण जोर-जोर से रोने लगते हैं मुझे माखन बहुत पसंद है। मेवा पकवान आप हमेशा मुझे खिलाते रहते हैं पूरी, हलवा, पकोड़ा, 56 भोग पर आपको पता है मुझे यह माखन बहुत अच्छा लगता है। तो ऐसे माखन चोर की महिमा असीमित है। तो एक शब्द नवनीत-तस्कर और वही कृष्ण का एक नाम बन गया। और हम उस समुद्र में डूब गए हैं जो सभी इससे संबंधित है नवनीत तस्कर नवनीत माखन है। *सुंदर नंद गोपाला* और भगवान के सौंदर्य के बारे में क्या कहे! भगवान के जो षडऐश्वर्य हैं उसमें से एक है सौंदर्य। प्रेम माधुर्य, रूप माधुर्य, लीला माधुर्य, वेणु माधुर्य कृष्ण इन चार माधुर्य के लिए जाने जाते हैं। उसमें से एक है रूप माधुर्य अद्भुत रूप, अतुलनीय रूप, अतुलनीय सौंदर्य। सौंदर्य में कोई भी उनके पास नहीं आता। भगवान राम भी नहीं बस कृष्ण और कृष्ण अकेले ही है। केवल कृष्ण सुंदर है, जब सुंदरता की बात आती है *मत्तः परतरम न अन्यत*। नंद गोपाल वे गोपाल है, गायों का पालन करने वाले, किन की गाये? नंद महाराज कि गाये। गो का मतलब है गाय और पाल का मतलब है पालन करने वाले। फिर से हमें इन बातों को विस्तार से और गहरे अर्थ के साथ समझने का प्रयास करना चाहिए गो गाय, पाल पालन करने वाले गोपाल। ठीक है हम आगे बढ़ते हैं तेजी से आगे बढ़ना मुश्किल है।
*यामुना-तट-चर, गोपी-वसन-हर*
*रास-रसिक, कृपामय।*
तो *यमुना-तट-चर* यमुना के तट पर चर-विचर कृष्ण हमेशा भ्रमण करते रहते हैं और *गोपी-वसन-हर* कभी-कभी कृष्ण यमुना के तट पर गोपियों के वस्त्र चोरी करते है। मार्गशीष मास मे पूर्णिमा के दिन उन्होंने गोपियों के वस्त्र चोरी किए थे। कार्तिक मास के बाद मार्गशीष मास प्रारंभ होता है, पूर्णिमा के दिन गोपियों के वस्त्र कृष्ण द्वारा चुराए गए थे। गोपी-वसन मतलब गोपियों के वस्त्र और हर मतलब चुराना। *रास- रसिक* कृष्ण रास का आनंद लेने वाले हैं। जब कहीं बहुत रस होता है तो उसे रास कहते हैं। बहुत सारे रस और मुख्य रूप से माधुर्य रस गोपियों के और राधा रानी के संबंध में है। और पूरे रस में वह नृत्य करने लगते हैं, गाते हैं। कृष्ण रसिक है रस का आनंद लेने वाले रसिक! कृपामय मय का मतलब पूर्ण रूप से, आनंद मय, प्रेममय, कृपामय वह पूर्ण रुप से कृपा और दया से भरे हुए हैं। हम सभी जीवो के प्रति दयालु हैं।
*श्रीराधा-वल्लभ, वृन्दावन-नटवर*,
*भकतिविनोद आश्रय॥4॥*
तो *श्रीराधा-वल्लभ* मतलब राधा के पति राधा बल्लभ गोपी वल्लभ और *वृन्दावन-नटवर* नट का अर्थ है अभिनेता और वर का मतलब है सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ अभिनेता। बहुत सारे कार्य भगवान कृष्ण ने किए हैं तो वह अभिनेता है, सभी अभिनेताओं में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता। हर कदम चलना जैसे एक नृत्य है वे उस प्रकार के अभिनेता है, उनका चलना जैसे एक नृत्य की तरह है। *भकतिविनोद आश्रय* श्रील भक्ति विनोद ठाकुर आश्रय लेना चाहते हैं उन कृष्ण का, यशोमती नंदन का, गोकुलरंजन कान का और उन ब्रजजन पालन का उन गोविन्द माधव का आश्रय लेना चाहते हैं। ठीक है। अब में यह पे रूक जाता हूं। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
*पंढरपुर धाम से*
*22 अप्रैल 2020*
ओम नमो नारायणाय।
हरि हरि ।।
714 स्थानों से भक्त जप कर रहे है।
प्रतिदिन या तो कोई चुनौती प्राप्त होती है या कोई सुअवसर प्राप्त होता है।आज के दिन को सुअवसर ही कहना होगा क्योंकि आज का दिन बड़ा महान हैं।आज रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव है।रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव कि जय।हम इतने भाग्यवान है कि हमारे इतने पूर्व आचार्य हो चुके हैं।जीसस भगवान के सच्चे पुत्र रहे। किसी के जीसस है,किसी के मोहम्मद है,किसी के मोसेस है,किसी के इब्राहिम है तो किसी के सेंट पॉल है।ऐसे देश विदेश के धर्मावलंबियों के गिने-चुने आचार्य हैं।जिनका मैंने नाम लिया वह सारे संसार के पूर्व आचार्य रहे।श्रील प्रभुपाद कहते थे कि जीसस क्राइस्ट भी एक आचार्य थे।रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य,विष्णु स्वामी,निंबार्काचार्य जैसे भी अनेक आचार्य रहे हैं।बहुत समय बीत चुका है,पर यह भी दुनिया वालों को ज्ञान नहीं है।उनका इतिहास तो केवल 2000- 3000 साल पहले से ही शुरू होता है लेकिन यह काल की गन्ना भी अधूरी या गलत है। कई सदियां,कई युग और कई ब्रह्मा के दिन बीत चुके हैं।हरि हरि। ब्रह्मा अब 50 वर्ष के हो चुके हैं। हम बड़े भाग्यवान हैं ,हम भाग्यवान हैं से पहले मैं कह रहा था कि हम हिंदू बहुत भाग्यवान है या हम गोडिय वैष्णव बहुत भाग्यवान हैं कि हमारे इतने सारे पूर्व आचार्य हुए। बहुत सारे महान भक्त हुए है इस संसार में,लेकिन वे सभी आचार्य केवल एक धर्म तक सीमित नहीं थे।
जैसे ईसा मसीह केवल ईसाइयों के ही आचार्य नहीं थे,वैसे ही रामानुजाचार्य भी केवल हिंदुओं के लिए या श्री संप्रदाय के अनुयायियों के ही आचार्य नहीं थे। यह सभी आचार्य भले कहीं भी प्रकट हुए हो परंतु यह सभी ही इस संसार की संपत्ति हैं। इन सभी आचार्यों में या भक्तों में एक हुए रामानुजाचार्य।यहा एक कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि एक कहने से लगता है कि वह छोटे हो गए ।हरि हरि। रामानुजाचार्य तिरोभाव महोत्सव सारे संसार को मनाना चाहिए। यह उनके संस्मरण का दिन है। राम- अनुज यह लक्ष्मण के अशांश रहे। राम अनुज या रामअनुज्ञ। जैसे लक्ष्मण जी गुरु है,बलराम जी गुरु है वैसे ही रामानुजाचार्य सारे संसार के गुरु हुए।यह लगभग 1000 वर्ष पूर्व की बात है।,1017 वह वर्ष है जिसमे रामानुजाचार्य प्रकट हुए और वह इस धरातल पर 120 वर्षों तक रहे।1137 वर्ष पहले आज ही के दिन उनका तिरोभाव हुआ।उनका तिरोभाव श्रीरंगम धाम में हुआ। श्रीरंगम धाम की जय! उनका जन्म चेन्नई के पास एक स्थान श्री पेरामबुदुर (तमिलनाडु) मे हुआ।उनके पिता का नाम केशव आचार्य था। केशव आचार्य पहले संतान विहीन थे।फिर वह पार्थसारथी भगवान के विग्रह के दर्शन करने चेन्नई गये।वहां मैं भी गया हूं ।पार्थ सारथी भगवान की जय! दिल्ली में भी श्रील प्रभुपाद ने पार्थ सारथी भगवान के विग्रह की स्थापना की है,जिन विग्रहो का मैं भी पुजारी रह चुका हूँ।वहां जाकर उन्होंने पार्थ सारथी भगवान की विशेष आराधना की और उसका फल यह प्राप्त हुआ कि उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। और उनका नाम हुआ रामानुज।
रामानुज अपनी माता के भ्राता के संपर्क में आए और उनके सत्संग से प्रभावित होने लगे और इस तरह वे श्री संप्रदाय के अनुयायी बनने लगे।उनके पिता ने रामानुज का विवाह कम उम्र में ही कर दिया। उनके पुत्र के विवाह के 1 साल के अंदर ही उनका देहांत हो गया। उस समय रामानुज ने अपनी पत्नी के साथ कांचीपुरम के लिए प्रस्थान किया। जिस कांचीपुर के वरधराज प्रसिद्ध है।जहां भगवान वरधराज की आराधना होती है। मैं भी गया हूं वहां। शिव कांची और विष्णु कांची दो कांचिया है वहां।कांची पूर्ण महाराज विष्णु कांची के वरधराज कि आराधना कर रहे थे,यानी वहां के आचार्य कांची पूर्ण महाराज थे। तो उस समय रामानुजाचार्य कांचीपूर्ण के संपर्क में आए और उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगे। कांचीपूर्ण रामानुज के शिक्षा गुरु बन गए। उन्होंने कांची पूर्ण महाराज को अपने घर भिक्षा ग्रहण करने के लिए बुलाया। वह आए तो सही लेकिन वह थोड़ी जल्दी आए और प्रसाद ग्रहण करके प्रस्थान कर गए।कांची पूर्ण जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। वे किसी और जाति के थे। रामानुजाचार्य की धर्मपत्नी का जात पात में बड़ा विश्वास था।
उसने कांची पूर्ण महाराज को भोजन तो खिलाया लेकिन जब उन्होंने वहां से प्रस्थान किया तो उनका जो जूठन था उसको ऐसे ही कहीं भी फेंक दिया ।नहाई धोई और फिर अपना भोजन बनाया। जैसे ही रामानुजाचार्य आए उनको थोड़ा अचरज हुआ कि उनके महाराज आए भी और भोजन करके प्रस्थान भी कर गए । हरि हरि। तो जैसे ही वह आए उन्होंने पूछा कि क्या कुछ महाप्रसाद रखा है मेरे लिए? उसने नहीं रखा था तो वह समझ गए कि उसने महाप्रसाद का क्या किया होगा? इस वाक्य से रामानुजाचार्य का अपनी पत्नी से नाराज होना प्रारंभ हो गया और धीरे-धीरे और भी कारण बनते गए। श्रीरंगम क्षेत्र के आचार्य यमुनाचार्य थे। अब उनके प्रस्थान का समय आ चुका था,वह यह जानते थे तो उन्होंने उनके एक शिष्य को जिसका नाम महा पूर्ण था, कांचीपूर भेजा और कहा कि रामानुज को बुलाकर लाओ। इन रामानुज के बारे में यमुनाचार्य ने खूब सुना था और वह इनसे बहुत प्रभावित थे और इनसे बहुत ही प्रसन्न थे। वो रामानुज को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। वह उनको श्रीरंगम के मठाधीश बनाना चाहते थे ।तो जब रामानुज को बुलाने महा पूर्ण गए तो इन महापूर्ण से भी रामानुज ने कुछ शिक्षा या दीक्षा प्राप्त की। इन महा पूर्ण महाराज के साथ भी रामानुजाचार्य की पत्नी का व्यवहार ठीक नहीं था।
जैसे ही महा पूर्ण रामानुज को बुलाने आए रामानुज ने अपनी पत्नी को मायके भेज दिया और कांचीपुरम में सन्यास ले लिया।जब वे कांचीपुरम पहुंचे तो बहुत देर हो चुकी थी यमुनाचार्य ने अपना देह त्याग कर दिया था।रामानुज अभी रास्ते में ही थे तो वो भगवान की नित्य लीला में प्रविष्ट कर गए। महा पूर्ण जब रामानुज को लेकर पहुंचे तो सभी ने देखा कि यमुनाचार्य के एक हाथ कि तीन उंगलियां बंद थी तो सभी को लग रहा था कि इसके पीछे क्या रहस्य है। रामानुज इस बारे में जानते थे ।रामानुज समझ गए कि, यमुनाचार्य की कुछ अंतिम इच्छा थी और अधुरी थी इसलिए उन्होंने तीन उंगलियां बंद करके रखी थी। रामानुज संकल्प लेने लगे। पहला संकल्प यह था कि वेदांत सूत्र पर मैं श्री भाष्य लिखूंगा। ऐसा करते ही एक उंगली खुल गई। दूसरा संकल्प पूरे भारतवर्ष में विशिष्ट अद्वैत सिद्धांत का प्रचार प्रसार करूगा।दूसरा संकल्प लेते ही दूसरी उंगली खुल गई और तीसरा संकल्प यह कि श्री व्यासदेव के गुरु श्रील पराशर का नाम अपने किसी अनुयाई को दूंगा।ताकि पराशर की कीर्ति फैलें। तीन संकल्प लेते ही तीनों उंगलियां खुल गई। फिर वहां से वह पुनः कांचीपुरम लौट गये।श्रीरंगम में यमुनाचार्य के वैकुंठ जाने के पश्चात वहां की व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं हो रही थी तो यमुनाचार्य के अनुयायियों की मांग थी कि यहां का प्रचार रामानुजाचार्य देखे।तो रामानुजाचार्य को पुनः बुलावाया गया। फिर वहां आकर उन्होंने श्रीरंगम मंदिर का कार्यभार संभाला।जैसे एक समय श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भी जगन्नाथ मंदिर के अध्यक्ष थे। वह उस समय आचार्य तो नहीं थे,डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ही थे लेकिन जब उन्होंने देखा कि सब व्यवस्था सुचारू रूप से होती है तो उन्होंने कार्यभार संभाला।रामानुज अब आचार्य बन गए।रामानुज बन गए रामानुजाचार्य।रामानुज श्री संप्रदाय के आचार्य हैं जो कि लक्ष्मी जी से प्रारंभ होती हैं। यह संप्रदाय सृष्टि के प्रारंभ से ही चल रहा है और चलता रहेगा। चारों ही संप्रदाय जब से सृष्टि हुई तब से है।
*sampradaya-vihina ye mantras te nisphala matah*
*atah kalau bhavisyanti catvarah sampradayinah*
*sri-brahma-rudra-sanakah vaisnavah ksiti-pavanah*
*catvaras te kalau bhavya hy utkale purusottamat*
*ramanujam sri svicakre madhvacaryam caturmukhah*
*sri visnusvaminam rudro nimbadityam catuhsanah*
*(10.16-22-26)*
चारों संप्रदाय वैष्णव संप्रदाय भी कहलाते हैं। इसी श्री संप्रदाय के आचार्य बने रामानुजाचार्य।उन्होंने वेदांत सूत्र पर भाषण लिखा जिसका नाम भी रखा श्री भाष्य ।श्री लक्ष्मी जी का नाम है। तो जैसा उन्होंने संकल्प किया था या वादा किया था यमुनाचार्य को कि मैं ऐसा करूंगा तो उन्होंने संसार भर में या भारत वर्ष में प्रचार करा।पहले भारतवर्ष में नेपाल भी था,बर्मा भी था,श्रीलंका भी था,पाकिस्तान भी था, बांग्लादेश भी था,सब कुछ भारत में ही था । कलियुग की चाल है ये कि बांटो और शासन करो ।तो भारत के टुकड़े होते होते अब कुछ ही हिस्सा बचा है ,छोटा सा ही भूखंड जिसको हम अब इंडिया कहते हैं। रामानुजाचार्य ने सर्वत्र प्रचार किया। उनके प्रचार के लिए 7000 सन्यासी शिष्य थे,12000 ब्रह्मचारी शिष्य थे,गृहस्थ शिष्यों कि तो कोई गन्ना ही नहीं थी।उनके असंख्य गृहस्थ शिष्य थे।उनमें कई सारे राजा महाराजा भी थे, उद्योगपति भी थे।श्री संप्रदाय का प्रचार रामानुजाचार्य ने सर्वत्र किया। हरि हरि। और यह सब करने का उद्देश्य या उनके प्राकट्य का ही उद्देश्य था अद्वैतवाद का खंडन।जैसा कल हम सुन रहे थे कि मधवाचार्य प्रकट हुए तो सभी वैष्णवाचार्यो के प्राकट्य का उद्देश्य या उनकी व्यवस्था जो भगवान ने की है वह यही हैं कि अद्वैतवाद का खंडन।अद्वैतवाद का मुख बंद करना। वही बात
*नमस्ते सारस्वते देवे गौरवाणी प्रचारिणे*
*निर्विशेष शून्यवादि पाश्चात्यदेश तारिणे*
*(श्रील प्रभुपाद प्रणति)*
उनका कहना है कि भगवान निराकार है,निर्गुण है। भगवान केवल ज्योति है ,रामानुजाचार्य का उद्देश्य इन सब का खंडन करना ही था।इन सब को चैतन्य चरितामृतम में मायावादी,कृष्ण अपराधी कहा गया है।
*prabhu kahe,–“māyāvādī kṛṣṇe aparādhī*
*’brahma’, ‘ātmā’ ‘caitanya’ kahe niravadhi*
*(CC Madhya 6.182)*
यह बहुत बड़े अपराधी हैं और बहुत अपराध करते रहते हैं इनका कहना है कि हां हां भगवान तो है लेकिन उनका कोई रूप नहीं है,इस कथन पर प्रभुपाद लिखते हैं कि भगवान पूर्ण हैं और आप कहते हैं कि भगवान का रूप नहीं है तो भगवान पूर्ण है तो उनको कोई रूप तो होना ही चाहिए। उस पर यह कहते हैं कि वह भगवान तो है परंतु भगवान का कोई रूप नहीं है वे ब्रह्म ज्योति है ,वें भगवान तो है लेकिन वह चल नहीं सकते मतलब लंगड़े हैं भगवान। भगवान देख नहीं सकते मतलब अंधे हैं। अरे मूर्ख जब तुम देख सकते हो तो भगवान कैसे नहीं देख सकते ।भगवान ने तुमको आंखें दी है तो क्या भगवान की खुद की आंखें नहीं है ?यह सब अपराध के वचन कहते हैं ।
*māyāvādam asac-chāstraṁ*
*pracchannaṁ bauddham ucyate*
*mayaiva vihitaṁ devi ka*
*(चेतनय चरित्रामृत मध्य लीला( 6.182))*
असत्य शास्त्रों का जो प्रचार हुआ था,अभी-अभी हुआ था।कुछ 1200 वर्ष पूर्व शंकराचार्य ऐसे प्रचार करते आगे बढ़े ही थे तो कुछ 200 सालों के उपरांत इन चार वैष्णव आचार्यो में से प्रथम आचार्य रामानुजाचार्य ने इन सब बातों का खंडन करने के लिए वैष्णव सिद्धांत की स्थापना की। उनका भगवद्गीता पर भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है ।वह भी भगवत गीता यथारूप ही है। श्रीरंगम में रामानुजाचार्य लगभग 50 से 60 वर्ष तक रहे।अपनी आयु का अधिकतर समय उन्होंने श्रीरंगम में ही बिताया। उन्होंने श्रीरंगम को अपना मुख्यालय बनाया, जहां श्रीरंगम भगवान की आराधना होती है। रामानुज संप्रदाय के वैष्णव वृंद लक्ष्मी नारायण के आराधक होते हैं। आज के दिन उन्होंने भी एक उत्तराधिकारी का चयन किया।रामानुजाचार्य की जीवनी तपनामृत नामक ग्रंथ में है। अगर आप इससे कहीं प्राप्त करो तो इसे पढ़ सकते हो। रामानुजाचार्य कि और भी कई जीवनिया है। हरि हरि। जब उनके शिष्य उनके प्रस्थान कि तैयारी कर रहे थे तो उन्होंने अपना सिर गोविंद नाम के अपने एक अनुयाई की गोद में रखा,1 शिष्य कि गोद में उनके चरण थे और यमुनाचार्य कि मूर्ति को सामने रखकर वे अपने गुरु महाराज का स्मरण कर रहे थे और इतने में उनके शिष्य, उनके अनुयायी जिनको यह समाचार मिला कि अब वह प्रस्थान कर रहे हैं,भगवद्धाम लौट रहे हैं,वहां पहुंचने लगे।वह सभी रामानुजाचार्य का और भगवान का भी ईष्टोगान कर रहे थे।
*नारायण नारायण नारायण।।*
*लक्ष्मी नारायण नारायण नारायण।।*
आज ही के दिन,अपनी तिरोभाव तिथि के दिन ऐसी परिस्थिति में उन्होंने प्रस्थान किया और रामानुजाचार्य के विग्रहों का आप आज भी दर्शन कर सकते हैं। उनको समाधि स्थित तो किया गया किंतु उनकी वपू को जैसे जमीन में गड्ढा होता है वैसे नहीं बिठाया गया है। श्रीरंगम मंदिर के ही आंगन में रामानुजाचार्य के विग्रह रखे गए हैं ।उनको वहा सुरक्षित और संभाल कर रखा गया है। आप उनके दर्शन कर सकते हैं। मुझे भी कई बार उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हम एक बार वहां पदयात्रा भी लेकर गए थे ।वहां पर यात्रियों का बहुत स्वागत हुआ था। चैतन्य महाप्रभु ने रामानुजाचार्य संप्रदाय से दो बातों को स्वीकार किया। एक तो रामानुजाचार्य संप्रदाय की भक्ति।,शुद्ध भक्ति!
*अन्य अभिलाषीता शुंयम्*
*ज्ञान कर्मादि अनावृतम्*
*अनुकूलेन कृष्ण अनुशीलनम्*
*भक्ति उत्तमा। ।*
*(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.167)*
ऐसी भक्ति जो कर्म और ज्ञान मिश्रित ना हो। एक कर्म मिश्रित भक्ति होती है और एक ज्ञान मिश्रित भक्ति होती है। लेकिन वह शुद्ध भक्ति नहीं कहलाती किंतु रामानुज ने जो भक्ति सिखाई वह शुद्ध भक्ति थी। चैतन्य महाप्रभु ने अपने संप्रदाय में शुद्ध भक्ति को स्वीकार किया और दूसरी बात है संतों कि सेवा या भक्तों कि सेवा, वैष्णो कि सेवा या दासानुदास भाव। चैतन्य महाप्रभु ने इस भाव पर बहुत जोर दिया हैं।
*trinad api sunicena*
*taror api sahishnuna*
*amanina manaden*
*kirtaniyah sada harihi*
*(शिष्टाकम श्लोक-३)*
दूसरों का सम्मान करो। इस संप्रदाय में रामानुजाचार्य कि शिक्षा है कि भक्तों का,संतों का सम्मान करो। सभी का सादर सत्कार,सम्मान और सेवा होती है इस संप्रदाय में। और इसके विपरीत होता है वैष्णव अपराध,वैष्णव निंदा। रामानुजाचार्य के श्री संप्रदाय में वैष्णव निंदा का या वैष्णव अपराध का कोई स्थान नहीं था या कोई स्थान नहीं हैं । इस बात को महाप्रभु ने गोडिय वैष्णव संप्रदाय में स्वीकार किया। हमें भी रामानुजाचार्य के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। ताकि हम भी शुद्ध भक्ति करके यह सीख सके कि भगवान की भक्ति नहीं करनी है बल्कि भगवान के भक्तों कि भक्ति और सेवा करनी है। हरि हरि।जैसे भगवान कि भक्ति करते हैं ऐसे ही गुरु और वैष्णवो कि भी भक्ति करनी है।यह सिद्धांत भी है और यह वेदवानी भी है।हरि हरि। रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जपा टॉक!!!*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 21 अप्रैल 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ९१९ स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं।
आज विशेष अवसर अथवा उत्सव होने के कारण शायद यह संख्या अधिक है।
राम नवमी महोत्सव की जय!
आप सभी का स्वागत है। आप सभी की जानकारी के लिए यह प्रात: कालीन शार्ट कथा मैं अंग्रेजी में करूंगा। तत्पश्चात लंबी कथा हिंदी में आठ से साढ़े नौ बजे तक होंगी। कृपया बुरा मत मानिएगा। बेचारे अंग्रेजी भाषी भी लाभान्वित होंगे। प्रारंभ में आपको एक क्लिप दिखाया जाएगा।
इस्कॉन नागपुर से परम् करुणा प्रभु ने एक छोटा सा प्रेजेंटेशन भेजा है। उसी के साथ उनकी और हमारी ओर से आपको राम नवमी की शुभकामनाएं भी प्रस्तुत होगी।
लेकिन प्रारंभ में आप सब को शुभकामनाएं देने के लिए छोटा सा प्रस्तुतिकरण होगा।
हरे कृष्ण!
राम राम राम
सीता राम राम…
अयोध्या वासी राम.. राम…
दशरथनंदन राम… राम…
हरि हरि
*ॐ नमो भगवते रामाय*… आप समझ गए हो। हम सब प्रणाम करते हैं।
ओम नमो भगवते, श्री राम। श्री राम परम पुरुष हैं। हम श्री राम प्राकट्य दिवस की जयंती मना रहे हैं। यह केवल श्री राम के प्राकट्य का उत्सव नहीं है। आज परम् पुरुष के अन्य व्यक्तित्व (रुपों) का भी उत्सव है। आज केवल राम नवमी ही नहीं है, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न नवमी भी है।
लक्ष्मण नवमी, भरत नवमी, शत्रुघ्न नवमी की जय! क्या कहा जा सकता है, आज कितना अधिक महत्वपूर्ण दिन है। बहुत समय पहले, हम कह सकते हैं कि कम से कम लाखों वर्ष पहले आज के दिन अयोध्या में भगवान राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न प्रकट हुए थे। आज नवमी है, आज की नवमी का नाम राम नवमी है। हमारे वैष्णव कैलेंडर के अनुसार आज नवमी है। .. लाखों वर्ष पहले इस नवमी पर भगवान राम प्रकट हुए थे। वह निश्चित रूप से नवमी ही थी, इसलिए नवमी पर उत्सव मनाया जाता है। राम का प्राकट्य ऐतिहासिक प्रसंग है। भगवान् वास्तव में प्रकट हुए थे। जो लोग इसे काल्पनिक मानते हैं, वे निश्चित रूप से मूर्ख हैं। पौराणिक कथा के अनुसार आज के दिन भगवान राम सरयू नदी के किनारे अयोध्या में प्रकट हुए थे, यह सत्य है। सरयू नदी भी है, वहाँ अयोध्या भी है। अयोध्या में वह स्थान निश्चित आज भी है, जहां आप जा कर देख सकते हैं और वहां राजा दशरथ का महल, दशरथ नंदन राम जहाँ प्रकट हुए थे, उन स्थानों के दर्शन कर सकते हैं।
आसमान में देवी देवता भी आए थे।
*यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-र्वेदः साङ्गपदक्रमोपनिषद़ैर्गायन्ति यं सामगाः।*
*ध्यानावस्थितततद् गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः*
( श्रीमद् भागवतम् १२.१३.१)
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा:- ब्रह्मा, वरुण, इंद्र, रुद्र तथा मरुतगण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद कर्मों तथा उपनिषदों समेत बांचकर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने आपको समाधि में स्थिर करके और अपने आप को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या अशुभ द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता- ऐसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूं।
भगवान् प्रकट हुए।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥*
(श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
भगवान् हर युग में प्रकट होते हैं, वह त्रेता युग था। जब भगवान् प्रकट हुए तब देवी देवता ठीक समय पर वहां पहुंच गए और उन्होंने श्रीराम के दर्शन किए। उन्होंने भगवान् को प्रार्थना और पुष्प अर्पित किए। अप्सराओं ने नृत्य किया व गंधर्वों ने गाया। लाखों वर्ष पहले भी उस दिन यह सब हो रहा था। जय श्रीराम!
हम क्या कह सकते हैं। यह भगवान की दया है। यह उनकी हम बद्ध जीवों अर्थात विस्मृत आत्माओं के लिए करुणा है। भगवान् इस ब्रह्मांड में समय-समय पर आते रहते हैं। वे इस राम नवमी के दिन राम के रूप में प्रकट हुए थे। हम कैसे जानते हैं कि राम प्रकट हुए थे? और उन्होंने क्या किया था? भगवान् ने अपने सभी पुराने बाल्य लीलाओं को सम्पन्न किया था। वाल्मीकि मुनि ने कृपा कर रामायण का सम्पादन किया। जैसा कि हम रामायण के पृष्ठों को देखते हैं या नागपुर के इस प्रस्तुतिकरण को देखते हैं। हमें राम लीला प्रत्येक पृष्ठ पर, 3 आयामों और 4 आयामों या सभी आयामों पर होती हुई दिखाई दे
रही है। भगवान व उनके सहयोगी इस लीला, उस लीला को करते हुए दिखाई दे रहे थे। जब हम रामायण सुनते व पढ़ते हैं तब हमें राम के दर्शन होते हैं। रामायण में राम के रूप का भी वर्णन है। रामायण के पन्नों में राम के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम का वर्णन है लेकिन प्रमाण क्या है कि राम का प्राकट्य हुआ था। रामायण इसका प्रमाण है, रामायण साबित करता है और रामायण हमें, राम की उपस्थिति और उनकी गतिविधियों के आंकड़े व तथ्य देता है। हरि! हरि! जैसा कि श्रीराम, सूर्य वंश में प्रकट हुए थे। सूर्य दिन का शासक होता है, सूर्य को दिनेश भी कहते हैं दिन अर्थात दिन होता है और ईश अर्थात शासक।
सूर्य दिन का शासक होता है। जब राम सूर्य राजवंश में प्रकट हुए तब सूर्य उस दिन दोपहर के समय अपना शासन कर रहा था।
रात के समय चंद्रमा शासक होता है। श्रीकृष्ण चंद्रवंश में प्रकट हुए थे। इसलिए वे रात के मध्य में प्रकट हुए। राम दिन के मध्य अथवा दिन के समय प्रकट हुए थे। हरि! हरि! जय श्री राम!
हम सुन सकते हैं, हम देख सकते हैं। (हम यह भी जानते हैं कि कौन से रास्ते से आगे बढ़ा जाए) पर जैसा हमनें कहा कि केवल अयोध्या ही हमें राम की याद नहीं दिलाती। भगवान् अलग अलग स्थानों पर अपनी लीलाओं का प्रदर्शन कर रहे थे। उसमें जनकपुरी भी आती है, जहां सीता का प्राकट्य हुआ था। जय सीते! भगवान, सीता के बिना अपने लीलाओं का प्रदर्शन नहीं कर सकते थे।
जनकपुर भी सीता राम की लीलाओं का साक्षी है और हमें उनका स्मरण दिलाती है। राम 11000 वर्षों में से १४ वर्ष के लिए वन में चले गए थे।
*हत्वा क्रूरम दुराधर्षम् देव ऋषीणाम् भयावहम्। दश वर्ष सहस्त्राणि दश वर्ष शतानि च।*
( १-१५-२९)
अनुवाद:- देवताओं तथा ऋषिओं को भय देने वाले उस क्रूर व दुर्धर्ष राक्षस का नाश करके मैं ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन करते हुए इस मनुष्य लोक में निवास करूंगा।
इतने वर्ष राम धरातल पर रहे।
भगवान् राम ने ११००० वर्ष ब्रह्मांड पर अपनी लीला की। भगवान कृष्ण ने केवल १२५ वर्ष ही इस ब्रह्मांड पर अपनी प्राकट्य लीला की। जहाँ तक हम जानते हैं, श्रीराम ने 11000 वर्षों में से अधिकांश समय अयोध्या में बिताया था और 14 वर्ष के लिए वे वनवासी थे परंतु अधिकांश रामायण भगवान् के वनवास के विषय में बताती हैं। पहले वे अयोध्या में थे, तत्पश्चात वनवास में बहुत सारे स्थानों पर गए । चित्रकूट मुख्य स्थान रहा। चित्रकूट में विशेषतया मंदाकिनी नदी के तट पर भगवान् की लीला का उल्लेख है। यह एक विशेष लीला है। राम, भरत मिलाप अथवा मिलन। निश्चित ही अयोध्या से हर कोई श्रीराम के साथ मिलने व समझौता करने के लिए आया था। विशेष रूप से भरत श्रीराम से मिलने के लिए आए थे। भरत श्रीराम से मिलते हैं और विनम्रतापूर्वक उन्हें वापिस लौटने की अपील करते हैं, “चलो अयोध्या वापस चलो! आप राजा बनोगे।” इस प्रस्ताव के साथ राम और भरत का मिलन होता है। राम और भरत के मध्य हुए संवाद को सुनकर पत्थर भी पिघल जाता है। वह स्थान जहाँ पर राम और भरत मिले थे और वार्तालाप हुई थी, उस स्थान पर राम और भरत के पैरों व अन्यों के निशान भी पुरातात्विक रूप से साक्षी हैं। वे वहां जा कर भी देख सकते हैं। वहां भरत शत्रुघ्न व अन्य भी आए थे। राम ने उस महान् स्थान पर अपने १४ वर्षों में से १२ वर्ष बिताए। तब राम ने आगे रामगिरि पर्वत की नागपुर की ओर प्रस्थान किया। इसे रामटेक के नाम से भी जाना जाता है। वहां पर श्री राम ने प्रतिज्ञा ली थी, कि मैं इस ग्रह से सभी राक्षसों को मिटा दूँगा। उन्होंने अपना धनुष और बाण धारण किया और यह वचन लिया। रामटेक अर्थात राम की प्रतिज्ञा।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।*
विनाशाय अर्थात दुष्टों का विनाश। यह भगवान् के प्रकट होने का उद्देश्य था। उन्होंने वहां प्रतिज्ञा ली थी।
वहाँ पर अगस्त्य मुनि का आश्रम भी है। हम वहां पर गए थे, वहां की दीवारों पर नक्काशी की गई थी, जो बताती है कि कुछ लाखों वर्ष पहले राम वहाँ रामटेक में थे और उस पत्थर पर राम के चिन्ह हैं। राम, लक्ष्मण, सीता ने गोदावरी नदी के तट पर स्थित पंचवटी नासिक की ओर प्रस्थान किया। नदी के तट पर पांच वट के वृक्ष हैं जो लाखों वर्ष पहले भी थे और वे अब हैं। वे वहां गोदावरी नदी के तट पर हुई राम की लीलाओं के गवाह हैं।
तब वहां शूर्पणखाआयी।
लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काट दी और जहां पर उसकी नाक गिरी, उस शहर को नासिक के नाम से जाना जाता है। शूर्पणखा की यह नासिका भी साक्षी है। यह भी तथ्य है कि राम वहाँ थे। वहां उनकी कई लीलाएँ है। तब कुछ समय में रावण आया और सीता का अपहरण कर लिया। तत्पश्चात राम और लक्ष्मण, सीता की तलाश करने लगे। सीते! सीते! यह रामायण में वर्णित किया गया है कि जिस प्रकार वृंदावन के जंगलों में गोपियां श्रीकृष्ण को देखती और खोजती हैं। रास्ते में हर किसी से हर पेड़, हर व्यक्ति और जानवर, रास्ते में हिरन से पूछती हैं,”क्या आपने कृष्ण को देखा है।” वैसे ही , राम हर किसी से दंडकारण्य वन में सभी से पूछताछ कर रहे थे। “क्या किसी ने मेरी सीता को देखा है? क्या किसी ने मेरी सीता को देखा है?” इस प्रकार रामायण में श्रृंगार रस का वर्णन किया गया है। सीता के लिए श्रीराम की भावनाएं और व्यवहार का वर्णन है। इस प्रकार श्रीराम सीता की तलाश में पंपा सरोवर की ओर आगे बढ़ते हैं। इसका भी रामायण में वर्णन मिलता है, वह पम्पा सरोवर भी लीला का साक्षी है। पम्पा सरोवर के किनारे, ऋषिमुख पर्वत (आप वहां जाकर देख सकते हो, फोटो ले सकते हो और सेल्फी ले सकते हो।) राम ने उस पहाड़ की चोटी पर काफी समय बिताया। वहां सुग्रीव से दोस्ती की और बाली का वध हुआ। वानर और अन्य जीव सीता की तलाश कर रहे थे। तत्पश्चात वे रामेश्वरम आए। वहां पर उनके पास केवल हनुमान थे जो कूद कर लंका में जा सकते थे। हनुमान लंका गए और अशोक वाटिका में सीता को ढूंढा। अंततः उनको अशोक वन में सीता मिली। आज भी वहां रावण के महल के साथ अशोक वन स्थित है। आप वहां आज भी जा सकते हो। यह इतिहास है। रावण भी उस इतिहास का हिस्सा था। लंका भी इतिहास का हिस्सा है। उसका महल व अशोकवन भी इतिहास के हिस्से( भाग) हैं। ये काल्पनिक चीजों से नहीं बने हैं, ये तथ्य हैं। राम ने वानरों की सहायता से पुल बनाया। यहां तक कि नासा भी श्री राम द्वारा निर्मित पुल की तस्वीर और वीडियो लेने में कामयाब रहा है। राम द्वारा बनाया गया पुल सबसे लंबा और सबसे मजबूत पुल है यह उस दिन से मौजूद है और उसका अस्तित्व आज भी है। हरि! हरि!
यह संदेश आज रामनवमी के अवसर पर सभी को सुनाया गया है, जो भी वर्णन किया गया है अर्थात जो कुछ भी बोला गया है, अक्षरं मधुरं अक्षरम् .. हर अक्षर केवल मीठा ही नहीं है .. यह सत्य भी है। ऐतिहासिक तथ्य है। अतः हमें उस भावना में लग जाना चाहिए। हरि! हरि! अगर सब पौराणिक कथा हैं, राम भी पौराणिक हैं। तब हम अपराधी व मूर्ख हैं और पराजित होकर हार जाएंगे। इसलिए हमें वाल्मीकि के शब्दों अर्थात ‘रामायण’ में विश्वास होना चाहिए जिन्होंने भगवान् की अन्य लीलाओं के अतिरिक्त श्री राम के प्राकट्य अथवा रामनवमी का गहन वर्णन किया है।
*श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।*
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
पिछले सभी आचार्यों और वर्तमान आचार्यों ने प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य का आस्वादन किया है। सीता राम की लीलाओं का, हनुमान ‘ .. बहुत सारे चरित्र हैं .. इतने सारे व्यक्तित्व और लीलाओं का आस्वादन किया है। श्रील प्रभुपाद ने भी आस्वादन किया है। उन्होंने हमें राम दिये हैं। शुकदेव गोस्वामी भागवतम के नौवें स्कन्ध में रामकथा का वर्णन करते हैं। श्रील प्रभुपाद ने उसका अनुवाद किया है। उन्होंने भागवतम् के अनुवाद में ही रामायण के दो अध्यायों का अनुवाद और टिप्पणी दी है। एक दिन जुहू बीच पर सुबह की सैर के समय मैंने श्रील प्रभुपाद से रामायण का अनुवाद करने के विषय में पूछा, उन दिनों श्रील प्रभुपाद, भागवतम और चैतन्य चरितामृत का अनुवाद करने में व्यस्त थे। उन्होंने कहा, हां, जब मैं यह अनुवाद कर लूंगा, तब मैं रामायण का अनुवाद करूंगा। उन्होंने सुबह की सैर में यह बात कही थी। श्रील प्रभुपाद ने हमें राम मंदिर दिए। इस्कॉन के कई मंदिरों में राम मंदिर है। इस्कॉन दिल्ली में राम मंदिर है। लंदन में इस्कॉन भक्ति वेदांत मैनर और वॉशिंगटन डी.सी. में भी राम मंदिर है। ये सब राजधानियां है। जैसे भारत की राजधानी दिल्ली, इंग्लैंड की राजधानी लंदन, अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डी.सी. । भगवान् राम ने उन राजधानियों को अपनी राजधानी बनाया है। हमें उनके दर्शन का अवसर मिला है जिससे हम सेवा कर सकें। हमारे पास श्री राम का नाम है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।* केवल यही राम की पूजा करने और पवित्र नाम जपने का तरीका है। राम राम राम
सीता राम राम राम।
मैं यहीं रुकूंगा। मुझे रुकना होगा। शीघ्र ही दूसरी कथा प्रारंभ होने वाली है।
राम नवमी महोत्सव की जय!
गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*20 अप्रैल 2021*
823 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
*श्री राम जय राम जय जय राम*
*श्री राम जय राम जय जय राम*
*पतित पावन सीताराम*
*रघुपति राघव राजा राम*
*जय श्री राम*
जब हनुमान जी वायु मार्ग से लंका की ओर जा रहे थे तब लंका में जब वह पहुंच गए और वहां से अंदर आकाश में जब वह वायुमंडल में थे, तब उनको यह सुनकर अचरज हुआ कि वहां राम राम राम नाम का भजन कीर्तन,गान हो रहा है, हनुमान जी ने सोचा कि मैं कहां आ गया?मैं अयोध्या में हूँ या लंका में हूँ? यदि मैं लंका में हूं तो यहां राम राम राम कौन कह रहा है?
लंका में राम का नाम लेने वाले विभीषण थे, जो राम के भक्त थे और साथ ही उन्होंने हनुमान जी की सीता की खोज में सहायता की। विभीषण राम भक्त थे और उन्होंने अपनी महल की दीवारों पर सर्वत्र राम-राम लिखवा रखा था। एक समय उनके भाई रावण जब उनसे मिलने आए तो देखा कि सर्वत्र राम राम लिखा हुआ था।उनहोने विभीषण को फटकारा कि तुमने सर्वत्र राम नाम क्यों लिखा हुआ है या यह यहां नहीं चलेगा, तब विभीषण ने समझाया कि,यह वह राम नाम नहीं हैं।इसका मतलब कुछ अलग हैं। रा मतलब रावण और म मतलब मंदोदरी। तो यह तो आप दोनों का ही नाम है। रावण एवं मंदोदरी इस प्रकार भगवान के भक्त बहुत ही चतुर होते हैं वह एक बहुत अच्छे प्रचारक थे उन्होंने रावण को दूसरे तरीके से समझा दिया
तब रावण खुश हो गए और फिर कहते हैं कि रावण ने पूरी लंका के दीवारों पर किसी विशिष्ट पेंट से राम नाम सर्वत्र लिखवा दिया।रावण को भी इससे अज्ञात सुकृति मिलने वाली है।अज्ञात मतलब सुकृत जब हम कुछ अच्छा कृत्य करते हैं तब हमारी सुकृति बढ़ती है। ऐसा ही कृत्य रावण ने किया। जब हनुमान जी को रावण के समक्ष उपस्थित कराया गया, जब यह रामदूत हनुमान रावण के समक्ष थे तब विभीषण ने कहा था कि सीता को लौटा दो,अभी लौटा दो नहीं तो देखिए हनुमान ने तो खोज ही लिया हैं कि सीता कहां है। जब हनुमान लौट के जाएगे राम के पास तो उसे तो पता है ही कि सीता अशोक वाटिका में हैं ।क्योंकि राम लंका में तो आने ही वाले हैं और जब श्री रामआएंगे तो तुम्हारी जान लें लेंगे भैया,इसलिए लौटा दो सीता को।रावण ने विभीषण की एक भी नहीं मानी।विभीषण के उपदेश और सलाहे चल ही रही थी कि रावण ने विभीषण को अपने राज्य से निष्कासित कर दिया। यहां से चले जाओ।
तब तक राम अपनी सेना के साथ तैयार थे। वानर और भालू सेना के साथ। वहां सुग्रीव अंगद और कई महान योद्धा थे।जब वह रामेश्वर तक पहुंचे तो लंका से विभीषण भी आ गए। हनुमान जी तो छलांग लगाकर आ गए थे। उसी प्रकार विभीषण भी आकाश मार्ग से रामेश्वर पहुंच गए थे। जब वह दिखाई दे रहे थे तब कई सारे तर्क चल रहे थे। यह कौन हैं और क्यों आ रहा है।
यहां सब चर्चा कर रहे थे कि उन्हें लौटा देना चाहिए या उनका स्वागत करना चाहिए? तब श्री रामचंद्र ने उनका स्वागत किया।भगवान शरणागत वत्सल जो हैं।जो शरणागत भगवान की शरण में आते हैं उनके प्रति भगवान का वात्सल्य हो जाता हैं। ऐसे हैं भगवान श्री राम।
*श्री रामचंद्र भगवान की जय……*
किसी ने कहा कि अभी तो यह विभीषण शरण में आ रहे हैं, आप उनको शरण दे रहे हो और अगर रावण आएगा तो कया आप उसको भी शरण दोगे तो राम ने कहा कि जरूर क्यों नहीं। उसको भी शरण दे दूंगा। मैं लंका का सारा राजय उसको ही दे दूंगा। वह लंकेश तो हैं ही लेकिन उसकी जान नहीं लूंगा। यदि वह मेरी शरण में आता है तो मैं उसे श्रीलंका का राजा बनाऊंगा।तो रावण बिचारा शरण में तो नहीं आया। जब राम अपनी पूरी सेना के साथ पुल से लंका पहुचे और जब युद्ध चल रहा था( रामायण में छठवां कांड युद्ध कांड हैं) जैसे कुरुक्षेत्र में युद्ध चल रहा था वैसे ही यहां भी युद्ध चल रहा था।
लंका का युद्ध कई महीनों तक चलता रहा और कई सारे राक्षस मारे गये।श्री हरि।ऐसा सुनने और पढ़ने में आता कुंभकरण सो रहे थे जब युद्ध चल रहा था कुंभकरण आराम से सो रहा था।
रावन ने सोचा कि अरे भाई राम तो कई जनों की जान ले रहे हैं, कईयों की हत्या कर रहे हैं और इसी के साथ ही उनको मुक्त भी कर रहे हैं जो भगवान के हाथों से या उनकी उपस्थिति में मारा जाता हैं,उसकी मुक्ति निश्चित हैं। वैसे रावण भी बड़ा विद्वान था, शास्त्रज्ञ था। शास्त्रों को जानता था। उसने सोचा कि यह मेरा भैया कुंभकरण सोता ही रहेगा तो फिर इसका नंबर नहीं लगेगा। राम इसकी जान नहीं लेंगे और मेरा भाई मुक्त नहीं होगा ।तब उसने कुंभकरण को जगाया।कुंभकरण 6 महीने सोते थे और 1 दिन के लिए उठते थे। उठने के बाद थोड़े समय बात करते थे,खाते पीते थे और बाद में पुनः सो जाते थे और पुनः 6 महीने के बाद उठते थे,खाते पीते थे और सोते थे।ऐसे ही उनका चलते रहता था पर अब की बार जब वह उठे,उन्हें युद्ध के बारे में पता चला और यह भी पता चला कि रावण ने सीता का अपहरण किया हैं,तब उनहोंने रावण को समझाया कि भैया सीता को लौटा दो।यह कार्य ठीक नहीं है। कृपया आप सीता को लौटा दो।यह बात रावण ने नहीं मानी। वैसे यह बात रावण को कई और लोगों ने समझाई थी पर रावण ने किसीकी ना मानी।
जब कुंभकरण भी युद्ध खेल रहा था तब उसका भी भगवान श्री रामचंद्र ने उद्धार किया और याद रखिए कि कुंभकरण और रावण जय और विजय हैं जिन को श्राप मिला है और श्राप क्या था ?वह तीन राक्षस योनि को प्राप्त करेंगे। 3 जन्मों में राक्षस योनि को प्राप्त करेंगे। तो पहले जन्म में सत्तयुग में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु बने थे। भगवान ने उनका वध किया। उनको मुक्त किया और फिर दूसरा जन्म त्रेता युग में वही जय और विजय बने हैं,रावण और कुंभकरण और उसी के साथ श्री रामचंद्र उनका उद्धार करने वाले हैं।
और उसी के साथ रावण का भी नंबर लग ही गया और भगवान श्री रामचंद्र ने अंतिम बान रावण के उद्धार के लिए,कल्याण के लिए चलाया और इस समय प्रतीक्षा कर रहा था कि कब राम मुझे वह बान मारते हैं और कब मैं मरता हूं।
कब मेरी मृत्यु होंगी और मृत्यु के साथ मेरा उद्धार होगा। श्री रामचंद्र के हाथों से मेरा उद्धार होगा।मन ही मन में रावण ऐसा विचार कर ही रहा था।
तब रावण का भी उद्धार रामचंद्र जी ने किया।
*हा हताः स्म वयं नाथ लोकरावण रावण कं यायाच्छरणं लङ्का त्वविहीना परार्दिता ॥२६ ॥*
*श्रीमद्भागवत 9.10.26*
*अनुवाद:- हे नाथ ! हे स्वामी ! तुम अन्यों की मुसीबत की प्रतिमूर्ति थे ; अतएव तुम रावण कहलाते थे । किन्तु अब जब तुम पराजित हो चुके हो , हम भी पराजित हैं क्योंकि तुम्हारे बिना इस लंका के राज्य को शत्रु ने जीत लिया है बताओ न अब लङ्का किसकी शरण में जायेगी ?*
लंका की सारी स्त्रियां रण आंगन में पहुंच गई यह कोई क्रीडांगण नहीं है ये रण आंगन हैं रण मतलब युद्ध आंगन युद्ध करने की जगह। वहां सभी स्त्रियां पहुंचीं और अपने-अपने पति को देखा। किसी का भाई या किसी का सगा संबंधी,किसी का पुत्र, वहां मरे पड़े हैं। तब मंदोदरी भी खोजती हुई आयी कि कहां है मेरे पतिदेव।तब वह वही खड़ी थी,रावण के शव के पास और कहती हैं-
हें रावण
*नवै वेद महाभाग भवान्कामवशं गतः । तेजोऽनुभावं सीताया येन नीतो दशामिमाम् ॥ २७ ॥*
*श्रीमद्भागवत 9.10.27*
*अनुवाद:-हे परम सौभाग्यवान , तुम कामवासना के वशीभूत हो गये थे ; अतएव तुम सीतादेवी के प्रभाव ( तेज ) को नहीं समझ सके । तुम भगवान् रामचन्द्र द्वारा मारे जाकर सीताजी के शाप से इस दशा को प्राप्त हुए हो ।*
तुम्हारी यह जो दशा हुई है, जो मैं देख रही हूं, यह किसका परिणाम है?जो तुम काम के वशीभूत हुए थे,काम में तुम जो नम्बर वन बने थे, उसका ही परिणाम हैं ये दशा, जिसको मैं देख रही हूं।
यह मंदोदरी के वचन हैं।मंदोदरी पतिव्रता नारी के रूप में भी प्रसिद्ध हैं।मंदोदरी के इस कथन को सुखदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को सुनाया। श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध के दसवें अध्याय में आप इसे पढ़ सकते हैं। तब मंदोदरी ने कहा
*कृतैषा विधवा लङ्का वर्ष च कुलनन्दन । देहः कृतोऽनं गधाणामात्मा नरकहेतवे ॥श्रीमद्भागवत 9.10.28॥*
*अनुवाद:-हे राक्षसकुल के हर्ष , तुम्हारे ही कारण अब लंका – राज्य तथा हम सबों का भी कोई संरक्षक नहीं रहा । तुमने अपने कृत्यों के ही कारण अपने शरीर को गीधों का आहार और अपनी आत्मा को नरक जाने का पात्र बना दिया है ।*
अब क्या होगा तुम्हारे देह को गिद्द खाएंगे। और आत्मा का क्या होगा तुम्हारी आत्मा को नर्क में पहुंचाया जाएगा। हे रावण तुम सचमुच के रावण बने तुमने आज तक कितनो को रुलाया तुमने सीता को भी रुलाया। उसी का परिणाम सारा संसार अब देख सकता है।
*हरि हरि*
हरि हरि । 1000000 वर्ष पूर्व वह दशमी का दिन था और उस दशमी का नाम हुआ राम विजयदशमी और उसी दिन भगवान ने रावण पर कृपा की। राम ने विभीषण को कहा इसका अंतिम संस्कार कराओ और फिर विभीषण को राजा बनाया गया, राम खुद राजा नहीं बन रहे हैं।उनका ऐसा उद्देश्य कभी नहीं था ,किस्सा कुर्सी का कभी था ही नही ।उनहोंने अपने भक्त को राजा बनाया।विभीषण को राजा बनाया । और फिर राम का सीता के साथ मिलन हुआ, सीता की परीक्षा हुई , इतने सारे प्रसंग हैं और फिर राम ने सीता को , लक्ष्मण को, विभीषण को , सुग्रीव को, हनुमान को साथ में लेकर पुष्पक विमान में आरूढ़ होकर अयोध्या के लिए प्रस्थान किया । अयोध्या धाम की जय । औरअयोध्या धाम में फिर दीपावली का उत्सव मनाया गया । अब हम आपको कुछ स्थलिया दिखाने वाले हैं। वैसे आप कुछ देख ही रहे हो , यह सब स्थान दिखाएंगे।यह राम की लीला स्थलिया हैं। सीता की जन्मस्थली जनकपुर , राजा जनक का पुर जनकपुर और सीता जनक की पुत्री हैं। इसलिए सीता को जानकी भी कहते हैं । सीता मैया की जय । जय सीते।दर्शन करो।यह स्थान आज भी है और सदा के लिए रहेगा ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।*
द्रोणागिरी पर्वत उत्तराखंड , अशोक वाटिका लंका में हैं, जहां हनुमान सीता से मिले। उसका यह फोटोग्राफ आप देख रहे हो । शायद आप ना कभी लंका गए होंगे ना कभी जाओगे , जा सकते हो लेकिन शायद नहीं जाओगे।इसलिए अब आपके पास ही है , घर बैठे बैठे इस स्थान का दर्शन करो और आप सीता को देख भी रहे हो , हनुमान जी का संवाद हो रहा है । हरि हरि । और यह सीता निवास , लंका में अशोक वाटिका है और ऐसे ही वृक्ष 1000000 वर्ष पूर्व थे । स्थान वही है , वृक्ष तो कई जन्म लेते हैं और चल बसते हैं लेकिन यह स्थान तो वही है ।यह भूमि सीता के चरण की स्पर्श से पावन बनी है । हरि हरि । और यह पंचवटी नाशिक महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर है , वैसे वही स्थान नहीं है ,पंचवटी पास में ही है, लेकिन नासिक जरूर है । वैसे एक स्थान है नासिक , सुर्पनका का जहा लक्ष्मण ने नाक काटा उसकी नासिका जहां गिरी उस स्थान का नाम नासिक बन गया ।पंचवटी दूसरी स्थली है , पंचवटी नासिक एक दूसरे के अगल बगल में ही है । पंचवटी , जहाँ पाँच वट , वृक्ष 1000000 वर्ष पूर्व भी थे और आज भी है। जहाँ पर्णकुटी बनाकर भगवान राम , लक्ष्मण, सीता रहे थे। पंचवटी वही स्थान है । आप आज भी जाकर आप देख सकते हो।हम कई बार गए हैं । ठीक है । जानकी मंदिर एक नेपाल में भी है।जानकी मतलब सीता , सीता का मंदिर नेपाल में है । कुछ मत भिन्नता है कि यहां सीता का जन्म हुआ, वहां सीता का जन्म हुआ तो संभावना है कि नेपाल के लोग इस स्थान को सीता का जन्म स्थान मानते है। हर देश चाहता है , सभी तो नहीं लेकिन कुछ देश चाहते हैं कि उनके देश का संबंध राम के साथ , सीता के साथ स्थापित रहे, यह भाव अच्छे हैं ।
सीता विवाह मंडप जनकपुर मे हैं।आप जानते हो सीताराम और सिर्फ सीताराम का ही विवाह नहीं हुआ ,लक्ष्मण का , शत्रुघ्न का , भरत का भी विवाह एक साथ हुआ , विवाह मंडप यही विवाह स्थली है । और यह जनकपुर में है ।जहाँ विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को ले गए थे और यहीं पर वह धनुष्य था जिसको राम ने उठाया और जब प्रत्यंचा चढ़ा ही रहे थे तो वह टूट गया और उसी के साथ राम को सीता प्राप्त हुई।क्योंकि सीता स्वयंवर मतलब सीता स्वयं अपने पति को चुनेगी , वह चयन यही जनकपुर में हुआ। यहां और भी लीलाए हुई हैं । पंपा सरोवर कर्नाटक राज्य में है । महाराष्ट्र कर्नाटक के बॉर्डर में है , कर्नाटक के अंतर्गत है ।हम्पी आपने नाम सुना होगा ऐसे पर्यटन स्थान भी है । पंपा सरोवर जिसके तट पर शबरी भी एक गुफा में रहा करती थी और बगल में ही वृषमुख पर्वत है जिस पर्वत पर सुग्रीव और हनुमान भी रहते थे ।और इसी पंपा सरोवर के तट पर ही राम, लक्ष्मण और हनुमान का प्रथम मिलन हुआ। यह पंपा सरोवर ऐसा परम पवित्र है । यहां पर भी हम गए हैं आप भी जाया करो । कभी घर को छोड़ो , एक दिन तो छोड़ना ही है लेकिन जल्दी करो । यह है रामेश्वर , कौन किसके ईश्वर ? शिव भक्त कहेंगे यह रामेश्वर , राम के ईश्वर शिव है ।
*रामः ईश्वर यशशः।*
मतलब राम जिनके ईश्वर है , शिव जी के ईश्वर राम है ।समाज अलग अलग प्रकार से इस रामेश्वर शब्द का अर्थ लेता है , और दो प्रकार से तो कर ही सकते हैं। हरि हरि । शिवजी राम भक्त थे , चार धामो में से एक धाम रामेश्वर धाम हैं और राम की सेना किष्किंधा से यहां तक पहुंच गई और अब उनको जलमार्ग से आगे पहुंचना था, इसलिए सेतु बंधन हुआ । ब्रिज का निर्माण हुआ , वह कार्य यहीं से लंका तक हुआ।
वैसे यह रामेश्वर धाम , कोदंड नाम का एक स्थान है जहाँ विभीषण राम से मिले।यह रामेश्वर से कुछ दूरी पर हैं । वृषमुख सरोवर का भी दर्शन कीजिए।हनुमान जी ने अपने कंधे पर लक्ष्मण और राम को बैठाकर इस पर्वत पर पहुंचा दिया । अपने कंधे पर बैठाया और पंपासरोवर से वृषमुख सरोवर पर पहुचा दिया ताकि उनको चढ़ने की आवश्यकता ना हो ।यह वृषमुख पर्वत यहां कई सारे लीलाएं हैं , राम यहाँ इसी क्षेत्र में चातुर्मास में रहे है और इत्यादि इत्यादि , और इसी पर्वत पर सीता ने अपने अलंकार फेंक दिए थे । हरि हरि । श्रृंगवेदपुर प्रयागराज के पास ही है और यह गंगा मैया ।गंगा मैया की जय । यही राम ,लक्ष्मण, सीता ने गंगा को पार किया और नौका में बैठकर गये । इसकी कथा हमने सुनी है , राधा रमन महाराज ने सुनाई थी । कौन थे वह ? नावाडी कौन थे? कैवट । राम सुग्रीव मिलन , यह वही है। जिसे किस्किंधा क्षेत्र कहते हैं और किष्किंधा कांड भी हैं और इस वृषमुख पर्वत के शिखर पर ही राम और सुग्रीव का मिलन हुआ , वही पवित्र स्थली को आप देख रहे हो । केवट है वह , अच्छा ठीक है ।
केवट जी ने राम को अपनी नौका में बिठाकर गंगा को पार कराया , ठीक है । यह रहा रामसेतु , तमिलनाडु को इसका श्रेय जाता है । एक और रामेश्वर है,तो दूसरी और लंका है , यह दूरी कुछ 800 मील की है । नासा अमेरिका की नॉर्थ अमेरिकन स्पेस एजेंसी की व्यवस्था से ऐसी फोटोग्राफ हम देख पा रहे हैं । इसी पर चलकर राम , लक्ष्मण , हनुमान सुग्रीव ,अंगद , इत्यादि आगे बढ़े थे । यह सीता मंदिर अशोक वाटिका का दृश्य हैं। जो हमने पहले देखा था , पास में ही हनुमान और सीता का मिलन और संवाद हुआ और उसी के पास अशोक वाटिका में ही सीता का भी मंदिर है । जनकपुर में तो हैं ही। यहां लंका में भी सीता का मंदिर है , आप जाकर सीता का दर्शन कर सकते हो और फिर यहीं पर स्मरण रहे कि इसी वाटिका में ही रावण के वध उपरांत श्री राम भी पहुंचे और अशोक वन में ही राम और सीता का मिलन हुआ ।
विभीषण तिलक स्थली जहां अभिषेक हुआ। ऐसा भी हम समझ सकते हैं।लंका में विभीषण को राजा बनाया गया , राज्याभिषेक हुआ और यह सब लंका का क्षेत्र है । लंकेश! लंका के ईश यह एक समय स्वर्ण नगरी रही , जैसे धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र युद्ध भूमि है। तो यहां यह राम रावण युद्ध स्थली का दर्शन है । 1000000 वर्षों बित चुके है लेकिन पर्वत वही है , नदी वही है, नदी उस समय भी थी आज भी है , पर्वत भी था आज भी है , बादल तो आते जाते रहते हैं और वृक्ष भी उगते मरते रहते हैं , उस समय के नदी और पर्वत तो है ही । अंत में रावण का महल इसको भी संभाल कर रखा है और इसका भी कुछ नवनिर्माण करके रखा हुआ है , यह कोई अच्छा स्मृति चिह्न नहीं है लेकिन हनुमान जैसे लंका में पहुंचे तब पहले रावण महल में आए थे , उनको सीता को खोजना था तो उन्होंने सोचा कि रावण के महल में ही सीता हो सकती है या होनी चाहिए ऐसा ही सोच कर वह यहां आए थे , कई स्त्रियों को देखा और कई स्त्रियां रावण के साथ में ही थी किंतु हनुमान समझे कि नहीं नहीं नहीं इसमें से कोई भी स्त्री सीता नहीं हो सकती , फिर इस महल से दूर गए और कई स्थानो पर हनुमान गए और सीता को खोज रहे थे , ठीक है । यह आखरी वाला है ।
*जय श्री राम ।*
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।* दर्शन किया ? आपने सबूत देखा , राम है कि नहीं ?रामलीला खेली कि नहीं ? आपने सेतुबंध देखा मतलब अभी तो मानना ही पड़ेगा । हरि हरि । *जय श्री राम ।*
*जय श्री राम ।*
*रामनवमी महोत्सव की जय।* अब रामनवमी महोत्सव आही रहा है ।
*रामायण की जय ।* ठीक है ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 19 अप्रैल 2021*
*हरे कृष्ण!*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे* *हरे।।*
८३३ स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।जप करते रहो। यह हरि नाम रामबाण औषधि हैं।जब हम हरि नाम का जप करेंगे या शुद्ध नाम जप करेंगे तब हमें कोई रोग नहीं सताएगा।क्या आप सभी रोगों से मुक्त होना चाहते हो? उसकी यही हरि नाम औषधि हैं। इससे क्या होगा? इससे ये बीमार शरीर ही प्राप्त नहीं होगा।
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |*
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||*
*अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति* *को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में* *पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |*
शरीर तो बीमार होता ही हैं। शरीर के मिलने का मतलब ही है कि बीमारी का साथ में मिलना। हरि हरि।
यह मैंने आपको हरि नाम की महिमा के बारे में बताया।आप इसको एक ही बारी में समझ लो।हरि नाम की महिमा समझकर हरि का नाम लेते रहो। हरि नामामृत का पान करते रहो।ऐसा बताया गया हैं कि राम से बड़ा राम का नाम, हरि से बढ़कर हरि का नाम हैं।अब राम जी की ओर मुड़ते हैं। वैसे अलग से मुड़ने की जरूरत नहीं हैं,जब हम जप कर रहे थे तब राम की ओर ही हमारी नजर थी,हमारा मुख था।हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हमें अंतर मुख होकर जप करना चाहिए। अंतर्मुखी यानी अंदर की ओर। मतलब कि अपनी ओर। क्योंकि भगवान सर्वत्र हैं। इसलिए भगवान अंदर भी हैं। हमारे हृदय प्रांगण में भी भगवान हैं। इसलिए जब हम अंतर मुख होकर जप करते हैं तो ह्रदय में विराजमान भगवान की ओर मुख करके जप करते हैं। हरि हरि।।
*प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।*
*यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।*
*(ब्रम्हसंहिता ५.३८)*
*अनुवाद :* *जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है* *ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम* *सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप* *है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।*
संत महात्मा सदैव हृदय में विराजमान राम या श्याम सुंदर जो कि सभी अवतारों के स्रोत हैं,(अगर वह विराजमान है तो फिर सभी विराजमान हैं, राम भी,नरसिंह भी)की ओर मुख करके जप करते हैं। मुझे कहना था कि अब राम की मुख करते हैं लेकिन उन्ही की तरफ मेरी नजर थी।नामों का जप करते हुए,मैं उन्हीं का संस्मरण कर रहा था और अब उनकी कथा होगी।रामनवमी महोत्सव की जय। कुछ ही दिनों में राम प्रकट होने वाले हैं। अब वह दिन,वह क्षण दूर नहीं हैं। २ दिन की अवधि हैं और फिर( जय श्री राम)हमारे प्राणनाथ श्री राम प्रकट होंगे। तब हम उनके प्राकट्य का उत्सव मनाएंगे। २ दिन बाद भगवान प्रकट होंगे ही क्योंकि यह उनकी नित्य लीला हैं। कल हम सुन रहे थे कि भगवान हंपा सरोवर पहुंचे हैं।जिन्होंने भी कल इस्कॉन नागपुर की ओर से आयोजित भक्ति रसामृत महाराज के द्वारा राम कथा सुनी होगी जो कल ८:०० से ९:३० के बीच हुई।मैं भी कल सुन रहा था। पहले जटायु की कथा हुई,फिर कबंध की कथा, शबरी की कथा हुई।उन्होंने बड़ी सुंदर कथा सुनाई क्योंकि राम भी सुंदर है तो उनकी कथा भी सुंदर ही होती हैं और फिर उनके सुंदर भक्त सुंदर कथा ही सुनाते हैं। हंपा सरोवर के तट पर श्री राम आगे बढ़ रहे थे, तब शबरी ने संकेत किया कि वह देखिए ऋषि मुख पर्वत।उस ऋषि मुख पर्वत पर सुग्रीव रहते हैं। वह तुम्हारी सहायता करेंगे। राम और लक्ष्मण आगे बढ़े। सीता तो उनके साथ नहीं हैं,क्योंकि सीता की ही खोज हो रही हैं। शबरी ने कहा कि सीता की खोज में सुग्रीव आपकी मदद कर सकते हैं।जब राम और लक्ष्मण ऋषिमुख पर्वत की ओर जा रहे थे तब पर्वत के शिखर से सुग्रीव ने देखा कि कोई दो व्यक्ति उस पहाड़ की ओर आ रहे हैं और यह देखते ही वह भयभीत हो गए। क्योंकि बाली का पक्ष उनका शत्रु पक्ष हैं बाली। उनके स्वयं के भ्राता बाली ही उनके शत्रु बने हुए हैं।
इसलिए उनको हर समय भय बना ही रहता था।जब भी कोई अनजान व्यक्ति उन्हें उस पहाड़ पर दिखता था तो उन्हे लगता था कि उन्होंने ही भेजा होगा। देखते ही वह भयभीत हो जाते थे और अपनी रक्षा के लिए उपाय ढूंढने लगते थे, उस उपाय में उन्होंने हनुमान को भेजा कि हनुमान जी आप जाओ और पता लगाओ कि यह लोग कौन हैं? उनको वापस भेजो।उनसे पूछो कि यहां क्यों आ रहे हैं। हनुमान गए और उनसे मुलाकात हुई और एक दूसरे से परिचय हुआ। राम ने उन्हें अपनी समस्या भी बताई। हरि हरि।।हनुमान जी ने उन्हें कहा कि मेरे स्वामी भी कुछ ऐसी ही समस्या में फंसे हुए हैं। हनुमानजी सुग्रीव के मंत्री हैं। आप दोनों की स्थिति एक जैसी ही हैं। सुग्रीव की पत्नी का भी अपहरण बाली ने कर लिया हैं और अभी मैं आपसे सुन रहा हूं कि आपकी पत्नी का अपहरण भी रावण ने कर लिया हैं। तो आप दोनों मिलकर एक दूसरे की सहायता कर सकते हैं। आप दोनों मित्र बन सकते हैं। जो मित्र विपरीत परिस्थितियों में साथ हो वही वास्तविक मित्र हैं। यहां पर रामायण में राम और हनुमान की पहली मुलाकात हो रही हैं।
भगवान राम किष्किंधा शेत्र में पहुंचे ही हैं।हंपा सरोवर किष्किंधा क्षेत्र में हैं।रामायण के २-३ कांड पूरे हो चुके हैं। लेकिन अभी तक हनुमान का कोई नाम नहीं आया हैं और क्यों नाम आता क्योंकि अभी तो राम जी की स्वयं हनुमान से मुलाकात नहीं हुई थी। यह पहली मुलाकात हैं, राम और हनुमान की। हनुमान जनमें भी इसी क्षेत्र में थे।भौगोलिक भाषा में इसे हंपी कहते हैं।किष्किंधा छेत्र में हंपी नाम का स्थान हैं, जहा हनुमान का जन्म हुआ हैं।हनुमान जी वही रहा करते थे और अब सुग्रीव के साथ रह रहें हैं। हनुमान जी ने कहा कि चलो चलते हैं, लेकिन अब गिरी आरोहण करने की आवश्यकता नहीं हैं। गिर्यारोहण मतलब पैदल चलने की आवश्यकता नहीं है।आप दोनों मेरे कंधे पर बैठ जाओ। राम और लक्ष्मण ने वैसे ही किया और हनुमान ने उड़ान भरी और उन्हें पर्वत के ऊपर पहुंचा दिया। आपने इसकी वीडियो नहीं परंतु चित्र तो देखा ही होगा। हनुमान ने राम और लक्ष्मण को अपने कंधे पर बिठा रखा हैं। यह प्रसंग इसी समय का हैं। वहां पहुंचकर उनकी मुलाकात सुग्रीव के साथ होती हैं। वहां पहुंचकर वह एक दूसरे को समझते हैं और एक दूसरे की समस्या को समझते हैं। वह केवल हाथ मिलाकर ही मैत्री को स्थापित नहीं करना चाहते या फिर केवल साथ में खाना खा लो और बन गए मित्र।नहीं।अपनी मित्रता की स्थापना के लिए उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया। सुग्रीव ने यज्ञ का आयोजन किया और उस यज्ञ के साथ इन दोनों की मित्रता को स्थापित किया। ऐसी औपचारिकता के साथ दोनों मित्र हो गए।अब हम एक दूसरे की मदद करेंगे। हरि हरि।।यही समय है जब सुग्रीव ने कुछ अनुभव किया था।
राम के वहां पहुंचने से कुछ समय पहले की बात है आकाश मार्ग से एक वायुयान जा रहा था और उस पर बैठी हुई एक महिला विलाप कर रही थी। राम राम राम कह कर पुकार रही थी। ऐसी पुकार को सुग्रीव, हनुमान आदि जो लोग भी वहां मौजूद थे उन सब ने सुना।वह स्त्री जो भी थी उनको पता तो नहीं था कि वह कौन थी,लेकिन ध्वनि से इतना तो पता चल रहा था कि किसी स्त्री की आवाज हैं। उसने ऊपर से एक पोटली फैकी।उस स्त्री न जाते-जाते अपने वस्त्र में कुछ अलंकार बांधकर उसे नीचे ऋषिमुख पर्वत पर फेंक दिया।विमान आकाश मार्ग से जा रहा था।जब सुग्रीव ने सुना कि रावण ने सीता का अपहरण किया हैं,तब वह पोटली लेने गए।जटायु ने भी राम जी को बताया था कि रावन दक्षिण दिशा में सीता को लेकर गया हैं और उसने उसको रोकने का प्रयास भी किया था।
जटायु ने इसका संकेत दिया था इसलिए राम और लक्ष्मण उसी दिशा से जा रहे थे,तो उस वक्त वहां सुग्रीव वह पोटली लेकर आते हैं और बताते हैं कि पोटली में कुछ गहने बांधकर एक स्त्री ने फेंके थे। उनको लगा कि इस पोटली का इस प्रसंग से कोई संबंध हो सकता हैं। राम जो बता रहे हैं कि उनकी धर्मपत्नी को रावण हरण करके ले गया हैं,और आकाश मार्ग से गया हैं,तो हो सकता हैं कि वह स्त्री सीता ही हो।इसलिए वो वह वस्त्र राम के पास लेकर आए। सुग्रीव ने सुनाया भी कि कैसे उनको इस पोटली में अलंकार मिले हैं,इस बात सुनते ही और उस पोटली को छूते ही राम के विग्रह में रोमांच उत्पन्न हो गया। वह उसे खोल कर देखना चाहते थे कि उसमें सीता के ही अलंकार हैं या नहीं?
उन्होंने उस पोटली को खोला तो लेकिन उनके लिए उन अलंकारों को पहचानना कठिन था। क्योंकि उनकी आंखों में आंसू भर आए थे। उनके नेत्र अश्रु से डब डब आए हुए थे।इसलिए वह पहचान नहीं पा रह थे। वह तो उन अलंकारों को स्पष्ट देख भी नहीं पा रहे थे। उनकी मन की स्थिति और भाव ऐसे हो गए थे कि उनके लिए पहचानना मुश्किल था। इसलिए उन्होंने लक्ष्मण को बुलाया और एक एक अलंकार उठा कर दिखाया और पूछा कि क्या यह सीता का हो सकता हैं?सबसे पहले उन्होंने कुंडल दिखाया तो लक्ष्मण ने कहा कि नाहं जानामि कुण्डल।मैं कुण्डल को नहीं पहचान सकता क्योंकिकुंडल की तरफ मैंने कभी देखा ही नहीं
एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले4.6.22।।
केयूरे यानी बाजूबंद,इसे भी मैं नहीं पहचान सकता।
किंतु जब राम ने नूपुर दिखाएं तब लक्ष्मण ने तुरंत कहा कि हां हां यह सीता के ही नूपुर हैं।मैंने जब-जब सीता के चरणों की वंदना की हैं,तब तब मैंने इन्हीं नूपुरो को देखा हैं।मुझे अच्छी तरह से याद है कि यह सीता के ही नूपुर हैं। इससे यह बात पक्की हुई कि रावण पंचवटी से यहां तक तो पहुंचा ही हैं और इसी मार्ग से मां सीता को आगे लेकर गया हैं। यह जो प्रसंग है जिसमें लक्ष्मण कहते हैं कि मैं कुंडलो को नहीं पहचान सकता,मैं बाजूबंद को नहीं पहचान सकता। बाकी के अलंकारों को भी नहीं पहचाना उन्होंने क्योंकि वह उस तरफ देखते ही नहीं थे। अलंकारों की ओर क्या सीता के उस अंग की ओर उनके कानों में या गले में या बाजू में या कमर में जो अलग-अलग अलंकार पहने जाते हैं उनकी ओर उनकी नजर कभी गई ही नहीं।यह लक्ष्मण का ब्रह्मचर्य हैं। लक्ष्मण ब्रह्मचारीयों के पुजारी हैं।
*चाणक्य – नीति*
*मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ट्रवत् आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति* *स पण्डितः ॥*
*जो कोई पराई स्त्री को अपनी माता की तरह , पराये धन को धूल के* *समान तथा सारे जीवों को अपने समान मानता है , वह पण्डित माना* *जाता है ।*
*चाणक्य पण्डित*
वह व्यक्ति पंडित हैं, जिसके लिए ओरों की स्त्रियां माता के समान हैं। हमारे लक्ष्मण भैया पराई स्त्रियों को माता के समान देखते हैं। लक्ष्मण भैया दाऊजी के भैया, कृष्ण कन्हैया। वही कृष्ण और बलराम ही अब राम और लक्ष्मण बने हैं। क्योंकि यह किष्किंधा क्षेत्र है इसलिए रामायण में जो किष्किंधा कांड है वह यहीं से प्रारंभ होता हैं। किष्किंधा कांड की लीलाएं राम ने चातुर्मास में संपन्न की। अब दोनों एक दूसरे की सहायता करेंगे।राम मदद करेंगे सुग्रीव की और सुग्रीव मदद करेंगे राम की।तो चलो शुरुआत करते हैं। पहले तो राम ही मदद करेंगे सुग्रीव की। सुग्रीव की धर्मपत्नी का अपहरण करने वाले तथाकथित बाली भैया का वध करेंगें। पहले प्रयास तो किया होगा उन्हें मारने का साम, दाम,भेद से।यह बाली साम,दाम से तो नहीं मानने वाले थे।उन्हें दंडित करने की आवश्यकता थी। पर स्त्री गमन या स्त्री का अपहरण करने वाले को कौन सा दंड मिलना चाहिए?मृत्युदंड।
शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति के लिए मृत्युदंड बताया गया हैं। इसलिए राम बाली को ऐसा ही दंड देना चाहते हैं। यह कोई अन्याय नहीं हैं। बल्कि यही उचित कृत्य हैं। ऐसा ही दंड शास्त्रों में उल्लेखित हैं। राम ने अपना पराक्रम वहां दिखाया। पराक्रमी तो है ही हमारे राम। उनका अयोध्या में धनुष बान की विद्या में परीक्षण हुआ था। वह इस विद्या में परांगत तो हैं ही और वैसे भी क्योंकि वह भगवान हैं तो सभी कला कौशल में निपुण हैं। जब राम ने बाण चलाया तो वह ७ वृक्षों को १ साथ बेधकर बाहर निकला।इससे सुग्रीव को पूर्णतया विश्वास हो गया कि मेरे मित्र श्री राम बड़े पराक्रमी हैं। राम ने कहा कि तुम आगे बढ़ो। तुम बाली के साथ लड़ो। मैं तो तुम्हारे साथ हूं ही। मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। मैं छुप कर देखता रहूंगा। तुम अगर संभाल नहीं पाओगे तो मैं तुम्हारी मदद करूंगा। दोनों के मध्य में द्वंद युद्ध हो रहा था और वह दोनों एक दूसरे को अपने मुट्ठी के प्रहार से गिरा रहे थे।घमासान युद्ध हो रहा था।
यह युद्ध बहुत समय के लिए चलता रहा, क्योंकि बालि बलवान था, इसलिए सुग्रीव सफल नहीं हो रहे था।सुग्रीव प्रतीक्षा कर रहे था कि कब राम बाण चलाएं। किंतु ऐसा हुआ ही नहीं।सुग्रीव स्वयं ही पराजित हो रहे थे।पराजित ही नहीं हुए बल्कि उनकी जान भी जा सकती थी।सुग्रीव किसी तरह वहां से अपनी जान बचाकर भाग आए और तब उन्होंने राम से कहा कि आपने कहा था कि आप अपना बान चलाओगे, लेकिन आप तो देखते ही रहे। आपने वचन दिया था कि आप सहायता करोगे फिर आपने कुछ किया क्यों नहीं?आपने अपना वादा नहीं निभाया। राम ने कहा कि नहीं ऐसी बात नहीं हैं। मैं तो तैयार था।अभी भी तैयार हूं, तब भी था। लेकिन आप दोनों भाई, तुम और बाली दोनों एक जैसे ही दिखते हो।आप दोनों जब लड़ रहे थे तो मुझे पता ही नहीं चल रहा था कि आप दोनों में से बाली कौन सा है और तुम कौन से हो और मैं गलती से तुम्हारा वध नहीं करना चाहता था। मेरे समक्ष यह दुविधा उत्पन्न हुई। मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि आप दोनों में से कौन कौन हैं। अब तुम यह हार पहन लो।सुग्रीव ने कहा कि यह किस लिए? मैं जीता थोड़ी हूं। मैं तो हार गया हूं।
राम ने कहा कि नहीं अब जब तुम दोनों लड़ोगे तो मुझे पता चलेगा कि कौन-कौन हैं। जिसके गले में हार हैं वह तुम हो।जिसके गले में हार हैं, वह हारेगा नहीं और वह सुग्रीव हैं और फिर वही हुआ। दोनों जब लड़ रहे थे तब राम ने अपनी भूमिका निभाई और बाली के वक्षस्थल में अपने बानो का प्रहार किया और उसी के साथ उसकी जान जा ही रही थी कि राम आगे बढ़े।ऐसा कथाकार बताते हैं कि पहले तो उन्होंने राम से कहा कि मुझ पर अन्याय हुआ हैं। तुम्हें ऐसे छुप कर बान नहीं चलाना चाहिए था।राम ने स्पष्टीकरण दिया कि पर स्त्री के अपहरण करने का यही दंड हैं। मृत्युदंड। परंतु फिर राम आगे बढ़े और उसे कहा कि ठीक हैं, अगर तुम यह समझते हो कि अन्याय हैं तो मैं बान को निकाल देता हूं।तब बाली सोचकर निवेदन करने लगा कि नहीं नहीं इसे मत निकालिए। बान को मत निकालना। इसे रहने दो। मुझे मरने दो। मैं आपके हाथ से मर रहा हूं और इतना ही नहीं आपकी उपस्थिति मैं मर रहा हूं।ऐसा अवसर मुझे पहले कभी ना तो मिला था ना कभी मिलेगा। ना भूतो ना भविष्यति।बड़ी मुश्किल से मुझे यह अवसर प्राप्त हो रहा हैं।
मैं इसे गंवाना नहीं चाहता हूं। मुझे मरने दो। मैं आपका दर्शन करते हुए मर रहा हूं और आपके हाथों से मर रहा हूं। इसी में मेरे भाग्य का उदय हैं। इसी के साथ सुग्रीव जीत गए और सुग्रीव किष्किंधा के पुनः राजा बन गए और राज्य उपभोग करने लगे। किष्किंधा के राजा बन कर उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को पुनः प्राप्त किया।वह किष्किंधा का कारोबार चलाने लगे।उपभोग करने लगे। समय बीतता गया और खुशियां मनाने में ४ महीने बीत गए।या सुखउपभोग करने में सुग्रीव इतने तल्लीन हो गए कि वह भूल गए कि मुझे राम की सहायता भी करनी हैं। मेरी तो सहायता उन्होंने कर दी लेकिन अब मेरी बारी हैं। सीता को खोजना हैं और पुन: राम के साथ उनका मिलन कराना हैं।
उनको इन बातों का ध्यान नहीं रहा। इसलिए उनको इसका स्मरण दिलाया गया और आगे की तैयारियां होने लगी। एक सभा बुलाई गई और कई लोगों को बुलाया गया और उस सभा में सारे लोग या तो वानर लोग थे या भालू थे। उन्होंने कईयों को अलग-अलग दिशाओं के लिए नियुक्त किया कि तुम दक्षिण में, तुम पूर्व में जाओ, तुम उत्तर में जाओ। ऐसे उन्होंने १० दिशाओं में अपने दूतों को भेज दिया। कोई ऊपर भी गया हो कोई नीचे भी गया होगा। सभी दिशाओं में बंदर और भालू को भेजा गया। ऐसे खोज प्रारंभ हुई। हरि हरि।। परंतु एक ही दल को यश मिला, जिस दल में हनुमान थे। और यह दल दक्षिण की ओर गया था। वहां पर उनकी मुलाकात संपत्ति से हुई जो कि जटायु के भाई थे।क्योंकि वह गिद्ध योनि के थे और गिद्धो की दृष्टि दूर तक होती हैं इसलिए उन्होंने रावण के विमान को लंका की ओर जाते देखा था। और दूर तक देखकर बताया कि सीता लंका में हैं।
अभी सुंदरकांड की शुरुआत हुई हैं। हनुमान का एक नाम सुंदर हैं। सुंदरकांड मतलब हनुमान का कांड।हनुमान का सीता को खोजने का सारा जो घटनाक्रम हैं, जितने भी सारे प्रयास हैं वह सुंदरकांड के अंतर्गत आते हैं। हनुमान गए और विभीषण की मदद से अशोक वन पहुंचे। हनुमान ने सीता को खोजा और सीता मैया से कहा कि सीता मैया चलो,इस समय राम और लक्ष्मण किष्किंधा में हैं। सीता मैया ने पूछा कि कैसे जाएंगे? तो हनुमान ने कहा कि मेरे कंधे पर बैठ जाओ। सीता ने साफ मना कर दिया कि ऐसा संभव नहीं हैं। मैं पर पुरुष को स्पर्श भी नहीं कर सकती। हनुमान लौट आए और किष्किंधा में राम के पास पहुंच कर यह खुशखबरी सुनाई तो उसी समय राम ने हनुमान को गले लगाया। आलिंगन किया। आपने वह तस्वीर भी देखी होगी जिसमें राम- हनुमान एक दूसरे को आलिंगन कर रहे हैं। यह प्रसंग किष्किंधा में हुआ। राम हनुमान से प्रसन्न थे और क्यों ना हो क्योंकि उन्होंने माता सीता की खोज की थी और अपने साथ सीता की अंगूठी भी लेकर आए थे। वह सबूत था। हरि हरि।। आप स्वयं भी रामायण पढ़ो और सुनो।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे* *हरे।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*18 अप्रैल 2021,*
*पंढरपुर धाम*
807 स्थानों से भक्त हमारे साथ जुड़ गए हैं। हरि हरि। आप सब ठीक हो? आशा है, प्रार्थना है कि आप सब ठीक रहो। हरि हरि।आज पूरा संसार कोरोना वायरस के संकट में है और भी कई प्रकार के संकट तो है ही किंतु कोरोना वायरस का प्राधान्य चल रहा है। हरि हरि। सावधान रहो। सभी सावधानियां बरतते रहो। हरि हरि।
। मैं सोच रहा था कि कुंती महारानी ने कया प्रार्थना की। आप जानते हो कि कुंती महारानी प्रार्थना प्रसिद्ध है? श्रीमद्भागवत की पहली प्रार्थना कुंती महारानी की है। उस प्रार्थना में कुंती महारानी ने कहा है।
*विपदः सन्तु ताः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥*
*(श्रीमद्भागवत 1.8.25)*
*अनुवाद:- मैं चाहती हूँ कि ये सारी विपत्तियाँ बारम्बार आयें , जिससे हम आपका दर्शन पुनः पुनः कर सकें , क्योंकि आपके दर्शन का अर्थ यह है कि हमें बारम्बार होने वाले जन्म तथा मृत्यु को नहीं देखना पड़ेगा ।*
इसको याद भी कर सकते हो। कुंती महारानी तो बड़ी होशियार भी हैं और चालाक भी है। वह तो कह रही है कि हे प्रभु! क्या करो? मुझ पर विपद संकट भेजते रहो। दोनों स्थिति में हमें सम होना चाहिए। विपद संपत, संपत तो जानते ही हो संपत्ति और विपद मतलब संकट। *विपदः सन्तु* हमारी ओर आने दो संकट। *शश्वत्तत्र* पुनः पुनः आने दो। *तत्र तत्र* जिसको कहते हैं पुनः पुनः आने दो। यत्र तत्र कुत्र सर्वत्र आने दो संकट। *भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्* संकट जब भी आएगा तो हम क्या करेंगे? आपकी ओर दौड़ेंगे, आपको पुकारेंगे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*। मेरे भगवान कृष्ण! जब कोई समस्या उत्पन्न होती है तो कृष्ण नाम मुख से निकलता है। हम भगवान की ओर दौड़ते हैं। मैं भी दौडूंगी। हम पता नहीं दौड़ेंगे या नहीं। लेकिन कुंती महारानी तो कह रही हैं कि मैं दौडुगी। कोरोना वायरस है तो हम कृष्ण की ओर दौड़ेंगे या केवल अस्पताल की ओर दौड़ेंगे। दोनों की ओर दौड़ना चाहिए। पहले भगवान की ओर दौड़ो, दौड़ पडो। डॉक्टर को भी याद करो और अस्पताल को भी याद करो। भगवान को की गई प्रार्थना और डॉक्टर की देखभाल,दोनों की मदद से हम ठीक हो जाएंगे। *भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्*
जब भी संकट आएगा,मैं आपके दर्शन करूंगी। आप के मंदिर में जाकर दर्शन करूगी, प्रार्थना करूगी।पूरे संसार में या जहां-जहां भी आप हैं,आप तो सर्वत्र हैं। मंदिर जाना संभव भी नहीं होगा। हम आजकल जहां भी है वही से पुकारो।कलीयुग में तो जहां भी हो वहीं से पुकारो *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*।
*नाहं तिष्ठामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेषु वा । मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥*
(पद्म पुराण)
*अनुवाद:- न मैं वैकुण्ठ में हूँ , न योगियों के हृदय में । मैं वहाँ रहता हूँ , जहाँ मेरे भक्त मेरी लीलाओं की महिमा का गान करते हैं ।*
कुंती महारानी ने तो कहा ही था। यत्र यत्र सर्वत्र। हम जहां भी भगवान को पुकारेंगे। वहां भगवान हमारे लिए उपस्थित होंगे, प्रकट होंगे। हरि हरि।
*यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्*
कुंती महारानी कहती हैं और हम समझ सकते हैं कि क्या कह रही है। थोड़ा या कुछ संस्कृत के शब्दार्थ, उनके शब्द और अर्थ समझना आसान है। किंतु कुंती महारानी का इस प्रार्थना के पीछे का जो भाव है,
भक्ति भाव या कृष्ण भाव, कृष्ण भावना इसको जानना है, अगर जान सके तो। जान तो सकते हैं पर अगर हम गंभीर है। *वैष्णवेर क्रिया मुद्रा विज्ञे न भुजाय*
ऐसा कहा गया हैं कि वैष्णव के या वैष्णवी कुंती महारानी के क्रिया, मुद्रा का भाव समझना कठिन होता है। हरि हरि। तो भी प्रयास करना चाहिए और फिर हमारा भी कुंती महारानी के भाव जैसा भक्ति भाव होना चाहिए। वह कह रही है कि संकट भेजो या संकट तो आते रहते हैं। हम प्रार्थना करें या ना करें संकट आते रहते हैं। यह हमारे लिए विकल्प नहीं है। लेकिन कुंती महारानी यह कह रही है कि संकट आएंगे तो फिर हम आपकी ओर आएंगे। आपको पुकारेंगे, आपके साथ मुलाकात करना चाहेंगे। ताकि अपने दिल की बात कह सकें। *गुह्य अख्याती प्रछति*।अगर हम हमारे दिल की बात, दिल को चूबने वाली बात या आनंद की बात भगवान से कहेंगे तो फिर इसका परिणाम या फल क्या होगा? *पुनर्भवदर्शनम्*
यह कुंती महारानी की चालाकी है। अंततोगत्वा क्या हासिल होगा? संकट आएंगे तो हम आपकी ओर आएंगे, आप के दर्शन के लिए आएंगे, आपका दर्शन करेंगे और जब आपका दर्शन होगा तब *यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्*। आपका दर्शन होगा तो फिर भवदर्शन मतलब भवसागर या भव रोग से छुट जाएंगे। इस संसार का पुनः दर्शन नहीं करना पड़ेगा। हरि हरि। तो इन दिनों में इस प्रार्थना को याद कीजिए। यह समय काफी मुश्किल है। कठिन समय आधमका है। हरि हरि। यह बात नई तो नहीं है। यह सब इस संसार में चलता ही रहता है।
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं*
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि*
*जननीजठरे शयनम्। इह संसारे*
*बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥* *- शंकराचार्यजी द्वारा* *रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21*
*हिंदी अर्थ:-*
*हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।*
तो यह बात तो प्रसिद्ध हैं। हमने सोचा कि आपको थोड़ा स्मरण दिला दें। हरि हरि। वैसे यह तो राम का स्मरण करने का समय है। ऐसी बात नहीं है कि हम यह सब बोलते हुए राम को भूल चुके थे या हमने ऐसी कोई विपरीत बात कही। जो भी हमने कहा यह कृष्ण और राम ने कहलवाया। इसका संबंध राम के साथ भी हैं, रामलीलाओं के साथ है। राम नवमी महोत्सव की जय। जहां राम-राम हो जाए मरा मरा से बचना है। यह तो बात है, मरा मरा से बचना है। आपको करमरकर याद है? करो, फिर मरो, मर के फिर जन्म लेकर पुनः करो। यह करमरकर की भूमि है और हम सभी करमरकर हैं। यह मरने की माला जपना हमको छोड़ना है और हम को राम-राम राम-राम कहना है, पुकारना है। फिर राम का नाम और राम की लीला प्रकट होंगी। हरि हरि। यशोदा भी राम की लीला कहती और सुनाया करती थी। शुकदेव गोस्वामी ने भी रामलीला सुनाई। महाराज परीक्षित ने या श्रील व्यासदेव ने भी रामलीला सुनाई हैं। महाभारत में भी एक रामायण हैं।
स्कंद पुराण में भी रामायण महात्मय लिखा है। तो यशोदा भी बाल कृष्ण को राम की कथा सुनाती रहती थी। हमने कहा था कि जो भी माता हैं,पिताश्री है, भ्राताश्री है, उनको अपने पुत्र पुत्रियों को, भाई बहनों को राम की कथा सुनानी चाहिए ताकि वह सभी चरित्रवान बने। सारा संसार चरित्रहीन बन रहा है। यशोदा भी अपने बालक को राम की कथा सुनाया करती थी। इस भारत भूमि में ऐसी परंपरा है। राम की कथा सब सुनते और सुनाते आए हैं। हम जब छोटे थे तो हमको भी राम की कथा सुनाई जाती थी। हरि हरि। फिर चाहे हमारे बड़े भैया हो या माता-पिता हो, सगे संबंधी हो या विद्यालय में शिक्षक हो,सभी राम कथा सुनाते थे। लेकिन अब विद्यालय में राम की कथा मना है।आप विद्यालय में कृष्ण की कथा नहीं सुना सकते। ऐसा संविधान बन गया है। धर्मनिरपेक्ष प्रदेश बन गया हैं। सभी धर्मों में संबंध हो गया है। प्रभुपाद कहते थे डेमोक्रेसी(जनतंत्र) का अर्थ है डेमन क्रेजी(पागल दानव)। ऐसे लोगों ने संविधान बनाया हैं। इस देश को सेक्युलर स्टेट बना दिया गया हैं। भगवान को बाहर कर दिया गया हैं। राम बाहर, कृष्ण बाहर, माया अंदर। हरि हरि। रावण को अंदर, राम को बाहर कर दिया गया हैं। यशोदा भी बाल कृष्ण को राम की कथा सुनाती थी। बेटा एक था राजा राम और एक थी रानी सीता महारानी। जब वह वनवास गये तो चित्रकूट से रामटेक होते हुए पंचवटी पहुंचे। बेटा वहां एक राक्षस आया । इस तरह कृष्ण बड़े ध्यान से सुन रहे थे । हरि हरि।
विस्तार से सुनाया होगा। उस राक्षस ने भिक्षाम देही कहकर पुकारा और उसके पहले मरीची भी हिरण का रूप धारण करके आया। बहरूपी कोई भी रूप धारण कर सकता था। हिरण सीता को पसंद आया और उनहोने कहा कि मुझे वह हिरण चाहिए। मेरे प्रिय राम उस हिरण को मेरे लिए लाइए। तो फिर राम गए, हिरण को पकड़ने के लिए या लाने के लिए। हरि हरि। तो फिर सीता ने लक्ष्मण को भेजा। जाओ जाओ। तो फिर रावण आया भिक्षाम देही। सीता महारानी जैसे ही आगे बढ़ी,ब्राह्मण का रूप धारण करके बदमाश रावण उनको पकडने लगा,औरों को रुलाने वाला राक्षस मेकअप करके आया था। वह ब्राह्मण की वेशभूषा धारण करके, हाथ में कमंडल लेकर या भिक्षा पात्र लेकर आया था। भिक्षाम देही जैसे ही सीता आगे बढ़ी, तो उस राक्षस ने सीता का अपहरण कर लिया। यशोदा कृषण को सुना रही थी और जैसे ही उनहोंने यह बात बताई कि राक्षस ने सीता महारानी का अपरहण कर लिया हैं, तो कृष्ण जो गोद में लेटे हुए थे और गाय का दूध पी रहे थे कहने लगे, नहीं नहीं मैं तब तक दूध नहीं पिऊंगा जब तक आप मेरे को कहानी नहीं सुनाओगे। यशोदा कहानी सुना रही है और बीच-बीच में दूध भी पिला रही है। कृष्ण दूध भी पी रहे हैं और इस लीला का रसास्वादन भी कर रहे हैं।
इतने में यशोदा ने सुनाया कि राक्षस आया हैं और उसने सीता का अपहरण कर लिया है , इस बात को सुनते ही कृष्ण जो यशोदा की गोद में लेटे थे, एक दम से छलांग मारकर खड़े हो गये, कहा है मेरा धनुष बाण । अब दिखाता हूं, मैं अपना पराक्रम और विनाश करता हु इस राक्षस का। बाल कृष्ण राम लक्ष्मण सीता की कहानी सुन रहे थे और सुनते सुनते आवेश में आ गए, बाल कृष्ण राम ही बन गए। कभी कभी राम और श्याम बनके वे आ जाते है। लेकिन साई बाबा बनके नहीं आते। सावधान।
मैं जैसे की आजकल राम कथा सुनाता हूँ जपा टॉक के अंदर तो मुझे सोचना पड़ता है की कौनसी कथा सुनाई जाए। कई सारी लीलाएं सामने आ जाती है।कौनसी कथा सुनाई जाए। लक्ष्मण,सीता बहुत भक्त है रामायण मैं, कौशल्या के संबंध में सुनाऊ या हनुमान के बारे। हनुमान के बारे में कुछ कहो , हनुमान लीला सुनाओ। ये इतनी सारी लीलाएं है, पता है कितनी सारी लीलाएं है। शास्त्रों में कहा है की जैसे समुद्र की लहरों की तरंगों को कोई गिन नही सकता है , यह गणना असंख्य है। ऐसे ही इतनी सारी लीलाएं है। और यह भी कह सकते है की एक एक अवतार की असंख्य लीलाएं है।और अवतार भी बहुत हैं, यह भी कहा गया है की अवतारों की संख्या वैसी ही है जैसे समुद्र की तरंगे, लहरों की गणना नही है, की कितनी लहरे है , ऐसे ही कितने अवतार है * ना ना अवतार करो भुवनेश किंतु * ब्रह्मा ने भी कह दिया हैं कि ना ना अवतार है।
ब्रह्मा भी नही कह पाए ईतनी असंखय लीलाए हैं।ऐसा नही है कि एक करोड़, एक हजार अवतार है ,अवतार भी असंख्य है। और हर अवतार की लीलाएं भी असंख्य है।
वैसे एक व्यक्ति ही, लीला सुनाने में कुछ हल्के से सफल हो पाते है और वे है अनंत शेष। इनको सहस्त्र वदन भी कहते है।यह एक हजार मुख वाले है । और एक हजार मुखों से वे हरी कथा करते रहते है और हजार मुखों से हजार प्रकार की कथा हो रही है। ये नही की जैसे आज कल के कथाकार बोलते है तो स्पीकर लगाते है, कथा दूर दूर तक सुनाने के लिए। चाहे 550 स्पीकर हो या 1000 स्पीकर हो, यह स्पीकर एक ही कथा सुनाते रहते है। एक स्पीकर से एक ही कथा निकलती है। किंतु जब अनंत शेष कथा करते है तो हजार कथा या हजार अवतारों की कथा एक ही साथ सुनाते है।
श्रृष्टि के प्रारंभ में जब श्रृष्टि होती है तो जो ग्रह नक्षत्र होते है इसको कोई धारण करने वाला भी तो होना चाहिए। अपने ऑर्बिट में रखने वाला भी तो कोई चाहिए। ऐसी कोई शक्ति, ऐसी कोई युक्ति कौन रखता है ग्रहों का अपना मंडल होता है। इन सभी ग्रहों को अनंत शेष धारण करते है अपने फण के ऊपर, और अपने फन्नो को घुमाते रहते है। सारा संसार भगवान के फण के ऊपर स्तिथ है।
ये भगवान ही कह रहे थे , सारे श्रृष्टि, भ्रह्मण्डो को अपने सर पर धारण करने वाले। मुझे कब तक ये बोझ ढोना पड़ेगा। वैसे उनके लिए कोई बोझ नहीं है, ना के बराबर है ।उनहोन पूरा ब्रह्मांड तो धारण करा ही हुआ है। किंतु पूरा ब्रह्मांड एक सरसों के दाने के बराबर का है। आप के सिर पर सरसों का दाना रखा जाए तो आपको याद भी नहीं रहेगा की कुछ रखा हुआ है, ठीक वैसे जैसे एक मच्छर भी आकर बैठ जाता है पर हमे फरक ही नहीं पड़ता। ठीक वैसे ही भगवान के लिए ये माया का खेल है, यह कोई बडा काम नहीं है। तो भगवान पूछ रहे थे की मुझे यह भार कब तक ढोना पड़ेगा? तो उनको बताया गया की आप दो कार्य 1 साथ में करोगे। पहला सारे श्रृष्टि को अपने फन्नों के ऊपर धारण करोगे और दूसरा आपको भगवान के गौरव गाथाओं को भी कहना है। भगवान के गुण, रूप, नाम , लीला का वर्णन करना है। और जैसे ही आपने यह सारा वर्णन पूरा कर लिया तभी आपके कार्यों का समापन होगा । फिर आपको ये ग्रहों को ढोने की अवक्षकता नही रहेगी। तो फिर अनंत शेष सहस्त्र वदन है तो उन्होंने सोचा की मेरे पास तो हजार मुख है फिर मैं हर दिन हजार मुखों से भगवान की नाम, रूप, गुण, लीलाएं धाम की कथाओं को कहता जाऊंगा । तो फिर यह जल समाप्त हो जायेगा। फिर मुझे ढोने की आवश्कता नही होगी।
अब अनंत शेष ने भगवान की लीलाओं को कहना प्रारंभ किया और कथा लीला कहने लगे, कहते गए कहते गए। अभी भी कह रहे है लेकिन ये लीला अभी भी समाप्त होने वाली नही है। हम थक गए यह कथा सुन सुन के। हमको भी थोड़ा बोझ लग रहा है कब से महाराज कथा सुना रहे है, कब घर जायेंगे ताकि हमको आराम मिलेगा। ये सहस्त्र वदन थके तो नही है । उनका संकल्प तो था की जल्दी से मैं कथा पूरी कर लूंगा लेकिन उनका संकल्प पूरा नहीं हो रहा है। ये राम की कथा कितनी सारी है। वैसे राम लीला खेलते भी रहते है। राम की लीला शाश्वत है। वही लीला दोराहते नही है भगवान हर समय नई लीला प्रकट करते है। अभिनय इनोवेशन होता रहता है। एक ब्रह्मांड से दूसरे ब्रह्मांड में भी राम की लीला होती रहती है। ये राम हुए , कृष्ण हुए, नरसिंह हुए, वराह हुए, कितने अवतार है , अवतारों का और ना ही उनके लीलाओं का कोई अंत है। ये सिंधु है, सागर है, लीला का सागर है हमारे लिए हम सुक्ष्म जीव है। उस सिंधु का एक बिंदु भी हमारे लिए पर्याप्त है। हम (जीव आत्मा) इतने सुक्ष्म है छोटे है की एक बिंदु में, लीला सागर का बिंदु उसी में हमारा अभिषेक हो जाता है। उसी में हम गोते लगा सकते है। उसी में नहा सकते है ,एक बिंदु में। हम तो एक एक बिंदु ही छिड़कते रहते है आपकी ओर लेकिन ये काफी है।
तो आप सभी डूब जाओ, गोते लगाओ इस भगवान के लीला, कथा , नाम में , धाम में , और प्रसाद में । इस प्रकार राम भवनाभावित हो जाओ।
नोएडा तक मेरी आवाज़ पहुच रही है,ऐसा पराकर्म है हरी हरी। यह ऑनलाइन का पराक्रम है। उनको भी श्रेय मिलना चाहिए जो साइंटिस्ट है जो इस ऑनलाइन योजना में काम करते है। वैसे इसका दुरुपयोग भी होता है लेकिन, हरे कृष्ण भक्त इसका सदुपयोग करते है ,इस इंटरनेट व्यवस्था का। आजकल प्रचार का माध्यम वर्क फ्रोम होम चल रहा है घर बैठे बैठे काम धंधा करो। ऐसे ही हम हरे कृष्ण भक्तों का भी हम मंदिर में बैठे बैठे आश्रम में बैठे बैठे प्रचार का कार्य कर रहे है। जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश का जो कार्य है। तो राम को धन्यवाद। कि घर बैठे बैठे सभी को राम कथा का अस्वदान हो रहा है।
निताई गौर प्रेमानंद हरी हरी बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 17 अप्रैल 2021*
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ८०० स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरिबोल!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
आप तैयार हो? मैं तो तैयार बैठा हूँ लेकिन जब श्रोता तैयार नहीं हैं, तब वक्ता क्या कर सकता है।
श्रोता और वक्ता की जोड़ी होती है। यदि आपका साथ है तब हम आगे बढ़ते हैं। यस! क्या यह ठीक हैं? एकनाथ गौर! क्या तुम तैयार हो? हिंदी समझते हो? क्या तुम्हें हिंदी समझ आती है? सीखो!
राम नवमी महोत्सव की जय!
राम नवमी महोत्सव के अंतर्गत हम कुछ राम का संस्मरण कर ही रहे हैं। जब हम राम का संस्मरण कहते हैं अथवा करते हैं, तब हमें अन्यों का भी स्मरण होता है। लक्ष्मण,भरत, शत्रुघ्न, दशरथ, कौशल्या, कैकेई, सुमित्रा का भी स्मरण भी राम स्मरण ही हुआ। हनुमान का स्मरण भी हमें राम का ही स्मरण दिलाता है। जय हनुमान! हनुमान को याद करते ही राम हमारे समक्ष खड़े हो जाते हैं। ऐसे ही वैष्णवों अथवा भक्तों की पहचान होती है। भक्त अपने भगवान का स्मरण दिलाते हैं, अपने इष्टदेव का स्मरण दिलाते हैं। उनकी तरफ देखो, उनको सुनो अथवा उनके सानिध्य में जाओ इत्यादि। मैं केवल राम का स्मरण करूंगा, मैं हनुमान का स्मरण नहीं करूंगा, ऐसा तो संभव नहीं है। केवल राम का स्मरण करूंगा, दशरथ को भूल जाऊंगा या दशरथ के साथ मेरा कोई लेना देना नहीं है। केवल राम। जय श्री राम!
लेकिन ऐसा नहीं होता है। यह थोड़ी सिद्धांत की बात भी है कि जब राम कथा अथवा रामायण की कथा होती है तब राम के साथ रामलीला का स्मरण तो होता ही है।जब राम प्रकट होते हैं तब लीला तो संपन्न होती है। लीला तो अकेले में खेली नहीं जा सकती, लीला के लिए सभी चाहिए। लीला के लिए धाम भी चाहिए, धाम की कथा भी राम कथा है। लीला चाहिए तो फिर परिकर भी चाहिए तब सारे परिकरों की कथा अथवा संस्मरण भी रामकथा है। (आप समझ ही गए हैं। मुझे और सब बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।) (रामकथा का भी कुछ जिक्र हो रहा है। देखते हैं, हम कितना रामकथा का जिक्र कर सकते हैं।) वैसे कल पदमाली प्रभु ने कुछ संकेत दे ही दिया था और उन्होंने कहा था कि आज रामानुजाचार्य का आविर्भाव तिथि महोत्सव है। रामानुजाचार्य आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय! रामानुज अर्थात राम का अनुज अथवा रामानुग मतलब लक्ष्मण ही हैं। रामानुज लक्ष्मण के शक्त्यावेश अवतार हैं। लक्ष्मण की कथा अथवा संस्मरण होगा ऐसा पदमाली प्रभु ने कल कहा था। देखते हैं, समय बलवान है। वह दौड़ता रहता है। लगभग एक हजार चार वर्ष पूर्व वर्ष १०१७ में रामानुजाचार्य प्रकट हुए थे। हरि! हरि! हरे कृष्ण!
प्रचार प्रमाणित परंपरा से है ऐसा पदम पुराण में उल्लेख है। परंपराएं हैं या संप्रदाय है।
*सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः*
( पद्म पुराण)
अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु- शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता, तो उसका मन्त्र या उसकी दीक्षा निष्फल है।
यदि संप्रदाय के बाहर से आपने मंत्र स्वीकार किया है और आप उस मंत्र को रट रहे हो अथवा जो भी कर रहे हो, वह विफल होगा अर्थात उससे कोई फल प्राप्त नहीं होगा। इसलिए सम्प्रदाय के आचार्यों से मन्त्र प्राप्त करना होगा व दीक्षित और शिक्षित भी होना होगा। हमें परंपरा में आने वाले आचार्यों, भक्तों, संतों, महात्माओं से शिक्षित व दीक्षित होना चाहिए, ऐसी व्यवस्था है। चार संप्रदाय हैं। यह भगवान कृष्ण की व्यवस्था है।
*एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥*
( श्रीमद भगवतगीता ४.२)
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
परंपरा में ज्ञान प्राप्त करना सम्भव है। भगवान् ने इस ब्रह्मांड में सारी व्यवस्था करके रखी है।
ताकि उनके संबंध का ज्ञान प्राप्त हो सके।
*सर्वस्य चाहं हृदि सनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥*
(श्रीमद् भगवतगीता१५.१५)
अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।
वेद में जो ज्ञान है, हम सारे संसार के बद्ध जीव उसको सुनकर अथवा श्रवण या ज्ञान अर्जन करके भगवान को जान सकते हैं।
*आचार्यवान् पुरुषो वेद*
( छान्दोग्य उपनिषद ६.१४.२)
अनुवाद:- जो मनुष्य आचार्यों की गुरु- शिष्य परम्परा का अनुसरण करता है, वह वस्तुओं को असली रूप में जान पाता है।
जिन्होंने अपने जीवन में परंपरा में आने वाले आचार्यों को अपनाया है, हम उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उनसे मार्गदर्शन ले रहे हैं। पुरुषो वेद अर्थात तब ऐसा व्यक्ति ज्ञानवान होगा और जैसा कि भगवान् कृष्ण ने भगवतगीता गीता में कहा है
*बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९)
अनुवाद:- अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है।
ऐसे ज्ञान की आवश्यकता है क्योंकि भगवान् कृष्ण कहते हैं कि जब ज्ञान प्राप्त होगा तब मां प्रपद्यते अर्थात मेरी शरण में आएगा। ज्ञानवान, भगवान की शरण में आएगा और भगवान् को जानेगा। उसका ज्ञान वासुदेवः सर्वमिति होगा अर्थात वासुदेव ही सब कुछ है। वासुदेव ही सर्वोच्च है, उसका ऐसा ज्ञान होगा।
*षट्कर्मनिपुणो विप्रो मन्त्रतन्त्रविशारदः। अवैष्णवो गुरुर्न स्याद् वैष्णवः श्र्वपचो गुरुः।।*
अनुवाद:- विद्वान ब्राह्मण, भले ही वह सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान में अर्थात स्त्रोत, मन्त्र, विधिनियम व पद्धतियों में पारंगत भी क्यों न हो, यदि वह वैष्णव नहीं है, तो गुरु बनने का पात्र नहीं है। किंतु शूद्र अथवा चण्डाल भी, यदि वह वैष्णव या कृष्ण भक्त है, तो गुरु बन सकता है।
अवैष्णव गुरु नहीं हो सकता अर्थात जो वैष्णव नहीं है, वह गुरु नहीं हो सकता। गुरु को वैष्णव होना चाहिए। हरि! हरि!
वैष्णव कौन है? वासुदेवः सर्वमिति अर्थात वासुदेव ही सब कुछ है, जिसने यह जान लिया, वह वैष्णव है। वासुदेव कहो या विष्णु कहो, एक ही बात है। जो विष्णु तत्व को जानता है (अभी यह कहा.. फिर… यह आपके पल्ले नहीं पड़ रहा होगा, परंतु अपेक्षा है कि आप विष्णु तत्व को समझते होंगे।) वह भी भगवान् के अवतार हैं। अवतारों से विष्णुतत्व बनता है।
रामानुजाचार्य ऐसे ही वैष्णव आचार्य रहे। किसी सम्प्रदाय या आचार्य को तभी मान्यता होती है जब उनके द्वारा वेदान्त सूत्र पर कोई प्रामाणिक भाष्य लिखा जाता है तत्पश्चात उस सम्प्रदाय को मान्यता प्राप्त होती है। रामानुजाचार्य ने वेदान्त सूत्र पर अपना भाष्य लिखा।’विशिष्ट द्वैत’ ऐसा तत्व रहा, द्वैत मतलब दो, एक भगवान् और दूसरे हम। एक जीव और दूसरा भगवान्। एक अणु आत्मा और दूसरी विभु आत्मा। जो द्वैतवादी, मायावादी, निराकारवादी, निर्गुणवादी होते हैं, वे वैष्णव नहीं होते। उनको वैष्णव नहीं कहा जा सकता। वैष्णवों के अतिरिक्त अन्य कई दल होते हैं। एक बड़ा दल निर्गुण, निराकारवादी और अद्वैतवाद का दल है। जिसका प्रचार शंकराचार्य ने जबरदस्त किया। उसको परास्त करने हेतु ही भगवान् एक से बढ़कर एक आचार्य को जन्म देंगे, ये चार होंगे। पांचवें भी होंगे माधवेंद्रपुरी। वे चार आचार्य जो प्रकट होने वाले हैं- उनमें से सर्वप्रथम रामानुज आचार्य रहे। उन्होंने वेदान्त सूत्र पर भाष्य लिखा जोकि श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। श्री अर्थात लक्ष्मी। लक्ष्मी नारायण के उपासक या आराधक रामानुजाचार्य जिनका बहुत बड़ा पीठ श्री रंगम, दक्षिण भारत में है। उसको अपना मुख्यालय (हेड क्वार्टर) बना कर रामानुजाचार्य ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया। श्रीद्वैत सिद्धांत का प्रचार किया। इसी के साथ अद्वैत सिद्धांत मायावाद को परास्त करते गए।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
इसी के साथ वे धर्म की स्थापना करते गए। इनके कुछ ७००० सन्यासी थे और १२००० ब्रह्मचारी शिष्य थे।
व कई हजारों, राजा महाराज, उधोगपति इत्यादि अनुयायी थे। आप कल्पना कर सकते हो या नही भी कर सकते हो। उन्होंने सारे भारत का भ्रमण किया। शंकराचार्य ने भी वैसा ही किया था अर्थात शंकराचार्य ने सर्वत्र प्रचार करके अद्वैत सिद्धान्त की स्थापना का प्रयास किया।
अब उसको परास्त करना है। मायावाद का खंडन व मुंडन करना है। रामानुजाचार्य क्रिया (एक्शन) में थे। उन्होंने सफलता पूर्वक वैष्णव धर्म का प्रचार किया व स्थापना की। रामानुजाचार्य ने गीता के ऊपर भी भाष्य लिखा है। रामानुजाचार्य का गीता के ऊपर लिखा भाष्य प्रसिद्ध है। उसको भी भगवद्गीता यथारूप कह सकते हैं। भगवान का जो भी इंटेंशन रहा था अर्थात जिस उद्देश्य से भगवान ने कहा उसको ज्यों का त्यों परंपरा में प्रचार करना या गीता पर भाष्य लिखना, वह भी भगवत गीता यथारूप बन जाती है। अतः रामानुजाचार्य का भगवतगीता पर भाष्य भी प्रसिद्ध है। रामानुजाचार्य 120 वर्ष इस धरातल पर रहे। जब हम कह ही चुके हैं कि वे लक्ष्मण का आंशिक अवतार है। वैसे लक्ष्मण भी आदि गुरु हैं। गुरु तत्व के अंतर्गत यह समझना होगा। लक्ष्मण गुरु की भूमिका निभाते हैं और वैसी ही भूमिका द्वापर युग में बलराम ने निभाई। वैसी ही भूमिका कलियुग में नित्यानंद प्रभु ने निभाई।
कलियुग में जो गौरांग व नित्यानंद प्रभु प्रकट हुए, वही तो द्वापर युग के कृष्ण और बलराम थे। वही त्रेता युग के राम लक्ष्मण थे, राम वासुदेव हैं और लक्ष्मण संकर्षण हैं। लक्ष्मण, बलराम नित्यानन्द आदिगुरु भी हैं व एक आचार्य की भूमिका भी निभाते हैं। लक्ष्मण राम की सेवा करते हैं और हम सभी के समक्ष ऐसा आदर्श रखते हैं। बलराम भी कृष्ण की सेवा करते हैं अथवा सहायता करते हैं। नित्यानंद प्रभु ने भी वही किया। श्रीकृष्ण बलराम हर समय साथ रहते थे। शुरुआत से लेकर अंतर्धान होने के समय तक कृष्ण बलराम अधिकतर समय साथ में ही रहे। ऐसा भी देखा जाता है और समझ में आता है कि राम और लक्ष्मण भी सदैव साथ में रहे, साथ में ही जन्मे, उन दोनों का जन्म नवमी का ही है। कल भी कहा था कि वे साथ में ही रहते थे, साथ में खेलते थे और एक ही पालने में साथ ही लेट जाते थे। इन चारों की शिक्षा राजपुत्र के रूप में साथ में ही हुई थी।
धनुष बाण चलाने की शिक्षा कहा जाए या अन्य जो भी राजपुत्रों को प्राप्त करने योग्य विद्याएं होती है, राम लक्ष्मण ने साथ में ही प्राप्त की। जब विश्वामित्र दशरथ के पास आए, कहा कि मुझे आपके दो पुत्र राम और लक्ष्मण चाहिए। राम और लक्ष्मण साथ में गए और साथ में ही विश्वामित्र मुनि की सहायता की। तत्पश्चात वे दोनों विवाह के उपरांत अयोध्या वापिस लौटे। वैसे केवल इन दोनों का ही नहीं अपितु चारों राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का एक ही विवाह मण्डप में विवाह हुआ था। राम, लक्ष्मण का साथ में ही विवाह हुआ। अब विवाहित राम तथा लक्ष्मण साथ में अयोध्या वापिस लौटे। हरि! हरि!
तत्पश्चात राम को वनवास जाने का आदेश हुआ। दशरथ ऐसा आदेश नहीं देना चाहते थे। एक बार, दशरथ आइने में देख रहे थे कि मेरे बाल पक गए है। मैं बूढा हो गया हूँ, मुझे सेवा निवर्त होना चाहिए, यह रिटायर होने का समय है, उन्होंने राम को राजा बनाने का संकल्प किया। वे चाहते थे कि राम राजा बनें किन्तु कैकेई कुछ और ही चाहती थी। राम, अपने पिताजी द्वारा कैकई को दिए हुए वचन को सत्य करने हेतु वनवास में जाने के लिए तैयार हो गए। ऐसे एकवचनी अथवा सत्यवचनी थे, वह वचन पिताश्री का था कि मैं तुम्हें वरदान दूंगा। मांग लो (यह लंबी कहानी हो जाएगी)
वह समय आ गया, तैयारी हो रही थी कि राम राजा बनें लेकिन वैसा नहीं होना था। राम वनवास के लिए तैयार हुए, लेकिन सीता राम के बिना कैसे रह सकती थी। ‘ठीक है, तुम भी चल सकती हो।’ तत्पश्चात लक्ष्मण ने भी प्रस्ताव रखा कि मैं भी आपके साथ जाऊंगा। बड़ा ही विशेष संवाद है। जब हम इस संवाद को सुनेंगे, लक्ष्मण का राम के प्रति स्नेह, प्रेम अथवा आकर्षण है, वह अनुभव कर पाएंगे। लक्ष्मण भी राम के भक्त हैं। हमें उसकी पहचान तब होती है, जब लक्ष्मण भी निवेदन कर रहे हैं। मैं जाऊंगा ही, मुझे भी ले चलो। अंततः वे गए भी, वैसे वे सहायता के लिए गए थे, ऐसी भूमिका भी है। ऐसा सम्बन्ध भी है। वे सेवक हैं। यदि हम कहेंगे कि राम सेव्य भगवान् हैं, लक्ष्मण सेवक भगवान् हैं। समझते हो? राम सेव्य भगवान् अर्थात जिनकी सेवा होनी चाहिए अथवा करनी चाहिए। लक्ष्मण सेवक भगवान् हैं। वैसे गुरु के सम्बंध में भी ऐसा ही कहा जाता है। गुरु भी भगवान् है लेकिन सेवक भगवान् हैं। भगवान् तो भगवान् ही हैं। लक्ष्मण ने बस सेवा ही की है और कुछ किया ही नहीं है। उसने सहायता ही की है और कुछ किया ही नहीं। तत्पश्चात वे चित्रकूट पहुंच गए वहां पर्णकुटी का निर्माण करना था।
केवट ने भी कहा था जिसकी कथा कल हम राधारमण महाराज से सुन रहे थे। केवट ने राम लक्ष्मण सीता को गंगा नदी पार कराई । उस वक्त केवट ने कहा था- ‘ मैं भी वही करता हूँ जो राम करते है। चाहे इसे मेरा व्यवसाय कहो या मेरा कार्य परंतु यह राम जैसा ही है। जब केवट ने ऐसा कहा और लक्ष्मण ने यह बात सुनी तब वे बोले” क्या? तुम अपने कार्य की तुलना राम के साथ करते हो? ऐसा कौन सा कार्य है जो तुम राम जैसा करते हो?” लक्ष्मण को ऐसी बातें पसंद नहीं हुआ करती थी। वे क्रोधित हो जाया करते थे, उन्होंने समझा कि यह तो राम का अपमान कर रहा है। खुद को राम के समक्ष समझ रहा है। जैसा राम करते हैं, वैसा मैं भी कुछ करता हूं। लक्ष्मण उसे डांट फटकार रहे थे, तब केवट ने कहा था जैसे मैं लोगों को अपनी नौका में बैठा कर गंगा के पार कर देता हूं। राम भी पार लगा देते हैं अर्थात वे सभी का बेड़ा पार कर देते हैं, भवसागर को पार कर देते हैं। उनके नाम की नौका में ही बैठो। वे पत्थर जिस पर राम का नाम लिखा था, राम की वानर सेना ने उस पर चढ़ कर सारा सुमद्र पार कर लिया। राम का नाम लो या राम की लीला का श्रवण करो या राम के विग्रह का दर्शन करो। इसी के साथ सारा बेड़ा पार हो जाता है, भवसागर पार होता है। इस प्रकार वे समझा रहे थे कि दोनों का व्यवसाय किस प्रकार एक ही है अर्थात किस प्रकार उनके एक जैसे कार्य हैं।
राम लक्ष्मण सीता जब चित्रकूट में रह रहे थे, तब एक दिन उन्हें दूर से सुनाई दे रहा था कि कुछ कोलाहल हो रहा है, कुछ ध्वजाएं दिख रही हैं, कुछ घोड़ों के टापों की आवाज व विभिन्न विभिन्न प्रकार की आवाज दूर से ही सुनाई दे रही है। इसे सर्वप्रथम लक्ष्मण ने ही सुना था। लक्ष्मण राम और सीता के अंगरक्षक थे। जब हम नागपुर के पास रामटेक गए थे, टेक मतलब प्रतिज्ञा अथवा संकल्प। भगवान दंडकारण्य में चित्रकूट में रहे । वे १४ वर्ष के वनवास के समय में से कुछ ११ या १२ वर्ष चित्रकूट में ही रहे। तत्पश्चात उन्होंने वहां से दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। उसे रामगिरी भी कहते हैं। गिरी मतलब पर्वत। रामगिरी या रामटेक भी कहते हैं।
राम लक्ष्मण सीता उसी पर्वत की शिखर पर कुछ समय के लिए रहे। वहां अगस्त्य मुनि का आश्रम भी था। बहुत कुछ देखा, राक्षसों ने वहां ऋषि मुनियों का जो हाल किया था, खून पिया था, जान ली थी, उनके हड्डियों के ढेर वहां पड़े थे, यह देख कर राम ने संकल्प किया कि इस पृथ्वी को मैं राक्षसों से मुक्त करूंगा। इस पृथ्वी पर एक भी राक्षस नहीं रहेगा। उन्होंने अपने हाथ में धनुष बाण लिया व प्रत्यंचा चढ़ा कर संकल्प किया। उस संकल्प को ही रामटेक कहते हैं।
एक बार चित्रकूट पर जब सैन्य दल आ रहा था तब लक्ष्मण ने कहा, “भैया, भैया तैयार हो जाओ, तैयार हो जाओ।” राम ने कहा- “किसलिए” तब लक्ष्मण ने कहा- युद्ध के लिए। लक्ष्मण ने अंदाजा लगाया था कि भरत सेना के साथ हमारे साथ युद्ध करने के लिए आ रहा है इसलिए हमें भी लड़ना होगा। राम ने लक्ष्मण से कहा, ‘शांत हो जाओ, शांत हो जाओ।’
भरत, हमारे साथ युद्व, यह सम्भव नहीं है।
लक्ष्मण का ऐसा कुछ स्वभाव था लेकिन राम की सेवा के लिए उनका यह स्वभाव या विचार या सारे कार्यकलाप हुआ करते थे। उन्होंने सोचा कि शायद राम को हानि पहुंचाने के लिए भरत आ रहा है। ऐसे थोड़े से हल्के विचार के साथ उन्हें लगा कि उन्हें अब लड़ना होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वैसे १४ वर्ष लक्ष्मण ने ना तो कुछ खाया और ना ही वे सोए। वे वनवासी जैसे ही रहे। राम भी केवल वनवास में ही नहीं रहे अपितु वनवासी जैसे ही रहे। वन में जैसे वास करते हैं।(कहा जाता है और हम देखकर भी आए हैं।)
जब भगवान चित्रकूट पहुंचे, देवताओं ने एक विशेष गुफा की व्यवस्था की जहां पर राम आराम के साथ रह सके। गुफा में ए.सी. भी चलती है, चलती तो नहीं लेकिन कुदरती ठंडा भी रहता है। (हम देखकर आए हैं) लेकिन राम ने वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। मंदाकिनी नदी जो कि एक पवित्र नदी है, के तट पर राम, लक्ष्मण व सीता १०-१२ वर्ष रहे। वहां से रामटेक आए लेकिन वे वनवासी जैसे ही रहे। वे पर्णकुटी में ही रहते थे। राम, लक्ष्मण, सीता वनवासियों जैसे वस्त्र अथवा वल्कल ही पहनते थे। वे कंदमूल, फल ही खाते थे। उन्होंने १४ वर्ष पका हुआ भोजन नहीं खाया। पकवान बनाकर या पकाकर भोजन नहीं किया। लक्ष्मण ने तो कुछ भी नहीं खाया। जब राम लक्ष्मण और सीता पंपा सरोवर के तट पर पहुंचे तब शबरी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। शबरी ने उनके सामने कुछ विशेष बेर रखे। उसका विशिष्ट यह था कि वह स्वयं थोड़ा सा चखकर उन बेरों का चयन करती थी। यदि बेर मीठा होता था तब ही वह राम को खिलाने के लिए रखती थी। वह हर रोज राम की प्रतीक्षा किया करती थी कि आज आएंगे, आज नहीं आए तो शाम तक आ ही जायेंगे, आज नहीं आये, कल तो उनको आना ही है। इस प्रकार उसकी उत्कंठा बनी ही रहती थी। जब वह राम को बेर खिला रही थी अर्थात वह राम को दे रही थी तो राम खा रहे थे। राम कह रहे थे कि मैंने जीवन भर में क्या-क्या नहीं खाया, कई प्रकार के अन्न व पकवान अयोध्या में खाए हैं, कंदमूल फल का भी आस्वादन किया है लेकिन ऐसा स्वाद ऐसी मिठास का मैंने कभी अनुभव नहीं किया था।
*पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता ९.२६)
अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।
वह आस्वादन भक्ति का आस्वादन था। राम फल को ही नहीं चख रहे थे। वे शबरी की भक्ति का रसास्वादन कर रहे थे। राम तो खा रहे थे, राम ने फल खाए। शबरी लक्ष्मण को भी फल दे रही थी न तुम खाओ, राम खाते थे। जब वह लक्ष्मण को देती थी। लक्ष्मण क्या करते थे? जब शबरी उनकी ओर नहीं देख रही होती थी, तब वे उसको झट से फैंक देते थे। वे फैंक रहे थे। उन्होंने १४ वर्ष कुछ खाया पिया नहीं, सोए नहीं। उन्होंने 14 वर्ष ऐसी कठिन तपस्या की व सभी कठिनाईयों का सामना करते हुए राम की सेवा करते रहे।
लक्ष्मण की जय!
जब वे पंचवटी में थे तब रावण महाशय आ गए (कल हमनें जिनका स्मरण किया था। ) रावण मरीचि को लेकर आए। मरीचि हिरन बनकर वहां पहुंचा था। सीता मैया उसे अपने पास चाहती थी। तब राम उसका पीछा करते हुए उसको पकड़ने गए। सीता पर्णकुटी में ही रही। राम ने लक्ष्मण को कहा कि तुम यहीं रहो। सीता की रक्षा करो। यह सब लीला कथा है। लक्ष्मण….
! कुछ समय उपरांत जब सीता और लक्षमण ने ऐसी पुकार सुनी। तब सीता, लक्ष्मण को राम की सहायता करने हेतु जाने के लिए प्रेरित करने लगी
[4/18, 4:35 PM] Purnanandi Radha DD: लेकिन लक्ष्मण मना कर रहे थे- नहीं! नहीं! लक्ष्मण जानते थे कि यह मारीच की चालाकी हो सकती है। राम का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। वह नहीं जाना चाहते थे किंतु सीता जोर दे रही थी कि तुम्हें जाना ही है। सीता ने यह भी कह दिया,” मैं समझती हूं कि तुम क्यों नहीं जाना चाहते हो? तुम ऐसे समय की प्रतीक्षा में ही थे, एक दिन राम नहीं रहेंगे, फिर मैं तुम्हारी बन जाऊंगी। ( कहना भी थोड़ा कठिन है लेकिन ऐसे ही कुछ विचार सीता के मन में आए और कहा) तब लक्ष्मण ने यह सब सहा नही गया। लक्ष्मण गए ऐसी और भी कुछ बातें रही।
१४ वर्ष के वनवास के पश्चात राम लक्ष्मण सीता सभी अयोध्या वापिस लौटे लेकिन फिर एक धोबी ने राम के सम्बंध में कुछ कहा। राम ने ही अपने कानों से उन अफवाहों को जो फैल रही थीं, सुना। राम ने सीता को वन में भेजने का निर्णय लिया। वह अकेली जाएगी। सीता उस समय गर्भवती भी थी, लक्ष्मण को आदेश हुआ कि लक्ष्मण तुम, सीता को रथ में बैठाकर ले जाओ और कहीं वन में छोड़ देना। मैं इसके साथ नहीं रह सकता। यह रावण के साथ रही है। लक्ष्मण के लिए सीता को वन में पहुंचाने का व वहां वनवासी बनवाने का बहुत बड़ा धर्मसंकट था। जैसे लक्ष्मण वहां पंचवटी में उसको अकेला छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे। लेकिन जाना पड़ा। वे राम अनुज थे अर्थात राम बड़े और लक्ष्मण छोटे थे। यहां पर भी राम का आदेश था कि सीता को वनवास के लिए वन में छोड़ कर आओ। उस समय भी लक्ष्मण नहीं चाहते थे। वे इस आदेश का पालन नहीं करना चाहते थे। यह सही नहीं है। सीता निष्पाप है किंतु उनको वैसा करना ही पड़ा। ऐसे और भी कई अनुभव होंगे या हैं। लक्ष्मण ने फिर ऐसा भी संकल्प किया कि जब मैं अगली बार प्रकट होऊंगा तब मैं छोटा भाई नहीं बनूंगा। मैं बड़ा भाई बनूंगा। त्रेता युग के राम लक्ष्मण अवतार के उपरांत जब द्वापर युग आया तब द्वापर युग के अंत में जब कृष्ण और बलराम को प्रकट होना था। तब त्रेतायुग के लक्ष्मण, द्वापर युग में बलराम बड़े भाई बनें और राम छोटे भाई कृष्ण बने। कृष्ण को भी रामानुज कहा जाता है। कृष्ण का एक नाम रामानुज है। यह राम कौन से हैं- बलराम। बलरामानुज अर्थात बलराम बड़े और अनुज अर्थात उनके बाद जन्में वे कृष्ण हैं। राम का भी एक नाम है। रामानुज।
त्रेतायुग के रामानुज लक्ष्मण हैं। स्पष्ट है? द्वापरयुग के रामानुज कॄष्ण हैं।
हरि हरि!
ठीक है। राम लक्षमण सीता की जय। कृष्ण बलराम की जय!
गौर निताई की जय!
श्रीपाद रामानुज आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय!
रामनवमी की जय!
आज वैसे राम गोविंद महाराज का भी जन्मदिवस है। शायद आप उनसे परिचित होंगे। हमनें उनको सन्यास दिया था। वह मेरे सन्यासी शिष्य हैं। कई वर्ष पूर्व रामनवमी के दिन मायापुर में ही हमनें उनको सन्यास दीक्षा दी थी और राम नाम भी दिया। गोविंद तो उनके नाम में पहले ही था। लेकिन हमने राम और जोड़ दिया इस प्रकार उनका नाम रामगोविंद हुआ। रामनवमी का दिन था। संन्यास दीक्षा हो रही थी। नाम में परिवर्तन किया जाता है। हमनें थोड़ा परिवर्तन किया। गोविंद के साथ राम जोड़ दिया तो वे रामगोविंद स्वामी महाराज हुए। वे स्वयं राम के भक्त हैं, वे गोविंद के भक्त भी हैं। राम की कथा सुनाते रहते हैं। वैसे आज की कथा थोड़ी समय में शुरु होने वाली है व नागपुर की और से उसका प्रसारण होने वाला है। रामगोविंद स्वामी महाराज आज कथा करेंगे। उनका आज जन्म दिवस है। वे गुरु भी हैं, उनकी आज व्यास पूजा भी है। रामगोविंद स्वामी महाराज की जय! उनकी व्यास पूजा की जय! उनकी जन्म तिथि की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*16 अप्रैल 2021,*
*पंढरपुर धाम.*
840 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। सुस्वागतम, सुस्वागतम श्रीराम। आप सभी का स्वागत है और श्रीराम का भी स्वागत। या पहले श्रीराम का स्वागत और फिर आप की भी बारी। राम का स्वागत कहां, हमारे जीवन में राम का स्वागत और हमारे मंदिरों में जहां श्रीराम विग्रह के रूप में निवास करते हैं, वहां पर श्रीराम का स्वागत। और फिर अपने घरों में भी राम का स्वागत। अपने देश में भी, अपना तो कुछ है ही नहीं राम के देश में सब राम का है ,पूरे ब्रह्मांड में राम का स्वागत।
*राम राम राम सीता राम राम*
हमारे भावों में, हमारे मन में राम का स्वागत। हनुमान जी ने अपने ह्रदय प्रांगण में श्रीराम का स्वागत किया। हरि हरि।
तभी हम रामभावनाभावित बनेंगे ,जब कृष्णभावनाभावित स्वागत होगा।
हरि हरि, यहां मैं क्रम से तो श्रीराम कथा नहीं कर रहा हूँ। जो भी मन में विचार आ जाते हैं, या मन में जिन विचारों का प्रवेश हो जाता हैं वही बताता हूँ,
*मनोनिष्ठति मंत्रो*
राम नाम के मंत्र का उच्चारण करते रहों। उच्चारण करते मेरे मन में जो विचार आ रहे हैं,उन्हीं विचारों को बताउंगा और वह विचार ही राम है,ऐसे ही सोच कर मैं कहते रहता हूं या कह रहा हूं।
हरि हरि।
इन विचारों को स्थिर करना है। ताकि हम रामभावनाभावित, कृष्णभावनाभावित, पांडुरंग विट्ठलभावनाभावित हो सके और नरसिंह भगवान की जय! नरसिंह देव भावनाभावित बन सके। अंततोगत्वा हमारा जैसा भी संबंध है भगवान के किसी अवतार से या रूप से उसी में अंततः हम सेटल हो जाएंगे। ऐसा नहीं हैं कि राम भक्त कृष्ण का स्मरण नहीं करता या कृष्ण भक्त राम का स्मरण नहीं करता। ऐसा ही कुछ है।क्योंकि भाव के अनुसार ही भक्त भगवान का स्मरण करता है इसीलिए राम भक्तों के लिए कृष्ण का स्मरण करना मुश्किल होता है और कृष्ण भक्तो के लिए राम का।
*हित्वा अन्यथा रुपम् स्वरुपेन व्यवस्थितिही*
हरि हरि।। जैसे कई सारे गौर भक्त वृंद ने मुरारी गुप्त के सामने ऐसा प्रस्ताव रखा था, कि हम सब भी कृष्ण भक्त हैं इसलिए तुम भी कृष्ण भक्त बन जाओ,उन्हीं का स्मरण चिंतन करो। और वह मान भी गए, कि “ठीक है मैं कोशिश करता हूं” और उन्होंने पूरी कोशिश भी की। पूरी रात जगते रहे ,किंतु वह रघुनंदन को भूल नहीं पाए या उनको रघुनंदन की यादें सताती रही। मुरारी गुप्त मायापुर में चैतन्य महाप्रभु के एक परीकर,पार्षद,पड़ोसी रहे ।उन्होंने कहा कि मुझे माफ करना लेकिन मैंने कोशिश तो की किंतु मैं कृष्णभक्त बनने में सफल नहीं हुआ ।जो भी हो, हमको पता नहीं है कि हम वैकुंठवासी हैं, अयोध्यावासी हैं, गोलोकवासी हैं, द्वारका वासी हैं। यह तो पक्का है कि हम देवी धाम वासी नहीं है। देवी धाम मतलब यह संसार। इस संसार के तो हम वासी नहीं है, यह निश्चित है। किंतु भगवद् धाम में हम किसके भक्त हैं? यह समझ तो है कि गोड़िय वैष्णव राधा कृष्ण के भक्त होते हैं। और फिर गोलोक लौटते हैं, परंतु उसमें कई अपवाद हो सकते हैं। जैसे मुरारीगुप्त है। और मुरारीगुप्त तो हनुमान ही है। जय हनुमान! जिनके संबंध में कहां गया हैं कि उन्होंने अपना वक्षस्थल फाड़ के दिखाया और कहां देखो मेरे भगवान, उनका दर्शन करो ।वही हनुमान जी मुरारी गुप्त के रूप में प्रकट हुए। जब श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु,श्रीवास ठाकुर कें निवास स्थान पर श्रीवास आंगन में असंख्य भक्तों को महा प्रकाश सप्तप्रहरी लीला दिखा रहे थे।असंख्य भक्तों को उनके स्वरूप के अनुसार, दर्शन दे रहे थे।तब वहां पर उनहोंने मुरारीगुप्त को भी दर्शन दिया ।भगवान श्रीकृष्णचैतन्य तो सभी अवतारों के स्त्रोत है।जब मुरारीगुप्त उनहे देख रहे थे, तो उनके लिए वहा गौर भगवान नहीं थे। गौरांग नहीं थे। उन्होंने तो अपने श्रीराम का दर्शन किया और जब मुरारीगुप्त ने उनकी और देखा तो वह भगवद् साक्षात्कार था। मेरे भगवान यह हैं। राम का साक्षात्कार।वह भगवद् साक्षात्कार था। एक आत्म साक्षात्कार होता है और एक भगवद् साक्षात्कार।उनको उस वक्त दोनों साक्षात्कार हो रहे थे, भगवद् साक्षात्कार और स्वयं का साक्षात्कार।जब उनहोंने अपनी ओर देखा तो पीछे पूछ थी और हाथ में गदा भी।उनहोने स्वयं को हनुमान के रूप में देखा। हरि हरि
*हित्वा अन्यथा रुपम् स्वरुपेन व्यवस्थितिही*
मुरारी गुप्त अपने स्वरूप में स्थित हो गये।यहा मुरारी गुप्त हनुमान कि भूमिका निभा रहे हैं। गौर लीला में गौरांग महाप्रभु की भक्ति कर रहे हैं। सेवा कर रहे हैं। मुरारीगुप्त ने संसार कि बहुत बड़ी सेवा की हैं। इसीलिए संसार मुरारीगुप्त का बहुत ऋणी है । वह हर रोज अपनी डायरी लिखते थे और श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का दर्शन करते थे।वह लीलाओं का भाग बने थे और वहां लिलाओ को लिखते जाते थे। मुरारी गुप्ता की डायरी ही चैतन्यचरितामृत और अन्य ग्रंथों का आधार बनी । हरि हरि।
यह एक विचार है। यह विचार मेरा ऐसे ही बना। ऐसे ही हुआ कुछ और विचार आ गया। हम सोच कर सोचते रहते हैं। सोच कर सोचो। सोच कर सोचो मतलब क्या सोचते रहो ?राम का, कृष्ण का चिंतन करते रहो। सोच कर सोचो *चिंतयन्तो मां*। चिंतन है तो जीवन है, नहीं तो चिंता रहेगी तो चिंताग्रस्त होओगे। एक होता है चिंतन और दूसरी होती है चिंता। चिंता से मर जाते हैं।जब अंतिम संस्कार होता हैं,तब चिता पर लकड़ी और आग केवल एक ही बार जलाते हैं। लेकिन यह चिंता हमको हमेशा जलाती रहती हैं। हर दिन हर क्षण जलाती रहती है। चिंता जान लेती हैं, ऐसी चिंता से बचो। कैसे बचोगे? चिंतन करो, चिंतन करो। चिंतयन्तो मां
हरि हरि।
चिंतन के लिए प्रसिद्ध भक्त कौन हैं?
*अनन्या चिंतायंतो मां*
गोपिया है, ग्वाल बाल है या हनुमान है। जब राम,लक्ष्मण,भरत और शत्रुघ्न बालक थे तो उन्हें महल में चार अलग-अलग पालनो में लिटाया जाता था। लेकिन होता क्या था? लक्ष्मण और शत्रुघ्न को सुमित्रा ने जिन पालनो में लिटाया होता था वह उस पालने से उतर जाते थे और लक्ष्मण ढूंढते थे कि राम कहा है और शत्रुघ्न ढूंढते थे कि भरत कहां है और उनके पास जाकर लेट जाते थे। उन्होंने अभी बोलना भी प्रारंभ नहीं किया होगा या फिर तोतली भाषा में बोलते होंगे। राम भैया कहां है? भरत भैया कहां हैं? और वहां जाकर लेट जाते।भाइयों में ऐसा संबंध था,उनकी ऐसी जोड़ियां थी। लक्ष्मण का राम पर विशेष स्नेह था और शत्रुघ्न का भरत से विशेष स्नेह था।और उनकी पूरी लीला में यही देखा जाता हैं कि राम और लक्ष्मण साथ में रहते हैं और भरत और शत्रुघ्न साथ में रहते हैं। राम और लक्ष्मण साथ में वनवास गए, “नहीं नहीं मैं यहां नहीं रह सकता हूं। मैं भी साथ में जाऊंगा”।
जब भरत अयोध्या में नहीं थे तब शत्रुघ्न ऐसे हट करके नहीं बैठे थे कि मैं भी जाऊंगा भरत के साथ। लेकिन लक्ष्मण जरूर गए।वैसे लक्ष्मण का नाम ही रामानुज हैं। रामानुज, रामानुग होना चाहिए। वैसे रामानुज का अर्विभाव आ रहा हैं। लक्ष्मण हैं रामानुग और शत्रुघ्न है भरतानुग। मतलब पीछे पीछे जाने वाले, साथ में रहने वाले। यह बात आप याद रखो। आचार्यो ने या शास्त्रों ने यह दो संघ बनाकर रखे हैं। और शास्त्रों मे वर्णित है उनके संबंध के बारे में और यह भी कि कैसा स्नेह था उनका आपस में, राम का लक्ष्मण से और भरत का शत्रुघ्न से।
जब वह बालक थे, राजपूत्र थे तो धीरे-धीरे उनका प्रशिक्षण शुरू हुआ। आगे क्या करेंगे? यह राजा बनेंगे।अभी राजपूत्र हैं। भविष्य में राजा बनेंगे, योद्धा बनेंगे, तो इनको सिखाया जा रहा है। धनुष बाण कैसे चलाना हैं या कैसे धारण करना हैं और घुड़सवारी कि घोड़े पर कैसे सवार होना है। विशेष रूप से राम धनुष बाण या बाण चलाने कि कला में प्रवीण थे। इसलिए ऐसा प्रसिद्ध है कि राम एक बाणी है या एक वचनी है,एक पत्नी भी हैं।उनका बाण कभी भी खाली फोकट नहीं गया, राम जब निशाना लगाते किसी को लक्ष्य बनाते तो उनका बाण जरूर उस लक्ष्य तक पहुंच ही जाता । इसलिए हम लोग कहते हैं रामबाण औषधि, यह औषधि कैसी हैं? रामबाण मानो राम का ही बाण। यह औषधि जो भी यह दवा लेगा,वह सफल होगा ही। वैसे कोरोना वैक्सीन के बारे में चर्चा हो रही हैं कि यह रामबाण है कि नहीं रामबाण हैं,या मरा मरा औषधि वैक्सीन हैं, नश्वर। लेकिन कुछ औषधिया होती हैं कि यह रामबाण औषधि हैं। रामबाण गारंटी के साथ। वैसे राम का नाम तो निश्चित ही रामबाण औषधि हैं।
*राम राम राम सीता राम राम राम*
*रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम*
हो गया.. रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीताराम पतितो को पावन बनाएगा राम का नाम। सिर्फ राम ही क्यों राम का नाम भी कलीयुग में पतितो को पावन बनाएगा। राम की लीला और राम का रूप भी कलीयुग में रामबाण औषधि हैं या उपाय हैं। हम भवरोगी है, रोगी हैं तो औषधि भी चाहिए ही, दवा चाहिए ही। रोग का निदान हो गया, तो उसके लिए प्रिस्क्रिप्शन क्या है? ओ तुम तो कली के जीव हो।तुम्हें तो बहुत से रोग हैं, कौन-कौन से रोग हैं? बहुत बड़ा रोग तो काम रोग है। हम काम में है, लोग ऐसा कहते हैं कि हम काम में है, मतलब काम में है, हम राम के प्रेमी नहीं हैं, हम माया के प्रेमी हैं। मतलब उसको काम कहते हैं,लेकिन दुनिया उसको प्रेम कहती हैं। दूसरे शब्दों में गाढवी प्रेम,जैसे गधा प्रेम करता है गधीनी के साथ,उसको गाढवी प्रेम कहते हैं,मराठी में गधे को गाढव कहते हैं । इस संसार में जो प्रेम चलता है वह गधे जैसा हैं।गधे का प्रेम गधिनी के साथ तो काम हैं, यह काम रोग से ग्रस्त होना हैं।औषधि क्या है?
*पतितानां पावनेभ्यो*
भगवान का नाम पतितो को पावन बनाने वाला , राम का नाम पावन बनाने वाला हैं,इसके लिए राम प्रसिद्ध है।
*पतित पावन सीताराम* पतितो को पावन बनाने के लिए ही तो भगवान प्रकट होते हैं।
*परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।*
*धर्मसंस्थानार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ८ ॥*
त्रेतायुग का धर्म हैं यज्ञ, यह भागवत से हम समझते हैं *त्रेतायां यजतो मखै:*। तो मैं बता रहा था कि राम कुछ प्रशिक्षण ले रहे थे और प्रशिक्षित हो गए। वैसे कृष्ण भी सांदीपनि मुनि के आश्रम में प्रशिक्षण के लिए गए थे। राम तो कहीं नहीं गए।वही अयोध्या में ही उनका प्रशिक्षण हो रहा था।वशिष्ठ आदि मुनि गुरु उनको शिक्षा दे रहे हैं। उनकी अच्छी तरह से प्रशिक्षित होने के बाद विश्वामित्र मुनि आते हैं। स्वागत है, स्वागत है, आपका स्वागत है, अतिथि देवो भव। लोग ऐसा केवल साइन बोर्ड ही नहीं लगाते थे, अतिथि देवो भव परंतु उनका ऐसा भाव भी हुआ करता था। मानो देवता ही आ गए। ऐसा स्वागत हुआ करता था। आजकल हम नहीं करते।आजकल हमारे घर के सामने अतिथि देवो भव साइन बोर्ड नहीं होता है। कौन सा साइन होता है कुत्तों से सावधान तो इस प्रकार जमाना बदल गया।कलयुग में वह त्रेता युग की संस्कृति, भाव और बहुत कुछ नहीं रहा। सब उल्टा पाल्टा हो गया हैं। राजा दशरथ ने विश्वामित्र का स्वागत किया और कहां आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? बस आज्ञा करो। विश्वामित्र मुनि ने फिर आज्ञा की,अपनी इच्छा व्यक्त की,कि मुझे आपके पुत्र राम और लक्ष्मण चाहिए।
फिर बताया कि जब हम यज्ञ करते हैं,त्रेता युग है तो यज्ञ ही धर्म हैं। यज्ञ का अनुष्ठान ही धर्म हैं। लेकिन हम लोग जब यज्ञ करते हैं तो कई विघ्न भी उत्पन्न होते हैं, कई राक्षस आते हैं और बाधा उत्पन्न करते हैं। तो मैं चाहता हूं कि राम और लक्ष्मण आकर हमारी सहायता करें। उन राक्षसों उन निशाचरो का वध करें, ताकि हमारा यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हो सके।जब यह प्रस्ताव राजा दशरथ ने सुना तो उनको बहुत अचरज हुआ।
क्या?आप मेरे पुत्र को वन में ले जाना चाहते हो?और रात्रि के समय भी वही रखवाली करेंगे, नहीं नहीं नहीं यह मुमकिन नहीं है। यहां पर राजा दशरथ का वात्सल्य उमड़ आया,उनकी वत्सलता,वात्सल्य। तो क्या हुआ अगर राम और लक्ष्मण भगवान हैं?उनके लिए तो भगवान नहीं हैं,उनके तो पुत्र हैं।और अभी बालक हैं
*उनषोडशा वर्षीय*
उनकी उम्र कितनी हैं? *उनषोडशा वर्षीय* हैं।
मतलब सोलह साल के भी नहीं है। उसमें भी एक कम पंद्रह साल के ही हैं। और कैसे हैं यह राम और लक्ष्मण
*राजीवलोचन:*
कमलनयनी हैं।उनकी आंखों के सौंदर्य के संबंध में बताया गया हैं कि उनकी आंखें कितनी सुंदर हैं, कमलनयनी हैं, पद्म नयनी हैं या राजीव लोचन हैं।उनका नाम भी हैं, राजीव लोचन। इसीलिए राजा दशरथ कह रहे हैं कि वैसे तो कमल के पुष्प खिले रहते हैं,लेकिन जब सायं काल का समय आता है, संध्या काल का समय आता हैं, वह बंद हो जाते हैं। तो राजा दशरथ का कहना है कि संध्या काल के समय इनकी भी आंखें धीरे-धीरे बंद होती है। मतलब उन को नींद आ जाती हैं, हम उनको सुलाते हैं और पूरी रात वे सोते रहते हैं। और आप कह रहे हैं कि निशाचरो का वध करेंगे, पूरी रात सेवा होगी, पूरी रात सतर्क रहेंगे इनसे यह नहीं होगा। यह राजीव लोचन है,इनको संध्या काल के समय बस झपकी आ जाती हैं।नहीं नहीं नहीं वह नहीं जा सकते। हरि हरि।
विस्तार से इस प्रसंग का वर्णन रामायण में हैं,कि कैसे विश्वमित्र क्रोधित हो जाते हैं। उसके पहले राजा दशरथ ने तो कहा था इन दो को क्यों में तो बहुत बड़ी सेना भेज दूंगा, लेकिन विश्वामित्र ने कहा कि नहीं नहीं नहीं मुझे सिर्फ राम और लक्ष्मण चाहिए।श्री वशिष्ठ मुनि जी राजा दशरथ को समझाते हैं और फिर राम और लक्ष्मण को भेजा जाता हैं, । राम और लक्ष्मण वनवासी बन गए। भविष्य में तो वनवासी बनने वाले हैं ही,उनहे 14 साल का वनवास। राम और लक्ष्मण का बनवास यहां से शुरू हो गया।विश्वामित्र मुनि उनको वन में ले गए और कि उन्होंने रखवाली की , उनके वध का कार्य तारका से प्रारंभ हुआ । कृष्ण ने भी ऐसा ही श्री गणेश किया था।
*विनाशायच दुष्कृतम्*। दुष्टों का संहार करा था। कृष्ण जब छह दिन के ही थे तब उन्होंने गोकुल में पूतना का वध किया था। और राम ने यहां ताड़का का वध किया। और भी एक वध किया।वध तो नहीं किया, लेकिन अपने बाण के प्रहार से मरीचि को ऐसा धक्का दिया कि उडान भरखर उनका शरीर लंका में पहुंच गया।उनहोंने उसकी जान तो नहीं ली,लेकिन वहां से हटा तो दिया।श्रीलंका मे फेंक दिया। 2000 किलोमीटर दूरी पर उसको फेंक दिया। यह वही मरीचि है जो भविष्य में रावण के काम आने वाला है। उस वक्त तो वध नहीं किया था जब राम यज्ञ की रक्षा कर रहे थे, किंतु गोदावरी के तट पर पंचवटी क्षेत्र में इसी मरीचि का वध करने वाले हैं।तो इस प्रकार राम ने *धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि* त्रेता युग का जो धर्म हैं, यज्ञ *त्रेतायां यजतो मखै:* मखैः उस यज्ञ की रखवाली की या यज्ञ नामक धर्म की रखवाली की। इस विधि की रखवाली की, स्थापना की और अपनी लीला सफल की। अपना उद्देश्य सफल किया।जिस उद्देश्य से राम प्रकट हुए थे। *संभवामि युगे युगे* । ऐसे श्री राम की जय हो।
जय श्री राम।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*15 अप्रैल 2021*
हरे कृष्ण!
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।*
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 814 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
*ओम नमो भगवते श्री रामायः*
*ओम नमो भगवते श्री लक्ष्मणायः*
*ओम नमो भगवते श्री भरतायः*
*ओम नमो भगवते श्री शत्रुघ्नायः*
हरि हरि ।
*जय श्री राम ॥*
आप सभी तैयार हैं? आत्मा तो राम को चाहता ही होगा। *नाही जिवासी आराम* ,राम बिना मुझे चैन पड़े ना, ऐसा हो रहा है ना? रामनवमी आ रही है और अधिक से अधिक निकट पहुंच रही है । हम और अधिक राम और कृष्ण भावनामृत हो रहे हैं । राम भावना मृत होना है ।
मैं यह कह रहा था कि अभी राम नवमी की ऋतु चल रही है । इसका लाभ लेते हुए यह सारा वातावरण राम की ऊर्जा से पूर्ण है ,अर्थात राम से पूर्ण है और यह समय अनुकूल है | जैसे नंद बाबा,जब वह बाबा बने ,जो अधिक उम्र वाले होते हैं , बुजुर्ग होते हैं उनको बाबा भी कहते हैं उनकी काफी उम्र हो चुकी थी तब नंद बाबा को पुत्र प्राप्ति हुई, वैसा ही दशरथ महाराज के साथ हो रहा था । उन्होंने कई उपाय किए ,किंतु उनको पुत्र प्राप्ति नहीं हो रही थी । अंततोगत्वा संत महात्माओं विद्वानों के सलाह से मंत्रियों के मंत्रणा से उन्होंने पुत्रेष्ठी यज्ञ करने का संकल्प लिया । रुशश्रृंग स्वयं पुरोहित बने इनका विशेष व्यक्तित्व रहा। यज्ञ की तैयारी हो रही है और सभी को आमंत्रण भेजे हैं , स्वर्ग के देवता भी पहुंच चुके हैं अभी यज्ञ प्रारंभ होने ही जा रहा है । तब उनकी एक सभा प्रारंभ होती है , इष्ट गोष्ठी प्रारंभ होती है । यहां पर इस सभा के सभापति स्वयं ब्रह्मा है।
*यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति ।*
जब धर्म के ग्लानि होती है , भगवान तभी प्रकट होते हैं।
अभ्युत्थानमधर्मस्य ‘अधर्म’ बढ़ता है , यह देवता चर्चा कर रहे हैं केसे अब ‘अभ्युत्था’ या ‘अधर्म’ मच रहा है, बढ़ रहा है और इसका कारण है ‘रावण’ , रावण नाम से पता चल रहा है , औरों को रुलाने वाले को रावण कहते हैं । एक-एक देवता बता रहे हैं ,वह रावण के कारण कैसे डरे हुए हैं, भयभित है और कांप भी रहे हैं । रावण का नाम सुनते ही या रावण के उपस्थिति में वह डर जाते हैं । वह यह कह रहे हैं कि समुद्र भी डर रहे है। समुद्र के भी देवता हैं जो स्तुब्द समुद्र शब्द हो जाता है । जब रावण समुद्र के बीच पर पहुंच जाता है , महल से रावण जब बाहर निकलता है तब सूर्य का तपना कम होता है , सूर्य को भी शिथील होना पड़ता है । ऐसे सभि देवता अपना अपना अनुभव बता रहे हैं और उसी के साथ वे ब्रह्मा जी को निवेदन कर रहे हैं । प्रभु जी कुछ उपाय बताइए या कहींये ताकि इस रावण का वध हो जाए । तब ब्रह्मा उत्तर में कहते हैं आप में से कोई भी ब्रह्मा के मृत्यु का कारण नहीं बन सकता वैसे हुआ ही था , जैसे शक्ति युग में हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया था । तपस्या की और वरदान मांगे , “मैं ऐसा मरू अंदर नहीं ,बाहर नहीं ,आकाश में नहीं ,जमीन में नहीं ,हथियार से नहीं ,उससे नहीं , इससे नहीं ,पशु से नहीं, मनुष्य से नहीं ” ठीक है , तथास्तु ! तथास्तु ! तथास्तु ! ऐसा ब्रह्मा ने कहा था । हिरण्यकशिपु को ऐसा आशीर्वाद प्राप्त हुआ था , वैसा ही आशीर्वाद रावण को भी ब्रह्मा दे चुके थे । जब पूछा गया कि कोई उपाय ढूंढिए तब ब्रह्मा को याद आया हां ! हां ! एक बात संभव है । वैसे जब आशीर्वाद मांग रहा था मैं ऐसा नहीं मरू यह मुझे मारे वह नहीं मारे तब उसने मनुष्य का नाम नहीं लिया ।
मनुष्य मुझे ना मारे ऐसा उसने सोचा भी नहीं होगा और कहा भी नहीं और आशीर्वाद भी नहीं मांगा । क्योंकि रावण मनुष्य को बड़ा तुच्छ, मच्छर कहीं का नगण्य समझता था । फिर ब्रह्मा ने कहा , इस रावण को कोई मार सकता है या इसका प्रबंध कर सकता है तो उसको नर रूप में , नराकृति में , मनुष्यरूप में मार सकता है । जब ऐसा सोच ही रहे थे , ऐसा विचार विमर्श चल रहा था इतने में सभीने *कोटी सूर्य समप्रभा”* कोटी सूर्य जेसी प्रभा उनकी और आती हुई देखी और धीरे-धीरे *धीरन मयेन पात्रेण सक्तेसा विहीतम् मुखम्”* वह जो प्रखर तेज था हटता गया , यह तेज का स्रोत भगवान ही थे ।
भगवान वहां आ रहे थे, आ ही गए , सभी ने देखा भगवान ने दर्शन दिया , गरुड़ पर आरुढ होकर भगवान वहां पर पहुंचे थे । ब्रह्मा जी भगवान को निवेदन करते हैं , प्रभु आप प्रकट होईऐ , मनुष्य रूप में प्रकट होईऐ क्योंकि पुत्रेष्ठि यज्ञ संपूर्ण हो रहा है । अब आहुतियां चढ़नी ही है , पुत्रेष्ठि पुत्र की ईष्ठा और कामना संपूर्ण होनी जा रहा है । देवता की ओर से भी ब्रह्मा राजा दशरथ को ऐसा वरदान देना चाह ही रहे हैं की उनको पुत्र प्राप्ति हो और वह पुत्र साधारण नहीं हो , स्वयं भगवान पुत्र रूप में प्राप्त हो ।
राजा दशरथ की तीन रानियां है , इसलीये आप 4 रूपों में प्रकट हो ,ऐसा निवेदन, ऐसी प्रार्थना ब्रह्माजी देवताओं की ओर से की । ऐसा ही होता है , जब 5000 वर्ष पूर्व पृथ्वी परेशान थी वह गाय के रूप में देवताओं के पास पहुंचे और फिर ब्रह्मा जी को लेकर श्वेतदीप के तट पर गए थे और वैसे ब्रह्मा ने वहां पर निवेदन किया था , ” प्रभु इस संसार को आप की आवश्यकता है , इस पृथ्वी की जो उलझन है उसकी सुलझन आप ही बन सकते हो।” उस समय भगवान ने कहां हां । तथास्तु । वैसे ही होगा । मैं पूरा करूंगा और आप भी मेरे साथ सहयोग करो , देवताओं मुझसे पहले आप ब्रज में ,वृंदावन में ,मथुरा में प्रकट हो जाओ, यहां पर अयोध्या में भी यह ब्रह्मा का निवेदन है , भगवान वैकुंठ से वहां पहुंचकर निवेदन सुन रहे हैं , भगवान ने कहा वैसे ही होगा । मैं दशरथ के चार पुत्र के रूप में प्रकट हो जाऊंगा और इस रावण का वध करूंगा । बालकांड के 15 वे सर्ग में यानी 15 वे अध्याय में भगवान कहते है *भयं त्यजत भद्रं वो हितार्थ युधि रावणम्* डरो नहीं! डरो नहीं !स्वयं भगवान देवताओ को कह रहे हैं *”मा शुच:”* । *”हत्त्वा क्रूरं”* युद्ध में उस रावण की हत्या में करूंगा । *”देवर्षीणां भयावहम्”*
और
*दश वर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च ।*
*वत्स्यामि मानुषे लोके पालयन्पृथिवीमिमाम् ॥*
और मैं 11000 वर्ष तक राज करूंगा ।
इस मनुष्य लोक में मनुष्य बन कर ,मनुष्य आकृति में प्रकट होकर मैं इस रावण का वध करूंगा और मैं इस पृथ्वी पर राज करूंगा ऐसे भगवान कहते है । ऐसा वरदान या ऐसा वचन कह कर भगवान अंतर्धान होते हैं , आहुति चढ़ने लगी स्वाहा! स्वाहा ! स्वाहा ! स्वाहा! इतने में उस यज्ञ से या यज्ञ के अग्नि से एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ और उस व्यक्ति के पास एक खीरसे भरा हुआ पात्र था ।उस विशालकाय पुरुष ने वह खिर का पात्र राजा दशरथ को दिया और कहा कि अपने तीनों रानियों को खिलाओ तब राजा दशरथ ने वैसा ही किया । खिरका आधा भाग , आधा हिस्सा कौशल्या को ग्रहण करने को कहा , जो बचा था उसका आधा हिस्सा सुमित्रा को दिया और बचा हुआ था उसका आधा कैकिई को खिलाया और जो बचा था वह सुमित्रा को पुनः खिलाया ।
सुमित्रा ने खिर दो बार खाई है तो सुमित्रा के 2 पुत्र होने वाले हैं और कौशल्या का 1 और कैकई का 1 ऐसे 4 पुत्र होंगे । अब जब सभी देवता समझ गए कि भगवान प्रकट होने जा रहे हैं , ब्रह्मा जी उस समय चर्चा करते हैं और एक प्रकार से आदेश देते हैं कि आप भी प्रकट हो जाओ । भगवान ने कहा है की वह रावण का वध करेंगे , युद्ध होगा ऐसा भी संकेत किया है। देवताओं उस युद्ध में आपभी प्रकट हो जाओ और उस युद्ध में आप हिस्सा लो , आप वानर रूप में प्रकट हो जाओ और भगवान नर बनेंगे। आप वानर बन जाओ ज्यादा भेद नहीं है । वानर कौन है ? यह नर नहीं है ? जब ऐसा मन में प्रश्न उठता है तब हम कहते हैं , यह वानर नर नहीं हे ? लगता है कि नर ही है! नर है क्या ? और कौन है , वानर , पुरुष वैसे पुरुष भी नहीं है । ऐसी भी योनि है । ब्रह्मा ने कहा मैंने पहले ही रिक्ष राज को उत्पन्न किया है , रिक्ष राज मतलब भालू वह भालू सेना और बंदर सेना होगी । रिक्ष राज भालू सेना के राजा होंगे , मैं जमाई दे रहा था मेरे मुख से ये रिक्ष राज उत्पन्न हुए हैं । इंद्रभी सुग्रीव बनेंगे ,सूर्य बाली बनेंगे ,और ऐसे अलग-अलग देवता कौन-कौन बनेगे ऐसा वर्णन रामायण में आ चुका है फिर वायु देवता कौन बनेगें ? वायु देवता स्वयं हनुमान बनेंगे । पवन पुत्र हनुमान की जय !
इस प्रकार इस देवताओं की सभा में यह भी तय हुआ कि अलग-अलग लेकिन सभी मानव रूप में जन्म लेंगे और सभी देवता युद्ध में भगवान की सहायता करेंगे। अब कौशल्या ने जन्म दिया , जय श्री राम । और सुमित्रा ने दो पुत्रों को जन्म दिया है जय लक्ष्मण और जय शत्रुघ्न और कैकइ ने भरत को जन्म दिया और यह सारे जन्म नवमी के दिन हुये हैं इसलिए मैंने एक दिन कहां था यह नवमी केवल रामनवमी ही नहीं है लक्ष्मण नवमी , शत्रुघ्न नवमी ,और भरत नवमी भी है , इसको भूलिए मत । उसी के साथ यह सब देवता भी प्रकट हुए हैं जन्म लिए हैं ,सरयू नदी के तट पर भगवान तो प्रकट हुए हैं । अयोध्या धाम की जय । और यह सारे वानर वन में जहां-तहां या दंडकारण्य में भालू रूप में या वानर रूप में सर्वत्र प्रकट हुए हैं । जब भगवान वनवासी बनेंगे यह सब तैयारी है , सारा घटनाक्रम है ताकि वनवासी भगवान लंका की ओर आगे बढ़ेंगे और रास्ते में किष्किंधा पहुंचने वाले हैं , वहां सुग्रीव के साथ उनका मिलन होने वाला है और यह सब वानर सेना ,सुग्रीव की सेना और बाली की भी थी , इस सेना को लेकर फिर भगवान लंका की ओर प्रस्थान करेंगे , रास्ते में पूल भी बनाने वाले हैं । लंका पहुंचकर रावण का दशहरे के दिन वध होणे वाला है। दशहरा जानते हैं ? नाम तो वैसे दशहरा होना चाहिए, जिस दिन राम ने 10 सिर को हर लिया वह दिन दशहरा बना । 10 मुख वाले रावण को भगवान ने हर लिया । उससे पहले कुम्भकर्ण को हर लिया ,भगवान ने उसकी भी जान ली । हरि हरि ।
*गौर प्रेमानंदे हरी हरि बोल ।* इतना ही सुन कर उसका चिंतन कीजिए और मनन कीजिए ।
*जय श्री राम।*
*जय श्री लक्ष्मण।*
*जय श्री भरत ।*
*जय श्री शत्रुघ्न।*
*अयोध्या धाम की जय |* *रामायण महाकाव्य की जय ।*
*वाल्मीकि मुनि की जय।*
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*14 April 2021*
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 797 लगभग 800 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हरि! हरि!
जय श्री राम!
वेणु माधव, कृष्ण कांता एंड कंपनी, क्या तुम तैयार हो? हरि! हरि!
आज प्रात: काल मैं रामायण महात्म्य पढ़ रहा था। श्रील व्यासदेव ने स्कन्द पुराण में रामायण महात्मय की रचना की है। उस रामायण महात्मय के अध्याय 5 के श्लोक संख्या 51 में वर्णन है कि
*रामनामैव नामैव नामैव नामैव मम् जीवनं कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।*
( स्कन्द पुराण)
अनुवाद:- श्री राम जी का नाम, केवल श्री राम नाम ही, राम नाम ही मेरा जीवन है। कलियुग में राम नाम के सिवाय और किसी उपाय से जीवों की सद्गति नहीं होती।
वैसे आप इस श्लोक से परिचित तो होंगे ही, लेकिन यह वही नहीं है, पर वैसा ही है। ( मिलता जुलता ही है)
रामनामैव नामैव नामैव नामैव
राम का नाम, राम का नाम, राम का नाम ही केवल कलियुग में मेरा जीवन है, नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा , दूसरा कोई उपाय नहीं हैं। दूसरा कोई उपाय नहीं है।
इस प्रकार श्रील व्यासदेव, स्वयं राम के नाम की महिमा का गान रामायण महात्मय में करते हैं। जब हम ऐसे वचन पढ़ते हैं, तब हम जो प्रतिदिन जप किया करते हैं, उस जप के लिए हमें ऐसे वचनों से प्रेरणा प्राप्त होती हैं और होनी भी चाहिए। यहां हरिनाम की महिमा की पुष्टि हुई है। हरि हरि!
जय श्री राम!
कल हम बता ही रहे थे कि पत्थर भी तैर रहे थे। नल और नील जब भगवान् राम का नाम उन पत्थरों पर लिखते थे तब वे पत्थर तैरने लगते थे।
इसलिए आप क्या चाहते हो? डूबना चाहते हो या तैरना चाहते हो? जीना चाहते हो या मरना चाहते हो? या जी कर पुनः मरना या मर के पुनः जीना और फिर मरना या मरण की माला को चाहते हो अथवा अमर बनना चाहते हो? मृत्यु से बचना चाहते हो? यहां वर्णन है कि ‘रामनामैव केवलम’ अर्थात राम का नाम लो। रामायण की रचना करने वाले वाल्मीकि जी वल्मिक में बैठे हुए थे जिसे चीटियों का पहाड़ अथवा ऐन्ट हिल भी कहते हैं। चीटियों ने एक छोटा सा टीला बनाया जिसके अंदर रत्नाकर बैठे हुए थे। ऐसा उल्लेख आता है कि वाल्मीकि जी का पहले का नाम रत्नाकर था। वे राम… राम.. राम.. उच्चारण करने से पूर्व तो पापी ही थे, वह पूर्व के जगाई मधाई थे अर्थात जैसे चैतन्य महाप्रभु के समय में जगाई मधाई थे, वैसे ही वह त्रेतायुग के जगाई मधाई ही थे।
यह रत्नाकर डाकू व चोर था अथवा क्या नही था। वह पापियों में नामी था किंतु दैव योग से उसकी नारद जी से मुलाकात हुई। रत्नाकर अन्यों को तो लूटते ही था क्योंकि वह लुटेरा था, लेकिन जब नारद जी आए तब रत्नाकर उनको भी लूटना चाह रहा था परंतु नारद जी के पास लूटने के लिए क्या है? वैसे है। क्या था?
राम नाम के हीरे मोती
बिखराऊं मैं गली गली।
उसी गीत में कहा गया है ‘लूट सके तो लूट। वैसे’ हम भी इस संसार में छोटे-मोटे लुटेरे होते ही हैं। हम भी, आप भी, मैं भी.. हम सब लूटते रहे हैं। हैं या नहीं? जब तक हम राम या श्री कृष्ण के शुद्ध भक्त नहीं बनते, तब तक हम छोटे-मोटे लुटेरे होते ही हैं। इस संसार का हर व्यक्ति लुटेरा है। लूटता ही रहता है। हरि! हरि! ‘लूट सके तो लूट।’ अयोध्यानाथ! तुम लूट रहे हो? रत्नाकर ने हरि नाम को लूट लिया।जब उन्होंने नारद को लूटा, तब रत्नाकर को नारद जी से क्या प्राप्त हुआ? वैसे नारद को लूटने की आवश्यकता ही नहीं थी। नारद जी तो कृपालु व दयालु हैं। उन्होंने यह धन दिया। अरे बदमाश! तुम संसार भर का धन लूटते ही रहते हो। यह संसार की धन दौलत काम की नहीं है। मैं तुम्हें धनी बनाता हूं। ‘ले लो, राम का नाम ले लो, राम का नाम लो, राम लो, राम को लो।’
*जो आनंद लकीर फकीर करें, वह आनंद नाहि अमीरी में।*
संसार भर के तथाकथित अमीर जिसे सुख या आनंद कहते हैं, वह आनंद तुच्छ है। वह आनंद त्यागियों, वैरागियों के आनंद के समक्ष तुच्छ है। जिन्होंने हरि नाम व राम नाम को अपना धन बनाया है व हरि नाम को लूटते रहते हैं अथवा हरि नाम लेते रहते हैं। राम नाम लेते रहते हैं, वे आनंद पाते हैं। वह आनंद नाही अमीरी में अथवा वह आनंद अमीर होने में नहीं है। नारद जी ने रत्नाकर को थोड़ी सी महिमा सुना कर राम नाम दिया। रत्नाकर इतने पापी थे। प्रारंभ में जब हम राम नाम का उच्चारण करते हैं( जैसे हमसे कई प्रकार के अपराध होते हैं। जैसे नाम अपराध।) वैसे ही वह राम राम राम कहने की बजाय म..रा.. म..रा… म..रा.. म.. राम राम राम राम राम राम राम.. कहने लगे। व्यक्ति कुछ समय बाद सीधे पटरी पर आ जाता है। व्यक्ति शुरुआत में अपराध करेगा लेकिन जब सुधरने का प्रयास करेगा अथवा अपराधों से बचने का प्रयास भी करेगा तब वह अपराधों से मुक्त होगा। रत्नाकर भी अपराधों से मुक्त हुआ और सही उच्चारण करने लगा और ध्यान पूर्वक जप करने लगा। तत्पश्चात वह राम नाम में इतना तल्लीन हो गया, उन्हें देहभान नही रहा। राम का नाम वे लेते ही रहे। इस प्रकार रात और दिन, कई महीने बीत गए, कई वर्ष बीत गए। त्रेता युग में लोग 10000 वर्षों तक जीते थे (आपको पता है या नहीं?) उन्होंने कई वर्षों तक नाम साधना की। हरि! हरि! उन्हें राम का साक्षात्कार हुआ। उन्होंने राम को अनुभव किया। राम! राम! राम! राम के उच्चारण में *रामनामैव नामैव नामैव नामैव मम् जीवनं कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।*
( स्कन्द पुराण)
राम के नाम का श्रवण करने वाला यह रत्नाकर अब राम का दर्शन करने लगा।
अब उन्हें भगवान् के विग्रहों का दर्शन, रूप का दर्शन, लीलाओं का दर्शन, गुणों का दर्शन होने लगा। इस प्रकार से वे रामायण लिखने के अधिकारी बनें। राम नाम ने उनको योग्य बनाया। उनमें ऐसी गुणवत्ता आयी कि वह राम की लीला को देखते देखते लिखा करते थे। वे राम की लीला देख रहे थे। वैसे वह कभी राम को मिले व देखे भी नहीं थे। राम के समय ही राम की लीला अथवा रामायण की रचना हुई है। जब वाल्मीकि मुनि के आश्रम में लव कुश का जन्म हुआ, उसी समय रामायण की रचना हो रही थी। उन दिनों में राम अयोध्या में थे। उत्तर कांड जोकि सातवां कांड हैं। सातवां कांड अर्थात उत्तर कांड में जब श्री राम अयोध्या में वनवास के बाद वापिस लौट आए। उसी समय रामायण भी लिखी गयी थी।
*हत्वा क्रूरम दुराधर्षम् देव ऋषीणाम् भयावहम्। दश वर्ष सहस्त्राणि दश वर्ष शतानि च।*
( 1-15-29)
अनुवाद:- देवताओं तथा ऋषिओं को भय देने वाले उस क्रूर व इतने वर्ष राम धरातल पर रहे।
दुर्धर्ष राक्षस का नाश करके मैं ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन करते हुए इस मनुष्य लोक में निवास करूंगा।
वैसे राम इस धरातल पर 11 हजार वर्ष रहे।
दश वर्ष सहस्त्राणि दश वर्ष शतानि च। यह मैं कहता ही रहता हूँ, अच्छा लगता है। दश सहस्त्र अर्थात दस हजार। दश शतानि अर्थात दस बार सौ-सौ अथवा एक हजार हुआ। दस हजार और एक हजार। श्री राम ग्यारह हजार वर्ष इस धरातल पर थे लेकिन रामायण की रचना तब हुई जब राम अयोध्या में पहुंचे थे अर्थात उसी समय रामायण की रचना वाले वाल्मीकि जी ने की थी । रामायण की रचना करने की क्षमता उन्हें उनके गुरु नारद की कृपा से, ब्रह्मा की कृपा से प्राप्त हुई थी। वाल्मीकि नारद के कृपा पात्र शिष्य हुए। गुरु ने राम नाम का मंत्र दिया और वह मंत्र का उच्चारण करते करते शुद्ध बने।
*चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्।।*
( श्री श्री शिक्षाष्टकम्)
अनुवाद:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
उन्हें भगवान् का दर्शन भी हुआ। वे भगवान् के नाम का दर्शन कर रहे थे। जैसे जैसे दर्शन कर रहे थे, वैसे वैसे वे लिखते गए। तब वह रामायण बन गयी। हरि! हरि! ऐसी है राम की महिमा।
राम की महिमा के संबंध में यह भी कहा है कि जब हम राम कहते हैं( राम कहो. आप कह रहे हो.. राम….) तब हमारे किए हुए सारे पाप निकल जाते हैं। राम् कहते हुए हमारा मुख खुला होता है तब सारे पाप निकल जाते हैं। तत्पश्चात जब म कहा- द्वार बंद हुआ तब पुनः पाप प्रवेश नहीं करेंगे। दरवाजा बंद। रा…म… । इस राम नाम के पुजारी ..वैसे हम भी राम का नाम लेते हैं, पूरा संसार राम नाम ले रहा है, आप भी राम नाम ले रहे हो.. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे. यह कृष्ण का नाम है। कृष्ण ही राम हैं। कृष्ण का नाम ही राम है। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे हरे कह कर हम कृष्ण और राम की सभी की आराधना करते हैं । जब हम राम राम राम कहते हैं, तब हम राम की तो जरूर करते ही हैं। राम भक्त हनुमान की जय! राम भक्त हनुमान की ख्याति है, वे भी राम नाम उच्चारण के लिए प्रसिद्ध हैं। हम हनुमान के कई चित्र, फोटोग्राफस देखते हैं। हनुमान का फोटो कैमरे से तो नहीं खींचा, लेकिन भक्त पेंटिंग बनाते हैं। उसमें हम हनुमान को देखते हैं।
राम राम राम
सीता राम राम राम
राम राम राम
सीता राम राम राम।।
वे सदा भगवान राम के नाम का उच्चारण किया करते थे। उनके हाथ में काम और मुख में राम का नाम रहता था। वैसे कैसे सम्भव है कि राम का भक्त हो या कृष्ण का भक्त हो, वह कृष्ण का नाम ना ले,
या राम का नाम ना ले, राम की कथा को कहें या ना सुनें।
*तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि नामान्यनन्तसय यशोअङ्कितानि यत् श्र्ण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः।।*
( श्रीमद् भागवतम 10.5.11)
अनुवाद:- दूसरी ओर, जो साहित्य असीम प्रेमश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है, वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रांति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना गया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितांत निष्कपट होते हैं।
वैसे ऐसे सभी भक्तों की महिमा भी है, वे सन्त या भक्त गृहस्थ भक्त भी हो सकता है, स्त्री भी हो सकती है, पुरुष भी हो सकते हैं। यह, वह कोई भी हो सकता है।. नाम का उच्चारण या श्रवण कीर्तन तो सभी भक्त करते ही रहते हैं। भक्त के जीवन से इस हरिनाम को, इस हरिकथा को अलग नहीं किया जा सकता। इस हरि नाम इस हरि कथा का गान सर्वत्र है।
*वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा।आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 7.131 तात्पर्य)
अनुसार- ” वैदिक साहित्य में, जिसमें रामायण, पुराण तथा महाभारत सम्मिलित है, आदि से लेकर अंत तक तथा बीच में भी केवल भगवान् हरि की ही व्याख्या की गई हैं।”
*आदावन्ते च मध्ये च हरिः ( राम) सर्वत्र गीयते।।*
या हम कह ही रहे थे।
*अक्षरं मधुरम अक्षरं*…
वाल्मीकि मुनि ने रामायण की रचना की हैं। रामायण के प्रारंभ, मध्य व अंत में राम नाम की महिमा, राम लीला का गान, राम के गुणों का वर्णन, राम के भक्तों के चरित्र का वर्णन सर्वत्र पाया जाता है। इस प्रकार राम भक्तों अथवा कृष्ण भक्तों को राम नाम अथवा कृष्ण नाम से अलग नहीं किया जा सकता है। इसलिए
*निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा । वैष्णवानां यथा शम्भु: पुराणानामिदं तथा।।*
( श्रीमद् भागवतम् 12.14.16)
अनुवाद:- जिस तरह गंगा समुन्दर की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान् अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान् शम्भू ( शिव) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं, उसी तरह श्रीमद् भागवतम् समस्त पुराणों में सर्वोपरि है।
शिवजी ने एक समय कहा था –
*राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।सहस्र नामभिस्तुल्यं रावम- नाम वरानने।।*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 9.32)
अथवा बृहद्विष्णु-सहस्त्रनाम स्त्रोत 72.335)
अनुवाद:- ( शिवजी ने अपनी पत्नी दुर्गा से कहा:- हे वरानना, मैं राम, राम, राम के पवित्र नाम का कीर्तन करता हूँ और इस सुंदर ध्वनि का आनंद लूटता हूँ। रामचंद्र का यह पवित्र नाम भगवान् विष्णु के एक हजार नामों के बराबर है।
यह अच्छा वचन है।
मनोरमे! मनोरमा, पार्वती का नाम है। मनोरमे मतलब शिवजी, पार्वती जी को सम्बोधित कर रहे हैं, इसलिए मनोरमे हुआ। जैसे सीता का सीते सम्बोधन होता है, वैसे ही मनोरमा का मनोरमे हुआ। हे मनोरमे!
*ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्यति पृच्छति। भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीति-लक्षणम।*
( उपदेशामृत श्लोक संख्या 4)
अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान- स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छः लक्षण हैं।
यह पति- पत्नी गुह्यम् को सुनते और सुनाते रहते हैं। वैसे केवल शिवजी ही कथा नहीं करते,पार्वती की भी बारी आती है। पार्वती भी राम कृष्ण की कथा करती है। यहाँ शिवजी अपने दिल की बात पार्वती को सुना रहे हैं। वे कहते हैं कि राम रामेति रामेति अर्थात यह जो राम नाम है, रमे रामे , उसमें मैं रमता हूं। अहम रमे। ( संस्कृत का वाक्य हुआ मैं रमता हूँ। संस्कृत में कहो – मैं रमता हूँ- अहम रमे, मैं भजता हूँ- अहम भजे, मैं वंदना करता हूँ-अहम वंदे) शिवजी कह रहे हैं कि अहम रमे- रामे अर्थात मैं राम में रमता हूँ या राम के नामों में मैं रमता हूँ। कह सकते हैं कि शिवजी बहुत बडे़ या सबसे बडे़ राम के भक्त हैं,
शिव भक्तों, शिवजी को समझो। वे स्वयं भी राम की भक्ति करते हैं। आप भी राम की भक्ति करो। शिवजी आचार्य हैं और सिखा रहे हैं कि किनकी भक्ति अथवा सेवा करनी चाहिए। हरि! हरि!
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
यह जप और कीर्तन करते रहो। हम राम नाम का कीर्तन करेंगे। जैसा कहा कि राम कहने से सारे पाप बाहर निकल जाएंगे और पुनः पाप का प्रवेश नहीं होगा। दरवाजे बंद हो जाएंगे। हम कीर्तन करेंगे। जब कीर्तन करते हैं, कीर्तन का विपरीत क्या होता है। यदि कीर्तन का उल्टा करके आप लिखोगे (कम् से कम् जो थोड़ा लिख रहे हैं- वे झट से लिख सकते हैं) कीर्तन का उल्टा नर्तकी होगा। सुल्टा है कीर्तन। हमें सुल्टी बात करनी चाहिए लेकिन हम इस संसार में उल्टी बात करते हैं। यह संसार सुलटे को उल्टा बना देता है। उल्लू का पट्ठा बना देता है। सीधी( सुल्टी) बात कीर्तन है, उल्टी बात है -नर्तकी। सारे संसार में जो नट व नटियां है, वे गान में नर्तक अर्थात वे नर्तकी बन जाती हैं, हम उनको पर्दे पर देखते रहते हैं और पागल हो जाते हैं, उसमें तल्लीन हो जाते हैं व उसका ध्यान करते हैं। उनकी सराहना करते हैं और कामवासना को बढ़ाते हैं।
*ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥*
( श्रीमद् भगवतगीता 2.62)
अनुवाद:- इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
यह संसार भर का जो सिनेमा संगीत है-
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
अनुवाद:- श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
श्रीचैतन्य महाप्रभु भी कीर्तन के साथ नृत्य किया करते थे व भक्त भी करते हैं। दुनिया वाले भी वैसा ही करते हैं। वे गाते भी हैं और नाचते भी हैं, नंगा नाच होता है लेकिन उनका सारा विषय ‘विषय’ होता है। संसार के विषय होते हैं। ध्यायतो विषयान्पुंसः। हम उनसे आसक्त होते हैं, वह आसक्ति ही काम- वासना को बढ़ाती है किंतु जब राम, कॄष्ण नाम का कीर्तन करेंगे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।।* तब इसी के साथ पाप करने की प्रवृत्ति अथवा वासना है अथवा पाप के जो विचार हैं, वे धीरे- धीरे अर्थात क्षणे क्षणे( शीघ्रता से नहीं) समाप्त हो जाएंगे।
हम इस नर्तकी का पीछा छोड़ देंगे तत्पश्चात हम राम के हो जाएंगे। हम श्रीराम, श्री कृष्ण, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु से आकर्षित होंगे। रामचन्द्र कृष्ण चन्द्र, चैतन्य चंद्र ऐसे चंद्रो से हम आकर्षित होंगे। हम उसी के साथ चरित्रवान बनेंगे। जो नर्तकी का पीछा करता रहता है और नर्तकी को देखता है, नर्तकी को देखने के लिए आज कल सिनेमा घर जाने की भी आवश्यकता नहीं हैं। हमनें घर को ही सिनेमा घर बना लिया है। होम थियेटर। हरि! हरि!
काम आसान हो गया है। वह नर्तकी आपको आपकी प्रसन्नता के लिए रिझा रही है। वह नाचती है, वह गाती है। वह नंगा नाच करती है। इसी के साथ हम दानव बनते हैं। हमारी दानवी प्रवृत्ति बढ़ती है और हम चरित्रहीन बनते हैं। सारी मानव जाति चरित्र हीन बन रही है। सारा देश चरित्र हीन, मनुष्य चरित्र हीन बन रहे हैं। करैक्टरलेस में लेस क्या है अर्थात करैक्टर( चरित्र) नहीं है। चरित्रवान बनने के लिए राम का चरित्र अथवा रामायण का अध्ययन करना होगा, श्रवण करना होगा। राम के नामों का उच्चारण करना होगा। ऐसा खूब हुआ करता था। हर घर, हर गाँव में रामायण का पाठ हुआ करता था। हर माता पिता अपने बच्चों को रामायण की कथा सुनाया करते थे जिससे बच्चे चरित्रवान हो लेकिन हम तो अभी धनवान बनना चाहते हैं। कौन बनेगा करोड़पति? यह बन गया करोड़पति। फिर सीतापति का क्या? करोड़पति के पीछे सीतापति श्रीराम का क्या? क्या कहते हैं कि मनी इज लॉस्ट, नथिंग मच इज लॉस्ट ( धन को खो देने से ज़्यादा कुछ नुकसान नहीं होता। धन चला गया) लेकिन ऐसा कहा तो गया है कि स्वास्थ्य बिगड़ गया तो कुछ तो बिगाड़ हो ही गया। कुछ लॉस्ट हुआ लेकिन हम चरित्र को खो बैठे हैं, चरित्र हीन बन गए है तब कितना लॉस्ट हुआ? सब कुछ खो गया। हमें राम चाहिए राम बिना मुझे चैन पड़े ना। अभाव तो राम का है। राम को अपने जीवन, अपने परिवार, देश में स्वीकार कीजिए। देश में राम राज्य हो। हरि! हरि!महात्मा गांधी ने ऐसा सोचा था। पता नहीं क्यों उनको राष्ट्र पिता कहते हैं। ठीक हैं। उन्होंने सोचा था कि जब देश स्वतंत्र होगा। हम राम राज्य की स्थापना करेंगे। कौन सा राज्य? राम राज्य। क्योंकि न तो राम जैसे राजा हुए। न तो राम जैसा राज्य इस संसार ने देखा है। न भूतों न भविष्यति ऐसा राज्य राम राज रहा। राम अपने प्रजा का इस तरह ख्याल रखते थे कि मानो अपनी संतान ही है। उन्होंने कहा था, ऐसा करेंगे, ऐसा स्वप्न तो देखा था किन्तु किस्सा कुर्सी का। कुछ लोगों को बस कुर्सी ही चाहिए थी।
जब कुर्सी मिली तब राम राज्य की स्थापना करने का प्रयास तो भूल गए। धीरे-धीरे रावणराज ही फैल गया क्योंकि अब शराब की होम डिलीवरी हो रही है। बहुत आवश्यकता की वस्तु बन गयी है। लॉक डाउन में केवल आवश्यकता की वस्तुएं उपलब्ध करवाई जाएगी। उसमें टॉप ऑफ द् लिस्ट वाइन है। वाइन के बिना जीना तो क्या जीना। उनको पता नहीं है कि वाइन उनकी जान लेगी लेकिन आप तो जग गए हो। जय श्री राम! आप पूरी शक्ति व सामर्थ्य के साथ प्रयास करो ताकि राम नाम का प्रचार हो। रामायण का प्रचार हो। राम राज की स्थापना करो। ठीक है, अपने घर में राम राज्य की स्थापना करो। अपना घर भी एक राज है। आप वहां के राजा हो। जगन्नाथ? आपकी रानी भी है। एक राजा और एक रानी, अपने घर में सही लेकिन आप राम राज्य की स्थापना करो। वहां तो आपके अधिकार है या जहां जहां तक आपकी पुंहच है, आपका व्यापार, उधोग व दफ्तर या अन्य कोई कार्यक्षेत्र है, वहां राम राज की स्थापना करने का प्रयास करो। लोगों को राम दो और राम लो। हरि! हरि! वैसे यह राम की कथा हो ही रही है और भी होने वाली है। ऐसी घोषणा भी आप सुनोगे। आजकल राम नवमी का सीजन है। राम नवमी दूर नहीं है, इस्कॉन नागपुर की ओर से राम नाम का सफल प्रयास हो रहा है। राम की कथा का प्रसारण प्रतिदिन हो रहा है।आज द्वितीय दिन है। सुनते रहिए और सुनाते रहिये और इसका प्रचार कीजिये व औरों को जोड़िये। चैतन्या! औरों को भी बता दो कि आठ बजे रामायण की कथा है। इस्कॉन अमरावती की ओर से महोत्सव मनाया जा रहा है। हरि! हरि! पूरा लाभ उठाएं।
हरे कृष्ण!
जय श्री राम!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*13 अप्रैल 2021*
हरे कृष्ण । 833 स्थानों से आज जप हो रहा है । गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल । गौर हरी बोल ।क्या बोल ? हरी बोल या श्री राम बोल , गोविंद माधव गोपाल बोल । हरी हरी । एक साधारण दिन भी विशेष दिन बन जाता है जब हम कीर्तन करते हैं , जप करते हैं । एक साधारण दिन विशेष दिन बन जाता है । हम श्रवण कीर्तन उत्सव मनाते हैं और जप भी एक उत्सव ही हैं । जब हम जप करते है तब एक प्रकार का उत्सव ही मनाते हैं । श्रवन उत्सव !
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।*
और जब भी इन नामों का उच्चारण करते हैं तो भगवान प्रकट होते हैं । हरि हरि । इस प्रकार हमरी भगवान के साथ मुलाकात हो रही है । यह जप का समय , श्रवण कीर्तन का समय हमारा भगवान के साथ मिलन का समय होता है । इस प्रकार आपको हरी नाम का महिमा भी सुना ही रहे है । साधारण दिन को हम असाधारण बना देते है , लेकिन आज का दिन वैसेही साधारन नही है , आजका दिन विशेष दिन है । सर्वप्रथम आप सभी को नये वर्ष की शुभकामनाएं। जप चर्चा में आज पता तो चला की आज नया वर्ष है । यह सबको पता है कि अब एप्रिल मार्च चल रहा है, लेकिन यह किसको पता है कि आज विष्णुमास प्रारंभ हो रहा है? आज जो महीना प्रारंभ हो रहा है ? नया वर्ष प्रारंभ हो रहा है। नये वर्ष का यह पहिला महीना है । विष्णु जिसका नाम है , यह किसको पता है? यह सारा संसार ख्रीस्तब्ध से ही प्रभावित है । ख्रीस्त इसविसन , ऐसी गणना संसार अब कर रहा है। टू मच क्राइस्ट कॉन्ससियसनेस , यह क्राइस्ट की भावना कुछ ज्यादा ही हो गई , अंग्रेजो ने ऐसा जबरदस्त प्रचार भी किया और अपने ब्रिटिश राज को साम्राज्य बनाया और अपने ब्रिटिश राज को फैलाते समय , साथ ही साथ उन्होंने क्रिश्चनिलिटी का भी प्रचार किया । इसीलिए हम लोगो में हर समय प्रचार प्रसार का भाव नही होता है और हम बस काम मे व्यस्त है , भारत ऐसा कार्य नही करता । दुर्दैव की बात है हम भारतीय वैसा कार्य नही करते , जो कार्य अंग्रेजो ने किया उन्होंने सारे क्रिश्चनलिटी को कोने कोने में फैलाया , इसीलिए बीसी और एड़ी चलते रहते है। आज विष्णुमास प्रारंभ हो रहा है यह किसको पता है? चैत्र मास , विष्णुमास में गौरब्ध की बात कर रहा था। एक होता है ख्रीस्तब्ध , गौरब्ध फिर शकाब्द । यह गौरब्ध के अंतर्गत यह विष्णुमास है , वैसे दो सप्ताह पूर्व प्रारंभ हुआ । आज शकाब्द वाला , आब्द मतलब वर्ष । नया महीना , चैत्र मास प्रारंभ हो रहा है और यह चैत्र शुक्ल पक्ष की आज प्रथमा है और इस नए वर्ष का हम स्वागत करते है । वैसे महाराष्ट्र में और कई राज्यो में भी संभव है लेकिन हम महाराष्ट्र के है ? हम तो वैकुंठ के होने चाहिए थे लेकिन मैं कह रहा हूं कि मैं महाराष्ट्र का हूं । क्या हुआ ? महाराष्ट्र कॉन्ससिअसनेस ऐसी उपाधि है । (हसते हुये) ऐसा संसार है , माया बड़ी जबरदस्त है । जय महाराष्ट्र नही बोलते हैं या जय कर्नाटक नहीं बोलते । हरी हरी । ठीक है । आज गुढीपाडवा महाराष्ट्र में मनाते हैं और नए वर्ष का स्वागत करते हैं , गुढी पाड़वा , घर-घर में गुढी ।
*गुढिया तोरणे । करिती कथा गाती गाणे ॥२॥*
*बाळकृष्ण नंदा घरी । आनंदल्या नरनारी ॥धृ॥*
तुकाराम महाराज ने कहा लोग जब अपने प्रसन्नता व्यक्त करना चाहते हैं तो क्या करते हैं ? गुढीया । आपको पता है कि नही ? जो महाराष्ट्र के बाहर के है ? गुढी क्या होती हैं ? और गुढी कैसी होती है? गुढीपाड़वा मनाते हैं । तुकाराम महाराज को जब अपने अभंग में लिखना था , उन्होंने लिखा ही है ।
*गोकुळीच्या सुखा ।* *अंतपार नाही लेखा ॥१॥*
*बाळकृष्ण नंदा घरी ।* *आनंदल्या नरनारी ॥धृ॥*
*गुढिया तोरणे । करिती कथा गाती गाणे ॥२॥*
*बाळकृष्ण नंदा घरी ।* *आनंदल्या नरनारी ॥धृ॥*
गोकुल के सुख की कोई सीमा ही नहीं रही । *बाळ कृष्ण नंदा घरी* बाल कृष्ण जब नंद महाराज के घर में आये , *नंद घर आनंद भयो* उस समय तुकाराम महाराज लिखते हैं , सारे ब्रजमंडल में गुढीया तोरने गुढी और तोरण बांध दिए और सर्वत्र गुढी खड़ी की इस प्रकार ब्रजमंडल में खुशियां मना रहे थे , आनंद का कोई ठिकाना ही नहीं रहा , कुछ ऐसा ही यह समय है । आज का दिन यह चैत्र मास की प्रतिपदा , नया वर्ष । इस मास में जय श्री राम अब 9 दिन ही शेष है , प्रथमा द्वितीय तृतीय करते-करते नवमी जब आएगी तब जय श्रीराम ,श्रीराम प्रकट होंगे । हम सब रामनवमी मनाएंगे , रामनवमी का उत्सव कहो वह प्रारंभ हो रहा है । आज से तैयारियां चल रही थी। राम आ रहे है , राम प्रकट होने वाले हैं और फिर केवल राम ही प्रकट होने वाले नहीं थे , लक्ष्मण , भरत और शत्रुघ्न भी प्रकट होने वाले थे । इसलिये केवल रामनवमी ही नहीं मनानी है , लक्ष्मण नवमी , भरत नवमी , शत्रुघ्न नवमी को भी मनाना है । इसको नोंद करके रखलो , मैं स्मरण दिलाता रहता हूं । हरि हरि । क्योंकि यह चारों भगवान है । हरि हरि।
जय श्री राम । राम के प्राकट्य कारण ही यह मास , चैत्र मास एक विशेष मास या पवित्र मास है । यह चैत्र वैशाख के मास , वसंत ऋतु के यह 2 मास है ।सभी ऋतु में वसंत ऋतु श्रेष्ठ है ।
*ऋतुनाम अहम कुसुमाकर*
गीता में भगवान ने कहा है , कुसुमाकर मतलब फूल और इस मास में सर्वत्र फूल खिलेंगे। फूलों के साथ फिर सर्वत्र सुगंध भी फैलेगा और इस मास में मंद मंद हवा भी बहेगी और हवा सुगंध आप तक पहुंचायेगी । सुंदर वातावरण होगा , इन 2 मासों में सुगंधित वातावरण रहेगा इसीलिए भी इस वर्ष का स्वागत है , इस मास का इस दिन का भी स्वागत है । आज के दिन लोग किसी धार्मिक स्थल पर इकट्ठे होते हैं और खुशियां मनाते हैं , वैसे यह साल कैसा रहेगा ? ज्योतिष शास्त्र या ज्योतिष इनकी सलाह लेते हैं , या ज्योतिषशास्त्र भी वहां उपस्थित होते हैं वह बताते रहते हैं , क्या होगा ? यह वर्ष कैसा रहेगा ? हर व्यक्ति के लिए या फिर उस गांव के लिए उस राज्य के लिए , उस देश के लिए , पूरे मानव जाति के लिए यह सब का भी आज के दिन पता लगवाते रहते हैं । हरि हरि । यह बात जब मैं सोच रहा था तब मुझे इस बात का भी स्मरण हुआ कि जो ,
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।*
यह सर्वत्र फैलने वाला है , ऐसी भविष्यवाणी यह 1 साल की ही भविष्यवाणी नहीं है यह आने वाले कुछ 950 वर्षों के लिए भविष्यवाणी है । प्रभु नाम का प्रचार प्रसार सर्वत्र होगा । सर्वत्र !
*पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम ।*
*सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।*
चैतन्य भागवत अन्त्य – खण्ड (४.१.२६ )
*अनुवाद :* पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
फिर मैं सोच रहा था कि अरे ! अरे ! यह ख्रीस्ताब्ध सबको पता है लेकिन यह गौराब्ध तो सिर्फ थोड़े ही लोगों को पता है । भारत के बाहर तो गौराब्ध , विष्णुमास या शताब्द , यह चैत्र मास पता ही नहीं है लेकिन सुनो आने वाले 500 वर्षों में 1000 , 2000 , 2500 , 5000 वर्ष होते होते जब और वर्ष बढ़ जाएंगे तब वह एक दिन आने वाला है पृथ्वी के सर्व नगरों में यह चैत्र मास हो सकता है , गुड़ी पाड़वा जैसे महाराष्ट्र में मनाते हैं वैसे वहां भी मनाएंगे । सब लोगों को रामनवमी का पता चलने वाला है । हरी हरी । और बहुत कुछ पता चलने वाला है । केवल भगवान का नाम ही नहीं फैलने वाला है । 1 दिन मैंने कहा था वैसे नाम के प्रचार के साथ हरि नाम का प्रचार होगा हर नगर , हर ग्राम में सारे पृथ्वी पर इसी नाम के साथ फिर धाम का भी पता होने वाला है , संसार भर के हर नगर में , हर ग्राम में अयोध्या धाम की जय , अयोध्या धाम का पता चलने वाला है । और वहा जन्मे सरयू नदी को भी जानेगे अभी तो अमेजॉन रिवर , बीस रिवर, नाइल रिवर ऐसी कुछ नदीया है उनके ही नाम लोग जानते हैं । गंगा का नाम भी काफी प्रसिद्ध है लेकिन हो सकता है , संभावना है कि सरयू नदी का नाम लोग नहीं जानते लेकिन आने वाले 5000-10000 वर्षों में सारे पृथ्वी पर राम नाम भी फैलने वाला है ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।*
राम नाम तो है ही । किसी ने पूछा कि हम जब हरे राम हरे राम कहते हैं यह राम श्री राम है या सीता के पति राम है ? तब श्रील प्रभुपाद ने कहा , “अगर आप ऐसा मानना चाहते हो ,तो वह भी ठीक है , हरे राम हरे राम यह राम है , यह भी ठीक है वैसे कृष्ण भी राम ही है लेकिन राम तो कृष्ण ही है ।” यह कैसे लगता है ? राम कृष्ण ही है ,
*ब्रह्म – संहिता श्लोक ५.३९*
*रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु । कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥३ ९ ॥*
*अनुवाद:-* जिन्होंने श्री राम , नृसिंह , वामन इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत् में विभिन्न अवतार लिए , परंतु जो भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए , उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ ।
ऐसे ब्रह्म संहिता में कहा है , राम आदि मूर्तियों में श्री कृष्ण ही स्वयं प्रकट होते हैं । राम रूप में प्रकट होते हैं। तो राम ही कृष्ण है । चैतन्य लीला में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भाग्यवान सार्वभौम भट्टाचार्य को जगन्नाथपुरी में एक विशेष दर्शन दिया जिसका नाम षड्भुज रूप है । 6 भुजाये थी , उसमें दो भुजाएं थोड़े हरे रंग की थी । जैसे हरियाली होते हैं उस रंग के दो हाथ थे , एक हाथ में धनुष था , दूसरे में बाण था और इस प्रकार और भी दो कृष्ण के और गौरांग महाप्रभु के दो हाथ और श्री राम के दो हाथ और दो हाथों में अपने अपने चिन्न धारण किए थे । इस दर्शन के साथ भी हम समझ सकते हैं , कृष्ण ही राम बन जाते हैं तो कभी ,
*केशव धृत राम शरीर*
*जय जगदीश हरे*
ज्यादा दिमाग लढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है , ज्यादा उदाहरण या सबूत देने की जरूरत नहीं है यह समजाने के लिए कि कृष्ण ही राम है ।
*वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयं*
*दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्।*
*केशव! धृत-रामशरीर जय जगदीश हरे॥*
*अनुवाद:-* हे केशव! हे जगदीश! हे रामचंद्र का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! लंका के युद्ध में तुम दशमुख राक्षस का वध करते हो तथा उसके सिरों को दसों दिशाओं के दिग्पालों को रमणीय व वांछनीय उपहार स्वरूप वितरण करते हो!
केशव ही राम शरीर धारण करते हैं या राम बन जाते हैं।
कभी राम बनके कभी श्याम बनके यह तो अच्छा था , जब हम सुन रहे थे कुछ साल पहले ऐसा सुनाई पड़ता है जब बड़े आवाज में ऐसे गाने सुनाए जाते थे लेकिन धीरे-धीरे अच्छा लग रहा था कि कभी राम बनके कभी श्याम बन के आ रहा था फिर उन्होंने आगे का साईं बाबा बनके फिर सत्यानाश हुआ यह मूर्खता है , यह अज्ञान है राम और कृष्ण एक ही है लेकिन साईं बाबा और यह बाबा और वह बाबा यह तो पाखंड हुआ।
राम कृष्ण ।
जय श्रीराम ।
जय श्रीराम ।
वह भी इतिहास है हम भी कल कह रहे थे रामायण इतिहास भी है और वैसे जो इतिहास उपलब्ध है , अति प्राचीन इतिहास रामायण ही है। जिसको वैसे आदिकाव्य कहां है। आदि महाकाव्य कहते हैं और फिर उस काव्य की रचना करने वाले कवि भी हुए आदि कवि वाल्मीकि हो गए ।
*राम राम रामेति अक्षरम: मधुर अक्षरम:* रामायण का हर अक्षर मधुर है। पूजन्तम राम राम रामेति आरुत कविता शाखा वंदे वाल्मीकि कोकिलम ऐसे प्रार्थना है या ऐसा गौरव गाया है। वाल्मीकि मुनि का ऐसा परिचय है ऐसे वाल्मीकि मुनि पूज्यतंम वह गान कर रहे हैं ।
अभी-अभी मुझे भी कुछ सुनाई दे रहा है कुछ पक्षी भी यहां कुछ सुना रहे हैं उनकी चहक है , आरोह्य कविता शाखा मानो यह रामायण एक वृक्ष है और उसकी शाखा पर आरूढ़ हुए हैं। कौन ? वंदे वाल्मीकि कोकिलम , वाल्मीकि मुनि । सभी पक्षियों की गाण में कोकिल नंबर वन होता है । कोयल की जो आवाज ध्वनि है यह एकदम उत्तम होती है।
वंदे वाल्मीकि कोकिलम , वाल्मीकि मुनि कोकिल जैसे पूज्यतंम गान कर रहे हैं। आरोह्य कविता शाखा रामायण नाम की कविता रूपी वृक्ष की शाखा पर वह बैठे हैं और विराजमान है , आरूढ़ है और अक्षरम मधुर अक्षरम रामायण का हर अक्षर मधुर माधुरी से पूर्ण उन्होंने भर दिया है।
राम वह है जो राम रमती रमतीच , राम कैसे हैं ? जो स्वयं रमते हैं और औरों को रमाते हैं। रमन्ते योगिनः अनन्ते योगी रमते हैं राम आराम। हरि हरि।
*कसा मला सोडूनि गेला राम रामबिना* *जीव व्याकुल होतो सुचत नाही काम*
*रामबीना मज चैन पडेना, नाहि जीवासी आराम*
ऐसे एक गीत हैं। राम राम राम चैतन्य महाप्रभु भी गाया करते थे और *कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम राम राघव राम राघव राम राघव रक्षामाम* चैतन्य महाप्रभु इन राम के नामों का गान किया करते थे ऐसे राम राघव राम राघव रघुवंश में प्रकट हुए । रघुवंशी राम फिर राघव बन गए , यदुवंशी कृष्ण यादव बन गए । रघुवंशी राम राघव बने या राघव ही है। राम राघव राम राघव रक्षामाम । रक्षा करो ! हे श्री राम , *राम बिना मज चैन पड़े ना*, *नाहि जीवाशी आराम* राम के बिना जीना तो क्या जीना ? दुनिया वाले कहते हैं तुम्हारे बाहों के बिना जीना तो क्या जीना ? गधे कहि के गधिनी के पीछे दौड़ते रहते हैं । काम से जो लिप्त है उनके लिए तो जीना क्या जीना बाहों के बिना तुम्हारे है कुछ लोग काम से प्रेरित है लेकिन कुछ लोग प्रेम से प्रेरित है और दुनिया वालों को काम और प्रेम में जो भेद है इसका भी पता नहीं है। इतना भी विवेक नही हैं यह भेद है , यह काम है , यह प्रेम है । वह काम को ही प्रेम कहते हैं फिर वह आई लव यू वगैरा चलते रहता है , इस गीत में राम भक्त गा रहे हैं *राम बिन मज चैन पड़े ना नाही जीवाशी आराम* जीव का राम के बिना आराम हराम हैं । राम भी आराम देते हैं। *सोडूनि गेला राम कसा गेला मला सोडूनी* अयोध्या वासियों के विचार है , हमको छोड़कर श्री राम वनवास में कैसे और क्यों गए और हम कैसे जिएंगे श्री राम के बिना । हरि हरि । जीव को आराम देने वाले श्री राम हम सभी जीवों के प्राणनाथ श्री राम रामनवमी के दिन प्रकट हो कर इस सारे संसार को *प्राणतिः* प्राण देंगे या उनके बिना यह संसार निष्प्राण है , कोई जीवन नहीं है। श्री राम के बिना यह जीवन मृत्यु ही है। उसमें चैतन्य नहीं है।
जय श्री राम ।
जैसे वाल्मीकि मुनि ने रामायण के रूप में कुछ 1000000 वर्षों पुराना इतिहास लिखा है ,और श्री राम की कथा है । वैसे ठीक है । वाल्मीकि मुनि के गुरु नारद मुनि भी रहे या जैसे व्यास जिन्होंने वैदिक वांग्मय की रचना की , महाभारत की रचना कहो और रामायण की रचना की , वाल्मीकि और व्यास इन दोनों के गुरु नारद मुनि रहे और है भी , ऐसा नहीं कि थे और अब नहीं है । वाल्मीकि और व्यास अभी भी हैं और नारद मुनि भी है और उनका संबंध वही है , ऐसा नहीं कि एक समय थे वाल्मीकि मुनि के गुरु नारद मुनि या व्यास के गुरु नारद मुनि और अभी नहीं है , ऐसा नहीं है इसीलिए हम कहते रहते हैं वी आर इटर्नर सर्वेंट , हम सदा के लिए आपके शिष्य है । हम आपके सदा के लिए शिष्य है या फिर प्रभुपाद लिखते हैं युवर एवर वेलविशर , मैं आपका सदा के लिए शुभकामना देने वाला या हितचिंतक हूं । वाल्मीकि मुनि ने रामायण की रचना की और श्रील व्यास ने महाभारत की रचना की , भागवत की भी रचना की ,इन दोनों ग्रन्थों की रचना के पहले नारद मुनि ने अपना संग , आदेश , उपदेश दिया है तभी इन दोनों ने अपने-अपने ग्रंथ लिखे हैं । नारद मुनि को भी वाल्मीकि मुनि का संग प्राप्त हुआ , दर्शन हुआ । अभी समय हो गया है । वाल्मीकि मुनि रामायण से प्रेरित हुए , वैसे रामायण की शुरुआत बालकांड जो प्रथम सर्ग है , रामायण में सर्ग चलते हैं सर्ग मतलब अध्याय , श्रीमद्भागवत के अध्याय तो रामायण में सर्ग है।
श्रीमद्भागवत में 335 अध्याय है तो रामायण में 500 अध्याय हैं।
श्रीमद् भागवत में द्वादश स्कंद है तो रामायण में सात कांड है। वहां स्कंध है यहां कांड है। श्रीमद्भागवत में 18000 श्लोक है तो रामायण में 24000 श्लोक है । आप इसकी नोंद करके रखो । बृहद ग्रंथ की मुल रचना वाल्मीकि मुनि ने की है। रामायण का जो प्रथम सर्ग हैं उसमें वाल्मीकि मुनि का और नारद मुनि का संवाद है। उसको वैसे संक्षिप्त रूप में संक्षिप्त रामायण भी कहते हैं।
100 श्लोकों में वह बालकांड का प्रथम सर्ग है। वैसे अधिकतर वाल्मीकि और नारद मुनि की मध्य का संवाद है और नारद जी ने राम की पूरी कथा संक्षिप्त में कही हैं , सुप्त रूप में कही है और फिर उसी से प्रेरित होकर वाल्मीकि को नारद मुनी का संग , दर्शन प्राप्त हुआ फिर नारद मुनि ने प्रस्थान किया और फिर उसके उपरांत भी इतिहास है । उसके उपरांत वाल्मीकि मुनि ब्रह्मा से मिलते हैं , ब्रह्मा से मुलाकात होती है और ब्रह्मा से प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त करने के उपरांत फिर वाल्मीकि मुनि रामायण की रचना करते हैं।
अपने आश्रम में बैठकर , गंगा के तट पर उन दिनों में रामायण की रचना उन्होंने की है जब सीता का दूसरा वनवास था और लव और कुश उसी आश्रम में जन्मे थे , वह बालक ही थे उनका लालन-पालन सीता तो कर रही थी लेकिन वाल्मीकि मुनि भी कर रहे थे या कहो वह सीता का लालन-पालन कर रहे थे और सीता लव और कुश का लालन-पालन कर रही थी। उन दिनों में रामायण की रचना हुई । लव और कुश इस रामायण महाकाव्य के पहले विद्यार्थी बने।
पहले विद्यार्थी रहे लव और कुश थे वाल्मीकि मुनि ने ही सारा रामायण पढ़ाया सुनाया और लव और कुश ने पूरे रामायण को केवल कंठस्थ ही नहीं किया हृदयंगम किया , यह लव और कुश रामायण के प्रथम प्रचारक भी बन गए और संगीतमय रामायण सुनाने लगे । लव और कुश विना बजाते हुए अलग-अलग छंदों में ईसका गान करते थे और सुनाया करते थे , वन में सुनाया करते थे ऋषी मुनि असंख्य संख्या में एकत्रित होते थे । तब कथा करते करते लव और कुश अयोध्या भी पहुंच गए और राम को पता चला कि कोई दो सुकुमार बालक अयोध्या की नगरी में सर्वत्र कोई कथा सुना रहे हैं। तब राम के मन में भी जिज्ञासा उत्पन्न हुई और लव और कुश को उन्होंने बुलाया फिर सारा दरबार भी वहां उपस्थित हुआ , सभी वहा पहुंच गए और पूरे दरबार के समक्ष लव और कुश को राम ने निवेदन किया कि कृपया राम कथा सुनाइए या कथा सुनाइए फिर स्वयं श्री राम रामायण कथा के श्रोता हो गए यह चक्र पूरा हो गया । राम की लीला राम ही सुन रहे हैं और श्री राम मंत्रमुग्ध हो गए और बेहद खुश , प्रसन्न हो गए । श्री राम वक्ताओं पर भी प्रसन्न हो गये और वह कथा से भी प्रसन्न हो गये । यह कथा अगर राम को प्रसन्न कर सकती है तो हमको तो जरूर ही प्रसन्न कर सकटी हैं । क्यों नहीं ? परमात्मा अगर प्रसन्न हो जाते हैं तो आत्मा तो प्रसन्न हो ही जाएगी । अभी घोषणा हो जाएंगी , हमने भी कुछ संकेत दे दिया । ऐसी कथा इस्कॉन नागपुर की ओर से प्रारंभ हो रही है आप सुन लो , ठीक है। आज के लिए इतना ही अभी रुकते हैं।
*जय श्री राम ।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*12 अप्रैल 2021*
*पंढरपुर धाम से*
*हरे कृष्ण!*
836 स्थानो से जप करने वाले आप सभी भक्तों का स्वागत हैं।
क्या आप तैयार हैं?
*हरि हरि!!*
आज हम आपको एक छोटी सी वीडियो दिखाने वाले हैं। जो लोग जुम पर हैं,वह लोग इसे देख पाएंगे लेकिन जो लोग यूट्यूब पर हैं वह इसे नहीं देख पाएंगे।
*”जय श्री राम, हो गया काम”।*
क्या कहा मैंने?आप इसे सीख सकते हो। जय श्री राम हो गया काम। राम आने वाले हैं। बात बनने वाली हैं। रामनवमी करीब आ रही हैं। यह वीडियो नासा ने प्रकाशित किया हैं। नासा मतलब नॉर्थ अमेरिकन स्टेट एजेंसी,जो एस्ट्रोनॉमी या खगोल शास्त्री होते हैं और जो अंतरिक्ष में जाते हैं,उन्होंने यह वीडियो खींचा हैं और उनको एक पुल दिखा जिसको उन्होंने ऐडम्स ब्रिज नाम दिया। उन्होंने इस पुल को जमीन पर नहीं समुद्र में देखा।रामेश्वरम से लंका तक जो श्री राम ने पुल बनाया था उस पुल का उन्होंने वीडियो खींचा हैं और वह दिखा रहे हैं और यह सिद्ध कर रहे हैं कि हां!हां!यह किसी के द्वारा बनाया गया पुल हैं। यह लोग भाग्यवान ही हैं,जिन्होंने यह वीडियो खींचा हैं और प्रकाशित किया हैं।उनका कहना हैं कि उन्होंने कहीं से पता लगवाया की रामायण काल में राम ने एक पुल बनाया था।यह बात भूगोल शास्त्रज्ञ भी कह रहे हैं ,शास्त्रज्ञ यानी एस्ट्रोनोमरस भी मान रहे हैं कि यह राम के द्वारा बनाया गया पुल हैं।
*”जय श्री राम”*
हम मे से जिन लोगों को सबूत चाहिए होते हैं, कि सबूत दो। नासा वाले यह एक सबूत दिखा रहे हैं और यह ब्लैक एंड वाइट भी नहीं हैं,यह रंगीन वीडियो हैं और केवल वीडियो ही नहीं हैं,ऑडियो वीडियो हैं।
श्री राम का बनाया हुआ यही पुल हैं। उन्होंने केवल वीडियो ही नहीं खींचा बल्कि इस पर और भी अध्ययन किया हैं और जो वीडियो में पत्थर दिखते हैं, वह पत्थर भी साधारण नहीं है। यह मोती हैं और समुद्र के भूतल में जो पत्थर हैं, यह वह पत्थर नही हैं।वास्तव में वह लोग भी घोषित कर रहे हैं कि वह पत्थर दूर-दूर से वहां पर फेंके गए या लाए गए हैं। वह वही के पत्थर नहीं हैं। वह पत्थर पहले वहां नहीं थे बल्कि कहीं से लाए गए पत्थर वहां रखे गए हैं। ऐसा उनका कहना हैं कि उन्हीं लाए गए पत्थरों से यह पुल बनाया गया हैं।हरि!हरि!
अच्छा होता इसमें हमारे भारतीय वैज्ञानिक अपना दिमाग उपयोग करते और वह भी ऐसा वीडियो खींच कर दिखाते। हरि हरि! लेकिन हमको अधिक विश्वास तब होता है जब पाश्चात्य देशों के लोग इसे कहते हैं।तब बात पल्ले पड़ती हैं,क्योंकि हम लोग उनकी नकल करते हैं।भारतीय वैज्ञानिकों पर हम भरोसा नहीं करते।लेकिन जब अमेरिकी वैज्ञानिक कुछ कहते हैं तो हमें लगता है कि हां यह ठीक कह रहे हैं, अमेरिकी वैज्ञानिकों ने ही यह वीडियो बनाया हैं।
और घोषित कर रहे हैं कि यह राम द्वारा बनाया गया हैं। चलिए अब आपको यह वीडियो दिखाते हैं।यह वीडियो अंग्रेजी में हैं ईसलिए ध्यान से देखीए और सुनिए। समझ में आना तो चाहिए क्योंकि ऑडियो भी हैं, इसलिए देखते-देखते उस से सुनिए भी। छोटी सी वीडियो हैं। केवल 2 मिनट की हैं, देख कर फिर आगे चर्चा करेंगे।
*श्री राम जय राम जय जय राम!!*
*श्री राम जय राम जय जय राम!!*
*जय श्री राम!!*
देखा सब ने?देखा और सुना भी?अब आपको विश्वास हो गया होगा। “दिखाओ हमें,दिखाओ हमें”। हम लोग ऐसा पूछा करते हैं कि अगर आपका भगवान हैं, तो अपना भगवान हमें दिखाओ।तभी हम विश्वास करेंगे। तो यहां यह जो ब्रिज हैं, यह रामसेतु हैं। राम के द्वारा बनाया गया सेतु। हरि हरि।।यह राम के द्वारा बनाया गया हैं या राम के वानरों की मदद से बनाया गया हैं।हरि हरि!! भारत में कुछ वर्ष पूर्व इस पुल के संबंध में चर्चा हो रही थी या कुछ राजनीतिक दलों के मध्य में विवाद हो रहा था। वह वाद-विवाद कर रहे थे और उस समय के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री(जो कि नास्तिक थे,अब नहीं रहे। अच्छा हुआ कि नहीं रहें।) इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि वहां पुल है और हैं भी तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि राम कौन सा किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में गए थे जो उनके पास ऐसी क्षमता होती कि वह पुल बना पाते।उनका कहना था कि पुल तो सिविल इंजीनियर बनाते हैं। राम किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में गए हो ऐसा सुना तो नहीं गया हैं। पता नहीं पुल हैं भी या नहीं। और अगर है भी तो इसे राम तो नहीं बना सकते थे क्योंकि वह इंजीनियरिंग कॉलेज के स्नातक नहीं थे। देखो इन नास्तिकों की मूर्खता। इस राक्षसी प्रवृत्ति का कोई ठिकाना ही नहीं हैं। इनको हम भारतीय कहते हैं क्योंकि इनके पास इंडियन पासपोर्ट हैं।भारतीय नहीं इंडियन पासपोर्ट हैं।लेकिन इन अमेरिकी वैज्ञानिको को रामसेतु के संदर्भ में कोई संशय नहीं हैं, उन्होंने देखा और संशोधन किया और रामायण से भी कुछ पता लगाया और इस से संबंध जोड़ा।
जी हां-जी हां!!
यह वही पुल हैं,जिसकी चर्चा रामायण में हुई हैं। यही तो राम के द्वारा बनाया गया पुल हैं।और इसके लिए दूर-दूर से पत्थर लाए गए हैं।मिट्टी तो वहां पहले से ही थी लेकिन उस पर दूर-दूर से लाकर पत्थर रखे गए हैं। पर यह तो हम ही जानते हैं कि यह पत्थर वहां रखें नहीं गए हैं। राम के समय तो वह पत्थर तैर रहे थे।
*जय श्री राम!!*
पुल को जब बनाया जा रहा था तू जो कंस्ट्रक्शन कंपनी थी हनुमान एंड कंपनी वह लोग यह पुल बना रहे थे पत्थर लाला कर समुद्र में फेंक रहे थे समुद्र के जल को छूने से पहले ही उन पत्थरों पर नल नील राम-राम लिख रहे थे रामायण इतिहास है पद छेद करें तो इति ह आस इतनी मतलब इस प्रकार खास मतलब होना ऐसा हुआ ऐसी घटनाएं घटी और ऐसी घटनाओं का वर्णन जब होता है तो उसे इतिहास कहते हैं वाल्मीकि मुनि इतिहासकार रहे है और महाभारत के इतिहासकार रहे श्री व्यास देव यह इतिहास है यह कोई पौराणिक कथा नहीं हैं।
हमारे शास्त्रों में या वेदों में जिन घटनाओ का विवरण हुआ हैं, उसे पाश्चात्य देश के लोग पौराणिक कथा कहने लगे। मतलब कि कुछ काल्पनिक जो वास्तविक नहीं हैं।वह कहते रहे और हम सुनते रहे और अब हम भी सिर हिला हिला कर कहने लगे हैं कि हां आप ठीक कह रहे हैं। यह काल्पनिक ही हैं। अगर आप कह रहे हैं तो ऐसा ही होगा। यह काल्पनिक ही हैं। यह कुचार हमारे देश में हुआ और हमारे देश के जो बुद्धिजीवी हैं उन्होंने ही इसे काल्पनिक कहा। हमारे जैसे लोगों ने तो इसे कभी काल्पनिक नहीं कहा।जो अंग्रेजों ने प्रथा शुरू की उसे आजकल के आधुनिक और बुद्धिजीवी लोग आगे बढ़ा रहे हैं। शास्त्रों और पुराणों की लीलाओं को यह लोग काल्पनिक कहते हैं, यह फर्जी प्रचार हैं। रामायण सत्य हैं।
*जय श्री राम।*
राम जब पुल बना रहे थे तो उन पत्थरों पर नल और नील राम राम राम,लिख रहे थे।राम नाम के स्पर्श से ही वह पत्थर तैर रहे थे।आप बताइए कि आप का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत कहां हैं?राम ने गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लंघन किया और भगवान राम ने ऐसा पुल बनाया जो कि दुनिया का सबसे बड़ा पुल हैं।
भगवान हीं केवल दुनिया का सबसे बड़ा पुल बना सकते हैं और हम इंसान कभी भी भगवान से मुकाबला नहीं कर सकते।हमने भी पुल बनाए हैं,परंतु वह ज्यादा से ज्यादा 5 मील या 10 मील लंबा हो सकता हैं या इससे कुछ और अधिक। चाइना में काफी बड़े-बड़े पुल हैं लेकिन वह भी समुद्र में नहीं होते। अधिकतर जमीन पर ही होते हैं। भगवान ने १०० योजन अर्थात 800 मील लंबा पुल बनाया और ऐसा नहीं है कि कोई पगडंडी जैसा रास्ता बनाया हो कि एक के पीछे एक हो।ऐसा रामायण में वर्णन हैं कि भगवान ने बहुत चौड़ा पुल बनाया।क्योंकि भगवान की वानर सेना अरबों और खरबों में थी।अगर एक के पीछे एक जाते तो सदिया बीत जाती और युद्ध कब होता और सीता के साथ कब मिलन होता। इसलिए काफी लंबा और ना सिर्फ लंबा बहुत चौड़ा पुल बनाया। अद्भुत घटना हैं।यह प्राक्रम भगवान राम ने दिखाया हैं।जब हनुमान को सीता की खोज में लंका जाना था, हनुमान तो उड़ान भरकर गए थे। वह कोई श्रीलंका विमान सेवाओं से नहीं गए थे। नारद मुनि की तरह हनुमान जी को ऐसी सिद्धियां प्राप्त थी कि वह हवाई मार्ग से गए। लेकिन भगवान श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहते थे। जब राम जी के भक्त हनुमान जी उड़ान भर सकते हैं तो क्या स्वयं भगवान उड़ान भरकर नहीं जा सकते थे? बेशक जा सकते थे। लेकिन नहीं गए।क्योंकि भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।वह मर्यादा का पालन कर रहे थे। इसलिए वह चलकर गए। इसीलिए उन्होंने यह पुल बनाया। जब निर्जीव पत्थर राम नाम के स्पर्श से तैर सकते हैं तो हम सजीव क्या
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे महामंत्र का और राम नाम का आस्वादन करके नहीं तर जाएंगे? क्या हमारा बेड़ा पार नहीं हो जाएगा।जब राम नाम के स्पर्श से पत्थर तैर सकते हैं तो हम भी तर सकते हैं। हमारी ऐसे श्रद्धा होनी चाहिए।यह राम और कृष्ण नाम को और अच्छे से करने के लिए प्रेरणा देता हैं।जब पत्थर तैर रहे थे तो हम भी तर सकते हैं। रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम। पतित कौन हैं? हम पतित हैं। हमको राम पावन बना सकते हैं। सीताराम या राधाकृष्ण हम पतित्तों को पावन बना सकते हैं। हमारा भी उद्धार संभव हैं।श्रीराम हमारे उद्धार के लिए ही प्रकट हुए थे।हमारे उद्धार के लिए ही सम्भवामि युगे युगे होता हैं।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।(भगवद गीता ४.८)*
*अनुवाद-भक्तों का उद्धार करने दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की* *फिर स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं।*
भगवान बार-बार आकर लीला करते हैं और हमारा उद्धार करते हैं। रामेश्वर से श्रीलंका तक भगवान ने एक पुल बनाया, युद्ध हुआ, सीता के साथ मिलन हुआ और जब राम, माता सीता,हनुमान,विभीषण, सुग्रीव और ऐसे कुछ विशेष भक्तों के साथ अयोध्या लौट रहे थे, और जब वह विमान उस पुल के ऊपर से आकाश में जा रहा था तो राम ने सीता को दिखाया कि देखो, नीचे देखो। सीता ने जब नीचे देखा तो वह हैरान रह गई। फिर चर्चा हुई कि यह किसने बनाया और क्यों बनाया। रामजी ने कहा कि और कौन बना सकता हैं। मैं ही तो हूं। तुम्हारी प्राप्ति के लिए या तुम्हारे साथ मिलन के लिए देखो हमें क्या क्या नहीं करना पड़ा। हमने कई प्रयास किए और सभी प्रयासों में से यह पुल बनाने का प्रयास भी हमारी तरफ से रहा। भगवान सीता का भी गौरव बढ़ा रहे हैं, कि ऐसी सीता हैं कि उनकी प्राप्ति के लिए पुल बनाया गया हैं और राम का जो सीता के लिए प्रेम हैं, यह रामसेतु उस प्रेम का प्रतीक हैं। यहां सीता के लिए राम जी के प्रेम का प्रदर्शन हो रहा हैं। *हरि हरि!!*
यह पुल बनाना रामेश्वर से प्रारंभ हुआ और श्रीलंका तक गया। आज प्रातः काल में मैं पढ़ रहा था कि यह जो रामेश्वर हैं, चार युगों में चार धामों की महिमा हैं। सतयुग में बद्रिकाश्रम तीरथ होता हैं।
तीरथ तो सभी ही होते हैं लेकिन सतयुग में सर्वोपरि महिमा बद्रिका आश्रम की हो जाती हैं,त्रेता युग में रामेश्वरम,द्वापर में द्वारिका और कलीयुग में जगन्नाथ पुरी धाम। अब आप कहेंगे कि वृंदावन का क्या हुआ? तो वृंदावन तो इन चारों धामों से भी ऊंचा हैं। इन से परे हैं। इसमें उसका उल्लेख नहीं हुआ हैं। रामेश्वर धाम वह हैं,जहां राम की लीला हुई। पाश्चात्य देशों की विचारधारा थोड़ी संकीर्ण हैं। संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों के अनुसार तो कुछ ७००० वर्ष पूर्व इन पत्थरों को यहां पर लाया गया और उन्हें यहां रखा गया लेकिन हमें रामायण से पता चलता है कि यह १०००००० वर्ष पूर्व की बात हैं, त्रेता युग के काल में जब राम इस धरातल पर थे, तब उन्होंने इस पुल को बनाया। पूल बनाना भी राम की एक लीला रही। एक अद्भुत लीला। यह ७००० वर्ष पूर्व बना यह मानना गलत हैं,संशोधन करके वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने इसे ऐडम्स ब्रिज का नाम दिया। लेकिन यह राम जी का पुल हैं। उनकी समझ के अनुसार ऐडम्स और ईव एक दंपत्ति उत्पन्न हुए।इनकी आदिमानव जैसी समझ हैं,लेकिन राम तो आदि पुरुष हैं। मेरा ऐसा मानना है कि इसीलिए विदेश में इसे ऐडम्स ब्रिज के नाम से जाना जाता हैं।
उनके अनुसार ऐडम्स पहले पुरुष थे, लेकिन यह उनकी नासमझी हैं, क्योंकि हम तो जानते हैं कि इस ब्रह्मांड के पहले मनुष्य ब्रह्मा थे। लेकिन उनका कहना है कि ऐडम्स पहले थे।हम यह भी जानते हैं कि राम ही आदि पुरुष हैं। इनके लिए तो ७००० वर्ष पूर्व होना भी बहुत पुराना होता हैं। उनका कहने का भाव है कि ७००० वर्ष पूर्व मतलब बहुत बहुत बहुत ज्यादा पुराना। उनको यह समझ नहीं आता कि ७००० वर्ष पूर्व होना कोई बहुत प्राचीन बात नहीं हैं। ७००० वर्ष क्या होता हैं,जब हम तो १०००००० वर्ष पूर्व की बात कर रहे हैं। और १०००००० भी कुछ नहीं है क्योंकि हम तो करोड़ों वर्षों पूर्व की बात करते हैं। ब्रह्मा की आयु और ब्रह्मा का दिन ही कितना बड़ा हैं।और एक एक युग कितना बड़ा हैं। केवल एक कलयुग ही ४३२००० वर्षों का हैं। द्वापर युग दौगुना हैं,त्रेतायुग तिगुना हैं और सतयुग इससे चौगुना हैं। यह जो काल की गन्ना हैं, यह सभी को पता हैं। ऋषि-मुनियों को पता हैं।व्यास देव को इसका ज्ञान हैं या वाल्मीकि मुनि को इसका ज्ञान हैं और शास्त्रों में यह सब बातों का वर्णन हैं। आपको तो मैंने अब यह वीडियो भी दिखाई ताकि आपका श्रीराम में और श्रीराम कि लीलाओं में विश्वास बढ़े। लेकिन यह जरूरी नहीं हैं, क्योंकि हमारा विश्वास तो शास्त्रों में हैं। शास्त्र जो हमको दिखाता हैं,उसी से हमको ज्ञान प्राप्त होता हैं। यह ज्ञान अर्जन करने की प्रणाली हैं।इसी को हम शास्त्र चक्षुक्ष: कहते हैं। अगर देखना और समझना है तो शास्त्र का चश्मा पहनो। शास्त्रों रूपी चश्में का उपयोग करो। ऐसे ही क्योंकि हम अज्ञानी हैं और अंधकार में फंसे हैं,इसलिए हमें कुछ भी दिख नहीं रहा हैं और हमें देखना है तो कैसे देखना चाहिए शास्त्र रूपी चक्षु से। शास्त्रों को अपनी आंखें बनाओ। शास्त्र का चश्मा पहनो। फिर सब कुछ दिखाई देगा।ऐसे शास्त्र हैं रामायण,महाभारत,श्रीमद भागवतम्,अन्य पुराण ताकि हमको भगवान का दर्शन हो सके या १०००००० वर्ष पूर्व जो घटनाएं घटी,उनका दर्शन हो सके। जब रामजी थे,तब उन्होंने क्या-क्या किया, कहां-कहां गए। रामेश्वर पहुंचे। उन्हें आगे बढ़ना हैं, परंतु समुद्र के मार्ग से जाना हैं इसलिए वह पुल बना रहे हैं। यह शास्त्र हमको क्रमशः दिखाते हैं। एक घटना हुई।उसके बाद क्या हुआ,फिर उसके बाद क्या हुआ।शास्त्र हमको १०००००० वर्ष पूर्व जो घटित हुआ वहां पहुंचा देते हैं।
जब हम शास्त्रों की आंखों से देखते हैं तो १०००००० वर्ष पूर्व जो घटित हुआ और अब जो घटित हो रहा है उसकी जो दूरी है वह समाप्त हो जाती हैं।शास्त्रों की आंखों से देखते ही हम उस स्थान पर भी पहुंच जाते हैं और वह जो काल हैं, वहां भी हमें यह शास्त्र पहुंचा देते हैं।
हरि हरि!!
साधु शास्त्र और आचार्यों में अपना विश्वास बढ़ाओ।हम गोडिय वैष्णवो में यह मान्यता है कि हमें शास्त्र,साधु और आचार्य में विश्वास होना चाहिए। रामायण भी शास्त्र हैं।
भगवान कृष्ण ने कहा हैं कि शास्त्र ही प्रमाण हैं।
*तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ *ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।(भगवद गीता १६.२४)*
*अनुवाद-अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के अनुसार *क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य हैं,उसे ऐसे विधि विधानो को* *जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके।*
शास्त्र ही प्रमाण हैं और वह स्वयं सिद्ध हैं। हरि हरि!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*11 अप्रैल 2021,*
*पंढरपुर धाम*
हरे कृष्ण, 778 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। आप सभी का स्वागत है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
इस महामंत्र का जप करने में आपका स्वागत है। यह प्रसन्नता का विषय है कि आप जप कर रहे हो और आप करते रहो।
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥२१ ॥*
(चैतन्य चरित्रामृत 17.21)
*अनुवाद* –
इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है ।
*हरेर्नामैव केवलम्* जो कहा है वह सत्य ही है। उसके अलावा और कोई तरीका नहीं है। दूसरा उपाय नहीं है। वैक्सीन कोई उपाय नहीं है। ऐसा भी हम संबंध जोड़ सकते हैं। कोई दूसरा उपाय नहीं है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
*इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मष*
*नाशनम्।* *नातः परतरोपाय सर्व वेदेषु दृश्यते ।।*
(कलि संतरण उपनिषद)
ऐसा ब्रह्मा ने कहा है। ब्रह्मा का पद जानते हो?हरि हरि। ब्रह्मा आचार्य हैं। *आचार्यवान पुरुषों वेद* जब हम हमारे जीवन में आचार्य को स्वीकार करते हैं , फिर हम भी ज्ञानवान बनते हैं। हमको फिर ज्ञान होता है, हम ज्ञानवान बनते हैं यह बात भी उन्होंने नारद जी से कही थी। कलि संकरण उपनिषद की बात है , क्या उपाय है? क्या उपाय है? ऐसा नारद जी पूछ रहे थे। जब कलयुग आ धमका, नाराद जी भ्रमित हो गए।
*कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण: ।*
*कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥ ५१ ॥*
(श्रीमद् भागवत 12.3.51)
*कलेर्दोषनिधे राजन्न* कलि के दोष ही दोष, इतने सारे दोष! व्यक्ति का दिमाग चकरा जाता है। हरि हरि। नारद मुनि भी जानना चाहते थे कि अब क्या होगा? ऐसी परिस्थिति में क्या होगा? लोग इतना सारा पापाचार, भ्रष्टाचार, वैभिचार, अनाचार में व्यस्त हैं। अब क्या होगा? इन लोगों को कैसे बचाया जाए? आपके मन में भी ऐसे विचार आते होंगे, आने भी चाहिए। नारद मुनि के मन में दया उत्पन्न हुई और होती ही है, नहीं तो वैष्णव कैसे हुए? अगर आप स्वयं को वैष्णव कहते हो और दया नहीं है, तो कैसे वैष्णव? नाम के वैष्णव हुए, तथाकथित वैष्णव हुए। जिनमें कारुण्य नहीं है। हरि हरि। नारद मुनि ने जो पूछा तब ब्रह्मा ने उत्तर दिया और कहा। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।*
ब्रह्मा उत्तर दे रहे हैं। ब्रह्मा है कि नहीं? हमारी शुरुआत यहां से होती है। ब्रह्मलोक है, ब्रह्मा है। हरि हरि। वह हमारे अचार्य हैं। उन्होंने कहा *इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मष*
*नाशनम्।* कलि के जितने सारे कल्मष है, उसका बस एक ही उपाय है। *षोडशकं नाम्नां* का मतलब 16 है । 16 नाम वाला जो मंत्र है, यही उपाय है।
*कलिसंतरणोपनिषद् ५-६ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥५ ॥ इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मषनाशनं । नातः परतरोपायः सर्व वेदेषु दृश्यते ॥६ ॥*
सोलह नाम – हरे कृष्ण , हरे कृष्ण , कृष्ण कृष्ण , हरे हरे । हरे राम , हरे राम , राम राम , हरे हरे विशेष रूप से कलि के कल्मषों का नाश करने वाले हैं । कलि के दोषों से मुक्ति पाने के लिए इन सोलह नामों के कीर्तन के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है । समस्त वैदिक साहित्य में खोजने के पश्चात इस युग के लिए , हरे कृष्ण के कीर्तन से अधिक उत्कृष्ट कोई अन्य धर्म – विधि नहीं मिलेगी । ( श्री ब्रह्मा श्री नारद को उपदेश देते हैं । )
सभी शास्त्रों में, पुराणों में, इतिहासो में और कोई उपाय नहीं है। ऐसा ब्रह्मा ने कहा। ब्रह्मा जो कहते हैं सच ही कहते हैं , सच के अलावा ब्रह्मा और कुछ नहीं कहते हैं। ब्रह्मा जी की ऐसी पहचान भी है। मुझे और कुछ कहना था। हरि हरि। कोरोना वायरस आ गया। अद्वैत आचार्य आ गया। आता है, जाता है, पुनः आता है, पुनः जाता है। कोरोना आता है, फिर और कुछ आता है, फिर और कुछ आता है, आता जाता रहता है। कोरोना अब कहीं अवतारों में प्रकट हो रहा है। पिछले साल का कोरोना अब नहीं रहा। कई सारे विभिन्न लक्षणों के साथ, मैंने कुछ सुना 90 प्रकार के कोरोना वायरस प्रकट हो चुके हैं या अवतार ले चुके हैं। इसी से लोग चिंतित भी है। हमने जो वैक्सीन लिया हो, कोरोना वायरस 19 का था, लेकिन अब तो यह वायरस अलग है। हरि हरि। प्रिवेंशन इस बैटर देन क्यूर (इलाज से बेहतर रोकथाम है) अंग्रेजी में कहते हैं। अंग्रेज कहते हैं , क्या कहते हैं? इलाज से बेहतर रोकथाम है, मतलब बीमार हो जाओ फिर कुछ उपाय ढूंढो, कुछ वैक्सीन ढूंढो, औषधि ढूंढो और फिर ठीक हो जाओ।
इससे क्या अच्छा है? बीमार ही नहीं होना अच्छा है। है कि नहीं? हमने ठीक कहा कि नहीं? बीमार नहीं होना ही अच्छा है या बीमारी टालना ही अच्छा है। बीमार होकर हम अस्पताल में भर्ती हो जाए। उससे अच्छा है, हम स्वस्थ रहें। हरि हरि। अब अस्पतालों में पलंग नहीं मिल रहे हैं। पहले सिनेमाघर हाउसफुल होते थे। बाहर बोर्ड लगाते थे सिनेमाघर हाउसफुल। अब अस्पताल हाउसफुल होने लगे हैं और लोग कतार में खड़े रहते हैं। भारत में कहो, मुंबई में कहो या नागपुर में कहो या ब्राजील में कहो, अलग-अलग देशों में ऐसा हाल है। हरि हरि। हमारा यही हाल है। हम सभी का मिलकर ऐसा हाल है, ऐसी परिस्थिति है। इतनी सारी समस्या है। कहा जाता है या हमने कह तो दिया – इलाज से बेहतर रोकथाम है।
बीमार होकर उपाय ढूंढो, उससे अच्छा है कि बीमार नहीं होना। लेकिन बीमार नहीं होना हमारे हाथ में नहीं है। यह दूसरी समस्या है। बीमार नहीं होना हम टाल सकते हैं, मास्क पहनकर, सोशल डिस्टेंसिंग रखकर लेकिन यह वायरस इतना चालाक है और उसको हम अदृश्य शत्रु कहते हैं। शत्रु जब सामने हो तो निशाना बना सकते हो लेकिन यह शत्रु भी है और अदृश्य रहता है और फिर हमला करता है। हरि हरि। ठीक है । अगर इस बीमारी से बच गए लेकिन दूसरी बीमारी तो पकड़ने वाली ही है। आज नहीं तो कल सही। कल करे सो आज कर। आज नहीं तो कल बीमारी आएगी और कल भी नहीं आई तो फिर परसों आएगी लेकिन आने वाली है। कोरोना है या और कोई है , क्योंकि नियम क्या है ? या हकीकत क्या है? *शरीरम् व्याधि मंदिरम्* शरीरम् क्या है? व्याधि का मंदिर शरीर है। इस शरीर में व्याधि नामक विग्रह की स्थापना करके ही हमको यह शरीर मिलता है। ले लो यह शरीर ले लो। इसके साथ टैग सलंगन है या संपूर्ण पैकेज है। शरीर के साथ क्या है? व्याधि होगी ही। शरीर है तो व्याधि है जैसे मंदिर है तो विग्रह है या मूर्ति है। इस शरीर में व्याधि नामक मूर्ति की स्थापना कर के हमको शरीर मिलता है। इस शरीर में व्याधि की, रोग की, बीमारी की प्राण प्रतिष्ठा होती है और फिर मजा चख लो । हम उल्लू के पट्ठे है। हमको माया ठगाती है। हरि हरि। हम ऐसे शरीर का सेल्फी लेते रहते हैं और आईने में हम अपने सौंदर्य को निहारते हैं और क्या-क्या करते हैं। ऐसी देहात्मबुद्धि का क्या कहना? इस समय जिस मे हम फंसे हैं और पूरा संसार फंसा हुआ है , यह कोरोना वायरस भी माया ही है।
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |*
*मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || १४ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 7.14)
भावार्थ –
प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |
कृष्ण ने गीता में कहा है। इसका अनुभव सारा संसार कर रहा है , हमें मानना पड़ेगा। कोरोना वायरस सारे संसार की महा शक्तियों को झुका रहा है। कोरोना वायरस माया का एक प्रदर्शन है। *मम माया दुरत्यया* माया का उल्लंघन करना कठिन है। हरि हरि। यह कहते कहते मुझे यह भी कहना था कि इलाज से बेहतर रोकथाम है। अब तो यह शरीर मिल चुका है। मिल चुका है कि नहीं? शरीर तो है अभी। इस शरीर के साथ कुछ बीमारियां होने वाली ही है। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, नहीं तो नरसो। जब जवान थे तब बीमारी नहीं हुई, तो बीमारी बुढ़ापे में होगी , बीमारी पीछा नहीं छोड़ेगी। उसे टालने का, उससे बचने का, हर व्यक्ति को प्रयास करना चाहिए। इसीलिए सारी मेडिकल व्यवस्था है, डॉक्टर है, अस्पताल है, चिकित्सा महाविद्यालय है, मेडिकल शॉप है, दवा उद्योग है , कितनी सारी व्यवस्था है।
इस बीमारी के संबंध में कितनी सारी व्यवस्था है । यह सारी व्यवस्था को हमने एक रक्षात्मक प्रतिक्रिया बनाया है । जन्म मृत्यु जरा व्याधि एक बात है और आहार निद्रा भय मैथुन यह दूसरी बात है इसमें जो भय है , भय का अर्थ है रक्षा करना । और जन्म मृत्यु जरा व्याधि में से जो व्याधि है उस व्याधि से बचने के लिए रक्षण के लिए मनुष्य जातियों ने रक्षात्मक प्रतिक्रिया तैयार करके रखी हुई है। इस प्रकार आप भय को समझ सकते हो। हम सब इन चार कामों में , आहार , निद्रा , भय , मैथुन में व्यस्त है। यह मुख्य कार्य है। जब हम भयभीत होते है तो उस भय से बचने के लिए रक्षा करते है। जैसे रक्षा मंत्रालय भी होता है। यह एक प्रकार का रक्षण है ऐसे ही अनेक प्रकार है।
बीमारी से बचने के लिए कितनी सारी व्यवस्था इस संसार में है इसको रक्षण कहा गया है। बीमारी से बचने के लिए कितना सारा दिमाग , अर्थ व्यवस्था , मनुष्य समाज कितना प्रयास करता है । इस समय कोरोना वायरस से बचने के लिए कितने सारे रक्षात्मक प्रतिक्रिया कर रहे है। इस समय शरीर प्रपात हुआ है तो रक्षात्मक प्रतिक्रिया बनाने की आवश्यकता है। ऐसी आवश्यकता सतयुग , त्रेता और द्वापर युग में नहीं थी पर समय के साथ यह बढ़ती है। स्वयं को बचाए, इस शरीर की रक्षा करो जब तक यह शरीर है लेकिन दूसरी बात यह है की पुनः अगर हमने जन्म लिया तो फिर क्या होगा? *शरीर्म व्याधि मंदिरम।* शरीर कैसा होगा ? व्याधियों का मंदिर होगा । भगवान कोई पक्षपात नहीं करते। कितनी सारी योनियां है। सभी में जन्म मृत्यु जरा व्याधि है। इसमें कोई अफवा नही है। प्रभुपाद लिखते है की एक छोटे से कीटाणु से लेकर जितनी भी योनियां है उन सभी योनियां में जो भी आपका शरीर होगा । अगर शरीर लिया है तो उस शरीर में मरना ही होगा। जन्म लिया है तो फिर कुछ समय के लिए कुमार आयु रहेगी , जैसे कुमार चींटी है कुमारी चींटी है, वह सदा के लिए कुमार नहीं होने वाली है , बूढ़ी भी होगी , ऐसे ही हाथी भी बूढ़े होने वाले है। व्यक्ति बूढ़ा होता है , कभी सोचा है आपने? हर योनि में बीमारी है , रोग है । हमने पुनः जन्म लिया । बीमार होने से बचने की बात चल रही है , तो क्या करना होगा? आप कल्पना कर सकते हो की इलाज से बेहतर बचाव है के बारे में आप क्या कहोगे? बहुत कुछ मेने कह दिया अब आपकी बारी है। क्या बचाव करना चाहिए? किस बात से बचना चाहिए? पुनः जन्म लेने से बचो , अब और जन्म नही। जन्म लिया है तो मरना तो होगा ही , यह नियम है।
जन्म लिया है तो बूढ़ा होना पड़ेगा। इलाज से बेहतर बचाव है। *पुनः जन्म न विध्यते।* अगर ऐसा हम कर सकते है। अब और जन्म नही, मृत्यु नही, बुढ़ापा नही, कोरोना नही , सिर्फ करुणा को ही प्राप्त करेंगे। इसी को ही श्रेयस और प्रेयस कहा है। कुछ लोग प्रेयस में कहते है की अब इससे कैसे बचना चाहिए। उनके जीवन में प्रोएक्टिव नही होते है सिर्फ रिएक्टिव होते है। जब समस्या कढ़ी होती है तभी रिएक्ट करते है और फिर भागम भाग करते है। इस समस्या से लड़ना चाहिए । यह प्रेयस कहलाता है , कुछ क्षण के अंदर सोचते है।
लेकिन जो श्रेयस वाले है , अर्जुन ने कहा भगवदगीता के पहले अध्याय में *न श्रेयस अनुपाश्यमि ।* प्रेयस की बाते चल रही है इसमें श्रेयस कहा है। श्रेयस क्या है ? जिससे रक्षण हो सके , भविष्य में होने वाले जन्म का, पुनः जन्म न लेना पड़े। ऐसा विचार हमारे जीवन का हो , ऐसी दूर दृष्टि हमारे जीवन की हो और इसके अनुसार फिर योजना बनानी होगी, उस प्रकार का तत्व ज्ञान कहो, या फिर उस प्रकार का संग कहो, उस प्रकार के मंत्र कहो और हमारा मंत्र है ,
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
*जीव जागो।* शरीर सोया है , शरीर को जगाओ। वास्तव में आत्माओं को जगाना है क्योंकि लोगो के शरीर तो जग जाते है पर आत्मा सोती रहती है। दिन में भी आत्मा सोती है इसलिए आत्मा को जगाना है। केवल प्रेयस में ही अपना समय बिताना नही है , कुछ कुछ प्रेयस की आवश्कता होती है, परंतु आत्मा का क्या? आत्मा के लिए हम क्या कर रहे है? आत्मा के दुख, कष्ट को कौन जानता है? और क्या क्या उपाय है? उपाय तो है। कृष्ण ने भगवद गीता में कहा है
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।*
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥*
*अनुवाद:* हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं- इस प्रकार जो तत्त्वसे जान लेता है, वह शरीर छोडनेके पश्चात् जन्मको प्राप्त नहीं होता, किंतु मुझे ही प्राप्त होता है ।
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।* गीता भी पढ़ो । सुन रहे हो लेकिन आपको सुनी और पढ़ी हुई बातो को ध्यान में भी रखना होगा , उसका हृदयांदम करना होगा औरो के साथ बाटना होगा , यह सत्य है। जैसे ब्रह्मा ने वो बात नारद को कही। जो भ्रमण करके सर्व शक्ति का प्रचार करते है उसी प्रकार हम उनके भक्त है। श्रील प्रभुपाद की जय। श्रील प्रभुपाद ने सत्य का प्रचार किया और यह प्रचार आप तक पोहोंचाना है। आप तक यह संदेश क्यों पोहोंचाना है ? ताकि आप इस संदेश को औरों तक पोहोंचा सके। प्रचार प्रसार करना ही परम कल्याण है । इन बातो में , सत्य में देश का , मानव जाति का कल्याण है । दुनिया संक्रमित है जैसे अर्जुन कुछ समय के लिए संक्रमित हुए थे और यह सत्य को जब सुना , भगवान उवाच जब हुआ, तब अर्जुन ने कहा अब मुझे कोई संदेह नहीं रहा। अब मैं मुक्त हो गया। आपके आदेश का पालन करने के लिए अब मैं तैयार हूं। हमको भी उसी परंपरा में सत्य का साक्षात्कार करना है और फिर उसका प्रचार करना है। जैसे पूरी दुनिया कोरोना पीड़ित है , यदि आप किसी प्रकार की सहायता कर सकते हो तो जरूर करो। कुछ क्षण के लिए कल्याण प्रेयस कहलाता है पर जो मानव का कल्याण सदा के लिए हो वो श्रेयस कहलाता है। हमे कृष्ण भावना का प्रचार प्रसार करना होगा। कृष्ण के विचारो का, सत्य तथ्य का प्रचार करना होगा और इसी में हम सभी का श्रेयस है। सदा के लिए लाभ है।
*निताई गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक १० अप्रैल २०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ७६५
स्थानों से जो भक्तगण जप कर रहे हैं, उन सबकी जय हो अर्थात आप सब की जय हो जो इस जपा सेशन और जपा टॉक में सम्मिलित हुए हैं।
हरि! हरि!
आप तैयार हो? सावधान!
तैयार अर्थात मन की भी तैयारी होना। अपने मन को स्थिर करो। सुनने के लिए दृढ़ निश्चयी बनो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह महामन्त्र सुनने के लिए भी दृढ़ निश्चयी बनो।
हम इसे ध्यानपूर्वक जप करना कहते हैं। ध्यानपूर्वक जप तब होगा, ( अभी तो आप कुछ कर ही रहे हो, जप चल ही रहा है)। आप श्रवण का कुछ सुन सकते हो। हम विषय बदलने के लिए नहीं कह सकते, विषय तो कृष्ण ही रहेगा। जब हम भी जप करते हैं अथवा जपा टॉक करते हैं, तब विषय तो कृष्ण ही होते है।
वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.१३१)
तात्पर्य अनुसार- ” वैदिक साहित्य में, जिसमें रामायण, पुराण तथा महाभारत सम्मिलित हैं, आदि से लेकर अंत तक तथा बीच में भी केवल भगवान् हरि की ही व्याख्या की गई है।”
हमारा ध्यानपूर्वक जप तब होगा, जब निश्चयपूर्वक जप किया जाएगा अर्थात जब हम निश्चयपूर्वक जप करेंगे तभी हमारा ध्यानपूर्वक जप होगा। इस पर भी सोचो। क्या आप इसे समझ पाए। क्या आप इससे सहमत है?आप को यह बात मंजूर है? मंजूर हो या नहीं हो,सत्य तो है ही। फिर आपकी मर्जी, लेकिन ध्यानपूर्वक जप करना है तो निश्चय पूर्वक जप करना ही होगा। हमें निश्चयपूर्वक या उत्साह पूर्वक कहना होगा।
उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
( श्री उपदेशामृत श्लोक सख्या ३)
अनुवाद:- शुद्ध भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं:
१) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना ( ३) धैर्यवान होना( ४) निमायक सिद्धांतो के अनुसार कर्म करना ( यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं- कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगति छोड़ देना तथा(६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिन्हों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्संदेह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
ये तीनों बातें आ गयी। उत्साह होना चाहिए, निश्चय होना चाहिए, धैर्य होना चाहिए। तत्पश्चात हमें समझना चाहिए कि निश्चय क्या होता है? हम निश्चयी कैसे बन सकते हैं, उत्साह में वर्धन कैसे बढ़ा सकते हैं, धैर्यवान कैसे बन सकते है? धीर, सोबर, धैर्य। धैर्य में स्थर्य भी है। ये अच्छे शब्द हैं। एक शब्द है क्षुब्धता और दूसरा शब्द स्तब्धता है। जैसे समुन्दर में ऊपर से लहरे तरंगे औऱ कभी कभी सुनामी भी आ जाती है, समुंदर आन्दोलित हो जाता है। उसको क्षुब्धता कहा जाता है । जैसे राम ने अपना धनुष बाण उठाया। वे समुंदर को डरा रहे थे क्योंकि समुंदर पार करने में कुछ सहायता नहीं कर रहा था। उस समय समुंदर भयभीत हुआ और क्षुब्ध हुआ। वैसे ही हमारा मन भी क्षुब्ध होता है। हमारे मन की स्थिति क्षुब्ध हो जाती है लेकिन उसी समुन्दर में जब हम गहराई में जाएंगे। वहां समुंदर स्तब्ध होता है अथवा स्थिर होता है, लगता है कि वह ना हिल और न ही डुल रहा है। हम आपको समझा रहे हैं कि यह क्षुब्धता क्या होती है? और स्तब्धता क्या होती है? हमारा मन स्वभाव से चंचल अथवा क्षुब्ध होता है, उसको स्थिर अथवा स्तब्ध बनाना है अथवा स्तम्ब जैसा बनाना है, स्तंभित होना है। भक्ति के अष्ट विकार अथवा लक्षण हैं। विकार का अर्थ कोई खराब चीज नहीं है। भक्ति करने से कुछ बदलाव आ जाते हैं। भक्ति दिखती है, उसमें एक स्तंभित होना भी हैं।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अर्थ:- श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
जैसे शरीर में रोमांच या रोंगटे खड़े हो जाना इत्यादि इत्यादि ये बदलाव है। रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो – उसी के अंतर्गत एक स्तंभित होना है। स्तंभ अर्थात खंबा। खंभे का क्या वैशिष्ट्य होता है? वह स्थिर रहता है। वह हिलता डुलता नहीं है। भक्ति करते करते स्तंभित होना, वह भक्ति करने वाले साधकों की सिद्धि भी है। साधना की सिद्धि है। क्षुब्धता से स्तब्धता तक। स्तंभित होना अर्थात अपलक नेत्रों से देखना और देखते ही रहना। ना हिलना और ना ही डुलना है, ऐसी भी एक स्थिति है। मन की स्थिति या भावों का ऐसा प्रदर्शन हो जाता है। करना नहीं पड़ता है, यह स्वभाविक है। मन में वैसे स्तंभित हुए हैं।
उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
( श्री उपदेशामृत श्लोक सख्या ३)
यह बात नहीं है तो नहीं है, यह बात आपके लिए नहीं होनी चाहिए। यह बात रूप गोस्वामी प्रभुपाद (उनको भी प्रभुपाद कहते हैं, वैसे कईयों को प्रभुपाद कहते हैं) रूप गोस्वामी प्रभुपाद अपने उपदेशामृत नामक ग्रंथ में लिखते हैं ( क्या नाम सुना है, यदि नहीं सुना तो फिर आपने क्या सुना है?)रूप गोस्वामी इस उपदेशामृत नामक ग्रंथ में जो बातें कह रहे हैं, वही हम आपको सुना रहे हैं। इसके पहले जो चार श्लोक हैं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण श्लोक हैं। हरि! हरि! आप उसे देख लेना और पढ़ लेना। बहुत छोटा सा ही ग्रंथ है। कुल ग्यारह श्लोकों में यह ग्रंथ पूरा हो गया है। यह सारे उपदेशों का सार भी है। उसमें से एक वचन अथवा एक श्लोक षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति भी है। षड् मतलब 6 और उसका बहुवचन षड्भि है। इन छह बातों से अथवा यह करने से अर्थात ऐसी भक्ति करने से व्यक्ति सिद्धि प्राप्त करता है अथवा विशेष सिद्धि को प्राप्त करता है या सर्वोच्च सिद्धि को प्राप्त करता है। इन 6 बातें को करने से प्रसिध्यति होती है। उन 6 बातों में से ये 3 बातें उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् है।
हम भक्त हैं। हो या नहीं? मैंने नहीं कहा कि मैं भक्त हूँ, मैंने कहा कि हम भक्त हैं, हम में आप भी आ गए। ऐसे सारे जीव भक्त हैं। सभी जीव भगवान् के भक्त हैं। आप जीव हो या नहीं?
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
( श्रीभगवतगीता ३.१६)
अनुवाद:- हे प्रिय अर्जुन! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है | ऐसा व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है।
जो जीवित है, वह जीव है। जीवन का लक्षण जिसमें है, वो जीवित है।
आप भी भक्त हो। हम भक्ति कर रहे हैं। वैसे हम साधक भक्त हैं लेकिन अभी तक साधना सिद्ध भक्त नहीं हुए हैं लेकिन साधना सिद्ध बनना चाहेंगे। नाम तो साधना सिद्ध है लेकिन हमें साधना करके सिद्ध होना हैं।
साधना के अंतर्गत ही ये सब उत्साहित होने की साधना आती है। साधन और साध्य ऐसा भी संबंध है। साधन और साध्य इन दोनों का घनिष्ठ संबंध होता है। हम साधन से ही साध्य को प्राप्त करते हैं। हमें इसे साध्य करना है। यह हमारा साध्य अथवा लक्ष्य है। इसलिए उचित साधनों व उपकरणों का उपयोग करना होगा, साधना को अपनाना होगा जिससे हम सिद्ध बनेंगे व साध्य को प्राप्त करेंगे। यह साधन है- उत्साह, निश्चय, धैर्य। ऐसा उपदेश है कि यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो साधना में सिद्धि प्राप्त होने वाली नहीं है। श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद ऐसा समझा रहे हैं। आप साधना में सिद्धि प्राप्त करना चाहते हो, लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हो, लक्ष्य तो भगवान् हैं। कृष्ण लक्ष्य है या हम कहते हैं कि कृष्ण प्रेम लक्ष्य है। कृष्ण लक्ष्य हैं या कृष्ण प्रेम लक्ष्य है, एक ही बात है। हमें
भक्ति को प्राप्त करना है। यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे जो महामन्त्र कहते हैं (जो सच है, वही कहते हैं)
यह महामन्त्र का जप साधन भी है और साध्य भी है। बड़ी विचित्र बात है कि यह साधन भी है और साध्य भी है। साधन है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे और साध्य है हरे कृष्ण हरे कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे
ये एक प्रसिद्ध बात है, एक बार जब प्रभुपाद से पूछा गया कि प्रभुपाद, आप जप करते हो, आप जप करते हुए क्या प्राप्त करना चाहते हो, जप करने का फल क्या है? क्या होना चाहिए। जप करने का परिणाम क्या होना चाहिए? साध्य क्या है? तब प्रभुपाद ने कहा- ‘मोर चेंटिंग’
मैं जप कर रहा हूँ, यह साधन है। साधन करते करते और अधिक जप व कीर्तन करने की इच्छा जग ही रही है अथवा बढ़ ही रही है। ऐसा नहीं हैं कि इस महामन्त्र के कुछ साधन व सोपान बनाकर हमें और कुछ प्राप्त करना है या महामन्त्र के परे पहुंचना है, महामन्त्र के परे तो कुछ है ही नहीं। भगवतधाम में भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे है। यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण आपका पीछा नहीं छोडगा। हम जप करते करते मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होने का अर्थ क्या है? १६ माला समाप्त हो गयी। मेरी ड्यूटी हो गयी। अंततः मैंने १६ माला जप कर लिया। यह महामन्त्र का जप कीर्तन साधन अथवा साध्य है। नहीं! हम यहां भी हरे कृष्ण महामन्त्र का जप व कीर्तन करेंगे, वहां भी करेंगे। भगवतधाम लौटेंगे, वहां पर भी यही करना है। ये शाश्वत विधि है। भक्ति शाश्वत है तो यह विधि भी शाश्वत है। आप साधक के रूप में साधना कर रहे हैं। यदि सिद्ध हो गए तो यही करना है। जप में रुचि बढ़ रही है। हम जप से आसक्त हो रहे हैं। हम में जप करने से भाव उदित हो रहे हैं अर्थात हम कॄष्ण प्रेम का अनुभव कर रहे हैं, यह भी सिद्धि ही है। यह सब श्रद्धा से प्रेम तक के सोपान हैं।
जिसके विषय में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने माधुर्य कादम्बिनी नामक ग्रंथ में समझाया है। उसकी भी चर्चा होती ही रहती है व होनी ही चाहिए और हमें समझना चाहिए।
हम एक सोपान से दूसरे सोपान तक पहुंच गए हैं, वह भी सिद्धि ही है। हम श्रद्धा के साथ जप कर रहे थे और अब निष्ठा के साथ जप कर रहे हैं। यह सिद्धि है। पहले हम लोग श्रद्धावान ही थे। अब हम निष्ठावान बन गए हैं। यह प्रगति है। व्यक्ति निष्ठावान कब बनता है?
जब उसकी अनर्थो व पापों से निवृत्ति होती हैं।
पापाची वासना नको दावू डोळां,
त्याहूनी आंधळा बराच मी II
निंदेचे श्रवण नको माझे कानी,
बधीर करोनी ठेवी देवा II
अपवित्र वाणी नको माझ्या मुखा,
त्याहूनी मुका बराच मी II
नको मज कधी परस्त्रीसंगती,
जनातून माती उठता भली II
तुका म्हणे मज अवघ्याचा कंटाळा,
तू ऐक गोपाळा आवडीसी II
( सन्त तुकाराम)
अनुवाद:- हे भगवान, इस दुनिया के पापों की देखने के लिए गवाह न बनने दें, बेहतर होगा कि मुझे अंधा बना दें; मैं किसी की बीमारी न सुनूं, मुझे बहरा बना दें; पापी शब्दों को मेरे होंठों से बचने दें, मुझे बेहतर गूंगा बना दें; मुझे दूसरे की पत्नी के बाद वासना न करने दें, बेहतर है कि मैं इस धरती से गायब हो जाऊं। तुकाराम जी कहते है; मैं दुनियादारी से हर चीज से थक गया हूं, मुझे अकेलापन पसंद है। हे गोपाल।
जब अनर्थ निवृत्ति होती है तब हम अपराधों से बचते हैं व अपराधों से बचने का प्रयास करते हैं। हमें सफलता मिल रही है। निष्ठावान बनने के लिए साधु सङ्ग भी चाहिए।
आदौ श्रद्धा ततः साधु-सङ्गोअ्थ भजन क्रिया। ततोअनर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः।।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति। साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भाव भवेत्क्रमः।।
( भक्तिरसामृतसिंधु १.४.१५-१६)
अनुवाद:- सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है। तत्पश्चात वह गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि- विधानों का पालन करता है। इस तरह वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। इसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। यह साधन भक्ति का मार्ग है। धीरे धीरे भाव गहन होते जाते हैं और अंत में प्रेम जागृत होता है। कृष्ण भावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए भगवतप्रेम के क्रमिक विकास की यही प्रक्रिया है।
हम साधु सङ्ग कर रहे है।
साधु सङ्ग प्राप्त होना भी सिद्धि है।
‘साधु- सङ्ग’,साधु- सङ्ग’,- सर्व शास्त्रे कय। लव मात्र साधु- सङ्गे सर्व- सिद्धि हय।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.५४)
अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण- भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।
ऐसा नहीं है कि हमें किसी अवस्था में साधु सङ्ग की आवश्यकता नहीं होगी कि मैं निष्ठावान हो गया हूँ। मुझे अब साधु सङ्ग की कोई आवश्यकता नहीं हैं। यह एक गलत धारणा है। साधु सङ्ग अर्थात भक्तों के सङ्ग की आवश्यकता हमें साधन के अन्तर्गत भी है। हम साधक हैं, हमें साधुसंग चाहिए। यदि हम सिद्ध भी हो गए या हम कह भी सकते हैं तब भी साधुसंग चाहिए।यह साधू सङ्ग जो साधन है इसका लक्ष्य और अधिक साधु सङ्ग है। जैसे हम भगवतधाम में जाएंगे, वहां भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण है। भगवतधाम में जाएंगे, वहां भी साधु ही साधु हैं।
यहां तो थोड़े ही साधू हैं। वहां हर व्यक्ति साधु है। कोई बदमाश या मूर्ख नहीं है। वहां तो साधु ही साधु हैं। यदि आपको साधु सङ्ग अच्छा नहीं लगता तो भूल जाओ, तब वैकुण्ठ या गोलोक प्राप्ति आपके लिए नहीं है। वहां केवल भगवान ही प्राप्त नहीं होने वाले हैं। भगवान् के भक्त भी प्राप्त होंगे।
साधु सङ्ग साधन भी है और साध्य भी है। यदि ऐसे सन्तों का सङ्ग करते जाएंगे तब वे हमें भजन करने में प्रेरणा देते हैं। साधु अपना आदर्श हमारे समक्ष रखते हैं। तब हम प्रेरित होते हैं। साधु सङ्ग से फिर भजन क्रिया अर्थात अधिक अधिक भजन करेंगे या वे हमें इशारा भी कर सकते हैं। हे प्रभु! मुझ से अपराध हो रहा है या तुम साधु निंदा कर रहे हो। इत्यादि इत्यादि। शास्त्र तो नहीं कहेंगे लेकिन साधु कहेंगे। हम से कोई अपराध हो रहा है लेकिन व्यवहारिक जीवन में कुछ नाम अपराध हो रहे हैं। यदि साधु की संगति है तब साधु विधि- निषेध दोनों बताएंगे। यह करो , यह मत करो। करो। यह मत करो। भजन क्रिया तत्पश्चात अनर्थ निवृत्ति होगी तत्पश्चात हम निष्ठावान हो गए। निष्ठावान हो गए अर्थात हमारे जीवन में स्थर्य आ गया। हमारे मन में स्थर्य आ गया। इसी को निष्ठावान कहा गया है। यहाँ से हम पीछे नहीं मुड़ेंगे। हम जब निष्ठावान बनते है तब हम यू- टर्न नहीं लेंगे। केवल आगे ही बढ़ेंगे। श्रद्वावान से निष्ठावान तक बढ़ेंगे। हरि! हरि!
(मैं बहुत कुछ कह रहा हूँ, सब कुछ कहने का प्रयास भी चलता ही रहता है। अच्छा हो कि यदि हमारे पांच मुख होते तब कई सारे मुखों से एक साथ कई सारी बातें ही बातें कह ही सकते थे। यह भी सिद्धि ही है।)
हम श्रद्वावान थे, पर अब निष्ठावान बन गए। यह सिद्धि है। अब निष्ठावान से और आगे बढ़े हैं और अब हरि नाम में रुचि बढ़ रही है, तो यह सिद्धि है। यदि हम हरिनाम से आसक्त हुए और हम से रहा नहीं जाता और हम प्रातः काल में अपनी मीठी नींद को त्याग कर अथवा ठकुरा कर दौड़ पड़ते हैं कि मेरी जपमाला कहां है, जपा सेशन शुरू होने जा रहा है? हमारी रुचि बढ़ेगी तो हम दौड़ पड़ेंगे और जब उत्साह के साथ जप करेंगे तो यह भी सिद्धि है। इस प्रकार यह अलग-अलग सोपान, स्तर व लेवल हैं। साधु सङ्ग से भजन क्रिया वह भी सिद्धि है। भजन क्रिया से अनर्थ निवृत्ति वह भी सिद्धि है। हम निष्ठावान बन गए तब सिद्ध हो गए। अगर रुचि बढ़ रही है तो सिद्धि है। आसक्त हो गए तो भी सिद्धि है। कुछ भाव उदित हो रहा है, कुछ आशा की किरण दिख रही है भाव और प्रेम यह भी अलग-अलग सिद्धि के ही स्तर हैं। इस प्रकार प्रतिदिन हम ऐसी साधना करेंगे।
उत्साहान्निश्र्चयाद्धैर्यात् तत्तकर्मप्रवर्तनात्। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
जो भी साधु बताएंगे कि यह नवधा भक्ति है, यह भक्ति करो। ऐसे कार्य करो, ऐसी सेवा करो। तत्तकर्मप्रवर्तनात्।
सङ्गत्यागात्सतो अर्थात असत सङ्ग को त्याग दो।
असत्सङ्ग-त्याग,-एइ वैष्णव-आचार। ‘स्त्री- सङ्गी एक असाधु, ‘ कृष्णभक्त’ आर्।।
( श्रीचैतन्य- चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.८७)
अनुवाद:- वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रियों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कॄष्ण भक्त नहीं हैं।
आप लिख लो, नोट करो कि वैष्णव की क्या पहचान है? असत्सङ्ग-त्याग, अर्थात जो असत्सङ्ग को त्यागता है- हो सकता है कि अपने घर वाले ही असत्सङ्ग प्रदान करने वाले हो, थोड़ा सा और कम से कम मन में आप उनसे दूर रहो। इमोशनली( भावनात्मक) कहो या मेंटली (मानसिक) रूप से आप दूर रह सकते हो, तो रहो। यदि पड़ोसियों या आफिस के साथियों का संग, उसका संग, इसका सङ्ग बेकार का है मायावी व दानवी है।असत्सङ्ग-त्याग करो। आपको स्वयं निरीक्षण करना होगा कि मैं किस-किस के संग में आता हूं। मुझे किस किस के साथ डील करना पड़ता है? उनका संग सत् है या असत् है? असत् है तो सावधान। सङ्गत्यागात्सतो वृत्ते अर्थात तब संत महात्मा, आचार्य के चरण कमलों का अनुसरण करो। वैसी वृति को अपनाओ ।वृति और प्रवृत्ति। उपदेशामृत के उस श्लोक को पढ़िए। जिससे षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति हो जाए। (थोड़ा-थोड़ा संस्कृत भी सीखो) यह षड्भि बहुवचन है। इन छह बातों को अपनाने अथवा करने से षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यतिअर्थात हम भक्ति व साधना में सिद्धि प्राप्त करेंगे। जप करने में सिद्धि क्या है? यह भी आप समझ गए की उसकी सिद्धि क्या है। आप सभी ऐसे सिद्ध महात्मा बनो, प्रयास करो। प्रयास तो करना ही होगा।
संस्कृत में एक कहावत है-
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः! न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
( हितोपदेश)
अनुवाद:- जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुँह में मृग स्वयं नहीं प्रवेश करता है, उसी प्रकार केवल इच्छा करने से सफलता प्राप्त नहीं होती है अपने कार्य को सिद्ध करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है ।
सिंह जो वनराज (केशवी) कहलाता है, वो राजा हुआ तो क्या हुआ। जब उसको भी भोजन करना होता है तब केवल वह अपना मुख खोल कर बैठ नहीं सकता। प्रविशन्ति मुखे मृगा: – उस वनराज के मुख में मृग या पशु पक्षी स्वयं प्रवेश नहीं करते, उस वनराज को भी उठना पड़ता है अथवा दौड़ना पड़ता है व शिकार करना पड़ता है। वह भी कभी सफल तो कभी असफल हो जाता है लेकिन प्रयास के बिना कुछ प्राप्त नहीं होता। कुछ तो प्रयास करना ही होगा। लगे रहिए और प्रयास कीजिए।
कहा भी है कि भगवान उनकी मदद करते हैं जो स्वयं अपनी मदद (सहायता) उत्साह के साथ करते हैं। भगवान् ऐसे साधक के कार्य, उत्साह, निश्चय, धैर्य को देखकर सहायता करते हैं अर्थात
भगवान् उनकी मदद करते हैं जो प्रयास कर रहे हैं।
ठीक है। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*9 अप्रैल 2021,*
*पंढरपुर धाम सें*
हरे कृष्ण, 812 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। *गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!*
*जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद,*
*जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्त वृंद।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
कल का जो अनुभव रहा, किनका?नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का। वैसे तैयारी तो की थी और प्रार्थना भी की थी। तो भगवान ने उनकी प्रार्थना भी सुनी। मरणा हो तो कैसे मरें?नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के जैसे,मरण प्राप्त हो।नही तो कया होगा?जय श्रीराम हो गया काम। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का जीवन भी आदर्श और मरना भी आदर्श। आचार्य अपने आचरण से सिखाते हैं। अपने उदाहरण से वह दूसरों को प्रेरित करते हैं। शिक्षा देते हैं। जप तो करते ही रहिए।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम* *हरे हरे।।*
वह कितना सारा जप करते थे यह भी आदर्श हैं। थोड़ा भी नहीं कितना अधिक जप करते थे। कीर्तनीय सदा हरी का वह बड़ा उदाहरण हैं।उनका जीवन चरित्र एक आदर्श जीवन हैं।
*संख्यापूर्वक का नामगान नति ही ही*
ऐसा षडगोस्वामीयो के संबंध में भी हम कहते हैं।
*संख्यापूर्वक नामगान नति ही ही*
संख्यापूर्वक नामगान और नति ही ही मतलब विनम्रता के साथ।
*तृणादपि सुनिचेन तरोरपि सहिष्णुना।*
*अमानिनामानदेन कीर्तनीय सदाहरी।।*
नाम आचार्य हरिदास ठाकुर संसार के समक्ष आदर्श रहे।उनका जीवन भी एक आदर्श और मरना भी एक आदर्श। तो कल हमने,मैं कहने जा रहा था,कि कल हमने सुना, लेकिन जब सुनते हैं तब देखते भी हैं। हमने देखा नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का परायन, प्रस्थान।हम उनके तिरोभाव महोत्सव को देख रहे थे। जैसे सुन रहे थे उसी के साथ देख भी रहे थे। देखने के लिए सुनो।सुनेंगे तो देखेंगे भी। हम कानों से देखते हैं,पहले सुनते हैं, फिर देखते भी हैं। हमने देखा कि कैसे नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का मरण भी आदर्श रहा।
हरि हरि,
*जन्म मृत्यु जरा व्याधि दुख दोषानुवर्षन*
हमारे दुख के यह चार कारण हैं। श्रीकृष्ण ने कहा जन्म,मृत्यु, जरा और व्याधि। वैसे जन्म भी दुख का कारण हैं। जब आप कपिल भगवान को श्रीमद भगवतम में सुनोगे ,तो वो आपको जन्म की व्यथा का वर्णन करके सुनाएंगे। जब जीव गर्भ में होता हैं, तो उसको बहुत यातना और कष्ट होते हैं।आप पढ़ोगे, सुनोगे तो,रोंगटे खड़े हो जाएंगे। यह भयावह परिस्थिति है। जन्म भी दुख का कारण है। जन्म,मृत्यु ,जरा व्याधि।
मृत्यु का भगवान ने पहले नाम लिया हैं, क्रम से तो नाम नहीं लिया। जन्म, जरा ,व्याधि ,मृत्यु ऐसे कहना चाहिए था। लेकिन,जन्म,मृत्यु, जरा, व्याधि कृष्ण ने ऐसे कहा।जन्म का जो द्वंद हैं, उसी को मृत्यु कहां है। जन्म और मृत्यु ऐसा संसार का द्वंद हैं । उसी में हम फसे और पीसे जा रहे हैं। और जरा और व्याधि, जरा और व्याधि का मृत्यु के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। जरा और व्याधि मानो मृत्यु के प्रवेश द्वार ही है। हम जब जवान होते हैं,तब हम मृत्यु के संबंध में ज्यादा नहीं सोचते। मृत्यु क्या होती हैं? हमें क्या परवाह हैं इसकी। किसी को इसकी चिंता नहीं है। यह एक अनुभव की बात है। जवानी में या बाल अवस्था में, युवावस्था में मृत्यु की कोई चिंता नहीं करते। मृत्यु को कोई महत्व नहीं देता। विचार नहीं करता,वैसे करना तो चाहिए लेकिन नहीं करते। या ऐसी विचारधारा होती हैं कि मृत्यु के साथ हमारा कोई लेना देना नहीं । किंतु जब हम बूढ़े हो जाते हैं, वृद्धावस्था को प्राप्त करते हैं तब वृद्धावस्था से मृत्यु कोई ज्यादा दूर नहीं होती। वृद्धावस्था में ही किसी भी समय मृत्यु आ जाती है। मर जाते हैं। वृद्ध होना मतलब मृत्यु के निकट पहुंचना और अधिक अधिक मृत्यु के निकट पहुंचना। मृत्यु के विचार आ जाते हैं। मृत्यु के संबंध में सोचने लगते हैं। मृत्यु का जो भय होता है, उससे भयभीत होते हैं। चिंतित होते हैं। इसलिए शंकराचार्य ने भी कहा है।
*वृद्धावस्था चिंतामग्न*
वृद्धावस्था में व्यक्ति चिंतित रहता है। मृत्यु की चिंता, मृत्यु का भय रहता है और वृद्धावस्था में ही हम थोड़े बीमार चलते हैं। बाल्यावस्था या युवावस्था में हम बीमार नहीं होते। वैसे शरीर जो हैं यह एक यंत्र है। यंत्र पुराना होता है, मोटर गाड़ी पुरानी होती है, तो उसका जो यंत्र हैं,वह गेराज में रिपेयरिंग के लिए भेजना पड़ता हैं।पुरानी गाड़ी रिपेयरिंग मांगती है।शरीर भी एक यंत्र है ।यह भी पुराना होता है।और फिर धीरे-धीरे निकम्मा हो जाता हैं, कुछ काम का नहीं रहता। और काम भी अब थोड़ा कम ही करता है। वृद्धावस्था में जब बीमार हो जाते हैं,कुछ भी काम नहीं करते। मतलब बीमारी है और कई सारी बीमारियां है। कुछ बीमारियां तो धीरे-धीरे मरने कि ओर ले जाती हैं। जैसे धीरे-धीरे हम मर रहे हो, ऐसी कुछ बीमारियां होती हैं। और कुछ बीमारियां तुरंत भी हो सकती हैं। जैसे दिल का दौरा।दिल का दौरा चक्का जाम कर देता है। कुछ बीमारियां तुरंत हमारी जान ले लेती हैं। तो कुछ बीमारियां हमें वृद्धावस्था में धीरे-धीरे मृत्यु देती है। जो भी है मेरे कहने का मतलब तो यही था कि, हम वृद्ध हो जाते हैं और फिर वृद्धावस्था में धीरे-धीरे हम बीमार भी हो जाते हैं। और फिर हम रोगी बन जाते हैं। मरीज बन जाते हैं। मतलब हम मृत्यु के निकट पहुंच रहे हैं,और अधिक निकट पहुंच रहे हैं। कहीं अगल-बगल में नहीं,मृत्यु के पड़ोस मे ही रहते हैं। बीमारी के पड़ोस में ही मृत्यु रहती हैं। वृद्धावस्था कुछ दूर नहीं रहती।
हरि हरि।।
शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को एक अंतिम उपदेश दिया हैं।उन्होंने एक अंतिम बात कही हैं,
*त्वम तु मरीशीइष्यति पशुबुध्दिम् जही*
शुकदेव गोस्वामी ने यह द्वादश स्कंद के चतुर्थ अध्याय में कहा हैं। शुकदेव गोस्वामी ने क्या कहा?उन्होंने कहा पशुबुध्दिम् जही हे राजा। या हे राजर्षि! तुम मरोगे, त्वम तु मरीशीइष्यति।तुम मरोगे या मैं मरूंगा यह पशु बुद्धि हैं। देहात्म बुद्धि हैं। ऐसा सोचना भी नहीं कि मैं मरूंगा। शुकदेव गोस्वामी और कुछ कहने वाले नहीं हैं।यह उनका फाइनल स्टेटमेंट है। तो अंतिम बार वह याद करा रहे हैं, राजा परीक्षित को। क्योंकि अंत में क्या करना हैं, अंते नारायण स्मृतिः। नारायण का स्मरण करना हैं। अंत में मृत्यु का स्मरण नहीं करना हैं। मृत्यु का स्मरण मतलब पशु बुद्धि हैं। मैं मरूंगा, यह देहात्म बुद्धि हैं। क्योंकि
*न जायतें न म्रियते कदाचिन*
श्रीकृष्ण ने कहा, हे अर्जुन!वह अर्जुन को कह रहे हैं। और यहां शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को कह रहे हैं।बात वही है,आत्मा अजर अमर है। वह कभी बूढ़ा नहीं होता। न जायतें न म्रियते। उसका जन्म भी नहीं होता,मृत्यु भी नहीं।जन्म से जायते संजयायतें उपजायते न जायतें। आत्मा का कभी जन्म नहीं होता। न म्रियते आत्मा का जन्म नहीं होता तो मृत्यु भी नहीं होती। आत्म साक्षात्कार की बात चल रही है। आत्मसाक्षात्कारी बनो और फिर आत्मसाक्षात्कारी के साथ में भगवत साक्षात्कारी बनो।
*पशुबुध्दिम् जही*
यह देहात्म बुद्धि हैं।
*गुणपेत्रधातुके*
गुणपेत्रधातुके अथार्त तीन प्रकार के धातु हैं,कफ,वायु,पित्त। आयुर्वेद के अनुसार यह शरीर इनसे बना है।यह शरीर इन तीन प्रकार के धातु से बना हैं, कफ, पित्त,वायु। गुणपेत्रधातुके यह देहात्म बुद्धि है। देह को ही आत्मा समझना। नहीं नहीं। तुम देह नहीं हो और हम भी,हम सब जो यह सुन रहे हैं, हम सब भी देह नहीं आत्मा है। इसी बात का शुकदेव गोस्वामी स्मरण दिला रहे हैं। तुम आत्मा हो और मैं परमात्मा भगवान हूं। तुम्हारा जन्म मरण से कोई संबंध नहीं है। ऐसी देहात्म बुद्धि त्यागो और मेरा स्मरण करो। *अंते नारायण स्मृतिः*
तो जब शुकदेव गोस्वामी ने कहा कि ऐसी पशु बुद्धि त्यागो और पूछा भी थोड़ा आगे जाकर किं *भूय: श्रोतुमिच्छसि* और कुछ सुनना चाहते हो, और कुछ जिज्ञासा हैं?राजा परीक्षित ने उसके उत्तर में कहा *सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना*।जितना भी आपने सुनाया हैं, मैं आपका आभारी हूं। *अनुगृहीतोऽस्मि* आपका अनुग्रह मुझ पर हुआ है, मैं आपका आभारी हूं।कृतज्ञ हूं और *सिद्धोस्म्यि* और मैं सिद्ध हो चुका हूं। *अहं सिद्ध अस्म्यि* मतलब क्या? मैं सिद्ध हुआ हूं। तो सिद्ध मतलब क्या? मैं पूरा भगवत साक्षात्कारी, आत्म साक्षात्कारी बन चुका हूं। या जब हम साधना करते हैं, जब हम जप कि साधना करते हैं तो जप के साधन की सिद्धि किसमे है? कब कह पाएंगे हम कि हम साधन सिद्ध हो गए?हमारे साधना की सिद्धि किस में है? कृष्ण प्रेम प्राप्ति में।
*श्रीमद् भागवतम प्रमाण अमलम प्रेम पुमार्थो महान*
सिद्धि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में नहीं हैं, यह अधूरी बातें हैं। कृष्ण प्रेम, कृष्ण सेवा मे भाव उत्पन्न होना ही,जीवन की सार्थकता और साधना की सिद्धि हैं।मैं ऐसी सिद्धि को प्राप्त हो चुका हूं। राजा परीक्षित ने ऐसा कहा। और आगे शुकदेव गोस्वामी को द्वादश स्कंध के छठवें अध्याय में कहा कि *भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम्* हें भगवन, क्योंकि वे भी भगवान हैं, क्योंकि वह ज्ञानवान हैं, इसलिए उनको भगवान कहां है। यह जो तक्षक पक्षी अभी मेरी प्रतीक्षा में हैं, उसका समय आ चुका हैं। लेकिन उस तक्षक से या तक्षक द्वारा जो मेरी मृत्यु होगी *अहं ना बिभेम्यि* मुझे उसका भय नहीं है, मैं निर्भय बन चुका हूं। *मामेकं शरणं व्रज* कर चुका हूं। फिर आपने कहा है कि जो भी आपके पूरी शरण में आ जाता है *मा शुचः* डू नॉट फियर ओ डिअर कम नियर आई एम हियर। भगवान ने गीता के अंत में कहा हैं कि डरो नहीं *मा शुचः* । राजा परीक्षित ने कहा की *सिद्ध अस्म्यि* मैं सिद्ध हो चुका हूं, निर्भय बन चुका हूं, मुझे भय नहीं है, मृत्यु का भी भय नहीं है, मैं तैयार हूं और *सिद्धोस्म्यि* मतलब मैं आपका स्मरण कर रहा हूं *अंते नारायण स्मृतिः*।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*
तो मरण कैसा होना चाहिए? जैसे हरिदास ठाकुर का था।आपने नोट किया होगा।हरिदास ठाकुर के हाथ भगवान के चरण कमलों का स्पर्श कर रहे हैं और उनकी आंखें गौरांग महाप्रभु के सर्वांग का या मुखमंडल का दर्शन कर रही हैं। उनकी आंखें भ्रमर बन चुकी हैं या भ्रमर जैसा कार्य कर रही है। भ्रमर जैसे कमल पुष्प मे प्रवेश करता है या मंडराता रहता हैं,वहा जहां कमल के पुष्प खिले होते हैं।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की यह जो कमल लोचनी हैं या पद्मलोचनी हैं,वहां श्रील नामाचार्य हरिदास ठाकुर की आंखें स्थिर हैं। मुखमंडल पर स्थिर हैं। सर्वांग सुंदर गौर सुंदर का दर्शन कर रही है। और उनके मुख से नाम निकल रहा है
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*
और वैसे ऐसा उल्लेख हुआ हैं कि उन्होंने कहा कि..क्या कहा? कौन सा नाम लिया?उन्होंने श्री कृष्ण चैतन्य कहां। तो पूरा लिंक पूरा भक्ति योग चल रहा है।*ऋषिकेन ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्चते*। हरिदास ठाकुर अपनी इंद्रियों से भगवान की सेवा, भगवान के विग्रह की सेवा, भगवान की इंद्रियों की सेवा कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में और ऐसे भाव भक्ति मे जब हरिदास ठाकुर तल्लीन थे *तब प्राण तन से निकले* तब उनके प्राण निकल गये।
*प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तये कंठावरोधन विधो स्मरणम कुतस्ते*।
तो इसीलिए इसे स्थगित नहीं करना, अब बूढ़े होने के बाद देखेंगे ऐसी बकवास बातें न करना। बुढ़ापा या वृद्धावस्था का अनुभव करेंगे तो फिर *कफ वात पित्तये कंठावरोधन* कंठ में अवरोध उत्पन्न होगा, फिर से घूर घूर ऐसी आवाज आएगी। नहीं नही।मुझे और नहीं रुकना।
*कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्ते*
*अद्येव मे विशतु मानस राजहंशः ।*
भाव वही है।जैसा हरिदास ठाकुर के साथ हुआ, वैसे ही राजा कुलशेखर भी यह प्रार्थना कर रहे हैं। *कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्ते* पद पंकज यहां पर चरण कमलों की बात कर रहे हैं। आपके चरण कमल सदृश्य है। और मेरा मन यहां मन की बात कर रहे हैं।मेरा मन राजहंस हैं। *मनः षष्ठानी इंद्रियानी* वैसे मन श्रेष्ठ इंद्रिय हैं, इंद्रियों का राजा हैं मन। यहां राजा कुलशेखर कह रहे हैं मेरा मन राजहंस है, इस राजहंस को आपके चरणों का सानिध्य प्राप्त होने दो।अभी अभी।या फिर अभी नहीं तो फिर कभी नहीं। ऐसा भी हो सकता है।कल करे सो आज कर आज करे सो अब।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा कि मुझे आप की करुणा प्राप्त हुई।लेकिन हमको प्राप्त हो रहा है कोरोना। तो यह बीमारी, महामारी, एपिडेमिक फैल रही हैं, तो सावधान भक्तों सावधान। थोड़ा दूर रहो, इस वायरस को दूर से नमस्कार करो या जो वायरस से पीड़ित है उनमें अपने स्वजन भी हो सकते हैं। उनसे भी थोड़ा सुरक्षित अंतर रखो। हमारे भक्त समाज में भी कई सारे गौडी़य वैष्णव, हरे कृष्ण वैष्णव, वरिष्ठ वैष्णव भी इस रोग से पीड़ित और ग्रसित हो रहे हैं। क्या-क्या और किनका किनका नाम कहू। तो उन सभी के लिए प्रार्थना भी करें।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*
आज हम उनके लिए प्रार्थना करते हैं, कल कोई और हमारे लिए प्रार्थना करेगा। ऐसे बारी-बारी से हम प्रार्थना करते जाएंगे, जो बचे हैं वह प्रार्थना करते जाएंगे। तो प्रार्थना जारी रखो और सावधान रहो। सारे नियमों का पालन करो और सुरक्षित रहो और कृष्ण भावना को,साधना भक्ति को भी थोड़ा अधिक गंभीरता से अपनाओ। । *व्हेन गोइंग गेट्स टफ टफ गेट्स गोइंग* ऐसी अंग्रेजी में कहावत हैं। जब अगर जीना मुश्किल हो जाता है तो जो ढीले ढाले होते हैं वह कुछ नहीं करते लेकिन जो टफ लोग होते हैं, बुद्धिमान होते हैं वह चलते रहते हैं।किसी कारणवश जब जीना कठिन होता हैं, तो टफ व्यक्ति जो दमदार होते हैं, होशियार होते हैं वह क्या करते हैं ?वह अधिक प्रयास करते हैं अधिक सक्रिय हो जाते हैं। ताकि जो भी समस्या है विघ्न है, उसक उल्लंघन करें, उसको पार करें। उसके लिए कटिबद्ध रहते हैं या तैयार रहते हैं, तैयारी करते हैं, चुनौती का सामना करते हैं। हरि हरि। पूरे देश को, पूरे मानव जाति को, हम सभी को तैयारी करनी होगी। उस तैयारी में जो अपना-अपना रोल है,अपनी-अपनी भूमिका है वह निभानी हैं, जियो और जीने दो ऐसा भी कहते हैं। स्वयं भी जीते रहो, ओर भी जीते रहे। ऐसा लक्ष्य बनाकर हमें अपनी अपनी भूमिकाओं को निभाना चाहिए। यहां सोशल डिस्टेंसिंग इत्यादि नियमों का पालन आपकी खुद की रक्षा के लिए नहीं है ऐसा जब करोगे तो औरों की भी रक्षा होगी। तो यह नियम अपने लिए हैं और औरों के लिए भी है। यह भी हो सकता है कि आप कहे हां मुझे परवाह नहीं हैं, ठीक हैं। अपने लिए ही नहीं तो औरों के लिए तो परवाह करो। आपको औरों की परवाह करनी चाहिए। खुद की चिंता नहीं कम से कम औरों की तो चिंता करो। ऐसा बेजिम्मेदार नहीं होना। जिम्मेदार नागरिक बनिए, भक्त बनिए, साधक बनिए। अपने और अपनों के लिए, पड़ोसियों के लिए कुछ करते रहो, सक्रिय रहो। ताकि भगवान सबकी रक्षा करें। आप प्रार्थना जारी रखो इसीलिए थोड़ा अधिक प्रार्थना करो। और वह प्रार्थना है..
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*
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जप चार्चा
पंढरपुर धाम से
8 अप्रैल 2021
शीर्षक
1: हरिदास ठाकुर के महानतम गुणों का गान चैतन्य महाप्रभु के द्वारा ।
2: भगवान श्री कृष्ण के चरण पद्म का जीवन के अंतिम सांस तक स्मरण करना ।
मेरे और कई अन्य भक्तों के लिए आज एकादशी है और हम इस्कॉन कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से श्रवण कीर्तन उत्सव शुरू करने जा रहे हैं। शुरुआत में हम श्रवण कीर्तन करेंगे जो अंग्रेजी में होगा और फिर हरे कृष्णा कीर्तन भी होगा किस भाषा में?
चाइनीस् या मराठी में?
सभी भाषाओं में, हरे कृष्ण हरे कृष्ण की कोई भाषा नहीं है ।
महामंत्र का कीर्तन् होगा लगभग 7:00 बजे।
हरि हरि !!
775 स्थानों से भक्त, आप सभी का स्वागत हैं। हमारी साधारण / नियमित भीड़ , मुझे यह कहना चाहिए की भक्त समूह। जब भक्त इकट्ठे होते हैं तब यह भीड़ नही कह लाती। हम आप सभी का कीर्तन मिनिस्ट्री के श्रवण कीर्तन उत्सव मैं स्वागत करते हैं । ‘कीर्तन मिनिस्ट्री ‘ विश्व भर के भक्तों को उत्साह प्रदान करती है एकादशी के रूप में श्रवण कीर्तन उत्सव मनाने के लिए । यह दिन उपवास का दिन है । यह उपवास के साथ-साथ दावत का दिन है । ” यह दिन माया से दूर और कृष्ण के साथ दावत ” । आपने यह समझा क्या ? उपवास किस से ? जरूर आप कहोगे कि अन्न नहीं खाना है । लेकिन यह साधारण उपाय है कि ‘माया से दूर रहना ‘ ।
माया से दूर और कृष्ण के साथ दावत । तो दावत हम कैसे करेंगे? हम कैसे यह दावत कर सकते हैं ? आप सभी को दावत पसंद है ,मैं सही कह रहा हूं ना? लाडली किशोरी ‘ !!
आप यह पर्दे के पीछे छुपे हुए हैं । आप सभी को दावत पसंद है ? हां !
यहां पर कोई है जो दावत पसंद करता हो । कोई भी नहीं ? नहीं तो आप हाथ उठा सकते हैं ? मुझे पसंद है !! मुझे दावत पसंद है !!
मुझे मालूम है आप सभी चुप है । मुझे पता है मुझे कितना दावत पसंद है और आप सभी भी वैसे स्कोर पसंद करते हैं । हम सभी आत्माएं ऐसे ही हैं । हम सभी को दावत पसंद है । यह दावत श्रवण कीर्तन दावत है । आज हम सब और ज्यादा श्रवण कीर्तन करेंगे इस एकादशी में । दूसरे शब्दों में , हम आत्मा की पोषण करेंगे , हम आत्मा को और भी खिलाएंगे पूरा पेट भर कर । आत्मा कि पेट को । आत्मा कि कान है ,उसका जीभ है , ठीक है आत्माओं !
हम तपस्या से गुजरते हैं लेकिन यह शरीर और आत्मा के लिए बहुत कम है। लेकिन एकादशी एक अच्छा अवसर है । मैं पूरा सहमत हूं कि सृष्टि के प्रारंभ से ही एकादशी उत्सव का मनाया जाता था। यह वैष्णवो के लिए बहुत ही प्रिय दिन है । जिस स्थान पर मैं अभी बैठा हूं ,यह पंढरपुर है । पंढरपुर धाम की जय!!
एकादशी महोत्सव एक बहुत ही बड़ा दिन है पंढरपुर में और यह सिर्फ पंढरपुर पर नहीं । वास्तव में सभी भक्तों को पंडरीनाथ पसंद है । विट्ठल पांडुरंग । तुकाराम महाराज की अनुसरण करने वाले सभी भक्तों की जय !! वे सभी इस एकादशी महोत्सव को मनाते हैं ।इससे ज्यादा क्या कर सकते हैं ? वह ज्यादा कीर्तन करते थे । मुझे याद है कि मैं बचपन के दिनों में , जो आज तक जारी है । पूरी रात कीर्तन होते थे और उनके साथ शामिल होकर कीर्तन किया करते थे ।
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी । कर कटावरी ठेवोनिया ॥ (अभंग – संत तुकाराम महाराज )
मेरे गाँव में भजन मंडली रात भर अभंगों का कीर्तन करते रहते थे । मैं यह एकादशी उत्सव को बचपन से ‘श्रवण कीर्तन उत्सव’ मना रहा था मेरे बचपन के दिनों में से ही l श्रील प्रभुपाद की जय !!
श्री चैतन्य महाप्रभु क्या कहा करते थे ,
माली हञा करे सेइ बीज आरोपण ।
श्रवण – कीर्तन – जले करये सेचन ॥
अनुवाद : – जब किसी व्यक्ति को भक्ति का बीज प्राप्त होता हो जाता है, तब उसे माली बनकर उस बीज को अपने हृदय में बोकर उसका ध्यान रखना चाहिए यदि वह बीज को क्रमशः श्रवण तथा कीर्तन की विधि से सींचता है , तो वह बीज अंकुरित होने लगेगा ।
(चैतन्य चरितामृत मध्य 19.152 )
इस तरह हम एकादशी में थोड़ा ज्यादा श्रवण कीर्तन करते हैं । अभी एक भक्त ने कहा महाराज मैंने 16 माला पूरा कर लिया है और मैंने पूछा की अभी क्या आप रुक जाने वाले हैं उन्होंने कहा नहीं ! आज मैं 64 माला करूंगा । और वह है वास्तविक में दृढ़ निश्चय । ज्यादा जप करना और ज्यादा श्रवण करना ।
॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
हम शास्त्र भी पढ़ सकते हैं , कृष्ण के बारे में सुन सकते हैं, उन्होंने क्या कहा है भगवत् गीता में और भागवतम् और चैतन्य चरित्रामृत मैं ? पठन -पाठन , हम उस तरह से और अधिक श्रवण कीर्तन कर सकते है ।
एकादशी के दिन जब कीर्तन मंत्रालय इन कीर्तन महोत्सव को बढ़ावा दे रहा है, हम कीर्तन करने के साथ-साथ अन्य प्रस्तुति देने के लिए आयोजित कर रहे हैं, वे भगवान श्री कृष्ण की महिमा, हरि नाम चिंतामणि और भागवतम् पढ़ा करते हैं उसी के साथ हमने जपा रिट्रीट आयोजित किया है। जप को सुधारना, वह भी एक तरह से श्रवण कीर्तन है। तब उसी के बाद हम क्रमशः बढ़ाते हैं , ” हम कैसे उच्चारण सही कर सकते हैं ” I हम भक्तों को आयोजित करते हैं भजन गाने के लिए ,जब हम भजन गाते हैं तो सब उस भजन का अर्थ समझते नहीं। मेरे गुरु भ्राता श्री पंचारतना प्रभु कहा करते हैं अलग दिनों में, वह भी हमारे मिनिस्ट्री के अंश है। वह कहां करते हैं , “हां ! भक्त भजन तो गाते हैं लेकिन उनको उन भजनों का अर्थ मालूम नहीं होता है “।
श्रील प्रभुपाद भजन के साथ उसका अर्थ भी बताते थे। मुझे मालूम है हमारे भक्ति चारू स्वामी महाराज गाया करते थे और उसके बाद वह उस भजन का अर्थ बतलाते थे। और हमारे अंतर में उस भजन का भाव होता है, भावा-र्थ । हमारे पास ऐसे भी भक्त हैं जो यह भजन का अर्थ प्रस्तुति करेंगे । उसी तरह हम हर एकादशी को ‘श्रवण कीर्तन उत्सव मनाएंगे । और यह हमने पहले से ही कुछ महीनों से शुरू किया है आपकी सहायता से । आपके सहयोग से यह सदा के लिए जारी रखेंगे । मैं आपको प्रोत्साहित करता हूं कि आप इस में जुड़े , खास करके हमारे श्रवण कीर्तन महोत्सव में । आप भी इसमें जिक्र कर सकते हैं और अभी यह मेरा समय है और उसके बाद निरंतर प्रभु मेरे गुरु भ्राता श्री , श्रील प्रभुपाद के शिष्य ,वह लॉस एंजेलिस में रहते हैं और वह वहां से भगवान के महिमा को वर्णन करेंगे ।
मैं एक छोटा भजन गाऊंगा , उससे पहले मैं चाहता हूं कि मैं नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को याद करू । और उनके तिरोभाव महोत्सव पर और वह नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर महोत्सव कहलाएगा और आज गोविंद घोष तिरोभाव तिथि महोत्सव भी है । गोविंद घोष तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!!
वैसे भी वह एक बहुत बड़े कीर्तनया थे उनके भ्राताश्री के साथ , माधव घोष , श्रीवास घोष और फिर वासुदेव घोष । उसी तरह गोविंद घोष और उनके 3 घोष भाई , वह सब बहुत बड़े भगवान के भजन आनंदी थे , वे सब भाई इतने बड़े असाधारण किस्म के गायक थे कि जैसे ही वे गाना शुरू करेंगे या गोविंद घोष गाना शुरू करेंगे तो चैतन्य महाप्रभु नाचने लगते थे । गोविंद घोष का कीर्तन, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को प्रेरित करता था कि वे बहुत ही भावविभोर तरीके से नृत्य करने लगते थे ।
नरहरि आदिकरि ‘ चामर ढुलाय ।
सञ्जयमुकुन्द – वासुघोष – आदि गाय ॥
अनुवाद :- नरहरि सरकार तथा चैतन्य महाप्रभु के अन्य पार्षद चँवर डुला रहे हैं तथा संजय पंडित , मुकुन्द दत्त एवं बासुघोष आदि भक्त मधुर कीर्तन कर रहे हैं ।
(गौर आरती श्लोक 4 )
उस भजन को याद करके , गोर आरती । वसु घोष – वासुदेव घोष है, वह गा रहे हैं । वसु घोष और वासुदेव घोष भाई है गोविंद घोष के, और उनका आज तिरोभाव महोत्सव हम मना रहे हैं । वे गाते हैं, इसलिए वे आरती के समय या किसी अन्य समय में गायक होते हैं, उन्हें गायन के लिए जाना जाता है। और निश्चित रूप से नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को उनके गायन के लिए भगवान के 3,00,000 पवित्र नामों के जप के लिए जाना जाता था।
एक-दिन गोविन्द महा-प्रसाद लञा ।
हरिदास दिते गेला आनन्दित हञा ॥
अनुवाद :- 1 दिन श्री चैतन्य महाप्रभु का निजी सेवक गोविन्द बहुत ही आनंदित होकर जगन्नाथ जी का प्रसाद देने हरिदास ठाकुर के पास गये ।
(चैतन्य चरित्रामृत अंत्य लीला 11.16 )
देखे, – हरिदास ठाकुर करियाछे शयन ।
मन्द मन्द करितेछे संङ्ख्या – संकीर्तन ॥
अनुवाद :- जब गोविंद हरिदास ठाकुर के पास पहुंचा , तो उसने देखा कि वे अपनी पीठ के बल लेटे हैं और धीरे-धीरे जप माला में जप कर रहे हैं ।
(चैतन्य चरितामृथम अंत्य लीला 11.7 )
गोविन्द कहे , – ‘ उठ आसि ‘ करह भोजन ‘ ।
हरिदास कहे , – – आजि करिमु लंघन ॥
अनुवाद :- गोविन्द ने कहा , कृपया उठकर अपना महाप्रसाद ग्रहण करें ।” हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया “आज में उपवास रखूंगा । ”
(चैतन्य चरित्रामृत अंत्य लीला 11. 18 )
शङ्ख्या – कीर्तन पूरे नाहि , के मते खाइब ? I
महा -प्रसाद आनियाछ , के – मते उपेक्षिब ? ॥
अनुवाद :- “मैंने अभी अपना जब पूर्ण नहीं किया है ! तो फिर मैं कैसे खा सकता हूं किंतु तुम महाप्रसाद लाए हो । भला मैं उसकी कैसे उपेक्षा करूं ?”
( चरित्रामृत अंत्य लीला 11. 19 )
अपनी बात को सही ठहराते हुए कहा ओह ! यह मैं कैसे खा सकता हूं , क्योंकि मैंने अपना निर्धारित जप खत्म नहीं हुआ है । लेकिन उसके बाद उन्होंने सोचा , लेकिन आप जगन्नाथ महाप्रसाद को लेकर आए हैं पुरी जगन्नाथ महाप्रसाद के रूप में विराजित रहते हैं तो उसको मैं कैसे मना कर सकता हूं ?
एत बलि’ महा -प्रसाद करिला वन्दन ।
एक रञ्च लञा तार करिला भक्षण ॥
अनुवाद :- यह कह कर उन्होंने महाप्रसाद को नमस्कार किया और उसमें से रंचभर लेकर ग्रहण कर लिया ।
( चैतन्य चरित्रामृत अंत्य लीला 11. 20 )
हरिदास ठाकुर यह कहने के बाद महाप्रसाद को प्रणाम किए और उस महाप्रसाद से कूछी मात्रा में , अन्न लेकर उसको खाया ।
आर दिन महाप्रभु तॉर ठाञि आइला ।
सुस्थ हुओ, हरिदास – बलि ‘ तॉरे पुछिला ॥
अनुवाद :- अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु हरिदास के स्थान पर गए और उनसे पूछा “हरिदास तुम ठीक तो हो ?”
(चैतन्य चरित्रामृत अंत्य लीला 11.21 )
मैं अंत्य लीला अध्याय 11 पढ़ रहा हूं । आज एकादशी है, और यह अध्याय भी एकादशी के ऊपर है उसी के सहित यहां पर नाम आचार्य के तिरोभाव पर वर्णित है । तो उसके दूसरे दिन चैतन्य महाप्रभु पहुंचे हरिदास ठाकुर से मिलने के लिए ।
नमस्कार करि’ तेंहो कैला निवेदन ।
शरीर सु स्थ हय मोर, असुस्थ बुद्धि-मन ॥
अनुवाद :- हरिदास ने महाप्रभु को नमस्कार किया और उत्तर दिया, “मेरा शरीर स्वस्थ है, किंतु मेरा मन और बुद्धि ठीक नहीं है ।”
( चैतन्य चरित्रामृत अंत्य लीला 11.22 )
प्रभु कहे, — ‘कोन् व्याधि, कह त’ निर्णय ?’ ।
तेंहा कहे, — ‘सङ्ख्या- कीर्तन ना पूरय’ ॥
अनुवाद :- श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुनः पूछा, “क्या तुम बता सकते हो कि तुम्हारा रूप क्या है ?” हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “मेरा रुक यही है कि मैं अपनी जप संख्या पूरी नहीं कर पा रहा हूं ।”
( चैतन्य चरित्रामृत अत्य लीला 11.23 )
प्रभु कहे, –” वृद्ध ह – इला ‘ सङ्ख्या’ अल्प कर ।
सिद्ध — देह तुमि, साधने आग्रह केने कर ? ॥
अनुवाद :- महाप्रभु ने कहा, “क्योंकि अब तुम वृद्ध हो गए हो, अतः नित्य जप किए जाने की नाम संख्या घटा सकते हो । तुम तो पहले से मुक्त हो, तेज तुम्हें कठोरता से नियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं है ।
( चैतन्य चरित्रामृत अंत्य लीला 11.24 )
चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, आप लोग देखें उन्होंने क्या कहा । पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और ब्रह्मा हरिदास, ब्रह्मा देव हरिदास ठाकुर रूप में प्रकट हुए हैं, राम भगवान जो सबके हृदय में विराजित रहते हैं और सब का मार्गदर्शन करते हैं, और ब्रह्मा जो आचार्य है । हमारा संप्रदाय जो है ब्रह्म माधव गुड़िया संप्रदाय है , आचार्य और फिर संस्थापक आचार्य जो हमारे संप्रदाय में ब्रम्हा है । और उन्होंने ही अभी अवतार लिया है ब्रह्मा जो हरिदास ठाकुर के रूप में , और चैतन्य महाप्रभु ने ही उनको ‘नाम आचार्य’ रूप में नाम घोषित किया है । वह पहले से ही हमारे ब्रह्म माधव गौड़ीय संप्रदाय के पहले आचार्य रहे और अभी चैतन्य महाप्रभु उनके लीला में उनको ‘नाम आचार्य’ रूप में घोषित करते हैं। पवित्र महामंत्र के आचार्य के रूप में । यह संवाद या यह वार्ता बहुत महत्वपूर्ण है । चैतन्य महाप्रभु जेसे कहते हैं, “तुम बहुत वृद्ध हो चुके हो, तो तुम अपना जप के संख्या को कम कर सकते हो | तुम पहले से ही मुक्त हो, तुम परमहंस हो, तुमको यह अनुसरण करने की कोई जरूरत नहीं है तुम इस से भी परे हो ।
लोक निस्तारिते एइ तोमार ‘अवतार’ ।
नामेर महिमा लोके करिला प्रचार ॥
अनुवाद :- “इस अवतार में तुम्हारी भूमिका सामान्य लोगों का उद्धार करने की है । तुमने इस जगत में पवित्र नाम की महिमा का पर्याप्त प्रचार किया है ।”
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.25 )
चैतन्य महाप्रभु स्वीकार कर ते हैं कि आप अवतार हैं। आप इस दुनिया के लोगों को मुक्त करने के लिए प्रकट हुए हैं। आप नामाचार्य या ब्रह्म- हरिदास के रूप में प्रकट हुए हैं।
एक वाञ्छा हय मोर बहु दिन हैते ।
लीला सम्वरिबे तुमि – लय मोर चित्ते ॥
अनुवाद :- “दीर्घकाल से मेरी एक इच्छा रही है । हे प्रभु, मेरे विचार से आप अत्यंत से ग्रह इस भौतिक जगत से अपनी लीला समाप्त कर देंगे ।
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.31 )
चैतन्य महाप्रभु एक दिन हरिदास ठाकुर के पास आए थे और हरिदास ठाकुर ने कहा, हे मेरे भगवान मेरी एक इच्छा है ।मैं यह अनुमान लगा सकता हूं कि आप यहां से प्रकट होकर अपने धाम वापस चले जाने वाले हैं ।
सेइ लीला प्रभु मोरे कभु ना देखाइबा ।
आपनार आगे मोर शरीर पाड़िबा ॥
अनुवाद :- “मैं चाहता हूं कि आप अपनी लीला का यह अंतिम अध्याय मुझे नहीं दिखलाएं । इसके पूर्व कि वह समय आए, मैं चाहता हूं कि मेरा शरीर आपके सामने धराशायी हो जाए ।
( चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.32 )
हृदये धरिमु तोमार कमल चरण ।
नयने देखिमु तोमार चॉद वदन ॥
अनुवाद :- “मैं आपके कमलवत् चरणों को अपने हृदय में धारण करना चाहता हूं और आपके चंद्रमा सदृश मुखमंडल का दर्शन करना चाहता हूं ।
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.33 )
मैं यहां से जाने से पहले मैं इच्छा प्रकट करता हूं कि जब मरने के समय में, मैं आपका कमल सदृश रूप का दर्शन करू और आपका पैर मेरे छाती पर हो मैं उसको पकड़ कर रखो और उसको मैं देखता रहूं, और उसी समय मैं आपका मनोहरी कमल सदृश मुख को देखो यही मेरा वांच्छा है, और जहां मेरा आंतरिक इच्छा है । हे ! प्रभु मेरी यह इच्छा पूर्ण कीजिए ।
प्रभु कहे,–” हरिदास, ये तुमि मागिबे ।
कृष्ण कृपामय ताहा अवश्य करिबे ॥
अनुवाद :- श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हे हरिदास, कृष्ण इतने दयामय है कि तुम जो भी चाहते हो, उसे वे अवश्य पूरा करेंगे ।
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.37 )
और चेतन महाप्रभु ने उनकी इच्छा को पूरा किए । उन्होंने कहा हां ! कृष्ण आपके इच्छा को जरूर पूरा करेंगे आपकी जो भी इच्छा है ।
प्रभु कहे,–‘हरिदास, कह समाचार’ ।
हरिदास कहे,–‘ प्रभु, ये कृपा तोमार’ ॥
अनुवाद :- श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, “हे हरिदास, क्या समाचार है ?” हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “हे प्रभु, आप मुझ पर जो भी कृपा करें ।”
( चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.47)
और एक दिन, अभी महाप्रभु अकेले नहीं आए थे वह बहुत सारे भक्त और कीर्तनया के साथ मृदंग और करताल के साथ चैतन्य महाप्रभु आए थे वह अपने अजानू लंबित भूजो हाथ को ऊपर करके नृत्य कर रहे थे , नृत्य मंडल के बीच में।
हरिदास !! यह क्या समाचार है, तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है ? आपकी जो भी इच्छा है आप मुझ पर वह कृपा करें।
अङ्गने आरम्भिला प्रभु महा – संकीर्तन ।
वक्रेश्वर – पंडित ताहाँ करेन नर्तन ॥
अनुवाद :- यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुरंत आंगन में महान संकीर्तन प्रारंभ कर दिया । इसमें बकरेश्वर पंडित प्रमुख नर्तक थे ।
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.48 )
और कीर्तन चलता रहा, वक्रेश्वर पंडित नाच रहे थे, वह मुख्य नृत्यकार थे चैतन्य महाप्रभु के लीलाओं में । और उनके साथ सभी नृत्य कर रहे थे लेकिन यहां पर मुख्यतः बक्रेश्वर पंडित का नाम लिखित है ।
स्वरूप -गोसाञि आदि यत प्रभुर गण ।
हरिदासे बेड़ि’ करे नाम-संकीर्तना ॥
अनुवाद :- स्वरूप दामोदर गोस्वामी इत्यादि श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों ने हरिदास ठाकुर को घेर लिया और संकीर्तन प्रारंभ कर दिया ।
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.49 )
रामानन्द, सार्वभौम, सबार अग्रेते ।
हरिदासेर गुण प्रभु लागिला कहिते ॥
अनुवाद :- रामानंद राय तथा सार्वभौम भट्टाचार्य जैसे सारे महान भक्तों के समक्ष श्री चैतन्य महाप्रभु हरिदास ठाकुर के पवित्र गुणों का वर्णन करने लगे ।
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.50)
और अचानक से चैतन्य महाप्रभु हरिदास ठाकुर के महिमा ओं के गुणगान करने लगे । महाप्रभु अपने गुरुदेव की बात गुणगान करने लगे । नाम आचार्य हरिदास ठाकुर के गुणगान करने लगे महाप्रभु खुद और सभी एकत्रित भक्तों ने इसको बहुत ध्यान पूर्वक श्रवण कर रहे थे ।
हरिदासेर गुण कहिते प्रभु ह- इला पंचमुख ।
कहिते कहिते प्रभूर बाड़े महा – सुख ॥
अनुवाद :- जब श्री चैतन्य महाप्रभु हरिदास ठाकुर के दिव्य गुणों का वर्णन करने लगे, तो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उनके पांच मुख हो । उन्होंने जितना ही अधिक वर्णन किया, कुल का सुख उतना ही बढ़ता गया ।
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.51)
इतना ही महाप्रभु हरिदास ठाकुर की महिमा का गुणगान कर रहे थे उतना ही वह आनंद प्राप्त कर रहे थे । ऐसा प्रतीत होता था कि महाप्रभु अपने पांच मुख से हरिदास ठाकुर का गुणगान कर रहे थे हालांकि हम नहीं कर सकते ,लेकिन चैतन्य महाप्रभु अपने पांच मुख से ऐसा कर रहे थे ।
और जब ऐसे हरिदास ठाकुर के महिलाओं को सुना तो वे बहुत चकित हो उठे और उन्होंने, कहा !!
नाम आचार्य श्री ला हरिदास ठाकुर की !!
नाम आचार्य श्री लहरी दास ठाकुर की (जय ) !!
हरिदासेर गुणे सबार विस्मित हय मन ।
सर्व – भक्त वन्दे हरिदासेर चरण ॥
अनुवाद :- हरिदास ठाकुर के दिव्य गुणों को सुनकर वहां उपस्थित सारे भक्त आश्चर्यचकित हो गए सबों ने हरिदास ठाकुर के चरण कमलों की बंदना की ।
(चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.52 )
वह सब आश्चर्यचकित हो गए नाम आचार्य हरिदास ठाकुर के महिमा को सुनकर । और उसके परिणाम स्वरूप सभी भक्तों ने हरिदास ठाकुर के कमल स्वरूप चरणों को वंदना करने लगे । और सभी प्रयास कर रहे थे कि उनके चरणों कमलों के धूल को पाने के लिए । यह दृश्य के उपरांत, यह लीलाएं किसी से अनछुपी नहीं रही इतिहास में और अभी इस दिन तक, यह एक अच्छा मौका है कि हम प्रातः काल में यानी अभी । और एक बात है कि हरिदास ठाकुर के सामने चैतन्य महाप्रभु नीचे बैठे हुए थे ।
उनके आंखें जैसे लग रहे थे भ्रमर की तरह और भगवान की आंखें कमल नयन जेसे, हरिदास ठाकुर के आंखें चैतन्य महाप्रभु के मुख पर स्थित था ।
स्व – हृदये आनि’ धरिल प्रभुर चरण ।
सर्व – भक्त पद – रेणु मस्तक – भूषण ॥
अनुवाद :- उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों को अपने हृदये पर धारण किया और तब समस्त भक्तों के चरणों की धूलि लेकर अपने मस्तक पर लगाई ।
( चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.54 )
और उसके बाद हरिदास ठाकुर ने अपने हाथ को चैतन्य महाप्रभु के चरण कमल को पकड़े और पास लाकर अपने ह्रदय में लगाए । वह प्रस्तुति कर रहे थे ।
और वह यह भी प्रयास कर रहे थे कि बाकी सब एकत्रित भक्तों के चरण की धूल को अपने सिर पर लगाने का I
‘श्री-कृष्ण-चैतन्य’ शब्द बलेन बार बार ।
प्रभु – प्रभु – माधुरी पिये, नेत्रे जल -धार ॥
अनुवाद :- उन्होंने श्री कृष्ण चैतन्य के पवित्र नाम का बारंबार उच्चारण किया | जब उन्होंने महाप्रभु के मुख की मधुरता का पान किया, तो उनके नेत्रों से लगातार अश्रु बहने लगे ।
( चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.55 )
रहा श्री कृष्ण चैतन्य उच्चारण कर रहे थे, श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु, श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु, श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु । वह भगवान के कमल सद्रुश मुख के सौंदर्य का पान कर रहे थें। वहां आंखें भगवान गौरांग के सौंदर्य ताको देख रहे थे, और चैतन्य महाप्रभु के कमल नेत्रों से अश्रु वह रहे थे। हरिदास ठाकुर के मुख व्यस्त था, श्री कृष्ण चैतन्य ! श्री कृष्ण चैतन्य ! और उनके हाथ व्यस्त थे भगवान के चरण कमलों को छूने में और वह प्रयास कर रहे थे कि भक्त के चरण कमल का धूल लेने की ।
आंखें व्यस्त थी देखने में, मुख व्यस्त था जप करने में मुख्यतः भगवान के शरीर का चरणों को छूने में ।
‘श्री-कृष्ण-चैतन्य’ शब्द करिते उच्चारण ।
नामेर सहित प्राण कैल उत्क्रामण ॥
अनुवाद :- श्री कृष्ण चैतन्य का नाम चरण करते-करते उन्होंने प्राण त्याग दिए और अपना शरीर छोड़ दिया ।
( चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.56 )
और अंत में वह कहें, ‘श्री कृष्ण चैतन्य’ ,उसके साथ उनका श्री कृष्ण चैतन्य नाम के साथ पूर्ण संबंध था और उनके आत्मा भी । और उन्होंने यह श्री कृष्ण चैतन्य कहा कर अपना शरीर त्याग दिया ।
महा – योगेश्वर – प्राय देखि’ स्वच्छन्दे मरण ।
‘ भीष्मेर निर्याण’ सबार ह- इल स्मरण ॥
अनुवाद :- हरिदास ठाकुर की अद्भुत इच्छा -मृत्यु देखकर हर व्यक्ति को भीष्म के मरण का स्मरण हो आया , क्योंकि यह मृत्यु महान योगी की मृत्यु जैसी थी ।
( चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.57 )
जब हरिदास ठाकुर जब देह त्याग कर दिए तब उसके बाद सभी ने पितामह भीष्म को याद करने लगे वह किस तरह कुरुक्षेत्र धाम में ऐसे ही श्री कृष्णा के सम्मुख दर्शन करते अपना शरीर त्यागा था, यहां पर सभी साक्षी थे हरिदास ठाकुर जगन्नाथपुरी में यह देह त्याग दिए थे ।
हरिदासेर तनु प्रभु कोले लैल उठाञा ।
अङ्गने नाचेन प्रभु प्रेमाविष्ट हञा ॥
अनुवाद :- महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर के शरीर को उठाकर अपनी गोद में ले लिया और वह अत्यंत प्रेमावेश मैं आकर आंगन में नृत्य करने लगे ।
( चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 11.59 )
और एक बात था कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने हाथों से हरिदास ठाकुर के वपु दिव्य शरीर उठाकर अपने हाथों में पकड़े थे और उसी के साथ वह नृत्य कर रहे थे ।और यह इतिहास हो गया । कैसे चैतन्य महाप्रभु ने अपने हाथों में हरिदास ठाकुर के शरीर को पकड़े हुए थे । और उनके पालकी समाधि को महोदधि ,समुद्र के तट पर लाये । वह पर उनको लाए और वहां के समुद्र के तट पर उनकी समाधि दी। नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर की समाधि की मंदिर, जो सभी गुड़िया वैष्णव है वहां पर जाने के लिए कभी भूल नहीं सकते ।
॥ जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद श्री अद्वित चंद्र जया गौर भक्त वृंद ! ॥
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ०७ अप्रैल २०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ८५२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल! अकिंचन भक्त, तुम्हारा भी स्वागत है। आज यह संख्या थोड़ा अधिक होने का कारण एकादशी भी हो सकती है लेकिन आज सभी के लिए एकादशी नहीं है। पंढरपुर में आज हमारे लिए एकादशी नहीं है। हम कल एकादशी मनाएंगे। कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से भी हम कल ही एकादशी मनाएंगे। एकादशी के दिन हम श्रवण, कीर्तन उत्सव मनाते हैं। इसलिए कल प्रातः कालीन सत्र के अंतर्गत मैं भी कीर्तन करूंगा। जप तो होगा ही, साथ में कीर्तन और कथा भी होगी लेकिन कल कथा अंग्रेजी में होगी। (आप थोड़ा अंग्रेजी भी सीख सकते हो) मैं सोच रहा था कि क्या संख्या में वृद्धि होने का कारण कोरोना वायरस तो नहीं है क्योंकि कोरोनावायरस भी बढ़ रहा है।
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।
अर्थ:- दुःख में हर इंसान ईश्वर को याद करता है लेकिन सुख में सब ईश्वर को भूल जाते हैं, अगर सुख में भी ईश्वर को याद करो तो दुःख कभी आएगा ही नहीं।
यह भी समस्या है। करोना का रोना पूरी दुनिया व भारत वासियों को परेशान कर रहा है। महाराष्ट्र तो टॉप में चल रहा है, ऐसे में परेशान जनता को भगवान ही याद आते हैं। यह भी हो सकता है कि आप में से भी कुछ भक्त जो इस जपा कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित हुए हो, वे दुखी हों अथवा दुख देख रहे हों। हरि! हरि! ‘यह मेरे साथ भी हो सकता है’ (वैसे कभी ऐसा सोचना भी चाहिए), नहीं तो लोग मर रहे हैं और मरने दो। हमें कोई परवाह नहीं है। उस मरण से हमारा कोई लेना देना नहीं है, अधिकतर ऐसा ही हमारा स्टैंड होता है। युधिष्ठिर महाराज ने भी ऐसा ही कहा था-
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्। शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्र्चर्यमतः परम्।।
( महाभारत वनपर्व ३१३.१२६)
अनुवाद:- इस संसार में प्रतिदिन अंसख्य जीव यमराज के लोक में जाते हैं; फिर भी जो बचे रहते हैं, वे यहाँ पर ही स्थायी पद की आकांक्षा करते हैं। भला इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है?
अहनि अर्थात दिन। आप “अहर्निशं सेवामहे’ जानते हो ना ? ‘अहर्निशं सेवामेह’ आपने यह भी कहीं पढ़ा होगा। शायद भारत डाक व तार विभाग का यही लोगो (ध्येय वाक्य है।अहर्निशं सेवामेह’ अर्थात हम आपकी दिन रात सेवा करेंगे।अह का बहुवचन अहनि हुआ अर्थात हर दिन। रात के बाद दिन के बाद दिन अर्थात अहनि। ( मैं आपको सारा शब्दार्थ बता रहा हूँ। लेकिन ऐसे भी समझना चाहिए)
लोग मर रहे हैं अथवा मारे जा रहे हैं लेकिन जो गए नहीं हैं अथवा बचे हुए हैं, कल रात कई सारों ने प्रस्थान किया था। आज प्रातः काल भी कुछ आईसीयू में हैं और कुछ कहां-कहां हैं। यह मृत्युलोक ही है, आज जब हमनें यह प्रातः कालीन जपा सत्र प्रारंभ किया था,तब उस समय थोड़ा लाइट इफेक्ट के लिए स्पेशल लाइट्स जलाई गई। लाइट जलाते ही उस समय लाखों कीड़े वहां पहुंच गए।( वे परेशान कर रहे थे इसीलिए हमने मास्क भी लगाया था। हम आपको मास्क लगाने का रहस्य बता रहे हैं) लेकिन हमारे एक माला का जप करते-करते एक लाख कीड़ों की मृत्यु हमारी आंखों के सामने हो गयी। हम आशा कर रहे थे कि जब हम जप कर रहे हैं तब शायद उन कीड़ों का कल्याण हुआ होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का कीर्तन सुनते सुनते वे बेचारे प्रस्थान कर गए। पांच मिनट के अंदर लगभग एक लाख अर्थात जितने लोग कल भारत में कोरोना वायरस से पॉजिटिव पाए गए थे, उतने ही जीव मेरे समक्ष पांच मिनट में समाप्त हो गए। तब मैं सोच रहा था कि हमारी अर्थात मनुष्य की दृष्टि में लाखों कीड़े- मकोड़े कुछ मिनटों में मर जाते हैं, और हम देखते भी हैं। वैसे ही जो देवता है जोकि अजर अमर होते हैं। (आप अमर तो समझते हो? लेकिन क्या कभी अजर के अर्थ को समझने का प्रयास किया। अजर जो जरा से संबंधित है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि। अजर अर्थात जो कभी बूढ़े नहीं होते।) वे अजर अमर रहते हैं। वे बूढ़े नहीं होते व बीमार भी नहीं होते। वे अमर रहते हैं। जब वे हम मनुष्यों को मरते हुए देखते हैं, तब उन देवताओं के यहां, 5 मिनटों में लाखों-करोड़ों मनुष्य ऐसे ही जान गंवाते दिखाई देते होंगे, जैसे हमारे समक्ष यह लाखों-करोड़ों कीड़े ऐसे ही मर जाते हैं। इसीलिए भी इस लोक अथवा पृथ्वी लोक अथवा इस त्रिभुवन का एक नाम मृत्यु लोक भी है। इस लोक का नाम ही मृत्यु लोक है क्योंकि हमें अधिकतर मरना ही होता है। कितने लोग मरते हैं? जितने लोग जन्म लेते हैं, उतने लोग ही मरते हैं।
तब डेथ रेट कितना है? यह डेथ रेट सौ प्रतिशत है। ऐसा नहीं है कि सौ लोगों ने जन्म लिया तो 50 लोग नहीं मर रहे हैं। ऐसा नहीं है।( तब नियम क्या है? ) भगवान ने नियम बनाया है। भगवान की सृष्टि में ऐसा नियम है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
( श्रीमद् भगवतगीता २.२७)
अनुवाद:- जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु निश्चित है। यह मृत्यु होती ही रहती है। हरि हरि!
इस जगत को मृत्यु लोक भी कहते हैं
। किसी की मृत्यु हुई तो यह कोई अचरज वाली बात नहीं है। (हम मरने वाले हैं या नहीं?आप ने जन्म लिया है?) आपने जन्म लिया है इसीलिए तो यहां बैठे हो अर्थात जन्म लेकर बैठे हो लेकिन नियम क्या है?
‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु’ -जन्म लिया है, तब मरना ही होगा। हमारा मरण निश्चित है। हरि! हरि! लेकिन हम मरने की तैयारी नहीं करते। हम यह जो जप अथवा भक्ति करते हैं, यह मरने की तैयारी ही है। हरि! हरि! जैसे आर्ट ऑफ लिविंग (जीने की कला) होती है, वैसे ही आर्ट ऑफ डाईंग ( मरने की कला) भी होती है। साधु, शास्त्र, आचार्य हमें कौन सी कला अथवा शास्त्र सिखाते हैं? हम कह सकते हैं कि वे हमें यह मरने की कला अथवा विज्ञान सिखाते हैं। यह मरने की कला अथवा विज्ञान है। हरि! हरि!
स्वीडन में एक किताब प्रकाशित हुई थी जिसका टाइटल था- आर्ट ऑफ कॉमेटिंग सुसाइड (आत्महत्या करने की कला)। उस देश में लोग आत्महत्या करना चाहते थे।इसलिए किसी ने कई तरीके सोचे औऱ लिखकर उसको प्रकाशित किया।’आपको दिमाग लड़ाने की आवश्यकता नहीं है।आप आत्महत्या करना चाहते हो तो यह पुस्तक लो। यह किताब तुम्हारे लिए मैन्युअल है। उसको पढ़ो और कोई एक तरीका अपनाओ।’यह मरने का दूसरा तरीका है लेकिन जब राजा परीक्षित का मरना निश्चित ही हो गया था। तब तिथि भी निश्चित हो गई थी कि आप सात दिन में मरने वाले हो। तब उस समय सभी महात्मा, राजर्षि देवऋषि एकत्रित हुए। सभी सोच रहे थे कि राजा परीक्षित को तैयार करना है। राजा परीक्षित को अब तैयारी करनी होगी।
एतावान् साङ्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया। जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायण स्मृतिः।।
( श्रीमद् भागवतम् २.१.६)
अनुवाद्:- पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति के अभ्यास से या स्वधर्म का भलीभांति पालन करने से मानव जीवन की जो सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान् का स्मरण करना।
अद्वैत आचार्य? हरिबोल! स्लीपिंग इज आल्सो डाईंग( सोना भी मृत्यु ही है) स्लीपिंग इज ऑलमोस्ट लाइक डाईंग।( सोना भी मृत्यु के समान है) सोना लगभग मरण ही है। जब हम मरने की कला की चर्चा कर रहे हैं, तब इस चर्चा के बीच कुछ मर रहे हैं अर्थात सो रहे हैं मतलब मर ही रहे हैं। ऐसे में इस कला को कैसे सीखोगे? कैसे तैयारी करोगे? तैयारी किए बिना मरना, पशु जैसा मरना है। कैट्स एंड डॉग्स भी बिना तैयारी किए मरते हैं लेकिन हमें मनुष्य जीवन में तैयारी करनी चाहिए। हम उस क्षण के लिए तैयार रहना चाहिए।
शुकदेव गोस्वामी भी वहीं पहुँच गए।
अगले सात दिन में जो कथा हुई, उसका उद्देश्य अन्ते नारायण स्मृतिः अर्थात अन्त काल में नारायण की स्मृति अथवा कृष्ण की स्मृति हो। अन्त में नारायण की स्मृति हुई ।अंग्रेजी में कहते हैं कि आल इज वैल, दैट एंड्स वेल
अंत ठीक है तो सब कुछ ठीक है। यदि अंत ठीक नहीं हुआ तब आपके सारे प्रयास बेकार गए। आप असफल हुए। हरि! हरि!
(सुन रही हो ना? बीच में झपकी लग रही है। मैं एक दो लोगों के सैम्पल देख रहा हूँ। ९०० लोगों में से एक स्क्रीन पर एक सो रहा है मतलब कई सारे सोते होंगे।)
जो सोएगा, वो खोएगा। जानते तो हो, लेकिन हम जानते हुए भी नहीं समझते।
देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि। तेषां प्रमतो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति।।
( श्रीमद् भागवतम् २.१.४)
अनुवाद:- आत्मतत्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते, क्योंकि वे शरीर, बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यम्भावी अवश्यभावी विनाश (मृत्यु) को नहीं देख पाते।
पश्यन्नपि न पश्यति अर्थात हम देखते हुए भी देखते या समझते नहीं हैं। ( संस्कृत का श्लोक आ गया) हमनें सुना तो होता है, जो सोएगा वो खोएगा लेकिन फिर भी हम सोते रहते ही हैं। पश्यन्नपि न पश्यति का कारण क्या है? ‘तेषां प्रमतो निधनं’ अर्थात हम इससे या उससे इतने अधिक आसक्त होते हैं। इसलिए मराठी में कहावत है कडते पर वर्त नहि। ऐसे ही ‘पश्यन्नपि न पश्यति’हरि! हरि!
शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित की मदद की जिससे वे मृत्यु के लिए तैयार हो जाए।
राजा परीक्षित यह भी कह रहे थे कि मेरे पास तो बहुत कम समय है,केवल सात ही दिन बचे है। तब उनको बताया गया कि सात दिन तो बहुत होते हैं।
शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को खटवांग मुनि के विषय में बताया( जिसका वर्णन श्रीमद् भागवतम् में भी आता है)
खटवांग मुनि के पास कितना समय था? खटवांग मुनि के पास कुछ ही क्षण थे। कुछ ही क्षणों में वे ऐसे गंभीर बन गए, शायद उनके पास एक प्रहर की अवधि थी जोकि कुछ मिनटों अथवा आधे घंटे का होती है। इतने कम समय में उन्होंने कृष्णभावना का अभ्यास क्या किया होगा? उन्होंने उसकी फ्रिकवेंसी( आवृत्ति) इंटेंसिटी(तीव्रता) को बढ़ा दिया। (इस पर विचार करो) उन्होंने ऐसी तीव्रता के साथ अपनी साधना श्रवण, कीर्तन, स्मरण को अपना लिया अथवा बढ़ा दिया। जैसा कि भगवान् कृष्ण ने भी कहा है
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरषं परम्।।
( श्रीमद् भागवतम २.३.१०)
अनुवाद:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे समस्त भौतिक इच्छाओं से युक्त हो या निष्काम हो अथवा मुक्ति का इच्छुक हो, उसे चाहिए कि वह सभी प्रकार से परम् पूर्ण भगवान् की पूजा करे।
भगवान् की भक्ति में तीव्रता होनी चाहिए।तीव्रेण भक्तियोगेन। ढीला ढाला काम नहीं,तीव्रेण अर्थात तीव्रता होनी चाहिए। जैसे पुलिस या आर्मी के लोग इंटरवल अथवा लंच ब्रेक या स्पेस आउट होने पर, फालतू समय गंवा रहे होते हैं, तब उनका कमांडर उनको कहता है कि सावधान! तब उस आर्मी का ध्यान जोकि इधर उधर था, वे फिर केंद्रित हो जाता है और अपना बेल्ट आदि टाइट कर आदेश की प्रतीक्षा करते हैं कि आपका क्या आदेश है? वे आदेश की प्रतीक्षा करेंगे अर्थात वे ध्यान केंद्रित हो जाएंगे। ऐसे ही ‘तीव्रेण भक्तियोगेन’ तीव्रता और फ्रीक्वेंसी( आवृत्ति) के साथ भगवान् की सेवा करनी होती है
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे। अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति।
( श्रीमद्भागवतगम १.२.६)
अनुवाद:- सम्पूर्ण मानवता के लिए परम् वृत्ति ( धर्म) वही है, जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा- भक्ति प्राप्त कर सकें। ऐसी भक्ति अकारण तथा अखंड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके।
भागवत कहता है ‘भक्तिरधोक्षजे’ भगवान का एक नाम अधोक्षज है। उनकी भक्ति करना। कैसी भक्ति करना? अहैतुकि अर्थात जिसमें कोई भौतिक कामना ना हो।
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
( श्री श्रीशिक्षाष्टकम श्लोक संख्या ४)
अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ।
अहैतुकि मतलब जिसमें धन, सुंदरी आदि की कोई कामना ना हो। अप्रतिहता मतलब
अखंड। कुंती महारानी ने गंगोहम शब्द का प्रयोग किया है। हरि! हरि! राजा परीक्षित वैसी ही तैयारी कर रहे थे। जब वे ऐसा अभ्यास करते हैं, तब क्या होता है?
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥६॥
( श्रीमद् भगवत गीता ८.६)
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
भगवत गीता में बड़े ही महत्वपूर्ण शब्द हैं। कृष्ण कह रहे हैं- यं यं वापि स्मरन्भावं अर्थात यं यं मतलब जो जो। वैसे तं तं भी होता है तं तं का अर्थ वह। स्मरन्भावं- हमारा जैसा भाव होगा अथवा हम जिस भाव में स्मरण करेंगे अर्थात जब इस कलेवरं अथवा अंत का समय आता है, उस समय हमारे जो भाव होते हैं, तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः अर्थात उसी के अनुसार हमारा भविष्य निश्चित होता है। अगला जन्म निश्चित ही है । जन्म है तो मृत्यु है, मृत्यु है तो फिर जन्म है। यदि जन्म नहीं लेना चाहते हो तो ऐसी तैयारी करनी होगी जैसा कि कृष्ण ने कहा है-
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ४.९)
अनुवाद:-
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
ऐसी व्यवस्था है अथवा
मृत्यु के समय हमारे जो भाव रहेंगे भगवान कहते हैं वह तुम्हारा अगला जन्म निर्धारित करेंगे।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १४.१८)
अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं
यदि तुम्हारे सात्विक भाव और विचार होंगे तो स्वर्ग जाओगें अन्यथा रुक जाओ, पुनः मृत्यु लोक में पहुंचोगें। मृत्यु के समय के भाव व विचार बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
एक परिवार, शंभू नाथ का पुजारी था। उस परिवार में पिताश्री की जान जा रही थी, उनकी एक-दो सांस ही बची थी। सभी परिवार के सदस्य इकट्ठे हो जाते हैं। उनके पांच पुत्र थे और वे सब भी वहां पहुंच गए और पिताजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि पिताजी, पिताजी, भोला! भोला! कहिए, शिव भोला कहिए।
डैडी!! डैडी! भोला! भोला! कहो, भोला तो कहिए लेकिन पिताजी ने भोला कहने की बजाय कोका कोला कहा। तत्पश्चात वह कहां गए होंगे? वह कोका कोला लोक गए होंगे। कोका कोला लोक कौन सा है? अमेरिका, कोका कोला लोक है। यह समस्या है। हमें तैयारी करनी है जिससे अंतिम क्षणों में ..
इसीलिए वह गीत भी है।
इतना तो करना स्वामी,
जब प्राण तन से निकले,
गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले। वैसी तैयारी करनी होगी। हमारे जपा रिट्रीट करने वाले अर्थात जब हमारी जपा रिट्रीट होती है तब कभी-कभी जपा रिट्रीट को प्रस्तुत करने वाले प्रस्तुतकर्ता यह भी कहते हैं कि हे जप कर्ता भक्तों, आप कल्पना कीजिए कि आप मृत्यु का सामना कर रहे हो’ कल्पना कीजिए कि मृत्यु आपकी ओर दौड़कर आ ही रही है और कभी भी पहुंच सकती है। वैसे ऐसा संभव ही है। उस स्थिति में आप क्या करोगे? कल्पना कीजिए और फिर तैयार भी रहो। अजामिल ने मृत्यु को देखा को था। उसने मृत्यु को देखा मतलब यमदूतों को देखा था। तब उस बेचारे ने नारायण! नारायण! कहा। भगवान् ने उसको क्रेडिट दे दिया जबकि वह अपने पुत्र नारायण को पुकार रहा था। वह सोच रहा था कि मैं अपने पुत्र नारायण को नारायण नारायण पुकार रहा हूँ लेकिन नारायण किसका नाम है? बताइए? नारायण किसका नाम है? बहुत ही सरल प्रश्न है। शायद प्रश्न थोड़ा कठिन हो सकता है लेकिन उत्तर बड़ा ही आसान है। नारायण किसका नाम है? महालक्ष्मी! बताओ, नारायण किसका नाम है? नारायण का नाम नारायण हैं। केवल नारायण ही नारायण है। कृष्ण, किसका नाम है, केवल कृष्ण का नाम कृष्ण है। बाकी सब कृष्ण दास या नारायण दास है। भगवान ने उसको क्रेडिट दे दिया और उसने नामाभास में भगवान को पुकारा। तब बेचारा कम से कम मुक्त तो हुआ। भक्त तो नहीं हुआ और न ही उसे वैकुण्ठ ले कर गए थे। लेकिन वह मुक्त हुआ, वह जीवन भर नारायण आ जाओ, नारायण बैठो, नारायण भोजन करो, नारायण तुम्हारे लिए खिलौने हैं… नारायण, नारायण ऐसा कहता रहा। यह भी फायदे हैं। अपने परिवार के सदस्यों को नारायण या गिरिधारी या पांडुरंग ऐसे कुछ नाम देने चाहिए लेकिन आजकल चिंकू पिंकू ऐसे नाम चलते रहते हैं। किसी से पूछो बेटे का नाम क्या है? चिंकू! इस प्रकार चिंकू पिंकू यह सब बेकार के नाम हैं। इसका कोई फायदा नहीं है हमारी संस्कृति में ऐसी व्यवस्था तो है जिसका कोई फायदा उठाएगा। वह अपने बेटे और बेटियों के नाम भगवान के नाम पर ही रखेगा। हरि! हरि! जपा रिट्रीट में जप करने वाले को कभी-कभी ऐसा होमवर्क दिया जाता है और कहा जाता है कि आप कल्पना करो कि आप मृत्यु को सामना कर रहे हो, आप उस स्थिति का सामना कैसे करोगे अथवा आप कैसी तैयारी करोगे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहने की बजाय आप डॉक्टर डॉक्टर कहोगे या बचाओ बचाओ कहोगे। जैसे प्रभुपाद के समय से यह चर्चा हो रही है- किसी ने कहा कि चैंट चैंट चैंट( जप करो, जप करो, जप करो) कहो। तब दूसरे व्यक्ति ने कहा कैंट,कैंट, कैंट( नहीं, नहीं, नहीं) एक निवेदन कर रहा है चैंट चैंट चैंट( जप करो, जप करो, जप करो) लेकिन दूसरा व्यक्ति कह रहा है कैंट,कैंट, कैंट( नहीं, नहीं, नहीं), कैंट(नहीं, नहीं, नहीं) अरे बाबा तुमने कैंट कहने में इतना शक्ति, सामर्थ्य और समय भी व्यतीत कर दिया, उतने समय में तुम चैंट चैंट चैंट( जप , जप , जप) कह सकते थे या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कह सकते थे। हरि! हरि! सभी अभ्यास करो। यह अभ्यास तो वही है।
मनो मध्ये स्थितो मंत्रौ मन्त्र मध्ये स्थितं मनः मनो मन्त्र समा युक्तम एतेहि जपा लक्षणम।
(आपको मनो मध्ये याद है? कल आपको गृह कार्य दिया था। आपअभी नोटबुक खोल रहे हो? प्रेम मंजरी कल का मंत्र क्या था? क्या तुम बिना अपने नोट्स देखे बता सकती हो? ओके, आधे तक पुंहच गयी) ऐसे ही हनुमान ने कहा था कि हम लंका तो जा सकते हैं लेकिन हम आधा रास्ता तय कर सकते हैं, कोई कह सकता है कि मैं रास्ते का 70% जा सकता हूं। मनो मध्ये स्थितो मंत्रौ अर्थात मन में मंत्र को स्थिर करो। इसे थोड़ा उल्टा करके भी कहना है वह मनो मध्ये था,
मन्त्र मध्ये स्थितं मनः अर्थात मन को मंत्र में स्थिर करो या फिर मंत्र को मन में स्थिर करो। मनो मन्त्र समा युक्तम, दोनों का एक दूसरे के साथ मिलन या मिश्रण करो या एक में दूसरे को, दूसरे में एक को या एतेहि जपा लक्षणम। यही जप का लक्षण है। जप के समय यही करना होता है। बड़ा ही संक्षिप्त व सूत्र रूप में जप का लक्षण बताया है। जप के समय ऐसा अभ्यास करो। यह तैयारी है, यह कला भी है। यह शास्त्र भी है। आर्ट एंड साइंस ऑफ डाइंग।
हरि! हरि! ठीक है यहां रुक जाते हैं।
हरे कृष्ण!
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
6 एप्रिल 2021
787 स्थानो से आज जप हो रहा है । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
हरि हरि बोल गौर हरी बोल ।
मुकुंद माधव गोविंद बोल।। हरि हरि बोल गौर हरि बोल।
हरि बोल । इस जप सेशन में आप सभी का स्वागत है , और जपा सेशन में ही नहीं जप चर्चा में भी स्वागत है । वॉल्क द टॉक , ऐसा भी कहते हैं । जैसे कहते हो वैसे चलते रहो , जैसे कहते हो वैसे ही चलो , वॉक द टॉक । हम पहले जप करते हैं फिर चर्चा होती है । ऐसा हो सकता है वॉल्क द टॉक , आज का टॉक भी कल का वॉल्क है । जैसे बोलते हो , जैसे सुनते हो वैसे ही करो । बोले तैसा चाले त्याची वंदावी पाऊले । ऐसा मराठी में है । व्यक्ति जैसा बोलता है वैसा ही चलता है ऐसे व्यक्ति का अनुसरण करो , ऐसे व्यक्ति का अनुयाई बनो , ऐसे व्यक्ति को अपना हीरो , नेता या आदर्श बनाओ । किसको ? बोले तैसा चाले । जैसा बोलता है वैसा ही चलता है , त्याची वंदावी पाऊले उनके चरणों का आश्रय लो , उनके चरणों का अनुगमन करो , अनुगामी बनो । वह व्यक्ति , वह व्यक्तित्व अभी विद्यमान नही है । ध्यानचंद्र गोस्वामी लगभग श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के समकालीन रहे , उनका एक मंत्र , उनका विचार व्यक्त करने वाला ही यह मंत्र है । श्री कृष्णा चैतन्य स्वामी महाराज ने मेरे साथ अभी-अभी व्हाट्सएप मैसेज पर यह मंत्र शेयर किया है । श्री ध्यानचंद्र गोस्वामी महाराज का एक वचन जो हमारे जप के लिए उपयोगी है , और जप के सबंधित हैं , वह जप के लक्षण कह रहे हैं । मैं उसे अभी कहने वाला हूं , पढ़ कर सुनाने वाला हूं । छोटा ही है , यथासंभव आप अगर आप श्रुतिधर हो तो आपको लिखने की आवश्यकता नहीं है , यदी श्रुतीधर हो तो , किंतु कलयुग में तो श्रुति धर विरला ही होते हैं । आप इसको नोंद कर के रखो , लिख लो । यह मंत्र है या कहो कि सूत्र ही है मतलब यह संक्षिप्त है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण बात है इसमें काफी तथ्य सत्य ठुस ठुस के भरा हुआ है , यही सत्य है । गौर गोविंद चरण स्मरण पद्धति नामक ध्यानचंद्र गोस्वामी महाराज का एक ग्रंथ है । उसमें से 64 वा यह वचन है । उन्होणे इस प्रकार रचना कि हैं । आप तैयार हो ? परमकरुना तैयार हैं । सुनने के लिए तैयार हो ?या लिखने के लिए तैयार हो ? सुनने के लिए यथासंभव लिखने के लिए तैय्यार रहो ।
मनो मध्ये स्थितो मंत्र क्या सुना ? मनो मध्ये स्थितो मंत्र ठीक है , आगे बढते है ।
मंत्र मध्ये स्थितं मन तीसरा पद है ,
मनो मंत्र समायुक्तम येतधी जप लक्षण । इस संक्षिप्त रूप मे बहुत कुछ , सब कुछ उन्होंने कहा या लिखा है । बहुत अच्छा किसी ने बहुत अच्छे से चैट में भेजा है , आप भी देख सकते हो किसी ने लिखा है उसे देख कर आप भी लिख सकते हो या फिर किसी के साथ बाट सकते हो ।
मनो मध्ये स्थितो मंत्र
मंत्र मध्ये स्थितं मन
मनो मंत्र समायुक्तम येतधी जप लक्षण ।
इसका भाषांतर है , वैसे शब्दार्थ आसान है , शब्दार्थ का ही भाषांतर के बाद भावार्थ ऐसा क्रम होता है। पहले शब्दार्थ देखते है , मनो मध्ये मतलब मन का संधी के नियम नुसार मनो हुआ ।डरना नहीं मनो मतलब कोई और चीज नहीं है मनो मन ही है । मनमध्ये मध्ये तो समझते हो मन में मनामध्ये , स्थित मंत्र इसको समझिए । स्थित मतलब स्थित होना मंत्र मतलब मंत्र । मंत्र को मन में स्थिर करो और अब बारी है मंत्र की मंत्र मध्ये स्थितम मन मंत्र में पहले मन में था मन में मंत्र को स्थित करो अब वह कह रहे है मंत्र मध्ये स्थित मन मंत्र में मन को स्थित करो । मनो मंत्र समायुक्त मतलब मन और मंत्र समायुक्तम उसको समरस करो उसका संगम होने दो , उसका मिलन होने दो , उसका मिश्रण होने दो समायुक्तम , समायुक्तम कहो या मन मंत्र से युक्त और मंत्र मन युक्त । मन में मंत्र , मंत्र में मन । ऐसे स्थिति को प्राप्त करो जहां आप पहचान ही नहीं पाओगे यह मंत्र कौन सा है ? और मन कौन सा है ? येतधी जप लक्षणम और यही तो जप का लक्षण है । लक्षण समझते हो ? लक्षण , जैसा कोरोनावायरस के लक्षण होते हैं , हर चीज का लक्षण होता है या उसके कुछ गुणधर्म होते है । येतधी जप लक्षण हम प्रतिदिन जप करते हैं । जिसको हम जपयोग कहते हैं जपयोग , जप के माध्यम से योग , योग मतलब लिंक या संबंध स्थापित करना इसको ही योग कहते हैं । संबंध किसके साथ स्थापित करना है ? कृष्ण के साथ अपना संबंध स्थापित करना है । अपना मतलब किसका ? आत्मा का संबंध परमात्मा या भगवान के साथ स्थापित करना है । आत्मा तो आत्मा ही है जो जप करता है , और भगवान है हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
यह क्या है नहीं कहना चाहिए , यह कौन है कहना चाहिए । क्या है मतलब कोई निर्जीव चीज है तो हम कहते हैं यह क्या है ? यह क्या है ? लेकिन यहां यह पूछना है कि यह कौन है ? यह कौन है ? क्योंकि यह हरे कृष्ण महामंत्र भगवान है । हरे कृष्ण हरे कृष्ण भगवान है । हरी हरी। यह शब्दार्थ हुआ , यहां अंग्रेजी में अनुवाद भी लिखा है । अब तक आप उसको भाषांतर स्वयं कर सकते हो या आपने मन ही मन में कर भी दिया होगा । मंत्रा फर्मली सिचुएटेड इन माइंड , एक भाग है मंत्र मन मे स्थित करो । माईंड फर्मली सीचीयुटेड इन मंत्रा । और मन मंत्र मे स्थापित है । सच अ सिमलेस काँनेकशन ऑफ माइंड एंड मंत्र इज अ स्टेट ऑफ आयडियल जप । इन दोनो को संस्कृत में कहा है समायुक्तम । मन और मंत्र समायुक्तम , युक्त भी कहते हैं । भक्ति युक्त या भय युक्त या इससे युक्त , उससे युक्त । मन मंत्र युक्त है और मंत्र मन युक्त है ऐसा भी है मतलब समायुक्त हुआ और ऐसा होना ही येतधी जप लक्षण जप का लक्षण यही है ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥
महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में , अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने – बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन , को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श – इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में , अपनी घ्राण – इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में , अपने सिर को भगवान् के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा करने में लगाया । निस्सन्देह , महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा । वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे । भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त होने की यही विधि है ।
वैसे राजा कुरुशेखर इन्होंने यह प्रार्थना की है । आप थक गए क्या? हरि हरि । क्या प्रार्थना कर रहे हैं ? भगवान के चरण कमल मेरे मन में स्थित हो , भगवान के चरण मन में स्थित करना मतलब क्या करना ? या फिर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे इस महामंत्र को मन में स्थित करना मतलब क्या करना? सोचो तो सही , मन में मंत्रों को कैसे स्थित करोगे ? यह समझने के लिए मन का जो कार्य हैं। अपने मन का जो विचार है मन क्या-क्या करता है यहां श्रील प्रभुपाद सब समय कहते गए लिखा भी है, थिंकिंग फीलिंग वीलिंग ये मन के कार्य है तो मन सोचता है मन क्या करता है सोचना मन का कार्य होता है। तो मंत्र को मन में स्थिर करना मतलब क्या करोगे मंत्र के बारे में सोचो मंत्र के बारे में सोचो और फिर मंत्र के बारे में सोचो मतलब क्या भगवान के बारे में सोचो।
हरि हरि…….
सो माधुरी ना मम चित्त आकर्षय यह आपको पहले हम ने सिखाया है उस पर प्रेजेंटेशन दिया है यह सब हो चुका है हरनाम हरनाम मतलब क्या कितने नाम है मंत्र में 16 है 32 अक्षर है 16 नाम है।
कलिसंतरणोपनिषद् ५-६
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥५ ॥ इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मषनाशनं । नातः परतरोपायः सर्व वेदेषु दृश्यते ॥६ ॥
अनुवाद:- सोलह नाम – हरे कृष्ण , हरे कृष्ण , कृष्ण कृष्ण , हरे हरे । हरे राम , हरे राम , राम राम , हरे हरे विशेष रूप से कलि के कल्मषों का नाश करने वाले हैं । कलि के दोषों से मुक्ति पाने के लिए इन सोलह नामों के कीर्तन के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है । समस्त वैदिक साहित्य में खोजने के पश्चात इस युग के लिए , हरे कृष्ण के कीर्तन से अधिक उत्कृष्ट कोई अन्य धर्म – विधि नहीं मिलेगी । ( श्री ब्रह्मा श्री नारद को उपदेश देते हैं । )
तो हर नाम के उच्चारण के समय कैसा विचार होना चाहिए इसको भी सिखाया है गोपाल गुरु गोस्वामी ने उनकी व्याख्या हम कई बार पढ़े और सुने है।
इस प्रकार के विचार हर नाम के साथ यह विचार है यह एक मार्गदर्शक के रुप में उन्होंने दिया है। मम सेवा योग्य कुरु मुझे अपने सेवा के लिए योग्य बनाओ ऐसा विचार हम जब जप कर रहे हैं तो श्रील प्रभुपाद अपनी ओर से सब भाष्य कहते भी हैं और साथ ही यहां लिखा भी है। महामंत्र का जप कर रहे तो हम प्रार्थना कर रहे हैं यह नाम ही भगवान है और हम उन्हें प्रार्थना कर रहे हैं मुझे सेवा में लगाई ये। मैं आपका हूं हे राधे, हे कृष्ण सेवा योग्यं कुरु मतलब मुझे सेवा में लगाई ये यह विचार है मुझे सेवा में लगाई ये यह जो विचार हैं ऐसा अगर हम विचार कर रहे हैं और ऐसे विचारों में अगर हम तल्लीन है तो हमने क्या किया महामंत्र को मन में स्थिर किया महामंत्र को मन में बिठाया और यह अभ्यास है। ऐसे ही कुछ फटाफट नहीं बैठेगा क्योंकि मन चंचल है मन में कई सारे अविचार भी पहले से ही स्थित है। और उसके अनुसार मन अपना काम धंधा करेगा मन दौड़ेगा……
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ ||
अनुवाद:- हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |
कृष्ण ने कहा है भगवत गीता के छटवें अध्याय को आपको पढ़ना चाहिए भगवत गीता का जो छठवां अध्याय है उसका नाम ध्यान योग भी है वैसे उसमें अष्टांग योग की बातें हैं या हठयोग की बातें हैं उसमें मन को समझाया है मन क्या है मन के क्या लक्षण है उसको मानस शास्त्र ही कहो आप भगवान से सीख सकते हो भगवत गीता के छठे अध्याय में मन को नियंत्रित करना है और मन में मंत्रों को मनो मध्ये स्थितो तो उसको स्थित करना है मन को समझना होगा मन का अभ्यास करना होगा उसको समझना होगा तो छठवां अध्याय 1 स्थान है जहां हम मन को समझ सकते हैं ऐसे समय तो हो गया ठीक है तो मन में मंत्र को बिठाना है झट से समझना होगा मंत्र ही भगवान है।
राजा कुलशेकर ऐसे कह रहे हैं कि मैं अपने मन में भगवान के चरण कमलों का स्मरण करना चाहता हूं या फिर श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ रथ यात्रा के समय जगन्नाथ से कहा करते थे जगन्नाथ से उनका संबोधन हो रहा है या संवाद हो रहा है और चैतन्य महाप्रभु कर रहे……
अन्येर हृदय -मन , मोर मन वृन्दावन , ‘ मने ‘ वने एक करि ‘ जानि । ताहाँ तोमार पद – द्वय , कराह यदि उदय , तबे तोमार पूर्ण कृपा मानि ॥१३७ ॥
अनुवाद:- श्रीमती राधारानी के भाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा , “ अधिकांश लोगों के लिए मन तथा हृदय एक होते हैं , किन्तु मेरा मन कभी भी वृन्दावन से अलग नहीं होता , अतएव मैं अपने मन और वृन्दावन को एक मानती हूँ । मेरा मन पहले से वृन्दावन है और चूँकि आप वृन्दावन को पसन्द करते हैं , तो क्या आप अपने चरणकमल वहाँ रखेंगे ? इसे मैं आपकी पूर्ण कृपा मानूंगी ।
मेरा मन ही वृंदावन है ऐसे मन रूपी वृंदावन में बसिए रहीये हे प्रभु ऐसे मन और वृंदावन में कोई भेद नहीं रहा।
मन बन गया फिर कृष्णभावनाभावित, मंत्रमुग्ध तो मन में मंत्र को स्थिर करना मतलब ही भगवान को स्थिर करना…..
हरि हरि। मन में भगवान के नाम को मंत्र को स्थिर करना या मंत्र में मन को स्थिर करना यही विधि है इस्कॉन की….
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
अर्थ:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है
चेतोदर्पणमार्जनं जो कहते हैं चेतना का दर्पण का मार्जन हम करते हैं जो भी धूल जमी हुई है चेतना के दर्पण पर चेतना के आईने पर हमारे उस पर कई सारे धूल कचरा और मन में कचरा ही कचरा विचार है सारी माया है।
माया से ही भर गया है मन हरि हरि तो उसके स्थान पर जो कचरा है उसको साफ करते जाना है और यह कृष्ण सूर्य सम वैसे ही होता हैं चेतोदर्पण मार्जनम चेतना का मार्जन और हम जब चेतना कहते हैं अंतकरण कहते हैं उसके अंतर्गत हमारा यह सुष्म शरीर आता है मन,बुद्धि,अहंकार इसे हमारा अंतकरण बना हुआ है। जो ढक लेती है आत्मा को आच्छादित कर लेती है।तब हरे कृष्ण महामंत्र ध्यान से जप से हम मंत्र को भगवान को इस मन के पास लाते हैं मन में जो भी कचरा है यह तो होता ही है ना जब सूर्य उदित होता है तो उसके किरणों से कई सारे गंदे स्थान है जहां मल मूत्रो का विसर्जन हो या क्या-क्या नहीं होता वह सब सूर्य देव या सूर्य की किरणें साफ़ बना देती है स्वच्छ बना देती है यही सूर्य की किरण है इसी प्रकार जब हम पुन्हा पुन्हा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस महामंत्र को ध्यान पूर्वक सुनते हैं।
हम ध्यान करने का प्रयास करते हैं मतलब विचार करते हैं और मन का जो कार्य है कार्य ही हम कह रहे थे विचार करना है फिर हम सोचते हैं फिर कुछ भाव उत्पन्न होते हैं वह भय का भी भाव हो सकता है, या काम वासना के भाव उत्पन्न हो सकते हैं कई प्रकार के भाव भावना थिंकिंग फीलिंग वीलिंग फिर कुछ इच्छा हो जाती है। हम अधिक सोचते हैं वह भाव अधिक अधिक उदित होते हैं और भावना भावना परिणत होते हैं इच्छा में आप की तीव्र इच्छा हो जाती है फिर वह इच्छा पूर्ति के लिए आप तैयार हो जाते हो…….
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ६२ ||
अनुवाद:- इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |
इसको भी भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के दूसरे अध्याय में समझाएं संसार के विषयों का ध्यान करते हैं ध्यान कोन नहीं करता संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है कि जो ध्यान नहीं करता हर कोई ध्यान करता है। लेकिन प्रश्न यह है कि अंतर यह हो सकता है कि यह समूह माया का ध्यान कर सकती है और यह समूह कृष्ण का ध्यान कर सकती है और तीसरा समुदाय हैं नही, यह दो ही है एक तो माया का ध्यान करते रहो मरते रहो या फिर कृष्ण का ध्यान करो….
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
अथवा भगवान की धाम में चले जाओ जो माया का ध्यान है माया के विषयों का ध्यान करने वालों का क्या हाल होता है….
सङगात्सञ्जायते जिन विषयों का ध्यान करेंगे उसी में आसक्त होंगे।
और सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते और फिर कामना इच्छा थिंकिंग फीलिंग वीलिंग कुछ-कुछ बहुत तीव्र इच्छा तो यह होते रहता है या मन में चलते रहता है थिंकिंग फीलिंग वीलिंग तो थिंकिंग के स्तर पर ही यह मन सोचता रहता है सोचता रहता है उसी स्तर पर ही वहां भगवान के नाम का ध्यान जप के समय मतलब भगवान का ही ध्यान और फिर भगवान के ही नाम रूप गुण लीला का ध्यान हम करेंगे तो फिर हमें हमने मंत्र को मन में स्थिर किया मतलब भगवान को ही मन में स्थिर किया मतलब यह मन पहले का मन नहीं रहा मायावी मन नहीं रहा।
वह मन बन गया कृष्णाभावनाभावित मन हो गया जिसका मन अभी भगवान में लग रहा है भगवान का ध्यान कर रहा है।
हरि हरि…..
ठीक है तो आप और अधिक सोचो विचार करो अभी और समझाने के लिए समय नहीं है स्वयं ही अभी और विचार करो विचारों का मंथन हो सकता है बाकी समझो इस मंत्र का मनो मध्ये स्थितो मंत्रो मंत्र मध्ये स्थितम मनः मनो मंत्र समायुक्तम एतदि जप लक्षणम
आप भी सीखो और ओरो को भी सिखाओ,ओरो को सिखाते हुए आप भी सीख जाओगे,समझ जाओगे आपको भी साक्षात्कार होंगे औरो को सिखाते सिखाते लेकिन पहले तो चैरिटी बिगिंस फ्रॉम होम पहले आप स्वयम को सिखाओ पहले स्वयम विद्यार्थी बनो फिर बाद में शिक्षक बनो फिर बाद में औरों को सिखाओ ईच वन टीच वन हर व्यक्ति को सीखना चाहिए और सिखाना ही चाहिए टीच वन ऑफ यू बिकम टीचर ऐसा करना पड़ता है गौड़ीय वैष्णव आचार्य भजनानंदी भी होते हैं और गोष्टीआनंदी भी होते हैं भजनानंदी और गोष्टीआनंदी भजन करो भजन करो और अपने भजन का आनंद ओरो के साथ बाटो या कृष्ण की कथा ओरो के साथ बाटो….
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||
अनुवाद :- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
ठीक है हम यही रुकते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
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हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
०५,०४,२०२१
७२४ स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
क्या आप सब ठीक हो? ठीक होने के लिए जप करना आवशयक हैं। कृष्ण भावना भावित होने से हम ठीक हो जाते हैं।अन्यथा ठीक ना होने पर भी हम कहते रहते हैं कि हम ठीक हैं। हमें संसार में यह नहीं पता चलता है कि ठीक होना क्या हैं। मैं ठीक हूं ऐसा लोग बिना सोचे समझे ही कहते रहते हैं। अगर कोई अस्पताल में भी भर्ती हो तो भी उससे पूछा जाए कि आप कैसे हो?तो वह भी यही कहेंगे कि हम बढ़िया हैं। इस संसार में होना ही मतलब हम इमरजेंसी वार्ड में भर्ती हो चुके हैं।अगर आप इस ब्रह्मांड में हो तो मतलब आप आईसीयू में हो। आप आदि देविक,आदि भौतिक कष्टों से से पीड़ित हों। बार-बार जन्म मृत्यु जरा व्याधि से ग्रसित हो।इस संसार में यह सब व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ते हैं। तो इसीलिए हम आईसीयू में ही हुए ना। हरि हरि।। क्या किसी को आईसीयू पसंद होता हैं?आपको क्या यह आईसीयू पसंद हैं? इसीलिए यहां से निकलने की कुछ योजना बनाओ। कृष्ण ने भौतिक संसार के विषय में कहा हैं कि
मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्|
नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:।।
भगवत गीता( ८.१५)
अनुवाद- मुझे प्राप्त करके महापुरुष जो भक्ति योगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते।क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती हैं।
आलय मतलब निवास स्थान। इसलिए भगवान ने इस भौतिक संसार को दुख आलय कहा हैं। दुखों का निवास स्थान।भगवान इस संसार को दुखालय कह रहे हैं और आप इसे सुखालय कह रहे हो या आप इसे सुखालय बनाना चाहते हो, क्या आप इस संसार के स्वभाव में परिवर्तन ला सकते हो?भगवान नें ही इसे दुखालय बनाया है तो दुखालय ही रहेगा। संसार के स्वभाव में परिवर्तन संभव नहीं हैं। इसीलिए क्या करना आवश्यक हैं?
हरेर् नाम हरेर् नाम हरेर् नामैव केवलम्
कलौ नास्त्य् एव नास्त्य् एव नास्त्य् एव गतिर् अन्यथा।।
केवल हरि नाम ही है यहां बस बाकी सब तो दुखालय है अश्वात है अपनी परिस्थिति को समझो जिसमें हम फंसे हुए हैं।
जय-जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त वृंदा।।
आज उस विषय में चर्चा करेंगे जिसके विषय में कल करनी चाहिए थी, कल श्रीवास ठाकुर का आविर्भाव दिवस था किंतु कल मैं हरे कृष्ण उत्सव के ग्रैंड फिनाले में व्यस्त था जो कि कल हो रहा था।कल प्रातः काल में भी हुआ और सायं काल में भी हुआ। आपको उस समय की कुछ यादें सुनाई गई। उस ग्रैंड फिनाले उत्सव के कारण श्रीवास ठाकुर का संस्मरण हम नहीं कर पाए तो उसी को हम आज करेंगे। कभी ना करने से अच्छा हैं कि देरी से ही किया जाए।क्या आप श्रीवास ठाकुर को जानते हैं?श्रीवास ठाकुर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के पार्षद रहे। केवल पार्षद ही नहीं रहे बल्कि एक विशेष पार्षद या परिकर रहें।
कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् ।
यज्ञै: सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधस:।।
(श्रीमद भागवतम् ११.०५.३२)
pañca-tattvātmakaṁ kṛṣṇaṁ
bhakta-rūpa-svarūpakam
bhaktāvatāraṁ bhaktākhyaṁ
namāmi bhakta-śaktikam
(चेतनय चरित्रामृत आदि लीला १.१४)
यह पंचतत्व मंत्र हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण मंत्र हैं।यह आप सबको ही पता होना चाहिए। यह पंचतत्व का प्रणाम मंत्र हैं। यह भी हमें पता होना चाहिए कि तत्व क्या हैं। हमें भगवान को तत्व से जानना चाहिए। तत्वों में कई प्रकार के तत्व हैं,उसमें पंचतत्व एक तत्व हैं। यह पंचतत्व तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के ही विभिन्न रूप हैं। श्रीवास ठाकुर इन पंच तत्वों के सदस्य रहें।
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद,श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद।
(पंचतत्व प्रणाम मंत्र)
यह पंचतत्व महामंत्र हैं।जब हम हरे कृष्ण महामंत्र करते हैं तब हम हर बार नई माला शुरू करने से पहले यह पंचतत्व महामंत्र मंत्र कहते हैं। दो मंत्र हैं, एक पंचतत्व प्रणाम मंत्र और एक पंचतत्व महामंत्र। पंचतत्व में एक है चैतन्य महाप्रभु, एक नित्यानंद प्रभु, एक अद्वैत आचार्य प्रभु, एक गदाधर पंडित और एक है श्रीवास ठाकुर।
भजमन नारायण नारायण नारायण।।
नारद मुनि ही श्रीवास ठाकुर हैं।जो हमारी परंपरा के आचार्य भी हैं।सबसे पहले इसी की चर्चा करेंगे कि हमारे परंपरा के आचार्य कौन-कौन हैं। एक हैं ब्रह्मा,एक हैं नारद जी। हम ब्रह्म मधव गोडिय वैष्णव कहलाते हैं। नारद जी ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। नारद जी भागवत में से भी एक हैं। नारद जी श्रीवास पंडित के रूप में अवतरित हुए।श्रीवास ठाकुर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकटय से बहुत पहले ही प्रकट हो चुके थे। लगभग 50 वर्ष पूर्व वह प्रकट हो चुके थे।वह चार भाई थे।श्रीराम, श्रीवास,श्रीनिधि। वह सभी गौर भक्त थे। इनका जन्म पूर्व बंगाल में हुआ था। जो कि अब बांग्लादेश कहलाता हैं। किंतु वह मायापुर में स्थानांतरित हुए और मायापुर में निवास करने लगे।महाप्रभु के प्राकट्य से पहले हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस महामंत्र का कीर्तन करने वाले कई भक्त थे। उनके प्राकट्य से पहले इस महामंत्र का जप करने वाले श्री अद्वैत आचार्य थे, श्रील हरिदास ठाकुर थे और श्रीवास ठाकुर और उनके भ्राता भी थे। चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य से बहुत पहले ही चैतन्य महाप्रभु के परिकर कीर्तन किया करते थे।
बंगला में घर को या संपत्ति को बाड़ी कहते हैं।अब मैं श्रीवास ठाकुर की बाड़ी के बारे में उल्लेख करता हूं।जब हम योगपीठ से बाहर आते हैं तो, अब आप कहेंगे कि योगपीठ क्या हैं? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के जन्म स्थान को योगपीठ कहते हैं। जब हम योगपीठ से बाहर आते हैं, तब प्रवेश द्वार से बांयी तरफ जांए( अगर दांयी तरफ जाए तो मायापुर चंद्रोदय मंदिर की तरफ जाएंगे)और जब बांयी और जाएंगे तो लगभग 200 मीटर की दूरी पर श्रीवास ठाकुर की बाड़ी हैं। जोकि श्रीवास आंगन के नाम से प्रसिद्ध हैं।कुछ-कुछ विदेशी भक्त श्रीवास आंगन को श्रीवास अंगम कहते हैं, लेकिन यह कहना गलत हैं। आप अगर किसी को ऐसा कहते सुने तो उसे सुधार सकते हैं। मेरा भी यह लक्ष्य है कि मैं इसे सुधार सकूं।आचार, प्रचार के साथ सही उचार यानी कि उच्चारण भी होना चाहिए।श्रीवास ठाकुर की बाड़ी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कर्मभूमि बनी। योगपीठ उनकी जन्मभूमि थी, जहां जन्म हुआ और 24 वर्ष तक कुछ लीलाएं वहां होती रही।किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जो संकीर्तन आंदोलन किया उसके मुख्यालय के रूप में उन्होंने श्रीवास आंगन का चयन किया।
ājānu-lambita-bhujau kanakāvadātau
saṅkīrtanaika-pitarau kamalāyatākṣau
viśvambharau dvija-varau yuga-dharma-pālau
vande jagat priya-karau karuṇāvatārau
[CB Ādi-khaṇḍa 1.1]
संकीर्तन आदोलन के परम पिता श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु के साथ मिलकर संकीर्तन आंदोलन की स्थापना और उसका प्रचार प्रसार श्रीवास ठाकुर की बाड़ी से ही किया। उसी को अपना मुख्यालय बनाया।जैसे श्रील प्रभुपाद ने न्यूयॉर्क में अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ की स्थापना की और न्यूयॉर्क को एक समय पर अपना मुख्यालय बनाया। शुरू में प्रभुपाद वहीं से प्रचार कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद लॉस एंजलिस कैलिफ़ोर्निया को अपना पश्चिमी मुख्यालय कहां करते थे। भारत में मुंबई को भी श्रील प्रभुपाद ने अपना मुख्यालय बनाया था।
श्रीवास ठाकुर का आंगन चैतन्य महाप्रभु की गतिविधियों का केंद्र बना। हरि हरि।। श्रीवास ठाकुर गृहस्थ थे। श्रीवास ठाकुर ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ सहयोग दिया ताकि कीर्तन आंदोलन फैलता रहें। आप सभी भक्तों के लिए श्रीवास ठाकुर का चरित्र आदर्श हैं। जैसा कि मैंने बताया कि नारद मुनि ही श्रीवास ठाकुर बने हैं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को और उनके अनुयायियों को अपना योगदान दे रहे हैं।अब हम श्रीवास ठाकुर की मुख्य लीलाओं का वर्णन करेंगे।वर्णन तो नहीं कह सकते केवल नाम ही गिना पाएंगे। पूरी लीला तो नहीं कह पाएंगे। यहीं से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन आंदोलन प्रारंभ हुआ।चैतन्य महाप्रभु ने गया में दीक्षा ली और दीक्षा लेकर महाप्रभु नवदीप मायापुर लोटे तो लौटने के बाद श्रीवास ठाकुर के आंगन में संकीर्तन होने लगा। सभी पंचतत्व सदस्य वहां उपस्थित रहा करते थें। केवल शुद्ध भक्तों की संगति में रात भर अमृतमय कीर्तन हुआ करता था। पूरी रात ही जागरण हुआ करता था। एक दिन श्रीवास ठाकुर के आंगन में कीर्तन हो रहा था और उसी समय उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। जैसे ही पुत्र की मृत्यु हुई श्रीवास ठाकुर की पत्नी मालिनी और कुछ माताएं वहां पहुंच गई और क्रंदन करना प्रारंभ करने लगी किंतु तुरंत ही उन्हें रोकते हुए श्रीवास ठाकुर ने कहा कि चुप हो जाओ चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन हो रहा हैं, उसमें व्यवधान उत्पन्न नहीं होना चाहिए हरि हरि।। एक लीला ऐसी भी है कि एक ब्रह्मचारी थे,जो केवल दूध ही लेते थे। दूध ही उनका आहार था। एक दिन वह श्रीवास आंगन में पहुंचे और चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन में सम्मिलित होने की इच्छा करने लगे। उनकी महत्वाकांक्षा थी कि चैतन्य महाप्रभु का दर्शन कर सके और महाप्रभु के परिकरो के संग में कीर्तन कर सकें। श्रीवास ठाकुर के साथ उनका कुछ समझौता हुआ। श्रीवास ठाकुर ने उनको अनुमति तो दे दी पंरतु क्योंकि वह शुद्ध भक्त नहीं थे ईसलिए चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें इजाजत नहीं दी।यह लीला भी श्रीवास आंगन में घटित हुई।
नित्यानंद प्रभु श्रीवास ठाकुर के घर में ही रहने लगे थे,क्योंकि चैतन्य महाप्रभु अपने घर में यानी कि योगपीठ में रहते थे और योगपीठ श्रीवास ठाकुर के आंगन से बहुत ही निकट था इसलिए नित्यानंद प्रभु ने श्रीवास ठाकुर के घर को ही अपना निवास स्थान बना लिया। भविष्य में जीव गोस्वामी घर बार,धन दौलत छोड़कर नवद्वीप हरे कृष्ण आंदोलन से जुड़ने के लिए आए। उनका जन्म स्थान रामकेली था। मायापुर आते ही वह सीधे श्रीवास ठाकुर की बाड़ी पर पहुंच गए। वहां नित्यानंद प्रभु के साथ उनका मिलन हुआ इसलिए श्रीवास आंगन, नित्यानंद प्रभु और जीव गोस्वामी का मिलन स्थल बना। इसीलिए उसे सर्वप्रथम मिलन स्थली भी कहते हैं। श्रीवास ठाकुर के घर पर जब भक्त पूरी रात भर कीर्तन किया करते थे तो उस समय कर्मकांडी ब्राह्मण या निंदक श्रीवास ठाकुर की बेजती करना चाहते थे। उन्होंने एक दिन सबको बुलाकर कहा कि देखो यह कैसा वैष्णव है इनके घर के सामने रखा हैं।गोपाल चप्पल ने उनके घर के सामने देवी पूजा का सामान रख दिया था। एक गोपाल चप्पल नामक व्यक्ति थे, जो निंदा करने में बहुत पटायित थे। वह वैष्णव के प्रति अपराध करने में बहुत ही निपुण थे।ऐसी निपुणता बिल्कुल भी अच्छी नहीं हैं। अगर कोई ऐसा निपुण है तो अपनी ऐसी निपुणता को छोड़ दो।कुछ अपराधी वैष्णव अपराधियों में नामी अपराधी होते हैं। यह गोपाल चप्पल ऐसे ही नामी अपराधी थे। हमलोगो को ऐसा नाम ही अपराधी नहीं बनना हैं। हरि हरि।।
गोपाल चप्पल ने कुछ शराब और एक मटके में कुछ मीट ला कर श्रीवास ठाकुर के आंगन के सामने रख दिया था। उन्होंने ऐसी सामग्री लाकर उनके घर के सामने रख दी थी जिसका उपयोग दुर्गा पूजा वाले करते हैं। जैसे ही उस रात्रि का कीर्तन समाप्त हुआ था तो गोपाल चप्पल कई सारे लोगों को इकट्ठे करके ले आए और उन्हें कहा कि यह देखो! यह कोई वैष्णव नहीं हैं। यह तो दुर्गा पूजा करने वाला हैं। ऐसा करने की वजह से इस अपराधी का बहुत ही बुरा हाल हुआ। उन्हें कोढ की बीमारी ने पकड़ लिया। कुछ जल्दी या बाद में ऐसा ही होता हैं, जब हम वैष्णव अपराध करते हैं। यहां यह बात ध्यान में रखने वाली हैं कि अपराध का परिणाम कैसा होता हैं। तो यह घटना भी श्रीवास ठाकुर के द्वार के सामने ही घटी हैं। यह लीला चैतन्य भागवत में हैं। चैतन्य चरित्रामृत में चैतन्य महाप्रभु की बाल लीलाओं का विवरण हैं। मायापुर और नवद्वीप लीलाओं का वर्णन कम हैं। अधिकतर मायापुर और नवदीप लीलाओं का वर्णन आप चैतन्य भागवत में पढ़ सकते हो।चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु की व्यास पूजा मनाना चाहते थे। यह व्यास पूजा चैतन्य महाप्रभु श्रीवास ठाकुर के घर में ही मनाना चाहते थे।
नित्यानंद प्रभु आदि गुरु हैं। तो श्रीवास आंगन में ही नित्यानंद महाप्रभु की व्यास पूजा मनाई गई। क्या आपको याद हैं कि मैनें एक बार आपको बताया था कि एक बार एक सप्त पहर महा प्रकाश लीला संपन्न हुई थी। जिस लीला में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सारे नवद्वीप वासियों को आमंत्रित किया था।सभी को बुलाया और विशेष दर्शन दिया। जिस भगवदता को वह छुपाना चाहते थे उस भगवदता का प्रदर्शन किया। महाप्रभु अपनी भगवदता को छुपाना चाह रहे थे लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। तो 1 दिन उन्होंने स्वयं ही सभी को बुलाकर अपनी भगवदता का प्रदर्शन किया। उस दिन 21 घंटों तक सप्त पहरीय कीर्तन किया।सप्त पहर मतलब 21 घंटे। एक पहर 3 घंटे का होता हैं। उस दिन उन्होंने 21 घंटे तक भगवत साक्षात्कार किया।वैसे तो श्री कृष्ण चैतन्य एक भक्त की भूमिका निभा रहे थे,किंतु उस दिन उन्होंने दिखाया कि वह “कृष्णसतु भगवान स्वयं” हैं।उस दिन उन्होंने हर भक्त को अपने-अपने भाव के अनुसार दर्शन दिए। मुरारी गुप्त को उन्होंने राम जी के रूप में दर्शन दिए। उनके लिए वह श्री राम बने।जब मुरारी गुप्त दर्शन कर रहे थे तब उन्होंने खुद की और देखा तो पाया कि पीछे पूछ थी।वह हनुमान बने थे।
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि:।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:।।
(श्रीमद भगवतम २.१०.०६)
हर भक्त ने भगवान की शाश्वत लीला में जो रूप हैं,जो भी उनका संबंध हैं, उसी स्वरूप को धारण कर रखा था।सारे भक्तों ने तो उस स्वरूप के अनुसार दर्शन किया। उन सबको भगवत् साक्षात्कार भी हो रहा था और खुद का साक्षात्कार भी हो रहा था। यह बहुत ही तीव्र अनुभव था ।जो कि 21 घंटे तक चलता रहा था। यह लीला इन्हीं श्रीवास ठाकुर के प्रांगण में हुई। हरि हरि ।।
श्रीवास ठाकुर के निवास स्थान पर अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु से विशेष निवेदन किया था कि मैंने आपको पुकारा था कि आप इस संसार में आकर धर्म स्थापना करोगे या परित्राणाय साधु नाम करोगे,दुष्टों का विनाश करोगे
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
भगवत गीता 4.8।।
लेकिन ऐसा तो आप कुछ नहीं कर रहे हो। आप की लीलाएं तो शुद्ध भक्तों के संग में संपन्न हो रही हैं। तो दुनिया का क्या होगा? जिसके लिए मैंने आपको बुलाया था।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनका यह निवेदन भी स्वीकार कर लिया। उस समय से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन सारे संसार के लिए उपलब्ध कराया। सारे नवद्वीप भर में नगर संकीर्तन होने लगा।
udilo aruna puraba-bhage,
dwija-mani gora amani jage,
bhakata-samuha loiya sathe,
gela nagara-braje
(भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित)
जो कीर्तन श्रीवास ठाकुर के आंगन तक सीमित था,अद्वैत आचार्य के आग्रह से अब वह सभी के लिए उपलब्ध हो गया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सर्वत्र प्रचार करने लगे। जब प्रचार करने लगे तो उसका विरोध भी होने लगा। उस समय नवाब हुसैन शाह की सरकार चल रही थी। वहां के काजी, चांद काजी संकीर्तन को रोक रहे थे और कीर्तन करने वाले भक्तों की पिटाई हो रही थी। एक समय श्रीवास ठाकुर के आंगन में ही चांद काजी ने कीर्तन करने वाले कुछ भक्तों को परेशान किया, उनको पीटा और उनकी मृदंग तोड़ दी। इसीलिए श्रीवास ठाकुर के घर का नाम “खोल भंग डांग” भी पड़ गया। जब हम परिक्रमा के समय श्रीवास ठाकुर के आंगन पर जाते हैं, तो वहां पर लिखा हुआ हैं “खोल भंग डांग”, क्योंकि इसी स्थान पर चांद काजी के लोगों ने मृदंग को तोड़ा।
जब हम श्रीवास ठाकुर के आंगन का दर्शन करने जाते हैं, तो वहां पर वेदी पर वह टूटा हुआ मृदंग भी रखा हैं। वहां जाकर उस मृदंग का भी दर्शन कर सकते हैं।तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने असहयोग आंदोलन कि शुरुआत की।असहयोग आंदोलन को प्रारंभ करने वाले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे।सरकार के साथ सहयोग मत करो। सरकार चाहती थी कि कीर्तन बंद हो, कीर्तन नहीं हो।चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि हम इसकी परवाह नहीं करते। हम इसमें योगदान नहीं देंगे। कीर्तन तो होता ही रहेगा। तो फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसे कीर्तन का आयोजन किया कि सारे नवद्वीप के भक्त वहां पहुंच गए। श्रीवास ठाकुर की बाड़ी पर पूरी नवद्वीप की आबादी से कई गुना अधिक भक्त पहुंच गए। चेतनय भागवत में वर्णन हैं, कि देवता भी अपनी वेशभूषा में परिवर्तन करके उस कीर्तन में सम्मिलित हुए थे।चेतनय भागवत में उस कीर्तन की विशेष शोभा का वर्णन हैं।कीर्तन श्रीवास ठाकुर के आंगन से प्रारंभ हुआ और उसका गंतव्य स्थान था, चांद काजी की कोठी।
अगर आप परिक्रमा में गए हो तो आपको पता होगा, जहां पर चांद काजी की समाधि हैं। कृष्ण लीला में कृष्ण ने कंस का वध किया था,लेकिन चेतनय लीला में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने चांद काजी का वध तो नहीं किया किंतु उन्हें भक्त बना दिया। चांद काजी भक्त बन गए। जब संकीर्तन काजी के निवास स्थान पर पहुंचा तो उसके प्रभाव से ही चांद काजी प्रभावित हुए और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की शरण में आ गए और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने चांद काजी पर विशेष कृपा की और चांद काजी ने कुछ घोषणाएं भी की। और भी कई घटनाएं घटी। उन्होंने घोषणा की कि मेरे पूरे राज्य में कहीं भी आज से संकीर्तन की कोई भी रोकथाम नहीं होगी। आप सब कीर्तन करते रहो। मेरा संपूर्ण योगदान आपके साथ हैं। संकीर्तन करते रहो। मृदंग बजाते रहो।इस तरह चांद काजी वैष्णव बन गए। गोडिय वैष्णव जब नवदीप मंडल परिक्रमा में जाते हैं तो चांद काजी की समाधि का दर्शन अवश्य करते हैं।हम वहां चांद काजी की समाधि की परिक्रमा करते हैं और वहा कि धूल अपने मस्तक पर लगाते हैं। महाप्रभु विष्णु भी थे। ऐसे विष्णु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पतितो को पावन बनाया। उसका ज्वलंत उदाहरण चांद काजी हैं। इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु और श्रीवास ठाकुर का घनिष्ठ संबंध रहा।हरि हरि।। श्रीवास ठाकुर के आंगन से ही चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन आंदोलन की शुरुआत की और कई सारे संकीर्तन उन्हीं के आंगन में किए। श्रीवास ठाकुर का कल आविर्भाव दिवस था।
श्रीवास ठाकुर आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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*हरे कृष्ण*
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से,*
*4 अप्रैल 2021*
*(जय) राधा माधव (जय) कुंजविहारी।*
*(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी ।।*
*(जय) यशोदा नंदन (जय) व्रजजनरंजन।*
*(जय) यमुनातीर वनचारी ।।*
अनुवाद:-वृन्दावन के कुंजवनों में विहार करने वाले श्री श्रीराधामाधव की जय हो! श्रीकृष्णगोपियों के प्रियतम तथा गिरिराज पर्वत को धारण करने वाले श्रीकृष्ण की जय हो!यशोदा के प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण की जय हो!तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और यमुना के तट पर स्थित वनों में विचरण करने वाले श्रीकृष्ण की जय हो!
*जय ॐ विष्णुपाद परमहंस परिव्राजकाचार्य अष्टोत्तरशत श्री श्रीमद्कृष्णकृपाश्रीमूर्ति अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की… जय!*
तो प्रभुपाद कहा करते थे,
*जय ॐ विष्णुपाद परमहंस परिव्राजकाचार्य अष्टोत्तरशत श्री* *श्रीमद्कृष्णकृपाश्रीमूर्ति भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर श्रील* *प्रभुपाद की… जय!हरिबोल!*
आज 4 तारीख है, और आज के दिन ही सायंकाल को इस उत्सव का समापन हुआ था। वैसे श्रील प्रभुपाद प्रातः काल और सायंकाल को प्रोग्राम किया करते थे। लेकिन उन दिनों में मैं तो प्रात काल: में उस प्रोग्राम में सम्मिलित नहीं हो रहा था। तो कुछ उत्सव को पुनर्जीवित और पुनः प्रस्तुत करने का प्रयास ५ मार्च से चल रहा हैं। आज यह करते-करते 11 दिन बीत गए हैं।आज उस हरे कृष्ण उत्सव का 11 वा दिन है। कभी-कभी तो सुबह और शाम को उसका प्रस्तुतीकरण होता था। आज मैने जय राधा माधव गाया, क्योंकि उस 1971 के उत्सव के प्रवचन के प्रारंभ में श्रील प्रभुपाद इस भजन को जरूर गाया करते थे।और फिर वह प्रेम ध्वनि भी गाते जैसे मैंने अभी सुनाई। उस समय श्रील प्रभुपाद भी जय कहते थे। वृंदावन धाम की जय! तो आज प्रातः काल में चर्चा हो रही हैं और उसी के साथ सायंकाल में भी होने वाली हैं, जो अभी यहां संपन्न हो रहा है। इसके अंत में आपको सूचनाएं दी जाएगी की आज के दिन जो हरे कृष्ण उत्सव का 11 वा और समापन का दिन था,उस दिन एक भव्य शोभायात्रा का आयोजन हुआ था। जिसकी घोषणा कल सायं काल को 3 अप्रैल के हरे कृष्णा फेस्टिवल में की गई।मतलब आज सायंकाल को शोभायात्रा संपन्न होगी। उसकी शुरुआत यहां से होगी और समापन यहां पर होगा तो ऐसी सूचनाएं दी गई थी।मैं भी उस शोभायात्रा में सम्मिलित था और उसी में राधा कृष्ण के विग्रह विराजमान किए हुए थे और प्रभुपाद शोभा यात्रा के साथ में चल रहे थे। और कीर्तन तो हो ही रहा था!
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम* *हरे हरे।।*
उन दिनों में विदेश के जो भक्त थे, जिन्हें वाइट एलीफैंट कहते हैं,उस समय यात्रा में नाच रहे थे और सभी का मन मोह रहे थे।यह शोभायात्रा गिरगांव चौपाटी पहुंच गई,जहां मरीन ड्राइव है, मुंबई में समुद्र के तट पर गिरगांव चौपाटी में मंच बनाया गया था और वहा प्रोग्राम हुआ और वहां पर कथा सुनाइ गई। अब मुझे अधिक याद नहीं कि प्रभुपाद ने क्या क्या कहा , लेकिन एक बात मुझे याद है जिसमें प्रभुपाद वैकुंठ की बात कर रहे थे। प्रभुपाद कह रहे थे कि, चलो बैक टू गौडहेड। कह नहीं रहे थे,अभियान छेड़ रहे थे। हमारे देश में चलो दिल्ली, या चलो मंत्रालय, यहां चलो, वहां चलो, इस मैदान में चलो, ऐसी बातें चलती रहती है। लेकिन प्रभूपाद यह अभियान छेड़ रहे थे, कौन सा अभियान था? कि वैकुंठ चलो, भगवद् धाम चलो!अंतिम दिवसीय कार्यक्रम हो रहा है,उसमें श्रील प्रभुपाद याद दिला रहे थे कि अंततोगत्वा हमें अपने घर लौटना है। हमारे परम माता-पिता जहां रहते हैं हमें वहां जाना है! इस पर प्रभुपाद जोर दे रहे थे। गिरगांव चौपाटी के शोभायात्रा के अंतर्गत जो उत्सव मनाया जा रहा था उसमें प्रभुपाद यह कह रहे थे, सायं कालीन सत्र संपन्न हुआ ही था जो कि बड़ा ही यशस्वी रहा।यह मैं ही नहीं कह रहा हूं! प्रभुपाद ने कहा!
फिर बाद में उसी दिन उनके शिष्य ने एक पत्र लिखा था,4 अप्रैल को, जिसको मैंने मेरे ग्रंथ मुंबई इस माय ऑफिस में भी लिखा है। अमेरिकन साधुज इन बोम्बे इस अध्याय में प्रभुपाद ने उनके शिष्य वैकुंठनाथ को पत्र लिखा जो कि गृहस्थ थे,जिनका विवाह प्रभुपाद ने करवाया था।उस समय उनहोने वैकुंठनाथ को लिखा की, हम यहां भारत में एक विशाल उत्सव मना रहे है, जिसमें 20 30 हजार लोग एकत्रित होकर कीर्तन सुन रहे हैं और प्रवचन सुन रहे हैं और वह प्रसाद भी ग्रहण कर रहे है। 50 वर्ष पूर्व प्रभुपाद ने लिखा था कि यहां मुंबई का प्रचार और उत्सव बड़ा ही यशस्वी रहा। कई सारे लोग,कई सारे विशेष लोग कृष्णभावना में या हरे कृष्ण आंदोलन में रुचि ले रहें हैं। और इस पत्र के अंत में लिखा कि हम तुरंत ही मुंबई में एक परमनेंट हरे कृष्णा सेंटर प्रारंभ करने जा रहे है। हरि हरि। तो इतने दिनों से श्रील प्रभुपाद इस उत्सव के अंतर्गत विचार कर रहे थे और अपने देशवासियों को प्रोत्साहित कर रहे थे कि, आप इस हरे कृष्ण महामंत्र के आंदोलन को समझो और उनसे कह रहे थे,
*भारत भूमि जन्म होईले जाए जन्म सार्थक करी कर परोपकार* महाप्रभु ने कहा हैं कि हें भारतीयों! क्या करो? जन्म सार्थक करो! कैसे करोगे जन्म सार्थक? करी परोपकार! परोपकार करोगे तो तुम्हारा जन्म सार्थक होगा और प्रभुपाद यह भी समझा रहे थे कि, कृष्ण भावना को स्वीकार करना और उसका प्रचार प्रसार करना और उसकी स्थापना करना यही परोपकार का कार्य है। वैसे जय श्री राम और जय श्री कृष्ण यह हमारे देश में उस समय चल ही रहा था और चलना भी चाहिए। स्वागत है! किंतु श्रील प्रभुपाद श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सबके सामने ला रहे थे। वैसे पाश्चात्य देशों में तो सबको बता चुके थे और अब भारत में उनके पाश्चात्य शिष्यों के साथ आए थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सबके सामने प्रस्तुत कर रहे थे। वैसे यह आंदोलन, हरे कृष्ण आंदोलन! यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ही आंदोलन है। और कलिकाल में प्रगट होने वाले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही श्री कृष्ण है! तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जैसे भक्ति की उसी भक्ति को व्रज भक्ति को यानी वृंदावन की भक्ति या फिर, जैसे गोपियों ने भक्ति कि,या राधा रानी जैसी भक्ति करती है ऐसी भक्ति को यानी शुद्ध भक्ति सब को सिखा रहे है और हरे कृष्ण महामंत्र सबसे बुलवा रहे है। और वैसे भी प्रतिदिन प्रभुपाद अपने शिष्यों को भेजा करते थे, कीर्तन के लिए,नगर संकीर्तन के लिए। ताकि उस उत्सव का प्रचार हो,सायंकाल सत्र में लोगो को बुलाने के लिए। भक्त जाते थे, कीर्तन करते थे, घोषणा करते थे। श्रील प्रभुपाद यह कीर्तन भी प्रस्तुत कर रहे थे। वैसे तो कीर्तन ही इस कार्यक्रम के केंद्र में था।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*
उस कार्यक्रम में प्रभुपाद शिक्षित और दीक्षित कर रहे थे। कुछ ने दीक्षा भी ली। जैसे मैंने और राधानाथ महाराज ने दीक्षा ली। श्रील प्रभुपाद शिक्षा तो दे ही रहे हैं और हरे कृष्ण महामंत्र सिखा रहे थे। हरे कृष्ण महामंत्र का परिचय करा रहे थे। हरि हरि।
मायापुर धाम की जय। पहली बार मायापुर धाम की चर्चा हो रही थी। मायापुर धाम का परिचय कराया जा रहा था। पहले तो अयोध्या धाम चलता था। अयोध्या धाम की जय। वृंदावन धाम की जय। मायापुर वह क्या होता है? माया का पुर। तो कोई नहीं जानता था। कुछ बंगाली जानते होंगे। कुछ उड़िया लोग जानते थे। श्रील प्रभुपाद ने मायापुर को प्रकाशित करने का भी कार्य किया ताकि पूरी दुनिया मायापुर धाम को जान सके।
जब उत्सव संपन्न हुआ था, तब 1971 चल रहा था। 1972 में श्रील प्रभुपाद ने देश और विदेश के, संसार भर के शिष्यों को मायापुर बुलाया। वहां गौर पूर्णिमा उत्सव संपन्न हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव तिथि महोत्सव मायापुर में संपन्न हुआ।सारे संसार को ज्योतिर्गमय किया
*तमसो मा ज्योतिर्गमय*
जो अंधेरे में था, अज्ञान में था।मैं चैतन्य महाप्रभु के संबंध में बिल्कुल नहीं जानता था। मायापुर को नहीं जानता था या चैतन्य महाप्रभु का नाम नही सुना था। जैसे महाराष्ट्र में तुकाराम हुए, राजस्थान में मीराबाई हुई, पंजाब में नानक हुए और वृंदावन में सूरदास हुए। वैसे एक संत और महात्मा हुए जिन्होंने सन्यास भी लिया था, वे थे चैतन्य। तो ऐसा परिचय हुआ करता था। जब मैं प्राथमिक स्कूल में था। हमारी पाठ्य पुस्तक में एक अध्याय था जिसका शीर्षक चैतन्य था। तो उसमें भी चैतन्य महाप्रभु का ऐसा ही परिचय था। चैतन्य महाप्रभु एक संत रहे और भक्त रहे किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान है यह किसी ने नहीं बताया। गौरंग गौरंग गौरंग। वह गौर हरि हैं या वह गौर भगवान है। यह जो गौर तत्व है या पंचतत्व भी है, श्रील प्रभुपाद ने इसको भी प्रकाशित किया। इस हरे कृष्ण उत्सव में यह भी चल रहा था। श्रील प्रभुपाद शिक्षा दे रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन है? यह भी सिखा और समझा रहे थे। हरि हरि।इससे मैं भी सीख रहा था। कुछ प्रेरणा प्राप्त कर रहा था। कुछ नहीं अपितु बहुत सारी प्रेरणा।मै भी पूरा प्रेरित हो चुका था और तैयार था।
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |*
*अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६ ||*
*(श्रीमद्भगवद्गीता 18.66)*
अनुवाद –
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |* करने के लिए मैं तैयार था। पहले मेरी कई सारी योजनाएं और विचार थी, मेरी परिकल्पनाएं थी और खुद का मनोधर्म था। उस स्थान पर श्रील प्रभुपाद ने, उस उत्सव में, मुझ में मेरे मन में, मेरे ह्रदय प्रांगण में सही धर्म की और शाश्वत धर्म की स्थापना की। उस उत्सव में *धर्मसंस्थापनार्थाय* मेरे ह्रदय में, मेरे जीवन में, धर्म की स्थापना हुई। सभी लोग लाभान्वित हो रहे थे। मैं इतना कह सकता हूं, मैं सबसे ज्यादा लाभान्वित हुआ। सभी के लिए हरे कृष्ण उत्सव का आयोजन हुआ था। लेकिन मैं यह कह सकता हूं कि उत्सव का आयोजन तो मेरे लिए ही हुआ था। भगवान मुझे मुंबई लाये और मुंबई यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी बनाया। इसके पीछे भगवान जो कठपुतली वाले हैं।
*मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |*
*हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || १० ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 9.10)
अनुवाद –
हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
उनकी अध्यक्षता के अनुसार सब कुछ चलता है।उनहोंने मुझे सांगली से उठाकर मुंबई में रख दिया। ताकि यह जो क्रॉस मैदान में हरे कृष्ण उत्सव होगा मैं वहा जा सकू और अधिकतर लोगों को हरे कृष्ण उत्सव का पता चला ही था। फिर भगवान ने ऐसी योजना बनाई कि मुझ तक भी उस उत्सव का समाचार पहुंच गया।
*तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |*
*ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.10)
अनुवाद –
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
भगवान बुद्धि देते हैं। हरि हरि। भगवान ने मुझे बुद्धि दे ही दी और मुझे इस उत्सव में पहुंचा ही दिया। ताकि क्या हो जाए? *ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते* ताकि यान्ति मतलब जाना और उप मतलब पास। मैं भगवान के अधिक पास और कृष्ण के पास जा सकता हूं। तो मुझे श्रील प्रभुपाद कृष्ण के चरणों तक तो ले ही गए। फिर बाकी सब होता ही गया।
*तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |*
*उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || ३४ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.34)
अनुवाद –
तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है |
मैं वहां पहुंचा और सही समय पर पहुंचा,जब प्रभुपाद वहां थे और उत्सव हो रहा था। मुझे श्रील प्रभुपाद का संग प्राप्त हुआ। मैंने श्रील प्रभुपाद की वाणी सुनी। भक्ति का दर्शन हो रहा था। मंच पर भगवान भी थे। राधा रासबिहारी भी थे और भी राधा कृष्ण के विग्रह थे। राधा कृष्ण के दो सेट थे। तो वैसे मुझे राधा रासबिहारी भी मिले। 1972 में, अगले वर्ष राधा रासबिहारी से जुडूंगा, उनका भक्त बनूंगा और और श्रील प्रभुपाद राधा रास बिहारी के मुझे प्रधान पुजारी बनाने वाले थे। वहां विग्रह भी थे और उनका दर्शन भी हो रहा था, कीर्तन हो रहे था। मैं सबसे अधिक प्रभावित कीर्तन से हो रहा था। प्रश्नोत्तर हो रहे थे। *परिप्रश्नेन* मैंने तो प्रश्न नहीं पूछे। लेकिन मेरे प्रश्न कुछ और लोग पूछ रहे थे। मानो वह मेरे ही प्रश्न थे। उनके उत्तर भी मुझे प्राप्त हो रहे थे और वहां पुस्तक टेबल भी था। जहां से मैंने छोटे ग्रंथ खरीदे थे।
मोटे ग्रंथ की कीमत अधिक थी। मेरे पास बड़ी रकम नहीं थी। हमारे पास थोड़ी सी जेब खर्च हुआ करती थी। कुछ छोटे ग्रंथ जैसे भगवत दर्शन पत्रिका भी ली। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* इसको भी लिया था। इसे संपत्ति कहो या भगवान ही संपत्ति है। भगवान का दर्शन संपत्ति, भगवान के ग्रंथ संपत्ति और *गोलोके प्रेम धन* हरि नाम संपत्ति है। हम कुछ सुसंस्कृत भी हुए। हमारी संस्कृति भी हमारी संपत्ति है। संस्कृति हमारा धन है। मुझे कौन सी जीवनशैली अपनानी है यह भी निर्धारित हो रहा था। मैं अपना मन बना रहा था। श्रील प्रभुपाद को यह उत्सव होते-होते अंत तक मैंने गुरु रूप में स्वीकार कर लिया था। उनसे जो शिक्षा प्राप्त हुई थी, फिर उसी का परिणाम होता है दीक्षा। एक दिन दीक्षित भी होंगे। जैसे प्रभुपाद के शिष्य बनकर साधु बने हैं। मैं भी ऐसा ही बनना चाहता हूं।
फिर ऐसा विचार आ रहा था कि उनकी जैसी जीवनशैली,, संस्कृति और विचारधारा मेरी भी रहेगी। जो वहां पर श्रील प्रभुपाद ने प्रस्तुत किया था। वह मुझे मंजूर था और मेरी श्रद्धा थी। मैं श्रद्धा से भी थोड़ा आगे ही पहुंच गया था। कुछ निश्चय और दृढ़ श्रद्धा या निष्ठा कहो। निष्ठा की ओर विचार बढ़ रहे थे। मतलब यहां से अब पीछे नहीं मुड़ना है। यू टर्न नहीं लेना है। ऐसा मेरा भी पक्का इरादा हो रहा था। ऐसे इरादों के साथ हम उस उत्सव से विदा लेते हैं। हरि हरि। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। श्री श्री राधा रास बिहारी की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। 1971 क्रॉस मैदान हरे कृष्ण उत्सव की जय। अनंत कोटि वैष्णव वृंद की जय। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ३.०४.२०२१
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में ७३७ स्थानों से प्रतिभागी जप में सम्मिलित हैं।
हरि! हरि!
हम सब या कहा जाए कि मैं श्रील प्रभुपाद के साथ हुई प्रथम भेंट का उत्सव मना रहा हूँ। यह ५० वीं वर्षगांठ है। श्रील प्रभुपाद के साथ यह भेंट ५० वर्ष पूर्व बॉम्बे के क्रॉस मैदान में चल रहे उत्सव के दौरान हुई थी। हम इन दिनों से इस विषय में कभी अंग्रेजी और कभी हिंदी में चर्चा कर ही रहे हैं। हरि! हरि!
एक दिन उस उत्सव के दौरान घोषणा हुई कि भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद ने रूस अर्थात मास्को की यात्रा करने का कार्यक्रम बनाया है। जब वहां उपस्थित लगभग १००००-२०००० भारतीय दर्शकों की भीड़ ने इस घोषणा को सुना कि एक भारतीय स्वामी कम्युनिस्ट देश रशिया की यात्रा करेंगे, उनके लिए यह आश्चर्यजनक खबर थी। इसका बहुत अधिक स्वागत भी हुआ, उन्होनें तालियां भी बजाई। मैं भी वहाँ उपस्थित दर्शकों में एक था। श्रील प्रभुपाद पहले ही भारत में आ चुके थे और वे अब बंबई में अपने अमेरिकी शिष्यों और यूरोपियन शिष्यों के साथ थे लेकिन उनके पास अभी तक कोई रूसी शिष्य नहीं था। वे अधिक से अधिक देशों में जाने की सोच रहे थे। इसलिए उन्होंने अपना अगला लक्ष्य रूस, मोस्को जाने का बनाया।
पृथिवीते आछे यत् नगरादि ग्राम सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि दुनिया भर में हर शहर और गाँव में मेरे नाम का जप किया जाएगा। श्रील प्रभुपाद उनकी भविष्यवाणी को सच कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद सोच रहे थे और उन्होंने योजना भी बनाई थी कि अब कौन सा देश अवशेष है, ठीक है अब मैं वहां जाऊंगा। वे योजनाएं बना रहे थे। हरि! हरि!
मैं सोच रहा हूं कि चैतन्य महाप्रभु ने एक भविष्यवाणी की थी कि इस पवित्र नाम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। दुनिया भर में एक हर शहर और हर गांव तक पहुंचेगा, इसका क्या अर्थ है?
श्रील प्रभुपाद इसे अवश्य ले जाएंगे न केवल पवित्र नाम ही पहुचेंगा बल्कि भगवान् के पवित्र नाम के पहुंचने से पहले इतनी सारी चीज़ें शहर और गांवों तक पहुंचेगी और होगी। यह कृष्ण भावनामृत चेतना का संपूर्ण पैकेज है। किताबें भी उन जगहों पर पहुँचने वाली हैं और उपदेशक भी उन जगहों पर पहुँचने वाले हैं। किताबें ज़रूरी हैं, यहीं कृष्ण भावनामृत चेतना का दर्शन है।
यह श्रील प्रभुपाद की योजना थी। यह हमारा फैमिली बिज़नेस अर्थात घरेलू व्यापार है और यह उनके आध्यात्मिक गुरु का भी उनको निर्देश था कि यदि तुम्हें धन मिले, तो किताबें छापना (मनी और प्रिंट बुक्स) उन्हें भारत में बहुत धन प्राप्त नही हो रहा था। इसलिए वह कुछ ना कुछ छपवा रहे थे। चूंकि अब वे पश्चिम में थे और उन्हें अधिक धन प्राप्त हो रहा था इसलिए वे उस धन का प्रयोग पुस्तकों की छपाई करवाने में निवेश कर रहे थे। अब तक उनके कुछ अनुयायी थे। प्रभुपाद उन्हें किताबें बाँटने के लिए निर्देश दे रहे थे, डिस्ट्रिब्यूट बुक्स डिस्ट्रिब्यूट बुक्स डिस्ट्रिब्यूट बुक्स। जिन गाँव के कस्बों और नगरों में किताबें बांटी जाएगी, वे लोग हरे कृष्ण का जप करेंगे, वे दीक्षित होगे। वे गुरु भी बनेंगे।
श्रील प्रभुपाद संस्थापकाचार्य होंगे। (मैं कुछ और कहने लगा।)
श्रील प्रभुपाद जगत गुरु हैं। वे कई देशों, कस्बों, गाँवों में पहुँचने वाले थे और पवित्र नाम देने वाले थे। वैसे उन शहरों और गाँवों में पवित्र नाम के पहुँचने के बहुत सारे तरीके हैं। यहां तक कि जार्ज हैरिसन को भी भगवान् के पवित्र नाम का प्रचार करने का श्रेय जाता है। क्या आपने जोर्ज़ हैरिसन का नाम सुना है? वह इंग्लैंड के बड़े ही प्रसिद्ध गायक (बीटलस) हैं। वह श्रील प्रभुपाद के एक अनुयायी हैं। जोर्ज़ हैरिसन के दुनिया भर में हर जगह लाखों प्रंशसक व अनुयायी हैं। जोर्ज़ हैरिसन ने हरे कृष्ण महामन्त्र को गाकर ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्ड किया। एक बार प्रभुपाद के दिनों में उस रिकॉर्डिंग को बेचा और बांटा गया। उस समय उस एल्बम की बिक्री का सर्वश्रेष्ठ रिकॉर्ड रहा। वह ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग उनकी मास्टर वॉइस ( उनकी अदभुत आवाज) में थी।
यह ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग की कई कई स्थानों पर बिक्री हुई। प्रभुपाद और हरे कृष्ण भक्तों के विभिन्न शहरों और गांवों में पहुंचने से पहले ही यह पवित्र नाम लोकप्रिय हो गया और सभी के लिए हर जगह प्रचलित हो गया था। भगवान का नाम स्वयं प्रचलित होने की शक्ति रखता है। पवित्र नाम स्वयं भगवान् है। पवित्र नाम स्वयं उन कस्बों और गाँवों के लिए अपना रास्ता बना रहा था अर्थात पवित्र नाम स्वयं फैल रहा था। जोर्ज हैरिसन तो एक निमित मात्र बन रहे थे।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्
( श्रीमद् भगवतगीता ११.३३)
अनुवाद:- अतःउठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो | ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।
वह प्रभुपाद के अनुयायी हो सकते हैं। फिर भी भगवान् का नाम मंदिरों और अनुयायियों, संघों में फैल रहा था। केवल हरि नाम ही नहीं अपितु मंदिर भी जरूरी हो गए और मंदिरों की स्थापना होने लगी।
राधा कृष्ण मंदिरों, जगन्नाथ, गौरांग के मंदिरों की स्थापना हुई और अब ये मंदिर भी हर कस्बे और हर गाँव तक पहुँचने लगे हैं .. हरि हरि .. लोग हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करने लगे हैं जिससे वे आध्यात्मिक रूप से मजबूत हो सकें और वे माया के प्रलोभनों का विरोध कर सकें। माया- आप यह लीजिए,.. आप इसे पियो। आप यह पोशाक पहनो .. यह सब भ्रामक है। इसलिए जो लोग हरे कृष्ण का जाप करेंगे, उन्हें भक्ति से शक्ति मिलेगी, जो माया का सामना करने के लिए एक शक्ति मिलेगी। यह माया को एक किक होगी। जिससे वे अवैध सेक्स न करना और जुआ न खेलना, मांस भक्षण नही करना, नशापान नही करने के इन 4 नियामक सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम होंगे। यह भी होने वाला है। जैसे जैसे पवित्र नाम फैलेगा, वहां किताबें भी होंगी, पवित्र नाम फैलेगा और वहां मंदिर भी स्थापित होंगे। श्रील प्रभुपाद स्वयं इसे कर रहे थे। भगवान्, प्रभुपाद के ह्रदय में हैं। प्रभुपाद स्वयं कहते थे मेरे आध्यात्मिक गुरु मेरे साथ ही हैं। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर मुझे देख रहे हैं और निर्देश दे रहे हैं।
मुझे दिल में प्रेरणा देने वाला भगवान् है, गौरांग भी यहां है और परम्परा के आचार्य भी हैं। अन्यथा कोई भी व्यक्ति हमारे आस-पास नहीं था। इसके विपरीत सभी प्रतियोगिता करने के लिए खड़े थे ( इसलिए मैंने ऐसा कहा) प्रभुपाद ने इस कृष्ण भावनामृत को अकेले ही (सिंगल हैंड) प्रारंभ किया और हरिनाम का प्रचार कर पूरे विश्व में फैलाया।
भारत सरकार भी कोई मदद नहीं कर रही थी। प्रभुपाद की सहायता के लिए गौड़ीय मठ के सदस्य भी आगे नहीं आ रहे थे। इसलिए प्रभुपाद व्यवहारिक रूप से अपने नए अनुयायियों के साथ थे। जब वे अमेरिका गए, तब अमेरिकन, यूरोपियन अफ्रीकन, रशियन भी उनके साथ थे। जब प्रभुपाद रशिया गए, वहां प्रभुपाद एक युवक से मिले, जिसे प्रभुपाद ने बहुत समय दिया। उसने कोई प्रोग्राम का आयोजन भी किया था। प्रभुपाद मास्को यूनिवर्सिटी के प्रो० कोत्सवकी से भी मिले थे। लेकिन प्रभुपाद ने इस नवयुवक से बहुत सारी बातें की। प्रभुपाद उसे दीक्षा देने वाले थे। प्रभुपाद ने उसे क्रैश कोर्स दिया और उसे अनंत शांति दास नाम भी दिया। अनंत शांति प्रभु, श्रील प्रभुपाद के प्रथम रशिया ( रूसी) शिष्य बनें । अनंत शेष प्रभु ने कृष्ण भावनामृत चेतना को पूरे रशिया में फैलाया जिससे धीरे धीरे रशिया से और अधिक भक्त जुड़ने लगे। इसी प्रकार यूक्रेन से अर्जुन जुड़ गए, ओजस्वनि, माधवनंदनी, नंदिनी जुड़ गई ( यह तो नई पीढ़ी है) हरि! हरि! तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने गुरुकुल विद्यालयों को स्थापना की। इस प्रकार नई नई परियोजनाएं खुल रही थी अर्थात अधिक से अधिक कृष्ण भावनामृत और नए प्रोजेक्ट्स का खुलासा हो कुछ सामने आ रहा था। वे खुलासा कर रहे हैं । इस प्रकार वे कृष्ण भावनामृत का प्रचार कर रहे थे और भगवान् के पवित्र नाम को आगे बढ़ा रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने गुरुकुल स्कूल व गौशाला भी शुरू किए।
नमो ब्राह्मणदेवाय गो ब्राह्मण हिताय च। जगत हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः।।
( विष्णु पुराण १.१९.६५)
वर्णाश्रम धर्म के स्थापना की व्यवस्था हो रही थी। श्रील प्रभुपाद ने फार्म कम्युनिटी की स्थापना की। वे न्यूयॉर्क में थे। लेकिन वे हर जगह थे। वे सेंन फ्रांस्सिको, मोंट्रियल में थे। उन्होंने अपनी टीम को इंग्लैंड में भेजा। उन्होंने अपनी टीम को अफ्रीका भेजा। प्रभुपाद स्वयं भी साउथ अफ्रीका गए। वे यहाँ वहां सभी जगह गए। जब प्रभुपाद पश्चिम में गए थे, उनके पास कोई पैसा नहीं था। उनके पास वायुयान की यात्रा का किराया देने के लिए धन भी नहीं था। इसलिए प्रभुपाद कार्गो जहाज से अमेरिका गए थे।
जैसा कि आप जानते ही हो कि श्रील प्रभुपाद जब एक वर्ष न्यूयॉर्क में थे। उन्होंने वहां से सेन फ्रान्सिको के लिए उड़ान भरी। 1966 में यह उनकी पहली हवाई यात्रा थी। उससे पूर्व उन्होंने कभी भी हवाई यात्रा नहीं की थी। जब उन्होंने यूयॉर्क से सेन फ्रांस्सिको के लिए हवाई यात्रा की, तब कहा जा सकता है कि वे अंतर्राष्ट्रीय यात्री बन गए।
वे अब दुनिया भर में यात्रा कर रहे थे, उस समय उन्हें जेटऐज परिव्राजकाचार्य के रूप में जाना जाने लगा।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ९.२२)
अनुवाद:- किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ।
श्रील प्रभुपाद के पास धन की कमी थी लेकिन भगवान् कृष्ण उन्हें उपलब्ध करवा रहे थे। जब प्रभुपाद न्यूयॉर्क में आए थे तब प्रभुपाद के पास आंतरिक रुप से कोई फंड (धन) नहीं था। उनके पास मात्र चालीस रुपये थे अर्थात आठ डॉलर थे, चालीस डॉलर नहीं थे लेकिन फिर वर्ष 1977 में जब वे प्रयाण हुए उन्होंने लगभग चार करोड़ डॉलर की सम्पति अपने पीछे छोड़ी। यह प्रभुपाद की सम्पति कृष्ण की सम्पति है। भगवान् कृष्ण हर जगह, हर स्थान पर कृष्णभावनामृत के प्रचार हेतु धन, सारी सुविधाएं, मैनपावर उपलब्ध करवा रहे थे। प्रभुपाद ने उत्सव जैसे जन्माष्टमी और राधाष्टमी हर जगह सेलिब्रेट( मनाने) प्रारंभ करवाए। उन्होंने लोकप्रिय रथ यात्रा उत्सव का प्रारंभ भी करवाया। उन्होंने प्रसाद वितरण अर्थात फ़ूड फ़ॉर लाइफ का प्रारंभ करवाया।
उन्होंने अपनी शेष जीवन अवधि में अथार्त वर्ष 1965 से 1977 में प्रस्थान करने तक लगभग केवल 10 या 12 वर्षों में यह सब किया। उन्होंने कृष्णभावनामृत आंदोलन में कृष्णभावनामृत का प्रकटीकरण थोड़े समय के भीतर किया है। हम इसे भगवतगीता के श्लोक से अनुभव कर सकते है।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.७८)
अनुवाद:- जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन है, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है। ऐसा मेरा मत है।
यह भगवतगीता का अंतिम वां अथार्त ७०० वां श्लोक है। जहाँ कृष्ण, गौरांग और श्रील प्रभुपाद हैं। यह एक टीम है। सही! जैसे गुरु और गौरांग! गुरु- श्रील प्रभुपाद, संस्थापक आचार्य और गौरांग कृष्ण और कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। आप वहां क्या देखते हैं, आप वहां पर उनके ऐश्वर्य देखते हो। ये ऐश्वर्य अलग-अलग तरह के हो सकते हैं, लोगों को इसका एहसास नहीं होता है कि आध्यात्मिक ऐश्वर्य क्या है? तत्र श्रीर्विजयो- जहाँ गुरु गौरांग का दल( टीम) है जैसे कृष्ण और अर्जुन, गौरांग और प्रभुपाद, वहां जीत निश्चित है अर्थात जीत की गारंटी है। श्रील प्रभुपाद विजेता अथवा विजयी बनें।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् ।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१२)
अनुवाद:-श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
प्रभुपाद ने श्रीचैतन्य महाप्रभु के इस वाक्य को सिद्ध करके दिखाया। परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम। यह संकीर्तन आंदोलन की विजय है। प्रभुपाद के संकीर्तन आंदोलन विजयी हुए। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम श्रील प्रभुपाद में शक्ति का असाधारण समावेश है। नैतिकता और नैतिकता के सिद्धांत की स्थापना हुई। हम श्रील प्रभुपाद की अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ में यह सब होते हुए देख रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद निमित मात्र बने हैं।
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।
जैसे कृष्ण, कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन को निमित बनाना चाहते थे। अर्जुन उनके इंस्ट्रूमेंट(माध्यम) बनकर विजयी हुए, वैसे ही यह वर्ल्ड वाइड( विश्व व्यापी) युद्ध है। प्रीचिंग इज फाइटिंग( प्रचार कर लड़ना है) प्रभुपाद सेनापति भक्त अथवा संकीर्तन आर्मी में कमांडर-इन- चीफ के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने एक नाव उधार ली और कलयुग की राजधानी न्यूयॉर्क को लक्ष्य किया। प्रभुपाद ने वहां टाइम बम अर्थात अपनी पुस्तकों और पवित्र नाम के हथियारों के साथ प्रवेश किया। उन्होंने हरि नाम के बम की वर्षा की और गुलाब जामुन अर्थात बुलेट्स की दावत दी। आप माया को इस्कॉन के गोलियों अर्थात गुलाब जामुन खा कर अपने से दूर रख सकते हो।
भगवान् कृष्ण या गौरांग महाप्रभु ने श्रील प्रभुपाद को एक उपकरण बनाया।
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्
भक्तिवेदांत स्वामी निमित्तमात्रं भव। निश्चित ही गौरांग महाप्रभु की ओर से श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने 1922 में कोलाकाता में उल्टडांगा में अभय बाबू को निर्देश दिया था और भक्तिवेदान्त स्वामी को इंस्ट्रूमेंट अथवा उपकरण बनने को कहा था।
निमित्तमात्रं भव । ‘पश्चिम में जाओ। कृष्णभावनामृत का प्रचार अंग्रेजी भाषा में करो। ‘ यह भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की ओर से भक्तिवेदांत स्वामी को एक निर्देश था। जैसे कुरुक्षेत्र युद्ध क्षेत्र में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया था, वैसे ही यह श्रील प्रभुपाद के लिए निर्देश के समान था। इसलिए प्रभुपाद ने गौरांग के उपकरण बनने की सफलतापूर्वक अपनी भूमिका निभाई । इसके परिणामस्वरूप कृष्णभावनामृत पूरे संसार भर में फैला। तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने पूरे विश्व में प्रचार किया। तब वे 1971 में भारत में वापिस आए। अब वह भारत को भी जीतना चाहते थे। वे त्यौहारों का आयोजन कर रहे थे। बहुत भाग्य की बात है कि श्रील प्रभुपाद ने 1971 में क्रॉस मैदान में उत्सव का आयोजन किया था। यह मानना होगा कि हम पर गौरांग की कृपा हुई।
ब्रह्मांड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति लता बीज।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१)
अनुवाद:- सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्मांड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह- मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह- मंडलों को। ऐसे करोड़ो भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण और गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रुपी लता के बीज को प्राप्त करता है।
वहां लगभग दस हजार, बीस हजार और कभी कभी तीस हजार लोग भी श्रील प्रभुपाद के संपर्क में आए। वहां पर उन्हें श्रील प्रभुपाद और उनके अनुयायियों को देखने और सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं उन भाग्यशाली आत्माओं में से एक था। यह भी कहना चाहिए कि राधानाथ महाराज एक और भाग्यशाली आत्मा थे अर्थात हम दोनों को प्रभुपाद से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। श्रील प्रभुपाद ने तुरंत ही हम पर अपनी कृपा की और हम उनके अनुयायी और तत्पश्चात धीरे-धीरे उनके शिष्य बन गए। धन्यवाद श्रील प्रभुपाद! हमें स्वीकार करने के लिए, हम आपके आंतरिक रूप से ऋणी हैं।
धन्यवाद श्रील प्रभुपाद!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*2 अप्रैल 2021,*
*पंढरपुर धाम.*
हरे कृष्ण 756 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप के लिए जुड़ गए हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
*ओम अज्ञान तिमिरंधास्य ज्ञानांजन शलाकाय।*
*चक्षुरन्मिलीतन्मेन तस्मै श्रीगुरुवे नमः।।*
*नमो ओम विष्णुपादाय कृष्णप्रेष्ठाय भूतले,*
*श्रीमते भक्तिवेदांत स्वामिने इति नामिने।*
*नमस्ते सारस्वती देवे गौरवाणी प्रचारिणे,*
*निर्विशेष शुन्यवादी पाश्चात्य देशतारीणे।*
*जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।*
*श्रीअद्वैता गदाधर श्रीवासआदी गौर भक्त वृंद।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
*श्रील प्रभुपाद की जय!*
अगर आपको याद हैं, सूचना के अनुसार कई दिन पहले दों, तीन एवम् चार अप्रैल को जो 1971 में हरे कृष्ण फेस्टिवल क्रॉस मैदान में हुआ था, आज हम उसी पर चर्चा करेंगें। हमारी विषय वस्तु वही होंगी। 1971 में क्रॉस मैदान में हरे कृष्ण फेस्टिवल से ही मैं जुडा था।उस समय जो अनुभव हुआ उन स्मृतिया का संस्मरण आपको सुनाया जाएगा या कहां जाएगा। ऐसी घोषणा हुई थी आपको याद हैं ना? इसलिए हमने ओम अज्ञान तिमिरंधास्य ऐसा कहा।हमनें श्रील प्रभुपाद का प्रणाम मंत्र भी कहां ।
और श्रील प्रभुपाद की जय ऐसा भी हमने कहा। हमने कहा तो, पता नहीं आपने सुना या नही। जब हमने कहा श्रील प्रभुपाद की जय,आपके मन में ऐसे विचार उठे या नहीं।यह उत्सव 1971 में 25 मार्च को प्रारंभ हुआ था और 4 अप्रैल को खत्म हुआ।वैसे अभी भी 25 तारीख से प्रतिदिन सायंकाल 6:00 बजे कुछ प्रोग्राम हो ही रहा हैं। आशा है कि आप भी वह देखते होंगे। सायं काल विशेष कार्यक्रम 2,3 एवम् 4 तारीख को होगा। यह घोषणा मैं ही कर रहा हूं। विशेषतह: जो 4 तारीख को प्रोग्राम होगा वह 7:00 बजे प्रारंभ होगा। आप लोग उसे भूलना मत। उस कार्यक्रम से जरूर जुड़ना। उस कार्यक्रम में मैं तो रहूंगा ही, लेकिन 1971 में जो-जो भक्त मंच पर थे,जिन्होंने कीर्तन किया या फिर और भी कुछ सेवाएं की उनमें से कुछ भक्त आज भी हैं और कुछ भगवद् धाम श्रील प्रभुपाद के पास जा चुकें हैं,किंतु कुछ भक्त जो आज भी है उनमें से कुछ उस दिन उपस्थित होंगे।उनमे राधानाथ महाराज भी रहेंगे।क्योंकि मैं इस्कॉन से पहली बार जुड़ रहा था इसलिए इस कार्यक्रम में मैं प्रेक्षक था,श्रोता था। वैसे राधानाथ महाराज भी श्रोता थे। जैसे मैं भक्त रघुनाथ था। वह भक्त रिचर्ड थे। वैसे राधानाथ स्वामी महाराज इसके बारे में 4 तारीख को और अधिक बताएंगे।देखते हैं कौन-कौन रहेंगे।इस उत्सव में यदुवर प्रभु रहेंगे, पद्मावती माता जी रहेंगी,विशाखा माताजी रहेगी और भी कुछ भक्त रहेंगे जो कि उस उत्सव में श्रील प्रभुपाद के साथ थे या जिन भक्तों ने इस उत्सव के लिए श्रील प्रभुपाद के साथ पूरा योगदान दिया।यह सब भक्त 4 तारीख को इस कार्यक्रम में रहेंगे और वह कार्यक्रम का अंतिम सत्र रहेगा।यह उत्सव जो हम लोग मना रहे हैं यह उस उत्सव की 50वीं सालगिरह हैं, जब मैने और राधानाथ स्वामी महाराज ने श्रील प्रभुपाद को प्रथम बार देखा या सुना।उस सालगिरह का अंतिम सत्र 4 तारीख को होगा।आप लोग यह भूलना नहीं।आप ओर लोगो को भी आमंत्रित कर सकते हैं। ठीक हैं इसी बातचीत में बहुत समय बीत गया लेकिन आपको कोई बेकार की बातें तो नहीं बताई हैं,आपको कोई ग्राम कथा तो नहीं सुनाई हैं। यह कृष्ण कथा ही हैं।यह हरे कृष्ण उत्सव के संबंधित कथा थी।यह कृष्ण कथा ही कहलाएगी। वह दिन भी कुछ विशेष थे। वह उत्सव भी विशेष था, क्योंकि उत्सव के केंद्र में श्री कृष्ण भगवान थे।श्री कृष्ण भगवान की जय।वहां मंच पर,मंच क्या वह मंदिर ही था। पूरे मैदान को मंदिर ही बनाया था और राधा कृष्ण के विग्रह विद्यमान थे। श्रील प्रभुपाद लोगों को दिखाना चाहते थे,कि भगवान को देखो। “यह कृष्णा हैं”। हरि हरि।”परम भगवान कृष्ण”। कृष्ण ही परम भगवान हैं।कृष्ण केवल परम भगवान ही नहीं हैं,उनका अपना व्यक्तित्व हैं, चरित्र हैं, रूप हैं। हरि हरि।
उस जमाने के हो,या सभी जमाने के लोग स्वयं ही भगवान बनना चाहते हैं।श्रील प्रभुपाद के समय भी भारत के कई सारे प्रचारक खुद को भगवान घोषित कर रहे थे।कई सारे बदमाश स्वयं को भगवान घोषित करना चाह रहे थे। हां मैं ही भगवान हूं।आपको भी भगवान बनाना चाहता हूं। श्रील प्रभुपाद इस बात के कट्टर विरोधी थे।
वैष्णव होने के नाते मंच पर उन्होंने स्वयं ही भगवान यानी राधा कृष्ण के विग्रहों को स्थापित किया था।श्रील प्रभुपाद जब भी मंच पर चढ़ते थे,सर्वप्रथम विग्रहो का दर्शन करते और फिर मन्मना भव मदभक्तों मद्याजी मां नमस्कुरु कहते।श्रील प्रभुपाद आचार्य जो हैं,आचार्य मतलब अपने आचरण से संसार को सिखाने वाले और यह
श्रील प्रभुपाद की कृष्ण भावनामृत का भी तो दर्शन ही हैं कि श्रील प्रभुपाद भगवान के श्री विग्रह का दर्शन करते और उनको साष्टांग दंडवत करते।प्रभुपाद पूरी तरह से कृष्ण भावनाभावित हैं,उनका यह विश्वास कि विग्रह भगवान ही हैं, यह दृढ भावना,दृढ़ विश्वास कि यह भगवान हैं।षडऐश्वर्य पूर्ण भगवान यही हैं। यह विग्रह के रूप में हमें दर्शन दे रहे हैं। विग्रह के रूप में उपस्थित हुए हैं, प्रकट हुए हैं। ऐसी मान्यता,ऐसी समझ श्रील प्रभुपाद ने हमें सिखाई हैं।जब वे आते तो उनका दर्शन करते और उनको प्रणाम करते।कुछ दिन पहले गौर पूर्णिमा के वक्त हम विट्ठल दर्शन के लिए गए थे,तो वहां के जो पुलिस अधिकारी थे और पुरोहित थे वह अपना काम कर रहे थे।
पुलिस तो अपने मोबाइल पर दुनिया का दर्शन कर रहा था और पुरोहित अखबार पढ़ रहा था।वह भगवान के विग्रह से कुछ ही मीटर दूरी पर थे।हम उनसे और दूर थे। वह पास थे। तो कहां हैं उनकी कृष्णाभावना?पूरी मायाभावना। एक दूरदर्शन देख रहे थे,मोबाइल पर इंटरनेट पर सिनेमा देख रहा था और दूसरा आज की ताजा खबर। सारी दुनिया भर की खबरें वह पढ़ रहा था।कहां है कृष्ण भावना, भगवद् भावना? कहां हैं?श्रील प्रभुपाद की जय। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे ।1 दिन यज्ञ हुआ। दीक्षा हो रही थी। दस, बीस हजार लोगों के समक्ष,मंच पर दीक्षा समारोह संपन्न हुआ। दीक्षा भी हो गई और एक विवाह यज्ञ भी हो रहा था। तो श्रील प्रभुपाद दीक्षा दे रहे थे। उसमें दो अमरीकी थे। उनको दीक्षा दी। एक का नाम महंस हुआ। वे पारसी थे और दूसरे वर्धन। वे भारतीय थे।प्रभुपाद उनको दीक्षा दे रहे थे। वहां कोई जात पात का प्रश्न ही नहीं था।ऐसा नही था कि केवल हिंदुओं को दीक्षा दे रहे हो या ब्राम्हण कुल में जन्म लिया है तो उन्हीं को दीक्षा दे रहे हो,नही। प्रभुपाद सभी को दीक्षा दे रहे थे। हरि हरि।
*किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा*
*आभीरशुम्भा यवना: खसादय: ।*
*येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रया:*
*शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नम: ॥ १८ ॥*
*( श्रीमद् भागवत 2.4.18)*
कोई भी, कही का भी हो,किसी भी देश का या जात- पात का या किसी भी धर्म का उनको आश्रय दिया जाना चाहिए। ऐसा भागवत का सिद्धांत है।
*प्रभविष्णवे नम:*
ऐसा है प्रभाव विष्णु नाम का,यह सभी का शुद्धिकरण करेगा जो भी हो।
*दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल,*
*तार साक्षी जगाइ-माधाइ*
वहां पर जो दीक्षा हो रही थी, हम लोग कैसे उसे समझ सकते हैं?हम इस संसार के कलयुग के जन हैं, हम तो जगाई मधाई ही हैं या दीन हीन हैं,या पापी तापी है। पापी हैं पाप से,या तापी है मतलब ताप से ग्रसित हैं। तापी मतलब आदि भौतिक ताप,आदि दैविक,अध्यात्मिक ताप। कष्ट के तीन प्रकार हैं। तो श्रील प्रभुपाद इस भागवत के सिद्धांत के अनुसार सभी को दीक्षा दे रहे थे, सभी को। ज्यादा संख्या तो नहीं थी, लेकिन जो भी थे उनमें वैविध्य था। देसी विदेशी थे, देसी भी थे, विदेशी भी थे, कुछ हिंदू भी थे, एक पारसी भी था। तो यह प्रभुपाद मुंबई आने के पहले कर रहे थे या हरे कृष्ण उत्सव संपन्न करने के पहले। 14 बार सारे विश्व का भ्रमण कर चुके थे और जहां जहां श्रील प्रभुपाद गए थे, वहां वहां के लोगों को उन्होंने दीक्षा दी, हरि नाम की दीक्षा दी, हरि नाम दिया।
*गोलोकेर प्रेम धन हरि नाम संकीर्तन*।
जो प्रेम धन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने धाम से, गोलोकधाम से लेकर आए थे। उसी धन को, उसी नाम को श्रील प्रभुपाद वितरित कर रहे थे। परंपरा में,गौड़ीय वैष्णव परंपरा में दीक्षित कर रहे थे। हरि हरि। और फिर विवाह भी हुआ, एक विवाह यज्ञ हो रहा था, उसमे दूल्हा थे प्रभुपाद के शिष्य स्वीडन के वेगवान और दुल्हन थी ऑस्ट्रेलियन पद्मावती। उनके नाम भी पहले के अलग थे। अभी तो पद्मावती हुआ, एक का नाम हुआ वेगवान। तो कुछ टिप्पणी हो रही थी कि यह एकजुट राष्ट्र हैं। विवाह हो रहा हैं, तो कुछ मिलन हो रहा है। कुछ मैचिंग हो रहा है। यह आध्यात्मिक जगत का एकजुट राष्ट्र हैं। मुंबई में स्वीडन के जेंटलमैन और ऑस्ट्रेलिया की महिला का विवाह संपन्न हो रहा था।उसी के साथ श्रील प्रभुपाद वर्णाश्रम धर्म को भी परिचित करा रहे थे।पाश्चात्य देश में ऐसा गृहस्थ आश्रम और ऐसे विवाह यज्ञ किसी ने नहीं देखे थे तो प्रभुपाद दिखाकर आए थेे। कई विवाह श्रील प्रभुपाद करा कर आये थे। और यहां पर हरे कृष्ण उत्सव के समय एक ऐसा ही यज्ञ हो रहा था। वर्णाश्रम धर्म भी प्रभुपाद सिखा रहे थे।
*चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः*
चार वर्ण और चार आश्रम। हमारेेेेेेेे धर्म का एक नाम वर्णाश्रम धर्म भी हैं।वर्णाश्रम धर्म, सनातन धर्म, भागवत धर्म, जैव धर्म। तो यह वर्णाश्रम धर्म ही भगवान की सृष्टि हैं।
*चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं*
मया मतलब कौन? वक्ता कौन है? श्री भगवान कह रहे हैं
*चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं*
यह मेरी सृष्टि है। चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चार आश्रम ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, यह मेरी रचना हैैैैं। मेरी व्यवस्था हैं। लेकिन यह विभाजन कैसे होगा?
*गुणकर्मविभागशः*
व्यक्ति के गुण और कर्मों के अनुसार। गुुण मतलब कौन से गुण? कई गुण हो सकते हैं। लेकिन यहां पर भगवान जो गुण कह रहे हैं वे तीन गुणों की बात कर रहे हैं।
सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। उस व्यक्ति के वर्ण का विभाजन होगा जन्म से नहीं वर्ण से या गुणों से। हां जन्मे तो हैं विदेश में, इस धर्म में, उस धर्म में,किंतु अब उनका आहार भी सात्विक हैैैैैैैैैैै, उनके विचार भी सात्विक है, सारे कृत्य उनकेेेे सात्विक है। श्रील प्रभुपाद उनको ब्राम्हण दीक्षा भी देेेेे रहे हैं। पहले जो भी थे चांडाल थे या यौवन थे या म्लेच्छा थे या शुद्र थे किंतु अब उनके कर्म देखो, गुण कर्म देखो। वैसे प्रभुपाद ही उनको कृष्ण भावना से परिचित करा के या उनको महामंत्र देकर महामंत्र का जप करवा कर या फिर प्रसाद खिला कर भगवान के विग्रह का दर्शन दिला कर या गीता भागवत का पाठ सुना कर ब्राह्मण बना रहे थे।श्रील प्रभुपाद ने क्या किया था?
*चेतो दर्पण मार्जनम*
उनके चेतना के दर्पण का मार्जन। चेतना का परिवर्तन, चेतना में क्रांति। श्रील प्रभुपाद कहां करते थे, रेवोलुशन इन कॉन्शसनेस। हमारे भावों में क्रांति। अंततोगत्वा क्या भाव हैं?भगवान ने भी कहा हैं आपका भाव सर्वोपरि होता हैं।
*यं यं वापि स्मरन्भावं*
मृत्यु के समय आपका कैसा भाव हैं? *तं तं* वैसे ही हमारा भविष्य या भविष्य का जन्म भी उसी पर निर्भर रहता हैं।श्रील प्रभुपाद ने दुनिया भर के लोगों के भावों में अंतर लाया था। वे सत्व गुनी बन रहे थे। तो श्रील प्रभुपाद उनको ब्राह्मण दीक्षा भी दे रहे थे। उनको ब्राम्हण बना रहे थे।गायत्री मंत्र भी दे रहे थे, महामंत्र तो दे ही रहे थे। क्या उनको ब्राह्मण कहा जाएगा? एक ब्राम्हण को मैं भी मिला था अहमदाबाद में मैंने आपको बताया था शायद, लेकिन दोबारा बता देता हूं।मुझे पता नहीं था कि वह ब्राह्मण हैं,मैं तो उसे लाइफ मेंबर बनाने गया था।उससे जब बातें हो रही थी तो उसने कहा कि मैं ब्राह्मण हूं और इतना ही नहीं उस बदमाश ने.. मैं बदमाश क्यों कह रहा हूं?अभी आपको पता चलेगा। उसने कहा कि मैं ब्राह्मण हूं।लेकिन मैं क्या करता हूं? मैं क्या खाता हूं?बस अंडा वगैरह। तो यह तो कोई बड़ी बात नहीं हैं या मछली।उसने कहा कि मैं गौ मांस खाता हूं। गाय का मांस। यह मेरी विशेष पसंद है। उसने मैं खाता हूं भी नहीं कहा बलकि मैं इसका आस्वादन करता हूं। तो क्या इसे आप ब्राह्मण कहोगे? हां,अधिकतर तो ऐसे ही ब्राम्हण हैं,भारत मे। भारत मे जन्मे हुए ब्राह्मण। लेकिन भगवान कहते हैं।
*गुण कर्म विभागशः*
आपके गुणों और कर्मो के अनुसार विभाजन होगा। तो श्रील प्रभुपाद “इस्कॉन संस्थापकाचार्य”,उनको सब विधी विधान सीखा के,दुनिया भर के लोगो के विचारों मे,भावो मे क्रांति ला रहे थे और केवल विधी ही नहीं निषेध भी सिखा के। यह हैं विधी यह हैं निषेध। यह हैं यम दूसरा हैं नियम। इसे कहते हैं यमनियम। इसको करना चाहिए।यह नहीं करना चाहिए।श्रील प्रभुपाद ने यह सब सिखाया। तो इसका भी प्रात्यक्षिक श्रील प्रभुपाद उस उत्सव मे मंच पर दे रहे थे।कोई कृष्ण भावना का प्रचार पुरे विश्व भर मे कैसे कर रहा है? उसका परिणाम क्या है? *फलेन परिचय*
परिचय कैसे होगा? उसका फल देखो, परिणाम देखो, उसका नतीजा क्या हैं?
उसका परिणाम यह निकल रहा था कि देश विदेश के लोग
*सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज*
कर रहे थे। कृष्ण की शरण मे आ रहे थे, गीता, भागवत का अध्ययन कर रहे थे। हरे कृष्ण महामंत्र का जप कीर्तन कर रहे थे। और उनके आहार विहारो मे क्रांति आ रही थी, दुनिया देख रही थी। तो मैंने भी देखा, मे भी साक्षी था उन बातो का। यह सब देख के तो मे तो समझ ही गया, अपने विज्ञापन मे तो उन्होंने लिखा ही था,अमेरिकन साधु आए है, यूरोपिअन साधु आए है। वहां का सारा माहौल और इन साधुओ को देखा सुना और उनके भाव सुने समझें तो तब मेरा इरादा पक्का हुआ।इस समझ और दृढ श्रद्धा के साथ मेने मन मे सोचा, किसी को कहा तो नहीं मैंने, लेकिन मैंने सोचा,हा ये सचमुच साधु हैं, अमेरिकन हैं तो क्या हुआ? लेकिन साधु तो हैं। वह पहले जो भी थे परंतु अब साधु है, संत हैं, भक्त हैं। हरि हरि। ठीक हैं, में यही पर अपनी वाणी को विराम दूंगा।
हरे कृष्ण।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
1 अप्रैल 2021
780 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
शीर्षक
1.’कुंभ – अमृत का महोत्सव
2.प्रयागराज – वह स्थान जहा भगवान की दिव्य लीलाएं और उनके भक्तों की लीलाएं संपन्न हुई हैं ।
3. ‘कुंभ-मेले’ की असली झलक वैष्णवों के लिए प्रकट होती हैं, क्योंकि इसमें परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज महंत बने हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !
यह पढ़ सकते हो ? (परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज अपने हाथों में एक किताब पकड़े हुए हैं और पूछ रहे हैं क्या आप यह पुस्तक का शीर्षक पढ़ सकते हो ?)
क्या कोई हैं ?
क्या नाम हैं इस किताब का ? क्या लिखा है ?
यह हिंदी में हैं (गुरु महाराज एक और दूसरी किताब दिखा रहे हैं जो उसी किताब का पंजाबी में प्रस्तुतीकरण है )
और यह पंजाबी में है ।
इस्कॉन पदयात्रा प्रेस के प्रयासों से मैंने पहले यह किताब अंग्रेजी में लिखी थी और कई भाषा में अनुवाद होते होते, अंग्रेजी से हिंदी , अंग्रेजी से रूसी,अंग्रेजी से गुजराती और अभी यह पंजाबी भाषा में हैं।
अब पंजाब भर में लोग कुंभ मेला इतिहास का वर्णन पढ़ेंगे ।
गौड़िय वैष्णवो के दृष्टिकोण मैं कुंभ या गौड़िय वैष्णवो की समझ इस कुंभ के संबंध में कुछ भीन्न हैं।इसके अनुसार 4 स्थानों पर कुंभ मेला होता हैं, क्योंकि कुंभ से 4 स्थानों पर अमृत गिरा था।प्रयागराज में ,हरिद्वार में , उज्जैन और नासिक में। इसीलिए उन चार स्थानों पर हर १२ बरसों के उपरांत पुनः वह अमृत प्रकट होता हैं।आप सब दौड़ते हो उस अमृत को प्राप्त करने के लिए या नही?उसको पान करने के लिए ही तो कुंभ मेला संपन्न होता हैं ।
इस समय हरिद्वार में कुंभ मेला हो रहा हैं ,और इस्कॉन का महंत जो कि मैं हूं यहीं बैठा हूं,पंढरपुर में। लेकिन मेला तो हरिद्वार में हो रहा हैं। इस्कॉन का तंबू भी लगा हुआ हैं।हरिद्वार कुंभ मेले में सबका स्वागत हैं।हर कुंभ मेले के अलग अलग स्थल हैं जिनकी महिमा इस ग्रंथ में लिखी हैं।कुंभ मेले का इतिहास तो पहले ही लिखा जा चुका हैं।कुंभ का वर्णन, श्रीमद्भागवत में 8 स्कंध में आप पढ़ सकते हो।
सूर-असुर संग्राम और उसी के संबंध में आप पढ सकते हो।हरि हरि ।कैसे सुर और असुर लड़ रहे थे।उसके पहले और कई सारे इतिहास हैं । यह कोरी कल्पना नहीं हैं । हरि हरि ! तो यह इतिहास हैं ।
कैसे समुद्र का मंथन हो रहा था।इसको श्रीमद्भागवतम् में संक्षिप्त में आप पढ़ सकते हो।कुंभ मेले के संबंध में जो लीलाएं हैं और जो घटनाएं हैं, इसका हम वर्णन हैं। जब सुर और असुर ने मिल कर मंथन करना प्रारंभ किया तब मंदराचल पर्वत डूब रहा था, तो भगवान कछुवा रूप में अवतरित हुए।
*क्षितिर् इह विपुलतरे तिष्ठति तव पृष्ठे*
*धरणि- धारण-किण चक्र-गरिष्ठे*
*केशव धृत-कूर्म-शरीर जय जगदीश हरे*
*अनुवाद :- हे केशव ! जय जगदीश ! दिव्य कछुवे के रूप में आपने* *अपनी विशाल पीठ पर मंदार पर्वत को धारण किया और क्षीरसागर* *के मंथन में देव-दानव की सहायता की । विशाल पर्वत को अपनी* *पीठ पर धारण करने से आपकी पीठ पर एक चक्र का चिन्ह बन* *गया जो अत्यंत सुंदर है । कछुवे का रूप धारण करने वाले हैं* *आपकी जय हो!*
*( छंद -२, श्री दशावतार-स्तोत्र , “गीत गोविंद” श्री जयदेव गोस्वामी*
इस कुंभ मेले के साथ या अमृत प्राप्ति के प्रयास के साथ भगवान के अलग-अलग अवतार प्रकट होते हैं।कछप् ( कुर्म ) रूप और फिर धनवंतरी रूप।जब धनवंतरी कुंभ को लेकर प्रकट हुए,तब सुर और असुर लड़ने लगे।लड़ाई को बंद करने के लिए या फिर असुरों को ठगने के लिए भगवान मोहिनी रूप में प्रकट होते हैं, तो इस प्रकार कई सारे भगवान के अवतार इस कुंभ से हुए हैं ।
और कई रत्न भी इस कुंभ से प्राप्त हुए हैं,इस कुंभ से 14 रत्न प्राप्त हुए हैं। पहले तो जहर प्राप्त हुआ, जो कि 14 रत्न से अलग हैं और शिव जी ने उस जहर को पान किया और वह नीलकंठ हो गए । फिर बालचंद्र भी उत्पन्न हुए।वह भी एक रत्न हे जो शिवजी को दिया गया और वह चंद्र-मौली हो गए ।इससे कामधेनु भी प्राप्त हुई और उसको ब्राह्मणों को दिया गया । हरि हरि ।
बली महाराज को ‘उच्छेश्रव ‘ घोड़ा प्राप्त हुआ,इससे ऐरावत हाथी उत्पन्न हुआ और वह इंद्र को मिला।लक्ष्मी का प्राकट्य इस समय पर हुआ हैं , समुद्र के मंथन के समय उतपन्न होने वाले 14 रत्नों में से एक रत्न लक्ष्मी हैं।वैसे लक्ष्मी के 8 प्रकार भी होते हैं।जो अष्ट लक्ष्मी के रूप में प्रसिद्ध हैं।और यह लक्ष्मी आठवां रत्न थी। और ध्यान से सुनो जो में कहना चाह रहा हूं, भागवतम् के 8 वे स्कंध मे 8 वे अध्याय का 8 वा श्लोक ,8 वे रत्न के बारे मे है जो कि लक्ष्मी हैं और फिर भगवान विष्णु को लक्ष्मी प्राप्त हुई।
*कंठी कौस्तुभ मणी विराजित।*
14 रत्नों में से कौस्तुभ मणी भी एक रत्न प्राप्त हुआ और यह भगवान को दिया गया। इस प्रकार आप और भी ढूंढो कि कौन-कौन से रत्न प्राप्त हुए ,इसके लिए कुंभ मेला ग्रंथ आपको पढ़ना होगा या भागवत /पुराण को पढ़ सकते हों ।
कुंभ मेले के संपन्न होने पर जितने लोग वहां इकट्ठे हो जाते हैं, उतने लोग इस पृथ्वी पर और किसी स्थान पर या उद्देश्य से इकट्ठे नहीं होते ।
इस कुंभ मेले के समय इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा समूह होता हैं।ऐसी खासियत हैं, इस कुंभ मेले की।मैं 1977 में कुंभ मेला गया।वहां पर श्रील प्रभुपाद भी पहुंचे हुए थे। तो हमारा अच्छा मिलन संगम हुआ और वहां त्रिवेणी संगम भी हैं ।वैसे वहां सत्संग होते रहते हैं।वहां साधु समागम भी होते रहते हैं।वह भी मिलन ही हैं। या वह संगम ही हैं। तो 1977 मे श्रील प्रभुपाद के सानिध्य और दर्शन का लाभ प्राप्त हुआ । हरि हरि।
वैसे श्रील प्रभुपाद 1971 मैं पहली बार जब विदेशी भक्तों के साथ भारत लौटे थे,तो प्रभुपाद ने एक कुंभ मेला उत्सव का 1971 में भी आयोजन किया था ,उसके उपरांत 1977 से अब तक इस्कॉन की ओर से कुंभ मेले में हम लोग इस्कॉन का भी पंडाल प्रस्तुति कर रहे हैं। चारों स्थानों पर कुंभ मेला जब लगता है तो इस्कॉन का पंडाल वहां जरूर होता हैं। मैं भी 1977 से इस्कॉन कुंभ मेला महोत्सव में सम्मिलित होता रहा हूँ लेकिन तब मैं इस्कॉन का महंत नहीं था। हरि हरि !
लोग समझतें थे कि इस्कॉन कोई विदेश का संगठन हैं या यह वृंदावन का मंदिर अंग्रेजो का हैं और ये CIAS(केंद्रीय खुफिया एजेंसी /संस्था)के हैं, ऐसे ही कई सारी गलत धारणाएं थी कि यह हिप्पी हैं।लोग ऐसा समझतें रहे,बहुत समय बीत गया हम को समझाते बुझाते हुए और फिर अंत में 2004 मे वह समझ गए।कुंभ मेले अखाड़ों के महंतो की जो यह समाज या समिति हैं उस समिति में इस्कॉन को महंत बनाने के लिए हमारे दीनबंधु प्रभु और सार्वभोम प्रभु के प्रयास 10-20 सालों तक चलते रहे और अंत में 2004 में उज्जैन में उन्होंने इस्कॉन को महंत बनाने का निर्धारण किया और इस्कॉन की ओर से मुझे चुना गया। इस्कॉन और प्रभुपाद की ओर से 2004 में उज्जैन कुंभ मेले के समय हम मैं ही महंत बन गया। इस किताब में यह फोटोग्राफ यदि आप देख सकते हो,मुझे जो इस महान उत्सव का महंत मनाया गया उसकी तस्वीर आप देख रहे थे ।
इस किताब में ऐसा भी वृतांत हैं जब चैतन्य महाप्रभु प्रयागराज गए थे तो वो कुंभ मेला का समय नहीं था, वह माघ मेले का समय था । जब चैतन्य महाप्रभु वृंदावन से जगन्नाथ पुरी लौट रहे थे, तो रास्ते में प्रयागराज आ गया। महाप्रभु ने माघ मेले में गंगा के तट पर कीर्तन किया।माघ मेले का समय था यानी जनवरी-फरवरी का समय। उस समय पर गंगा में जल कम होता हैं धारा तो होती हैं, लेकिन जल कम होता हैं, किंतु चैतन्य महाप्रभु ने वहां पर अपने कीर्तन के द्वारा बाढ़ ला दी। हरि नाम की बाढ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे* *हरे।*
और क्योंकि सारे लोग वहां माघ मेले के लिए एकत्रित हुए थे तो वहां पर जितने भी लोगे एकत्रित थे सब लोग उस कीर्तन से आकर्षित हुए। ना सिर्फ कीर्तन से बल्कि चैतन्य महाप्रभु के सौंदर्य और उनके नृत्य से भी ।सभी लोग आकर्षित होकर उनके पीछे पीछे जा रहे थे। उस समय चैतन्य महाप्रभु वेनुमाधव के दर्शन के लिए जा रहे थे। तो तभी वहां पर रूप गोस्वामी और उनके भ्राता सनातन उन्हें मिले।उनका दूर से दर्शन करते ही उन्होंने प्रणाम किया और फिर मिलन भी हुआ।हरि हरि।।
*॥ नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते*
*कृष्णाय कृष्णचैतन्यनाम्ने गौरत्विषे नमः ॥*
अनुवाद : – हे सबसे महान करुणामई अवतार! आप स्वयं कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हो रहे हैं।आपने श्रीमती राधारानी के सुनहरे रंग को ग्रहण किया है, और आप कृष्ण के प्रेम को व्यापक रूप से वितरित कर रहे हैं।हम आप के प्रति हमारे सम्मानजनक दंडवत प्रणाम करते हैं। (श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु प्रणाम मंत्र रूप गोस्वामी के द्वारा । )
यह सब चैतन्य चरितामृतम में वर्णित हैं कि चैतन्य महाप्रभु किस प्रकार रूप गोस्वामी को 10 दिनों तक उपदेश दे रहे थे और इन ही सब बातों का हमने उल्लेख किया।यह सब आपको कोई नहीं बताएगा की गोडिय वैष्णवो का कुंभ मेले के प्रति क्या दृष्टिकोण हैं जिसका उल्लेख इस ग्रंथ में हुआ हैं।
जब श्रील प्रभुपाद गृहस्थ थे वह प्रयाग में रहते थे और प्रयाग में प्रयाग फार्मासी चला रहे थे और गौडिय मठ से जुड़े हुए थे और उसकी सहायता करते थे।वह गोडिय मठ श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद का था। श्रील प्रभुपाद वहां पर कई सालों तक थे। श्रील प्रभुपाद भी कुंभ मेले में सम्मिलित हुआ करते थे,उसका भी वर्णन इसमें हैं और श्रील प्रभुपाद की दीक्षा भी 1932 -1933 में प्रयाग में ही हुई और वानप्रस्थ भी श्रील प्रभुपाद ने प्रयाग में ही लिया।यह सब आपको बातें पता होनी चाहिए। उनकी धर्म पत्नी ने ,उनको पत्नी कहे या क्या कहें उन्होंने श्रील प्रभुपाद के मोटे मोटे भागवतम ग्रंथ के सैट को बेच दिया था ।जैसे हम कबाड़ी लोगो को हमारी रद्दी का ढेर बेचते हैं , वैसे ही उन्होंने वह बेच के कुछ पैसे लेकर चाय -बिस्किट खरीदें थे। चाय के साथ बिस्किट खाने के लिए ।
जब श्रील प्रभुपाद को यह पता चला ,तो प्रभुपाद ने उनसे पूछा,बोलो क्या चाहती हो?”चाय या फिर में”,तुम चाय चाहती हो या मुझे चाहती हो ? तो उन्होंने थोड़ा हंसी मजाक में कहा था निश्चित ही चाय !! I
तो फिर प्रभुपाद ने कहा कि ठीक हैं।अब पुनः नहीं मिलेंगे। प्रभुपाद ने तुरंत वहां से प्रस्थान किया, सीधे झांसी की ओर। पहले भी वह झांसी जाया करते थे। वैसे श्रील प्रभुपाद की प्रयाग फार्मेसी पूरे उत्तर भारत मे थी और उसके डिस्ट्रीब्यूटर(वितरक) भी थे ,जो उनकी दवाएं बेचते थे। इस बार जब प्रभुपाद घर से गए तो यहां से उनके वानप्रस्थ आश्रम की शुरुआत हुई। इसी के साथ हमने संक्षिप्त में प्रयाग और कुंभ के मेले का वर्णन किया हैं।
नासिक में भी चैतन्य महाप्रभु कुंभ के मेले में गए थे और उन्होंने गोदावरी में स्नान किया था। नासिक का कुंभ का मेला गोदावरी के तट पर होता हैं और प्रयाग का कुंभ का मेला गंगा यमुना सरस्वती तीनों के संगम पर होता हैं। उज्जैन का कुंभ का मेला शिप्रा नदी के तट पर होता हैं। जहां एक समय कृष्ण और बलराम संदीपनी मुनि के आश्रम के गुरुकुल में रहा करते थे।
उज्जैन , नासिक ,हरिद्वार एवं प्रयाग जैसे स्थानों कि महिमा इसमें लिखी हई हैं। हमारा इस्कॉन अब इन चारों स्थानों पर हैं। जैसे कि इस्कॉन प्रयागराज है , इस्कॉन हरिद्वार है , इस्कॉन नासिक है और इस्कॉन उज्जैन भी है ।
हमने इन सभी चारों इस्कॉन मंदिरों का वर्णन इस पुस्तक में किया हैं, इन मंदिरों, स्थानों और जिन विग्रहो कि सेवा वहा की जाती हैं, उन सभी का चित्र आप देख पाओगे ।
इस प्रकार यह ग्रंथ पंजाबी भाषा में उपलब्ध हो चुका है । यदि कोई आपका पंजाबी मित्र है तो आप उसको यह दे सकते हैं और यह भी देखना कि आपके पास यह ग्रंथ हैं कि नहीं। अभी तक मराठी भाषा में अनुवाद नहीं हुआ हैं । वह भी करना हैं ,उसको भाषांतर करने के लिए हमें अनुवादकों की जरूरत हैं ताकि मराठी जनता का भी कल्याण हो।
मैं अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहा हूं की कुंभ मेला ग्रंथ और एक भाषा में प्रकाशित हो चुका है और पंजाब भर में लोग इसको पढ़ेंगे । राधिका बल्लभ दास ब्रह्मचारी प्रभु ने प्रयास किया हैं।वह पहले अरावडे में रहते थे और अब वह नोएडा मे हैं । उन्होंने ही भाषांतर की सेवा भी की और इसको उन्होंने चंडीगढ़ मैं छपवाया और वे इसके वितरण कि योजना बना रहे हैं ,और यह भी कह रहे हैं कि पूरे पंजाब में पदयात्रा करते हुए सभी ग्रामों और नगरो में जाकर इस ग्रंथ का वितरण करने की उनकी योजना है ।
हरि हरि !
गोर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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