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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण !!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
दिनांक 28 फरवरी 2021
आज हमारे साथ 666 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। हरि हरि। तो हमारे साथ इतने सारे स्थानों से भक्त जप कर रहे है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की जय! उनका अभिरभाव तिथि महोत्सव है। नरोत्तम यानी नर में उत्तम, उन्हें जीव गोस्वामी कहे थे कि तुम नर में उत्तम हो इसीलिए नरोत्तम कहलाओगे। वे लोकनाथ गोस्वामी के शिष्य रहे। और जीव गोस्वामी के भी शिष्य रहे, शिक्षा शिष्य है। हरि हरि। तो नरोत्तम दास ठाकुर का आज भी कुछ अधिक स्मरण हम करेंगे। वह गुणों की खान थे, उनमें कई सारे अच्छे गुण थे। वैसे वैष्णव तो गुणों की खान होते ही है! जैसे ही कृष्ण कथा होती रहती है। कोई-कोई सप्ताह के लिए करते है, जिसे भागवत सप्ताह कहा जाता है। हमारे आचार्य की कथा भी सप्ताह के लिए हो सकती है, या अधिक समय के लिए भी हो सकती है। वैसे भागवत कथा या चैतन्य भागवत कथा, गौर कथा और गौर भक्त कथा में कोई अंतर नहीं है। केवल कृष्ण की कथा करो, कृष्ण के भक्तों का नाम भी नहीं लेना ऐसा कभी भी संभव नहीं है। कृष्ण की कथा, कृष्ण के भक्तों के उल्लेख के बिना कर ही नहीं सकते! और केवल भक्त की कथा करना कृष्ण का नाम ही नहीं लेना यह भी संभव नहीं है। तो कृष्ण की कथा कृष्ण भक्त की कथा बन जाती है और भक्त की कथा भी कृष्ण की कथा हो जाती है। तो नरोत्तम दास ठाकुर का यह भी कहना था चैतन्य महाप्रभु के समय इस धरातल पर इतने सारे असंख्य भक्त थे उनकी गणना कौन कर सकता है! केवल अनंत शेष प्रयास कर सकते है। तो इन सभी भक्तों का केवल राधाकृष्ण से ही संबंध नहीं था इनके लिए राधा कृष्ण प्राण नहीं थे, या गौर नित्यानंद ही उनके प्राण नहीं थे किंतु इन सभी भक्तों का आपस में एक दूसरों के प्रति भी बहुत प्रेम था, मैत्री थी। इसका भी हम कब सीखेंगे यह भी सीखना होगा केवल भगवान से प्रेम नहीं करना है, भगवान के भक्तों से भी प्रेम करना है! वैष्णव सेवा और वैष्णव प्रेम या वैष्णव से मैत्रीपूर्ण व्यवहार यह सीखने को मिलता है गौडीय वैष्णव परंपरा में,और उनके चरित्रों के अध्ययन से। तो नरोत्तम दास ठाकुर भी कई सारे गीत लिखे जैसे आपको बताया तो उन गीतों में एक प्रसिद्ध गीत यह भी है,
जे आनिल प्रेम -धन करुणा प्रचुर ।
हेन प्रभु कोथा गेला आचार्य ठाकुर ।।1।।
तो यह नरोत्तमदास ठाकुर की रचना जब हम पढ़ते हैं या गाते हैं तो उसे एक संकेत मिलता है की, हम समझ सकते हैं एक-एक भक्त और प्रस्थान कर रहे है, उनका तिरोभाव हो रहा है, यह जैसे ही नूरोत्तमदास ठाकुर को पता चलता है तो उनके विरह व्यथा से नरोत्तम दास ठाकुर परेशानी है, दुखी है, मर रहे हैं तो फिर उन्होंने यह गीत लिखा कहा की,
कॉँहा मोर स्वरूप-रूप काँहा सनातन ।
काँहा दास रघुनाथ पतित पावन ।।2।।
तो कहा *पाषाणे कुटिबो माथा, अनले पशिब।
गौरांग गुणेर निधि कोथा गेले पाबो ।।4।।
मैं तो आप अपना सिर फोड़ सकता हूं या अब मैं आग में प्रवेश कर कर करूंगा मुझसे यह विरह सहन नही हो रहा। ऐसा भाव नरोत्तम दास ठाकुर व्यक्त किए है। तो उनके ग्राम से वृंदावन की ओर आ रहे थे तब उन्हें पता चल रहा था कि, उन्हें यह गोस्वामी नहीं रहे वह गोस्वामी नहीं रहे तो यह सब सुनकर उन्हें कष्ट हो ही रहा था तो अब उनमें वृंदावन में बहुत समय बिताने के उपरांत जीव गोस्वामी ने नरोत्तमदास ठाकुर और श्यामानंद पंडित और श्रीनिवास आचार्य इनको गौड़िय ग्रंथ लेकर, बैलगाड़ी में लादकर बंगाल ले जाओ! और उसका वितरण करो प्रचार करो इस ज्ञान का प्रचार प्रसार करो! भक्ति पूरक ज्ञान! केवल ज्ञान योगियोंका ज्ञान नहीं! तो यह तीनो आचार्य यूपी या बिहार से बंगाल में जब वे पहुंचे तो वहां एक विष्णुपुर नामक के गांव में वे पहुंचे थे तो रात्रि के समय उनके सारे ग्रंथों की चोरी हो गई। तो वे सभी बहुत अच्छी-अच्छी कि हुए आचार्य चकित हुए और वह तीनों अलग-अलग स्थानों पर खोज रहे थे लेकिन ग्रंथों नहीं मिले। और फिर उन्हें पता चला कि वहां के राजा जो डाकू थे। वीरहम उनका नाम था। उन्होंने यह सोचकर से चुराया था कि, इसमें कुछ खजाना है, सोना चांदी है, क्योंकि वह इसको वृंदावन से लाए थे तो उनको लगा कि यह खजाना हो सकता है! वैसे यह खजाना ही था! ज्ञान का खजाना था! तो श्रीनिवासाचार्य कहे की मैं इसको संभालता हूं, यह जो चोरी हुई है मैं राजा से मिलूंगा और यह सब निपट लूंगा, आप आगे बढ़ो! तो नरोत्तम दास ठाकुर वृंदावन के लिए प्रस्थान किए। श्यामानंद प्रभु ओडिशा यानी नरसिंहपुर गए। तो नरोत्तम दास ठाकुर खेर जाने से पहले उन्होंने सोचा कि वे कभी नवद्वीप या जगन्नाथपुरी या शांतिपुर नहीं गए थे, या गौरमंडल भूमि और वहां के कई आचार्यों के तीर्थ नहीं गए और गंगा में उन्होंने स्नान नहीं किया था तो नरोत्तम दास ठाकुर सर्वप्रथम नवद्वीप आते है। और गंगा में स्नान करते है। गंगा मैया की जय! और गंगा के तट पर लौट जाते है। और गौरांग! गौरांग! गौरांग!
करने लगते है। पुकारने लगते है। और पूछते हैं कि, शचिनंदन का निवास स्थान कहां है? तो एक बाबा जी उनको संकेत करते हैं और फिर नरोत्तम वहां पर पहुंचते है। लेकिन वहां पर शचिमाता, गौरांग और विष्णुप्रिया नहीं थे। वहां उनको शचिमाता के सेवक मिले ईशान नाम के ईशान प्रभु मिले! और वहां पर शुक्लअंबर ब्रह्मचारी योगपीठ का सेवा कर रहे थे, भजन कर रहे थे। तो इन दोनों से नरोत्तम दास ठाकुर मिले, उनको गले लगाए और उनसे पूछताछ की आप कैसे हो? और इन दिनों में यह कौन है? कौन नहीं रहे? क्योंकि अधिकतर आचार्य प्रस्थान कर चुके थे इसीलिए शुक्लांबर ब्रह्मचारी पूछ रहे थे। वृंदावन से आए हैं तो षड गोस्वामी के बारे में कुछ बताइए तो शुक्लांबर ब्रह्मचारी के साथ कई सारे बाते हो रही। तो कई दिन वहा बिताने के उपरांत नरोत्तमदास ठाकुर शांतिपुर के लिए प्रस्थान करते है। और वहां पर आचार्य भी नहीं थे। आचार्य जहां जहां पर भी जाते थे वहां पर वह पता लगाते तो, वहां पर वह आचार्य प्रस्थान कर चुके होते थे। अद्वैत आचार्य की शिला थी तो उसका दर्शन किए और अद्वैत आचार्य के पुत्र अच्युतानंद को मिले और उनको आलिंगन दिया और बैठ के बातचीत कि और विरह की व्यथा की बातें, चरित्र की बातें हुआ करती थी, जहां कहा नरोत्तम दास ठाकुर जाते रहे। फिर वहां से नरोत्तम दास ठाकुर खर नाम का स्थान है वहां पर गए। जब नित्यानंद प्रभु ग्रहस्त बने तो वहां पर रहा करते थे। तो नित्यानंद प्रभु अब संसार में थे नहीं किंतु नरोत्तम दास ठाकुर जानवा माता को मिले, उनकी धर्मपत्नी से मिले और वहां पर भी कई दिन बिताए वहां पर भी चर्चा हुई। क्योंकि वृंदावन से लौटे थे इसलिए षड गोसवामी यों की चर्चा हो रही थी। वहां से सप्तग्राम जाते है जो लोकनाथ गोस्वामी का स्थान था। लेकिन वहां तो कोई नहीं था लेकिन वहां पर उद्धरण भक्त नाम के एक चैतन्य महाप्रभु के परीकर उनसे मिलते है। फिर नरोत्तम दास ठाकुर वहां पर कीर्तन और नृत्य करते रहे और हरी कथाएं होती।
अब नरोत्तम दास ठाकुर जगन्नाथपुरी जाना चाहते थे। जय जगन्नाथ! क्योंकि वह जानते थे की, चैतन्य महाप्रभु सन्यास ले कर शांतिपुर गए थे और वहां से जगन्नाथपुरी गए थे। और जगन्नाथपुरी में 18 वर्ष रहे। तो फिर नरोत्तम दास ठाकुर जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान किए जगन्नाथ का दर्शन किया, स्तुति गान कर रहे थे, स्तुतिया गा रहे थे। फिर वहां से जहां पर नामाचार्य हरिदास ठाकुर जो चैतन्य महाप्रभु के प्रस्थान से पहले प्रस्थान कर चुके थे। वहां नरोत्तम दास ठाकुर प्रेम के सागर में गोते लगा रहे थे। वहां कहीं सारी कीर्तन और कथाएं हो रही थी पर कहीं सारे भक्त उपस्थित थे। फिर रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी वृंदावन से जाते हैं। फिर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के अतिथि बनके वहां रहा करते थे। उस स्थान पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन हरिदास ठाकुर को दर्शन देने के लिए आया करते थे। हरिदास ठाकुर तो जगन्नाथ पुरी मंदिर में जाकर दर्शन नहीं किया करते थे क्योंकि मुसलमान परिवार में जन्म होने के कारण ऐसा संभव नहीं था। उस स्थान पर स्वयं जगन्नाथ जो अब गौरांग के रूप में उपस्थित हैं, सिद्धबकु जा कर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को दर्शन दिया करते थे। यह नरोत्तम दास ठाकुर ने देखा। तो सब स्मरण कर रहे थे वहां की लीलाएं और कथाएं। वहां से वह जाते हैं काशी मिश्र भवन। जहां चैतन्य महाप्रभु ने उसको गंभीरा भी कहते हैं, स्थान भी वैसे गंभीर है। चैतन्य महाप्रभु की अंतिम लीलाएं भी वही संपन्न हुई थी। गंभीरा जैसा स्थान और दूसरा नहीं है अतुलनीय। वहां चैतन्य महाप्रभु के प्रयान, प्रस्थान और अंतर्धान होने के उपरांत। वहां कुछ समय के लिए वृकेश्वर पंडित रहा करते थे। लेकिन जब नरोत्तम दास ठाकुर पहुंचे हैं तब वृकेश्वर पंडित भी वहां नहीं थे।
उनके शिष्य गोपाल गुरु गोस्वामी से मिलन हुआ। वहां गंभीरा में नरोत्तम दास ठाकुर ने हरि कथा और हरि कीर्तन किया। वहां के विग्रह के दर्शन राधा राधाकांत। यह एक समय के कांचीपुर के विग्रह जगन्नाथपुरी पहुंचे थे और चैतन्य महाप्रभु के समय गंभीरा में उनकी आराधना हुआ करती थी। उन विग्रहों का दर्शन करने के उपरांत नरोत्तम दास ठाकुर टोटा गोपीनाथ मंदिर जाते हैं। गदाधर पंडित इस टोटा गोपीनाथ के पुजारी थे। वे पुजारी नहीं थे, उनके स्थान पर एक श्री मामू गोस्वामी कर के प्रधान पुजारी थे। उनसे नरोत्तम दास ठाकुर का मिलन होता है और अंतर्धान होने की कथा और लीला नरोत्तम दास ठाकुर सुनते हैं। एक दिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उस मंदिर में प्रवेश किए और वहां से फिर बाहर निकले ही नहीं। गोपीनाथ के विग्रह में उन्होंने प्रवेश किया था। जब प्रवेश किया तब अचानक सर्वत्र अंधेरा छा गया। ऐसी लीलाएं और कथाएं जब नरोत्तम दास ठाकुर सुन रहे थे। तो उनको ध्यान ही नहीं रहा और वहां नरोत्तम दास ठाकुर लोटने लगे। महाप्रभु का इसी स्थान से प्रस्थान और अंतर्ध्यान होना, टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रवेश करना। नरोत्तम दास ठाकुर के लिए यह असहनीय था। वहां नरोत्तम दास ठाकुर ने और कुछ स्थान देखे। जगन्नाथ वल्लभ उद्यान, वहां श्रीकृष्ण महाप्रभु की संपन्न हुई लीलाएं, उनका श्रवण वहां करते हैं। गुंडीचा मंदिर जाते हैं और गुंडीचा मंदिर के विग्रह के दर्शन रथयात्रा के समय साल में एक सप्ताह भर के लिए आते हैं। नरेंद्र सरोवर के दर्शन करते हैं और इस प्रकार वह जगन्नाथ पुरी की यात्रा का समापन कर रहे हैं। अब उनको स्मरण होता है उनके सहयोगी वृंदावन से बंगाल जो साथ में आए वह श्यामानंद पंडित थे। विष्णुपुर से जहां चोरी हुई ग्रंथों की वहां से श्यामानंद गए थे।
उड़ीसा में नरसिंहपुर करके स्थान है। नरोत्तम दास ठाकुर वहां के लिए प्रस्थान किए। वहां उनका मिलन होता है बहुत समय के उपरांत दोनों मिले हैं। गाढ आलिंगन और क्या कहना और बैठकर जब हरी कथाएं हो रही है तो उनको पता नहीं चल रहा है रात है या दिन है। रात की दिन और दिन के रात करके कथाएं चल रही थी। इस प्रकार वह मिलन का आनंद लूट रहे थे, एक दूसरे से मिल रहे थे। लेकिन कथाएं तो गौरंग गौरंग नित्यानंद नित्यानंद की कथा वह सुन रहे थे और सुना रहे थे। फिर वहां से नरोत्तम दास ठाकुर पुनः बंगाल आते हैं। बंगाल में और कुछ स्थान बचे थे। एक तो उनको राड देश जाना था। राड देश में नित्यानंद प्रभु के जन्म स्थल एकचक्र ग्राम पर जाना था। वहां पर भेंट देते हैं और वह उस निवास स्थान पर जाते हैं। जहां हढाई पंडित और पद्मावती के पुत्र रत्न नित्यानंद प्रभु जहां जन्मे थे वह जन्मस्थली देखने गए। श्री नित्यानंद प्रभु ने एक विग्रह की स्थापना की एकचक्र ग्राम में उनका नाम बंकिम राय और उनके साथ में राधारानी भी थी। तो दर्शन किए और नित्यानंद की लीला स्थली, उस विद्यालय को भी भेंट दिए होंगे। नित्यानंद प्रभु उस विद्यालय के प्रांगण मंछ अपने मित्रों के साथ और विद्यार्थियों के साथ कई सारी लीलाएं खेलते थे। वृंदावन की लीलाएं फिर राम लीला भी और कई अवतारों की लीलाएं। वहां से नरोत्तम दास ठाकुर जाते हैं खंड या कभी श्रीखंड भी कहते हैं जो खाने का नहीं है। वह यात्रा करने का स्थान है। तो खंड में पुराने चैतन्य महाप्रभु के समय के समकालीन गौर पार्षद थे, मुकुंद दत्त अब नहीं रहे। मुकुंद दत्त के पुत्र रघुनंदन थे, इनके संबंध में वैसे चैतन्य महाप्रभु ने पूछा था कि मुकुंद बता दो तुम और तुम्हारे पुत्र में से, बाप कौन और बेटा कौन है? फिर मुकुंद कहे थे मेरा पुत्र ही मेरा बाप है क्योंकि वह काफी उन्नत और प्रगत भक्त थे, उनका पुत्र था। वह स्वयं भी थे ही किंतु यह उनकी नम्रता भी है। तो वह रघुनंदन जिन्होंने विग्रह कों जब भोजन खिलाया। विग्रह पूरा का पूरा थाली साफ किए थे। मैं विश्वास नहीं कर सकता, महाप्रसाद कहां है? महाप्रसाद तो नहीं है भगवान सारा खा लिए। भगवान थोड़ी खाते हैं दिखाओ।
रघुनंदन फिर वापस से भोग लगाया और भोग जब लग रहा था, तब मुकुंद दत्त छुप कर पर्दे के पीछे देख रहे थे भगवान खाते हैं या नहीं। तो उन्हें देखा भगवान ने आधा लड्डू ही खाया। उन्होंने पूछा आधा लड्डू ही क्यों खाया? तो रघुनंदन ने कहा था कि भोजन के अंत में मीठा खाना होता है और भगवान का पेट भरा हुआ था। तो पुनः भगवान एक और थाली ग्रहण नहीं कर सकते थे। तो उन्होंने केवल आधा लड्डू ही खाया है। नरोत्तम दास ठाकुर यह सब लीला और कथाएं सुने ही होंगे। अब वहां से वह अब खेचरी ग्राम के लिए प्रस्थान करेंगे। जो उनके जन्म स्थान, पद्मावती की नदी के तट पर। नरोत्तम दास ठाकुर रास्ते में जब थे तो खेचरी ग्राम वासियों को पता लगा नरोत्तम आ रहे हैं, नरोत्तम आ रहे हैं। तो नरोत्तम के चचेरे भाई संतोष उस समय के राजा संतोष, वहां के राजा थे। कृष्णानंद, नरोत्तम दास ठाकुर के पिताश्री थे और पुरुषोत्तम, संतोष के पिता थे। तो वह दोनो भी पिता और चाचा नरोत्तम दास ठाकुर के नहीं रहे। लेकिन पुरुषोत्तम पुत्र संतोष अब राजा थे। तो उनको भी जैसे पता चला। तो अपने चचेरे भ्राताश्री नरोत्तम का भव्य स्वागत समारोह आयोजन किया। उनकी अवगानी करने, कई नागरिकों के साथ, खेचरी ग्राम वासियों के निवासियों के साथ आगे बढ़े। जब नरोत्तम को दूर से ही देखे तो उन्होंने साक्षात दंडवत प्रणाम किया। एक दूसरे को मिलने के लिए दोनों उठकंठित थे और आगे बढ़े। दोनों ने गले लगाएं है और एक दूसरे को गाढ आलिंगन हुआ है। राजा संतोष अपने चचेरे भ्राताश्री नरोत्तम को राजमहल में ले आए। कई सारे नागरिक वहां एकत्रित थे। ये समय कुछ गौर पूर्णिमा या फाल्गुन पूर्णिमा के एक दो महीने पहले का था। जैसे अभी तो एक महीना बाकी है। लेकिन जब उस साल नरोत्तम दास खेचरी गांव पहुंचे। तो एक-दो महीनों के उपरांत गौर पूर्णिमा उत्सव संपन्न होना था। राजा संतोष और नरोत्तम के भाव भक्ति से प्रभावित थे। वह शिष्य बने और नरोत्तम दास ठाकुर या महाशय उन्होंने राजा संतोष को दीक्षा दी। अभी दीक्षित और शिक्षित शिष्य संतोष है। इनकी एक बहुत समय से इच्छा थी कि खेचरी ग्राम में एक मंदिर हो।
अब नरोत्तम आए ही हैं। उन्होंने कहा मैं मंदिर का निर्माण करूंगा और इस मंदिर में भगवान के विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा करूंगा। उन्होंने कहा ठीक है तुम मंदिर बनाओ। इतना समय था एक दो महीने थे। दो महीने में राजा संतोष ने ऐसा अद्भुत मंदिर बनाया, विशाल भव्य और दिव्य। अब गौर पूर्णिमा के दिन प्राण प्रतिष्ठा होगी। छ: अलग-अलग विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा होगी। तो यह गौर पूर्णिमा महोत्सव और विग्रह प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव के लिए सारे गौडीय वैष्णव को आमंत्रण भेजा। जहां जहां भी अभी नरोत्तम दास ठाकुर मिलकर आए ही थे। वहां वहां संदेश भेजे गए और यहां सब तैयारी भी हो रही थी। वैष्णव पहुंच रहे थे और पुनः यह सारे वैष्णवो का स्वागत हो रहा था। पद्मावती नदी से नौका में बैठाकर उनको पार किया जा रहा था। खेचरी गांव की ओर तट पर पहुंचते। तो वहां से उन्हें पालकी में बैठा के या रथों में बैठा के सारे अतिथियों को पहुंचा रहे थे। तो फिर गौर पूर्णिमा के दिन जैसे कल हम सुन रहे थे। चैतन्य महाप्रभु के अंतर्ध्यान होने के उपरांत यह पहला गौर पूर्णिमा महोत्सव था। प्रथम गौर पूर्णिमा उत्सव खेचरी ग्राम में हुआ।नरोत्तम दास ठाकुर और उनके शिष्य राजा संतोष ने सारी व्यवस्था की। इस व्यवस्था की तुलना मानो युधिष्ठिर महाराज द्वारा आयोजित राजुस्य यज्ञ हो रहा था। हरि हरि। तो नरोत्तम दास ठाकुर गा रहे थे, कीर्तन कर रहे थे। पंचतत्वों का आगमन हुआ और पांचतत्वों के सानिध्य में, वहां के सभी उपस्थित गौर भक्त बंधुओं ने गौर पूर्णिमा महोत्सव खेचरी ग्राम में संपन्न किया।
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!*
*नरोत्तम दास ठाकुर की जय!*
*श्रील प्रभुपाद की जय!*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम
दिनांक 27 फरवरी 2021
हरे कृष्ण!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 674 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरिबोल! जीव जागो! आज का दिन भी महान है। हरि! हरि! आज पूर्णिमा भी है, गौर पूर्णिमा एक माह दूर है। आज की बसंत पूर्णिमा श्री कृष्ण मधुर उत्सव का दिन है, आज रास क्रीड़ा का भी दिन है। भगवान् की रास क्रीड़ाएं होती रहती हैं लेकिन जब पूर्णिमा आती है, तब पूर्णिमा का चांद और तारे भी उदित होते हैं। कृष्ण चंद्र गोपियों तथा राधा के साथ रास क्रीड़ा खेलते हैं। शरद पूर्णिमा की रात्रि की रास क्रीडा एक विशेष रास क्रीड़ा मानी जाती है। जिसे वृंदावन में खूब धूमधाम से मनाते हैं। रास क्रीड़ा तो केवल वृंदावन में ही होती है और कहीं नहीं होती। अन्य स्थानों पर कीर्तन होता है, नवद्वीप मायापुर में संकीर्तन होता है। शरद पूर्णिमा अथवा रास क्रीड़ा की पूर्णिमा महत्वपूर्ण है। आज की पूर्णिमा भी क्योंकि यह वसंत ऋतु की पूर्णिमा है।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.३५)
अनुवाद:- मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ | समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलने वाली वसन्त ऋतु हूँ।
भगवान कहते हैं कि ऋतुओं में
वसंत ऋतु में हूं, वसंत ऋतु श्रेष्ठ है। पुष्प सर्वत्र खिलते हैं, कृष्ण भी रास क्रीड़ा के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसी मान्यता अथवा समझ है कि बंगाल में शरद पूर्णिमा वृंदावन क्षेत्र में मनाते हैं। आज की पूर्णिमा बंगाल में अधिक प्रचलित है इसलिए बंगाल में इसे मनाया जाता है। श्री कृष्ण पूर्णिमा मधुर महोत्सव की जय! यह संभावना है कि सहजिया मंडली भी इसे अपने ढंग से मनाती है, ये लोग ही कृष्ण बन जाते है। स्त्रियों को गोपियां व राधा बनाते हैं व नँगा नाच करते हैं। कृष्ण के रास क्रीड़ा की नकल करते हैं। हरि! हरि! इन्होंने धर्म का सत्यनाश कर दिया है, ऐसे सहजियों को धिक्कार है। सावधान! इन सहजियों से दूर रहो। हरि! हरि!
आज के ही दिन नरोत्तम दास ठाकुर का अविर्भाव दिवस भी है। नरोत्तम अविर्भाव तिथि महोत्सव की जय! एक बार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक विशेष दिशा की ओर मुड़ कर जोर-जोर से ‘नरोत्तम’ ‘नरोत्तम’ नरोत्तम पुकारने लगे। किसी को पता ही नहीं चल रहा था कि महाप्रभु क्यों जोर जोर नरोत्तम नरोत्तम पुकार रहे हैं। महाप्रभु खेंचुरी ग्राम की ओर देखते हुए जोर-जोर से ‘नरोत्तम’ नरोत्तम’ पुकार रहे थे। बहुत समय के उपरांत भक्तों को साक्षात्कार हुआ कि चैतन्य महाप्रभु भविष्यवाणी कर रहे थे कि एक नरोत्तम दास ठाकुर नाम के महात्मा प्रकट होंगे। वे आज के दिन गंगा की एक धारा अर्थात पदमावती नदी के तट पर स्थित खेंचुरी ग्राम में प्रकट हुए थे। वे राज पुत्र थे, कल मुझे भी नरोत्तम दास ठाकुर के जन्म स्थान पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वृंदावन के कुछ भक्त यह उपस्थित है, कल मेरे जन्म स्थान पर अरावड़े गए थे, मैं भी नरोत्तम दास ठाकुर के जन्म स्थान पर गया था। हमनें वह स्थान देखा और दंडवत प्रणाम किया और वहाँ नरोत्तम दास ठाकुर का स्मरण भी किया। दुनिया वाले कहते हैं कि खेंचुरी ग्राम बंगाल देश में है। जब हम पदमावती नदी के तट पर थे, हमनें वहां पदमावती नदी के तट पर स्नान भी किया। वहाँ बंगला देश है और नदी के तट पर इंडिया है। वहां कोई भी बाधा नहीं थी, वहां कोई भी तैर कर नदी पार कर भारत पहुंच सकता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पद्मावती नदी में प्रेम की स्थापना की अर्थात वहाँ प्रेम डिपॉजिट किया। जैसा कि हम सुन ही रहे हैं की नदियों का व्यक्तित्व है, चरित्र है, उनका रूप है। नदियां मूर्तिमान होती हैं, भगवान् ने पद्मावती नदी को कहा कि यह कृष्ण प्रेम रखने को अपने पास रखो और नरोत्तम को दे देना। नदी ने पूछा कि मैं कैसे पहचानूँगी कि नरोत्तम कौन है?। चैतन्य महाप्रभु ने कहा जब नरोत्तम दास यहाँ पहुंचेगें और तुम में प्रवेश करेंगे अथवा तुम्हारे जल में आएंगे, तब तुम में बाढ़ आएगी तुम्हारा जल वर्धित होगा। उछलेगा, कूदेगा अथवा आन्दोलित होगा व सर्वत्र फैलेगा तब समझना कि वह व्यक्ति नरोत्तम है तब उसे यह प्रेम दे देना। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसी व्यवस्था करके गए। नरोत्तम दास ठाकुर को बचपन से ही कृष्ण प्रेम प्राप्त था। इसलिए उनको घर अथवा राज महल से कोई आकर्षण अथवा लगाव नहीं था। बचपन से उन्हें गौर नित्यानंद से आकर्षण था। गौर नित्यानंद की लीलाएँ, कथाएं श्रवण का अवसर प्राप्त था। वह सदैव सोचते थे कि मैं कब गौर नित्यानंद को प्राप्त करूंगा, उस समय वैसे गौर नित्यानंद अंतर्ध्यान हो चुके थे। उनकी अभिलाषा थी कि कम से कम मैं वृंदावन जाऊंगा और वह इसी प्रयास में रहे। यह बात वैसी ही है जैसे रघुनाथ दास गोस्वामी भी हर समय सोचा करते थे कि मैं जगन्नाथ पुरी जाना चाहता हूं। मैं चैतन्य महाप्रभु से मिलना चाहता हूं, उनके आंदोलन में सम्मिलित होना चाहता हूं। एक समय जब नरोत्तम दास ठाकुर के पिताजी घर पर नहीं थे, वे शहर के बाहर थे। नरोत्तम दास ठाकुर ने इसका फायदा उठाया और युक्तिपूर्वक घर से निकल गए । हममें से कइयों को ऐसा करना पड़ता है। हमनें भी किया था। हरि !हरि! वे सीधे वृंदावन पहुंच गए। वृंदावन सीधे पहुंच गए, यह कहना तो आसान है लेकिन किस भाव के साथ वह वृंदावन जा रहे थे कि गौर नित्यानंद को नहीं मिलूंगा लेकिन राधा कृष्ण को मिलूंगा।
राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर। जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥
( नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित)
अनुवाद:- युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है।
यह रचना नरोत्तम दास ठाकुर की है। उनके लिए यह सब बातें कहने व लिखने की नहीं है। ऐसा उनका साक्षात्कार व भाव है, वह उसी को कहते व लिखते अथवा गाते गए। उनके प्राण राधा कृष्ण ही थे । राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर।
वे वृंदावन जा रहे हैं। पूरे भक्ति भाव व विरह व्यथा के साथ आगे बढ़ रहे हैं।’गौर नित्यानंद को तो नहीं मिलूंगा, वे नहीं हैं। उनकी प्रकट लीला अब सम्पन्न नहीं हो रही है लेकिन कम से कम उनके परिकरों को मिलूंगा। उनके भक्तों को मिलूंगा। रूप, सनातन से मिलूंगाऔर ब्रज के जो गौर पार्षद हैं, उनसे मेरी मुलाकात होगी। उन्हें मिलूंगा व उन्हें गले लगाऊंगा।’
ऐसे स्वप्न व ऐसी आशा व लालसा के साथ वह वृंदावन जा रहे थे। किन्तु जैसे जैसे वह वृंदावन की और आगे बढ़ रहे थे अथवा मथुरा वृंदावन के निकट पहुंच रहे थे तब उन्हें समाचार मिला कि अब सनातन गोस्वामी भी नहीं रहे, फिर समाचार मिला रूप गोस्वामी भी नहीं रहे। यह गोस्वामी भी नहीं रहे, वह भी नहीं रहे। बंगाल की ओर से आते हुए वह पहले मथुरा पहुंचे। मथुरा में पहुंचकर उन्हें और भी समाचार मिले कि यह नही रहे, वह नहीं रहे। तब नरोत्तम दास ठाकुर सोचने लगे कि अब मैं भी जीवित नहीं रहना चाहता हूं। उनके मन में आत्महत्या के विचार चल रहे थे। तब स्वपन में रूप, सनातन गोस्वामी ने आकर उनको धीरज दिया व प्रोत्साहन दिया। जीते रहो, ऐसा विचार नही करना, जान देने की बात नही करना। तब नरोत्तम दास ठाकुर ने मथुरा से वृंदावन को प्रस्थान किया।नरोत्तम दास ठाकुर के वृंदावन आगमन से वृंदावन में खलबली मच गई। सर्वत्र नरोत्तम के विषय में चर्चा होने लगी कि नरोत्तम आए हैं, नरोत्तम आए हैं। जीव गोस्वामी ही केवल वृंदावन में थे जोकि दूसरी पीढ़ी है। सभी गोस्वामियों व चैतन्य महाप्रभु के परिकरों में सबसे छोटे थे। वे युवक थे, उस समय वे भी अति प्रसन्न थे। उन्होंने नरोत्तम् को भविष्य में ठाकुर पदवी प्रदान की। नरोत्तम दास ठाकुर वृंदावन में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। जीव गोस्वामी वृंदावन के शिक्षा गुरु थे किंतु नरोत्तमदास लोकनाथ गोस्वामी से दीक्षा लेना चाहते थे। लेकिन लोकनाथ गोस्वामी दीक्षा नहीं देना चाहते थे, उन्होंने किसी को दीक्षा नहीं दी थी जिस प्रकार गौर किशोर बाबा जी किसी को दीक्षा नहीं देते थे और न ही देने के मूड़ में थे लेकिन श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज जो कि हठ लेकर बैठे थे, उन्हें दीक्षा दी।
वैसे ही नरोत्तम दास ठाकुर अपनी गुरु भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। वैष्णव भक्ति और वैष्णव सेवा और उसमें भी गुरु सेवा व गुरु निष्ठा प्रमुख थी। नरोत्तम दास ठाकुर दयनीय भाव से सेवा कर रहे थे लेकिन लोकनाथ गोस्वामी नरोत्तम की सेवा को स्वीकार ही नहीं करना चाहते थे। उनकी अपनी दयनीयता थी। नरोत्तम दास जी छिप छिप कर सेवा करते थे। हरि! हरि!
हम जब सेवा करते हैं, हम चाहते हैं कि हमारी सेवा की घोषणा होनी चाहिए कि फलाने शिष्य ने सेवा की, हमारा नाम घोषित होना चाहिए कि हमनें यह सेवा की, हमारा नाम घोषित क्यों नहीं किया? हमनें गुरु या गुरु पूजा के दिन या व्यास पूजा के दिन यह सेवा की या वह सेवा की। हम तो मैनेजमेंट से कई बार नाराज होते हैं कि मैनें इतनी सारी सेवा की, और मेरा नाम नहीं कहा। यहां नरोत्तमदास ठाकुर ने गुरु को पता भी नहीं चलने दिया कि वह सेवा कर रहे हैं। गोस्वामी गण जहाँ शौच आदि क्रिया करते थे, वहाँ न जाने कौन आकर उसको साफ किया करता था। ऐसा कार्य या ऐसी सेवा कौन करना चाहेगा। नरोत्तमदास ठाकुर ही करना चाहेंगे। वे गुरु सेवी थे।
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।।
( शिक्षाष्टक श्लोक ३)
अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है।
अंततोगत्वा लोकनाथ गोस्वामी ने अपने जीवन में एक शिष्य नरोत्तम दास ठाकुर को अपनाया।
बस एक ही चांद काफी है, सितारों की क्या आवश्यकता। एक ही पर्याप्त है। हरि हरि।
जीव गोस्वामी ने अनेक शिष्यों के साथ नरोत्तम दास ठाकुर, श्रीनिवास ठाकुर, तथा श्यामानंद पंडित को प्रचार के लिए भेजा। इनको आचार्य त्रयः भी कहते हैं, गौड़ीय ग्रंथों से इनकी बैलगाड़ी भर दी और कहा कि प्रचार के लिए जाओ। पूर्व बंगाल ही नहीं पूरे भारत में प्रचार के लिए भेजा। तीनों जाते हैं, लेकिन रास्ते में बहुत बड़ी समस्या आती है। मार्ग में ग्रंथ चोरी हो जाते हैं। तत्पश्चात तीनों अलग अलग क्षेत्र में प्रचार करते हैं। श्यामानंद पंडित ने उड़ीसा में प्रचार किया। श्रीनिवास आचार्य ने बंगाल तथा नरोत्तम दास जी ने अपनी जन्मभूमि खेंचुरी ग्राम को ही मुख्यालय बनाया और प्रचार प्रसार किया। हरि! हरि!
यह प्रचार प्रसार का माध्यम जैसे श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे, बुक्स आर् द् बेसिस अर्थात पुस्तकें ही आधार है।
नरोत्तम दास ठाकुर अपने वैष्णव गीतों के लिए प्रसिद्ध हैं। वैसे व्यक्ति की पहचान तब होती है जब वह व्यक्ति कुछ बोलता या लिखता है। वह विद्वान है अथवा मूर्ख है। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे, उसको माइक्रोफोन दे दो, तब वह बक बक करता है। तत्पश्चात हम समझ जाते हैं। व्यक्ति की असली पहचान वैसे उसकी वाणी अथवा वचनों से होती है। उसके जो भी विचार होते है, वही विचार या भाव ही तो मुख से निकलते हैं। नरोत्तम दास ठाकुर के भावों का क्या कहना, उच्च विचार, उच्च भाव। उनके उच्च विचार उनकी वाणी तथा गीतों से ही प्रकट हो रहे थे। उनका प्रार्थना नाम का गीतों का एक संग्रह है, श्री प्रेम भक्ति चन्द्रिका नामक गीतों का संग्रह है। श्रील प्रभुपाद इन गीतों के संबंध में चाहे यह नरोत्तम दास ठाकुर के हैं या लोचन दास ठाकुर अथवा भक्ति विनोद ठाकुर या अन्य किसी के हैं, विषय में टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि यह वेदवाणी है। नरोत्तम दास ठाकुर के गीतों के संबंध में गौर किशोर बाबा जी महाराज कहा करते थे कि क्या भगवत साक्षात्कार में आपकी रुचि है, अगर रुचि है और आपके पास चवन्नी या अठन्नी हैं तो नरोत्तम दास ठाकुर के गीतों का संग्रह खरीद लो। उसको पढ़ो व उसको गाओ, कुछ उस पर मनन चिंतन करो और आप भगवत साक्षात्कारी पुरुष बनो। गौर किशोर दास बाबा जी महाराज उनके गीतों की महिमा का ऐसा गान किया करते थे।उनका क्या कहना? वह तो वैकुंठ मैन थे।
नरोत्तम दास ठाकुर केवल वैकुंठ वासी ही नहीं अपितु गोलोक निवासी थे। गोलोक वैकुण्ठ से भी ऊंचा है। गोलोक के निवासी नरोत्तम दास ठाकुर आज ही के दिन प्रकट हुए थे।
उन्होंने प्रेम धर्म की स्थापना का सफल प्रयास किया। जब वे इस संसार में वृंदावन या अन्य स्थानों बंगाल या मणिपुर अथवा खेंचुरी ग्राम में विद्यमान थे। उस समय तो प्रचार किया ही लेकिन वे आज भी पुस्तकों के रूप में प्रचार कर रहे हैं। जैसा कि प्रभुपाद कहा करते थे कि यदि कोई मुझे जानना चाहता है, तो मेरे ग्रंथो को पढ़े। वैसे ही नरोत्तम दास ठाकुर को कोई जानना चाहता है तो वह उनके गीतों को पढ़े। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे, जब तक मेरे ग्रंथ हैं और उनका वितरण हो रहा है, उनको पढ़ा जा रहा है तब तक मैं जीवित रहूंगा। कौन कह सकता है कि वैष्णव मरते अथवा उनकी मृत्यु होती है। यह बात सच नहीं है। नरोत्तम दास ठाकुर आज भी अपनी वाणी तथा गीतों के रूप में विद्यमान हैं, उनके गीतों का प्रचार सर्वत्र हो रहा है। श्रील प्रभुपाद ने हमें नरोत्तम दास ठाकुर के गीत इंट्रोड्यूस करवाये अथवा दिए। अब विश्व भर मंग नरोत्तम दास ठाकुर के गीत गाए जाते हैं।
श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म, वन्दो मुइ सावधान मते। याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥1॥
गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य,आर न करिह मने आशा। श्रीगुरुचरणे रति, एइ से उत्तम-गति, ये प्रसादे पूरे सर्व आशा॥2॥
चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥3॥
श्रीगुरु करुणा-सिन्धु, अधम जनार बंधु, लोकनाथ लोकेर जीवन। हा हा प्रभु कोरो दया, देह मोरे पद छाया, एबे यश घुषुक त्रिभुवन॥4॥
अनुवाद:- (1) हमारे गुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) के चरणकमल ही एकमात्र साधन हैं जिनके द्वारा हम शुद्ध भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मैं उनके चरणकमलों में अत्यन्त भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होता हूँ। उनकी कृपा से जीव भौतिक क्लेशों के महासागर को पार कर सकता है तथा कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है।
(2) मेरी एकमात्र इच्छा है कि उनके मुखकमल से निकले हुए शब्दों द्वारा अपनी चेतना को शुद्ध करूँ। उनके चरणकमलों में अनुराग ऐसी सिद्धि है जो समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है।
(3) वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिवय ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।
(4) हे गुरुदेव, करूणासिन्धु तथा पतितात्माओं के मित्र! आप सबके गुरु एवं सभी लोगों के जीवन हैं। हे गुरुदेव! मुझ पर दया कीजिए तथा मुझे अपने चरणों की छाया प्रदान दीजिए। आपका यश तीनों लोकों में फैला हुआ है।
कइयों को पता नहीं होता कि यहां लोकनाथ क्यों लिखा है?इसे एक शिष्य ने लिखा है अर्थात इस गीत को लिखने वाले नरोत्तम दास ठाकुर हैं अर्थ मेरे गुरु लोकनाथ हैं। वे सभी लोगों के जीवन हैं।
लोकनाथ लोकेर जीवन यह गीत संसार भर में गाया जाता है।
अन्य भी कई सारे गीत हैं।
गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर। हरि हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर॥1॥
अनुवाद:- वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे?
या
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥
अनुवाद:- हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
हर गीत में एक एक पंक्ति है। एक एक श्लोक अथवा एक एक वचन अथवा एक एक विचार है।
गोलोके प्रेमधन हरि नाम संकीर्तन
या
श्रीरूपमञ्जरी-पद, सेइ मोर सम्पद, सेइ मोर भजन-पूजन। सेइ मोर प्राण-धन, सेइ मोर आभरण, सेइ मोर जीवनेर जीवन॥1॥
अनुवाद:- श्रीरूपमञ्जरीके चरणकमल ही मेरी वास्तविक संपदा है। उनकी सेवा ही मेरा भजन-पूजन है। वे ही मेरे प्राणधन, मेरे आभूषण, एवं वे ही मेरे जीवनके भी जीवनस्वरूप हैं।
नरोत्तम दास ठाकुर अपने दल की एक मंजरी ही हैं। रूप मंजरी एक लीडर हैं, जो रूप गोस्वामी के रूप में प्रकट हुए थे। बाद में अन्य मंजरियाँ व गोपियां भी प्रकट हुई थी। ऐसे ही एक मंजरी प्रकट हुई।
वृन्दावन रम्यस्थान, दिवय चिन्तामणिधाम, रतन-मन्दिर मनोहर। आवृत कालिन्दी-नीरे, राजहंस केलि करे, ताहे शोभे कनक-कमल॥1॥
अनुवाद:- वृन्दावन नामक रम्य-स्थान आध्यात्मिक जगत् का एक दिव्य धाम है। वह दिव्य चिंतामणि रत्नों से बना हुआ है। वहाँ कई मनोहर रत्नों से बने हुए मंदिर हैं तथा वहाँ राजहंस यमुना के जल में क्रीड़ा करते हैं। यमुना के जल में शत पंखुडियों वाला एक सुवर्णकमल शोभायमान है।
वैसे ही एक गीत है-
निताइ-पदकमल, कोटिचन्द्र-सुशीतल, जे छायाय जगत् जुडाय़। हेन निताइ बिने भाइ, राधाकृष्ण पाइते नाइ, दृढ करि’ धर निताइर पाय़॥1॥
अनुवाद:- श्री नित्यानंद प्रभु के चरणकमल कोटि चंद्रमाओं के समान सुशीतल हैं, जो अपनी छाया-कान्ति से समस्त जगत् को शीतलता प्रदान करते हैं। ऐसे निताई चाँद के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किये बिना श्रीश्री राधा-कृष्ण की प्राप्ति नहीं हो सकती। अरे भाई! इसलिए उनके श्रीचरणों को दृढ़ता से पकड़ो।
यह सब उनके साक्षात्कार अथवा भाव हैं।
गौरांगेर दु’टि पद, याँर धन सम्पद, से जाने भकतिरस-सार। गौरांगेर मधुर लीला, याँ’र कर्णे प्रवेशिला, हृदय निर्मल भेल ता’र॥1॥
अनुवाद:- श्रीगौरांगदेव के श्रीचरणयुगल ही जिसका धन एवं संपत्ति हैं, वे ही व्यक्ति भक्तिरस के सार को जान सकते हैं। जिनके कानों में गौरांगदेव की मधुर लीलायें प्रवेश करती हैं, उनका हृदय निर्मल हो जाता है।
अथवा
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥
अनुवाद:- है श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन है?
यह तो हमारे पंचतत्व का आधार गीत है। कुछ गौरांग निष्ठा व कुछ नित्यानंद निष्ठा वाले गीत हैं व कुछ लालसामयी प्रार्थनाएं हैं।
किसी में दयनीय भाव प्रकट करते हैं। ऐसे अलग अलग भाव उन्होंने अपने गीतों में प्रकट किए हैं।
जे आनिल प्रेमधन करुणा प्रचुर। हेन प्रभु कोथा गेला अचार्य ठाकुर॥1॥
अर्थ:- अहो! जो अप्राकृत प्रेम का धन लेकर आये थे तथा जो करुणा के भंडार थे ऐसे आचार्य ठाकुर (श्रीनिवासआचार्य) कहाँ चले गये?
यह पंचतत्व का उल्लेख हुआ।
नरोत्तम दास ठाकुर ने हमें गौर पूर्णिमा उत्सव दिया जो हम आजकल मना रहे हैं। प्रभुपाद ने भी हमें मायापुर गौर पूर्णिमा उत्सव दिया है। सर्वप्रथम मायापुर उत्सव मनाने व संपन्न करने वाले नरोत्तम दास ठाकुर ही थे। उन्होंने खेंचुरी ग्राम में एक बहुत बड़ा आयोजन किया।
उन दिनों में पृथ्वी पर जो भी गौड़ीय वैष्णव जहां तहां थे अर्थात वृंदावन या जगन्नाथ पुरी, शांतिपुर या नवद्वीप मायापुर में थर या कोई खंड वासी थे, उन सब को खेंचुरी ग्राम में आमंत्रित किया। उन दिनों में गौड़ीय वैष्णव आचार्य नित्यानंद भार्या श्रीमती जहान्वा माता अर्थात गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की जो रक्षक थी, वह भी वहाँ उपस्थित थी। जो जो भी गौड़ीय वैष्णव आचार्य व भक्त थे, वे सब वहां पहुंचे थे। खेंचुरी ग्राम में कई सारे विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा हो रही थी। कीर्तन कथाएं भी चल रही थी। नरोत्तम दास ठाकुर जब कीर्तन करने लगे।
*नाहं तिष्ठामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेषु वा। मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।*
( पद्म पुराण)
अनुवाद:- न मैं वैकुण्ठ में हूं, न योगियों के ह्रदय में। मैं वहाँ रहता हूँ, जहाँ मेरे भक्त मेरी लीलाओं की महिमा का गान करते हैं।
गौर पूर्णिमा उत्सव में सबने वहां इसका अनुभव किया। यह प्रथम गौर पूर्णिमा उत्सव मनाया जा रहा था। नरोत्तम दास ठाकुर जब गान कर रहे थे,
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥
ऐसे ही बहुत कुछ गाया होगा।
*(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द*
मैं सोच रहा था कि
पंचतत्व मंत्र भी गाए होंगे। सारे
पंच तत्व के सदस्य प्रकट हो गए वहां ।जबकि सभी के सभी अंतर्ध्यान हो चुके थे, उनकी लीला का समापन हो चुका था किंतु नरोत्तम दास ठाकुर ने उनके गुण गाए, उनको पुकारा अथवा उनसे प्रार्थना की । वे सभी के सभी प्रकट हुए। सभी ने उनके दर्शन किए। देखो नित्यानंद, देखो गौरांग। पंचतत्वों के साथ वहां के उपस्थित सभी भक्त वृन्द ने कीर्तन और नृत्य किया और क्या कहने की जरूरत है। नरोत्तम के परिचय का एक ही आइटम ही ठीक है। गौर पूर्णिमा महोत्सव में उनका गान तथा वहां पंचतत्व की उपस्थिती, उससे नरोतम दास ठाकुर उनकी महिमा का कुछ परिचय प्राप्त हुआ। हमारे ऐसे ऐसे आचार्य रहे है, यह उनकी पूंजी अथवा उनकी सम्पति है अपने जीवन चरित्र, कार्यकलापों से अपने ग्रंथों अथवा अपने गीतों से सभी ने श्री कृष्ण आंदोलन अर्थात गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय को समृद्ध अथवा धनाढ्य बनाया है ।
ऐसे नरोत्तमदास ठाकुर की जय हो! हम सभी धन्य हैं क्योंकि उन्होंने हमें धनी बनाया है। नरोत्तम दास ठाकुर के कारण हम धनी बन रहे हैं। आप धन्य हो, आप धनी हो। हमारा जीवन धन्य बनाने वाले नरोत्तम दास ठाकुर हैं। उनके गुण या उनके गीत ही गाया करो। आपके पास भी संग्रह होना चाहिए। कम से कम इस्कॉन का वैष्णव गीत पुस्तक होनी ही चाहिए। आपके पास है? है! ठीक है, फिर उसको गाया करो। सभी प्रेम चंद्रिका को भी प्राप्त करो और गाया करो। हरि हरि! दिन में उनके भजनों को गाओ। गुरु पूजा का समय हो चुका है। वह गीत तो गा ही लो।
श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म,वन्दो मुइ सावधान मते।याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥1॥
ठीक है।
नरोत्तम दास ठाकुर अर्विभाव तिथि दिवस की जय !
गौरांग नित्यानंद, नित्यानंद गौरांग!
खेंचुरी ग्राम धाम की जय !
हरे कृष्ण!
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम
26 फरवरी 2021
हरे कृष्ण !
608 स्थानों से भक्त जुड़ गऐं हैं।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥
(भगवत गीता 4.34)
अनुवादः आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर तत्व जानने का प्रयत्न करो। नम्रता पूर्वक उनसे जिज्ञासा करो। और उनकी सेवा करो। वही आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति आप को ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने ही तत्व को जान लिया है।*
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है भगवतगीता के चौथे अध्याय के 34 श्लोक में, आप लिख के ले लो! वहां पर भगवान कृष्ण ने कहा है, तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया* गुरु के पास जाओ सेवा भाव के साथ! विरोधी भाव के साथ नहीं! प्रश्न पूछो और फिर वे गुरुजन आपको उत्तर देंगे। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं क्या देंगे? आपको दिक्षा देंगे। शिक्षा का भी महत्व होता है पहले मैं आपको शिक्षा देंगे। *उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः* क्योंकि उन्होंने तत्व का दर्शन किया हुआ है। वह तत्ववैत्ता हैं। वे आपको उत्तर देंगे। आपके प्रश्नों का उत्तर देंगे। इस प्रकार हम लोगों का यह संवाद हम लोगों का चलता रहता है। भगवान कृष्ण ने ऐसा भी कहा है बोधयंत्तम परस्पऱ एक दूसरे को बोध करते रहते है। हम सुन रहे है और फिर सुनाते भी है। सुनी हुई बातें सुनाते भी है। और ऐसी है श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः साधु व्यस्त रहते है। श्रृण्वन्ति गायन्ति सुनते है, कहते है, ग्रहण करते हैं। नैमिषारण्य में नैमिष नाम का वन है यह वन काफी प्रसिद्ध है। यहां 5000 वर्ष पूर्व हुआ कलियुग के प्रारंभ में, 80000 ऋषि एकत्रित हुए थे। और उनके प्रमुख थे शौनक आदि ऋषि। शौनक आदि ऋषि और अन्य ऋषि वहां एकत्रित है। और व्यासासन पर थे सूत गोस्वामी।
शौनक मुनी अन्य और दूसरे ऋषि से जो भी जिज्ञासा होती थी बोलते थे। और फिर सूत गोस्वामी उनका उत्तर देते थे। वहां पर यह संवाद चल रहा है। शौनक आदि ऋषि और सूत गोस्वामी के मध्य में नैमिषारण्य में। श्रीमद्भागवत जब हम पढ़ते हैं, तो कथा तो सुना रहे है भागवत की भागवत में शुकदेव गोस्वामी। शुक उवाच के साथ-साथ , बीच-बीच में सूत उवाच पढ़ने को भी मिलता है । ऐसा क्यों है? वैसे कथा तो यहां नैमिषारण्य में सूत गोस्वामी सुना रहे हैं। यहां पर प्रश्न पूछे हुए है तो फिर उत्तर देते समय उत्तर कैसे देते है? “हां मैं था वहां जब शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को कथा सुना रहे थे, तो उस सभा में उस धर्म सभामें मैं भी एक श्रोता था।” आपने जैसा प्रश्न पूछा है मुझे ऐसे ही प्रश्न राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी को पूछा था। तब शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित के प्रश्नों का उत्तर दिए । उस उत्तर को, है मुनियों में आप सभी को सुना रहा हूं। शुकदेव गोस्वामी और राजा परीक्षित का जो संवाद हो रहा है, वे नैमिषारण्य में पहुंच गये है, गंगा के तट पर हस्तिनापुर के थोड़े ही बाहर वहां जब राजा परीक्षित अलग-अलग प्रश्न पूछते है। वैसे इन सब में पूरा तो नहीं कह रहा हूं थोड़ा कह रहा हूं यह बातें। इसलिए कह रहा हूं, थोड़े दिन पहले मैं इसको पढ़ रहा था। श्रीमद्भागवत दशम स्कंध अध्याय का संख्या 87 उसके प्रारंभ में ही राजा परीक्षित ने प्रश्न पूछे है।
श्रीपरीक्षित उवाच
ब्रम्हान्ब्रम्हाण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः ।
कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात्सदसतः परे ।।
( श्रीमदभागवतम 10.87.1)
अनुवादः श्री परीक्षित ने कहा हे ब्राम्हण भला वेद उस परम सत्य का प्रत्यक्ष वर्णन कैसे कर सकते हैं? जिसे शब्दों द्वारा बतलाया नहीं जा सकता। वैभव प्रकृति के गुणों के वर्णन तक ही सीमित है। किंतु ब्रह्मा समस्त भौतिक स्वरूप तथा उनके कार्यों को लांघ जाने के कारण इन गुणो से रहित है।
आपको समझ में आया क्या प्रश्न था? संस्कृत में तो सुना होगा संस्कृत आता है? नहीं आता है, तो फिर संस्कृत सीखो! कन्नड़ और फिर क्या क्या भाषा! ब्रज की भाषा भी आप सीखते हो! अंग्रेजी को म्लेच्छ भाषा कहते है। म्लेच्छो की भाषा आप सिखते हो। देवों की भाषा नहीं सिखते! देव भाषा ही नहीं भगवान की भाषा है। भगवान भी इसी भाषा में बोलते है। श्रीमद्भागवत भी इसी भाषा में बोला गया है। इस भाषा को भी थोड़ा पढ़ो और समझो। आप भाषांतर पर ही निर्भर रहते हो।
यह जो प्रश्न है, राजा परीक्षित का अब शुकदेव गोस्वामी इसका उत्तर देंगे। कैसे उत्तर देंगे? वे अब कहने वाले हैं। इसी अध्याय में जिसका मैंने उल्लेख किया है। वह कहेंगे “हे राजा परीक्षित! तुमने जो प्रश्न पूछा है ऐसा ही प्रश्न नारद मुनिने बद्रिकाश्रम में नारायण ऋषि से पूछे थे”। एक समय नारायण ऋषि कई भक्तों से घिरे थे। बैठे थे। विराजमान थे। वहां नारद मुनि आए उन्होंने भी वही प्रश्न पूछा जो तुमने अभी अभी मुझे पूछा। मैं भी उत्तर दूंगा जो उत्तर नर नारायण ऋषि ने दिये थे, वही उत्तर अब मैं तुम्हें सुनाऊंगा। और फिर नारद मुनि भी वही प्रश्न पूछे, जो नर नारायण मुनि है, वो भगवान है बद्रीकाश्रम में उनसे जो प्रश्न पूछे नारद मुनि ने। नरनारायण! नारायण ऋषि भगवान ने कहा वही कहेंगे, हे नारद तुमने जो अभी मुझे यह प्रश्न पूछा, यही प्रश्न जनलोक में यह संवाद हो रहा है। बद्रिकाश्रम में। नारद मुनि और नारायण ऋषि के मध्य में लेकिन जनलोक में एक समय सनाकादी मुनि आपस में चर्चा कर रहे थे। आपस में संवाद विचार हो रहा था।
नानाशास्त्र- विचारणेक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापक कौ , ऐसे षड़ गोस्वामी वृंद वृंदावन में शास्त्रार्थ किया करते थे। कई शास्त्रों का ढेर बीच में रखकर बैठे हैं और उस पर मत हो रहा है, चर्चा हो रही है।शास्त्रों का निरूपण हो रहा है। वैसे ही यहां सनकादी मुनि उनमें से ‘सनक सनातन’ प्रश्न पूछते हैं। सनंदन को प्रश्न पूछते हैं। सनंदन एक भाई है। यह चार भाई है। चार कुमार कहलाते हैं। कुमार इसीलिए कहलाते हैं, क्योंकि ये सदा के लिए कुमार ही रहते रहते है। कौमारं यौवनं! जरा नहीं होता है। कुमार ही रहते हैं। कभी युवक नहीं बनते वृध्द बनने का तो कोई प्रश्न ही नहीं। बालक ही रहते हैं सदा के लिए। कुमार, कुमार ही रहते हैं। एक दो कुमारों ने अपने भ्राताश्री सनंदन से फिर प्रश्न पूछा। नारद मुनि जो यहां बद्रिकाश्रम में थे उनसे भगवान ने कहा, हे “नारद मुनि तुमने मुझे जो प्रश्न पूछा ऐसा ही प्रश्न सनत सनातन ने सनंदन से पूछा था, उन्होंने जो उत्तर दिया वही उत्तर मैं आपको सुनाऊंगा” इस तरह से आप देख सकते हैं परंपरा भी चल रही है। इसका उत्तर ऐसा होगा मुझे लगता है। मेरा विचार यह है। मेरा खयाल हे या यह विचार है, इसको कोई स्थान ही नहीं है। अब सनंदन को प्रश्न पूछा गया तो वह कहने वाले हैं। एक समय की बात है।
महाविष्णु आप जानते हो कहां विश्राम करते है? या पहुड़े रहते हैंँ? कारणोंदक्षायी विष्णु! क्षायी मतलब विश्राम करते हैं। यह सभी विश्राम करते हैं। इसीलिए क्षीरोदकक्षायी है, मतलब क्षीरसागर मे विश्राम करने वाले। गर्भोदकक्षायी विष्णु, कारणोंदक्षायी विष्णु कारणोंदक सागर है उस में पहुड़े रहते हैं, वह उनका स्थान है वह महाविष्णु कहलाते हैं। इस प्रकार 3 स्थान है। तीन विष्णु है। जो संकर्षण बलराम ही है। बलराम से संकर्षण, संकर्षण से महाविष्णु, महाविष्णु से गर्भोदकक्षायी विष्णु, गर्भोदकक्षायी विष्णु से क्षीरोदकक्षायी विष्णु। इस प्रकार जो सनंदन है।
भगवान योगनिद्रा में थे। महाविष्णु जब संसार में प्रलय होता है तो सारे ब्रह्मांड और ब्रह्मांड में जितने भी बद्धजीव हैं वे सभी के सभी महाविष्णु भगवान के रूप में प्रवेश करते हैं। और यह तब होता है जब ब्रह्मा की रात होती हैं। ब्रह्मा के रात्रि की संध्या होती है। नहीं नहीं रात्रि नहीं क्योंकि, अब ब्रह्मा ही नहीं रहे। क्योंकि ब्रह्मा की जो रात होती हैं तो आंशिक प्रलय होता है। लेकिन ब्रह्मा जो अब 100 साल के हो गए तो ब्रह्मा की मृत्यु होती है। फिर ब्रह्मा ने यह कहा तुमको मैं कैसे वरदान दे सकता हूं। हे हिरण्यकशिपु तुम कह रहे हो की, मुझे अमर बना दो, मैं स्वयं ही मरने वाला हूं बेटा! और तुम मुझसे अमरता का वरदान मांग रहे हो। तो जब ब्रह्मा 100 साल के होते है तो सारे ब्रह्मांड महाविष्णु भगवान से रूप में, विग्रह में प्रवेश करते हैं। यह सब तब होता है। इसीलिए कहते है भगवान महान होते हैं। यह समझा जाता है इन सब बातों से। भगवान जब सास लेने लगते और फिर उश्वास होता हैं, श्वास उश्वास यानी सांस अंदर लेना और सांस छोड़ना। भगवान जब सांंस अंदर लेते हैं तो सारे ब्रह्मांड विभूति जो भगवान की है भगवान में प्रवेश करती है। फिर अब भगवान उश्वास लेंगे मतलब आप फिर सृष्टि होगी पुनः ब्रह्मांड महाविष्णु भगवान के रोम-रोम से निकलेंगे। तो उस समय सनंदन कह रहे हैं। उस समय क्या होगा? वहां सारे वेद पहुंच गए और वेद हो गए मूर्तिमान। मूर्तिमंत वेद भी। कई बार हम आपको बताते हैं वेद भी व्यक्ति है। नदी व्यक्ति है।
पर्वत व्यक्ति है। हरि हरि !! पद्मपुराण में जहां भागवत महात्म्य लिखा है। सुनाया है। चार कुमार हरिद्वार में गंगा के तट पर कथा करने जा रहे थे और यह कथा होने वाली थी भक्ति ज्ञान और वैराग्य के लिए। वैसे ज्ञान और वैराग्य के लिए ही यह कथा होने वाली थी। वैसे वहां बताया है। पहले पहले वहां पहुंचने वाले कौन थे? वैष्णव थे। सबसे पहले पहुंचते हैं। और फिर वहां लिखा है, कई सारे आसन बैठने के लिए पहले से ही तय की हुई थी। वेदों के लिए चार आसन थे। और 18 पुराणों के लिए, 18वा पुराण क्योंकि भागवतम है उनके आसन थे। और गंगा जमुना गोदावरी सरस्वती कावेरी 7 नदियों के मुख्य आसन और भी नदिया पीछे बैठी थी। और कई धामों के लिए भी आसन है। पंढरपुर धाम के लिए आसन था। वहां कुरुक्षेत्र धाम के लिए आसन था। वहां हरिद्वार के लिए आसान था वहां। धामों के लिए, नदियों के लिए, शास्त्रों के लिए आसन थे। यह वहां उल्लेख है तो सभी वहां पहुंचे अपना अपना आसन ग्रहण किया। वैसे ही यहां जब योगनिद्रा में पहुड़े हुए है महाविष्णु अब जागेंगे भी और कुछ श्वास भी प्रारंभ होगा। उसी के साथ सृष्टि भी होने वाली है सृष्टि का उत्पन्न होना, ब्रम्हांडो का निकलना महाविष्णु के विग्रह से।
उस समय यह सारे वेद मूर्तिमान अपने अपने रूप धारण करके वे भगवान की स्तुति करने वाले हैं। वैसे यह जो अध्याय हैं दसवां स्कंध 87 वा अध्याय उसका नाम है साक्षात वेदों द्वारा स्तुति। साक्षात वेद वहां पहुंचे हैं और स्तुति कर रहे हैं भगवान की स्तुति कर रहे हैं। आदो मध्ये अन्ते हरि सर्वत्र गियते ऐसा हम लोग सुनते है। सभी शास्त्रों में, शास्त्रों के प्रारंभ में, मध्य में, अंत में हरि का गान मिलेगा हरि सर्वत्र गियते। तो यहां स्वयं वेद साक्षात वेद वहां पहुंचे हैं और भगवान का स्तुति गान कर रहे हैं और यहां उल्लेख हुआ है। यह स्तुति गान वैसा ही है जैसे राजा के दरबार में कई बार कवि आते हैं मराठी में उसे शाहिर कहते हैं और वे राजा का गुणगान गौरव गाथा गाते रहते हैं। उनको और भी क्या बोलते है ना! हरि हरि। जो कृष्ण जन्म हुआ तो वहां भी ऐसे जन पहुंचे थे और वे स्तुति गान कर रहे थे।
कृष्ण कन्हैया लाल की हाथी घोड़ा पालखी !
तो जैसे राजा के दरबार में राजा की स्तुति करने वाले होते हैं और जो सत्य तथ्य है वही कथा करते है। चमचे गिरी नहीं करते। यहां पर जो वेद हैं स्वयं वे स्तुति कर रहे है। वेद उवाच, सामवेद उवाच, ऋग्वेद उवाच। तो उन वेदों ने क्या कहा? कैसे स्तुति की भगवान की? वही अब यह संनंदन, सनत सनातन को सुनाने वाले हैं। और सनंदन जो बातें सुनाई वही बातें अब बद्रिकाश्रम में.. वह जनलोक था। बद्रिकाश्रम में नर नारायण या नारायण ऋषि भगवान नारद मुनि को सुनाने वाले हैं । वह बद्रिकाश्रम था। और गंगा के तट पर फिर वही बातें शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को वही बातें सुनाने वाले हैं जो उन्होंने सुनी है या जो सुनाई थी बातें नारायण ऋषि से। नारायण ऋषि ने की हुई बातें और फिर नैमिषारन्य में सुत गोस्वामी वही बातें सुनाएंगे शौनकादि ऋषि-मुनियों को जो बातें उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से सुनी थी। और फिर श्रील प्रभुपाद वही बातें सुनाएंगे जो उन्होंने सुत गोस्वामी से सुनी है। और फिर हम पंढरपुर में आपको वही बातें सुनाएंगे जो श्रील प्रभुपाद ने न्यूयॉर्क में जब उनको प्रश्न पूछा था उस प्रश्न का प्रभुपाद जो उत्तर दिए वही हम आपको सुनाएंगे। फिर वही आप नागपुर में हो या कोल्हापुर में या मायापुर में जिस पुर में भी आप हो या पुरंजन भी हो जो पूरी में रहता है वह पुरंजन कहलाता है, वैसे हम पुरंजन है पुरंजन पुरी में रहने वाले। तो हम जो भी जहां के भी जन है तो हमें जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश जब हम करेंगे तो हमें वही बातें बतानी होगी जो हमने गुरुजनों से शिक्षा दीक्षा गुरुजनों से सुनी है। इसका आधार भी शास्त्र ही है तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते शास्त्र प्रमाण है!
यह जो सारे संवाद है उसी से तो बने हैं यह सारे शास्त्र। इसी के साथ “एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः” एवं इस प्रकार तो आगे भगवान परंपरा का तो उल्लेख किए ही है। मैंने यह ज्ञान, यह गीता का यह ज्ञान विवस्वान को सुनाया, और विवस्वान ने मनु को सुनाया, मनु ने इक्ष्वाकु को सुनाया और इस प्रकार एवं मैं पुनः “मयाते अद्य” अद्य मतलब आज अधूनैव अभी अभी मैं सुना रहा हूं। हरि हरि !! एक तो यहां मुझे यह कहना था यह सब कहने के पीछे मेरा एक उद्देश्य यह भी था मुझे यह आपके ध्यान में लाना हैं। एक तो यह परंपरा की बात कैसे चलती है देखो “एवं परम्पराप्राप्तम” या सत्य का कैसे प्रचार-प्रसार होता है। और इसी के साथ जब हम यहां थोड़ा सुन लिए किसने किससे कथा या सत्य को सुना था उन्होंने किससे सुना था, उन्होंने किससे सुना था तो देख लीजिए कितने सारे व्यक्तित्व चरित्र इसमें सम्मिलित है। केवल जीसस नहीं है। भगवान के पुत्र एक हो गए बस। ज्यादा कोई बात नहीं कर सकते और दो चार पुत्र हजरत मोहम्मद यह सब कुछ ही गिने-चुने हैं पाश्चात्य देशों में और तथाकथित और और धर्मों में। धर्म तो एक ही होता है लेकिन यहां पर कितने सारे व्यक्तित्व है यह तो एक बात और उसी के साथ कितने सारे स्थान भी है। पंढरपुर भी हुआ, नैमिषारण्य भी हुआ, वह गंगा का तट भी हुआ, फिर बद्रिकाश्रम भी हुआ, जन लोक भी है।
जनलोक का नाम लिया तो फिर जन लोक कहा है। लेकिन जन लोक अकेला नहीं है और भी कई लोक है 14 भुुवन है यानी 14 लोग हैं। “भूर भुव स्वाहा” और येसेही जन लोक हैं, तप लोक है, सत्यलोक है इस तरह इन लोको का इन स्थानों का पता चलता है। फिर केवल एक ब्रह्मांड ही नहीं है है कई सारे ब्रह्मांड है और फिर महाविष्णु है महाविष्णु से सारे ब्रह्मांड उत्पन्न होते हैं। इसिके साथ हमको ब्रह्मांड विज्ञान ( कॉस्मोलॉजी) कहो या खगोल कहो, भूगोल, भूगोल ही नहींं साथ में खगोल भी सब का ज्ञान प्राप्त होता है। या मै सोच रहा था कि पाश्चात्य देशों में , क्रिश्चियनिटी मैं ऐसी गलत धारणा है कि पृथ्वी समतल है। लेकिन भूगोल इस शब्द से जो शब्द कब से है सृष्टि के प्रारंभ से भूगोल, भू मतलब पृथ्वी और कैसी हैं पृथ्वी? गोलाकार! यह ज्ञान तो कब से मौजूद है।
लेकिन अभी अभी कुछ साल पहले दो हजार चार हजार साल पहले तक पाश्चात्य देश के लोगों को इतना भी ज्ञान नहीं था। क्योंकि उस समय वे ज्यादा घूम फिर नहीं पा रहे थे। उस समय कुछ ट्रांसपोर्टेशन यह नौकाए बोट नहीं था और विमान इत्यादि ऐसी व्यवस्था नहीं थी। तो लोगों को लगता था कि हम चलते जाएंगे, चलते जाएंगे पर एक समय क्या होगा कि हम गिर सकते हैं। क्योंकि पृथ्वी समतल है। जैसे आप छत पर हो तो जाते रहोगे जाते रहोगेे तो क्या होगा? आप लोग गिर सकतेेे हो। लेकिन इसको भूगोल कहां है भूगोल है, खगोल है, ब्रह्मांड भी अंडे के आकार का है गोलाकार आकार का है। इस प्रकार यह ब्रह्मांड विज्ञान और खगोल विज्ञान ( कॉस्मोलॉजी और एस्ट्रोनॉमी ) खगोल भूगोल का भी ज्ञान इसी के साथ शास्त्र में हमको प्राप्त होता है। इसकी खोज के लिए यह मुरख लोग
*न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: ।*
*माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता: ॥ १५ ॥*
अनुवाद – जो निपट मूर्ख है, जो मनुष्य में अधम है, जिन का ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते।
“न मां दुष्कृत” यह दुष्ट लोग हैं मेरी शरण में नहींं आते। माया ने इनका दिमाग बिगाड़ दिया है बुद्धि को चोरी कि हैं। यह कौन है मुढ़ा हैं रास्कल्स मूर्ख हैंं। इसीलिए प्रभुपाद करते थे.. भगवदगीता यथारूप है, तो मतलब भगवान कहे मुढ़ा तो परंपरा में क्या कहा जाएगा। भगवान ने कहा मुढ़ा यह रास्कल्स हैं शास्त्रज्ञ ( साइंटिस्ट ) मूर्ख है। मैं उनके चेहरे पर लात मारूंगा। तो शास्त्रों का अध्ययन जब हम करते हैं या परंपरा में ही इस ज्ञान को हम सुनते हैं या उसको सुनाते हैं, इसी के साथ यह सब *ॐ अज्ञान तिमिरंधस्य* इस ज्ञान के साथ हमारे अज्ञान का “तिमिरंधस्य” विनाश होता है। “तमसो मा ज्योतिर्गमय” होता है। अंधेरे से प्रकाश की और हम जाते हैं। इसी के साथ मैंने अभी थोड़ा जो सुनाया यहां समाज हो रहा है। वहां समाज हो रहा है तो एक तो स्थानों का भी ज्ञान होता है।
या सारी सृष्टि का और साथ-साथ काल की गणना देखो। यह नहीं कि डार्विन के सिद्धांत की क्रांति और अभी-अभी कुछ हजार साल पहले ही सबसे विकसित योनि जो थी वह वानर थे बंदर थे और हम हो गए? बंदर की औलाद। मनुष्य क्या है? बंदर की औलाद है! उनको कहा पता है कि, हम ब्रह्मा की औलाद है, बंदर की औलाद नहीं है। तो डार्विन ने उनका कुछ (बाइसेंटेनिअल) 200 साल पूरा होना भी मना रहे हैं। यह जो काल की गणना देखो नैमिषारण्य में कथा कब हुई। फिर शुकदेव गोस्वामी “कृष्ण स्वधाम उपगते” कृष्ण अपने स्वभाव लौटे। “तद्दीनात कलियुगे” कलियुग आया था क लियुग के जब 30 साल बीत चुके थे तब शुकदेव गोस्वामी कथा सुनाएथे।
मतलब लगभग 5000 वर्ष पूर्व शुकदेव गोस्वामी कथा सुनाएं थे। और उसके कई हजारों वर्ष पूर्व नर नारायण या नारायण ऋषि कथा सुनाएं बद्रिकाश्रम में। और फिर हो सकता है लाखो वर्ष पूर्व वहां जन लोक में सनंदन कथा सुनाएं और सृष्टि अब नहीं भी हुई थी और होना प्रारंभ हुआ था तब महाविष्णु की स्तुति की वेदों ने। वह कौन सा काल, कितने प्राचीन काल की बात है तो यह सब आंखें खोलने वाली बातें हैं। और यही है “ज्ञानाञ्जन शलाकया” या फिर “ज्ञानान्गि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा” यह ज्ञान की अग्नि क्या करती है? हमारे पाप की जो राशि है या पाप की या वासना के जो बीज है उनको या उसके ढेर के ढेर पड़े हैं उसको यह अग्नि राख बना देती है जला देती है। उसी के साथ हम मुक्त हो जाते हैं। यह सब बातें सुनकर हम उच्च विचार के बन जाते हैं दूरदृष्टि, बड़े ह्रदय वाले और सचमुच हम ज्ञानी बन जाते हैं। भक्त भी बन जाते हैं ज्ञानी बन जाते हैं।
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित: ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ ७ ॥
( श्रीमद् भागवतम 1.2.7)
अनुवाद – भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरंत ही पहले तू ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।
यह सब श्रवण कीर्तन करना यह भक्ति है। “श्रुन्वन्ति गायन्ति गुणन्ति साधव” यह सब तो कहा ही है ऐसी भक्ति करते हैं उसी के साथ भक्ति करने से ज्ञान आ जाता है ऐसा भागवत का सिद्धांत है। “जनयत्याशु” जनयेति उत्पन्न होता है आशु जल्दी से “वैराग्यं ज्ञानं च” हमारे जीवन में वैराग्य ज्ञान अनासक्ति उत्पन्न होता है। अज्ञानी से हम ज्ञानमय विज्ञानमय बन जाते हैं। पहले हम अन्नमय थे, पेट भर लिया खुश जीवन का लक्ष्य पेट भरना है “पहले पोटोबा बाद में विठोबा”। तो यह सब भूल जाओ आप और सुनो यह सत्य परंपरा में सुनो आप परंपरा में सुनाओ।
*हरे कृष्ण !!*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
25 फरवरी 2021
आज 811 स्थानो सें अविभावक उपस्थित हैं।
हरि बोल…!
नित्यानंद प्रभुने आपको आकृष्ट किया है आज।अधिक जीव आज उपस्थित हुए हैं।
नित्यानंद राम कि जय…!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥
आज के दिन का क्या कहना। कौन कह सकता है महिमा?अनंतशेष ही कुछ प्रयास कर सकते हैं; वे भी सफल नहीं हो सकते। अनंतशेष वैसे बलराम ही हैं। अनंत शेष है बलराम या संकर्षण है बलराम। संकर्षण ही बनते हैं महाविष्णु। महाविष्णु से गर्भोदकशायी विष्णु से गर्भोदकशायी से क्षीरोदकशायी विष्णु से अनंत शेष। यह सब बलराम है, और वही बलराम
बलराम होइले निताई
नंदनंदन जई शचीसुत हुईले सई और बलराम होईले निताई
जो बलराम संकर्षण है, जो बलराम महाविष्णु है, जो बलराम गर्भोदकशायी विष्णु हैं। ऐसे चैतन्य चरितामृतकार कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं। महिमा तो लिख रहे हैं नित्यानंद प्रभु का किंतु ये महिमा बलराम का ही हैं; किंतु बलराम और नित्यानंद प्रभु एक ही है, तो बलराम का महीमा नित्यानंद प्रभु का भी महीमा है ही। हरि हरि!
मैं वैसे कह रहा था कौन लिख सकता है? नित्यानंद प्रभु का महीमा तो लिखने के लिए स्वयं व्यासदेव प्रकट हुए हैं। क्या लिखते हैं
भागवते कृष्ण-लीला वर्णिला वेदव्यास।
चैतन्य-लीलाते व्यास –वृंदावन दास।।
(श्री चैतन्य चरितामृत आदिलीला 11.55)
अनुवाद: – श्रील वेदव्यास ने श्रीमद् भागवत में कृष्ण लीलाओं का वर्णन किया और श्री चैतन्य महाप्रभु कि लीलाओं के व्यास हुए वृंदावन दास।
कृष्ण-बलराम लीला का वर्णन श्रील व्यासदेव ने किया वही कृष्ण बलराम जब गौर-नित्यानंद बने तो उनके लीलाओं का वर्णन करने वाले हैं वृंदावन दास। वे थे व्यास अब व्यास बने हैं वृंदावन दास और लिखते हैं चैतन्य भागवत श्री चैतन्य भागवत में ही यह चैतन्य भागवत है आप को दिखा तो देते हैं दर्शन तो करो (जपा टौक में उपस्थित भक्तो को प. पु. लोकनाथ स्वामी महाराज किताब दिखाते हुए कह रहे हैं)एक है श्रीमद् भागवत और यह है चैतन्य भागवत और वैसे चैतन्य-नित्यानंद के लीलाओं का वर्णन चैतन्य चरितामृत, चैतन्य मंगल, चैतन्य चरित् इत्यादि इत्यादि ग्रंथों में है किंतु थोड़ा अधिक वर्णन नित्यानंद प्रभु का चैतन्य भागवत में भी हैं। चेतन भागवत कि शुरुआत करते हैं।
अजानुलम्बितभुजौ कनकावदातौ, संकीर्तनैकपितरौ कमलायताक्षौ।
विशवम्भरौ व्दिजवरौ युगधर्मपालौ, वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ।।
(श्रीचैतन्य भागवत आदिखंड 1.1)
अनुवाद: -करुणाअवतार श्री गौरांग देव एवं नित्यानंद प्रभु कि मैं वंदना करता हूं, जिनकी भुजाएं घुटनों तक लंबी है, जिनके शरीर कि कांति स्वर्ण कि भांति पीली एवं मनोरम हैं, जो संकीर्तन के सृष्टिकर्ता अथवा प्रवर्तक हैं, जिनके नेत्र कमल की भांति विशाल हैं, जो विश्व के पोषणकर्ता हैं, जो श्रेष्ठ ब्राह्मण- कुल में अविर्भूत हुए हैं, जो युग धर्म के पालनकर्ता है तथा जगत- वासियों का परम कल्याण करने वाले हैं।
कोई अनाड़ी ही सोच सकता है कि कोई एक व्यक्ति का उल्लेख हो रहा हैं। एक व्यक्ति का वर्णन यहां हो रहा है या गुणगान हो रहा है लेकिन ऐसी बात नहीं है थोड़ा सा हल्का सा संस्कृत वगैरह जानते हैं तो पता चल ही जाएगा अजानुलम्बितभुजौ कहा है अजानुलम्बितभुजौ मतलब दो व्यक्ति की बात है या हो सकता है कि एक ही व्यक्ति कि दो भुजाएं हो सकती है या दो व्यक्तियों की दोनों भुजाएं *अजानुलम्बितभुजौ कनकावदातौ, आगे स्पष्ट होता हैं। संकीर्तनैकपितरौ दो पिता विशवम्भरौ व्दिजवरौ दो वर यह दो है गौरांग-नित्यानंद!
गौरंग -नित्यानंद…!गौरांग नित्यानंद…!
यह दोनों हैं संकीर्तनैकपितरौ। संकीर्तन आंदोलन के पिताश्री है गौरांग और नित्यानंद मतलब कृष्ण और बलराम या मतलब कि राम और लक्ष्मण। त्रेता युग के लक्ष्मण द्वापर में बलराम बनते हैं तो कलयुग में वही नित्यानंद प्रभु वे भी तत्व है ऐसी पहचान नित्यानंद प्रभु कि।ऐसे नित्यानंद प्रभु का आज आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय…!
नित्यानंद त्रयोदशी हर दिन हम देख ही रहे हैं वामन द्वादशी, आज नित्यानंद त्रयोदशी, नर्सिंग चतुर्दशी, गौरपूर्णिमा कल कहा था ना हर दिन कोई न कोई अवतार प्राकट्य है ही तो आज के दिन नित्यानंद प्रभु के लिए रिजर्व दी है नित्यानंद त्रयोदशी के दिन 500 वर्ष पूर्व चैतन्य महाप्रभु के भी प्राकट्य के पहिले कुछ 12 वर्ष पूर्व नित्यानंद प्रभु एकचक्र ग्राम धाम की जय…! एकचक्र नामक ग्राम या धाम में प्रकट हुए जो राड देश में एकचक्र ग्राम है जो राड देश वह देश कहलाता है जो गंगा जहासे बहती है उससे थोड़ा हटके उस राड देश में एकचक्र ग्राम में नित्यानंद प्रभु प्रकट हुए। अढाई पंडित और पद्मावती के पुत्र रहे नित्यानंद। उन्हें नित्यानंद राम भी कहते हैं,और ये नित्यानंद है जब पता चलता है तो हम प्रार्थना भी करते हैं।
हा हा प्रभु नित्यानंद, प्रेमानंद सुखी कृपावलोकन करो आमि बड़ो दुखी।
सावरण श्री गौर-पाद-पद्मेश प्रार्थना से
अनुवाद: -हे नित्यानंद प्रभु तुम तो प्रेमानंद में सदा सुखी रहते हो। तनिक मेरे ऊपर भी कृपाविलोकन करो, क्योंकि मैं बहुत दु:खी हूंँ।
यह तो अच्छा नहीं है ना आप सुखी और हम दुखी अच्छा नहीं हैं। कृपा कीजिए आज के दिन भी हम हमारी प्रार्थना नित्यानंद प्रभु के चरण कमलों में हमपर वे कृपा करें वैसे वे कृपा कर चुके हैं क्या कृपा हुई है?
*ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव।
गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति-लता-बीज।।
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१)
अनुवाद:- सारे जीव अपने- अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह-मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह- मंडलों को।
यह नित्यानंद प्रभु के कृपा का फल है कि हमें वे
श्रील प्रभुपाद कि जय…!
श्रील प्रभुपाद के चरणों में श्रील प्रभुपाद के शिष्यो के चरणों में उनके संपर्क में हमें लाए हैं। हमको गुरु प्राप्त कराएं हैं। वैसे नित्यानंद प्रभु ही आदिगुरु हैं,तो भी वे शिष्य बने पंढरपुर में।कितनी सारी बातें याद आ रही हैं। इस धाम में हम बैठे हैं, आपसे बात कर रहे हैं। यहां पर भी आए नित्यानंद प्रभु। पंढरपुर में भी नित्यानंद प्रभु और यहा पर उन्होंने दिक्षा ली। ये बड़े गजब कि बात है भगवान बनते हैं शिष्य और नित्यानंद प्रभु एकचक्र ग्राम मे जब बालक ही थे तो बाल सुलभ लीलाएं खेलते थें। बालक जैसे खेलते हैं।बाल अवस्था क्रीडा अवस्था। बाल अवस्था में क्या होता है? खेलते हैं। खेलेंगे!खेलेंगे!पाठशाला भी जाते थें, पढ़ते थें। पढ़ने की कोई आवश्यकता तो भगवान को…क्या पढ़ना है? क्या सीखना है?
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
से यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 3.21)
अनुवाद: -महापुरुष जो जो आचरण करता हैं,सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुकरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, संपूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता हैं।
वे सभी के समक्ष आदर्श रखते हैं। देखो मैं भी स्कूल जा रहा हूंँ, तुमको भी स्कूल जाना होगा हां! मैं पढ़ रहा हूंँ, तुम भी पढ़ो! जब स्कूल में पढ़ते थे तो अपने मित्रों के साथ खेलते थें। नित्यानंद प्रभु के सारे खेल वृंदावन कि लीलाएं हुआ करती थीं। कृष्ण-बलराम जो लीला किया करते थें। गोचारणलीला है या फिर उन्होंने उन्होंने धेनु का सुर का वध किया, ऐसी अपने स्वयं कि भी जो लिलाएं है, कभी प्रलंबासुर का वध करते थे, और कोई मित्र प्रलंबासुर बनता तो नित्यानंद प्रभु बलराम के आवेश में उसके पीठ पर चढ़ते और फिर आसमान में उड़ान भरते और फिर उसका वध होता। ऐसे भिन्न भिन्न मधुर लीलाएं खेलते। औरों के लिए तो नाटक लेकिन नित्यानंद प्रभु के लिए यह नाटक नहीं था उनके लिए तो लीलाएं ही खेलते थें। कभी-कभी रामलीला खेलते थें राम- लक्ष्मण लीला खेलते थें। लंका में पहुंच गए राम और लक्ष्मण और रावण के साथ लड़ रहे हैं, कुंभकरण भी हैं।
जय हनुमान…!,जय श्री राम…! वहां रामायण के युद्ध कांड में लक्ष्मण घायल हो जाते हैं मेघनाथ के बाद से लक्ष्मण घायल हो जाते हैं मूर्छित हो जाते हैं तो वही लीला वहां एकचक्र ग्राम के पाठशाला के प्रांगण में बालक खेल रहे थे और नित्यानंद प्रभु बने हैं लक्ष्मण और फिर कोई राम है,तो कोई वानर है, कोई हनुमान हैं। जय हनुमान…! कई सारे पात्र हैं। खेलते खेलते वहा युध्द हो रहा था नित्यानंद प्रभु घायल हुए, मेघनाथ ने घायल किया उनको बाण के प्रहार से, नित्यानंद प्रभु पड़े रहे। सभी इकट्ठे हुए क्या उपाय है? कैसे? क्या औषधि होगी?क्या उपाय कर सकते हैं?,तो यह तय हुआ कि हनुमान हिमालय से कई जड़ी बूटी लेकर आ सकते हैं। वैसे इसका उपयोग किया जा सकता हैं। हनुमान को भेजा गया। हनुमान जब गए हिमालय कि ओर नित्यानंद प्रभु तो मूर्छित पड़े हैं और सभी वहां पर हैं, इतने में पाठशाला बंद होने का समय हुआ, घंटी बजी, सारे बालक जो यह नाटक देख भी रहे थे, और नाटक में अलग-अलग पात्र निभा भी रहे थे वह सारे के सारे दौड़ पड़े दौड़ पड़े, अपना पाठशाला का थैला या किताबें लेकर, अपने अपने घर कि ओर प्रस्थान किए। बस केवल एक बालक वह बच गया, क्रीड़ांगण में अभी तक लेटा है और वे थे नित्यानंद भी नहीं थे वे अब लक्ष्मण थें। सभी बालक अपने अपने घर लौटे थे लेकिन नित्यानंद प्रभु नहीं लौटे तो उनके पिताश्री ढूंढते हुए गए, कहां है? नित्यानंद….! अंत में पाठशाला गए उनको वहां नित्यानंद दिखे, बेहोश पड़े हुए, पूछताछ करने पर पता चला यह नाटक हो रहा था लंका का युद्ध का खेल या नाटक कर रहे थे और हनुमान को भेजा गया।
हनुमान तो लौटे ही नहीं,हनुमान अपने घर लौटे (हंसते हुए) तो फिर नित्यानंद प्रभु को पुनः बाह्य ज्ञान कि ओर लाना है, और मूर्छा से मुक्त करना है, तो ये सोचा कि सारे बच्चों को बुलाया जाए और उनका श्रृंगार हुआ, सारे वस्त्र पहने और अपने-अपने स्थान ग्रहण कर लिये और हनुमान को भेजा गया और पुनः हनुमान आ गए, जड़ी-बूटी लेकर और संजीवनी जड़ी-बूटी का उपयोग हुआ। लक्ष्मण मूर्छा से मुक्त हुए। इस लीला से, और कई सारी लीलाओं से पता चलता है, कि यह स्वयं बलराम है, या स्वयं लक्ष्मण हैं। नित्यानंद प्रभु छोटे ही थे एक समय साधु आए ।राय पंडित अढाई पंडित बन गये यजमान और कुछ और साधु का संघ और सेवा शुरू हो गई प्रस्थान करना था साधु को तो हम आपकी कुछ सहायता कर सकते हैं?हां हां सहायता कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि आपके बालक को मुझे दीजिए, तो फिर क्या कहना यह बात ऐसे ही थी जैसे कौन थे? राम और लक्ष्मण को मांगने के लिए विश्वामित्र आए थे।मुझे आपके पुत्र चाहिए और फिर उस समय जो दशरथ थें, नहीं नहीं यह कैसे संभव हैं। उन षौडीषीय वर्षीय बालक हैं। षौडीषीय वर्षीय बालक मतलब 15 साल के बालक है। ऐसे दशरथ बता रहे थे, विश्वामित्र मुनि को और ये राजीव लोचन राजीवलोचन मतलब कमल सूर्यास्त के समय मुर्झा जाता है, बंद होता हैं। यह बालक यज्ञशाला कि रक्षा कैसे करेंगे। आप तो कह रहे हो कि यज्ञ की रक्षा करेंगे रात में जो राक्षस आते हैं उससे बचाएंगे यज्ञशाला को पूरे रातभर जागेंगे, नहीं-नहीं कैसे संभव है राजीव लोचन जब कली मुरझा गई तो अगले दिन सुबह ही कली खिलती है तो रात भर जगे रहेंगे। नहीं नहीं यह कैसे हो सकता है ऐसा ही कुछ ऐसा तो नहीं कहा अढाई पंडित स्वीकार किए इस बात को और तथास्तु! वैसे ही वो दे दिए नित्यानंद प्रभु को साधु के साथ। उन्होंने सारे भारत का भ्रमण किया लेकिन नित्यानंद प्रभु को भ्रमण करना ही था क्योंकि* बलराम होइले निताई बलराम तो बने थे निताई बलराम भी तो पूरे भारत का दर्शन, भ्रमण किया ही था और नित्यानंद प्रभु क्यों नहीं करते तो फिर कैसे-कैसे वे बलराम। वे भ्रमण करते करते पंढरपुर भी आए थे वह सारे दक्षिण भारत कि यात्रा कि थी और नित्यानंद प्रभु जब वृंदावन पहुंचे और वृंदावन में जब राधा कुंड के तट पर पहुंचे तो उनको यह ज्ञात हुआ कि स्वयं भगवान वैसे नित्यानंद प्रभु भी स्वयं रूप है या स्वयं प्रकाश है या स्वयं भगवान के स्वयं प्रकाश है नित्यानंद प्रभु या बलराम मैं तो केवल स्वयं प्रकाश ही हूँ। स्वयं भगवान नही हूँ स्वयं भगवान प्रकट हुए हैं और वे इस समय
मायापुर धाम कि जय…
मायापुर धाम में प्रकट हुए हैं,विद्यमान हैं।नित्यानंद प्रभु के यात्रा का वही समापन हुआ राधा कुंड के तट पर और नवव्दीप मायापुर के लिए दौड़ पड़े। हरि हरि!
संकेत हुआ कि, नित्यानंद प्रभु पहुंचे हैं प्रवेश किये है नवव्दीप मायापुर में। चैतन्य महाप्रभु ने कहा जावो ढूढो़! नित्यानंद महाप्रभु को ढूंढो तो सभी गए उन्हें ढूंढने सभी दिशाओं में खोजने लगे किंतु वे नहीं मिले छुप गए थे और भगवान जब छुप जाएंगे तो कौन ढूंढ सकता है? कोई ढूंढ नहीं सकता। सभी वापस आए और बताएं कि हमने सभी जगह देखा लेकिन कहीं पय नहीं मिले नित्यानंद प्रभु तो फिर स्वयं चैतन्य महाप्रभु निकल पड़े और उनको पूछना नहीं पड़ा कि किसने देखा है कहां होंगे, कहां है? वे सीधे चैतन्य महाप्रभु जो भक्ति सिद्धांत रोड जो हैनित्यानंद महाप्रभु ने कहा कि नित्यानंद महाप्रभु को ढूंढो तो सभी गए उन्हें ढूंढने सभी दिशाओं में खोजने लगे किंतु वे नहीं मिले छुप गए थे और भगवान जब छुप जाएंगे तो कौन ढूंढ सकता है कोई ढूंढ नहीं सकता फिर वापस आए और बताएं कि हमने सभी जगह देखा लेकिन कहीं नहीं है तो फिर स्वयं चैतन्य महाप्रभु निकल पड़े और उनको पूछना नहीं पड़ा कि किसने देखा है, कहां होंगे, कहा है?वे सीधे चैतन्य महाप्रभु जो भक्ति सिद्धांत मार्ग जो है। भक्ति सिद्धांत मार्ग से ही आएंगे ना! नंदनाचार्य के घर कि ओर योगपीठ से अपने निवास स्थान से आगे बढ़े और नंदन आचार्य, चैतन्य महाप्रभु तो सर्वज्ञ अभिग्य है वहा जब आए तो फिर इन दोनों का, चैतन्य महाप्रभु ने देखा है नित्यानंद प्रभु ,तो नित्यानंद प्रभु ने प्रथम बार इस लीला में प्रथम मिलन है और प्रथम दर्शन भी है तो एक दूसरे का भी वे दर्शन कर रहे हैं। एक करे नितांई-निताई और दूसरे कह रहे निमाई- निमाई ऐसे कहते कहते वे एक दूसरे कि तरफ दौड़ पड़े निमाई- निताई ,निमाई-निताई,निमाई..निमाई..रथ.!,निताई…निताई…!दोनों वहां मिले एक दूसरे कि ओर भागे दौड़े आए और बाहुपाश में एक दूसरे को धारण किए। गाढ़ आलिंगन हो रहा हैं। दोनों भाताश्री उस वक्त सिर्फ शरीर का ही नहीं हृदय का मिलन हो रहा है, तब उसी अवस्था में कुछ समय के लिए रहे और दोनों आंसू बहा रहे हैं अश्रु धाराएं बह रही है।
इसी प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु अश्रु धारा के साथ नित्यानंद महाप्रभु का गाड़ आलिंगन कर रहे हैं।
नित्यानंद महाप्रभु अपने अश्रु धाराओं के साथ गौरांग महाप्रभु का अभिषेक कर रहे हैं और फिर उनको कुछ बाह्य ज्ञान भी नहीं रहा कि हम खड़े हैं या कहां हैं दोनों भी धड़ाम करके गिर जाते हैं। नंदनाचार्य के प्रांगण में और फिर दोनों लौटने लगते हैं और बहुत समय के उपरांत फिर पुनः बाह्य ज्ञान होता है, फिर पुनः मिलते हैं और बातें करते हैं। अब वो दोनों साथ में रहेंगे रामलीला में राम और लक्ष्मण सदैव साथ में रहे हैं कृष्ण बलराम लीला में कृष्ण बलराम सदैव साथ में रहे हैं उसी प्रकार यह दोनों राम लक्ष्मण कृष्ण बलराम जन्म में भी थे एक ही स्थान पर और उम्र में तो कोई अंतर नहीं था वैसे लक्ष्मण और राम का एक ही दिन में जन्म हुआ था रामनवमी केवल राम नवमी ही नहीं वह लक्ष्मण नवमी भी हैं।
और कृष्ण बलराम में बलराम लगभग 1 वर्ष पहले जन्मे थे गोकुल में जन्म हुआ था बलराम का और कृष्ण ने जन्म लेते ही बलराम ही उन्हें मिलने के लिये आगए। जब वसुदेव वासुदेव नंदन को कारागार से बाहर निकलते ही वहां बलराम ने स्वागत किया अनंतशेष के रूप में और इस लीला में जन्म भी दो अलग-अलग स्थानों में हुआ है और आयु में भी अंतर है, नित्यानंद महाप्रभु लगभग 12 साल पहले जन्मे हैं और उनका मिलन भी यहां मायापुर में हुआ और अब से वह दोनों साथ में रहेंगे और अभी वह दोनों साथ में आए हैं तो फिर…..
चैतन्य भागवत १.१ आजानुलम्बित – भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक – पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥
अनुवाद:-
मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण , इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक , सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया
संकीर्तन आंदोलन अब शुरू होगा नित्यानंद और गौरांग महाप्रभु की बहुत सारी लीलाएं हुई है अब तक गोरा महाप्रभु की उम्र 20 साल की हैं ऐसा कहते तो नहीं लेकिन हमें कहना पड़ता है भगवान कभी 20साल के हो ही नहीं सकते। वह तो हम पूछते हैं अरे आपकी उम्र क्या है वह हमारे लिए है भगवान तो सच्चिदानंद है शाश्वत है इस प्रकट लीला में जब वह 20 साल के थे तब यह मिलन हुआ है और तब से फिर श्रीवास आंगन में संकीर्तन प्रारंभ होगा जो पंचतत्व में सदस्य हैं वह भी सब मिलेंगे जो संकीर्तन की भूमिका है अब वह दोनों गौर नित्यानंद बोल हरि बोल हरि बोल यह सब अब प्रारंभ होगा कई लीलाएं संपन्न होगी और फिर निमाई सन्यास भी होगा जब कटवा में हो रहा था तब वहां भी नित्यानंद महाप्रभु उपस्थित थे और जगन्नाथपुरी में सचिमाता के आदेशानुसार तब वह भी उपस्थित थे वैसे जगन्नाथ पुरी से चैतन्य महाप्रभु अकेले ही आगे बढ़ते हैं और नित्यानंद प्रभु जगन्नाथपुरी में रुक जाते हैं।
चैतन्य महाप्रभु की अंतिम लीलाये जब प्रारंभ होती है, जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में रहेंगे राधा भाव और राधा कृष्ण का मिलन होगा राधा कृष्ण की लीलाएं संपन्न होंगी तब जहां राधा और कृष्ण होते हैं तो वहां बलराम नहीं होते तो 1 दिन चैतन्य महाप्रभु ने बलराम को नित्यानंद महाप्रभु को बुलाया है।
उनको आदेश दिया कि आप यहां क्यों मर रहे हो जाओ बंगाल जाओ प्रचार करो।
सुनो सुनो नित्यानंद सुनो हरिदास
सर्वत्र आमार आज्ञा कोरोहो प्रकाश
प्रति घरे घरे गिया कोरो एई भिक्षा
बोलो कृष्ण भज कृष्ण करो कृष्ण शिक्षा
तुम बलराम हो अभी नित्यानंद बने हो गुरु तत्त्व हो जाओ प्रचार करो ऐसा कुछ बहाना बनाकर नित्यानंद प्रभु को वहां से भेज दिया है वृंदावन के द्वादश गोपों के साथ जो जो चैतन्य और नित्यानंद की लीलाओं में अलग अलग व्यक्तित्व है उनके साथ बंगाल के लिए प्रकट हुए हैं और दही चिड़ा महोत्सव संपन्न हुआ कहां पर पानी हाटी जगन्नाथ पुरी से सीधा गए पानीहाटी और वह जो नित्यानंद महाप्रभु और उनका दल जब कीर्तन कर रहा था अखंड कीर्तन सुबह और रात में अद्भुत वर्णन कीर्तन का है कीर्तन करते करते वह पेड़ पर ही चलते थे पेड़ की शाखाओं पर भी नाचते थे वहीं पर कृपा हुई रघुनाथ दास गोस्वामी के ऊपर……..
निताइ-पदकमल, कोटिचन्द्र-सुशीतल, जे छायाय जगत् जुडाय़।
हेन निताइ बिने भाइ, राधाकृष्ण पाइते नाइ, दृढ करि’ धर निताइर पाय़
अनुवाद:- श्री नित्यानंद प्रभु के चरणकमल कोटि चंद्रमाओं के समान सुशीतल हैं, जो अपनी छाया-कान्ति से समस्त जगत् को शीतलता प्रदान करते हैं। ऐसे निताई चाँद के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किये बिना श्रीश्री राधा-कृष्ण की प्राप्ति नहीं हो सकती। अरे भाई! इसलिए उनके श्रीचरणों को दृढ़ता से पकड़ो।
नित्यानंद प्रभु की कृपा के बिना राधा कृष्ण पायते नाय श्री कृष्ण चैतन्यराधा कृष्ण नाही अन्य यदि हम को भी राधा कृष्ण की कृपा को प्राप्त करना है तो नित्यानंद महा प्रभु की कृपा के बिना गुरु की कृपा के बिना आदि गुरु की कृपा के बिना संभव नहीं है।
नित्यानंद महाप्रभु बंगाल देश में प्रचार करेंगे ऐसे भी जब चैतन्य महाप्रभु के सन्यास के पहले प्रचार कर ही रहे थे उस दौरान उन्होंने जगाई मथाई का उद्धार किया हरिनाम का प्रचार किया
जगाई मधाई का उद्धार किया और फिर जीव गोस्वामी भी आएंगे मायापुर वहां वह नित्यानंद प्रभु से मिलेंगे नित्यानंद प्रभु जी गोस्वामी को योगपीठ ले जाएंगे सचिव माता से परिचय कराएंगे जीव गोस्वामी का वहां सचि माता और विष्णु प्रिया भोजन बनाएगी नित्यानंद प्रभु और जीव गोस्वामी को भोजन खिलाएंगे और नित्यानंद प्रभु गोस्वामी को लेकर गए नवद्वीप मंडल परिक्रमा की जय सर्वप्रथम इस परिक्रमा के संचालक जो पहने वह नित्यानंद प्रभु ही थे जीव गोस्वामी को वहां की सभी लीलाएं बता रहे थे नित्यानंद महाप्रभु और उसी समय यह गोस्वामी से कहे थे क्या होगा यहीं पर होगा अद्भुत मंदिर का निर्माण और इसी मंदिर से गौरांग महाप्रभु की सेवा होगी जैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी थी..
पृथ्वीते आछे यत नगर आदी ग्राम ।
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम।। (चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 25.264)
अनुवाद : इस पृथ्वी के प्रत्येक नगर तथा ग्राम में मेरे नाम का प्रचार होगा ।
मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा नगर और ग्राम में होगा नित्यानंद प्रभु की भविष्यवाणी थी की जब लोगो को नाम प्राप्त होंगा तब नाम से धाम तक लोग नाम लेंगे फिर धाम आएंगे तब वहा मंदिर होना चाहिए।नित्यानंद प्रभु की भविष्यवाणी है यहां मंदिर बनेगा एक अद्भुत मन्दिर बनेगा।
और फिर अंततः 500 वर्षों के बाद मंदिर बन रहा है प्रभूपादजी ने कई सारी योजनाएं बनाई है और फिर इतना ही नहीं 1972 में जब मायापुर का पहला उत्सव संपन्न हो रहा था उसी समय श्रील प्रभुपाद जी ने उसके निव उसकी भूमि पूजा उनके कर कमलों से किया है।
हम भी मायापुर उत्सव में कई बार जाते थे कि मंदिर ऐसा होगा वैसा होगा इस प्रकार इसका डिजाइन होगा और फिर इसकी जगह भी बदली है 1977 में और बदल हुए थे जैसे-जैसे अधिक अधिक भूमि मंदिर को प्राप्त होने लगी तो स्थान भी बदल रहे थे तो अंततः जहां अब बन रहा है यह वैसे वही स्थान है जहां श्रील प्रभुपाद जी ने भूमि पूजन किया था वहां मंदिर का निर्माण हो रहा है और नित्यानंद महाप्रभु की भविष्यवाणी सच हो रही है नित्यानंद प्रभु की प्रसन्नता के लिए भविष्यवाणी सच होगी कि नहीं हरि बोल तो उसके लिए आपको भी कुछ करना होगा की होंगी यह कहने से हो जाएगा जमीन भी है डिजाइन भी हैं और हमारे अमरीश प्रभु भी है उन्होंने भी बहुत सारे धनराशि खर्च किया है अब हमारी बारी है आप सब की बारी है हम तो सन्यासी हैं हम खाली जेब लेकर हैं हम तो भिक्षुक हैं आप धनी हो गृहस्थ का धर्म है धन अर्जन करना बालिका गोपी वहां पाश्यात्य देश में धन अर्जन कर रही है अबू धाबी में यदि आपने अब तक संकल्प नहीं लिया है नित्यानंद प्रभु की आविर्भाव की चर्चा भी हो रही है मंदिर बन भी रहा है तो आप भी निमित्त बनिये इस संकल्प को पूरा करना है।
समय ज्यादा बचा नहीं है पर और भी तो धनराशि की आवश्यकता है यदि आपने अब तक संकल्प नहीं लिया है तो संकल्प लीजिए और किस को सूचित करें अभी तो सारी बात नहीं बताएंगे यदि संकल्प लिया है तो संकल्प को पूरा करो धनराशि को भेजो मायापुर यदि संकल्प नहीं लिया है तो आज संकल्प लो मन ही मन में और सूचना दूर कि आप का संकल्प इतना है इतनी सारी योजनाएं हैं ऐसे सेवा ऐसे श्रद्धांजलि उचित होंगी आज के दिन नित्यानंद त्रयोदशी महोत्सव की नित्यानंद प्रभु के आविर्भाव के दिन संकल्प ले सकते हैं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक २४.०२.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७३३ स्थानों से जप हो रहा है। हरे कृष्ण! ब्रेकिंग द् न्यूज़- आज वराह द्वादशी महोत्सव है। हरि बोल! जैसे भगवान श्रीराम के लिए रामनवमी निश्चित है, वैसे विजय दशमी भी है अर्थात जिस दिन राम विजयी हुए थे, राम विजयी ही होते हैं। राम के साथ और कुछ होता ही नहीं। उसी प्रकार नरसिंह चतुर्दशी भी है, गौर पूर्णिमा भी है। प्रथमा से लेकर पूर्णिमा अथवा अमावस्या तक हर तिथि पर ( प्रथमा, द्वितीय, तृतीय.. यह तिथियां हैं) भगवान के इतने सारे अवतार हुए हैं। कोई अवतार प्रथमा तिथि को हुए, वैसे उसमें भी भेद है। वैसे यह सब बताने की आवश्यकता तो नहीं थी। कृष्ण पक्ष की प्रथम होती है और शुक्ल पक्ष की भी प्रथम होती है। दो पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। हर तिथि पर भगवान के अनेक अवतार हुए हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ (श्रीमद भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
आज द्वादशी है और वराह द्वादशी है, इसका मतलब आप समझ सकते हो, जिस दिन वराह भगवान प्रकट हुए, उस दिन द्वादशी तिथि थी। उस समय भी यह तिथियां चल रही थी, यह तिथि नहीं अपितु यह क्रिस्टाब्द नया है। यह कालगणना अलग है, यह दो हजार वर्ष पुरानी है। किन्तु यह प्रथमा… द्वितीय… जब से सूर्य अथवा चंद्रमा है, यह सब तिथियां भी हैं या कहा जाए जब से यह सृष्टि प्रारंभ हुई तब से यह तिथियां भी हैं। उसी के साथ ही सदा के लिए यह रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, वीरवार भी चल रहे हैं। आज द्वादशी का दिन है, उसी दिन वराह भगवान प्रकट हुए थे। हरि बोल! वराह भगवान की जय! वे किस दिन प्रकट हुए, इसके विषय में तो हल्का सा पता चला। तत्पश्चात आप कहोगे कि कहां प्रकट हुए? इसका वर्णन श्री श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध में भी है व अन्य पुराणों में भी वराह भगवान की प्राकट्य लीलाओं का वर्णन सुनने को मिलता ही है। ऐसी संभावना है कि वराह भगवान का अवतार ब्रह्मलोक में हुआ होगा क्योंकि ब्रह्मा ब्रह्मलोक में ही रहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से ब्रह्मा का लोक ब्रह्मलोक अथवा सत्यलोक भी कहलाता है। वहां पर विराजमान ब्रह्मा एक दिन बैठकर कुछ सोच रहे थे। उनके साथ महाऋषि, सनक आदि उनके मानस पुत्र भी वहां विराजमान अथवा उपस्थित थे। इतने में ब्रह्मा जी को छींक आ गई, उसी के साथ ब्रह्मा के नाक से (आप जानते हो कि हमारे नाक से क्या निकलता है) वराह भगवान प्रकट हुए। भगवान का जन्म हम आप जैसा नहीं है, उन्हें मां-बाप की जरूरत नहीं है। ऐसा कौन है जो भगवान का बाप बने। भगवान ही सभी के बाप हैं, कोई आवश्यकता भी नहीं है। भगवान ऐसे ही प्रकट हो सकते हैं और होते भी हैं किंतु वे किसी को निमित्त बनाते हैं। उन्होंने ब्रह्मा जी को निमित्त बनाया और ब्रह्मा के नाक से प्रकट हुए।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
(श्रीमद् भगवतगीता ४.९)
अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
भगवान का जन्म दिव्य और अप्राकृत है। प्राकृत नहीं है जैसे कि पृथ्वी पर सभी जन्म होते ही हैं। गर्भ से जन्म होते हैं, वैसे चार प्रकार से जन्म होते हैं उनमें से एक गर्भ से जन्म होना होता है। भगवान जब प्रकट हुए तो वर्णन आता है कि वह अंगूठे के आकार के थे क्योंकि वह नाक से जो निकले थे। ब्रह्मा जी का अंगूठा था , थोड़ा बड़ा होना चाहिए। उन्होंने कुछ क्षणों में विशाल आकार धारण कर लिया और हाथी के आकार के बन गए। वहां उपस्थित महाऋषि इत्यादि गण यह सारा दृश्य देख रहे थे जो कि उनके लिए अद्भुत था। वे सोच ही रहे थे, यह कौन है? और क्या हो रहा है? वे आपस में चर्चा कर रहे थे अथवा कुछ अंदाजा लगा रहे थे। वे कुछ दिव्य अनुमान लगाने का प्रयास कर रहे थे।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। वैसे वे समझ रहे थे, यह तो भगवान हैं।
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना । केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे!
(दशावतार स्तोत्र -जयदेव गोस्वामी)
अनुवाद:- हे केशव! हे जगदीश! हे वराह का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! जो पृथ्वी ब्रह्माण्ड के तल पर गर्भोदक सागर में डुब गई थी, वह चंद्रमा पर धब्बे के समान तुम्हारे दांत के अग्रभाग में स्थित रहती है।
वराह भगवान, केशव! धृतशूकररूप! अर्थात केशव शूकर रूप बने। वैसे केशव! धृत-नरहरिरूप भी है व केशव! धृत-रामशरीर। इस प्रकार दशावतार स्तोत्र में जयदेव गोस्वामी उल्लेख करते हैं।
केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे!
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना । केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे! जय जगदीश हरे।
वहाँ जो महाऋषि इत्यादि थे, उन्होंने ऐसा ही गान शुरू किया होगा जैसे कि आप यहां कर रहे हो जोकि मेरे साथ बैठे हैं लेकिन पता नहीं जो दूर बैठे हैं, वह गा रहे थे या नहीं? यह स्वभाविक है। वे भगवान के सानिध्य में भगवान का दर्शन कर रहे हैं भगवान के विचार जब मन में आते हैं तब उसी का उच्चार भी होता है अथवा मुख से उच्चारण भी होता है। मुख से वही बातें कहते हैं और निकलती हैं।
दशनशिखरे धरणी तव लग्ना
‘शूकर’ उनका एक रूप तो शूकर जैसा है। (शूकर समझते हो?आप शूकर को क्या कहते हो- सूअर) रूप तो सूअर जैसा है। जैसे हम सूअर को देखते भी हैं अथवा सुनते भी हैं। तब हम कहते हैं छू, सूअर लेकिन यह रूप तो सूअर जैसा है, शूकर रूप। यह थोड़ा सा जंगली सूअर जैसा रूप भी है, इसके दांत हैं। दशनशिखरे धरणी तव लग्ना – जब उन्होंने दातों के ऊपर पृथ्वी को धारण किया तब उनका रूप इतना विशाल था। यह पृथ्वी बड़े आकार वाली है। हम तो छोटे हैं इसलिए हमें पृथ्वी बहुत बड़ी अथवा मोटी लगती है किंतु जब वराह भगवान ने इस पृथ्वी को धारण किया (बताएंगे उन्होंने क्यों धारण किया) तब पृथ्वी भगवान के दांतो के ऊपर छोटी सी लग रही थी। भगवान् के विराट सच्चिदानंद विग्रह की तुलना में पृथ्वी मानो सिंधु में एक बिंदु की तरह आकार की महसूस हो रही थी। इस दर्शन पर जय देव गोस्वामी लिख रहे हैं शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना। वराह भगवान के दो रूप हैं- एक श्वेत वराह और एक लाल वराह। एक लाल वर्ण के शूकर रूप और दूसरे सफेद वर्ण शूकर रूप हैं। उन्होंने पृथ्वी को धारण किया, वह थोड़ा कलंक जैसे ही लग रही है। भगवान का रूप सुंदर व निष्कलंक है, उसमें पृथ्वी एक धब्बा अथवा दाग जैसा कलंक जैसे लग रही थी शायद इसलिए क्योंकि भगवान का रूप सच्चिदानंद है लेकिन पृथ्वी भगवान के रूप में जैसे चंद्रमा के ऊपर कहीं दाग अथवा कलंक होते हैं, लग रही है।
शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना।
भगवान वराह ने शूकर अथवा सूअर ऐसा दिखने वाला रूप को बनाया है क्योंकि उनको गंदा काम करना है, ऐसी लीला भी है कि उनको गंदे स्थान पर जाना होगा। पृथ्वी अपने स्थान से च्युत की गयी है। राक्षसों के कई प्रयास होते हैं, वे भोग भोगते हैं। वह कई खनिजों को खोजते हुए अंदर जाते हैं, माइनिंग होता है,तत्पश्चात यह होता है, वह होता है। पृथ्वी के स्रोतों का भोग लेने हेतु कई प्रकार से प्रयासों से शोषण होता है उस समय के असुर हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दो भाई थे।( देखिए कैसे भाई थे और लेकिन उनके लिए तो अच्छा था) मेरे प्यारे भैया हिरण्यकशपु
मेरे प्यारे भैया। इन दोनों का जमाना था। सत्ययुग की बातें चल रही है, सत्ययुग का जमाना है।
अभी-अभी (बता ही देते हैं) ब्रह्मा जी का दिन प्रारंभ हुआ है और अभी अभी रात समाप्त हुई है। कुछ कुछ आंशिक प्रलय होता है। ब्रह्मा जी उस समय विश्राम करते हैं व उनकी रात होती है। तत्पश्चात जब ब्रह्मा जग जाते हैं। जैसा कि भगवतगीता में भी कहा है – सहस्त्रयुगप्रयन्त ब्रह्मा की रात और दिन में अर्थात ब्रह्मा जी का एक हजार महायुगों की रात और एक हजार महायुगों का दिन होता है। हजार महायुगों के दिन को ही कल्प कहते हैं। कह भी सकते हैं कि ब्रह्मा भी भगवान है, कुछ तो भगवता उनमें भी है। अभी-अभी प्रातः काल चल रही है, अब जब हम हैं, यह ब्रह्मा जी के मध्यान्ह का समय है। ब्रह्मा जी के 1 दिन में 14 मनु होते हैं, अब आठवें मनु चल रहे हैं अर्थात आधा दिन बीत गया और मध्यान्ह हो चुकी है। ब्रह्मा के दिन के प्रारंभ में ही संभवामि युगे युगे है। जैसा कि आपने सुना ही है।ब्रह्मा के दिन में कितने युग होते हैं? सहस्त्रयुगपर्यंत। एक हजार महा युग होते हैं। महायुग, सत्ययुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग से बनता है। चार युगों का एक महायुग होता है, ऐसे एक हजार महायुग होते हैं। इस प्रकार ब्रह्मा के 1 दिन में एक हजार युग हुए व हर युग में संभवामि युगे युगे अर्थात भगवान अवतार लेते हैं। ब्रह्मा जी का यह जो दिन चल रहा है, ब्रह्मा के इस दिन का पहला अवतार वराह अवतार है। कई हजारों अवतार होंगे, हर युग में एक एक अवतार होने वाला है। ब्रह्मा के दिन को कल्प कहते हैं। वैसे इस कल्प का नाम भी वराह कल्प है। जब संकल्प लिया जाता है वराह कल्पे कहते हैं।
ब्रह्मा के इस दिन का नाम ही वराह दिन है।। यह प्रथम अवतार है।
भगवान्, विनाशाय च दुष्कृताम्..अर्थात भगवान् अवतार लेते हैं और दुष्टों का संहार करते हैं। प्रथम महादुष्ट जिसका संहार किया वह हिरण्याक्ष था। वराह भगवान् के प्रकट होते ही उनकी लीला प्रारंभ हुई। इस प्राकट्य का मुख्य उद्देश्य था कि पृथ्वी का अपने स्थान से च्युत होकर जो पतन हुआ था अर्थात जिस जल में अथवा समुंदर व सागर में जहाँ पृथ्वी गिरी थी, वहाँ उस जल में गर्भोदकशायी विष्णु लेटते हैं।उस पृथ्वी के लिए (वह पृथ्वी भी एक स्त्री है) भगवान की शक्ति है, पृथ्वी भी व्यक्ति है, और हर शक्तियां, व्यक्तियां भी हैं। अथवा मूर्ति मंत्र भी होती हैं। इस पृथ्वी के लिए लड़ रहे थे। भगवान प्रकट हुए और उनकी लड़ाई शुरू हुई, जैसे फिल्मों में नायक (वैसे आप देखते नहीं होंगे, शायद कभी देखे होंगे) होता है और एक खलनायक होता है। जब वे किसी स्त्री की प्राप्ति के लिए लड़ते हैं, जो भी जीतेगा, वही जीतेगा उसे ही स्त्री की प्राप्ति होगी। वैसे ही पृथ्वी वहां जल में तैर रही है। वह स्थान गंदा भी है, जहां पर वह गिरी है। गंदे स्थान पर शूकर अथवा सूअर ही पहुंच सकता है। इसलिए भगवान ने परिस्थिति के अनुसार एक उचित रूप को धारण किया अर्थात पृथ्वी को बचाने व उद्धार के लिए भगवान को कार्य संपन्न करना है, वह हंस का रूप तो धारण नहीं करेंगे। हंस तो मानस सरोवर में जाएगा लेकिन जहाँ कचरा अथवा गंदगी होती है, वहां कौए, कुत्ते या सुअर जाएंगे। भगवान ने ऐसा रूप धारण किया है लेकिन भगवान का रूप सच्चिदानंद है। दिखने में तो सुअर जैसा शूकर रूप है लेकिन वह दिव्य रूप है। भगवान और हिरण्याक्ष में युद्ध हुआ, भगवान् अपनी गदा के साथ लड़ते हैं।
भगवान ने हिरण्याक्ष का वध किया। हरि बोल !आप इस बात से प्रसन्न हो या नहीं? यदि आप इस बात से प्रसन्न नहीं होंगे तो हिरण्याक्ष आपके कुछ लगते होंगे। कुछ रावण के पुजारी भी हैं। हरि! हरि! भगवान ने पृथ्वी को उठाया है, अपने दांत पर रखा है। सर्वप्रथम भगवान उस समुद्र से बोझ उठाते हुए ऊपर जा रहे हैं। पाताल से तलातल, सुतल, वितल, महातल, अतल और अतल के ऊपर मध्य में पृथ्वी का स्थान है। चौदह भुवन हैं, पृथ्वी मध्य में है। ऊपर सात लोक हैं, नीचे 7 लोक हैं। ऐसे सात नीचे के लोकों से ऊपर उठते हुए भगवान पृथ्वी को लेकर ऊपर आए और उन्होंने मथुरा में यमुना के तट पर जो विश्राम घाट है, वहां थोड़ा विश्राम किया।
भगवान ने विश्राम किया। जब भगवान विश्राम कर रहे हैं तब उस समय भी पृथ्वी उनके दांत के ऊपर ही है। इससे आप क्या समझ सकते हो? मथुरा और वृंदावन उत्तर प्रदेश में नहीं है। इस पृथ्वी पर ही नहीं है। सारे संसार का भी प्रलय होता है, तत्पश्चात महाप्रलय होता है। पृथ्वी का गिरना अथवा पतन होना यह कुछ हल्का सा प्रलय ही हुआ था। यह प्रलय का ही एक प्रकार है। पृथ्वी का जो भी हो, उससे मथुरा व वृंदावन का कुछ बिगड़ता नहीं है, मथुरा वृंदावन शाश्वत है। अपने स्थान पर स्थित रहता है। इसलिए वराह भगवान विश्राम घाट यमुना के तट पर मथुरा में बैठे हैं। पृथ्वी अभी तक उनके दांत के ऊपर है। अंततोगत्वा उन्होंने पृथ्वी को अपने स्थान पर स्थापित किया। इसी के साथ भगवान की लीला संपन्न हुई। भगवान की विजय भी हुई। ऐसे वराह भगवान की जय! भगवान हमारे लिए क्या-क्या नहीं करते। भगवान को करना ही पड़ता है। हरि! हरि! ऐसा करने की क्षमता और किसी में नहीं है। यही तो परित्राणाय साधूनां हुआ, उन्होंने पृथ्वी की रक्षा की, पृथ्वी को बचाया। पृथ्वी को पुनः अपने स्थान पर स्थापित किया। तभी हमारी रक्षा हुई अर्थात पृथ्वी माता के बच्चों व बालकों की रक्षा हुई, पृथ्वी माता हमारा पालन-पोषण करती है।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ३.१४)
अनुवाद:- सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है | वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है |
पृथ्वी माता अन्न देती है। आप कहोगे, नहीं! नहीं मेरी मम्मी मुझे अन्न देती है या मेरी मम्मी दूध देती है लेकिन जब तक पृथ्वी हमारी मम्मी को अन्न नहीं देगी तो मम्मी तब जिएगी भी नहीं। पृथ्वी माता की जय! सात जननियां है। पृथ्वी प्रथम व मुख्य जननी है। भगवान ने पृथ्वी की भी रक्षा की और इसी के साथ भगवान धर्म की स्थापना भी कर रहे हैं और परित्राणाय साधुनां भी कर रहे हैं। हरि! हरि! भगवान का एक रूप मछली जैसा है, एक रूप कछुए जैसा है, एक रूप सूअर जैसा है, एक रूप नरसिंह जैसा है और एक रूप राम जैसा है। रूप तो अलग अलग हैं लेकिन जिस से यह सारे बने हैं वह तो एक ही है, सभी सच्चिदानंद हैं। जैसे कभी-कभी आप लोग किसी चीनी का सोलूशन( घोल) बनाकर उसे किसी सांचे में डालते हो तो फिर कोई उससे गुड़िया बनाते हो या कोई हाथी या कई सारे खिलौने बनाते हो या फिर कोई मूर्ति भी बन सकती है। यह हुआ, वह हुआ …आपने देखा ही होगा कि रूप तो अलग अलग दिखते हैं लेकिन जिससे वह बने हैं, वह तो शक्कर ही है। वैसे सारे विग्रह दिखने में अलग-अलग हैं। दिखता है मछली लेकिन मछली नहीं है, दिखता है सूअर लेकिन सूअर नहीं है। सभी
सच्चिदानंद विग्रह है।
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरषं नवयौवनं च। वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविंदमादिपुरूषं तमहं भजामि।।
( ब्रह्म संहिता ५.३३)
अनुवाद:- जो वेदों के लिए दुर्लभ है किंतु आत्मा की विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ है, जो अद्वैत हैं, अनादि हैं जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं और आदि पुरुष भगवान गोविंद का मैं भजन करता हूं। भगवान के अनंत रूप हैं लेकिन वे अद्वैतं हैं, अद्वैत मतलब दो नहीं है। वे कृष्ण से अलग नहीं है, वह कृष्ण ही हैं। इसलिए केशव धृत अर्थात केशव ने ही यह रूप धारण किया है। जैसे सोने की कोई अंगूठी बनाता है और कोई मूर्ति भी बना सकता है।गोल्डन मूर्ति या कान के कुंडल आदि कई सारे अलंकार हैं, सब अलग-अलग दिखते हैं लेकिन सब सोने के बने हैं। वैसे ही यह सारे रूप अलग-अलग दिखते हैं लेकिन सभी सच्चिदानंद हैं।देखो! देखो! इससे हमारा डार्विन थ्योरी ऑफ रिवोल्यूशन सिद्ध हो गया।
आपने तो ऐसा सोचा भी नहीं होगा लेकिन इस संसार में कुछ लोग चालू हैं। वे कहते हैं कि हमनें शुरुवात में ही कहा था ना कि पहले अमीबा था, फिर रेप्टाइल्स बने, तत्पश्चात पक्षी बने फिर बंदर बने तत्पश्चात मनुष्य बने। डार्विन थ्योरी ऑफ रिवोल्यूशन कहते हैं कि हम पहले मछली ही थे, बाद में मछली से अन्य रूप बना, तत्पश्चात कछुआ बना। फिर उसका विकास हुआ, वह सूअर बना तत्पश्चात आधा नर आधा सिंह बना और बाद में मनुष्य जैसा रूप बना। हमारा डार्विन थ्योरी ऑफ रेवोल्यूशन सिद्ध हुआ। कुछ लोग दिमाग लगा कर ऐसे निष्कर्ष निकालते हैं लेकिन वे जानते नहीं भगवान केशव! धृत-मीनशरीर! जब वे मीन बने। ऐसा नहीं जब वे मछली बने तो उससे पहले दूसरे रूप नहीं थे। उससे पहले राम थे। राम पहले या कृष्ण पहले? कृष्ण 5000 वर्ष पूर्व हुए थे और राम दस लाख वर्ष पूर्व हुए थे। राम पहले। इसलिए हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे कहेंगे। लेकिन राम के पहले कृष्ण हुए थे और कृष्ण के पहले राम हुए थे और राम से पहले कृष्ण हुए थे.. इस तरह यहाँ तो सब आते हैं अथवा समय समय पर प्रकट होते हैं। लेकिन यहां आने से पहले कहीं ना कहीं वैकुंठ या अपने लोक में ही भगवान सदा ही रहते है। हरि! हरि! यहीं पर विराम देते हैं।
आपका समय भी ज़्यादा ले लिया।
हरे कृष्ण
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हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
23 फरवरी 2021
गौरांग! एकादशी श्रवण कीर्तन महोत्सव की जय!
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
कर कटावरी ठेवोनिया
तुळसीहार गळा कासे पितांबर
आवडे निरंतर हेची ध्यान
मकर कुंडले तळपती श्रवणी
कंठी कौस्तुभ मणी विराजित
तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख
पाहीन श्रीमुख आवडीने
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
अभंग – संत तुकाराम महाराज
आप सभी का स्वागत है। हमारे हर रोज के भक्त और आज जो नए से जुड़े हैं उनका भी स्वागत है! और जो केवल एकादशी को सम्मिलित होते है, उनका भी स्वागत है। आज संख्या अधिक है तो मैं प्रसन्न हूं!
मैं अभी पंढरपुर में हूं और पंढरी के भगवान की स्तुति संत तुकाराम महाराज ने इस अभंग में की हुई है। आप सभी को शुभ प्रभात और मेरी सुबह तो अच्छी ही है और मैं यह आपके साथ बाट रहा हूं। उसी के साथ कुछ अच्छे विचार भी मेरे मन में आए थे वह भी मैं आपके साथ बांटना चाहता हूं। हरि हरि। आज सुबह बहुत ही अच्छी मंगल आरती हुई और यहां पर बहुत ही दिव्य और खूबसूरत राधा पंढरीनाथ भगवान है। राधा पंढरीनाथ की जय! और उसी के साथ गौर निताई भी है, तुलसी महारानी भी है और हमारे आचार्यों की तस्वीरें भी है। श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील प्रभुपाद मंदिर में है! और एक वरिष्ठ भक्त मंगल आरती का कीर्तन गा रहे थे तो वह बहुत अच्छा समय था। हरि नाम संकीर्तन और नृत्य चल रहा था वहां पर गुरुकुल के विद्यार्थी भी थे और वे भी नृत्य कर रहे थे और उनका नृत्य मोर जैसा लग रहा था, मैं उनके नृत्य को मैच नहीं कर पा रहा था। मेरी यह इच्छा थी कि मैं उनके जैसा नृत्य कर पाऊं। वे तो केवल 7 साल के हैं लेकिन मैं तो अभी 70 साल का हो गया हूं। हरि हरि। लेकिन आत्मा की कोई उम्र नहीं होती तो 7 या 70 साल को लेकर क्यों चिंता करना? और फिर उन्होंने मुझे तुलसी आरती का कीर्तन करने के लिए बोला। तुलसी कृष्ण प्रेयसी नमो नमः। और आप सभी को तो पता ही है कि यह आरती का गीत बहुत ही गजब का है। अगर हम क्या गा रहे हैं यह समझ पाए तो जान जाएंगे कि यह बहुत ही गजब का गीत है।
ये तोमार शरण लय, तार वांच्छा पूर्ण हय ।
कृपा करि कर तारे वृंदावनवासी।।
है तुलसी आप प्रेयसी हो, आप भगवान को बहुत ही प्रिय हो। राधाकृष्ण सेवा पाबो एइ अभिलाषी ।। और यह मेरी अभिलाषा है कि मुझे भी राधा कृष्ण की सेवा प्राप्त हो। तुलसी कृष्ण प्रेयसी नमो नमः। ऐसे ही यह गीत चल रहा था।
मोर एइ अभिलाष, विलास कुंजे दियो वास । मेरी और एक इच्छा है कि आप जहां पर रहती हो यानी वृंदावन के कुंजो में , कृपा करके मुझे भी उन कुंजो में कुछ जगह दो। हरि हरि। भगवान श्री कृष्ण उनका अधिकतर समय इन कुंजो में व्यतीत करते है। सब गोपिया और राधा रानी के मध्य में भगवान यहां पर लीला करते हैं। मुझे भी वहां पर रहने का सौभाग्य प्रदान करें क्योंकि आप वहां की देवी हो। हरि हरि। यह विचार मेरे मन में आया था जो मैंने आपको बताया। मोर एइ अभिलाष, अमेरिका देशे दियो वास । हे तुलसी महारानी मुझ पर दया करके मुझे अमेरिका देश का वास दीजिए। मैंने वीजा के लिए निवेदन दे दिया है। मेरा वीजा मान्य हो जाए ताकि मैं अमेरिका जा पाऊं। मैं अब भारत में रह कर थक चुका हूं। ऐसे ही प्रार्थना होती रहती है। एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर। श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु की यह इच्छा है कि,
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं
रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।
श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।।
(चैतन्य मंज्जुषा)
अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है – यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है ।
गौरांग! आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हे, वृंदावन धाम की पूजा कर रहे हैं और उसी के साथ बृजेंद्र नंदन की भी पूजा कर रहे हैं। रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता । और गोपीयां जो अलग-अलग भाव में है जैसे वात्सल्य रस और माधुर्य रस। गोपीभाव या राधाभाव जो कि सर्वोत्तम है। जो बाजार भाव से भिन्न है।
एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर ।
सेवा अधिकार दिये कर निज दासी ।।
मुझे भी इस काबिल बनाईये , हे कृष्ण प्रेयसी तुलसी महारानी। ऐसे ही तुलसी आरती चलती रही और उसके बाद उससे भी अच्छा
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे महामंत्र का कीर्तन भी हुआ। मंदिर के भक्त और विशेषता गुरुकुल के विद्यार्थी उसमें नृत्य कर रहे थे जो मुझे अभी याद आया। यह तुलसी आरती का कीर्तन भी हरे कृष्ण महामंत्र में समाविष्ट है। इतना ही नहीं सारे गीत हरे कृष्ण महामंत्र में समाविष्ट हुए है। सारी प्रार्थनाएं महामंत्र के कीर्तन में समाविष्ट हुई है। सारे मंत्र एक ही मंत्र में समाविष्ट हुए है। हम बंद्ध हैं हम सारे मंत्र याद नहीं रख पाते है तो कोई बात नहीं केवल एक मंत्र का जप कीजिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे आपको सारे मंत्रों का जप करने का फल प्राप्त होगा। हरि हरि। जब हम हरे हरे या कृष्ण कृष्ण कहते हैं तो हम सब कुछ बोल देते है। हरे यानी राधा रानी के बिना भगवान अपूर्ण है। शक्ति और शक्तिमान! जब हम शक्तिमान कहते हैं तो उसकी शक्ति यानी राधारानी महत्वपूर्ण है। वैसे भगवान की कई सारी शक्तियां है लेकिन जब हम हरे कृष्ण बोलते हैं या राधा कृष्ण बोलते हैं तो उसमें सबकुछ समाविष्ट है। मंगल आरती के बाद में मंदिर के पीछे गया जहां पर हमने भगवान महाप्रभु के नित्यानंद प्रभु के और विश्वरूप प्रभु के चरणकमल प्राणप्रतिष्ठित किए हुए है। वहां पर मैंने और एक बार छोटी सी आरती गाई और धूप और फूल अर्पण किए। और उसके बाद उन चरण कमलों की प्रदक्षिणा भी की!
पंढरपुर धाम की जय! यहां पर नित्यानंद प्रभु सबसे पहले आए थे और यही पर उनकी दीक्षा भी हुई थी। मुझे कई बार यह याद आता है कि बलराम होईले निताई भगवान बलराम भी कई बार पंढरपुर आए थे उसके बाद जब वह नित्यानंद प्रभु थे तब भी पंढरपुर धाम आए थे। मैं अभी उस धाम में हूं जहां पर नित्यानंद प्रभु आए थे, और उसके बाद विश्वरूप प्रभु भी आए थे। जगदीश्वर प्रभु ने सन्यास लिया और नवद्वीप का त्याग किया था तो वह पूरा संसार का भ्रमण करके पंढरपुर धाम में आए। तब उनका नाम शंकरारण्य स्वामी था। उन्होंने यहां पर कुछ लिलाए की लेकिन हमें उसके बारे में कुछ पता नहीं और सारी लीला करके उन्होंने यहीं पर अपनी आखरी लीला की और वह भगवत धाम लौटे। उसके बाद महाप्रभु भी आए जिन्होंने सन्यास लिया हुआ था और वह भी सारे संसार का भ्रमण कर रहे थे। वे भी पंढरपुर धाम में आए और यहां पर श्रीरंगपुरी से मिले, वे उनके सात दिन सात रात बैठे रहे। और उसी के साथ महाप्रभु ने चंद्रभागा में स्नान भी किया जो गंगा से अभिन्न है। गंगा मैया की जय! महाप्रभु हमेशा दौड़ते रहते थे कभी चलते नहीं थे या फिर कीर्तन किया करते थ और भगवान की दिशा में हमेशा दौड़ते थे । पांडुरंग पांडुरंग! और वह विट्ठल मंदिर के दर्शन मंडप में गए, उन्होंने दर्शन लिया। यहां पर भगवान का उनके चरण कमलों को स्पर्श कर के दर्शन लेने की प्रथा है। लेकिन हम ऐसा जगन्नाथ मंदिर में नहीं कर सकते। हरि हरि। लेकिन उन्होंने यह विट्ठल मंदिर में किया और भगवान के सामने उसी के साथ नृत्य करते हुए कीर्तन भी किया। मैं कह रहा था कि यहां पर इस्कॉन पंढरपुर में हमने महाप्रभु , नित्यानंद प्रभु और विश्वरूप प्रभु के चरण कमल प्राण प्रतिष्ठित किए हुए हैं।मंगल आरती का समय बहुत ही विलोभनीय था। जो कि मैं अभी अभी याद कर रहा था और उसी के साथ चैतन्य चरितामृत की प्रार्थना है जो कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने लिखी है,
कथञ्चन स्मृते यस्मिन्दुष्करं सुकरं भवेत्।
बिस्मूते विपरीतं स्यात् श्री-चैतन्यं नमामि तम् ।।
(चैतन्य चरितामृत आदि लीला 14.1)
अनुवाद: यदि कोई चैतन्य महाप्रभु का किसी भी प्रकार से स्मरण करता है, तो उसका कठिन कार्य सरल हो जाता है। किन्तु यदि उनका स्मरण नहीं किया जाता, तो सरल कार्य भी बड़ा कठिन बन जाता है। ऐसे चैतन्य महाप्रभु को मैं सादर नमस्कार करता हूँ।
कैसे भी करके हमें भगवान को याद करना ही होगा और उनके चरण कमलों का भी ध्यान करना होगा। ऐसा करने के बाद अगर कुछ बहुत कठिन कार्य है वह बहुत ही सरल हो जाएगा। हम उसे बहुत ही सरलता से कर पाएंगे। और उसी प्रार्थना में और आता है कि अगर हम भगवान का चरण कमलों का ध्यान नहीं करेंगे तो उसके विपरीत होगा जैसे कि कुछ बहुत ही सरल कार्य है वह भी बहुत कठिन हो जाएगा। आपको यह फरक समझ में आ गया होगा। मैं ऐसे महाप्रभु को मेरे प्रणाम समर्पित करता हूं। आज सुबह मैंने यह प्रार्थनाएं याद की और उसके बाद में चंद्रभागा के तट पर गया जहां पर गंगा नदी भी है। चंद्रभागा नदी गंगा नदी से अभीन्न है। भीमा आणि चंद्रभागा तुझ्या चरणीच्या गंगा ऐसी यहां पर एक प्रार्थना है। चंद्रभागा के तट पर मैंने मेरी प्रार्थना अर्पण की और जब में यह कर रहा था तब मेने सुना की, पांडुरंग पांडुरंग पांडुरंग विट्ठला! जहां पर मैं था वहां से कुछ मीटर दूर नदी के उस पार विट्ठल मंदिर में मंगल आरती चल रही थी। यह पांडुरंग विट्ठल जो स्वयं भगवान है वैसे तो राधा पंढरीनाथ भी भगवान हैं और महाप्रभु भी स्वयं भगवान है लेकिन यह पांडुरंग विट्ठल भगवान ने 5000 वर्ष पूर्व एक लीला की, जिसमें वह द्वारका से पंढरपुर आए। अब मेरा कीर्तन करने का समय हो गया है मुझे यह कथा रखनी पड़ेगी तो इसके बारे में और मैं नहीं बताऊंगा। भगवान ने यह यात्रा की द्वारका से पंढरपुर तक ताकि वह रुक्मिणी देवी को मना पाए। और उसके बाद भगवान एक भक्त को मिले जिसका नाम पुंडलिक था। पुंडलिक ने भगवान के चरण कमलों के प्रति एक प्रार्थना की कि, हे भगवान ! कृपा करके यहां पर रुक जाओ! और वह प्रार्थना बहुत ही दिल से हुई थी और भगवान तो अपने भक्तों के प्रेम के अधीन है।
श्रीभगवानुवाच अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥
(श्रीमद भागवत 9.4.63)
अनुवाद: भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ । निस्सन्देह , मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ । चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ । मुझे मेरे भक्त ही नहीं , मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं ।
भक्तपराधीनो भगवान स्वतंत्र नहीं है वे अपने भक्तों के अधीन हे। इसी वजह से भगवान ने यहां पर रुकने का निर्धार किया और भगवान यहां पर रुक गए!यहां पर जो पांडुरंग भगवान का विग्रह है वह विग्रह नहीं है, जो जयपुर या कहीं और जगह पर बनाया गया हो! वहां साक्षात भगवान है! जो यहां पर रुके है। उनकी आरती चल रही थी और मैं वह सुन रहा था। शंख बाजे घंटा बाजे और उसी के साथ गीत भी गाया जा रहा था। यह सब सुनकर में कृपासागर में गोते लगा रहा था! इसीलिए तो पंढरपुर को भूवैकुंठ कहा जाता है। वैकुंठ जो धरती पे है, द्वारका जो धरती पर है और उसी के साथ यह गोलोक भी है। पंढरपुर ही नहीं यहां पर गोपालपुर भी एक जगह है। हरि हरि। यह कुछ आज की, एकादशी की सुबह की यादें थी जो कि बहुत ही मंगलमय थी तो मैंने आपसे कही। हरि हरि। ठीक है। हमारे कीर्तन मिनिस्ट्री ने यह महोत्सव शुरू किया है, एकादशी श्रवण कीर्तन महोत्सव! हर एक एकादशी को हम यहां महोत्सव मनाएंगे। जो कि पहले ही 6 बजे शुरू हो चुका है। हमारे विश्वंभर प्रभु ने कुछ देर के लिए कीर्तन किया उसके बाद मैंने कथा की और अब आधे घंटे के लिए मैं आप सबके लिए और भगवान के लिए कीर्तन करूंगा। हमारे साथ बने रहिए। मेरे प्रिय गुरु भाई महात्मा प्रभु 1 घंटे के लिए जपा रिट्रीट देंगे जो अपने जपा रिट्रीट के लिए बहुत ही विख्यात हे। उसका लाभ लजिए।
हरे कृष्ण!
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जप चर्चा*
पंढरपुर धाम से
दिनांक २२ .०२.२०२१
ओम नमो नारायणाय।
हरि हरि ।।
714 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
प्रतिदिन या तो कोई चुनौती प्राप्त होती है या कोई सुअवसर प्राप्त होता है।आज के दिन को सुअवसर ही कहना होगा क्योंकि आज का दिन बड़ा महान हैं।आज रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव है।रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव कि जय।हम इतने भाग्यवान है कि हमारे इतने पूर्व आचार्य हो चुके हैं।जीसस भगवान के सच्चे पुत्र रहे। किसी के जीसस है,किसी के मोहम्मद है,किसी के मोसेस है,किसी के इब्राहिम है तो किसी के सेंट पॉल है।ऐसे देश विदेश के धर्मावलंबियों के गिने-चुने आचार्य हैं।जिनका मैंने नाम लिया वह सारे संसार के पूर्व आचार्य रहे।श्रील प्रभुपाद कहते थे कि जीसस क्राइस्ट भी एक आचार्य थे।रामानुजाचार्य,मधवाचार्य,विष्णु स्वामी,निंबार्काचार्य जैसे भी अनेक आचार्य रहे हैं।बहुत समय बीत चुका है,पर यह भी दुनिया वालों को ज्ञान नहीं है।उनका इतिहास तो केवल 2000- 3000 साल पहले से ही शुरू होता है लेकिन यह काल की गन्ना भी अधूरी या गलत है। कई सदियां,कई युग और कई ब्रह्मा के दिन बीत चुके हैं।
हरि हरि।।
ब्रह्मा अब 50 वर्ष के हो चुके हैं। हम बड़े भाग्यवान हैं ,हम भाग्यवान हैं से पहले मैं कह रहा था कि हम हिंदू बहुत भाग्यवान है या हम गोडिय वैष्णव बहुत भाग्यवान हैं कि हमारे इतने सारे पूर्व आचार्य हुए। बहुत सारे महान भक्त हुए है इस संसार में,लेकिन वे सभी आचार्य केवल एक धर्म तक सीमित नहीं थे।जैसे ईसा मसीह केवल ईसाइयों के ही आचार्य नहीं थे,वैसे ही रामानुजाचार्य भी केवल हिंदुओं के लिए या श्री संप्रदाय के अनुयायियों के ही आचार्य नहीं थे। यह सभी आचार्य भले कहीं भी प्रकट हुए हो परंतु यह सभी ही इस संसार की संपत्ति हैं। इन सभी आचार्यों में या भक्तों में एक हुए रामानुजाचार्य।यहा एक कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि एक कहने से लगता है कि वह छोटे हो गए ।
हरि हरि।।
रामानुजाचार्य तिरोभाव महोत्सव सारे संसार को मनाना चाहिए। यह उनके संस्मरण का दिन है। राम- अनुज यह लक्ष्मण के अशांश रहे। राम अनुज या रामअनुज्ञ। जैसे लक्ष्मण जी गुरु है,बलराम जी गुरु है वैसे ही रामानुजाचार्य सारे संसार के गुरु हुए।यह लगभग 1000 वर्ष पूर्व की बात है।,1017 वह वर्ष है जिसमे रामानुजाचार्य प्रकट हुए और वह इस धरातल पर 120 वर्षों तक रहे।1137 वर्ष पहले आज ही के दिन उनका तिरोभाव हुआ।उनका तिरोभाव श्रीरंगम धाम में हुआ। श्रीरंगम धाम की जय।।
उनका जन्म चेन्नई के पास एक स्थान श्री पेरामबुदुर (तमिलनाडु) मे हुआ।उनके पिता का नाम केशव आचार्य था।केशव आचार्य पहले संतान विहीन थे।फिर वह पार्थसारथी भगवान के विग्रह के दर्शन करने चेन्नई गये।वहां मैं भी गया हूं ।पार्थ सारथी भगवान की जय ।।
दिल्ली में भी श्रील प्रभुपाद ने पार्थ सारथी भगवान के विग्रह की स्थापना की है,जिन विग्रहो का मैं भी पुजारी रह चुका हूँ।वहां जाकर उन्होंने पार्थ सारथी भगवान की विशेष आराधना की और उसका फल यह प्राप्त हुआ कि उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। और उनका नाम हुआ रामानुज। रामानुज अपनी माता के भ्राता के संपर्क में आए और उनके सत्संग से प्रभावित होने लगे और इस तरह वे श्री संप्रदाय के अनुयायी बनने लगे।उनके पिता ने रामानुज का विवाह कम उम्र में ही कर दिया। उनके पुत्र के विवाह के 1 साल के अंदर ही उनका देहांत हो गया। उस समय रामानुज ने अपनी पत्नी के साथ कांचीपुरम के लिए प्रस्थान किया। जिस कांचीपुर के वरधराज प्रसिद्ध है।जहां भगवान वरधराज की आराधना होती है। मैं भी गया हूं वहां। शिव कांची और विष्णु कांची दो कांचिया है वहां।कांची पूर्ण महाराज विष्णु कांची के वरधराज कि आराधना कर रहे थे,यानी वहां के आचार्य कांची पूर्ण महाराज थे। तो उस समय रामानुजाचार्य कांचीपूर्ण के संपर्क में आए और उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगे। कांचीपूर्ण रामानुजा के शिक्षा गुरु बन गए। उन्होंने कांची पूर्ण महाराज को अपने घर भिक्षा ग्रहण करने के लिए बुलाया। वह आए तो सही लेकिन वह थोड़ी जल्दी आए और प्रसाद ग्रहण करके प्रस्थान कर गए।कांची पूर्ण जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। वे किसी और जाति के थे। रामानुजाचार्य की धर्मपत्नी का जात पात में बड़ा विश्वास था। उसने कांची पूर्ण महाराज को भोजन तो खिलाया लेकिन जब उन्होंने वहां से प्रस्थान किया तो उनका जो जूठन था उसको ऐसे ही कहीं भी फेंक दिया ।नहाई धोई और फिर अपना भोजन बनाया। जैसे ही रामानुजाचार्य आए उनको थोड़ा अचरज हुआ कि उनके महाराज आए भी और भोजन करके प्रस्थान भी कर गए ।
हरि हरि।।
तो जैसे ही वह आए उन्होंने पूछा कि क्या कुछ महाप्रसाद रखा है मेरे लिए? उसने नहीं रखा था तो वह समझ गए कि उसने महाप्रसाद का क्या किया होगा। इस वाक्या से रामानुजाचार्य का अपनी पत्नी से नाराज होना प्रारंभ हो गया और धीरे-धीरे और भी कारण बनते गए। श्रीरंगम क्षेत्र के आचार्य यमुनाचार्य थे। अब उनके प्रस्थान का समय आ चुका था,वह यह जानते थे तो उन्होंने उनके एक शिष्य को जिसका नाम महा पूर्ण था, कांची पूर्ण भेजा और कहा कि रामानुज को बुलाकर लाओ। इन रामानुज के बारे में यमुनाचार्य ने खूब सुना था और वह इनसे बहुत प्रभावित थे और इनसे बहुत ही प्रसन्न थे। वो रामानुज को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। वह उनको श्रीरंगम के मठाधीश बनाना चाहते थे ।तो जब रामानुज को बुलाने महा पूर्ण गए तो इन महापूर्ण से भी रामानुज ने कुछ शिक्षा या दीक्षा प्राप्त की। इन महा पूर्ण महाराज के साथ भी रामानुजाचार्य की पत्नी का व्यवहार ठीक नहीं था। जैसे ही महा पूर्ण रामानुज को बुलाने आए रामानुज ने अपनी पत्नी को मायके भेज दिया और कांचीपुरम में सन्यास ले लिया।जब वे कांचीपुरम पहुंचे तो बहुत देर हो चुकी थी यमुनाचार्य ने अपना देह त्याग कर दिया था।रामानुज अभी रास्ते में ही थे तो वो भगवान की नित्य लीला में प्रविष्ट कर गए।
महा पूर्ण जब रामानुज को लेकर पहुंचे तो सभी ने देखा कि यमुनाचार्य के एक हाथ कि तीन उंगलियां बंद थी तो सभी को लग रहा था कि इसके पीछे क्या रहस्य है। रामानुज इस बारे में जानते थे ।रामानुज समझ गए कि यमुनाचार्य की कुछ अंतिम इच्छा थी और अधुरी थी इसलिए उन्होंने तीन उंगलियां बंद करके रखी थी। रामानुज संकल्प लेने लगे। पहला संकल्प यह था कि वेदांत सूत्र पर मैं श्री भाष्य लिखूंगा। ऐसा करते ही एक उंगली खुल गई। दूसरा संकल्प पूरे भारतवर्ष में विशिष्ट अद्वैत सिद्धांत का प्रचार प्रसार करूगा।दूसरा संकल्प लेते ही दूसरी उंगली खुल गई और तीसरा संकल्प यह कि श्री व्यास देव के गुरु श्रील पराशर का नाम अपने किसी अनुयाई को दूंगा।ताकि पराशर की कीर्ति फैलें। तीन संकल्प लेते ही तीनों उंगलियां खुल गई। फिर वहां से वह पुण: कांचीपुरम लौट गये।श्रीरंगम में यमुनाचार्य के वैकुंठ जाने के पश्चात वहां की व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं हो रही थी तो यमुनाचार्य के अनुयायियों की मांग थी कि यहां का प्रचार रामानुजाचार्य देखे।तो रामानुजाचार्य को पुनः बुलावाया गया।फिर वहां आकर उन्होंने श्रीरंगम मंदिर का कार्यभार संभाला।जैसे एक समय श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भी जगन्नाथ मंदिर के अध्यक्ष थे।
वह उस समय आचार्य तो नहीं थे,डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ही थे लेकिन जब उन्होंने देखा कि सब व्यवस्था सुचारू रूप से होती है तो उन्होंने कार्यभार संभाला।रामानुज अब आचार्य बन गए।रामानुज बन गए रामानुजाचार्य।रामानुज श्री संप्रदाय के आचार्य हैं जो कि लक्ष्मी जी से प्रारंभ होती हैं। यह संप्रदाय सृष्टि के प्रारंभ से ही चल रहा है और चलता रहेगा। चारों ही संप्रदाय जब से सृष्टि हुई तब से है।
sampradaya-vihina ye mantras te nisphala matah
atah kalau bhavisyanti catvarah sampradayinah
sri-brahma-rudra-sanakah vaisnavah ksiti-pavanah
catvaras te kalau bhavya hy utkale purusottamat
ramanujam sri svicakre madhvacaryam caturmukhah
sri visnusvaminam rudro nimbadityam catuhsanah
(10.16-22-26)
चारों संप्रदाय वैष्णव संप्रदाय भी कहलाते हैं। इसी श्री संप्रदाय के आचार्य बने रामानुजाचार्य।उन्होंने वेदांत सूत्र पर भाषण लिखा जिसका नाम भी रखा श्री भाष्य ।श्री लक्ष्मी जी का नाम है। तो जैसा उन्होंने संकल्प किया था या वादा किया था यमुनाचार्य को कि मैं ऐसा करूंगा तो उन्होंने संसार भर में या भारत वर्ष में प्रचार करा।पहले भारतवर्ष में नेपाल भी था,बर्मा भी था,श्रीलंका भी था,पाकिस्तान भी था, बांग्लादेश भी था,सब कुछ भारत में ही था । कलियुग की चाल है ये कि बांटो और शासन करो ।तो भारत के टुकड़े होते होते अब कुछ ही हिस्सा बचा है ,छोटा सा ही भूखंड जिसको हम अब इंडिया कहते हैं। रामानुजाचार्य ने सर्वत्र प्रचार किया। उनके प्रचार के लिए 7000 सन्यासी शिष्य थे,12000 ब्रह्मचारी शिष्य थे,गृहस्थ शिष्यों कि तो कोई गन्ना ही नहीं थी।उनके असंख्य गृहस्थ शिष्य थे।उनमें कई सारे राजा महाराजा भी थे, उद्योगपति भी थे।श्री संप्रदाय का प्रचार रामानुजाचार्य ने सर्वत्र किया।
हरि हरि।।
और यह सब करने का उद्देश्य या उनके प्राकट्य का ही उद्देश्य था अद्वैतवाद का खंडन।जैसा कल हम सुन रहे थे कि मधवाचार्य प्रकट हुए तो सभी वैष्णवाचार्यो के प्राकट्य का उद्देश्य या उनकी व्यवस्था जो भगवान ने की है वह यही हैं कि अद्वैतवाद का खंडन।अद्वैतवाद का मुख बंद करना। वही बात
नमस्ते सारस्वते देवे गौरवाणी प्रचारिणे
निर्विशेष शून्यवादि पाश्चात्यदेश तारिणे
(श्रील प्रभुपाद प्रणति)
उनका कहना है कि भगवान निराकार है,निर्गुण है। भगवान केवल ज्योति है ,रामानुजाचार्य का उद्देश्य इन सब का खंडन करना ही था।इन सब को चैतन्य चरितामृतम में मायावादी,कृष्ण अपराधी कहा गया है।
prabhu kahe,–“māyāvādī kṛṣṇe aparādhī
‘brahma’, ‘ātmā’ ‘caitanya’ kahe niravadhi
(CC Madhya 6.182)
यह बहुत बड़े अपराधी हैं और बहुत अपराध करते रहते हैं इनका कहना है कि हां हां भगवान तो है लेकिन उनका कोई रूप नहीं है,इस कथन पर प्रभुपाद लिखते हैं कि भगवान पूर्ण हैं और आप कहते हैं कि भगवान का रूप नहीं है तो भगवान पूर्ण है तो उनको कोई रूप तो होना ही चाहिए। उस पर यह कहते हैं कि वह भगवान तो है परंतु भगवान का कोई रूप नहीं है वे ब्रह्म ज्योति है ,वें भगवान तो है लेकिन वह चल नहीं सकते मतलब लंगड़े हैं भगवान। भगवान देख नहीं सकते मतलब अंधे हैं। अरे मूर्ख जब तुम देख सकते हो तो भगवान कैसे नहीं देख सकते ।भगवान ने तुमको आंखें दी है तो क्या भगवान की खुद की आंखें नहीं है ?यह सब अपराध के वचन कहते हैं ।
māyāvādam asac-chāstraṁ
pracchannaṁ bauddham ucyate
mayaiva vihitaṁ devi ka
(चेतनय चरित्रामृत मध्य लीला( 6.182))
असत्य शास्त्रों का जो प्रचार हुआ था,अभी-अभी हुआ था।कुछ 1200 वर्ष पूर्व शंकराचार्य ऐसे प्रचार करते आगे बढ़े ही थे तो कुछ 200 सालों के उपरांत इन चार वैष्णव आचार्यो में से प्रथम आचार्य रामानुजाचार्य ने इन सब बातों का खंडन करने के लिए वैष्णव सिद्धांत की स्थापना की। उनका भगवद्गीता पर भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है ।वह भी भगवत गीता यथारूप ही है। श्रीरंगम में रामानुजाचार्य लगभग 50 से 60 वर्ष तक रहे।अपनी आयु का अधिकतर समय उन्होंने श्रीरंगम में ही बिताया। उन्होंने श्रीरंगम को अपना मुख्यालय बनाया, जहां श्रीरंगम भगवान की आराधना होती है। रामानुज संप्रदाय के वैष्णव वृंद लक्ष्मी नारायण के आराधक होते हैं। आज के दिन उन्होंने भी एक उत्तराधिकारी का चयन किया।रामानुजाचार्य की जीवनी तपनामृत नामक ग्रंथ में है। अगर आप इससे कहीं प्राप्त करो तो इसे पढ़ सकते हो। रामानुजाचार्य कि और भी कई जीवनिया हैं।
हरि हरि।।
जब उनके शिष्य उनके प्रस्थान कि तैयारी कर रहे थे तो उन्होंने अपना सिर गोविंद नाम के अपने एक अनुयाई की गोद में रखा,1 शिष्य
कि गोद में उनके चरण थे और यमुनाचार्य कि मूर्ति को सामने रखकर वे अपने गुरु महाराज का स्मरण कर रहे थे और इतने में उनके शिष्य, उनके अनुयायी जिनको यह समाचार मिला कि अब वह प्रस्थान कर रहे हैं,भगवद्धाम लौट रहे हैं,वहां पहुंचने लगे।वह सभी रामानुजाचार्य का और भगवान का भी ईष्टोगान कर रहे थे।
नारायण नारायण नारायण।।
लक्ष्मी नारायण नारायण नारायण।।
आज ही के दिन,अपनी तिरोभाव तिथि के दिन ऐसी परिस्थिति में उन्होंने प्रस्थान किया और रामानुजाचार्य के विग्रहों का आप आज भी दर्शन कर सकते हैं। उनको समाधि स्थित तो किया गया किंतु उनकी वपू को जैसे जमीन में गड्ढा होता है वैसे नहीं बिठाया गया है। श्रीरंगम मंदिर के ही आंगन में रामानुजाचार्य के विग्रह रखे गए हैं ।उनको वहा सुरक्षित और संभाल कर रखा गया है। आप उनके दर्शन कर सकते हैं। मुझे भी कई बार उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हम एक बार वहां पदयात्रा भी लेकर गए थे ।वहां पर यात्रियों का बहुत स्वागत हुआ था। चैतन्य महाप्रभु ने रामानुजाचार्य संप्रदाय से दो बातों को स्वीकार किया। एक तो रामानुजाचार्य संप्रदाय की भक्ति।,शुद्ध भक्ति।
अन्य अभिलाषीता शुंयम्
ज्ञान कर्मादि अनावृतम्
अनुकूलेन कृष्ण अनुशीलनम्
भक्ति उत्तमा। ।
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.167)
ऐसी भक्ति जो कर्म और ज्ञान मिश्रित ना हो। एक कर्म मिश्रित भक्ति होती है और एक ज्ञान मिश्रित भक्ति होती है। लेकिन वह शुद्ध भक्ति नहीं कहलाती किंतु रामानुज ने जो भक्ति सिखाई वह शुद्ध भक्ति थी। चैतन्य महाप्रभु ने अपने संप्रदाय में शुद्ध भक्ति को स्वीकार किया और दूसरी बात है संतों कि सेवा या भक्तों कि सेवा, वैष्णो कि सेवा या दासानुदास भाव। चैतन्य महाप्रभु ने इस भाव पर बहुत जोर दिया हैं।
trinad api sunicena
taror api sahishnuna
amanina manaden
kirtaniyah sada harihi
(शिष्टाकम श्लोक-३)
दूसरों का सम्मान करो। इस संप्रदाय में रामानुजाचार्य कि शिक्षा है कि भक्तों का,संतों का सम्मान करो। सभी का सादर सत्कार,सम्मान और सेवा होती है इस संप्रदाय में। और इसके विपरीत होता है वैष्णव अपराध,वैष्णव निंदा। रामानुजाचार्य के श्री संप्रदाय में वैष्णव निंदा का या वैष्णव अपराध का कोई स्थान नहीं था या कोई स्थान नहीं हैं । इस बात को महाप्रभु ने गोडिय वैष्णव संप्रदाय में स्वीकार किया। हमें भी रामानुजाचार्य के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। ताकि हम भी शुद्ध भक्ति करके यह सीख सके कि भगवान की भक्ति नहीं करनी है बल्कि भगवान के भक्तों कि भक्ति और सेवा करनी है।
हरि हरि ।।
जैसे भगवान कि भक्ति करते हैं ऐसे ही गुरु और वैष्णवो कि भी भक्ति करनी है।यह सिद्धांत भी है और यह वेदवानी भी है ।
हरि हरि।।
रामानुजाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय ।।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
21 फरवरी 2021
हरे कृष्ण! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आज हमारे साथ 560 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। उसमें मायापुर, वृंदावन, नागपुर, अमरावती, भुवनेश्वर, नोएडा, थाईलैंड ऐसे सब जगह से भक्त सम्मिलित हुए है। सम्मिलित होने के लिए आपका धन्यवाद! आपने हमें और उनको संग दिया हमने भी आपका और बाकी लोगों ने भी आपका संग लिया इसके लिए साधुसंग या सत्संग के लिए धन्यवाद! हरि हरि।
तो हम बड़े भाग्यवान है सारा संसार भाग्यवान है, वैसे संसार को भाग्यवान बनाया जाता है।
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव।
गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति-लता-बीज।।
( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१ )
अनुवाद:- सारे जीव अपने- अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह-मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह- मंडलों को।
ऐसा हम सुनते रहते है लेकिन, आज श्रील माध्वाचार्य तिरोभाव तिथि है। माध्वाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! भगवान हमें छप्पर फाड़ के साधु संग दे रहे है। महात्मा या आचार्य को भगवान हमेशा भेजते रहते हैं और उनके कारण इस संसार का और संसार के जीव के भाग्य का उदय होता है। तो ऐसे ही हम सभी के भाग्य का उदय कराने वाले माध्वाचार्य रहे। श्रील माध्वाचार्य की जय! जो हमारे भी पूर्व आचार्य है। आचार्य तो सारे संसार के होते है। वैसे चार संप्रदाय है, उसमें से ब्रह्म मध्व आता है और हम गौड़ीय संप्रदाय जो कि एक प्रामाणिक संप्रदाय है उसके अनुयाई है। तो जन्म लेना और फिर इस प्रामाणिक संप्रदाय के संपर्क में आना यह बड़े भाग्य की बात है! तो हम भी जो अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के सदस्य है, हम सभी का संबंध माध्वाचार्य से है। वे हमारे भी पूर्व आचार्य है। क्योंकि हमारी परंपरा ही है ब्रह्म मध्व गौड़ीय संप्रदाय है। ब्रह्म मध्व और फिर गौड़ीय कहते है। क्योंकि स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उस में प्रकट हुए इसलिए हमारे परंपरा का नाम हुआ ब्रह्म मध्व गौड़ीय संप्रदाय। वैसे मैं हमेशा सोचता रहता हूं जैसे भगवान कहते हैं
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||
भगवतगीता ४.७
अनुवाद:- हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
जब-जब धर्म कि ग्लानि होती है, जो कि संसार में हमेशा धर्म की ग्लानि होती ही रहती है। यह काल का प्रभाव है।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदः |
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||
भगवतगीता ४.२
परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, योगविद्या; नष्टः- छिन्न-भिन्न हो गया; परन्तप- हे शत्रुओं को
दमन करने वाले, अर्जुन |
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे
समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया
लगता है |
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप तो जब जब धर्म को ग्लानि आती है तब मैं प्रगट होता हूं। और प्रगट होकर क्या करता हूं? धर्म की स्थापना करता हूं! तो धर्म की ग्लानि होती है तो भगवान भी प्रगट होते है। और उसी बीच उस के मध्य में भगवान अपने विशेष भक्तों को विशेष शक्ति और बुद्धि प्रदान करके इस संसार में भेजते रहते है। तो ऐसे भक्तों को या अचार्य को साक्षात हरि को, आचार्य के रूप में भगवान भेजते हैं साक्षाद्धरित्वेन तो उन में माध्वाचार्य भी ऐसे आचार्य या साक्षात हरि है। और वैसे वे वायु देवता के अवतार माने जाते नहीं, है ही! हमें यह मानना पड़ेगा! माध्वाचार्य के रूप में भगवान वायु देवता को भेजे। वायु देवता जो देवताओं में भी वायु देवता बड़े बलवान है। तो वैसे ही माध्वाचार्य ने अपने बल का प्रदर्शन किया और उसी के साथ इस संसार को प्रभावित किया। हरि हरि। तो इस संसार की उस समय जो तत्कालीन विचारधारा थी या कली का प्रभाव था तो श्रील माध्वाचार्य ने मायावादी सिद्धांत का खंडन करते हुए ऐसा जबरदस्त प्रचार किया कि, जिस अद्वैतवाद का प्रचार आदि शंकराचार्य ने प्रारंभ किया और चैतन्य महाप्रभु ने कहा
जीवेर निस्तार लागि” सुत्र कैल ब्यास।
मायावादि-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश ॥
चैतन्य चरितामृत मध्य लीला ६.१६९
अनुवाद:- श्रील व्यासदेव ने बद्धजीवों के उद्धार हेतु वेदान्त-दर्शन प्रस्तुत किया, किन्तु यदि कोई व्यक्ति
शंकराचार्य का भाष्य सुनता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है।”
मायावादि-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश तो ऐसा सर्वनाश, विनाश हो रहा था उसको अंकुश लगाने हेतु भगवान के प्रयास जारी थे। इसीलिए भी इस उद्देश्य से भी उन्होंने एक के बाद एक चार महान आचार्य को इस संसार में भेजा। जो थे रामानुजाचार्य और माध्वाचार्य और विष्णु स्वामी और निंबाकाचार्य जो सभी के सभी दक्षिण भारत में प्रकट हुए और भगवान उत्तर भारत में प्रकट हुए है जैसे कि वृंदावन में, अयोध्या में और गया में बुद्ध प्रकट हुए। जय श्री राम, जय श्री कृष्ण! और चैतन्य महाप्रभु भी उत्तर भारत के ही है, पूर्व भारत भी उत्तर भारत का ही एक अंग है। तो भगवान के अवतार उत्तर भारत के और भगवान के जो आचार्य जो भगवान द्वारा विशेषता भेजे हुए थे वह दक्षिण भारत में प्रकट हुए या भगवान ने उनको प्रगट करवाया! और हो सकता है शंकराचार्य भी दक्षिण भारत में ही जन्मे थे और वहीं से उन्होंने प्रचार प्रारंभ किया। अद्वैतवाद का प्रचार! और उसी दक्षिण भारत में आचार्यों को जन्म देकर उस मायावाद या अद्वैतवाद के सिद्धांत को परास्त करने हेतु भगवान की योजनाएं थी ऐसे हम कहते रहते है। तो यह सब भगवान ही जाने। तो माध्वाचार्य, उड़पी में उनका जन्म हुआ उड़पी कृष्ण की जय! जो उड़पी कृष्ण के लिए प्रसिद्ध है और जो कृष्ण का नाम है। कर्नाटक में अरबी समुद्र के तट पर ही है यह धाम जो माध्वाचार्य का पीठ रहा। तो वहां से कुछ ही दूरी पर 10 या 15 किलोमीटर की दूरी पर है माध्वाचार्य का जन्म स्थान। जहां जाने का मुझे कई बार अवसर प्राप्त हुआ, हम एक बार यात्रा भी लेकर गए थे। शिवांगी माताजी को याद है। हरी हरी। तो वहां के जन्मे माध्वाचार्य, जब वे आचार्य हुए और माध्वाचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। वे जब जन्मे तब उनके पिता श्री ने उनका नाम रखा वासुदेव और फिर दीक्षा हुई तो उनका नाम पूर्ण प्रज्ञ हुआ और फिर और दीक्षित हुए सन्यास दीक्षा भी लिए शास्त्रार्थ में किसी को परास्त किए, किसी घमंडी पंडित को तो उन्हे आनंद तीर्थ यह उपाधि दी गई। ऐसे अलग-अलग नामों से माध्वाचार्य जाने जाते है। वासुदेव, पूर्ण प्रज्ञ, जो नाम भी बढ़िया है। ज्ञ मतलब जानकार या ज्ञानवान। इसीलिए प्रज्ञ कहना ही पर्याप्त था लेकिन आगे भी पूर्ण जोड़ दिया तो फिर उस प्रज्ञता की पूर्णता भी हुई। तो वह 5 साल के ही थे तब उनकी ब्राह्मण दीक्षा हुई थी। हरि हरि।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||
भगवतगीता १८.४२
अनुवाद:- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं |
यह सारे गुण और लक्षणों का उनमें प्रदर्शन था आज कल जब किसी को ब्राह्मण बनाते है तो मंदिर के अध्यक्ष उनकी शिफारस करते है कि इन्हें ब्राह्मण बनाओ, मंदिर में पुजारी कम है! वैसे कलयुग में कहते हैं कोई जनेऊ धारण किया तो वह ब्राह्मण बन गए जो कि आप अठन्नी या चवन्नी में खरीद सकते हो। तो ऐसे ब्राह्मण नहीं थे। ब्राह्मण के सारे लक्षण जब वे 5 साल के थे तब उनमें प्रगट हुए और उनकी ब्राह्मण भिक्षा हुई और जब वह 11 साल के हुए तो उन्होंने घर को त्याग दिया और उड़पी के लिए प्रस्थान किए। आपकी साल या आपकी उम्र क्या होगी? 70 साल के होंगे आपने ऐसा कुछ किया है? सन्यास सन्यास कहते हुए आप उसी मायाजाल में अटक जाते है। लेकिन जब माध्वाचार्य केवल 11 साल के थे तो उन्होंने घर छोड़ कर उड़पी को प्रस्थान किए और जब 12 साल के थे तब उन्होंने औपचारिक दृष्टि से उन्होंने सन्यास ग्रहण किया। तो उनके जमाने में उनकी विद्वत्ता की बराबरी करने वाला शायद ही कोई था। एक पंडित आ गए और शास्त्रार्थ करना चाहते थे तो उड़पी में ब्राह्मणों की सभा बुलाई गई और उन्होंने कहा कि मैं शास्त्रार्थ का प्रस्तुतीकरण करूंगा और आप में से कोई है ?जो इसके जवाब दे उत्तर दे या उसमें कुछ दोष ढूंढ के दिखाओ तो सही! ऐसा कोई है तो यह पंडित तीन दिवस बोलते रहे या बकते रहे। और फिर 3 दिनों के उपरांत पूर्ण प्रज्ञ को बोलने का अवसर दिया जिनकी उम्र अभी 12 साल थी लेकिन थे वे पूर्ण प्रज्ञ तो मधु आचार्य थे श्रुतिधर जो भी वह सुन लेते थे वह उसको धारण करते थे। जिसको हम कहते हैं फोटोग्राफिक मैमोरी। कैसी मैमोरी? फोटोग्राफिक मैमोरी। आपने कैमरे से फोटो खींचा, तो उसकी जो फिल्म है। वह धारण करती है जिसका भी फोटो खींचा, 50 सालो के उपरांत। तो उनकी फोटोग्राफिक मैमोरी थी। तो मध्वाचार्य ने इस पंडित ने जो-जो बातें कही थी। वही सभी बातें हुबहू एक के बाद एक वह स्वयं कहे और फिर एक-एक बात का उन्होंने खंडन किया। उस पंडित को हराया, परास्त किया और वहां जो उस सभा में विद्वानों से खचाखच भरा था। मध्वाचार्य के प्रतिउत्तर से सभी विद्वानों का समाज अति प्रसन्न और प्रभावित हुआ। उस समय की बात है, यह कुछ 800 वर्ष पूर्व की बात है। जब मध्वाचार्य इस धरातल पर रहे, कुछ 800 वर्ष पूर्व। जब माध्वाचार्य ने उस शास्त्रार्थ में उन पंडित को परास्त किया। यह उस शहर का बहुत प्रचलित बात बन गई। केवल उडुपी ही नहीं, कर्नाटक ही नहीं, सारे संसार भर में मध्वाचार्य का जो विजय हुआ उसका बोलबाला चल रहा था। मध्वाचार्य का यश इस प्रकार सर्वत्र फैलने लगा। हरि हरि। आप चरित्र पढ़िएगा न, सुनिएगा मध्वाचार्य का, आज ही पढ़िए दिन में सुनिए, आपस में चर्चा कीजिए। हरि हरि। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा था वैसे निम्बार्काचार्य को कहे थे। यह चारों वैष्णव संप्रदाय के आचार्य हैं। एक-एक करके जब वह इस धरातल पर थे। दक्षिण भारत में प्रकट हुए थे। उन सभी ने मायापुर की यात्रा की थी। वह सभी नवदीप आए थे और सभी को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दर्शन दिया था। सभी को चैतन्य महाप्रभु का साक्षात्कार हुआ था। चैतन्य महाप्रभु की वहां लीला हुई थी।
अद्यपि सेइ लीला करे गौर-राय कोण कोण भाग्यवान देखिबारे पाये
(श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा रचित नवद्वीप महात्मय प्रमाण खंड)
अद्यपि इसका कहने का अर्थ है यह भी निकालते हैं हम कि आज भी चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए और अंतर्धान भी हुए और उसके उपरांत भी अद्य अपि यहां मतलब नवदीप में। जब आचार्य नवद्वीप पहुंच रहे थे। चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पहले। लीला करे गौर-राय यह प्रकट लीला के पहले भी भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। नवद्वीप में लीला कर रहे थे। प्रकट लीला के उपरांत फिर नित्य लीला अब भी चल रही है। मुझे क्या कहना था और मैं कहां से कहां पहुंच गया। तो निम्बार्काचार्य से जब मिले श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और उनको दर्शन दिए। तो उन्होंने कहा था कि मैं इन चारों संप्रदायो से 2-2 विशेष उन संप्रदाय के गुणों को स्वीकार करूंगा और इस गौडीय वैष्णव संप्रदाय को मै समृद्ध करूंगा। मध्वा संप्रदाय से उन्होंने दो बातें ग्रहण की अपने संप्रदाय में उसका समावेश हुआ। तो वह दो बातें हैं एक है विग्रह आराधना, अर्चना। मध्वाचार्य उडुपी कृष्ण, कृष्ण की आराधना के लिए प्रसिद्ध थे। वहां की अर्चना प्रारंभ की और मध्वाचार्य ने ही स्थापना की और जिस विधि विधानो और भक्ति भाव के साथ विग्रह की आराधना वहां होती रही। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चाहते थे वैसे ही आराधना गौडीय वैष्णव संप्रदाय के भक्त भी करें और दूसरा था यह मायावाद का खंडन। शत दूशडी नामक यह ग्रंथ लिखे हैं मध्वाचार्य जिसमें उन्होंने 100 अलग-अलग प्रकार से खंडन किया है। मायावाद का खंडन उस सूची में 100 प्रकार से उन्होंने परास्त किया। इस बात से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बड़े प्रसन्न थे। तो यह मायावाद के खंडन की बातों का उन्होंने स्वीकार किया। इसीलिए फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा मायावाद भाष्य सुनिले हुइला सर्वनाश। यह कहां से उन्होंने प्रेरणा ली है? मध्वाचार्य से। मध्वाचार्य भी ऐसा प्रचार करते थे। इसीलिए मध्वाचार्य जो वेदांत पर भाष्य लिखें, वह भाष्य या वेदांत के ऊपर सिद्धांत लिखें वह वेदांत का भाष्य वेद या सिद्धांत कहलाता है। आचार्यो ने वेदांत पर टीकाएं लिखी। हरि हरि। द्वैत मतलब दो हैं। मध्वाचार्य का जब हम चित्र देखते हैं, उनकी आप उंगलियां देखोगे तो दो दिखाया हुआ है। कैसे देखोगे? दो। दो मतलब हम दो हैं, एक मैं भी हूं और दूसरे भगवान हैं। हम तो हैं, मैं भी हूं और भगवान भी हैं। मैं भी रहूंगा और भगवान की सदा के लिए रहेंगे। यह नहीं कि अभी मैं हूं लेकिन अब जोत में जोत मिलाऊंगा तो एक ही हो जाएंगे – अद्वैत। यह समस्या है, मोटा-मोटी यह समस्या खड़ी की शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत ने। हमारा लक्ष्य क्या है? एक होना, ब्रह्म होना। अहम् ब्रह्मास्मि तुम ब्रह्म हो लेकिन तुम परम ब्रह्म नहीं हो, ऐसा भी उत्तर है। परब्रह्म का अंश ब्रह्म, अहम् ब्रह्मास्मि उदासो अस्मि दास ब्रह्म है। शास्त्रों में कहा है विभु आत्मा और अणु आत्मा, दोनों आत्मा ही है, दोनों ही ब्रह्म है। एक विभु आत्मा है, महान आत्मा है, परमात्मा है और दूसरी अणु आत्मा है, अणु बम भी होता है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||
(श्रीमद्भगवद्गीता 15.7)
भावार्थ –
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
यह भी एक सिद्धांत है। इसी के साथ भी मायावाद का खंडन हुआ। मायावाद परास्त हुआ। श्रीभगवान उवाच भगवान कहते हैं कि हे जीव तुम मेरे अंश हो और कब तक अंश रहोगे? सनातन। तो जीव जागो। बेशक गीता में सभी उत्तर हैं। भगवत गीता में मायावाद का खंडन खंडन ही है। यह जो कहा है हे जीव तुम मेरे अंशु हो और तुम सनातन हो। सदा के लिए जीव रहोगे या अंश रहोगे। मैं हूं अंशी और तुम हो अंश। अंशी के अंश हैं सनातन सदा के लिए। हे अर्जुन! अभी तुम हो, मैं भी हूं और राजा भी हैं। हम सब थे भी और रहेंगे भी। यहां से भगवत गीता प्रारंभ हुई। तो हमारा नष्ट होना या हमारा अस्तित्व, हमारे व्यक्तित्व का अस्तित्व समाप्त होने की बात ही नहीं है। भगवान भी व्यक्ति हैं, हम भी व्यक्ति हैं और हम सदा के लिए रहेंगे ऐसे व्यक्ति। बात तो सरल है ना, कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन सीधे लोगों के लिए यह बात सरल है। जो उल्लू के पट्ठे हैं उनका दिमाग और ढंग से चलता है। सीधी बात है। मायावाद भाष्य सुनिले हुइला सर्वनाश। जिन्होंने मायावाद भाष्य सुनाया उन्होंने भी तो कहा मायावादम् असत शास्त्रं स्वयं शंकर कहे पार्वती से। हे देवी! मैं अब प्रकट होने वाला हूं। केरल में कालडी नाम के स्थान पर मैं प्रकट होऊंगा। ठीक है तो क्या करोगे आप? मैं मायावाद का प्रचार करूंगा। कैसा है मायावाद? मायावादम् असत शास्त्रं यह सत शास्त्र नहीं है स्वयं शंकर कहे कि मैं शंकराचार्य बनके, अब शंकर हूं और मैं शंकराचार्य बनूंगा और यह सब में भगवान के आदेश के अनुसार कर रहा हूं। मायावादम् असत शास्त्रं। तो मध्वाचार्य यह सब सिद्ध किए। इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने मायावाद का खंडन की बातों का स्वीकार किया। मध्वाचार्य संप्रदाय से अपने संप्रदाय में और उसी परंपरा में श्रील प्रभुपाद के प्रवचन सुनो, उनके तात्पर्य पढ़ो। तो आप सर्वत्र देखोगे मायावाद का खंडन करते हुए कई बातों का खंडन करना पड़ा, करना पड़ता है। जो-जो भगवान के विरोधी हैं भगवान के विरुद्ध करने वाली बातें हैं जिसको वाद कहते हैं। इस संसार में वाद-विवाद चलता है। फिर साम्यवाद भी है। कई सारे वाद हैं। मायावाद, फिर गांधीवाद आ जाता है l वाद ही वाद, वाद-विवाद और नवीनतम क्या है? व्यक्तिवाद (इंडिविजुअलिज्म) हर व्यक्ति जत मत तत पथ जितने मत हैं उतने पथ बन रहे हैं और फिर क्या होता है?
मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे ।।
(वायु पुराण)
अनहर मुंड या पिंड यानी दिमाग से अलग-अलग विचारधारा और हर व्यक्ति सोचता है यह सारी बातें सही हैं। जो मेरी बात है सच ही होगी। तो श्रील प्रभुपाद भी कट्टर विरोधी थे मायावाद के। जैसे मध्वाचार्य थे, फिर चैतन्य महाप्रभु भी थे। प्रकाशानंद सरस्वती के साथ वाराणसी में चैतन्य महाप्रभु ने शास्त्रार्थ किया। प्रकाशानंद सरस्वती के 60000 फॉलोअर्स थे। तो आप कल्पना कर सकते हो, एक दृश्य से बड़े थे महान थे। किंतु चैतन्य महाप्रभु ने बाएं हाथ का खेल एक बार में उनको लेटाया, परास्त किया और एक ही बैठक के अंत में प्रकाशानंद सरस्वती और उनके 60 हजार शिष्यों ने हार मान ली और चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांतों को स्वीकार किया और सभी गौडीय वैष्णव बन गए। हरि बोल। अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ, श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित यह संघ के कार्य का परिणाम या फल वैसा ही है।
नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले, श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामिन इति नामिने ।
नमस्ते सरस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे,
निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ।।
पाश्चात्य देश से शुरुआत हुई
और पौरवात्य देशो में भी देशवासियों की उन्होंने रक्षा की। कैसे? प्रभुपाद ने क्या किया? गौर वाणी का प्रचार करके। निर्विशेषवाद और शून्यवाद से रक्षा की। यह संसार और कई वाद विवाद की लंबी जो सूची हैं। उसने बड़े बड़े वाद कौन से हैं? शून्यवाद बुद्ध देव जिसका प्रचार किए। उनको करना पढ़ा उस परिस्थिति में, इमरजेंसी थी। दूसरा निर्विशेषवाद तो मध्वाचार्य का कार्य, मायावाद का खंडन का कार्य। यह श्रीकृष्णभावनामृत संघ कर रहा है और हम सभी सदस्य हैं इस हरे कृष्णा आंदोलन के। हमारा भी फर्ज बनता है या हम कह सकते है कि मध्वाचार्य के प्रसन्नता के लिए मायावाद के खंडन की बातें करेंगे। मायावाद का विरोध करेंगे और मायावाद को परास्त करेंगे। अपने जीवन से और जहां जहां मायावाद का प्राकट्य प्रदर्शन दिखता है तो वहां वहां। मध्वाचार्य के चरणों में यह श्रद्धांजलि। उनकी प्रसन्नता के लिए यह उचित सेवा और श्रद्धांजलि होगी। इन्हीं शब्दों के साथ अपने वाणी को विराम देते है।
श्रील मध्वाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक २०.०२.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ५६२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं।
मेरे पास आज समय कुछ कम है। इसलिए चर्चा कहां से प्रारंभ की जाए? मुख्य बिंदु पर आते हैं। मुझे पता नहीं था लेकिन आज प्रातः काल ही पता चला कि आज भीष्माष्टमी है, नहीं तो षड् गोस्वामी वृंदों के संबंध में और कुछ आगे कहने का सोच रहा था। इतने में भीष्माष्टमी के विषय में पता लगा। भीष्म पितामह की जय हो! उनके जन्म महोत्सव की जय। भीष्म पितामह के बर्थडे की जय!
ऐसा महाभारत है, महाभारत मतलब इतिहास है। हिस्ट्री ऑफ ग्रेटर इंडिया अर्थात महान् भारत का इतिहास। इतिहास इतना अचूक है जिसमें सभी व्यक्तियों का तो नहीं लेकिन कइयों के जन्म किस दिन हुआ, इसका भी उल्लेख प्राप्त है। महाभारत में हजारों, लाखों व करोड़ों उन व्यक्तियों के चरित्रों का भी वर्णन है, उनके माता-पिता का नाम पता है, उनके सारे कार्यकलापों का उल्लेख है। यह सब काल्पनिक नहीं हो सकता जैसा कि कई मूर्ख अथवा गधे कहीं के कहते ही रहते हैं। वैसे अंग्रेज आए थे और उन्होंने कहना शुरू किया था कि यह मैथोलॉजी है
यह मैथोलॉजी ( काल्पनिक) है। ५००० वर्ष पूर्व मानव इतना विकसित नहीं था। आप कहते हो, ऐसा युद्ध हुआ, ऐसे अस्त्रों व शस्त्रों का प्रयोग हुआ। नहीं, नहीं, उन दिनों में तो लोग गुफा में ही रहते थे। लड़ाई करने के समय कुछ पत्थर व डंडे का ही प्रयोग करते थे और आप कह रहे हो, ऐसे अस्त्र? यह सम्भव नहीं है। यह काल्पनिक है। इस प्रकार ऐसे पाश्चात्य देश के तथाकथित विद्वानों की ऐसी टीका टिप्पणियां होती रही। उन्होंने हमें गुलाम बनाया। हम जो गुलाम बने थे तब हमारे बॉस अंग्रेज बने। अंग्रेज जैसा भी कहा करते, हम उनकी हां में हां मिलाने लगे।
वर्षा होगी, यस यस होगी। महाभारत काल्पनिक है? यस! यस!
उन्होंने हमें सिखाया। उन्होंने हमारी खोपड़ी में यह बात डाल दी कि आपका महाभारत काल्पनिक है और रामायण तो भूल ही जाओ, वह तो और भी पुरानी बात है। रामायण तो १० लाख वर्ष पूर्व की बात है। अगर उनको ५००० वर्ष पूर्व की बातें हज़म नहीं हो रही या समझ नहीं आ रही थी, तब वे कैसे रामायण का काल या राम भी हुए या हनुमान भी थे, को स्वीकार कर पाते।
आज के दिन या कहा जाए वो अष्टमी का दिन था। आज अष्टमी है और इस अष्टमी का नाम भीष्माष्टमी हो चुका है। जैसे कृष्ण अष्टमी के दिन प्रकट हुए थे, इसलिए उस अष्टमी का नाम कृष्णाष्टमी हो चुका है। सारा संसार जानता है। आज भी अष्टमी है और उस दिन भी अष्टमी थी जिस दिन भीष्म पितामह प्रकट हुए अर्थात जन्मे थे। उस अष्टमी का नाम भीष्माष्टमी हुआ। आज के दिन जन्मे भीष्म महाभारत के एक मुख्य चरित्र अथवा व्यक्तित्व है। भारत भी महान् भारत है। भीष्म पितामह ग्रेट ग्रैंड फादर हैं। वैसे उनके कोई अतिपत्य नहीं था। वे पुत्रहीन थे। आप सोचेगें कि उन्हें पितामह कहा जा रहा है इसलिए वे पिता या पितामह या पड्पिता होंगे लेकिन उनका कोई पुत्र नहीं था।
आयुष्मान भव:, वैसे वे आयुष्मान थे। उनकी आयु लगभग ४०० वर्षों की रही, अंततोगत्वा अभी जन्म की बात चल रही है। इसलिए हमें मृत्यु की बात नहीं करनी चाहिए लेकिन कुरुक्षेत्र में उन्होंने कृष्ण की उपस्थिति में महाप्रयाण किया। उस समय ग्रैंड फादर अर्थात भीष्म पितामह की आयु 400 वर्ष थी। उन्होंने कई सारी पीढ़ियों को देखा था। पीढ़ी के बाद पीढ़ी आ रही थी और जा भी रही थी लेकिन भीष्म पितामह उन सारी पीढ़ियों के साक्षी थे।
भीष्म पितामह अपनी भीष्म प्रतिज्ञा के लिए भी प्रसिद्ध हैं, प्रतिज्ञा हो तो भीष्म प्रतिज्ञा जैसी। प्रयत्न हो तो भगीरथ जैसा। जब इस प्रतिज्ञा को राजा शांतनु अर्थात उनके पिता और देवताओं ने सुना कि ‘मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा, मैं विवाह ही नहीं करूंगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है।’ जब इस प्रतिज्ञा को देवताओं ने भी सुना तो उन्होंने कहा भीष्म! भीष्म! क्या भयानक। जैसे अंग्रेजी में भी कहते हैं- व्हाट ए होरीबल प्रतिज्ञा तुम कर रहे हो। ऐसी प्रतिज्ञा! इसलिए उनका नाम भीष्म भी हुआ। वैसे उनका नाम तो देवव्रत था। जब उनका नामकरण हुआ, तब वे देवव्रत थे। वे शांतुनु और गंगा के पुत्र थे, इसलिए गांगये भी कहलाते थे। जैसे कुंती के पुत्र कौन्तेय, वैसे ही गंगा के पुत्र गांगये। भीष्म पितामह का दूसरा नाम गांगये है क्योंकि वे गंगा के पुत्र थे। राजा शांतुनु का विवाह गंगा मैया के साथ हुआ। जब राजा शांतुनु ने गंगा को प्रस्ताव रखा- आई लव यू, आई वांट टू मेरी यू (मैं तुम से प्यार करता हूँ और तुम से शादी करना चाहता हूं।) वे राजा थे और शिकार के लिए वे एक दिन वन में गए थे,वहाँ गंगा के साथ उनकी मुलाकात हुई। मूर्तिमान गंगा, गङ्गा जल के रूप में भी बहती है किन्तु गंगा का अपना रूप भी है। वैसे हर नदी का अपना रूप है, हर एक का रूप है। जैसे यमुना का भी रूप है। यमुना का विवाह कृष्ण के साथ हुआ और कालिंदी बन गई। इस विवाह के प्रस्ताव के समय गंगा ने कहा- ठीक है किंतु यदि मेरी बात का तुमने कभी विरोध किया तब मैं तुम्हारा साथ छोड़ दूँगी। यह बात अगर आपको मंजूर है तो ठीक है, विवाह हो जाए। मैं आपकी पत्नी बनती हूं।( यह सारा लंबा विस्तार से नहीं बताएंगे)
श्रील व्यासदेव ने बड़े विस्तार के साथ महाभारत का इतिहास लिखा है। इस इतिहास के कई सारे चरित्र हैं।
विवाह हुआ, फिर पुत्र का जन्म हुआ। तब गंगा ने उस पुत्र को गंगा में डुबो दिया। राजा शांतनु कुछ भी नहीं कह पाए, यदि वे कुछ कहते तो गंगा को खो बैठते। इस प्रकार उनके गंगा के साथ सात पुत्र हुए। एक एक की जान ली और अब आठवें पुत्र का जन्म हुआ। उसका भी हाल वही होना था जो पिछले सात पुत्रों का हुआ था। गंगा वैसी तैयारी कर ही रही थी अर्थात उसको भी गंगा में फैंकने और डुबोने की तैयारी कर ही रही थी। उस समय राजा शांतनु ने विरोध किया, नहीं! नहीं! ऐसा मत करो। यह पर्याप्त है। बहुत हुआ। तब गंगा बोली- ठीक है। बहुत अच्छा, मैं चली। गंगा उस बालक के साथ में निकल पड़ी। इस बालक का नाम देवव्रत रखा था। गंगा देवव्रत को साथ में लेकर वन में चली गयी। गंगा ने देवव्रत का लालन- पालन किया। वशिष्ठ मुनि ने कई सारी विद्याएं उसको सिखाई।
देवव्रत धीरे धीरे बड़े हो रहे थे। पुनः एक समय जब शांतनु राजा उसी वन में गए तब उन्होंने अपने ही पुत्र देवव्रत को देखा तो सही, किन्तु पहचान नहीं पाए। लेकिन वे इस बालक को चाहते थे। गंगा ने उनको दे दिया और कहा कि अपने बालक को ले जाओ। वैसे ये अष्ट वसु के रूप में प्रसिद्ध थे।
जैसे हम
एकादश रुद्रा और द्वादश आदित्य.. नाम सुनते हैं । ऐसे ही अष्ट वसु हैं। इन अष्ट वसुओं को शाप मिला था। ये अष्ट वसु ही एक एक करके जन्म ले रहे थे और उनके शाप के अनुसार उनको दंडित किया जा रहा था अथवा उनकी मृत्यु हो रही थी। भीष्म पितामह भी अष्ट वसुओं में से एक हैं, एक बच गए।
( यदि मैं इस रफ़्तार से कहता जाऊंगा तो ..)
राजा शांतनु पुनः दूसरा विवाह सत्यवती के साथ करना चाहते थे।
सत्यवती के साथ उनकी मुलाकात हुई। उनके पिताश्री तैयार थे लेकिन उनकी शर्त यह थी कि उनकी पुत्री का जो पुत्र होगा, वह ही भविष्य का राजा अथवा शासक बनेगा, तभी मेरी पुत्री का विवाह आपके साथ सम्भव है। भविष्य के राजा होने का क्लेम (दावा) तो देवव्रत का ही था। वे ही भविष्य के राजा थे, वे राजपुत्र थे। उम्र में भी बड़े थे। वैसे अभी दूसरे पुत्र जन्में भी नहीं थे। शांतनु राजा (सब बताना पड़ता है) चिंतित थे, ये कैसे होगा? राज पुत्र तो देवव्रत है। लेकिन देवव्रत को जब पता चला कि पिताश्री किस बात से चिंतित हैं। वे सत्यवती के पिता के पास गए। तब सत्यवती के पिता ने कहा – ठीक है, भीष्म पितामह राजा नहीं बनते है तब उनका पुत्र राजा बनेगा। देवव्रत ने इसलिए प्रतिज्ञा ली कि मैं राजा बनूंगा ही नहीं और मेरे पुत्र का जन्म होगा ही नहीं, क्योंकि मैं अविवाहित रहूंगा। मैं ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा। तत्पश्चात राजा शांतनु का विवाह हुआ, उनके विचित्रवीर्य और चित्रागंद दो पुत्र हुए। यह सब इतिहास है।अब थोड़ा महाभारत युद्ध की ओर जाते हैं। महाभारत का युद्ध
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १.१)
अनुवाद:- धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
पाण्डु के पुत्र और धृतराष्ट्र के पुत्र मैदान में उतरे, वहाँ अब भीष्म पितामह दुर्योधन के सेनापति बने हैं। धृष्टद्युम्न पाण्डवों के सेनापति बने, युद्ध चल रहा था। नौवें युद्ध की रात्रि के समय दुर्योधन ने भीष्म पितामह से यह बात कही कि आप पक्षपात कर रहे हो , वैसे आप तो पांडवों की हत्या करने की क्षमता रखते हो लेकिन आप जानबूझकर उनको बचा रहे हो, पक्षपात कर रहे हो। जब यह बात पितामह भीष्म ने सुनी तो वे पुनः प्रतिज्ञा करते हैं। (वैसे वे अपनी प्रतिज्ञा के लिए प्रसिद्ध ही थे) उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि या तो कल दसवें दिन के युद्ध में मैं अर्जुन की हत्या करूंगा नहीं तो कृष्ण को हथियार उठाना होगा”
जबकि कृष्ण की प्रतिज्ञा थी कि मैं हथियार नहीं उठाऊंगा। तत्पश्चात तत्क्रम में दसवें दिन युद्ध प्रारंभ हुआ, पितामह भीष्म और अर्जुन के मध्य युद्ध हुआ, श्री कृष्ण पार्थसारथी थे। कृष्ण ने भीष्म पितामह के सामने ही अर्जुन के रथ को खड़ा कर दिया तत्पश्चात दोनों में घनघोर युद्ध हुआ। भीष्म पितामह ने अपने पूरे शौर्य और वीर्य का प्रदर्शन किया। अब कृष्ण और अर्जुन को भी लग रहा था कि अब तो अर्जुन नहीं बच सकता। अर्जुन वैसे पसीने पसीने हो रहे थे, कुछ पसीना पोंछ रहे थे, इतने में भीष्म पितामह का बाण अर्जुन की ओर आगे बढ़ना ही था कि कृष्ण उस रथ से छलांग मार कर नीचे उत्तरे और भीष्म पितामह की और दौडने लगे। दौड़ते समय रास्ते में (इतना अंतर नहीं था लेकिन जितना भी था) कृष्ण ने रथ का पहिया देखा और उस पहिये को उठाया। वे रथांगपाणि बन गए, पाणि मतलब हाथ। जिनके हाथ में रथ का अंग अर्थात पहिया अथवा चक्र है । इसलिए श्रीकृष्ण रथांगपाणी हुए, रथ के अंग अर्थात पहिये को ही वह अस्त्र बनाकर भीष्म पितामह की ओर दौड़ने लगे। इस बात से भीष्म पितामह बड़े ही प्रसन्न थे, उन्होंने श्री कृष्ण का दर्शन किया। कृष्ण क्रोधित व क्रूर बनकर भीष्म पितामह की ओर दौड़ रहे थे। वैसा दर्शन और ऐसा ही संबंध भीष्म पितामह का है। वैसे अलग अलग रस होते हैं। कुल द्वादश रस हैं। उसमें एक रस अथवा एक सम्बंध यह वीर्य रस है। भीष्म पितामह उस रस का आस्वादन कर रहे थे और बड़े प्रसन्न थे। वह कृष्ण का ऐसा ही दर्शन चाहते थे, उस दिन उनको वैसे ही दर्शन हुए जब कृष्ण पहिए के साथ भीष्म पितामह की और दौड़ ही रहे थे, तब अर्जुन भी कृष्ण को पकड़ने के लिए रथ से नीचे उतरते हैं। नहीं! नहीं! आप ऐसा नहीं कर सकते
यह सारा वर्णन महाभारत में भी है। यह महाभारत और कुरुक्षेत्र में सम्पन्न हुए उस युद्ध का विशेष दृश्य है। कृष्ण ही यहाँ युद्ध खेल रहे हैं। कृष्ण ने यहाँ हथियार उठाया।
श्रीभगवानुवाच
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज। साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।।
( श्रीमद् भागवतम ९.४.६३)
अनुवाद:- भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा: मैं पूर्णत: अपने भक्तों के वश में हूं। निस्संदेह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूं। चूंकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके ह्रदयों में ही निवास करता हूँ। मुझे मेरे भक्त ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यंत प्रिय है।
मैं भक्त के आधीन हूं।
इसलिए भगवान ने कहा- ठीक है। हे भीष्म पितामह! तुम्हारी प्रतिज्ञा सच हो जाए। मैं अपनी प्रतिज्ञा झूठी कर रहा हूँ। मैंने हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा की थी लेकिन मैं हथियार ही उठा रहा हूँ।
वैसे उस दिन युद्ध तो आगे जारी रहा लेकिन शिखण्डी को बीच में लाया गया । शिखण्डी न तो पुरुष थे और न स्त्री ही थे, वे नपुंसक थे। ऐसे व्यक्ति के साथ भीष्म पितामह युद्ध नहीं करेंगे। युद्ध करने का विचार छोड़ ही देंगे, इस विचार से शिखण्डी को मध्य में लाकर खड़ा किया गया था। भीष्म पितामह अब युद्ध नहीं करना चाहते थे, अर्जुन ने भी इसी का फायदा उठाया । वे भीष्म पितामह पर प्रहार करते गए। इसी के साथ भीष्म पितामह शर- पंजर हुए। अर्जुन ने उनको बाणों की शैय्या पर लिटाया और भीष्म पितामह वहीं लेटे रहे। युद्ध चलता रहा और वे वहीं बाणों की शैय्या पर लेटे थे। युद्ध सम्पन्न भी हुआ। अधिकतर लोग मारे गए, जो बचे थे, वे हस्तिनापुर लौट गए। कृष्ण पुनः कुरुक्षेत्र लौटते हैं। यह अब तीसरी बार कृष्ण कुरुक्षेत्र आएंगे। महाभारत युद्ध के समय दूसरी बार था, सूर्य ग्रहण के समय पहली बार था। युद्ध के उपरांत जब कृष्ण कुरुक्षेत्र से हस्तिनापुर तक ही गए थे और पहुंचे अथवा रहे थे, उन्होंने बहुत अधिक समय बिताया था। अधिक समय बिताने का कारण यह भी था कि युद्ध के पहले शोक करने वाले अर्जुन थे लेकिन युद्ध के बाद युधिष्ठिर महाराज का शोक प्रारंभ हुआ, वे शोक से इतने व्याकुल थे। उनको प्रवचन सुना सुना कर कृष्ण थक गए। कृष्ण ने अर्जुन को ४५ मिनट में उपदेश सुनाया था और अर्जुन ने कहा भी था कि:-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.७३)
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।
लेकिन युधिष्ठिर महाराज की व्याकुलता, शोक व भ्रम कई महीनों तक बना रहा। कृष्ण उनके चित को समझा बुझा नहीं पा रहे थे। युधिष्ठिर महाराज के जीवन में कोई आराम नहीं था, तत्पश्चात कृष्ण द्वारका जाने की तैयारी कर रहे थे, वह रथ में बैठे ही थे और प्रस्थान की सार तैयारी हो चुकी थी। इतने में उस समय कुन्ती महारानी वहाँ पहुंच गयी, कुंती महारानी की प्रार्थना श्रीमद् भागवत की पहली प्रार्थना है। श्रीमद् भागवत के पहले स्कन्ध के सातवें व आठवें अध्याय में उसका उल्लेख है।
येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुध्दयन्ति वै गृहा:।
किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभि:।।
(श्रीमद्भागवतम् 1.19.33)
अनुवाद: -आप के स्मरण मात्र से हमारे घर तुरंत पवित्र हो जाते हैं तो आपको देखने, स्पर्श करने, आपके पवित्र चरणों को धोने तथा अपने घर में आपको आसन प्रदान करने के विषय में तो कहना ही क्या?
जब भगवान् ने वह प्रार्थना सुनी कि आप कैसे जा सकते हो? मेरे पुत्रों का हाल देखो, युधिष्ठिर महाराज के चेहरे की ओर देखो। युधिष्ठिर महाराज को आप ऐसी स्थिति में छोड़कर कैसे जा सकते हो? नहीं! नहीं! रुकिए। उनकी ऐसी ही प्रार्थना थी। ऐसा ही भाव था। द्वारकाधीश कृष्ण ने अपने रथ को हस्तिनापुर की ओर वापिस मोड़ा, तब वे कुछ समय के लिए हस्तिनापुर में ही रहे।उनका हस्तिनापुर में रहने का उद्देश्य यह भी था कि कृष्ण जानते थे कि भीष्म पितामह तुरन्त ही प्रस्थान करने वाले हैं, उनका महाप्रयाण होने वाला है। मैं यदि द्वारका जाऊंगा तो द्वारका दूर है। द्वारका से आने में समय लगेगा या दिक्कतें आ सकती हैं, मैं यहीं रहता हूं। हस्तिनापुर कुरुक्षेत्र के पास में है, वे उस उद्देश्य से भी वहाँ रहे, वैसे और भी उद्देश्य थे।
वह दिन और वह क्षण भी आ रहा था। पता चला कि भीष्म पितामह प्रस्थान करने वाले हैं। कृष्ण सभी पांडवों और कई हस्तिनापुर के लोगों को लेकर कुरुक्षेत्र आ पहुंचे। महाभारत व श्रीमद् भागवत में भी सूची है कि भीष्म पितामह के प्रस्थान अथवा तिरोभाव के समय (उस समय) संसार भर के देवऋषि, राजऋषि व महा ऋषि बहुत बड़ी संख्या में वहाँ उपस्थित हुए। उस समय कुरुक्षेत्र कृष्ण के प्रवचन अर्थात भगवतगीता के उपदेश के लिए प्रसिद्ध था और है भी, अब भीष्म पितामह की बारी है। कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश किया था और कृष्ण ने युधिष्ठिर महाराज को उपदेश किया था लेकिन उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अब श्रीकृष्ण, भीष्म पितामह को निमित बनाएंगे। भीष्म पितामह के मुखारविंद से निकले वचन, जो युधिष्ठिर को प्रभावित करेंगे। तत्पश्चात युधिष्ठिर महाराज भी कहेंगे
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥
अर्जुन ने कहा था कि हे आपके कृपा प्रसाद से मैं भी स्थिर हो चुका हूं। वैसे ही युधिष्ठिर महाराज भी कहेंगे, भीष्म पितामह ! आपके वचनों अथवा कृपा प्रसाद से मैं भी स्थिर हो चुका हूं। मेरा चित शांत है, मैं मेरे सभी संदेह और मोह से मुक्त हो चुका हूँ।
भीष्म पितामह को प्रस्थान करना था। देखो! यह प्रस्थान कैसा अद्भुत है। इस प्रस्थान के समय स्वयं कॄष्ण उपस्थित है। श्रीकृष्ण का दर्शन करते हुए इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले, गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले। जब प्राण तन से निकले तो आप भी आ जाना। गंगा का तट हो .. यह हो/ वह हो। आप भी आ जाना और राधा को साथ ले आना, तब प्रस्थान हो। तब प्राण तन से निकले। देखिए यहां किस परिस्थिति में भीष्म पितामह के प्राण निकल रहे हैं। वे प्रस्थान कर रहे हैं और स्वयं श्रीकृष्ण वहाँ उपस्थित हैं। उनका दर्शन करते करते वे भगवान की स्तुति प्रार्थना कर रहे हैं। वह स्तुति भी प्रसिद्ध है। कुंती महारानी की प्रार्थना के उपरांत भागवतम में जो अगली स्तुति है, वह भीष्म स्तुति है।
भीष्म पितामह दर्शन कर रहे हैं। स्तुति गान कर रहे हैं। देखिए कितने संत महात्मा वहाँ उपस्थित हैं, वे भी संस्मरण कर रहे हैं। वे भी श्रीकृष्ण का यशोगान कर रहे हैं। मरना है तो ऐसे मरे, मरने की भी कला है। हम जीने की कला सीखेंगे तो फ़िर मरने की कला से भी अवगत होंगे। मरना है तो कैसे मरो? भीष्म पितामह की तरह मरो। ऐसा नहीं कोई कहे कि हमारा पास कोई चुनाव है कि नहीं मरना है तो भी चलेगा। हम नहीं मरेंगे। हम नहीं मरना चाहते, ऐसी बात नहीं है। हमें मरना तो है ही, मरना ही है, तो क्यों ना भीष्म पितामह जैसे मरें या नामाचार्य हरिदास ठाकुर की तरह। चैतन्य चरितामृत में वर्णन है कि हरिदास ठाकुर का मरण भी भीष्म पितामह की तरह रहा। कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण थे और जगन्नाथ पुरी में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों का स्पर्श उनके मुखमंडल का दर्शन और अपने मुख से श्रीकृष्ण चैतन्य.. कहते हुए हरिदास ठाकुर ने प्रस्थान किया। वैसे श्रील प्रभुपाद के प्रस्थान की तुलना भी भीष्म पितामह के प्रस्थान के साथ की जाती है। ऐसे भीष्म पितामह की जय हो!
हैप्पी बर्थडे टू यु, यू नेवर टेक बर्थ अगेन। भीष्म पितामह के समय में ऐसा कहने की आवश्यकता भी नहीं है। हम यहाँ देख रहे हैं भीष्म पितामह पुनः जन्म लेंगे क्या? यदि जन्म लेंगे तो जहां कृष्ण है, वहीं जन्म लेंगे। कृष्ण वहां थे ही, वहीं जन्में, वहीं मरे। सब भक्त तो थे ही। सारा कुरुक्षेत्र ही वैकुण्ठ बन गया। भीष्म पितामह भगवान् की लीला में प्रवेश हुए बस। भगवान् की लीला में महाभागवतों, परम वैष्णवों अथवा भक्तों का मरण से उनके शाश्वत जीवन का प्रारंभ होता है। वे भगवान की लीला में प्रवेश करते हैं, वहीं वास्तविक लाइफ है अन्यथा सब मृत हैं।
ठीक है। थोड़ा ज़्यादा ही कहा। अब यहाँ विराम देना होगा।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
19 फरवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण, 564 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं। हमने सोचा तो यही था कि गोस्वामी वृंदो की जो कथा है, उनके संस्मरणको ही आगे बढ़ाएंगे, किंतु आ गया। आज अद्वैत आचार्य की अविर्भाव तिथि है। अद्वैत आचार्य की अविर्भाव तिथि महामहोत्सव की जय! आज यह उत्सव होने के कारण अद्वैत आचार्य का ही स्मरण करना अनिवार्य है। यह बात आपको मंजूर है, पर्याय है नहीं वैसे आपके पास और कोई पर्याय नहीं है। हरि हरि ,यदि गौर ना होइते तबे की होइते अगर गौरांग महाप्रभु ना होते तो क्या होता ऐसे हम नहीं हमारे आचार्य ने गाया है। लेकिन आज के दिन हम ऐसे भी कह सकते है।, यदि अद्वैताचार्य नहीं होते तो गौरांग महाप्रभु भी नहीं होते। गौरांंग महाप्रभु केे प्राकट्य का कारण बने अद्वेताचार्य। हरि हरि, यह अद्वैत आचार्य नाम भी ऐसा बढ़िया है। उचित है।अद्वै मतलब दो नहीं एक है। मतलब गौरांग महाप्रभु और अद्वैत आचार्य दो नहीं एक है। गौरांग महाप्रभु ही प्रकट हुए हैं अद्वैत आचार्य के रूप में।
पंचतत्वाकम् कृष्णं भक्तरूप स्वरूपकम।
भक्तावतारम भक्ताख्यम् नमामि भक्त शक्तिकम।।
ऐसी प्रार्थना हम पंचतत्व को करते हैं। कितने तत्व है यहां पांच तत्व और उसमें अद्वैत आचार्य भी उस पंचतत्व के सदस्य हैं।.पंचतत्वाकम् कृष्णं कृष्ण पंचतत्व में प्रकट हुए हैं और यह सभी भक्तों रूप बने हैं। उसमें भक्तरूप है प्रधान भक्त रूप कहो, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण चैतन्यमहाप्रभु ही है। जो स्वयं श्रीकृष्ण है। पंचतत्वाकम् कृष्णं भक्तरूप स्वरूपकम। स्वरूप है भक्तों रूप है। स्वरूप ही है। नित्यानंद प्रभु भगवान के स्वरुप ही है। स्वयं प्रकाश है ऊपरी तौर पर तो कहां जाता है। तो यह स्वरूप है बलराम। पंचतत्वाकम् कृष्णं भक्तरूप स्वरूपकम। भक्तावतारम और भक्तावतार है अद्वैत आचार्य। भक्ताख्यम् और इस पंचतत्व में भक्त है श्रीवास ठाकुर। नमामि भक्त शक्तिकम हमारा नमस्कार उस शक्ति को और वह है गदाधर पंडित राधारानी ही है। यह पंचतत्व का परिचय है। इसमें यह भक्तावतार अद्वैतआचार्य आज के दिन प्रकट हुए। श्रीकृष्ण चैतन्यमहाप्रभु के प्राकट्य के कुछ 50 वर्ष पूर्व ही अद्वैत आचार्य प्रकट हुए। और यह है साक्षात महाविष्णु। वह महाविष्णु भी है महाविष्णु से गर्भोदकशाही विष्णु उत्पन्न होते हैं। और महाविष्णु से ही सदाशिव भी उत्पन्न् होतेे हैं। महाविष्णु से गर्भोदकशाही विष्णु प्रकट होते हैं। और हर ब्रह्मांड में एक एक गर्भोदकशाही विष्णु होते हैं। इसी महाविष्णु से और एक प्राकट्य है और वह है सदाशिव। देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु महेश धाम है। इस महेश धाम में सदाशिव का निवास है। वैसे महेश धाम का आधा हिस्सा ऊपरवाला, वैकुंठ ही है। सदाशिव वहीं रहते हैं। और नीचे वाला जो हिस्सा है, उसमें रूद्र कालभैरव वहां निवास करते हैं। अव्दैत आचार्य महाविष्णु और सदाशिव के अवतार पंचतत्व में भक्तावतार। इस प्रकार वह भक्त अवतार कहलाते हैं। यहां वे अवतार हैंं। अद्वैत आचार्य श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु स्वयं प्रकट होने से पहले वहीं प्रकट हुए कहिए या समझ सकते हो, अद्वैत आचार्य के रूप में प्रकट हुए।
वह प्रकट तो हो गए पूर्व बंगाल में। बांग्लादेश में और फिर वहां से वहां स्थानांतरित हुए शांतिपुर में गंगा के तट पर। शांतिपुर धाम की जय! तो फिर वही रहे अद्वैत आचार्य। जब अद्वैताचार्य प्रकट हुए तो उन्होंने संसार के स्थिति का अवलोकन परीक्षण किया निरीक्षण किया। और वहां इस निष्कर्ष तक पहुंचेे कि क्या हुआ धर्म की ग्लानि हुई है। धर्मस्या ग्लानि हुई है तो फिर उन्होंने सोचा कि ऐसी स्थिति में,
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
( भगवत गीता 4.7)
अनुवादः जब जब और जहां जहां धर्म की ग्लानि होती हैं और अधर्म बढ़ता है उस वक्त, हे भारत में स्वयं अवतार लेता हूं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
भगवान फिर आते हैं। भगवान को फिर आना ही होता है। फिर अद्वैत आचार्य स्वयं भगवान को वैसे अद्वैत आचार्य स्वयं भगवान नहीं हैं, वे स्वयं भगवान के अवतार हैं। स्वयं भगवान अवतारी होते हैं। यह अवतार अद्वैत आचार्य अवतारी को चाहते थे। अभी अवतारी का अवतार हो तभी तो इस जगत के समस्या का हल संभव होगा। इतनी सारी उलझने है इतनी सारी उलझन में फंसा हुआ है यह संसार। सुलझन क्या होगी, संभवामि युगे युगे जब भगवान स्वयं भगवान प्रकट होते हैं और समस्या का हल वही है।
अद्वैत आचार्य शांतिपुर में भगवान की आराधना करने लगे। गंगा के तट पर अपने शालिग्राम शीला को गंगाजल और तुलसी दल से अर्चना करते थे और उसी के साथ वे पुकार रहे थे, उनका हुंकार चल रहा था। हमें कृष्ण चाहिए, हमें कृष्ण चाहिए, इस संसार को जरूरत है भगवान की।
कृष्ण कन्हैया लाल की जय।
सची दुलाल की जय।
अद्वैत आचार्य कि वह पुकार, वह हुंकार गोलोक तक पहुंची और भगवान प्रकट होने के लिए तैयार हो गए। और अब वे सची माता के गर्भ में सची सिंधु हरि इंदु अजनी सची माता के गर्भ सिंधु में हरि इंदु मतलब हरिश्चंद्र, मतलब चैतन्यचंद्र प्रकट हुए थे। अद्वैत आचार्य जब शांतिपुर से नवद्वीप मायापुर आए फिर सची माता की प्रदक्षिणा करने लगे, प्रदक्षिणा की भी उन्होंने और उन्होंने साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। वे किस को साष्टांग दंडवत प्रणाम कर रहे थे? और किसकी परिक्रमा कर रहे थे? वह जान गए थे प्रभु आ चुके हैं, प्रभु प्रकट हो चुके हैं, सची माता के गर्भ में इस समय स्वयं भगवान प्रकट हो चुके हैं। उस भगवान का स्वागत कहिए सम्मान सत्कार कर रहे थे अद्वैत आचार्य। और फिर गौर पूर्णिमा के दिन निमाई का प्राकट्य हो ही चुका। सर्वप्रथम इस बात का पता चला शांतिपुर में अद्वैत अचार्य उस समय शांतिपुर में थे। जो मायापुर से कुछ समय दूरी पर है ज्यादा तो नहीं कुछ 50 किलोमीटर। तो वहां पता चला अद्वैत आचार्य को उस समय उनके साथ श्रील नमाचार्य हरिदास ठाकुर भी अद्वैत आचार्य के साथ रहा करते थे। वैसे रहते तो नहीं थे उनके साथ हरिदास ठाकुर तो पुलिया में जो शांतिपुर से कुछ दूर एक गुफा में रहा करते थे। वहां से खूब आया करते थे और अद्वैत अचार्य के साथ उनका मिलना जुलना होता था। जैसे ही पता चला इन दोनों को कि चैतन्य महाप्रभु प्रकट हो चुके हैं तो सभी गंगा के तट पर कीर्तन और नृत्य करने लगे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
औरों को अचरज लग रहा था यह हो क्या रहा है? आप इतने हर्षित क्यों हो? यह सारा नृत्य चल रहा है क्या बात है, तो वे तो जानते थे क्या बात है। भगवान गौरांग महाप्रभु के प्राकट्य से वे हर्षित, अल्हादित हो चुके थे। हरि हरि। चैतन्य महाप्रभु जब प्रकट हुए तो या प्राकट्य हो रहा था तो अद्वैत आचार्य को ही नहीं पता चला था, यह देवताओं को भी पता था। तो यहा देवता भी पहुंच चुके थे और कई सारे देवियां भी आ रही थी स्वर्ग से सारे ब्रह्मांड से। शांतिपुर से अद्वैत आचार्य अपनी भार्या सीता ठकुरानी को भेजें कई सारे जन्मदिन की भेंट वस्तुएं लेकर सीता ठकुरानी मायापुर पहुंची। सारी भेंट वस्तुएं भी दे दी और बधाइयां भी दे रही थी सीता ठकुरानी अपनी ओर से और अद्वैत आचार्य की ओर से भी। हरि हरि। अद्वैत आचार्य के कारण ही इस संसार को गौरांग महाप्रभु निमाई उनका नाम अब निमाई रखा जाएगा।
निमाई प्राप्त हुए। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब धीरे-धीरे उनका संकीर्तन प्रारंभ हुआ और श्रीवास ठाकुर के प्रांगण में, श्रीवास ठाकुर के घर में, कोठी में पूरी रात भर कीर्तन हुआ करता था। तो उन दिनों में वैसे शांतिपुर से शिफ्ट हुए वैसे अद्वैत आचार्य। और श्रीवास ठाकुर के घर के बगल में ही उन्होंने अपना एक भवन या निवास स्थान बनाया, अद्वैत भवन कहलाता है। हम जब नवद्वीप मंडल परिक्रमा में निकलते हैं तो मायापुर में जो योगपीठ कहलाता है, चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थान से जब बाहर आते हैं रास्ते पर दैने और जब मुड़ते हैं एक दो गस दूरी पर ही यह श्रीवास आंगन है। जहां कीर्तन प्रारंभ हुआ चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन प्रारंभ हुआ। वही श्रीवास ठाकुर के आंगन या निवास स्थान के पास अद्वैत आचार्य फिर रहने लगे। उस श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन में वह नृत्य का नेतृत्व करते थे अद्वैत आचार्य। जब चैतन्य महाप्रभु भी सिंह जैसी गर्जना के साथ कीर्तन और नृत्य करते थे तो अद्वैत आचार्य के भाव और भक्ति और हुंकार का क्या कहना। पूरी रात यह सारे वैसे पंचतत्व के सभी सदस्य श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, श्री गदाधर, श्रीवास और कई सारे भक्त वृंद कीर्तन और नृत्य करते थे। किंतु केवल शुद्ध भक्तों को वहां प्रवेश था। कोई मुक्ति कामी आ गया तो बाहर जाओ, कोई मुक्ति कामी आ गया तो दूर रहो, और कौन सा बच गया भुक्ति मुक्ति, सिद्धि कामी तो आपके लिए वह स्थान नहीं है ऐसा स्क्रीनिंग होता था, वहां डिटेक्टर ही था। वहां एक सौ प्रतिशत शुद्ध हो अनन्याश्चिन्तयन्तो मां अन-अन्य-चिन्त-यंन्तो मां मतलब अन अन्य चिंतन किसका नहीं करना है? अन्य का नहीं करना है अन -अन्य अन्यों का, देवताओं का, इनका उनका। ऐसे शुद्ध भक्तों को वहां प्रवेश था। बेशक अद्वैत आचार्य स्वयं अवतार ही थे। कीर्तन तो बढ़िया ही चल रहा था इस बात से अद्वैत आचार्य बड़े ही प्रसन्न थे। लेकिन इस बात से वह प्रसन्न थे भी नहीं की कीर्तन केवल शुद्ध भक्तों के लिए ही कर रहे हैं। केवल शुद्ध भक्तों केेेे साथ ही कीर्तन करना था तो आपको यहां पर प्रकट होने की क्या जरूरत थी। यह श्री अद्वैत अचार्य का विचार है। मैंने आपको बुलाया, मैंने निवेदन किया, मैंन पुकारा और आप फिर चले आए। अच्छा तो हुआ धन्यवाद मैं आप का आभारी हूं। लेकिन मैंने जो आपको याद किया था इस संसार के जो भूले भटके जीव है गोलोकम च परित्यज्य लोकानाम त्राण-कारणात् लोग जो इस संसार में त्रसित ग्रसित है या धर्म का अवलंबन नहीं कर रहे हैं, धर्म की ग्लानि हो चुकी है, ह्रास हो चुका है। हरि हरि। या दुर्गा दुर्गा और काली काली चल रहा है या
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
नहींं चल रहा है यह तो कलयुुग हैं हरेर्नामैव केवलं कली का धर्म है हरिनाम संकीर्तन। मैंने तो ऐसा सोच कर की आप प्रकट होकर हरि नाम का प्रचार और प्रसार सर्वत्र करोगे। ऐसा तो आप नहींं कर रहे हो आप तो शुद्ध भक्तों के साथ ही कीर्तन कर रहे हो। वैसे भी मैंने कुछ ज्यादा ही कहा.. तो ऐसे कुछ शब्दों में अद्वैत आचार्य चैतन्य महाप्रभु के चरणों में निवेदन करते हैं। इस निवेदन को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जरूर नोट किया और स्वीकार भी किया। फिर उस समय से क्या हुआ?
उदिल अरुण पूरब भागे
द्विज-मणि गेारा अमनि जागे।
भकत-समूह लइया साथे
गेला नगर-ब्राजे।।
अर्थ – जैसे ही पूर्व दिशा में अरुणोदय हो गया। उसी क्षण ब्राह्मणों में श्रेष्ठ द्विजमणि गौरांग महाप्रभु जाग गये। वे अपने भक्तों के समूह को साथ लेकर, नदिया में, सारे नगरों व गाँवों में संकीर्तन के लिए चल पड़े।
इसके लिए भी अद्वैत आचार्य कारण बने। तो उस समय से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मैदान में उतर गए। पहले उनका कीर्तन मर्यादित था, श्रीवास आंगन में ही करते थे सारे दरवाजे खिड़कियां बंद करके पर्दे के पीछे, केवल शुद्ध भक्तों के लिए। अब चैतन्य महाप्रभु ने सारे दरवाजे खोल दिए हैं। सारे हरि नाम संकीर्तन की गंगा धारा अब सर्वत्र बहाएंगे।
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार
हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥
फिर गौरांग महाप्रभु अब क्या करेंगे? हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार एक समय वह प्रचार नहीं कर रहे थे, तब अद्वैत अचार्य का विशेष निवेदन रहा प्रार्थना रही। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हरी नाम का सर्वत्र प्रचार शुरू किया।
‘ताथइ-ताथइ’ बाजल खोल,
घन-घन ताहे झाँजेर रोल।
प्रेमे ढलऽढलऽ सोनार अंङ्ग
चरणे नूपुर बाजे॥2॥
अर्थ – कीर्तन में, “ताथइ-ताथइ” की मधुर ध्वनि से मृदंग एवं उसी की ताल से ताल मिलाकर झाँझर-मंजीरे इत्यादि वाद्य बजने लगे। जिससे प्रेम में अविष्ट होकर श्री गौरांग महाप्रभु का पिघले हुए सोने के रंग जैसा श्रीअंग ढल-ढल करने लगा अर्थात् वे नृत्य करने लगे तथा नृत्य करते हुए उनके श्री चरणों के नूपुर बजने लगे।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने चरणों में नूपुर बांध के सबसे आगे रहते थे और अद्वैत आचार्य भी साथ हैं। बाहुतुले गौरांग महाप्रभु नृत्य करने लगे, कीर्तन करने लगे। गौरांग! गौरांग! हरी हरी। तो इस प्रकार कुछ ज्यादा तो कहा नहीं आप पढ़िएगा चैतन्य चरितामृत और चैतन्य भागवत में। अद्वैत प्रकाश नाम का एक ग्रंथ भी है। श्रील प्रभुपाद के चैतन्य चरित्रामृत इत्यादि तात्पर्य में, भावार्थ में या चैतन्य चरित्रामृत के वैसे आदि लीला के कई अध्यायों में अद्वैत तत्व या अद्वैत आचार्यों के लीलाओं का वर्णन आपको मिलेगा। हरि हरि। या अद्वैत आचार्य कहना पड़ेगा कि बड़े विद्वान थे, वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् भगवान कहे वेद-विद मैं वेद को जानता हूं, मैंने वेदों की रचना की है। मुझे जानने के लिए वेद है। ऐसे कहने वाले स्वयं अद्वैत आचार्य थे, महाविष्णु थे। तो अपनी विद्वता का दर्शन, प्रदर्शन, दान भी किया करते थे। उनके पाठ चलते थे, कथाएं होती थी, शास्त्रों का निरूपण चलता था। और वह सुनने के लिए विश्वरूप जाया करते थे, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बड़े भ्राता श्री विश्वरूप। अद्वैत आचार्य के संग से, अद्वैत आचार्य से वे जब सारा तत्वज्ञान और लीला कथा का श्रवण करने का परिणाम यह हुआ कि विश्वरूप वैरागी हुए वैराग्य वान। उन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और परिवार में अब ज्यादा उनको रुचि नहीं थी।
जगन्नाथ मिश्रा और सची माता उनके सामने प्रस्ताव तो रख रहे थे विवाह कर बेटा। विवाह सुनते ही विश्वरूप कहते थे मेरी कोई इच्छा नहीं है मुझे कोई रूचि नहीं है। इससे वे विश्वरूप के साथ भी बहुत नाराज थे, विशेष रुप से अद्वैत आचार्य से सची माता बहुत नाराज थी। यह अद्वैत आचार्य के कारण मेरा पुत्र बिगड़ रहा है। वैरागी बनना चाहता है, विवाह में उसे कोई रुचि नहीं है, यह सब अद्वैत आचार्य की करतूत है। तो चैतन्य महाप्रभु ने इस बात को नोट किया था की सची माता अद्वैत आचार्य के बारे में अच्छा नहीं सोचती। इससे फिर निमाई या गौरांग नाराज थे अपने मां से, क्योंकि मां अद्वैत अचार्य से नाराज थी। निमाई ने कहा सची माता से मैया तुम तो अपराध कर रही हो तो सची माता ने अपने को सुधारा। उसी वक्त दूसरी ओर विश्वरूप सन्यास ले ही लिए और घर से प्रस्थान किए प्रचार प्रसार के लिए। उनका परिभ्रमण वह परिव्राजक आचार्य बने और पूरे भारत का दक्षिण भारत का भ्रमण करते करते पंढरपुर आए। उनका नाम अब शंकरारन्य स्वामी हुआ था और शंकरारन्य विश्वरूप पंढरपुर से ही प्रस्थान किए। वहीं से स्वधाम उपगते अपने धाम लौटे, अपनी लीलाओं का समापन किया। पंढरपुर धाम की जय। इस प्रकार भी यह पंढरपुर धाम की महिमा है। गौड़िय वैष्णव का इस पंढरपुर धाम से घनिष्ठ संबंध है। चैतन्य महाप्रभु यहां आए, नित्यानंद प्रभु यहां आए, नित्यानंद प्रभु की दीक्षा पंढरपुर में हुई और विश्वरूप भी यहीं से अंतर्धान हुए। नहीं रहे अब ऐसे कह सकते हैं लेकिन पंचत्वम गतः तो नहीं कह सकते। तुम मिट्टी हो और मिट्टी में मिल जाओगे। विश्वरूप जो शंकरारन्य स्वामी बने थे वे तो सच्चिदानंद विग्रह उनका। तो उन्होंने प्रवेश किया नित्यानंद प्रभु में, वैसे भी वह दूसरी बात है। ठीक है,
अद्वैत आचार्य अविर्भाव महोत्सव की जय।
और आज के ही दिन महाराष्ट्र में इस्कॉन बीड, बीड शहर है पंढरपुर से उत्तर दिशा की ओर कुछ किलोमीटर के अंतर पर। आज के दिन राधा गोविंद भगवान की प्राण प्रतिष्ठा हुई और नया मंदिर भी खोला था। वहां पर भी इस्कॉन बीड़ में आज और कल दो दिनों के लिए उत्सव मना रहे हैं। तो वह दिन अद्वैत आचार्य के आविर्भाव के दिन ही राधा गोविंद भगवान प्रकट हुए। प्राण प्रतिष्ठा होना मतलब भगवान का प्राकट्य ही है। ठीक है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
19 February 2021
Remembering Advaita Acarya, on whose call Gauranga descended
Hare Kṛṣṇa! We have devotees from 554 locations chanting with us. We had decided to move forward with the discussion of six Goswamis of Vrindavan, but today is the appearance day of Sri Advaita Acarya and we should glorify him. Are you all fine with it?
yadi gaur na hoite tabe ki hoite! But today we can say,
yadi advaita na hoite tabe ki hoite! If Advaita Acarya wasn’t there then Gauranga Mahaprabhu would not have appeared. Advaita means ‘non different’ from Caitanya Mahaprabhu who has appeared in the form of Advaita Acarya.
pañca-tattvātmakaṁ kṛṣṇaṁ bhakta-rūpa-svarūpakam
bhaktāvatāraṁ bhaktākhyaṁ
namāmi bhakta-śaktikam
Translation
“I offer my obeisances unto the Supreme Lord, Krishna, who is non-different from His features as a devotee (Caitanya Mahaprabhu), devotional manifestation (Nityananda Prabhu), devotional incarnation (Advaita Acarya), devotional energy (Gadadhara Pandita) and pure devotee (Srivasa Pandita).” (CC Adi 1.14)
Advaita Acarya appeared 50 years before Caitanya Mahaprabhu and he is Maha Visnu from whom Garbhodaksayi Visnu appears and further Sadashiva emanates.
goloka-nāmni nija-dhāmni tale ca tasya
devī-maheśa-hari-dhāmasu teṣu teṣu
te te prabhāva-nicayā vihitas ca yena
govindam adi-purusham tam aham bhajami
Translation
Lowest of all is located Devī-dhāma [mundane world], next above it is Maheśa-dhāma [abode of Maheśa]; above Maheśa-dhāma is placed Hari-dhāma [abode of Hari] and above them all is located Kṛṣṇa’s own realm named Goloka. I adore the primeval Lord Govinda, who has allotted their respective authorities to the rulers of those graded realms. (Brahma Samhita Text 16)
Advaita Acarya appeared in Bangladesh and then relocated to Santipur on the bank of the Ganges. He examined the condition of the material world and came to conclusion that irreligion was widely prevalent. He felt that Lord Kṛṣṇa should appear to eradicate irreligion.
yadā yadā hi dharmasya
glānir bhavati bhārata
abhyutthānam adharmasya
tadātmānaṁ sṛjāmy aham
Translation
Whenever and wherever there is a decline in religious practice, O descendant of Bharata, and a predominant rise of irreligion – at that time I descend Myself. (BG 4.7)
Advaita Acarya is an expansion of Kṛṣṇa and he knew that when Lord Kṛṣṇa appeared it will be the solution to these problems. He started meditating and worshipping a Saligram Sila with the holy Ganga water and Tulasi leaves. He started calling out, “We want Kṛṣṇa! The world wants Kṛṣṇa, the son of Saci” and his prayers reached the Lord in Goloka Vrindavan. The Lord agreed to appear. He appeared in the womb of mother Saci (saci sindhu hari indu ajani). When Advaita Acarya came to Mayapur from Santipur, he started circumambulating mother Saci and paid obeisances to her. He knew that the Lord had appeared in the womb of Mother Saci and therefore he was honouring and welcoming the Lord. Finally the full moon day arrived when the Lord appeared. The first one to know this was Advaita Acarya who was in Santipur 50 kms away from Mayapur. Srila Nama Acarya Haridas Thakur who was staying in Phuliya in a cave and frequently visited Advaita Acarya was with him at that moment and they both started chanting the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra in ecstasy on the bank of the Ganges.
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Everyone started inquiring what the matter was? They knew that the Lord had appeared and so they were drowning in ecstasy. Demigods and their consorts started arriving from their abodes. Advaita Acarya sent his consort Sita Thakurani along with gifts and best wishes to Mayapur to give to Mother Saci on his behalf. It was due to the causeless mercy of Advaita that the world received Gauranga. Gradually the Sankirtan movement was started by Caitanya Mahaprabhu in Srivas Thakur’s courtyard throughout the night. Advaita Acarya shifted from Santipur to Mayapur next to Srivas Angan, called ‘Advaita Bhavan’. The birthplace of the Lord is known as Yoga-Pitha and nearby it is Advaita Bhavan. Advaita Acarya was a leading dancer in the Sankirtan party of Gauranga including all the members of Pancattatva. They take part in Sankirtan.
sri-krsna-caitanya prabhu nityananda sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrinda
Translation
I offer my respectful obeisances unto Sri Caitanya Mahaprabhu, Lord Nityananda, Sri Advaita, Gadadhara Pandit, Srivas Thakur, and all the devotees of Lord Caitanya.
Only pure devotees were allowed in the Sankirtan party, no bhukti kami, mukti kami. They were screened at the entrance to see whether they were pure devotees or.
ananyāś cintayanto māṁ
ye janāḥ paryupāsate
teṣāṁ nityābhiyuktānāṁ
yoga-kṣemaṁ vahāmy aham
Translation
But those who always worship Me with exclusive devotion, meditating on My transcendental form – to them I carry what they lack, and I preserve what they have. (BG 9.22)
Advaita Acarya was very happy, but then he wondered that if the chanting was to be done in the association of pure devotees only, then why did Gauranga Mahaprabhu appear? “I asked You to appear. I called You and You came. I appreciate it, but when I meditated for Your appearance, it was for to be merciful to the miscreants and the demigod worshippers. golokam ca parityajya lokanam tran kaaranam. This is Kaliyuga and Sankirtan is the religion of Kaliyuga, but it does not seem to happening.”
harer nāma harer nāma
harer nāmaiva kevalam
kalau nāsty eva nāsty eva
nāsty eva gatir anyathā
Translation
‘In this Age of Kali there is no other means, no other means, no other means for self-realization than chanting the holy name, chanting the holy name, chanting the holy name of Lord Hari.’ (CC Adi 17.21)
This way Advaita Acarya requested Caitanya Mahaprabhu and Gauranga accepted the proposal and acted on it.
udilo aruṇa pūraba-bhāge,
dwija-maṇi gorā amani jāge,
bhakata-samūha loiyā sāthe,
gelā nagara-brāje
Translation
When the rising sun appeared in the East, the jewel of the twice-born, Lord Gaurasundara, awakened, and, taking His devotees with Him, He went all over the countryside towns and villages. (Arunodaya Kirtana Text 1)
Caitanya Mahaprabhu then came out in the crowd, compared to the early chanting which was done behind closed doors, behind the curtains in the courtyard of Srivas Thakur. Radha Bhave Gaura avatar….
Soon He started to propagate Harinam with Advaita Acarya,
tāthaī tāthaī bājalo khol,
ghana ghana tāhe jhājera rol,
preme ḍhala ḍhala soṇāra ańga,
caraṇe nūpura bāje
Translation
The mrdangas (khol) resounded “tathai, tathai,” and the jhanjha [large metal karatalas that look like small cymbals] in that kirtana played in time. Lord Gauranga’s golden form slightly trembled in ecstatic love of Godhead, and His footbells jingle. (Arunodaya Kirtana Text 2)
Read Caitanya-caritamrta Adi Lila where Advaita tattva is mentioned. Advaita Acarya was a scholar.
sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca
vedaiś ca sarvair aham eva vedyo
vedānta-kṛd veda-vid eva cāham
Translation
I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas. (BG 15.15)
This was said by Advaita Acarya, the expansion of Maha Visnu. He would conduct discourses on the scriptures and Vishvarupa, Caitanya Mahaprabhu’s elder brother would go listen to this. This invoked the feeling of renunciation in him. Mother Saci requested Vishvarupa to get married, but he denied. Mother Saci was very upset with Advaita Acarya. Caitanya Mahaprabhu noted that His mother was committing an offence at the feet of Advaita Acarya. Later she rectified her mistake. Eventually Vishvarupa took sannyasa and given the name Sankaracarya. He went on tour and even came to Pandharpur where left his body. This is the importance of Pandharpur – Lord Nityananda took initiation here and Caitanya Mahaprabhu also came here.
Today was the installation of Sri Sri Radha Govind and opening of ISKCON Beed temple.
Gaura Premanande Hari Haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
18 फरवरी 2021
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।
नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्-धर्म संस्थापकौ*
लोकानां हित-कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ शरण्याकरौ
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।२।।
श्री श्री षड् गोस्वामी अष्टक
अनुवाद:- मै, श्रीरुप सनातन आदि उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की, जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे, भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परम हितैषी थे, तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे,एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे।
हरि हरि!
‘साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सङ्ग’- सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र ‘ साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय।।
श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.54
अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।
षड्गोस्वामी वृंदो का संस्मरण कर रहे थें,कल किया और आज भी करूंगा ऐसा आपके साथ कुछ वादा भी किया। हरि हरि!
जब हम किसी भी संत,महात्मा या साधु के चरित्र का संस्मरण करते है, याद करते है,पढ़ते है, स्मरण करते हैं हमें उनका संग प्राप्त होता हैं। साधु संग प्राप्त होता हैं। येषां संस्मरण मात्रेन याद है आपको! राजा परीक्षित महाराज ने कहा था शुकदेव गोस्वामी वहां उपस्थित थे या अभी-अभी पधार चुके हैं तब राजा परीक्षित ने कहा
येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुध्दयन्ति वै गृहा:।
किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभि:।।
श्रीमद्भागवतम् 1.19.33
अनुवाद: -आप के स्मरण मात्र से हमारे घर तुरंत पवित्र हो जाते हैं तो आपको देखने, स्पर्श करने, आपके पवित्र चरणों को धोने तथा अपने घर में आपको आसन प्रदान करने के विषय में तो कहना ही क्या?
वही बात है जब हम षड्गोस्वामी वृंदों का संस्मरण करते है तब हमें उनके संग का लाभ होता है, और फिर ऐसे संघ से
‘साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सङ्ग’- सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र ‘ साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय।।
हम अपनी साधना में सिद्ध होंगे। यह बात ठीक है सुन रहे हो।इंटरनेट कि समस्या चल रही हैं। यह जो षड् गोस्वामी वृंद है,यह षड् गोस्वामी वृंद एक विशेष टीम हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु के दल, मंडल अलग-अलग स्थानों में कार्यरत थें। मायापुर में, जगन्नाथ पुरी में, वृंदावन में यह तीन मुख्य स्थान है यह बेस हैं। वृंदावन के विस्तार के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इन गोसवामी यों को नियुक्त किए। सद्-धर्म संस्थापकौ ताकि वृंदावन में धर्म कि स्थापना हो! वृंदावन में वृंदावन के गौरव की पुन:स्थापना हो! इसके लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा मंदिरों का निर्माण करो!,अलग-अलग विग्रहों की आराधना करो! और ग्रंथों की रचना करो!और ब्रज में निवास करो!हरि हरि!
उन्होंने निवास किया और मूल:तहा तो यह सभी वृंदावन के ही निवासी रहे। गोलोक के निवासी, भगवान के नीत्य परिकर, पार्षद, कुछ गोपिया तो कुछ मंझरिया ही वे थे।अब भगवान कि प्रगट लीला में और भगवान प्रकट हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में इस प्रगट लीला में प्रकटीत हुए हैं, अवतरित हुए हैं। यह षड्गोस्वामी वृंद भी। वैसे प्रगट तो वे अन्य किसी स्थान पर हुए थे या जन्म हुआ। रूप सनातन रामकेली मैं रहे। रामकेली जो बंगाल में हैं।नाम भी सुंदर है रामकेली।हरि हरि! रूप सनातन कि प्रथम मुलाकात वहां हुई और फिर पुनः श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रूप गोस्वामी से..हरी हरी! प्रयागराज में मिले अश्वमेध घाट पर दस दिनों तक, श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपना सानिध्य रूप गोस्वामी को दिया। कई आदेश-उपदेश दिए।हरी हरी! और फिर पुनः रूप गोस्वामी को जगन्नाथपुरी में भी संग प्राप्त हुआ था चैतन्य महाप्रभु का। सनातन गोस्वामी जन्मे तो वैसे रूप सनातन दक्षिण भारत के कर्नाटक में। सनातन गोस्वामी को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में दो महीने मिले,खूब वार्तालाप हुआ, संवाद हुआ,जैसे श्री कृष्ण-अर्जुन का संवाद हो रहा था कुरुक्षेत्र में, वैसे ही संवाद हुआ वाराणसी में। दो महीने अर्जुन के साथ तो श्री कृष्ण का संवाद कुछ 45 मिनट का ही हुआ, लेकिन यहां सनातन गोस्वामी के साथ दो महीने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वार्तालाप कर रहे थे और क्या संवाद हुआ? वह हम पढ़ सकते हैं कृष्ण-अर्जुन का संवाद हम भगवत गीता में पढ़ते हैं।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और सनातन गोस्वामी के मध्य का जो संवाद है वह हम चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला के अंतिम अध्याय में पढ़ सकते हैं। सनातन गोस्वामी को जगन्नाथपुरी में भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपना अंग संग दिए। फिर उसी रामकेली के रहे जीव गोस्वामी किंतु जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रामकेली गए थें। रूप सनातन से मिले रूप सनातन को दीक्षा दिए। उस समय जीव गोस्वामी छोटे थे, बालक थे, शिशु थे ऐसी भी समझ है तो कुछ मिलना-जुलना, संवाद हुआ ही नहीं जीव गोस्वामी के साथ।जीव गोस्वामी के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कभी भी नहीं मिले। जब बालक थे रामकेली में तभी भी नहीं मिले देखें होंगे किंतु उनका मिलना नहीं हुआ। जीव गोस्वामी नित्यानंद प्रभु से मिले थे मायापुर में। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से जीव गोस्वामी कभी नहीं मिले। यह जीव गोस्वामी रूप सनातन के ही भाताश्री अनुपम के पुत्र थें। ये तीन गोस्वामीयो कि बात है। कहां के थें और कहां पर वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से मिलने कि बात हमने संक्षिप्त में कहीं; और फिर रघुनाथ दास गोस्वामी वह सप्तग्राम बंगाल के थें। यह भी नित्यानंद प्रभु से पहले मिले थें। श्री नित्यानंद प्रभु कि कृपा से ही वे संसार के बंधनों से मुक्त हो पाए और जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान किए।इन षड् गोस्वामी वृंदो में श्री रघुनाथ दास गोस्वामी ही अधिक समय बिताए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथपुरी में और इन्होंने ही मैंने कल भी कहा इन्होंने कई ग्रंथ लिखे और कई सालों तक, बहुत समय तक रहे रघुनाथ दास गोस्वामी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ और जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने स्व धाम लौटे, संसार में नहीं रहे, प्रगट लीला का समापन हुआ तब रघुनाथ दास गोस्वामी वृंदावन के लिए प्रस्थान किए। फिर बात आती हैं। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी! रघुनाथ भट्ट गोस्वामी वाराणसी के थें। बनारस वाराणसी का नाम हैं। अंग्रेज लोग वाराणसी को बनारस बनारस कहने लगे मुंबई को बांम्बे ऐसे कई सारे नाम है उन्होंने अपभ्रंश करते हुए उच्चारण किया करते थे नाम तो है वाराणसी जैसे नाम तो है गंगा औरअंग्रेज लोग कहने लगे गौगीज गौगीज नाम तो है गंगा।
गंगा मैया कि जय…!
गंगा मैया कहने के बजाय गौगीज। वाराणसी में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब पहुंचे वृंदावन को भेठ देकर, वृंदावन में निवास करके, ब्रजमंडल कि परिक्रमा करके चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट रहे थे तो जैसे रूप गोस्वामी को प्रयागराज में मिले और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और आगे बढ़े वाराणसी में सनातन गोस्वामी के साथ मिलन हुआ। उन दिनों में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में चंद्रशेखर के घर में निवास करते थें और तपन मिश्र के घर में भिक्षा ग्रहण करते थे, प्रसाद ग्रहण करते थे, भोजन करते थें। यह तपन मिश्र जो बंगाल के थे और तपन मिश्र से मिले थे चैतन्य महाप्रभु बंगाल में ही जब चैतन्य महाप्रभु वैसे कह सकते हैं चैतन्य महाप्रभु वेस्ट (पश्चिम) बंगाल से इष्ट(पुर्व)बंगाल में गये थें, प्रचार के लिए। यह सन्यास लेने से पहले की बात है। जब चैतन्य महाप्रभु मायापुर वासी ही थे। विष्णु प्रिया के विवाह के उपरांत, चैतन्य महाप्रभु पूर्व बंगाल गए और तपन मिश्र से मिले। तब चैतन्य महाप्रभु ने तपन मिश्र को कहा वाराणसी, जाओ तपन मिश्रा वाराणसी पहुंचे थे ।फिर जब चैतन्य महाप्रभु वाराणसी पहुंचे, वे तपन मित्र के घर पर भोजन के लिए जाया करते थे ।तपन मिश्र के पुत्र रघुनाथ भट्ट गोस्वामी थे। उस समय वह बालक ही थे ।बाल अवस्था में ही उन्हें चैतन्य महाप्रभु की सेवा और संघ का अवसर मिला। भट्ट भी दो हैं ।रघुनाथ भट्ट और गोपाल भट्ट। रघुनाथ भी दो हैं ।रघुनाथ भट्ट और रघुनाथ दास ।जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रह रहे थे तब रघुनाथ भट्ट गोस्वामी दो बार जगन्नाथ पुरी गए थे।चैतन्य महाप्रभु के संग के लिए, लीला दर्शन के लिए, उन्होंने चैतन्य महाप्रभु की लीला में प्रवेश कहो या योगदान भी ,जगन्नाथपुरी में दिया ।जब प्रथम बार वे गए तो चैतन्य महाप्रभु ने उनको वाराणसी लौटने को बोला और कहा कि जाओ अपने माता पिता की सेवा करो। तब रघुनाथ भट्ट वाराणसी लौटे थे। पर जब दोबारा गए तब वहां पर थोड़े ही समय रहे और फिर चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें वृंदावन भेज दिया। और वृंदावन के शट गोस्वामी में से एक बने ।रघुनाथ भट्ट गोस्वामी! तो यह संक्षिप्त में पांच गोस्वामियों का वर्णन है। या वे चैतन्य महाप्रभु से कहां मिले ?
गोपाल भट्ट गोस्वामी श्रीरंगम के निवासी थे ।जहां रामानुजाचार्य या श्री संप्रदाय का व्यास पीठ है ।यह तमिलनाडु में है। गोपाल भट्ट गोस्वामी वेंकट भट्ट गोस्वामी के पुत्र थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब सन्यास लिया तो जगन्नाथपुरी जाना ही पड़ा क्योंकि सचि माता का आदेश था। उनकी इच्छा थी। इसीलिए चैतन्य महाप्रभु वहां गए। वे वहां 2 महीने ही रहे और फिर दक्षिण भारत की यात्रा प्रारंभ की। यात्रा करते करते जब श्रीरंगम में पहुंचे तब चातुर्मास आया तो वह 4 महीने श्रीरंगम में वेंकट भट्ट के निवास पर रहने लगे उस समय वेंकट भट्ट के पुत्र गोपाल भट्ट छोटे बालक ही थे। जैसे वाराणसी में रघुनाथ भट्ट छोटे ही थे। चैतन्य महाप्रभु उनके घर में ही 4 महीने के लिए रहे ।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां रहे और वहां प्रसाद भी खाते थे। गोपाल गोस्वामी को चैतन्य महाप्रभु का जूठन ,महा महा प्रसाद भी मिला और सेवा भी करने का अवसर प्राप्त हुआ ।अंग संग प्राप्त हुआ। गोपाल भट्ट गोस्वामी जब बड़े हुए तो श्रीरंगम छोड़ दिया और सीधा वृंदावन चले गए ।वृंदावन धाम की जय !
गोपाल भट्ट गोस्वामी के चाचा प्रभोदानंद सरस्वती ठाकुर जिनको पहले गोपाल गुरु कहते थे, वह भी वृंदावन पहुंचे। तो वेंकट भट्ट गोस्वामी के भ्राता श्री और पुत्र दोनों ने ही वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने कई सारे ग्रंथ लिखे।
प्रबोध आनंद सरस्वती ठाकुर बोले
श्लोक,चैतन्य चन्दरामृत 46
वंचितोस्मि, वंचितोस्मि, वंचितोस्मि न संशय
विश्वं गौर रसे मग्नम स्पर्शोपि मम नाभावत
वंचितोस्मि! मुझे ठगाया गया था ।जब मैं धर्म का अवलंबन कर रहा था, प्रचार प्रसार कर रहा था। यह एक तरह से ठगाई हुई। देखो देखो !
षड्ड गोस्वामी वृंद का भी यही विचार है। गौड़ीय वैष्णवों की भी यही विचारधारा है। कैटभ धर्म है अलग-अलग नामों से जो संसार में धर्म का प्रचार होता है उसमें कुछ कमी है, कुछ अभाव होता है। कृष्ण भावना का पूरा प्रभाव नहीं होता।
प्रभोदानंद सरस्वती ठाकुर ने कहा जब मैं श्रीरंगम में था, तब मैं गौर रस से वंचित रहा। गौरंगा गौरंगा !हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, का रस या माधुर्य रस कहो।
चैतन्य चरितामृत
आदि लीला 1.4
अनर्पित चरीम चिरातकरुणयावतीर्ण कलौ
समरपायितुं उन्नत उज्ज्वल रसां स्व भक्ति श्रियं
अनुवाद: श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके ह्रदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हो ।पिघले सोने की आभा से दीप्त कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए है।
रूप गोस्वामी ने भी कहा जो अर्पित नहीं किया था ,जो पहले बाटा नहीं था वह देने के लिए चैतन्य महाप्रभु महवादन्याय प्रकट हुए ।
उत्तम उन्नत उज्जवल रस प्रदान किया। इस माधुर्य रस का आस्वादन या वितरण करने हेतु चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए ।
गौड़ीय जगत गौर रस में गोते लगा रहा था ।
शिक्षाष्टकं, 1
चेतोदर्पणमार्जनं *भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥
यह सब हो रहा था वंचितोस्मि! वंचितोस्मि! वंचितोस्मि ! इसमें कोई शक नहीं कि मैं पहले वंचित रहा। पहले मुझे ठगाया गया। उस गौर रस के सिंधु के बिंदु ने मुझे स्पर्श भी नहीं किया।
षट गोस्वामी वृंद प्रकट हुए कोई बंगाल में ,कोई वाराणसी में ,कोई दक्षिण भारत में ।और फिर धीरे-धीरे चैतन्य महाप्रभु के आदेश प्राप्त करके वृंदावन गए ।महाप्रभु ने रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को भी आदेश दिया ।वृन्दावन जाओ।गोपाल भट्ट गोस्वामी को, लोकनाथ गोस्वामी को भी बोला ,वृंदावन जाओ ।यह सन्यास से पहले था और भूगर्भ गोस्वामी भी थे ।ये दो लोग पहले-पहले वृंदावन पहुंचने वाले थे, लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ गोस्वामी ।इनका षट गोसवामियों की सूची में नाम नहीं है, पर वह गोस्वामी ही हैं।
नित्यानंद प्रभु ने जीव गोस्वामी को आदेश दिया। वृन्दावन जाओ !और धीरे-धीरे एक के बाद एक सब वृंदावन गए। चैतन्य महाप्रभु का मिशन वृंदावन में था और उसको उन्होंने सफल बनाया। हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक १७. ०२.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ६७२ स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं।
हरि! हरि!
कृष्णोत्कीर्तन- गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भो-निधी
धीराधीर-जन-प्रियौ प्रिय-करौ निर्मत्सरौ पूजितौ
श्री-चैतन्य-कृपा-भरौ भुवि भुवो भारावहंतारकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।१।।
(श्री श्री षड्- गोस्वामी-अष्टक)
अनुवाद:- मैं, श्रीरूप, सनातन, रघुनाथदास, रघुनाथ भट्ट,श्रीजीव एवं गोपालभट्ट नामक इन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो श्रीकृष्ण के नाम -रूप-गुण-लीलाओं के कीर्तन, गायन, एवं नृत्य परायण थे; प्रेमामृत के समुद्रस्वरूप थे, विद्वान एवं अविद्वानरूप सर्वसाधारण जनमात्र के प्रिय थे तथा सभी के प्रियकार्य करने वाले थे, मात्सर्यरहित एवं सर्वलोक पूजित थे, श्रीचैतन्यदेव की अतिशय कृपा से युक्त थे, भूतल में भक्ति का विस्तार करके भूमि का भार उतारनेवाले थे।
वंदे अर्थात् प्रणाम या वंदना।
हम प्रणाम करते हैं, अहम वंदे। हम किन्हें प्रणाम करते हैं?
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ
हम पहले रूप और सनातन को प्रणाम करते हैं, वंदे रूप-सनातनौ। हम हमेशा समझाते ही रहते हैं, औ मतलब दो। रूप और सनातन का नाम उच्चारण साथ में हुआ या उन दोनों का स्मरण या उन दोनों की वंदना साथ में हुई है। वंदे रूप-सनातनौ। तत्पश्चात वंदे रघु-युगौ अर्थात फिर दो रघुओं को हमारी वंदना अथवा हमारा प्रणाम। रघु-युगौ अर्थात वे दो रघु, रघुनाथ दास गोस्वामी और रघुनाथ भट्ट गोस्वामी हैं। छह गोस्वामी में से यह दो गोस्वामी हैं और इन दोनों के नाम रघु हैं। एक रघुनाथ भट्ट हैं और दूसरे रघुनाथ दास हैं, उन दोनों को साथ में प्रणाम हो रहा है। वैसे इस गोस्वामी अष्टक में सभी को ही साथ में नमस्कार अथवा वंदना हो रही है। श्री निवास आचार्य ने इस गोस्वामी अष्टक की रचना की है। रघु-युगौ, युगौ मतलब दो अथवा युगल सरकार। हम युगल जोड़ी अथवा युगल सरकार राधा और कृष्ण ऐसा कहते ही रहते हैं।
तत्पश्चात श्री-जीव-गोपालकौ अर्थात फिर दो बचे हुए गोस्वामियों को भी नमस्कार अथवा उनकी भी वंदना अर्थात जीव गोस्वामी और गोपाल भट्ट गोस्वामी को हमारी वंदना अथवा नमस्कार। आप भी वंदना करना चाहते हो या नहीं? जबरदस्ती तो नहीं है?
श्रीनिवासाचार्य हमें सिखा रहे हैं कि यह वंदनीय है, यह पूजनीय है या यह प्रातः स्मरणीय है, मैं इन शब्दों को भी समझाता ही रहता हूं। वे वंदनीय हैं अर्थात वे वंदना करने योग्य हैं। वे पूजनीय हैं अर्थात पूजा करने योग्य हैं। वे स्मरणीय हैं अर्थात स्मरण करने योग्य हैं। यह प्रातः स्मरणीय, वंदनीय, पूजनीय षड् गोस्वामी वृंद हैं ,उनकी कुछ महिमा का गान इस गोस्वामी अष्टक में हुआ है। हरि! हरि!
श्रीनिवास आचार्य स्वयं ही महान आचार्य रहे हैं। श्रीनिवास आचार्य, गोपाल भट्ट गोस्वामी के शिष्य भी रहे हैं। श्रीनिवास आचार्य आदि आचार्य त्रयः कहलाए जाते हैं। षड् गोस्वामी वृन्दों की एक टीम है, इनका एक दल है। वैसे ही तीन आचार्यों अर्थात श्यामानंद पंडित, नरोत्तम दास ठाकुर, श्रीनिवासाचार्य का एक छोटा सा मंडल है, जिन्हें आचार्य त्रयः कहते हैं। वे षड् गोस्वामी वृन्दों के समकालीन अर्थात अगली पीढ़ी भी रहे। षड् गोस्वामी वृन्द कुछ वयस्क थे और प्रस्थान कर रहे थे अर्थात उनका नित्य लीला प्रविष्ट हो रहा था। तब तीन आचार्य मंच पर पधारे अथवा आए, उनमें से एक श्रीनिवासाचार्य उच्च कोटि के आचार्य अथवा महाजन रहे। वह षड् गोस्वामी वृन्दों की महिमा का गान कर रहे हैं। श्रील प्रभुपाद भी गोस्वामी अष्टक के बारे में बता रहे हैं।
‘कृष्णोत्कीर्तन- गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भो-निधी’
मुझे याद है कि जब मैं नया भक्त था, यह वर्ष 1972 की बात है। श्रील प्रभुपाद का रिकॉर्ड था, उसमें बहुत ही गहरी आवाज और कुछ सितार वादन भी है। हमारे हरे कृष्ण लैंड जुहू में आश्रम में इसे पुन: पुन: बजाया जाता था। जब श्रील प्रभुपाद इस गोस्वामी अष्टक को गाया करते थे, मैं इसके प्रति काफी आकृष्ट होता था।
पूरा समझ में तो नहीं आता था, वैसे भी यह संस्कृत में था और इसके भाव भी गूढ़ होने के कारण यह समझ नहीं आता था। यह श्रवणीय है, मैं इसका खूब श्रवण करता था। आप भी इस रिकॉर्ड को सुना करो, क्या आपने कभी प्रभुपाद के इस रिकॉर्ड को सुना है? समीक्षा शर्मा, क्या तुमने सुना है? अपनी मुंडी( सिर) तो हिला रही हो। ढूंढो, यह आपको मिलेगा। यह उपलब्ध है। हम वंदना क्यों कर रहे हैं? ऐसे ऐसे आचार्य रहे हैं जिनके गुण के विषय में कहा जाए अथवा एक-एक आचार्य की लीला के विषय में कहा जाए जिस प्रकार प्रभुपाद लीलामृत हैं, वैसे ही इन आचार्यों की लीलाएं भी हैं। उनका गुण या उनका रूप, उनके भाव व उनकी भक्ति भी है। हरि! हरि! उनकी कृष्ण के प्रति समझ अथवा कृष्ण तत्व, अर्थात वे कृष्ण के ज्ञाता हैं। जब हम इन बातों को सुनते हैं तो हमें इन बातों को मानना पड़ेगा और झुकना पड़ेगा। फिर हम वंदना भी करते हैं।
(पहले भी ऐसा समझाया ही है।)
कृष्णोत्कीर्तन- गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भो-निधी। हम ऐसे एक-एक पंक्ति तो नहीं समझा पाएंगे। एक एक पंक्ति पर व्याख्या हो भी सकती है। किंतु कृष्णोत्कीर्तन अर्थात वे कृष्ण का कीर्तन करते हैं। वे उच्च स्वर से कीर्तन करते हैं लेकिन जब हम जप करते हैं, वह उच्च स्वर में नहीं होता है लेकिन जब कीर्तन करते हैं तब उच्च स्वर से कीर्तन होता है। नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर भी उच्च स्वर से कीर्तन करते हुए कहते थे कि उच्च स्वर से किए हुए कीर्तन का फल, कीर्तन- गान-नर्तन- अर्थात कीर्तन के साथ किए हुए नृत्य का लाभ जप की तुलना में एक हजार गुणा अधिक है। आप यह सुनकर जप छोड़ना नहीं कि अब हम कीर्तन ही करेंगे। उच्च स्वर से कीर्तन से इतना अधिक लाभ होता है तो फिर जप करने से क्या लाभ? हम जप नहीं करते। लेकिन नामाचार्य, श्रील हरिदास ठाकुर भी जप भी करते थे और उच्च स्वर से कीर्तन भी करते थे। वैसे जप का तो लाभ है ही किन्तु जप करने से हमारा खुद का उद्धार होता है अर्थात हम खुद के उद्धार के लिए जप करते हैं। जैसा कि कहते हैं कि चैरिटी बिगिंस अट होम अर्थात अगर आप को दान धर्म आदि करना है तो घर से शुरुआत करो। अपने अपने घर वालों का भी ख्याल करो। उनकी भी कुछ मदद करो। उनको कुछ दान दो या रोटी कपड़ा मकान उनको भी दो अथवा उनको कृष्ण कीर्तन दो। जब हम कीर्तन करते हैं तो अन्यों का कल्याण होता है
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ५.२५)
अनुवाद:- जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।
यह वैष्णवों का विशिष्ट है। यह उनकी खासियत है। वे क्या करते हैं?
यारे देख, तारे कह ‘ कृष्ण’- उपदेश। आमार आज्ञाय गुरु हञा तार’ एइ देश।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक ७.१२८)
अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो की वह भगवत गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिए गए भगवान श्री कृष्ण के आदेशों का पालन करें। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।
वे यारे देख, तारे कह ‘ कृष्ण’- उपदेश करते हैं ताकि औरों का कल्याण हो अथवा औरों का उद्धार हो।अन्यों का उद्धार इस उच्च कीर्तन में सम्मलित है। इसीलिए जप की तुलना में कीर्तन का अधिक लाभ है। वैसे जप का भी लाभ कुछ कम नहीं है। पर्याप्त है, पूरा है, सौ प्रतिशत लाभदायक है लेकिन कीर्तन का हजार गुणा है। हरि! हरि!
नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्-धर्म संस्थापकौ*
लोकानां हित-कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ शरण्याकरौ
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।२।।
अनुवाद:- मै, श्रीरुप सनातन आदि उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की, जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे, भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परम हितैषी थे, तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे,एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे।
षड गोस्वामी वृंद नाना शास्त्रों में निपुण थे। श्री जीव गोस्वामी द्वारा सेवित अथवा स्थापित राधा दामोदर मंदिर के बगल वाले कोर्ट यार्ड में सभी षड गोस्वामी वृंद एकत्रित हुआ करते थे। वहाँ रूप गोस्वामी स्वयं भजन भी किया करते थे। ग्रंथों का ढेर मध्य में रखा जाता था और खूब शास्त्रार्थ होता था।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( श्री मद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
उसी शास्त्रार्थ में अथवा शास्त्रों के कीर्तन में षड् गोस्वामी वृन्द तल्लीन हुआ करते थे। धर्म संस्थापकों अर्थात धर्म की संस्थापना तो उनके जीवन का लक्ष्य था। उनका मिशन भगवान के मिशन अथवा लक्ष्य से भिन्न नहीं था। भगवान प्रकट होते हैं क्योंकि भगवान् स्वयं कहते हैं कि
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय अर्थात धर्म की स्थापना के लिए भगवान प्रकट होते हैं। जब भक्त प्रकट होते हैं और वे अपने कार्यकलापों में व्यस्त रहते हैं। उनके कार्यकलापों का उद्देश्य भी धर्मसंस्थापनार्थाय होता है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं उस सुनोइड्या ब्राह्मण को मथुरा में ऐसा कहा था जिनके यहां चैतन्य महाप्रभु ने भोजन भी किया था। वहाँ सुनोइड्या ब्राह्मण कुछ ज़्यादा तो नहीं थे, कुछ ही थे। वे माधवेंद्र पुरी के शिष्य थे, तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा
धर्मसंस्थापना हेतु साधुर व्यवहार।
साधु का व्यवहार, कार्य कलाप का हेतु धर्मसंस्थापना होता है। षड् गोस्वामी वृंद वैसे ही कार्य में व्यस्त थे, उनका हर शब्द अर्थ पूर्ण है। महत्वपूर्ण है, क्या कहा जाए और क्या नहीं और कितना कहा जाए? कम ही है। हमारी समझ की भी एक सीमा है और समय की भी पाबंदी है।
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ इतने अच्छे और भावगर्भित व सारगर्भित शब्द हैं। राधा कृष्ण कैसे शब्द हैं? कैसे नाम हैं?
यह दो नाम ही वर्ण-द्वयी है
नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्ण-द्वयी।।
कृष्णेति अर्थात कृष्ण में दो ही अक्षर हैं। श्रील रूप गोस्वामी ही लिखते हैं कि इन अक्षरों में कितना अधिक आनंद है। इन दो अक्षरों में एक नाम कृष्ण बना है
तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली लब्धये कर्ण- क्रोड़- कड़म्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम। चेतः-प्राङ्गण-सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्ण-द्वयी।।
( श्री चैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 1.९९)
सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषिकेण हृषिकेश सेवनं भक्तिरूच्यते।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१७०)
अनुवाद:- भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं।
वैसे भक्ति की व्याख्या में ही कहा है।हृषिकेण हृषिकेश सेवनं। जब हम अपनी इंद्रियों से अर्थात हमारी इंद्रियों के स्वामी हृषिकेश की सेवा करेंगे।
कृष्ण का नाम हृषिकेश है अर्थात वे इंद्रियों के स्वामी हैं । उनकी स्वयं अर्थात हृषिकेश अर्थात भगवान की भी इंद्रियां हैं। भगवान की भी दृष्टि है या उनकी भी ज्ञानेंद्रियां हैं।
सकलेइंद्रियां अर्थात उनकी एक इंद्रिय भी बाकी सभी इंद्रियों का भी कार्य करती है। यह सब बातें ही बातें हैं।
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ अर्थात रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, जीव गोस्वामी, गोपाल भट्ट गोस्वामी राधा कृष्ण के भजन के आनंद में मग्न रहा करते थे।
त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति-श्रेणें सदा तुच्छ-वत्*
भूत्वा दीन गणेशकौ करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ
गोपी-भाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहुर्
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।४।।
( श्री गोस्वामी अष्टक)
अनुवाद:- मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की बारंबार वंदना करता हूँ कि, जो समस्त मंडलो के आधिपत्य की श्रेणी को, लोकोत्तर वैराग्य से शीध्र ही तुच्छ की तरह सदा के लिए छोड़कर, कृपापूर्वक अतिशय दिन होकर, कौपीन एवं कंथा (गुदडी) को धारण करनेवाले थे, तथा गोपीभावरूप रसामृतसागर की तरंगों में आनंदपूर्वक निमग्न रहते थे।
हरि! हरि! लोग ऐसा समझते हैं कि इस भौतिक जगत में कुछ सफलता नहीं मिली अथवा फेल हो गए या लव मैरिज में फेल हो गए या दिवाला निकल गया, इसीलिए वे साधु अथवा वैरागी बन गए। मूर्ख लोग ऐसा समझते हैं कि अनाड़ी लोग अथवा भोले भाई लोग भगवान की शरण में आते हैं लेकिन भगवान की समझ तो भिन्न है। भगवान कहते हैं
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९)
अनुवाद:- अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है, ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है।
बहुत जन्म जन्मांतरों के पश्चात जो ज्ञानवान है, वही भगवान की शरण में आता है। यह षड गोस्वामी वृंद पूरे ज्ञान के साथ शरण में आए थे। ये असफलता अथवा फेल हो गए अथवा यह हुआ या वह हुआ, ऐसा नही था। हमारे राजनेता कभी कभी संन्यास लेने की बात करते हैं कि यदि हम इलेक्शन में हार गए तो हम संन्यास ले लेंगे, उनका ऐसा वैराग्य मर्कट वैराग्य होता है। उसे मर्कट वैराग्य कहा जाए या श्मशान वैराग्य कहा जाए। जब तक वे श्मशान में होते हैं, तब तक वैराग्य ही वैराग्य होता है। शमशान से जैसे ही घर वापस लौटे तो वैराग्य समाप्त। वैराग्य भी श्मशान भूमि में ही छोड़ दिया। वहां कुछ योगी बनने का विचार हो रहा था किंतु पुनः भोग विलास शुरू हो जाता है। हरि! हरि! षड् गोस्वामी वृंद ऐसे नहीं थे। वे मर्कट वैरागी नहीं थे या वे शमशान वैरागी नहीं थे।
वैराग्यविद्या निजभक्तियोग शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः श्रीकृष्णचैतन्य शरीरधारी कृपाम्बुधिर्यस्तमहं प्रपद्ये।।
( श्री चैतन्य चंद्रोदय नाटक ६.७४-७५)
अनुवाद:- मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूं जो हमें वास्तविक ज्ञान अपनी भक्ति तथा कृष्ण बालामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से से विरक्ति सिखाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। विवेक कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूं।
वे सच्चे वैरागी थे। सच्चा वैराग्य और विज्ञान, सच्ची भक्ति करने से ही प्राप्त होते हैं।
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित :। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ।।
( श्रीमद् भागवतम १.२.७)
अनुवाद:- भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरंत ही अहेतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।
यह भागवत का सिद्धांत है। जो भगवान की भक्ति करता है। (पहले भक्ति या पहले वैराग्य ?) वह भक्ति से ही उच्च रस को प्राप्त करेगा।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
( श्रीमद् भगवतगीता २.५९)
अनुवाद:- देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है | लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।
जब जीव उच्च रस का आस्वादन करता है तब उसके जीवन में वैराग्य उत्पन्न होता है। उसके भावों में वैराग्य उत्पन्न होता है। तब वह इस संसार के जो प्रलोभन हैं, उसको आसानी से ठुकरा सकता है। भोग विलास के विचार या भोग विलास के साधन ठुकराने अथवा त्यागने की संभावना या शक्ति तब आती है जब भक्ति से वह शक्ति आती है। भक्ति करने से ही वह शक्ति आती है।
कलि कालेर धर्म कृष्ण संकीर्तन कृष्ण शक्ति विना नहे तार प्रर्वतन।।
( श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक ७.११)
अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
ऐसा सिद्धान्त भी हैं। षड् गोस्वामी वृंद जो
त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति हैं।
हम स्वयं ही कल उनका आविर्भाव दिवस मना रहे थे। रघुनाथ दास गोस्वामी बहुत बड़े जमींदार के बेटे थे। उनकी तुलना में बंगाल में शायद ही कोई आज इतना बड़ा जमींदार या अमीर होगा। उनके पास जेब भर कर सोने के सिक्के नहीं थे अपितु नौका भर कर सोने के सिक्के थे। क्या नागपुर में ऐसा कोई ऐसा धनवान है? या और कहीं है? वे धनाढ्य गोवर्धन मजूमदार के पुत्र थे। यहाँ वर्णित है कि
त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति-श्रेणें सदा तुच्छ-वत्
वे स्वयं बड़े-बड़े मंडलों के पति थे अथवा उनके पिता थे क्योंकि पुत्र का भी अधिकार होता है इसलिए रघुनाथ दास गोस्वामी का अधिकार होते हुए भी सारी सम्पदा उनके लिए त्यक्त्वा मानो तुच्छ-वत थी।
श्रेणें सदा तुच्छ-वत् षड् गोस्वामी उसकी और थूकते थे। हमें इसकी परवाह नहीं, यह संपत्ति तो कचरा है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। ही वास्तविक धन है।
गोलोकेर प्रेमधन हरि नाम संकीर्तन
जप करते-करते या उच्च स्वर में कृष्ण का कीर्तन व नृत्य करते हुए गोलोक वृंदावन का धन प्राप्त करो। जब हम जप करते हुए उच्चारण करते हैं तब हमें ध्यानपूर्वक उच्चारण करना होगा। तभी हमारी धनराशि में वृद्धि होगी, हमारा फिक्स्ड डिपॉजिट बढ़ेगा लेकिन इसके लिए ध्यानपूर्वक जप करना होगा नहीं तो सब कुछ माया के अकाउंट ( खाते) में डिपॉजिट हो जाएगा। माया बलवान हो जाएगी। यदि हम वैष्णव अपराध करेंगे तो माया बलवान होगी। तत्पश्चात दुर्देव से हमारे जीवन में ऐसा भी समय आ सकता है कि वही हरि नाम हमारे मुख से नहीं निकलेगा व नाम में रुचि की बजाय अरुचि उत्पन्न होगी। हम भगवान जो मंदिर में रहते हैं, की ओर मुड़ने और दौड़ने की बजाए फिल्मी चित्र आदि की और या कहीं और दौड़ेंगे। ऐसा बहुत कुछ हो सकता है। हम बहुत कुछ खो सकते हैं।
कलि काले नाम रुपे कृष्ण अवतार।नाम हैते हय सर्व जगत्निस्तार।।
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक १७.२२)
अनुवाद:- इस कलयुग में भगवान के पवित्र नाम अर्थ हरे कृष्ण महामंत्र भगवान कृष्ण का अवतार है केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है जो कोई भी ऐसा करता है उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है।
भगवत प्राप्ति जोकि हमें नाम के रूप में हो रही थी अथवा कृष्ण प्राप्त हो रहे थे लेकिन ध्यानपूर्वक अपराधरहित जप या कीर्तन नहीं करने से तब माया प्रबल होगी। ऐसा देखा जाता है और देखा गया है और इसके कई सारे उदाहरण हैं। दस नाम अपराधों में वैष्णव अपराध है। साधु सावधान! पदम पुराण सावधान करता है।
हरि! हरि!
करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ
वे अशेष -मंडल-पति अथवा बहुत धनाढ्य थे लेकिन अब वे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी व शिष्य भी बने हैं। भगवान ने रूप और सनातन को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया है। भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं बंगाल में रामकेली गए थे जहां रूप और सनातन रहते थे अर्थात जहां दबीर खास और साकर मल्लिक रहते थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उन दोनों को खोजते खोजते गए और उन्होंने इन रत्नों अर्थात रूप सनातन को ढूंढ कर निकाला। उनको दीक्षा भी दी और उनका नामकरण हुआ। वैसे रूप और सनातन नवाब हुसैन शाह के राज्य में अर्थमंत्री व प्रधानमंत्री की ऊंची पदवी पर थे।
ये सारी पदवी छोड़
त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति-श्रेणें सदा तुच्छ-वत्
अब उन्होंने कौपीन पहनी हुई है, तब उनके जीवन में ऐसा वैराग्य उत्पन्न हुआ है।
कौपीन-कन्थाश्रितौ अब उनके पास कौपीन है, कन्था अर्थात कंबल है। उनके एक हाथ में कमंडल है और दूसरे हाथ में जपमाला है। अब हम जप की थैली और माला से हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे कह रहे हैं।
गोपी-भाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहुर्
अभी तो मुझे विराम देना होगा, वे गोपी भाव के रस के सागर में मग्न थे। जैसा कि ऊपर वर्णन था
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ अर्थात षड् गोस्वामी वृन्द राधा कृष्ण के भजन में आनंद में मग्न रहा करते थे। अब यहां वर्णन है कि गोपी भाव का जो रस है या गोपी भाव के रस का जो अमृत है या गोपी भाव के अमृत का जो सागर है अथवा उपाधि है। अप मतलब जल और धि मतलब संग्रह या स्टोर, वे उसमें भी मग्न है। इतना ही नहीं वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ, मुहुर् अर्थात पुनः पुनः अर्थात हर समय मग्न थे। षड् गोस्वामी वृन्दों की जय! श्रील प्रभुपाद की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
हरि! हरि!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
17 February 2021
Path of pure devotion unfolds via the verses of Sad-Goswami-astakam
Hare Krsna! Welcome to the Japa Talk. Devotees from over 670 locations are chanting with us right now.
vande rupa-sanatanau raghu-yugau sri-jiva-gopalakau
Translation:
I offer my respectful obeisances unto the six Gosvamis, namely Sri Rupa Gosvami, Sri Sanatana Gosvami, Sri Raghunatha Bhatta Gosvami, Sri Raghunatha dasa Gosvami, Sri Jiva Gosvami, and Sri Gopala Bhatta Gosvami.
Vande means obeisances. To whom? Rupa – Sanatanau. I keep telling you this. Actually it’s Sanatana, but since both names Rupa and Sanatana are mentioned together, it is Sanatanau. Then obeisances are offered to Raghu-yugau. Yugau means two. There are the two Raghunaths – Raghunatha Das Goswami and Raghunatha Bhatta Goswami. We are offering obeisances to the 6 Goswamis together here. Srinivas Acarya composed this Sri Sri Sad-Gosvami-astaka.. In Vraja, Vrajavasis usually say “Yugal Sarkar” or “Yugal Jodi” to Radha-Krsna. After paying obeisances to both the Raghunathas, he says, sri jiva-gopalkau. Then he is offering obeisances to the youngest, Sri Jiva and Sri Gopal Bhatta Goswami. Would you like to pay obeisances to them? He is teaching us that these Goswamis are worshipable and they are worth remembering early in the morning. In this Sad-Goswami-astaka, these six Goswamis has been glorified. Srinivas Acarya, a disciple of Gopal Bhatta Goswami was also a great Acarya. Srinivasa Acarya is from the Acarya-Tri (group of 3 Acaryas). We have a group of 6 Goswamis. There was one more popular group of 3 Acaryas – Srinivas Acarya, Narottam Das Thakur and Syamananda Pandit. They were there during the same time or maybe the next generation after the six Goswamis. The Goswamis started to disappear one by one at that time. From them the highly exalted Srinivas Acarya composed the Sad- Goswami-astaka glorifying the six Goswamis.
Srila Prabhupada also sang this Sad-Goswami-astaka.
krishnotkirtana-gana-nartana-parau premamritambho-nidhi
dhiradhira-jana-priyau priya-karau nirmatsarau pujitau
sri-caitanya-kripa-bharau bhuvi bhuvo bharavahantarakau
vande rupa-sanatanau raghu-yugau sri-jiva-gopalakau
Translation:
I offer my respectful obeisances unto the six Gosvamis, namely Sri Rupa Gosvami, Sri Sanatana Gosvami, Sri Raghunatha Bhatta Gosvami, Sri Raghunatha dasa Gosvami, Sri Jiva Gosvami, and Sri Gopala Bhatta Gosvami, who are always engaged in chanting the holy name of Krishna and dancing. They are just like the ocean of love of God, and they are popular both with the gentle and with the ruffians, because they are not envious of anyone. Whatever they do, they are all-pleasing to everyone, and they are fully blessed by Lord Caitanya. Thus they are engaged in missionary activities meant to deliver all the conditioned souls in the material universe. [Sri Sri Sad-Goswami-astaka verse 1]
I remember when I was a new devotee in 1971 and I listened to the gramophone recording of Srila Prabhupada singing this astaka prayer. We played that recording in our Juhu temple again and again. He sang this several times. I was attracted to it when he sang these prayers. It was difficult to understand the meaning because it was in Sanskrit. But still this is something we should hear. I heard it a lot. All of you should also hear Prabhupada’s recording. Have you ever heard it? If not, then please listen to it. Why are they being offered obeisances? Everything is their pastimes, like Srila Prabhupada’s pastimes are captured in Prabhupada Lilamrta. The six Goswamis are being offered obeisances because of their Vaisnava qualities, their services, their mood, their understanding about Krsna. When you know about it then you have to offer obeisances to them. They were the knowers of the absolute truth. Because of this they are respected. Vande rupa sanatanau raghu-yugau- sri jiva-gopalkau.
krishnotkirtana-gana-nartana-parau premamritambho-nidhi
It is not possible to discuss each line of this astaka now, but we can give a purport on each single line. Krishnaotkirtana means that they chanted and sang Krsna’s name aloud and danced along. They say that this is a hundred thousand times more beneficial than chanting Japa. Namacarya Haridas Thakur used to do both japa and kirtan. You mustn’t stop chanting thinking that kirtan has more potency or benefits. Kirtan reaches out to more people, so it is considered to be higher. You must think of others – family members, neighbours or even passers by. Japa is for our benefit. Charity begins at home. First we do charity for ourselves and for our family. Similarly, Japa is for us, but kirtan is for the welfare of others.
sarva-bhūta-hite ratāḥ
Translation:
Those who are always busy working for the welfare of all living beings. [BG5.25]
This is the speciality of our Goswamis that they are always busy working for the welfare of others by congregational chanting or sankirtan. That is why they say it is more powerful. However the benefits of Japa are also complete. They are not incomplete.
nana-sastra-vicaranaika-nipunau sad-dharma-samsthapakau
lokanam hita-karinau tri-bhuvane manyau saranyakarau
radha-krishna-padaravinda-bhajananandena mattalikau
vande rupa-sanatanau raghu-yugau sri-jiva-gopalakau
Translation:
I offer my respectful obeisances unto the six Gosvamis, namely Sri Rupa Gosvami, Sri Sanatana Gosvami, Sri Raghunatha Bhatta Gosvami, Sri Raghunatha dasa Gosvami, Sri Jiva Gosvami, and Sri Gopala Bhatta Gosvami, who are very expert in scrutinizingly studying all the revealed scriptures with the aim of establishing eternal religious principles for the benefit of all human beings. Thus they are honored all over the three worlds and they are worth taking shelter of because they are absorbed in the mood of the gopis and are engaged in the transcendental loving service of Radha and Krishna. [Sri Sri Sad-Goswami-astaka verse 2]
Further he writes that the six Goswamis were expert in scrutinisingly studying all the revealed scriptures and would assemble in the adjoining courtyard at Radha Damodar temple in Vrindavan to be served by Srila Jiva Goswami and engage in discussions on different scriptures. Srila Rupa Goswami would sing bhajans with the scriptures in the centre.
mac-cittā mad-gata-prāṇā
bodhayantaḥ parasparam
kathayantaś ca māṁ nityaṁ
tuṣyanti ca ramanti ca
Translation:
The thoughts of My pure devotees dwell in Me, their lives are surrendered to Me, and they derive great satisfaction and bliss enlightening one another and conversing about Me. [BG 10.9]
The goal of their life was to establish religion.Their mission was the same as that of Krsna.
dharma-samsthapanarthaya
sambhavami yuge yuge
Translation:
To reestablish the principles of religion, I advent Myself millennium after millennium [BG 4.8]
Krsna appears to establish Dharma and the same motive is behind the appearance of devotees. Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu in Mathura said this to the Sanodiya Brahmin who was a disciple of Madhavendra Puri. He said that it is the nature of a devotee that he is always thinking about how he can establish Dharma more effectively.
dharma-sthāpana-hetu sādhura vyavahāra
purī-gosāñira ye ācaraṇa, sei dharma sāra
Translation:
“A devotee’s behavior establishes the true purpose of religious principles. The behavior of Mādhavendra Purī Gosvāmī is the essence of such religious principles.” [CC Madhya 17.185]
Our six Goswamis were also busy in establishing religion. I wish to explain the full astaka, but time is limited. We shall discuss as much as possible.The words that have been used are also extremely beautiful and meaningful.
radha-krishna-padaravinda-bhajananandena mattalikau
no jāne janitā kiyadbhir amṛtaiḥ kṛṣṇeti varṇa-dvayī
Translation:
I do not know how much nectar the two syllables ‘Kṛṣ-ṇa’ have produced. [CC Antya 1.99]
Srila Rupa Goswami writes that we cannot estimate how much nectar is present in these two syllables. And that too with Radha’s name. Radha and Krsna’s names are so nectarean. These names with two syllables, each are extremely nectarean and at the same time powerful also.
namnam akari bahudha nija-sarva-shaktis
Translation:
In these transcendental names, you have invested all Your transcendental energies. [Siksastakam verse 2]
Further he says that these Goswamis are engrossed in the service of the Lotus feet of Sri Radha Krsna.This is a way of saying that even if you feed the Lord or render any other service, we say that we have served the Lotus feet of the Lord.
sarvopādhi-vinirmuktaṁ
tat-paratvena nirmalam
Hrsikesa hrsikena sevanam bhaktir ucyate
Translation:
“ ‘Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and one’s senses are purified simply by being employed in the service of the Lord.’ [CC Madhya 19.170]
When you serve the senses of the Lord with our senses then you serve the Lord of our senses. Goswamis serve His senses. His senses are complete and inconceivable. Sakalendriya vriti-manti. They can perform all the activities of all the senses like eyes, ears etc but our senses are limited. The Goswamis were absorbed in the transcendental loving service.
tyaktva turnam asesha-mandala-pati-srenim sada tuccha-vat
bhutva dina-ganesakau karunaya kaupina-kanthasritau
gopi-bhava-rasamritabdhi-lahari-kallola-magnau muhur
vande rupa-sanatanau raghu-yugau sri-jiva-gopalakau
Translation:
I offer my respectful obeisances unto the six Gosvamis, namely Sri Rupa Gosvami, Sri Sanatana Gosvami, Sri Raghunatha Bhatta Gosvami, Sri Raghunatha dasa Gosvami, Sri Jiva Gosvami, and Sri Gopala Bhatta Gosvami, who kicked off all association of aristocracy as insignificant. In order to deliver the poor conditioned souls, they accepted loincloths, treating themselves as mendicants, but they are always merged in the ecstatic ocean of the gopis’ love for Krishna and bathe always and repeatedly in the waves of that ocean. [Sad-Goswami-astaka verse 4]
People usually believe that those who have failed in the material world – failed marriage or loss in business, they usually renounce and become devotees. They assume that those who are failures or innocent or not strong enough take shelter of the Lord. But it is not so. Krsna has a different opinion. He says that after many lifetimes those who are knowledgeable, they come to Me.
bahūnāṁ janmanām ante
jñānavān māṁ prapadyate
vāsudevaḥ sarvam iti
sa mahātmā su-durlabhaḥ
Translation:
After many births and deaths, he who is actually in knowledge surrenders unto Me, knowing Me to be the cause of all causes and all that is. Such a great soul is very rare. [BG 7.19]
These Goswamis take shelter of Krsna because they were knowledgeable and not because they were failures. Many times even the politicians after losing in elections, say that they will take sannyasa, but their renunciation is temporary. This renunciation is called markata-vairagya. It is like that renunciation which comes in the cemetery. Till you are down and out, you develop renunciation and as soon as you come out of that renunciation is over. You thought of being a yogi but ended up again into having enjoying mentality. Our 6 Goswamis were not like that. They were true renunciates.
vairāgya-vidyā-nija-bhakti-yoga
Translation:
Caitanya Mahāprabhu to teach us real knowledge, His devotional service and detachment from whatever does not foster Kṛṣṇa consciousness. [CC Madhya 6.254]
Srimad-Bhagavatam says that the renunciation that comes after the practice of bhakti is true renunciation.
vāsudeve bhagavati
bhakti-yogaḥ prayojitaḥ
janayaty āśu vairāgyaṁ
jñānaṁ ca yad ahaitukam
Translation:
By rendering devotional service unto the Personality of Godhead, Śrī Kṛṣṇa, one immediately acquires causeless knowledge and detachment from the world. [SB 1.2.7]
This is the principle of Srimad-Bhagavatam. By rendering devotional service, one acquires knowledge and detachment. Also the principle, param drstva nivartate when the person gets a higher taste after the practice of bhakti, he can easily give up the comforts and temporary pleasures of material life. He can resist the temptation of this material world. He can give up this material world only when they are doing bhakti. One can get strength to tolerate these temptations from devotional service.
kṛṣṇa-śakti vinā nahe tāra pravartan
Translation:
Unless empowered by Kṛṣṇa, one cannot propagate the saṅkīrtana movement. [CC Antya 7.11]
tyaktva turnam asesha-mandala-pati-srenim sada tuccha-vat
Raghunath Das Goswami was the son of a very rich landlord. They had a boat full of gold coins. Have you ever seen someone as rich as him nowadays? They were probably the richest in Bengal. It is written that he renounced all the wealth of his father. Raghunath Das Goswami left all that wealth considering it to be the lowest. He would spit on this so called wealth. He would say that the Hare Krsna maha-mantra is the actual wealth of Sri Goloka Dhama.
Golokera premadhan Hari nama-sankirtan
Translation:
The treasure of divine love in Goloka Vrndavana has descended as the congregational chanting of Lord Hari’s holy names.
By chanting, we attain this wealth of Goloka. Or Krsnotkirtana by chanting loudly, and when we perform Kirtan we are actually earning. This wealth is being deposited in our fixed deposit account. But we also need to be cautious. If we offend the holy name or devotees then at the last moment His name will not come to us. We need to chant attentively otherwise it will get deposited in the maya’s account. If maya becomes strong then at the last moment we will not be able to remember the Lord. Instead of developing a taste for the Lord, we will develop distaste. We could lose the chance of attaining Krsna by chanting His names and going to His eternal abode at the end of this life. Maya will become more powerful.
kali-kāle nāma-rūpe kṛṣṇa-avatāra
nāma haite haya sarva-jagat-nistāra
Translation:
“In this Age of Kali, the holy name of the Lord, the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra, is the incarnation of Lord Kṛṣṇa. Simply by chanting the holy name, one associates with the Lord directly. Anyone who does this is certainly delivered. [CC Adi 17.22]
If we are not chanting attentively then we are definitely chanting inattentively. Maya will become powerful. In the ten offences against the holy name, the first one is not to blaspheme devotees. It is a clear warning. Also Padma Purana warns us. Sadhu Savdhan means BEWARE O SADHU!
karunaya kaupina-kanthasritau
Although they belonged to rich affluent families after accepting the shelter of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu they wore only kopins – one single cloth. Mahaprabhu went to Ramakeli and Rupa and Sanatana Goswami were living as Nawab Dabir Khas and Sakar Malik. Mahaprabhu went out of his way to specially deliver them. He was looking for them and then he found these two jewels and initiated both of them. Rupa and Sanatan were the Prime minister and finance minister at Nawab Hussain Shah. They had top positions. They gave up those positions and now they were dressed in a single cloth and a blanket. Such renunciation developed in their hearts. They had a water pot in one hand and a bead bag in the other. They were engrossed in the chanting,
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
gopī-bhāva-rasāmṛtābdhi-laharī-kallola-magnau muhu
They were diving deep in the ocean of the nectar of Gopi bhava.They were totally engrossed in this nectarean ocean. Just now we discussed, radha-krsna-padaravinda-bhajananandena mattalikau. They were absorbed in transcendental loving service of the Lord and now again it is mentioned gopī-bhāva-rasāmṛtābdhi-laharī-kallola-magnau muhu that they are always merged in the ecstatic ocean of the gopis’ love for Krsna and always and repeatedly bathe in the waves of that ocean. dhi means ocean and ab means water. All the time they are diving deep again and again.
vande rupa-sanatanau raghu-yugau sri-jiva-gopalakau
I offer my obeisances unto such Goswamis.
Sad-Goswami-vrindo ki Jai.
Srila Prabhupada ki Jai.
Nitai Gaura premanande
Hari Haribol.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
16 फरवरी 2021
नयनें गलदश्रु-धारया वदने गद्गद-रुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥
(चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 20.36 )
अनुवाद
हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित
होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी
अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?’
यह भी प्रार्थना है कब ऐसा समय आएगा जब इन भक्तों के संस्मरण मात्र से और फिर वसंत पंचमी जैसे महोत्सव के स्मरण से शरीर में रोमांच और इत्यादि इत्यादि गौरांग ।यह सारी बातें तो दिव्य जगत की है , इस जगत के बाहर की है । वसंत पंचमी भी है , यह गोलोक की या वृंदावन की वसंत पंचमी है । हमें स्मरण करना चाहिए , आज वसंत ऋतु प्रारंभ हो रहा है और वैसे आज होली महोत्सव का भी प्रारंभ हो रहा है , आज से होली तक होली खेली जाएगी या कृष्ण खेलते थे , उनका होली का खेल वसंत पंचमी से प्रारंभ होता था । आज से वैसे काम नहीं सिर्फ खेलना , नंद बाबा कहते थे आज से तुम्हारी छुट्टी है , अभी गोचारण के लिए जाने की जरूरत नहीं है , हम संभाल लेंगे तुम लोग खेलो । कृष्णा बलराम और बालको को भी उनके पिताश्री छुट्टी देते थे और फिर कृष्ण के राधा के साथ गोपियों के साथ खेल चलते थे और इसी समय वैसे राधा भी जावंट से , जो उनका ससुराल है वहां से बरसाना जाती है , अपने मायके में रहती है तो फिर जटिला कुटिला नजर नहीं रख सकती , राधा रानी भी मुक्त है । अपने सखियों के साथ वह जहां चाहे वहां जा सकती आ सकती है कोई रोक-टोक नहीं है तो दोनों तरफ से , एक तो कृष्ण और बलराम उनका संघ है , ग्वाल बालकों को छुट्टी है और एक दृष्टि से राधा की भी छुट्टी है । अब वह बरसाने में रहेंगी लेकिन राधा का जो नंदग्राम में कामकाज हुआ करता था , नित्य लीला , हर दिन राधा रानी नंदग्राम में कृष्ण के लिए भोजन बनाने के लिए जाती है । आज के दिन भी जा रही है बरसाने से नंदग्राम , कृष्ण और मित्रों को पता है कि राधा रानी अब आने वाली है नंदग्राम में , राधा रानी प्रस्थान करती है बरसाने से पिलीपोखर तक आ गई राधा , ललिता , सखिया , गोपिया , सभी सखींवृंद , गोपियों समाज के साथ राधा रानी प्रेम सरोवर तक पहुंच गई , वह संकेत तक पहुंच गई और आगे बढ़ते बढ़ते उद्धव बैठक तक आ गई और कृष्ण और फिर बलराम भी वहां थे और मित्र भी है वह बेर कदम के पास छुपे हुए हैं । घड़ी के और देख रहे है अब आती है , अब आती है , आती ही होंगी और वह सब छुप के बैठे हैं उनके पास अभीर और गुलाल है और फिर आ गई रे तो जब सामने वह पहुंच जाती है फिर कृष्ण और मित्र भी हमला करते हैं अभीर और गुलाल इतना सारा फेकते हैं , उसी का खेल होता है बम या बाण नहीं फेकते , यहा गोली नहीं है यहा गुलाल है और फिर सारा आकाश लाल ही लाल हो जाता है , अभीर होता है तो फिर काला भी और लाल भी सारा आकाश धुंदला दिखाई दे रहा है , स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा है इसका फिर फायदा कृष्ण उठाते हैं और कृष्ण राधा रानी के साथ छेड़खानी शुरू करते हैं और जब ललिता को यह सब कृष्ण की करतूतें पता चलती है तो ललिता पहुंच जाती है और कहती है हमें हमारे कामकाज करने है , हमारी राहू देख रही होगी , पीछे हो जाओ ललिता उनको वहां से मुक्त करती है या फिर खींच कर बाहर लेकर जाती है , फिर नंदग्राम की ओर प्रस्थान करते हैं । इस प्रकार के खेल वसंत में होते है । कुसुमाकर भी कहां है इस ऋतु में फूल खिलते हैं पुष्प की वृष्टी भी होती है , इस वसंत पंचमी के खेल में पुष्पो का अभिषेक भी होता है । इस उत्सव का आज प्रारंभ होता है होली का खेल चलता ही रहता है , उत्सव चलता ही रहता है । वसंत पंचमी महोत्सव की जय। आज सरस्वती पूजा भी है । ऐसी नरसिंह भगवान की प्रार्थना है वाभीशा , वचनों की स्वामिनी है , भगवान के मुख में जिसका निवास है या भगवान बोलते हैं तो यह भगवान की दिव्यध्येय श्रुयते कई सारी शक्तियां भगवान की सेवा में उपस्थित है सदैव तत्पर रहती है उसमें ध्यान शक्ति भी कहिये इस रूप में भगवान की सेवा करती है और ज्ञान देती है । जब विद्यारंभ होता है तब सरस्वती का पूजन होता है । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अभी बालक थे उनका भी विद्या आरंभ हुआ तब सरस्वती पूजा हुई और उनसे लिखवाया जा रहा था , लिखो और कहो , क ख ग घ कहो तब चैतन्य महाप्रभु कहते हैं क ख ग घ तब कई सारे लोग जो वहां उपस्थित हुआ करते थे जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का विद्यारंभ हो रही थी । सरस्वती पूजन होता ही है विद्याआरंभ के समय तब चैतन्य महाप्रभु जादा कुछ नहीं कह रहे थे वर्णमाला का ही उच्चारण कर रहे थे , उनको सिखाया जा रहा था वह उसके पीछे उच्चारण करते थे वह सुनने के लिए । गौरांग उस समय के वह नीमाई , नीमाई बोल रहा है ज्यादा कुछ नहीं बोल रहा है , मुळाक्षर ही बोल रहा है लेकिन चैतन्य महाप्रभु के मुख से निकल रहा है या सरस्वती निकलवाती थी उसको सुनने के लिए कितनी सारी भीड़ रहती थी और बड़े ध्यान के साथ उसका श्रवण कर रहे थे बहुत सारी संख्या में श्रोता बाहर इकट्ठा हुए थे वह भगवान को देख रहे थे , भगवान विशेष कथा का पान करावा रहे होंगे कह तो रहे थे क ख ग घ रोमांचित होते थे । जब लौटने लगते थे चैतन्य महाप्रभु कह रहे है उनका वचन सुन रहे हैं । सरस्वती मैया की जय । सरस्वती इस ब्राह्मांड भी है और सरस्वती भगवत धाम में भी है , गोलोक में भी है ।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
(श्रीमद भागवतम 1.2.4)
अनुवाद विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमद्भागवत का पाठ करने (सुनने) के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान् नारायण को, नरोत्तम नर-नारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रंथकार श्रील व्यासदेव को नमस्कार करे।
सर्वत्र पुराणों में या पुराणों के प्रारंभ में सूत गोस्वामी जब प्रणाम करते हैं तब जिनको जिनको वह प्रणाम करते है उसमें सरस्वती भी है इनको नमस्कार करने के उपरांत , उनको नमस्कार करने के उपरांत सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूं , फिर व्यास देव को मैं नमस्कार करता हूं । उसकी एक सूची है जिनको जिनको सूत गोस्वामी प्रणाम करते हैं और प्रणाम करने के उपरांत फिर ओम नमो भगवते वासुदेवाय कथा सुनाते हैं उनमें सरस्वती भी है जीनको प्रणाम , नमस्कार वह करते है । श्री पुंडरीक विद्यानिधी थे , राजा वृषभानु ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला में प्रकट हुए ।
तप्त कांचन गौरांगी राधे वृंदावनेश्वरी वृषभानू सुते देवी प्रणमामी हरि प्रिये राधा रानी वृषभानु सुता है , राजा वृषभानू की पुत्री है । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में पुत्री प्रकट हुई है , राधा प्रकट हुई है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रुप में ,
श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नाही अन्य और वैसे राधा रानी , पंचतत्व में जो गदाधर है श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्त वृंद अद्वैतगदाधर , यह जो गदाधर है यह भी राधा रानी ही है , राधा रानी गदाधर के रूप में प्रकट हुई है और एक श्री गदाधर करके भी है वह भी राधा रानी की आभा या कांति का प्राकट्य अवतार माना जाता है । दो , तीन रूप में वह प्रसिद्ध है ही , राधा रानी प्रकट हुई तो राजा वृषभानु जब प्रकट हुए और वह आज के दिन प्रकट हुए हैं , आज उनका प्राकट्य दिन या जन्मदिन है , बसंत पंचमी के दिन व प्रकट हुए । पुंडरीक विद्यानिधि राजा वृषभानु है , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेम से उनको पिता के रूप में या पुत्री और पिता के प्रति जैसा स्नेह होता है वैसा ही स्नेह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का पुंडरीक विद्यानिधी के साथ था । हरि हरि । कई बार वह पुंडरीक विद्यानिधि , पुंडरीक विद्यानिधि ऐसा जोर-जोर से पुकार रहे थे तब पुंडरीक विद्यानिधि बंगाल में या बांग्लादेश में कहना चाहिए प्रकट हुए थे । पुंडरीक विद्यानिधी ऐसा गौरांग महाप्रभु जोर-जोर से पुकार रहे थे उनको विरह महसूस हो रहा था । वह पुंडरीक विद्यानिधि को पुनः मिलना चाहते थे तब पुंडरीक विद्यानिधि बांग्लादेश से नवद्विप आते हैं और फिर वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ भी मिलन होता है , लेन देन होती है और जो स्नेह है पुत्री और पिता के बीच में का वैसा दर्शन गौरांग महाप्रभु और पुंडरीक विद्यानिधि के मध्य में हुआ करता था और पंचतत्व की श्री गदाधर जो राधा रानी ही है वह पुंडरीक विद्यानिधि से ही दीक्षित हुये । पुंडरीक विद्यानिधी को अपना गुरू बनाए और फिर कई सारी लीलाएं हैं । फिर वह श्री गदाधर पंडित की पुंडलिक विद्यानिधी के साथ पहली मुलाकात कैसी हुई , कैसे मुकुंद ले गए थे उसके बड़े विस्तार से वर्णन चैतन्य भागवत में किया गया है । इससे परिचय भी होता है जब हम पढ़ेंगे पुंडरीक विद्यानिधि का भाव और भक्ति का जो वहां दर्शन हुआ और उससे प्रभावित होके गदाधर पंडित उनके शिष्य बने ।
श्री पुंडरीक विद्यानिधि अविर्भाव तिथी महोत्सव की जय । आज के दिन 500 से अधिक वर्ष के पूर्व की बात है वह प्रकट हुये फिर रघुनंदन ठाकुर , श्री रघुनंदन ठाकूर का भी आज अविर्भाव , जन्मोत्सव है । यह श्रीखंड नाम के खाने का नहीं (हसते हुये) श्रीखंड नाम के स्थान के निवासी थे और मुकुंद दत्त के पुत्र रहे । हरि हरि । एक समय ऐसे उच्च कोटि के महात्मा या भक्त उतरे थे । श्री रघुनंदन ठाकुर पिताश्री से भी कुछ बढ़-चढ़कर ही थे , उनकी भक्ति , भाव तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने एक समय पुछा , ” मुकुंद ! तुम और रघुनंदन मे से पिता कौन है और पुत्र कौन है ?” (हंसते हुए) प्रश्न बडा अजब गजब का है । पिता से पूछ रहे हैं , “मुकुंद तुम पिता हो कि तुम्हारा पुत्र तुम्हारा पीता है ?” इसके जवाब में मुकुंद पिताश्री ने कहा , ” मेरा पुत्र ही मेरा पिता है । ” रघुनंदन मेरा पिता है मैं पुत्र हू । जिसको वयोवृद्ध कहते हैं , वय , उम्र के दृष्टी से मैं वृद्ध हू ,पीता हूं मैं लेकिन जब ज्ञान की बात है , भक्ती की बात है , समझदारी की बात है , भक्ति की उचाई की बात है , गहराई के बात का विचार करेंगे तो मैं मेरे पुत्र को अपने पिता के रूप में मानता हूं ।” ऐसा मुकुंद श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से कहते हैं । रघुनाथ दास गोस्वामी महाराज की जय । यह षठ गोस्वामी वृंदो में से एक रहे हैं , इतने बड़े सप्तग्राम के जमींनदार , मजूमदार के पुत्र थे लेकिन ना तो उनको संपत्ति बांध सकी ना तो कोई सुंदर युवा पत्नी उन्हें बांध सकी। सारे बंधन तोड़ के वह जगन्नाथपुरी को प्रस्थान किए और गौरांग महाप्रभु के शरण में आए। फिर एक और गौरांग महाप्रभु खींच रहे थे तो एक और माया खींच रही है और दूसरी और कृष्ण की रहे है, तो फिर जीत किसकी होगी? यह खींचातानी है जिसमें माया एक और और कृष्ण एक और खींच रहे हैं तो किसकी जीत होती है? श्रीकृष्ण की जीत होती है! तो कृष्ण की जीत हुई और उसी के साथ रघुनाथ दास गोस्वामी की जीत हुई और वे सारे माया के बंधन छोड़ छाड़ के आशापाशशतैर्बद्धा: श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को प्राप्त किए। और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे वह एक दैनंदिनी रखते थे जिसमें चैतन्य महाप्रभु के साथ हर दिन के उनके अनुभव, लीलाएं, कथाएं और जो भी घटनाएं घटी थी वह उसमें लिखा करते थे। और फिर जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नहीं रहे, अपने धाम लौट गए तो तब रघुनाथ दास गोस्वामी ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के,
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥
शिक्षाष्टकम
अनुवाद: हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है ॥
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बिना जीना तो क्या जीना? या बेकार का जीना! ऐसा लगा और वृंदावन आकर वह जान देना चाहते थे और फिर वृंदावन पहुंचे तो रूप और सनातन जान गए कि, रघुनाथ दास क्या सोच रहे है। वे आत्महत्या क्या विचार कर रहे थे। तो उन्होंने उनको समझाया तो फिर रघुनाथ दास शांत हुए और फिर आगे के 40 वर्ष में राधा कुंड के तट पर वृंदावन में रहे और वृंदावन के भक्तों को उन्होंने अपना संघ दिया और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आंखों देखा वर्णन उन्होंने लिखा भी था और वे सुनाया भी करते थे। तो सुनने वालों में से कृष्णदास कविराज गोस्वामी भी थे जो राधा कुंड की तट पर रघुनाथ दास गोस्वामी के पास में उनकी कुटिया थी, तो जिन्होंने चैतन्य चरित्रामृत की रचना की तो फिर रघुनाथ दास गोस्वामी उनका अद्वितीय सा वैराग्य रहा!
वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य़ोग- शिक्षार्थमेक:पुरुष:पुराण:।
श्री-कृष्ण-चैतन्य-शरीर-धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।।
(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला,6.254)
अनुवाद: -मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूंँ, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के हिंदू होने के कारण अवतरित हुए हैं।मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूंँ।
वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य़ोग- शिक्षार्थमेक:पुरुष:पुराण:। तो रघुनाथ दास गोस्वामी का वैराग्य! वैसे सारे षड गोस्वामी वृंद वैरागी थे लेकिन, रघुनाथ दास गोस्वामी का वैराग्य अद्भुत था। रघुनाथ दास गोस्वामी की जय! और विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का भी आज तिरोभाव अतिथि महोत्सव है और वह भी एक समय 250 या 300 वर्ष पूर्व की बात है, जब विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस संसार में थे। और राधा कुंड के तट पर ही उनका निवास था। और उस समय वे गौड़ीय संप्रदाय के रक्षक रहे और उन्होंने कई सारे ग्रंथों की रचना और भागवत पर कई सारे टिकाए लिखी है। उनकी टीका प्रसिद्ध है। वैसे मैं सभी का नाम ले रहा हूं यह परिकर नित्यसिद्ध थे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के श्री कृष्ण के नित्यपरिकर, गोलोकपरिकर थे। इसलिए हम कहते रहते है, केवल भगवान ही अवतार नहीं लेते भगवान के भक्त भी अवतार लेते है! जब भगवान अवतार लेते है तो अकेले नहीं आते उनके साथ कई सारे परिकर प्रकट होते है। ऐसे ही परिकर में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर रहे और रघुनाथ दास गोस्वामी भी रहै, रघुनंदन ठाकुर भी रहे और पुंडरीक विद्यानिधि भी रहे। और कृष्ण लीला में गोलोक में वह कौन थे? यह भी हम पढ़ सकते है या जान सकते है। उसके लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के ग्रंथ लिखा है उससे वे हम जान सकते है कि, कृष्ण लीला में एक वह कौन थे और महाप्रभु केला में कौन बने। तो विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के बारे में क्या कहना? उन्होंने गायत्री मंत्र पर भी एक भाष्य लिखा है। और जब भाष्य लिखते है तो उनको लग रहा था कि, गायत्री या उसमें भी जो काम गायत्री है 21 अक्षर होने चाहिए। किंतु कृष्णदास कविराज गोस्वामी तो चैतन्य चरित्रामृत के मध्य लीला के 21 अध्याय में काम गायत्री में 24.5 अक्षर है ऐसा कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखे है। और विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर संख्या गिन रहे थे तो उनको यह हिसाब ठीक नहीं लग रहा था कि, 24.5 कैसे? 24 या 25 हो सकते है! लेकिन 24.5 नहीं होने चाहिए। तो अलग-अलग पद्धति से संख्या का गनर होता है तो विश्वनाथ चक्रवर्ती सोच रहे थे और कृष्णदास कविराज गोस्वामी तो लिखे है कि, 24 अक्षर है। तो द्विधा में पड़े और सोच रहे थे कि इसका उत्तर या सही उत्तर मुझे प्राप्त नहीं होगा तो मैं अपनी जान दे दूंगा! या फिर मैं क्यों सोच रहा हूं? कि यह 24.5 नहीं है या 24 है या 25 है तब उस समय विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर को साक्षात राधारानी का दर्शन होता है और साक्षात राधा रानी उनको बताती है कि, हां हां 24.5 अक्षर ही है!
कृष्णदास कविराज गोस्वामी जो लिखे है, यह सही है। और कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने पूरा हिसाब किताब लिखा है। और 24.5 अक्षरों को वह 24.5 चंद्र भी कहते है। कृष्ण चंद्र है! तो कितने चंद्र है? कोटि-कोटि चंद्र है! लेकिन 24.5 चंद्र जिनके सर्वांग में है तो इसीलिए भगवान कृष्ण चंद्र या चैतन्य चंद्र कहलाते है। तो कृष्णदास कविराज गोस्वामी बताए है, मध्य लीला के 21 वे अध्याय में जिसका वर्णन वैसे चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में किए थे। जब यह बताते हैं तो कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखे हैं कि, भगवान का जो सर्वांग है यह एक आसन है और इस आसन पर भगवान का मुख मंडल एक चंद्र है! और मुख्य चंद्र है, चंद्र का राजा है! तो भगवान के शरीर को आसान बना कर यह मुख्य चंद्र विराजमान है। और वे लिखते हैं कि, भगवान के जो कपूर है वह दो है, फिर भगवान जो कस्तूरी तिलकं या चंदन का गोलाकार तिलक लगाते है वह भी एक चंद्र है हुआ यह चौथा चंद्र हुआ। आप गिनते जाइए! आगे आगे बड़ी गिनती आने वाली है! और भगवान के जो मस्तक है अष्टमी के चंद्र के आकार का है यह आधा चंद्र है। तो भाल तिलक के मध्य में है तो उसको भी आधा चंद्र बोले है। तो कितने हुए? 4.5 चंद्र हुए! अब भगवान के जो दोनों हाथों की उंगलियां और नाखून है इसमें 5 और उस हाथ में 5 है, वह नाखून भी चंद्र है। वह 10 चंद्र हुए और भगवान अपने उंगलियों से जो मुरली बजाते हैं तो कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि, मुरली के जो नाद है वह कृष्ण का यशोगान करते है। ठीक है! और फिर चरणकमल! तो चरण कमलों के जो नाखून है वह भी 10 हुए।
तो बताओ कितने हुए? 24.8 हुए कि नहीं? और भगवान के चरणों में पायल की झंकार या नूपुर जो बजते है तो वह नूपुर के जो नाद है, तो यह नाद चरण के जो चंद्रमा है उनके आवेदन करते है। तो उनका जब गान करते है, तो नूपुर से वह नाद निकलती है। तो इस प्रकार वे कृष्णदास कविराज लिखते है। तो ऐसे कृष्णचंद्र क्या करते है? राधारानी को घायल करते है! आपने कृपाकटाक्ष से घायल करते है! और अपनी नजर से या कृष्ण की जो भौंवे है वह धनुष है और उनकी आंखें बाण है और भगवान के जो कान है वह प्रत्यंचा है! और जब प्रत्यंचा को खींचकर आंखों के बान को भौंवे की धनुष्य से प्रहार करते है, तब राधारानी घायल हो जाती है! तो यह विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस गायत्री मंत्र पर अपना भाष्य लिखे है। गायत्री मंत्र! और उसके ऊपर भाष्य! कामगायक गायत्री को समझ में या उसके भावार्थ को समझना यह विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ही समझते है! तो इनके फिर शिष्य है गौडीय वैष्णव वेदांताचार्य बलदेव विद्या भूषण! जिन्होंने गोविंद भाष्य लिखा। गौडीय वैष्णव की ओर से वेदांत सूत्रों पर भाष्य लिखे हुए गौडीय वेदांताचार्य बलदेव विद्याभूषण! जो शिष्य थे विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के! तो ऐसे शिष्य महान तो गुरु कितने महान होंगे? और फिर फिर श्रीमती विष्णुप्रिया का भी आज आविर्भाव तिथि महोत्सव है। एक रही लक्ष्मी प्रिया और वह वह जब नहीं रही तब शचीमाता ने अपने पुत्र का दूसरा विवाह किया। निमाई का दूसरा विवाह हुआ विष्णु प्रिया के साथ हुआ।
और वह महोत्सव बड़े धूमधाम के साथ मनाया गया था। और फिर विवाह ज्यादा समय तक नहीं टिका क्योंकि चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लिया और उसके उपरांत विष्णु प्रिया कि विरह की व्यथा को कौन जान सकता है! फिर घर में रहे शचीमाता की विष्णुप्रिया सेवा कर रही थी। और विष्णु प्रिया अपना अधिकतर समय हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करने में बिताती थी। एक मंत्र या एक माला कहती तो एक चावल का दाना अलग रखती थी, तो इस प्रकार जब के उपरांत जितने भी चावल इकट्ठे होते थे उनको पका के गौरांग महाप्रभु को भोग लगा थी और उसी से उनका गुजारा होता था। ऐसा तपस्या का जीवन और नाम संकीर्तन का भी जीवन वह जीती रही। और महाप्रभु के विग्रह की आराधना वह किया करती थी। वह विग्रह धामेश्वर महाप्रभु! जो आज का नवद्वीप धाम का मंदिर है, वहां के विग्रह है। वहां उनकी पूजा विष्णु प्रिया ने की जब चैतन्य महाप्रभु ने सन्यास लिए। भगवान के विग्रह की आराधना वह करती थी और उसी मंदिर में चैतन्य महाप्रभु की पादुका भी है। और जब हम जाते हैं दर्शन के लिए तब वहां के पुजारी, वहां के पादुका आपके सिर पर रख सकते है। जहां की पादुका की सेवा विष्णु प्रिया ने भी की थी।
विष्णुप्रिया आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
15 फरवरी 2021
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद
श्री अद्वैत गदाधर श्री वासादि गौर भक्त वृन्द।।
आज 630 स्थानो से लोग जप कर रहे हैं,अब यह 670 है नहीं 674, गिनती बढ़ रही है!
दिव्यद वृंदारण्य कल्पड्रुमद, श्रीमन रत्नागार सिंहासनस्थो ।
श्री श्री राधा श्रील गोविन्द देवो, प्रेष्ठालिभी सेव्यमानो स्मरामी ।।
(चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला १.४)
अनुवाद:- जो श्री श्री राधा गोविंद वृंदावन के एक स्वर्ण आभूषित मंदिर में एक कल्प वृक्ष के नीचे एक दीप्तिमान सिहासन पर विराजमान है और अपने सबसे आंतरिक संगियों के द्वारा सेवित हैं,मैं उन्हें अपना सबसे विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूं।।(अभिधेय विद्या प्रणाम)
हमने देवी देवताओं को गोलोक में स्थानांतरित कर दिया है या कल वृंदावन स्थानांतरित कर दिया हैं।नहीं,हमने उन्हें स्थानांतरित नहीं किया है,वे वहा पहुंच गए हैं। भगवान की कृपा से वे वृंदावन पहुंच गए हैं,वे गोलोक वृंदावन पहुंचे हैं न कि गोकुल वृंदावन।
आज जप के सुबह के सत्र में, मेरे मन में वृंदावन के विचार आ रहे थे। फिर मैंने सोचा कि चलो हम जप और कीर्तन करते हुए व्रज यात्रा करें। हम वृन्दावन यात्रा करें; ब्रज मंडल यात्रा। मैंने कृष्ण बलराम मंदिर से यात्रा शुरू की और मैं कई जगहों पर नहीं जा सका क्योंकि मेरे विचार जहां भी गयें मैं उसी स्थान पर ही अटक गया।मैं उस जगह पर हुई लीलाओं को याद करने लगा।सबसे पहले मैं भातरोंड गया। परिक्रमा में प्रथम दिवस प्रथम स्थान जहां परिक्रमा पहुंचती है वह स्थान भातरोंड कहलाता हैं।हरि हरि।।
यज्ञ पत्नियों ने भगवान को और भगवान के मित्रों को अशोक वन में कई सारे व्यंजन खिलाए,संभवतः उसमें भात के चावल के व्यंजन अधिक होने के कारण उस जगह को भातरोंड कहां जाता है जहा भात खिलाई गई भगवान को ,जहा खीर खिलाइ गई।मैं इस लीला का स्मरण करता रहा इसलिए वहीं पर काफी समय बीत गया।थोड़ा आगे बढ़ा तो अक्रूर घाट पहुॅंचा, मैं मानसिक यात्रा कर रहा था। हरि हरि।।इस मानसिक परिक्रमा में मन आत्मा से अलग नहीं था,मन आत्मा ही बन चुका था।कई सारे कृत्य मानसिक होते हैं,आध्यात्मिक कृत्य भी कई सारे मानसिक होते हैं।हमें लगता है कि मन कर रहा है पर उनको करने वाला तो आत्मा ही होता है।जो मन आत्मा के अधीन है और हमारा मन तब आत्माराम बन के स्मरण करता हैं।मन भी स्मरण ही कर रहा है
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।18.65।।(भगवदगीता)
मन मना शब्द में मन नहीं है वैसे जैसा मैंने कहा मनमना मतलब मतमना।।तुम्हारा मन मुझ में लगाओ। तो मैं अक्रूर घाट की लीलाओं का स्मरण कर रहा था।अक्रूर घाट की जय।। तो मन वही अटक गया, मैने वही काफी समय बिताया।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस महामंत्र का जप भी चल रहा था और लीलाओं का स्मरण चल रहा था। मैं अक्रूर घाट में था इसलिए वहां की लीलाओं का स्मरण चल रहा था।अक्रूर घाट मैं कई बार, 50 बार तो कम से कम गया ही होउगा।और 50 बार वहां बैठकर मेने वहां की लीलाओं का श्रवण,कीर्तन और स्मरण भी किया ही है तो इस प्रकार अभ्यस्त होने से,ऐसा अभ्यास करने से मन नियंत्रित होता है।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्|
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ||(6.35भगवद गीता)
मन चंचल और अस्थिर है।अर्जुन ठीक ही तो कह रहे हैं कि मन चंचल और अस्थिर है। अस्थिर और चंचल मन पर भी नियंत्रण रखा जा सकता है क्या करें?अभ्यास करो। मन को नियंत्रित करने का अभ्यास करो या मन से प्रचार करो,कृष्ण का स्मरण करो,अभ्यास करना है।अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। 2 शब्दों का प्रयोग भगवान ने गीता के छठवें अध्याय में किया है जहां भगवान ने ध्यान की बातें की है या अष्टांग योग की बातें की हैं। कृष्ण की सलाह या उपदेश है कि चंचल मन को कैसे काबू में लाया जा सकता है।चंचल मन को कैसे शांत किया जा सकता है।”अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते”,अभी इस पर व्याख्या तो नहीं करेंगे लेकिन हम आपको याद तो दिलाएंगे ही कि कैसे मन को नियंत्रण में लाया जाए। यह दो बातें यहां पर कृष्ण नें कहीं हैं,कृष्ण तो सबसे बड़े प्रमाण हैं।मन किसका है?अंततोगत्वा मन तो भगवान का ही है।पंचमहाभूत भगवान के हैं।मन,बुद्धि और अहंकार यह भगवान की प्रकृति है। भगवान है पुरुष और उनकी है प्रकृति।पंचमहाभूत- पृथ्वी,वायु,जल, अग्नि और आकाश यह भी प्रकृति ही है और मन बुद्धि अहंकार यह भी प्रकृति ही है।पंचमहाभूत तो है लेकिन और भी तो कुछ हैं,मन बुद्धि और अहंकार यह भी सूक्ष्म तत्व है,धातु है या प्रकृति है और प्रकृति तो भगवान की प्रकृति है।मन का स्वभाव ही है चंचल होना। मन की क्या पहचान है? मन चंचल होता है।अर्जुन ने जब कहा था चंचलम ही मनह कृष्ण।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। (भगवदगीता 6.34।।)
हे कृष्ण।कृष्ण को संबोधित करते हुए अर्जुन ने कहा-मेरा मन चंचल है भगवान ने कहा,हां तुम्हें मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है मैं भली-भांति जानता हूं,मेरा ही तो मन है।मैंने ही बनाया इस मन को, तो उसके चंचलय को भी मैं भली-भांति जानता हूं। अर्जुन ने कहा- आप मन को नियंत्रण करने कि बात कर रहे हो,पर शायद मैं आंधी तूफान को रोक सकता हूं किंतु इस मन को रोकना बहुत ही कठिन है प्रभु।तो भगवान ने कहा हां,ठीक कह रहे हो कठिन तो है किंतु असंभव नहीं है असंभव कार्य को संभव करना संभव है।असंभव को भी संभव किया जा सकता है।मन को नियंत्रण में लाया जा सकता है तो क्या करें इसके लिए?भगवान ने कहा है इसके लिए,एक तो कहा है अभ्यासेन तु कौन्तेय,अर्जुन ने कृष्ण को संबोधित करते हुए कहा था,हे कृष्ण। किंतु अब कृष्ण अर्जुन को कह रहे है,कौन्तेय या अभ्यासेन तु कौंतेय, मन चंचल तो है किंतु यहां किंतु है अभ्यासेन तु कौंतेय।अभ्यास करो। अभ्यास अभ्यास अभ्यास और वैराग्य।इन दो शब्दों का उपयोग करते हुए भगवान ने कहा हैं,यह दो साधन है। प्रतिदिन अभ्यास करो।साधना करो।क्या करो?एक अभ्यास करो और अभ्यसत हो जाओ। अभ्यास करो वैराग्य के साथ। राग मतलब आसक्ति और विराग मतलब विपरीत राग मतलब अनासक्ति।अनासक्त हो जाओ।आसक्त नहीं अनासक्त हो जाओ।अनासक्ति का अभ्यास करो।हरि हरि।।
प्रात: काल ब्रह्म मुहूर्त में उठो। वैसे तो आसक्त हो तुम,हिरण्यकशिपु की तरह ही हो।संसार के बद्द जीव सोने और सोने से आसक्त हैं।हिरणय मतलब गोल्ड या हिरणय मतलब सोना और कशयपु मतलब भी सोना। सोना और सोना। तो इसलिए सोने और सोने से आसक्त है यहां के जीव। एक तो कामिनी और कांचन। कामिनी यानी हमारी काम वासना की पूर्ति। हम कामवासना पूरी करने का प्रयास करते हैं।तो इसलिए कहा गया हैं कामिनी या फिर हो सकता है कि स्त्री स्वयं काम ही है। जिसमें काम है जो काम की मूर्ति भी हो सकती है उसे कह सकते हैं कामिनी। पुरुष को कामी कहेंगे और स्त्री को कामिनी कहेंगे।तो जो आसक्त है कामिनी या कांचन से,सोने और सोने से।सोना मतलब गोल्ड और दूसरा सोना मतलब बिछावन पर सोना या आनंदोपभोग करना।सोना भी आनंदोपभोग करना ही है।और फिर कामिनी भी है फिर और क्या कहना।
इस प्रकार से जो आसक्त है। तो वैराग्य मतलब कामिनी यानी कांचन्य से दूर रहो अनासक्त हो जाओ या फिर प्रातः काल में ही जिस मीठी नींद के जो आप आदि हो या और भी जो काम धंधे करते होंगे ब्रह्म मुहूर्त में लेटे लेटे उसको छोड़ो, त्यागो, ठुकरा दो। बिस्तर से कूद जाओ। जीव जागो जीव जागो गोरा चंद्र बोले ।गौरांग महाप्रभु बुला रहे हैं ।
“जीव जागो जीव जागो, गौरचांद बोले कोत निद्रा जाओ माया पिशाचीर-कोले”।।
माया कि गोद में कब तक सोए रहोगे?कृष्ण कह रहे हैं अभ्यास से या वैराग्य से यह संभव होगा। तो मैं यह कह रहा था कि जब मैं आज अक्रूर घाट में पहुंचा जप करते-करते,तो फिर अक्रूर घाट की कई सारी लीलाओं का मैं स्मरण कर रहा था और मैंने यह भी कहा कि कई बार मैं वहा गया था और कई बार वहां मैंने श्रवन किया या कीर्तन भी किया।लीला कीर्तन या लीला श्रवण हुआ।जब लीला कीर्तन श्रवण होता है तो स्मरण भी होता ही है।स्मरण का ही हमने अभ्यास किया।अभ्यास सेन तु,अक्रूर घाट गया और वहां जाकर मैंने अभ्यास किया।श्रवण कीर्तन का अभ्यास किया और श्रवण करते करते करते स्मरण होने लगा और आसानी से या फिर वह स्वभाव बन गया। अभ्यस्त हो गया,अभ्यास से और वैराग्य से।हरि हरि।। तो परिक्रमा में जब जाते हैं तो वैराग्य और तपस्या तो होती ही है और सुविधा भी है,तो जब यात्रा में जाते हैं दर्शनार्थी बनते हैं तो तपस्या होती ही है।वाचिक तपस्या होती है और मन से तपस्या करते हैं और शरीर से तपस्या होती है।कायेन मनसा वाचा हम तपस्या करते हैं
ऋषभदेव भगवान अपने 100 पुत्रों से कह रहे थे,उनके 100 पुत्र थे उस लीला में।वैसे तो वह भगवान हैं,उस लीला में उनके 100 पुत्र थे। वैसे तो हम भी उन्हीं के पुत्र हैं उन्होंने अपने पुत्रों से कहा -है पुत्रों, तपस्या करो तपस्या करो।वास्तव में हमारी भारत भूमि तपस्या की भूमि है।
भारत माता की जय।भारत माता के पुत्र विभिन्न तपस्या करते हैं इसलिए हम उसे भारत माता कहते हैं हम कभी भी अमेरिकन माता नहीं कहते क्योंकि अमेरिका या दूसरे विदेशी देश इंद्रतृप्ति की भूमि है परंतु भारत,भारत तपस्या की भूमि है इसलिए भारत माता की जय।। और उन सब की जय जो ऐसी तपस्या करते हैं ।ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को कहा कि मेरे प्रिय पुत्रो, तपस्या करो, मेरे लिए तपस्या करो मुझे पाने के लिए तपस्या करो इसे कहा जा सकता है दिव्य तपस्या। कृष्ण ने भगवत गीता में कहा है
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। भगवदगीता 9.27।।
अपनी सभी तपस्याओं को मुझे अर्पण करो जो भी खाओ मुझे अर्पण करो जो भी दान करो मुझे अर्पण करो जो भी त्याग करो मुझे अर्पण करो और इसी सूची में तपस्या भी एक है,भगवान कह रहे हैं कि मेरे लिए तपस्या करो।हर कोई कुछ ना कुछ तपस्या कर ही रहा है और बहुत ही असुविधाजनक परिस्थिति में तपस्या कर रहा है लेकिन इस तपस्या को दिव्य तपस्या नहीं कहा जाएगा। अगर हमारी तपस्या दिव्य है तो भगवान ऋषभदेव ने श्रीमदभागवतम के पंचम स्कंध में बताया है।प्रभुपाद बहुत बार उदाहरण दिया करते थे ऋषभदेव अनासक्ति की बात कर रहे हैं ।उन्होंने कहा कि तुम शुद्ध हो जाओगे।हमारे विचार और भावनाएं शुद्ध हो जाएंगी। कलियुग में इस संसार में सब कुछ अशुद्ध है,जल अशुद्ध है,हवा शुद्ध है और ऐसी बहुत बड़ी सूची है। इस बड़ी सूची में जो सबसे डरावनी चीज जो अशुद्ध है वह है हमारे विचार।
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण:।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥ (श्रीमदभागवतम 12.3.51)
कलियुग में सब कुछ दोषपूर्ण है। विश्वास दोषपूर्ण हैं। अगर हम किसी चीज को शुद्ध करना चाहते हैं तो हमें पहले अपने मन को शुद्ध करना चाहिए। क्योंकि मन ही हर तरह की सोच, एहसास और इच्छा को प्रकट कर रहा है ।मन कचरे की तरह दोषपूर्ण विचारों से भरा है, इसलिए यह प्रदूषित है। ऋषभ देव भगवान कह रहे हैं कि दिव्य तपस्या करने से आप पवित्र होंगे,तब आपको दिव्य,अनंत सुख की प्राप्ति होगी।
मैंने अक्रूर घाट कि लीलाओं के बारे में कुछ नहीं कहा था। मैंने सिर्फ इतना ही कहा हैं कि मैं अक्रूर घाट की लीलाओं को याद कर रहा था । हरि हरि! अपने अभ्यास और वैराग्य को जारी रखें। हमें अभ्यास करना चाहिए
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
यह एक विधि है और अनासक्ति के बारे में कुछ निषिद्ध बातें बताई गई हैं। वे क्या हैं ? हमें पवित्र नाम के दस अपराधों और अन्य अपराधों से भी बचना चाहिए। विशेष रूप से मांस खाने, जुआ, नशा, अवैध स्री संग में लिप्त न हों। ये चारों पाप कर्म निषिद्ध हैं। इन गतिविधियों को न करें। हरे कृष्ण का जप करें और मांसाहार, नशा आदि न करें। यह मुख्य रूप से अभ्यास और वैराग्य के रूप में जाना जाता है। जप करो और हरिनाम का कीर्तन करो और पाप कर्मों से बचो। तब शाश्वत आनंद और खुशी हमे प्राप्त होगी,जब हम वैराग्य का अभ्यास करेगें तब हमारा वास्तविक सुख: पर अधिकार होगा हमें इसे पाने का अभ्यास करना चाहिए
उत्साहान्निश्र्चयाध्दैर्यात् तत्तत्कर्म प्रवर्तनात् |
संगत्यागात्सतो वृत्तेः षङ्भिर्भक्तिः प्रसिद्धयति || उपदेशामृत श्लोक 3
शुद्ध भक्तिमय सेवा करने के अनुकूल छह सिद्धांत है । ) उत्साही होना (२) निश्चय (३) धैर्य रखना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार काम करना [जैसे श्रवनम्,कीर्तनम्, विष्णु स्मरणम् SB 3.५.२३], (५)अभक्तों के संग का त्याग करना और (6)और पूर्व वती आचार्यों के चरण चिन्हों पर चलना।ये छह सिद्धांत निस्संदेह शुद्ध भक्ति सेवा की पूर्ण सफलता का आश्वासन देते हैं।
उत्साही होने से संभव है, धैर्य से आदि छह बातों का उल्लेख किया जाता है।
गौर प्रेमानन्द हरि हरि बोल !!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
15 February 2021
The Nature of the Mind
sri krsna caitanya prabhu nityananda sri advaita gadadhar srivas adi
gaur bhakta vrnda
Today devotees from 630 locations are chanting japa. Now it is 670 , 674. The count is increasing!
divyad-vrindaranya-kalpa-drumadhah
srimad-ratnagara-simhasana-sthau
srimad-radha-srila-govinda-devau
preshthalibhih sevyamanau smarami
Translation
In a temple of jewels in Vrindavana, underneath a desire tree, Sri Sri Radha-Govinda, served by Their most confidential associates, sit upon an effulgent throne. I offer my most humble obeisances unto Them.
(Abhidhey adhideva Pranam)
Demigods have reached Goloka or Vrndavana yesterday. By the mercy of the Lord they have reached Goloka Vrndavana and not Gokul Vrndavana.
Today in the morning chanting session, thoughts of Vrndavana were coming in my mind. Then I thought which should do Vraja Yatra while chanting and doing kirtan. Let us do Vrndavana Yatra, Vraja-mandala Yatra.
I began the Yatra from Krishna Balaram temple. I could not visit many places because wherever my thoughts went, I was stuck at that place. I was remembering the pastimes of that place. I went to Bhatrond. It is the first place on Vraja-mandala Parikrama. The yagya patni offered a variety of food to the Lord and His friends in the Ashoka vana of Bhatrond. Possibly many of the dishes offered were made of rice that is why it is known as Bhat-rond. They offered sweet rice and many other dishes. I was remembering this pastime and most of the time was spent here. Moving a little further my soul reached Akrur ghata. I was doing Parikrama in my mind.
My mind and soul were merged in this Parikrama which I was doing in my mind. Our many activities are performed in the mind. We assume that our mind is doing a certain activity, but actually that work is done by our soul. Our mind is controlled by the soul. Our mind then becomes atamaram and by resting with the soul it remembers everything.
man-mana bhava mad-bhakto
mad-yaji mam namaskuru
mam evaisyasi satyam te
pratijane priyo ‘si me
Translation
Always think of Me and become My devotee. Worship Me and offer your homage unto Me. Thus you will come to Me without fail. I promise you this because you are My very dear friend. (BG 18.65)
In this verse man does not refer to mind. man-mana refers to mat-mana : it means engage your mind in My thoughts. ‘t’ transforms into ‘n’.
I was remembering the pastimes of Akrur ghata. Then I was stuck there and my chanting was going on
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
I was in Akrur ghata and remembering the pastimes of that place. I must have gone there at least fifty times in my life. I have remembered pastimes of that place at least fifty times. Then I meditated on that pastime again and again.
śrī-bhagavān uvāca
asaṁśayaṁ mahā-bāho
mano durnigrahaṁ calam
abhyāsena tu kaunteya
vairāgyeṇa ca gṛhyate
Translation
Lord Śrī Kṛṣṇa said: O mighty-armed son of Kuntī, it is undoubtedly very difficult to curb the restless mind, but it is possible by suitable practice and by detachment. (BG 6.35)
The Lord has said to Arjun that he has correctly said that the mind is unstable and restless. This unstable and restless mind can be controlled by practising to control it. Always remember Krsna in your mind and practice to do this by suitable practice and detachment. These two words are used in Bhagavad Gita in the sixth chapter. Here the Lord has discussed meditation and ashtanga yoga. Here Kṛṣṇa has advised how to control the restless mind and how to calm it by suitable practice and detachment. I will remind you how to control the mind so here Kṛṣṇa who is the authority and the owner of our mind has said two things.
Our mind belongs to the Lord. Five elements belong to the Lord. The mind, intelligence and false ego are the material natures of the Lord. Nature belongs to Him. The five elements – earth (pritvi), water (jala), fire (tejas), wind (vayu) and space (akasha) are known as material nature. Mind, intelligence and false ego are also elements. Five great elements exist, but the other minor elements are mind, intelligence and false ego. They are also the Lord’s material nature. Nature is the Lord’s opulence. Mind is characterised by restlessness. Arjun has said to Kṛṣṇa that the mind is very restless.
chañchalaṁ hi manaḥ kṛiṣhṇa pramāthi balavad dṛiḍham
tasyāhaṁ nigrahaṁ manye vāyor iva su-duṣhkaram
Translation
The mind is very restless, turbulent, strong and obstinate, O Krishna. It appears to me that it is more difficult to control than the wind. (BG 6.34)
The Lord replied, ‘Yes I am already aware of this. You need not tell Me about it as I am the creator of the mind and its restlessness.’ Arjuna has also said that controlling the mind is more difficult than controlling the wind. ‘I can control the wind, but controlling the mind is more difficult than this.’ The Lord said, ‘ Yes! It is difficult, but not impossible. Even if it is impossible we can make it possible. We can control the mind. By suitable practice we can control the mind, Kaunteya.’ Arjun has addressed Kṛṣṇa as Hé Kṛṣṇa and now Krsna is addressing Arjun as Hé Kaunteye!
The Lord said, “You are saying that the mind is restless, but there is a but, by suitable daily practice and by detachment we can control it. These two are methods to control it. Practice makes a man perfect, suitable practice along with detachment.” Rag – virag are opposite words. Rag means attachment and vi-rag means detachment. Be detached and practice detachment. Rise early in the morning at brahma muhurta. If you are attached, you are like Hiranyakasipu. Hiranya means sona [ gold] and kashyapu means sona[sleep]. Sona and sonā means living entities are attached to gold and sleeping. Hiranya and kashyap resembles kamini and kanchan. Kamini means with whom we try to satisfy our senses. It is possible that the woman is kami. Women are full of desires for sense gratification. Man is kami and the women is known as Kamini. Those who are attached to Kamini and Kanchan means they are attracted to gold and sleeping and enjoying. Sleeping and Kamini are a type of sense enjoyment. Detachment is to avoid Kamini and Kanchan. Otherwise you will enjoy the early morning, sweet sleep and will try to enjoy sense gratification. Throw away, leave that sleep and jump out of the bed. Gauranga Mahaprabhu is calling ,
jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole
kota nidrā jāo māyā-piśācīra kole
Translation
Lord Gauranga is calling, “Wake up, sleeping souls! Wake up, sleeping souls! How long will you sleep in the lap of the witch called Maya? (Arunodaya Kirtana song 2 verse 1 by Bhakti Vinod Thakure )
Kṛṣṇa says the same thing that mind control is possible by suitable practice and detachment.
I have shifted a lot from my main topic of discussion. I was actually saying that when I reached Akrur ghata while chanting I remembered many pastimes of that place. I also said that I have been there many times. We have done kirtan, Katha of the pastimes of that place. When we listen and glorify pastimes then we remember it again and again. We practiced remembering Kṛṣṇa. We went to Akrur ghata, did kirtan, listened to various pastimes and then remembered it again. In this way it becomes second nature. By practicing and detachment we become experts. When we go on Parikrama it is austerity and there are some inconveniences also. It is austerity of speech, mind and body.
ṛṣabha uvāca
nāyaṁ deho deha-bhājāṁ nṛloke
kaṣṭān kāmān arhate viḍ-bhujāṁ ye
tapo divyaṁ putrakā yena sattvaṁ
śuddhyed yasmād brahma-saukhyaṁ tv anantam
Translation
Lord Ṛṣabhadeva told His sons: My dear boys, of all the living entities who have accepted material bodies in this world, one who has been awarded this human form should not work hard day and night simply for sense gratification, which is available even for dogs and hogs that eat stool. One should engage in penance and austerity to attain the divine position of devotional service. By such activity, one’s heart is purified, and when one attains this position, he attains eternal, blissful life, which is transcendental to material happiness and which continues forever. (SB 5.5.1)
Lord Rishabh Dev had 100 sons and He advised them like this. We are also His sons. The Lord has said to do austerity. Actually our land is a land of austerity.
The sons of Bharat mata perform various austerities so we call her Bharat mata. We never say American mata because America or other Western countries are lands of sense gratification. Bharat is the land of austerities therefore Bharat mata ki Jaya! All glories to those who undergo various austerities! Rishabh Dev Lord has said, ” My dear sons, you should engage in penance and austerity.” Do austerity for Me to achieve Me. It is called Divya austerity. Kṛṣṇa has said this in Bhagavad Gita
yat karosi yad asnasi
yaj juhosi dadasi yat
yat tapasyasi kaunteya
tat kurusva mad-arpanam
Translation
O son of Kunti, all that you do, all that you eat, all that you offer and give away, as well as all austerities that you may perform, should be done as an offering unto Me. (BG 9.27)
Offer your austerity to Me, offer whatever you eat and whatever you donate and whatever sacrifices you do to Me. In this list austerity is also there. Lord says to do the austerity for Me. Everyone is doing austerity and there is a lot of inconvenience, but this austerity is not divine austerity. Our austerity should be divine as Rishabh Dev Lord has preached in the fifth canto of Srimad-Bhagavatam. Prabhupada cited this example many times. Rishabh Dev is talking about detachment. He said that you will be purified. Our thoughts and emotions will be purified. In Kaliyuga everything in this world is polluted. The water is polluted and air pollution is there. The list is big. In this list of polluted things the most dangerous thing are our thoughts which are polluted.
kaler doṣa-nidhe rājann
asti hy eko mahān guṇaḥ
kīrtanād eva kṛṣṇasya
mukta-saṅgaḥ paraṁ vraje
Translation
My dear King, although Kali-yuga is an ocean of faults, there is still one good quality about this age: Simply by chanting the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra, one can become free from material bondage and be promoted to the transcendental kingdom. (SB 12.3.51)
In Kaliyuga everything is faulty. Even beliefs are faulty. If we want to purify anything then we should first purify our mind. The mind is doing all kinds of thinking, feeling and willing. The mind is full of faulty thoughts like garbage so it is polluted. Rishabh Dev is saying that by doing divya austerity you will be purified and sanctified then you will attain divine, eternal happiness.
I had not said anything about the pastimes of Akrur ghata. I just mentioned that I was remembering the pastimes of Akrur ghata. Continue your practice and detachment. We should practice,
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
This is a method about detachment. There are some prohibited things given. What are they ? We should avoid the ten offences against the holy name and other offences also. Do not indulge in meat eating, gambling, intoxication, illicit sex. These four sinful activities are prohibited. Do not do these activities. This is mainly known as practice and detachment. Chant and do Kirtan of Harinam and avoid sinful activities. Then eternal bliss and happiness is waiting for us. When this living entity practices detachment, then we have the right to that eternal bliss and ocean of happiness. We should aim to achieve it.
utsāhān niścayād dhairyāt
tat-tat-karma-pravartanāt
saṅga-tyāgāt sato vṛtteḥ
ṣaḍbhir bhaktiḥ prasidhati
Translation
0There are six principles favorable to the execution of pure devotional service: (1) being enthusiastic, (2) endeavoring with confidence, (3) being patient, (4) acting according to regulative principles [such as śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ smaraṇam [SB 7.5.23]—hearing, chanting and remembering Kṛṣṇa], (5) abandoning the association of nondevotees, and (6) following in the footsteps of the previous ācāryas. These six principles undoubtedly assure the complete success of pure devotional service. (NOI verse 3)
This is possible by being enthusiastic, patient, etc. My time is up now. I have some other engagement. I take your leave. I will leave you alone to hear and chant and remember.
Gaur Premanande Hari Haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से
14 फरवरी 2021
आज हमारे साथ 634 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। आप सभी का इस जपा टॉक में स्वागत है!
ॐ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥
यह आप कभी सुने हो? तो गुरु कि कृपा से कठिन काम आसान हो जाते है। दुष्करम् सुकरं भवेत् यानी कठिन कार्य सुकर यानी आसान या सरल हो जाता है। पंगुं लंघयते गिरिम् यानी अगर वह लंगड़ा भी है वैसे तो शिष्य लंगड़े ही होते है, लेकिन अगर गुरु कृपा होगी तो हम पर्वत को भी लांग सकते है, पार कर सकते हैं। वाचालं यानी कोई गूंगा है वह वाचाल बन सकता है। मूकं करोति वाचालं मराठी में गूंगे को मुका बोलते है, जो बोल नहीं सकता है लेकिन अगर गुरु कृ कृपा हो जाती है तो वह वाचाल बनेगा बोलता रहेगा, खूब बोलता रहेगा। श्रील प्रभुपाद की जय! गुरु परंपरा के आचार्य की जय! तो हमारे परंपरा के प्रथम आचार्य तो ब्रह्मा है तो ब्रह्मा कहें और लिखें,
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य
देवि महेशहरिधामसु तेषु तेषु
ब्रह्मसंहिता ५.३३
तो यह ब्रह्मसंहिता ब्रह्मदेव की रचना है और उसमें वे लिखते हैं कि, क्या लिखे हैं? अच्छा है अभी तो हम पूरा भाषा नहीं सुनाएंगे। गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य यानी गोलोक धाम की जय! गोलोक धाम यानी जहां पर भगवान श्री कृष्ण निवास करते है। और उसके नीचे है देवी धाम, सारे ब्रह्मांड। तो दुर्गा देवी के यह धाम है, तो उसे देवी धाम बोलते है। और देवी धाम के ऊपर है शिवजी यानी महेश का धाम, और उसके ऊपर है हरि का धाम या वैकुंठधाम, और वैकुंठ धाम से परे है साकेत धाम यानी अयोध्या धाम, और अयोध्या से भी परे है श्रीकृष्ण का धाम गोलोक धाम! और उसके ऊपर कुछ नहीं है। यह जो साक्षात्कार की बात लिखी है ब्रह्मा जी। आप कैसे कह सकते है कि भगवान ने अर्जुन को सारे विश्वरूप का दर्शन दिया कुरुक्षेत्र के मैदान में तो वैसे ही ब्रह्मा को भगवान ने विश्वरूप का दर्शन दिया यानी देवी धाम ही यह जगत नहीं है उसमें आध्यात्मिक धाम भी आता है। प्राकृत विश्व को भी दिखाएं और इसे ब्रह्मा देख रहे है और उसे देखते-देखते ब्रह्मा जी लिख रहे है।
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देखो देखो! गोलोक है और उसके नीचे यह धाम है, वह धाम है तो ऐसा दर्शन वैसे ब्रह्मसंहिता दर्शन ही है। ब्रह्मसंहिता यानी जो ब्रह्मा ने दर्शन किया या जो उन्होंने देखा या अनुभव की हुई बातें उन्होंने लिखी हुई है। और इस प्रकार हमें भगवान के पूरे सृष्टि का अवलोकन कराए है, दिखाए है। तो एक समय था जब आखरी बार कृष्ण धरातल पर थे और फिर द्वारिका में थे तब ब्रह्मा उनको मिलने के लिए आते है, तो द्वार पर उन्हें पूछा जाता है और वह बताते हैं कि, मै भगवान से मिलना चाहता हूं! तो द्वारपाल कहते हैं कि, आपके पास इसकी अनुमति नहीं है तो द्वारकाधीश से हम अनुमति लेकर आते है। तो वह द्वारपाल द्वारकाधीश के पास गए और कहे कि, एक व्यक्ति आए है, जिनका नाम वह ब्रह्मा बोलते है और आपसे मिलना चाहते है। द्वारपाल जाकर ब्रह्मा जी से कहने लगा हा हा! आप मिल सकते है लेकिन, पहले यह बताइए आप कौन से ब्रह्मा हो! तो ब्रह्मा जी कहने लगे कौन से ब्रह्मा? आप ऐसा कैसे पूछ सकते हो? ब्रह्मांड में और कितने सारे ब्रह्मा है? मैं तो समझता हूं कि मैं अकेला ब्रह्मा हूं! यह कैसा प्रश्न है? तो अब व पूछ रहे हैं तो उन्हें बताइए कि मैं चतुर्मुखी ब्रह्मा हूं जो चार कुमारो का पिता हूं! नारद जी मेरे एक मानस पुत्र है। तो द्वारपाल ने द्वारकाधीश से जाकर बताया कि कौन से ब्रह्मा आए हैं, और फिर जब ब्रह्मा उस कक्ष में या महेल में पधारे जहां श्री कृष्ण या द्वारकाधीश उस समय पर थे। तो फिर वहां पर उनका स्वागत हुआ। ब्रह्मा जी आए, बैठे और आगे वार्तालाप होने से पहले ब्रह्मा जी ने पहला प्रश्न पूछा कि, आपने यह क्या पूछा कि कौन सा ब्रह्मा आया है मैं इसको कुछ समझा नहीं! यह प्रश्न बड़ा संभ्रमित करने वाला था। कृपया इसका स्पष्टीकरण दीजिए! तो उस समय द्वारकाधीश ने उस लीला में उसका कह के उत्तर नहीं दिया क्योंकि, वह प्रत्यक्ष दिखाना चाहते थे। तो थोड़ी देर में एक व्यक्ति आय उनके 5 सिर थे उन्होंने द्वारकाधीश को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और भगवान को उनको बोले पधारिए! और थोड़ी देर बाद और एक व्यक्ति आय जिनके 6 मुख थे और फिर उनका भी स्वागत हुआ। और ऐसे करते-करते फिर 50 मुख वाले, 100 मुख वाले, 1000 मुख वाले, 100000 मुख वाले और फिर लाखों मुख वाले और फिर 100000 से ऊपर भी 100001,100002,100003 ऐसे सिर वाले यह सब आकर अपने अपने स्थान ग्रहण कर रहे थे। और द्वारकाधीश के योग माया की व्यवस्था से जो लाखों-करोड़ों व्यक्ति आ रहे थे, और यह सारे ब्रह्मा ही थे! तो उनके लिए बैठने की व्यवस्था के लिए उस कक्ष्य या महल का विस्तार होता गया। और हमारे चतुर्मुख ब्रह्मा अचरज के साथ सर्वत्र देख रहे थे और सारे ब्रह्मा उनका स्वागत हो रहा था। और उन सभी के मध्य में ब्रह्मा को लगा कि, मैं छोटा सा खरगोश, चूहा, बिल्ली या छोटा सा मच्छर हूं! और इतने सारे ब्रह्मा के मध्य में वह सोचने लगे इतने सारे ब्रह्मा है या इतने सारे ब्रह्मांड है, और इतने सारे ब्रह्मांड के एक एक ब्रह्मा है, और यह चतुर्मुखी ब्रह्मा जो सबसे छोटा ब्रह्मांड है इसीलिए इनके केवल चार सिर है! और बाकी ब्रह्मांड का आकार बड़ा है इसलिए उनके अधिक से अधिक सिर है! तो ब्रह्मा जी को साक्षात्कार हुआ कि, हां हां! कई सारे ब्रम्हांड होने चाहिए, जहां के यह सारे ब्रह्मा पधार चुके है। तो वह कहने लगे कि, क्षमा कीजिए, क्षमस्व! मैं आपका आभारी हूं,ऋणी हूं प्रभु!कि आपने मेरे अज्ञान को हटाया
ॐ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
कृष्णम वंदे जगतगुरु! तो भगवान ब्रह्मा को इस प्रकार का ज्ञान दिए और दर्शन कराए। हरि हरि। वैसे ब्रह्मा के गुरु तो भगवान ही बन जाते है। जब ब्रह्मांड में कोई नहीं था तब भगवान ही थे, जो भगवान आदि गुरु थे और ब्रह्मा जी आदि शिष्य थे। और जगतगुरु थे श्री कृष्ण! तो जब जब होता है, क्या होता है?
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। जब जब इस पृथ्वी पर धर्म की ग्लानि होती है या ब्रह्मांड में धर्म की ग्लानि होती है तो तदात्मानं सृजाम्यहम् मैं प्रगट होता हूं तो जब-जब धर्म का नाश होता है यह देवता भगवान के पास पहुंच जाते है। और भगवान को विशेष निवेदन करते है। तो प्रायः वे जाते है, श्वेतदीप या जिसे क्षीरसागर बोला जाता है। जो दूध का सागर है, इसीलिए श्वेत यानी सफेद वर्ण का है इसलिए श्वेतदीप कर कहते है। या क्षीरोदक्ष्यायी विष्णु का वह स्थान है। वैसे तीन विष्णु है, कारणोंदक्ष्यायी, गर्भोदक्ष्यायी और क्षीरोदक्ष्यायी! यह तीनों भी जहां पर विश्राम करते है, या अपने योग निद्रा में लेटे रहते है इसीलिए वहां का जल जो जल नहीं है दूध ही है। क्षीरोदक्ष्यायी मतलब सोने वाले विश्राम करने वाले भगवान। वहां पर देता देवता प्राय: पहुंचते हैं। यह श्रीमद भागवत के दशम स्कंध के प्रथम अध्याय में ऐसा वर्णन हम करते हैं। 5000 वर्ष पूर्व जब धर्म की ग्लानि हुई। पृथ्वी माता रोती हुई गई, ऐसा हो रहा वैसा हो रहा है। हरि हरि। तो सभी को लेकर फिर ब्रह्मा जिसमें पृथ्वी माता भी थी और सारे देवता भी थे और ब्रह्मा उस दल का नेतृत्व कर रहे थे। वह गए हैं श्वेत द्वीप और वहां से उनका ताररहित संपर्क होता है।मध्य में द्वीप है, जहां पर भगवान निवास करते हैं। उसी तट पर सभी देवता और पृथ्वी माता भी पहुंची है। ब्रह्मा पृथ्वी माता की ओर से निवेदन प्रस्तुत करते हैं। भगवान कहते हैं मैं आऊंगा जल्दी ही। आप आगे बढ़िए और देवताओं आप भी ब्रजमंडल में प्रकट हुए। ऐसा लिखा है एक समय की बात है जब धर्म की ग्लानि हुई ही थी और भगवान के प्राकट्य के लिए सभी देवताओं को भगवान से निवेदन करना था। श्वेत द्वीप नहीं जाना चाहते थे वे सीधा गोलोक जाकर श्री कृष्ण से मिलना चाहते थे। कृष्ण कन्हैया लाल की जय। सीधा उनके चरणों में अपना निवेदन प्रस्तुत करना चाहते थे। सभी देवता यात्रा पर निकल पड़े। इस बार भी ब्रह्मा नेतृत्व कर रहे हैं। इस देवी धाम में जो ब्रह्माण्ड है और उनको जाना है देवताओं का गंतव्य स्थान निर्धारित किया हम गोलोक जाएंगे और सीधा कृष्ण को ही निवेदन करेंगे। ऐसा वर्णन गोपाल चंपू में जीव गोस्वामी की यह रचना है। देवताओं की गोलोक की यात्रा। इस ब्रह्माण्ड के बाहर भी तो निकलना होगा।यह स्त्री भुवन और फिर स्वर्ग, पाताल ब्रह्माण्ड के अंदर है। देवता भी इस ब्रह्माण्ड में हैं। ब्रह्माण्ड के बाहर जाना है। तो कैसे जाए? जाए तो जाए कैसे? कैसे जाए?
प्रभुपाद कहते हैं यह ब्रह्माण्ड तरबूज या फुटबॉल के समान है।
हम सभी यात्री भुवन या 14 भुवन के सभी जन सभी योनियां उस फुटबॉल के अंदर है या तरबूज के अंदर है। इस तरबूज और फुटबॉल का ब्रह्मांड का आवरण है कहीं सारे हैं, बड़े मजबूत है। कैसे निकलेगे? फिर उनको पता चला एक रास्ता है। कौन सा रास्ता उनको याद आया? जब वामन भगवान अवतरित हुए थे और त्रिविक्रम बन गए थे। बलि महाराज के उस यज्ञ शाला में और तीन पग भूमि पर्याप्त है मेरे लिए। एक पग से तो पूरी पृथ्वी को घेर लिया। दूसरे पग से सारे लोक को घेर लिया। अब भगवान के चरण ब्रह्माण्ड का जो अंदर वाला भाग है वहां हल्का सा स्पर्श होने से ब्रह्माण्ड में छेद हुआ और वहां सुरंग बन गया। इसी के साथ सारे ब्रह्माण्ड वैसे तैरते रहते हैं। दूसरा जल है कारणोदकशायी का या महा विष्णु के श्री अंग से जल उत्पन्न होता है। उसी जल में सारे ब्रह्माण्ड तैरते हैं। भगवान त्रीविक्रम के चरण के स्पर्श से जो छेद हुआ था। तो बाहर का जल उस सुरंग में से अंदर आकर बहने लगा। पाद नखनीर जनितजनपावन गंगा मैया की जय। गंगा एक समय गंगा नहीं थी इस ब्रह्मांड में। वामन के बने त्रिविक्रम और भगवान के नाखून से ही जनितजनपावन और भगवान के चरणों को इस जल ने स्पर्श किया और फिर जल बहने लगा। गंगा इस ब्रह्माण्ड में फिर स्वर्ग में गंगा है गोमुख से फिर गंगासागर में गंगा बहती है और फिर पाताल में भी गंगा है। सर्वत्र उद्धार करती रहती है पावनी गंगा। बात यह है कि देवताओ को ब्रह्मांड से बाहर निकलना है तो उनको रास्ता मिल गया। जो छेद हुआ था। त्रिविक्रम भगवान के चरण के स्पर्श से छेद हुआ था और देवता बाहर जा रहे हैं। गंगा बहती हुई ब्रह्मांड में प्रवेश कर रही है और उसी गंगा के तट पर चल रहे हैं। ब्रह्मा और अन्य देवता और जब उसको पार करके जब बाहर आए और देखने लगे सर्वत्र तो क्या कहना, तो क्या दिखाई दिया होगा? उन्होंने सारे अनंत कोटी ब्रह्माण्ड देखे, उस कारण उदक में जो कारण कारणम जो कारण बनता है। उस कारण जल में कई सारे ब्रह्मांड तैर रहे थे। तो इस प्रकार भगवान यहां पर ब्रह्मा और अन्य देवता को दर्शन दे रहे हैं। व्यवहारिक प्रदर्शन हो रहा हैं। द्वारका में ब्रह्मा ने अलग-अलग ब्रह्माओ को देखा था। 10 मुख वाले, 100 मुख वाले, हजार मुख वाले। लेकिन यहां अब भगवान को दिखा रहे हैं। क्या दिखा रहे हैं? इन ब्रह्मांडो से द्वारका में पधारे हुए ब्रह्मा आए थे। यह बड़ी अचरज की बात, ब्रह्मा और देवताओं ने सारे ब्रह्माण्ड ही ब्रह्माण्ड देखे। हम क्या कहते हैं अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक, भगवान कैसे हैं? अनंत कोटि ब्रह्मांडो के नायक है। उन ब्रह्मांडो के बीच में से मोड़ लेते हुए, ब्रह्मा उनको टालते हुए बीच में जो अन्तरिक्ष है। इंटर मॉलिक्यूलर स्पेस जैसे होता है। अणु के बीच में जो जगह होती है, उसे मॉलिक्यूलर स्पेस कहते हैं।ब्रह्मांड के बीच में जो जगह थी वहां से आगे बढ़ रहे हैं ब्रह्मा और उनके साथ देवता और फिर उस स्थान पर वह पहुंचे हैं। अब यहां बॉर्डर है विर्जा नदी कहलाती है। भगवान की जो भौतिक सृष्टि है प्राकृतिक जगत और अप्राकृतिक जगत या वैकुंठ जगत उसके बीच में एक नदी है। इसको विर्जा कहते हैं। विर्जा को भी पार किए हैं। ब्रह्मज्योति को देख रहे हैं, देखना मुश्किल है। आगे बढ़ रहे हैं उनको गोलोक पहुंचना है तो कोहरे जैसा कहो वैसा अंधेरा तो नहीं था। लेकिन वहां इतना प्रकाश था। अंधेरा है तो हम नहीं देख सकते और प्रकाश भी बहुत ज्यादा है तो भी हम लोग नहीं देख सकते। तो ब्रह्मज्योति का इतना प्रकाश होता है, व्यक्ति अंधा ही बन जाता है। उसको भगवान का रूप का दर्शन नहीं होता। केवल ब्रह्मज्योति ही देखता है, एक प्रकार से अंधा होता है। तो यह देवता आगे बढ़े हैं। ब्रह्मज्योति को पार किए है। फिर वैकुंठ लोक देखते हैं पहले तो उन्होंने ब्रह्माण्ड देखे थे। फिर विर्जा नदी को पार किया और ब्रह्मज्योति में आध्यात्मिक आकाश है। यह भौतिक आकाश में पृथ्वी जल वायु आकाश अग्नि है। यहां भी आकाश है। लेकिन एक आध्यात्मिक आकाश भी है। आध्यात्मिक आकाश में कहीं सारे वैकुंठ लोक हैं। वहां से भी आगे बढ़े है। साकेत रास्ते में आया।अयोध्या धाम वहां से भी आगे बढ़े। फिर गोलोक पहुंचे और गोलोक में वृंदावन स्थान, चिंतामणि धाम और वहां राधा कृष्ण विराजमान थे। एक जमुना का पद्मा में वह विराजमान थे। तट भी था और जमुना जल। हरि हरि। तो ब्रह्मा और देवता ने
साक्षात दंडवत प्रणाम किया है। सभी ने भगवान की स्तुति की है।
सूत उवाच
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा: ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्यान्तं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम: ॥ १ ॥
(श्रीमद् भागवत 12.13.1)
ऐसे हैं भगवान, तस्मै नम: ऐसे भगवान को बारंबार प्रणाम है। तो फिर आगे इस उद्देश्य से ब्रह्मा और देवता आए थे। फिर उन्होंने अपना निवेदन प्रस्तुत किया है। इस प्रकार ब्रह्मा और देवताओं की यात्रा सफल हुई है। हरि हरि। आप की भी यात्रा सफल हो। आपको भी जाना है एक समय की नहीं? जीना या मरना यही है , छोड़कर जाना कहां। ऐसा तो नहीं है ना? आपको थोड़ा रास्ता दिखाया है। दुष्कर्म सुकर्म भवेत् भगवान नाम थोड़ा और आसान कर देते हैं। हम जब भक्ति करते हैं, भक्त बनते हैं। भगवान के शरण में जाते हैं। तो मेरी ओर आओगे, गीता में भगवान कहते हैं। मेरी ओर आओगे नहीं तो मैं तुम्हें मेरी ओर ले आऊंगा। ऐसी व्यवस्था करते हैं। भगवान कुछ क्षण में पहुंचा देंगे आपको उनके धाम में। समय हो गया इतना तो याद रखो। इसको अनुभव करो, चिंतन करो, मनन करो। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
14 February 2021
Demigods witness the opulence of the Lord’s creation
Devotees are chanting from 635 locations. You are all welcome to chant and also to hear Katha.
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
cakshur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah
Translation:
I offer my respectful obeisances unto my spiritual master, who has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance, with the torchlight of knowledge.
mūkaṁ karoti vācālaṁ
paṅguṁ laṅghayate girim
yat-kṛpā tam ahaṁ vande
paramānanda-mādhavam
Translation:
“‘The Supreme Personality of Godhead has the form of sac-cid-ānanda-vigraha (BS 5.1)—transcendental bliss, knowledge and eternity. I offer my respectful obeisances unto Him, who turns the dumb into eloquent speakers and enables the lame to cross mountains. Such is the mercy of the Lord.’”[CC Madhya 17.80]
Have you heard this prayer? By the mercy of the spiritual master, even the difficult targets becomes easy to achieve.
kathañcana smṛte yasmin
duṣkaraṁ sukaraṁ bhavet
vismṛte viparītaṁ syāt
śrī-caitanyaṁ namāmi tam
Translation:
Things that are very difficult to do become easy to execute if one somehow or other simply remembers Lord Caitanya Mahāprabhu. But if one does not remember Him, even easy things become very difficult. To this Lord Caitanya Mahāprabhu, I offer my respectful obeisances. [CC Adi 14.1]
By the grace of the spiritual master, even a lame man can climb the mountain and a dumb person can start speaking. All glories to Srila Prabhupada! Brahma has composed in Brahma Samhita…
goloka-nāmni nija-dhāmni tale ca tasya
devī-maheśa-hari-dhāmasu teṣu teṣu
te te prabhāva-nicayā vihitāś ca yena
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation:
“Below the planet named Goloka Vṛndāvana are the planets known as Devī-dhāma, Maheśa-dhāma and Hari-dhāma. These are opulent in different ways. They are managed by the Supreme Personality of Godhead, Govinda, the original Lord. I offer my obeisances unto Him.”[ BS 05.43]
All glories to Goloka Dhama! The topmost abode is Goloka where Lord Krsna stays. There is Devi-Dhama, the abode of Durga. Above this is the abode of Lord Shiva. Then Saket Dhama. Above that is Vaikuntha. And above that is Ayodhya Dhama. Finally above that is Goloka Dhama. Above that, there is nothing.
This vision which Lord Brahma had, is described by him in Brahma Samhita. This is how he is giving us a tour of the whole creation. When Krsna was in Dvaraka, once Brahma came to see Him. He told the guards, “I want to meet Dwarakadhisa.” The guards stopped him and requested him to wait, till they ask the Lord for permission. The guards informed Krsna, “Brahma has come to see you.” In response, Dwarakadisha asked, “Which Brahma has come?” The guards came back to Brahma and asked him, “Dwarakadhisa is enquiring which Brahma has come?” Brahma was confused by this question, but still he replied, that the father of the Chatur Kumars has come.
Then Dwarakadhisa said, “Let him come in.” Brahma was brought in. The very first question he asked Dwarakadhisa, “Why did you ask which Brahma has come? Are there any other Brahmas except me?” Dwarakadhisa remained silent and asked him to take his seat and then started a demonstration. Very soon a Brahma with 6 heads entered. Then a Brahma with 20 heads, 200 faced ,1000 and 100000 entered. Like that thousands of them filled the room. The room was further expanded by yoga Maya. Thus Brahma could understand that he is not the only one. There are innumerable Brahmas and innumerable universes and he felt as if he is just one small rabbit amongst so many others. There was a time when Brahma thought he was alone in the universe, but now through this demonstration, Krsna revealed another aspect of it.
5000 years ago when there was a threat to the religious principles the demigods including the Mother Earth under the leadership of Lord Brahma approached and prayed to Lord Visnu who told them that He will descend.
yada yada hi dharmasya
glanir bhavati bharata
abhyutthanam adharmasya
tadatmanam srjamy aham
Translation:
Whenever and wherever there is a decline in religious practice, O descendant of Bharata, and a predominant rise of irreligion—at that time I descend Myself. [BG 4.7]
Usually they go to Sveta-dvipa. It is also called Ksirasagar [ ocean of milk]. That’s why it is called Sveta-dvipa.. Ksirodakaśāyī Visnu stays here. There are 3 Visnus – Mahavisnu, Garbhodakśayī-Viṣṇu and Ksirodakaśāyī Visnu. The Lord takes rest in Ksirasagar. This happened 5000 years ago. There was another time when such a decline of religious principles had happened. This time they wanted to go directly to Goloka instead of Sveta-dvipa, again headed by Lord Brahma. This is explained in Gopal Champu in the chapter, “A visit of Demigods to Goloka.” These demigods were wondering how to go out of this material world. Srila Prabhupada has explained that this material world is like a watermelon and its coverings are very thick.
Then they got this idea.They remembered when Lord Vamana transformed to Lord Trivikrama. At that time in just one foot the Lord covered the whole Earth planet and with His other foot He punctured a hole in the material creation and all the universes were floating on water in that portion, known as Karnojal( water). Through the hole which was created by the lotus feet of Lord Trivikrama the water flowed in this universe.
chalayasi vikramane balim adbhuta-vamana
pada-nakha-nira-janita-jana-pavana
kesava dhrta-vamana-rupa jaya jagadisa hare
Translation:
O Kesava! O Lord of the universe! O Lord Hari, who have assumed the form of a dwarf-brahmana! All glories to You! O wonderful dwarf, by Your massive steps You deceive King Bali, and by the Ganges water that has emanated from the nails of Your lotus feet; You deliver all living beings within this world. [Sri Dasavatara stotra verse 5]
That water is none other than Ganga, or Pavani Ganga. Ganga is flowing everywhere, in pataal, in svarga, and also in this universe. Brahma got this idea of how to get out of this universe. While going out he saw the complete Casual Ocean and all the innumerable universes floating in that ocean. Lord Krsna is the Hero of these universes. Brahma and company are going through the distances between these universes. Like there are molecular distances between two molecules, similarly there was a gap between these universes. After the Casual Ocean the demigods crossed Viraja River. Then they crossed over the Brahmajyoti which was full of effulgence. When there is darkness we can’t see. Also when there is too much light then it is also difficult to see. The Brahmajyoti is full of effulgence. We can’t see the Lord there. Then they saw the spiritual sky. There are so many Vaikunthas there. They crossed Saket Dhama, Vaikuntha then Ayodhya and then finally they reached Goloka. They saw Radha and Krsna sitting on the lotus. Then they offered their obeisances….
yaṁ brahmā varuṇendra-rudra-marutaḥ stunvanti divyaiḥ stavair
vedaiḥ sāṅga-pada-kramopaniṣadair gāyanti yaṁ sāma-gāḥ
dhyānāvasthita-tad-gatena manasā paśyanti yaṁ yogino
yasyāntaṁ na viduḥ surāsura-gaṇā devāya tasmai namaḥ
Translation:
Sūta Gosvāmī said: Unto that personality whom Brahmā, Varuṇa, Indra, Rudra and the Maruts praise by chanting transcendental hymns and reciting the Vedas with all their corollaries, pada-kramas and Upaniṣads, to whom the chanters of the Sāma Veda always sing, whom the perfected yogīs see within their minds after fixing themselves in trance and absorbing themselves within Him, and whose limit can never be found by any demigod or demon—unto that Supreme Personality of Godhead I offer my humble obeisances.[ SB 12.13.1].
… and prayers to Lord Krsna and informed Krsna. In this way their yatra was successful. This is how we reach Krsna or Goloka. Do you want to go there? Or you just want to live and die here only?
kathañcana smṛte yasmin
duṣkaraṁ sukaraṁ bhavet
vismṛte viparītaṁ syāt
śrī-caitanyaṁ namāmi tam
Translation:
Things that are very difficult to do become easy to execute if one somehow or other simply remembers Lord Caitanya Mahāprabhu. But if one does not remember Him, even easy things become very difficult. To this Lord Caitanya Mahāprabhu I offer my respectful obeisances.
Don’t worry. Krsna will take you. Within a small period Krsna will pick you and take you back to His abode. Hear and chant His glories. If any of you want to share some realisation or have any comments, then you can share.
Hare Krsna
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक १३.०२.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेस में ६५९ स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। हम कुछ दिनों के लिए यह चर्चा अथवा जपा टॉक 10-15 मिनट पहले प्रारंभ कर रहे हैं। यह सात बजे तक होगी, ६.३० बज चुके हैं।
क्या आप तैयार हो? मनोहारिणी?जगजीवन? बाकी सब? सुंदरलाल?
ठीक है।
पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम।
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
आपने यह भविष्यवाणी सुनी है या नहीं? सुनी है। यह सुनना जरूरी है। यह भविष्यवाणी अथवा गौरवाणी, गौरांग महाप्रभु की भविष्यवाणी है।
महाप्रभु ने कहा है कि
पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।
सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम।
इस पृथ्वी पर जितने भी नगर व ग्राम हैं व और भी छोटे कस्बे आदि भी हैं, सर्वत्र प्रचार होएब मोर नाम अर्थात मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा। हरि! हरि! यह वाणी किसकी है?
यह वाणी गौर वाणी है। यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी है। चैतन्य महाप्रभु की जय! चैतन्य महाप्रभु की जय! उनकी जय भी हो, यह वाणी भी उनकी ही है। भगवान की वाणी सदा सत्य होकर ही रहती है। प्रॉमिस इज प्रॉमिस (वादा, वादा है) जेंटलमैन प्रॉमिस। भगवान अपने वचन के पक्के होते हैं। जब वे कुछ कहते हैं, तब वैसा करके दिखाते ही हैं, वैसा ही होता है, जैसा कि भगवान् कहते हैं। होना तो प्रारंभ हो चुका है। इस अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य श्रीकृष्ण कृपा मूर्ति अभय चरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद हैं।
श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील प्रभुपाद हरे कृष्ण आंदोलन अथवा मूवमेंट के संस्थापकाचार्य हैं। हरे कृष्ण आंदोलन की जय! विश्वभर में हरे कृष्ण आंदोलन का कुछ मूवमेंट दिखा रहा है। २५ वर्ष पूर्व अर्थात वर्ष १९९६ में हम जब श्रील प्रभुपाद का जन्म शताब्दी अर्थात सौवां जन्म उत्सव मना रहे थे, उस समय सौ देशों के भक्तों ने कोलकाता के रास्ते पर संकीर्तन किया। कोलकाता जो कि श्रील प्रभुपाद की जन्मभूमि है, वहाँ पर 100 देशों के भक्त आए थे अथवा आमंत्रित किए गए थे। उन सौ देशों के भक्तों ने
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कीर्तन किया। चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी सच हो चुकी है, हम ऐसा क्लेम तो नहीं कर सकते परंतु इसमें कोई शक भी नहीं है कि वह पूरी होने वाली है। अभी पूरी नहीं हुई है लेकिन प्रारंभ हो चुका है अर्थात महाप्रभु की भविष्यवाणी का सच होना प्रारंभ हो चुका है। आप सब ने अनुभव किया है और हम भी इसी के अंतर्गत बता रहे हैं। शायद आप सब वर्ष 1996 में नहीं होंगे। क्या आप में से कोई था? जब सौवां संकीर्तन महामिलन कोलकाता में हुआ था। क्या आप में से कोई था? श्री अद्वैत आचार्य, कहां थे? तुम वहाँ नहीं थे। कृष्णकांता भी नहीं थी, लेकिन ऐसा हुआ था। हमने ही आयोजन किया था। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने श्रीचैतन्य महाप्रभु की ओर से भविष्यवाणी की अथवा उनकी भविष्यवाणी भी बिल्कुल वैसी ही है जैसे श्रीचैतन्य महाप्रभु की थी उन्होंने भी कहा था कि ऐसा एक समय आएगा जिसमें कई देशों जैसे जर्मनी, इंग्लैंड या इस देश अथवा उस देश के लोग भारत आएंगे, नवद्वीप आएंगे।
जय शचीनन्दन, जय शचीनन्दन,जय शचीनन्दन गौर हरि।
जय शचीनन्दन
गौरा गौरा हरि,गौरा गौरा हरि।।
कीर्तन करो, अब क्या लिख रहे हो? नंदीमुखी लिख रही है। भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा कि संसार भर से लोग आएंगे, वह भी सच हो रहा है। आप गौर पूर्णिमा के समय मायापुर फेस्टिवल में आइए। कई सारे देशों के भक्त वहां पहुंच रहे हैं। जिनको हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे नाम प्राप्त होता है।
अथवा वे अपने-अपने देशों में हरि नाम को प्राप्त कर रहे हैं। कुछ समय पहले मैं देख रहा था की एक भक्त मंगोलिया के जप कर रहे थे, वह ग्रेटर नोएडा पहुंचे हुए थे लेकिन वे मंगोलिया के थे। एकनाथ गौर! इस कॉन्फ्रेंस में भी १०-२० देशों के भक्त जैसे ऑस्ट्रेलिया से हरि ध्वनि माताजी, वैसे वह ऑस्ट्रेलियन तो नहीं हैं, वैसे भी कोई भी ऑस्ट्रेलिया या केनेडियन नहीं होता, हम सब लोग वैकुंठ से हैं। हम भूले भटके जीव नाना योनियों में भ्रमण कर रहे हैं, कभी केनेडियन बनते हैं और कभी ऑस्ट्रेलियन बनते हैं, कभी हिंदू बनते हैं, कभी क्रिश्चियन बनते हैं। कभी यहूदी बनते हैं, कभी मुस्लिम बनते हैं, कोई त्रिपाठी बनता है तो कोई कौशिक बनता है लेकिन हम इसमें से कुछ भी नहीं होते हैं। हमारा इन देशों से कोई संबंध नहीं है और न ही इन धर्मों से हमारा कोई संबंध है। वैसे अगर देखा जाए अथवा मैंने जिनके भी नाम लिए हैं, आजकल इस संसार में यह धर्म, वह धर्म या क्रिश्चियन… आपने कभी पढ़ा नहीं होगा अथवा आपने सुना सोचा भी नहीं होगा कि इस संसार में एक तिहाई लोग क्रिश्चियन( इसाई) हैं, अर्थात इस संसार के 33% क्रिश्चियन(इसाई) है। आपके ज्ञान के लिए अथवा अचरज वाली बात यह है कि इस संसार की २५% आबादी मुसलमानों की है।
केवल 15 प्रतिशत ही हिंदू हैं। ६ से 7 प्रतिशत बौद्ध है अथवा बौद्ध पंथी हैं। लगभग 15% लोग नास्तिक भी हैं, जो कहते हैं कि हम भगवान को नहीं मानते। ऐसे लोग भी हैं। वैसे सारे जीव सनातन धर्म से सम्बंधित हैं। सभी जीवों का धर्म सनातन धर्म है।
वृंदावन दास सुन रहे हो? यदि
धर्म को नाम दिया जा सकता है तो सनातन धर्म नाम दिया जा सकता है।
जब इन अलग-अलग धर्मों का इस पृथ्वी पर अभ्यास किया जाता है अर्थात वह आधा सनातनी ही है अथवा वह 50 से 70% सनातन धर्मी है। जो गौड़ीय वैष्णव है, वह सौ प्रतिशत सनातन धर्मी है या भागवत धर्मी है। यह भी सुन लीजिए अथवा आप कल्पना भी कर सकते हो या कल्पना भी क्यों करें यह सब तथ्य सत्य है। यह मान्यता भी है कि सबसे प्राचीन धर्म हिंदू धर्म है। ऐसी भी समझ है अथवा ऐसा भी समझा जाता है कि हिंदू धर्म 7000 वर्ष पुराना है। बाद में यहूदी धर्म का नाम आता है, यहूदी धर्म साढ़े तीन हजार वर्ष पुराना है। तत्पश्चात बौद्ध धर्म का नाम आता है जो कि ढाई हजार वर्ष पुराना है। महात्मा बुद्ध प्रकट हुए थे और उन्होंने एक धर्म की स्थापना की लेकिन उसका उपयोग तो कुछ समय के लिए होना चाहिए था लेकिन कुछ लोग तो आगे बढ़ा रहे हैं। श्रील प्रभुपाद ने भी लिखा है। तत्पश्चात ईसाई धर्म है, ईसा मसीह दो हजार वर्ष पूर्व हुए थे उनके समय से ही यह क्रिस्टा शब्द शुरू हुआ है। इस्लाम की स्थापना चौदह सौ वर्ष पूर्व हुई थी व नानक 500 वर्ष पूर्व हुए थे। चैतन्य महाप्रभु के समय या लगभग थोड़ा आगे पीछे नानक भी थे। इस प्रकार हर धर्म की एक तिथि है अर्थात इस तिथि अथवा वर्ष में स्थापना हुई। इस वर्ष या इतने वर्ष पहले या इतने हजार वर्ष पहले यह धर्म शुरू हुआ अथवा सैकड़ों वर्ष पहले यह धर्म शुरू हुआ लेकिन सनातन धर्म कब शुरू हुआ? क्या उत्तर है? उत्तर यह है कि ऐसा समय नहीं था जब सनातन धर्म नहीं था। सनातन धर्म शाश्वत है। सनातन धर्म की शुरुआत ही नहीं हुई। कुछ पल्ले पड़ रहा है? कठिन तो नहीं है? आप ध्यानपूर्वक और श्रद्धापूर्वक भी सुन रहे हो? बलरामप्रिया, म्यांमार से ध्यानपूर्वक सुन तो रही है। लग रहा है कि ध्यान पूर्वक सुन रही है। सीता ठकुरानी कैसे सुन रही है? ध्यानपूर्वक या… ठीक है।
तत्पश्चात इसके साथ संसार का दूसरा नियम। यह पहले या दूसरे की बात नहीं है, एक ही नियम है। मोटा मोटा नियम यह है जिसकी शुरुआत होती है उसका क्या होना चाहिए? फिल इन द ब्लैंक्स(रिक्त स्थान) जिसकी शुरुआत होती है, उसका अंत होना ही चाहिए। यह नियम है। यह धर्म की बात नहीं है। शरीर की बात नहीं है। जिसकी शुरुआत होती है उसका अंत होना ही चाहिए, होता ही है। जल्दी और देर से परंतु अंत होता ही है और होगा भी।
भगवान, भगवतगीता में शरीर के संबंध में कहते हैं:-
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
( श्रीमद् भगवतगीता २.२७)
अनुवाद:- जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
शरीर में अगर जन्म लिया है तो उसकी मृत्यु निश्चित है। हाऊ ओल्ड आर् यू, ई एम .. इयर्स ओल्ड (आप कितने वर्ष के हो, मैं इतने वर्ष का हूं) यह द्वंद भी है। यह संसार द्वंद्वों से भरा पड़ा है अर्थात इस संसार का ड्यूल नेचर अथवा प्रकृति है। यह प्रकृति ही है।
द्वंद मतलब दो, यह और वह। जैसे यदि काला है, तब फिर क्या होना चाहिए? गोरा। यदि स्वदेशी है तो फिर क्या होना चाहिए? विदेशी। स्त्री है तो पुरुष। गरीब है तो फिर अमीर है, रात है फिर दिन है, यह द्वंद है। यदि शुरुआत है तो अंत भी होगा। यह जो धर्म का अलग-अलग जन्म हुआ है अथवा इनकी शुरुआत हुई है। जैसे आप इनकी कोई डेट बता रहे हो कि हमारा धर्म इतने हजार वर्ष पुराना धर्म है। शायद हम हिन्दू धर्म को स्वीकार नहीं करते होंगे। इसीलिए उन्होंने कहा युहुदी धर्म सबसे पुराना धर्म है। ऐसा उनका दावा है साढ़े तीन हजार वर्ष पुराना है। मौजिज से पहले अब्राहम हुए। आगे मौजिज हुए और उनके द्वारा स्थापित किया हुआ धर्म सबसे पुराना धर्म माना जाता है। बड़े रुबाब अथवा गर्व के साथ कहो कि हम यहूदी हैं क्योंकि हमारा धर्म सबसे पुराना है लेकिन शुरुआत तो हुई । शुरुआत हुई है तो अंत भी होगा।
यहां पर हम कोई शाप आदि नहीं दे रहे हैं कि तुम्हारा अंत होगा। ऐसा नियम ही है, ऐसा ही इस संसार में होता है। जो धर्म इस संसार में मौजूद है या है उनका क्या होने वाला है? वे धीरे-धीरे समाप्त होंगे। हम देख भी रहे हैं और देखते भी रहते हैं। क्या आपने फारसी नाम का धर्म सुना है? यह लगभग डेड एंड( अंत) तक पहुंच चुका है। यहूदी की संख्या भी डांवाडोल ही चल रहा है। जब विभाजन होता है तब टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं। यह भी विनाश का एक लक्षण है। जैसा क्रिश्चियनटी के साथ हुआ, ऐसा ही हिंदू धर्म के साथ है। हम लोग तो क्रिश्चियन रिलिजन के थे लेकिन आपको शायद पता नही होगा। कोई कैथोलिक है तो कोई प्रोटेस्टेंट है कोई भी जेहोवा विटनेस है , कोई क्या है तो कोई क्या है। धर्म के सैकड़ों विभाजन होंगे। वही हाल हर धर्म का है। वही हाल हिंदू धर्म का है, यदि हिंदू धर्म की शुरुआत हुई है तो हिंदू धर्म का भी अंत होगा। आप कुंभ मेले जाओगे तो वहां आप देख सकोगे क्रिश्चियनटी के कुछ विभाजन अथवा कुछ टुकड़े हो चुके हैं लेकिन प्रतियोगिता में हिंदू धर्म कुछ पीछे नहीं है। जहां तक विभाजन कहो, टुकड़े कहो अगर कुंभ मेले में आप देखोगे तब हजारों की संख्या में हर एक का अपना अपना एक अलग कैंप लगा हुआ है। सबका अपना-अपना पंथ है , पथ है। कोई भगवान को लेकर या कोई देवी देवता को लेकर धर्म चला रहे हैं, धर्म के कर्म कर रहे हैं। वैसे हमने कहा ही और हम जो भी कहते हैं, सत्य ही कहते हैं। सत्य के अलावा हम कुछ झूठ कहते हैं क्या? हम झूठ नहीं कहने वालों की ओर से हैं। हम परंपरा के आचार्य की ओर से कहते हैं। सभी जीवों का सनातन धर्म है।
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥
पतितपावन हेतु तव अवतार। मोसम पतित प्रभु ना पाइबे आर॥2॥
हा हा प्रभु नित्यानन्द! प्रेमानन्द सुखी। कृपावलोकन कर आमि बड़ दुःखी॥3॥
दया कर सीतापति अद्वैत गोसाइ। तव कृपाबले पाइ चैतन्य-निताइ॥4॥
हा हा स्वरूप, सनातन, रूप, रघुनाथ। भट्टयुग, श्रीजीव, हा प्रभु लोकनाथ॥5॥
दया कर श्रीआचार्य प्रभु श्रीनिवास। रामचन्द्रसंग मागे नरोत्तमदास॥6॥
( श्री नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित गीत)
अर्थ
(1) हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन है?
(2) हे प्रभु! पतितों को पावन करने हेतु ही आपका अवतार हुआ है, अतः मेरे समान पतित आपको और कहीं नहीं मिलेगा।
(3) हे नित्यानंद प्रभु! आप तो सदैव गौरांगदेव के प्रेमानन्द में मत्त रहते हैं। कृपापूर्वक मेरे प्रति आप दृष्टिपात कीजिए, क्योंकि मैं बहुत दुःखी हूँ।
(4) हे अद्वैतआचार्य! आप मुझपर कृपा कीजिए क्योंकि आपके कृपाबल से ही चैतन्य-निताई के चरणों की प्राप्ति संभव हो सकती है।
(5) हे श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी! हे श्रील सनातन गोस्वामी! हे श्रील रूप गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथदास गोस्वामी! हे श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी! हे श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी! हे श्रील जीव गोस्वामी! तथा श्रील लोकनाथ गोस्वामी! आप सब मुझपर कृपा कीजिए, ताकि मुझे श्री चैतन्य-चरणों की प्राप्ति हो।
(6) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना कर रहे हैं, ‘‘हे श्रीनिवास आचार्य! आप मुझपर कृपा करें, ताकि मैं श्रीरामचन्द्र कविराज का संग प्राप्त कर सकूँ। ’’
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु क्या केवल हिंदुओं के भगवान् हैं ? ईसाइयों के भगवान कौन है? गौरांग महाप्रभु ही हैं क्योंकि ईसाइयों का धर्म ईसाई धर्म नहीं है। उनका कौन सा धर्म है? लीला प्रिया गोपी कहो? ईसाइयों का कौन सा धर्म है? पता नहीं, तुमने कुछ तो कहा है शायद सनातन धर्म ही कहा है। उनका धर्म सनातन धर्म है। मुसलमानों का धर्म कौन सा है? यस? रघुकुल राम? उनका भी धर्म भी सनातन धर्म है। हिंदुओं का धर्म कौन सा है? उनका भी सनातन धर्म है। हर जीव का सनातन धर्म है। आप क्या सोच रहे हो?15 मिनट पहले तो बताया था कि हर जीव का धर्म सनातन धर्म है। इन सब का पुनः प्रर्वतन होने वाला है। चैतन्य महाप्रभु की विशेष कृपा से उन्हीं के जो जीव हैं, उन्हीं के अधिपत्य व पुत्र है अंश है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥७॥
( श्रीमद् भगवतगीता १५.७)
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृपा करने वाले हैं। आप सब तक तो कृपा पहुंच गई है। इसीलिए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे कर रहे हो। यह कृपा हर एक को मिलने वाली है। यह कृपा इस पृथ्वी पर जितने नगर व ग्राम है, वहां तक पहुंचने वाली है। यह गुड न्यूज़ है ? यस और नो? अच्छा समाचार है? जान्हवी गंगा, तुम क्या सोचती हो? एक और न्यूज़( समाचार) है। हरि! हरि! इसमें कोई जिंदाबाद मुर्दाबाद वाली बात नहीं है। जो भी कीर्तन को अपनाएंगे अथवा सनातन धर्म को अपनाएंगे, सभी की जय होगी। वैसे कलयुग का धर्म नाम संकीर्तन है। जो नाम संकीर्तन को अपनाएंगे, उन सब की जय होगी। ऐसा नहीं कि हमने ईसाई धर्म को परास्त किया या हमने उनके धर्म का परिवर्तन किया। उनका धर्म ईसाई धर्म था ही नहीं, उनका हिंदू धर्म था ही नहीं, उनका धर्म तो सनातन धर्म था और है और रहेगा। जब कोई कृष्णभावनामृत को स्वीकार करता है, हरि! हरि! वैसे मैं सोच रहा था कि ..अभी कोई नया टॉपिक तो नहीं खोल सकता मैं लेकिन यदि कोई कहता भी है कि मैं इसाई हूं, मैं मुस्लिम हूं, मैं हिंदू हूं लेकिन वह क्या करता है आपको पता है? पहला वह मांस भक्षण करता है, दूसरा वह नशा पान करता है, तीसरा वह अवैध स्त्री पुरुष संग करता है और चार जुआ खेलता है। हम कहेंगे कि वह धार्मिक ही नहीं है। वह किसी धर्म को जुड़ा हुआ नहीं है। क्योंकि श्रीमद्भागवत कहता है
सूत उवाच
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ। द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः।।
( श्रीमद् भागवतम १.१७.३८)
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा, कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किए जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी, जहां जुआ खेलना, शराब पीना वेश्यावृत्ति तथा पशु वध होते हो।
हे कलि! तुम वहाँ रहो? जहाँ द्यूतं पानं स्त्रियः सूना अर्थात जहाँ ये चार प्रकार के अधर्म होते हैं। चतुर्विधः इसको अधर्म कहा है अथवा यह अधार्मिक कृत्य है। जो व्यक्ति मांस भक्षण करता है अथवा जो व्यक्ति नशापान करता है और जो व्यक्ति अवैध स्त्री पुरुष सङ्ग में लिप्त हैं और जो जुआ खेलता है। वह धार्मिक है ही नहीं। इसी को इस कलयुग में पाखंड कहते हैं। वैसे जो और टेस्टामेंट्स हैं हिब्रू और बाइबल में या जो नये टेस्टामेंट्स है, प्रभुपाद लिखते हैं और बारंबार कहा करते थे कि आप कैसे क्रिश्चियन हो? क्या आप सचमुच में क्रिश्चियन हो? आपका बाइबल तो दस निर्देशों में कहता है दाऊ शैल नाँट किल (thou shall not kill ) पशुओं की हत्या मत करो। अर्थात यह मांस भक्षण मत करो। यदि ऐसा कहा है लेकिन अगर आप उसका पालन नहीं करते हो, आप क्रिश्चियन हो? नहीं! आप क्रिश्चियन नहीं हो? आप धार्मिक ही नहीं हो।
यत्राधर्मश्चतुर्विधः। यह अधार्मिक कृत्य है। इस संसार के जो भी लोग कहते हैं कि हम धार्मिक हैं, हम ईसाई हैं, हम हिंदू हैं लेकिन अगर आपका यह धंधा या आप ऐसे काम करते हो, ऐसा पाप करते हो अथवा इन सारे नियमों का उल्लंघन करते हो तब आप अधर्मी हो। आपका कोई धर्म नहीं है। हरि! हरि! कीर्तन करते रहो। जप करते रहो। भागवत को पढ़ते रहो। यह आपका धर्म होगा भागवत धर्म। यह हर जीव का धर्म है।
यदि कोई नाम दे सकते हैं वह जैव धर्म। जैव धर्म जीव का धर्म है। यदि उसको कुछ नाम दे सकते हैं, वह सनातन धर्म ऐसा नाम दे सकते हैं और है भी अथवा उसको भागवत धर्म नाम दे सकते हैं। कभी-कभी थोड़ा वर्णाश्रम धर्म भी नाम होता है। लेकिन वह भी इतना ठीक नहीं है। कभी-कभी वैष्णव धर्म भी कहते हैं। यदि कभी आपको वैष्णव कहते हैं, आप सब वैष्णव हो? वैष्णव होना इस संसार की कोई उपाधि नहीं है। बैकुंठ में वैष्णव होते हैं। वैकुंठ में हिन्दू नहीं होते हैं। वैकुंठ में वैष्णव होते हैं। वैकुंठ में ईसाई नहीं होते। वैकुंठ में वैष्णव होते हैं। वैकुंठ में मुस्लिम नहीं होते, बैकुंठ में वैष्णव होते हैं। वैकुंठ में सौ प्रतिशत संख्या वैष्णव की ही है। आप ऐसे वैष्णव शाश्वत सनातन धर्म का अवलंबन कर रहे हो, आप सभी का अभिनंदन है। करते रहो। साथ के साथ और यह प्रेम की गंगा बहाते चलो। इसे प्रेम धर्म भी नाम दिया जा सकता है लेकिन यहां अधिकतर काम धर्म है। हरि! हरि! इसका अभ्यास करो। प्रैक्टिस एंड प्रीच करो। हमें कृष्ण भावना का अभ्यास करना चाहिए। प्रैक्टिस करनी चाहिए। साधना करनी चाहिए। साथ ही साथ अन्यों के साथ शेयर करना चाहिए। हम कृष्ण को शेयर करते हैं, हम भगवान को शेयर करते हैं, हम दूसरों के साथ सत्य को शेयर करते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु का उपदेश भी है
य़ारे देख, तारे कह, ‘ कृष्ण’- उपदेश।आमार आज्ञाय गुरु हञा तार’ एइ. देश।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत ७.१२८)
अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो कि वह भगवतगीता तथा श्रीमद् भागवत में दिए गए भगवान श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।
हे देश वासियों! आप जिस भी देश के हो। आप क्या करो?
य़ारे देख, तारे कह, ‘ कृष्ण’- उपदेश।आमार आज्ञाय गुरु हञा तार’ एइ. देश।।
हम यहीं पर विराम देते हैं।
चिंतन करो, विचार करो। यह फ़ूड फ़ॉर थॉट है। जैसा कि हम कहते ही रहते हैं। थोड़ा डाइजेस्ट करो। चिंतन करो। मनन करो। हृदयांगम करो, चैतन्या? दूसरों को आश्र्वस्त करो। ठीक है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
गौरांग!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
13 February 2021
The dharma of all the jivas is Sanatana dharma
Hare Krsna! Today devotees from 659 locations are chanting with us. It’s the prediction of Gauranga Mahaprabhu and hearing it is of great importance. What did He say?
pṛthivīte āche yata nagarādi grāma
sarvatra pracāra haibe mora nāma
Translation:
“In every town and village, the chanting of My name will be heard.”
[Caitanya-bhāgavata, Antya 4.126]
Whose vani is it? It’s Gauravani and whose prediction is it? A promise is a promise. A gentleman’s promise! The Lord is firm on His words. Whatever He says He does and whatever He says happens. Whatever He predicted has started happening. Founder acarya of The International Society for Krsna Consciousness, Srila Prabhupada ki jaya! The movement is going on all over the world. 25 years ago in 1996 when we celebrated the 100th birth anniversary of Srila Prabhupada devotees from 100 countries performed sankirtana on the roads of Kolkata. Kolkata is the birthplace of Srila Prabhupada. In Kolkata devotees from 100 different countries were invited and they chanted the holy name.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
We cannot claim that the prediction of Caitanya Mahaprabhu has been realised, but it’s going to happen that’s for sure. There is no doubt about it. The prediction has started becoming true. We have all experienced it. We were not there in 1996. Was anyone there when the devotees from 100 countries performed the harinama procession in Kolkata? But it had happened and we had organised it. Bhaktivinoda Thakur has also predicted on behalf of Caitanya Mahaprabhu and its similar to Caitanya Mahaprabhu’s prediction. He had also said that a time will come when devotees from many different countries Germany, England etc will come to India, will come to Navadvipa and sing jaya sacinandana gaura hari! jaya sacinandana gaura hari!
That is also coming true. You all come to Mayapur festival. Devotees from many countries who have received the holy name arrive there.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
They are receiving the holy name in their countries. Here in this conference also devotees from 10 to 20 countries are chanting with us. We are not Australian or Canadian. We are all lost, living entities rotating in different species. Sometimes we become Canadian, sometimes Hindu or sometimes Christian or sometimes Jews or Muslims. We are not related to these countries or these religions. One third of the population of the world are Christians. 25% of population are Muslims and only 15 % are Hindus and 6 to 7% are followers of Buddhism and 15 % are atheistic who don’t follow any religion. All these living entities belong to Sanatana dharma. The dharma of all the living entities is Sanatana dharma. If we can give any name to dharma then it is Sanatana dharma. There are different religions in this world that people follow. Some are 25% sanatani, some 75% sanatani, but Gaudiya Vaisnavas are 100 % sanatani, followers of Sanatana dharma.
The fact is that the oldest dharma is the Hindu dharma, but people think Hindu dharma is about 7000 years old. Then comes the name of Judaism that is 4500 years old. Then comes Buddhism which is 2500 years old. Christianity is 2000 years old. Christ appeared 200 years back. Islam started 1400 years back. Gurunanak was there 500 years back. At the time of Caitanya Mahaprabhu Gurunanak was there. In this way there is some date of all religions, but what is the date of Sanatana dharma? What is the answer? The answer is that there was no time when Sanatana dharma was not there. Sanatana dharma is eternal, Sanatana dharma never started.
A rule of this world is that which has a beginning has an end. Sooner or later that which has started has to end. Lord has said in Bhagavad Gita,
jatasya hi dhruvo mrtyur
dhruvam janma mrtasya ca
tasmad apariharye ‘rthe
na tvam socitum arhasi
Translation:
For one who has taken his birth, death is certain; and for one who is dead, birth is certain. Therefore, in the unavoidable discharge of your duty, you should not lament. [BG 2. 27]
How old are you? I am so and so years old. This world is filled with duality, black and white, man and woman, day and night, like that this is duality. The religion that has a beginning will end one day. The dates are also stated. People follow their own religion and do not follow Hinduism so they say with pride ‘Our religion is the oldest.’ But their religion has a beginning so it will end one day. We are not cursing anybody that your religion will end. No, it’s a law of this world. Those religions which have started, will end soon. Slowly and we are witnessing that.
Have you heard of the Parsi religion? It has almost come to an end. The number of Jews has also gone down. When there is division it is a sign of devastation. We say Christianity, but some of them are Catholics, some are Protestants. There are 100s of divisions and denominations. The same is the state of other religions. Hindu dharma will also end as it has a beginning. Christianity has so many divisions, but when you go to Kumbha-mela you can see that Hindu dharma is not behind. In Kumbha-mela you will see 1000s of divisions. Each one has its different camp.
yato mat, tato path
Translation:
As many faiths, so many paths
There are numerous views regarding the truth (God) and all of them are like different pathways to reach Him.
Slowly as I said. Whatever I say is the truth. I don’t say anything other than the truth. I speak on behalf of our parampara acaryas. Sanatana dharma is the dharma of all living entities.
śrī-kṛṣṇa-caitanya prabhu doyā koro more
tomā binā ke doyālu jagat-saḿsāre
patita-pāvana-hetu tava avatāra
mo sama patita prabhu nā pāibe āra
Translation:
My dear Lord Caitanya, please be merciful to me, because who can be more merciful than Your Lordship within these three worlds? Your incarnation is just to reclaim the conditioned, fallen souls, but I assure You that You will not find a greater fallen soul than me. Therefore, my claim is first.
Is Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu Lord of only the Hindus? He is the Lord of the Christians also. What is the dharma of Christians? Sanatana dharma. What is dharma of Muslims? Sanatana dharma. What is dharma of Hindus? Sanatana dharma. The Dharma of every living entity is Sanatana dharma. There will be revival of dharma by the mercy of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. We are parts and parcel of the Lord,
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation:
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. [BG 15.7]
Caitanya Mahaprabhu is showering His mercy which has reached you. That’s why you are all chanting,
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Everyone will get this mercy. It is going to every town and village in this world. Is this good news? Yes or No? Good morning News! Whoever takes up Sanatana dharma or sankirtana will be glorious. The dharma of Kaliyuga is nama sankirtana and all those who accept it will be glorious.
It’s not that we have defeated Christianity or we have converted them. Their dharma was never Christianity their dharma was always Sanatana dharma. That’s why I was thinking if anyone says I am Christian, I am Muslims, I am Hindu. He eats meat, does intoxication, engages in illicit sex and gambles. He does not belong to any dharma or religion. He is not at all dharmic. Because Srimad- Bhagavatam says,
dyūtaṁ pānaṁ striyaḥ sūnā
yatrādharmaś catur-vidhaḥ
Translation:
Sūta Gosvāmī said: Mahārāja Parīkṣit, thus being petitioned by the personality of Kali, gave him permission to reside in places where gambling, drinking, prostitution and animal slaughter were performed. [SB 1.17.38]
The basic principles of irreligiosity are gambling, drinking, prostitution and animal slaughter.
One who eats meat, one who is gambling, one who does intoxication and one who has illicit connections is not religious. He is does not belong to any religion. This is called hypocrisy.
There are 10 commandants in the Bible and one of the 10 commandants is ‘Thou shall not kill.’ Srila Prabhupada would say what kind of Christian are you? Are you really Christian? Your Bible says, ‘Thou shall not kill. Do not kill animals.’ That means do not eat meat. You are religious. If you do not follow that then you are not Christian. If you keep doing such sinful activities then you have no religion.
yatra adharma catur vidhah
The people of the world say we are Christian, we are Muslim but if they get engaged in such sinful activities then they are not religious. They do not have any dharma.
Keep chanting, keep performing sankirtana, keep reading Srimad Bhagavatam. Jaiva dharma is the dharma of the jiva, Srila Bhaktivinoda Thakur said. We can give a name to the dharma as Sanatana dharma or Bhagavata dharma or Vaisnava dharma. Being a Vaisnava is not any designation of this world. In Vaikuntha there are Vaisnavas. In Vaikuntha there are no Christians, no Hindus, no Muslims. In Vaikuntha 100% of the population are Vaisnavas. All of you are following Sanatana dharma. Congratulations to all of you! Keep going and with that let the river of love continue flowing.
Our dharma can also be called prema dharma. Currently there is kama dharma all over. You all practice and preach Krishna consciousness and share with others, share Lord Krsna, share the truth. Then there comes the order of Caitanya Mahaprabhu,
yāre dekha, tāre kaha ‘kṛṣṇa’-upadeśa
āmāra ājñāya guru hañā tāra’ ei deśa
Translation:
“Instruct everyone to follow the orders of Lord Śrī Kṛṣṇa as they are given in the Bhagavad-gītā and Śrīmad-Bhāgavatam. In this way become a spiritual master and try to liberate everyone in this land.”[CC Madhya 7.128]
We will stop here. Meditate on this.This is food for thought. Meditate on it, digest it and take it to heart.
Sri Caitanya Mahaprabhu ki jai
Srila Prabhupada ki jai
Gaura Premananda hari haribol.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
12 फरवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
ओम नमो भगवते वासुदेवाय श्रीमद्भागवत से कल कहीं हुई बातों को आगे बढ़ाएंगे, सुनाएंगे। ऐसी बात कही थी मैंने और फिर कहा भी, ओम नमो भगवते वासुदेवाय वैसे कहते रहना चाहिए, ओम नमो भगवते वासुदेवाय। वासुदेव को नमस्कार या कृष्ण को नमस्कार, बारंबार प्रणाम है। यही जीवन है प्रणाममय जीवन।
श्रील शुकदेव गोस्वामी की जय! शुकदेव गोस्वामी पधार चुके हैं गंगा के तट पर, हस्तिनापुर के बाहर। हस्तिनापुर जो उनकी राजधानी रही, वह सम्राट रहे राजा परीक्षित। राजा परीक्षित भी स्वयं ही वहां पधार चुके हैं। केवल राजा परीक्षित ही नहीं कई सारे ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि वहां पहुंचे हैं। और जब विचारविमर्श रहा था कि अब क्या करना चाहिए राजा परीक्षित को। मृयमानष्यः अभी जो मरने ही वाले हैं 7 दिनों में। राजा परीक्षित को क्या करना चाहिए? यह समय कैसे बिताना चाहिए? इस पर जब विचारविमर्श ही नहीं हो रहा था वादविवाद भी चल रहा था। कई प्रस्ताव रखे जा रहे थे। इतने में वहां पहुंच गए, यहां मैं जब कह रहा हूं पहुंच गए, तो मुझे विचार आ रहा था कि पहुंचाए गए शुकदेव गोस्वामी को। भगवान ने ऐसे व्यवस्था की उस स्थल पर शुकदेव गोस्वामी को पहुंचाए भगवान। जैसे ही दृष्टिपथ में आ गए शुकदेव गोस्वामी वहां पधार रहे हैं।
वहां के सभी उपस्थित जन, राजा परीक्षित भी राजा परीक्षित कौन होते हैं शुकदेव गोस्वामी के समक्ष, वे सभी के सभी खड़े हो गए शुकदेव गोस्वामी की अगवानी करने। शुकदेव गोस्वामी का स्वागत, सत्कार, सम्मान करने हेतु वे सभी उठ गए। हरि हरि, ऐसा सत्कार, सम्मान करने वालों में अग्रगण्य कौन हैं? सम्राट परीक्षित। और संसार भर के राजनेता भी हैं। ब्रह्मर्षि, राजर्षि, श्रील व्यासदेव भी है। नारदमुनि भी वहां है। सूत गोस्वामी भी वहां थे। यह सारे महानुभाव शुकदेव गोस्वामी के सत्कार, सम्मान हेतु जब खड़े हो गए। और यह जब हस्तिनापुर के जनता ने देखा, हस्तिनापुर के कुछ जन, कुछ नर, कुछ नारियां, कुछ बच्चे शुकदेव गोस्वामी के पीछे पीछे आ रहे हैं। हंसी मजाक हो रहा था सुखदेव गोस्वामी को देखकर। कोई शिखा खींच रहा था। ऊपर से कोई माताएं कचरा फेंक रहे हैं। कोई थूक रहा है। शुकदेव गोस्वामी को वह नहीं समझ पा रहे थे।
वैष्णवेर क्रियामद्रा विग्ये न भुजाय वैष्णव को और उसमें भी शुकदेव गोस्वामी महावैष्णव महाभागवत उनको कौन समझ सकता है। उनकी क्रिया को, उनकी मुद्रा को और फिर भाव का तो कहना ही क्या। वह तो सभी समय ए पागल कहीं का, बाल भी नहीं बनाए, वस्त्र भी नहीं पहना है और यहां जड़वाद है कोई बाह्य ज्ञान भी नहीं है इसको। अपने में मस्त हैं। कभी हंसता है तो कभी रोता है। कभी स्तंभित होते हैं। कभी उनका गला गदगद हो उठता है। ऐसे श्रील शुकदेव गोस्वामी महाभागवत जो वहां पधारे हैं। उस सभा स्थल पर जहां ऐसे शुकदेव गोस्वामी का जिनको समझे नहीं थे। समझ नहीं रहे थे कुछ हस्तिनापुर के जन। उन्होंने जब देखा कौन-कौन और किस तरह से स्वागत कर रहे हैंऋ उनको अचरज हुआ वे अचंभित रह गए। बाप रे बाप हम को कहां पता था, ऐसे सम्मानीय महाभागवत शुकदेव गोस्वामी है। बेचारे वह लोग शर्मिंदा होकर अपना सर झुका कर वहां से प्रस्थान कर दिए। उस समय श्रील व्यासदेव आसन ग्रहण कर चुके हैं। और सभी उपस्थित जन महाजन उन्होंने अपने-अपने स्थान ग्रहण कर लिए हैं। तब राजा परीक्षित ने इन शब्दों में उनकी स्तुति और स्वागत किया। और यहां प्रथम स्कंध के 19 वां अध्याय अंतिम अध्याय में राजा परीक्षित में इस प्रकार कहां। परीक्षित उवाच
येषां सस्मरणात् पुंंसां सद्यः शुध्दयन्ति वै गृहाः।
किं पुर्नदर्शनस्पर्शपादशोचसानादिभिः।।
( श्रीमद भागवतम 1.19.33)
अनुवाद आप केवल स्मरण मात्र से ही हमारे घर उसी क्षण पवित्र हो जाते हैं। तो फिर आपके दर्शन से, आपका स्पर्श करने से, आपके पवित्र चरणों की सेवा करने से और आपको बैठने के लिए आसन देने से क्या क्या हो सकता है!
इसको हम संक्षिप्त में कहेंगे कि, राजा परीक्षित ने क्या कहा। उन्होंने कहा कि जिनके के संस्मरण मात्र से मतलब शुकदेव गोस्वामी जैसे महानुभव के महाभागवतके संस्मरण से। येषां सस्मरणात् सद्यः शुध्दयन्ति वै गृहाः सद्यः मतलब तत्क्षण शुध्दयन्ति मतलब शुद्ध होते हैं। पवित्र होते हैं। गृहाः जो गृही है गृृहस्थ या वैसे कोई भी है जो भी है वह स्मरण करेंगे शुकदेव गोस्वामी का येषां सस्मरणात् शुध्दयन्ति शुद्ध होंगे। सद्यः तुरंत तत्क्षण ऐसे शुकदेव गोस्वामी महाराज की जय! और फिर आगे उन्होंने कहा शुकदेव गोस्वामी संस्मरणात् हरि हरि, सम्वित स्मरण फिर यह भी कहना आता है कि, शुकदेव गोस्वामी का स्मरण किया। और फिर उन्होंने कहीं भी भागवत की कथा का स्मरण नहीं किया। तो फिर वहां संस्मरण नहीं हुआ। भागवत कथा का ही संस्मरण है या फिर इनका संस्मरण ही हमें भगवान का है संस्मरण दिलाता है। और यहां भक्तों का वैशिष्ट्य भी होता है। भक्तों का दर्शन करो। भक्तों का स्मरण करो। तो ही भगवान का स्मरण दिलाते हैं। ऐसे श्रील शुकदेव गोस्वामी जैसे महान भक्तों का संस्मरण हमारे शुद्धि का कारण बनता है। राजा परीक्षित आगे कहा किंं पुनः संस्मरण मात्र से शुद्धि हैं तो फिर किंं क्या कहना। किसका क्या कहना, पुर्नदर्शन फिर अगर उनके दर्शन ही हो जाए। और फिर स्पर्श भी। हम उनके चरणों का स्पर्श भी कर सकते हैं, तो फिर किंं क्या कहना। पादशौच पाद प्रक्षालन का अवसर प्राप्त हो। और उनके चरणों का जल, चरण धोए उनके तो चरणामृत ही कहो। जब हम छिड़काएंगे अपने सिर के ऊपर और फिर उसका पान करेंगे तो फिर शुद्धि का क्या कहना।
आसनादिविही और अगर ऐसे महात्मा को हम बैठने के लिए आसन दे सकते हैं। आदि विही हम फिर उनका माल्यार्पण करेंगे। और फिर और सेवा करेंगे। जलपान होगा। भोजन खिलाएंगे और अंगसंग प्राप्त होगा। और फिर उनकेे मुख से कथा भी सुन सकते हैं। भगवान की कथा भी सुन सकतेे हैं तो फिर क्या कहना। किंं पुनः राजा परीक्षित कह रहे हैं संस्मरण मात्र से ही शुद्धि है तो फिर दर्शन स्पर्श और पादसेवन। आसनादिविही तो फिर आसन आदि भी से और कितनी शुद्धि होगी। हमारे कल्पना से परे हैं ऐसा ही भाव या विचार राजा परीक्षित का है। तो वे शुकदेव गोस्वामी अब भागवत कथा प्रारंभ कर रहे हैं। उसके पहले प्रश्न पूछा कल आपको बताया था राजा परीक्षित ने पूछा हुआ प्रश्न और वह प्रश्न भी सम प्रश्न है। इस प्रश्न का वह स्वागत भी किए हैं वरीयानेष ते प्रश्न: शुकदेव गोस्वामी ने उस प्रश्न को सुनते ही क्या कहा हां बढ़िया प्रश्न है। बढ़िया वरीयानेष ते प्रश्न: तुमने जो प्रश्न पूछा है वह उत्तम प्रश्न है उसका स्वागत है। हरि हरि। हर चीज की व्याख्या हो जाती है तो वह प्रश्न था। अत: पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् योगियों के परम गुरु या योगियों में गुरु शुकदेव गोस्वामी महाराज मेरा प्रश्न है, पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा कहिए तो सही इस संसार में पुरुष का और कैसे पुरुष म्रियमाणस्य जो मरने जा रहा है जिसकी मृत्यु निश्चित है, यत्कार्यं उसको क्या कार्य करना चाहिए? यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभि: प्रभो और इस प्रश्न को थोड़ा विस्तार से भी राजा परीक्षित कह रहे हैं।
यह भी कहिए कि यच्छ्रोतव्यम उस व्यक्ति को क्या सुनना चाहिए? कैसा जप या किस मंत्र का जप करना चाहिए? स्मर्तव्यं किस का स्मरण करना चाहिए? भजनीयं किस का भजन आराधना करनी चाहिए? वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् तो इसके संबंध मे जो भी विधि है वह तो सुनाओ गे ही सुनाइए और निषेध की बात भी। इसकी आराधना करनी है इसकी नहीं करनी है। यह जप का मंत्र सही है यह सही नहीं है इस प्रकार विधि और निषेध कहिए। इसी से वैसे शास्त्र पूर्ण होते हैं केवल विधि ही नहीं निषेध भी होता है। निषेध का ज्ञान भी अनिवार्य है, इसको हम डुज एंड डोंट्स (do’s and don’ts ) भी कहते हैंं। इतना ही प्रश्न पूछा तो इस प्रश्न का उत्तर सात दिवस देतेेे रहे। अब कुछ ही क्षण शेष है अब तो उन क्षणों में इस कथा के अंतिम दिन का अंतिम समय है और राजा परीक्षित का अंत भी निकट, निकटतर, निकटतम पहुंच रहा है। तब शुकदेव गोस्वामी जो बात कहे थे कहे होंगे वह निश्चित ही निष्कर्ष मेंं जो बात कह रहेेे हैं वह महत्वपूर्ण होगी या अब तक कही हुई बातों का सार या निचोड़ ही होगा। वैसे कई बाते हैं तो यह द्वादश स्कंध के तृतीय अध्याय की बात चल रही हैै।इस द्वादश स्कंध के तृतीय अध्याय के अंत में वैसे कली का आगमन कली केेे लक्षणों का वर्णन किए हैं। और उसके उपरांत अब वह कह रहेेे हैं पुंसां कलिकृतान् दोषान् कली के जो दोष है कली के लक्षणों का वर्णन किए हैं, उल्लेख किया है। और सावधान कहे हैं, ऐसा है कली सावधान। तो यह जो दोष है कली के जो दोष है, कली की जो बुराई है,
सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तम: यह शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं। भगवान हर लेंगे यह कली के जो दोष है, यह तुम्हारे विचारोंं में, तुम्हारे भावनाओं मे जो घुल मिल चुके हैं भगवान उनको अलग करेंगे। उन विचारों को, उन भावो को, दुष्ट प्रवृत्ति को, वैसी वासनाओं को। भगवान् पुरुषोत्तम: कैसे हैं भगवान पुरुषोत्तम:। चित्तस्थो तुम्हारे चित्त में स्थित हुए भगवान उन सारे दोषों को हर लेंगे। इसको चेतो दर्पण मार्जनम परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम भी कहतेेेे हैं। हरि नाम ही क्या करेगा चित्त मे कृष्ण भावना भावित होंगेेे, कृष्ण की स्थापना की, कृष्ण के नाम की, हरे कृष्ण मंत्र की स्थापना की तुमने अपने चित्त मे। इसी के साथ चेतो दर्पण मार्जनम चैतन्य महाप्रभु के शब्दों में, और यहां शुकदेव गोस्वामी के शब्दों में सर्वान् हरति कलिकृतान् दोषान् सर्वान् हरति कलयुग के सभी दोष जो है उनको हर लेंगे। भगवान हरि जो हरते हैं, इसीलिए भगवान का एक नाम हरि है। और फिर शुकदेव गोस्वामी आगे कह रहेेे है मुझे.. रुकना
भी है कुछ मिनटों में। तो यहां पर यह जो कलेर्दोषनिधे राजन शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं। उन्होंने ही कली के दोषों का सारा वर्णन करने के उपरांत शुकदेव गोस्वामी कह रहेेे हैं कलेर्दोषनिधे यह कलयुग तो दोषों का खजाना है, भंडार है। हर एक दुर्गुणों से दोषों से पूर्ण है यह कलयुग, कलि का काल। अस्ति ह्येको महान् गुण: किंतु एक महान गुण हैै। वह कौन सा कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् देखिए यह भागवत धर्म हैैै। श्रीमद्भागवत में महा भागवत शुकदेव गोस्वामी यह भागवत धर्म का प्रवचन जो सुना रहे हैं। तो यह धर्म कलि कालेर धर्म हरि नाम संकीर्तन इस बात को शुकदेव गोस्वामी समझा रहे हैं राजा परीक्षित को। कलयुग के प्रारंभ में तो कीर्तनादेव कृष्णस्य बस कृष्ण का कीर्तन मुक्तसङ्ग: व्यक्ति संग से मतलब असत्संग से मुक्त होगा। असत् संग त्यागात एइ वैष्णव आचार ऐसा आदेश उपदेश होता हैै। असत् संग त्यागो जो असत् संग को त्यागता है यही है पहचान वैष्णव की। संग त्यागात वैष्णव आचार तो शुकदेव गोस्वामी वही कह रहेेे हैं। लेकिन असत् संग को त्यागेंगे कैसे कीर्तनादेव कृष्णस्य कृष्ण का कीर्तन करेंगेे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो समय तो हो गया, लेकिन केवल एक छोटी सी बात। बात तो वैसे मोटी है लेकिन कुछ चंद शब्दों में हम कहेंगे। यहां हमारे आचार्यों ने कमेंट्री में कहां है जैसे समाज में या देश में जो समाज कंटक होते हैं जिससे कांटा चुभता है। ऐसे जन या ऐसे लोग ऐसे कई लोग भी हो सकते हैं तो उन सबको केवल एक राजा ही क्या करता है उनका विरोध करता है या जो भी उनको दंडित करते हैं, गिरफ्तार करते हैं, अपने कारागार में डाल सकते हैं, यहां तक कि उनको फांसी दे सकते हैं। जैसे एक राजा अनेक दोषी लोगों को दंडित करता है और उन को दंडित करके वैसे समाज को मुक्त करता है, उनके कष्टों से या परेशानियों से। एक राजा अनेकों को संभालता है अनेक दोषी व्यक्ति योंको विनाशायच दुशकृताम विनाश करता है, दुष्टों का संहार करते हैं। भगवान भी करते हैं जब जब भगवान अवतार लेते हैं और राजा भगवान का प्रतिनिधि होता है। भगवान का ही कार्य राजा आगे बढ़ाते हैं। वे धर्म की स्थापना करते हैं और वे भी परित्राणाय साधुनाम करना यह भी राजा का कर्तव्य होता हैं, क्षत्रियों का कर्तव्य होता है। और विनाशायच दुशकृताम दुष्टों का संहार करना उसी के साथ धर्म की स्थापना करना यह क्षत्रियों का धर्म होता है। इसलिए कभी-कभी धर्म युद्ध खेलते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं। तो वैसे ही यहां कली के दोष अनेक है, तो अनेक दोषों को संभालता है हरि का नाम संभालता है या उसका विनाश करता है। कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण: तो इस पर भाष्य लिखे हैं हमारे आचार्य वृंद। कलेर्दोषनिधे कली के दोष ही दोष है कई अनेक दोष है लेकिन हरिनाम फिर एक है। दोष अनेक है हरी नाम एक हैं। हरेर नामैंव केवलम तो यह हरि नाम जो स्वयं भगवान ही है वह क्या करेंगे मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् संसार के लोगों को, संसार को मुक्त करेंगे या बचाएंगे रक्षा करेंगे उन दोषों से, उन दोषी जनों से। ठीक है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो इस प्रकार कलयुग के धर्म की स्थापना और कलयुग का धर्म कौन सा है यह बात भी शुकदेव गोस्वामी यहां भागवत कथा के निष्कर्ष में कहे हैं।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
12 February 2021
Want a solution? Learn to ask the correct questions!
Hare Kṛṣṇa!
om namo bhagvate vasudevaya!
Moving forward with our talks from Srimad Bhagavatam, we will continue yesterday’s discussion. These are life lessons – to pay obeisances always to realised souls. Srila Sukadeva Goswami ki Jaya!
Sukadeva Goswami has arrived on the outskirts of Hastinapur on the bank of River Ganges where King Parikshit is present along with other exalted brahmarsis, rajarsis, devarsis. They were discussing what should be the course of action for King Parikshit who had just 7 days left to leave his body? mruyamanasch
Everyone was giving their own opinions on what King Parikshit should do in the next 7 days. Debates were taking place and the same time Sukadeva Goswami appeared on the spot by Lord Kṛṣṇa’s arrangement. All the present yogis along with Emperor Parikshit stood up to pay respects to Sukadeva Goswami. Many other excellencies were present there like Vyasa deva, Narada Muni, Suta Goswami. This was witnessed by the citizens of Hastinapur, some of them were joking about his appearance, some ladies were throwing garbage and some were spitting on him. They could not understand the greatness of Sukhadeva Goswami.
vaiṣṇavera kriyā mūdra
vijñeha nā bujhaya
Translation
Even the most learned man cannot understand the words, activities and symptoms of a person situated in love of Godhead. [CC Madhya 23.39]
Who can understand Maha Bhagavat Sukadeva Goswami? People were thinking he is a mad man. He’s not even dressed up or his hair is not groomed. Sometimes he laughs and at other time he cries and sometimes his throat chokes with ecstasy. But when the same people saw who all were present to welcome Maha Bhagavat Sukadeva Goswami they were surprised and awestruck. They were ashamed of themselves and immediately left that place.
Everyone took their seat and King Parikshit welcomed Sukadeva Goswami with the following verse from Srimad-Bhagavatam,
yeṣāṁ saṁsmaraṇāt puṁsāṁ
sadyaḥ śuddhyanti vai gṛhāḥ
kiṁ punar darśana-sparśa-
pāda-śaucāsanādibhiḥ
Translation
Simply by our remembering you, our houses become instantly sanctified. And what to speak of seeing you, touching you, washing your holy feet and offering you a seat in our home? (SB 1.19.33)
sanmyak smaran – if we remember Sukadeva Goswami and not read Srimad Bhagavatam then that remembrance is not valid. When we remember devotees of Kṛṣṇa they remind us of Kṛṣṇa and this becomes the means of purification. If we are lucky enough to see them and touch their feet or when we drink the water which has washed their lotus feet we are most fortunate! When we hear the glories of Lord Kṛṣṇa from such devotees and honour prasada left by such great devotees of the Lord then we are the most fortunate. darśana-sparśa-pāda seva. This is the thought process of King Parikshit.
Yesterday we discussed the question asked by King Parikshit and Sukadeva Goswami welcomed his question by saying that it’s the most elevated question! variyanes te prashnaha!
ataḥ pṛcchāmi saṁsiddhiṁ
yogināṁ paramaṁ gurum
puruṣasyeha yat kāryaṁ
mriyamāṇasya sarvathā
Translation
You are the spiritual master of great saints and devotees. I am therefore begging you to show the way of perfection for all persons, and especially for one who is about to die. (SB 1.19.37)
yac chrotavyam atho japyaṁ
yat kartavyaṁ nṛbhiḥ prabho
smartavyaṁ bhajanīyaṁ vā
brūhi yad vā viparyayam
Translation
Please let me know what a man should hear, chant, remember and worship, and also what he should not do. Please explain all this to me. (SB 1.19.38)
Please tell us about the regulations and prohibitions to be taken into consideration, the do’s and don’ts. For the next 7 days he kept answering the questions and just a few moments were left for King Parikshit to leave the body. This is going to be the summary of all that Sukadeva Goswami has been narrating for the past 7 days. In the last few verses of canto 12 of chapter 3, Sukadeva Goswami is narrating the flaws of Kaliyuga.
puṁsāṁ kali-kṛtān doṣān
dravya-deśātma-sambhavān
sarvān harati citta-stho
bhagavān puruṣottamaḥ
Translation
In the Kali-yuga, objects, places and even individual personalities are all polluted. The almighty Personality of Godhead, however, can remove all such contamination from the life of one who fixes the Lord within his mind. (ŚB 12.3.45)
If you establish Harinama in your heart then there will be cleansing of your heart, ceto darpanam marjanam. The Lord will remove the impurities from the heart. One of the names of the Lord is Hari. In reference to the bad qualities of Kaliyuga Sukadeva Goswami said,
kaler doṣa-nidhe rājann
asti hy eko mahān guṇaḥ
kīrtanād eva kṛṣṇasya
mukta-saṅgaḥ paraṁ vrajet
Translation
My dear King, although Kali-yuga is an ocean of faults, there is still one good quality about this age: Simply by chanting the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra, one can become free from material bondage and be promoted to the transcendental kingdom. (SB 12.3.51)
One who gives up the bad association will be saved from the onslaughts of Kaliyuga by taking the shelter of Harinama.
Our acaryas have mentioned in a commentary that there are people in a community who are like thorns in a society and only a King can punish them, vinasaya ca duskrtam. Just like Kṛṣṇa appears to destroy the demoniac and establish dharma. Similarly one king can punish many miscreants of the society and deliver the others from their atrocities. Kaliyuga has many flaws but Harinama is the only ONE solution to overcome them. Harinama is Krsna personally and He will protect you from all the flaws and from the people who possess these flaws.
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
11 फरवरी 2021
आज 780 स्थानो से अविभावक उपस्थित हैं।
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय!
कह रहे हो मेरे पिछे भक्तिविनोद (उपस्थित भक्तो में से एक भक्त को प. पु. लोकनाथ स्वामी महाराज ने संबोधित किया)।हरि हरि!
नित्यम भागवत्सेवया!
श्रीमद् भागवतम् कि जय…!
श्रीमद् भागवत के प्रथम स्थान के 19 वे अध्याय के अंत में, प्रथम स्थान के अंत में राजा परीक्षित और शुकदेव गोस्वामी का मिलन हुआ है, और राजा परीक्षित कि जिज्ञासा है उन्होंने पूछा
अतः पृच्छामि संसिध्दीं योगिनां परमं गुरुम्।
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा।।
श्रीमद् भागवतम् 1.19.37
अनुवाद: -आप महान संतों
तथा भक्तों के गुरु हैं। अतएव मेरी आपसे प्रार्थना है की आप सारे व्यक्तियों के लिए और विशेष रूप से जो मरणासन्न हैं, उनके लिए पूर्णता का मार्ग दिखाइये।
उन्होंने कहा अत: इसलिए किस लिए तो नहीं कहेंगे इसलिए कहा इसलिए है इसलिए उन्होंने कहा तो अतः पृच्छामि मैं आपसे पूछ रहा हूंँ।
श्री शुकदेव गोस्वामी महाराज कि जय…!
आसनस्थ महाभागवत शुकदेव गोस्वामी! हरि हरि!
उनका दर्शन भी उनको प्राप्त हुआ हैं। राजा परीक्षित दर्शन कर रहे है सुखदेव गोस्वामी का। जब श्रवण होता है तो वही दर्शन होता हैं।श्रवण ही दर्शन हैं। हम भक्तों से, संतों सें,आचार्यों सें जब हम सुनते हैं तब हम उनका दर्शन करते हैं, या उनका दर्शन कैसे होता है? उनके वाणी से होता हैं। वह कोन है?,कैसे हैं? उनकी विचारधारा क्या है? उनकी पहचान उनसे सुनाने से होती है, और श्रील प्रभुपाद दर्शन देंगे ऐसे हम कहा करते थे मुंबई में जहा के हम ब्रह्मचारी रहे और वही से हम संन्यास भी लिए,या प्रभुपाद दिए।हर सायंकाल के बाद श्रील प्रभुपाद हम को दर्शन देते या मंदिर के भक्तों को और फिर हम कुछ आजीवन सदस्य को और लोगों को मिलने आते प्रभुपाद के दर्शन के लिए। दर्शन मतलब केवल देखना नहीं हैं। श्रील प्रभुपाद को देखा या किसी को भी देखा तो दर्शन हुआ। दर्शन उनसे सुनेंगे हम, श्रवन होंगा,उनका दर्शन भी होगा।
श्रील प्रभुपाद कहा करते थे; किसी व्यक्ति की पहचान वह मूरख नंबर वन का है या वह बुद्धिमान है उसे बोलने दो जैसे भी वह बोलेंगे जैसे भी उनके वचन निकलेंगे उन से पता चलेगा वह कौन है? कैसे हैं! कैसी विचारधारा है उनकी? वे बुद्धू है कि बुद्धिमान हैं। सुर है कि असुर है इत्यादि इत्यादि का पता तब चलता है जब हम उनसे सुनते हैं। इसको दर्शन कहते हैं। हमारे षड्दर्शन भी प्रसिद्ध हैं। हमारे सनातन धर्म के वांड़्ग्मय में दर्शाया हैं। राजा परीक्षित को या ऐसा भी कहना चाहिए कि वह देख तो रहे थे शुकदेव गोस्वामी को, उस दृष्टि से वह दर्शन कर रहे थें, लेकिन अब उनको सही-सही दर्शन या पूरा दर्शन तब होने वाला था जब वे शुकदेव गोस्वामी से सुनेंगे। इसलिए वैसे सुनने से पहिले वह प्रश्न पूछ रहे हैं राजा परीक्षित। अतः पृच्छामि मैं आप से पूछ यहा हूँ। योगिनां परमं गुरुम्। स्तुति भी कर रहे हैं राजा परीक्षित योगिनां परमं गुरुम्। आप योगियों में श्रेष्ठ गुरु हो! योगीयों मे श्रेष्ठ हो! रोगियों के गुरु हो!प्रभुपाद जब हम कहते हैं तो इनके चरणों में प्रभुपाद कई सारे प्रभु बैठते हैं।कई सारे गुरु उनके चरणों में उनके चरणों का आश्रय लेते हैं। हे प्रभुपाद योगिनां परमं गुरुम्। पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा।। मुझे यह कहिए कि आप पुरुष का ,व्यक्ति का क्या कार्य हैं?,क्या कर्तव्य है?,और कैसे पुरुष का म्रियमाणस्य सर्वथा। जो मरने जा रहा है,या मरने वाले पुरुष का क्या कर्तव्य है यह कहिए। वैसे हर पुरुष या स्त्री भी या हर बध्द जीव म्रियमाणस्य होता हैं। यह नहीं कि राजा परीक्षित के चार दिन ही बचे है वह म्रियमाण हैं। वह मरने वाले हैं। वैसे हर जीव म्रियमाण है क्योंकि,
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||
श्रीमद्भगवतगीता 2.27
अनुवाद: -जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए |
जनम लिए होना तो जरूर मरोगे! मरने वाले तो हो ही म्रियमाणस्य और व्यक्ति कभी भी मर सकता हैं।श्रील प्रभुपाद से पत्रकारों ने थोड़ा चुनौती देते हुए पूछा आप अपने शिष्यो को जो जवान है उनको दीक्षा क्यों दे रहे हो? वर्णाश्रम जो पध्दति है, धर्म है उसके अनुसार पहले ब्रह्मचारी फिर गृहस्थ फिर वानप्रस्थाश्रम फिर अंततः जब व्यक्ति 75 साल का होता है लगभग तब संन्यास लेना होता है लेकिन आप के शिष्य तो लोकनाथ तो 26 साल का ही था आपने उसको संन्यास दिया। वह जयपताका तो 20- 21 साल के थें उनको सन्यास दिये ऐसे ही प्रभुपाद के संन्यासी शिष्य थेउनकी उम्र 20-30 के दर्मीयान हुआ करती थी। नाम लेके तो पत्रकार ने नहीं पूछा, लेकिन पूछा तो सही जवान शिष्यों को आप संन्यास दे रहे हो। व्यक्ति जब मरने जा रहा है (वृध्दावस्था में) तो दीक्षा देनी चाहिए। उस समय प्रभुपाद ने कहा था। आप वृध्द किसे कहते हो? प्रभुपाद ने पूछा आप वृध्द किसे कहते हो? जो अब मर सकता है जो तब मर सकता है ऐसी स्थिति में जो होता है उसको वृध्द कहा जाता है फिर प्रभुपाद ने पूछा जो मेरे शिष्य है वह जवान तो है लेकिन क्या वह मर नहीं सकते सिर्फ आपदा किसे कहते हो लेकिन क्या जवान है लेकिन क्या वे मर नहीं सकते ऐसी कोई गैरंटी है कि मुझसे पहिले वह मर नहीं सकते। पत्रकार ने कहा संभव है आप तो वृध्द हो लेकिन यह जवान हैं। जवान नहीं मर सकता वह जो वृद्ध है तभी मर सकते हैं इसीलिए मैंने दे दी दीक्षा उनको और वैसे भी पाश्चात्य देशों में पूछा ही जाता है; हाउ ओल्ड आर यू? हाउ यंग आर यू?तो कहते ही नहीं है। हाउ ओल्ड आर यू?तुम कितने बुढ़े हो या वृध्द हो चुके हो। सभी बुढ़े हैं;और सभी कभी भी मर सकते हैं।
मैं ने मरने से पहिले संन्यास ले लिया यह मुझे कहना तो नहीं था। लेकिन राजा परीक्षित ने यह प्रश्न पूछा पुरुषस्येह यत्कार्यं पुरुष का,व्यक्ति का, मरने वाले व्यक्ति या पुरुष का क्या कार्य है? क्या कर्तव्य है? उसके जवाब में वैसे इसी प्रश्न का उत्तर है पूरा भागवतम् ।हरि हरि!
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||
श्रीमद्भगवद्गीता 1.1
अनुवाद:- धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
यह जो भगवत गीता का पहला वचन है यह प्रश्न ही हैं। धृतराष्ट्र उवाच! धृतराष्ट्र ने पूछा किमकुर्वत सञ्जय इस प्रश्न का उत्तर है उसी एक प्रश्न का उत्तर है श्रीमद्भगवद्गीता पूरी श्रीमद्भगवद्गीता उत्तर हैं। उसी प्रकार भागवत में भी राजा परीक्षित श्रोता हैं। शुकदेव गोस्वामी वक्ता हैं। श्रोता पूछ रहे हैं प्रश्न ; इस प्रश्न का ही उत्तर है सारा श्रीमद् भागवतम्। यह पूरा भागवत तो उत्तर है तो ही तो भी शुकदेव गोस्वामी भागवत के अंत में या सारांश कहो भागवतम् का ये सारांश के रूप में और इस पूछे हुए प्रश्न का वे उत्तर दे रहे हैं। द्वादश स्कंध के तीसरे अध्याय के अंत में वह जो पहला प्रश्न जो था; उसी प्रश्न का वे सीधे उत्तर भी दे रहे हैं। म्रियमाणस्य म्रियमाण
मरने वाले व्यक्ति का क्या कर्तव्य है? ऐसा प्रश्न पूछा तो उसी शब्द मृयमाणस्य का उपयोग शुकदेव गोस्वामी ने किया था। आपने पूछा था ना कि मरने वाला का क्या कर्तव्य है? तो सुनो मैं पुनः कहता हूं ।जब परीक्षित महाराज ने यह प्रश्न पूछा, तब श्रीमद्भागवतम का प्रथम दिन था और अब यह द्वादश स्कंद में कथा पहुंच गई है ।मतलब अब कथा का समापन होने वाला है। कथा की पूर्णाहुति का समय हो चुका है। और एक ही अध्याय बचा है जिसको शुकदेव गोस्वामी सुनाएंगे।वैसे 300 से अधिक अध्याय उन्होंने सुनाएं हैं। कुल 335 अध्याय हैं श्रीमद्भागवतम में ।किंतु श्रीमद भगवतम के प्रथम स्कंध के 19 अध्याय तक शुकदेव गोस्वामी कुछ नहीं कह रहे हैं । शुकदेव गोस्वामी की कथा श्रीमद् भागवतम के द्वितीय स्कंद से प्रारंभ होती है। और द्वादश यानि अंतिम स्कंद के पांचवें अध्याय के अंत में शुकदेव गोस्वामी की कथा का समापन होगा।
फिर द्वादश स्कंध में अध्याय 6 से अध्याय 13 तक है।12वे स्कन्द में 13 अध्याय हैं। द्वादश स्कंद के पांचवें अध्याय शुकदेव गोस्वामी ने सुनाएं हैं।
जो प्रश्न था उसका उत्तर श्रीमद्भागवतम के 12वे स्कंद के, तीसरे अध्याय के अंत में शुकदेव गोस्वामी उसका उत्तर देंगे ।तो 2 अध्याय बचे हैं। पांचवें अध्याय में तेरह ही श्लोक हैं ।संभावना है कि पूरे भागवतम में सबसे संक्षिप्त अध्याय यही है।
ए तत्ते कथितं तात यदात्मा पृष्टवान्नृप।
हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूय: श्रोतुमिच्छसि।।
श्रीमद् भागवतम् 12.5.13
अनुवाद:- हे प्रिय राजा परीक्षित, मैंने तुमसे ब्रह्मांड के परमात्मा भगवान् हरि की लीलाएंँ — वे सारी कथाएंँ— कह दीं जिन्हें प्रारंभ में तुमने पूछा था अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?
किम भूयः आपकी और कुछ सुनने की इच्छा है? परीक्षित महाराज ने उत्तर दिया और सुनना नहीं चाहते। सुन लिया है ।और समय समाप्त हो गया है। सातवां दिन है ,पक्षी के रूप में तक्षक आने वाला है काटने के लिए। वह भी घड़ी देख रहा है। श्राप मिला था कि सातवें दिन के अंत में मृत्यु होगी। तो कुछ ही क्षण बाकी है। ऐसा घटनाक्रम है। तो परीक्षित महाराज ने कहा मैं आपका आभारी हूं।
राजोवाच
सिध्दोस्म्यनुगृहीतोस्मि भवता करुणात्मना।।
श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरि:।।
श्रीमद् भागवतम् 12.6.2
अनुवाद: – महाराज परीक्षित ने कहा: अब मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया है क्योंकि आप सरीखे महान् तथा दयालु आत्मा ने मुझ पर इतनी कृपा प्रदर्शित कि हैं। आपने स्वयं मुझसे आदि अथवा अंत से रहित भगवान् हरि कि यह कथा कह सुनाई हैं।
अहं अनुग्रहितोस्मि
थैंक यू कहना , हमारी भाषा नहीं है। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी है। तो संस्कृत में थैंक्यू को कहते हैं अहं अनुग्रहितोस्मि। संस्कृत भाषा का संस्कृति से घनिष्ठ संबंध है। परीक्षित महाराज दो बातें कहते हैं सिद्धोस्मि में सिद्ध हो गया हूं।मैंने सिद्धि को प्राप्त किया है। आपसे जो सात दिनों से मैं कथा सुन रहा हूं तो मुझे साक्षात्कार हुआ है। जैसे साधना सिद्ध होते हैं, या मंत्र सिद्ध ।मैं सिद्ध बन चुका हूं और आगे बढ़ने को तैयार हूं ।कब होता है यह आगे बढ़ना ?
एतावान् साड्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया।
जन्मलाभ: पर: पुंसामन्ते नारायणस्मृति:।।
श्रीमद् भागवतम् 2.1.6
अनुवाद: -पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति के अभ्यास से या स्वधर्म का भलीभाँति पालन करने से मानव जीवन कि जो सर्वोच्च सिध्दि प्राप्त कि जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान् का स्मरण करना।
अंते नारायण स्मृति अंत में नारायण की स्मृति होना ही सिद्धि है। सिद्धोस्मि यानी नारायण का स्मरण हो रहा है। पूरा कृष्ण भावना भावित हो चुका हूं और यह संभव हुआ आपकी करुणा के कारण ।जो आपने वचन कहे, कृष्ण कथाएं सुनाई ,यह भागवत सुनाई ।यह आपकी मुझ पर करुणा अथवा कृपा का फल है।
अर्जुन भी गीता सुनते गए ,सुनते गए और अंत में उन्होंने कहा स्थितोअस्मि, मैं स्थित हो चुका हूं। और ऐसे ही राजा परीक्षित ने कहा सिद्धोस्मि मैं सिद्ध हो चुका हूं।
भ.ग 18.73
“अर्जुन उवाच |
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || ७३ ||”
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
अर्जुन ने कहा मैं मैं स्थिर हो चुका हूं। नष्ट मोह,मेरा सारा संदेह मिट चुका है । त्वत प्रसादान ,यहां गीता के वक्ता श्री कृष्ण है। अर्जुन अपना आभार प्रकट कर रहे हैं कि आपने जो गीता के रूप में प्रसाद दिया है , नष्ट मोह स्मृतिर्लब्धा मेरा मोह नष्ट हो गया है। पुनः आप की स्मृति हो रही है। जैसे अर्जुन ने कहा गीता के अंत में ऐसे राजा परीक्षित भी कह रहे हैं। तो उन्होंने कहा इह यानी इस संसार मरने वाले का क्या कर्तव्य है? अतः मैं पूछ रहा हूं ,तो अंत में शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया 12वे स्कंद के तीसरे अध्याय के अंत में
कलेर दोष निधे राजन अस्ति हय एको महान गुण:
कीर्तनाद एव कृष्णनस्य मुक्त संगह परम् व्रजेत (श्रीमद भागवतम 12.3.51)
अनुवाद : हे राजन ! यह कलियुग दोषों की खान हैं , परंतु इसमें एक महान गुण हैं कि यदि कोई केवल हरिनाम का उच्चारण करे तो वह भी मुक्त हो सकता हैं।
पुनः पुनः श्रील प्रभुपाद यह सुनाते रहे हैं ।अपने तत्पर्यों में और जो भी वक्ता होता हैं वे भी सुनाते हैं ।
मरने वाले का मतलब ,हर व्यक्ति मरने वाला है।। हम बूढ़े नहीं हैं इसलिए मरने वाले नहीं हैं, या हमें कोरोनावायरस नहीं हुआ हुआ है तो हम मरने वाले नहीं हैं ।हम कभी भी मर सकते हैं ।क्या भरोसा है जिंदगी का ?आया राम गया राम ।
राम आया भी और गया भी। इसलिए हमेशा तैयार रहो। इसलिए देर नहीं करना। बुढ़ापे में करेंगे फिर कैसे होगी अंतिम नारायण स्मृति ।इसलिए हमेशा तैयार रहो सब समय।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।
नाप्रुवन्ति महात्मान: संसिध्दिं परमां गता:।।
( श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8 श्लोक 15)
अनुवाद: -मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दु:खों से पूर्व इस अनित्य जगत में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त होती हैं।
दुखालयम अशाश्वतम ।सदैव तैयार रहो।
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
11 February 2021
Always be prepared for death
Hare Kṛṣṇa! We have devotees from 788 locations chanting with us.
om namo bhagavate vāsudevāya!
naṣṭa-prāyeṣv abhadreṣu
nityaṁ bhāgavata-sevayā
bhagavaty uttama-śloke
bhaktir bhavati naiṣṭhikī
Translation
By regular attendance in classes on the Bhāgavatam and by rendering of service to the pure devotee, all that is troublesome to the heart is almost completely destroyed, and loving service unto the Personality of Godhead, who is praised with transcendental songs, is established as an irrevocable fact. (ŚB 1.2.18)
Śrīmad-Bhāgavatam ki jai!
At the end of the 19th chapter of Canto 1, King Parikshit and Śukadeva Goswami met each other. King Parikshit asked Śukadeva Goswami,
ataḥ pṛcchāmi saṁsiddhiṁ
yogināṁ paramaṁ gurum
puruṣasyeha yat kāryaṁ
mriyamāṇasya sarvathā
Translation
You are the spiritual master of great saints and devotees. I am therefore begging you to show the way of perfection for all persons, and especially for one who is about to die. (ŚB 1.19.37)
ataḥ means therefore, pṛcchāmi means beg to inquire. King Parikshit is having his darshan. Śravana means having darshan. When we hear from devotees or ācāryas, it means we are taking their darshan. Their identity and their character is revealed by hearing them. We would take Śrīla Prabhupāda’s darshan in Bombay where I took sannyāsa. In the evening, Śrīla Prabhupāda would give darshan to everyone. Therefore, darshan does not only mean to see, but hearing also. Śrīla Prabhupāda said, “To see whether he is a fool or a wise man, give him a microphone. When he speaks, everyone will come to know him and his way of thinking. We will get to know whether he is a fool or a wise man, pious or a demon.” This is having darshan. In the Vedic literatures of our Sanātana dharma, shad darshan is famous. Although King Parikshit was taking darshan of Śrīla Śukadeva Goswami with his eyes, he would get complete darshan of him when he hears from Śrīla Śukadeva Goswami.
Therefore, King Parikshit is asking Śrīla Śukadeva Goswami a question before hearing. King Parikshit is praising Śrīla Śukadeva Goswami. yogināṁ paramaṁ gurum, “You are the spiritual master of great saints.” When we say Prabhupāda, it means one, whose shelter is taken by many saints and masters. King Parikshit asked Śrīla Śukadeva Goswami, “What should be done by the person who is going to die?” Every conditioned soul is mriyamāṇasya, one who is going to die. It’s not like only King Parikshit was going to die within 7 days, but everyone is mriyamāṇasya, going to die.
jātasya hi dhruvo mṛtyur
dhruvaṁ janma mṛtasya ca
tasmād aparihārye ’rthe
na tvaṁ śocitum arhasi
Translation
One who has taken his birth is sure to die, and after death one is sure to take birth again. Therefore, in the unavoidable discharge of your duty, you should not lament. (B.G. 2.27)
If we have taken birth, sooner or later we will surely die. One may die now or some years later. Once Śrīla Prabhupāda was asked by a journalist in an interview, “Why are you giving sannyāsa to your young disciples? According to Varṇāśrama-dharma, one has to go through all the stages like brahmacāri, grihasta, vānaprastha and when he turns 75 or becomes old or is going to die, then he has to take sannyāsa.” The sannyāsi disciples of Śrīla Prabhupāda were around 20 to 30 years of age at the time of their sannyāsa initiation. Śrīla Prabhupāda asked, “Who do you call elderly? When a person is going to die, is he called elderly? Is there any guarantee that my disciples will not leave this world before me? The journalist said, “It is quite possible that they might leave before you.” Then Śrīla Prabhupāda said, “It means they are old. That’s why I gave them sannyāsa initiation.” In English people ask, “How old are you?” No one ever asks, “How young are you?” Therefore, everyone is old. They may die at any time. Better to take sannyāsa on time or before you die.
King Parikshit asked Śrīla Śukadeva Goswami, “puruṣasyeha yat kāryaṁ, What should person a person do who is going to die?” Śrīla Śukadeva Goswami narrated the Śrīmad Bhāgavatam in response to this question by King Parikshit.
dhṛtarāṣṭra uvāca
dharma-kṣetre kuru-kṣetre
samavetā yuyutsavaḥ
māmakāḥ pāṇḍavāś caiva
kim akurvata sañjaya
Translation
Dhṛtarāṣṭra said: O Sañjaya, after my sons and the sons of Pāṇḍu assembled in the place of pilgrimage at Kurukṣetra, desiring to fight, what did they do? (BG 1.1)
This 1st Verse of Bhagavad Gīta is also a question asked by Dhṛtarāṣṭra. The entire Bhagavad Gīta is an answer to this question. Similarly, Śrīmad Bhāgavatam is an answer to the question asked by King Parikshit. Now at the end of the 3rd chapter of the 12th canto, Śrīla Śukadeva Goswami is giving the answer to the question which was asked in the beginning.
Śukadeva Goswami has used the same word, mriyamāṇasya, to answer the question. He says, “You were asking what should a person do who is going to die, so I have already been speaking on this, but I shall repeat the essence again.” When this question was asked, it was the first day of the narration of Śrīmad Bhāgavatam. Now it has reached the 12th canto, it means the katha is reaching its end. Only the last chapter is left, which will be narrated by Śrīla Śukadeva Goswami. There are a total of 335 chapters in Śrīmad Bhāgavatam. Śukadeva Goswami had spoken around 300 chapters. He didn’t say anything in the first 19 chapters. He had started narrating Śrīmad Bhāgavatam from the 2nd canto. Out of the 13 chapters of 12th canto, only 5 chapters are spoken by Śukadeva Goswami. In the third chapter of the 12th canto, Śukadeva Goswami will give the answer. He is going to speak 2 more chapters only, that is the 4th and 5th chapter. That is only a few more verses. The 5th chapter of Canto 12 is the shortest of all chapters of Śrīmad Bhāgavatam with only 13 verses.
etat te kathitaṁ tāta
yad ātmā pṛṣṭavān nṛpa
harer viśvātmanaś ceṣṭāṁ
kiṁ bhūyaḥ śrotum icchasi
Translation
Beloved King Parīkṣit, I have narrated to you the topics you originally inquired about — the pastimes of Lord Hari, the Supreme Soul of the universe. Now, what more do you wish to hear? (ŚB 12.5.13)
Śukadeva Goswami asked King Parikshit, “Do you want to hear something else?”
siddho ’smy anugṛhīto ’smi
bhavatā karuṇātmanā
śrāvito yac ca me sākṣād
anādi-nidhano hariḥ
Translation
Mahārāja Parīkṣit said: I have now achieved the purpose of my life, because a great and merciful soul like you has shown such kindness to me. You have personally spoken to me this narration of the Supreme Personality of Godhead, Hari, who is without beginning or end. (ŚB 12.6.2)
Parikshit Maharaj did not want to listen to more as it was the last day, 7th day. Now the snake would come to bite King Parikshit as per the given curse. King Parikshit was very thankful to Śrīla Śukadeva Goswami. Thank you in Sanskrit is aham anugṛhīto ’smi. ‘Thank you’ is not our country’s language. Our original language is Sanskrit. This language has a close relationship with our culture. King Parikshit also said anugṛhīto ’smi to Śukadeva Goswami and siddho ’smy, “Now I have attain perfection by hearing Śrīmad Bhāgavatam. I am ready to go.”
etāvān sāṅkhya-yogābhyāṁ
sva-dharma-pariniṣṭhayā
janma-lābhaḥ paraḥ puṁsām
ante nārāyaṇa-smṛtiḥ
Translation
The highest perfection of human life, achieved either by complete knowledge of matter and spirit, by practice of mystic powers, or by perfect discharge of occupational duty, is to remember the Personality of Godhead at the end of life. (ŚB 2.1.6)
This is determined when you remember Lord Narayana at the time of death. This is perfection. King Parikshit said, “This remembrance is possible only because of bhavatā karuṇātmanā, your mercy.” You narrated the pastimes of the Lord and I have been listening with full faith and devotion. Thus now I have become a perfectionist.
naṣṭo mohaḥ smṛtir labdhā
tvat-prasādān mayācyuta
sthito ’smi gata-sandehaḥ
kariṣye vacanaṁ tava
Translation
Arjuna said: My dear Kṛṣṇa, O infallible one, my illusion is now gone. I have regained my memory by Your mercy. I am now firm and free from doubt and am prepared to act according to Your instructions. (BG. 18.73)
Arjuna also said towards the end of Bhagavad Gīta that now he has become stable He says, sthito ’smi. gata-sandehaḥ, “My illusion has been destroyed and I have developed remembrance by Your mercy.”
The speaker of Bhagavad Gīta is Śrī Krsna. Like Arjuna, King Parikshit is also saying this. Śukadeva Goswami narrated the essence in the end. We shall discuss that in detail tomorrow. This is a very popular verse. We get to hear it repeatedly in many classes of Śrīla Prabhupāda and many other speakers.
kaler doṣa-nidhe rājann
asti hy eko mahān guṇaḥ
kīrtanād eva kṛṣṇasya
mukta-saṅgaḥ paraṁ vrajet
Translation
My dear King, although Kali-yuga is an ocean of faults, there is still one good quality about this age: Simply by chanting the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra, one can become free from material bondage and be promoted to the transcendental kingdom. (ŚB 12.3.51)
How many of you have heard this verse? It is a very common one. Is there anyone who hasn’t heard it before? This verse is an answer to the question. What should be done by the one who is going to die. We all are going to die.
If we aren’t old, doesn’t mean we will not die. If we are not sick, doesn’t mean we won’t die. If we are corona negative doesn’t mean we won’t die. Many people die young and untimely. We don’t know when we shall die. We should be ever ready. We should not postpone our bhakti till we get old. We can die at a young age also. Then how we will be able to remember the Lord at the time of death. Therefore we should be ever ready. There is also a battery brand name Eveready. Always ready, you can use it whenever you need. Such should be our preparation.
mām upetya punar janma
duḥkhālayam aśāśvatam
nāpnuvanti mahātmānaḥ
saṁsiddhiṁ paramāṁ gatāḥ
Translation
After attaining Me, the great souls, who are yogīs in devotion, never return to this temporary world, which is full of miseries, because they have attained the highest perfection. (BG. 8.15)
We live in a world of sorrows that is temporary and uncertain. Therefore be prepared. Be ready. We shall discuss the verses in detail tomorrow.
Hare Kṛṣṇa!
Question:
Parikshit Maharaja was hearing till the last moment, then when did he explain Brhad Bhāgwatamrta to his mother Uttara?
Gurudev uvaca
In the time between the end of the narration of Śrīmad Bhāgavatam and the time when takshak came, he narrated Brhad Bhāgwatamrta to his mother. The time period was very short. It is inconceivable. He narrated the essence of Śrīmad Bhāgavatam to his mother who arrived there and expressed her discontent as she could not get to hear Śrīmad Bhāgavatam. Time had stopped and the moment was expanded. In that period, he explained to his mother.
You also study Śrīmad Bhāgavatam. It’s homework for you. We all are going to die. It’s not that we are some astrologers and we are telling you. We are born with a death certificate in our hands. We have to prepare for our death. We have to remember Lord at the time of death. That’s victory. Then we will go back home back to Vaikuntha.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
This mahā-mantra is a key to Vaikuntha. One who connects with this paramparā gets the key or visa to Vaikuntha. ISKCON gives you that visa. ISKCON temples are the embassies of Vaikuntha and Śrīla Prabhupāda is our ambassador. You could also be an ambassador.
yāre dekha, tāre kaha ‘kṛṣṇa’-upadeśa
āmāra ājñāya guru hañā tāra’ ei deśa
Translation
Instruct everyone to follow the orders of Lord Śrī Kṛṣṇa as they are given in the Bhagavad Gita and Śrīmad-Bhāgavatam. In this way become a spiritual master and try to liberate everyone in this land. (CC Madhya 7.128)
Those who instruct the orders of Lord Śrī Kṛṣṇa are ambassadors. Our goal is not to go to any mortal place. Our goal is to go back to Godhead.
Nitai Gaura premanande hari haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जपा टॉक
पंढरपुर धाम से
दिनांक १०.०२.२०२०
हरे कृष्ण!
गौर नित्यानंद बोल!
हरि बोल! हरि बोल!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 784 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
उदित शर्मा! कुछ लिखने वाले हो? तैयार हो? कुछ विद्यार्थी पैन और पेपर लेकर तैयार हैं। कहा भी जाता है कि विद्यार्थी बिना कलम के वैसा ही होता है, जैसा नाई बिना ब्लेड और हरे कृष्ण बिना जपमाला के है। हरे कृष्ण वाला बिना जप माला के हरे कृष्ण वाला नहीं कहलाएगा जैसे कि पैन के अभाव में विद्यार्थी नहीं कहलाया जाएगा और रेजर के बिना बार्बर अर्थात नाई नहीं कहलाया जाएगा। आप में से कुछ अच्छे विद्यार्थी हैं जो कि पैन और पेपर ले कर बैठे हैं। पता नहीं, मैं जो कुछ कहने वाला हूं, वह लिखने लायक भी है या नहीं लेकिन आप तो तैयार हो। आइए देखते हैं।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः श्रील प्रभुपाद की जय!
एक समय जब अच्छा समय था, जैसा कि अंग्रेजी में भी कहते हैं कि गुड़ ओल्ड डेज, पर अब न्यू बेड डेज आर् हेयर। संसार सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग में अच्छे दिन देख रहा था। वैसे सच्चाई और अच्छाई धीरे धीरे घटती रहती है। हम सतयुग से त्रेतायुग में जाते हैं। तत्पश्चात त्रेतायुग से द्वापरयुग में आते हैं और यह अच्छाई अधिक अधिक कम् होती जाती है एवं कलियुग में और भी अधिक घट जाती है।
त्वं न: सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम्। कलिन सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इर्वाणवम्।।
( श्री मद् भागवतम १.१.२२)
अनुवाद:- हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्यों के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें।
भागवतम में वर्णन है कि कलौ अर्थात कलियुग में सत्त्वहरं पुंसां। सत्त्व कहो या सत्य कहो या सार कहो अर्थात सार हर लिया जाता है। कलि हमारी अच्छाई, सच्चाई, सात्विकता या सार गर्भित विचार को हरता है। पुंसां यह कलि संसार के सभी मनुष्यों के साथ ऐसा खेल खेलता है। एक समय जब अच्छे दिन आएंगे। (वैसे आपको बताया भी जाता है, मोदी सरकार कहती है कि अच्छे दिन आएंगे। अभी तक तो नहीं आए, लेकिन पता नहीं कब आएंगे।) हरि! हरि!
एक समय जब यह संसार अच्छे दिन देख रहा था। उस समय संसार भर के देशों के लोगों में एक्य था। यहाँ तक कि राजा परीक्षित को
हे भरतहर्ष: अर्थात हे भरतवंशी या हे भारतीय भी कहो।
उस समय इस सारी पृथ्वी पर भारत फैला हुआ था अर्थात भारतवासी सर्वत्र थे। दुनिया के कोने कोने में भारतवासी अर्थात भारतीयता विद्यमान थी। पद्मपुराण व स्कन्दपुराण में राजा परीक्षित को हे पृथ्वीपते कहा गया है, वैसे और भी कहीं होगा। पृथ्वीपते: अर्थात पृथ्वी के पति कहा है। राजा पति होता है, इसलिए उन्हें पृथ्वीपति कहा गया है।
एक सम्राट पूरी पृथ्वी पर अपना कारोबार निभाते अथवा संभालते थे। सारे पृथ्वी के लोग एक परिवार था अर्थात सब लोगों का मिलकर एक परिवार था। जिसको शास्त्रों में वसुधैव कटुम्बकम् कहा गया है। वसुधा अर्थात सारी पृथ्वी के सारे लोग एक परिवार के हैं। परिवार जब होता है तो उस परिवार का मुखिया अर्थात प्रमुख भी होता है। दूसरे शब्दों में उस प्रमुख व्यक्ति का परिवार भी होता है। यह वसुधैव कटुम्बकम् है।
यह कुटुम्ब जो कि सारे विश्व भर में फैला हुआ था अर्थात पूरी पृथ्वी भर में फैला हुआ था और अब भी है लेकिन हम दुर्देव से मानते और जानते नहीं हैं। हेड ऑफ द फैमिली अर्थात परिवार का मुखिया कौन है? भगवान् हैं। उनका नाम भी है। उनका नाम कृष्ण या राम या अल्लाह या जेहोवा है। यह भगवान् के अलग अलग नाम हैं। भगवान एक ही हैं, नाम अलग अलग हैं।वह हमारे हेड ऑफ द फैमिली हैं। हम सब लोग उनके अतिपत्य अर्थात बच्चे हैं। भगवान् के बच्चे ( चिल्ड्रन ऑफ गॉड) ऐसा सब स्वीकार करते है।
विठू माझा लेकुरवाळा
संगे गोपाळांचा मेळा
निवृत्ती हा खांद्यावरी
सोपानाचा हात धरी
पुढे चाले ज्ञानेश्वर
मागे मुक्ताई सुंदर
गोरा कुंभार मांडीवरी
चोखा जीवा बरोबरी
संत बंका कडेवरी
नामा करांगुळी धरी
जनी म्हणे गोपाळा
करी भक्तांचा सोहळा
यह प्रसिद्ध बात महाराष्ट्र भर में गाई जाती है । विठूवा हम सभी बाप हैं। खंडोबा, मसोबा, ज्योतिबा इनके भी बा हैं। हम विठूबा की संताने हैं, विठू माझा लेकुरवाळा। ऐसे परिवार के मुखिया या वर्ल्ड वाइड ग्लोबल फैमिली या वसुधैव कटुम्बकम् फिर हमारा एक शास्त्र अर्थात गीत ही चलता था।
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम्। एको देवो देवकीपुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।।
( गीता महात्मय ७)
अनुवाद:- आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक शास्त्र, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यंत उत्सुक हैं।
सारे संसार भर के लोगों के लिए एक समय एक ही शास्त्र अर्थात देवकीपुत्र गीतम चल रहा था, भगवतगीता की जय! ‘एको देवो देवकीपुत्र एव’ अर्थात एक ही देव और आदि देव थे और हैं भी। इसमें कोई परिवर्तन नहीं है, हम सभी के एक ही देव देवकीपुत्र एव अर्थात देवकी के पुत्र हैं। भगवान् देवकी के पुत्र बन जाते हैं।
गोपाला गोपाला देवकी नंदन गोपाला। देवकीनंदन बनते हैं, यशोदानंदन बनते हैं। कौशल्या नंदन भी बनते हैं। शची नंदन भी बनते हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥
अनुवाद:-
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ
एको मंत्रस्तस्य नामानि यानि अर्थात सारे संसार भर के लोगों के लिए एक ही मंत्र अर्थात नाम वाला मन्त्र है। कलियुग में
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का मंत्र है। अन्य युगों में ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मन्त्र है। सभी के लिए कर्माप्येकं अर्थात सभी के लिए एक ही कर्म अर्थात एक ही ड्यूटी है । ‘तस्य देवस्य सेवा’ अर्थात आदि देवस्य या देवकी पुत्र अथवा कृष्ण, कन्हैया, अल्लाह, जीवोहा की सेवा ही सभी का कर्म है। इस प्रकार की व्यवस्था और समझ थी और है भी। इसमें कोई परिवर्तन नही होता किन्तु
कलियुग में बाहय दृष्टि से परिवर्तन है। अलग अलग युगों में अलग अलग गुणों का भी प्रभाव होता है। सतयुग में सत्व गुण का प्रभाव होता है और उस युग में ब्राह्मण की संख्याअधिक होती है।
त्रेतायुग में सतोगुण कम होता है और रजोगुण का प्रभाव अधिक होता है। त्रेतायुग में क्षत्रिय की अधिकता होती है। वैसे भगवान् स्वयं भी एक क्षत्रिय बने। जय श्री राम! उन्होंने भी कारोभार संभाला और इस पृथ्वी पर रामराज्य की स्थापना की, तत्पश्चात द्वापर युग आता है। द्वापर युग में सतोगुण की मात्रा और कम हो जाती है। रजोगुण और बढ़ जाता है, तमोगुण का भी प्रवेश होता है। कलियुग में इन्हीं तीनों के गुणों का मिश्रण अलग अलग मात्रा में होता है। इसी प्रकार लोगों के चरित्र अथवा सारे कार्यकलाप या सोच भी वैसे ही बन जाती है अर्थात सात्विक या राजसिक या तामसिक या अलग अलग गुणों का मिश्रण। द्वापर युग में वैश्य होते हैं। भगवान् स्वयं भी वैश्य समाज अथवा वैश्य परिवार में प्रकट होते हैं। नंद महाराज की जय! नंद बाबा वैश्य कमेटी के लीडर थे। जिसमें कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य चलता था। तत्पश्चात कलियुग आ जाता है। कलियुग में
त्वं न: सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम्। कलिन सत्वहरं पुंसां कर्णधार इर्वणवम् ।।
( श्रीमद् भागवतम १.१.२२)
अनुवाद:- हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्य के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें।
यह कलियुग सात्विकता को छीन लेता है और इस कलियुग में जिस गुण का सबसे अधिक तमोगुण की प्रधानता होती है। कलौ शुद्रौसम्भव:
(स्कन्द पुराण)
अनुवाद:- कलियुग में जन्मजात सभी शुद्र हैं।
भव: अर्थात होना। संभव मतलब भली भांति होना। कलियुग में क्या होगा? कलौ शुद्रौसम्भव: अर्थात कलियुग में सभी शुद्र होंगे क्योंकि वे तमोगुणी होंगे। हरि! हरि!
इस प्रकार हर युग मेंअलग-अलग धर्म भी हैं।
कृते यद्धयायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:। द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ।।
( श्रीमद् भागवतं १२.३.५२)
अनुवाद:- सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है।
कृते अर्थात सत्ययुग में ध्यायतो अर्थात ध्यान होता है। ध्यान अथवा मेडिटेशन एक विधि है। यह एक धर्म है।
त्रेतायां यजतो मखै: अर्थात त्रेतायुग में यज्ञ चलते रहते हैं। जैसे राम आए थे तब वह उस समय उनषोडश वर्षीय थे। दशरथ जी ने विश्वामित्रमुनि को कहा था कि “आप मेरे पुत्र को ले जाने आए हो। शायद आप नहीं जानते हो कि मेरा पुत्र तो अभी बालक ही है। उनषोडश वर्षीय है अर्थात सोलह में एक कम है, वह पंद्रह वर्ष का ही है। आप चाहते हो कि वह आपके साथ जाए और आपके यज्ञ के यज्ञशाला की रक्षा करें, नहीं! नहीं! यह कैसे संभव है, वह बालक है।” विश्वामित्र दोनों बालकों अर्थात राम और लक्ष्मण को चाहते थे। दशरथ जी ने आगे कहा, “मेरे बालक तो राजीव लोचन: हैं अर्थात कमल लोचनीय है।” ( दशरथ ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि) “आपने ऐसा प्रस्ताव रखा है, कि वे पूरी रात पहरा देंगे अथवा चौकीदारी करेंगे अथवा रखवाली करेंगे क्योंकि राक्षस तो अंधेरी रात में आते हैं और सब कुछ सत्यनाश कर देते हैं अर्थात वे यज्ञशाला अथवा यज्ञ के विधि विधानों का सत्यनाश कर देते हैं। “राम और लक्ष्मण को रात भर जागना होगा, नहीं! नहीं! राम और लक्ष्मण तो राजीव लोचन हैं। राजीव अर्थात कमल, कमल का क्या होता है? कमल दिन में खिलता है लेकिन जैसे ही सायं काल आ जाती है तब वह मुरझा जाता है, उसकी पंखुड़ियां बंद हो जाती हैं। राम और लक्ष्मण का वही हाल है। सायं काल होता है तो उन्हें जल्दी सोना पड़ता है। वे दोनों जल्दी सोते हैं, पूरी रात भर सोते हैं, क्योंकि बालक जो है। लेकिन आप कह रहे हो, इन्हें भेजो। यह पूरी रात भर रखवाली करेंगे।”
इस प्रकार त्रेता युग में यज्ञ हुआ करते थे। त्रेता युग में यज्ञ ही धर्म था। द्वापर युग में परिचर्यायां अर्थात द्वापर युग में भगवान की अर्चना अथवा भगवान की आराधना से भगवान को प्रसन्न किया जाता था। भगवान का साक्षात्कार या दर्शन अर्चना विधि से संभव होता था। कलौ तद्धरिकीर्तनात् अथवा कलियुग में हरि कीर्तन से भगवत प्राप्ति होती है जोकि सतयुग में ध्यान से प्राप्त होती थी और वह भगवत प्राप्ति या भगवत साक्षात्कार जो त्रेता युग में यज्ञ से प्राप्त होता था और द्वापर में अर्चना से प्राप्त होता था और वही कलियुग में हरि नाम कीर्तन से प्राप्त होगा। यह शास्त्र का वचन है। भागवत का वचन है। शुकदेव गोस्वामी ने कहा है।
कलि सत्त्वहरं पुसां अर्थात कलि सात्विकता को हर लेता है और राजसिकता को बढ़ाता है, सबसे अधिक तामसिकता ही होती है। इस युग में भगवत प्राप्ति केवल नाम संकीर्तनं से सम्भव है। यह तो मुझे कहना था और कह भी दिया। एक समय ऐसे प्रैक्टिकल अनुभव या ऐसे व्यवहार होते थे, पृथ्वी पर यह सारे लोग एक परिवार के हैं। वसुधैव कुटुम्बकम। यह सत्य है ही लेकिन अलग अलग युगों और कलियुग के विशेष प्रभाव से इस संसार के कई सारे विभाजन कई सारे टुकड़े, कई सारे देश, कई सारी उपाधियां हुई कि मैं इस देश का हूँ या मैं इस धर्म का हूं अथवा मैं इस इकनोमिक स्टेट्स का हूं। इन बातों को लेकर संसार अथवा वसुधैव कुटुम्बकम की जो भावना थी कि हम एक परिवार हैं अर्थात इस संसार के सभी लोग हम एक परिवार के हैं। हिंदी चीनी – भाई भाई कहो। हिंदी चीनी भाई भाई। हिंदी चीनी भाई भाई। जब लड़ाई प्रारंभ होती है तब ऐसा सब याद आता है और हम ऐसे नारे लगाते हैं। मैंने एक दिन बताया था कि हिंदी चीनी अर्थात हिंदुस्तान के सारे लोग और चीन के सारे लोग सभी हिंदुस्तान के ही हैं। लेकिन कभी हॉट वॉर और कभी कोल्ड वॉर अर्थात शीत युद्ध होता है, उसकी तैयारी होती है फिर युद्ध होता है। पुनः तैयारी होती है। ऐसा चलता ही रहता है। यह संसार ऐसा ही है।
हम लड़ते रहते हैं क्योंकि हम भूल गए हैं कि हम भाई भाई हैं और एक ही परिवार के सदस्य हैं। हम सबके पिताश्री कॉमन अर्थात एक ही हैं। यह जो अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आदेशनुसार ही श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित इस संघ हेतु प्रयास हो रहा है।
श्रील प्रभुपाद की जय!
चैतन्य महाप्रभु का आदेश और भविष्यवाणी ही सच हो रही है।
पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद्:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर
जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा। मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र होगा, जैसा उन्होंने कहा था वैसा हो भी रहा है। श्रील प्रभुपाद वह भविष्यवाणी सच करके दिखाएं। जैसे-जैसे हरि नाम का प्रचार हो रहा है, बढ़ रहा है, उसी के साथ इस संसार में पुनः वसुधैव कुटुंबकम अर्थात इस पृथ्वी के सारे लोग एक परिवार के सदस्य हैं। ऐसी भावना और ऐसा विचार उत्पन्न हो रही है और केवल ऐसी भावना और विचार ही नहीं हम व्यवहारिक रूप से भी ऐसा अनुभव कर रहे हैं।
सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषिकेण हृषिकेश सेवनं भक्तिरूच्यते।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१७०)
अनुवाद:- भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान की सेवा करता है, उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं।
भगवान की भक्ति, नाम स्मरण एवं श्रवण कीर्तन में एकं शास्त्रम देवकीपुत्रगीतम अर्थात गीता शास्त्र के अध्ययन में या इनको स्वीकार करके हम अलग-अलग उपाधियों को भूल रहे हैं। जब हरे कृष्ण के भक्त इंडिया में आ जाते हैं। वैसे तो आते ही रहते हैं और इंडिया में ही रहते हैं। वैसे इंडिया में नहीं रहते, भारत में रहते हैं। वैसे भारत में भी नहीं रहते, वे वैकुंठ में रहते हैं। जब उनसे पूछा जाता है, पूछते ही रहते हैं। जब कभी-कभी वे ग्रामों में जाते हैं ‘वेयर फ्रॉम’ ‘व्हेयर फ्रॉम’ ‘विच कंट्री’ उन्हें अंग्रेजी में कहना भी नहीं आता लेकिन लोग पूछते ही रहते हैं तब भक्त कहते हैं कि मैं फ्रांस से हूं, फिर एक मिनट के बाद दूसरा पूछता है, फिर तीसरा पूछता है और पूछते ही रहते हैं। तब ऐसे प्रश्नोत्तर से हमारे भक्त परेशान होते हैं और कहते हैं कि नहीं! नहीं! हम वैकुंठ से हैं। वे पहले भी कह सकते थे लेकिन नहीं कहा। सत्य कथा तो यह है कि हम सभी वैकुंठ से हैं या हम गोलोक से हैं या वसुधैव कुटुंबकम अथवा वैकुंठ से हैं। वैकुंठ में जितने लोग रहते हैं, वह एक परिवार के हैं, यह समझना आसान है। वैकुण्ठ में जितने भी लोग रहते हैं, उनका एक परिवार है। गोलोक में जो लोग रहते हैं, उनका एक परिवार है। हमें ऐसा ही अनुभव यहां होना चाहिए। हमें उसकी प्रैक्टिस करनी चाहिए कि हम एक ही परिवार के हैं। एक ही भगवान हैं। एक ही युग धर्म है। जीव का धर्म कौन सा है? उसको नाम दिया जा सकता है। तब उसे भागवत धर्म कहा जा सकता है अथवा उसको सनातन धर्म कहा जा सकता है। हर जीव का सनातन धर्म है।
वैसे कोई भी जीव हिंदू नहीं है, कोई भी जीव मुस्लिम नहीं है, कोई भी जीव इसाई नहीं है। यह धर्म शाश्वत नहीं है। इसलिए भगवान ने कहा है
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।
( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६)
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
भगवान की शरण लेना ही धर्म है। धर्म में अंतर नहीं आना चाहिए। मेरा एक धर्म या आपका एक धर्म या अन्य किसी का और धर्म। जीव का धर्म एक ही है। सभी जीवों का धर्म एक ही है। जैसे हम कल भी कह रहे थे कोई बड़ी डिक्शनरी ले कर बैठा है, कोई गीता भागवत को लेकर बैठा है, कोई चैतन्य चरितामृत को भी लेकर बैठा है। यह पूर्ण है। यह एक शास्त्र भी है और उस पर आधारित धर्म है अथवा वही धर्म है। इस शास्त्र के वचन, भगवान के द्वारा दिए हुए कानून हैं। दुनिया वालों को पुनः उनका जो वास्तविक धर्म है, दिया जा रहा है, उन्हें समझाया जा रहा है। दुनिया भर के असंख्य लोग उसको स्वीकार भी कर रहे हैं। नंदिनी माताजी, रशिया से बैठी है, उनका धर्म भी सनातन धर्म है। कोई कहता है कि मैं इसाई हूं। नहीं! हमारा धर्म तो सनातन धर्म है। तुम्हारा धर्म तो इसाई या अन्य कोई धर्म है। वैसे उसका धर्म तो सनातन धर्म है लेकिन वह भूल चुका है। उसने राक्षस प्रवृत्ति को अपनाया है, उससे प्रभावित है। इसलिए ऐसा कह रहा है, जो व्यक्ति शराब जोकि खराब होती है, उसको पीता है, वह बहुत कुछ बकता ही रहता है। नशा उतर जाता है तब वह फिर कुछ गंभीर बात करता है। हम संसार भर के लोग जो नशे में है, अज्ञान में हैं।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै शीगुरवे नमः।।
इसलिए आवश्यकता है कि हमारे परम्परा में आने वाले आचार्य या गुरुवृन्द जो ज्ञानाञ्जन और केवल ज्ञानाञ्जन नहीं अपितु प्रेमाञ्जन भी हमारी आँखों में डाल दें ताकि हमारी दिल और दृष्टि की सफाई हो।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
अनुवाद:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
तत्पश्चात उन्हें पुनः यथावत अर्थात जैसा है वैसा दिखाई दे। हम भी कौन हैं, भगवान् कौन हैं और अन्य जीव व मनुष्य कौन हैं। उनके साथ हमारा क्या संबंध है, भगवान् के साथ हमारा क्या संबंध है? इस सृष्टि के साथ हमारा क्या संबंध है?तब हम लोग थोड़ा नार्मल लाइफ बिता पाएंगे। तत्पश्चात ही हम खुश होंगे। हम जो यह सब बातें सीख रहे हैं , हमें वह बातें अधिकाधिक लोगों को बतानी व सिखानी है।
ठीक है।
परम करुण!
परम करुणा, पहुँ दुइजन, निताई गौरचन्द्र। सब अवतार, सार-शिरोमणि, केवल आनन्द-कन्द॥1॥
( लोचन दास ठाकुर)
अनुवाद:- श्री गौरचंद्र तथा श्री नित्यानंद प्रभु दोनों ही परम दयालु हैं। ये समस्त अवतारों के शिरोमणि एवं आनंद के भंडार हैं।
निताई अर्थात नित्यानंद और गौरचंद्र की करुणा है, तकदीर बदल जाएगी। तत्पश्चात कोरोना से भी मुक्त हो जाएगें।
ठीक है।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
10 February 2021
Do you miss Vaikuntha, your original home?
Hare Krsna! Welcome you all to the Japa Talk. Today participants from 780 locations are chanting with us. A barber without a pair of scissors cannot be called a barber. Similarly, you are all good students sitting with a pen and paper ready to take notes. I don’t know whether whatever I’ll say is worthy to be noted down. But you are ready. Let’s see.
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
caksur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah
Translation
I offer my respectful obeisances unto my spiritual master, who has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance, with the torchlight of knowledge.
Once upon a time there were good old days. Now there are bad new days. But we are talking about when the world was having good old days like Satya-yuga, Treta-yuga, Dvapara-yuga. Truthfulness and goodness decreases as we transit from one millennium to another like from Satya-yuga to Treta to Dvapara and finally to Kaliyuga.
tvaṁ naḥ sandarśito dhātrā
dustaraṁ nistitīrṣatām
kaliṁ sattva-haraṁ puṁsāṁ
karṇa-dhāra ivārṇavam
Translation
We think that we have met Your Goodness by the will of providence, just so that we may accept you as captain of the ship for those who desire to cross the difficult ocean of Kali, which deteriorates all the good qualities of a human being. [SB 1.1.22]
Kalim means in Kaliyuga, sattva-haram—that which deteriorates the good qualities; puṁsām – of a man. Kali takes away all the goodness, truthfulness from every man. Kali plays like this with every man of this world. Good days will come back again. That’s how the Modi government consoles us. Till now we cannot see any good days and we don’t know when they’ll come.
When this world was having good days, there was unity amongst all the people of different countries. Actually this whole world was known as Bharat(India). Everyone was a Bharatiya (citizen of India). Bharat and Bharatiyas were spread in every nook and corner of this world. Maharaja Parikshit, was known as Pṛthvīpati (king of the earth) in Skanda Purana. Only one emperor ruled the whole world. The whole world lived like one family. In the Vedas, it is mentioned as Vasudev kutumbhakam. Vasudha eva kutumbhakam. Vasudha means earth. All men of this planet lived like a family. If there is a family, then there must be the head of the family. Then only they are one family. At that time, this whole earth was one family. It is now also, but we don’t accept or don’t know unfortunately. Then who is the head of the family? The Lord is the head of the family. He has a name also. You may call Him Krsna, Rama, Allah. You may call Him different names. The Lord is one, but He has many different names. He is the head of the family. We are all His children, children of God. Everyone believes that.
Vithu maajha lekurawaala
Sange gopalancha mela
(Song by Janabai (Maharastrian Saint)
Vitthu majha, we sing in Maharashtra. Vithu means Vitthala is our Father. We are His children. He is the head of the worldwide global family, Vasudeva Kutumbhakam. Then we followed one scripture.
ekaḿ śāstraḿ devakī-putra-gītam
eko devo devakī-putra eva
eko mantras tasya nāmāni yāni
karmāpy ekaḿ tasya devasya sevā
Translation
Let there be one scripture only, one common scripture for the whole world — Bhagavad-gita. Let there be one God for the whole world — Śri Krsna. Let there be only one hymn, one mantra, one prayer — the chanting of His name: Hare Krsna, Hare Krsna, Krsna Krsna, Hare Hare/ Hare Rama, Hare Rama, Rama Rama, Hare Hare. Let there be one work only — the service of the Supreme Personality of Godhead.
ekaḿ śāstraḿ devakī-putra-gītam
Translation
Let there be one scripture only, one common scripture for the whole world — Bhagavad Gita.
At that time, everyone accepted one scripture. Bhagavad Gita ki jai!
eko devo devakī-putra eva
Translation
Let there be one God for the whole world — Śri Krsna.
There was and there still is only one God and there’s no change in it. Devaki’s son is the Lord of everyone. The Lord comes as the son of Devaki or the son of Yashoda and sometimes as the son of Kaushalya(Rama). He also comes as Sacinandan(son of Sacimata).
He says in Bhagavad Gita, I advent Myself millennium after millennium. (sambhavami yuge yuge).
eko mantras tasya nāmāni yāni
Translation
Let there be only one hymn, one mantra, one prayer — the chanting of His name: Hare Krsna, Hare Krsna, Krsna Krsna, Hare Hare/ Hare Rama, Hare Rama, Rama Rama, Hare Hare.
For everyone in this world, there is only one hymn – the chanting of His name: Hare Krsna, Hare Krsna, Krsna Krsna, Hare Hare/ Hare Rama, Hare Rama, Rama Rama, Hare Hare in Kaliyuga. In other ages, they used to chant,”Om namoh Bhagavate Vasudevaya”.
karmāpy ekaḿ tasya devasya sevā
Translation
Let there be one work only — the service of the Supreme Personality of Godhead.
There is only one work or duty of everyone- to serve the son of Devaki(Krsna), Rama, Allah. This is the work for everyone. This is everyone’s duty.
Everything was arranged like that and it is still present. No one can change that. It can never change. In this age of Kali, changes occur externally. As I said, there is the influence of the different modes in the different ages. In the age of Satya-yuga, there was the influence of the mode of goodness. In that age, there were more Brahmanas present. In Treta-yuga, there is a little decrease in the mode of goodness and increase in mode of passion. In that age, there were more ksatriyas. The Lord came as Sri Rama (Ksatriya) and established Rama Rajya( when the society was run by principles of Lord Rama). Then comes Dvapara-yuga,further decrease in the mode of goodness, and further increase in the mode of passion. The mode of ignorance also makes an appearance. The mixture of the three modes is always present in different proportions in every age. According to that, everyone behaves, works or thinks in goodness, passion or ignorance. In Dvapara-yuga, there were more Vaisyas. Nanda Baba was the leader of Vaisya community.
kṛṣi-go-rakṣya-vāṇijyaṁ
vaiśya-karma svabhāva-jam
Translation
Farming, cow protection and business are the natural work for the vaiśyas. [BG 18.44]
Then comes Kaliyuga. Kaliyuga takes away all the goodness. Passion is there. Ignorance is the chief in this age of Kali.
It is said in the scriptures, kalau śūdra-sambhavaḥ. In the age of Kali everyone will be like śūdras. Bhavah means it happens. Sambhavah means it will most probably it happen. There are different scriptural injunctions for different ages.
kṛte yad dhyāyato viṣṇuṁ
tretāyāṁ yajato makhaiḥ
dvāpare paricaryāyāṁ
kalau tad dhari-kīrtanāt
Translation
Whatever result was obtained in Satya-yuga by meditating on Viṣṇu, in Tretā-yuga by performing sacrifices, and in Dvāpara-yuga by serving the Lord’s lotus feet can be obtained in Kali-yuga simply by chanting the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra. [SB 12.3.52]
Krte means in Satyauga, meditation was in practice to attain the Supreme.
In Treta-yuga, people performed sacrifices. Like Lord Rama came. King Dasaratha told Visvamitra Muni, “You’ve come to take my Son, but He is just 15 years old and you want to take Him with you so that He can protect your sacrificial arena. No! No! How is that possible? He is just a child. He is my child.” Vishwamitra Muni wanted to take both Rama and Laksman with him. He also said,“This child of mine is Rajeev Locan. Rajeev Locan means lotus eyed and you want Him to protect your sacrificial arena the whole night. They will become protectors and stand guard with bows and arrows whole night long. Because demons come in the middle of the night to destroy the whole sacrificial arena. So for that they would have to wake up whole night.” Rama and Laksmana are Rajeev (lotus) Locan. The nature of a lotus is that it blooms in the day and withers at the night. “Thats how my Rama and Laksman are. As soon as evening starts, they go early to sleep. They sleep the whole night as they are children and you want me to send them with you to watch and protect your sacrificial arena for the whole night.” Performing sacrifices was the religion in Treta-yuga.
dvāpare paricaryāyāṁ – In Dvapara-yuga, Deity worship was the way to please and realize the Supreme.
kalau tad dhari-kīrtanāt – Whatever was attained by all these practices was simply attained by the chanting of Lord’s names in Kaliyuga. tad means that the same result can be achieved which was obtained by meditation in Satya-yuga, by performing sacrifices in Treta-yuga and by doing Deity worship in Dvapara-yuga by chanting the holy names of Lord Hari. These are the instructions of the scriptures. It is said by Sukadeva Goswami.
kalau śūdra-sambhavaḥ and kaliṁ sattva-haraṁ puṁsāṁ
Kali takes away all the goodness, increases passion and ignorance is among them. Harinama Sankirtan is the Yuga Dharma of Kaliyuga. I keep saying this. But what I wanted to say is at that time, when there were good days, the entire world was one big family, Vasudeva Kutumbhakam. It is a fact. But under the influence of this Kaliyuga, it has been divided into many parts, many countries, many religions, many designations. People keep saying, “I am from this country, I am from this religion or this economic status.” Because of this, the feeling of “We are one family or one world” is no more. The feeling that all the people of this world are one family is no more. Hindi (Indian)- Chini(Chinese) – Bhai Bhai They say, Hindi Chini- Bhai Bhai!
But in the material sense it is not so. Sometimes we say we are brothers and on another day we fight. Sometimes, there is hot war or cold war. Preparations are going on for the next war. Then again they’ll start preparations for the next war. So the world is like this. We keep on fighting because we have forgotten that we are brothers actually. We are one family and our father is common.
This International Society for Krsna Consciousness established by Srila Prabhupada, is putting emphasis on the instructions of Sri Caitanya Mahaprabhu. ISKCON is preaching one mission of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu that is Harinama Sankirtan which is the loving treasure of Goloka. He predicted,
pṛthivīte āche yata nagarādi grāma
sarvatra pracāra haibe mora nāma
Translation
“In every town and village, the chanting of My name will be heard.”
Mahaprabhu said, “The chanting of My name will be spread all over the world”. As He said, we can see it is happening now. Srila Prabhupada made this happen. As the holy name is spreading all over the world, we can see that this concept of Vasudeva Kutumbhakam is also coming back in this world. Every man of this world belongs to one family.We can experience this feeling, this thought of Vasudeva Kutumbhakam. We see practically that people are engaged in one goal together leaving all other material designations.
sarvopādhi-vinirmuktaṁ
tat-paratvena nirmalam
hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa-
sevanaṁ bhaktir ucyate
Translation
“ ‘Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and one’s senses are purified simply by being employed in the service of the Lord.’ [CC Madhya 19.170)
We are engaged in devotional service, hearing, chanting, remembering the Lord, reading Bhagavad Gita together and leaving all the material designations. When some foreign devotees come to India actually Bharat, not even Bharat but rather Vaikuntha. We, at ISKCON are a mixed bag of people coming from different countries and cultures, but upon being asked, may be in the first place we may introduce ourselves as Indian or American and so on, but after knowing the truth gradually we say that we are from Vaikuntha.
When we are in padayatra, people from everywhere, villages and towns keep asking those devotees,”Where are you from? Where are you from?”
They can’t even speak English but still they ask them “Where from?” And after a minute another will ask, “Where from?” First these devotees answer,”We are from France or this and that.” But then they say,”We are from Vaikuntha”. They can say it in the first time also, but they don’t. The conclusion is that we all belong to Vaikuntha or Goloka.
For sure, there is Vasudeva Kutumbhakam or Vaikuntha Kutumbhakam. Vaikuntha kutumbhakam means those who live in Vaikuntha are one family. This one is easy to understand. People who reside in Vaikuntha are one family and people who reside in Goloka are one family. Similarly, we can also experience this and we should practice that we are one family from one religion. We all are Sanatana dharmis.
The eternal religion of a jiva is Bhagavat Dharma or Sanatana Dharma. Our eternal Dharma is Harinama Sankirtan. None of us are originally Hindu or Muslim or Christian. These religions are not eternal. That is why Krsna says,
sarva-dharmān parityajya
mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja
ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions. Do not fear. [BG 18.66]
No difference exists in the religion of every soul. The religion of every soul is the same. Yesterday I said someone has a small Bhagavad Gita, Bhagavatam and Caitanya-caritamrta. There are so many scriptures available , complete and perfect, to revive the original eternal religion of every soul. Whatever is written in scriptures are the laws of the Lord. This is being preached to everyone across the world by this Srila Prabhupada’s movement. People, without any discrimination, are being preached to about their original identity. We have Nandini Mataji with us from Russia, her Dharma is also Sanatana Dharma. Someone may say, “I don’t believe in religion,” but still he has Sanatana Dharma. Unfortunately he has taken the atheistic nature of the demons. When a person is intoxicated, he may forget the reality and speak nonsense. But when he gains consciousness then he realizes the truth and speaks something sensible. Everyone is intoxicated or in ignorance.
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
caksur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah
Translation
I offer my respectful obeisances unto my spiritual master, who has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance, with the torchlight of knowledge.
We were intoxicated. Our intelligence was covered by Maya so we made fake and temporary identities of ourselves. By the practice of chanting, this intoxication is gone and we realise our eternal identity – we are the servants of Krsna and our eternal Dharma is Sanatana Dharma. It is important and our acaryas coming from disciplic succession open our eyes with the torchlight of knowledge. They not just open our eyes, but also gives us premanjana, the eye of devotion tinged with the ointment of love. That it will clear our mind and hearts.
Ceto darpana marjanam means it cleanses the heart of all the dust accumulated for years. There may be revival and we can see everything as it is, see who I really am? Who is God? Who are these living entities? What is my connection with the Lord, with other living entities and with this nature? Then we can lead a normal life. We will be truly happy. When we learn this and preach it to others, then the situation will be different.
parama koruna, pahu dui jana
nitai gauracandra
(By Locan Das Thakur)
It is the mercy of Sri Nitai and Gauracandra, and if we get it, then it will change our destiny. Their Karuna will free us from Corona.
Hare Krishna. Thank you.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
9 फरवरी 2021
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौरभक्तवृन्द ॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
806 स्थानों से आज जप हो रहा है । हरे कृष्ण । फूड फॉर थॉट । आपके मस्तिष्क के लिए थोड़ा , हरि हरि या ददामि बुद्धियोगं भगवान हमें कुछ बुद्धि दो
और आप तैयार हो ? हां आप तैयार हो। (हंसते हुये)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
आपको कुछ पढकर सुनाना चाहता था।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
1976 में , जब श्रील प्रभुपाद हमारे मध्य में थे और उनकी एक टीम थी , लाइब्रेरी पार्टी। विश्वभर की लाइब्रेरी में श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों की स्थापना करना तो हो गया , प्रभूपाद के ग्रंथो का सेट वह लाइब्रेरी को दे रहे थे , उसी समय श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ भगवत गीता ,श्रीमद् भागवत , चैतन्य चरितामृत भी तैयार हो चुका था उसके लिए बुक रिविव दिये जा रहे थे । जगत भर के बड़े-बड़े विद्वान पूरे जगत भर में से उनका क्या कहना था ? उनका क्या मत था ? उनका स्टेटमेंट क्या था ? प्रभुपाद के ग्रंथों के बारे में उनकी राय कहो , उनका व्यक्तव्य , उनका मंथन कहो । ऐसे फिर कईयों ने अपने अपने रिविव स्टेटमेंट दिए उसे मैं पढ़ रहा था , उसमें एक स्टेटमेंट मिला , उसी पर मैं चर्चा करना चाहता हूं । प्रोफेसर इवानक्यू उनका नाम है म्यूजियम, डायरेक्टर, इलेक्ट्रिआर्ट असोसिएशन न्यूयोर्क ऐसी उनकी पदविया दी हुई है । बड़े आदमी हैं उन्होंने लिखा है , “आपके कुछ ग्रंथ मुझे प्राप्त हुए हैं और मैंने पढे भी हैं और आपके ग्रंथों से मैं बहुत प्रभावीत हूं ।” मिस्टर इवानक्यू कह रहे हैं की , “मुझे आपके ग्रंथ पढ़ने के बाद इस बात का पता चला कि यह बिब्लिकल मतलब बाईबल , और वैसे उसी से फिर आगे कुरान भी बनता है , कुरान का आधार भी या बिब्लिकल रायटिंगस बाइबल या मोजेेस।
भगवान ने रिलेशंस में और मोजेस ने दिव्य ज्ञान , ह्रदय प्रकाश ऐसा ज्ञान दिया । एक पहाड़ पर उन्होंने मॉर्निंग बुश देखा और भगवान को देखा , उनकी पीठ भी देखी तो मुझे यह पता चला कि बाइबल में या कुरान में भी जो बाते हैं उसका स्रोत क्या है ? बाइबल के ऑथर्स , कुरान के ऑथर्स (लेखक) या वक्ता कहो मोजेस थे , अब्राहम भी थे और फिर मोजेस हुये फिर जीसस क्राईस्ट हुये फिर हजरत मुहम्मद हुये , उन्होंने जो भी कहा या लिखा उसका स्रोत क्या है ? उन्होंने यह ज्ञान कहां से प्राप्त किया ? उसके पहले भी यह ज्ञान था और वह कहाँ था ? उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया? हरी हरी वैसा ही ज्ञान जो पहले था, आपके ग्रंथों से पता चल रहा है और वैसा ही ज्ञान फिर उनको भी प्राप्त हुआ, यह बात मैं समझ रहा हूं जब आपके ग्रंथों को मैंने पढ़ा ।” फिर आगे वह लिखते हैं , ” कृष्ण मोजेस के 500 वर्ष पूर्व थे । यह उन्होंने थोड़ा गलत लिखा है । मोजेस नाम के बहुत बड़े संत हुए थे, प्रभुपाद उनको महाजन भी कहते थे। पाश्चात्य देश के महाजन, मोजेस महाजन। जीसस क्राईस महाजन और हजरत मोहम्मद महाजन । वह लिखते हैं , “मोजेस 3500 वर्ष पूर्व हुए , जीसस क्राइस्ट 2000 वर्ष पूर्व हुए तो जीसस क्राइस्ट के 1500 साल पहले मोजेस थे और मोजेस के डेढ़ हजार साल पहले कृष्ण थे , यहां गलती से 500 वर्ष पहले कह रहे हैं लेकिन 1500 वर्ष मोजेस के पहले कृष्ण थे । हरि हरि।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
मोजेस के 2000 साल पूर्व , क्राईस्ट के 3000 वर्ष पहले कृष्ण हुये, मतलब 5000 वर्ष पूर्व । उनका कहना है कि 2000 साल पहले जीसस हुए, 3500 वर्ष पूर्व मोजेस हुये और 5000 वर्ष पूर्व कृष्ण हुये, आपका जो लिटरेचर है , वाङ्गमय है , ग्रंथ है, जो मैं पढ रहा हूं जिससे मै प्रभावीत हूँ यह 5000 वर्ष पूर्व का है और उसके बाद हुए मोजेस , जीसस क्राइस्ट, मोहम्मद उनके सारे ज्ञान का स्रोत तो कृष्ण से है । इस बात से मैं अवगत हुआ हूं , प्रभावित हुआ हूं , ऐसा यह इवानक्यु ने लिखा है । बात तो सत्य ही है , कृष्ण कहते ही हैं ,
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ||
(भगवद्गीता 10.8)
अनुवाद
मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं |
अहं सर्वस्य प्रभवो मैं ही स्रोत हूं । मत्तः सर्वं प्रवर्तते | मुझसे ही सब कुछ निकलता है । जो सत्य है उसका स्रोत भी भगवान हैं, कृष्ण भगवान हैं । वह प्रकट हुए 5000 वर्ष पूर्व और उन्होंने श्री भगवान उवाच कहकर यह कहा और कुछ बातें कही कृष्ण ने अर्जुन सेऔर फिर कई सारी बातें और सत्य की श्रील व्यासदेव ने रचना की, ठीक है । सत्य वैसे ही 5000 साल पुराना नहीं हो सकता और भगवत गीता कितनी पुरानी है आप आख बंद करके कहोगे 5000 साल पूर्व है । भगवत गीता 5000 साल पुरानी है , झूठ , यह सही नहीं है । भगवान ने जो गीता में कहा है या जो भागवत में जो वचन हैं जो सत्य है , या जो वेदों में वाणी है , जो सत्य है ऐसा समय नहीं था कि जब वह सत्य नहीं था तो वही सत्य और भी कई सत्य हैं । बाइबिल में , कुरान में सत्य बातें हैं तो वह सत्य तो सत्य ही होता है , त्रीकालाबाधी सत्य होता है । 2 जमा 2 कितना होता है ? चार होता है । यह सत्य है कि नहीं ? यह सत्य है आज भी सत्य है, 5000 साल पूर्व भी सत्य था, भविष्य में भी रहेगा । 2 जमा 2 ,4 होता है यह भारतीय सत्य है या अमेरिकन सत्य है, या सभी के लिए सत्य है ? या केवल हिंदू के लिए सत्य हैं यह 2 जमा 2 , 4 या ईसाइयों के लिए भी सत्य है ? सत्य तो सत्य ही होता है ।
सत्य का बस अस्तित्व होता है । सत्य होता है , सत्य रहता है । भगवान के संबंध में जो सत्य है , भगवान के पहले भी सत्य था । कुछ उसके पहले था और कुछ उसके बाद आया । सत्य पहले था कि भगवान पहले थे ? हम लोग कहते रहते हैं भगवान सत्य है । ऐसा कहते समय फिर हमारा यह विचार हो सकता है या हम कहते हैं कि भगवान ही प्रेम है , भगवान प्रेमी हैं यह नहीं कि भगवान केवल प्रेम हैं और भगवान नहीं हैं या उनका नाम, रूप , गुण , लीला , धाम नहीं है , उनका अस्तित्व नही है ? यह सत्य है। ऐसे हम बोलते रहते हैं गॉड इज लव , गॉड इज ट्रुथ, गॉड इज पीस , भगवान शांत है , भगवान सत्य है । भगवान के संबंध में ही सत्य होता है , भगवान के संबंधित कही हुई बातें सत्य हैं, जैसे आत्मा सत्य है कि नहीं ? कि केवल भगवान ही सत्य है आत्मा सत्य नहीं है ? ऐसा समय नही था कि आत्मा नहीं था ? श्रीकृष्ण कहते हैं दूसरे अध्याय के प्रारंभ मे,
अब तुम हो , मैं हू , यह राजा है और भविष्य में हम रहेंगे , तो भगवान भी सत्य है और आत्मा भी सत्य है , सारे जीव सत्य है , सनातन है ।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||
(भगवद्गीता 15.7)
अनुवाद
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
जो भी सत्य है और रहेगा , फिर हम लोग कहते भी हैं सत्यमेव जयते । सत्यमेव जयते । सत्य का क्या होगा ? विजय होगा । सत्यमेव जयते । सत्य की जय होती है । सत्य की स्थापना होती है अंततोगत्वा। सत्य शाश्वत है, भगवान सत्य है, जीव भी सत्य है और कई सारे सत्य बातें हैं , भगवान का धाम भी सत्य है, वैकुंठ भी सत्य है और भगवान का रूप भी सत्य है, भगवान के भक्त सत्य हैं और भक्ति भी सत्य है, भक्ति! भगवान और भक्त का जो संबंध है, भक्ति ही संबंध जोड़ती है। जीव भक्ति करता है तो भगवान की सेवा करता है तो ऐसी सेवा भी सत्य है। श्रीमद भगवतगीता के पांच विषय हैं। एक है ईश्वर, दूसरा है जीव, तीसरी है प्रकृति, चौथा है काल यह चार सत्य हैं। यह शाश्वत सत्य है! और पांचवा भगवत गीता का विषय है जिसे बलदेव विद्याभूषण समझाते हैं, कि भगवत गीता के पांच विषय हैं और पांचवा हैं कर्म! कर्म शाश्वत नहीं है। कर्म और विकर्म यह परिवर्तन होता ही रहता है, यह सब सत्य है और फिर ऐसा भी एक समय था यह सारा सत्य, इस सारे सत्य को या इस सारे सत्य का प्रचार सारे पृथ्वी पर था और एक ही धर्म था सनातन धर्म! जो धर्म को अगर नाम दे सकते है, तो यह सनातन नाम सही है। सनातन धर्म! धर्म मतलब सनातन है।
शाश्वत! तो जीव का धर्म सनातन है और यह जीव का धर्म सनातन है यह कह रहे हैं, यह भारतीय जीव और अमेरिकन जीव अलग नहीं होते या मिडल ईस्ट के या पूर्व भारत के, रशियन जीव यह सब अलग नहीं होते। रशियन जीव तो नहीं होता, जीव तो जीव होता है और जीव तो भगवान का होता है। भगवान का धर्म जो जीव यहां भी है या जिस देश में है, उन सभी का धर्म सनातन धर्म है। हर जीव का धर्म सनातन धर्म है और वैसे हम मान के बैठे हैं या मान रहे हैं कुछ अहंकार के कारण, हम हिंदू हैं या हम इसाई हैं या हम मुसलमान हैं। हम यह हैं, हम वह हैं, ऐसे नाम नहीं दिया जा सकता क्योंकि, यह धर्म शाश्वत नहीं है। यह सत्य नहीं है। इस धर्म में परिवर्तन हो जाते हैं, घर वापसी होती रहती है। आज का हिंदू कल क्रिश्चियन भी हो सकता है, केरल में फिर बिहार में जो गरीब लोग हैं उनके लिए कुछ करेंगे और धीरे-धीरे उसके गले में क्रॉस डाल देंगे और गाड़ी कहीं फस गई है तो धकेल देते हैं और नाम लेकर धक्के देते हैं, लेकिन गाड़ी आगे बढ़ने लगी तो जीसस की जय तो फिर दौड़ के गाड़ी वहां से निकलती है, दौड़ने लगती है। जीसस की जय ऐसे बोलने लगते हैं।
जीसस सत्य है ऐसे मान सकते हैं भोली भाली जनता या जो लोग हैं। हरि हरि। या फिर संघटन है, वो कहते हैं कि, हे भगवान हम पर दया करो हमे ये दे दो! लोग जब चर्च में जाया करते थे, रसिया जैसे कम्युनिस्ट देश में तो, जैसे ही वे चर्च से प्रार्थना करके बाहर निकलते, जो कम्युनिस्ट सरकार था या लोगों को कम्युनिस्ट बनाने का प्रयत्न चल रहा था, तब वह कम्युनिस्ट अधिकारी पूछते थे कि आपने प्रार्थना कि? आप को ब्रेड मिला? तब वह कहते थे कि, नहीं! हमें नहीं मिला! तो फिर वह क्या करते? वह बड़े-बड़े लोरी भरकर ब्रेड वहां पर लाते थे और लोगों को बताते थे कि, यह कम्युनिस्ट सरकार आपको ब्रेड देगी आपको भगवान ब्रेड नहीं देंगे, प्रार्थना करने के बाद भी! लेकिन ब्रेड देने वाले तो कम्युनिस्ट सरकार है, तो तुम भगवान को भूल जाओ, भगवान हैं ही नहीं! भगवान तो अफीम हैं! ऐसा उनका प्रचार था, इस प्रकार वे उनको परिवर्तित करते और उनको कम्युनिस्ट बनाते। हरि हरि। वैसे एक समय था जब 5000 साल पहले एक ही धर्म था, सारे पृथ्वी पर एक धर्म था। वैसे सारे पृथ्वी पर एक सम्राट का राज हुआ करता था और उनकी राजधानी हुआ करती थी हस्तिनापुर! राजा परीक्षित! परीक्षित केवल राजा ही नहीं थे, वह राजाओं के राजा सम्राट थे! उस समय सारे पृथ्वी पर केवल सनातन धर्म था या गीता भागवत पुराण इसका ही प्रचार था। किंतु फिर कलि काल आया और इसको याद रख सकते हो कि, 18 फरवरी को कलयुग शुरू हुआ। कौन सी तारीख थी?
18 फरवरी 3102 बिफोर क्रिस्ट (बीसी ) यह पाश्चात्य देश का गणना है। जीसस क्राइस्ट के 3102 साल पहले और वह तारीख थी 18 फरवरी उस दिन भगवान स्व पदम् गतः उस तारीख को भगवान पृथ्वी को त्याग कर, अपने धाम लौट गए और फिर शास्त्रों में लिखा है तदधिनाथ कलिधायतः उस दिन से कलयुग का प्रारंभ हुआ! सर्व साधन बाधकः और यह कलयुग क्या करता है? सर्व साधना में बाधा उत्पन्न करता है हम एक हैं, वसुदेव कुटुंबकम इस पृथ्वी पर जितने भी लोग हैं, उन सब का मिलकर एक ही परिवार हुआ करता था। लेकिन कलयुग ने सब का सत्यानाश कर दिया और इसी का परिणाम हुआ है कि, इतने सारे संसार के टुकड़े हो गए, इतने सारे देश हो गए और उसी के साथ इतने सारे धर्म भी हो गए, जो अब आपस में लड़ने लगे हैं। यह कलि का मुख्य लक्षण है जो की आपस में लड़ाई झगड़ा करना है, लोग झगड़ालू बन गए हैं। वह कुछ बांटना नहीं चाहते हैं, भगवान को भी बांटना नहीं चाहते! वह कहते हैं हमारे यह भगवान तुम्हारे वह भगवान! हमारा यह धर्म तुम्हारा वह धर्म! धर्म भी बांटना नहीं चाहते 5000 साल पहले केवल सनातन धर्म था। लेकिन इस कलि के कारण जो एक्य था उसको तोड़ दिया गया, उसके कई सारे टुकड़े या विभाजन हो गए। कोई इसाई बना, कोई क्रिश्चियन बना, कोई मुस्लिम बना! और फिर आप लोग क्रिश्चियन, क्रिश्चियन नाम लेते हो लेकिन उनके भी आपस में कई सारे झगड़े हैं। कोई कैथोलिक बन जाता है तो कोई नार्मल बन जाता है। जो मूल परंपरा है उसको भूल गए भारत का भी यही हाल है। फिर यत मत तत पथ हो गया तो जितने मत है उतने पद बन गए और कई सारी उटपटांग धर्म के प्रचारक हो गए और अपनी मनमानी कर रहे हैं और उपदेश कर रहे हैं। हरि हरि। किंतु समय तो बलवान है, वह रुकता नहीं है, मैं एक टिप्पणी के साथ रुकूंगा कि, अब यह अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ यह कोशिश कर रहा है कि, जिसमें श्रील प्रभुपाद श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ओर से पुनः वह जागृत कर रहे हैं।
जो शाश्वत सत्य है जो कि गीता भागवत का सत्य है, जो पूर्ण सत्य है। एक बार प्रभुपाद कह रहे थे कि, दूसरे जो धर्म हैं या तथाकथित धर्म है, उसमें जो ज्ञान है वह कैसा ज्ञान है? वह पॉकेट डिक्शनरी जैसा ज्ञान है! एक होता है बड़ी वाली ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी और दूसरा होता है पॉकेट डिक्शनरी। यह अन्य धर्म जो है वह, पॉकेट डिक्शनरी जैसे है और हमारे गीता भागवत विस्तारपूर्वक ज्ञान होता है। वैदिक वाङ्गमय में गीता और भागवत का ज्ञान है। लेकिन जो पॉकेट डिक्शनरी का ज्ञान है वह सारा का सारा ज्ञान बड़ी डिक्शनरी में है! लेकिन ऐसी कई सारी बातें हैं जो बड़ी डिक्शनरी में हैं वह पॉकेट डिक्शनरी में नहीं होती है! ऐसा ही यहां पर होता है। हम जो अन्य धर्म बने हैं या उनके धर्मधिकारियों ने जो धर्म बनाए हैं, उसमें जो सत्य है वह तो सत्य है। लेकिन वह सत्य सारा का सारा वेदों में या पुराणों में है! क्या इस बात को आप समझ पा रहे हो? बाइबल या कुरान यह जो अन्य धर्मों के ग्रंथ हैं उसमें जो भी सत्य है या जितना भी सत्य है वह सारा का सारा सत्य वेदों में और पुराणों में या गीता, भागवत में लिखा हुआ है। लेकिन कुछ ऐसी बातें है जो वेदों पुराणों और गीता और भागवत में ही है और कहीं नहीं है और किसी ग्रंथ में नहीं है! हरि हरि। ठीक है तो इतना ही कह कर अपनी वाणी को विराम देते हैं।
आप इतने पर ही चिंतन करो! विचारों का मंथन करो!
हरि हरि।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
9 February 2021
The truth is always victorious
Hare Krsna! Devotees from over 806 locations are chanting with us right now. All the devotees are welcome. After congregational chanting it is time for some food for thought, food for your mind. Krsna is the giver of intelligence, so we pray to Him for the right intelligence. I wish to read out something. A few disciples of Srila Prabhupada have come together and we are trying to get Srila Prabhupada’s books placed in the big and popular libraries across the world. In 1976, when Srila Prabhupada was still physically present with us they were acquiring reviews from popular scholars for these books. What they wanted to say, what was their stand, review statements. Many gave their opinions. I was reading that. I want to discuss these.
One of the popular persons was Professor Ivan Chubha of New Zealand. He says, “I am very impressed with the books by you that I have received. I have studied books by several leaders of different religions. I have read your books also. From it I can see, from where the Biblical writers obtained their philosophy. In this we have the Old Testament, New Testament, in it the Koran is also there, and from where they get their inspiration”. He writes that Krsna appeared 500 years before Moses. Moses actually appeared 3500 years ago. Actually, Krsna appeared 1500 years before Moses. Srila Prabhupada would say that Jesus Christ, Moses, Mohammad were all Mahajans. He writes that this book of knowledge that he read is 5000 years old. All the knowledge is sourced from Krsna who was born before any other religious leaders. 3000 years before Christ. He said he was influenced by this literature of Bhagavad Gita which is 5000 years old and the knowledge of the others Mahajans is knowledge from Krsna. Such were his words, and this is true.
Krsna says in Bhagavad Gita, “I am the source of all and everything emanates from Me.”
ahaṁ sarvasya prabhavo
mattaḥ sarvaṁ pravartate
iti matvā bhajante māṁ
budhā bhāva-samanvitāḥ
Translation
I am the source of all spiritual and material worlds. Everything emanates from Me. The wise who perfectly know this engage in My devotional service and worship Me with all their hearts.(BG 10.8)
Many such truths were revealed by Krsna which was compiled by Srila Vyasa Dev. Lord Krsna said many things under bhagavan uvaca. However, the truth is not 5000 years old. If asked, How old is Bhagavad Gita most of you may say 5000 years old. It is not so. The truth is that which remains the same at all time.
2+2 is always 4. It cannot be different under any circumstances. It is true now, it was true in the past and it will be true in the future. It is not Indian or American truth. It is true for all religions and for all countries. Such is the truth. We can say that truth is eternal. Who existed first? Truth or God? We often say God is truth. God is love. God is peace, etc. We, may sound impersonal when we say God is truth, but it is true. The soul is also true and eternal like God. Whatever is truth has existed since time immemorial and will prevail. We may say let truth be victorious!
The eternal abode of the Lord is truth, His form is truth, His devotion and devotees are truth. Truth is forever. Whatever is the truth will remain the truth. Devotion is the relationship between the Lord and his devotees. There was a time when there was only one religion in the world which is Sanatana Dharma. Sanatana Dharma is the eternal dharma for the jiva. We keep on saying Satya Mai Jayatai. Let Victory of Truth prevail. Truth is always victorious. Truth is always established. The Lord is truth, the Jiva is truth and there are many other truths.
vidyā-vinaya-sampanne
brāhmaṇe gavi hastini
śuni caiva śva-pāke ca
paṇḍitāḥ sama-darśinaḥ
Translation
The humble sages, by virtue of true knowledge, see with equal vision a learned and gentle brahmana, a cow, an elephant, a dog and a dog-eater [outcaste].BG 5.18
The Dhama or residence of the Lord is also the truth. Vaikuntha is true , the form of the Lord is true. Devotees are true, Bhakti is true. The relationship between the Lord and the devotee is also true. Bhakti is something which establishes the relationship. When the devotee does service to the Lord, it is also truth.
Bhagavad Gita has 5 topics. Four are Lord (Isvara), Soul (Jiva), Nature (Prakrati) and time (Kala) and all are true and eternal. The fifth is action which is not eternal.
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. (BG 15.7)
There was a time when this entire truth was prevalent on Earth. There was only one religion, Sanatana Dharma. Sanatana is an appropriate name. Dharma itself means Sanatana (forever). The Dharma of the Jiva is Sanatana. Jiva is the same wherever he is born and whatever nationality he may have. An Indian or an American Jiva are not separate. Or a Jiva from Russia, Middle East are not different. It sounds very strange. A Jiva is a Jiva. There cannot be a Russian Jiva. A Jiva is of the Lord. The dharma of the Jiva, wherever he is, is Sanatana Dharma. Out of ego some may say, they are Hindu, or Christian or Muslim or Jews or this or that. But giving these names is not right. Just by believing and identifying oneself falsely as a Hindu, Muslim, Christian etc. is not the truth. There is a change in these religions. They are not the same forever. A Hindu may go to Christian missionaries and in greed of some benefits may accept Christianity. Some welfare will be done, like the missionaries from Kerala in Meghalya and slowly, they will put a cross around his neck.
There are Communist countries which say that there is no religion and no God. God does not exist. The Christians would pray in the church , “Oh God, give us our daily bread.” While coming out of the church, they would be questioned by the communists that they had prayed in the church, so did they get their bread. Then the communists would keep big trucks filled with bread. The people would say, that the Communist Government has given us our daily bread. They would give them the bread and make them feel that the Communist government is the giver of the bread. God is just opium, they would say. Then they would convert them into communists and make them into Godless.
5000 years ago there was only one religion on Earth with only one Emperor to rule. The capital was Hastinapur and the Emperor of Hastinapur was King Pariksit Maharaja. He was not just a king, but the king of kings, Emperor. Sanatana Dharma was on the whole planet. Gita, Bhagavat, Purana were the scriptures from which preaching was done.
If you can remember, it was on 18 February 3102 Before Christ that Kaliyuga began. On this date Lord Krsna departed to His eternal abode. The scriptures say that Kaliyuga began from that day to make hindrances in the process of practicing Bhakti-Sarva Sadhana Badha. We are one, Vasudhaiva Kutumbakam, the world is one family. The breaking and dividing of the world into so many geographical and religious divisions and so many quarrels and wars among them is a result of Kaliyuga. This Kaliyuga destroyed everything. As a consequence, lot of countries were created. In Kaliyuga people become quarrelsome. Earlier there was one Sanatana Dharma and then it all broke up. People are not willing to share anything with each other. They don’t even wish to share God. Everyone developed different faiths. We usually say Christian, but within Christianity there are so many hundreds of different parts. Such is the case in India. There are so many people in India who are preaching concocted knowledge, their own interpretation and speculation. People are practicing concocted religions.
Now an effort has commenced again. ISKCON is making an effort to bring the world under one roof of the original, eternal, complete truth. On behalf of Caitanya Mahaprabhu, the complete truth is being established. Srila Prabhupada said that all other religions are like pocket dictionaries with limited introductory knowledge, whereas Sanatana Dharma is the big encyclopaedia. Whatever is there in a pocket dictionary is all there in the big dictionary, but it is not the same the other way round.
There is truth in other religions’ scriptures and books, but all that truth is already in our scriptures. There is additional information which is only in Bhagavad Gita, Srimad Bhagavatam, Vedas and Puranas. I shall stop here now. If anyone has any short questions or comments then you may share those.
Gaura premanande. Hari Haribol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
8 फरवरी 2021
हरि हरि।।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैतचंद्र जय गौरभक्त वृंद।।
मुझे पता है कि आपने अपने 192 माला पूरे नहीं किए हैं, जो कि तीन लाख शुद्ध नाम हैं। ठीक वैसे ही जैसे नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का कार्यक्रम हुआ करता था।
श्रील हरि दास ठाकुर की जय।
प्रतिदिन 3 लाख हरि नामों का जप। मुझे पता है कि आप में से कुछ लोग एकादशी के दिन अतिरिक्त जप करते हैं। लेकिन श्रील हरिदास ठाकुर हर रोज 192 माला जप करते थे। प्रतिदिन अतिरिक्त जप करते थे। कुछ उपदेश करते हैं लेकिन अभ्यास नहीं करते, कुछ अभ्यास करते हैं लेकिन उपदेश नहीं देते हैं। लेकिन नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर दोनों करते थे, अभ्यास और उपदेश। वह बहुत आदर्श आचार्य थे। वह पहले से ही आचार्य थे,हम ब्रह्म मधव गौडिय संप्रदाय से हैं।ब्रह्म मधव गौड़ीय संप्रदाय के सबसे पहले आचार्य, या यूं कहो कि इस परम्परा की शुरुआत ब्रह्मा से होती है और वह आचार्य हैं।
इसलिए ब्रह्मा फिर से 500 साल पहले प्रकट हुए और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें हरि नाम का आचार्य घोषित किया, महाप्रभु ने उन्हें नामाचार्य कहा ।
इसलिए नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को हम विशेष रूप से याद रखना चाहते हैं।विशेष रूप से इसलिए भी याद रखते हैं कि सभी परिस्थितियो में, विशेष रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों में जिस प्रकार से श्रील हरिदास ठाकुर अपने जप के प्रति पूर्ण रूप से दृढ़ रहे। उनका जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ था और यह हरे कृष्ण जप तो हिंदूओ का कार्य है ना? या फिर यह तो हिंदुओं के भगवान का नाम है ना? तो मैं तो नहीं जप करूंगा । मुझे कैसे जप करना चाहिए? जब हिंदू ही जप नही करते तो मुस्लिम को तो भूल ही जाओ। पर नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर ने मुस्लिम परिवार में जन्म लिया फिर भी दृढ़ रूप से हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते रहे इसलिए इस तरह से भी श्रील हरिदास ठाकुर ने एक मानक स्थापित किया। एक ऐसा उदाहरण स्थापित किया कि आप किसी भी धर्म से संबंधित हैं,आप हरे कृष्ण का जप कर सकते हैं। मैं मुस्लिम हूं, तुम जप कर सकते हो। मैं क्रिश्चियन हूं, तुम फिर भी जप कर सकते हो। सभी मुसलमान हरे कृष्ण मंत्र का जप कर सकते हैं। धर्म कोइ बाधा नहीं है, इस धर्म या अन्य धर्म में जन्म लेना कोई रुकावट नहीं है। वास्तव में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने सिद्ध किया है कि हरे कृष्ण मंत्र का जप दिव्य है और सभी उपाधियों से परे है। मैं हिंदू हूं, मैं मुस्लिम हूं, मैं यह हूं। यह हरे कृष्ण का जप सभी के लिए है। आपको यह समझने की जरूरत है कि आप एक आत्मा हैं और आप हरे कृष्ण मंत्र का जप कर सकते हैं,यह भूल जाएं कि आप हिंदू हैं या मुस्लिम, काले है या गोरे, स्त्री है या पुरुष। हरे कृष्ण का जप हर किसी के लिए है।
इसलिए जब नामाचार्य युवा थे और जप कर रहे थे तब ईर्ष्यालु रामचंद्र खान ने उनके पास मध्य रात्रि में एक वैश्या को भेजा। आप कल्पना कर ही सकते हैं कि एक वैश्या का प्रस्ताव कैसा हो सकता है। वह सब तमाशा करते हुए अपने देह का प्रदर्शन कर रही थी।सोचो जब आधी रात मे कोई और व्यक्ति न हो और सुंदर वेश्या प्रस्ताव दे कि मैं आपके साथ आनंद लेना चाहती हूँ। कृपया मेरे साथ आनंद लें या मेरा भोग करें।
हरि हरि
हरिदास ठाकुर ने अपने शब्दों में कहा, मैं पहले से ही आनंद ले रहा हूं ,मुझे और किसी आनंद की खोज नहीं है। मैं आनंद से परिपूर्ण हूं, चले जाओ यहाँ से। उन्होंने कहा कि मुझे अपना जप समाप्त करना है और एक बार जब मैंने अपना जप कर लिया तो मैं आपके प्रस्ताव पर विचार करूंगा और जब उन्होंने हरे कृष्ण मंत्र का जप पूरा कर लिया तब सूर्योदय हो गया और वेश्या को निराश हो कर जाना पड़ा। अगले दिन वह फिर आयी, एक ही प्रस्ताव और नाम आचार्य हरिदास ठाकुर का एक ही कथन, मैं जप कर रहा हूं मैंने जप समाप्त नहीं किया है और यह तीसरे दिन फिर से हुआ। और उस समय तक वेश्या का दिल बदल गया, उसका दिल पिघल गया। उसने खुद नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के संग में, हरे कृष्ण मंत्र के जप के लिए उच्च स्वाद उत्पन्न कर लिया।और वह नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर कि शिष्या बन गयी और प्रतिदिन 300000 नामों का जाप करने लगी। यह हरि नाम की शक्ति है। यह श्रील नामाचार्य हरिदास ठाकुर की शक्ति है और एक बार माया देवी स्वयं एक प्रस्ताव के साथ आई, लगभग समान प्रस्ताव। पहले एक साधारण वेश्या थी माया, लेकिन अब माया देवी स्वयं,
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया|मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते||
(भगवद्गीता 7.14)
हमारी इंद्रियों को वश में करना बहुत मुश्किल है स्वयं भगवान ने ऐसा कहा है, लेकिन माया देवी के आने पर भी नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर का मन बिल्कुल भी नहीं बदला। यह हरि नाम की शक्ति का एक और उदाहरण है। हरिनाम ने माया देवी को हरा दिया,जैसे हरि नाम ने वेश्या को हरा दिया था।
हरि हरि।।
एक अन्य स्थान पर जहाँ नामाचार्य हरिदास ठाकुर का एक अन्य वेश्या के साथ बेनापोल में सामना हुआ, जो अब बांग्लादेश में है। मैं उस जगह पर कुछ समय के लिए गया था।
फिर वहां से नामाचार्य हरिदास ठाकुर कुछ दूरी तय करते हुए कुछ समय एक स्थान गये, जिसे अब हरिदासपुर के नाम से जाना जाता है, यह भारत में है। 1976 में, मायापुर उत्सव के बाद श्रील प्रभुपाद ने हरिदासपुर की यात्रा थी। तब मैं भी श्रील प्रभुपाद के साथ था। श्रील प्रभुपाद के साथ बहुत सारे भक्त वहाँ गये थे और श्रील प्रभुपाद ने हरिद्वार में इस्कॉन की स्थापना की, जिसे अब हरिदासपुर इस्कॉन के नाम से जाना जाता है। जहाँ हरिदास ठाकुर ने हरि नाम का जप किया था। तब हरिदास ठाकुर पश्चिम बंगाल में अधिक आंतरिक भाग में गए और शांतिपुर के निकट एक स्थान पर वो एक गुफा में निवास कर रहे थे।यह फुलिया नामक स्थान था और वहाँ वह एक जहरीले साँप के साथ गुफा में रह रहे थे। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ने पाया कि इस गुफा में वे अकेले नहीं रह रहे थे, बल्कि एक और निवासी भी उनके साथ था लेकिन फिर भी वे जप करते रहे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जब भक्तों ने वहाँ जाकर देखा कि वहाँ एक साँप है, उन्होंने चिल्लाना शुरू कर दिया और सभी डर के मारे भागने लगे। लेकिन नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर शांतिपूर्वक जप करते रहे और आप जानते हैं कि परिणाम क्या हुआ। सर्प ने गुफा को छोड़ दिया और श्रील हरिदास ठाकुर अकेले ही जप करते रहे और भक्त फिर से नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के पास जाने लगें ।
हरि हरि।।
हम जानते हैं कि चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल में नामाचार्य हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु को प्रचार का यह काम सौंपा था और नामाचार्य हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु एक साथ प्रचार कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद उन दिनों मुंबई में हमें प्रोत्साहित किया करते थे कि हमेशा जोड़े में बाहर जाओ। चैतन्य महाप्रभु के समय में यह जोड़ी नाम आचार्य हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु की थी।
चैतन्य महाप्रभु कहते हैं –
सुनो सुनो नित्यानंद सुनो हरिदास
सर्वत्र अमार आज्ञा कोरोहो प्रकास
प्रति घरे घरे गिया कोरो एइ भिक्षा
बोलो कृष्ण भजो कृष्ण कोरो कृष्ण शिक्षा
(चैतन्य भागवत-13.8-9)
और फिर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु को तो हम जानते ही हैं, नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ब्रह्म हैं और नित्यानंद प्रभु बलराम हैं, क्या जोड़ी है! प्रचार करते हुए उनका जगाई और मधाई से सामना हुआ। वे दोनों ही बहुत गिरे हुए लोग थे, कोई कह सकता है कि, वे पापियों की भी सेना के नेता थे। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु के संयुक्त प्रयास से जगाई और मधाई उच्च श्रेणी के वैष्णव भक्त बन गए।
हरि हरि।।
नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर सभी से हरे कृष्ण का जप करने के लिए कह रहे थे।
1*हरेर नाम हरेर नाम हरेर नामैव केवलम*
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा !!
(आदि लीला 7.76)
वह स्वयं भी जप कर रहे थे और हरि नाम का आनंद ले रहे थे और जप द्वारा अधिक से अधिक सशक्त हो रहे थे। जब तक आपके पास भक्ति शक्ति और नाम शक्ति नहीं है, तब तक आप परिव्रतन नहीं कर सकते, आप दूसरों को शुद्ध नहीं कर सकते। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के साथ दोनों शक्तियाँ थी। वो हरे कृष्ण का जप और नृत्य कर के लोकप्रिय हो रहे थे, परंतु वास्तव में हिंदू खुश नहीं थे। कुछ कर्मकांडी हिन्दुओं ने चाँदकाज़ी से शिकायत करते हुए कहा कि हरिदास तुम्हारे धर्म में पैदा हुआ है, वह जन्म से मुस्लिम है लेकिन वह हरे कृष्ण का जप कर रहा है, तुम्हे उसे रोक देना चाहिए, आगे क्या हुआ वह तो आप जानते ही हैं । चांदकाजी के लोगों ने 22 बाजारों में सार्वजनिक रूप से हरिदास ठाकुर का अपमान किया और कोड़ों से पिटाई की, जप बंद करो। वह बार-बार कह रहे थे जप बंद करो, तुम एक मुस्लिम हो। लेकिन वे नही रुकें। उन्होंने कहा कि मेरे शरीर को टुकड़ों में तोड़ दो, लेकिन मैं जप बंद नहीं करने वाला हूं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जैसा कि चैतन्य भागवत में कहा गया है,भगवान ने सुदर्शन को उस चंद काज़ी के आदमियों को मारने के लिए भेजा, जो कि हरिदास ठाकुर की पिटाई कर रहे थे और उन्हें मार रहे थे, हरिदास ठाकुर ने सुदर्शन को क्या कहा? नहीं।। मारना नहीं। हे सुदर्शन (सुदर्शन भगवान का शस्त्र है और भगवान का हथियार भगवान से अभिन्न है) उन्होंने अनुरोध किया कि कृपया उन्हें मत मारो उन्हें बचा लो, यह है नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर हैं। यह नामाचार्य हरिदास ठाकुर की करुणा है और साथ ही हरे कृष्ण का जप करने का उनका दृढ़ संकल्प है। चाँदकाज़ी के आदमियों ने कहा- अगर तुम नहीं मरोगे तो चांद काजी हमें मार देगा और फिर हरिदास कह़ते हैं कि ठीक है अगर ऐसा है तो मैं मर जाऊंगा और फिर उन्होंने अपनी चेतना वापस ले ली। उस वक्त उनमें जीवन का कोई लक्षण नहीं दिख रहा था, इसलिए चाँदकाज़ी के आदमियों ने सोचा कि वह मर चुकें हैं, वे मरने के लिए हरिदास का शुक्रिया अदा करने लगे और फिर उन्होंने हरिदास के शरीर को गंगा में फेंक दिया।
हरिदास निश्चित रूप से मरे नहीं थे, वो जीवित थे और इसलिए वो नदी के दूसरे किनारे पर तैर के चले गए। वहाँ वो हरिबोल हरिबोल चिल्लाते हुए नृत्य कर रहे थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कैद कर दिया गया ताकि वह जप करना बंद कर दे। लेकिन जेल अधिकारियों को और अधिक परेशानी हुई, नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के संग से, उन सभी जेलों में जितने भी कैदी थे वे सभी धर्मांतरित हो गए और पूरे जेल में जप और नृत्य करने लगे। इसलिए हमेशा वैसा ही जप करते रहो जैसा हरिदास ठाकुर ने किया था।
ठीक है, नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर, रघुनाथ दास गोस्वामी की जन्मस्थली सप्तग्राम में भी थे और एक समय पर जब रघुनाथ दास एक युवा थे, हरिदास ठाकुर वहां मौजूद थे। वहा एक चर्चा हुई और हरिदास ठाकुर हरिनाम की महिमा को विस्तृत कर रहे थे। श्रील हरिदास ठाकुर बोले केवल हरिनाम लेकर नाम आभास के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति हो सकती है। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के इस कथन को उस सभा में कुछ छोटे ब्राह्मणों ने चुनौती दी और विरोध किया। गोवर्धन मजुमदार भी देख रहे थे फिर इस ब्राह्मण गोपाल चक्रवर्ती ने हरिदास को अपशब्द कहना शुरू कर दिया और कहा कि यह कैसे सच हो सकता है, मुक्ति पाने के लिए आपको वेदांत और शास्त्रों का अध्ययन करना अनिवार्य है। मुक्ति के लिए आपको अभ्यास करना होगा और लंबे समय के बाद ही आप मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। गोपाल चक्रवर्ती ने हरिदास ठाकुर को कहा आप कहते हैं कि हरे कृष्ण के नाम जप मोक्ष प्राप्ति के लिए पर्याप्त है। नहीं नहीं मैं इससे सहमत नहीं हूं। इस पर बड़ी चर्चा हुई और इसका परिणाम यह था कि गोपाल चक्रवर्ती जो विरोध कर रहे थे अनको कुष्ठ का रोग हुआ, उसके शरीर से रक्त और मवाद निकलने लगा। उसने अपनी नाक खो दी, नाक पिघल कर नीचे गिर गई।
हरि हरि।
जब नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जगन्नाथ पुरी में हैं और वे सदैव जप करते रहते और बहुत विनम्र थे। वह श्री जगन्नाथ मंदिर में नहीं जा सकते थे क्योंकि वह मुस्लिम थे। इसलिए हरिदास ठाकुर जगन्नाथ मंदिर के शीर्ष पर स्थित सुदर्शन चक्र का दर्शन करते और खुशी से मंत्रोच्चार करते। वह जगह अब सिद्ध बकुल के रूप में जानी जाती है। एक समय में सिद्ध बकुल में कोई पेड़ नहीं था, यह जगह में खुला था, कभी-कभी वहां गर्मी होती थी, कभी-कभी वहां ठंड होती थी, लेकिन नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर भगवान के 3 लाख हरि नाम का जाप करते थे और फिर गौरांग महाप्रभु वह पेड़ लगाते हैं। यह जगन्नाथ के दांतों के ब्रश की एक छड़ी थी। एक बकुल टहनी। महाप्रभु उस स्थान पर आए जहां हरिदास ठाकुर बैठते हैं और जप करते हैं और उसी स्थान पर उस टहनी को लगाते हैं। वो टहनी एक सुंदर ऊंचे वृक्ष के रूप में बढ़ गयी और यह हरिदास ठाकुर को ठंडी छाया देने लगा। हरिदास ठाकुर बूढ़े और कमजोर हो रहे थे और जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करने में सक्षम नहीं थे और भगवन जगन्नाथ का दर्शन नहीं कर पा रहे थे। पर भगवान जगन्नाथ प्रतिदिन हरिदास ठाकुर को दर्शन दे रहे थे चैतन्य महाप्रभु के रूप में।
जेई गौर सेई कृष्ण सेई जगन्नाथ
गाना – जय जय जगन्नाथ साचिरा नंदन
*
(द्वारा – वासुदेव घोष)
एक दिन चैतन्य महाप्रभु ने भगवान जगन्नाथ के प्रसाद को गोविंद के माध्यम से भेजा। गोविंद प्रसाद के साथ सिद्ध बकुल में जाते हैं। उन्होंने नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को कहा कि महाप्रभु ने आपके लिए भगवान जगन्नाथ का प्रसाद भेजा है। हरिदास ठाकुर बूढ़े और शारीरिक रूप से कमजोर हो गए थे और वह लेटकर जप कर रहे थे। हरिदास ठाकुर ने कहा, मैंने अभी तक अपना जप समाप्त नहीं किया है इसलिए मैं इसे कैसे खा सकता हूं लेकिन यह भगवान जगन्नाथ प्रसाद है मैं कैसे मना कर सकता हूं। इसलिए उन्होंने थोड़ा प्रसाद लिया और वे जप करते रहे। अगले दिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने व्यक्तिगत रूप से हरिदास ठाकुर से मुलाकात की। चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर से प्रार्थना की कि आपको प्रतिदिन 300000 नामों का जाप करने की आवश्यकता नहीं है। आप पहले से ही सिद्ध व्यक्ति हैं और आपके पास पहले से ही मंत्र सिद्धि और नाम सिद्धि है और आपको भगवान से प्रेम है आपको ये नियम के साथ नहीं रहना है। आप एक परमहंस हैं। आप इस जप को कम कर सकते हैं। लेकिन वह इसे कम नहीं करना चाहता था, श्रील हरिदास ठाकुर अपने निर्धारित जप की संख्या को कम नहीं करना चाहते थे। हमें और अधिक जप करने की आवश्यकता है, या कम से कम १६ माला का जप करना है, एकादशी पर और अधिक जप करना है और यहाँ हरिदास ठाकुर को महाप्रभु कम जप करने के लिए कह रहे हैं, आप अपना जाप कम करें।
हरि हरि।
एक अन्य समय में हरिदास ठाकुर और चैतन्य महाप्रभु के बीच हरि नाम की महिमा के बारे में अच्छी बातचीत हुई और महाप्रभु और श्रील हरिदास ठाकुर हरि नाम की महिमा की बातें कर रहे थे और उस वार्ता के आधार पर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने हरिनाम चिंतामणि नामक पुस्तक का संकलन किया। यह पुस्तक उन लोगों के अध्ययन के लिए अनिवार्य है जो शुद्ध रूप और अपराध रहित तरीके से हरिनाम जप करना चाहते हैं।
अब समय हो गया है। इसलिए हम अपने आचार्य नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर से प्रार्थना करते हैं कि हम भी हरिनाम जप के प्रति आकर्षण विकसित करें और हम भी अधिक से अधिक जप करते रहे। नाम रूचि उत्पन हो।
हरि हरि। नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर की जय।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
8 February 2021
Do not underestimate the Power of the Holy Name
Hare Kṛṣṇa ! We have devotees from 775 locations chanting with us today.
jaya jaya śrī caitanya jaya nityānanda jayādvaita-candra jaya gaura bhakta vrṇda
I know you have not completed your 192 rounds, 300000 names. Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura chanted 300000 holy names everyday. Most of you chant some extra rounds on Ekadasi, but Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura chanted 192 rounds everyday. Some preach, but do not practice. Some practice, but do not preach. However, Śrīla Nāmācārya Haridāsa Thākura practiced and preached. He was a very ideal ācārya. He was already an ācārya. We belong to Brahmā Madhva Gaudīya Sampradāya. Right? Our disciplic succession begins with Brahmāji and he is an ācārya. That very same Brahmā appeared again 500 years ago. Śrī Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu declared him to be the ācārya of the holy name. Mahāprabhu called him ‘Nāmācārya’, ācārya of the holy name. This Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura we want to remember.
We want to especially remember him under all circumstances or even unfavourable circumstances. Against all odds as they say, Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura remain attached to his chanting. He was born in a Muslim family. They say, “Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa is a Hindu business. This is a Hindu God’s name. You will not chant this name.” We see even the Hindus do not chant. Forget about the Muslims chanting. Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura inspite of being born in a Muslim family, started chanting Hare Kṛṣṇa. This way also, Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura has set the standard, an example. You may be belonging to any religion, still you could chant Hare Krsna. Religion is not a barrier. It is not a stumbling block. In fact, Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura proved that this Hare Kṛṣṇa chanting is transcendental, beyond all these different designations. This chanting of Hare Krsna is for everybody. You are a soul, that all it takes for chanting Hare Krsna. Forget that you are Hindu, Muslim, black, white, lady, gentleman and so on. Chanting of Hare Kṛṣṇa is for everybody.
While Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura was a young man and he was chanting, there were some envious fellows like Rāmchandra Kānta. He sent a prostitute in the middle of the night to Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura. You could imagine the proposal of a prostitute. She is displaying her body, her beauty. There is no one around in the middle of the night. A young beautiful prostitute is proposing that Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura should enjoy with her. Haridāsa Thākura responded, “I am already enjoying. I am enjoying chanting. I am not looking for any other enjoyment. I am not lacking enjoyment. I am full of joy. Get lost! I have rounds to chant. I have more chanting to do. As soon as I am done with my rounds, then I will consider your proposal.” When he was about to finish, it was sunrise and the prostitute was disappointed and had to go back. She came the next day with the same proposal and Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura gave the same response. By that time, her heart melted. She herself developed a higher taste for chanting in association with Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura. She becomes a disciple of Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura and began chanting 300000 holy names everyday. This is the power of the holy name. This is the power of Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura.
One time, the Maya devi came with the same proposal.
daivī hy eṣā guṇa-mayī
mama māyā duratyayā
mām eva ye prapadyante
māyām etāṁ taranti te
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG. 7.14)
Lord has said, My the divine energy(Maya devi) is very difficult to overcome. Maya came, and Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura did not budge an inch. This is another exhibition of the power of the holy name. The holy name defeated Maya and the prostitute. Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura has now moved to another location where he encountered another prostitute in Benapole in Bangladesh. I have visited it a few times. From there he travelled some distance. He settled in a place which has now become Haridāsapur and that is in India. In 1976 after the Mayapur festival, Śrīla Prabhupāda travelled to Haridāsapur. Many devotees, including myself accompanied him. Śrīla Prabhupāda established ISKCON in Haridāsapur. One ISKCON is called Haridāsapur ISKCON where Haridāsa Thākura was chanting the holy names. Haridāsa Thākura moved on into West Bengal, in fact very close to Santipur. He was residing in a cave in a place called Phulia and there he was sharing the cave with a poisonous snake. He found that he was not the only one, but there was another resident. But he kept chanting Hare Krsna Hare Krsna. When visiting him devotees found the snake and were all in fear.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura peacefully kept chanting the holy name
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Then you know what the outcome was? The snake left the cave leaving Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura alone to chant. Then devotees started coming again visiting Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura. We know Caitanya Mahāprabhu had assigned this duty of preaching in Bengal to Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura and Nityānanda Prabhu who were preaching partners. Śrīla Prabhupāda would encourage us in Mumbai to always go in pairs. During Caitanya Mahāprabhu’s time, there was this pair, Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura and Nityānanda Prabhu. Caitanya Mahāprabhu would say,
suno suno nityananda, suno haridas
sarvatra amar ajna koroho prakas prati ghare ghare giya koro ei bhiksa
bolo `krsna’, bhajo krsna, koro krsna-siksa iha bai arna boliba,
bolaiba dina-avasane asi’ amare kohiba
Translation
Listen, listen, Nityananda! Listen, Haridasa! Make My command known everywhere! Go from house to house and beg from all the residents, `Please chant Krsna’s name, worship Krsna, and teach others to follow Krsna’s instructions.’ Do not speak, or cause anyone to speak, anything other than this. [Sri Caitanya-Bhagavata, Madhya-Khanda (13.8-10)]
I hope you remember, Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura is Lord Brahmā and Nityānanda Prabhu is Balarāma. What a team! These are the preachers. This is a team. They were preaching and they had encountered Jagai and Madhai. They were hard nuts to crack. They were leading sinners. Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura and Nityānanda Prabhu succeeded in converting Jagai and Madhai into top class Vaisnavas. Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura was walking the talk. He was not only asking everyone to chant Hare Krsna or harer nāmaiva kevalam (CC Madhya 6.242) but he was chanting and relishing the holy name and getting more and more empowered by that chanting.
kali-kālera dharma — kṛṣṇa-nāma-saṅkīrtana
kṛṣṇa-śakti vinā nahe tāra pravartana
Translation
The fundamental religious system in the Age of Kali is the chanting of the holy name of Kṛṣṇa. Unless empowered by Kṛṣṇa, one cannot propagate the saṅkīrtana movement. (CC Antya 7.11)
Unless you have bhakti shakti (power of devotional service) or nāma shakti (power of holy name), you cannot transform or purify others. Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura was such an empowered preacher. He was chanting and dancing and becoming popular. Hindus were not happy. Some Karma Kandi, Hindus were complaining to Chand Kaazi, “This Haridāsa is born in your religion. He is Muslim by birth and he is chanting Hare Krsna. He has become a Hindu. You should stop him.” The rest is history – how Chand Kaazi’s men were beating, insulting, whipping Haridāsa Thākura in the marketplace, public humiliation from marketplace to marketplace in 22 market places. They said, “You should stop chanting. You are Muslim.” But did he stop? He said, “Let my body be broken into pieces but I’m not going to stop chanting.”
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Well, as the pastime unfolded we know from Caitanya Bhāgavata how the Lord had dispatched Sudarshan to slaughter those Chand Kazi’s men who were beating, harassing Haridāsa Thākura, so what was Haridāsa Thākura’s response to Sudarshan,
“No, no, no, no! Don’t kill, Oh Sudarshan!”
Sudarshan is also like the Lord. The Lord’s weapon is non-different from the Lord. He said, “No, no! Don’t kill them. Please save them.” This is Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura. This is the compassion of Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura. At the same time, his determination to keep chanting Hare Krsna is exemplary. But if he doesn’t die then Chand Kazi is going to kill us, Chand Kazi’s men were saying this, “Why didn’t you die Haridāsa?” and then Haridāsa said,”Ok. In that the case I will die.” He withdrew his consciousness. He was a maha yogi and that time he had no pulse, no symptoms of life. They thought he was dead and said, “Thank you Haridāsa for dying.” They threw the body of Haridāsa into the Ganga, and of course he was not dead, he was very much alive and lively within. He just swam across to the opposite bank of the river. He was acting and then he was arrested and imprisoned because he could stop chanting, but the prison authorities got into more trouble because in association of Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura, all the prisoners in the prison stated chanting and dancing all over the prison house. The soul cannot be imprisoned, cannot be checked. It will always keep chanting and that’s what Haridāsa Thākura did.
At one time in Saptagram, the birthplace of Raghunātha Dāsa Goswami there was the debate that took place between Raghunātha Dāsa and Haridāsa Thākura. Raghunātha Dāsa was still a young man. Haridāsa Thākura was chanting the glories of the holy name that nāmābhāsa, the second stage of chanting, is good enough for attaining liberation. This statement of Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura was challenged and protested by some brāhmins in that assembly which was happening under the supervision of Govardhan Majumdāra. Then a ruffian, not a gentleman, started using bad names and cursing, “No, I don’t know, how could this be true, to attain liberation you have to study Vedānta and practice. Vedant vakyeshu sada ramante It is a rigorous practice and maybe after a long time, you could attain liberation. But you say that chanting of Hare Krsna in the nāmābhāsa stage is just sufficient for liberation. I don’t believe this.” A big debate went on and the outcome was that this person who was protesting developed leprosy. His body was rotting and bloody and pus was oozing out. He nose melted and fell off.
While Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura was in Jagganātha Puri he was chanting continuously. He is so humble. He cannot go into the Jagannātha temple being a born Muslim. It did not bother him. He would take darsana of the chakra on the top of Jagannātha temple and happily chant. That place is known as Siddha Bakula. The Bakula tree was not always there. Haridāsa Thākura would sit under the open to sky and eat. He didn’t care and kept chanting.
śīta ātapa bāta bariṣaṇa
e dina jāminī jāgi re
biphale sevinu kṛpaṇa durajana
capala sukha-laba lāgi’ re
Translation
Both in the day and at night I remain sleepless, suffering the pains of the heat and cold, the wind and the rain. For a fraction of flickering happiness I have uselessly served wicked and miserly men. (Verse 2, Bhaja Hu Re Mana, Govinda Dasa Kaviraja)
Sometimes it was hot, sometimes cold, sometimes windy, sometimes this or that, but he kept chanting 300000 holy names of the Lord. Kind Lord Gauranga planted a Bakula tree rom a twig which was the toothbrush of Jagannātha. Mahāprabhu brought that where Haridas Thakur was chanting and stuck it into the ground. It grew into a beautiful tall tree giving cool shade to Haridāsa Thākura. Haridāsa Thākura was getting older and older and was unable to enter take darsana of Jagannātha. Jagganātha was visiting Haridāsa Thākura everyday in the form of Caitanya Mahāprabhu.
jei gaur sei krsna sei jagannatha
Translation
He who is Gaura is He who is Krsna and is He who is Jagannātha.
One day, Caitanya Mahāprabhu sent Jagganātha prasada. Govinda went to Siddha Bakula with prasada and said to Haridāsa Thākura, “Mahāprabhu has sent Jagganātha prasada for you.” Haridāsa Thākura was old and physically weak. He was lying down and chanting. Haridāsa Thākura’s response was, “Oh! I have not finished my chanting. How could I eat? But this is Jagganātha’s prasada, how could I refuse?” Then he took a little prasada and he kept chanting. Next day Śrī Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu personally visited Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura and Caitanya Mahāprabhu was appealing to Haridāsa Thākura, “You know, you don’t have to chant 300000 names everyday. You are already siddha purusa, one who has attained perfection. You already have this nāma siddhi, mantra siddhi. You have developed love of Godhead. You don’t have to stick to these rules and regulations. You are paramahamsa. You minimise your chanting.” But he didn’t want to minimise it. He wanted to keep chanting his prescribed number of rounds. We need to be told, “Chant more! Chant at least 16 rounds! Chant more on Ekadasi.” Here Haridāsa Thākura is being told by Mahāprabhu, “Chant less, minimise your chanting.”
It’s a nice dialogue between Haridāsa Thākura and Mahāprabhu. Mahāprabhu and Haridāsa Thākura also had another conversation about the glories of the holy names and based on that dialogue, Śrīla Bhakti Vinoda Thākura has compiled the book called Harināma Cintāmani. This is a kind of must book for study. Those who wish to chant purely and offencelessly, Harināma Cintamani is the book to study. There is a dialogue between Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura and Caitanya Mahāprabhu. We pray unto our Nāmācārya that we may also develop attraction and attachment towards chanting. We may also chant more and more, name ruci.
All glories to Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura! Nitai Gaura premanande hari haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
7 फरवरी 2021
हरे कृष्ण। गौरांग! आज हमारे साथ 708 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरी हरीबोल! तो आज रविवार है, और यह छुट्टी का दिन है। जो छुट्टी कुछ लोगों ने पहले ही ले ली है! आज संख्या कम है, जो हर रविवार को होती है और हमारे जो क्रिश्चियन भाई हैं, उनकी एसी समझ है कि, भगवान ने 6 दिन में सृष्टि का निर्माण किया और 7 वे दिन उन्होंने विश्राम किया और जिस दिन भगवान ने विश्राम किया, वह दिन रविवार था! उनका आचरण करते हुए, भगवान के चरणों का अनुसरण करते हुए लोग भी रविवार को छुट्टी ले लेते हैं। हरि हरि। वैसे यह समझ तो ठीक नहीं है, भगवान ने कैसे सृष्टि का निर्माण किया यह समझने के लिए आपको भागवतम पढ़ना होगा या वैदिक वाङ्गमय में आपको इसकी जानकारी मिलेगी कि भगवान ने कैसे सृष्टि का निर्माण किया और वैसे भगवान तो कभी विश्राम लेते ही नहीं! आराम क्या है? हराम है। आराम हराम है! और यहां पर हराम की अनुमति नहीं है। उसका निषेध है। हरी हरी। तो रविवार को भी छुट्टी लेनी है तो आप अपने ऑफिस के काम से छुट्टी ले सकते हो लेकिन, भक्ति के कार्यो के लिए जैसे कि, विशेषकर महामंत्र का जप करने में
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इसका जप करने के लिए विश्राम नहीं ले सकते! हरि हरि। ठीक है। तो यह बातें हैं ही और भी बातें करेंगे वह भी ऐसे ही बातें हैं। कल हम नित्यानंद प्रभु के बारे में बात कर रहे थे, जो नित्य आनंद, कब-कब आनंद? नित्यानंद! नित्य आनंद यानी सदा के लिए आनंद! नित्यानंद प्रभु! जो सदा मस्त रहते हैं। इसीलिए उनका नाम है नित्यानंद! वैसे वह आनंद की मूर्ति तो है ही और यह मूर्ति सदा के लिए यानी शाश्वत है और इस गीत में जिसमें नरोत्तम दास ठाकुर की यह रचना है,
कोटी चंद्र की चतुराई
इसी गीत के अंत में सुख और आनंद की चर्चा हो रही है, नरोत्तम दास ठाकुर लिख रहे हैं,
नरोत्तम दास ठाकुर जो स्वयं एक महान आचार्य रहे। हरि हरि। नित्यानंद प्रभु तो स्वयं भगवान हैं, बलराम हैं! कृष्ण के प्रकाश हैं। सबसे पहले की उत्पत्ति हुई थी। भगवान के यानी कृष्ण के कई सारे विस्तार हैं,
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
(श्रीमद भागवत १.३.२८)
अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
भगवान के कई सारे विस्तार या अंशाश अंश या अंशांशअंश हैं। अंश के अंश के अंश के भी अंश हैं। लेकिन पहला विस्तार तो बलराम ही हैं और श्रील प्रभुपाद लिखते हैं एक स्थान पर कि, कृष्ण संपूर्ण भगवान हैं! 100% भगवान हैं, बलराम कितने भगवान हैं? 98% परसेंट भगवान हैं, यह 19-20 का फर्क है। कृष्ण और बलराम में कोई भिन्नता नहीं है। हरी हरी। इसीलिए रासक्रीडा खेलने वाले केवल यह दो ही भगवान हैं। एक कृष्ण भगवान हैं जो रासक्रीडा खेलते है, और दूसरे हैं बलराम! तीसरे कोई नहीं जो रासक्रीडा खेलते हैं। राम भी नहीं खेलते और वराह या नृसिंह भी नहीं खेलते। कोई भी ऐसी क्षमता नहीं रखते! उन हर एक के पास अपनी खुद की लक्ष्मी है और उनसे वे प्रसन्न हैं। हर विस्तार या अवतार की अपनी-अपनी एक लक्ष्मी होती है। लेकिन कृष्ण और बलराम की कितनी लक्ष्मी हैं?
लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
(ब्रह्मसंहिता २९)
अनुवाद-जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान
हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों
लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुष की सेवा कर रही हैं, ऐसे
आदिपुरुष श्रीगोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
हर वैकुंठ में भगवान के एक एक अवतार हैं और उनके साथ उनकी लक्ष्मी या उनकी अर्धांगिनी या उनकी आल्हादिनी शक्ति है। किंतु वृंदावन में लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं लाखों-करोड़ों, असंख्य गोपिया हैं, जिनको लक्ष्मी कहते हैं लेकिन उन्हें वृंदावन में गोपी कहते हैं। कृष्ण कि तो अपनी गोपियां हैं ही, लेकिन बलराम के भी अपनी अलग गोपियां हैं, जिनके साथ वे वृंदावन में रामघाट पर (जब द्वारका से वृंदावन 2 महीने के लिए) आए थे तब बलराम जी ने रासक्रीडा खेली और वैसे कई स्थानों पर भी खेली है। ऐसे बलराम हैं, बलराम के ही बने हैं नित्यानंद प्रभु! एक हैं बलराम भगवान जो आचार्य की भूमिका निभाते है, जो कि आदिगुरु हैं। तो बलराम होईले निताई तो नित्यानंद प्रभु भी आदिगुरु की भूमिका निभाते हैं। उनके समक्ष नरोत्तम दास ठाकुर बोल रहे हैं कि, नरोत्तम बडो दुखी यह नरोत्तम आपसे जो निवेदन कर रहा है या आपके समक्ष है तो यह नरोत्तम कैसा है? नरोत्तम बडो दुखी, निताई मोर कर सुखी तो हे नित्यानंद प्रभु इस दुखी नरोत्तम को सुखी कीजिए! नरोत्तम दास ठाकुर की यह विनम्रता है इसीलिए वह कह रहे हैं कि मैं दुखी हूं, जो कि वह दुखी नहीं हो सकते और हमें वह सिखा रहे हैं जो कि सचमुच दुखी है यानी हम जो कभी मान्य नहीं करते कि हम दुखी हैं। लेकिन नरोत्तमदास ठाकुर अपने व्यवहार से या इन वचनों से हमें सिखा रहे हैं कि, हमे प्रामाणिक रहना चाहिए! हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि, हम बड़े दुखी हैं और निताई मोर सुखी और हमारे जो गुरुजन हैं जो नित्यानंद प्रभु का प्रतिनिधित्व करते हैं, या फिर नरोत्तम दास ठाकुर का प्रतिनिधित्व करता है, हमें उनके चरणों में पहुंचकर उनसे प्रार्थना करनी चाहिए या आप कह सकते हो कि, हम दुखी हैं! हरि हरि। शायद आप या हम हमारे दुख का कारण नहीं जानते किंतु नित्यानंद प्रभु के, या उनके परंपरा में आने वाले (जो नित्यानंद प्रभु के परंपरा में आने वाले) आचार्य या गुरुजन जानते हैं! अगर हम दुखी हैं, यहां पर अगर मगर की बात ही नहीं है! क्योंकि हम दुखी हैं ही! हरि हरि। वह हमें बताएंगे कि हमारे दुख का कारण क्या है जैसे कि बिजनेस में दिवाला निकल गया, यह हुआ वह हुआ किसके कारण हम दुखी हैं ऐसा हम मानते हैं और ऐसे कई सारे कारण बन जाते हैं! हर रोज नए नए कारण बनते हैं, सुबह एक दुख का कारण तो दोपहर में अलग या फिर रात्रि में कोई अलग कारण बन जाता है। ठीक है! क्योंकि दुख का कारण है सुख! ऐसा संबंध इस संसार में कौन जानता है? अगर आप दुखी होना नहीं चाहते हो तो इस संसार में सुखी होने का विचार छोड़ दो! हरि हरि। तो सुख का परिणाम है दुख!
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते | आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ||
(भगवतगीता ५.२२)
अनुवाद : बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |
यहां पर भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं, अब यहां पर तत्वज्ञान शुरू हुआ। अब नरोत्तम दास ठाकुर के इस गीत को हम गा के, सुना के समझाना चाहते थे। ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते | लेकिन हमारी इंद्रियां इस संसार के इंद्रियों के विषयों के संपर्क में जब आती हैं संस्पर्श, कैसा स्पर्श? संस्पर्श! नजदीक का स्पर्श! होता है तो क्या होता है? हमारी इंद्रियां या इंद्रियों के विषय में होता है दु:खयोनय एव ते योनि मतलब स्रोत। जिसने आपको या जिस चीज ने आपको कुछ क्षणों के लिए आपको सुखी किया वही आपके दुख का कारण बन जाएगा या बनता ही है! एक्शन का होता है रिएक्शन! ऐसा हमने भौतिकशास्त्र में पढ़ा है, यहां पर यह बात समझ में आती है। लेकिन एक्शन का जो रिएक्शन है यह दुष्परिणाम निकलता है और दुख , कृष्ण आगे कह रहे हैं कि, आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः सुख अभी शुरू हो ही रहा था, उसका अंत भी हुआ और दुख की शुरुआत भी हो गई। सुख का शुरुआत और उसका अंत और उसका अंत यानी दुख कि शुरूवात। मतलब यह ही दुख का कारण बनता है इस बात को कब समझेंगे हम? भगवान कह रहे हैं आंख बंद करके तर्क मत कीजिए। इसमें शंका की कोई बात होनी ही नहीं चाहिए। भगवान ऐसा कहा भी है।
अज्ञश्र्चाद्यधानश्र्च संशयात्मा विनश्यति | नायं लोकोSस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ||
(भगवत गीता 4.40)
भावार्थ- किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते हैं | संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है |
मैं जो कहता हूं उसमें अगर आपका संशय है तो फिर आपका विनाश होगा।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ||
(भगवत गीता 4.39)
भावार्थ- जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है |
श्रद्धावान श्रद्धा के साथ जो मैंने ज्ञान दिया है गीता के रूप में भागवत के रूप में भी वेद है पुराण है।
जीवरे कृपया कैला कृष्ण वेद पुराण जीवो के कल्याण के लिए भगवान ने यह वेद, पुराण, गीता, भागवत कहे या इसकी रचना की। श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं जो श्रद्धावान है उनको ज्ञान प्राप्त होगा, यहां नरोत्तम दास ठाकुर निवेदन कर रहे हैं नित्यानंद प्रभु के चरणो में। यह नरोत्तम तो दुखी है निताय कोरो मोरे सुखी। नित्यानंद प्रभु इस दुखी नरोत्तम को सुखी बनाइए। हां हां प्रभु नित्यानंद प्रेमानंद सुखी कृपा अवलोकन कोरो आमी बड़ा दुखी। नरोत्तम दास ठाकुर की एक और रचना श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे यह जो गीत है। वहां पर एक एक पंचतत्व के गुण गाए हैं। नित्यानंद प्रभु की बात वह कहना चाहते थे, वहां पर उन्होंने कहा है। हे नित्यानंद प्रभु आप तो प्रेम आनंद के सागर में गोते लगाते रहते हो। आप स्वभाव से ही आनंद में हो। आप आनंद की मूर्ति हो, आपका जो स्वरुप है वह आनंद का स्वरुप है। किंतु मैं दुखी हूं। इसीलिए कृपा करो, हे नित्यानंद प्रभु। हमारे लिए भगवान की व्यवस्था है भगवान उनके प्रतिनिधि को भेजते हैं। जनता को कहते हैं कि आप इनके पास जाओ।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ||
(भगवत गीता 4.34)
भावार्थ- तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो , उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है |
आप सीधा बलराम या नित्यानंद प्रभु से नहीं मिल सकते, पहले किस को मिलो? बलराम या नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधि को मिलो। हरि हरि। एक ही बात है नित्यानंद प्रभु का या कृष्ण बलराम का, गौर निताई का वह प्रतिनिधित्व करते हैं। आपको भगवत गीता यथारूप सुनाएंगे। कृष्ण ने जैसी सुनाई गीता ऐसी ही सुनाएंगे यह सारे आचार्य गुरुवृन्द।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||
(भगवत गीता 4.2)
भावार्थ- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है |
श्रील प्रभुपाद ने गीता पर भाष्य लिखा और उसको प्रकाशित किया और उसको कहा भगवत गीता यथारूप। ऐसा कहने वाले, लिखने वाले, छापने वाले प्रभुपाद हुए। हर आचार्य जो परंपरा के आचार्य होते हैं, वह भगवत गीता कैसी कहते हैं भगवत गीता यथारुप कहते हैं। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भगवत गीता को भगवत गीता यथारूप कहा। उनसे पहले श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कह रहे थे भगवत गीता यथारूप। यह परंपरा की खासियत है, परंपरा के आचार्यों का ऐसा उत्तरदायित्व है ऐसी जिम्मेदारी है भगवान के वचनों को यथावत, जैसे वह हैं इसीलिए श्रील प्रभुपाद कहा करते थे। हमारे जो गुरुजन हैं परंपरा के आचार्य हैं, उन्हीं के टीम के प्रचारक होते हैं। शिक्षा गुरु होते हैं, दीक्षा गुरु होते हैं। उन सभी को भी भगवत गीता यथारूप ही कहनी होती है। यदि आप नहीं कहोगे तो आप बाहर जा सकते हो। हरि हरि। हम चार नियमों का पालन करते हैं। इसमें एक है जुआ नहीं खेलना। इसका मतलब जुआ,स्टॉक एक्सचेंज, घुड़दौड होते हैं। इस प्रकार का जुआ तो चलता ही रहता है। बिंगो कुछ होता है क्या ? जुआ सुप्रसिद्ध तो है ही। लेकिन दूसरा एक और भयानक जुआ है खतरनाक सावधान। जुआ कहो या ठगाई कहो, फंसाना कहो। हम फंसे हैं ही और फंस जायेंगे। संसार में सब बुरी तरह से फंसे हुए हैं, बद्ध हैं। जुए से हम और बढ़िया से फंस जायेंगे। वह जुआ है जो परंपरा का प्रचार नहीं करेंगे।
परंपरा का यथारूप प्रचार करने के बजाए मेरा विचार, मेरा खयाल, मुझे लगता है उसको हम दूसरे शब्दों में मनोधर्म कैसा धर्म मनोधर्म, हर एक मन का धर्म। जितने मत हैं उतने पथ हैं। ऐसा कहना सारा जुआ है, ठगाई है। धोकेबाज और धोखा देना, ऐसा प्रभुपाद कहा ही करते थे। इस संसार में यह चलता रहता है। अधर्म के क्षेत्र में तो यह खूब चलता रहता है। जुआ, जुगाढ़ या मनोधर्म क्षेत्र में यह चलता रहता है। जितना जुआ इस क्षेत्र में होता है उतना तो कोई नहीं कर सकते। कलयुग में जुआ और गुमराही और बढ़ जाती है। इसीलिए भागवत में कहा है मंद: सुमंदमतयो। एक तो लोग मंद और नीरस हैं, उसका लाभ कौन उठाते हैं सुमंदमतयो। मती का बहुवचन हुआ मतया। मंदबुद्धि के लोग हैं या मंदमती भागवत के प्रथम स्कंद में कहा है। यह कलयुग के लक्षण हैं। सुमंदमतयो – सुमंद मती जिनकी है, इसे आसान हो जाता है लोगों को ठगाना, लोग मंद है। गुमराह सभ्यता – श्रील प्रभुपाद ने कहै है समाज बिना सिर के है, यह सिर कौन है आचार्य। एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: | ऐसे आचार्य नहीं हैं या हैं तो उनको सुनेंगे नहीं हम। उस परंपरा से जुड़ेंगे नहीं हम। हरि हरि। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हमें नित्यानंद प्रभु के गौर नित्यानंद के परंपरा में आने वाले गौड़ीय वैष्णव को ढूंढना चाहिए उनके पास पहुंचना चाहिए। ऐसा नरोत्तम दास ठाकुर अपने दिल की बात कह रहे हैं। हम दुखी हैं और आप सुखी हो, यह तो सही नहीं है आप सुखी और हम दुखी।आप हमें भी सुखी बनाइए और फिर आपके पास कृष्ण हैं हम ऐसा कह सकते हैं ऐसी समझ होनी चाहिए। आपके पास कृष्ण हैं और आप मुझे कृष्ण दे सकते हो ऐसा निवेदन होना चाहिए। ऐसी अभिलाषा और तीव्र इच्छा के साथ ही मैं आपके पीछे-पीछे या आपकी ओर दौड़ रहा हूं। दौड़ के आया हूं कृपया करके मुझे कृष्ण दीजिए। उस कृष्ण को मुझे दीजिए या कृष्ण का परिचय दीजिए। कृष्ण के साथ मेरा भी संबंध स्थापित कीजिए। गौड़िय वैष्णव परंपरा के आचार्य, गुरुजन ,प्रचारक, शिक्षा गुरु फिर कहेंगे हरे कृष्ण महामंत्र का जप कीजिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे और खुश रहिए।तुम कह रहे थे तुम बड़े दुखी हो और कह रहे थे मुझे भी सुखी बना दो, तुम इस तरह खुश रहोगे। भगवान कृष्ण के नाम का उच्चारण हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करो, जप करो और सुखी रहो। यह ज्ञान क ख ग है और यह पी.एच.डी स्तर का भी ज्ञान है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण का कीर्तन जप और खुश रहिए। ऐसा बच्चों को कहते हैं जब हम क ख ग सीखेंगे तब हम खुश रहेंगे। आप भी बच्चे हो और थोड़े कच्चे भी हो।
हरे कृष्ण जप कीजिए।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
7 February 2021
Not following Scriptural injunctions is dangerous gambling
Hare Krsna. Gauranga! Devotees are chanting from 708 locations. Today is Sunday and it’s a holiday. Today’s number is less. This is usual on every Sunday. Our Christian brothers think that out of 7 days in a week, the Lord was engaged for 6 days in creation, and on the 7th day He rested. Following the Lord, people also started taking rest on a Sunday. But this understanding is not true. To understand this you have to study Bhagavatam. The Lord does not rest. You can take a holiday from the office, but not from devotional service. Let’s continue with our previous topic. We were discussing Lord Nityananda. Lord Nityananda is the personification of ananda [bliss]. We were discussing the song Nitai pada kamala.
nitāi-pada-kamala, koṭi-candra-suśītala
je chāyāy jagata jurāy
heno nitāi bine bhāi, rādhā-kṛṣṇa pāite nāi
dṛḍha kori’ dharo nitāir pāy
Translation:
The lotus feet of Lord Nityananda are a shelter where one will get the soothing moonlight not only of one, but of millions of moons. If the world wants to have real peace it should take shelter of Lord Nityananda. Unless one takes shelter under the shade of the lotus feet of Lord Nityananda, it will be very difficult for him to approach Radha-Krsna. If one actually wants to enter into the dancing party of Radha-Krsna, he must firmly catch hold of the lotus feet of Lord Nityananda. [ Nitai Pada Kamala verse 1 by Narottama Dasa Thakura]
In the last lines, Narottama Dasa Thakura who was an acarya in our disciplic succession states…
narottama boro dukhī, nitāi more koro sukhī
rākho rāńgā-caraṇera pāśa
Translation:
This Narottama Dasa is very unhappy, therefore I am praying to Lord Nityananda to make me happy. My dear Lord, please keep me close to Your lotus feet. [Nitai Pada Kamala verse 4 by Narottama Dasa Thakura]
There are several expansions of Krsna.
ete cāṁśa-kalāḥ puṁsaḥ
kṛṣṇas tu bhagavān svayam
indrāri-vyākulaṁ lokaṁ
mṛḍayanti yuge yuge
Translation:
All of the above-mentioned incarnations are either plenary portions or portions of the plenary portions of the Lord, but Lord Śrī Kṛṣṇa is the original Personality of Godhead. All of them appear on planets whenever there is a disturbance created by the atheists. The Lord incarnates to protect the theists. [SB 1.3.28]
Srila Prabhupada writes if Krsna is 100 percent God then Balarama is 98 percent. That’s also the reason why only these two, Krsna and Balarama performs the pastime of Rasa Lila. No one else performs Rasa Lila. Even Rama does not. All incarnations have only one single Laksmi, but Krsna and Balarama have unlimited Laksmis.
lakshmi-sahasra-shata- sambhrama-sevyamanam
govindam adi-purusham tam aham bhajami
Translation:
I worship Govinda, the primeval Lord, the first progenitor who is tending the cows, yielding all desire,in abodes built with spiritual gems, surrounded by millions of purpose trees, always served with great reverence and affection by hundreds of thousands of lakshmis or gopis. [Brahma Samhita verse 2]
In Vaikuntha, each incarnation has one Laksmi but Krsna and Balarama have unlimited Gopis. Even Lord Rama has just one Sita Devi, but in Vrindavan, there are unlimited Gopis or Laksmis. In VrindavanLord Balarama performs Rasa Lila pastimes at Rama-ghata. Balarama or Nityananda is also Adi-Guru. He is the spiritual master. To such Nityananda, Narottama Dasa Thakura is revealing his heart. I am very grief-stricken, please help me. But actually, Narottam Dasa Thakura is an Acarya, a pure devotee. He can’t be grief-stricken. But out of humility, he is teaching us. He is representing us and also teaching us that Nityananda knows you are grief-stricken, and you can express this grief to him. We may not know, that we are in grief. But Acaryas in Nityananda Prabhu’s disciplic succession know why we are in grief! We may think that we are sad because we had a loss in our business, or due to some other reason, but actually, you are grieving because you wanted to be happy in this world. Who could understand this? We become sad because we wanted to be happy in this world. The result of happiness is sadness.
ye hi saṁsparśa-jā bhogā
duḥkha-yonaya eva te
ādy-antavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ
Translation:
An intelligent person does not take part in the sources of misery, which are due to contact with the material senses. O son of Kuntī, such pleasures have a beginning and an end, and so the wise man does not delight in them. [BG 5.22]
When our senses come in contact with sense gratification objects, we express some pleasure. When those objects are taken away from us then we feel distressed. It is like action and reaction, as explained in physics. It’s a cycle of happiness and distress. It goes and on. When are we going to understand this? Lord has explained this in Bhagavad Gita, Why we don’t believe! It is said in Bhagavad Gita. If you doubt this, then there is no hope for you. But if you accept with faith, then you will understand everything. In another Song, Narottam Dasa Thakura says,
hā hā prabhu nityānanda, premānanda sukhī
kṛpābalokana koro āmi boro duḥkhī
Translation:
My dear Lord Nityananda, You are always joyful in spiritual bliss. Since You always appear very happy, I have come to You because I am most unhappy. If You kindly put Your glance over me, then I may also become happy.[ Sri Krsna Caitanya Prabhu Doya Koro More by Narottama Dasa Thakura]
Narottama Dasa Thakura is saying, Nityananda Prabhu, you are the personification of Ananda/Bliss…
kṛpābalokana koro āmi boro duḥkhī
He is praying, please be merciful to me, I am very much in grief. We cannot approach Balarama directly but we can approach the representative of the Lord Balarama, the spiritual master, and other devotees.
tad viddhi pranipatena
pariprasnena sevaya
upadeksyanti te jnanam
jnaninas tattva-darsinah
Translation
Just try to learn the truth by approaching a spiritual master. Inquire from him submissively and render service unto him. The self-realized soul can impart knowledge unto you because he has seen the truth.[ BG 4.34]
If you approach the representative then, they will speak from Bhagavad Gita As It Is.
evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
Srila Prabhupada wrote Bhagavad Gita As It Is and it’s the responsibility of the Acaryas coming in the line of disciplic succession to present Bhagavad Gita As It Is. Srila Bhaktivinoda Thakur and Srila Bhaktisiddhanta Saraswati also did the same. Siksa Guru and Diksa Guru should speak from Bhagavad Gita As It Is. One has to repeat what Krsna has said, but if we deviate then we are out. We hear, one of the regulative principles is “No Gambling”. What do you think is gambling? You may think, horse race, bingo, etc but if you preach, what you think, your mind, your perception then this is also gambling. In Kaliyuga, especially in the case of spiritual matter, this type of gambling often takes place. In Kaliyuga, people are very less intelligent, and they are misguided.
prāyeṇālpāyuṣaḥ sabhya
kalāv asmin yuge janāḥ
mandāḥ sumanda-matayo
manda-bhāgyā hy upadrutāḥ
Translation
O learned one, in this iron age of Kali men have but short lives. They are quarrelsome, lazy, misguided, unlucky and, above all, always disturbed.[SB 1.1.10]
This makes gambling easier. There are cheaters and the cheated. This society is headless. Acaryas are the head of any society, but such acaryas are very rare and even if they are there, we won’t hear from them. We should search and approach a bonafide spiritual master, coming in the disciplic succession of Lord Nityananda Prabhu. As Narottama Dasa Thakur is praying to Nityananda “You are blissful and I am so sad, this is not fair”.
krishna se tomara, krishna dite paro,
tomara sakati ache
ami to’ kangala, ‘krishna’ ‘krishna’ boli’,
dhai tava pache pache
Translation:
Krsna is yours; you have the power to give Him to me. I am simply running behind you shouting, “Krsna! Krsna!”[ Ohe! Vaisnava Thakura verse 4]
Narottama Dasa Thakura sings. You have Krsna, please make me also happy, please give me Krsna. Then the spiritual master tells you to chant….
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
And he will then say chant and be happy. Hare Krsna
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक ०६.०२.२०२१
पंढरपुर धाम से
हरे कृष्ण!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥
कहिए। महामन्त्र नहीं, अभी हमनें दूसरा मंत्र कहा। राधाकुंड सुन रहे हो? हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेस में 740 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हरि! हरि!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥
कृपा करि’ सबे मेलि’ करह करुणा। अधम पतितजने ना करिह घृणा॥2॥
ए तिन संसार-माझे तुया पद सार। भाविया देखिनु मने-गति नाहि आर॥3॥
से पद पाबार आशे खेद उठे मने। व्याकुल हृदय सदा करिय क्रन्दने॥4॥
कि रूपे पाइब किछु ना पाइ सन्धान। प्रभु लोकनाथ-पद नाहिक स्मरण॥5॥
तुमि त’ दयाल प्रभु! चाह एकबार। नरोत्तम-हृदयेर घुचाओ अन्धकार॥6॥
अर्थ
(1) श्रीचैतन्यमहाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो।
(2) कृपा करके सब मिलकर मुझपर करुणा कीजिए। मुझ जैसे अधम-पतित जीव से घृणा मत कीजिए।
(3) मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि तीनों लोकों में आपके चरणकमलों के अतिरिक्त और कोई आश्रय स्थान नहीं है।
(4) उन श्रीचरणों की प्राप्ति के लिए मेरा मन अति दुःखी होता है और वयाकुल होकर मेरा हृदय भर जाता है। अतः मैं सदैव रोता रहता हूँ।
(5) उन श्रीचरणों को कैसे प्राप्त करूँ इसका भी ज्ञान मुझे नहीं है और न ही मेरे गुरुदेव श्रील लोकनाथ गोस्वामी के चरणकमलों का मैं स्मरण कर पाता हूँ।
(6) हे प्रभु! आप सर्वाधिक दयालु हैं। अतः अपनी कृपादृष्टि से एकबार मेरी ओर देखिये एवं इस नरोत्तम के हृदय का अज्ञान-अंधकार दूर कीजिए।
गिरिराज गोवर्धन तो ताली बजा रहे हैं। हरि! हरि!
सुर और ताल का मेल। सुर और ताल। हम मुख से सुर बोलते हैं और फिर हाथ से ताली बजाते हैं। हम वाद्य भी बजा सकते हैं। सुर और ताल का मेल लेकिन साथ में मन भी चाहिए। मन में भाव हो तब भक्ति पूरी हो जाती है।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानन्द भी कहा। कह तो दिया लेकिन कुछ हुआ? कुछ होना चाहिए। कुछ कुछ होता है। कुछ विचार, कुछ भाव उत्पन्न होने चाहिए। जैसे हम कहते हैं।
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज ने श्रीचैतन्य चरितामृत की रचना की है।
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज की जय!
वह। चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में लिखते हैं, यह एक प्रार्थना भी है या जयकार जयकार असो! या
विजयो असो!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द।
जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द।।
गौर भक्त वृन्द की जय! केवल
भगवान् की ही जय नहीं या गौर नित्यानंद की जय नहीं या केवल पंचतत्व की जय नहीं, गौरभक्तवृन्द की जय!
श्री वासादि गौर भक्त वृन्द की जय! अर्थात श्रीवास और जो भी भक्त हैं, उनकी भी जय!
नरोत्तम दास ठाकुर का एक गीत है।
निताइ-पदकमल, कोटिचन्द्र-सुशीतल, जे छायाय जगत् जुडाय़। हेन निताइ बिने भाइ, राधाकृष्ण पाइते नाइ, दृढ करि’ धर निताइर पाय़॥1॥
से सम्बन्ध नाहि या’र, वृथा जन्म गेल ता’र, सेइ पशु बड़ दुराचार। निताइ ना बलिल मुखे, मजिल संसार सुखे, विद्या-कुले कि करिब तार॥2॥
अहंकारे मत्त हइया, निताइ-पद-पासरिया, असत्येरे सत्य करि’ मानि। निताइयेर करुणा ह’बे, ब्रजे राधाकृष्ण पाबे, धर निताइर चरण दु’खानि॥3॥
निताइयेर चरण सत्य, ताँहार सेवक नित्य, निताइ – पद सदा कर आश। नरोत्तम बड़ दुःखी, निताइ मोरे कर सुखी, राख राङ्गा-चरणेर पाश॥4॥
अर्थ
(1) श्री नित्यानंद प्रभु के चरणकमल कोटि चंद्रमाओं के समान सुशीतल हैं, जो अपनी छाया-कान्ति से समस्त जगत् को शीतलता प्रदान करते हैं। ऐसे निताई चाँद के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किये बिना श्रीश्री राधा-कृष्ण की प्राप्ति नहीं हो सकती। अरे भाई! इसलिए उनके श्रीचरणों को दृढ़ता से पकड़ो।
(2) उनसे जिसका सम्बन्ध नहीं हुआ, समझो कि उस पशु समान दुराचारी का जीवन व्यर्थ ही चला गया। यदि कोई सांसारिक विषय भोगों में प्रमत्त होकर निताई के नाम का उच्चारण नहीं करता, तो उसकी उच्च विद्या या उच्चकुल प्राप्ति से क्या लाभ?
(3) व्यक्ति अहंकार में मत्त होकर श्रीनित्यानंद प्रभु के चरणों को भूलकर, वह सांसारिक अनित्य विषयों को नित्य मानकर उनमें ही रमा रहता है। श्रीनित्यानंद प्रभु की कृपा होने पर ही व्रज में श्रीराधाकृष्ण की सेवा प्राप्त होगी। अतः उनके श्रीचरणों को पकड़े रहो।
(4) श्रीनित्यानंद प्रभु के चरण सत्य हैं, और उनके सेवक भी नित्य हैं। अतः उनके श्रीचरणों की सदा आशा करो। श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नित्यानंद प्रभु! मैं बहुत दुःखी हूँ, अतएव आप मुझे अपने श्रीचरणों में आश्रय प्रदान कर सुखी करें। ’’
आपने पहले इस गीत को सुना है? हां, सुना है। शांतरुपिणी ने सुना है। मुंडी तो हिला ही रही है, हिलानी पड़ती है। नही, कैसे कहेंगे। सुना है?उसमें क्या कहा है?
नित्यानंद प्रभु की जय!
उसमें नित्यानंद प्रभु के गुण गाए हैं।
बलराम होइले निताई।
बलराम जो आदि गुरु हैं अर्थात नित्यानंद प्रभु आदि गुरु हैं, वह गुरुओं के गुरु हैं।
अपनी आचरि जगत सिखाए
(श्रीचैतन्य चरित मंजूषा १.२२)
बलराम जी अपने आचरण से यह दिखाते हैं कि वे भगवान् की सेवा कर रहे हैं। बलराम, कृष्ण की सेवा कई प्रकार से करते हैं। बलराम कृष्ण के जूते बन जाते हैं, सारा ब्रज मंडल ही बलराम है। बलराम कभी भगवान के वस्त्र बन जाते हैं या कभी भगवान की मुरली बन जाते हैं। वे कभी भगवान का पलंग बन जाते हैं जिस पर कृष्ण लेटते हैं। कृष्ण जिस अनन्तशय्या पर लेटते हैं, वह अनन्तशय्या भी बलराम ही हैं। इस प्रकार बलराम अनेक प्रकार से कृष्ण की सेवा करते हैं। यह गुरु नित्यानंद, ये आदि गुरु बलराम, गौरांग की सेवा करते हैं या कृष्ण की सेवा करते हैं। वे आदि गुरु हुए। उनकी महिमा का गान नरोत्तम दास ठाकुर इस गीत में कर रहे है ।
निताइ-पदकमल, कोटिचन्द्र-सुशीतल,
नित्यानंद प्रभु के चरणकमल बड़े शीतल हैं। यह संसार कैसा हैं? संसार गरमागरम है।
यह संसार दावानल है। मंगला आरती जाते हो या नहीं? या मंगला आरती गाते हो? पहला शब्द आपके मुख से क्या निकलता है? संसार-
दावानल-लीढ-लोक त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) कृपासिन्धु (भगवान्) से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। जिस प्रकार एक मेघ वन में लगी हुई दावाग्नि पर जल की वर्षा करके उसे शान्त कर देता है, उसी प्रकार श्री गुरुदेव सांसारिक जीवन की प्रज्वलित अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
संसार दावानल अर्थात संसार कैसा है? दावानल है। अनल अर्थात अग्नि। इस संसार को आग लगी है किंतु जो नित्यानंद प्रभु के चरणों या फिर समझना होगा कि जो हमारे गुरु चरणों या शिक्षा गुरु और दीक्षा गुरुओं के चरणों का आश्रय लेता है, वह कोटिचन्द्र-सुशीतल होगा अर्थात कोटि कोटि चंद्रमा की सुशीतलता का अनुभव करता है। हरि! हरि!
चैतन्य महाप्रभु ने श्री शिक्षाष्टकम में गाया हैं
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
( श्री शिक्षाष्टकम)
अनुवाद:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
इससे दावाग्नि का निर्वाण होगा। यह संसार दावानल कहिए या संसार दावाग्नि कहिए। अनल मतलब अग्नि। यह संसार दावानल अर्थात अग्नि है।चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं अर्थात
यह आग बुझ जाएगी। जिस जंगल में आग लगी थी और आग के कारण जंगल की राख बन गई थी, अब उस जंगल में क्या होगा?
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं
उसी जंगल में मंगल होगा। उसी जंगल में पुष्प खिलेंगे।
हमारे जीवन में जो आग लगी थी। अगर हम नित्यानंद प्रभु व, गुरुजनों के चरणों का आश्रय लेंगे तो निश्चित ही वे हमें बचाने वाले हैं, आदेश देने वाले हैं, यह करो और यह मत करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस महामन्त्र का कीर्तन करो।
नित्यानंद प्रभु के चरणों का आश्रय लो। उनके चरणों की सेवा मतलब उनकी वाणी की भी सेवा है। उनके चरणों की भी सेवा कर सकते हैं। पद प्रक्षालन कर सकते हो। नित्यानंद प्रभु के विग्रह के पदों का प्रक्षालन कर सकते हो।
अपने गुरुजन के चरणों का पाद प्रक्षालन कर सकते हो। वह भी आश्रय है किंतु मुख्य तो वपु सेवा और वाणी सेवा है। वपु अर्थात विग्रह या रूप की सेवा एवं वाणी की सेवा। हरि! हरि! आचार्यों ने महामंत्र का जप करने के लिए कहा अथवा शास्त्र के माध्यम से करने को कहा। शास्त्र भी भगवान की वाणी है। नित्यानंद प्रभु की वाणी है। साधु, शास्त्र और आचार्य वही बात हमें सुनाते हैं।दस अपराधों से बचो। वैष्णव अपराध से बचो, चार नियमों का पालन करो। संडे हो या मंडे (वैसे आज सैटरडे (शनिवार) है) खाते जाओ अंडे का निषेध है। मटनं चिकनं नहीं अपितु पत्रं पुष्पं फलं तोयं जैसे इन आदेशों का हम पालन करेंगे तो क्या होगा?
भवमहादावाग्नि-निर्वापणं होगा,
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं होगा।
उसी के साथ कोटिचन्द्र-सुशीतल अर्थात
शीतलता का कूलिंग इफेक्ट होगा। ‘हॉट हेडिड’ जरा अपने दिमाग का टेंपरेचर देख लो, वह गरम ही होता है। दिमाग गर्म होता है। दिमाग गर्म मत करो गरम होता ही है। कई लोग गरम करते ही रहते हैं। गर्मी बढ़ाते ही रहते हैं, फिर इसका उपाय क्या है? उपाय है- ‘निताई पद कमल’
नित्यानंद प्रभु के चरणों का आश्रय।
हेन निताइ बिने भाइ, राधाकृष्ण पाइते नाइ, दृढ करि’ धर निताइर पाय़॥
नरोत्तम दास ठाकुर आगे लिखते हैं। हे भाइयों और हे बहनों, पुत्रों तथा पुत्रियों, हम नित्यानंद प्रभु की कृपा के बिना राधा कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकते।
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि। ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
आदि गुरु, नित्यानंद गुरु का ही प्रसाद हमें गुरुओं से प्राप्त होता है। हमें गुरु कृपा से राधा कृष्ण प्राप्त होंगे। तभी हमें राधाकृष्ण पाइते नाइ होगा अर्थात तभी हमें
राधाकृष्ण प्राप्त होंगे।
कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते।
नरोत्तम दास ठाकुर उस गीत में भी लिखते ही हैं।
गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य,
आर न करिह मने आशा।
श्रीगुरुचरणे रति, एइ से उत्तम-गति,
ये प्रसादे पूरे सर्व आशा॥2॥
अनुवाद:-मेरी एकमात्र इच्छा है कि उनके मुखकमल से निकले हुए शब्दों द्वारा अपनी चेतना को शुद्ध करूँ। उनके चरणकमलों में अनुराग ऐसी सिद्धि है जो समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है।
तत्पश्चात कृष्ण प्राप्ति होगी। नित्यानंद प्रभु के बिना राधा कृष्ण को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए दृढ करि’ धर निताइर पाय़। इसलिए दृढ श्रद्धा के साथ नित्यानंद प्रभु के चरण कमल को धारण करो। पकड़े रहो। श्रील प्रभुपाद के चरणों को पकड़ो या फिर जिन्होंने श्रील प्रभुपाद के चरणों को पकड़ा है, उनके चरणों को पकड़ो। तत्पश्चात आपके चरणों को कोई और पकड़ेगा। यह परंपरा है, ब्रह्मा पहले है जिन्होंने कृष्ण के चरण पकड़े हैं। इस प्रकार यह परंपरा की श्रृंखला, रस्सी अथवा डोरी भी है। हम उस रस्सी को पकड़ेंगे तो हमें खींचकर नीचे से ऊपर उठाया जाएगा। हम वापिस अपने घर अर्थात बैक टू गोड़हेड होंगे।
से सम्बन्ध नाहि या’र, वृथा जन्म गेल ता’र,
सेइ पशु बड़ दुराचार।
हमारा ऐसा संबंध नित्यानंद प्रभु के चरणों के साथ गुरु परंपरा के साथ संबंध स्थापित हुआ है। वृथा जन्म गेल ता’र,
जिसने राधा कृष्ण को प्राप्त नहीं किया तो बेकार है। हरि हरि। सेइ पशु बड़ दुराचार जिसने अपना संबंध नित्यानंद प्रभु के चरणों को अर्पित नहीं किया है, वह पशु है।
वे पशु ही हैं, बड़े दुराचारी पशु हैं। वे दुराचारी या अनाचारी या व्यभिचारी होंगे अथवा दुष्ट आचरण करने वाले होंगे। उनका पशुवत जीवन है।
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः
जिसने नित्यानंद प्रभु के चरणों का आश्रय नहीं लिया है, नित्यानंद प्रभु के कहे हुए वचन शास्त्रों में लिखे हुए हैं और गुरुजन उनको सुनाते हैं। यदि हम उन विधि निषधों का पालन नहीं करेंगे और हम धर्म का ही पालन नहीं करेंगे फिर क्या होगा? तब हमारा जीवन पशुवत् है
आहरनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।( हितोपदेश)
अनुवाद:- मानव व पशु दोनों ही खाना, सोना, मैथुन करना व भय से रक्षा करना इन क्रियाओं को करते हैं। परंतु मनुष्यों का विशेष गुण यह है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन का पालन कर सकते हैं। इसीलिए आध्यात्मिक जीवन के बिना मानव पशुओं के स्तर पर है।
पशु और नर दोनों के ये ही क्रियाकलाप रहते हैं अर्थात संसार क्या कर रहा है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन। हम आहार की व्यवस्था पेट की पूजा कर रहे हैं। कुछ लोग तो विठोबा तक पहुंचते ही नहीं। पांडुरंग! पांडुरंग! पांडुरंग! हम उनकी पूजा नहीं करते। बस पेट की पूजा कर रहे हैं। हम पेट भर रहे हैं। पशु तो पेट ही भरता है और कुछ नहीं करता। पेट कभी भरता है क्या? पेट कभी भरता है? भरता है तो डाउनलोड भी होता है अर्थात खाली हो जाता है। क्या कभी किसी का पेट भरा है? पेट भरना है तो आत्मा का पेट भरो। जिससे हम सदा के लिए तृप्त हो जाएंगे। इस शरीर में जो पेट है उसको हम भरते भरते मर जाते हैं, तत्पश्चात दूसरा शरीर मिलता है, दूसरे शरीर में क्या होता है? फिर उसका भी पेट होता है। चींटी का भी पेट है और हाथी का भी पेट है। हर योनि में ही पेट भरने का काम होता है। केवल पेट भरने का ही नहीं सोने का भी काम होता है। भालू आदि छह महीने सो जाते हैं आपको सोना अच्छा लगता है तो ठीक है। आपको भालू का शरीर मिल सकता है। आराम से 6 महीने सो जाओ। नहीं तो वैसे भी आपने किसी ने सोचा या ग्रैंड टोटल किया है कि कितना समय आप लोग सोते हो। हम मनुष्य भी सोते हैं। पह्लाद महाराज अपने मित्रों से कह रहे थे। अगर हम मान ले कि हमारी उम्र 100 साल है लेकिन वैसे हम 100 साल तो जीते नहीं हैं, लेकिन अगर हम सौ साल जिये तो उसमें से आधा समय हम सोते हैं। पचास साल हम सोते हैं। 50 साल हम केवल सोने में बिताते हैं। कभी सोचा है आपने ? हम बाल अवस्था में इतना सोए, तत्पश्चात बड़े हुए तब हम इतना सोए, फिर बूढ़े हुए, फिर इतना सोए। लगभग आधा समय हमारा सोने में जाता है। इसके विषय में सोचिए। फिर उठते ही धन कहां है? धन कहाँ है? हमें धन किसके लिए चाहिए? निद्रया हि्रयते नक्तं व्यवायेन च वा वय:। दिवा चार्थेहया राजन कुतुम्बभरणेन वा
( श्रीमद् भागवतं २.१.३)
अनुवाद:- ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों के भरण- पोषण में बीतता है।
कुटुंब भरने, कुटुंब के पालन पोषण के लिए अर्थात आहार के लिए, निद्रा के लिए बीतता है। कितनी सारी व्यवस्था? बेड रूम, मास्टर एंड मिस्टर बेड। फिर हर एक को मास्टर बनकर मास्टर बेड चाहिए। कोई नौकर भी है। हर एक को मास्टर बेड चाहिए हरि! हरि!यह सोने की बहुत बड़ी व्यवस्था है। घर किसके लिए बनाते हैं? सोने के लिए बनाते हैं। घर किसके लिए बनाते है? खाने के लिए बनाते हैं। घर किसके लिए बनाते है? मैथुन के लिए बनाते हैं। घर किसके लिए बनाते हैं? रक्षा के लिए बनाते हैं। ठंडी, गर्मी, सर्दी, वर्षा, चोर इत्यादि से अपनी रक्षा करने के लिए हम घर बनाते हैं। हम गृहस्थ हो जाते हैं। अधिकतर ग्रहमेधी हो जाते हैं। घर का उपयोग क्या है? हम आहार के लिए घर का उपयोग, निद्रा के लिए घर का उपयोग, मैथुन के लिए घर का उपयोग और भय अथवा संकट से बचने के लिए घर का उपयोग करते हैं। इसके लिए पहले बाहर जाओ, धन कमाओ और तत्पश्चात घर आओ। फिर धन को खर्च भी करो। आहारनिद्राभय मैथुनं चः इसलिए सेइ पशु बड़ दुराचार। जिसने नित्यानंद प्रभु के चरणों के साथ अपना संबंध स्थापित नहीं किया है, वृथा जन्म गेल ता’र, उसका जन्म तो खाली फोकट है। उसकी तुलना तो यहाँ पशु के साथ की है।
निताइ ना बलिल मुखे, मजिल संसार सुखे,
विद्या-कुले कि करिब तार॥2॥
इसका भाष्य सुनाने के लिए समय नहीं है। आपने यह गीत सुना ही होगा निताई पद कमल। बचे हुए दो हम कल सुनाएंगे। इस पर विचार करो। विचार करके नित्यानंद प्रभु के चरणों का आश्रय लो या नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधियों का आश्रय लो। उनके चरणों की सेवा करो। चरणों की सेवा मतलब उनकी वाणी सेवा से है। हरि! हरि!
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद श्रीअद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधित्व कृपामूर्ति ए.सी. भक्ति वेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय। प्रभुपाद ने क्या किया? प्रभुपाद ने गौर वाणी का प्रचार किया। उसी के साथ उन्होंने सारे संसार को बचाया और बचा रहे हैं।
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।
वैसे इस संसार के अधिकतर लोग नीडी (जरूरतमंद) या ग्रीडी(लालची) लोग हैं। हमें यह चाहिए, हमें वह चाहिए, हमें इसकी जरूरत है, उसकी जरूरत है। तत्पश्चात जरूरत से अधिक ही हमारी मांग हो जाती है। हम लोभी बन जाते हैं। यह लोभ भी हमारा शत्रु है और यह हमको व्यस्त रखता है। ऐसा जीवन तो पशु भी जीते रहते हैं। पशुओं की भी जरूरत होती है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन उनकी भी जरूरत है। जरूरतमंद बनने की बजाय…
मैं कुछ सुन रहा था, मुझे वह बहुत अच्छा लगा। वैसे वह हमारी परंपरा के नहीं है लेकिन यह वचन अच्छा था इसलिए भी मैं आपसे शीघ्र शेयर करना चाहता हूं। वह जरूरतमंद और लालची में अंतर बता रहे थे। आपको क्या चाहिए, इसकी जरूरत है, उसकी जरूरत है। ऐसा जीवन तो सारा संसार जीता ही रहता है। वह कह रहे थे कि औरों को मेरी जरूरत है। मुझे चाहिए, मुझे चाहिए अथवा मेरी चाह है। मेरी जरूरत है। मेरा स्वार्थ है। अकेले तो सारा संसार जीता ही रहता है परंतु यह जीवन हमें स्वार्थ के लिए नहीं अपितु परमार्थ के लिए जीना चाहिए। मुझसे औरों की क्या अपेक्षा है या मैं औरों के लिए क्या कर सकता हूं। मैं औरों पर कैसे उपकार कर सकता हूं। मैं औरों की कैसे सहायता कर सकता हूं। यह विचार या परिवार के सदस्य या समाज के लोग या मानव जाति या मेरे गुरुजन अथवा मेरे शिक्षा गुरु या मेरे दीक्षा गुरु अथवा वैष्णव या अंतरराष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ अथवा यह जो संगठन है, उनको क्या चाहिए? उनके लिए मैं क्या कर सकता हूं ? उनको मेरी जरूरत है। मुझे इसकी जरूरत है, इस बात की बजाय औरों को मेरी जरूरत है। आपने सुन लिया। समझ लिया, वह क्या कह रहे थे। हमारी परंपरा में भी यह सब बातें हैं ही।
परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
यह शरीर परोपकार के लिए है।
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
परोपकार के लिए नदियां बहती हैं।परोपकार के लिए नदियां अपना जल औरों को पिलाती रहती हैं। परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकार के लिए ही वृक्ष अपना फल औरों को खिलाते हैं। वह औरों के लिए होते हैं। वृक्ष स्वयं फल नहीं खाता अपितु वह औरों को खिलाता है।
परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकार के लिए गाय दूध देती हैं।
परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥ यह शरीर परोपकार के लिए है।
इसीलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा-
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।जन्म सार्थक करि कर पर- उपकार।।
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक ९.४१)
अनुवाद:- जिसने भारत भूमि (भारतवर्ष) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।
चैतन्य महाप्रभु अर्थात स्वयं भगवान ने कहा है कि परोपकार करो। समस्या यह है कि हम समझते नहीं हैं। हम औरों का उपकार भी करना चाहते हैं। लेकिन कैसे उपकार करें, क्या करें? सच में उसको इसकी जरूरत है। यह नही जानते। वैसे हर आत्मा की जरूरत भगवान है। सबको परमात्मा चाहिए। हर आत्मा की मांग अथवा चाह है, उनको परमात्मा चाहिए। उसकी पूर्ति यानी भगवान की पूर्ति अर्थात हम औरों को कैसे भगवान् अर्थात कृष्ण अथवा गौरांग दे सकते हैं अथवा नित्यानंद प्रभु को दे सकते हैं, किन किन रूपों में दे सकते हैं? ऐसा कार्य परोपकार का कार्य होगा।
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार।जन्म सार्थक करि कर पर- उपकार।।
हरि! हरि! ऐसे कार्य में लगे रहिये। परोपकार कीजिए।
हरे कृष्ण
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
6 February 2021
Catch hold of Lord Nityananda’s Lotus Feet!
Hare Krsna! Today devotees from 740 locations are chanting with us.
jaya jaya sri caitanya jaya nityananda jaya advaitacandra jaya gaura bhakta vrnda
If there is bhava, emotions in the heart then bhakti is complete. We said jaya jaya sri caitanya jaya nityananda but did something happen to you? Something should happen to us. Some thoughts, some emotions should arise in our hearts as we say,
jaya jaya sri caitanya jaya nityananda jaya advaitacandra jaya gaura bhakta vrnda
Caitanya Caritamritakar, the writer of Caitanya-caritamrta, Srila Krsnadas Kaviraj Goswami Maharaja writes this at the beginning of each chapter of Caitanya-caritamrta. This is a prayer and also glorification of them all.
jaya jaya sri caitanya jaya nityananda jaya advaitacandra jaya gaura bhakta vrnda
Translation
O Lord Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu, all glories to You. O Prabhu Nityananda, all glories to You. O Lord Advaitacandra, all glories to You. O devotees of Lord Gauranga, all glories to you all.
Not only all glories to Lord Caitanya, Nityananda Prabhu and Pancatattva, but also all glories to Srivasa and all the devotees.
nitai-pada-kamala, koti-chandra-sushitala je chayay jagata juray
Translation
The lotus feet of Lord Nityananda are a shelter where one will get the soothing moonlight not only of one, but of millions of moons. If the world wants to have real peace, it should take shelter of Lord Nityananda.(Vaisnava bhajan by Narottama Dasa Thakur)
Have you heard this song? In this song the glories of Nityananda Prabhu are sung. Balarama hoilo nitai, Balarama became Nitai. Balaram is Adiguru and Adiguru is Nityananda Prabhu. He is the spiritual master of all the spiritual masters. He is the guru of all the gurus.
āpani ācari’ jīve śikhāilā bhakti
Translation
Śrī Caitanya Mahāprabhu remained at Jagannātha Purī and, through His personal behavior, instructed all living entities in the mode of devotional service. [CC Madhya 1.22]
Balarama by His behaviour instructs others that He is serving the Lord. He serves Lord Krsna in many ways. He becomes the shoes of the Lord. The whole Vraja-mandal is Balarama. Balarama also becomes the clothes of the Lord. He becomes the flute of the Lord. He becomes the bed of the Lord on which Krsna sleeps. Visnu sleeps on Anantasaiya so Anantasaiya is Balarama. Like that in different ways Balarama serves Krsna. This spiritual master Nityananada or Balarama serves Gauranga or Krsna. He is Adi guru. His glories are sung by Narottam Dasa Thakur.
nitai-pada-kamala, koti-chandra-sushitala
How are the lotus feet of Lord Nityananda? They are very soothing and cool. This world is hot, it’s burning, samsara davanala. Do you all go to mangal arati? Do you sing mangal arati? What is the first word that comes out from your mouth?
samsara davanala lidha loka
Translation
The world is afflicted by the blazing fire of material existence.
This world is burning in fire, but one who takes shelter of Nityananda Prabhu, we need to understand this. If one takes shelter of our siksa and diksa guru which is also like koti candra sushitala, we will experience the cooling and soothing effect of millions of moon in our life.
ceto-darpaṇa-mārjanaḿ bhava-mahā-dāvāgni-nirvāpaṇaḿ
Translation
Glory to the sri-krsna-sankirtana, which cleanses the heart of all the dust accumulated for years and extinguishes the fire of conditional life, of repeated birth and death.[Siksastakam verse 1]
The fire of this world, samsara davanala will be extinguished. There was a fire in the forest and due to that everything has turned into ashes. What will happen?
śreyaḥ-kairava-candrikā-vitaraṇaḿ vidyā-vadhū-jīvanam
Translation
This sankirtana movement is the prime benediction for humanity at large because it spreads the rays of the benediction moon. It is the life of all transcendental knowledge. It increases the ocean of transcendental bliss, and it enables us to fully taste the nectar for which we are always anxious.
In the same forest which had burnt to ashes, flowers will blossom. The fire which was burning in our life will be extinguished if we take shelter of our spiritual masters. They will guide us and give us advice.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Perform kirtana of this maha-mantra, take shelter of Nityananda Prabhu. There is Vani seva which means following His instructions. You can also wash His feet. You can also wash the feet of your spiritual masters that is also like taking shelter. But the main thing is Vapu seva and Vani seva. Vapu seva means vigraha seva or serving the deity form and Vani seva is to chant maha-mantra which spiritual master tells us or tells us through the medium of scriptures. Scriptures are also a voice of Nityananda Prabhu. Sadhu-sastra-acarya they tell us the same thing.
Avoid the 10 offences to the holy names, avoid Vaisnava aparadha, follow the four regulative principles. Sunday ho ya Monday today is Saturday roj khavo ande this is to be avoided. So not muttonum, chikanam but patram puspam phalam toyam. If we follow these instructions then the fire of this material existence will be extinguished and we will feel the cooling effect of millions of moons.
The temperature of your brain is always hot. Some people keep increasing the temperature of their brain so what is the solution? The shelter of the lotus feet of Nityananda Prabhu is the answer.
heno nitai bine bhai, radha-krishna paite nai
dridha kori dharo nitair pay
Translation
Unless one takes shelter under the shade of the lotus feet of Lord Nityananda, it will be very difficult for him to approach Radha-Krsna. If one actually wants to enter into the dancing party of Radha-Krsna, he must firmly catch hold of the lotus feet of Lord Nityananda.
Narotama Dasa writes further, Oh! my brothers and sisters, sons and daughters without the mercy of Nityananda Prabhu we cannot achieve Radha Krsna.
yasya prasadad bhagavat-prasado
Translation
By the mercy of the spiritual master one receives the benediction of Krsna.
We get mercy of Nityananda Prabhu Adi guru by our spiritual masters. Then only can we get Radha Krsna.
kṛṣṇa-prāpti hoy jāhā ha’te
Translation
We can attain mercy of Krsna.
Narotam Dasa Thakur has also written in the same song,
guru-mukha-padma-vākya, cittete koribo aikya,
ār nā koriho mane āśā
śrī-guru-caraṇe rati, ei se uttama-gati,
je prasāde pūre sarva āśā
Translation
My only wish is to have my consciousness purified by the words emanating from his lotus mouth. Attachment to his lotus feet is the perfection that fulfills all desires.
Without the mercy of Nityananda Prabhu we cannot achieve Radha and Krsna. For that,
dridha kori dharo nitair pay
Translation
If one actually wants to enter into the dancing party of Radha-Krsna, he must firmly catch hold of the lotus feet of Lord Nityananda.
Catch hold of lotus feet of Srila Prabhupada or catch hold of feet of those who have held Srila Prabhupada’s lotus feet then someone will catch your feet. This is disciplic succession. Brahma is the first one who holds the lotus feet of Lord Krsna thus this is disciplic succession. If we hold it that will pull us up and take us back to Godhead.
se sambandha nahi jar, britha janma gelo tar
Translation
Anyone who has not established his relationship with Nityananda Prabhu is understood to have spoilt his valuable human birth.
If we cannot establish our relationship with the guru parampara disciplic succession then our life is useless. Also if one does not achieve Radha Krsna then his life is useless.
sei pashu boro durachar
Translation
Such a human being is actually an uncontrollable animal.
One who has not established a relationship with Nityananda Prabhu is an animal. Their life is like an animal. If we do not take shelter of Nityananda Prabhu’s lotus feet and do not follow the rules and regulations given by scriptures and we do not follow dharma, then our life is like that of an animal.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunāni sāmānyam etat paśubhir narāṇām
jñānaṃ narāṇām adhiko viśeṣo jñānena hīnāḥ paśubhiḥ samānāḥ
Translation
Eating, sleeping, sex, and defense—these four principles are common to both human beings and animals. The distinction between human life and animal life is that a man can search after God but an animal cannot. That is the difference. Therefore a man without that urge for searching after God is no better than an animal.
The world is making arrangements for ahara, nidra. They keep working for their food, they keep working their bellies. They never reach Panduranga. Oh! Animal is also busy filling its belly. Does the belly get filled or is it full any time? Even if it is full it gets downloaded and become empty. The belly is never filled. If you want to fill something, fill the atma or soul. It can be satisfied, but this belly can never be satisfied or filled. We die filling this belly and then we get a new life and again in that life we get a belly. The ant also has a belly and the elephant also has a belly. We keep doing the same thing in every life, not only eating, but also sleeping.The bear sleeps for 6 months. You like to sleep then the Lord will make you a bear so that you can sleep for 6 months. Do you ever think how much time we have wasted in sleeping or how much we sleep? Did you ever do the grand total?
Prahlad Maharaja was saying to his friends, if our life is 100 years, nowadays nobody lives for 100 years. Suppose our life is 100 years about 50 years is spent sleeping only. Half our life is spent sleeping. Did you ever think? As soon we get up, oh! Where is the money? Where is my house?
nidrayā hriyate naktaṁ
vyavāyena ca vā vayaḥ
divā cārthehayā rājan
kuṭumba-bharaṇena vā
Translation
The lifetime of such an envious householder is passed at night either in sleeping or in sex indulgence, and in the daytime either in making money or maintaining family members.[SB 2.1.3]
For sleeping so much arrangements are made – master bedroom. We make house for sleeping and eating and procreation and to protect ourselves from the sun,cold, rain etc. and we become grhasta. Many become grahmedhi. For this we go out and keep earning money. That’s why it’s said, sei pasu boro duracar, one who has not established a relationship with Nityananda Prabhu has wasted his whole life.
nitāi nā bolilo mukhe, majilo saḿsāra-sukhe
vidyā-kule ki koribe tār
Translation
Because he never uttered the holy name of Nityananda, he has become merged into so-called material happiness. What can his useless education and family tradition do to help him?
Our time is less so only half the song is completed. We complete it tomorrow. Think on this and after thinking take shelter of Nityananda Prabhu or take shelter of His representatives. Serve at their lotus feet, serving the lotus feet means Vani seva.
jaya jaya sri caitanya jaya nityananda jaya advaitcandra jaya gaura bhakta vrnda
nama om vishnu-padaya krishna-preshthaya bhu-tale srimate bhaktivedanta-svamin iti namine
I offer my respectful obeisances unto His Divine Grace A. C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada, who is very dear to Lord Krishna, having taken shelter at His lotus feet.
namas te sarasvate deve gaura-vani-pracarine nirvisesha-sunyavadi-pascatya-desa-tarine
Our respectful obeisances are unto you, O spiritual master, servant of Bhaktisiddhanta Saraswati Goswami. You are kindly preaching the message of Lord Chaitanyadeva and delivering the Western countries, which are filled with impersonalism and voidism.
You are all our representatives of Srila Prabhupada
Krsna krpa Srila Prabhupada ki jaya, he saved the whole world from impersonalism and voidism.
One is needy and another is greedy. I want this. I want that. I am in need of that. We demand more that our needs and we become greedy. This lobha or greed keeps us busy. Animals also live this type of life. The basic needs are ahara nidra bhai maithun. Rather than becoming greedy, become needy.
I heard somewhere it is not from parampara, but he is Vaisnava. He was explaining the difference between needy and needed. I need this, I need that is how the whole world is living, but we should live this life for others. How could I help others? How can I serve others? The family members, the society, my spiritual masters, my organization.. They need me I am needed. Rather than thinking what I need you should think how others need me. We have this in our paramapara.
paropakaram vahanti nadya, paropakaram duhanti gaaya,
paropakaram phalanti vriksha, paropakaram idam shareeram
Translation
“Rivers flow for others to benefit, Cows give milk for others to benefit, Trees bear fruits for others to benefit, and similarly this physical body is also meant for others to benefit.”
Like that Caitanya Mahaprabhu says,
bhārata-bhūmite haila manuṣya-janma yāra
janma sārthaka kari’ kara para-upakāra
Translation
“One who has taken his birth as a human being in the land of India [Bhārata-varṣa] should make his life successful and work for the benefit of all other people. (CC Adi 9.41)
We don’t understand how to serve others. Every soul needs the Lord. You should fulfil that demand. Give them Krsna. Give them Gauranga in some form or another. Janma sarthak, then our life will be perfect. Be busy in such welfare activities.
Gaura Premanande hari haribol.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
5 फरवरी 2021
ठीक है, आप कितने हो? 813 आज का स्कोर कह सकते हो।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
तो आप सब कैसे हो? शुभ प्रभात। प्रातः काल अच्छी है तपोदिव्यनाम (ज़ूम पर एक भक्त को संबोधित करते हुए गुरु महाराज कह रहे हैं) आप को जप चर्चा को सुनना चाहिए । यहां कोई गौर निताई का अभिषेक भी कर रहे हैं यह बात अच्छी है। अहमदाबाद में गौर निताई का अभिषेक हो रहा है, इसलिए मुझे स्मरण भी हुआ वैसे भी भूला तो मैं नहीं था। कल ही हम लोचन दास ठाकुर तिथि महोत्सव की जय। कल हमने यह महोत्सव मनाया। हरि हरि। चैतन्य महाप्रभु के साथ ही वे अवतार लिए थे, भक्त भी अवतार लेते हैं अपने भक्तों को साथ में लेकर आते हैं भगवान। जब भगवान अवतरित होते हैं अपने धाम से और यह धाम भी गौरांग महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु की बात हम लोग करते हैं तो वे स्वर्ग से आते हैं यहां पर? स्वर्ग से यहां उतरते हैं नीचे? नहीं स्वर्ग में नहीं रहते हैं भगवान, तो क्या फिर गौर निताई वैकुंठ में रहते हैं? वे वैकुंठ में भी नहीं रहते या जो सर्वोपरि वैकुंठ है और उसके ऊपर और कुछ नहीं है ऐसा वैकुंठ जिसे गोलोक कहते हैं। जहां के निवासी हैं गौरांग और नित्यानंद प्रभु की जय। गोलोक के भी दो विभाग हैं एक है वृंदावन और दूसरा है जिसे श्वेतदीप कहते हैं, वृंदावन में तो एक राधा और एक कृष्ण और कृष्ण और राधा।
लेकिन नवद्वीप में श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नही अन्य वहां पर भी यह गोलोक की बात चल रही है। गोलोक में नवद्वीप है (श्वेतद्वीप है) वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रहते हैं। केवल रहते ही नहीं उनका सारा जीवन और शिक्षाएं, वहां पर सब सदा के लिए चलता रहता है और फिर वहां से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ब्रह्मा के एक दिन में एक बार अवतरित होते हैं और अवतार तो बारंबार संभवामि युगे युगे हर युग में भगवान अवतार लेते हैं। किंतु अवतारी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो ब्रह्मा के एक दिन में एक ही बार प्रकट होते हैं। वैसे पहले श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं ब्रह्मा के एक दिन में एक बार। जैसे 5000 वर्ष पूर्व श्री कृष्ण प्रकट हुए द्वापर युग के अंत में और कुछ 450 वर्ष बीत गए फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं प्रकट हुए। श्रीकृष्ण अवतारी हैं और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी अवतारी हैं अवतार नहीं हैं। यह ज्ञान की बातें तो शाश्वत हैं, किंतु गौड़िय वैष्णव, गौडिय शास्त्र, गौड़िय वाङ्गमय इसको स्पष्ट करता है। यह दुनिया तो अवतारी को अवतार कहती है विष्णु भी अवतार, कृष्ण भी अवतार और फिर चैतन्य महाप्रभु तो पता ही नहीं है। वह हैं कि नहीं या हैं तो वे कैसे हैं? क्या है? क्या कभी वह प्रकट भी होते हैं? शुन्य ज्ञान और जानकारी (इनफाॅरमेशन), ट्रान्सफाॅरमेशन तो भूल ही जाओ इनफॉरमेशन ही नहीं तो ट्रांसफॉरमेशन कैसे होगा? श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु 500 वर्ष पूर्व प्रकट हुए। मुझे यह कहना था वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अवतार लेते हैं और वह अकेले नहीं आते कभी।
भगवान अकेले नहीं आते। जैसे कोई राजा होता है तो राजा अकेला नहीं जाता। राजा के साथ फिर कुछ प्रजा भी जा सकती है। मंत्री जाते हैं, सचिव जाते हैं, अंगरक्षक जाते हैं, रानी भी जा सकती है वैसे और ऐसे श्रील प्रभुपाद समझाते हैं जैसे राजा के साथ फिर राजा का सब पॅराफरनेलिया और उनके सारे परिकर साथ में जाते हैं। वैसे भगवान भी जब प्रकट होते हैं तब वह भी अपने पूरे धाम को भी लेकर आते हैं और वहां के सारे धाम वासियों को भी साथ लेकर आते हैं या फिर यह भी समझ है या सत्य है ही कि वृंदावन नवद्वीप भी शाश्वत है ऊपर भी है दिव्यलोक में। यहां लौकिक जगत में भी उस वृंदावन का, उस नवद्वीप मायापुर का विस्तार है और फिर वह एक दूसरे से अलग नहीं है एक ही है। गोलोकेर वैभव लीला करीला प्रकाश तो गोलोक की वैभव लीलाएं श्रीकृष्ण ने गोकुल में प्रकाशित की । गोलोक और गोकुल दोनों जगह एक ही साथ उनका अस्तित्व है। वैसे ही नवद्वीप या श्वेतद्वीप जो गोलोक में है और इस ब्रह्मांड में है, वैसे इस पृथ्वी पर है ऐसा हम लोग कहते हैं। लेकिन इस पृथ्वी पर नहीं है वह अलग ही स्थिति या उसका स्थान है वृंदावन का कहो या मायापुर का कहो। कहेंगे मायापुर नवद्वीप बंगाल में है तो अपराध हुआ। क्योंकि एक समय जब प्रलय होगा तो बंगाल नहीं रहेगा, यूपी नहीं रहेगी लेकिन वृंदावन रहेगा, मायापुर रहेगा या अयोध्या रहेगी। यह धाम शाश्वत है भगवान अपने स्वधाम गोलोक नाम्नि निज धाम्नि तलैव तस्य गोलोक नामक गोलोक नाम्नि मतलब गोलोक नामक अपने धाम से फिर गोकुलधाम में श्री कृष्ण रूप में प्रकट होते हैं और उसी गोलोक नाम्नि उसी गोलोक के नवद्वीप से फिर यहा वाला इस ब्रह्मांड में जो नवद्वीप है वहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं। फिर अपने परिकरों के साथ से वहां पर प्रकट हो जाते हैं। असंख्य परिवार हैं और उसमें लोचन दास ठाकुर एक हुए जिनका तिरोभाव तिथि हम कल मना रहे थे।
कल हमने सुना उन्होंने चैतन्य मंगल नामक ग्रंथ की रचना की, चैतन्य मंगल की जय। हरि हरि। हमारा जीवन मंगलमय होगा। जब आप ट्रेन से जाते हो तो उसमें लिखा हुआ होता है कि आपकी यात्रा मंगलमय हो। रेल से कभी सफर किया है? या शायद रेल में सफरिंग होता है इसलिए सफर नहीं किया होगा। सफर, सफर समझते हो? सफर मतलब यात्रा ट्रिप। लेकिन फिर सफर (suffer) भी है अंग्रेजी शब्द है हिंदी शब्द है सफर तो कभी-कभी सफर में वी सफर (we suffer) तो फिर हम पुनः सफर नहीं करना चाहते हैं। वहां पर बहुत सफरिंग(suffering) है। वैसे भी…. तो रेलवे में हम यह सुनते रहते हैं आपकी यात्रा मंगलमय हो आप सुने हो सुनो और फिर हमारा जीवन भी एक यात्रा है from womb to tomb अंग्रेजी में कहते हैं। मां के गर्भ से लेकर कहां तक tomb शमशान भूमी तक कहो या समाधि में कहो अगर हमको समाधि में समाधिस्त किया जाएगा। तो womb to tomb . हमारी यात्रा होती है। यात्रा को मंगलमय बनाईए, क्या करना होगा? फिर चैतन्य मंगल का श्रवण गान करना होगा।
उसके साथ और भी ग्रंथ है चैतन्य चरित्रामृत से भी आपकी यात्रा मंगलमय होगी। चैतन्य भागवत है और कौन सा याद है आपको आपने लिख कर रखा या याद रखा और कौन-कौन से ग्रंथ मुरारी गुप्त भी एक ग्रंथ लिखे उसका नाम क्या है? पद्मावती आपको याद है (जूम पर भक्त से गुरु महाराज पूछ रहे हैं) श्री चैतन्य चरित और भक्ति रत्नाकर भी है। तो यह सारे ग्रंथ के अध्ययन सेे, श्रवण से हमारा सारा जीवन और जीवन की यात्रा मंगलमय होगी। आचार्यों ने जो चैतन्य महाप्रभु के साथ प्रकट हुए थे, उन्होंने ऐसे ग्रंथों की रचना की उस रचना करने वालों में से एक व्यास देव भी रहे। चैतन्य भागवतेर व्यास वृंदावन दास चैतन्य भागवत ग्रंथ के रचयिता साक्षात श्री व्यास देव वृंदावन दास ठाकुर के रूप में प्रकट हुए। लेकिन थे वे व्यास देव, कृष्ण प्रकट हुए फिर व्यास देव भी प्रकट हुए। श्रीकृष्ण प्रकट हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नाम से और श्रील व्यास देव प्रकट हुए वृंदावन दास ठाकुर केेे नाम से। व्यास देव जब वो थे श्री कृष्ण लीला के व्यास। वैदिक वाङ्गमय की या श्रीमद् भागवत के रचयिता। किंतु वही व्यास जब वृंदावन दास बने 500 वर्ष पूर्व तो उन्होंने चैतन्य भागवत की रचना की श्रीमद् भागवत, चैतन्य भागवत दोनों के रचयिता एक ही हैं, श्रील व्यास देव। यह सब ग्रंथ इसीलिए लिखे हैं ताकि हम एक दिन पढ़ेंगे यह कृपा उन संतों की, उन भक्तोंं की महाप्रभुु के परीकरों कि है और यह कृपा वैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की है, तो यह कृृृपा प्रसाद यह सारे ग्रंथ। आपको भूख लगी है? आप का मतलब आपकी आत्मा को भूख लगी है कि नहीं? हां हां आनंदप्रदा माता जी की आत्मा को तो भूख लगी है
दर्शन दो घनश्याम मेरी अखियां प्यासी रे
आप कैसे हैं आत्मा को जब लगती है भूख और प्यास तब हम को खिलाना चाहिए आत्मा को खिलाना चाहिए आत्मा को पिलाना चाहिए। यह चैतन्य लीला को पिलाइए, चैतन्य चरितामृत का पान कीजिए, चैतन्य भागवत का पान कीजिए, चैतन्य मंगल का पान कीजिए। हरि हरि। जहर को नहीं पीना हरि हरि। कृष्ण चैतन्य।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु
मनुष्य जन्म तो मिला लेकिन राधा कृष्ण का भजन नहीं किया, श्रीमद् भागवत, चैतन्य भागवत का पान नहीं किया तो क्या किया? जानिया शुनिया.. हां सुनो ( ज़ूम पर सोते हुए भक्तों को जगाते हुए महाराज कह रहे हैं) जीव जागो जीव जागो गौराचांद बोले आपका मन शट ऑफ स्विच शॉर्ट सर्किट हो गया। कुछ सो रहे हैं तो कैसे पान होगा? हम तो कह रहे हैं पान करो, पान करो, खान-पान और आप हो कि अपने मुख बंद कर रहे हो, अपने कान बंद कर रहे हो। वैसे कई बार हम पदयात्रा में जाते हैं या नगर कीर्तन में जाते हैं तो कहते हैं बोलिए हरे कृष्ण। पता है लोग क्या करते हैं उसमें से कुछ लोग क्या करते हैं जब हम कहते हैं कि हरे कृष्ण बोलो तो उनका मुख अगर खुला भी था हरे कृष्ण बोलो बोलते ही बंद हो जाता है, कि गलती से हमसे हमारे मुख से यह हरे कृष्ण ना निकले सावधान। तो हमें अपना मुख, अपना कान और सारी इंद्रियां वैसे खोल के रख सकते हैं। ताकि क्या हो जाए ऋषिकेन ऋषिकेश सेवनम भक्तिर उच्चते हम भक्ति करेंगे सारे इंद्रियों के साथ हम भक्ति करेंगे। हम सारे इंद्रियों का उपयोग करेंगे भगवान के इंद्रियों की सेवा में, भगवान के विग्रहो की सेवा में हम अपने इंद्रियों का उपयोग करेंगे। श्रवण से शुरू करेंगे कान से या सेवोन्मुखे ही जिव्हादो ऐसे भी कहा है भक्ति कहां से प्रारंभ होती है सेवोन्मुखे ही जिव्हादो जिव्ह-आदो शुरुआत कहां से करो जिव्हा से शुरुआत करो।
श्रीकृष्ण नामादि न भवेद् ग्राह्यंमिन्द्रियैः आप जब पढ़ोगे तो क्या समझ में आएगा, क्या कहा है। श्रीकृष्ण नाम आदि कहने वाले लिखने वालों को और कुछ कहना होता है। लिखना होता है। लेकिन इतना ही लिखेंगे बस श्रीकृष्ण नामादि, आदि मतलब इत्यादि।
श्रीकृष्ण नामादि न भवेद् ग्राह्यंमिन्द्रियैः हमारे जो इंद्रियों कलुषित दूषित इंद्रिय या अपूर्ण इंद्रिय नभवेत ग्राह्यं इंद्रियात भगवान को हम नहीं जान सकते। श्रीकृष्ण नाम आदि मतलब श्रीकृष्ण के नाम के साथ नाम, रूप, लीला, गुण, धाम यह सब कहने के बजाए फिर श्रीकृष्ण नाम आदि कह दिया। यह समझने की कोशिश करो। हरिबोल ऐसा भी कुछ सीखो। आप जब पढ़ोगे तो यह कुछ नुस्खे हैं हम दे रहे हैं। श्रीकृष्ण नामादि नभवेत ग्राह्यं इंद्रिय श्रीकृष्ण नामादि यहां श्रीवास आदि गौर भक्त वृंद मतलब श्रीवास और यह भक्त वह भक्त श्रीवास आदि। वैसे नाम आदि मतलब जो समूह है, नाम, रूप, गुण, लीला, धाम यह सब समझ में नहीं आएगा आपको मगर आप शुरुआत कर सकते हो। कहां से शुरुआत करोगे? सेवोन्मुखे हि जिव्हादौ जिव्हासे शुरुआत करो, कहां है। स्वयंमेेेव स्फुरत्यदः फिर स्वयं भगवान प्रकट होंगे।
जिव्हासे शुरू करो। जिव्हा से क्या करो? जिव्हा के दो काम है एक खाने का और दूसरा बोलने का। प्रभुुपाद कहा करते थे नाचो गाओ खाओ। कृष्णभावना इतनी सरल है करो नाचो गाओ खाओ। मनुुप्रिया पुलकित हो गई, वह तो होगा ही। अब क्या करो नाचो गाओ खाओ। जिव्हा सेे शुरुआत करो, भक्ति की। और फिर ऐसा प्रचार भी हो सकता है कैसेेे प्रचार करना, कैसे औरों को समझाना। जिव्हासे क्या क्या करोगे पहले, आधी पोटोबा नंतर विठोबा ऐसे मराठी लोग कहते हैं। आधी पोटोबा यह पेट जो है वह भी एक बा है। आधी पोटोबा नंतर विठोबा। खाली पेट क्या नहींं होता, भगवान का भजन खाली पेट नहीं होता, ऐसा कुछ लोग कहते हैं लेकिन पेट इतना भर देते हैं की फिर नींद ही आती है। भजन भोजन के बिना नहीं होता है कहते कहते भोजन पा लेते हैं। सेई अन्नामृत धन पाओ फिर… हरि हरि अच्छा पहले हम कीर्तन करें भजन करें या फिर प्रभुपाद कहते हैं नाचो गाओ और फिर खाओ, ऐसा कुछ करते रहो आप गाते रहो। नाचते रहो। फिर कथा सुनो सुनाओ बैठो और फिर चैतन्य मंगल चैतन्य भागवत और फिर हो जाए महाप्रसादे गोविंदे। वैसे कोई भी आध्यात्मिक कार्यक्रम तब तक पूरा नहींं होता जब तक प्रसाद वितरण ना हो। फिर यहां आपका हक है। हक सेे मांगो प्रसाद कहां है। फिर यहां आपका हक है, कुछ मेहनत करो भगवान के लिए, कथा करो कीर्तन करो फिर भूख भी लगेगी फिर खाओ और फिर यहां हजम भी होगा। बैठेेेे रहोगे, खाते रहोगे तो हजम नहीं होगा, इसका पचन नहीं होगा। नाचो दौड़ो।
हरि हरि, श्री श्री गौर निताई की जय!
वन्दे श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानन्दौ सहदितौ।
गौडोदये पुष्पवन्तौ चित्रो शन्दो तमो नुदो।।
अनुवाद: मैं सूर्य तथा चंद्रमा के समान श्रीकृष्ण चैतन्य तथा भगवान नित्यानंद दोनों को सादर नमस्कार करता हूं। वह गौड़ के क्षितिज पर अज्ञान के अंधकार को दूर करने तथा आश्चर्यजनक रूप से सब को आशीर्वाद प्रदान करने के लिए एक साथ उदय हुए हैं।
यह प्रार्थना आप याद रखो याद करो। चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु के चरणारविंद चरण कमलों में उनके चरण आपके मेरे जैसे नहीं है। कमल है, कमल सदृश्य हैं, शाश्वत हैं।
हरि हरि, इस प्रार्थना को भी सीखो कंठस्थ करो। चैतन्य चरित्रामृत में आपको मिलेगा।
वन्दे श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानन्दौ सहदितौ।
गौडोदये पुष्पवन्तौ चित्रो शन्दो तमो नुदो।।
हम इतना भी धीरे-धीरे नहीं बोलेंगे आप लिख रहे हो। इस प्रणाम मंत्र को सची माताजी लिख लेना चाह रही है। ढूंढो या लिख लो आप के हिसाब से करो। कुछ प्रश्न या विचार हो तो आप कह सकते हो। नहीं है तो, हरे कृष्ण महामंत्र का जप करो और सुखी हो जाओ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे हरे।।
पद्मामाली प्रभु: किसी को कोई प्रश्न या विचार है तो वह कह सकते हैं इस प्रवचन से संबंधित। वैसे कोई प्रश्न तो नहीं होता है गुरु महाराज ने आज जप चर्चा में आदेश उपदेश बताएं हैं, फिर भी किसी का कोई प्रश्न है तो आप पूछ सकते हैं।
गुरु महाराज: श्रवणादि शुद्ध चित्त करय उदय श्रवण आदि कह दिया श्रवणादि शुद्ध चित्त करय उदय हमारा चित्त शुद्ध होता है, क्या-क्या करने से? श्रवण आदि। श्रवण आदि मतलब क्या, श्रवण करना, कीर्तन करना। अभी पढ़ोगे कहने वाले क्या क्या कहते हैं। उनके मन में क्या-क्या होता है। श्रवण, कीर्तनम, विष्णु स्मरणम, पादसेवनम, अर्चनम, दास्यम, साख्यम यह जो नवविधा भक्ति है इसका उल्लेख करना होता है। लेकिन क्या होता है, श्रवणादि शुद्ध चित्ते करय उदय ऐसे आदि का उपयोग होता है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे हरे।।
वन्दे श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानन्दौ सहदितौ
गौडोदये पुष्पवन्तौ चित्रो शन्दो तमो नुदो
वन्दे मतलब प्रणाम होता है। लेकिन इस श्लोक में जो वंदे कहा है वह यह है अहम वंदे। मैं वंदना करता हूं। यह भी समझ में आना चाहिए वंदे लिखा है, लेकिन उसमें अहम छिपा हुआ है। अहम मतलब क्या मैं वंदना करता हूं। अहम वन्दे में वंदना करता हूं। इसमें लिखा है, किसने किसकी वंदना करनी है। वन्दे श्रीकृष्ण चैतन्य…
आप कईयों के घर में भगवान आकर विराजमान हैं गौर निताई के रूप में। उनको प्रार्थना कर सकते हो। प्रणाम कर सकते हैं इस मंत्र के उच्चारण के साथ। श्रीश्री गौर निताई की जय! इतना तो कह दिया इतना तो आता है। यह एक प्रणाम मंत्र ही है, वंदना है। और उसको तो समझ भी सकते हैं। क्या क्या कहा जा रहा है। वन्दे श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानन्दौ सहदितौ मैं प्रणाम करता हूं। वंदना करता हूं, श्रीकृष्ण चैतन्य वंदे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की वंदना करता हूं और नित्यानन्दौ सहदितौ जो नित्यानंद के साथ उदित हुए और प्रकट हुए। अतः मैं दोनों की वंदना करता हूं। गौरांग महाप्रभु की और नित्यानंद प्रभु की. वन्दे श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानन्दौ सहदितौ
गौडोदये कहां प्रकट हुए, गौडोदये गौड़ देश में बंगाल को गौड़ देश कहां
है। पंचगौड़ हैैैै और पंच द्रविड़ भी है। दक्षिण भारत को पंचद्रविड़ कहते हैं। वहां पांच द्रविड़ है। उत्तर भारत मैंं पंचगौड़ है। उसमें से एक गौड़ है, गौड बंगाल।
गौडोदये मतलब उस गौड़ देश में बंगाल में। चित्रो शन्दो तमो नुदो चित्रो मतलब यह बड़े अद्भुत हैं। अद्भुत है यह चित्र विचित्र है। शन्दो शम मतलब शांति। शम मतलब एक धातु है संस्कृत में, इसका अर्थ है शांति। शांति से उसका संबंध है। शमः दमः तपः शौचं भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है। शमः दमः तपः शौचं शम से होती है शांति। तो शम जो कहा है दो शम शांति दो देना। और दौ कहा क्यों कहा, शांति देने वाले दो हैं, इसलिए शब्द दौ कहा है। चित्रों भी है और जो हे रामः रामौ द्विवचन में औ जाता है।
चित्रो शन्दो तमो नुदो मतलब अंधकार। यह दोनों अंधकार से मुक्त करते हैं सारे जगत को। सारे जगत को शांति देने वाले शन्दो और यह संसार का अंधकार नष्ट करने वाले यह तमो नुदो। ऐसे है चित्र विचित्र अद्भुत गौर निताई की जय! अच्छा है, अगर हम यह प्रार्थना गाते हैं, करते हैं। या पढ़ कर समझ सकते हैं और फिर भाव के साथ प्रार्थना भावपूर्ण होगी। अर्थ समझकर अर्थपूर्ण भावार्थ समझो. हरि हरि, कोई प्रश्न तो नहीं है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
5 February 2021
Make your life journey pleasant by studying scriptures
Hare Krishna!
We have devotees chanting from 814 locations. How are you all? Such a beautiful morning, now we will listen to the talk. I can see in Ahmedabad that Gaura Nitai Abhishek is taking place in a devotee’s home.
Yesterday we celebrated the disappearance day of Lochana Dasa Thakur, He was a close associate of Lord Caitanya. The associates of the Lord descend with the Lord to this earth, does the Lord descended from heaven? No, then did they descended from Vaikuntha? No, they descend from Goloka Vrindavan, the highest planet of the universes. There are two divisions of Goloka, one is Vrindavan and the other one is Svetadvipa, Navadvipa. In Goloka Vrindavan Lord Kṛṣṇa and Srimati Radharani perform Their pastimes and in Goloka Navadvipa, Sri Krsna Caitanya (sri krsna caitanya radha krsna nahi anya) resides with His associates and carries out His pastimes. From that Goloka Navadvipa, the avatari Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu appears once in a day of Brahma on this planet, just like Lord Kṛṣṇa appeared once in a day of Brahma 5000 years ago at the end of Dvapara yuga. 4500 years later Lord Caitanya Mahaprabhu appeared. These two personalities are the Lord. They are not expansions of the Lord. This knowledge is not given by Gaudiya literature, it is eternal. The world says Kṛṣṇa is an incarnation of Lord Viṣṇu which is the wrong information. How can there be a question of transformation? There is zero knowledge about the Supreme Lord.
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu appears, but He never comes alone. Just like a king is never alone, He is always accompanied by queens, ministers, soldiers, bodyguards. This is what Srila Prabhupada makes us understand, when the Lord appears, He brings His entire paraphernalia, dhama along with Him.
Vrindavan and Navadvipa are non different eternally in Goloka and we see their extension here on this planet, golokera vaibhava lila karila prakash. The pastimes of Goloka Vrindavan were manifested in Gokula by Lord Kṛṣṇa. Goloka and Gokula exist eternally. Similarly Navadvipa exists in Goloka and its extension is manifested here on this earth planet, but it is an offence to say that Navadvipa is in Bengal or Vrindavan is in Uttar Pradesh, because the holy places are transcendental and will remain even after the annihilation of the world as they are eternal.
Goloka-nāmni nija-dhāmni tale ca tasya
devi-mahesha-hari-dhamasu teshu teshu
te te prabhava-nichaya vihitash cha yena
govindam adi-purusham tam aham bhajami
Translation : Lowest of all is located Devi-dhama [mundane world], next above it is Mahesa-dhama [abode of Mahesa]; above Mahesa-dhama is placed Hari-dhama [abode of Hari] and above them all is located Krishna’s own realm named Goloka. I adore the primeval Lord Govinda, who has allotted their respective authorities to the rulers of those graded realms. (Brahma Samhita text 16)
Lord Kṛṣṇa appears from Goloka Vrindavan to Gokul dhama and Lord Caitanya along with His associates appear from Goloka Navadvipa to Svetadvipa, the earthly planet. Lord Kṛṣṇa’s associates are numerous and one of the members is Lochana Dasa Thakur whose disappearance day was celebrated yesterday. He compiled the Vedic literature known as Caitanya Mangal.
May your journey be pleasant! We wish people travelling by train well. We wish them well because we don’t want them to suffer during the journey. Similarly life is also a journey from ‘womb to tomb’. From the mother’s womb to wherever we will be cremated after leaving the body. To make our life journey pleasant we must read and listen Caitanya Mangal, Caitanya-caritamrita and Caitanya Bhagavata. Murari Gupta also wrote a book, Caitanya Carita and Bhakti Ratnakar. By reading these Vedic literatures our life journey will be pleasant.
One of the authors was Srila Vyasa deva who incarnated as Vrindavan Dasa Thakur and wrote the literature known as Caitanya Bhagavata. When Sri Kṛṣṇa appeared as Lord Caitanya Mahaprabhu, Vyasa deva also appeared as Vrindavan Dasa Thakur 500 years ago. The compiler of Srimad Bhagavatam and Caitanya Bhagavata is one. These scriptures are the mercy on us and we should aspire so that we may read them someday.
Are you hungry? ‘You’ means your soul. There is a song. “Please show me a glimpse of Your beautiful form Oh Ghanshyama! My eyes are longing to see You O Lord!” Drink the nectar of Caitanya Bhagavata, Caitanya Mangal! Don’t drink poison.
hari hari! bifale janama gonainu
manushya-janama paiya,
radha-krishna na bhajiya,
janiya suniya visha khainu
Translation : 0 Lord Hari, I have spent my life uselessly. Having obtained a human birth and having not worshiped Radha and Krishna, I have knowingly drunk poison. (Prayer to One’s Beloved Lord (from Prarthana) Text 1)
jiv jago, jiv jago, gauracanda bole
kota nidra jao maya-pisacira kole
Translation : Lord Gauranga is calling, “Wake up, sleeping souls! Wake up, sleeping souls! How long will you sleep in the lap of the witch called Maya?
(Jiva Jago Jiva Jago Text 1)
How will you drink the nectar if your mouth and ears are closed. On Padayatra when people are asked to chant the holy name, they immediately close their mouths tightly so that by mistake also their mouth will not utter the Lord’s name. So unfortunate!
sarvopādhi-vinirmuktaṁ
tat-paratvena nirmalam
hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa-
sevanaṁ bhaktir ucyate
Translation : ‘Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and one’s senses are purified simply by being employed in the service of the Lord.’
(CC Madhya 19.170)
We will engage all our senses in the service of the Supreme Lord Kṛṣṇa starting from ears.
ataḥ śrī-kṛṣṇa-nāmādi
na bhaved grāhyam indriyaiḥ
sevonmukhe hi jihvādau
svayam eva sphuraty adaḥ
Translation : ‘Therefore material senses cannot appreciate Kṛṣṇa’s holy name, form, qualities and pastimes. When a conditioned soul is awakened to Kṛṣṇa consciousness and renders service by using his tongue to chant the Lord’s holy name and taste the remnants of the Lord’s food, the tongue is purified, and one gradually comes to understand who Kṛṣṇa really is.’ (CC Madhya 17.136)
Devotional Service begins with the tongue. śrī-kṛṣṇa-nāmādi means Krsna’s names, form etc, adi means etcetera like we say in ‘srivasa adi’- addressing other devotees.
Srila Prabhupada says, sing, dance and eat. The tongue does two jobs. one is eating and the other is speaking. Start your devotion by using the tongue. This way you can start preaching. In Maharashtra there is a proverb ‘adhi potoba nantar vithoba’, [the belly needs to be fed first in order to perform devotional service.] If you overeat then you might go to sleep, so it’s better to do kirtan first, dance and then eat. Read and hear the glories of the Lord Caitanya Mahaprabhu, dance, run and you can have prasada in the end. Work hard for the Lord then you feel hungry and by eating you can digest. Only sitting and eating will not digest the food, get up and run.
vande śrī-kṛṣṇa-caitanya-
nityāndandau sahoditau
gauḍodaye puṣpavantau
citrau śandau tamo-nudau
Translation : “I offer my respectful obeisances unto Śrī Kṛṣṇa Caitanya and Lord Nityānanda, who are like the sun and moon. They have arisen simultaneously on the horizon of Gauḍa to dissipate the darkness of ignorance and thus wonderfully bestow benediction upon all.” (CC Ādi 1.2)
Please memorise this prayer to dedicate at the lotus feet of Caitanya Mahaprabhu and Nityanand Prabhu. It’s found in Caitanya-caritamrta.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
4 फरवरी 2021
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज 807 स्थानों से अभिभावक जप कर रहे हैं। हरि बोल!
हरेर्नामैव केवलम् और कीर्तनीय सदा हरि,अहैतुकी अप्रतिहता के अंतर्गत हम प्रति दिन जप करते हैं। सुनो अभी श्वेत मंजरी! (उपस्थित भक्तों में से एक भक्त को संबोधित किया।) पहले जप कर रहे थे अब जपा टॉक हो रहा है। टॉक सुनना है, जप के समय हम स्वयं जप करते हैं और सुनते हैं और टॉक के समय इस जपा टॉक में मैं कहता हूँ और आप क्या करते हो? सुनते हो। हरि हरि! यह कहने में हमारा आधा मिनट चला गया। जप करते रहिए! प्रतिदिन जप करते रहिए! यह ही विधि है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, 6.242)
अनुवाद:-इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है ।
और कीर्तनिया सदा हरि भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कीर्तन कब-कब करें? कीर्तन सब समय करें! ये स्वयं भगवान ने कहा…
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय…!
वे स्वयं भी ऐसा ही करते थे।
अष्टादश-वर्ष केवल नीलाचले स्थिति ।आपनि आचरि’ जीवे शिखाइला भक्ति ॥ (चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, 1.22)
अनुवाद: -श्री चैतन्य महाप्रभु अठारह वर्षों तक लगातार जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने अपने खुद केआचरण से सारे जीवों को भक्तियोग का उपदेश दिया।
आपनि आचरि’ जीवे शिखाइला भक्ति ॥ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने आचरण से सारे संसार को यह बात सिखाई जप करो! जप यज्ञ करो! प्रतिदिन करो! प्रातःकाल सर्वोत्तम काल है जप के लिए, ध्यान के लिए, भगवद स्मरण के लिए। यह ब्रह्म मुहुर्त या प्रातः कालीन समय , अगर भक्तों के संग में हम जप कर सकते हैं और भी भक्त जप कर रहे हैं, ध्यान में और मदद होती है और मैं भी आप के साथ जप कर रहा हूँ, लंबे समय से ऐसे संग से ही मदद होती है।
सूत उवाच यं ब्रह्मा वरुणेन्द्रुब्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-बैदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
(श्रीमद्भागवत 12.13.1)
अनुवाद :-सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद-क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने को
समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता-ऐसे भगवान् को में सादर नमस्कार करता हूँ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो योगी बनने में या भक्ति योगी बनने में और ध्यान करने में गुरुजनों का सानिध्य, वैष्णवों का सानिध्य अति उपयोगी है ये कई सारे फायदे हैं। जप करते समय भी हमें
‘साधु-सङ्ग’, ‘साधु-सङ्ग’- सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र ‘ साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय।।
(श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.54)
अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।
जप के समय भी हमें संत-समागम प्राप्त हो रहा है इसी से सर्व-सिद्धि हय ये मंत्र सिध्दी भी है। इस श्रवण कीर्तन का फल है वह , जल्द प्राप्त होगा। गौरांग अनुकूल परिस्थिति में जप करते हैं या इस अनुकूल परिस्थिति का फायदा उठाते हैं।हरि हरि!
वैसे आज भी एक तिरोभाव तिथि महोत्सव है। वैष्णव कलदर्शिका (कैलेंडर) को आप देखते या पढ़ते जाइए। गौडिय वैष्णव इस्कॉन कैलेंडर प्रकाशित होता है, उपलब्ध है, उसको प्राप्त कीजिये और पता लगवाते रहिये; अलग अलग वैष्णवों कि तिथियाँ। आज एक वैष्णव तिथि है। आज श्रील लोचन दास ठाकुर का तिरोभाव तिथि महोत्सव कि जय…!
हरि हरि!
हम गौडिय वैष्णव बड़े भाग्यवान हैं। इतने गौडिय वैष्णव हैं भी और रहे भी और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के परिकर के रूप में प्रकट हुए और चैतन्य महाप्रभु कि समकालीन और कुछ समवयस्क भी रहे। जो गौड़ीय वैष्णव और उनकी संख्या वे असंख्य हैं उनके संग से और उनका संग कैसे प्राप्त कर सकते हैं, हम उनके चरित्र का थोर महात्मे होउन गेले चरित्र त्यांचे पहा जरा उनके चरित्र को हम सुनते, पढते हैं तो उनसे हम प्रेरित होते हैं। उनकी लाइफ एंड टीचिंग्स से हम लाभान्वित होते हैं। इसिलिए केवल भगवान का ही चरित्र चैतन्य चरितामृत, श्रीमद्भागवतम् ही नहीं पढ़ना है इन संतों के चरित्र का अध्ययन करना अनीवार्य है हमारे लिए क्वौलिटी व्हाइज जैसे चैतन्य चरितामृत कि क्वौलिटी और इन संतों कि गौड़ीय वैष्णव भक्तों का जो चरित्र है उसकी क्वौलिटी एक ही है। हरि हरि!
वैसे भगवान का चरित्र या भगवान कि लीला उनके परीकर, उनके पार्षद, उनके भक्तों के बिना तो अधूरी है। लीला संपन्न नहीं हो सकती अगर भक्त ही नहीं है क्योंकि उनके साथ भगवान को लीला खेलनी है लीला संपन्न करनी है तो भक्त है तो लीला भी होगी। हरी हरी!
लोचन दास ठाकुर ऐसे आचार्य रहे इनका आज तिरोभाव महोत्सव मना रहे हैं ।सन1618 में आज के दिन उनका तिरोभाव हुआ। उनका जन्म हुआ था इ. सन 1520 में लोचन दास ठाकुर 98 साल इस धरातल पर रहे। इनका जन्म काटवा के पास एक छोटासा ग्राम है। वहा के जन्मे वो गाँव है काटवा जहा चैतन्य महाप्रभु ने जब वह 24 वर्ष के थे, तभी उन्होंने संन्यास लिया कटवा में गंगा के तट पर उसके पास में ही एक गांव है; वहां जन्म हुआ लोचन दास ठाकुर जी का, बाल अवस्था से ही प्रेम था श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मे, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं में, उनसे आसक्त थे और होंगे भी क्यूँ नहीं चैतन्य महाप्रभु अपनी प्रगट लीला उन दोनों में जगन्नाथ पुरी में खेल रहे थे। वहाँ बंगाल में लोचन दास ठाकुर जन्मे हैं। अपने गाँव से फिर वो श्रीखंड! खाने वाला श्रीखंड नहीं; श्रीखंड नाम का एक स्थान है। वे वहाँ पर गये और उनको वहाँ नरहरी सरकार के सानिध्य का लाभ हुआ। नरहरी सरकार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के परिकर थे।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य का जिन को लाभ हुआ था ये नरहरी सरकार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ श्रीवास आंगन में जो कीर्तन हुआ करता था, उसमे पूरी रात भर कीर्तन किया, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने पंचतत्व के सदस्य हैं श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु, नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृंदो के साथ भी और गौर भक्तों के साथ भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन प्रारंभ किया श्रीवास आंगन में तो वहाँ नरहरि सरकार उस कीर्तन में रहा करते थे।
कभी-कभी ऐसा भी वर्णन हम पढ़ते हैं कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नरहरी सरकार को एक हाथ से पकड़े और दूसरे हाथ से पकड़े हैं श्रीवास ठाकुर को , जिनके आंगन में कीर्तन हो रहा है और इन दोनों ने औरों के हाथ पकड़े हैं। वहाँ कीर्तन हो रहा है नृत्य हो रहा है जैसे रास क्रिडा में वृंदावन में कृष्ण कीर्तन करते थे, नृत्य करते थे गोपियों के साथ; उस भाव में एक दूसरे के हाथ पकड़े हुए नरहरी सरकार। ऐसे नरहरि सरकार को स्वीकार किया लोचन दास ठाकुर ने अपने गुरु के रूप में । विशेष कृपा रही नरहरी सरकार की, वैसे एक नरहरि सरकार हैं और दूसरे एक नरहरी चक्रवर्ती भी हैं। नरहरि सरकार चैतन्य महाप्रभु के समकालीन रहें। नरहरि चक्रवर्ती बाद में हुए जब विश्वनाथ चक्रवर्ती थे। उस समय नरहरी चक्रवर्ती थे लेकिन हम नरहरि सरकार कि बात कर रहे हैं। नरहरी सरकार के शिष्य बने लोचन दास ठाकुर। लोचन दास ठाकुर विख्यात हैं उन्होंने जो चैतन्य मंगल ग्रंथ कि रचना की चैतन्य मंगल ग्रंथ के लेखक रहे ।
नरहरी सरकार के शिष्य लोचन दास ठाकुर उन्होंने प्रेरणा प्राप्त कि श्रीचैतन्य चरित्र नाम के ग्रंथ से जिसकी रचना मुरारी गुप्त ने की, ये मुरारी गुप्त तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मायापुर में रहते थे। चैतन्य महाप्रभु के समकालीन समवयस्क थे, स्थान भी वही है उन्होने चैतन्य चरित्र नामक ग्रंथ संस्कृत में लिखा है। चैतन्य महाप्रभु कि लीलाओं को दिनभर वह देखते, उस लीला के संबंध में सुनते जब वे स्वयं वहां नहीं थे किसी प्रसंग में, स्वयं भी मुरारी गुप्त संग हुआ करते थे या चैतन्य महाप्रभु मुरारी गुप्त के साथ या मुरारी गुप्त के घर में भी जाते थे, चैतन्य महाप्रभु से खूब मिलना जुलना होता था मुरारी गुप्त का; इन्ही मुरारी गुप्त ने श्री चैतन्य चरित नाम के ग्रंथ की रचना कि; जिनको चैतन्य महाप्रभु का अंग संग प्राप्त था। ऐसे मुरारी गुप्त ने लिखे हैं चैतन्य चरित्र ।इसी ग्रंथ से प्रेरणा प्राप्त कि लोचन दास ठाकुर ने और उन्होंने स्वयं ही चैतन्य मंगल नामक ग्रंथ कि रचना कि, ये बडा ही रसात्मक है। रसभरा ये ग्रंथ है। चैतन्य मंगल, मांगल्य पूर्ण ग्रंथ है ये चैतन्य मंगल। उसके चार विभाग है 1)सूत्र खंड,2) आदि खंड, 3)मध्य खंड, 4) शेष खंड; ऐसे नाम दिए हैं; चार खंडो में विभाजित है चैतन्य मंगल। वैसे नाम तो दे दीए हैं चैतन्य मंगल, लेकिन वृंदावन दास ठाकुर ने गौर भागवत कि रचना की थी, चैतन्य भागवत में, वृंदावन दास द्वारा चैतन्य मंगल और लोचन दास ठाकुर द्वारा चैतन्य मंगल, फिर वृंदावन दास द्वारा लिखे गये ग्रंथ का नाम चैतन्य भागवत दिया गया। हरि हरि!
हम कितने भाग्यवान हैं, अच्छा होता कि हम भी होते जब चैतन्य महाप्रभु हुए। अगर हम भी होते उनके साथ कितना बढ़िया होता। हमारे भाग्य का कितना उदय होता, अगर चैतन्य महाप्रभु के समकालीन हम भी होते। वैसे उस समय अगर हम होते तो, अब हम नहीं होते। उस समय तो हम नहीं थे । पर न जाने कहां थे? या किस योनि में थे? मनुष्य योनि में भी थे तो
भ.ग 7.19
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || (श्रीमद भगवद्गीता 7.19)
अनुवाद: अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |
बहुत जन्म जन्मांतरों के उपरांत व्यक्ति को पता चलता है, क्या पता चलता है?
कि वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ है तो हमारा चल रहा था बहूनां जन्मनामन्ते जन्म ले रहे थे ,मर रहे थे।
मनुष्य भी थे तो नास्तिक हो सकते थे। हमारा भगवान में विश्वास नहीं होता। अरे किसने देखा है भगवान को? दिखाओ कहां है भगवान? ऐसे कहने वाले। मुझे जरूरत नहीं भगवान की या हम काली पूजा या ऐसी पूजा में लगे हो सकते थे। चैतन्य महाप्रभु के समय भी लोग काली पूजा में लगे थे या हो सकता है कि हम भी दुर्दैव से ऐसे कर्मकांड या ज्ञान कांड में तल्लीन थे ।
श्री प्रेम भक्ति चंद्रिका 8.8
कर्म कांड ,ज्ञान कांड केवल *विशेषर भांड
खुद जहर भी पी रहे थे ज्ञान कांड और कर्मकांड का या मायावदी थे, हम निर्गुण निराकार वादी थे। 500 वर्ष पूर्व हम थे तो सही , 500 वर्ष क्या, बल्कि ऐसा समय नहीं था जब हम नहीं थे ,ऐसा श्री कृष्ण ने भगवद गीता में कहा, कि ऐसा समय नहीं था जब हम नहीं थे और ऐसा समय नहीं होगा जब हम नहीं होंगे।
क्योंकि हम हैं
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। (श्रीमद भगवद्गीता 15.7(
अनुवाद: इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
जीव सनातन है। दुर्दैव से हम चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं में प्रवेश नहीं कर पाए या हमारा संपर्क नहीं हुआ। परंतु अब तो संपर्क में आ चुके हैं।
महाप्रभु ने अपने ही कुछ परिकरों को प्रेरित करके ग्रंथ लिखवाए हैं, और उन ग्रंथों का जब हम श्रवण ,कीर्तन करते हैं यह जो 500 वर्ष की जो दूरी है वह भर जाती है। इन ग्रंथों के अध्ययन से जैसे *चैतन्य चरित, मुरारी गुप्ता का, चैतन्य भागवत ,वृंदावन दास ठाकुर का,चैतन्य चरितामृत, कृष्णदास कविराज गोस्वामी का, चैतन्य मंगल, लोचन दास ठाकुर का भक्ति रत्नाकर जो कि बाद में लिखा गया नरहरि चक्रवर्ती का, यह जो ग्रंथ रत्न है इसमें श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नाम, रूप, गुण ,लीला, धाम औऱ परिकरों का वर्णन है । आज भी उन ग्रंथों का पठन-पाठन ,श्रवण कीर्तन करके हम चैतन्य महाप्रभु को प्राप्त कर सकते हैं।
अद्यपिह सेई लीला करे गौर राय,कोना कोना भाग्यवान देखिबारे पाये
(भक्तिविनोद ठाकुर,नवद्वीप माहात्म्य प्रमाण खंड)
आज भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु लीला खेल रहे हैं और कोई कोई भाग्यवान जीव ही इन लीलाओं को देख सकते हैं। ऐसे वचन जब हम सुनते हैं तो ऐसा लगता है कि जब हम नवद्वीप जाएंगे और यदि हम भाग्यवान हुए तब वहां जो गौरांग महाप्रभु लीला खेल रहे हैं वह हम भी दर्शन करेंगे। आज भी इस संसार में, या नवद्वीप धाम में, या पंढरपुर में महाप्रभु लीला खेल रहे हैं। कोई कोई भाग्यवान जीव ही उसे देखता है । मैं सोच रहा था यह जो ग्रंथ है ,इन ग्रंथों का अध्ययन करके हम भाग्यवान बन सकते हैं।
ब्रह्मांड भ्रमित कोनो भाग्यवान जीव गुरु कृष्णप्रसादे पाये भक्ति लता बीज
(चै. चै मध्य लीला 19.151)
अनुवाद: सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्मांड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह मंडलों को। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण कथा और गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है।
लोचन दास ठाकुर जी हमारे गुरु हैं। गौरांग महाप्रभु हमें लोचन दास ठाकुर के चैतन्य मंगल के पास पहुंचा देंगे। फिर हम लोचन दास ठाकुर से सुन सकते हैं कि भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम और परिकरों के बारे में, और फिर उन पृष्ठों को पढ़ते पढ़ते हम लीलाओं को देख भी सकते हैं। या फिर शास्त्रों के वाङ्गमय अर्थात वाक्यों से भरे हुए।। जैसे की मराठी वाङ्गमय या गौड़िया वैष्णव वाङ्गमय। चैतन्य चरितामृत या चैतन्य मूर्ति है , भगवान मूर्तिमान बनते हैं या इन वाक्यों से रूप धारण करते हैं। वाक्य वर्णन करते हैं, किसी दृश्य का, व्यक्ति का ,स्थान का, या गुण का। वह अपना रूप धारण करते हैं और फिर हम दर्शन कर सकते हैं, और यही विधि है भगवत दर्शन की। फिर हम जब कहते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे सारे शास्त्र की वाणी इस महामंत्र में भरी हुई है। नाम में ही है रूप, रूप में ही है गुण, और ऐसे गुणवान भगवान ही लीला खेलते हैं अपने परिवारों के साथ धाम में। ऐसा साक्षात्कार संभव है जब हम पठन-पाठन, श्रवण- कीर्तन करते हैं। ग्रंथों का पठन मतलब श्रवण हुआ और पाठन मतलब कीर्तन हुआ। पढ़ना और पढ़ाना ।पढ़ना मतलब श्रवण और पढ़ाना मतलब कीर्तन। जो ब्राह्मण होते हैं वह प्रचारक भी होते हैं, गुरुजन भी होते हैं । वे पठन-पाठन श्रवण- कीर्तन करते हैं अर्थात पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं। सुनते हैं और सुनाते हैं ।
श्रीप्रह्राद उवाच*
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ २३ ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ २४ ॥
भगवान याद आने लगते हैं ,दिखने लगते हैं। तो ऐसे हैं श्रील लोचन दास ठाकुर, जिनका आज हम तिरोभाव तिथि महोत्सव मना रहे हैं। उनके ग्रंथ के रूप में वे हमारे साथ हैं ,उन्होंने अपना श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ साक्षात्कार, अनुभव और दर्शन चैतन्य मंगल में रचना की है। हम उनकी कितनी कृतज्ञता व्यक्त करें? और प्रार्थना करें उनके श्री चरण कमलों में
दिव्य ज्ञान ह्रदय प्रकाशित
कि उन्होंने जो ज्ञान और भक्ति इस ग्रंथ में भरी है, वह हमारे ह्रदय प्रांगण में प्रकाशित हो। जय श्रील लोचन दास ठाकुर तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय। श्रीलप्रभुपाद की जय।
निताई गोर प्रेमनान्दे ।
हरि हरि बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
4 February 2021
Disappearance Day of Śrila Lochana Dasa Thakura!
Hare Krsna!
Devotees from 807 locations are chanting with us.
harer nāma harer nāma
harer nāmaiva kevalam
kalau nāsty eva nāsty eva
nāsty eva gatir anyathā
Translation
In this age of quarrel and hypocrisy, the only means of deliverance is the chanting of the holy names of the Lord. There is no other way. There is no other way. There is no other way. (CC Madhya 6.242)
trinad api sunichena
taror api sahishnuna
amanina manadena
kirtaniyah sada harih
Translation
One should chant the holy name of the Lord in a humble state of mind, thinking oneself lower than the straw in the street; one should be more tolerant than a tree, devoid of all sense of false prestige, and should be ready to offer all respect to others. In such a state of mind one can chant the holy name of the Lord constantly. (Verse 3, Siksastakam)
sa vai puṁsāṁ paro dharmo
yato bhaktir adhokṣaje
ahaituky apratihatā
yayātmā suprasīdati
Translation
The supreme occupation [dharma] for all humanity is that by which men can attain to loving devotional service unto the transcendent Lord. Such devotional service must be unmotivated and uninterrupted to completely satisfy the self. (ŚB 1.2.6)
According to harer nāmaiva kevalam, kirtaniyah sada harih and ahaituky apratihatā, we are chanting daily on Zoom. Do listen now. In the first phase we all chant. But in the second, I speak and you must hear. Keep chanting everyday. This is the method. Lord Sri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu instructed us to always engage in Harināma Sankīrtana. He did that to teach us.
āpani ācari prabhu jīvere śikhāya
āpna vañcaka yei sei jirjane bhajāya
Translation
The Lord sets example Himself to teach the spirit souls. The one who performs nirjana bhajana simply cheats himself. (Verse 1, Apani Acari Prabhu Jivere Sikhay, Vrndavane Bhajana Sections 18, Srila Visvanatha Cakravarti Thakura)
Although it is to be done continuously, the best time to chant is early in the morning. It is even better to chant in the association of devotees.
yaṁ brahmā varuṇendra-rudra-marutaḥ stunvanti divyaiḥ stavair
vedaiḥ sāṅga-pada-kramopaniṣadair gāyanti yaṁ sāma-gāḥ
dhyānāvasthita-tad-gatena manasā paśyanti yaṁ yogino
yasyāntaṁ na viduḥ surāsura-gaṇā devāya tasmai namaḥ
Translation
Sūta Gosvāmī said: Unto that personality whom Brahmā, Varuṇa, Indra, Rudra and the Maruts praise by chanting transcendental hymns and reciting the Vedas with all their corollaries, pada-kramas and Upaniṣads, to whom the chanters of the Sāma Veda always sing, whom the perfected yogīs see within their minds after fixing themselves in trance and absorbing themselves within Him, and whose limit can never be found by any demigod or demon — unto that Supreme Personality of Godhead I offer my humble obeisances. (ŚB 12.13.1)
The association of pure devotees gives perfection as asserted by all the scriptures.
sādhu-saṅga’, ‘sādhu-saṅga’ — sarva-śāstre kaya
lava-mātra sādhu-saṅge sarva-siddhi haya
Translation
The verdict of all revealed scriptures is that by even a moment’s association with a pure devotee, one can attain all success. (CC Madhya 22.54)
Today also is a disappearance day. You must always check the Gaudiya Vaisnava calendar. Today is the disappearance day of Śrīla Lochana Dāsa Thākura. We, Gaudiya Vaisnavas are very fortunate. There have been so many Gaudiya Vaisnava Acaryas during and after Sri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu that it is difficult to count them.
Thor mahatme houn gele caritra tyanche paha jara.
[One should always study the life of great personalities, to get inspiration for own progress.]
When we hear or read about them, we become influenced and are encouraged to follow them. We benefit from their life and teachings. Just the study of Caitanya-caritamrta and Śrīmad Bhāgavatam is not sufficient. We should read the life stories of such pure devotees. The quality of Caitanya-caritamrta and the biography of pure devotees is the same. Even the pastimes of the Lord are not complete without His devotees.
Śrīla Lochana Dāsa Thākura was such a great devotee. Today, in 1618 AD, he disappeared. He was born in 1520 AD in Bengal. He lived for 98 years. He was born near Katwa, the place where Sri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu accepted sannyāsa. He was very attached to Sri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu and His pastimes. Mahāprabhu was residing in Jagannātha Puri at that time. Srīla Lochana Dāsa Thākura went to a place called Sri Khanda where he met Narahari Sarkāra, who had the chance to participate in the confidential night kīrtana at Śrivāsa āngan with Caitanya Mahāprabhu, Nityānanda Prabhu, Advaita Acarya, Gadādhara Pandit, Śrivāsa and other devotees. We also get to hear that sometimes Śri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu would hold one hand of Śrivāsa Thakura and one hand of Narahari Sarkāra and dance in ecstasy like Kṛṣṇa in Rasa lila. Such a great devotee was Narahari Sarkāra and Lochana dāsa Thākura accepted him as his Guru. There is Narahari Chakravarti also, but he is different. He was there after Mahāprabhu’s departure, at the time of Viswanath Chakravarti Thakura. Srīla Lochana Dāsa Thakura, the disciple of Narahari Sarkāra, took inspiration from a Sanskrit book named Sri Caitanya Carit by Murāri Gupta and compiled Caitanya Mangal. Murāri Gupta lived at the same time as Mahāprabhu in the outskirts of Mayapur and would write down all that he saw or heard from someone about Caitanya Mahāprabhu. He was the eyewitness and also one of the associates of Mahāprabhu in His pastimes. Inspired by him, Lochana Dāsa Thākura compiled this nectarean book called Sri Caitanya Mangal in four volumes namely the Sutra Khanda, the Adi Khanda, the Madhya Khanda and the Sesa Khanda. Vrindavan Dāsa Thākura wrote Sri Caitanya Bhāgavat. Vrindavan Dāsa Thākura was none other than Śrīla Vyasadeva. He also wrote a book on Mahāprabhu’s pastimes and named it Caitanya Mangal which was later known as Caitanya Bhāgavat. Therefore, there are two Caitanya Mangal books, one by Vrindavan Dāsa Thākura and another by Lochana Dāsa Thakura.
If we had been present during Mahāprabhu’s time, it would have been a totally different and fortunate scenario. If we were present at that time, then we would be here now. However, we weren’t present. Even if we were present, we weren’t humans. Even if we would have been humans, we failed to realise that Mahāprabhu is the Supreme Personality of Godhead.
bahūnāṁ janmanām ante
jñānavān māṁ prapadyate
vāsudevaḥ sarvam iti
sa mahātmā su-durlabhaḥ
Translation
After many births and deaths, he who is actually in knowledge surrenders unto Me, knowing Me to be the cause of all causes and all that is. Such a great soul is very rare. (B.G. 7.19)
After many, many lifetimes one realises that Vāsudeva is the supreme. Maybe at that time we could have been atheists. We could have been engaged in Kali Puja or following the path of knowledge (Jnana) or Karma Kanda or maybe we were Mayavadis or voidists.
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. (B.G. 15.7)
The Jīva (living entities) are eternal. Therefore we can say that we were present at that time. But unfortunately, we did not accept and participate in the pastimes of the Lord then. However, now we know the actual truth. By the mercy of such great acaryas, who compiled such nectarean books on the lifetime pastimes of Mahāprabhu, we get to hear, get engrossed and get to participate in the pastimes of Sri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu. Then this gap of 500 years is bridged. The Caitanya Carit of Murāri Gupta, Caitanya Bhāgavata of Vrindavan Dāsa Thākura, Caitanya-caritamrta of Krsna Dāsa Kavirāja Goswami, Caitanya Mangal of Lochana Dāsa Thākura or Bhakti Ratnākar of Narahari Chakrawarti are books that give us a chance to attain Mahāprabhu by reading about His name, form, qualities, pastimes or associates and enter His pastimes.
adhyapiha lila kare gaura rai kon kon bhagyawan dekhe vare pai
Śri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu is playing His pastimes even today. It depends on how fortunate you are to get to witness and participate in His pastimes. When we hear such words, we feel that when we go to Navadvīpa and if we are fortunate enough then we will get to see Mahāprabhu performing His pastimes. Or maybe when we go to Jagannātha Puri, Jharkhand forests or Pandharpur. We are fortunate if we get to study these books.
brahmāṇḍa bhramite kona bhāgyavān jīva
guru-kṛṣṇa-prasāde pāya bhakti-latā-bīja
Translation
According to their karma, all living entities are wandering throughout the entire universe. Some of them are being elevated to the upper planetary systems, and some are going down into the lower planetary systems. Out of many millions of wandering living entities, one who is very fortunate gets an opportunity to associate with a bona fide spiritual master by the grace of Kṛṣṇa. By the mercy of both Kṛṣṇa and the spiritual master, such a person receives the seed of the creeper of devotional service. (CC Madhya 19.151)
Lochana Dāsa Thākura is our eternal spiritual master. Gauranga Mahāprabhu will make us fortunate and allow us in His pastimes by the mercy of these great acaryas who wrote and compiled these books. The scriptures are full of sentences. These sentences of pastimes are personified. These descriptions take up the form. Then we can see it like a movie. This is the way of having darsana of the Lord.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
When we chant the mahā-mantra, it has all the injunctions of these sastras as their essence. The name, form, qualities and pastimes of the Lord, all are present in the mahā-mantra. This realisation is possible through reading and hearing of such books, Pathana and Pāthana. Pathana means reading (Śravana) and Pāthana means speaking and teaching others (Kīrtana). What do Brahmins do? They read or learn and they teach. With śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ smaraṇaṁ, God manifests.
śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ
smaraṇaṁ pāda-sevanam
arcanaṁ vandanaṁ dāsyaṁ
sakhyam ātma-nivedanam
Translation
Prahlāda Mahārāja said: Hearing and chanting about the transcendental holy name, form, qualities, paraphernalia and pastimes of Lord Viṣṇu, remembering them, serving the lotus feet of the Lord, offering the Lord respectful worship with sixteen types of paraphernalia, offering prayers to the Lord, becoming His servant, considering the Lord one’s best friend, and surrendering everything unto Him (in other words, serving Him with the body, mind and words) — these nine processes are accepted as pure devotional service. (ŚB 7.5.23)
We are celebrating the disappearance day of Śrīla Lochana Dāsa Thakura, but he is still between us in the form of his book Caitanya Mangal. We can associate not only with him, but also with Mahāprabhu and all His associates through his book. We must pray unto his lotus feet, O Srīla Lochana Dāsa Thakura! Please enlighten me with the supreme knowledge, divya jnan hride prokashito (Text 3, Sri Guru Vandana). All Glories to Śrīla Lochana dāsa Thākura disappearance day! The Gaudiya Vaisnavas are always busy relishing the nectarean katha and songs of the Vaisnava Acaryas. Parama Karuna is one such song by Śrīla Lochana Dāsa Thākura. Śrīla Prabhupāda sang this song.
(1)
parama koruna, pahu dui jana
nitai gauracandra
saba avatara-sara siromani
kevala ananda-kanda
(2)
bhajo bhajo bhai, caitanya nitai
sudridha biswasa kori
vishaya chadiya, se rase majiya,
mukhe bolo hari hari
(3)
dekho ore bhai, tri-bhuvane nai,
emona doyala data
pasu pakhi jhure, pashana vidare,
suni’ janra guna-gatha
(4)
samsare majiya, rohili poriya,
se pade nahilo asa
apana karama, bhunjaye samana,
kahoye locana-dasa
Translation
(1) The two Lords, Nitai-Gauracandra, are very merciful. They are the essence of all incarnations. The specific significance of these incarnations is that They introduced a process of chanting and dancing that is simply joyful.
(2) My dear brother, I request that you just worship Lord Caitanya and Nityananda with firm conviction and faith. If one wants to be Krishna conscious by this process, one has to give up his engagement in sense gratification. One simply has to chant, “Hare Krishna! Hari Hari!” without any motive.
(3) My dear brother, just try and examine this. Within the three worlds there is no one like Lord Caitanya or Lord Nityananda. Their merciful qualities are so great that upon hearing them even birds and beasts cry and stones melt.
(4) But Locana dasa regrets that I am entrapped by sense gratification. Since I have no attraction for the lotus feet of Lord Caitanya and Lord Nityananda, then Yamaraja, the superintendent of death, is punishing me by not allowing me to be attracted by this movement.
Hare Kṛṣṇa!
Question
Reading of some books requires permission. Can books written by our acaryas with higher principles of bhakti be read directly without any permission from authority?
Gurudev uvaca
Yes, one must read the books according to one’s own level. Scriptures are written to be studied . This level increases when you read in proper sequence. Don’t directly jump to Rasa Lila. Keeping this in mind, one may read the books. We cannot directly do a PhD. We need to go gradually, starting from ABC. Śrīla Prabhupāda says, Bhagavad-Gīta is primary study, Śrīmad Bhāgavatam is graduation and Caitanya-caritamrta is post graduation. All of Gaudiya Vaisnava’s literature is postgraduate study. Studying Caitanya-caritāmrta, Caitanya Mangal or Caitanya Bhāgavata is PhD study. There is Nectar of Devotion and Nectar of Instruction also. Caitanya-caritāmrta is the highest. Along with this, chant and do kīrtana to become eligible for reading these higher books. There is a mention of confidential pastimes of the Lord. You may ask your counsellors or senior devotees whether you should read or not. You have siksa and diksa guru also.
Nitai gaura premanande hari haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक ०३.०२.२०२१
हरे कृष्ण!
आज ८१२ स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं।
(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन।
(जय) यमुनातीर वनचारी॥
अर्थ: वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।
हरि! हरि!
आज यह गीत गाने और राधा माधव का स्मरण करने का कारण यह भी है कि आज जयदेव गोस्वामी तिरोभाव तिथि है। जयदेव गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
जयदेव गोस्वामी आज के दिन श्री राधा माधव की नित्य लीला में प्रविष्ट हुए थे। जयदेव गोस्वामी महाराज की जय!
उनके सेवित विग्रह अथवा उनके द्वारा जिन विग्रहों की सेवा हो रही थी, उनका नाम राधा माधव था। जैसे श्रील रूप गोस्वामी के ‘श्री राधा गोविंद’ और सनातन गोस्वामी के ‘राधा मदन मोहन’ हैं। उसी प्रकार जयदेव गोस्वामी के विग्रह राधा माधव थे। वैसे जयदेव गोस्वामी षड गोस्वामियों जैसे गोस्वामी नहीं थे। वे गृहस्थ गोस्वामी थे लेकिन तब भी वह गोस्वामी कहलाते हैं।
जयदेव गोस्वामी गीत गोविंद महाकाव्य की रचना के लिए प्रसिद्ध हैं। वैसे उन्होंने दशावतार स्तोत्र भी लिखा है। इस दशावतार स्तोत्र में से एक स्तोत्र है-
तव कर-कमल-वरे नखम् अद्भुत-श्रृंङ्गम् दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम् केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे।
दशावतार स्तोत्र में एक नृसिंह स्तोत्र भी है।
यह जयदेव गोस्वामी की रचना है। श्रील प्रभुपाद ने हमें दशावतारों स्तोत्र में से एक नृसिंह स्तोत्र सिखाया। सारा संसार अब नृसिंह देव की स्तुति करता है।
नमस्ते नृसिंहाय प्रह्लादह्लाद दायिने। हिरण्यकशिपोर्वक्षः शिलाटंक नखालये1।
इतो नृसिंहः परतो नृसिंह यतो यतो यामि ततो नृसिंहः। बहिर्नृसिंह हृदये नृसिंह नृसिंहमादि शरणं प्रपद्ये॥2॥
तव कर-कमल-वरे नखम् अद्भुत-श्रृंङ्गम् दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम् केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥3॥
अनुवाद:- मैं नृसिंह भगवान् को प्रणाम करता हूँ जो प्रह्लाद महाराज को आनन्द प्रदान करने वाले हैं तथा जिनके नख दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पाषाण सदृश वक्षस्थल के ऊपर छेनी के समान हैं।
(2) नृसिंह भगवान् यहाँ हैं और वहाँ भी हैं। मैं जहाँ कहीं भी जाता हॅूँ वहाँ नृसिंह भगवान् हैं। वे हृदय में हैं और बाहर भी हैं। मैं नृसिंह भगवान् की शरण लेता हूँ जो समस्त पदार्थों के स्रोत तथा परम आश्रय हैं।
(3) हे केशव! हे जगत्पते! हे हरि! आपने नरसिंह का रूप धारण किया है आपकी जय हो। जिस प्रकार कोई अपने नाखूनों से भ्रमर को आसानी से कुचल सकता है उसी प्रकार भ्रमर सदृश दैत्य हिरण्यकशिपु का शरीर आपके सुन्दर कर-कमलों के नुकीले नाखूनों से चीर डाला गया है।
हरि! हरि! इसे याद रखिए! हम प्रतिदिन यह जो स्तोत्र गाते हैं, यह जयदेव गोस्वामी की देन है। उन्होंने इस दशावतार स्तोत्र के अंत में एक स्तोत्र की रचना की जिसे दशावतार प्रणाम कहते हैं। जयदेव गोस्वामी लिखते हैं।
वेदानुद्धरते जगन्ति वहते भूगोलमुद्विभ्रते दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते। पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः
अर्थ:- हे दश-अवतार धारण करने वाले श्री कृष्ण! मैं तुम्हें कोटिशः नमन करता हूँ। मत्स्य रूप से तुम वेदों का उद्धार करनेवाले हो, कूर्मरूप से अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत धरने वाले हो, वराह रूप से पृथ्वी को अपने दातों में उठाने वाले हो, नृसिंह रूप से हिरण्यकशिपु दैत्य की छाती विदीर्ण करने वाले हो, वामन रूप से तीन पग भूमि मांगकर दैत्यराज बलि को दलकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नापने वाले हो, परशुराम रूप से दुष्ट क्षत्रियों का संहार करने वाले हो, रामरूप से राक्षसराज रावण को जीतने वाले हो, बलराम रूप से दुष्टदलनकारी हल धारण करने वाले हो।बुद्धरूप से पीड़ित जीवों पर दया दिखने वाले हो, एवं कलियुग के अंत में कल्किरूप से म्लेच्छों को मूर्च्छित करने वाले हो।
उन्होंने दशावतार स्तोत्र लिखा और तत्पश्चात उन्होंने सारे अवतारों को प्रणाम करते हुए यह प्रणाम मंत्र लिखा। जिसका भाषान्तर इस प्रकार है-
सुनिए! आप भी एक एक अवतार को प्रणाम कीजिये जिस प्रकार जयदेव गोस्वामी एक एक अवतार को प्रणाम कर रहे हैं।
हे दश अवतार धारण करने वाले श्री कृष्ण ( वैसे दशावतार को करने के बाद कृष्ण को प्रणाम कर रहे हैं। कृष्णाय तुभ्यं नमः
श्री कृष्ण! आप को मेरा नमस्कार है। यह सारे दश अवतार हैं, हे श्रीकृष्ण आप अवतारी हो। हे अवतारी श्री कृष्ण! मेरे प्रणाम को स्वीकार कीजिए। आप को बारंबार प्रणाम है। मैं आपको कोटिशः नमन करता हूँ। आप मत्स्य रूप में वेदों का उद्धार करने वाले हो। श्री कृष्ण ही अवतार लेते हैं। अवतारी श्री कृष्ण ने वेदों का उद्धार करने के लिए मत्स्य अवतार लिया। हे श्री कृष्ण! कूर्म रूप में आप अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत धारण करने वाले हो अर्थात आप ही कूर्म रूप बन जाते हो। दशावतार स्तोत्र में तो कहा ही है
प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं विहितवहित्र चरित्रमखेदम् केशव! धृत-मीनशरीर! जय जगदीश हरे!॥1॥
क्षितिरिह विपुलतरे तिष्ठति तव पृष्ठे धरणीधरणकिण-चक्रगरिष्ठे केशव! धृत-कूर्मशरीर! जय जगदीश हरे!॥2॥
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना। केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे!॥3॥
तव करकमलवरे नखमद्भुत-श्रृङ्गं दलितहिरण्यकशिपुतनु-भृङ्गम्। केशव! धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे!॥4॥
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन पदनखनीरजनितजनपावन। केशव! धृत-वामनरूप! जय जगदीश हरे!॥5॥
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापं स्नपयसि पयसि शमितभवतापम्। केशव! धृत-भृगुपतिरूप! जय जगदीश हरे!॥6॥
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयं दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्। केशव! धृत-रामशरीर जय जगदीश हरे!॥7॥
वहसि वपुषी विशदे वसनं जलदाभं हलहतिभितिमिलित यमुनाभम्। केशव! धृत-हलधररूप! जय जगदीश हरे!॥8॥
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय! दर्शित-पशुघातम्। केशव! धृत-बुद्धशरीर! जय जगदीश हरे!॥9॥
म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालं धूमकेतुमिव किमपि करालम्। केशव! धृतकल्किशरीर! जय जगदीश हरे!॥10॥
श्रीजयदेवकवेरिदमुतिदतमुदारं श्रृणु सुखदं शुभदं भवसारम्। केशव! धृतदशविधरूप! जय जगदीश हरे!॥11॥
श्रीदशावतार प्रणाम
वेदानुद्धरते जगन्ति वहते भूगोलमुद्विभ्रते दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः॥12॥
अर्थ :
(1) हे केशव! हे जगदीश! हे मीन का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! तुहारी जय हो! प्रलय के प्रचंड समुद्र के जल में डूबे हुए वेदों का उद्धार करने हेतु तुमने भीमकाय मीन का रूपधारण करके नौका-जैसा अभिनय किया।
(2) हे केशव! हे जगदीश! हे कच्छप का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! दिवय कच्छप के रूपवाले तुम्हारे इस अवतार में तुम श्रीर समुद्र के मंथन हेतु मंदराचल को अपने विशाल पृष्ठभाग पर धारण करते हो, जिसके कारण तुम्हारे पृष्ठभाग पर गड्ढे जैसा बड़ा चिन्ह बन गया है।
(3) हे केशव! हे जगदीश! हे वराह का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! जो पृथ्वी ब्रह्माण्ड के तल पर गर्भोदक सागर में डुब गई थी, वह चंद्रमा पर धब्बे के समान तुम्हारे दांत के अग्रभाग में स्थित रहती है।
(4) हे केशव! हे जगदीश! हे नृसिंह रूप धारण करनेवाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो। जैसे कोई अपने नखों के बीच भ्रमर को सरलतापूर्वक मसल देता है उसी प्रकार तुमने भी अपने सुदर हस्तकमल के अद्भुत नुकीले नखों द्वारा भ्रमररूप हिरण्यकशिपु के शरीर को विदीर्ण कर दिया।
(5) हे केशव! हे जगदीश! वामनरूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! हे अद्भुत बौने, अपने लम्बे पगों से आपने महाराज बलि को छला, तथा अपने चरणकमल के नख से उत्पन्न हुए गंगाजल से तुम इस संसार की सब जीवात्माओं को पावन करते हो।
(6) हे केशव! हे जगदीश! हे भृगुपति (परशुराम) का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! कुरूक्षेत्र में तम अपने द्वारा हताहत किए गए आसुरी क्षत्रियों के शरीरों से उत्पन्न रक्त की नदियों से धरती को स्नान कराते हो। तुम जगत के पाप धोते हो, और तुम्हारे कारण सब लोग भौतिक अस्तित्व की दावाग्नि के ताप से मुक्ति पाते हैं।
(7) हे केशव! हे जगदीश! हे रामचंद्र का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! लंका के युद्ध में तुम दशमुख राक्षस का वध करते हो तथा उसके सिरों को दसों दिशाओं के दिग्पालों को रमणीय व वांछनीय उपहार स्वरूप वितरण करते हो!
(8) हे केशव! हे जगदीश! हे हलधरधारी बलराम का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! अपने उज्जवल गोरवर्ण देह पर आप सजल-जलद के समान नीलाम्बर पहनते हो। वह नीलाम्बर तुम्हारे हल के प्रहार से भयभीत हुई यमुना नदी के सुँदर गहरे रंग जैसा प्रतीत होता है।
(9) हे केशव! हे जगदीश! हे बुद्ध का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! तुम्हारा हृदय दया से परिपूर्ण है, तुम वैदिक यज्ञ-विधि की आड़ में सम्पन्न पशुओं की हिंसा की निंदा करते हो।
(10) हे केशव! हे जगदीश! हे कल्कि रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! कलियुग के अंत में दुष्ट म्लेच्छ वयक्तियों के विनाश हेतु तुम धूमकेतु के समान प्रतीत होते हुए कराल तलवार लिए रहते हो।
(11) हे केशव! हे जगदीश! हे दस प्रकार के अवतार धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! हे पाठकों, श्री जयदेव कवि द्वारा रचित इस स्तोत्र को तुम प्रेमपूर्वक सुनते रहो! यह स्तोत्र अत्युत्तम है, सुखद मंगलकारी है तथा इस अंधकारमय जगत में सर्वश्रेष्ठ है।
(12) हे दश-अवतार धारण करने वाले श्री कृष्ण! मैं तुम्हें कोटिशः नमन करता हूँ। मत्स्य रूप से तुम वेदों का उद्धार करनेवाले हो, कूर्मरूप से अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत धरने वाले हो, वराह रूप से पृथ्वी को अपने दातों में उठाने वाले हो, नृसिंह रूप से हिरण्यकशिपु दैत्य की छाती विदीर्ण करने वाले हो, वामन रूप से तीन पग भूमि मांगकर दैत्यराज बलि को दलकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नापने वाले हो, परशुराम रूप से दुष्ट क्षत्रियों का संहार करने वाले हो, रामरूप से राक्षसराज रावण को जीतने वाले हो, बलराम रूप से दुष्टदलनकारी हल धारण करने वाले हो, बुद्धरूप से पीड़ित जीवों पर दया दिखने वाले हो, एवं कलियुग के अंत में कल्किरूप से म्लेच्छों को मूर्च्छित करनेवाले हो।
केशव ही धारण करते हैं, केशव ही बन जाते हैं, कृष्ण ही अलग अलग रूप या अवतार बन जाते हैं। आप, वराह रूप से पृथ्वी को अपने दांतो में उठाने वाले हो, नरसिंह रूप में हिरण्यकशिपु की छाती विदीर्ण करने वाले हो। वामन रूप में तीन पग भूमि मांग कर दैत्यराज बलि को दल कर संपूर्ण ब्रह्मांड नापने वाले हो। परशुराम रूप में दुष्ट क्षत्रियों का संहार करने वाले हो, राम रूप में राक्षसराज रावण को जीतने वाले हो, इस दशावतार में जो आठवां अवतार है, इसे कृष्ण नहीं कहा है अपितु यहां बलराम का उल्लेख हुआ है। बलराम रूप से दुष्टदलनकारी हल धारण करने वाले हो। आप बुध रूप में पीड़ित जीवों पर दया दिखाने वाले हो और कलयुग के अंत में कल्कि रूप से म्लेच्छों को मूर्छित करने वाले हो। दशावतार स्तोत्र की जय! जयदेव गोस्वामी की जय! जयदेव गोस्वामी ने गीत गोविंद की रचना की या गीत गोविंद महाकाव्य की रचना की। गीत गोविंद अतुलनीय काव्य है अर्थात मैचलेस है। वैसे वह जिस रस, श्रृंगार रस या माधुर्य रस का वर्णन करते हैं, वह रस अतुलनीय है, सर्वोपरि है।
जय जयोज्ज्वल-रस-सर्व रससार। परकीया भावे याहा, व्रजेते प्रचार॥10॥( जय राधे जय कृष्ण वैष्णव भजन)
अर्थ:- समस्त रसों के सारस्वरूप माधुर्यरस की जय हो, भगवान् कृष्ण ने परकीय-भाव में जिसका प्रचार ब्रज में किया।
ब्रज में जिस रस का प्रचार है, वह परकीय भाव, श्रंगार रस है। गीत गोविंद में इस रस का वर्णन हुआ है। इस गीत गोविंद के प्रारंभ में ही जयदेव गोस्वामी लिखते हैं- सावधान! गीत गोविंद का अध्ययन और श्रवण करने वालों सावधान! वह कुछ शर्ते रखते हैं कि इसे कौन पढ़ सकता है अथवा कौन सुन सकता है?
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्। मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्॥3॥[1]
अनुवाद – हे श्रोताओं! यदि श्रीहरि के चरित्र का चिन्तन करते हुए आप लोगों का मन सरस अनुरागमय होता है तथा उनकी रास-विहारादि विलास-कलाओं की सुचारु चातुर्यमयी चेष्टा के विषय में आपके हृदय में कोतूहल होता है तो मनोहर सुमधुर मृदुल तथा कमनीय कान्तिगुण वाले पद समूह युक्त कवि जयदेव की इस गीतावली को भक्ति-भाव से श्रवणकर आनन्द में निमग्न हो जाएँ।
यदि आपका मन हरि स्मरण में
उत्कंठित है, सरस है, अर्थात रस सहित है अर्थात उसमें पहले ही रस है या उसमें माधुर्य रस है या हरि का स्मरण करते ही आप रसिक हो जाते हो। भागवत के प्रारंभ में ही कहा है।
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्। पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकः।।
( श्रीमद् भागवतं १.१.३)
अर्थ:- हे विज्ञ एवं भावुक जनों, वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमद्भागवत को जरा चखो तो। यह श्री शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है, अतएव यह और भी अधिक रूचिकर हो गया है, यद्यपि इसका अमृत रस मुक्त जीवों समेत समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था।
जो रसिक और भावुक हैं, उनके लिए भागवतम है। वैसे जयदेव गोस्वामी गीत गोविंद में लिखते हैं।
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्। मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्॥3॥
( गीत गोविंद)
अनुवाद – हे श्रोताओं! यदि श्रीहरि के चरित्र का चिन्तन करते हुए आप लोगों का मन सरस अनुरागमय होता है तथा उनकी रास-विहारादि विलास-कलाओं की सुचारु चातुर्यमयी चेष्टा के विषय में आपके हृदय में कोतूहल होता है तो मनोहर सुमधुर मृदुल तथा कमनीय कान्तिगुण वाले पद समूह युक्त कवि जयदेव की इस गीतावली को भक्ति-भाव से श्रवणकर आनन्द में निमग्न हो जाएँ।
हरि का स्मरण मन में होते ही रस उत्पन्न होता है।
‘यदि विलासकलासु कुतूहलम् ‘ अर्थात यदि आपके मन में राधा माधव के लिए कोतूहल है, आप उत्सुक हो।
(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन।
(जय) यमुनातीर वनचारी॥
अर्थ:
वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।
यह जो लीलाएँ अथवा विलास है अर्थात कृष्ण वृंदावन में विलासी होते हैं। यदि आप ऐसी कथाओं के लिए उत्कंठित हो, तभी आप इसे पढ़ना या सुनना।
मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्
क्योंकि इस गीत गोविंद में मधुर कोमलकान्त पदावली.. अर्थात यह पद आवली अर्थात गीत गोविंद के पद हैं, यह सारी पदावली है।
कई सारी पंक्तियां, पद हैं, यह काफी मधुर, कोमल व सरस है। यह सभी के लिए नहीं है। विशेषतया जो कामी है अर्थात काम रस के लिए उत्कंठित रहते हैं, उनके लिए यह ग्रंथ है भी नहीं। यदि आप ऐसे इसे पढ़ोगे तो अपराध करोगे और आप राधाकृष्ण को भी नहीं समझोगे। इसलिए अच्छा है कि आप इसे पढ़े ही नहीं। यह बहुत मधुर है। इस गीत गोविंद में माधुर्य लीला का वर्णन है। उसमें भी ऐसा प्रसंग है। राधारानी ‘माननी’ बन चुकी हैं अर्थात राधारानी ‘मान कर’ के बैठी हैं अथवा रूठ गई हैं। ऐसी माननीय राधा ठुकरानी महाभावा अर्थात राधा ठकुरानी को हम मनाते हैं अर्थात मनाने का प्रयास होता है। उन प्रयासों में श्री कृष्ण को राधा रानी के चरणों में क्षमा याचना मांगनी पड़ती हैं अथवा श्री कृष्ण उनके चरण पकड़ते हैं और प्रार्थना करते हैं, हे राधा रानी मेरे सर की शोभा बढ़ाओ।
स्मर गरल खण्डनम् मम शिरसि मण्डनम् देहि पद पल्लवम् उदारम् ।ज्वलति मयि दारुणो मदन कदनानलो हरतु तदुपाहित विकारम् ॥
( गीतगोविन्द )
अर्थ:- आपके पैरों के सुंदर फूल खिलते हैं, जो अमृत प्रेम के घातक जहर का प्रतिकार करते हैं। वे उस प्रेम की पीड़ा की भयानक आग को बुझा देते हैं, जो मेरे दिल के भीतर व्याप्त हैं। इसलिए, कृपया दया करें और अपने पैरों को मेरे सिर को सजाने की अनुमति दें।
‘हे राधा रानी उदार बनकर् अपने चरण कमलों में मेरे सर पर धारण करो।’ ऐसा संवाद ऐसा निवेदन कृष्ण को करना पड़ता है और वे करते रहते हैं। गीतगोविन्द में लिखते लिखते जब यह प्रसंग की राधारानी को निवेदन करना है कि अपने चरण मेरे सर पर धरो.. लेकिन यह प्रसंग लिखते समय जयदेव गोस्वामी के मन में कुछ शंकाएं उत्पन्न हो रही थी, क्या सचमुच श्री कृष्ण को ऐसा कहना पड़ता है? नहीं! नहीं! यह संभव ही नहीं है। कृष्ण सुप्रीम पर्सनालिटी ऑफ गॉडहेड अर्थात कृष्ण सर्वोच्च परमेश्वर हैं, अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक हैं, राधा रानी के समक्ष ऐसे झुकना? नहीं! नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए। नहीं! नहीं! ऐसा नहीं होता होगा। इस प्रकार जयदेव गोस्वामी के मन में ऐसे विचार आ रहे थे। उन्होंने इस गीत गोविंद की रचना मायापुर, नवद्वीप में गंगा के तट पर की थी। जहां जयदेव गोस्वामी अपनी पत्नी पद्मावती के साथ निवास किया करते थे। उन्होंने कहा कि मैं इस पर लिखने से पहले थोड़ा और चिंतन करता हूं अथवा थोड़ा और सोचता हूं। तत्पश्चात रात में देख लूंगा। उन्होंने तब पद्मावती से कहा कि मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूं और वह चले गए। थोड़ी देर बाद किसी ने दरवाजा खटखटाया और पद्मावती ने द्वार खोला। पद्मावती ने समझा कि उसके पति देव जयदेव गोस्वामी ही वापस लौट आए हैं। उसने कहा, पधारिए! भोजन तैयार है। वैसे अभी अभी तो आप गंगा तट पर स्नान के लिए गए थे, क्या स्नान हो भी गया? वे बोले, यस! यस! हो गया। पद्मावती ने उसे भोजन खिलाया जिनको वह अपना पतिदेव ही समझ रही थी। तत्पश्चात उन जयदेव गोस्वामी ने कहा कि अब मैं थोड़ा लिखता हूं मैं अपने गीतगोविंद को थोड़ा आगे बढ़ाता हूं। वे लिखने के लिए थोड़ा आगे गए तो थोड़ी देर में पुनः किसी ने दरवाजा खटखटाया। पद्मावती जब द्वार खोलती है तो देखती है कि जयदेव गोस्वामी पुनः आ गए हैं तब वह कहती है, आप पहले ही आए थे और मैंने तो आपको भोजन भी खिलाया था और तत्पश्चात आप ग्रंथ लिखने के लिए चले गए थे। तब जयदेव गोस्वामी बोले, नहीं! मैं तो पहली बार आया हूं। मैं तो पहले नहीं आया था, मैं तो अभी अभी स्नान करके लौटा हूं। पद्मावती ने कहा -आप अभी कुछ देर पहले आए थे और मैंने आपको भोजन भी खिलाया था। तत्पश्चात आप ग्रंथ लिखने के लिए गए थे, यह सुनकर जयदेव गोस्वामी को अचरज हुआ और जब उन्होंने जाकर उस ग्रंथ को देखा और पाया कि जिन जिन बातों अथवा विचारों को लिखना चाहिए या नहीं लिखना चाहिए अर्थात जिस मन की दुविधा में जयदेव गोस्वामी थे, वह बातें पहले ही किसी ने लिख कर रखी है और लग रहा था कि अभी अभी किसी ने लिखा है। जयदेव गोस्वामी ने जब उसे पढ़ा तब वह समझ गए कि यहां आने वाले और भोजन करने वाले और इस ग्रंथ को लिखने वाले श्री कृष्ण ही हैं। स्वयं श्रीकृष्ण ने आकर लिखा है। यस! यस! ऐसा ही होता है। जयदेव गोस्वामी ने लिखा था , हर रोज राधा रानी को मनाने के लिए मुझे यह सब कहना और करना पड़ता है, यह सत्य है। यह अलौकिक और अचिंतनीय बातें हैं अर्थात चिंता के परे की बातें है। हरि! हरि! तत्पश्चात जयदेव गोस्वामी इस ग्रंथ को पूरा करते हैं। यह गीतगोविन्द ऐसा ग्रंथ है जिसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रवण किया करते थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पहले उससे 300 वर्ष पूर्व जयदेव गोस्वामी हुए थे और जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में थे।
महाप्रभु की स्वरूप दामोदर, रामानंद राय आदि अपने अंतरंग भक्तों के साथ चर्चा होती थी।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥९॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
उसके अन्तर्गत जयदेव गोस्वामी की रचना गीत गोविंद चैतन्य महाप्रभु को विशेष प्रिय है। यहां तक की जगन्नाथ स्वामी को भी यह ग्रंथ और इसकी रचना का श्रवण भी अधिक प्रिय है और क्यों नहीं होगा।?
वासुदेव घोष बोले करि जोड़ हाथ जेइ गौर सेइ कृष्ण सेइ जगन्नाथ॥5॥
अर्थ
(5) वासुदेव घोष दोनों हाथ जोड़कर कहते हैं, “वे, जो गौर हैं, वही कृष्ण हैं, और वही जगन्नाथ जी हैं। ”
गौरांग ही श्री कृष्ण हैं और गौरांग और श्री कृष्ण ही जगन्नाथ स्वामी हैं। चैतन्य महाप्रभु को प्रिय हैं तो जगन्नाथ जी को भी प्रिय हैं। अगर जगन्नाथ जी को प्रिय है तो चैतन्य महाप्रभु को भी प्रिय हैं। जगन्नाथ मंदिर में प्रतिदिन सायं काल में इस गीत गोविंद का पाठ होता है अर्थात उसे गाते हैं। हम भी कई बार गाते हैं। परिक्रमा मार्ग पर एक विशेष मंडप है, वहाँ जाकर गायक गीत गोविंद का गान करते हैं। हमनें भी वहाँ जगन्नाथ मंदिर में बैठकर उस गीत गोविंद को सुना है।
जगन्नाथ स्वामी , एक वस्त्र पर गीत गोविंद को पूरा लिख कर वह वस्त्र धारण करते हैं अथवा लपेट लेते हैं। जैसे हम हरिनाम चादर ओढ़ लेते हैं। जिस पर
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। महामन्त्र या ओम नमो भगवते वासुदेवाय या ओम नमो शिवाय भी लिखा होता है। जगन्नाथ जी का एक वस्त्र है, जिस पर पूरा गीतगोविन्द लिखा हुआ है। जगन्नाथ जी की प्रसन्नता के लिए उसे पहनाया जाता है। जगन्नाथ आत्माराम उसमें आराम का भी अनुभव करते हैं। एक समय एक किसान की पुत्री जो कि जगन्नाथ जी की बड़ी भक्त थी, वह गीत गोविंद का गान किया करती थी। एक समय वह बैंगन के खेत में बैंगन तोड़ रही थी। मुख में नाम और हाथ में काम। वह अपना काम भी कर रही थी और साथ में गीत गोविंद भी गा रही थी।
नाहं तिष्ठामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेषु वा। तत्र तिष्ठामि नारद यत्र गायन्ति मद्भक्ता:।।
( श्रीमद् भगवतम ४.३०.३५ तातपर्य)
अनुवाद:- हे नारद! न तो मैं अपने निवास वैकुण्ठ में रहता हूँ, न योगियों के ह्रदय में रहता हूँ। मैं तो उस स्थान में वास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त मेरे पवित्र नाम का कीर्तन करते है और मेरे रूप,लीलाओं तथा गुणों की चर्चा चलाते हैं।
इस सिद्धांत के अनुसार जगन्नाथ स्वामी वहां पहुंच गए, जहां पर किसान की पुत्री बड़े भक्ति भाव के साथ गीत गोविंद का गान कर रही थी। वह अपना काम कर रही थी, वह इधर उधर आ जा रही थी। जगन्नाथ स्वामी उनके पीछे पीछे छिप छिप कर जाते हैं और गीत गोविंद के श्रवण का आनंद लूटते हैं। इतने में राजभोग का समय होता है और घंटी बजती है। जगन्नाथ भागे दौड़े वापस लौट जाते हैं। आते-आते उनके कुछ वस्त्र भी खेत में छूट जाते हैं। कुछ वस्त्र जो पहने भी हुए थे, वह भी मैले गंदे हो चुके हैं। उसमें कुछ कांटे भी फंसे हुए थे। उस दिन जब पुजारियों ने देखा कि भगवान के वस्त्र को क्या हुआ है? जब हमने पहनाए थे तो यह वस्त्र ऐसे नहीं थे। भगवान के वस्त्र तो स्वच्छ थे,
लेकिन अब सब अस्त-वयस्त हैं, कांटे लगे हुए हैं, उसमें कीचड़ भी लगा हुआ है। सुबह तो ऐसे नहीं थे। सबको अचरज हुआ कि हुआ क्या है? तब बहुत खोज करने के उपरांत पता चला कि जगन्नाथ स्वामी वहां गीत गोविंद का श्रवण करने के लिए जाया करते हैं। यह गीत गोविंद विशेष रचना है। गौड़ीय वैष्णव जगत में इसका ऊंचा स्थान है। यह सब जयदेव गोस्वामी की देन है। उनके भक्ति भाव या आध्यात्मिक स्तर की हम कल्पना भी नहीं सकते हैं, यह कल्पना से परे है। ऐसे उच्च विचार या उच्च भाव वाले जयदेव गोस्वामी हैं। एक व्यक्ति क्या बोलता है, क्या गाता है, क्या लिखता है, उसी से उस व्यक्ति की पहचान हो जाती है। जयदेव गोस्वामी की पहचान इस गीत गोविंद से होती है। जिस गीत गोविंद के अंत में वे लिखते हैं।
साध्वी माध्वीकचिन्ता न भवति भवतः शर्करे कर्कशासि द्राक्षे द्रक्षयन्ति के त्वामृत मृतमसि क्षीरनीरं रसस्ते। क्रन्द कान्ताधर धरणितलं गच्छ यच्छान्तिभावं यावच्छङ्लारसारस्वतहि जयदेवस्य विष्वग्वचांसि।।
(गीत गोविंद ९४)
अनुवाद:- ओ शक्तिशाली शराब, मत सोचो कि तुम बहुत नशीली हो, ओ चीनी, आप कठोर हैं, ओ अंगूरों, कौन तुम्हारी तरफ देखेगा? ओ अमृत! तुम वास्तव में बेजान हो। ओ दूध, तुम्हारा स्वाद पानी की तरह है। ओ पके आम, अब, जाओ और रोओ। ओ कांता स्त्री के होंठ, अब तुम नरक में जा सकते हैं। आप सभी का अब कोई मूल्य नहीं है, जब तक श्री जयदेव की वाक्पटुता, प्रेम आवश्यक विवरण इस दुनिया में प्रकट है।
शर्ककरें कर्कशासि ..
उनका यह दावा है कि मेरे इस गीत गोविंद के माधुर्य की तुलना अन्य किसी प्रदार्थ या किसी चीज़ से हो ही नहीं सकती है। इस गीत गोविंद के माधुर्य के समक्ष बाकी सब निम्न और शूद्र हैं। – हे शर्करे! हे शक्कर! तुम तो मेरे गीतगोविंद के समक्ष बालू अथवा रेती ही हो। तुम्हारी मिठास क्या है। तुम कर्कश हो।
द्रक्षाशे द्रक्षान्ति ते। द्रक्षाश अर्थात
अंगूर, (संस्कृत में द्रक्षाश कहते हैं) द्रक्षाशे अर्थात हे अंगूर! अब तुम्हें कौन देखेगा। जब यह देखने और आस्वादन करने की चीज़ अर्थात मेरा यह गीतगोविन्द है।
त्वम अमृत… – अरे अरे अमृत! तुम्हारा नाम तो अमृत है। मतलब अमर या नहीं मरने वाले, लेकिन अब मेरा यह जो गीतगोविन्द है, उसके समक्ष तुम मर जाओ। तुम मर गए। तुम्हारा नाम तो अमृत है लेकिन असली अमृत तो यह गीतगोविन्द है। उसकी तुलना में तो तुम मृत हो। गीतगोविन्द अमृत है।
आगे वे लिखते है – क्षीरं अर्थात
दूध । नीरं निरसत्ते। हे क्षीर! तुम नीर (पानी) बन गए। अब तुम्हारी कीमत मेरे गीतगोविन्द के समक्ष कैसी है? तुम क्षीर नहीं रहे, तुम नीर बन गए।
माकन्द क्रन्द: – आम का रस(आम्र रस)। महाराष्ट्र में आम्र रस बहुत प्रसिद्ध है। संस्कृत में आम्र रस को माकन्द कहते हैं। जयदेव गोस्वामी कहते हैं कि अब तुम क्रन्द अर्थात रोना भी। तुम अभी रोते रहो। मेरे इस गीत गोविंद का जो आस्वादन है, उसके आगे तुम्हारा यह आम्र रस या स्वाद कुछ भी नहीं है। तुम रोते रहो, यहाँ शब्दों का खेल भी चल रहा है।
जयदेव गोस्वामी क्षीर को नीर, दरक्षो को ,अब तुम्हे कौन देखेगा, अमृत को तुम मृत हो, माकन्द को क्रन्द और अंत में कांताधरं कहते है। हे कांता या स्त्री के अधरों का पान करने वालों! धर्म न तुला गच्छय अर्थात अब तुम नरक जाओ। तुम नीचे जाओ अर्थात जहाँ तामसिक लोग जाते हैं, तुम वहाँ जाओ। हे कांता के अधर ( होंठो) का अस्वादन करने वाले लोगों अब तुम नरक जाओ। ये अमृतपान करो।
मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्॥
अब तुम इस मधुर, कोमल रस इस गोविंद गीत को सुनो। इसका अस्वादन करो। यह अमृत है।इस अधरामृत को भूल जाओ। संसार के जो भी मधुर, मीठे, द्रव्य एवं प्रदार्थ व फल है। वे कुछ भी नही हैं, इनकी कोई कीमत नहीं हैं। गीत गोविंद की जय! जयदेव गोस्वामी की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
वैसे हरिनाम भी उतना ही मीठा है। जितना जयदेव गोस्वामी का गीत गोविंद मीठा है। इसका अस्वादन करो। नामामृत का पान करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जयदेव गोस्वामी ने ऐसी महिमा गायी है। इस पर कोई प्रश्न तो कर ही नहीं सकता।
हरे कृष्ण!
आज के सत्र को हम यहीं विराम देते हैं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
3 February 2021
Astonishingly delightful Gita Govind by Srila Jayadeva Goswami
Hare Krsna. Devotees from over 812 locations are chanting with us right now.
jaya radha-madhava kuñja-bihari
gopi-jana-vallabha giri-vara-dhari
The reason behind singing and remembering this song is that today is the disappearance day of Srila Jayadeva Goswami. Do you understand what disappearance means? It means that today he entered the eternal pastimes of Sri Radha Madhava. Nityalila pravistha Jayadeva Goswami Maharaj ki Jai. He served Sri Radha Madhava Deities just like Srila Rupa Goswami worshipped Sri Radha Govinda and Srila Sanatana Goswami worshipped Sri Radha Madan Mohan. He was not like the six Goswamis of Vrindavan. Jayadeva Goswami was a householder still he is called a Goswami.
He is famous for composing the epic transcendental poem known as Gita Govinda. He has written many verses and stotras. He has also written the Dasavatar stotra. From which we sing one stotra daily.
tava kara-kamala-vare nakham adbhuta-sringam
dalita-hiranyakasipu-tanu-bhringam
kesava dhrita-narahari-rupa jaya jagadisa hare
Translation
O Kesava! O Lord of the universe! O Lord Hari, who have assumed the form of half-man, half-lion! All glories to You! Just as one can easily crush a wasp between one’s fingernails, so in the same way the body of the wasplike demon Hiranyakasipu has been ripped apart by the wonderful pointed nails on Your beautiful lotus hands.
This is composed by Srila Jayadeva Goswami. Srila Prabhupada taught us this Narasimha stotra and now the whole world glorifies Lord Narasimha Deva by singing this.
namas te narasimhaya
prahladahlada-dayine
hiranyakasipor vakshahsila-
tanka-nakhalaye
ito nrisimhah parato nrisimho
yato yato yami tato nrisimhah
bahir nrisimho hridaye nrisimho
nrisimham adim saranam prapadye
Translation
I offer my obeisances to Lord Narasimha who gives joy to Prahlada Maharaja and whose nails are like chisels on the stone like chest of the demon Hiranyakasipu.
Lord Narasimha is here and also there. Wherever I go, Lord Narasimha is there. He is in the heart and outside as well. I surrender to Lord Narasimha, the origin of all things and the supreme refuge.
Remember always while singing that this is given by Srila Jayadeva Goswami.
He has written this pranam mantra for the 10 main incarnations. In the end, he composed one stotra.
Vedan uddharate jaganti vahate bhu-golam
udbibhrate daityam darayate balim chalayate
ksatra-ksayam kurvate paulastyam jayate halam kalayate karunyam atanvate mlecchan murchayate dasakrti-krte krsnaya tubhyam namah
Translation
O Krsna, I offer my obeisances to You, who appear in ten incarnations. In your appearance as Matsya, You rescued the Vedas, and as Kurma, You supported the Mount Mandara on Your back. As Varaha, You lift the earth with Your tusks, and as the Narasimha, You tore open the chest of the demon Hiranyakasipu. In the form of Vamana, You tricked Bali by asking him for three steps of land, and then you took away the entire universe from him by expanding Your steps. As Parasurama, You annihilated all the wicked Ksatriya kings, and as Ramacandra, You killed the demon king, Ravana. In the form of Balarama, You drew the River Yamuna towards You. As Lord Buddha, You showed compassion towards everyone and at the end in Kaliyuga, You appear as Kalki to slay the (mlecchas) low-class men.
He wrote Dasavatar stotra and this pranam mantra for all ten incarnations of Visnu. Listen carefully to the meaning of this mantra and pay obeisances to each incarnation. Here Srila Jayadeva Goswami is paying obeisances to each and every incarnation. He says, “O Sri Krsna, the one who is the source of the 10 incarnations.” After paying obeisances to all ten incarnations he says, “krsnaya tubhyam namah – O Krsna please accept my obeisances unto You. All these ten are incarnations and You, O Krsna, are the source of all the incarnations. O Krsna, source of all incarnations, please accept my obeisances. I offered my obeisances again and again.”
– In your appearance as Matsya, You rescued the Vedas. You appeared as a fish to save the Vedas.
-As Kurma, You supported the Mount Mandara on Your back. You appeared as a tortoise and supported the Mandarachal Mountain on Your back during the churning of the ocean.
In every stotra He is saying,
Kesava dhrta Kurma rupa
Kesava dhrta Nrisimha rupa
Kesava dhrta Rama sharira
Kesava dhrta…Kesava dhrta
Kesava or Krsna is the source of this incarnation or that incarnation. Actually He is the source of every incarnation. Sometimes You appear as Kurma or Narasimha and so on. It is only Kesava(Krsna) who is coming in different forms.
– As Varaha, You lifted the earth with Your tusks.
-As Narasimha, You tore open the chest of the demon Hiranyakasipu.
– In the form of Vamana, You tricked Bali by asking him for three steps of land, and then You took away the entire universe from him by expanding Your steps.
-As Parasurama, You annihilated all the wicked Ksatriya kings.
-As Ramacandra, You killed the demon king, Ravana.
-In the form of Balarama, You drew the River Yamuna towards You. In the eighth avatara, Krsna is not mentioned. Instead he says, “You come as Balarama.” Balarama is an incarnation of Krsna.
-As Lord Buddha, You showed compassion towards everyone.
-At the end in Kaliyuga, You will appear as Kalki to slay the (mlecchas) low-class men.
He wrote the transcendental poem based on the sentiment of love in separation known as Gita Govinda. Gita Govinda is his matchless creation. It is based on the mood of conjugal love.It is the highest of all moods.
jaya jayojjwala-rasa sarva-rasa-sar
parakiya-bhave jaha brajete pracar
Translation
All glories, all glories to the mellow of conjugal love, which is the most excellent of all rasas and is propagated in Vraja by Sri Krishna in the form of the divine parakiya-bhava [paramour love]. (Jai Radhe Jai Krsna Jai Vrindavan)
In Vraja, Parakiya bhava or Sringar rasa is propagated. This mellow is mentioned in the Gita Govinda. In the beginning of the song, he mentions the qualifications required by a person to read Gita Govinda. He says, “Beware! Beware!” to those who are not interested in Sri Hari.
yadi hari smarane sarasam mano
yadi vilasa kala sukutoohalam
madhura komala kanta padavaleem
Srunu tada jayadeva sarasvateem ||
Translation
Dear audience, if remembering Sri Hari enriches your heart with feelings of deep love, and if you are curious to know about His ingenuity in the romantic arts, then may you become immersed in bliss by hearing Jayadeva’s narrations in these mellifluous, tender and pleasing songs.
yadi harismarane sarasam mano – if you can remember Hari with love or as soon as you remember Hari, your mind is filled with love.
In the beginning of Srimad Bhagavatam, it is written O Rasikaha Bhuvi Bhavukaha or pibat bhagvatam rasmalayam. Those who are Rasikaha or who have bhava (mood of love), Srimad Bhagavatam is for them. In the same way, Srila Jayadeva Goswami says, “As soon as you remember Hari, you develop the love for Him in your heart.” Then listen to poet Jayadeva’s divine lyrics.
yadi vilasa kala sukutoohalam – Dear devotees, if your heart is moved with affection by constantly remembering Sri Krsna and your mind is steeped in curiosity to know about His delightful escapades such as räsa-vihära, kunja-viläsa (His pleasure in the love groves), His inventiveness in pastimes and the sweetness of His cunning behaviour, then by all means hear these honeyed words of Jayadeva, the bard of sringara-rasa. This poem is predominated by the conjugal mellow (sringära-rasa) and is exceptionally sweet.
The Lord’s pastimes and divine love sports in Vrindavan are there. Like we sing,
(jaya) radha-madhava (jaya) kunja-bihari
(jaya) gopi-jana-vallabha (jaya) giri-vara-dhari
(jaya) jasoda-nandana, (jaya) braja-jana-ranjana,
(jaya) jamuna-tira-vana-cari
Translation
Krsna is the lover of Radha. He displays many amorous pastimes in the groves of Vrindavana, He is the lover of the cowherd maidens of Vraja, the holder of the great hill named Govardhana, the beloved son of mother Yasoda, the delighter of the inhabitants of Vraja, and He wanders in the forests along the banks of the River Yamuna.
If you’re keen on hearing these pastimes, then only Hear this poem. If your mind is pure and always eager to hear about the highest pastimes of Krsna then upon listening about Krsna nectarean feelings will flood your mind.
madhura komala kanta padavaleem
srunu tada jayadeva sarasvateem
All the stanzas in this Gita Govinda are nectarean, sweet and soft, but BEWARE they are not for everyone. Especially those who are lusty or eager for objects of lust are not eligible to read Gita Govinda. If they read it, they’ll commit an offence. They will not understand Radha Krsna. It is better that you should not study. It is very sweet. In Gita Govinda the pastimes of Radha and Krsna are in the mood of conjugal love. There is the maan lila of Radharani. In maan lila, Srimati Radharani would go into seclusion in Her transcendental loving anger towards Krsna. It has pastimes of Radha and Krsna where Radharani is not talking to Krsna and Krsna is trying to persuade Radha Thakurani to talk. Krsna is holding Her lotus feet and praying.
mama sirasi mandanam / dehi pada-pallavam udaram
Krsna requested Radharani to place Her lotus feet on His head. He says, “Please be kind upon Me, O Radhe and keep Your lotus feet on My head.” Krsna keeps doing this. It’s normal.
When Jayadeva got the inspiration to write the beautiful lines ’Smara Garala Kandanam Mama Shirsi Mandanam Dhehi Padha Pallavam Udharam ….’ He abruptly threw away his pen with a wavering mind and got up from his seat. He did not want to continue writing. His eyes were filled with tears and he started to cry like a child, ‘What a sin I have committed….Lord…Apacaram…Apacaram. How could I write these lines? How can Sri Radha could keep Her feet on Lord Krsna’s head? He is the Supreme Lord.’ He thought, devotees can keep the Lord’s feet on their head, but it is never possible for a devotee to keep his feet on the Lord’s head. Krsna is the Supreme Personality of Godhead. Why would He bow to Srimati Radharani? Why would She place Her feet on Krsna’s head? He was composing this in Navadvipa near the Ganges where he was living with His wife, Padmavati. He decided to go for a bath in the Ganges, to meditate upon it for some time and then continue to write.
Within a short time someone knocked on the door and when his wife, Padmavati opened the door it was him. She asked him how come he had come back so fast? He said, “I have taken bath. Serve Me lunch.” She went to prepare the lunch. After He had lunch He went to continue with Gita Govinda.
Then again there was a knock on the door. When Padmavati opened the door it was Srila Jayadeva Goswami, again. She was surprised and said, “How did you come again!” He replied,”What do you mean again? I am coming for the first time after having bath.” She said, “No, you came and had your lunch. And then you went back to write.”
When they went to the place where he was writing his book, they saw that the part where he was in dilemma whether this should be written or not was already completed. After seeing this, he realized that the One who came, ate lunch and wrote this was Krsna. It was Krsna who came and completed the stanza. Krsna said, “Yes. This happens exactly this. It’s a daily affair. I have to do all this to convince Radharani. This is a fact.” This is all inconceivable and super natural. We cannot conceive this through our intelligence. It is true that this pastime happens wherein Krsna asks Srimati Radharani to place Her lotus feet on His head. Then Jayadeva Goswami completed it.
This song is very dear to Krsna. Jayadeva Goswami appeared 300 years before the appearance of Sri Caitanya Mahaprabhu. When Mahaprabhu was in Jagannatha Puri even He was very fond of this song and would hear it from His close associates, Svarupa Damodara and Ramananda Raya.
mac-citta mad-gata-prana
bodhayantah parasparam
kathayantas ca mam nityam
tusyanti ca ramanti ca
Translation
The thoughts of My pure devotees dwell in Me, their lives are surrendered to Me, and they derive great satisfaction and bliss enlightening one another and conversing about Me. [BG 10.9]
Gita Govinda composed by Jayadeva Goswami was specially very dear to Mahaprabhu. It is the most favourite song of Lord Jagannatha in Puri and it is sung daily before the Lord goes to sleep. It has to be dear to Lord Jagannatha as well because after all,
jei gaura sei krsna sei jagannatha
Translation
He who is Gaura is He who is Krsna is He who is Jagannatha.
If it is dear to Mahaprabhu then it must be very dear to Lord Jagannatha as well and if it is dear to Lord Jagannatha then it has to be dear to Mahaprabhu. It is sung daily in Jagannatha Puri. There is a special pavilion in Parikrama Marga and the chanters chant or sing Gita Govinda there. We also heard them singing it in the Jagannatha temple. They write the whole Gita Govinda on a cloth and then wrap Lord Jagannatha with the cloth. Its like our harinama chadar which we wrap around ourselves. Lord Jagannatha feels very satisfied. He become atmarama ie, satisfied and He also experiences pleasure( hladini ).
In a small village near Puri, there lived a girl. She was the daughter of a gardener, and was very expert in singing Gita Govinda. One day while she was picking eggplant from the garden, she was chanting Gita Govinda very melodiously and with full devotion.
naham tisthami vaikunthe
_ yoginam hrdayesu va_
tatra tisthami narada
yatra gayanti mad-bhaktah
“I am not in Vaikuntha nor in the hearts of the yogis. I remain where My devotees engage in glorifying My activities.”
It is to be understood that the Supreme Personality of Godhead does not leave the company of His devotees. According to this principle, Lord Jagannatha reached there where she was singing Gita Govinda with full devotion. When Lord Jagannatha heard this, He became so attracted that He could not stay in the temple. At once He left the altar and went to the garden where she was singing. Lord Jagannatha followed the girl, listening to her singing. He was so enchanted with this song of Gita Govinda that He forgot Himself. Then in the temple the pujaris brought the Raja bhoga offering so the Lord rushed back to the temple. While the Lord was walking back to the temple, His cloth was torn by the thorns of an eggplant tree. The top piece of His cloth fell on the ground, but the Lord was too engrossed in hearing Gita Govinda that He did not notice.
There was dirt and thorns in the clothes of the Lord and the pujaris wondered what had happened. When they opened the temple gate, they were surprised to see that Lord’s cloth was torn and His top piece of cloth was missing. Pieces of cloth were scattered here and there. It was as if the Lord had not been dressed properly. After seeing this, the pujaris became very worried. Later the pujaris found out that the Lord would go to hear Gita Govinda from that girl. So this song Gita Govinda has a special place in Gaudiya Vaisnava Sampradaya. It is the song of the highest mood. The mood with which Srila Jayadeva Goswami composed the Gita Govinda is beyond our understanding. We cannot even imagine this level of devotion of Jayadeva Goswami. This high level of devotion is present in Jayadeva Goswami. We can judge a person by what he is singing, writing or talking. We can understand who Jayadeva Goswami is from his writings and singing. He claims that there cannot be any comparison with the sweetness of Gita Govinda. In the end of Gita Govinda, he writes,
sädhvi mädhvika cintä na bhavati bhavatah sarkare karkasäsi
dräkse draksyanti ke tväm amrta mrtam asi ksira niram rasas te mäkanda kranda käntädhara dharani-talam gaccha yacchanti yävad
bhävam srngära-särasvatam iha jayadevasya visvag-vacämsi
Translation
O powerful wine, do not think you are so intoxicating. O sugar, you are harsh. O grapes, who will look at you? O nectar (amrta), you are indeed lifeless (mrta). O milk, you taste like water. O ripe mango, now go and weep. O lips of a ladylove, now you can go to hell. All of you no longer have any value as long as Sri Jayadeva’s eloquent, essential description of erotic love is manifest in this world.
He says, sarkare karkasäsi – O sugar you are mere sand in front of my Gita Govinda. In this verse Sri Jayadeva is describing the sweet artistry of his Gita Govinda. Everything is tasteless and low in the face of this lyrical song. sarkare means O Sugar! Karkasä means dirt in front my Gita. You are mere dirt in front of the sweetness of my Gita Govinda.
dräkse draksyanti ke – O sweet grapes who would look at you now? In Sanskrit, dräkse is grapes and draksyanti ke means who will look at you? Grapes, beware! Why would any connoisseur of rasa ever even look in your direction?
He says, tväm amrta mrtam asi – O nectar (amrta), you are indeed lifeless (mrta). O nectar, you have been over glorified. Your name is Amrta- never dying. But in front of my song, you are mortal. My Gita Govinda is immortal.
ksira niram rasas te – O milk, you taste like water. O milk you are no more than water. No better than water. Oh milk, do not proudly think, “I am rasa,” because your rasa is just water in front of my Gita Govinda. Ksira means milk and nira means water.
mäkanda kranda – O ripe mango, now go and weep. In Sanskrit, Makanda means mango pulp and Kranda means weeping. Srila Jayadeva Goswami says, “O Mango pulp you keep crying. Your taste comes no where.” He ripe mango, you have to cry. The rasika devotees will take no heed of your growing old and drying up.
He is playing beautifully with words. We can observe, how he is saying, Drakse-draksyanti, amrta-mrtam, ksira- nira, makanda-kranda.
käntädhara dharani-talam gaccha yacchanti – Then he says, “O womanisers, you go to hell. O lips of passionate maidens! You also have no place. Go to hell, the residence of the infernals. In Sanskrit, Kantadhara – those who enjoy the lips of women. talam gaccha means go to hell. The people in the mode of ignorance go to hell so he says the people who are always engrossed in thoughts and actions of pleasure with women should go to hell. He says that nothing can be compared to the nectarean Gita Govinda. None of you can provide any sweetness for those who are expert in relishing the rasa of this poetry.
madhur komal kant padavali, rhinnu tada jaydev sarasvatim – may you become immersed in bliss by hearing Jayadeva’s narrations in these mellifluous, tender and pleasing songs.
Read it. Forget käntädhara and any other so called material sweet fruit or anything. For the rasika devotees, the astonishingly delightful taste of the rasa of Gita Govinda is not available anywhere else. The holy name is as sweet as Gita Govinda. You must relish the nectarean holy name. We shall stop here. We won’t be able to take questions today. Do try to read more about Srila Jayadeva Goswami during the day.
Hare Krishna. Thank you.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
2 February 2021
हमें आमतौर पर इस समय प्रतिदिन गुरु महाराज से सुनने की आदत है, लेकिन आज हमारे पास एक विशेष कार्यक्रम है। हम सभी बैक टू गॉडहेड पत्रिका से अवगत हैं। यह पहली बात थी जिसे श्रील प्रभुपाद ने शुरू किया था। आज गुरूमहाराज इसके ऑनलाइन संस्करण का उद्घाटन करेंगे जो बैक टू गॉडहेड पत्रिका का ई-पत्रिका संस्करण है। उद्घाटन वस्तुतः किया जा रहा है क्योंकि लगभग सब कुछ ऑनलाइन के लिए स्थानांतरित कर दिया गया है विशेष रूप से कोरोना समय के बाद से। यह मुद्रित पत्रिका डिजिटल प्रारूप में ई-पत्रिका के रूप में उपलब्ध होगी।आज हम पहली ई-पत्रिका शुरू करेंगे। पांडुरंग प्रभु का कहना है कि, इस साल श्रील प्रभुपाद इस्कॉन बीबीटी ( भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट ) इंडिया की 125 वीं उपस्थिति वर्षगांठ है, इसलिये BBT ई-पत्रिका जो डिजिटल बीबीटी अंग्रेजी, हिंदी और मराठी भाषाओं में उपलब्ध होगी को शुरू कर रहा है । मैं गुरु महाराज से अनुरोध करता हूं कि इस ई-पत्रिका बीटीजी का उद्घाटन करें।
गुरु महाराज:-
आज बैक टू गॉडहेड पत्रिका के इलेक्ट्रॉनिक संस्करण का उद्घाटन समारोह है। श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील प्रभुपाद की बीटीजी की जय! श्रील प्रभुपाद ने हमें भगवदधाम में वापस ले जाने के लिए कई कार्यक्रम बनाए और इस तरह के कार्यक्रमों में से एक है बैक टू गॉडहेड पत्रिका। भगवदधाम वापस जाने का अर्थ है कृष्ण के गाँव जाना। एक समय श्रील प्रभुपाद ने परम पूज्य भक्तिसिद्धान्तसरस्वती ठाकुर से मुलाकात की और सुबह की सैर के दौरान उन्होंने श्रील प्रभुपाद से कहा कि अगर आपको कभी पैसे मिलते हैं तो किताबें छापें।
इसलिए श्रील प्रभुपाद ने 1944 में बीटीजी की छपाई शुरू कर दी। श्रील प्रभुपाद बीटीजी पर भगवदधाम लौटने पर जोर दिया करते थे। यह पहला प्रकाशन था, अन्य प्रकाशनों से पहले, बैक टू होम, बैक टू गॉडहेड पर प्रभुपाद के रूप में किसी ने इतना जोर नहीं दिया। अपने कामों, व्याख्यानों में, प्रभुपाद एक ही बात का उल्लेख करते थे, बैक टू होम, बैक टू गॉडहेड (बीटीजी)। जैसे-जैसे उन्हें पैसे मिलते गए उन्होंने बीटीजी के नाम पर समय-समय पर छापाई की। वे खुद लिखते, फिर खुद ही टाइप करते और फिर उन्हें खुद ही छापते थे। वे इसे बांटने के लिए दिल्ली के चांदनी चौक में घर-घर जाते थे। 1947 में भारत की आजादी के बाद, डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने और श्रील प्रभुपाद ने उन्हें बीटीजी प्रकाशन के समर्थन के लिए एक पत्र लिखा। वह पत्र आज भी उपलब्ध है। वह, समर्थन के लिए पूछते हुए लिखते हैं और उन्होंने उल्लेख किया है कि, मैं सभी को वापस भगवदधाम ले जाना चाहता हूं। उस पत्र में वे यह भी लिखते हैं कि, मुझे एक सुराग मिला है कि जब मैं इस नश्वर शरीर को छोड़ दूंगा, तो मैं इस जीवन के बाद भगवान के पास वापस जा रहा हूं और इस प्रकार वे इस पत्रिका का वितरण करते रहे। यह काफी मुश्किल था। वे अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेशों का पालन कर रहे थे।
हालांकि, उन्हें भारत में पर्याप्त समर्थन और पर्याप्त धनराशि नहीं मिल पाई। इसलिए, उन्होंने विदेश में जाकर कृष्ण भावना (इस्कॉन) के लिए अंतरराष्ट्रीय सोसाइटी की स्थापना की। तब उन्हें भरपूर सहयोग मिला। सैकड़ों हजारों बीटीजी मुद्रित और प्रकाशित हुए जिसको वितरित किया गया।
मुझे बॉम्बे में अपना पहला बीटीजी 1971 में मिला, जब मैं हरे कृष्ण महोत्सव के लिए आया था। इसलिए, धगवदधाम वापस जाने की मेरी यात्रा शुरू हुई। मैं बुक स्टोर पर गया और कुछ किताबें खरीदीं, जिसमें से एक बीटीजी पत्रिका भी थी। मुझे याद है कि यह बहुत अच्छी गुणवत्ता और आकर्षक थी। मैंने कभी कुछ इतना आकर्षक नहीं देखा था। पैकेजिंग, सामग्री की छपाई, यह सब अद्भुत था। इसमें पीछे की तरफ श्री राधा लंदनेश्वर की तस्वीर थी। ब्रह्म संहिता का एक श्लोक भी था।
वेणुं क्वणन्तम् अरविन्ददलायताक्षम्
बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम्।
कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं
गोविन्दमादिपुरुषंतम् अहं भजामि।।
(ब्रह्मसंहिता ५.३०)
अनुवाद:- मैं गोविंदा की आराधना करता हूं, जो कि प्रधान भगवान हैं, जो अपनी बांसुरी बजाने में निपुण हैं, जिनकी आंखें कमल की पंखुड़ियों की तरह हैं, जो मोर के पंखों से कमल की पंखुड़ियों से लदे हुए हैं, नीले बादलों की छटा के साथ झूलती हुई सुंदरता की आकृति के साथ, और उनका अनूठा प्रेमपूर्ण आकर्षण लाखों कामदेव को आकर्षित करता है।
मुझे याद है कि मैं बीटीजी को पढ़ने और तस्वीरें देखने में घंटों बिताता था। मैं इस्कॉन की गतिविधियों के बारे में पढ़ता था। मैं बार-बार तस्वीरें देखता था। इस तरह मैंने अपनी यात्रा बैक टू गॉडहेड से शुरू की।
श्रील प्रभुपाद कहते थे कि बिटिजी पत्रिका इस्कॉन की रीढ़ है। इसका महत्व मानव शरीर की रीढ़ की हड्डी की तरह है। यह अंग्रेजी में शुरू किया गया था और फिर धीरे-धीरे श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को यथासंभव अधिक से अधिक भाषाओं में अपनी किताबें छापने का निर्देश दिया और आज BTG लगभग 100 से अधिक भाषाओं में उपलब्ध है। हम सभी नेता, गुरु और इस्कॉन के जीबीसी बैक टू गॉडहेड के ई-पत्रिका संस्करण को लॉन्च करते हुए बेहद प्रसन्न हैं। हम पहले से ही जानते हैं कि पिछले साल कोरोना वायरस के कारण सब कुछ टूट गया। प्रेस और डाक सेवा दोनों बंद थे, पांडुरंग प्रभु और टीम ने बीटीजी समय-समय पर डिजिटलकरण के इस विचार के साथ आए। यह अंग्रेजी में बैक टू गॉडहेड, हिंदी में भगवद दर्शन और मराठी में जाऊ देवाचिया गावा के रूप में उपलब्ध होगा। यह 2021 की शुरुआत है और श्रील प्रभुपाद की 125 वीं उपस्थिति वर्षगांठ है। इसलिए मुझे बैक टू गॉडहेड पत्रिका के इस डिजिटल संस्करण को मराठी बीटीजी के प्रमुख के रूप में लॉन्च करने के लिए कहा गया है और मैं इसे करने से ज्यादा खुश हूं। 1000 से अधिक स्थानों से भक्त हमारे साथ मौजूद हैं जो इस बात के गवाह हैं। यह एक हिंदी संस्करण है। इसमें लिखा है कि कृष्ण सभी कारणों से सर्वोच्च हैं।
निताइ गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
2 February 2021
Inauguration of Back to Godhead e-magazine
Today is the inaugural function of the electronic version of the Back to Godhead magazine. All Glories to Srila Prabhupada! All Glories to Srila Prabhupada’s BTG! Srila Prabhupada inaugurated so many programs to take us back to Godhead and one of the first of such programs is the Back to Godhead magazine. Going back to Godhead means going to the village of Krsna, our village. Srila Prabhupada met Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura in Vrndavana at Radha-Kunda and during a morning walk he said to Srila Prabhupada, “If you ever get money, print books.”
Srila Prabhupada started printing Back to Godhead magazines in 1944. This was the first publication, much before the other publications. Nobody emphasised going Back home, Back to Godhead as much as Srila Prabhupada did. He said that again and again – in his works, lectures, purports. As he got money he would print the BTG magazines. He would write, then type it and then get take it to the printers. He would go door to door in Delhi’s Chandni Chowk to distribute it. Then after India’s independence in 1947, Dr. Rajendra Prasad became the first President of India and Srila Prabhupada wrote to him for support BTG publication. That letter is available. He is asking for support and he mentions, “I wish to take everyone back home, back to Godhead.” This letter is available. In that letter he also writes, “I have a clue that when I leave this mortal body, I am going back to Godhead at the end of this life.” He kept on distributing this magazine. It was quite difficult, but he was following the orders of his spiritual master.
However, he was not able to get enough support and enough funds in India, so he went abroad and established the International Society for Krsna Consciousness (ISKCON). Then he got a lot of support. Hundreds of thousands of BTGs were printed, published and distributed.
I got my first BTG in Bombay in 1971 when I had come for the Hare Krsna Festival. My journey of going back to Godhead had started. I went to the book store and purchased some books, out of which a BTG magazine was also there. I remember it was very good quality and attractive. I had never seen something so attractive – the packaging, the printing, the content was all amazing. It had a picture of Sri Radha Londonisvara on the back cover.
There was a sloka from Brahma Samhita also.
veṇuṁ kvaṇantam aravinda-dalāyatākṣam-
barhāvataṁsam asitāmbuda-sundarāṅgam
kandarpa-koṭi-kamanīya-viśeṣa-śobhaṁ
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation
I worship Govinda, the primeval Lord, who is adept in playing on His flute, with blooming eyes like lotus petals with head decked with peacock’s feather, with the figure of beauty tinged with the hue of blue clouds, and His unique loveliness charming millions of Cupids (BS 5.30)
I remember spending hours reading the BTG and looking at the pictures. I would read about the activities of ISKCON and look at the photographs again and again. This way I started with my journey Back to Godhead.
Srila Prabhupada would say that the BTG magazines are the backbone of ISKCON. Its importance is like the backbone in the human body. It was started in English and then slowly Srila Prabhupada instructed his disciples to print his books in as many languages as possible. Today BTG is available in over 100 languages. All the leaders, Gurus and GBCs of ISKCON are extremely pleased to launch the e-magazine version of Back to Godhead. We are already aware that last year everything came to a stop, due to the Coronavirus. The press and the postal service were shut. Panduranga Prabhu and the team came up with this smart idea of digitalisation of the BTG magazine. It will be available as Back to Godhead in English, Bhagavad darshan in Hindi and Jau Devacya Gava in Marathi.
It is the beginning of 2021 and the 125th appearance anniversary of Srila Prabhupada. I have been asked to launch this digital version of the Back to Godhead magazine as the chief of Marathi BTGs and I am more than happy to do it. Devotees from over 1000 locations are present with us who are witnessing this. This one is the Hindi edition. It reads Krsna is the supreme cause of all causes.
Gaura premanande Hari Haribol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ०१.०२.२०२१
हरे कृष्ण!
780 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आप जप कर रहे हो?
जैसे मंदिर में घोषणा होती है मंगल आरती के समय या अंत में, पुस्तक वितरण का स्कोर बताया जाता है या कभी-कभी मंदिर में कितनी प्लेट प्रसाद वितरण हुआ या प्रभुपाद समाधि में कितने लोगों ने जप किया, इस प्रकार के स्कोर्स, पुस्तक वितरण स्कोर या प्रसाद वितरण स्कोर्स या कितने लोगों ने जप किया इत्यादि बताया जाता है, वैसे ही हम कम से कम आज तो कह रहे थे भगवान की प्रसन्नता के लिए कि 777 स्थानों से भक्त आज हमारे साथ जप कर रहे हैं, यह सुनकर क्या आप प्रसन्न हो ?बल्कि कहना तो यह चाहिए कि भगवान और भगवान के भक्तों की प्रसन्नता के लिए, भगवान और आप सब भक्तों की प्रसन्नता के लिए यह स्कोर कहा जा रहा है।
हरि हरि।।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी सच हो रही है, उन्होंने कहा था
पृथ्वी ते आछे यत नगर आदि ग्राम सर्वत्र प्रचार होईब मोर नाम
(चैतन्य भागवत अन्त्य-खंड 4.126)
मेरे नाम का प्रचार कहां-कहां होगा? एक उन्होंने कहा कि मेरे नाम का प्रचार पृथ्वी पर होगा,”पृथ्वी ते आछे यत नगर आदि ग्राम”
इस पृथ्वी पर जितने नगर हैं, जितने ग्राम हैं वहां मेरे नाम का प्रचार होगा। श्रील प्रभुपाद की व्यवस्था से या फिर कहना पड़ता है कि श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद के आदेशानुसार, यह भी मानना पड़ेगा कि श्रील भक्तिसिद्धांत प्रभुपाद ने अभय बाबू को 1922 में कोलकाता में आदेश दिया था कि “तुम पाश्चात्य देशों में भागवत धर्म का प्रचार करो”, इसको प्रभुपाद कभी-कभी कहते थे हरे कृष्ण का प्रचार करो, यह आदेश कहा तो भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने था, किंतु यह मानना पड़ेगा कि इसके मूल वक्ता, आदिवक्ता या यह विचार या इस वाणी से चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं। यह श्री चैतन्य महाप्रभु की वाणी है उन्होंने यह भविष्यवाणी की थी कि हरि नाम का प्रचार सर्वत्र होगा।
हरि हरि।।
महाप्रभु की वाणी का प्रचार वैसे ही हो जैसे महाप्रभु ने भविष्यवाणी की थी, तो यहां तैयारी हो रही है। चैतन्य महाप्रभु ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद को प्रेरित किया और फिर जब 1922 में अभय बाबू और उनके मित्र वहां पहुंचे थे तब श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने इंगित करते हुए प्रभुपाद को कहा कि तुम पाश्चात्य देशों में प्रचार करो और प्रभुपाद ने वैसे ही किया। श्रील प्रभुपाद पूरी जिंदगी इसकी तैयारी करते रहे, अंततः श्रील प्रभुपाद जलदूत में बैठे थे, श्री चैतन्य महाप्रभु के देवदूत भक्तिवेदांत स्वामी जलदूत में बैठे थे और न्यूयॉर्क की यात्रा कर रहे थे और उनको पाश्चात्य देश पहुंचना था।
हरि हरि।।
उनके वहां पहुंचने पर उनको संकीर्तन आर्मी जॉइन करेगी, प्रभुपाद को हम सेनापति भक्त कहते हैं या शास्त्रों में कहा गया है कि ऐसें एक सेनापति भक्त होंगें।संकीर्तन सेना के पति,”सेनापति”। जहाज में सेनापति बैठे थे, सेनापति जहाज का उपयोग करते हैं, वहां जाकर युद्ध होगा अब सैना है तो युद्ध भी होगा। उन्होंने न्यूयॉर्क को गंतव्य बनाया है, कभी-कभी भक्त कहते हैं,मैं भी कहता हूं कि सामान्यत: यह पाश्चात्य देश या विशेष रूप से न्यूयॉर्क को कलियुग की राजधानी कहा जा सकता है।न्यूयॉर्क हो या सैनफ्रांसिस्को हो, इनको श्रील प्रभुपाद ने अपना गंतव्य स्थान बनाया है। वहां जाकर हमला होगा, कलि के साथ लड़ेंगे उन्होंने अपने साथ हथियार ले रखे हैं। कौन से हथियार?उसको “बॉम्ब” कहते हैं, श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ क्या हैं?” टाइमबॉम्ब”। भागवतम् कि 200 प्रतियाँ प्रभुपाद अपने साथ लेकर गए और साथ में और कौन सा अस्त्र या शस्त्र ले रखा है?
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे। हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह शस्त्र भी साथ में ले रखा है और जब श्रील प्रभुपाद वहां पर पहुंचे, तब प्रभुपाद ने ग्रंथों का वितरण प्रारंभ किया जैसे आपने अभी-अभी ग्रंथों का वितरण किया है।प्रभुपाद ने जो भी अपने अनुयायियों को करने के लिए कहा उसे स्वयं भी पहले कर चुके थे, श्रील प्रभुपाद तभी अपने शिष्यों को या अनुयायियों को यह आदेश दिया।इस प्रकार संस्थापकाचार्य ने जगत को सिखाया । अपने आचरण प्रभु जगत सिखाये महाप्रभु हों या श्रील प्रभुपाद हों,अपने आचरण से सबको सिखाते हैं। श्रील प्रभुपाद ग्रंथ वितरण कर रहे थे, यहां तक कि जब प्रभुपाद अभी जलदूत में हीं थे, तब भी वहां पर जलदूत के कप्तान “कैप्टन पांडेय”, उनको भी प्रभुपाद ने अपने ग्रंथों का वितरण किया, बदले में उनको $20 मिले थे, रास्ते में भी प्रभुपाद ने ग्रंथों का वितरण किया और पहुंचने पर तो किया ही किया और हरि नाम का प्रारंभ हुआ। पहले तो अकेले ही प्रभुपाद प्रचार कार्य कर रहे थे, प्रभुपाद फुटपाथ पर बैठकर प्रचार कर रहे थे। एक बार दिल्ली में उपस्थित कुछ अतिथियों को मैं प्रभुपाद के संबंध में कुछ कह रहा था, या श्रील प्रभुपाद का परिचय दे रहा था तो मैंने कहा था कि प्रभुपाद न्यूयॉर्क में अकेले ही कीर्तन किया करते थे, मृदंग और करताल अकेले ही बजाया करते थे। प्रभुपाद ने कहा कि नहीं नहीं मृदंग नहीं, मृदंग भी नहीं था और मृदंग बजाने वाला भी कोइ नहीं था प्रभुपाद अकेले ही या तो ताली बजाते या करताल बजाते। इस प्रकार उस वक्त प्रभुपाद ने मुझे सुधारा, जो उस वक्त दिल्ली में मैंने प्रभुपाद के संबंध में कहा था। प्रभुपाद अकेले थे और इतने सारे प्रयास चल रहे थे,लेकिन उस समय भी प्रभुपाद यह कह रहे थे कि मेरे कई सारे मंदिर हैं और कितने सारे मेरे भक्त हैं, प्रभुपाद इसको 1965 में कह रहे थे, जब एक भी मंदिर नहीं था। प्रभुपाद ने कहा कि देखो कितने सारे मंदिर हैं कितने सारे भक्त हैं, प्रभुपाद दूरदृष्टि वाले थे। “त्रिकालज्ञ प्रभुपाद”, “भूत-भविष्य-वर्तमान के ज्ञाता श्रील प्रभुपाद”। प्रभुपाद देख रहे थे मंदिर तो थे नहीं, प्रभुपाद अकेले ही थे लेकिन उन्हें इस विषय में दिखाई दे रहा था कि ऐसा होना है और जरूर होगा। मैं प्रयास कर रहा हूं तो यह प्रचार फैलने वाला है और लोग हरि नाम संकीर्तन करेंगें, जप करेंगे, फिर मंदिर भी होंगे, भक्त रथयात्रा भी मनाएंगे और ग्रंथ वितरण भी होगा। कृष्ण जन्माष्टमी जैसे उत्सव भी मनाए जाएंगे, प्रसाद वितरण होगा, फूड फॉर लाइफ होगा, यह सब श्रील प्रभुपाद देख रहे थे और उनके देखते-देखते यह सब हो भी रहा था।प्रभुपाद के पास कुछ 10 साल ही थे, 1965 में पहुंचे1966 में इस्कॉन की स्थापना की, न्यूयॉर्क में इस्कॉन की स्थापना हुई और फिर 10-11 वर्षों के उपरांत, 77 की उम्र में श्रील प्रभुपाद वैकुंठ वासी, नित्य लीला में प्रविष्ट हुए, उन्होंने ऐसे देखे मंदिर बनते हुए । वही बात है, प्रभुपाद का जब जन्म हुआ था तब उनकी जब कुंडली देखी गई तो उस समय पर भविष्यवाणी हुई थी कि यह बालक अपने जीवन में 108 मंदिरों की स्थापना करेगा, वह भी सच होना ही था, वो मंदिर हैं इस्कॉन के मंदिर। प्रभुपाद अकेले ही थे जब ग्रंथों का वितरण कर रहे थे, कीर्तन कर रहे थे और उसी के साथ जैसे हमने कहा कि प्रभुपाद कलि को परास्त करने के लिए आए थे, प्रभुपाद यात्रा में आगे बढ़े, जलदूत से न्यूयॉर्क गए। कलि क्या करता है कली के अड्डे कौन-कौन से होते हैं? भागवतम् के प्रथम स्कंध में स्पष्ट लिखा है
सूत उवाच
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ। द्यूतं पानं स्त्रिय: सूना यत्राधर्मश्चतुर्विध:॥
(भागवतम् 1.17.38)
“सूत गोस्वामी ने कहा : कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी , जहाँ जुआ खेलना , शराब पीना , वेश्यावृत्ति तथा पशु – वध होते हों ” जहां द्यूत क्रीड़ा, जुआ आदि खेले जाते हैं,वह है कलि का अड्डा। जहां मद्यपान होता है, सामान्यता कहे तो चाय पान भी।चाय पान भी नशा पान ही है। जहां परस्त्री-पुरुष गमन होता है, वैश्या गमन होता है, अवैधयौन जहां होता है वहां कलि है और जहां कत्लखाने होते हैं। कत्लखाने बोले या मासभक्षण या जहां पशुओं के गले काटे जाते हैं या जहां लोग पशुओं का खून पीते हैं, मांस खाते हैं।
हरि हरि ।।
आजकल तो लोग गाय को भी नहीं छोड़ते, गाय, जो हमारी माता है, माता का भी भक्षण करते हैं, मां को खा लेते हैं। इन से अधिक बड़े राक्षस कौन होंगे? यह कली का प्रभाव है। वहां कलि है जहां मांस भक्षण होता है, अवैधयौन होता है, फिर वर्णसंकर भी होता है। स्त्रियाँ गर्भवती होती हैं, गर्भ से बालक जन्म लेता है और फिर मॉ ही बच्चे की जान ले लेती है, गर्भपात करती है, कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन कल्पना करने कि आवश्यकता ही नहीं है।यह सब हो ही रहा है यह सब घटनाएं घटित हो रही हैं। माताएं अपने बच्चों की जान ले रही है, गर्भपात हो रहें है या गौ माता का भक्षण हो रहा है, यही है कलियुग।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।(भगवद् गीता2.59)
जहां चार प्रकार के अधार्मिक कृत्य होते हैं, वहां रहो हे कलि, ऐसा कहकर राजा परीक्षित ने कलि पर दया दिखाई। उसकी जान नहीं ली और ऐसे स्थान कलि को दे दिए। 5000 वर्ष पूर्व की बात है ये और फिर इस कली ने अपना जाल फैला दिया। यह मत समझना कि यह केवल हिंदुओं की बात है अरे,कौन सा कलि? कौन से कलि की बात कर रहे हो तुम? हमें नहीं पता कौन कलि? हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, हम नहीं मानते। पाश्चात्य देश के लोग कह सकते हैं कि हम कलि को नहीं मानते, कलि को नहीं जानते, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, हमें कोई चिंता नहीं है कलि की। लेकिन कलि तो सर्वत्र है ही आप नहीं जानते हो या नहीं मानते हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सूर्य तो है ही, आप अंधे हो और आपको सूर्य दिख नहीं रहा है इससे सूर्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। कोई कह सकता है कि सूर्य का अस्तित्व नहीं है कौन कह रहा है ये? ‘अंधा’, क्या कीमत है अंधे की कहने की कि सूर्य नहीं है। उसी प्रकार भगवान नहीं है ऐसा कहने वाला होता है कामांध। काम से अंधा। अवैध स्री पुरुष संग में जो लिप्त हैं, कामांध हैं। जब काम कि तृप्ति नहीं होती तो वह क्रोधांध, क्रोधी बनता है।लोभी बनता है। धनांध जैसे कुबेर के पुत्र अंधे बन चुके थे, नारद मुनि तो जा रहे थे नारायण नारायण नारायण कहते हुए उन्होंने देखा ही नहीं, देखा नहीं तो उनको कोई फिक्र भी नहीं थी क्योंकि अंधे थे।नारद जी जैसे महा भागवत पर भी ध्यान नहीं दिया, वहां लिखा है धनानंध तो इस प्रकार के लोग अंधे बनाए गए हैं, उनको दिखता नहीं है । पाश्चात्य देश के लोग भी अगर कहें कि कलि क्या होता है? हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कलि से, तो वह अनाड़ी हैं। उनको सतयुग का पता नहीं है, त्रेतायुग का पता नहीं है, द्वापर का पता नहीं है, कलियुग का पता नहीं है। अभी-अभी मनुष्य बना है वो, पहले तो बंदर ही था, मनुष्य बंदर कि औलाद है ऐसा डार्विन ने भी कहा जो इंग्लैंड के महाशय थे। डार्विन और सभी ने मुंडी हिलाना शुरू कर दिया था, हां हां डार्विन थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन हम स्वीकार करते हैं और कहने लगे कि हमारे पूर्वज कौन हैं? बंदर। वैसे हमारे पूर्वज तो ब्रह्मा हैं जो वैदिक संस्कृति को अपनाते हैं या स्वीकार करते हैं, उनकी समझ है कि हमारे पूर्वज तो ब्रह्मा हैं।पाश्चात्य देशों में डार्विन ने प्रचार किया कि हमारे पूर्वज बंदर हैं, वानर हैं, हम बंदर की औलाद हैं। हैं क्या?
प्रभुपाद जब न्यूयॉर्क पहुंचे थे तो ग्रंथों के वितरण से और हरे कृष्ण कीर्तन से, प्रसाद से कहो। प्रसाद में इस्कॉन की बुलेट्स हैं, यह पुस्तकें टाइम बम हैं और हरि नाम भी एक अस्त्र है, ब्रह्मास्त्र है हरि नाम तो। प्रसाद भी है, एक शस्त्र या बुलेट्स कहो।इस्कॉन की बुलेट्स कौन सी है? पुंडरीक विद्यानिधि इस्कॉन की बुलेट जानते हो?इस्कॉन में हम लोग गोली खिलाते हैं।सैनिक क्या करता है? सैनिक गोली खिलाते हैं और फिर शत्रु घायल हो जाता है। इस्कॉन के जो सैनिक हैं, जिन सैनिकों के सेनापति हैं श्रील प्रभुपाद। वह गोली है गुलाब जामुन, यह सब खिलाया प्रभुपाद ने। ग्रंथ वितरण टाइम बम, हरि नाम ब्रह्मास्त्र, प्रसाद वितरण इस्कॉन बुलेट्स।इससे क्या हुआ? पाश्चात्य देशों कि विचारधारा या पाश्चात्य देशों की पशु वृति का विनाश हुआ। उसका विनाश किया श्रील प्रभुपाद नें और परम दृष्टवा निवर्तते।
उनको कुछ ऊंचा स्वाद दिया, उनकी आत्मा आत्माराम बन रही थी। उनको आत्मा में आराम मिल रहा था वो इस तरह तैयार हुए। श्रील प्रभुपाद ने अभी अभी जो अनुयायी बन ही रहे थे उनमें से कुछ गिने-चुने को इकट्ठा किया और प्रभुपाद ने कहा कि मैं अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना कर रहा हूं। मुझे अनुयायी चाहिए, मुझे मदद चाहिए, आप में से कुछ लोग या जो तैयार हो, क्या मुझे मदद कर सकते हो? उन्होंने पूछा कि कौन सी पूर्व तैयारी करनी है आप हमसे क्या उम्मीद करते हो? क्या कोई नियम है जिसका हमें पालन करना होगा ताकि आपके संघ के हम भी अनुयायी बन सकते हैं? आपकी मदद कैसे कर सकते हैं? प्रभुपाद ने पहली बार औपचारिक रूप से कहा कि आपको 4 नियमों का पालन करना होगा। वह कौन से हैं? प्रभुपाद ने कहा कि मांसाहार नहीं, जुआ नहीं, अवैध स्त्री पुरुष संग नहीं, नशा नहीं और फिर प्रभुपाद ने पूछा, क्या आप तैयार हो? वहां जितने अमेरिकी युवा लड़कें और लड़कियां उपस्थित थे, उन्होंने हाथ ऊपर करके कहा कि हां स्वामी जी, हम तैयार हैं। उसी के साथ “परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम”।।
चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महा-दावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः-कैरव-चन्द्रिका-वितरणं विद्या-वधू-जीवनम् आनन्दाम्बुधि-वर्धनं प्रति-पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म-स्नपनं परं विजयते श्री-कृष्ण-सण्कीर्तनम्
(चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.12)
संकीर्तन आंदोलन की जय हो और यह कलियुग के अंत की शुरुआत थी। क्या समझे आप? यह शुरुआत थी। शुरुआत हुई अंत की, कलि समाप्त होगा, सर्वत्र परास्त होगा उसकी शुरुआत हुई न्यूयॉर्क में। इस प्रकार सेनापति भक्त श्रील प्रभुपाद विजयी हुए।
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ (18.78भगवद् गीता)
जहां गुरु और गौरांग की टोली है गुरु गोरांग जयते, वहां जीत होती है, यह जीत हुई और प्रभुपाद जहां-जहां गए उन्होंने कलि को परास्त किया और संकीर्तन आंदोलन की जीत हुई।
हरि हरि।।
प्रभुपाद के प्रारंभ किए हुए इस कार्य को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी अब हमारी है।सब मिलकर प्रयास करो। वैसे कार्य तो गौरांग महाप्रभु का है। कलियुग अवतारी गोरांग महाप्रभु की इस भविष्यवाणी को सच करने के लिए प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावना मृत संघ की स्थापना की और अपने जीवन में इतना सारा कार्य किया और यश कमाया और उनकी यह अपेक्षा थी कि जब मैं नहीं रहूंगा तो मेरे अनुयायी आपस में सहयोग करें। अगर आप कहते हो कि आपको मुझ से प्रेम है, मैं समझूंगा कि आप मुझसे प्रेम करते हो अगर आप आपस में सहयोग करोगे। जब आप एक दूसरे को योगदान दोगे, एक दूसरे की मदद करोगे। किसके लिए मदद? इस संस्थान को बचाने के लिए प्रभुपाद द्वारा स्थापित इस संस्थान की रक्षा के लिए अब यह कार्य हमको करना है, एक दूसरे को योगदान देना है । जो नेतृत्व कर रहे हैं उनकी मदद करनी है उनको योगदान देना है ।
हरि हरि ।।
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
1 February 2021
Srila Prabhupada inaugurated the beginning of the end of the age of Kali
Hare Krsna! For the pleasure of the Lord Sri Sri Pancatattva and Radha Mādhava, Radha Pandharinātha, Srī Narsimha Deva, we have devotees from 780 locations chanting with us today.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
As we make announcements in the temple after manglā ārati of japa scores, book distribution scores, prasada distribution scores, similarly today we are announcing the number of locations where devotees are chanting for the pleasure of the Lord and the devotees. The prediction made by Lord Srī Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu is getting fulfilled.
pṛthivīte āche yata nagarādi grāma
sarvatra pracāra hoibe mora nāma
Translation
As many towns and villages there are on the surface of the globe, everywhere people will know My name. (CB Antya-khaṇḍa 4.126)
Lord Caitanya predicted, My name will be chanted in each and every town on this earth and Srīla Prabhupāda made it possible. When we say this, it also reminds us that Srīla Prabhupāda did this following the instructions of Srīla Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur. In other words, Srīla Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur was inspired by Srī Krsna Caitanya Mahāprabhu to instruct Abhay Babu, who is Srīla Prabhupāda, in 1922 in Kolkata to preach Bhāgavata dharma in foreign countries. Srīla Prabhupāda spent his whole life in preparation. He was sitting in the Jaladuta, crossing Europe, and travelling to another land where the whole Sankīrtana army would join him. Srīla Prabhupāda is our Senapati bhakta. It was mentioned in the sastras that one commander will fight Kaliyuga or preach this Krishna consciousness around the globe, beginning from New York which is the kingdom of Kali. Srīla Prabhupāda went with time bombs, the 200 sets of Bhāgavatam and another powerful weapon which he carried with him was the Hare Krishna mahā-mantra.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
When the army joined Srīla Prabhupāda, he instructed his disciples to perform different activities. As we were distributing Bhagavad Gīta last month, Srīla Prabhupāda also did this and guided others how to do it as well. Srīla Prabhupāda could guide because this is what he had done in India, when he was completely alone.
āpani ācari prabhu jīvere śikhāya
āpna vañcaka yei sei jirjane bhajāya
Translation
The Lord sets example Himself to teach the spirit souls. The one who performs nirjana bhajana simply cheats himself. (Vrndavane Bhajana Sections 18, Srila Visvanatha Cakravarti Thakura)
Mahāprabhu and Srīla Prabhupāda has taught us through their behaviour. Srīla Prabhupāda distributed his books even to the captain of the ship from whom he got 20 dollars. He preached single handedly on the roads and it triggered Harināma chanting. I remember, one time I was in Delhi with Srīla Prabhupāda and I was introducing him to some visitors, “In the initial days when Srīla Prabhupāda was in New York, he used to play kartāla and mrdangas.” Then Srīla Prabhupāda immediately corrected me and said, “No, even mrdanga was not there”. Srīla Prabhupāda chanted with clapping and karatāls only. One time he was sitting in a park where he told a person, “You can’t see, but I can see. I will be building temples around the globe. My disciples will be everywhere, I will be distributing books around the world. People will be doing Harināma, celebrating Ratha-yatra and Janmastami festivals. There will be food for life.” Srīla Prabhupāda was far sighted. He could see that even before its physical manifestation. Srīla Prabhupāda went to New York in 1965, established ISKCON in 1966 and went back home, Back to Godhead in 1977. When Srīla Prabhupāda was born, it was predicted that he would build 108 temples and that’s exactly what happened. When Srīla Prabhupāda went to New York, he defeated the forces of Kali. The places where Kali can exist, is mentioned in Srimad Bhāgavatam.
abhyarthitas tadā tasmai
sthānāni kalaye dadau
dyūtaṁ pānaṁ striyaḥ sūnā
yatrādharmaś catur-vidhaḥ
Translation
Sūta Gosvāmī said: Mahārāja Parīkṣit, thus being petitioned by the personality of Kali, gave him permission to reside in places where gambling, drinking, prostitution and animal slaughter were performed. (ŚB 1.17.38)
Kali is where gambling, drinking, prostitution and animal slaughter is performed. In slaughterhouses, even cows are killed and eaten. The cow is our mother, but people kill and eat them. Such monsters! The place where illicit sex takes place, is Kali. Ladies get pregnant and a mother herself kills that child. She aborts her child. These all are happening. Out of compassion, 5000 years ago Maharaja Pariksit permitted Kali to live in these four places and then Kaliyuga spread. You may agree to the existence of Kali or you may refute it, but this has happened and it’s still happening. For example, a blind man can say, “Oh! I can’t see any sun. Who says there is a sun. The sun doesn’t exist.” What is the value of such a statement from a blind man? Similarly people who say there is no God, are blinded by lust, greed and anger. Like the sons of Kuber, blind in lust disrespected Nārada Muni. Foreigners may refuse this philosophy of Satya yuga, Treta-yuga, Dvapara-yuga and Kaliyuga because they are blind. Such foreigners accept that they originated from a monkey. They accept Darwin’s theory of evolution and any person who believes in Darwin’s theory will think that his origin is the monkey. People who believe in Vedic culture understand that they originated from Brahma. Srīla Prabhupāda prepared his army through his books (time bombs), ISKCON bullets (Gulab Jamun) and the Hare Krishna mahā-mantra (Brahmastra) and destroyed their animal mentality.
viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ
rasa-varjaṁ raso ’py asya
paraṁ dṛṣṭvā nivartate
Translation
Though the embodied soul may be restricted from sense enjoyment, the taste for sense objects remains. But, ceasing such engagements by experiencing a higher taste, he is fixed in consciousness. (BG. 2.59)
Later when Srīla Prabhupāda was officially creating this society, there were a few followers who asked him the terms and conditions to become a member of the society? Then, for the first time, Srīla Prabhupāda mentioned that members of this society will have to follow four regulative principles. After mentioning those principles, he asked those devotees, “Are you ready to follow these principles?” and in response they said, “Yes, we are ready Swamiji.” This param vijayate sri-krishna-sankirtanam was the beginning of the end of Kaliyuga. This is how this movement started.
yatra yogeśvaraḥ kṛṣṇo
yatra pārtho dhanur-dharaḥ
tatra śrīr vijayo bhūtir
dhruvā nītir matir mama
Translation
Wherever there is Kṛṣṇa, the master of all mystics, and wherever there is Arjuna, the supreme archer, there will also certainly be opulence, victory, extraordinary power, and morality. That is my opinion. (BG. 18.78)
Where there is Guru and Gauranga, victory is assured, guru gaurango jayatah. Srīla Prabhupāda defeated Kali wherever he went and the Sankīrtana movement won. Now it’s our responsibility to carry on the work that Srīla Prabhupāda had started. In order to make true the prediction of Srī Krsna Caitanya Mahāprabhu, Srīla Prabhupāda established ISKCON and engaged us in this movement. Before leaving this world for Vaikuntha or Goloka, he told his followers, “You say you love me, but your love for me will be expressed by the way you cooperate with each other to protect this institution.” Now we have to cooperate with the authorities and leaders of ISKCON.
Gaura premanande hari haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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