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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा*
*पंढरपुर धाम से*
*दिनांक 31 मार्च 2021*
*हरे कृष्ण!*
*जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।*
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७४२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आप भी वैकुंठ जाने की तैयारी कर रहे हो? यस! जैसे तुकाराम महाराज वैकुंठ गए थे। कल हम उनके वैकुंठ गमन की कथाएं व लीलाएं सुन रहे थे, हमनें संक्षिप्त में कहा था। आप को प्रेरित करने के लिए भगवान ने ऐसा दर्शाया हैं।
‘ मुझे दिखाओ, क्या सबूत है, बैकुंठ है या नहीं, क्या बैकुंठ जाना भी होता है, क्या कोई बैकुंठ गया भी है यदि ऐसा कोई पूछता है तब हम बता सकते हैं, हां! हां! संत तुकाराम महाराज गए थे। वैसे कई गए हैं अर्थात असंख्य हैं जो जा रहे हैं लेकिन कभी-कभी भगवान दिखाते हैं, वह घटना प्रकट होती है। दिखती है अथवा दिखाई जाती है। वैकुण्ठ से विमान आ रहे हैं और कुछ विशेष भक्त उस विमान में आरूढ़ हो रहे हैं। तत्पश्चात विमान ने प्रस्थान किया । जैसे तुकाराम महाराज के समय किसी ने भी कोई भी विमान देखा ही नहीं था, केवल शास्त्रों में पढ़ा और सुना था। इसलिए भगवान ने उन्हें दिखाया, भगवान ने भेजा। उस समय कईयों ने देखा था इसके कई साक्षी थे। संत तुकाराम महाराज ने भी कहा
*आम्ही जातो आपुल्या गावा ।*
*आमचा राम राम घ्यावा ।।*
*तुमची आमची हे चि भेटी ।*
*येथुनियां जन्मतुटी ।।*
*आतां असों द्यावी दया ।*
*तुमच्या लागतसें पायां ।।*
*येतां निजधामीं कोणी ।*
*विठ्ठल विठ्ठल बोला वाणी ।।*
*रामकृष्ण मुखी बोला ।*
*तुका जातो वैकुंठाला ।।*
मैं अपने गांव जा रहा हूं। मैं वैकुंठ लौट रहा हूं। राम! राम! हरि! हरि! उनका साधन भजन तो नाम कीर्तन ही था। संत तुकाराम महाराज अपने कीर्तन व अपने भजन के लिए प्रसिद्ध हैं। वे अभंग लिखते थे, कहते थे और गाते थे। गुणगान कर रहे थे
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।*
*इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवलक्षणा। क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मयेअधीतमुत्तमम्।।*
*( श्रीमद्भागवतम् ७.५.२३-२४)*
*अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना भगवान के चरण कमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रुप में मानना उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की ये नौ विद्यियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।*
उनको भगवत प्राप्ति हुई व उन्होंने वैकुंठ के लिए प्रस्थान किया। उनके वैकुंठ जाने का कारण यह श्रवण और कीर्तन बना जिसे हरेर्नामैव केवलम ही कहा गया है। नाम संकीर्तन करने से यह भी सिद्ध हुआ।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* इस प्रकार वह साधक अपनी साधना में सिद्ध होगा और उस मंत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा। तत्पश्चात फिर मंत्र देवता प्रसन्न होंगे। वह साधक जोकि साधना करते-करते सिद्ध हो चुका है अर्थात साधना सिद्ध हुआ है, भगवान ऐसे सिद्ध महात्मा को अपने धाम लौटाने अथवा ले जाने की व्यवस्था करते हैं ।हरि! हरि! वैसे अजामिल भी वैकुंठ गए थे, इसका भी वर्णन है, नारायण! नारायण! उन्होंने कहा इस बड़ी हेल्पलेस ( असहाय ) स्थिति में अब उन्हें कौन बचा सकता है। यमदूत तो पहुंचे थे। हरि! हरि! लेकिन नारायण नारायण पुकारते ही अर्थात नारायण कहते ही नारायण के दूत अथवा विष्णु दूत आ गए। उस समय का नारायण नारायण कहना, यह नामाभास हुआ यह जप क्लीयरिंग स्टेज में था लेकिन वह शुद्ध नाम जप नहीं था इसीलिए उस नारायण नारायण नाम उच्चारण से वह केवल मुक्त हो गया। नारायण नारायण कहते ही विष्णु के दूत वहां पहुंचे गए थे। विष्णु दूतों और यमदूतों के मध्य संवाद संपन्न हुआ। वह भाग्यवान जीव जोकि उस संवाद को सुन रहा था, उसे साधु सङ्ग प्राप्त हो रहा था।
*आदौ श्रद्धा ततः साधु सङ्गोअ्थ भजन क्रिया। ततोअनर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रचिस्ततः। अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति। साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः।।*
*(भक्तिरसाअमृत सिंधु १.४.२५-२६)*
*अनुवाद:- सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है। तत्पश्चात वे गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि-विधानों का पालन करता है। इस तरह में वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। इसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। यह साधन भक्ति का मार्ग है। धीरे-धीरे भाव गहन होते जाते हैं और अंत में प्रेम जागृत होता है। कृष्ण भावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए भगवत प्रेम के क्रमिक विकास की यही प्रक्रिया है।*
अजामिल को विष्णु दूतों का संग प्राप्त हुआ लेकिन ज्यादा समय के लिए नहीं।
*’साधु सङ्ग’ ‘साधु सङ्ग’ सर्व शास्त्र कय। लव मात्र साधु सङ्ग सर्व सिद्धि हय।*
*( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.५४)*
*अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।*
अजामिल को लव मात्रा अर्थात थोड़े समय अथवा कुछ क्षण भर के लिए उसे विष्णु दूतों का संग प्राप्त हुआ। उसने संवाद में जो चर्चा सुनी, आदौ श्रद्धा ततः साधु सङ्गोअ्थ भजन क्रिया सुना। यह अजामिल जोकि कानपुर के पास कन्नौज के था, वे वहां से हरिद्वार गया। वहां उसे साधु संग प्राप्त हुआ था, उससे उन्होंने भजन क्रिया को सीखा था। क्या करना चाहिए? भजन क्रिया अथवा साधना करनी चाहिए। वे हरिद्वार गया और गंगा के तट पर साधना की, भजन क्रिया, भजन के रहस्य को समझा और भजन किया अर्थात भजन क्रिया को अपनाया उससे वह अनर्थों से मुक्त हो गया और तत्पश्चात वह भक्त भी हुआ, पहले मुक्त हुआ था लेकिन साधना करने से भक्त भी हो गए। जब वह भी भक्त हुआ था तब उस समय भी वैकुण्ठ से विमान आ गया। कौन सा विमान भेजा गया। ऐसा भी सुनने में आता है कि वही विष्णु दूत जो कन्नौज में आए थे और जिनका संवाद यमदूतों के साथ हुआ था लेकिन उस वक्त अजामिल योग्य नहीं हुआ था अथवा वैकुंठ प्राप्ति के लिए पात्र नहीं बना था अर्थात उसकी वैकुंठ प्राप्ति की पात्रता नहीं थी उसे वैकुंठ गमन के अधिकार प्राप्त नहीं थे किंतु अब जब उसने साधना की, भजन किया और विशेषतया यह देखा कि अपराध क्या होते हैं? तब अजामिल सारे अपराध टाल रहा था, सेवा विग्रह सेवा अपराध, वैष्णव अपराध, अजामिल का भी वैकुंठ के लिए प्रस्थान हुआ। हरि! हरि! ऐसे कई उदाहरण है। ध्रुव महाराज भी अंततोगत्वा बद्रिकाश्रम पहुंचे थे, वहां पर उनके लिए विमान आया था। भगवान् ने ध्रुव महाराज के लिए वहां पर विमान भेजा था। भगवान् ने ध्रुव महाराज के लिए मृत्यु के सर पर अपना पैर रखकर मृत्यु का दमन किया।
*उग्रं वीरं महाविष्णु ज्वलन्तम सर्वतोमुखं नृसिंह भिषण भद्र मृत्योर्मृत्यु नमायअह।।*
*अनुवाद:- भगवान् मृत्यु की भी मृत्यु होते हैं। यदि मृत्यु को कोई मार सकता है, तो वे केवल भगवान् हैं। जब व्यक्ति भक्त बनता है, तब उस व्यक्ति की मृत्यु जोकि प्रतीक्षा में होती ही है, भगवान् उसको हटाते हैं अथवा उसका दमन करते हैं अथवा मृत्यु की जान लेते है। *मृत्योर्मृत्यु नमायमह।*
श्रीमद्भगवतम में ऐसा वर्णन आया है कि ध्रुव महाराज मृत्यु के सिर पर पैर रखकर छलांग मारकर विमान में आरूढ़ हुए। जब वे विमान में विराजमान होकर वैकुण्ठ जा रहे थे उनको अपनी माँ की याद आयी। वैसे कहना चाहिए था कि शिक्षा गुरु की याद आ गयी। ध्रुव महाराज की माताश्री सुनीति ने ध्रुव महाराज का मार्गदर्शन किया था। ध्रुव महाराज की सुनीति पथ प्रदर्शक गुरु अर्थात मार्ग प्रदर्शक गुरु अथवा प्रांरभिक अवस्था में मार्ग दिखाने वाली गुरु थी। ध्रुव महाराज ने सोचा कि मैं तो वैकुण्ठ जा रहा हूँ। मेरी पथ प्रदर्शक गुरु जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया कि मैं कहाँ भगवान् को प्राप्त कर सकता हूं। (‘जाओ, वन जाओ।’ वह वन वृन्दावन में मधुवन हुआ।) सुनीति के मार्गदर्शन के अनुसार वे वृन्दावन में भगवान को खोजने अर्थात भगवत प्राप्ति के लिए के लिए पहुंचे थे। ध्रुव महाराज, अपने माँ अर्थात पथ प्रदर्शक गुरु के प्रति कृतज्ञ थे इसलिए वे उनका स्मरण कर रहे थे, मैं तो जा रहा हूँ लेकिन मेरी मां सुनीति का क्या होगा, क्या वह भी जाएंगी। ध्रुव महाराज ऐसा सोच ही रहे थे, तब उन्होंने थोड़ा पीछे मुड़कर एक और विमान को देखा जिसमें भगवान, सुनीति को बैठाकर वैकुण्ठ ले जा रहे थे। भगवान् ने यह व्यवस्था की थी। ध्रुव महाराज की इच्छा थी, ध्रुव महाराज कृतज्ञ थे इसलिए भगवान् ने तुरन्त व्यवस्था की। वैसे भी भगवान् कहते हैं और शास्त्र भी कहते हैं कि यदि परिवार में कोई एक भक्त बन जाए तो उसकी कई सारी पीढ़ियां उसके वंशज, पूर्वज (जो पहले जन्मे थे उन्हें पूर्वज कहते है। पूर्व मतलब पहले के और ज मतलब जन्मा अर्थात फ़ॉरफादर्स) (वंशज अर्थात उस वंश में जन्म लेने वाले, भूतकाल और भविष्यकाल में होने वाले) अथवा उस परिवार के सदस्यों का भी उद्धार निश्चित है। भगवान् ऐसी व्यवस्था करते हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि किस प्रकार भगवान् ध्रुव महाराज की माता को भी विमान में बैठाकर वैकुण्ठ ले गए। हरिबोल! हरिबोल!
विमान जैसे आगे बढ़ रहा है, तब कई सारे लोग या स्वर्ग के निवासी भी ऐसा दृश्य देखने वाले होंगे वे भी प्रसन्न थे। हरि! हरि! श्रीमद्भागवतम के चतुर्थ स्कन्ध में ध्रुव महाराज का यह प्रसंग आता है। मैंने अभी अभी जो बात आपसे कही हैं, वहीं पर श्रील प्रभुपाद एक तात्पर्य में लिखते हैं (प्रभुपाद की नम्रता तो देखिए। कैसे देखोगे, यदि हम सुनाएंगे, तो आप देखोगे, हम आपको दिखाएंगे।) कि मेरे शिष्य भी जिन्हें मैंने मार्ग दिखाया अथवा मंत्र दिया है, वे अपनी साधना में सिद्ध होंगे। भगवान् उनके लिए विमान भेजेंगे। उस विमान में विराजमान होकर जब वे वैकुण्ठ के रास्ते में होंगे, तब संभावना है कि वे मुझे (श्रील प्रभुपाद) याद करेंगे। श्रील प्रभुपाद के शिष्य वैकुण्ठ जा रहे हैं। श्रील प्रभुपाद लिखते हैं कि तब भगवान् मुझे भी भगवतधाम ले जाएंगे। हरि! हरि!
ऑल इंडिया पदयात्रा वाले तो समझ गए, पता नहीं सभी की समझ में आया या नहीं कि प्रभुपाद का क्या भाव है। माधवी कुमारी समझ रही हो? हरि !हरि!
*य़ारे देख, तारे कह’ कृष्ण’- उपदेश।आमार आज्ञाय गुरु हञा तार’ एइ देश।*
*( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक ७. १२८)*
*अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो की वह भगवतगीता तथा श्रीमद्भागवत में दिए गए भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।*
ऐसा मार्गदर्शन करो। कृष्ण उपदेश करो, उसका फायदा है। आपने जिन जिनको उपदेश किया, यदि उन्होंने उस उपदेश का पालन किया तब वे वैकुण्ठ गमन के अधिकारी बन जाएंगे तब आप को याद करने की संभावना है। ( वे सोचेंगे, उनकी सहायता से, मुझे ऐसा मार्गदर्शन मिला, उन्होंने मुझे उपदेश किया। मेरी मदद की, इसी का ही परिणाम है कि मैं वैकुण्ठ जा रहा हूँ। (उनका क्या होगा?) तब भगवान् आपको वैकुण्ठ ले जाने की व्यवस्था करेंगे। केवल अपने खुद के प्रयास से ही नहीं जाएंगे। हम प्रचार करेंगे और वे भक्त बनेंगे, वे भक्त भी हमारे लिए प्रार्थना करेंगे, हमें याद करेंगे। तब हमारा भी कल्याण अथवा उद्धार अथवा भगवतधाम लौटना होगा।
*जाऊं देवाचिया गांवां।*
*घेऊ तेथेचि विसावा।।*
*देवा सांगों सुखदुःख।*
*देव निवारील भूक।।*
*घालूं देवासीच भार।*
*देव सुखाचा सागर।।*
*राहों जवल्ली देवापाशीं*
*आतां जडेनि पायांशी।।*
*तुका ह्मणे आह्मी बालें*
*या देवाचीं लडिवालें।।*
ऐसा भी कहा गया है कि जब हम भगवतधाम जाएंगे तब भगवान् के धाम में जाकर विश्राम करेंगे। यहां विश्राम नही करेंगे, आराम हराम है। यहां तो परिश्रम करेंगे, कई भक्त कहते हैं, महाराज, टेक रेस्ट,टेक रेस्ट( विश्राम कीजिए, विश्राम कीजिए। वैसे संत तुकाराम महाराज ने भी कहा, जब भगवतधाम लौटेंगे, वहाँ विश्राम लेंगे अन्यथा आराम हराम है। श्रील प्रभुपाद की जय!
पद्मपुराण में भागवत महात्मय में एक प्रसंग समझाया है। गोकर्ण अपने भ्राताश्री धुंधकारी को उसके उद्धार के लिए कथा सुना रहे हैं। वैसे कई और सारे आ कर बैठ ही गए थे। असंख्य लोग भागवत कथा सुन रहे थे। प्रतिदिन धुंधकारी भागवत कथा के श्रवण से मुक्त हो रहे थे। जब कथा का समापन हुआ तब वह मुक्त और भक्त भी हो ही गए। (आप शायद नोट करते होंगे , हम केवल मुक्त ही नहीं कहते।
मुक्त होना लक्ष्य नहीं है। भक्त होना जीवन का लक्ष्य है। ) कई मुक्त हुए व्यक्तियों में कोई विरला ही भक्त होता है। मायावादी अथवा अद्वैत् वादी का लक्ष्य मुक्ति या मोक्ष होता है लेकिन वैष्णवों का लक्ष्य मुक्ति नहीं होता। इसे केवलम् नरकायते भी कहते हैं,
*कैवल्यं नरकायते त्रिदेशपूराकाशपुष्पायते दुर्दान्तेन्द्रियकालसर्पपटलि प्रोत्खातदंष्टायते। विश्वं पूर्णसुखायते विधिमहेन्द्रादिश्र्च कीटायते यत्कारूण्यकटाक्षवैभवतां तं गौरमेव स्तुमः।।*
*(चैतन्य चरितामृत 5)*
*अनुवाद:- भक्तों के लिए ब्रह्म के अस्तित्व में लीन हो जाने का आनंद नर्क के समान है। उसी प्रकार ,उसे स्वर्ग लोक में उन्नत होना एक दूसरी तरह का मृगजाल लगता है। योगीगण इंद्रिय दमन के लिए ध्यान करते हैं परंतु भक्त को इंद्रियां टूटे हुए दांत वाले सर्प के समान प्रतीत होती हैं। पूरा भौतिक ब्रह्मांड भक्त को आनंदमय लगता है और ब्रह्मा और शिव आदि बड़े देवता उसे कीट के समान प्रतीत होते हैं। इस प्रकार की स्थिति उस भक्त की होती है जिसे श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा का एक छोटा सा कटाक्ष मिला है ऐसे श्रीचैतन्य महाप्रभु को, जो सबसे उदार चरित्र हैं, मैं आदर युक्त प्रणाम करता हूं।*
यह मुक्ति नरकायते अर्थात नरक से भी बेकार की चीज़ है, जो वैष्णव होते हैं, वे इसलिए भक्ति करते हैं। तत्पश्चात वे भक्त हो जाते हैं और भगवान् को प्राप्त करते हैं व भगवतधाम लौटते हैं। धुंधकारी मुक्त व भक्त हुए। कथा का समापन होते ही वैकुण्ठ से विमान आया और इशारा किया कि तुम! तब शायद सभी सोच रहे थें कि मुझे तो विमान में बैठने के लिए नहीं कह रहे, मुझे तो नहीं कह रहे। वैसे जब कथा के समय कोई भक्त कथा सुनते सुनते सो जाता है तब कथाकार कहता है कि ए तुम सोने वाले! तब वह सोने वाला पीछे देखता है, ताकि औरों को यह पता चले कि नहीं, नहीं, मैं नहीं सो रहा था। शायद यह वक्ता किसी ओर की तरफ उंगली कर रहे हैं या किसी अन्य के लिए संकेत कर रहे हैं। वह मैं नहीं हूं।
‘आनेस्टी इज द् बेस्ट पॉलिसी’ हम ईमानदार नहीं होते। यहां पर जब विमान आया और विष्णुदूतों ने जैसा कि उनको आदेश था कि उस व्यक्ति को ले आना, पर सभी सोच रहे थे कि क्या मुझे बुला रहे है, मुझे बुला रहे है मुझे सीढ़ी से ऊपर चढ़ कर विमान में बैठने के लिए कह रहे हैं लेकिन धुंधकारी ही केवल अधिकारी अथवा योग्य पात्र बन चुका था। उस वक्त उस भागवत कथा के वक्ता को भी अजरज लगा कि यह हुआ क्या? कथा तो सभी ने सुनी और आप एक व्यक्ति को वैकुण्ठ विमान में बैठने के लिए कह रहे हो, यह सब बातें हुईं। विष्णुदूतों ने कहा कि कथा तो सभी ने सुनी पर कथा का जो मनन होता है अर्थात कथा के उपरांत जो मनन व चिंतन होता है , वह सभी ने नहीं किया, एक ने ही किया। इसलिए हम उनको ले जा रहे हैं। धुंधकारी भी वैकुण्ठ गए। उन विष्णुदूतों ने कहा कि आप कथा का पुनः आयोजन करो और पहले से बता कर रखो, कथा का मनन करना होता है। उस कथा को ह्रदयंगम करना होता है। केवल कथा को स्टोर( एकत्रित) करके नहीं रखना होता है।
दुबारा कथा करो, सबको सावधान करो, विधि निषेध बता दो। यह निषिद्ध बात है, वैसा ही किया गया। गोकर्ण ने दुबारा कथा का आयोजन किया, सभी आ गए। अब सब दूसरी बार सुन रहे हैं। कथा के उपरांत प्रतिदिन उनका मनन व चिंतन भी हो रहा है। कथा का समापन हुआ, पहली बार विष्णुदूत छोटा सा ही विमान लेकर आए थे। एक व्यक्ति को ले जाना था लेकिन अब हजारों लोगों को ले जाना है। जम्बोजेट्स लैंड हो रहे थे। आप सबका आदेश हुआ है, उठो। सब उठे और सबको विमान में बैठाया। हरि हरि! इस बार स्वयं भगवान् भी आए थे उन्होंने कथाकार गोकर्ण को भी कहा आप भी पधारिये। हम ऐसी बात सुनते हैं कि सन्त तुकाराम महाराज तो ‘सदेह’ वैकुण्ठ गए । ऐसा इतिहास है। रास्ते में उस देह का क्या हुआ यह बात कोई नहीं जानता लेकिन जब उन्होंने देहु से प्रस्थान किया तब उन्होंने अपनी देह के साथ प्रस्थान किया लेकिन अधिकतर दूसरी घटनाएं व लीलाएँ व वैकुण्ठ प्रस्थान की जो बातें है,
वहां पर प्रवासी या वैकुण्ठ गमन के अधिकारी अपने स्वरूप को धारण करते हैं, चतुर्भुज हो जाते हैं। वे भी पीताम्बर वस्त्र पहने हैं, मुकुट है,, कुंडल है। वैकुण्ठ के लिए प्रस्थान करने वाले
*मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः*
*( श्रीमद्भागवतम् २.१०.६)*
*अनुवाद:- परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति मुक्ति है।*
वे अपने स्वरूप में स्थित होकर र्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः अन्य रूप व अन्य देह को त्यागकर अर्थात देह को छोड़ते हैं। आत्मा का भी रूप है, आत्मा का हाथ, पैर, कान, नाक सब कुछ है। वह विमान में विराजमान होगा। वह अपनी सीट लेगा, तत्पश्चात प्रस्थान होगा। ऐसा ही प्रस्थान हुआ, ऐसे कई प्रसंग है। तुकाराम महाराज का प्रसंग एकदम नया है। यह ताजी खबर है लेकिन प्राचीन काल में कई सारे वैकुण्ठ गमन हुए जिसको देखने वाले कई साक्षी रहे, जिसका वर्णन आया है। पर्दे के पीछे तो वैकुण्ठ गमन होते ही रहते हैं लेकिन कुछ वैकुण्ठ गमन भगवान् ने दिखाए हैं। फ़ोटो खींच सकते थे, वीडियो बना सकते थे। सेल्फी भी खींच सकते थे।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
जीव जागो।
यहीं पर विराम देते हैं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
30 मार्च 2021
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद ।
श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादी गौरभक्त वृंद ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
735 स्थानो से आज जप हो रहा है । पांडुरंग पांडुरंग पांडुरंग ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
गौर पूर्णिमा भी संपन्न हुई । संपन्न हुई कि आपने संपन्न की ? कुछ किया आपने ? हां ! सुंदरी श्यामा ? गौर पूर्णिमा के दो दिन बाद मतलब आज एक विशेष घटना घटी , वैसे साल वही नहीं था , संभावना है 60- 70 वर्षों के उपरांत । चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए, चैतन्य महाप्रभु लीला सम्पन्न की फिर ,संत तुकाराम महाराज की जय । देहू गाव मे संत तुकाराम महाराज प्रकट हुये और उसी गावं से संत तुकाराम महाराज अपने गांव गए । अपना गांव कौन सा था ? वैकुंठ था । आज वह दिन है , महाराष्ट्र में तुकाराम बीज कहते हैं , द्वितीय है । आज के दिन तुकाराम महाराज ,
आम्ही जातो आमच्या गावा ।
आमचा राम राम घ्यावा ।।
(संत तुकाराम महाराज)
अनुवाद: मैं अपने गाव लौट रहा हू । मेरा नमस्कार स्विकार करो ।
ऐसा कहते हुए मैं अपने गांव जा रहा हूं । राम राम मंडळीनो राम राम , फिर मिलेंगे आप भी आ जाओ । आप भी किर्तन करो और दूसरी वाली फ्लाइट से आप भी आ जाना ऐसा ही तुकाराम महाराज ने कहा , वह दिन आज का था । देहू गांव में आज बहुत बडा उत्सव होता है , लाखों लोग वारकरी कहो या तुकाराम महाराज के अनुयाई कहो , तुकाराम महाराज के भक्त कहो आज देहूगांव में पहुंचते हैं । 1 साल मैं भी गया था , 1 साल तो गया ही था । देहू गांव में एक विमान आ गया , कहां से आया होगा ? 450 वर्ष पूर्व की बात कर रहे हैं , तब कोई विमानतल या विमान संसार में था ? वह विमान कहां से आया होगा ? वैकुंठ विमान ही आ गया , वैसे देहू पुणे के पास है कहो या पुणे का ही एक अंग हो गया है , थोड़ा दूर था लेकिन पुणे का भाग था ।
पुणे का नाम वैसे एक समय पुण्य नगरी था , इस पुण्य नगरी मे ही यह देहू गांव है , पुणे में बड़ा विमानतल तो हो गया लेकिन उस वक्त , उस दिन भगवान ने देहू गांव को ही विमानतल बनाया । अपने धाम से एक विमान भेजा । हरि हरि । और तुकाराम महाराज आरूढ हुये , उन्होंने बेल्ट वगैरे बांध दिया , वैमानिक भी थे , एयर होस्ट वगैरा भी थे , एयर होस्टेस नहीं थी (हंसते हुए) इस विमान ने उड़ान भरा तुकाराम महाराज जब कह रहे थे कि मैं अपने गांव जा रहा हूं तब कई सारे गांव वाले भी वहां एकत्रित थे। ऐसे इंद्रायणी का तट है वहां ,इंद्रायणी नाम की पवित्र नदी वहां बहती है उसके तट पर ही देहू गांव है । तुकाराम महाराज ने जब कहा , मैं अपने गांव जा रहा हूं , वह देहू गांव के गांव करी लोगोने और तुकाराम महाराज के कई भक्त , शिष्य बड़ी संख्या में वैसे कुछ समय से कुछ दिनों से वहां उपस्थित थे ही । हरि हरि । तुकाराम महाराज कीर्तन कर रहे थे और वह कीर्तन करते समय ,
जय जय राम कृष्ण हरि।
जय जय राम कृष्ण हरि।।
जय जय राम कृष्ण हरि।
जय जय राम कृष्ण हरि।।
जय जय राम कृष्ण हरि।
जय जय राम कृष्ण हरि।।
आप तो सो रहे हो , फिर वैकुंठ कैसे जाओगे ? सोयेगा वह खोयेगा । तुकाराम महाराज का जो वह कीर्तन था वह बडा विशेष कीर्तन था या कुछ विशेष भाव के साथ , विचारों के साथ वह कीर्तन कर रहे थे । वह भगवान को तो चाहते थे किंतु वह भगवान को उनके अपने धाम में भगवत धाम में मिलना चाहते थे , भगवत धाम भी लौटना चाहते थे , ऐसी तीव्र इच्छा के साथ और प्रार्थना के साथ वह कीर्तन कर रहे थे । कई दिनों तक वह अखंड कीर्तन चलता रहा और तुकाराम महाराज की प्रार्थना भी गंगोहम जैसे गंगा का ओघ , गंगा बहती है या गंगा सागर को मिलती है , सदैव मिलती रहती है , हर क्षण मिलती रहती है । गंगा का सागर से मिलन होते ही रहता है वैसे महारानी कुंती ने भी कहा है , “मेरी भक्ति कैसी हो ? मेरी प्रार्थना कैसी हो ? मेरी भाव भक्ति कैसी हो ? गंगोहम जैसे गंगा का ओघ , जैसे गंगा अखंड बहती है ” हरि हरि ।
तुकाराम महाराज ने यह सिखाया , कीर्तन करना है , जप करना है तो कैसे करें कैसे भाव हो ।
वैष्णव आदित्य
श्लोक ३३
कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान्त मद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः *कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।
अनुवाद:-अनुवाद हे भगवान् कृष्ण , इस समय मेरे मन रूपी राजहंस को अपने चरणकमल के डण्ठल के जाल में प्रवेश करने दें । मृत्यु के समय जब मेरा गला कफ , वात तथा पित्त से अवरुद्ध हो जाएगा , तब मेरे लिए आपका स्मरण करना कैसे सम्भव हो सकेगा ?
राजा कुलशेकर की यह प्रार्थना है , संत तुकाराम महाराज प्रार्थना कर रहे थे , राजा कुलशेकर ने प्रार्थना की और श्रील प्रभुपाद ने भी हमको वैसे ही प्रार्थना करने के लिए सिखाया आप जप करते हो तब मैं तो आपका ही हू , मैं तो आपका ही हूं , मैं आपका ही दास हूं , इस दास को सेवा दीजिए । मुझे सेवा के लिए योग्य बना दो ऐसे कई प्रार्थनाएं हैं , हम सुनाते आये हैं । उसमें श्रावय और दर्शय भी है । हे राधे , हे कृष्ण मुझे सुनाईये , आपकी जो कृष्ण के साथ लीला संपन्न होती है उसे सुनाइए और केवल सुनाइए नहीं सुनाते सुनाते मुझे क्या हो जाए? उसका दर्शन हो जाए । तुकाराम महाराज के भाव और भक्ति का क्या कहना ? और यही तो उनसे सीखना है ।
थोर महात्मे होऊनी गेले , चरित्र त्यांचे पहा जरा , आपण त्यांच्या समान व्हावे हाच सापडे बोध खरा.
ऐसे मराठी में कहते हैं । ऐसे संत महात्मा कई हो चुके हैं । तुकाराम महाराज की जय । तुकाराम महाराज संत शिरोमणि थे । उनके चरित्र का अध्ययन करो , सुनो और सीखो , चरित्र त्यांचे पहा जरा ।………..
क्या उनके गुण हमे आ सकते हैं ऐसी लालसा हमे उत्तपन करनी चाहिए।
और फिर उस इच्छा पूर्ति के लिए हमारे प्रयास भी ज्यारी होने चाहिए।
संत तुकाराम महाराज की गाथा हम यहां लेकर बैठे हैं। तुकाराम महाराज ने की हुई कथा या तुकाराम महाराज के उपदेशामृत जिसमें भगवान का नाम रूप गुण लीला का वर्णन भी उनके हृदय प्रांगन में प्रकाशित होता था और फिर उसे वो कहते हैं। और फिर बाद में वह कहते या लिखते लिखते ज्यादा ऐसी स्फूर्ति उनको आती थी और वह कोई सन्यासी वगैरह भी नहीं थे आप यदि सोचेंगे तो वह ब्रह्मचारी है वह सन्यासी है यह सब आपके लिए सुलभ है हम तो घर के गृहस्थ हैं लेकिन तुकाराम महाराज गृहस्थ ही थे और यहां हमे जो अधिकतर श्रोता सुनते हैं वो गृहस्थ ही होते हैं। हम सभी के समक्ष तुकाराम महाराज का आदर्श हैं।
गृहस्थ के समक्ष तो हैं ही तो ऐसी भक्ति उन्होंने करके दिखाएं ऐसी स्पूर्ति उनको होती रहती थी। उनके मुख पद्म से कई सारे वचन निकलते जिन्हें महाराष्ट्र में कहते हैं अभंग तुकाराम महाराज जी ने 4000 अभंगों की रचना की और तुकाराम महाराज के अभंग वेद वाणी ही हैं वैसे श्रील प्रभुपाद जी कहते हैं, नरोत्तम दास ठाकुर जी के गीत हैं या, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी के गीत हैं यदि गुणवत्ता के बारे में विचार करे तो वेद वाणी से अभिन्न हैं वो वेद वाणी ही हैं और जो वेद वाणी हैं वो तुकाराम महाराज जी के वाणी में या मराठी में ये 400 साल पहले की वाणी हैं तो थोड़ी कठिन जाती हैं समझ ने में या फिर बंगला भाषा मे हमारे गौड़ीय वैष्णव लिखे है पदावलि या भजन ये सारी संपत्ति तुकाराम महाराज छोड़ कर गए है ये हमारे देश की सम्पत्ति हैं……
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
कर कटावरी ठेवोनिया
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
तुळसीहार गळा कासे पितांबर
आवडे निरंतर तेची रूप
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
मकर कुंडले तळपती श्रवणी
कंठी कौस्तुभ मणी विराजित
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख
पाहीन श्रीमुख आवडीने
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
अभंग – संत तुकाराम महाराज
जय जय विट्ठल रखु माई
जय जय विट्ठल रखु माई
जय जय विट्ठल रखु माई
उनके साक्षात्कार हैं या उनको जैसे पांडुरंग विट्ठल कृष्ण दर्शन देते थे वैसा ही वे उसका वर्णन करते थे…….
इस अभंग में
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
कर कटावरी ठेवोनिया
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
तो उनको वह ध्यान सुंदर लग रहा है या फिर भगवान के सौंदर्य का वह अनुभव कर रहे हैं साक्षात्कार हो रहा है और उसी को लिख रहे हैं तुलसी हार गळा कासे पितांबर केवल वह भी ठीक है मूर्ति का दर्शन कर रहे हैं आपको मूर्ति का दर्शन करते हुए लिखा है या कह रहे हैं करकटा वरी ठेऊनिया उन्होंने कमर पर अपने हाथ रखे हैं गले में तुलसी की माला पहनी है मकर कुंडले तड़पती श्रवणी कंठी कौस्तुभ मणि विराजीत ऐसी बात नहीं है उनको साक्षात भगवान दिखते और जो विष्णु श्री लगने विग्रह को शीला है हम बद्ध जीवों को ऐसा ही कुछ भगवान के दर्शन करते करते ऐसे ही विचार आते रहते हैं। लोग अपराध करते रहते हैं लेकिन किंतु तुकाराम महाराज जब भी विग्रह का दर्शन कर रहे हैं तो उनको उनके लिए विग्रह ही भगवान है विग्रह तो भगवान हैं ही और आगे क्या है भेद नाहि देवात या उसकी शुरुआत कैसी है भेद नाहि देवात या गोविंद गोविंदा तो है ही गोविंद गोविंद जी मनाला गलियां छंद मग गोविंद ते काया भेद नाहि देवात या तुकाराम महाराज अभंग गा रहे हैं वो वही गा रहे जो उनका जो भाव है उनके जो विचार है उनका जो साक्षात्कार है यह अलग-अलग अभंग पहली बार रचना कर रहे हैं यह रिपीट कर रहे हैं और किसी ने लिखा है उसको दौरा रहे वह उनका ओरिजिनल है वह अभंगो के मूल कर्ता हैं।
हरि हरि कर्म महाराज तुकाराम महाराज का क्या कहना कहने भी नहीं आता हमको….
वैष्णवेर क्रिया मुद्रा कबू न बजाए ऐसा भी तो कहा ही है वैष्णव की क्रिया मुद्रा भाव भक्ति दिव्य विद्वान भी भलीभांति नहीं समझ सकते जो समझ गया तुकाराम महाराज जैसे वैष्णव को तो बन गया वैष्णव खुद ही किंतु जो वैष्णव नहीं है वह कैसे पहचाने गा दूसरे वैष्णव को…
हरि हरि ऐसे तुकाराम महाराज है और ज्यादा तो कुछ कहा नहीं और हम झट से कहते हैं ऐसे तुकाराम महाराज ये सुनकर आपको लगता होगा कैसे तुकाराम महाराज आप ऐसे तो कह रहे हो ऐसे श्री भगवान को मेरे बारंबार प्रणाम है लेकिन ऐसे तो फिर कैसे बता तो दो थोड़ा फिर बाद में कहो ऐसे तो ज्यादा तो कुछ कहा नहीं समय भी नहीं है और कहने को भी नहीं आता तुकाराम महाराज के बारे में तुकाराम महाराज उनकी भाव भक्ति हरि हरि दोबारा मैं ऐसे कह रहा था कि ऐसे तुकाराम महाराज कीर्तन कर रहे थे देहूगांव के बाहर बगल में ही आज के दिन कुछ 400 वर्ष पूर्व और वह कुछ ज्यादा बूढ़े वगरे नही थे उनकी उम्र तो बस 34 साल की थीं।
उसके बाद उन्होंने कहा बस हो गया चलो चलते हैं भगवत धाम लौटते हैं। भगवान के पास पहुंचते हैं वैसे उन्होंने खुप प्रचार भी किया भक्ति का हरिनाम का प्रचार बड़े कम समय में उन्होंने विट्ठल प्राप्ति या भगवत प्राप्ति उनको हुई है। भगवत साक्षात्कार हुआ देहू गांव के पास ही ऐसे तीन पहाड़ है अलग-अलग तुकाराम महाराज की लीला भी हुई है उन तीन पहाड़ो के संबंध में उसमे जो भंडारा नाम का एक गांव है तो उस पहाड़ पर जाकर वहा बैठ गए तो…….
भगवान का दर्शन नहीं होता तब तक मैं तो यहां से ना तो हीलूंगा ना डुलूंगा ऐसा संकल्प लेकर वहां पहुंच गए ऐसे ही ध्रुव महाराज कहो वृंदावन में भी मधुबन में ध्रुव टीला है छोटा सा पहाड़ है वहां ऐसे ध्रुव महाराज को भगवान ने दर्शन दिए देना ही पड़ा भगवान के लिए कोई पर्याय ही नहीं था ऐसा ज़िद्द लेकर बैठे थे ऐसा उनका निश्चय था उत्साह और धैर्य भी था वैसे ध्रुव महाराज का वैसे ही तुकाराम महाराज का और ऐसा ही जब होता है उत्साह निश्चित,धैर्य तभी भगवान मिलते हैं। नहीं तो भूल जाओ मर जाओ तुकाराम महाराज जब वह कीर्तन कर रहे थे उस पहाड़ के ऊपर उनके पास कोई ना संगी था ना ही कोई वाद्य थे वही का पत्थर लेकर उसका ही करताल बनाकर उसको पीटते थे जय जय राम कृष्ण हरि जय जय राम कृष्ण हरि जय जय राम कृष्ण हरि जय जय राम कृष्ण हरि जैसे सूरदास का कीर्तन सुनने के लिए भगवान पहुंच जाते थे तो वैसे तुकाराम महाराज का कीर्तन सुनने के लिए पंढरपुर से भगवान वहा देहु उपस्थित हो जाते थे, और इसीसे यह सिद्ध होता है…..
पद्म पुराण
नाहं तिष्ठामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेषु वा । मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥
अनुवाद :- न मैं वैकुण्ठ में हूँ , न योगियों के हृदय में । मैं वहाँ रहता हूँ , जहाँ मेरे भक्त मेरी लीलाओं की महिमा का गान करते हैं ।
जय हो पांढुरंग पांढुरंग पांढुरंग …..
जहां मेरा कीर्तन होता है और तुकाराम महाराज ऐसे कीर्तनकार होते हैं कीर्तन तो होते रहता है लेकिन तुकाराम महाराज जैसे भक्ति भक्तिमान भक्त कीर्तन करते हैं तो तत्र तिष्ठामि नारद ऐसे भगवान कहते हैं कि वहां भगवान रहते हैं।
और अभी तो थोड़ा कह सकते कि ऐसे थे तुकाराम महाराज कीर्तन कर ही रहे थे कुछ दिनों से और भगवान ने उनकी प्रार्थना पुकार सुनली वार्तालाप हो गया वैकुंठ या गोलोक में गोलोक निवासी भगवान के साथ और उन्होंने व्यवस्था की और विमान भेजा तुकाराम महाराज ने अपना स्थान ग्रहण किया उड़ान भरी और उन्होंने कहा कि मैं अपने गांव जा रहा हूं यह भी कहा तब गांव वाले कह रहे थे हां आपके गांव को जाने के लिए विमान में बैठकर जाने की जरूरत थोड़ी हैं आपका गांव तो यह रहा वह भी नहीं यह रहा तो चलो चलके जाते हैं वहां 2 मिनट में पहुंच जाएंगे जब 2 मिनट का चलना होगा आप विमान में बैठ रहे हो और कह रहे हो मैं मेरे गांव जाता हूं तो तुकाराम महाराज जी जिस गांव को अपना गांव माने थे या कह रहे थे तो वह दूसरा ही गाव था दूसरा ही जगत था वह भगवान के गांव के है वैसे हम भी भगवान की गांव की है लेकिन हमने अपना गांव कानपुर या नागपुर या कोल्हापुर ऐसे पूरी बनाया है।
और हम महाराष्ट्र में चलाता रहता है कोल्हापुरकर, नागपुरकर, आरवडेकर और क्या अमरनगरकर और वैसे यह सब करमर कर ही है करो मरो फिर करने के लिए आओ फिर मरो तुकाराम महाराज तो देहु को ही अपना गांव कुछ समय के लिए मानते थे लेकिन हमारा शाश्वत गांव भगवत धाम ही है। तब तुकाराम महाराज आज के दिन वही पवित्र दिन हैं आज तुकाराम महाराज के वैकुंठ गमन का दिन है। उन्होंने प्रस्थान कर लिए तो कर ही लिए भगवत धाम है कि नहीं वैकुंठ हैं कि नही तो सुनने में आता है यहां तो केवल कुंठ है लेकिन तुकाराम महाराज ने यह सिद्ध कर दिया वैकुंठा धामा की या गोलोक धाम की और संत तुकाराम महाराज की जय आज हम बैठे बैठे कुछ कह रहे हैं हम जाएंगे और तुकाराम महाराज वैकुंठ विमान में उस समय प्रस्थान किया ऐसे ही वह करते रहते हैं सभी भक्तों वृंद वारकरी मंडली और कहते हैं कि वहां एक पेड़ था और पेड़ है जो तुकाराम महाराज ने वहां से उड़ान भरी थी तब जब वह समय जब आता है तो वह पेड़ हिलने लगता है कंपित होने लगता हैं तो सभी समझ जाते हैं कि प्रस्थान हो रहा है यही समय है और फिर कीर्तन और फिर कीर्तन बड़े जोरो के साथ होता है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ठीक है
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक २९.०३.२०२१
जगन्नाथ मिश्र महोत्सव।
हरे कृष्ण !!
गौरांग!
जय निमाई!
645 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। क्या आप तैयार हैं? आप सभी का स्वागत हैं। आज एक विशेष उत्सव हैं।
कल इस समय तक निमाइ नहीं थें किंतु आज हैं,जय निमाइ।
जय सचिनंदन जय सचिनंदन
जय सचिनंदन गौर हरि
सचिमता प्रान धन गौर हरि
युग अवतारी गौर हरि
नदिया विहारी गौर हरि
हमें केवल हरि हरि नहीं गौर हरि कहना चाहिए।
आप सभी को नव वर्ष की शुभकामनाएं।
आज से नया वर्ष प्रारंभ हो रहा हैं।दुनिया के लिए होता हैं क्रिस्ताभध,कईयों का शकाभध होता हैं और गोडिय वैष्णवों का गोराभध होता हैं।अभध मतलब वर्ष।आज से नया वर्ष प्रारंभ हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु को प्रकट हुए 535 वर्ष आज पूरे हुए।
आज प्रातः काल में उठते ही जो सबसे पहला दर्शन मैंने किया वह चंद्रमा का था। ब्रह्म मुहूर्त में पूर्णिमा का चांद निकला था।वैसे आज तो प्रतिपदा हो गई,लेकिन पूर्णिमा के तुरंत बाद का समय हैं, तो लगभग पूर्णिमा जैसे ही चंद्रमा का दर्शन मैंने किया। तो मैंने सोचा कि यह चंद्र तो चैतन्य महाप्रभु के प्राकटय का साक्षी हैं,यह वही चंद्रमा है जो 535 वर्ष पूर्व जब चैतन्य महाप्रभु का प्राकटय हुआ तब भी था और आज भी हैं। बाकी लोग तो आए और प्रस्थान भी कर गए। लेकिन चंद्रमा तो अब भी हैं। उस दिन का और उस समय का चंद्रमा आज भी वही चंद्रमा हैं। हरि हरि।। चंद्रमा को देखकर मैं सोच रहा था कि क्या सच में यह चांद उस वक्त साक्षी था या नहीं था क्योंकि उस दिन तो चंद्रग्रहण था। तो जब चंद्र ग्रहण होता है तो चंद्र दिखता नहीं है वैसे चंद्रमा होता तो हैं ही। केवल ग्रहण लगने की वजह से वह दिखता नहीं हैं। इसलिए चंद्रमा तो था लेकिन चंद्रमा का हमारे लिए दर्शन नहीं था। गोडिय वैष्णव में कहा जाता है कि चंद्रग्रहण का तो चंद्र ने अपने मुंह को छुपाने के लिए बहाना बनाया था।क्योंकि चंद्रमा सोच रहा था कि यह तो भगवान गौर चंद्र प्रकट होने जा रहे हैं। पहले थे रामचंद्र, श्री कृष्ण चंद्र और अभी गौर चंद्र प्रकट होने जा रहे हैं और यह गौर चंद्र कैसे हैं
बहुकोटिचन्द्र जिनिवदनउज्ज्वल ।
गलदेशेवनमाला करेझलमल।।
अनुवाद-
चैतन्य महाप्रभु का मुख मंडल करोड़ों चंद्रमा की भांति उद्भासित हो चमक रहा हैं, तथा उनकी वनकुसुमो की माला भी चमक रही हैं।
हमारा चंद्र सोच रहा था कि ऐसे गौर चंद्र के समक्ष मेरा धब्बे वाला और कलंक वाला मुखड़ा कैसे दिखाउ।इसीलिए चंद्रमा ने चंद्रग्रहण के बहाने से अपना मुंह छुपा लिया।वही 535 वर्ष पहले वाला चंद्रमा आज भी हैं। अभी कुछ समय पहले,ब्रह्म मुहूर्त के समय पर तो था। भक्तों ने चंद्रमा और मेरा,हम दोनों का चित्र भी खींचा। पता नहीं उन्होंने ऐसा क्यों किया।क्योंकि मैं तो महत्वपूर्ण नहीं हूं। स्मरण तो उस वक्त चैतन्य महाप्रभु का कर रहे थे और कुछ भक्त हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे गा रहे थे या जगन्नाथ मिश्र उत्सव में सम्मिलित हुए थे।जगन्नाथ मिश्र महोत्सव की जय। जैसे नंद बाबा ने जो उत्सव मनाया था,उसे नंदोत्सव कहते हैं।जन्माष्टमी से अगले दिन जो नवमी होती हैं, उस नवमी के दिन नंद महाराज ने उत्सव मनाया था।उस उत्सव का नाम हैं,नंदोत्सव।
जब श्री कृष्ण का जन्म हुआ था तो किसी को भी पता नहीं चला था। प्रातः काल में नंदबाबा को पता चला था और जैसे ही पता चला तो वैसे ही इस समाचार को नंद बाबा ने पूरे नंद मंडल में फैला दिया। उस वक्त नंद बाबा ने कैसे समाचार फैलाया था,यह तो भगवान कृष्ण की ही व्यवस्था हैं कि किस प्रकार से उनके जगत में समाचार भेजे जाते हैं। इस कला और शास्त्र का हमें नहीं पता। घर घर में और पूरे ब्रजमंडल में समाचार इतनी तेजी से पहूंचा कि जितना आजकल के मैसेज में भी नहीं पहुंच सकता। आजकल जो हम मैसेज भेजते हैं वह 50-60 लोगों को ही जा पाता हैं,लेकिन नंद बाबा ने तो ब्रज के हर व्यक्ति तक यह समाचार पहुंचाया था। वे नंद महाराज ही अब गोर लीला में जगन्नाथ मिश्र के रूप में प्रकट हुए हैं। श्री कृष्ण ने ऐसी व्यवस्था की,कि श्री कृष्ण ही अब श्री कृष्ण चैतन्य बनने वाले हैं। श्री कृष्ण ने हीं नंद बाबा को जगन्नाथ मिश्र बनाया और खुद बन गए जगन्नाथ मिश्र नंदन।जो नंदनंदन थे,अब वह बन गए हैं,जगन्नाथ मिश्र नंदन।गोर लीला में नंद नंदन भी थे,नंद महाराज भी थे, यशोदा भी थी ,देवकी भी थी,कौशल्या भी थी। हरि हरि।। यह समाचार हर घर पहुंच गया कि निमाई का जन्म हुआ हैं। कुछ व्यक्तियों को तो यह समाचार अगले दिन नहीं बल्कि पहले ही पता चल गया था।जैसे अद्वैत आचार्य को, वैसे तो वह है ही अद्वैत। यानी दो नहीं हैं। वह स्वयं ही भगवान हैं। वे सदाशिव हैं।यह अचरज वाली बात नहीं हैं, कि उन्हें पहले ही पता था।जैसे ही जगन्नाथ मिश्र नंदन का जन्म हुआ वैसे ही शांतिपुर में उसी समय अद्वैत आचार्य को पता चल गया और उनके साथ में हरिदास ठाकुर भी थे। वे दोनों गंगा के तट पर तुरंत ही बड़े हर्ष उल्लास से नाचने और गाने लगे।
जय सचिनंदन।
जय सचिनंदन।
जय सचिनंदन, गोर हरि।।
आसपास के लोगों को तो पता नहीं था,कि हुआ क्या हैं।जब निमाई शचि माता के गर्भ में थे
śrī-rādhāyāḥ praṇaya-mahimā kīdṛśo vānayaivā-
svādyo yenādbhuta-madhurimā kīdṛśo vā madīyaḥ
saukhyaṁ cāsyā mad-anubhavataḥ kīdṛśaṁ veti lobhāt
tad-bhāvāḍhyaḥ samajani śacī-garbha-sindhau harīnduḥ
(चैतन्य चरिता मृत आदि लीला 1.6)
जब निमाई शचि माता के गर्भ में थे और जब अद्वैत आचार्य योगपीठ गए थे,अद्वैत आचार्य ने शचि माता को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया।अद्वैत आचार्य का साष्टांग दंडवत प्रणाम केवल शचि माता के लिए ही नहीं था,बल्कि वह तो निमाई को भी नमस्कार कर रहे थे। जो शचि माता के गर्भ में उपस्थित थे।
वांछा कल्प तरु भयश्रच कृपा सिंधुभय एव च
पति तानां पावनेभयो वैश्य वैष्णवेभयो नमो
नमः
मैं भगवान के उन समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूं ,
जो सबकी इच्छा को पूर्ण करने में कल्पतरु के समान हैं,दया के सागर हैं, तथा पतित्तों का उद्धार करने वाले हैं।
तो अद्वैत आचार्य ने उसी वक्त जान लिया था और वह प्रसन्न थे। भगवान को बुलाने के लिए अद्वैत आचार्य ने ही प्रार्थना की थी कि प्रभु धर्म की हानि हो रही हैं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
(भगवद्गीता 4.7)
अब आपके प्राकट्य का समय आ चुका हैं, कृपया प्रकट होइए। इसीलिए अद्वैत आचार्य ने तो तुरंत ही पहचान लिया था कि भगवान प्रकट हुए हैं और प्रकट होकर कहां हैं? शचि माता के गर्भ में हैं। यही जानकर उन्होंने शचि माता को नमस्कार किया और शचि माता की परिक्रमा भी की।जैसे जब भगवान मंदिर में होते हैं तो हम भगवान की परिक्रमा करते हैं, तो इस समय पर शचि माता का देह ही मंदिर हैं। हरि हरि।। चैतन्य महाप्रभु पूर्णिमा की रात्रि को प्रकट हो चुके हैं। जगन्नाथ मिश्र उत्सव मना रहे हैं।उन्होंने हर जगह सभी को समाचार भेजा हैं और दूर-दूर से केवल लोग ही नहीं बल्कि देवता लोग भी आ रहे हैं। देवता तो प्राकट्य से पहले ही वहां पहुंच चुके थे। उनको पता था कि निमाई का जन्म हुआ हैं। कई सारी देवियां भी आ रही हैं।इंद्र पत्नी शचि भी आ गई हैं। इंद्र पत्नी का नाम भी शचि हैं।शांतिपुर से अद्वेत आचार्य की भार्या सीता ठकुरानी भी आ गई हैं और जगह-जगह से गोर भक्त आ रहे हैं। जैसे श्रीमद्भागवतम् में वर्णन आता है कि जब श्री कृष्ण का जन्म हुआ था तो किस प्रकार से ब्रजवासी दौड़कर नंद भवन में गोकुल की ओर जा रहे थे,इसी प्रकार से आज सब जगन्नाथ मिश्र के भवन में जा रहे हैं।नंद भवन गोकुल में हैं और जगन्नाथ मिश्र भवन मायापुर में हैं।जगन्नाथ मिश्र के भवन में आनंद हुआ हैं। जगह-जगह से लोग कई सारी भेंट लेकर आ रहे हैं। आते ही भक्त कीर्तन भी कर रहे हैं। मैं ऐसा सोच रहा था कि उस समय पर जगन्नाथ मिश्र के भवन में उत्सव कैसे मनाया गया होगा। बहुत कुछ किया गया होगा।अभी बालक निमाई शचि माता की गोद में ही थे, फिर उन्हें पालने में लेटाया गया होगा। यह सब अद्भुत बाते हैं।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।
(भगवद्गीता 4.9)
उनके जन्म और कर्म की लीलाएं सब दिव्य,अद्भुत और अचिंतय हैं। भगवान अब शिशु बने हैं।सारे संसार के जो निवास हैं जगन निवास, सारा जगत जिनमें निवास करता हैं, सारा ब्रह्मांड जिनमें हैं, वही भगवान आज शिशु बने हैं। जगन्नाथ मिश्र भवन में शचि माता की गोद में शिशु रूप में विराजित हैं। सभी उस बालक को आशीर्वाद दे रहे हैं। स्वागत भी कर रहे हैं। स्वागतम निमाई,सुस्वागतम निमाई। तुम्हारा स्वागत हैं निमाई।सब लोग अपने अपने ढंग से स्वागत कर रहे हैं और शुक्रिया अदा कर रहे हैं।आपके प्राक्टय के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। हम आपके आभारी हैं। सबसे ज्यादा तो अद्वैत आचार्य ने आभार प्रकट किया होगा। क्योंकि उनकी प्रार्थना को सुनकर ही भगवान प्रकट हुए हैं। सारे संसार ने ही उनका आभार प्रकट किया होगा। क्या आप भी आभार प्रकट करना चाहते हो? आप भी आभारी हो या नहीं? विदेशों में एक उत्सव होता है थैंक्सगिविंग सेरेमनी। लेकिन उनकी पद्धति अलग हैं, हमारी अलग। हरि हरि।।तो हमें भी भगवान का शुक्रिया अदा करना चाहिए। हमें भी उनका स्वागत करना चाहिए। कल्पना करो कि आप भी जगन्नाथ मिश्र के घर पहुंचे हैं, आपको भी बुलावा आया हैं। आज से 535 वर्ष पूर्व तो नहीं आया था। ना जाने उस समय हम कहां थे। मानव थे या दानव थे, ना जाने क्या थे। कौन थे। कहां थे। निश्चय ही हम और किसी भावना में होंगे। अपनी ही दुनिया में होंगे। हमने ध्यान ही नहीं दिया होगा कि भगवान प्रकट हुए हैं। किंतु आज तो हम उस उत्सव में भाग ले सकते हैं। भगवान की हर लीला नित्य लीला हैं, इसलिए जगन्नाथ मिश्र सचमुच आज उत्सव मना रहे हैं। पूर्णिमा के अगले दिन होने वाला यह उत्सव, जगन्नाथ मिश्र उत्सव यह एक नित्य उत्सव हैं। एक ही साथ चैतन्य महाप्रभु बालक भी हैं, निमाई भी हैं, सन्यास लेने के लिए प्रस्थान भी कर रहे हैं, वह खांटवा भी गए हैं, और सन्यास भी ले लिया हैं।यह सारी लीलाएं नित्य लीला हैं।
adyapiha sei lila kare gaura-raya,
kona kona bhagyavan dekhibare paya
(भक्ति विनोद ठाकुर नवदीप महातमय प्रमाण खंड)
हम उस समय तो भाग नहीं ले सके तो आज तो हम भाग लें ही सकते हैं।उत्सव मना ही सकते हैं और आज हम उत्सव मना भी रहे हैं।जब किसी जन्म उत्सव में हम जाते हैं तो कुछ उपहार लेकर जाते हैं और यह तो पहला ही जन्मदिन है निमाइ का। तो जो लोग वहां उत्सव में सम्मिलित होने के लिए आ रहे थे और जन्म दिवस मनाने के लिए आ रहे थे वह तो उपहार ला ही रहे थे किंतु निमाई भी बदले में उन्हे भेंट दे रहे थे।
dadāti pratigṛhṇāti
guhyam ākhyāti pṛcchati
bhuṅkte bhojayate caiva
ṣaḍ-vidhaṁ prīti-lakṣaṇam
आपस में लेनदेन चल रहा था। केवल लेना और लेना ही अच्छा नहीं हैं। केबल लेते जाओ और देने कि मत सोचो,यह अच्छा नहीं हैं। जैसे प्रभुपाद कहा करते थे कि जब भारतीय विदेश जाते हैं,तो कुछ लेने के लिए जाते हैं। जैसे अगर विद्यार्थी गए तो शिक्षा लेने के लिए जाते हैं,राजनीतिज्ञ ब्याज लेने के लिए जाते हैं। सब लोग केवल लेने के लिए ही जाते हैं। प्रभुपाद ने कहा कि मैं आपके देश में लेने के लिए नहीं बल्कि देने के लिए आया हूं।प्रभुपाद ऐसे पहले भारतीय हैं जो देने के लिए गए और क्या दिया उन्होंने? उन्होंने भारत की तरफ से भेंट दी। भारत की भेट। श्रील प्रभुपाद ने सारे संसार को भगवान दिए।
कृष्ण सॆ’ तॊमार, कृष्ण दितॆ पारो,
तॊमार शकति आछॆ
आमि तो’ कांगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बोलि,
धाइ तव पाछॆ पाछॆ
(भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित)
आपके पास कृष्ण है और उस कृष्ण को हमें दे सकते हैं।
ऐसे ही कुछ अमेरिकी कुछ पर्याय ढूंढ रहे थे या भगवान को खोज रहे थे या वे लोग शांति की तलाश में थे,तो जब वह प्रभुपाद से मिले तो वे मांग कर रहे थे। प्रभुपाद ने उनको कृष्ण दिए,भगवान का नाम दिया और भगवद्गीता यथारूप दी और साथ ही साथ अपनी संस्कृति दे दी, गौ सेवा दी, कृष्ण प्रसाद दिया।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।।(भगवद्गीता 9.26)
हरि हरि।।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सभी को भेट दे रहे हैं, कौन सी भेज दे रहे हैं? गोलोकैर प्रेम धन हरि नाम संकीर्तन।चैतन्य महाप्रभु गोलोक वृंदावन से आते आते जो वहां की सबसे कीमती वस्तु हैं गोलोक का प्रेम धन वो अपने साथ में लाए और उन्होंने वितरण शुरू कर दिया। भेट ले भी रहे थे और भेट दे भी रहे थे। आज जो आप इस समय उत्सव में सम्मिलित हो आप कृष्ण और राम नाम के हीरे मोती ले लो,यह मोती वितरित किए जा रहे हैं।लूट सको तो लूट लो। यही अवसर हैं, लूटो और बांट दो। इस प्रकार यह उत्सव संपन्न हुआ।
जगन्नाथ मिश्र महोत्सव की जय।
आप सब की उपस्थिति के लिए आभार।
हरे कृष्णा।।
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक १७.०३.२०२१
हरे कृष्ण!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥
अर्थ:-श्रीचैतन्यमहाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो।
अब जप रोक कर श्रवण कीजिये।
वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे। यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे।।
( श्रीमद् भागवतम् १.१.१९)
अर्थ:- हम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं, जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है। उनके साथ दिव्य संबंध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है, वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं।
हम कभी थकते ही नहीं जैसे शौनक आदि मुनियों ने कहा था। वे कभी थके नहीं। गो ऑन टॉकिंग। जप चर्चा श्रवण किजिए।
हरि! हरि!
आज ६३० स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। गौर कथा प्रारंभ हो रही है। आज कथा थोड़ी छोटी होगी शायद आपने घोषणा सुनी ही होगी। हम लगभग 7:15 बजे तक यह गौर कथा करेंगे। तत्पश्चात 8:00 बजे पुन: कथा प्रारंभ होगी, वह कथा 8:00 से 9:00 तक अंग्रेजी में होने की संभावना है, ठीक है। इस कथासत्र के अंत में आपको पदमाली प्रभु पुनः सूचना दे देंगे।अन्य भी दिव्य कार्यक्रम है, उसकी सूचना भी और कल की भी सूचनाएं भी पदमाली प्रभु आपको देंगे। कल गौर पूर्णिमा महोत्सव है। गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! कल प्रातः काल में ही एकलव्य प्रभु का सन्यास दीक्षा समारोह भी है। आप सादर आमंत्रित हो, एकलव्य भी आप को आमंत्रण दे सकते हैं। वैसे उन्होंने कुछ दिन पहले दिया था। हम प्रतिदिन गौर कथा कर ही रहे हैं और ना जाने कितनें दिनों से हम गौर कथा करते आ रहे हैं। गौर पूर्णिमा तो आ गई लेकिन कथा का अंत तो नहीं हो रहा है और ना ही होने वाला है। कथा कभी समाप्त होती है? इतनी सारी कथाएं हैं, इतनी सारी लीलाएं हैं अथवा गौरांग महाप्रभु इतने सारे गुणों की खान हैं व उनके इतने असंख्य परिकर हैं, उनकी कथाएं भी गौर कथाएं ही है। अनंत शेष जैसे श्रीकृष्ण दास कविराज गोस्वामी समय समय पर चैतन्य चरितामृत में लिखते ही रहते हैं, इतना तो मैंने लिखा है, इतना ही मैं लिख सकता हूं, इतनी ही मेरी क्षमता है। हर एक पक्षी की कोई सीमा होती है, जैसे एक प्रकार के पक्षी इतनी ऊंचाई तक ही उड़ान भर सकता है। चिड़िया इतनी उड़ान भर सकती है और गरुड़ इतनी ऊंचाई पर उड़ सकते हैं। इसी तरह से कृष्णदास कविराज गोस्वामी कह रहे हैं कि मैं इतना ही कह सकता हूं, मैं इतना ही लिख सकता हूं, किंतु यह कथाएं, लीलाएं अनंत शेष ही कह सकते हैं। अनंत जिनका खुद का भी अंत नहीं है। वे सहस्त्र वदन भी कहलाते हैं शायद वे इसीलिए कहलाते हैं क्योंकि उनके सहस्त्र वदन हैं। सहस्त्र अर्थात हजार और वदन मतलब मुख वाले, सहस्त्र वदन अर्थात हजार मुख वाले। वे भगवान होते हुए अथवा संकर्षण का ही विस्तार होते हुए भगवान के गुण गाते हैं। उन्होंने हजार मुखों से यह गुण गाथा गाई है।
गौरांगेर दु’टि पद, याँर धन सम्पद,
से जाने भकतिरस-सार।
गौरांगेर मधुर लीला, याँ’र कर्णे प्रवेशिला,
हृदय निर्मल भेल ता’र॥1॥
जे गौरांगेर नाम लय, तार हय प्रेमोदय,
तारे मुइ याइ बलिहारि।
गौरांग-गुणेते झुरे, नित्यलीला ता’रे स्फुरे,
से-जन भकति अधिकारी॥2॥
गौरांगेर संगिगणे, नित्यसिद्ध करि’ माने,
से याय ब्रजेन्द्रसुत पाश।
श्रीगौड़मण्डल-भूमि, येबा जाने चिन्तामणि,
ता’र हय ब्रजभूमे वास॥3॥
गौरप्रेम रसार्णवे, से तरंगे येबा डुबे,
से राधामाधव-अन्तरङ्ग।
गृहे वा वनेते थाके, ‘हा गौराङ्ग!’ ब’ले डाके,
नरोत्तम मागे ता’र सङ्ग॥4॥
अर्थ
(1) श्रीगौरांगदेव के श्रीचरणयुगल ही जिसका धन एवं संपत्ति हैं, वे ही वयक्ति भक्तिरस के सार को जान सकते हैं। जिनके कानों में गौरांगदेव की मधुर लीलायें प्रवेश करती हैं, उनका हृदय निर्मल हो जाता है।
(2) जो गौरांगदेव का नाम लेता है, उनके हृदय में भगवत्प्रेम उदित हो जाता है। मैं ऐसे भक्त पर बलिहारी हो जाता हूँ जो गौरांग के गुणों में रमण करता हो, उसके अंदर ही श्रीश्री राधा-कृष्ण की नित्य-लीलाएँ स्फुरित होती रहती हैं, वे ही भक्ति के अधिकारी हैं।
(3) श्रीगौरचन्द्र के संगियों को नित्यसिद्ध माननेवाला वयक्ति व्रजेन्द्र-सुत श्रीकृष्ण के पास उनके परमधाम को जाता है तथा श्रीगौड़मण्डल की भूमि को जो चिंतामणि के सदृश (अप्राकृत) मानता है, वह व्रजभूमि में वास करता है।
(4) जो गौरसुन्दर के प्रेमरस की तरंगों में डूब जाता है, वह श्रीराधामाधव का अंतरंग पार्षद बन जाता है। अतः वह गृहस्थ आश्रमी हो या त्यागी, यदि वह गौरसुन्दर के प्रेमरस सागर में डूबकर “हा गौराङ्ग! हा गौराङ्ग!” कहकर पुकारता है, तो नरोत्तमदास ठाकुर उसके संग की कामना करते हैं।
गौरांग महाप्रभु की लीला कैसी है? मधुर लीला है। याँ’र कर्णे प्रवेशिला। यह अनंत शेष भी गौर लीला सुनाते हैं। उनके एक हजार मुखों के पास एक बहुत बड़ी संख्या में श्रोता बैठे हैं। वे हर मुख से वैसे अलग-अलग लीला कथा सुना रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हजार मुखों से एक ही कथा हो रही है, नहीं! जब भागवत कथा के समय या 24 घंटे कीर्तन के समय जैसे मानो बंगाल में कीर्तन होता है, तब उस समय होर्न्स, ट्रंपटस या दस, बीस, पचास स्पीकर आदि लगाते हैं, उसको दो चार मील तक दूर पहुंचा देते हैं लेकिन सभी स्पीकरों से एक ही आवाज आती है, एक ही कथा अथवा एक ही कीर्तन सुनाई देता है। वैसी वाली बात नहीं है लेकिन सहस्त्रवदन जब कथा करते हैं तब वे हजार मुखों से हजार प्रकार की कथा सुना रहे हैं। सृष्टि जब से प्रारंभ हुई है तब से कथा प्रारंभ हुई है और कथा हो ही रही है। हरि! हरि! यह समझ लो कि गौर कथा करने वाला मैं अकेला थोड़ा ही हूं, गौर पूर्णिमा का समय आ चुका है। गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! अब गौरांग महाप्रभु की कथा सर्वत्र हो रही है। मैं तो सिर्फ एक कथाकार कहो या एक वक्ता हूँ लेकिन इस्कॉन अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ में कई सारे भक्त कथा कर रहे हैं। कुछ तो सप्ताह भर के लिए कथा करेंगे, इंटरनेट पर कथाएं हो रही हैं। जहां कथा, वहां कथा, कथा ही कथा। हर भक्त अलग-अलग कथा सुना रहा है। कोई आदि लीला की कथा, कोई मध्य लीला की कथा, कोई अन्त्य लीला की कथा सुना रहा है। कोई कथाकार चैतन्य चरितामृत से कथा कर रहे हैं। कोई कथाकार चैतन्य भागवत से कथा सुना रहे हैं, कोई चैतन्य मंगल से कथा करते होंगे लेकिन यह कथा करते-करते समाप्त होने वाली नहीं है। जैसे कथा करते हैं, कथाकार के मन में भी कई सारे भाव उठते हैं, प्रकाशित होते हैं।
जैसा कि महाप्रभु ने कहा है
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥
( शिक्षाष्टकम्)
अनुवाद:-श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं का वर्णन होता है। कितना आनंद ? यह तो आनंद का सागर हो गया लेकिन वह तो बहुत हो गया। आनन्दाम्बुधि मतलब आनंद का सागर है। यह आनंद का समुंद्र है लेकिन यह आनंद से भरा हुआ कुआं या तालाब या सरोवर नहीं है। यह आनंद का सागर है। इस कृष्णभावनामृत का जीवन में जब हम हरि कथा, गौर कथा या हरि कीर्तन करते हैं तब हम उस आनंद के सागर में गोते लगाते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा आनन्दाम्बुधिवर्धनं यह जो आनंद का सागर है, यह वैसा सागर नहीं है जैसे पृथ्वी पर होते हैं। उसकी एक सीमा होती है कि यहां से आगे नहीं बढ़ सकते। उन सागरों को एक आदेश होता है।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। ( श्रीमद् भगवदगीता ९.१०)
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।
हर सागर की एक अपनी सीमा है। उस सीमा का एक बंधन है, लेकिन यह आनन्दाम्बुधि कैसा है? यह आनन्दम्बुधिवर्धनम अर्थात आनंद ही आनंद है। यह प्रेम का सागर है
अवतीर्णे गौरचंद्रे विस्तीर्णे प्रेम सागरे। सुप्रकाशित- रत्नौघे यो दीनो दीन एव सः।।
अर्थ- श्री चैतन्य महाप्रभु का अवतरण अमृत के विस्तीर्ण सागर के समान है। जो व्यक्ति इस सागर के भीतर से बहुमूल्य रत्न नहीं बीनता, वह निश्चय ही दरिद्रों में अति दरिद्र है।”
आप ने पहले सुना ही होगा, अवतीर्णे गौरचंद्रे- गौरचंद्र उदित हुए, प्रकाशित हुए अथवा अवतीर्ण हुए। तत्पश्चात उन्होंने प्रेम सागर का विस्तार किया। हम इन पृथ्वी के सागरों के नाम जानते सुनते हैं, यह पैसिफिक महासागर है, यह अटलांटिक महासागर है, यह हिन्द महासागर, यह बंगाल की खाड़ी है, उनका तो सीमा है लेकिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जिस सागर को ले आए, उसकी कोई सीमा नहीं है। इसलिए अंग्रेजी में लिखा है shoreless ocean, ( शोरलेस ओशन) शोर का अर्थ तट अथवा सीमा होता है अर्थात सुमंदर का किनारा लेकिन यह जो कृष्णभावना का आनन्द का सागर है, इसका कोई तट नही है अर्थात कोई सीमा नहीं है।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं । हरि! हरि!
वैसे कथा करना और कथा सुनना ही जीवन है और क्या करना है? और कुछ करने को नहीं हैं। भगवदधाम और वृन्दावन में क्या करते हैं? गोपियां, नंद बाबा, यशोदा अथवा कृष्ण के मित्र मंडल है, वे क्या करते हैं, वे बस कृष्ण के संबंध में बोलते रहते हैं।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
मच्चित्ता उनका चित मुझ में लगा होता है।मद्गतप्राणा उनके प्राण मुझ में समर्पित होते है। ऐसे अपने भक्त को परिचय देते हुए कृष्ण अर्जुन को सुना रहे हैं कि यह मेरे भक्त की पहचान है। मच्चित्ता उसकी चेतना, भावना मेरे चरणों में लगी रहती है। चित्ता यही चेतना है। यही अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ है। यह भावनामृत भी है।
ऐसी कथाएं या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कथाएं लिखी। मुरारी गुप्त, मायापुर में रघुनाथ दास स्वरूपे रघु, रघुनाथ दास गोस्वामी दिन में लीला को देखा करते थे। फिर हो सकता है कि मध्यान्ह या सायंकाल के समय लीला को लिखते होंगे। उसी के आधार पर चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत आदि ग्रंथों की रचना हुई है। हरि हरि। श्रील वृंदावन दास ठाकुर ने चैतन्य भागवत की रचना की। चैतन्य भागवत के लेखक स्वयं श्रील व्यासदेव ही थे। वे श्रीमद्भागवत के तो थे ही और साथ ही चैतन्य भागवत के कथाकार भी श्रील व्यासदेव थे। व्यास मतलब विस्तार अर्थात विस्तार करने वाले। इन सभी लेखकों में केवल वृंदावन दास ठाकुर ही नहीं हैं। कृष्णदास कविराज गोस्वामी भी हैं, इन्होनें यह कथाएं, लीलाएँ लिखकर कथाओं का विस्तार किया है। कथाकार कथा सुनाते हैं और विस्तार करते हैं। यह कथा तो बंगला भाषा में ही थी अर्थात थोड़ी सीमित ही थी। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा- अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। तब श्रील प्रभुपाद ने सोचा- मुझे अंग्रेजी भाषा में प्रचार करना है, तो मुझे ग्रंथ अंग्रेजी भाषा में लिखने भी होंगे और बोलने भी होंगे। श्रील प्रभुपाद ने अंग्रेजी भाषा में ग्रंथ लिखे। गीता, भागवत पर भाष्य लिखा। चैतन्य चरितामृत का अनुवाद किया। श्रील प्रभुपाद व्यास हो गए अथवा व्यास के प्रतिनिधि हुए। यह लीला कथा बंगला भाषा में थी, यह सीमित थी। प्रभुपाद ने उस भाषा और उस लीला कथा का विस्तार किया। अंग्रेजी में उपलब्ध करवाया। जब अंग्रेजी में यह कथा हो रही थी, तब इसका विस्तार हुआ। उस समय प्रभुपाद ने अपने शिष्यों से लॉस एंजिलिस में कहा व्यास आसन पर बैठते ही कहा जितनी भी भाषा में सम्भव हो सके, मेरी ग्रंथों को छापों। मैंने अंग्रेजी भाषा में जितने भी ग्रंथ लिखे हैं जिसमें चैतन्य चरितामृत भी है, लिखने में कुछ समय लगा होगा (यह भी चैतन्य चरितामृत के सम्बंध में भी कुछ कथा हो सकती है।) जब संकलन तथा अनुवाद हुआ,
चैतन्य चरितामृत का जब संकलन व अनुवाद हुआ तब प्रभुपाद ने अपने लॉस एंजेलिस में बीबीटी स्टाफ शिष्यों से कहा अब इस चैतन्य चरितामृत को प्रिंट(छापों) करो। शिष्यों ने पूछा -श्रील प्रभुपाद, हमारे पास कितना समय है? श्रील प्रभुपाद ने कहा – केवल दो महीने। दो माह में चैतन्य चरितामृत के सत्रह वॉल्यूम अर्थात एक दर्जन से अधिक,15 या 16 या 17 इतने मोटे-मोटे ग्रंथ, आपने देखे ही होंगे, इसका प्रकाशन हुआ जो कि एक चमत्कार जैसा है। चैतन्य चरितामृत का लेआउट, डिजाइन, उसकी पेंटिंग, प्रिंटिंग, पैकेजिंग को भक्तों ने दो महीने के अंदर अंदर करके दिखाया। चैतन्य चरितामृत की जय! श्रील प्रभुपाद की भी जय और उन भक्तों की भी जय जिन्होंने केवल उन दो महीनों में इसे किया और यह अद्भुत घटना घटी। आपको इस बात को नोट करना चाहिए।
प्रभुपाद के आदेशानुसार यह चैतन्य चरितामृत अब कई भाषाओं में उपलब्ध है। इसी के साथ ही यह व्यास जैसा कार्य हो रहा है ।चैतन्य चरितामृत का विस्तार हो रहा है। बांग्ला से अंग्रेजी और अब चाइनीस भाषा में भी अनुवाद हो रहा है , हिब्रो भाषा, अरेबिक, स्वाहिली में भी अनुवाद हो रहा है। जर्मन जपानी तो बड़ी कॉमन लैंग्वेज है। अब इन सभी भाषाओं में चैतन्य चरितामृत इस संसार के लोग पढ़ सकते हैं। अब आप कथा अपनी अपनी भाषा में पढ़ो और गौर कथा करो जैसे कि अभी हो रही है, इसी के साथ यह आनन्दम्बुधिवर्धनं भी हो रहा है। विस्तीर्णे प्रेम सागरे गौरचंद्रे गौरांग महाप्रभु अब कल प्रकट होने वाले हैं या 535 वर्ष पूर्व प्रकट हुए। वैसे जो लीलाएं वे अपने निजधाम में सब समय खेलते व करते रहते हैं, उन्हीं लीलाओं का प्रदर्शन किया। वह धाम फिर गोलोकधाम भी है उसी का विस्तार या एक्सटेंशन यहां पर है। इस ब्रह्मांड में भी गौरांग महाप्रभु का नवद्वीप धाम है वहां भी नित्य लीला संपन्न होती है लेकिन नित्य लीला तो अप्रकट होती है। इस नवद्वीप या वृंदावन में तो आपको बताना पड़ता है कि यूपी में वृंदावन है, बंगाल में मायापुर है, इसके बिना आपको समझ में नहीं आता है लेकिन जब हम ऐसा कहते हैं तब हम धाम अपराध भी करते हैं। नवद्वीप बंगाल में है, यह कहना अपराध हुआ। यह बहुत बड़ी भारी भूल हो गई या वृंदावन यूपी में है, नहीं! नहीं! यह गलत है लेकिन ऐसा बिना कहे आपको समझ में नहीं आता। आप के पल्ले नहीं पड़ता, क्या करें इसलिए ऐसा बताना पड़ता है कि यूपी में वृंदावन है। वैसे इस ब्रह्मांड में वृंदावन, मायापुर, नवद्वीप, जगन्नाथ पुरी और द्वारका है, यहां पर भी भगवान की नित्य लीला होती है।
आद्यापिह सेइ लीला करे गौरा राया कोन कोन भाग्यवान देखेबारे पाय।
( श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा नवद्वीप महात्मय)
अर्थ:- भगवान् गौरांग इस दिन तक अपने अतीत का निर्वाह कर रहे हैं। केवल कुछ भाग्यशाली आत्माएं, उन्हें निहारने में सक्षम है।
आद्यापिह अर्थात आज भी यहां
आद्यापिह सेइ लीला करे गौरा राया, आज भी गौरांग यहां नित्यलीला कर रहे हैं, कोई कोई भाग्यवान उस नित्य लीला का दर्शन कर सकता है। चार सम्प्रदायों के जो आचार्य हुए हैं, वे अपने अपने समय में यात्रा पर गए थे, वे भी नवद्वीप गए थे। गौरांग महाप्रभु ने रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क, विष्णुस्वामी सभी को दर्शन दिया। रामानुजाचार्य लगभग एक हजार वर्ष पूर्व हुए तब आप कहोगे कि चैतन्य महाप्रभु तो 535 वर्ष पहले हुए और आप कह रहे हो रामानुजाचार्य 1000 वर्ष पूर्व नवद्वीप में गए, उनको फिर कैसे दर्शन हुए, यह कैसी बात है? यह नित्य लीला की बात है। नवद्वीप व वृन्दावन में नित्यलीला, इस नित्य लीला को अप्रकट लीला कहते हैं। यह अप्रकट लीला परदे के पीछे हो ही रही है उसको फिर भगवान प्रकट कर देते हैं। नित्य लीला को अप्रकट लीला कहा है फिर प्रकट लीला, जब गौर पूर्णिमा पर अभिर्भाव हुआ तब अप्रकट की प्रकट लीला सम्पन्न हुई। हरि! हरि! नित्य लीला को प्रासंगिक लीला भी कहते हैं।
भगवान वहां संपन्न होने वाली लीला का दर्शन अथवा प्रकाशित कर आते हैं। हम यह सब लीला कह रहे हैं तो विस्तार हो गया ना। पहले तो बंगाल, उड़ीसा के लोग ही चैतन्य महाप्रभु को जानते थे, हमने तो गौर पूर्णिमा नाम भी नहीं सुना था। क्या सोलापुर की रामलीला ने सुना था? होली पूर्णिमा, होली, धुलंडी, क्या क्या नाम होते हैं शिंगा और इस होली पूर्णिमा के भी कई सारे नाम हैं लेकिन अब सारे संसार में होली को तो कोई याद भी नहीं करता होगा लेकिन गौर पूर्णिमा को सब याद करते हैं। गौरांग महाप्रभु की पूर्णिमा। जैसे कृष्णाष्टमी या रामनवमी, नरसिंह चतुर्दशी, नवमी किसकी? राम की नवमी, अष्टमी किसकी? कृष्ण की अष्टमी, चतुर्दशी किसकी, नरसिंह चतुर्दशी, पूर्णिमा कौन सी? गौर पूर्णिमा। गौरांग महाप्रभु की पूर्णिमा। इस पूर्णिमा के दिन भगवान प्रकट हुए थे। बंगाल व उड़ीसा के लोग जानते थे, उन्होंने थोड़ा-थोड़ा पढ़ा था लेकिन श्रील प्रभुपाद की जय, श्रील प्रभुपाद की व्यवस्था से या कहा जाए, यह सब परंपरा में कार्य होते ही रहते हैं। एक आचार्य यहां तक कार्य को पहुंचा देते हैं, तत्पश्चात अगले आचार्य उसको और आगे बढ़ाते हैं, तत्पश्चात उसके बाद वाले आचार्य उस परंपरा को और आगे बढ़ाते हैं व उसे अन्य स्थानों पर पहुंचाते हैं। चैतन्य महाप्रभु के समय से या उनके पहले से ही जैसे माधवेंद्र पुरी से शुरुआत हो गयी थी। तत्पश्चात श्री ईश्वर पुरी से चैतन्य महाप्रभु
तत्पश्चात ईश्वर पुरी से चैतन्य महाप्रभु तत्पश्चात षड् गोस्वामी वृंद हुए, तत्पश्चात आचार्य त्रयः आ गए, उसके बाद गौड़ीय वैष्णव वेदान्त आचार्य बलदेव विद्याभूषण हुए, भक्ति विनोद ठाकुर हुए। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की जय। भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की जय। भक्ति वेदांत श्रील प्रभुपाद की जय, उन्होंने सारे संसार भर में ढिंढोरा पीटा। सारे संसार भर में जो गौर पूर्णिमा संपन्न हो रही है, उसका श्रेय श्रील प्रभुपाद को ही जाता है या साथ में श्रील प्रभुपाद की ओर से और अधिक अधिक देशों, नगरों, गांव में इस हरि नाम को फैलाया व पहुंचाया
पृथिवीते आछे यत् नगरादि ग्राम। सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
इस भविष्यवाणी को सच करके दिखाने वाले हमारे सारे परंपरा के आचार्य श्रील प्रभुपाद और फिर उनके अनुयायी उनके शिष्य और उनके ग्रैंड शिष्य आप सब को इस हरि नाम का विस्तार अथवा हरि नाम का फैलाने का भी श्रेय जाता है। इसी के साथ आनन्दाम्बुधिवर्धनं आनंद के सागर को वर्धित करना,
जिसका विस्तार व्यास भी करते हैं, ऐसा कार्य भी हुआ है और हो रहा है। इन सब के पीछे गौरांग महाप्रभु का हाथ है। बाकी हम सब या आचार्य भी कहा जाए एक कठपुतलियां ही हैं। कठपुतली वाला कौन हैं? ऊपर वाला अर्थात सबका मालिक एक है। क्या आप मालिक या मालिकन हो। ऐसे बुद्धू या अनाड़ी नहीं बनना। मालिक एक है।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति
( श्रीमद् भगवतगीता५.२९)
अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है।
जब आप इन बातों को समझोगे, तब आपका चित शांत होगा। ऊपर वाला मालिक है।
एकले ईश्वर कृष्ण, आर् सब भृत्य। य़ारे यै़छे नाचाय, से तैछे करे नृत्य।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि
लीला ५.१४२)
अनुवाद:- एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम् नियंता हैं और बाकी सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
वह हमारे मालिक भी हैं और सुहृदं भी हैं। सुहृदं सर्वभूतानां। इन बातों को जानकर श्रील प्रभुपाद भगवान् कृष्ण के इस वचन को शांति सूत्र भी कहते थे।
भगवान भोक्ता हैं। (दिन में आप भगवत गीता को खोल कर देख सकते हो, उसे और अच्छे से समझ सकते हो उसका तात्पर्य पढ़ सकते हो) ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति.. प्रभुपाद ने इसे शांति सूत्र कहा है। (यदि आप में से कोई शांति चाहता है? क्या किसी को शांति में कोई रुचि है? वेणी माधव शांत होना चाहते हैं, बेंगलुरु में तो शांति की मांग है, थाईलैंड में है।) हरि! हरि! गौरांग! यह सब कहते कहते वैसे आपको गौर कथा तो नहीं सुनाई, गौर कथा से संबंधित कुछ बातें तो सुनाई। आप उसी को गौर कथा भी मान सकते हैं।
अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः। निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते।।
प्रापञि्चकतया बुद्धया हरिसम्बन्धवस्तुनः। मुमक्षुभिः परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते।।
( भक्तिरसामृत सिंधु १.२.२५५- २५६)
अनुवाद:- जो व्यक्ति भौतिक आसक्ति रहित है, उसका, कृष्ण की सेवा में, भौतिक इन्द्रिय विषयों को लगाने का जो प्रयन्त अथवा आग्रह है, वह युक्त वैराग्य कहलाता है( उन विषयों को योग्यतानुसार)। दूसरी ओर जो व्यक्ति मोक्ष की इच्छा रखता है, परंतु यदि वह भगवान् हरि से सम्बंधित वस्तुओं को भौतिक समझकर, अर्थात उनमें भौतिकता का भाव रखकर, उनका परित्याग करता है, ऐसा परित्याग फल्गु वैराग्य कहा जाता है।
जिन बातों का हरि के साथ संबंध है, उसका परित्याग करना यह फालतू बात है। हमने जो यह बातें कहीं- इन सब का हरि कथा या गौर कथा के साथ घनिष्ठ संबंध है। इसलिए प्रत्यक्ष कथा तो नहीं हुई लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह गौर कथा ही है। आप तैयारी करो और भी कथा 8:00 बजे से होने वाली है। इंदौर के भक्तों ने मुझे आमंत्रित किया हैं। उज्जैन में प्रतिदिन गौर कथा हो रही है, उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया है। हम उज्जैन के भक्तों के लिए यहीं पर ऑनलाइन पंढरपुर में बैठकर उज्जैन के भक्तों को कथा सुनाने वाले हैं। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की है और वे भी नहीं चाहते कि सिर्फ उज्जैन के भक्त ही उस कथा को सुनें अपितु सारा संसार ही सुन सकता है। यह ऑनलाइन है। जब ऑनलाइन कथा होती है तब तो आनन्दाम्बुधिवर्धनं होता है अर्थात आनन्द का विस्तार होता है। कथा कितने स्थानों पर पहुंच जाती है, इस टेक्नोलॉजी( तकनीक) की भी जय हो, जिसके जरिए इंटरनेट सोशल मीडिया को हम कैसा मीडिया बना रहे हैं? सोशल मीडिया को हम आध्यात्मिक मीडिया बनाते हैं। यह सोशल मीडिया नो मोर सोशल, सोशलाइजिंग अब स्पिरिचुअल मीडिया है। मीडिया, मीडियम शब्द का बहुवचन है। मीडियम मतलब माध्यम अर्थात साधन। मीडियम का बहुवचन है मीडिया या कई सारे साधन या प्लेटफार्म। इस मीडिया का भी हरे कृष्ण भक्त उपयोग करते हुए इसे कृष्णाइज़्ड और गोरिज़्ड कर रहे हैं। हम इसको माया नहीं कह सकते। ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या। नहीं, इसको पकड़कर इस माया का उपयोग भगवान की सेवा में कर रहे हैं। 8:00 बजे भी गौर कथा है और सभी के लिए है और आप सभी सुन लीजिएगा, आप सब का स्वागत है। फिर कल का क्या कहना, कुछ खुशियों का ठिकाना ही नहीं रहेगा। गौरांग महाप्रभु प्रकट होंगे। हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की!
कन्हैयालाल ही महाप्रभु के रूप में प्रकट होने वाले हैं।
नंद के घर आनंद भयो। नंद महाराज जी प्रकट होने वाले हैं जगन्नाथ मिश्र के रूप में । वह आनंद नंद के घर था, अब यह आनंद जगन्नाथ मिश्र के घर है। आनंद प्रकट होने वाला है इस आनंद से वंचित नहीं रहना, आनंद की वांछा रखिए, यह दोनों अलग-अलग शब्द हैं। वांछा मतलब इच्छा रखना। एक वंचित होना और एक वांछित होना।
वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च । पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
वांछा मतलब इच्छा और वंचित मतलब किसी चीज का अभाव होना। जैसे प्रोबधानंद सरस्वती ठाकुर कहते हैं, वंचितोस्मि संशय: मैं वंचित हो गया, मुझे ठगाया गया। आप कल का उत्सव ना मना कर, वंचित नहीं होना, ठग नहीं जाना । यदि श्रवण कीर्तन नहीं सुनोगे, गौर पूर्णिमा उत्सव नहीं बनाओगे तो ठगे जाओगे, वंचित रह जाओगे। तो क्या करो। वांछा रखो, इच्छा रखो, तीव्र इच्छा रखो।
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः। तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरषं परम्।।
( श्रीमद् भागवतम् २.३.१०)
अनुवाद:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे समस्त भौतिक इच्छाओं से युक्त हो या निष्काम हो अथवा मुक्ति का इच्छुक हो, उसे चाहिए कि वह सभी प्रकार से परम् पूर्ण भगवान की पूजा करे।
ठीक है, इतना ही पर्याप्त है। इसको डाइजेस्ट करो। उल्टी नहीं करना, इसको डाइजेस्ट करो। इसको हज़म करो। वह कैसे करते हैं? .(कौन से शब्द हैं? कौन सी क्रिया है?) मनन करो, चिंतन करो। मनन से चिंतन करो। जो हमनें सुना है, हम उसको मन में बिठा लेते हैं या हम उसको सही स्थान पर स्टोर करते हैं। ऐसे ढीले नहीं रखना। जो सुना है, उसको व्ववस्थित रूप से अपने दिमाग की जो चिप है, जिसे प्रभुपाद ब्रेन टिश्यू कहते हैं, उसमें हम भर सकते हैं। यहां यह रखो, यहां पर यह रखो, यह जो सुना है उसको फिर अपने अपने स्थान पर उसको व्यवस्थित रख सकते हैं या जब उसकी आवश्यकता है झट से फाइल मिल सकती है। यदि ऐसा ही ढेर में पड़ी है फिर कठिन होगा ढूंढना या प्राप्त करना ,यही बात है जब मनन व चिंतन करते हैं, हम उसको दूसरे शब्दों में स्मरण ही करते हैं। श्रवणं कीर्तनं विष्णुं स्मरणम स्मरण करते हैं। ठीक है।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
26 मार्च 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण, 668 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। आप लोगों को पूर्व सूचना दी गई है उसके अनुसार कार्यक्रम में थोड़ा सा परिवर्तन, कुछ बदलाव हो रहे हैं। 6:30 बजे हैं जप चर्चा गौर कथा शुरू होगी। फिर दो दिन ही रह गए हैं गौर पूर्णिमा के लिए। आप सब उत्साहित हो, वह दिन दूर नहीं है। वह मंजिल भी दूर नहीं है। गौर पूर्णिमा महोत्सव संपन्न होना ही है। और यह कौन सा साल है 535 वा मैंने कुछ पढ़ा तो नहीं है, किंतु श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का आपको पता होना चाहिए। 1486 में चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। यह कोई काल्पनिक व्यक्ति नहीं है। यह एक ऐतिहासिक घटना है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु सचमुच प्रकट हुए। सचमुच प्रकट हुए। और मायावादी यह बात समझ नहीं सकते। मायावादी जो कृष्ण अपराधी हैं वह यह बात समझ नहीं सकते। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु कृष्ण की तरह अजन्मा होते हुए भी जन्म लेते हैं। सची गर्भ सिंधु हरि इंदु अजनी ऐसा उल्लेख चैतन्य चरितामृत में है। ऐसा लिखा है सची गर्भ सिंधु शची माता के गर्भ को कहां है सिंधु। सागर से ही कई बार मानो चंद्र का उदय होता है। सिंधु से ही सागर से ही मानो चंद्र उदय होता है, ऐसा हम अनुभव करते हैं।
शची माता के गर्भ सिंधु से अजनी मतलब जन्मे, कौन जन्मे में हरि इंदु। हरीशचंद्र चैतन्यचंद्र प्रकट हुए। गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! भगवान के प्राकट्य के पहले ही आज हम देख रहे हैं, हमारी पद्मसुंदरी जो अहमदनगर में है चैतन्य महाप्रभु का अभिषेक हो रहा है। मैं सोच रहा था भगवान कहां से कहां तक पहुंच गए। प्रकट हुए नवद्वीप में, मायापुर में, योगपीठ में, सचिनंदन के रूप में प्रकट हुए हैं। लेकिन वे मायापुर तक सीमित नहीं रहे। अब तो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु पूरे संसार में प्रकट हो रहे हैं। संभावना है, कई लोगों के घर में। हमारा तो कोई घर नहीं है। हम तो संन्यासी है या ब्रह्मचारी हैं। लेकिन आप तो गृहस्थ हैं और आपके गृहिणी भी है। गृहस्थ, घर है आपका, घर क्या बंगला है, महल है, क्या क्या है या हो सकता है जो भी है। संसार भर के घरों में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने विग्रह के रूप में प्रकट हो रहे हैं। हम तो यहां बात कर रहे हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु प्रकट होने वाले हैं। वैसे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु प्राकट्य, प्रकट होने की लीला यह नित्य लीला है। हर गौर पूर्णिमा को वह प्रकट होते हैं। या फिर किसी ना किसी ब्रह्मांड में वह प्रकट होते रहते हैं। इस दृष्टि से भी यह जन्म के लीला नित्य लीला है श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु 1486 में प्रकट हुए हैं। महाप्रभु के प्राकट्य के पहले ही पृथ्वी पर देवता पहुंच गए।
यं ब्रह्मा वरुणेंद्र रुद्र मरुत।
स्तुनवन्ति दिव्यै स्तवै।। (SB12.13.1)
ऐसा भागवत में कहा है और यह देवता ऐसा स्तुतिगान करते हैं। देवताओं के भगवान भी गौर भगवान है, कृष्ण भगवान है। यह देवता भगवान नहीं है। देवताओं को पूछो आप भगवान हो। गणेश आप भगवान हो। वह बोलेंगे, नहीं मैं तो कृष्णदास हूं। वह कौन है, ब्रह्मा कहेंगे अलग-अलग देवता कौन है। ब्रह्मा कहेंगे ईश्वर एकला कृष्ण आर सब भ्रत्य ईश्वर परमेश्वर अकेले कृष्ण है, बाकी सब देवी देवता। 33 करोड़ देवी देवता पहुंच जाते हैं नवद्वीप मायापुर और स्तुति गान करते हैं। गौरांग गौरांग गौरांग गान भी हो रहा है। अप्सराये नृत्य भी कर रहे हैं। गंधर्व गाते हैं। नगाड़े बजते हैं। पुष्प वृष्टि होती हैं। यह सब होते रहता है, जब-जब महाप्रभु प्रकट होते हैं नवद्वीप मायापुर धाम में। नवद्वीप मायापुर धाम की जय! ऐसे जब हम सुनते रहते हैं, तब हमें पता चलता है कि कौन-कौन है। गौरांग महाप्रभु कौन है और यह देवी देवता कौन है। उनका भगवान से क्या संबंध है। हरि हरि, तो ऐसे देवी देवता देवः अस्य रुपस्य नित्यम दर्शन कांक्षिणः (BG 11.52) कृष्ण ने स्वयं ही अर्जुन को सुनाया मेरे दर्शन के लिए देवता तरसते हैं। उनको जब पता चलता है कि, कृष्ण प्रकट होने वाले हैं, भगवान प्रकट होने वाले हैं, अवतार लेने वाले हैं, तो देवी देवता पहुंच जाते हैं। उनका प्राकट्य होते ही हम दर्शन करेंगे इस अभिलाषा से। क्योंकि भगवान तो वैकुंठ नायक है।
यह महांवैकुंठ है गोलोक और गोलोक पति हैं वैकुंठ नायक। और यह बेचारे देवी देवता तो उसी ब्रह्मांड में स्वर्ग में रहते हैं। स्वर्ग में भगवान का दर्शन नहीं है या कभी-कभी कर सकते हैं लेकिन स्वर्ग भगवान का धाम नहीं है। स्वर्ग के निवासी नहीं है। भगवान गोलोक के निवासी है। गोलोकनाम्नि निज धाम्नि तलेच तस्य गोलोक नामक गोलोकनाम्नि मतलब गोलोक नाम का निज धाम है कृष्ण का और कृष्ण चैतन्य का। उस धाम से भगवान प्रकट हुए नवद्वीप मायापुर में, प्रकट होने वाले हैं उसके लिए तैयारियां चल रही है। जैसे देवता भी तैयारियां कर रहे थे। स्तुतिगान हो रहा है और वह उस दिन बताने के बदले आज बताते हैं। गौरांग महाप्रभु दिन में सायंकाल के समय सूर्यास्त के समय, सूर्यास्त हो रहा है पश्चिम दिशा में और यह पूर्णिमा का दिन है तो सूर्यास्त के समय ही चंद्रोदय होता है। चंद्र का उदय होता है पूर्व दिशा में। तो उस समय सूर्यास्त और चंद्रोदय का समय है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य समय है, उसके पहले ही दिन में यह गौरांग महाप्रभु की कृपा है वे महावदन्याय बनने वाले हैं। महावदन्यता दिन में ही प्रकट किए हैं। और कई पापियों को भी, मानव को, दानवों को श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु असुरों को भी गंगा के तट पर पहुंचाएं। जब भी ग्रहण होता है पवित्र स्थान पर पहुंच जाते हैं और वहां पर पवित्र कुंड नदी में स्नान करते हैं।
चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य दिन पर भी ऐसे ही व्यवस्था चंद्रग्रहण होना था। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने कईयों को प्रेरणा दी, दुष्ट भी कोलकाता के जहां-तहां के उनको भी भगाया दौड़ाया मायापुर नवद्वीप के ओर। दिन भर वे गंगा में स्नान करते हुए, हर हर गंगे, हर हर गंगे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। जाप कर रहे थे। मैं सोच रहा था हमको भी वही करना चाहिए। जो महाप्रभु के प्राकट्य के दिन 1486 में हो रहा था। 1486 में गौर पूर्णिमा के दिन, दिन में कीर्तन हो रहा था, और देवता स्तुतिगान कर रहे थे। हमें भी ऐसा ही करना होगा ताकि भगवान केवल नवद्वीप में प्रकट ना हो, केवल मायापुर में प्रकट ना हो, तो हमारे ह्रदय प्रांगण में भी प्रकट हो। क्या फायदा नवद्वीप में प्रकट हुए मायापुर में प्रकट हुए लेकिन हमारे ह्रदय प्रांगण में भगवान प्रकट नहीं हुए। तो क्या फायदा हमारा लक्ष्य तो हमारे लिए, मेरे लिए भगवान प्रकट हो। गौरांग महाप्रभु तो प्रकट हो ही गए नवद्वीप मायापुर में। लेकिन किसको पता चला देखिए तो लोग कोई परवाह नहीं है। उनको कोई चिंता नहीं है। प्रकट हुए हैं तो होने दो लोगों के तो काम चल ही रहे हैं। बद्धजीव अपने काम धंधे में व्यस्त है। मैं काम में हूं, गौर पूर्णिमा में नहीं आ सकता। मैं काम में हूं, हां हां तुम काम में हो हम जानते हैं हम तुमको प्रेम देना चाहते हैं।
चैतन्य महाप्रभु तो प्रकट हुए लेकिन हमारे लिए मेरे लिए महाप्रभु कब प्रकट होंगे। मेरे लिए क्या है चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य में? वैसे तो मेरे लिए ही प्रकट हुए हैं लेकिन मुझे थोड़ा तैयार भी करना होगा स्वयं को। मन बनाना होगा इच्छा को जागृत करना होगा। मुझे जैसी इच्छा आकांक्षा एहसास भी होना चाहिए। फिर भगवान मेरे लिए प्रकट होंगे या मुझे साक्षात्कार होगा भगवान का। भगवान के रूप का, रूप माधुरी का, भगवान के गुण का, भगवान के नाम का रूप का, गुण का लीला का या भगवान के नाम रूप गुण लीला यह भगवान के स्वरुप है। भगवान के गुण भगवान है। भगवान की लीला भगवान है। और भगवान का धाम भी उनसे अभिन्न है। हरि हरि, चैतन्य महाप्रभु की प्राकट्य के पहले नवद्वीप में एक द्वीप है ऋतु द्वीप। छह ऋतु होते हैं। छह ऋतुओका निवास स्थान ऋतु द्वीप है।
श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पहले उनकी आपस में चर्चा चल रही थी। और चर्चा का विषय यह था कि अब महाप्रभु प्रकट होने वाले हैं। लेकिन कब प्रकट होने वाले हैं यहां किस ऋतु में प्रकट होंगे। हर ऋतु चाहता था कि मेरा जो कालावधी हैं, हर ऋतु का कालावधी होता है 2 मास का 12 मास में छह ऋतु होते हैं। उस समय वसंत ऋतु में कहा नहीं जानते हो क्या? ऋतुनाम कुसुमाकर कृष्ण ने ही कहा है भगवत गीता के 10 अध्याय मे, सभी ऋतुओ में, मैं कुसुमाकर वसंत ऋतु मैं हूं। जब सर्वत्र रंग-बिरंगे पुष्प खिलते हैं। सर्वत्र पुष्प ही पुष्प होते हैं। उसके कारण हवा भी सुगंधित रहती हैं। शीतल सुगंधित हवा बहती हैं। भगवान तो वसंत ऋतु में प्रकट होंगे ऐसी वसंत ऋतु की तीव्र इच्छा थी। और बसंत ऋतु ने कहा भी और फिर ऐसे ही हुआ। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु वसंत ऋतु में प्रकट हुए। ठीक है, प्रकट तो हो गये लेकिन उससे पहले हम गौर कथा के अंतर्गत ही हम लोग सुन रहे थे। जैसे ब्रह्मा के 1 दिन में कृष्ण प्रकट होते हैं। और अवतार तो संभवामि युगे युगे अवतार लेते रहते हैं लेकिन कल्पे कल्पे एक तो युगे युगे हुआ कल्पे मतलब ब्रह्मा का एक दिन ब्रह्मा के 1 दिन में श्री कृष्ण प्रकट होते है। द्वापार युग के उसके बाद जो कलयुग आता है तो उस कलयुग में श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं। हरि हरि, बात यह है कि यह श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु 1486 में 535 वर्ष पूर्व जब प्रकट हुए तो पहली बार नहीं। ब्रह्मा के हर दिन में प्रकट होते हैं।
पहली बार नहीं हर कलयुग में प्रकट होते हैं। हर कलियुग में कलि का धर्म है, कलिकाले धर्म हरिनाम संकीर्तन तो हर कलयुग में भगवान प्रकट होते हैं। और वह गौर नारायण कहलाते हैं। वह नारायण होते हैं या विष्णु होते हैं। लेकिन ब्रह्मा के एक दिन में एक बार एक कलयुग में, इस कलयुग में जो कि हम कलयुग के निवासी बन चुके हैं। उस वक्त जो कि कृष्ण प्रकट हुए हैं, 5000 वर्ष पूर्व उनके पश्चात श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। और फिर यह सब गौड़िय परंपरा की स्थापना होती हैं। गौरांग महाप्रभु ही नहीं होंगे तो कहां होगी गौड़िय वैष्णव परंपरा, गौडिय वैष्णव सिद्धांत और कहां होगा यह अचिंत्य भेदाभेद तत्व और कहां होगा यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। महामंत्र की प्राप्ति। यह तो सारा श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने के बाद यह होता है और फिर परंपरा से आता है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु और माधवेंद्र पुरी की परंपरा में आते हैं हम। आज माधवेंद्र पुरी का तिरोभाव तिथि हैं।
हम थोड़ी देर के बाद उनका संस्मरण करेंगे। यह सारी का गौड़िय वैष्णव परंपरा की स्थापना महाप्रभु करते हैं और फिर भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर जैसे आचार्य, फिर प्रकट होते हैं भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद और फिर श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने भविष्यवाणी की होती है। पृथ्वीतेआंछे नगरादीग्राम सर्वत्र प्रचार होईबे मोर नाम और फिर स्थापना होती है अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की। इसी के साथ गौरांग गौरांग गौरांग गौरांग सर्वत्र फैल जाते हैं नगरों में ग्रामों में और वही हम देख रहे हैं कि आज हम यहां गौर कथा सुन रहे हैं। यह कैसे संभव हुआ गौरांग महाप्रभु के कारण गौडिय वैष्णव परंपरा के आचार्य के कारण हम जहां भी हैं या जिस देश के हैं या पहले जिस धर्म के भी होंगे, सर्वधर्मानपरित्यज्य करके हम मांमेकमशरणं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के शरण में आ रहे हैं। और यह कृपा ही है उस महावदन्याय महाप्रभु की हरे कृष्ण कीर्तन भी कर रहे हैं। और उनके विग्रह की आराधना भी कर रहे हैं। गौरांग नित्यानंद प्रभु और चैतन्यचरितामृत, चैतन्य भागवत का अध्ययन कर रहे हैं। पढ़ रहे हैं। सुन रहे हैं। सुना रहे हैं इस सबके पीछे गौरांग महाप्रभु है। गौरांग महाप्रभु का प्राकट्य, यह बात मुझें कहनी थी कि, हमारा जो जन्म है तो यह विशेष समय है। कृष्ण के बाद श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु और फिर उनके बाद हम प्रकट हुए हम जन्मे हैं। चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आंदोलन में हम आए हैं।
अजानुलंबित भुजौ
कणकावतादौ संकीर्तनैक पित्रो
कमलायताक्षो विश्वंभरो
द्विजवरो युगधर्मा पालो
वंदे जगतप्रियकरो करुणावतारो
आपको समझ में आया ही होगा मैंने जब कहा अवतारो, मैंने जब कहा तो इस और भी मैं आपका ध्यान आकृष्ट करता रहता हूं। इससे क्या संकेत होता है? यह दो व्यक्तियों की बात है। जैसे संकीर्तनैकपित्रो, कमलायताक्षो या द्विजवरो आप सुन रहे हैं ना, ध्यान से वैसे कितनी बार आपको बताया दिमाग में कुछ आ रहा है, बैठ रहा है, पल्ले पड़ रहा है। “आपल डोक खोक आहे” अपना दिमाग खाली बॉक्स तो नहीं। गौर नित्यानंद बोल हरि बोल हरि बोल गौरांग महाप्रभु नित्यानंद प्रभु प्रकट हुए और फिर यह विशेष समय है। यह हमारे भाग्य के उदय की बात है। नहीं तो हमारा इस समय जन्म नहीं होता मनुष्य रूप में। हम इस समय जन्मे नहीं होते गौरांग महाप्रभु की कृपा है। उन्होंने केवल हमको शरीर ही नहीं दिया है इस समय हमको श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु उनके संपर्क में लाए हैं। हरि हरि, उनका नाम हम तक पहुंच चुका है। और जब नाम हम तक पहुंचता है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। तो फिर क्या बच गया भगवान नहीं पहुंचे, क्या भगवान का नाम पहुंचा तो क्या भगवान नहीं पहुंचे, पर आप नहीं समझते हो या ऐसा सोचते हैं भगवान का नाम तो पहुंचा है।
लेकिन भगवान नहीं पहुंचे हैं तो फिर आप यह समझ में नहीं आया है। अभिन्नत्वात नामनामि नाम चिंतामणि चैतन्यरसविग्रहनित्यसिद्ध मुक्तः अभिन्नत्वात नामनामि भगवान का नाम और भगवान अभिन्न है। भगवान का नाम और भगवान अभिन्न है। हम तक अगर नाम पहुंचा है मतलब भगवान पहुंचे हैं। और फिर ऐसे भगवान या भगवान का नाम पहुंचता है। हम सब तो फिर क्या नाम से धाम तक। सभी नहीं कह रहे हैं। आपने सुना नहीं होगा पहले या फिर सुना होगा तो भूल गए। महत्वपूर्ण नहीं लगा होगा आपको महाराज कुछ कहते रहते हैं कहां होगा भूल गए आप। जैसे हम नाम ले रहे हैं तो हम धाम की ओर दौड़ रहे हैं। हमारा शरीर बैठा होगा थाईलैंड में लेकिन हमारे आत्मा तो जा रहे हैं धाम में। हम अधिक अधिक पास में पहुंच रहे हैं। नाम से धाम तक। हम जहां भी हैं वहां पहले नाम पहुंच जाता है। नाम रूप में भगवान पहुंच जाते हैं। नाम रूप में भगवान हमको ले जाते हैं। अगर भगवान ही हमको ले जाते हैं, ले आते हैं अपने धाम। उनका धाम ही हमारा धाम है। हम भी तो गोलोकवासी हैं। हम हिमाचल प्रदेश वासी नहीं हैं (गुरु महाराज कौन्फरन्स में भक्त को संबोधित करते है) हम भी तो गोलोकवासी हैं।
वैकुंठवासी है। धामवासी हम भी तो हैं। वही देश हमारा भी तो है जहां गंगा जमुना बहती है, या गोवर्धन है। द्वादश कानन है या जहां नवद्वीप है। वहां के हम भी तो वासी है। हम ऐसे ही भूले भटके भटक रहे हैं और कभी हम चाइनीस बन जाते हैं तो कभी मॉरिशियस बन जाते हैं। कभी क्या बनते हैं तो कभी क्या बनते हैं। हरि हरि, तो इस मे से हम कुछ भी नहीं है, ना तो हम उस देश के हैं ,ना उस परिवार के हैं, ना उस घराने के हैं। कहिए तो बदमाशी है या बेवकूफी है या ज्ञान है ऐसा ज्ञान जिसको हम ज्ञान मानके बैठे हैं। इसीलिए चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं। ताकि फिर क्या हो जाए ओम अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानांनजन शलाकाय चक्षुरन्मिलीतन्मेन तस्मै श्रीगुरुवे नमः हो जाए ज्ञान अंजन आजकल के स्कूल कॉलेजों में तो क्या पढ़ाया जाता है। अज्ञान पढ़ाया जाता है। जो ज्ञान नहीं है उसको पढ़ाया जाता है। ज्ञान कहां पढ़ाया जाता है। ब्रह्मचारी गुरुकुले वसंतान्दो गुरोर्हीतम जब हम गुरुकुल जाते हैं या फिर जब हम हरे कृष्ण मंदिर जाते हैं। हरे कृष्ण मंदिर गुरुकुल विद्या मंदिर ही है और फिर वहां से पाठ्यपुस्तक भी हम खरीदते हैं। चैतन्य चरित्रामृत हैं। भगवत गीता है। भागवतम है। ईशोपनिषद है। इन ग्रंथों को हम घर ले आते हैं। पढ़ते हैं। अध्यायन भी करते हैं। तो फिर इसी के साथ क्या होता है ज्ञानांनजन शलाकाय। पुरुषोवीरो वह व्यक्ति जो आचार्यवान है। आचार्यवान पुरुषोवीरो ऐसा कहां है यह वेदवाणी है। क्या है वेद वाणी, जो व्यक्ति आचार्यवान, आचार्यवान मतलब क्या आचार्य नहीं जिसका आचार्य है, जिसने आचार्य को स्वीकार किया है। जिनके जीवन में आचार्य का प्रवेश हुआ है। ऐसा आचार्यवान पुरुष या आचार्यवान व्यक्ति जैसे ज्ञानवान जो ज्ञानी है, वह ज्ञानवान, जो गुणी है वह गुणवान, उसी प्रकार के आचार्य हैं आचार्यवान। आचार्यवान पुरुषो ऐसा व्यक्ति वेदः वह जानता है जानकार होता है, ज्ञानवान होता है, आचार्यवान ज्ञानवान होता है।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥
(B G 4.34) भगवत गीता में यह भी कहा है श्रीकृष्ण ने ही कहा है। कृष्णम वंदे जगत गुरु श्रीकृष्ण ही जगतगुरु है। फिर उन्होंने ही कहा है, जाओ जाओ शरण में जाओ। गुरु की शरण में जाओ। प्रणिपात करो, फिर जाकर क्या करें अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ब्रह्म जिज्ञासु बनो, परीप्रश्नेन प्रश्न पूछो। वे आपके प्रश्नों के उत्तर देंगे और यह सब कैसे करो सेवयां सेवा भाव के साथ या विनम्रता के साथ विनम्र बनके जिज्ञासा करो। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं वह आपको उपदेश करेंगे। आपको ज्ञान देंगे। क्यों वह तत्वदर्शी है, उन्होंने तत्व का दर्शन किया है। तत्व समझ गए हैं। वे आपको समझा सकते हैं। ज्ञान दे सकते हैं।श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु की जय! तो फिर कहां है, ब्रह्मा के हर एक दिन में गौरांग महाप्रभु प्रकट होते हैं। फिर जब गंगा प्रकट हुई पहले तो स्वर्ग में ही थी। फिर राजा भगीरथ उसको पृथ्वी पर ले आए। और फिर गंगाधर ने शिवजी ने धारण भी किया।
और फिर वहां गोमुख से निकली हिमालय के शिखर पर की बात है। और फिर राजा भागीरथ गंगा को सागर तक पहुंचाना चाहते थे। ताकि उनके पूर्वजों के अस्थियों का विसर्जन हो। भगीरथ ला रहे थे गंगा को अपने रथ में लेकिन सब बातें विस्तार से नहीं बता सकते हैं। अभी बात यह है कि, गोलोक से सागर तक। गंगासागर जानते हो आप सभी लोग, सब तीरथ बार बार गंगासागर एक बार ऐसा कहते हैं। शायद जनवरी में गंगासागर को बहुत बड़ा मेला लगता है, मकर संक्रांति के वक्त। तो भगीरथ राजा को ले जाना था गंगा को सागर तक तो रास्ते में बीच में नवद्वीप आता है, और नवद्वीप मे आता है जान्हु मुनि का द्वीप। नवद्वीप में से जब गंगा को आगे बढ़ाया जा रहा था, ले जा रहे थे गंगा पीछे-पीछे आ रही थी। राजा भगीरथ अपने रथ को आगे आगे हाक रहे थे। उस समय जान्हु मुनि अपने संध्या वंदना करने में व्यस्त थे। उस समय गंगा अपने प्रवाह के साथ जान्हु मुनि का संध्या वंदना की जो कुछ सामग्री थी बहके जा रही थी। वह स्वयं ही गंगा में डूब के जा रहे थे मतलब विघ्न आया उनकी संध्या वंदन में विघ्न आया तो उनको पता चला यह किसकी करतूत किसके कारण यह सब कुछ हुआ है। यह गंगा बदमाश कहीं की ऐसा कुछ सोचा होगा उनको क्रोध आया और उसी के साथ जान्हू मुनि ने गंगा का प्राशन किया गंगा को पी लिए।
एक बूंद भी बाहर नहीं बची तो राजा भगीरथ एक समय जब वो पीछे देखें गंगा नहीं आ रही है। तो लौट के रथ को पीछे मुड़ा के ले गए, जान्हू द्वीप ले गए तो समझ में आ चुका उनको कि यह करतूत जान्हू मुनि की है। गंगा का नहीं रहना या अदृश्य होना इसके पीछे जान्हू मुनि है। राजा भगीरथ ने अपनी गलती को समझ लिया मेरे कारण ही, मैं जब गंगा को यहां से इनके द्वीप से जब बहा रहा था। तो उन्होंने क्षमा याचना की जान्हू मुनि से पुनः मांग की गंगा को लौटाइए गंगा को लौटाइए। गंगा की हमें बहुत जरूरत है हमें गंगा चाहिए तो कृपया पुनः प्रकट कीजिए गंगा को। तो फिर जान्हू मुनि ने उनकी बात को स्वीकार किया और गंगा पुनः पूर्ववत प्रकट हुई। तो अब मुख्य बात तो यह है, यह कहानी तो आपको सुनाई.. लेकिन अब पुनः भगीरथ राजा गंगा को सागर की ओर ले जाना चाहते ही थे वहीं लक्ष्य था। इतने में गंगा को इस बात का पता चला कि गौर पूर्णिमा आ रही। गंगा मैया कई घोषणा सुनि या कुछ बैनर पढ़ा कि गौर पूर्णिमा महोत्सव कुछ ही दिनों में संपन्न होने जा रहा हैै। तो गंगा ने कहा नहीं मैं गौर पूर्णिमा महोत्सव में सम्मिलित होना चाहती हूं।
गौर पूर्णिमा तक हम यहीं रहेंगे, मैं तो रहूंगी ही। मेरे स्वामी जिनके चरणों की में गंगा हूं या जिनके ह्रदय से मेंं प्रकट होती हूं वह मरे स्वामी गौरांग महाप्रभु के गौर पूर्णिमा महोत्सव में मैं जरूर रहूंगी। तो राजा भगीरथ जी मान लीए और दोनोंं ने गौर पूर्णिमा महोत्सव नवद्वीप मेंं संपन्न किया। अभी गौर कथा कर रह थे या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। का गान और नृत्य कर रहे थेे, पहले भी कुछ दिन और गौर पूर्णिमा के दिन। गौर पूर्णिमा के दिन और भी कुछ उन्होंने तपस्या की ध्यान, धारणा, साधना की, उपवास किया, पूरा दिन उपवास किया। ऐसा सुनने में आता है कि गंगा ने निर्जला उपवास किया, गंगा ने जलपान नहीं किया, वह कैसे किया होगा वही जाने। तो गंगा वैसे केवल जल ही नहीं है, जलमय ही नहीं है अपना उसका रूप भी हैं, उसका अपना वाहन भी है जिस पर वह विराजमान रहती हैं। तो वह गंगा ने इस प्रकार गौर पूर्णिमा महोत्सव मनाया। कैसे पता चलता है कि गौर पूर्णिमा कब से मनाई जा रही है सब समय मनाई जाती ही रहती हैं। क्योंकि चैतन्य महाप्रभु ब्रह्मा के हर दिन मेंं एक बार प्रकट होते ही रहते हैं। तो गंगा ही कितने लाखों, करोड़ों, कई युगों के पहले, कई कल्पो के पहले गंगा प्रकट हुई। इस पृथ्वी पर और उसमें नवद्वीप मायापुर में जब वह थी तो उसने गौर पूर्णिमा महोत्सव मनाया, तो हम कल्पना कर सकते हैं। और भी इसी के साथ गौरांग महाप्रभु का महिमा भी है।
गंगा तेरा पानी अमृत ऐसा महिमा है जिस गंगा का। लेकिन वह गंगा भी गौरांग की दासी है सेविका है गंगा भी आराधना करती है गौरांग महाप्रभु की। और वैसे भी गौरांग महाप्रभु अपने भक्त के रूप को जब धारण करते हैं तब गौरांग महाप्रभु गंगा को अपनी माता समझते हैं। एक उनकी सची माता है और दूसरी गंगा माता है। जब वे जगन्नाथपुरी में रहने लगे थे सन्यास के उपरांत.. यह भी आपको सुनाया है। कुछ दिन पहले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बंगाल गए दो माताओं के दर्शन के लिए एक तो सची माता के दर्शन के लिए और गंगा माता के दर्शन के लिए भी। और वैसे संन्यास लेने के एक दिन पहले भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंगा के तट पर पहुंचे थे मानो वे आशीर्वाद लेना चाहते थे, गंगा मैया से आशीर्वाद कहो या अनुमति कहो। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अबकी बार जो प्रकट हुए और फिर अप्रकट भी हुए 48 वर्षों केेे उपरांत जगन्नाथपुरी में टोटा गोपीनाथ केे विग्रह में। टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रवेश किए और वही अंतर्धान हो गए। फिर वह नरोत्तम दास ठाकुर थे जिन्होंनेे यह नया इतिहास कहो, याद कहो त्यौहार का पुनरुद्धार कहो। हमारी परंपरा में यह जो गौर पूर्णिमा उत्सव संपन्न होने की बात है इसका श्रेय जाता है नरोत्तम दास ठाकुर को। जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु के अंंतर्धान होने के कुछ साल के उपरांत केतुरी ग्राम में जो उनका जन्मस्थान था। केेतुरी ग्राम में उन्होंंने बहुत बड़े गौर पूर्णिमा महोत्सव का आयोजन किया। और उस समय जो भी बचे थे गौड़िय वैष्णव या चैतन्य महाप्रभु के परिकर कहिए, जो जो थे विद्यमान उन सब को आमंत्रित किए थे नरोत्तम दास ठाकुर। इस उत्सव के लिए फिर जान्हवा माता भी थी और श्यामानंद भी थे और कई सारे थे वहां। विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा का महोत्सव संपन्न हुआ था वहां।
बड़े विस्तार से वर्णन है की कैसी तैयारियां हुई और कैसे स्वागत हो रहा था। पद्मावती के तट पर यह उत्सव केतुरी गांव में संपन्न हो रहा था। इस उत्सव का नेतृत्व या प्रमुख संचालक नरोत्तम दास ठाकुर। नरोत्तम दास ठाकुर के चचेरे भाई जो अभी शिष्य बने थे उनके राजा थे नरोत्तम दास ठाकुर के चचेरे भाई जो नरोत्तम दास ठाकुर के शिष्य बने थे। तो वह भी संचालन कर रहे थे। उस उत्सव के समय जब नरोत्तम दास ठाकुर कीर्तन गान करने लगे, गाने लगे या भजन भी गाए होंगे, कुछ कीर्तन भी गाए होंगे शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधव: और यह गौर पूर्णिमा महोत्सव मतलब क्या श्रवण कीर्तन उत्सव ही तो होता है। श्रवणोत्सव, ज्यादा करके श्रवणोत्सव ही, लेकिन श्रवण के लिए कीर्तन चाहिए, तो फिर कीर्तन है तो श्रवण होगा। तो नरोत्तम दास ठाकुर कीर्तन कर रहे थे और नरोत्तम दास ठाकुर ने जैसे कीर्तन प्रारंभ किया.. जैसे हम पढ़ते तो रहते हैं, ज्यादा अनुभव तो हम नहीं करते। किंतु कृष्ण कहे वैसे यत्र मदभक्त गायन्ति तत्र तिष्ठामी नारद ना हम वसामी वैकुंठे योगिनाम ह्रदये न च मैं और कहीं नहीं रहता, वैकुंठ में भी नही रहता हूं। आप कहां रहते हो यत्र मदभक्त गायन्ति तत्र तिष्ठामी नारद जहां मेरे भक्त मेरा गान करते हैं वहां में रहता हूं। तो उस दिन नरोत्तम दास ठाकुर गायन कर रहे थे, असंख्य भक्त वहां एकत्रित तो थे ही और वे सब मिलकर श्रवण, कीर्तन उत्सव संपन्न हो रहा था। वैसे कीर्तनकार तो नरोत्तम दास ठाकुर बने थे और सभी वे भी गा रहे थे पीछे, सुन रहे थे, गा रहे थे श्रवण कीर्तन।
ऐसे आदान-प्रदान सबका चल रहा था। तो उस गौर पूर्णिमा उत्सव में, जो संपन्न हो रहा था केतुरी ग्राम में उस उत्सव में श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद प्रकट हो गए। पुनः प्रकट हो गए यह सारे पंचतत्व अंतर्धान हो चुके थे। इस बात को भी सभी जानते थे कोथा गेला, कहां गए मतलब अप्रकट हो गए थे, लेकिन उस उत्सव में जो गौर पूर्णिमा उत्सव नरोत्तम दास ठाकुर मना रहे थे उस उत्सव में यह सारे पंचतत्व पुनः प्रकट हो गए। और प्रकट होकर जैसे श्रीवास ठाकुर के आंगन मेंं पंचतत्व् अनेक भक्तों के साथ जो संकीर्तन कीर्तन और नृत्य किया करते थे वैसा ही संकीर्तन अब केतुरी ग्राम में गौर पूर्णिमा महोत्सव के अंतर्गत संपन्न हो रहा था। देखिए ऐसे पॉवरफुल भक्त, ऐसे भक्ति की शक्ति से युक्त हमारे आचार्य। उनकी भक्ति और भक्ति का एक लक्षण हीं है कृष्ण आकर्षिनी। भक्ति का क्या लक्षण है? कृष्ण आकर्षिनी कृष्ण को आकृष्ट करती है भक्त की ओर। हरी हरी। तो वहां कृष्ण चैतन्य और पंचतत्व प्रकट हो गए। 1972 में श्रील प्रभुपाद यह उत्सव प्रारंभ किए सर्वप्रथम हरे कृष्ण उत्सव 1972 में हुआ। और उस समय से हो ही रहा है प्रतिवर्ष।
श्रील प्रभुपाद तो हमारे 1977 तक रहे इन उत्सवों में उसके उपरांत भी उत्सव मनाए जा ही रहेे हैं। और उन सारे उत्सवों में 1973 से शुरू करके मैंने दो उत्सव मिस किए। एक तो 1972 का और दूसरा 2021 का जो अभी भी चल रहा है। और मैंं तो पंढरपुर में बैठा हूं मायापुर में नहीं दुर्भाग्यवश मैंने दो उत्सव मेंं मिस किए। तो इस उत्सव के अंतर्गत गौर पुर्णिमा फेस्टिवल जो इस्कॉन मायापुर के अंतर्गत मनाया जाता है, आज के दिन उत्सव में सम्मिलित हुए जो भक्त होते हैं, जो मायापुर आते हैं उत्सव के लिए तो वे सभी भक्त आज केेे दिन शांतिपुर जाते हैं। जो अद्वैत आचार्य की लीला स्थली भी रही। जब गोपाल के लिए चंदन जरूरी था तब गोपाल माधवेंद्र पुरी के सपने में आकर उनको बताएं। हमारा गौड़िय वैष्णव परंपरा या संप्रदाय माधवेंद्र पुरी से शुरू होता है। माधवेंद्र पुरी को जब वृंदावन से जगन्नाथ पूरी जाना था चंदन लाने के लिए बंगाल होते हुए ओडिशा उनको जाना था। तो बंगाल में वे शांतिपुर भी गए और अद्वैत आचार्य ने दीक्षा ली माधवेंद्र पुरी से। आप समझ सकते हो माधवेंद्र पुरी की महिमा। अद्वैत आचार्य जिन के शिष्य बन जाते हैं वेेेे माधवेंद्र पुरी या फिर नित्यानंद प्रभु भी शिष्य बन जातेेेेे हैं माधवेंद्र पुरी के। वैसे नित्यानंद प्रभु नेेेेे पंढरपुर में लक्ष्मीपति तीर्थ से दीक्षा ली यह भी बात चैतन्य भागवत में लिखी है, कही है। तो नित्यानंंद प्रभु लक्ष्मीपति तीर्थ के भी शिष्य थे और माधवेंद्र पुरी के भी शिष्य थे ऐसे दोनों उल्लेख मिलते हैं। ऐसे माधवेंद्र पुरी केे ज्यादा तो नहीं लेकिन जो भी शिष्य थेे उनका विशेष व्यक्तित्व था। उनके जो भी शिष्य थे वे वीआईपी या महान व्यक्तित्व थे।
ईश्वर पुरी भी तो उनके शिष्य बने। ईश्वर पुरी के फिर शिष्य बने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। तो आज केेे दिन हरे कृष्ण भक्त शांतिपुर जाते हैं मायापुर से। मैंं भी जाता था समय- समय पर। माधवेंद्र पुरी का तिरोभाव उत्सव वहां मनाया जाता शांतिपुर में और प्रसाद वितरण होता है। माधवेंद्र पुरी तिरोभाव उत्सव का बहुत बड़ा अंग तो प्रसाद वितरण होता हैै और हज़ारों की संख्या में दस, बीस, तीस, चालीस हजार लोग वहां इकट्ठे होतेेे हैं। न जाने कहां कहां से आते हैं और प्रसाद ग्रहण करतेे हैं। और यह समझ है कि माधवेंद्र पुरी के तिरोभाव केेे दिन वहां जो जो प्रसाद ग्रहण करते हैं उनको कृष्ण प्रेम प्राप्त होता है। हरि हरि। आप को अचरज नहीं लगा.. तो वे माधवेंद्र पुरी इन्हीं से हमारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय प्रारंभ हुुआ। या वैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं के प्राकट्य से पहले एक मंच बनाए कहीए। ताकि उस मंच पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होंगे। और जिस उद्देश्य से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को प्रकट होना था वह बातें भी बता चुके हैं। एक तो साधारण कार्य नियमित व्यवसाय, धर्मसंस्थापनार्थाय वाला धर्म की स्थापना। और दूसरा राधा को समझने का, राधा के भावों को समझने का, राधा के अंतरंग को समझने का या राधा रानी जब कृष्ण के संग का आस्वादन करती है उस समय राधा रानी के क्या भाव क्या विचार होते हैं इन को समझने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हो रहे हैं। यह सब गोपनीय कारण जो कहां है आप सुन चुके हो। तो यह जो भाव है मतलब यह सब राधा भाव ही है। राधा भाव कहो या माधुर्य रस, श्रृंगार रस कहो।
अनार्पित चरिम चिरात करुणयावतीर्णोह कलौ
उन्नत उज्वल रस स्व-भक्ति-श्रीयाम तो यह उद्देश्य। अन-अर्पित मतलब ऐसा पहले कभी नहीं दिया था, बहुत समय पहले दिया था बहुत समय बीत गया। मतलब पहले कल्प मे ब्रह्मा के पहले दिन मे। बहुत बड़ा गैप हुआ तो पुन: अब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हो रहे हैं। करुणयावतीर्णोह कलौ इस कलयुग में अपनी करुणा से वे प्रकट हो रहे हैं। और क्या करेंगे प्रकट होकर? समर्पयितुम मतलब देने के लिए, समर्पित करने के लिए। क्या समर्पित करने के लिए? क्या देने के लिए? उन्नत उज्वल रस उन्नत मतलब ऊंचा उन्नत उज्वल सर्व रस सार परकीय भावे जहां ब्रजेते प्रचार तो उज्वल रस माधुर्य रस। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भी उसका आस्वादन करना चाह रहे थे और आस्वादन करके उसका वितरण भी करना चाह रहे थे। इस उद्देश्य से प्रकट हुए थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। तो मंच बनाने की बात है, तैयारी करनी है पूर्व तैयारी करनी है, सेटिंग द सीन है। उसके अंतर्गत यह माधवेंद्र पुरी यह बहुत बड़ी व्यवस्था महाप्रभु किए हैं। तो माधवेंद्र पुरी और उनके शिष्य बनेंगे ईश्वर पुरी और फिर उनके शिष्य बनेंगे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। इस गुरु परंपरा में यह जो परंपरा के विचार है, भाव है, सिद्धांत है, रस हैं इसको श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्राप्त करने वाले हैं परंपरा में। लेकिन परंपरा की शुरुआत और इसके प्रथम आचार्य माधवेंद्र पुरी है।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने गुरु महाराज ईश्वर पुरी से, उनके गुरु महाराज ईश्वर पुरी के गुरु महाराज माधवेंद्र पुरी के संबंध में खूब सुना था गान सुने थे। माधवेंद्र पुरी के जीवन चरित्र और शिक्षाएं सुने थे चैतन्य महाप्रभु ईश्वर पुरी से सुने थे माधवेंद्र पुरी के संबंध में। ठीक है तो हम यह भी बताते हैं आपको.. श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने तो ले लिया संन्यास। पुन: शांतिपुर आए थे चैतन्य महाप्रभु सन्यास लेकर और उनको जाना था जगन्नाथ पुरी। जा ही रहे थे रास्ते में आ गया रेमुणा जहां क्षीरचोर गोपीनाथ मंदिर है। यहां जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और चार भक्तों के साथ पहुंचे, एक नित्यानंद प्रभु साथ में थे और जगदानंद पंडित साथ में थे और दो भक्त साथ में थे मुकुंद साथ में थे। तो उनको बिठाए वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और उनको भी माधवेंद्र पुरी की कथा सुनाते हैं। यह बताना होगा कि रेमुणा में ही माधवेंद्र पुरी का तिरोभाव भी हुआ तिरोहित हुए। यहीं पर रहते थे माधवेंद्र पुरी अपने अंतिम दिनों में रेमुणा में। क्षीरचोर गोपीनाथ मंदिर जहां है ओड़ीसा में बंगाल का बॉर्डर है, बालेश्वर नाम का पास में एक शहर है। ईश्वर पुरी माधवेंद्र पुरी की सेवा भी कर रहे थे माधवेंद्र पुरी के अंतिम दिनों में।
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इसी रेमुणा में उन भक्तों को जो उनके साथ चल रहे थे उनको माधवेंद्र पुरी की कथा सुनाएंगे। और यह है चैतन्य चरित्रामृत के मध्य लीला चौथे अध्याय में। तो जब चैतन्य महाप्रभु माधवेंद्र पुरी के चरित्र कथा लीला का वर्णन कर रहे थे तब उन्होंने कहा कि मैं जो आपको सुनाऊंगा यह सारी बातें मैंने ईश्वर पुरी से सुनी है, वही बात मैं आपको सुनाता हूं। पूरा विस्तार से चैतन्य महाप्रभु स्वयं गौरांग माधवेंद्र पुरी का चरित्र सुनाएं और अपने भक्त का ही चरित्र सुनाएं। इस भक्त का चरित्र सुनाने का कारण यह भी है कि उन्होंने ही इस गौड़ीय संप्रदाय को गौड़ीय संप्रदाय बनाया। माधुर्य लीला के आचार्य थे माधवेंद्र पुरी, यह सब चैतन्य महाप्रभु सुनाएं हैं। जैसे वृंदावन में माधवेंद्र पुरी.. हां काफी विस्तार से है तो हमारे पास समय नहीं है। वह कैसे गोवर्धन परिक्रमा किया करते थे और गोविंद कुंड पर कैसे वे जब बैठे थे तो एक बालक आया बाबा बाबा आपके लिए दूध। वे बालक भगवान थे और माधवेंद्र पुरी परिक्रमा किया करते थे।
परिक्रमा मार्ग पर एक यतीपुर आता है आप सुने होंगे गोविंद कुंड से लोटा बाबा के दर्शन लेने जाते हैं और वहां से हम लोग टर्न लेते हैं, वहां पर एक स्थान आता है उसे यतीपुर कहते हैं। तो यतीपुर मतलब यह माधवेंद्र पुरी का ही एक नाम है यति मतलब सन्यासी को यति कहते हैं। तो यति पुर मतलब यह माधवेंद्र पुरी का ही पुर, मतलब उनके नाम से जाना जाता है। और फिर श्याम कुंड के तट पर माधवेंद्र पुरी बैठक भी है, राधा कुंड श्याम कुंड कि हम परिक्रमा करते हैं तो श्याम कुंड के तट पर, तो चैतन्य महाप्रभु यह सब सुनाए हैं। फिर माधवेंद्र पुरी चंदन लाने के लिए कैसे उड़ीसा पहुंच जाते हैं, क्षीर चोर गोपीनाथ पहुंच जाते हैं। और इसी माधवेंद्र पुरी के लिए गोपीनाथ ने क्षीर की चोरी की। फिर गोपीनाथ ने ब्राह्मण को जगाया पुजारी को जो सोए थे और फिर उस ब्राह्मण ने माधवेंद्र पुरी को ढूंढ के निकाला और उनको क्षीर दे दी। माधवेंद्र पुरी ने ग्रहण किया इस क्षीर को हरी हरी। और वहां पर यहां भी चैतन्य महाप्रभु कहे की माधवेंद्र पुरी सोच रहे थे की संभावना है, अगले दिन जब सुबह होगी तो सर्वत्र चर्चा होगी। माधवेंद्र पुरी के लिए गोपीनाथ ने चोरी की सर्वत्र बोलबाला होगा हो सकता है कि मीडिया के लोग आएंगे, टेलीविजन के लोग आ सकते हैं वह मेरा इंटरव्यू ले सकते हैं। तो यह सब टालने के लिए माधवेंद्र पुरी ने रातों-रात वहां से जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान किया। यह सब चैतन्य महाप्रभु ने सुनाया यह सुनाने के पीछे इस गौरवगाथा की बात यह है कि..
तृणादपि सुनीचेन
तरोरपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीयः सदा हरिः॥
अपना स्वयं का मान सम्मान वे नहीं करना चाहते थे। इसीलिए जब अंधेरी रात ही थी अंधेरी रात में ही वहां से प्रस्थान किए आगे बढ़े। किंतु हुआ क्या जब माधवेंद्र पुरी जगन्नाथ पुरी पहुंच गए तो वहां सभी और चर्चा हो रही थी की माधवेंद्र पुरी के लिए भगवान ने क्षीर की चोरी की। तो यह पी आर कौन कर रहा था जगन्नाथ भगवान या गोपीनाथ ही कर रहे थे। और जब भगवान ही अपने भक्त के चरित्र का वर्णन या गुण गाते हैं या प्रचार करते हैं तो उसे कौन रोक सकता है। तो ऐसे थे माधवेंद्र पुरी। माधवेंद्र पुरी के अंतिम दिन रेमुणा में ही बीत गए। वैसे उनको जाना तो था चंदन लेकर आए तो थे रेमूणा और चंदन था गोपाल के लिए। लेकिन गोपाल स्वप्न में आए और उन्होंने कहा कि मुझ में और गोपीनाथ में कोई अंतर नहीं हैं, मैं ही हूं गोपीनाथ। तो तुम वही सेवा करो गोपीनाथ को चंदन लेपन करो, चंदन घीसो तो वह सेवा मुझ गोपाल तक वृंदावन मे पहुंच जाएगा, तुम वहीं रहो, फिर माधवेंद्र पुरी वैसा ही किए।
तो देखिए कैसे भगवान के साथ कितना घनिष्ठ संबंध है माधवेंद्र पुरी का। और भगवान भी कितना प्रेम करते हैं माधवेंद्र पुरी से और माधवेंद्र पुरी का कितना प्रेम है फिर कृष्ण के साथ। अपने अंतिम दिनों में माधवेंद्र पुरी इस श्लोक को पुनः पुनः कहां करते थे, गाया करते थे। जो वचन वैसे राधा रानी का ही है राधा रानी के ही भाव है। अयि दीन-दयारद्र नाथ हे मथुरा- नाथ कदावलोक्यसे मे यह सब विस्तार से बोल नहींं पाऊंगा पहले ही समय समाप्त हो चुका है। तो कृष्ण जब वृंदावन से मथुरा गए उस वक्त राधा और गोपियों की जो हालत होती है, मन: स्तिथि होती है, विरह की व्यथा से जब व्यथित होती है और उस समय जो बातें राधा रानी और गोपिया करती है, वही बात इस वचन मेंं भी व्यक्त है। अब कहां मिलोगे, कब मिलोगे हे दीन दयारद्र नाथ, उसी भाव में मग्न थे माधवेंद्र पुरी। और इन्हीं भावों के कारण ही तो वे बन गए गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के एक दृष्टि से संस्थापक या प्रथम आचार्य। तो माधवेंद्र पुरी का तिरोभाव महोत्सव आज पूरा संसार मना रहा है।
माधवेंद्र पुरी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
हरे कृष्ण
दिनांक २५.०३.२१
जीव जागो! सोई हुई आत्माओं,पुण: जाग जाओ!
जैसा कि मैंने अंग्रेजी में बता ही दिया,आज के दिन का महत्व या महिमा या यह दिन मेरे लिए कैसे महत्वपूर्ण रहा। मैं नहीं जानता कि मैं कब से इस ब्रह्मांड में यहां से वहां भ्रमण कर रहा था, यहां से वहां घूम रहा था, जैसे कि मैं कुछ ढूंढ रहा था।
“ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव।
गुरु-कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति-लता बीज।।”
(चेतनयचरित्रामृत मध्य लीला 19.151)
मैं घूम रहा था और कुछ खोज रहा था। मेरी पढ़ाई विलिंगटन कॉलेज, शिवाजी यूनिवर्सिटी, सांगली से चल रही थी। मैं वहीं से अपनी पढ़ाई जारी रख सकता था, लेकिन मैं सोचने लगा कि अगर मैं मुंबई विश्वविद्यालय का ग्रेजुएट बन जाऊं तो और भी अच्छा होगा और बाद में समझ आया कि मैंने ऐसा क्यों सोचा।मुझे लगा था कि मुंबई विश्वविद्यालय का इतना नाम हैं।ऐसा सोच कर मैंने सांगली को छोड़ा और मुंबई पहुंच गया।मुंबई में मैंने कीर्ति कॉलेज, दादर में अपना नाम दर्ज करा दिया।मैं कीर्ति कॉलेज में पढ़ने लगा,वैसे मैं पढ़ तो नहीं रहा था क्योंकि मेरा ध्यान पढ़ने में नहीं लगता था। जबरदस्ती पढ़ने का प्रयास कर रहा था।क्योंकि मन में पढ़ने की इच्छा नहीं थी।अधिकतम समय मैं कॉलेज की लाइब्रेरी में ही बिताया करता था। अपने पाठ्यक्रम की किताबे मैं बहुत कम ही पढता था और दूसरी ही किताबें पढ़ता रहता था। बड़े-बड़े विश्वविख्यात समाज सुधारक,मानव सेवक या देश भक्त के चरित्र पढ़ने में मेरी विशेष रुचि रहती थी। क्योंकि मेरे मन में एक सेवक होने की तीव्र इच्छा थी। मैं समाज सेवको या मानव जाति के सेवकों की तरह ही बनना चाहता था। मुझे लगता था मैं भी कोइ सेवक या देश भक्त बन जाऊं। ऐसा करते-करते मैं मुंबई पहुंचा और एक-दो साल ही हुए थे कि मैंने सुना कि क्रॉस मैदान में हरे कृष्णा उत्सव होने जा रहा हैं।
मैंने सुना कि भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद अपने अमरीकी और यूरोपियन साधुओं के साथ क्रॉस मैदान में आने वाले हैं और यह उत्सव 25 मार्च से शुरू हो रहा हैं। ऐसी घोषणा पूरे मुंबई में हो रही थी। हर जगह इश्तिहार बट चुके थे। जैसे ही मैंने पढ़ा कि अमेरिकी साधु मुंबई में आए हैं,मैं आश्चर्यचकित हो गया और मैंने सुना कि एक भक्तिवेदांत स्वामी हैं, जो विश्व भर में प्रचार करते हैं। इन्होंने प्रचार करके अमरिकियों को साधु बना दिया हैं। पूरे शहर में ऐसा प्रचार चल रहा था। सारे मुंबई के लोगों के लिए यह अचरज वाली बात थी कि अमरीकी साधु आने वाले हैं। सब आश्चर्य में थे कि ऐसा कैसे हो सकता हैं कि अमेरिकी लोग साधु बन गए। लेकिन अमरिकी साधु ऐसा कैसे हो सकता हैं? ऐसा संभव नहीं हैं। इस खबर की प्रमाणिकता जानने के लिए सारी मुंबई क्रॉस मैदान में इस हरे कृष्णा उत्सव की ओर दौड़ पड़ी थी और इस भीड़ में मैं भी था।बल्कि मैं तो सबसे आगे था। मैं उस समय एक विश्वविद्यालय का छात्र था,जिसकी उम्र केवल 21-22 साल ही थी। दादर से चर्चगेट स्टेशन का सफर मैंने लोकल ट्रेन में बैठकर तय किया और क्रॉस मैदान चर्चगेट स्टेशन के पास ही हैं।पहले दिन जब मैं वहां पहुंचा तो वहां का वैभव देख कर आश्चर्यचकित रह गया। वहां एक बहुत ही विशाल पंडाल लगा था। 200 फीट ऊंचाई पर एक बहुत बड़ा गुब्बारा भी लगाया गया था। उस पर हरे कृष्णा लिखा था और एक बहुत बड़ा बैनर भी था जिस पर हरे कृष्णा लिखा था।सारी मुंबई वहा दौड़ रही थी। हजारों की संख्या में लोग वहां पहुंच रहे थे।तो मैं आपको बता रहा था कि किस प्रकार से मैं सांगली से मुंबई पहुंचा।मैं मुंबई स्वयं ही नहीं आया था,बल्कि वहां पर लाया गया था।मैं तो यह सोचकर मुंबई आया था कि यहां पर पढ़ाई अच्छी होगी,लेकिन जब मैं श्रील प्रभुपाद से मिला तो मुझे समझ में आया कि जैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं
“ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव।
गुरु-कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति-लता बीज।।”
(चेतनयचरित्रामृत मध्य लीला 19.151)
तब मैं समझ पाया कि भगवान मुझे भाग्यवान बनाना चाहते थे।अगर मैं सांगली में ही पढ़ाई करता रहता तो आज जो हम यह सुनहरा दिन मना रहे हैं,वह नहीं मना पाते। मैं श्रील प्रभुपाद से नहीं मिल पाता।मेरा तो यही मानना है कि गौरांग महाप्रभु ही मुझे प्रेरित कर रहे थे।
चैतन्य महाप्रभु ने हीं मुझे सांगली से मुंबई आने के लिए प्रेरित किया। यह चैतन्य महाप्रभु की ही इच्छा थी कि मैं सांगली से मुंबई आऊं। उन्होंने ही हरे कृष्णा आंदोलन से मेरा परिचय करा कर मुझे अत्यंत सौभाग्यवान बनाया। मैं तो कुछ और ही सोच रहा था,लेकिन चैतन्य महाप्रभु की यही इच्छा थी। उन्हीं की इच्छा से ही सारा संसार चलता हैं।जिस परिवार में मैं जन्मा था उस परिवार के इष्ट देव पांडुरंगा विट्ठल हैं,हमारे इष्ट देव की,गौरांग महाप्रभु की,श्री कृष्ण की कृपा का ही परिणाम हैं, कि आज के दिन में श्रील प्रभुपाद से मिला।
और जैसा मैंने बताया कि मेरीे पढ़ाई करने में कोई रुचि नहीं थी। कहने को तो मैं विज्ञान का विद्यार्थी था। फिजिक्स, केमिस्ट्री,बायो इन विषयों में मैं पढ़ाई कर रहा था,लेकिन पढता कम ही था।क्योंकि मेरी रुचि नहीं थी। मुझे भौतिक पढ़ाई करना इतना नापसंद था कि जब मैं कॉलेज से अपने कमरे पर जाया करता था तो रास्ते में मैं किताबों को दूर फेंक दिया करता था। इतनी दूर कि मुझे इनको फिर दोबारा ना पढ़ना पढे़। कभी-कभी तो गटर में फेंक दिया करता था। धीरे-धीरे इस प्रकार का वैराग्य उत्पन्न हो रहा था। मेरी बचपन से ही ऐसी रूचि थी कि मैं किसी आंदोलन या किसी देशभक्त या समाजसेवी का अनुयाई बन जाऊं और सेवा करूं। सेवा करने की मेरी बहुत इच्छा थी। मेरा मन होता था कि मैं किसी की तो सेवा करूं।मानव जाति की या देश की,किसी की भी।क्योंकि मैं महाराष्ट्रन था,इसलिए उस समय के जो बिनोवा भावे थे जोकि गांधी के सच्चे भक्त थे, उनके बारे में मैंने काफी सुना था और उनसे जुड़ने के लिए मैं कॉलेज,पढ़ाई सब छोड़ कर गया। लेकिन बाद में पता चला कि भगवान ने मुझे बाल- बाल बचाया। वहां पहुंचने की वजह से मैं वर्धा गया और वर्धा से सेवाग्राम क्योंकि कुछ दूरी पर था तो मुझे चलकर जाना था। मेरे पास जाने के लिए कोई साधन या धनराशि नहीं थी,इसलिए मैं चलकर जा रहा था। उस वक्त मुझे कई दिक्कतें आ रही थी। क्योंकि मैं भूखा प्यासा भी था।
भूखा प्यासा होने की वजह से मैंने बीच रास्ते से ही मैं वापस मुड़ने का फैसला किया।लेकिन सांगली आने के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे। मेरे पास बस एक घड़ी थी। क्योंकि मुझे पैसों की जरूरत थी इसलिए मैंने बड़े सस्ते में घड़ी बेची और और शायद उस वक्त मुझे उसके ₹15 हीं मिले थे,क्योंकि मैं बिना टिकट के यात्रा नहीं करना चाहता था। सांगली लौट के आने के बहुत समय बाद मैंने घर वालों को बता दिया कि मैं कहां गया था और क्या क्या हुआ। इस प्रकार से भगवान ने मुझे बचाया।पर क्योंकि सेवा करने का विचार अभी तक मन से नहीं गया था तो इसलिए भगवान ने कृपा करके आज ही के दिन 50 वर्ष पूर्व मुझे श्रील प्रभुपाद से मिलवाया।
मैं अपने गुरु श्रील प्रभुपाद से पहली बार 1971 में मिला और मेरे गुरु महाराज,उनके गुरु महाराज श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद से पहली बार 1922 में मिले।
और पहली मुलाकात में ही उनको उनके गुरु महाराज ने आदेश दिया कि पाश्चात्य देश में जाओ और चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन का अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। उन्होंने अपने गुरु महाराज के आदेश का पालन बहुत सफलतापूर्वक किया। श्रील प्रभुपाद अमेरिका गए और इतने अच्छे से प्रचार किया कि आज सभी लोग श्रील प्रभुपाद को अपना नायक मानते हैं। श्रील प्रभुपाद जानते थे कि दुनिया वाले अमेरिकन और यूरोपियन की नकल करते हैं। तो उन्होंने सोचा कि अगर मैं इनको कृष्ण भक्त बनाऊंगा तो दुनिया वाले इनकी नकल करके स्वयं ही भक्त बन जाएंगे।इसी विचार के साथ श्रील प्रभुपाद ने अमेरिका में प्रचार किया और अमेरिकियों को साधु बनाया।श्रील प्रभुपाद को जो सफलता मिली थी उस को दर्शाने के लिए श्रील प्रभुपाद अपने अमरीकी और यूरोपीयन साधुओं को लेकर भारत लौटे थे।
श्रील प्रभुपाद इस विचार से उनको अपने साथ लाए थे कि जिन भारतीयों को अपने धर्म में आस्था नहीं है तो वह इन विदेशियों की नकल कर करके भक्त बन जाएंगे। श्रील प्रभुपाद को लगा कि क्योंकि भारतीय विदेशियो की नकल करते हैं,तो जब यह विदेशी ही भक्त बनेंगे तो भारतीय भी विचार करेंगे और अपने धर्म की ओर मुडेंगें।1970 में प्रभुपाद अपने विदेशी शिष्यों के साथ भारत लौटे और भारत का भ्रमण कर रहे थे और हर अलग-अलग स्थानों पर हरे कृष्णा उत्सव मना रहे थे। हम तो यहां पर मुंबई के हरे कृष्णा उत्सव की बात कर रहे हैं जब प्रभुपाद के मुझे प्रथम दर्शन हुए थे। किंतु इस हरे कृष्णा उत्सव से पहले श्रील प्रभुपाद हरे कृष्णा उत्सव कई स्थानों पर कर चुके थे।
इन्हीं 30- 40 शिष्यों के साथ श्रील प्रभुपाद अमृतसर गीता सम्मेलन के लिए भी गए थे। 1971 के जनवरी में श्रील प्रभुपाद वाराणसी भी गए थे और वहां पर नगर संकीर्तन भी किया।वहा से श्रील प्रभुपाद गोरखपुर गए थे। वहां गीता प्रेस गोरखपुर गए और हनुमान प्रसाद पोद्दार से मिले। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग लोगों से अपने आंदोलन का परिचय करा रहे थे।इन विदेशी भक्तों को उन दिनों में वाइट एलीफैंट ही कहते थे,” सफेद हाथी”।गोरखपुर से 1971 मई में श्रील प्रभुपाद कुंभ मेले में गए थे। उस समय अर्ध कुंभ चल रहा था।यह हरे कृष्ण वाले प्रयाग इलाहाबाद में कुंभ मेले के आकर्षण का केंद्र हो चुके थे।इनको भारतीय अंग्रेज कहते थे ,वैसे तो भक्त सभी जगह से थे।अमेरिकन,यूरोपियन,जर्मन किंतु आम भाषा मे भारतीय इन्हें अंग्रेज कहते थे।
श्रील प्रभुपाद सूरत भी गए थे और सूरत में तो उन्हें बहुत बड़ी सफलता प्राप्त हुई थी। प्रभुपाद मद्रास भी गए थे।इसी तरह फिर हरे कृष्णा उत्सव क्रॉस मैदान मार्च में आज ही के दिन हुआ था। इस उत्सव से पहले कुछ उत्सव विभिन्न स्थानों पर हो चुके थे और कुछ इसके बाद होने वाले थे।उसी श्रृंखला में श्रील प्रभुपाद का एक कार्यक्रम एलआईसी ग्राउंड न्यू दिल्ली में भी हुआ था।फिर एक कार्यक्रम कोलकाता में भी हुआ था और ऐसे ही प्रोग्राम में जाते-जाते श्रील प्रभुपाद भक्तों को वृंदावन ले गए और मायापुर भी ले गए थे। 1 साल के अंदर अंदर श्रील प्रभुपाद और उनके विदेशी भक्तों ने यह सभी यात्राएं,प्रचार और उत्सव पूर्ण किए। इस प्रकार श्रील प्रभुपाद विचारों की क्रांति कर रहे थे और कई जीवो को भाग्यवान बना रहे थे। चैतन्य महाप्रभु ही कई जीवो को श्रील प्रभुपाद के संपर्क में लाकर,उनके शिष्यों के संपर्क में लाकर,महामंत्र के संपर्क में लाकर या श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों के संपर्क में लाकर भाग्यवान बना रहे थे।
पूरे भारतवर्ष में इस प्रकार असंख्य जीव भाग्यवान बन रहे थे।इस हरे कृष्णा उत्सव क्रॉस मैदान ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मेरे जीवन में क्रांति आ गई। मैंने जो हरे कृष्णा भक्तों के कीर्तन सुने और कीर्तन को सिर्फ सुना ही नहीं देखा भी।कीर्तन को सिर्फ सुनना नहीं होता कीर्तन को देखना भी होता हैं। कीर्तनकार को देखना चाहिए।जो भक्त नृत्य करते हैं उनको भी देख सकते हैं या कीर्तनकार जब अलग-अलग वाद्य बजाते हैं तो उनको भी देखा और सुना जाता हैं और सब को ही देखना और सुनना चाहिए। सबसे प्रथम इस कीर्तन ने ही मुझे प्रभावित किया और फिर श्रील प्रभुपाद के अमरीकी और यूरोपीयन साधुओं ने मुझे प्रभावित किया। मैंने इससे पहले भी कई कीर्तन सुने थे। बचपन से ही मैं भजन कीर्तन सुनता रहा था। हमारे गांव में हर एकादशी पर रात भर भजन हुआ करते थे। उसे मैं भी कुछ समय के लिए तो सुनता ही था और भी बहुत सारे भजन कीर्तन सुने ही थे।लेकिन यह जो हरे कृष्णा कीर्तन था इसे जब मैंने देखा और सुना और जिस लगन और जिस भक्ति भाव के साथ वह लोग कीर्तन कर रहे थे,उसने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया।
उनकी भक्ति में बहुत तीव्रता थी। जब वो कीर्तन कर रहे थे तो वह उस कीर्तन में तल्लीन थे। उन्हें मानो इस बात का एहसास ही नहीं था कि कुछ 30,000 लोग श्रोता बनकर उनको देख और सुन रहे हैं। या यह कह सकते हैं कि वह अपनी ही दुनिया में थे।अपने में पूर्णतः मस्त थे। वह नाच और कूद रहे थे और एक टीम की तरह काम कर रहे थे।कोई मुख्य कीर्तनया था,तो कोई पीछे गा रहा था,कोई वाद्य बजा रहा था और कुछ मिलजुल कर नाच भी रहे थे। इतनी शक्ति और सामर्थ्य के साथ में नाच और गा रहे थे कि वह पसीने पसीने हो रहे थे। पसीने पसीने होना भी एक भक्ति का लक्षण हैं।पसीने पसीने होना, अष्ट सात्विक विकार में से एक हैं या मौसम की वजह से भी हो सकता हैं। मुंबई का मौसम ऐसा है कि आसानी से कोई भी पसीना पसीना हो सकता हैं। कह नहीं सकते किस कारण से हो रहे थे। भक्ति भाव के कारण या वहां के मौसम के कारण।लेकिन हां पूरी तरह से पसीने में तर हो रहे थे। इससे मुझे स्मरण आ रहा हैं कि जैसा बाइबिल में कहा गया है कि भक्ति करनी हैं तो कैसे करो? अपने पूरे दिल से करो, अपनी पूरी ताकत से करो। अपने पूरे दिल और ताकत से भगवान को प्रेम करो।
अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी: ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् (श्रीमदभागवतम 2.3.10)
श्रीमदभागवतम में भी यही कहा हैं और बाइबिल में अंग्रेजी भाषा मैं कुछ भित्र शब्दों में यही बात कही है। तो मैं इन हरे कृष्ण भक्तों को देख रहा था कि किस तरह से यह बिना किसी इच्छा के,पूरी तरह से समर्पित थे। अपने पूर्ण समर्पण के साथ यह लोग कीर्तन और नित्य कर रहे थे ।प्रभावित तो सभी हो रहे थे,लेकिन हर व्यक्ति उस कीर्तन से अलग-अलग मात्रा में प्रभावित हो रहा होगा। मैं थोड़ा विशेष प्रभावित हुआ उस कीर्तन से और श्रील प्रभुपाद के प्रवचन से।उस समय श्रील प्रभुपाद अंग्रेजी में प्रवचन दिया करते थे। पूरी तरह से तो नहीं लेकिन लगभग हां मैं ज्यादातर समझ ही जाता था। प्रतिदिन कीर्तन और श्रील प्रभुपाद का प्रवचन, यह दो मुख्य चीजें तो होती ही थी और मंच पर राधा कृष्ण के विग्रह विराजित रहते थे।हरे कृष्णा उत्सव के समय इन हरे कृष्णा वालों ने क्रॉस मैदान को मंदिर ही बना दिया था। पूरा पंडाल ही मंदिर था और ज्यादातर लोग पुजारी बनकर वही रहते थे और भगवान की अच्छी तरह से आराधना करते थे।भगवान का अभिषेक, श्रृंगार,आरतियां सब कुछ वहां चल रहा था। उस पर मैंने यह ” मुंबई इज माइ ऑफिस” जो ग्रंथ लिखा है इसमें चर्चा की हैं।वह सब तो देखा ही था,लेकिन उससे पहले का भी विवरण प्रभुपादलीलामृत में पढ़ा और भक्तों से सुना था फिर मैंने कुछ साल पहले, ओर अध्ययन किया और कई साक्षात्कार लिए तो पता चला कि किस प्रकार से यह क्रॉस मैदान का हरे कृष्णा उत्सव व्यवस्थित था। जिस एक बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया,जिसकी खोज में मैं था और जिसका उत्तर मुझे मिला वह है प्रभुपाद का केवल 1 दिन का प्रवचन।उस दिन प्रभुपाद प्रवचन में समझा रहे थे और मुझे लगा कि प्रभुपाद मुझसे ही बात कर रहे हैं।जैसे वह बात कहकर प्रभुपाद मुझे ही संबोधित कर रहे हैं कि अगर हमें पेड़ का पालन पोषण करना हैं तो उसकी जड़ में पानी देना होगा।
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन
तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखा: ।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां
तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥ (श्रीमदभागवतम 4.31.14)
केवल मूल में जल डालने से वृक्ष के पत्ते,फल,फूल सबको ही जल मिल जाता हैं। अलग से उन्हें जल देने की आवश्यकता नहीं होती।
केवल मूल में जल डालने से ही पूरे वृक्ष का पालन पोषण हो जाता हैं। मुझे ऐसे लग रहा था जैसे प्रभुपाद मुझे ही समझा रहे थे कि हम सब की सेवा करना चाहते हैं, चाहे वह देश की हो, राष्ट्र की हो या परिवार वालों की हो या पूरी मानव जाति की सेवा करनी हो। इन सब की जड़ भगवान हैं। इन सब को बीज प्रदान करने वाले पिता भगवान ही हैं। भगवान ने स्वयं ऐसा गीता में कहा है।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।भगवद्गीता 14.4।।
हमारे स्रोत भगवान हैं। हम भगवान से उत्पन्न हुए हैं और उनसे जुड़े हैं। भगवान हमारे हैं और हम भगवान के हैं।अगर हम भगवान की सेवा करेंगे,जो कि हमारी जड़ हैं तो फिर वह सेवा ओर सभी तक पहुंच जाएगी।भगवान बह्रम है,परमात्मा हैं और परमात्मा की सेवा करने से आत्मा की भी सेवा हो जाएगी।क्योंकि आत्मा भगवान कि अंश हैं।
क्योंकि हम भगवान से आए हैं,इसलिए उनकी सेवा करने पर अंशी तक स्वयं ही पहुंच जाएगी। मानव जाति की सेवा करना मतलब उन शरीरों में जो आत्मा हैं उनकी सेवा करनी हैं, क्योंकि सब शरीर नहीं आत्मा हैं। सभी आत्माएं कह रही हैं कि उन्हें मदद की जरूरत हैं। शरीर तो केवल एक वस्त्र हैं। आत्मा व्यक्ति स्वयं हैं।कृष्ण की सेवा करने से आत्मा की भी सेवा हो जाती हैं। यही बात प्रभुपाद ने समझाई और तुरंत मुझे मार्ग मिल गया। मुझे मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो गए और मैंने मन से स्वीकार कर लिया कि हां!हां! मैं यही करूंगा और यही करना चाहता हूं। उसी उत्सव में मन ही मन मैंने प्रभुपाद को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। तुरंत ही मैंने प्रभुपाद के कुछ छोटे ग्रंथ खरीद लिए और जपमाला भी ले ली और हरे कृष्ण महामंत्र ने तो मेरी आत्मा को छू ही लिया था। यही कुछ मुख्य बिंदु हैं, जो आपके साथ बांटना चाहता था। इसी दिन से मेरे जीवन को एक नई दिशा मिल गई।
“महाजनो येन गतः स पन्थाः”
जिस पथ पर महाजन चले हैं और प्रभुपाद जिस पथ पर चल रहे थे, उस पथ का मैंने उस दिन से अनुगमन करना प्रारंभ कर दिया। आज ही के दिन से मैं प्रभुपाद का और उनके अनुयायियों का अनुयाई बना और उसी के साथ ही चैतन्य महाप्रभु का अनुयाई या यूं कहें भक्त बना। पूरा तो नहीं बना लेकिन तभी से बनना प्रारंभ हो गया। इस 1 दिन के साथ जो शुभारंभ हुआ फिर आगे जो भी हुआ वह आप देख और सुन ही रहे हो। तब से आज तक यह 50 वर्ष की यात्रा रही। इसके लिए मैं भगवान का, गौरांग महाप्रभु का आभार प्रकट करता हूं। मुझे नहीं पता कि किन शब्दों में मैं उनका आभार प्रकट करूं,जिन्होंने मुझे श्रील प्रभुपाद दिए जो मेरे लिए साक्षात हरि हैं।
“साक्षाद् धरित्वेन समस्त-शास्त्रैर्”
आज सायं काल में भी कार्यक्रम हैं, आज ही नहीं हर शाम कार्यक्रम होने वाला हैं। आज तो मैं ही कार्यक्रम करूंगा जो कि 6:00 बजे से शुरू होने वाला हैं।लगभग 1 घंटे का हैं। इसके बाद पद्मावली आपको सूचनाएं देंगे। किंतु अगर एक दो पंक्तियों में आप अपने विचार लिखना चाहते हो तो आप लिख भी सकते हो। इस उत्सव के अंतिम 3 दिन में मैं और भी बहुत कुछ कहने वाला हूं,उत्सव या प्रभुपाद और मेरे मिलन के संबंध में,उस समय आप लोग कुछ बोलना चाहे तो बोल पाएंगे लेकिन आज अगर आप बोलना चाहते हो तो आप लिख सकते हैं चैट बॉक्स ओपन हैं
हरे कृष्ण।।
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जप चर्चा
हरे कृष्ण
दिनांक २४.०३.२१
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 747 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। हरि बोल! जगन्नाथ स्वामी की जय!
जगन्नाथपुरी धाम की जय!
*जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥
हरि! हरि!
गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय!
आज गौर पूर्णिमा तो नहीं है, लेकिन दूर भी नहीं है। हम उस गौर पूर्णिमा के उपलक्ष में गौर कथा कह रहे हैं। मायापुर में प्रकट हुए गौरांग महाप्रभु की जय!
गौरांग! गौरांग! गौरांग!
नित्यानंद! नित्यानंद! नित्यानंद!
महाप्रभु प्रकट हुए और संन्यास लिया।शची माता ने अपनी इच्छा व्यक्त की, ‘हे निमाई! तुम जगन्नाथपुरी में रहो।’ हरि! हरि! निमाई, श्रीकृष्ण चैतन्य भी बने थे। संन्यास दीक्षा हुई तब संन्यास दीक्षा के उपरांत उनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य हुआ।
(आप नोट करो कि उनका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य हुआ)
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभ ने शची माता के आदेशानुसार जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान किया। जगन्नाथ पुरी धाम की जय! वहां पहुंचकर सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार किया। तत्पश्चात उन्होंने भ्रमण किया चिंतामणि धाम? बताओ, कितने वर्ष भ्रमण किया? महाप्रभु ने 6 वर्ष तक भ्रमण किया, वैसे वे उसमें से कुछ समय जगन्नाथपुरी में रहे। उन्होंने जगन्नाथपुरी को अपना आधार(बेस) बनाया। जैसे श्रीकृष्ण ने द्वारका को आधार(बेस) बनाया था, वे द्वारकाधीश हुए थे। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण कई स्थानों पर गए अथवा लौटे। श्रीकृष्ण लीला में उनका धाम द्वारका धाम ही रहा और श्रीकृष्ण चैतन्य लीला में जगन्नाथपुरी को अपना हेड क्वार्टर अपना धाम बनाया। उन्होंने मध्य लीला के अंतर्गत 6 वर्षों तक भ्रमण किया। चैतन्य महाप्रभु जब संन्यासी बने हैं तो भ्रमण अनिवार्य है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु परिव्राजकाचार्य बने हैं और उन्होंने सर्वत्र प्रचार किया।
पृथिवीते आछे यत नगरादि- ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
(चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१.१६)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठ भाग पर् जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
उनको यह करना ही था, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को यह कर्तव्य निभाना था।
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥
अर्थ:- अब वे पुनः भगवान् गौरांग के रूप में आए हैं, गौर-वर्ण अवतार श्रीराधाजी के प्रेम व परमआनन्दित भाव से युक्त और पवित्र भगवन्नामों हरे कृष्ण के कीर्तन का विस्तार से चारों ओर प्रसार किया है। (अब उन्होंने हरे कृष्ण महामंत्र का वितरण किया है, उद्धार करने का महान कीर्तन। वे तीनों लोकों का उद्धार करने के लिए पवित्र भगवन्नाम वितरित करते हैं। यही वह रीति है जिससे वे प्रचार करते हैं। )
उन्होंने हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का सर्वत्र प्रचार किया। सर्वत्र मतलब सर्वत्र नहीं है अपितु उन्होंने केवल भारत में ही प्रचार किया। वे रियूनियन तो नहीं गए, ना ही थाईलैंड गए, ना ही इंग्लैंड गए न ही आयरलैंड गए, ना ही हालैण्ड गए थे। हरि! हरि! इस प्रकार कई तरह के लैंड है। वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नहीं गए। उन्होंने भारत में ही यात्रा की अथवा परिभ्रमण किया व हरे कृष्ण महामंत्र की स्थापना अथवा कलियुग के धर्म की स्थापना की। हरि! हरि! यह सभी करते ही हैं और मैंने भी कई बार कहा है।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे अर्थात
उन्होंने धर्म की स्थापना का कार्य किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में वापस लौटे। उनके इस प्राकट्य के पीछे एक विशेष अथवा गोपनीय कारण था, उसकी सफलता के लिए वह गोपनीय कारण क्या था, वह भी कल आपको सुनाया था। वैसे कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने ही सुनाया है, हमनें तो पढ़ कर सुनाया थ। कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज की जय! चैतन्य महाप्रभु, जगन्नाथ पुरी धाम में आए हैं। वे अब अपने उद्देश्य को भी सफल करेंगे। जगन्नाथ पुरी धाम गोलोकधाम है। जहां जगन्नाथ निवास करते हैं, जगन्नाथ मंदिर है, यह द्वारका है, यह नीलांचल भी कहलाता है, जगन्नाथपुरी को नीलांचल कहते हैं। नीलांचल मतलब नीला अचल अथवा नीले रंग का अचल, अचल जो चलता नहीं है। पहाड़ नहीं चलते, वहां नीला पहाड़ है, उसे नीलांचल कहते हैं। नीलांचल के पहाड़ के ऊपर जगन्नाथ बलराम सुभद्रा मैया का मंदिर अथवा निवास स्थान है। जगन्नाथ बलराम सुभद्रा मैया की जय! वहां द्वारका है, द्वारका गोलोक में हैं। गोलोक में भी द्वारका है।
जगन्नाथपुरी को केवल नीलांचल ही नहीं कहते बल्कि उसे सुंदरांचल भी कहते हैं। अचल अर्थात पर्वत हुआ, वहां एक दूसरा सुंदर पर्वत है जो कि सुंदरांचल कहलाता है। जहां पर जगन्नाथ पुरी का गुंडिचा मंदिर है, गुंडिचा मंदिर एक प्रसिद्ध मंदिर है। जगन्नाथ में दो ही प्रसिद्ध मंदिर हैं- एक जगन्नाथ मंदिर और वहीं जगन्नाथ रथ यात्रा के समय भगवान् जगन्नाथ रथ में आरूढ़ होकर गुंडिचा मंदिर जाते हैं। हरि! हरि! राजा इंद्रद्युम्न भगवान के अनन्य भक्त थे। हरि! हरि! उन्होंने ही जगन्नाथ मंदिर के निर्माण का कार्य किया। उनके प्रयास लगभग राजा भगीरथ के प्रयास जैसे ही रहे। विघ्न आते गए लेकिन उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा करवाई और मंदिर का निर्माण भी करवाया। बहुत समय के उपरांत जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा मैया के विग्रह की स्थापना हुई। जो जगन्नाथ पहले नीलमाधव थे, वे नीलमाधव अंतर्ध्यान हुए राजा इंद्रद्युम्न ने ऐसी व्यवस्था की। भगवान्, राजा इंद्रद्युम्न के सामने दारू ब्रह्म के रूप में प्रकट हुए।
(पीने वाली दारू नहीं, महाराष्ट्र में दारू चलती है) उनको दारू ब्रह्म अर्थात लकड़ी के पेड़ के तने जैसा होता है, यह सब बहुत विस्तृत कथा लीला है। इंद्रद्युम्न महाराज ने जगन्नाथ, बलदेव, सुभद्रा मैया की स्थापना की। इस प्रकार भगवान नीलांचल वासी हुए, नीलांचल वासी भगवान् जगन्नाथ। वे नीलांचल वासी वर्ष में 1 सप्ताह के लिए सुंदरांचल वासी बन जाते हैं। भगवान् जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर जाते हैं। राजा इंद्रद्युम्न की पत्नी का नाम गुंडिचा है। रानी के नाम से ही इस मंदिर का नाम गुंडिचा पड़ा। वे दोनों उच्च कोटि के भक्त थे लेकिन गृहस्थ थे। राजा रानी आदर्श भक्त थे। हरि! हरि! इस राजा रानी का नाम जगन्नाथ पुरी के साथ जुड़ा हुआ है और सदैव जुड़ा रहेगा। जगन्नाथ मंदिर की स्थापना के लिए राजा इंद्रद्युम्न निमित्त बने। भगवान ने अपने खुद के मंदिर की स्थापना और विग्रह की स्थापना राजा इंद्रद्युम्न से करवाई। नीलांचल और सुंदरांचल है। नीलांचल द्वारिका है और सुंदरांचल वृंदावन है।
बीच में एक नदी भी बहती थी और आज भी बहती है। जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा सम्पन्न होती थी। जगन्नाथ की यात्रा क्यों संपन्न होती है, वह भी एक कारण है। भगवान बीमार हुए व होते हैं तत्पश्चात उनके स्वास्थ्य में सुधार आ जाता है मरीज के स्वास्थ्य में और सुधार लाने के लिए और किसी स्थान पर ले जाते हैं, उनको भ्रमण कराते हैं। यह भी जगन्नाथ का उद्देश्य है। जगन्नाथ, रथ यात्रा में खुद भी जाते हैं, यह रहस्यमयी लीला है। जगन्नाथ रथ यात्रा में क्यों जाते है अथवा उनको रथ यात्रा में कौन ले जाता है। जगन्नाथ रथ में विराजमान हो जाते हैं, केवल जगन्नाथ ही नहीं, जगन्नाथ कृष्ण हैं, रथ में बलराम भी बैठे हैं और सुभद्रा भी है, वे द्वारका से आए हैं। उन्होंने उसी समय ब्रज वासियों को आमंत्रित किया था। द्वारका तो आपके लिए काफी दूर है, मैं सूर्य ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र आ रहा हूं। वृंदावन से ज्यादा दूर नहीं है, आप आ जाओ। मिलन हो जाए, बहुत समय से नहीं मिले। हरि! हरि! लगभग 100 साल बीत रहे हैं। गोपियों, मैं अभी अभी आता हूँ, ऐसा कह कर मैंने वृंदावन को त्यागा था। उस समय मैं बलराम के साथ रथ में विराजमान हुआ था और अक्रूर हम दोनों को मथुरा ले गए। तत्पश्चात हम वहीं रह गए। वहां से लौटना तो चाहिए था।
लेकिन लौटे नहीं अपितु और आगे बढ़े और हम लोग दूर द्वारिका चले गए। आप, हमारी हर दिन प्रतीक्षा करते ही रहे। हर प्रातः काल आप मेरी आने की उम्मीद रखे हुए थे लेकिन जब मैं नहीं आया तब आप सोच रहे थे कि मध्यान्ह के समय तो जरूर आऊंगा लेकिन मैं मध्यान्ह के समय भी नहीं आया, तब आप सोच रहे थे कि मेरा सांय काल को तो आना ही होगा। आप ऐसी आशा लेकर बैठे थे लेकिन आप बैठे ही रहे, मैं तो नहीं लौटा। भगवान ने द्वारिका से ऐसे पत्र भेजे थे। हरि! हरि! जिसमें लिखा था ‘आ जाओ।’ उन्होंने सभी के नाम से व्यक्तिगत पत्र लिखे। संभावना है कि उन्होंने हाथ से लिखे, इसे किसी अन्य सहायक से नहीं लिखवाया। भगवान् ने स्वयं लिखे।
राधा रानी के नाम से पत्र था, नंद बाबा यशोदा के नाम से पत्र था, मधुमंगल के नाम से पत्र था, उन्होंने कई सारे पत्र लिखे। सभी बृजवासी कुरुक्षेत्र सूर्य ग्रहण के समय पहुंच गए। यह युद्ध के समय की बात नहीं है अपितु सूर्य ग्रहण के समय की बात है। जब मिलन हुआ और ब्रज वासियों ने देखा कि द्वारका से पधारे हुए द्वारकावासी और उसमें एक रथ पर कृष्ण बलराम और सुभद्रा विराजमान हैं। वैसे ब्रजवासी इस संकल्प के साथ ही आए थे कि अबकी बार इनको वृंदावन ले ही जाएंगे। यही घटना, यही लीला रथ यात्रा के समय संपन्न होती है। जैसा कि आपको सुनाया कि जगन्नाथ मंदिर द्वारका है जो कि नीलांचल है। सुन्दरांचल वृंदावन है।
कृष्ण बलराम और सुभद्रा रथ में विराजमान हैं और वहां वृंदावन वासी पहुंच जाते हैं, वे रथ को खींच रहे हैं, वे कृष्ण को वृन्दावन ला रहे हैं।
५०० वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं जगन्नाथ पुरी पहुंचे हैं और जगन्नाथपुरी में उनका निवास चल रहा है। हरि हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु १८ वर्ष जगन्नाथ पुरी में रहे। उन्होंने १८ रथ यात्राएं देखी। उन्होंने रथ यात्रा केवल देखी ही नहीं और ऐसा भी नहीं कि उन्होंने उसे देख कर फ़ोटो ग्राफ खींचे थे, ना ही उन्होंने छत पर खड़े हो कर देखा था, नहीं, वे रथ यात्रा के केन्द्र बिंदु थे। यहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रथ यात्रा में सम्मलित हैं, उनका चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्राकट्य होने का जो गोपनीय कारण था, यहाँ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रथ यात्रा में राधा भाव में राधा बने हैं। राधा तो है ही, अभी अलग से बनने की आवश्यकता नहीं है।
श्रीकृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नहे अन्य
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- भगवान् चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
कृष्ण, राधा को समझने के उद्देश्य से अथवा राधा के भाव व राधा की भक्ति को अथवा राधा के विरह की व्यथा अथवा राधा महाभावा ठकुरानी अर्थात राधा के महाभाव को समझने के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। जगन्नाथपुरी में कई सारे प्रसंग लीलाएं घटनाएं घटेंगी।
राधा कृष्ण प्रणय- विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह- भेदं गतौ तौ। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा- भाव- द्युति- सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक १.५)
अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा और कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगक्रान्ति के साथ प्रकट हुए हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में रहेंगे, राधा हैं तो फिर कृष्ण भी तो चाहिए और जगन्नाथ स्वामी, पुरषोत्तम कृष्ण हैं। उस समय जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में रहते थे तब दो पुरुषोत्तम एक ही साथ जगन्नाथपुरी में रह रहे थे। एक नित्य लीला पुरुषोत्तम जगन्नाथ स्वामी हैं और दूसरे प्रेम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं। इन दोनों के मध्य में आदान-प्रदान, लेनदेन, मिलन उत्सव संपन्न होते ही रहते थे।
श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य।
श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु राधा भी हैं , वे कृष्ण भी हैं किंतु जगन्नाथपुरी में जो लीलाएं अब संपन्न होने वाली हैं, उसमें चैतन्य महाप्रभु जो राधा और कृष्ण हैं, उसमें अभी राधा का ही रोल होगा अर्थात राधा का प्राधान्य होगा, कृष्ण रहेंगे लेकिन सक्रिय नहीं रहेंगे। राधा रानी प्रमुख होंगी। जब मध्य लीला हो रही थी और नाम संकीर्तन का प्रचार हो रहा था तब वे कृष्ण थे अथवा कृष्ण रूप में थे। कृष्ण के भाव में उन्होंने धर्मसंस्थापनार्थाय अर्थात धर्म की स्थापना की किंतु अब जब वे जगन्नाथपुरी आए हैं तब उनका जो निजी उद्देश्य है अर्थात जिस विशेष उद्देश्य के साथ प्रकट हुए हैं, वे उसको सफल करेंगे। जगन्नाथपुरी में राधा भाव में अधिकतर लीलाएं संपन्न होने वाली हैं। उन लीलाओं में भी रथ यात्रा का जो समय है, वह एक विशेष समय अथवा विशेष उत्सव रथयात्रा महोत्सव है। जगन्नाथ श्रीकृष्ण रथ पर विराजमान हैं। रथ के समक्ष श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं किंतु वे राधा रानी ही हैं। महाप्रभु राधा के भाव में वहां उपस्थित हैं। हरि! हरि! अब रथ यात्रा प्रारंभ होने वाली है, कीर्तन तो होता ही है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन कर रहे हैं, नृत्य कर रहे हैं। वहां पर विशेष कीर्तन का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। कितनी ही कीर्तन मंडलियां हैं जिसकी व्यवस्था चैतन्य महाप्रभु स्वयं करते थे। वे सात अलग-अलग मंडल बनाते और उसका नेतृत्व स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कर रहे हैं।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥
अनुवाद:- श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
रथ यात्रा में जगन्नाथ का पूरा ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है। राधा रानी श्रीकृष्ण का ध्यान आकृष्ट कर रही हैं। चैतन्य महाप्रभु जो जगन्नाथ की आंखों के समक्ष प्रत्यक्ष सामने ही है, चैतन्य महाप्रभु जहां भी जाते, जगन्नाथ वहां भी पहुंच जाते।
स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे।
जैसे हम प्रार्थना करते हैं जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी, हमारे दृष्टि पथ पर आप आ जाइए अर्थात हम जहां जहां देखें या जाएं, आप भी… जैसे यतो यतो यामि ततो नृसिंहः।
नरसिंह भगवान के संबंध में प्रार्थना है यतो यतो यामि। यामि अर्थात मैं जाता हूं। याति मतलब वह जाता है, यहां अहम यामि।यामि संस्कृत का एक क्रियापद है। यतो यतो यामि, यह भी समझना चाहिए। यामि मतलब जाता हूं। यत:अहम यामि अर्थात जहां जहां मैं जाता हूँ ततो ततो। जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी हैं। यहां चैतन्य महाप्रभु जहां जहां जाते हैं, वहां वहां जगन्नाथ स्वामी की दृष्टि भी जाती है। (यहां वैसे उल्टा हो रहा है।) इस प्रकार यदि चैतन्य महाप्रभु दायीं ओर जाते तब जगन्नाथ स्वामी भी दायीं ओर देखते और यदि चैतन्य महाप्रभु बांयी ओर जाते तो जगन्नाथ स्वामी की दृष्टि वहां जाती, वे तिरछी नजर से देखते हैं। चैतन्य महाप्रभु के स्वरूप में जो राधा रानी हैं, वह एक बार सोचती हैं कि हम कुरुक्षेत्र में पहुंचे है और कुरुक्षेत्र में कृष्ण से मिल रहे हैं।
राधा रानी सोचती है कि हम बहुत समय के उपरांत मिल रहे हैं, क्या मेरे प्राणनाथ का प्रेम, कृष्ण का प्रेम जैसे पहले हुआ करता था, क्या अब भी वैसा है, चलो देखती हूं। ऐसा सोच कर चैतन्य महाप्रभु एक समय रथ के पीछे चले गए। राधा रानी ने सोचा था कि जब मैं पीछे जाऊंगी, जगन्नाथ कृष्ण मुझे देख नहीं पाएंगे तब परीक्षा होगी कि इनका 100 वर्षों के उपरांत मुझ से सचमुच में पहले जैसा प्रेम है या नहीं, यदि वे रुक जाएंगे, खोजेगें, मेरी पूछताछ करेंगे कि कहां है राधा रानी, कहां है, राधे! राधे !कहां हो? जब मैं दिखूंगी नहीं, वे सम्भ्रमित होंगे, लेकिन यदि पहले जैसा प्रेम नहीं है तो आगे बढ़ेंगे, परवाह नहीं करेंगे और रथ आगे दौड़ेगा। मैं हूँ या नहीं हूं, दिखती हूं या नहीं दिखती हूं, कोई चिंता हैं या नहीं, देखती हूँ। ऐसा सोच कर चैतन्य महाप्रभु रथ के पीछे गए। जगन्नाथ स्वामी ने सफलतापूर्वक परीक्षा पास की। जब चैतन्य महाप्रभु अर्थात राधा रानी ही जब रथ के पीछे जाती है और वह जगन्नाथ जी को दिख नहीं रही है तब जगन्नाथ रथ को रोक लेते हैं। रथ का चलना या रुकना यह जगन्नाथ की मर्जी पर है। यह खींचने वाले की मर्जी पर नहीं होता है अथवा खींचने वाले की शक्ति पर निर्भर नहीं होता है। यह लीला भी रथ यात्रा के समय प्रदर्शित हुई है। जब राधा रानी नहीं दिख रही थी तब, जगन्नाथ स्वामी ने रथ को रोक लिया। रथ को खींचने का बहुत प्रयास हो रहा है। खींचो! खींचो! रथ को खींचो। हरिबोल! रथ को खींचो लेकिन कोई खींच नहीं पा रहा था। जगन्नाथ राधा रानी के बिना आगे बढ़ना नहीं चाह रहे थे।
राधारानी जगन्नाथ से प्रसन्न हैं। इसलिए पुनः जब चैतन्य महाप्रभु आगे आते हैं और जैसे ही जगन्नाथ राधारानी को देखते हैं, जगन्नाथ प्रसन्न और प्रुफल्लित हो जाते हैं। इसके साथ ही रथ आगे दौड़ने लगता है,जगन्नाथ स्वामी आगे बढ़ना चाहते हैं। हरि! हरि! उसी रथ यात्रा के दरमियान जब जगन्नाथ के रथ को रोका जाता है अर्थात भगवान् के भोग का समय होता है। जब भोग लग रहा है तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन और नृत्य करते हुए थक जाते हैं अथवा, वह थकने की लीला है, कि मैं थका हूँ। तब वल्लभ लीला नाम के उद्यान में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पहुंच कर और वहां लेट जाते हैं। उसी समय सार्वभौम भट्टाचार्य आदि राजा प्रताप रुद्र को भेजते हैं कि जाओ, जाओ इसी समय जाओ और जाकर चैतन्य महाप्रभु के चरणों की सेवा करो। राजा वैष्णव वेश- भूषा पहन कर जाते हैं । उनको यह बताया जाता है कि जब आप चरणों की सेवा करोगे, उस समय आप गोपीगीत गाना।
श्रीमद्भागवतम के दसवें स्कंध में वर्णित रासक्रीड़ा के 5 अध्यायों में से एक अध्याय गोपी गीत है जो गोपियों और राधा रानी ने मिलकर गाया है। राजा प्रताप रूद्र उस गोपी गीत को गाने लगे
गोप्य ऊचुः ।
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥
शरदुदाशये साधुजातस-
त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥
विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-
द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया-
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥
न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥
व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥
प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥
तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः
॥ ९॥
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥
चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥
प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥
सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥
अटति यद्भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ १५॥
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६॥
रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥
राजा प्रताप रुद्र ने यह गोपी गीत सुनाया। यह सब इसलिए सुनाया जा रहा था कि चैतन्य महाप्रभु जो रथ यात्रा के समय राधा भाव में थे अथवा उनके अंदर जो राधा भाव उमड़ आया था और वे राधा ही बने थे, इस गोपी गीत के श्रवण अथवा स्मरण व चिंतन से उनके इस भाव की पुष्टि होगी और वैसा ही हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनसे बड़े ही प्रसन्न थे जो उनकी मसाज कर रहे हैं अथवा गोपी गीत गा रहे थे। उनको पता भी नहीं था क्योंकि चैतन्य महाप्रभु आंखें बंद करके लेटे हुए थे, इतने में कोई आया और उनकी मसाज करते हुए गोपी गीत गाने लगा। वैसे यह गोपियों ने ही गीत गाया था लेकिन जब राजा प्रताप रुद्र ने यह गाया कि भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः वह जन भूरिदा अर्थात कृपालु अथवा बड़े दाता अथवा भूरिदा, भूरिदा है जो गृणन्ति अर्थात गाते हैं।
तव कथामृतं तप्तजीवनं आप की कथा के अमृत का गान करने वाले और आपकी कथा के अमृत के गान का दान करने वाले जन भूरिदा होते हैं, यह बात गोपियों ने गाई थी, वही बात अब राजा प्रताप रूद्र गा कर सुना रहे थे। चैतन्य महाप्रभु ने जैसे ही यह वचन सुना तब चैतन्य महाप्रभु कहने लगे भूरिदा! भूरिदा! हे भद्र हे दयालु, भूरिदा तो तुम ही हो। तुम ही बड़े दाता हो, दानी हो, जो मुझे यह गीत सुना रहे हो, यह गोपी गीत सुनाने वाले भूरिदा। यह गीत सुना कर तुमने मुझे बहुत बड़ा दान दिया है और तुम्हारा मुझ पर बहुत बड़ा उपकार हुआ है। मैं कृतज्ञ हूं। तुमनें जो मुझ पर उपकार किया है, बदले में मुझे भी कुछ देना होगा, कुछ चुकाना होगा।
ऐसे कहते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो कुछ समय से लेटे हुए थे और उनका मसाज भी चल रहा था, व गोपी गीत भी सुन रहे थे तब वे धीरे-धीरे उठने लगे और उठते हुए उन्होंने कहा- ‘मेरे पास तो देने के लिए कुछ नहीं है, मैं तो सन्यासी हूँ, मैं तो भिक्षुक हूं, मैं तो स्वयं ही भिक्षा मांगता हूं भिक्षा से ही मेरा निर्वाह होता है, मेरे पास क्या है, मैं क्या दे सकता हूं, मैंने एक निष्किंचन हूं, मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है । यदि तुम्हें कोई एतराज नहीं है तो मेरे आलिंगन को स्वीकार करो। ऐसा कहते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने राजा प्रताप रुद्र को गाढ़ा आलिंगन दिया और अपने बाहुपाश में बांध लिया। हरि! हरि! इससे भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के राधा भाव स्पष्ट अथवा प्रकट होता है। चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पीछे जो गोपनीय कारण रहा, उसकी सफलता जगन्नाथपुरी में विशेषतया जगन्नाथ रथ यात्रा के समय हो रही थी। हरि! हरि! जगन्नाथ पुरी धाम की जय!
जगन्नाथ रथ महोत्सव की जय! जगन्नाथ स्वामी की जय!
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
23 मार्च 2021
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे|
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे||
770 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
मंगोलिया से एक भक्त हमारे साथ जप कर रहे है। अभी वह नोएडा में है पर वह मंगोलिया से है भगवान जब कृपा करते हैं छप्पर फाड़कर कृपा करते हैं। अपनी कृपा की दृष्टि मंगोलिया तक पहुंचा दी भगवान ने ऐसे हैं श्री गौराङ्ग प्रणाम
नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते
कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः
इसीलिए यह प्रार्थना रुप गोस्वामी ने की हैं। तुमा बिना के दयालु जगत संसारे इस संसार में सबसे दयालु श्री चैतन्य महाप्रभु है चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला तृतीय परिच्छेद मतलब अध्याय पढ़ेंगे।
चैतन्य चरित्रामृत बांग्ला भाषा में है अभी बांग्ला सीखो पढ़ो नवद्वीप बांग्ला जानते हो पढ़ते हो आप को पढ़ना चाहिए आप पढ़ते हो बहुत अच्छा है सभी लोग प्रयास करो सभी लोग बंगला सीखने का प्रयास करो कठिन नहीं है पर फायदे ही फायदे हैं यदि आप बांग्ला बोल सकते हो तो सीधे आप चैतन्य चरितामृत पढ़ सकते हो यहां और भी गौड़ीय ग्रंथ पढ़ सकते हो।बांग्ला भाषा में हमारी परंपरा गौड़ बंगाल देश से ही स्थित है चैतन्य महाप्रभु बंगाल देश में ही प्रकट हुए हैं।
नवदीप मायापुर में चैतन्य महाप्रभु बांग्ला बोलते थे कृष्ण बोलते थे संस्कृत मैं और श्री कृष्ण चैतन्य बोलते थे बांग्ला भाषा में भगवान तो सभी भाषा बोलते हैं बोल सकते हैं तो हमें भी थोड़ा बंगला पढ़ना चाहिए और सीखना भी चाहिए।
जय जय श्री – चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैत – चन्द्र जय गौर – भक्त – वृन्द ॥२ ॥
अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो ! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो ! अद्वैतचन्द्र प्रभु की जय हो और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो !
अध्याय की शुरुआत कैसे होती है जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद श्री अद्वैत चन्द्र जय गौर – भक्त – वृन्द गौर भक्त वृन्द की जय…..
तृतीय श्लोक का अर्थ पहले कृष्ण दास कविराज गोस्वामी वैसे 14 श्लोक प्रारंभ में उन्होंने कहा है जहां तक मुझे स्मरण है चैतन्य चरित्रामृत के बिल्कुल प्रारंभ में उन्होंने 14 श्लोक कहे हैं और फिर उसमें से एक एक श्लोक को आगे के अध्याय में समझाया है।
यह तृतीय श्लोक कहे हैं। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी कह रहे हैं
तृतीय श्लोकेर अर्थ कैल विवरण । चतुर्थ श्लोकेर अर्थ शुन भक्त गण ॥३।।
॥ अनुवाद
मैं तीसरे श्लोक का तात्पर्य बता चुका हूँ । हे भक्तजन , अब कृपा करके ध्यानपूर्वक चौथे श्लोक का अर्थ सुनें
कि मैंने अभी-अभी तृतीय श्लोक का अर्थ समझाया है अभी मैं चौथे श्लोक का अर्थ समझाऊंगा। आप चैतन्य चरितामृत का अध्ययन करो या उससे पहले गीता या भागवत का अध्ययन किया ही होगा आपने तो चैतन्य चरित्रामृत आप पढ़ सकते हो चतुर्थ श्लोक कौन सा है उसका पता लगाइए यह आपके लिए घर काम है।
पूर्ण भगवान्कृष्ण व्रजेन्द्र – कुमार । गोलोके व्रजेर सह नित्य विहार ॥५ ॥
अनुवाद:- व्रजराज के पुत्र श्रीकृष्ण परम भगवान् हैं । वे अपने सनातन धाम गोलोक में , जिसमें व्रजधाम भी सम्मिलित है , अपनी दिव्य लीलाओं का आनन्द लेते हैं ।
यदि आप बांग्ला सीखते हो हो तो उसे आप आसानी से पढ़ सकते हो और फिर समझ भी सकता हूं कोई कठिन नहीं है कठिन है ही नहीं डरना नहीं आप कठिन समझते हो फिर पढ़ते नहीं ऐसे संस्कृत भाषा भी किसी ने प्रचार किया कि कठिन है कठिन है कठिन है संस्कृत भाषा सरल है।
गोपाल राधे आप समझ रहे हो आप दो बंगाली ही हो पूर्ण भगवान कौन है बृजेंद्र कुमार बृजेंद्र थोड़े से सरल करके समझाना पड़ता है ब्रज के इंद्र नंद महाराज और उनका कुमार मतलब श्री कृष्णा ही है पूर्ण भगवान एक एक शब्द को और उसकी ओर ध्यान देंगे तो उसका शब्दार्थ और भावार्थ हम समझ पाएंगे।
और ये ब्रजेन्द्र कुमार गोलोक में भक्तों के साथ नित्य विहार करते हैं।
ब्रह्मार एक दिने तिहो एक – बार । का *अवतीर्ण हञा करेन प्रकट विहार ॥६।।
अनुवाद :-
वे ब्रह्मा के एक दिन में एक ही बार इस जगत् में अपनी दिव्य लीलाएँ प्रकट करने के लिए अवतरित होते हैं ।
यह बात आपने कई बार सुनी होंगी तो यहां पर लिखा है ब्रह्मा के 1 दिन में यह बृजेंन्द्र कुमार श्री कृष्ण प्रकट होते हैं ब्रह्मा जी के 1 दिन में संभवामि युगे युगे तो चलता ही रहता है हर युग में भगवान अवतार लेते हैं किंतु अवतारी श्री कृष्ण ब्रह्मा के 1 दिन में एक ही बार प्रकट होते हैं ब्रह्मा के दिन को कल्प कहते हैं। ऐसे ही कल्पांतर लीलाए भगवान की चलती रहती हैं। जैसे ये लीला इस स्थान पर की थी ऐसी की थी ऐसे कल्पांतर भेद की बात चलती रहती हैं।
सत्य , त्रेता , द्वापर , कलि , चारि – ग्रुग जानि । सेइ चारि – युगे दिव्य एक – ग्रुग मानि ॥७ ॥
अनुवाद:- हम जानते हैं कि युग चार हैं , यथा सत्य , त्रेता , द्वापर तथा कलियुग । ये चारों मिलकर एक दिव्य युग की रचना करते हैं ।
चार प्रकार के योग हैं आप याद रखिए ऐसा थोड़ा ध्यान होना चाहिए क्या नाम है चार युगों के सत्य त्रेता द्वापर और कली हां ठीक है ना वैष्णवी प्रिया मॉरीशस वाली इस भक्त को संबोधित करते हुए महाराज जी ने पूछा…..
यह चार युग मिल कर एक महायूग होता है इसे महायूग कहते हैं या एक योग होता है चार युगों का एक युग होता है इसे महायूग कहते हैं।
एकात्तर चतुर्युगे एक मन्वन्तर । चौद्द मन्वन्तर ब्रह्मार दिवस भितर ॥८ ॥
अनुवाद:-
एकहत्तर दिव्य युग मिलकर एक मन्वन्तर बनाते हैं । ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मन्वन्तर होते हैं ।
और ये बात यह भी ज्ञान की बात या सत्य बात है यहा कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिख रहे हैं मन्वंतर होता है 71 युगों का मन्वंतर होता है।
71 मुहायुगों का एक मन्वंतर होता है और एक और एक कल्प मतलब ब्रह्मा के 1 दिन में 14 मनु होते हैं। मनु कहो या मन्वंतर कहो और वैसे श्रीमद भगवतम के द्वितीय स्कंध के तृतीय अध्याय में प्रथम श्लोक में कहां है श्रीमद भगवतम में 10 विषयों की चर्चा है उसमें एक है मन्वंतर,ऊती, ऐसे 10 विषय हैं। उसमेसे एक विषय हैं मन्वंतर मनु में अंतर एक मनु के बाद दूसरा मनु हैं ब्रह्मा जी के 1 दिन में 14 मनु होते हैं और यह सब ब्रह्मा जी के 1 दिन में 1000 महायूग होते हैं।
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदु: |
रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः || १७ ||
अनुवाद:- मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है |
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद् वैसे भगवान श्री कृष्ण ने भगवत गीता में भी कहां है। ब्रम्हा जी के एक दिन में सहस्त्र युग पर्यंत सहस्त्र युग होते है ब्रह्मा जी के 1 दिन में 1000 लोग होते हैं और ब्रह्मा के 1 दिन में 14 मनु होते हैं तो एक-एक मनु के कितने युग हो गए था 1000 ÷ 14=71 होते हैं तो हर मनु का जो कालावधि होता हैं 71 युगों का होता हैं यही बात यहां समझाई गई हैं।
‘ वैवस्वत ‘ – नाम एइ सप्तम मन्वन्तर । साताइश चतुर्युग ताहार अन्तर ॥९ ॥
अनुवाद:-
वर्तमान मनु सातवें मनु हैं और ये वैवस्वत ( विवस्वान के पुत्र ) कहलाते हैं । अब तक उनकी आयु के सत्ताइस दिव्य युग ( २७×४३,२०,००० सौर वर्ष ) बीत चुके हैं ।
अभी जो मन्वंतर चल रहा है वैवस्वत मनु का काल है, मनुष्य मनुष्य होते हैं मनुष्य मनु महाराज का काल है वह वैवस्वत मनु है और हर मनु के कितने युग होते हैं कितने होते हैं बताइए 71 युग होते हैं जब 71 लोग हैं या महा युगों में से 27 वा जो युग आता है तब इस 27 वे महायुग के द्वापरयुग के अंत मे श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं।
वैवस्वत मनु कारोबार संभाल रहे हैं इस समय और उनकी आयु का हो या कारोबार की कालावधी कहो तो 71 में से 27 युग महा युग चल रहा है द्वापर युग के अंत में श्री कृष्णा प्रकट होते हैं और हो चुके है 28 युग के अंत मे द्वापर में श्रीकृष्ण प्रकट हुए।
दास्य , सख्य , वात्सल्य , शृङ्गार – चारि रस । चारि भावेर भक्त प्रत कृष्ण तार वश ॥११ ॥
अनुवाद :-
दास्य ( सेवक भाव ) , सख्य ( मैत्री ) , वात्सल्य ( माता – पिता का स्नेह ) तथा श्रृंगार ( दाम्पत्य प्रेम ) -ये चार दिव्य रस हैं । जो भक्त इन चारों रसों का आस्वादन करते हैं , भगवान् कृष्ण उनके वश में रहते हैं ।
तो श्री कृष्णा मथुरा धाम में जन्म लिया और ब्रज मंडल में अपने लीला खेलें और चार भाव वाली भक्ति वहां पर कर रहे थे दास्य,साख्य,वास्तल्य और माधुर्य या श्रृंगार भाव भक्ति वृंदावन में ऐसी भक्ति हुई।
दास – सखा – पिता – माता – कान्ता – गण लजा । व्रजे क्रीड़ा करे कृष्ण प्रेमाविष्ट हञा ॥१२ ॥
अनुवाद:- ऐसे दिव्य प्रेम में निमग्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण अपने समर्पित सेवकों , मित्रों , माता – पिता तथा प्रेमिकाओं के साथ व्रज में आनन्द का आस्वादन करते हैं ।
तो इन सभी भक्तों को कुछ ना तो कुछ दासों को भी वैसे वृंदावन में दास कम ही होते हैं। वृंदावन में दास कम होते हैं वैकुंठ में दास होते तो कुछ दास और फिर माता पिता और मित्र और प्रियसी गन इन को लेकर कृष्ण ने प्रेम आवेश में कई सारे लीला ये खेली ऐसे यहां लिखा है।
यथेष्ट विहरि ‘ कृष्ण करे अन्तर्धान । अन्तर्धान करि ‘ मने करे अनुमान ॥१३
अनुवाद:-
जब तक इच्छा होती है , भगवान् कृष्ण अपनी दिव्य लीलाओं का आस्वादन करते हैं और पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं । किन्तु अन्तर्धान होने के बाद वे इस प्रकार सोचते हैं
भगवान श्रीकृष्ण इस धरातल पर 125 साल रहे वृंदावन में तो 10 या फिर 11 साल ही रहें। उसी वृंदावन में जिस का उल्लेख किया कि जिसमे दास और साख्य वात्सल्य श्रृंगार भाव भक्ति का प्रदर्शन हुआ,लेकिन कृष्ण आगे जब बढ़े मथुरा, द्वारिका इन सब स्थानों को मिला कर 125 वर्षा भगवान इस धरातल पर रहे और फिर अंतर्धान हुए ऐसे यहां लिखा है। अंतर्धान हुए मतलब कृष्ण अपने स्वधाम लौटे कहा हैं भगवान का स्वधाम कहा है स्वर्ग हैं क्या प्रेम पद्मिनी माताजी से पूछते हैं गुरुदेव कहा रहते है कृष्ण स्वर्ग में रहते हैं क्या स्वर्ग में नही रहते होंगे तो कहा वैकुंठ में रहते होंगे यहां भी नही रहते ऐसे कोई कह रहे है तो जो महा वैकुण्ठ हैं कहो गोलोक में रहते हैं श्रीकृष्ण तो जब वहां लौटे तब मने करे अनुमान भगवान वहां विचार कर रहे हैं तो यहां की कृष्ण की लीला संपन्न हुई पूरी हुई भगवान अंतर्धान हुए अपने धाम लौटे और वहां भी विचार कर रहे हैं सोच रहे हैं कृष्ण क्या सोच रहे हैं….
चिर – काल नाहि करि प्रेम – भक्ति दान । भक्ति विना जगतेर नाहि अवस्थान ॥१४ ॥
अनुवाद:-
दीर्घ काल से मैंने अपनी अनन्य प्रेमाभक्ति का दान विश्व के निवासियों को नहीं दिया । ऐसी प्रेममयी अनुरक्ति के बिना भौतिक जगत् का अस्तित्व व्यर्थ है ।
कृष्ण सोच रहे हैं कि मैंने बहुत समय से प्रेम भक्ति का दान नही किया उठो जागो भगवान सोच रहे हैं और आप सो रहे हो भगवान को आपकी चिंता हैं भगवान चिंतिंत हैं और आप बे फिक्र हो आराम हराम है आराम चल रहा है।
हरि हरि
कृष्ण ने क्या सोचा मैंने प्रेमा भक्ति का दान नहीं किया प्रेम मई भक्ति तो ,और लीला तो मैंने संपन्न की माधुर्य लीला मधुर वृंदावन में पर इसका दान और वितरण नही किया।
सकल जगते मोरे करे विधि – भक्ति । मशिन विधि – भक्त्ये व्रज – भाव पाइते नाहि शक्ति ॥१५ ॥
अनुवाद:- ” संसार में शास्त्रों के निर्देशानुसार सर्वत्र मेरी पूजा की जाती है । किन्तु ऐसे विधि – विधानों का पालन करने मात्र से व्रजभूमि के भक्तों के प्रेमभावों को प्राप्त नहीं किया जा सकता ।
इसको थोड़ा ध्यान पूर्वक सुनना होगा थोड़ा कुछ आप लोग हरी बोल हाथ पर कीजिए गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल खड़े हो जाइए कुछ नाची है मू धोइये भी है। आपको देख कर मुझे दया आ रही हैं लेकिन क्या करें आप दया को स्वीकार नहीं करते आप मस्त हो माया की मस्ती में तब आप सुन तो लो भगवान क्या सोच रहे हैं भगवान कह रहे हैं कि ब्रह्मांड भर में या पृथ्वी पर अधिकतर लोग जो साधना भक्ति करते हैं तो वह विधि वैधि भक्ति का अवलंबन करते हैं या रागानुगा भक्ति का अवलंबन नही करते हैं या प्रेमा भक्ति के साधनों का अवलंब नही करते या वैधि भक्ति का अवलंबन करते हैं नियमों को तो पालन करते हैं पर जो प्रेम मई भक्ति हैं रागाणुग भक्ति है उसका अवलंबन नहीं करते या तो इसे वो केवल वैकुंठ तक पोहोच सकते हैं लेकिन मेरे धाम में गोलोक नाम्नी निज धामनी गोलोक धाम में तो नहीं पोहोचेंगे।
ऐश्वर्य ज्ञानेत सबे जगत मिश्रित
ऐश्वर्य शिथिल प्रेमे नाही मोर प्रीत
अपने साधना भक्ति में वैधि भक्ति में ऐश्वर्य ज्ञान से मिश्रित होता हैं। भगवान महान है और हम महान हैं छोटे हैं इससे प्रेम नहीं होता फिर भगवान से भी तो बना रहता है कि भगवान महान है हमें दंडित कर सकते हैं ऐसा भय बना रहता है पर प्रेम नहीं जगता उस वैदि भक्ति से तुम्हें ऐसा कुछ उपाय करना चाहता हूं ताकि या मैं वैसे प्रेम भक्ति का दान ही देना चाहता हूं।
वैकुंठ के जाए चतुर्विधा मुक्ति पाइया
साष्टी , सारूप्य , आर सामीप्य , सालोक्य । सायुज्य ना लय भक्त नाते ब्रह्म – ऐक्य ॥१८ ॥
अनुवाद:- ये मुक्तियाँ हैं – सार्टि ( भगवान् तुल्य ऐश्वर्य की प्राप्ति ) , सारूप्य ( भगवान् जैसा ही रूप प्राप्त करना ) , सामीप्य ( भगवान् का निजी पार्षद बनना ) तथा सालोक्य ( वैकुण्ठ ग्रह पर निवास करना ) । किन्तु भक्तगण सायुज्य मुक्ति को कभी स्वीकार नहीं करते , क्योंकि यह ब्रह्म से तादात्म्य है ।
ऐसे चार मुक्ती के नाम यहां कृष्ण ही याद कर रहे हैं वैरी भक्ति का अवलंबन पालन तो उसी के अंतर्गत इस प्रकार के मुक्ति को प्राप्त करते हैं
साष्टी, सारूप्य ,सामीप्य,सालोक्य सायुज्य इसके अर्थ समझ में आने चाहिए भक्तिरसामृत सिंधु में सब समझाया सालोक्य मुक्ति कोनसी सामीप्य कोनसी साष्टी मुक्ति का अर्थ क्या है सारूप्य मुक्ति क्या होती हैं भक्तिरसामृत सिंधु को पढ़ना होगा साइंस ऑफ भक्ति योग जिसको प्रभुपाद कहते है जिसमे भक्ति का शास्त्र जिसमे समझाए हैं स्वयम रूप गोस्वामी उसको समझाए हैं।
और फिर पाचवी मुक्ति हैं सायुज्य इसको तो स्वीकार करना ही नही चाहते भक्त सायुज्य मतलब ज्योत में ज्योत को मिलाना ब्रम्ह में आत्मा का मिलन अद्वैत वाद निराकार निर्गुणवाद ये सब शंकराचार्य के ठगाई हैं भाष्य हैं
मायावाद भाष्य सुनिले होइ सर्वनाश जिसको चैतन्य महाप्रभु कहे जो मायावाद भाष्य सुनते हैं फिर भगवान में लीन होते भगवान के साथ मिलन नही होता मिलन या समेलन मतलब जिससे मिलते हैं वो भी हैं और मिलने वाला भी हैं दोनों भी हैं मिलन होना एक बात है और लीन होना एक बात है लीन होना मतलब अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना बस ब्रह्म ज्योति में लीन हो जाना ऐसा कोई होता तो नहीं लेकिन ऐसे गुमराह किया जाता है इस के चक्कर में कई फस जाते हैं तब श्री कृष्ण अपने धाम में गोलोक धाम में सोच रहे कि क्या उपाय कर सकते हैं।
युग – धर्म प्रवर्ताइमु नाम – सङ्कीर्तन चारि भाव – भक्ति दिया नाचामु भुवन ॥१ ९ ॥
अनुवाद:-“ मैं युगधर्म नाम – संकीर्तन का अर्थात् पवित्र नाम के सामूहिक कीर्तन का प्रवर्तन स्वयं करूँगा । मैं संसार को प्रेमाभक्ति के चार रसों की अनुभूति कराकर प्रेम – विभोर होकर नृत्य करने के लिए प्रवृत्त करूँगा ।
श्रीकृष्ण ने संकल्प किया या कर रहे हैं गोलोक में…..
5000 साल पहले थे ना तो लौट गए और फिर वहां लौटने पर थोड़ा शोक भी कर रहे हैं , जो भी हमने किया! थोड़ा देख लेता हूं , मैंने क्या-क्या किया , कुछ किया कि नहीं ? कुछ काम अधूरा रह गया । कहो कि आत्म परीक्षण कर रहे हैं , श्रीकृष्ण सोच रहे हैं कुछ मुद्दे , सोच रहे हैं । कृष्ण यह नोंद कर रहे हैं कि मैंने शुद्ध भक्तों के साथ परिकरो के साथ में प्रेममय लीला खेलता रहा लेकिन दुनिया वालों को मैने लाभान्वित नहीं किया या साधकों को , बद्ध जिओ को उनके उद्धार के लिए मैंने प्रेम भक्ति नहीं दी , प्रेम भक्ति का दान नहीं किया । अनअर्पित चिराम करुनिया चरित्रामृत के शुरुआत में ऐसा उल्लेख हुआ भी है , अन मतलब नहीं , अर्पित मतलब दिया नहीं ,क्या नहीं दिया ? अनअर्पित चिराम , प्रेम नहीं दिया , प्रेम का वितरण नहीं किया। चिराद मतलब बहुत समय से मैंने ऐसा कार्य प्रेम दान का कार्य नहीं किया । अब मैं दोबारा करना चाहता हूं , मुझे यह करना चाहिए । पहले कब किया था ? ब्रम्हा के पहले वाले दिन में किया था , इसके पहले के ब्रह्मा के दिन में मैंने किया था , कृष्ण ब्रह्मा के 1 दिन में भी प्रकट होते हैं और फिर कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट होता है । अब वही तो बात हो रही है , श्री कृष्ण अभी अभी यहां से होकर लौटे लगभग 5000 वर्षों के उपरांत फिर सोच रहे कि चलो अब दोबारा मिलते हैं , फिर लौटते हैं , पृथ्वी पर मैं पुनः जाता हूं और पिछली बार जो मैंने कार्य नहीं किया उसको अब मैं पूरा करता हूं , मैं अभी प्रेम का दान देता हूं , और मैं क्या करूंगा ?
आपनी करिबो भक्त भाव अंगीकारे इसको भी समझिए , “मैं स्वयं ही भक्त बन जाऊंगा” भगवान सोच रहे हैं , “मैं स्वयं ही भगवान का भक्त बन जाऊंगा , मैं भगवान हूं , लेकिन मैं स्वयं भक्ति भाव को अपनाउगा और भक्ति का आदर्श सारे संसार के समक्ष रखूंगा । अपने आचारी जगद सिखाय अपने आचरण से सारे संसार को सिखाऊंगा । आचार्य भाव दिया चार प्रकार की भक्ति देकर सारे लोगों को नचाउंगा , चार प्रकार की भक्ति मतलब , कुछ को दास भक्ति भी , सांख्य भक्ति , वात्सल्य भक्ति शृंगार भक्ति देकर मैं सबको नचाउगा । सब जपेंगे और नाचेंगे । बजरंगी ? श्री कृष्ण गोलोक में बैठे हैं और ऐसा सोच रहे हैं , कुछ योजना बना रहे हैं ,
आपने ना कैले धर्म शिखान ना नाय । एइ त ‘ सिद्धान्त गीता – भागवते गाय ॥
. अनुवाद ” जब तक कोई स्वयं भक्ति का अभ्यास नहीं करता , तब तक वह दूसरों को इसकी शिक्षा नहीं दे सकता । इस निष्कर्ष की पुष्टि वस्तुतः पूरी गीता तथा भागवत में हुई है ।*
यह मैं नहीं करूंगा तो और कोन करेगा? जो श्रेष्ठ होते हैं उनका जैसा आचरण होता है वैसे फिर दूसरे लोग उसकी नकल करते हैं ।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || ११ ||
अनुवाद:-जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |*
कृष्ण कहते है वर्म मतलब मार्ग जिस मार्ग पर मैं चलूंगा , जो मार्ग में दिखाऊंगा , जीस मार्ग का आदर्श दुनिया के समक्ष रखुंगा दुनिया उसकी ही नकल करेगीे फिर ऐसे ही हुआ ।
तप्त – हेम – सम – कान्ति , प्रकाण्ड शरीर । नव – मेघ जिनि कण्ठ – ध्वनि ग्रे गम्भीर ॥
अनुवाद:- उनके विस्तृत शरीर की कान्ति पिघले सोने के समान है । उनकी गम्भीर वाणी नये उमड़े बादलों की गर्जना को परास्त करने वाली है ।*
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य , और उनका स्वरूप और उनका सौंदर्य कैसे होगा ? तप्त हेम मतलब तप्त कांचन मतलब स्वर्ण , सुवर्ण का मैं बनूंगा , प्रकांड शरीर , मेरा महान विशाल विग्रह होगा।
आजानुलम्बित – भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक – पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥
अनुवाद : मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण , इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक , सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया ।*
मेरे हाथ लंबे होंगे और मेरे विग्रह में , मेरे रूप में 32 अलग-अलग विशेष लक्षण होंगे , महापुरुष के लक्षण होंगे ।
नीग्रोध परिमंडल ऐसा एक तांत्रिक नाम है , जिसमें 32 अलग-अलग गुण है। हरि हरि। भगवान के साथ अंग कमल सदृश होंगे ,साथ अवयव कमल जैसे होंगे। भगवान की आंखें हैं , मुख मंडल है , हंस्थ कमल है , चरण कमल है , नाभि है , कमलनाथ , यह साथ भाग कमल जैसे हैं । वैसे तो 32 का उल्लेख किया है , साथ भगवान के शरीर के अवयव गुलाबी रंग के होंगे या उसमें लालिमा होगी । पुंडरीक विद्यानिधि ? केवल भगवान के ही आंखों में लालिमा होती है थोड़ी हल्की लाल छटा होती है , भगवान का तलवा लाल होता हैं , भगवान के ओठ लाल होते , हैं इस प्रकार साथ अंग है । हरी हरी। और भगवान के 3 अवयव में गेहराई होती है। मेघ गँभिर्य वाचा भगवान की जो वाणी होती है उसमें गहराई होती है , भगवान का दिमाग है उस में गहराई होती है , ऐसे तीन भाग हैं । और कुछ भाग लंबे है , जैसे भगवान
आजानुलम्बित – भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक – पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥
अनुवाद : मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण , इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक , सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया ।
हाथ लंबे है लेकिन गर्दन छोटी होती है और कुछ भाग़ उभरे होते हैं , नाक और विशाल बाल होते हैं छाती रूंद होती है , इस प्रकार 32 विशेष लक्षण , दर्शन भगवान के विग्रह के होते हैं । और ऐसा ही विग्रह होता है वैसे भी होते ही है , यहां प्रकट हो रहे इसिलीये वैसे कुछ प्रयास करते , कुछ कसरत करते है ऐसा नहीं होता , वजन को घटाने हैं बढ़ाते ऐसा कुछ नहीं होता है , वह अपने धाम में जैसे होते है वैसे ही प्रकट होते हैं , वही का ही वर्णन है । हमने 32 में से कुछ कहे और आप बाकी शास्त्रों में से पता लगाइए । स्वरूप चिंतन नामक ग्रंथ अभी हमने लिखा है , प्रिंट हो रहा है देखते हैं पुंडरीक विद्यानिधि कब उसको छापते हैं , हमारा पदयात्रा प्रेस ट्रस्ट , उसमें यह सब वर्णन आया भी है । ठीक है । कमल लोचन भी होगे और यह गौरांग महाप्रभु का वर्णन चल रहा है ऐसा ही मान कर चलो , माने क्या है ही , कृष्ण बनेंगे चैतन्य ! श्री कृष्ण चैतन्य बनेंगे । बनेंगे की बात ही नहीं है वैसे वह भी गोलोक में होते ही हैं , गोलोक के दो विभाग है एक वृंदावन विभाग है और नवद्वीप दूसरा है । यह पर कृपा करके यह दोनों धाम प्रकट है , वृंदावन धाम , मायापुर धाम , मायापुर में उत्सव भी चल रहा है , और कुछ ही दिनों के उपरांत गौर पूर्णिमा महोत्सव भी पूरा संसार और वहां पहुंचे हुए भक्त भी मनाएंगे । गौर पूर्णिमा महोत्सव की तैयारी चल रही है , कृष्ण प्रकट होने के पहले कैसे गोलोक में सोच रहे थे और , सोच कर सोचो साथ में क्या जाएगा ? ऐसे ट्रक वाले लिखते ट्रक के पीछे “सोचकर सोचो” मतलब पुनः पुनः सोचो । कृष्ण ने भी सोचा है और सोच कर एक बार वृंदावन से कृष्ण आते हैं और फिर नवदीप मायापुर जो गोलोक में ही है जिसको श्वेत दीप भी कहां है , वहां से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं । किसलिए प्रकट होते हैं ? अभी समझ में आ रहा है कि नहीं ? जिसको हमने कल कहा था , कॉन्फिडेंशीअल रिझन वैसे भगवान आते हैं ,
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
यह चलता रहता है ऐसा चलता ही है लेकिन जब वह चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हो रही है तब वह क्लीन और कॉन्फिडेनशीअल रिझन जिसका कुछ स्पष्टीकरण यहां हुआ है और भी है । कॉन्फिडेंशियल रिझन वाली जो बातें हैं , जो गोपनीय कारण की बाते है , जो उनके प्राकट्य के पीछे का उद्देश्य है वहा थोड़ा हम पहुंच चुके हैं ।इस उद्देश्य से भगवान गौरंग प्रकट हुए । मुख्यता प्रेम का दान देने के लिए आए इतना तो समझ जाओ । प्रेम का दान देने के लिए प्रकट हुए थे और प्रेम का दान देने के लिए दाता बनेंगे और जहां वह प्रकट होंगे उस धाम का नाम औदार्य धाम होगा उदार से औदार्य शब्द होता है , माधुर्य धाम वृंदावन है और मायापुर धाम औदार्य धाम है ।
नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते
कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः
नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रद कृष्ण प्रेम देंगे , वितरण करेंगे , हरि हरि । वह दयालु होंगे , क्या करेंगे ? कैसे दया दिखाएंगे इस रूप ? कृष्ण प्रेम प्रद कृष्ण प्रेम का दान देंगे इसलिए कृष्ण प्रेम प्रदाय , कृष्ण प्रेम देने वाले नमः है आगे , नमो नमः कृष्ण प्रेम प्रदायते , नमो महादेवाय नमः , कृष्ण प्रेम प्रदायते नमः , कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामिने नमः , गौरत्विशे नमः चार नमस्कार करने होंगे , किये है ही लेकिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का चार प्रकार से वर्णन हुआ है , ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य को मेरा नमस्कार है । वह दानी है , ऐसे दानी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार यह हुआ , दानी है , दाता है ऐसे गुण की बात हुई और आगे लीला की बात है , कौन सी लीला खेलेंगे ? कृष्ण प्रेम प्रदाय, कृष्ण प्रेम देंगे यह लीला है । गुण हुआ , लीला हुई क्या बच गया ? धाम बच गया । कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामिने यह कृष्ण है लेकिन अब उनका नाम होगा श्रीकृष्ण चैतन्य , कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामिने कृष्ण को ही नमस्कार लेकिन कैसे कृष्ण को नमस्कार ? कृष्ण चैतन्य नाम वाले कृष्ण को नमस्कार । अब क्या बज गया ? अभी गुण हुआ , लीला हुई , नाम हुआ , अब क्या बच गया ? उनका रूप बच गया । कैसे रूप वाले हैं ? गौरत्विष नमः त्विष मतलब कांति । गौर वर्ण के गौरांग , गौरंग महाप्रभु को मेरा नमस्कार । ऐसे इस प्रकार छोटे और संक्षिप्त प्रणाम मंत्र में रूप गोस्वामी ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नाम , रूप, गन ,लीला का उल्लेख किया है । ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण कमलों में बारंबार प्रणाम है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक २२.०३.२०२१
732 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।राम नाम के हीरे मोती मैं बिखराऊं गली गली।राम नाम का, हरि कथा का या गोर कथा का वितरण करते रहिए।यह कथा सुन रहे हो तो सुनाओ भी।आप सब जप करो, गौर कथा करो,कीर्तन करो। सुनो और सुनाओ।गोर पूर्णिमा अब दूर नहीं है। आज 22 तारीख है और 28 को गौर पूर्णिमा हैं।केवल 28 तारीख को ही गौर पूर्णिमा नहीं मनानी हैं।हम तो बहुत समय से जप करते ही हैं।तो जप करना भी गौर पूर्णिमा उत्सव मनाना ही हैं। हम सब ने अभी जप तो किया ही हैं,कथा और कीर्तन भी करेंगे। वैसे कई भक्त तो मायापुर भी पहुंच गए हैं। नवदीप मंडल परिक्रमा भी कर रहे हैं। कीर्तन मेला भी हो गया है। ऑनलाइन भी चल रहा था। तो क्या सुना आपने? हरि हरि।।
धीरे-धीरे मैं और भी कुछ आपको सुनाने वाला हूँ। कुछ स्मरण हो रहा हैं और उसे बांटने की इच्छा हो रही है। एक बहुत बड़ी घटना जो कि मेरे जीवन में घटी। कैसे मैं रघुनाथ से लोकनाथ बन गया। यह बात है 1971 के मार्च महीने कि।तारीख 25 थी। सायं काल का 6:00 बजे का समय था। उस दिन में श्रील प्रभुपाद को पहली बार मिला। तो उस की 50वीं सालगिरह होने वाली है। कह सकते हैं की 50 वीं वर्षगांठ आने वाली हैं। अंग्रेजी में एनिवर्सरी कहते हैं। मेरा जो श्रील प्रभुपाद से मिलन हुआ या कह सकते हैं कि मुझे जब श्रील प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए,उसके 50 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं।50वीं सालगिरह होने वाली हैं। उसकी गोल्डन जुबली है।यह उत्सव 1971 में 25 मार्च से 4 अप्रैल तक चला था। मैं प्रतिदिन उस उत्सव में सम्मिलित होता रहा और अमरीकी और यूरोपीयन साधुओं द्वारा किया गया कीर्तन सुनता रहा और श्रील प्रभुपाद का प्रवचन में प्रतिदिन सुन रहा था और वही से कृष्ण भावनामृत को सीखने और समझने की शुरुआत हुई और वही पर मैंने अपने मन में निश्चय कर लिया कि श्रील प्रभुपाद ही मेरे गुरु होंगे। उसी उत्सव में वहां जो काउंटर था वहां से मैंने जपमाला भी ली थी।वहां ग्रंथ के वितरण का भी मेज लगा हुआ था वहां से मैंने श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ खरीद लिए थे।तो यह शुभारंभ था और इसी को चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को वाराणसी में कहा हैं, वैसे तो चैतन्य महाप्रभु की बहुत सारी शिक्षाएं है पर उन्हीं में से एक शिक्षा जो थी वह यह है कि
brahmāṇḍa bhramite kona bhāgyavān jīvaguru-kṛṣṇa-prasāde pāya bhakti-latā-bīja
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.151)
मैं जो इस ब्रह्मांड में भ्रमण करते हुए गोल गोल घूम रहा था,उस पर श्रील प्रभुपाद ने रोकथाम लगाया और मेरे भाग्य का उदय हुआ। यह 50 वर्ष पूर्व की बात हैं। 50 वर्ष पूरे होने में कुछ ही दिन शेष हैं।बस कुछ ही दिनों में 50 वर्ष पूरे हो जाएंगे।वह उत्सव भी आ ही रहा हैं।वह उत्सव हैं “हरे कृष्ण उत्सव,क्रॉस मैदान चर्चगेट स्टेशन के पास मुंबई”। गोर पूर्णिमा उत्सव और साथ ही साथ मेरे लिए 1971 का हरे कृष्ण उत्सव,यह दोनों उत्सव एक साथ संपन्न होने जा रहे हैं।1971 हरे कृष्णा उत्सव वाली सिर्फ एक सूचना आपको दे रहा हूं। इसे बताए बिना मुझसे रहा नहीं गया। मैने घोषणा तो कर दी हैं देखते हैं क्या होता हैं। शिष्य मंडली 1971 वाले हरे कृष्ण उत्सव को मनाने के लिए कोई कार्यक्रम तो बना रही हैं।इस उत्सव को कैसे मनाएंगे उसकी घोषणा भी अगले कुछ दिनों में यहां हो जाएगी तो तब तक या गौर पूर्णिमा तक जैसे हम पिछले कई दिनों से चर्चा कर रहे हैं वैसे ही भगवान की लीलाओं पर चर्चा करते रहेंगे।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद
जय अद्वैत चंद्र जय गौरव भक्त वृंद
(चैतन्य चरितामृत अंत: लीला 1.8)
हर कथा के प्रारंभ में हम ऐसा क्यों कहते हैं?कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरित्रामृत को लिखते हुए हर अध्याय के प्रारंभ में ऐसा लिखा हैं,इसलिए हम भी यह प्रार्थना करते हैं।इसके माध्यम से हम अपनी प्रार्थनाओ को महा प्रभु के चरणों में,नित्यानंद प्रभु के चरणों में,अद्वैत आचार्य के चरणों में और सभी गौर भक्त वृंद के चरणों में अर्पित करते हैं ताकि उनकी लीलाएं हमारे समक्ष प्रकट हो सके।महाप्रभु नवद्वीप में 24 वर्ष तक रहे,यह हम संक्षिप्त में सुन चुके हैं।फिर मध्य लीला में हम सुन चुके हैं कि अगले 6 वर्षों तक उन्होंने भ्रमण किया। हमें इन लीलाओं को ना सिर्फ सुनना है बल्कि यह भी स्वीकार करना है कि चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाहीं अन्य
(श्री गुरु परंपरा 6)
गौरांग महाप्रभु राधा कृष्ण से भिन्न नहीं हैं। हरि हरि ।।
नवद्वीप में श्रीवास ठाकुर के आंगन में उन्होंने 21 घंटे तक एक महा प्रकाश लीला प्रकट की। जब कोई भक्त महाप्रभु को कहते कि आप भगवान हैं आप कृष्ण हैं तो निमाई स्वीकार नहीं करते थे।वह अपने काम बंद कर लेते थे। वह यह सुनना नहीं चाहते थे कि वह भगवान हैं। लेकिन उन्होंने एक दिन स्वयं ही बोला कि आप लोग कहते रहते हैं कि मैं भगवान हूं, मैं भगवान हूं। मैं छुपाने का प्रयास तो कर रहा हूं लेकिन उसमें सफल नहीं हो रहा हूं।क्या सूर्य को कोई छुपा सकता हैं?जैसे सूर्य को छुपाया नहीं जा सकता वैसे ही कृष्ण सूर्य सम हैं या कृष्ण चैतन्य सूर्य के समान हैं। तो उन्हें कौन छुपा सकता हैं। और कौन उनके भगवद्ता को छुपा सकता हैं। उनका प्रयास तो रहा लेकिन उनका प्रयास सफल नहीं हो रहा था। उन्होंने 1 दिन कहा कि ठीक है ,ठीक है। आप सब लोग समझ ही रहे हो कि मैं भगवान हूं तो चलो जो असलियत है उसको प्रकट कर ही देते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि चलो सब को बुलाओ। सारे नवदीप मंडल के भक्तों को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने बुलाया। एक एक को याद करके। इसको बुलाओ,उसको बुलाओ। असंख्य भक्त जब वहां एकत्रित हुए तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने 21 घंटे तक बिना रुके अपनी भगवद्ता का प्रदर्शन किया और वहां पर उपस्थित हर भक्त को भगवद् साक्षात्कार कराया। ऐसे ही होता है कि भगवान स्वयं ही कराना चाहते हैं। और हमें भी भगवत साक्षात्कार स्वयं ही कराना चाहेंगे।भगवान स्वयं कहेंगे कि मैं आपको भगवद् साक्षात्कार ,कृष्ण साक्षात्कार कराता हूं।भगवान जब चाहेंगे तो सबको छप्पर फाड़ कर भगवद् साक्षात्कार हो सकता हैं।वैसे भी जब भगवत साक्षात्कार होता है तो हमारी मर्जी से नहीं होता।हमारे प्रयास जरूर होते हैं किंतु अंततोगत्वा भगवान की इच्छा से या भगवान की मर्जी से भगवान जब हमारा चयन करते हैं तो ही हमें भगवत साक्षात्कार होता है।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्
(मुकुंद उपनिषद 3.2.3)
भगवान का साक्षात्कार बहुत अधिक श्रवण करने से भी नहीं होगा। तो कैसे होगा भगवान का साक्षात्कार? जब भगवान स्वयं चयन करेंगे। जब हमारा चयन होगा। उस दिन भगवान ने सभी चयनित भक्तों को अपनी भगवद्ता का प्रदर्शन किया। दूसरे शब्दों में श्रीवास ठाकुर के प्रांगण में जो उपस्थित भक्त थे उन सभी को भगवद् साक्षात्कार और आत्मसाक्षात्कार यह दोनों साक्षात्कार एक ही साथ हुए। यह एक ही साथ होते हैं और होने चाहिए। मैं कौन हूं और भगवान कौन है और हमारा भगवान से क्या संबंध हैं।यह संबंध ज्ञान हैं। यहां संबंध भी हो गया,अभिधेय भी हो गया और प्रयोजन भी हो गया।एक स्तर पर पहुंच कर कृष्ण साक्षात्कार या आत्मसाक्षात्कार होता हैं। मैं यह शरीर नहीं हूं। मैं आत्मा हूं और भगवान परमात्मा हैं।परमात्मा या
एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ (श्रीमद् भागवतम 1.3.28)
कृष्ण स्वयं भगवान है और मैं उन का दास हूं या जो भी हूं
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि:।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:॥
श्रीमद् भागवतम 2.10.6
जो 8400000 योनियों है उन को त्याग कर,यह मानव शरीर जो हमने धारण किया है उसको भी त्याग कर,यहा पर ऐसा नहीं है कि अंतिम संस्कार करना पड़ेगा शरीर तो हैं लेकिन इस भाव को त्यागना है कि मैं यह शरीर हूं और यह स्वीकार करना है कि मैं इस शरीर से भिन्न हूं। मैं आत्मा हूं।इस बात को समझना ही आत्मसाक्षात्कार हैं।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने बताया हैं कि भगवद् साक्षात्कार और आत्मसाक्षात्कार करने का किस-किस को अधिकार हैं। सभी को ही है। आप सभी को अधिकार हैं। आप अधिकारी हो। आप योग्य हो। हमारे पुणे के लोकमान्य तिलक ने कहा हैं कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैं। स्वतंत्रता संग्राम में वह ऐसे भाषण ठोकते थे। जब वह मैदान में उतरे थे तो कहते थे स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वतंत्र राज्य में रहने का मुझे अधिकार है और उस अधिकार को मैं प्राप्त करके ही रहूंगा। उन्होंने जो भी कहा सच नहीं कहा या कुछ सच्चाई हो भी तो हमे उससे कया।हमें तो माया से स्वतंत्र होना हैं।हम माया के तंत्र या बंधन में फंसे हैं।देश स्वतंत्र हो भी गया तो क्या हो गया। अंग्रेज राज नहीं रहा।छोड़ो भारत के नारे लगे। फिर इंदिरा राज आ गया। तो क्या फर्क पड़ा।राम का राज्य तो नहीं आया, रावन का ही आया।कली का राज्य आ गया। तो देखा जाए तो हम स्वतंत्र तो नहीं हैं। इसलिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने कहा था कि देश को स्वतंत्र करना कोई मुख्य बात नहीं हैं। कुछ लोगों को करना है तो उन्हें करने दो। लेकिन अब से तुम्हें यह करने की आवश्यकता नहीं हैं। 1922 की बात है जब भक्ति सिद्धांत सरस्वती से प्रभुपाद पहली बार मिले थे।अभी अभी कुछ देर पहले मैंने आपको मेरी पहली मुलाकात बताई थी मेरे गुरु महाराज से। यह मेरे गुरु महाराज की पहली मुलाकात थी उनके गुरु महाराज से। 1971 में मेरी मुलाकात प्रभुपाद से हुई या मुझे प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए।जब 1922 में श्रील प्रभुपाद को भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज के प्रथम दर्शन हुए थे तो उस वक्त सरस्वती ठाकुर ने प्रभुपाद को यह कहा था।
प्रभुपाद उस समय खादी वस्त्र पहनना शुरू करने ही लगे थे और गांधी के अनुयाई बनने लगे थे।उस समय प्रभुपाद सुभाष चंद्र बोस की सभा में भी जाया करते थे।वह उस समय युवा थे और देश को स्वतंत्र करना है ऐसे नारे लगा रहे थे। श्रील प्रभुपाद उसी चेतना में आ रहे थे कि मैं देशभक्त होकर देश को स्वतंत्र करवाऊंगा। तो उस समय श्रील प्रभुपाद ने श्रील भक्तिसिद्धांत ठाकुर प्रभुपाद को कहा था कि पहले हमको हमारे देश को स्वतंत्र करना होगा। धर्म कार्य तो बाद में भी देखे जा सकते हैं। उस समय श्रील भक्ति सिद्धांत महाराज ने उन्हें कहा था कि नहीं कृष्णभावनामृत कों मुख्य प्रधानता मिलनी चाहिए। आत्मसाक्षात्कार को प्रधानय होना चाहिए। यही एक मनुष्य का प्रथम कर्तव्य हैं।
बाकी तो संसार में परिवर्तन होते ही रहते हैं कि कौन सी सरकार आएगी,जाएगी। हरि हरि।। यह बहुत ही महत्वपूर्ण संवाद हैं। इसको आप सभी को समझना चाहिए। यह वर्ष श्रील प्रभुपाद के जन्म का 125 वां वर्ष हैं।इस्कॉन प्रभुपाद कि 125 वी वर्क वर्षगांठ मना रहा हैं। तो हमें अधिक से अधिक प्रभुपाद भावनाभावित होना चाहिए। हमें श्रील प्रभुपाद के चरित्र को या उनके कार्यों को,उनकी जीवनी को और उनकी शिक्षाओं को समझना चाहिए। इस वर्ष हमें अधिक से अधिक प्रभुपाद लीलामृत का अध्ययन करना हैं क्योंकि यह प्रभुपाद के जन्म की 125 वर्षगांठ हैं।इसे हम पूरे साल मनाएंगे। 1922 में भक्ति सिद्धांत सरस्वती और अभय बाबू के बीच में जो संवाद हुआ उसकी हम चर्चा कर रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद उस समय 26 साल के थे जब वह अपने गुरु महाराज से मिले थे। और मैं जब अपने गुरु महाराज से मिला तो मैं 22 साल का था। उस पहली मुलाकात के लिए अभय बाबू अपने एक मित्र नरेंद्र मलिक के साथ गोडीय मठ गए थे।श्रील प्रभुपाद उस समय भक्ति सिद्धांत महाराज से मिलने के लिए तैयार नहीं थे।उन्होंने अनेकों पाखंडी साधुओं को देख रखा था।उनके मित्र उनहे वहां जबरदस्ती ले गए थे।पहली ही मुलाकात में भक्ति सिद्धांत ठाकुर ने श्रील प्रभुपाद को आदेश दिया कि तुम तो बड़े बुद्धिमान लगते हो।तुम पाश्चात्य देशों में अंग्रेजी भाषा में कृष्णभावनामृत का,चैतन्य महाप्रभु के मिशन का प्रचार करो।अभय अभी अभी आकर प्रणाम करके बैठने ही लगे थे तो उन्होंने तुरंत कहा तुम बुद्धिमान हो,अंग्रेजी भाषा में कृष्णभावनामृत का प्रचार करो।यह दोनों ही मित्र भक्ति सिद्धांत महाराज को मिलने के बाद अपने-अपने घर लौटते हुए आपस में चर्चा कर रहे थे।अभय बाबू और उनके मित्र दोनों ही बड़े प्रभावित थे। एक ही मुलाकात में अभय बाबू का जो दृष्टिकोण था कि वे देश को स्वतंत्र करेंगे,गांधी के अनुयाई बनेंगे,सुभाष चंद्र बोस कि देश को स्वतंत्र करने में मदद करेंगे वह बदल गया।जो बहुत सारी योजनाएं उन्होंने बना रखी थी,वह उन सब विचारों से तुरंत ही मुक्त हो गए। प्रभुपाद जब हम भक्तों से बाद में बात किया करते थे तो बताया करते थे कि मैंने उस मुलाकात के बाद मन बना लिया था कि जिन से आज मैं मिला हूं,यही मेरे गुरु होंगे।हरि हरि।।
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वहां जो भी उपस्थित थे उनका चयन करके उन्हें वहां बुलाया था और जो वहां नहीं आ पाए थे उन्हें भी बुला बुलाकर अपनी भगवद्ता का साक्षात्कार कराया था।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही स्वयं भगवान हैं,इसका दर्शन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस दिन सभी को दिया। ऐसी लीलाएं नवदीप मायापुर में संपन्न हो रही थी ।इस लीला को महा प्रकाश लीला कहते हैं।इसका नाम याद रखिएगा। महा प्रकाश लीला जो 21 घंटों तक चलती रही। 21 घंटों तक महाप्रभु का भगवान कृष्ण के रूप में दर्शन हो रहा था। अलग-अलग दर्शन भी हो रहा था।जिसका जैसा भाव था उसे वैसे ही दर्शन हो रहे थे।मुरारी गुप्त ने जब दर्शन किया तो उन्हें तो चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर राम जी दिख रहे थे और जब उन्होंने अपनी और देखा तो वह स्वयं हनुमान बने थे। रामलीला के हनुमान जी मुरारी गुप्त के रूप में प्रकट हुए थे। उनको जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दर्शन दे रहे थे तो राम जी के रूप में दर्शन दे रहे थे क्यों क्योंकि हनुमानजी किसका दर्शन पसंद करते हैं? राम जी का। मुरारी गुप्त को कहा गया था कि हम सब कृष्ण की भक्ति करते हैं तो तुम भी कृष्ण भक्ति करो। एक दिन भक्तों ने एक सभा में मुरारी गुप्त को बुलाया और उनसे कहा कि हम सब कृष्ण के भक्त हैं और तुम अकेले ही राम की भक्ति करते हो। उस दिन तो मुरारी गुप्त ने ठीक है कह दिया था। कि ठीक है मैं कृष्ण भक्त होने कि कोशिश करता हूं।फिर उन्होंने कोशिश की, प्रयास किया राम को भूलने का और कृष्ण भक्त बनने का और कृष्ण का स्मरण करने का परंतु पूरी रात उनको नींद नहीं आई। उनको तो केवल राम ही राम याद आ रहे थे। “जय श्रीराम।। जय श्रीराम”।। अब हनुमान जो थे तो हनुमान जी तो राम ही को याद करेंगे।इनका निवास स्थान मायापुर में ही था,आज भी मायापुर में हैं।जब हम अंतर द्वीप की परिक्रमा में जाते हैं तो मुरारी गुप्त के निवास स्थान पर भी हम जाते हैं । दूसरे दिन जब मुरारी गुप्त पुण: भक्तों से मिले तो उन्होंने भक्तों को कहा कि मुझे माफ करना। मैंने प्रयास तो किया पर मैं राम को भूल नहीं सका।मैं राम की भक्ति को नहीं छोड़ सकता और यही है कि
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि:
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:॥
(श्रीमद् भागवतम 2.10.6)
जब हम अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं तो उस स्वरूप में जब भगवद् साक्षात्कार होता है तो हमारे जो इष्टदेव हैं उन्हीं का दर्शन होता हैं और उन्हीं के साथ हमारा संबंध स्थापित होता हैं। उस महा प्रकाश लीला में ऐसी कई घटनाएं घट रही थी जिस का विस्तृत वर्णन चैतन्य भागवत में आता हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने 24 वर्ष नवदीप में लीला की और 6 साल भ्रमण किया। उस भ्रमण का मुख्य उद्देश्य धर्म की स्थापना करना था और कलियुग का धर्म है हरी नाम संकीर्तन
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे
( भगवत गीता 4.8)
तो चैतन्य महाप्रभु नगर आदि ग्राम में भ्रमण कर रहे थे। कलियुग का जो मुख्य धर्म है नाम संकीर्तन,उसकी स्थापना कर रहे थे। अपने उदाहरण से सारे संसार को सिखा रहे थे।
āpani ācari’ jīve śikhāilā
CCM 1.22
वह केवल उसके बारे में बोल ही नहीं रहे थे। बल्कि अपने आचरण से व्यवहारिक रूप में सिखा रहे थे।चैतन्य महाप्रभु बातें कम करते थे और अधिक से अधिक कीर्तन करते थे।6 साल तक लगातार कीर्तनीया सदा हरी चल रहा था।उन लीलाओं को संक्षिप्त में कुछ दिनों से हम सुन रहे थे।आदि लीला मायापुर नवदीप में हुई।मध्य लीला भी। पूरा भारत कवर कर लिया था। उन्होंने दक्षिण भारत और पूर्वी भारत पूरा भारत कवर कर लिया था।और लौटकर पुरी जगन्नाथ आए और 18 वर्ष महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में ही रहे।
“जगन्नाथपुरी परित्यज एकम पदम ना गच्छति”। जगन्नाथपुरी के बाहर उन्होंने एक पग भी नहीं रखा और इन लीलाओं को कृष्ण दास कविराज ने अंत: लीला का नाम दिया हैं और यह लीलाएं बहुत ही गोपनीय लीलाएं हैं। चेतनय चरितामृत की शुरुआत में ही कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का गोपनीय कारण बताया हैं। दोनों ही कारण बताए हैं। एक तो सामान्य कारण धर्म स्थापना जो कि हर अवतार में भगवान करते ही हैं। लेकिन इस प्राकट्य में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक और उद्देश्य पूरा करने आए हैं। जिसे गोन कारण कह सकते हैं।वह कारण क्या रहा और कैसे-कैसे उनको सफलता मिली। कैसे लीलाएं संपन्न हुई,उसकी चर्चा आने वाले सत्र में करेंगे। मैं तो बस भगवान के हाथ की कठपुतली हूं देखते हैं भगवान मुझसे क्या बुलवाना चाहेंगे। आज यही रुकेंगे।
हरि बोल।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
21 मार्च 2021
गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल! सभी आत्माओं को हरि बोल। आज हमारे साथ 697 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। हरि हरि।
*जय जय श्री चैतन्य प्रभु नित्यानंद*
*जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद*
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब रामकेली में गए तो उस लीला को हम सुन चुके है। तो जब वे रूप और सनातन से मिले और उनका उद्धार किया, उनको दीक्षा दी और दीक्षा के समय आदेश भी दिया की, परंपरा के कार्य को वृंदावन में सफल बनाओ! और वे महाप्रभु के कार्य को वृंदावन में करते रहे। तो यह दोनों प्रभु जो अभी-अभी प्रभु बने है, रूप और सनातन प्रभु, तो उसी परिवार के जीव गोस्वामी जो उनके परिवार के दूसरे वंशज रहेंगे वह भी जुड़ने वाले थे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप सनातन से यह भी कहा था कि, जो हम पहले सुन चुके है, चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से वृंदावन जाने के लिए प्रस्थान किए थे, पहले उनको मिलना था नवद्वीप इत्यादि स्थानों के भक्तों को और फिर रामकेली भी गए और वहां पर रूप सनातन को मिले और फिर वहां से वृंदावन के लिए ही जा रहे थे।
महाप्रभु वैसे कई स्थानों पर गए और एक आखिरी स्थान था यह रामकेली और वहां से अब सीधे वृंदावन जाना था, और महाप्रभु ने कहा था कि मैं वृंदावन जा रहा हूं और आप जो नवाब हुसैन शाह की सेवा कर रहे हो और उन्होंने आपको प्रधानमंत्री और अर्थमंत्री की पदवी आदि है तो उसको त्याग दो! और वृंदावन आओ! तो वह तैयारी कर रहे थे ताकि वह भी महाप्रभु को मिल सकते किंतु उनको थोड़ी देरी हुई वहां से प्रस्थान करने में तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जैसे हम पहले सुन चुके है की,वैसे उस वक्त पर नहीं गए पहले जगन्नाथपुरी गए और फिर झारखंड से होकर वृंदावन गए और कार्तिक मास के अंत में वृंदावन पहुंचे थे। और फिर मार्गशीर्ष और पौष में महाप्रभु केवल वृंदावन में रहे नहीं तो उन्होंने ब्रज मंडल परिक्रमा की और कुछ समय के लिए अक्रूर घाट पर ब्रजवास किया। और वहां से फिर प्रस्थान करने की योजना बनी और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को साथ में लेकर बलभद्र भट्टाचार्य जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान की तो रास्तों में कई स्थान आए लेकिन कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने जिस का विशेष वर्णन किया है वह स्थान था प्रयागराज त्रिवेणी संगम की जय! तो मार्गशीर्ष पौष और माघ मास में महाप्रभु प्रयाग आए और इसी माघ मास में माघ मेला लगता है जो प्रति 12 वर्ष में कुंभ मेला होता है तो ऐसे ही एक प्रति वर्ष में माघ मेला होता है तो उस वक्त कई सारे तीर्थ यात्री माघ मेले में आकर वहां पर वास करते हैं, निवास करते है, ऐसी भी एक साधना है।
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब वहां पहुंचे थे तो चैतन्य चरित्रामृत में वर्णन है माघ मास यानी जनवरी महीने में कहो तो गंगा में थोड़ा ही जल बह रहा था किंतु महाप्रभु प्रयाग में गंगा के तट पर रह रहे थे। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहा कीर्तन करने लगे और जैसे ही उन्होंने कीर्तन किया तो उसी के साथ गंगा में बाढ़ आ गई। हरिनाम की बाढ़ या फिर हरिनामामृत की बाढ़ *अवतीर्णे गौरचन्द्रे विस्तीर्णे प्रेमसागरे गोलोकेर प्रेमधन हरिनाम संकीर्तन* तो वहा एकत्रित हुए यात्री प्रेमामृत में स्नान कर रहे थे, हरिनामामृत में गोते लगा रहे थे। हरि हरि। तो गंगा में स्नान करना यह भी ऊंची बात है। गंगा तेरा पानी अमृत किंतु यह गंगा का पानी बस हमें मुक्त कर सकता है किंतु यह जो कृष्ण प्रेम का अमृत है या कृष्ण नाम का अमृत है यह हमें मुक्ति से भी ऊंची है भक्ति, तो वह हमें भक्ति प्रदान करता है। हरी हरी। तो रूप गोस्वामी और उनके भ्राता अनुपम उस समय रामकेली से प्रस्थान करके बंगाल और बिहार की यात्रा करते हुए उस समय के धर्म प्रदेश यानी उत्तर प्रदेश में प्रवेश किए और प्रयाग पहुंचते ही उन्होंने यह दृश्य देखा कि, महाप्रभु का महासकीर्तन हो रहा है तो आप समझ ही गए कि, क्योंकि वे थोड़ी देरी से पहुंचे इसीलिए वह महाप्रभु को वृंदावन नहीं मिले।
महाप्रभु ने उनसे कहा था कि, वृंदावन आ जाओ वहां पर मिलेंगे और ईस्ट गोष्टी करके बताएंगे कि क्या करना है। तो और भी जुड़ जाएंगे तो कुछ नही भक्त जुड़े है उनको भी भेज दूंगा, लोकनाथ गोस्वामी या भूगर्भ गोस्वामी भी जुड़ गए है तो उनको भी भेजूंगा और मैं श्रीरंग में वेंकटभट्ट के पुत्र को मिला था तो वह भी आने वाले है तो इस प्रकार हम एक टीम बनाएंगे और उसका नेतृत्व आप करेंगे और वे सब रूपानूग बनेंगे यानी रूप गोस्वामी के अनुयायी। तो वृंदावन में रूप सनातन और महाप्रभु का मिलन होने के वजह प्रयाग में हो रहा है। और सनातन तो पीछे ही छूट गए क्योंकि नवाब हुसैन शाह ने उन्हें कैद कर लिया लेकिन रूप गोस्वामी मुक्त थे तो वे पहुंच गए और साथ में अनुपम भ्राता को लाए और वे दोनों श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन सुनते ही होंगे।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
तो यह हरे कृष्ण नाम गूंज रहा है सर्वत्र और उच्च स्वर में कीर्तन हो रहा है। स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गा रहे है। *मेघ गंभीरया वाचा* जिनकी वाणी में कितनी गहराई होती है? मैं गंभीर या वाचा यानी जब कोई बादल गरजते है तो उनकी जो गरज होती है वह बहुत दूर तक सुनाई देती है तो ऐसे ही मेघ गंभीर या वाचा। तो सब दूर से ही सुन पा रहे थे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वेनी माधव मंदिर के और जा रहे थे। जिसका नाम प्रयाग है प्रयाग मतलब यज्ञ भूमि वैसे गंगोत्री से प्रयाग तक कई यज्ञ स्थलिया है जहां पर अलग-अलग नदियों का संगम होता है तो वहां यज्ञ भूमि बन जाती है। तो कई यज्ञ भूमिया प्रयाग के पहले भी है किंतु यह प्रयाग, प्रयागराज कहलाता है। क्योंकि यहां गंगा यमुना और सरस्वती जैसी महान नदियों का संगम है। गंगा यमुना सरस्वती की जय! तो वेणी माधव मंदिर की ओर महाप्रभु कीर्तन करते हुए जा रहे थे तो रूप गोस्वामी और अनुपम दूर से ही देख रहे थे और सुन रहे थे। और जो कोई महाप्रभु को देखेगा और कीर्तन को सुनेगा और उन्हें देखेगा तो उसका भाव या मन की स्थिति का क्या कहना! *प्रेमे पाझरती लोचन आनंदले मन* तो उनका मन आनंद से भर गया था और आखो से अश्रूधारा बह रही थी और सभी अष्ट विकार स्पष्ट हो रहे थे। तो इस कीर्तन के उपरांत महाप्रभू एक सदगृहस्थ के निवास पर पहुंच गये धीरे धीरे सारी भीडभाड कम हो गई। जो कोई माघ मेले में आया था वह अपने निवास स्थान पर पहुंच गया। अब चैतन्य महाप्रभु अकेले ही थे और वहां पर एकांत था तो तब रूप गोस्वामी और अनुपम वहां पर पहुंच गए और जैसे ही प्रत्यक्ष उन्होंने देखा तो उन्होंने महाप्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। और प्रणाम करके जैसे वे उठ रहे थे तो हाथ जोड़कर और दांत में घास का तिनका धारण किए हैं मतलब आती विनम्र भाव के साथ वह उठ के खड़े हो रहे थे और इसी समय रूप गोस्वामी प्रार्थना कहे जो प्रसिद्ध प्रार्थना है,
*नमो महावदान्याय कृष्णप्रे -प्रदायते ।*
*कृष्णाय कृष्णचैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नम: ।।*
*अनुवाद:- हे परम उदार अवतार! श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए आप स्वयं श्रीकृष्ण हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण स्वीकार किया है और आप सभी को श्रीकृष्ण-प्रे वितरित कर रहे हैं। मैं आपको सादर नमन करता हूँ।*
सुने होना यह प्रार्थना? अगर नहीं सुने हो तो यह जीवन बेकार है! और सुने हो तो समझे भी हो क्या? कि क्या है यह प्रार्थना, क्या कहा रूप गोस्वामी प्रभुपाद? तो अब तो हम नहीं कहेंगे पहले कह चुके है। हरि हरि। हम लोग कहते रहते हैं कोटि-कोटि दंडवत प्रणाम महाराज। कहते हैं, या लिखते हैं। लेकिन एक भी दंडवत नहीं करते! कितने दंडवत? कोटि-कोटि दंडवत! और साष्टांग दंडवत कहते हैं। जिसमें मन भी होता है, या होना चाहिए। फिर वाचा भी है, शरीर तो दंडवत कर रहा है लेकिन मन या वाणी प्रणाम नहीं कर रही तो ऐसा साष्टांग दंडवत प्रणाम अधूरा है, अपूर्ण है, त्रुटिपूर्ण है और अपराध पूर्ण भी है। ऐसे भक्ति रस अमृत सिंधु में रूप गोस्वामी लिखे है। जब हम प्रणाम करते हैं जो साष्टांग या पंचांग प्रणाम होता है तब प्रणाम मंत्र कहना चाहिए। तो रूप गोस्वामी बार बार प्रणाम कर रहे थे और प्रार्थना भी कर रहे थे। बहुत सारे प्रणाम के उपरांत रूप गोस्वामी को महाप्रभु ने, स्वयं भगवान ने उनका स्वागत किया और उनको बिठाया है। लेकिन रूप गोस्वामी थोड़ा दूर ही बैठे हैं तो फिर पूछताछ होती है कि, सनातन गोस्वामी नहीं आए कुछ समस्या है? उनको कैद किया है ऐसा रूप गोस्वामी बताते है। और महाप्रभु जानते थे कि अब सनातन गोस्वामी कारागार से मुक्त हो चुके है। यह महाप्रभु जानते थे, कैसे जानते थे? क्योंकि षडऐश्वर्या पूर्ण है भगवान! वह भगवान सब कुछ जानते है,
*वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।*
*भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥*
*अनुवाद:- हे अर्जुन! श्रीभगवान होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ। मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता।*
ऐसा भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में कहे हैं की, सब जीवोंके भूतकाल, भविष्य और वर्तमान को मैं जानता हूं! तो ऐसे भगवान को मेरा बार-बार प्रणाम है तो रूप गोस्वामी को पता नहीं था कि, सनातन गोस्वामी कारागार से मुक्त हुए है या उन्होंने स्वयं को मुक्त किया है वह भी एक लीला कथा है। वह मुक्त हुए और वृंदावन की ओर प्रस्थान कर ही रहे थे, वृंदावन के रास्ते में थे। तब चैतन्य महाप्रभु ने उनसे पूछा सनातन कहां है? क्यों नहीं आए? चैतन्य महाप्रभु जानते थे कि सनातन वृंदावन के रास्ते में हैं। हरि हरि। वल्लभाचार्य संप्रदाय के वल्लभाचार्य उसी स्थान पर पहुंच गए। तो यह चैतन्य महाप्रभु के समकालीन रहे। इनकी कई कथाएं की बैठके होती है, पंढरपुर में भी एक है। वह उनको भी महाप्रभु कहते थे। महाप्रभु कहना तो नहीं चाहिए था, महाप्रभु तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु है। किंतु वल्लभाचार्य को उनके संप्रदाय वाले महाप्रभु कहते हैं। हमारे इस्कॉन पंढरपुर से कुछ 200 गज की दूरी पर है। चंद्रभागा के तट पर एक बैठक है। शायद उनकी 84 अलग अलग बैठके हैं। वह जहां जहां पर भागवत कथा बैठकर किए, तो वह स्थान बैठक के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जब चैतन्य महाप्रभु प्रयाग आए थे। उन दिनों वल्लभाचार्य प्रयाग में रहते थे। चैतन्य महाप्रभु से मिलने के लिए आए थे। तब चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभाचार्य को परिचय कराया यह रूप और अनुपम है। वे कौन थे और कैसे हैं, स्वयं कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रूप गोस्वामी का परिचय दे रहे हैं। अपने भक्त का परिचय दे रहे हैं। अपने भक्त की गौरव गाथा गा रहे हैं। बड़े ही गर्व के साथ कह रहे हैं कि यह रूप गोस्वामी हमारे भक्त हैं। रूप गोस्वामी का भगवान को अभिमान है। जब वल्लभाचार्य ने रुप और अनुपम का गुणगान सुना। तब वल्लभाचार्य उठे और उनके पास जाकर उनके चरणों को छूना चाहते थे या आलिंगन देना चाह तो रहे थे। किंतु रुप गोस्वामी झट से उठे और दूर जाने लगे, दौड़ने लगे। ना ना हम तो अछूत है, हम तो अधम है, हमको स्पर्श नहीं करना, हमसे दूर रहो। यह रूप गोस्वामी की विनम्रता थी। वे ऐसा सोच रहे थे कि कहां वल्लभाचार्य ब्राह्मण परिवार के और वैसे हम भी ब्राह्मण परिवार के थे। लेकिन मुस्लिम राजा के हम नौकर चाकर बने, मंत्री बने। हमारा पतन हुआ, इनके स्पर्श के हम योग्य नहीं है। हरि हरि।
*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥*
*अनुवाद :-स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।*
यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का एक वचन है। उसका उदाहरण रूप गोस्वामी है। *तृणादऽपि सुनीचेन* कौन है? रूप गोस्वामी है। *अमानिना मानदेन* कौन है? रूप गोस्वामी है। ऐसे रूप गोस्वामी है।
*कीर्तिनिय सदा हरि* तो चल ही रहा है। यही प्रयाग में ही गंगा के तट पर एक द्शाशमेध नाम का घाट है। जो वाराणसी में भी है। द्शाशमेध घाट – दस अश्वमेध घाट। तो उस घाट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप गोस्वामी को दस दिनों तक उपदेश दिया। अपना संग दिया, वार्तालाप हुआ, संवाद हुआ, शिक्षा दी और फिर रूप गोस्वामी को वृंदावन भेजा। पहले ही कहा था तुमको वृंदावन जाना है। तुम वृंदावन जाओ और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथ पुरी जाना था। जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान तो किए किंतु चैतन्य महाप्रभु प्रयाग से वाराणसी पहुंचे। ज्यादा दूर नहीं है, 100–150 किलोमीटर होगा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रयाग से पूर्व दिशा में वाराणसी आए। चैतन्य महाप्रभु, चंद्रशेखर आचार्य के निवास स्थान पर रहे। वहां से तपन मिश्रा के घर पर भिक्षा या प्रसाद ग्रहण करने के लिए भी जाया करते थे। यह तपन मिश्रा रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के पिताश्री थे। एक रघुनाथ दास गोस्वामी है, वह बंगाल के थे। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी का वाराणसी में जन्म हुआ था। वैसे तपन मिश्रा बांग्लादेश या बंगाल के ही थे। तो सनातन गोस्वामी वाराणसी पहुंच गए और चंद्रशेखर ने वर्णन किया है। वह चंद्रशेखर के घर के सामने आकर बैठ गए। तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि कोई भक्त आए हैं, उनको लेकर आओ। तो चंद्रशेखर गए लेकिन उनको भक्त तो नहीं दिखाई दिया। ऐसी सनातन गोस्वामी की वेशभूषा थी। अभी तो गोस्वामी नहीं बने हैं। उन्होंने कहा नहीं नहीं, वहां पर कोई नहीं है। ऐसा वैष्णव या कोई भक्त तो नहीं है। नहीं नहीं कोई है ना ? उसी को बुलाओ, वही तो है। उनको भुलाया तो वह सनातन थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ते हैं, उन्हें गले लगाना चाहते हैं, दिल से स्वागत करना चाहते हैं।
किंतु सनातन उनकी वेशभूषा के कारण से दूर रहना चाहते हैं। हरि हरि। वहां पर काफी सनातन गोस्वामी और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का वर्णन है। मुख्य बात तो यह है कि बहुत सारी बातें तो है। किंतु चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी के साथ 2 महीने बिताएं। प्रतिदिन शिक्षा प्रदान करते थे, शिक्षा देते थे। तो यह सनातन शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध है। प्रयाग में रूप गोस्वामी को शिक्षा दी। वो संक्षिप्त में थी। किंतु सनातन गोस्वामी के साथ 10 दिनों तक चलती रही। अब 2 महीने चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को उपदेश और शिक्षा देंगे। जिसका वर्णन चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला के अंतिम चार या पांच अध्याय में हैं। आपने क्या सुना? इतना विस्तार से सुननी की जरूरत तो नहीं है, मध्य लीला कह रहे है, कुछ अध्यायो का नाम ले रहे हैं। तो चैतन्य चरितामृत बांग्ला भाषा में है।
श्रील प्रभुपाद ने कृपा करके इसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया ही है। आप अंग्रेजी जानते ही हो। अब तो मराठी में भी चैतन्य चरितामृत उपलब्ध है। यही तो समस्या थी, चैतन्य चरितामृत से सारा संसार वंचित था क्योंकि बांग्ला भाषा में इसको लिखा था। लेकिन जैसे ही यह अनुवाद अंग्रेजी में हुए और कई भाषाओं में हुए। हिंदी में आप पढ़ सकते हो। यहां तक कि चाइनीस भाषा में भी उपलब्ध है। धीरे धीरे कुछ भाषा में अनुवाद हो चुका है। कुछ भाषा में अनुवाद होना है। इस मध्य लीला के 19 और 20 अध्याय शिक्षा में दी गई है। उसके उपरांत शिक्षा 21 से 25 तक, यह 5 अध्यायों में शिक्षा है। बड़ी ही महत्वपूर्ण शिक्षा है। इसको जरूर पढ़ना चाहिए। ऐसी ऊंची, गहरी और गंभीर शिक्षा है। यह शिक्षा है, गोपनीय शिक्षा है इसीलिए चैतन्य चरितामृत को स्नातकोत्तर अध्यन (पोस्टग्रेजुएट स्टडी) कहा गया है।
श्रीमद्भागवत को स्नातक (ग्रेजुएशन) कहा गया है। पोस्ट ग्रेजुएशन का पाठ्यक्रम है। जिसके आधार पर श्रील प्रभुपाद अपनी कथा और प्रवचन कई बार कई बार किया करते थे। सनातन गोस्वामी ने प्रश्न पूछा। मैं कौन हूं और ना जाने क्यों तीन प्रकार के कष्ट है? आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक हमको भोग नहीं पढ़ते हैं। क्यों भुगतना पड़ता है? ऐसी जिज्ञासा सनातन गोस्वामी की रही। तो यहां से यह शिक्षा कहो या शिक्षा कहो प्रारंभ होती है। *अथातो ब्रह्म जिज्ञासा* इसको वेदांत सूत्र कहता था। मनुष्यो को जिज्ञासु होना चाहिए और क्या बाजार भाव चल रहा है? यह जिज्ञासा जो पशुवत मनुष्य है, पापी है और बड़ा दुराचारी है। ऐसी चर्चा करते रहेंगे। लेकिन यह ब्रह्म जिज्ञासा, मनुष्यों को भक्ति भाव की चर्चा करते रहना चाहिए। तो सनातन गोस्वामी ऐसी चर्चा कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसके विस्तार से उत्तर दिए हैं। इसे अग्रिम अध्यन (एडवांस स्टडी) कहो। कृष्ण और अर्जुन का कुरुक्षेत्र में संवाद हुआ था। तो भगवत गीता को श्रील प्रभुपाद प्राथमिकता शिक्षा कहते थे। कृष्ण अर्जुन का भी संवाद है और आगे का अग्रिम अध्यन (एडवांस स्टडी) है। हम भी पढ़ना चाहिए, तभी हम गौडीय वैष्णव बनेंगे। हरि हरि। वाराणसी में एक मायावादी प्रकाशानंद सरस्वती भी थे। *मायावादी कृष्ण अपराधी निराकार निर्गुणवादी* जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सन्यासी बने हैं। वह अपनी भावुकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। कीर्तन क्या करते हैं, नाचते क्या है, गाते क्या हैं? यह सन्यासी के लिए थोड़ी शोभा देता है? सन्यासी को तो वेदांत के अध्ययन में जीवन व्यतीत करना चाहिए। जैसा हम रूबाब के साथ करते हैं। प्रकाशानंद सरस्वती और उनके 60 हजार अनुयायी थे। यह कैसा संयासी है, जो वेदांत का अध्यन नहीं करता है? केवल हरे कृष्ण हरे राम करता है और जनता में नाचता रहता है। फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की प्रकाशानंद सरस्वती के साथ बैठक हुई, ईशठ गोष्टी हुई, शास्त्रार्थ हुआ। आप कीर्तन क्यों करते हो? *गुरु मोरे मूर्ख देखी करिला शासन* चैतन्य महाप्रभु ने कहा गुरु ने तो मुझे मूर्ख समझा है और कहा है कि हे बेटा! हे शिष्य! तुम और किसी काम के नहीं हो। यह तो कलयुग भी है।
*बृहन्नार्दीय पुराण में आता है–*
*हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|*
*कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा||*
*अनुवाद:- कलियुग में केवल हरिनाम, हरिनाम और हरिनाम से ही उद्धार हो सकता है| हरिनाम के अलावा कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है! नहीं है! नहीं है!*
ऐसे मेरे गुरु ने मुझको समझाया है। तब से मैं कीर्तन कर रहा हूं। यह कलयुग का धर्म है। तो वहां मायावदी को परास्त करने के जो वचन है। चैतन्य महाप्रभु ने कई शास्त्रों के वचन प्रस्तुत करते हुए, प्रकाशानंद सरस्वती के वचनों को उनके विचारों को परास्त किया है। हरिनाम संकीर्तन धर्म की स्थापना या हरिनाम संकीर्तन ही सर्वोपरि है। इसको सिद्ध किया और प्रकाशानंद सरस्वती मान गए और अपने 60000 शिष्यों के साथ चैतन्य महाप्रभु की शरण ली और चैतन्य महाप्रभु की शरण लेना मतलब हरीनाम की शरण ले ली। वह भी समझ गए कि इस ब्रह्मांड में हरिनाम से बढ़कर और कोई नहीं है। तो प्रकाशानंद सरस्वती के अनुयायी चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी बन गए। वे स्वयं भी हरिनाम संकीर्तन कर भी रहे थे और प्रचार भी करने लगे। देखिए कितना प्रचार प्रसार हुआ होगा। जब प्रकाशानंद सरस्वती चैतन्य महाप्रभु के भक्त या शिष्य बन गए। तो अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के रास्ते में है। वाराणसी से जगन्नाथ पुरी लौटे हैं। जगन्नाथ पुरी धाम की जय। इसी के साथ मध्य लीला का समापन हुआ। हम आदि लीला भी सुना रहे थे। मध्य लीला की थोड़ी अधिक चर्चा हुई। अब चैतन्य महाप्रभु नहीं आएंगे जाएंगे। 18 वर्ष जगन्नाथ पुरी में ही रहेंगे। वहां उनकी लीलाएं संपन्न होंगी। उन लीलाओं को गौर पूर्णिमा तक याद करेंगे। हरी हरी। हरे कृष्ण!
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक 20 मार्च 2021
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ७२५ स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं।
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द।।
आपने इसको याद किया? याद करो। अर्जुन?
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द।।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!
नित्यानंद प्रभु की जय!
अद्वैत आचार्य की जय!
गौर भक्त वृन्द की जय!
इन सभी की जय! जय! जय! जय! फिर विजय। मराठी में कहते हैं विजयो सौ।
चैतन्यमहा पुंस:।।
गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! जप तथा जप चर्चा में आपका पुनः पुनः स्वागत है। आपका जप अब तक पूरा तो नहीं हुआ होगा? आप कुछ समय के लिए मेरे साथ या सभी के साथ जप कर रहे थे। हम सब संसार भर के भक्त वृन्दों के साथ मिलकर जप कर रहे थे।अब जप के उपरांत जप चर्चा करेंगे। आजकल चैतन्य महाप्रभु के विषय में जप चर्चा हो रही है। यह चैतन्य चरितामृत का ही हल्का सा नहीं अपितु पूर्ण संस्मरण है क्योंकि जितना भी होता है, वह पूर्ण ही होता है।
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ईशोपनिषद (ईशस्तुति)
अनुवाद:- भगवान् पूर्ण हैं और चूंकि वे पूरी तरह से पूर्ण हैं, अतएव उन से होने वाले सारे उद्भव जैसे कि यह दृश्य जगत, पृर्ण इकाई के रूप में परिपूर्ण हैं। पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है, वह भी अपने आप में पूर्ण होता है। चूंकि वे सम्पूर्ण हैं, अतएव उनसे यद्यपि न जाने कितनी पूर्ण
इकाइयां उद्भूत होती हैं, तो भी वे पूर्ण रहते हैं।
जो बचता है, वह भी पूर्ण होता है। जितना भी बोलते हैं, वह भी पूर्ण होता है। हरि! हरि! श्रीकृष्ण या कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ऐसी ख्याति है, यहां हल्की कथा या अधूरी कथा नहीं होती। जितनी भी कथा होती है, वह पूर्ण ही होती है। यह सब सिद्धांत की बात है। यह सीखना, समझना भी महत्वपूर्ण है।
सिद्धांत बलिया चित्ते ना कर अलस।इहा हइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस।।
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला २.११७)
अनुवाद:- निष्ठापूर्वक जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धांतो की व्याख्या को विवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करें, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है।
( इसे भी याद रखो, कंठस्थ करो)
सिद्धांत बलिया चित्ते ना कर अलस।
सिद्धांत बोलने में आलस नहीं करना चाहिए। सिद्धांत की बातें उत्साह के साथ करनी चाहिए। जब अवसर प्राप्त होता है, तो उत्साह के साथ बोलो। सिद्धांत बलिया चित्ते ना कर अलस, इससे हमारी श्रद्धा दृढ़ होती है। सिद्धांतो को कहने, सुनने अर्थात इसके विषय में श्रवण करने, समझने से हमारी श्रद्धा दृढ़ होती है। वैसे यह समय सिद्धांत की बातें कहने का नहीं है, यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला का कुछ गुणगान करने का समय है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की मध्य लीलाओं की चर्चा हम कुछ दिनों से कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दो बार जगन्नाथ पुरी से प्रस्थान किया और दो बार पुनः जगन्नाथ पुरी वापिस लौटे लेकिन अब तक उनका वृंदावन जाना नहीं हो पाया था। कल के सत्र में हम बता रहे थे कि वे वृंदावन जाना तो चाह रहे थे अर्थात उन्होंने वृंदावन जाने के उद्देश्य से जगन्नाथ पुरी से प्रस्थान तो किया था, लेकिन आपने सुना ही कि क्या समस्या उत्पन्न हुई थी, बहुत सारी भीड़ चैतन्य महाप्रभु के साथ यात्रा करने के लिए तैयार हो गयी थी। तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यात्रा करने के विचार को ही छोड़ दिया और जगन्नाथपुरी लौट आए परंतु वृंदावन जाने का विचार तो नहीं छोड़ा। वृंदावन तो उनको जाना ही जाना था। हमें भी ऐसा संकल्प करना चाहिए, चैतन्य महाप्रभु अपने संकल्प के लिए भी प्रसिद्ध हैं। अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाने का पुनः प्रस्ताव रखते हैं। रोकथाम तो चल ही रही है। जगन्नाथपुरी के भक्त चैतन्य महाप्रभु के सान्निध्य से वंचित नहीं होना चाहते थे। (सान्निध्य या वंचित होना यह थोड़े परिकृष्ट शब्द हैं। संस्कृत के शब्द हैं पर थोड़े अच्छे शब्द हैं हमें इनको सीखना चाहिए।) एक दृष्टि से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को परवाह नहीं थी कि जगन्नाथ पुरी के निवासी चाहते हैं या नहीं चाहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जएं या नहीं जाएं। महाप्रभु को उसकी परवाह नहीं थी, उनको तो वृंदावन जाना ही जाना था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि एक व्यक्ति ही केवल उनके साथ में जाएगा।तत्पश्चात राय रामानंद तथा स्वरूप दामोदर ने एक व्यक्ति बलभद्र भट्टाचार्य का चयन किया वह एक सज्जन भक्त थे व गौरांग महाप्रभु के अनन्य भक्त थे। उनके साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रस्थान किया। चैतन्य महाप्रभु कटक के मार्ग से भी आगे बढ़े। उन्होंने झारखंड के जंगलों में प्रवेश किया, वैसे अब वहां झारखंड फारेस्ट अथवा जंगल नही रहा। ५०० वर्ष पूर्व वह सचमुच जंगल ही था, झारखंड के जंगलों में चैतन्य महाप्रभु ने जंगल में मंगल किया। कीर्तनीय सदा हरिः
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्
अनुवाद:- श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
वैसे वाद्य तो नहीं थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गा रहे थे और साथ में नृत्य कर रहे थे। गायन सुनते ही उनका नृत्य तो प्रारंभ हो ही जाता था, उनकी आत्मा नाचने लगती थी। चैतन्य महाप्रभु के अन्दर उनकी आत्मा नहीं है, पूरे चैतन्य महाप्रभु आत्मा अथवा परमात्मा हैं। उनका देह विग्रह ही सच्चिदानंद विग्रह है, यह सिद्धांत की बात हुई जोकि हमें जाननी चाहिए। चैतन्य महाप्रभु के अंदर चैतन्य महाप्रभु की आत्मा है अर्थात बाहर शरीर है या अंदर आत्मा है? नहीं! नहीं! अंदर और बाहर की बात ही नहीं है। उनके अंदर और बाहर आत्मा ही आत्मा हैं। पैर के नाखूनों से लेकर सिर तक वे केवल आत्मा, परमात्मा सच्चिदानंद हैं।हमनें कहा कि कीर्तन आरंभ होते ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नृत्य करने लगते। उनका सर्वांग नृत्य करता है, उनके सर्वांग में प्रेम का संचार होता है तथा सारे भक्ति के भाव उदित अथवा प्रकट होते हैं। यही सात्विक अष्ट विकार की पराकाष्ठा है। चैतन्य महाप्रभु केवल भाव ही व्यक्त नही करते अपितु महाभाव प्रकट करते। वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य ने भी घोषित किया था।
महाभाव: ठुकरानी।
चैतन्य महाप्रभु महाप्रभु में महाभाव क्यों नहीं होगा क्योंकि राधा रानी ही महाभावा थी।
श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य*( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- भगवान् चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
वे श्री कृष्ण भी हैं और राधा भी हैं।
राधा कृष्ण प्रणय- विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह- भेदं गतौ तौ। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा- भाव- द्युति- सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक १.५)
अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा और कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगक्रान्ति के साथ प्रकट हुए हैं।
कृष्ण कीर्तन सुनते ही उनके राधा के भाव प्रकट होते थे। कोई भी उनके भावों का दर्शन कर सकता था। इस झारखंड के जंगल में चैतन्य महाप्रभु ने जो लीला खेली है, वह अद्भुत व अद्वितीय हैं। झारखंड के कीर्तन लीला में उनका स्वयं का भी और हरि नाम के प्रभाव का भी दर्शन होता है। चैतन्य महाप्रभु ही ऐसा कृत्य अथवा ऐसा कार्य व ऐसी लीला कर सकते हैं, जैसा कि हमनें कहा ही कि उन्होंने जंगल में मंगल किया। वहां के पशु तथा पक्षी भी चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आंदोलन में सम्मिलित हुए। प्रभुपाद ने एक बार कहा था, ‘एक कुत्ता भी संकीर्तन आंदोलन में सम्मिलित हो सकता है।’श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वह करके दिखाया। वे जंगली कुत्ते भी हो सकते हैं, भालू तो थे ही। शेर, मयूर, नेवले सब थे, चैतन्य महाप्रभु ने उनको उनका एक दूसरे के प्रति जो स्वभाविक ईर्ष्या द्वेष था, वह भूला दिया और उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के साथ नृत्य किया। शेर और हिरण कंधे से कंधे मिलाकर उस कीर्तन में सम्मिलित हुए। चैतन्य महाप्रभु ने यह भी देखा कि पशुओं में कृष्ण प्रेम उदित हुआ है, भगवतप्रेम उदित हुआ। भगवतप्रेम ही नहीं अपितु उन्होंने भक्त प्रेम का भी अनुभव किया, जो कि अधिक महत्वपूर्ण है अर्थात बड़ा महत्व रखता है। हमें केवल भगवान से प्रेम नहीं करना चाहिए अर्थात भगवान् से तो प्रेम करना ही चाहिए साथ-साथ भक्तों से प्रेम करना चाहिए।
भक्तों से प्रेम कुछ कम लोग ही करते हैं, भगवान के प्रेमी तो कई मिलेंगे। लेकिन …( ऐसे लीला आगे नहीं बढ़ेगी) भगवान् कहते हैं, कोई कहता है कि मैं कृष्ण का भक्त हूं। यदि कृष्ण कहते हैं कि नहीं! नहीं! तुम मेरे भक्त नहीं हो। तब यदि आप पुनः कृष्ण को कहेंगे कि भगवन! मैं आपके भक्तों का भक्त हूं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं कृष्ण हैं, कहते हैं- हां, हां तुम मेरे भक्त हो। तुम मेरे भक्त के भक्त हो, तो तुम मेरे भक्त हो। यदि कोई कहता है कि आपका भक्त हूं। तब भगवान कहते हैं कि ठीक है, वे इतने प्रसन्न नहीं होंगे लेकिन कोई उनके भक्तों का भक्त बनता है, यह ऊंची बात है। यह श्रेष्ठतम् बात है, हमें भी कृष्ण के भक्तों का भक्त बनना चाहिए। यह भी चैतन्य महाप्रभु की लीला अथवा जीवन चरित्र अथवा चैतन्य चरितामृत से सीखो। लाइफ एंड टीचिंग ऑफ चैतन्य महाप्रभु अर्थात चैतन्य महाप्रभु की जीवनी अथवा शिक्षाओं से हमें यह सीखने को मिलता है कि हमें भगवान् के भक्तों का भक्त बनना है। हरि! हरि! झारखंड के जंगलों में वही हो रहा था। हिरन और शेर अगल बगल में चल रहे थे। कुछ समय उपरांत चैतन्य महाप्रभु देख रहे थे( युगधर्म, हरिनाम, आप नहीं देखना चाहते हो, इसलिए आंखे बंद कर रहे हो, उठो! देखो! यह सब देखने की चीज़ है झारखंड के जंगल में मंगल हो रहा है, जग जाओ। जीव जागो।सुनो! आज की ताजी खबर, गुड़ मॉर्निंग न्यूज़)
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब यह दृश्य देखा कि हिरण तथा शेर एक दूसरे को गले लगा रहे हैं, एक दूसरे को अलिंगन दे रहे हैं, एक दूसरे का चुम्बन कर रहे हैं। इसी प्रकार मोर और सर्प जो परस्पर शत्रु है, वे भी एक दूसरे का आलिंगन कर रहे हैं। भक्त प्रेम का प्रदर्शन हो रहा है। जब चैतन्य महाप्रभु ने वह दृश्य देखा तब चैतन्य महाप्रभु कहने लगे वृंदावन धाम की जय!वृंदावन धाम की जय!
(अचानक क्या हुआ? महाप्रभु
वे वृंदावन धाम की जय क्यों कह रहे थे।) चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे थे, वे वृंदावन के रास्ते में हैं लेकिन झारखंड के जंगलों में उन्हें लगा कि यही तो वृंदावन है, यहां देखो यहां ना तो ईर्ष्या है और न ही द्वेष है, न झगड़ें है, न ही रगड़े हैं, ना ही यहां पर मारपीट तथा गाली गलौज है, ना ही काम है न ही क्रोध है, न ही लोभ है, न ही मद् मात्सर्य है। वृंदावन में ऐसा भाव होता है। यह वृंदावन ही है। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन धाम की जय-जयकार पुकारने लगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ रहे हैं।
आज़कल झारखंड नामका एक राज्य भी बन चुका है। पहले झारखंड बिहार का अंग था। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बिहार झारखंड से आगे उत्तरप्रदेश की ओर बढ़ रहे हैं।
उस समय तो इसे धर्म प्रदेश कहते थे। तत्पश्चात उसका नाम उत्तर प्रदेश हुआ। चैतन्य महाप्रभु जा रहे हैं। हरि! हरि! चैतन्य महाप्रभु ने जब दूर से मथुरा को देखा तब उन्होंने दूर से मथुरा को देखते ही सांष्टांग दंडवत प्रणाम किया। मथुरा धाम की जय!
(श्रृंगार मूर्ति? तुम्हें कई दिनों से देखा नहीं था। अब वृंदावन और मथुरा की चर्चा चल रही है और तुम प्रकट हो गए।)
चैतन्य महाप्रभु मथुरा में विश्राम घाट पर पहुंचें और स्नान किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विश्राम घाट से नित्य कीर्तन करते हुए कृष्ण के जन्म स्थान पहुंचें और केशव देव के दर्शन किए, वहाँ का कीर्तन बहुत ही अद्भुत रहा। चैतन्य महाप्रभु ने उद्दंड नृत्य (यह भी नृत्य का प्रकार है) किया। सारे मथुरा वासी चकित हो गए। ऐसा नृत्य और कीर्तन न तो कभी उन्होंने देखा और सुना था लेकिन अब वे देख रहे थे। गौर सुंदर के उस सौंदर्य का क्या कहना। अब मथुरा वासी व वृंदावन वासी कहने लगे कि श्यामसुंदर आ गए श्यामसुंदर आ गए, आयो रे, आयो रे, आयो रे.. वृंदावन में गौर सुंदर आए थे लेकिन सभी ने सोचा कि हमारे श्याम सुंदर लौटआए। तब सारे ब्रज और मथुरा वासी हर्ष और उल्लास से भर गए। एक सनौडिया ब्राह्मण जो कि माधवेंद्रपुरी के शिष्य थे व गृहस्थ थे, उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अपने घर भिक्षा अर्थात भोजन के लिए बुलाया। आप भी भगवान् को भोजन के लिए बुलाया करो। अकेले नहीं खाना। भगवान का भोग तैयार रखा करो और भगवान को खिलाया करो। तत्पश्चात प्रसाद ग्रहण किया करो अन्यथा भोगी बन जाओगे। भगवान को नैवेद्य खिलाएं बिना जब हम खाते हैं, तब हम लोग भोगी बनते हैं। भोग भगवान् के लिए होता है। भोग तैयार है। भोग तैयार है। हां, हां तैयार है,फिर हम भोग चढ़ाते हैं। वैसे भोगी वह है जो भोग को ग्रहण करता है अर्थात भोग को ग्रहण वाला भोगी कहलाता है। वास्तविक भोगी कौन है? सारे भोग भगवान के लिए हैं, उन्होंने कहा भी है आपने सुना अथवा पढ़ा नहीं है?
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ५.२९)
अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है।
सारे भोग मेरे लिए हैं, मैं भोक्ता हूँ। फिर हम लोगों का क्या होगा? हम प्रसाद ग्रहण करेंगे।
भोग भगवान के लिए है, प्रसाद हमारे लिए है। यह भी समझ लेना।
भगवान जब भोग को ग्रहण करते हैं, तब वह हमारे लिए कृपा प्रसाद बन जाता है। वह प्रसाद हमारे लिए है। अगर भगवान भोक्ता हैं तथा हम उपभोक्ता हैं, हम द्वितीय भोक्ता हैं, वास्तविक भोक्ता तो भगवान हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सारे ब्रजमंडल अर्थात द्वादश काननों की यात्रा की।
याहा सब लीला कोइलो श्रीनन्द नन्दन॥
बारह काननों अथवा वनों में जा जाकर श्रीकृष्ण ने जहां जहां लीलाएं संपन्न की, उन सभी स्थानों पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए। सभी स्थान पर कीर्तन हो रहा है। (यह पूरा अध्याय ही है।) चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन की यात्रा कर रहे हैं, बारह वनों की यात्रा जैसे हम लोग कार्तिक में ब्रजमंडल परिक्रमा करते हैं, वैसे वही मार्ग, जिस मार्ग पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए थे, उसी मार्ग पर हम लोग ब्रजमंडल परिक्रमा पर जाते हैं। हमनें ब्रजमंडल दर्शन नामक ग्रंथ में ब्रजमंडल परिक्रमा का वर्णन भी किया है। आप में से कई सारे भक्तों ने उस ग्रंथ को प्राप्त किया होगा अथवा ब्रजमंडल दर्शन को कार्तिक मास में आप पढ़ते ही रहते हैं जिसमें चैतन्य महाप्रभु की यात्रा का वर्णन आता है।भावों का खेल है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब वृंदावन में स्वयं परिक्रमा कर रहे थे, तब उन में जो भाव उदित हो रहे थे उसके सम्बंध में कृष्णदास कविराज लिखते हैं कि चैतन्य महाप्रभु, ब्रजमंडल परिक्रमा करते हुए जो जो भाव प्रकट करते थे, उन भावों का वर्णन मुझ से नहीं होगा। उसका वर्णन अनंतसहस्त्रवाद अर्थात अनंत शेष ही कर सकते हैं, यह मेरे बस का रोग नहीं है। जैसे अंग्रेजी में कहावत है, दिस इज़ नॉट माई कप ऑफ टी, वैसे हम चाय नहीं पीते। चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन में भाव भक्ति की सर्वोच्च अवस्था थी। कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज लिखते हैं कि जब जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु थे और वहां यदि वे वृन्दावन के सम्बंध में या वृन्दावन की लीला के सम्बंध में सुनते थे, तब उनके भाव सौ गुना बढ़ जाते थे अर्थात वृन्दावन के विषय में सुनते ही उनके भाव सौ गुना बढ़ जाते थे। आगे वह लिखते हैं कि चैतन्य महाप्रभु जी जब मथुरा वृंदावन के रास्ते में थे और मथुरा और वृंदावन का स्मरण ही कर रहे थे या जब वे मथुरा पहुंचे, तब उनकी भाव भक्ति हजार गुना बढ़ गई और जब वे ब्रजमंडल परिक्रमा कर रहे हैं और लीला का स्मरण कर रहे हैं और स्थलों का दर्शन कर रहे थे तब उनके भाव भक्ति अथवा उसके विचार की मात्रा एक लाख गुणा अधिक बढ़ गई है। इसी कारण कृष्ण दास कविराज कहते हैं कि उसका वर्णन कौन कर सकता है, केवल सहस्त्रवदन अनंत शेष ही लिख या वर्णन कर सकते हैं। यदि लिखा जाए तो कोटि कोटि ग्रंथ लिखे जा सकते हैं।
श्रीकृष्ण दास कविराज चैतन्य महाप्रभु की वृन्दावन यात्रा का एक या दो अध्याय में ही वर्णन किया है लेकिन यदि कोई जानकार या भगवान अनंत शेष लिखेंगे तो महाप्रभु की वृंदावन यात्रा के सम्बंध में कोटि-कोटि ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। मुख्य तो उनका भाव अथवा उनका कृष्ण भाव या राधा भाव या उनका भक्तिभाव है। चैतन्य महाप्रभु एक भक्त के रूप में भी यात्रा कर रहे थे। वह भक्त तो राधा रानी हैं जो महाभावा ठुकरानी ही हैं। चैतन्य महाप्रभु यात्रा के उपरांत मथुरा पहुंच गए लेकिन वहां इतने सारे लोगों से मिलना जुलना हो रहा था। चैतन्य महाप्रभु एकांत चाहते थे इसलिए वे अक्रूर घाट पर गए जोकि मथुरा वृंदावन के मध्य में है। वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ समय के लिए रहे। वैसे रहे तो नहीं, वहां से वे कालिया घाट की ओर जाते थे। एक समय इमलीतला भी गए जहाँ कृष्ण की लीला के समय का एक इमली का वृक्ष है। १०-२० वर्ष पहले तक वह वृक्ष था लेकिन अब नहीं रहा। अब उसके स्थान पर नया वृक्ष उग रहा है लेकिन चैतन्य महाप्रभु के समय तो प्राचीन इमली का वृक्ष था, वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उस वृक्ष के नीचे बैठकर जप कर रहे थे। यह स्थान यमुना के तट पर था, इमली तला मतलब इमली के नीचे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* कर रहे थे। हम जप करते हैं ताकि हम कृष्णभावना भावित हो सके। हम अपनी कृष्ण भावना जगाने के उद्देश्य से हम हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब इमली तला के नीचे जब जप कर रहे थे तब वे कृष्णभावनाभावित हो गए।
ऐसा नही कि वे पहले नहीं होते थे, उसी समय ऐसा हुआ, नहीं! लेकिन उस समय महाप्रभु ने विशेष भावों का प्रदर्शन किया। उस समय चैतन्य महाप्रभु श्याम वर्ण के हो गए। जब बलराम जी कृष्णभावनाभावित होते हैं, वे भी काले सांवले श्याम वर्ण के हो जाते हैं। वृंदावन में आपको कई बलराम के विग्रह मिलेंगे। दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया, कृष्ण कन्हैया दाऊजी का भैया।
गोकुल के पास व अन्य स्थानों पर दाऊजी के जो विग्रह हैं, वे श्याम वर्ण के हैं। कहते हैं कि जब बलराम भी कृष्ण के विषय में सोचते हैं, तो वे भी कृष्ण के वर्ण को धारण करते हैं। चैतन्य महाप्रभु जप करते करते कृष्णभावनाभावित हो गए। वे उस समय गौरांग नहीं रहे।
अन्तः कृष्णं बहिगौंर दर्शिताङ्गादि-वैभवम्। कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण-चैतन्यमाश्रिताः
( चैतन्य चरितामृत आदि लीला ३.८१)
अनुवाद:- ” मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ, जो बाहर से गौर वर्ण के हैं, किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं। इस कलियुग में वे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात अपने अंगों तथा उपांगों का प्रदर्शन करते हैं
चैतन्य महाप्रभु बाहर से गौर वर्ण के हैं, लेकिन अंदर से श्याम वर्ण के हैं। ऐसा चैतन्य भागवत में लिखा है। *श्री कृष्णचैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य*
बाहर से राधा हैं और कृष्ण अंदर छिपे हैं। राधा बाहर है तथा कृष्ण राधा के पीछे अंदर छिपे हुए हैं। लेकिन अब अंदर वाले कृष्ण बाहर आ गए हैं राधा रानी पीछे हैं, इसलिए चैतन्य महाप्रभु घनश्याम बन गए हैं।
वृन्दावन वासी तो कह ही रहे थे कि हमारे श्याम सुंदर आए हैं, श्याम सुंदर यहां आ गए और चैतन्य महाप्रभु ने यहां दिखा ही दिया कि यस!यस! मैं श्याम सुंदर ही हूं। मैं श्याम सुंदर ही हूं। ठीक है। हमें चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथपुरी लौटाना तो था ही, किन्तु समय बीत चुका है। इसलिए कथा को यहीं विराम देंगे, कल किस प्रकार चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन से प्रयागराज और वहां प्रयागराज से वाराणसी जाते हैं औऱ प्रयागराज में रूप गोस्वामी तथा वाराणसी में सनातन गोस्वामी से मिलते हैं। इसका वर्णन करेंगे। उन दोनों के साथ महाप्रभु का जो वार्तालाप हुआ, अर्थात उन्होंने उनको जो शिक्षाएं प्रदान की, वहां नृत्य और कीर्तन और वाराणसी में जो शास्त्रार्थ हुआ, उसकी भी चर्चा कल करेंगे। कल श्रीचैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथ पुरी जरूर पहुंचा देंगे।
जय जगन्नाथ! जय गौरांग!
जय गौर हरि!
प्रकाशानंद सरस्वती के साथ जो शास्त्रार्थ हुआ, जब वह अपने साठ हजार शिष्यों के साथ एकत्रित हुए थे और चैतन्य महाप्रभु ने उनको कैसे परास्त कर उनको भी भक्त बनाया था। यह एक अद्भुत घटना है। हम इसका वर्णन भी सुनेंगे।
गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*जप चर्चा,*
*19 मार्च 2021,*
*पंढरपुर धाम.*
हरे कृष्ण, 756 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं।
*जय जय श्रीचैतन्य, जय नित्यानंद,*
*जय अद्वैतचंद्र जय गौरभक्त वृंद।*
कहींये एक बार आप सभी भी, कहां सभी ने, गुरुमहाराज जपा कॉन्फ्रेंरस में भक्तो को संबोधित करते हुए आपने भी कहा। दयालु राधा हरि बोल, हिंदी समझती हो आप फ्रेंच ही समझती हो। ट्रांसक्रिप्शन है वहां पर आप पढ़ो। हरे कृष्ण, हम सब चैतन्य महाप्रभु के साथ रहना चाहते हैं। चाहते हो कि नहीं या जहां हो वही ठीक हो। जीना यहां मरना यहां आपको छोड़कर जाना कहां ऐसा तो नहीं है ना। हरि हरि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! हमारा लक्ष्य है चैतन्य महाप्रभु। चैतन्य महाप्रभु का दर्शन ही नहीं, उनका सानिध्य। चैतन्य महाप्रभु कभी अकेले नहीं होते, हो ही नहीं सकते चैतन्य महाप्रभु और उनके गौरभक्त वृंद की जय! अभी पुनः गौरांग महाप्रभु कहो या श्रीकृष्ण कहो *कृष्णप्राप्ति हय जहा हयिते* कृष्णप्राप्ति या चैतन्य में प्राप्ति यही हमारे जीवन का लक्ष्य है। *नित्यम स्मरये* कभी नहीं भूलना, हमेशा याद रखना। यह कहते हैं तो जीवन का लक्ष्य हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। यह थोड़ा सा जो कुछ कहा है या उसके कहने के पीछे उसका उद्देश्य यही है कि हम आजकल श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का स्मरण कर रहे है। तो जब स्मरण करते हैं तो फिर चैतन्य महाप्रभु की सानिध्य का लाभ हमें पता है।
और फिर जहां श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु वहां उनके गौरभक्त होते ही हैं। और फिर हम भी तो भक्त बनना चाहते हैं। ताकि अन्य भक्तों के साथ हमारी भी गिनती होंगी। हम भी होंगे। वह जो भक्तों की माला होती है, वह भक्त कि माला कि मनी हम भी हो जाएंगे। और ऐसी माला श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के चरणों में कहो या फिर गले में पहनाई जा सकती हैं। हरि हरि श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के दक्षिण भारत की यात्रा का वर्णन हम लोग सुन रहे थे और अब वृंदावन यात्रा चैतन्य महाप्रभु की प्रारंभ हुई है। लेकिन वह बंगाल होते हुए वृंदावन जाना चाहते हैं। जगन्नाथ पुरी से अब प्रस्थान हो चुका है। सभी को तैयार नहीं किया श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने साथ में जाने के लिए, लेकिन कुछ भक्त तो जा ही रहे थे। और फिर हम सुन चुके हैं कि, कैसे धीरे-धीरे उनको एक-एक करके जगन्नाथ पुरी वापस भेज देते हैं। और फिर कौन भाग्यवान जीव, मुस्लिम गवर्नर बंगाल के बंगाल और उड़ीसा के सरहद के एक क्षेत्र के वह मुस्लिम थे उनको भी श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के दर्शन का, केवल दर्शन का ही नहीं सेवा का लाभ हुआ। उन्होंने खूब सेवा सहायता की चैतन्य महाप्रभु की। इस प्रकार श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु असंख्य जीवों को भाग्यवान बनाते हुए, क्योंकि असंख्य जीवो के साथ प्रतिदिन यह सायंकालीन कीर्तन में जुड़ जाते थे। तो बस एक ही कीर्तन में सबका उद्धार हो जाता था। एक कीर्तन में सम्मिलित हुए श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के साथ फिर तो दर्शन हुआ है।
*अजानूलंबित भुजो कणकावतादौ*
*संकीर्तनेको पित्रौ कमलायताक्षो*
*विश्वंभरो द्विजवरो युगधर्मा पालो*
*वन्दे जगत प्रियकरो करुणा अवतारों*
हे करुणा के अवतार उनका दर्शन कैसे होता था, अजानुलंबित भुजा लंबी भुजाएं और अपने हाथों को उठाते थे ऊपर। चैतन्य महाप्रभु का स्मरण करते हैं सामने आते हैं हाथों पर किए हुए। हरि हरि, और उनकी आंखों की शोभा उनकी आंखें कर्णापर्यंतम आंखें कानों तक पहुंच जाते हैं। प्रेमे ढल ढल सोनार अंगे चरण नूपुर बाजे गौर वर्ण है श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु का। प्रेमे ढल ढल डोलते हैं महाप्रभु। डोलायमान दर्शन हो रहा है। चरणों में नूपुर रुनझुन रुनझुन हो रहा है ध्वनि हो रही है। और विशालकाय चैतन्य महाप्रभु अरुण वसन पहनते थे। अरुण वसन सूर्योदय के समय सूर्य की जो कांति होती थी, सूर्य किरणे जैसे सुनहरे रंग की होती है वैसे रंग के वस्त्र पहने हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने। ऐसे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु का दर्शन प्राप्त करने का अवसर भी असंख्य जन को प्राप्त होता था। केवल दर्शन ही नहीं, ऐसे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के साथ कीर्तन और नृत्य करने का भी सौभाग्य प्राप्त होता था। और फिर बस कृष्ण प्राप्ति तो हो ही गई और फिर कृष्णप्रेम ही हुआ। कृष्णप्रेम के मस्ती में आ जाते हैं। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु का क्षण भर का या फिर एक-दो घंटे का संग प्राप्त हुआ हर सायंकाल को। रास्ते भर में भी श्रीचैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने वाले, कीर्तन सुनने वाले कई सारे लोग होते थे। इस प्रकार श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु प्रेम की गंगा बहाते हुए जहां जहां जाते वहां *अवतीर्णे गौरचंद्रे विस्तीर्णे प्रेमसागरे* जहां जहां श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जाते वहां वहां प्रेम की सागर का विस्तार करते। प्रेम के सागर का विस्तार इसलिए करते ताकि निमज्जन्ती वे इस प्रेम सागर में कुद सकते हैं, गोते लगा सकते या सर्वात्मस्पनम ताकि उनके सर्वांग का अभिषेक स्नान हो सकता है।
हरि हरि, श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु उस मुस्लिम भाग्यवान गवर्नर की सेवा लेने के उपरांत आगे बढ़े हैं। ऐसा वर्णन कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने किया है या लिखा है की, गदाधर पंडित को जब लौटना था कटवा से, और फिर कहां से क्षीरचोर गोपीनाथ मंदिर से, सार्वभौम भट्टाचार्य रामानंद को लौटना था, तो उनकी जैसी स्थिति हुई और फिर बंगाल उड़ीसा से महापात्र महोदय की लौटते समय उनकी मन की जो स्थिति हुईं, वैसे हि स्थिति इस मुस्लिम गवर्नर की हुई। वह भी विरह से व्यथित हुए। और फिर *नयनम गलदअश्रुधारया वदनम हृदयं गदगद गिरां* यह सब लक्षण इस मुस्लिम गवर्नर में भी स्पष्ट थे। प्रकाशित थे।
हरि हरि, श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु अब गंगा से ही नौका से नौका विहार कह सकते हैं नौका विहार यहां हो रहा है। प्रवास हो रहा है यहां पर। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु पानीहाटी आ गए। पानीहाटी धाम की जय! नित्यानंद प्रभु ने वहां एक समय लीला की है। हमारे कथा में शायद अभी तक नहीं हुई, होने वाली है। नित्यानंद प्रभु रघुनाथ दास गोस्वामी पर विशेष कृपा करने वाले हैं। और फिर दहीचिडा महोत्सव संपन्न होने ही वाला था, तो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु पहुंचे है इस पानीहाटी में राघव पंडित रहते थे। राघव यह राघव चैतन्य महाप्रभु के लिए कई सारा भोजन बनाते थे और झोली भर के जब जब बंगाल उड़ीसा, यहां तहां, खंड से, पुलिन ग्राम से, शांतिपुर से, नवद्वीप से भक्त जाते जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा के समय चैतन्य महाप्रभु को भी मिलने के लिए तो उस समय राघव जो है अपनी झोली भर के, तो राघवेर झोली प्रसिद्ध है। ऐसा उल्लेख है। उनकी बहन दमयंती थी। यह दमयंती और राघव, चैतन्य महाप्रभु के लिए कई सारे पकवान सूखे पकवान जो टिक सकते थे, बनाते थे। यह सारे पकवान साल भर के लिए राघवेर झोली से चैतन्य महाप्रभु को दिए जाते थे। पानीहाटी में जहां राघव रहते थे वहां चैतन्य महाप्रभु गए। वहां सिर्फ एक ही दिन रूके। वैसे महाप्रभु को कई सारे स्थानों पर जाना है। वहां से श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु कई स्थानों पर गए हैं। मैं वैसे ठीक क्रम से नहीं कह पाऊंगा।
नवद्वीप जाते हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु और नवद्वीप में विद्यानगर में विद्यावाचस्पति के निवासस्थान पर पहुंचते हैं। हरि हरि, जैसे ही लोगों को पता चला कि, श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु यहां पर है वैसे पहले भी मिले थे शांतिपुर में, चैतन्य महाप्रभु ने बुलाया था, बुलाओ सबको मैं मिलना चाहता हूं। वह तो सब मिलना चाहते ही हैं, ऐसे मिलन हुआ था। उसके उपरांत श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु से मिलन नहीं हुआ था, नवद्वीप मंडल के वासियों का। तो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु स्वयं आए हैं। तब ऐसी आशा थी सची माता की भी, आशा थी कभी-कभी तो लौटेगा एक तो, सची माता और गंगा माता के दर्शन के लिए। इसीलिए सची माता ने कहा था, “नहीं-नहीं वृंदावन तो बहुत दूर है तुम जगन्नाथपुरी में रहो, समाचार भी पहुंच जाएंगे हम तक” वही श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने वादा निभाया। हां हां मैया मिलेंगे पुनः मिलेंगे, तो चैतन्य महाप्रभु आए हैं। विद्यावाचस्पति के निवास स्थान पर चैतन्य महाप्रभु पहुंचे। और इसका समाचार चैतन्य महाप्रभु आए हैं, चैतन्य महाप्रभु आए हैं, ऐसा बोलबाला ऐसा समाचार फैल गया अपने आप। सारा नवद्वीप दौड़ पड़ा या सारा नवद्वीप मंडल भर गया गौर भक्त गौरांग महाप्रभु के दर्शन के लिए। जो उत्कंठीत थे निकल पड़े अपने-अपने स्थानों से। और बस वह जा रहे थे।
रुक नहीं रहे थे। जंगल में से जा रहे थे। काटे हैं, गड्ढे हैं कोई परवाह नहीं। या फिर नए रास्ते बना रहे थे। कई लोग गंगा के पूर्वी तट पर रहने वाले, गंगा के तट पर आ गए। गंगा को पार करना है, कितने नौकाए हैं, तो नौका आएगी जाएगी कौन प्रतीक्षा करेंगे। ऐसे कुछ विशेष व्यवस्था से अधिक नौकाए पहुंच गई लेकिन इतने सारे लोग थे, विद्यानगर पहुंचना चाहते थे, चैतन्य महाप्रभु के दर्शन के लिए तो रुक नहीं सकते थे। लोग गंगा में कूद रहे थे, तैर रहे थे। कुदेंगे तो जिएंगे या मरेंगे कोई विश्वास तो नहीं था यह विश्वास था *अवश्य रक्षने कृष्ण* कृष्ण अवश्य रक्षा करेंगे। विश्वास था शरणागति के भाव के साथ वह नदी में कूद रहे थे। इतने सारे लोग थे नदी को पार कर रहे थे। नदी का तो दर्शन नहीं हो रहा था। बस सिर्फ देख रहे थे कि रहे हैं आगे बढ़ रहे हैं। हजारों लाखों लोग पूर्व तट से पश्चिमी तट तक जा रहे थे। पश्चिमी तट पर विद्यावाचस्पति का निवास स्थान था।
लोग पूर्वी तट से पश्चिम तट तक जा रहे थे। हजारों लाखों लोग सभी को तो दर्शन नहीं हुआ। असंख्य लोग थे वहां। वहां से चैतन्य महाप्रभु कुलिया, कुलिया है अभी का नवद्वीप शहर। तो फिर लोग वहां पर जा रहे थे। चैतन्य महाप्रभु के इस कुलिया ग्राम में। फिर वहां पर माधव घोष इनके निवास स्थान पर चैतन्य महाप्रभु रुके। यहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने एक विशेष लीला संपन्न की और वह है पाप भंजन लीला। जो पापी थे, अपराधी थे, वैसे भी यह सभी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की शरण में आ रहे थे। *अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:* ऐसा कहे है श्री कृष्ण। अब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में कुलिया ग्राम में पहुंचे हैं। फिर देवानंद पंडित अपराधी है या चपल गोपाल अपराध कर चुके थे या कई सारे अपराधी अपराध कर चुके थे, जो कर्मकांडी थे या स्मार्थ ब्राह्मण थे या कुछ युवक थे वे भी चैतन्य महाप्रभु को नहीं समझ रहे थे। चैतन्य महाप्रभु जब गोपी गोपी गोपी गोपी ऐसा एक समय पुकार रहे थे तो कईयों ने चैतन्य महाप्रभु को समझा नहीं था। कहीं उल्टी-सीधी बातें या अपराध के वचन वे कह रहे थे। तो कई पार्टी, कई लोग, कई समाज वहां पर थे जाने अनजाने में जिन्होंने पाप किया था। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों में या उनके परिकरों के चरणों में श्रीवास आदि भक्त वृंदो के चरणों में किए गए अपराध, वैष्णव अपराध उन सब से मुक्त किए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु।
यह लीला कुलिया में नवद्वीप शहर में हुई पाप भंजन लीला। वैसे इसका अधिक वर्णन, विस्तार से वर्णन चैतन्य भागवत में प्राप्त होता है। चैतन्य चरितामृत में कुछ संक्षिप्त ही उल्लेख हुआ है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां से और भी कई स्थानों पर गए हैं, वासुदेव दत्त मामगाच्छी या मोदद्रुम में। नौ द्विपो में से एक द्वीप मोदद्रुम द्वीप जहां वासुदेव दत्त और जहां वृंदावन दास ठाकुर का भी निवास स्थान था। वहां वासुदेव दत्त को मिलने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए विशेष भक्त थे वासुदेव दत्त। लोगों ने जो अपराध किया है, पाप किया है उसका फल मुझे भोगने दो है प्रभु उनको मुक्त करो। उनके सारे जो पाप और अपराध का जो फल है, परिणाम है उनको मे भोगना चाहता हु। वे मुक्त हो जाए उनका निवारण हो जाए उनकी मुक्ति हो जाए ऐसी प्रार्थना करने वाले वासुदेव दत्त। चैतन्य महाप्रभु इतनी सराहना करते थे इन वासुदेव दत्त की बड़े प्रसन्न थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वासुदेव दत्त के भक्ति और भाव से। वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु शांतिपुर गए हैं, वैसे मायापुर भी गए हैं। सची माता के साथ भी मिले हैं, ईशान से मिले, विष्णु प्रिया से नहींं मिले होंगे संन्यास जो लिया है। तो शांतिपुर में अद्वैत आचार्य के साथ मिलन हुआ है और वहीं पर शांतिपुर से कुछ ही दूरी पर फुलिया स्थान जहांं पर हरिदास ठाकुर रहते थे। हरिदास ठाकर और अद्वैत आचार्य इनका का खूब मिलना जुलना चलता ही था तो चैतन्य महाप्रभु दोनों को मिले। मतलब अब भी आप समझ सकते हैंं कि हरिदास ठाकुर अभी नवद्वीप मंडल क्षेत्र में ही है या फुलिया मेंं ही है। उन्होंने अब तक जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान नहींं किया है,
जगन्नाथपुरी आ कर अपना साधन भजन नहीं कर रहे हैं। अभी तक वे अद्वैत आचार्य के संग में ही है, फुलिया में ही है। तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनको मिलेे हैं। तो एक कंचन पाड़ा नाम का स्थान हैं जहां श्रीवास ठाकुर और उनके बंधुओं को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मिले हैं।
चैतन्य महाप्रभु के सन्यास लेने के उपरांत मायापुर के कई निवासी मायापुर वासी वहां से प्रस्थान कर दिए। उनको चैतन्य महाप्रभु की याद आती थी अधिक मायापुर में जो जहां देखे थे, उनके साथ मिलना जुलना खूब मायापुर में हुआ था। सन्यास लेने के बाद चैतन्य महाप्रभु वहां नहीं थे किंतु कई सारे बातों से उनका स्मरण आता और विरह की व्यथा से व्यथित होते। तो उसको टालने के लिए कईयों ने मायापुर छोड़ दिया, वे वहां रहना नहीं चाहते थे। तो उसमें से श्रीवास ठाकुर भी थे, वैसे श्रीवास आंगन प्रसिद्ध था। चैतन्य महाप्रभु का आंदोलन या संकीर्तन आंदोलन व्यावहारिक रूप से श्रीवास ठाकुर के घर से शुरू हुआ या वही नाम हट को खोले कहो चैतन्य महाप्रभु श्रीवास आंगन में। तो वे मायापुर से प्रस्थान करके कांचन पाड़ा गए थे तो चैतन्य महाप्रभुुु वहां पहुंचे। और इन बंधुओंं को श्रीवास आदि श्रीवास, श्रीराम श्रीनिधि इनके साथ मिलन हुआ। शिवानंद सेन के स्थान पर भी पहुंचे, तो यह सभी भक्त विशेष भक्त थे जिनको चैतन्य महाप्रभु मिल रहे थे। एक प्रकार से वरिष्ठ या वीआईपी भक्त या परिकर थे महाप्रभु के। शिवानंद सेन रथ यात्रा के समय या जब जब बंगाल भर के भक्तों को जगन्नाथपुरी जाना होता तो शिवानंद सेन उस यात्रा की पूरी जिम्मेदारी संचालन और यात्रियों की आवास निवास की व्यवस्था शिवानंद सेन हीं करते थे, यात्रा के संयोजक थे, तो वे शिवानंद सेन। उनसे भी मिले हैं चैतन्य महाप्रभु। थोड़ा रास्ते से बाहर जाएंगे रामकेली जाएंगे।
जहां दबीर खास और साकर मलिक रहते थे। नवाब हुसैन शाह का मेरे मतानुसार राजधानी का स्थान राजधानी के पास मेंं ही है यह रामकेली। यह दबीर खास और साकर मलिक चैतन्य महाप्रभ के विशेष परिकर थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनको मिले, यह मिलन बहुत महत्व रखता है। क्योंकि यह व्यक्तित्व ही विशेष थे, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले। वैसे रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी जो दोनों भाई थेे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन दोनों को वहांं पर दीक्षा दी। नामकरण भी हुआ, रूप और सनातन उनके नाम हुए। अनुपम उनकेेेे भाई थे, तीन भाई थे रूप, सनातन और अनुपम। अनुपम के पुत्र थे जीव गोस्वामी। वैसे षड़ गोस्वामी यो में से तीन गोस्वामी तो एक ही परिवार के थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का रूप और सनातन से तो मिलन हुआ लेकिन जीव गोस्वामी बहुत बालक थेे शिशुुु थे। तो शायद जीव गोस्वामी को याद भी नहीं रहा होगा कि चैतन्य महाप्रभु आए थे मिले थे वहां पर रामकेली आए थे। फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप और सनातन को विशेष आदेश दिया तुम वृंदावन जाओ और फिर क्या क्या करना है वह भी बताया। वृंदावन के गौरव की पुनः स्थापना करनी है।
वृंदावन मेंं चैतन्य महाप्रभ के आंदोलन का नेतृत्व करेंगे रूप और सनातन। चैतन्य महाप्रभु को कईयों से मिलना था तो यह मिलना जुलना अब लगभग पूरा हो चुका था। अब वे वृंदावन जाना चाहते हैं वृंदावन जाना ही था। पहले भक्तों से मिलेंगे बंगाल में और फिर वृंदावन के लिए प्रस्थान करेंगे। जब चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के मार्ग में, अभी तो बंगाल में ही है। मैं वृंदावन जा रहा हूं वृंदावन जाना है मुझे यह बताया भी नहीं होगा। लेकिन लोगों को पता चल ही गया चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं। कई सारे लोग तैयार हो गए क्यों तैयार नहीं होते? आप भी अगर होते बंगाल में उस समय हां परमकरुना जरूर ज्वाइन करते यात्रा सारा बिजनेस छोड़-छाड़ के कौन सोचता जब……। किंतु चैतन्य महाप्रभु भीड़भाड़ के साथ यात्रा नहीं करना चाहते थे वे अकेले जाना चाहते थे सन्यासी है तो वैराग्य।
*वैराग्य – विदया -निज-भक्ति -योगा।*
*शिक्षार्थम एकः पुरुषहाः पुराणह:।।*
(च. च. मध्य 6.254)
वैराग्य विद्या का भी प्रदर्शन करना है। तो लोगो से दूर रहना है कभी-कभी तो दूर रहना चाहिए। तो इस समय वे दूर रहना चाहते थे कम से कम किसी को साथ लेना नहीं चाहते थे। रास्ते में तो लोग मिलेंगे, कीर्तन होगा वह प्रचार के लिए ठीक है। किंतु तीर्थ यात्रा में जा रहे हैं, तो यह एक साधना है यात्रा में जाना। साधना के समय वे अकेले जाना चाहते थे। उस समय बंगाल के एक प्रसिद्ध ब्रह्मचारी नरसिंगानन्द ब्रह्मचारी वे चैतन्य महाप्रभु की विशेष सेवा कर रहे थे। क्या कर रहे थे? जिस मार्ग पर चैतन्य महाप्रभु जा रहे थे उस मार्ग का सारा पुनर्निर्माण कर रहे थे। तो वह बैठे थे अपने स्थान पर और वही से वह ध्यान में मार्ग का पुनर्निर्माण कर रहे थे। उस रास्ते को फिर बढ़ाना है, चौड़ा करना है और कहीं वृक्ष उगाने हैं, यह हरियाली थोड़ी उगानी है। तो इस तरह कल्पना करो, थोड़ी कल्पना करो, कैसा मार्ग हो जिस मार्ग पर चैतन्य महाप्रभु की सुगम यात्रा होगी।
वहां सुगंध भी हो फिर सुगंधित फूल भी चाहिए और शीतल हवा तो पेड़ पौधे है। तो दोनों जगह जल निकाय यह सब नरसिंहानन्द ब्रह्मचारी कर रहे थे। चैतन्य महाप्रभु के पांच दस पंधरा किलोमीटर आगे उनका कंस्ट्रक्शन चल रहा था। चैतन्य महाप्रभु जैसे आगे बढ़ते, वह भी अपने कंस्ट्रक्शन को आगे बढ़ाते यह सब ध्यान में हो रहा था। तो ऐसा साक्षात्कार हुआ उनको वह रास्ता बनाते बनाते वे कहां तक पहुंच गए कन्हाई नटशाला पहुंंच गए। एक कन्हाई नटशाला नाम का स्थान है लगभग बंगाल और बिहार का बॉर्डर। कन्हाई नटशाला तक ही कंस्ट्रक्शन वे कर सके उसके आगे कंस्ट्रक्शन को करना तो था लेकिन संभव नहीं हो रहा था। तो उनको यह समझ मेंं आया, इस निष्कर्ष पर पहुंचे वे कि चैतन्य महाप्रभु कन्हाई नटशाला से जगन्नाथपुरी लौटने वाले हैं, वृंदावन नहीं जाएंगे वे।
क्योंकि मैं रास्ता नहीं बना पा रहा हूं, क्योंकि महाप्रभु जाने ही वाले नहीं उस रास्ते से आगे वृंदावन की ओर। इसीलिए वे आश्वस्त थे कि चैतन्य महाप्रभु कन्हाई नटशाला से जगन्नाथपुरी जाएंगे फिर वैसा ही हुआ। क्योंकि चैतन्य महाप्रभु जैसे आगे बढ़ रहे थे तो साथ में भीड़ भी बढ़ रही थी। फिर कन्हाई नटशाला तक ही चैतन्य महाप्रभु सभी के साथ आए। फिर उन्होंने कहा कि नहीं नहीं मैं वृंदावन नहीं जाऊंगा, चलो अपने अपने घर लौटो, अपने अपने गांव जाओ, नोएडा जाओ, कोलकाता जाओ। फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पुनः जगन्नाथपुरी लौट गए यह बहुत बड़ा विघ्न इतनी सारी भीड़ के साथ नहीं जाना है मुझे। तो चैतन्य महाप्रभु ने अपनी यात्रा की योजना को बदल दिया और वृंदावन जाने के बजाय वे जगन्नाथपुरी लौट आए।
*जगन्नाथ पुरी धाम की जय।*
लेकिन वृंदावन तो उनको जाना ही था तो अब दोबारा प्रस्ताव रखेंगे चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाने का। वह चर्चा अब तो कल ही कर सकतेेेेेेेेेेेेे हैं चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन यात्रा।
*निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
18 मार्च 2021
आज 741 स्थानों सें अभिभावक जप चर्चा में उपस्थित हैं।
सूनो!
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद।*
*जयाव्दैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृंद।।*
अब आप कि बारि है। कहो!
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद।*
*जयाव्दैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृंद।।*
यहा भागवत कथा होती है तो हम *ओम् नमो भगवते वासुदेवाय* प्रारंभ में कहकर प्रणाम करते हैं। चैतन्य चरितामृत या चैतन्य कथा के प्रारंभ में
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद।*
*जयाव्दैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृंद।।*
ये प्रार्थना हम करते हैं। वैसे कृष्णदास कविराज गोस्वामी भी सभी अध्यायों के प्रारंभ में चैतन्य चरित्रामृत में यह मंत्र लिखा हैं।
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद।* और
*जयाव्दैत-चन्द्र जय,* और *गौर-भक्त-वृंद।।*
भी कहना हैं, याद रखिये गा! हरिनाम चिंतामणी! याद रखिए थोड़ा सरल, मधुर, बजरंगी तो जानते हैं। वह पंडित हैं। हरि हरि!
आप तैयार हो! आप कौन हो? आप आत्मा हो? हां कि नहीं, तो फिर क्या आप कि आत्मा तैयार हैं, श्रवण के लिए। क्यूँ नहीं होगी। तैयार करो!, मन को मत सूनो!, चैतन्य महाप्रभु को सूनो!, या मन को विघ्न मत डालने दो!
चैतन्य कथा,कृष्ण कथा या कृष्ण नाम और हम (आत्मा) के बीच में यह चंचल मन आ जाता है इसका चांचल्य चलते ही रहता है और इसीके साथ शाँर्टसर्किट होता है पावरहाउस से जो पावर हमको, हमको मतलब हमारी आत्मा को मिलनी चाहिए। वो पावरहाउस तो श्री कृष्ण, श्री कृष्ण चैतन्य है, श्री राम हैं। शक्ति के स्त्रौत भगवान हैं। ऐसे शक्ति को प्राप्त करेंगे तो हम शक्तिमान होंगे, भक्ति के शक्ति से युक्त होंगे, शक्तिमान होंगे।
कलि-कालेर धर्म —कृष्ण-नाम-सड़्कीर्तन।
कृष्ण- शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 7.11)
अनुवाद: – कलयुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
कृष्ण- शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन।।
कृष्ण के शक्ति बीना, कृष्ण शक्ति बीना
हम आप कि पहलवानी आपके मसल्स, मसल पावर का यहां ज्यादा उपयोग नहीं हैं। ऐसी शक्ति को प्राप्त करना है, कृष्ण शक्ति को प्राप्त करना है, तो ध्यानपूर्वक श्रवण करना होगा।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय।
श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।।
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107)
अनुवाद:-कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी बस्तु नहीं
है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता
है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।
श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।।
सिद्धांत है यह। हमको याद होना चाहिए।
*नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय।*
*श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।।*
कृष्ण प्रेम तो जीव के पास है ही जीव तो कृष्ण प्रेमी है ही किंतु आच्छादित हुआ है, भूले हैं। जीव का कृष्ण के प्रति जो प्रेम है वह हम भूले हैं। हम उस प्रेम को जागृत करते हैं। *नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य” कभु नय।* अलग से प्राप्त करने कि जरूरत नहीं हैं। जीव को कृष्ण प्रेम, भागवत प्रेम प्राप्त है। बस आवश्यकता किस बात कि हैं। *श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।।* श्रवण करने से, उस चीत्य में कृष्ण प्रेम उदित होगा। हम अनुभव करेंगे कृष्ण प्रेम का। माया काम मायवी काम के स्थान पर कृष्ण प्रेम कि स्थापना होगी। यह करने के लिए, यह करते समय हमें *सावधान!* *साधु सावधान!* मन की ओर ध्यान दो! मन की चंचलता को रोको! बुद्धि का उपयोग करो! दिमाग लगाओ लड़ाओ ताकि चंचल मन स्थिर हो क्या उसको लगाओ हरि कीर्तन में ,या हरि कथा श्रवण में लगाओ। हरि हरि!
हम कुछ दिनों से भागवत कथा गौर लीला या चैतन्य महाप्रभु का भ्रमण कि लीला, कथा संक्षिप्त में सुन ही रहे हैं।
*गौर पूर्णिमा महोत्सव कि जय…!* और गौर पूर्णिमा महोत्सव के उपलक्ष में हम कर रहे हैं। हरि हरि! गौरपौर्णिमा भी पास में आ रही है तो हम भी *गौरांग! गौरांग! गौरांग!* नित्यानंद के पास हम अधिक अधिक निकट पहुंचना चाहते हैं। गौरपूर्णिमा कि तिथि पास में आ रही है और हम भी हम मतलब जीव को भी हम गौरांग महाप्रभु के अधिक निकटतम पहुंचाना चाहते हैं। मायापुर में भी मायापुर महोत्सव संपन्न हो रहा हैं और नवद्वीप मंडल परिक्रमा भी जारी हैं। आज कई सारे भक्त थोडे़ तो मैंने देखे भी नवद्वीप मंडल परिक्रमा में भक्त परिक्रमा कर रहे हैं और परिक्रमा करते करते इस जपा टौक में भी संमिलित हुए हैं। संभावना है कि जपाटौक को भी सुन रहे हैं।वे हैं नवद्वीप में लेकिन योगदान दे रहे हैं, जुड़े है इस जपाटौक के साथ। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दक्षिण और मध्य भारत कि यात्रा भ्रमण करके श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी लौटे, मध्य लीला कि बातें हम कर रहे थें, मध्य लीला के अंतर्गत वैसे केवल भ्रमण कि ही लीलाएं नहीं हैं। छ: सालों तक चैतन्य महाप्रभु ने अधिकतर भ्रमण किया हैं किंतु हर वक्त भ्रमण करके लौटे तो जगन्नाथपुरी में भी रुके रहे और वहा भी लीला संपन्न हुई जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण और मध्य भारत से लौटे तो वे रहे जगन्नाथ पुरी में ,रथ यात्रा उत्सव में सम्मिलित होते रहे इत्यादि इत्यादि। जगन्नाथ का दर्शन करना और कीर्तन करते हुए हरिदास ठाकुर तक पहुंचना इत्यादि कई सारी लीलाएं
*जगन्नाथ पुरी धाम कि जय…!* जगन्नाथ पुरी मैं संपन्न होती थीं, किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मन में, चैतन्य महाप्रभु का मन है मेरो मन वृंदावन वह कहते थे मेरो मन ही वृंदावन है या मेरे मन में वृंदावन हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि एक इच्छा अभितक वह पूरी नहीं हुई थी,बहुत समय से ऐसी इच्छा थी और वह थी वह वृंदावन जाना चाहते थें।
*वृंदावन धाम कि जय…!* वृंदावन धाम कि यात्रा करना चाहते थें वैसे गया में ईश्वर पुरी से दीक्षा प्राप्त करते ही महाप्रभु वृंदावन कि तरफ दौड़ने गए। उनको रोका गया, नवदीप लाया गया फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि सन्यास दीक्षा हुई दीक्षा के तुरंत उपरांत उन्होंने अपना लक्ष्य बनाया। *वृंदावन धाम कि जय…!* वृंदावन को अपना गंतव्य स्थान बनाकर वृंदावन जाना चाहते थें।सन्यास लिया मुक्त हुए। भवबंधन में नहीं रहे,तो जीव कहा जाएगा? भव बंधन नहीं रहेंगे तो जीव सीधा भगवत धाम लौटेगा, वृंदावन लौटेगा, नवद्वीप लौटेगा। उसमें भी शची माता ने रोकथाम लगाई। नहीं नहीं तुम जगन्नाथपुरी में रहो! हां ऐसा ही हो मैय्या।जगन्नाथ पुरी में रहना प्रारंभ किया था,और जगन्नाथ पुरी मे उनका परिभ्रमण हो ही रहा था।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद :-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
धर्म संस्थापन के लिए नगर आदि ग्रामों में भी जा रहे थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अबकी बार प्रचार से लोटे थें पुनः उनके मन में यह विचार आया भूले तो नहीं थें। क्या विचार? क्या ईच्छा?मैं वृंदावन जाना चाहता हूंँ। इस बात का पता जब चला राजा प्रताप रूद्र को चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी त्याग कर, छोड़ कर जाने के विचार में है तो राजा प्रताप रूद्र ने…हरी हरी! रामानंद राय से कहा या स्वरूप दामोदर से भी कहा होगा। ऐसा कुछ उपाय करो या ऐसी कुछ बात करो ताकि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाने का विचार छोड़ देंगें। वैसे प्रयास तो हुए राय रामानंद कि ओर से उन्होंने कहा था चैतन्य महाप्रभु को नहीं नहीं! अभी क्यों जा रहे हो?अब रथ यात्रा होगी! जगन्नाथ रथ यात्रा के उपरांत आप जाओ। चैतन्य महाप्रभु कुछ दिनों के लिए रुके रहे रथ यात्रा संपन्न हुई। अब जाना चाहते थे फिर उनके भक्त कहने लगे इस वक्त तो वृंदावन में बहुत थंड भी होती है कभी-कभी झीरो डिग्री तक टेंपरेचर पहुंच जाता हैं आप डोल यात्रा के बाद, गौर पोर्णिमा,फागुन पूर्णिमा के बाद जा सकते हो! डोल यात्रा भी हुई और-और बहाने वह कह देते और इस प्रकार रोके चैतन्य महाप्रभु को कुछ समय के लिए किंतु उनकी इच्छा वृंदावन जाने कि थी उसमें कोई परिवर्तन होना संभव ही नहीं था। वह तो स्वाभाविक आकर्षण था वृंदावन से, एक तो वे स्वयं कृष्ण हि है तो कहा रहेंगे
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
(ब्रम्ह संहिता 5.43)
अनुवाद: -जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुंठ लोक (हरीधाम), महेश लोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों में विभिन्न स्वामियों को यथा योग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
गोलोक में रहेंगे। वृंदावन में रहने वाले श्रीकृष्ण तो वृंदावन में ही लौटना चाहेंगे। वृंदावन में ही अपना निवास चाहेंगे। या फिर वे भक्त हैं। गौरभक्त! गौरांग महाप्रभु कृष्ण भक्त बने है तो भक्तों को भी पसंद होता है धाम। धाम कि यात्रा, धाम का वास, ब्रजवास। वे जाना चाहते थे तो फिर कौन रोक सकता है? राजा प्रताप रुद्र ने राजा जो थे उन्होंने सारी एडवांस में एडवांस पार्टी(अग्रीम दल) को भेजा सब स्थानों पर कम से कम सारे उड़ीसा में एक मार्ग बनाकर वे आगे बढ़ेंगे और राजा प्रताप रूद्र ने आदेश दिया कि जहाँ-जहांँ पड़ाव होगा श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का वहां उनके लिए नया घर, नया निवास स्थान का निर्माण होना चाहिए और उनकी पाकशाला, रसोई कि व्यवस्था के स्थान नये होने चाहिए। स्टोरेज(भंडारण) साग,सब्जी मसाले इत्यादि भंडारण किए जाएंगे उसके लिए अलग से भंडारगृह बनने चाहिए, और बनाना प्रारंभ हुआ राजा प्रताप रुद्र के आदेशानुसार तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से प्रस्थान कर दिए और पुनः वही हाल पूरी के निवासी साथ में जाना चाहते थे तो उनको रोका गया। कई भक्त साथ में जा रहे हैं या जाना चाहते हैं, उस में गदाधर पंडित जरूर जाना चाहते हैं। चैतन्य महाप्रभु कहां जा रहे हैं? चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। ऐसा लिखा तो नहीं है लेकिन गदाधर पंडित भी अगर वृंदावन जाना चाहते थे तो उनका क्या कसूर हैं? गदाधर पंडित राधारानी ही हैं। वृंदावन जाना चाहेगी। राधारानी कहाँ रहेगी? राधा तो वृंदावन में रहेगी।वृंदावन जा रहे है महाप्रभु तो गदाधर भी साथ में जाना चाहते है, किंतु चैतन्य महाप्रभु नहीं चाहते थें। वैसे चैतन्य महाप्रभु चाहते थे कि उनके साथ कोई भी नहीं जाए। गदाधर पंडित को भी नहीं जाना चाहिए। चैतन्य महाप्रभु ने वैसे गदाधर पंडित को जगन्नाथ पुरी के क्षेत्र सन्यासी बनाया था। ऐसा उनको व्रत संकल्प करवाया था। जगन्नाथ पुरी को कैसे छोड़ सकते हैं और टोटागोपिनाथ कि आराधना तो उन्हीं कि जिम्मेदारी थीं। चैतन्य महाप्रभु नहीं चाहते थे लेकिन स्वरूप दामोदर चाहते थें। नहीं-नहीं! मैं तो जाऊंगा ही आपके साथ।
कटक तक वो अलग से गए गदाधर पंडित तो चैतन्य महाप्रभु ने उनको बुलाया और साफ आदेश दिया कि यहां से आगे नहीं जा सकते चैतन्य महाप्रभु नौका में नदी को पार कर रहे थे नौका आगे बढ़ रही थी गदाधर पंडित को वही रोक आ गया रुक जाओ बेचारे गदाधर पंडित जगन्नाथपुरी को नहीं छोड़ना !चैतन्य महाप्रभु कह रहे थे चैतन्य महाप्रभु को वह कह रहे थे कि आप जहां पर भी हो वहीं जगन्नाथपुरी है पर चैतन्य महाप्रभु ने नहीं मानी तो गदाधर पंडित बेहोश होकर गिरने लगे रोने लगे क्रंदन करने लगे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े उन्होंने कहा वृन्दावन तो जाना है पर कैसे जाऊंगा? बंगाल होते हुए ,मैं वृंदावन जाऊंगा तो उड़ीसा से बंगाल में प्रवेश करेंगे फिर बंगाल में कई स्थानों पर जाना है और वहां पर सच्ची माता से भी मिलना है और भक्तों से मिलेंगे और बंगाल से सीधा वृंदावन जाऊंगा ऐसी प्लानिंग थी ऐसा विचार या दृष्टिकोण था, चैतन्य महाप्रभु का ।
तो उड़ीसा से जैसे चैतन्य महाप्रभु जा रहे हैं कटक से भद्रक से रेमुना की ओर रेमुना में जहां क्षीर चोर गोपीनाथ वैसे उसी मार्ग पर वह चल रहे हैं जहां पर चैतन्य महाप्रभु सन्यास लेने के बाद काटवा और शांतिपुर से जगन्नाथपुरी आए थे उसी मार्ग से उल्टी दिशा में अब बंगाल जा रहे हैं ।सभी स्थानों पर चैतन्य महाप्रभु का भव्य सत्कार ,सम्मान हो रहा है और चैतन्य महाप्रभु पहले की तरह ,जैसे दक्षिण भारत में संकीर्तन होते रहे ,ऐसे कीर्तन हो रहे हैं और हजारों ,लाखों ,करोड़ों की संख्या में भक्त एकत्रित होते और उन सभी को चैतन्य महाप्रभु संकीर्तन में जोड़ते। आबादी बहुत थी उस समय भी लोगों की और लोग दूर-दूर स्थानों से नगरों से ग्रामों से चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन में सम्मिलित हुआ करते थे ।हरि हरि। रेमुना से फिर रामानंद राय को लौटना पड़ा जगन्नाथ पुरी। वहां से चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ते हैं तो राय रामानंद आंसू बहा रहे हैं। विरह से व्यथित हैं।वैसे सभी जाना चाहते हैं महाप्रभु के साथ सभी रहना चाहते हैं। महाप्रभु के साथ हमें छोड़ के मुझे छोड़ के बाकी सब लोग तो चाहते थे। हम नहीं चाहते हैं बाकी लोग तो चाहते थे कि सदैव रहे चैतन्य महाप्रभु के साथ ।यह हमारा दुर्दैव है।
यह जब ये लीला कथा का जब श्रवण करते हैं तो देखो औरों की कैसी दशा हो रही है ?और भी आगे वर्णन है ।जब गदाधर पंडित को जग्गनाथ पूरी लौटने को कहा और रेमुना से रामानंद राय को लौटना पड़ा रहा है,उनका क्या हाल हुआ।आगे बढ़ते हैं तो ओरिसा और बंगाल का बॉडर आ गया और वहां से अब महापात्र नाम के एक अफसर चल रहे थे।जो सारा संचालन कर रहे थे।सारि व्यवस्था को देख रहे थे।ओड़ीसा मैं सारि आवास निवास की व्यवस्था का संचालन करने वाले महापात्र को लौटना पड़ा रहा है तोह उनके लिए भी मुश्किल हो रहा है चैतन्य महाप्रभु का अंग संग छोड़ कर उन्हें वापस जाना होगा।महापात्र को भी ओड़ीसा बंगाल के बॉर्डर से लौटना था तो चैतन्य महाप्रभु अब बंगाल में प्रवेश करने जा रहे हैं तो उनके निवास की व्यवस्था उस गवर्नर को करनी होगी।और ये गवर्नर मुस्लिम थे और वह बदमाश भी थे। हिंसक भी थे ।ऐसी उनकी कु ख्याति तो थी। किंतु जब उन्होंने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आगमन के बारे में सुना और सुना कि उनका क्या उनका व्यक्तित्व, उनका सौंदर्य और उनसे कैसे लोग आकृष्ट होते हैं। कैसे प्रेम करते हैं ,यह बात जब उस मुस्लिम गवर्नर ने सुनी तो वह भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को मिलने के लिए बहुत उतकंठित हुए ।तो उन्होंने महापात्र से संपर्क किया ताकि गवर्नर को अपॉइंटमेंट मिल जाए ।महाप्रभु से मिलने के लिए तो उन्होंने कहा। हां हां। चैतन्य महाप्रभु तैयार थे। गवर्नर साहब आ गए।
आपके जो भी पांच सात ऑफिसर्स हैं, आप उनको ले आना।साथ मे कुछ हथियार मत लाना। ऐसी शर्त रखी थी। और मुस्लिम गवर्नर ने चैतन्य महाप्रभु को देखते ही साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और पास में आकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों में बैठे हैं और वार्तालाप हो रहा है और गवर्नर ने कहा।प्रभु आपका बंगाल मे स्वागत है। और आपकी यात्रा निर्विघ्न रहेगी यह सी जिम्मेदारी मेरी है ऐसा मुस्लिम गवर्नर कह रहे हैं ।वैसे तो भगवान के लिए क्या फर्क पड़ता है। हम लोगो ने किसी ने स्वयं को हिंदू बना लिया या मुस्लिम बना लिया ।हमने ऐसी उपाधियां दे दी है। लेकिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ,सभी जीव उन्हीं के हैं
भगवद गीता 15.7
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || ७ ||
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
परिचय संबंध हर जीव का भगवान के साथ है । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी कृपा ,प्रेम की दृष्टि की वृष्टि की है इस मुस्लिम गवर्नर पर। ऐसा नहीं कहा कि यह हिंदू नहीं है ।ऐसा भगवान क्यों सोचेंगे ?तो यहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कई सारे व्यवहार और विचार या आदान-प्रदान से चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता का भी प्रदर्शन स्पष्ट है। वह घोषित तो नहीं कर रहे हैं कि मैं भगवान हूं ।
साईं बाबा भगवान या यह भगवान, रजनीश भगवान ,या कल्कि भगवान।कल्कि का अवतार हो गया। उनको ही पता नहीं है कि कब अवतार होना चाहिए था। एडवांस में आ गए । कल्कि भगवान चल रहे हैं आजकल। कल्कि भगवान को तो कलियुग के अंत में आना था यह भविष्यवाणी है। तो कल्कि भगवान को यही पता नहीं कि कब प्रकट होना चाहिए था, अनाड़ी, मूर्ख और ठग और कई सारे भगवान गलियों में घूमते फिरते रहते हैं। लेकिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वह रियल थे ।वह भगवान थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। ऐसे भक्तों रूप में ही वे रहना चाहते हैं, भक्ति करना चाहते हैं ।भक्ति का आस्वादन करना चाहते हैं। भक्त होने का अनुभव करना चाहते हैं। उनको भगवान होने का अनुभव तो है ही लेकिन अब भक्त बनकर भगवान को समझेंगे या भक्ति का आस्वादन करेंगे
इसीलिए राधा भाव में ।राधा भगवान की आदि भक्ता है।
भगवद गीता 7.7
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || ७ ||
हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है |
कृष्ण ने कहा मेरे समकक्ष और मुझ से ऊपर या ऊंचा और कोई भगवान या भगवत तत्व है ही नहीं ।मैं सर्वोपरि हूं ।जहां तक भगवत्ता की बात है ।तो वैसे ही भगवान षड ऐश्वर्या पूर्ण हुए भगवान और फिर भक्त ।राधा रानी भक्त हैं राधा रानी के संबंध में भी कहा जा सकता है
भगवद गीता 7.7
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव || ७ ||
हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है |
राधा से कोई ऊंचा भक्त है नहीं ।तो कृष्ण भक्त बने हैं ।कौन से भक्त बने हैं ?
चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.5
राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥५५ ॥ राधा – भाव
अनुवाद ” श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । ”
राधा का भाव ,राधा की कांति ,राधा का रंग भगवान ने अपनाया है। और उसी भाव में ,भक्ति भाव में ,श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भ्रमण कर रहे हैं प्रचार कर रहे हैं ।सन्यास भी लिया तो भगवान तो नहीं सन्यास लेते हैं। तो भगवान पहले तो भक्त बने हैं।
पंचतत्वात्मकम कृष्णम भक्तरूप स्वरूपकं,भक्तावतरं भक्ताख्यम,नमामि भक्तशक्तिकम
भक्त रूप बने हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने फिर सन्यास लिया है। और फिर प्रचार कर रहे हैं सन्यासी भक्त बन के । इस परिभ्रमण मे ऐसी कई घटनाएं हैं, कई व्यवहार हैं ,जिनसे यह उद्देश्य तो नहीं है कि चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता का प्रकाशन हो किंतु टाल भी नहीं सकते हैं।
वह स्पष्ट हो ही जाता है।की *श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहीं अन्य* किसी कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान हैं ।गौर भगवान हैं ।नहीं तो यह मुस्लिम गवर्नर वैसे अच्छा व्यक्ति नहीं था ,पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के गौरवगाथा ही उसने सुनी थी तो प्रभावित हुआ। उसकी चेतना में अंतर आया। और चैतन्य महाप्रभु का दर्शन, और उनसे मिलन चाहता था और आया भी है।
भगवद गीता 18.65
“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||”
अनुवाद
सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
और सेवा के लिए उत्कंठित है ।तत्पर है ।मैं तैयार हूं ।बस आप आदेश कीजिए ।तो यह जो क्रांति है ऐसी विचारों की क्रांति ,भावों की क्रांति है गवर्नर में ,या तथाकथित मुस्लिम तो यह तो भगवान ही कर सकते हैं, ऐसा परिवर्तन ऐसी क्रांति ।जैसे झारखंड के जंगल में पशुओं को पक्षियों को नचाने वाले कीर्तन में। तो कई मनुष्य को पशु से कुछ कम नहीं होते। या उन से बत्तर होते हैं ।
आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो मनुष्य (इंसान) और पशु में समान है । मानव (इंसान) में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है ।
पर देखो चैतन्य महाप्रभु का प्रभाव ऐसे पशु वत ।जैसे चैतन्य चरित्रामृत में लिखा है ।यहाँ तक उन्होंने कहा इस मुस्लिम गवर्नर ने कहा कि अभागा मैं।
जैसे प्रभोदनंद सरस्वती ने कहा कि,
वंचितोस्मि,वंचितोस्मि, वंचितोस्मि मुझे ठगाया गया था ।मुझे ठगाया गया था ।
विश्वे गौर रस मग्नम
जब गौड़ीय जगत गौर रस में गोते लगा रहा था उस प्रेम के सागर में गोते लगा रहा था पर उस अमृत की एक बूंद भी मेरी ओर नहीं आई मुझे स्पष्ट नहीं किया ।यह विचार ऐसे ही विचार गवर्नर भी कह रहे हैं ।कैसा मेरा जन्म मैं पतित हूं। या मेरा जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ या, कहते हैं चांडाल। ऐसा हो शोक भी कर रहे हैं तो वह वैसे ही मुक्त हो गए ऐसे विचारों से। चैतन्य महाप्रभु के परिकर बन गए। चैतन्य महाप्रभु का सानिध्य दर्शन और सेवा प्राप्त हुई। कुछ ही घंटों में या मिनटों में क्षणों में। तो यह सब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का प्रताप रहा पराक्रम रहा उद्यम है।
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक १७.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
साधु सावधान!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७६४ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
हरे कृष्ण!
*जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥*
चैतन्य महाप्रभु की जय!
गौर पूर्णिमा महोत्सव के उपलक्ष में कीर्तन मेला तो हो ही रहा है।
वैसे आज कीर्तन मेले का समापन होगा। प्रात: काल ९.०० से १०.०० बजे तक हम भी कीर्तन मेले का अंतिम कीर्तन या समापन कीर्तन करेंगे। आपका स्वागत है। फुरसत निकालो। हरे कृष्ण!
आजकल हम कुछ कथाएं भी कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के स्मरण हेतु ताकि जिससे हमें गौरांग महाप्रभु का स्मरण हो जाए। वैसे कल प्रारंभ किया था और संक्षिप्त में ही आदि लीलाओं का क्रम ही चल रहा है। कुछ अधिक लीला का वर्णन तो नहीं कर पाते, केवल अलग अलग लीलाओं के नाम ही गिनवा रहे हैं। कौन सी लीला के उपरांत कौन सी लीला सम्पन्न हुई थी, इसका संस्मरण करने का एक प्रयास चल रहा है। ताकि ऐसे श्रवण कीर्तन से चैतन्य महाप्रभु का स्मरण हो सके।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्रे्चन्नवलक्षणा। क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मयेअधीतमुत्तमम्।।
( श्रीमद् भागवतम् ७.४.२३-२४)
अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज- सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना( अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियां स्वीकार की गई है। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
हम जिसका श्रवण कीर्तन करते हैं, उनका स्मरण होता है। हम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का श्रवण कीर्तन करेंगे। यह लीला कीर्तन है।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु लीला के रूप में प्रकट होंगे। हमें स्मरण दिलवाएंगे।
अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्। हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितः सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला अध्याय१ श्लोक १३२)
अनुवाद:- ” परम् भगवान्, जो कि श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के रूप में सुविख्यात हैं, आपके ह्रदय के अन्तरतम प्रदेश में स्थित हों। पिघले सोने की द्युति से देदीप्यमान, वे अपनी अहैतुकी कृपा से कलियुग में वह प्रदान करने के लिए अवतरित हुए हैं, जो अन्य अवतारों ने कभी नहीं दिया- वे भक्ति का सर्वाधिक उच्च रस अर्थात माधुर्य- प्रेम-रस प्रदान करने के लिए अवतरित हुए हैं।
सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु- ऐसी भी प्रार्थना है कि सदैव आप सभी के ह्रदय प्रांगण में शचीनन्दन स्फुरित हो। जब ऐसा होगा तो यही जीवन है और यही कृष्णभावना है।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चातुर्मास में श्रीरंगम में रहे, वहां कई लीलाएँ सम्पन्न हुई। जब वह प्रस्थान कर रहे थे तब वैंकट भट्ट के लिए यह काफी कठिन था। वे और अन्य भक्त चैतन्य महाप्रभु के साथ जाने लगे। गोपाल भट्ट भी जो अभी गोस्वामी नहीं बने थे, एक बालक थे, वे भी साथ जाने लगे। तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें खूब समझाया- बुझाया और लौटने के लिए निवेदन किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े।
मध्य लीला में आगे वर्णन आता है कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु परमानंद पुरी से मिले। तीन दिन उन्होंने अपना समय परमानंद पुरी के सङ्ग में बिताया। हरि कथाएं हुई,
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः तज्जोषणादाश्र्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति।।
( श्रीमद् भागवतम् ३.२५.२५)
अनुवाद:- शुद्ध भक्तों की संगति में पूर्ण पुरषोत्तम भगवान् की लीलाओं तथा उसके कार्यकलापों की चर्चा कान तथा ह्रदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाली होती है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन से मनुष्य धीरे- धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात मुक्त हो जाता है और उसका आकर्षण स्थिर हो जाता है। तब असली समपर्ण तथा भक्तियोग का शुभारंभ होता है।
भगवान् कहते हैं कि जब कभी सन्त साथ में आ जाते हैं, तब सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो अर्थात मेरे वीर्य, शौर्य, औदार्य की कथाएँ सत्संग में होती हैं, वहां वैसी कथाओं का श्रवण कीर्तन हुआ। परमानंद पुरी ने कहा कि “मैं नीलांचल जा रहा हूँ।” श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नीलांचल से ही आ रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा- “हां, हां जरूर जाइए, मैं भी सेतुबंध रामेश्वरम् तक जाऊंगा। वहां से मुझे नीलांचल लौटना ही है, वहीं पर मिलेंगे।” चैतन्य महाप्रभु ने कहा तो सही कि मैं सेतुबंध रामेश्वरम तक जाऊँगा और फिर लौटूंगा, लेकिन वे आगे बढ़ गए। अंततोगत्वा उनको जगन्नाथ पुरी लौटना ही था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और आगे बढ़ते हैं। वे श्रीशैल नामक पर्वत की ओर आगे बढ़ते हैं, वहां शिव और पार्वती एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी के भेष में रहते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भिक्षा के लिए अथवा भोजन के लिए आमंत्रित किया। शिव पार्वती को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आतिथ्य और अंग सङ्ग प्राप्त किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढे।
(देखिए, कैसे मिलन हो रहे है। परमानंद पुरी को मिलते हैं। स्वयं शंकर, पार्वती को मिलते हैं।) तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मदुरई पहुंच जाते हैं। वहां वे एक ब्राह्मण को मिले, उस ब्राह्मण के आश्रम में गए। इस ब्राह्मण ने जब से पढ़ा और सुना था कि रावण ने सीता का अपहरण किया है, तब से वह इस बात से बड़े ही परेशान थे और सोच रहे थे कि मुझसे सहा नहीं जाता। उस राक्षस ने सीता का अपहरण किया, वह ब्राह्मण अपनी व्यथा को व्यक्त कर रहे थे कि मैं तो आग में प्रवेश करके भस्म होना पसंद करूंगा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ इस ब्राह्मण की और भी लीलाएँ हुई हैं। तत्पश्चात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रामेश्वरम चले गए। वहां एक बार कुछ संत मंडली हरि कथा व राम कथा की चर्चा कर रही थी, चैतन्य महाप्रभु ने वहां से एक उद्धरण प्राप्त किया था जिसमें किसी पुराण से उल्लेख हुआ था कि रावण ने सीता का अपहरण तो किया लेकिन मूल सीता अथवा आदि सीता का अपहरण नहीं किया था अपितु माया सीता का अपहरण किया था।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस पुराण के उद्धरण जोकि सन्तों से प्राप्त किए थे उसकी कॉपी (फोटोस्टेट) बनवाई और चैतन्य महाप्रभु पुनः वापस मदुरई उस ब्राह्मण के पास लौटकर मिले और समझाया, नहीं! नहीं! रावण ठग गया था, उसको ठगाया गया था। वह तो छाया या माया सीता को ही ले गया था, यह देखो शास्त्र का प्रमाण है। जब ब्राह्मण ने उसे पढ़ा व सुना तब उसकी तसल्ली हुई, वह संतुष्ट हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को सत्य का उद्घाटन करने का प्रयास भी किया। उसकी आत्मा व मन को शांति प्रदान की। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कन्याकुमारी गए। कन्याकुमारी के पास आदि केशव नामक मंदिर है। जिन जिन स्थानों का हम कल से उल्लेख कर ही रहे हैं और आज भी कर रहे हैं, इन सभी स्थानों पर हम पदयात्रा में गए हैं। वर्ष १९८५-८६ कुछ 18 महीने की पदयात्रा वर्ष १९८६ में मायापुर पहुंच कर सम्पन्न हुई थी। हमने उस वर्ष को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का पंच शताब्दी जन्मोत्सव के रूप में मनाया था।
चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य को 500 वर्ष पूर्ण हुए थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वर्ष 1486 में प्रकट हुए थे व 1986 में उनके जन्म को 500 वर्ष पूर्ण हुए थे, इसलिए हम यह वर्षगांठ मना रहे थे। इस पदयात्रा का उद्देश्य यह था कि चैतन्य महाप्रभु जहां-जहां गए थे, वहां वहां हम भी जाएं। इसलिए गौर निताई के विग्रह और श्रील प्रभुपाद के विग्रह को रथ में विराजमान करके विश्व भर के भक्तों के साथ द्वारिका से कन्याकुमारी से हम मायापुर गए। चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत और कई ग्रंथों से हम रेफरेन्स (उद्धरण) निकाल रहे थे कि चैतन्य महाप्रभु कहां-कहां गए थे? चैतन्य महाप्रभु के भेंट की जितनी स्थलीय का हमें पता चला, वहां वहां इस पद यात्रा के जाने का उद्देश्य था। इन सारे स्थानों पर हम गौरांग महाप्रभु और श्रील प्रभुपाद की कृपा से गए हैं। हम आदि केशव भी गए जहां पर चैतन्य महाप्रभु के सुंदर दर्शन हें। श्रीरंगम जैसा ही दर्शन है। भगवान वहां लेटे हुए हैं। ‘सुप्तम मधुरम’
सुप्तम मतलब सोना।’भुक्तं मधुरं’ अर्थात भगवान जो भोजन करते हैं, वह भी मधुर है। भोजन के उपरांत यदि वह सोते हैं, तो वह भी मधुर है। ‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरं’ भगवान की हर बात मधुर है। माधुर्य से पूर्ण है, उस आदि केशव मंदिर में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को ब्रह्म संहिता का एक अध्याय प्राप्त हुआ। १०० अध्याय वाली ब्रह्म संहिता जो कि लुप्त थी लेकिन उस मंदिर में 1 अध्याय प्राप्त हुआ। उन्होंने उसकी एक कॉपी बनाई और साथ में रख ली। तत्पश्चात महाप्रभु वहां से आगे बढ़े और तमिलनाडु से केरल में प्रवेश करते हैं। उन्होंने त्रिवेंद्रम में अनन्त पद्मनाभ का दर्शन किया, यह बहुत अद्भुत मंदिर है, वहां का दर्शन भी विशेष है। वहां से महाप्रभु फिर उत्तर दिशा में जाने लगे, अभी तक वह दक्षिण दिशा में जा रहे थे। भारत के ईस्ट कोस्ट से (अमेरिका में ईस्ट कोस्ट, वेस्ट कोस्ट खूब चलता रहता है। लेकिन हम ऐसा नहीं कहते लेकिन कहा भी जा सकता है) उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु जहां पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भ्रमण किया यह इंडिया का ईस्ट कोस्ट है। उन्होंने कन्याकुमारी से यू टर्न लिया और उत्तर दिशा में भारत के वेस्ट कोस्ट से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ें।
त्रिवेंद्रम में अनंत पद्मनाभ के दर्शन के उपरांत (आप भूलना नहीं) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की एकत्तयअर्थात एक लीला तो सदैव चलती ही रहती थी और वह है कीर्तन। वे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। के बिना एक पग भी आगे नहीं बढ़ाते थे।
खाइते शुइते य़था तथा नाम लय।काल-देश-नियम नाहि, सर्व सिद्धि हय।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१८)
अनुवाद:-
” देश या काल से निरपेक्ष जो व्यक्ति खाते तथा सोते समय भी पवित्र नाम का उच्चारण करता है, वह सर्व सिद्धि प्राप्त करता है।”
तत्पश्चात जनार्दन भगवान, केरल में जनार्दन का दर्शन करते हैं। समुंदर के तट पर ही यह प्रसिद्ध मंदिर है। चैतन्य महाप्रभु वहां से और अंदर मंगलौर से उडूपी जाते हैं। थोड़ा अंदर जाकर पहले शंकराचार्य का एक स्थान अथवा पीठ आता है, वहाँ से चैतन्य महाप्रभु पुनः कोस्टल एरिया उडूपी आते हैं। उडूपी में मध्वाचार्य के कृष्ण को उडूपी कृष्ण भी कहते हैं, उन्होंने वहां नर्तक गोपाल के दर्शन किया और खूब कीर्तन और नृत्य किया। उडूपी कृष्ण का दर्शन करते हुए फिर वे वहां के तत्त्व वादियों से मिले। कुछ शास्त्रार्थ भी हुआ, वर्णाश्रम की साधना करने वाले मध्वाचार्य सम्प्रदाय के अनुयायियों को चैतन्य महाप्रभु ने कहा
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद धाम वृंदावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता। श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्री चैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः।।
( चैतन्य मञ्जूषा)
अनुवाद:- भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही परम् पुरुषार्थ है- यही श्रीचैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम् आदरणीय है।
प्रेम प्राप्ति की साधना सर्वोपरि है, अन्य भी काफी वार्तालाप अथवा चर्चा हुई। हरि! हरि!
तत्ववादियों ने चैतन्य महाप्रभु को सर्वप्रथम जब देखा तो उन्हें लगा कि ये मायावादी सन्यासी हैं किंतु जब मध्व संप्रदाय के आचार्यों व अनुयायियों ने चैतन्य महाप्रभु की भाव भक्ति का दर्शन किया, तब वे समझ गए कि नहीं! नहीं! ये मायावादी नहीं हैं।
प्रभु कहे- ” मायावादी कृष्णे अपराधी।
‘ ब्रह्म’,’ आत्मा,’ ‘ चैतन्य’ कहे निरवधि।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १७.१२९)
अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया,” मायावादी निर्विशेषवादी लोग भगवान कृष्ण के सबसे बड़े अपराधी हैं। इसलिए वे मात्र’ ब्रह्म,’ ‘ आत्मा’ तथा चैतन्य’ शब्दों का उच्चारण करते हैं।
मायावादी तो कृष्ण अपराधी होते हैं। मायावादी तो निराकारवादी और निर्गुण वादी होते हैं लेकिन ये सन्यासी तो भगवान के आकार, रूप का इतने प्रेम से दर्शन कर रहे हैं, इनका भगवान के नाम, रूप, लीला , गुण, धाम में इतना विश्वास है, तभी यह उडूपी धाम भी आए हैं। ये मायावादी सन्यासी नहीं हो सकते। तब वे चैतन्य महाप्रभु से मिले, पहले वे चैतन्य महाप्रभु से नहीं मिलना चाह रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह नोट किया था कि इन लोगों को अपनी वैष्णवता का थोड़ा गर्व है। इस संबंध में उन्होंने कुछ उपदेश किए जिससे वे भी विनम्र बन जाएं।
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।।
( शिक्षाष्टक श्लोक संख्या ३)
अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और आगे बढ़ते हैं। यह कर्नाटक चल रहा है, तत्पश्चात वे महाराष्ट्र में पहुंच जाते हैं। (मैं तो सोच रहा था कि एक सत्र में आदि लीला का संक्षिप्त विवरण, आज के सत्र में मध्य लीला का और फिर एक सत्र में अन्त्य लीला का संक्षिप्त वर्णन व संस्मरण करेंगे किंतु हम बहुत पीछे हैं, हम अपने समय सारणी से बहुत पीछे हैं)
चैतन्य महाप्रभु ने कोल्हापुर में महालक्ष्मी का दर्शन किया। वैसे और भी दर्शन किए। यह महालक्ष्मी वैकुंठ से पधारी हैं, विष्णु से कुछ नाराज अथवा रूठी हुई लक्ष्मी वैकुण्ठ से सीधे आकर कोल्हापुर में विराजमान हैं। हरि! हरि! यह सब लीलाएं, कथाएं सब इतिहास है। यह सब घटित घटनाएं है, महालक्ष्मी कोल्हापुर में हैं। वह कौन है? वह वहां कैसे पहुंच गई? या उसकी अपनी भगवान के साथ क्या लीला है? यह सब जानने, सुनने, पढ़ने व समझने की बातें हैं। शायद हमने एक बार सुनाया था। अभी कुछ संकेत तो दिया है आप और पता लगाइए।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां से पंढरपुर के लिए प्रस्थान करते हैं। रास्ते में इस गरीब का गांव भी आ गया, वे अरावड़े होते हुए आए, वैसे उस समय तो यह हमारा गांव नहीं था, अब भी नहीं है लेकिन वहां जन्म हुआ था इसलिए हम कहते हैं कि यह मेरा गांव है। मेरा जन्म स्थान। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मेरे जन्म स्थान अरावड़े से भी गुजरे थे। उन्होंने वहां भी कीर्तन किया। अरावड़े से कुछ ही दूरी पर शायद लगभग दो ढाई किलो मीटर की दूरी पर पंढरपुर के रास्ते में एक गांव गौर गाँव है। गौरांग महाप्रभु ने वहां कीर्तन किया होगा। इसलिए उस गांव का नाम गौरगाँव हुआ। हमनें कम से कम अरावड़े में कुछ वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों की स्थापना की थी।
श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी (दक्षिण भारत में चैतन्य महाप्रभु तिरुपति भी गए थे हमने आपको बताया नहीं हमने कई स्थानों का उल्लेख नहीं किया जैसे चैतन्य महाप्रभु मंगलगिरी गए थे।) कई स्थानों पर चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों की स्थापना की है। अरावड़े में हमने किया और पंढरपुर में भी वर्ष 1984 में किया था जब पदयात्रा यहां आई थी। चैतन्य महाप्रभु ने पंढरपुर में विठ्ठल ठाकुर का दर्शन किया, चंद्रभागा में स्नान किया। विट्ठल के समक्ष दर्शन मंडप में कीर्तन नृत्य किया था, श्री रंगपुरी के साथ उनका मिलन इसी पंढरपुर धाम में हुआ। वे सात दिन सात रात तक हरि कथा में तल्लीन रहे। श्री रंगपुरी से ही पता चला कि चैतन्य महाप्रभु के भ्राता अर्थात भाई शंकरारण्य स्वामी पंढरपुर में आए थे और यहां से ही वे अंतर्धान हो गए थे। यह बता सकते हैं कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथपुरी से अपनी यात्रा प्रारंभ की थी, जगन्नाथ पुरी वासी तो नहीं चाहते थे कि चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी को छोड़ कर कहीं जाए।
लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने कहा नहीं! नहीं! मुझे जाना होगा, मुझे जाना होगा। किसी ने पूछा- क्यों जाना चाहते हो? चैतन्य महाप्रभु ने कहा – मेरे भाई, विश्वरूप जिन्होंने सन्यास लिया है, वे दक्षिण भारत में कहीं परिभ्रमण करते होंगे, मैं उनसे मिलना चाहता हूं, मैं उन्हें खोजना चाहता हूं, ढूंढना चाहता हूं ,मिलना चाहता हूं, मुझे जाने दो। किन्तु यह बहाना ही था कि कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से प्रस्थान करना चाह रहे थे, बता रहे थे कि मुझे विश्वरूप को खोजना है। विश्वरूप उस समय से पहले ही दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए पंढरपुर पहुंचे थे और अंतर्धान हो चुके थे। इस बात को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जानते थे, वे सर्वज्ञ हैं, त्रिकालज्ञ हैं, वे अभिज्ञ स्वराट हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जानते हुए भी कह रहे हैं कि नहीं! नहीं! मुझे ढूंढना है, खोजना है। उन्होंने ऐसा बहाना बनाया, वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को करना क्या था?
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
उनको अपनी भविष्यवाणी को भी सच करना था।
पृथिवीते आछे यत् नगरादि-, ग्राम,। सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥4॥
( वासुदेव घोष द्वारा रचित गीत जय जय जगन्नाथ)
अनुवाद:- अब वे पुनः भगवान् गौरांग के रूप में आए हैं, गौर-वर्ण अवतार श्रीराधाजी के प्रेम व परमआनन्दित भाव से युक्त और पवित्र भगवन्नामों हरे कृष्ण के कीर्तन का विस्तार से चारों ओर प्रसार किया है। (अब उन्होंने हरे कृष्ण महामंत्र का वितरण किया है, उद्धार करने का महान कीर्तन। वे तीनों लोकों का उद्धार करने के लिए पवित्र भगवन्नाम वितरित करते हैं। यही वह रीति है जिससे वे प्रचार करते हैं। )
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरिनाम का प्रचार करना चाहते थे। संकीर्तन धर्म की स्थापना करना चाह रहे थे। इस उद्देश्य से वे दक्षिण भारत की यात्रा पर जाना चाहते थे और गए भी। उन्होंने सर्वत्र कीर्तन और नृत्य किया व उन्होंने सभी को कृष्ण प्रेम दिया है।
नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।
( श्री गौरांग प्रणाम मंत्र)
अनुवाद:- हे परम् करुणामय व दानी अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं।
श्री रंगपुरी जो माधवेंद्रपुरी के शिष्य और ईश्वर पुरी के गुरु भ्राता है । उन्होंने पंढरपुर में चैतन्य महाप्रभु को समाचार दिया, श्री रंगपुरी ने कहा कि शंकरारण्य यहाँ से अंतर्ध्यान हुए थे। तत्पश्चात श्री रंगपुरी ने यहां से प्रस्थान किया, श्री चैतन्य महाप्रभु अभी पंढरपुर में कुछ दिन अर्थात दो चार दिन और रहे, ऐसा उल्लेख आता है।
मतलब सात दिन उन्होंने हरि कथा में समय व्यतीत किया और भी दो चार दिन रहे। ऐसा भी चैतन्य चरितामृत में लिखा हुआ है। इस प्रकार कुछ ग्यारह दिन तो हो जाते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने इतना सारा समय पंढरपुर धाम में व्यतीत किया। वे प्रायः ऐसा नहीं करते थे, वे कुछ ही स्थानों पर थोड़ा अधिक रूके। वे स्थान हैं जहां कोहुरूर में गोदावरी के तट पर राय रामानंद के साथ उनका मिलन हुआ और फिर संवाद हुआ था, वहां पर थोड़ा अधिक रुके। वे श्री रंगम में चातुर्मास अर्थात चार महीने रुके। पंढरपुर में कम से कम् ग्यारह दिन तो रुके ही, ऐसा ज्ञात होता है। कुछ ही गिने चुने स्थान थे, जहां चैतन्य महाप्रभु एक से अधिक दिन रुके, नहीं तो अधिकतर स्थानों में चैतन्य महाप्रभु एक या आधी रात बिताते और आगे बढ़ते लेकिन पंढरपुर में थोड़ा अधिक समय व्यतीत किया हुआ है। पंढरपुर धाम की जय! इसी के साथ उन्होंने पंढरपुर की महिमा को भी बढ़ाया और गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के साथ भी पंढरपुर धाम का सम्बंध स्थापित किया । हरि! हरि!
यह पंढरपुर शोलापुर जिले में है, यहां से महाप्रभु सतारा गए। सतारा एक दूसरा जिला है, जैसे कोल्हापुर एक जिला है, शोलापुर दूसरा जिला है, सतारा तीसरा जिला है। वहां सतारा में कृष्ण और वेनन नदियों का संगम है। वहां उनके नदियों के संगम तट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए और वहां स्नान किया।
चैतन्य महाप्रभु पहुंच ही गए थे लेकिन सतारा के पास ही कृष्ण वेन संगम स्थल का जो उल्लेख किया जा रहा है, यहां ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को कृष्णकर्णामृत नामक ग्रंथ प्राप्त हुआ था। वहां कृष्णकर्णामृत नामक ग्रंथ की चर्चाएं हो रही थी जब चैतन्य महाप्रभु ने सुनी, वे कृष्णकर्णामृत ग्रन्थ से इतने प्रभवित हुए कि उन्होंने इसकी भी कॉपी( छायाप्रति) ले ली।
जैसे उन्होंने ब्रह्म संहिता की कॉपी ( छायाप्रति) आदिकेशव मंदिर में ली थी और यहां कृष्णवेनना के तट पर कृष्णकर्णामृत ग्रन्थ की छायाप्रति प्राप्त की।
बिल्वमंगल ठाकुर नामक एक विशेष भक्त अथवा आचार्य हुए हैं। कृष्ण कर्णामृत अर्थात कर्ण के लिए अमृत उनकी ही रचना है। चैतन्य महाप्रभु अब जब जगन्नाथ पुरी पहुंचेंगे, वहां पर उनके श्रवण का अलग अलग जो विषय हुए करते थे जैसे गीत गोविंद या चंडी दास के गीत अथवा श्रीमद् भागवतम् या जगन्नाथ का नाटक, अब उन ग्रंथो की सूची में यह कृष्ण कर्णामृत का नाम भी आता है। वे जगन्नाथ पुरी गंभीरा में कृष्ण कर्णामृत का भी श्रवण किया करते थे। उन्होंने कृष्ण कर्णामृत की कॉपी बनवा कर अपने साथ में ले ली।
तत्पश्चात वहाँ से आगे बढ़ते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नासिक गोदावरी के तट पर पहुंच जाते हैं, वहां स्नान, कीर्तन करते हैं। जब वे वहां थे, तब सभी नासिक निवासी या पंचवटी निवासी ऐसा अनुभव कर या सोच रहे थे कि राम यहां हैं, राम आए हैं। पुनः राम लौट आये हैं, यहां पर वही पंचवटी है, जहां से सीता का अपहरण हुआ था। पंचवटी में ही सीता,राम और लक्ष्मण कुछ समय के लिए रहे थे। वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए और रहे, कीर्तन किया।
कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! हे।
कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!हे।।
कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण! रक्ष माम्।
कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण! पाहि माम्।।
राम! राघव!राम! राघव!राम!रक्ष माम्।
कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! पाहि माम्।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ७.९६)
अनुवाद:- महाप्रभु कीर्तन कर रहे थे-कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! हे।
कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!हे।।
कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण! रक्ष माम्।
कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण! पाहि माम्।।
अर्थात “हे भगवान कृष्ण! कृपया मेरी रक्षा कीजिए और मेरा पालन कीजिये।”उन्होंने यह भी उच्चारण किया-राम! राघव!राम! राघव!राम!रक्ष माम्।
कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! पाहि माम्।।
अर्थात हे राजा रघु के वंशज! हे भगवान् राम! मेरी रक्षा करें। हे कृष्ण, हे केशी असुर के संहारक केशव, कृपया मेरा पालन करें।
चैतन्य महाप्रभु ऐसा भी गीत गाते थे। रक्ष माम, पाहिमाम राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम।
नासिक के क्षेत्र में वहां कुछ विशाल ताल वृक्ष थे अर्थात बहुत ही बड़े ऊंचे वृक्ष थे। चैतन्य महाप्रभु ने एक-एक करके उनको आलिंगन दिया। चैतन्य महाप्रभु के आलिंगन होते ही उन में से चतुर्भुज धारण करने करने वाले व्यक्तित्व प्रकट होते और वे वैकुंठ के लिए प्रस्थान करते। वे भक्त थे, भगवान नहीं थे। वैकुंठ में भक्तों के भी चार हाथ होते हैं। मॉरीशस में नहीं होते और भी कहीं नहीं होते लेकिन वैकुंठ में होते हैं या अभी भी हो सकते हैं लेकिन दिखते नहीं है, हमें दो ही हाथ दिखते हैं। वैकुंठ में भगवान ही चतुर्भुज नहीं हैं, वैकुंठ में भक्त भी चतुर्भुज हैं और मुकुट धारी हैं। वे भी सारा वैभव कुंडल धारण करते हैं। ऐसे शोभायमान है। चैतन्य महाप्रभु ने इन सातों वृक्षों को आलिंगन दिया। वे भक्त वृक्ष की योनि से मुक्त हुए और बाहर आए और वैकुंठ के लिए प्रस्थान किए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन को मुक्त किया।
जैसे गोकुल में नंद बाबा के आंगन में यमलार्जुन वृक्ष थे जो कुबेर के पुत्र थे, जब बाल कृष्ण ने दामोदर लीला की थी तब उन्होंने उन दोनों वृक्षों को उखाड़ा व गिराया। बाल कृष्ण ऊखल को खींच रहे थे। ऊखल उन दोनों वृक्षों के बीच में फंस गया और वे दोनों वृक्ष गिर गए और दो व्यक्ति मणिग्रीव और नलकुबेर प्रकट हुए थे।मणिग्रीव और नलकुबेर ने कृष्ण की स्तुति और प्रदक्षिणा की और अपने स्वधाम प्रस्थान किया। वैसे ही यह सातों वृक्ष विमुक्त हुए, वृक्ष मुक्त नहीं हुए वृक्ष में जो बद्ध थे तथा बंधन में थे, वे आत्माएं मुक्त हुई। नासिक में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की यात्रा का समापन हो रहा है, वे वहां से आगे नहीं बढ़ेंगे, यहां से वे जगन्नाथपुरी वापस लौटेंगे। कुछ ज़्यादा विशेष या लगभग है ही नहीं वर्णन। चैतन्य महाप्रभु कुछ हवाई जहाज से तो नहीं गए, कुछ उड़ान तो नहीं भरी। वह चलकर ही गए। जैसे वे अन्य स्थानों पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे थे लेकिन कोई उल्लेख नहीं मिलता कि वह कैसे गए, कहां से गए, क्या-क्या लीलाएं हुई लेकिन वे पुन: आंध्रप्रदेश गए, ऐसा लिखा है। वे दोबारा रामानंद राय से मिले। जब पहले चैतन्य महाप्रभु, रामानंद राय के साथ कोहरूर में गोदावरी के तट पर थे, तब ऐसा वादा हुआ था। राय रामानंद ने कहा था, रहिए! रहिए! और कुछ दिन रहिए। हम आपका संग चाहते हैं। हम आप का सानिध्य चाहते हैं। ऐसा राय रामानंद कह रहे थे तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि कुछ दिन की बात क्या है? हम तो पूरे जीवन भर आपके साथ रहना चाहते हैं। जब मैं दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए जगन्नाथपुरी लौटूंगा तब आप आ जाना। यह जो गवर्नर बने हुए हो, यह सब धंधा पानी नौकरी छोड़ दो, रिटायर हो जाओ अर्थात सेवानिवृत्त हो जाओ और जगन्नाथपुरी आ जाओ। हम जीवन भर के लिए साथ में रहेंगे। राय रामानंद ने स्वीकार किया था। वह इस प्रस्ताव से प्रसन्न थे। जब चैतन्य महाप्रभु यात्रा करके पुनः लौटकर राय रामानंद से मिलते हैं। तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा, चलो! चलो! हम दोनों मिलकर जगन्नाथ पुरी जाते हैं लेकिन राय रामानंद ने कहा, जब मैं आऊंगा तो यह हाथी घोड़े सब साथ में होगा, आपकी शांति भंग होगी। आप अकेले आगे बढ़िए और मैं बस आता ही हूं।
चैतन्य महाप्रभु वहां से जगन्नाथपुरी के लिए लौटते हैं, रास्ते में वह उन उन भक्तों से मिल रहे थे जिन जिन भक्तों को वे पहले मिलते हुए गए थे। आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में उन भक्तों और उन लोगों को मिलते हुए चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट रहे थे। उनकी यात्रा अलारनाथ नाथ से शुरू हुई थी। उन्होंने जगन्नाथ पुरी से आए और सभी भक्तों को वहां रोका था। केवल कृष्ण दास के साथ अर्थात केवल एक भक्त के साथ दक्षिण भारत की यात्रा में गए थे। जगन्नाथपुरी में जब सबको पता लगने लगा कि चैतन्य महाप्रभु लौट रहे हैं, नित्यानंद प्रभु और अन्य कई भक्त अलारनाथ तक आ गए और अलारनाथ में चैतन्य महाप्रभु का भव्य स्वागत हुआ। वहां से जगन्नाथपुरी धाम के लिए प्रस्थान हुआ। राजा प्रताप रुद्र भी चैतन्य महाप्रभु को मिलना चाहते थे लेकिन फर्स्ट विजिट में मुलाकात नहीं हो पायी। इस बार चैतन्य महाप्रभु के निवास आवास की व्यवस्था काशी मिश्र भवन में हुई थी जो कि राजा प्रताप रूद्र ने ही की थी।
पूर्व में जब चैतन्य महाप्रभु 2 महीने रुके थे तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनके निवास की व्यवस्था की थी लेकिन अब वे दूसरे स्थान काशी मिश्र भवन में थे। इसी को गंभीरा कहा जाता है। चैतन्य महाप्रभु सब समय जितना समय जगन्नाथपुरी में रहेंगे अर्थात अंतर्ध्यान होने के समय तक इसी गंभीरा काशी मिश्र भवन में ही रहेंगे। ठीक है। रुक जाते हैं। कल आगे बढ़ाते हैं। देखते हैं। मध्य लीला भी पूरी नहीं हुई। यह अभी पहली बार है जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से गए और लौटे, अभी दो और बार जगन्नाथ पुरी से चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान करेंगे और परिभ्रमण करके पुनः जगन्नाथपुरी लौटेंगे। दो बार डिपार्चर( जाना) होगा और दो बार अराइवल(आना) होगा। उसका संक्षिप्त वर्णन कल परसों ही करना होगा। ठीक है। आपने जो भी लिखा हो या उसको पढ़िए या जो भी सुना हो, उसका स्मरण कीजिए या फिर आपस में भी इसी विषय पर आप कुछ चर्चा कर सकते हो अथवा चैतन्य चरितामृत में उसको पढ़ सकते हो। सुदर्शन चक्र, हरि! हरि! पढ़ो। लॉज़ ऑफ द् लार्ड का पता लगाओ न केवल लॉज ऑफ द् लैंड। भगवान के दिए हुए नियमों का अध्ययन करो। फिर सही निर्णय होगा। ओके! मैं यहीं विराम देता हूं। पुनः मिलावा,
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
16 मार्च 2021
हरे कृष्ण । गौर हरि हरि बोल । अर्जुन ? सब कुछ ठीक है ? मायापुर से श्यामलता । मुकुंद माधव , कहां से हो ? पुणे से हो । हरि हरि । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । 765 स्थानो से आज ज हो रहा है ।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ।
जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ।।
गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय । गौर पूर्णिमा महोत्सव प्रारंभ हो चुका है , कीर्तन मेला हो रहा है , परिक्रमा होगी और क्षणय , क्षणय , धीरे-धीरे गौर पूर्णिमा का दिन भी आएगा और निमाई का प्राकट्य होगा । हरि बोल । स्वर्ण गोपी , स्वर्ण वर्ण है । गौरांग महाप्रभु प्रकट होंगे , वैसे हो चुके हैं और होते रहेंगे , प्रकट होने की लीला नित्य लीला भी है ऐसा भी समझ सकते हैं । हरि हरि। कल परसो हम वर्णन भी कर रहे थे , कैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए ? या वह किस परिस्थिति में प्रकट हुए ? या अद्वैत आचार्य ने ओमकार के साथ कैसे प्रार्थना की ? और उनकी पुकार भगवान ने गोलोकधाम में सुनी । गौरांग महाप्रभु चले आए । गौरांग । आज मैं सोच रहा था , समय तो किसी के लिए रुकता नहीं, जपा टॉक के 5 मिनट तो बीत गए । ठीक है । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए और प्रकट होने के उपरांत कहा कहा के लिए उंहोणे प्रस्थान किया , कहा भ्रमण किया , आप जानते ही हो । 48 वर्ष श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस धरातल पर रहे , वैसे 24 वर्ष नवदीप में रहे । मायापुर नवदीप धाम की जय । 24 वर्ष , इसी को आदी लीला कहते हैं , फिर प्रस्थान करते हैं सन्यास लेते है , प्रस्थान होता है , नवदीप को छोड़ा । सन्यास लिया तो नवदीप को उन्होंने त्यागा और अगले 6 वर्षों तक वह भ्रमण करेंगे , पूरे भारतवर्ष का भ्रमण होगा , इसको मध्य लिला कहां है । और फिर अंतिम 18 वर्ष जगन्नाथपुरी में रहेंगे , कहीं पर उनका आना जाना नहीं होगा , और यह अंतिम लीला है ।
चैतन्य चरितामृत मे इस लीला को अंतिम लीला कहा है । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुये । योगपीठ की जय । हरी हरी । वहा योगपीठ है , यहा पंढरपूर मे भी योगपीठ है , यहा पांडुरंग रहते हैं । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट होकर जहा रहे वह योगपीठ और अधिकतर जैसे हमने कहा 24 वर्ष नवदीप में ही रहे , नव द्वीप है , नाम सुना है ? आप तो जानते ही होगे , नवदीप कौन-कौन से हैं ? आपको पता होने चाहिए । श्रीमंत द्वीप , गौद्रूम द्वीप , मध्य द्वीप , कोलम द्वीप , ऋतू द्वीप , जाणू द्वीप , मोद्रद्युम द्वीप , रुद्र द्वीप और अंतर द्वीप , इन नवदीपो में गौरांग महाप्रभु की लिलाये संपन्न हुई । विद्या विलास भी हुआ । मतलब वह लीला जिस लीला में उन्होंने विद्या अर्जन भी किया , जिसके लिए वह विद्यानगर जाते थे , नवदीप के ऋतु द्वीप में , अलग-अलग ऋतु होते हैं , ऋतु द्वीप मे सभी ऋतू विद्यमान है । वहां पर विद्यानगर है , सारी विद्या वहा निवास करती है , जो भी विद्या हो , जितना भी विद्या का अस्तित्व है , वेद , पुराण , उपनिषद , वेदांत सूत्र , शास्त्र और अन्य शास्त्र , यह भी व्यक्ति है , जैसा आपने सुना है , वेदों ने रूप धारण किया और वेद स्तुति गाने लगे ऐसा श्रीमद्भागवत के 10 वे स्कँद में लिखा है । मच्छ अवतार मैं भगवान ने अवतार लिया और सारी विद्या उन्होंने एक नौका में भर दी , रखी , उसकी रक्षा की वही विद्या का स्थान विद्यानगर कहलाता है ।
वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंगादास पंडित उनके गुरु बने , टोल चलाते थे , ट्यूशन जैसा पढ़ाते थे , निमाई भी गंगादास पंडित का विद्यार्थी बना , वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जाते थे , विद्या विलास महाप्रभु की विशेष लीला प्रसंग का वर्णन चैतन्य भागवत मे आता है । चैतन्य मगप्रभु का प्रथम विवाह लक्ष्मी प्रिया के साथ हुआ और उसी विवाह के उपरांत श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पूर्व बंगाल गये जिसको अब बांग्लादेश कहते हैं । चैतन्य महाप्रभु के विरह की व्यथा से पीड़ित लक्ष्मी प्रिया नहीं रही । यह काल उनके लिए कठिन रहा , काल का दंश , और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बांग्लादेश , पूर्व बंगाल से लौटे तब पुनः विष्णु प्रिया के साथ उनका विवाह हुआ , इतने में विश्वरूप में सन्यास लिया , विश्वरूप में प्रस्थान किया , वह चले गए नवदीप मायापुर से दक्षिण भारत की यात्रा में या भारत की यात्रा मे चले गये ।
जगन्नाथ मिश्रा का तिरोभाव हुआ वह नहीं रहे । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पिंड दान इत्यादि कृत्य संपन्न करने हेतु गया गए । आप नोंद कर रहे हो , पूर्व बंगाल गए थे , अब गया गए नवदीप के बाहर , नवदीप के बाहर 24 वर्षों में यह दो समय ही गए । वहा ईश्वर पुरी से उंहोणे दीक्षा ली और चैतन्य महाप्रभु की कीर्तन लीला प्रारंभ हुई । नवदीप लौटते लौटते किर्तन करते थे , कीर्तन करते करते लौटे और इसी के साथ नित्यानंद महाप्रभु भी उन से जुड़ते हैं । चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन लीला अब श्रीवास ठाकुर के आंगन से या निवास स्थान से प्रारंभ होती है । संकीर्तन ! संकीर्तन ! प्रथम पूरी रात भर कीर्तन करते थे और लोग जागरण करते थे जैसे आपने सुना है देवीका , चंडीका जागरण कीर्तन , गान लोग करते थे , यह तो धर्म की ग्लानि थी । हरि हरि ।
भगवान के नाम के बराबर अन्य देवी देवता के नाम भी समकक्ष है , यह सभी एक है । हरी हरी । यह लोग नहीं जानते थे इसी को धर्म की ग्लानि कहते है । इसीलिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए हैं , धर्म की स्थापना करेंगे , और धर्म की स्थापना के लिए धर्म है । कली काले धर्म , हरी नाम संकीर्तन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीवास आंगण में कीर्तन आरंभ करते है , सारे पंच तत्व उनके साथ है और अन्य कई असंख्य भक्तों ने जहां उन्होंने जन्म लिया , प्रकट हुए थे वहा से सभी का नवदीप मायापुर में आगमन होता है । और चैतन्य महाप्रभु के पार्षद , संगोपांगा पार्षदम बन जाते है और चैतन्य महाप्रभु की लीला में अपना योगदान देते हैं ।
अधिकतर पूरे नवद्वीप में कीर्तन लीला हुई है , चैतन्य महाप्रभु का भी अष्ट काली लीला का वर्णन है , जैसे कृष्ण की अष्ट काली लीला का वर्णन है , वैसे चैतन्य महाप्रभु के अष्ट काली लीला का भी वर्णन है । और वह कब , कहा किर्तन करते थे और कोई लीला करते थे इसका वर्णन भी उपलब्ध है । मध्यान के समय मध्यदीप मे किर्तन होता है , रामघाट गये और अपने भुके परिकरो को उन्होंने आम खिलाया और कई सारी लीलाएं हैं । अब जल्दी आगे बढ़ते हैं मध्य लीला ने कई स्थानो पर गये । यह आदी लीला चल रही है ,संन्यास लिया , संन्यास के लिए वह काटवा पहुंच गए , गंगा के तट पर , मायापुर के पश्चिम दिशा में होना चाहिए , 25 किलोमीटर दूरी पर , वहां संन्यास लिया और कुछ दूरी पर चैतन्य महाप्रभु ने पाच छह व्यक्तियों संन्यास लेने की जो योजना बताई थी लेकिन संन्यास के समय असंख्य भक्त वहां काटवा में एकत्रित हुए थे , संन्यास लिया तब केशव भारती ने कहा , “श्रीकृष्ण चैतन्य तुम्हारा नाम है ” और वह श्रीकृष्ण चैतन्य बन गए , पहले निमाई कहते थे , विश्वंभर कहते थे महाप्रभु कहते थे , लेकिन अब नाम हुआ , श्रीकृष्ण चैतन्य । संन्यास दिक्षा का श्रीकृष्ण चैतन्य । चैतन्य को फैलाएंगे सर्वत्र चेतना जागृत करेंगे सभी की यह चैतन्य महाप्रभु की इच्छा है। संन्यास ले कर उन्हें वृंदावन जाना था। जब कोई मुक्त होता हैं तो कहा जाते हैं हम घर जाते हैं अपने धाम लौटते हैं। क्योंकि वो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य और वैसे कृष्ण के भक्त भी बने हैं तो कृष्ण के भक्त…..
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं
रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।।
(चैतन्य मंज्जुषा)
अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है ।
वृंदावन को प्रिय होता है चेतन महाप्रभु वृंदावन जाना चाहते थे किंतु नित्यानंद महाप्रभु और फिर अन्य भक्तों का भी योगदान रहा अद्वैत आचार्य का भी योगदान रहा इनका भी योगदान रहा और उन्होंने उन्हें शांतिपुर लाया शांतिपुर में सची माता और असंख्य भक्तों के साथ मिलन हुआ तब चैतन्य महाप्रभु 10 दिन यही रहे और विशेष उदंड कीर्तन हुआ और होता रहा सची माता निमाई के लिए अपने हाथों से भोजन बनाया करती थी। और भी लीलाएं वहां संपन्न हुई हैं। सचि माता ने आदेश दिया नहीं-नहीं वृंदावन नहीं जाना वृंदावन तो बहुत दूर है तुम जगन्नाथपुरी में रहो तथास्तु हां मैया वैसे ही होगा तब चैतन्य महाप्रभु कुछ भी भक्तों के साथ साथ में चार भक्त लिए नित्यानंद महाप्रभु मुकुंद ऐसे चार पांच भक्तों के साथ उन्होंने जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान किया रास्ते में खीर चोर गोपीनाथ मंदिर में पड़ाव हुआ और बहुत जगह पर पड़ाव हुआ है पर मुख्यता चैतन्य चरितामृत में विशेष उल्लेख हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां पर भक्तों को माधवेंद्र पुरी की कथा सुनाएं फिर वहां से वह सब आगे बढ़े कटक गए वहां नित्यानंद प्रभु ने साक्षी गोपाल की कथा सुनाएं और वहां से आगे बढ़े तो नित्यानंद प्रभु ने चैतन्य महाप्रभु का दंड भंग लीला भी हुई वहां से आगे बढ़े तो 18 नाला नाम का एक स्थान आता है वहां जगन्नाथ मंदिर दूर से दिखने लगता है वहां चैतन्य महाप्रभु स्वयं आगे बढ़े दौड़ पड़े और फिर सर्वप्रथम दर्शन हुआ पहली बार जब वह दर्शन कर रहे थे तब भाव विभोर अवस्था में चैतन्य महाप्रभु ज ज ग ग ऐसे ही कह पा रहे थे जगन्नाथ कहना संभव नहीं हो पा रहा था तब वहां पर वह 2 महीने कहेंगे और फिर सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार होगा 2 महीने में उनका उद्धार करा दिया हरि हरि वह चाहते तो दो क्षण में भी कर सकते थे पर उन्होंने 2 महीने में करा दिया फिर वहां से आगे प्रस्थान किए अलारनाथ गए वहां से थोड़ी ही दूर है जब जगन्नाथ पुरी का मंदिर बंद होता है रथ यात्रा के पहले स्नान यात्रा के बाद में दर्शन बंद हो जाते हैं तब क्या करें सब सभी अलारनाथ जाते हैं वहां अलारनाथ भगवान के दर्शन करना और जगन्नाथ जी के दर्शन करने जैसी बात है जो चेतन महाप्रभु जाना चाहते थे तब साथ में सभी भक्तों जाना चाहते थे किंतु चैतन्य महाप्रभु ने मना कर दिया मैं केवल अकेला ही जाऊंगा ठीक है कम से कम एक बार सको तो साथ में रखिए तब कृष्णदास को साथ में रखा तब अलारनाथ में भी विशेष कीर्तन हुआ वैसे इस कीर्तन के ऊपर नित्यानंद प्रभु कहे थे उन्होंने भविष्यवाणी के लिए थे ऐसा कीर्तन सारे संसार भर में होगा……
चैतन्य भागवत
पृथिवीते आछे यत नगरादि – ग्राम । सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम
पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।
( चैतन्य भागवत अन्त्य – खण्ड ४.१.२६ )
ऐसे ही भविष्यवाणी नित्यानंद महाप्रभु ने किया इस कीर्तन के बाद वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान किया और अन्य भक्तों का बहुत बुरा हाल रहा विरह की व्यथा से हरि हरि सब परेशान थे हरि हरि या जैसे श्री राम जब वनवास के लिए प्रस्थान कर रहे थे तब उस समय जो अयोध्या वासियों की जो मन की दी हुई यहां श्री कृष्ण जन्म बलराम के साथ भी उनको अक्रूर वृंदावन से मथुरा ले जा रहे थे जो गोपियों के मन की स्थिति और अन्य ब्रज वासियों की मन की स्थिति जो हुई वैसे ही जैसे सोडूनिया गोपिना कृष्ण मथुरेसी गेला उस समय जब ब्रज वासियों की गोपियों मन स्थिति जैसे कोई वैसे ही मन स्थिति हुई जहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जा रहे हैं अकेले और साथ में केवल एक भक्त को रखा स्थिति तो वैसे ही रहेंगी मरेंगे विराट की व्यथा से और परेशान होंगे पर चैतन्य महाप्रभु ने उनकी ओर देखा तक नहीं देखते तो थोड़ा कठिन ज्यादा उनसे सहा नहीं जाता इसलिए वह आगे बढ़े और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत में कई स्थानों पर उड़ीसा के पास जहां से उनकी यात्रा प्रारंभ हुई है आंध्र प्रदेश में कूर्म क्षेत्र गए हैं चैतन्य महाप्रभु कूर्म ब्राम्हण को विशेष आज्ञा दिए….
यार देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु है या तार ‘ एइ देश ॥१२८ ॥
अनुवाद ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
यह जो चैतन्य महाप्रभु का वचन है यह कूर्म ब्राह्मण को कूर्म क्षेत्र में ओडिशा के कोई बॉर्डर है वहां पर दिया वहां से चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े और वह से विशाखापत्तनम वहा नरसिंह भगवान का क्षेत्र हैं जहां नरसिंह भगवान की विशेष लीलाए हुई हैं उस स्थान को सिंहाचल भी कहते हैं।
अचल मतलब पर्वत उस पर्वत का नाम ही हुआ नरसिंहाचल जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दर्शन किया है पुजारी ने कुछ माला अर्पण किया है चैतन्य महाप्रभु को और वहां से आगे करते हैं गोदावरी के तट पर आते हैं और गोदावरी को देखते ही कैसे हैं जमुना मैया की जय जब भी कोई नदी देखते तो उन्हें लगता कि यह गंगा हैं गंगा और जमुना है और कई पर्वत देखते तो यह गोवर्धन है आकाश में बादल देखते तो उन्हें लगता कि यह कृष्ण ही है क्योंकि कृष्ण के रंग के बादल होते हैं वहां गोदावरी के तट पर नृत्य किया है और गोदावरी को पार किया है और वहां रामानंद राय जी के साथ चैतन्य महाप्रभु का मिलन हुआ वह भी एक अद्भुत घटना और दर्शन लीला है मिलन की लीला है मिलन उत्सव का हो और फिर चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन उनसे मिलते थे और कथाएं होती थी जिसको राय रामानंद के साथ के साथ जो संवाद हैं महाप्रभु और राय रामानंद का संवाद जो चैतन्य चरित्रामृत में उसका उल्लेख हैं।
तब वह संवाद वहां होते रहे वो बाहोत गुह्य संवाद होते रहे हैं। क्योंकि राय रामानंद ललिता और विशाखा में से ही हैं तो यहीं पर चैतन्य महाप्रभु ने राय रामानंद या फिर कह सकते हैं विशाखा को दर्शन दिया कैसे दर्शन दिया श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण ना ही अन्य अभी अभी तो गौरांग थे एक ही थे और दूसरे क्षण राय रामानंद देखा वहां कृष्ण थे और राधा थी तब वहां एक गौड़ीय मठ भी है।
राधा और कृष्ण का दर्शन वो एक ही स्थान हैं जहां राधा कृष्ण प्रकट हुए ये दक्षिण भारत का वृंदावन हैं जहां चैतन्य महाप्रभु से राधा कृष्ण प्रकट हुए। वहां से आगे बढ़े तो श्रीरंगम पहुंचे रामानुजाचार्य का पीठ रहा एक समय क्योंकि चैतन्य महाप्रभु तो 500 वर्ष पूर्व हुए रामानुजाचार्य 1000 वर्ष पहले थे श्रीरंगम में वही समय था चतुर्मास से प्रारंभ होने जा रहा था जब से चैतन्य महाप्रभु वहां गए वह सदैव भ्रमण करते रहते थे और 1 दिन में कई गांव और कई नगर कवर कर लेते थे।
कई स्थानों पर रात में रुकते या कई स्थानों से रात में ही उठ कर आगे बढ़ने लगते। यदि वैसे नही करते तो सारा गाव ही उनके पीछे पीछे जाने लगता गाव वालो को टालने के लिए चैतन्य महाप्रभु रात को ही आगे बढ़ते। ऐसा प्रतिदिन भ्रमण करने वाले चैतन्य महाप्रभु ने अभी चातुर्मास अभी प्रारंभ होने जा रहा था तब श्रीरंगम में रुकने का निर्णय लिया और वैकंठ भट्ट के यहां रुके 4 महीने वहां ही रुके और उनके बालक गोपाल भट्ट गोस्वामी जब वो बालक ही थे और प्रबोधानंद सरस्वती ठाकुर भविष्य में बनने वाले जो वैकंठ भट्ट के पुत्र गोपाल भट्ट गोस्वामी और वैकंठ भट्ट के भ्राता श्री प्रबोधानंद सरस्वती ठाकुर तब इन सब को चैतन्य महाप्रभु ने अपना अंग संग और सब आतिथि का प्रदर्शन हुए और यही श्री चैतन्य महाप्रभु श्री रंगम के दर्शन के लिए या रंगनाथ के दर्शन के लिए गए और दर्शन करते रहते थे।
और श्रीरंगम कावेरी नदी के तट पर हैं।जो 7 पवित्र नदिया हैं उसमेंसे अति पवित्र महा पवित्र नदी जो हैं उनमें हैं कावेरी और इसमे स्नान किया करते थे चैतन्य महाप्रभु और फिर श्री रंगम का दर्शन रामानुज का भी दर्शन करते होंगे जरूर तब यही पर आपको याद हैं आप तो भूल जाते हो महाराज कहते है उदयपुर की शशि माताजी को याद होगा और यदि मैं बता दु तो पता चलेगा ही वो ब्राम्हण जो गीता का उच्चारण ठीक से नही कर पाते थे वही ना….. ठीक है।।
मुंडी तो हिला रही हैं।
चैतन्य महाप्रभु तो बोहोत प्रभावित थे उस ब्राम्हण से और गीता के उच्चारण से वो गीता का उच्चारण तो करते ही थे वैसे ही वो भाव विभोर होते थे चैतन्य महाप्रभु जा कर उन्हें आलिंगन भी फिये वो जो ब्राम्हण और जो घटना हैं श्रीरंगम में हुई श्री रंगनाथ में हुई और यही चातुर्मास में हुई। ठीक है अभी हम यहां अल्पविराम लेते हैं और जो बचा हुआ चैतन्य महाप्रभु का भ्रमण हैं आगे वो जगन्नाथ पुरी पोहोचेंगे पुन्हा वृन्दावन जायेगे और फिर कहि नही जायेगे 18 वर्ष के लिए जगन्नाथपुरी में ही रहेंगे इन सभी बातों का कल हम आपको स्मरण दिलाते हैं और आप अपने मन को तो विराम नही देना मन को सदैव व्यस्त रखिए जो सुना है उसका स्मरण करो कृष्ण के सम्बंध में जो सुना है वो स्मरण करो…..
श्रीप्रह्वाव उ्वच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं बन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णी भक्तिश्चेत्रवलक्षणा ।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥
(श्रीमद भागवद् 7.5.23-24)
अनुवाद: प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा
लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों
की सेवा करना, घोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना
करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व
न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना)-शुद्ध भक्ति की ये नौ
विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन
अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त *कर लिया है।
ऐसे ही स्मरण,चिंतन,मनन करो ऐसे ही मन का शुद्धिकरण होगा और मन स्थिर होग़ा फिर ध्यान समाधि की और बढेंगे ठीक है।
गौरांग…..
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय…
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण।।
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
१५.०३.२०२१
755 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।हरि बोल। क्या नेपाल के भक्त जप कर रहे हैं?सबको सूचना दो और बताओ जप चर्चा के बारे में।आप सभी भक्त दूसरों को जगाओ। जीव जागो जीव जागो करो, प्रातःकाल में सोने वालों के लिए।माया पिशाची की गोद में कब तक लेटे रहोगे।
“जीव जागो जीव जागो, गौरचांद बोले
कोत निद्रा जाओ माया पिशाचीर-कोले”
भक्ति विनोद ठाकुर का यह गीत हमने कल के मायापुर कीर्तन मेले के प्रारंभ में गाया था।आज भी 9 बजे कीर्तन हैं और आज के कीर्तन की सूचना आप जप चर्चा के अंत में सुनोगे। जैसा कि हमने परसों कहना प्रारंभ किया था, यह गौर पूर्णिमा का समय हैं तो हम महाप्रभु के ही बारे में चर्चा करेगें।उनकी कथा,नाम रूप, गुण ,लीला,धाम का स्मरण करेंगे।श्रवण और कीर्तन होगा।तो उसी बात को आगे बढ़ाते हुए चर्चा करेगें।चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं पर चैतन्य भागवत है और चैतन्य चरित्रामृत है। चैतन्य चरित्रामृत वृंदावन दास ठाकुर द्वारा रचित है। चैतन्य चरित्रामृत के आदि खंड के द्वितीय अध्याय में चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का वर्णन है। या फिर यह कह सकते हैं कि उनके प्राकट्य के पूर्व की तैयारी का वर्णन है।
इसमें यह भी वर्णन है कि कौन-कौन से भक्त जिम्मेदार रहे चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य में या कौन-कौन से भक्त कारण बने उनके प्राकट्य के लिए इत्यादि इत्यादि। यह सब बातें संक्षिप्त में हम आज आपको पढ़कर सुनाएंगे।
Krsna Rama bhakti sunya sakala samsara
prathana kalite haila bhavisya acara
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.६३)
चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य से पहले ही संसार के सभी स्थान भक्ति शूनय और माया से पूर्ण हो गए।
Dharma Karma loka sabe ei matra Jane mangalacandira gite kare jagarane
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.६४)
मंगल,चंडी,गणेश,दुर्गा इन की यात्राएं,इनके उत्सव, इनके नामों का उच्चारण तो खूब हो रहा था,लेकिन कृष्ण का कीर्तन नहीं हो रहा था।लोग राम की पूजा या रामनवमी नहीं मनाते थे। यह हैं कलियुग।
Dhana nasta kare Putra kanyara vibhaya
ei-mata jagatera vyartha kala yaya
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.६६)
लोग शादी विवाह पर धन का खूब अपव्यय कर रहे थे और अब भी करते हैं। कल भी हमने यहां एक विवाह देखा। हरि हरि।।
Yeba Bhattacharya cakravarti misra saba
taharao na Jane saba grantha anubhava
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.६७)
बंगाल में ऐसे ही नाम पाए जाते हैं।क्योंकि यह ग्रंथ बांग्ला भाषा में है तो वहां के ही नामों का विवरण हैं। नाम तो है भट्टाचार्य या चक्रवर्ती या मिश्र किंतु ग्रंथो का अध्ययन करना नहीं जानते हैं। नाम ऐसा होने पर भी ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते हैं। जैसे किसी का नाम तो हो चतुर्वेदी, त्रिवेदी,दिवेदी किंतु उन्हें फिर चार वेदों का नाम तक ना पता हो।
आपने यह नाम तो सुना होगा, लेकिन समझा नहीं होगा कि इसका मतलब क्या है। चतुर्वेदी मतलब चार वेदों का ज्ञाता। त्रिवेदी मतलब तीन वेदों का ज्ञाता। और जो कम से कम 2 वेदों को जानता है वह हैं द्विवेदी। लेकिन आजकल का हाल क्या है?यह सभी निर्वेदी है। मतलब नाम तो है चतुर्वेदी लेकिन वेदों का नाम तक नहीं जानते हैं।पढ़ना तो बहुत दूर की बात है चतुर्वेदी से कहो कि तुम चतुर्वेदी हो चलो चार वेदों के नाम बताओ तो वह चार वेदों के नाम तक नहीं बता पाएगा। तो वह कैसा चतुर्वेदी है। इसलिए हम इनको कहते हैं निर्वेदी।
Yeba saba virakta tapasvi abhimani
tan sabara mukheha nahika Hari dvani
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.७०)
कई तपस्वी ज्ञान का अर्जन तो करते हैं,लेकिन उनको उसका अहंकार होता हैं।कि हम इतने ज्ञानी है,हम इतने तपस्वी हैं। हरि हरि।।
यह लोग अधिकतर पाखंडी होते हैं या अहंकारी होते हैं। कृष्ण तो कहते हैं कि
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: ||
भगवद्गीता 5.18
हमे विद्या और विनय से संपन्न होना चाहिए।हमें बहुत ही विनम्र होना चाहिए,लेकिन उस वक्त ऐसा नहीं हो रहा था। यह 500 वर्ष पूर्व के पहले की बात है। अब तो बातें और भी ज्यादा बिगड़ रही हैं।लोगों के मुख से हरि ध्वनि नहीं निकलती थी। हो सकता है कि कोई सिनेमा का संगीत ही निकलता होगा या फिर देवी देवताओं के भजन,कीर्तन या जागरण।अगर दिल्ली की तरफ जाओ तो आज कल भी देवी का जागरण चलता है।लोग देवी के गुण गाते हैं।लेकिन आदि देव कृष्ण के गुण नहीं गाते।और फिर दूसरा नाम अपराध करते हैं।
Ati vada sukrti se snanera samaya Govinda pundarikaksa nama uccaraya
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.७१)
और कोई कोई विरला व्यक्ति लाखों में से एक व्यक्ति स्नान के समय कृष्ण नाम का उच्चारण करता और गुणगान करता था।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये|
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ||
भगवद्गीता 7.3
तो कोई विरला व्यक्ति स्नान के समय गाता था।उनको कहते हैं बाथरूम सिंगर। कौन होता है बाथरूम सिंगर?जो स्नान के समय बाथरूम में गाते रहते हैं।बाथरूम में कुछ समय गा भी लेते हैं और बाथरूम से बाहर आकर तो कुछ और ही गान शुरू हो जाता है जैसे दूरदर्शन,टेलीविजन और भी बहुत कुछ। रेडियो भी है।बस यही सब सुनते हैं।
Gita bhagavata ye-ye janete padaya bhaktira vyakhyana nahi tahara jihvaya
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.७२)
भक्ति का व्याख्यान नहीं सुनते। गीता या भागवत नहीं सुनते। बल्कि उसकी बजाय माया वाद भाष्य सुनते हैं।
माया वाद भाष्य हो या निरविशेष भाष्य हो या सामयवाद भाष्य हो। ऐसे भाष्य लोग सुना करते थे।लेकिन भगवत गीता यथारूप नहीं सुनते या पढ़ते थे या भागवतम नहीं सुनते पढ़ते थे।अब भी ऐसा ही हो रहा है। परंपरा में श्रवण और कीर्तन नहीं करते हैं।
केमने एइ जीव सब पाइबे उद्धार
विषये सूखेते सब माझिला संसार
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.७४)
ऐसे जीवो का कैसे उद्धार होगा?इस संसार के सांसारिक लोग विषय भोगो में या सुख और विलास में मस्त है उनका कैसे उद्धार होगा?
सेई नवद्वीपे वैसे वैष्णव अग्रगण्य
अद्वैत आचार्य नाम सर्व लोकेर धन्य
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.७८)
उसी नवदीप के पास शांतिपुर में अद्वैत आचार्य रहते थे। उनका नाम अद्वैताचार्य था।अद्वैत मतलब भगवान से भिन्न नहीं भगवान से अभिन्न।वह भगवान ही थे। और वह धन्य थे। वह ज्ञानवान और धनवान थे।उनके पास हरि नाम का धन था और उनका जीवन धन्य था।
Tulasi Manjari sahita Ganga jale
niravadhi seve krsne maha kutuhale
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.८१)
उन दिनों में अगर कोई चिंतित था कि इन कलियुग के पतित जीवो का कैसे उद्धार होगा तो वह थे अद्वैत आचार्य प्रभु।पतितानाम पावनेभयो। ऐसे पतितो का उद्धार करने के लिए आएंगे महाप्रभु। अद्वैत आचार्य को चिंता थी कि इन पतित लोगों का उद्धार कैसे होगा। इनका कल्याण कैसे होगा। यह लोग कैसे धन्य होंगे। यही चीज वह निरंतर सोचते हुए अपनी शालिग्राम शिला की आराधना करते थे तुलसीदल और गंगा जल अर्पित करते हुए यह प्रार्थना करते थे और और पुकारते थे कि है प्रभु कृपया इन पतित्तों का उद्धार करने के लिए प्रकट होइए।
huṅkāra karaye kṛṣṇa-āveśera teje
ye dhvani brahmāṇḍa bhedi’ vaikuṇṭhete bāje
(चैतन्य भागवत आदि लीला २.८२)
उनकी जो पुकार थी,या उनका जो हुंकार था वह ब्रह्मांड का भेदन या छेद करते हुए ब्रह्मांड के परे, विरजा नदी के परे, वैकुंठ तक या फिर अंततोगत्वा गोलोक तक पहुंच गई और उनकी पुकार गोलोक में श्री कृष्ण सुन रहे हैं।
Sva Bhave Advaita bada Karunya
hrdaya jivera uddhara cinte haiya sadaya
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.90)
स्वभाव से अद्वैत आचार्य करुणा की मूर्ति थे। दया भाव उन में भरा हुआ था।
Mora Prabhu asi yadi kare avatara
tabe haya e sakala jivera uddhara
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.91)
अगर मेरे प्रभु उत्तीर्ण होगे,यदि वह अवतार लेंगे, तो इन सब का उद्धार होगा। अद्वैताचार्य बार-बार यह प्रार्थना कर रहे थे।
Aniya Vaikuntha natha saksat kariya
naciba Sarva Jiva uddhariya
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.93)
वह यह स्वपन देख रहे हैं कि वह दिन कब आएगा जब नवदीप में सभी जीवों को साथ में लेकर महाप्रभु नाचेंगे, गाएंगे ।
जब नाम नाचेगा, जीव नाचेगा।हरि नाम नाचेगा।
Sei navadvipe vaise pandita srivasa
yanhara mandire haila caitanya vilasa
( चैतन्य भागवत आदि लीला 2.96)
उसी नवद्वीप में श्रीवास ठाकुर रहते थे और वह भगवान के अनन्य भक्त थे।
Sarva kala cari bhai krsna nama
tri Kala karaye krsna puja Ganga snana
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.96)
यह चार भाई थे। श्रीवास ठाकुर, श्रीनिधि, श्री राम ।ऐसे चार भाई थे। वह सभी कीर्तन करने लगे थे। महाप्रभु के प्राकट्य से पहले नाम आचार्य श्रीहल हरिदास ठाकुर भी कीर्तन कर रहे थे।श्रीवास ठाकुर भी कीर्तन कर रहे थे।श्रीवास ठाकुर तो मायापुर धाम के ही थे। महाप्रभु के संगी गन सभी अलग-अलग जगह पर प्रकट हुए थे ।कोई राढ देश में, तो कोई उड़ीसा प्रदेश में ।सब अलग-अलग जगह प्रकट हुए लेकिन महाप्रभु के प्राकट्य के उपरांत सभी नवदीप पहुंच गए
Saba uddharibe krsna apane asiya
bujhaibe krsna bhakti toma saba laiya
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.119)
कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होंगे और हम सब को साथ में लेकर कृष्ण भक्ति सिखाएंगे और कृष्ण भक्ति करवाएंगे। कृष्ण नाम संकीर्तन होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
Krsna Sindhu bhakti data Prabhu balarama
avatirna haila dhari Nityananda nama
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.131)
और चैतन्य महाप्रभु से पहले नित्यानंद प्रभु प्रकट होंगे।अब उनके बारे में उल्लेख हुआ है कि वह कैसे हैं।कृपासिंधु बलराम,भक्ति दाता बलराम नित्यानंद राम के रूप में प्रकट होंगे।उनका नाम नित्यानंद होगा।
Navadvipe ache Jagannatha misra vara
Vasudeva praya tenho sva dharme tatpara
( चैतन्य भागवत आदि लीला 2.136)
उसी नवदीप मायापुर में जगन्नाथ मिश्र भी प्रकट हुए थे ।भगवान ने ऐसी व्यवस्था की है कि अपने परिकरो को, पार्षदों को पहले भेजा हैं। तो इन पार्षदों में जगन्नाथ मिश्र जोकि चैतन्य महाप्रभु के पिता बनने वाले हैं ।वह मानो वसुदेव ही थे। मानना क्या है वह वसुदेव थे ही। वसुदेव और देवकी दोनों ही प्रकट हुए। हरि हरि ।।
दशरथ और कौशल्या प्रकट हुए या कह सकते हैं कि नंद महाराज और यशोदा माई प्रकट हुए। अलग-अलग स्थानों पर इसका विवरण मिलता है ।जो महाप्रभु को जन्म देंगी (शचि गर्भ सिंधु) शचि माता के गर्भ से आएंगे श्री कृष्णा चेतनय।जिनका नाम निमाई होगा।
Tanna patni saci nama maha pati vrata
Murti mati Visnu bhakti sei Jagan mata
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.139)
जगन्नाथ मिश्र की पत्नी होगी शचि माता। कैसी शचि माता?महा सति। मूर्तिमती विष्णु भक्ति।विष्णु भक्ति का ही मूर्तिमत रूप।विष्णु भक्ति शचि माता के रूप में प्रकट हुई।
Visvarupa Murti yena abhinna madana dekhi harasita dui brahmani brahmana
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.141)
पहले तो शचि माता ने 9 पुत्रियों को जन्म दिया और जन्म लेते ही उनकी मृत्यु हो गई थी। देवकी के छह पुत्रों का वध कंस ने किया था। ऐसे ही यहा नवदीप में भी शचि माता ने नौ पुत्रियों को जन्म दिया और जन्म के कुछ ही समय उपरांत उनकी मृत्यु हुई और दसवें हुए विश्वरूप। यह पहले पुत्र थे और यह भगवान की कृपा से जीवित रहे।
मदन मोहन जैसे मदन को भी मोहित करने वाले अति सुंदर सुकुमार के रूप में प्रकट हुए विश्वरूप को देखकर ब्राह्मण और ब्राह्मणी मतलब शचि माता और जगन्नाथ मिश्र बहुत ही प्रसन्न हुए।
Jaya Jaya mahaprabhu janaka sabara
Jaya Jaya sankirtana hetu avatara
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.151)
अब चैतन्य महाप्रभु की बारी है।अगला प्राकट्य निमाई का होगा। चैतन्य महाप्रभु का अवतार संकीर्तन के प्रचार प्रसार के हेतु हुआ।
Jaya Jaya veda dharma Sadhu vipra paila
Jaya Jaya abhakta damana mahakala
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.152)
गौरांग महाप्रभु साधुओं की रक्षा करेंगे और दुष्टों का दमन करेंगे।
Jaya Jaya Sarva Satya maya kalevara Jaya Jaya iccha Maya maha mahesvara
( चैतन्य भागवत आदि लीला 2.153)
उनका कलेवर सत्य है ।भगवान सत्य है। एक तू सच्चा और एक तेरा नाम सच्चा। गीता में भगवान कह रहे हैं कि मैं अपनी इच्छा से प्रकट होता हूं। आत्म मायय।अपनी इच्छा से अपनी योग माया से भगवान प्रकट होते हैं।
Navadvipa pratio thakura namakara
saci Jagannath grhe yatha avatara
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.193)
ग्रंथकार लिख रहे हैं कि हम उस नवद्वीप को नमस्कार करते हैं। जैसे लोग जहां भी है वहीं से मीका को नमस्कार करते हैं।जेरूसेलम को नमस्कार करते हैं ।यहां अब नवदीप में महाप्रभु प्रकट होंगे तो उस नवदीप को हमारा नमस्कार। नमस्कार हो उस धाम को जिस धाम में शचि माता और जगन्नाथ मिश्र के घर पर भगवान प्रकट होने जा रहे हैं।
Ei mata brahmadi devata prati dine
Gupte rahi isvarera Karena stavane
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.194)
जैसे कृष्ण जन्म के समय सभी देवता गण मथुरा मंडल में पहुंचे थे। वही देवताओं की मंडली आज नवद्वीप पहुंची है और उन्होंने अपना स्तुति गान प्रारंभ किया हैं।
Saci garbhe vaise Sarva bhuvanera vasa
Phalguni Purnima asi haila prakasa
( चैतन्य भागवत आदि लीला 2.195)
चैतन्य महाप्रभु जगन्निवास हैं या त्रिभुवन नाथ हैं। त्रिभुवन नाथ या जगन्निवास जिनमें सारा जग निवास करता है। वह अभी शचि माता के गर्भ में वास कर रहे हैं।थोड़ा ज्यादा समय वह गर्भ में बने रहे। 10 महीने के उपरांत प्रकट होना था परंतु वह कुछ और समय तक रहे और फिर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन महाप्रभु का प्राकट्य हुआ। हरि बोल।।
उसी फाल्गुनी पूर्णिमा का नाम हुआ फिर गौर पूर्णिमा। संसार इसको फाल्गुन पुर्णिमा कहता है लेकिन गोडिय वैष्णव जगत में इस पूर्णिमा का नाम है गौर पूर्णिमा।गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय।।
Ananta brahmande yata ache sumangala
sei purnimaya asi milila sakala
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.196)
उस समय नवद्वीप में मांगलय प्रकट हुआ। सारा मंगल वहा प्रकट हुआ हैं।
Sankirtana sahita prabhura avatara
grahanera chale taha Karena pracara
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.197)
कीर्तन के साथ चैतन्य महाप्रभु ने अवतार लिया हैं या उनके प्राकट्य के पहले दिन ही संकीर्तन प्रारंभ हुआ है। उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी तो चंद्रग्रहण था।पूर्णिमा के दिन चंद्र ग्रहण होता है और अमावस्या के दिन सूर्य ग्रहण होता है। यह तो एक कारण बनना था और कारण बन गया कि लोग यहां वहां से दौड़ कर नवद्वीप स्नान करने पहुंचे थे। केवल पुण्य आत्मा ही नहीं पापी आत्मा भी दौड़ रहे थे। पता नहीं क्यों महा प्रभु की कृपा ही थी कि सभी को पहुंचा दिया। केवल मानव ही नहीं दानव भी वहां पहुंच गए। हरि हरि।। केवल रक्षक ही नहीं भक्षक भी वहां पहुंच गए। यह सभी के सभी वहां जाकर कीर्तन कर रहे थे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कीर्तन हो रहा था ।भगवान ने ग्रहण का बहाना बनाया ताकि सभी भगवान के नाम का गुणगान कर सके। चंद्र ग्रहण के दिन या सूर्य ग्रहण के दिन भी लोग पवित्र नदी में जाकर स्नान करते हैं और भगवान के नामों का उच्चारण करते थे और करते हैं।चंद्र ग्रहण के बहाने से बहुत लोगों को भगवान ने उस जगह पर जुटाया। उन्हें नवदीप लाए स्नान कर रहे हैं लोग और साथ में कीर्तन भी कर रहे हैं। स्वयं प्रकट होने से पहले कीर्तन के रूप में प्रकट हुए। स्वयं तो तब प्रकट होंगे जब चंद्रोदय होगा। लेकिन उस दिन तो चंद्र ने भी अपना मुख मंडल नहीं दिखाया। चंद्र ग्रहण का बहाना बनाकर चंद्र ने भी अपने मुंह को छुपा लिया। चंद्र सोच रहा था कि यह ऐसा मुखड़ा है जिसमें कई सारे धब्बे हैं। दाग है,कलंक है,मेरे मुंह पर तो उस बेचारे चंद्र ने सोचा कि चलो इस मुख को छुपा लेते हैं ।उसने अपने मुख को घुंघट से ढक लिया चंद्र ग्रहण के बहाने से।
बहुकोटिचन्द्र जिनिवदनउज्ज्वल ।
गलदेशेवनमाला करेझलमल
जिनका तेज कोटि-कोटि चंद्रमा सदृश है,ऐसे चैतन्य महाप्रभु के सामने मैं अपने धब्बे वाला मुख कैसे दिखाऊंगा। तो चलो मैं इसे छुपा लेता हूं। चंद्र ग्रहण के बहाने से उसने अपना मुखड़ा छुपा लिया है ।संसार को चैतन्य चंद्र का ही दर्शन करने दो ।मुझ चंद्र के दर्शन करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
Hari bola Hari bola sabe ei suni
sakala brahmande vyapileka Hari dvani
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.206)
जन्म का क्षण जितना अधिक निकट आ रहा हैं उतना ही अधिक जोर से अधिक उत्साह से हरि बोल,हरि बोल का स्वर गूंज रहा है। कीर्तन एवं नृत्य हो रहा है।
kibā śiśu, vṛddha, nārī, sajjana, durjana
sabe ‘hari’ ‘hari’ bole dekhiyā ‘grahaṇa
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.205)
छोटे बालक वृद्ध नारी सज्जन और यहां तक कि दुर्जन भी सभी हरि बोल हरि बोल का उच्चारण कर रहे हैं।
catur-dike puṣpa-vṛṣṭi kare deva-gaṇa
‘jaya’-śabde dundubhi bājaye anukṣaṇa
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.207)
चारों दिशाओं से देवता गन पुष्प वृष्टि कर रहे हैं। मंगल गान हो रहा है। दुंदुभी और नगाड़े बज रहे हैं। अप्सराएं नृत्य कर रही हैं। गंधर्व गा रहे हैं। जय हो। जय हो ।जय हो की ध्वनि सुनाई दे रही है।
Henai samaye Sarva Jagat jivana
avatirna hailena Sri saci Nandana
(चैतन्य भागवत आदि लीला 2.208)
इसी क्षण चंद्रोदय का समय हैं। आज चंद्र का उदय तो होगा लेकिन दर्शन नहीं देगा चंद्र।उसी समय शचिनंदन का प्राकट्य हुआ।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। जय निमाई जय निमाई जय निमाई।।
गौरंगा नित्यानंदा गौरंगा नित्यानंदा नित्यानंदा गौरंगा। हो गए भगवान प्रकट।
धन्यवाद।।
हरे कृष्णा।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
14 अप्रैल 2021
आज हमारे साथ 568 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। आज जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज का तिरोभाव तिथि है। जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज की जय! तो उन्होंने जो यह अफवाह फैली हुई थी चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली के संबंध में उसको साफ किया और उन्होंने सबको बताया कि,कहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ था। और वह सज्जनों में प्रिय थे और वैष्णव में श्रेष्ठ थे प्रसिद्ध थे! और गौड़ीय संप्रदाय के रक्षक थे। वैसे नवदीप पहुंचने से पहले उनका वृंदावन वास होता था, ब्रजमंडल में बरसाना क्षेत्र में रहा करते थे। कई लोग भी वहां पर रहते है, वैसे रहना भी चाहिए लेकिन वहां रहकर हम क्या करते है यह महत्वपूर्ण है! तो वे हरे कृष्ण महामंत्र का खूब जप करते थे!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कभी-कभी वे जप करते तो 3 दिन और 3 रात तक व अखंड जाप करते। जैसे हमारे व वक्रेश्वर पंडित आप नाम सुने होगे ना? महाप्रभु के लीला में उनका नाम आता है। तो जब महाप्रभु कीर्तन करते थे, तो वक्रेश्वर पंडित 72 घंटे नृत्य करते थे। जिसको 24 प्रहर कहा जाता है। आठ पहर का एक रात और 1 दिन होता है तो वैसे तीन रात और 3 दिन व वक्रेश्वर पंडित अखंड नृत्य किया करते थे। और वैसे ही जगन्नाथ बाबा जी 3 दिन तक अखंड जप करते थे! हम लोग तो 3 मिनट में सोने लगते है। यहीं बैठे बैठे यानी मंदिर में बैठे बैठे ही सो जाते है। मंगल आरती होने के बाद जप करने बैठते ही सो जाते है। तो जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जो, मधुसूदन दास बाबा जी महाराज के शिष्य थे। जो मधुसूदन महाराज उद्धव दास बाबा जी महाराज के शिष्य थे। और उद्धव दास बाबा जी के गुरु बलदेव विद्याभूषण जो गौड़िया वेदांताचार्य है उनके शिष्य थे। उन दिनों में अधिकतर बाबाजी महाराज हुआ करते थे, जो वैरागी होता थे उनको बाबाजी करके पदवी मिलती थी।
बाद में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज ने गोस्वामी या ठाकुर ऐसा नामकरण किया। लेकिन पहले बाबा जी ऐसे हुआ करता था भक्तिविनोद ठाकुर भी बाबाजी ही थे। जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज सिद्ध पुरुष थे! कई सारे सिद्ध पुरुष होते हैं जिनको कोई सिद्धि प्राप्त होती है, जो भक्त नहीं होते लेकिन सिद्ध पुरुष होते है। लेकिन जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज भगवान के शुद्ध भक्त भी थे और उसी के साथ उन्हें कई सारी सिद्धि भी प्राप्त थी! उन्होंने भक्ति विनोद ठाकुर के पुत्र को चर्म रोग हुआ था, तो उन्होंने कुछ मंत्र फूंका और भक्ति विनोद ठाकुर के पुत्र को चर्म रोग से मुक्त किया। एक समय वह नवदीप में थे 1880 में भक्ति विनोद ठाकुर वृंदावन आए हुए थे तो जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज को मिले। कैसे नहीं मिलते? गौड़ीय वैष्णव परंपरा के आचार्य तो थे ही। तो भक्ति विनोद ठाकुर ने उनके संघ को प्राप्त किया और उनके आश्रम में रहे उन से शिक्षा प्राप्त की और इस प्रकार भक्तिविनोद ठाकुर जगन्नाथ दास बाबा महाराज के शिष्य बने, लेकिन दीक्षा नहीं हुई। तो भक्ति विनोद ठाकुर के थे गुरु थे जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज वैसे भक्तिविनोद ठाकुर के शिक्षा गुरु थे लेकिन जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज दीक्षा गुरु नहीं थे। तो फिर उसी साल यानी 1880 की बात है जब यानी जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज 150 या 200 साल इस धरातल पर रहे। तो 1880 में वे बंगाल गए वैसे तो वह वर्धमान में रहा करते थे तो वहां से बंगाल में पहुंचकर अपनी साधना भक्ति की और प्रचार प्रसार करते थे। और उनका एक विशेष कार्यक्रम 11 दिनों तक चलता रहा। जगन्नाथ दास बाबा जी का सत्संग बड़ा प्रसिद्ध हुआ!
सब जगह से यानी पूरे नवदीप से लोग वहां पहुंच गए थे। फिर वर्धमान से जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज पुलिया गए चैतन्य महाप्रभु की लीला में पुलिया गए जहां पर चैतन्य महाप्रभु ने कई पापियों को मुक्त किया। आप में से कोई पापी है? पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: तो उस पुलिया में जो आजकल में नवद्वीप शहर है, नवद्वीप धाम भी है। कुलिया में एक कोल द्वीप है। मतलब यह आजकल का नवदीप शहर है। वहां वर्धमान से कुलिया गए। उस समय कुलिया ही कहलाता था। अब वह नवदीप शहर हुआ। तो वहां जाकर अपना साधन भजन करने लगे और वह स्थान आज भी है। जब हम नवद्वीप मंडल परिक्रमा में जाते हैं। तो फिर हम लोग नाव में बैठकर नवद्वीप शहर पहुंचते हैं। जो वहां हम सर्वप्रथम स्थान जाते हैं, वो जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज का भजन स्थली और समाधि स्थल भी है। वहां पर वह रहते थे और उनके कई सारे शिष्य थे। कुछ तो वृंदावन से ही जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज के साथ स्थांतरित हुए थे। जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज और उनके शिष्य नवद्वीप गए।
गौराविर्भाव-भूमेस्त्वं निर्देष्टा सज्जनप्रियः
वैष्णव-सार्वभौमः श्रीजगन्नाथाय ते नमः
( श्रील जगन्नाथ प्रणति)
उन दिनों में जगन्नाथ दास बाबाजी का बहुत बड़ा नाम था। जगन्नाथ दास बाबाजी अपनी भक्ति के लिए, कृष्ण भावना के लिए, उनकी नाम में जो रुचि थी उसके लिए वह प्रसिद्ध थे। वैराग्यवान भी थे, ध्यानवान भी थे और भक्ति मान भी थे। वह 135 वर्ष जीते रहे। हम लोग तो मुश्किल से 35 वर्ष जीएंगे(हंसते हुए)। तो वह 135 साल के थे, वृद्धावस्था भी थी, उसके कारण चलना बड़ा ही कठिन हो रहा था और उनकी आंखें उनके शिष्य खोलते थे ताकि वह देख सके। वह पलके अपने आप नहीं खोल पाते थे। वैसे उनको इन चक्षुओं से देखने की आवश्यकता भी नहीं थी। वह अंत: चक्षुओं से दर्शन कर ही रहे थे। हरि हरि। तो व्यक्ति बुढ़ापे के कारण अंधा बन जाता है तो उसको क्या करना चाहिए? ऑपरेशन करने की बजाए, अंतः चक्षु को खोलना चाहिए। दांत गिर रहे है तो क्या करना चाहिए? जूस पीना चाहिए।
इसी तरह हम तो उस समय भी खिचड़ी खाना चाहते हैं या गन्ना चूसना चाहते हैं, रस नहीं पीना चाहते। हरि हरि। वहां कुलिया में रहते थे, आजकल के नवद्वीप में जहां जगन्नाथ दास बाबाजी की भजन स्थली और अब वहां समाधि भी है। वहां से फिर वह कोल द्वीप गए, वराह भगवान की आराधना करी। कोल मतलब वराह, वराह भगवान की जय। कोल द्वीप जहां नवद्वीप शहर है, इसको कुलिया भी पहले कहा कहते थे और आज भी कहते हैं। वहां से जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज स्वानंद सुखद कुंज गए। जहां भक्ति विनोद ठाकुर रहते थे। कृष्णनगर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बने थे। उनकी कोठी सरस्वती जलंगी के तट पर थी। तो वहां जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज जाने लगे और वैसे भक्ति विनोद ठाकुर, जगन्नाथ दास बाबाजी को कुलिया में जाकर मिलते थे। उनके शिक्षा गुरु ही थे। तो फिर एक समय भक्ति विनोद ठाकुर खोज कर रहे थे। जो कार्य षठ गोस्वामी ने वृंदावन में किया।
अब वही कार्य भक्ति विनोद ठाकुर सातवें गोस्वामी नवद्वीप में कर रहे थे। वह खोज का कार्य था। तो जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज की मदद से खोज कर रहे थे। उन दिनों में जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज को उनके शिष्य विपिन बिहारी टोकरी में ढो लेते थे। फिर एक समय भक्ति विनोद ठाकुर भी साथ में जा रहे थे। आजकल का जो योगपीठ है, चलते-चलते जाते–जाते वहां पहुंच गए। तो वहां पर जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज को ऐसी स्फूर्ति मिली। बड़े हर्ष और उल्लास के साथ, जोश के साथ गौरंग गौरंग गौरंग गौरंग पुकारने लगे और टोकरी में नाचने लगे। गौराविर्भाव-भूमेस्त्वं निर्देष्टा सज्जनप्रियः इस प्रकार उन्होंने संकेत किया, स्पष्ट किया कि जगन्नाथ मिश्रा और शच्ची माता का भवन और निमाई का जन्म स्थल यही है। उसको जगन्नाथ दास बाबाजी निर्धारित किए या उनकी मदद से भक्ति विनोद ठाकुर निर्धारित किए। तो ऐसे जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज के तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! हरे कृष्ण।
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जप चर्चा,
12 मार्च 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण, 747 स्थानोसे भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। *ब्रह्मा बोले चतुर्मुखी कृष्ण कृष्ण हरे हरे, महादेवा पंचमुखी राम राम हरे हरे* महाशिवरात्रि महोत्सव की जय! कईयों ने तो कल ही मनाई है।हम वैष्णव आज महाशिवरात्रि मना रहे हैं। मायापुर में जगन्नाथ मंदिर है इस्कॉन राजापुर जगन्नाथ, वहां आज महाशिवरात्रि महोत्सव संपन्न होगा। और अगर आज हम मायापुर में होते तो हम भी पहुंच जाते वहां। पिछले वर्ष हम थे वहां, वहां पर जयपताका स्वामी महाराज भी आ गए और भक्तिपुरुषोत्तम स्वामी महाराज भी आ गए। वह शिव जी का स्थान है और पार्वती का भी स्थान है। वह सीमांत द्वीप कहलाता है। कहलाता क्या , है ही सीमंत द्वीप आज के दिन हम वहां महाशिवरात्रि उत्सव मनायेंगे। कृष्ण पक्षा के त्रयोदशी चतुर्दशी हर महीने शिवरात्रि होती है, किंतु आज या साल में एक बार महाशिवरात्रि। आज की रात्रि को विवाह महोत्सव संपन्न हुआ शिव और पार्वती का विवाह महोत्सव। जो पर्वत की पुत्री रहे हिमालय पर्वत की पुत्री जिनका नाम है पार्वती। पार्वती और शिव का विवाह उस दिन का या रात का महोत्सव है। शिव पार्वती की जय! दंपत्ति हो तो शिव पार्वती जैसे।
*निम्न गाना यथा गंगा*
देवानाम अच्यतो यथा।
*वैष्णवानांं यथा शंभो*
*पुरानाम इदम् तथा।।*
(श्रीमदभागवत 12.13.16)
श्रीमद्भागवत में ऐसा कहां है सभी नदियों में श्रेष्ठ नदी है गंगा, निम्नगानां यथा गंगा और सभी वैष्णव में श्रेष्ठ है वैष्णवानाम यथा शंभू, शिव सभी वैष्णवो में श्रेष्ठ है। देवानाम अच्युतो यथा और सभी देवो में अच्यूत श्रेष्ठ है। और फिर कहां है सभी पुराणों में इदम, इदम् मतलब यह यह जो भागवत है श्रेष्ठ है। ऐसा श्रीमद्भागवत में उल्लेख है। शिव जी महाभागवत है। *स्वयंभू नारद शंभू कुमार कपिल मनु* श्रीमद्भागवत के छठे स्कंध में तृतीय अध्याय होगा, यहां यमराज में द्वादश भागवत का उल्लेख किया है। यहां पर भी शिवजी का नाम है। शिवजी का उल्लेख होता है। शिव जी द्वादश भागवत ओं में से एक है। मतलब यह परंपरा से है। इनके नाम से रुद्रा संप्रदाय भी चलता है। अवतार भी है। गुण अवतार ब्रह्मा विष्णु महेश यह तीनों गुण अवतार है। तमगुघ के अवतार हैं शिव जी। मतलब वह स्वयं तम गुणी नहीं है। शिव तो शिव है। शिव मतलब मंगल। मांगल्य से पूर्ण है। ओम नमः शिवाय कहते हैं। जब नमस्कार की बात आती है तो उनके तो कई नाम है। उनमें श्रेष्ठा नाम है, यह एक विशेष नाम है शिव। शिव मतलब पवित्र। ओम नमः शिवाय
हरि हरि, यहां इस सीमंत द्वीप में शिव और पार्वती पहुंच गए। पहले जब अपने कैलाश में ही रहते थे तो एक समय यह सब समय चलता ही रहता था। शिव जी गौरंगा गौरंगा गौरंगा अपने तांडव नृत्य केेे साथ गा रहे है। मस्ती मेंं आकर गौरंगा गौरंगा गौरंगा। तो पार्वती पूछती है कौन है यह गौरांग, शिव जी कहते हैं चलो चलते हैं, आपको दिखाते हैं गौरांग। गौरांग के धाम चलते हैं। वे नवद्वीप पहुंचते हैं। वहां पर तपस्या करते हैं। विशेषकर पार्वती विशेष तपस्या करती है। वह भी गौरांग के नाम का उच्चारण, कीर्तन करती हैं। शिवजी भी कीर्तन करते हैं। इसीलिए हमने वह गाया, *ब्रह्मा बोले चतुर्मुखी कृष्ण कृष्ण हरे हरे,* अपने चारों मुखो से ब्रह्मा बोलते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। पंचमुखोसे शिवजी कहते हैं हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* मतलब दोनों भी कीर्तन करते हैं। वैसे आचार्य हैं ब्रह्मा और शिव जी, यह दोनों की भगवान के नामों का उच्चारण करते हैं।
उन्होंने खूब तपस्या की। यह वाणी की तपस्या ही है। जब हम भगवान के नामों का उच्चारण करते हैं, हम तपस्या करते हैं। यह वाणी की तपस्या है। शरीर से तपस्या होती है। वाणी की तपस्या होती है। मन से तपस्या होती है। मन से तपस्या होनी चाहिए। शिव और पार्वती की तपस्या से और भक्ति भाव से गौरांग प्रसन्न हुए, और गौरांग महाप्रभु ने दर्शन दिया। और उस समय यह दोनों नतमस्तक हुए गौरांग महाप्रभु के चरणों में। और पार्वती ने गौरांग महाप्रभु के चरणों की धूलि अपने मस्तक में धारण की।
जैसे कुमकुम लगाती है माताएं विवाहित स्त्रियां वैसे ही किया पार्वती ने। तो यह कुमकुम लगाना या फिर बालों को बीच में से दोनों तरफ करना उसको सीमंत कहते हैं या फिर भांग भी कहते हैं मराठी में, या फिर सीमांत कहते हैं। तब से पार्वती का दूसरा नाम हुआ सीमंतिणी। अभी कुछ वर्ष पुर्व यह जो सीमंत द्वीप कहां हमने जहां पर जगन्नाथ जी का मंदिर है वहां पर पार्वती के विग्रह की स्थापना हुई। उसे सीमंतिणी कहते हैं। और उस द्वीप का नाम है सीमांत द्वीप। नवद्वीप में से एक है सीमंत द्वीप। अगर हम क्रम से जाएंगे तो उसे प्रथम द्वीप कहेंगे और वह है सीमांत व्दीप। यह सब लीला वहां संपन्न होनी थी। शिव पार्वती का आगमन होना था और फिर उनकी तपस्या फिर उसका फल फिर दर्शन गौरांग महाप्रभु का। और फिर पार्वती में अपने मस्तक पर गौरांग महाप्रभु की चरण धूलि धारण की पार्वती के पति शिवजी तो है ही और फिर सभी के पति कृष्णा है। यह पार्वती भगवान की शक्ति है। बहिरंगा शक्ति, दुर्गा है, काली है, कई सारे नाम है। शिव जी रूद्र कहलाते हैं। भागवत में वह 11 संख्या में है। ग्यारह रूद्र है। ग्यारह रूद्र है तो ग्यारह रुद्राणीया भी हैं। रूद्र की होती है रुद्राणी। ग्यारह रूद्र है तो ग्यारह रुद्राणीया है। और यह सब भगवान की बहिरंगा शक्ति है।
*छायेवयस्य भुवनानि विभर्ति दुर्गा*
*इच्छानुरूपम यस्य चेष्टतेषां*
*गोविंदं आदि पुरुषं तमहम भजामि*
ब्रह्म संहिता में कई सारे तत्व सिखाए हैं। समझाएं हैं। यह शक्ति तत्व है। जो शक्ति के उपासक हैं, उनको शाक्त भी कहते हैं। शिव के पुजारी है शैव कहते हैं। शाक्त और शैव कौन सी शक्ति यह दुर्गा शक्ति के पुजारी किंतु यह भगवान की ही शक्ति हैं। वैसे कृष्ण की शक्ति है, इसीलिए ब्रह्मा जी ने कहा है छायेवयस्य भुवनानि यह कृष्ण की छाया है। कृष्ण की माया है। और यहां महामाया है। गोलोकमें अध्यात्म जगत में योगमाया भौतिक जगत में महामाया। फिर ऐसा भी कह सकते हैं और वह सही भी है, गोलोक में है राधारानी और भौतिक जगत में दुर्गा देवी, पार्वती, शिवजी की अर्धांगिनी।
हरि हरि, वैसे शिवजी और पार्वती को समझना थोड़ा कठिन जाता है। कई शिव जी के पुजारी है। वह कहते हैं, शिवजी श्रेष्ठ है। शिवज ही सब कुछ है। यह बात तो सही नहीं है लेकिन शिवजी एक विशेष व्यक्ति है। वह भगवान है लेकिन वह परम भगवान नहीं है। हां भगवान तो है भगवान कह सकते हैं। वैसे नारद मुनि भी भगवान हैं। शुकदेव गोस्वामी को भी भगवान कहते हैं। भगवान कहिए कैसे भगवान, भगवन जिनके पास ऐश्वर्य है। भग है, फिर किसी के पास ऐश्वर्य का, सौंदर्य का, ज्ञान का, वैराग्य का ऐश्वर्य है। शिवजी भी वैराग्य की मूर्ति है, हो गए भगवान। फिर ज्ञान वैराग्य ऐश्वर्यच एवं वैराग्य एक वैभव है। और शिवजी वैराग्य की मूर्ति है। वह अनासक्त है और वह शमशान भूमि में ही रहते हैं। कितने विरक्त महात्मा है शिवजी।
हरि हरि राजा परीक्षित ने पूछा कि, शिवजी तो स्वयं निर्धन के जैसे ही रहते हैं लेकिन उनके जो पुजारी है शिव जी के धनी होते हैं। और जहां तक विष्णु और कृष्ण की बात की जाए तो वह सारे संपत्ति के मालिक होते हैं। भोक्तारं यज्ञ तपस्या सारे भोग भोंगते हैं। उनके जो पुजारी होते हैं, कृष्ण के पुजारी गरीब बेचारे होते हैं। अकिंचन निष्किंचन होते हैं। शिवजी स्वयं निर्धन जैसे रहते हैं लेकिन उनके पुजारी बड़े धनी होते हैं। वैसे कुबेर भी शिवजी के पुजारी है। वह देवता है। हरि हरि ,लोग धन प्राप्ति के लिए शिवजी की पूजा करते हैं। वैभव प्राप्ति के लिए पूजा करते हैं। धन में वैभव में शिव जी को रुचि नहीं है। उनको तो रुचि भगवान में ही हैं। इस प्रकार शिवजी के पुजारी ठग जाते हैं। वो धन को ही प्राप्त करते हैं भगवान को नहीं। लेकिन कृष्ण के भक्त राम के भक्त भगवान के भक्त बड़े बुद्धिमान होते हैं। चालाक होते हैं। एक दृष्टि से वैराग्यवान होते तो है सही, लेकिन धनवान भगवान को प्राप्त करते हैं।
भगवान को अपना धन समझते हैं। *जेई कृष्ण भजे सेई बड़ा चतुर* जो कृष्ण का भजन करता है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* करता है चतुर कहलाता है और चालाक कहलाता है। लेकिन शिव जी के भक्त तो ठग जाते हैं उनको तो माया ही मिलती है। माया को प्राप्त करना चाहते हैं ।संसार की धन दौलत को प्राप्त करना चाहते हैं।हरि हरि गरीब बेचारे वह शिव जी के भक्त। जहां तक आराधना की बात है तो शिव जी से पूछो ना किस की आराधना करनी चाहिए? आराधना तो कई सारे शिवजी केेेेेेेेेेेेे करते हैं ताकि क्या हो जाए क्या हो जाए धनम देहि, जनम देहि। ताकि सब धन संपदा प्राप्त हो इसीलिए शिवजी केेेेे पुजारी बनते हैं, बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन होता है। लेकिन शिवजी से पूछोगेेे तो.. वैसे पूछने की अलग से आवश्यकता नहीं है उन्होंने कह दिया हैैैै पहले से ही। और शिव जी का एक बार कहना पर्याप्त है।
उन्होंने यह बात पार्वती से भी कही थी *आराधनानाम सर्वेशाम विष्णोर आराधनम परम* हे देवी पार्वती देवी नोट करो उसने तो नोट किया है ही। आराधना करनी है तो किसकी आराधना करो *विष्णोर आराधनम परम* विष्णु की आराधना सर्वश्रेष्ठ आराधना है, ऐसा कहना है महाभागवत शिव जी का कहना है। और पार्वती को उन्होंने कह दिया है पहले से ही कह दिया है। आकाशवाणी एक बार ही होती है बारंबार नहीं होती एक बार कह दिया तो बस हो गया। तो उन्होंन जो भी कहा है सत्य ही कहा है सत्य के सिवा और कुछ नहीं कहते शिवजी। तो हे दुनिया वालों शिवजी को सुनो भगवान शिव उवाच। हरि हरि। यह दोनोंं शिव और पार्वती कृष्ण के भक्त हैं। इनको आप पाओगे कृष्ण लीला में इनका प्रवेश है जब कृष्ण प्रकट होते हैं तो शिव पार्वती वहां है। रामलीला रामायण है तो वहां आपको शिव-पार्वती मिलेंगे।
गौरांग महाप्रभ के रूप में कृष्ण प्रकट हुए नवद्वीप में तो नवद्वीप में सारे लगभग सभी द्वीपोंं में शिवजी का स्थान है। शिव जी की कई भूमिका हैं शिव जी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आदान-प्रदान किया है या तो शिवजी सर्वत्र सभी स्थानों में मायापुर धाम है या वृंदावन धाम है या अयोध्या धाम है इन धामों के दिग्पाल कहलातेेे हैं, दिग्पाल या क्षेत्रपाल कहलाते हैं। फिर वह गोपेश्वर महादेव है या चक्रेश्वर महादेव तो इस तरह यह महादेव इन धामों में रखवाली करते हैं। वैसे योगपीठ में हमारी जो परिक्रमा प्रारंभ होती है नवद्वीप मंडल परिक्रमा तो वहां भी वृद्ध शिव जी का स्थान है। सर्वप्रथम उनको नमस्कार और प्रार्थना की जाती है ताकि नवद्वीप परिक्रमा मेंं भक्त सुरक्षित रहे क्योंकी नवद्वीप धाम के क्षेत्रपाल स्वयं शिवजी हैै। तो और क्या कहा जाए और हमको कुछ कहने भी नहींं आता ज्यादा कुछ समझते तो है नहींं और कौन समझ सकता है शिवजी और पार्वती को। उनका अपना एक तत्व भी हैं एक हैैै जीव तत्व, तो शिव जीव नहीं है वे जीव तत्व नहीं है। और साथ ही साथ वे विष्णु तत्व भी नहीं है जिसको भगवान कहे *संभवामि युगेे युगे* और *अद्वैतम अच्युतम अनादि अनंंत रूपम* मेरे कई सारे रूप है तो यह सब विष्णु तत्व कहलाते हैं।
*नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु* यह सारे विष्णु तत्व है लेकिन शिव ना तो जीव तत्व है ना तो विष्णु तत्व है शिव का अपना ही खुद तत्व है शिव तत्व है। जिसको ब्रह्मा पुनः कहे *क्षीरं यथा दधि विकारविशेषयोगात्* कृष्ण क्षीर या दूध है और शिव जी दधि दही है। दूध से दही बनता है दही स दूध बनता है क्या? राखी माताजी दही स दूध बना सकती हो? नहीं संभव ही नहीं लेकिन दूध से दही बन सकता है। श्री ब्रह्मा जी ऐसा समझा रहे हैं हमको तो भगवान कृष्ण है, राम है, नरसिंह है, वराह है यह दूध है और शिवजी है दही दोनों का भी उपयोग है। दूध भी आवश्यक है दही भी आवश्यक है। दूध अपना काम करेगा दही अपना काम करेगा। *शम्भुताम गतः* ऐसे ब्रम्हा कहे मतलब भगवान ही बने हैं, शंभू बने हैं शिव जी बने हैं। नवद्वीप में हरिहर क्षेत्र आता है वहां आप जाओगे परिक्रमा में तो हरिहर हरि और हर दोनों मिलके एक रूप है। एक दृष्टि से वैसे वे अद्वैत भी है दोनों को अलग नहीं किया जा सकता ऐसा घनिष्ठ संबंध है, कृष्ण का, गौरंग का या शिव जी का और वैसेे सदाशिव ही तो बने अद्वैत आचार्य।
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द*
*श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द*
तो अद्वैत आचार्य शिव जी है या सदाशिव है या वे महाविष्णु है ऐसा भी हम सुनते हैं। और वह भी बात सही है क्योंकि वैसे महाविष्णु से ही सदाशिव उत्पन्न होते हैं और सदाशिव का अपना लोक है। यह ब्रह्मांड तो दुर्गा का लोक है दुर्गा देवी का देवी धाम है। ऐसा यह ब्रह्मांड देवी धाम है *देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु* और *गोलोकनाम्नि* तो वैसे सर्वोपरि है गोलोक और सबसे नीचे है यह देवी धाम दुर्गा का धाम पार्वती का धाम कहो। इसके ऊपर दुर्गा धाम या देवी धाम के ऊपर है शिव जी का धाम उसको महेश धाम कहां है। यह महेश धाम वैसे आधा वैकुंठ में है यह वैकुंठ की तरह ही है उसके नीचे का जो भाग है महेश धाम का शिव धाम का वह भौतिक जगत में है। फिफ्टी फिफ्टी। तो नीचे का जो भाग है महेश धाम का वहा कालभैरव इत्यादि जो शिवजी के रूप है जो इस सृष्टि के प्रलय के कारण बनते हैं जो विनाशकारी है या तमोगुण के जो अधिष्ठाता है वे शिव के रूप निवासी है महेश धाम के नीचे का जो भाग है। और ऊपर है सदाशिव जो लगभग विष्णु जैसे। जैसे विष्णु लोको में या वैकुंठ लोको में अन्य रूप है। तो वह सदाशिव अद्वैत आचार्य के रूप में और वह पंचतत्व अभी-अभी वे शिव तत्व थे। अद्वैत आचार्य अभी वे पंचतत्व बने हैं।
*पञ्चतत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तरूपस्वरूपकम्*
*भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकम्*
तो पांच तत्व है, पंचतत्व। उसमें से अद्वैत आचार्य यह महाविष्णु है सदाशिव है वे दोनों भी है महाविष्णु भी है और सदाशिव भी है अद्वैत आचार्य। इस प्रकार यह तत्व कुछ कठिन जाता है समझने में और अधिकतर हिंदुओं को यह ज्ञान है भी नहीं। हरी हरी। वे आशुतोष है हमारी आशा की पूर्ति करते रहते हैं इसीलिए हम पूजा करते हैं। कोई धनवान बनना चाहते हैं, तो सुंदर पति भी चाहिए तो चलो शिव जी के पास पहुंचते हैं। उनकी कृपा से पति भी प्राप्त होंगे इस प्रकार संसार के कामना वाले अपनी कामना की पूर्ति करने वाले या भगवान वैसे शिव जी के रूप में ही रहते शिव पार्वती के रूप में। कृष्ण स्वयं व्यवहार नहीं करना चाहते हैं इन दुनिया वालों के साथ और उनकी जो मांगे होती है। *आशापाशशतैर्बद्धा:* इस संसार के लोग कई सारी आशा लेकर बैठते हैं। शिव जी होते हैं आशुतोष आशु मतलब जल्दी से लोगों को संतुष्ट करते हैं। क्या चाहिए तुमको ले लो, तुम्हें चाहिए ले लो चले जाओ निकल जाओ मुझे जप करने दो।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*
शिव जी को भक्ति करना पसंद करते हैं। तो जब कोई आता है मुझे यह चाहिए यह देहि, वह देहि, धनं देहि ठीक है ले लो हमको भजन करने दो। तो ऐसे सबको निपट लेते हैं फिर लोग ठग जाते हैं। वैसे शिवजी संकर्षण के पुजारी है, महाविष्णु से उनकी उत्पत्ति भी है। महाविष्णु वैसे संकर्षण से महाविष्णु होते हैं। शिवजी जो ध्यान करते हैं संकर्षण का ध्यान करते हैं संकर्षण के पुजारी है शिवजी। शिव जी के गले में जो सर्प है वह भी संकर्षण का ही प्रतीक है वह साधारण सर्प नहीं है। उसी को गले में धारण किए हैं जो प्रिय होता है उसी को गले में धारण करते हैं हम। शिवजी को संकर्षण भगवान प्रिय है तो उनका एक रूप सर्प या अनंतशेष उन्हीं को धारण किए हैं अपने गले में। तो शिवजी और पार्वती यह पति-पत्नी वैसे क्या करते रहते हैं? खूब कथा करते रहते हैं भागवत की कथा। श्रीमद् भागवत महात्म्य में कहां है स्कंद पुराण में शिव और पार्वती सदैव कथा करते रहते हैं और एक दूसरे को सुनाते रहते हैं। यह नहीं कि केवल शिव जी की कथा करते हैं, पार्वती भी कथा करती है फिर शिवजी सुनते हैं।
शिवजी कथा करते हैं तो पार्वती सुनती है। ऐसी कथा जब शिवजी कर रहे थे तब आ गए ना आपने पहले सुना होगा, एक तोता आगया पीछे बैठकर सुन रहा था। वे शुकदेव गोस्वामी भविष्य में बनने वाले शुकदेव गोस्वामी सुन रहे थे वह कथा। तो यह आदर्श दंपत्ति है इनका आदर्श अपने सामने रखो। कथा कीर्तन करते रहो, कृष्ण का, राम का, गौरांग महाप्रभु का। हा शिवजी की भी कई लीलाएं, कथाएं दिव्य है किन्तु वे तमोगुण के अधिष्ठाता है। या विनाश करना उनकी एक सेवा है लीला है उत्तरदायित्व है। लेकिन शिवजी उतने से ही सीमित नहीं है उनसे संबंधित कई सारे तत्व, सिद्धांत, लीला या घटनाएं है, जो दिव्य है, अलौकिक है। ऐसे शिवजी बड़े दयालु है जब सूर असुर मंथन कर रहे थे समुद्र मंथन तो सर्व प्रथम क्या उत्पन्न हुआ? हलाहल विष उत्पन्न हुआ और सर्वत्र फैल गया। उसी समय विनाश होना था इस संसार का तो सभी देवता पहुंच गए शिव जी के पास। बचाओ बचाओ संसार को बचाओ संसार के जीवो को बचाओ। तो शिव जी ने क्या किया? शिवजी सारा विष पी गए युक्ति पूर्वक उस जहर को उन्होंने पेट तक नहीं पहुंचाया, उसको कंठ में ही धारण किया। तो रक्षा हो गई संसार की और उसके उपरांत एक के बाद एक कई सारे रत्न उत्पन्न होने लगे समुद्र से।
प्रथम जहर निकला और शिवजी पिए उसको गले में धारण किए। तो जहर का जो रंग होता है, काला, नीला शिवजी का कंठ ही हुआ नीले रंग का। फिर उनका नाम हुआ नीलकंठ नीले कंठ वाले शिव जी। तो वह नीला कंठ स्मरण दिलाता है शिव जी का, शिव जी के दया का, शिव जी ने की हुई जो कृपा सारे संसार के ऊपर उसका। इस तरह जब गंगा को भगीरथ जी लाना चाहते थे इस पृथ्वी पर तो शिव जी अगर अपनी जटा में धारण करने के लिए तैयार नहीं होते, गंगा तो स्वर्ग में ही रह जाती, पृथ्वी पर नहीं आती। तो शिव जी तैयार हो गए और गंगा को धारण किए वहां से आगे बढ़ी गंगा, वहां से बहने लगी। अगर शिवजी वह सेवा नहीं करते तो गंगा का भी अवतरण नहीं होता।
शिव जी ने धारण किया गंगा को अपनी जटाओं में तो हो गए वह गंगाधर नाम से जानने लगे। शिव जी का एक नाम है गंगाधर, गंगा को धारण करने वाले। और फिर जब समुद्र मंथन हो ही रहा था तब सर्वप्रथम जो रत्न उत्पन्न हुआ वह चंद्र था। चंद्र शीतलता को प्रदान करता है, शिव जी अभी-अभी पिए थे जहर को गरमा गरम उनको शीतलता प्रदान करने के लिए वह रत्न शिव जी को दिया गया और उन्होंने अपने जटा में धारण किया। तब से शिवजी चंद्रमौली नाम से जानने लगे। चंद्र को धारण किए वह चंद्र कहां से आया उसी समुद्र से उत्पन्न हुआ। हरि हरि। ऐसी कई सारी लीलाएं कथा है सारे पुरान भरे पड़े हैं। भागवत महापुराण में भी शिव जी की कथाएं हैं लेकिन वे अधिकतर कृष्ण के भक्त हैं, राम के भक्त हैं, विष्णु के भक्त हैं, गौरांग के भक्त हैं ऐसी लीला कथा का ही ज्यादा प्राधान्य है। और उस रूप में ही हमें समझना चाहिए। इसीलिए कहां है *वैष्णवानाम यथा शम्भू* एक वैष्णव के रूप में हम उनकी आराधना करते हैं। दुनिया की और कुछ समझ है उसको भी थोड़ा समझाया है आप को, तो ठगना नहीं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
11 मार्च 2021
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द ॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज 722 स्थानों सें अभिभावक उपस्थित हैं।
जय गौरांग! गौरांग!गौरांग!
अब गौरपौर्णिमा भी आ रही हैं।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाव्दैतचंद्र जय गौरभक्तवृंद।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि जय…!
हरिनाम संकीर्तन कि जय…!
जगन्नाथ पुरीधाम कि जय…!
रथयात्रा महोत्सव कि जय…!
आपके मन में विचार आया ही होगा चैतन्य महाप्रभु के संबंध में और हरिनाम के संबंध में और जगन्नाथ पुरी और जगन्नाथ रथ यात्रा के संबंध में शायद मै कहने जा रहा हूंँ, या कहने का सोच रहा हूँ। ऐसा आपने अंदाजा लगा लिया होगा नहीं तो हम क्यों कहते कि…
जगन्नाथपुरी धाम कि जय!
रथयात्रा महोत्सव कि जय!
हरिनाम संकीर्तन कि जय!
गौरांग महाप्रभु कि जय!
ऐसी ही कुछ बात हैं जो बातें आपसे करते हैं आप अगर तैयार हो तो आप तैयार है आप यही रहना और कहीं नहीं आना जाना हरि हरि या सुन लेना इन बातों को जो बातें वैसे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज कि बातें हैं हमारी तो कुछ है नहीं। क्या मूल्य है हमारी बातों का? क्या हमारी बातों का कुछ मूल्य भी है या होगा? और वही बात कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज कि जय! जो लिखे हैं उन्हीं बातों को हम दोहराते हैं। कुछ समझ के साथ, फिर उसकी कोई कीमत है, मूल्य है और परंपरा में कही गई बातें अदर वाइज सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते… क्या? रिक्त स्थान को पूरा करो!
सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते… क्या?
प्रियदर्शनी क्या? (प.पु.लोकनाथ स्वामी महाराज ने उपस्थित भक्तों में से एक माताजी को प्रश्न पुछा)
निष्फला मताः।
सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः।
(पद्म पुराण)
अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फल है।
संप्रदाय या परंपरा के बाहर कि उटपटांग बाते होती है जो परंपरा में बातें नहीं होती संप्रदाय कि और से बातें नहीं होती तो विफल कोई फल नहीं हैं। विफल मतलब असफल।
हरि हरि! विफले जनम गोडा़इनु
ऐसा भी हमारे वैष्णव आचार्य गीत गाए हैं। अरे अरे मैंने तो ऐसे ही खाली फोकट का जीवन गवाया या बिताया हैं। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के किर्तन का वर्णन सर्वत्र किए है, वैसे चैतन्य चरितामृत में
आदौ, मध्ये अंते हरि: सर्वत्र गीरते
*वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा।
आदावन्ते च मध्ये च हरि: सर्वत्र गीयते।।
अनुवाद: वैदिक साहित्य में, जिसमें रामायण, पुराण कथा महाभारत सम्मिलित हैं, आदि से लेकर अंत तक तथा बीच में भी केवल भगवान हरि कि ही व्याख्या कि गई हैं।
चैतन्य चरितामृत में हरिनाम का गान सर्वत्र है प्रारंभ में, मध्य में, अंत में या फिर कहो आदि लीला में, मध्य लीला में, अंत लीलाओ में, ये चैतन्य चरितामृत के तीन विभाग हैं, आदि, मध्य, अंत लीला। कीर्तन का तो वर्णन चैतन्य महाप्रभु के लीलाओं का वर्णन तो सर्वत्र हैं तो भी उन कीर्तनो में जो जगन्नाथ पुरी में और भी जगन्नाथ रथ यात्रा के समक्ष जो कीर्तन होता था, वह कीर्तन विशेष होता था इसलिए भी रहता था चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में कीर्तन करते थें। उनके कृष्ण-राधा के कृष्ण विराजमान रहा करते थे रथ में, कृष्ण रथ में, पुरुषोत्तम श्री कृष्ण रथ में और
श्री कृष्णचैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- भगवान चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन् श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
राधा रानी रथ यात्रा के समक्ष यह जगन्नाथ के समक्ष और कृष्ण के प्रसन्नता के लिए हरी हरी! चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में फिर वो राधा ही बन जाते। वैसे वे राधा तो थे ही, नाम तो हो चुका है श्री कृष्ण चैतन्य कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः
नाम है कृष्ण चैतन्य किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु…
अन्त: कृष्णं बहिर्गौरं दर्शिताड़़्गादि-वैभवम्।
कलौ सड्कीर्तनाद्यै: स्म कृष्ण- चैतन्यमाश्रिता:।।
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 3.81)
अनुवाद: -मैं भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूंँ। जो बाहर से गौर वर्ण के है,किंतु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं इस कलयुग में भगवान के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तार अर्थात अपने अंगों तथा उपांगो का प्रदर्शन करते हैं।
ऐसे चैतन्य भागवत में लिखा हैं। वे दो रुप तो एक ही है अंदर छिपे हुए है कृष्ण रूप में और बाहर राधा रानी हैं टू इन वन। या राधा के पीछे छुपे हैं श्री कृष्ण। बाहर है राधा तो राधा तप्तकांचन गौरांगी है,बाहर हैराधा तो बाहर से गौरांग दिख ही रहे हैं। देख रहे हैं कि नहीं आप? गौरांग! गौरांग!गौरांग! उनके अंग का रंग गौर वर्ण का हैं। वह गौरांग बाहर से गौर वर्ण अंदर है श्री कृष्ण। जगन्नाथपुरी में जिनका नाम लिखा है अंतिम लीलाएँ है मतलब जगन्नाथपुरी में जो अंतिम लीलाई संपन्न हो रही हैं। उन लीलाओं में चैतन्य महाप्रभु राधा रानी ही है राधा रानी भी तो थे तो अधिक राधा रानी कि भूमिका निभाते। कृष्ण भी साथ में है राधा और कृष्ण दोनों मिलकर एक रुप बना है लेकिन कृष्ण सक्रिय नहीं है कृष्ण हैं लेकिन उनमें से राधा और कृष्ण युगल रूप है उसमें से राधा रानी सक्रिय हो जाती हैं आगे आगे रहती है कहो, वही अपनी भूमिका निभा रही है और कृष्ण देख रहे हैं। विशेष रुप से जब रथ यात्रा, जगन्नाथ रथ यात्रा महोत्सव संपन्न होता है जगन्नाथपुरी में वहा तो राधा रानी पूरी सक्रिय हैं क्योंकि कृष्ण रथ में है और गौरांग महाप्रभु में से जो राधा रानी है गौरांगी है वह केवल उपस्थित ही नहीं है या केवल खड़ी ही नहीं हैं, चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में कीर्तन करते और जब चैतन्य महाप्रभु कीर्तन प्रारंभ करते थे तो उनके साथ उनका नृत्य भी शुरू होता है ऐसे कभी नहीं हुआ कि चैतन्य महाप्रभु कीर्तन कर रहे हैं और नृत्य नहीं हो रहा हैं
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन।
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥
(श्री श्री गुर्वोष्टक)
अनुवाद: -श्रीभगवान् के दिवय नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
महाप्रभु का कीर्तन और कीर्तन के साथ नृत्य प्रारंभ होता हैं। कीर्तन करते शुरुआत करते कीर्तन की और उसको जैसे सुनते उनमें जो चैतन्य नाम भी चैतन्य उन के सारे कार्यकलापों में भी चैतन्य। एक होता है जड़ और दूसरा होता है चैतन्य। चैतन्य जग जाता और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन के साथ नृत्य प्रारंभ करते। रथ यात्रा के समय वाले जो चैतन्य महाप्रभु का नृत्य और कीर्तन एक विशेष उत्सव। जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव कि जय…!
जगन्नाथ रथ यात्रा महौत्सव तो हो रहा है और उसके केंद्र में चैतन्य महाप्रभु और उनके कार्य कलाप जो कीर्तन और नृत्य हैं वही उत्सव बन जाता या वही मुख्य उत्सव का अंग कहो या उत्सव का प्रकार हैं। चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन और नृत्य श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यात्रा के समय स्वरुप दामोदर और एक हो गए चैतन्य महाप्रभु दूसरे हो गये स्वरुप दामोदर जो बढीया गायक और वे ललित ही है ऐसी टीम हैं। चैतन्य महाप्रभु राधा रानी और स्वरूप दामोदर ललिता है और आठ भक्तों का चयन होता और यह 10 लोग मिलकर,लोग कहना अच्छा नहीं लगता लेकिन क्या कहा जाए ऐसे व्यक्तित्व चैतन्य महाप्रभु यह सारे मिलकर कीर्तन गायन प्रारंभ करते 10 व्यक्ति कीर्तन का संचालन (लीड) कर रहे हैं और रथ यात्रा के समय आपने सुना होगा चैतन्य महाप्रभु भी रथयात्रा के समय वहां के उपस्थिति या वहा पहुंचे हुए भक्तों को साथ अलग-अलग दलों में, मंडलियों में उनका विभाजन करते और उसमें से कुछ सामने हैं फिर कुछ दाएं-बाएं हैं एक-एक और कुछ पीछे हैं और यह 10 चैतन्य महाप्रभु और स्वरुप दामोदर और 8 भक्त संचालन (लीड) करते तो अनुसरण करने वाले सारे मंडली उनके पीछे कीर्तन गाते और चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते समय वैसे कहा हि हमने कि उनका नृत्य प्रारंभ होता है और रथ यात्रा के समक्ष वाला जो चैतन्य महाप्रभु का नृत्य अद्वितीय सा नृत्य उस नृत्य को उदंड नृत्य भी चैतन्य चरितामृत में लिखा हैं,फायरब्रांड( तेजतर्रार)कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने कहा है।वह कीर्तन कैसा? या नृत्य कैसा? उदंड नृत्य! कीर्तन करते समय चैतन्य महाप्रभु उची कुद लगाते लेते और फिर नीचे आ जाते और नित्यानंद प्रभु सदैव तैयार रहते ताकि चैतन्य महाप्रभु पुरा जमीन पर ना गीरे या बाह्य ज्ञान नहीं रहा तो वैसे भी वह गिर सकते थें। महाप्रभु फिर लौटने लगते थे उसे बचाने के लिए नित्यानंद प्रभु ने चैतन्य महाप्रभु जहा भी जाते हैं केवल उड़ान ही नहीं भरते ऊची कूद ही नहीं करते किंतु चैतन्य महाप्रभु गोलाकार कीर्तन करते स्वयं को गोलाकार घुमाते भी और स्पीनींग करते हुए गोल गोल घूमते इतनी तेजी से घूमते थे एक साथ गोल भी घुमते इतने तेजी से वे घुमते चैतन्य के साथ जैसे इलेक्ट्रिसिटी(बिजली) कितने तेज़ी दौड़ती हैं, या उसका संक्रमण होता हैं। 1,00000 स्ट्रीट लाइट्स (सडक का प्रकाश प्रबंध) है तो हम स्विच ऑन(चालू) करते ही वैसे एक के बाद दूसरे के बाद दुसरे के बाद तिसरे, तिसरे के बाद चौथे ऐसे बल्ब जलने चाहिए।और ऐसे बल्ब जलते भी है और ऐसे लगता है कि वे एक साथ चलते हैं इतनी तेजी से एक बाद एक ऐसे बल्ब जलते तो है लेकिन वह गति इतनी तेज होती है कि, लगता है एक ही जल रहे हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के इस कीर्तन में चलायान चैतन्य महाप्रभु एक स्थान से दूसरे स्थान इतनै तेजी से वे चलते हैं तो कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखते हैं हमारे हाथ में कोई इलेक्ट्रिसिटी की बात की तो आंख तो मान लो किसी ने या मैंने अपने हाथ में मशाल ली हुई है। मशाल जल रही है उसको हम बड़े तेजी से घुमाएंगे गोलाकार तो क्या आप अनुभव करोगे? वह आग सर्वत्र एक ही साथ सब जगह है।एक्शन तो एक ही स्थान पर होता है लेकिन वह इतनी तेजी से हम जब घूमाते हैं तो हमारा अनुभव होता है कि तो फायर ब्रांड सर्वत्र हैं। तद्भव चैतन्य महाप्रभु उस कीर्तन में नृत्य भी कर रहे है और इतने तेजी से वे घूम रहे हैं।वहां के उपस्थित भक्त ऐसा अनुभव किया करते थे कि चैतन्य महाप्रभु सर्वत्र है और अग्नि जैसा उनका तेज भी गौरांग जो है तप्तकाञ्चनगौराङ्गि गौरांग वह सुनहरा रंग लेकिन कैसा सुनहरा रंग? तप्तकाञ्चन ,तप ने वाला सोना है और भी चमकता हैं। सबको लगता कि चैतन्य महाप्रभु सब स्थानों पर है और फिर नित्यानंद प्रभु वह हमेशा तैयार रहते थे चैतन्य महाप्रभु जहां भी जाते हैं। इस तरफ़, उस तरफ़आगे, पीछे, गोलाकार तो नित्यानंद प्रभु बिल्कुल उनके पास रहते हरि हरि!
यह नित्यानंद प्रभु का रोल है नित्यानंद प्रभु संकर्षण है, नित्यानंद प्रभु अनंत शेष है, जैसे अनंत शेष कि शैय्या होती है,जो आधार बनता है,विष्णु जब पहुडते हैं। किस पर पहुडते हैं? शैय्या पर! वह अनंत शेष होते हैं। जो बलराम के विस्तार होते हैं, संकर्षण के विस्तार होते हैं। वही पात्र यहां पर भी नित्यानंद प्रभु का हुआ करता था। ऐसा संबंध ऐसी सेवा है नित्यानंद प्रभु कि आदि संकर्षण होने के कारण और पीछे से अद्वैताचार्य भी रथ यात्रा के समय पूरे बंगाल से जगन्नाथपुरी पहुंच जाते थें अव्दैताचार्य उस दल का संचालन भी करते थे और जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन और नृत्य कर रहे है तो अव्दैताचार्य भी कीर्तन और नृत्य कर रहे हैं। वैसे नित्यानंद प्रभु भी नृत्य और कीर्तन कर रहे हैं और साथ में सेवा भी कर रहे हैं नित्यानंद प्रभु चैतन्य महाप्रभु कि और अव्दैताचार्य भी सेवा कर रहे हैं,तो पिछे से अव्दैताचार्य जोर जोर से बोलते हैं हरि बोल…! हरि बोल…! हरि बोल…!
चैतन्य महाप्रभु को और प्रेरित कर रहे हैं।उत्साहित कर रहे हैं।वैसे चैतन्य महाप्रभु बड़े सक्रिय थे और फिर पीछे से अद्वैताचार्य जोर-जोर से पुकारते हरि बोल…! हरि बोल…! हरि बोल…! वे अपना हर्ष उल्हास व्यक्त करते हरि बोल…! हरि बोल…! हरि बोल…! कहते हुए। बीच में चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन चल रहा है नृत्य चल रहा है और फिर जगन्नाथ का दर्शन भी कर रहे हैं।अभी स्तंभित हुए हैं। स्तंभित होना भी एक है भक्ति का विकार है अष्ट विकारों में से एक विकार है। स्तंभित होना स्तंभ मतलब खंबा। ना हिल रहा है ना डुल रहा हैं। अचानक अब बिजली जैसा नृत्य कर रहे थें। कीर्तन और नृत्य हो रहा था लेकिन अब अचानक रुक जाते हैं और स्तंभित हो जाते हैं और जगन्नाथ कि ओर देखते हैं।
अपलक नेत्रों से और प्रार्थनाएं प्रारंभ होती हैं
नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च ।
जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥(विष्णु पुराण 1.19.65)
अनुवाद:में भगवान श्री कृष्ण को प्रणाम करता हूँ,जो की गायों,ब्राह्मणों और पूरे जगत के हिट चाहने वाले हैं I में बारम्बार उन गोविंद को प्रणाम करता हूँ जो इंद्रोयों को तृप्त करने वाले हैं।
जयति जयति देवो देवकी नंदनो सौ
जयति जयति कृष्णो वृष्नी वंस प्रदीपह(च च मध्यलीला 13.78)
अनुवाद:आपकी जय हो,जो देवकी के पुत्र के रूप में विख्यात हैं,आपकी जय हो जो वृष्नी के वंशज के रूप में विख्यात है।
नहं विप्रो न च नरपतिर न अपि वैश्यो न शुद्रो ,नाहं वर्णी न च गृह पतिर नो वनस्तो गतिर्व।
किन्तु प्रोड्यां निखिल परमानंद पूर्णा मृताबधेर गोपी भर्तु: पद कामलयोर दासदासानुदास:
(च.च. मध्य लीला 13.80)
अनुवाद : मैं न तो ब्राह्मण हु , न क्षत्रिय , न वैश्य न ही शुद्र हू। नहीं मैं ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ या सन्यासी। मैं तो गोपियों के भर्ता भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों के दास के दास का भी दास हु। अमृत के सागर के तुल्य है और विश्व के दिव्य आनंद के कारणस्वरूप है । वे सदैव तेजोमय रहते है ।
ऐसी प्रार्थना है ।और प्रार्थनाएं भी हैं। ये कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरिता मृत में लिखी है।
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे ॥१॥(जग्गनाथष्टकं)
अनुवाद: है जग्गनाथ स्वामी,आप कृपया सदैव मेरे नेत्रो के समक्ष रहिये
और फिर स्तंभित ( स्तंभ यानी खम्बा)हुए हैं दर्शन कर रहे हैं। प्रार्थनाएं हो रही हैं। फिर कीर्तन और आगे बढ़ता है और जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक अखंड कीर्तन चलता रहेगा। यह कीर्तन उत्सव है। श्रवण उत्सव है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और जो भी सब वहां पर उपस्थित हैं उन सभी को वह नचा रहे हैं और कीर्तन करवा रहे हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
तो यह सब चल रहा है ।अष्ट विकारों में से यह एक विकार है, जैसे तुकाराम महाराज भी कहते हैं जब आनंद से मन भर जाता है तो आनंद के आंसू बहने लगते हैं । यह चैतन्य महाप्रभु में भी होता था। लेकिन चैतन्य महाप्रभु की आंखों से अश्रु की धारा निकलती थी जैसे होली के समय पिचकारी से हम औरों तक रंगीन जल पहुंचा देते हैं, ऐसे चैतन्य महाप्रभु के नेत्रों से इतनी बड़ी जल की धारा बहती है।
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥६॥( शिक्षाष्टकं)
हे प्रभु, कब आपका नाम लेने पर मेरी आँखों के आंसुओं से मेरा चेहरा भर जायेगा, कब मेरी वाणी हर्ष से अवरुद्ध हो जाएगी, कब मेरे शरीर के रोम खड़े हो जायेंगे ॥६॥
शिकष्टकं में भी चैतन्य महाप्रभु ने इस बात का उल्लेख किया है ।वह एक साधक के रूप में कह रहे हैं कि ऐसा कब होगा भविष्य में कि हमारे जीवन में ऐसा दिन आएगा ,जब मेरे नेत्रों से ऐसे प्रेमाश्रु होंगे ?चैतन्य महाप्रभु के आसपास गोलाकार में नृत्य हो रहा है। सभी पर अश्रुओं की धाराएं पहुंच जाती हैं। स्नान हो जाता है। उन सभी का अभिषेक हो जाता है। सब लोग भीग जाते हैं ।
चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयः-कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥( शिक्षाष्टकं ,1)
चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥
यह आत्मा का स्नान है। जब कीर्तन होता है तब हरिनामामृत से भी स्नान हो रहा है ।और जगन्नाथ रथ यात्रा में , चैतन्य महाप्रभु के आंसुओं से भी स्नान हो रहा है। वहां उपस्थित भक्तों को कोई परेशानी नहीं। कोई अपनी जान बचाकर नहीं भाग रहा ।वे चाहते हैं कि मेरा भी पूरा अभिषेक हो जाए। मैं अभी पूरा तो नहीं भीगा हूं, अभी भी माया ने पछाड़ लिया है किउच आंशिक रूप से। मैं पूरी तरह से कृष्ण भावना भावित होना चाहता हूं ।मेरे सर्वांग को, आत्मा को ,बुद्धि को भिगाईये प्रभु ।नाम अमृत से, अपने अश्रुओं से। कीर्तन चल रहा है और सब जा रहे हैं गुंडिचा मंदिर की ओर। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने ऐसी बातें लिखी हैं, ऐसी घटनाएं जैसी घटित हुई थी। उस समय के रघुनाथ दास गोस्वामी हैं वह क्या करते थे वह एक दैनंदिनी जिसे हम डायरी कहते हैं। वह रखते थे तो किसी दिन जो लीला देखी, अनुभव किया ,या साक्षात्कार किया, तो लिख लेते थे। उन्हें स्वरूपेर रघुनाथ नाम दिया। स्वरूप दामोदर, रघुनाथ दास गोस्वामी का विशेष ध्यान करते थे। चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर को कहा था कि रघुनाथ दास गोस्वामी का विशेष ध्यान देना। इसीलिए उनका नाम पड़ा स्वरूपेर रघु। रघुनाथ दस गोस्वामी जब वृंदावन पहुंचे तो, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने रघुनाथ दास गोस्वामी की डायरी की मदद से चैतन्य चरितामृत की रचना की। तो चैतन्य चरित्रामृत के लेखक ने तो चैतन्य महाप्रभु को कभी देखा भी नहीं था। उस प्रकट लीला में फिर लीला का दर्शन तो दूर की बात है। और रथयात्रा में भी कभी नहीं गए ।पर वह सब लिख तो रहे हैं ।कैसे लिख रहे हैं? क्या यह कल्पना है ?नहीं। करचाओं की मदद से लिखते जाते हैं। दैनंदिनी या करचाओं की मदद से चैतन्य चरितामृत की रचना हुई। रथ यात्रा में जैसे-जैसे घटना हुई वैसे वैसे रघुनाथ दास गोस्वामी इत्यादि लिखते जाते थे। तो वही आधार है । रथयात्रा आगे बढ़ रही है गुंडिचा मंदिर की ओर कीर्तन और नृत्य चल रहा है। ऐसे कीर्तन और नृत्य करने वाले चैतन्य महाप्रभु के सभी निकटतम आना चाहते हैं। आकर उनके चरणों का स्पर्श करना चाहते हैं या वे सोचते हैं कि कब चैतन्य महाप्रभु उनको आलिंगन देंगे ।ऐसी आशा से सब उनके चरणों की ओर दौड़ पड़ते हैं। फिर इससे उनके नृत्य में विघ्न उत्पन्न होता है ।इसीलिए चैतन्य महाप्रभु के आस पास तीन अलग-अलग गोलाकार बनाकर भक्त खड़े होते हैं। ताकि चैतन्य महाप्रभु को लोगों से दूर रख सकें ।पहला गोला नित्यानंद प्रभु और कुछ भक्त बनाते हैं ।दूसरे गोले में काशीशवर और गोविंद जो चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक हैं। कल भी हमने सुना कैसे ईश्वर पुरी ने काशीश्वर और गोविंद को चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक के रूप में भेजा ।और तीसरा गोला जो है वह राजा प्रताप रूद्र और उनके मंत्रिमंडल का था
बड़े बड़े गोले बनाते हैं पहले से दूसरा गोला बड़ा और दूसरे से तीसरा गोला उससे बड़ा ।उद्देश्य रहा था कि कोई चैतन्य महाप्रभु के पास ना जाए। केवल बोल देने से काम नहीं बनता दूर रहो, दूर रहो ,ऐसा गोला बनाना पड़ता था ताकि चैतन्य महाप्रभु अपनी मस्ती में रहे और भावविभोर होकर कीर्तन एवं नृत्य करते रहें .।कभी रथ एक स्थान पर रुक जाता था। जगन्नाथ स्वामी चैतन्य महाप्रभु के नृत्य का दर्शन करना चाहते तो रथ को रोक देते। जब जगन्नाथ स्वामी रुकना चाहते थे तो खींचने वाले कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि यह जगन्नाथ स्वामी की मर्जी है। वह एक स्थान पर रथ में विराजमान होकर अपने अपलक नेत्रों से चैतन्य महाप्रभु या राधा रानी का दर्शन कर रहे हैं। कीर्तन, नृत्य का ।जैसे कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने कहा कि चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ स्वामी का अपलक नेत्रों से दर्शन करते थे अब जगन्नाथ स्वामी की बारी है। तो उस समय एक वर्णन आता है। राजा प्रताप रुद्र भी खड़े होकर दर्शन करना चाह रहे थे पर हो यह रहा था कि वहां बहुत सारे गोले थे। तो जहां प्रताप रूद्र दर्शन कर रहे थे उनके सामने श्रीवास ठाकुर थे जिस वजह से वह दर्शन नहीं कर पा रहे थे। उनके दर्शन में बाधा आ रही थी। राजा प्रताप रुद्र के सहायक मंत्री हरी चंद्र ने उनहे हटाने का प्रयास किया,हरि चंद को उनके नाम और व्यक्तित्व का पता नहीं था कि वह कितने महान व्यक्तित्व हैं। उनसे कहा हटो ,हटो ,राजा प्रताप रूद्र दर्शन करना चाहते हैं। थोड़ा साइड हो जाइए। श्रीवास ठाकुर इतने तल्लीन थे कि उन्होंने सुना ही नहीं। वे कुछ भी नहीं सुन रहे थे। वे केवल चैतन्य महाप्रभु पर ही ध्यान दे रहे थे। हरि चंदन ने हाथ से स्पर्श करके हटाने का प्रयास किया। तभी श्रीवास ठाकुर को कोई बाह्य ज्ञान नहीं था। बस फिर एक समय ऐसा हुआ कि श्रीवास ठाकुर को गुस्सा आ गया क्योंकि कोई पीछे से बार-बार उनके दर्शन में विघ्न डाल रहा था ।इसलिए वह मुड़े और एक तमाचा हरी चंदन को लगाया । हरी चंदन भी गरम हो गए और उन्हें धकेलने के लिए तैयार ही थे इतने में राजा प्रताप रूद्र ने कहा नहीं नहीं ऐसा मत करो। अरे यह तो श्रीवास ठाकुर हैं और तुम उनको ढकेल रहे हो। तो हरि चंदन ने कहा उन्होंने मुझे तमाचा जो मारा। तो राजा प्रताप रूद्र ने कहा तुम बड़े भाग्यवान हो भाई। मुझे ऐसा भाग्य प्रताप नहीं हुआ। मुझे ऐसा तमाचा मारते तो मैं अपना जीवन सफल मान लेता ।ऐसे उनको समझाया बुझाया ।
ऐसे चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन और नृत्य रथयात्रा में हुआ करता था। पुनः यह सब इस जगत के परे के अनुभव हैं, दर्शन हैं ,ऐसा कीर्तन ऐसा नृत्य ऐसा उत्सव जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव की जय।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। चैतन्य महाप्रभु कीर्तन नृत्य की जय। हरि नाम संकीर्तन की जय।
गौर भक्त वृंद की जय। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
यह जगत से परे है, लेकिन गौर भगवान यहां आए गोलोक के नवद्वीप अथवा श्वेत दीप में जो होता रहता है वहीं लीलाएं उन्होंने यहां प्रकाशित की और उन्हीं लीलाओं में से विशेष रूप से कीर्तन लीला का कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरितामृत में वर्णन किया है और हम तक पहुंचाया है। एक समय चैतन्य चरितामृत का प्रचार प्रसार केवल बंगाल और उड़ीसा में ही था। फिर श्रील प्रभुपाद ने अंग्रेजी में अनुवाद किया। जैसे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने श्रील प्रभुपाद को कहा कि अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो। फिर जब यह हुआ तो श्रील प्रभुपाद ने कहा जितना ज्यादा से ज्यादा भाषाओं में हो सके इन्हें प्रकाशित करो ।जैसे चाइनीज हिब्रू। हरि बोल।
वह लीला हम तक भी पहुंच रही है।
या उस लीला का हम भी श्रवण और अध्ययन करते हैं। खुद समझ कर आप भी इसको औरों तक पहुंचाए।
यार देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश
आमार आज्ञाय गुरु ह्या तारा देश
(च.च मध्य लीला 7.128)
जहा कही भी जाओ श्री कृष्ण का उपदेश कहो( श्रीमद भगवद गीता और भागवतम),इस प्रकार गुरु बनकर सभी जीवों का कल्याण करो।
आप भी कीजिए ताकि कृष्ण भावना मृत का प्रचार बड़े और अधिक से अधिक जीवो को इसका लाभ मिले इसी को कहते हैं
जीव जागो जीव जागो गौरचाँद बोले
कोटा निद्रा जाओ माया पिसाचीर कोले
1,अरुणय गीत,जीव जागो,भक्तिविनोद ठाकुर
अनुवाद:हे जीवों,जागो ,कब तक माया पिशाची की गोद में सोते राहोगें?
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक १०.०३.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 775 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
हरिबोल।
आप सब ठीक हो! मैं भी ठीक हूँ। यदि कोई आई. सी. यू. में भी लेटा है, उससे भी पूछा जाए तो वह भी कहता है कि मैं ठीक हूं। हम लोग बिना सोचे कहते ही रहते हैं कि मैं ठीक हूं, मैं ठीक हूं लेकिन अधिकतर समय हम ठीक नहीं होते किन्तु
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करने से हम ठीक हो जाते हैं, तब हम कुशल मंगल हो जाते हैं। यह हरे कृष्ण जपने और खुश रहने की बात है। ( चैंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी)
उसके लिए जप ( चैंटिंग) भी कैसा होना चाहिए। हमारा जप ध्यानपूर्वक होना चाहिए।
ध्यानपूर्वक व प्रेम पूर्वक जप करने से आनन्द ही आनन्द है। सच्चिदानंद.. भगवान् का आनन्द। भगवान का एक नाम आनंद भी है। आप समझते हो? भगवान का एक नाम आनंद है। एक देवानंद भी हुए, वैसे देवानंद नाम तो भगवान का ही होता है। कृष्ण किसका नाम है? किसी का नाम कृष्ण हो सकता है, अथवा किसी को कृष्ण नाम दिया जाता है लेकिन नाम तो कृष्ण का होता है और किसी को दे देते हैं। जैसे एक बार किसी ने कहा कि मैं कृष्ण हूं और मेरी पत्नी का नाम राधा रानी है।
(ऐसा था उनका नाम कृष्ण था और उनकी पत्नी का नाम राधारानी था) तब हमने कहा कि नहीं! नहीं! तुम कृष्ण दास हो और तुम्हारी धर्मपत्नी राधा रानी देवी दासी है। तुम्हारा नाम कृष्ण है इसलिए तुम कृष्ण नहीं हो, वास्तव में तुम कृष्णदास ही रहोगे। वास्तविकता में सभी नाम भगवान के नाम हैं। जैसा कि मैं बता रहा था कि उसमें से एक नाम आनंद भी है, आनंद भगवान का नाम है। याद रखो हम लोग देवानंद, कृष्णानंद, रसिकानंद,विवेकानंद आदि जैसे कई सारे नाम आनंद के साथ जोड़ देते हैं। भगवान का नाम आनंद है, उनका नाम लेने से हम भी आनंद को प्राप्त करते हैं। वे आनंद के स्त्रोत हैं। जैसे ब्रजवासी कह रहे थे कि नंद के घर आनंद भयो, नंद के घर में आनंद हुआ। आनन्द ही आनंद गड़े। नंद के घर में आनंद हुआ है अर्थात हर्ष, उल्लास भी हो रहा है। आनंद हुआ मतलब कृष्ण हुए हैं, जिनका नामआनंद है, अर्थात कृष्णानंद। नंद के घर आनन्द भयो। आनंद हुआ, कृष्ण हुए। हरि! हरि!आनंद को कृष्ण से अलग नहीं किया जा सकता! कृष्ण आनन्द की मूर्ति हैं। श्री कृष्ण मूर्तिमय आनन्द हैं। यह सब आपको समझ में आ रहा है ना? भाषा हिंदी है, कुछ बातें समझ में तो आएगी ही किंतु इसके जो भावार्थ अथवा गुड अर्थ है, हमें उसको भी समझना चाहिए। यह बातें भी ठीक है लेकिन आज श्रीपाद ईश्वरपुरी का तिरोभाव तिथि महोत्सव भी है। श्रीपाद ईश्वर पुरी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! श्रीपाद ईश्वर पुरी भगवान् चैतन्य महाप्रभु अथवा गौर भगवान के गुरु बन गए। गुरु तो कई होते हैं और कई हुए भी लेकिन भगवान का गुरु होना कितना महिमावान होने की बात है। वैसे भगवान को गुरु की आवश्यकता तो नहीं होती क्योंकि भगवान स्वयं ही गुरु हैं।
वसुदॆव सुतं दॆवं कंस चाणूर मर्दनम् ।दॆवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दॆ जगद्गुरुम् ॥
भगवान् श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिष्य बन जाते हैं। उन्होंने ईश्वरपुरी को अपना गुरु बनाया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पूरे संसार के समक्ष शिक्षा के लिए अपना आदर्श रख रहे हैं।
तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्। शाब्दे पारे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।
( श्रीमद् भागवतम् ११.३.२१)
अनुवाद:- अतएव जो व्यक्ति गंभीरतापूर्वक असली सुख की इच्छा रखता हो, उसे प्रामाणिक गुरु की खोज करनी चाहिए और दीक्षा द्वारा उसकी शरण ग्रहण करनी चाहिए। प्रामाणिक गुरु की योग्यता यह होती है कि वह विचार विमर्श द्वारा शास्त्रों के निष्कर्षों से अवगत हो चुका होता है और इन निष्कर्षों के विषय में अन्य को आश्वस्त करने में सक्षम होता है। ऐसे महापुरुष, जिन्होंने समस्त भौतिक धारणाओं को त्याग कर भगवान की शरण ग्रहण कर ली है उन्हें प्रमाणित गुरु मानना चाहिए।
ऐसी वेदवाणी है। शास्त्र कहता है कि आपका गुरु अवश्य होना चाहिए। गुरु की शरण में जाओ और गुरु को स्वीकार करो।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ३.२१)
अनुवाद:- महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं | वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्र्व उसका अनुसरण करता है।
श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु को गुरु की आवश्यकता नहीं होने पर भी उन्होंने गुरु धारण किया। उन्हें गुरु की क्या आवश्यकता है? वे उन से कौन सा ज्ञान अर्जन करेंगे, ऐसा कौन सा ज्ञान है जो उन्हें अर्जन नहीं है अथवा भक्ति अर्जन करेंगे।
वैराग्यविद्या निज-भक्ति- योग-शिक्षार्थमेक: पुरुष: पुराणः। श्रीकृष्ण- चैतन्य- शरीर- धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला ६.२५४)
अर्थ:- मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता हूं, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं। मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूं।
शिक्षा देने के लिए पुरुष: पुराणः पुराने पुरुष हुए। गोविन्दम् आदि पुरुषं हुए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिक्षार्थमेक देने के लिए अथवा सारे संसार को सिखाने के लिए शिष्य हुए। वे गोलोक में श्रीकृष्ण थे। अब वे स्वयं चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होने वाले थे। कृष्ण अभी गोलोक में ही हैं। उन्होंने व्यवस्था की और कही भक्तों को एडवांस में( पूर्व में ही) आगे भेज दिया। श्रीकृष्ण ने गोलोक वृंदावन से अपने सहायकों अथवा परिकरों को पहले ही भेज दिया। उसमें से एक ईश्वर पूरी भी थे, अद्वैत आचार्य , श्रीवास पंडित, शची माता और जगन्नाथ मिश्र भी थे क्योंकि उनको प्रकट होना है तो उनके माता-पिता भी होने चाहिए ना। इसीलिए उनको पूर्व में ही (एडवांस में) भेज दिया। उन्होंने नामाचार्य हरिदास ठाकुर को भी भेजा।हरिदास ठाकुर गोलोक से नही थे, उन्हें ब्रह्मलोक से इस धरातल पर भेजा। ये सब बंगाल में अलग-अलग स्थानों पर प्रकट हुए ताकि जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं प्रकट होंगे, ये सारी मंडली चैतन्य महाप्रभु की प्रकट लीला में अपना योगदान देगी। ऐसे बड़े भक्तों के समूह अथवा भक्त मंडली जो पहले भेजी गई थी, वह चैतन्य महाप्रभु से पहले की पीढ़ी थी, चैतन्य महाप्रभु तो सेकंड जनरेशन( दूसरी पीढ़ी) में हुए।
ईश्वरपुरी बंगाल में कुम्हार हट नामक स्थान पर जन्मे थे। हरि! हरि! एक समय ईश्वरपुरी नवद्वीप आए थे। वह गोपीनाथ आचार्य के घर पर रहा करते थे। उन दिनों में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु (श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अभी निमाई ही थे अर्थात शची माता के निमाई ही थे) कुमार ही थे अथवा युवावस्था को प्राप्त कर रहे थे। तब ईश्वरपुरी और निमाई की मुलाकात होती है। ईश्वरपुरी के मिलन और दर्शन से निमाई बड़े प्रभावित हो जाते हैं। ईश्वरपुरी उन दिनों में ही निमाई को कुछ शिक्षा देना प्रारंभ करते हैं। दीक्षा तो बाद में होगी पहले शिक्षा होती है, शिक्षा होते होते फिर दीक्षा होती है। ईश्वरपुरी ने कृष्ण लीलामृत नामक ग्रंथ की रचना की थी। ईश्वरपुरी उसे ही निमाई को सुनाया करते थे व भगवान की लीला और भगवत तत्व विज्ञान समझाया करते थे अथवा सुनाया करते थे। ईश्वर पुरी अपने शिष्य निमाई को सेवा में लगाना चाहते थे। उन्होंने निमाई को कहा कि मेरे ग्रंथ का थोड़ा एडिटिंग, संपादन करो। उसकी आवश्यकता तो नहीं थी लेकिन निमाई ने उस आदेश का पालन किया और सम्पादन अथवा एडिटिंग करना प्रारंभ किया। चैतन्य महाप्रभु के ऐसे उद्गार हैं। जैसे भगवान् को विष्णवे नमः कहना होता है। विष्णवे नमः अर्थात विष्णु को नमस्कार। सही संस्कृत अथवा व्याकरण की दृष्टि से यहां परिष्कृत भाषा अथवा शब्द का प्रयोग हुआ था किंतु कभी कभी लिखते हुए सिर्फ आउट ऑफ टंग या त्रुटिवश अंकन (टाइपिंग एरर) हो जाता है वैसे ही उन्होंने विष्णवै: लिखने के स्थान पर विष्णायः लिख दिया जैसे कभी कभी रामाय: या कृष्णाय: लिखा जाता है ना । कोई भी शब्द आता है, तो उसे आय आय लिखते हुए किसी ने रामाय शिवाय भी लिखा। चैतन्य महाप्रभु ईश्वरपुरी से कह रहे थे, भावग्राही जनार्दन: अर्थात जनार्दन तो भाव को ग्रहण करते हैं। आपकी गलती की ओर ध्यान नहीं देते हैं। आपको विष्णवै: नमः कहना था लेकिन आपने विष्णायः नमः कहा अथवा लिखा। आप विष्णु को ही नमस्कार करने की बात लिख रहे हो अथवा विचार भी वैसा ही हो रहा है, व्याकरण की दृष्टि से इस में त्रुटि रही। चैतन्य महाप्रभु ने कहा इसमें कोई चिंता की बात नहीं है, भावग्राही जनार्दनः। ऐसा भी संवाद ईश्वर पुरी और चैतन्य महाप्रभु के बीच में होता है अथवा नवद्वीप में हो रहा है। एक बार ईश्वरपुरी ,जगन्नाथ मिश्र तथा अपने निमाई के घर पर भी पहुंचे थे। शची माता ने उनको एक विशेष प्रसाद खिलाया था। इस प्रकार निमाई और ईश्वर पुरी के मध्य घनिष्ठ संबंध स्थापित हो रहे थे, यह सम्बंध ज्ञान की बात है। हमारा केवल कृष्ण के साथ ही नहीं अपितु कृष्ण के साथ संबंध स्थापित होने से पहले हमारा वैष्णवों के साथ संबंध स्थापित होना चाहिए। उन वैष्णवों में भी हमारा गुरु के साथ संबंध कैसा है, इस पर भी निर्भर रहता है कि हमारा कृष्ण के साथ वाला संबंध कैसा है। ईश्वरपुरी और निमाई को अंग संग एक दूसरे को प्राप्त हो रहा था। हरि! हरि! निमाई तो उन दिनों में निमाई पंडित ही थे। पांडित्य का ही प्रदर्शन चल रहा था अथवा भक्ति का प्रदर्शन नहीं हो रहा था, वह सभी के साथ खूब शास्त्रार्थ करते थे। उनको शास्त्रार्थ में परास्त करते थे, लेकिन तब वह भक्ति तथा प्रेम की चर्चा थोड़ा कम ही किया करते थे जिसके कारण नवद्वीप के निवासी और चैतन्य महाप्रभु के संगी साथी चिंतित थे व प्रार्थना किया करते थे कि हमारा निमाई पंडित तो है किंतु भक्त कब बनेगा, इसको कृष्ण प्रेम कब प्राप्त होगा ।
यह प्रार्थना भगवान ने सुनी, निमाई ने भी सुनी, ईश्वरपुरी माधवेंद्र पुरी के शिष्य रहे। जैसा कि आप जानते हो और आपने सुना भी है कि हमारे गौड़ीय संप्रदाय के प्रथम आचार्य अथवा एक दृष्टि से कहा जाए गौड़ीय वैष्णव संस्थापक के संस्थापक माधवेंद्र पुरी हैं। इस्कॉन के संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद हुए किन्तु गौड़ीय वैष्णव संस्थापकाचार्य तो माधवेंद्र पुरी है। माधवेंद्र पुरी ने बीज बोए, माधवेंद्र पुरी के शिष्य ईश्वरपुरी थे। वैसे माधवेंद्र पुरी के कुछ ज्यादा शिष्य नहीं थे, उनके कुछ गिने-चुने ही शिष्य थे। उनमें से ईश्वरपुरी प्रधान शिष्य थे, वह बड़े प्रेमी शिष्य थे। माधवेंद्र पुरी के अंतिम दिनों में उड़ीसा में बालेश्वर के पास जहां क्षीर चोर गोपीनाथ मंदिर है,भगवान के आदेशानुसार उन दिनों में वहीं पर रहा करते थे। यहां पर माधवेंद्र पुरी का चरित्र प्रारंभ हुआ जो कि चंदन लेने के लिए उड़ीसा आए थे लेकिन भगवान ने कहा अभी तुम गोपीनाथ का ही चन्दन लेपन करो, मैं गोपाल वृंदावन में ही हूं लेकिन तुम्हारी सेवा मुझ तक पहुंच जाएगी। चंदन लेपन सेवा वहीं हुई और वहीं रहने लगे। माधवेंद्र पुरी के अंतिम दिनों में ईश्वर पुरी को उनका अंग संग का सौभाग्य प्राप्त हुआ और वृद्धावस्था में कुछ सेवा भी प्राप्त हुई। इस प्रकार ईश्वर पुरी,माधवेंद्र पुरी की हर प्रकार की सेवा किया करते थे और माधवेंद्र पुरी इस सेवा से बड़े ही प्रसन्न थे।
एक दिन उनका विशेष अनुग्रह रहा और आशीर्वाद दिया कि हरि नाम में तुम्हारी रुचि बढ़े और सब तुम्हारी कीर्ति का गान हर समय सर्वत्र करें। माधवेंद्रपुरी ने ईश्वरपुरी का आलिंगन किया और कहा कि तुम्हें कृष्ण प्रेम प्राप्त हो अथवा तुम में कृष्ण प्रेम उदित हो। तत्पश्चात यह सब हुआ भी। ईश्वरपुरी अब तैयार थे। अब बस केवल चैतन्य महाप्रभु से कनेक्शन (संबंध) होने की बात थी। ईश्वरपुरी को जो कृष्ण प्रेम प्राप्त हुआ था, अब वह चैतन्य महाप्रभु अथवा निमाई अथवा विश्वम्भर को दे देंगे।
इधर नवद्वीप में जगन्नाथ मिश्र नहीं रहे। निमाई ‘गया’ पहुंचे। एक बौद्धों की ‘गया’ है और एक हिंदुओं की भी ‘गया’ है, गया के दो प्रकार हैं। जैसे विष्णु कांची और शिव कांचीपुर विष्णु भक्तों व शिव भक्तों के लिए है, वैसे ही ‘गया’ में बौद्ध गया और विष्णुपद है। जहां पर भगवान के चरणों का चिन्ह है। ‘गया’ ऐसी परिपाटी अथवा स्थान है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पितृ तर्पण अथवा श्राद्ध सेरेमनी करने के उद्देश्य से वहाँ पहुंच गए। संयोग की बात है कि ईश्वर पुरी भी उन दिनों वहीं पर थे, उनकी चैतन्य महाप्रभु की मुलाकात पहले नवद्वीप में हो चुकी थी, वह पहले से ही एक दूसरे से काफ़ी परिचित थे, चैतन्य महाप्रभु उनके शिक्षा शिष्य थे। चैतन्य महाप्रभु के पिताश्री भी नहीं रहे, इसलिए अब वे ईश्वर पुरी को ही अपना पिता के रूप में स्वीकार करना चाह रहे थे। निमाई ने विशेष निवेदन किया। ईश्वरपुरी ने उनको दीक्षा दी। हरि! हरि! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह मंत्र दिया ही होगा। चैतन्य भागवत में उल्लेख आता है कि उन्होंने गोपाल मंत्र भी दिया ही होगा। गोपाल मंत्र देकर दीक्षा समारोह संपन्न हुआ। इसके साथ ही निमाई के जीवन में हल्का सा परिवर्तन ही नहीं अपितु क्रांति हुई। उस दीक्षा समारोह के उपरांत तत्क्षण इतना कृष्ण प्रेम उदित हुआ कि जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भगवान् नाम का उच्चारण करने लगे तब वह तुरंत वृंदावन की ओर दौड़ने लगे। वृंदावन धाम की जय! वृंदावन धाम की जय! वृंदावन कहां है! वृंदावन कहां है! बड़ी मुश्किल से उनको रोका गया। चंद्रशेखर इत्यादि भक्त जो नवद्वीप से उनके साथ गए थे, वे उन्हें वृंदावन ले जाने की बजाय नवद्वीप ले आए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु काम से गए, कृष्ण प्रेम में पागल ही हो गए।
किबा मन्त्र दिला गोसाञि, किबा तार बल। जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.८१)
अनुवाद:-” हे प्रभु! आपने मुझे कैसा मंत्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ।
चैतन्य महाप्रभु ऐसा कहने लगे।
किबा मंत्र दिला हे गोसाञि, हे गोस्वामी, हे मेरे गुरु महाराज ईश्वरपुरी, आपने मुझे कैसा मंत्र दिया है,
‘किबा तार बल’ अर्थात यह मंत्र कितना बलवान है। इस मंत्र में कितनी शक्ति है।
नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥2॥
अर्थ:- हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।
चैतन्य महाप्रभु भी अपने शिक्षाष्टक में ऐसा ही कहते हैं।
चैतन्य महाप्रभु इस बात को कहने व लिखने से पहले ही हरि नाम की शक्ति का, भक्ति का अनुभव करने लगे थे।
किबा मंत्र दिला, गोसाञि, किबा तार बल।जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल।
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.८१)
अनुवाद:- ” हे प्रभु, आपने मुझे कैसा मन्त्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ।
यहां महामंत्र तो मुझे पागल बना रहा है। यह कैसा मंत्र है। हरि! हरि! चैतन्य महाप्रभु जो एक समय के पंडित थे, वे अब ईश्वरपुरी के अनुग्रह व कृपा से उच्च कोटि के कृष्ण भक्त बन गए थे। हरि! हरि! ईश्वर पुरी के विषय में क्या क्या कहा जाए। वे एक महान भक्त थे, यह तो आप समझ ही सकते हो। अलग से कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि वह एक महान भक्त थे। लेकिन हमें समझना तो यह चाहिए कि वह कैसे महान भक्त थे। कुछ उनका महात्मय तो सुनाओ। भक्ति वह ठीक है। लेकिन वे कैसे , क्यों महान थे। ऐसा कोई पूछ सकता है, उनकी महानता का कुछ वर्णन तो करो। ईश्वर पुरी की भक्ति व ईश्वर पुरी का प्रेम आप देख रहे हो। ईश्वर पुरी कृष्णप्रेमप्रदायते थे। उन्होंने कृष्ण प्रेम का दान चैतन्य महाप्रभु को किया। अब चैतन्य महाप्रभु उसे आगे शिष्य परंपरा में कृष्ण प्रेम का वितरण सर्वत्र करेंगे। ईश्वर पुरी ही चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण प्रेम देने वाले निमित्त अथवा कारण बने हैं। यह ईश्वरपुरी की गौरव गाथा है, एक बार ईश्वरपुरी एक धर्म सभा में पहुंच गए। सभी को अपेक्षित था कि ईश्वरपुरी आएंगे, लेकिन वे आए और उस बहुत बड़ी धर्म सभा में बीच में कहीं बैठ गए। उन्होंने अपना परिचय भी नहीं दिया कि मैं यह हूं और मेरा नाम यह है.. वह बड़े विनम्र भाव से सभा में बैठ गए लेकिन वहां उपस्थित भक्तों को पता ही नहीं चल रहा था कि इनमें से कौन से ईश्वरपुरी हैं। ईश्वरपुरी अपना परिचय तो नहीं दे रहे है। तब कैसे परिचय होगा कि कौन से ईश्वर पुरी हैं। इसलिए योजना बनी कि हम ऐसा क्यों नहीं करते कि हम कीर्तन प्रारंभ करते हैं। कीर्तन प्रारंभ हुआ
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन। रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥
अनुवाद:- श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
तब ईश्वरपुरी पहचान लिए गए। उस सभा में जितने उपस्थित थे उसमें से एक व्यक्ति कैसा निकला? वह व्यक्ति जिसके अंग से पसीना निकल रहा है, व शरीर रोमांचित हुआ है, उनकी आंखों से प्रेम अश्रु की धाराएं बह रही हैं। तब सभी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह व्यक्ति, यह महाशय ही ईश्वर पुरी है, यही होने चाहिए, यही है। उनके भक्ति के लक्षणों से सब पहचान गए, जान गए कि ईश्वर पुरी कौन है? यह भी ईश्वर पुरी की पहचान है। हरि! हरि!
ईश्वरपुरी ने अपने अंतिम दिनों में अपने दो शिष्यों को जगन्नाथपुरी जाने के लिए कहा। उनके शिष्य चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथ पुरी में रहते थे। चैतन्य महाप्रभु की अंतिम लीलाएं वहां संपन्न हो रही हैं। ईश्वरपुरी ने काशीश्वर और गोविंद को जगन्नाथपुरी में जाकर चैतन्य महाप्रभु की सेवा करने का आदेश दिया। वैसे शिष्टाचार के अनुसार गुरु भ्राता से सेवा लेना यह उचित नहीं है। चैतन्य महाप्रभु, काशीश्वर और गोविंद गुरु भ्राता थे लेकिन यह ईश्वर पुरी का आदेश था कि जाओ! अपने गुरु भ्राता श्रीचैतन्य महाप्रभु की सेवा करो। वे दोनों जगन्नाथपुरी में बड़े सेवक हुए। उसमें भी गोविंद का नाम बड़ा नाम है। गोविंद चैतन्य महाप्रभु के व्यक्तिगत सेवक थे। काशीश्वर ने भी सेवा की है लेकिन जगन्नाथपुरी में गोविंद चैतन्य महाप्रभु के निजी सेवक हुए।
गोविंद, चैतन्य महाप्रभु की छाया के रूप में रहा करते थे। वह रात दिन अपने गुरु भ्राता श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की सेवा करते थे। वैसे काशीश्वर और गोविंद का नाम कृष्ण लीला में भी है, वे कृष्ण के सखा थे। कृष्ण लीला में कवि कर्णपुर उनके भी नाम बताते हैं जो कृष्ण लीला में दो सखा थे और वह अभी भी सखा बने हैं या सेवक बने हैं। यह कोई अचरज की बात नहीं है, उनका कृष्ण के साथ शाश्वत संबंध ही है। हरि! हरि! चैतन्य महाप्रभु एक बार ईश्वर पुरी के जन्मस्थान कुम्हारहट पर गए। अपने गुरु महाराज की जन्म भूमि का दर्शन किया और वहाँ की धूलि में लोटे। वहां की कुछ मिट्टी उन्होंने अपने साथ में रखी और उसे ले आए। उसको वह अपने शरीर पर थोड़ा थोड़ा मल लेते थे अथवा लेपन करते थे अथवा उसके कुछ कण ग्रहण भी करते थे। जब लोगों को पता चला कि चैतन्य महाप्रभु ने ईश्वर पुरी के कुछ जन्म स्थान से कुछ मिट्टी ली है और वे इस प्रकार से मिट्टी का सत्कार सम्मान कर रहे हैं। तब लोग भी वहां जा जाकर वहां से अपने घर या जहां जहां के थे, मिट्टी लाने लगे जिसके कारण वहां बहुत बड़ा गड्ढा ही नहीं अपितु वहां बहुत बड़ा तालाब बन गया जोकि आज भी है। संयोग की बात है। वर्ष 1986 में जब हम पदयात्रा करते हुए नवद्वीप की ओर जा रहे थे, तब हमारी पदयात्रा का पड़ाव ईश्वर पुरी के जन्म स्थान से कुछ ही दूरी पर कल्याणी नामक स्थान पर रहा। वहां पर मैंने कुछ चार शिष्यों को दीक्षा दी, जय और विजय पहले शिष्य बने।
ऐसे ही एक का नाम श्याम कुंड था और उनकी धर्मपत्नी राधा कुंड थी और भी थे पर नाम याद नहीं आ रहा। भक्ति चारू महाराज उस समय पुरोहित बने थे, उन्होंने सारी आहुतियां चढ़ाई थी व उस यज्ञ का संचालन किया था, उस यात्रा में जयद्रथ महाराज भी उपस्थित थे। उन दिनों में और भी कई महाराज थे और बड़ी संख्या में भक्त वृंद भी उपस्थित थे। मैनें पहली बार दीक्षा दी थी। उसका संबंध ईश्वरपुरी के जन्म स्थान से हुआ क्योंकि हम कुम्हारहट के पास में ही थे और ईश्वर पुरी का स्मरण कर रहे थे या उन्हीं की कृपा से उन्हीं की परंपरा में दीक्षा देना प्रारंभ किया। हरि! हरि! ईश्वरपुरी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
आप ईश्वर पुरी के संबंध में और पढ़ो और स्मरण करो, प्रार्थना करो। यह चैतन्य वृक्ष है अर्थात यह सारा कृष्णभावनामृत आंदोलन एक वृक्ष है। इस वृक्ष के बीज माधवेंद्र पुरी और ईश्वर पुरी हैं। यह बीज अंकुरित हो चैतन्य महाप्रभु बने। इस वृक्ष का जो तना है, वह चैतन्य महाप्रभु हैं। तत्पश्चात शाखाएं उपशाखाओं अथवा इस पूरे वृक्ष का स्रोत व मूल माधवेंद्र पुरी और ईश्वर पुरी हैं। हम ऐसे भी जान सकते हैं कि ईश्वर पुरी की महिमा अद्वितीय रही। उनके जैसा कोई नहीं था, वे ही उनके जैसे थे। ठीक है। पंढरपुर के भक्त सुन रहे थे। अच्छा दर्शन शुरू हो गया। श्रृंगार दर्शन की जय। ठीक है। मुझे अब जाना होगा।
राम! राम! पुनः मिलेंगे!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
9 मार्च 2021
768 स्थानो से आज जप हो रहा है ।
गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल । विजया एकादशी के पावन अवसर पर आप सभी का स्वागत है । किर्तन मिनिस्ट्री ने अभी कुछ एकादशी पूर्व ही श्रवण कीर्तन उत्सव प्रारंभ किया है ।
यह उत्सव सुबह 6 बजे शुरू हुआ। मुझे यकीन है कि आपको आनंद आया। हमने उत्सव की शुरुआत कीर्तन से की। यहाँ मैं अगले में जाता हूँ, हम जप करते रहे हैं। सुबह जल्दी उठने के दौरान सबसे अच्छी बात साधना है। हरिर नामेव केवलम। यह जप है, हम पिछले कुछ समय से हरे कृष्ण महा मंत्र का जाप कर रहे हैं और मैं जप को बाधित नहीं करना चाहता। मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूं। आपके साथ पवित्र नाम स्क्रीन साझेदारी करना चाहता हू । इस जप चर्चा को जपा रिट्रीट सत्र में बदल देंगे। ध्यानपूर्वक पवित्र हरिनाम जपें।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कैसे जपें? ध्यानपूर्वक जपे । मैं आपके साथ जो साझा करने जा रहा हूं, वह आपको ध्यानपूर्वक जप करने में मदद करेगा। आप में से कुछ के लिए यह प्रस्तुति दोहराई जाएगी। दोहराव और स्मरण भी आवश्यक हैं। यह चैतन्य महाप्रभु के समकालीन गोपाल गुरु गोस्वामी द्वारा किया गया है। वह महाप्रभु को सलाह भी देते थे और महाप्रभु कहते थे, “आप गुरु हैं”, “आप मेरे गुरु बन रहे हैं” वह गौरांग महाप्रभु के सहयोगी थे। यह भाष्य बहुत लाभदायक है।
महामंत्र में 16 नाम, 32 शब्दांश हैं। जब हम महामंत्र का जप करते हैं, तब हमें क्या सोचना चाहिए। इस टिप्पणी से हमारी सोच नियंत्रित होती है।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||
(भगवद्गीता 18.65 )
अनुवाद
सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
यह विचार के लिए भोजन है , कृष्ण की सोच। महामंत्र के जप से हमारे सोचने के तरीके को बदलना चाहिए। हम लगातार सोच रहे हैं। यह लगातार सोचना दिमाग का व्यवसाय है हमारे जीवन का एक भी पल बिना सोचे-समझे नहीं चलता। क्या हमारी सांस रुकती है? दिल मशीन की तरह नहीं रुकता। दिल हर समय धड़कता रहता है। दिल के धडकने की तरह, सोच हर समय चलती है। हम हमेशा सोचते हैं। सोचने के केवल दो विषय हैं माया और कृष्ण । दो विषय ! कृष्ण के बारे में सोचें और माया को रोकें, ऐसा करने से हम अपने जीवन की पूर्णता को प्राप्त करेंगे। इसलिए, महामंत्र का जप करते समय, माना जाता है कि हम कृष्ण के बारे में सोच रहे हैं। पिछली एकादशी पर हमें संकेत दिया गया, कि हमें अपने सांसारिक जीवन को बंद कर देना चाहिए।
बंद करना एक बात है, चालू करना भी होता है। सांसारिक चीजों के बारे में मत सोचो, माया। हमें कुछ सोचना होगा, कुछ मन को खिलाना होगा। मन भूखा है। यह कहता है कि मुझे कुछ करने को दो। तब कृष्ण के बारे में सोचो , माया के बारे मे नहीं। यह कोई आसान बात नहीं है लेकिन हमें इसका रोजाना अभ्यास करना होगा। यही कारण है कि हम प्रतिदिन महामंत्र का जप करते हैं, और एकादशी पर भी हम कुछ अतिरिक्त प्रयास करने की अपेक्षा करते हैं। हर दिन क्यों नहीं ? लेकिन एकादशी पर अधिक ध्यानपूर्वक जप करें। अधिक माला फेरने की तुलना में ध्यान से जप करना महत्वपूर्ण है। अगर हम अधिक जप कर सकते हैं और ध्यानपूर्वक जप कर सकते हैं तो यह अधिक अच्छा है।
हम आपको महामंत्र पर वीडियो और भाष्य दिखाएंगे। मैं चाहता हूं कि आप फिर से जप करें, जब कि आप देख रहे हैं। आप प्रभु के बारे में पढ़ सकते है और याद कर सकते हैं। प्रभु के बारे में सोचो। हरे कृष्ण। यह महात्मा प्रभु द्वारा पिछली एकादशी भी किया गया था। इसलिए हमें जप करते समय राधा और कृष्ण और गौर निताई के बारे में सोचना चाहिए। इसलिए जप करते रहें। प्रस्तुति दिखाई जाएगी, आप पढ़ सकते हैं, देख सकते हैं और सुन सकते हैं। इसलिए आप जप और श्रवण करें। हे हरि, मेरा मन चुरा लो। हरे कृष्ण। वीडियो जप समर्थन के साथ जारी है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह गोपाल गुरु गोस्वामी से आ रहा है। वह इस टिप्पणी के साथ आए हैं ताकि हमें सोचने में मदद मिल सके। सही समय पर सही सोच। यह हमारे दिमाग में कृष्ण के बारे में सोचने के लिए भोजन है, हमारी स्मृति मे कृष्ण को पुनर्जीवित करें। हम इस ऑडियो , वीडियो की मदद ले रहे हैं। अभ्यास के बिना हम नही सकते । यह सोचना स्वाभाविक होना चाहिए, और यह है कि हमें कैसे सोचना चाहिए। इस मंत्र ध्यान , नाम स्मरण है। हमने इस प्रस्तुति को आपसे पहले साझा किया था, और आपके साथ साझा कर सकता हूं ताकि आप इसका अभ्यास कर सकें। लिंक साझा करना हो सकता है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण ।
गौर प्रेमानंद हरि हरि बोल ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ०८.०३.२०२१
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे हरे राम राम राम हरे हरे
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।।
737 भक्त जप कर रहे हैं।
जयतां सुरतौ पोर्मम मन्द-मतेर्गती।
मत्सर्वस्व-पदाम्भोजी राधा-मदन-मोहनौ ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.15)
अनुवाद:-सर्वथा ‘दयालु राधा तथा मदनमोहन की जय हो! मैं पंगु तथा कुबुद्धि हूँ, फिर भी वे मेरे
मार्गदर्शक हैं और उनके चरणकमल मेरे लिए सर्वस्व हैं।
दीव्यद्वन्दारण्य-कल्प-द्रुमाधः- श्रीमद्लागार-सिंहासनस्थौ।
श्रीमद्राधा-श्रील-गोविन्द-देवी प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ स्मरामि॥
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.16)
अनुवाद:- श्री श्री राधा-गोविन्द वृन्दाबन में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों के मन्दिर में तेजोमय सिंहासन के
ऊपर विराजमान होकर अपने सर्वाधिक अन्तरंग पार्थदों द्वारा सेवित होते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता है।
श्रीमानरास-रसारम्भी वंशीवट-तट-स्थितः।
कर्षन्वेणुस्वनैर्गोपीर्गोपी-नाथः श्रियेऽस्तु नः ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.17)
अनुवाद:- रासनृत्य के दिव्य रस के प्रवर्तक श्री श्रील गोपीनाथ वंशीवट के तट पर खड़े हैं और अपनी
प्रसिद्ध बाँसुरी की ध्वनि से गोपियों के ध्यान को आकृष्ट कर रहे हैं। वे हम सबको अपना आशीर्वाद
प्रदान करं।
आप यह ३ प्रार्थना सुनते रहते होगें जो मैंने अभी आपको सुनाई हैं।यह प्रार्थना चेतनयचरितामृत के आदि लीला के प्रथम परिच्छेद में लिखी गयी हैं।और यह कृष्ण दास कविराज गोस्वामी के द्वारा लिखित हैं। आप सभी को ही यह प्रार्थनाएं आनी चाहिए।क्योंकि वो लिख रहे हैं-
एड् तिन ठाकुर गौड़ीयाके करियाछेन आत्मसात् ।
ए तिनेर चरण वन्दों, तिने मोर नाथ ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.19)
अनुवाद:- वृन्दावन के इन तीन विग्रहों (मदनमोहन, गोविन्द तथा गोपीनाथ) ने गौड़ीय वैष्णवों (चैतन्य
महाप्रभु के अनुयायियों) के हृदय एवं आत्मा को निमम्न कर दिया है मैं उनके चरणकमलों की पूजा
करता हूँ, क्योंकि वे मेरे हृदय के स्वामी हैं।
यह तीन विग्रह हम गोडिय़ वैष्णवों के प्राण हैं- राधा मदन मोहन, राधा गोविंद देव और राधा गोपीनाथ।
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं
रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।।
(चैतन्य मंज्जुषा)
अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है ।
यह तीनों विग्रह ही हम गोडिय वैष्णवो के लिए आराध्य हैं और इन तीन विग्रहों के तीन आचार्य भी रहे हैं।एक-एक विक्रह के एक-एक उपासक आचार्य।हर विग्रह के लिए अलग-अलग आचार्य।राधा मदन मोहन के उपासक सनातन गोस्वामी,राधा गोविंद के उपासक आचार्य रूप गोस्वामी ओर राधा गोपीनाथ के आचार्य हैं मधु पंडित।चैतन्य महाप्रभु के समय तीनों विग्रह की उपासना वृंदावन में होती थी।किंतु अब यह विग्रह स्थानांतरित हो चुके हैं या कह सकतें हैं कि इन्हें स्थानांतरित करना पड़ा।राधा गोविंद देव और राधा गोपीनाथ तो जयपुर में है और राधा मदन मोहन भी राजस्थान में हीं है राजस्थान के उस स्थान का नाम है नीम करोली,जोकि जयपुर से कुछ ही दूरी पर हैं।जयपुर में दो विग्रह हैं और नीम करोली में एक विग्रह हैं राधा मदन मोहन।उन विग्रहों के स्थान पर जिन विग्रहों की पूजा होती है जिसे प्रतिभू मूर्ति कहते हैं,वह वृंदावन में ही हैं।वृंदावन में है मतलब एक पंचकोसी वृंदावन है जहां केशी घाट है और षढ़ गोस्वामियों के विशेष मंदिर भी वहां प्रसिद्ध हैं जिसे सप्त मंदिर भी कहा जाता है।जहां हमारा कृष्ण बलराम मंदिर है या जहां लोई बाजार है उस वृंदावन में भी श्री राधा गोविंद देव मदन गोपाल और राधा गोपीनाथ की आराधना होती है।
500 वर्ष पूर्व इन विग्रहों की मुसलमानों के आक्रमण से रक्षा के लिए (भगवान को तो बचाने का कोई प्रश्न होता नहीं है लेकिन फिर भी आप समझ सकते हो कि रखवाली तो करनी पड़ती हैं)पंचकोसी वृंदावन से राधा कुंड में पहुंचाया गया।वहां पर भी विग्रह सुरक्षित नहीं थे,तो वहां से इन विग्रहों कामवन में ले जाया गया।
वहां पर कुछ समय के लिए आराधना हुई उन विग्रहों की पर वह भी कोई सुरक्षित जगह नहीं थी।तो वहां से इन विग्रहों को जयपुर स्थानांतरित किया गया।और विग्रह नीम करोली भी पहुंच गए।वृंदावन में,राधा कुंड के तट पर और कामवन में इन तीनों विग्रहो की प्रतिभू मूर्तियां हैं।
यह तीनों विग्रह हम गोडिय वैष्णवों के लिए विशेष है।इनमें से राधा मदन मोहन को संबंध विग्रह कहते हैं। यह भी समझने की बात हैं।हरि हरि। यह सोने का समय नहीं है,जो सोएगा वह खोएगा।एक संबंध होता है एक अभिधेय होता है और एक प्रयोजन होता है। यह हमारी भक्ति के स्तर या अवस्थाएं हैं।शुरुआत संबंध से होती है।वैसे हर चीज की शुरुआत ही संबंध से होती है। अगर संबंध नहीं है तो फिर कुछ नहीं होता। चाहे भगवान की सेवा करनी हो या अंतोतगतवा भगवद् धाम लौटना हो,तो उसके लिए भगवान के साथ संबंध होना जरूरी है।
हम भगवान के कुछ लगते हैं और फिर उनके साथ कौन सा संबंध है यह भी बाद में पता चलेगा।जब संबंध हम स्थापित करते हैं तो उस अवस्था में राधा मदन मोहन जी की आराधना करते हैं। यहां आपको यह बताना चाहेंगे कि राधा गोविंद राधा मदन मोहन से अलग नहीं है और आधार मदन मोहन राधा गोपीनाथ से अलग नहीं है कृष्ण तो एक ही हैं।
तीनों तो एक ही है किंतु हम भक्तों के साथ अलग-अलग प्रकार से व्यवहार करते हैं या भिन्न-भिन्न प्रकार से आदान-प्रदान करते हैं। संबंध की अवस्था में कृष्ण हमसे अलग तरीके से आदान प्रदान करते हैं और जब अभिधेय के स्तर पर पहुंचते हैं तो कृष्ण अलग प्रकार से आदान-प्रदान करते हैं या भिन्न-भिन्न प्रकार से अपनी सेवा में लगाते हैं।किंतु वे तीनों एक ही हैं और उनके तो और भी कई सारे नाम है,जैसे राधा दामोदर। राधा दामोदर क्या राधा गोविंद से अलग हैं?नहीं।जब उन्हीं कृष्ण ने गिरिराज धारण किया तो उनका नाम पड़ गया राधागिरिधारी।या कुंज बिहारी। अब कुंज बिहारी भगवान क्या अलग है? उनका गिरधारी से कोई संबंध नहीं है क्या?एक समय गिरिराज को धारण किया तो गिरधारी और कुंजो में तो वो विहार करते ही रहते हैं तो नाम पड़ गया कुंज बिहारी।एक समय गिरिराज को धारण किया और कुंजो में तो वो विहार करते ही रहते हैं तो नाम पड़ गया कुंज बिहारी।वह तो अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं।उनका मुरली धारी भी एक नाम है,उनका रासबिहारी भी एक नाम है। तो यह भगवान अलग अलग नहीं हैं। कृष्ण तो एक ही है।उनके नाम अनेक है।उनकी लीलाएं अनेक है। उनकी लीलाओं के ही अनुरूप उनके नाम अलग-अलग है।
नित्योSनित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तमात्मस्थं येSनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्ति: शाश्वती नेतरेषाम्।।
कठोपनिषद् 2.2.13
अनुवाद: – जो अनित्य पदार्थों में नित्य स्वरूप तथा ब्रह्मा आदि क्षेत्रों में चेतनोंमें चेतन है और जो अकेला ही अनेकों की कामनाएं पूर्ण करता है, अपनी बुद्धि में स्थित उस आत्मा को जो विवेकी पूर्व देखते हैं उन्हीं को नित्य शांति प्राप्त होती है औरोंको नहीं
कृष्ण एक हैं और हम सब अनेक हैं।इस सभा में ही कितने सारे हैं। लगभग 750 हैं।और वह एक अकेले।
एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।
यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य॥
चैतन्य चरितामृत आदि लीला 5.142
अनुवाद:- एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते
हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
कृष्ण एक हैं,अकेले हैं।और हम सब उनके भृत्य हैं,उनके सेवक हैं।या मित्र है ,तो मित्रों के हिसाब से भिन्न भिन्न व्यवहार होता है।और कुछ तो उनके माता-पिता बनकर प्रकट होते हैं। तो उनके साथ भगवान का अलग व्यवहार,लेनदेन या रस होता है। तो इसी से कृष्ण कितने सारे नामों से जाने जाते हैं।भगवान हमसे अलग अलग ढंग से व्यवहार करते हैं या हमारी अलग-अलग इच्छाओं की पूर्ति करते हैं।
उन लीलाओं से या उन नामों से भगवान जाने जाते हैं तो यहां जो चर्चा हो रही है जिसका कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने उल्लेख किया है तीन विग्रह हैं उनके 3 नाम भी हैं राधा गोपीनाथ राधा मदन मोहन तथा राधा गोविंद तो इन तीन ग्रहों के माध्यम से तीन प्रकार से भगवान हमारे साथ व्यवहार करते हैं यह हमारी इच्छा की पूर्ति करते हैं संबंध ज्ञान मतलब भगवान के साथ जब हमारा संबंध प्रारंभिक अवस्था में जुड़ता है फिर वह मदन मोहन बनते हैं वैसे तो वह है ही मदन मोहन लेकिन हमारे लिए मदन मोहन बनते हैं और मदन मोहन के रूप में मदन को मोहित करते हैं।मदन कौन है?मदन है कामदेव।या कामदेव को कंदर्प भी कहते हैं।
वेणुं क्वणन्तम् अरविन्ददलायताक्षम् बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्
कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं गोविन्दमादिपुरुषंतम् अहं भजामि
(ब्रह्म संहिता 5.30)
कृष्ण इतने सुंदर है कि कोटि-कोटि कंदरपो को भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं।कामदेव से आप समझ सकते हो कि कौन है कामदेव। जो हमारे अंदर कामवासना उत्पन्न करते हैं वह देव कामदेव है।
या वह मदन भी कहलाते हैं।कृष्ण मदन को अपनी और मोहित करते हैं। इससे हमें भगवान के साथ हमारा संबंध स्थापित करने में मदद मिलती है क्योंकि कामदेव के प्रभाव से हमारा संबंध इस दुनिया से या माया से स्थापित होता है ।जब कामवासना जागृत होती है तो हमको कृष्ण नहीं दिखते,हम माया को खोजते हैं।
बलं मे पश्य मायाया: स्त्रीमय्या जयिनो दिशाम् ।
या करोति पदाक्रान्तान्भ्रूविजृम्भेण केवलम् ॥ (श्रीमदभागवतम 3.31.38)
कपिल भगवान अपनी माता को बता रहे हैं कि भगवान ने इस संसार में स्त्री को माया का रूप बनाया है। चिंता मत करो केवल स्त्रियां ही माया का रूप नहीं है और भी माया के रूप है। आप यह सोचेंगे कि हमें ही केंद्रित कर रहे हैं ।नहीं ।आप अकेली नहीं हो। ओर फिर इसको भी हमेशा याद रखो कि आज के पुरुष कल की स्त्रियां भी हो सकती हैं।बारी बारी से स्त्रिया पुरुष बन जातीं हैं और पुरुष स्त्री बन जातें हैं। केवल ये दो ही तो है। इस संसार में सभी योनियों में ही स्त्री और पुरुष होते हैं ।केवल मनुष्य योनियों में ही नहीं कुत्ता है तो कुत्तिया भी होती ही हैं और गधा है तो गधी भी होतीं ही है। भगवान ने इस संसार में इस प्रकार के द्वंद की व्यवस्था की हैं। इस प्रकार जब कामदेव अपने बाणो से प्रहार करते हैं तो हमारा दिल घायल हो जाता है ।फिर इसी तरह हमारा संबंध माया के साथ स्थापित्त होता है इसीलिए हम राधा मदन मोहन कि आराधना करते हैं।जब कृष्ण कि हम मदन मोहन के रूप में आराधना करते हैं तो कृष्ण,मदन जो हम को अपनी और आकर्षित करता रहता है उसे अपनी और आकर्षित करते हैं। या मदन को हटाते हैं कि चलो निकलो यहां से। यहां क्या कर रहे हो? यह भक्त, यह साधक मुझ से प्रार्थना कर रहा है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह महामंत्र कहकर मेरे साथ वह अपना संबंध स्थापित करना चाह रहा है
अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी: ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥
(श्रीमदभागवतम २.३.१०)
और इसकी भक्ति बड़ी तीव्र है हमारी तीव्र भक्ति को देखकर हमारी इच्छा को जानकर भगवान मदन को हटाते हैं मदन को कामदेव को कंदर्प को जिसको अनंग भी कहा गया है जिसका अंग नहीं है शिव जी जब ध्यान अवस्था में थे तब काम थे वहां पहुंच गया यह कामदेव शिवजी की ध्यान अवस्था में विघ्न डालने का हर प्रयास कर रहा था शिव जी को क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी तीसरी आंख खुली जिससे अग्नि उत्पन्न हुई और उसी के साथ कामदेव जलकर भस्म हो गया उसका अंग नहीं रहा तब से कामदेव को आनंद भी कहते हैं आनंद जिसका अंग नहीं है अंग हीन वह तो सही लेकिन उसका जो रूप था वह अब नहीं रहा ऐसे कामदेव के कई नाम है राधा मदन मोहन की आराधना करने से हमारा भगवान के साथ संबंध स्थापित होता है यही हर चीज की शुरुआत है अगर संबंध ही नहीं है तो फिर कुछ भी नहीं है आप आगे बढ़ ही नहीं सकते
जयतां सुरतौ पोर्मम मन्द-मतेर्गती।
मत्सर्वस्व-पदाम्भोजी राधा-मदन-मोहनौी ॥
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.15)
अनुवाद:- सर्वथा ‘दयालु राधा तथा मदनमोहन की जय हो! मैं पंगु तथा कुबुद्धि हूँ, फिर भी वे मेरे
मार्गदर्शक हैं और उनके चरणकमल मेरे लिए सर्वस्व हैं।
आप पहले यह प्रार्थना समझो और फिर सीखो। समझोगे तो सीखने में आसानी रहेगी।सीखोगे तो फिर इसका कुछ भाव भी समझ में आएगा कि इसका भाव क्या है,भावार्थ या शब्दार्थ।
तब यह प्रार्थना हृदय में बैठेगी।कंठ में तो बिठा लिया,लेकिन कंठ में बिठाने से पूरी मदद होने वाली नहीं है,इसे हृदय में बिठाना होगा।
इस प्रार्थना को पढ़ो और इसका शब्दार्थ देखो। मैं पंगु,असहाय हूं और मेरी मति भी मंद है, इसलिए हें मदन मोहन,आपके चरण कमल सदृश हैं।मैं आपके चरण कमलों कि वंदना करता हूं। आप ही मेरे सब कुछ हो। एक राधा है और दूसरे मदन मोहन हैं इसलिए राधा मदन मोहनो। आज केवल इतना ही कहेंगे क्योंकि समय हो गया है और कई प्रार्थनाएं है लेकिन यह तो सबसे पहले स्तर,संबंध स्थापित करने के लिए राधा मदन मोहन के चरणों में प्रार्थना हैं। फिर अभिधेय
और अभिधेय के विग्रह है राधा गोविंद देव और प्रयोजन यानी लक्ष्य है कृष्ण प्रेम प्राप्ति या कृष्ण की प्राप्ति,गोलोक की प्राप्ति ।तो फिर उसके लिए राधा गोपीनाथ की प्रार्थना है। वैसे कल तो कभी आता नहीं है इसलिए कल करे सो आज कर, आज करे सो अब लेकिन अब आज आगे नही कर पाएंगे। हरि हरि ।।इन तीन विग्रहों का चेतनयचरितामृत के बिल्कुल शुरुआत में भी उल्लेख हुआ हैं।जैसे हम अभी यहां पढ़ रहे हैं आदि लीला प्रथम परिछेद।
Ant 20.142 – 143
श्री-राधा-सह ‘श्री-मदन-मोहन।
श्री-राधा-सह ‘श्री-गोविन्द’-चरण ।142॥
श्री-राधा-सह श्रील ‘श्री-गोपीनाथ।
एड तिन ठाकुर हय ‘गौड़ियार नाथ’ ॥ 143॥
(चैतन्य चरितामृत अंत: 20.142-143)
अनुवाद
वृन्दावन में श्रीमती राधारानी के साथ मदनमोहन, श्रीमती राधारानी के साथ गोविन्द
तथा श्रीमती राधारानी के साथ गोपीनाथ के अर्चाविग्रह गौड़ीय वैष्णवों के प्राण हैं।
इन तीनों के चरणों की मैं वंदना करता हूं और यह तीनों मेरे नाथ हैं।
तो यह बात चैतन्य चरित अमृत के शुरुआत में आई है और चेतनयचरितामृत के अंत में आई हैं।चैतन्यचरित्रामृत के अंत में अर्थात अंतिम लीला के अंतिम अध्याय में अंतिम लीला में 20 अध्याय हैं।चेतनयचरित्रामृत के अंत में कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने उल्लेख किया है
चैतनयचरित्रामृत के शुरुआत में भी कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने इन तीन विग्रहो को गोडिय वैष्णवों के नाथ कहां है और इसके समापन में भी तीनों विग्रहों का स्मरण करते हुए कह रहे हैं कि यह तीन ठाकुर गोडिय वैष्णवो के नाथ हैं। यह राधा मदन मोहन राधा गोविंद देव और राधा गोपीनाथ हम गोडिय वैष्णवों के प्राणनाथ है।अब यहां रुकेंगे।
हरे कृष्णा।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
7 मार्च 2021
पंढरपुर धाम की जय! वैसे आज हमारे साथ पंढरपुर से भी भक्त जप कर रहे है। आप सभी का स्वागत है! आज हमारे साथ पहेली बार ठाणे, जुहू, जोगेश्वरी और हैदराबाद ऐसे कई स्थानों से पूरे ब्रह्मांड भर से कह सकते हो ब्रह्मांड भ्रमिते कोण भाग्यवान जीव तो पंढरपुर में आकर जो भी हमारे साथ सम्मिलित हुए है और ऐसा आप करोगे तो आपका स्वागत होगा। हम कल का ही विषय आगे बढ़ाते है, स्वयं की खोज! आत्मा की खोज! या फिर आत्मसाक्षात्कार का विज्ञान कह सकते हो। तो आत्मा के संबंध में हम कल चर्चा कर रहे थे यह आत्मा समझ में आसान नहीं है। जल, मिट्टी हवा उसकी खोज आसान है क्योंकि यह सब स्थूल है। किंतु आत्मा सूक्ष्म है अति सूक्ष्म है। इतना सूक्ष्म है कि आपका सूक्ष्मदर्शक यंत्र से भी आप नहीं देख सकते और दिखाई नहीं देता इसलिए आप ऐसा नहीं कह सकते कि आत्मा है ही नहीं! हवा को देख सकते हो क्या? लेकिन हवा है ना! अगर हवा को दिखा नहीं सकते तो हवा नहीं है। बाप दाखव नाहीतर श्राद्ध कर ऐसा मराठी मे कहा जाता है जिसका मतलब है, अपने बाप को दिखाओ और अगर नही दिखा सकते तो उनका श्राद्ध कर डालो। तो भगवान गीता में कहे हैं,
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
भगवतगीता 2.29
अनुवाद:- कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन जब हम आत्मा के बारे में सुनते हैं तो आश्चर्यचकित हो जाते है। और कुछ लोग आश्चर्य के साथ बोलते रहते है। वह ताजमहल ही केवल आश्चर्य नहीं है जो दुनिया के सात अजूबों में से एक है। तो जब वह जाते है तो बड़े आश्चर्य के साथ उसको देखा करते है। आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति और सुनने वाले भी बड़े अचरज के साथ सुनते रहते हैं तो फिर भगवान कहते हैं कि, सुनने के उपरांत भी यह आत्मा के संबंध में रहस्य बना रहता है। अंततोगत्वा यह अनुभव की ही बात है। किसी ने कहा कि हम बड़े दुखी हैं तो दूसरे ने कहा कि दुख दिखाओ तो दुख ऐसा है कि, जो दिखाया नहीं जा सकता केवल अनुभव किया जा सकता है। तो वही बात आत्मा की भी है। आत्मा है, परमात्मा है, भगवान है यह दिखाने के और दिखाने की चीज तो है, लेकिन यह अनुभव की बात है इसी को आत्मसाक्षात्कार या भगवतसाक्षात्कार कहते है। तो तर्क वितर्क के दृष्टि से सोचा जाए तो प्रभुपाद कहते है की,वह किसी को खड़ा करते थे और पूछते थे कि आप यह हाथ है क्या? आप हाथ हो तो व्यक्ति कहता है की, मैं हाथ नहीं हूं, यह मेरा हाथ है! यह मेरी संपत्ति है! मेरा सिर है लेकिन मैं सिर नहीं हूं! तो शरीर के कई सारे अवयव है और उनके संबंध में कहते रहते हैं कि, यह मेरा है लेकिन यह नहीं है। यह मेरा है। वैसे मैं होता है इसीलिए मैं का मेरा होता है! तो यह मेरा है, मेरा है कहने वाला कौन है? कोई है शास्त्र में कहां है की, अहम ममेती शास्त्रों के केवल 2 शब्दों में कहा जा सकता है कि अहम मम। अहम ममेती हो गया! तो यह मम तो चलता रहता है। लेकिन ममता किसी की होती है अहम कोन हे? वह है आत्मा! यह संसार में माया भी लोग कहते रहते हैं कि तो उनका उनका अहंकार होता है,
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ अहंकार के भी दो प्रकार है एक भौतिक और दूसरा प्राकृतिक। एक मायावी अहंकार है और दूसरा हे दिव्य अलौकिक और अप्राकृतिक! जो आत्मा है, मैं आत्मा हूं, तो हम समझ सकते हैं कि आत्मा इतना सूक्ष्म है इसीलिए कृष्णा कहें। क्या आप हवा को काट सकते हो? नहीं क्योंकि हवा इतनी सूक्ष्म है कि उसे कहता नहीं जा सकता।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
भगवतगीता 2.23
अनुवाद :- यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है।
तो जो पंचमहाभूत है उनमें से चार भूतों का कृष्ण यहां उल्लेख करके कह रहे हैं कि यह 4 पृथ्वी, आकाश, वायु का उल्लेख करते हुए बोलते हैं कि नैनं छिंदंति शस्त्राणि और शस्त्र किस का बनता है? पृथ्वी का बनता है। नैनम दहति पावक, पावक मतलब अग्नि जिसे जला नहीं लेना और इसको जल्दी आ नहीं सकता और पानी को गिला नहीं कर सकता तो यह संसार के जो पांच महाभूत है इससे आत्मा प्रभावित नहीं होता है। बद्ध होता है लेकिन आत्मा पर इन पंचमहाभूत का प्रभाव नहीं होता! हरि हरि। तो मैं सोच रहा था कि, ऐसे कुछ पेड़ होते हैं जिसको काट के लगाने से अलग वृक्ष बनता है। तो क्या हुआ? अपने वृक्ष को काट लिया क्या? नहीं! हर शरीर में आत्मा है। वृक्ष के शरीर में भी आत्मा है। तो बड़ा रूप से है इसलिए उसमें 5-10 आत्मा नहीं होता। एक ही आत्मा होते है। चींटी में भी एक ही होता है और हाथी में भी एक ही आत्मा होता है। तो होता क्या है, जब हम शाखा काटते हैं और उसको दूसरी जगह पर लगाता है, तो दूसरी आत्मा उसमें प्रवेश करती है।
एक अलग आत्मा उसमें प्रवेश करती है। और फिर अलग से एक वृक्ष बन सकता है। और बढ़ता है तो आत्मा को काटा नहीं जा सकता। तो टेस्ट ट्यूब बेबी या ऐसा कुछ दिमाग लगाते रहते है। ऐसी कुछ व्यवस्था करते है। या प्रयास करते है और भगवान ने जो घोषणा की है, या निसर्ग व्यवस्था है की, स्त्री के अंदर बालक बढ़ेगा और बाहर जन्म लेगा। तो टेस्ट ट्यूब बेबी तो आप प्रयास कर रहे हो लेकिन, यह भगवान के साथ स्पर्धा चल रही है। तो यह कैसा चल रहा है कि, भगवान नहीं है, भगवान की कोई आवश्यकता नहीं है। हम भी लेबोरेटरी में बालक उत्पन्न कर सकते है। गर्भ के स्थान पर टेस्ट ट्यूब यूज करते हैं। टेस्ट ट्यूब तो है लेकिन जब तक आत्मा वहां पर प्रवेश नहीं करेगी, अंडकोश में वीर्य नहीं जाएगा और यह जब नहीं होगा तो यह सब गर्भ में ही होता है। ठीक है, स्त्री पुरुष का मिलन हुआ किंतु जब तक भगवान आत्मा को पहुंचाते नहीं तो आप कितने भी प्रवेश प्रयास करो बालक का जन्म नहीं होगा! जो टेस्ट ट्यूब बेबी इसका विलाप है। तो टेस्ट ट्यूब बेबी में आत्मा का प्रवेश नहीं होगा तो बालक या बालिका का जन्म ही नहीं होगा! शरीर से पहले आत्मा होता है और बाद में शरीर होता है जैसे कि पहले आप घर बनाते हो और बाद में घर में प्रवेश करते हो। निवास में निवासी बाद में आता है तो देही मतलब आत्मा। नौ द्वारों का यह नगर है, शरीर है तो इसमें जो निवासी रहता है वह आत्मा है! तो घर बनाने से पहले घर बनाने वाला होता है।और फिर वह घर बनने के उपरांत घर में रहता है वैसे ही आत्मा पहले होता है शरीर से पहले होता है। और फिर वह शरीर में प्रवेश करता है। शुरुआत में छोटा सा स्वरूप धारण करता है तो उस ने जन्म ले लिया है।
अभी-अभी जन्म हुआ तो हम कहते हैं कि, आप कितने बड़े हो? तो हम बताते है कि एक महीना हुआ। तो एक महीना पहले बालक ने जन्म लिया है तो उसमें 10 महीने और 10 दिन जोड़ने होंगे 10 महीने पहले बालक ने गर्भ में जन्म लिया हुआ था और अस्पताल में 1 महीने पहले जन्म लिया लेकिन 10 महीने पहले ही उसने जन्म ले लिया था तो जन्म लेने के उपरांत कोई बालक की हत्या करता है तो उसको उसका दंड अवश्य मिलेगा। जब बालक गर्भ में ही होता है, तब सब मिलकर डॉक्टर्स और माता–पिता उसकी हत्या की योजना बनाते हैं। वे बच्चे को गर्भ में मार देते है जो अच्छा नहीं है। हरि हरि। ऐसे कर्म कलयुग में चलते रहते हैं। हरि हरि। तो जानने के लिए, पहचानने के लिए यह मनुष्य जीवन है। हम तो आईने में देख लेते हैं और समझ लेते हैं कि यह मैं हूं। लेकिन इतना सस्ता और आसान नहीं है खुद को देखना और घोषित करना कि मैंने खुद को देख लिया। हम जब आईने में देखते हैं तो हमें वैसे कहना चाहिए और सोचना चाहिए। तो यह सब चलता रहता है। आपकी पहचान(आईडी) क्या है? हम लोग पहचान पत्र दिखाने के लिए क्या करते हैं? हमारी फोटो दिखाते हैं। लेकिन वह पहचान क्या है? यह परिवर्तित(चेंज) भी होती रहती है। बालक थे तो एक प्रकार की आईडी, युवक हुआ, वृद्ध हुआ, तो अलग प्रकार की आईडी यह हमेशा परिवर्तनशील पहचान है। सब समय पहचान बदलती रहती है। कौन जड़ भरत थे? पहले जन्म में तो राजा भी थे। राजा भरत अगले जन्म में कौन बन गए? हिरण बन गए। उसके अगले जन्म में जड़ भरत बन गए। तो कौन सी पहचान रही? अभी भी तो तुम हिरण थे उस पहचान का क्या हुआ? अभी भी तुम बालक थे, उसके बाद बालक से युवक बने उस आईडी का क्या हुआ? एक चीज होती है एवर चेंजिंग (हमेशा बदलती) और एक चीज होती है नेवर चेजिंग (कभी नहीं बदलती)। शरीर में हर समय, हर क्षण परिवर्तन होता है। लेकिन आत्मा ऐसा जिसमें कभी भी बिल्कुल परिवर्तन नहीं होता। इसीलिए अव्यय भी कहा गया है ,आत्मा अव्यय होता है। व्यय मतलब खर्च होना या कुछ घटना या कम होना। व्यय अलग है , अपव्यय अलग है। आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || ७ ||
भावार्थ–
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
(श्रीमद्भगवद्गीता 15.7)
आपका क्या पहचान है? यह हमारी पहचान है कि हम जीवात्मा है और हम किनके हैं? हम लोग तो नाम जोड़ देते हैं। हमारे नाम के साथ पहले तो पिता का नाम जुड़ता है जब हम स्कूल जाते हैं। फिर आगे पति का नाम आ जाता है। वैसे सही क्या होगा रेवती रमण कृष्ण दास। रेवती रमण फिर पिता का नाम, दास फिर उपनाम हुआ क्या? कोई पाटिल है तो कोई पटेल है। हमारा उपनाम तो दास या दासी है। हमारे नाम के साथ कृष्ण का नाम होना चाहिए क्योंकि हम कृष्ण के हैं। त्वमेव माता कहो त्वमेव पिता कहो त्वमेव बंधु त्वमेव सखा। इस संसार में हम लोग अपने पिता या पति का नाम, तो हमारी सही पहचान यही होगी कि हमारे नाम के साथ कृष्ण का नाम और जोड़ते हैं यही सत्य हैं। यह हमारी पहचान है, यह हमारी आईडी है कि हम आत्मा है।
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि: ।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति: ॥ ६ ॥
(श्रीमद् भागवत 2.10.6)
ऐसा भागवत कहता है, मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं हित्वा मतलब त्याग कर, छोड़कर या ठुकरा कर कहो। हित्वा अन्यथा रूपम हमारे अन्य अन्य रूप जो रहे। पहले के भी रहे और अब भी हैं। इस जन्म में भी है, बचपन में जो हमारा रूप रहा और जो अब भी है। स्वरूपेण व्यवस्थिति: वैसे यह भी संकेत होता है स्वरूपेण। एक तो स्व है और वह स्व आत्मा है। स्वयं हम आत्मा है और क्या है स्वरूपेण ? उस आत्मा का रूप है। एक आत्मा है और शरीर भी है, अन्यथारुपम और और जो रूप है और और जो शरीर हमारे रहे, भूल जाओ उसको या इस जीवन में अब भी हैं। मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति: अपने रूप में स्थित हो जाओ और फिर उस रूप को भगवान के चरणों में बैठाओ और स्थापित करो। यही जीवन की पूर्णता है और जब तक हमको स्वयं का पता ही नहीं है। उस स्वरूप में हम स्थित नहीं हुए। हम जब तक आत्मसाक्षात्कारी नहीं होते, तब तक फिर इस संसार में हमारा यह भ्रमण चलता रहता है।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे,कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥२१॥
(भज गोविन्दम – आदि शंकराचार्य छंद – २१)
तो आप थके हो कि नहीं? मेरा मतलब आप इस जन्म मरण से थके हो या नहीं? बहुत हो गया ना कितनी बार जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, कोरोना वायरस, ये वायरस ,वो वायरस। लेकिन यह बातें अगर आप नहीं मान लोगे, तो फिर लात मिलती जाएगी। लात खाते जाओ, मृत्यु की लात है, बीमारी की लात है, ठोकर है। अच्छा है कि हम थोड़े जग जाए। यह केवल मनुष्य जीवन में ही व्यक्ति जग सकता है। भगवान की कृपा से, व्यवस्था से, इस वक्त हम मनुष्य बने हैं। बने क्या है? मतलब मनुष्य रूप तो है, मनुष्य का शरीर तो है। मनुष्य बने है या नहीं यह बता नहीं सकते। मनुष्य का रूप होना एक बात और मनुष्य होना दूसरी बात। अधिक लोग तो दानव ही है। मानव तो बहुत कम है, दानवीय प्रवृत्ति का इतना प्रभाव, बोलबाला या प्रचार है, आसुरी प्रवृत्ति रही है l इसका लाभ उठाना चाहिए।
श्रीप्रह्राद उवाच
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १ ॥
(श्रीमद्भागवत 7.6.1)
तदप्यध्रुवमर्थदम् मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है। सारे जीवन और यह मनुष्य जीवन भी अशाश्वत है अध्रुव्म। ध्रुवम मतलब निश्चित, अध्रुवम मतलब कोई भरोसा नहीं है, अनिश्चित है। प्रहलाद महाराज कहे हैं यह मनुष्य जीवन अध्रुवम् तो है और अनिश्चितता उसके साथ जुड़ी हुई। तो भी अर्थदम, यह अर्थपूर्ण है। जब जीवन में कोई अर्थ आ जाता है। तब हम प्रेम प्राप्ति के लिए, कृष्ण प्रेम प्राप्ति के लिए जीवन जीते हैं तो फिर उसका कोई अर्थ है, अर्थ पूर्ण जीवन है।
हरि हरि! बिफले जनम गोङाइनु
मनुष्य-जनुम पाइया, राधा-कृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया बिष खाइनु
(इष्ट-देवे विज्ञप्ति)
–नरोत्तम दास ठाकुर
तो दो प्रकार के लोग हैं। एक तो जानबूझकर है जो विष खाने वाले, बॉलीवुड मूवी देखने वाले, सिनेमा संगीत शादी पार्टी में। वह एक समय शादी पार्टी में भारत में लोग नाचते हैं और शराब पीते होंगे और फिर मस्ती में नाचते हैं, डीजे भी चलाते हैं। कितना विनाशकारी है। कितनी अशांति पार्टी यह शब्द है। तो यही है जानिया शुनिया बिष खाइनु। उनके स्थान पर यह भगवान का नाम है या भगवान के संबंधित हर बात है, मधुर है। मधुराधिपते अखिलम मधुरम भगवान माधुरय के पति है। अखिलम मधुरम पंढरपुर धाम भी मधुर है। यहां के विठ्ठल भी मधुर है।प्रेम से राधा कृष्ण की दर्शन कर सकते हो। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। मधुर है, चरणामृत भी है। चैतन्य चरित्रामृत है, भगवान अमृत है, प्रसाद अमृत है। प्रसाद जैसा भोजन है नहीं, खाने की चीज है, बार-बार खाओ। दिन में तीन बार तो खाओ। अन्ना अमृत पाओ, और फिर राधा कृष्ण गुण गाओ। यह करते करते फिर पकड़ ढीली पड़ जाती है और फिर आत्मा पकड़ में आ जाता है। मैं यह शरीर नहीं हूं और मैं एक आत्मा हूं।
यही करने के लिए तो मनुष्य जीवन है। ऐसा नहीं किया तो हम हमारा जीवन व्यर्थ में गवा देंगे। कंप्यूटर साइंस जानते हो? नौका वाले ने कहा नहीं मैं नहीं जानता। साइंटिस्ट ने कहा 25% तुम्हारी लाइफ व्यर्थ चली गई है। कोलकाता से एक साइंटिस्ट आया था। उसको नवदीप आ गया हरे कृष्ण मंदिर जाना था। बीच में गंगा आ गई नाव पर बैठा हुआ था। चलाते-चलाते हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। यह साइंस जानते हो? नहीं मैं नहीं जानता। तुम्हारा 50% जीवन व्यर्थ हो गया है। अच्छा यह जानते हो ? नहीं, तो 75% पर व्यर्थ हो गया। ऐसा साइंटिस्ट कह रहा था। इतने में आंधी तूफान शुरू हुई नाव डगमगाने लगी और फिर बारी थी नौका चलाने वाले की। तैरना जानते हो? नहीं जानते। इतने में नौका पलटी खा गई उसका 100% जीवन व्यर्थ हो गया। एक तो हरे कृष्ण कहते कहते तर गया। दूसरा गंगासागर में बहते हुए बह गया। हरि हरि।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ०६.०३.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में ७२१ स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
बुरा नहीं है। (नॉट बैड)
क्या आप तैयार हो ? हरि! हरि! मैं भी तैयार हूं। वेणु माधव, तैयार हो? हरिनाम आश्रय ? शायद आप सब श्रवण के लिए तैयार हो। वैसे तो श्रवण चल ही रहा था और अभी भी चल ही रहा है, यानि आप में से कुछ तैयार नहीं हो। दूसरे प्रकार के श्रवण में लगे हो अथवा हरिनाम के श्रवण में लगे हो। इंद्रा माताजी, थाईलैंड से उनका अभी जप चल ही रहा है।
वह हरे कृष्ण महामंत्र का ही श्रवण कर रही है। अब कुछ हरि कथा या कोई आध्यात्मिक चर्चा का भी श्रवण कीजिये।
तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि। नामान्यनन्तसय यशोअङ्कितानि यत् श्र्ण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः।।
( श्रीमद् भागवतं १.५.११)
अनुवाद:- दूसरी ओर, जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है। वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रांति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं।
साधु क्या करते हैं? जब स्त्रियां भी साधु होती हैं तब उनको साध्वी कहते हैं। साधु, साध्वी। आप सभी साधू हो, कुछ साधु हैं तो कुछ साध्वियां हैं। हरि! हरि! केवल ब्रह्मचारी या सन्यासी ही साधु नहीं होते, गृहस्थ भी साधु हो सकते हैं। जब स्त्रियां भी साधु होती हैं, उन्हें साध्वी कहते हैं। श्र्ण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ऐसा सिद्धांत है। साधु श्रवण करते हैं, गायन करते हैं, स्वीकार करते हैं, ग्रहण करते हैं, धारण करते हैं।
लाइफ आफ्टर डेथ (मृत्यु के बाद जीवन)। जैसे ईसाई धर्म है, वैसे जुडिज्म (यहूदी) नामक धर्म भी है, उसके यहूदी साधु होते हैं। वैसे यहूदी साधु चर्चा कर रहे थे और मैं कल उनकी चर्चा सुन रहा था। वे सत्य ही बोल रहे थे, यह सुनकर अचरज भी लग रहा था और प्रसन्नता भी हो रही थी कि वे सत्य बोल रहे थे और सच के अलावा कुछ झूठ नहीं बोल रहे थे। इसलिए मैं उन्हें सुन रहा था, मुझे उनका विषय अच्छा लगा। प्रारंभ में उन्होंने कहा था कि क्या मृत्यु के बाद जीवन रहता है? क्या आप विषय समझ गए। क्या मृत्यु के बाद जीवन बचता अथवा रहता है या समाप्त होता है। इस संबंध में संसार भर में कई सारी मान्यताएं व गलतफहमियां फैली हैं। उन्होंने इस संबंध में एक बढ़िया बात कही कि यह कैसा प्रश्न है कि मृत्यु के उपरांत जीवन बचता है? उन्होंने कहा कि शायद आप जीवन क्या है, इसी को नहीं समझते होंगे, इसलिए आप यह प्रश्न पूछते हो या इस पर विचार भी करते हो कि मृत्यु के उपरांत जीवन रहता है। वे समझा रहे थे लाइफ (जीवन) की मृत्यु होती ही नहीं है। जीवन जीवित रहता है, ऐसी भी एक समझ है कि जो जीवित है, उसको जीव कहते हैं। कौन जीवित है? आत्मा जीवित है, आत्मा का जीवन होता है। आत्मा जीवित है तो जीवन तो जीवित रहेगा ही। जीवन अब जीवित है अथवा जीव अब जीवित है और जीवित जीव सदा के लिए जीता रहेगा। (नो मैटर व्हाट हैपपेन्स) शरीर का जो भी हो, सत्यनाश हो या विनाश हो जिसको मृत्यु कहते हैं, आत्मा को कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्मा जीवित है और सदा के लिए आत्मा जीवित रहेगी। पुरुषोत्तम गुप्ता, समझ रहे हो? क्या मृत्यु के बाद जीवन होता है? परम करुणा, इसका क्या उत्तर है? निश्चित ही, आत्मा होती है और सदा रहती है। हम यह यहूदी धर्म के एक प्रचारक की बात सुना रहे थे। श्रील प्रभुपाद जब मास्को में कोत्स्वकी नाम के प्रोफेसर को मिले थे। उन्होंने प्रभुपाद को रशिया यात्रा हेतु आमंत्रित किया था। वह प्रभुपाद से बात करते हुए कह रहे थे, स्वामी जी! जब शरीर समाप्त हो जाता है तो सब कुछ समाप्त हो जाता है। पुनर्जन्म का कोई प्रश्न ही नहीं है, जब शरीर समाप्त हुआ अथवा उसका निधन हुआ तो सब समाप्त हुआ। यहां पर भी इस विचार के भी कई सारे लोग हैं। इस संसार में वैसे चार्वाक तो है, हो सकता है चार्वाक ने ही सिखाया हो और आज यह सारे चार्वाक के चेले वही बात भी कर रहे हैं व करते रहेंगे।
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः भवेत्।।
( चार्वाक मुनि)
अनुवाद:- जब तक मनुष्य जीवित है, तब तक घी खाए। यदि आपके पास धन नही है, तो मांगिए, उधार लीजिए या चोरी कीजिये, किन्तु जैसे भी हो घी प्राप्त कर जीवन का भोग कीजिये। मरने पर ज्यों ही आपका शरीर भस्म हो जाएगा, तो सब कुछ समाप्त हो जाएगा।
जब इस देह की भस्म राख होगी, तब पुनर्जन्म किसने देखा है, यह अज्ञान है। चार्वाक का दिया हुआ ज्ञान या मास्को वाले प्रोफेसर कोटस्वकी का ज्ञान जोकि कहते हैं कि शरीर समाप्त तो सुब कुछ समाप्त। यह अज्ञान है। ज्ञान क्या है।
न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
( श्रीमद् भगवतगीता २.२०)
अनुवाद:- आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य, शाश्र्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता। भगवान कृष्ण ज्ञान की बात कर रहे हैं।
न जायते म्रियते कदाचित अर्थात
यह जीवात्मा जन्म नहीं लेती। आत्मा का जन्म नहीं होता है। आत्मा अजन्मा है, ना म्रियते, न ही उसका मरण होता है। आत्मा का जन्म नहीं है, आत्मा का मरण नहीं है। जन्म और मरण शरीर का है। शरीर का जन्म व शरीर का मरण होता है। हरि! हरि! इस संबंध में भी कृष्ण कहते हैं लेकिन हम लोग तो आधा भाग ही सुनते रहते हैं।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
( श्रीमद् भगवतगीता २.२७)
अनुवाद:-जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु। ध्रुवो मतलब निश्चित ही। जन्म लिया है तो मरोगे ही लेकिन भगवतगीता में कृष्ण उसके दूसरे भाग में कहते हैं। र्ध्रुवं जन्म मृतस्य च, एक ही वाक्य में भगवान दो बार र्ध्रुवं कहते हैं। एक र्ध्रुवं अर्थात जो जन्म लेगा, उसकी मृत्यु निश्चित है। दूसरा र्ध्रुवं अर्थात जो मरेगा उसका जन्म निश्चित है अथवा मरने के उपरांत जन्म निश्चित है। यदि शरीर ने जन्म लिया है, तब मृत्यु निश्चित है। एक शरीर का मृत्यु होने के उपरांत जीव को दूसरा शरीर या दूसरा जन्म प्राप्त होना भी निश्चित है अर्थात मृत्यु के बाद आत्मा रहेगी।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.६१)
अनुवाद:- हे अर्जुन! परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं।
जीवन के लिए दूसरा शरीर रहेगा।
हरि! हरि! भगवान कृष्ण जो भगवत गीता का उपदेश सुना रहे हैं, वे एक मूल महत्वपूर्ण बात समझा रहे हैं, वह है आत्मा की बात
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.३२)
अनुवाद:- हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ | मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ।
अध्यात्म विद्या आत्मा की बात, आत्मा के लक्षण। वह आत्मा है और रहेगी इसकी बात समझा रहे हैं।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
( श्रीमद् भगवतगीता २.१३)
अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।
यहां से भगवान् कृष्ण की भगवत गीता के वचन का प्रैक्टिकल प्रवचन शुरू होता है।कौमारं यौवनं जरा। आत्मा कभी कौमार अवस्था में शरीर में होती है, तत्पश्चात यौवनं अर्थात शरीर युवक बनता है।
तत्पश्चात वृद्धावस्था को प्राप्त करता है, आत्मा तो वही है। आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। आत्मा कौमार शरीर में है अथवा आत्मा युवक व युवती के शरीर में है अथवा आत्मा वृद्धावस्था के शरीर में है।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्।
भगवान क्या कह रहे हैं, गौर से सुनो , एक एक अक्षर को सुनो (पूरे वाक्य को नहीं सुनना चाहिए वैसे वाक्यों को भी सुनना चाहिए, लेकिन वाक्यों में जो शब्द हैं, उन शब्दों को सुनना चाहिए। उन शब्दों में जो अक्षर है उनको समझना चाहिए। तब हम इसे थोड़ा गहराई से समझ पाएंगे।) तथा मतलब यथा जब यथा कहते हैं, उसके उपरांत तथा होना ही चाहिए और आता भी है। यथा तथा, भगवान् कृष्ण कह रहे हैं
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।
भगवान कृष्ण कह रहे हैं। इस जन्म में भी देहांतर हो रहा है, कुमार अवस्था से देहांतर हुआ। तत्पश्चात यौवन शरीर में प्रवेश किया।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता ।
इस प्रकार एक देह से दूसरे देह में अंतर हुआ। बाल अवस्था से कुमार शरीर में देहान्तर हुआ, कौमारं यौवनं जरा
कुमार शरीर से युवक के शरीर में, और युवक के शरीर से हमनें वृद्ध शरीर में प्रवेश किया अथवा हमारा देहान्तर हुआ
तथा देहान्तरप्राप्तिर् बहुत बड़ा देहान्तर हुआ। वैसे हमारा देहान्तर तो हर क्षण हो रहा है, कल का शरीर आज नहीं रहा। आज के शरीर में सांयकाल तक बहुत से परिवर्तन होते रहते हैं। हम नोट नही करते परंतु छोटे छोटे सूक्ष्म परिवर्तन होते रहते हैं लेकिन मृत्यु के समय बहुत बड़ा परिवर्तन एक बड़ा अंतर आ जाता है अथवा कोई नया शरीर या नई योनि प्राप्त होती है।
शरीर का छोड़ना तो हर क्षण चलता ही रहता है।’तथा देहान्तरप्राप्तिर् ‘ कृष्ण पुनः कह रहे हैं कि आत्मा शाश्वत है। आत्मा का मरण नहीं है, वह एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है।
हरि! हरि!
जीवन का अंत नहीं है। हम पहले भी कहते ही रहते हैं और आपने सुना भी होगा। आत्मा अब भी जीवित है और आत्मा जीवित रहेगी। जहां तक शरीर की बात है, शरीर अब भी मृत शरीर है अर्थात इस समय भी जब आप मुझे सुन रहे हो और मैं भी आपको सुना रहा हूँ यह मृत है। हमारा शरीर हमेशा मृत है, शरीर मृत ही अथवा निर्जीव होता है। जब यह संजीव हो जाता है, तब हम संजीव शरीर (लिविंग बॉडी) अर्थात लिविंग बॉडी कहते हैं। तब यह संजीव लगता है क्योंकि उस समय हाथ पैर हिल रहे होते हैं अथवा कोई डुल रहा होता है। आप सुन पा रहे होते हो, यह जीवन के लक्षण हैं। यह शरीर संजीव सा लगता है अर्थात आत्मा होने के कारण यह जीवित शरीर सा लगता तो है लेकिन शरीर मृत होता है। तत्पश्चात एक दिन मृत हो ही जाता है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
( श्रीमद् भगवतगीता २.२७)
अनुवाद:- जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
शरीर कभी भी संजीव शरीर नहीं होता। आत्मा कभी मरती नहीं, आत्मा सदा के लिए जीवित रहती है। शरीर सब समय मृत ही होता है। शरीर मृत ही होता है क्योंकि यह शरीर आठ अलग अलग भौतिक तत्वों से बना है।
भगवान् कृष्ण कहते हैं-
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.४)
अनुवाद:- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं।
इन आठ अलग तत्वों से अर्थात पांच स्थूल और तीन सूक्ष्म तत्वों से यह शरीर बना है। बाहर जो मिट्टी है, सर्वत्र है, वैसे ही मिट्टी का शरीर बना है। हरि! हरि!
हम शाश्वत हैं, जीव शाश्वत है, नहीं तो कृष्ण यह क्यों कहते?
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १४.१८)
अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।
जब हमनें शरीर छोड़ दिया,तब मृत्यु हो गयी अर्थात हम शरीर से अलग हो गए। अब व्यक्ति जाएगा ऊर्ध्वं गच्छन्ति। स्वर्ग लोक जाएगा या नीचे पाताल लोक जा सकता है। वैसे लक्ष्य तो भगवान् के धाम जाने का है, ऐसा हो तो बढ़िया है। स्वागत है।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ५.९)
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
कृष्ण ने तो कहा है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है, उसका जन्म भी निश्चित है लेकिन अगर हम भक्त बने हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जब हम श्रवण कीर्तन जप करते हैं, तब हमारी जान में जान आ जाती है या हम अनुभव करते हैं कि हम कौन हैं? हम शाश्वत हैं, हम भगवान् के हैं। भगवतधाम है। ऐसा भी कुछ कहते हैं ना हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है। लेकिन वैकुण्ठ का विमान भी आता है। हमें ले जाता है अगला जन्म कहां होगा.? तब अगला जन्म वैकुण्ठ होगा। वहाँ शरीर नहीं, केवल आत्मा ही होगी, आत्मा व्यक्ति है। आत्मा के सारे अंग व अवयव हैं। आत्मा देख सकती है, शरीर तो देख ही नहीं सकता। शरीर में देखने की क्षमता ही नही है। आंखों में देखने की क्षमता नहीं है, कानों में सुनने की क्षमता नहीं हैं। सुनने और देखने वाली वैसे आत्मा ही है क्योंकि जब मृत्यु होती है आँख तो रहती है (लेकिन दिखती है) लेकिन यदि उससे पूछो बता दो, कितनी है ये उंगलियां, क्या व्यक्ति बता देगा आँख तो है? लेकिन मरे हुए व्यक्ति की आंख खुली रहती है। आधी या कभी पूरी खुली रहती है? उसकी आँखों के सामने दो उंगलियां या पांचों उंगलियां दिखाओ और पूछो कि कितनी उंगलियां हैं। वह ना तो कुछ बोलेगा ना ही देखेगा क्योंकि आंख नहीं देखती, यह कान भी नहीं सुनते, कान भी होते हैं। यदि मरे हुए व्यक्ति के कान में बम मारा जाये। पहले तो कहा जाता था कि हे। चुप रहो। शांति! शांति! शांति!
शोर गुल मत करो थोड़ा शांत रहो। कोई फुसफुसाहट भी करता था, तब कहते थे शांत रहो, शांत रहो। लेकिन अब यदि कोई बम भी मारेंगे अथवा यदि बम भी फट जाएगा तो उसको सुनाई देने वाला नहीं है। कान नहीं सुनते हैं, क्योंकि सुनने वाली आत्मा है। हरि! हरि!
इस आत्मा को जानना है। ऐसे आत्म साक्षात्कार के लिए ही मनुष्य जीवन है लेकिन हम तो शरीर के साक्षात्कार के लिए जीते हैं। जिससे हमें शरीर का पता चले, जबकि यह जीवन आत्म साक्षात्कार या भगवत साक्षात्कार के लिए है। यह मूर्ख वैज्ञानिक, तथाकथित शास्त्रज्ञ अनाड़ी है । उन्होंने ऐसा निष्कर्ष निकाला है और दूसरे मूर्ख नंदी बैल जैसे ( नंदी बैल समझते हो ना? मुंडी हिलाते रहता है) वैसे वैज्ञानिक जो कहते हैं यस यस वही सही है। यह बहुत बड़ी भूल है कि जो रसायनों के अलग अलग रसायन है। उन अलग अलग रसायनों का मिश्रण, संयोग अथवा एक्शन रिएक्शन से यह जो अलग अलग मृत मैटर बनते हैं। यह अलग अलग १०८ धातु या एलिमेंट्स हैं, हम केवल मोटे मोटे नाम पंच महाभूत लेते हैं, पृथ्वी जल आग वायु आकाश कहते हैं। शास्त्रज्ञ को उनका अध्ययन करके १०० से भी अधिक धातुओं का जिसमें कुछ गैसेस भी हैं फिर जिसमें H2o , CO2 या KLMN4 भी है, बना दिया इनके मिश्रण अथवा संयोग से जीवन उत्पन्न हुआ। ऐसा मूर्खों का कहना है। वे यह बकवास करते ही रहते हैं, हम या काफी दुनिया इस बकबक से प्रभावित होकर ऐसा ही समझती है।
प्रभुपाद कहा करते थे ठीक है, जो अंडा होता है। अंडे में जो जो रसायन होते हैं, हम आपको दे देते हैं, आप उस अंडे से मुर्गी बना दो। क्या आप समझे, प्रभुपाद क्या प्रस्ताव रखते थे।अंडे में जो जो रसायन हैं, हम आपको दे देते हैं या आप इकठ्ठे करो व मुर्गी बनाओ। यह चुनौती है। यह बहुत पहले की चुनौती है। प्रभुपाद के पहले भी की होगी, जो आध्यात्मिक शास्त्रज्ञ है। मध्वाचार्य या रामानुजचार्य भी हैं, जो शास्त्र को जानता है, उसको शास्त्रज्ञ कहते हैं। इस परिभाषा को भी आप समझो। यह केवल गैलीलियो या यह वह ही शास्त्रज्ञ नहीं है। यह रसायन शास्त्र, विज्ञान या भौतिक शास्त्र, जीवविज्ञान, एस्ट्रोनॉमी इसको जानने वाले शास्त्रज्ञ कहलाते हैं। अध्यात्म शास्त्र को जानने वाले शास्त्रज्ञ कहलाते हैं। गीता भी तो शास्त्र है ।
इदम शास्त्रं प्रमाणते।
कृष्ण ने गीता का प्रवचन सुनाते समय कहा कि यह गीता शास्त्र है।
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम। एको देवो देवकीपुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।
( गीता महात्मय ७)
अनुवाद:- आज के युग में केवल एक शास्त्र भगवतगीता हो, जो सारे विश्व के लिए हो, सारे विश्व के लिए एक ही ईश्वर हो- श्रीकृष्ण। सारे विश्व के लिए एक ही प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
केवल एक ही कार्य हो- भगवान की सेवा।
गीता शास्त्र है, यह विज्ञान है। इस शास्त्र को जानने वाला शास्त्रज्ञ है। आप अगर आध्यात्म शास्त्र जैसे गीता, वेदान्त, भागवतं, पुराण को जानोगे तो फिर आप भी शास्त्रज्ञ हो। श्यामा स्मृति, कुछ लिख भी रही है, तुम भी शास्त्रज्ञ हो, शास्त्रज्ञ बनना चाहती हो, शास्त्र का अध्ययन कर रही हो। रिसर्च चलता रहता है, हम खोज रहे हैं, खोज कर रहे हैं। कई सारी खोजें हो जाती हैं डिस्कवर योर सेल्फ। इस्कॉन का एक कोर्स डिस्कवर योर सेल्फ( डी.वाई. एस.) भी चलता है। आप खुद को खोजो, आत्मा को पहचानो। तब आप खोजी हो, यह भाषा अथवा परिभाषा सीखो। शास्त्रज्ञ कौन है? उन शास्त्रज्ञ को क्यों महत्व देते हो। आध्यात्मिक शास्त्रज्ञ को क्यों महत्व नहीं देते हो। माध्वाचार्य, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज शास्त्रज्ञ रहे, भक्ति वेदान्त श्रील प्रभुपाद शास्त्रज्ञ रहे। यह शास्त्र सर्वोच्च है। परा विधा और अपरा विधा दो प्रकार की विद्याएं हैं। परा विधा को जानने वाले आध्यात्मिक शास्त्रज्ञ हैं। अपरा विद्या जोकि परा नहीं है, निष्कृष्ट है। वैसे एक विद्या उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट, निष्कृष्ट अच्छे शब्द हैं। नोट भी करो, ऐसे शब्दों को सीखो। उत्कृष्ट मतलब ऊंचा, निष्कृष्ट नीच। उच्च विद्या या परा विद्या को जानते हो, वह शास्त्रज्ञ है। यहीं पर विराम देते हैं, यह बहुत बड़ा विषय है। कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है तो आप पूछ सकते हैं।
हरे कृष्ण
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जप चर्चा,
5 मार्च 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण, 76० स्थानों से भक्तगण जप कर रहे हैं ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! *
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय!
आविर्भाव तो कुछ दिन पहले हुआ था पंरतु हम यह कह सकते हैं कि जब भी हम उनका गुणगान गाते हैं, बोलते हैं या स्मरण करते हैं तो उनका आविर्भाव हो जाता है। हमारी प्रार्थना हैं कि हमारे जीवन में वह अर्विभूत हो, एक दिन के लिए नहीं बल्कि प्रतिदिन, प्रातः स्मरणीय रहें और फिर मेरे लिए तो श्रील प्रभुपाद आध्यात्मिक गुरु तो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर आध्यात्मिक गुरु के गुरु। पहले पिता और फिर कौन होते हैं? दादा। grand मतलब बड़ा, महान। मेरे लिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर grand spiritual master, और आपके लिए great grand spiritual master। ऐसा स्थान है श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का।
मैं भी अभी कुछ कहना, श्रवण कीर्तन करना, उसके साथ स्मरण करना प्रारंभ कर रहा हूं। वह थोड़े समय के लिए चलेगा, फिर आपकी बारी। आप में से जो उत्कंठित है, उत्साही है,अधिकारी हैं, श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर के गुणगान गाने के अधिकारी है। आप भी तैयार रहो। हमने कहा था आप तैयारी करके आना। आशा है आपने गृहपाठ किया होगा आप लोग बोलोगे। इस्कॉन पंढरपुर के भक्त भी सुन रहे हैं। उसमें से जो मंदिर में रहने वाले भक्त हैं, वैसे भी सुना सकते हैं, बोल सकते हैं। और हमारे जो गृहस्थ भक्त समुदाय है उनका भी स्वागत है बोलने के लिए। संक्षिप्त में बोलना है।
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर क्या कहना है, मतलब बहुत कुछ कहना है या फिर कहने के लिए हम समर्थ ही नहीं है। वैसे भक्त कभी कभी कहते रहते हैं, सूर्य को अगर एक दीयेसे आरती दी जाए, तो क्या मूल्य है, कीमत है उस दीपक के प्रकाश की सूर्य प्रकाश के समक्ष। वैसी ही कुछ तो बात है।
हरि हरि, कहां श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर और कहां हम। अच्छा होता कि हम भी उच्च होते। वैसे यह अभी कहां है “serving great you become great” महान व्यक्ति की सेवा या संग या उनके विचारों को समझना उस के साथ हमारी भी महत्ता महिमा कुछ बढ़ जाती है। हरि हरि और फिर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर सारा भारत और भारत के देशवासी कहो या देश के नेता कहो, अंग्रेज का जमाना था ब्रिटिशराज था। और भारत छोड़ो के नारे लग रहे थे पूरे भारतवर्ष में। देश को मुक्त करना है। किंतु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर उसमे ज्यादा रुचि नहीं ले रहे थे। अभय बाबू भी जब मिले 1922 में श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से तो उन्होंने कहा पहले देश को स्वतंत्र करना होगा। तो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा यह महत्वपूर्ण नहीं है। इससे भी और महत्वपूर्ण है, अधिक महत्वपूर्ण है जीव को माया के चंगुल से मुक्त करना। यह राजनेता आएंगे और जाएंगे। राजनीति की पद्धति में परिवर्तन होते ही रहेंगे। कभी ब्रिटिश राज और फिर कभी इंदिरा राज कुछ ज्यादा फर्क नहीं। वैसे तो ज्यादा फर्क पड़ना चाहिए, लेकिन अधिकतर रामराज नहीं होते रावण राज ही होता है। इसीलिए ज्यादा अंतर नहीं है।
श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर व्यस्त थे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के वाणी का प्रचार गौरवाणी का प्रचार करने में। उन्होंने गौड़िया मठ कि स्थापना की।
सर्वत्र प्रचार होईबे मोर नाम
कि कैसे प्रचार हो प्रभु के नामों का, कैसे प्रचार हो, अधिकाधिक लोगों तक कैसे पहुंचे इसी से वे चिंतित है और इसी में व्यस्त थे। इसकी व्यवस्था वह कर रहे थे। और प्रभु का नाम या भगवान का संदेश छपाई खानों में वगैरा काफी व्यस्त थे। मंदिरों का निर्माण भी हो रहा था। और उन्हीं मंदिरों में कई स्थानों पर छपाई खानों की भी स्थापना हो रही थी। और वहां से समाचार पत्र या ग्रंथ छप रहे थे। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर एक उत्तम वक्ता तो थे ही लेकिन लेखक भी रहे और भाष्यकार भी रहे। चैतन्य भागवत जो ग्रंथ है उसके ऊपर उन्होंने गौड़िया भाष्य करके भाष्य लिखा। बड़ा प्रसिद्ध भाष्य है आज भी उपलब्ध है। हमारे पास भी हैं। फिर भक्तिविनोद ठाकुर ने भी भाष्य लिखा हैं चैतन्य चरितामृत पर भाष्य लिखे हैं। अमृत प्रवाह करके भाष्य उनका प्रसिद्ध है।
तो फिर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अनुभाष्य लिखा। जैसे अनुमोदन,अनुस्मरण अनु मतलब to follow अनुसरण करना। कई सारे ग्रंथों की रचना उन्होंने की है। और उनका विश्वास था ग्रंथ वितरण में पुस्तक वितरण में। इसीलिए वैसा ही आदेश दिए अभय बाबू को अब वे धीरे-धीरे हिज डिवाइन ग्रेस ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय बनने वाले ही थे।
यदि आपको कभी पैसे मिलते हैं तो किताबें को प्रिंट करो ऐसा आदेश उनको मिला था। कोलकाता में एक विशेष मंदिर का निर्माण हो रहा था मंदिर मार्बल से बन रहा था। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के कुछ शिष्यों की आपस में लड़ाई हो रही थी कोई बोल रहे थे इसको मैं ऑफिस बनाऊंगा और कोई कह रहे थे यहां से मैं अपना प्रचार कार्य संचालन करूंगा। मंदिर के ऊपर अधिकार जमाने के लिए आपस में लड़ रहे थे। तो भक्तीसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहे जो भी मार्बल है उसे बेच दो और उसी से किताबों को प्रिंट करो। आप समझ रहे हो?.. समझ रहे होंगे.. इन सब बातों में उनको कोई रुचि नहीं थी, इस मंदिर का में अधिकारी, इस मंदिर के इस मंजिल का मैं अधिकारी, मेरा दफ्तर यहां होगा। हरी हरी।
तो पुनः श्रील भक्ति विनोद ठाकुर अंततोगत्वा चैतन्य महाप्रभु के जन्मस्थान को ढूंढ निकाले ही। विवाद चल रहे थे उसके ऊपर यहां है कि वहां है, गंगा के पूर्वी तट पर है कि पश्चिमी तट है। जहां नवद्वीप शहर है धाम भी है और धाम में एक नवद्वीप शहर या नगर भी हैं। तो कईयों की मान्यता थी नहीं-नहीं चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव या जन्मस्थली गंगा के इस पार है। तो श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने जगन्नाथ दास बाबाजी की मदद से इस विवाद का या जो भी बातें चल रही थी उसका मुख बंद कर दिया। और सदा के लिए यह निर्देश दिया इस बात की स्थापना हुई की यह योगपीठ है, आज का जो योगपीठ है वही जन्मस्थली है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ दास बाबा जी का प्रणाम मंत्र जो है वह गाते हैं
गौराविर्भाव – भूमेस्त्वं निर्देष्टा सज्जन – प्रियः
सज्जनों के प्रिय और यही है जगन्नाथ बाबाजी उन्होंने क्या किया गौराविर्भाव गौरांग महाप्रभु के जन्मस्थली का निर्देश किया साफ संकेत किया कहां हुआ जन्म। वैसे जब आखिरकार यह निर्धारित हुआ ही कौन से है कहां है चैतन्य महाप्रभु की जन्म्मस्थली। इसका प्रचार गौड़िय जगत में फैल गया वृंदावन तक यह समाचार पहुंच गया। हम जानते हैं अब निर्धारित हो चुका है, चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली कहां है। तो गौर किशोर दास बाबाजी महाराज जो पहले वृंदावन में अपना साधन भजन कर रहे थे, वे दीक्षित भी थे। किंतु जब पता चला अब इस बात का निर्णय हो चुका है कहां है जन्ममस्थली चैतन्य महाप्रभु की। तो गौर किशोर दास बाबाजी वृंदावन से मायापुर आए। यह भी एक कारण था और वे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर और श्रील भक्ति विनोद ठाकुर का संग चाहते थे। उनके सानिध्य में रहना चाहते थे, उनसे कुछ कथा श्रवण करना चाहते थे। तो गौर किशोर दास बाबा जी महाराज फिर पहुंच गए नवद्वीप मायापुर। वैसे जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज भी पहले वृंदावन में ही रहा करते थे, तो वेे पहले ही नवद्वीप पहुंचे हुए थे। अभी यह चारों आचार्य एक ही साथ एक ही स्थान नवद्वीप में कुछ समय के लिए तो रहे ही। जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर, गौर किशोर दास बाबाजी महाराज और श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर यह चारोंं आचार्य श्रील भक्ति विनोद ठाकुर का जो स्वानंद सुखद कुंज नाम का जो स्थान है, आज भी है जिसको हम भक्ति विनोद ठाकुर का समाधि मंदिर कहते हैं, वहांं उनका महासत्संग होने लगा। और धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे तो धर्म की स्थापना के लिए चैतन्य महाप्रभु प्रकट हो चुके ही थे नवद्वीप मायापुर में। इन आचार्यों ने फिर आगेे योजना बनाई कैसे इस धर्म का प्रचार सर्वत्र प्रचार होई बे मोर नाम हो सकता है, वैसे इन चारोंं का योगदान रहा। और फिर कहना होगा पांचवें भी हो गए भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद इन पांचों नेे मायापुर धाम को प्रकाशित किया। हरि हरि।
तो भक्ति विनोद ठाकुर नवद्वीप धाम महात्म्य लिखे फिर परिक्रमा खंड लिखें। फिर भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को आदेश दिए तुम परिक्रमा करो। यह कुुछ अंतिम इच्छा थी भक्ति विनोद ठाकुर की अभी वृद्धावस्था चल रही थी। तभी श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने सारी योजना बनाई परिक्रमा की। परिक्रमा का महिमा सब लिखे भक्ति विनोद ठाकुर, उसके विज्ञान को, ज्ञान का विज्ञान बनाना, व्यवहारिक रुप से जाना परिक्रमा में यह कार्य तो भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर किए। और फिर अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना हुई न्यूयॉर्क मे। फिर प्रभुपाद इंडिया लौटे इंडिया मेंं प्रचार प्रारंभ हुआ।
1972 में श्रील प्रभुपाद इस्कॉन की ओर से पहला मायापुर उत्सव मनाए। मतलब अगले साल 2022 मे 50 वा मायापुर उत्सव मनाया जाएगा, इस साल 49 मायापुर उत्सव मनाया जाएगा। तो उस उत्सव के साथ श्रील प्रभुपाद ने 1972 में अपने संसार भर के भक्तों को मायापुर धाम का परिचय करवाया।
हरि हरि।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
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हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
4 मार्च 2021
आज 735 स्थानों सें अविभावक उपस्थित हैं।
हरि बोल…!
हरे कृष्ण…!
श्रील भक्तिसिध्दांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद कि जय…!
मेरे गुरु महाराज! वैसे श्रील प्रभुपाद बारंबार बड़े अभिमान के साथ कहा करते थे मेरे गुरु महाराज! श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर मेरे गुरु महाराज! ऐसे थे मेरे गुरु महाराज।वैसे थे मेरे गुरु महाराज। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर एक लेखक जिन्होंने भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कि जीवनी लिखी है तो उन्होंने सबटाइटल( उपनाम) में लिखा है कि शक्त्यावेश अवतार श्रील भक्तिसिध्दांत सरस्वती ठाकुर। वहां यह प्रणाम मंत्र भी…
नमः ॐ विष्णुपादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिसिद्धान्त – सरस्वतीति – नामिने
नामिने मतलब नाम वाले
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर विष्णुपाद दे रहे और थे विष्णु पाद उनके चरणों में कृष्ण के सेवक थें। प्रणाम मंत्र में आगे…
श्रीवार्षभानवी – देवी – दयिताय कृपाब्धये
कृष्ण – सम्बन्ध – विज्ञान – दायिने प्रभवे नमः
उनके दीक्षा का नाम था श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर श्रीवार्षभानवी देवी दयित वार्षभानवी देवी तो राधा रानी भी थी वृषभानु नंदिनी राधा रानी के दयित सेवक। वृषभानु देवी दयित। कृपाब्धये जो कृपा के सागर थें;जो भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर और कृष्ण – सम्बन्ध – विज्ञान – दायिने जिन्होंने कृष्ण के साथ जीवो का जो संबंध है यह दिया या समझाया ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर। प्रभवे नमः प्रभवे मतलब प्रभु। ऐसे प्रभु को मेरा नमस्कार। हम तो उनको प्रभु कहते हैं, सारा संसार कहता है, किंतु वे अपने शिष्यों को भी प्रभु-प्रभु कहते थे या कोई नमस्कार करता शील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को तो उलटे वे भी नमस्कार करते थे नमस्कार करने वाले को। ऐसे विनम्र मुर्ति थे शील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर।
माधुर्य्योज्जवल – प्रेमाढय – श्रीरूपानुग – भक्तिद
यह प्रणाम मंत्र है भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का । प्रेमाढय जैसे धनाढ्य होता हैं। धन से संपन्न धनाढ्य, वे प्रेम से संपन्न है प्रेमाढय।कोनसे प्रेम से संपन्न है? माधुर्य्योज्जवल माधुर्य प्रेम से संपन्न। जिस प्रेम को देने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुए।
अर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ
समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्।
हरि: पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब- सन्दीपित:
सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।
(श्री चैतन्य चरितामृत,आदि लीला, 1.4)
अनुवाद: -श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय कि गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने कि आभा से दीप्त, वे कलयुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं।
समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां देने के लिए। क्या देने के लिए? उन्नत- उज्वल रस। कभी माधुर्य रस या राधा भाव, गोपी भाव।ऐसे भाव से संपन्न, युक्त थें।
श्रीरूपानुग – भक्तिद
ऐसे थोड़ा धीरे-धीरे पढ़ेंगे तो एक-एक शब्द को श्रीरूपानुग – भक्तिद श्री ऐसे चार पांच शब्द से 1 शब्द बना हैं, वैसे कई शब्दों से एक शब्द बना।संधि विच्छेद करना सीखते हैं तो फिर कई शब्दों से बना एक शब्द हम समझ सकते हैं। श्रीरूपानुग – भक्तिद श्री रूप अनुग भक्ति को दीए या दिया। इस भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने जो भक्ति दी, भक्ति का प्रचार किया है वह रागा-अनुराग भक्ति थीं। रूपानुराग भक्ति थीं।
श्रीगौर – करुणा – शक्ति – विग्रहाय नमोऽस्तुते
नमोस्तुते में भी तीन शब्द हैं। नमः अस्तु ते।नमस्कार हो या मेरा नमस्कार हैं। ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को मैं नमस्कार करता हूंँ। कैसे भक्ति सिद्धांतों श्री गौर करुणा शक्ति। गौरांग महाप्रभु कि शक्ति। कौन सी शक्ति?गौर करुणा शक्ति। गौरांग महाप्रभु के करुणा शक्ति के विग्रहाय विग्रह थें। विग्रह मतलब वह मूर्तिमंत या गौरांग महाप्रभु कि करुणा प्रकट हुई मूर्तिमान बनीं। शील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के व्यक्तित्व में हम क्या देखते है? गौर करुना शक्ति का प्रदर्शन किया।
नमस्ते गौर – वाणी – श्रीमूर्तये – दीन – तारिणे
नम: ते नमस्ते! नमस्कार! हम लोग कहते हैं नमस्ते नमस्ते नमस्ते।मगर नम:ते! आप को मेरा नमस्कार।इसमें दो शब्द है नमः एक शब्द, ते दूसरा शब्द। नमस्ते! नमस्कार!श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को नमस्कार! ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर गौर – वाणी – श्रीमूर्तये वे गौर वाणी कि मूर्ति थें। गौरवाणी! आप गौर वाणी को देखना चाहते हो? गौरवाणी प्रगट हुई गौरवाणी मूर्तिमंत हुई मूर्तिमान… देखो! देखो!गौर वाणी को देखो! श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को देखना मतलब जब देखोगें तो क्या देखोगे गौरवाणी ही थें। गौरवाणी ने रूप धारण किया और बन गए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर। दीन – तारिणे दिनों को
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल,
ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥
(नरोत्तम दास ठाकुर लिखित हरि हरि! विफले जनम से)
अनुवाद: -जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, इस संसार के जो दीन हीन हम जैसे दीन हीन या उस काल के तत्कालीन जो भी दीन थे दीनतारी ने, दीनों को तारने वाले, पतियों को पावन बनाने वाले शील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कि विशेषताएं हैं या विशेषण है कहिए और अंत में इस प्रणाम मंत्र में लिखा है
रूपानुग – विरुद्धाऽपसिद्धान्त – ध्वान्त – हारिणे
यह स्पेशलिटी रही वैसे सी भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कि और तो वैशिष्ठ रहे लेकिन सभी वैशिष्टठों में एक वैशिष्ठ विशेष रही। क्या है? रूपानुग – विरुद्धाऽपसिद्धान्त रूपानुग अपसिध्दांत। रूप गोस्वामी के सिध्दांत के विपरीत कोई बात या विपरीत कोई सिद्धांत, कोई प्रचार करता था श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के जमाने में तो उस अपसिद्धांतों को ध्वान्त – हारिणे उसका विनाश करने वाले।अपसिद्धांत ध्वान्त – हारिणे। रूपानुग विरुद्ध अपसिद्धांत। रूपानुग के विरोध में कोई अपसिद्धांत कि बात कोई करता तो उस समय बहुत कुछ चलता था। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के समय, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के समय मतलब ये 150 वर्ष पूर्व की बातें हैं। ध्वान्त – हारिणे वे कट्टर विरोधी थे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर। अपसिद्धांतों का विरोध करते थें, विरोध करके फिर पुनः अप सिद्धांत के स्थान पर सिद्धांतों कि स्थापना करते थे।
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।
इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।।
(श्री चैतन्य चरितामृत,आदि लीला, 2.117)
अनुवाद: -निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को बिवादास्पद मानकर उनकी
उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति
अनुरक्त होता है।
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।
सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं। सिद्धांत कहो या तत्व कहो, सायंस कहो या शास्त्र कहो या विज्ञान कहो भक्ति का विज्ञान
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.9)
अनुवाद: -हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
भगवान के जन्म लीला ओ को तत्वतः समझना होता है तथा उसके साथ जुड़े हुए जो सिद्धांत है यह महत्वपूर्ण हैं,और उसी के आधार पर ही धर्म कि स्थापना होती है या फिर उसको तत्वज्ञान कहीए। केवल भाव नहीं होने चाहिए सिद्धांत भी होने चाहिए। यह श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे कई लोग तो तथाकथित धार्मिक तो थे लेकिन सिद्धांतों का पालन नहीं करते थे या आपसिद्धांत का अचार और प्रचार करते थे उनको भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ऐसी गर्जना करते उन अपसिद्धांतों के विरोध में इसीलिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर सिंह गुरु कहलाते थे।कई सारी लोमड़ी है वह कांपने लगते थे।पलायन करते थे या कभी-कभी श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ऐसे किसी अप सिद्धांत का प्रचार करने वाले को मिलते तो उसका गला पकड़ कर कहते क्या है?ऐसा प्रचार कर रहे हो? चुप रहो!हरि हरि!
ऐसे…
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कि जय…!
उन्होंने बहुत कुछ किया।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
परित्राणाय साधूनां किया और दुष्टों का संहार किया। दुष्ट वचनों का अपसिद्धांतों को पराजित किया। विनाशाय च दुष्कृताम् | दुष्टता का संहार किया, विरोध किया। उस समय भी ब्राह्मणीझम, हम ब्राह्मण है, या अपना वर्चस्व कहो।ऐसे चलते थे ब्राह्मण उस समय के घमंडी ब्राह्मण। ये दूर रहो! घृणा और द्वेष से पूर्ण रहा करते थें। अस्पृश्यता का जो प्रचार हुआ बाद में महात्मा गांधी ने कुछ प्रयास किया। अस्पृश्यता निवारण। यह ब्राह्मणों ने फैलाई अस्पृश्यता ।दूर रहो!, छूना नहीं!, तुम शुद्र हो!, तुम चांडाल हो! और इसके कारण ही तो कई लोग हिंदू धर्म को छोड़ दिए। जब जन्मे तो थे लेकिन हिंदू धर्म के तथाकथित लीडर्स, ये ब्राहमण इतनी घृणा, द्वेष,ईर्ष्या,स्वागत नहीं हो रहा था कुछ जातियों का, कुछ शुद्रो का कहो फिर ये लोग जा रहे थे हिंदू घर छोड़कर और फिर मुसलमानों के लिए, ईसाईओके लिए आसान काम हो रहा था, धर्मांतर कराना। अपने धर्म में तो कोई स्वागत सम्मान मिलता ही नहीं था कुछ जाति के लोगों को या ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी सब अछूत हरि हरि!
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर लड़े इस सिद्धांतों के विरोध में या इन ब्राह्मणों के विरोध में।
तो ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर और भक्ति विनोद ठाकुर जो उनके पिताश्री थे ,इन दोनों ने मिलकर वैष्णव धर्म की स्थापना की। ब्राह्मणों से वैष्णव श्रेष्ठ है ।इस एक बहुत बड़ी सभा बुलाई गई जिसमें विद्वान ब्राह्मण और वैष्णव भी थे।वहां शास्त्रार्थ होना था। वहां पर ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का निरूपण करने वाला था। पर जो गौड़ीय वैष्णव होते हैं वह सर्वोपरि होते हैं। इस सभा का नेतृत्व श्रील भक्ति विनोद ठाकुर को ही करना था पर उन दिनों में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इतने बीमार कि उनकी वहां पहुंचने की कोई संभावना नहीं थी।श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इतने चिंतित थे कि वह बार-बार बोलते कि मेरे अलावा और कोई नहीं है क्या जो वहां पर जाकर उन ब्राह्मणों को मुंहतोड़ जवाब दे पाए? तब श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने एक निबंध वैष्णव के सम्मान में और एक निबंध ब्राह्मणों के सम्मान में लिखा।उन्होंने यह दोनों ने निबंध भक्ति विनोद ठाकुर को पढ़कर सुनाएं और श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इतने प्रभावित और प्रसन्न हुए कि वह वहां लेटे हुए थे और सुनकर वे उठकर बैठ गए और जोर-जोर से कहने लगे कि तुम सचमुच सरस्वती हो, और तुमने सरस्वती की कृपा को प्राप्त किया है, तुम जाओ। फिर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर गए और उन्होंने पहले ब्राह्मणों की गौरव गाथा गाई, ब्राह्मण भी तो श्रेष्ठ होते है।जिस प्रकार सर हमारे शरीर का प्रधान अंग है उसी प्रकार समाज का प्रधान अंग ब्राह्मण है। हाथ क्षत्रिय है,पेट वैश्य,एयर टांगे शुद्र के समान।वह बहुत बड़ी सभा थी।तो जब श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ब्राह्मणों की गौरव गाथा गा रहे थे ,तो ब्राह्मण बहुत गर्व से अपने आप के लिए तालियां पीट रहे थे, वहां तक तो सब ठीक था पर जब भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर वैष्णव धर्म की गौरव गाथा गाने लगे।
भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर शास्त्रों से उदाहरण लेकर यह बता रहे थे कि जो ब्राह्मण होते हैं वह श्रेष्ठ होते हैं पर वैष्णव ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ होते हैं। ब्राह्मण भी एक उपाधि है,जब हम इस ब्राह्मण की भी उपाधि से मुक्त होंगे।
च.च मध्य लीला 19.170
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त त्परत्वेन निर्मलम्।
हृषीकेण हषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते ॥ 170॥
अनुवाद:
भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में
अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् की सेवा करता है, तो उसके दो गौण
प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में
लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं।
वैष्णव ब्राह्मणों से परे होता है या वैष्णव गुनातीत होता है। जो सत्तोगुनी होते हैं वह ब्राह्मण होते हैं, मतलब 3 गुणों में से एक का प्रभाव तो बना ही रहता है। वैकुंठ लोक में आपको वैष्णव ही वैष्णव मिलेंगे, वैकुंठ लोक में आपको ब्राह्मण नहीं मिलेंगे और अगर ब्राह्मण मिलेंगे भी तो वह भी वैष्णव होंगे। कुछ ब्राह्मणों के गुण धर्म वैष्णव में भी रहेंगे पर वहां पर ना सतोगुण होगा, ना रजोगुण ना तमोगुण रहेगा।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
*तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13
यह समझना होगा और वैसे भी श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने यहi समझाया ही होगा। ऐसा नहीं होगा कि अगर किसी ने ब्राह्मण के परिवार में जन्म लिया तो वह ब्राह्मण हो जाएगा ।ब्राह्मण वैश्य क्षत्रिय और शूद्र एक व्यक्ति के गुणों से पता चलता है। …….. परंतु वैष्णव इन 3 गुना से परे होते हैं, गुनातीत होते हैं। तो वैष्णव जब हम कहते हैं तो यह उपाधि नहीं है और अगर उपाधि है अभी तो यह आत्मा की उपाधि है शरीर की उपाधि नहीं है। आत्मा तो वैष्णव होती है और जो ब्राह्मण होते हैं उनका संबंध इस शरीर से,अपने मन के साथ, यहां के गुणों के साथ होता है।
तो अंतिम शब्द उनके ही रहे और उनके प्रभावशाली ,प्रस्तुतिकरण या भाषण से सबका मुंख बंद हो गया।
श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाशय की जय!!! उस सभा के अंत में हजारों की संख्या में लोग भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के चरण धूलि अपने माथे पर लगाने के लिए आ रहे थे।हजारों की संख्या में लोग श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के प्रति आकृष्ट हुए। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर अपने चरण किसी को वैसे तो छूने नहीं देते थे।
उनके जो भी संचालक थे उस सभा के वह स्वयं श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के अंगरक्षक बने और उन्हें एकांत स्थान में ले गए ताकि उन्हें भीड़ से बचाया जा सके और इन अंग रक्षकों के किए गए विशेष निवेदन पर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के चरणों का पाद प्रक्षालन हुआ और यह जो जल था क्योंकि जनता तो मान नहीं रही थी ,जनता तो मिलना चाहती थी, दर्शन करना चाहती थी ,उनके चरणों को छूना चाहती थी उनके चरणों की धूल से अपने शरीर का मार्जन करना चाह रही थी। उनके चरणों का दोहन हुआ और फिर जल छिड़का या गया और उसके स्पर्श से जनता थोड़ी शांत हुई या उनका थोड़ा समाधान हुआ और अपने अपने घर वे लौट गए ।जय जय !विजय हो !विजय हो! गौड़ीय वैष्णव धर्म की विजय हुई। उसकी स्थापना भी हुई। ऐसे कई सारे प्रसंग हैं
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
परित्राणाय साधुनाम* ऐसे कई सारे प्रसंग इस विषय में फिर विनाशाय च दुष्कृताम् ऐसे कई सारे प्रसंग और यही करते हुए धर्म संस्थापनार्थाय धर्म की स्थापना उन्होंने की,ऐसे कई सारे प्रसंग। ऐसे प्रसंगों से ही जीवन उनका भरा रहा । इस प्रकार उन्होंने अपना जीवन सफल किया। हम सभी का भी जीवन सफल कर रहे हैं। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः
(मनुस्मृति)
अनुवाद: –
धर्म का लोप कर देने से वह लोप करने वालों का नाश कर देता है और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक कि रक्षा करता हैं, इसलिए धर्म का हनन कभी नहीं करना चाहिए, जिससे नष्ट धर्म कभी हमको न समाप्त कर दें।
धर्म की रक्षा करो तो यह धर्म फिर आपकी रक्षा करेगा ।श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर गौरांग महाप्रभु की ओर से गौर करुणा शक्ति श्री विग्रहाय नमोस्तुते कहो या श्रीवर्षभानवी देवी बनकर और माधुरयोजज्वल प्रेमाढ़य के कारण रूपानुगभक्तिद भक्ति का दान दिया दीन तारिने दीनों को तारा, रक्षा की और विशेष रूप से विरुद्धपसिद्धान्त ध्वांत हारिने रूपनुगा सिद्धांतों के विपरीत बातों को पराजित किया।लोग कुछ उल्टा प्रचार कर रहे थे उसको सुल्टा किया। इस संसार में सब लोग उल्टाफुलटा करते रहते हैं। तो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने सही सिद्धांतों का प्रचार किया। ऐसे आचार्य रहे अपने उदाहरण से यह सब उन्होंने संभव किया। तो ऐसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के हम कितने ऋणी हैं। उन्होंने सारा हमारा मार्ग साफ किया। कई सारे कंटक पत्थर थे इस मार्ग में।इस बैकुंठ और गोलोक के मार्ग के इस सफर में हम सफर ना करें ऐसी व्यवस्था करके गए श्रीला भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर।
हरे कृष्ण आंदोलन सफल रहा है और यह श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित हरे कृष्ण आंदोलन जो सर्वत्र फैल रहा है तो उसके पीछे के कारण श्रील भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर ही हैं। उन्होंने भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को यदि आदेश नहीं दिया होता 1922 में,कि पाश्चात्य देश में जाओ और भागवत धर्म प्रचार करो ,तो फिर आगे कुछ होना ही नहीं था। आदेश भी दिया और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने 1935 -1936 तक रहे ।कुछ तेरह -चौदह वर्षों तक साथ रहे ।श्रील प्रभुपाद गृहस्थ थे ,अभय चरण अरविंद भक्तिवेदांत। उतना साथ नहीं संभव हुआ तो भी संपर्क तो बना रहा ,और श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर दर्शन दिया करते थे, आदेश दिया करते थे, अगर तुम्हें धनराशि प्राप्त हो तो ग्रंथों की छपाई करो ऐसा आदेश भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने राधा कुंड के तट पर दिया। तो ऐसे प्रातः स्मरणीय, सदैव स्मरणीय श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का जीवन चरित्र आप भी पढ़ो हरे कृष्ण।
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ०३.०३.२१
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 702 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि बोल! श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय!
मैं आज श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर आविर्भाव तिथि महोत्सव के उपलक्ष्य में कुछ कहूंगा ही लेकिन मेरे साथ आज हमारे नोएडा मंदिर के सह-अध्यक्ष, श्री वेदान्त चैतन्य प्रभु, सुंदर कृष्ण, मंदिर के अध्यक्ष, अनादि गौर सांगली के प्रबंधक अथवा संचालक अथवा अध्यक्ष भी उपस्थित हैं, वे भी बोलेंगे। वे भी आज एक विशेष मिशन अर्थात हमारे विचार क्षेत्र में आने वाले एक इस्कॉन मंदिर से दूसरे इस्कॉन मंदिर में काउंसलिंग सिस्टम की स्थापना किए जाने के सम्बंध में बोलने जा रहे हैं। हम इसे अनुगतय सिस्टम ऐसा भी कुछ नाम दे रहे हैं। वह अनुगतय सिस्टम क्या है? उसकी क्या उपयोगिता है, इस संबंध में वे संक्षिप्त में कुछ परिचयात्मक बातें बताएंगे लेकिन उससे पहले मैं सुनाऊंगा, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज के आविर्भाव दिवस के उपलक्ष्य में । एक काउंसलिंग सिस्टम अथवा अनुगतय कार्यक्रम को पुनः आरंभ अथवा शुभारंभ किया जा रहा है। यह पहले भी चलता रहता है। यह काउंसलिंग सिस्टम अथवा अनुगतय कार्यक्रम नया तो नहीं है। जोश, निश्चय व पूरी तैयारी के साथ इसके स्थापना की योजना बनी है। उसको भी सुनिएगा, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज बहुत बड़ा नाम है। वह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के एक उत्तम आचार्य हैं। हरि! हरि!
हम और क्या कह सकते हैं, हम ऐसे आचार्य को समझने की क्षमता भी नहीं रखते।
य़ाँरे चिते कृष्ण- प्रेमा करये उदय।
ताँर वाक्य, क्रिया, मुद्रा विज्ञेह ना बुझय।।
( श्री चैतन्य चरितामृत २३.३९)
अनुवाद:- जो व्यक्ति भगवतप्रेम को प्राप्त कर चुका है, उसके शब्दों, कार्यों तथा लक्षणों को बड़े से बड़ा विद्वान भी नहीं समझ सकता।
हम श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर जैसे वैष्णवों की क्रियाएं तथा मुद्राएं अथवा भाव विचार व महिमा अथवा जो भी टूटी फूटी बातें अथवा शब्दाजंली अर्पित करते है। आज के दिन1874 में विमल प्रसाद का जन्म जगन्नाथपुरी में हुआ। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर तथा श्रीमती भगवती के पुत्र रत्न रहे। पहले तो भक्ति विनोद ठाकुर ने उन्हें विमला प्रसाद ही नाम दिया था। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर प्रार्थना कर ही रहे थे जिस प्रकार कर्दम मुनि भी प्रार्थना कर रहे थे कि हमें ऐसा अधिपत्य प्राप्त हो जो धर्म की स्थापना करने वाला हो।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ५.८)
अनुवाद:-
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर संसार को देख रहे थे और धर्म की ग्लानि को देखकर वह इस स्थिति को सुधारने के लिए ऐसे पुत्र की प्रार्थना कर रहे थे जो धर्म की स्थापना कर सके। वे ऐसी प्रार्थनाएं जगन्नाथ जी से कर रहे थे। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जगन्नाथपुरी के यमुनापुरी के जिला अधिकारी ( डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट) थे। वह जगन्नाथ मंदिर की सारी व्यवस्था भी देख रहे थे अर्थात वे जगन्नाथ पुरी के व्यवस्थापक थे। उनके कार्यभार के अंतर्गत यह भी उनकी एक सेवा ही थी।
जय जगन्नाथ! जय जगन्नाथ!
उनको जब पुत्र रत्न प्राप्त हुआ, तब उन्होंने उसे विमला प्रसाद नाम दे दिया। विमला देवी जगन्नाथ जी की सेविका है, जगन्नाथ जी का महाप्रसाद सर्वप्रथम विमला देवी को प्राप्त होता है। उन्होंने इसे जगन्नाथ का प्रसाद प्राप्त करने वाली विमला देवी के प्रसाद के रूप में यह पुत्र प्राप्त हुआ है, ऐसा समझा और पुत्र को विमला प्रसाद नाम दिया। हरि! हरि!।
यह आशा की किरण रही।
मेरे गुरु भ्राता रूप विलास प्रभु ने ‘रे ऑफ हॉप’ नामक ग्रंथ भी लिखा है अर्थात भक्ति विनोद ठाकुर की जीवनी लिखी है। लाइफ एंड टीचिंग नाम तो नहीं है लेकिन नाम ही ‘रे ऑफ विष्णु’ अर्थात विष्णु की किरण अथवा आशा की किरण है। हरि! हरि! वे लगभग १० माह ही जगन्नाथपुरी में रहे। तत्पश्चात श्रीमती भगवती व उनकी गोद में विमला प्रसाद को पालकी में बैठा कर जगन्नाथ पुरी से बंगाल में राणाघाट नामक स्थान पर पहुंचाया गया। (हम जब कोलकाता से मायापुर जाते हैं, तब रास्ते में राणाघाट आता है। ) भक्ति विनोद ठाकुर व उनका परिवार वहाँ पहुंच गया।
वहीं आकर रहने लगे। बाल अवस्था में ही विमला प्रसाद मां भगवती के मुख से वह कृष्ण कथाएं सुना करते थे। उन्हें ऐसे संस्कार मिल रहे थे। यह बालक भगवान् की कथाएँ बड़े गौर और प्रेम से सुना करता था। जब वे राणाघाट में थे, तब आम का उत्सव आया। एक दिन जब आम खरीदे गए, उसको भोग लगाने से पहले ही विमला प्रसाद ने ( विमला प्रसाद लगभग ३ वर्ष के ही थे। उस समय अन्नमय स्थिति होती ही है, बालक जिस चीज़ को देखता है और जो भी हाथ में लगता है, उसको खाता ही रहता है) आम उठाया और खाने ही लगा तभी भक्ति विनोद ठाकुर ने उन्हें रोका और डांटा फटकारा, ” हे, भगवान के भोग लगाए बिना तुम ऐसे आम को खा रहे हो, भोगी कहीं के,” बस इतना ही पर्याप्त था। तत्पश्चात श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अपने जीवन में कभी भी आम नहीं खाया। इस प्रकार बाल अवस्था से ही इस बालक ने अपने आचार्य के लक्षणों का प्रदर्शन किया। मनुष्य होने के कारण कुछ गलतियां अपराध हो सकते हैं लेकिन गलती को स्वीकार करना और गलती को सुधारना और पुनः ऐसी गलती नहीं करूंगा, ऐसा संकल्प लेना यह आचार्य के लक्षण हैं। कई बार श्रील प्रभुपाद हमें अथवा अपने शिष्यों को इस विषय में बताया करते थे। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज को कई बार आम के सीजन में आम ऑफर किए जाते थे कि यह ऐसा आम है, वैसा आम है लेकिन हर बार श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज कहा करते थे कि नहीं! नहीं! मैं अपराधी हूं। मैं अब आम नहीं खाऊंगा। हरि! हरि!
उनकी बाल अवस्था और उनके संस्कार अथवा उनका लालन-पालन ऐसा रहा। केवल पालन ही नहीं, लालन भी रहा। श्रील भक्ति सिद्धांत ठाकुर महाराज श्रुतिधर थे। उन्हें केवल 7 वर्ष की आयु में सारी भगवत गीता कण्ठस्थ थी। उन्होंने लगभग ग्यारह वर्ष की आयु में भक्ति विनोद ठाकुर के साथ गौर मंडल की परिक्रमा की। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इस प्रकार इस बालक को प्रशिक्षित कर रहे थे। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर तबादला (ट्रांसफर) होकर कृष्ण नगर के जिला अधिकारी हो गए। वे अब गोद्रुम द्वीप, सरस्वती नदी के तट पर रहने लगे। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर गणित तथा खगोल में दक्ष थे। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने सूर्य सिद्धान्त भी प्रकाशित किया अर्थात उन्होंने सिद्धांत का प्रकाशन किया था, तत्पश्चात उन्हें भक्ति सिद्धांत की पदवी प्राप्त हुई। भक्ति सिद्धांत एक पदवी है। वे खगोल शास्त्रज्ञ थे, वह श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के साथ गोद्रुम द्वीप में रहते थे।
उन दिनों में ऐसा भी समय था (मुझे कहने में गर्व और हर्ष होता है। हम भी जब वहां जाते हैं, भक्ति विनोद ठाकुर समाधि स्थली का दर्शन करते हैं लेकिन पूर्व में वहाँ भक्ति विनोद ठाकुर रहा करते थे। उनका निवास स्थान था।) जब भक्ति विनोद ठाकुर वहां गोद्रुम द्वीप में रहते थे, स्वानंदसुखद् कुंज स्थान का नाम था। उस समय हमारे संप्रदाय के चार आचार्य हैं, जिनके छोटे विग्रह या चित्र हमारे इस्कॉन मंदिर में होते ही हैं, भगवान की आराधना के साथ उनकी आराधना होती है। श्रील जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर, श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज, उनके शिष्य श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज, यह चारों आचार्य वहां एक साथ कृष्ण चर्चा करते थे।
नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्-धर्म संस्थापकौ
लोकानां हित-कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ शरण्याकरौ
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।२।।
( षड् गोस्वामी अष्टक)
अनुवाद:-
मै, श्रीरुप सनातन आदि उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की, जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे, भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परम हितैषी थे, तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे,एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे।
जैसे वृंदावन में षड गोस्वामी वृन्द एकत्रित होकर राधा दामोदर मंदिर में व अन्य स्थानों पर शास्त्रार्थ अथवा बोधयन्तः परस्परम् करते थे।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
वैसे ही नवद्वीप अथवा गोद्रुम द्वीप में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के निवास स्थान पर यह चार आचार्य … श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जो कि हमारे सप्तम गोस्वामी भी कहलाते हैं।( छः गोस्वामी तो वृंदावन में हुए और सातवें गोस्वामी श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कहलाते हैं) ऐसी मान्यता है। सप्तम गोस्वामी और तीन आचार्यों अर्थात चारों एक साथ (सभी तो वहाँ नहीं रहते थे) वहां एकत्र होकर महा सत्संग अथवा विचार- विमर्श शास्त्रार्थ किया करते थे। इस प्रकार विमला प्रसाद नहीं रहे अपितु वे भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर बन रहे थे। उनका प्रशिक्षण चल रहा था। 1914 में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर समाधिस्थ हुए। अब गौड़ीय वैष्णव के रक्षा या इस सम्प्रदाय की पूरी जिम्मेदारी श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज की जिम्मेदारी बन गई थी। हरि! हरि! श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज कई वर्षों तक योग पीठ से कुछ दूरी पर गंगा तट पर एक कुटिया बनाकर, उसमें अपनी साधना व भजन किया करते थे। वे हरे कृष्ण महामन्त्र का जप उसी प्रकार करते थे जैसे नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर नाम जप करते थे। हरि! हरि! उन्होंने कठोर तपस्या व साधना की। कहते हैं कि जब वर्षा के दिनों में कुटिया में जल गिरता था तब वे छाता लेकर बैठ जाते थे। एक हाथ में छाता पकड़ते थे और दूसरे हाथ से जप करते रहते थे। यह विशेष कालावधि रही, वह कई वर्षों तक जप करते रहे। कहा जाता है कि एक दिन हवा के झोंके से एक पत्र उन तक पहुंचा, जब उन्होंने उसे पढ़ा, तब उसमें आदेश लिखा हुआ था कि श्रील भक्ति सिद्धान्त! तुम यह करो, तुम वह करो! तुम गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय का प्रचार करो, पुस्तक वितरण करो, संकीर्तन आंदोलन को फैलाओ। ( मुझे अभी अच्छी तरह याद नहीं) इस प्रकार वे विशेष आदेश थे। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज मान गए कि यह मुझे पंचतत्व का आदेश प्राप्त हो रहा है। तत्पश्चात उन्होंने गौर किशोर दास बाबा जी की तस्वीर के समक्ष सन्यास लिया और उन्होंने मायापुर में चैतन्य गौड़ीय मठ की स्थापना की। आप
शायद चैतन्य गौड़ीय मठ के विषय में जानते होंगे। तत्पश्चात वे चैतन्य गौड़ीय मठ संघ व संस्था की ओर से प्रचार करने लगे। उन्होंने लगभग ६० मठों की भारत में तथा चार मठों की विदेशों में स्थापना की। पूरे देश का भ्रमण किया, जबरदस्त प्रचार किया। कई सारे सन्यासी तथा हजारों ब्रह्मचारी उनके शिष्य बने। गृहस्थ शिष्य भी बने, उन्होंने जात-पात भेदभाव नहीं रखा।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥
( श्री नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित)
अनुवाद:- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
वह दीन- हीन पतित स्त्री, पुरुष, शुद्र, चांडाल, ब्राह्मण सभी का स्वागत करके सभी व्यक्तियों को ब्राह्मण दीक्षा देने लगे। वैसे ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ वैष्णव होता है। उन्होंने इस सिद्धांत की स्थापना व प्रचार किया। वैष्णव सर्वोपरि होता है। वह सभी को ब्राह्मण नहीं अपितु वैष्णव बना रहे थे। उस समय इसका विरोध भी खूब चल रहा था। किन्तु उन्होंने इसकी कोई फिक्र नही की, उसको आगे बढ़ाया। वह विदेश में प्रचार के लिए अपने शिष्यों को भेज रहे थे। वर्ष 1922 में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर महाराज से अभय बाबू की मुलाकात हुई।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर महाराज की जय!
उस पहली मुलाकात में ही अभय बाबू को पाश्चात्य देशों में प्रचार प्रसार करने का आदेश दिया। हरि! हरि! यदि कलकत्ता में 1922 में मुलाकात ना होती तो श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ऐसा आदेश नही देते तब भक्ति वेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद भी नही होते और इस्कॉन की स्थापना नही होती और हम और आप भी नहीं होते, होते तो सही लेकिन गौड़ीय वैष्णव भी नहीं होते। यह गौड़ीय वैष्णव शांतरुपिणी थाईलैंड तक कैसे पहुंचता। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का सभी को वैष्णव बनाने का संकल्प था। उसकी इच्छा की पूर्ति श्रील भक्ति वेदांत प्रभुपाद ने की। हमें जो प्राप्त हुआ है अथवा जो यह कृष्ण भावना प्राप्त हुई है, हमें इसका प्रचार करना है।
य़ारे देख, तारे कह ‘ कृष्ण’- उपदेश।आमार आज्ञाय गुरु हञा तार’ एइ देश।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला ७.१२८)
अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिए गए भगवान श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करें। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।
कृष्ण उपदेश अथवा बोधयन्तः परस्परम् करना है। हमें एक दूसरे की मदद करनी है। एक दूसरे को प्रोत्साहित करना है और मिलजुलकर श्रील भक्ति सिद्धांत ठाकुर महाराज के कार्य अथवा इस्कॉन करे कार्य को आगे लेकर जाना है यह उन्हीं की ओर से कार्य हो रहा है। मैं अब रुक जाऊंगा। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए हमें व्यवस्थित होना चाहिए। हम कैसे एक दूसरे को प्रोत्साहित कर सकते है या कैसे कुछ जिम्मेदारी ले सकते हैं या हम भी कुछ मार्गदर्शन कर सकते हैं। हर एक् को मार्गदर्शन की आवश्यकता है। शिक्षा ग्रहण की आवश्यकता होती है। बने रहिये।
हरे कृष्ण!
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पंढरपुर धाम से
2 मार्च 2021
ओम शांती:
हरी हरी । 702 स्थानों से आज जप हो रहा है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। प्रेम और आनंद से कहो !क्या कहो ? हरि हरि । हरि हरि कहो , मतलब हरि बोल , हरि बोलो। कैसे बोलना चाहिए ? प्रेम से बोलना चाहिए । प्रेम से कहो जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद प्रेम से कहो। हरे कृष्ण हरे कृष्ण भी कैसे कहना है ? प्रेम से कहो। हरि हरि। ठीक है आप को तैयार कर दिया है , ओम शांति वगैरे करके और हरि हरि बोल , शांत है जप करना मतलब शांति है । कुछ तो जप ही कर रहे हैं । मन शांत है । जप करने से मन शांत होता है । केवल हम शांत रहो , बी पीसफूल ऐसा ही नहीं कहते , हम लोग क्या कहते हैं ? चँन्ट हरे कृष्णा एंड बी हैप्पी कहते है।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥
अनुवाद: ₹ श्री विष्णु को प्रणाम, जिनके पास एक शांत उपस्थिति है, जो एक सर्प (आदिस) पर विश्राम करते हैं, जिनके नाभि पर एक कमल है और जो भगवान के देवता हैं,
कौन ब्रह्माण्ड का भरण-पोषण करता है, कौन आकाश की तरह असीम और अनंत है, जिसका रंग बादल की तरह है (नीला) और जिसके पास एक सुंदर और शुभ शरीर है,
देवी लक्ष्मी के पति कौन हैं, जिनकी आंखें कमल की तरह हैं और जो ध्यान से योगियों के लिए प्राप्य हैं, उस विष्णु को नमस्कार जो सांसारिक अस्तित्व के भय को दूर करता है और जो सभी लोकों का स्वामी है।
भगवान स्वभाव से शांत है । कृष्ण के जिवन मे अशांति नहीं है , अशांति का स्थान ही नहीं है । फिर हमारे जीवन में क्यों होना चाहिए ? क्योंकि बाप जैसे हम बेटे लाइक फादर लाइक सन । हम योग करेंगे । कौन सा योग करेंगे ? अष्टांग योग नही (हसते हुये) उसका भी कुछ फायदा है वह भी एक प्रकार का योग है । हम भक्तियोग करेंगे । भक्ति पूर्वक योग करेंगे या भक्ति योग्य करेंगे तो हमारा भगवान के साथ सबंध पुनर्स्थापित होगा । कर्मयोग से भी कुछ स्थापित होता है , ध्यान योग से भी कुछ स्थापित होता है किंतु भक्ति योग से यह स्थापना पूर्ण होती है, हमारे संबंधों की स्थापना पूर्ण होती है । इससे संबंध ध्यान भी होता है , सर्वप्रथम होता है संबंध ध्यान , फिर यग्य प्रयोजन कहते हैं । संबंध से शुरुआत होती है , योग से भगवान के साथ हमारा जो संबंध है वह पुनः स्थापित होता है , वैसे है ही पर हम भूल जाते हैं , संसार हमको भुला देता है । हमारे भगवान के साथ के संबंध को यह संसार भुला देता है और फिर इस संसार में हम लोग इतने सारे संबंध , सगे संबंधी स्थापित कर लेते हैं उस संबंधों के बीच भगवान के साथ वाला संबंध हम भूल जाते हैं । यह एक संबंध है और कई सारे संबंध है उसमें से एक भगवान के साथ संबंध है जो गौण हो जाता है , डायल्युट हो जाता है । हरि हरि । भक्ति पूर्वक जप , हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। और यह संसार को बंद करो ऐसे महात्मा प्रभु कह रहे थे , ‘क्लोज द डोर’ संसार के द्वार या जीन द्वारो से हम इस संसार में पहुंचते हैं या जिन द्वारों से संसार हममें प्रवेश करता है वह द्वार बंद करो ।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी |
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ||
(भगवद्गीता 5.13)
अनुवाद:
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है |
नवं द्वारे , ऐसे भी कह सकते हैं । नव द्वार है , शरीर में कितने द्वारा है कभी गिने आपने ? सुना तो होगा ? कुछ लोगोने सुना भी नहीं होता हैं । किसी को पूछा कि आपके शरीर में कितने द्वार हैं बता दो ? जल्दी बताओ ? वह बता नहीं सकते । कौन सा द्वार , द्वार की कौन सी बात कर रहे हो ! मुख तो है जिसमें हम अपलोड करते रहते हैं लेकिन कितने द्वार है ? तब भगवान ने कहा है नव द्वार है । ठीक है । संसार को द्वार बंद करो या नव द्वार बंद करो मतलब ही इंद्रिय निग्रह है , मन निग्रह है । गीता के 18 वे अध्याय में 42 श्लोक में कहां है , यह सब बातें है ही वैसे ही शांति की बात है , संसार में अशांति हो तो नव द्वार ही बंद करो , रहने दो संसार में अशांति , और संसार तो अशांति ही रहेगा संसार जो है ! संसार कैसा जो अशांत नहीं है ? अपने स्थान पर संसार को रहने दो और आप अपने स्थान पर रहो , आप शांत रहो , आप भगवान के साथ रहो या भगवान के भक्तों के साथ रहो , गुफा में रहो , हृदय को शास्त्रों में कई स्थानो पर गुफा भी कहा गया है , गुफा में रहो , हिमालय में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है , गुफा ढूंढते ढूंढते जा रहे हैं गुफा ढुंढ रहे है । गुफा भगवान ने दी हुई है , ह्रदय ही गुफा है , गुफा में रहो , वहा एकांत है , अंततोगत्वा दर्शन भी होगा वहां एकांत में , उनकी शरण लो ।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||
(भगवद्गीता 18.66)
अनुवाद:
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
ठीक है , यह कुछ अधिक हुआ जो मैंने कुछ कहा । कल कुछ कहा था और कुछ बचा था लेकिन अब समय कम बचा है , कुछ बात कह लेते हैं । इस संसार में ऐसा जब कहते हैं तो झट से संसार के दो प्रकार है ऐसा भी कहना पड़ता है । कईयों को पता नहीं है संसार मतलब संसार या साम्राज्य है यह भौतिक साम्राज्य है ।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः |
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ||
(भगवद्गीता 8.20)
अनुवाद:
इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता |
कभी व्यक्त तो कभी अव्यक्त , कभी प्रकट तो कभी अप्रकट , कभी सृष्टि तो कभी प्रलय होने वाले इस जगत मे अन्य जगत है जीसको भगवान ने सनातन कहा है , इस प्रकार के दो जगत है ,दो साम्राज्य है । संसार प्राकृतिक जगह है एक संसार जो दिव्य है और अलौकिक , वैकुंठे जगत तीन विभूति , इन दोनों प्रकार के जगतों में हमारे लिए , संसार के मनुष्य के लिए गणतव्य स्थान है एक ,
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥
( शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21)
अनुवाद :
हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
यह होता रहता है और मृत्यु के समय जैसे भाव होते हैं , विचार होते हैं हमारा भविष्य , हमारा स्थान उसी पर निर्धारित होता है , कल हम बता रहे थे वैसे मोटे मोटे इस ब्रह्मांड में , इस जगत में प्राकृतिक जगत में तीन स्थान है , एक है पाताल लोक , पृथ्वी लोक और स्वर्ग लोक । इस संसार में 3 गुण है इन तीन गुणों से प्रभावित हम कई प्रकार के कार्य भी करते हैं और तीन प्रकार के भाव भी है , असुरी भाव , दैवी संपदा अलग-अलग भाव है ।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ||
(भगवद्गीता 14.18)
अनुवाद:
सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।
ऊर्ध्वम गच्छति संपदा , सत्व गुनी है वह स्वर्ग में जाते हैं , तमोगुणी , पापी नरक में जाते हैं । अमेरिकन लोग कहां जाते होंगे ? वह कह सकते हैं हम इस पर विश्वास नहीं करते , आप जो कह रहे हैं उस पर हम विश्वास नहीं करते । इससे कुछ फरक पडता है क्या ?
भगवान ने कहा उर्ध्वम गछन्ति , जो सत्वगुणी है वह ऊपर जाएंगे यह नियम किसको किसको लागू होता है ? सिर्फ हिंदुओं को लागू होता है कि केवल भारतीयों को होता है ? भगवान ऐसा क्यों सोचेंगे यह सब को लागू होता है । कौन है ? किस देश के हैं ? यहा कोई जात पात का भेद नहीं है , हम इस धर्म के हैं , यह नियम सभी को लागू होता है । हर देश के लिए अलग-अलग नियम होते हैं । लॉज ऑफ लँड कहते है , इंग्लैंड लँड अमेरिकन लँड , थाईलैंड लँड है , हर लँड के हर देश के प्रदेश के अपने-अपने नियम होते हैं , हो सकते हैं , लेकिन जहां तक लॉज ऑफ लॉर्ड की बात है , प्रभुपाद धर्म की व्याख्या करते हैं , धर्म क्या है ? लॉज ऑफ लॉर्ड । धर्म मतलब क्या है ? भगवान के नियम है , यही धर्म है । लॉज ऑफ लँड अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन लॉज ऑफ लॉर्ड एक ही है , सभी के लिए एक ही नियम है । वैसेही उर्ध्वम गच्छती एक नियम है ।
जिसका जन्म होगा उसकी मृत्यु निष्चित है । यही एक मूल नियम है यह सब को लागू होता है कि नहीं ? सब को लागू होता है एवं ब्रह्मा को भी लागू होता है । ब्रम्हा भी बच नहीं पाते , तो हम कहते हैं आप ने जन्म लिया है ,मृत्यू प्रमाणपत्र हाथ में लेकर आप जन्में हो , आप जो भी हो , जहां के भी हो या जिस योनि में आपको जन्म मिला है या जिस युग में सत्य , त्रेता , द्वापर कली जीस युग मे आप ने जन्म लिया है , जिस देश में या जिस लोक में , स्वर्ग लोक में या पृथ्वी लोक में आप ने जन्म लिया है तो मृत्यु निश्चित है । लॉज ऑफ लॉर्ड है जो सबको लागू होते हैं , सभी के लिए है । यहां कोई भेदभाव नहीं है प्रेम का भेद नहीं है या देश का भेद नहीं है या धर्म का भेद नहीं है सबके लिए भगवान के नियम एक जैसे हैं । हम कृष्ण को नहीं मानते हम अल्लाह को मानते हैं ऐसा कोई कहेगा , तो कृष्ण और अल्लाह दो भगवान है क्या ? नाम तो हो सकते हैं कोई सूर्य कहेगा , तो कोई भानु कहेगा , कोई रवि कहेगा , कोई मार्तंड कहेगा यह तो सूर्य के नाम हो गए । सूर्य के नाम कितने हैं ? द्वादश है । सूर्य नमस्कार में हम एक-एक नाम लेते हैं भानवे नमः , भानु को नमस्कार , सूर्याय नमः एक-एक नाम सूर्य का लेते हैं और सूर्य नमस्कार होता है । कई सारे नाम है अल्लाह है , जहुआ है । “ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान” ऐसा भी गांधी कह कह के थक गए लेकिन किसी को समझा तो नहीं । समझते है की अलग अलग है , ईश्वर अलग है और अल्लाह अलग है । भगवान एक ही है इसीलिए लॉस ऑफ लॉर्ड , भगवान की नियम भी एक ही है और सभी के लिए एक ही नियम है और वह नियम वैसे आप शास्त्रों में भी पाओगे । आप विस्तार से पढ़ने पर समझ पाओगे लेकिन वेद , पुराण , स्मृति , श्रुति , इतिहास वेदांत सूत्र , ब्रह्म सूत्र का या व्यास सूत्र का आशय है , भागवतम यह सारे ग्रंथ और फिर गौड़िय वैष्णव का अपना वांग्मय है । ऐसा वांग्मय तो फिर और कोई नहीं है । प्रभुपाद पॉकेट डिक्शनरी एंड इनलारज कंप्लीट डिक्शनरी की बात कहते हैं , कुरान , बायबल यह पॉकेट डिक्शनरी है , संक्षिप्त मे कुछ कहा है और लिखा है लेकिन उसको विस्तार से अगर समझना है तो फिर आपको गीता भागवत की और मूढणा होगा और लोग मूड रहे हैं । कई प्रश्नों के उत्तर उनको बाइबल में , कुरान में नहीं मिल रहे हैं । इस सृष्टि की रचना कैसे हुई ? भगवान व्यस्त थे सृष्टि बनाने में और सातवे दिन उन्होंने विश्राम लिया और वह सातवा दिन रविवार था । ऐसी एक सीधी बात है ऐसा कुछ ? सृष्टि कैसे हुई ऐसा समझाया है अब्राहम एक रिलीजन कहे हैं , अब्राहम फिर आगे हुए मोजेस ,जीसस और मुहंमद यह रिलिजन या धर्म अब्राहम ने दिया है। हरि हरि। इससे हमारा समाधान नहीं होता, प्रश्नों के उत्तर प्राप्त नहीं होते। इसीलिए लोग भागवत और गीता की ओर मुड़ रहे है, और इसीलिए अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संग का प्रचार-प्रसार हो रहा है। और श्रील प्रभुपाद कहे थे कि, ग्रंथ ही आधार है! केवल भावुक नही होना चाहिए। हमे कैसा होना चाहिए? धार्मिक और और साथ में तत्वज्ञान ही होना चाहिए। केवल धर्म या तत्वज्ञान नही, दोनों साथ में होना चाहिए। प्रभुपाद ने हमे भगवतगीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत ऐस ग्रंथ दिए है। जिसे पढ़कर हमारा समाधान हो जाता है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आपको सुनाने के लिए कहानी नहीं कह रहे हम! आधी जनता तो मीठी नींद का आस्वादन कर रही है। वह मेरे जप चर्चा के साथ दिव्य अनुभव कर रहे है। तो यह अलग-अलग स्थान है जिसके बारे में हम कल और आज बात कर रहे है। तो नर्क है, स्वर्ग है, देवी धाम और महेश धाम है। शिव जी का भी अपना धाम है। और फिर विरजा नदी को पार करते है तो कृष्ण कहते है,
*ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ||
भगवतगीता १४.१८
अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।
हमें तीन गुणों के परे जाना हे। जब हम गुनातीत होंगे तभी हम साधक या भक्त बनके, संसार और ब्रह्मांड के बाद दूसरा स्थान है, जो सनातन जगत हे उसमे में जब पहुंच पाएंगे? जब हम गुनातीत हो जाएंगे, द्वंद से अतीत हो जाएंगे। स्वर्ग और नरक के लिए भी द्वंद है।
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः |
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||
भगवतगीता ४.२२
अनुवाद:-जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं |
द्वन्द्वातीतो विमत्सरः जब इस द्वंद से परे हो जायेंगे, अभी तो सब एयरलाइंस का दीवाना निकला है, लेकिन 10 या 20 साल पहले TWA trans world airline यानी इस दुनिया से परे ऐसे नाम की एक एयरलाइन थी। वह वैकुंठ से आया हुआ विमान नहीं था! लेकिन हरे कृष्ण भक्त उसके साथ कोई भाव विचार जोड देते थे। तो गुणातित होंगे तो फिर हम अतीत में हम पहुंच जाएंगे। या ऐसा जगह जहां पर सृष्टि होती है और प्रलय भी होता है यह भी एक द्वंद है। सृष्टि भी हे और वही प्रलय हुआ तो यह ऐसा द्वंद है। तो फिर विरजा नदी को पार करते ही ब्रह्मज्योति का सामना करना पड़ता है। ठीक है, हम धार्मिक तो थे लेकिन निराकार या निर्गुणवादि थे या अद्वैतवादी थे तो हमारी पोहोंच बस ब्रह्मज्योती तक रहेगी। आओंका आपका भगवान के रोक दो ना लेला और धाम में विश्वास नहीं था तो ब्रह्मा ज्योति मैं समा जाते हैं लेकिन जो,
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
भगवतगीता ४.९
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
ऐसा व्यक्ति जो भगवान का जन्म और उनकी लीलाये दिव्य है ऐसा मानता है, यानी भगवान जन्म लेते हैं लेकिन भगवान की मृत्यु नहीं है क्योंकि भगवान अजन्मा है। भगवान का शरीर नहीं है मतलब, भगवान का भौतिक शरीर नहीं है। भगवान का दिव्य स्वरूप है और इसको जो जानते है, तो भगवान कह रहे हैं चौथे अध्याय मे की, इसको जानने वालों का पुनःजन्म नहीं होगा। किसी योनि में उनको जन्म नहीं लेना होगा! ना तो आप स्वर्ग जाओगे ना नर्क जाओगे। अमेरिका देशे दियो वास तुलसी कृष्ण प्रेयसी नमो नमः हमारा जो विजा है वह ग्रैंड हो जाए ताकि हम अमेरिका जा पाएंगे। बाबा बाबा बोला करो, लेकिन बाबा ने तो कोका कोला बाबा ने कहा यानि वह कोका कोला देश गए होंगे। तो भगवान ने कहा उनको जो तत्वतः जानते हैं मतलब उनके नाम, रूप, गुण, लीला, धाम को जानते है, तो वे इन ब्रह्मांड से परे विरजा को पार करके ब्रह्मज्योति जी से आगे बढ़ते हैं।
मंत्र पन्द्रह हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥१५ ॥
ईशोपनिषद १५
अनुवाद:- हे भगवन् , हे समस्त जीवों के पालक , आपका असली मुखमंडल तो आपके चमचमाते तेज से ढका हुआ है । कृपा करके इस आवरण को हटा लीजिए और अपने शुद्ध भक्त को अपना दर्शन दीजिए ।
यह ईश्वर से प्रार्थना है, भक्त प्रार्थना कर रहे हैं हिरण्मयेन पात्रेण जो भवपाश हे उसको हटाएं और मुझे मुक्त कीजिए। और इस भक्तों को आपके चरण का और मुख मंडल का, सर्वांग का दर्शन दीजिये ऐसी प्रार्थना है। तो भक्त के लिए, वैष्णव के लिए जो राधा कृष्ण के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम को स्वीकार करते हैं और उसका अनुभव किया हुआ है उसको कोई रोक नहीं है। वह ब्रह्मांड के बाहर निकल आएगा वैसे वैकुंठ विमान में बैठकर आएगा तो विरजा नदी को पार करेगा और दिव्या ब्रह्मांड या आकाश है जैसे भौतिक आकाश में कई सारे नक्षत्र है वैसे ही उस दिव्य आकाश में कई सारे ग्रह है जिसे वह वैकुंठ ग्रह या लोक कहते है। इस भौतिक जगत में जिसने भी भगवान का स्मरण किया बस इतना करना स्वामी, जब प्राण तन से निकले गोविंद नाम लेकर प्राण तन से निकले ऐसी प्रार्थना भगवान ने भी सुनी साधक का वैकुंठ लोक में स्वागत होगा और फिर जैसे कल चर्चा हो रही थी जिनकी भक्ति दास्य भाव से सीमित है उनकी वैकुंठ पोहोंच वैकुठ तक की है और जो ऐश्वर्या मिश्रित दास्य और वात्सल्य है वह भी वैकुंठ तक जायेंगे। या उसमें से कोई साकेत लोग है अयोध्या वहां जायेंगे। जो विष्णु लोक में पहुंचते हैं उन्हें वैष्णव कहा जाता है। वैसे कृष्ण को भी विष्णु कहा जा सकता है। तो जो गौडीय वैष्णव है वह जो सर्वोपरि या सर्वोच्च वैकुंठ है, गोलोकधाम है जो भगवान के द्विभूज रूप का धाम हे। वैकुंठ में तो चतुर्भुज होते हे। शंख, चक्र, गदा और पद्म धारी होते हे। किंतु द्विभूज के पुजारी है वह गोलोक वृंदावन पहुंचेंगे। गोलोक में ही द्वारका और मथुरा है। गौडीय वैष्णव है वह द्वारका और मथुरा को पसंद नहीं करेंगे वे वृंदावन को पसंद करेंगे। उस वृंदावन से जहां से भगवान एक पग भी बाहर नहीं जाते।
वृंदावन परित्येज्य अकम पादः न गच्छन्ति तो जो मथुरा जाते हैं या द्वारका जाते हैं वह कृष्ण नहीं है क्या? कृष्ण नहीं है तो और कौन है? तो सुनो! द्वारका में भगवान पूर्ण है, मथुरा में पूर्णतर हे और वृंदावन में भगवान पूर्णतम है। हरि हरि। तो वृंदावन या गोलोक में अधिकतर माधुर्य रस का प्राधान्य है।
जय जयोज्ज्वल-रस सर्व रससार
परकीया भावे याहा, व्रजेते प्रचार ।।10।।
जय राधे, जय कृष्ण, जय वृन्दावन वैष्णव गीत
अनुवाद:- समस्त रसों के सारस्वरूप माधुर्यरस की जय हो, परकीय भाव में जिसका प्रचार श्रीकृष्ण ने व्रज में किया। तो फिर वृंदावन में तो यह परकीय भाव का प्रचार है। माधुर्य लीला का प्रचार और आचार है। तो ऐसे माधुर्य लीला का आस्वादवान और प्रचार करने हेतु चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए थे।
अनर्पित चरिम चिरातकरुंयावतीर्ण: कलौ समरयितुमुन्नतुज्जवल- रसां साव-भक्ति-श्रियं।हरि:पुरट-सुंदर-द्युति-कंदम्ब-संदीपित: सदा हृदय-कंदरे स्फुरतु व: शची- नंदन:।।
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.4)
अनुवाद: श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप में विराजमान हैं। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं।
मतलब बोहोत समय के उपरांत, ब्रह्मा के 1 दिन जिसको कल्प बोलते है, उसमें भगवान केवल एक ही बार प्रकट होते है जो की द्वापर युग में और उसके बाद का जो कलयुग होता है उसमें चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होते हैं अनर्पित चरिम चिरातकरुंयावतीर्ण: कलौ करुणा की मूर्ति श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुए। और प्रगट हो कि उन्होंने क्या किया? उन्नत उज्वल रस देने के लिए प्रगट हुए। तो क्या देने के लिए ? उन्नत उज्वल रस यानी सर्वोच्च रस। मतलब यह गोपिभाव और राधाभाव भक्ति को बांटने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुए। श्री कृष्ण प्रेम प्रदायते यानी प्रेम के दाता, जो इस भक्ति के जो शिक्षा ग्रहण करके आचरण करते हे। तो मृत्यु के समय उनका ऐसा भाव होगा तो उनका गंतव्य निश्चित है। उनको न तो नर्क जाना है न तो सर्ग जाना है, न ब्रह्मज्योती में विलीन होना है तो वे सारे लोकों को पार करके अपने अपने भावके अनुसार या वैदी साधना और रागानुग साधना उसके अनुसार वे राधा कृष्ण को प्राप्त करते है। वृंदावन को प्राप्त करते हैं! उनके लिए राधा कृष्ण प्राण मोर युगल किशोर होते है। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ०१.०३.२०२१
714 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
पृथ्वी में गंध होता है और आज मुझे जब माला पहनाई गई इन मोगरा के फूलों कि जो कि बहुत सुगंधित है तो सुगंधते ही मुझे स्मरण आया, हालांकि मैं अलग से नहीं सुंघ रहा था मैं तो केवल स्वास ही ले रहा था,सबसे पहले तो कृष्ण ने इसके बारे में क्या कहा है मुझे यह स्मरण आया कि भगवान भगवद्गीता में कहते हैं कि पृथ्वी में जो गंध है वह मैं हूं।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्र्चास्मि विभावसौ |
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्र्चास्मि तपस्विषु || भगवद्गीता 7.9||
मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ | मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ|
इसलिए जब हम उल्लास का अनुभव करते हैं तो वहां कृष्ण हैं,ऐसा कृष्ण ने हीं कहा है।इसलिए जब कभी आप उदासित हो रहे हो तो उद्यान में जाओ और पुष्पों की सुगंध को सुंघो।या घर में भी किसी सुगंधित वस्तु को सुंघ सकते हो।
हरि हरि।। गौरांग।
और फिर कुछ और ही विचार आया कि सत्यानाश भी कर देते हैं हम उसी सुगंध का,जब उन्ही पुष्पों कि सुगंध से सौंदर्य प्रसाधन बनाते हैं। फिर उसका लेपन होता है और कुछ लोग फिर उसी सुगंध से मोहित होते हैं। और माया में फस जाते हैं। तो वह सुगंध माया कि सुगंध है। शायद आप नहीं समझे होंगे या समझ ही गए होंगे। ज्यादा मैं नहीं कहना चाहता हूं,आप स्वयं बुद्धिमान है। सुगंध को ही हम दुर्गंध बना देते हैं। समझते तो है कि यह सुगंध है लेकिन वह मायावी सुगंध होती हैं। उसमे माया का नशा आ जाता है। सुगंध तो सीधे कृष्ण से आती है लेकिन जब हम उसे मायावी बना देते हैं तो माया कि दुर्गंध आ जाती है। अगर हम किसी उद्यान में भ्रमण कर रहे हो और वहां अगर कोई फूल देंखें तो दो प्रकार के लोग हो सकते हैं और दो प्रकार के लोग दो प्रकार के ही विचारों से प्रभावित होंगे पहले प्रकार के जो लोग हैं वह यह सोचेंगे कि देखो कितना सुंदर फूल है। इन फूलों कि मैं माला बना लूंगा और राधा माधव को पहनाऊंगा एक विचार यह है और दूसरे प्रकार का व्यक्ति सोचेगा या यूं कहें कि दूसरा विचार यह है कि देखों कितना सुंदर फूल है,इसको मैं अपनी प्रेमिका को दे दूंगा। फूल तो एक ही है लेकिन विचार अलग-अलग है। हम ही हैं जो उसको कृष्ण के केंद्रित अथवा माया के केंद्रित करते हैं। चाहे वह पुष्प हो,फल हो या फूल हो। यह मैं कहना तो नहीं चाहता था पर कह दिया और जो भी कहा मैंने झूठ तो नहीं कहा,वह सत्य ही है। इस संसार में कई अलग-अलग स्थान है और संसार के भी दो प्रकार हैं ।हम संसार कह सकते हैं या साम्राज्य कह सकते हैं और दोनों साम्राज्य भगवान के ही हैं। एक प्राकृतिक साम्राज्य है और दूसरा दिव्य साम्राज्य है। एक लौकिक साम्राज्य है और दूसरा आलौकिक साम्राज्य। इसमें कई सारे स्थान है या स्थानों के प्रकार हैं। इसमें कई सारे स्थान है या स्थानों के प्रकार हैं और उन स्थानों के साथ अलग-अलग भाव जुड़े हैं और हमारे अंदर जिस प्रकार का भाव हैं हम उस स्थान पर जाएंगे या हमें भेजा जाएगा। वही हमारा गंतव्य स्थान बनेगा।
अन्तवत्तुफलंतेषांतद्भवत्यल्पमेधसाम्|
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्तायान्तिमामपि ||
भगवद्गीता 7.23
अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं | देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं | ना चाहते हुए भी हमारे भाव और चेतना के अनुसार हमें भेजा जाएगा। ऐसे ही भक्ति के विभाग होते हैं। जैसे 7 गौन भाव या रस है। और 5 प्रधान भाव हैं। जैसे शांत,दास्य,वात्सल्य,माधुर्य तथा साखय। यह भी भाव,रस या भक्ति के प्रकार कहलाते हैं। हममें जो भी भाव होता है उनके अनुसार हमारे अलग-अलग गंतव्य स्थान बनते हैं।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्|
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ||भगवद्गीता 8.6 ||
हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है |
श्रीभगवानुवाच
कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये।
स्त्रिया: प्रविष्ट उदरं पुंसो रेत: कणाश्रय:॥१॥
(श्रीमद भागवतम-3.31.1)
हमारे कर्म से ही भाव बनते हैं। हम जैसा भी कर्म करते हैं या फिर अकर्म करते हैं या विकर्म करते हैं ,उसी के अनुसार हमारे अलग-अलग भाव उदित होते हैं।हम अलग-अलग भाव विचार या भावना वाले व्यक्ति बन जाते हैं। और मृत्यु के समय जिस प्रकार का हमारा विचार होगा ,उसी के अनुसार हमें अलग-अलग योनि प्राप्त होती है या योनि प्राप्त ना भी हो, कैसे
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः|
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन||
भगवद्गीता 4.9||
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है|
ऐसा भी हो सकता है कि हमारा पुनर्जन्म ना हो।हम मुक्त हो जाएं अगर हम भक्त होंगे तो मुक्त भी हो जाएंगे।हमे भावों के अनुसार ही अलग-अलग जगह पर भेजा जाएगा। तो इस संसार में जिसको मैंनें साम्राज्य भी कहा,भगवान का साम्राज्य और साम्राज्य के दो प्रकार भी बताये भौतिक साम्राज्य और आध्यात्मिक साम्राज्य।सबसे नीचे नर्क है और ऊपर स्वर्ग है।आपने अगर किसी प्रकार की भक्ति या धर्म के कर्म नहीं किए तो आप नरक जाएंगे।कृष्ण ने ऐसा कहा हैं कि नरक के तीन द्वार हैं काम,क्रोध और लोभ।वैसे 6 होने चाहिए और हैं भी लेकिन भगवान ने तीन का ही नाम लिया।या बड़े-बड़े 3 द्वार है।काम द्वार,क्रोध द्वार,लोभ द्वार।यदि हम कामी,क्रोधी या लोभी है तो सीधे ही हमे नरक मे भेजा जाएगा। या फिर हमारा यमदूत से ही लेनदेन होगा और यमदूत ही नियंत्रित करेंगे फिर हमें। लेकिन यमराज केवल यमदूतो को ही हमारे पास नहीं भेजते वह विष्णु दूतों को भी भेज सकते हैं क्योंकि यमराज वैसे महा भागवत हैं,वैष्णवो को यमराज से डरना नहीं चाहिए। डरना तो उनको चाहिए जो चोर है नरक में कौन जाते हैं
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः|
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः||
भगवद्गीता 14.18||
सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं । ऐसा भगवान ने कहा है कि पापी नीचे जाते हैं यानि नरक जाते हैं।और स्वर्ग में कुछ धार्मिक लोग जाते हैं, उनको धार्मिक कहा जा सकता है। वैसे ऐसे धर्म को भगवान ने तो कहा है
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज|
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः||
भगवद्गीता 18.66 ||
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत। वो धर्म तो है लेकिन उसको भी त्यागो। लेकिन लोग त्यागते नहीं हैं।और कर्मकांड करते रहते हैं।लोग यज्ञ करते हैं और देवताओं के पुजारी बनते हैं
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्|
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि||
भगवद्गीता 7.23||
अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं | देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं| जो देवी देवताओं के पुजारी हैं वे स्वर्ग जा सकते हैं। स्वर्ग में भी कोई भक्ति भाव तो नहीं है वहां तो भोग कि वासना ही है। भोग विलास के लिए ही व्यक्ति स्वर्ग जाता है भक्ति के भाव या पांच प्रकार के भक्ति के रस स्वर्ग में नहीं है। स्वर्ग में तो भुक्ति है।आपको समझ आ रहा होगा कि कौन स्वर्ग जाता है,कौन-कौन नर्क जाता है।तो वैष्णव को ना तो स्वर्ग जाने में कोई दिलचस्पी होती है ना नरक जाने में। हां पर जा भी सकते हैं।वैष्णव के लिए तो स्वर्ग और नर्क सब समतुल्य है,अगर भगवान कि सेवा का कोई कार्य हैं तो वह कहीं भी जा सकते हैं। एक और गंतव्य स्थान हैं ब्रह्म ज्योति।चलो स्वर्ग और नर्क से परे तो पहुंच गए या मुक्त हो गए,ऐसी विचारधारा से मुक्त हो गए जो हमको नर्क में भेज सकती हो या उस विचारधारा से या उस भाव से भी मुक्त हो गए जो हमको स्वर्ग भेज सकते हो।
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः|
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते||
भगवद्गीता 4.22 ||
जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं| एसी स्थिति को भगवान कहते हैं,द्वंद से परे। द्वंद भी कई प्रकार के हैं। फिर उसमें स्वर्ग और नर्क भी द्वंद है। उसके पार पहुंच जाते हैं।जो कर्मी होते हैं यानी कि कर्मकांड करने वाले,स्वर्ग जाते हैं और जो ज्ञानी होते हैं ज्ञान योगी नहीं। ज्ञान योगी होना और ज्ञानी होना अलग है ।
karma-kāṇḍa, jñāna-kāṇḍa, kevala viṣera bhāṇḍa
(श्री प्रेम भक्ति चंद्रिका 8.8)
कर्मकांड और ज्ञान कांड के विष का प्याला है या यूं कहें कि जहर ही है । ज्ञान कांड उस ज्ञान कांडी को ब्रह्म ज्योति में लीन कराएगा।जोत से जोत मिलाएगा।जिसके भाव है कि अहम् ब्रह्मास्मि।जो निराकार निर्गुण को लेकर बैठे रहते हैं। जो अद्वैत सिद्धांत से प्रभावित होते हैं और जो शंकराचार्य के अनुयायी होते हैं और बड़ी संख्या में ऐसे जन इस संसार में है।वो हिंदू भी हो सकते हैं या मुस्लिम भी हो सकते हैं। मुस्लिम तो बड़ी संख्या में मायावादी हैं। मायावादी का मतलब भौतिक वादी होना नहीं है। यह भी हमको समझ में नहीं आता।मायावादी कुछ-कुछ तो अध्यात्मवादी होता है किंतु है अद्वैतवादी या निराकार, निर्गुण वादी। तो बताओ क्या हमारे मुस्लिम भाई भगवान के रूप को मानते हैं? उनके मस्जिद में जाओ तो क्या कोई भगवान का रूप हैं? और जो आर्य समाजी हिंदू कहलाते हैं तो आर्य समाज में भी भगवान का कोई रूप नहीं है। तो आर्य समाजी हिंदू और मुसलमान एक ही हो गए। यह सब अद्वैत वादी हैं निरविशेष शुनयवादी पाश्चात्य देश तारिने। श्रील प्रभुपाद गोरवाणी का प्रचार करके संसार भर के हिंदुओं को भी और आर्य समाजियों को भी,मुसलमानों को भी और ईसाइयों को भी सही राह दिखा रहे हैं। और बता रहे हैं कि यह सब धर्म वास्तविक धर्म नहीं है।
इसलिए भगवान ने कहा कि सर्वधर्मान्परित्यज्य।
हरि हरि।।
यह जो तुम मुस्लिम धर्म या आर्य समाजी धर्म को लेकर बैठे हो उसको भी त्यागो।कर्मकांड का धर्म,ज्ञान कांड का धर्म,भुक्ति,मुक्ति,सिद्धि का जो धर्म है यह सारे त्याग कर केवल मेरी शरण लो।जब व्यक्ति नर्क और स्वर्ग के परे पहुंच जाता हैं, ब्रह्मांड से बाहर निकल जाता हैं और विरजा नदी को भी पार कर जाता हैं,तो जो ब्रह्म वादी मायावादी या अद्वैत वादी इनकी जो मंडली है जब विरजा नदी को पार कर जाते हैं तो ब्रह्म ज्योति इनका स्वागत करती है,सब ब्रह्म में लीन हो जाते हैं प्रभुपाद कहते हैं कि हां उन्होंने भगवान के धाम में प्रवेश तो प्राप्त कर लिया है लेकिन भूमि पर नहीं उतर पाए हैं,ऐसे ही हवा में लटक रहे हैं। ना भगवान से हाथ मिला सकते हैं।बस ऐसे ही हवा में लटके रहते हैं। यह आत्महत्या ही है।माया वाद में आत्महत्या होती है।वैसे आत्मा की हत्या नहीं हो सकती लेकिन एक प्रकार से आत्महत्या ही है।भक्ति रसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी प्रभुपाद ने साधना भक्ति के दो प्रकार बताए हैं एक है वेदी भक्ति और दूसरी है रागानुगा भक्ति।
वेदी भक्ति के विधि-विधानो का पालन करते हुए जो भगवान महान है और हम लहान हैं इस भाव के साथ या फिर दास भाव या दास्य रस मे जो भगवान की भक्ति करते हैं जो विष्णु रूप की भक्ति करते हैं,भगवान के अलग-अलग अवतारों की भक्ति करते हैं ।
advaitam achyutam anadim ananta-rupam
adyam purana-purusham navayauvanam cha
vedesu durlabham adurlabham atma-bhaktau
govindam adi-purusham tam aham bhajami
(ब्रह्म संहिता 5.33)
जो दास्य रस में भगवान की भक्ति करते हैं वह बैकुंठ को प्राप्त होते हैं। वैकुंठ भी अनेक हैं।कुछ शांत रस वाले भी हो सकते हैं जो बैकुंठ में जाते हैं।भगवान महान है यह तो जानते हैं,ज्ञान तो है,साक्षात्कार तो है लेकिन वह सेवा भाव अभी जागृत नहीं हुआ।अभी तक वह भगवान के लिए हाथ पैर हिलाना नहीं चाहते।भगवान महान है यह विचार तो दिमाग में होता है किंतु सेवाभाव नहीं होता। तो यह लोग हैं शांत रस वाले।हो सकता है इनमें से कुछ वृक्ष बने,कुछ पहाड़ बने।तो पूरे वैकुंठ में शांत और दास्य रस वाले भक्त फैलै रहते हैं।वेदी भक्ति का पालन करके वे साधना में सिद्ध होते हैं। उनका गमन वैकुंठ में होता है या फिर आगे के जो भक्ति भाव या रस है या भगवान के साथ संबंध हैं। यह रस मतलब संबंध भी है।भगवान के साथ शांत रस का संबंध,दास्य रस का संबंध। मतलब हम हैं दास और भगवान है स्वामी ।यह संबंध है।ऐसी समझ है कि भगवान महान है हम उनके दास हैं।शांत और दास्य रस से ऊपर वाले,और पूर्ण और अधिक विकसित रस वाले रस या भाव या भक्ति के प्रकार हैं,साखय रस,वात्सल्य रस और माधुर्य रस है। हल्का सा साखय रस बैकुंठ में भी हो सकता है या उस साखय रस को कहा गया है ऐश्वर्य मिश्रित साखय रस।अर्जुन का जो साखय रस है,भगवान ने कहा तो सही कि तुम मेरे सखा हो लेकिन उस रस मे ऐश्वर्य और ज्ञान भी हैं कि भगवान परमेश्वर हैं महान हैं और फिर गोलोक में भी सखा हैं।परंतु एक ऐश्वर्य ज्ञान शूनय सखा हैं।जैंसे तुम कौन से घराने के हो?तुम क्या बड़े हो?तुम और हम एक से हैं।चलो खेलो।हम तुमको हराते हैं,तुम हार गए।चलो घोड़ा बनो। हम तुम्हारे कंधे पर बैठेंगे।अब घोड़े तो बन गए लेकिन दौड़ते क्यों नहीं।तो ऊपर बैठने वाला जो मित्र है कृष्ण का वह अपने पैर से लात मार सकता है,ए घोड़े चलो दौड़ो।कृष्ण खेल-खेल में घोड़े बने हैं।तो यह जो साखय रस है ऐसा रस अर्जुन के लिए संभव नहीं है। वैसे अर्जुन तो गोलोक के भक्त हैं गोलोक में भी अलग अलग सतर हैं। गोलोक में हस्तिनापुर भी है,गोलोक में द्वारिका भी है,गोलोक में मथुरा भी है और फिर गोलोक में ही सर्वोपरि है वृंदावन धाम।वृंदावन धाम की जय।। केवल इतना तो नहीं है और भी है लेकिन आज जितना भी आपने सुना हैं यह सब विचार,यह भाव या भक्ति के प्रकार या भक्ति ही हैं या भुक्ति है भुक्ति का परिणाम,भुक्ति का फल कि आप कहां जाओगे आपको कौन सा शरीर प्राप्त होगा। पुण्य कर्म किया आपने तो पुण्यात्मा बनोगे। कोई साधारण पुण्य भी हो सकता है और कोई दिव्य अलौकिक पुण्य भी हो सकता हैं
शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः।
हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥
श्रीमद भागवतम- 1.2.17
प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान् श्रीकृष्ण , उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को हटाते हैं जिसने उनकी कथाओं को सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है , क्योंकि ये कथाएँ ठीक से सुनने तथा कहने पर अत्यन्त पुण्यप्रद हैं। लेकिन देवताओं की पुण्य की बात करें तो वह पुण्य का प्रकार अलग है। स्वर्ग में पुण्य का प्रकार अलग है।नारद जी एक समय स्वर्ग में गुणगान कर रहे थे और उस सभा में कुछ स्त्रियां भी थी और पुरुष भी। सभी देवी और देवता उपस्थित थे।उस सभा में नारद जी ने देवताओं के अनेक गुण गाए। पुण्यात्मा तो बने लेकिन देवताओं के गुण गा कर उन्होंने अपराध किया।उनसे दूसरा नाम अपराध हुआ कि भगवान के नाम, भगवान कि गुण गाथा की तुलना देवी देवताओं के गुणों के साथ की। देवी देवताओं के साथ भगवान की कोई तुलना नहीं हो सकती।यह सोचना कि वे समकक्ष है यह अपराध है। तो मैं यह समझाना चाह रहा हूं कि पुण्य- पुण्य में भी अलग-अलग प्रकार हैं। भौतिक पुण्य को कमाओ तो स्वर्ग जाओ और दिव्य पुण्य या अलौकिक पुण्य कमाओ तो बैकुंठ जाओ। जब नारद जी देवताओं का इतना गुणगान गा रहे थे,तो उनसे अपराध हुआ। उसी के कारण उनको अगले जन्म में शूद्रानी का पुत्र बनना पड़ा। उनको शराप दिया गया कि शुद्र बनो।तो इस तरह नाराज जी शूद्रानी के पुत्र बने।तो अब यहां रुकेंगे।इसी विषय को कल आगे बढ़ाएंगे। कल के लिए कुछ विषय को बचा कर रखना होगा
हरे कृष्ण।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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