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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
31 जनवरी 2021
(जय) श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृंद।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
हरे कृष्ण, आज हमारे साथ 800 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि हरि। सब को ठीक से सुनाई दे रहा है? अभी कुछ श्रोता मेरे सामने भी बैठे हुए हैं। इस जपा टॉक के अंतर्गत हम श्रील प्रभुपाद के हरिनाम के संबंधित टॉक के ऊपर यानी चर्चा के ऊपर चर्चा करते हैं, या श्रील प्रभुपाद के हरिनाम के ऊपर चर्चा या विधि को, या निषेध को, जिसको प्रभुपाद ने कहा है, उनको समझने का यथासंभव प्रयास कर रहे हैं। हम श्रील प्रभुपाद का टॉक 3 दिनों से सुन रहे हैं और अभी शेष वचन जो है आज सुनेंगे या उसकी पूर्णाहुति होगी। हरि हरि। बातें तो कुछ अधिक नहीं बची हैं लेकिन उसके साथ जुड़े हुए भावों की गहराइयां या ऊंचाई अधिक है। ऐसी बातों को कहते कहते और समझते समझते समय तो बीतता ही है। प्रभुपाद हमेशा कहा करते थे, “कृष्ण राम और हरा यह तीन शब्द हरे कृष्ण महामंत्र के परलौकिक बीज हैं और जप मतलब भगवान को कि हुई आध्यात्मिक पुकार है। और हरा इसकी आंतरिक शक्ति है जो जीव को जागरूकता प्रदान करती है।” श्रील प्रभुपाद ने इसको पढ़ा था और समझाया भी था और श्रील प्रभुपाद आगे लिखते हैं कि, जप बिल्कुल वास्तविक रोना है जैसे एक बच्चा अपनी मां के लिए रोता है। तो फिर आगे यह बताने की जरूरत नहीं है कि जप कैसे करें या, कीर्तन कैसे करें और उसमें एक और कहा जा सकता है कि जैसे प्रभुपाद ने यंहा पर कहा है, जप बिल्कुल एक वास्तविक रोना है, जैसे बच्चा अपनी मां के लिए रोता है या फिर जप या कीर्तन ऐसा हो की, एक छोटे बच्चे की मां के लिए रोने जैसा लगे और बालक किसके लिए रोता है? मां के लिए रोता है! हरि हरि। तो यहां हम बालक हैं, और रो सकते हैं, लेकिन हमें रोना नहीं आता है! रोना सीखना है! फिर हमारी मां कौन है? अगर भक्त बालक है, और बच्चा है जैसे अभी बड़े नहीं हुए, अभी भी बच्चे ही हैं। हमारे लिए मां कौन है? भक्तों के लिए मां कौन है? भक्तों के लिए मां भगवान है! बच्चे के लिए कौन होती है मां होती है ना? पहले कौन होता है? मां होती है या बच्चा? मां होती है और इसीलिए बालक होता है! ऐसे ही अगर भक्त बालक हैं, नए भक्त अगर बालक हैं, हम षड गोस्वामी जेसे पुराने भक्त नहीं हैं! उत्तम भक्त, समझदार भक्त नहीं हैं! हम अभी नए-नए हैं, ऐसे ही बालक के पहले मां होती है, अगर मां है तभी बालक है, तो वैसे ही अगर हम भक्त हैं नए या पुराने हैं, अगर भक्त हैं तो फिर भगवान होने चाहिए कि नहीं? पहले भगवान और फिर बाद में भक्त! वैसे आध्यात्मिक जगत में पहला और बाद में यह नहीं चलता है। जब भगवान थे उस समय भक्त भी था,
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
(भगवतगीता १५.७ )
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिनमें मन भी सम्मिलित है।
एक समय ऐसा भी था जब केवल भगवान थे और कोई नहीं था, ऐसा समय ही नहीं होता गीता के प्रारंभ में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि ऐसा समय नहीं था जब तुम नहीं थे यह राजा नहीं थे ऐसा कोई समय ही नहीं था संसार ने ऐसा समय देखा ही नहीं जब हम नहीं थे और हम सदा के लिए रहेंगे भी भगवान शाश्वत हैं तो हम भी शाश्वत ही हैं हम उनके भक्त या अंश भी शाश्वत ही हैं पहले अंडा या पहले मुर्गी ऐसे क्रश प्रश्न का उत्तर कठिन है तो ऐसे ही पहले भगवान या पहले भक्त लेकिन पहले वक्त तो हो ही नहीं सकता तो ऐसा कोई समय नहीं था जब भगवान थे और कोई नहीं था या जीव नहीं था तो हम हैं भक्त और हमारी मां है भगवान!
विठू माझा लेकुरवाळा
संगे गोपाळांचा मेळा
विठू माझा लेकुरवाळा
(संत जनाबाई अभंग)
तो भगवान विठोबा! विठोबा रखुमाई! हमारे विठोबा! कोई कोई विठू माऊली या विठुआई ऐसे भी कहते हैं। विठोबा माऊली हैं! मां हैं! वैसे मां भी हैं और बाप भी हैं! बा है ना विठोबा? म्हसोबा नहीं! म्हसोबा का भी बाप है विठोबा! म्हसोबा, खंडोबा, ज्योतिबा इनके बाप भी विठोबा ही हैं! या फिर भगवान केवल मा ही नहीं हैं,
त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।।
भगवान हमारे सब कुछ हैं, वैसे अलग-अलग संबंध हैं भगवान के साथ तो यह जो चर्चा हो रही जॉब या कार्य कर रहे हैं वास्तविक रोना, बालक का वास्तविक रोना अपनी मां के लिए, हम हैं बच्चे और हमारा रोना भगवान के लिए है। एक तो रोना वास्तविक होना चाहिए असली होना चाहिए जैसे असली भाग होते हैं वैसे ही यह वास्तविक भाव होना या वास्तविक रोना जैसे बालक का वास्तविक रोना कहा है। बाबा का वास्तविक रोना नहीं कहा, एक बच्चे के रोने में और एक बाबा के रोने में अंतर हो सकता है। इसीलिए जानबूझकर प्रभुपाद जब रोने की बात कर रहे हैं तो कहते हैं कि रोना वास्तविक होना चाहिए और एक बालक का ही रोना वास्तविक होता है।
जब बालक धीरे-धीरे बड़ा होता है तो इस संसार में या कलयुग में पाखंड चलता रहता है और कलयुग की पहचान ही है पाखंड या ढोंग तो फिर लोग रोने का भी प्रदर्शन कर सकते हैं तो जब कोई शोकसभा होती है या स्मृति सभा होती है तो वहां पर रोना होता है या रोना चाहिए, तो लोग फिर अपना रुमाल थोड़ा सा गिला करके ले जाते हैं और फिर समय-समय पर आंख पोंछते हैं या आपको गिला भी करते हैं। अश्रु तो नहीं होते लेकिन वे दिखाते हैं कि, हां हां मैं रो रहा हूं! इसकी मृत्यु हुई है और मैं शोक कर रहा हूं और जब शौक कर रहा हूं तो आंख में आंसू हैं लोग ऐसा दिखाते हैं। लेकिन लोग ढोंग करते हैं तो कभी कभी दूसरे कहते हैं, क्या तुमने मुझे बुद्धू समझा है? क्योंकि वे उनको पकड़ लेते हैं। ऐसा ढोंग नहीं चलेगा! एक पार्टी दूसरे पार्टी की ठगाई करती है तो कोई कोई बीच मे बोलता है कि, मुझे सब पता है, क्या तुमने मुझे बुद्धू समझा है? तो अगर किसी के ठगाई या ढोंग को अगर साधारण लोग भी समझ लेते हैं, भगवान को कोई ठग सकता है? अगर हमारा रोना वास्तविक नहीं है लेकिन हम इसका प्रदर्शन कर रहे हैं, तो क्या आप भगवान को मना पाएंगे? यहां पर ठगाई नहीं चलेगी और भगवान के सामने तो एक क्षण के लिए भी नहीं चलेगी! हरि हरि। ठगाई तो खूब चलती रहती है। वैसे जो रोना है अध्यात्मिक जगत में या आध्यात्मिक स्तर पर खूब चलता है यह स्वाभाविक है कि,
भगवान के लिए आंसू बहाना और आंसुओ के भी दो प्रकार होते हैं। आनंद के भी आश्रु होते हैं और दुख के भी आश्रु होते हैं। दोनों प्रकार के आंसू बहाना गोलोक में वैकुंठ में थोड़ा कम होगा। गोलोक में यह रोज की दिनचर्या है। यह पग पग पर चलता रहता है। भगवान के लिए रोना। हरि हरि। पिछले साल एक भक्त सेमीनार दे रहे थे गोवर्धन में। उसका विषय था कृष्ण के लिए रोना। कृष्ण के लिए असली ऐसा ही विषय था उनका। मुझे यह ज्ञात नहीं है कि होने कैसे विवरण और प्रस्तुतीकरण किया। यह विषय अग्रिम अध्य्यन है। यह क ख ग नहीं है। यह पीएचडी स्तर का विषय है। हरि हरि। लोग तो पहुंचे हुए महात्मा नहीं होते, लेकिन दिखाते तो हैं वह कई बार पहुंचे तो नहीं होते, लेकिन हम पहुंचे हैं। जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश किया था।
क्या हुआ ? बहुत कुछ हुआ जगन्नाथ के लिए रोना एक प्रकार का भाव है, ऐसे ही कई सारे भाव प्रदर्शित होते हैं। संख्या 8 होती है और उसके अलग-अलग लक्षण हैं। हमारे असली भाव और भक्ति का लक्षण और प्रदर्शन होता है। लक्षण दिखाना नहीं चाहते तब भी दिखते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने प्रवेश किया तो उनका गला गदगद हो उठा। इसके कारण वह जगन्नाथ भी नहीं कह पाए। जग जग जग इतना ही शब्द निकल रहा था। नाथ भी नहीं कह पा रहे थे। किब शिव शुक नारद प्रेमे गदगद प्रेमे गदगद गला उनका गदगद हो गया। शिवजी पहुंचे, शुकदेव गोस्वामी हैं, नाराद जी हैं, देखो देखो गौरंग महाप्रभु की आरती को तो देखो। किब जयो जयो गौराचंद्र आर्तिको शोभा उस आरती में नारद जी और शुकदेव गोस्वामी पहुंचे हैं। जब वह आरती गा रहे हैं और दर्शन भी हो रहा है।
गला गदगद हो उठना भी एक लक्षण है और यह लक्षण हमने चैतन्य महाप्रभु में देखा। हरि हरि। राधानाथ महाराज की जय। महाराज भी जब गाते हैं तो हम उनके चेहरे पर देख सकते हैं। उनके चेहरे पर भाव देख सकते हैं, वह कृष्ण को याद कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का गला गदगद हो उठा, वह लोटने लगे दर्शन मंडप में, उनका प्रयास था कि जगन्नाथ के ओर दौड़ रहे थे लेकिन वह धड़ाम गिर गए और उनको ध्यान नहीं रहा। तो तब वैसे वहां के पुजारी ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। ऐसे तो कहीं सारे देखे हमने। लोग आते हैं अपने भाव भक्ति का प्रदर्शन ढोंगी पाखंडी करते रहते हैं। हमने तो कई सारे देखेंगे तो यह एक और है। किंतु वह जो भाव थे, असली भाव थे।
जो सिद्ध हुआ सर्व भट्टाचार्य वह निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे की हमने तो कई सारे देखे हैं। यह भी उसी माला के और एक मणि होंगे ऐसा सर्व भट्टाचार्य ने नहीं समझा। वह परीक्षा लेना चाहते थे। निरीक्षण परीक्षण हुआ तो उन्होंने घोषित किया यह केवल भाव ही नहीं है, यह महाभाव है। भाव भक्तों में हो सकता है किंतु राधारानी में होता है महाभाव। महाभाव स्वरूप श्रीराधा ठाकुरानी सर्व गुण खानी कृष्णकांतशिरोमणि। लोग तो नकल करते रहते हैं असली नहीं होते नकली होते हैं। इस कलयुग में ऐसा प्रदर्शन चलता ही रहता है। लेकिन उससे काम नहीं बनेगा। इसका क्या फायदा? सन १९७७ मायापुर उत्सव हुआ था। जय पताका महाराज के निर्देशन में उस कार्यक्रम का संचालन हो रहा था।उन्होंने एक कीर्तन प्रतियोगिता रखी थी और पूरे बंगाल भर के अलग-अलग कीर्तन मंडलियों ने भाग लिए थे। उन दिनों जहां कीर्तन होते थे। लोटस इमारत में द्वितीय मंज़िल पर प्रभुपाद रहते थे उसका स्पीकर उनकी इमारत की तरफ था। सारा कीर्तन प्रभुपाद के कानों तक पहुंच रहा था। बंगाल के जो कीर्तन मंडलियां पूरा प्रदर्शन कर रही थी कि अपनी भक्ति भावना का, कुछ पूछो नहीं और उसमें विश्व भर के भक्त सम्मिलित थे। फिर क्या कहना विदेश के लोग देखेंगे हमारे कीर्तन को देखेंगे और सुनेंगे तो फिर थोड़ा विशेष प्रयास रहा उनके प्रदर्शन का। तो उस कीर्तन के समय लोग ऐसे रो रहे थे, सच में रो रहे थे।
एक दूसरे को गले लगा रहे थे, आलिंगन दे रहे थे, जमीन पर लोट रहे थे। एक के बाद एक के बाद एक मंडली अपना प्रदर्शन कर रही थी, उनको लग रहा था जो मंडली अधिक रोएंगे वह जीतेंगे। लेकिन वह सारा प्रदर्शन ही था। प्रभुपाद भी सुन रहे थे तो उन्होंने यह बात पकड़ ली और वह समझ गए, यह असली नहीं है। यह तो ढोंग है स्वांग है। प्रभुपाद कह रहे थे जप कर रहे हैं और गा रहे हैं वह भगवान के लिए नहीं गा रहे हैं, वह धन के लिए गा रहे हैं। विजेता मंडली को फिर कुछ पुरस्कार मिलेगा, रु500 या रु1000। प्रभुपाद ने कहा अब यह प्रतियोगिता नहीं होगी। अब बहुत हो गया यह पहला और आखरी था। हरि हरि। यह जो कीर्तन में रोने वाले जो लोग होते हैं। जय पताका महाराज ने हमको कहा कि जो कीर्तन के लिए आते हैं। साथ में एक डिब्बी लेकर आते हैं, उसमें होती है मिर्च पाउडर। कीर्तन करते करते ही बड़ी चालाकी से कुछ नाक में कुछ आंखों में मिर्ची डाल लेते हैं तो फिर अगले 1 घंटे तक फिर रोते रहते हैं और यह भाव कैसा है चिली (मिर्च) भाव है। यह भाव भक्ति आत्मा से नहीं आ रही है। यह सिर्फ आंखों तक ही सीमित है। इसकी गहराई आत्मा तक या हृदय तक, गहराई कहो या संबंध यह आत्मा की पुकार नहीं है। जब तक हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे आत्मा की पुकार नहीं आए तो वह पुकार कोई सुनने वाला भी नहीं है, कम से कम भगवान तो नहीं सुनेंगे, वैसे सुनेंगे तो सही जैसे प्रभुपाद सुन रहे थे। लेकिन वह समझ जाएंगे उसी क्षण, ये रोना कैसा है आंसु बहाने के पीछे क्या विचार है, मन की स्थिति क्या है।
ऐसी मन की अवस्था में हमें निरंतर जप करते रहना चाहिए। कीर्तनया सदा हरी कीर्तन सदा होगा, अखंड होगा, खंडित नहीं होगा। कीर्तन कैसा हो? अहेतु – उसमें कोई हेतु ना हो और अप्रतियता – अखंड हो। उसी को चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि कीर्तनया सदा हरी। ऐसा कीर्तन तभी संभव है इसके लिए शर्ते हैं जो चैतन्य महाप्रभु ने बनाई है। सूनिचेना यह शब्द सुन रहे हो कितना नीच सूनिचेना। नीच मतलब नीच कहीं का वह भाव नहीं है, जो खुद को घास से नीच समझता है। यह मन की स्थिति है। यह मन का भाव है। सूनिचेना स्वयं को निम्न समझना। वृक्ष से भी अधिक सहनशील। अमानीना मतलब इसके द्वारा, ऐसे मन के द्वारा जो अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा नहीं करता औरों को मान देता है औरों का सम्मान सत्कार करता है। ऐसा व्यक्ति ऐसे मन की स्थिति के साथ निरंतर जप कर सकता है। मन की ऐसी स्थिति हमारे रोने तक, आंसू बहाने तक पहुंचा देगी। तो फिर जप का फल कृष्णप्रेम है मतलब कृष्ण ही है कृष्ण प्राप्ति हो। यह सब संभव है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
31 January 2021
Hara, Krishna, and Rama are transcendental seeds of the maha-mantra
Devotees are chanting from 680 locations. We were discussing Srila Prabhupada’s talks on harinama. We are also discussing the rules and regulations of Harinama which Srila Prabhupada has recommended for us. Today we will conclude the ongoing topic. We don’t have much to speak on the rules and regulations today. But we will try to go deeper into it.
Srila Prabhupada writes, “The three words, namely Hara, Krishna, and Rama, are transcendental seeds of the maha-mantra, and the chanting is a spiritual call for the Lord and His internal energy, Hara, for giving protection to the conditioned soul. The chanting is exactly like a genuine cry by the child for the mother”.
Even the Japa or Kirtana should be in this mood of a child crying for the mother. If we consider ourselves in the place of this child then we don’t know how to cry. We need to learn this art of crying. Who is the mother of a devotee? From a mother comes a child. We see devotees here, then God must be here. Or not? But in the case of Krsna and devotees, their appearance is simultaneous.
mamaivamso jiva-loke
jiva-bhutah sanatanah
manah-sasthanindriyani
prakrti-sthani karsati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal, fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind.[BG 15.7]
As Krsna said in Bhagavad Gita – There was never a time when you were not there or I was not there. There was no time when Krsna was not there or the jiva was not there. In Marathi, we say Vithoba Mauli, mother or father to be precise. The Lord is not just a father, He is a mother also. He is a well-wisher and a friend. As a child, we should cry for the Lord, and also our crying should be genuine. There are genuine spare parts of a machine and as well fake ones. There are two conditions – crying should be genuine and it should be like that of a child.
In Kaliyuga, there is hypocrisy. In funeral ceremonies, people cry. People make a fake show of tears in their eyes. This kind of fake show won’t be entertained. Even a normal person can judge whether this person is putting on a show or is genuinely crying. If a normal person can judge then who could make a fool of Krsna. He is God. There are two types of tears – it’s a daily practice in Goloka. They cry for Krsna, sometimes in union and another time in separation. Even last year one seminar was arranged at Govardhan. The topic was “Crying for Krsna.” It’s an advanced topic. Most people are not very advanced, but they make a show of their advancement. For example, when Sri Caitanya Mahaprabhu went to Jagannatha Puri temple, so many things happened there. As soon as He entered the Jagannatha temple his throat choked. He could barely pronounce Jag….
śiva-śuka-nārada preme gada-gada
bhakativinoda dekhe gorāra sampada
Translation
Lord Śiva, Śukadeva Gosvāmī, and Nārada Muni are all there, and their voices are choked with the ecstasy of transcendental love. Thus Ṭhakura Bhaktivinoda envisions the glory of Lord Śrī Caitanya. [Gaura-arati verse 7]
… this is one symptom. Even when Radhanath Swami Maharaja sings we can observe through his expressions that he is missing Krsna. When Caitanya Mahaprabhu entered He had fallen on the ground. Nobody took it seriously, thinking they had seen so many Sadhus like Him. Savabhauma Bhattacarya took Caitanya Mahaprabhu home and after inspection he declared that it was not just bhava. It was Maha-bhava. Devotees can reach the stage of bhava, but only Radharani could experience Maha bhava. Once in Mayapur, a Kirtana competition was organised by Jayapataka Swami Maharaja. So many kirtana mandalis participated. Srila Prabhupada was hearing everything from his room. They were overly excited because of the international audience. Local Bengali teams were crying and rolling on the ground. They were showing ecstatic symptoms, but Srila Prabhupada caught that. He said that they were not genuine. They were not chanting for the Lord, but for the money. He declared there would be no more Kirtan Competitions. Jayapataka Maharaja was sharing that they would come with a box of chilli powder, and very cleverly they would put that in their eyes and then they would cry for the next hour. This was called “Chilli Bhava”. We don’t want such bhava. This won’t help, at least in the case of Krsna. He knows our interior motives.
tṛṇād api sunīcena
taror api sahiṣṇunā
amāninā mānadena
kīrtanīyaḥ sadā hariḥ
Translation
One should chant the holy name of the Lord in a humble state of mind, thinking oneself lower than the straw in the street; one should be more tolerant than a tree, devoid of all sense of false prestige, and should be ready to offer all respect to others. In such a state of mind, one can chant the holy name of the Lord constantly. [ Sri Siksastakam Verse 3]
We should consider ourselves lower than a blade of grass, more tolerant than the tree. In such a state of mind, one can attain Krsna. He can chant continuously, uninterrupted.
Gaur Premanande Hari Haribol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ३०.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७६० स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
हरि! हरि!
सुप्रभातम! हरे कृष्ण!
हरिलीला! हरे कृष्ण! उदय, क्या कृष्णभावना का कुछ उदय उदयपुर में हो रहा है? मायापुर चंद्रोदय?
जैसा कि हम पिछले कुछ दिनों से प्रभुपाद द्वारा की गई हरि नाम की महिमा पर रिकॉर्डिंग व भाष्य व गान व विधि विधान या विधि निषेध पढ़ रहे हैं। श्रील प्रभुपाद ने हरि नाम की महिमा के भाष्य में अंत में लिखा है जिसका हम अब अंतिम वचन लेंगे। (श्रील प्रभुपाद यहाँ अंग्रेजी में कह रहे हैं और हम उसे हिंदी में सुना रहे हैं) श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि हरे कृष्ण महामंत्र जो है, वह तीन बीजों का मंत्र है। वे तीन बीज हैं – राम, कृष्ण, हरा। उसी से राम, कृष्ण, हरे हो जाते हैं। बीज मंत्र जो बीज नाम अथवा मूल नाम है, उससे महामंत्र बनता है। वैसे राम: कृष्ण: और हरा होता है परंतु यहां श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि जब हम इस बीज मंत्र अर्थात इस बीज नाम वाले मंत्र को पुकारते हैं अथवा संबोधित करते हैं तब हम कृष्ण को संबोधित करते हैं, श्री राम को संबोधित करते हैं, हरा को संबोधित करते हैं। जब हम संबोधित करते हैं तब हरा का हरे संबोधन होता है, हरा का संबोधन शब्द हरे है और राम: के संबोधन में राम ही बचता है और विसर्ग हट जाती है। (विसर्ग समझते हो? वह जो कई शब्दों के अंत में बिंदी लगाते हैं। यह प्रथम विभक्ति है।) राम: का राम होता है। राम: का राम संबोधन है। कृष्ण: का कृष्ण संबोधन है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जब हम यह महामंत्र कहते और लिखते भी हैं। तब उसमें फिर हरे राम: नहीं है । हरे कृष्ण: नहीं है अपितु हरे राम है, हरे कृष्ण है।
प्रभुपाद कह रहे हैं कि हम राम, कृष्ण, हरा को पुकारते अथवा बुलाते अथवा सम्बोधित करते हैं। हम इस महामन्त्र का कीर्तन और जप करते समय उन्हें पुकारते अथवा सम्बोधित करते हैं। हरि! हरि!
हमारे पुकारने का उद्देश्य क्या होता है? हमारी रक्षा हो। हे राम! हे कृष्ण! हे राधे! हे हरे! बचाओ! रक्षा करो! मुक्त करो! हमें भक्त बनाओ। हमें अपनी सेवा में लगाओ। यह प्रार्थना अथवा सम्बोधन है ताकि हमारी रक्षा हो जिससे हम बचें और हमारा उद्धार हो। इसलिए हम सम्बोधित करते हैं। मूल रूप से राम, कृष्ण, हरे यह महामन्त्र के बीज हैं या बीज नाम हैं। राम और कृष्ण दो नहीं हैं अपितु राम और कृष्ण एक ही हैं। एक कृष्ण को ही हम सम्बोधित करते हैं। पहले आधे मन्त्र में हरे कृष्ण कहते हैं और शेष मंत्र में उसी कृष्ण को हम राम कहते हैं। बस दो अलग- अलग नामों अथवा सम्बोधनों से पुकारते हैं किन्तु व्यक्ति तो एक ही है, हम कृष्ण को ही पुकारते हैं। तत्पश्चात हमनें हरे कृष्ण कहा या हरे राम कहा, उस समय कृष्ण को ही पुकारते हैं। राम और कृष्ण तो एक ही हैं। फिर हरे बच गया। ऐसा भी कहा जा सकता है कि राधा और कृष्ण या कृष्ण और राधा को ही पुकारते हैं।
कौन सा मन्त्र, महामन्त्र है? हरे कृष्ण मन्त्र, महामन्त्र है। हरे और कृष्ण ही बच गए। हरि! हरि!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह भविष्यवाणी की थी
पृथिवीते आछे यत नगरादि- ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठ भाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं कि सर्वत्र मेरे नाम का प्रचार होगा और हरे कृष्ण हरे कृष्ण का प्रचार हो भी रहा है।
हां! सही है। क्योंकि ‘मोर नाम’ देने वाले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही राधा कृष्ण हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नहे अन्य
( चैतन्य भागवत)
अर्थ:- भगवान् चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
मेरे नाम का प्रचार होगा अर्थात हरे कृष्ण हरे कृष्ण का प्रचार होगा। क्योंकि मैं राधा हूं, मैं ही कृष्ण हूँ।
राधा कृष्ण- प्रणय-विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम्।।
( श्रीचैतन्य- चरितामृत आदि लीला श्लोक १.५)
अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान की अंतरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किंतु उन्होंने अपने आप को अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब यह दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्री कृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूं, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंग कांति के साथ प्रकट हुए हैं।
जो दो थे, वे एक हो गए।
हरि! हरि!
वे गौरांग है। गौरांग! गौरांग! उन्हें गौरांग क्यों कहते हैं? वह एक हुए हैं। राधा कृष्ण एक तनु हैं। राधा कृष्ण मिलकर एक विग्रह अथवा रूप बना है। उनका नाम हरे कृष्ण है। हरे राधा! हरे कृष्ण। हरि! हरि!
इतना तो करना स्वामी,
जब प्राण तन से निकले तो आप आ जाना और राधा को भी साथ ले आना – ऐसी प्रार्थना भक्त किया करते हैं। इस प्राकट्य में इस अवतार में अवतारी श्री कृष्ण राधा को साथ में ले आए हैं। अंत: कृष्ण: बाहिर गौर ऐसा चैतन्य भागवत में उल्लेख है। अंदर कृष्ण छिपे हैं और बाहर राधा है। इसलिए वे गौरांग हो गए। बाहर से वह गौरांगी है अर्थात बाहर से वे राधा हैं। उस विग्रह में राधा का रंग और राधा की कांति का दर्शन होता है। श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य!
राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम् अर्थात मैं
उस स्वरूप को नमस्कार करता हूं। कौन से स्वरूप को? राधा-भाव-द्युति-सुवलितं अर्थात जिस स्वरूप में भगवान ने राधा के भाव को अपनाया है। राधा-भाव-द्युति, द्युति मतलब कांति अथवा रंग। मैं राधा के भाव व राधा की कांति को अपनाए हुए उस विग्रह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करता हूं। हरि! हरि! इस महामंत्र में राधा नाम है इसीलिए भी यह मंत्र महामंत्र बनता है। यह केवल कृष्ण नाम या राम नाम का मंत्र नहीं है या अन्य अवतारों के नाम वाला मंत्र नहीं है। अवतारी श्री कृष्ण के साथ में राधा भी है। साथ में राधा होने के कारण यह मंत्र अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र बन गया है। केवल कृष्ण होता तो शायद यह केवल मंत्र ही कहलाता लेकिन साथ में राधा है इसलिए यह मन्त्र कहलाता है और महामंत्र है भी। राधा साथ में होने से राधा की कृपा प्राप्त होती है, उस जप कर्ता अथवा कीर्तन कर्ता को अर्थात जो
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। महामंत्र का करता है। जैसा कि श्रील प्रभुपाद समझाते हैं कि हम कृष्ण राधा को बुला रहे हैं, पुकार रहे हैं। जब हम राधा को संबोधित करते हैं, तब इस महामंत्र का जप करने वाले को या इस महामंत्र का कीर्तन करने वाले को राधा की विशेष कृपा और अनुग्रह प्राप्त होती है अथवा वह विशेष लाभान्वित होता है। हम कल ही सुन रहे थे जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने कहा था कि हम तटस्था शक्ति हैं, जब हम अंतरंगा शक्ति अथवा दिव्य शक्ति ‘हरा’ अर्थात राधे के संपर्क में आते हैं और हम राधा को पुकारते हैं तब जीवात्मा सुखी होती है और राधा रानी के कारण आनंद का अनुभव करती है। राधा रानी उसको सुखी अथवा आनंदित बनाती हैं। जीव को राधा रानी से आनंद प्राप्त होता है। यह बात राय रामानंद ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को कही थी। यह प्रसिद्ध संवाद राय रामानंद और गौरांग महाप्रभु के मध्य हुआ था। जिसका उल्लेख चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला अष्टम परिछेद अथवा अध्याय में हुआ है।
कृष्णके आह्लादे, ता’ते नाम- ‘ह्लादिनी’। सेइ शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ८.१५७)
अनुवाद:- ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को दिव्य आनन्द प्रदान करती है। इसी ह्लादिनी शक्ति के माध्यम से कृष्ण समस्त आध्यात्मिक आनंद का स्वयं आस्वादन करते हैं।
राधारानी भगवान की ह्लादिनी शक्ति है। भगवान सच्चिदानंद हैं। राधारानी उनको आनन्द देती हैं। अतः आनन्दप्रदा भी कहलाती हैं। आनन्द देने वाली आनन्दप्रदा यह राधारानी का एक नाम है। आनन्दप्रदा अर्थात आनंद देने वाली। किसको आनन्द देती हैं? कृष्णके आह्लादे अर्थात कृष्ण को आह्लाद देती हैं अर्थात आनन्द देती हैं। इसलिए राधा का एक नाम आह्लादिनी हैं अथवा आह्लादिनी शक्ति कहलाती हैं।
‘सेइ शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि’ श्री कृष्ण जो सुख और आनन्द लूटते हैं अर्थात सुखोउपभोग करते हैं, वह राधारानी के कारण होता हैं
सेइ शक्ति- द्वारे ह्लादिनी शक्ति है। राधा शक्ति हैं। शक्ति के माध्यम से ‘शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि’ स्वयं श्रीकृष्ण आस्वादन करते हैं अर्थात आह्लाद का अनुभव करते हैं। यह एक बात हुई। दूसरे वचन में आगे राय रामानंद कहते हैं
सुख रूप कृष्ण करे सुख आस्वादन।भक्त- गणे सुख दिते ‘ ह्लादिनी’- कारण।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ८.१५८)
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण मूर्तिमान सुख होते हुए भी सभी प्रकार के दिव्य सुख का आस्वादन करते हैं। उनके शुद्ध भक्तों द्वारा आस्वादन किया गया सुख भी उनकी ह्लादिनी शक्ति से प्रकट होता है।
यह भी रहस्यमयी बात है। कृष्ण तो स्वयं ही सुख का रूप हैं, वे स्वयं ही सुख के सागर हैं। वे स्वयं ही आनन्द की खान हैं। फिर भी राधा रानी उनके सुख और आनंद का कारण बन जाती हैं। हरि! हरि!
यह बातें अचिन्त्य भी कहलाती हैं। जहाँ तक हम कुछ थोड़ा समझ पाए हैं, यह कृष्ण ही जाने या राधा ही जाने कि कौन किसको सुख देता है। राधा कृष्ण को सुख देती हैं अथवा कृष्ण राधा को सुख देते हैं या दोनों में प्रतियोगिता चलती रहती है।
चैतन्य चरितामृत में लिखा है कि कृष्ण हार जाते हैं और कहते हैं कि अगली बार जब मैं अवतार लूंगा तब मैं राधारानी बनूंगा और राधारानी को समझना चाहूंगा।
राधा के भाव, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का कारण बने। चैतन्य चरितामृतकार, चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में लिखते हैं
भक्त-गणे सुख दिते ह्लादिनी कारण।
भक्तों, जीवों, तटस्थ शक्ति जो सुख प्राप्त होता है वो सुख आह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। राधारानी के कारण जीव को भी सुख प्राप्त होता है। राधारानी और आह्लादिनी शक्ति केवल कृष्ण को ही आनन्द नहीं देती हैं अपितु जीवों को भी आनन्द देने वाली भी राधारानी ही हैं।आह्लादिनी शक्ति जीव के सुख का कारण बन जाती हैं। वह दोनों को सुख देती हैं। राधारानी, कृष्ण को भी सुख देती हैं और जीवों को भी सुख देती हैं।
राधारानी की जय!
महारानी की जय!
यह हरे कृष्ण महामन्त्र ऐसा महामन्त्र है जिसमें हम कृष्ण को भी पुकारते हैं और ऐसी राधारानी को भी पुकारते हैं।
श्रील प्रभुपाद जब जलदूत जहाज से न्यूयॉर्क की ओर जा रहे हैं। रास्ते में 10 सितंबर1965 अर्थात न्यूयॉर्क में कुछ ही दिनों में पहुंचने ही वाले थे। 13 सितंबर को वहां बोस्टन क्षेत्र में जलदूत जहाज पहुंचा था। उस समय प्रभुपाद के जो विचार अथवा उदगार रहे, वे उन्होंने एक गीत के रूप में लिखे थे।
(टेक) कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ। ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥ ध्रुव अति बोलि तोमा ताइ। श्री सिद्धांत सरस्वती शची-सुत प्रिय अति कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए। सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ॥1॥ ताँर इच्छा बलवान पाश्चात्येते थान थान होय जाते गौरांगेर नाम। पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी सकलेइ लोय कृष्ण नाम॥2॥ ताहले आनंद होय तबे होय दिग्विजय चैतन्येर कृपा अतिशय। माया दुष्ट जत दुःखी जगते सबाइ सुखी वैष्णवेर इच्छा पूर्ण हय॥3॥
से कार्य ये करिबारे, आज्ञा यदि दिलो मोरे योग्य नाहि अति दीन हीन। ताइ से तोमार कृपा मागितेछि अनुरूपा आजि तुमि सबार प्रवीण॥4॥ तोमार से शक्ति पेले गुरू-सेवाय वस्तु मिले जीवन सार्थक जदि होय। सेइ से सेवा पाइले ताहले सुखी हले तव संग भाग्यते मिलोय॥5॥ एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्। कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्॥6॥ तुमि मोर चिर साथी भूलिया मायार लाठी खाइयाछी जन्म-जन्मान्तरे। आजि पुनः ए सुयोग यदि हो योगायोग तबे पारि तुहे मिलिबारे॥7॥
तोमार मिलने भाइ आबार से सुख पाइ गोचारणे घुरि दिन भोर। कत बने छुटाछुटि बने खाए लुटापुटि सेई दिन कबे हबे मोर॥8॥ अजि से सुविधान तोमार स्मरण भेलो बड़ो आशा डाकिलाम ताए। आमि तोमार नित्य-दास ताइ करि एत आश तुमि बिना अन्य गति नाइ॥9॥
अर्थ: शुक्रवार, 10 सितम्बर, 1965 के अटलांटिक महासागर के मध्य, अमेरीका जा रहे जहाज पर बैठे हुए श्रील प्रभुपाद जी ने अपनी डायरी में लिखा, “आज जहाज बड़ी सुगमता से चल रहा है। मुझे आज बेहतर लग रहा है। किन्तु मुझे श्री वृन्दावन तथा मेरे इष्टदेवों- श्री गोविंद, श्री गोपीनाथ और श्री राधा दामोदर – से विरह का अनुभव हो रहा है। मेरी एकमात्र सांत्वना श्रीचैतन्यचरितामृत है, जिसमें मैं चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का अमृत चख रहा हूँ। मैंने चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुगामी श्रीभक्तिसिद्धांत सरस्वती का आदेश कार्यान्वित करने हेतु ही भारत-भूमि को छोड़ा है। कोई योग्यता न होते हुए भी मैंने अपने गुरूदेव का आदेश निर्वाह करने हेतु यह खतरा मोल लिया है। वृंदावन से इतनी दूर मैं उन्हीं की कृपा पर पूर्णाश्रित हूँ। ” तीन दिन पश्चात, (13 सितम्बर, 1965) शुद्ध भक्ति के इस भाव में, श्रील प्रभुपाद ने निम्नलिखित प्रार्थना की रचना की।
हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूँ कि तुम्हें भगवान् श्रीकृष्ण से पुण्यलाभ की प्राप्ति तभी होगी जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जायेंगी।
(1) शचिपुत्र (चैतन्य महाप्रभु) के अतिप्रिय श्रीश्रीमद् भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की कृष्ण-सेवा अतुलनीय है। वे ऐसे महान सदगुरु हैं जो सारे विश्वभर के विभिन्न स्थानों में कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ भक्ति बाँटते हैं।
(2) उनकी बलवती इच्छा से भगवान् गौरांग का नाम पाश्चात्य जगत के समस्त देशों में फैलेगा। पृथ्वी के समस्त नगरों व गाँवों में, समुद्रों, नदियों आदि सभी में रहनेवाले जीव कृष्ण का नाम लेंगे।
(3) जब श्रीचैतन्य महाप्रभु की अतिशय कृपा सभी दिशाओं में दिग्विजय कर लेगी, तो निश्चित रूप से पृथ्वी पर आनंद की बाढ़ आ जायेगी। जब सब पापी, दुष्ट जीवात्माऐं सुखी होंगी, तो वैष्णवों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी।
(4) यद्यपि मेरे गुरू महाराज ने मुझे इस अभियान को पूरा करने की आज्ञा दी है, तथापि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। मैं तो अति दीन व हीन हूँ। अतएव, हे नाथ, अब मैं तुम्हारी कृपा की भिक्षा मांगता हूँ जिससे मैं योग्य बन सकूँ, क्योंकि तुम तो सभी में सर्वाधिक प्रवीण हो।
(5) यदि तुम शक्ति प्रदान करो, तो गुरू की सेवा द्वारा परमसत्य की प्राप्ति होती है और जीवन सार्थक हो जाता है। यदि वह सेवा मिल जाये तो वयक्ति सुखी हो जाता है और सौभाग्य से उसे तुम्हारा संग मिल जाता है।
(6) हे भगवान् मैं एक-एक करके भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए सर्पो के अन्धे कुँए में गिरता जा रहा था। किन्तु आपके दास नारद मुनि ने कृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इस दिवय पद को किस प्रकार प्राप्त किया जाय। अतएव मेरा पहला कर्त्तवय है कि मैं उनकी सेवा करूँ। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ? (प्रह्लाद महाराज ने नृसिंह भगवान से कहा, श्रीमद्भागवत 07.09.28)
(7) हे भगवान् कृष्ण, तुम मेरे चिर साथी हो। तुम्हें भुलाकर मैंने जन्म-जन्मांतर माया की लाठियाँ खायी हैं। यदि आज तुमसे पुर्नमिलन अवश्य होगा तभी मैं आपकी संगती में आ सकूँगा।
(8) हे भाई, तुमसे मिलकर मुझे फिर से महान सुख का अनुभव होगा। भोर बेला में मैं गोचारण हेतु निकलूँगा। व्रज के वनों में भागता-खेलता हुआ, मैं आध्यात्मिक हर्षोन्माद में भूमि पर लोटूँगा। अहा! मेरे लिए वह दिन कब आयेगा?
(9) आज मुझे तुम्हारा स्मरण बड़ी भली प्रकार से हुआ। मैंने तुम्हें बड़ी आशा से पुकारा था। मैं तुम्हारा नित्यदास हूँ और इसलिए तुम्हारे संग की इतनी आशा करता हूँ। हे कृष्ण तुम्हारे बिना मेरी कोई अन्य गति नहीं है।
श्रील प्रभुपाद ने प्रसिद्ध गीत के प्रारंभ में लिखते हैं
कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ। ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥
श्रील प्रभुपाद ने क्या लिखा है। देखिए या सुनिए। (अनुवाद पढ़ रहे हैं।)
हे भाइयों, श्रील प्रभुपाद दुनिया भर के लोगों या पाश्चात्य देश के लोगों को सम्बोधित करते हुए लिख रहे हैं। ‘हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूं कि तुम्हें भगवान् श्री कृष्ण से पुण्य लाभ की प्राप्ति तभी होगी,जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न होगी।’ श्रील प्रभुपाद ने राधारानी का स्मरण किया है। हे दुनिया भर के लोगों! आपको मैं निश्चित रूप से कहता हूं कि भगवान से पुण्य लाभ की प्राप्ति तभी होगी, जबे राधारानी खुशी हबे अर्थात जब राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जाएंगी। तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने इस महामन्त्र को फैलाया । प्रभुपाद न्यूयॉर्क के फुटपाथ पर बैठकर इस महामन्त्र का कीर्तन करने लगे और इस महामन्त्र को शेयर (बांटने) करने लगे अर्थात कृष्ण और राधा को शेयर करने लगे। राधा रानी की कृपा से हम इस महामन्त्र में आठ बार यह हरे हरे कहते हैं और आठ बार कृष्ण के नाम को कहते हैं। आठ कृष्ण के नाम और आठ राधा के नाम से यह षोडश शब्द वाला या सोलह नाम वाला यह महामन्त्र का जब कीर्तन हुआ तब वहां के लोग भी राधारानी की कृपा से सुखी हुए या प्रभुपाद कहा करते थे, हरे कृष्ण जपो और सुखी हो जाओ( चैंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी)
जब आप हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करोगे तो आपको कौन सुखी बनाएगा। राधारानी आपको सुखी बनाएगी। राधारानी सुख देगी, राधारानी आह्लाद देगी। जब राधारानी की कृपा की दृष्टि की वृष्टि होगी। उससे कृष्ण की कृपा भी प्राप्त होगी।
प्रभुपाद कहते हैं कि राधारानी उसी प्रकार सिफारिश करती हैं जैसे जब दीक्षा होने वाली होती है, तब जो नए भक्त होते हैं, उनको दीक्षा लेनी होती है तब मंदिर के अध्यक्ष या हमारे काउन्सलर दीक्षा के लिए सिफारिश करते हैं। गुरुवर! इसको स्वीकार कीजिये। हे गुरुवृन्द! या गुरुजन, गुरुवृन्दों में से एक गुरु। इसी प्रकार यहाँ राधारानी कृष्ण को सिफारिश करती हैं। मैं इस पात्र के लिए स्ट्रोंगली (मजबूती से) सिफारिश करती हूं। हरि! हरि!
हम दोनों को ही पुकार रहे हैं हरे कृष्ण कहकर। किन्तु राधा अधिक दयालू अथवा कृपालु हैं। कृष्ण से भी अधिक कृपालु राधा हैं। इसलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को रूप गोस्वामी ने महावदान्याय कहा कि आप जब कृष्ण थे तब आप वादान्य अर्थात दयालु थे लेकिन अब आप महावदान्याय हो गए हो। यह खिताब जो चैतन्य महाप्रभु को प्राप्त हुआ, यह राधारानी के कारण प्राप्त हुआ। कृष्ण, दयालु कृष्ण बने। कृष्ण राधारानी के कारण अति दयालु बनते हैं।
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥ ( वैष्णव भजन)
अनुवाद:- हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन हैं?
आप जैसा कौन दयालु है। कोई नहीं है, कृष्ण भी नहीं हैं, राम भी नहीं हैं, नरसिम्हा भी नहीं हैं। कोई भी नहीं है। जितने आप दयालु हो। आपका क्या वैशिष्ट्य है। आप इतने क्यों दयालु हो? आप अति दयालु हो क्योंकि आप साथ में राधा को लेकर आये हो। साथ में राधा है और राधा दयालु व कृपालु है इसलिए आप कृपालु बने हो या महा वदान्याय बने हो। इस महामन्त्र में कृष्ण भी हैं और विशेष रूप से राधारानी हैं। यह मन्त्र इसी के साथ महामन्त्र कहलाता है। अन्यथा इतने पतित व संसार भर में जो कलि के चेले बने हुए लोग हैं। पाश्चात्य देश का क्या कहना। वे कितने पतित हैं, पाश्चात्य देश के लोग पापियन में नामी हैं। तत्पश्चात उनका तुरन्त महामन्त्र के कारण उद्धार होने लगा। इस कृपालु और शक्ति और शक्तिमान महामन्त्र के कारण पाश्चात्य देश के लोग भी तरने लगे।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने। नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
पाश्चात्य – देश के लोग भी तर गए। यह महामन्त्र संसार भर के बद्ध जीवों के कल्याण तथा उद्धार के लिए है। व्यवहारिक रूप से हम देख रहे हैं कि किस प्रकार यह महामंत्र उद्धार कर रहा है। किस प्रकार यह महामन्त्र हम पर, विश्व भर कर लोगों के ऊपर, भी कृपा कर रहा है। आप सभी जो उपस्थित हो और आप जप कर रहे हो। ये भी महामन्त्र का जप व कीर्तन का ही फल व परिणाम है। जिसने हमारे जीवन में क्रांति लायी है । ऐसे हरे कृष्ण महामन्त्र की जय!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!
पंढरपुर धाम की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
वैसे अभी भी एक भाग बच ही गया है।।कल आगे करेंगे। सोचा तो था कि आज पूरा करूंगा, पर हो नही पाया।
इस विषय पर कोई प्रश्नोत्तर या टीका टिप्पणी या अनुभव है तो आप चैट पर लिखिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
प्रश्न:- कल की चर्चा में बताया गया था कि पापी लोगों को पाताल लोक या नीचे वाले लोकों की प्राप्ति होती है फिर बलि महाराज को सुतल लोक क्यों प्राप्त हुआ?
गुरु महाराज- सुतल लोक, सुतल लोक नहीं रहा, वह गोलोक हुआ अथवा वैकुंठ हुआ। भगवान भी वहां गए थे। भगवान् बलि महाराज के रखवाले बन गए।
नारायणपरा: सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति।स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिनः
( श्रीमद् भागवतम ६.७.२८)
अर्थ:- पुरी तरह से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण की सेवा में लीन रहने वाले भक्तजन जीवन की किसी भी अवस्था से भयभीत नहीं होते। उनके लिए स्वर्ग, मुक्ति तथा नरक एकसमान हैं, क्योकि ऐसे भक्त ईश्वर की सेवा में ही रुचि रखते हैं।
भगवान के भक्तों को कोई चिंता नहीं होती है। उनके लिए स्वर्ग नर्क में कोई अंतर नहीं होता। वह जहां भी जाते हैं, वहां भगवान की भक्ति करते हैं। बलि महाराज आत्म निवेदन नामक भक्ति के अधिकारी या आत्म निवेदन के लिए विख्यात है। जिन्होंने आत्म निवेदन किया।
मानस-देह-गेह, यो किछु मोर। अर्पिलु तुया पदे, नन्दकिशोर!॥1॥।
अर्थ: हे नन्द महाराज के पुत्र, मेरा मन, शरीर, मेरे घर का साज-सामान तथा अन्य जो कुछ भी मेरा है, मैं आपके चरणकमलों पर अर्पित करता हूँ।
उन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर किया था, अपना सर भी झुकाया और अर्पित किया। ऐसे समर्पित भक्त बलि महाराज को क्या फर्क पड़ता है कि वह स्वर्ग में जाते हैं या नरक में जाते हैं, वह तो अपने आनंद में भक्ति में मगन है। यह तथाकथित दंड है। यह वैसा दंड नहीं है जैसा कि पापियों को दंडित किया जाता है और 28 अलग-अलग प्रकार के पातालों के नाम भी है। इस पाताल में इसको भेजा जाए या उस पाताल में इसको भेजा जाए, इस शराबी को यहां, उस व्यभिचारी को वहां, इस डाकू को वहां… ऐसे ही…. बलि महाराज का तो सुतल लोक यहाँ से तीसरा है। लेकिन उनके लिए वह स्वर्ग ही नहीं वैकुंठ ही है। वहां भगवान स्वयं भी पहुंचे थे। हरि! हरि! यह भक्त की महिमा भी है। तुल्यार्थ अर्थात स्वर्ग नरक जैसा अतुल्य। जैसे दूसरे शब्दों में वे स्वर्ग और नरक से परे अतीत पहुंच जाते हैं। भगवान के भक्त अपने भक्ति भाव के कारण गुणातीत या स्वर्गातीत या नरकातीत से परे है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
प्रश्न- भगवान की बहन सुभद्रा मैया, वह भी आह्लादिनी शक्ति ही है या…
गुरु महाराज – वह अर्जुन की शक्ति है। श्री श्री सुभद्रा अर्जुन की जय! अर्जुन को आह्लाद देने वाली उनकी पत्नी और अभिमन्यु जी जैसे पुत्र को जन्म देने वाली भद्रा। सुभद्रा मैया की जय! वह हमारे जैसे साधारण जीव तो नहीं हो सकती जैसा कि हम जीव हैं लेकिन कोई शक्ति तो है। हर व्यक्ति शक्ति होता ही है। कोई कृष्ण की शक्ति तो कोई तटस्थ शक्ति है तो कोई अतरंग शक्ति के अंतर्गत आता है।
सब अलग-अलग हैं।
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्र्चाभ्यधिकश्र्च दृश्यते। परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।
( श्रे्वाश्र्वतर उपनिषद ६.८)
अनुवाद:- भगवान या परमेश्वर के लिए कोई भी करने लायक कर्तव्य नहीं है अर्थात उन्हें कोई भी कार्य करने की जरूरत नहीं है। भगवान् के समान अथवा उनसे बढ़कर कोई नहीं है। उनकी अनन्त दिव्य शक्तियां हैं जो उनमें स्वाभाविक रूप से रहती हैं और उन्हें पूर्ण ज्ञान, बल और लीलाएँ प्रदान करती हैं।
भगवान की विभिन्न-२ प्रकृतियां हैं। ऐसे कहा जाए श्री कृष्ण ही पुरुष हैं। विष्णुतत्व पुरुष हैं। बाकी सब भगवान की शक्तियां हैं। बाकी सब व्यक्ति एक एक शक्ति हैं। सुभद्रा की तुलना हमारे साथ नहीं हो सकती। हम जीव तटस्थ शक्ति हैं। लेकिन सुभद्रा मैया विशेष हैं। वह अन्तरंग शक्ति के अंतर्गत है। वह कृष्ण और बलराम की बहन ही हैं।
उस शक्ति का क्या नाम् है, कह नहीं सकते। मेरे पास कोई नाम नहीं है, वह किस नाम से जानी जाती है। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज के सत्र को यहीं पर विराम देते हैं। समय भी हो चुका है।
हरे कृष्ण!
श्रील प्रभुपाद की जय!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
30 January 2021
Radha’s name completes the Hare Krishna maha-mantra
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Devotees from 760 locations are chanting with us. For the past few days we have been reading Srila Prabhupada’s commentary on Harinama mahatmya, the vidhi vidhan and vidhi nisheda. Now we will read the last part.
‘These three words, namely Hare, Krsna and Rama, are the transcendental seeds of the maha-mantra. The chanting is a spiritual call for the Lord and His internal energy, Hara, to give protection to the conditioned soul.’
Srila Prabhupada is saying, “We call Rama, Krsna and Hara while chanting the maha-mantra or while performing kirtana.” We call for protection ‘Hé Radhe, Hé Hare, Hé Krsna, Hé Rama, please save us, liberate us, engage us in Your service.’ This is the prayer so that we are protected and delivered. Basically Rama and Krsna are seeds of the maha-mantra. But Rama and Krsna are not two, They are one. We call the same Krsna in the first part of the mantra as Krsna and in the remaining we call the same Krsna as Rama. We call Him by two different names, but the personality is one. We call the same Krsna then if we say Hare Krsna or Hare Rama we only call Krsna. Then the remaining name is Hare. We can say that we call Radha Krsna only. Which mantra is the maha-mantra? Hare Krsna mantra is the maha-mantra. Only Hare Krsna is remaining. Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu had also predicted,
prithvite ache yata nagar adigrama
sarvatra prachara haibe mora nama
Translation
In as many towns and villages as there are on the surface of the earth, My holy name will be preached.
Preaching is going on of Hare Krsna, Hare Krsna. So why is it right? Because Sri Krsna Mahaprabhu is saying, mora nama He is Radha and Krsna.
Sri Krsna caitanya Radha Krsna nahi anya
Translation
Lord Caitanya Mahaprabhu is none other than the combined form of Sri Sri Radha and Krsna.
He says, ‘My holy name will be preached.’ That means there will be preaching of Hare Krsna, Hare Krsna because “I am Radha and I am Krsna.”
rādhā kṛṣṇa-praṇaya-vikṛtir hlādinī śaktir asmād
ekātmānāv api bhuvi purā deha-bhedaṁ gatau tau
caitanyākhyaṁ prakaṭam adhunā tad-dvayaṁ caikyam āptaṁ
rādhā-bhāva-dyuti-suvalitaṁ naumi kṛṣṇa-svarūpam
Translation
The loving affairs of Śrī Rādhā and Kṛṣṇa are transcendental manifestations of the Lord’s internal pleasure-giving potency. Although Rādhā and Kṛṣṇa are one in Their identity, previously They separated Themselves. Now these two transcendental identities have again united, in the form of Śrī Kṛṣṇa Caitanya. I bow down to Him, who has manifested Himself with the sentiment and complexion of Śrīmatī Rādhārāṇī although He is Kṛṣṇa Himself. (CC Adi lila,1.5)
Radha-Krsna is one. Radha-Krsna is Krsna and Krsna’s pleasure potency combined. When Krsna exhibits His pleasure potency, He appears to be two— Radha and Krsna. Otherwise, Radha and Krsna are one. This oneness may be perceived by advanced devotees through the grace of Sri Caitanya Mahaprabhu. This was the case with Ramananda Raya. One may aspire to attain such a position, but one should not try to imitate the maha-bhagavata.
They two become one and that is Gauranga! Gauranga! Why do we say Gauranga ! Gauranga!?
radha-krishna eka tanu hai
Translation
Sri Sri Radha and Krsna have combined as one in a transcendental form.
Their name is Hare Krsna.
itana to karana svaamee jab praan tan se nikale – 2
govind naam lekar, phir praan tan se nikale
raadha ko saath laana
jab praan tan se nikale
Translation
Oh Lord, Please do this much, when the soul leaves my body, at this critical time when death comes quickly, never forget Lord Syama! May I ask, “Oh Syama! Please bring Sri Radhe with You!”
Such a prayer devotees offer to the Lord. In this avatar/avatari Sri Krsna has brought Radha with Him.
antah krsnah bahir gaurah
That’s why He is Gauranga. From the outside He is Gaurangi Radha. We can have darsana of Radha in Him and inside Him Krsna is hiding. Outside He is Radha, Gaurangi, so He is called Gauranga. He has taken the complexion of Radha so we can have darsana of Radha in Him.
Bali Maharaja had surrendered everything to the Lord. He had even offered his head to the Lord. To such a surrendered devotee it hardly matters whether he is in heaven or hell. He is happily engaged in the service of the Lord. Punishment given to Bali Maharaja was just so called punishment. It was like the punishment given to sinners. There are 28 different types of hell. It depends on the type of sin you commit and accordingly you are sent to that particular hell. Bali Maharaja was sent to Sutala-loka and it was Vaikuntha for him. Lord had gone there. This is the speciality of a devotee. Due to his devotion he is beyond heaven and hell.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Question One
Is Subhadra Maiya, sister of the Lord also Alhadini Sakti?
Gurudev uvaca
She is the energy of Arjuna. She is one who gives pleasure to Arjuna as his wife and she is Bhadra who gives birth to a son like Abhimanyu. She is definitely not a living entity like us. She is some sakti. Every person is sakti or energy. Someone is the energy of the Lord and someone is the marginal energy.
na tasya kāryaṁ karaṇaṁ ca vidyate
na tat samaś cābhyadhikaś ca dṛśyate
parāsya śaktir vividhaiva śrūyate
svābhāvikī jñāna-bala-kriyā ca
Translation
The Supreme Personality of Godhead does not need to do anything personally, for He has such potencies that anything He wants done will be done perfectly well through the control of material nature (svābhāvikī jñāna-bala-kriyā ca). Similarly, those who are engaged in the service of the Lord are not meant to struggle for existence. [Śvetāśvatara Upaniṣad 6.8]
There are two different energies of the Lord. Lord Krsna is the purusha. Visnutatva is purusha. The rest is the energy of the Lord. Every remaining individual is one energy of the Lord. Subhadra cannot be compared with us. We living entities are marginal energies of the Lord, but Subhadra maiya is special. She is under the superior energy of the Lord. She is Krsna and Balarama’s sister. What is the name of that sakti or energy we can’t say. I don’t have a name for her sakti.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Hare Krsna
Srila Prabhupada k jai
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
जप चर्चा,
29 जनवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
775 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। दशावतार हरे कृष्ण, रघुवीर मॉरिशियस से और सभी भक्त आप सबको देख कर प्रसन्नता हुई। प्रभुपाद भी आप सब से बहुत प्रसन्न हैं। आचार्य भी आपसे प्रसन्न हैं। जब भी देखते हैं कि आप सब जप कर रहे हो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह मैं भी देखता हूं और श्रील प्रभुपाद भी देख रहे हैं और हमारी परंपरा गौड़िय वैष्णव परंपरा के आचार्य देखते हैं। गौड़िय वैष्णव परंपरा की जय! और फिर भगवान तो देखते ही रहते हैं। भगवान तो साक्षी हैं हमारे हर कर्म के। वह सभी प्रसन्न हो जाते हैं जब हम सब जप करते हैं। कीर्तन करते हैं। कलयुग में इस प्रकार जब हम धार्मिक बन जाते हैं, धर्म के नियम या धर्म के विधि का हम पालन करते हैं भली-भांति समझते हैं की, कलिकालेर धर्म हरिनाम संकीर्तन कलयुग का धर्म है हरिनाम संकीर्तन। यह सब समझ कर जब हम जप करते हैं, कीर्तन करते हैं तो हमसे सब प्रसन्न हो जाते हैं। गुरु गौरांग जयते गुरु और गौरांग प्रसन्न हो जाते हैं।
हम कुछ दिनों से श्रील प्रभुपाद का हरे कृष्ण महामंत्र के ऊपर लिखा हुआ, कहां हुआ या फिर रिकॉर्ड किया हुआ वचन है, उसको सुन रहे हैं और फिर उसको सुनकर समझने का भी हमारा प्रयास चल रहा है।
श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा है, भगवान की यह जो प्रकृति है, प्राकृत शक्ति है, भौतिक शक्ति जिसको हम माया कहते हैं। श्रील पभुपाद यह कहते हैं कि हम भी एक शक्ति हैं। यहां आत्मा का संबोधन होता है, आत्मा का उल्लेख होता है। आत्मा भी एक शक्ति है, आत्मा भी एक भगवान की शक्ति है। यह माया भी एक भगवान की शक्ति है। यह प्रकृति यह सारा संसार भगवान की प्रकृति है, शक्ति है। हम तो जीव हैं हम भी भगवान की एक शक्ति हैं। प्रकृति कहो या उसको माया कहा है (भौतिक शक्ति को), जीव को तटस्थ शक्ति कहा है। उसका उल्लेख यहां पर प्रभुपाद ने नहीं किया है किंतु कई स्थानों पर उल्लेख जीव है। भगवान की तटस्थ शक्ति तो एक है माया शक्ति और दूसरी है तटस्थ शक्ति। तटस्थ शक्ति हम हैं। संसार के जितने भी सारे जीव हैं, कहीं पर भी हो, किसी भी देश या किसी लोक में हो, स्वर्ग में हो या तलाताल में हो या सुतल में हो, या महातल में हो, या वितल में हो इतने सात लोक नीचेे हैं। अधः गच्छंति भगवान नेे कहा नीचे जाते हैं वह जीव जो पापी होते हैं और ऊपर जाते हैं ऊर्ध्व गच्छंति ऊपर जाते हैं। अधः गच्छंति नीचे जाते हैं, समझ रहे हो? अध: नीचे उर्ध्व ऊपर, ऊपर सात लोक हैं। स्वर्गलोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, ब्रह्मा का लोक ऐसे अलग-अलग सात ऊपर सात नीचे लोक हैब।
नाम बिना किछु नाहिक आर, चौदाभुवन-माझे भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा है इन चौदह भुवनो में सात ऊपर सात नीचे हैं। हम बीच में पृथ्वी लोक पर जो मध्य में है इन सारे चौदह भुवनों में कई सारे जीव से भरे पड़े हैं। शास्त्रज्ञ को पता नहीं है, शास्त्रज्ञ तो अंधे हैं, उनका प्रयास चल रहा है, टेलिस्कोप और क्या-क्या सब यंत्रों की मदद से। लेकिन भगवान ने यह देखना आसान किया है शास्त्र चक्षुषा शास्त्र का चश्मा पहनो भाइयों और देखो बहुत कुछ दिखाई देगा। जो इन अंधे जीवों को या बध्द जीवों को, संशयात्मा विनश्यति संशय करने वाले जो जीवात्मा हैं या लोग हैं, उनको नहीं दिखाई देता है। लेकिन जो शास्त्र चक्षुषा हैं उनको समझ में आएगा कि चौदह भुवन हैं और कई सारे जीवों से वह भरे पड़े हैं और तटस्थ है बस इतना ही समझ लेते हैं।
श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा है यह जो भौतिक जगत है, जो पंचमहाभूतों से बना हुआ है, इन पंचमहाभूतों से भी श्रेष्ठ यह तटस्थ शक्ति है । भगवान का जो जीव है, जीवभूत है, जीवात्मा जिसे भगवान ने गीता में जीवभूत कहा है ।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।
(Bg 7.4)
अनुवादः पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार यह आठ मेरे भिन्न प्राकृतिक शक्ति हैं।
आत्मा जो चेतन है वह जड़ प्रकृति से श्रेष्ठ है, श्रील प्रभुपाद ने कहा है, जो सत्य है। भगवान की एक परा प्रकृति है एक अपरा प्रकृति है। माया जो पंचमहाभूतो की बनी हुई है या त्रिगुणमयी माया यह अपरा प्रकृति है’ शक्ति है’ और जीवभूत जीवात्मा जो है यहां परा प्रकृति है श्रेष्ठ शक्ति है। भगवतगीता में इसका आधार क्या है? भगवत गीता सातवां अध्याय श्लोक चौथा और पाँचवा। श्रील पभुपाद कई बार या बारंबार उनको मिलने के लिए आए लोगों को संबोधित करते हैं प्रभुपाद तो कोई सिद्धांत की बात या तत्व की बात समझाते समय कहते हैं, वह श्लोक को ढूंढो। फिर सचिव वह श्लोक ढूंढ लेते हैं और प्रभुपाद कहते हैं, पढ़कर सुनाओ हम भी और फिर प्रभुपाद ने कहा जीवात्मा यह तटस्थ शक्ति यहां पर है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।
अष्टधा इसको जरा पढ़ो समझो। अष्टधा मतलब यह जो आठ प्रकार के मेरी प्रकृति है। इसको भिन्ना प्रकृतिरष्टधा, 8 प्रकार की मेरी भिन्न प्रकृति है। माया शक्ति है। पंचमहाभूत है, पृथ्वी आप तेज वायु आकाश और मन बुद्धि अहंकार यह सुक्ष्म तत्व है। यहांं बहिरंगा भी हुई और माया शक्ति भी हुई भिन्न प्रकृति भी हुई, आगेेे पांचवे श्लोक मे भगवान कहेंगे श्रीभगवानुवााचच तो चल ही रहा है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
अनुवाद: महाबाहु अर्जुन इसके अलावा मेरी और एक श्रेष्ठ ऐसी परा प्रकृति है। जिसमें जीव आते हैं, यह जीव कनिष्ठ भौतिक प्रकृति चीजों का उपभोग लेते हैं।
चौथे श्लोक में जिस प्रकृति का उल्लेख किया है, उसे भिन्ना प्रकृति कहा गया। अष्टधा आठ प्रकार की प्रकृति कहें या फिर आठ प्रकार है माया या भौतिक प्रकृति कहा है।
इसको अपरेयमि यह प्रकृति है अपरा , किंतु का उपयोग किया है भगवान ने। किंतु इसके अलावा यह जो भिन्नात प्रकृति है, यह माया प्रकृति है। यह अपरा है परा नहीं है। इसके अलावा इतः अन्यात दूसरी एक मेरी प्रकृति है। अन्यातप्रकृतिं विद्धि मे पराम् और दूसरी एक मेरी प्रकृति है वह कैसी है पराम् अष्टधा यह जो आठ सूक्ष्म तत्व मिलके जो माया प्रकृति है, भौतिक प्रकृति है यह अपरा है। इसके अलावा जो प्रकृति है वह परा प्रकृति है। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ यह जीवभूतां जीव भगवान की दूसरी प्रकृति है। जिसको हम कहते हैं, परा जीव परा है और भौतिक प्रकृति अपरा है। ऐसा भगवान ने कहा है, यह शास्त्र है यही सत्य है। इसी के साथ हम थोड़े ज्ञानवान हो जाते हैं। इसी के साथ क्या होता है,
ओम अज्ञान तिमिरंधास्य ज्ञानांनजन शलाकायचक्षुरन्मिलितन्मेन तस्मैश्रीगुरुवे नमः
हमारी आंखों में ज्ञान का अंजन भगवान ही डाल रहे हैं। कृष्णम वंदे जगतगुरु आदिगुरु तो भगवान ही हैं या फिर बलराम है आदिगुरु तो बलराम भी कृष्ण ही हैं, हमको सिखा रहे हैं, हमको समझा रहे हैं। हम जीवों की खोपड़ी में कुछ प्रकाश डाल रहे हैं। भगवान एक तो तुम समझ लो हे बेटा, हे पुत्र तुम हो कौन तुम हो जीव और दूसरी मेरी प्रकृति अष्टधा भिन्न प्रकृति माया प्रकृति, माया कनिष्ठ है और तुम श्रेष्ठ हो। तुम परा प्रकृति हो। स्वयं को खोजो। इस प्रकार हम स्वयं को खोज सकते हैं, मैं कौन हूं? भगवान समझा रहे हैं। श्रील पभुपाद यहां कह रहे हैं, यह जो जीवात्मा है, है तो परा प्रकृति लेकिन वो अपरा प्रकृति के चंगुल में फंस जाता है। माया से प्रभावित होता है, यह जीव तटस्थ शक्ति और यही तो हाल है। ऐसा स्वभाव है जीव का तटस्थ, बीच में है या तो माया से प्रभावित होता है, मतलब भगवान की बहिरंगा शक्ति से प्रभावित होता है या फिर भगवान की अंतरंगा शक्ति से प्रभावित होता है। जब वह बहिरंगा शक्ति से प्रभावित होता है या फिर बहिरंगा शक्ति के संग में आ जाता है,
तो वहां मेल न खाने वाली परिस्थिति है। श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं फिर वह मेल नहीं खाता है। उनका जमता नहीं दोनों का उसमें बिगाड़ हो जाता है, परेशान हो जाता है जीव। जब इस माया शक्ति से प्रभावित होता है जीव और प्रभावित होकर यह सारे कार्य कलाप करता है। प्रभावित होना चाहिए भगवान की अंतरंगा शक्ति से, अंतरंगा शक्ति यह दिव्य शक्ति है, अलौकिक शक्ति है। यह जीव भी है अलौकिक जीव भी है, दिव्य जीव भी है। जीव भगवान की अंतरंगा शक्ति के संपर्क में आ जाता है। अंतरंगा शक्ति चलायमान करती है, प्रभावित करती है तो वह मेल खाने वाली परिस्थिति बन जाती है, मेल बैठता है। शादी के वक्त भी यह मेल देखा जाता है, कुंडली बनाई जाती है। नहीं नहीं यह मेल नहीं खाता है। यह जब दूल्हा-दुल्हन बनेंगे तो इनमें कोई मेल नहीं रहेगा। वैवाहिक जीवन में कठिनाइयां रहेगी, मेल रहना मेल नहीं रहना तो इस संसार में अनुभव होता ही है। वैसा ही अनुभव जीवात्मा और भगवान की इन दो प्रकृति बहिरंगा प्रकृति और अंतरंगा प्रकृति के साथ होता है। बहिरंगा प्रकृति के संग में या प्रभाव में लोग दुखाःलयम अशाश्वतम कहो। दुख ही दुख भोगता है। फिर आदि भौतिक आदि आध्यात्मिक आदिदैविक जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
यह सारा बहिरंगा शक्ति के संग में आने से इसके चंगुल में फंसने से उससे प्रभावित होकर कार्यकलाप करने से, सलाह तो यह दी जा रही है कि, हमें अंतरंगा शक्ति के प्रभाव में रहना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ठीक है, इसका आश्रय लिया हमने। नामाश्रय कोरी जतन तुम्ही ताकह आपन काजे
नाम का आश्रय लो, भगवान के नाम की शरण में जाओ, मामेकं शरणम व्रज। तो भगवान ने कहा ही है ऐसा जब जीव करता है तो फिर अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः भगवान उस जीव को मुक्त करते हैं। बहिरंगा शक्ति है या बहिरंगा शक्ति बन जाती है व्यक्ति तो वह है दुर्गा छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दूर्गा कहा है। छाया एव छाया है, माया है छाया ।
हरि हरि। यह छाया किसकी है कृष्ण की छाया है या राधा की छाया है, राधा कृष्ण की छाया है। यह माया ओरिजिनल तो राधा रानी है जो अंतरंगा शक्ति का अल्हादिनी शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। अल्हदिनी शक्ति बन जाती है व्यक्ति परसोनिफिकेशन या एंबोडीमेंट (अवतार) जब होता है तो वह है राधा रानी और दूसरी है दुर्गा। दुर्गा सेेेे प्रभावित होकर और दुर्गा के पास त्रिशूल है विनाशायच दुष्कृतम फिर दृष्टों का संहार होता है उनकी पिटाई होती है इस जगत मे वे दंडित किए जाते हैं, यह सारा संसार कारागार तो हैै ही। दूसरा आश्रय है
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः । भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।
(श्रीमद भगवद्गीता 9.13)
अनुवाद: हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं | वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं |
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता: भगवान नेेेे सलाह दी है हे जीव, क्या करो मेरी दैवी प्रकृति का आश्रय लो वह दैवी प्रकृति है राधा रानी। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का जब हम ध्यान पूर्वक जप करते हैं, राधा रानी का आश्रय चाहते हैं, राधा रानी को पुकारते हैं और आश्रय की मांग करते हैं। मुझे आश्रय दे दो सेवा योग्यम कुरु मुझे सेवा के योग्य बना दो, हे राधा रानी मया सह रमस्व मेरे साथ रहो इत्यादि इत्यादि प्रार्थनाए हम करते हैं। जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं उच्चारण करते हैं तो हम राधा को पुकारते हैं। या श्रील प्रभुपाद समझाते थे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहते वक्त हम लोग हे राधे हे कृष्ण हमको आश्रय दो, उसको भी श्रील प्रभुपाद समझाया करते थे। एक तरफ बहिरंगा शक्ति का प्रभाव, बहिरंगा शक्ति हैंडल करती है जीव को और फिर जब जीव को अन्तरंगा शक्ति का आश्रय मिल जाता है तो फिर स्थिति कुछ अलग है। आनंद ही आनंद है वही जीवन है। प्रान्नत्ती, पुन्नत्ती, शुबन्नति मंगलमय जीवन विश्वम पूर्णम सुखायते फिर सुख ही सुख है तो माया के चंगुल में फंसे हुए या माया से प्रभावित जीव की स्थिति श्रील प्रभुपाद एक उदाहरण के साथ बताया करते थे। जैसे बिल्ली के मुंह में चूहा, बिल्ली ने चूहे को पकड़ लिया। कभी देखा है आपने… तो उस चूहे की जैसी स्थिति या हाल होता है चिल्लाता है बेचारा लेकिन चंगुल से छूट नहीं सकता। भली-भांति पकड़ा हुआ है बिल्ली ने तो यह स्थिति है और फिर वही बिल्ली अपने बच्चे को (किटेन ) को वह जब छोटा होता है तो असहाय होता है एक स्थान से दूसरे स्थान चल कर भी नहीं जा सकता। कभी ऊपर की मंजिल पर जाना है तो छोटा बिल्ली का बच्चा क्या करता है म्याव म्याव… बस। मतलब मम्मी को पुकारता है मदद करो मदद करो तो मम्मी बिल्ली आ जाती है और उसको पकड़ लेती है या हो सकता है गले में पकड़ती है और उसको एक स्थान से दूसरे स्थान या एक मंजिल से दूसरी मंजिल पहुंचाती है। उस समय जो बिल्ली का बच्चा है वह आराम से रहता है वहां से कुछ छूटने का या उस चंगुल से बचने का प्रयास बिल्कुल भी नहीं करता है वहां प्रसन्न रहता है। तो एक ही बिल्ली, जैसे हम चर्चा कर रहे हैं.. बहिरंगा शक्ति का प्रभाव डालती है चूहे के ऊपर और अपने बच्चे के ऊपर वह अंतरंगा शक्ति जैसा कार्य करती है उसका आदान-प्रदान होता है। जैसे अंतरंगा शक्ति का जो आश्रित जीव है, भक्त है, जो शरणागत है और भगवान शरणागत वत्सल है भगवान शरण देते हैं। श्रील प्रभुपाद ने आगे लिखा है जो तटस्थ शक्ति हैं (जीव ) वह जब अंतरगा शक्ति के संपर्क में आ जाती है उस अंतरंगा शक्ति को हरा कहते हैं और हरा से ही फिर होता है हरे और यही है राधा। फिर तटस्था शक्ति जो जीव है जीवभूत महाबाहो वे प्रसन्न हो जाते हैं। प्रभुपाद कह रहे हैं आगे जीव के लिए सामान्य बात है सुखी होना प्रसन्न होना और दुखी होना यह असामान्य बात है। तो नॉर्मल हो जाओ सुखी हो जाओ ऐसा ही संदेश ऐसा ही एक उपदेश ऐसी इच्छा भी भगवान की ही इच्छा है की, सभी जीव सुखी हो। सर्वे सुखिनो भवंतु, सर्वे संतु निरामयाः। सर्वानि भद्राणि पश्यन्तु , न क्वचित दुखः भाग भवेत तो केवल सर्वे सुखीनः भवंतु ऐसी प्रार्थना ही नहीं है। उसके साथ भगवान बता रहे हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने बताया और वही बात गौड़िय वैष्णव आचार्य परंपरा में बता रहे हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
महामंत्र का जाप करो और सुखी बनिये। हम सुखी बनेंगे जब हम जप करेंगे। जब कीर्तन करेंगे तो खुश रहेंगे सुखी बनेंगे और इसको सहजता कहा है।
हरि हरि, ठीक है फिर मैंने सोचा था की, यह पूरा करेंगे लेकिन पूरा हुआ नहीं। कुछ पंक्तियां बची हैं उसको अगले सत्र में सुनाएंगे। तब तक के लिए क्या होगा? आराम, आराम हराम है। मायावी ढंग का आराम हराम है। लेकिन अध्यात्मिक आराम आत्मा को आराम इसका स्वागत है। तब तक आप आराम करो। वैसे जप करेंगे, कीर्तन करेंगे, कीर्तनीय सदा हरी होगा तभी आराम मिलने वाला है जीव को, आत्माराम आत्मा में ही आराम। ठीक है, कुछ प्रश्न है या कुछ विचार है या और क्या है।
प्रश्नः अगर जीव श्रेष्ठ है और भौतिक प्रकृति कनिष्ठ है। आपातकालीन परिस्थिति होती है उस समय हम देखते हैं श्रेष्ठ शक्ति को पर कनिष्ठ शक्ति हावी हो जाती है ऐसा क्यों?
गुरु महाराज: मैंने समझाया ना जीव है तटस्थ शक्ति, है तो आध्यात्मिक। अध्यात्मिक है इसीलिए भौतिक से श्रेष्ठ है। भौतिक शक्ति को अपरा कहा है और जीव को अध्यात्मिक दिव्य अलौकिक कहा है, इसीलिए श्रेष्ठ है। भौतिकता कनिष्ठ है और आध्यात्मिक श्रेष्ठ है। जीवात्मा है अध्यात्मिक इसीलिए श्रेष्ठ है। भौतिक जगत कनिष्ठ है और जीवात्मा श्रेष्ठ है। जीवात्मा भौतिकता श्रेष्ठ कैसे हैं? इसको तटस्थ किसने बनाया? जीवात्मा तटस्थ है। मार्जिनल कहा है। जीव है तो आध्यात्मिक लेकिन कभी-कभी वह माया के प्रभाव में आ जाता है। माया उस पर हावी हो सकती है। कभी-कभी हावी भी हो जाता है। यह सब माया की व्यवस्था है। जीव कभी-कभी संभ्रमित हो जाता है। यह सब माया की व्यवस्था है। समुद्र तट होता है जिसको अंग्रेजी में ब्रिज कहते हैं। उसकी एक ओर समुद्र होता है और दूसरी ओर तट। पूर्णिमा के समय वह खारे पानी से धुल जाता है। पानी का प्रभाव पानी में डूब जाता है। पानी में अच्छादित हो जाता है और फिर दूसरे समय वहैं तक जमीन भूखंड बन जाता है। कभी वह तट पानी का हिस्सा होता है, कभी जमीन का होता है, इसीलिए उसको ब्रिज या तट भी कहा है। प्रभुपाद समझाया करते थे, कैसे जीव की ऐसी दुर्दैवी स्थिति है या उसका बनावट, मार्जिनल मतलब बीच वाला। इसीलिए स्वभाव से श्रेष्ठ है तो भी तटस्थ होने के कारण आखिर उसने जब अहंकार आ जाता है भूल जाता है। दासोस्मि मैं कृष्ण का दास हूं इसको भुलता है। और फिर जीव भोगवाछां करता है।
प्रश्न 2 – गायत्री को हमें कौन सी शक्ति समझना चाहिए आध्यात्मिक या भौतिक?
गुरु महाराज – आध्यात्मिक,सारा श्रीमद भगवतम गायत्री का भाष्य है ऐसी समझ है। गायत्री, इसको गाने से गायत्री का जप करने से मतलब श्रवण कीर्तन करने से वह मुक्त करती है। त्र मतलब त्रायते ऐसे हैं गायत्री। गायत्री की बहुत बड़ी महिमा है। लेकिन फिर वैसे हर देवता की गायत्री है, गायत्री के भी कई प्रकार हैं। कौन से देवता आपने चुने हैं और उस देवता की आराधना, उस गायत्री के उच्चारण से आपने की है तो उस पर निर्भर करेगा। तो वह भौतिक रूप से भी एक्ट करेगा। गंगा की भी गायत्री है, अलग-अलग देवताओं की भी गायत्री है। वैसे गुरु गायत्री भी है, ब्रह्म गायत्री भी है, गौरांग गायत्री भी है, कई सारी गयत्रियाँ हैं, गणेश गायत्री भी है। गायत्री का बहुत बड़ा विशाल जगत है, फिर अलग-अलग परंपरा में अलग-अलग गायत्रियाँ हैं और जो परंपरा में नहीं हैं उनके लिए भी कुछ जो चार वैष्णव संप्रदाय है उसके अलावा उनके लिए भी कुछ गायत्रियाँ हैं। इसको भगवान ने फिर कहा है सर्वधर्मान परित्यज्य धर्म तो है लेकिन कुछ गौण धर्म है और कुछ प्रधान मुख्य धर्म है। सर्व धर्म सार यह कीर्तन जप यह सर्व धर्म का सार है। कुछ गौण धर्म भी हैं कुछ ध्येय हैं और कुछ उपाध्येय हैं। कुछ स्वीकार करना चाहिए किसी को और कुछ ठुकराना चाहिए। गौण धर्म के अंतर्गत भी कई सारे देवता हैं और उनकी गायत्रियाँ हैं और फिर गायत्री का उच्चारण करके आप स्वर्ग जाओगे मतलब आध्यात्मिक नहीं हुआ। फिर और गायत्री का उच्चारण करके आप गोलोक जाओगे। आध्यात्मिक पंच रात्र में सब समझाया है पंचरात्रिक विधि में एकान्तिकी हरेर भक्ति उत्पात कुछ डिस्टरबेंस भी उत्पन्न हो सकता है अगर हमने शास्त्रों की विधि विधान या पंच रात्रि के विधि विधान के बिना भागवत विधि, पंच रात्रि की विधि। पंचरात्रि विधि के अंतर्गत यह गायत्री की विधि की आराधना उपवास यह सब आता है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
29 January 2021
You are superior than My Maya energy!
Hari Hari ! Today we have devotees from 770 locations chanting with us. Have you heard of this Dasavatar? He is all the way from Mauritius! Happy to see you chanting. Gopal is pleased and all the great acaryas of our disciplic succession are pleased with you when they see you chanting.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
I see. Srila Prabhupada is also looking and our great acaryas of the Gaudiya Vaisnava parampara are also looking. The Lord is also watching. The Lord is witness to our every activity. They all are happy when we chant or perform kirtana. Especially in Kaliyuga they are happy when we become dharmik and follow all the principles of dharma by properly learning and understanding dharma.
kali-kale nama-rupe krsna-avatara
nama haite haya sarva-jagat-nistara
Translation
In this Age of Kali, the holy name of the Lord, the Hare Krsna maha-mantra, is the incarnation of Lord Krsna. Simply by chanting the holy name, one associates with the Lord directly. Anyone who does this is certainly delivered. (CC Adi 17.22 )
Harinama sankirtana is the dharma of Kaliyuga. When we chant and do kirtana everyone is pleased with us. Guru and Gauranga are pleased.
For the last few days we have been discussing the statements given and recorded by Srila Prabhupada on the Hare Kṛṣṇa maha-mantra. We are trying to understand and study it. Srila Prabhupada has further said, The material energy called maya is also one of the multi potencies of the Lord, as much as we are the marginal potency of the Lord.
Srila Prabhupada has said that the nature and the material energy of the Lord is known as maya. Srila Prabhupada informs us that we are also one of the energies of the Lord. Here we are addressed as the soul. The soul is an individual energy and it is also one of the energies of the Lord. Maya is also one energy and this material world is also an energy of the Lord. We, as living entities, are also the energy of the Lord. The material world is known as maya ( illusionary energy). Living entities are known as the marginal energy. Here Srila Prabhupada has not mentioned anything about this, but in many other writings, living entities are called the marginal energy. One is the illusionary energy and the other is the marginal energy. Each individual entity no matter where placed – any country, any planet like heaven or hell or Atala -loka or Vitala-loka or Sutala-loka or Talātala-loka or Mahātala-loka or Rasātala-loka or Pātāla-loka.
ūrdhvaṁ gacchanti sattva-sthā
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ
jaghanya-guṇa-vṛtti-sthā
adho gacchanti tāmasāḥ
Pious go to superior planets, those with passion stay on earthly planets; and those in the abominable mode of ignorance go down to the hellish worlds.
(BG 14.18)
People who are engaged in sinful activities go to the hellish planets which are situated at the lowest part of the universe. Urdhvam gachanti means move upwards and adha gachanti means move downwards. There are total seven higher planets:
Satya-loka
Tapa-loka
Jana-loka
Mahar-loka
Svar-loka
Bhuvar-loka
Bhūr-loka
Like this various planets are present. Seven planets are on the higher side and seven planets are on the lower side.
Nama vina kichu nahi ko aar
Chauda Bhuvan maze
Bhaktivinoda Thakura has said that in total there are 14 planets – 7 are upwards and 7 are downwards and we are on the Earth. The Earth is mrityu-loka which is in the middle. All these 14 planetary systems are filled with living entities. Scientists are not aware of this. They are blind. They are trying very hard to see all this by inventing telescopes and other instruments. The Lord has made it easy by the vision of the scriptures. Devotees try to see it through scriptures and you understand many more things that these blind scientists or conditioned souls are not able to see.
ajñaśh chāśhraddadhānaśh cha sanśhayātmā vinaśhyati
nāyaṁ loko ’sti na paro na sukhaṁ sanśhayātmanaḥ
Translation
But persons who possess neither faith nor knowledge, and who are of a doubting nature, suffer a downfall. For the skeptical souls, there is no happiness either in this world or the next. (BG 4.40)
Skeptical people are not able to see this, but through scriptures we can understand this. It is a fact that all 14 planets exist and are filled with many living entities. All of them are marginal energies of the Lord.
Living entities are described as superior energies than matter.
Srila Prabhupada has further said that the material energy, that is, matter is made of five elements. The marginal energy or living entity is superior than this matter which is made of five elements. In Bhagavad Gita the Lord has said that the living entity or jiva is bhut and then there is mahabhut.
bhumir apo ‘nalo vayuh
kham mano buddhir eva ca
ahankara itiyam me
bhinna prakrtir astadha
Translation
Earth, water, fire, air, ether, mind, intelligence and false ego—altogether these eight comprise My separated material energies. (BG 7.4)
Srila Prabhupada has said that the soul is a living thing and it is superior to the material nature which is non-living. This is a fact. The Lord has one para prakrirti and other is apara prakriti. The illusionary energy is made of five elements and it is trigun mayi. It is inferior and is known as apara prakriti. The living entity is superior and it is para prakriti. What is the reference of this theory? It is given in Bhagavad Gita, Chapter 7, Verse 4 and 5. Srila Prabhupada many times asked his secretary to read this verse whenever he was talking about the basic principles while addressing the people who had come to visit him. His assistants would immediately find it and Prabhupada would ask them to read it so that everyone would know about it. In the same way that I am reading it to you what Prabhupada has said that the living entity is para prakriti. The Lord has said it in the fourth verse of the seventh chapter, “Earth, water, fire, air, ether, mind, intelligence and false ego are My eight energies.” Eti means this much. How many are they? ashta dha — ashta means eight and dha means types. Learn this little Sanskrit. The Lord has said that of My energies there are eight types. In that earth , water, fire , air and ether are five elements. Mind , intelligence and false ego are sukshma tatva. This is the external energy or Maya Shakti.
In the next verse, sri bhagavan uvaca
apareyam itas tv anyāṁ
prakṛtiṁ viddhi me parām
jīva-bhūtāṁ mahā-bāho
yayedaṁ dhāryate jagat
Translation
Besides these, O mighty-armed Arjuna, there is another, superior energy of Mine, which comprises the living entities who are exploiting the resources of this material, inferior nature. (BG 7.5)
In the fourth verse the Lord has mentioned the material nature and the eight types. All these eight types combined are known as maya or the material nature. The Lord has said apara eyam : eyam means this. I had just said, ‘bhinna prakrati me ashtadha ‘ is ‘ apara eyam’. This material nature is apara, but the Lord is using kintu. All ifs and buts are going on. In Bhagavad Gita this material nature is apara or inferior, but besides this there is another energy of Krsna, which is para. The energy which constitutes these eight elements is the material energy and besides these another energy is para prakrati. The living entity is another energy of the Lord and it is para. The living entity is para and the matter is apara. The Lord has said this in scripture and it is a fact.
jiva-bhutam maha-baho
yayedam dharyate jagat
Jiva bhutam is another energy of the Lord, which is para. This jiva is para and matter is apara energy of the Lord. This is a science and fact. Through learning all this we become knowledgeable. Along with this we get proper knowledge!
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
cakshur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah
Translation
I offer my respectful obeisances unto my spiritual master, who has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance, with the torchlight of knowledge. (Guru Pranam mantra)
Lord is putting the maskara of knowledge in our eyes. Krsnam vande jagad-gurum. The Lord is the original spiritual master. Balarama is Adi guru. He is explaining this to us to enlighten us. O! Jiva please do understand who you are? You are superior than my Maya energy! You are para prakriti. Discover yourself! This way we can search for our own identity. Living entities are described as superior energy to matter. When the superior energy is in contact with the inferior energy it becomes an incompatible situation. Srila Prabhupada explains that although the Jiva is the superior energy of the Lord, when it gets entangled with the inferior energy, or when the marginal energy gets impressed by the inferior energy, it again becomes an incompatible situation. As the jiva is situated in between, namely on the margin, it sometimes gets affected by the superior energy and other times the inferior energy. When it gets affected by external energy, it is an incompatible situation as it cannot adjust and then experiences difficulties and grief. Actually the jiva should be impressed by the internal energy of the Lord which is divine and extraordinary. The jiva is also superior and divine, so when it gets attached to that it creates a compatible situation. At the time of marriage this compatibility is verified to find the suitable match. In particular in the situation of incompatibility it is explained that these are not suitable matches and married life will be horrible. Similar experience is there in the cases of external and internal energies of the Lord. If the jiva gets entangled in the external energy then he experiences a lot of grief of various types – adhyatmik, adhibhautik and adhidaivik miseries and also birth, old age , death, disease. Thus the advice given to us is that we should be having impressions of internal energy.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Ram Hare Ram
Ram Ram Hare Hare
If we take shelter of this , that is namasrye kari jatan tumi ta kahe aapan kaje. take shelter of the holy name. The Lord also has said, “mamekam sharan vraj” When the jiva does this, then the Lord liberates that soul.
sarva-dharman parityajya
mam ekam saranam vraja
aham tvam sarva-papebhyo
moksayisyami ma sucah
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reaction. Do not fear. ( BG. 18.66)
External energy personified is Durga.
sṛṣṭi-sthiti-pralaya-sādhana-śaktir ekā
chāyeva yasya bhuvanāni bibharti durgā
icchānurūpam api yasya ca ceṣṭate sā
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation
The external potency Māyā who is of the nature of the shadow of the cit potency, is worshiped by all people as Durgā, the creating, preserving and destroying agency of this mundane world. I adore the primeval Lord Govinda in accordance with whose will Durgā conducts herself. ( BS. 5.44)
Chayya iva , Whose shadow? Maya is the shadow of Radha and Kṛṣṇa. Original is Radharani, who represents the alhadini potency of the Lord. The personification of the alhadini potency is Radharani and the personification of the external energy is Maya Devi. Durga has the trident with which she punishes wicked ones. This whole universe is like a jail, but there is also another type of shelter.
mahatmanas tu mam partha
daivim prakrtim asritah
bhajanty ananya-manaso
jnatva bhutadim avyayam
Translation
O son of Prtha, those who are not deluded, the great souls, are under the protection of the divine nature. They are fully engaged in devotional service because they know Me as the Supreme Personality of Godhead, original and inexhaustible.( BG. 9.13)
Lord has advised Arjuna to take shelter of His superior energy or daivi prakriti, which is Radharani. When we attentively chant …
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Ram Hare Ram
Ram Ram Hare Hare
… At hat time we take shelter of Radharani by calling out Her name. We request for Her shelter. Seva yogyam kuru. Make me eligible for service of the Lord! O Radharani! Please enjoy with me. ( Maya saha ramaswa). When we chant the Hare Kṛṣṇa maha-mantra we offer such prayers to Radharani to get Her shelter. Srila Prabhupada explained, this is how we cry out to take shelter of Radharani. This also Srila Prabhupada has explained. When the jiva takes shelter of the internal energy of the Lord then he experiences true bliss and there is happiness all round. Prananti, punanti garinanti. Viswam purna sukhayate
Srila Prabhupada would explain that the condition of a soul entangled in Maya is like a cat holding a rat in its mouth. This is a terrifying situation. The rat tries his best, but can’t get free from the mouth of the cat. But the same cat when holding her kitten in the same mouth to take him from one place to another place, does it with so much care that the kitten is completely relaxed. The kitten is happy and doesn’t try to get free from her mouth at all. The same cat is like the external energy on the rat and the internal energy on the kitten. Surrendered souls take shelter of the lotus feet of the Lord. It is the right situation. Srila Prabhupada explained that when the same supreme marginal potency is in contact with the supreme potency, Hara, a happy, normal situation is established. From Hara it becomes Hare and then the jiva becomes happy. To be happy is the normal state of the soul. To remain unhappy is the abnormal state of the soul. The Lord’s intention is to let all souls become normal and happy.
Om Sarve Bhavantu Sukhinah
Sarve Santu Niraamayaah |
Sarve Bhadraanni Pashyantu
Maa Kashcid-Duhkha-Bhaag-Bhavet |
Om Shaantih Shaantih Shaantih ||
Translation
1. Om, May all be happy
2.May all be free from Illness
3.May all see what is auspicious
4.May no one suffer
5.Om Peace! Peace! Peace!
Caitanya Mahaprabhu and all the Acaryas in Gaudiya Vaisnava parampara have said this. Chant …
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
… and become happy. When we chant and do kirtana then we will be normal.
There are two paragraphs remaining, which I will explain in the next session. Till then you all rest. It’s not rest of an illusory type, but rest for the soul. Till then chant and be happy. There will be kirtaniya sada hari. Atmaram – one who experiences bliss at the level of soul.
Question 1
If the jiva is superior and the material energy is inferior, then during calamities, why does the inferior energy dominate the superior energy?
Gurudev uvaca
I have explained already this. The jiva although spiritual in nature is the marginal energy. Being spiritual it is superior to the material energy. The soul is divine, superior or para energy. The material is inferior and the jiva is superior, but in spite of being spiritual or superior, still it is marginal. Sometimes Maya can dominate it when the soul becomes illusional by the arrangements of Maya. The marginal potency, is called the ‘beach’ in English and ‘beechwala’ in Hindi. On one side of the beach is the sea and on the other side land. Sometimes at full moon the entire beach gets covered with water and at other times that same beach becomes a part of the land. That is why it is seen as marginal. This is also how Prabhupada explained it. Unfortunately this is the state of jiva. The marginal energy is in between, although superior. When it acquires false ego, it forgets its own state as a servant of Kṛṣṇa. Then…
‘Krsna bhuliya jiva bhoga vancha kare nikata aste maya taare jhapatiya dhare’.
Translation
The moment soul desires not to serve the Lord maya immediately grabs him and casts him into material existence.
Question 2
Gayatri vs the material or spiritual energy?
Gurudev uvaca
The understanding is that the whole of the Srimad Bhagavatam is a commentary on the Gayatri. Gaya means singing, tri or tra means it protects the chanter. The glories of Gayatri are unlimited. There is a Gayatri of each demigod. There are various types of Gayatris. Whether it is material or spiritual will depend on which demigod you are worshipping by chanting a particular Gayatri. There is a Ganga Gayatri. There are Gayatris of various demigods. There is also Guru-Gayatri, Brahma-Gayatri, Gauranga-Gayatri and Ganesh Gayatri. The extent of Gayatri is very vast. There are different Gayatri mantras for different sampradayas. There are different Gayatris mantras for those who are not in any sampradaya. But the Lord has mentioned, sarva dharman parityajya. Although it is a religion, but it’s an inferior or subordinate religion.
Kirtana and Japa is the essence of all religions, but then there are some subordinate religions also. Some are eeya means one which can be discarded. Other is upadeya which cannot be discarded. In inferior religions also there are many worshipable entities. Devan Deva yajo yanti. One will go to heaven by chanting that Gayatri, means that is not spiritual. By the chanting of Gaur-Gayatri you will go to Goloka, then it’s spiritual. In Pancaratra all these things have been explained.
śruti-smṛti-purāṇādi-
pañcarātra-vidhiṁ vinā
aikāntikī harer bhaktir
utpātāyaiva kalpate
Translation
“Devotional service of the Lord that ignores the authorized Vedic literatures like the Upaniṣads, Purāṇas and Nārada Pañcarātra is simply an unnecessary disturbance in society.” (Bhakti-rasāmṛta-sindhu 1.2.101)
There can be a lot of disturbances. In Pancaratra worship and chanting of Gayatri have been explained elaborately.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
28 जनवरी 2021
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वेतचंद्र जय गौरभक्तवृंद।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज 762 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हम सुन और पढ़ रहे थें प्रभुपाद का महामंत्र के ऊपर लिखा हुआ भाष्य। मै उसको भाष्य कह रहा हूँ। श्रील प्रभुपाद ने इस महिमा का गान किया है। हरे कृष्ण महामंत्र का महात्म्य कहा है।हरि हरि!
जहां रुके थे वहां से हम आगे बढ़ेंगे आपको यह मिला? वचन (भाष्य)। हमने कहा तो था इसको अपलोड करने के लिए। जरूर प्राप्त कीजिएगा। पुनः पुनः पढ़ना और सुनना और इस पर मनन करना चाहिए। ये श्रील प्रभुपाद के जो वचन है हरिनाम महिमा के या नाम तत्व के और हरिनाम जप के संबंधी कुछ विधि-विधानो का या विधि-निषेधों का प्रभुपाद ने उल्लेख किया है। अपने लाइब्रेरी में आपको यह रिकॉर्डिंग या वचन संग्रहित करना चाहिए। उस पर आप कथा करिए,जपा रिट्रीट करोगे,जपा रिफाँन, जप को कैसे सुधारा जा सकता है आपको समझना है। समझना है इसको फिर समझाना है आपको इसका उपयोग कर सकते हो आप गौर – वाणी प्रचारिणे गौरांग महाप्रभु की ओर से श्री प्रभुपाद ने कहा है। महामंत्र में जो हरे है वह हरा से आता है हरे; हरा है हरे; हरा भगवान कि आल्हादिनी शक्ति है, श्री राधा ही है या हरिती जो कृष्ण के मन को हर लेती है इसीलिए यह जो शक्ति है हरा; हरा कहते हैं। हर लेती है जो मन को। अगर मगर की बात नहीं कृष्ण है ही मदन मोहन, मदन को मोहित करने वाले। मदन मोहन को भी मोहित करने वाली है यह राधा रानी इसलिए राधा रानी को राधा रानी की ख्याति है मदन मोहन मोहिनी के नाम से विख्यात है राधा रानी। राधारानी कि जय…!
यह हरा कृष्ण के मन को कृष्ण के चित्त को हर लेती है कृष्ण को भी यह मोहित करती है ऐसी है राधा। भगवान की शक्ति है और फिर वह शक्ति बन जाती है व्यक्ति, मूर्तिमान! वह शक्ति मूर्तिमान बनती है। वह मूर्ति है राधा रानी! राधा ठाकुरानी! श्रील प्रभुपाद यह कह रहे हैं, है तो हरा लेकिन हम कहते हैं हरे इस महामंत्र में उस शक्ति को उस राधा रानी को संबोधित करते हैं संबोधन में। हरि हरि।
श्रील प्रभुपाद कहते हैं इस महामंत्र में वैसे एक है कृष्ण नाम दूसरे है श्री राम तीसरा नाम है हरे। हरे के संबंध में भी श्रील प्रभुपाद ने कहा है कृष्ण और राम यह दोनों भी कृष्ण और राम; राम तो वैसे श्रीराम ही हैं जय श्री राम कभी-कभी लोग पूछा करते थे श्रील प्रभुपाद से हम जब
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कहते हैं यह कौन से राम हैं? श्रीराम हैं क्या हम श्रीराम समझ के जप कर सकते हैं? प्रभुपाद को कोई आपत्ति नहीं थी इस बात से, के हरे कृष्ण महामंत्र में जो राम है वह राम भी है, वे श्रीराम भी हैं और वह बलराम भी है। ऐसे श्रील महाप्रभु कहते थे यह तो वैसे महामंत्र में जो इस तत्व की दृष्टि से नाम तत्व की दृष्टि से विचार किया जाए तो हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। राम कृष्ण ही हैं, क्योंकि हरे हरे या हरा राधा है तो फिर राधा के साथ जो राम है वह कुछ नहीं होने चाहिए और आप राम को हरे राम को जय श्रीराम समझोगे तो फिर हरे या हरा सीता हुई ऐसा स्वीकार करना होगा, किंतु इस हरे कृष्ण महामंत्र में तो हरे अभी-अभी प्रभुपाद सिद्ध किए, ये कृष्ण कि शक्ति है, महामंत्र में यह राम की शक्ति नहीं है, बलराम की शक्ति हो सकती है।
रमति रमयति च इति राम:
ऐसी परिभाषा भी समझाई जाती है जो रमते हैं और रमाते हैं वह है राम और वही है श्री कृष्ण। जैसे रमण रेती है।
श्री कृष्ण बलराम कि जय…! श्री कृष्ण बलराम मंदिर रमण रेति क्षेत्र में है। उस क्षेत्र का नाम रमण रेती क्यों हुआ। उस रेती में वहां के बालू में भी कहो, या रज रज में कृष्ण रमण किए राधा रमण, राधा के साथ रमण और भक्तों के साथ भी रमण, वहां गायों के साथ भी रमण किया, गोचारण लीला भी वहाँ हुई, या गायों के साथ, या कृष्ण बलराम के साथ रमन किए, गोपियों के साथ, राधा रानी के साथ रमण किए। कृष्ण बलराम मंदिर के आंगन में जो तमाल वृक्ष है श्रील प्रभुपाद उसको संभाल के रखे जब कंट्रक्शन (निर्माणकार्य)शुरू हो रहा था तो कुछ लोगों ने तो प्रस्ताव रखा कि इस वृक्ष को तोड़ना चाहिए, हटाना चाहिए। प्रभुपाद ने विरोध किया नहीं यह तमाल वृक्ष है क्योंकि तमाल वृक्ष का वर्ण कृष्ण जैसा ही है। तमालवर्ण! कृष्ण का नाम ही तमाल वर्ण तमाल कृष्ण श्रील प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण गोस्वामी को यह नाम दिया। तमाल कृष्ण! तमालवृक्ष का जो वर्ण है तने का या शाखाओं का वह कृष्ण से मिलता जुलता है। तमाल वृक्ष को देखती है तो राधा रानी को कृष्ण का स्मरण होता है वह दौड़ कर आती है उस वृक्ष कि ओर कृष्ण यहां उपस्थित है आलिंगन देने के उद्देश्य से वह आ जाती है।तमाल वृक्ष से राधा कृष्ण कि लीलाओं का घनिष्ठ संबंध है। ऐसे तमाल वृक्ष कि भी जय…! उस क्षेत्र में कृष्ण रमे हैं इसलिए उसे रमणरेती कहते हैं। राम मतलब जो रमते हैं रमाते हैं एक धातु है रम, रम से श्रीराम हरि हरि!
और कृष्ण, अनंत कृष्ण या अकर्षिणी कृष्ण जो सभी को आकृष्ट करें,आकृष्ट करने वाले भगवान।
कृष्ण कन्हैया लाल कि जय…!
यह श्री कृष्ण का वैशिष्ट है उन्हीं को राम कहते हैं क्योंकि वह रमते है रमाते है उन्हीं को कृष्ण भी कहते हैं या मुख्य नाम तो भगवान का प्रधान पूर्ण नाम तो कृष्ण ही है। भगवान के कई सारे नाम हो जाते हैं अलग-अलग लीलाओं के कारण भगवान के सौंदर्य के कारण, भगवान के अलग-अलग भक्तों के साथ जो संबंध है उनके कारण भगवान के कई सारे नाम हो जाते हैं। उन नामों में प्रधान नाम है कृष्ण।हरे कृष्ण! और उस नाम को हम पुकारते हैं जब हम जप करते हैं नाम को पुकारते हैं मतलब कृष्ण को पुकारते हैं, संबोधित करते हैं ओह कृष्ण! हे कृष्ण! कैसे कृष्ण? जो सभी को आकृष्ट कर रहे हैं अपनी ओर वे हैं कृष्ण। य आकर्षति स कृष्ण जो सब को अपनी और आकर्षित करते हैं वह कृष्ण है। स्व माधुरयेन मम चित आकर्षय तो जब हम हरे कृष्ण कहते हैं ,कृष्ण को संबोधित भी किया कीर्तन या जप करते समय। तब हमारा निवेदन है स्व माधुरयेन मम चित आकर्षय अपने माधुर्य से मेरे चित्र को आकर्षित कीजिए। कृष्ण ने भी कहा अर्जुन से
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||
(श्रीमद भगवद्गीता 10.9)
अनुवाद: मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
मेरे भक्तों की क्या पहचान है? मेरा भक्त कैसा हो? जिसकी चेतना मुझ में लगी हुई हो। जो मुझसे आकृष्ट है फिर मैं गर्व से कहूंगा कि वह मेरा भक्त है । जिन्होंने प्राण भी समर्पित किये हैं और जब भी मेरे भक्त एकत्रित होते हैं वे बोध करते हैं ,एक दूसरे से मेरे संबंध में कुछ सुनते सुनाते हैं । ऐसे हैं मेरे भक्त। मेरा भक्त इसी में संतुष्ट रहता है और रमण करता है। पुनः इस रमने की क्रिया का उल्लेख हुआ है तो महामंत्र का जप करते समय यह भी प्रार्थना है मया सः रमस्व हे राधे आपका जो रमण होता है उसमें मेरा भी समावेश करिए ना । मेरे साथ रामिये हे कृष्ण, हे राधे, ऐसा भी भाष्य महामंत्र पर लिखा गया है ।
श्रील प्रभुपाद आगे लिख रहे हैं, भगवान को आह्लाद देने वाली शक्ति है, राधा रानी ।भगवान सच्चिदानंद है। संधिनी से सत और संवित से चित्त ।संवित नाम की भगवान की शक्ति है। भगवान सत हैं का मतलब शाश्वत हैं। चित यानी भगवान को व ज्ञान है, इसीलिए वह भगवान है। भगवान सच्चिदानंद विग्रह है और आह्लाद यानी आनंद से पूर्ण है ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् 6.8
न तस्य कार्य करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।।
अनुवाद: – उसके शरीर और इंद्रिया नहीं है, उसके समान और उससे बढ़कर भी कोई दिखाई नहीं देता, उसकी पराशक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है और वह स्वाभाविक ज्ञान क्रिया और बलक्रिया है।
भगवान के कई अलग-अलग शक्तियां हैं यहां पर श्रील प्रभुपाद आह्लादिनी शक्ति के बारे में उल्लेख कर रहे हैं जो कि राधा रानी हैं। वह क्या करती हैं ?भगवान को आनंद देती हैं , उनके आनंद का कारण बनती है। पर कहा तो है कि भगवान ही सर्व कारण कारण है, इसलिए शक्तिमान और शक्ति में भेद नहीं है। शक्तिमान ही शक्ति बने हैं। राधारानी जो स्वयं कृष्ण की ही शक्ति है और फिर शक्ति ही आह्लाद देती है या फिर कृष्ण ही बन जाते हैं शक्ति और कृष्ण ही कृष्ण को आह्लाद देते हैं, शक्ति के माध्यम से।
राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥ राधा – भाव(आदि लीला चैतन्य चतीतामृत 1.5)
अनुवाद “श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । ”
दोनों राधा और कृष्ण एक तनु है, एक आत्मा है, एक विग्रह है। दोनों एक ही आत्मा होते हुए भी भेद हुआ है। एक के दो हुए, एक हुए कृष्ण और दूसरी हुई राधा ।एक दूसरे के साथ लीला खेलने के लिए आदान प्रदान करने के लिए वे दो हुए। वैसे एक ही हैं और फिर इस कलियुग में भगवान चैक्यमापतं दो के पुनः एक हो जाते हैं ।और वह रूप है द्युति सुवलितं नौमी कृष्ण स्वरूपं
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का इसमें कृष्ण राधा के भाव और कांति को अपनाते हैं ।जो एक के दो हुए थे वह पुनः दो के एक हो जाते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। अधुना मतलब इस कलियुग में प्रकट हुए हैं।
वह रूप है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का तो इस प्रकार राधा और कृष्ण का घनिष्ठ संबंध है और ऐसा संबंध और किसी के साथ नहीं है। घनिष्ठता में भी घनिष्ठ, घनिष्ठतर और घनिष्ठत्तम होगा। यह संबंध घनिष्ठतम है । द्वितीयो न अस्ति दूसरा नहीं है। जैसा कृष्ण का संबंध राधा रानी के साथ है।
जय श्री राधे ।
जय श्री राधे।
हरि हरि ।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
28 January 2021
Attractor of the All Attractive
Hare Kṛṣṇa!
jaya jaya śrī caitanya jaya nityānanda
jayādvaita-candra jaya gaura bhakta vrṇda
nama om vishnu-padaya krishna-preshthaya bhu-tale
srimate bhaktivedanta-svamin iti namine
namas te sarasvate deve gaura-vani-pracarine
nirvishesha-shunyavadi-pashchatya-desha-tarine
jaya sri-krsna-caitanya prabhu nityananda sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrinda
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Devotees from 762 locations are chanting with us. Yesterday we were hearing and reading Srīla Prabhupāda’s commentary on the Hare Krishna mahā-mantra. We will start from where we stopped. Did you get the statement? If not, then please make sure you get it for repeated reading, hearing and contemplating. After reading, one must understand and make others understand too. gaura-vani-pracarine – preaching the message of Lord Caitanya. Srīla Prabhupāda has spread this message or the holy name on behalf of Lord Caitanya.
Srīla Prabhupāda continues:
The word Hara is the form of addressing the energy of the Lord. The word Hare in the mahā-mantra is derived from the word Hara. Hara is the Ahladini Sakti or internal potency of Kṛṣṇa. This internal potency is Radha. This energy of Kṛṣṇa or Hara attracts Kṛṣṇa. Krsna is known as Madan Mohan, who attracts Madan or Kāma deva and Radharani is Madan Mohan Mohini – the One who attracts Kṛṣṇa, Madan Mohan. This energy becomes a personality, who is Radharani. Hare is the way to address Hara or Radharani.
Srīla Prabhupāda further says, both Kṛṣṇa and Rāma are forms of addressing the Lord directly and They mean the highest pleasure, eternal. One is the name of Kṛṣṇa, another is Rama and the third is Hare, in the mahā-mantra. Rāma is Lord Srī Rāma. People would ask Srīla Prabhupāda, “Who is Rāma in the mahā-mantra. Is He Lord Sri Rama?” Prabhupāda would reply, “Yes yes, this is the same Rama or Balarama also.” But since Hare is Radharani, therefore Rāma is Kṛṣṇa only in the mahā-mantra. If we consider Rāma as Sri Rāma, then this Hare must be addressing Sita, but since Srīla Prabhupāda already asserted Hare as Radharani, therefore Rāma must be Kṛṣṇa here.
ya ramati ramayati ca iti ramah
The one who derives joy for Himself and gives joy to others is Rāma or Sri Kṛṣṇa. The Kṛṣṇa Balaram temple in Vrindavan is in Raman Reti. That area is known as Raman Reti because Kṛṣṇa performed His transcendental pastimes with Radharani there. He also performed His pastimes with Balarama, the Gopis, cows and cowherd boys. In the courtyard of Kṛṣṇa Balaram temple, there is a Tamal tree and the proposal was to remove it during the construction of the temple, but Srīla Prabhupāda rejected that proposal. That was because the colour of the tree is that of Kṛṣṇa. Kṛṣṇa is also known as Tamala varna or Tamala Kṛṣṇa. Srīla Prabhupāda also named a disciple Tamala Kṛṣṇa Goswami. When Radharani sees the Tamala tree, it reminds Her of Kṛṣṇa and She runs to embrace the tree thinking of Kṛṣṇa. The Tamala tree has an intimate relationship with the transcendental pastimes of Radha and Kṛṣṇa. All glories to such a Tamala tree!
Rāma is one who derives joy for Himself and gives joy to others. Rāma is derived from the word Rama in Sanskrit. Ya akarshati sa Kṛṣṇaha Krsna attracts everyone. This is His transcendental quality. He is also called Rāma as He performs varied pastimes. Kṛṣṇa is called many names according to His pastimes, but the foremost name is Kṛṣṇa and this is what we call out during chanting when we say Hare Krsna.
Sva-madhuryena mac-cittah akarsaya
Translation
O Krsna! Capture my mind with the sweetness of your name, form and pastimes. (Explanation of the Mahā-mantra by Gopala Guru Gosvami)
When we say Hare Kṛṣṇa, it is our request to Him to attract our mind and attention with His pastimes and qualities.
mac-cittā mad-gata-prāṇā
bodhayantaḥ parasparam
kathayantaś ca māṁ nityaṁ
tuṣyanti ca ramanti ca
Translation
The thoughts of My pure devotees dwell in Me, their lives are fully devoted to My service, and they derive great satisfaction and bliss from always enlightening one another and conversing about Me. (BG. 10.9)
In Bhagavad-Gīta Kṛṣṇa says, “mac-cittā- whose thoughts dwell in Me and who are attracted by Me, mad-gata-prāṇā- whose lives are fully devoted to My service, bodhayantaḥ parasparam – who discuss about My pastimes and derive satisfaction (tuṣyanti ca) and bliss (ramanti ca) – such is My devotee.”
maya saha ramasva
Translation
O Hari! Take pleasure in me and enjoy with me. (Explanation of the Mahā-mantra by Gopala Guru Gosvami)
Srīla Prabhupāda continues – Hara is the supreme pleasure potency of the Lord. Kṛṣṇa is sat-cit-ananda. Sandhini is Kṛṣṇa’s energy of eternal existence (Sat), Samvit is Krsna´s energy of eternal knowledge (Cit) and Ahladini is Kṛṣṇa’s energy of eternal bliss (Ananda). Therefore, Kṛṣṇa is sat-cit-ananda – made up of eternity, knowledge and bliss.
parashya shaktir vibhidhev shruyate
There are different energies of the Lord. Our discussion here is with respect to this Ahladini energy or Radharani who gives pleasure to Kṛṣṇa.
īśvaraḥ paramaḥ kṛṣṇaḥ
sac-cid-ānanda-vigrahaḥ
anādir ādir govindaḥ
sarva-kāraṇa-kāraṇam
Translation
Kṛṣṇa who is known as Govinda is the Supreme Godhead. He has an eternal blissful spiritual body. He is the origin of all. He has no other origin and He is the prime cause of all causes. (Śrī Brahma-Saṁhitā 5.1)
Kṛṣṇa is said to be sarva karan kaaranam, the prime cause of all causes. As the energy (Radharani) and the possessor of energy (Kṛṣṇa) are non-different. Therefore Kṛṣṇa is His own energy and He personified as Radharani to give pleasure to Himself.
ek atmanāma api
deha bedha gatau to
Radha Kṛṣṇa ek tanu hai – Radha and Kṛṣṇa are one soul, two transcendental bodies. Tanu means vigrah or Deities. Deha bedha gatau to, One is Krsna and another is Radharani. Just to perform the pastimes, They became two but actually They are one. This relationship of Kṛṣṇa with Radharani is very profound.
I think the time is up. We could discuss only one paragraph, 2-3 paragraphs are remaining. We shall discuss this in the next session. We wish this mercy of Radharani is bestowed on us as well!
Srīla Prabhupāda is a Radha devotee like all Gaudiya Vaisnavas. Gaudiya Vaisnavas worship Radharani and later on they become Kṛṣṇa devotees also. We worship those who worship Radha Kṛṣṇa.
ramyā kācid upāsanā vraja-vadhu-vargeṇa yā kalpitā
Translation
There is no better worship than what was conceived by the gopīs.
Sri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu strongly recommended that we must be devoted to the Gopis of Vraja and the chief amongst them is Radharani. Therefore we must be situated in the mood of Radharani following in Her footsteps and worshipping like Her. Then the mercy of Radharani will be bestowed. Kṛṣṇa is the epitome of mercy and so is Radharani. She bestows her mercy to us through Srīla Prabhupāda. Therefore we offer our respectful obeisances to Srīla Prabhupāda.
Question and Answer
Question
All our mundane activities come to an end at the stage of pure goodness. How?
Gurudev uvaca
The mode of pure goodness or suddha satva is away from the three modes of material nature, namely mode of goodness, passion and ignorance. This is a kind of stage of our progress in spiritual life. Therefore this stage can be considered as one of the satvas, the 4th satva or suddha satva (nirguna or without any mundane attribute).
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ
ahaṅkāra-vimūḍhātmā
kartāham iti manyate
Translation
The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature. (BG. 3.27)
Whatever we do, is influenced by the three modes of material nature, but when we attain pure goodness then it is not influenced by the three modes or lust, but by love for Kṛṣṇa.
māṁ ca yo ’vyabhicāreṇa
bhakti-yogena sevate
sa guṇān samatītyaitān
brahma-bhūyāya kalpate
Translation
One who engages in full devotional service, unfailing in all circumstances, at once transcends the modes of material nature and thus comes to the level of Brahman. (BG. 14.26)
‘The three modes of material nature’ – here Kṛṣṇa is summarising it. Please read it and it will be clear from the purport. Srīla Prabhupāda explains, one who engages in full devotional service, unfailing in all circumstances, at once transcends the modes of material nature and thus comes to the level of Brahman. This stage is also called Brahman Bhuta or Suddha Satva. One is satva (goodness) and other is Suddha Satva (pure goodness). Goodness is material but pure goodness is spiritual or transcendental.
Gaura premanande hari haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 28 января 2021 г.
ТА, КТО ПРИВЛЕКАЕТ ТОГО, КТО ПРИВЛЕКАЕТ ВСЕХ
Харе Кришна!
Джайа Джайа Шри Чайтанья Джайа Нитьянанда
Джайа Адвайта Чандра Джайа Гаура Бхакта Вринда!
нама ом вишну-падайа
кршна-прештхайа бху-тале
шримате бхактиведанта-свамин ити намине
намас те сарасвате деве
гаура-вани-прачарине
нирвишеша-шунйавади-
пашчатйа-деша-тарине
Перевод:
В глубоком почтении я склоняюсь перед Его Божественной Милостью А.Ч. Бхактиведантой Свами Прабхупадой, который очень дорог Господу Кришне, ибо для него нет иного прибежища, кроме лотосных стоп Господа. О духовный учитель, слуга Сарасвати Госвами, мы склоняемся перед тобой в глубоком почтении. Ты милостиво проповедуешь учение Господа Чайтаньядевы и несешь освобождение странам Запада, в которых широко распространился имперсонализм и философия пустоты.
(джай) Шри-Кришна-Чаитанйа
Прабху Нитйананда
Шри-Адваита Гададхара
Шривасади-Гаура-Бхакта-Вринда
Перевод:
Я выражаю свое глубокое почтение Шри Кришне Чайтанье, Прабху Нитьянанде, Шри Адвайте, Гададхаре, Шривасе и всем остальным, следующим путем преданного служения.
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
С нами воспевают преданные из 762 мест. Вчера мы слушали и читали комментарий Шрилы Прабхупады к маха-мантре Харе Кришна. Мы начнем с того места, где остановились. Вы получили сообщение? Если нет, то убедитесь, что вы получили его для многократного чтения, слушания и размышлений. После прочтения нужно понять и дать понять другим. гаура-вани-прачарине – проповедуя послание Господа Чайтаньи. Шрила Прабхупада распространял это послание или святое имя от имени Господа Чайтаньи.
Шрила Прабхупада продолжает:
Слово Хара – это форма обращения к энергии Господа. Слово Харе в маха-мантре происходит от слова Хара. Хара – это Хладини Шакти, внутренняя энергия Кришны. Эта внутренняя энергия – Радха. Эта энергия Кришны или Хара привлекает Кришну. Кришна известен как Мадан Мохан, который привлекает Мадана или Камадева, а Радхарани – Мадан Мохан Мохини – Та, кто привлекает Кришну, Мадана Мохана. Эта энергия становится личностью, которой является Радхарани. Харе – это способ обратиться к Хара или Радхарани.
Шрила Прабхупада далее говорит, что и Кришна, и Рама являются формами прямого обращения к Господу и означают высшее наслаждение, вечное. Одно имя – Кришна, другое – Рама, а третье – Харе в маха-мантре. Рама – это Господь Шри Рама. Люди спрашивали Шрилу Прабхупаду: «Кто такой Рама в маха-мантре. Он Господь Шри Рама?» Прабхупада отвечал: «Да, да, это тоже тот же Рама или Баларама». Но поскольку Харе – это Радхарани, поэтому Рама – это Кришна только в маха-мантре. Если мы рассматриваем Раму как Шри Раму, тогда эта Харе, должно быть, это обращение к Сите, но поскольку Шрила Прабхупада уже назвал Харе Радхарани, значит, Рама здесь должен быть Кришной.
йа рамати рамаяти ча ити рамах
Тот, кто получает радость для Себя и доставляет радость другим, – это Рама или Шри Кришна. Храм Кришны Баларама во Вриндаване находится в Раман Рети. Эта местность известна как Раман Рети, потому что Кришна проводил там Свои трансцендентные игры с Радхарани. Он также проводил Свои игры с Баларамой, гопи, коровами и мальчиками-пастушками. Во дворе храма Кришны Баларама растет дерево тамал, и предлагалось убрать его во время строительства храма, но Шрила Прабхупада отклонил это предложение. Это потому, что цвет дерева – цвет Кришны. Кришну также называют Тамала варна или Тамала Кришна. Шрила Прабхупада также назвал ученика Тамал Кришна Госвами. Когда Радхарани видит дерево тамала, оно напоминает Ей о Кришне, и Она бежит, чтобы обнять дерево, думая о Кришне. Дерево тамала тесно связано с трансцендентными играми Радхи и Кришны. Слава такому дереву тамала!
Рама – это тот, кто получает радость для Себя и доставляет радость другим. Рама происходит от слова Рама на санскрите. Йа акаршати са Кришна – Кришна привлекает всех. Это Его трансцендентное качество. Его также называют Рамой, поскольку Он проводит разнообразные игры. Кришну называют многими именами в соответствии с Его играми, но главное имя – Кришна, и это то, что мы произносим во время воспевания, когда говорим Харе Кришна.
сва-мадхурйена мак-читтах акаршайа
Перевод:
О Кришна! Захвати мой разум сладостью Твоего имени, формы и игр.
(Объяснение маха-мантры Гопала Гуру Госвами)
Когда мы говорим Харе Кришна, мы просим Его привлечь наш ум и внимание к Своим играми и качествами.
мач-читта̄ мад-гата-пра̄н̣а̄
бодхайантах̣ параспарам
катхайанташ́ ча ма̄м̇ нитйам̇
тушйанти ча раманти ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все мысли Моих чистых преданных поглощены Мной, и вся их жизнь посвящена Мне. Всегда делясь друг с другом знанием и беседуя обо Мне, они испытывают огромное удовлетворение и блаженство.
(Б.Г. 10.9)
В «Бхагавад-гите» Кришна говорит: «мач-читта – чьи мысли пребывают во Мне и кого привлекаю Я, мад-гата-прана – чья жизнь полностью посвящена служению Мне, бодхаянтах параспарам – которые обсуждают Мои игры и получают удовлетворение. (тушьянти ча) и блаженство (раманти ча) – таков Мой преданный».
майя саха рамасва
Перевод:
О Хари! Наслаждайся мной и наслаждайся со мной.
(Объяснение маха-мантры Гопала Гуру Госвами)
Шрила Прабхупада продолжает: Хара – это высшая энергия наслаждения Господа. Кришна сат-чит-ананда. Сандхини – это энергия вечного существования Кришны (Сат), Самвит – это энергия вечного знания Кришны (Чит), а Хладини – энергия вечного блаженства Кришны (Ананда). Поэтому Кришна сат-чит-ананда – состоящий из вечности, знания и блаженства.
парашья шактир вибхидев шруйате
Есть разные энергии Господа. Здесь мы обсуждаем эту энергию Хладини или Радхарани, доставляющую удовольствие Кришне.
ишварах парамах кршнах
сат-чит-ананда-виграхах
анадир адир говиндах
сарва-карана-каранам
Перевод:
Кришна, известный как Говинда — Всевышний Господь, Абсолютная Истина. Он вечен и полон блаженства, а тело Его духовно. Безначальный, Он Сам— начало всего сущего и причина всех причин.
(Шри Брахма-Самхита 5.1)
Кришна считается сарва карана каранам, первопричиной всех причин. Поскольку энергия (Радхарани) и обладатель энергии (Кришна) неотличны. Поэтому Кришна – это Его собственная энергия, и Он олицетворил Радхарани, чтобы доставить Себе удовольствие.
эк атманама апи
деха бедха гатау
Радха Кришна эк тану хай – Радха и Кришна – это одна душа, два трансцендентных тела. Тану означает виграх или Божества. Деха бедха гатау, Один – Кришна, а другой – Радхарани. Просто для проведения игр, Их стало двое, но на самом деле Они – одно. Эти отношения Кришны с Радхарани очень глубоки.
Думаю, время вышло. Мы могли обсудить только один абзац, осталось 2-3 абзаца. Об этом мы поговорим на следующей сессии. Мы желаем, чтобы эта милость Радхарани была дарована и нам!
Шрила Прабхупада – преданный Радхи, как и все Гаудия-вайшнавы. Гаудия-вайшнавы поклоняются Радхарани, а позже они также становятся преданными Кришны. Мы поклоняемся тем, кто поклоняется Радха-Кришне.
рамйа качид упасана враджа-вадху-варгеша йа калпита
Перевод:
Нет лучшего поклонения, чем то, что выполняли гопи враджа.
(Чайтанья Манджуша)
Шри Кришна Чайтанья Махапрабху настоятельно рекомендовал нам быть преданными гопи Враджа, и главной из них является Радхарани. Поэтому мы должны пребывать в настроении Радхарани, идущим по Ее стопам и поклоняющимся ей. Тогда будет ниспослана милость Радхарани. Кришна – воплощение милости, как и Радхарани. Она дарует нам свою милость через Шрилу Прабхупаду. Поэтому мы в глубоком почтении склоняемся перед Шрилой Прабхупадой.
Вопросы и ответы:
Вопрос
Вся наша мирская деятельность заканчивается на стадии чистой благости. Как?
Гурудев сказал:
Гуна чистой благости, или шуддха-сатва, находится за пределами от трех гун материальной природы, а именно гуны благости, страсти и невежества. Это своего рода этап нашего продвижения в духовной жизни. Поэтому эту стадию можно рассматривать как одну из сатв, 4-ю сатву или шуддха-сатву (ниргуна или без каких-либо мирских атрибутов).
пракр̣тех̣ крийама̄н̣а̄ни
гун̣аих̣ карма̄н̣и сарваш́ах̣
ахан̇ка̄ра-вимӯд̣ха̄тма̄
карта̄хам ити манйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Введенная в заблуждение ложным эго, душа считает себя совершающей действия, которые на самом деле совершаются тремя гунами материальной природы.
(Б.Г. 3.27)
Все, что мы делаем, находится под влиянием трех гун материальной природы, но когда мы достигаем чистой благости, тогда на это влияют не три гуны или вожделение, а любовь к Кришне.
ма̄м̇ ча йо ’вйабхича̄рен̣а
бхакти-йогена севате
са гун̣а̄н саматӣтйаита̄н
брахма-бхӯйа̄йа калпате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто целиком посвящает себя преданному служению, ни при каких обстоятельствах не отклоняясь от этого пути, преодолевает влияние гун материальной природы и достигает уровня Брахмана.
(Б.Г. 14.26)
«Три гуны материальной природы» – здесь Кришна объясняет это. Прочтите, пожалуйста, и это будет ясно из содержания. Шрила Прабхупада объясняет, что тот, кто занимается полным преданным служением, неизменно при любых обстоятельствах, сразу преодолевает гуны материальной природы и, таким образом, достигает уровня Брахмана. Эта стадия также называется Брахма Бхута или шуддха сатва. Одна – сатва (благость), а другая – шуддха сатва (чистая благость). Благость материальна, но чистая благость духовна или трансцендентна.
Гаура премананде хари харибол!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक २७.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 692 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
श्रील प्रभुपाद ने महामंत्र की महिमा का गान किया अथवा उन्होंने महामन्त्र के भावों के संबंध में कहा कि जब हमें जप करना है तो कैसे भाव होने चाहिए, कैसी भक्ति होनी चाहिए। हमारी महामन्त्र अथवा जप के संबंध में जोकि हम प्रतिदिन करते हैं, क्या समझ होनी चाहिए।
आइए वही हम पहले सुनते हैं। कुछ लोग पढ़ कर सुना रहे थे, अब हम प्रभुपाद से सीधे सुनेंगे। यह स्टेटमेंट (वाक्य) इतना महत्वपूर्ण है कि प्रभुपाद ने इसको लिख लिया अथवा रिकॉर्ड भी किया जिससे भविष्य में भक्त इसे सदा के लिए सुन सकें। हम इसे सुन कर समझ सकते हैं अथवा प्रेरित हो सकते हैं। श्रील प्रभुपाद इस स्टेटमेंट में ऐसे ही भावों का उल्लेख करते हैं। हम ऐसे भाव जगाने का अभ्यास कर सकते हैं।
ध्यानपूर्वक सुनिए। शायद यह वाला अंग्रेजी में है। प्रभुपाद ने दोनों भाषाओं में इसकी रिकॉर्डिंग की है, पहले तो रिकॉर्डिंग अंग्रेजी में ही की थी परंतु बाद में उन्होंने इसे हिंदी में भी किया।
देखते हैं कौन सा रैडी (तैयार) है, सुनियेगा।
श्रील प्रभुपाद-( रिकॉर्डिंग)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस महामन्त्र के कीर्तन से उत्पन्न हुई अप्राकृतिक प्रतिध्वनि हमारी अप्राकृतिक चेतना को जागने के लिए अतुलनीय कृष्ण विधि है। जीवात्मा के रूप से हम सब कृष्णभावनाभावित हैं परंतु अनादि काल से जड़ प्रदार्थ के संपर्क में रहने के कारण हमारी चेतना भौतिक वातावरण द्वारा अशुद्ध हो गयी है। इस भौतिक वातावरण को माया कहते हैं, माया का अर्थ है ‘वो जो नहीं है।’अब हमें देखना है कि यह माया किस प्रकार की है? माया यह है कि हम सभी इस भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं। जबकि वास्तव में हम सभी अपूर्व रूप से इसके कठोर नियम की जकड़ में हैं। जैसे एक नौकर अपने सर्वशक्तिमान स्वामी को नकल करना चाहता है, यह माया का प्रभाव है।
हम इस भौतिक प्रकृति के भंडार का उपयोग करने के लिए सतत् समशील हैं परंतु वास्तव में हम उसकी जटिलता में अधिक से अधिक अबद्ध होते चले जा रहे हैं I कृष्ण भावना मस्तिष्क पर बनावटी दवाब नही है। यह चेतना, यह भावना, जीवात्मा की स्वभाविक प्रारंभिक शक्ति है। जब हम इस मंत्र के कीर्तन से उत्पन्न अप्राकृतिक प्रतिध्वनि को सुनते हैं, तब हमारी यह चेतना सुप्त अवस्था छोड़ कर जगती है। कलियुग में ध्यान की यह सरलतम विधि है व फलदायक मानी गयी है। कोई भी अपने व्यक्तिगत अनुभव से भी जान सकता है कि महामन्त्र के कीर्तन से आध्यात्मिक स्तर से अप्राकृतिक भावना की अनुभूति होती है। आरम्भ में सभी प्रकार की अप्राकृतिक भावना की स्थिति नहीं हो सकती है। जब भगवान् के शुद्ध भक्त द्वारा गाया जाता है तो सुनने वाले पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ता है।अतः तत्कालीन परिणाम के लिए इसे प्रभु के पवित्र भक्त से सुनना चाहिए। जो भगवान् के भक्त नहीं हैं उनके मुख से कीर्तन नहीं सुनना चाहिए। जैसे दूध को यदि जहरीले सर्प ने छू दिया है,
वह विषैला हो जाता है। शब्द ‘हरा’ के द्वारा प्रभु की शक्ति को सम्बोधित किया जाता है। कृष्ण और राम शब्द से प्रभु को सम्बोधित किया जाता है। कृष्ण और राम परम आनंद हैं और ‘हरा’ प्रभु की परम आनंदमयी शक्ति है। प्रभु की यह आनंदमयी शक्ति हमें उनके पास ले जाने में सहायक होती है।भौतिक शक्ति माया भी प्रभु की विविध शक्तियों में से एक है। हम जीवधारी भी प्रभु की तटस्था शक्ति हैं। जीवात्मा भौतिक शक्ति से विशिष्टय होते हैं। परा शक्ति का अपरा शक्ति से सम्पर्क निरुद्ध परिस्थिति उत्पन्न करता है किंतु परा शक्ति एवं तटस्था शक्ति का सङ्ग प्रसन्नता पूर्ण सामान्य परिस्थिति उत्पन्न करता है। ‘हरा’, ‘कृष्ण’ सङ्ग ‘राम’ यह तीन शब्द महामन्त्र के अप्राकृतिक बीज मंत्र है। कीर्तन, प्रभु तथा उनकी शक्ति को बद्ध आत्मा की रक्षा करने के लिए एक आध्यामिक पुकार है। कीर्तन उस बच्चे के रुदन जैसा होता है जो अपने माता की उपस्थिति चाहता है। माता हर भक्त को पिता अर्थात भगवान् के पास ले जाती है। तब प्रभु श्रद्धा एवं विश्वास के साथ कीर्तन करने वाले भक्त के सम्मुख स्वयं उपस्थित होते हैं।
हरे कृष्ण!
आप सबने सुना? और देखा भी?
आप प्रेजेंटेशन देख रहे थे अर्थात जो कहा जा रहा था, उसको दिखाया भी जा रहा था। इसे आप सभी को लोक संघ या इस chantwithlokanathswami कॉन्फ्रेस में भी भेजेंगे ताकि आप सभी इससे लाभान्वित हो सकें।
हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रील प्रभुपाद की जय!
वैसे हमनें हरे कृष्ण महात्म्य के विषय में और भी कमैंट्स सुने हैं लेकिन इस्कॉन के संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद का दिव्य अलौकिक हरे कृष्ण महामंत्र पर यह भाष्य बड़ा महत्वपूर्ण है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह हमारी कृष्णभावनामृत के पुनः जागृत करने की उदात्त विधि है।
वैसे हमनें कुछ दिखाया भी था अथवा कुछ सुनाया भी था। यह हरे कृष्ण महामन्त्र की विधि है, उच्चारण, श्रवण और जप सब उदात्त विधियां हैं और हम सब जीवित इकाइयां है।
हरे कृष्ण!
प्रभुपाद लिखते हैं कि वर्षा होती है तो जल के बिन्दु जब तक आकाश में होते हैं अथवा गिर रहे होते हैं, तब तक वह शुद्ध जल ही रहता है लेकिन जैसे वह बूंदे जमीन अथवा धरती पर पहुंचती हैं,
सारा कचरा, मैला, गंदा, मिट्टी उसमें मिल जाता है और उस जल की स्थिति गंदा जल अथवा गंदा नाला जैसी बन जाती है। वैसे तो हम भी वास्तविक रूप से शुद्ध पवित्र आत्माएं है। हम भी इस जगत के संपर्क में जैसे ही आए, इस जगत का मल कहा जाए, वैसे मल ही हैं,हम सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण से मलिन हो जाते हैं।
अतः पुनः हमारी चेतना, भावना, विचारों और पूरे जीवन में जो मल मिला हुआ है उसको हटाना है, उसको मिटाना है। जब हम हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करते हैं। वही प्रयास होता है, उसी के विषय में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी कहते हैं।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
(श्री श्री शिक्षाष्टकम)
अर्थ:-
श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
चेतोदर्पणमार्जनं अर्थात हमारी आत्मा अथवा हमारी चेतना के दर्पण पर पड़े हुए मल को मिटाना है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करने से यह संभव है।
जीवन की इस प्रदूषित अवधारणा में, हम सभी भौतिक प्रकृति के संसाधनों का शोषण करने की कोशिश कर रहे हैं।
हमारी भावना चेतना जब कुलषित अथवा दूषित होती है तो हम इस संसार के भोग भोगने का प्रयास करते हैं। श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं कि वास्तव में हम जटिलताओं में अधिक से अधिक उलझते जाते है। जब हमारा भोक्ता बनने का प्रयास होता है तो उससे हमारा जीवन और भी अधिक क्लिष्ट हो जाता है। इससे हम अधिकाधिक इस संसार में धंस अथवा फंस जाते हैं। क्रिया- प्रतिक्रिया, कारण और परिणाम होते ही रहते हैं। यह भ्रम माया कहलाती है। यह भ्रम अथवा भ्रांति जो है यह छाया है। यह छाया है, यह माया है लेकिन वास्तविक तो प्रकाश है।
कृष्ण सूर्य सम; माया हय अंधकार।याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.३१)
अर्थ:- कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान है। जहाँ कहीं सूर्य प्रकाश है, वहाँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्यों ही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्यों ही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता है।
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्
( श्रीमद् भगवतगीता १५.१)
अनुवाद:-
भगवान् ने कहा – कहा जाता है कि एक शाश्र्वत अश्र्वत्थ वृक्ष है, जिसकी जड़े तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं। जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है।
भगवान के धाम में जो सुल्टा( सीधा) है, यहां उल्टा हो जाता है। वहाँ कृष्ण है, यह माया है। हम भौतिक प्रकृति के कठोर कानूनों पर अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते हैं।
हम सुन तो चुके ही हैं परंतु हम भूल भी जाते ही हैं।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१४)
अनुवाद:- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।
इस मायावी नियमों व कानूनों का उल्लंघन करने या उससे परे पहुंचने अथवा गुणातीत होने के लिए कई सारे प्रयास करने पड़ते हैं। हम कृष्ण चेतना के पुनरुद्धार से भौतिक प्रकृति के विरुद्ध यह भ्रमपूर्ण संघर्ष रोक सकते हैं।
हमारा मायातीत अर्थात माया से परे पहुंचने, गुणातीत पहुंचने का संघर्ष अथवा प्रयास है, वह प्रयास तभी सफल होता है, जब हम हमारी कृष्ण भावना को जगाते हैं। हरि! हरि!
कृष्ण चेतना दिमाग पर एक कृत्रिम दबाव नहीं है, यह चेतना जीवित इकाई की मूल ऊर्जा है
हम कृष्ण भावना से मन को आच्छादित नहीं करते। श्रील प्रभुपाद यह लिख रहे हैं अथवा कह भी गए हैं कि यह कृष्ण भावना जीव की मूल शक्ति अथवा भावना ही है।हम कृष्ण भावना को मन पर लाद अथवा आच्छादित नही कर रहे हैं। दिव्य मन भी हैं, दिव्य बुद्धि भी है। आत्मा तो दिव्य है ही। उसका ही स्वाभाविक, शाश्वत लक्षण है। उसका ही कृष्ण भावना भावित होना भाव है। यह कृत्रिम आच्छादन नहीं है।
हमारी इस समय जो भावना अथवा विचार है, यह सब इस संसार के विचार हैं जिससे हम कलुषित दूषित अथवा आच्छादित हो चुके हैं।
जब हम ट्रांस डेंटल अलौकिक कंपन को सुनते हैं, तो यह चेतना पुनर्जीवित होती है
यह महामन्त्र जो दिव्य ध्वनि है, वह हमारी आत्मा की जो मूल कृष्ण भावना है, उसको जागृत अथवा प्रकाशित करती है। साधु, शास्त्र, आचार्य जो भी प्रमाण है, उनकी भी यही सिफारिश (मराठी में) है कि इस कलयुग के लिए यही विधि है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(बृहन्नारदीय पुराण( ३.८.१२६)
अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम हरिनाम और केवल हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है।
व्यावहारिक रूप से आते ही, हम यह समझ सकते हैं कि इस महा-मंत्र का चिंतन करके, एक बार आध्यात्मिक स्तर से दिव्य परमानंद को महसूस कर सकते हैं
प्रभुपाद कहते हैं कि हम सभी का ऐसा व्यवहारिक अनुभव होता है और होना चाहिए कि जैसे जैसे हम महामंत्र को सुनते हैं तब हम कम या अधिक आनंद का अनुभव करते हैं। कृष्ण के सानिध्य का अनुभव करते हैं या कृष्ण के स्मरण का अनुभव करते हैं। कृष्ण का स्मरण होता है। प्रभुपाद कहते हैं कि यह व्यवहारिक अनुभव की बात है। आपका भी ऐसा अनुभव होगा ही, मेरा भी है और सभी का होता ही है ।जैसे ही व्यक्ति इस महामंत्र को सुनता है।
जब कोई आध्यात्मिक समझ के विमान पर होता है- इंद्रियों, मन, बुद्धि के चरणों को पार करने से एक अलौकिक विमान पर स्थित होता है।
यह अलग अलग स्तर है- ऐन्द्रिक, मानसिक तथा बौद्धिक। यह महामंत्र का श्रवण कीर्तन इसके परे पहुंचा देता है। तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुणडावली-लब्धये कर्ण-क्रोड़-कड़म्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम्। चेतः-प्राङ्गण- सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृषणेति वर्ण-द्वयी।
(श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक१.९९)
अर्थ:- मैं नहीं जानता हूं कि कृष्-ण के दो अक्षरों ने कितना अमृत उत्पन्न किया है। जब कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया जाता है, तो यह मुख् के भीतर नृत्य करता प्रतीत होता है। तब हमें अनेकानेक मुखों की इच्छा होने लगती है। जब वही नाम कानों के छिद्रों में प्रविष्ट होता है, तो हमारी इच्छा करोड़ों कानों के लिए होने लगती है और जब यह नाम ह्रदय के आंगन में नृत्य करता है, तब यह मन की गतिविधियों को जीत लेता है, जिससे सारी इंद्रियां जड़ हो जाती हैं।
श्रील रूप गोस्वामी ने ऐसा भी कहा ही है।
विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं
हमारी इन्द्रियों की कृति अथवा कार्य या जो भी है, वह ठप्प हो जाता है। जब हम इंद्रियों को जीत लेते हैं और इंद्रिय निग्रह मन निग्रहः इस हरे कृष्ण महामंत्र के उच्चारण से यह संभव होता है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रील प्रभुपाद दोहरा रहे हैं कि यह महामंत्र हमें मानसिक, बौद्धिक या कायिक वाचिक स्तरों से परे पहुंचा देता है।
प्रभुपाद कहते हैं कि कीर्तन करो, जप करो। उसकी भाषा समझने की आवश्यकता नहीं है उसकी भाषा तो कृष्ण ही हैं। कृष्ण भाषा हैं। यह चाइनीस, हिंदी, मराठी या हिब्रो ऐसी कोई भाषा तो है नहीं, वैसे जब यह नाम इस जगत का ही नहीं है तब यह महामंत्र इस जगत की भाषा भी नहीं बोलता। हम इस जगत की भाषाओं की मदद से इस महामन्त्र को नहीं समझ पाएंगे। ना तो किसी मानसिक अर्थात मनोधर्म की आवश्यकता है। यह है, वह है, मैं सोचता हूँ कि.. नहीं! यह महामंत्र उस से परे है।
यह स्वचालित रूप से आध्यात्मिक मंच से स्प्रिंग करता है।
आत्मा का जो प्लेटफार्म है, आत्मा का जो स्तर है। आत्मा का जो हृदय है, वहां से उदित होता है प्रकट होता है। कोई भी व्यक्ति बिना किसी पुरानी योग्यता अर्थात पूर्व प्रशिक्षण के बिना कीर्तन और नृत्य कर सकता है वैसे हम सभी का पूर्व प्रशिक्षण तो है क्योंकि एक समय आत्मा यही करती थी जब वह भगवान के साथ थी, भगवत धाम में थी। उसने खूब नृत्य और कीर्तन किया है। वह अभ्यस्त और प्रशिक्षित थी। यह उसका स्वभाव ही था। इसलिए अब जब हम कीर्तन सुनते हैं ओह! कृष्ण! हे कृष्ण! तो उसको पुरानी यादें याद आ जाती है। जग जाती हैं। पुनः पूर्ववत्त वह जीव पहले जैसे वह कीर्तन और नृत्य करने लगता है। हरि! हरि!
मैं सोच रहा हूं कि यहीं विराम देना चाहिए। प्रभुपाद का स्टेटमेंट (वाक्य) अभी और भी काफी है, इसे कल पूरा करेंगे। अब तक जो आपने सुना, इस संबंध में कोई प्रश्न अथवा टीका टिप्पणी है तो आप कह सकते हो। पदमाली उसके पश्चात तुम्हारे स्कोर्स आदि का अनाउंसमेंट क्या है? उसे भी तुम कह सकते हो।
हरे कृष्ण!
यदि आपका कोई प्रश्न है, तो अब
आप चैट पर अपने प्रश्न लिखिए।हरि! हरि! हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
बाकी सब जप करते रहिए। जिसको लिखना है वह अपने प्रश्न या टीका टिप्पणी लिख सकते हैं। अन्य भक्त जप करते रहिए।
प्रश्न- क्या हमने यहां आने से पहले कृष्ण को देखा है?
गुरु महाराज- आप कह रहे हो कि यहां आने से पहले क्या हमने कृष्ण को देखा है? आपने तो उत्तर दे ही दिया। इतना तो स्वीकार करते हो यहां आने से पहले…. तो यहां आने से पहले आप कहां थे? उत्तर तो है। हम आने से पहले भगवान के साथ ही थे, भगवत धाम में थे। हम भगवान को देखते ही थे। भगवान का दर्शन करते थे। भगवान के साथ हम भी भोजन करते होंगे।हम कृष्ण के साथ खेलते होंगे, नाचते होंगे और हमने क्या-क्या नहीं किया होगा। आप भूल गए? यही तो समस्या है। कृष्ण ने इसलिए भी कहा था।
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ४.५)
अर्थ:- श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है।
भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन तुम्हारे और मेरे कई सारे जन्म हो चुके हैं लेकिन उन सारे जन्मों को तुम भूल गए हो और मुझे वह सारी बातें याद हैं। मुझे याद हैं, तुम भूल गए हो क्योंकि तुम माया में हो। हम एक समय कृष्ण के थे या कृष्ण के साथ थे।हम कृष्ण को देखते थे, हम इस बात को भूल गए हैं इसलिए ऐसा प्रश्न पूछ रहे हैं, क्या हमने कृष्ण को देखा है?
श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि
‘रिवाइवल ऑफ श्री कृष्ण कॉन्शसनेस’ अर्थात
कृष्ण भावना को पुनः जगाना है। कृष्णभावना कृष्ण की यादें हैं, स्मृतियां हैं। आत्मा को बस पुनः स्मरण दिलाना है, उसे जगाना है। श्रील प्रभुपाद ने भी यही कहा कि कृष्णभावनामृत मानसिकता और बौद्धिकता पर कोई दवाब नहीं है अर्थात मन और बुद्धि पर हम इसको लादते नहीं हैं। हम आच्छादित नही करते। कृष्ण भावना कृत्रिम नही है अपितु कृष्ण भावना स्वभाविक है। यह कृष्णभावना तो आत्मा की है। कृष्ण ने आत्मा के लिए कही है। हमनें कृष्ण को खूब देखा है। क्या तुम्हें याद है? कोई हमसें पूछ सकता है कि क्या तुम्हें वह व्यक्ति याद है? हम जब कहेंगे कि आप कौन से व्यक्ति की बात कर रहे हो? वह यदि आपको उसका फ़ोटो ग्राफ दिखायगा, तो हम कहेंगे कि हमें याद है, हमने उसको पहले देखा था, उसका चित्र हमें दिखाया जाएगा तो.. हम कहेंगे ओह्ह, वो सांगली में रहता था ना, यस, यस!.. वही बात है। भगवान का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम, परिकर जब इसका हम श्रवण करते हैं तब पुनः हम कृष्ण का स्मरण करते हैं। कृष्ण भी याद आते हैं, राधारानी भी याद आती है। नंद बाबा और यशोदा भी याद आते हैं और मधुमंगल भी याद आते हैं। सुरभि गाय भी याद आती है।
चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्। लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥
( ब्रह्म सहिंता श्लोक २)
अर्थ:- मैं उन आदिपुरूष भगवान् गोविन्द का भजन करता हूँ, जो लाखों कल्पवृक्षों से घिरे हुए चिंतामणिसमूह से निर्मित भवनों में कामधेनु गायों का पालन करते हैं एवं जो असंख्य लक्ष्मियों अथवा गोपियों द्वारा सदैव प्रगाढ़ आदर और प्रेम सहित सेवित हैं।
कल्प वृक्ष भी याद आते हैं।
सब कुछ याद आते हैं।
प्रश्न- जब हम प्रांरभिक दिनों में जप करते थे तो उसमें कुछ उत्साह और स्वाद होता था लेकिन अब कुछ वर्षों के बाद लग रहा है कि वो स्वाद अब नहीं रहा है? ऐसा क्यों?
गुरु महाराज- इसमें महामन्त्र का कसूर नहीं है। महामंत्र तो मीठा ही है। हो सकता है कि हमसे कुछ अपराध हो रहे हैं। हम ऐसा विचार कर सकते हैं कि कुछ अपराध तो नहीं हो रहा है। नामे रुचि, जीवेर दया, वैष्णव सेवा अर्थात नाम में और औऱ रुचि बढ़ाने के लिए और वैष्णवों की सेवा और जीवे दया करनी होती है। क्या वो हम नहीं कर रहे हैं?
जब अपराध होते हैं तो एक बात यह होती है कि नाम में रुचि नहीं आती। कृष्ण मीठे नहीं लगते। कृष्ण कड़वे लगते हैं।
यहाँ तक कि भगवान् का नाम भी मुख से निकलना मुश्किल हो सकता है। इन अपराधों का परिणाम ऐसा निकलता है। हमनें देखा है।
एक बात् हमें याद है एक भक्त छोड़ कर चले गए या माया ने उनको वहाँ से बाहर कर दिया। पुनः जब वे लौटे तब वह कह रहे थे कि मैं जानता हूं। मैं समझ चुका हूँ कि किसके कारण मैं भक्तों के सङ्ग से वंचित हुआ था, मैं चला गया या मुझे भेजा गया था। मैं वैष्णव अपराधी था। मैं वैष्णवों के प्रति अपराध, निंदा खूब किया करता था। इसलिए मुझे जाना पड़ा। मुझे भक्तों से, भगवान् से दूर भेजा गया। मेरी साधना भी छूट गयी। अब लातों के भूत बातों से नहीं मानते तो मुझे लात मिल गयी है। अब मैं पुनः वैष्णव अपराध नहीं करूंगा। नो मोर! नो मोर! मैं इसका दुष्परिणाम जानता हूँ। हमसे ऐसा तो कुछ नहीं हो रहा ? हम थोड़ा दिल टटोलकर देख सकते हैं। कुछ सिंहावलोकन कर सकते हैं लेकिन यह विश्वास होना चाहिए कि हरिनाम तो मीठा ही है। इसमें कोई दो राय नहीं है। इसका आस्वादन करते जाओ, जप करते जाओ, कीर्तन करते जाओ। एक दिन अवश्य रक्षिबे कृष्ण होगा
दैन्य, आत्मनिवेदन, गोप्तृत्वे वरण। ‘अवश्य रक्षिबे कृष्ण’-विश्वास, पालन॥3॥
(भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित वैष्णव गीत)
अर्थ:- शरणागति के सिद्धांत हैं – विनम्रता, कृष्ण के प्रति आत्म-समर्पण, कृष्ण को अपना पालनकर्ता स्वीकार करना, यह दृढ़ विश्वास होना कि कृष्ण अवश्य ही रक्षा करेंगे।
या
उत्साहान्निश्चयाद्धैर्या त्तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् ।
सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
( उपदेशामृत श्लोक 3)
अर्थ:- शुद्ध भक्ति को संपन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं:(१) उत्साही बने रहना(२) निश्चय के साथ प्रयास करना(३) धैर्यवान होना(४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना( यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम- कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना)(५) अभक्तों की संगति छोड़ देना(६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरण चिन्ह पर चलना
ये छहों सिद्धांत निस्संदेह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
भक्ति कैसी करनी होती है? उत्साह के साथ, निश्चय के साथ, धैर्य के साथ कि मुझे इस हरिनाम का आस्वादन करना ही है। श्रील प्रभुपाद पीलिया नामक रोग के उदाहरण से समझाया करते थे कि जब आप पीलिया के रोगी को कुछ मीठा शक्कर या मिश्री खाने के लिए दोगे। वह कहेगा कि यह तो कड़वा है। मिश्री तो मीठी ही है लेकिन वह स्वयं मरीज है, बीमार है, रोगी है उसे पीलिया हुआ है।इसलिए पुनः वह डॉक्टर के पास जाकर कह सकता है कि क्या दूसरा कोई उपाय या औषधि नहीं है? डॉक्टर कहेगा नहीं!
जैसे हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(बृहन्नारदीय पुराण( ३.८.१२६)
अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम हरिनाम और केवल हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है।
उसी प्रकार मिश्री मिश्री मिश्री ही केवलम या मिश्री ही खानी होगी। यह पीलिया रोग की दवा है। जब पीलिया होता है तब गन्ना या गन्ने का रस या मिश्री ऐसे पदार्थ खाने से ही उस रोग से मुक्ति होती है। डॉक्टर कहेंगे- दूसरा उपाय नहीं है। दूसरा उपाय नहीं है। यही उपाय है। इसी को खाना होगा। मरीज, डॉक्टर और दवा में विश्वास के साथ वह मिश्री खाता जाएगा, तो क्या होगा? तत्पश्चात वह हर दिन अनुभव करने लगेगा कि यह मिश्री अथवा शक्कर तो मीठी है। कुछ दिन पश्चात उसे लगेगा और मीठी है, फर्स्ट क्लास है। एक दिन तो वह खाने के लिए तैयार नहीं था, मिश्री खाते खाते खाते वह रोग से मुक्त हो रहा है और अब तो वह और मांग रहा है मुझे और दो, मुझे और मिश्री दो, मुझे और मिश्री दो, मिश्री समाप्त हो गई है, तब खड़े क्यों हो? जाओ, लेकर आओ। मुझे और चाहिए। वैसा ही हरि नाम है। हरेर्नामैव केवलम। हरि नाम तो मीठा है ही। नहीं! नहीं!
यह तो मीठा नहीं है, कुछ और मीठा है क्या? चलो, सिनेमा संगीत ही सुनते हैं। इससे और अपराध होंगे। हरि नाम में श्रद्धा नहीं होना, यह भी दसवां नाम अपराध है। हरिनाम में पूरी श्रद्धा नहीं होना अर्थात इस संबंध में बहुत सारा उपदेश सुनने के उपरांत भी विषय आसक्ति बनाए रखना, सारा उपदेश सुना तो सही लेकिन फिर भी चाय पीते ही जाना। यह अपराध है। यह नाम अपराध है। देखना चाहिए वैसे दस नाम अपराध है तो उस में से कौन सा अपराध हो रहा है। पहला अपराध हो रहा है ? दूसरा हो रहा है? वैसे प्रायः पहला अपराध तो हम सभी करते ही रहते हैं। अपराधपरायण। हम अपराध करने में एक्सपर्ट हैं अर्थात सबसे आगे होते हैं। वैष्णव निंदा क्या यह अपराध तो नहीं हो रहा है? गुरु अवज्ञा तो नहीं हो रही है? श्रुति, शास्त्र, निंदनम तो नहीं हो रहा है? श्रुति शास्त्रों की निंदा तो नहीं हो रही है?.. यह भी देखना है, सोचना है लेकिन हमें किसी हालत में हरिनाम को नहीं छोड़ना है।
ओके! प्रश्न उत्तर को अब यहीं विराम देंगे। समय समाप्त हो चुका है।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
27 January 2021
Supreme, sublime method of reviving our Krishna Consciousness
Hare Krishna! Welcome to this japa talk. Devotees from over 695 locations are chanting with us right now. Today we will discuss what Srila Prabhupada said about how to chant and what should be the mood? We will first hear from Srila Prabhupada. This is an extremely important topic and Srila Prabhupada wrote and recorded it. He immortalised it. We must read it, learn from it and understand it and try to practice it in our life. I wish to speak in correlation with this. We’ll play it in parts and discuss. Did you all see the video?
We have heard the glories and commentary of the Hare Krishna maha-mantra from several speakers, but this one has been spoken by our founder Acarya. This is very important.
This transcendental vibration by chanting of …
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
… is the sublime method for reviving our Krsna consciousness. We have shown and heard about it many times already. This is the method of the Hare Krishna maha-mantra. To hear and chant always.
Srila Prabhupada says that originally we were Krishna conscious. Rain drops are pure before reaching the ground. They become dirty after touching the ground. Similarly, we all are pure souls, but in association of this material world, have become contaminated by the three modes of nature. We forget Krsna. We get contaminated just like the rain drops get dirty after touching the ground. We need to remove all this contamination and this is called ceto darpana marjanam by Mahaprabhu.We need to clear all the dirt accumulated on the mirror of our consciousness. It is possible by the process of chanting the Hare Krsna maha-mantra.
In this polluted concept of life, we are all trying to exploit the resources of material nature, but actually we are becoming more and more entangled in her complexities.
When our consciousness is complicated, we try to exploit and enjoy more and more resources to gratify our senses, but we get more and more entangled in the complexities of actions and reactions. We try to become the enjoyer. Our lives become more entangled in the actions and reactions, cause and effect.
This illusion is called Maya which is the shadow of the divine potency. It is originally a divine light, a reflection of the eternal abode.
kṛṣṇa — sūrya-sama; māyā haya andhakāra
yāhāṅ kṛṣṇa, tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra
Translation
“Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish. [CC Madhya 22.31]
śrī-bhagavān uvāca
ūrdhva-mūlam adhaḥ-śākham
aśvatthaṁ prāhur avyayam
chandāṁsi yasya parṇāni
yas taṁ veda sa veda-vit
Translation
The Supreme Personality of Godhead said: It is said that there is an imperishable banyan tree that has its roots upward and its branches down and whose leaves are the Vedic hymns. One who knows this tree is the knower of the Vedas. [BG 15.1]
Everything over here is the opposite. Whatever is present in Krsna’s abode is completely opposite in the material world. Krsna is there and here it is Maya.
It is a hard struggle to exist over the stringent laws of material nature. We have heard this already, but have forgotten.
mama maya duratyaya
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. (BG 7.14)
These laws of material nature are very stringent. We need to put in effort and struggle to cross or surpass these modes of material nature.
This illusory struggle against the material nature can at once be stopped by the revival of our Krishna Consciousness. These efforts to go beyond the material nature or beyond the modes of material nature will be successful when we revive our Krishna Consciousness. We need to try to get free from this entanglement. Our efforts to get free from this entanglement are successful only when we strive in Krsna Conscious spirits.
Krishna Consciousness is not an artificial imposition on the mind; this consciousness is the original energy of the living entity. It is not any kind of external load forced upon us. Srila Prabhupada says, “Krishna consciousness is the nature of the Jiva.” The mind, intelligence and soul are divine, pure and Krsna conscious by nature.
As living spiritual souls we are all originally Krishna conscious entities, but due to our association with matter from time immemorial, our consciousness is now polluted by the material atmosphere. Our current consciousness is fully covered by worldly affairs and thoughts.
This original consciousness is revived when we hear the transcendental vibration of the Hare Krishna maha-mantra. This process is recommended by the authorities for this age. The scriptures, spiritual masters and the saints prescribe and recommend this process in this age of Kali.
harer nāma harer nāma
harer nāmaiva kevalam
kalau nāsty eva nāsty eva
nāsty eva gatir anyathā
Translation
“ ‘In this age of quarrel and hypocrisy, the only means of deliverance is the chanting of the holy names of the Lord. There is no other way. There is no other way. There is no other way.’ ” [CC Madhya 6.242]
By practical experience also, we can perceive that by chanting this maha-mantra, one can at once feel transcendental ecstasy from the spiritual stratum. It is the great chanting for deliverance. Srila Prabhupada says that we all experience or should experience some bliss while chanting. Also it can be practically experienced. We do experience a special bliss when we hear this transcendental vibration of the Hare Krishna maha-mantra. We experience the association of Krsna, remember Krsna, His qualities and pastimes. It is a matter of practical experience. We all have this experience. Even I have such experiences the moment we start hearing the maha-mantra.
When one is factually on the plane of spiritual understanding – surpassing the stages of senses, mind, and intelligence – one is situated on the transcendental plane. There are different categories such as sensual, mental and intellectual. This maha-mantra takes us beyond the senses and their engagement in their objects is stopped. Srila Prabhupada repeats that this maha-mantra takes us beyond the sensual, mental and intellectual.
tuṇḍe tāṇḍavinī ratiṁ vitanute tuṇḍāvalī-labdhaye
karṇa-kroḍa-kaḍambinī ghaṭayate karṇārbudebhyaḥ spṛhām
cetaḥ-prāṅgaṇa-saṅginī vijayate sarvendriyāṇāṁ kṛtiṁ
no jāne janitā kiyadbhir amṛtaiḥ kṛṣṇeti varṇa-dvayī
Translation
“I do not know how much nectar the two syllables ‘Kṛṣ-ṇa’ have produced. When the holy name of Kṛṣṇa is chanted, it appears to dance within the mouth. We then desire many, many mouths. When that name enters the holes of the ears, we desire many millions of ears. And when the holy name dances in the courtyard of the heart, it conquers the activities of the mind, and therefore all the senses become inert.” [CC Antya 1.99]
Srila Rupa Goswami says that the senses become inert and we can win over our senses and mind. This is only possible by chanting this maha-mantra.
This chanting of …
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
… is directly enacted from the spiritual platform, surpassing all lower strata of consciousness – namely sensual, mental and intellectual. Here Srila Prabhupada is repeating that this maha-mantra will take us beyond the sensual, mental and intellectual level.
There is no need to understand the language of the mantra, nor is there any need for mental speculation, nor any intellectual adjustment for chanting of this maha mantra. Just go for it. Chant and do kirtan. Srila Prabhupada says that it is the vibration that works. There is no need to understand the language. The language is Krsna. This is Krsna’s language. It is not Hindi, Chinese or Marathi. It is Krsna. As such this name doesn’t belong to this material world so how can we understand it by any material language? There is no need of mental speculation like ‘I think the meaning of the maha-mantra is this or that.’ There is no need of that. This maha-mantra is beyond all this.
It springs automatically from the spiritual platform, and as such, anyone can take part in this transcendental sound vibration without any previous qualification, and dance in ecstasy. It is coming from the soul. This arises from the heart. Anybody, without any previous qualification or training can chant and dance in ecstasy. However there is some previous qualification and experience also because there was a time when the soul was doing this only i.e. chanting and dancing with the Lord in the spiritual abode. There we have danced a lot. We were busy there. It has been our eternal nature. We remember our actual conscious nature by engaging in the process of chanting the Hare Krishna maha-mantra. We remember that maha- mantra, that Krsna’ These are our very old memories which awakens as soon as we start chanting and then again we start chanting and dancing like before.
We shall stop here now. There is more to discuss that we shall continue tomorrow.
Hare Krishna.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 27 января 2021 г.
ВЫСШИЙ, СОВЕРШЕННЫЙ МЕТОД ВОЗРОЖДЕНИЯ НАШЕГО СОЗНАНИЯ КРИШНЫ
Харе Кришна! Добро пожаловать на эту беседу о джапе. Прямо сейчас с нами воспевают преданные из более чем 695 мест. Сегодня мы обсудим, что Шрила Прабхупада сказал о том, как воспевать и какое должно быть настроение. Сначала мы услышим от Шрилы Прабхупады. Это чрезвычайно важная тема, и Шрила Прабхупада написал и записал ее. Он увековечил это. Мы должны прочитать это, извлечь уроки из этого, понять и попытаться применить это в своей жизни. Я хочу поговорить об этом. Разберем по частям и обсудим. Вы все смотрели видео?
Мы слышали славу маха-мантры Харе Кришна и комментарии к ней из нескольких источников, но эту произнес наш ачарья-основатель. Это очень важно.
Эта трансцендентная вибрация при воспевании…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
… это совершенный метод возрождения нашего сознания Кришны. Мы это уже много раз показывали и слышали. Это метод маха-мантры Харе Кришна. Всегда слушать и воспевать.
Шрила Прабхупада говорит, что изначально мы были в сознании Кришны. Капли дождя чистые, не достигнув земли. Они загрязняются после прикосновения к земле. Точно так же все мы являемся чистыми душами, но соприкоснувшись с этим материальным миром осквернились тремя гунами природы. Мы забываем Кришну. Мы загрязняемся так же, как капли дождя загрязняются, коснувшись земли. Нам нужно удалить все загрязнения, и Махапрабху назвал это чето дарпана марджанам. Нам нужно очистить всю грязь, накопившуюся на зеркале нашего сознания. Это возможно с помощью повторения маха-мантры Харе Кришна.
В этой оскверненной концепции жизни мы все пытаемся эксплуатировать ресурсы материальной природы, но на самом деле мы все больше и больше запутываемся в ее сложностях.
Когда наше сознание усложнено, мы пытаемся использовать все больше и больше ресурсов, чтобы удовлетворить свои чувства, но мы все больше и больше запутываемся в сложных действиях и реакциях. Мы стараемся наслаждаться. Наша жизнь становится все более запутанной в действиях и реакциях, причинах и следствиях.
Эта иллюзия называется майей, тенью божественной энергии. Изначально это божественный свет, отражение вечной обители.
кр̣шн̣а — сӯрйа-сама; ма̄йа̄ хайа андхака̄ра
йа̄ха̄н̇ кр̣шн̣а, та̄ха̄н̇ на̄хи ма̄йа̄ра адхика̄ра
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Кришна сравнивается с солнечным светом, а майя — с тьмой. Там, где светит солнце, нет тьмы. Как только человек обращается к сознанию Кришны, тьма иллюзии (влияние внешней энергии) мгновенно рассеивается».
(Ч.Ч. Мадхья-лила 22.31)
ш́рӣ-бхагава̄н ува̄ча
ӯрдхва-мӯлам адхах̣-ш́а̄кхам
аш́ваттхам̇ пра̄хур авйайам
чханда̄м̇си йасйа парн̣а̄ни
йас там̇ веда са веда-вит
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь сказал: Писания говорят о вечном дереве баньян, корни которого устремлены вверх, а ветви вниз, листья которого — ведические гимны. Знающий это дерево знает Веды.
(Б.Г. 15.1)
Здесь все наоборот. Все, что присутствует в обители Кришны, полностью противоположно материальному миру. Кришна здесь, и это Майя.
Выживать по строгим законам материальной природы – нелегкая борьба. Мы это уже слышали, но забыли.
мама ма̄йа̄ дуратйайа̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
Преодолеть влияние Моей божественной энергии, состоящей из трех гун материальной природы, невероятно трудно.
(Б.Г. 7.14.)
Эти законы материальной природы очень строги. Нам необходимо прилагать усилия и бороться, чтобы преодолеть или превзойти эти гуны материальной природы.
Эта иллюзорная борьба с материальной природой может быть немедленно остановлена возрождением нашего сознания Кришны. Эти попытки выйти за пределы материальной природы или гун материальной природы увенчаются успехом, когда мы возродим наше сознание Кришны. Нам нужно попытаться освободиться из этой путаницы. Наши усилия вырваться из этой путаницы успешны только тогда, когда мы тянемся к настроению Сознания Кришны.
Сознание Кришны – это не искусственное навязывание уму; это сознание – изначальная энергия живого существа. Это не какая-то внешняя нагрузка, навязываемая нам. Шрила Прабхупада говорит: «Сознание Кришны – это природа Дживы». Ум, разум и душа божественны, чисты и сознают Кришну по своей природе.
Как живые духовные души все мы изначально являемся существами в сознании Кришны, но из-за того, что с незапамятных времен мы общаемся с материей, наше сознание теперь загрязнено материальной атмосферой. Наше нынешнее сознание полностью покрыто мирскими делами и мыслями.
Это изначальное сознание оживает, когда мы слышим трансцендентную вибрацию маха-мантры Харе Кришна. Этот процесс рекомендован писаниями для этой эпохи. Священные Писания, духовные учителя и святые предписывают и рекомендуют этот процесс в век Кали.
харер на̄ма харер на̄ма
харер на̄маива кевалам
калау на̄стй эва на̄стй эва
на̄стй эва гатир анйатха̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
В этот век ссор и лицемерия единственным средством освобождения является воспевание святых имен Господа. Другого пути нет. Другого пути нет. Другого пути нет.
(Ч.Ч. Мадхья-лила 6.242)
Также на практическом опыте мы можем понять, что, повторяя эту маха-мантру, можно сразу почувствовать трансцендентный экстаз духовного звука. Это великое воспевание освобождения. Шрила Прабхупада говорит, что все мы испытываем или должны испытывать какое-то блаженство во время воспевания. Также это можно испытать на практике. Мы действительно испытываем особое блаженство, когда слышим эту трансцендентную вибрацию маха-мантры Харе Кришна. Мы переживаем общение с Кришной, вспоминаем Кришну, Его качества и игры. Это вопрос практического опыта. У всех есть такой опыт. Даже у меня есть такой опыт, когда мы начинаем слушать маха-мантру.
Когда человек фактически находится на уровне духовного понимания – преодолевая уровни чувств, ума и разума, – он находится на трансцендентном уровне. Есть разные категории, такие как чувственные, умственные и интеллектуальные. Эта маха-мантра выводит нас за пределы чувств, и их связь с объектами прекращается. Шрила Прабхупада повторяет, что эта маха-мантра выводит нас за пределы чувственного, умственного и интеллектуального уровня.
тун̣д̣е та̄н̣д̣авинӣ ратим̇ витануте тун̣д̣а̄валӣ-лабдхайе
карн̣а-крод̣а-кад̣амбинӣ гхат̣айате карн̣а̄рбудебхйах̣ спр̣ха̄м
четах̣-пра̄н̇ган̣а-сан̇гинӣ виджайате сарвендрийа̄н̣а̄м̇ кр̣тим̇
но джа̄не джанита̄ кийадбхир амр̣таих̣ кр̣шн̣ети варн̣а-двайӣ
Перевод Шрилы Прабхупады:
„Трудно представить, сколько нектара заключено в двух слогах „криш“ и „на“. Когда святое имя повторяют, то кажется, что оно танцует на устах, и тогда хочется иметь множество уст. Когда имя Кришны проникает в уши, хочется иметь миллионы ушей. Когда же святое имя начинает танцевать в саду моего сердца, оно подчиняет себе всю деятельность ума, и все чувства мои цепенеют“.
[Ч.Ч. Антья 1.99]
Шрила Рупа Госвами говорит, что чувства становятся инертными, и мы можем победить свои чувства и ум. Это возможно только при воспевании этой маха-мантры.
Это воспевание…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
…происходит прямо с духовной платформы, превосходя все нижние слои сознания, а именно чувственный, умственный и интеллектуальный. Здесь Шрила Прабхупада повторяет, что эта маха-мантра выведет нас за пределы чувственного, умственного и интеллектуального уровня.
Нет необходимости понимать язык мантры, нет необходимости ни в умственных спекуляциях, ни в каких-либо интеллектуальных приспособлениях для повторения этой маха-мантры. Просто нужно пойти на это. Повторяйте и проводите киртан. Шрила Прабхупада говорит, что действует вибрация. Нет необходимости понимать язык. Этот язык есть Кришна. Это язык Кришны. Это не хинди, китайский или маратхи. Это Кришна. Таким образом, это имя не принадлежит этому материальному миру, так как мы можем понять его на любом материальном языке? Нет необходимости в умственных спекуляциях, например: «Я думаю, что значение маха-мантры то или это». В этом нет необходимости. Эта маха-мантра превосходит все это.
Она автоматически возникает с духовного уровня, и поэтому любой может принять участие в этой трансцендентной звуковой вибрации без какой-либо предварительной квалификации и танцевать в экстазе. Она исходит из души. Она исходит из сердца. Кто угодно, без какой-либо предварительной квалификации или обучения, может воспевать и танцевать в экстазе. Однако есть некоторые предварительные квалификации и опыт, потому что было время, когда душа делала только это, то есть воспевала и танцевала с Господом в духовной обители. Там мы много танцевали. Мы были там заняты. Это была наша вечная природа. Мы вспоминаем нашу настоящую осознанную природу, участвуя в процессе воспевания маха-мантры Харе Кришна. Мы помним эту махамантру, Кришну. Это наши очень старые воспоминания, которые пробуждаются, как только мы начинаем воспевать, а затем мы снова начинаем воспевать и танцевать, как раньше.
Мы остановимся на этом сейчас. Есть еще кое-что, что мы продолжим завтра.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
26 जनवरी 2021
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
गौरांग ।
696 जगह से आज जप हो रहा है । आप सब जप कर रहे हो , आप सब का स्वागत है । है कि नहीं ? आप सब का जप करने के लिए स्वागत है । हरि हरि । वैसे आत्मा का काम धंधा जप करना है , आत्मा का काम धंधा है , वैसे काम प्रेम धंधा है , काम धंधा नही (हसते हुये) हरि हरि । आत्मा वैसे करता ही रहता है ,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
मन के लिए भी जप करते रहना चाहिए या कुछ समय के लिए हम भूल गए थे , कुछ नही बहुत से समय के लिए बहिर्मुखी , अनादि बहिर्मुखी , अनादि काल से बहिर्मुखी होकर हमारा काम धंधा क्या हो गया है ? भोग वांच्छा करें , ऐसे भोग वांच्छा के काम धंधे हम कर रहे थे किंतु अब कृष्ण की विशेष कृपा या कृपा की दृष्टि की वृष्टि हम पर हो रही है और भगवान ने हमारा चयन किया हुआ है जिसके कारण हम अब मरा मरा के बजाय राम राम कर रहे हैं । आपका नाम क्या है ? ऐसा हमने किसी से पूछा तब उन्होंने कहा था , ” मेरा नाम करमरकर है ।” कर और फिर मर , आप पुनः जन्म ले सकते और फिर पुनः कर और पुनः मर (हसते हुये) मैंने कहा तुम्हारा बहुत अच्छा नाम है और फिर मैंने यह भी सोचा कि केवल तुम ही करमरकर नही हो , संसार का हर एक व्यक्ति करमरकर है । नाम तो कुछ ही लोगों का करमरकर होता है लेकिन कार्यकलापों के दृष्टि से देखे तो हर कोई कर फिर मर फिर कर फिर मर कर रहे हैं । यह हो ही रहा था अब भगवान ने हम पर कृपा की और दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त करवाया ।
भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन, अभय चरणारविन्द रे।
दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे, तरह ए भव सिन्धु रे॥
अर्थ
(1) हे मन, तुम केवल नन्दनंदन के अभयप्रदानकारी चरणारविंद का भजन करो। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर संत जनों के संग द्वारा भवसागर तर जाओ!
और दुर्लभ मानव का सदुपयोग , सदुपयोग और असदुपयोग भी होता है , सदुपयोग तो हो ही रहा था ,
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु।।
अर्थ
(1) हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
यह सत्संग और असत्संग काम धंधे चल ही रहे थे किंतु अब भगवान क्या कर रहे हैं ? हमको जगा रहे हैं और हम जग गये हैं । भगवान जगाते तो सबको है , लेकिन सब जगते नही हैं।
जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले।
कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥
अर्थ
(1) श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे?
जीव जागो जीव जागो गौराचांद बोले , गौरचांद अपना कर्तव्य पुरा करते हैं हमको जगाकर। उनका प्रेम है उनके जिओ के प्रति हम उनके हैं , किनके हैं ? गौरांग महाप्रभु के हैं । हम तो समझ कर बैठे हैं कि हम अपने मां बाप के हैं या हम भारत के हैं । आज 26 जनवरी भी है, प्रजासत्ता का दिन है । 1950 साल में हमारे भारत का कारोबार शुरू हुआ, भारत संविधान के अनुसार चलने लगा यह कुछ अच्छा नहीं हुआ, भारत का कारोबार तो भगवत गीता के अनुसार होना चाहिए था । ऐसा कृष्ण ने कहा है
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: |स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||
(भगवद्गीता 4.2)
अनुवाद: इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है |
राजऋषी सुनेंगे , मैं जो सुना रहा हूं सर्वप्रथम तो राजा सुनेंगे , राजा को कारोभार संभालना है वह राजा सुनेंगे , राजाओं को ऋषी सुनाएंगे तो वैसे राजा कहलाएंगे राजऋषि और फिर वही सुशासन संभाल सकते हैं । शासक दुशासन ही हुए , अधिकतर आजकल के शासक , प्रशासक दुशासन जैसे ही हैं। हरि हरि । भगवान ने गीता सुनाई ,भागवत भी है , कृष्ण कहीला वेद पुराण सभी मनुष्य के कल्याण के लिए भगवान ने वेद पुराणों की रचना की है ऐसा संविधान होना चाहिये । गीता भागवत संविधान, धर्म किसको कहते हैं ? प्रभु बात कहते हैं , “भगवान के दिए हुए नियम , भगवान के नियम ।” हम लोगों ने अपने अपने भूमी के नियम बनाए हैं और वह अधिकतर भगवान के नियम के साथ मेल नहीं खाते उसी को फिर मनोधर्म कहा जाता है । मनोधर्म है , फिर आंबेडकर और उनका संघ , कुछ उनके साथ में थे फिर उन्होंने रचना की है , हरी हरी । अब कुछ बातें तो ठीक हैं , हम देख सकते हैं पर उसके पहले परवानगी नहीं थी लेकिन अब है, सविधान में सुधार करते हैं और उसको अब लीगल बनाते हैं , यह मनोधर्म हुआ। भगवान के दिये हुये धर्म का पालन नहीं हुआ और इसी के साथ फिर जुआ यह सब, हमारे इस्कॉन के जो 4 नियम हैं , वह 4 नियम है उसके अंतर्गत एक नियम है जुआ नहीं खेलना किंतु मनोधर्म की बातें सुनाना भी जुआ ही है और सुनना भी जुआ ही है, इसको श्रील प्रभुपाद चीटर आर चिटेड , कुछ लोग ठगते हैं और कुछ लोग क्या करते हैं ? ठगाते हैं , ठग बन जाते हैं । कोई ठगता है तो कोई ठग कर उसे ले जाता है , जहां गधों की सभा है तो गधा पति कौन होगे ? महागधा , तो इसी तरह हरि हरि ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
राजा बहुत बड़ी पदवी है और बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, राजा भगवान का प्रतिनिधि होता है । हरि हरि । और राजा की होती है प्रजा, राजा का भी अपना खुदका परिवार होता है वह भी प्रजा है किंतु वैसे उस राज्य के जितने भी नागरिक हैं वह भी प्रजा बन जाते हैं । प्रजा उनके बाल बच्चे हैं ऐसे ही समझ के साथ फिर राम ने राज किया था । आज भी यह प्रसिद्ध है कैसा राज हो ? रामराज हो । राजा हो तो राम जैसा , राज्य हो तो राम राज्य जैसा, ऐसा सपना तो महात्मा गांधी ने लिखा था लेकिन मिला क्या है ? राम राज नहीं रावण राज । कुछ साल पहले रावण राज आपने सुना , नहीं ? आप बच्चे थे (हंसते हुये) सच्चे भी थे इसलिए आप ने ना सुना , ना देखा । बुरा मत देखो , बुरा मत सुनो , बुरा मत बोलो , जो छोटे होते तो ऐसे चलता रहता है , बड़े हो जाते हैं तो फिर बदमाश भी हो जाते हैं , चालू हो जाते हैं। हरि हरि। भगवान ने हम पर कृपा दृष्टि की है , भगवान की हम पर कृपा दृष्टि हुई है। कम से कम जो उपस्थित हैं या हमारे साथ जो जप कर रहे थे या इतना ही नहीं जो अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत इस्कॉन संघ के संपर्क में आए हैं , इस्कॉन के मतलब इस्कॉन के भक्तों के संपर्क में आए हैं वह सभी भाग्यवान हैं । चैतन्य महाप्रभु ने आपको भाग्यवान बनाया है । हरि हरि ।
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु॥
अर्थ
(1) हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
उन्होंने अब जहर पीना बंद किया और अब नामामृत पी रहे हैं । नाम के अमृत का पान कर रहे हैं , धन्यवाद ! किस को धन्यवाद देना चाहिए ? भगवान धन्यवाद , भगवान का आभार मानना चाहिए , आपने भगवान का आभार कभी माना है ? थैंक यू , थैंक यू , धन्यवाद धन्यवाद कृष्ण , हरि हरि । ऐसा नही होना चाहिए लेकिन ऐसे भी धन्यवाद बोला जाता है , जब किसी के पास सिगरेट तो होती है , सिगरेट तैयार है और उसके पास माचिस नहीं है फिर बगल वाले को दया आ जाती है, और वह कहता है , ” बेचारे के पास लगता है कि माचिस नहीं है ” वह अपना माचिस या लाइटर देकर उसकी मदद करता है , उसकी सिगरेट जलाने में उसकी मदद करता है , उसकी सिगरेट जिसने भी जलाई वह कहता है धन्यवाद , “अब तो तुमने मेरी सिगरेट को जलाया , धीरे-धीरे मेरे फेफड़े भी जल जाएंगे , ” (सभी भक्त हंसते हुये ) बाद में मिलेंगे , नहीं मिलेंगे पहले ही मेरा धन्यवाद। से भी धन्यवाद हमारे जगत मे चलते रहते हैं । ऐसी मेहरबानी करने वाले कुछ लोग कम नहीं हैं। भगवान की जो हम पर कृपा हुई है , भगवान हमारा कल्याण करना चाह रहे हैं , कर रहे हैं , भविष्य में आने वाली कई सारी परेशानियों से हमको भगवान बचाने वाले हैं। दुखालय से हमको सुखालय ले जाने की भगवान की योजना है । वही योजना है , वैसे शास्त्रों में इस योजना का वर्णन है और वही संविधान भी है । ऐसे कृष्ण को, ऐसे श्री भगवान को मेरे बारंबार प्रणाम है। हम उनका शुक्रिया अदा कर सकते हैं , केवल कहके ही नहीं , हमारा आभार दिखा भी सकते हैं , मैं आपका आभारी हूं इस भाव का दर्शन भी कर सकते हैं , जब हम प्रणाम करेंगे , साष्टांग दंडवत करेंगे या पंचांग प्रणाम माताएं करेंगी तो यह धन्यवाद ही है। हम भगवान के सामने झुकते हैं , उनके अनुग्रहि बोल ही रहे हैं हम आपके आभारी हैं । हरी हरी । इसी के साथ और भी कुछ कल का विषय आगे बढ़ाना था लेकिन और भी समाचार मैंने पढ़ा तो उसको कहे बिना रहा नहीं जाता, नेपाल में एक नई पदयात्रा का प्रारंभ हो रहा है , हरि बोल । इसी के साथ फिर क्या होगा ? चैतन्य महाप्रभु ने जो भविष्यवाणी की है वह और सच होगी , श्रील प्रभुपाद की पदयात्रा , पदयात्रा के संस्थापक श्रील प्रभुपाद हैं , पदयात्रा संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद की जय । तब प्रभुपाद भी थे , श्रीकृष्ण कृपा मूर्ति , कृपा की मूर्ति , कृपा मूर्ति श्रील प्रभुपाद सोच रहे थे कैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी को सच किया जाये ? चैतन्य महाप्रभु ने कहा है ,
नगर आदि ग्राम सर्वत्र प्रचार होईब मोर नाम
मेरे नाम का प्रचार करो , मेरे नाम का प्रचार करो , भगवान के नाम का प्रचार करो , मेरे नाम का नहीं ।जो कहने वाले हैं , वह कहने वाले श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं , वह कहते हैं मेरे नाम का प्रचार करो । आपका नाम तो कोई कहेगा श्रीकृष्ण चैतन्य है , तो श्रीकृष्ण चैतन्य के नाम का प्रचार होना चाहिए यहाँ प्रचार तो हरे कृष्ण का हो रहा है ?
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
हरे कृष्ण का प्रचार हो रहा है। श्रील प्रभुपाद मुझे कह रहे थे पदयात्रा करो, प्रथम पदयात्रा का उद्घाटन 1976 में 10 सितंबर का दिन था, वृंदावन धाम में प्रभुपाद के क्वार्टर मे एकत्रित हुए थे और श्रील प्रभुपाद हमको वृंदावन से मायापुर भेज रहे थे पदयात्रा। उस पदयात्रा के उद्घाटन समारोह में प्रभुपाद ने कुछ पदयात्रियों को संबोधन किया अंत में हम आगे बढ़ने ही वाले थे, वहां से उठकर जाने ही वाले थे प्रभुपाद कह रहे थे ,
यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ‘ एइ देश ।। (चैतन्य चरितामृत 7.128)
अनुवाद ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । “
यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ‘ एइ देश ।।
प्रभुपाद ने कहा , यारे देख , तारे कह ‘ हरे कृष्ण ‘ – उपदेश ।
वैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा है , यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।आमार आज्ञाय गुरु हया तार ‘ एइ देश ।। इस उपदेश के साथ श्रील प्रभुपाद ने कहा यारे देख , तारे कह ‘ हरे कृष्ण ‘ – उपदेश ।
श्रील प्रभुपाद की हरे कृष्ण महामंत्र के, इस कलयुग के धर्म के प्रचार के साथ और कई सारी योजनाएं थी उसके अंतर्गत एक विशेष योजना पदयात्रा है। फिर पदयात्रा तब से आज तक चल ही रही है और आज के लिए, आज की ताजा खबर, खुश खबर और विशेष खबर सारे देश में, नेपाल में पहली पदयात्रा है जो बैल गाड़ी से गौर निताई के साथ चल रही है , वो नेपाल के सभी ग्रामों में जाने वाले हैं । यहां ऐसा करने से रामराज फैलेगा, जब हम अपनी भक्ति प्रभु को, भक्ती प्रभु नाम सुने हो ? भक्ति प्रभु की इसमें बड़ी भूमिका है , योगदान है । श्रील प्रभुपाद और गौरांग महाप्रभु की ओर से यह पदयात्रा हो रही है । इस्कॉन के लीडर्से और इस्कॉन नेपाल पदयात्रा की जय और भी समाचार है आज इस्कॉन अरावड़े भी उत्सव मना रहा है , एक विशेष उत्सव है । राधा गोपाल की जय । राधा गोपाल का जन्मदिन उत्सव है, 11 साल पहले वैसे वह दिन नित्यानंद त्रयोदशी का था लेकिन अब इस बार तो 26 जनवरी को मना रहे हैं , छुट्टी का दिन होता है तो सुविधा होती है ।
राधा गोपाल , मेरे जैसे गरीब के गांव में भगवान विद्यमान है । भगवान तो सब कुछ है भगवान क्या नहीं है ? हरि हरि । गोपाल , नंद गोवर्धन रखवाला, नंद महाराज के धन के रखवाले, बृजवासी और नंद महाराज गाय को धन समझते थे । जिसके पास अधिक गाय हैं वह अधिक धनी , जिसके पास अधिक जमीन है वह अधिक धनी यह पेपर मनी है ,कोई किमत नही होती । ऐसे धन के गोधन रखवाले भी गोपाल कहलाते हैं । कृष्ण भगवान की जय । राधा के साथ आए , आज के दिन प्रकट हुए और उस दिन जो उत्सव मनाया गया अरावडे जैसे छोटे गांव में ऐसा उत्सव ना भूतो ना भविष्यति ऐसा उत्सव मनाया गया । एक तो पहले कभी भगवान नहीं आए थे या पहले कभी भगवान की प्राण प्रतिष्ठा नहीं हुई थी। वैसे पहले भगवान वहां आए थे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय । चैतन्य महाप्रभु जब कोल्हापुर से पंढरपुर आ रहे थे, महाराष्ट्र में कोल्हापुर है दूर देशों के दूसरे राज्यों के भक्तों के लिए महाराष्ट्र में एक नगर में कोल्हापुर और वहां की महालक्ष्मी प्रसिद्ध है , महालक्ष्मी वैसे रुठके वैकुंठ से कोल्हापुर पहुंच गई , जब भृगुुमुनी आए थे और उन्होंने भगवान के वक्षस्थल पर लात मारी थी , परीक्षा हो रही थी ब्रह्मा , विष्णु , महेश में से कौन श्रेष्ठ है ? जो अधिक सहनशील है वह अधिक श्रेष्ठ है । भृगुमुनि आए लक्ष्मी भगवान के चरण कमलों की सेवा कर रही थी और भृगुमुनि आते ही , पहुचते ही, प्रणाम तो दूर ही रहा , भगवान के चरण भी छूये नही उलटे उन्होंने अपने चरणों से भगवान को लात मारी , “हे मृगु मेरा वक्षस्थल तो कठोर है , तुम्हें कुछ चोट आघात तो नहीं पहुंचा ?” ऐसे कहने वाले भगवान कृष्ण यह परीक्षा भी पास हो गए ।
और फिर भृगुमुनि आए, वहाँ कई सारे ऋषि मुनि ऊनकी राह देख रहे थे । वह परीक्षक थे , कौन उत्तीर्ण हुआ। फिर उन्होंने घोषित किया था जय श्रीकृष्ण । उस समय लक्ष्मी नाराज क्यों नहीं होगी ? अपने पति से नाराज हुई , पति को जो किसी ने अपमानित किया और उलटे पति कहते हैं कि , “आप को चोट तो नहीं लगी?” वह लक्ष्मी वैकुंठ को छोड़कर इस ब्रह्मांड में आई और कही स्थान ढूंढ रही थी जहां उतरेगी, तब कोल्हापुर का चयन हुआ और वह कोल्हापुर में रहने लगी, अब तक वह कोल्हापुर में ही है । हरी हरी । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा में जब जा रहे थे तो दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए महाराष्ट्र या मध्य भारत कहो , महाराष्ट्र में आए तो पहला बड़ा नगर कोल्हापुर ही था, कोल्हापुर में उन्होंने महालक्ष्मी को दर्शन दिया, यह मैं कहता रहता हूं , हम लोग कोल्हापूर महालक्ष्मी का दर्शन करने जाते हैं लेकिन जब उनके प्रभु आएंगे कृष्ण भगवान, जब कृष्ण भगवान आए हैं तो कौन किसका दर्शन करेगा ? महालक्ष्मी अपने प्रभु का दर्शन करेगी । वैसे एक दूसरे का दर्शन उन्होंने किया और फिर वहां से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को पंढरपुर आना था विट्ठल दर्शन के लिए, विट्ठल ही आ रहे थे चैतन्य महाप्रभु के रूप में कोल्हापुर से पंढरपुर तब रास्ते में आ गया हमारा गांव अरावडे, अरावडे गांव से चैतन्य महाप्रभु ,
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे …..
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण पाहिमाम ……
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण रक्षमाम……
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
करते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कोल्हापुर से सांगली, सांगली से तासगांव और तासगांव से 10 किलोमीटर दूरी पर अरावडे गांव है । वहा छोटा सा पहाड़ है , दिखता भी नहीं है उतना ऊंचा नही है वहा चैतन्य महाप्रभु चढे होंगे और रहे होंगे , मैं ऐसे स्मरण करता रहता हूं । चैतन्य महाप्रभु अरावडे में ,
आजानुलम्बित – भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक – पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥
(चैतन्य भागवत 1.1)
अनुवाद: मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण , इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक , सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया ।
चैतन्य महाप्रभु या भगवान मेरे गांव में आए थे । हरि हरि । ऐसे हैं भगवान फिर विग्रह के रूप में 11 साल पहले प्रकट हुए , 12? 1 साल बढ़ गया, 12 साल पहले महोत्सव हुआ तो उस दिन का जो दर्शन और उस दिन इतने लोग अरावडे मे बिखरे हुये थे । वह लोग कभी अरावडे में नहीं आए थे । अरावडे के इतिहास में जब से अरावडे गिणती में आया और फिर इतना ही नहीं नेता भी आए , महाराष्ट्र के मंत्रिमंडल के कई सारे मंत्री भी आए । हरी हरी। आर आर पाटिल गृह मंत्री थे, उप मुख्यमंत्री थे , ऐसे कई कई आए, हेलीकॉप्टर से आए । हेलीकॉप्टर का लैंडिंग भी हुआ, जैसे देवता आते है (हसते हुये) रुरल डेवलपमेंट मिनिस्टर भी आए थे, उन्होंने घोषित किया था इस्कॉन अरावड़े मंदिर के विकास के लिए महाराष्ट्र की ओर से एक करोड़ का अनुदान। यह मुख्य उपस्थिति तो वैसे मेरे गुरू बंधु , गुरु भ्राता , गुरु बहने 42 ऐसी संख्या बनी थी, प्रभुपाद के अनुयायी इसमे कई जीबीसी, सन्यासी और फिर दूसरी पीढ़ी के इस्कॉन के लीडर कई सारे मंदिर के अध्यक्ष और इसी तरह बडी संख्या मे इस्कॉन के साधु महात्मा आये थे , अविस्मरणीय उत्सव था, इसलिए आज भी अविस्मरणीय, भूला नहीं जा सकता उसकी आज याद आ रही है और आज के दिन अरावडे मे मनाया जा रहा है। कोविंड 19 की परिस्थितियां है, हर वर्ष वैसे बडा उत्सव मनाया जाता है अभी साधारण छोटा होगा , गांव की दृष्टी से मोटा होगा। वैसे मैं भक्तों से यही से संबोधित करने वाला हूं, ऑनलाइन 2:30 बजे मराठी में होगा, यथासंभव आप भी निमंत्रित हो, कार्यक्रम लाइव होगा आप सब देख सकते हो , ठीक है ।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
26 January 2021
The Real Constitution of a Republic is Bhagavad Gita & Srimad Bhagavatam
Hare Krsna! Welcome to this Japa session. Devotees from 696 locations are chanting with us right now. Welcome! It is the business of the soul to chant and hear. It is the loving business of the soul. It’s not work business.
The atma keeps on chanting.
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
The sound keeps on chanting. It’s not new for the soul. We have forgotten for a long time, since we have been engaged in material satisfaction. For the past many births, we were only engaged in sense gratification activities. But now by the mercy of Krsna we have the right engagement. His kind sight is now falling on us. We have been chosen and selected by the Lord.
hari hari! bifale janama gonainu
manushya-janama paiya, radha-krishna na bhajiya,
janiya suniya visha khainu
Translation
0 Lord Hari, I have spent my life uselessly. Having obtained a human birth and having not worshiped Radha and Krishna, I have knowingly drunk poison.
(Narottama Das Thakur)
Earlier we were saying, “mara mara” now we are saying “Rama Rama”. First we were in the dying business and now we are in the chanting business. I once met a person whose name was Karmarkar. Kar means do and mar means die. Do, then die and then take birth again. This is not only his story. Everyone is Karmarkar. Every person is taking birth and then death. By Krsna’s mercy we have got to know the truth. We have woken up. Krsna wishes to wake everyone up, but everyone doesn’t wake up. We have got this rare human birth.
bhajahū re mana śrī-nanda-nandana
abhaya-caraṇāravinda re
durlabha mānava-janama sat-sańge
taroho e bhava-sindhu re
Translation
O mind just worship the lotus feet of the son of Nanda, which make one fearless. Having obtained this rare human birth, cross over this ocean of worldly existence through the association of saintly persons.
We must make the right use of this rare human birth.
kṛṣṇa bhuliya jīva bhoga vāñchā kare
pāśate māyā tāre jāpaṭiyā dhare
Translation
Māyā means the illusory energy, where we want to enjoy, but it is not actual enjoyment; it is illusion. So the sex life in this material world is the centre of this attraction. (Prema-vivarta)
Krsna has woken us up. He keeps on waking us up, but many of us do not wake up. It’s His love for us. We belong to Gauranga. We presume we belong to our parents, to the country. We knowingly drink the poison.
Today is 26 January, Indian Republic day. Today the constitution of India was implemented. This was not very good news then. The constitution must be based on Bhagavad Gita. Krsna has said,
evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
sa kaleneha mahata
yogo nastah parantapa
Translation
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. (BG 4.2)
First the King who has to run the business must listen to the saints. The saints would advise the king who would then become known as a saintly king. The government should be a good government. There is also Dushasan – bad government. Religion means the laws of the Lord. The Lord has made the Veda and Purana for the welfare of all. There should be a constitution based on Gita and Bhagavat. Gita Bhagavat Constitution! What is religion? Prabhupada would say, “Laws of the Lord”. Dharma is the laws given by the Lord. There are laws of the Lord and laws of the land. These people have made the laws of the land and mostly what they do, is against the laws of the Lord. They are not in sync with the Lord’s laws. This is called mano dharma, or laws of your own mind. The constitution was framed by Dr. Ambedkar and others in the assembly. They created the constitution.
Some things are good, but then in many places there are some actions which are offensive according to the laws of the Lord but they are allowed and legalised. Abortion is legalised. Gambling is legalised. If certain things were not allowed, they make amends and allow it. This is Mano dharma, it contradicts the laws of the Lord. The 4 principles of Bhagavat Dharma and also of ISKCON are the same. One of the principles is not to gamble. But here there are cheaters and the cheated. This is the assembly of donkeys, so the greatest donkey will preside.
It is a very big responsibility to be a king. The king is the representative of the people and the people belong to the king. The king also has a family. The citizens of the nation are also his children. It becomes the duty of the king to take care of the citizens and their welfare. The entire empire is the family of the King. People have the right to preach what they feel is right. Everyone has different opinions. They don’t necessarily follow what Krsna or the Acaryas say. They preach their own speculations and interpretations.
Mahatma Gandhi had a dream that India will have Rama Rajya – rule of King Rama post independence. But that didn’t happen. Rather it became the rule of Ravana. However all those who have come in contact with ISKCON, Srila Prabhupada are made fortunate by Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. We are all relishing the nectarean holy name. This is all by the mercy of the Lord. Did we ever express our gratitude for this? We must thank the Lord for this.
A person has a cigarette. He desires to smoke, but he does not have a light. A person near him helps him light the cigarette. In return he gets a thank you for lighting “my cigarette which will soon burn up along with my lungs.” So many such thank yous for small and big help are given away during our lifetime. Those who help us in such destructive ways are not few.
The Lord has mercifully brought to us great fortune which will free us from the cycle of birth and death. Krsna is trying to save us. For future problems the Lord is trying to save us once and for all. Lord has His plan to take us from this place of miseries to a place where there are no miseries. There is mention about the Lord’s plans in the scriptures to save us. We must certainly express our gratitude to the Lord. We must offer our obeisances. When we bow down in front of the Lord and offer our gratitude, we must say to Him that we are extremely thankful to Him, that we are forever grateful.
māyā-mugdha jīvera nāhi svataḥ kṛṣṇa-jñāna
jīvere kṛpāya kailā kṛṣṇa veda-purāṇa
Translation
“When a living entity is enchanted by the external energy, he cannot revive his original Kṛṣṇa consciousness independently. Due to such circumstances, Kṛṣṇa has kindly given him the Vedic literatures, such as the four Vedas and eighteen Purāṇas.” Every human being should therefore take advantage of the Vedic instructions; otherwise one will be bound by his whimsical activities and will be without any guide. (CC Madhya 20.122)
I also wanted to continue with yesterday’s topic, but then I just read the news and am unable to stop myself from sharing it. A new Padayatra has started in Nepal. This is another milestone crossed in the fulfilment of the forecast by Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. Srila Prabhupada is the founder acarya of Nepal Padayatra also. Lord Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu said, “My name will be preached all over the world.” He said, “My name.” But we are preaching the Hare Krishna maha-mantra. Once Srila Prabhupada told me – Hare Krishna upadesa It was during the first Padayatra, 10 September 1976. It was our first Padayatra from Vrindavan to Mayapur. Srila Prabhupada addressed us and in the end he said, “Whoever you see or may come across, speak and preach Hare Krsna to them. This was a little different from what Mahaprabhu said. He said, “Preach about Krsna,” whereas Srila Prabhupada specified to simply preach the Hare Krishna maha-mantra.
This beginning of the Nepal Padayatra is good morning news. It is their desire to go to every village and town of Nepal. Ram Rajya can be established by such activities. Atri Patri Prabhu from Nepal has a big commitment in this. There is a full arrangement. We are grateful to them on behalf of Prabhupada and Mahaprabhu. We thank them and the ISKCON leaders in Nepal. ISKCON Nepal Padayatra ki Jaya !
pṛthivīte āche yata nagarādi grāma
sarvatra pracāra hoibe mora nāma
Translation
Lord Caitanya desired that “In all the towns, in as many towns and villages as they are on the surface of the globe, My name will be broadcast.” He is Kṛṣṇa Himself, svayaṁ kṛṣṇa, kṛṣṇa caitanya-nāmine, simply changing His name as Kṛṣṇa Caitanya. So His prediction will never go in vain. That’s a fact. (CB Antya-khaṇḍa 4.126)
We also have more news. ISKCON Aravade is having a celebration. It is the 12th birthday anniversary of Sri Radha Gopal. Time literally flies. It has already been 12 years. The Lord is merciful and agreed to appear and stay in the village of poor people like us. The Lord is very rich. He has everything. But for Krsna, wealth is not paper money. The Brajavasis’ wealth was calculated according to the cows they had. They considered the cows their wealth. The one who had more cows had more wealth and the one who had more land, had more wealth.
Krsna was the caretaker of such cows. Today ISKCON Aravade has a special celebration. The celebration 12 years ago was unparalleled. Never in the past nor in the future, was such a celebration undertaken. It is not that the Lord never came to Aravade. Lord Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu came to Aravade 500 years ago when He was on Padayatra. He came to a nearby place called Kolhapur from Pandharpur where there is a famous temple of Sri Mahalakshmi. She came there when she was upset with the Lord. She left Vaikuntha and came to Kolhapur. Bhrgu Muni was testing the three Lords – Brahma, Vishnu and Shiva. When he came to Vaikuntha he immediately kicked the Lord on the chest. Instead of offering obeisances he kicked the Lord. Despite that the Lord said, “ O Bhrgu, My chest is as hard as Vajra, and your feet are so soft, I fear you have hurt your feet.” Upon seeing this reaction of her husband, the Lord of the Lord’s, Mahalakshmi was upset and she left Vaikuntha and came to Kolhapur. Lord Caitanya came to Kolhapur to give Darshan to Mahalakshmi.
During His visit to South India and to middle India, Mahaprabhu came to Kolhapur. We all go to receive darshan, but Lord Caitanya is the Master of Mahalaksmi so He went to give darshan to her. From there He headed towards Pandharpur to have darshan of Sri Vitthala. On the way He came to Aravade chanting the names of Krsna.
kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! he
kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! he
kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! rakṣa mām
kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! pāhi mām
rāma! rāghava! rāma! rāghava! rāma! rāghava! rakṣa mām
kṛṣṇa! keśava! kṛṣṇa! keśava! kṛṣṇa! keśava! pāhi mām
(CC Madhya 7.96)
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu walked towards Sangli then to Tasgaon and 10 kms further from there to Aravade. There is a small hill. He must have climbed it. I usually visualise this. This happened 500 years ago and 12 years ago He appeared in the Deity form of Sri Radha Gopal.
ājānu-lambita-bhujau kanakāvadātau
saṅkīrtanaika-pitarau kamalāyatākṣau
viśvambharau dvija-varau yuga-dharma-pālau
vande jagat priya-karau karuṇāvatārau
Translation
I offer my respectful obeisance’s unto my spiritual master, who with the torchlight of knowledge has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance. (CB Ādi-khaṇḍa 1.1)
The Lord had come to my village. He appeared in the form of a Deity 12 years back. Prana prathistha ceremony was conducted. It was such a grand temple opening celebration. So many people arrived in Aravade. It was the first time in the history of Aravade that so many people arrived. So many ministers of Maharashtra had arrived. PR Patil, who I think was the Deputy Chief Minister, also came.
Some even arrived in helicopters like the demigods. Rural development minister had also come and he pledged a donation of INR ₹10 million for the development of ISKCON Aravade. 32 Prabhupada disciples had arrived. Many second generation leaders and Gurus of ISKCON were also present. These are unforgettable memories. Temple Presidents, GBCs , many saints of ISKCON came. They cannot be forgotten. Today the 12th anniversary is being celebrated. This year it is restricted due the current pandemic. I will also be giving a class in Marathi which will be telecast online around 2.30 pm IST today. You’re all welcome to that session as well.
Hare Krishna
Gaura premanande Hari Haribol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 26 января 2021 г.
НАСТОЯЩАЯ КОНСТИТУЦИЯ РЕСПУБЛИКИ – ЭТО БХАГАВАД ГИТА И ШРИМАД БХАГАВАТАМ
Харе Кришна! Добро пожаловать на сеанс джапы. Прямо сейчас с нами воспевают преданные из 696 мест. Добро пожаловать! Воспевать и слушать – это занятие души. Это преданное занятие души. Это не рабочее занятие.
Атма продолжает воспевать.
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Голос продолжает воспевать. Для души это не ново. Мы давно забыли, так как занимались материальным удовлетворением. В течение многих прошлых жизней мы были заняты только деятельностью по удовлетворению чувств. Но теперь по милости Кришны у нас есть правильное занятие. Его милостивый взгляд сейчас падает на нас. Мы были выбраны и избраны Господом.
хари хари!
бипхале джанама гонаину
манушйа-джанама паийа, радха-кришна на бхаджийа,
джанийа шунийа биша кхаину
Перевод:
О Господь Хари, моя жизнь прошла впустую. Всю свою жизнь я сознательно пил яд, ибо, родившись человеком, не поклонялся Радхе и Кришне.
(Молитва любимому Господу (из “Прартханы”) Нароттама Даса Тхакур, стих 1)
Раньше мы говорили «мара мара», теперь мы говорим «Рама Рама». Сначала мы были заняты умиранием, а теперь мы занимаемся воспеванием. Однажды я встретил человека по имени Кармаркар. Кар означает делать, а мар означает умереть. Сделай, затем умри и снова родись. Это не только его история. Каждый – Кармаркар. Каждый человек рождается, а затем умирает. По милости Кришны мы узнали истину. Мы проснулись. Кришна хочет разбудить всех, но не все просыпаются. У нас есть это редкое человеческое рождение.
бхаджаху ре мана шри-нанда-нандана
абхайа-каранаравинда ре
дурлабха манава-джанама сат-санге
тарохо э бхава-синдху ре
Перевод:
О, ум просто поклоняйся лотосным стопам сына Нанды, это делает человека бесстрашным. Получив это редкое человеческое рождение, можно пересечь этот океан материального существования имея общение святых людей.
(Бхаджа Ху Ре Мана, Говинда Даса Кавираджа)
Мы должны правильно использовать это редкое человеческое рождение.
кр̣ш̣н̣а-бахирмукха хан̃а̄ бхога-ва̄н̃чха̄ каре
никат̣а-стха ма̄йа̄ та̄ре джа̄пат̣ийа̄ дхаре
Перевод:
Как только у живого существа возникает желание наслаждаться материальной природой отдельно от Кришны, оно тут же становится жертвой майи, материальной энергии.
(«Шри Према-виварта», 6.2)
Кришна разбудил нас. Он продолжает будить нас, но многие из нас не просыпаются. Это Его любовь к нам. Мы принадлежим Гауранге. Мы думаем, что принадлежим нашим родителям, стране. Мы сознательно пьем яд.
Сегодня 26 января, День Республики Индии. Сегодня была введена в действие конституция Индии. Тогда это были не очень хорошие новости. Конституция должна быть основана на Бхагавад Гите. Кришна сказал:
эвам̇ парампара̄-пра̄птам
имам̇ ра̄джаршайо видух̣
са ка̄ленеха махата̄
його нашт̣ах̣ парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Так эта великая наука передавалась по цепи духовных учителей, и ее постигали праведные цари. Но с течением времени цепь учителей прервалась, и это знание в его первозданном виде было утрачено.
(Б.Г. 4.2)
Прежде всего, царь, которому предстоит управлять царством, должен прислушаться к святым. Святые давали советы царю, который затем становился известен как святой царь. Правительство должно быть хорошим правительством. Есть еще Душасан – плохое правительство. Религия означает законы Господа. Господь создал Веды и Пураны на благо всех. Должна быть конституция, основанная на Гите и Бхагавате. Гита Бхагават Конституция! Что такое религия? Прабхупада говорил: «Законы Господа». Дхарма – это законы, данные Господом. Есть законы Господа и законы страны. Эти люди установили законы страны, и в большинстве случаев то, что они делают, противоречит законам Господа. Они не согласуются с законами Господа. Это называется мано дхарма, или законы вашего собственного ума. Конституция была составлена доктором Амбедкаром и другими участниками собрания. Они создали конституцию.
Некоторые вещи хороши, но во многих местах есть некоторые действия, которые являются оскорбительными согласно законам Господа, но они разрешены и легализованы. Аборт легализован. Азартные игры легализованы. Если определенные вещи были запрещены, они исправляют и позволяют это. Это мано дхарма, она противоречит законам Господа. Четыре принципа Бхагават Дхармы и ИСККОН одинаковы. Один из принципов – не играть в азартные игры. Но здесь есть читеры (обманщики) и обманутые. Это собрание ослов, поэтому величайший осел будет председательствовать.
Быть царем – очень большая ответственность. Царь – представитель народа, а народ принадлежит царю. У царя тоже есть семья. Граждане нации также являются его детьми. Обязанностью царя становится забота о гражданах и их благополучии. Вся империя – это семья царя. Люди имеют право проповедовать то, что они считают правильным. У всех разные мнения. Они не обязательно следуют тому, что говорят Кришна или ачарьи. Они проповедуют свои собственные предположения и интерпретации.
Махатме Ганди приснился сон, что в Индии будет Рама Раджья – правление царя Рамы после обретения независимости. Но этого не произошло. Скорее это стало правлением Раваны. Однако всех, кто контактировал с ИСККОН, Шрила Прабхупада сделал удачливыми благодаря Шри Кришне Чайтанье Махапрабху. Все мы наслаждаемся нектаром святого имени. Все это по милости Господа. Выражали ли мы когда-нибудь нашу благодарность за это? Мы должны благодарить Господа за это.
У человека есть сигарета. Он хочет курить, но у него нет огня. Человек рядом с ним помогает ему прикурить сигарету. В ответ он получает благодарность за то, что зажег «его сигарету, которая скоро сгорит вместе с его легкими». Так много таких благодарностей за маленькую и большую помощь раздается в течение нашей жизни. Тех, кто помогает нам столь разрушительными способами, немало.
Господь милостиво принес нам великую удачу, которая освободит нас от цикла рождений и смертей. Кришна пытается нас спасти. От будущих проблем Господь пытается спасти нас раз и навсегда. У Господа есть план, чтобы забрать нас из этого места страданий в место, где нет страданий. В Священных Писаниях упоминается о планах Господа спасти нас. Мы обязательно должны выразить свою благодарность Господу. Мы должны предложить свои поклоны. Когда мы склоняемся перед Господом и выражаем свою благодарность, мы должны сказать Ему, что мы чрезвычайно благодарны Ему, что мы вечно благодарны.
ма̄йа̄-мугдха джӣвера на̄хи сватах̣ кр̣шн̣а-джн̃а̄на
джӣвере кр̣па̄йа каила̄ кр̣шн̣а веда-пура̄н̣а
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Обусловленная душа не может возродить в себе сознание Кришны собственными усилиями. Поэтому Кришна по Своей беспричинной милости дал людям Веды и дополняющие их Пураны».
(Ч.Ч. Мадхья лила 20.122)
Я также хотел продолжить вчерашнюю тему, но потом просто прочитал новости и не могу удержаться от того, чтобы ими не поделиться. В Непале стартовала новая падаятра. Это еще одна веха, достигнутая в исполнении прогноза Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху. Шрила Прабхупада также является основателем ачарьей непальской падаятры. Господь Шри Кришна Чайтанья Махапрабху сказал: «Мое имя будет проповедоваться по всему миру». Он сказал: «Мое имя». Но мы проповедуем маха-мантру Харе Кришна. Однажды Шрила Прабхупада сказал мне: Харе Кришна упадеша. Это было во время первой падаятры, 10 сентября 1976 года. Это была наша первая падаятра от Вриндавана до Маяпура. Шрила Прабхупада обратился к нам и в конце сказал: «Кого бы вы не увидели или смогли встретить, говорите и проповедуйте им Харе Кришна. Это немного отличалось от того, что сказал Махапрабху. Он сказал: «Проповедуйте о Кришне», тогда как Шрила Прабхупада указал, что нужно просто проповедовать маха-мантру Харе Кришна.
Это начало непальской падаятры – хорошие утренние новости. Они хотят побывать в каждой деревне и городе Непала. Рам Раджья может быть установлена такой деятельностью. Атри Патри Прабху из Непала очень привержен этому. Выполнены все приготовления. Мы благодарны им от имени Прабхупады и Махапрабху. Мы благодарим их и лидеров ИСККОН в Непале. ИСККОН Непал падаятра ки Джая!
притхивите аче йата нагаради грама
сарватра прачара хайбе мора нама
Перевод:
В каждом городе и деревне будет слышно воспевание Моего имени.
(Чайтанья Бхагавата Антья-кхана 4.126)
У нас также есть другие новости. ИСККОН Араваде празднует. Это 12-я годовщина со дня рождения Шри Радхи Гопала. Время буквально летит. Прошло уже 12 лет. Господь милостив и согласился явиться и остаться в деревне таких бедняков, как мы. Господь очень богат. У него есть все. Но для Кришны богатство – это не бумажные деньги. Богатство враджаваси рассчитывалось по количеству коров, которые у них были. Они считали коров своим богатством. У того, у кого было больше коров, было больше богатства, и у того, у кого было больше земли, было больше богатства.
Кришна заботился о таких коровах. Сегодня у ИСККОН Араваде особый праздник. Праздник 12 лет назад не имел аналогов. Никогда ни в прошлом, ни в будущем такого празднования не проводилось. Дело не в том, что Господь никогда не приходил в Араваде. Господь Шри Кришна Чайтанья Махапрабху прибыл в Араваде 500 лет назад, когда был на падаятре. Он пришел в соседнее место под названием Колхапур из Пандхарпура, где находится знаменитый храм Шри Махалакшми. Она пришла туда, когда была недовольна Господом. Она покинула Вайкунтху и пришла в Колхапур. Бхригу Муни испытывал трех Владык – Брахму, Вишну и Шиву. Придя на Вайкунтху, он сразу же ударил Господа ногой в грудь. Вместо того, чтобы предложить поклоны, он ударил Господа ногой. Несмотря на это, Господь сказал: «О Бхригу, Моя грудь тверда, как Ваджра, а твои ступни такие мягкие, я боюсь, что ты повредил свои ступни». Увидев такую реакцию своего мужа, Господа, Махалакшми была расстроена и покинула Вайкунтху и пришла в Колхапур. Господь Чайтанья прибыл в Колхапур, чтобы дать Махалакшми даршан.
Во время своего визита в Южную Индию и в среднюю Индию Махапрабху пришел в Колхапур. Мы все ходим на даршан, но Господь Чайтанья – Господь Махалакшми, поэтому Он пошел дать ей даршан. Оттуда Он направился в Пандхарпур, чтобы получить даршан Шри Виттхалы. По дороге Он пришел в Араваде, воспевая имена Кришны.
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! хе
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! хе
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! ракша мам
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! пахи мам
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! ракша мам
рама! рагхава! рама! рагхава! рама! рагхава! ракша мам
кршна! кешава! кршна! кешава! кршна! кешава! пахи мам
Перевод:
Господь пел:
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! хе
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! хе
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! ракша мам
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! пахи мам
Рама! Рагхава! Рама! Рагхава! Рама! Рагхава! ракша мам
Кришна! Кешава! Кришна! Кешава! Кришна! Рагхава! пахи мамКришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Хе!
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Хе!
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Ракша мам!
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Пахи мам!Рама! Рагхава! Рама! Рагхава! Рама! Рагхава! Ракша мам!
Кришна! Кешава! Кришна! Кешава! Кришна! Кешава! Пахи мам!
(Ч.Ч. Мадхья 7.96)
Шри Кришна Чайтанья Махапрабху пошел в сторону Сангли, затем в Тасгаон и еще 10 км оттуда в Араваде. Там есть небольшой холм. Он, должно быть, забрался на него. Обычно я это представляю. Это произошло 500 лет назад, а 12 лет назад Он явился в форме Божества Шри Радхи Гопала.
аджану-ламбита-бхуджау канакавадхатау
санкиртанаика-питарау камалаятаксау
вишвамбхарау двиджа-варау юга-дхарма палау
ванде джагат-приякаро карунаватарау
Перевод:
Я выражаю свое почтение Шри Чайтанье Махапрабху и Шри Нитьянанде Прабху, чьи руки простираются до колен, у которых золотисто-желтый цвет лица, и которые начали совместное воспевание Святых имен. Их глаза напоминают лепестки лотоса; Они покровители всех живых существ; Они лучшие из брахманов, защитники религиозных принципов этого века, благодетели вселенной и самые милостивые из всех воплощений.
(Чайтанья-Бхагавата 1.1.1)
Господь пришел в мою деревню. Он появился в образе Божества 12 лет назад. Была проведена церемония прана-пратиштха. Это было грандиозное празднование открытия храма. Столько людей прибыло в Араваду. Это был первый раз в истории Араваде, когда прибыло так много людей. Прибыло так много чиновников Махараштры. П.Р. Патил, который как мне кажется, был заместителем главного министра, тоже приехал.
Некоторые даже прилетели на вертолетах, как полубоги. Прибыл также министр сельского развития и пообещал пожертвовать 10 миллионов индийских рупий на развитие ИСККОН Араваде. Прибыло 32 ученика Прабхупады. Также присутствовали многие лидеры второго поколения и гуру ИСККОН. Это незабываемые воспоминания. Пришли президенты храмов, члены ДжиБиСи, многие святые ИСККОН. Их нельзя забыть. Сегодня отмечается 12-летие. В этом году оно ограничено из-за текущей пандемии. Я также буду вести лекцию на маратхи, которая будет транслироваться онлайн сегодня около 14:30 п.м. IST. Приглашаем всех вас на эту сессию.
Харе Кришна!
Гаура Премананде Хари Харибол!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण।।
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से, 25 जनवरी 2021
सभी को हरे कृष्णा
747,कभी-कभी 777 होते हैं,पर आज 747 हैं।747 स्थानो से लोग जुड़े हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
आप जप करते रहो।कर रहे हो?कर तो रहे ही हो।
प्रभुपाद उवॉच-
“हरे कृष्ण का जप एक उत्कृष्ट विधि है हमारी दिव्य चेतना को पुनः जागृत करने के लिए”
श्रील प्रभुपाद का एक विशेष वचन,प्रभुपाद उवॉच इस पर प्रभुपाद ने एक अलग से रिकॉर्डिंग भी किया है,काफी प्रसिद्ध है यह इस्कॉन में।आप इस्कॉन में हो तो पता नहीं आपके पास इस वचन की प्रसिद्धि पहुंची थी या नहीं।किंतु आज तो हम पहुंचा रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद के मुखारविंद से निकले हुए यह वचन,यह वाणी श्रील प्रभुपाद वाणी,हम सब को,आप को, प्रभावित करे प्रेरित करे,महा मंत्र के जप के लिए। इन वचनों में प्रभुपाद ने हरिनाम की महिमा के बारे में बताया है। यह वाणी,यह वचन अद्भुत है। इसकी रिकॉर्डिंग भी आपको मिल जाएगी।उसको ढूंढो और सुनो। अंग्रेजी में और शायद हिंदी में भी प्रभुपाद ने इसके अनुवाद की रिकॉर्डिंग की है।श्रीलप्रभुपाद की जय। जो जप योगी हैं,आप हो ना जप योगी?जप योगी ही होते हैं भक्ति योगी। कलियुग में भक्ति की जाती है जप करके।
इसको यज्ञानाम जपयज्ञोऽस्मि कृष्ण ने कहा है गीता में-
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय: ||(भगवदगीता 10.25)
सभी यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूं और यह जप यज्ञ श्रेष्ठ है,तो जप यज्ञन कहो या संकीर्तन यज्ञन कहो,यह जप यज्ञ कलियुग का धर्म है। श्रील प्रभुपाद यहां कह रहे हैं –
“हरे कृष्ण का जप एक उत्कृष्ट विधि है, हमारी दिव्य चेतना को पुनः जागृत करने के लिए”
हमारी चेतना,हमारी भावना अलौकिक तो है,दिव्य तो है पर उसको यह महामंत्र जागृत करता है। हमारी मूल भावना कैसे जागृत होती है? कैसे जगती है? कैसे प्रकाशित होती है, प्रदर्शित होती है? हरे कृष्ण महामंत्र के जप से,हरे कृष्ण महामंत्र के उच्चारण से, हरे कृष्ण महामंत्र के श्रवण से, कीर्तन से। आशा है कि आप जानते होंगे या आपने सुना या समझा होगा कि यह चेतना जीव का लक्षण है,जीव का परिचय है। जीव की पहचान होती है चेतना से। जो कभी-कभी कलुषित भी होती है, दूषित भी होती है, है कि नहीं? भावना तो है। चेतना तो है यह चेतना ही जीव का परिचय है।जीव का लक्षण है। हमारी जो मूल भावना है वह कृष्ण भावना है। हरे कृष्ण महामंत्र के जप से होता क्या है?
“चेतों दर्पण मारजनम”
हमारी चेतना का दर्पण। हमारी चेतना को दर्पण भी कहा जाता है।
यह महामंत्र जो स्वयं भगवान ही है , कृष्ण ही है, हमारी चेतना में अगर कोई दोष है,कोई कचरा भरा पड़ा है, कोई गंदगी है, कोई मल है उसको यह कृष्णसूर्य सम, कृष्ण का नाम शुद्ध बनाता है पवित्र बनाता है और इसी के साथ हम भक्त बनते हैं, पुनः भक्त बनते हैं। हरि हरि।।
यह वास्तविक चेतना है।
यहां हम देख रहे हैं,कृष्ण और कृष्ण के भक्तों में जो आदान-प्रदान हो रहा है यही वास्तविक चेतना है। वैकुंठ में या गोलोक में श्रीकृष्ण हैं यह वास्तविक चेतना है। विशुद्ध आत्मा होने के कारण हम मूलतः कृष्णभावनाभावित हैं। प्रभुपाद आगे कह रहे हैं, हम आत्मा हैं विशुद्ध आत्मा और बेशक, आत्मा जीवित है।आत्मा में जान है बाकी सब तो मृत है।
लेकिन आत्मा कैसा है? जीवित। इस आत्मा के रूप में हम मूलत: सभी कृष्णभावनाभावित हैं। कृष्णभावनाभावित जीव आत्माएं। मूलत: हम कृष्णभावनाभावित थे और अब भी हैं किंतु कृष्ण भावना को भूल गए हैं या माया के आवरण ने, इस कृष्ण भावना को आच्छादित किया हुआ है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण।।
“आदिकाल से हमारा भौतिक पदार्थ से संपर्क होने के कारण, हम सभी भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की कोशिश कर रहे हैं,परंतु वास्तव में तो हम उसके कड़े नियमों की जकड़ में हैं।”
जब से हम इस भौतिक प्रकृति के संपर्क में आए हैं,कब से?अनादि काल से, ना जाने कब से, बहुत समय से। हरि हरि।।
हम सभी भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश कर रहे हैं। यहां हम आ गए या प्रकृति के संपर्क में आ गये या निकटस्थ माया तारे झापटिया धरे माया ने हमको झपट लिया है, हमारा गला पकड़ा हुआ है लेकिन प्रयास तो यह हो रहा है हमारा यहां कि हम स्वामी बनने कि कोशिश कर रहे हैं। ईश्वरोअह्मम वाली बात है। कृष्ण ने इसको ऐसे कहा है कि वह है तो दास, जीव है तो दास, लेकिन यहां पर वह स्वामी बनने का प्रयास करता है, हर बद्ध जीव, आप सब भी स्वामी बनने के प्रयास में थे या अभी भी कुछ हद तक, कुछ सीमा तक वह प्रयास जारी रहता ही है जब तक हम शुद्ध, मुक्त, नित्य और शांत नहीं बनते।एक स्वामी ही काफी है। एक स्वामी तो है और स्वामी की कोई जरूरत नहीं है और है भी वैसे एकले ईश्वर कृष्ण आर सब भृत्य ईश्वर परमेश्वर तो अकेले कृष्ण ही हैं या कृष्ण के अवतार हैं, विस्तार हैं और हम हैं उनके दास,सेवक।इसी में प्रसन्न रहना चाहिए लेकिन प्रयास होता है प्रभुपाद कह रहे हैं, जो सत्य भी है कि हम प्रकृति के स्वामी बनने की कोशिश कर रहे हैं। सारी मानवता मिलकर, यह जो वैज्ञानिक मंडली है और यह जो मूर्ख हैं और भी कई हैं ,चांडाल चौकड़ी जो है यह सब मिलकर स्वामी बनने का प्रयास कर रहे हैं।प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि वास्तव में हम तो प्रकृति के सख्त नियमों की जकड़ में हैं यह श्रील प्रभुपाद का साक्षात्कार है,अनुभव है जो कृष्ण ने भी कहा है मम् माया दुरतया।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (भगवदगीता 7.14)
माया के या महामाया के नियमों का उल्लंघन हम नहीं कर सकते,संभव नहीं है।यहां के नियम जो भगवान ने बनाए बड़े कड़े नियम हैं।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। (भगवदगीता2.27)
“जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु”
पहला नियम
आपने जन्म लिया है तो आपको मरना ही होगा। ऐसे-ऐसे नियम हैं, इस माया ने हमको पूरी तरह पछाड़ दिया है।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।। (भगवदगीता3.27)
हमसे माया कार्य करवाती है, माया के तीन गुण कार्य करवाते हैं हमसे, किंतु समस्या यह है अहंकार विमुढ आत्मा, कर्ताऽहमिति मन्यते।
कृष्ण कह रहे हैं, सुनो क्या कह रहे हैं।लेकिन जो अहंकारी बद्ध जीव होते हैं उनको भगवान ने भी मूढ कहा, मूर्ख कहीं के , गधे कहीं के।
कर्ताऽहमिति मन्यते, लेकिन कर्ता तो भगवान हैं
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || (भगवदगीता9.10)
श्रील प्रभुपाद आगे लिख रहे हैं
“बिना किसी पूर्व योग्यता के कोई भी संकीर्तन आंदोलन में भाग लेकर नित्य आनंद प्राप्त कर सकता है ”
जैसे आप यहां देख रहे हो कोई भी जप कर सकता है। कोई भी बिना किसी पूर्व योग्यता के कीर्तन कर सकता है, जप कर सकता है जप या कीर्तन करने के लिए कोई भी पिछली योग्यता या पहले की कोई गुणवत्ता, कोई अधिकार की आवश्यकता नहीं है। यहां पर चैतन्य महाप्रभु दिखा रहे हैं कि उन्होंने झारखंड में पशुओं तक को नचाया। एक दिन वह झारखंड के जंगल से वृंदावन जा रहे थे, जाते-जाते पहले कोई पूर्व सूचना भी नहीं मिली थी कि चैतन्य महाप्रभु आने वाले हैं या कीर्तन होगा आप थोड़ा तैयारी करो या कुछ प्रशिक्षण ले लो।हरि हरि । ऐसा कुछ भी नहीं चैतन्य महाप्रभु आए और तत्क्षण इस पार्टी ने उनसे खुद को जोड़ लिया। झारखंड के वन के सारे पशु पक्षी सब नाचने लगे जो पशुवत लोग हैं धर्मेंन हीना पशुभि समान
आहार-निद्रा-भय-मैथुनम च सामान्यम् एतत् पशुभिर् नराणाम् । धर्मो हि तेषांअधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः (२५ हितोपदेश)
धर्म हीन व्यक्ति को तो पशु कहा जाता है द्विपद पशु कहा जाता है। अधिकतर पशु चतुपदी होते हैं,लेकिन मनुष्य के पैर तो दो ही हैं इसलिए द्विपद पशु कहा है क्योंकि कहा गया है कि धर्म हीन व्यक्ति पशु ही कहलाता है पशुवत ही उसका जीवन है। श्रील प्रभुपाद ने ऐसे पशुओं को नचाया।अमेरिका में, अफ्रीका में, जहां-जहां प्रभुपाद गए और उनकी पहले की कोई पूर्व योग्यता ना होते हुए भी प्रभुपाद ने टोम्स्कीन स्क्वेयर पार्क में छोटे, बड़े, बूढ़े, बच्चो, सबको नचाया। सब कीर्तन करने लगे और आनंद में नृत्य करने लगे। कोई भी व्यक्ति जप या कीर्तन की शुरुआत कर सकता है और व्यक्ति करने भी लगता है।
“कोई भी जप कर सकता है और आनंद में नित्य कर सकता है”
पूरी तरह से आनंद नहीं भी है तो भी यह तो शुरुआत है। आनंद का प्रारंभ ही हुआ है और जैसे आप देख रहे हो इसका उदाहरण, कोई भी जप करते हुए आनंद पूर्वक नृत्य कर सकता है।
यह बालक भी है, एक महिला भी है,और एक अफ्रीकन महिला भी है और देश विदेश के कई भक्तों को यहां नगर संकीर्तन करते हुए देख रहे हो। भक्ति विनोद ठाकुर ने भी कहा था लगभग डेढ़ सौ साल पहले भक्ति विनोद ठाकुर ने यह भविष्यवाणी की थी कि अमरिका से, जर्मनी से, इंग्लैंड से,यहां से, वहां से लोग जय सच्चिनन्दन जय सच्चिनन्दन गोर हरि का उच्चारण करेंगे | जैसा भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा था वैसा ही हो रहा है।
और यह सब भक्त, हम सब भक्त,आप भी अनुभव कर रहे हो आप भी हो उन भक्तों में। तो जब सब कीर्तन कर रहे हैं तो किसको फर्क पड़ता है कि कौन किस देश का है? किसको परवाह है कि कौन किस देश का है? किसी को याद नहीं रहता,ऐसा बाहय ज्ञान नहीं रहता, कोई सोचता भी नहीं कि कौन किस देश का है। पहले इसाई था या पहले मुसलमान था , पहले ऐसा था या पहले वैसा था। जो भी था कम्युनिस्ट था या इस पार्टी का था, कृष्णा ही इस परिवार के मुखिया हैं तो ऐसी एकता भी और कहीं नहीं पाई जाएगी सारी उपाधियों को
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिर् उच्यते॥ (१.१.१२ भक्ति रसामृत सिंधु)
सारी उपाधियों को त्याग कर, भूल कर, निर्मल बनें। उपाधि मतलब मल, निर्मल बनो,आत्मा भी निर्मल है| निर्मल भाव के साथ कीर्तन और जप करें। ऐसी एकता ऐसा एकय और कहीं नहीं मिलेगा | श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा है –
*तुरंत लाभ के लिए जप को भगवान के किसी शुद्ध भक्त के मुख से ही सुनना चाहिए। हम जप सुनेंगे या जप स्वीकार करेंगे कैसै? दीक्षा भी होगी तो मंत्र प्राप्त करेंगे। परंपरा में आने वाले भक्त,आचार्यगण, गुरुगण ही से करें। उनसे हरि नाम को सुनकर या प्राप्त करके,तुरंत लाभ को प्राप्त किया जा सकता है। इसका जो परिणाम है,परिवर्तन है यह तुरंत ही अनुभव किया जा सकता है।
“अभक्तों के मुख से निकला हुआ जप,उसी प्रकार जहरीला हो जाता है जिस प्रकार सांप के मुख से छुआ हुआ दूध जहरीला होता है इसलिए अभक्तों के मुख से कभी भी हरि नाम को नहीं सुनना चाहिए”
जो अभक्त हैं, अभक्तों के मुख से सुना हुआ जप विष के समान है।भुक्ति,मुक्ति,सिद्धि कामी सक्ल अशांत, कृष्ण भक्त निष्काम अतैव शांत
हरि हरि।।
मुक्ति कामी, सिद्धि कामी इनसे अगर हम सुनेंगे महामंत्र या कीर्तन तो यह विष के समान होगा। प्रभुपाद कह रहे हैं इसको टालना चाहिए, सुनना नहीं चाहिए।मायावादी, कृष्ण अपराधी। उनका खुद तो कोई विश्वास नहीं होता कृष्ण के नाम में, कोई श्रद्धा नहीं होती। अगर भुक्ति कामी भी हैं,कर्मकांड करने वाले, वस्त्र तो पहनें ही हैं,भगवा वस्त्र,तो हम झट से सुनने लगते हैं वह उपलक्षण होता है,ऐसे कुछ कमंडलु भी हैं,भगवा पहना हुआ है या कुछ उसी तरह का तिलक भी पहना हुआ है या ऐसा कुछ हरि हरि।।
तो यह भक्त के,साधु के, संतों के गौंण लक्षण हैं।
प्रधान लक्षण तो यही है कि उसकी भावना कैसी है? वह कृष्णभावनाभावित है कि नहीं ?वह कृष्ण को समर्पित है कि नहीं?
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। (9.13 भगवदगीता)
यहां महात्मा की परिभाषा सुना रहे हैं, महात्मा तो वह व्यक्ति है जो
दैवी प्रकृति आश्रित:।
जो दैवी प्रकृति का आश्चर्य लेता है। कौन है दैवी प्रकृति? राधा रानी दैवी प्रकृति है जो राधा रानी का आश्रय लेता है या जो राधा रानी के भावों को प्रकट करने वाली परंपरा में आने वाले आचार्य या भक्त वृंद हैं,उनका आश्रय लेता है, वह महात्मा है। हम सीधे भी नहीं जा सकते राधा रानी के पास आश्रय लेने के लिए।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: (भगवदगीता4.34)
श्री कृष्ण ने भगवत गीता में कहा है कि गुरुजनों के पास पहुंचो, उनकी शरण में जाओ उनका आश्रय ले लो और वे आपको प्रेरित करेंगे, सिखाएंगे, समझाएंगे कि कैसे लेना होता है राधा रानी का आश्रय या फिर वो आपको महामंत्र देंगे और महामंत्र में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – यह हरे हैं राधा।
हे राधे-सेवा योग्य करो,मुझे भी सुनाओ। हे राधे,श्रावय:। तुम्हारी कृष्ण के साथ जो लीला संपन्न होती है, उसे मुझे सुनाओ। जब हम महामंत्र का जप कर रहे हैं,हरे कृष्ण हरे हरे कह रहे हैं उसमें तो यह प्रार्थना है, यह शरणागति है। राधा रानी के चरणों में श्रावय:र्दशय:।
सुनाइए कृष्ण की लीला। तुम्हारी कृष्ण के साथ होने वाली लीला ऐसे भक्तों से हमें यह महामंत्र सुनना चाहिए/प्राप्त करना चाहिए वरना
जीवेर निस्तार लागि ’ सूत्र कैल व्यास ।मायावादी-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश।। (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 6.169)
जो सिद्ध महात्मा है, महात्मा नहीं कहना चाहिए उन्हें, पर महात्मा कहना पड़ता है।अनीमा जैसी सिद्धियों के पीछे लगे हैं, वह भगवान के नामों का उच्चारण, शुद्ध नाम का उच्चारण अपराध रहित कर ही नहीं सकते। ऐसी उनकी समझ नहीं है ऐसी उनकी श्रद्धा नहीं है और ऐसी उनकी परंपरा भी तो नहीं है
सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मता: (पद्म पुराण)
यदि कोई मान्यताप्राप्त गुरु-शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता , तो उसका मंत्र या दीक्षा निष्फल है।
संप्रदाय के बाहर वाला कोई मंत्र तंत्र सीखने से क्या होगा? विफल संप्रदा-संप्रदा विहीन।।
फल- विफल, सफल या विफल?
साफलय,सफलता प्राप्त नहीं होगी।कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं होगा।
कैवलयम नर्कायते।
हमारे वैष्णवों का ऐसा मत है कैवल्य मुक्ति,निराकार या निरंजन का दर्शन।केवलयम नरकायते। नरक से भी खराब चीज है,ये कैवल्य मुक्ति।
यह कृष्ण प्रेम तो जिनकी ऐसी समझ है कि प्रेम प्राप्ति ही पुरुषार्थ है, सर्वोपरि सर्वोच्च।उनसे हमें यह महामंत्र को प्राप्त करना चाहिए। दूसरे जो पक्ष हैं वह परंपराएं कुछ अलग ही हैं या मनगढ़ंत हैं और मनोधर्म की बातें हैं तो इस को हटाना चाहिए। प्रभुपाद चेतावनी दे रहे हैं हमें, सावधान और भी विधि निषेध हैं जो प्रभुपाद ने हरि नाम के जप के लिए बताए हैं पर अभी हम यहां रुकते हैं।
“हरे कृष्णा”।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
25 January 2021
The goal of this life is to attain Kṛṣṇa prema
Hare Krishna to everybody! Today devotees from 747 locations are chanting with us. Sometimes it is 777. Today we have 747.
Gaura Premanande Hari Haribol ! You keep chanting. Are you chanting? I can see that you are chanting. We cannot have a complete seminar here today.
Chanting Hare Krishna is a sublime method for reviving our transcendental consciousness.
It is a special speech given by Srila Prabhupada. Prabhupada has recorded it, specially. This speech is very popular in ISKCON. You all are followers of ISKCON still I am not aware whether this popular speech has reached you or not? But today we will inform you. This speech is known as ‘Prabhupada Vani.’ It should inspire and motivate all of us. It should inspire you to chant the maha-mantra. In this speech Srila Prabhupada has glorified the holy name in an amazing and wonderful way. You search for a recording and listen to it. It is available in English and possibly Prabhupada has done it in Hindi also.
We all are Japa yogis. Aren’t we ? Only Japa yogis are known as Bhakti yogis. In Kaliyuga we can do Bhakti only by chanting.
maharṣīṇāṁ bhṛgur ahaṁ
girām asmy ekam akṣaram
yajñānāṁ japa-yajño ’smi
sthāvarāṇāṁ himālayaḥ
Translation
Of the great sages I am Bhṛgu; of vibrations I am the transcendental oṁ. Of sacrifices I am the chanting of the holy names [japa], and of immovable things I am the Himālayas. (BG 10.5)
The Lord has declared in Bhagavad Gita that among all sacrifices I am the chanting of the maha-mantra. Chanting sacrifice is the best sacrifice. We may call it chanting or kirtan sacrifice which is recommended for Kaliyuga. Srila Prabhupada has said in this speech:
Chanting of the Hare Krishna maha-mantra is a sublime method for reviving our transcendental consciousness.
Our transcendental consciousness or our senses are transcendental, divine and supernatural originally. How is our original consciousness revived, realised or displayed? It is possible by chanting of Hare Krishna maha-mantra. This is the sublime method. By chanting the Hare Krishna maha-mantra, by pronouncing the Hare Krishna maha-mantra or by listening and performing kirtan of maha-mantra it is possible to revive our transcendental consciousness. I hope you have heard and understood that consciousness is the main characteristic of a living entity.The living entity is known by its consciousnesses, feelings, emotions. The living entity is identified by Kṛṣṇa consciousness or consciousness. Sometimes it is polluted or contaminated but that consciousness always remains. This consciousness is the identification of the living entities. This is our original Kṛṣṇa Consciousness. By chanting Hare Kṛṣṇa mantra it is revived.
ceto-darpaṇa-mārjanaḿ bhava-mahā-dāvāgni-nirvāpaṇaḿ
śreyaḥ-kairava-candrikā-vitaraṇaḿ vidyā-vadhū-jīvanam
ānandāmbudhi-vardhanaḿ prati-padaḿ pūrṇāmṛtāsvādanaḿ
sarvātma-snapanaḿ paraḿ vijayate śrī-kṛṣṇa-sańkīrtanam
Translation
Glory to the sri-krsna-sankirtana, which cleanses the heart of all the dust accumulated for years and extinguishes the fire of conditional life, of repeated birth and death. This sankirtana movement is the prime benediction for humanity at large because it spreads the rays of the benediction moon. It is the life of all transcendental knowledge. It increases the ocean of transcendental bliss, and it enables us to fully taste the nectar for which we are always anxious.
Our mind is also called a mirror of the consciousness. The maha-mantra is Kṛṣṇa or Kṛṣṇa Who is very effulgent like the sun. Our consciousness is filled with polluted trash, dirt. The consciousness is cleared and made pure by the holy name or by Kṛṣṇa.
kṛṣṇa — sūrya-sama; māyā haya andhakāra
yāhāṅ kṛṣṇa, tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra
Translation
Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish. (CC Madhya 22.31)
Accordingly by going through this process we become devotees again. This is our original consciousness. In this picture we can see the original consciousness between Kṛṣṇa and the devotee. Sri Krsna is in Vaikuntha or Goloka Dhama. It is the original consciousness. Prabhupada further said …
As living spiritual souls we are all originally Kṛṣṇa conscious entities.
We are living souls. The soul is the only living thing. Everything else is dead. The soul is living. In the form of this soul we all are Kṛṣṇa conscious entities. Hare Kṛṣṇa people are Kṛṣṇa conscious people. All people were originally Kṛṣṇa conscious and today also everyone is Kṛṣṇa conscious. Maya (the illusionary energy of the Lord) has covered or hidden our original Kṛṣṇa Consciousness.
Due to our association with matter for time immemorial we are all trying to be lords of the material nature where actually we are under the grip of her astringent laws. From time immemorial and no one knows since when, we have come into contact with this material world. We are all trying to be lords of material nature. We came here in this world and we came in contact with material nature.
Krsna bhuliya jiva bhoga vancha kare, pasate maya tare japatiya dhare”
Translation
It says” The moment a conditioned soul forgets Krishna and wants to do sense enjoyment , that moment maya or illusion hugs him”. (Prema – Vivarta)
Maya has completely taken hold of us. Here we are trying to become lord. It is the same as Kṛṣṇa has said.
idam adya mayā labdham
imaṁ prāpsye manoratham
idam astīdam api me
bhaviṣyati punar dhanam
asau mayā hataḥ śatrur
haniṣye cāparān api
īśvaro ’ham ahaṁ bhogī
siddho ’haṁ balavān sukhī
āḍhyo ’bhijanavān asmi
ko ’nyo ’sti sadṛśo mayā
yakṣye dāsyāmi modiṣya
ity ajñāna-vimohitāḥ
Translation
The demoniac person thinks: “So much wealth do I have today, and I will gain more according to my schemes. This much is mine now, and it will increase in the future, more and more. He is my enemy, and I have killed him, and my other enemies will also be killed. I am the lord of everything. I am the enjoyer. I am perfect, powerful and happy. I am the richest man, surrounded by aristocratic relatives. There is none so powerful and happy as I am. I shall perform sacrifices, I shall give some charity, and thus I shall rejoice.” In this way, such persons are deluded by ignorance. (BG 16.13-15)
Each living entity tries to become a boss. All of you were trying to be a boss and today also that effort is going on till we become pure and liberated and peaceful souls. One Lord is enough and we do not need any more. And it is fact …..
ekale īśvara kṛṣṇa, āra saba bhṛtya
yāre yaiche nācāya, se taiche kare nṛtya
Translation
Lord Kṛṣṇa alone is the supreme controller, and all others are His servants. They dance as He makes them do so. (CC Ādi 5.142)
Kṛṣṇa and his other manifestations are the only Lord and we are His servants. We should be satisfied with this position, but as Prabhupada said we are trying to be the Lord. Humanity as a whole are unitedly trying to be master of nature. The group of scientists and foolish people all are unitedly trying to be Lord. They are trying to become masters of nature and they are trying to control nature. While actually we are under the grip of her astringent laws. This is Srila Prabhupada’s realisation and experience. Kṛṣṇa has also said the same.
daivi hy esa guna-mayi
mama maya duratyaya
mam eva ye prapadyante
mayam etam taranti te
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG 7.14)
We cannot violate the laws made by maha maya. It is not possible. The Lord has made the rules and laws here which are very strict.
jātasya hi dhruvo mṛtyur
dhruvaṁ janma mṛtasya ca
tasmād aparihārye ’rthe
na tvaṁ śocitum arhasi
Translation
One who has taken his birth is sure to die, and after death one is sure to take birth again. Therefore, in the unavoidable discharge of your duty, you should not lament.(BG 2.24)
First rule.
You have taken birth, so you must die. Such rules are there. We are under the grip of maya. We are puppets in the hands of maya. Maya makes us do whatever she wants us to do.
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ
ahaṅkāra-vimūḍhātmā
kartāham iti manyate
Translation
The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature.
(BG 3.27)
The three modes of nature actuality carry out various activities from us. The main problem is that due to the false ego of a bewildered soul we assume that we are the doers. Krsna has called proud people vimudha or foolish. They think they are the doers of all activities. Actually the Lord is the only one who is the doer and He gets everything done by us.
mayadhyaksena prakrtih
suyate sa-caracaram
hetunanena kaunteya
jagad viparivartate
Translation
This material nature is working under My direction, O son of Kunti, and it is producing all moving and unmoving beings. By its rule this manifestation is created and annihilated again and again. (BG 9.10)
Srila Prabhupada further says,
Anyone can take part in the chanting without any previous qualification and dance in ecstasy.
Here in this picture you can see that any one can participate in chanting. Anyone can chant. Anyone can do kirtan or chant without any previous qualification. It is not mandatory to have any special qualities or any authority. Even animals can take part in this. Sri Caitanya Mahaprabhu made animals dance when He was in Jharkhand. Once He was going to Vrindavan through the forests of Jharkhand. Nothing was announced nor planned that Caitanya Mahaprabhu is coming and He will do Kirtan. Caitanya Mahaprabhu came to forest and immediately He started His kirtan. He always performs kirtan continuously. As He was doing kirtan He was joined by other animals of Jharkhand forest. All dangerous animals started dancing with Caitanya Mahaprabhu. In this way Caitanya Mahāprabhu has shown us that without any previous qualification anyone can take part in Kirtan. Prabhupada when went to western countries. The people there were living like animals.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṁ ca
sāmānyam etat paśubhir narāṇām
dharmo hi teṣām adhiko viśeṣo
dharmeṇa hīnāḥ paśubhiḥ samānāḥ
Translation
Eating, sleeping, sex, and defense—these four principles are common to both human beings and animals. The distinction between human life and animal life is that a man can search after God but an animal cannot. That is the difference. Therefore a man without that urge for searching after God is no better than an animal.
A person without knowledge of God is called a binomial : animal with two legs. Normally animals have four legs – chatushpad. Humans have only two legs so they are called dvipad or binomial. A person without dharma is like an animal. His life is like that of an animal. Srila Prabhupada made all such animals dance in kirtan in America, Africa and whenever he went. They did not have any previous qualification. Still Prabhupada made all of them dance in kirtan. There were young, old , children and all other types of people dancing in ecstasy. When a new person comes to a temple then Hare Krsna devotees give him chanting beads. As soon as he enters and sits down to relax, immediately, Hare Krsna devotees hand over chanting beads to him and instruct him to chant. The person begins chanting immediately. Everyone can chant and dance in ecstasy. Even if you don’t have full fledged ecstasy, still you can dance. This is a beginning. You can experience the joy and happiness in this. Everyone can chant and dance in ecstasy. As you can see there is a lady and there is an African lady also. Devotees from various countries are dancing together. Srila Bhaktivinod ThakurA has declared, ‘One such day will come’. 100 – 150 years ago Bhaktivinod Thakura predicted that devotees from America , England and other parts of the world will come to India. They will sing with local devotees
Jai Sachinandan! Jai Sachinandan!! Jai Sachinandan!!! Gaura Hari !!
It is exactly happening as Bhaktivinoda Thakur has predicted. All devotees including you, do not bother about the country of the other devotee when doing kirtan. No one remembers this. No one asks any questions like from which country are you? No one cares whether the devotee was Christian or Muslim, Communist or of a different political party. All devotees harmoniously enjoy the kirtan with a feeling of one family. All enjoy with each other like Krsna’s family members. We will not find such unity anywhere else.
sarvopādhi-vinirmuktaṁ
tat-paratvena nirmalam
hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa-
sevanaṁ bhaktir ucyate
Translation
Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and, simply by being employed in the service of the Lord, one’s senses are purified.’ (CC Madhya 19.170)
When a person renounces all designation he becomes pure. The soul is always pure. With this pure feeling everyone takes part in kirtan. We will not find such unity anywhere else.
Further Srila Prabhupada said
Chanting should be heard from the lips of the pure devotee of the Lord. So that immediately its effects can be achieved.
When you start chanting then you will be initiated. It should be heard from the lips of a pure devotee. They should be part of disciplic succession. When we hear harinama from such bhaktas, acaryas or spiritual masters then immediate effects can be achieved. The result or transformation of this can be immediately experienced.
Chanting from the lips of non devotee should be avoided, just as one will avoid milk touched by the lips of a serpent because it has a poisonous effect.
Chanting from the lips of a non devotee is like
kṛṣṇa-bhakta–niṣkāma, ataeva ‘śānta’
bhukti-mukti-siddhi-kāmī–sakali ‘aśānta’
Translation
Because a devotee of Lord Kṛṣṇa is desireless, he is peaceful. Fruitive workers desire material enjoyment, jñānīs desire liberation, and yogīs desire material opulence; therefore they are all lusty and cannot be peaceful. (CC Madhya 19.149)
Prabhupada has said that we should avoid hearing the maha-mantra or kirtan from those who have the desire for liberation, material opulence and material enjoyment. Mayavadi Kṛṣṇa aparadhi — they do not believe in Kṛṣṇa. They do not have faith in Krsna’s names. They are mukti kami or karma kandi dressed like sadhus. They are dressed in saffron cloth and have kamandalu in the hand. These are minor characteristics of sadhus and saintly persons. An important and major characteristic is the state of his consciousness? Is he Kṛṣṇa conscious or not? Has he surrendered to Kṛṣṇa or not ? Or
mahātmānas tu māṁ pārtha
daivīṁ prakṛtim āśritāḥ
bhajanty ananya-manaso
jñātvā bhūtādim avyayam
Translation
O son of Pṛthā, those who are not deluded, the great souls, are under the protection of the divine nature. They are fully engaged in devotional service because they know Me as the Supreme Personality of Godhead, original and inexhaustible. (BG 9.13)
Kṛṣṇa has defined a mahatma as a person who takes shelter of the divine nature. Who is the divine nature ? Radharani is divine nature. A mahatma will take shelter of Radharani or he will take shelter of those who have achieved Radharani’s bhava and who are part of the disciplic succession. We cannot go directly to Radharani for shelter.
tad viddhi praṇipātena
paripraśnena sevayā
upadekṣyanti te jñānaṁ
jñāninas tattva-darśina
Translation
Just try to learn the truth by approaching a spiritual master. Inquire from him submissively and render service unto him. The self-realized souls can impart knowledge unto you because they have seen the truth. (BG 4.34)
Sri Kṛṣṇa has said in Bhagavad Gita that one should approach a spiritual master and take shelter of him. He will inspire and teach how to surrender to Radharani. Otherwise he will give you knowledge of the maha-mantra.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Ram Hare Ram
Ram Ram Hare Hare
In this mantra, ‘Hare’ addresses Radharani. It is prayer to Radharani as he hare – mayA sah ramasva |O Hare! Please enjoy with me. ( from the commentary of Maha-mantra by Bhakti Vinod Thakure)
He Radharani! please make me eligible for doing Your service. Please tell me Your pastimes with Kṛṣṇa. This is the prayer of surrender to Radharani when we chant the Hare in the maha-mantra. Sravaya, Darsaya, please tell us and show us Your pastimes with Krsna. We should acquire the maha-mantra from such exalted devotees otherwise you will lose our devotional service.
jīvera nistāra lāgi’ sūtra kaila vyāsa
māyāvādi-bhāṣya śunile haya sarva-nāśa
Translation
Śrīla Vyāsadeva presented the Vedānta philosophy for the deliverance of conditioned souls, but if one hears the commentary of Śaṅkarācārya, everything is spoiled. (CC Madhya 6.169)
Those who are Mayavadi or who are trying to achieve siddhi, are siddha mahatmas. We should not call them mahatma. They are trying to get siddhi like anima , lagima. They are never able to chant pure and offenceless holy names. They do not have such faith and understanding and their disciplic succession is not like that.
Sampradaya-vihina ye mantras te nisphala matah
Translation
Any mantra that does not come in disciplic succession is considered to be fruitless.
If we learn or chant any mantra which is not authorised by the sampradaya (institution) then it is fruitless. Safal- vifal. Vifal means in vain. It is of no use then. You will not achieve Krsna prema which is the main objective of chanting.
kaivalyaṁ narakāyate tridaśa-pūr ākāśa-puṣpāyate
durdāntendriya-kāla-sarpa-paṭalīṁ protkhāṭa-daṁṣṭrāyate
viśvam pūrṇa-sukhāyate vidhi-mahendrādiś ca kīṭāyate
yat-kāruṇya-kaṭākṣa-vaibhavavatāṁ taṁ gauram eva stumaḥ
Translation
To one who has received the power of Gaura’s merciful glance, liberation appears like hell, the heavenly worlds like so many pies in the sky; the unconquerable senses become like snakes with the fangs removed, the universe is filled with joy everywhere, while gods like Vidhi and Mahendra are seen as of no more significance than insects. I praise Gauranga Mahaprabhu. (Caitanya-candrāmṛta 95)
It is the opinion of Vaisnavas that attaining Kaivalya Mukti , Niranjan or nirakar is worse than hell. Kaivalya Mukti is worse. They are trying for liberation or salvation. The super most glorious thing is to attain Kṛṣṇa prema. We should take the maha-mantra from those who have such understanding that Kṛṣṇa prema is a supreme glorious thing. The various other parties are of different successions or they are speculated. Prabhupada is warning us that this should be avoided. Be aware!
The statement further has many more things that Prabhupada has sung. Prabhupada has explained the do’s and don’ts of chanting the pure names of the Lord. Much more is there. Today we will stop here and tomorrow we will continue. Prabhupada has said many interesting quotes further. You will hear it in the next session. Thank you.
Hare Krishna
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 25 января 2021 г.
ЦЕЛЬ ЭТОЙ ЖИЗНИ – ОБРЕСТИ КРИШНА-ПРЕМУ
Харе Кришна всем! Сегодня с нами воспевают преданные из 747 мест. Иногда это 777. Сегодня у нас 747.
Гаура Премананде Хари Харибол! Вы продолжаете воспевать. Вы воспеваете? Я вижу, что вы воспеваете. Сегодня у нас не может быть полноценной лекции.
Повторение Харе Кришна – прекрасный метод возрождения нашего трансцендентного сознания.
Это особая речь Шрилы Прабхупады. Прабхупада специально это записал. Эта речь очень популярна в ИСККОН. Вы все являетесь последователями ИСККОН, но я не знаю, дошла ли до вас эта популярная речь или нет? Но сегодня мы сообщим вам. Эта речь известна как «Прабхупада Вани». Она должна вдохновлять и мотивировать всех нас. Это должно вдохновить вас на воспевание маха-мантры. В этой речи Шрила Прабхупада удивительным и чудесным образом прославил Святое имя. Вы ищете запись и слушаете ее. Она доступна на английском языке, возможно, Прабхупада сделал это и на хинди.
Мы все джапа-йоги. Не так ли? Только джапа-йоги известны как бхакти-йоги. В Кали-югу мы можем совершать бхакти только воспеванием.
ира̄м асмй экам акшарам
йаджн̃а̄на̄м̇ джапа-йаджн̃о ’сми
стха̄вара̄н̣а̄м̇ хима̄лайах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из великих мудрецов Я Бхригу, а среди звуков Я трансцендентный звук ом. Из жертвоприношений Я повторение святых имен [джапа], а из недвижимого — Гималайские горы.
(Б.Г. 10.25)
В «Бхагавад-гите» Господь сказал, что среди всех жертвоприношений Я – воспевание маха-мантры. Жертвоприношения в виде воспевания – лучшее жертвоприношение. Мы можем назвать это воспеванием или жертвоприношением – киртаном, которое рекомендуется для Кали-юги. Шрила Прабхупада сказал в этой речи:
Воспевание маха-мантры Харе Кришна – прекрасный метод возрождения нашего трансцендентного сознания.
Наше трансцендентное сознание или наши чувства изначально трансцендентные, божественные и неземные. Как наше изначальное сознание возрождается, реализуется или отображается? Это возможно, повторяя маха-мантру Харе Кришна. Это возвышенный метод. Повторяя маха-мантру Харе Кришна, произнося маха-мантру Харе Кришна или слушая и проводя киртан маха-мантры, можно оживить наше трансцендентное сознание. Я надеюсь, вы слышали и понимали, что сознание – это главная характеристика живого существа. Живое существо известно по своему сознанию, чувствам, эмоциям. Живое существо определяется сознанием или сознанием Кришны. Иногда оно загрязнено или затуманено, но это сознание всегда остается. Это сознание – отождествление живых существ. Это наше изначальное сознание Кришны. Воспеванием мантры Харе Кришна оно возрождается.
чето-дарпан̣а-ма̄рджанам̇ бхава-маха̄-да̄ва̄гни-нирва̄пан̣ам̇
ш́рейах̣-каирава-чандрика̄-витаран̣ам̇ видйа̄-вадхӯ-джӣванам
а̄нанда̄мбудхи-вардханам̇ прати-падам̇ пӯрн̣а̄мр̣та̄сва̄данам̇
сарва̄тма-снапанам̇ парам̇ виджайате ш́рӣ-кр̣шн̣а-сан̇кӣртанам
Перевод Шрилы Прабхупады:
„Да славится всепобеждающее пение святого имени Господа Кришны, которое способно очистить зеркало сердца и потушить пылающий пожар материального существования! Пение святого имени подобно прибывающей луне, которая побуждает распуститься белую лилию удачи для всех живых существ. В нем жизнь всего знания. Повторение святого имени Кришны углубляет океан духовного блаженства. Оно несет живительную прохладу всем и позволяет вкушать нектар бессмертия на каждом шагу“.
(Ч.Ч. Антйа лила 20.12. 1-й стих, Шри Шикшаштака)
Наш ум также называют зеркалом сознания. Маха-мантра – это Кришна, или Кришна, сияющий, как солнце. Наше сознание заполнено оскверненным хламом, грязью. Сознание очищается святым именем или Кришной.
кр̣шн̣а — сӯрйа-сама; ма̄йа̄ хайа андхака̄ра
йа̄ха̄н̇ кр̣шн̣а, та̄ха̄н̇ на̄хи ма̄йа̄ра адхика̄ра
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Кришна сравнивается с солнечным светом, а майя — с тьмой. Там, где светит солнце, нет тьмы. Как только человек обращается к сознанию Кришны, тьма иллюзии (влияние внешней энергии) мгновенно рассеивается».
(Ч.Ч. Мадхья-лила 22.31)
Соответственно, пройдя через этот процесс, мы снова становимся преданными. Это наше изначальное сознание. На этой картинке мы можем увидеть изначальное сознание между Кришной и преданным. Шри Кришна находится на Вайкунтхе или Голока Дхаме. Это изначальное сознание. Далее Прабхупада сказал:
“Все мы, живые духовные души, изначально обладаем сознанием Кришны”.
Мы живые души. Душа – единственное живое существо. Все остальное мертво. Душа живая. В форме этой души мы все являемся существами в сознании Кришны. Люди Харе Кришна – это люди, обладающие сознанием Кришны. Изначально все люди были в сознании Кришны, и сегодня все также обладают сознанием Кришны. Майя (иллюзорная энергия Господа) покрыла или спрятала наше изначальное Сознание Кришны.
Из-за нашей связи с материей с незапамятных времен мы все пытаемся быть владыками материальной природы, в которой на самом деле мы находимся под властью ее вяжущих законов. С незапамятных времен и никто не знает, с каких пор мы вступили в контакт с этим материальным миром. Мы все пытаемся быть владыками материальной природы. Мы пришли сюда, в этот мир, и соприкоснулись с материальной природой.
кр̣ш̣н̣а-бахирмукха хан̃а̄ бхога-ва̄н̃чха̄ каре
никат̣а-стха ма̄йа̄ та̄ре джа̄пат̣ийа̄ дхаре
Перевод:
Как только у живого существа возникает желание наслаждаться материальной природой отдельно от Кришны, оно тут же становится жертвой майи, материальной энергии».
(«Шри Према-виварта», 6.2)
Майя полностью завладела нами. Здесь мы пытаемся стать господином. Это то же самое, что сказал Кришна.
идам адйа майа̄ лабдхам
имам̇ пра̄псйе маноратхам
идам астӣдам апи ме
бхавишйати пунар дханам
асау майа̄ хатах̣ ш́атрур
ханишйе ча̄пара̄н апи
ӣш́варо ’хам ахам̇ бхогӣ
сиддхо ’хам̇ балава̄н сукхӣ
а̄д̣хйо ’бхиджанава̄н асми
ко ’нйо ’сти садр̣ш́о майа̄
йакшйе да̄сйа̄ми модишйа
итй аджн̃а̄на-вимохита̄х̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Сегодня, — думает демонический человек, — я получил хорошую прибыль, когда же мои планы осуществятся, я получу еще больше. Сейчас я владею неплохим состоянием, и оно будет только расти. Этого моего врага я убил, и та же участь ожидает остальных. Я хозяин всего. Я наслаждаюсь жизнью. Я достиг совершенства, обрел могущество и счастье. Я богаче всех, и меня окружают знатные родственники. В мире нет никого могущественнее и счастливее меня. Я буду совершать жертвоприношения, заниматься кое-какой благотворительностью и радоваться жизни». Так эти люди становятся жертвами собственного невежества.
(Б.Г. 16.13-15)
Каждое живое существо пытается стать начальником. Все вы пытались быть боссом, и сегодня это усилие продолжается, пока мы не станем чистыми, освобожденными и смиренными душами. Одного Господа достаточно, и нам больше не нужно. И это факт…
экале ӣш́вара кр̣шн̣а, а̄ра саба бхр̣тйа
йа̄ре йаичхе на̄ча̄йа, се таичхе каре нр̣тйа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Господь Кришна — единственный верховный повелитель, а все остальные — Его слуги. Все танцуют, подчиняясь Его воле.
(Ч.Ч. Ади 5.142)
Кришна и другие его проявления – единственный Господь, а мы – Его слуги. Мы должны быть удовлетворены этим положением, но, как сказал Прабхупада, мы пытаемся быть Господом. Человечество в целом дружно пытается овладеть природой. Группа ученых и глупые люди все вместе пытаются быть Господом. Они пытаются стать хозяевами природы и пытаются контролировать природу. Хотя на самом деле мы находимся под властью ее строгих законов. Это осознание и опыт Шрилы Прабхупады. Кришна сказал то же самое.
даивӣ хй эша̄ гун̣а-майӣ
мама ма̄йа̄ дуратйайа̄
ма̄м эва йе прападйанте
ма̄йа̄м эта̄м̇ таранти те
Перевод Шрилы Прабхупады:
Преодолеть влияние Моей божественной энергии, состоящей из трех гун материальной природы, невероятно трудно. Но тот, кто предался Мне, с легкостью выходит из-под ее власти.
(Б.Г. 7.14)
Мы не можем нарушать законы, установленные маха-майей. Это невозможно. Господь установил здесь очень строгие правила и законы.
джа̄тасйа хи дхруво мр̣тйур
дхрувам̇ джанма мр̣тасйа ча
тасма̄д апариха̄рйе ’ртхе
на твам̇ ш́очитум архаси
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто родился, непременно умрет, а после смерти снова появится на свет. Это неизбежно, поэтому, исполняя свой долг, ты не должен предаваться скорби.
(Б.Г. 2.27)
Первое правило. Вы родились, значит, вы должны умереть. Такие правила есть. Мы находимся во власти майи. Мы марионетки в руках майи. Майя заставляет нас делать то, что она хочет от нас.
пракр̣тех̣ крийама̄н̣а̄ни
гун̣аих̣ карма̄н̣и сарваш́ах̣
ахан̇ка̄ра-вимӯд̣ха̄тма̄
карта̄хам ити манйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Введенная в заблуждение ложным эго, душа считает себя совершающей действия, которые на самом деле совершаются тремя гунами материальной природы.
(Б.Г. 3.27)
Три гуны природы действительно осуществляют с помощью нас различные действия. Основная проблема в том, что из-за ложного эго сбитой с толку души, мы считаем себя деятелями. Кришна назвал гордых людей вимудхами или глупцами. Они думают, что они совершают все действия. На самом деле Господь – единственный действующий, и Он делает все при помощи нас.
майа̄дхйакшен̣а пракр̣тих̣
сӯйате са-чара̄чарам
хетуна̄нена каунтейа
джагад випаривартате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Будучи одной из Моих энергий, о сын Кунти, материальная природа действует под Моим надзором, производя на свет все движущиеся и неподвижные существа. Под ее началом мироздание снова и снова возникает и уничтожается.
(Б.Г. 9.10)
Шрила Прабхупада далее говорит:
“Любой может принять участие в воспевании без какой-либо предварительной подготовки и танцевать в экстазе”.
Здесь, на этой картинке, вы можете видеть, что в воспевании может участвовать каждый. Кто угодно может воспевать. Любой может проводить киртан или воспевать без какой-либо предварительной подготовки. Необязательно иметь какие-то особые качества или авторитет. В этом могут участвовать даже животные. Шри Чайтанья Махапрабху вдохновлял животных танцевать, когда был в Джаркханде. Однажды Он шел во Вриндаван через лес Джаркханда. Ничего не было объявлено и не запланировано, что Чайтанья Махапрабху придет и проведет киртан. Чайтанья Махапрабху пришел в лес и сразу начал свой киртан. Он всегда проводит киртан непрерывно. Когда Он проводил киртан, к нему присоединились различные животные леса Джаркханд. Все опасные животные начали танцевать с Чайтаньей Махапрабху. Таким образом Чайтанья Махапрабху показал нам, что любой человек может принять участие в киртане без каких-либо предварительных требований. Прабхупада, когда уехал в западные страны. Люди там жили как животные.
ахара-нидра-бхайа-маитхунах ча
саманйам этат пашубхир наранам
дхармо хи тешам адхико вишешо
дхармена хинам пашубхих саманах
Перевод:
Такие виды деятельности, как еда, сон, совокупление и оборона, присущи как животным, так и людям. Человек считается выше животного только тогда, когда он вопрошает об Абсолютной Истине, в противном случае он ничем от животного не отличается.
(Хитопадеша – сборник историй на санскрите в прозе и стихах)
Человека, не знающего Бога, называют биномом: животное с двумя ногами. Обычно у животных четыре ноги – чатушпад. У людей всего две ноги, поэтому их называют двипад или биномиальные. Человек без дхармы подобен животному. Его жизнь похожа на жизнь животного. Шрила Прабхупада вдохновлял всех таких животных танцевать во время киртана в Америке, Африке и везде, где бы он ни был. У них не было предварительной квалификации. Тем не менее Прабхупада вдохновлял их танцевать киртан. Молодые, старые, дети и все остальные люди танцевали в экстазе. Когда новый человек приходит в храм, преданные Харе Кришна дают ему чётки для воспевания. Как только он входит и садится, чтобы расслабиться, преданные Харе Кришна сразу же передают ему чётки и наставляют его повторять. Человек сразу начинает воспевать. Каждый может воспевать и танцевать в экстазе. Даже если у вас нет полноценного экстаза, вы все равно можете танцевать. Это начало. Вы можете чувствовать в этом радость и счастье. Каждый может воспевать и танцевать в экстазе. Как видите, есть дама, а также дама-африканка. Преданные из разных стран танцуют вместе. Шрила Бхактивинод Тхакур провозгласил: «Однажды такой день наступит». 100 – 150 лет назад Бхактивинод Тхакур предсказал, что преданные из Америки, Англии и других частей света приедут в Индию. Они будут воспевать с местными преданными
Джай Шачинандана!! Джай Шачинандана!! Джай Шачинандана!! Гаура Хари!!
Это происходит в точности, как предсказывал Бхактивинода Тхакур. Все преданные, включая вас, не беспокоятся о стране другого преданного во время киртана. Об этом никто не помнит. Никто не задает вопросов типа из какой вы страны? Никого не волнует, был ли преданный христианином или мусульманином, коммунистом или членом другой политической партии. Все преданные гармонично наслаждаются киртаном, чувствуя себя одной семьей. Все наслаждаются друг другом, как члены семьи Кришны. Такого единства мы больше нигде не найдем.
сарвопа̄дхи-винирмуктам̇
тат-паратвена нирмалам
хр̣шӣкен̣а хр̣шӣкеш́а
севанам̇ бхактир учйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
„Идти путем бхакти, преданного служения, — значит занять все свои чувства служением Верховной Личности Бога, повелителю чувств. Служа Всевышнему, душа, помимо главного плода, обретает два второстепенных: она избавляется от всех материальных самоотождествлений и ее чувства, занятые служением Богу, очищаются“.
(Ч.Ч. Мадхья 19.170)
Когда человек отказывается от всех привязанностей, он становится чистым. Душа всегда чиста. С этим чистым чувством каждый принимает участие в киртане. Такого единства мы больше нигде не найдем.
Далее Шрила Прабхупада сказал:
“Воспевание следует слушать из уст чистого преданного Господа. Так что эффект может быть достигнут немедленно”.
Когда вы начнете воспевать, вы получите посвящение. Это следует слушать из уст чистого преданного. Они должны быть частью ученической преемственности. Когда мы слышим харинаму от таких бхакт, ачарьев или духовных учителей, можно сразу же добиться результатов. Результат или трансформация этого можно сразу почувствовать.
Следует избегать слушать воспевание из уст непреданных, так же как избегают прикосновения к молоку губами змеи, потому что оно имеет ядовитый эффект.
Воспевание из уст непреданного – это как
кр̣шн̣а-бхакта — нишка̄ма, атаэва ‘ш́а̄нта’
бхукти-мукти-сиддхи-ка̄мӣ — сакали ‘аш́а̄нта’
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Поскольку преданный Кришны свободен от всех желаний, он умиротворен. В отличие от него, карми одержимы желанием материальных удовольствий, гьяни стремятся к освобождению, а йоги — к материальным достижениям. Все они обуреваемы материальными желаниями и потому не способны обрести умиротворение».
(Ч.Ч. Мадхья 19.149)
Прабхупада сказал, что нам следует избегать слушания маха-мантры или киртана от тех, кто стремится к освобождению, материальному богатству и материальным наслаждениям. Майавади Кришна апарадхи – они не верят в Кришну. Они не верят именам Кришны. Это мукти ками или карма канди, одетые как садху. Они одеты в шафрановую одежду, а в руках у них камандалу. Это второстепенные характеристики садху и святых людей. Важной и главной характеристикой является состояние его сознания? Сознает он Кришну или нет? Предался он Кришне или нет? Или
маха̄тма̄нас ту ма̄м̇ па̄ртха
даивӣм̇ пракр̣тим а̄ш́рита̄х̣
бхаджантй ананйа-манасо
джн̃а̄тва̄ бхӯта̄дим авйайам
Перевод Шрилы Прабхупады:
О сын Притхи, те же, кто свободны от заблуждений, великие души, находятся под покровительством божественной природы. Они служат Мне с любовью и преданностью, ибо знают, что Я Верховная Личность Бога, изначальная и неистощимая.
(Б.Г. 9.13)
Кришна определил махатму как человека, который принимает прибежище у божественной природы. Кто такая божественная природа? Радхарани – божественная природа. Махатма примет прибежище у Радхарани или у тех, кто достиг бхавы Радхарани и является частью ученической
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण।
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
24 जनवरी 2021
एकादशी श्रवण कीर्तन उत्सव! बहुत सारे भक्त और लीडर्स इसमें सम्मिलित हो रहे है। जपा टॉक के बारे में वह चर्चा करेंगे और उसके बाद वह कीर्तन करेंगे इसमें तीन घटक होंगे जपा टॉक, श्रवण और कीर्तन कोई बस जपा टॉक करेगा, कोई बस कीर्तन करेगा। इसमें 30 मिनट का एक भाग है और यह जितना ज्यादा हो सके उतना चलता रहेगा। हर एक एकादशी को यह चलता रहेगा और उसका उद्घाटन समारंभ आज है। एकादशी श्रवण कीर्तन उत्सव! आप सब समझ रहे हो ना? हम यह जब और जपा टॉप 2 सालों से कर रहे है, हर दिन की ब्रह्म मुहूर्त पर। मैं कभी-कभी इंग्लिश में जपा टॉक देता था और वह हिंदी में ट्रांसलेट हो जाता था। लेकिन मैं बहुत बार हिंदी में ही जपा टॉक देता हूं। लेकिन आज इंग्लिश में दे रहा हूं, ताकि सबको उसका फायदा हो। और अंग्रेजी हमारी इंटरनेशनल भाषा भी है। तो हम अंग्रेजी में बोलेंगे! स्वरूप मंजरी आप इंग्लिश जानती हो ना? ठीक है। तो अब रामलीला का क्या होगा!
उसके लिए भी अंग्रेजी से हिंदी में ट्रांसलेशन चैट सेशन में चल रहा है। तो ने जब जपा टॉक देता हूं तो जागरूक रहिए! श्रवन हमेशा जागरूक रहना चाहिए। जब आप हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का श्रवण करते हो, या फिर हरि कथा का श्रवण करते हो तो इन दोनों के लिए आप को जागरूक रेहके उसका श्रवण करना चाहिए! जागरूक होकर श्रवन होना चाहिए। जीव जागो! यह एक जपा टॉक का भाग है। आज मैंने यह निर्धारित किया है कि, जीव जागो जीव जागो वैष्णव भजन पर हम चर्चा करेंगे, उसका कीर्तन करके उसको समझने की कोशिश करेंगे। कृपया सुनिए यह भजन भक्ति विनोद ठाकुर, जो हरिनाम चिंतामणि के लेखक है और वे आदर्श हरिनाम के गवाय्या थे। और यह जीव जागो वैष्णव भजन भी उन्होंने लिखा है। और हमें इस भजन का गुह्य अर्थ समझने की कोशिश करनी चाहिए! यह हमे जागरूक रहकर हरि नाम का जप करने में मदत करेगा। और जीव जागो जैसे भजन का श्रवण करने से कोमल श्रद्धा जरूर दृढ़ श्रद्धा में बदल जाएगी! तो यह भजन क्या कहता है? जीव जागो! इसका अर्थ है कि, सोई हुई आत्माओ उठो! जीव जागो! यहां पर ऐसा नहीं कहा कि, सोए हुए शरीरों उठो! यहां पर कहां है, सोई हुई आत्मा उठो! हरि हरि। हम हाथ में पेन लेकर बैठे है, लेकिन हमारी आत्मा अभी तक सोई हुई है। आत्मा यह है कि, जो भगवान के लिए हमेशा जागरूक रहती है। आत्मा कभी भागती नहीं है। और आत्मा को सुनने के लिए जगे रहने की जरूरत नहीं है। ऐसा कई बार होता है कि, हम हरि कथा में बैठे हुए होते है और हमारा शरीर तो जगह रहता है लेकिन आत्मा सोई हुई ही रहती है। तो भक्तिविनोद ठाकुर ने जो कुछ भी कहा है उसको जागरूक होकर सुनिए, पढ़िए!
जीव जागो, जीव जागो, गौराचांद बोले! भक्तिविनोद ठाकुर कह रहे है कि, गौरचंद्र बोल रहे है गौरचंद्र आपको बुला रहे है! और हमें यह भी समझना चाहिए कि, गौरचंद्र हमें बोल रहे है कि, जीव जागो! जीव जागो! कौन बोल रहे है? ऐसा गौरचंद या गौरांग बोल रहे है।
कोत निद्रा याओ माया-पिशाचीर कोले तो और कितने समय तक आप माया में सोते रहोगे? कृपया जाग जाओ! विशेषतः सब शरीर सोते है जैसे खिलौने सोते है वैसे ही आप सोए हो। आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह जानवर और मनुष्य के बीच में सामान्य बातें है। सामान्य बातें है! जैसे हम सोते है, वैसे ही पंछी भी सोते है। हर कोई सोता है। लेकिन अब, तुम आत्मा! तुम्हें इस शरीर के रूप में सबसे अनमोल तोहफा मिला है। तो उत्तिष्ठत जागृत जैसे हमारे शास्त्र कहते है कि, उत्तिष्ठत जाग्रत वरान्निबोधत तो इसीलिए है आत्मा जाग जाओ! और फिर भक्तिविनोद ठाकुर कहते है,
भजिबो बोलिया एसे संसारभितोरे।
भुलिया रोहिले सुमि अविद्यार भोरे।।
तुम्हें पता नहीं है? कि कृष्ण और गौरांग को सब कुछ पता है, वे तुम्हारे ऊपर ध्यान रखते है। हर एक जीव पर उनका ध्यान है, यह तुम्हें पता नहीं है? तुम्हें याद नहीं है कि, जब तुम मां के गर्भ में थे और तुम पीड़ा सेह रहे थे और उसी समय तुमने मुझे आग्रह किया था, प्रार्थना कि थी। सभी को पता ही है श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कंध में यह चर्चा है। विशेष कर मनुष्य योनि में, जब शिशु गर्भ के अंदर होता है तब वह भगवान से प्रार्थना करता है कि, हे भगवान कृपा करके मुझे यहां से बाहर निकालिए और जैसे ही मैं यहां से बाहर आऊंगा तो मैं क्या करूंगा? मैं आप आपको शरण आऊंगा, मैं आपकी भक्ति करूंगा, मैं आपकी पूजा करूंगा, मैं आपके नाम का कीर्तन करूंगा, मैं हरे कृष्ण महामंत्र का जप करूंगा! मुझे पता है हर युग के अनुसार एक एक धर्म होता है और कलयुग के अनुसार हरि नाम यह धर्म है। और ऐसे ही वह शिशु या आत्मा भगवान से याचना करता है। तो गौरांग हर एक जीव से बोल रहे है कि, तुमने मुझे वचन दिया था कि तुम मेरे नाम का जप करोगे लेकिन यह तो तुम वह भूल गए! भुलिया रोहिले सुमि अविद्यार भोरे।। लेकिन जब तुम्हारा जन्म हुआ मां, ममता और अहंकार ने तुम्हें घेर लिया और अब तुम पूरे तमोगुण में जाकर तुम्हारा जीवन जी रहे हो। तुम विद्यालय में जाते हो, लेकिन वहां के शिक्षक जैसे शंढ और अमर्क असुरों के समर्थक है।
और वे तुम्हें विद्या नहीं अविद्या प्रदान कर रहे है। वह तुम्हें शुद्ध तम गुण का ज्ञान दे रहे है। वे बस तुम्हें स्थूल चीजों का ज्ञान दे रहे है, आत्मा का ज्ञान नहीं दे रहे। और इसके परिणाम वश तुम वह सब भूल गए हो और शुद्ध तमोगुण में चले गए हो। तमसो मा ज्योतिर्गमय! अब में यहां पर तुम्हें उसी का स्मरण दिलाने आया हूं, इस चमक से बाहर निकलो, अंधेरे से प्रकाश में आ जाओ! तुम्हारे दिए हुए वचन को पूरा करो! हरे कृष्ण का जप करो! भगवान यह हर एक जीव से कह रहे है। और हमें समझना चाहिए कि, वह जीव कौन है? वह जीव में हूं! हम सब जीव है। बराबर है ना? और भगवान हमें ही यह समझा रहे है। तो कृपा करके यह बात समझो!
तोमारे लोइते आमि होइनु अवतार।
आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार?
तो अब आगे भगवान बोल रहे है कि, केवल तुम्हारे लिए मैंने यह अवतार लिया है। गौरांग! गौरांग! गौरांग! यह अवतार बस मैंने तुम्हारे लिए लिया है। मैंने गोलोक का त्याग किया है, वहां के सारे आनंद का त्याग किया है, और मैं इस भौतिक जगत में आया हूं। किस लिए? तोमारे लोइते आमि होइनु अवतार। केवल तुम्हारे लिए! तुम्हें यहां से बाहर निकालने के लिए! और तुम्हारे घर लेकर जाने के लिए। आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार? तो सोच लो मेरे अलावा तुम्हारा कोई और दोस्त है? केवल मैं तुम्हारा मित्र हूं। मैंने अर्जुन को कहा था।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || २९ ||
(श्रीमद्भगवद्गीता 5.29)
तात्पर्य-
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है |
जो मुझे जानते हैं मैं सभी जीवात्माओं का मित्र हूं और मैं तुम्हारी ह्रदय में वास करता हूं। असली मित्र वही है जो जरुरत के समय आपके साथ हो। मैं तुम्हारी मदद के लिए यहां पर हूं। मैं इस बात को साबित करना चाहता हूं कि मैं तुम्हारा असली मित्र हूं। इसलिए तुम जागो और जप करो हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
एनॆछि औषधि माया नाशिबारॊ लागि हरि-नाम महा-मंत्र लओ तुमि मागि
चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। क्या कह रहे हैं?
जीव जागो जीव जागो गौरचांद बोले
मैं तुम्हारी समस्या जानता हूं और मैं यह भी जानता हूं कि तुम भवरोगी,कामरोगी हो। आप में से कुछ करोना रोगी रह चुके हो। अब आप सोच रहे होंगे कि टीका आ गया है तो चिंता करने की बात नहीं है। परंतु आपको यह बात याद नहीं होगी कि यह शरीर रोग से ग्रस्त होता है। शरीर रूपी मंदिर में रोग एक मूर्ति है। हरि हरि। मेरे पास आपके लिए दवाई है। मैं यह जानता हूं कि आप बीमार हैं। यह दवाई रामबाण उपाय है। रामबाण कभी व्यर्थ नहीं जाता। यह हमेशा लक्ष्य को भेदता है। मेरा इलाज शत प्रतिशत काम करता है। वह इलाज क्या है?
हरि-नाम महामंत्र लओ तुमि मागि
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यही दवाई है। भगवान जीव को प्रभु नहीं बुलाते हैं क्योंकि वह स्वयं महाप्रभु है।
कुरुक्षेत्र में अर्जुन भगवान को आदेश देते हैं कि वह रथ को युद्ध स्थल के मध्य में ले जाए। अर्जुन प्रभु की भूमिका निभा रहे हैं। हे प्रभु, कृपया करके आप इस दवाई को लीजिए। इस अमृत रूपी दवाई को ग्रहण कीजिए। हरि हरि।
भकति विनोद प्रभु-चरणे पडिया सॆइ हरिनाम मंत्र लोइलो मागिया
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इस गीत का निष्कर्ष निकाल रहे हैं। उन्होंने जीवात्मा और भगवान के बीच की वार्तालाप को सुना है। भगवान ने प्रस्ताव रखा है कृपया करके हरे कृष्ण महामंत्र का जप करे। जैसे ही श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने सुना कि भगवान के पास दवाई है तो उन्होंने कहा मैं यह दवाई लेना चाहता हूं। कृपया मुझे यह दवाई प्रदान कीजिए। मैं आपसे भीख मांगता हूं मैं यह दवाई सबसे पहले अपने पर इस्तेमाल करना चाहता हूं। भकति विनोद प्रभु-चरणे पडिया हे प्रभु मैं आपके चरणो में शरण लेता हूं। सॆइ हरिनाम मंत्र लोइलो मागिया हरिनाम लो हरिनाम लो। जिस विषय में तुम पूछ कह रहे थे तुम्हें सिर्फ हरि का नाम लेना है। मैं इस हरिनाम का सदुपयोग करना चाहता हूं। एक साधारण आत्मा शुद्ध हरिनाम लेने से महात्मा और भक्त बन जाता है। भगवान का नाम लेते समय हमें सचेत रहना चाहिए। यदि आप सचेत नहीं रहोगे तब आप अपराधी कहलाओगे। सभी अपराधों का कारण असावधानी है। हमें ध्यान पूर्वक सुनते हुए जप करना चाहिए। भगवान हम सबको संबोधित करते हुए कह रहे हैं हमें केवल उनको सुनना है। हमने जो भगवान से वादा किया था भगवान वह हमको स्मरण करवा रहे हैं। श्रील प्रभुपाद हमें स्मरण करवा रहे हैं। हमें श्रील प्रभुपाद और पूर्व आचार्यों को सुनना चाहिए। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर, श्ठ गोस्वामी, भगवान गौरांग के पार्षद क्या करते हैं? कीर्तनिय सदा हरि यही कार्य करते हैं। 6 वर्षों तक गौरांग ने पूरे भारतवर्ष यात्रा की।
राधा भाव गौरांग प्रकट हुए। उन्होंने भगवान के नाम का गुणगान किया, नृत्य किया पूरे भारत में। उस समय वह कहते थे जीव जागो जीव जागो। डरो मत मेरे निकट आओ। उन्होंने शेर और जंगली जानवरों को हरिनाम पर नृत्य कराया। यदि जंगली जानवर हरिनाम का जप और नृत्य कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं कर सकते? हम सभी को जप करना चाहिए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हमें तुलसी माला पर जप करना चाहिए और कम से कम 16 माला करनी चाहिए। एकादशी पर ज्यादा जप करना चाहिए। यह एक तरीका है। दूसरा तरीका है कीर्तन महाप्रभु कीर्तन नृत्य गीत वादित्र माद्यान मनसो रसेन। संगीत उपकरण जैसे मृदंगा, करताल, हम जप करते हैं और नाचते है। जप स्वयं के लिए होता है। परोपकार घर से आरम्भ होता है। जप इतना जोर से होना चाहिए कि हम स्वयं उसको सुन सके। हम जप करते हुए कीर्तन या नगर कीर्तन भी कर सकते हैं।
भगवान हमसे प्रसन्न होते हैं जब हम कीर्तन करते हैं। इसका हजारों गुना लाभ पहुंचता है। एकादशी श्रवण कीर्तन उत्सव में मैंने आपके साथ जप करा और फिर जपा टॉप हुआ। अब हम 20 मिनट के लिए कीर्तन करेंगे। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
24 January 2021
Remember the promise you made to the Lord
Hare Krishna dear chanters of the holy name. We did Japa for about half an hour. ISKCON Kirtan Ministry wishes to conduct such a program on every Ekadasi. It is called the Ekadasi Sravanam Kirtanam Utsava. Many devotees and leaders will participate in chanting Japa with you, delivering a Japa talk and then they will do kirtana with you. Many of them will do all three items – Japa, talk and kirtana. Some will do just Japa, some will do Japa and Japa talk, and some will just do kirtana. It’s up to them. We have 30 minutes slots. This will go on as long as possible on Ekadasis.
We are inaugurating this Ekadasi Sravanam Kirtanam Utsava today on this Putrada Ekadasi day. I have been doing this Japa and Japa talk for 2 years now during the early morning hours. I was doing the talk in English and sometimes it was translated into Hindi. Then I was mostly speaking in Hindi only. Somehow ISKCON’s international language has become English. I wish it could be Sanskrit. We will be talking in English today. Those who do not understand English can follow the Hindi translation in the chat. Be attentive as I talk. The hearing has to be attentive…..
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Bothe Hari katha and Harinama have to be heard attentively – attentive chanting, attentive hearing. Jiv Jago! As part of this Japa Talk I have decided to share a song jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole. We will not sing the song. We will try to understand the song so please listen. Bhaktivinoda Thakur who is the compiler of Harinama Cintamani was an ideal chanter. He has sung and compiled this song, Jiv Jago. If we can understand the deeper meaning of his song, it will further help and convince us about attentive chanting. Our komal sraddha will become driid sraddha.
Jiv Jago Jiv Jago. Jiv Jago means wake up sleeping souls. The very word has significance. It doesn’t say wake up sleeping bodies, it says wake up sleeping souls. The soul keeps on sleeping. We get up from the bed. We open our eyes, but still the soul could remain sleepy. The soul is not paying attention to the Lord. The soul is not running for sringar darshan in the temple. The soul is not hearing or saying that I want to hear some Harikatha or some Harinama. It happens often that the body wakes up and the soul is still sleeping, in complete darkness. Listen carefully to what Bhaktivinoda Thakura is singing and writing, jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole. Bhaktivinoda Thakura is saying that gauracānda is calling, gauracānda bole. Gauracānda is calling, addressing jīv jāgo, jīv jāgo. Who is saying this? Gauracānd is saying – wake up sleeping souls.
jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole
kota nidrā jāo māyā-piśācīra kole.
Translation
Lord Gauranga is calling, “Wake up, sleeping souls! Wake up, sleeping souls! How long will you sleep in the lap of the witch called Maya.[Jiv Jago Jiv Jago Verse 1]
Bhaktivinoda Thakura is saying that gauracānda is calling, gauracānda bole. Gauracānda is calling, saying jīv jāgo, jīv jāgo. Oh, sleeping soul, wakeup…
kota nidrā jāo māyā-piśācīra kole
Wakeup or else you will be sleeping in the lap of a witch, Maya. Please get up especially when the body is sleeping. It means that dogs also sleep, everybody sleeps – eating, sleeping, mating, and defending.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṃ cha
samānam_etat_pashubhir_narāṇām |
dharmo hi teṣhāmadhiko visheṣho
dharmeṇa hīnāḥ pashubhiḥ samānāḥ
Translation
Eating, Sleep, Fear and Sex; these habits are common between human beings and animals. It is Dharma which is the special quality of human beings. Without the Dharma, they are similar to the animals. [Hitopadesh Verse 0.25]
Eating, sleeping, mating, and defending are common amongst animals as well as human beings. Animals also sleep, birds also sleep, and everyone sleeps. But now you, the soul, you are in a human body. You have received such a rare gift.
uttiṣṭhata jāgrata prāpya varānnibodhata
kṣurasya dhārā niśitā duratyayā durgaṁ pathastatkavayo vadanti
Translation
Arise, awake; having reached the great, learn; the edge of a razor is sharp and impassable; that path, the intelligent say, is hard to go by.[Upanishad Verse 1.3.14]
Wake up and try to understand the boon you have received in this human form of life. Soul, Atma, atmanam wake up once and for all. Stay up day and night. The song continues …
bhajibo boliyā ese saḿsāra-bhitare
bhuliyā rohile tumi avidyāra bhare
Translation
You have forgotten the way of devotional service and are lost in the world of birth and death.[[Jiv Jago Jiv Jago Verse 2]
Gauranga knows, Krsna knows. The Lord is addressing jiv jago. The Lord is addressing a living entity – don’t you remember when you were in the womb of your mother and you were suffering. At that time you had approached Me and you were praying. This we know from Srimad Bhagavatam, Kapiladev is giving us the knowledge in the third canto. The living entity, especially in this human form is crying in the womb and praying for help. It promises that if You get me come out of here, I will worship You, bhajibo boliyā, I will surrender unto You, I will chant Your glories, I will chant…
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
You had promised to do whatever it took according to the age and dharma, Satya Yuga, Treta Yuga, Dwapara Yuga, Kaliyuga, or the Hare Krishna Yuga. The Lord is talking to the living entity. Gauranga is talking to the living entity that you have promised Me that you will worship Me, you will chant My names and glories, see what has happened to you. A promise is a promise. Gentlemen do this. It’s a gentleman’s promise, but bhuliyā rohile tumi avidyāra bhare. All this could not happen as soon as you took birth. Mummy and Mamta and aham have taken over and now you have become engrossed in mundane activities. You have become ignorant. You were sent to school, but the teachers are the followers of Shand and Amarkha. Instead of teaching you vidya, they are teaching you avidya. They filled you with ignorance and taught you only matter, forgetting the spirit. As a result, you are full of ignorance. Hence to remind you, to get out of this ignorance Lord Gauranga is saying get up sleeping souls, come to the light. Keep your promise. Chant Hare Krsna. The Lord is talking to the living entities, and by hearing this we have to understand that the Lord is talking to us. Each one of us is a living entity. The Lord is addressing us. Listen attentively.
tomāre loite āmi hoinu avatāra
āmi binā bandhu āra ke āche tomāra
Translation:
I have descended just to save you; other than Myself you have no friend in this world.[ Jiv Jago Jiv Jago Verse 3]
The Lord is kindly saying, just for your sake I have taken this avatara. I have appeared in the form of Gauranga just for you.
golokam ca parityajya
lokanam trana-karanat
kalau gauranga-rupena
lila-lavanya-vigrahah
Translation:
In the Kali-yuga, I will leave Goloka and to save the people of the world, I will become the handsome and playful Lord Gauranga. (Markandeya Purana)
The Lord is saying I have left Goloka and come here to take you back home back to Godhead. He is saying, consider Me as your friend. I have told Arjuna:
bhoktaram yajna-tapasam
sarva-loka-mahesvaram
suhrdam sarva-bhutanam
jnatva mam santim rcchati
Translation:
The sages, knowing Me as the ultimate purpose of all sacrifices and austerities, the Supreme Lord of all planets and demigods and the benefactor and well-wisher of all living entities, attain peace from the pangs of material miseries.
[ BG 5.28]v
I am the friend of all the living entities, I am here in your heart next to you. I am your friend. A friend in need is a friend indeed. I know you need help. I am here to help you. I am proving to you, I am your real friend. Please get up, please wake up, and chant
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
enechi auṣadhi māyā nāśibāro lāgi’
hari-nāma mahā-mantra lao tumi māgi’
Translation:
I have brought the medicine that will wipe out the disease of illusion from which you are suffering. Take this maha-mantra-Hare Krsna, Hare Krsna, Krsna Krsna, Hare Hare/Hare Rama, Hare Rama Rama Rama, Hare Hare.” [ Jiv Jago Jiv Jago Verse 4]
Lord Gauranga is saying, I know you are bhava rogi and Kama rogi and I know some of you are Corona rogi and you think you have a vaccination now. You don’t know that the body is given to you and the nature of the body is to be diseased. The deity of sickness is installed in the body. I have medicine for you, and this medicine is Rama Vana upaya. It never goes in vain. It must hit the target. This for sure is the cure. I have come with the cure. And what is the cure…
hari-nāma mahā-mantra lao tumi māgi
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
This is the medicine. He is Mahaprabhu. But then …
ahaṁ bhakta-parādhīno
Sometimes the Lord also takes the stand and devotees become Prabhu for Him.
senayor ubhayor madhye
ratham sthapaya me ‘cyuta
Arjuna is saying, “Acyuta, bring my chariot forward in between the two armies”. Arjuna has become Prabhu of sarthi Krsna. He could say Prabhu to a living entity. The Lord is saying, “Prabhu, take this medicine, drink this.”
bhakativinoda prabhu-caraṇe pariyā
sei hari-nāma-mantra loilo māgiyā
Translation
Srila Bhaktivinoda Thakura says: “I fall at the Lord’s feet, having taken this mahā-mantra.”
Bhaktivinoda Thakura is concluding the song and saying, “Oh Lord, you have the medicine. I need this. I beg you. Oh Lord, I fall at Your feet, I am asking for that name that You talked about”. Please give that holy name. I want to nourish myself with that holy name. I want to become a mahatma. I want to become a pure devotee. I want to do suddah harinama. Unless that is done we are not going to become a mahatma.
aparadha-sunya hoye loha krishna-nama
Be attentive while chanting the holy name of the Lord. If you are not attentive then you are going to be offensive. Inattention is the cause of all the offences. Let us always chant and the Lord is addressing each of us. Just listen to Him, He is reminding us of our promise. Each one of us promised to Lord…
bhajibo boliyā ese saḿsāra-bhitare
bhuliyā rohile tumi avidyāra bhare
ISKCON Founder Acarya has spoken and written on behalf of Lord Gauranga. Let us listen to Srila Prabhupada, our previous Acaryas, Srila Bhaktivinoda Thakur and the six Goswamis. What are they doing? Kirtana sada hari. Gauranga travelled for 6 years.
Lord Gauranga appeared in Radha bhava and chanted and danced all over India. At that time He also sang jiva jago. Come here, I am here, don’t fear. He even easily managed to wake up the tigers. Of course, He didn’t wake up the tiger’s body, but He woke up the soul. They were chanting and dancing. If animals can chant and dance, why not human beings. Always chant…
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Chanting is done in two ways. We chant on our Japa beads a minimum of 16 rounds. Some chant more every day and some chant more on Ekadasi so that’s one way. Another way is to do kirtana….
mahaprabhoh kirtana-nritya-gita
vaditra-madyan-manaso rasena
We take instruments, mrdanga and karatals. We chant and dance. While the Japa is for ourselves, charity begins at home. We chant for ourselves. We chant loud enough just so that we could hear. But when we do kirtana, Nagar sankirtana there is mrdanga, karatals and dance. That is for us as well as for others around us. The Lord is very pleased as we perform kirtana, Nagar sankirtana also means congregational chanting. We congregate in big numbers then we chant, dance, and then there will be a thousand more benefits.
As part of Ekadasi Sravanam Kirtana Utsava I did some Japa, a Japa talk and now I would love to do Kirtana for 20 minutes or so before the next presenter takes over. Stay tuned and join us for kirtana….
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 24 января 2021 г.
ПОМНИТЕ ОБЕЩАНИЕ, КОТОРОЕ ВЫ ДАЛИ ГОСПОДУ
Харе Кришна, дорогие воспевающие святого имени. Мы проводили киртан около получаса. Министерство Киртана ИСККОН намерено проводить такую программу в каждый экадаши. Это называется экадаши Шраванам Киртанам Утсава. Многие преданные и лидеры будут вместе с вами повторять джапу, проводить беседу о джапе, а затем проводить с вами киртан. Многие из них будут выполнять все три действия – джапу, беседу и киртан. Кто-то будет проводить просто джапу, кто-то будет проводить джапу и беседовать о джапе, а кто-то просто будет проводить киртан. Это их дело. У нас есть 30-минутные интервалы времени. Это будет продолжаться столько, сколько возможно в экадаши.
Сегодня, в день Путрада экадаши, мы открываем этот фестиваль экадаши Шраванам Киртанам Утсава. Я проводил эту джапу и беседу о джапе в течение двух лет рано утром. Я давал лекцию на английском, а иногда ее переводили на хинди. Затем я в основном говорил только на хинди. Каким-то образом международным языком ИСККОН стал английским. Я бы хотел, чтобы это был санскрит. Сегодня мы будем говорить на английском. Те, кто не понимает английского, могут следить за переводом на хинди в чате. Будьте внимательны, когда я говорю. Слушание должно быть внимательным…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
И Хари катху и Харинаму нужно слушать внимательно – внимательное воспевание, внимательное слушание. Джив Джаго! В рамках этой беседы о джапе я решил поделиться песней джив джаго джив джаго гаура чандра боле. Мы не будем петь эту песню. Мы постараемся понять песню, поэтому, пожалуйста, послушайте. Бхактивинода Тхакур, составитель Харинама Чинтамани, был идеальным воспевающим. Он написал и спел эту песню Джив Джаго. Если мы сможем понять более глубокий смысл его песни, это еще больше поможет и убедит нас в необходимости внимательного воспевания. Наша первоначальная шраддха станет твердой шраддхой.
Джив джаго джив джаго. Джив джаго означает проснитесь спящие души. Само слово имеет значение. Он не говорит, что просыпаются спящие тела, он говорит, что просыпаются спящие души. Душа продолжает спать. Мы встаем с постели. Мы открываем глаза, но все же душа может оставаться спящей. Душа не обращает внимания на Господа. Душа не бежит на шрингар даршан в храм. Душа не слышит и не говорит, что я хочу услышать харикатху или харинаму. Часто бывает, что тело просыпается, а душа все еще спит, в полной темноте. Внимательно слушайте, что поет и пишет Бхактивинода Тхакур: джив джаго, джив джаго, гаурачанда боле. Бхактивинода Тхакур говорит, что гаурачанда боле, гаурачанда боле. Гаурачандра зовет, обращаясь к джив джаго, джив джаго. Кто это говорит? Гаурачандра говорит – просыпайтесь спящие души.
джив джаго, джив джаго, гаурачанда боле
кота нидра джао
майа-пишачира коле
Перевод:
Господь Гауранга призывает: «Просыпайтесь, спящие души! Просыпайтесь, спящие души! Как долго вы будете спать на коленях у ведьмы по имени Майя?»
(1-й стих, Джив джаго джив джаго, Арунодая киртана песня 2, Бхактивинода Тхакур)
Бхактивинода Тхакур говорит, что Гаурачандра зовет, Гаурачандра боле. Гаурачандра зовет, говорит джив джаго, джив джаго. О, спящая душа, очнись…
кота нидра джао
майа-пишачира коле
Просыпайся, иначе ты будешь спать на коленях у ведьмы Майи.
Пожалуйста, вставайте, особенно когда тело спит. Это означает, что собаки тоже спят, все спят – едят, спят, совокупляются и защищаются.
ахара-нидра-бхайа-маитхунах ча
саманйам этат пашубхир наранам
дхармо хи тешам адхико вишешо
дхармена хинам пашубхих саманах
Перевод:
Такие виды деятельности, как еда, сон, совокупление и оборона, присущи как животным, так и людям. Человек считается выше животного только тогда, когда он вопрошает об Абсолютной Истине, в противном случае он ничем от животного не отличается.
(Хитопадеша – сборник басен на санскрите в прозе и стихах)
Еда, сон, совокупление и защита распространены как среди животных, так и среди людей. Животные тоже спят, птицы тоже спят, и все спят. Но теперь ты, душа, ты в человеческом теле.
Вы получили такой редкий дар.
Уттиштхата джааграта праапья варан нибодхата.
Кшурасья дхаараа нишитаа дуратьяйаа дургам патхаам тат
кавайо ваданти.
Перевод:
Пробудись! Встань! Заручившись поддержкой Мудрецов, обрети знание своего Я. Тот путь, что ведёт к Познанию Истины, лезвию подобен – столь тонок он, что труднопроходим. Так говорят Мудрецы.
(«Катха-упанишад», 1.3.14)
Проснитесь и попытайтесь понять благо, которое вы получили в этой человеческой форме жизни. Душа, атма, атманам просыпаются раз и навсегда. Не спать днем и ночью. Песня продолжается…
бхаджибо болийа̄ эсэ сам̇са̄ра-бхитаре
бхулийа̄ рохиле туми
авидйа̄ра бхоре
Перевод
«Вы пришли в этот мир со словами: „Мой Господь, поверь, я буду поклоняться Тебе“, но, забыв об этом обещании, вы погрузились во тьму невежества!»
(2 стих, Джив джаго джив джаго, песня Арун̣одойа кӣртан
стих 2, Бхактивинода Тхакур)
Гауранга знает, Кришна знает. Господь обращается к джив джаго. Господь обращается к живому существу – разве ты не помнишь, когда ты был в утробе матери и страдал. В то время ты обратился ко Мне и молился. Это мы знаем из Шримад Бхагаватам, Капиладев дает нам знание в третьей песне. Живое существо, особенно в этой человеческой форме, плачет в утробе матери и молится о помощи. Оно обещает, что если Ты поможешь мне выйти отсюда, я буду поклоняться Тебе, бхаджибо блийа, я предаюсь Тебе, я буду воспевать Твою славу, я буду повторять…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Вы пообещали сделать все, что потребуется, в соответствии с возрастом и дхармой, Сатья-югой, Трета-югой, Двапара-югой, Кали-югой или Харе Кришна-югой. Господь разговаривает с живым существом. Гауранга разговаривает с живым существом, что ты обещала Мне, что ты будешь поклоняться Мне, ты будешь воспевать Мои имена и славу, посмотри, что с тобой случилось. Обещание есть обещание. Джентльмены поступают так. Это обещание джентльмена, но бхулия рохиле туми авидьяра бхаре. Все это не могло произойти сразу после рождения. Мам, Мамта и Ахам («Я — тело, а все, что принадлежит этому телу — мое) взяли верх, и теперь вы погрузились в мирские дела. Вы стали невежественными. Вас отправили в школу, но учителя – последователи Шанда и Амархи. Вместо того, чтобы учить вас видье (знание), они учат вас авидье (незнание). Они наполнили вас невежеством и научили только материи, забыв о душе. В результате вы полны невежества. Поэтому, чтобы напомнить вам, чтобы выбраться из этого невежества, Господь Гауранга говорит: вставайте, спящие души, выходите к свету. Сдержите свое обещание. Повторяйте Харе Кришна. Господь разговаривает с живыми существами, и, слушая это, мы должны понимать, что Господь говорит с нами. Каждый из нас – живое существо. Господь обращается к нам. Вслушайтесь.
тома̄ре лоите а̄ми хоину авата̄ра
а̄ми бина̄ бандху а̄ра ке а̄чхе тома̄ра
Перевод:
«Я снизошел, чтобы спасти вас! Есть ли у вас друг, кроме Меня?»
(3-й стих, Джив джаго джив джаго, песня Арунодая киртана 2, Бхактивинода Тхакур)
Господь милостиво говорит, что я принял эту аватару только ради вас. Я явился в форме Гауранги только для вас.
голокам ча паритаджйа,
локанам трана-каранат;
калау гауранга-рупена, лила-лаванья-виграхах
Перевод:
В Кали-югу я оставлю Свою вечную обитель Голока Вриндавана и приму форму самого красивого и игривого Господа Гауранги, чтобы спасти все живые существа во вселенной.
(Маркандея Пурана)
Господь говорит, что я покинул Голоку и пришел сюда, чтобы забрать вас обратно домой, к Богу. Он говорит: считайте Меня своим другом. Я сказал Арджуне:
бхокта̄рам̇ йаджн̃а-тапаса̄м̇
сарва-лока-махеш́варам
сухр̣дам̇ сарва-бхӯта̄на̄м̇
джн̃а̄тва̄ ма̄м̇ ш́а̄нтим р̣ччхати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Человек, полностью осознавший, что Я единственный, кто наслаждается всеми жертвоприношениями и плодами подвижничества, что Я верховный владыка всех планет и полубогов, а также друг и благодетель всех существ, избавляется от материальных страданий и обретает полное умиротворение.
(Б.Г. 5.29)
Я друг всех живых существ, я здесь, в вашем сердце, рядом с вами. Я твой друг. Друг познается в беде. Я знаю, тебе нужна помощь. Я здесь, чтобы помочь тебе. Я доказываю тебе, что я твой настоящий друг. Пожалуйста, вставай, пожалуйста, проснись и пой
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
энэчхи ауш̣адхи ма̄йа̄ на̄ш́иба̄ро ла̄ги’
хари-на̄ма маха̄-мантра лао туми ма̄ги’
Перевод:
«Я принес способ избавления от иллюзии (майи). Молитесь же об этой харинама-маха-мантре и примите ее!»
(4-й стих, Джив джаго джив джаго, песня Арунодая киртан 2, Бхактивинода Тхакур)
Господь Гауранга говорит: «Я знаю, что вы бхава роги (плывущие на волнах своих желаний) и кама роги, и я знаю, что некоторые из вас – корона роги, и вы думаете, что теперь у вас есть вакцинация». Вы не знаете, что тело дано вам, а природа тела – болеть. В теле установлено божество болезни. У меня есть лекарство для вас, и это лекарство – Рама вана упая. Оно никогда не проходит напрасно. Оно должно поразить цель. Это наверняка лекарство. Я пришел с лекарством. И какое лекарство…
хари-нама маха-мантра лао туми маги
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Это лекарство. Он Махапрабху. Но потом…
ахам бхакта-парадхино
Иногда Господь также занимает другую позицию, и преданные становятся для Него прабху.
сенайор убхайор мадхйе
ратхам̇ стха̄пайа ме ’чйута
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: О непогрешимый, прошу Тебя, выведи вперед мою колесницу и поставь ее между двумя армиями.
(Б.Г. 1.21-22)
Арджуна говорит: «Ачьюта, приведи мою колесницу между двумя армиями». Арджуна стал прабху колесничего Кришны. Он мог сказать “прабху” живому существу. Господь говорит: «Прабху, прими это лекарство, выпей это».
бхакативинода прабху-чаране парийа сеи хари-нама-мантра лоило магийа
Перевод:
Тхакур Бхактивинода упал к лотосным стопам Господа Гауранги, моля дать ему святое имя, и получил эту махамантру.
(5-й стих, Джив джаго джив джаго, песня Арунодая, Бхактивинода Тхакур)
Бхактивинода Тхакур завершает песню и говорит: «О Господь, у тебя есть лекарство. Мне нужно оно. Умоляю Тебя. О, Господь, я падаю к Твоим стопам, я прошу того лекарства – Святого имени, о котором Ты говорил». Пожалуйста, назови это Святое имя. Я хочу питаться этим Святым именем. Я хочу стать махатмой. Я хочу стать чистым преданным. Я хочу совершать шуддах харинаму. Если этого не сделать, мы не станем махатмами.
апарадха-шунйа хойе лоха кришна-нама
Будьте внимательны, воспевая Святое имя Господа. Если вы невнимательны, вы будете оскорбителем. Невнимательность – причина всех оскорблений. Давайте всегда воспевать, и Господь обращается к каждому из нас. Просто послушайте Его, Он напоминает нам о нашем обещании. Каждый из нас обещал Господу…
бхаджибо болийа эсе самсара-бхитаре бхулийа рохиле туми авидйара бхаре
Перевод:
“Вы пришли в этот мир со словами: “Мой Господь, я буду поклоняться Тебе”, – но, забыв о своем обещании, погрязли в глубоком невежестве”.
(2-й стих, Джив джаго джив джаго, песня Арунодая, Бхактивинода Тхакур)
Ачарья-основатель ИСККОН говорил и писал от имени Господа Гауранги. Давайте послушаем Шрилу Прабхупаду, наших предыдущих ачарьев, Шрилу Бхактивиноду Тхакура и шесть Госвами. Что они делают? Киртанийа сада хари. Гауранга путешествовал 6 лет.
Господь Гауранга явился в Радха-бхаве, пел и танцевал по всей Индии. В то время Он также пел джив джаго. Иди сюда, я здесь, не бойся. Ему даже легко удалось разбудить тигров. Конечно, Он не разбудил тело тигра, но Он разбудил душу. Они пели и танцевали. Если животные умеют петь и танцевать, то почему не люди. Всегда повторяйте…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Воспевание проводится двумя способами. Мы повторяем на наших четках Джапу минимум 16 кругов. Некоторые повторяют больше каждый день, а некоторые повторяют больше в экадаши, так что это один из способов. Другой способ – провести киртан….
махапрабхох киртана-нритйа-гита-
вадитра-мадьян-манасо расена
Перевод:
Пение святого имени, танцы в экстазе, пение и игра на музыкальных инструментах духовный учитель всегда рад движению санкиртаны Господа Чайтаньи Махапрабху.
(Стих 2, Шри Гурваштакам)
Берем инструменты, мриданги и караталы. Мы поем и танцуем. Джапа предназначена для нас самих, благотворительность начинается дома. Мы воспеваем для себя. Мы воспеваем достаточно громко, чтобы мы могли слышать. Но когда мы проводим киртан, нагар-санкиртан, есть мриданга, караталы и танец. Это как для нас, так и для окружающих. Господь очень доволен, когда мы проводим киртан. Нагар-санкиртана также означает совместное воспевание. Мы собираемся в большом количестве, затем поем, танцуем, и тогда будет еще тысяча благословений.
В рамках фестиваля экадаши Шраванам Киртана Утсава, я провел джапу, поговорил о джапе, и теперь я хотел бы провести киртан в течение 20 минут или около того, прежде чем следующий ведущий приступит. Оставайтесь с нами и присоединяйтесь к нам на киртан…
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक २३.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 726 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
अर्थ:- मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आँखें खोल दी। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
(आप भी कहिए।)
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे
( श्रील प्रभुपाद प्रणति)
अर्थ:- मैं कृष्णकृपाश्रीमुर्ति श्री श्रीमद् ए.सी.भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद को सादर प्रणाम करता हूँ जो दिव्य नाम की शरण लेने के कारण इस पृथ्वी पर भगवान श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय है।
हे गुरुदेव! सरस्वती गोस्वामी के दास! आपको मेरा सादर विन्रम प्रणाम है। आप कृपा करके श्री चैतन्य महाप्रभु के संदेश का प्रचार कर रहे हैं तथा निराकारवाद एवं शून्यवाद से व्याप्त पाश्चात्य देशों का उद्धार कर् रहे हैं।
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।
( पञ्चतत्व मंत्र)
अर्थ:- मैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानंद प्रभु, श्री अद्वैताचार्य प्रभु, श्री गदाधर पंडित प्रभु तथा श्रीवास प्रभु सहित अन्य सभी गौरभक्तों को प्रणाम करता हूँ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जय ॐ विष्णुपाद परमहंस परिव्राजकाचार्य अष्टोत्तरशत कृष्णकृपामूर्ति श्रीमद् ए. सी.भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय!
यदि प्रभुपाद न होएते तो कि होइते।
वर्ष 2021प्रारंभ हो चुका है। इस्कॉन के भक्तों या प्रभुपादनुगों के लिए यह विशेष वर्ष है। प्रभुपादनुग कौन है? अच्छा! कुछ अपना हाथ ऊपर करके दिखा रहे हैं। ” मैं भी हूँ, मैं प्रभुपादनुग हूँ।” प्रभुपाद अर्थात प्रभुपाद और अनुग अर्थात श्रील प्रभुपाद के जो अनुयायी हैं अथवा उनके चरण चिन्हों का अनुगमन करने वाले प्रभुपादनुग कहलाते हैं।
हम सब प्रभुपादानुग हैं। हम प्रभुपादानुगों के लिए यह वर्ष विशेष वर्ष है। इस वर्ष का क्या विष्ट्यता है? यह वर्ष श्रील प्रभुपाद के जन्म का 125 वां वर्ष है। श्रील प्रभुपाद 1896 में जन्मे थे। 125 वर्ष बीत चुके हैं अथवा इस वर्ष बीत रहे हैं। हम इस्कॉन के अथवा प्रभुपादनुगों के लिए यह प्रभुपाद का125 वां बर्थ (अभिर्भाव) वर्षगांठ वर्ष है। हरि! हरि! 125 वी जन्म वर्षगांठ महोत्सव की जय!
हम आपको वर्ष के प्रारंभ में ही स्मरण दिला रहे हैं और हम पूरे वर्ष भर यह एनिवर्सरी उत्सव मनाते जाएंगे। इस्कॉन मनाएगा। इस्कॉन मतलब क्या है? आप इस्कॉन हो। हम इस्कॉन हैं। सदस्यों से इस्कॉन इंस्टिट्यूशन अर्थात इस्कॉन संस्था बनती है। यदि सदस्य ही नहीं होंगे तो इंस्टिट्यूशन ( संस्था) का कोई अर्थ ही नहीं है। यदि लोग या भक्त संगठित ही नहीं हुए तो वह संघ कैसे हो सकता है। इस्कॉन को हिंदी में अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ कहते हैं। हम इस संघ में संगठित हुए हैं।
चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अर्थ:- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
श्रील प्रभुपाद जब हरि भक्तों को
संगठित होते हुए देखते हैं कि वह प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं तब वे तृप्त और प्रसन्न होते हैं कि हम इस प्रकार संगठित हुए हैं अथवा एकत्रित हुए हैं। एकत्रित होना जरूरी है, एकत्रित होने से ही तो अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ बनेगा। संगठित होने से संगठन होता है। इसे संघे शक्ति कलौ युगे भी कहा है। कलयुग में संघ से शक्ति का प्रदर्शन होगा। लोग संगठित होकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेंगे। जिस प्रकार लोग अलग-अलग यूनियंस में करते ही रहते हैं। यह लेबर यूनियन है आदि आदि। वे इकट्ठे होते हैं परंतु उनका उद्देश्य कुछ गलत भी हो सकता है और अधिकतर होता भी है। वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन तो करते ही हैं। संगठन से शक्ति का प्रदर्शन होता है। जिसे ‘यूनाइटेड वी स्टैंड’ भी कहा गया है। इस वर्ष हमें भी संगठित होना है। हरि! हरि!
हमें इस वर्ष प्रभुपाद कॉन्शसनेस, प्रभुपाद का स्मरण, प्रभुपाद के भाव को उजागर करने हैं और उन भावों के साथ इकट्ठा होना है तब प्रभुपाद की शक्ति या कृष्ण की शक्ति का प्रदर्शन होगा अथवा भक्ति की शक्ति का प्रदर्शन होगा या हरि नाम की शक्ति का प्रदर्शन होगा। श्रील प्रभुपाद ने हमें यह संदेश दिया है – चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी ( हरे कृष्ण का जप करो और सदैव खुश रहो ) या केवल चेंट कहा है। प्रभु के नामों का उच्चारण करो। हरि! हरि!
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
श्रील प्रभुपाद के चरणों में नमस्कार! नमस्ते सारस्वते देवे – सरस्वती नहीं कहना है। सुधरो! आप कब सुधरोगे? या सुधार करके कब कहोगे?
हमें नमस्ते सारस्वते कहना है। श्रील प्रभुपाद ने हमें स्मरण दिलाया था। यह उच्चारण की बात है। हम् सब अधिकतर गलत ही उच्चारण करते हैं। प्रभुपाद ने एक बार अपने एक शिष्य को पत्र लिखा था। प्रभुपाद ने अपने शिष्य को कहा -‘नहीं !सरस्वती नहीं। यह लक्ष्मी औऱ सरस्वती में से सरस्वती नहीं है। यह सारस्वते देवे है, श्रील प्रभुपाद,भक्ति सिद्धांत सरस्वती के शिष्य हैं। इसीलिए हम श्रील प्रभुपाद को नमस्ते सारस्वते ऐसा संबोधन या प्रार्थना करते हुए कहते हैं आप कहो। मेरी ओर से आप थोड़ा दूसरों को भी सुनाओ। उन्हें याद दिलाओ कि सरस्वती कहना गलत है। जब हम अपने संस्थापकाचार्य को प्रणाम करते हैं तब हम उसका उच्चारण सही नहीं करते हैं। हम इस वर्ष इसका सुधार करते हुए यह प्रणाम मंत्र कहेंगे। ‘नमस्ते सारस्वते कहो।’ कहा आपने? अर्जुन, तुम कह रहे हो? नमस्ते सारस्वते, नमस्ते सरस्वती देवी मत कहिए। यहां कोई सरस्वती नहीं है। वैसे श्रील प्रभुपाद के गुरु का नाम भक्ति सिद्धांत सरस्वती है और हम उनके शिष्य को संबोधन करते हैं, पुकारते हैं अथवा प्रार्थना करते हैं इसलिए नमस्ते सारस्वते देवे। 752 भक्त मुझे सुन रहे हैं, इसलिए आप थोड़े एजेंट बनो। हमारी ओर से एवं हमारी कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से भी आप भक्तों को थोड़ा स्मरण दिलाओ। जब जब वे सरस्वती कहते हैं, तब आप उनको बोलो, नहीं! यह गलत है। आप करोगे? आप यह गलत उच्चारण नहीं करना और दूसरा भी जब कोई गलत उच्चारण करता है तो उन्हें कहो, प्रभुपाद ने भी अपनी नाराजगी व्यक्त की थी इसलिए उन्होंने एक शिष्य को पत्र लिखा था-” नहीं! नहीं! नहीं-नहीं सरस्वती नहीं, सारस्वते देवे। उन सारस्वते देवे श्रील प्रभुपाद ने क्या किया?
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
उन्होंने चैतन्य महाप्रभु ने गौर वाणी का प्रचार किया। उन्होंने गौर वाणी का प्रचार करते हुए पाश्चात्य देश को बचाया।
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे
पाश्चात्य देश की रक्षा की।
उन्होंने किससे रक्षा की ? निर्विशेषवाद और शून्यवाद से रक्षा की। बुद्धदेव ने इस शून्यवाद का प्रचार किया था। हरि! हरि! शंकराचार्य ने निर्विशेषवाद का प्रचार किया था।
अद्वैतवाद का प्रचार किया। शून्यवाद और निर्विशेषवाद का यह प्रचार प्रसार पूरे विश्व भर में फैला है। श्रील प्रभुपाद ने शून्यवाद और निर्विशेषवाद से पाश्चात्य देश को बचाया लेकिन हम लोग तो पाश्चात्य देश के नहीं है, आप कहोगे कि हमें भी तो बचाया है। यहां पाश्चात्य – देश – तारिणे क्यों कहा है? आप समझ रहे हो? कोई भी ऐसा प्रश्न पूछ सकता है? यह पाश्चात्य – देश – तारिणे क्या है? पाश्चात्य देश के लोगों को थोड़े ही बचाया है, केवल उनको ही नहीं बचाया अपितु हमें भी बचाया है। केवल वेस्टर्न ही नहीं अपितु ईस्टर्न को भी बचाया है। पूर्व से होता है पूर्वात्य। हम ईस्टर्न देशों के लोगों को भी तो बचाया है। उस समय ही श्रील प्रभुपाद के प्रणाम मंत्र की रचना हुई थी इसलिए आप यह प्रणाम मंत्र कह सकते हो। जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने सभी को आदेश और आशीर्वाद दिया। उस समय इस्कॉन का प्रचार अथवा श्रील प्रभुपाद का प्रचार पाश्चात्य देशों में ही हो रहा था। 1970 से पहले ही इस प्रणाम मंत्र की रचना हुई थी। 1970 के बाद श्रील प्रभुपाद भारतवर्ष वापस लौटे थे। तत्पश्चात 1971 में हम श्रील प्रभुपाद से मिले। वैसे और भी मिले। हरि! हरि! जब इस प्रणाम मन्त्र की रचना हुई थी, उस समय पाश्चात्य देशों में प्रचार हो रहा था। अतः उस समय जो मंत्र रचित हुआ था, हम अब भी उसी मन्त्र का ही प्रयोग करते हैं लेकिन हमें समझना चाहिए कि प्रभुपाद ने सिर्फ पाश्चात्य देशों को नहीं अपितु पूर्वात्य देशों को भी बचाया। प्रभुपाद ने क्यों और कैसे बचाया? उन्होंने गौर वाणी का प्रचार करके बचाया। गौरांग! गौरांग! गौरांग! इसे श्रील प्रभुपाद का विशिष्टय कहो या उनके प्रचार का विशिष्टय कहो, उन्होंने गौर वाणी का प्रचार किया। प्रभुपाद ने मनोधर्म की बात कभी नहीं की।
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्
( श्री रूप गोस्वामी प्रणाम मंत्र)
अर्थ:- श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत में भगवान चैतन्य की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रचार अभियान की स्थापना की है?
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं- चैतन्य महाप्रभु का मनोऽभीष्ट। चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं भगवान् हैं, उनके क्या विचार हैं? उनकी क्या इच्छा है? उनकी क्या योजना है? उन्होंने कौन सी भविष्यवाणी की थी? चैतन्य महाप्रभु क्या चाहते थे? उन्होंने कौन से धर्म का प्रचार किया? स्वयं भगवान् चैतन्य महाप्रभु ने कौन से धर्म की स्थापना की? यह सब समझ कर और उसके साक्षात्कार के साथ ही फिर श्रील प्रभुपाद ने उस गौर वाणी का प्रचार किया।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।( श्री भगवतगीता ४.२)
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है। उनके गुरु महाराज ने उनको आदेश दिया कि तुम पाश्चात्य देशों में प्रचार करो। तुम बड़े बुद्धिमान लगते हो।
मैं तो कहूंगा और कहता ही रहता हूं। 1922 में कोलकाता में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अभय बाबू की ओर उंगली करते हुए कहा था जोकि अभी अभी अंदर ही आए थे और प्रणाम करके पूरी तरह अंदर बैठे ही नहीं थे। इतने में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने उंगली करते हुए बोले कि तुम पाश्चात्य देशों में प्रचार करो। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के मुखारविंद से यह वचन तो निकले थे लेकिन इसके मूल वक्ता तो स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के मुख अथवा जिव्हा का उपयोग किया अर्थात उन्होंने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को निमित्त बनाया। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर इस आदेश देने के निमित्त बने लेकिन यह आदेश तो भगवान का ही आदेश है जो कि अभय बाबू को वहाँ हो रहा था। जो भविष्य में हमारे श्रील प्रभुपाद बने। श्रील प्रभुपाद की जय!
श्रील प्रभुपाद ने गौर वाणी का प्रचार किया। राम और कृष्ण का प्रचार तो हो ही रहा था लेकिन कलियुग में चैतन्य महाप्रभु द्वारा किए गए प्रचार की आवश्यकता अधिक थी। राम और कृष्ण के साथ में चैतन्य महाप्रभु का प्रचार हो रहा था। यह नहीं कि राम से कृष्ण भिन्न हैं। चैतन्य महाप्रभु भिन्न हैं। राम ही कृष्ण है और कृष्ण ही स्वयं कृष्ण चैतन्य महाप्रभु है।
हरि! हरि!
अयोध्या सभी को पता थी।
मथुरा, वृंदावन को सभी जानते थे लेकिन मायापुर, नवद्वीप का किसको पता था? श्रील प्रभुपाद ने नवद्वीप मायापुर को प्रकाशित किया। कुछ ही सीमित संख्या में लोग मायापुर को जानते थे। श्रील प्रभुपाद रॉक द् न्यूज़। उन्होंने इस बात को सारे विश्व भर में फैलाया। प्रभुपाद ने मायापुर को प्रकाशित किया और उन्होंने ही मायापुर फेस्टिवल प्रारंभ किया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन है?
श्रील प्रभुपाद ने उन्होंने चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं व चरित्र अर्थात चैतन्य चरितामृत में अंग्रेजी में अनुवाद किया और कहा कि अब चैतन्य चरितामृत का संसार भर की जितनी अधिक भाषाओं में संभव हो, अर्थात जितने से अधिक से अधिक भाषाओं में अनुवाद कर सकते हो उसका अनुवाद करो। इस प्रकार अनुवाद होते गए और उसी के साथ केवल बांग्ला भाषा या उड़िया भाषी लोग ही चैतन्य महाप्रभु व उनकी लीलाओं को जानते थे या उनके धाम को जानते थे, अब वे चैतन्य चरितामृत को अपनी-अपनी भाषाओं में पढ सकते हैं। संसार भर के जीव जो भगवान के ही अंश हैं
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १५.७)
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है।
वे मायापुर धाम से परिचित हुए। तत्पश्चात मायापुर विश्वभर के गौड़ीय वैष्णवों के लिए मक्का बन गयी। जैसे मुसलमान का तीर्थ स्थान मक्का है या ईसाइयों का जेरुसलम है। सिख भाइयों का अमृतसर है ऐसे ही गौड़ीय वैष्णवों का तीर्थ मायापुर है। मायापुर धाम की जय!
हरि! हरि!
चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं भी नृत्य और कीर्तन किया था।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक श्लोक संख्या २)
अनुवाद:-श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
हम गाते ही रहते हैं। महाप्रभोः कहना है, महाप्रभू नहीं कहना है। यह भी एक करेक्शन है। समझे? आप इतनी आसानी से नहीं समझोगे, मुंडी तो हिला रहे हो? सुनने के बाद भी आपका महाप्रभू कीर्तन-नृत्यगीत ही चलेगा। थोड़ा वैष्णव गीत पुस्तक( सॉन्ग बुक) में देखा करो। जो गलत उच्चारण करते हैं, यदि हम उनको सुनते हैं तब हम भी अंधाधुंध उनका अनुसरण करते हैं। ऐसे हम भी गलत उच्चारण को दोहराते रहते हैं, थोड़ा ध्यान दो। सॉन्ग बुक खोल कर, थोड़ा नए भक्त बन कर छोटी बड़ी मात्राएँ आदि देखो। प्रभु है या प्रभू और उसमें नमस्ते सारस्वते देवे भी लिखा है। सरस्वती नहीं लिखा है।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
महाप्रभु ने कीर्तन और नृत्य किया और तब वादित्र अर्थात वाद्य भी बजते थे। परिभाषा की दृष्टि से संकीर्तन उसको कहा जाता है जब कम से कम तीन बातें तो होती ही हैं। कीर्तन होता है, वाद्य बजते हैं और नृत्य होता है। ये तीन तो होने ही चाहिए, तब ही सम्यक प्रकार से संकीर्तन हुआ।
‘मनसो-रसेन’ वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। हमारे भाव भक्ति मन की स्थिति ऐसी है, तो फिर संकीर्तन हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं ऐसा संकीर्तन किया। फिर उन्होंने भविष्यवाणी भी की।
पृथिवीते आछे यत नगरादि-ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत अन्तय खण्ड ४.१.२६)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
इसको भी कंठस्थ करो। आप प्रचारक हो। चैतन्य महाप्रभु की वाणी को कंठस्थ करो, ह्रदयंगम करो। चैतन्य महाप्रभु ने भविष्यवाणी की थी या की हुई है कि मेरे नाम का सर्वत्र प्रचार होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इसका प्रचार सर्वत्र होगा, हर नगर हर ग्राम में होगा। हरि! हरि! इसके लिए भी प्रभुपाद ने कई सारी योजनाएं बनाई जिससे हरि नाम का प्रचार हो। प्रभुपाद ने ही नगर संकीर्तन प्रारंभ किए। 26 सेकंड एवेन्यू से पहले भी प्रभुपाद फुटपाथ पर कीर्तन किया करते थे। वह न्यूयॉर्क के फुटपाथ पर बैठकर अक्षरशः कीर्तन करते थे। पब्लिक चेंटिंग(जपा) फुटपाथ पर शुरू हुई थी। तत्पश्चात धीरे-धीरे श्रील प्रभुपाद ने न्यूयॉर्क में मैनहैटन के सेकंड एवेन्यू नाम के स्थान पर किराए का स्थान लिया।
वहां एक साइन बोर्ड था। उनके अनुयायियों ने कहा,- स्वामी जी! स्वामी जी! एक साइन बोर्ड लगा हुआ है। उसको उतार दें? पहले के दुकानदार ने अपनी दुकान तो शिफ्ट कर दी लेकिन अपना साइन बोर्ड वहीं छोड़कर चला गया। तब प्रभुपाद ने पूछा- क्या लिखा है? तो उन्होंने बताया उस पर लिखा है मैचलेस गिफ्ट। प्रभुपाद ने जब सुना कि उस बोर्ड पर मैचलेस गिफ्ट लिखा है। प्रभुपाद ने कहा- ‘नहीं! नहीं!’ इसे मत छुओ। साइन बोर्ड मत उतारो उसे वही लगे रहने दो। यह सही है। यह साइन बोर्ड सही है क्योंकि जो भेंट मैं लेकर आया हूं या जिस भेंट का मैं इस स्थान से वितरण कर रहा हूं, यह भेंट, यह गिफ्ट मैचलेस गिफ्ट ही है। वह साइन बोर्ड वहीं रह गया। वह इस्कॉन का पहला औपचारिक स्थान रहा। मैचलेस गिफ्ट शॉप जो किराए का लिया हुआ था, वहां पर कीर्तन, नृत्य औऱ प्रसाद वितरण सब हुआ फिर धीरे-धीरे श्रील प्रभुपाद टम्पकिन स्क्वेयर पार्क में गए। वह न्यूयॉर्क का सबसे प्रसिद्ध पार्क है। वहां पर श्रील प्रभुपाद ने कीर्तन प्रारंभ किया। यह वही स्थान है, आपने देखा होगा कि श्रील प्रभुपाद एक पेड़ के बगल में खड़े हैं। उसका तना बड़ा है। श्रील प्रभुपाद ऐसे खड़े हैं और कुछ लोग प्रभुपाद के सामने खड़े हैं। प्रभुपाद उनको देख रहे हैं और उनको सम्बोधित(एड्रेस) कर रहे हैं। आपको याद है? आपने टम्पकिन स्क्वेयर पार्क का वह चित्र देखा होगा? 1996 में श्रील प्रभुपाद का १००वां बर्थ एनिवर्सरी अर्थात जन्म शताब्दी महोत्सव मनाया गया था। वह एक बहुत ही विशेष आयोजन रहा। (क्या कहा जा सकता है)
इस्कॉन में जी.बी.सी मिनिस्ट्री का संगठन किया हुआ था। प्रभुपाद सैनिटनियल मिनिस्ट्री। सेलिब्रेशन तो 1996 में होना था किंतु इस मिनिस्ट्री की स्थापना1992 में हुई थी। जी.बी.सी ने मुझे आदेश दिया अथवा मुझे मिनिस्टर बनाया था और हम सैनिटनियल मिनिस्टर के रूप में सारे उत्सव की तैयारी कर रहे थे। ऐसी समझ होती हैं कि 80% प्लानिंग 20% एग्जीक्यूशन( कार्यान्वन) के लिए समय या रिसोर्सेज का उपयोग होना चाहिए। हम उत्सव के सेलिब्रेशन के लिए मास्टर प्लान बना रहे थे अथवा चार वर्ष तैयारी कर रहे थे। तब पांचवें वर्ष 1996 में पूरे साल भर के लिए 1 जनवरी से वह सेलिब्रेशन प्रारंभ किया और 31 दिसंबर 1996 तक चलता ही रहा। हरि! हरि! कई सारी योजनाएं थी। अब पुनः वैसा ही कुछ वर्ष 2021 है। जब इस्कॉन श्रील प्रभुपाद के 125वां जन्म शताब्दी उत्सव को मना रहा है, मतलब आप मनाओगे। आपके बिना तो इस्कॉन का अस्तित्व ही नहीं है। हम सब मिलकर साल भर यह उत्सव मनाएंगे। देखो! आप क्या क्या कर सकते हो? एक तो थोड़ा मैंने हल्की सी बात कही है कि हमें प्रभुपाद कॉन्शियस बनना है। हमें अपनी प्रभुपाद कॉन्शसनेस को बढ़ाना होगा। श्रील प्रभुपाद कौन थे और श्रील प्रभुपाद कौन है? हम भविष्य में समय-समय पर श्रील प्रभुपाद के विषय में और भी कहते जाएंगे। श्रील प्रभुपाद का जीवन चरित्र है। आप प्रभुपाद से नहीं मिल पाए जब स्वयं श्रील प्रभुपाद विद्यमान थे तब आपने उन्हें नहीं देखा। आपने उनको नहीं सुना। आप श्रील प्रभुपाद का जीवन चरित्र प्रभुपाद लीलामृत ग्रंथ से पढ़ सकते हैं। यदि आपके पास नहीं है, क्या आपके पास है? श्याम सुंदर शर्मा जी क्या आपके पास प्रभुपाद लीलामृत है? है! वेरी गुड (बहुत अच्छा) माताजी के पास भी है, पदम सुंदरी के पास भी है। जिनके पास नहीं है और संभावना है कि अधिकतर भक्तों के पास नहीं होगी। प्रभुपाद के अन्य ग्रंथ गीता भागवत होते हैं लेकिन भक्त लीलामृत थोड़ा कम ही लेते हैं।
इस वर्ष के प्रारंभ में ही देखना कि आपकी लाइब्रेरी अथवा ग्रंथालय में प्रभुपाद लीलामृत हो। जब अगली बार इस्कॉन मंदिर जाओगे या कल रविवार है, आप कल भी जा सकते हो या प्रभुपाद लीलामृत मंगवा सकते हो। प्रभुपाद लीलामृत का अध्ययन करो। श्रील प्रभुपाद को जानो, श्रील प्रभुपाद को समझो। इस्कॉन के संस्थापकाचार्य को समझो। जिन्होंने (क्या कहा जाए) संसार भर में खलबली मचाई है। संसार भर के कई जीवो के विचारों व भावों में क्रांति ‘रेवोल्यूशन इन कॉन्शसनेस’ लायी है। पाश्चात्य देश के लोग और अब संसार भर के लोग ऐसे नियमों का पालन कर रहे हैं जो कभी उन्होंने सुने भी नहीं थे और कल्पना भी नहीं की होगी कि ऐसी जीवनशैली भी हो सकती है या ऐसे नियम भी होते हैं या पालन करना होता है। ‘नो मीट ईटिंग’ अर्थात मांस भक्षण नहीं करना- केवल कृष्ण प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। लोग इस नियम का पालन करने लगे। यह भी एक क्रांति है। कोई नशा पान नहीं करना- जैसे आप लोग जलपान करते हो या भोजन के समय कुछ जल का प्याला रखते हो, उसी प्रकार पाश्चात्य देशों में भोजन के समय ब्रेकफास्ट या लंच या डिनर के समय साथ में शराब की बोतल होती है, वे लोग शराब पीते हैं, शराब जो खराब है जो राक्षसों का पेय है, राक्षस पीते हैं, वैसा पान करने वालों को श्रील प्रभुपाद ने चैतन्य चरितामृत का पान या हरिनामामृत का पान या चरणामृत ( भगवान् के अभिषेक के बाद चरणामृत) का पान करना सिखाया। वे तैयार हुए , इसमें चाइनीज भी सम्मिलित हुए जो क्या नहीं खाते, क्या नहीं पीते स्नेक सूप पीने वाले या चूहे खाने वाले और क्या क्या कहा जाए आपको, ऐसे लोगों से यह सब अभक्ष्य भक्षण छुड़वाया और यह सारे संसार भर के पेय बंद किए और अवैध स्त्री पुरुष सङ्ग जो उनके लिए नार्मल जीवन है,सेकेंड नेचर है, यह बाएं हाथ का खेल है ऐसे काम धंधे करना पर स्त्री पर पुरुष सङ्ग करना श्रील प्रभुपाद ने वह सब छुड़वा दिया। प्रभुपाद ने ब्रह्मचारी, संन्यासी और गृहस्थ आश्रम की स्थापना की। जो पहले ग्रहमेधी हुआ करते थे, प्रभुपाद ने उनको गृहस्थ आश्रमी बनाए। यह तीसरी बात हुई। चौथी बात है नो गैम्बलिंग अर्थात जुआ नहीं खेलना- प्रभुपाद ने यह बात सिखाई और हम संसार भर में समझ और उनका पालन कर रहे हैं। यह बहुत बड़ी घटना है। इन नियमों का पालन करने के लिए भी संसार भर के लोग तैयार हुए हैं व पालन कर रहे हैं। यह सब करो।भगवान ने श्रील प्रभुपाद को यह सब करने का उपदेश देने के लिए ही निमित्त बनाया।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ११.३३)
अनुवाद:- अतःउठो! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकरसम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।
यह सब फैलना तो था ही क्योंकि चैतन्य महाप्रभु की इच्छा और भविष्यवाणी थी कि हरि नाम का प्रचार सर्वत्र होगा और सर्वत्र हरि राम का कीर्तन होगा। और सारे संसार भर के लोग नाम से ही फिर धाम तक नवद्वीप तक पहुंचेंगे, जहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट (जन्म स्थान) हुए थे। यह सब होना था। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भविष्यवाणी की थी। महाप्रभु ने श्रील प्रभुपाद को सेनापति भक्त बनाया और उनको ऐसी एंपावरमेंट ( शक्ति) दे दी, उनको साक्षात हरि बनाया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको निमित्त बनाया और भगवान् ने श्रील प्रभुपाद से अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना करवाई। उससे पहले श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर से वह आदेश दिलवाया अर्थात चैतन्य महाप्रभु ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को माध्यम अथवा निमित बनाकर आदेश दिया।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९)
अनुवाद:- अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है।
भगवान के यह गिने-चुने महात्मा बहुत ही दुर्लभ महात्मा हैं। श्रील प्रभुपाद की जय! हम उनका 125 वां जन्म वर्ष मनाने वाले हैं। आप भी मनाओगे? आप भी तैयार हो? आप अगर तैयार हो तो हम यहीं पर विराम देते हैं। अगर आप तैयार नहीं हो तो फिर और कुछ बोलना होगा। ठीक है।
समय भी बीत चुका है। मैं यहीं पर विराम देता हूं। आप सोचो क्या क्या कर सकते हो? एक तो प्रभुपाद लीलामृत का अध्ययन करना है। प्रभुपाद के जीवन चरित्र और शिक्षाओं का अध्ययन करो। अच्छे प्रभुपादनुग बनो। जैसे पिता या दादा की इच्छा(विल) होती है उसी प्रकार प्रभुपाद कि विल को समझो और उसका एग्जीक्यूशन(कार्यान्वन) करो। प्रभुपाद के शिष्य या प्रभुपाद के पड़शिष्य हम यह मिलकर उत्सव मनाने वाले हैं। तैयार हो जाओ।
कल एकादशी है। हम कल मिलेंगे। कल वैसे कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से कुछ कार्यक्रम रखे हैं। विश्व भर के भक्तों के लिए हमारा जप और जपा टॉक और थोड़ा कीर्तन भी होगा। मेरा भी स्लॉट है और कुछ अन्य भक्तों के भी स्लॉट हैं अन्य भक्त भी जप करने वाले हैं जपा रिट्रीट जैसे कुछ टॉक भी होंगे और कीर्तन भी होगा। हमारी मिनिस्ट्री का हर एकादशी को ऐसा करने का विचार है। कल पहली एकादशी है जिसे श्रवणं कीर्तन उत्सव नाम दिया गया है। श्रवण कीर्तन उत्सव एकादशी के दिन ही मनाएंगे जो कि कल से 6:00 बजे से प्रारंभ हो रहा है लेकिन हम अपना सत्र 5:45 बजे शुरू करेंगे लेकिन उसकी घोषणा में 6:00 बजे ही कहा है। ६-७.३० तक जप तत्पश्चात जपा टॉक फिर कीर्तन होगा। सब आधा-आधा घंटे का रहेगा तत्पश्चात तब दूसरे भक्त इसको आगे बढ़ाएंगे। कल जप चर्चा अंग्रेजी में होने की संभावना है क्योंकि यह सारे संसार भर के भक्तों के लिए है। ओके (ठीक है)
पदमाली स्कोर का अनाउंसमेंट कल नहीं हो पाएगा क्योंकि कीर्तन मिनिस्ट्री ने कल फिक्स प्रोग्राम रखा है। इसका अनाउंसमेंट सोमवार को रखो।
ठीक है।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
23 January 2021
Let the whole world know who is Srila Prabhupada
Hare Krsna! Devotees from over 726 locations are chanting with us right now.
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
cakshur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah
nama om vishnu-padaya krishna-preshthaya bhu-tale
srimate bhaktivedanta-svamin iti namine
namas te sarasvate deve gaura-vani-pracarine
nirvisesha-sunyavadi-pascatya-desa-tarine
sri-krsna-caitanya prabhu-nityananda sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrnda
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Jaya Om Vishnu-pada paramahamsa parivrajakacharya ashtottara-shata Shri Srimad His Divine Grace Srila A. C. Bhaktivedanta Swami Srila Prabhupada ki …jai
yadi prabhupada na hote toh kya hota, yeh jivan behta kaise?
If Srila Prabhupada had not come, what would have happened? How could we have passed our lives?
2021 is a very special year for ISKCON devotees, for Prabhupadanugas. Who are Prabhupada – anuga? Some are raising their hands. I am also Prabhupadanuga. Prabhupada is Prabhupada and anuga means the followers of Srila Prabhupada. We all are Prabhupadanuga. This is a very special year for Prabhupadanugas. Prabhupada was born in 1896 so this year is the 125th birth anniversary of Srila Prabhupada.
I am reminding you of this at the beginning of the year. We will have celebrations throughout this year. ISKCON will be celebrating. What does ISKCON mean? You all are ISKCON. We all make ISKCON. ISKCON is made by its members. If there are no members then there is no existence of the society. If the people don’t unite, then how can it be a society? In the International society for Krishna Consciousness we are united and because of our unity,
catur-vidha-sri-bhagavat-prasadasvadv-
anna-triptan hari-bhakta-sanghan
kritvaiva triptim bhajatah sadaiva
vande guroh sri-caranaravindam
Translation:
The spiritual master is always offering Krishna four kinds of delicious food [analyzed as that which is licked, chewed, drunk, and sucked]. When the spiritual master sees that the devotees are satisfied by eating bhagavat-prasada, he is satisfied. I offer my respectful obeisances unto the lotus feet of such a spiritual master. When Srila Prabhupada sees the devotee honouring prasada he becomes very happy.
hari-bhakta-sanghan
When we come together, it’s very important that we unite, then only will it become the International society for Krishna Consciousness.
It is said Sanghe Shakti Kaliyuge — only unity has power in Kaliyuga. Unity is strength. People will display their power by coming together and uniting. Many unions keep doing that. They just come together, unite. Their objective may be something wrong also and mostly it is, but they display their power by coming together.
United we stand.
This year we have to come together. Being Prabhupada conscious, we have to increase awareness of Prabhupada, remembrance of Prabhupada and manifest transcendental emotions for Srila Prabhupada. With transcendental emotions we have to unite and display the power of Srila Prabhupada, the power of Krsna and the power of our devotion and Harinama.
Prabhupada gave us a message, Chant and be happy.
namas te sārasvate deve gaura-vāṇī-pracāriṇe
nirviśeṣa-śūnyavādi-pāścātya-deśa-tāriṇe
Translation
Our respectful obeisances are unto you, O spiritual master, servant of Bhaktisiddhanta Saraswati Goswami. You are kindly preaching the message of Lord Chaitanya and delivering the Western countries, which are filled with impersonalism and voidism.
Don’t say sarasvati, say namas te sārasvate. Many of us keep pronouncing it wrongly as sarasvati. Prabhupada had written a letter to one of his disciples.
Srila Prabhupada says, ” You should pronounce it Sarasvate, not Sarasvati. Sarasvati is my spiritual master. So his disciple is Sarasvate.’’
It’s not sarasvati as in Laksmi and Sarasvati, its sarasvate, a disciple of Bhakti Siddhanta Sarasvati.
Let us do it this year, let’s say namaste sarasvate. There is no sarasvati here. Bhakti Siddhanta Sarasvati is there and his disciple is addressed as namaste sarasvate deve. You remind others that saying sarasvati is wrong. When we offer obeisances to the founder acarya we pronounce it incorrectly. All 726 of you hearing me become agents on my behalf and also on behalf of the Kirtana Ministry. Correct those who pronounce it incorrectly. Remind them whenever they say namaste sarasvati that it is wrong. Will you do this? Prabhupada had expressed his resentment in a letter to his disciple.
namaste sarasvate deve
gaura-vani-pracharine
nirvishesha-sunyavadi
He preached gaura-vani, preached the message of Lord Caitanya and protected the Western countries from impersonalism and voidism.
Buddha Deva preached sunyavad [voidism]. Sankaracarya preached impersonalism, advaitavada and the whole world is filled with this impersonalism and voidism, Prabhupada saved the world from impersonalism and voidism.
You will say we are not from the Western world. Prabhupada has not only saved them, but us also. Then why is it pashchatya-desha-tarine you may ask. Are your understanding what is this pashchatya-desha-tarine? He not only saved the westerners, but also the eastern people. Prabhupada pranam mantra was written and Prabhupada instructed everyone to say this pranam mantra. At that time, before 1970, preaching was being done only in the Western countries. This pranam mantra was written then. After 1970 Prabhupada returned to India. In 1971 we meet Srila Prabhupada. We are using the same mantra written before 1970. We have to understand that Prabhupada saved not only the western countries but also the eastern countries. He saved us by preaching the message of Sri Caitanya Mahaprabhu, Gauranga! Gauranga!
Srila Prabhupada’s speciality is that he spread Gaura-vani all over. There is no place for mental
speculation.
namo maha-vadanyaya
krishna-prema-pradaya te
krishnaya krishna-chaitanya-
namne gaura-tvishe namah
Translation
O most munificent incarnation! You are Krsna Himself appearing as Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. You have assumed the golden colour of Srimati Radharani, and You are widely distributing pure love of Krsna. We offer our respectful obeisances unto You.
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu is Lord Krsna. Understanding the desires, thoughts and plans and prediction of Sri Caitanya Mahaprabhu and realising all this, Srila Prabhupada preached Gaura-vani.
evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
sa kaleneha mahata
yogo nastah parantapa
Translation
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. [BG 4.2]
His spiritual master instructed him to preach in the West. You look very intelligent. I always keep saying, in Kolkatta in 1922 Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur had said pointing his finger towards Abhay Babu who had just arrived at the gathering. He had not even settled after offering obeisances. His spiritual master said, ‘You preach in the West.’ The words are coming from Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur, but the original instructor was Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu, Bhaktisiddhanta Sarasvati was made the instrument to give that instruction to Srila Prabhupada. This was order of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu to Abhaya Babu who in future became our Srila Prabhupada.
Preaching of Rama and Krsna was going on, but in Kaliyuga the preaching of Caitanya Mahaprabhu was required. It’s not that Rama is different from Krsna or Krsna is different from Caitanya Mahaprabhu. They are the same.
Everyone knew Ayodhya, Vrndavana and Mathura, but nobody knew Mayapur, Navadvipa. Prabhupada has revealed Mayapur and Navadvipa. Very few people knew about Mayapur, but Srila Prabhupada broke the news. He started the Mayapur festival. Then who is Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu and the Life and teachings Caitanya-caritamrta was translated in English by Prabhupada. He then instructed that Caitanya-caritamrta should be translated in as many languages as possible. These translations kept happening. Only some Bengali devotees knew Caitanya Mahaprabhu, but now people all over the world know about Caitanya Mahaprabhu by reading Caitanya-caritamrta in their own language.
mamaivamso jiva-loke
jiva-bhutah sanatanah
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal, fragmental parts.
The Jiva got introduced to Mayapur and Navadvipa. Mayapur became famous. It became the Mecca for devotees. It became a pilgrimage place for Vaisnavas all over the world. The pilgrimage place for our Muslim brothers is Mecca, Amritsar is for our Sikhs brothers and Jerusalem for our Christian brothers. Like that Mayapur is the pilgrimage place for Gaudiya vaisnavas.
mahaprabhoh kirtana-nritya-gitavaditra-
madyan-manaso rasena
Translation
Chanting the holy name, dancing in ecstasy, singing, and playing musical instruments, the spiritual master is always gladdened by the sankirtana movement of Lord Caitanya Mahaprabhu. Because he is relishing the mellows of pure devotion within his mind,
Say Mahaprabhoh not Mahaprabhu. This also we should be aware of. This is again another correction. Check the diacritics in the song books. We follow whoever pronounces incorrectly and say Mahaprabhu. Be careful! Become a new devotee. Correct yourself. Mahaprabhu performed kirtana, nrtya and played musical instruments. By definition Sankirtana means there should be at least three things: kirtana, musical instruments are being played and there is nrtya. manaoso-rasena- the state of our mind is very important. Such sankirtana Caitanya Mahaprabhu performed. He also predicted.
prithvite ache yata nagaradi grama
sarvatra prachara haibe mora nama
Translation
In as many towns and villages as there are on the surface of the earth, My holy name will be preached.
All our preachers should learn this prediction of Caitanya Mahaprabhu.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Prabhupada made plans so that the prediction is realised. He started nagar sankirtana. He literally performed sankirtana on footpaths of New York. Public chanting started on the footpath. Slowly Srila Prabhupada took 26 second Avenue on rent in Manhattan, New York.
Swamiji there is a sign board. Should we remove it?
No, don’t remove the sign board.
The owner of the shop moved shop, but forgot to remove the sign board. Prabhupada asked, “What is written on the board? Matchless gifts. When Prabhupada heard this he said, “No! No! Don’t touch it. Let it be. It’s the correct sign board because the gift which I have brought and will be going to distribute from this place is matchless.” The sign board was left there and this was the first official centre of ISKCON’s Matchless Gift Shop.
Slowly preaching started from there. Prabhupada went to Tompkins Square and started sankirtana there. There is a big tree and Prabhupada is standing there addressing some people who are standing in front of Srila Prabhupada.
In 1996 we celebrated Srila Prabhupada’s 100th birth anniversary. It was a grand celebration. ISKCON formulated the Srila Prabhupada Centennial Ministry in 1992 and the GBC had made me Centennial Minister. We were preparing for the celebration – 80% planning and 20% execution. For four years we were making amaster plan for the celebration and in the fifth year, in 1996 we started the celebration from 1 January till 31 December 1996. It was a full year of celebrations. There were many plans. It is 2021. Similarly we all will be celebrating 125th birth anniversary of Srila Prabhupada. There is no existence of ISKCON without you. All together we will be celebrating this festival for the whole year. Think what you all can do?
We have to become Prabhupada conscious. We have increase our Prabhupada consciousness. Who is Srila Prabhupada? We will keep speaking about Srila Prabhupada as we get time. The life of Srila Prabhupada – Prabhupada Lilamrta. As you all did not meet Srila Prabhupada, you did not hear him. Prabhupada Lilamrta is his life and teachings. There is a possibility that many devotees do not have Prabhupada Lilamrta. Those who don’t have, this is the year see to add it to your library and read it. Know about Srila Prabhupada. Try to understand him. He had brought about revolution in consciousness in the lives of many people. People all over the world are following the rules and regulations given by him.
No meat eating. Honour only Krsna prasada. This rule is being followed. This is also a revolution.
No intoxication. Like we have a glass of water with poor meals, in Western countries people have a glass of alcohol. It is a bad thing. It is the drink of the demons. To such people Srila Prabhupada offered Caitanya-caritamrta, Harinamarita and Caranamrita.
No illicit sex. In the West it’s normal or second nature to have an illicit connection, but Prabhupada inspired them give up all this and made them grhastas. They were grhmedis, and Prabhupada made them grhasta.
No gambling. People are understanding and following this.
It is great that people all over the world are following the 4 rules and regulations. Preach all this. The Lord has made Srila Prabhupada instrumental.
nimitta-matram bhava savya-sacin
Caitanya Mahaprabhu had predicted that Harinama will spread all over but Srila Prabhupada was made instrumental. All the people will be performing sankirtana and then, nama se dhama tak. The holy name will take us to the Lord’s abode.
Caitanya Mahaprabhu made Srila Prabhupada the senapati bhakta, made him sakshat hari, made him nimmita and ISKCON was established.
bahunam janmanam ante
jnanavan mam prapadyate
vasudevah sarvam iti
sa mahatma su-durlabhah
Translation
After many births and deaths, he who is actually in knowledge surrenders unto Me, knowing Me to be the cause of all causes and all that is. Such a great soul is very rare. [BG 7.19]
We will be celebrating 125th birth anniversary of Srila Prabhupada so get into action. Study the life and teachings of Srila Prabhupada and become a good Prabhupadanuga. Understand the will of Srila Prabhupada and execute it.
Prabhupada’s disciples, Prabhupada’s grand disciples will be celebrating Srila Prabhupada’s 125th birth anniversary together.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 23 января 2021 г.
ПУСТЬ ВЕСЬ МИР УЗНАЕТ, КТО ТАКОЙ ШРИЛА ПРАБХУПАДА
Харе Кришна! Прямо сейчас с нами воспевают преданные из более чем 726 мест.
ом аджнана-тимирандхасйа джнананджана-шалакайа
чакшур-унмилитам йена тасмаи шри-гураве намах
Перевод:
Я был рожден во тьме невежества, но мой духовный учитель открыл мне глаза, озарив мой путь факелом знания. Я в глубоком почтении склоняюсь перед ним.
(Гуру пранама-мантра)
нама ом вишну-падайа кришна-прештхайа бух-тале
шримате-бхактиведанта-свамин ити намине
Перевод:
В глубоком почтении я склоняюсь перед Его Божественной Милостью А.Ч. Бхактиведантой Свами Прабхупадой, который очень дорог Господу Кришне, ибо нашел прибежище у Его лотосных стоп.
(Прабхупада пранама-мантра)
намас те сарасвате деве гаура-вани-прачарине
нирвишеша-шунйавади-пашчатйа-деша-тарине
шри-кша-чаитанйа прабху-нитйананда
шри-адваита гададхара шривасади-гаура-бхакта-вринда
Перевод:
О духовный учитель, слуга Сарасвати Госвами, я почтительно склоняюсь перед тобой. Ты милостиво проповедуешь учение Господа Чайтаньядевы и несешь освобождение странам Запада, зараженным имперсонализмом и философией пустоты.
(Прабхупада пранама-мантра)
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе рама Харе рама
Рама Рама Харе Харе
джая ом вишну-пада парамахамса паривраджакачарья аштоттара-шата Шри Шримад Его Божественная Милость Шрила А.Ч. Бхактиведанта Свами Шрила Прабхупада ки… джай!
йади прабхупада на хаита табе ки хаита дживана бахита кише?
Если бы Шрила Прабхупада не пришёл, что произошло бы? Как бы мы прожили свою жизнь?
2021 год – особенный год для преданных ИСККОН, для Прабхупадануг. Кто такой Прабхупада – ануга? Некоторые поднимают руки. Я также Прабхупадануга. Прабхупада – это Прабхупада, а ануга означает последователи Шрилы Прабхупады. Все мы Прабхупадануги. Это особенный год для Прабхупадануг. Прабхупада родился в 1896 году, поэтому в этом году исполняется 125 лет со дня рождения Шрилы Прабхупады.
Я напоминаю вам об этом в начале года. В этом году у нас будут празднования. ИСККОН будет праздновать. Что означает ИСККОН? Вы все являетесь ИСККОН. Мы все составляем ИСККОН. ИСККОН создается его членами. Если нет членов, значит, общества не существует. Если люди не объединены, то как может быть общество? В Международном обществе сознания Кришны мы едины, и благодаря нашему единству:
чатур-видха-шри-бхагават-prasāda-
свадв-анна-тптан хари-бхакта-сангхан
критваива триптих бхаджатах садайва
ванде гурох шри-чаранаравиндам
Перевод:
Духовный учитель предлагает Кришне чудесную пищу четырех видов. И когда духовный учитель видит, что преданные, вкусив бхагават-прасада, полностью удовлетворены, он испытывает радость. В глубоком почтении я склоняюсь к стопам такого духовного учителя.
(Стих 4, Шри Гурваштакам)
хари-бхакта-сангхан
Когда мы собираемся вместе, очень важно, что мы объединяемся, только тогда это станет Международным обществом сознания Кришны.
Сказано санге шакти калиюге – только единство имеет силу в калиюге. Единство это сила. Люди проявят свою силу, собираясь вместе и объединяясь. Многие профсоюзы продолжают это делать. Они просто собираются вместе, объединяются. Их цель тоже может быть неправильной, и в основном это так, но они демонстрируют свою силу, объединившись.
Сила в единстве.
В этом году мы должны собраться вместе. Находясь в сознании Прабхупады, мы должны повышать осведомленность о Прабхупаде, помнить о Прабхупаде и проявлять трансцендентные эмоции для Шрилы Прабхупады. С трансцендентными эмоциями мы должны объединиться и продемонстрировать могущество Шрилы Прабхупады, силу Кришны и силу нашей преданности и Харинамы.
Прабхупада дал нам послание: воспевайте и будьте счастливы.
намас те сарасвате деве гаура-вани-прачарине
нирвишеша-шунйавади-пашчатьйа-деша-тарине
Перевод:
О духовный учитель, слуга Сарасвати Госвами, я почтительно склоняюсь перед тобой. Ты милостиво проповедуешь учение Господа Чайтаньядевы и несешь освобождение странам Запада, зараженным имперсонализмом и философией пустоты.
(Прабхупада пранама-мантра)
Не говорите сарасвати, говорите намасте сарасвате. Многие из нас продолжают неправильно произносить это как сарасвати. Прабхупада написал письмо одному из своих учеников.
Шрила Прабхупада говорит: «Вы должны произносить это слово Сарасвате, а не Сарасвати. Сарасвати – мой духовный учитель. Итак, его ученик – Сарасвате».
Это не как сарасвати, как в Лакшми и Сарасвати, а сарасвате, ученик Бхакти Сиддханты Сарасвати.
Давайте сделаем это в этом году, давайте говорить намасте сарасвате. Здесь нет сарасвати. Там находится Бхакти Сиддханта Сарасвати, и к его ученику обращаются как намасте сарасвате деве. Вы напоминайте другим, что говорить сарасвати неправильно. Когда мы предлагаем поклоны основателю-ачарье, мы произносим это неправильно. Все 726 мест из вас, слышащих меня, становятся агентами от моего имени, а также от имени Министерства Киртана. Поправьте тех, кто неправильно произносит. Напоминайте им, когда они говорят намасте сарасвати, что это неправильно. Вы сделаете это? Прабхупада выразил свое возмущение в письме своему ученику.
намасте сарасвате деве
гаура-вани-прачарин
нирвишеша-шуньявади
Он проповедовал гаура-вани, проповедовал послание Господа Чайтаньи и защищал западные страны от имперсонализма и философии пустоты.
Будда Дев проповедовал шуньяваду [философию пустоты]. Шанкарачарья проповедовал имперсонализм, адвайтаваду, и весь мир наполнен этим имперсонализмом и философией пустоты, Прабхупада спас мир от имперсонализма и философии пустоты.
Вы скажете, что мы не из западного мира. Прабхупада спас не только их, но и нас. Тогда спросите вы, почему это пашчатйа-деша-тарине. Вы понимаете, что это за пашчатйа-деша-тарине? Он спас не только жителей Запада, но и жителей Востока. Была написана пранама-мантра Прабхупады, и Прабхупада наставлял всех произносить эту пранама-мантру. В то время, до 1970 года, проповедь велась только в западных странах. Тогда была написана эта пранама-мантра. После 1970 года Прабхупада вернулся в Индию. В 1971 году мы встречаемся со Шрилой Прабхупадой. Мы используем ту же мантру, что написали до 1970 года. Мы должны понимать, что Прабхупада спас не только западные страны, но и восточные страны. Он спас нас, проповедуя послание Шри Чайтаньи Махапрабху, Гауранги! Гауранга!
Особенность Шрилы Прабхупады в том, что он распространял Гаура-вани повсюду. Нет места умственным спекуляциям.
намо маха-ваданйайа
кришна-према-прадая те
кришная кришна-чайтанья-
намне гаура-твише намах
Перевод Шрилы Прабхупады:
О самое милостивое воплощение Господа! Ты – Сам Господь Кришна, явившийся как Шри Чайтанья Махапрабху. Кожа Твоя золотистого цвета, как у Шримати Радхарани, и Ты щедро раздаешь чистую любовь к Кришне. Я выражаю Тебе свое почтение.
Шри Кришна Чайтанья Махапрабху – Господь Кришна. Понимая желания, мысли, планы и предсказания Шри Чайтаньи Махапрабху и осознавая все это, Шрила Прабхупада проповедовал Гаура-вани.
эвам̇ парампара̄-пра̄птам
имам̇ ра̄джаршайо видух̣
са ка̄ленеха махата̄
його нашт̣ах̣ парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Так эта великая наука передавалась по цепи духовных учителей, и ее постигали праведные цари. Но с течением времени цепь учителей прервалась, и это знание в его первозданном виде было утрачено.
(Б.Г. 4.2)
Его духовный учитель наставил его проповедовать на Западе. Вы выглядите очень разумным. Я всегда повторяю, в Калькутте в 1922 году Шрила Бхактисиддханта Сарасвати Тхакур сказал, указывая пальцем на Абхая Бабу, который только что прибыл на встречу. Он даже не остановился говорить, когда Абхай Баба предложил поклоны. Его духовный учитель сказал: «Вы проповедуйте на Западе». Эти слова исходят от Бхактисиддханты Сарасвати Тхакура, но первоначальным наставником был Шри Кришна Чайтанья Махапрабху, Бхактисиддханта Сарасвати стал инструментом, чтобы дать это наставление Шриле Прабхупаде. Это было указание Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху Абхаю Бабе, который в будущем стал нашим Шрилой Прабхупадой.
Проповедь Рамы и Кришны продолжалась, но в Кали-югу требовалась проповедь Чайтаньи Махапрабху. Дело не в том, что Рама отличен от Кришны или Кришна отличен от Чайтаньи Махапрабху. Они одинаковые.
Все знали Айодхью, Вриндаван и Матхуру, но никто не знал Маяпур, Навадвипу. Прабхупада открыл Маяпур и Навадвипу. Очень немногие люди знали о Маяпуре, но Шрила Прабхупада сообщил новость. Он начал фестиваль в Маяпуре. Тогда кто такой Шри Кришна Чайтанья Махапрабху? Тогда Его жизнь и учение «Чайтанья-чаритамрита» были переведены Прабхупадой на английский язык. Затем он сказал, что «Чайтанья-чаритамриту» следует перевести на как можно больше языков. Эти переводы продолжались. Лишь некоторые бенгальские преданные знали Чайтанью Махапрабху, но теперь люди во всем мире знают о Чайтанье Махапрабху, читая «Чайтанья-чаритамриту» на своем родном языке.
мамаива̄м̇ш́о джӣва-локе
джӣва-бхӯтах̣ сана̄танах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Живые существа в материальном мире — Мои вечные отделенные частицы.
(Б.Г. 15.7)
Дживы познакомились с Маяпуром и Навадвипой. Маяпур прославился. Он стал Меккой для преданных. Он стал местом паломничества вайшнавов всего мира. Место паломничества наших братьев-мусульман – Мекка, Амритсар – для наших братьев-сикхов, а Иерусалим – для наших братьев-христиан. Подобно этому Маяпур – место паломничества Гаудия-вайшнавов.
махапрабхох киртана-нритйа-гита-
вадитра-мадьян-манасо расена
Перевод:
Движение санкиртаны Господа Чайтаньи Махапрабху – источник непреходящей радости для духовного учителя, который порой повторяет святое имя, порой танцует, охваченный экстазом, а порой поет и играет на музыкальных инструментах. Его ум наслаждается нектаром чистой преданности.
(Стих 2, Шри Гурваштакам)
Скажите Махапрабхох, а не Махапрабху. Мы также должны знать об этом. Это снова еще одна поправка. Проверьте диакритические знаки в песенниках. Мы следуем за тем, кто произносит неправильно, и говорим Махапрабху. Будьте осторожны! Станьте новыми преданными. Поправляйтесь. Махапрабху исполнял киртан, нритйа и играл на музыкальных инструментах. По определению санкиртана означает, что должно быть как минимум три вещи: киртан, игра на музыкальных инструментах и нритйа. манаосо-расена – состояние нашего ума очень важно. Такую санкиртану совершал Чайтанья Махапрабху. Он тоже предсказал.
притхивите аче йата нагаради грама
сарватра прачара хайбе мора нама
Перевод:
В каждом городе и деревне будет слышно воспевание Моего имени.
(Чайтанья Бхагавата Антья-кхана 4.126)
Все наши проповедники должны изучить это предсказание Чайтаньи Махапрабху.
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Прабхупада строил планы, чтобы предсказание сбылось. Он начал нагар-санкиртану. Он буквально проводил санкиртану на пешеходных дорожках Нью-Йорка. Публичное воспевание началось на пешеходной дорожке. Постепенно Шрила Прабхупада снял в аренду помещение на второй авеню, 26 в Манхэттене, Нью-Йорк.
Свамиджи есть вывеска. Мы должны снять это?
Нет, вывеску не снимайте.
Хозяин магазина переехал, но вывеску забыл убрать. Прабхупада спросил: «Что написано на вывеске? Бесценные дары. Когда Прабхупада услышал это, он сказал: «Нет! Нет! Не трогайте это. Будь как будет. Это правильная вывеска, потому что подарок, который я принес и собираюсь распространять отсюда, бесценен». Там была оставлена вывеска, и это был первый официальный центр магазина Бесценные дары ИСККОН.
Постепенно проповедь началась оттуда. Прабхупада пошел на Томпкинс-сквер и начал там санкиртану. Есть большое дерево, и Прабхупада стоит там, обращаясь к некоторым людям, стоящим перед Шрилой Прабхупадой.
В 1996 году мы отметили 100-летие со дня рождения Шрилы Прабхупады. Это был грандиозный праздник. ИСККОН запланировал отпраздновать столетие Шрилы Прабхупады в 1992 году, а Джи-би-си назначил меня ответственным за празднование. Подготовка к торжеству – 80% планирование и 20% исполнение. Четыре года мы составляли общий план празднования, а на пятый год, в 1996 году, мы начали празднование с 1 января по 31 декабря 1996 года. Это был весь год празднований. Планов было много. Сейчас 2021 год. Точно так же мы все будем отмечать 125-ю годовщину со дня рождения Шрилы Прабхупады. Без вас не существует ИСККОН. Мы все вместе будем отмечать этот праздник целый год. Подумайте, на что вы все способны?
Мы должны стать сознающими Прабхупаду. Мы увеличили наше сознание Прабхупады. Кто такой Шрила Прабхупада? Мы будем продолжать говорить о Шриле Прабхупаде, когда у нас будет время. Жизнь Шрилы Прабхупады – Прабхупада Лиламрита. Поскольку вы все не встречали Шрилу Прабхупаду, вы не слышали его. Прабхупада Лиламрита – это его жизнь и учение. Есть вероятность, что у многих преданных нет Прабхупада Лиламриты. Те, у кого нет, в этом году могут добавить ее в свою библиотеку и прочитать. Знайте о Шриле Прабхупаде. Попытайтесь понять его. Он произвел революцию в сознании в жизни многих людей. Люди во всем мире соблюдают установленные им правила и нормы.
Никакого мяса. Почитай только Кришна прасад. Это правило соблюдается. Это тоже революция.
Нет опьянения. Как у нас есть стакан воды при сухой еде, так и в западных странах люди выпивают стакан алкоголя. Это плохо. Это напиток демонов. Таким людям Шрила Прабхупада предложил Чайтанья-чаритамриту, Харинамамриту и Чаринамриту.
Никакого незаконного секса. На Западе это нормально или вторая натура – иметь незаконные связи, но Прабхупада вдохновил их отказаться от всего этого и сделал их грихастхами. Это были грихамедхи, и Прабхупада сделал их грихастхами.
Никаких азартных игр. Люди это понимают и следуют этому.
Это здорово, что люди во всем мире соблюдают 4 принципа и правила. Проповедуйте все это. Господь сделал Шрилу Прабхупаду своим инструментом.
нимитта-матрам бхава савйа-сачин
Чайтанья Махапрабху предсказал, что Харинама распространится повсюду, но Шрила Прабхупада сыграл важную роль. Все люди будут проводить санкиртану, а затем
нама се дхама так
Святое имя приведет нас в обитель Господа.
Чайтанья Махапрабху сделал Шрилу Прабхупаду сенапати-бхактой, сделал его сакшат хари (Шри Гуру), сделал его ниммитой (тем кто исполняет предсказание), и был основан ИСККОН.
бахӯна̄м̇ джанмана̄м анте
джн̃а̄нава̄н ма̄м̇ прападйате
ва̄судевах̣ сарвам ити
са маха̄тма̄ су-дурлабхах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто, пройдя через множество рождений и смертей, обрел совершенное знание, вручает себя Мне, ибо он понял, что Я причина всех причин и все сущее. Такая великая душа встречается очень редко.
(Б.Г. 7.19)
Мы будем отмечать 125-ю годовщину со дня рождения Шрилы Прабхупады, так что приступайте к делу. Изучите жизнь и учение Шрилы Прабхупады и станьте хорошим Прабхупаданугой. Поймите волю Шрилы Прабхупады и выполните ее.
Ученики Прабхупады, великие ученики Прабхупады будут вместе отмечать 125-ю годовщину со дня рождения Шрилы Прабхупады.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
जप चर्चा,
22 जनवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! नवद्वीप सब ठीक है। हरि हरि, 777 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं।
जय श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौरभक्तवृंद।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण, जय पद्मावती और यहां डॉ नेहा। यहां एक छोटा सा पीपीटी प्रेजेंटेशन प्रस्तुत करेंगे। transformation lust into love ऐसा उसका शीर्षक है। कैसे lust को love में परिवर्तित कर सकते हैं। लस्ट जानते हो, काम या काम वासना। काम क्रोध परायण तो हम हैं ही। जो काम में होता है, पता नहीं होता है कि हम कामवासना में हैं। जो माया में होता है उसको पता नहीं होता है कि हम माया में है। वह सोचता है यह माया क्या होती है? और जो कामी है सोचता है काम क्या होता है? यह काम क्या होता है? काम में है इसलिए कामी है। यह काम हमारा शत्रु है। विद्धयेनमिह भगवान ने कहा है ना गीता में,
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।।
(Bg 3.37)
अनुवाद श्री भगवान ने कहा है अर्जुन रजोगुण के संपर्क से उत्पन्न हुआ यह काम है। और वह बाद में क्रोध में परिवर्तित होता है। वही काम इस संसार का सबसे बड़ा शत्रु है।
विद्धयेनमिह विधि मतलब जान लो। हे अर्जुन यह जान लो, समझ लो, यह काम तुम्हारा शत्रु है। विद्धयेनमिह वैरिणम् इस काम से वशीभूत होकर हम कई सारे या सभी कार्य करते रहते हैं। इस संसार में बद्ध जीव कामवश होकर काम के वशीभूत होकर आपको और कोई मार्ग ही नहीं। हमेंं करना तो चाहिए प्रेम। प्रेमी होना चाहिए काम ही नहीं। प्रेमी होना चाहिए और प्रेम करना चाहिए। भगवान से प्रेम। भक्तों सेेेे प्रेम। प्रेमी होना चाहिए भगवत प्रेम या भक्त प्रेम। तो प्रेमी बनना चाहिए कामी को प्रेमी बनना चाहिए या बन सकते हैं। इसकी थोड़ी चर्चा है यहां पर या समझ है कम से कम यह तो समझाया जाएगा कि, एक होता है काम और दूसरा प्रेम कैसे दिव्य है अलौकिक है।…. आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य वैसे मनुष्यय जीवन का उद्देश्य। आध्यात्मिक जीवन को हम अपनाते हैं तो, उसका उद्देश्य क्या है? कैसे हमारा परिवर्तन हो सकता है? हमारा अहंकार है अहम,। अहम के अंतर्गत यह शरीर भी मैं हूं या शरीर ही मुख्य तो अहंकार है तो यह शरीर भी मैं नहीं हूं या मैं यह शरीर हूं। यह जो अज्ञान है यह ज्ञान नहीं है। मैं शरीर हूं और उसके कारण जो अहंकार, अहम भोगी, अहम सुखी, अहम बलवान यह सारे अहंकार की बातें हैं। इसको कैसे हम स्वाभाविक और शुद्ध हमारा तो स्वभाव है। मतलब हम आत्मा हैं। हम शरीर नहीं है। शरीर को जो हम अहम मानते हैं, इसके स्थान पर जो असली ज्ञान है समझ है कि, मैं आत्मा हूं मैं शुद्ध आध्यात्मिक जीवात्मा हूं। इसके संबंध में प्रभुपाद समझाते हैं कि, कैसे अहम दो प्रकार के हैं। एक हमारा अहंकार कैसा झूठ का या मायावी अहंकार जो शरीर को ही अहम मानतेे बैठा है। और दूसरा अहंकार क्या है अहमदासोस्मि मैं भगवान का क्या हुंं, दास हूं। जीव कृष्णदास एई विश्वास करलो तो आर दुखः नाय श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं जीव समझेगा कि मैं कृष्णदास हूं। मैं आत्मा हूं कृष्णा दास हूं मैंं शरीर नहीं हूं वह झूठा अहंकार में नहीं हूं। मैं सत्य हूं।
मैं नकली नहीं हूं, मैं असली हूं। शरीर तो नकली है। आज है तो कल नहीं है तो उस दृष्टि से वह नकली है। और असली है आत्मा। असली है आत्मा्। सच्चा है आत्मा। शाश्वत है आत्मा और वह मैं हूं।
आध्यात्मिक जीवन यह सिर्फ ज्ञानार्जन के लिए नहीं होता है, तो वह परिवर्तन के लिए होता है। यह आध्यात्मिक जीवन केवल जानकारी ग्रहण करने के लिए नहीं है। जानकारी जमा करने केेेे लिए नहीं है। यह भी सुन लिया वह भी सुन लिया वह भी समझ लिया। केवल संसार भर की जानकारी इकट्ठी की। लेकिन वह जानकारी वह ज्ञान शास्त्रों में जो कुछ ज्ञान है जानकारी है उससे हमारा परिवर्तन होना चाहिए। केवल संग्रहित करना इकट्ठा करना ही नहीं। ज्ञान को भी या दिव्य ज्ञान को भी इकट्ठा तो हमने किया लेकिन उस ज्ञान को केवल सुनकर या पढ़कर इकट्ठा करके संग्रहित करके रखना हमारा उद्देश्य नहीं है। उस ज्ञान से उस जानकारी से जानकारी हमनेे जो कुछ प्राप्त की है। आत्मा के संबंध में कहो, परमात्मा के संबंध में भी कहो, उसे होना चाहिए एक तो उस ज्ञान को हजम करना चाहिए या उसको हृदयंगम होना चाहिए। उसके अनुसार वैसे हमारे भाव उदित होने चाहिए। परिवर्तन भी होना चाहिए सिर्फ जानकारी प्राप्त करना ही नहीं परिवर्तन। श्रील प्रभुपाद के शब्दों में क्रांति होनी चाहिए। revolution in consciousness क्रांति होनी भी चाहिए।
तो कहां क्रांति, हमारे भावों में क्रांति होनी चाहिए। भावना में क्रांति। बाजार भाव के बजाय कृष्ण भाव यह क्रांति हुई ऐसे क्रांति ऐसा परिवर्तन।
हरि हरि, काम की उत्पत्ति। तो यह काम कैसे उत्पन्न होता है यहां पर श्री कृष्ण ने कहा है। भगवत गीता के सातवें अध्याय में 27 वां श्लोक
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
(Bg 7.27)
अनुवाद: परमतप भारत, इच्छा और द्वेष इन दोनों से उत्पन्न होने वाले द्वंद से मोहित होकर सभी जीव इस मोह माया में जन्म लेते हैं।
हे भारत, हे अर्जुन, हे शत्रुओं को जीतने वाले, शत्रुओं को परास्त करने वाले ,अरे तुम तो परमतप कहलाते हो। तुम शत्रुओं का विनाश करते हो। शत्रुओं को परास्त करते हैं। तुम्हारा जो काम नामक शत्रु है उसको परास्त करो। उसको जीतो। यही उसका विनाश करो। भगवतगीता के तृतीय अध्याय में भगवान ने कहा है। काम के साथ क्या करना चाहिए। इसकी जान लो। इच्छाद्वेषसमुत्थेन सभी जीव इच्छा करते हैं यही इच्छा और द्वेष ईर्ष्या द्वेष और यह द्वंद्व और उससेे उत्पन्न होने वाला मोह। स्त्री और पुरुष यह भी द्वंद्व है। और कई सारे द्वंद्व है सारा संसार द्वंद्व से भरा पड़ा है। यह जब चर्चा हो रही है तो उसके अंतर्गत कह सकतेे हैं। यह स्त्री पुरुष का द्वंद्व, स्त्री पुरुष का समा और उससे उत्पन्न होता है फिर मोह आगे इससे से फिर ध्यायतेे विषयान्पुंसः इच्छा है फिर द्वेष भी है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (Bg 2.62)
अनुवादः इंद्रिय विषय का चिंतन करते हुए मनुष्य के उस विषय में आसक्ति बढ़ती है। और उस आसक्ति से काम उत्पन्न होता है। और काम से क्रोध की उत्पत्ति होती है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः संसार भर के विषयों का ध्यान या स्त्री का ध्यान पुरुष का ध्यान और भी काम ना आए हैं लेकिन उसने प्रबल कामना तो यह लैगिक काम लैगिक कृत्य या इच्छा यह काम यह उत्पन्न होता है ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ काम और प्रेम यह दोनों एक योग माया से प्रेम और महामाया से काम उत्पन्न होता है या जीव को प्राप्त होता है वह स्त्रोत है वैसे अंततः स्रोत तो एक ही है भगवान ही हैं सर्वस्य प्रभावः योगमाया के या महामाया के महामाया से काम और योग माया से प्रेम प्राप्त होता है उत्पन्न ना होता है जागृत होता है या स्रोत एक ही होता है जो पहले कह चुके हैं या दिखाया है यह हीरा यह सोना यह प्रकृति है मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं । भगवान इस प्रकृति के अध्यक्ष है तो इसीसे इसका प्रकाशन उस रूप में उसका इस रूप में ऐसे अलग-अलग काम और प्रेेेेेेेेेम इसके स्रोत तो भगवान ही है जैसे बिजली स्रोत तो बिजली ही है लेकिन उसी एक बिजली से कूलर चलता है और हिटर भी उसी से चलता है करंट तो एक ही है बिजली तो एक ही है लेकिन उसके अलग-अलग मार्ग यहां लिखा है हरि हरि ब्रह्मांड का सत्य सभी जीव सभी योनि के 8400000 जीव ब्रह्मा से लेकर जिसे हम देख भी नहींं सकते ऐसे सूक्ष्मजीव यहांं देख रहे हम ब्रह्मा से लेकर सूक्ष्मजीव श्री ल ला प्रभुपाद कहते हैं इंद्र से लेकर इंद्र गोप इंद्रगोप नामक कोई सूक्ष्मजीव है जंतु हैै अति सूक्ष्मा तो इंद्र से लेकर इंद्रगोप जंतु तक सभी परेशान हैं यह सभी प्रभावित है 8400000 योनियों में यह काम का प्रभाव है कामवश सारी योनि में यह काम का धंधा चलता है सारी योनियों में यह श्री पुरुष है कुत्ताा है कुत्तिया है बंदर है बंद रानी है भैंस हैै भैंसा है हाथी है हाथीनी है सभी व्यस्त हैं या सभी का व्यस्त रखा जाता है इस संसार में काम बस काम केेेेेेे वशीभूत होकर वह सब व्यस्त हैं उनका भी परिवार हैं कर्मण्यवाधिकारस्ते कृष्णा नेेे कहते है कर्म करो कर्तव्य हैैै क्या कर्तव्य है परिवार का पालन पोषण करो लेकिन बंधुओं ऐसा परिवार का पालन पोषण तो हर समाज में योनि में चलता ही है यह केवल मनुष्य जाति या मनुष्य समाज ही नहीं है हाथियों का अपना समाज हैै पक्षी समाज है जानवरों का भी समाज है कुत्तों का अपना समाज है बिल्लियों का अपना समाज है हर योनि का अपना अपना समाज है और इन सारे समाजों में परिवार भी हैं वह सभी अपने अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं यह नहीं समझना कि आप बहुत बढ़िया से अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं और कोई नहीं करताा है योनि में समाज में ऐसा नहीं होता है और योनि में भी यही होता है भगवत गीता का उपदेश सुने बिना ही वह अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं ऊपरी भरण पोषण हां यह पक्का है कि आप थोड़ी देर में समझ जाएंगे की असल मेंं परिवार का भरण पोषण क्या होता है उनके भी बच्चे होते हैं उनका वहां ख्याल करते हैं जो काम हैैै हमारे सारेेे भाव कहो हमारे विचार कहो हमारा मन कहो या फिर मन के जो कार्य होते हैं सोचना समझना इच्छा करना इसमें काम के विचार से हम ग्रस्त रहते है परेशान रहते हैं व्यस्त रहते हैं काम के विचार काम धंधे के विचार कामवासना के विचार काम के तृप्ति के विचार फिर विचार हैं सोचनााा महसूस करना फिर कुछ कुछ होता है मन मेंं भाव उत्पन्न होते हैं काम भावना सोचने पर विचार करने पर काम भावनाा उत्पन्न होते हैं विचार भी काम का है विचार कामुक कामुकता है विचारों में फिर सोचना महसूस करना इच्छा करना इच्छाद्वेषसमुत्थेन फिर इच्छा भी है कामवासना की तीव्र इच्छा है फिर इसीलिए अर्जुन ने कहा
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
अनुवादः अर्जुन ने कहा हे वृष्णि वंशज किस वजह से मनुष्य उसकी इच्छा ना होते हुए भी जैसे बलपूर्वक पाप कर्म करने के लिए प्रेरित होता है?
अर्जुन ने कहा, बताइए बताइए प्रभु अनिच्छन्नपि हम जानते हैं कि यह सही नहीं है। पाप है। ऐसा कृत्य नहीं करना चाहिए। किंतु बल पूर्वक इच्छा इतनी तीव्र है। इतनी तीव्र इच्छा है कि, व्यक्ति पाप करके बैठता ही है। तो यह मन में सब चलता रहता है। सोचना, महसूस करना, इच्छा करना और यह सब विचार काम के विचार, भाव भी काम भाव और इच्छा भी कामुक इच्छा। सोचने से हम महसूस करते हैं। महसूस करने से फिर इच्छा जागृत होती है। और फिर जैसे अधिक सोचतेे हैं फिर अधिक भाव उत्पन्न होते हैं, जागृत होते हैं और उसी के साथ हमारी इच्छा अधिक अधिक तीव्र बनती जाती है फिर इससे हम अपनेे कृति से संपन्न करते हैं। कायेन वाचा मनसा हम इसको बोलतेे रहते हैं। कामुकता की बाते करते हैं। काम के विचार जो मन में होतेे हैं उसको कहतेे हैं और फिर केवल कहकर ही रुकते नहीं हम कुछ करके बैठते हैं। करना ही होता है कामवश।
हरि हरि, तो कृष्ण भुलिया जीव भोग वांछा करें माया तारे झपाटिया धरे यह प्रसिद्ध भजन है। चैतन्य चरितामृत चैतन्य महाप्रभु ने भी कहां है, भगवान ने कहां है। जीव भुलिया कृष्ण को भूलकर जीव भोग वांछा करें भोग वासना की वांछा इच्छा काम इच्छा करता है। और उसी के साथ फिर निकटअस्थे है माया तारे झपाटिया धरे अलग-अलग शब्दों में कहां है। माया तारे झपटिया धरे पास मेंं माया है। निकट में है या पास मेंं है, झपटियाधरे या फिर उसका गला भी पकड़ सकती हैं। फांसी दे सकती हैं, देती है। जान लेती है यह माया। इसके लिए मरतेेे रहते हैं यह माया हमको मारती है। पुर्नजन्म देती है ऐसे ही चलते रहता है।
यह जो काम है, इस काम की जो अग्नि है कामाग्नि, इसको हम पोषण करते जाएंगे। अग्नि में कोई कामाग्नि है। कामेच्छा है उसकी पूर्ति करते जाएंगे। कुछ मांग है मन में कोई इच्छा है हम इसको पूरा करते जाएंगे। तो क्या होगा, जैसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती। इसको अधिक खिलाओ, अधिक पिलाओ, तेल डालो यह कोई इंधन हो तो वह डालते रहो जलती रहेगी आग या फिर पढ़ती रहेगी आग।
तो यहां हाथी यह जो काम का जो आवेग है। काम आवेश, वह बड़ा बलवान है। वाचो वेगम् मनसा क्रोध वेगम जिव्हा.वेगम उदरउपस्थ वेगम ऐसा उपदेशामृत में कहां है। यह वेग इसका यह जो धक्का देता रहता है। प्रेरित करता है यहां काम हमको। हाथी हाथीनी के पीछे पड़ा है। कितना बलवान हाथी इसको कभी पकड़ना है तो क्या करता है? कुछ हांथीनी के पीछे लगा देते हैं तो वह दौड़ता है। हाथी भी पीछे दौड़ता है और फिर कुछ दूरी पर तैयारी करके रखते हैं। वहांं पर बड़ा गड्ढा बनाया होता है। उस पर कुछ घास डाल दी हरियाली डाल दी। उस गड्ढे के पास जब आते हैं तो बड़े युक्ति पूर्वक झट से हथिनीकों हाथी से अलग करते हैं। और पीछे से जो दौड़कर आ रहा है हाथी कामवश हाथी आगे बढ़ता है और फिर गिरता है गड्ढे में। खत्म, पकड़ में आ गया उसको पकड़तेे हैं, फिर सर्कस में या कहीं और उसको लगाते हैं। इतना बड़ा हाथी पकड़ में आता है। कामवासना के कारण।
वैसे जीव जो है वेदांत सूत्रों में कहां है
आनंदमयी अभ्यासात स्वभाव से और विधान से आत्मा और परमात्मा छोटे से छोटा जीव आध्यात्मिक आनंद के लिए बने हैं।
आनंदमयी अभ्यासात भगवान और उनके अंश अंश के अंश मतलब हम तो जीव हैं उनकी बात चल रही हैं।
यह दोनों भी वैसे ही सच्चिदानंद आनंद की मूर्तियां है। भगवान भी हैं जीव भी है और यह आनंद ही चाहते हैं। ऐसा उनका गुणधर्म है भगवान का भी और हम जैसे छोटे छोटे जीव का भी। और इसीलिए प्रयास करते रहते हैं कैसे हम सुखी रह सकते हैं। संसार में कोई जीव नहीं है जो दुख चाहता हो। सभी सुख चाहते हैं। क्यों सूख चाहते हैं? स्वभाव ही है सुख सुखी होना। उसका स्वभाव ही है सुख उसका स्वभाव है। सुखी होना स्वाभाविक है। जीव के लिए दुख आते हैं। जीव प्रयास करता है कैसे वहां पुनः सुखी हो सकता है। एक क्षण के लिए भी दुखी नहीं रहना चाहता तुरंत ही प्रयास होता है सुखी होने का प्रयास, क्योंकि स्वभाव में उसके सुख है आनंद है। भगवान तो अच्युत हैं। भगवान का कभी पतन नहीं होता। सदा के लिए वह आनंद के विग्रह रह जाते हैं। लेकिन जीव की स्थिति वैसे हम तटस्थ होने के कारण कभी सुख तो कभी दुख है तटस्थ है।
माया से संपर्क, इस संसार के जो माया है उसके संपर्क में जो आता है जीव और उसको भोगता है अहम भोगी तो फिर वह दुखी होता है।
आत्मा का अध्यात्म से संपर्क, और जब आत्मा का संपर्क सत्संग करता है। जीव सत् संग करता है। भगवान के साथ, संग भक्तों के साथ संग तो उसी से उसे सुख है या आनंद को प्राप्त करता है। वैसे माया के संपर्क से वह काम को प्राप्त करता है। कामवासना जागृत होती है। सत्संग के संपर्क से और आध्यात्मिक जीवन साधना करने से वह प्रेम को प्राप्त करता है। प्रेम जागृत होता है। तो उसका स्वभाव है उसके स्वभाव को वह प्राप्त करता है। उसको आत्म साक्षात्कार होता है।
सुख को प्राप्त करने की इच्छा, इस संसार में देखा जाता है। यह चार प्रयास ऊपरी इंद्रिय तृप्ति के लिए चार प्रकार हैं। आहार निद्रा भय मैथुन इसके माध्यम से सुखी होने का प्रयास हर बद्ध जीव करता है। और ऐसे प्रयास केवल मनुष्य योनि में ही नहीं आहार निद्रा भय मैथुन हर योनि में 8400000 योनियों में बद्ध जीव व्यस्त है। किसमें आहार निद्रा भय मैथुनमच। सामान्य एतत पशुभीरनरानाम।।! किसी योनि में भी हो या सामान्य कृत्य तुम्हारे होंगे और इस प्रकार तुम शरीर को सुखी बनाने का तुम प्रयास करोगे।
कुछ मानसिक या मनोरंजन कहो, या पूरी तरह मानसिक आनंद पूरा परिवार समाज मे यह सारे प्रयास होते हैं। पार्टीज होती है और फिर या कुछ देवी देवताओं के उत्सव भी हो सकते हैं। इसको भी मन के स्तर पर ही रखा है। आत्मा के स्तर पर नहीं रखा है। यह मानसिक आनंद कुछ बुद्धिजीवी होते हैं। वैज्ञानिक होते हैं और फिर उनकी बौद्धिक संपत्ति होती है उसका आनंद लेते रहते हैं। और उनको शायद ज्यादा मनोरंजन में रुचि नहीं होगी लेकिन अपने बुद्धि में उनका अहंकार। बुद्धि और उसी स्तर पर उनका आनंद लेने का प्रयास करते हैं। और अध्यात्मिक योगी हैं तो ब्रह्म सक्षात्कार अहं ब्रह्मास्मि का प्रयास चल रहा है। चलो हम ब्रह्म हैं, हम ब्रम्ह साक्षात्कार करते हैं तब हमको आनंद मिलेगा। इसीलिए ऐसे प्रयास होते रहते हैं लेकिन वह भी शाश्वत नहीं होता पतंती अधह कहते हैं यह भागवत कहता है। तो यह अलग-अलग स्तर पर प्रयास बताएं शरीर के स्तर पर प्रयास होते हैं। सुखी होने के प्रयास फिर मन के स्तर पर प्रयास होते हैं, फिर बुद्धि के स्तर पर प्रयास होते हैं। लेकिन प्रयास तो होना चाहिए आत्मा के स्तर पर क्योंकि हम आत्मा है। वैसे शरीर भी स्वयं (सेल्फ) कहा जाता है मन भी हमारा स्वयं (सेल्फ ) का ही भाग कहां जाता है एक दृष्टि से। बुद्धि भी हमारा सेल्फ या आत्मा की परिभाषा है। लेकिन मुख्य तो हमारा रियल सेल्फ आत्मा है, हम आत्मा हैं। हम मन भी नहीं हैं, मन एक तत्व है। स्थूल शरीर फिर सूक्ष्म शरीर तो मन भी हम नहीं हैं बुद्धि भी हम नहीं है। वैसे आध्यात्मिक मन है और आध्यात्मिक बुद्धि भी है। लेकिन इस संसार का जो मन है प्राकृतिक मन, वह हम नहीं है। तो आत्मा के स्तर पर जब हम कार्य करेंगे तो श्री कृष्ण के साथ अपना संबंध स्थापित करेंगे। भक्तों के साथ भक्तों के संग में उसके बाद फिर आनंद ही आनंद है। आनंदी आनंद गडे जिकड़े तिकड़े चोही कड़े विश्वम पूर्ण सुखायतें फिर सुख के आनंद का अनुभव संभव है। आगे जीव प्रेम करना चाहता है और प्रेम प्राप्त भी करना चाहता है। वह औरों से प्रेम करना चाहता है ओर और उसे प्रेम करें यह भी चाहता है। यह चाहत सभी जीवो में है इसमें कोई अपवाद नहीं है, हर योनि में यह होता है। लेकिन दुर्दैव से इस काम को ही प्रेम मान के वह ठगे जाते हैं। काम को ही प्रेम मानते हैं इस तरह इस काम का आदान-प्रदान चलता है संसार में। जो कामी होते हैं काम करते हैं और काम करवाते हैं अपने ऊपर। आध्यात्मिक जगत में प्योर ईगो मतलब आत्मा है और भोग करने वाले भोक्ता भोक्ताराम यज्ञ तपसा भगवान भोक्ता है और उसे प्रेम प्राप्त होता। और प्योर ईगो मे यह शरीर कहो, मन कहो बुद्धि कहो, यह सारे झूठ के अहंकार मायावी अहंकार अशुद्ध अहंकार है, इसलिए मैं ही भोक्ता हूं ऐसे विचार होते हैं। इस ग्राफ में आप देख ही रहे होंगे भोक्ता (enjoyer) तो कृष्ण है, यह वस्तुस्थिति है। लेकिन जो माया में फंसा हुआ है, जो प्रेमी नहीं कामी है तो वह मे भोक्ता हू इसे घोषित करता है या वह उसी के अनुसार कार्य करता है। तो यह अंतर है मैं भोक्ता हूं, मैं भोग भोगूंगा यह विचार छोड़ के, त्याग के सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज भगवान की शरण में जाकर यह समझो कि कृष्ण ही भोक्ता है। कृष्ण को भोगने दो उनके साथ मुकाबला ( compitation) नहीं करना। और तुम घोषित करोगे ओ मे भोक्ता हू कृष्ण कौन होते हैं तो इस तरह जीव इच्छा द्वेष समुत्थेन जो कृष्ण ही कहे हैं। वैसे द्वेष तो बद्ध जीव भगवान से द्वेष करते हैं साथ ही साथ औरों के साथ भी उसका एनवी या द्वेष के भाव चलते रहते हैं। मैं भोक्ता हूं यह भाव उसका बना रहता है। उसके स्थान पर भगवान भोक्ता है तो आत्मेंदरिय प्रीती वांछा तार बलि काम जीव जब अपने खुद के इंद्रियों के लिए काम करता है उसका नाम है काम। और कृष्णेन्द्रिय प्रीती भगवान की भी इंद्रियां है वे ऋषिकेश है। ऋषिक मतलब इन्द्रिया। तो कृष्णेन्द्रिय प्रीती वांछा धरे प्रेम नाम उसका नाम है प्रेम। तो आत्मेंदरिय प्रीती काम कृष्णेन्द्रिय प्रीती नाम।
नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम साध्य कब्बू नाय।
श्रवनादि शुद्ध चित्ते करह उदय ।।
(च. च. मध्य 22.107)
यहां हम रुक रहे हैं, अंत में या पुनः मध्य लीला से चैतन्य चरितामृत यह सिद्धांत की बात है। सिद्धांत बलिया ना करे आलस सिद्धांत बोलने में या सुनने में कभी आलस नहीं करना चाहिए। यह बड़ा महत्वपूर्ण सिद्धांत है नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम जीव स्वभाव से ही प्रेमी है। लेकिन अब इस संसार ने उस को घेर लिया पछाड़ लिया या उसको अच्छादित किया हुआ है। काम की वासना या भावना ओ ने। लेकिन वह क्या करेगा श्रवनादि शुद्ध चित्ते करह उदय श्रवनादि नवविधा भक्ती से श्रवण कीर्तन, वंदन या पादसेवनम आत्मनिवेदनम इस तरह यह करने से क्या होगा चित्त शुद्ध होगा चेतो दर्पण मार्जन होगा। और करह उदय उदित होगा क्या उदित होगा? नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम । स्वभाव से जो वह प्रेमी है ही जीव का स्वभाव ही है प्रेम, प्रेम करना, प्रेम प्राप्त करना। ओके समय समाप्त हुआ है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
22 January 2021
Spiritual progress commences when lust becomes love
Gaura Premanande Hari Haribol! We have devotees chanting from 777 locations with us.
jaya sri-krsna-caitanya prabhu nityananda sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrinda
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
There is a small PPT on ‘Transforming lust into love’ which will be shown here.
āśā-pāśa-śatair baddhāḥ
kāma-krodha-parāyaṇāḥ
īhante kāma-bhogārtham
anyāyenārtha-sañcayān
Translation
Bound by a network of hundreds of thousands of desires and absorbed in lust and anger, they secure money by illegal means for sense gratification. (BG 16.12)
People in illusion do not know that they are controlled by Maya. The same goes for lust oriented people. Yes, we are lusty and therefore lust is our enemy.
śrī-bhagavān uvāca
kāma eṣa krodha eṣa
rajo-guṇa-samudbhavaḥ
mahāśano mahā-pāpmā
viddhy enam iha vairiṇam
Translation
The Supreme Personality of Godhead said: It is lust only, Arjuna, which is born of contact with the material mode of passion and later transformed into wrath, and which is the all-devouring sinful enemy of this world. (BG 3.37)
We are subdued by lust and do our activities under lust. We have no choice. In reality we must have love. We should be lovers of Lord Kṛṣṇa and His devotees, bhaghavat prema, bhakta prema. This presentation will help us to understand how to differentiate between love and lust.
“The goal of spiritual life is learning how to transform our egoistic nature back to its natural and real state.”
We have these preconceived notions, ‘I am this body’, aham bhogi, aham sukhi, aham balawan, ‘I am powerful.’ This is our ego, but this is not our real nature. Instead we should think that we are pure spirit soul. There are two types of egos – one is that we think the body is all in itself and the other is I am spirit soul, dasosmi – I am an eternal servant of Krsna. Bhaktivinoda Thakur says,
aham krsna dasa…….
I am not false, but real. The body is false and temporary, but the soul is real, eternal and that’s who I am. Spiritual life is not for information, but for transformation. We have gathered all the information from around the world, but it should lead to transformation, not just accumulating knowledge. Storing knowledge is useless. There should be an assimilation of the knowledge and it should be digested well to transform us. We have to do it – Hrdyangam. Srila Prabhupada said that there should be a revolution in consciousness. Instead of material transformation there should be spiritual transformation that is Kṛṣṇa consciousness. Lord Krsna explains in Bhagavad Gita the origin of lust,
icchā-dveṣa-samutthena
dvandva-mohena bhārata
sarva-bhūtāni sammohaṁ
sarge yānti paran-tapa
Translation
O scion of Bharata, O conqueror of the foe, all living entities are born into delusion, bewildered by dualities arisen from desire and hate. (BG 7.27)
The whole world is occupied by dualities. One duality is the attraction between a man and woman, which leads to attachment and lust.
dhyāyato viṣayān puṁsaḥ
saṅgas teṣūpajāyate
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ
kāmāt krodho ’bhijāyate
Translation
While contemplating the objects of the senses, a person develops attachment for them, and from such attachment lust develops, and from lust anger arises. (BG 2.62)
Lust and love are different manifestations of the same energy. From yoga-maya comes love and from maha-maya comes lust. The origin of both is Kṛṣṇa,
mayādhyakṣeṇa prakṛtiḥ
sūyate sa-carācaram
hetunānena kaunteya
jagad viparivartate
Translation
This material nature, which is one of My energies, is working under My direction, O son of Kuntī, producing all moving and nonmoving beings. Under its rule this manifestation is created and annihilated again and again. (BG 9.10)
Just like electricity is the source of heat and cold, similarly Lord Kṛṣṇa is the source of love and lust.
“The universe affects all 8.4 million of species from Lord Brahma to the insignificant bacteria.”
Srila Prabhupada says from Indra to Indra-gop germ (type of micro organism) everyone is disturbed and affected by lust. In every species, everyone is engrossed by lust, be it monkeys, elephants, dogs, germs.
karmaṇy evādhikāras te
mā phaleṣu kadācana
mā karma-phala-hetur bhūr
mā te saṅgo ’stv akarmaṇi
Translation
You have a right to perform your prescribed duty, but you are not entitled to the fruits of action. Never consider yourself the cause of the results of your activities, and never be attached to not doing your duty. (BG 2.47)
Maintain your family, but this maintenance is carried out in every species. They are also maintaining their families. It’s not only in human beings. The activities of the mind are thinking, feeling, willing. By thinking about the object of our senses it engages us throughout the day. This leads to intense feelings of envy, furthermore leading to lust. Arjuna said,
arjuna uvāca
atha kena prayukto ’yaṁ
pāpaṁ carati pūruṣaḥ
anicchann api vārṣṇeya
balād iva niyojitaḥ
Translation
Arjuna said: O descendant of Vṛṣṇi, by what is one impelled to sinful acts, even unwillingly, as if engaged by force? (BG 3.36)
Kṛṣṇa says that having lusty thoughts binds us to a strong desire and we end up acting on those, resulting in repeated birth and death.
kāyena vācā manasendriyair vā
buddhyātmanā vānusṛta-svabhāvāt
karoti yad yat sakalaṁ parasmai
nārāyaṇāyeti samarpayet tat
Translation
In accordance with the particular nature one has acquired in conditioned life, whatever one does with body, words, mind, senses, intelligence or purified consciousness one should offer to the Supreme, thinking, “This is for the pleasure of Lord Nārāyaṇa.” ( SB 11.2.36)
As stated in Caitanya-caritamrta,
kṛṣṇa bhuliya jīva bhoga vāñchā kare
pāśate māyā tāre jāpaṭiyā dhare [Prema-vivarta]
If we add fuel to the fire of lust, if we keep supplying the lusty desires in our heart then the fire of lust will always be blazing and will never extinguish.
Kamavesh, engrossed in lust.
vāco vegaṁ manasaḥ krodha-vegaṁ
jihvā-vegam udaropastha-vegam
etān vegān yo viṣaheta dhīraḥ
sarvām apīmāṁ pṛthivīṁ sa śiṣyāt
Translation
A sober person who can tolerate the urge to speak, the mind’s demands, the actions of anger and the urges of the tongue, belly and genitals is qualified to make disciples all over the world. (NOI text 1)
To trap a huge elephant, a she elephant makes him run after her. Finally he ends up falling in the pit covered with grass which was arranged to trap him. Just see this huge elephant is caught because of lust.
Anandmayao abhasat
Translation
“By nature and constitution every living being including the Supreme Lord and each of His part and parcel is meant for eternal enjoyment”. (Vedanta sutra)
Everyone is hankering for happiness because it’s the nature of the soul. The soul does not wish to be sad, even for a moment, Thus the living entity seeks happiness continuously. The Lord is infallible, and so He is eternally happy. But the living entity is the tatastha potency of the Lord and so sometimes he is happy and sometimes sad because of the interaction with matter with wishes to enjoy the material nature. When the entity interacts with the spirit (Kṛṣṇa) then it attains the original nature which leads to true happiness. As we can see in this material world, everyone is running after gross sense gratification – eating, sleeping, mating and defending. Through this the conditioned living entity tries to achieve false happiness.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṁ ca
samānam etat paśubhir narāṇām
Translation
Eating, sleeping, sex intercourse and defense—these four principles are common either to the animal or to the man. The animal also eats, the animal also sleeps, the animal also has sex intercourse, and he knows in his own way how to defend. So these things are natural in animal. [Hitopadeśa]
Emotional fulfilment is achieved through parties, family gatherings, rituals, demigod worship. All these keep the living entity on the level of mental happiness. Then there are intellectual people like scientists and philosophers trying to get happiness through speculation. There are spiritualists trying for happiness through Brahman realization, aham brahmasmi resulting in a fall down. One should try to find happiness through the soul, not through the body, mind, intellect. One’s real self is the soul. We are soul, not mind which is a subtle body. We are not the material mind and intelligence. Everything should be transformed into Krsna’s service. Working on the level of soul, trying to build our relationship with the Lord, and His devotees then there will be happiness all around us. Ikde tikde chohi kade… ( Everywhere)
The living entity wants love and also gives love to others. This want or desire of love is present in all species, no exceptions. But unfortunately, by getting lust in the name of love the living entities are being cheated. There is reciprocation of lust going on in the world. But in the spiritual world, our true ego is illuminated by serving Kṛṣṇa the true enjoyer,
bhoktāraṁ yajña-tapasāṁ
sarva-loka-maheśvaram
suhṛdaṁ sarva-bhūtānāṁ
jñātvā māṁ śāntim ṛcchati
Translation
A person in full consciousness of Me, knowing Me to be the ultimate beneficiary of all sacrifices and austerities, the Supreme Lord of all planets and demigods, and the benefactor and well-wisher of all living entities, attains peace from the pangs of material miseries. (BG 5.9)
Then our false ego will vanish. The true enjoyer is Sri Krsna, but the living entities under the spell of illusion thinks himself to be the enjoyers and acts accordingly. One should abandon this mastership and serve the Lord sincerely.
sarva-dharmān parityajya
mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja
ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions. Do not fear. (BG 18.66)
One should not compete with the Lord for being the enjoyer.
icchā-dveṣa-samutthena
dvandva-mohena bhārata
sarva-bhūtāni sammohaṁ
sarge yānti paran-tapa
Translation
O scion of Bharata, O conqueror of the foe, all living entities are born into delusion, bewildered by dualities arisen from desire and hate. (BG 7.27)
The jiva is envious of the Lord along with other living entities resulting in a competition to be the enjoyer. Let the Lord be the enjoyer as He is the real enjoyer and we are meant to be enjoyed by Him.
ātmendriya-prīti-vāñchā — tāre bali ‘kāma’
kṛṣṇendriya-prīti-icchā dhare ‘prema’ nāma
Translation
The desire to gratify one’s own senses is kāma [lust], but the desire to please the senses of Lord Kṛṣṇa is prema [love]. (CC Ādi 4.165)
nitya-siddha kṛṣṇa-prema ‘sādhya’ kabhu naya
śravaṇādi-śuddha-citte karaye udaya
Translation
Pure love for Kṛṣṇa is eternally established in the hearts of the living entities. It is not something to be gained from another source. When the heart is purified by hearing and chanting, this love naturally awakens. (CC Madhya 22.107)
This is important philosophy. One should attentively hear and not become lazy to hear.
siddhānta baliyā citte nā kara alasa
ihā ha-ite kṛṣṇe lāge sudṛḍha mānasa
Translation
A sincere student should not neglect the discussion of such conclusions, considering them controversial, for such discussions strengthen the mind. Thus one’s mind becomes attached to Śrī Kṛṣṇa. ( CC adi 2.117)
Originally we are Kṛṣṇa conscious souls, but we are attacked by Maya, but by following the nine process of devotional service one can definitely attain real love, Kṛṣṇa Prema.
Questions and Answers
Question 1:
Can the soul think and feel?
Gurudev uvaca
Of course, if Lord Kṛṣṇa can think, then definitely the soul can also think as we are part and parcels of the Lord. ‘Like father like children’, the living entity is a person. He has its own thoughts, activities, desires, form, character, feelings. He is the complete person, full fledged.
Question 2:
Sometimes this topic of lust is misunderstood by grhasthas. How can it be taken in a matured way so that it does not disturb the married life?
Gurudev uvaca
You don’t have to take sannyasa. You are in the grhastha ashram which means to follow the rules of that ashram properly. Sannayasi means no sex, no question about sex. Grhastha means no illicit sex, that means no sex outside marriage. One has to be careful about this. Sex is allowed only in grhastha, but there are certain rules prescribed so one must follow it. For example, liquor is sold at licensed outlets which leads to controlled usage. Sex should be regulated, controlled. One of the devotees has written a book entitled ‘Joy of No Sex’, which is the joy derived from the feeding the soul. As stated by Sri Kṛṣṇa in Bhagavad Gita,
balaṁ balavatāṁ cāhaṁ
kāma-rāga-vivarjitam
dharmāviruddho bhūteṣu
kāmo ’smi bharatarṣabha
Translation
I am the strength of the strong, devoid of passion and desire. I am sex life which is not contrary to religious principles, O lord of the Bhāratas [Arjuna]. (BG 7.11)
In the grhastha ashram sex is approved within certain limits. It is like a license to procreate. The difficulty is that one stays in the grhastha ashram forever. One should also take to vanaprastha. It does not mean that you have to go to the forest, but stay at home and practice detachment. The wife stays with the husband in the vanaprastha ashram, but there is no sex as Krsna says that sex is not Me, Detachment should be practiced. The age of 51 is the time to renounce by taking up vanaprastha – zero sex and fully engaging in the services of the supreme Lord Kṛṣṇa.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 22 января 2021 г.
ДУХОВНЫЙ ПРОГРЕСС НАЧИНАЕТСЯ, КОГДА ВОЖДЕЛЕНИЕ СТАНОВИТСЯ ЛЮБОВЬЮ
Гаура Премананде Хари Харибол! С нами воспевают преданные из 777 мест.
джайа шри-кришна-чайтанья прабху нитйананда
шри-адвайта гададхара шривасади-гаура-бхакта-вринда
Перевод:
Я выражаю свое глубокое почтение Шри Кришна Чайтанье, прабху Нитьянанде, Шри Адвайте, Гададхаре, Шривасе и всем остальным, следующим путем преданного служения.
(Панча-Таттва Маха-Мантра)
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Здесь будет показана небольшая презентация на тему «Превращение вожделения в любовь».
аша-паша-шатаир баддхах
кама-Кродха-парайанах
иханте кама-бхогартхам
анйайенартха-санчайан
Перевод Шрилы Прабхупады:
Запутавшись в сетях сотен желаний, снедаемые вожделением и гневом, они всеми правдами и неправдами добывают деньги, чтобы с их помощью удовлетворять свои чувства.
(Б.Г. 16.12)
Люди в иллюзии не знают, что ими управляет Майя. То же самое и с людьми, ориентированными на вожделение. Да, мы похотливы, и поэтому вожделение – наш враг.
ш́рӣ-бхагава̄н ува̄ча
ка̄ма эша кродха эша
раджо-гун̣а-самудбхавах̣
маха̄ш́ано маха̄-па̄пма̄
виддхй энам иха ваирин̣ам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь сказал: О Арджуна, эта сила не что иное, как вожделение, которое возникает под влиянием гуны страсти, а затем превращается в гнев. Вожделение — всепожирающий, греховный враг всех существ в этом мире.
(Б.Г. 3.37)
Мы покорены вожделением и действуем под влиянием вожделения. У нас нет выбора. На самом деле у нас должна быть любовь. Мы должны любить Господа Кришну и Его преданных, бхагхават према, бхакта према. Эта презентация поможет нам понять, как отличить любовь от вожделения.
«Цель духовной жизни – научиться преобразовывать нашу эгоистическую природу в ее естественное и реальное состояние».
У нас есть эти предвзятые представления: «Я есть это тело», ахам бхоги, ахам сукхи, ахам балаван, «Я могущественный». Это наше эго, но это не наша настоящая природа. Вместо этого мы должны думать, что мы чистая духовная душа. Есть два типа эго: одно состоит в том, что мы думаем, что тело само по себе, а другое – я духовная душа, дашошми – я вечный слуга Кришны. Бхактивинода Тхакур говорит:
ахам кришна дас…
Я не лживый, а настоящий. Тело фальшиво и временно, но душа реальна, вечна, и это то, кем я являюсь. Духовная жизнь предназначена не для информации, а для преобразования. Мы собрали всю информацию со всего мира, но она должна привести к трансформации, а не только к накоплению знаний. Хранить знания бесполезно. Знания должны быть усвоены, и они должны хорошо усвоиться, чтобы преобразовать нас. Мы должны это сделать – Хрдянгам. Шрила Прабхупада сказал, что в сознании должна произойти революция. Вместо материального сознания должно появиться духовное сознание, то есть сознание Кришны. Господь Кришна объясняет в Бхагавад-гите происхождение вожделения:
иччха̄-двеша-самуттхена
двандва-мохена бха̄рата
сарва-бхӯта̄ни саммохам̇
сарге йа̄нти парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
О потомок Бхараты, о покоритель врагов, все живые существа, появляясь на свет, оказываются во власти иллюзорной двойственности, возникающей из желания и ненависти.
(Б.Г. 7.27)
Весь мир занят двойственностями. Одна двойственность – это влечение между мужчиной и женщиной, которое приводит к привязанности и вожделению.
дхйа̄йато вишайа̄н пум̇сах̣
сан̇гас тешӯпаджа̄йате
сан̇га̄т сан̃джа̄йате ка̄мах̣
ка̄ма̄т кродхо ’бхиджа̄йате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Созерцая объекты, приносящие наслаждение чувствам, человек развивает привязанность к ним, из привязанности рождается вожделение, а из вожделения — гнев.
(Б.Г. 2.62)
Вожделение и любовь – разные проявления одной и той же энергии. Из йога-майи рождается любовь, а из маха-майи рождается вожделение. Происхождение обеих – Кришна,
майа̄дхйакшен̣а пракр̣тих̣
сӯйате са-чара̄чарам
хетуна̄нена каунтейа
джагад випаривартате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Будучи одной из Моих энергий, о сын Кунти, материальная природа действует под Моим надзором, производя на свет все движущиеся и неподвижные существа. Под ее началом мироздание снова и снова возникает и уничтожается.
(Б.Г. 9.10)
Подобно электричеству, источнику тепла и холода, Господь Кришна является источником любви и вожделения.
«Вселенная содержит все 8,4 миллиона видов жизни, от Господа Брахмы до незначительных бактерий».
Шрила Прабхупада говорит, что от Индры до бактерии Индра-гопа (тип микроорганизма) каждый страдает вожделением и страдает от него. Вожделение охватывает все виды, будь то обезьяны, слоны, собаки и микробы.
карман̣й эва̄дхика̄рас те
ма̄ пхалешу када̄чана
ма̄ карма-пхала-хетур бхӯр
ма̄ те сан̇го ’ств акарман̣и
Перевод Шрилы Прабхупады:
Ты можешь выполнять предписанные тебе обязанности, но у тебя нет права наслаждаться плодами своего труда. Никогда не считай, что результаты твоих действий зависят от тебя, но при этом и не отказывайся от выполнения своих обязанностей.
(Б.Г. 2.47)
Поддерживайте свою семью, но это служение проводится у всех видов. Они также содержат свои семьи. Дело не только в людях. Деятельность ума – это мышление, чувство, желание. Когда мы думаем об объекте наших чувств, мы занимаемся этим в течение дня. Это приводит к сильному чувству зависти, а также к вожделению. Арджуна сказал:
арджуна ува̄ча
атха кена прайукто ’йам̇
па̄пам̇ чарати пӯрушах̣
аниччханн апи ва̄ршн̣ейа
бала̄д ива нийоджитах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: О потомок Вришни, какая сила заставляет человека совершать грехи даже против его воли?
(Б.Г. 3.36)
Кришна говорит, что похотливые мысли привязывают нас к сильному желанию, и мы в конечном итоге действуем в соответствии с ними, что приводит к повторяющимся рождениям и смерти.
ка̄йена ва̄ча̄ манасендрийаир ва̄
буддхйа̄тмана̄ ва̄нуср̣та-свабха̄ва̄т
кароти йад йат сакалам̇ парасмаи
на̄ра̄йан̣а̄йети самарпайет тат
Перевод Шрилы Прабхупады:
Какой бы характер ни приобрел человек за время обусловленной жизни, всем, что у него есть — телом, речью, умом, чувствами, разумом и очищенным сознанием, — он должен поклоняться Всевышнему, думая при этом: «Всё это я делаю ради удовольствия Господа Нараяны».
(Ш.Б. 11.2.36)
Как сказано в Чайтанья-чаритамрите,
кр̣ш̣н̣а-бахирмукха хан̃а̄ бхога-ва̄н̃чха̄ каре
никат̣а-стха ма̄йа̄ та̄ре джа̄пат̣ийа̄ дхаре
Перевод:
Как только у живого существа возникает желание наслаждаться материальной природой отдельно от Кришны, оно тут же становится жертвой майи, материальной энергии.
(«Шри Према-виварта», 6.2)
Если мы подливаем масла в огонь вожделения, если мы продолжаем подпитывать похотливые желания в нашем сердце, то огонь вожделения всегда будет гореть и никогда не угаснет.
Камавеш (слуга желания) охвачен вожделением.
ва̄чо вегам̇ манасах̣ кродха-вегам̇
джихва̄-вегам ударопастха-вегам
эта̄н вега̄н йо вишахета дхӣрах̣
сарва̄м апӣма̄м̇ пр̣тхивӣм̇ са ш́ишйа̄т
Перевод Шрилы Прабхупады:
Уравновешенный человек, способный контролировать свою речь и ум, сдерживать гнев и укрощать побуждения языка, желудка и гениталий, достоин принимать учеников повсюду в мире.
(Текст 1, Нектар Наставлений)
Чтобы поймать огромного слона, слониха заставляет его бежать за собой. В конце концов, он падает в яму, покрытую травой, которая была устроена так, чтобы поймать его. Вы только посмотрите, этого огромного слона поймали из-за вожделения.
анандмайа абхасат
Перевод:
«По природе и конституции каждое живое существо, включая Верховного Господа и каждую из Его неотъемлемых частиц, предназначено для вечного наслаждения».
(Веданта-сутра)
Все стремятся к счастью, потому что это природа души. Душа не желает грустить ни на мгновение. Таким образом, живое существо постоянно ищет счастья. Господь непогрешим, поэтому Он вечно счастлив. Но живое существо – это пограничная энергия Господа, и поэтому иногда оно бывает счастливым, а иногда грустным из-за взаимодействия с материей и желанием наслаждаться материальной природой. Когда душа взаимодействует с духом (Кришной), она обретает изначальную природу, которая ведет к истинному счастью. Как мы можем видеть в этом материальном мире, все стремятся к грубым чувственным удовольствиям – есть, спать, совокупляться и защищаться. Благодаря этому обусловленное живое существо пытается достичь ложного счастья.
ахара-нидра-бхайа-маитхунан ча саманам этат пашубхир наранам
Перевод:
Еда, сон, страх и продолжение рода присущи как животным, так и людям.
(Хитоупдеша, текст 25)
Эмоциональное удовлетворение достигается через общение, семейные союзы, ритуалы, поклонение полубогам. Все это поддерживает счастье ума живого существа. Кроме того, есть разумные люди, такие как ученые и философы, которые пытаются достичь счастья с помощью спекуляций. Есть экстрасенсы, пытающиеся обрести счастье через осознание Брахмана, ахам брахмасми, что приводит к падению. Нужно пытаться найти счастье через душу, а не через тело, ум, разум. Настоящее я – это душа. Мы душа, а не ум, который является тонким телом. Мы не материальный ум и разум. Все должно быть преобразовано в служение Кришне. Думать на уровне души, пытаясь построить наши отношения с Господом и Его преданными, тогда будет счастье вокруг нас. Икде тикде чохи кадэ… (Везде)
Живое существо хочет любви, а также дает любовь другим. Это желание любви присутствует у всех без исключения видов. Но, к сожалению, живые существа обманывают из-за вожделения во имя любви. В мире происходит взаимное влияние вожделения. Но в духовном мире наше истинное эго освещается служением Кришне, истинному наслаждающемуся,
бхокта̄рам̇ йаджн̃а-тапаса̄м̇
сарва-лока-махеш́варам
сухр̣дам̇ сарва-бхӯта̄на̄м̇
джн̃а̄тва̄ ма̄м̇ ш́а̄нтим р̣ччхати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Человек, полностью осознавший, что Я единственный, кто наслаждается всеми жертвоприношениями и плодами подвижничества, что Я верховный владыка всех планет и полубогов, а также друг и благодетель всех существ, избавляется от материальных страданий и обретает полное умиротворение.
(Б.Г. 5.29)
Тогда наше ложное эго исчезнет. Истинным наслаждающимся является Шри Кришна, но живые существа, находящиеся под чарами иллюзии, считают себя наслаждающимися и поступают соответственно. Следует отказаться от этого представления и искренне служить Господу.
сарва-дхарма̄н паритйаджйа
ма̄м экам̇ ш́аран̣ам̇ враджа
ахам̇ тва̄м̇ сарва-па̄пебхйо
мокшайишйа̄ми ма̄ ш́учах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Оставь все религии и просто предайся Мне. Я избавлю тебя от всех последствий твоих грехов. Не бойся ничего.
(Б.Г. 18.66)
Не следует соревноваться с Господом за то, что Он наслаждается.
иччха̄-двеша-самуттхена
двандва-мохена бха̄рата
сарва-бхӯта̄ни саммохам̇
сарге йа̄нти парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
О потомок Бхараты, о покоритель врагов, все живые существа, появляясь на свет, оказываются во власти иллюзорной двойственности, возникающей из желания и ненависти.
(Б.Г. 7.27)
Джива завидует Господу вместе с другими живыми существами, что приводит к конкуренции за право наслаждаться. Пусть Господь наслаждается, поскольку Он действительно наслаждается, и Он предназначен для того, чтобы мы наслаждали Его.
а̄тмендрийа-прӣти-ва̄н̃чха̄ — та̄ре бали ‘ка̄ма’
кр̣шн̣ендрийа-прӣти-иччха̄ дхаре ‘према’ на̄ма
Перевод Шрилы Прабхупады:
Желание удовлетворять собственные чувства именуется камой, вожделением, а желание услаждать чувства Господа Кришны называют премой, или чистой любовью.
(Ч.Ч. Ади-лила 4.165)
итйа-сиддха кр̣шн̣а-према ‘са̄дхйа’ кабху найа
ш́раван̣а̄ди-ш́уддха-читте карайе удайа
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Чистая любовь к Богу вечно обитает в сердцах живых существ. Она не относится к категории вещей, получаемых извне. Когда сердце очищено слушанием и воспеванием, эта любовь пробуждается сама собой».
(Ч.Ч. Мадхья 22.107)
Это важная философия. Нужно внимательно слушать и не лениться слышать.
сиддха̄нта балийа̄ читте на̄ кара аласа
иха̄ ха-ите кр̣шн̣е ла̄ге судр̣д̣ха ма̄наса
Перевод Шрилы Прабхупады:
Искренний ученик не сочтет подобные обсуждения сиддханты пустыми препирательствами и не обойдет их вниманием, ибо они укрепляют ум. Благодаря им в уме развивается привязанность к Шри Кришне.
(Ч.Ч. Ади-лила 2.117)
Изначально мы являемся душами в сознании Кришны, но на нас нападает Майя, но, следуя девяти методам преданного служения, можно определенно достичь настоящей любви, Кришна Премы.
Вопросы и ответы
Вопрос 1: Может ли душа думать и чувствовать?
Гурудев сказал:
Конечно, если Господь Кришна может думать, тогда определенно может думать и душа, поскольку мы являемся неотъемлемыми частицами Господа. «Как отец, как дети», живое существо – это личность. У него есть свои мысли, деятельность, желания, форма, характер, чувства. Она полноценная личность, полноценная.
Вопрос 2:
Иногда грихастхи неправильно понимают эту тему вожделения. Как его принять по-серьезному, чтобы оно не мешало семейной жизни?
Гурудев сказал:
Вам не нужно принимать санньясу. Вы находитесь в грихастха-ашраме, что означает правильное следование правилам этого ашрама. Санньяси означает отсутствие секса, никаких вопросов о сексе. Грихастха означает запрет на секс, то есть секс вне брака. С этим нужно быть осторожным. Секс разрешен только в грихастха ашраме, но есть определенные правила, поэтому им нужно следовать. Например, спиртные напитки продаются в лицензированных торговых точках, что ведет к контролируемому употреблению. Секс нужно регулировать, контролировать. Один из преданных написал книгу под названием «Счастье без секса», которая представляет собой счастье, получаемое от удовлетворения души. Как сказал Шри Кришна в Бхагавад Гите:
балам̇ балавата̄м̇ ча̄хам̇
ка̄ма-ра̄га-виварджитам
дхарма̄вируддхо бхӯтешу
ка̄мо ’сми бхаратаршабха
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я сила сильных, свободная от страсти и желания. Я половая жизнь, не противоречащая законам религии, о предводитель Бхарат.
(Б.Г. 7.11)
В грихастха ашраме секс разрешается в определенных пределах. Это похоже на лицензию на размножение. Трудность в том, что человек остается в грихастха ашраме навсегда. Также следует принять ванапрастху. Это не значит, что нужно идти в лес, а оставаться дома и практиковать отрешенность. Жена остается с мужем в ашраме ванапрастха, но там нет секса, поскольку Кришна говорит, что секс – это не Я, следует практиковать непривязанность. 51 год – это время отречься, приняв ванапрастху – отказ от секса и полное участие в служении верховному Господу Кришне.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
21जनवरी 2021
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
(पञ्चतत्त्व महामन्त्र)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
सूनो जगजीवन! (उपस्थित भक्तों में से)
नाम का संकीर्तन हो रहा हैं। रूप गोस्वामी, प्रभुपाद कह रहे हैं। तन्नामरुपचरितादिसुकीर्तनानु हमें नाम रुपादि कीर्तन ,हमें आदि मतलब इत्यादि इत्यादि मतलब, हम समझा ही रहे हैं नाम का, रूप का, गुण का, लीला का, धाम का,परिकरों का कीर्तन करना चाहिए ।ऐसा जीवन व्यतीत करना चाहिए। नाम,रूप,गुण, लीला, धाम ,परिकरो के कीर्तन में, कीर्तनीय सदा हरी इसमें से नाम, रूप,गुण का हमने स्मरण किया। कुछ कथा कि कहो या किर्ति का गान किया,नाम का कीर्तन या नाम का महिमा।रूप हम जीवन भर केवल रूप का कीर्तन कर सकते है,जीवन भर नाम कीर्तन कर सकते, कितना सारा हैं। नाम का कीर्तन इतना है और रूप का कीर्तन,रूप कि कीर्ति, रूप का महिमा, रूपों का वैशिष्ट, रूपों का वर्णन इतना सारा है कि हम सदैव नित्यम भागवत सेवया कर सकते हैं। नाम,रूप, गुण,दोनों का तो कितना बखान हम कर सकते हैं। अनंत शेष जिनको सहस्त्र वदन भी कहते हैं। उनके एक हजार मुख हैं,अनंत शेष और वे गा ही रहे हैं;कीर्ति का गान कर रहे हैं, अपने हजार मुखों सें। ना जाने कब से वह ये कर रहे हैं जब से वह है तब से कर ही रहे हैं, और उसका कोई अंत नहीं है, अनंत है। भगवान अनंत हैं। कहते हैं ना अनंत…शेष। तो भी कुछ रही जाता हैं। अनंतशेष इतना सारा कहे जाने पर भी कुछ ना कुछ शेष रह जाता है, कहने का।ऐसे है,ऐसे हैं भगवान, ऐसे हैं कृष्ण। ऐसा है उनका नाम, ऐसा है उनका रूप, ऐसे उनके गुण हम बता रहे थे कितने सारे गुण ही है ,गुणों की खान हैं। हरि हरि! गुणार्णवस्य
वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखित संसार दावानल
गुणार्णव गुरु जनो को गुणार्णव कहा जा सकता है अर्णव मतलब गुण के सागर सागर गुरु तो भगवान कृष्ण के बारे में क्या कहा जाए। गुणार्णव गुणों के सागर। और इतना होते हुए भी उनको निर्गुण कहते हैं तो भगवान निर्गुण, निराकार है नाम रूप कितने इतने सारे रूप है इतने सुंदर रूप है तो भी प्रचार क्या है? भगवान निराकार हैं। तो हम कल बता रहे थे, निर्गुण मतलब भगवान के गुण भौतिक गुण नहीं है सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण भगवान ने नहीं है,वैसे भगवान निर्गुण है मतलब गुनातीत है तीन गुणों के परे हैं। अलौकिक गुणों से संपन्न है, युक्त है भगवान तो रूप की बात वैसी ही है निराकार भगवान का आकार भौतिक आकार नहीं हैं, प्राकृतिक नहीं है या प्रकृति से नहीं बना हैं। वह है सच्चिदानंदविग्रह: सत् चित्र आनंद विग्रह, विग्रह मतलब रूप,तो भगवान के आकार ही आकार हैं रूप ही रूप हैं।
अव्दैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभत्त्कौ गोविन्दमादिपरुषं तमहं भजामि।।
श्री ब्रम्ह संहिता 5.33
अनुवाद: -जो वेदों के लिए दुर्लभ है किंतु आत्मा कि विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ है, जो अद्वैत है, अच्छी है, अनादि है, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि है तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदि पुरुष भगवान गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
भगवान के अनंत रूप हैं। नाम, रूप, गुण और फिर लीला।जितने रूप है इतने सारी रूपों से भगवान लीला खेलते है, लीला करते हैं ।जो भी करते हैं भगवान, वह लीला ही हैं। गीता का उपदेश सुनाते हैं वह भी लीला ही हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
श्रीमद्भगवद्गीता 4.8
अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
दुष्टो का विनाश करते है, रावण का वध करते है, वो भी लीला ही हैं। योग निद्रा में पहुडे है,महाविष्णु भगवान वह भी उनकी लीला हैं।
गीतं मधुरं पीतं मधुरं
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥
श्री वल्लभाचार्य लिखित अधरं मधुरं गीत
अनुवाद: -उनका गायन मधुर है, उनके पीत वस्त्र (पीले वस्त्र) मधुर हैं, उनका खाना मधुर है, उनका शयन करना मधुर है, उनका सौंदर्य मधुर है, उनका तिलक मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर हैं।
भगवान का विश्राम करना, सोना भी अद्भुत है, मधुर है श्रीरंगम् में भगवान विश्राम कर रहे हैं उनके दर्शन के लिए लोग जाते हैं भगवान का हर कृत्य हर कार्य जो भी हिलना, डुलना, चलना,सोचना ,सोचना भी कार्य है, भावना हैं। भगवान में भावना हैं। भगवान भी भावना व्यक्त करते हैं, उन से प्रेम करते हैं भगवान कृष्ण और फिर कृष्ण अपने माधुर्य के लिए प्रसिद्ध हैं। भगवान कृष्ण में 64 गुण है, उनमें से चार विशेष गुण हैं। माधुर्य उनको कहते हैं प्रेम माधुर्य हैं। भगवान भक्तों से प्रेम करते हैं। प्रेम! भगवान में प्रेम हैं, उनका प्रेम किन के प्रति भक्तों के प्रति और कौन है?एक तो है भगवान और दुसरा है भक्त तीसरा कोई है ही नहीं। एक है भगवान ओर उनके है अंश।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.7
अनुवाद:- इस बध्द जगत में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बध्द जीवन के कारण वे छहों इंद्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं। जिनमें मन भी सम्मिलित हैं।
वैसे भगवान के अलग-अलग जो विस्तार हैं
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
श्रीमद्भागवतम् 1.3.28
अनुवाद:-उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
भगवान के वैसे दो प्रकार के अंश हैं। हम जीवात्मा भी अंश है और भगवान के अवतार भी, वे भी भगवान के अंश है स्व अंश, विभिन्न अंश। भगवान के जो अवतार है फिर बलराम है या..
रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु।
कृष्ण: स्वयं समभवत्परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
ब्रम्ह संहिता 5.39
अनुवाद: -जिन्होंने श्रीराम, नृसिंह, वामान इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान श्री कृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
भगवान के जो नाना अवतार है,
विस्तार है, वह भी भगवान के अंश ही हैं।और भगवान कृष्ण अंशी है और अंशी कृष्ण के अंश है ये इतने सारे विस्तार, अवतार भी उनको स्व अंश कहा है, और हम जो जीव है जीवात्मा भी भगवान के अंश है।और उनको कहा है विभिन्न अंश, स्वअंश भगवान के सारे जो अवतार है और भगवान के जो सारे जीव है जीवात्मा जो हम जीव है वे भी अंश ही हैं। वे हैं विभिन्न अंश इस प्रकार भगवान के कई सारे रूप हो गये। हरि हरि!
उन रूपों में स्वयं कृष्ण का जो रूप है वह रूप माधुरी वह सर्वोपरि हैं। उनका प्रेम माधुर्य और और अवतार भी उनके भक्तों से प्रेम करते हैं ।लेकिन कृष्ण का भक्तों के प्रति जो प्रेम है उस प्रेम की सीमा है असीम अतुलनीय हैं।मैचलेस!हरि हरि!
उनके और अवतार है उनका संबंध भगवान के साथ, भगवान स्वामी है, भगवान है,परमेश्वर है और उनके भक्त दास है, उसे दास्य भाव या फिर गौण भाव का रसों का आदान-प्रदान भगवान के अन्य अवतारों में अवतारों और भक्तों के मध्य में किंतु श्री कृष्ण के साथ जो लेनदेन या जो प्रेम का व्यवहार है, या व्यापार है,वह है साख्य रस है,और वात्सल्य रस, और है माधुर्य रस ,और उसमें भी पहले बता चुके हैं आपको अब नहीं कहूंँगा यह तो दूसरी बात है तो नाम,रूप गुण लीला कि बात हो रही है तो भगवान जो भी करते हैं वह उनका खेल ही है, लीला ही हैऔर भगवान कि लीला संपन्न होती रहती हैं। अष्टकालीय लीला जो वृंदावन की बात हैं।
व्रज तिष्ठन् करो! रूप गोस्वामी ने कहा हैं। तन्नामरुपचरितादिसुकीर्तनानु कीर्तन करो!नाम, रूप, लीला का कीर्तन करो! व्रज तिष्ठन् वृंदावन में रहते हुए! हरि हरि! या इस्कान के मंदिरो में रहते हुए,या अपने घर को मंदिर बनाते हुए। भगवान लीला करते हैं। विग्रह की लीलाएं होती हैं। साक्षी गोपाल विग्रह कि लीला या मदन मोहन की लीला, संवाद सनातन गोस्वामी के साथ या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि लीला जगन्नाथ स्वामी के साथ या फिर तुकाराम महाराज को भगवान का दर्शन देना। हरि हरि!
वे भी रूप हैं विग्रह भी रूप हैं और विग्रह भी लीला खेलते हैं। विग्रह भी भोजन करते हैं। विग्रह को भी हम राजभोग को ग्रहण करने के उपरांत भगवान विश्राम करते है, लीला हैं। उत्थान आरती का समय होता है तो भगवान को जगाते हैं। भगवान का अभिषेक होता है लीला हैं। भगवान का श्रृंगार करते हैं हम वह लीला हैं। भगवान मुरलीधर मुरली बजाते हैं और शुद्ध भक्त उस मुरली के नाद (सुर) सुनते हैं। हरि हरि!
माधुर्य लीला
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखित संसार दावानल
अनुवाद: -श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
गुरुजन क्या करते हैं? गुर्वाष्टक में कहां हैं। प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य
क्षणअनूक्षण कोई कीर्तन कर रहा हैं। रसास्वादन कर रहे हैं किस प्रकार करते हैं।
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
राधामाधव के माधुर्य लीला का,
उनके के गुणों का, उनके रूप का वर्णन कर रहा हैं। -नाम्नाम् उनके नाम का कोई कीर्तन कर रहा हैं, कोई श्रवण कर रहा है मतलब प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य लोलुप हो चुका है,लंपट हो चुका है,ये सब श्रवण करने में भी, कोई कहने में, कोई उसके श्रवण में, प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य हरि हरि!
यह लीला की बातें इतना ही कह सकते है और भी कह सकते हैं लेकिन इस परिस्थिति में हम बोल रहे हैं यहां तो इतना ही बोल सकते हैं।और फिर धाम की बात है ।धाम का भी कीर्तन करना चाहिए। धाम भी इतने सारे हैं, भगवान धाम में काम करते हैं ।उस काम को हम लीला कहते हैं। लीला खेलने के लिए कोई स्थान चाहिए ।वह स्थान धाम है और सारी सृष्टि के दो विभाजन हो चुके हैं, एक भौतिक साम्राज्य है और दूसरा आलौकिक साम्राज्य है ।अलौकिक साम्राज्य धाम है ।
भ. गीता 15.6
न तभ्दासयते सूर्यो न शशाक्डो न पावक:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तध्दाम परमं मम।।
अनुवाद: -वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चंद्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहाँ पहुंँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत में फिर से लौट कर नहीं आते।
और अन्य शास्त्रों में भी बहुत सारा वर्णन है ।श्रीमद्भागवतम में भी वर्णन है। वृंदावन ,मथुरा, द्वारका धाम, बैकुंठ, साकेत (अयोध्या) का वर्णन है। यह सब धाम है। यह जितने अवतार हैं उनके अपने-अपने धाम हैं। इसलिए उन अवतारों को धामी कहा जाता है। जिनका धाम होता है उन्हें धामी कहा जाता है। श्री कृष्ण वृंदावन के धामी हैं, श्री राम अयोध्या के धामी हैं, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मायापुर के धामी है, द्वारकाधीश द्वारका के धामी हैं ,द्वारकाधीश की जय! तो कई सारे धाम है ,उसके भी प्रकार, श्रेणियां और स्तर हैं ।और सब का विस्तार हुआ है ,आध्यात्मिक जगत में और इस भौतिक जगत में भी धाम है। वृंदावन धाम… वैसे वृंदावन भौतिक जगत में नहीं है ऐसा लगता है कि है।
गोलोकर वैभव लीला कोरिल प्रकाश
भगवान ने गोलोक की वैभव लीला गोकुल में प्रकाश की तो उसी गोलोक का विस्तार गोकुल है। अयोध्या भी यहां है, पंढरपुर और श्रीरंगम को भू वैकुंठ कहते हैं, जगन्नाथ पुरी धाम यहां भी है और वहां भी ,सर्वत्र है।
श्रीमद भागवतम 1.13.10
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता ॥
जहां भी भगवान के भक्त रहते हैं वही तीर्थ स्थान बन जाता है ,क्योंकि भगवान उनके हृदय में वास करते हैं।
गौर-बिहित, कीर्तन सुनी,आनंदे हृदय नाचे
शुद्ध भगत( शरणागति)
जे -दिन गृहे,भजन देखि गृहेते गोलोक भाय
शुद्ध भगत( शरणागति)
भक्ति विनोद ठाकुर कह गए जिस दिन मेरे घर में कीर्तन होता है, संत महात्मा आते हैं, भक्त आते हैं, साधु संग होता है और मृदंग बचता है, तो मृदंग और कीर्तन की ध्वनि जब मैं सुनता हूं तो मेरा ह्रदय आनंद से नाचता है। और मेरा घर गोलोकधाम बन जाता है। पहले आपका ह्रदय धाम हुआ,फिर आपका घर धाम हुआ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
अनुवाद : जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
संत महात्मा के आंखों में प्रेम के अंजन और अश्रु हैं। जब वे ऐसी दृष्टि से देखते हैं तो ह्रदय में उनको सदा भगवान का दर्शन होता है। तो ह्रदय धाम हो गया, या ह्रदय को विश्राम भी कहा गया है। तोमार हृदय सदा गोविंद विश्राम एक गीत में कहते है कि एक भक्त के ह्रदय में भगवान सुख पूर्वक विश्राम करते हैं।
तो हमारा ह्रदय धाम हो गया ,इसे कहते हैं दिल एक मंदिर है। जहां मंदिर है, जहां भगवान है, वहीं धाम है। फिर कहां धाम नहीं है? जब श्री राम वनवास के लिए जा रहे थे तब उन्होंने वाल्मीकि जी से पूछा मैं कहां रह सकता हूं ?वन में मेरा निवास कहां होगा ?तो वाल्मीकि जी ने कहा प्रभु पहले यह बताइए कि आप कहां नहीं रहते हैं? यदि ऐसा कोई स्थान है जहां आप नहीं हैं तो फिर वहां भी रहिए। और फिर आपने पूछा ही है कि आप कहां रह सकते हैं? तो मेरा यह विशेष निवेदन है कि हे प्रभु आप अपने भक्तों के हृदय प्रांगण में रहिये। भगवान जहां भी रहते हैं वह धाम है। इस प्रकार भगवान के धाम ही धाम हैं। और यह सब होते हुए भी दुनिया वालों को बिल्कुल पता नहीं है।
भ गीता 7.25
नाहं प्रकाश सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोSयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।
अनुवाद: -मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूंँ। उनके लिए तो मैं अपनी अंतरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूंँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूंँ।
महामाया से मैं सब को ढक लेता हूं। इसको प्रकाशित नहीं करता। तो ऐसी परिस्थिति के कारण असंख्य लोगों को धाम का ज्ञान नहीं है। जो मायावादी हैं भगवान के रूप को नहीं मानते ।जब रूप ही नहीं है तो लीला कैसे खेलेंगे? जब लीला ही नहीं खेलेंगे तो धाम की क्या आवश्यकता है ?
भ.ग 7.3
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ॥ ३ ॥
अनुवाद
कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है |
भ.ग. 4.9
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
जो केवल भगवान को तत्व से जानते हैं ,वे ही भगवान के धाम को प्राप्त करते हैं।नाम का तत्व है ,धाम का तत्व है, लीला का तत्व है, गुरु का भी तत्व है। जो भगवान को तत्व से नहीं जानते वह जानते ही नहीं हैं ।
ब्रम्ह संहिता 5.43
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
अनुवाद: -जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुंठ लोक (हरीधाम), महेश लोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों में विभिन्न स्वामियों को यथा योग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
ब्रह्मा जी देख रहे हैं। यह उनका साक्षात्कार है। वह देखो गोलोक! गोलोक निज धाम में कृष्ण वास करते हैं। यह धाम है और उस धाम में भगवान लीला खेलते हैं। खेल भी खेलना है तो खेलने के लिए खिलाड़ी चाहिए और यहां फिर भगवान के परिकर आ जाते हैं। भगवान के अनगिनत परिकर हैं। कुछ तो भूले भटके यहां इस ब्रह्मांड में भटक रहे हैं। उनकी गणना कौन कर सकता है? 8400000 योनियों में भटक रहे हैं। भ्रमित होते हैं।कुछ ही साथ आते हैं जैसे राजा कहीं जाते हैं तो उनके कुछ ही संगी साथी साथ आते हैं, जैसे सचिव इत्यादि। कोई मंत्री जाता है तो पूरी जनता को नहीं लेकर जाता। भगवान भी कुछ ही विशेष परिकरों के साथ प्रकट होते हैं। महाभारत में लाखों भक्तों का उल्लेख हुआ है। रामायण पढ़ो कितने सारे भगवान के परिकरों का उल्लेख है ।राम भक्त हनुमान की जय! सुग्रीव की जय! वशिष्ठ की जय! सब माताओं की जय! राजा दशरथ की जय! इतने सारे श्री राम के चरित्र में पतिकारों का उल्लेख है। फिर चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत, चैतन्य मंगल है। आप गिनोगे कितने भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ संकीर्तन करते हैं ?जब काज़ी की कोठी की तरफ चैतन्य महाप्रभु जा रहे थे, तो उस समय का चैतन्य भागवत में संकीर्तन का जो वर्णन है, कि कितने जन उस संकीर्तन में उपस्थित थे ,तो उसमे यह वर्णन है कि कई कोटि-कोटि भक्त उस कीर्तन में थे। तो कहां जीसस कहते हैं कि मैं भगवान का पुत्र हूं। हमारे इसाई बंधु ऐसा कहते है पर हम तो कुछ ही भक्तों का उल्लेख कर सकते हैं। भगवान के कितने पुत्र होने चाहिए? भगवान को सीमित क्यों बना रहे हो? जैसे आप गृहस्थ हो तो, आप दो आपके दो ,ऐसा चल रहा है ।पर पहले अष्ट पुत्र सौभाग्यवती हो, या दर्जन बेटे बेटियां हुआ करती थी ।गृहस्थों के जब इतने पुत्र पुत्रियां हो सकती हैं तो भगवान के कितने पुत्र पुत्रियां, भक्त, परिकर हो सकते हैं? वह भी उनका भगवान के साथ शाश्वत और घनिष्ठ संबंध है। कोई है दास ,तथा माता-पिता, प्रेयसी ,प्रियकर, ऐसे संबंध हैं। परिकर ही परिकर है। तो चैतन्य महाप्रभु के पहले मायापुर में परिकर,फिर जगन्नाथपुरी में परिकर,फिर वृंदावन में परिकर थे। और इसी तरह फिर कुलीन ग्राम में, श्रीखंड में और शांतिपुर में परिकर ही परिकर थे।
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
21 January 2021
Unlimited glories of Lord’s pastimes, abode and associates
Hare Kṛṣṇa!
We are chanting the holy names of the Lord Kṛṣṇa which is called Kirtana. As Srila Rupa Goswami says,
tan-nāma-rūpa-caritādi-sukīrtanānu-
smṛtyoḥ krameṇa rasanā-manasī niyojya
tiṣṭhan vraje tad-anurāgi-janānugāmī
kālaṁ nayed akhilam ity upadeśa-sāram
Translation
The essence of all advice is that one should utilize one’s full time – twenty-four hours a day – in nicely chanting and remembering the Lord’s divine name, transcendental form, qualities and eternal pastimes, thereby gradually engaging one’s tongue and mind. In this way one should reside in Vraja [Goloka Vṛndāvana-dhāma] and serve Kṛṣṇa under the guidance of devotees. One should follow in the footsteps of the Lord’s beloved devotees, who are deeply attached to His devotional service. (NOI 8)
Out of which we have been discussing about the glories of the names and the beautiful form of the Lord. kirtaniya sada harih! We can go on discussing about the same forever as it’s so vast. nityam bhagavata sevaya! Ananta Sesa has been singing the glories of the Lord from His thousand mouths since time immemorial but still he misses out on something – such is the vastness of Kṛṣṇa’s glories. One can describe unlimitedly about one’s spiritual master vande guro sri caranarvinda. Then what to say about the qualities of the Lord. Krsna is guna arnava – ocean of qualities. Despite this, some people say the Lord is formless; Nirguna means above the three modes of material nature. His form is not material. He is sat cit ananda, full of knowledge, bliss and eternity. As stated in Brahma Samhita,
advaitam achyutam anadim ananta-rupam
adyam purana-purusham navayauvanam cha
vedesu durlabham adurlabham atma-bhaktau
govindam adi-purusham tam aham bhajami
Translation
I worship Govinda, the primeval Lord, whose transcendental form is full of bliss, truth, substantiality and is thus full of the most dazzling splendor. Each of the limbs of that transcendental figure possesses in Himself, the full-fledged functions of all the organs, and eternally sees, maintains and manifests the infinite universes, both spiritual and mundane. (Brahma Samhita Text 5)
Whatever Kṛṣṇa does is His transcendental pastimes – narrating Bhagavad Gita, killing demons, lying in the causal ocean, or resting in Sri Rangam, His thinking, feeling, willing all are transcendental and eternal. Kṛṣṇa has 64 qualities and out of those there are 4 chief qualities. Prema Madhuri is the topmost which He exhibits with His devotees.
ete cāṁśa-kalāḥ puṁsaḥ
kṛṣṇas tu bhagavān svayam
indrāri-vyākulaṁ lokaṁ
mṛḍayanti yuge yuge
Translation
All of the above-mentioned incarnations are either plenary portions or portions of the plenary portions of the Lord, but Lord Śrī Kṛṣṇa is the original Personality of Godhead. All of them appear on planets whenever there is a disturbance created by the atheists. The Lord incarnates to protect the theists. (SB 1.3.28)
We living entities are known as vibinna amshas of the Lord. In this way there are many forms of Kṛṣṇa. His love for His devotees is matchless. There are five mellows in which the devotees connect with the Lord known as Sakhya Rasa, Shanta Rasa, Madhurya Rasa, Vatsalya Rasa, Dasya Rasa. Vraje tishthan as Srila Rupa Goswami emphasised that one should engage in Kirtana of the Lord’s name, form, qualities and pastimes. In Vrindavan the ashtakalya lila of the Lord takes place. One can remember these pastimes from anywhere and connect oneself with the Lord and His pastimes. There are many pastimes of the Lord with His devotees like that of Sanatana Goswami talking with his Deity and Saint Tukarama’s devotion to Lord Vitthala, Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu’s pastime with Lord Jagannatha at Puri temple. The Deity is the form of the Lord and performs multiple pastimes with His devotees. There are various devotional services like waking up the Deity, doing abhishek, offering bhoga, performing aratik.
In Gurvastaka there is a verse
shri-radhika-madhavayor apara- madhurya-lila-guna-rupa-namnam prati-kshanasvadana-lolupasya vande guroh shri-charanaravindam
Translation
The spiritual master is always eager to hear and chant about the unlimited conjugal pastimes of Radhika and Madhava, and Their qualities, names, and forms. The spiritual master aspires to relish these at every moment. I offer my respectful obeisances unto the lotus feet of such a spiritual master. (Text 5)
One should also remember the glories of the holy place, do kirtan of the dhama. The Lord’s pastimes predominantly takes place at two different places. The extraordinary place where the Lord resides is known as the spiritual world and the other one is the material world. The Lord says in Bhagavad Gita,
na tad bhāsayate sūryo
na śaśāṅko na pāvakaḥ
yad gatvā na nivartante
tad dhāma paramaṁ mama
Translation
That supreme abode of Mine is not illumined by the sun or moon, nor by fire or electricity. Those who reach it never return to this material world. (BG 15.6)
In Srimad Bhagavatam there are descriptions of different dhamas of the Lord like Mathura, Vrindavan, Dwaraka, Jagannatha Puri, Ayodhya and so on. The original dhamas have expanded in this material world.
bhavad-vidhā bhāgavatās
tīrthī-bhūtāḥ svayaṁ vibho
tīrthī-kurvanti tīrthāni
svāntaḥ-sthena gadā-bhṛtā
Translation
Saints of your caliber are themselves places of pilgrimage. Because of their purity, they are constant companions of the Lord, and therefore they can purify even the places of pilgrimage. (S.B. 1.13.10)
Bhaktivinoda Thakura also explains,
je-dina gṛhe bhajana dekhi,
gṛhete goloka bhāya
ānande hṛdoya nāce
Translation
When devotees come to my home and do kirtan with mrdanga, my house becomes Goloka.
In this way our house becomes a Dhama. When devotees witness the presence of Kṛṣṇa in their hearts, it also becomes dhama – a residing place of Kṛṣṇa.
When Lord Rama asked Sage Valmiki, “Where can I accommodate Myself in the forest?” Valmiki replied, “Is there any place where you do not reside? But since you are asking me, I would request you to reside in the hearts of Your devotees.”
nāhaṁ prakāśaḥ sarvasya
yoga-māyā-samāvṛtaḥ
mūḍho ‘yaṁ nābhijānāti
loko mām ajam avyayam
Translation
I am never manifest to the foolish and unintelligent. For them I am covered by My internal potency, and therefore they do not know that I am unborn and infallible [ BG. 7.25]
manuṣyāṇāṁ sahasreṣu
kaścid yatati siddhaye
yatatām api siddhānāṁ
kaścin māṁ vetti tattvataḥ
Translation
Out of many thousands among men, one may endeavor for perfection, and of those who have achieved perfection, hardly one knows Me in truth. (BG 7.1)
janma karma ca me divyam
evaṁ yo vetti tattvataḥ
tyaktvā dehaṁ punar janma
naiti mām eti so ’rjuna
Translation
One who knows the transcendental nature of My appearance and activities does not, upon leaving the body, take his birth again in this material world, but attains My eternal abode, O Arjuna. (BG 4.9)
goloka-namni nija-dhamni tale ca tasya
devi-mahesa-hari-dhamasu tesu tesu
te te prabhava-nicaya vihitas ca yesu
govindam adi-purusam tam aham bhajami
Translation
Lowest of all is located Devi-dhama [mundane world], next above it is Mahesa-dhama [abode of Mahesa]; above Mahesa-dhama is placed Hari-dhama [abode of Hari] and above them all is located Krishna’s own realm named Goloka. I adore the primeval Lord Govinda, who has allotted their respective authorities to the rulers of those graded realms. (BS text 16)
When you want to play some players are required. Similarly when the Lord wants to play His pastimes He requires associates. There are unlimited associates of the Lord. Who can count them? Many living entities who have become lost in this material world and are just passing through 8.4 million species of life. When the Lord appears, He brings some of His associates with Him. Just like when any king goes somewhere he takes some of the ministers and the entourage with him. They don’t carry all the people along with them. Similarly when Kṛṣṇa appears, He comes with His prominent associates. When we read Mahabharata, Ramayan so many devotees and associates have been mentioned along with the Lord, like Rama bhakta Hanuman, Sugriva, Vasistha, Dasharatha and so on. There is mention of so many devotees even in Caitanya-caritamrta, Caitanya Bhagavata and Caitanya Mangala, Can someone count how many associates of the Lord were there in the pastimes of the deliverance of Chand Kazi? They were in multi millions. You know Haridas Thakura. He was defamed for chanting the holy name of the Lord inspite of being a Muslim,
It is said that Jesus is the son of God. We know that this is a fact, but there are innumerable sons of God. Why should we limit it? There are so many sons of the Lord. If you are a house holder, you may have a few children ‘ham do hamare do.’ But once upon a time there used to be astaputra saubhagyavati bhava and there were so many children. If a householder can have so many children then how many sons, daughters, relatives and associates can the Lord have? Some associates of Kṛṣṇa are His friends, parents, lover, servant and so on. There were so many associates of Caitanya Mahaprabhu in Navadvipa, Vrindavan, Jagannatha Puri, and then in Kulin gram and Srikhand. We have discussed the name, form, qualities and pastimes of the Lord.
Hari Haribol!
QUESTIONS AND ANSWERS
Question 1
Can Mayavadi attain Lord Kṛṣṇa?
Gurudev uvaca
Mayavadi Kṛṣṇa apradhi. Mayavadis are offenders and so they cannot attain the Lord. They think Brahman is everything, sarvam khalvidam Brahma and we are brahma too aham brahmasi. I am Brahma. That is what they feel which is their illusion. They reach only till Brahman which is also God, but without form or qualities which is incomplete. They can only reach the effulgence of Kṛṣṇa, but cannot attain the beautiful formed Sri Krsna.
Question 2
In ISKCON we say that the living entities are part and parcel of the Lord, how to understand this?
Gurudev uvaca
On the tattva of acintya-bheda-abheda philosophy, the Lord said,
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. (BG 15.7)
Just like our hands, legs, feet are all parts of the body, similarly we are part of the complete whole. We exist because of the whole that exists that is Lord Kṛṣṇa. This is Bhakti Yoga otherwise our existence is useless. But because of our desire to live independently we have drifted away from Kṛṣṇa.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Наставления после совместной джапа сессии 21 января 2021 г.
Безграничная слава игр, обители и спутников Господа
Харе Кришна!
Мы повторяем святые имена Господа Кришны, это называется Киртан. Как говорит Шрила Рупа Госвами:
тан-на̄ма-рӯпа-чарита̄ди-сукӣртана̄ну-
смр̣тйох̣ крамен̣а расана̄-манасӣ нийоджйа
тишт̣хан врадже тад-анура̄ги-джана̄нуга̄мӣ
ка̄лам̇ найед акхилам итй упадеш́а-са̄рам
Перевод:
Все наставления сводятся к следующему: необходимо все время — двадцать четыре часа в сутки — сосредоточенно повторять божественное имя Господа и воспевать Его трансцендентный облик, качества и вечные игры, постепенно занимая этой деятельностью свой язык и ум. Всегда памятуя о святом имени, облике, качествах и вечных играх Кришны, человек должен жить во Врадже [Голоке Вриндавана-дхаме] и служить Кришне под руководством преданных. Необходимо идти по стопам преданных, которые очень дороги Господу и глубоко привязаны к преданному служению Ему.
(Нектар Наставлений Стих 8)
Из которых мы обсуждали славу имен и прекрасную форму Господа. киртания сада харих! Мы можем продолжать обсуждать одно и то же бесконечно, поскольку оно настолько обширно. нитйам бхагавата севайа! Ананта Шеша воспевает славу Господа из тысячи уст с незапамятных времен, но все же он что-то упускает – такова бескрайность славы Кришны. Можно бесконечно описывать своего духовного учителя ванде гурох шри чаранарвиндам. Тогда что говорить о качествах Господа. Кришна – это гуна арнава, океан качеств. Несмотря на это, некоторые люди говорят, что Господь бесформенен; Ниргуна означает выше трех гун материальной природы. Его форма не материальна. Он сат чит ананда, исполненный знания, блаженства и вечности. Как сказано в Брахма Самхите,
адваитам ачьютам анадим ананта-рупам
адйам пурана-пурушам нава-йаванан ча
ведешу дурллабхам адурллабхам атма-бхактау
говиндам ади-пурушам там ахам бхаджами
Перевод:
Я поклоняюсь Тому Предвечному Господу Говинде, недостижимому даже посредством Вед, но достижимому преданностью души; Он — единый, непогрешимый, безначальный и бесконечный; Он — начало; и хотя Он — старейший, Он вечно юн и прекрасен.
(Шри Брахма Самхита, 5.33)
Все, что делает Кришна, – это Его трансцендентные игры: повествование Бхагавад-гиты, убийство демонов, возлежание в причинном океане или отдых в Шри Рангаме. Его мысли, чувства, желания – все трансцендентно и вечно. У Кришны 64 качества, из которых 4 главных. Према Мадхури – это высшее качество, которое Он демонстрирует вместе со своими преданными.
эте ча̄м̇ш́а-кала̄х̣ пум̇сах̣
кр̣шн̣ас ту бхагава̄н свайам
индра̄ри-вйа̄кулам̇ локам̇
мр̣д̣айанти йуге йуге
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все перечисленные воплощения представляют собой либо полные части, либо части полных частей Господа, однако Господь Шри Кришна — изначальная Личность Бога. Они нисходят на разные планеты, когда там по вине атеистов возникают беспорядки. Господь нисходит, чтобы защитить верующих.
(ШБ 1.3.28)
Мы, живые существа, известны как вибинна амши Господа. Таким образом, есть много форм Кришны. Его любовь к своим преданным бесподобна. Есть пять вкусов, с помощью которых преданные соединяются с Господом, известными как Сакхья Раса, Шанта Раса, Мадхурья Раса, Ватсалья Раса, Дасья Раса. Враджа тиштхан, как Шрила Рупа Госвами, подчеркивал, что человек должен заниматься прославлением имени, формы, качеств и игр Господа. Во Вриндаване проходит аштака лила Господа. Эти игры можно вспомнить откуда угодно и связать себя с Господом и Его играми. Господь со Своими преданными проводит много игр, таких как беседа Санатаны Госвами со своим Божеством, и преданность Святого Тукарамы Господу Виттале, игра Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху с Господом Джаганнатхой в храме Пури. Божество является формой Господа и проводит множество игр со Своими преданными. Существуют различные виды преданного служения, такие как пробуждение Божества, совершение абхишеки, предложение бхоги, выполнение арати.
В Гурваштаке есть стих
шри-радхика-мадхавайор апара- мадхурья-лила-гуна-рупа-намнам прати-кшанасвадана-лолупасйа ванде гурох шри-чаранаравиндам
Перевод:
Духовный учитель всегда стремится слушать и воспевать безграничные супружеские игры Радхики и Мадхавы, а также их качества, имена и формы. Духовный учитель стремится наслаждаться ими каждое мгновение. Я предлагаю свои почтительные поклоны лотосным стопам такого духовного учителя.
(5-й стих, Шри Гурваштака, Шрила Вишванатха Чакраварти Тхакур)
Также следует помнить о славе святого места, совершать киртан дхамы. Игры Господа преимущественно происходят в двух разных местах. Удивительное место, где обитает Господь, называется духовным миром, а другое – материальным миром. Господь говорит в Бхагавад Гите:
на тад бха̄сайате сӯрйо
на ш́аш́а̄н̇ко на па̄ваках̣
йад гатва̄ на нивартанте
тад дха̄ма парамам̇ мама
Перевод Шрилы Прабхупады:
Эта Моя высшая обитель не освещена ни солнцем, ни луной, ни огнем, ни электрическим светом. Те, кто достигает ее, уже не возвращаются в материальный мир.
(БГ 15.6)
В «Шримад-Бхагаватам» есть описания различных дхам Господа, таких как Матхура, Вриндаван, Дварака, Джаганнатха Пури, Айодхья и так далее. Изначальные дхамы воплотились в этом материальном мире.
бхавад-видха̄ бха̄гавата̄с
тӣртха-бхӯта̄х̣ свайам̇ вибхо
тӣртхӣ-курванти тӣртха̄ни
сва̄нтах̣-стхена гада̄бхр̣та̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
О мой господин, воистину такие преданные, как ты — это олицетворенные святые места. Ты несешь в своем сердце Личность Бога и потому превращаешь любое место в место паломничества.
(ШБ 1.13.10)
Бхактивинода Тхакур также объясняет:
дже-дина грихе, бхаджана декхи,
грихете голока бхая
а̄нанде хр̣дойа на̄че
Перевод:
Когда я вижу, как в моем доме поклоняются и служат Господу Хари,
он тут же превращается в Голоку Вриндавана. мое сердце танцует в экстазе!
(Песня вайшнавов Шуддха Бхакта Чарана Рену, стих 4, 6 Шрилы Бхакти Виноды Тхакура)
Таким образом, наш дом становится Дхамой. Когда преданные видят присутствие Кришны в своем сердце, оно также становится дхамой – местом обитания Кришны.
Когда Господь Рама спросил мудреца Вальмики: «Где мне поселиться в лесу?» Вальмики ответил: «Есть ли место, где Ты не живешь? Но поскольку Ты спрашиваешь меня, я прошу Тебя поселиться в сердцах Твоих преданных ».
на̄хам̇ прака̄ш́ах̣ сарвасйа
йога-ма̄йа̄-сама̄вр̣тах̣
мӯд̣хо ’йам̇ на̄бхиджа̄на̄ти
локо ма̄м аджам авйайам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я никогда не являю Себя глупцам и невеждам. От них Меня скрывает Моя внутренняя энергия, и потому они не знают, что Я нерожденный и неисчерпаемый.
(БГ 7.25)
манушйа̄н̣а̄м̇ сахасрешу
каш́чид йатати сиддхайе
йатата̄м апи сиддха̄на̄м̇
каш́чин ма̄м̇ ветти таттватах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из многих тысяч людей едва ли один стремится к совершенству, а из достигших совершенства едва ли один воистину познал Меня.
(БГ 7.3)
джанма карма ча ме дивйам
эвам̇ йо ветти таттватах̣
тйактва̄ дехам̇ пунар джанма
наити ма̄м эти со ’рджуна
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто знает божественную природу Моего явления и деяний, никогда больше не рождается в материальном мире. Покинув тело, он достигает Моей вечной обители, о Арджуна.
(БГ 4.9)
голока-намни ниджа-дхамни тале ча тасья
деви-махеша-хари-дхамасу тешу тешу
те те прабхава-ничая вихитах ча йена
говиндам ади-пурушам там ахам бхаджами
Перевод
Первой идет Деви-дхама, затем —Махеша-дхама, а выше Махеша-дхамы — Хари-дхама;выше же всех — Его собственный дом, Голока. Повелителю всех сил, присущих каждой из этих обителей — Ему — Предвечному Господу, Говинде, я поклоняюсь.
(Брахма-самхита 5.43)
Когда вы хотите играть, требуются какие-либо игроки. Точно так же, когда Господь хочет играть в Свои игры, Ему требуются спутники. У Господа неограниченное количество спутников. Кто их посчитает? Многие живые существа, заблудившиеся в этом материальном мире, проходят через 8,4 миллиона видов жизни. Когда является Господь, Он приводит с Собой некоторых из Своих спутников. Также как когда любой царь куда-то идет, он берет с собой некоторых министров и свиту. Они не ведут за собой всех людей. Точно так же, когда является Кришна, Он приходит со Своими выдающимися спутниками. Когда мы читаем Махабхарату, Рамаяну, вместе с Господом упоминается так много преданных и спутников, как Рама бхакта Хануман, Сугрива, Васиштха, Дашаратха и так далее. Даже в «Чайтанья-чаритамрите», «Чайтанья-Бхагавате» и «Чайтанья-мангале» упоминается так много преданных. Можно ли сосчитать, сколько спутников Господа было там в играх освобождения Чанда Кази? Их было несколько миллионов. Вы знаете Харидаса Тхакура. Он был оклеветан за воспевание святого имени Господа, несмотря на то, что он мусульманин.
Говорят, что Иисус – сын Бога. Мы знаем, что это факт, но есть бесчисленное множество сыновей Бога. Почему мы должны его ограничивать? У Господа так много сыновей. Если вы домохозяин, у вас может быть несколько детей «хам до хамаре до». Но когда-то давным-давно была аштапутра саубхагйавати бхава, и было так много детей. Если у домохозяина может быть столько детей, то сколько сыновей, дочерей, родственников и спутников может иметь Господь? Некоторые спутники Кришны – Его друзья, родители, возлюбленные, слуги и так далее. Было так много спутников Чайтаньи Махапрабху в Навадвипе, Вриндаване, Джаганнатха Пури, а затем в Кулинграме и Шрикханде. Мы обсудили имя, форму, качества и игры Господа.
Хари Харибол!
ВОПРОСЫ И ОТВЕТЫ
Вопрос 1: Может ли майявади достичь Господа Кришны?
Гурудев сказал
Майавади Кришна апрадхи. Майявади – оскорбители, и поэтому они не могут достичь Господа. Они думают, что Брахман – это все, сарвам халвидам Брахма, а мы тоже брахма ахам брахмаси. Я Брахма. Это то, что они чувствуют, что является их иллюзией. Они достигают только Брахмана, который также является Богом, но без формы или качеств, что является неполным. Они могут достичь только сияния Кришны, но не могут достичь прекрасного, полного Шри Кришну.
Вопрос 2: В ИСККОН мы говорим, что живые существа являются неотъемлемыми частицами Господа, как это понять?
Гурудев сказал
О таттве философии ачинтья-бхеда-абхеда Господь сказал:
мамаива̄м̇ш́о джӣва-локе
джӣва-бхӯтах̣ сана̄танах̣
манах̣-шашт̣ха̄нӣндрийа̄н̣и
пракр̣ти-стха̄ни каршати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Живые существа в материальном мире — Мои вечные отделенные частицы. Оказавшись в обусловленном состоянии, они вынуждены вести суровую борьбу с шестью чувствами, к числу которых относится ум.
(БГ 15.7)
Также как наши руки, ноги и ступни являются частями тела, точно так же мы являемся частью единого целого. Мы существуем как частица всего сущего, которое есть Господь Кришна. Это бхакти-йога, иначе наше существование бесполезно. Но из-за нашего желания жить независимо мы отдалились от Кришны.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक २०.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
गौर हरिबोल!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 786 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। वैसे जपा टॉक भी होता है जो कि शुरू हो रहा है। इसमें आप सभी का स्वागत है। आपका स्वागत है। हरि! हरि!
सुस्वागतम!
ऎसा सत्कार्य अथवा कृत्य के लिए आपका स्वागत है। हरि! हरि!
कल हम संकीर्तन स्कोर भी सुन रहे थे। कुछ भक्तों, प्रचारकों अथवा गीता वितरकों ने अपने अपने स्कोर भी घोषित किए थे अथवा सुनाए थे। वैसे आज ग्रंथ वितरण की ओवरऑल रिपोर्ट अथवा द बेस्ट परफॉर्मेंस स्कोर का अनाउंसमेंट होना है।
श्रील प्रभुपाद की जय!
श्रील प्रभुपाद दिव्य ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय!
श्रील प्रभुपाद ट्रांसडेन्टिअल बुक वितरण की जय!
गीता जयन्ती महोत्सव की जय! वितरकों की जय!
आज हम स्कोर सुनने वाले हैं।
उसके अतिरिक्त मैंने कल कुछ कहा था और भक्तों ने भी कुछ कहा था। कल भक्त ग्रंथ वितरण के अपने अनुभव, स्टोरीज ( कहानियां) साक्षात्कार सुना रहे थे। हरि! हरि! मैंने भी कल साथ ही साथ कुछ कहना प्रारंभ किया था। श्रील रूप गोस्वामी के उपदेशामृत के आठवें श्लोक का उल्लेख करते हुए कहा था-
तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु स्मृत्योः क्रमेण रसनामनसी नियोज्य। तिष्ठन व्रजे तद्नुरागि जनानुगामी कालं नयेदखिलमित्युपदेशसारम्।।
( श्रीउपदेशमृत श्लोक संख्या ८)
अनुवाद्- समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय- चौबीसों घंटे भगवान् के दिव्य नाम, दिव्य रूप, गुणों तथा नित्य लीलाओं का सुंदर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने में लगाये, जिससे उसकी जीभ तथा मन क्रमशः व्यस्त रहे। इस तरह व्रज ( गोलोक वृन्दावन धाम) में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्गदर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को भगवान् के उन प्रिय भक्तों के पदचिन्हों का अनुगमन करना चाहिए, जो उनकी भक्ति में प्रगाढ़ता से अनुरक्त है।
हमें इस प्रकार अपना काल या अपना जीवन अथवा समय अर्थात जीवन व्यतीत करना चाहिए, सारे उपदेशों का सार यही है। श्रील रूप गोस्वामी ने ऐसा भी कहा है। वैसे यह समय व्यतीत नहीं होगा। समय का व्यय….( नहीं कहेंगे) उन्होंने यह भी कहा
तिष्ठन व्रजे अर्थात ब्रज में रहो या धाम में रहो। इस्कॉन मंदिर में रहो या इस्कॉन मंदिर जाओ या फिर घर का ही मंदिर बनाओ।
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः स्थेन गदाभृता।।
( श्रीमद् भागवतम् १.१३.१०)
अनुवाद- हे प्रभु, आप जैसे भक्त, निश्चय ही, साक्षात पवित्र स्थान होते हैं। चूंकि आप भगवान् को अपने ह्रदय में धारण किए रहते हैं, अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थस्थानों में परिणत कर देते हैं।
आप जहां भी हो, उस स्थान को ब्रज अथवा वृंदावन बनाओ।
आप जहां पर भी हो, वहाँ धाम की स्थापना करो। हरि! हरि! रूप गोस्वामी का ऐसा भी उपदेश है कि आप अनुगामी बनो। ‘तद्नुरागि जनानुगामी’ अर्थात जो अनुरागी भक्त हैं, हम गौड़ीय वैष्णव रागानुग भक्ति का अवलंबन करते हैं।
जो भक्त या आचार्य या ब्रज के भक्त अलग-अलग रागों, भक्ति या रसों का आस्वादन करने वाले हैं, ऐसे भक्तों का अनुगमन करो। ऐसे भक्तों के अनुगामी बनो। ऐसे भक्तों को अपने जीवन का एक लक्ष्य या आदर्श बनाओ। उनके चरण कमलों का अनुसरण करो। यह अनुगमन हुआ, जिसे अनुगतय भी कहा है। ( हम उल्टे जा रहे हैं लेकिन हम थोड़ा पीछे से जा रहे हैं) इस श्लोक के प्रारंभ में कहा है कि ऐसे समय व्यतीत करें कि अपने समय का सदुपयोग करें, ब्रज अथवा धाम में रहें, पवित्र स्थल में रहें। अनुरागी भक्तों का अनुगतय स्वीकार करें। उनके अनुगामी बने।( हम पीछे से प्रारंभ करके आगे आ रहे हैं) तत्पश्चात उन्होंने कहा- रसनामनसी नियोज्य – अपनी जिव्हा और अपने मन में स्थापना करो अथवा बिठाओ।( किसको बिठाओ) तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु –
नाम, रूप, गुण, लीला धाम,परिकर आदि इन सब का कीर्तन करें।कीर्तनानु अर्थात उसका कीर्तन अथवा गान करें।
नाम का गान अथवा नाम का कीर्तन, रूप कीर्तन, गुण कीर्तन अर्थात कृष्ण के गुणों की कीर्ति का गान करें, लीला का गान करें। भगवान के नाम का गान अर्थात कीर्ति गौरव गाथा गाए और परिकरों के चरित्र का अध्ययन करें अथवा उन्हें सुने, सीखे, समझे और फिर उनका गान करें, उनकी कीर्ति बढ़ाएं। भगवान्, भक्तों व उनके परिकरों का गान करें व इन सब का कीर्तन करें। कीर्तन होता है तो श्रवण भी होता है। श्रवणं कीर्तन करें। स्मृत्योः क्रमेण अर्थात धीरे-धीरे स्मरण करें या स्मरण करते हुए कह सकते हैं। ( हम आपको अलग अलग तत्व बता रहे हैं।
हम इस श्लोक के अनुवाद को पुनः पढ़ते हैं, तत्पश्चात कुछ और कहते हैं। हमें कुछ और कहना तो था और कहना है) समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय अर्थात 24 घंटे भगवान के दिव्य नाम, दिव्य रूप, दिव्य गुणों तथा नित्य लीलाओं का सुंदर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने में लगाएं जिससे उनकी जिव्हा अर्थात रसना मन क्रमशः व्यस्त रहे। इस तरह उसे व्रज गोलोक वृंदावन धाम में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्ग दर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को भगवान के उन प्रिय भक्तों के पद चिन्हों का अनुसरण करना चाहिए जो भगवान की भक्ति में प्रगाढ़ता से अनुरक्त हैं। उनके पद चिन्हों का अनुकरण अथवा अनुगमन करना चाहिए। यह उपदेश का सार है। (मेरा विचार तो यह था और थोड़ा-थोड़ा यह भी था, मैंने कहा भी फिर आज भी थोड़ा कहना था और कहा भी, अभी भी अतिरिक्त कहा) नाम,रूप, गुण, लीला, धाम, परिकर का थोड़ा-थोड़ा उल्लेख करने का मैं सोच रहा था और उसको कहना था) कल हमने नाम के संबंध में कुछ कहा था वैसे यह विषय तो आप जानते हो और अलग से चर्चा भी की है। बहुत समय पहले नाम की चर्चा, रूप की चर्चा, गुणों की चर्चा, लीलाओं की चर्चा, धाम की चर्चा, परिकरों की चर्चा कर चुके हैं।
वैसे मैंने पहले भागवत सप्ताह भी किया था और एक दिन नाम की कथा सुनाई थी अथवा नाम का कीर्तन किया था या फिर द्वितीय दिवस रूप के संबंध में चर्चा हुई थी। मैं अब उसी के आधार पर ग्रंथ भी लिख रहा हूं। मैंने ग्रंथ का नाम “श्री कृष्ण स्वरूप चिंतन” दिया है जोकि फाइनल स्टेज में है। बहुत शीघ्र ही उसका प्रकाशन होगा तत्पश्चात आप उसे प्राप्त कर सकते हो और पढ़ सकते हो। श्री कृष्ण स्वरूप चिंतन यह अलग अलग स्वरूप है। भगवान का नाम, भगवान का स्वरूप है। भगवान् का रूप, भगवान का स्वरूप है अर्थात भगवान ही है। नाम भगवान ही है, रूप भगवान ही है गुण भगवान ही है, लीला भगवान ही है। लीला से भगवान को अलग नहीं किया जा सकता। यह सारे भगवान के स्वरुप हैं। भगवान के कई सारे नाम हैं।
विष्णु सहस्त्रनाम नाम है। कई नाम हैं।केवल विष्णु सहस्त्रनाम ही नहीं है, विट्ठल सहस्त्रनाम भी है, राधा सहस्त्रनाम नाम भी है। ऐसे ही नरसिंह भगवान् का भी सहस्त्र नाम है। नाम ही नाम है। भगवान वैसे नामी हैं। भगवान् के कई सारे नाम हैं। राम भी कृष्ण का एक नाम है।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।सहस्त्र नामभिस्तुल्यं राम- नाम वरानने।।
अनुवाद:- शिव जी ने अपनी पत्नी दुर्गा से कहा:- हे वरानना, मैं राम, राम राम के पवित्र नाम का कीर्तन करता हूं और इस सुंदर ध्वनि का आनंद लूटता हूं। रामचंद्र का यह पवित्र नाम भगवान विष्णु के एक हज़ार नामों के बराबर है।
शिवजी पार्वती को सुना रहे हैं कि ‘रमे रामे मनोरमे’ अर्थात वे इन नामों में रमते हैं। ये जो राम राम रामेति.. राम राम ये जो नाम है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
शिवजी, पार्वती को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि रमे रामे मनोरमे …मनोरमा का मनोरमे हुआ है। शिवजी, मनोरमा से कहते हैं कि मैं राम में रमता हूं। हम नाम को भी प्रार्थना करते हैं ‘मया सह रम्यस’ अर्थात मेरे साथ रमिये। हे कृष्ण! हे राधे! मेरे साथ रमिये। यह आत्मा की पुकार है। हम कहते हैं कि मेरे साथ भी रमिये। हम रमते हैं। जब हम भगवान के नामों का उच्चारण करते हैं तब हम भगवान में रम जाते हैं।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
(श्री मद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
भगवतगीता के 10वें अध्याय में चार विशेष श्लोकों में से एक श्लोक यह भी है। हम रमते हैं। हम भगवान् के भक्त, साधक है, हमें रमना है। कथयन्तश्च मां नित्यं भगवान् के नामों में रमना है। केवल नाम में ही नहीं रमना है, कृष्ण के रूप में भी रमना है, लीला में भी रमण करना है, ऐसा नहीं कि नाम अलग है, रूप अलग है, गुण अलग है, लीला अलग है, यह एक ही है।
अभिन्नतवा नाम नामिनो
भगवान् एक ही है। यह भगवान् स्वरूप है। हम केवल इतनी चर्चा करके आगे बढ़ रहे हैं। भगवान् के रूप ही रूप हैं।
वह स्वयं रूप भी है।
कॄष्ण अस्तु भगवान् स्वयं। अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरषं नवयौवनं च। वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
(ब्रह्म संहिता श्लोक संख्या ३३)
अनुवाद:- जो वेदों के लिए दुर्लभ है किंतु आत्मा की विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ है, जो अद्वैत है, अच्युत है, अनादि है, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदि पुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
ब्रह्माजी, ब्रह्म संहिता में कहते हैं ‘ हे भगवन! आपके अनंत रूप हैं। जितने वैकुंठ लोक हैं। वैकुंठ लोक का अर्थ यह नहीं कि एक ही लोक है। नहीं! इस ब्रह्मांड में ही कई सारे प्लैनेट्स( ग्रह) हैं, जिसे गैलेक्सी अथवा आकाशगंगा भी कहते हैं, उसमें कितने सारे ग्रह नक्षत्र तारे हैं। हम तो सिर्फ एक गैलेक्सी की बात कर रहे हैं जोकि हमारे पास में है। खगोल शास्त्रज्ञ कुछ कुछ लोकों का टेलीस्कोप से पता लगवाते हैं लेकिन इस एक ब्रह्मांड में और भी कई सारी गलेक्सीज़ या आकाशगंगाएं हैं। भगवान् अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक भी हैं। यह सारे ब्रह्मांड इस प्राकृतिक जगत में हैं और इसको एक पाद विभूति भी कहते हैं। तीन पाद विभूति भगवान का दिव्य धाम, वैकुण्ठ या गोलोक अथवा साकेत है। बहुत सारे ग्रह हैं। इसलिए मैंने इस आकाशगंगा का उल्लेख किया है। ऐसी आकाशगंगाएं हर ब्रह्मांड में हैं। ब्रह्मांड भी अनंत कोटी हैं और भगवान उनके नायक हैं। साथ ही साथ भगवान वैकुंठ नायक भी हैं। हर वैकुंठ लोक पर भगवान का एक एक रूप है। वासुदेव, संकर्षण, प्रधुम्न, अनिरुद्ध चतुर्भुज इस प्रकार भगवान् का विस्तार होता है। फिर संकर्षण से द्वितीय संकर्षण तत्पश्चात संकर्षण से महाविष्णु, गर्भोदक्शायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु। इस प्रकार भगवान के विस्तार अथवा अवतार हैं। यदि भगवान् के व्यापक रूपों की बात है तो भगवान के अलग-अलग अवतार हैं और भगवान के उतने ही सारे रूप हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
( श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
समय समय पर अलग अलग रूपों में जैसे नरसिंह रूप है, नरहरी रूप या राम शरीरा या कुर्म शरीरा इस प्रकार भगवान के अलग-अलग रूप हैं, भगवान् के अंसख्य रूप हैं। वे एक होते हुए भी अनेक बन जाते हैं अथवा अनेक रूप धारण करते हैं। उन रूपों से वे अलग अलग लीलाएं खेलते हैं। भगवान् निराकार नहीं हैं। भगवान के इतने सारे रूप ही रूप हैं, भगवान का स्वरूप है। इस संसार के लोग कितने अनाड़ी हैं, जो नास्तिक हैं और जो फिर आस्तिक हैं, उसमें जो मायावादी हैं या अद्वैतवादी हैं, उनका ज्ञान तो देखिए। यह सब ज्ञान की बात है कि भगवान हैं, उनके रूप हैं और उनका रूप शाश्वत है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ९.११)
अनुवाद:- जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।
‘अवजानन्ति मां मूढा’ लेकिन कुछ ऐसे मूढ अथवा गधे हैं, जो मेरे परम भाव अथवा मेरे शाश्वत भाव अथवा रूप को जानते नहीं हैं और कहते रहते हैं कि भगवान् निराकार हैं। भगवान् निराकार हैं। यदि गुण की बात होती है तब वे कहते हैं कि भगवान निर्गुण हैं। ऐसे निराकार या निर्गुण जिन शब्दों का प्रयोग होता है, उसे समझना होगा। आचार्य और गौड़ीय वैष्णव आचार्य भी समझाते हैं। श्रील प्रभुपाद भी हमें खूब समझाते रहे। वे हमें अपने ग्रंथों में समझा रहे हैं। हम उनके प्रवचन भी सुन सकते हैं। निर्गुण मतलब भगवान् का गुण नहीं हैं। भगवान् गुणहीन हैं? नहीं! नहीं! ऐसी बात नहीं है, निर्गुण मतलब भगवान में सतोगुण, रजोगुण,तमोगुण का गंध नहीं है। वे तीन गुणों अर्थात सत, रज, तम् से परे हैं। इसलिए भगवान् को निर्गुण कहते हैं अथवा कहा जा सकता है। भगवान् निर्गुण हैं अर्थात प्रकृति के जो भौतिक गुण हैं
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
(श्रीमद् भगवतगीता ३.२७)
अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।
प्रकृति के जो तीन गुण सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण हैं ये गुण भगवान् में नहीं हैं, इसलिए उनको निर्गुण भी कहा जा सकता है। ऐसा नहीं कि भगवान् में गुण ही नहीं हैं। भगवान् तो गुणों की खान हैं। गुणवान हैं।
भक्ति रसामृत सिंधु में श्रील रूप गोस्वामी ने भगवान के गुणों की सूची दी है। ऐसा नहीं कि भगवान में 64 ही गुण हैं, तत्पश्चात समाप्त। नही! और भी हैं। उसमें मुख्य मुख्य गुणों की चर्चा प्रारंभ हुई, उन्होंने उसमें 64 मुख्य गुणों का ही उल्लेख किया है जबकि भगवान में और भी गुण हैं। हरि! हरि!
कहीं भी हमें अगर गुण का दर्शन होता है अर्थात हमें कोई गुणी या गुणवान लोग या भक्त या महात्मा मिलते हैं, उनके उस गुण के स्त्रोत भगवान् हैं।
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम्। अजातशत्रव: शांता: साधव: साधुभूषण:।।
( श्रीमद् भागवतम ३.२५.२१)
अनुवाद:- साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।
साधु के आभूषण यही हैं। वह गुण संतों/ साधु के अलंकार हैं। तितिक्षवः अर्थात सहनशीलता और भक्तों का कारुण्य, सुहृदःअर्थात भक्त, वैष्णव अर्थात साधु उनका मैत्री पूर्ण व्यवहार और भी साधु के गुण हैं जैसे शांत होना। भक्त शांत होते हैं।
उनका चित्त शांत होता है। भगवान् तो फिर
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विशवाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध् यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलौकैकनाथम।।
( विष्णु सहस्त्र नाम)
यदि हमें भक्तों में कोई भी गुण दिखता है। वह गुण पहले भगवान् में होते हैं। फिर वह भगवान् के गुण जीव में आ जाते हैं। हम भगवान् के ही अंश हैं।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १५.७)
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है।
भगवान् में जो गुण हैं, वही गुण जीव में भी हैं लेकिन कुछ मात्रा कम हो सकती है परंतु गुण वही हैं। खान में भी सोना है अर्थात सोने की खान है। उसी सोने की खान में से कुछ सोना लेकर हम कुछ अलग आकार बनाते हैं, अगुँठी बनाते हैं। वह सोना जो खान में ढेर का ढेर रखा है,
हमारी अंगूठी में वही सोना समान क्वालिटी का होता है। हमारे में जो गुण हैं, वह भगवान् के कारण हैं। भगवान् में पहले हैं तत्पश्चात बाद में हममें भी हैं। क्योंकि हम उन्हीं के हैं अर्थात हम भगवान के अंश हैं। भगवान में गुण ही गुण हैं। भगवान गुणवान हैं। हरि! हरि!
हम यहीं विराम देते हैं।
नाम, रूप, गुण का थोड़ा जिक्र हुआ और आगे का यह विषय लीला, धाम और परिकर की चर्चा हम कल के सत्र में करेंगे। आज यह फ़ूड फ़ॉर थॉट के लिए पर्याप्त है। पर्याप्त है ना? एक दिन के लिए ही नहीं अपितु पूरे जीवन के लिए पर्याप्त है। यह भोजन या खुराक आपके आत्मा व आपके विचारों व आपके मस्तिष्क के पोषण के लिए है। ओके! यहीं पर रुक जाते हैं। यदि किसी का कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है तो पूछ सकते हैं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
20 January 2021
Krsna is the reservoir of all divine forms and qualities
Hare Krishna. Devotees from over 790 locations are chanting with us right now. All of you are welcome to this session for chanting and Japa talk. Welcome in this auspicious and pious engagement. We have been listening to different devotees with their scores and experiences and realisations but the announcement of the final scores are pending. Today we will get to know the best scores. All Glories to Srila Prabhupada and their distributors!
Yesterday I was also talking about the 8th verse of Nectar of Instruction written by Srila Rupa Goswami. kālaṁ nayed means how one should utilize their time. It was about how to live life, how time should be spent. This is the most important of all instructions. In all the instructions, the instruction about how one should utilize time is the most important. How should we spend our time?
tiṣṭhan vraje – Rupa Goswami says – Reside in Vrindavan any other holy dhama or reside in ISKCON or visit ISKCON. Go and stay in Vrindavan.
tīrthī-kurvanti tīrthāni – wherever you are or sthāne sthitāḥ means wherever you are, make that place Vraja, Vrindavan Dhama. Turn your home into temple and establish dhama. Rupa Goswami also instructs us to become anugāmī (following). He writes tad-anurāgi-janānugāmī. Those who are anuragi (deeply attached to devotional service) are the devotees. We, Gaudiya Vaisnava devotees depend on rāgānugā-bhakti (spontaneous love of Godhead). He says, become a follower. The devotees of Vraja are engrossed in services and exchanges with the Lord in different moods. You must become a follower of those devotees. It should be the goal of our life to associate with them and to follow into their footsteps. This is anugaman or anugatya (to be in their shelter). We are going backwards. It is mentioned how time should be utilised? How to make the best use of time? How to engage yourself? Stay in Vraja and follow in the footsteps of exalted and pure devotees and take their shelter. Then he said rasanā-manasī niyojya – engage your tongue and mind tan-nāma-rūpa-caritādi which mean establish a Deity in your heart, sing the glories of Their names, fame, form, qualities, pastimes, devotees, etc. Remember Them. Adi means etc. Sukīrtanānu means that one should sing the glories of His holy names, form, qualities, associates, dhama and pastimes. Hear about the glories of the nature and character of the associates and pure devotees of the Lord. Sing their glories also. smṛtyoḥ krameṇa – after hearing and singing one must also remember. These are different components. Lets us read the translation and then I wish to speak something more.
tan-nāma-rūpa-caritādi-sukīrtanānu-
smṛtyoḥ krameṇa _rabsanā-manasī niyojya
tiṣṭhan vraje tad-anurāgi-janānugāmī
kālaṁ nayed akhilam ity upadeśa-sāram
Translation
The essence of all advice is that one should utilize one’s full time – twenty-four hours a day – in nicely chanting and remembering the Lord’s divine name, transcendental form, qualities and eternal pastimes, thereby gradually engaging one’s tongue and mind. In this way one should reside in Vraja [Goloka Vṛndāvana-dhāma] and serve Kṛṣṇa under the guidance of devotees. One should follow in the footsteps of the Lord’s beloved devotees, who are deeply attached to His devotional service. [NOI 8]
This is the conclusion. Yesterday we discussed the holy name. We keep on discussing this. I wish to say something about this. We have already discussed the topic of name, form, qualities, pastimes, abode, etc. I have also done several Bhagavat Kathas and in one of them I had divided the days as per these topics. One day we discussed name and second day I gave class on His form. I have written a book on this and soon it is going to be published, the book is Sri Krsna Svarupa Cintana – Meditating on Sri Krsna’s form. It is in the final stage. Layout designs is in process. Soon you’re going to get the news. You can get that book and read it. Sri Krsna Svarupa Cintana. The Lord’s name, form, qualities is Lord Himself and the Lord’s pastimes are also non different from the Lord. We cannot separate them from each other.
First comes name. There are innumerable names of Krsna. Visnu Sahasra nama means 1000 names of Visnu. That is not it. Krsna has 1000’s of names, Radha has 1000’s of names, Rama has 1000’s of names, Nrsimha has 11000’s of names, Vitthala has 1000’s of names. Lord has many names. Rama is also a name of Krsna.
Ram Raameti Raameti, Rame Raame Manorame ।
Sahasra-Nama Tat-Tulyam, Raama-Naama Varanane ॥
Translation:
By meditating on “Rama Rama Rama” (the Name of Rama), my mind gets absorbed in the Divine Consciousness of Rama, which is transcendental. The name of Rama is as Great as the Thousand Names of God (Vishnu Sahasranama).
[Padma Purana 72.335]
Lord Siva says, “ O Parvati I enjoy being engrossed in deep meditation of the names of Lord Rama.” Raame means enjoy. Raame in Rama means I enjoy in Rama. Hare Krsna Hare Krsna Krsna Krsna Hare Hare, Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Lord Siva says, “ While chanting these holy names, I enjoy being engrossed in them.” He is addressing Parvati by saying Manorame. He is addressing Manorame(O Parvati), I enjoy being engrossed(Raame) in Rama.
maya saha ramasva (purport on Hare Krsna Mahamantra by Gopala Guru Goswami)
We pray to the holy name, O Krsna O Radhe please play pastimes with me. This is the call of our soul to Krsna and Radha that Hare! O Hari! Please take pleasure in me and enjoy with me. We all enjoy in him while chanting his names.
mac-cittā mad-gata-prāṇā
bodhayantaḥ parasparam
kathayantaś ca māṁ nityaṁ
tuṣyanti ca ramanti ca
Translation
The thoughts of My pure devotees dwell in Me, their lives are fully devoted to My service, and they derive great satisfaction and bliss from always enlightening one another and conversing about Me. [BG 10.9]
This is a verse from catuh shloki gita.
ramanti ca – enjoy transcendental bliss. Devotees of the Lord enjoy in Lord’s katha.
kathayantaś ca māṁ nityaṁ – conversing about Me always.
Playing means to be engaged. We all have to play in His names, in meditation of His form, qualities, pastimes. It’s not like that name is different from the Lord and that His qualities and pastimes are all different. No! This is all one.
bhinnatvān nāma-nāminoḥ – the name of Kṛṣṇa and Kṛṣṇa are identical.
Name of Krsna and the person Krsna are non different. Krsna also has a beautiful form. He has as many forms as his names.
kṛṣṇas tu bhagavān svayam – Lord Śrī Kṛṣṇa is the original Personality of Godhead.
advaitam acyutam anādim ananta-rūpam
ādyaṁ purāṇa-puruṣaṁ nava-yauvanaṁ ca
vedeṣu durlabham adurlabham ātma-bhaktau
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation
I worship Govinda, the primeval Lord, who is inaccessible to the Vedas, but obtainable by pure unalloyed devotion of the soul, who is without a second, who is not subject to decay, is without a beginning, whose form is endless, who is the beginning, and the eternal puruṣa; yet He is a person possessing the beauty of blooming youth. [Bs 5.33]
Brahma said in Brahma Samhita. You have unlimited forms as many as the Vaikuntha Planets. Vaikuntha is not just one planet. There are so many Vaikunthas. Just like in this material world there are so many celestial bodies just in the Milky way. There are so many galaxies, stars, planets in this universe only. This is just one galaxy which our scientists can see through astronomy. There are so many other galaxies and akash gangas. This is all in one universe. There are so many such universes. There is the Lord who is the Master of all these universes. All this together comprises one quarter of creation. Three quarters is the spiritual sky where Vaikuntha, Goloka, Saket is present. There are so many planets in the spiritual sky. Those are spiritual planets. That is why I mentioned galaxies and numerous akash gangas in a universe and there are many such universes. Anant koti brahmanda nayak means the Master of innumerable universes. He is also Lord of the Vaikuntha planet. There are innumerable Vaikuntha planets. Every Vaikuntha planet has a different form of Krsna. Vasudev, Sankarsan, Aniruddh, Pradyumna are the primary quadruple form (catur-vyūha) expansions.Then these further expand into other forms of Visnu. From Sankarsana, Catur-vyuha, Narayana then Dvitiya-catur-vyuha: again Sankarsana; from Sankarsana, Maha-Visnu; Maha-Visnu to Garbhodakasayi Visnu; Garbhodakasayi Visnu, then Ksirodakasayi Visnu and in this way the expansions continue.
Then also there are the forms of different incarnations. The Lord has that many forms. He comes in different forms in different ages. sambhavami yuge yuge – I advent Myself millennium after millennium. Sometimes He comes as Narasimha.
Narhari rupa – Narsimha’s form
Rama sharira – Rama’s form
Kurma sharira – Kurma’s (tortoise)
These are different forms. He has unlimited forms. He is one but takes innumerable forms. Every time in a different form He performs different pastimes. The Lord is not formless. We can see there are so many innumerable unlimited forms. The people of this world are so foolish. Those who are atheists and those who are theistic do not believe in the form of the Lord( impersonalists ). Lord has a form which is eternal. They say that the Lord has no form and no qualities. But The Lord says in Bhagavad Gita,
avajānanti māṁ mūḍhā
mānuṣīṁ tanum āśritam
paraṁ bhāvam ajānanto
mama bhūta-maheśvaram
Translation
Fools deride Me when I descend in the human form. They do not know My transcendental nature as the Supreme Lord of all that be. [BG 9.11]
avajānanti māṁ mūḍhā – there are some fools who don’t know Me.
paraṁ bhāvam ajānanto – they don’t know My transcendental nature and they keep on saying that God doesn’t possess any form or any quality. These words like impersonalists or nirguna have a different meaning as described by impersonalists. For them nirguna means without qualities.
Our acaryas and Srila Prabhupada have been explaining Nirguna. Nirguna doesn’t mean that the Lord has no qualities, but it means that Lord is beyond the three modes of Nature. He is not influenced by the modes of goodness, passion and ignorance. He doesn’t possess a tinge of any material quality. Krsna says,
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ
ahaṅkāra-vimūḍhātmā
kartāham iti manyate
Translation
The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature. [BG 3.27]
These three modes of material nature are not present in Lord. Otherwise,He is a reservoir of qualities. He is mine of qualities. In Nectar Of Devotion, 64 qualities are mentioned by Srila Rupa Goswami. This doesn’t mean there are only 64 but there are many more. But these are main qualities. Infact he is the source of all the qualities that exist in this world. But since Lord is not bound by the three modes of nature so he is Nirguna.He has so many qualities.
titikṣavaḥ kāruṇikāḥ
suhṛdaḥ sarva-dehinām
ajāta-śatravaḥ śāntāḥ
sādhavaḥ sādhu-bhūṣaṇāḥ
Translation
The symptoms of a sādhu are that he is tolerant, merciful and friendly to all living entities. He has no enemies, he is peaceful, he abides by the scriptures, and all his characteristics are sublime. [SB 3.25.21]
These qualities are like ornaments of a sadhu.
titikṣavaḥ—tolerant;
kāruṇikāḥ—merciful;
suhṛdaḥ—friendly to everyone
śāntāḥ—peaceful. Devotees are peaceful. They have peaceful mind.
Shaantaakaaram bhujagashayanam padmanaabham suresham
[Visnu sahastra nam]
Translation
(I Meditate on Lord Vishnu) Who has a Serene Appearance (which fills our inner being with Peace); Who is Lying on (the Bed of) Serpent (Ananta or Adisesha, representing the eternal Primal Energy or Mula Prakriti); From Whose Navel is springing up a Lotus (which is the source of all Creations through Brahmadeva); and Who is (presiding over the various elements of those Creations as) the Lord of the Devas.
He is tolerance, peaceful and friendship. All qualities are in Him. Wherever you see any qualities in the world, in devotees, these are originally sourced from Krsna. After all the jiva is a minute parcel of Krsna.
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. [BG 15.7]
Whatever qualities the Lord has, are also present in a Jiva but in a smaller quantity. It is just like a little gold from the gold mine is the same in quality, but different in quantity. We can make a small ring from that little gold or anything from that mine of gold. The quality is the same in both, but the quantity is different. In the mine there must be loads of gold, but not in the ring. Whatever qualities we possess, it is actually present in Krsna first and then in us because we are His part and parcel. The Lord is full of qualities. We saw that the Lord has innumerable names, forms and qualities.
The next topics will be pastimes, abodes and devotees in the next class. This food for thought is sufficient for today. Not only today, it is enough for you to think on your whole life.
Hare Krishna.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Наставления после совместной джапа сессии 20 января 2021 г.
Кришна – источник всех божественных форм и качеств
Харе Кришна. Прямо сейчас с нами воспевают преданные из более чем 790 мест. Приглашаем всех вас на эту конференцию для воспевания и беседы о джапе. Добро пожаловать в это благоприятное и благочестивое занятие. Мы слушали разных преданных с их результатами, опытом и реализациями, но объявление окончательных результатов еще не сделано. Сегодня мы узнаем лучшие результаты. Вся слава Шриле Прабхупаде и распространителям его книг!
Вчера я также говорил о 8-м стихе «Нектара наставлений», написанном Шрилой Рупой Госвами. калах найед означает, как следует использовать свое время. Речь шла о том, как прожить жизнь, на что нужно тратить время. Это самое важное из всех наставлений. Во всех наставлениях наиболее важно наставление о том, как следует использовать время. Как нам проводить время?
тихан врадже – Рупа Госвами говорит – Живите во Вриндаване в любой другой святой дхаме, или живите в ИСККОН, или посещайте ИСККОН. Идите и оставайтесь во Вриндаване.
тиртхи-курванти тиртхани – где бы вы ни были, или стхане стхитах означает, где бы вы ни были, сделайте это место Враджей, Вриндаван Дхамой. Превратите свой дом в храм и установите дхаму. Рупа Госвами также наставляет нас стать анугами (последователями). Он пишет тад-анураги-джананугами. Те, кто являются анураги (глубоко привязанными к преданному служению), являются преданными. Мы, преданные Гаудия-вайшнавов, зависим от рагануга-бхакти (спонтанной любви к Богу). Он говорит, станьте последователем. Преданные Враджа в разном настроении поглощены служением и общением с Господом. Вы должны стать последователем этих преданных. Общаться с ними и идти по их стопам должно быть целью нашей жизни. Это анугаман или анугатья (находить у них прибежище). Мы идем назад. Упоминается, как следует использовать время? Как лучше всего использовать время? Как заниматься? Оставайтесь во Врадже, следуйте по стопам возвышенных и чистых преданных и примите их прибежище. Затем он сказал расана-манаси ниёджйа – займите свой язык и ум тан-нама-рупа-чаритади, что означает установление Божества в своем сердце, воспевайте славу Их имен, славы, формы, качеств, игр, преданных и т. д. Помните Их . Ади означает и т. д. Сукиртанану означает, что человек должен воспевать славу Его святых имен, формы, качеств, спутников, дхамы и игр. Услышьте о славе природы и характера спутников и чистых преданных Господа. Воспевайте также их славу. смр̣тйох̣ крамен̣а – услышав и спев, нужно также помнить. Это разные компоненты. Давайте прочитаем перевод, а потом я хочу сказать еще что-нибудь.
тан-на̄ма-рӯпа-чарита̄ди-сукӣртана̄ну-
смр̣тйох̣ крамен̣а расана̄-манасӣ нийоджйа
тишт̣хан врадже тад-анура̄ги-джана̄нуга̄мӣ
ка̄лам̇ найед акхилам итй упадеш́а-са̄рам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все наставления сводятся к следующему: необходимо все время — двадцать четыре часа в сутки — сосредоточенно повторять божественное имя Господа и воспевать Его трансцендентный облик, качества и вечные игры, постепенно занимая этой деятельностью свой язык и ум. Всегда памятуя о святом имени, облике, качествах и вечных играх Кришны, человек должен жить во Врадже [Голоке Вриндавана-дхаме] и служить Кришне под руководством преданных. Необходимо идти по стопам преданных, которые очень дороги Господу и глубоко привязаны к преданному служению Ему.
(Нектар Наставлений Стих 8)
Это заключение. Вчера мы обсуждали святое имя. Мы продолжаем это обсуждать. Я хочу кое-что сказать об этом. Мы уже обсуждали тему имени, формы, качеств, игр, обители и т. д. Я также провел различные Бхагават Катхи, и в одной из них я разделил дни по этим темам. Однажды мы обсудили имя, а на второй день я провел лекцию по Его форме. Я написал об этом книгу, и скоро она будет опубликована, это книга «Шри Кришна Сварупа Чинтана – Медитация на форму Шри Кришны». Она находится на завершающей стадии. Макетирование находится в процессе. Скоро вы получите новости. Вы можете взять эту книгу и прочитать ее. Шри Кришна Сварупа Чинтана. Имя, форма и качества Господа – это Сам Господь, и игры Господа также неотличны от Господа. Мы не можем отделить их друг от друга.
Сначала идет имя. Есть бесчисленное множество имен Кришны. Вишну Сахасра нама означает 1000 имен Вишну. Это не так. У Кришны тысячи имен, у Радхи – тысячи имен, у Рамы – тысячи имен, у Нрисимхи – тысячи имен, у Витталы – тысячи имен. У Господа много имен. Рама – это также имя Кришны.
Рама Рама Рамети, Раме Раме Манораме;
Сахасренама таттулам, рама нама варанане
Перевод
Медитируя на «Рама Рама Рама» (Имя Рамы), мой Разум погружается в Божественное Сознание Рамы, которое Трансцендентно, Имя Рамы так же велико, как Тысяча Имен Вишну
(Сахасранама-стотра, Уттара -ханда, Падма Пурана 72.335)
Господь Шива говорит: «О Парвати, мне нравится погружаться в глубокую медитацию на имена Господа Рамы». Рааме означает наслаждаться. Рааме в Раме означает, что я наслаждаюсь Рамой.
Харе Кришна Харе Кришна Кришна Кришна Харе Харе,
Харе Рама Харе Рама Рама Рама Харе Харе.
Господь Шива говорит: «Когда я повторяю эти святые имена, я наслаждаюсь ими». Он обращается к Парвати, говоря Манораме. Он обращается к Манораме (о Парвати). Мне нравится быть поглощенным (Рааме) Рамой.
майа саха рамасва (комментарий Гопала Гуру Госвами к Харе Кришна Махамантре)
Мы молимся святому имени: о Кришна, о Радхе, пожалуйста, задействуйте меня в Своих играх. Это зов нашей души к Кришне и Радхе, Харе! О Хари! Пожалуйста, наслаждайся мной и наслаждайся со мной. Мы все наслаждаемся им, повторяя его имена.
вомач-читта̄ мад-гата-пра̄н̣а̄
бодхайантах̣ параспарам
катхайанташ́ ча ма̄м̇ нитйам̇
тушйанти ча раманти ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все мысли Моих чистых преданных поглощены Мной, и вся их жизнь посвящена Мне. Всегда делясь друг с другом знанием и беседуя обо Мне, они испытывают огромное удовлетворение и блаженство.
(БГ 10.9)
Это стих из чатур шлоки гиты.
раманти ча – наслаждайтесь трансцендентным блаженством. Преданные Господа наслаждаются катхой Господа.
катхайантаś ча мам нитйах – всегда говорящие обо Мне.
Играть – значит заниматься. Мы все должны играть в Его имена, медитировать на Его формы, качества и игры. Это не значит, что Его имя отличается от Господа и что Его качества и игры разные. Нет! Это все одно.
бхиннатван нама-намино – имена Кришны и Кришна идентичны.
Имя Кришны и личность Кришна неотличны. У Кришны тоже красивая форма. У него столько же форм, сколько и его имен.
кшас ту бхагаван свайам – Господь Шри Кришна – изначальная Личность Бога.
адваитам ачйутам анадим ананта-рупам
адйам пурана-пурушам нава-йауванам ча
ведешу дурлабхам адурлабхам атма-бхактау
говиндам ади-пурушам там ахам бхаджами
Перевод:
Я поклоняюсь Тому Предвечному Господу Говинде, недостижимому даже посредством Вед, но достижимому преданностью души; Он — единый, непогрешимый, безначальный и бесконечный; Он — начало; и хотя Он — старейший, Он вечно юн и прекрасен.
(Брахма-самхита 5.33)
Брахма сказал в «Брахма-самхите». У Тебя неограниченное количество форм, сколько планет Вайкунтх. Вайкунтха – это не одна планета. Есть так много Вайкунтх. Также как в этом материальном мире есть так много небесных тел только в Млечном Пути. Только в этой вселенной так много галактик, звезд, планет. Это всего лишь одна галактика, которую наши ученые могут увидеть с помощью астрономии. Есть так много других галактик и акаш ганг. Это все в одной вселенной. Таких вселенных так много. Есть Господь, Владыка всех этих вселенных. Все это вместе составляет одну четверть творения. Три четверти – это духовное небо, где присутствуют Вайкунтха, Голока, Сакет. В духовном небе так много планет. Это духовные планеты. Вот почему я упомянул галактики и многочисленные акаш ганги во вселенной, а таких вселенных много. Анант коти брахманда найак означает Владыка бесчисленных вселенных. Он также является Владыкой планет Вайкунтхи. Есть бесчисленное множество планет Вайкунтхи. На каждой планете Вайкунтха есть своя форма Кришны. Васудева, Санкаршан, Анируддх и Прадьюмна являются первичными экспансиями четверной формы (чатур-вьюха), которые затем расширяются в другие формы Вишну. От Санкаршаны, Чатур-вьюха, Нараяна, затем Двития-чатур-вьюха: снова Санкаршана; из Санкаршаны – Маха-Вишну; Маха-Вишну – Гарбходакашайи Вишну; Гарбходакашайи Вишну, затем Кширодакашайи Вишну, и таким образом экспансии продолжаются.
Также есть формы разных воплощений. У Господа столько форм. Он бывает в разных формах в разные эпохи. самбхавами юге юге – Я прихожу эпоху за эпохой. Иногда Он приходит как Нарасимха.
Нархари рупа – форма Нарсимхи
Рама шарира – форма Рамы
Курма шарира – Курма (черепаха)
Это разные формы. У него неограниченное количество форм. Он один, но принимает бесчисленные формы. Каждый раз в другой форме Он совершает разные игры. Господь не бесформенен. Мы видим, что существует так много бесчисленных неограниченных форм. Люди этого мира такие глупые. Те, кто являются атеистами и теистами, не верят в форму Господа (имперсоналисты). Господь имеет форму, которая вечна. Говорят, что у Господа нет ни формы, ни качеств. Но Господь говорит в Бхагавад Гите:
аваджа̄нанти ма̄м̇ мӯд̣ха̄
ма̄нушӣм̇ танум а̄ш́ритам
парам̇ бха̄вам аджа̄нанто
мама бхӯта-махеш́варам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Глупцы смеются надо Мной, когда Я прихожу в материальный мир в облике человека. Им неведома Моя духовная природа верховного повелителя всего сущего.
(БГ 9.11)
аваджа̄нанти ма̄м̇ мӯд̣ха̄ – есть глупцы, которые Меня не знают.
парам̇ бха̄вам аджа̄нанто – они не знают Моей трансцендентной природы и продолжают говорить, что Бог не обладает какой-либо формой или какими-либо качествами. Такие слова, как имперсоналисты или ниргуна, имеют другое значение, описанное имперсоналистами. Для них ниргуна означает отсутствие качеств.
Наши ачарьи и Шрила Прабхупада объясняли Ниргуну. Ниргуна не означает, что Господь не имеет качеств, но это означает, что Господь находится за пределами трех гун Природы. На него не влияют гуны благости, страсти и невежества. У него нет ни малейшего материального оттенка. Кришна говорит,
пракр̣тех̣ крийама̄н̣а̄ни
гун̣аих̣ карма̄н̣и сарваш́ах̣
ахан̇ка̄ра-вимӯд̣ха̄тма̄
карта̄хам ити манйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Введенная в заблуждение ложным эго, душа считает себя совершающей действия, которые на самом деле совершаются тремя гунами материальной природы.
(БГ. 3.27)
Эти три гуны материальной природы отсутствуют в Господе. В противном случае Он – истосник качеств. У Него много качеств. В «Нектаре преданности» Шрила Рупа Госвами упоминает 64 качества. Это не значит, что их всего 64, но их намного больше. Но это основные качества. Фактически, он является источником всех качеств, существующих в этом мире. Но поскольку Господь не связан тремя гунами природы, он и есть Ниргуна. У него так много качеств.
титикшавах каруниках сухридах сарва-дехинам
аджата-шатравах шантах садхавах садху-бхушанах
Перевод Шрилы Прабхупады:
Садху терпелив и милосерден, он – друг всех живых существ. У него нет врагов, он умиротворен, строго следует предписаниям шастр и наделен всеми добродетелями.
(ШБ 3.25.21)
Эти качества подобны украшениям садху.
титикшавах – терпимый;
каруниках – милостивый;
сухридах – дружелюбный ко всем
шантах – мирный. Преданные миролюбивы. У них мирный ум.
Шантаакаарам бхуджагашаянам падманаабхам сурешам
(Вишну сахастра нам)
Перевод
(Я медитирую на Господа Вишну), Который имеет Безмятежный вид (который наполняет наше внутреннее существо Покоем); Кто лежит на (ложе) змея (Ананта или Адишеша, олицетворяющих вечную Изначальную энергию или Мула Пракрити); Из Чьего Пупа растет Лотос (который является источником всех Творений через Брахмадеву); и Кто (председательствует над различными элементами этих Творений в качестве) Владыки Дэвов.
Он терпимость, миролюбие и дружба. Все качества в Нем. Везде, где вы видите в мире какие-либо качества, в преданных, они исходят от Кришны. В конце концов, джива – это крошечная частичка Кришны.
мамаива̄м̇ш́о джӣва-локе
джӣва-бхӯтах̣ сана̄танах̣
манах̣-шашт̣ха̄нӣндрийа̄н̣и
пракр̣ти-стха̄ни каршати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Живые существа в материальном мире — Мои вечные отделенные частицы. Оказавшись в обусловленном состоянии, они вынуждены вести суровую борьбу с шестью чувствами, к числу которых относится ум.
(БГ 15.7)
Какие бы качества ни были у Господа, они также присутствуют в Дживе, но в меньшем количестве. Это похоже на то, как немного золота из золотого рудника одинакового качества, но другого по количеству. Мы можем сделать маленькое кольцо из этого маленького количества золота или чего-нибудь из этого золотого рудника. Качество у них одинаковое, но количество разное. В шахте должно быть много золота, но не в кольце. Какими бы качествами мы ни обладали, они на самом деле сначала присутствуют в Кришне, а затем в нас, потому что мы – Его неотъемлемые частицы. Господь полон качеств. Мы видели, что Господь имеет бесчисленное множество имен, форм и качеств.
Следующими темами будут игры, обитель и преданные следующего класса. На сегодня этой пищи для размышлений достаточно. Не только сегодня, вам достаточно пищи для размышлений на всю жизнь.
Харе Кришна.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
19 जनवरी 2021
हरे कृष्ण। 800 स्थानों से आज जप हो रहा है। समझ रहे हो ? हरि हरि। आप सभी का पुनः पुनः स्वागत है। आज प्रात कालीन कक्षा , जप चर्चा के अंतर्गत उपदेशामृत का आठवां श्लोक पढ़ेंगे और फिर उसके अलावा कई सारे भक्त होंगे वह अलग-अलग मंदिरों के बुक डिसटीब्यूटर्स ,अपने अपने ग्रंथ वितरण के अनुभव सुनाएंगे , अपने अपने साक्षात्कार सुनाएंगे । इस तरह मैं भी , वह भी , आप सभी भी आज कुछ प्रस्तुत करेंगे । ठीक है।
नाम रूप चरित ….
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अनुवाद सुनिये , ध्यानपूर्वक सूनना । प्रत्येक शब्द , प्रत्येक अक्षर सुनो । वाक्य और प्रत्येक वाक्य का समूह या उसका अनुवाद समझो । जैसे हम ध्यान पूर्वक जप करते हैं वैसे ध्यान पूर्वक शास्त्रो के वचनों का श्रवण भी करना चाहिए। समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय 24 घंटे वैसे उस श्लोक में 24 घंटे तो नहीं कहा हैं , प्रभूपाद का भाषांतर भी है यह , चौबीसों घंटे भगवान की दिव्य नाम , दिव्य रूप , गुणों तथा नित्य लीला का सुंदर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने में लगाएं । जिसमे उसकी जीभ , मन क्रमशः व्यस्त रहें । इस तरह उसे गोलोक वृंदावन धाम में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्गदर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को भगवान के उन प्रिय भक्तों के पदचिन्हो का अनुगमन करना चाहिए , मनुष्य को भगवान के उन प्रिय भक्तों के पदचिन्हो का अनुसरण करना चाहिए जो उनके भक्ति में प्रगाढता से अनुरक्त है।
हरी हरी। आप पढियेगा , अब पढ़ने का समय नहीं है और वैसे इस श्लोक का उल्लेख करने का मेरा उद्देश्य यह भी है कि , एक भौतिकवादी होते हैं , प्रत्यक्ष वादी भी कहा जा सकता है जो देखते है , सुनते हैं , सुन सकते हैं वही है यह सब मानने वाले जो हम देख नहीं सकते , सून नहीं सकते , सुंग नहीं सकते , उसको स्पर्श नहीं कर सकते वह है नहीं ऐसे भी होते हैं , यह भौतिक वादी या प्रत्यक्ष वादी , उन्हे नास्तिक कहा है और फिर होते हैं निराकार निर्गुण वादी या मायावती जिनको आस्तीक तो कहां है।
धर्म में भगवान में जिनकी आस्था है भगवान की अस्तित्व को वह मानते हैं , स्विकार करते हैं किंतु भगवान का नाम नहीं है , रूप नहीं है , गुण नहीं है वह लीला नहीं करते , उनका धाम नहीं है ऐसी उनकी मान्यता दुर्दैव से होती है , ऐसे होते हैं यह दूसरा समूह है। एक भौतिकवादी नास्तिक , निराकार निर्गुण , मायावादी आस्तिक समूह और फिर यह अद्वैत वादी भी होते हैं निराकार वादी , निर्गुण वादी और फिर होते हैं वैष्णव हरी हरी , वह प्रत्यक्ष को प्रमाण नही मानते या प्रत्यक्ष प्रमाण भी हो सकता है , अंदमान भी प्रमाण है लेकिन वैष्णव का विश्वास शब्द में होता है, शब्द प्रमाण या शास्त्र प्रमाण। हरि हरि। शब्द प्रमाण यह प्रमाण है । प्रमाण क्या है ? इसका सबुत क्या है ? शास्त्र प्रमाण। शब्द जो शब्दों से भरे है वह शब्द प्रमाण, उसको स्वीकार करते हैं और यह शब्द प्रमाण , शास्त्र प्रमाण को स्वीकार करते है। मायावती भी आस्तिक कहलाते हैं। वह भी शास्त्र को , शब्दों को प्रमाण मानते हैं किंतु उनके भाष्य चलते हैं । हां , भगवान है किंतु भगवान का रूप नहीं है या भगवान का कोई गुण नहीं है ऐसे ही अंततोगत्वा अद्वैत मतलब हम और भगवान एक ही है ।
सर्वं खल्विदं ब्रह्म ।
(छान्दोग्य उपनिषद् ३.१४.१)
अनुवाद: भगवान् एक हैं और वे सर्वत्र विद्यमान हैं । चूँकि पूर्ण भक्त के लिए शक्ति व शक्तिमान अभिन्न हैं , इसलिए उसके लिए यह तथाकथिक भौतिक जगत भी आध्यात्मिक बन जाता है । सबकुछ भगवान् की सेवा के लिए है , और निपुण भक्त कोई भी तथाकथित भौतिक वस्तु भगवान् की सेवा में लगा सकता है । ( श्रील प्रभुपाद ने श्रीमद् भागवतम् के ४.२४.६२ व ४.२८.४२ के तात्पर्यों में सर्वं खल्विदं ब्रह्म का यह अर्थ बतलाया है । )
सब ब्रह्म है । केवल ब्रह्म का अस्तित्व है , परमात्मा का नहीं है , भगवान का नहीं है यह जो नाम, रूप, गुण, लीला, धाम यह भगवान के संबंध में है। पराश मतलब भगवान की कई सारी विविध शक्तियां है । यह मायावती, निराकार निर्गुण वादी के लिते भगवान केवल ब्रम्ह है। भगवान के शक्ति को नहीं मानते , हरी हरी।
ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या , बाकी सब मिथ्या है केवल ब्रह्म ही सत्य है और फिर अहम ब्रह्मास्मि , मैं ही ब्रह्म हूं , यह जो ब्रह्म है उसमें में लीन होता हूं। इसी में सिद्धि है , ब्रह्मलीन होने में सिद्धि है या अहं ब्रह्मास्मि यह सर्वोपरि साक्षात्कार है। तो इस मान्यताओं के साथ यह मायावादी यानी कृष्ण अपराधी भगवान के चरणों में अपराध करते है। कृष्णा के चरणों को स्वीकार ही नहीं करते, कृष्ण के तो चरण ही नहीं है, को नहीं नहीं है ऐसा वह मानते है। हरि हरि। फिर वह भगवान से वंचित रह जाते है और भगवान से अपरिचित रह जाते है। भगवान का भी परिचय होता है और वैसे किसी व्यक्ति का ही परिचय है, इस संसार के यानी आपके जैसे जो व्यक्ति है उनका भी परिचय होता है, उसका नाम, रूप, गुन होता है। उसकी कुछ विशेषता होती है यानी अच्छा आदमी है या बदमाश है, गुण या अवगुणों का ऐसे परिचय होता है। नाम रूप गुण लीला और वे क्या करते है? क्या उद्योग करते है? कुछ उद्योग नहीं करते बेरोजगार है या किसी कंपनी में नौकरी करते है। तो ऐसे ही नाम रूप गुण और कार्यकलाप और उसी के साथ आता है धाम यानी वह कहां पर रहते है।
उनका पता क्या है कौन से देश में कौन से शहर में या कौन सी गली में रहते है? और उनके कौन-कौन रिश्तेदार है या मित्र है? तो ऐसे व्यक्ति का परिचय मतलब उसके नाम, रूप, गुण, कार्यकलाप और उसके पते के हिसाब से उसका परिचय होता है। तो ऐसे ही भगवान का भी ऐसा ही परिचय होता है। भगवान का भी ऐसे ही नाम, रूप, धाम, गुण होता है। जैसे संसार के लोगों का परिचय होता है तो भगवान का भी परिचय वैसे ही होता है। तो यहां कहा है, इस उपदेशामृत के श्लोक में कि, भगवान का क्या-क्या है, नाम रूप गुण लीला आदि है। तो भक्त को ब्रज में याद धाम में रहना चाहिए ऐसा उल्लेख हुआ है। तो जब हम कई सारे भौतिकवादी भी इस ज्ञान के यानी भक्ति पूर्ण ज्ञान, भगवान के नाम और रूप गुण, लीला धाम परिकर का जो ज्ञान है इसको भक्तिपूरक ज्ञान यानी भक्ति को बढ़ाने वाला यह ज्ञान है।
केवल ज्ञान ज्ञानयोग का ज्ञान नहीं है! यह भक्तियोगियों का ज्ञान है या फिर भक्ति करने पर ही ऐसा ज्ञान प्राप्त होता है। ऐसा ज्ञान प्राप्त करनेसे भक्ति बढ़ जाती है। तो जब हम भगवान का नाम कहते है तो कितनी सारी ज्ञान की बातें नाम के साथ जुड़ी हुई है। और भगवान के कितने सारे नाम भी है। विष्णुसहस्त्रनाम! और कुछ नाम भगवान के रूप के कारण है। जेसे श्यामसुंदर! और कुछ नाम भगवान के लीला के कारण है, जेसे वेनूधर! नाम भी हुआ और लीला का उल्लेख भी हुआ। तो भगवान के अलग-अलग या असंख्य नाम है। भगवान के रूप के कारण या गुणों के कारण, भगवान की लीलाओं के कारण, भगवान के धाम के कारण, जेसे अयोध्या वासी राम येसे अलग अलग नाम हो जाते है। तो इस बारे में कभी और बताएंगे!
भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, परीकर और धाम इसके संबंध में कुछ कहने का विचार था। कुछ भक्तों ने संकीर्तन किया या संकीर्तन यानी ग्रंथों का वितरण भी किया, तो भगवान के नाम रूप गुण लीला धाम और परिकर का किर्तन किया! उन ग्रंथों में यह सब है जैसे कि नाम का कीर्तन, रूप का कीर्तन, लीला का कीर्तन, या धाम का कीर्तन और भगवान के परिकर यानी भक्त, पार्षद के कीर्ति का गान यह सब कीर्तन है। बुक डिस्ट्रीब्यूशन पार्टी यानी संकीर्तन पार्टी है ग्रंथ वितरण हो रहा है यानी संकीर्तन ही हो रहा है! हरि हरि। ठीक है में यहां पर रुक जाता हूं। गौरव प्रेमानंदे हरि हरि बोल! हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
19 January 2021
Everything is Lord Kṛṣṇa
Hare Krsna. Welcome to this Japa session. 805 participants are chanting with us right now. Welcome again and again to this morning session. I hope you are all listening attentively. Listen to every word, actually not every word, listen to every letter of this verse from Updesamrta. Just like we chant very carefully, so we should be careful in understanding the scriptures also.
Today we shall study the 8th verse of Updesamrta. We shall recite the verse and also understand it. Then we will have book distributors from different locations sharing their experiences and realisations.
You must all listen to and read the translation of this verse attentively, as attentively as you chant.
tan-nāma-rūpa-caritādi-sukīrtanānu-
smṛtyoḥ krameṇa rasanā-manasī niyojya
tiṣṭhan vraje tad-anurāgi janānugāmī
kālaṁ nayed akhilam ity upadeśa-sāram
Translation
The essence of all advice is that one should utilize one’s full time – twenty-four hours a day – in nicely chanting and remembering the Lord’s divine name, transcendental form, qualities and eternal pastimes, thereby gradually engaging one’s tongue and mind. In this way one should reside in Vraja (Goloka Vṛndāvana-dhāma) and serve Kṛṣṇa under the guidance of devotees. One should follow in the footsteps of the Lord’s beloved devotees, who are deeply attached to His devotional service. (NOI Verse 8)
Read the purport for this verse. We don’t have the time to read it. I shall discuss the purpose of studying this verse today.
There are different types of people. Materialistic people are atheists because they believe only in that which they can see, hear, touch, smell or taste. They are theistic as they believe in voidism. They believe in the formless and the philosophy that the Jiva and Lord are one. They believe in the words of the scriptures as proof. If they cannot feel, sense, smell, touch something they do not believe in it.
Mayavadis are atheistic. They believe in the words of the scriptures, but they give their own interpretation. They believe that the Lord exists, but He is formless, Only Brahman exists. They say He has no qualities, no name, no form. He has no residence. Their belief is that He has no pastimes. We are all equal to the Lord. There is no Paramatma or Bhagavan. They don’t believe in the energies of the Lord. They say that Brahman is truth and the material world is false. I am also Brahman or I am going to merge with the Brahman. In this way of not accepting Krsna and the false preaching about the non existence of Krsna, they offend Krsna.They are not introduced to Krsna.
prabhu kahe,–“māyāvādī kṛṣṇe aparādhī
‘brahma’, ‘ātmā’ ‘caitanya’ kahe niravadhi
Translation
Śrī Caitanya Mahāprabhu replied, “Māyāvādī impersonalists are great offenders unto Lord Kṛṣṇa; therefore they simply utter the words Brahman , ātmā and caitanya. (CC Madhya 17.129)
Then there are Vaisnavas who have faith in the scriptures, the words which serve as proof. They accept them completely. Mayavadis also accept the scriptures, but are called atheist because they give their own commentaries and do not accept the Lord and His form. They believe they are one with the Lord. They believe that only Brahman has existence.. They do not accept the power of the Lord.
sāstra yonitvāt Scriptures are the source of knowledge of Brahman. (Brahma-sūtra Verse. 1.1.3)
Brahma Satya Jagat Mithya. They say only Brahman is the truth and the rest is false. Then they say, Aham Brahmasmi – I am Brahman or I merge with Brahman. They say they get purity in this and this is the prime realisation. With these realisations they commit offences at the lotus feet of Krsna. Poor people get deprived of the divine glories of the Lord. They remain without the knowledge of Lord. They do not know Him.
Bhagavan has an introduction, just like any individual. What is His name? How does He look? What are His qualities? Such are the ways in which we introduce an individual.
na tasya kāryaṁ karaṇaṁ ca vidyate
na tat-samaś cābhyadhikaś ca dṛśyate
Translation
The Supreme Lord, Kṛṣṇa, has senses and a body like the ordinary man, but for Him there is no difference between His senses, His body, His mind and Himself. Foolish persons who do not perfectly know Him say that Kṛṣṇa is different from His soul, mind, heart and everything else. Kṛṣṇa is absolute; therefore His activities and potencies are supreme. It is also stated that although He does not have senses like ours, He can perform all sensory activities; therefore His senses are neither imperfect nor limited. No one can be greater than Him, no one can be equal to Him, and everyone is lower than Him. (Śvetāśvatara Upaniṣad 6.8)
What He does, His pastimes , where He stays, who are His associates? These are the ways through which we get to know someone and even the Lord.
ṣaṇṇāṁ bhaga itīṅganā
Translation
Bhagavan, the Supreme Personality of Godhead, is thus defined by Sri Parashara Muni as one who is full in six opulences—who has full strength, fame, wealth, knowledge, beauty, and renunciation. (Vishnu-purana 6.5.47)
sarvaṁ khalv idaṁ brahma
Translation
Everything is Lord Kṛṣṇa in the sense that everything is His energy. That is the vision of the mahā-bhāgavatas. They see everything in relation to Kṛṣṇa. The impersonalists argue that Kṛṣṇa Himself has been transformed into many and that therefore everything is Kṛṣṇa and worship of anything is worship of Him.
(Chāndogya Upaniṣad 3.14.1)
This verse from the Nectar of Instruction gives the introduction of the Lord. This knowledge is not knowledge acquired by Jnana Yogis. This knowledge enhances devotion and is the knowledge of the Bhaktas.
When we chant the names of the Lord there is much knowledge that is linked to every name of the Lord. There are numerous names of the Lord with which so many things are linked. Some names are as per His form like Shyamasundar, One who is dark complexioned and extremely beautiful. Some names are according to His pastimes like Venudhar, One who plays the flute. Some names are according to His qualities and some names according to His abode. He has innumerable names.
We shall discuss more in detail later. We have some devotees who will share their Sankirtan experiences. Book distribution is also Sankirtan. A book distribution party is a Sankirtan party. The books they distribute carry knowledge about the name, form, qualities, pastimes and abode of the Lord. This is Kirtan.
I shall stop here today. Hare Krsna! Gaura premanande Hari Haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 19 января 2021 г.
ВСЕ ЕСТЬ ГОСПОДЬ КРИШНА
Харе Кришна. Добро пожаловать на сеанс джапы. Сейчас с нами воспевают участники из 805 мест. Добро пожаловать снова и снова на эту утреннюю сессию. Надеюсь, вы все внимательно слушаете. Слушайте каждое слово, фактически не каждое слово, слушайте каждую букву этого стиха из Упадешамриты. Также как мы очень внимательно воспеваем, мы также должны быть внимательны в понимании Священных Писаний.
Сегодня мы изучим 8-й стих Упадешамриты. Мы будем читать стих, а также понимать его. Затем у нас будут распространители книг из разных мест, которые поделятся своим опытом и достижениями.
Вы все должны слушать и читать перевод этого стиха внимательно, так же внимательно, как вы повторяете.
тан-на̄ма-рӯпа-чарита̄ди-сукӣртана̄ну-
смр̣тйох̣ крамен̣а расана̄-манасӣ нийоджйа
тишт̣хан врадже тад-анура̄ги-джана̄нуга̄мӣ
ка̄лам̇ найед акхилам итй упадеш́а-са̄рам
Перевод:
Все наставления сводятся к следующему: необходимо все время — двадцать четыре часа в сутки — сосредоточенно повторять божественное имя Господа и воспевать Его трансцендентный облик, качества и вечные игры, постепенно занимая этой деятельностью свой язык и ум. Всегда памятуя о святом имени, облике, качествах и вечных играх Кришны, человек должен жить во Врадже [Голоке Вриндавана-дхаме] и служить Кришне под руководством преданных. Необходимо идти по стопам преданных, которые очень дороги Господу и глубоко привязаны к преданному служению Ему.
(Нектар Наставлений, стих 8)
Прочтите комментарий к этому стиху. У нас нет времени это читать. Сегодня я буду обсуждать цель изучения этого стиха.
Есть разные типы людей. Материалистические люди являются атеистами, потому что верят только в то, что могут видеть, слышать, осязать, обонять или пробовать. Они теисты, поскольку верят в пустоту. Они верят в бесформенность и философию, согласно которой джива и Господь – одно. Они не верят словам Священных Писаний как доказательству. Если они не могут ощутить, почувствовать, обонять, потрогать что-то, они не верят в это.
Майявади атеисты. Они верят словам Священных Писаний, но дают свое собственное толкование. Они верят, что Господь существует, но Он не имеет формы, существует только Брахман. Они говорят, что у Него нет качеств, имени, формы. У него нет места жительства. Они верят, что у Него нет игр. Мы все равны Господу. Нет ни Параматмы, ни Бхагавана. Они не верят в энергии Господа. Они говорят, что Брахман – это истина, а материальный мир – ложь. Я тоже Брахман, и я сливаюсь с Брахманом. Таким образом, не принимая Кришну и ложные проповеди о несуществовании Кришны, они оскорбляют Кришну. Они не знакомятся с Кришной.
прабху кахе, — “ма̄йа̄ва̄дӣ кр̣шн̣е апара̄дхӣ
‘брахма’, ‘а̄тма̄’ ‘чаитанйа’ кахе ниравадхи
Перевод Шрилы Прабхупады:
Шри Чайтанья Махапрабху ответил: «Имперсоналисты-майявади — хулители Господа Кришны. Поэтому они произносят лишь такие слова, как „Брахман“, „атма“ и „чайтанья“».
(Ч.Ч. Мадхья 17.129)
Кроме того, есть вайшнавы, которые верят в писания, слова, которые служат доказательством. Они полностью их принимают. Майявади также принимают писания, но их называют атеистами, потому что они дают свои собственные комментарии и не принимают Господа и Его форму. Они верят, что едины с Господом. Они верят, что существует только Брахман. Они не принимают силу Господа.
шастра йонитват
Абсолютную Истину можно постичь с помощью ведического откровения
(Брахма-сутра, стих 1.1.3)
Брахма Сатья Джагат Митхья. Они говорят, что истиной является только Брахман, а все остальное – ложь. Затем они говорят: Ахам Брахмасми – я Брахман или я сливаюсь с Брахманом. Они говорят, что обретают в этом чистоту, и это главное осознание. Осознав это, они оскорбляют лотосные стопы Кришны. Бедные люди лишаются божественной славы Господа. Они остаются без осознания Господа. Они не знают Его.
У Бхагавана есть внешнее описание, как и у любого другого человека. Как его зовут? Как он выглядит? Какие у него качества? Так мы представляем человека.
на тасйа ка̄рйам̇ каран̣ам̇ ча видйате
на тат-самаш́ ча̄бхйадхикаш́ ча др̣ш́йате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Нараяна — это всевластный, всесильный Господь, Верховная Личность. Он обладает великим многообразием энергий и потому может, не покидая Своей обители и не прилагая никаких усилий, наблюдать за материальным космосом и управлять им с помощью трех гун материальной природы — саттва-, раджо- и тамо-гуны. Эти гуны, взаимодействуя, порождают различные объекты, тела, действия и изменения, причем делают это совершенным образом. Господь совершенен, и потому все в этом мире происходит так, как если бы Он Сам всем управлял и все вершил.
(Шветашватара Упанишад, 6.8, перевод из Ш.Б. 6.1.43)
Что Он делает, Свои игры, где пребывает, кто Его спутники? Это способы, с помощью которых мы узнаем кого-то и даже Господа.
шаннам бхага итингана
Перевод:
Таким образом, Парашара Муни определяет Бхагавана, Верховную Личность Бога, как того, кто полон шести достояний – обладающий полной силой, славой, богатством, знанием, красотой и отречением.
(Вишну Пурана, 6.5.47)
сарвах халв идам брахма
Перевод:
Все есть Господь Кришна в том смысле, что все – Его энергия. Это видение маха-бхагават. Они видят все в связи с Кришной. Имперсоналисты утверждают, что Сам Кришна превратился во многих, и поэтому все есть Кришна, а поклонение чему-либо – это поклонение Ему.
(Чандогья Упанишад, 3.14.1)
Этот стих из «Нектара наставлений» знакомит с Господом. Это знание не является знанием, полученным гьяна-йогами. Это знание усиливает преданность и является знанием бхакт.
Когда мы воспеваем имена Господа, мы получаем много знаний, связанных с каждым именем Господа. Есть множество имен Господа, с которыми связано так много всего. Некоторые имена соответствуют Его форме, например, Шьямасундара, темнокожий и чрезвычайно красивый. Некоторые имена соответствуют Его играм, например, Венудхар, Тот, кто играет на флейте. Некоторые имена соответствуют Его качествам, а некоторые – Его обители. У него бесчисленное количество имен.
Обсудим подробнее позже. У нас есть преданные, которые поделятся своим опытом санкиртаны. Распространение книг – это также санкиртана. Деятельность по распространению книг – это деятельность санкиртаны. Книги, которые они распространяют, несут знания об имени, форме, качествах, играх и обители Господа. Это Киртан.
Я остановлюсь здесь сегодня. Харе Кришна! Гаура премананде Хари Харибол!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
Japa talk-18 January 2021
“ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै शीगुरवे नमः”
आप जानते हैं यह प्रार्थना?
जिन्होंने हमारी आंखें खोली या हमारी आंखों में प्रेमांजन अथवा ज्ञानांजन डाला ऐसे श्रील प्रभुपाद की जय।
समय तो कम है,यहां तक कि मरने के लिए भी समय नहीं है।
आज कुछ समय के उपरांत लगभग 7:00 बजे हम संकीर्तन कहानियाँ,संकीर्तन पुस्तक वितरण की कुल संख्या का स्कोर हमारे मंदिर के भक्तों से सुनने वाले हैं।इसलिए मैं कुछ संक्षिप्त में ही कहूंगा।और मैं जो भी कहूंगा सच ही कहूंगा,सच के अलावा मुझे और कुछ भी कहना नहीं आता।अच्छा होता अगर कुछ और कहना नहीं आता तो,लेकिन हम सब बहुत कुशल होते हैं झूठ बोलने में।और हम जो भी बोलते हैं झूठ ही बोलते हैं झूठ के अलावा और कुछ नहीं बोलते ।संसार में ऐसी ठगाई चलती रहती है।इसलिए श्रील प्रभुपाद जी कहा करते थे ठगने वाला और ठगाने वाला,एक ठगाता है और दूसरा ठग जाता है।ठग को कोई महा-ठग मिलता है,और फिर उसको कोई और।
हरि हरि।
तो हम ऐसे जगत के लोग हैं। तो मैं जब पहली बार श्रील प्रभुपाद से मिला,मतलब श्रील प्रभुपाद को देखा या सुना सबसे पहली बार।श्रील प्रभुपाद मुंबई में थे,गिरगांव चौपाटी में।और आप जानते है? गिरगांव चौपाटी,मरीन ड्राइव और मारबर हिल्स सब पास में ही है।हमारा राधा गोपीनाथ मंदिर भी वहीं पास में ही है गिरगांव चौपाटी के पास। तो वहां पर श्रील प्रभुपाद एक उत्सव में लोगों को संबोधित कर रहे थे,श्रील प्रभुपाद हरे कृष्ण उत्सव मनाने जा रहे थे मुंबई में।1971 की बात है,यह उत्सव क्रॉस मैदान में होना था चर्चगेट के पास मैदान में,लेकिन इस उत्सव के प्रारंभ में एक शोभायात्रा संपन्न होनी थी।शोभा यात्रा का प्रारंभ गिरगांव चौपाटी से होना था।वहां पर श्रील प्रभुपाद बोल रहे थे तो मैं भी वहां पहुंचा था, उस समय मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था।मैं उस विज्ञापन को पढ़कर वहां पहुंचा था कि अमेरिकी साधु या यूरोपीय साधु मुंबई पहुंचे हैं।मैं इस बात से आकृष्ट हुआ था कि अमेरिकी साधु या यूरोपीय साधु मुंबई पहुंचे हैं।क्या सचमुच वह साधु है? या ऐसे ही कुछ नौटंकी चल रही है।
खैर,ऐसे कहते-कहते मुझे जो कुछ कहना होता है वह भी रह जाता है।
तो श्रील प्रभुपाद से मैंने वहां जो बात सुनी,श्रील प्रभुपाद वैकुंठ की बात कर रहे थे।श्रील प्रभुपाद घर वापस जाने की,भगवद्दर्शन की बात कर रहे थे।वैकुंठ का,भगवद्धाम का परिचय और वहां जाना हमारे जीवन का लक्ष्य है यह बातें सुना रहे थे।तो बिल्कुल पहली ही मुलाकात या दर्शन या श्रवण जो मैंने किया श्रील प्रभुपाद से,उसमें चर्चा,दिव्य जगत की हो रही थी वैकुंठ की हो रही थी।हरि हरि।।
वैकुंठ के या गोलोंक के ही वह प्रतिनिधि थे।हम उनको आध्यात्मिक जगत के दूत कहते हैं।आध्यात्मिक जगत के राजदूत। तो जितनी चर्चा श्रील प्रभुपाद ने की वैकुंठ के संबंध में।और लिखा भी वैकुंठ के गोलोंक के,वृंदावन के संदर्भ में और वहां पर जाने के संबंध में।प्रभुपाद इस पर जोर दिया करते थे कि हमें वहां पर जाना है ।और फिर यह जोर इसलिए भी क्योंकि ऐसा जोर भगवान ने भी दिया ही है।हम यह चर्चा हमेशा करते आए हैं कि कैसे भगवान भी गीता में अपने धाम का पुनः पुनः जिक्र किया करते हैं और बार-बार हम सभी को प्रेरित या आमंत्रित करते हैं।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।(भगवद गीता-15.6)
इन शब्दों में कहते हैं
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे (भगवदगीता-18.65)
इन वचनों के माध्यम से पुनः पुनः श्री कृष्ण ने जैसे वैकुंठ लोक, गोलोक,दिव्यलोक की चर्चा की तो श्रील प्रभुपाद ने इन वचनों का प्रचार यथारूप,इसकी ख्याति यथारूप,भगवान ने जैसा कहा है वैसी ही बात,उतना ही जोर अलग-अलग बातों पर दिया।
इसलिए उनके प्रचार को,प्रचार यथारूप कह सकते हैं।तो केवल भगवद्गीता ही यथारूप नहीं है ,श्रील प्रभुपाद की हर बात हर प्रचार यथारूप रहा।जैसे होना चाहिए,जैसे भगवान ने कहा हैं।ऐसी चर्चा,लोग,प्रचारक और धर्म के संस्थापक ही कहो जो अलग ही धर्म की स्थापना करते हैं और धर्म के संस्थापक बनते हैं और फिर स्वर्ग की चर्चा करते हैं,स्वर्ग जाने की बातें होती हैं या फिर ब्रह्म में लीन होने की बातें होती हैं।तुम भगवान हो,मैं भगवान हूं और ऐसे कई सारे भगवान भी हमारे देश में गलियों में घूमते रहते हैं।आओ,मैं भी आप को भगवान बना सकता हूं।ऐसी चर्चा,यह मायावाद का प्रचार है। मायावादी कृष्ण अपराधी जो है वो ऐसा प्रचार करते हैं। तो भगवान तो हमको अपने धाम,उनके धाम बुला रहे हैं।अगर हम वासी हैं तो हम वास्तव में तो वैकुंठ वासी हैं,गोलोक वासी हैं,हम ब्रजवासी हैं।तो कृष्ण और कृष्ण के परंपरा में आने वाले आचार्य,उन्होने तो ऐसा ही आमंत्रण भेजा है ऐसे ही आमंत्रित किया है,प्रेरित किया है,घर वापस आ जाओ घर वापस आ जाओ लेकिन ऐसा प्रचार ओर लोग नहीं करते।वैसे आने जाने का प्रश्न ही नहीं है क्योकि
यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा धृतं पिबेत्।
भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनंकुत:। (चार्वाक-दर्शन)
यह भी समस्या है कि चार्वाक हुए और चार्वाक के चेले भी कुछ कम नहीं है इस संसार में।कोई कह सकता है कि चार्वाक तो हिंदू थे,चार्वाक तो भारतीय थे,हमें तुम्हारे चार्वाक से कोई लेना देना नहीं है।हम चार्वाक को नहीं मानते।नहीं मानते होंगे या नहीं जानते होंगे चार्वाक को ।उसका नाम नहीं सुना होगा या उसके तत्वज्ञान को तुमने नहीं सुना होगा पर तुम हो तो पक्के चार्वाक के चेले।क्योंकि चार्वाक ने जैसा कहा है कि जब इस देह का अंत होता है तो सब कुछ खत्म हो जाता है।कुछ शेष नहीं बचता।यह पुनः जन्म वगैरा है ही नहीं।आत्मा है ही नहीं।आत्मा अमर और
न जायते म्रियते वा कदाचि
नायं भूत्वा भविता वा न भूय: |
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।(भगवदगीता-2.20)
जो कृष्ण ने सुनाया है ऐसा कुछ भी नहीं है।श्रील प्रभुपाद मोस्को पहुंचे तो वहां कोटासकवी नाम के एक विश्वविद्यालय के बड़े प्रोफेसर थे तो उनके साथ भी प्रभुपादजी जब बात कर रहे थे तो उन्होंने भी कहा कि स्वामी जी जब शरीर खत्म हो जाता हैं तो सब कुछ खत्म हो जाता है।जब शरीर का अंत हुआ तो समझो सब कुछ अंत हो गया कुछ बचा ही नहीं। तो आजकल ऐसा प्रचार है।हरि हरि।।
तो जब कोई मरता है तो लोग समझते हैं कि वह स्वर्गवासी हो गया। उसका चित्र टांग कर भी लिखते हैं स्वर्गवासी फलाना स्वर्गवासी ।तो पता नहीं कि स्वर्गवासी या नर्क वासी।क्योंकि कृष्ण ने तो कहा है कि यह काम,क्रोध,लोभ यह तीन जो शत्रु है यह बद्ध जीवो को परास्त करके नर्क ले जाते हैं।कृष्ण ने कहा है कि ये तीन द्वार हैं,छह भी हो सकते हैं लेकिन उनमें से तीन और भी प्रमुख है तो इन तीनों का जिक्र करते हुए कृष्ण ने कहा है कि यह तीन नरक के द्वार हैं।”काम ,क्रोध,लोभ”
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा: |
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्जयान् (भगवदगीता-16.12)
ऐसा कृष्ण ने कहा है कि इस संसार के जीव आशा के पाश से बद्ध है।
सेंकडो,सौ हजार पाश।पाश मतलब रस्सी,डोरी।ऐसी डोरियों से हम बंधे हैं।और वह कठपुतली वाला हमको नचा रहा है।हमारी डोरिंया उनके हाथ में है और काम,क्रोध परायणा।होने तो भक्ति परायन चाहिए।लेकिन कृष्ण कहते हैं कि कलियुग में बद्ध जीव काम और क्रोध में बहुत कुशल है।उनको प्रमाण पत्र भी मिलता है कामी और क्रोधी होने का।और यह सारा फिल्म उद्योग इसी का प्रचार करता है काम और क्रोध का।यह दो ही चीजें चलती है सिनेमा में। काम और क्रोध।कामवासना की तृप्ति जब नहीं होती और वह तो होती ही नहीं है । तो क्या होता है-कामात्क्रोधोऽभिजायते
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते | सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते (भगवदगीता-2.62)
तो काम से उत्पन्न होता है क्रोध
हरि हरि।।
तो इस प्रकार कुछ लोग कहते हैं कि हमारे परिवार के लोग तो स्वर्ग गए या फिर ब्रह्मलीन हुए।मुख्यता इन दो बातों पर जोर दिया जाता है।
संसार के लोग समझते हैं और कहते हैं कि फलाने लोग स्वर्गवासी हुए या कुछ कहते हैं कि कैलाश वासी हुए,ब्रह्मलीन हुए।लेकिन हम लोग,गोडिय वैष्णव तो कहते रहते हैं
नित्य लीला प्रविष्ठ।गौर किशोर दास बाबाजी महाराज की जय।।
जय ओम नित्य लीला प्रविष्ठ।सुन रहे हो?और समझ रहे हो?नित्य लीला प्रविष्ठ।भगवान के नित्य धाम में जो नित्य नीला होती है उस में प्रवेश किया।और प्रवेश करने वाले प्रविष्ठ जो हुए उन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की जय।।गौर किशोर दास बाबा जी महाराज की जय।।
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज की जय।।और जयानंद प्रभु की जय( श्रील प्रभुपादजी के शिष्य)।वह जब नहीं रहे तो श्रील प्रभुपादजी ने कहा कि वह घर वापस चले गए हैं। तो वैकुंठ चलो।।
तो श्रील प्रभुपाद ने इस सत्य का प्रचार किया और जब प्रभुपाद ने अपनी पत्रिका प्रारंभ कि 1944 मे तो उसका नाम प्रभुपाद ने दिया “बैक टू गॉड हेड”(“भगवत दर्शन”)
उसको मराठी में हम कहते हैं जाऊ देवा छिया गावा नाम कि पत्रिका।
जिसको प्रभुपाद कह रहे हैं कि बैक टू गॉड पत्रिका इस्कॉन कि रीढ की हड्डी है। तो उस पत्रिका को नाम ही दिया प्रभुपाद ने “घर वापसी”। चलो गोलोक चलते हैं।तो ऐसे श्रील प्रभुपाद की जय।क्योंकि जो भगवद्दर्शन है या भगवदगीता है या भागवतम् है या चेतनयचरित्रामृत है या इशोपनिषद है या उपदेशामृत है या भक्ति रसामृत सिंधु है।इतने सारे ग्रंथ प्रभुपाद ने प्रकाशित किए इन सभी में वही संदेश है भगवद्धाम लौटना है,भगवद्धाम लौटना है मतलब भगवत प्राप्ति करनी है और फिर अंततोगत्वा भगवद्धाम लौटना है।
हरि हरि।।
ठीक है तो अब यहां समाप्त करेंगे।
तो ऐसा संदेश जिन ग्रंथों में है “भगवद्धाम लौटने का संदेश”।उसी के संबंधित जो प्रचार है,सत्य है,प्रभुपाद जी ने इन ग्रंथों में सब कुछ भरा है,लिखा है।तो इन ग्रंथों का वितरण होना चाहिए और आपने अभी-अभी इन ग्रंथों का या भगवदगीता का,गीता जयंती होने के कारण खूब प्रचार किया है तो अब हम आपसे सुनना चाहते हैं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
18 January 2021
Back to Godhead – the ultimate goal of this life
Jai! Around 768 devotees are present today. Hari Hari!
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
caksur unmilitam yena tasmai shri-gurave namah
Translation
He who removes darkness of ignorance of the blinded (unenlightened) by applying the ointment(medicine) of (Spiritual) knowledge He Who opens the eyes, salutations unto that holy Guru (Pranam mantra of spiritual master)
Do you know this prayer?
jnananjana-salakaya. tasmai sri guruve namah. Srila Prabhupada ki Jai !
Prabhupada has opened our eyes by giving us spiritual life. He has kindly applied the medicine (anjan) of knowledge, wisdom and love in our eyes. We are short of time today. Everyone is so busy that they do not even have time to die. Today some time after 7:00am we will hear sankirtana stories , book distribution reports and scores also. Therefore today I will talk in brief, but whatever I say, I will always tell the truth. It would have been nice if we were not able to lie or cheat others. We are all very expert in lying. Whatever we say, is a lie and we do not say anything else other than lies. This type of cheating continuously goes on in this world. Prabhupada said that this world is full of cheaters and the cheated. One person cheats another and the other person is cheated. And then a cheater meets a super cheater. People are like this in this world.
I saw Prabhupada for the first time during the Hare Krsna festival in Girgaon Chowpatty, Mumbai. You all know Marine drive and Girgaon Chowpatty Hills are close to it. Our Sri Radha Gopinatha temple is also there near Girgaon Chowpatty. Srila Prabhupada was addressing people during this festival. In 1971 Prabhupada was planning to arrange the ‘Hare Krsna Festival’ in Mumbai . This festival was arranged at Cross Maidan near Churchgate. Before that a big procession was arranged which started from Girgaon Chowpatty. Srila Prabhupada was speaking at that place. I was a college student at that time. I also reached there after reading an advertisement which said, ‘ American Sadhus are in town. European sadhus have reached Mumbai’. I was attracted by this advertisement. American sadhus and European sadhus are in Mumbai. What does this mean ? I wanted to check whether they are really sadhus or some gimmick is going on. Anyway I will forget what I want to say.
I heard something new there. Srila Prabhupada was speaking about Vaikuntha. He was talking about ‘going back home’ ‘back to Godhead.’ He was introducing Vaikuntha and the abode of the Lord to everyone. He was telling everyone that going back to the Lord’s abode should be the goal of our life. The first thing I heard from Prabhupada was about the divine planet of the Lord, Vaikuntha. He was a representative of Goloka Dhama or Vaikuntha. We call him an Ambassador of the spiritual world. Prabhupada has discussed and written a lot about Vaikuntha, the spiritual abode of the Lord, Vrindavan and he gave information on how to go back to Godhead. He emphasised going back to Godhead. This emphasis was because the Lord has also emphasised this. In Bhagavad Gita the Lord has repeatedly mentioned it. The Lord inspires us again and again to go back to Him.
na tad bhasayate suryo
na sasanko na pavakah
yad gatva na nivartante
tad dhama paramam mama
Translation
That abode of Mine is not illumined by the sun or moon, nor by electricity. One who reaches it never returns to this material world. (BG 15.6)
The Lord has also said mām evaiṣyasi satyaṁ te
man-manā bhava mad-bhakto
mad-yājī māṁ namaskuru
mām evaiṣyasi satyaṁ te
pratijāne priyo ’si me
Translation
Always think of Me, become My devotee, worship Me and offer your homage unto Me. Thus you will come to Me without fail. I promise you this because you are My very dear friend.(BG 18.65)
Being asked various questions, the Lord discussed Vaikuntha and Goloka Dhama. Just like Sri Kṛṣṇa described Vaikuntha and Goloka Dhama , Srila Prabhupada also preached it as it is. Exactly what the Lord has said Srila Prabhupada has repeated with the same emphasis. Therefore Prabhupada’s preaching is as it is. Not only Bhagavad Gita, but every talk of Prabhupada’s or preaching was as it is. It should always be like this. Everything remains the same as told by the Lord. The other preachers or self declared God men establish dharma on their own philosophies.They discuss heaven and inform them how to go to heaven. In other words they discuss about merging into brahma. They say, ‘You are also god’. Such types of so-called self declared God men are wandering the streets in our country. They claim that they can make anybody God. These are impersonalists (Mayavadi). They are Mayavadi Krsna aparadhi and they preach like this. The Lord is always calling us back to His abode. In reality we are Vaikuntha-vasis, Goloka-vasis or Vrindavan-vasis. Hence Kṛṣṇa and His followers have always preached about Vaikuntha and they inspire and motivate others to go back home to Godhead. Other people do not preach like this. They do not have this philosophy of going back to Goloka.
ṛṇaṁ kṛtvā ghṛtaṁ pibet
yavaj jīvet sukhaṁ jīvet
bhasmī-bhūtasya dehasya
kutah punar āgamano bhavet
Translation
This theory was that as long as one lives one should eat as much ghee as possible.As soon as your body is burned to ashes after death, everything is finished. (Theory given by Charvak Muni taken from the purport of CC Ādi 7.119)
This is known as Charvak theory. There are many followers of Charvak in the world. It is said that Charvak was Hindu or Indian, but now we have nothing to do with Charvak. We do not agree with him. We do not know him. We have never heard his name nor his philosophies. There are many strong believers of his theory. He said that when a person dies everything is finished with death. Rebirth theory and the eternal soul are not existing. The soul is not eternal.
na jāyate mriyate vā kadāchin
nāyaṁ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ
ajo nityaḥ śhāśhvato ’yaṁ purāṇo
na hanyate hanyamāne śharīre
Translation
For the soul there is neither birth nor death at any time. He has not come into being, does not come into being, and will not come into being. He is unborn, eternal, ever-existing and primeval. He is not slain when the body is slain.
(BG 2.20)
Kṛṣṇa has said this about the soul, but Charvak propagated that this does not exist. When Prabhupada was discussing this with a renowned professor from Moscow, he also said to Prabhupada, ‘Swamiji, when the body is finished everything is finished.’ Nothing remains after the body is dead. This was preached everywhere. When someone dies, people make a frame of his photograph and below they write swargvasi (now residing in heaven). No one knows whether he is residing in heaven or hell. Kṛṣṇa has said that our three enemies lust, anger and greed defeat the conditioned souls and take them to hell. These three are the main entrance gates for hell. In total there are six. The other three are also important. But as Kṛṣṇa has said these three are the main entrance to hell.
cintām aparimeyāṁ ca
pralayāntām upāśritāḥ
kāmopabhoga-paramā
etāvad iti niścitāḥ
āśā-pāśa-śatair baddhāḥ
kāma-krodha-parāyaṇāḥ
īhante kāma-bhogārtham
anyāyenārtha-sañcayān
Translation
They believe that to gratify the senses is there prime necessity of human civilization. Thus until the end of life their anxiety is immeasurable. Bound by a network of hundreds of thousands of desires and absorbed in lust and anger, they secure money by illegal means for sense gratification.
(BG 16.11 and 16.12)
There are hundreds of desires in human life, hundreds and thousands of bindings. We are tied by these bindings like a puppet and the ropes of these are in the hands of the puppeteer. We are supposed to be always mentally situated in devotional service to the Lord, but Kṛṣṇa says that specially in Kaliyuga people are always situated in thoughts of lust and anger. They are experts in lust and anger. They get certificates for being lusty and greedy. The film industry is always propagating lust and anger. These two topics goes on in the movies.
dhyayato visayan pumsah
sangas tesupajayate
sangat sanjayate kamah
kamat krodho ‘bhijayate
Translation
While contemplating the objects of the senses, a person develops attachment for them, and from such attachment lust develops, and from lust anger arises.
(BG 2.62)
Lust is never satisfied and then develops anger. Some people always say that a family member of our family has gone to heaven or merged in Brahman after death. Basically these two principles are accepted everywhere. The people of this world say that a person in our family is now residing in heaven or a few say that he is now residing in Kailasa (abode of Mahadev ) or a few say that he is merged in Brahman. But we Gaudiya Vaisnavas always keep on saying
jai om visnupad nitya lila pravishta — Gaur Kishore Das Babaji Maharaj ki Jai. !
jai om nitya lila pravishta — are you understanding this ? What does this mean ? We say all glories to those who have entered in the eternal pastimes of the Lord.
Nitya Lila Pravishta
Bhakti Vinod Thakua Maharaja ki Jai !
Gaur Kishore Das Babaji Maharaja ki Jai !
Srila Bhakti Sidhant Saraswati Thakura ki Jai !
Jayanand Prabhu ki Jai !! He was a disciple of Srila Prabhupada. When he left his body Prabhupada had said that he had gone back to God. Srila Prabhupada has preached the truth ‘let us go to Vaikuntha’. When Prabhupada started printing his journal in 1944 he named it Back to Godhead. In Marathi we say ‘jau devachiya gava’ journal. This is published. Prabhupada said Back to Godhead magazine is back home. Prabhupada named that magazine Back to Home. Let us go to Vaikuntha or Goloka. Srila Prabhupada ki Jai !
Prabhupada has published many scriptures like Bhagavad Gita, Bhagavatam, Caitanya-caritamrta, Isopanisad, Updeshamrita , Nectar of Devotion along with Back to Godhead magazine. All these books give the same message that we should return to Godhead. It means we should achieve the love for the Lord in our lifetime and at the end of our life we should go back to Godhead. We should stop here. We should distribute the books which give this message of the abode of the Lord and information related to this. Just now you have preached about Bhagavad Gita on the occasion of Gita Jayanti. Now I want to hear from all of you your experiences and realisations and scores. We will hear from the full time devotees of our temples.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 18 января 2021 г.
ОБРАТНО К БОГУ – КОНЕЧНАЯ ЦЕЛЬ ЭТОЙ ЖИЗНИ
Джай! Сегодня к нам подключились преданные из 768 мест. Хари Хари!
ом аджнана-тимирандхасйа джнананджана-шалакайа
чакшур-унмилитам йена тасмаи шри-гураве намах
Перевод:
Я был рожден во тьме невежества, но мой духовный учитель открыл мне глаза, озарив мой путь факелом знания. Я в глубоком почтении склоняюсь перед ним.
(Гуру пранама мантра)
Вы знаете эту молитву?
джнананджана-шалакайа
тасмаи шри-гураве намах
Шрила Прабхупада ки Джай!
Прабхупада открыл нам глаза, дав нам духовную жизнь. Он любезно применил лекарство (анджан) знания, мудрости и любви на наших глазах. Сегодня у нас мало времени. Все так заняты, что даже не успевают умереть. Сегодня, где-то после 7:00, мы услышим рассказы о санкиртане, отчеты о распространении книг и реализации. Поэтому сегодня я буду говорить кратко, но что бы я ни говорил, я всегда буду говорить правду. Было бы хорошо, если бы мы не могли лгать или обманывать других. Мы все очень искусны во лжи. Все, что мы говорим, – ложь, и мы не говорим ничего, кроме лжи. Этот вид мошенничества продолжается в этом мире постоянно. Прабхупада сказал, что этот мир полон обманщиков и обманутых. Один человек обманывает другого, а тот другого обманывает. И тут читер (обманщик) встречает супер читера. Таковы люди в этом мире.
Я впервые увидел Прабхупаду во время фестиваля Харе Кришна в Гиргаон Чоупатти, Мумбаи. Все вы знаете, Марин драйв и холмы Гиргаон Чоупатти находятся недалеко от него. Наш храм Шри Радха Гопинатхи также находится недалеко от Гиргаон Чоупатти. Шрила Прабхупада обращался к людям во время этого фестиваля. В 1971 году Прабхупада планировал организовать «Фестиваль Харе Кришна» в Мумбаи. Этот фестиваль проходил на Кросс Майдане возле Черчгейта. Перед этим была устроена большая процессия, которая стартовала с Гиргаон Чоупатти. Шрила Прабхупада говорил в этом месте. В то время я был студентом колледжа. Я также приехал туда после прочтения объявления, в котором говорилось: «Американские садху в городе. Европейские садху достигли Мумбаи. Меня привлекла эта реклама. Американские садху и европейские садху находятся в Мумбаи. Что это значит? Я хотел проверить, действительно ли они садху или что-то там творится. В любом случае я забуду то, что хочу сказать.
Я услышал там кое-что новое. Шрила Прабхупада говорил о Вайкунтхе. Он говорил о «возвращении домой», «назад к Богу». Он представлял всем Вайкунтху и обитель Господа. Он говорил всем, что возвращение в обитель Господа должно быть целью нашей жизни. Первое, что я услышал от Прабхупады, было о божественной планете Господа, Вайкунтхе. Он был представителем Голока Дхамы или Вайкунтхи. Мы называем его послом духовного мира. Прабхупада много обсуждал и писал о Вайкунтхе, духовной обители Господа, Вриндаване, и дал информацию о том, как вернуться к Богу. Он подчеркнул, что нужно вернуться к Богу. Этот акцент был сделан потому, что Господь также подчеркнул это. В Бхагавад Гите Господь неоднократно упоминал об этом. Господь снова и снова вдохновляет нас вернуться к Нему.
на тад бха̄сайате сӯрйо
на ш́аш́а̄н̇ко на па̄ваках̣
йад гатва̄ на нивартанте
тад дха̄ма парамам̇ мама
Перевод Шрилы Прабхупады:
Эта Моя высшая обитель не освещена ни солнцем, ни луной, ни огнем, ни электрическим светом. Те, кто достигает ее, уже не возвращаются в материальный мир.
(Б.Г. 15.6)
Господь также сказал эваишйаси сатйам̇ те
ман-мана̄ бхава мад-бхакто
мад-йа̄джӣ ма̄м̇ намаскуру
ма̄м эваишйаси сатйам̇ те
пратиджа̄не прийо ’си ме
Перевод Шрилы Прабхупады:
Всегда думай обо Мне, стань Моим преданным, поклоняйся Мне и почитай Меня. Так ты непременно придешь ко Мне. Я обещаю тебе это, ибо ты Мой дорогой друг.
(Б.Г. 18.65)
Когда Господу задавали различные вопросы, он обсуждал Вайкунтху и Голока Дхаму. Подобно тому, как Шри Кришна описал Вайкунтху и Голока Дхаму, Шрила Прабхупада также проповедовал их такими, какие они есть. В точности то, что сказал Господь, Шрила Прабхупада повторил с тем же ударением. Поэтому проповедь Прабхупады такая, какая она есть. Не только Бхагавад Гита, но и все разговоры Прабхупады о проповеди были такими, какие они есть. Так должно быть всегда. Все остается так, как сказал Господь. Другие проповедники или самопровозглашенные боги утверждают дхарму на основе своей философии. Они обсуждают небеса и сообщают людям, как попасть на небеса. Другими словами, они обсуждают слияние с Брахманом. Они говорят: «Ты тоже бог». Такие типы так называемых самопровозглашенных богочеловеков ходят по улицам нашей страны. Они заявляют, что могут сделать кого угодно Богом. Это имперсоналисты (майавади). Они майявади Кришна апарадхи, и они проповедуют вот так. Господь всегда зовет нас обратно в Свою обитель. На самом деле мы – Вайкунтха-васи, Голока-васи или Вриндаван-васи. Поэтому Кришна и Его последователи всегда проповедовали о Вайкунтхе, они вдохновляют и побуждают других вернуться домой к Богу. Другие люди так не проповедуют. У них нет философии возвращения на Голоку.
рнам кртва пибет
йавадж дживет сукхам дживет
бхасми-бхутасйа дехасйа кутах
пунар агамано бхавет
Перевод:
Согласно его теории, пока человек живет, он должен есть столько ги, сколько сможет. Но что делать, если на это не хватает денег? «Если у вас нет денег — просите, одалживайте или воруйте, но добудьте ги и наслаждайтесь жизнью». Как только твое тело умрет и будет предано огню, для тебя все будет кончено»
(Теория, изложенная Чарваком Муни, взята из комментария Ч.Ч. Āди 7.119)
Это известно как теория Чарвака. Последователей Чарвака в мире много. Говорят, что Чарвак был индуистом или индийцем, но теперь мы не имеем никакого отношения к Чарваку. Мы с ним не согласны. Мы его не знаем. Мы никогда не слышали ни его имени, ни его философии. Многие твердо придерживаются его теории. Он сказал, что когда человек умирает, все кончается смертью. Теории перерождения и вечной души не существует. Душа не вечна.
на джа̄йате мрийате ва̄ када̄чин
на̄йам̇ бхӯтва̄ бхавита̄ ва̄ на бхӯйах̣
аджо нитйах̣ ш́а̄ш́вато ’йам̇ пура̄н̣о
на ханйате ханйама̄не ш́арӣре
Перевод Шрилы Прабхупады:
Душа не рождается и не умирает. Она никогда не возникала, не возникает и не возникнет. Она нерожденная, вечная, всегда существующая и изначальная. Она не гибнет, когда погибает тело.
(Б.Г. 2.20)
Кришна сказал это о душе, но Чарвак проповедовал, что ее не существует. Когда Прабхупада обсуждал это с известным профессором из Москвы, он также сказал Прабхупаде: «Свамиджи, когда тело умерло, все кончено». После смерти тела ничего не остается. Это проповедовалось повсюду. Когда кто-то умирает, люди делают рамку с его фотографией, а под ней пишут сваргваси (ныне живущий на небесах). Никто не знает, в раю он или в аду. Кришна сказал, что три наших врага – вожделение, гнев и жадность – побеждают обусловленные души и уводят их в ад. Эти три – главные врата ада. Всего их шесть. Остальные три также важны. Но, как сказал Кришна, эти трое – главный вход в ад.
чинта̄м апаримейа̄м̇ ча
пралайа̄нта̄м упа̄ш́рита̄х̣
ка̄мопабхога-парама̄
эта̄вад ити ниш́чита̄х̣
а̄ш́а̄-па̄ш́а-ш́атаир баддха̄х̣
ка̄ма-кродха-пара̄йан̣а̄х̣
ӣханте ка̄ма-бхога̄ртхам
анйа̄йена̄ртха-сан̃чайа̄н
Перевод Шрилы Прабхупады:
Они убеждены, что главное для человека — услаждать свои чувства. Поэтому их до конца дней преследуют бесчисленные тревоги. Связанные путами сотен желаний, снедаемые вожделением и гневом, они неправедными путями добывают деньги на чувственные наслаждения.
(Б.Г. 16.11-12)
В жизни человека сотни желаний, сотни и тысячи привязок. Мы связаны этими путами, как марионетка, и веревки в них находятся в руках кукольника. Предполагается, что мы всегда мысленно пребываем в преданном служении Господу, но Кришна говорит, что особенно в Кали-югу люди всегда пребывают в мыслях вожделения и гнева. Они мастера вожделения и гнева. Они получают сертификаты вожделения и жадности. Киноиндустрия всегда пропагандирует вожделение и гнев. Эти две темы продолжаются в фильмах.
дхйа̄йато вишайа̄н пум̇сах̣
сан̇гас тешӯпаджа̄йате
сан̇га̄т сан̃джа̄йате ка̄мах̣
ка̄ма̄т кродхо ’бхиджа̄йате
Перевод Шрилы Прабхуады:
Созерцая объекты, приносящие наслаждение чувствам, человек развивает привязанность к ним, из привязанности рождается вожделение, а из вожделения — гнев.
(Б.Г. 2.62)
Вожделение никогда не удовлетворяется, а затем развивается гнев. Некоторые люди всегда говорят, что член нашей семьи ушел на небеса или слился с Брахманом после смерти. В основном эти два принципа приняты везде. Люди в этом мире говорят, что кто-то из нашей семьи сейчас живет на небесах, или некоторые говорят, что он сейчас живет на Кайласе (обитель Махадева), или некоторые говорят, что он слился с Брахманом. Но мы, Гаудия-вайшнавы, всегда говорим:
джай ом вишнупад нитйа лила правишта – Гаура Кишора Дас Бабаджи Махарадж ки Джай!
джай ом нитйа лила правишта – понимаете ли вы это? Что это значит ? Мы возносим всю славу тем, кто вошел в вечные игры Господа.
нитья лила правишта
Бхакти Винод Тхакура
Махарадж ки Джай!
Гаура Кишора Дас Бабаджи Махарадж ки Джай!
Шрила Бхакти Сидханта
Сарасвати Тхакур ки Джай!
Джаянанда Прабху ки Джай! Он был учеником Шрилы Прабхупады. Когда он покинул свое тело, Прабхупада сказал, что он вернулся к Богу. Шрила Прабхупада проповедовал истину: «пойдемте на Вайкунтху». Когда в 1944 году Прабхупада начал печатать свой журнал, он назвал его «Назад к Богу». На маратхи мы говорим журнал «джау девачия гава». Это опубликовано. Прабхупада сказал, что журнал «Назад к Богу» вернулся домой. Прабхупада назвал этот журнал «Назад домой». Пойдемте на Вайкунтху или Голоку. Шрила Прабхупада ки Джай!
Прабхупада опубликовал множество писаний, таких как Бхагавад-Гита, Бхагаватам, Чайтанья-чаритамрита, Ишопанишад, Упадешамрита, Нектар преданности, а также журнал «Назад к Богу». Во всех этих книгах говорится о том, что мы должны вернуться к Богу. Это означает, что мы должны достичь любви к Господу в нашей жизни, а в конце нашей жизни мы должны вернуться к Богу. Мы должны остановиться здесь. Мы должны распространять книги, которые передают это послание обители Господа и информацию, связанную с этим. Только что вы проповедовали о Бхагавад Гите по случаю Гита Джаянти. Теперь я хочу услышать от всех вас ваш опыт, реализации и результаты. Мы будем слушать преданных которые служат в наших храмах.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
17 जनवरी 2021
गौरांग! आज हमारे साथ 540 स्थानों से भक्त जप कर रहे है।
ॐ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
श्रीचैतन्यमनोऽभिष्ठं स्थापितं येन भूतले।
स्वयं रूप: कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।
वाञ्छाकल्पतरुभ्यंछ्य कृपासिंधुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: ।।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|
कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा ||
नमो महावदान्याय कृष्णप्रे -प्रदायते ।
कृष्णाय कृष्णचैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नम: ।।
(जय) श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृंद ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। 9.34।।
भगवतगीता ९.३४
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परमप्रिय मित्र हो।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||
भगवतगीता १८.६६
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
ऐसी कई सारी वचन है जो गीता के अंत में और यह वचन जो मैंने आपको भी सुनाएं यह सब कहे है। और मामेवैष्यसि भगवान कहे, मुझे ही प्राप्त करोगे! मुझे प्राप्त करोगे मतलब, कैसे करोगे? तुम जहां हो वहां मुझे प्राप्त करोगे! और फिर अंततोगत्वा इस शरीर को जब त्योगोगे तुम कृष्ण कह रहे है, त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन यहां केवल भगवान को प्राप्त करने के बाद नहीं कह रहे है, आने जाने की बात कर रहे है। मैं जहां हूं या में जहां रहता हूं यहां आओगे या मैं तुम्हें ले आऊंगा वहां! हरि हरि। तो कृष्ण आए संभवामि युगे युगे हुआ और भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया, शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् और मुझे दीजिए ऐसा अर्जुन ने कृष्ण से कहा और फिर कृष्ण ने सारी बात कही 18 अध्याय में, भगवान उवाच हुआ। यह सब कहने के पीछे भगवान के इस जगह पर प्रकट होने के पीछे उद्देश्य तो उनको घर वापस लाने के लिए उद्देश्य से भगवान प्रकट होते है, इस उद्देश्य से भगवान अर्जुन से वार्तालाप किए है। और हम मतलब यहां मैं जो आपसे कहता रहता हूं और आपसे बात करते रहता हूं और भगवान हमसे भी बात करते है, जब जब हम भगवत गीता को पढ़ते है, जब जब हम भगवत गीता को सुनते है, इन दिनों में भगवत गीता के संबंध में सुन रहे है, तो हमें समझना चाहिए कि, भगवान हमें सुना रहे है। और भगवान रहे है। जैसे भगवान अर्जुन सुन रहे थे। अब हमारी बारी है! वहीं बाते सुनने की फिर भगवान ने अर्जुन निम्मित बनाया लेकिन यह सारा संदेश और उपदेश तो हम मूर्खों के लिए है। या हम जो विमुख गए है, और भोगवांचा करने वाले हम,हमे भगवान कह रहे है। या हमसे बात कर रहे है, ऐसा भाव और समझ होनी चाहिए जब जब हम भगवतगीता को पढ़ते है या जब-जब भगवद गीता को सुनते है।
भगवतगीता पर प्रवचन हो रहा है या प्रभुपाद जब सुनाएं है भगवतगीता को, या भगवत गीता को प्रस्तुत किए है भगवत गीता यथारूप के रूप में, जब इसको पढ़ते है तब हम प्रभुपाद को सुनते है, ऐसी बात है! एक बार प्रभुपाद यह बातें जो प्रभुपाद लिखे है या ग्रंथ लिखे है, भावार्थ लिखे है, यह भावार्थ या भाषांतर प्रभुपाद कहते थे और ट्रांसक्रिप्शन होता था। और फिर हल्की सी प्रूफ रीडिंग के लिए जाती थी और लेआउट डिजाइन हुआ, कव्हर बना, छपाई हुई और फिर श्रील प्रभुपाद हमें आदेश दिए कि, ग्रंथों का वितरण करो! ग्रंथों का वितरण करो! और फिर उस आदेश का पालन करते हुए जब हम ग्रंथ वितरण करते और वह गीता किसी के हाथ लग जाती यानी किसी भाग्यवान के हाथ लग जाती तो वह व्यक्ति जब गीता को पड़ता है, पढ़नी ही चाहिए केवल होनी नहीं चाहिए! लेकिन कुछ लोग उसे, उसी रूप में रखते है, वैसी की वैसी रखी है, ऐसा नहीं करना चाहिए। उसे खोलिए और पढ़िए और जब हम उसे पढ़ते हैं तब हमको समझना चाहिए कि, जब यह भगवद गीता पढ़ी या भाषांतर सुनाएं, फिर श्रीमद्भागवत है ऐसे कई सारे भाषांतर है।
वैसे प्रभुपाद लिखते नहीं थे, वे बस डिक्टेटर के ऊपर कहते थे या कभी कभार टाइपिंग करते थे। लेकिन अधिकतर प्रभुपाद कहते थे और जब हमे वह ग्रंथ प्राप्त होता है, और हम उसे पढ़ते है तो हमको समझना चाहिए कि, हम प्रभुपाद को सुन रहे है। तो भक्ति को जब हम श्रवण से प्राप्त करते हैं यानी हम सुन रहे है, प्रभुपाद हमें सुना रहे है। श्री भगवान यह शास्त्र भगवान ने दिए है, यह अपौरुषेय वाणी भगवान कहे है। हरि हरि। तो जब हम पढ़ते है, कहने की तो कई सारी बातें है तब हम को समझना चाहिए कि, हम सीधे भगवान को सुन रहे है या फिर भगवान की बातें कोई हमें सुना रहे है। आचार्य हमें सुना रहे है। या गुरुजन सुना रहे है। या पढ़ रहे हैं तो सुना ही रहे है। तो इस प्रकार भगवान का संदेश उपदेश हम तक पहुंचता है। तो जब गीता की बातें भगवान ने की है तो बारंबार बारंबार कहे है, मुझे प्राप्त करोगे। मेरा नाम है या धाम है मेरा नंद ग्राम है मैं गोलोक या वृंदावन में रहता हूं। और इसका परिचय देते हुए कृष्ण कहते है,
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
भगवतगीता 15.6
अनुवाद:- उस(परमपद) को न सूर्य? न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर (संसारमें) नहीं आते? वही मेरा परमधाम है।
ऐसा है मेरा धाम! वहां सूर्य की आवश्यकता नहीं है, चंद्रमा की आवश्यकता नहीं है। मेरे धाम का गोलोक का वृंदावन का सूर्य तो मैं ही हूं। वहां का प्रकाश मेरे कारण ही है। मेरे धाम में मै ही शशि और चंद्रमा हूं। कृष्ण चन्द्र सम या कृष्णचंद्र, रामचंद्र चैतन्यचंद्र ऐसे भी कहते है हम। बहुकोटि चन्द्र जिनि वदन उज्ज्वल ऐसे भक्तिविनोद ठाकुर भगवान के गौरव गाथा गाए है। गौरांग महाप्रभु कि आरती तो देखो! जय जय गौराचाँदेर आरतिक शोभा आरती हो रही है, और उसका महाप्रभु का वर्णन किए है दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर निकटे अद्वैत श्रीनिवास छत्रधर ऐसे पंचतत्वों का उल्लेख हुआ है। और श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु ऐसा ही कुछ दृश्य गोलोका भी है जहां पर कृष्णचंद्र यानी कृष्ण चैतन्यचंद्र है। आरति करेन ब्रह्मा-आदि देवगणे श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु की आरती कौन कर रहे है? ब्रह्मा आरती कर रहे है।
केवल ब्रह्मा ही नहीं आए है, अन्य देवता भी आए है कई सारे देवता एकत्रित है और वे सभी मिलकर भगवान की आरती उतार रहे है, भगवान को देखने आए है। श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु कैसे विराजमान है, और कौन-कौन चमार डुला रहे है, और कीर्तन हो रहा है, और गले में माला है, गलदेशे वनमाला करे झलमल उनके गले में माला है उसकी शोभा तो देखो! यह सब कहते कहते फिर भक्तिविनोद ठाकुर आरती की शोभा का वर्णन करते हुए कह रहे है कि, देखो कितना सारा प्रकाश चैतन्य महाप्रभु के बहुकोटि चन्द्र जिनि वदन उज्ज्वल कोटि-कोटि चंद्रमा का प्रकाश विस्तृत हो रहा है श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के सर्वांग से! तो फिर इसीलिए श्री कृष्ण धाम का परिचय करते हुए दे रहे है, न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः मेरे धाम में सूर्य की आवश्यकता नहीं है, चंद्रमा की आवश्यकता नहीं है, विद्युत की आवश्यकता भी नहीं है और ऐसे धाम में जब कोई लौटता है या एक तो भगवान हमें आमंत्रित कर रहे है।
कृपया मेरे धाम आइए! इसीलिए भगवान आए यहां। या कभी-कभी बड़े मंत्री महामंत्री प्रधानमंत्री भी कारागृह को मुलाक़ात दे सकते है, उद्देश्य क्या होता है? वहां के कैदियों को आमंत्रित करते हैं कि आप कृपया करके सुधर जाइए और सरकार के नियमों का पालन करो, उलंघन करोगे तो यह हाल है! हथकड़ी और बेड़ियां है, परेशानियां है। लेकिन तुम्हें तो स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार है, नियमों का पालन करो! तो वहां पे सुधारने के लिए रखा जाता है ताकि उनमें सुधार हो। सरकार नहीं चाहती कि वह सदा के लिए वहां रहे। कुछ समय के लिए रखा जाता है ताकि सुधर जाए। दंड देने से व्यक्ति सुधर जाता है। कुछ लोग बात नहीं मानते उनको लाथ की जरूरत होती है! हाथों से नहीं मानते है उन्हें फिर लाथ मिलती है। और यह ब्रह्मांड या त्रिभुवन है यह भी कारागार ही है! इसकी तुलना भी कारागार से हुई है। हम सब कैदी है, अपराधी है, मायावती भी कृष्ण अपराधी है, और कहीं सारे अपराधी है, संडे हो या मंडे खाते जाओ अंडे फिर पड़ेंगे यमराज के डंडे! इसको जानते ही नहीं है इसीलिए शास्त्र को पड़ेंगे और परेशानी बढ़ेगी, तो कृष्ण के जैसे मैं कह रहा था कि कोई अधिकारी या मंत्री भी कारागार में जा कर कैदियों को समझाते बुझाते है, आजाओ! बाहर आजाओ! स्वतंत्र हो जाओ! क्यों मर रहे हो यहां? क्यों परेशान हो रहे हो? दुखाःलयम् आशश्वतम् कृष्ण भी कहे, मेरा धाम ऐसा है। तो तो भगवान भी आते है इस कारागार में और हम कैदियों को, अपराधियों को, पापियों को, हममें से कुछ ऐसे नामि पापी भी है, पापी नंबर वन! जगाई और बधाई है और रत्नाकर जो भविष्य में जो वाल्मीकि बने तो मैं कितने सारे अपराध किया करते थे। एक अपराध किया हमने सुना था कि, वे एक पत्थर घड़े में डालते थे।
किसी जानवर को मारा तो, किसी की जान ली, कही चोरी की तो एक एक पत्थर डालते थे। ऐसे कितने सारे घड़े उसने भरे थे तो ऐसा पापियों में नामी पापी थे वह रत्नाकर! पाप राशि, ढेर की ढेर किंतु फिर भगवान ने भेजा नारद जी को भेजा उनके पास या वह स्वयं जा रहे थे, तो उन्होंने नारद जी को भी रोक लिया, उन्हें लूटना चाहते थे! नारद जी कहे, लूट सके तो लूट लेे यह बैरागी बाबा, वैराग्य की मूर्ति उनके पास और क्या है? बस एक वीणा है और नारायण! नारायण! नारायण! तो ऐसी प्रभु की कृपा हुई और फिर जो भी था नारद जी के पास उन्होंने दे दिया! नारायण राम का नाम था वह नाम ही दे दिया! बस मेरे पास इतना ही है, लूट लो! लूट सके तो लूट! राम नाम के हीरे मोती बिखराऊं में गली गली… तो नारद जी से राम का नाम लिया और उन्होंने स्वीकार भी किया। हरि हरि। मरा मरा मरा… राम राम राम राम… इतने अपराधी थे, शुरुआत में नाम अपराध भी कर रहे थे ठीक से उच्च भी नहीं कर रहे थे। किंतु नाम में ऐसी शक्ति है, पवित्र है कि उस नाम ने, चैतन्य महाप्रभु कहे नाम्नामकारि बहुधा निज-सर्व- शक्तिः नाम इतना शक्तिमान है। कृष्ण नाम उतना ही शक्तिमान है यह राम का नाम उतना ही शक्तिमान है कृष्ण का नाम! और तो उस हरि नाम के शक्ति ने सारे पाप के ढेर के ढेर को राख बना दिया। और शुद्धभक्त हुए रत्नाकर! राम का दर्शन होने लगा! राम राम राम…
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे कहते कहते राम का दर्शन हुआ और केवल राम के रूप का दर्शन ही नहीं, राम के लीलाओं के दर्शन करने लगे। राम की लीलाओं के दर्शन मतलब राम और उनके परिजनों का दर्शन उन्हें होने लग और कौन सा दर्शन! धाम का दर्शन भी! भगवान जिस जगह लीला खेलते है वह धाम बन जाता है। इस प्रकार भगवान के नाम से भगवान के रूप का दर्शन, उनके साथ गुणों का दर्शन भी, लीलाओं का दर्शन, भगवान का, धाम का साक्षात्कार यह सब हुआ और यह सब राम नाम ने किया! और राम ही है राम नाम वैसे ही कृष्ण ही है कृष्ण नाम! ऐसी व्यवस्था भगवान करते है। और यहां तो सीधे सीधे बातचीत करते है जैसे अर्जुन के साथ संवाद हुआ और यह दुर्लभ होता है। अधिकतर भगवान अपना संदेश उपदेश किसी भक्त के माध्यम से करवाते है। इसीलिए उन्होंने कहा एवं परंपरा प्रप्तम। जैसे मैंने सूर्य देव को यह उपदेश सुनाया था लाखों साल पहले,
श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेSब्रवीत् ||
भगवतगीता ४.१
अनुवाद:- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया |
विवस्वान को मैंने यह उपदेश दिया और भगवान एक बार कहे तो बात खत्म! आकाशवाणी तो एक बार ही होती है। रेडियो में एक बार कह दिया तो फिर भगवान को पुनः कहने की आवश्यकता नहीं है। फिर भगवान वह बातें कहलाते है। या उसको लिखित लिखा जाता है। जैसे भगवान ने भगवतगीता कहीं भी और उसको लिखने की व्यवस्था भी की विशेषता यह कलयुग है, हम अल्पायु है, ऐसी हमारी स्थिति है,
प्रायेणाल्पायषुः सभ्य कलावस्मिन् युगे जनाः । मन्दाः सुमन्दतयो मन्दभाग्या ह्रुपद्रुताः ।।
(श्रीमद भागवद् 1.1.10)
अनुवाद : हे विद्वान , कलि के इस लौह-युग में लोगों की आयु न्युन है । वे झगड़ालू , आलसी , पथभ्रष्ट , अभागे होते हैं तथा साथ ही साथ सदैव , विचलित रहते हैं ।
हम मंद है, भूल जाते है। हमें याद दिलाने के लिए भगवत गीता को लिखें, श्री व्यास देव लिखे जो भगवान ही है! इस प्रकार प्रमाण कहते है, साधु शास्त्र और आचार्य यह प्रमाण है! भगवान ने ऐसी व्यवस्था की है। साधु, शास्त्र, अचार्य! साधु और अचार्य! हमारे अचार्य या पूर्व अचार्य साधुसंग साधुसंग सर्वसिद्धि होय! ऐसा कह सकते है। साधु और अचार्य एक व्यवस्था हुई। साधु ही अचार्य और अचार्य भी साधु है। उनके अलग-अलग भूमिका हो सकती है लेकिन एक ही बात है तो साधू और अचार्य एक व्यवस्था और दूसरी व्यवस्था है शास्त्र! और इन दोनों की मदद से या इस व्यवस्था से उन्हें जो कहना है वह कह चुके है। एक ही बात है शास्त्र शाश्वत है, अपौरुषेय है। शास्त्रों का सिलेबस बनाते हुए भगवान आचार्य और साधु उनको सिखाते है। जब हम स्कूल या कॉलेज जाते है वहां पर सिलेबस होते है और टीचर होते है जो सिखाते है। तो वास्तव में भगवान ने बनाए शास्त्र और उन्होंने है भेजे संतो को या भक्तोंको जो सुधर जाए। जूनियर से अपराध हो गए और वही फिर भक्त बने या साधु बन जाते है। यह भक्तिंको अपने धाम से भगवान भेजते है। भक्तोंका भी अवतार होता है। भगवान का ही नहीं उनके भक्तों का भी अवतार होता है भगवान अपने भक्तों को भेजते है। और कुछ भक्त ऐसे भेजते है जो साधना से सिद्ध महात्मा है, भक्त है, साधु है। तो वह यह प्रचार और प्रसार करते है। भगवान के इन ग्रंथों का! धर्मस्थापना हेतु साधुर व्यवहार फिर साधु का व्यवहार या फिर साधु का विचार, आचार, आहार और बिहार धर्म स्थापना हेतु होता है। उनके सारे कार्यकलाप होते है। भगवान के प्राकट्य का जो उद्देश्य है, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे धर्म की स्थापना करने के लिए मैं प्रकट होता हू। और मैं क्या करता हूं! धर्म की स्थापना करता हूं! वही कार्य भगवान की ओर से, साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रै-उर्क्तस्तथा भाव्यत एव सद्भि: भगवान के गिने-चुने आचार्य और साधु धर्म की स्थापना करते है। भगवान के उद्देश्य को पूर्ण करते है। सफल करते है। भगवान के भक्त अपना ही उद्देश्य अपनाते है। धर्म की स्थापना हेतु कार्यकलाप करेंगे, फिर अपने घर में करेंगे या अपने ग्राम में या, नगर में या, देश में अपनी क्षमता शक्ति के अनुसार प्रचार करते है। हरिनाम का स्थापना करते है, प्रचार करते है। और कलयुग में हरी नाम संकीर्तन धर्म है और कोई धर्म नहीं है। हरि हरि। या तो भगवान क्या कहते है? निष्कर्ष में क्या कहेंगे? निष्कर्ष तो आप कहीं सारे निकाल सकते हो, बात यह भी थी कि भगवान आपको घर वापसी के लिए बुलाते है। तुम यहां के नहीं हो, इस संसार के तुम नहीं हो, तुम मेरे हो! और मैं जहां सदा के लिए रहता हूं, वहां तुम आ जाओ चलो चलते है! यह बातें इस उद्देश्य से भगवान आते है। और कहते है और लीलाएं करते है मामेवैष्यसि उद्देश्य से
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
तुम यह सब करोगे मेरा स्मरण करोगे, मेरा भक्त बनोगे, मेरी आराधना कर ओके मुझे याद करोगे तो मुझे प्राप्त करोगे और मेरे धाम लौटोगे। तो निष्कर्ष यही है भगवान यही कहे है! ठीक है। तो भगवान भी बात कहे है, चलो दिल्ली नहीं! तो प्रभुपाद जैसे और अचार्य जैसे कहते है कि चलो वैकुंठ चलो! चलो गौरंगा के पास चलो! बाकी लोग तो यहां चलो वहां चलो करते है लेकिन यह आचार्य कहते है, चलो वैकुंठ चलो! गोलोल धाम चलो! हरी हरी।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
17 January 2021
The Lord’s Incarnations are Divine Advertisements
Gauranga! Devotees from 540 locations are chanting with us.
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
cakshur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah
sri-caitanya-mano-’bhishtam sthapitam yena bhu-tale
svayam rupah kada mahyam dadati sva-padantikam
vancha-kalpatarubhyas ca kripa-sindhubhya eva ca
patitanam pavanebhyo vaishnavebhyo namo namah
harer nāma harer nāma harer nāmaiva kevalam
kalau nāsty eva nāsty eva nāsty eva gatir anyathā.
namo maha-vadanyaya krishna-prema-pradaya te
krishnaya krishna-caitanya-namne gaura-tvishe namah
sri-krishna-caitanya prabhu nityananda
sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrinda
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
man-mana bhava mad-bhakto
mad-yaji mam namaskuru
mam evaisyasi satyam te
pratijane priyo ‘si me
Translation:
Always think of Me and become My devotee. Worship Me and offer your homage unto Me. Thus you will come to Me without fail. I promise you this because you are My very dear friend.[ BG 18.65]
sarva-dharman parityajya
mam ekam saranam vraja
aham tvam sarva-papebhyo
moksayisyami ma sucah
Translation:
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reaction. Do not fear. [ BG 18.66]
So many verses like this have been spoken by Krsna in Bhagavad Gita. mam evaisyasi. Here Krsna is not just telling us about attaining Him, but He is also informing us that He bring you back to His abode.
tyaktva deham punar janma
naiti mam eti so ‘rjuna
The Lord is talking about taking His devotee back home. Krsna came and gave Arjuna instructions.
śiṣyas te ‘haṁ śādhi māṁ tvāṁ prapannam
Arjuna is requesting Krsna “Please instruct me.” Then Krsna instructed. The Lord appears here to take us back home, back to Godhead. I usually tell you that when we are reading Bhagavad Gita and hear about Bhagavad Gita, then we should think that He is speaking to us. Now it’s our turn to hear this Bhagavad Gita. Arjuna is just an instrument, but actually, He is addressing us, the fools, who have forgotten Krsna. When Srila Prabhupada has presented Bhagavad Gita As It Is and when we read this Bhagavad Gita we are hearing Srila Prabhupada. Srila Prabhupada dictated his books. This was followed by transcription and proofreading. Then layout and cover design took place. Finally it would go for printing and then come to us. He would tell us, “Distribute my books! Distribute my books! Distribute my books.” A person gets his copy of Bhagavad Gita As It Is, but one must read it. Do not keep it as it is. No, you must read it. Actually, this Bhagavad Gita and most of our books are the vani of Srila Prabhupada. He mostly dictated so when we read we should think that it is being spoken to us. We are part of this conversation. In Bhagavad Gita Krsna describes His abode. He tells us, “In My abode there is no Sun or Moon.” In His abode Krsna is the Moon and He is the Sun.
kṛṣṇa—sūrya-sama; māyā haya andhakāra
yāhāṅ kṛṣṇa, tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra
Translation:
Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish. [ CC Madhya 22.31]
raso ‘ham apsu kaunteya
prabhasmi sasi-suryayoh
pranavah sarva-vedesu
sabdah khe paurusam nrsu
Translation:
O son of Kunti [Arjuna], I am the taste of water, the light of the sun and the moon, the syllable om in the Vedic mantras; I am the sound in ether and ability in man.[BG 7.8]
Even in Gaura Arati Bhaktivinoda Thakura says…
bahu-koti candra jini’ vadana ujjvala
gala-deśe bana-mālā kore jhalamalaTranslation
Translation:
The brilliance of Lord Caitanya’s face conquers millions upon millions of moons, and the garland of forest flowers around His neck shines.[ GAURA-ĀRATI verse 6]
See here is Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. His arati is being performed and who all are present here in this ceremony…..
bosiyāche gorācānd ratna-siṁhāsane
ārati koren brahmā-ādi deva-gaṇe
Translation:
Lord Caitanya has sat down on a jeweled throne, and the demigods, headed by Lord Brahmā, perform the ārati ceremony.[ GAURA-ĀRATI verse 4]
Devotees like Brahma, Narada, and even the demigods from other planets are here.
bahu-koti candra jini’ vadana ujjvala
gala-deśe bana-mālā kore jhalamala
Translation:
The brilliance of Lord Caitanya’s face conquers millions upon millions of moons, and the garland of forest flowers around His neck shines. [ GAURA-ĀRATI verse 6]
Caitanya Mahaprabhu has garlands around His neck. Bhaktivinoda Thakura is telling us to see how effulgent Caitanya Mahaprabhu is. So much light is emanating from His body and that’s why Krsna is saying there is no need for a Sun and Moon in His abode. Krsna is inviting us back home. He is asking us to please come back. Sometimes when the Prime Minister visits a prison house he may talk to the prisoner to start working on improving themselves as they had broken the rules and regulations and that’s why they are being punished. They need to start following the rules and regulations properly. Sastras inform us to follow the rules and regulations, then we won’t be punished. We have so many sinful people amongst us. We are like Jagai and Madhai. We heard stories in our childhood about Ratnakar. Whenever he killed a person, he would put a stone in the pot. If he went out on a robbery he would keep another stone aside. One time Narada arrived there. He wanted to rob Narada, but Narada being a sannayasi, had nothing except the names of the Lord. He actually robbed those names from Narada Muni and started to chant. He was chanting with offences, but with time the holy name burnt all his sinful reactions to ashes and he started chanting purely.
nāmnām akāri bahudhā nija-sarva-śaktis
tatrārpitā niyamitaḥ smaraṇe na kālaḥ
Translation:
O my Lord, Your holy name alone can render all benediction to living beings, and thus You have hundreds and millions of names, like Krsna and Govinda. In these transcendental names You have invested all Your transcendental energies. [ Sri Siksastakam verse ]
He began to have darshan of Lord Rama. He started to see His pastimes and lilas, His abode and His associates. He got everything by chanting the holy names. The name of the Lord is non-different from the Lord. Krsna makes such arrangements. Such darshan is rare. Generally, the Lord gives instructions through His devotees.
evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
sa kaleneha mahata
yogo nastah parantapa
Translation:
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time, the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. [BG 4.2]
Krsna even instructed Vivasvan. But once He instructs, He doesn’t repeat it. He inspires others to repeat His instructions. Or He gets it written down. We, the people of this age are dull headed. We have a very short life span. We forget everything. To remind us we have sadhu, sastra and acaryas. They are our authority.
’sādhu-saṅga’, ‘sādhu-saṅga’—sarva-śāstre kaya
lava-mātra sādhu-saṅge sarva-siddhi haya
Translation:
“The verdict of all revealed scriptures is that by even a moment’s association with a pure devotee, one can attain all success. [CC Madhya 22.54]
This is the arrangement made by the Lord for us. Sadhu and acaryas are one team who may perform one or different functions and another team is sastras. Vyasa Deva wrote sastras for us which are like the prescribed syllabi. Sadhus and Acaryas are like our teachers who teach us how to read, understand and apply the syllabi in our lives. These sadhus can be Sadhana Siddha Mahatmas. Krsna might send them directly from His abode. Not only does Krsna appear, but also His pure devotees appear in this material world to spread the glories of the holy name.
Kali-yuga-dharma hari-nama-sankirtana
The holy name is the only religious principle for this age of Kali. There are no other religious principles. Krsna comes to take us back. He tells us that we belong to Him. He claims that we belong to Him. Krsna has instructed man-mana bhava mad bhakto… If you follow these instructions then you will come back to me. Some people say, “Come back to Delhi,” but Krsna and His representatives tell us to come back to Goloka. Go for Gauranga!
Hari Hari!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 17 января 2021 г.
ВОПЛОЩЕНИЯ ГОСПОДА – ЭТО БОЖЕСТВЕННАЯ РЕКЛАМА
Гауранга! С нами воспевают преданные из 540 мест.
ом аджнана-тимирандхасйа джнананджана-шалакайа
чакшур-унмилитам йена тасмаи шри-гураве намах
Перевод:
Я был рожден во тьме невежества, но мой духовный учитель открыл мне глаза, озарив мой путь факелом знания. Я в глубоком почтении склоняюсь перед ним.
(Шри гуру пранама)
шри-чаитанйа-мано-‘бхиштам стхапитам йена бху-тале
свайам рупах када махйам
дадати сва-падантикам
Перевод:
Когда же Шрила Рупа Госвами Прабхупада, который начал в материальном мире движение, призванное исполнить волю Господа Чайтаньи, дарует мне прибежище под сенью своих лотосных стоп?
(Шри Рупа пранама)
ванча-калпатарубхьяш ча
крипа-синдхубхйа эва ча
патитанам паванебхио
вайшнавебхё намо намаха
Перевод:
Я в глубоком почтении склоняюсь перед всеми вайшнавами, преданными Господа. Они исполнены сострадания к обусловленным падшим душам и подобны древу желаний, которое может исполнить любое желание.
(Молитва вайшнавам)
харер нама харер нама
харер намаива кевалам
калау насти эва насти эва
насти эва гатир анйатха
Перевод:
В этот век ссор и лицемерия обрести освобождение можно лишь благодаря повторению святых имен Господа. Нет иного пути, нет иного пути, нет иного пути.
(Ч.Ч. Мадхья-лила 6.242)
шри-кришна-чайтанья
прабху нитйананда
шри-адвайта гададхара шривасади-гаура-бхакта-вринда
Перевод:
О самое милостивое воплощение Господа! Ты – Сам Кришна, явившийся в облике Шри Кришны Чайтанья Махапрабху. Ты, чье тело приобрело золотистый цвет тела Шримати Радхарани, щедро раздаешь чистую любовь к Кришне. В глубоком почтении мы склоняемся перед Тобой.
(Шри Гауранга прамана)
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
ман-мана̄ бхава мад-бхакто
мад-йа̄джӣ ма̄м̇ намаскуру
ма̄м эваишйаси сатйам̇ те
пратиджа̄не прийо ’си ме
Перевод Шрилы Прабхупады:
Всегда думай обо Мне, стань Моим преданным, поклоняйся Мне и почитай Меня. Так ты непременно придешь ко Мне. Я обещаю тебе это, ибо ты Мой дорогой друг.
(Б.Г. 18.65 )
сарва-дхарма̄н паритйаджйа
ма̄м экам̇ ш́аран̣ам̇ враджа
ахам̇ тва̄м̇ сарва-па̄пебхйо
мокшайишйа̄ми ма̄ ш́учах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Оставь все религии и просто предайся Мне. Я избавлю тебя от всех последствий твоих грехов. Не бойся ничего.
(Б.Г. 18.66)
Кришна сказал так много подобных стихов в Бхагавад Гите. ма̄м эваишйаси. Здесь Кришна не просто говорит нам о возвращении к Нему, но Он также сообщает нам, что возвращает нас в Свою обитель.
тйактва дехам пунар джанма
наити мам эти со рджуна
Перевод Шрилы Прабхупады:
…покинув тело, не родится снова в этом материальном мире, но достигнет Моей вечной обители, о Арджуна.
(Б.Г. 4.9)
Господь говорит о том, чтобы забрать Своего преданного домой, Кришна пришел и дал наставления Арджуне.
ш́ишйас те ’хам̇
ш́а̄дхи ма̄м̇ тва̄м̇ прапаннам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Отныне я Твой ученик и душа, предавшаяся Тебе, — наставляй же меня.
(Б.Г. 2.7)
Арджуна просит Кришну: «Пожалуйста, наставь меня». Тогда Кришна наставил. Господь появляется здесь, чтобы забрать нас домой, к Богу. Обычно я говорю вам, что когда мы читаем Бхагавад Гиту и слышим о Бхагавад Гите, тогда мы должны думать, что Он говорит с нами. Теперь наша очередь услышать эту Бхагавад Гиту. Арджуна – это просто инструмент, но на самом деле Он обращается к нам, глупцам, которые забыли Кришну. Когда Шрила Прабхупада представил «Бхагавад Гиту как она есть» и когда мы читаем эту Бхагавад Гиту, мы слушаем Шрилу Прабхупаду. Шрила Прабхупада рассказал свои книги. Затем последовала транскрипция и правка. Затем произошла верстка и дизайн обложки. В конце концов, они пойдут на печать, а затем поступят к нам. Он говорил нам: «Распространяйте мои книги! Распространяйте мои книги! Распространяйте мои книги!» Человек получает свою копию Бхагавад Гиты как она есть, но ее нужно прочитать. Не оставляйте это как есть. Нет, вы должны это прочитать. На самом деле, эта Бхагавад Гита и большинство наших книг – это вани Шрилы Прабхупады. Он в основном диктовал, поэтому, когда мы читаем, мы должны думать, что это нам говорят. Мы часть этого разговора. В Бхагавад Гите Кришна описывает Свою обитель. Он говорит нам: «В моей обители нет ни Солнца, ни Луны». В Его обители Кришна – Луна, и Он – Солнце.
кр̣шн̣а — сӯрйа-сама; ма̄йа̄ хайа андхака̄ра
йа̄ха̄н̇ кр̣шн̣а, та̄ха̄н̇ на̄хи ма̄йа̄ра адхика̄ра
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Кришна сравнивается с солнечным светом, а майя — с тьмой. Там, где светит солнце, нет тьмы. Как только человек обращается к сознанию Кришны, тьма иллюзии (влияние внешней энергии) мгновенно рассеивается».
(Ч.Ч. Мадхья-лила 22.31)
расо ’хам апсу каунтейа
прабха̄сми ш́аш́и-сӯрйайох̣
пран̣авах̣ сарва-ведешу
ш́абдах̣ кхе паурушам̇ нр̣шу
Перевод Шрилы Прабхупады:
О сын Кунти, Я вкус воды, свет солнца и луны, и Я слог ом в ведических мантрах. Я звук в эфире и талант в человеке.
(Б.Г. 7.8)
Даже в Гаура Арати Бхактивинода Тхакур говорит:
баху-коти чандра джини
‘вадана уджвала_
гала-деше бана-мала
коре коре джхаламала_
Перевод:
Лик Господа Гауранги сияет ярче миллионов лун. Так же ярко сияет находящаяся у Него на шее неувядающая гирлянда из лесных цветов.
(Гаура арати стих 6)
Вот Шри Кришна Чайтанья Махапрабху. Его арати проводится, и все присутствующие здесь на этой церемонии…
босийачхе горачанд ратна-симхасане
арати корен брахма-ади дева-гане
Перевод:
Господь Чайтанья восседает на троне, украшенном драгоценными камнями и полубоги, во главе с Брахмой проводят церемонию арати.
(Гаура арати стих 4)
Здесь присутствуют такие преданные, как Брахма, Нарада и даже полубоги с других планет.
баху-коти чандра джини
‘вадана уджвала_
гала-деше бана-мала
коре коре джхаламала_
Перевод:
Лик Господа Гауранги сияет ярче миллионов лун. Так же ярко сияет находящаяся у Него на шее неувядающая гирлянда из лесных цветов
(Гаура арати стих 6)
У Чайтаньи Махапрабху на шее гирлянды. Бхактивинода Тхакур говорит нам посмотреть насколько лучезарен Чайтанья Махапрабху. Из Его тела исходит так много света, и поэтому Кришна говорит, что в Его обители нет необходимости в Солнце и Луне. Кришна приглашает нас вернуться домой. Он просит нас вернуться. Иногда, когда премьер-министр посещает тюрьму, он может поговорить с заключенными о работе над самосовершенствованием, поскольку они нарушили правила и положения, и поэтому их наказывают. Им нужно начать правильно соблюдать правила и положения. Шастры говорят нам следовать правилам и предписаниям, тогда мы не будем наказаны. Среди нас так много грешников. Мы похожи на Джагая и Мадхая. Мы в детстве слышали рассказы о Ратнакаре. Каждый раз, когда он убивал человека, он клал камень в горшок. Если бы он пошел на грабеж, он бы отложил еще один камень в сторону. Однажды туда прибыл Нарада. Он хотел ограбить Нараду, но Нарада, будучи санньяси, не имел ничего, кроме имен Господа. Он фактически украл эти имена у Нарады Муни и начал воспевать. Он воспевал с оскорблением, но со временем святое имя сожгло все его греховные реакции в пепел, и он начал воспевать чисто.
намнам акари бахудха ниджа-сарва-шактис
татрарпита ниямитах
смаране на калах
Перевод:
О мой Господь, одно Твое святое имя способно даровать благословение всем живым существам, а у Тебя сотни и миллионы таких имен, как Кришна и Говинда. В эти трансцендентные имена Ты вложил все свои трансцендентные энергии, и нет строгих правил повторения Твоих имен.
(Шри Шикшаштакам Стих 2)
Он начал получать даршан Господа Рамы. Он начал видеть Его игры, Его обитель и Его спутников. Он получил все, повторяя Святые имена. Имя Господа неотлично от Господа. Кришна все устраивает. Такой даршан случается редко. Обычно Господь дает наставления через Своих преданных.
эвам̇ парампара̄-пра̄птам
имам̇ ра̄джаршайо видух̣
са ка̄ленеха махата̄
його нашт̣ах̣ парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Так эта великая наука передавалась по цепи духовных учителей, и ее постигали праведные цари. Но с течением времени цепь учителей прервалась, и это знание в его первозданном виде было утрачено.
(Б.Г. 4.2)
Кришна даже рассказал Вивасвану. Но как только Он наставляет, Он не повторяет. Он вдохновляет других повторять Его наставления. Или Он записывает это. Мы, люди этого века, тупоголовы. У нас очень короткая жизнь. Мы все забываем. Чтобы напомнить нам, у нас есть садху, шастры и ачарьи. Они наш авторитет.
‘са̄дху-сан̇га’, ‘са̄дху-сан̇га’ — сарва-ш́а̄стре кайа
лава-ма̄тра са̄дху-сан̇ге сарва-сиддхи хайа
Перевод:
«Как гласят все священные писания, даже мимолетного общения с чистым преданным может оказаться достаточным для достижения полного успеха».
(Ч.Ч. Мадхья лила 22.54)
Так создал нас Господь. Садху и ачарьи – это одна команда, которая может выполнять одну или разные функции, а другая команда – это шастры. Вьяса Дева написал для нас шастры, похожие на предписанные наставления. Садху и ачарьи подобны нашим учителям, которые учат нас читать, понимать и применять наставления в нашей жизни. Эти садху могут быть садхана-сиддха-махатмами. Кришна мог послать их прямо из Своей обители. Не только Кришна является, но и Его чистые преданные являются в этом материальном мире, чтобы распространять славу святого имени.
кали-юга-дхарма хари-нама-санкиртана
Святое имя – единственный религиозный принцип этого века Кали. Других религиозных принципов нет. Кришна приходит, чтобы вернуть нас. Он говорит нам, что мы принадлежим Ему. Он утверждает, что мы принадлежим Ему. Кришна дал наставления ман-мана бхава мад бхакто… Если вы будете следовать этим наставлениям, вы вернетесь ко мне. Некоторые люди говорят: «Вернись в Дели», но Кришна и Его представители говорят нам вернуться на Голоку. Отправляйтесь к Гауранге!
Хари Хари!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक १६.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कांफ्रेंस में ७३४ स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं।
जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥1॥
कृपा करि’ सबे मेलि’ करह करुणा। अधम पतितजने ना करिह घृणा॥2॥
ए तिन संसार-माझे तुया पद सार। भाविया देखिनु मने-गति नाहि आर॥3॥
से पद पाबार आशे खेद उठे मने। वयाकुल हृदय सदा करिय क्रन्दने॥4॥
कि रूपे पाइब किछु ना पाइ सन्धान। प्रभु लोकनाथ-पद नाहिक स्मरण॥5॥
तुमि त’ दयाल प्रभु! चाह एकबार। नरोत्तम-हृदयेर घुचाओ अन्धकार॥6॥
( वैष्णव भजन)
अर्थ
(1) श्रीचैतन्य महाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो।
(2) कृपा करके सब मिलकर मुझपर करुणा कीजिए। मुझ जैसे अधम-पतित जीव से घृणा मत कीजिए।
(3) मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि तीनों लोकों में आपके चरणकमलों के अतिरिक्त और कोई आश्रय स्थान नहीं है।
(4) उन श्रीचरणों की प्राप्ति के लिए मेरा मन अति दुःखी होता है और वयाकुल होकर मेरा हृदय भर जाता है। अतः मैं सदैव रोता रहता हूँ।
(5) उन श्रीचरणों को कैसे प्राप्त करूँ इसका भी ज्ञान मुझे नहीं है और न ही मेरे गुरुदेव श्रील लोकनाथ गोस्वामी के चरणकमलों का मैं स्मरण कर पाता हूँ।
(6) हे प्रभु! आप सर्वाधिक दयालु हैं। अतः अपनी कृपादृष्टि से एकबार मेरी ओर देखिये एवं इस नरोत्तम के हृदय का अज्ञान-अंधकार दूर कीजिए।
आप इस भजन को गा नहीं रहे हो? आप जप कर रहे हो। हरि! हरि! हम विषय अथवा थीम को बदल रहे हैं। पहले जप हो रहा था, अब जपा टॉक होगा। आज श्रील जीव गोस्वामी का तिरोभाव तिथि महोत्सव है। श्रील जीव गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
आज षड् गोस्वामियों में से विशेषतया जीव गोस्वामी का करेंगे।
वे भी प्रात: स्मरणीय हैं। जैसा कि हम कहते रहते हैं कि जीव गोस्वामी प्रातः स्मरणीय हैं। वैसे हमें अपनी प्रातः काल कुछ विशेष स्मरण अथवा विशेष व्यक्तियों के स्मरण के लिए रिजर्व रखनी चाहिए। प्रात: काल का समय ब्रह्म की प्राप्ति के लिए बड़ा विशेष अथवा अनुकूल समय होता है। ऐसे मुहूर्त अथवा प्रातः काल में कृष्ण का स्मरण और कृष्ण के भक्तों का स्मरण व संतों का स्मरण समर्तव्य अथवा स्मरणीय है। स्मरण करने योग्य जो भी विषय है, उसी का स्मरण प्रातः काल में होना चाहिए। मैंने प्रातः स्मरणीय कहा तत्पश्चात उस पर चर्चा भी हो रही है। श्रील जीव गोस्वामी तिथि प्रातः स्मरणीय है। यह कहना होगा कि वह प्रातः ही क्यों अपितु सदैव स्मरणीय हैं। जीव गोस्वामी प्रात:काल, मध्यान्ह, सायः काल सब समय ही स्मरण करने योग्य है। श्रील जीव गोस्वामी जिनका आज तिरोभाव तिथि महोत्सव है, जिसे आज पूरा गौड़ीय वैष्णव जगत मना रहा है। गौरांग महाप्रभु की ही अनुकंपा से हम भी अब गौड़ीय वैष्णव बन रहे हैं। हरि! हरि!
वैष्णवों में भी गौड़ीय वैष्णव श्रेष्ठ वैष्णव कहलाते हैं। हरि! हरि! यह चैतन्य महाप्रभु की अनुकंपा हैं , जो उन्होंने हमें भाग्यवान बनाया है और हम गौड़ीय वैष्णव बन रहे हैं। उन्होंने हमें गौड़ीय वैष्णव बनाने के लिए कई सारी योजनाएं बना कर रखी हैं। जिसके अंतर्गत षड् गोस्वामी वृन्दों की टीम अर्थात पूरा समूह भी है। उनका उद्देश्य एवं प्रयास अथवा कार्यकलाप संसार के अधिक से अधिक जीवों को गौड़ीय वैष्णव बनाना ही था।
नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्-धर्म संस्थापकौ
लोकानां हित-कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ शरण्याकरौ
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।२।।
( श्री श्री षड् गोस्वामी अष्टक)
अनुवाद:- मै, श्रीरुप सनातन आदी उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ , जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे, भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषि थे, तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे,एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे।
ऐसा वचन एवं ऐसा अष्टक भी है। हरि!हरि! श्रीनिवास आचार्य बड़े महान् गौड़ीय वैष्णव आचार्य रहे। उन्होंने गोस्वामी अष्टक् की रचना की। उसमें एक अष्टक लिखा जिसे हमनें अभी अभी कहा। जिसमें उन्होंने उल्लेख किया है कि
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।
वे वंदना करते हैं, वे स्वयं वंदना करते करते व उसके संबंध में लिखते लिखते हमें भी वंदना करनी सिखा रहे हैं कि ‘वंदना करनी है तो किसकी वंदना करो? षड् गोस्वामी वृन्दों की वंदना करो।’ वन्दे रूप अर्थात रूप गोस्वामी की वंदना करो, सनातन गोस्वामी की वंदना करो,श्री-जीव-गोपालकौ अर्थात श्री जीव गोस्वामी की वंदना करो। गोपाल भट्ट गोस्वामी की वंदना करो। रघु-युगौ अर्थात रघु दो थे एक रघुनाथ भट्ट गोस्वामी और दूसरे रघुनाथ दास गोस्वामी। श्री निवास आचार्य हमें इनकी वंदना करने के लिए इस अष्टक में प्रेरित कर रहे है। यह षड् गोस्वामी वृन्द अलग अलग स्थानों के थे। इसमें से गोपाल भट्ट गोस्वामी दक्षिण भारत श्री रंगम के थे। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी वाराणसी उत्तर प्रदेश से थे। रघुनाथ दास गोस्वामी, सप्तग्राम बंगाल के थे। शेष बचे हुए तीन गोस्वामी रूप,सनातन और जीव गोस्वामी रामकेलि के थे। यह अलग अलग स्थानों में प्रकट हुए अथवा जन्में थे।।अंततोगत्वा श्री चैतन्य महाप्रभु की योजनानुसार ये सारे गोस्वामी वृन्दावन पहुंच जाते हैं। इन षड् गोस्वामियों की टीम ( समूह) प्रसिद्ध है। इन्हें षड् गोस्वामी वृन्द भी कहते हैं। हरि! हरि!
चैतन्य महाप्रभु के परिकर मायापुर में रहें। तत्पश्चात जगन्नाथ पुरी में रहे, अंततोगत्वा वृंदावन में रहे। इन तीनों स्थानों के अलग अलग पार्षद और परिकर रहे। इन सभी में षड् गोस्वामी वृन्दों का एक विशेष और ऊंचा स्थान है। षड् गोस्वामी वृन्दों की जय! उनमें जीव गोस्वामी का कुछ विशेष स्थान है। इनका जन्म रामकेलि में हुआ था। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब स्वयं रामकेलि गए थे,उस समय उन्होंने साकर मलिक और दबीर ख़ास जो राजा हुसैन शाह के प्रधानमंत्री अथवा अर्थमंत्री थे, दीक्षित किया। उनको रूप गोस्वामी औऱ सनातन गोस्वामी नाम भी दिए।
हरे कृष्ण!
कुछ इंटरनेट इशू चल रहा है।क्या आप मुझे सुन पा रहे हो?
सुन रहे हो? आप चैट में लिख सकते हो यदि चैट खुला है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
सुन रहे हो?
नित्यानंद सुन रहे हो। तीन भाइयों रूप, सनातन और अनुपम में से अनुपम का देहांत हो गया था। अनुपम के पुत्र जीव गोस्वामी थे अर्थात रूप गोस्वामी व सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी के अंकल (चाचा) थे। जब जीव गोस्वामी के पिताश्री अनुपम नहीं रहे।….
उस समय जीव गोस्वामी अपने चाचा रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को जॉइन करना चाहते थे। जीव गोस्वामी का बचपन से ही रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी से स्नेह और लगाव था। ………
जीव गोस्वामी ने बहाना बना कर घर को छोड़ा और सीधे मायापुर पहुंच गए। मायापुर पहुंच कर वह सीधे श्रीवास ठाकुर के घर पर पहुंचे, जहाँ उन दिनों नित्यानंद प्रभु निवास किया करते थे। जीव गोस्वामी ने वहाँ पहुंचकर नित्यानंद प्रभु के चरणों में समपर्ण और प्रणाम किया। हरि! हरि!
नित्यानंद प्रभु ने जीव गोस्वामी को अपना संग दिया। उन्होंने जीव गोस्वामी को सारा नवद्वीप दिखाया। नित्यानंद प्रभु स्वयं ही उनके मार्गदर्शक बने। वैसे भी नित्यानंद प्रभु आदि गुरु हैं। गाइडेन्स देना अथवा मार्गदर्शन करना यह भी आदि गुरु का कार्य है और नित्यानंद प्रभु वह कार्य कर रहे थे। वे जीव गोस्वामी को प्रेरित कर रहे थे अथवा उनका मार्गदर्शन दे रहे थे। उन्होंने उनको नवद्वीप में यात्रा भी करवाई। हरि! हरि! वे उनका अलग-अलग भक्तों से परिचय भी करवा रहे थे। वे उनको योगपीठ अर्थात निमाई के निवास स्थान पर भी ले कर गए। जीव गोस्वामी के मायापुर पहुंचने से पहले ही निमाई का संन्यास हो चुका था। निमाई संन्यास ले कर जगन्नाथपुरी भी पहुंचे गए थे। चैतन्य महाप्रभु ने 6 वर्षों तक परिभ्रमण किया था और उनकी मध्य लीला भी समाप्त हो चुकी थी। चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को अपनी इच्छा व्यक्त की, तुम बंगाल में प्रचार करो। मेरे साथ सब समय क्यों रहना चाहते हो। जाओ!
प्रति घरे गृहे करो
आमार आज्ञाय प्रकाश
( चैतन्य भागवत १३.८-९)
चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को जगन्नाथपुरी से बंगाल में भेजा था। इसलिए अब नित्यानंद प्रभु बंगाल अथवा मायापुर में थे। वे जीव गोस्वामी को योगपीठ ले गए। शची माता से उनका परिचय करवाया। वे वहां भोजन भी किया करते थे। शची माता, नित्यानंद प्रभु और जीव गोस्वामी को भोजन खिलाती थी और विष्णु प्रिया रसोई बनाती थी अर्थात विष्णु प्रिया के हाथ का बना हुआ भोजन नित्यानंद प्रभु और जीव गोस्वामी ग्रहण किया करते थे। हम ऐसे दिन में यह बातें सुनते हैं तो उसका श्रवण भी होता है। यह रोमांचकारी घटनाएं अथवा बातें अथवा वह काल अथवा समय है जब चैतन्य महाप्रभु की लीला और नित्यानंद प्रभु की लीला विद्यमान तथा संपन्न हो रही थी या चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु की प्रकट लीला का समय था। उस समय कई सारे घटनाक्रम अथवा कार्यकलाप बड़े ही विशेष और रोमांचकारी भी हैं। हरि! हरि! वहां से नित्यानंद प्रभु ने जीव गोस्वामी को वृंदावन भेजा। वृंदावन जाते हुए रास्ते में जीव गोस्वामी वाराणसी रुके।
उन्होंने सार्वभौम भट्टाचार्य के शिष्य मधुसूदन वाचस्पति से संस्कृत का व्याकरण सीखा। जीव गोस्वामी ने वहां पर व्याकरण का अध्ययन किया। उसके बाद वह एक संस्कृत में व्याकरण के विशेषज्ञ बन गए। तत्पश्चात वह वहां से आगे बढ़े। वृंदावन धाम की जय! वृंदावन में उनको वहां उपस्थित गोस्वामीगणों का सानिध्य लाभ हुआ। वृंदावन के छह गोस्वामी हैं, उन छह गोस्वामियों में जीव गोस्वामी सबसे कम उम्र वाले थे। दूसरे गोस्वामी तो बुजुर्ग, अधिक व्यस्क् थे अर्थात जब जीव गोस्वामी वृंदावन पहुंचे, तब वह युवक थे। वृन्दावन में जीव गोस्वामी, रूप गोस्वामी से दीक्षित हुए। रूप गोस्वामी ने सीधे व तुरन्त उनको दीक्षा नही दी अपितु उनकी परीक्षा भी ली।तब उस समय रूप गोस्वामी प्रसन्न हुए, हां-हां यह क्वालिफाइड अर्थात यह दीक्षा का अधिकारी अथवा पात्र है। हरि! हरि! ऐसी कई सारी बातें हैं। गोस्वामियों ने वृंदावन में अलग-अलग मंदिरों की स्थापना भी की है।
चैतन्य महाप्रभु का यह आदेश और इच्छा थी कि वृंदावन के वैभव का पुनः प्रकाशन हो और स्थापना हो और प्रचार हो। गिरिराज गोवर्धन की जय हो यमुना मैया की जय जय हो।
मुसलमानों के आक्रमणों के कारण वृंदावन उन दिनों में कुछ निर्जन प्रदेश जैसा बन चुका था। वहां सब पूजा पाठ, कथा कीर्तन परिक्रमा दर्शन लगभग सब बंद ही हो चुके थे। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक- एक गोस्वामी को भेज रहे थे। सर्वप्रथम उन्होंने लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ स्वामी को भेजा। वैसे उनका नाम षड् गोस्वामियों की सूची में शामिल नहीं किया जाता लेकिन महाप्रभु ने उनको भी भेजा था। विशेषतया उन्होंने षड् गोस्वामी वृन्दों को भेजा था। वैसे श्रीरंगम से प्रबोधानंद सरस्वती भी वहां पहुंचे थे जोकि गोपाल भट्ट गोस्वामी के अंकल थे। इस प्रकार कई सारे पहुंचे। अन्य भी ऐसे कई सारे धीरे-धीरे पहुंचने वाले थे। श्रीनिवासाचार्य, नरोत्तम दास ठाकुर व श्यामानंद पहुंचेंगे। इस प्रकार वहाँ ऐसी टीम बन रही थी जैसा कि चैतन्य महाप्रभु चाहते थे कि वृंदावन के गौरव का गान हो अथवा स्थापना हो। इसी के अंतर्गत फिर मंदिरों का निर्माण और विग्रहों की स्थापना व आराधना हो और विशेषतया ग्रंथों की रचना हो। बुक्स आर् द् बैसेस अर्थात शास्त्र आधार है।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १६.२६)
अनुवाद:-अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है । उसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके।
शास्त्र प्रमाण है। शास्त्र अधिकृत है। शास्त्रों की रचना षड् गोस्वामी वृन्द करें।
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्
(प्रणाम मंत्र)
ऐसा चैतन्य महाप्रभु का अभीष्ट था और षड् गोस्वामी वृंद इसको जानते थे। वे इसके अनुसार व्यस्त थे और ग्रंथों के निर्माण का कार्य कर रहे थे। जीव गोस्वामी अब राधा दामोदर मंदिर में रहने लगे थे व वे राधा दामोदर की आराधना किया करते थे।
हम उनका आज तिरोभाव तिथि उत्सव बना रहे है। जीव गोस्वामी आज के ही दिन राधा दामोदर मंदिर के प्रांगण में नित्यलीला में प्रविष्ट हुए थे। राधा दामोदर मंदिर में जीव गोस्वामी की समाधि भी है।
हरि! हरि!
श्रील प्रभुपाद वानप्रस्थ लेने के बाद एवं अमेरिका जाने से पहले जब वृंदावन में पहुंचे तब श्रील प्रभुपाद, श्रील जीव गोस्वामी द्वारा स्थापित राधा दामोदर मंदिर के प्रांगण में ही रहे। वहाँ वे विदेश में जाने की सारी तैयारी कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद ने ग्रंथों के रचना की तैयारी भी इसी राधा दामोदर मंदिर में की। मैं जब पहली बार वृंदावन गया तब सर्वप्रथम जिस मंदिर में पहुंचा, स्वाभाविक ही था श्रील प्रभुपाद वहीं रहते थे अर्थात राधा दामोदर मंदिर ही हमारा पहला मंदिर रहा। वहाँ हमनें जीव गोस्वामी द्वारा स्थापित विग्रहों के दर्शन किए। वहीं पर जीव गोस्वामी की समाधि भी है, हमनें उनके भी दर्शन किए थे। उस समय भी उनके चरणों में प्रणाम किया था और आज भी प्रणाम करते हैं। इस मंदिर के प्रांगण का एक यह भी विशिष्टय रहा कि
सभी गोस्वामीगण राधा दामोदर मंदिर के प्रांगण में एकत्र होते थे
नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्-धर्म संस्थापकौ
लोकानां हित-कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ शरण्याकरौ
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।२।।
( षड् गोस्वामी अष्टक)
अनुवाद:- मै, श्रीरुप सनातन आदी उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की, जो अनेक शास्त्रों के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे, भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितेषी थे, तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे, एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतम धूप के समान थे।
षड् गोस्वामी नाना शास्त्रों में निपुण थे और शास्त्रार्थ, चर्चा, विचार विमर्श किया करते थे कि किस प्रकार सद्-धर्म संस्थापकौ हो अर्थात सद्-धर्म गौड़िए वैष्णव धर्म की कैसे स्थापना हो सकती है, उसका प्रचार-प्रसार कैसे हो सकता है। यह षड् गोस्वामियों की चर्चा का विषय था।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
(श्रीमद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
ददाति प्रतिगृह्णति गुह्यमचति तच्छति।भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ।।
( श्री उपदेशामृत श्लोक संख्या ४)
अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार लेना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, अत्यंत गोपिनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना और प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण होते हैं।
सभी छह गोस्वामी यहां राधा दामोदर के मंदिर प्रांगण में रहते भी और चर्चाएं भी किया करते थे। जीव गोस्वामी जो युवक भी थे, वह सारी व्यवस्था किया करते थे। वे सारा आयोजन किया करते थे और सभी षड् गोस्वामियों की सेवा भी किया करते थे, विशेषतया रूप गोस्वामी की जोकि उनके गुरु महाराज भी थे। जीव गोस्वामी ने अपने गुरु महाराज अर्थात रूप गोस्वामी के अंतिम दिनों में खूब वपु सेवा की। रूप गोस्वामी ने वहां भजन भी किए। वहां पर रूप गोस्वामी की भजन कुटीर भी है। रूप गोस्वामी का समाधि मंदिर भी राधा दामोदर मंदिर में है। श्रील प्रभुपाद वहीं पर रहते थे। श्रील प्रभुपाद ने भी अपना भजन जीव गोस्वामी के मंदिर में किया। श्रील प्रभुपाद ने विश्व भर में धर्म के प्रचार की तैयारी भी वहीं पर की। श्रील प्रभुपाद ने 1972 में इस्कॉन का पहला कार्तिक महोत्सव भी राधा दामोदर मंदिर में मनाया था। हम भी उस उत्सव में सम्मिलित हुए थे। गौरांग महाप्रभु और राधा दामोदर , षड् गोस्वामी वृन्द व परंपरा के आचार्यों तथा उन सभी की ओर से वृंदावन में कार्तिक मास में श्रील प्रभुपाद ने मुझे दीक्षा भी उसी मंदिर में दी थी।
इस प्रकार मेरा भी राधा दामोदर मंदिर के साथ एवं सभी गोस्वामियों के साथ विशेषतया जीव गोस्वामी के साथ मेरा संबंध स्थापित होता है या श्रील प्रभुपाद ने जीव गोस्वामी के साथ यह संबंध स्थापित किया। उन्होंने मुझे नाम भी दिया ‘तुम्हारा नाम लोकनाथ होगा’। उस समय स्वामी तो नहीं था। उसी वृंदावन में राधा दामोदर मंदिर में नाम् मिला था ‘लोकनाथ’ और तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण बलराम मंदिर में जब मुझे सन्यास दिया तब उन्होंने कहा- ‘मैंने तुम्हें लोकनाथ नाम दिया ही है अब इसमें स्वामी और जोड़ दो।’ तब मैं कम् से कम नाम से तो स्वामी बन गया। मुझे श्रील प्रभुपाद ने बनाया। यह सब कृपा भी जीव गोस्वामी की कृपा है। हरि! हरि! आप जीव गोस्वामी के चरित्र को और भी पढ़िएगा, पढ़िए, सुनिए ,सुनाइए और जीव गोस्वामी का संस्मरण कीजिए।
आप में से यदि कोई शब्दांजली अर्पित करना चाहते हैं या जीव गोस्वामी की गौरव गाथा कहना या गाना चाहते हैं तो कह सकते हैं । यह एक विषय है या और भी कोई विषय है? बुक डिस्ट्रीब्यूशन मैराथन तो हो गया ना (पूछते हुए)। (पदमाली प्रभु- जी! स्कोर एक दो दिन में प्रस्तुत कर दिए जाएंगे।) स्कोर तैयार करो- बुक मैराथन तो हो गया ना। स्कोर तो थोड़े कम सुने लेकिन हमनें आपके कार्यकलाप या आपके प्रयास सुने। आपने सुनाया कि आपने किस किस प्रकार से वितरण किया, आपने अपने अनुभव सुनाए। माताओं ने भी कुछ विशेष सुनाया। हरि! हरि! आपके जो अथक प्रयास रहे, आप घर घर जा रहे थे या गांव गांव जा रहे थे, अन्य सब काम धंधा छोड़कर आप सब भटक रहे थे। (भटकना मतलब बिना उद्देश्य के भटकना परंतु आप ऐसा तो नहीं भटक रहे थे) आप जानबूझकर एक उद्देश्य के साथ जा रहे थे, ठंडी गर्मी, मान अपमान की परवाह ना करते हुए आप जा रहे थे, कहीं सम्मान हुआ और कहीं…. ठुकरा दो या प्यार करो अर्थात किसी ने ठुकरा दिया अथवा किसी ने प्यार किया लेकिन आपके प्रयास रुके नहीं।
ऐसे ही हमारे फुल टाइम भक्त ब्रह्मचारी भी प्रयास करते ही रहते हैं, उन्होंने भी किया, वैसे उनसे भी सुनना चाहिए था। पदयात्रा के आचार्य प्रभु ने तो सुनाया। पदमाली, मंदिर के ब्रह्मचारियों से भी सुनना चाहिए था, मंदिर के अधिकारियों से भी सुनना चाहिए था, उनके प्रयास और स्कोर भी कैसे रहे। अभी तो ज्यादा रिपोर्ट तो हमारे काँग्रेग्रशन भक्तों ने ही सुनाए हैं।कही कहीं डिस्ट्रीब्यूशन में बाल, वृद्ध अर्थात वृद्धों से लेकर बालक या बालिकाओं को भी हमनें देखा। बेंगलुरु के कई बालक बालिकाएं बड़े उत्साह के साथ पूछ रहे थे कि आज कहां जाएंगे, आज कहां जाएंगे, कौन से गांव जाएंगे? वे कितने उत्साहित थे।
वह यह सब रिपोर्ट सुनकर मैं बहुत प्रभावित हो चुका हूं और प्रसन्न भी हूं। मैं आपका कृतज्ञ भी हूं। श्रील प्रभुपाद, गौरांग महाप्रभु और सभी आचार्यों की ओर से मैं आप सभी का आभार भी मानता हूं। मुझे विश्वास है कि आप के हृदय में वे भी बैठे हैं। भगवान् भी अपना हर्ष व्यक्त कर रहे हैं और आप भी शांत और संतुष्ट अनुभव कर रहे होंगे। क्या आप अनुभव कर रहे हो? आपने जो भी किया अर्थात आपने बुक डिस्ट्रीब्यूशन किया, गीता मैराथन किया, क्या आप उससे आप प्रसन्न हो? स्वर्ण मंजरी, तुमने कुछ किया या नहीं? जिन्होंने भी ग्रंथ का वितरण किया , संख्या की दृष्टि से कम् या ज्यादा हो सकता है लेकिन भगवान क्वालिटी ( गुणवत्ता) देखते हैं और उसी से भगवान प्रसन्न होते हैं। हमनें जो भी किया, उस पर हमें गर्व नहीं होना चाहिए। अपितु हमें नम्र ही होना चाहिए। भगवान हनुमान की सेवा से प्रसन्न थे जब रामेश्वर से श्रीलंका तक सेतू बंधन हो रहा था अर्थात पुल बन रहा था। वैसे वहां कई थे, उसमें एक गिलहरी भी थी। वह भी प्रयास कर रही थी। वह भी बालू के छोटे छोटे कण अपने बालों में उठाकर बड़े-बड़े चट्टानों पत्थरों के बीच में डाल रही थी। हनुमान जी बड़ी पहाड़ी फेंकते थे और यह गिलहरी बीच में थोड़ा सा कुछ रेती को डाल देती थी। जैसे सीमेंट टाइप ताकि वह कंक्रीट से मजबूत बने। भगवान दोनों की सेवा से प्रसन्न थे। ये दोनों भी शत प्रतिशत समर्पित थे।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६)
अनुवाद:-समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत।
हरि !हरि!
मैं आप सभी का आभारी हूं। आपके प्रयास के लिए मैं प्रसन्न हूं। उल्टा सुलटा दोनों ही चलता है। यह कह सकता हूं कि भगवान भी प्रसन्न हैं। आपका प्रयास देख कर भगवान प्रसन्न हैं इसलिए मैं प्रसन्न हूं कभी-कभी यह भी कहते हैं कि
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि।ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अनुवाद:- श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए।
गुरुजन प्रसन्न हैं तो फिर भगवान प्रसन्न हैं इसे दोनों तरह से कहा जा सकता है भगवान प्रसन्न हैं तो गुरु प्रसन्न हैं, गुरु प्रसन्न हैं तो भगवान प्रसन्न हैं।
भगवान ने कहा ही है कि वह भक्त मुझे प्रिय है जो इस संदेश को औरों के पास पहुंचाता है।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः । भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.६९)
अनुवाद:- इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा।
आप भगवान के प्रिय भक्त हो। वैसे यह ग्रंथ वितरण का प्रयास अथवा सेवा करके आप भगवान के प्रियतर बने हो अर्थात अधिक प्रिय बने हो। यह सेवा करके या प्रचार करके अथवा ग्रंथों का वितरण करके पहले आप जितने प्रिय थे, उससे अधिक प्रिय बन गए हो। आप अधिक प्रिय बने हो तो हम आपसे अधिक प्रसन्न हैं, मैं अधिक प्रसन्न हूं। ठीक है।
(पदमाली, इस सेशन का सार अथवा निष्कर्ष निकाल यहीं विराम देते हैं।)
पदमाली- जी गुरु महाराज!
पदमाली प्रभु- जैसा कि आप सब गुरु महाराज से व्यक्तिगत रूप से गुरु महाराज की प्रसन्नता के विषय में श्रवण कर रहे थे।इसे आप एक आदान प्रदान कह सकते हैं कि आपकी सेवा भगवान ने स्वीकार कर ली है। एक बार गुरु महाराज
अरावड़े में क्लास दे रहे थे तो एक भक्त ने प्रश्न पूछा कि गुरु महाराज हमने जो सेवा की है,उससे भगवान संतुष्ट हैं या नहीं है, कैसे पता लगा सकते हैं?
गुरु महाराज ने उसका बड़ा अच्छा उत्तर दिया था। गुरु महाराज ने कहा था। वैसे लगभग गुरु महाराज ने आज भी वही कहा है। गुरु महाराज ने कहा कि यह जानने के दो रास्ते हैं- एक तो अगर आप स्वयं प्रसन्न या संतुष्ट हैं जैसा कि गुरु महाराज ने आज कहा आपके हृदय में आपको संतुष्टि फील (अनुभव) हो रही है, दूसरा गुरु महाराज ने कहा वैष्णव या गुरुजन प्रसन्न हैं। अगर यह दोनों पैरामीटर (माप) पूरे हुए हैं तब आप मान लीजिए कि भगवान आपकी सेवा से प्रसन्न हैं या भगवान ने आपकी वह सेवा स्वीकार की है। गुरु महाराज ने आपको फिर से व्यक्तिगत रूप से सबको बता ही दिया कि वह कितने प्रसन्न हैं, उस से सीधा कनेक्शन (संबंध) बैठ सकता है। गुरु महाराज ने स्वयं बताया कि आप सबकी सेवा से भगवान भी प्रसन्न हैं, भक्त तो हैं ही।
श्रील प्रभुपाद परंपरा में प्रसन्न हैं और आज विशेष रूप से श्रील जीव गोस्वामी का तिरोभाव दिवस है और एक आचार्य तो नहीं, महाप्रभु के एक परिकर जगदीश पंडित का तिरोभाव दिवस है जो कि जगन्नाथ मिश्र और शची माता के पड़ोसी रहे हैं। आप उनके बारे में और पढ़ व जान सकते हैं। गौड़ीय इतिहास में थोड़ा पढ़ कर उसका भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं व अन्यों को अपने नाम हट्ट या प्रीचिंग प्रोग्राम में भी बता सकते हो । महाप्रभु के परिकरों के बारे में भक्तों को बता सकते हैं, जागृत कर सकते हैं। आप सब का धन्यवाद है। आप सब बने रहे। आज कुछ इंटरनेट के इश्यू थे, उस वजह से थोड़ा दिक्कत आ रही थी। कल संभवत: जिस प्रकार से गुरु महाराज ने इच्छा व्यक्त की है तो हम प्रयास करेंगे कि हमारे कुछ ब्रह्मचारी भक्त आगे आकर हमें बुक वितरण के अपने अनुभव और साक्षात्कारों के साथ प्रोत्साहित करें, कल हम उसको करने का प्रयास करेंगे। धन्यवाद। विशेष धन्यवाद गुरु महाराज जी का, इतनी टेक्निकल प्रॉब्लम्स के बाद भी गुरु महाराज वापस आए और हम सब को अपना संग दिया। धन्यवाद गुरु महाराज ।
आज के सेशन को हम यहीं पर विराम देते हैं।
श्रील जीव गोस्वामी तिरोभाव महा महोत्सव की जय !
श्रील जगदीश पंडित तिरोभाव महा महोत्सव की जय!
वैष्णव ठाकुर की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
परम पूजनीय लोकनाथ स्वामी महाराज की जय!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
16 January 2021
The glorious disappearance day of Srila Jiva Goswami
Hare Krsna! Devotees from over 734 locations are chanting with us right now.
jaya jaya sri krsna caitanya nityananda sri jayadvaita-candra jaya gaura bhakta vrnda
Translation
O Lord Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu, all glories to You. O Prabhu Nityananda, all glories to You. O Lord Advaitacandra, all glories to You. O devotees of Lord Gauranga, all glories to You all.
Today is the disappearance day of Srila Jiva Goswami, Srila Jiva Goswami tirobhava maha mahotsava ki jai! Srila Jiva Goswami is pratah smarniya, meaning he is a personality to be remembered in the morning. We should reserve our mornings to remember some special personalities. Morning time is very special and pure. Brahma muhurta is favourable for achieving Brahma. In such a muhurta we should remember Krsna, His devotees and saints. Whatever topics are suitable for remembering should be remembered in the morning. As I said, pratah smarniya.
Srila Jiva Goswami is to be remembered in the morning and then we cannot only say in the morning but at all times, morning, afternoon and evening. The Gaudiya Vaisnavas are celebrating the disappearance day of Srila Jiva Goswami. By the mercy of Sri Caitanya Mahaprabhu we are also becoming Gaudiya Vaisnavas now. Amongst the Vaisnavas, Gaudiya Vaisnavas are superior. To make us Gaudiya Vaisnavas He has made many arrangements and amongst them are these Sad Goswami Vrinda and their efforts. Their goal was also making the whole world Gaudiya Vaisnavas.
nana-sastra-vicaranaika-nipunau sad dharma-samsthapakau
lokanam hita-karinau tri-bhuvane manyaou saranyakarau
radha-krsna-padaravinda-bhajananandena mattalikau
vande rupa-sanatanau raghu-yugau sri-jiva-gopalakau
Translation
I offer my respectful obeisances unto the six Gosvamis, namely Sri Rupa Gosvami, Sri Sanatana Gosvami, Sri Raghunatha Bhatta Gosvami, Sri Raghunatha dasa Gosvami, Sri Jiva Gosvami, and Sri Gopala Bhatta Gosvami, who are very expert in scrutinisingly studying all the revealed scriptures with the aim of establishing eternal religious principles for the benefit of all human beings. Thus they are honoured all over the three worlds and they are worth taking shelter of because they are absorbed in the mood of the Gopis and are engaged in the transcendental loving service of Radha and Krsna. [Sri Sad Goswami -astaka]
Srinivas Acarya was a great Gaudiya Vaisnava acarya. He wrote this Sad Goswami-astaka. We have sung one of the astakas he has mentioned there.
vande rupa-sanatanau raghu-yugau sri-jiva-gopalakau
He offers respectful obeisances unto the six Gosvamis, and while offering obeisances and writing about them, he teaches us to offer obeisances. If you want to offer obeisances you should offer obeisances to these Sad Goswami Vrinda. vande rupa – offer obeisances to Rupa Goswami, Sanatana Goswami, Jiva Goswami and Gopal Bhatta Goswami. Raghu yugau – there were two Raghus, Raghunath Bhatta Goswami and Raghunatha Dasa Goswami. Srinivasa Acarya is inspiring us to offer obeisances to these Goswamis. These Sad Goswamis were from different places.
Gopal Bhatta Goswami was from South India, Srirangam
Raghunath Bhatta was from Varanasi, Uttar Pradesh
Raghunath Dasa was from Saptagram, Bengal
Remaining 3 Goswami were from Ramkeli, Bengal
They were born at different places and by the arrangement of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu they reached Vrndavana and their team is famous as the Sad Goswami Vrinda. Associates of Caitanya Mahaprabhu stayed in Mayapur, Jagannatha Puri and then in Vrndavana. Amongst the associates of Caitanya Mahaprabhu who stayed at these three different places, Sad Goswami Vrinda have a special position.
Among these Sad Goswamis, Srila Jiva Goswami has a special position. He was born at Ramkeli. When Caitanya Mahaprabhu had gone to Ramkeli He had met Dabir Kasa and Sakara Mallik. They were finance ministers of King Husain Shah. Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu initiated them and named them Rupa Goswami and Sanatana Goswami. He also made them His associates.
At that time Jiva Goswami was a child and he had not met or talked to Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. Later also he did not meet Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. Rupa, Sanatana and Anupama were three brothers. Amongst these three brothers Anupam died and his son was Jiva Goswami. That means Rupa and Sanatana were the uncles of Jiva Goswami. Since Jiva Goswami’s father had died, he was detached from this material world. Jiva Goswami wanted to join his uncles, Rupa and Sanatana. Since childhood he was very attached to Gauranga and Nityananda. He learnt how to worship the Deities of Krsna and Balarama. Along with the worship of Krsna Balarama, he also worshipped Gaura Nityananda. Jiva Goswami gave some reason and left home and went straight to Mayapur to the house of Srinivas Thakur which is where Nityananda Prabhu was staying in those days.
Reaching there he surrendered himself at the lotus feet of Nityananda Prabhu. Nityananda Prabhu gave Jiva Goswami His association. He did Navadvipa mandala Parikrama with Jiva Goswami and showed Navadvipa to him. Nityananda Prabhu became the guide as He is Adi guru. He took Jiva Goswami on yatra and introduced Jiva Goswami to other devotees. Yogapitha was the residence of Nimai. In those days Caitanya Mahaprabhu had taken sannayasa and He had reached Jagannatha Puri. He also completed His 6 year South India yatra. Madhya lila pastimes were also completed. At the same time Caitanya Mahaprabhu ordered Nityananda Prabhu to preach in Bengal.
sarvatra amar ajna koroho prakas prati ghare ghare giya koro ei bhiksa
bolo `krsna’, bhajo krsna, koro krsna-siksa iha bai arna boliba,
bolaiba dina-avasane asi’ amare kohiba
Translation
Make My command known everywhere! Go from house to house and beg from all the residents, `Please chant Krsna’s name, worship Krsna, and teach others to follow Krsna’s instructions.’ Do not speak, or cause anyone to speak, anything other than this. [CB Madhya-Khanda 13.8-10]
Caitanya Mahaprabhu sent Nityananda Prabhu to Bengal and that was why Nityananda Prabhu was in Mayapur. He took Jiva Goswami to Sacimata’s house at Yogapitha. Sacimata offered them prasada which Visnupriya had cooked which Nityananda Prabhu and Jiva Goswami honoured. When we hear these pastimes they are very special and thrilling. In those days the manifested pastimes of Caitanya Mahaprabhu and Nityananda Prabhu were taking place.
From there Nityananda Prabhu sent Jiva Goswami to Vrndavana and on the way to Vrndavana he stopped at Varanasi where he learnt Sanskrit from a disciple of Sarvabhauma Bhattacarya, Madhusudan Vachaspati. Varanasi is famous as a seat of learning, as a university. Srila Jiva Goswami studied grammar and became an expert in Sanskrit grammar. Then he headed towards Vrndavana.
There he was blessed by the association of the Goswamis. Amongst the six Goswamis of Vrndavana he was the youngest. In Vrndavana, Jiva Goswami received initiation from Rupa Goswami.
Sad Goswamis have established different temples in Vrndavana. This was the order and desire of Caitanya Mahaprabhu that the opulence of Vrndavana be re-established and there should be preaching and glorification of Govardhana, Vrndavana Biharilal and Yamuna.
Due to the attacks of Muslims, Vrndavana had been deserted and Deity worship, darsana and Parikrama had been stopped. In such a situation Caitanya Mahaprabhu was sending one Goswami at a time. The first Goswamis sent to Vrndavana were Lokanath Goswami and Bhugarbha Goswami. They are not included in the team of Sad Goswamis, but they were also sent. Sad Goswamis were sent and Prabhodananda Saraswati also reached from Srirangam. He was the uncle of Gopal Bhatta Goswami. Other Goswamis would soon be joining them, Srinivas Acarya, Narottam Dasa Thakura and Syamananda Pandit. Such a team was arriving there. Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu wanted Vrndavana to be glorified all over and also be established and worshipped, specially sastra, as Books are the basis.
tasmac chastram pramanam te [BG 16.24]
Caitanya Mahaprabhu also desired that the Sad Goswamis should write books.
sri-caitanya-mano-‘bhistam , this was abhista or the desire of Caitanya Mahaprabhu and the Sad Goswamis knew it and accordingly they were busy writing books.
Jiva Goswami now had started staying at Damodara temple. He was worshipping Radha Damodara. Before I forget, today we are celebrating his disappearance day as he entered the pastimes of Radha Krsna in the temple of Radha Damodara. His samadhi is also there in the temple. I keep telling you all always before going to America and after he became vanaprastha, Srila Prabhupada came to Vrndavana and stayed at Radha Damodara temple established by Jiva Goswami. He did all his preparation of going to the West here in this temples. He wrote books here.
The first time I went to Vrndavana I first went to Radha Damodara temple as Srila Prabhupada stayed there and took darsana of Radha Damodara. I always pay my obeisances at the samadhi of Srila Jiva Goswami. All the Sad Goswamis would assemble in the Radha Damodara temple courtyard.
nana-sastra-vicaranaika-nipunau
Translation
The Sad Goswamis were very expert in scrutinisingly studying all the revealed scriptures.
They would hold their discussions here with the aim of establishing eternal religious principles for the benefit of all human beings.
bodhayantah parasparam [BG 10.9]
dadāti pratigṛhṇāti
guhyam ākhyāti pṛcchati
bhuṅkte bhojayate caiva
ṣaḍ-vidhaṁ prīti-lakṣaṇam
Translation
Offering gifts in charity, accepting charitable gifts, revealing one’s mind in confidence, inquiring confidentially, accepting prasāda and offering prasāda are the six symptoms of love shared by one devotee and another. [NOI 4th verse]
All the Sad Goswamis would stay in Radha Damodara temple courtyard and all discussion would happen there. They would honour prasada. The young Jiva Goswami would sponsor all the arrangements and serve the Goswamis. Jiva Goswami specially served Rupa Goswami, his spiritual master in the last days of his life. There we have Rupa Goswami’s samadhi mandir and bhajan kutir.
Srila Prabhupada stayed there and did his bhajan there and prepared himself to preach in the whole world. The first Kartik festival was celebrated at Radha Damodara temple in 1972. I also took part in the festival. Srila Prabhupada gave me initiation in the same temple in Vrndavana in Kartik. In this way I also have a close attachment with the temple and the Sad Goswamis especially with Jiva Goswami.
Prabhupada gave me the name Lokanath in Radha Damodara temple and then in the Krishna Balarama temple he gave me sannyasa initiation and said to add Swami to my name. I then became Lokanath Swami. Prabhupada made me a Swami. All this is the mercy of Srila Jiva Goswami. You read more about Jiva Goswami, recite his glories to others and remember Jiva Goswami. He is glorified for his intelligence. It’s said that the world has not seen any genius like Jiva Goswami. He wrote 4 lakh slokas and the only other personality who wrote 4 lakh slokas is Srila Vyasa Dev. He wrote many books, amongst them Sad Sandarbha is famous which glorifies Srimad Bhagavatam. His books are our matchless gifts. He has also written commentary on Srimad Bhagavatam, Gopal Campu. He has also written a commentary on Brahma Sahmita. To teach grammar he wrote Harinam Amrita Vyakran, learning grammar while reciting the names of Hari so that grammar is not dry, but full of mellow. BHU Banarasa Hindu University has a special department under the name of Jiva Goswami where all his books are studied and people pursue PHD in those subjects. We should read the books written by him.
Jai Srila Jiva Goswami tirobhava maha-mahotsava ki jai
Hare Krsna!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 16 января 2021 г.
ВЕЛИКИЙ ДЕНЬ УХОДА ШРИЛЫ ДЖИВЫ ГОСВАМИ
Харе Кришна! Прямо сейчас с нами преданные из более чем 734 мест.
джайа джайа шри кришна чаитанйа нитйананда шри джай адвайта-чандра джая гаура бхакта вринда
Перевод:
О Господь Шри Кришна Чайтанья Махапрабху, вся слава Тебе. О Прабху Нитьянанда, вся слава Тебе. О Господь Адвайтачандра, вся слава Тебе. О преданные Господа Гауранги, слава Вам всем.
Сегодня день ухода Шрилы Дживы Госвами, Шрилы Дживы Госвами тиробхава маха махотсава ки джай! Шрила Джива Госвами – прата смарнийа, что означает, что о нем следует вспоминать по утрам. Мы должны использовать утро, чтобы вспоминать особенных личностей. Утреннее время особенное и чистое. Брахма мухурта благоприятствует достижению Брахмы. В такой мухурте мы должны помнить Кришну, Его преданных и святых. Какими бы ни были темы для изучения, следует уделять им время утром. Как я сказал, пратах смарнийа.
О Шриле Дживе Госвами следует вспоминать утром, а потом говорить о Нем не только утром, но в течение всего дня: утром, днем и вечером. Гаудия-вайшнавы празднуют день ухода Шрилы Дживы Госвами. По милости Шри Чайтаньи Махапрабху мы теперь тоже становимся Гаудия-вайшнавами. Гаудия-вайшнавы превосходят всех вайшнавов. Чтобы сделать нас гаудия-вайшнавами, Он предпринял множество усилий, и среди них есть Шад Госвами Вриндавана. Их целью было также сделать весь мир Гаудия-вайшнавами.
нана-шастра-вичаранаика-нипунау сад дхарма-самстхапакау
локанам хита-каринау три-бхуване маньяу сараньякарау
радха-кришна-падаравинда-бхаджананандена матталикау
ванде рупа-санатанау рагу-югау шри-джива-гопалакау
Перевод:
Я в глубоком почтении склоняюсь перед шестью Госвами, а именно Шри Рупой Госвами, Шри Санатаной Госвами, Шри Рагхунатхой Бхаттой Госвами, Шри Рагхунатхой Дасом Госвами, Шри Дживой Госвами и Шри Гопалой Бхаттой Госвами, которые очень хорошо разбираются в священных писаниях и в вечных религиозных принципах, которыми делятся на благо всех людей. Таким образом, их почитают во всех трех мирах, и они достойны освобождения, потому что они поглощены настроением гопи и заняты трансцендентным любовным служением Радхе и Кришне.
[Шри Шад Госвами-аштака]
Шринивас Ачарья был великим Гаудия-вайшнавским ачарьей. Он написал эту Шад Госвами-аштаку. Мы воспевали сейчас одну из упомянутых им аштаки.
ванде рупа-санатанау рагу-югау шри-джива-гопалакау
Он в почтении склоняется перед шестью Госвами и, предлагая поклоны и записывая все о них, учит и нас склоняться перед ними. Если вы хотите предложить поклоны, вы должны предложить поклоны этим Госвами Вриндавана. ванде рупа – предложить поклоны Рупе Госвами, Санатане Госвами, Дживе Госвами и Гопалу Бхатте Госвами. Рагху югау – было два Рагху, Рагхунатх Бхатта Госвами и Рагхунатха Дас Госвами. Шриниваса Ачарья вдохновляет нас предложить поклоны этим Госвами. Эти Шад Госвами были из разных мест.
Гопал Бхатта Госвами был из Южной Индии, Шрирангама.
Рагхунатх Бхатта был из Варанаси, Уттар-Прадеш.
Рагхунатх Дас был из Саптаграма, Бенгалия.
Остальные 3 Госвами были из Рамкели, Бенгалия.
Они родились в разных местах и по распоряжению Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху достигли Вриндавана, и их команда известна как Шад Госвами Вриндавана. Спутники Чайтаньи Махапрабху оставались в Маяпуре, Джаганнатха Пури, а затем во Вриндаване. Среди спутников Чайтаньи Махапрабху, которые останавливались в этих трех разных местах, Шад Госвами Вриндавана занимали особое положение.
Среди Госвами особое положение занимает Шрила Джива Госвами. Он родился в Рамкели. Когда Чайтанья Махапрабху отправился в Рамкели, Он встретил Дабира Кашу и Сакару Маллика. Они были министрами финансов короля Хусейна Шаха. Шри Кришна Чайтанья Махапрабху инициировал их и назвал Рупой Госвами и Санатаной Госвами. Он также сделал их Своими товарищами.
В то время Джива Госвами был ребенком, и он не встречался и не разговаривал со Шри Кришной Чайтаньей Махапрабху. Он и позже не встречался со Шри Кришной Чайтаньей Махапрабху. Рупа, Санатана и Анупама были тремя братьями. Один из братьев Анупама – погиб, его сыном был Джива Госвами. Это означает, что Рупа и Санатана были дядями Дживы Госвами. После смерти отца Дживы Госвами он был оторван от материального мира. Джива Госвами хотел присоединиться к своим дядям, Рупе и Санатане. С детства он был очень привязан к Гауранге и Нитьянанде. Он научился поклоняться Божествам Кришны и Баларамы. Наряду с поклонением Кришне Балараме он также поклонялся Гауре Нитьянанде. Джива Госвами объяснил причину, ушел из дома и направился прямиком в Маяпур, в дом Шриниваса Тхакура, где в те дни останавливался Нитьянанда Прабху.
Достигнув этого места, он предался лотосным стопам Нитьянанды Прабху. Нитьянанда Прабху дал Дживе Госвами Свое посвящение. Он совершил Навадвипа-мандала-парикраму с Дживой Госвами и показал ему Навадвипу. Нитьянанда Прабху стал наставником, как Ади-гуру. Он взял Дживу Госвами на ятру и представил Дживу Госвами другим преданным. Йогапитха была резиденцией Нимая. В те дни Чайтанья Махапрабху принял санньясу и достиг Джаганнатха Пури. Он также завершил шестилетнюю ятру в Южной Индии. Были также завершены игры Мадхья-лилы. В то же время Чайтанья Махапрабху приказал Нитьянанде Прабху проповедовать в Бенгалии.
сарватра амар аджна корохо пракас прати гхаре гхаре гия коро эи бхикша
боло `кришна ‘, бхаджо кришна, коро кришна-шикша иха бай арна болиба,
болайба дина-авасане аси амаре коиба
Перевод:
Сделай Мое слово известным повсюду! Переходите из дома в дом и просите всех жителей: «Пожалуйста, повторяйте имя Кришны, поклоняйтесь Кришне и учите других следовать наставлениям Кришны». Не говорите и не заставляйте кого-либо говорить ничего, кроме этого.
[Ч.Б. Мадхья-Кханда 13.8-10]
Чайтанья Махапрабху отправил Нитьянанду Прабху в Бенгалию, и именно поэтому Нитьянанда Прабху был в Маяпуре. Он отвел Дживу Госвами в дом Шачиматы в Йогапитхе. Шачимата предложила им прасад, приготовленный Вишнуприей, который Нитьянанда Прабху и Джива Госвами почтили. Эти лилы очень особенные и волнующие. Все те дни были лилами Чайтаньи Махапрабху и Нитьянанды Прабху.
Оттуда Нитьянанда Прабху отправил Дживу Госвами во Вриндаван, и по пути во Вриндаван он остановился в Варанаси, где выучил санскрит у ученика Сарвабхаумы Бхаттачарьи, Мадхусудана Вачаспати. Варанаси известен как центр обучения, как университет. Шрила Джива Госвами изучал грамматику и стал экспертом по грамматике санскрита. Затем он направился во Вриндаван.
Там он был благословлен обществом Госвами. Среди шести Госвами Вриндавана он был самым молодым. Во Вриндаване Джива Госвами получил посвящение от Рупы Госвами.
Госвами основали разные храмы во Вриндаване. Это было приказом и желанием Чайтаньи Махапрабху восстановить богатство Вриндавана и проповедовать и прославлять Говардхан, Вриндаван Бихарилал и Ямуну.
Из-за нападений мусульман Вриндаван был заброшен, а поклонение Божествам, даршан и парикрама были прекращены. Чайтанья Махапрабху посылал по одному Госвами. Первыми Госвами, посланными во Вриндаван, были Локанатх Госвами и Бхугарбха Госвами. Они не входят в команду Шад Госвами, но их тоже отправили. Были отправлены также шесть Госвами, и Прабходананда Сарасвати также приехал из Шрирангама. Он был дядей Гопала Бхатты Госвами. Вскоре к ним присоединились другие Госвами: Шринивас Ачарья, Нароттам Даса Тхакур и Шьямананда Пандит. Туда собиралась такая команда. Шри Кришна Чайтанья Махапрабху хотел, чтобы Вриндаван был прославлен повсюду, а также чтобы поклонялись ему, особенно шастрам, поскольку книги являются основой.
тасма̄ч чха̄страм̇ прама̄н̣ам̇ те
ка̄рйа̄ка̄рйа-вйавастхитау
джн̃а̄тва̄ ш́а̄стра-видха̄ноктам̇
карма картум иха̄рхаси
Перевод Шрилы Прабхупады:
Поэтому именно на основе священных писаний определи, что следует делать, а чего делать не следует. Изучив содержащиеся в них указания и правила, действуй так, чтобы постепенно достичь духовных высот.
(Б.Г. 16.24)
Чайтанья Махапрабху также пожелал, чтобы Госвами писали книги.
шри-чаитанйа-мано-‘бхиштам, это была абхишта, или желание Чайтаньи Махапрабху, и Госвами знали это, и поэтому они были заняты написанием книг.
Джива Госвами теперь стал жить в храме Дамодара. Он поклонялся Радхе Дамодаре. Пока я не забыл, сегодня мы празднуем день его ухода, когда он вошел в игры Радхи Кришны в храме Радхи Дамодары. Его самадхи также присутствовали в храме. Я постоянно рассказываю вам – перед поездкой в Америку и после того, как он стал ванапрастхой, Шрила Прабхупада приехал во Вриндаван и останавливался в храме Радхи Дамодара, основанном Дживой Госвами. Он занимался всей своей подготовкой к поездке на Запад здесь, в этих храмах. Он писал здесь книги.
В первый раз, когда я приехал во Вриндаван, я сначала пошел в храм Радхи Дамодара, поскольку Шрила Прабхупада останавливался там и принял даршан Радхи Дамодары. Я всегда склоняюсь перед самадхи Шрилы Дживы Госвами. Все шесть Госвами собирались во внутреннем дворе храма Радха Дамодара.
нана-шастра-вичаранаика-нипунау
Перевод:
Госвами были очень искусны в тщательном изучении всех богооткровенных писаний.
мач-читта̄ мад-гата-пра̄н̣а̄
бодхайантах̣ параспарам
катхайанташ́ ча ма̄м̇ нитйам̇
тушйанти ча раманти ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все мысли Моих чистых преданных поглощены Мной, и вся их жизнь посвящена Мне. Всегда делясь друг с другом знанием и беседуя обо Мне, они испытывают огромное удовлетворение и блаженство.
[Б.Г. 10.9]
дадати пратигрихнати
гухьям акхьяти приччхати
бхункте бходжаяте чайва
шад-видхам прити-лакшанам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Приносить дары и принимать дары, поверять свои мысли и спрашивать о сокровенном, принимать прасад и угощать прасадом – таковы шесть проявлений любви, которую преданные испытывают друг к другу.
[Нектар наставлений 4-й стих]
Все Шад Госвами оставались во дворе храма Радха Дамодара, и все обсуждения происходили там. Они почитали прасад. Молодой Джива Госвами спонсировал все мероприятия и служил Госвами. Джива Госвами особенно служил Рупе Госвами, своему духовному учителю в последние дни своей жизни. Это самадхи мандир и бхаджан кутир Рупы Госвами.
Шрила Прабхупада останавливался там, совершал там свой бхаджан и готовился проповедовать по всему миру. Первый фестиваль Картика отмечался в храме Радха Дамодара в 1972 году. Я тоже принимал участие в фестивале. Шрила Прабхупада дал мне посвящение в том же храме во Вриндаване на Картике. Таким образом, у меня также есть тесная привязанность к храму и к Госвами, особенно к Дживе Госвами.
Прабхупада дал мне имя Локанатх в храме Радхи Дамодара, а затем в храме Кришна Баларамы он дал мне посвящение в санньясу и сказал добавить к моему имени Свами. Затем я стал Локанатхом Свами. Прабхупада сделал меня Свами. Все это по милости Шрилы Дживы Госвами. Вы читайте больше о Дживе Госвами, воспеваете его славу другим и вспоминаете Дживу Госвами. Он славится своим умом. Говорят, что мир не видел гения, подобного Дживе Госвами. Он написал 4 миллиона шлок, и единственный другой человек, который написал 4 миллиона шлок, – это Шрила Вьяса Дев. Он написал много книг, среди которых широко известна Шад Сандарбха, прославляющая Шримад Бхагаватам. Его книги – наши бесценные дары. Он также написал комментарий к Шримад Бхагаватам, Гопал Кампу. Он также написал комментарий к Брахма Сахмите. Чтобы преподавать грамматику, он написал Харинам Амрита Вьякран, изучать грамматику, повторяя имена Хари, так что грамматика не будет сухой, а полной мягкости. BHU Banarasa Hindu University имеет специальный отдел под названием Джива Госвами, где изучаются все его книги, и люди получают докторскую степень по этим предметам. Надо читать написанные им книги.
Джай Шрила Джива Госвами тиробхава маха-махотсава ки джай!
Харе Кришна!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा,
15 जनवरी 2020,
पंढरपुर धाम.
जय श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौरभक्तवृंद।।
700 स्थानों से भक्त आज हमारे साथ जुड़े हुए हैं। हरि हरि, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! सुप्रभातम, आप सब का स्वागत है। माल्यार्पण के साथ मेरा भी स्वागत कर रहे हैं यहां पर। अच्छा होता कि आपके गले में माला होती, कंठी माला तो है। तुलसी महारानी की जय! एक माला तो हमेशा के लिए है आपके गले में। पता है ना आपको? इस माला को देखकर फिर यमदूत दूर से प्रणाम करते हैं या फिर भाग जाते हैं। ऐसा आदेश हुआ है यमदूतों को।
हे यमदूतों ! जिनके गले में कंठी माला नहीं हैं,आप इनको ले आना, और जिनके गले में कंठी माला है, उन्हे मत लाना। वैसे जिन कुत्तों के गले में पट्टा होता है। उनको नगरपालिका की जो डॉग वेन होती हैं, नगरपालिका के लोग आते हैं कुत्तों को पकड़ने के लिए। उन कुत्तों को जिनका कोई मालिक नहीं है ऐसे ही भोंकते रहते हैं। और वह कुत्ते जिनके गले में पट्टा नहीं है मतलब मालिक नहीं है उनको पकड़ कर ले जाते हैं। लेकिन अगर पट्टा है तो उनको छूते नहीं है। उनसे दूर रहते हैं। ऐसी बात है हमारी गले में कंठी माला है, मतलब हमारा कोई मालिक है स्वामी है। गुरुजन स्वामी भी होते हैं। गुरुजन भी बन जाते हैं स्वामी। यह पहनाते हैं कंठी माला हमारे गले में। गले में तुलसी की कंठीमाला और हाथ में तुलसी की जप माला और फिर आप सुरक्षित हो जाते हैं। और वैसे स्वामियों के स्वामी जगन्नाथ इस जगत के नाथ है उनके बन जाते हैं हम दास बनते हैं तो फिर हमारी रक्षा हो जाती हैं।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया৷৷18.61৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है ৷৷18.61॥
ईश्वरः सर्वभूतानां गीता के अंत में भगवान कह रहे हैं। ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति। भगवान कह रहे हैं अर्जुन को। ईश्वरः तिष्ठति हे अर्जुन समझ में आया ईश्वरः तिष्ठति कुत्र तिष्ठति ईश्वरः कहां रहते हैं? ईश्वर हृद्देशे हृदय देश प्रदेश में ईश्वर रहते हैं। हृद प्रदेश। कौन कह रहे हैंं यहां परमेश्वर ही कह रहे। अर्जुन सेेे कह रहे और ऐसी बात कर रहे हैं मानो कहने वालों का कोई संबंध नहीं है ईश्वर से। ईश्वर है ना, ईश्वरःसर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति। श्रीकृष्ण यहां पर पूरी तरह से अनासक्त हैं। ऐसा कह रहे हैं मानो और ही कोई ईश्वर है और वह तुम्हारेे हृदय में है। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया भ्रामयन्सर्वभूतानि, सर्वभूतानि भ्रामयन सब जीव क्या करते हैं, भ्रमण करते हैं।
यन्त्रारुढानि मायया माया से बने हुए माया से बनाए हुए यंत्र में आरूढ़ होकर, भूतानि मतलब बद्घ जीव भ्रमण करते है। और फिर यहां यंत्र की जो बात हुई तो यह यंत्र शरीर है। शरीर को यंत्र कहा गया हैं, वस्त्र कहा गया है या फिर कहीं वृक्ष कहा है। ऐसी कई सारे उपमाये या फिर शरीर की कई सारी तुलना हुई है। यन्त्रारुढानि मायया या फिर 8400000 प्रकार के यंत्र है। ऐसा नहीं है कि, भगवान केवल मनुष्य के हृदय में ही रहते हैं। भगवान तो सभी जीवो के ह्रदय में रहते हैं ऐसा भगवान नेे कहा।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्৷৷18.62৷৷
अनुवादः हे भारत! पूरी तरह से भगवान की शरण में जाओ। उनकी कृपा से तुम्हें दिव्य शांति और सनातन परमधाम की प्राप्ति होगी।
श्रीभगवान उवाच तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत तम एवं तम ईश्वर एवं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ईश्वर का परिचय दिया, वह तो वे बहुत समय से देते आ रहे हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में सेनोर्योभयमध्ये दोनों सेना के मध्य में। अब सारांश मेंं उन्होंने पुनः कहा पहले भी ऐसे कह चुके थे।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः 15 में अध्याय में अभी पुनः कह रहे हैं सर्वस्य चाहं वहां तो अहम की बात किए थे मैं रहता हूं सबके हृदय प्रांगण में, मैं रहता हूं ऐसा भगवान ने एक बार कहा था। अब पुनः कह रहे हैं लेकिन अब यहां अहम की बात नहीं कर रहे हैं। यहां पर ईश्वर है और अब ऐसेे ईश्वर को अर्जुन पहचान चुके हैं।कौन हैैैै ईश्वर, कौन है परमेश्वर। परम ब्रह्मा परममधाम, पवित्रान परमम भवान आप ईश्वर हो। ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न
आप ईश्वर हो। आदिदेव आजमम भवान यहां सब यह सब साक्षात्कार हो चुके हैं। तो अब कृष्ण यहां अलग से नहीं कह रहे हैं। मैं हूंं ईश्वर या मैं कहां रहता हूं सभी के ह्रदय प्रांगण में। अर्जुन तो इस बात को भलीभांति समझ चुके हैं। यह सोचकर भी पता नहीं भगवान क्या क्या और कैसे सोचते हैं। और हम सोच रहे हैं भगवान नेे ऐसा सोचा ही होगा कि अर्जुन तो जानता ही है कि मैं ही वह परमेश्वर हूं। उसने कह दिया उसने अपने मुख से कहा कि, आप परम ब्रह्मा परममधाम और आदिदेवम अब अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। हरि हरि पुरुषम शाश्वतम दिव्य आदिदेव तमेव शरणं गच्छ अच्छा है सरल संस्कृत है। तमेव शरणं गच्छ उन्हीं के शरण में जाओ। तमेव शरणं गच्छ और कैसे शरण जाओ पिछले श्लोक में भी भारत कह रहे हैं। सर्वभावेन भारत कहीं अर्जुन कहा था उन्होंने पिछले श्लोक में भी भारत कह रहे हैं। बताया है कृष्ण कैसे सारे संबोधनो का उपयोग करते हैं। अर्जुन को संबोधित करते हैं। और फिर अर्जुन भी कृष्ण को कई सारे नामों से संबोधित करते। है वह भी एक विषय हैैै गीता का। पूरे भावभक्ति के साथ शरण लो। तत्प्रसादात्परां शान्तिं ऐसा करने से क्या होगा तत्प्रसादात्परां अर्जुन कहने वाले हैं। भगवान आप मुझे गीता का उपदेश सुनाएं, तत्प्रसादाम यह आपका प्रसाद रहा। यह आपका कृपा प्रसाद रहा। कृष्ण भी स्वयं कह रहे हैं, तत्प्रसादात्परां शान्तिं तुम सब गीता का प्रसाद अमृत उपदेश सुनोगे गीता अमृत का पान करेंगे तब साक्षात्कार होगा। इसके श्रवण चिंतन मनन और कीर्तन तुम भी कुछ सुना सकते हो। क्या समझे तुम गीता के संबंध में ऐसा जब तुम कुछ करोगे यही करना प्रसाद है। तुम्हें प्रसाद प्राप्त होगा। तुम प्रसाद ग्रहण करोगे। या भगवान की तुमने तम एव शरणम गच्छ तो कृपा प्रसाद प्राप्त हुआ। ऐसे तत्प्रसादात परां शांति प्रसाद भी प्राप्त हुआ। और उसके साथ साथ तुम शांति को प्राप्त करोगे कैसे शांति? परां शांति केवल शांति नहीं कहे, परां शांति सर्वोपरि शांत साधारण शांति नहीं। स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् और शांति को ही प्राप्त करोगे।
मतलब मन शांत होगा, तुम्हारा चित्त शांत होगा, इंद्रिय शांत होंगे और स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् इसी के साथ स्थानं प्राप्स्यसि त्वम प्राप्स्यसि स्थानं कैसा होगा? स्थान शाश्वतम् तुम शाश्वत स्थान को प्राप्त करोगे यहां तो शाश्वत स्थान भगवान के चरण कमल ही है।
अयि नन्दतनुज किङ्करं
पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज-
स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥5॥
अनुवाद- हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए।
प्रार्थना ही है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रार्थना की, मुझे आपके चरणों का दास, आपके चरणों की धूली का कण ही बनाईए हे प्रभु। तो वह स्थान, मेरे चरणों में स्थान प्राप्त होगा, मेरे चरणों की सेवा प्राप्त होगी। और अलग से कहने की आवश्यकता तो नहीं है मेरा धाम प्राप्त होगा मेरे धाम में लौटोगे जहां मैं रहता हूं। और तुम मुक्त हो जाओगे। मेरे सायुज्य मुक्ति को तो तुम ठुकराने वाले हो लेकिन और भी मुक्तिया है। सालोक्य है, सामिप्य है, सार्शष्टि है, सारुप्य है, इसमें से कोई भी मुक्ति तुम को प्राप्त होगी। यह तुम्हारे स्वरूप के अंतर्गत मतलब भगवान का सामिप्य, संनिधि या सालोक्य उसी लोक में रहो जहां कृष्ण रहते हैं। सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य मतलब भगवान का स्वरूप सच्चिदानंद विग्रह है। कम से कम भगवान सच्चिदानंद विग्रह है। विग्रह मतलब रूप। तो तुम को भी सच्चिदानंद विग्रह रूप प्राप्त होगा। और सार्शष्टि, तुम मेरे पुत्र होंगे, मेरे परिवार के सदस्य होंगे, मेरा वैभव फिर तुम्हारा ही वैभव है, तुम्हारे ही सेवा में है, बाप जैसा बेटा। वैसे कृष्ण कहे है गीता के अंत में जहां अर्जुन है धनुर्धर अर्जुन और जहां योगेश्वर कृष्ण है तत्र श्री उल्लेख हुआ वहा होगा वैभव वहा समृद्धि होगी। हरि हरि। तो स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् मेरेेेे धाम को तुम प्राप्त होंगे।
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥
तो कृष्ण निष्कर्ष मे कह रहे हैं, निष्कर्ष ही चल रहा है गीता का यहां। निष्कर्ष की बातें भगवान यहां कर रहे हैं लेकिन दुर्दैव क्या है? मनुष्य जन्म तो प्राप्त हुआ है और हम राधा कृष्णा का भजन नहीं कर रहे हैं। या दुर्दैव से भगवदगीता का पाठ नहीं कर रहे है। या गीता, भागवत का श्रवण नहीं कर रहे हैं या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे नहीं कर रहे हैं। तो फिर हमारे आचार्य कहते हैं *जानिया शुनिया विष खाइनु हम जहर पी रहे हैं, वह एक दूसरी दुनिया है या दूसरा जगत है। मनुष्य जन्म तक प्राप्त हुआ है लेकिन राधा कृष्ण का भजन नहीं कर रहे हैं। हरी हरी। ऐसे लोगों को आप जानते होंगे, संभावना है कि ऐसे लोग आपके घर में भी हो सकते हैं, पड़ोस में हो सकते हैं। तो उनका क्या होगा? हरि हरि। तो इसीलिए फिर भगवान ऐसी अपेक्षा रखते हैं। इसीलिए गीता का प्रचार अनिवार्य है। भगवान तो यहां सब कुछ कह कर गए हैं, कह गए मतलब भूतकाल की बात नहीं है। कह रहे हैं ऐसा हम को समझना चाहिए। भगवान ने एक समय जो बात कही भगवदगीता का उपदेश सुनाया, उपदेश सुना ही रहे हैं भूतकाल की बात नहीं है। भगवान की हर लीला वैसे नित्य लीला होती है। तो कहीं ना कहीं या और किसी ब्रह्मांड में इस समय भगवान कह रहे होंगे या नहीं तो उसकी कोई परवाह नहीं है। गीता के वचन या गीता तो हमको प्राप्त हुई है और उसको हम जब पढ़ते हैं तो हमें समझना चाहिए कि भगवान सुना रहे हैं भगवदगीता अभी यहीं मुझे सुना रहे हैं भगवान। और फिर भगवान जिनको सुना रहे हैं यह गीता उनको कृष्ण ने यह बात भी सुनाई है कि, हे गीता को सुनने वालों या गीता के ज्ञान को, उपदेश को प्राप्त किए हुए ओ लोगो आप क्या करो इस संवाद को औरों तक पहुंचाओ। जानिया शुनिया विष खाइनु लोग जो जानबूझकर जहर पी रहेेे है उनको समझाओ, बुझाओ, प्रार्थना करो ताकि वे गीतामृत का पान करेंगे। ऐसा जब प्रयास आपका होगा न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: और ऐसा भक्त, ऐसा प्रचारक, ऐसे गीता का वितरक मुझे अति प्रिय है। वैसे भगवान तो कह रहे हैं उससे और कोई प्रिय नहीं है न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: । यह मैंने श्लोक नहीं बनाया, यह तो कृष्ण ने कहा आपको कई बार कहे हैं ही, आज भी कह रहे हैं। क्योंकि आज भी हम सुनना चाहते हैं आपसे आप के अनुभव गीता के श्रवण के और गीता के वितरण के। तो यह आखरी दिन है और अंतिम अवसर है।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: ।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ॥ ६९ ॥
अनुवाद – इस संसार में उनकी अपेक्षा न तो कोई अन्य सेवक मुझे अधिक प्रिय है और न तो कभी होगा
किन की अपेक्षा? इसको समझने के लिए फिर पहले वाला जो 68 वाला श्लोक है उसे आपको सुनाना होगा उसका अनुवाद है..
य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय: ॥ ६८ ॥
अनुवाद – जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, यह परम रहस्य गीता का जो है, भक्तों को, श्रद्धालु जनों को, लोगों को जो सुनाता है वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा। एक तो वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा ऐसा वरदान भी है भगवान का और अंत में वह मेरे पास आएगा।
हरि बोल। वैसे एक एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है, हम उसकी चिंता नहीं करते। बस कोई मोटा मोटा करमन्ये वाधी कारस्ते इतना ही हम लोग जानते हैं बस खत्म हुआ। लेकिन भगवान ने हजारों बातें कही है छोटी मोटी। छोटी है ही नहीं भगवान की कही हुई बातें तो मोटी ही होती हैं, महत्वपूर्ण है। हम लोग नोट नहीं करते हैं तो कभी-कभी ऐसे छिप जाती हैं। भगवान ने यह भी कहा कि जो इस परम रहस्य को औरों को बताता है, गीता के ज्ञान का भक्ति का प्रचार प्रसार करता है तो वह शुद्ध भक्ति को को स्वयं प्राप्त करेगा और वह मेरे पास वापस आएगा। और ऐसे भक्तों की अपेक्षा कोई अन्य सेवक ना तो मुझे अति प्रिय है और ना कभी होगा। हरि हरि।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
15 January 2021
Distribute the Bhagavad Gita and attain pure devotional service
Today we have devotees chanting from 706 locations.Gaura Premanande Hari Haribol !
Good morning! Welcome! I am also welcomed by being honoured with a flower garland. I wish you all could get such garlands. You are wearing Tulsi beads garland already. Tulsi maharani ki Jai ! You are wearing one garland permanently around your neck. Messengers of death (Yamdutta) also go back by looking at the Tulsi garland around someone’s neck. Are you aware of this ? It is an order to the messengers of death – Do not to touch the person who is wearing Tulasi beads around his/her neck and never bring such devotees to Yamalok. In reality we see that the municipality workers catch and take away the stray dogs wandering on the streets who are always barking without reason. They catch the dogs who do not have a collar around their neck which means they do not have a master. If a collar is present then they do not catch such a dog. The workers keep their distance from them. If we have Tulasi beads around our neck it means we have our master or owner. Our spiritual masters also become our Swami or owner. They give us a Kanthi Mala for wearing around the neck and Tulsi Mala for Japa chanting. Then you are safe. Actually Jagannatha is the owner (Swami) of all owners (Swami). Then we become Their servant and we get all kinds of protection.
īśvaraḥ sarva-bhūtānāṁ
hṛd-deśe ’rjuna tiṣṭhati
bhrāmayan sarva-bhūtāni
yantrārūḍhāni māyayā
Translation
The Supreme Lord is situated in everyone’s heart, O Arjuna, and is directing the wanderings of all living entities, who are seated as on a machine, made of the material energy. (BG 18.61)
At the end of Bhagavad Gita the Lord said – hṛd-deśe ’rjuna tiṣṭhati. It means hrd deshe ishwarah tishatai O Arjuna! Have you understood? Trata tishatati
The Lord resides in hrd deshe : hrd is heart and deshe is area. The Lord resides in hrd pradesh. The Lord is narrating this to Arjuna. He is explaining in such a way that the Lord is appearing to be speaking about someone else. He is asking Arjuna if he knows the Lord who resides in everyone’s heart. Kṛṣṇa is kind of completely detached.
The living entities are wandering in this material world which is like a machine made by the illusionary energy of the Lord. Living entities enter in this machine and wander for many lives. The machine refers to the body. In Bhagavad Gita the body is compared to a tree or chariot sometimes. Here it is referred to as a machine. This machine is of 84,00,000 types. It is not that the Lord resides in the heart of a human’s body only. He is present in the heart of all living entities. The Lord has said,
tam eva śaraṇaṁ gaccha
sarva-bhāvena bhārata
tat-prasādāt parāṁ śāntiṁ
sthānaṁ prāpsyasi śāśvatam
Translation
O scion of Bharata, surrender unto Him utterly. By His grace you will attain transcendental peace and the supreme and eternal abode. (BG 18.62)
Kṛṣṇa has given an introduction of the Lord. He has given information about the Lord many times during narration of Bhagavad Gita on the battlefield of Kurukshetra.
arjuna uvāca
senayor ubhayor madhye
rathaṁ sthāpaya me ’cyuta
yāvad etān nirīkṣe ’haṁ
yoddhu-kāmān avasthitān
kair mayā saha yoddhavyam
asmin raṇa-samudyame
Translation
Arjuna said: O infallible one, please draw my chariot between the two armies so that I may see those present here, who desire to fight, and with whom I must contend in this great trial of arms. (BG 1.21, 22)
While standing in between the two armies the Lord had earlier said,
sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca
vedaiś ca sarvair aham eva vedyo
vedānta-kṛd veda-vid eva cāham
Translation
I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas. (BG 15.15)
Now again He declared that He resides in the heart of all living entities. Earlier also He stated this, but now again He is explaining it. Here the Lord is not saying Himself. Rather He is using the term – the Lord. By this time Arjuna is totally convinced who is the Lord.
arjuna uvāca
paraṁ brahma paraṁ dhāma
pavitraṁ paramaṁ bhavān
puruṣaṁ śāśvataṁ divyam
ādi-devam ajaṁ vibhum
āhus tvām ṛṣayaḥ sarve
devarṣir nāradas tathā
asito devalo vyāsaḥ
svayaṁ caiva bravīṣi me
Translation
Arjuna said: You are the Supreme Personality of Godhead, the ultimate abode, the purest, the Absolute Truth. You are the eternal, transcendental, original person, the unborn, the greatest. All the great sages such as Nārada, Asita, Devala and Vyāsa confirm this truth about You, and now You Yourself are declaring it to me. (BG 10.12 and 13)
Arjuna accepts that the Lord is the original person, unborn and greatest. Arjuna has now realised all this in chapter 10. At the end Kṛṣṇa is not mentioning Himself as the Lord or that He is residing in the heart of all living entities separately. By then Arjuna is completely aware of all this. We do not know what the Lord has thought while narrating this but we assume that the Lord must have thought like this that Arjuna has now realised that I am the Lord. Arjuna had actually accepted this as said verse 10.12. There is no need to specify it again. Arjuna has said that the Lord is the original personality, unborn and eternal so one should surrender to Him. This is a good and easy to understand narration in Sanskrit. tam eva sharanam gancha means surrender to that Lord by sarva bhavan bharat. Now the Lord is calling him Bharat and in the last verse He called him Arjuna. Earlier I have explained how the Lord has addressed Arjuna by various names. Arjuna also addressed the Lord by many names. This is the topic of study in Bhagavad Gita. Here the Lord is instructing that we must take shelter with complete faith and devotion and you will attain peace of mind. Now Arjuna is going to say to Lord that the Bhagavad Gita which was narrated to Arjuna by the Lord is a special blessing (prasada) for him.
Kṛṣṇa himself is also saying the same thing. When you study Bhagavad Gita then you will become realised. You will realise that taking shelter of the Lord is the real blessing of the Lord. Thus you will attain absolute peace along with blessings. It is not just ordinary peace of mind, but you will attain transcendental peace. Your mind will become peaceful along with all the sense organs. Not only this, but you will reach to the eternal abode of the Lord. That abode is eternal or permanent. The eternal place is actually the Lord’s lotus feet.
ayi nanda-tanuja kińkaraḿ
patitaḿ māḿ viṣame bhavāmbudhau
kṛpayā tava pāda-pańkaja-
sthita-dhūlī-sadṛśaḿ vicintaya
Translation
O son of Maharaja Nanda (Krsna), I am Your eternal servitor, yet somehow or other I have fallen into the ocean of birth and death. Please pick me up from this ocean of death and place me as one of the atoms at Your lotus feet.
(Siksatakam Verse 5)
This is prayer by Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu, Please make Me a servant of Your lotus feet. The Lord is confirming that you will get this place and you will get service of His lotus feet. It is not necessary to mention this, but you will get His abode also. You will return to the abode where I am residing. In this way you will become free. You have already rejected sayujya liberation. But other types of liberation are also there, namely salokya, samipaya. You may get one of these liberations. You will get Samipaya or Salokya meaning stay in the same abode where Kṛṣṇa resides. You may attain the same form as the Lord. The Lord’s form is Saccidanand. You can also get such a form. As you are My son and you are My family so you will receive all My splendour. ‘Like father, like son’.
Kṛṣṇa has declared in Bhagavad Gita that wherever Lord Sri Krsna and Arjuna are present, in that place all prosperity and splendour will be present.
Hari Hari! biphale janama gońāinu
manuṣya-janama pāiyā, rādhā-kṛṣṇa nā bhajiyā,
jāniyā śuniyā biṣa khāinu
Translation
0 Lord Hari, I have spent my life uselessly. Having obtained a human birth and having not worshiped Radha and Krishna, I have knowingly drunk poison.(Dainya Bodhika Song 2 from the book Prarthana by Narottam Das Thakure verse 1 )
In conclusion Kṛṣṇa of the Bhagavad Gita Krsna is saying, “ It is unfortunate that after getting this human body, we do not worshiping Radha and Kṛṣṇa or unfortunately not study Bhagavad Gita or Srimad Bhagavatam or we do not chant Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare
Therefore our acaryas are indicating that even after getting all this knowledge we are intentionally drinking poison. It is a totally different world of people who have
human bodies, but they are not at all worshipping Radha and Kṛṣṇa. Such people must be present around you. Possibility is that such people may be present in your house or they may be your neighbours also. That is why the Lord is expecting that Bhagavad Gita should be preached.
The Lord has already narrated all this. It is not that this has happened in the past. We should know that this is happening in the present also. The Lord is still narrating this in some other universe at this time. All of the Lord’s pastimes are eternal pastimes as they keep manifesting somewhere. But that doesn’t matter much as we have already received Bhagavad Gita. While we read Bhagavad Gita we should consider that Lord is talking to us. The Lord has told this to all of those who are reading it.
Whoever is reading Gita or whoever is studying it, should spread its knowledge. Tell other people who are intentionally drinking poison so that they will be benefited by its nectar. When you put such efforts in spreading the message of the Lord then that devotee is very dear to the Lord. Actually the Lord has said that no one else is more dear to Me than such devotees.
na ca tasmān manuṣyeṣu
kaścin me priya-kṛttamaḥ
bhavitā na ca me tasmād
anyaḥ priya-taro bhuv
Translation
There is no servant in this world more dear to Me than he, nor will there ever be one more dear. (BG 18.69)
I have not made up this verse. This is what Kṛṣṇa said. Today also He is saying the same thing.
I want to hear from you your experience of Bhagavad Gita distribution. This is sort of the last chance for this. Refer to the 69 verses of chapter 18. The Lord is reminding us to listen carefully to this. In this world no one is more dear to Me and will never be dear. To know who is more dear to the Lord we should refer to the previous verse – number 68. The translation of that verse is, “a person who spreads this supreme secret to devotees or to faithful people will attain pure devotional service.” This is the boon given by the Lord and at the end of his life he will come to Me. This is very important. People know only one verse from Bhagavad Gita and that is this.
karmaṇy evādhikāras te
mā phaleṣu kadācana
mā karma-phala-hetur bhūr
mā te saṅgo ’stv akarmaṇ
Translation
You have a right to perform your prescribed duty, but you are not entitled to the fruits of action. Never consider yourself the cause of the results of your activities, and never be attached to not doing your duty. (BG 2.47)
The Lord has actually said many, many important things. All the narrations by the Lord are great and important and sometimes they remain hidden. The Lord has also said that whoever narrates this supreme secret to others and who distributes and preaches the knowledge given in the Bhagavad Gita he will attain pure devotional service and will return to Him. No one else is more dear to me. This is spoken by the Lord.
All right we will stop here.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 15 января 2021 г.
РАСПРОСТРАНЯЙТЕ БХАГАВАД-ГИТУ И ДОСТИГАЙТЕ ЧИСТОГО ПРЕДАННОГО СЛУЖЕНИЯ
Сегодня у нас есть преданные, воспевающие из 706 мест. Гаура Премананде Хари Харибол!
Доброе утро! Добро пожаловать! Меня также приветствуют вручением цветочной гирлянды. Желаю всем получить такие гирлянды. Вы уже носите гирлянду из бусин Туласи.
Туласи махарани ки Джай!
Вы постоянно носите одну гирлянду на шее. Посланники смерти (Ямадутты) также вспоминают, глядя на гирлянду Туласи на чьей-то шее. Вы в курсе? Это приказ посланникам смерти – не прикасаться к человеку, у которого на шее бусины Туласи, и никогда не приводить таких преданных на Ямалоку. На самом деле мы видим, что работники муниципалитета ловят и забирают бегающих по улицам бездомных собак, которые всегда беспричинно лают. Они ловят собак, у которых нет ошейника на шее, а значит, у них нет хозяина. Если есть ошейник, то такую собаку не поймают. Рабочие держатся от них на расстоянии. Если у нас на шее бусины Туласи, значит, у нас есть хозяин или владелец. Наши духовные учителя также становятся нашим Свами или владельцем. Они дают нам кантхи малу для ношения на шее и туласи малу для повторения джапы. Тогда вы в безопасности. На самом деле Джаганнатха является владельцем (Свами) всех владельцев (Свами). Тогда мы становимся Их слугами и получаем всевозможную защиту.
ӣш́варах̣ сарва-бхӯта̄на̄м̇
хр̣д-деш́е ’рджуна тишт̣хати
бхра̄майан сарва-бхӯта̄ни
йантра̄рӯд̣ха̄ни ма̄йайа̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь, о Арджуна, пребывает в сердце каждого и направляет скитания всех живых существ, которые словно находятся в машине, созданной материальной энергией.
(Б.Г. 18.61)
В конце Бхагавад-гиты Господь сказал: хрид-деше ‘рджуна тиххати. Это означает хрид деше ишварах тишатаи, о Арджуна! Ты понял? Трата тишатати.
Господь пребывает в хрид деше: хрид – это сердце, а деше – это область. Господь пребывает в Хрид-Прадеше. Господь рассказывает это Арджуне. Он объясняет таким образом, что Господь как бы говорит о ком-то другом. Он спрашивает Арджуну, знает ли он Господа, пребывающего в сердце каждого. Кришна совершенно беспристрастен.
Живые существа блуждают в этом материальном мире, который подобен машине, созданной иллюзорной энергией Господа. Живые существа входят в эту машину и блуждают в течение многих жизней. Машина относится к телу. В Бхагавад Гите тело иногда сравнивают с деревом или колесницей. Здесь это упоминается как машина. У этой машины 8400000 типов. Дело не в том, что Господь пребывает только в сердце человеческого тела. Он присутствует в сердце всех живых существ. Господь сказал:
там эва ш́аран̣ам̇ гаччха
сарва-бха̄вена бха̄рата
тат-праса̄да̄т пара̄м̇ ш́а̄нтим̇
стха̄нам̇ пра̄псйаси ш́а̄ш́ватам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Полностью предайся Ему, о потомок Бхараты. По Его милости ты обретешь трансцендентный покой и достигнешь высочайшей вечной обители.
(Б.Г. 18.62)
Кришна представил Господа. Он много раз давал информацию о Господе во время повествования Бхагавад Гиты на поле битвы Курукшетра.
арджуна ува̄ча
сенайор убхайор мадхйе
ратхам̇ стха̄пайа ме ’чйута
йа̄вад эта̄н нирӣкше ’хам̇
йоддху-ка̄ма̄н авастхита̄н
каир майа̄ саха йоддхавйам
асмин ран̣а-самудйаме
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: О непогрешимый, прошу Тебя, выведи вперед мою колесницу и поставь ее между двумя армиями, чтобы я мог увидеть тех, кто пришел сюда, желая сразиться с нами, и с кем мне предстоит сойтись в этой великой битве.
(Б.Г. 1.21-22)
Находясь между двумя армиями, Господь ранее сказал:
сарвасйа ча̄хам̇ хр̣ди саннивишт̣о
маттах̣ смр̣тир джн̃а̄нам апоханам̇ ча
ведаиш́ ча сарваир ахам эва ведйо
веда̄нта-кр̣д веда-вид эва ча̄хам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я пребываю в сердце каждого, и от Меня исходят память, знание и забвение. Цель изучения всех Вед — постичь Меня. Я истинный составитель «Веданты» и знаток Вед.
(Б.Г. 15.15)
Теперь он снова заявил, что пребывает в сердце всех живых существ. Раньше Он тоже это заявлял, но теперь снова объясняет. Здесь Господь не говорит «Себя». Скорее, Он использует термин – Господь. К этому времени Арджуна полностью убежден, кто такой Господь.
арджуна ува̄ча
парам̇ брахма парам̇ дха̄ма
павитрам̇ парамам̇ бхава̄н
пурушам̇ ш́а̄ш́ватам̇ дивйам
а̄ди-девам аджам̇ вибхум
а̄хус тва̄м р̣шайах̣ сарве
деваршир на̄радас татха̄
асито девало вйа̄сах̣
свайам̇ чаива бравӣши ме
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: Ты Верховная Личность Бога, высшая обитель, чистейший, Абсолютная Истина. Ты вечная, божественная, изначальная личность, нерожденная и величайшая. Все великие мудрецы, такие как Нарада, Асита, Девала и Вьяса, подтверждают эту истину, и теперь Ты Сам говоришь мне об этом.
(Б.Г. 10.12-13)
Арджуна признает, что Господь – изначальная личность, нерожденная и величайшая. Арджуна осознал все это в 10 главе. В конце Кришна не упоминает Себя как Господа или что Он пребывает в сердце всех живых существ по отдельности. К тому времени Арджуна полностью осознает все это. Мы не знаем, о чем думал Господь, рассказывая об этом, но мы предполагаем, что Господь, должно быть, думал так, что Арджуна теперь осознал, что я Господь. Арджуна действительно принял это, как сказано в стихе 10.12. Повторно указывать это не нужно. Арджуна сказал, что Господь – изначальная личность, нерожденная и вечная, поэтому человек должен предаться Ему. Это хорошее и легкое для понимания повествование на санскрите. там эва шаранам ганча означает предаться этому Господу через сарва бхаван бхарат. Теперь Господь называет его Бхаратой, а в последнем стихе Он назвал его Арджуной. Ранее я объяснял, как Господь обращался к Арджуне под разными именами. Арджуна также обращался к Господу разными именами. Это тема изучения Бхагавад Гиты. Здесь Господь наставляет нас принять прибежище с полной верой и преданностью, и вы обретете душевный покой. Теперь Арджуна собирается сказать Господу, что Бхагавад Гита, которую Господь передал Арджуне, является для него особым благословением (прасадом).
Сам Кришна говорит то же самое. Когда вы изучите Бхагавад Гиту, вы обретете осознание. Вы поймете, что принятие прибежища у Господа – настоящее благословение Господа. Таким образом вы обретете абсолютный мир вместе с благословениями. Это не просто обычное спокойствие ума, вы обретете трансцендентный покой. Ваш ум станет смиренным вместе со всеми органами чувств. Не только это, но вы достигнете вечной обители Господа. Эта обитель вечна или постоянна. На самом деле вечное место – это лотосные стопы Господа.
айи нанда-тануджа кин̇карам̇
патитам̇ ма̄м̇ вишаме бхава̄мбудхау
кр̣пайа̄ тава па̄да-пан̇каджа-
стхита-дхӯлӣ-садр̣ш́ам̇ вичинтайа
Перевод Шрилы Прабхупады:
«О Мой Господь, о Кришна, сын Махараджи Нанды, Я Твой вечный слуга, но из-за последствий Своих поступков Я пал в этот ужасный океан невежества. Яви же Мне беспричинную милость — считай Меня пылинкой у Твоих лотосных стоп».
(Ч.Ч. Антйа лила 20.32. 5-й стих, Шри Шикшаштакам)
Это молитва Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху: «Пожалуйста, сделай Меня слугой Твоих лотосных стоп». Господь подтверждает, что вы получите это место и получите служение Его лотосным стопам. Нет необходимости упоминать об этом, но вы также получите Его обитель. Вы вернетесь в обитель, где Я живу. Таким образом вы станете свободными. Вы уже отвергли освобождение саюджья. Но есть и другие типы освобождения, а именно салокья, самипая. Вы можете получить одно из этих освобождений. Вы получите самипайю или салокью, что означает пребывание в той же обители, где обитает Кришна. Вы можете обрести форму Господа. Форма Господа – Саччитананда. Вы также можете получить такую форму. Поскольку ты Мой сын и ты Моя семья, ты примешь все Мое великолепие. ”Яблоко от яблони”.
Кришна провозгласил в Бхагавад Гите, что где бы ни присутствовали Господь Шри Кришна и Арджуна, там будет все процветание и величие.
хари хари!
бипхали джанама гонаину
манушья-джанама пайя, радха-кришна на бхаджия,
джания шуния бина хайну
Перевод:
Господь Хари, я потратил свою жизнь бесполезно. Получив человеческое рождение и не поклонялся Радхе и Кришне, я сознательно выпил яд.
(«Даинья бодхика сонг 2» (Ишта Деве Виджнапти), автор Шрила Нароттама Дас Тхакур. Книга – Пратритана)
В заключение Кришна говорит: “Очень жаль, что после обретения этого человеческого тела мы не поклоняемся Радхе и Кришне, или, к сожалению, мы не изучаем Бхагавад Гиту или Шримад Бхагаватам, или мы не повторяем
Харе Кришна, Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе”
Поэтому наши ачарьи указывают, что даже после получения всего этого знания мы намеренно пьем яд. Это совершенно другой мир людей, у которых человеческие тела, но они вовсе не поклоняются Радхе и Кришне. Такие люди обязательно должны быть рядом с вами. Возможно, такие люди могут присутствовать в вашем доме или они также могут быть вашими соседями. Вот почему Господь ожидает что Бхагавад Гита будет проповедоваться.
Все это Господь уже рассказал. Дело не в том, что это случалось раньше. Мы должны знать, что это происходит и в настоящем. В это время Господь все еще повествует об этом в какой-то другой вселенной. Все игры Господа – вечные игры, поскольку они продолжают где-то проявляться. Но это не имеет большого значения, поскольку мы уже получили Бхагавад Гиту. Читая Бхагавад Гиту, мы должны учитывать, что Господь говорит с нами. Господь сказал это всем, кто это читает.
Каждый, кто читает Гиту или изучает ее, должен распространять эти знания. Расскажите другим людям, которые намеренно пьют яд, чтобы их напиток принес им пользу. Когда вы прикладываете такие усилия для распространения послания Господа, такой преданный очень дорог Господу. На самом деле Господь сказал, что никто другой мне не дороже таких преданных.
на ча тасма̄н манушйешу
каш́чин ме прийа-кр̣ттамах̣
бхавита̄ на ча ме тасма̄д
анйах̣ прийатаро бхуви
Перевод Шрилы Прабхупады:
В этом мире для Меня нет и никогда не будет слуги дороже, чем он.
(Б.Г. 18.69)
Я не придумал этот стих. Это то, что сказал Кришна. Сегодня Он тоже говорит то же самое.
Я хочу услышать от вас ваш опыт распространения Бхагавад Гиты. Это своего рода последний шанс для этого. Обратитесь к 69 стихам главы 18. Господь напоминает нам внимательно слушать это. В этом мире нет никого дороже Мне и никогда не будет. Чтобы узнать, кто более дорог Господу, нам следует обратиться к предыдущему стиху под номером 68. Перевод Шрилы Прабхупады этого стиха звучит так: «Человек, который раскроет эту высшую тайну преданным или верующим людям, достигнет чистого преданного служения». Это дар, данный Господом, и в конце своей жизни он придет ко Мне. Это очень важно. Люди часто знают только один стих из Бхагавад Гиты, и это он.
карман̣й эва̄дхика̄рас те
ма̄ пхалешу када̄чана
ма̄ карма-пхала-хетур бхӯр
ма̄ те сан̇го ’ств акарман̣и
Перевод Шрилы Прабхупады:
Ты можешь выполнять предписанные тебе обязанности, но у тебя нет права наслаждаться плодами своего труда. Никогда не считай, что результаты твоих действий зависят от тебя, но при этом и не отказывайся от выполнения своих обязанностей.
(Б.Г. 2.47)
Господь на самом деле сказал очень много важных вещей. Все повествования Господа велики и важны, и иногда они остаются скрытыми. Господь также сказал, что всякий, кто поведает эту высшую тайну другим, распространит и проповедует знание, данное в Бхагавад Гите, достигнет чистого преданного служения и вернется к Нему. Мне нет никого дороже. Об этом говорит Господь.
Хорошо, мы на этом остановимся.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
14 जनवरी 2021
आज 800 स्थानो सें अविभावक जप कर रहे हैं।
गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल…!
गौर हरी बोल…!
आँल इंडिया पदयात्रा कहा तक पहुँचीं हैं?
रात्र थोड़ी सौंगे फार ये बात हैं। ऐसी बात है,समय कम है,और इन सब बातों का उल्लेख भी होना अनीवार्य हैं। आज मकर सक्रांति हैं।
मकर सक्रांति महोत्सव की जय…!
संक्रमण का दिन हैं।आज के दिन जब सूर्य को भी दिनकर कहते हैं। दिन करने वाला, दिवस करने वाला, जिनके कारण दिन का उत्सकरण होता हैं। दिनकर सूर्य का दक्षिणायन से उत्तरायण में आज प्रवेश हो रहा हैं; उसे संक्रमण कहते हैं।दक्षिणायन से उत्तरायण में सूर्य का प्रवेश हो रहा हैं। यह पर्व बड़ा विशेष है,पवित्र हैं।बहुत सारे शुभ पर्व भी आज आप कर सकते हो!,होने चाहिए, करने चाहिए। संक्रमण हो! माया से कृष्ण की ओर जाने के लिए संकल्प लेने के लिए यह अच्छा दिन हैं।
ओम (ऊँ) असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।।
ओम (ऊँ) शान्ति शान्ति शान्ति:।।
(बृहदारण्यकोषनिषद्)
अनुवाद: -मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
अंधेरे में मत रहो ज्योति की ओर जाआे! भगवान ज्योति हैं।
कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार।
य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31)
अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान हैं। जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत नाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता हैं।
हरि हरि…!
अंधकार से प्रकाश की ओर, माया से कृष्ण की ओर, ज्योति जगत से अध्यात्म जगत की ओर।वैसे आज दिन कहते हैं ग्रैंडफादर(दादा) भीष्म उनका संक्रमण हुआ।कुरुक्षेत्र के मैदान में जो शरशय्या पर लेटे थे और आज के दिन की इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे तो तब होता है संक्रमण। सूर्य का संक्रमण तो उसी दिन में उनको इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। जब चाहे वह प्रस्थान कर सकते थें, देह त्याग कर सकते थें। उन्होंने आज के दिन का चयन किया। हरि हरि!और कृष्ण के सानिध्य में, और कई संतो,और भक्तों, और पांडवों को देखते देखते ही वे प्रस्थान कर चुके। इन दिनों में हम भगवत गीता कि चर्चा कर ही रहे हैं और कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र कि भी चर्चा और उस समय का इतिहास महाभारत लेकर समय- समय पर स्मरण और उल्लेख कर रहे हैं। आज का दिन भी एक अविस्मरणीय दिन हैं। जहां तक कुरुक्षेत्र में घटी हुई घटनाओं की बात है वहां ग्रैंडफादर(दादा)भीष्म आज प्रस्थान किए थें। हरि हरि!
हमारे देश या धर्म का कहो आज बहुत बड़ा मेला गंगासागर मेला कहते हैं उसको। गंगा मिलती है सागर को जहां बंगाल में, वहां पर मेला, उत्सव मनाते है,और असंख्य लोग ज्यादातर भक्त हर हर गंगे…! हर हर गंगे…! कहते हुए स्नान करते हैं।मकर संक्रांति के दिन और फिर यह भी कहते हैं हर तीरथ बार बार गंगासागर एक बार ऐसा महिमा भी कहते हैं। गंगा सागर एक बार और तीरथ बार बार गंगासागर एक बार। आज के ही दिन
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय…!
उनके जीवन में भी आज संक्रमण हुआ। चैतन्य महाप्रभु जब 24 वर्ष के ही थें। आज के दिन मायापुर से वह काठवां नामक स्थान जो गंगा के तट पर पहुंचे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु या निमाई ने सन्यास आज के दिन संपन्न हुआ। चैतन्य महाप्रभु ने संयास लिया और फिर नामकरण भी हुआ संन्यास दिक्षा जो हो रही थी। केशव भारती सन्यास दिए। तुम्हारा नाम है या होगा श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को, निमाई को श्री कृष्ण चैतन्य यह नाम आज प्राप्त हुआ।आज भगवान ने संन्यास लिया।( प. पु.लोकनाथ महाराज हंसते हुए कहते हैं) संन्यास लेने वाले भगवान एक ही है, वे है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। जो षड्र्ऐश्वर्य से पूर्ण हैं। षड् ऐश्वर्य में वैराग्य भी आता हैं। यह वैराग्य कि मूर्ति, वैराग्य मूर्ति, त्याग कि मूर्ति,मूर्तिमान श्री कृष्ण आज के दिन इस वैराग्य
वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य़ोग- शिक्षार्थमेक:पुरुष:पुराण:।
श्री-कृष्ण-चैतन्य-शरीर-धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।।
(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला,6.254)
अनुवाद: -मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूंँ, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के हिंदू होने के कारण अवतरित हुए हैं।मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूंँ।
वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य़ोग
आज के दिन वैराग्य का प्रदर्शन किया। यह संन्यास ग्रहण करके संक्रमण हुआ उनका गृहस्थाश्रम से सन्यास आश्रम। और फिर
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार
हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥
(वासुदेव घोष लिखित जय जगन्नाथ सचिर नंदन)
अनुवाद: -अब वे पुनः भगवान् गौरांग के रूप में आए हैं, गौर-वर्ण अवतार श्रीराधाजी के प्रेम व परमआनन्दित भाव से युक्त, और पवित्र भगवन्नामों हरे कृष्ण के कीर्तन का विस्तार से चारों ओर प्रसार किया है। (अब उन्होंने हरे कृष्ण महामंत्र का वितरण किया है, उद्धार करने का महान कीर्तन। वे तीनों लोकों का उद्धार करने के लिए पवित्र भगवन्नाम वितरित करते हैं। यही वह रीति है जिससे वे प्रचार करते है।
हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥
प्रचार प्रारंभ किया चैतन्य महाप्रभु ने आज के दिन। हरि हरि !
वह भी एक शुभ दिन था हमारे लिए मेरे लिए मैं सोचता हूं 1977 में कुंभ मेला प्रयागराज में संपन्न हो रहा था,और यह कुंभ मेला वैसे महान मेला था महा कुंभ मेला था हर 12 वर्ष के उपरांत महाकुंभ मेला होता है प्रयागराज में,लेकिन यह कुंभ मेला 1977 वाला 144 वर्षों के उपरांत संपन्न हो रहा था। उस कुंभ मेले में आज के दिन संक्रांति के दिन 14 जनवरी को हम प्रयागराज में श्रील प्रभुपाद के साथ थें।शिल प्रभुपाद भी वहा थें। हमारी पदयात्रा पार्टी भी वहां पहुंची थी और मेरी मुलाकात भी हुई थीश्री प्रभुपाद के साथ, श्रील प्रभुपाद से कुछ चर्चा- रिपोर्टिंग हुआ। श्रील प्रभुपाद के साथ कीर्तन किया, और श्रीला प्रभुपाद से कथाएं सुनी आज के दिन ही, वैसे यह मकर संक्रांति का कुंभ मेला तो होता ही है 12 वर्षों के बाद लेकिन हर वर्ष वैसे आज के दिन माग मेला आज के दिन प्रयाग में यह उत्सव हर मकर संक्रांति के दिन मनाया जाता हैं। हरि हरि!
आज के ही दिन 1978 में मकर संक्रांति के दिन इस्कान का एक भव्य दिव्य मंदिर
श्रीराधारास बिहारी की जय…!
राधारास बिहारी मंदिर जुहू मुंबई आज के दिन 1978 में उद्घाटन हुआ।हरि हरि ।श्रील प्रभुपाद ने भगवान को वादा किया था। वहां का काफी इतिहास रहा ।वह एक कुरुक्षेत्र बन चुका था। जिसने ज़मीन बेची थी उसके साथ इस्कॉन का झगड़ा हो रहा था ।कोर्ट ,कचहरी यह सब चल रहा था। वहां कई सारी समस्याएं थी मंदिर निर्माण करने में। और मंदिर निर्माण में कुछ देरी भी हो रही थी। तो श्रील प्रभुपाद ने राधा रासबिहारी को वचन दिया था कि हे राधा रासबिहारी भगवान मैं आपके लिए महल बना कर ही रहूंगा। वह महल श्रील प्रभुपाद ने बनाया और उसमें डिजाइन भी श्रील प्रभुपाद ने दिया। सारी धनराशि भी उन्होंने ही जुटाई, विश्व भर के भक्तों की मदद से।सबने ग्रंथ वितरण करके, भगवद गीता का वितरण करके देश विदेश से धनराशि को जुटाई और उस धनराशि का उपयोग राधा रास बिहारी मंदिर के निर्माण में किया। श्रील प्रभुपाद इस मंदिर के उद्घाटन में जरूर उपस्थित रहना चाहते थे और इसी उद्देश्य श्रील प्रभुपाद मुंबई भी आए भी थे 1977 के अगस्त महीने में या सितंबर कुछ दशहरे के समय, जब राम विजय महोत्सव, हर वर्ष संपन्न होता है। इसे दशमी भी कहते हैं । उस दिन भी उद्घाटन करने का विचार हो रहा था ।वैसे मंदिर निर्माण का कार्य पूरा नहीं हुआ था परंतु दुर्भाग्य से उन दिनों श्रील प्रभुपाद का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था।फिर उन्होंने मुम्बई से वृंदावन के लिए प्रस्थान किया।और 14 नवंबर को 1977 की बात है,कि वे नित्य लीला में प्रविष्ट हुए ।तो हम शिष्यों को मंदिर का उद्घाटन श्रील प्रभुपाद की अनुपस्थिति में करना पड़ा। तो आज के दिन, मकर संक्रांति के दिन उद्घाटन हुआ ।
मैं भी वहां था। गिरिराज महाराज उस समय ब्रह्मचारी थे और इस्कॉन के कई सारे लीडर्स, भारत के कई सारे राजनेता भी वहां थे।उस समय वसंत राव दादा पाटील महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे, वे भी वहां उपस्थित थे। आज के दिन बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया था। राधा रासबिहारी की जय।आज के दिन मुंबई में प्रतिवर्ष बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है और फ़ूड फ़ॉर लाइफ से लाखों प्लेट प्रसाद की वितरित की जाती है जुहू मंदिर के अधिकारी और भक्त वृंद के द्वारा। आज के दिन गिरिराज महाराज ने श्रील प्रभुपाद के कहने पर ग्रंथ लिखा कि जुहू मंदिर के बनने में क्या-क्या कठिनाइयां आई और इस ग्रंथ को उसका विमोचन भी कर रहे हैं। जिस की प्रतीक्षा में सभी हैं। ऐसे एक ग्रंथ हमने भी 3 साल पहले विमोचन किया था जब राधा राज बिहारी मंदिर की चालीसवीं वीं वर्षगांठ थी। मुंबई इज माय ऑफिस , मुंबई मेरा दफ्तर है ये ही श्रील प्रभुपाद कहां करते थे। तो वही टाइटल हमने भी उस ग्रंथ को दिया। वह ग्रंथ तैयार है आप उसको भी पढ़ सकते हैं।
यहां आज पंढरपुर में भी कुछ नव निर्माण के कार्य प्रारंभ करने जा रहे हैं, इस मकर संक्रांति के पावन पर्व के उपलक्ष में, हमारा भक्तिवेदांता गुरुकुल पांडेमिक परिस्थिति के कारण बंद था तो आज हम उसको खोल रहे हैं। और हमारे दफ्तर का भी आज उद्घाटन है। मंदिर का थोड़ा नव निर्माण जैसे पुजारी रूम और भगवान की पोशाक रखने के लिए कक्ष उसका भी हम विस्तार कर रहे हैं क्योंकि जब बाढ़ आती है तो तब कठिनाई होती है। तो हम एक और मंजिल बढ़ा रहे हैं। यह कार्य भी आज प्रारंभ हो रहा है। और मैचलेस गिफ्ट शॉप का भी भूमि पूजन हो रहा है।
दर्शनार्थियों और तीर्थयात्रियों की सेवा में, स्वच्छ भारत स्वच्छ मंदिर ,के अंतर्गत एक टॉयलेट कंपलेक्स का भी भूमि पूजन हो रहा है और साथ ही साथ आज के दिन 4 भक्त नागपुर,अमरावती और पंढरपुर से हैं जो ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश कर रहे हैं। तो चंद्रभागा के तट पर ,श्रील प्रभुपाद के घाट पर ही यज्ञ होगा और उनको गेहुये वस्त्र प्रदान किए जाएंगे। उनके जीवन में एक संक्रमण प्रारंभ हो रहा है तो संक्रमण की बात है तो आप भी कुछ संकल्प कर सकते हो कुछ ऐसा कार्य करो ,आगे बढ़ने का ,माया से कृष्ण की ओर, भौतिक जगत से भगवद धाम की ओर भयभीत स्थिति से निर्भरता की ओर ,गंदगी से स्वच्छता की ओर ऐसी कई बातें हो सकती हैं।हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
14 January 2021
Devotees’ lives should be a transition from Maya to Kṛṣṇa
Hare Kṛṣṇa! Devotees from 800 locations are chanting with us. Gaura Premanande Sankranti Hari Haribol!
Today is Makar Sankranti Festival! Sun is called dinkar, din means day and kar means maker. The sun is the one that makes the day. Today the sun transits from a Southern to a Northern direction. This is good day for us to transit from darkness to light; tamaso mā jyotir gamaya, from ignorance to knowledge, from the material world to spiritual world, from maya to Kṛṣṇa.
kṛṣṇa — sūrya-sama;
māyā haya andhakāra
yāhāṅ kṛṣṇa,
tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra
Translation
Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish. (CC Madhya 22.13)
Today, also marks the departure of the great devotee, grandfather Bhishma Dev. He had the boon to leave his body according to his will. He lying on the bed of arrows for many days, but waited till today to depart in the presence of Lord Hari and the great warriors. We have been discussing Bhagavad-Gita about the Mahabharata war and other pastimes related to it.
Today is also the day, when Ganga meet the ocean at Ganga-sagar and to honour that a grand festival is celebrated.
Lord Caitanya Mahaprabhu also underwent a transition in his life, at the age of 24 He took sannyasa in the village of Katwa, getting the name Sri Kṛṣṇa Caitanya from Keshava Bharati. The Lord who is adorned with the six opulences and is the embodiment of renunciation, displayed it today.
vairāgya-vidyā-nija-bhakti-yoga-
śikṣārtham ekaḥ puruṣaḥ purāṇaḥ
śrī-kṛṣṇa-caitanya-śarīra-dhārī
kṛpāmbudhir yas tam ahaṁ prapadye
Translation
Let me take shelter of the Supreme Personality of Godhead, Śrī Kṛṣṇa, who has descended in the form of Lord Caitanya Mahāprabhu to teach us real knowledge, His devotional service and detachment from whatever does not foster Kṛṣṇa consciousness. He has descended because He is an ocean of transcendental mercy. Let me surrender unto His lotus feet. (CC Madhya 6.254)
He transited from grhasta ashram to sannyasa ashram and preached the glories of the holy name.
This day also has great importance in my life. On 14 January 1977, I had the good fortune to be in Prayagraj for Kumbha-mela. Our Padayatra Party had reached there and Srila Prabhupada was also present. We gave the padayatra report to Srila Prabhupada. We did kirtan and heard pastimes of Sri Kṛṣṇa from Srila Prabhupada. Every year Magha mela is organised on this day in Prayagraj. Every six years is the ardha Kumbha-mela and every 12 years is the Purna Kumbha-mela and every 144 years is the Maha Kumbha-mela as was the case in 1978.
On this day of Makar Sankranti, the divine temple of Radha Rasabihari of Juhu was inaugurated. There were a lot of differences with the landlord of the Hare Krishna land and it also went to court. At that time, Srila Prabhupada promised Radha Rasabihari, “Sir, I will build a palace for you”. He personally designed the structure of the temple and with the help of his disciples also collected funds. Srila Prabhupada wanted to attend the inauguration of the temple which was planned on Dussera, but the construction wasn’t completed and unfortunately his health did not keep well those days. Prabhupada had decided to return to Vrindavan and on 14 November entered back into Krsna’s eternal pastimes. On this day in Srila Prabhupada’s physical absence we, his disciples had inaugurated the temple. It was a grand opening. Giriraj Swami was the president of the temple. Great leaders of India were present on the occasion. Even today, a great festival is being celebrated in Juhu temple. Hundreds and thousands of plates of prasada is distributed.
Giriraj Swami had written a book, I will build you a temple, a journey of struggles faced by the devotees to build the Juhu temple. He is launching the book today. I too have written a book, Bombay is My Office as Srila Prabhupada often said that Bombay was his office. It was launched 3 years ago on the 40th Anniversary of the Juhu temple.
Today in Pandharpur, we are starting with renovation and the Gurukula is being re-opened after the pandemic. We are also coming up with the ‘Matchless Gift Shop.’ 4 devotees will be accepting the saffron robes, the Brahmacharya ashram.
You all also must plan to start with some transition in your life. From fear to fearlessness, from dirt to cleanliness, or anything like that. We have been doing Book Distribution for more than a month and devotees must have had many new and special experiences so you can share them here. From non-book distributors some became book distributors. This is also a transition.
Hare Kṛṣṇa!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 14 января 2021 г.
ЖИЗНЬ ПРЕДАННЫХ ДОЛЖНА СТАТЬ ПЕРЕХОДОМ ОТ МАЙИ К КРИШНЕ
Харе Кришна!
С нами воспевают преданные из 800 мест. Гаура Премананде Санкранти Хари Харибол!
Сегодня фестиваль Макар Санкранти! Солнце называется динкар, дин означает день, а кар означает создатель. Солнце создает день. Сегодня солнце переходит с южного направления в северное. Это хороший день для перехода от тьмы к свету; тамасо ма джйотир гамайа, от невежества к знанию, от материального мира к духовному, от майи к Кришне.
кр̣шн̣а — сӯрйа-сама; ма̄йа̄ хайа андхака̄ра
йа̄ха̄н̇ кр̣шн̣а, та̄ха̄н̇ на̄хи ма̄йа̄ра адхика̄ра
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Кришна сравнивается с солнечным светом, а майя — с тьмой. Там, где светит солнце, нет тьмы. Как только человек обращается к сознанию Кришны, тьма иллюзии [влияние внешней энергии] мгновенно рассеивается».
(Ч.Ч. Мадхья 22.31)
Сегодня также отмечается уход великого преданного, деда Бхишма Дева. У него было благословение покинуть свое тело по своей воле. Он лежал на ложе из стрел много дней, но ждал до сегодняшнего дня, чтобы уйти в присутствии Господа Хари и великих воинов. Мы обсуждали Бхагавад Гиту о войне Махабхараты и других играх, связанных с ней.
Сегодня также день, когда Ганга встречается с океаном в Ганга-сагаре и в честь этого отмечается праздник.
Господь Чайтанья Махапрабху также претерпел изменения в своей жизни: в возрасте 24 лет Он принял санньясу в деревне Катва, получив от Кешава Бхарати имя Шри Кришна Чайтанья. Господь, украшенный шестью достояниями и являющийся воплощением отречения, явил это сегодня.
ваира̄гйа-видйа̄-ниджа-бхакти-йога-
ш́икша̄ртхам эках̣ пурушах̣ пура̄н̣ах̣
ш́рӣ-кр̣шн̣а-чаитанйа-ш́арӣра-дха̄рӣ
кр̣па̄мбудхир йас там ахам̇ прападйе
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Я предаюсь Верховному Господу Шри Кришне, который нисшел на землю в образе Господа Чайтаньи Махапрабху, чтобы дать нам истинное знание и научить нас преданности Ему и отрешенности от всего, что мешает сознанию Кришны. Он явился потому, что Он океан трансцендентной милости. Я предаюсь Ему у Его лотосных стоп».
(Ч.Ч. Мадхья-лила 6.254)
Он перешел из грихаста ашрама в санньяса ашрам и проповедовал славу святого имени.
Этот день также имеет большое значение в моей жизни. 14 января 1977 года мне посчастливилось побывать в Праяградже на Кумбха-меле. Наша группа Падаятры прибыла туда, и Шрила Прабхупада тоже присутствовал. Мы передали отчет о падаятре Шриле Прабхупаде. Мы проводили киртан и слушали игры Шри Кришны от Шрилы Прабхупады. Каждый год в этот день в Праяградже проводится Маха-мела. Каждые шесть лет – это ардха Кумбха-мела, каждые 12 лет – Пурна Кумбха-мела, а каждые 144 года – Маха Кумбха-мела, как это было в 1978 году.
В этот день Макара Санкранти был открыт божественный храм Радхи Расабихари в Джуху. Было много разногласий с владельцем земли Харе Кришна, и дело даже дошло до суда. В то время Шрила Прабхупада пообещал Радхе Расабихари: «Господь, я построю для Тебя храм». Он лично спроектировал структуру храма и с помощью своих учеников также собрал средства. Шрила Прабхупада хотел присутствовать на торжественном открытии храма, запланированном на Душеру, но строительство не было завершено, и, к сожалению, его здоровье в те дни ухудшилось. Прабхупада решил вернуться во Вриндаван и 14 ноября снова вошел в вечные игры Кришны. В этот день, когда Шрила Прабхупада физически отсутствовал, мы, его ученики, открыли храм. Это было грандиозное открытие. Гирирадж Свами был президентом храма. На мероприятии присутствовали великие лидеры Индии. Даже сегодня в храме Джуху отмечают большой праздник. Раздаются сотни и тысячи тарелок прасада.
Гирирадж Свами написал книгу «Я построю Тебе храм» – это путешествие, в котором преданные столкнулись с трудностями при строительстве храма Джуху. Сегодня он выпускает книгу. Я тоже написал книгу «Бомбей – мой офис», поскольку Шрила Прабхупада часто говорил, что Бомбей был его офисом. Она была выпущена 3 года назад, к 40-летию храма Джуху.
Сегодня в Пандхарпуре мы начинаем ремонт, и Гурукула вновь открывается после пандемии. Мы также открываем «Магазин бесценные дары». 4 преданных будут принимать шафрановые одежды, ашрам брахмачарьи.
Вы все также должны спланировать начало некоторого перехода в своей жизни. От страха к бесстрашию, от грязи к чистоте или чего-то подобное. Мы занимаемся распространением книг более месяца, и у преданных должно быть много нового и особенного опыта, так что вы можете поделиться им здесь. Из нераспространителей книг некоторые стали распространителями книг. Это тоже переход.
Харе Кришна!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक १३.०१.२०२१
हरि! हरि!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 813 स्थानों से भक्त सम्मिलितत हैं। हरे कृष्ण!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…
सभी कहिए। सखी वृन्द! क्या तुम कह रही हो? सभी कहिए,
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…
इतना तो समझ में आया ही होगा। हम कई दिनों से कृष्ण को सुन रहे हैं। भगवतगीता को सुन रहे हैं अथवा गीता अमृत का पान कर रहे हैं।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९)
अनुवाद:- अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है ।
भगवान ही कह रहे हैं कि गीता के ज्ञान अथवा उपदेश को जो सुनते हैं ‘ज्ञानवान्मां प्रपद्यते’ अर्थात वे ज्ञानवान व्यक्ति ही मेरी शरण में आते है। यदि कोई व्यक्ति शरण नहीं ले रहा है तो उस व्यक्ति का कसूर है, वह अज्ञानी अथवा अनाड़ी है इसलिए तो वह भगवान की शरण में नहीं आ रहा है। हरि! हरि!
किन्तु जो ज्ञानवान है अथवा ज्ञानवान बन चुका है। भगवान यहाँ गीता में ज्ञान की बातें कर रहे हैं। वैसे यह भक्तिपूर्वक ज्ञान है। यह अज्ञानियों का ज्ञान नहीं है। भागवत कहता है कि भक्ति योगी को ज्ञान प्राप्त होता है। भक्ति करने से ज्ञान प्राप्त होता है। भागवतम में इस सिद्धान्त का
वर्णन है वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित:। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यदहैतुकम्।।
( श्रीमद् भागवतम १.२.७)
अनुवाद:- भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरंत ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।
भक्ति करने से क्या होता है? जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यदहैतुकम् अर्थात यह भक्ति ही ज्ञान उत्पन्न करती है। भक्ति करने से जीवन में वैराग्य उत्पन्न होता है। इसे उल्टी कहो लेकिन सुलटी बात तो यही है और सही है। भक्त बनने से ज्ञान भी होता है। हम भी उस बात को कई बार पहले कह चुके हैं जो बात भगवान् ने कही है कि
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.१०)
अर्थ: जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
भगवान कहते हैं कि जो मेरी सतत् तथा प्रीतिपूर्वक भक्ति करते हैं, मैं उनको ददामि बुद्धियोगं अर्थात बुद्धि देता हूँ।
जिससे लोग मेरी अधिक से अधिक शरण लेते हैं।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
भगवान की भक्ति ही हमें ज्ञान और बुद्धि देती है और फिर हम भगवान की शरण में आते हैं। हरि! हरि! बुद्धि और ज्ञान देने वाले भगवान ही हैं। उन्होंने गीता के रूप में ज्ञान दे ही दिया है और वही बातें भगवान हमें सुनाते ही रहते हैं। भगवान हमारे ह्रदय प्रांगण में विराजमान हैं।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १५.१५)
अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ । निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।
भगवान् कहते हैं कि मैं ही स्मृति देता हूँ।यदि भगवान् की याद आ रही है तो इसका अर्थ है कि भगवान् (स्वयं) याद दिलाते हैं। मैं ही बुद्धि देता हूँ। मैं ह्रदय प्रांगण में विराजमान हूं। मैं ही स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च देता हूँ अर्थात जीव को मुझ परमात्मा से स्मृति, ज्ञान, अस्मृति अथवा भुलावा प्राप्त होता है अर्थात यह व्यवस्था भी भगवान की ही है कि हम भूले भटके जीव हैं। हम भूलने में स्वतंत्र नहीं हैं। भगवान ही हमें भुला देते हैं अथवा भगवान की माया हमें भूला देती है। कोई कहता है कि भगवान् नहीं हैं! नहीं हैं। यह हमकों पहले बताया जाता है और भगवान ही बताते हैं कि मैं नहीं हूं। मैं नहीं हूं। मैं नहीं हूं।
हरि !हरि!
हरि! हरि!
कुन्त्युवाच
नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृते: परम्।अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम्।।
( श्रीमद् भागवतम १.८.१८)
अनुवाद:- श्रीमती कुंती ने कहा: हे कृष्ण, मैं आपको नमस्कार करती हूं, क्योंकि आप ही आदि पुरुष हैं और इस भौतिक जगत के गुणों से निर्लिप्त रहते हैं। आप समस्त वस्तुओं के भीतर तथा बाहर स्थित रहते हुए भी सबों के लिए अदृश्य हैं।
भगवान अर्जुन के समक्ष भी हैं। वे गीता का ज्ञान अर्जुन को सुना भी रहे हैं। वही भगवान हमारे ह्रदय प्रांगण में भी हैं। वे भी वही ज्ञान सुना रहे हैं, कोई भेद नहीं है। भगवान हमारे समक्ष प्रत्यक्ष खड़े होकर हमें ज्ञान दे रहे हैं अथवा हमारे ह्रदय प्रांगण में विराजमान हो कर ज्ञान दे रहे हैं। यह एक ही बात है। एक ही कृष्ण हैं। हरि! हरि!
ध्रुव महाराज! उन्होंने भी मधुबन में ओम नमो भगवते वासुदेवाय.. का जप किया था लेकिन युग अलग था। वे ओम नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का उच्चारण कर रहे थे।जमाना बदल गया है और अब कलियुग आ गया। कलियुग का महामंत्र है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ध्रुव महाराज ने भगवत प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या की। ध्यानपूर्वक जप भी किया।
वैराग्य का प्रदर्शन हुआ। हरि! हरि!
भगवान् उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए। भगवान ने प्रसन्नता के फलस्वरूप उनको दर्शन दिया। भगवान् सामने आकर खड़े हो दर्शन दे रहे थे लेकिन ध्रुव महाराज दर्शन नहीं ले रहे थे। भगवान् तब सोच रहे थे कि ‘ए तुम तो मुझ से मिलना चाहते थे।’ मैं आ चुका हूं, ए उठो, मैं यहाँ हूँ लेकिन भगवान फिर समझ गए। यह मुझे मिल तो रहा है, मेरा दर्शन तो कर रहा है लेकिन वह अपने ह्रदय प्रांगण में मेरा दर्शन कर रहा है। उस दर्शन और सामने जो भगवान् उपस्थित थे, उसमें कोई भेद तो है नहीं। भगवान अंदर से स्मरण अथवा दर्शन दिलवा रहे थे।वे उस दर्शन को
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च अर्थात मत्त मुझसे परमात्मा से जोकि हमारे ह्रदय प्रांगण में है, दिलवा रहे थे।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हरदयेषु विलोकयन्ति। यं श्यामसुन्दरमचिन्तयगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
( ब्रह्म- संहिता श्लोक ५.३८)
अनुवाद:- जो स्वयं श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रञ्जित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अन्तर्हृदय में दर्शन करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
ध्रुव महाराज, प्रह्लाद महाराज जैसे संत महात्मा अपने ह्रदय प्रांगण में सदैव भगवान का दर्शन करते हैं। इनके मन की स्थिति क्या होती है, हरि हरि!
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन
उनके आखों की शोभा अर्थात वे प्रेम का अंजन लगाए होते हैं। अर्थात उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु बहते हैं। ऐसे महात्मा भगवान् का दर्शन करते हैं। ध्रुव महाराज वैसा ही दर्शन कर रहे थे। तब भगवान् ने उनके ह्रदय प्रांगण वाले दर्शन को बंद किया। तत्पश्चात ध्रुव महाराज ने झट से आंख खोली। उनको लगा कि मैंने अपने भगवान को खो दिया। क्या मैं खो बैठा या कृष्ण अंतर्ध्यान हो गए? जबकि ऐसा तो नहीं हुआ था लेकिन जब उन्होंने आंख खोलकर देखा तो वही भगवान समक्ष थे। उसी प्रकार जब हम गीता का श्रवण करते हैं। कहना कठिन है कि कौन से भगवान हमसे गीता कह रहे हैं अथवा सुना रहे हैं अथवा हमको उपदेश कर रहे हैं। परमात्मा कर रहे हैं या कृष्ण बाहर से कर रहे हैं। भगवान एक ही है। वे भिन्न नहीं है। उनको यह भी लगता है कि उनको महात्मा भगवत गीता का उपदेश सुना रहे हैं अथवा गुरुजन उपदेश कर रहे हैं। भगवान ने भी कहा ही है कि
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
(श्री मद् भगवतगीता ४.२)
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! इस ज्ञान को जो मैं तुम्हें अब सुना रहा हूं, भगवान यह चौथे अध्याय में कह चुके हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए, वंहा भगवान कहते हैं कि मैंने यह ज्ञान विवस्वान को सुनाया, विवस्वान विवस्वान ने मनु को सुनाया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को सुनाया। इस प्रकार ‘एवं परम्पराप्राप्तम्’ अर्थात इस ज्ञान को परंपरा में प्राप्त करना होता है। हम भी जब ऐसे ही ज्ञान को प्राप्त करते रहते हैं तो हमें लगता है इस ज्ञान का स्त्रोत्र अलग है। नहीं! नहीं! यह अलग नहीं है। ज्ञान वही है और ज्ञान देने वाले भी वही हैं अथवा कहा जाए साक्षात हरि ही हैं साक्षात हरि हैं। भगवान हैं या भगवान की ओर से कोई प्रतिनिधित्व कर रहा है व हमें सुना रहा है लेकिन बात तो वही है, उपदेश तो वही है। यह उपदेश उस व्यक्ति का नहीं है जो हमें सुना रहे हैं। सुनाने वाला हमें कृष्ण की बात सुना रहे हैं। इसलिए हमें समझना चाहिए कि कृष्ण ही सुना रहे हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आपको श्रीरंगम के ब्राह्मण याद हैं जो कि गीता का पाठ किया करते थे और उनका उच्चारण ठीक भी नहीं हुआ करता था। वहां के और अन्य पंडे, प्रकांड विद्वान जब भी इस ब्राह्मण को देखते कि वह टूटा फूटा उच्चारण कर रहा है, उनका हंसी मजाक करते लेकिन वह ब्राह्मण उसकी परवाह नहीं करता और उसको पता भी नहीं चलता कि कौन क्या कह रहा है। लेकिन जिस भाव भक्ति, प्रेम तथा ध्यानपूर्वक वे अध्ययन करते थे, उसी बात ने चैतन्य महाप्रभु का ध्यान आकृष्ट किया था। तब स्वयं वे इस ब्राह्मण की और आगे बढ़े और पूछा कि ‘हे ब्राह्मण! क्या कर रहे हो? भगवतगीता पढ़ रहे हो?’ ब्राह्मण ने उत्तर दिया, ‘गीता पढ़ रहा हूं।’ महाप्रभु ने पूछा कि ‘ तुम गीता पढ़ते या अध्ययन हुए, इतने भाव भक्ति का प्रदर्शन कर रहे हो जैसा कि मैं देख रहा हूं, तो तुम्हारा क्या अनुभव है?’ वैसे अध्ययन करने को सुनना भी कहते हैं। जब हम गीता का अध्ययन करते हैं तो हम गीता को सुनते हैं। शास्त्र को सुनते हैं। जब हम गीता, भागवतम का श्रवण करते हैं अथवा पढ़ते हैं तब हम सुनते हैं। जिन्होंने यह गीता सुनाई है, उन्हीं को सुनते हैं।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६)
अनुवाद्:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
यह भगवान उवाच ही है। इसे ग्रंथ में पढ़ कर या हमें कोई व्यक्ति आचार्य या गुरू या
या़रे देख, तारे कह ‘ कृष्ण’- उपदेश करने वाला सुना दे।
उसके स्त्रोत में अंतर नहीं है। गीता का स्त्रोत तो कृष्ण ही हैं।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्मादि्वनिः सृता।।
( गीता महात्मय ४)
अनुवाद:- चूंकि भगवतगीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्यकता नहीं रहती।
इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
गीता के वचन तो भगवान के मुखारविंद से ही निकले हुए हैं किन्तु हमें लगता है कि यह ग्रंथों के पृष्ठों से निकल रहे हैं या हमारे समक्ष कोई व्यक्ति बैठा है, उसके मुख से निकल रहे हैं। यह कुछ माध्यम हो सकते हैं। जैसा कि प्रभुपाद कहा करते थे कि जो प्रचारक अथवा परंपरा के आचार्य अथवा शिक्षा गुरु हैं, इनका कार्य पोस्टमैन के जैसा होता है। मान लो जैसे आपको किसी रिश्तेदार अथवा मित्र ने पत्र भेजा है। पोस्टमैन का कार्य है कि आपके पास उस पत्र को पहुंचा दे। पोस्टमैन का कार्य यह नहीं होता है कि वह उस पत्र को खोल कर स्वयं पढ़े अथवा उसमें कुछ काट छांट करें या कुछ अतिरिक्त बात लिखे। एक आदर्श पोस्ट मैन जो होता है उसका यह कार्य नहीं होता। उसे ऐसा नहीं करना होता है। अगर वह ऐसा करेगा तो वह अपनी नौकरी खो देगा। पोस्टमैन हमारे द्वारा भेजे हुए पत्र को यथावत पहुंचाता है। पोस्टमैन( डाकिया) अपना फर्ज निभाता है। हमें जब वह पत्र प्राप्त होता है तब हम वास्तविक संदेश पढ़ते हैं। पोस्टमैन ओरिजिनल संदेश में कोई बदलाव नहीं करता। इस प्रकार सीधा स्तोत्र अर्थात प्रेषक वही बना रहता है, जिसने इस पत्र को भेजा है। हम गीता का उपदेश सुन रहे हैं, पढ़ रहे हैं। उस ब्राह्मण ने भी यही कहा था मैं जब गीता को पढ़ता हूं, तब मुझे दर्शन होता है।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत । यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ॥
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥
( श्री मद् भगवतगीता १.२१-२२)
अनुवाद:-अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूं।
कृष्ण ने अर्जुन के रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में रोका और वह स्थान कुरुक्षेत्र में ज्योतिर्सर कहलाता है। कृष्ण, अर्जुन को उपदेश सुना रहे हैं। वह रथ जिसका वर्णन पहले भी किया जा चुका है।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता१.१४)
अनुवाद:- दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये।
इस रथ के घोड़े सफेद हैं। यह एक विशेष समालृकत रथ है। उस ब्राह्मण ने कहा मैं उन सब को देखता हूं मुझे दर्शन होता है। मैं देखता हूँ कि मैं उस रथ में माधव और पांडव विराजमान हैं। माधव पार्थ सारथी कृष्ण हैं, पांडव अर्जुन है। कृष्ण अर्जुन को उपदेश सुना रहे हैं। मैं जब जब गीता पढ़ता हूं तो ऐसा ही मैं दर्शन करता हूं। लेकिन जब हम गीता पढ़ते हैं तो निश्चित ही कृष्ण का स्मरण दिलाने के लिए कि यह गीता है , मैं कैसा हूं, कहां रहता हूं इत्यादि इत्यादि, परंतु तब हम इन बातों को माया के प्रभाव से भूल जाते हैं। हम इस संसार के अनादि काल से रहते हुए और भ्रमण कर करके भोग वांञ्छा में लिप्त होकर बहिर्मुखी होकर भ्रमण ही कर रहे थे।
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव। -गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति-लता-बीज।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९. १५१)
अनुवाद:- सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्मांड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह मंडलों को। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है।
कृष्ण की कृपा से पहले हमारा संबंध किसी भक्त के साथ स्थापित हुआ। कोई व्यक्ति हमारा पथ प्रदर्शक गुरु बना। ऐसा भी हुआ होगा।
इस्कॉन का बुक मैराथन चल रहा था। हरे कृष्ण वाले मैराथन कर रहे थे। मैं बस स्टेशन पर ही था, वहां हरे कृष्ण वाले लोग आए, उन्होंने मुझे भगवत गीता दी और थोड़े ही समय के बाद मैं कन्विंस्ड (विश्वस्त) हो गया। वे कन्विंस्ड करने में बड़े कुशल भी थे। मैंने भगवत गीता ले ली। वह क्षण जिस में मुझे किसी ने भगवत गीता दी और मैंने इस गीता का स्पर्श किया, वह भगवत गीता यथारूप, वह क्षण मेरी लाइफ का टर्निंग प्वाइंट था। मेरे भाग्य का उदय वहां हुआ।ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान्
जीव। हम भाग्यवान बनें।
भगवान ने हमें भाग्यवान बनाया, हमें हरे कृष्ण भक्तों के संपर्क में लाए। वे हमें गौड़ीय वैष्णवों के संपर्क में लाए। उन्होंने हमें भगवत गीता का उपदेश सुनाया। हमें भगवत गीता ही दी। फिर यह किया , वह किया और प्रसाद भी खिलाया। हमें यात्रा में भी ले गए। कहीं ना कहीं शुरुआत हो जाती है। इसके पीछे भगवान होते हैं। सर्व कारण कारणं। हरि! हरि! वही प्रमुख कारण हैं। हम तो सेकेंडरी कारण हैं। हम भी निमित्त हैं।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्
भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
( श्री मद् भगवतगीता ११.३३)
अर्थ:- अतःउठो! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो | ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो |
कृष्ण ने यह सब दिखाया। अभी युद्ध प्रारंभ नहीं हुआ था लेकिन भगवान ने दिखाया। देखो! युद्ध हो रहा है। देखो! क्या क्या हो रहा है? देखो! शत्रु के सैनिक सारे मेरे मुख में प्रवेश कर रहे हैं। देख रहे हो या नहीं? जल कर खाक हो रहे हैं, उनके अंतिम संस्कार हो रहे हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
दुष्टों का विनाश हो रहा है और करने वाला तो मैं ही हूं। मैं ही परित्राणाय साधूनां ही करता हूं और धर्म की स्थापना भी मैं ही करता हूं, सब कुछ करने वाला तो मैं ही हूं, केवल तुम निमित्त बनो। करने वाला तो मैं हूं। तुम सिर्फ क्रेडिट लो। हे अर्जुन! यदि तुम युद्ध नहीं करने वाले हो तो ऐसा नहीं कि युद्ध नहीं होगा। यह तो होकर ही रहेगा। यह मेरी इच्छा है कि तुम जीतो। यह जो युद्ध की योजना बनी है इसके पीछे भगवान ही हैं। भगवान चाहते हैं कि धर्म युद्ध हो और धर्म की स्थापना हो। धर्मराज युधिष्ठिर महाराज इस संसार को प्राप्त हो। यदि अर्जुन युद्ध नहीं करता है तो कोई और करेगा। भगवान किसी और से करवाएंगे। युद्ध तो होकर ही रहेगा लेकिन अर्जुन यदि निमित बनता है तो बढ़िया है। उसको क्रेडिट मिलेगा, उसकी वाह-वाह होगी। उसका गौरव बढ़ेगा। भगवान अपने भक्तों को भी गौरवान्वित देखना चाहते हैं। हरि! हरि! भगवान ने किसी को निमित्त बनाया। वे हमें भगवान के साथ जोड़ रहे हैं। पूरी टीम ही है। अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ के कई सारे भक्त है। यह टीम का ही प्रयास है। प्रदर्शक गुरु, शिक्षा गुरु, दीक्षा गुरु, चैत्य गुरु जो कि परमात्मा है। भगवान भी गुरु हैं। वे सारे टीम प्रयास के साथ हमें भक्त बना रहे हैं और भगवान के चरणों में ला रहे हैं। लाए भी हैं और आगे बढ़ा रहे हैं। हरि! हरि!
हम इन्हीं प्रयासों के अंतर्गत लगभग पिछले एक महीने से गीता का वितरण कर रहे हैं, गीता का प्रचार कर रहे हैं और गीता पर ही जपा टॉक सुन रहे हैं। भगवान हमें भगवत गीता देने के लिए निमित्त बना रहे हैं कि तुम इसको भगवत गीता दो, तुम उसको भगवत गीता दो अथवा तुम भगवतगीता स्पॉन्सर करो। ऑनलाइन प्रचार हो रहा है। माताएं सर्वत्र जाकर ग्रंथों का बैग लेकर घर घर जा रही हैं, घंटी बजा रही हैं। लोग कुत्तों को उनके पीछे लगा रहे हैं। लेकिन वे उनकी परवाह नहीं कर रही हैं। कहीं कहीं ठंडी है बर्फ गिर रही है।
शीत आतप, वात वरिषण, ए दिन यामिनी जागि’रे। विफले सेविनु कृपण दुर्जन, चपल सुख-लव लागि’रे॥
( वैष्णव भजन)
अनुवाद:- मैं दिन-रात जागकर सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, वर्षा में पीड़ित होता रहा। क्षणभर के सुख हेतु मैंने वयर्थ ही दुष्ट तथा कृपण लोगों की सेवा की।
यह सब चिंता नहीं है।
शीतोष्ण से परे पहुंचकर भक्त गीता का वितरण कर रहे हैं। गीता का प्रचार- प्रसार कर रहे हैं। भगवान आपको भक्त बना कर निमित्त बना रहे हैं। भगवान यह गीता का संदेश अन्य लोगों अथवा जीवों तक पहुंचाने का कार्य आप से करवा रहे हैं और आप कर भी रहे हो। जब आप ऐसा कार्य करते हो तब आपका कृष्ण के साथ कनेक्शन (संबंध) जुड़ गया। यह भक्ति का कार्य है। हरि! हरि! यह सब करने के लिए, भगवान के लिए भी, कीर्तन के लिए भी धन्यवाद! कीर्तन अर्थात कहना। जो सुना है, उसको समझ के ह्रदयंगम व चिंतन करना अर्थात श्रवण के पश्चात जो साक्षात्कार हुए ,उनको अपने शब्दों में कहना यह कीर्तन है प्रचार है। सुनी हुई बातों का अनुभव किया, साक्षात्कार हुआ। श्रद्धा बढ़ गई। तत्पश्चात श्रद्धा के साथ हम प्रचार करते हैं। वह कीर्तन कहलाता है। कीर्तन से हम और लाभान्वित होते हैं। ओके अब मैं यही विराम देता हूं।
हरिबोल!
वैसे कई दिन पहले हमने यह तय किया था कि मकर सक्रांति जोकि कल है, तक बुक डिस्ट्रीब्यूशन होता रहेगा ग्रंथ वितरण मैराथन चलता रहेगा और अंतिम जो कुछ दिन हैं अर्थात आज के दिन को सम्मिलित करते हुए दो-तीन दिन आप अपने साक्षात्कार कथाएं या गीता का अध्धयन करते हुए अथवा गीता वितरण करते हुए हुए साक्षात्कारों के विषय में बताएंगे। वैसे हर भक्त का अपना अनुभव होता है। अच्छे, भले, बुरे कैसे कैसे लोग मिलते हैं, आपने उन चुनौतियों का कैसे सामना किया। आप को कैसे सफलता मिली इत्यादि बातें आपको कहनी है। वैसे यह पदमाली को कहना चाहिए था लेकिन मैं ही कह रहा हूं कि आप बीच-बीच में स्कोर भी भेजा करते थे, लिखा करते थे लेकिन अब आप अंतिम रूप से एंड ऑफ द् मैराथन हम आप का फाइनल स्कोर भी सुनना चाहेंगे। आप लिखिए। हम चैट सेशन खोलेंगे। आप उसमें अपने ग्रंथ वितरण का स्कोर लिख सकते हैं। 3 दिन हैं, तत्पश्चात इसके विजेता इत्यादि की घोषणा भी होगी। साथ ही साथ कुछ भक्त संक्षिप्त में अपने अनुभव भी लिख सकते हैं। बोल भी सकते हैं संक्षिप्त में स्पीच दे भी सकते हैं, साक्षात्कार कर सकते हैं। गीता के अध्ययन या श्रवण के समय हुए साक्षात्कार और साथ में गीता वितरण के समय हुए आपके साक्षात्कार का वर्णन करना है। इस प्रकार साक्षात्कारों के दो प्रकार हो सकते हैं। आपमें से कुछ भक्त सुना सकते हैं और कुछ लिख भी सकते हैं। साथ-साथ आपको स्कोर भी लिखना है। ठीक है।
हरे कृष्ण!
कल से यह जपा टॉक मैं थोड़ा छोटा करूंगा ताकि आपको बोलने का अधिक समय मिले। वैसे थोड़ा समय आज भी है। आज हम आरंभ करते हैं यह कल परसों भी चलेगा। ओके!
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
13 January 2021
Bhagavad Gita – Krsna’s message to us through a devotee postman
Hare Krishna ! Welcome to this Japa Talk. Devotees are chanting with us from 813 locations. Om Namo Bhagavate Vasudevaya !
We must say this at least since because for so many days we are listening to Krsna – Bhagavad Gita. Actually we are relishing Bhagavad Gita.
bahūnāṁ janmanām ante
jñānavān māṁ prapadyate
vāsudevaḥ sarvam iti
sa mahātmā su-durlabhaḥ
Translation
After many births and deaths, he who is actually in knowledge surrenders unto Me, knowing Me to be the cause of all causes and all that is. Such a great soul is very rare. [BG 7.19]
Krsna says, “The knowledgeable come to Me.” If he doesn’t come to Krsna then he is full of ignorance. Those who are amateurish don’t take shelter of Krsna, but those who are knowledgeable take shelter of Krsna. This knowledge is full of Bhakti, not the knowledge of the speculators. Knowledge comes from Bhakti or devotional service. This principle is given in Bhagavat.
vāsudeve bhagavati
bhakti-yogaḥ prayojitaḥ
janayaty āśu vairāgyaṁ
jñānaṁ ca yad ahaitukam
Translation
By rendering devotional service unto the Personality of Godhead, Śrī Kṛṣṇa, one immediately acquires causeless knowledge and detachment from the world. [SB1.2.7]
Those who render devotional service acquire knowledge and then develop detachment from material attachments. It is said so many times.
teṣāṁ satata-yuktānāṁ
bhajatāṁ prīti-pūrvakam
dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ
yena mām upayānti te
Translation
To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. [BG 10.10]
• teṣāṁ satata-yuktānāṁ – those who are always engaged serving Me
• prīti-pūrvakam – serving Me with love
• dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ – I give them intelligence
• yena mām upayānti te – by which they can come to Me
Krsna says, “ One who is engaged in serving Me with love, I give them the intelligence or knowledge to know Me.” And that is very rare. That is why, Krsna says,
bahūnāṁ janmanām ante
jñānavān māṁ prapadyate
When we render devotional service then Krsna gives us intelligence so that we can take His shelter. All knowledge and intelligence comes from Krsna. He gives us knowledge in the form of Bhagavad Gita. In the courtyard of our heart, Krsna is always present.
sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca
vedaiś ca sarvair aham eva vedyo
vedānta-kṛd veda-vid eva cāham
Translation
I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas. [BG 15.15]
He gives us the remembrance to remember Him. If you are remembering the Lord, then it is only by Krsna’s mercy. jñānam apohanaṁ ca means the soul gets remembrance, knowledge and forgetfulness from the Lord. All these living entities who have forgotten the Lord in this material world is actually an arrangement of Krsna. We are not even free to forget the Lord. Only the Lord can make us forget about Him or His Maya does so. Someone says, “ God does not exist”. So the Lord helps one to believe that He doesn’t exist. He makes them believe, “Yes, I do not exist”.
antar bahir avasthitam
[ŚB 1.8.18]
Krsna is situated in Arjuna’s heart as well as present in front of him. He is speaking Bhagavad Gita by standing in front of him and also in his heart. There is no difference. Whether Krsna instructs us by standing in front or from the courtyard of our heart. It is same. Krsna is the same in both the cases.
Dhruva Maharaja was reciting om namo bhagavate vasudevaya while performing austerities in Madhuvana in Satyayuga. It was a different age. Now in the age of Kali, the mantra we have to chant, is the Hare Krsna maha-mantra.
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
He performed severe austerity and showed great renunciation. Krsna was happy with Dhruva’s devotional service. When the Lord appeared in front of Dhruva, he did not open his eyes to see the Lord. He was concentrating on the Paramatma feature of the Lord in his heart. He was not seeing the Lord, so the Lord felt, “Why is he not looking at Me?” The Lord was thinking,“You wanted to meet Me and now I am here”. Then Krsna understood. He is seeing Me, but in the courtyard of his heart. There is no difference between these two situations. The Lord disappeared from the inside.
premāñjana-cchurita-bhakti-vilocanena
santaḥ sadaiva hṛdayeṣu vilokayanti
yaṁ śyāmasundaram acintya-guṇa-svarūpaṁ
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation
I worship Govinda, the primeval Lord, who is Śyāmasundara, Kṛṣṇa Himself with inconceivable innumerable attributes, whom the pure devotees see in their heart of hearts with the eye of devotion tinged with the salve of love. [BS 5.38]
Pure devotees can see the Lord in the courtyard of their hearts. Pure devotees like Dhruva Maharaja, Prahlada Maharaja etc. What is the state of a pure devotee? They see the Lord with the eyes of devotion. Dhruva Maharaja was shedding tears of love for Krsna. When he stopped seeing the Lord in his heart due to Krsna’s will, Dhruva Maharaja immediately opened his eyes,”Where is my Lord? Did I lose my Lord?” And then he saw the beautiful form of the Lord in front of him. It is one and the same thing. When we hear Bhagavad Gita, it’s difficult to say who is guiding us – the paramatma in our heart or the Guru in front of us. Yes, this knowledge is heard through disciplic succession. It’s one and the same. As the guru is narrating exactly what Krsna narrated to Arjuna.
evaṁ paramparā-prāptam
imaṁ rājarṣayo viduḥ
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paran-tapa
Translation
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. [BG 4.2]
Krsna says, “I instructed this imperishable science of yoga to the sun-god, Vivasvān, and Vivasvān instructed it to Manu, the father of mankind, and Manu in turn instructed it to Ikṣvāku.” It is coming through disciplic succession. The knowledge is the same and the one who is giving this knowledge is also same. The instructions are the same. The one who is imparting this knowledge is not saying something different. He is giving the same instructions which are given by the Lord. We should accept it as ultimately the Lord is instructing us.
Do you remember the illiterate brahman of Sri Rangam? Everyone was making fun of him while he would read the Bhagavad Gita in a faulty way. The brāhmaṇa regularly read the eighteen chapters of the Bhagavad Gītā in great transcendental ecstasy, but because he could not pronounce the words correctly, people joked about him. Due to his incorrect pronunciation, people sometimes criticized him and laughed at him, but he did not care. He was full of ecstasy by reading the Bhagavad Gītā and was personally very happy. While reading the book, the brāhmaṇa experienced transcendental bodily transformations. The hairs on his body stood on end, tears welled up in his eyes, and his body trembled and perspired as he read. Seeing this, Śrī Caitanya Mahāprabhu became very happy. Śrī Caitanya Mahāprabhu asked the brāhmaṇ, “My dear sir, why are you in such ecstatic love? Which portion of the Bhagavad Gītā gives you such transcendental pleasure?”
Reading is also hearing in a manner of speaking. The transcendental words of Gita emanate from the lotus lips of Krsna only. The medium can be different.
sarva-dharmān parityajya
-mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja_
ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions. Do not fear. [BG 18.66]
This verse is said by the Supreme Personality of Godhead. Then we are reading this in a printed form or we are hearing this from our spiritual masters who are always preaching.
yāre dekha, tāre kaha ‘kṛṣṇa’-upadeśa
āmāra ājñāya guru hañā tāra’ ei deśa
Translation
“Instruct everyone to follow the orders of Lord Śrī Kṛṣṇa as they are given in the Bhagavad-gītā and Śrīmad-Bhāgavatam. In this way become a spiritual master and try to liberate everyone in this land.” [CC Madhya 7.128]
There is no difference between the source of Bhagavad Gita. The speaker is always Krsna whether you hear it from someone or read it in the book.
gītā sugītā kartavyā kim anyaiḥ śāstra-vistaraiḥ
yā svayaḿ padmanābhasya mukha-padmād viniḥsṛtā
Translation
Because Bhagavad Gītā is spoken by the Supreme Personality of Godhead, one need not read any other Vedic literature. One need only attentively and regularly hear and read Bhagavad Gītā. In the present age, people are so absorbed in mundane activities that it is not possible for them to read all the Vedic literatures. But this is not necessary. This one book, Bhagavad Gītā, will suffice, because it is the essence of all Vedic literatures and especially because it is spoken by the Supreme Personality of Godhead. [Gita Mahatmya verse 4]
The instructions of the Gita are coming from Lord Krsna only. We may think that this person sitting on the vyasa asana is saying this or someone else is speaking this, but they are just a medium.
Like Srila Prabhupada would say,”preachers, siksa gurus, diksa gurus are like postmen.” They deliver the letter as it is from the sender. The postman is there in between, but the letter is still given by the sender only. The message written in that letter is given by the sender and not the postman. The ideal postman never alters or changes the content of the letter as doing so may cost him his job. Then he will not be a good postman. His job is to give that letter as it is. Then we receive it and read it. When the postman doesn’t make any changes in the message of that letter then the source of that letter was, is and always will be the sender. Similarly we are hearing this message of Bhagavad Gita and the siksa gurus never change the message of Bhagavad Gita.
The Brahman of Sri Rangam told Caitanya Mahaprabhu that whenever he reads in the Bhagavad Gītā, he can visualise the scene in Kurukshetra where Madhava and Pandava (Krsna and Arjuna) are present on a chariot.
senayor ubhayor madhye
rathaṁ sthāpaya me ’cyuta
yāvad etān nirīkṣe ’haṁ
yoddhu-kāmān avasthitān
Translation
Arjuna said: O infallible one, please draw my chariot between the two armies so that I may see those present here. [BG 1.21]
Krsna stops the chariot in between the armies. The scene is mentioned in the first chapter,
tataḥ śvetair hayair yukte
mahati syandane sthitau
mādhavaḥ pāṇḍavaś caiva
divyau śaṅkhau pradadhmatuḥ
Translation
On the other side, both Lord Kṛṣṇa and Arjuna, stationed on a great chariot drawn by white horses, sounded their transcendental conchshells. [BG 1.14]
A very special chariot is there which is driven by white horses. Lord Krsna and Arjuna are sitting on that chariot. The brahman is seeing Lord Krsna seated on that chariot and Krsna is giving Arjuna instructions. As long as I read the Bhagavad Gita, I simply see the Lord’s beautiful features. We also read Bhagavad Gita and it is only to remind us of Krsna where Krsna speaks about Himself, like where He resides and all that which we have forgotten about Him. Forgetting Kṛṣṇa, the living entity has been attracted by the external feature from time immemorial. Therefore the illusory energy [māyā] gives him all kinds of miseries in his material existence. The living entity is going from one species to another for so many births. After wandering throughout the entire universe, we came here by Krsna’s mercy.
brahmāṇḍa bhramite kona bhāgyavān jīva
guru-kṛṣṇa-prasāde pāya bhakti-latā-bīja
Translation
“According to their karma, all living entities are wandering throughout the entire universe. Some of them are being elevated to the upper planetary systems, and some are going down into the lower planetary systems. Out of many millions of wandering living entities, one who is very fortunate gets an opportunity to associate with a bona fide spiritual master by the grace of Kṛṣṇa. By the mercy of both Kṛṣṇa and the spiritual master, such a person receives the seed of the creeper of devotional service. [CC Madhya 19.151]
First Krsna established our relationship with a devotee. He sends a path pradarshak guru (anyone who shows us the path to self realization) in our life. We met devotees. We establish our relationship with the devotee of Krsna somehow, during the book distribution marathon. When one buys a Bhagavad Gita from the devotee that is the turning point in ones life. After a little discussion, I was convinced and I bought it. Devotees are also very expert in persuading people to purchase a Bhagavad Gita. That moment changed my destiny and my good fortune began. Krsna made us fortunate by connecting us with a Hare Krsna devotee or a Gaudiya Vaisnava devotee. Then the sequence of events start to hasten the devotional life of someone like participation in Ratha-yatra, honouring prasada and so on. Krsna does the arrangement. He is behind everything.
sarva-kāraṇa-kāraṇam [Bs 5.1] – He is the cause of all causes. We are secondary reasons. We are just instruments.
nimitta-matram bhava savya-sacin [BG 11.33]
Translation
You, O Savyasacin, can be but an Instrument in the fight.
Even before the battle started Krsna showed Arjuna how everyone was already being killed. Krsna said, “ See all the sons of Dhṛtarāṣṭra, along with their allied kings, and Bhīṣma, Droṇa, Karṇa – and our chief soldiers also – are already rushing into my fearful mouths. Some are trapped with their heads smashed between My teeth. These great warriors enter blazing into My mouths. It is I who is going to kill everyone. I am the one who protects the devotees and re-establishes the principles of religion. Everything is already done by My arrangement, but you, O Savyasācī, can be but an instrument in the fight. You just take the credit. Although it is I who is the cause of all causes.” Arjuna, you just become the medium and get all the fame by My will.
If Arjuna didn’t fight, someone else would’ve fought as the war was inevitable. It is Krsna’s will to make the war happen and establish religion. He wants to establish Yudhishthira as king, but Krsna selected Arjuna as he was Krsna’s pure devotee. If Arjuna fights then he will get all the credit, all the glories. Krsna wants to glorify His devotees.
Similarly Krsna makes us the medium to spread His holy names, the entire team of ISKCON – the spiritual master, the preacher, the initiating spiritual master, caitya guru (the paramatma residing in each jiva’s heart). Everyone is trying to make devotees. It’s a team effort. They are bringing everyone to the lotus feet of the Lord. In between all these efforts, one effort that we are all making for the past month is book distribution. We are preaching Bhagavad Gita and hearing japa talks on Bhagavad Gita. Every one is engaged in distribution of Bhagavad Gita -no matter what. Krsna has selected you as the medium to spread His message to other conditioned souls. Krsna is inspiring us “Give Bhagavad Gita to some person.” We are just instruments. He inspires others to sponsor Bhagavad Gita. We are going everywhere. Even matajis with book bags are going to each and every home to distribute Bhagavad Gita. People release their dogs who run behind the devotees, but they don’t care and keep on distributing. Somewhere it is too cold, but still they don’t worry and go on their distribution.
śīta ātapa bāta bariṣaṇa
e dina jāminī jāgi re
Translation
Both in the day and at night , the heat and cold, the wind and the rain. [Bhajahu re mana verse 2]
They are transcendental by rising above all the dualities of the material world and distribute books. The Lord is making you an instrument so that you can distribute this message to more and more people. You are connecting everyone to Krsna. This is devotional service. Thank you for kirtan – hearing, preaching the glories of Bhagavad Gītā. Kirtan means to speak whatever you have heard, you meditate on it and then you absorb it in your heart. Then there is realization. It also increases and deepens our faith and then when you preach or speak, it is called Kirtan. So I will stop here.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 13 января 2021 г.
БХАГАВАД ГИТА – ПОСЛАНИЕ КРИШНЫ НАМ ЧЕРЕЗ ПРЕДАННОГО ПОЧТАЛЬОНА
Харе Кришна! Добро пожаловать на эту беседу о джапе.
Преданные воспевают с нами из 813 мест.
Ом Намо Бхагавате Васудевайя!
Мы должны сказать это хотя бы потому, что в течение стольких дней мы слушаем Кришну – Бхагавад Гиту. На самом деле мы наслаждаемся Бхагавад Гитой.
бахӯна̄м̇ джанмана̄м анте
джн̃а̄нава̄н ма̄м̇ прападйате
ва̄судевах̣ сарвам ити
са маха̄тма̄ су-дурлабхах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто, пройдя через множество рождений и смертей, обрел совершенное знание, вручает себя Мне, ибо он понял, что Я причина всех причин и все сущее. Такая великая душа встречается очень редко.
(Б.Г. 7.19)
Кришна говорит: «Знающие приходят ко Мне». Если он не приходит к Кришне, тогда он полон невежества. Те, кто не квалифицирован, не принимают прибежища у Кришны, но те, кто обладает знаниями, принимают прибежище у Кришны. Это знание полно Бхакти, а не знания спекулянтов. Знание приходит от бхакти или преданного служения. Этот принцип изложен в Бхагаватам.
ва̄судеве бхагавати
бхакти-йогах̣ прайоджитах̣
джанайатй а̄ш́у ваира̄гйам̇
джн̃а̄нам̇ ча йад ахаитукам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Благодаря преданному служению Личности Бога, Шри Кришне, человек тотчас же обретает беспричинное знание и избавляется от привязанности к миру.
(Ш.Б. 1.2.7)
Те, кто занимается преданным служением, приобретают знания, а затем развивают непривязанность к материальным привязанностям. Это сказано так много раз.
теша̄м̇ сатата-йукта̄на̄м̇
бхаджата̄м̇ прӣти-пӯрвакам
дада̄ми буддхи-йогам̇ там̇
йена ма̄м упайа̄нти те
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тех, кто постоянно служит Мне с любовью и преданностью, Я наделяю разумом, который помогает им прийти ко Мне.
(Б.Г. 10.10)
теша̄м̇ сатата-йукта̄на̄м̇ – те, кто всегда занят служением Мне
• прити-пурвакам – служение Мне с любовью
• дада̄ми буддхи-йогам̇ там̇ – я даю им разум
• йена мам упайанти те – с помощью которого они могут прийти ко Мне
Кришна говорит: «Тот, кто занят служением Мне с любовью, Я даю им разум или знание, чтобы узнать Меня». А это бывает очень редко. Вот почему Кришна говорит:
бахӯна̄м̇ джанмана̄м анте
джн̃а̄нава̄н ма̄м̇ прападйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто, пройдя через множество рождений и смертей, обрел совершенное знание, вручает себя Мне, ибо он понял, что Я причина всех причин и все сущее.
(Б.Г. 7.19)
Когда мы занимаемся преданным служением, Кришна дает нам разум, чтобы мы могли принять Его прибежище. Все знания и разум приходят от Кришны. Он дает нам знания в форме Бхагавад Гиты. В глубине нашего сердца всегда присутствует Кришна.
сарвасйа ча̄хам̇ хр̣ди саннивишт̣о
маттах̣ смр̣тир джн̃а̄нам апоханам̇ ча
ведаиш́ ча сарваир ахам эва ведйо
веда̄нта-кр̣д веда-вид эва ча̄хам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я пребываю в сердце каждого, и от Меня исходят память, знание и забвение. Цель изучения всех Вед — постичь Меня. Я истинный составитель «Веданты» и знаток Вед.
(Б.Г. 15.15)
Он дает нам память помнить о Нем. Если вы вспоминаете Господа, то это только по милости Кришны. джнанам апоханам ча означает, что душа получает от Господа память, знание и забвение. Все эти живые существа, которые забыли Господа в этом материальном мире, на самом деле созданы Кришной. Мы даже не можем забыть Господа. Только Господь может заставить нас забыть о Нем, или Его Майя делает это. Кто-то говорит: «Бога не существует». Итак, Господь помогает поверить в то, что Его не существует. Он заставляет их поверить: «Да, меня не существует».
антар бахир авастхитам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Ты существуешь внутри и вне всего..
(Ш.Б. 1.8.18)
Кришна пребывает в сердце Арджуны, а также присутствует перед ним. Он говорит Бхагавад Гиту, стоя перед ним, а также в его сердце. Нет никакой разницы. Наставляет ли нас Кришна, стоя перед нами или из глубины нашего сердца. Это то же самое. Кришна в обоих случаях один и тот же.
Дхрува Махарадж повторял ом намо бхагавате васудевайя, совершая аскезы в Мадхуване в Сатьяюгу. Это была другая эпоха. В век Кали мантра, которую мы должны повторять, – это маха-мантра Харе Кришна.
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Он совершил суровую аскезу и достиг большого отречения. Кришна был удовлетворен преданным служением Дхрувы. Когда Господь явился перед Дхрувой, тот не открыл глаз, чтобы увидеть Господа. В своем сердце он сосредоточился на Параматме Господа. Он не видел Господа, поэтому Господь подумал: «Почему он не смотрит на Меня?» Господь подумал: «Ты хотел встретить Меня, и теперь Я здесь». Тогда Кришна понял. Он видит Меня, но внутри своего сердца. Между этими двумя ситуациями нет разницы. Господь скрылся внутри.
преманджана-ччхурита-бхакти-вилочанена
сайтах садаива хрдайешу вилокайанти
йам шйамасундарам ачинтйа-гуна-сварупам
говиндам ади-пурушам там ахам бхаджами
Перевод:
«Я поклоняюсь Говинде — предвечному Господу, Шьямасундаре, Самому Кришне, обладающему бесчисленными непостижимыми качествами. Чистые преданные созерцают Его в глубине своего сердца глазами, умащенными бальзамом любви»
(Брахма-самхита 5.38)
Чистые преданные могут видеть Господа в глубине своего сердца. Чистые преданные, такие как Дхрува Махарадж, Прахлада Махарадж и т. д. Каково состояние чистого преданного? Они видят Господа глазами преданности. Дхрува Махарадж проливал слезы любви к Кришне. Когда по воле Кришны он перестал видеть Господа в своем сердце, Дхрува Махарадж немедленно открыл глаза: «Где мой Господь? Я потерял своего Господа? » А потом он увидел перед собой прекрасную форму Господа. Это одно и то же. Когда мы слушаем Бхагавад Гиту, трудно сказать, кто нас направляет – параматма в нашем сердце или Гуру перед нами. Да, это знание передается через ученическую преемственность. Это одно и то же. Поскольку гуру повествует именно то, что Кришна рассказал Арджуне.
эвам̇ парампара̄-пра̄птам
имам̇ ра̄джаршайо видух̣
са ка̄ленеха махата̄
його нашт̣ах̣ парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Так эта великая наука передавалась по цепи духовных учителей, и ее постигали праведные цари. Но с течением времени цепь учителей прервалась, и это знание в его первозданном виде было утрачено.
(Б.Г. 4.2)
Кришна говорит: «Я рассказал эту вечную науку йоги Богу солнца Вивасвану, а Вивасван передал ее Ману, отцу человечества, а Ману, в свою очередь, передал ее Икшваку». Это происходит через ученическую преемственность. Знание то же самое, и тот, кто дает это знание, тоже такой же. Наставления такие же. Тот, кто передает это знание, ничего другого не говорит. Он дает те же наставления, которые дает Господь. Мы должны принять это, поскольку в конечном итоге Господь наставляет нас.
Вы помните неграмотного брахмана Шри Рангама? Все смеялись над ним, пока он неправильно читал Бхагавад Гиту. Брахман регулярно читал восемнадцать глав Бхагавад Гиты в великом трансцендентном экстазе, но из-за того, что он не мог правильно произносить слова, люди смеялись над ним. Из-за неправильного произношения люди иногда критиковали его и смеялись над ним, но ему было все равно. Он был полон экстаза, читая Бхагавад-гиту, и лично был очень счастлив. Читая книгу, брахман испытал трансцендентные телесные изменения. Волосы на его теле встали дыбом, на глаза навернулись слезы, а тело дрожало и вспотело, пока он читал. Увидев это, Шри Чайтанья Махапрабху очень обрадовался. Шри Чайтанья Махапрабху спросил брахмана: «Мой дорогой господин, почему вы испытываете такую экстатическую любовь? Какая часть Бхагавад Гиты доставляет вам такое трансцендентное удовольствие?»
Чтение – это тоже способ разговора. Трансцендентные слова Гиты исходят только из лотосных уст Кришны. Среда может быть разной.
сарва-дхарма̄н паритйаджйа
ма̄м экам̇ ш́аран̣ам̇ враджа
ахам̇ тва̄м̇ сарва-па̄пебхйо
мокшайишйа̄ми ма̄ ш́учах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Оставь все религии и просто предайся Мне. Я избавлю тебя от всех последствий твоих грехов. Не бойся ничего.
(Б.Г. 18.66)
Этот стих произносится Верховной Личностью Бога. Затем мы читаем это в печатном виде или слышим это от наших духовных учителей, которые всегда проповедуют.
йа̄ре декха, та̄ре каха ‘кр̣шн̣а’-упадеш́а
а̄ма̄ра а̄джн̃а̄йа гуру хан̃а̄ та̄ра’ эи деш́а
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Проси всех исполнять наставления Господа Шри Кришны, изложенные в „Бхагавад Гите“ и „Шримад Бхагаватам“. Таким образом стань духовным учителем и постарайся спасти всех в этих краях».
(Ч.Ч. Мадхья 7.128)
Нет никакой разницы между источником Бхагавад Гиты. Говорит всегда Кришна, слышите ли вы это от кого-то или читаете в книге.
гита су-гита картавья,
ким аньях шастра-виштараих
йа свайам падма-набхасйа, мукха-падмад винихсрита
Перевод:
Чудесная песнь «Бхагавад Гита» была написана лотосными устами самого Верховного Господа Кришны. Какие еще Священные Писания нам нужно искать тогда?
(Текст 4, Гита Махатмья Ади Шанкарачарьи)
Наставления Гиты исходят только от Господа Кришны. Мы можем подумать, что этот человек, сидящий на вьяса-асане, говорит это или кто-то другой говорит это, но он всего лишь инструмент.
Как сказал бы Шрила Прабхупада, «проповедники, шикша-гуру, дикша-гуру подобны почтальонам». Они доставляют письмо в том виде, в котором оно есть от отправителя. Почтальон инструмент между ними, но письмо по-прежнему дает только отправитель. Сообщение, написанное в этом письме, передается отправителем, а не почтальоном. Идеальный почтальон никогда ничего не добавляет и не изменяет содержание письма, поскольку это может стоить ему работы. Тогда он не будет хорошим почтальоном. Его работа – передать это письмо таким, какое оно есть. Потом получаем и читаем. Если почтальон не вносит никаких изменений в сообщение этого письма, тогда источником этого письма был, есть и всегда будет отправитель. Точно так же мы слышим это послание Бхагавад Гиты, и шикша-гуру никогда не меняют послание Бхагавад Гиты.
Брахман Шри Рангама сказал Чайтанье Махапрабху, что всякий раз, когда он читает Бхагавад Гиту, он может визуализировать сцену на Курукшетре, где Мадхава и Пандава (Кришна и Арджуна) находятся в колеснице.
арджуна ува̄ча
сенайор убхайор мадхйе
ратхам̇ стха̄пайа ме ’чйута
йа̄вад эта̄н нирӣкше ’хам̇
йоддху-ка̄ма̄н авастхита̄н
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: О непогрешимый, прошу Тебя, выведи вперед мою колесницу и поставь ее между двумя армиями, чтобы я мог увидеть тех, кто пришел сюда, желая сразиться с нами…
(Б.Г. 1.21)
Кришна останавливает колесницу между армиями. Сцена упоминается в первой главе,
татах̣ ш́ветаир хайаир йукте
махати сйандане стхитау
ма̄дхавах̣ па̄н̣д̣аваш́ чаива
дивйау ш́ан̇кхау прададхматух̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
С другой стороны, Господь Кришна и Арджуна, сидевшие на огромной колеснице, запряженной белыми лошадьми, затрубили в свои трансцендентные раковины.
(Б.Г. 1.14)
Это особенная колесница, которую ведут белые лошади. Господь Кришна и Арджуна сидят на этой колеснице. Брахман видит Господа Кришну, восседающего на этой колеснице, и Кришна дает наставления Арджуне. Пока я читаю Бхагавад Гиту, я просто вижу прекрасные черты Господа. Мы также читаем Бхагавад Гиту, и это только для того, чтобы напомнить нам о Кришне, где Кришна говорит о Себе, например, где Он живет, и обо всем, что мы забыли о Нем. Забыв о Кришне, живое существо с незапамятных времен привлекалось внешним обликом. Поэтому иллюзорная энергия (майа) причиняет ему всевозможные страдания в его материальном существовании. Живое существо переходит от одного вида тела к другому на протяжении стольких рождений. Побродив по всей вселенной, мы пришли сюда по милости Кришны.
брахма̄н̣д̣а бхрамите кона бха̄гйава̄н джӣва
гуру-кр̣шн̣а-праса̄де па̄йа бхакти-лата̄-бӣджа
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Живые существа, влекомые своей кармой, скитаются по вселенной. Кто-то из них достигает высших планет, а кто-то попадает на низшие. Из многих миллионов таких существ лишь редкий счастливец по милости Кришны встречает на своем пути истинного духовного учителя. Тогда Кришна и духовный учитель даруют ему семя преданного служения».
(Ч.Ч. Мадхья лила 19.151)
Сначала Кришна установил наши отношения с преданным. Он показывает путь через прадаршак-гуру (любому, кто показывает нам путь к самореализации) в нашу жизнь. Мы встретили преданных. Мы каким-то образом устанавливаем наши отношения с преданным Кришны во время марафона распространения книг. Когда человек покупает Бхагавад Гиту у преданного, это поворотный момент в его жизни. После небольшого обсуждения я убедился и купил ее. Преданные также очень искусны в убеждении людей купить Бхагавад Гиту. Этот момент изменил мою судьбу, и мне повезло. Кришна сделал нас удачливыми, связав нас с преданным Харе Кришна или преданным Гаудия-вайшнавом. Затем череда событий начинает ускорять преданную жизнь человека, например, участие в Ратха-ятре, почитание прасада и так далее. Кришна устраивает. Он стоит за всем.
сарва-карана-каранам (Брахма-самхита 5.1) – Он является причиной всех причин.
Мы второстепенные причины. Мы всего лишь инструменты.
нимитта-ма̄трам̇ бхава савйа-са̄чин
Перевод Шрилы Прабхупады:
Ты, о Савьясачи, можешь быть лишь орудием в этой битве.
(Б.Г. 11.33)
Еще до начала битвы Кришна показал Арджуне, как все уже были убиты. Кришна сказал: «Смотри, все сыновья Дхритарашры вместе с их союзными царями, а также Бхишма, Дрона, Карна – а также наши главные воины – уже бросаются в мои ужасные уста. Некоторые попали в ловушку, и их головы разбиты Моими зубами. Эти великие воины пылают в Моих устах. Это я убью всех. Я тот, кто защищает преданных и восстанавливает принципы религии. Все уже сделано по Моему распоряжению, но ты, о Савьясачи, можешь быть всего лишь инструментом в борьбе. Просто исполни долг. Хотя это я являюсь причиной всех причин». Арджуна, ты просто станешь инструментом и по Моей воле обретешь всю славу.
Если бы Арджуна не сражался, воевал бы кто-то другой, поскольку война была неизбежна. Кришна желает развязать войну и утвердить религию. Он хочет сделать Юдхиштхиру царем, и Кришна избрал Арджуну, так как он был чистым преданным Кришны. Если Арджуна будет сражаться, он получит всю награду, всю славу. Кришна хочет прославить Своих преданных.
Подобным образом Кришна делает нас инструментами для распространения Его святых имен, всю команду ИСККОН – духовный учитель, проповедник, инициирующий духовный учитель, чайтья гуру (параматма, пребывающая в сердце каждой дживы). Все пытаются привлечь преданных. Это командные усилия. Они приводят всех к лотосным стопам Господа. Между всеми этими усилиями есть одно усилие, которое мы все предпринимали в прошлом месяце, – это распространение книг. Мы проповедуем Бхагавад-гиту и слушаем беседу о джапе по Бхагавад-гите. Каждый занимается распространением Бхагавад Гиты, несмотря ни на что. Кришна избрал вас в качестве инструмента, чтобы распространять Его послание другим обусловленным душам. Кришна вдохновляет нас: «Дайте Бхагавад Гиту кому-нибудь». Мы всего лишь инструменты. Он вдохновляет других спонсировать распространение Бхагавад Гиты. Мы идем повсюду. Даже матаджи с книжными сумками идут в каждый дом, чтобы распространять Бхагавад Гиту. Люди отпускают своих собак, которые бегут за преданными, но им все равно, и они продолжают распространять. Где-то слишком холодно, но все равно они не волнуются и идут на распространение.
ш́ӣта а̄тапа ба̄та бариш̣ана
э дина джа̄минӣ джа̄ги ре
Перевод:
Днем и ночью я, не зная покоя, страдаю от жары и холода, ветра и дождя.
(Песня Бхаджа Ху Ре Мана стих 2, Говинда Даса Кавираджа)
Они трансцендентны, потому что возвышаются над всеми двойственностями материального мира и распространяют книги. Господь делает вас инструментом, чтобы вы могли распространять это послание среди все большего числа людей. Вы соединяете всех с Кришной. Это преданное служение. Спасибо за киртан – слушание, проповедь славы Бхагавад Гиты. Киртан означает говорить то, что вы слышали, вы медитируете на это, а затем понимаете это своим сердцем. Тогда есть реализация. Это также увеличивает и углубляет нашу веру, и тогда, когда вы проповедуете или говорите, это называется Киртан. На этом я остановлюсь.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
12 जनवरी 2021
हरे कृष्ण । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
818 स्थानो से आज जप हो रहा है ।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय ।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय ।
अर्जुन कई सारे भगवत गीता के अध्याय के अध्याय सुने है । 9 अध्याय सुने दसवा सुन रहे थे फिर भगवान ने कुछ 4 विशेष लोकों का भी उल्लेख किया ।
यह बात भी कही फिर अर्जुन को कुछ विशेष साक्षात्कार हुआ ,
अर्जुन ने कहा ,
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ||
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।
(भगवद्गीता 10.12-13)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
यह सुनाएं और फिर साथ ही साथ अपनी एक जिग्यासा व्यक्त की और फिर कहा कि , आपका जो ऐश्वर्या है , जो वैभव है उसे भी सुनाइए ताकि मुझे स्मरण में मदद होगी। उन वैभव का , उन ऐश्वर्या का मै चिंतन स्मरण कर सकता हूं , उस रूपों का , उन गुणों का और व्यक्तित्व का , उन वस्तुओं का , स्थानो का , धामो का जो आपके वैभव है । भगवान ने 10 वे अध्याय में वह अपना ऐश्वर्य सुनाया और यह भी कहा की यह जो भी मैने कहा है वह एक अंश मात्र है और भी बहुत कुछ है लेकिन यह जो कहा यह केवल अंश है और फिर 11 वा अध्याय है ।
श्रीमद भगवत गीता की जय ।
इस अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन ने कहा है ,
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् |
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ||
(भगवद्गीता 11.1)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – आपने जिन अत्यन्त गुह्य आध्यात्मिक विषयों का मुझे उपदेश दिया है, उसे सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है |
मुझ पर आपका अनुग्रह हुआ। मैंने आपको जैसे कहा या जैसी जिज्ञासा व्यक्त कि ,आप मुझे यह सुनाइए , बताइए आपके वैभव का वर्णन कीजिए , यह सब आपने किया मुझ पर आपने अनुग्रह किया है । यह आप के वचन सुनकर , मोहोऽयं विगतो मम मेरा मोह नष्ट हो रहा है । हरि हरि । वैसे यह सब बातें संसार के बद्ध जिवो के लिये ही है । कोई सोच सकता है कि , भगवान ने यह कहा है , “मैं यह हूं , मैं वह हूं ” लेकिन इसको साबित करो इसमें सबूत क्या है ? हम जब कहते कि भगवान है । भगवान को दिखाइए ! जब हम देखेंगे तब ही विश्वास करेंगे , तब ही स्वीकार करेंगे यह जो मानसिकता है । बद्ध जिवो के ऐसे विचार होते हैं , वह देखना चाहते हैं , सुनने से उनकी तसल्ली नहीं होती , उनका समाधान नहीं होता है तो ऐसे लोगों के लिए या ऐसे लोगों की और से अर्जुन कह रहे हैं ।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्र्वर |
दृष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्र्वरं पुरुषोत्तम ||
(भगवद्गीता11.3)
अनुवाद
हे पुरुषोत्तम, हे परमेश्र्वर!यद्यपि आपको मैं अपने समक्ष आपके द्वारा वर्णित आपके वास्तविक रूप में देख रहा हूँ, किन्तु मैं यह देखने का इच्छुक हूँ कि आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रविष्ट हुए हैं ।मैं आप के उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ ।
आपने जीन जीन ऐश्वर्यो का वर्णन किया दृष्टुमिच्छामि उनको मैं देखना चाहता हूं। रूपमैश्र्वरं जीन रुपो का जीन ऐश्वर्यो का आपने अभी-अभी मुझे उल्लेख किया है , मुझे सुनना है वह मैं देखना चाहता हूं। कृपा करके मुझे उन वैभव का दर्शन और ऐश्वर्य का दर्शन दीजिए , प्रत्यक्ष प्रमाण मैं अपने आंखों से देखना चाहता हूं । पश्च कृष्णा तैयार हो गए । वह तैयार सदैव ही रहते हैं । कुरुक्षेत्र के मैदान में इस संवाद के दरम्यान में सभी दृश्य बदल जाने वाला है । भगवान ने कहा पश्च देखो , देखो । पहले भी कहा था देखो , देखो पश्च ऐसे पहले अध्याय में भगवान ने कहा था भगवान ने प्रथम अध्याय में एक ही वचन बोला है ,
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति ||
(भगवद्गीता 1.25)
अनुवाद
भीष्म, द्रोण तथा विश्र्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो |
यह भगवान का एक ही वचन है। इन उपस्थित कौरव को पश्च मतलब देखो और अब भगवान 11 वे अध्याय में पून्हा कह रहे पश्च देखो, देखो। क्या देखो? क्या देख रहे हो? सेना के मध्य मे भगवान एक ऐसा दृश्य या जिसको विश्वरूप कहा है , या ब्रह्मांड दर्शन कहां है , विराट रूप कहां है । विराटरूप! सारे ब्रह्मांड को ही दिखा रहे है । सारे विश्व को दिखा रहे हैं , जो सारे ऐश्वर्य है वह सारे सृष्टि में फैला हुआ है तो वह कह रहे हैं पश्च देखो , देखो ।
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्त्रशः |
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ||
(भगवद्गीता 11.5)
अनुवाद
भगवान् ने कहा –हे अर्जुन, हे पार्थ! अब तुम मेरे ऐश्र्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगों वाले रूपों को देखो ।
सैकड़ों , सहस्त्र , हजारों रूप देखो । नानाविधानि दिव्यानि अनेक प्रकार के दिव्य रूप है । नानावर्णाकृतीनि च इनके वर्ण , रंग ,रूप अलग-अलग है , कांति अलग अलग है और आकृति भी , रूप भी अलग अलग है । आदित्य में मैं विष्णु हू ऐसा भी भगवान दसवे अध्याय मे कहते है अब यहां दिखा रहे हैं ।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्र्विनौ मरुतस्तथा |
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्र्चर्याणि भारत ||
(भगवद्गीता 11.6)
अनुवाद
हे भारत! लो, तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्र्विनीकुमारों तथा अन्य देवताओं के विभिन्न रूपों को यहाँ देखो । तुम ऐसे अनेक आश्चर्यमय रूपों को देखो, जिन्हें पहले किसी ने न तो कभी देखा है, न सुना है ।
वह अब दिखा रखे है , यह सभी आदित्य को देखो , उसमें विष्णु को भी देखो और पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्र्विनौ भगवान ने कहा था रुद्रो में शंकर में हूं , जो कहा था वह अब दिखा रहे हैं फिर कहते हैं , देखो , देखो , तुम देखना चाहते थे ना अब देखो तो सही ।
अश्विनी कुमारों को देखो मरुतस्तथा मरुतः यह सब एक ही साथ देखो । तुम एक ही स्थान पर खड़े हो और यह एक ही स्थान मे ना तुम को हिलना है ना डुलना है , ना कहीं आना है ना कही जाना है जहां हो वहीं से देखो , जगत कृष्ण जगत कृष्ण , कृष्ण मतलब एक ही साथ संपूर्ण जगत को देखो । यह दूरदर्शन और कुछ अलौकिक दर्शन , दिव्य दर्शन भगवान करा रहे हैं । अद्भुत है !
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्र्वरम् ||
(भगवद्गीता 11.8)
अनुवाद
किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते । अतः मैं तुम्हें दिव्य आँखें दे रहा हूँ । अब मेरे योग ऐश्र्वर्य को देखो ।
भगवान अर्जुन को कुछ दृश्य दिखा तो रहे थे ।लेकिन नही नही , वैसे स्वचक्षुषा अपने आंखों से यह सब देख नहीं पाओगे , मैं क्या करता हूं दिव्यं ददामि ते चक्षुः मैं तुम्हें आंखें देता हूं , यह दृष्टि देता हूं , कैसी ? दिव्यदृष्टि देता हूं ताकि तुम देख पाओगे । पहले तो कहा था ,
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||
(भगवद्गीता 10.10)
अनुवाद
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
मैं बुद्धि देता हूं । हम जो कह रहे थे उस श्लोक मे एक था , ददामि बुद्धियोगं तं मैं बुद्धी देता हू । यहा भगवान अर्जुन को कह रहे है , मैं तुमको क्या करता हूं ?
दिव्यं ददामि ते चक्षुः
मैं तुमको दिव्य चक्षु देता हूं तभी तुम यह रूप देख पाओगे । विराट रूप जो मेरा वैभव है उसे देख पाओगे ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्र्वरो हरिः |
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्र्वरम् ||
(भगवद्गीता 11.9)
अनुवाद
संजय ने कहा – हे राजा! इस प्रकार कहकर महायोगेश्र्वर भगवान् ने अर्जुन को अपना विश्र्वरूप दिखलाया |
एवमुक्त्वा संजय बता रहे हैं , कृष्ण अर्जुन के सारे संवाद को दोहरा तो रहे ही है , संजय धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं , भगवत गीता भी सुना रहे हैं और भगवान अर्जुन को विराट रूप का जो दर्शन करा रहे हैं उसको संजय सुना रहे हैं । एवमुक्त्वा ऐसा कहकर भगवान ने क्या किया ? दर्शायामास पार्थाय ताकि पार्थ देख सके , पार्थ को भगवान ने दिव्य दृष्टि दी ऐसा संजय कह रहे हैं ।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाअद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्र्चर्यमयं देवमनन्तं विश्र्वतोमुखम् ।।
(भगवद्गीता 11.10-11)
अनुवाद
अर्जुन ने इस विश्र्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे | यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था | यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये थे और उस पर अनेक दिव्य सुगन्धियाँ लगी थीं | सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था |
संजय कह रहे हैं , क्या कह रहे हैं ? अर्जुन देख रहे हैं , अनेकवक्त्र कई सारे मुख मंडल वाले व्यक्तित्व वह देख रहे हैं और उनके असंख्य नयन है और यह सारा अद्भुत दर्शन है और यह सब रुपो को अर्जुन देख रहे हैं । अनेकदिव्याभरणं वह कई अलंकरो से अलंकारित है । उनका वैभव दिव्यगन्धानुलेपनम दिव्य गधं से उनका लेपन हो चुका है । सर्वाश्चर्यमयं
हर दृश्य जो है यह आश्चर्यचकित करने वाला है । फिर संजय वही कह रहे हैं जो संजय देख रहे हैं । संजय अर्जुन को देख रहे हैं , संजय कृष्ण को देख रहे हैं , संजय यही विश्वरूप को देख रहे हैं ।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्र्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ||
(भगवद्गीता 18.75)
अनुवाद
व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात् योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं ।
ऐसी दृष्टि व्यासदेव जो भगवान के शाक्तवेश अवतार है उन्होंने ही ऐसी एक विशेष शक्ति संजय को प्रदान की है । जो जो अर्जुन देख रहे हैं वह सब संजय भी देख रहे हैं और अर्जुन कह रहे हैं , कृष्ण कह रहे हैं वह भी सुन रहे हैं और फिर वही धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं ।
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः |
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ||
(भगवद्गीता 11.14)
अनुवाद
तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान् से प्रार्थना करने लगा |
संजय कह रहे हैं की यह सब दृश्य देखकर अर्जुन के रोंगटे खड़े हुए हैं , रोमांचित हो रहा है अर्जुन फिर क्या किया अर्जुन ने ,
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ||
संजय ने कहा प्रणम्य शिरसा अर्जुन ने नमस्कार किया है । अर्जुन को नमस्कार करते हुए संजय देख भी रहे है और कह भी रहे हैं यह सीधा प्रसारण चल रहा है । अर्जुन ने श्रीकृष्ण को नमस्कार किया है , प्रणाम किया है हाथ भी जोड़े हैं और प्रणाम मुद्रा में , अर्जुन उवाच , अर्जुन ने कहा
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् |
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-मृषींश्र्च सर्वानुरगांश्र्च दिव्यान् ।।
(भगवद्गीता 11.15)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे भगवान् कृष्ण! मैं आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ | मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ |
संजय ने कहा है कि अर्जुन ऐसा कहां है , क्या कहा ? पश्यामि चक्षु , आखे या चश्मा कहो , जो विशेष चश्मा भगवान ने पहनाया है , दिया हैं ताकी वह देख सके , और चक्षुओसे देख रहे है ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
अनुवाद :
जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
प्रेमांजन , प्रेम का अंजन है तब ही ऐसे भगवान का दर्शन संभव है । प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति संत भगवान को देखते हैं , कैसे देखते हैं? जब प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन अर्जुन दर्शन के अधिकारी बने है , भगवान ने विशेष अनुग्रह करके विशेष दृष्टि दी है फिर वह कह रहे हैं ।
अलग-अलग भूतों के , योनियों के झुंड या संघ अर्जुन देख रहे है । यह भी भगवान का वैभव है जलचर प्राणी है , नौलाख जो प्राणी है । विराट विश्वरूप का दर्शन करें तो यह सारी योनि का विशेष भूतसंघात , संगठित करके , कितने जन्तु है , कितने पक्षी है , कितने वनस्पतियां हैं । और देखो ऊपर देखो ऊपर देखो ब्रह्मांड का सर्वोपरि जो स्थान है यह 14 भुवन जो है उसकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं और कहते हैं पश्च कमल पर स्थित है , विराजमान है ब्रह्मा , कैलास मे विराजित शिवजी को देख रहे हो? देखो ऋषि-मुनियों को देखो । सभी उर्गो को देखो लोगों को देखो । दसवे अध्याय मे भगवान ने कहा है वासुकी सर्प मे हू ।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् |
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्र्वेश्र्वर विश्र्वरूप ||
(भगवद्गीता 11.16)
अनुवाद
हे विश्र्वेश्र्वर, हे विश्र्वरूप! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अन्त नहीं है | आपमें न अन्त दीखता है, न मध्य और न आदि |
कई सारे नेत्र है , सर्वतोनन्तरुपम इसका नांन्त न मध्यं कोई अंत ही नहीं है , मध्य ही नही2 है । केशव आपके वैभव सर्वत्र है । पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरुप मैं देख रहा हूं , आपका विश्वरूप देख रहा हूं कहां इसकी शुरुआत कहां इसका अंत है ?
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्र्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्ययः शाश्र्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||
(भगवद्गीता 11.18)
अनुवाद
आप परम आद्य ज्ञेय वास्तु हैं | आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं | आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं | आप सनातन धर्म के पालक भगवान् हैं | यही मेरा मत है |
आप ही सारे विश्व के निधान हो , आश्रय हो शाश्वतधर्मगोप्ता इसका कोई अंत ही नहीं । कुछ कम तो नहीं होता सिर्फ बढ़ता ही रहता है । व्यय मतलब खर्च होना या कम होना घटना। भगवान कभी घटते नहीं भगवान बढ़ते रहते हैं । अव्यय , व्यय अव्यय । शाश्वतधर्मगोप्ता और आप धर्म के गोप्ता मतलब रक्षक हो या धर्म के संस्थापक हो ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
(भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
चौथे अध्याय में भगवान ने कहा था और अब अर्जुन को साक्षात्कार हुआ और कह रहे थे की धर्म की स्थापना के लिए आप आते हो , मैं देख था हू शाश्वतधर्मगोप्ता आप धर्म के संस्थापक हो , रक्षक हो । स्नातनसत्वं पुरुषो आप शाश्वत पुरुष हो , पहले अर्जुन ने कहा था ,
अर्जुन उवाच परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।
(भगवद्गीता 10.12-13)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
वही बातें जो अर्जुन ने कही थी अब यह विराट रूप जब देख रहे हैं तो देखकर पुनः अपने साक्षात्कार को दोहरा रहे है । मैं देख रहा हूं , आप सनातन हो , आप पुरुष हो ऐसा मेरा मत है ,ऐसा मेरा अनुभव है । आपने तो कहा ही था अब मेरा कहना भी वही है ।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य- मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् |
पश्यामि त्वा दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्र्वमिदं तपन्तम् ।।
(भगवद्गीता 11.19)
अनुवाद
आप आदि, मध्य तथा अन्त से रहित हैं | आपका यश अनन्त है | आपकी असंख्यभुजाएँ हैं और सूर्य चन्द्रमा आपकी आँखें हैं | मैं आपके मुख से प्रज्जवलित अग्निनिकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलाते हुए देख रहा हूँ |
मनन्तबाहुं शशिसुर्यनेत्रम भगवान ने पहले कहा था । जो भगवान ने कहा था वह अब अर्जुन देख रहे हैं और देख कर और जो भगवान ने कहा था वह साक्षात्कार के साथ अर्जुन कह रहे हैं । चंद्रमा और सूर्य आपकी आंखें है । पश्यामि त्वां
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्र्च सर्वाः |
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ||
(भगवद्गीता 11.20)
अनुवाद
यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं | हे महापुरुष! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखके सारे लोक भयभीत हैं |
सारा संसार जीसमे व्याप्त है त्वयैकेन आप अकेले ने यह सारे संसार को घेर लिया है या व्याप्त किया है । दृष्ट्वाभ्दुतं रुपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं स्वर्गलोक , मृत्यूलोक , पाताललोक यह सारे लोकों को , 14 भुवन भी इसीके अंतर्गत है , सब को अर्जुन देखकर , बड़ा भयानक भी लगता है । मैं भयभीत हो रहा हूं । और क्या देख रहे है अर्जुन ,
अमी हि त्वां सुरसङघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति |
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङघाः स्तवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ||
(भगवद्गीता 11.21)
अनुवाद
देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है |उनमें से कुछ अत्यन्त भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहें हैं | महर्षियोंतथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकीस्तुति कर रहे हैं |
इस अध्याय का यह 21 व श्लोक है , कुल 55 श्लोक है इस अध्याय मे , हम इसका सारांश आपको सुनाने का प्रयास कर रहे है लेकिन घड़ी की ओर भी देखना पड़ता है । अर्जुन देख रहे हैं सुरसड्घा पहले था भूतसंघा जो जीव के संघ देख रहे थे फिर सूर मतलब देवताओं के समूह वह देख रहे हैं , इसम ेसे कुछ आपके समक्ष भयभीत है , प्राज्जलयो हाथ जोड़कर कुछ आपकी स्तुती का गान कर रहे हैं । कई सारे महर्षि है। अलग-अलग लोगों में अलग अलग देवता है या सिद्ध पुरुष है। रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च तो ये अष्ट वसु है और एकादश रुद्र और गंधर्व, यक्ष असुर और सिद्ध पुरुष इनको एक ही संबंध में हम सुनते है जैसे अर्जुन ने सुना था। हम भी सुनते रहते है। अर्जुन ने भी सुना और पढ़ा होगा पहले इस तो यह सब को यानी गंधर्व, यक्ष को अर्जुन देख रहे हैं।
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥
भगवतगीता ११.२३
अनुवाद : हे महाबाहु! आपके अनेकों मुख, आँखें, अनेको हाथ, जंघा, पैरों, अनेकों पेट और अनेक दाँतों के कारण विराट रूप को देखकर सभी लोक व्याकुल हो रहे हैं और उन्ही की तरह मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ।
मतलब आप आकाश को पूरा व्याप्त किए हो। हरि हरि। प्रसीद देवेश जगन्निवास जो कुछ भी मैंने देखा है, अगर उसको एक शब्द में कहना है तो मैं कहूंगा कि, यानी अर्जुन कहेंगे कि, जगन्निवास! आप क्या हो? जगन्निवास! हम सुनते रहते है कि भगवान जगन्निवास है। जगन्निवास हो मतलब सारे संसार के धाम आपमे समाया हुआ है। अर्जुन ने ऐसा कहा था संसार को आप समाके लिए हो और पुनः यहां पर कह रहे है कि, आप जगन्निवास हो! सारा जगत आप में है। तो भगवान अंदर है, बाहर है यानी संसार के अंदर है और बाहर भी है। और अभी अर्जुन यह भी देख रहे हैं कि, सारा शत्रु का सैन्य यानी अठारह अक्षौहिणी सेना से दुर्योधन की ओर से 11 अक्षौहिणी की सेना, और आपकी जानकारी के लिए बताता हूं की, कुरुक्षेत्र के युद्ध में 64 करोड़ सैनिक मारे गए थे। तो यहां विराट रूप के दर्शन के समय अर्जुन को दिखा रहे है कि, जो सारा शत्रु का सैन्य है बड़े तेजी से यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति जैसे नदी का जल बड़ी गति से समुद्र की और दौड़ता है उसी प्रकार यह सारे 11 अक्षौहिणी सेना के सैनिक भगवान के विराट रूप के मुंह में प्रवेश कर रहे है। और वहां उनका अंतिम संस्कार हो रहा है, इस विराट रूप के मुख से ज्वालाए निकल रही है और सारे सैनिक वह जलकर राख हो रहे है। यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः जैसे पतंगे आग की ओर दौड़ते हैं और जलकर राख हो जाते हैं वैसा ही यहां हो रहा है। उन सब का भगवान के विराट रूप के मुख मंडल में प्रवेश हो रहा है। हरि हरि। तो यह सब देख के यह दृश्य बड़ा रोमांचकारी है और संभ्रमित करने वाला भी है तो अर्जुन कह रहे है कि, हे भगवान मुझ पर कृपा करो मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मेरी डामाडोल हो रही है, यह सब देखकर तो आप कुछ बताइए तो भगवान ने कहा, कालोऽस्मि! मैं काल हूं! यहां युद्ध के भूमि में मैं काल बन कर आया हूं। वैसे मैं युद्ध नहीं खेलूंगा यह तो बातें है लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि मैं कौन हूं? कल हूं! मैं यहां सारे लोगों का क्षय या विनाश करने वाला हूं! हरि हरि। तो यह सब दिखा कर और फिर और मैं काल हूं यानी हत्या करने वाला ही हूं, तुम कौन हो? तुम सोच रहे हो मैं युद्ध नहीं करूंगा लेकिन, भगवान दिखा रहे युद्ध तो मैं करने वाला हूं, मैं यह युद्ध खेलने के लिए आया हूं और देखो दुष्टों का संहार करने के लिए ही मैं प्रकट हुआ हूं और यह मेरे लिए बहुत बढ़िया अवसर है। क्योंकि संसार भर के असुर यहां इकट्ठे हुए हैं एक एक को मैं नहीं मारूंगा यहां करोड़ों की संख्या में सब कोई इकट्ठे है तो मैं इसका फायदा उठाने वाला हूं। तो इस समय युद्ध का पहला दिन है, अब और 18 दिन युद्ध चलने वाला है, तो 18 दिन के बाद यह युद्ध समाप्त होने वाला है, तो यह सब विराट रूप के समय भगवान ने भविष्य दिखाया और हर 1 दिन में क्या होने वाला है यह भी दिखाया। तो यम भी मेरे वैभव में से एक है ऐसा कहे थे भगवान, इसीलिए हे अर्जुन तुम क्या करो? मैंने जो कुछ भी दिखाया या कहा इसीलिए क्या करो? उत्तिष्ठ! उठो और यश को प्राप्त करो!
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
भगवतगीता ११.३३
अनुवाद : हे सव्यसाची! इसलिये तू यश को प्राप्त करने के लिये युद्ध करने के लिये खडा़ हो और शत्रुओं को जीतकर सुख सम्पन्न राज्य का भोग कर, यह सभी पहले ही मेरे ही द्वारा मारे जा चुके हैं, तू तो युद्ध में केवल निमित्त बना रहेगा। (३३)
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् तुम इस साम्राज्य को जीत जाओ। मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् जैसे मैंने अभी अभी दिखाया और कहां भी रहा हूं कि, मेरे द्वारा यह सब इन सब की हत्या मैंने पहले ही कर दी है अब तुम्हें क्या करना है? यह बहुत प्रसिद्ध वचन है जिसे हम सुनते हैं पहले, निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् तुम बस निमित्त तो बनो। कर्ता करविता मराठी में बोलते हैं करता करविता यानी करने वाला तो मैं ही हूं! जैसे तुमने अभी देखा बस तुम्हें निमित्त बनना है। अर्जुन को कई नामों से संबोधित करते हैं भगवान तो यहां पर सव्यसाचिन् कहे है। अगर तुम इतने कुशल धनुर्धर हो तुम तो दोनों यानी देहने और बाएं दोनों हाथों से बान चला सकते हो। तुम ऐसे हो, अर्जुन तुम भूल गए तो जानबूझकर भगवान अलग अलग संबोधन करते है। अलग अलग समय और युद्ध करने के लिए प्रेरित कर रहे है। और कह रहे है कि, तुम साधारण धनुर्धारी नहीं हो तुम यह तुम्हारे लिए बाएं हाथ का खेल यानी बहुत आसान है। तो उठो! तो इसके बाद अब संजय उवाच अपनी बातें या निरीक्षण संजय के भी बीच-बीच में चलते हैं तो वह भी कह रहे हैं,
संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥
भगवतगीता ११.३५
भावार्थ : संजय ने कहा – भगवान के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने हाथ जोड़कर बारम्बार नमस्कार किया, और फ़िर अत्यन्त भय से कांपता हुआ प्रणाम करके अवरुद्ध स्वर से भगवान श्रीकृष्ण से बोला।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य मतलब अर्जुन ऐसे मनस्थिति में है और वह पुनः पुनः भगवान को नमस्कार कर रहे है। संजय ने देखा कि वह पुनः पुनः भूमि पर नमस्कार कर रहे है। और उनकी वाणी भी गदगद हो रही ह और फिर अर्जुन ने कहा कि, त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् पुराना तो यहां पर वह कह रहे है कि, आप आदिदेव हो, आप पुराने हो, आप ज्ञानवान हो और आपने मुझे यह विश्वरूप दिखाया जो विश्वरूप कैसा है? अनंत रूपम है यानी इसका कोई अंत ही नहीं है। पुनः मेरा नमस्कार स्वीकार कीजिए! आपको मेरा सारी दिशाओं से नमस्कार और कुछ चूक भूल के लिए मुझे माफ करना। मै तो सोचता था कि आप मेरे परिवार के सदस्य हो और मेरे सखा हो वैसे आपने पहले कहा अभी है, की है अर्जुन तुम मेरे सखा हो! आपने भी कहा था और मैं भी मानता था कि आप मेरे साथ हो लेकिन अभी यह जो दिखा रहे हो यह देख कर मैं अपनी गलती को सुधारना चाहता हूं! जो समकक्ष होते हैं उनके मध्य में मित्रता होती है आप मेरे मित्र नहीं हो आप बहुत कुछ हो
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥
भगवतगीता ११.४१
मैं कहां कुछ हूं मैं, में आपको संबोधित करता था हे कृष्ण हे गोविंद हे यादव अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि लेकिन मैं आपके महिमा को और ऐश्वर्य को जाने बिना या ध्यान में रखें बिना आपको ऐसे संबोधित करता रहा और विहारशय्यासनभोजनेषु हम कभी-कभी एक ही थाली में भोजन करते थे, एक ही शैय पर हम लेट से लेकिन अभी मुझे समझ में आ रहा है कि, मेरा स्थान क्या है! मैं तो निम्न हूं! पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् आप तो सारे जीव के पिता हो और आप आराध्य और पूजनीय हो और आपके समक्ष कोई नहीं है। और आपसे बड़ा और महान कौन हो सकता है! भगवान पहले कहे ही है मुझसे बढ़कर उनका या ऊपर वाला और कोई नहीं है! ऐसा कहे थे भगवान तो अब अर्जुन पूरे समझ के साथ कह रहे हैं तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास मुझे आपका देव रूप का दर्शन करना है। यह विराट रूप और विश्वरूप का दर्शन बहुत हुआ अब मैं आपका देवरूप आदिदेव रूप देखना चाहता हूं यह इच्छा प्रकट कर रहे हैं और क्या इच्छा है तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते भगवान का जो चतुर्भुज रूप है उसे दिखाइए और फिर तब भगवान ने कहा,
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥
भगवतगीता ११.४७
अनुवाद : श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के प्रभाव से तुझे अपना दिव्य विश्वरूप दिखाया है, मेरे इस तेजोमय, अनन्त विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है।
हे अर्जुन जिस रूप का तुम दर्शन करना चाहते हो, उसके विशेषाधिकार जिसे प्राप्त है वही उस चतुर्भुज रूप का दर्शन कर सकते है। ऐसा कहे भी है और उसी के साथ चतुर्भुज रूप का दर्शन भी दिए है। और चतुर्भुज रूप के दर्शन करने से भी अर्जुन अभी पूर्ण प्रसन्न नहीं है तो फिर आगे संजय कहते हैं, भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा आपका यह अति सुंदर रूप अर्जुन देखना चाहते है, और यह सब में भगवान का द्विभुज रूप सबसे सौम्य है। तो भगवान उस चतुर्भुज रूप को दिखा रहे थे उसे अदृश्य करके भगवान ने अपना द्विभुज दिखाया, तो फिर आगे अर्जुन कहते हैं दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन यह जो रूप देखा है जिसको सौम्य रूप कह रहे है, तो अब अर्जुन बहुत प्रसन्न है। तो अभी अर्जुन अंतःकरण में स्थित हुए है। और प्रसन्न हुए है विभिन्न रूप से तो अभी इस अध्याय के बहुत महत्वपूर्ण वचन है आपको यह अध्याय की पुनः पुनः चुनाव होगा,
श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥
भगवतगीता ११.५२
अनुवाद : श्री भगवान ने कहा – मेरा जो चतुर्भज रूप तुमने देखा है, उसे देख पाना अत्यन्त दुर्लभ है देवता भी इस शाश्वत रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं।
भगवान ने कहा कि, जिस स्वरूप को अब तुम देख रहे हो हे अर्जुन, यह दर्शन बहुत दुर्लभ है, विशेष है! देवता भी इस रूप को दर्शन के लिए बड़े उत्कण्ठित होते हैं।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥
भगवतगीता ११.५३
अनुवाद : मेरे इस चतुर्भुज रूप को जिसको तेरे द्वारा देखा गया है इस रूप को न वेदों के अध्यन से, न तपस्या से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जाना संभव है।
जिस रूप का अब तुम दर्शन कर रहे हो, यह वेदों के अध्ययन से, तपस्या से, दान से या अर्चना से प्राप्त नहीं होता। तो क्या करना होता है ताकि ऐसा दर्शन हो? तो भगवान कहते है,
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
भगवागीता ११.५४
अनुवाद : हे परन्तप अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन केवल भक्ति से और भक्ति से ही यह संभव है! ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप तो भक्ति से क्या होगा? इस रूप को जानना और देखना और फिर इस रूप में प्रवेश करना या चरणों का आश्रय लेना या फिर जहां मैं रहता हूं इस रूप के साथ उस धाम में प्रवेश करना यह भक्ति से ही हो सकता है! कैसे भक्ति अनन्य भक्ति से तो अन अन्य मतलब जो व्यक्ति या आराधक और कोई इच्छा या आकांक्षा या कामना नहीं है! तो वही भगवान को प्राप्त कर सकते है।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
भगवतगीता ११.५५
अनुवाद : हे पाण्डुपुत्र! जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करता है।
तो यह 55 वा श्लोक अंतिम श्लोक है जिसमें भगवान कहते है, जो भक्त मुझे जान सकता है, मेरे धाम में आ सकता है और जो मेरे लिए सारे कर्म या कृत्य करता है, ऐसा मेरा भक्त संसार के संग से दूर रहता है, मायावी संघ को ठुकराता है और जो किसी से शत्रु भाव नहीं रखता सबके साथ मित्रता का व्यवहार रखता है, वह किसी का शत्रु नहीं होता किसी से ईर्ष्या या द्वेष नहीं करता, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्राप्त करता है! या मेरे धाम में लौटता है। ठीक है। हरे कृष्ण!
श्री कृष्णा अर्जुना की जय!
श्रीमद भगवतगीता की जय!
कुरुक्षेत्र धाम की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय !
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
12 January 2021
Universal Form – The ultimate proof of Lord’s opulences
Hare Krishna There are devotees from 818 different locations. Hare Krishna, Gaur Premanande Hari Haribol.
om namah bhagavate vasudevaya
We have completed 9 chapters of Bhagavad Gita. We were busy with the 10th
evam etad yathāttha tvam
ātmānaṁ parameśvara
draṣṭum icchāmi te rūpam
aiśvaraṁ puruṣottama
Translation
O greatest of all personalities, O supreme form, though I see here before me Your actual position, I yet wish to see how You have entered into this cosmic manifestation. I want to see that form of Yours. (BG 11.3)
arjuna uvaca
paraṁ brahma paraṁ dhāma
pavitraṁ paramaṁ bhavān
puruṣaṁ śāśvataṁ divyam
ādi-devam ajaṁ vibhum
āhus tvām ṛṣayaḥ sarve
devarṣir nāradas tathā
asito devalo vyāsaḥ
svayaṁ caiva bravīṣi me
Translation
Arjuna said: You are the Supreme Personaility of Godhead, the ultimate abode, the purest, the Absolute Truth. You are the eternal, transcendental, original person, the unborn, the greatest. All the great sages such as Nārada, Asita, Devala and Vyāsa confirm this truth about You, and now You Yourself are declaring it to me. (BG 10. 12-13)
Arjuna had heard a series of verses from Krsna. After hearing so many verses he had this realisation and he requested Krsna to explain opulence, His presence in different forms. He wanted to remember those forms and those qualities and also realize His presence in different places. Krsna explained His different opulences. Krsna also said that what He explained was just an iota and that there is much more.
Then comes Chapter 11 and in the beginning of this chapter Arjuna said that he was very grateful that Krsna had explained His different opulences.
arjuna uvāca
mad-anugrahāya paramaṁ
guhyam adhyātma-saṁjñitam
yat tvayoktaṁ vacas tena
moho ’yaṁ vigato mama
Translation
Arjuna said: By my hearing the instructions You have kindly given me about these most confidential spiritual subjects, my illusion has now been dispelled.
(BG 11.1)
Arjuna said that he got the mercy of the Lord, when he expressed his curiosity and requested Krsna to explain about His opulence and the effect of hearing these glorifications was that he might be freed from his attachments.
But all these opulences are for the worldly materialistic people. In the conditioned stage people want to see. They are not satisfied by just hearing. That’s Arjuna’s request, “Please show me all those opulences. I want to see with my own eyes.” Krsna was ready. So the view is going to change now. Krsna said, “Just see.” Seeing is believing. When we see then we will trust, accept. This is the mindset of mortal minds. They want to see, they are not satisfied by hearing.
On behalf of such people Arjuna is saying
draṣṭum icchāmi te rūpam
aiśvaraṁ puruṣottama
Translation
I yet wish to see how You have entered into this cosmic manifestation. I want to see that form of Yours. (BG 11.3)
Arjuna expressed to see the opulences. Krsna is always ready. In chapter one Krsna said:
bhīṣma-droṇa-pramukhataḥ
sarveṣāṁ ca mahī-kṣitām
uvāca pārtha paśyaitān
samavetān kurūn iti
In the presence of Bhīṣma, Droṇa and all other chieftains of the world, Hṛṣīkeśa, the Lord, said, Just behold, Pārtha, all the Kurus who are assembled here. (BG 1.25)
Just see all the Kauravas present on this battlefield. Now again Krsna is saying, ‘just see’. But now He is showing the universal form to Arjuna. Just see thousands of divine forms with different complexiona, forms and structures. It is called Brahma Darshan, the Virat Rupa or the Universal Form.
paśya me pārtha rūpāṇi
śataśo ‘tha sahasraśaḥ
nānā-vidhāni divyāni
nānā-varṇākṛtīni ca
Translation
The blessed Lord said: My dear Arjuna, O son of Pṛthā, behold now My opulence’s, hundreds of thousands of varied divine forms, multi-coloured like the sea. (BG 11.5)
teṣāṁ satata-yuktānāṁ
bhajatāṁ prīti-pūrvakam
dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ
yena mām upayānti te
Translation
To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (BG 10.10)
I had told you I am Aditya, just see the different Adityas and there is Visnu also. See the Asvin Kumaras. See the Maruts, Rudra. You don’t have anywhere else to see. You can see the whole creation in one place. The vision is divine. You can’t see all these forms in the whole universe with your human eyes in one place. “I’ll give you transcendental eyes to see all these forms.” In the earlier part of Bhagavad Gita Krsna had said, “I’ll give you intelligence.” This is amazing, Lord is giving a wonderful, mind boggling view.
Now He is providing divine vision to Arjuna. On this Sanjaya is commenting, Krsna blessed Arjuna with transcendental Vision.
na tu māḿ śakyase draṣṭum
anenaiva sva-cakṣuṣā
divyaḿ dadāmi te cakṣuḥ
paśya me yogam aiśvaram
Translation
But you cannot see Me with your present eyes. Therefore I give you divine eyes. Behold My mystic opulences. (BG 11.8)
He is able to see different form with thousands of eyes and the form is decorated with ornaments. Even Sanjaya had the potency to see the universal form by the blessings of Vyasa Deva and he was narrating everything to Dhritarashtra. After all these visions Sanjaya is becoming anxious, his hairs are standing on ends. He is offering obeisances to Krsna. Sanjaya is saying that Arjuna is observing through the glasses awarded by the Lord. He has innumerable eyes. It is an astonishing view. Sanjaya is also seeing this. Vyasa Deva has given special powers to Sanjaya, so he is seeing it all.
Arjuna has bowed down to Krsna. As we say premanjana carutam bhakti vilochena. A special vision is awarded to the devotee to see the Lord. So Arjuna has become qualified for that vision. There are different animals, birds, farms present in that universal form. Even Brahma is present seated in the lotus flower. Even Shiva and Urgas namely snakes and Krsna had said, “Amongst all the snakes, I am Vasuki.” There is no beginning, middle or end to Krsna’s universal form.
neka-vaktra-nayanam
anekādbhuta-darśanam
aneka-divyābharaṇaṁ
divyānekodyatāyudham
divya-mālyāmbara-dharaṁ
divya-gandhānulepanam
sarvāścarya-mayaṁ devam
anantaṁ viśvato-mukham
Translation
Arjuna saw in that universal form unlimited mouths and unlimited eyes. It was all wondrous. The form was decorated with divine, dazzling ornaments and arrayed in many garbs. He was garlanded gloriously, and there were many scents smeared over His body. All was magnificent, all-expanding, unlimited. This was seen by Arjuna. (BG 11.10-11)
It’s absolutely unlimited. You are the shelter of the whole creation. You are inexhaustible, unending. Vyaya means exhausted. Exhaustible, but you are inexhaustible. Arjuna is saying that after self-realisation. You establish dharma, religion. Whatever Krsna had said in the past Arjuna is repeating the same because now he is realised after seeing this form of the Lord. Sun and moon are Your eyes. The whole creation is covered by You. This is Ugra rupa.
This is making me fearful. 11th chapter has 55 verses. Even though I am trying to cover, but we are limited by time. Even the big big devotees are glorifying You. There are Rudras, Adityas, Gandarvas, Asuras.
rudrādityā vasavo ye ca sādhyā
viśve ‘śvinau marutaś coṣmapāś ca
gandharva-yakṣāsura-siddha-saṅghā
vīkṣante tvāṁ vismitāś caiva sarve
Translation
The different manifestations of Lord Śiva, the Ādityas, the Vasus, the Sādhyas, the Viśvadevas, the two Aśvins, the Māruts, the forefathers and the Gandharvas, the Yakṣas, Asuras, and all perfected demigods are beholding You in wonder. (BG 11.22)
amī hi tvāṁ sura-saṅghā viśanti
kecid bhītāḥ prāñjalayo gṛṇanti
svastīty uktvā maharṣi-siddha-saṅghāḥ
stuvanti tvāṁ stutibhiḥ puṣkalābhiḥ
Translation
All the demigods are surrendering and entering into You. They are very much afraid, and with folded hands they are singing the Vedic hymns. (BG 11.21)
Now he could see each one of them. The whole sky is full of all these different forms. Arjuna is saying, “If I have to explain Your form in one word then You are Jagananivas. You are inside everything and You are out as well as the army of the enemies in front of us.”
I would like to tell you that 64 crore soldiers had died in the battlefield of Kurukshetra. Fire is coming out of the mouth of the Universal Form and all these soldiers are entering that fire like a fire-worms. They are dying.
yathā pradīptaṁ jvalanaṁ pataṅgā
viśanti nāśāya samṛddha-vegāḥ
tathaiva nāśāya viśanti lokās
tavāpi vaktrāṇi samṛddha-vegāḥ
Translation
I see all people rushing with full speed into Your mouths as moths dash into a blazing fire. (BG 11.25)
All these descriptions are very exciting and bewildering. Now Arjuna is requesting some mercy as he is feeling very uncomfortable seeing all this.
kirīṭinaṁ gadinaṁ cakra-hastam
icchāmi tvāṁ draṣṭum ahaṁ tathaiva
tenaiva rūpeṇa catur-bhujena
sahasra-bāho bhava viśva-mūrte
Translation
O universal Lord, I wish to see You in Your four-armed form, with helmeted head and with club, wheel, conch and lotus flower in Your hands. I long to see You in that form. (BG 11.46)
Krsna says, ‘Kalo Asmin’. Krsna is saying, “I am kala and I am the destroyer of all the three worlds.” Krsna is saying, “I am the destroyer. Why do you think you will kill anyone? You were saying you will not fight, but who are you to fight.”
“I appeared in this world, this earth, to destroy all the miscreants. Here I am on this battlefield as all of them are assembled here. That’s why, Stand up! Win this kingdom.” Earlier he had said, but is stating that He has already killed each one of them. Arjuna just has to act as an instrument. “I am the real doer.” Krsna is calling Arjuna different names and one of them is Savyasaci. It means that Arjuna is so qualified that he can used the bow and arrow with both of his hands. This conversation is going on.
tasmāt tvam uttiṣṭha yaśo labhasva
jitvā śatrūn bhuṅkṣva rājyaṁ samṛddham
mayaivaite nihatāḥ pūrvam eva
nimitta-mātraṁ bhava savya-sācin
Translation
Therefore get up and prepare to fight. After conquering your enemies you will enjoy a flourishing kingdom. They are already put to death by My arrangement, and you, O Savyasācin, can be but an instrument in the fight. (BG 11.33)
dharma-saḿsthāpanārthāya
sambhavāmi yuge yuge
Translation
To deliver the pious and to annihilate the miscreants, as well as to re-establish the principles of religion, I Myself appear, millennium after millennium. (BG 4.8)
Arjuna is a bit afraid. Repeatedly he is offering his obeisances to Krsna. Then Arjuna says, “You are Lord of the Lords. You are the source of intelligence. You have this unlimited form. I offer my repeated obeisances from all the four directions. Please forgive me for all my past mistakes. I used to think of You as my relative. But after seeing all this, You can’t be my friend. Friendship is amongst equals. I addressed You in a casual manner. We slept on one bed. But now Your real identity is revealed to me.”
sakheti matvā prasabhaṁ yad uktaṁ
he kṛṣṇa he yādava he sakheti
ajānatā mahimānaṁ tavedaṁ
mayā pramādāt praṇayena vāpi
yac cāvahāsārtham asat-kṛto ‘si
vihāra-śayyāsana-bhojaneṣu
eko ‘tha vāpy acyuta tat-samakṣaṁ
tat kṣāmaye tvām aham aprameyam
Translation
I have in the past addressed You as “O Kṛṣṇa,” “O Yādava,” “O my friend,” without knowing Your glories. Please forgive whatever I may have done in madness or in love. I have dishonoured You many times while relaxing or while lying on the same bed or eating together, sometimes alone and sometimes in front of many friends. Please excuse me for all my offences. (BG 11.41-42)
The Lord tells Arjuna that this form that he is seeing is very rare.
srī-bhagavān uvāca
su-durdarśam idaṁ rūpaṁ
dṛṣṭavān asi yan mama
devā apy asya rūpasya
nityaṁ darśana-kāṅkṣiṇaḥ
Translation
The blessed Lord said: My dear Arjuna, the form which you are now seeing is very difficult to behold. Even the demigods are ever seeking the opportunity to see this form which is so dear.(BG 11.52)
The Lord says that no one see this by penance and charity.
nāhaṁ vedair na tapasā
na dānena na cejyayā
śakya evaṁ-vidho draṣṭuṁ
dṛṣṭavān asi māṁ yathā
Translation
The form which you are seeing with your transcendental eyes cannot be understood simply by studying the Vedas, nor by undergoing serious penances, nor by charity, nor by worship. It is not by these means that one can see Me as I am.(BG 11.53)
Lord says this form can be seen only by undivided devotional service.
bhaktyā tv ananyayā śakya
aham evaṁ-vidho ‘rjuna
jñātuṁ draṣṭuṁ ca tattvena
praveṣṭuṁ ca parantapa
Translation
My dear Arjuna, only by undivided devotional service can I be understood as I am, standing before you, and can thus be seen directly. Only in this way can you enter into the mysteries of My understanding.(BG 11.54)
In the end the Lord tells Arjuna that one who works for Him and engages in pure Devotional service, certainly comes to Him.
mat-karma-kṛn mat-paramo
mad-bhaktaḥ saṅga-varjitaḥ
nirvairaḥ sarva-bhūteṣu
yaḥ sa mām eti pāṇḍava
Translation
My dear Arjuna, one who is engaged in My pure devotional service, free from the contaminations of previous activities and from mental speculation, who is friendly to every living entity, certainly comes to Me. (BG 11.55)
Hare Krishna.
Gaura premanande Hari Haribol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 12 января 2021 г.
ВСЕЛЕНСКАЯ ФОРМА — АБСОЛЮТНОЕ ДОКАЗАТЕЛЬСТВО ДОСТОЯНИЙ ГОСПОДА(2)
Харе Кришна!
Есть преданные из 818 разных мест.
Харе Кришна, Гаура Премананде Хари Харибол.
ом намо бхагавате васудевайа
Мы изучили 9 глав Бхагавад Гиты. Мы изучали 10-ю…
эвам этад йатха̄ттха твам
а̄тма̄нам̇ парамеш́вара
драшт̣ум иччха̄ми те рӯпам
аиш́варам̇ пурушоттама
Перевод Шрилы Прабхупады:
О величайшая личность, о Всевышний, хотя сейчас я вижу Тебя в Твоем изначальном облике, я хочу посмотреть, каким Ты вошел в космическое мироздание. Я хочу увидеть тот образ, о котором Ты поведал мне.
(Б.Г. 11.3)
арджуна ува̄ча
парам̇ брахма парам̇ дха̄ма
павитрам̇ парамам̇ бхава̄н
пурушам̇ ш́а̄ш́ватам̇ дивйам
а̄ди-девам аджам̇ вибхум
а̄хус тва̄м р̣шайах̣ сарве
деваршир на̄радас татха̄
асито девало вйа̄сах̣
свайам̇ чаива бравӣши ме
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: Ты Верховная Личность Бога, высшая обитель, чистейший, Абсолютная Истина. Ты вечная, божественная, изначальная личность, нерожденная и величайшая. Все великие мудрецы, такие как Нарада, Асита, Девала и Вьяса, подтверждают эту истину, и теперь Ты Сам говоришь мне об этом.
(Б.Г. 10.12-13)
Арджуна услышал ряд стихов от Кришны. Услышав так много стихов, он осознал их и попросил Кришну показать достояние, Его присутствие в различных формах. Он хотел запомнить эти формы и эти качества, а также осознать Его присутствие в разных местах. Кришна объяснил Свои различные достояния. Кришна также сказал, что то, что Он объяснил, было всего лишь малая часть и что достояний намного больше.
Затем идет глава 11, и в начале этой главы Арджуна сказал, что он очень благодарен Кришне за объяснение Его различных достояний.
арджуна ува̄ча
мад-ануграха̄йа парамам̇
гухйам адхйа̄тма-сам̇джн̃итам
йат твайоктам̇ вачас тена
мохо ’йам̇ вигато мама
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: Сейчас, выслушав все, что Ты так милостиво рассказал мне о самой сокровенной части духовного знания, я избавился от всех своих иллюзий.
(Б.Г. 11.1)
Арджуна сказал, что получил милость Господа, когда выразил свое любопытство и попросил Кришну рассказать о Его достояниях, и эффект от слушания этих прославлений заключался в том, что он мог освободиться от своих привязанностей.
Но все эти достояния предназначены для мирских материалистов. На обусловленной стадии люди хотят видеть. Их не удовлетворяет просто слушание. Это просьба Арджуны: «Пожалуйста, покажи мне все эти достояния. Я хочу увидеть собственными глазами». Кришна был готов. Так что теперь мнение изменится. Кришна сказал: «Просто посмотри». Пока не увижу, не поверю. Когда мы увидим, мы будем доверять, принимать. Это мировоззрение материалистов. Они хотят видеть, потому что их не удовлетворяет слушание.
От имени таких людей Арджуна говорит:
драшт̣ум иччха̄ми те рӯпам
аиш́варам̇ пурушоттама
Перевод Шрилы Прабхупады:
я хочу посмотреть, каким Ты вошел в космическое мироздание. Я хочу увидеть тот образ, о котором Ты поведал мне.
(Б.Г. 11.3)
Арджуна выразил желание увидеть достояния. Кришна всегда готов. В первой главе Кришна сказал:
бхӣшма-дрон̣а-прамукхатах̣
сарвеша̄м̇ ча махӣ-кш́ита̄м
ува̄ча па̄ртха паш́йаита̄н
самавета̄н курӯн ити
Перевод Шрилы Прабхупады:
Перед лицом Бхишмы, Дроны и всех повелителей мира Господь сказал: «Взгляни же, о Партха, на всех собравшихся здесь Куру».
(Б.Г. 1.25)
Просто посмотри на всех Кауравов, присутствующих на этом поле битвы. Теперь Кришна снова говорит: «Просто смотри». Но теперь Он показывает Арджуне вселенскую форму. Просто посмотри тысячи божественных форм с разным цветом лица, формами и структурами. Это называется Брахма Даршан, Вират Рупа или Вселенская Форма.
ш́рӣ-бхагава̄н ува̄ча
паш́йа ме па̄ртха рӯпа̄н̣и
ш́аташ́о ’тха сахасраш́ах̣
на̄на̄-видха̄ни дивйа̄ни
на̄на̄-варн̣а̄кр̣тӣни ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь сказал: Дорогой Арджуна, о сын Притхи, узри же Мое великолепие в сотнях тысяч божественных и многоцветных форм.
(Б.Г. 11.5)
теша̄м̇ сатата-йукта̄на̄м̇
бхаджата̄м̇ прӣти-пӯрвакам
дада̄ми буддхи-йогам̇ там̇
йена ма̄м упайа̄нти те
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тех, кто постоянно служит Мне с любовью и преданностью, Я наделяю разумом, который помогает им прийти ко Мне.
(Б.Г. 10.10)
Я сказал тебе, что я Адитья, просто посмотри на разных Адитьев, а также есть Вишну. Смотри Ашвини Кумары. Посмотри на Марутов, Рудру. Тебе больше никуда не нужно смотреть. Ты можешь увидеть все творение в одном месте. Видение божественности. Невозможно увидеть все эти формы во всей вселенной человеческими глазами в одном месте. «Я дам тебе трансцендентные глаза, чтобы увидеть все эти формы». В более ранней части Бхагавад Гиты Кришна сказал: «Я дам вам разум». Это потрясающе, Господь показывает волшебную, ошеломляющую картину.
Теперь Он дает Арджуне божественное зрение. Комментируя это Санджая сказал, что Кришна благословил Арджуну трансцендентным зрением.
на ту ма̄м̇ ш́акйасе драшт̣ум
аненаива сва-чакшуша̄
дивйам̇ дада̄ми те чакшух̣
паш́йа ме йогам аиш́варам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Но поскольку ты не сможешь увидеть Меня своими нынешними глазами, Я наделю тебя божественным зрением. Узри же Мое мистическое могущество!
(Б.Г. 11.8)
Он способен видеть разные формы тысячами глаз, и форма украшена орнаментом. Даже Санджая обладал способностью видеть вселенскую форму по благословению Вьяса Девы, и он все рассказывал Дхритараштре. После всех этих зрелищ Санджая начинает волноваться, его волосы встают дыбом. Он предлагает поклоны Кришне. Санджая говорит, что Арджуна наблюдает через зрение, подаренное Господом. У него бесчисленные глаза. Это потрясающий вид. Санджая тоже видит это. Вьяса Дева наделил Санджаю особыми силами, поэтому он все это видит.
Арджуна поклонился Кришне. Как мы говорим
према̄н̃джана-ччхурита-бхакти-вилочанена
Перевод:
Я поклоняюсь предвечному Господу, обладающему бесчисленными непостижимыми качествами.
(Брамхма-самхита, 5.38)
Преданному дается особое зрение, чтобы увидеть Господа. Итак, Арджуна стал подходящим для этого зрения. В этой вселенской форме присутствуют разные животные, птицы, живые существа. Даже Брахма присутствует в цветке лотоса. Даже Шива и Ургас, а именно – змеи, и Кришна сказал: «Среди всех змей Я Васуки». У вселенской формы Кришны нет начала, середины или конца.
анека-вактра-найанам
анека̄дбхута-дарш́анам
анека-дивйа̄бхаран̣ам̇
дивйа̄некодйата̄йудхам
дивйа-ма̄лйа̄мбара-дхарам̇
дивйа-гандха̄нулепанам
сарва̄ш́чарйа-майам̇ девам
анантам̇ виш́вато-мукхам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна увидел во вселенской форме бесчисленное множество зевов, бесчисленное множество глаз и удивительных видений. Господь, облаченный в небесные одежды и украшения, вздымал над Собой разнообразное божественное оружие. Тело Его было украшено небесными гирляндами и умащено божественными благовонными маслами. Все, что предстало перед Арджуной, было дивным, ослепительным, безграничным и всеохватывающим.
(Б.Г. 11.10-11)
Она абсолютно безгранична. Ты прибежище всего творения. Ты неисчерпаем, бесконечен. Вьяя означает истощение. Неиссякаемый, и неисчерпаемый. Арджуна говорит это после самоосознания. Ты устанавливаешь дхарму, религию. Все, что Кришна сказал в прошлом, Арджуна повторяет то же самое, потому что теперь он осознал, увидев эту форму Господа. Солнце и луна – Твои глаза. Ты покрываешь все творение. Это Угра рупа. Меня это пугает. В 11-й главе 55 стихов. Хоть и пытаюсь рассказать, но мы ограничены по времени. Даже великие мудрецы прославляют Тебя. Есть Рудры, Адитьи, гандхарвы, асуры.
рудра̄дитйа̄ васаво йе ча са̄дхйа̄
виш́ве ’ш́винау маруташ́ чошмапа̄ш́ ча
гандхарва-йакша̄сура-сиддха-сан̇гха̄
вӣкшанте тва̄м̇ висмита̄ш́ чаива сарве
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все воплощения Господа Шивы, а также Адитьи, Васу, Садхьи, Вишвадевы, оба Ашви, Маруты, питы, гандхарвы, якши, асуры и достигшие совершенства полубоги взирают на Тебя в изумлении.
(Б.Г. 11.22)
амӣ хи тва̄м̇ сура-сан̇гха̄ виш́анти
кечид бхӣта̄х̣ пра̄н̃джалайо гр̣н̣анти
свастӣтй уктва̄ махарши-сиддха-сан̇гха̄х̣
стуванти тва̄м̇ стутибхих̣ пушкала̄бхих̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Сонмы полубогов склоняются перед Тобой и входят в Тебя. Некоторые из них, напуганные происходящим, молятся Тебе, сложив ладони. Сонмы великих мудрецов и людей, достигших совершенства, с возгласами «Да будет мир!» взывают к Тебе, исполняя ведические гимны.
(Б.Г. 11.21)
Теперь он мог видеть каждого из них. Все небо полно всех этих различных форм. Арджуна говорит: «Если я должен объяснить Твою форму одним словом, тогда Ты – Джагананива. Ты внутри всего и ты вне, как и армия врагов перед нами».
Я хотел бы сказать Тебе, что 64 крор солдат погибли на поле битвы Курукшетра. Огонь выходит из пасти Вселенской Формы, и все эти солдаты входят в этот огонь, как огненные черви. Они умирают.
дам̇шт̣ра̄-кара̄ла̄ни ча те мукха̄ни
др̣шт̣ваива ка̄ла̄нала-саннибха̄ни
диш́о на джа̄не на лабхе ча ш́арма
прасӣда девеш́а джаган-нива̄са
Перевод Шрилы Прабхупады:
О Бог богов, прибежище всех миров, умоляю Тебя, смилуйся надо мной. При виде Твоих ярко сияющих смертоносных ликов и страшных зубов я прихожу в смятение. Куда бы я ни взглянул, разум мой мечется, не находя покоя.
(Б.Г. 11.25)
Все эти описания очень интересны и сбивают с толку. Теперь Арджуна просит милости, так как ему очень неприятно видеть все это.
кирӣт̣инам̇ гадинам̇ чакра-хастам
иччха̄ми тва̄м̇ драшт̣ум ахам̇ татхаива
тенаива рӯпен̣а чатур-бхуджена
сахасра-ба̄хо бхава виш́ва-мӯрте
Перевод Шрилы Прабхупады:
О вселенская форма, о тысячерукий Господь, я хочу лицезреть Тебя в Твоем четырехруком образе с короной на голове, с палицей, диском, раковиной и лотосом в руках. Я жажду увидеть Тебя в этом облике.
(Б.Г. 11.46)
Кришна говорит: «Кало Асмин». Кришна говорит: «Я кала (время) и разрушитель всех трех миров». Кришна говорит: «Я разрушитель. Как ты думаешь, почему ты кого-нибудь убьешь? Ты говорил, что не будешь сражаться, но кто Ты такой, чтобы сражаться».
«Я явился в этом мире, на этой земле, чтобы уничтожить всех негодяев. Вот я на поле боя, все они здесь собрались. Вот почему, вставай! Завоюй это царство». Ранее Он сказал, но сейчас так же заявляет, что уже убил каждого из них. Арджуне просто нужно действовать как инструмент. «Я настоящий деятель». Кришна называет Арджуну разными именами, и одно из них – Савьясачи. Это означает, что Арджуна настолько квалифицирован, что может использовать лук и стрелы обеими руками. Этот разговор продолжается.
тасма̄т твам уттишт̣ха йаш́о лабхасва
джитва̄ ш́атрӯн бхун̇кшва ра̄джйам̇ самр̣ддхам
майаиваите нихата̄х̣ пӯрвам эва
нимитта-ма̄трам̇ бхава савйа-са̄чин
Перевод Шрилы Прабхупады:
Воспрянь же, Арджуна! Приготовься к сражению и стяжай себе славу. Покори врага и насладись властью над процветающим царством. Все они уже приговорены Мною к смерти, и ты, о Савьясачи, можешь быть лишь орудием в этой битве.
(Б.Г. 11.33)
паритра̄н̣а̄йа са̄дхӯна̄м̇
вина̄ш́а̄йа ча душкр̣та̄м
дхарма-сам̇стха̄пана̄ртха̄йа
самбхава̄ми йуге йуге
Перевод Шрилы Прабхупады:
Чтобы освободить праведников и уничтожить злодеев, а также восстановить устои религии, Я прихожу сюда из века в век.
(Б.Г. 4.8)
Арджуна немного напуган. Неоднократно он предлагает свои поклоны Кришне. Затем Арджуна говорит: «Ты Господь богов. Ты источник разума. У Тебя есть Вселенская форма. Я предлагаю свои неоднократные поклоны со всех четырех сторон. Пожалуйста, прости меня за все мои прошлые ошибки. Раньше я думал о Тебе как о своем родственнике. Но после всего этого Ты не можешь быть моим другом. Дружба среди равных. Я обращался к Тебе небрежно. Спал на одной кровати. Но теперь мне открылась Твоя настоящая личность».
сакхети матва̄ прасабхам̇ йад уктам̇
хе кр̣шн̣а хе йа̄дава хе сакхети
аджа̄ната̄ махима̄нам̇ таведам̇
майа̄ прама̄да̄т пран̣айена ва̄пи
йач ча̄ваха̄са̄ртхам асат-кр̣то ’си
виха̄ра-ш́аййа̄сана-бходжанешу
эко ’тха ва̄пй ачйута тат-самакшам̇
тат кша̄майе тва̄м ахам апрамейам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Считая Тебя своим другом, я небрежно обращался к Тебе: «О Кришна», «О Ядава», «Друг мой», не ведая о Твоем величии. Прости меня, пожалуйста, за все, что я делал в безумии своей любви. Я не раз принижал Тебя своими шутками, когда в час досуга мы делили с Тобою ложе или сидели за трапезой, иногда наедине, а иногда в кругу друзей. О непогрешимый, прошу Тебя, прости мне все эти вольности.
(Б.Г. 11.41-42)
Господь говорит Арджуне, что эта форма, которую он видит, встречается очень редко.
ш́рӣ-бхагава̄н ува̄ча
су-дурдарш́ам идам̇ рӯпам̇
др̣шт̣ава̄н аси йан мама
дева̄ апй асйа рӯпасйа
нитйам̇ дарш́ана-ка̄н̇кшин̣ах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь сказал: Дорогой Арджуна, увидеть Меня в облике, который ты созерцаешь сейчас, чрезвычайно трудно. Даже полубоги вечно жаждут увидеть этот дорогой для них облик.
(Б.Г. 11.52).
Господь говорит, что никто не видит этого через покаяние и сострадание.
на̄хам̇ ведаир на тапаса̄
на да̄нена на чеджйайа̄
ш́акйа эвам̇-видхо драшт̣ум̇
др̣шт̣ава̄н аси ма̄м̇ йатха̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
Образ, который ты видишь сейчас своими трансцендентными глазами, нельзя постичь, изучая Веды, совершая тапасью, раздавая пожертвования или проводя обряды поклонения. Эти методы не подходят для того, чтобы постичь Мою истинную природу.
(Б.Г. 11.53).
Господь говорит, что эту форму можно увидеть только при бескорыстном преданном служении.
бхактйа̄ тв ананйайа̄ ш́акйа
ахам эвам̇-видхо ’рджуна
джн̃а̄тум̇ драшт̣ум̇ ча таттвена
правешт̣ум̇ ча парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Дорогой Арджуна, по-настоящему постичь и воочию увидеть Меня в том образе, который видишь ты, можно, только служа Мне с безраздельной преданностью. Только так можно проникнуть в тайну Моего бытия.
(Б.Г. 11.54).
В конце концов, Господь говорит Арджуне, что тот, кто все делает для Него и занимается чистым преданным служением, непременно приходит к Нему.
мат-карма-кр̣н мат-парамо
мад-бхактах̣ сан̇га-варджитах̣
нирваирах̣ сарва-бхӯтешу
йах̣ са ма̄м эти па̄н̣д̣ава
Перевод Шрилы Прабхупады:
Дорогой Арджуна, тот, кто занимается чистым преданным служением, не оскверненным стремлением к кармической деятельности и умозрительному философствованию, кто посвящает Мне свой труд, кто считает Меня высшей целью своей жизни и по-дружески относится ко всем живым существам, непременно придет ко Мне.
(Б.Г. 11.55)
Харе Кришна.
Гаура Премананде Хари Харибол!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
11 जनवरी 2021
आज मैं जप भी कर रहा था। साथ ही साथ भगवान के अलग-अलग विभूतियों का स्मरण भी कर रहा था क्योंकि मैंने आपसे कहा था कि मैं आज यह कहूंगा भगवान की विभूतियां या फिर यह भगवान का जो ईश्वर है। उसका भी वर्णन होगा जो वर्णन स्वयं भगवान ने किया है। भगवान के ऐश्वर्या का वर्णन वह जो ऐश्वर्या पूर्ण है वह भगवान है उन्होंने ही किया है।
भगवत गीता में श्री भगवान उवाच दसवें अध्याय में भगवान ने इसका वर्णन किया है। तभी अर्जुन भगवान को सुन नहीं रहे थे जब भगवान ने उन विशेष 4 श्लोकों का उल्लेख किया तब अर्जुन ने अपना साक्षात्कार भगवान को सुनाया।
समझे कुछ समझे की नहीं ऐसे भगवान ने कहा तो नहीं होगा लेकिन फिर भी अर्जुन ने अपनी ओर से मुझसे रहा नहीं गया अब ना साक्षात्कार बताया गुह्यम आख्याती पृच्छति दिल की बात अपने दिल की बात अर्जुन ने भगवान को बताई, उसी के साथ उन्होंने कहा……
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् || १२ ||
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं
और फिर आगे अर्जुन ने कहा….
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव |
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः || १४ ||
हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं
आप जो जो कह रहे हो मुझे स्वीकार हैं, क्योंकि आप जो भी कह रहे हो वह सत्य ही है तो सत्य को मैं स्वीकार करता हूं और जैसे जैसे मैं आपके सत्य वचन को स्वीकार कर लूंगा यहां जैसे जैसे आप के वचन को मैं स्वीकार ता गया तभी तो मेरे मुख से यह वचन निकले कैसे वचन निकले…..
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
अर्जुन ने यह श्लोक कहां और आगे वह और भी सुनना चाहते थे भगवदसाक्षात्कार तो उन्हें हुआ ही उन्होंने यह सब भावना या भूमिका बनाई।
अर्जुन और ज्यादा जिज्ञासु बने हैं,
वेदान्त सूत्र १.१.१
अथातो ब्रह्म – जिज्ञासा
अतः अभी ब्रह्म ( पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ) के विषय में प्रश्न पूछने चाहिये ।
हमें कैसे होना चाहिए जिज्ञासु होना चाहिए जिज्ञासु तो होती ही है फिर हम पूछते हैं क्या बाजार भाव हैं साथ ही हम में जिज्ञासा तो है ही पर कैसी जिज्ञासा हमें करनी चाहिए ब्रह्म जिज्ञासु होना चाहिए हमें अर्जुन ने कहा ही परब्रह्म आप परब्रह्म हो पवित्रं परमं भवान् इसी प्रकार वह पर ब्रह्म के संबंध में और अधिक जानना चाहते हैं अर्जुन जिज्ञासु है।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || १६ ||
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी |
भगवान ने भगवत गीता में कहा ही है चार प्रकार के लोग मेरी शरण में आते हैं। उसमें से एक प्रकार है जिज्ञासु ब्रह्म जिज्ञासु मेरी और आते हैं वह जिज्ञासु बन कर जिज्ञासा करते हैं और जिज्ञासा का जो उत्तर प्राप्त होता है तो उसके बाद वह मेरी ओर आते है और अगर अधिक जिज्ञासा करते हैं तब और निकट पहुंचते हैं।
ऐसे लोग सुकृतिन है..
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन | ऐसा भगवान ने कहा ही है चार प्रकार के लोग मेरी और आते हैं। और चार प्रकार के लोग मेरी और नहीं आते हैं ऐसा भी भगवान ने कहा है, आगे उन्होंने कहा….
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः |
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि || १६ ||
कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्र्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं
अर्जुन ने कहा कि आपके विभूतियों का वर्णन सुनाइए…..
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि
आपके इन विभूतियों से यह सारा जगत व्याप्त है। आपकी सर्व व्यापकता को सुनाइए एक तो आप मेरे समक्ष हो ही साथ ही आगे अर्जुन ने कहा..
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् |
तो क्या आप और भी कुछ रूपों में इस संसार में हो और भी कोई रूप है आपका और भी कोई वैभव ऐश्वर्य है उसे आप मुझे सुनाइए वैसे श्रील प्रभुपाद जीने तात्पर्य में लिखा है कृष्ण भक्त तो वैसे कृष्ण में ही तल्लीन होते हैं कृष्ण के रूप में उनके सुंदर सर्वांग रूप में यह जिज्ञासा करने के पीछे का एक उद्देश्य और भी सफल होगा और वह क्या है ?
जो लोग भगवान सर्वव्यापकता को भी जानना चाहते हैं, उससे प्रभावित होंगे और भगवान सर्वत्र है सर्वत्र है इस बात का प्रचार भी है तो आप सर्वत्र किस प्रकार से हो किन रूप में हो या किन व्यक्तित्व में वस्तुओं में आपका ऐश्वर्या छुपा हुआ है या प्रकट हुआ है उनका भी उल्लेख कीजिए।
केशु केशु केशुच भागेशु चींतेशि भगवन मया ताकि मैं उन रूपों का दर्शन या स्मरण कर सकता हूं।
यतो यतो यामी ततो नरसिम्हा मैं जहां जहां भी जाऊंगा वहां वहां आपका ही दर्शन हो।
वह स्वयं रूप का दर्शन नहीं होगा किंतु आपके और आपका जो वैभव है आपका सौंदर्य है अलग-अलग शक्तियों का प्रदर्शन तो सर्वत्र हैं यह सारा संसार व्याप्त है ऐसे सारे आपकी व्यापकता को सुनाइए हे प्रभु ऐसा कहने पर ऐसे जिज्ञासा करने पर उसके बाद भगवान ने कहा….
श्री भगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः |
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे || १९ ||
श्रीभगवान् ने कहा – हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्र्वर्य असीम है |
हन्त ते कथयिष्यामि इन सारे श्लोकों में भगवान के ऐश्वर्या का वर्णन होगा।
तो 19 से लेकर 42 श्लोकों तक भगवान अपने ऐश्वर्या का अपने पैसों का जिनको भी विभूतियां भी कहते हैं यह भी विभूति योग भी होता है,
भगवान ने कहा हन्त हां हां मैं कहूंगा।
मेरी विभूतियों का वर्णन मैं करुंगा मेरी इतनी सारी विभूतियां है असंख्य विभूतियां है या वैसे संसार में जो भी है वह मेरी विभूतियां है कोई छोटी है कोई मोटी है।
वह मेरी शक्ति का ही प्रदर्शन है संसार को ब्रह्मांड को अनंत कोटि ब्रह्मांड को मुझ से अलग नहीं किया जा सकता।
मैं ही हूं शक्ति के रूप में शक्ति और शक्तिमान में कोई भेद नहीं है इसके अनुसार यह संसार भी भगवान ही है यह सृष्टि भगवान ही है या कम से कम हम मानना चाहिए यह सृष्टि भगवान की है।
ईशोपनिषद् मंत्र
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम् ॥१
इस ब्रह्माण्ड के भीतर की प्रत्येक जड़ अथवा चेतन वस्तु भगवान् द्वारा नियंत्रित है और उन्हीं की सम्पत्ति है । अतएव मनुष्य को चाहिए कि अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करे जो उसके लिए आवश्यक हैं और जो उसके भाग के रूप में नियत कर दी गई हैं । मनुष्य को यह भलीभाँति जानते हुए कि अन्य वस्तुएँ किसकी हैं , उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए
इशोउपनिषद में कहां है
ईशावास्यमिदं सर्व यह सारा संसार भगवान का हैं। मुख्य मुख्य विभूतियों का में उल्लेख करता हूं वैसे मेरी भी विभूतियों का अंत नहीं है।
तो कुछ प्रधान विभूतियों का मैं उल्लेख करता हूं।
सुनो अर्जुन को तो सुनो कहने की आवश्यकता नहीं थी भगवान सुनो यह हमारे लिए कह रहे हैं। क्योंकि हमारा मन और कुछ सुन रहा है हमारा मन और कहीं भटक रहा है।
फिर कहा जाता है सुनो सुनाते सुनाते सुखदेव गोस्वामी भी राजा परीक्षित को कहते हैं या फिर कोई विशेष बात सुनानी हो तो उसके और आकर्षित करने के लिए ऐसा कहते हैं ध्यान से सुनो ऐसा नहीं है कि अर्जुन नहीं सुन रहे थे लेकिन भगवान ने कहा इसे थोड़ा और ध्यानपूर्वक सुनो यह छूटना नहीं चाहिए आगे सुनो….
अहमात्मा गुडाकेश *सर्वभूताशयस्थितः |
अहमादिश्र्च मध्यं च भूतानामन्त एव च |
अनुवाद:-
हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ | मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ
भगवान ने शुरुआत की अहमात्मा गुडाकेश गुडाकेश कौन है? अर्जुन है, वैसे अर्जुन को कई अलग-अलग नामों से संबोधित किया है। कृष्ण जी अर्जुन को कई अलग-अलग नामों से संबोधित करते हैं और अर्जुन की कृष्ण को कई अलग-अलग नामों से संबोधित करते हैं भगवत गीता में जो इसकी भी एक सूची है भगवत गीता में अर्जुन के यह नाम है और भगवत गीता में कृष्ण के यह सारे नाम है ऐसे सूची भगवत गीता में है। एक विषय है जो भक्त जिज्ञासु होते हैं वह इसका भी पता लगाते हैं और उसकी लिस्ट भी है उसका प्रेजेंटेशन भी उन्होंने दिया है लेकिन वह भी नहीं होगा पर आप सभी को याद रखना है ऐसा भी है।
गुडाकेश इस शब्द का अर्थ है निद्रा रूपी अंधकार को जीतने वाला। प्रभुपाद जी ने तात्पर्य में लिखते हैं श्री कृष्ण अर्जुन को गुड़ाकेश क्यों कहते हैं इसमें थोड़ा विषय या अंतर भी है ऐसा भी कह सकते हैं निद्रा रूपी अंधकार को जीतने वाले अर्जुन की जय…..
हे अर्जुन भगवान ने कहा अहमात्मा अहम आत्मा अस्मि पहला वैभव भगवान ने कहा पहले विभूति का उल्लेख हुआ और वह क्या है मैं आत्मा हूं जब इस बात को मायावादी और अद्वैतवादी पड़ते हैं,तब वो बड़े खुश होते होंगे या होते हैं।
क्योंकि भगवान वह कहते हैं कि मैं आत्मा हूं तो वह कहते हैं अहम् ब्रह्मास्मि तो हम क्या हुए हम भगवान हुए यह बात यहां सिद्ध होती है।
क्योंकि भगवत गीता में भगवान ही कह रहे हैं कि मैं आत्मा हू लेकिन बदमाशों, मायावादियों वैष्णव आचार्य ने इस आत्मा को परमात्मा के रूप में समझा है।
भगवान ने जब कहा कि मैं आत्मा हूं तो भगवान ने कहा है कि मैं परमात्मा हूं जो परमात्मा है वह भगवान का ही स्वरूप है….
श्रीमद्भागवतम् १.२.११
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥११ ॥
अनुवाद:-
परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्त्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को ब्रह्म , परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं । ( श्री सूत गोस्वामी नैमिषारण्य के ऋषियों को उपदेश देते हैं
सबके हृदय प्रांगण में मैं विराजमान हूं किस रूप में परमात्मा के रूप में वह आत्मा भी है और परमात्मा भी है।
जैसे हम देख सकते हैं कि बाजार भी होता है और सुपर बाजार में होता है।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एवच |
भगवान ने भगवत गीता में कहां है मैं समस्त जीवो का आदी,मध्य तथा अंत हु।
आदित्यानाम अहम विष्णुर आदित्यों में द्वादश आदित्य है एक आदश रुद्र हैं, अष्ट वसु हैं,39 मरुत हैं, अदिति के पुत्र आदित्य कहलाते हैं दीति के पुत्र दैत्य कहलाते हैं। द्वादश आदित्य में विष्णु भी एक आदित्य हैं।
अदिति के पुत्र बने भगवान आदित्य में विष्णु में हूं ज्योतिश्याम रवि रणशमांन सभी जो प्रकाशमान या जो भी तारे कहो प्रकाश से जिन से विस्तृत होता है उनमें मैं सूरज हूं। मैं तेजस्वी सूर्य हूं प्रधान तारा तो सूर्य है इतना विशाल ब्रह्मांड और उसमें एक और एक ही पर्याप्त है सूर्य से हमारे कक्षा में कमरे में एक बल्ब सारे कमरे को प्रकाशमान करता है तो उसी प्रकार सारे ब्रह्मांड में एक लाइट है एक बल्ब है वह सूर्य है।
यह कितना आश्चर्य कारक है यदि हम इसे गहराई से सोचें तो वह सुर्य मैं हूं।
राजा वोमे सारे राजा भगवान है, ग्रहों का तारों का राजा है सूर्य इसलिए कभी-कभी कहते हैं सूर्यनारायण सूर्य भगवान क्योंकि भगवान का यह ऐश्वर्या है।
नक्षत्रणाम अहम शशि तो यहां पर चंद्र का भी उल्लेख हुआ है तो नक्षत्रों में में चंद्र ग्रह हु। वेदांनाम वेदोस्मि ऐसे एक-एक विभूति का स्मरण और मनन हम बहुत समय के लिए कर सकते हैं शायद मैं कुछ समय के लिए पर जो ज्यादा विद्वान भक्त है वह बहुत सारा वर्णन कह सकते हैं एक-एक विभूति का लेकिन हम समय से बंधे हुए हैं।
वेदों में मैं सामवेद हूं सभी देवों में इंद्र देवों के राजा है वह मैं हूं। इंद्रियों में मन षष्ठानि इंद्रियानी सभी इंद्रियों में प्रधान मन है तो वह मन मैं हूं। मन इतना चंचल है इसकी बराबरी कोई कर सकता है मन की बाहोत चंचलता है। इसकी तुलना शायद ही किसी चंचल वस्तु से की जा सकती है जहां तक चांचल्या की बात है तो उसमें मन ही है तो भगवान यह कह रहे हैं कि वह मन मैं ही तो हूं।
और यह वैभव बन जाता है
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ ||
हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है
अर्जुन ने यह कहा है छठे अध्याय में अपनी असमर्थता व्यक्त कर रहे हैं आप कह रहे हैं कि इस मन को निग्रह करो यह संभव नहीं है।
भूताणाम अचेतसा जो जीव है जीवो में जो चेतना है वह चेतना मैं हूं या मेरे कारण है मैं इसका स्रोत हु।
रुद्राणाम शंकरोशशमी रूद्रों में 11 रुद्र है उनमें जो शंकर है वह शंकर मैं हूं तो शंकर कोई अलग से स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं है वह है भी लेकिन वह भगवान ही बने हैं शंकर भगवान का ही एक स्वरूप है शंकर उनका एक ऐश्वर्य है।
शंकर शी मतलब शांति और शंकर मतलब शम दम मन निग्रह इन्द्रिय निग्रह ऐसे भगवान ने कहा है।
तो वो शंकर मैं हु, और साथ ही कुबेर जैसे और कोई संपति वान कोई नही हैं वो कुबेर मै हु ऐसे भगवान कहते हैं।
जब हम ऐसे सूची पढ़ते हैं तो हमें समझ में आता है यह उल्लेख केवल जो भी है हो यही है यही प्रकृति पृथ्वी यह नहीं हो नहीं और स्वर्ग नहीं नर्क नहीं वह नहीं है यह जो विचार है उस का हनन भी होता है जब हम इन विभूतियों का स्मरण करते हैं। भगवान पूरे ब्रह्मांड की बात कर रहे हैं पूरे ब्रह्मांड की बात कर रहे हैं और बहुत समय पहले इतिहास की बात कर रहे हैं।
मेरु शिखरिनाम अहम और पर्वतों में मेरु पर्वत में हूं मेरो नाम का पर्वत है आप अगर सुनोगे मेरु की स्थिति लम्बाई चौड़ाई और सुंदर भी है अद्भुत है मेरू पर्वत हमें भगवान का स्मरण दिलाता है। मेरु भगवान का ऐश्वर्या है पर्वतों में श्रेष्ठ पर्वत है मेरु जैसे भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि मुझसे और कोई श्रेष्ठ नहीं है तो वैसे ही पर्वतों में श्रेष्ठ है मेरु पर्वत और उसके समकक्ष और कोई नहीं है। और पुरोहितो में पुरोहित मतलब जो सामने वाले का हित चाहने वाला वो पुरोहित कहलाता हैं।यह पुरोहित की व्याख्या हुई वो हितचिंतक होते हैं।
पुर मतलब सामने वाले जिसके वो पुरोहित बनते हैं। पुरोहितों में वाचस्पति मैं हूं, ब्रहस्पति मैं हूं बृहस्पति एक तो देवता है और उनके ही पुरोहित है और वह है बृहस्पति बृहस्पति वार भी है जो 7 दिन है उसमें एक बार होता है बृहस्पति उसे कहते हैं गुरुवार को यह गुरु कौन है बृहस्पति देवताओं के गुरु है। और जो कार्य किए है गणेश जी के भ्राता ये शिव परिवार में आते हैं। ये स्कंद हैं और आगे कहते है की सागर भी मैं ही हु वैसे हमारे कल्पना से परे है यह सागर और सागर का विस्तार गहराई इसके शक्ति भी हमारे कल्पना से परे हैं तो यह सागर मैं हूं। ऋषि यों में भ्रुगू ऋषि मैं हूं जहीर रुकू मुनि गए थे ब्रह्मा विष्णु महेश में से कौन श्रेष्ठ है यह जानने परीक्षा लेने गए थे भृगु मुनि वैकुंठ में भी गए थे वहां तो उन्होंने भगवान के वक्षस्थल पर लात मारी थी जिस मुनि ने भगवान के वक्षस्थल पर लात मारी वही महर्षि मैं हूं ऐसे भगवान कह रहे हैं और भगवान ने उस भृगु मुनि के चरण का जो चिन्न बना है।
तो उन्होंने भगवान के वक्षस्थल पर लाथ मारी। हरि हरि। इस मुनि ने भगवान के वक्षस्थल पर लाथ मारी, वही मुनि या महर्षि को भगवान कह रहे कि, भृगुरहं मैं भृगु हूँ! और भगवान ने लाथ मारते समय भृगु मुनि के चरण का जो चिन्ह बना, उसको धारण करके बनाए रखे है। विट्ठल भगवान पंढरपुर में उनके वक्षस्थल पर भृगु मुनी के चिन्ह है, या कौस्तूभ मनी भी है और भृगु मुनि का चरणचिह्न भी है। यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि यह हमारे काम की बात है, जप यज्ञ! हम हर रोज
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
करते है तो क्या करते है? यज्ञ करते है! जपयज्ञ या संकीर्तन यज्ञ करते है। उसमें कोई सामग्री या यज्ञशाला नहीं बनाते और कुछ सामग्री इकट्ठे नहीं करते, इसमें अग्निहोत्र या पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती, हम स्वयं पुरोहित बनते है और अपने जपमाला यानी तुलसीमाला पर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहना प्रारंभ करते है तो, यज्ञ प्रारंभ हो गया! तो जितने सारे यज्ञ है अश्वमेघयज्ञ या, गोमेदयज्ञ या, राजसूययज्ञ है ऐसे कई प्रकार कई नाम है। तो उन सभी यज्ञों में श्रेष्ठ यज्ञ जप यज्ञ है। और वह यज्ञ मैं हूं ऐसा भगवान कह रहे है। जपयज्ञ की जय! अभी तो बहुत बड़ा सफर बाकी है, अभी आधा भी पूरा नहीं किए। हरि हरि। अभी आज सवाल जवाब नहीं होगा और थोड़ी देर के लिए मैं इसी पर चर्चा करूंगा। अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां सभी वृक्षों में आश्वस्थ वृक्षा में हूं और देवर्षीणां च नारदः देवऋषियों में भी प्रकार है। कोई देवर्षि है, कोई ब्रह्मर्षि है, कोई राजर्षि है, तो देवर्षि! देवों में या देवों के मध्य में जो ऋषि होते है या देवों के जो ऋषि होते है तो उनमें में नारद हूं! सिद्धानां कपिलो मुनिः और सिद्धोमे कपिल मुनि हूं।
उच्चैःश्रवसमश्वानां और जब समुद्र मंथन से जब 14 रत्न निकले वह सभी रत्न अलग अलग वैभव है। उसमें से उच्चैःश्रवा नाम का घोड़ा, वह उच्चैःश्रवा घोड़ा में हूं! ऐसा भगवान कह रहे है। हरि हरि। एरावतं गजेन्द्राणां और फिर एरावतं भी निकला, जो इंद्र को प्राप्त हुआ। वह गजेंद्र! गजों में या हाथियों में श्रेष्ठ हाथी इंद्र को मिला। तो वह गजेंद्र यानी एरावत हाथी मैं हूं! आयुधानामहं वज्रं तो शस्त्र या आयुध कई प्रकार के है, लेकिन वज्र सर्वोत्तम है! वज्र से श्रेष्ठ आयुध या अस्त्र कहीं नहीं मिलेगा, तो वह वज्र में हूं! ऐसा भगवान कह रहे है। धेनूनामस्मि कामधुक् और फिर गायों में सुरभि गाय में हूं! सुरभिगाय मेरा वैभव है। सर्पाणामस्मि वासुकिः तो सर्प सर्वत्र है। एक नागलोक है। उसमें भी कई प्रकार है। लेकिन उसमें जो वासुकी है, जब यह समुद्र मंथन हो रहा था तब डोरी चाहिए थी समुद्र मंथन के लिए, तो वासुकी की रस्सी बनाई समुद्र मंथन के लिए, फिर मंदराचल पर्वत को वासुकी से लपेट लिया और 33 कोटि देवता उसे पकड़े है! कितनी लंबाई और कितना विशेष रस्सी बने यह वासुकी! तो भगवान कहते हैं कि वासु कि मैं हूं! और फिर प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां दैत्यों में श्रेष्ठ दैत्य! ऐसा दैत्य आपको कहीं नहीं मिलेगा जो बस नाम के लिए दैत्य है! वह सूर है, असूर नहीं है!
प्रल्हाद महाराज! असुरों में प्रल्हाद महाराज में हूं! कालः कलयतामहम् काल दमन करता है, नियंत्रण रखता है तो वह काल में हूं! ऐसा भगवान कहते है। मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं और सारे पशुओं में वनराज केसरी, सिंह मैं हूं! वैनतेयश्च पक्षिणाम् और सारे पक्षियों में गरुड़ में हूं! जब हम यह सुनते है तो थोड़ा विचार करते है, ध्यान करते है, तो कोई भाव भी उत्पन्न होगा और हम भी स्वीकार करेंगे! कि हां, हां यह भगवान का वैभव है! सूर्य तो मैं हूं ऐसा भगवान कहे ही है, और नदियों में गंगा नदी में हूं। तो जब हम बद्रिकाश्रम जाते है, हम 1 साल पदयात्रा करते हुए जा रहे थे तब हमने वहां अनुभव किया। जा तो रहे थे बद्रिकाश्रम के दर्शन के लिए लेकिन हम हिमालय की चट्टानों से घिरे हुए थे। बहुत विशाल पर्वत हिमालय! स्थावर और सबसे बड़ी कोई वस्तु है इस भूमि पर तो वह हिमालय है। और हिमालय की गोद से हम बद्रिकाश्रम जा रहे थे, और इधर उधर देखते तो हिमालय हिमालय था और ऊपर देखते तो सूर्य है, जो वैभव है और फिर नीचे देखते तो गंगा बह रही है वह भी भगवान का वैभव है, तो जब हम पदयात्रा करते हुए जा रहे थे हरिद्वार से बद्रीकाश्रम तो वह सन्निधि या सानिध्य हिमालय का सानिध्य, सूर्य का सानिध्य या प्रकाश और गंगा की पवित्रता और शीतलता हमें कृष्णभावनामृत या बद्रीनारायणभावनामृत बना रहे थी। यह सारे वैभव थे।
हरि हरि। एक समय प्रभुपाद से किसी ने पूछा कि, क्या हम देख सूर्यास्त देख सकते है प्रभुपाद? यह माया तो नहीं है? तो श्रील प्रभुपाद कहे थे कि, सूर्य को जब हम भगवान का वैभव समझ कर देखते है, या फिर ऐसा या इस विचार के साथ देखोगे तो यह माया नहीं है! वह भी कृष्णभावनामृत कार्य है। यहां पर तो इस दसवें अध्याय में तो नहीं है लेकिन आगे अध्याय में भगवान कहे हैं कि, जब हम जल पीते है, तो जल में जो रस है वह रस में हूं! ऐसा भगवान कहे है। तो श्रील प्रभुपाद हमने ऐसा कई बार सुनाते थे। जब मुंबई में भागवत कथा में श्रील प्रभुपाद समझाते थे या उन्हें समझाना था कि, जल का रस में हूं! ऐसा भगवान कहते है। तो उसका स्पष्टीकरण देते हुए श्रील प्रभुपाद पास में रखा हुआ प्याला उठाकर उसे पीते और कहते कि जब हम जलपान करते है तब हम सोचेंगे कि, यह जो रस है यह भगवान है तो यह जलपान ही तुम्हें कृष्णभावनाभावित बनाएगा! जल तो पीते हो ना? तो ऐसा स्मरण करो! तो कृष्णाभावना बहुत व्यावहारिक है। हरी हरी। तो ऐसे भगवान के कई सारे वैभव है। उसका कोई अंत नहीं है और यह सारे सारा कुछ कहने के उपरांत भगवान कहे कि, यह सारे वैभव मेरा छोटा सा अंश है! हरि हरि। फिर अगले अध्याय में ग्यारहवें अध्याय में भगवान विराट रूप का वर्णन ही नहीं दर्शन भी देते है और इन सारे वैभव का जो उल्लेख हुआ है उसे दर्शाते है। यहां पर भगवान कहे है कि, मैं यह हूं मैं वह हूं! तो विराट रूप में भगवान ने दिखाया। और उसी क्रम से अभी दसवां अध्याय आप सुन ही चुके हो और फिर ग्यारहवें अध्याय का विराट रूप का दर्शन ले सकते हो!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
11 January 2021
The Universal Form – the ultimate proof of Lord’s opulences
Hare Kṛṣṇa! Devotees from 800 locations are chanting with us. You all are welcome here for the daily morning session.
I was remembering the different opulences and powers of the Lord which I said I would describe today. Kṛṣṇa has been speaking for the past 9 chapters and 11 verses in the 10th chapter, now Arjuna will be sharing his realizations.
arjuna uvāca
paraṁ brahma paraṁ dhāma
pavitraṁ paramaṁ bhavān
puruṣaṁ śāśvataṁ divyam
ādi-devam ajaṁ vibhum
Translation
Arjuna said: You are the Supreme Personality of Godhead, the ultimate abode, the purest, the Absolute Truth. You are the eternal, transcendental, original person, the unborn, the greatest. (BG 10.12)
sarvam etad ṛtaṁ manye
yan māṁ vadasi keśava
na hi te bhagavan vyaktiṁ
vidur devā na dānavāḥ
Translation
O Kṛṣṇa, I totally accept as truth all that You have told me. Neither the demigods nor the demons, O Lord, can understand Your personality. (BG 10.14)
Arjuna wants to hear more opulences of the Lord. He has had God-realization. Arjuna became inquisitive to know the Absolute Truth, brahma-jijnasa. As living entities we are always curious about everything, but actual curiosity should be directed towards the Supreme Absolute Truth, athatho brahma jijnasa is what the Vedanta-sutra instructs. As the Lord has said in Bhagavad Gita, there are four kinds of persons who approach the Lord.
catur-vidha bhajante mam
janah sukrtino ‘rjuna
arto jijnasur artharthi
jnani ca bharatarsabha
Translation
O best among the Bharatas [Arjuna], four kinds of pious men render devotional service unto Me—the distressed, the desirer of wealth, the inquisitive, and he who is searching for knowledge of the Absolute. (BG 7.16)
Further Arjuna said to Lord Kṛṣṇa,
vaktum arhasy aśeṣeṇa
divyā hy ātma-vibhūtayaḥ
yābhir vibhūtibhir lokān
imāṁs tvaṁ vyāpya tiṣṭhasi
Translation
Please tell me in detail of Your divine opulences by which You pervade all these worlds. (BG 10.16)
Arjuna is asking Kṛṣṇa to speak about Himself and His glorious activities, more about His opulences. Srila Prabhupada writes in the purport that devotees are fully satisfied with the original form of Sri Kṛṣṇa, yet Arjuna is curious to know the omniscient and omnipotent opulences of the Lord.
kathaṁ vidyām ahaṁ yogiṁs
tvāṁ sadā paricintayan
keṣu keṣu ca bhāveṣu
cintyo ’si bhagavan mayā
Translation
O Kṛṣṇa, O supreme mystic, how shall I constantly think of You, and how shall I know You? In what various forms are You to be remembered, O Supreme Personality of Godhead? (BG 10.17)
In chapter 10 from 10.19 to 10.42, Krsna is describing His opulences.
śrī-bhagavān uvāca
hanta te kathayiṣyāmi
divyā hy ātma-vibhūtayaḥ
prādhānyataḥ kuru-śreṣṭha
nāsty anto vistarasya me
Translation
The Supreme Personality of Godhead said: Yes, I will tell you of My splendorous manifestations, but only of those which are prominent, O Arjuna, for My opulence is limitless. (BG 10.19)
I will describe you my prominent opulences as I pervade everywhere, either material or spiritual. It’s a display of My different energies. The universe is My part. It cannot be differentiated from Myself; sakti saktimatayo abhedha there is no difference between the energies and the energetic. The whole unlimited universal manifestations are all Sri Kṛṣṇa’s energies. As stated in Isopanisad,
īśāvāsyam idaḿ sarvaṁ
yat kiñca jagatyāṁ jagat
tena tyaktena bhuñjīthā
mā gṛdhaḥ kasya svid dhanam
Translation
Everything animate or inanimate that is within the universe is controlled and owned by the Lord. One should therefore accept only those things necessary for himself, which are set aside as his quota, and one should not accept other things, knowing well to whom they belong. (Īśopanisad 1)
Kṛṣṇa says, “Listen,” Arjuna was listening attentively, but this instruction was meant for us as our mind is always flickering. Sukadeva Goswami also says to King Pariksit in Srimad Bhagavatam, to listen means to pay attention! In Bhagavad Gita, we note that Kṛṣṇa and Arjuna call each other by different names. Here in this verse Arjuna is addressed as Guḍākeśa, which means “one who has conquered the darkness of sleep.”
aham ātmā guḍākeśa
sarva-bhūtāśaya-sthitaḥ
aham ādiś ca madhyaṁ ca
bhūtānām anta eva ca
Translation
I am the Supersoul, O Arjuna, seated in the hearts of all living entities. I am the beginning, the middle and the end of all beings. (BG 10.20)
The first opulence stated by the Lord is that He is the soul. Taking this as a reference the Mayavadis preach that Sri Kṛṣṇa is also a soul and we as living entities are also a soul so we are God. But our Vaisnava acaryas defeat this Mayavadi propaganda explaining that the Lord is Paramatma-Supersoul.
vadanti tat tattva-vidas
tattvaṁ yaj jñānam advayam
brahmeti paramātmeti
bhagavān iti śabdyate
Translation
Learned transcendentalists who know the Absolute Truth call this nondual substance Brahman, Paramātmā or Bhagavān. (SB 1.2.11)
sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca
vedaiś ca sarvair aham eva vedyo
vedānta-kṛd veda-vid eva cāham
Translation
I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas. (BG 15.15)
Krsna is seated in everyone’s heart as a Supersoul. The next opulence described is,
ādityānām ahaṁ viṣṇur
jyotiṣāṁ ravir aṁśumān
marīcir marutām asmi
nakṣatrāṇām ahaṁ śaśī
Translation
Of the Ādityas I am Viṣṇu, of lights I am the radiant sun, of the Maruts I am Marīci, and among the stars I am the moon. (BG 10.21)
Among all the bright luminous bodies I am the Sun. Just a small bulb lights our house. Similarly this big bulb (sun) lights the entire creation. Many times we address the sun as surya narayan or surya bhagwan. Among the stars, I am the Moon.
vedānāṁ sāma-vedo ’smi
devānām asmi vāsavaḥ
indriyāṇāṁ manaś cāsmi
bhūtānām asmi cetanā
Translation
Of the Vedas I am the Sāma Veda; of the demigods I am Indra, the king of heaven; of the senses I am the mind; and in living beings I am the living force [consciousness]. (BG 10.22)
The mind has a flickering nature, it seems to be very strong and difficult to control. Arjuna says in the 6th chapter,
cañcalaṁ hi manaḥ kṛṣṇa
pramāthi balavad dṛḍham
tasyāhaṁ nigrahaṁ manye
vāyor iva su-duṣkaram
Translation
The mind is restless, turbulent, obstinate and very strong, O Kṛṣṇa, and to subdue it, I think, is more difficult than controlling the wind. (BG 6.34)
Krsna says, “I am the consciousness in the living entities.”
nityo nityānāṁ cetanaś cetanānām
eko yo bahūnāṁ vidadhāti kāmān
Translation
Amongst all the living entities, both conditioned and liberated, there is one supreme living personality, the Supreme Personality of Godhead, who maintains them and gives them all the facility of enjoyment according to different work. That Supreme Personality of Godhead is situated in everyone’s heart as Paramātmā. [Kaṭha Upaniṣad 2.2.13]
rudrāṇāṁ śaṅkaraś cāsmi
vitteśo yakṣa-rakṣasām
vasūnāṁ pāvakaś cāsmi
meruḥ śikhariṇām aham
Translation
Of all the Rudras I am Lord Śiva, of the Yakṣas and Rākṣasas I am the Lord of wealth [Kuvera], of the Vasus I am fire [Agni], and of mountains I am Meru. (BG 10.23)
There are 11 Rudras, among them I am Siva, Siva is one of the powers of Kṛṣṇa. It means auspicious. It’s not a different being. He is an expansion of Kṛṣṇa. He is the most renounced, He does not have any special opulences. He has ghost followers. Here Kṛṣṇa is speaking about the entire creation. He is not only speaking about the earth and not only of the present, but also about the past and future. Kṛṣṇa says, among the Yaksas I am Kuvera, the Lord of wealth. Among mountains, I am the Meru Mountain. No other mountain can be equal to Mount Meru. In Bhagavad Gita, Kṛṣṇa says there is no one equal to Me,
mattaḥ parataraṁ nānyat
kiñcid asti dhanañ-jaya
mayi sarvam idaṁ protaṁ
sūtre maṇi-gaṇā iva
Translation
O conqueror of wealth, there is no truth superior to Me. Everything rests upon Me, as pearls are strung on a thread. (BG 7.7)
The next opulence is,
purodhasāṁ ca mukhyaṁ māṁ
viddhi pārtha bṛhaspatim
senānīnām ahaṁ skandaḥ
sarasām asmi sāgaraḥ
Translation
Of priests, O Arjuna, know Me to be the chief, Bṛhaspati. Of generals I am Kārttikeya, and of bodies of water I am the ocean. (BG 10.24)
Further Kṛṣṇa says, of all the Purohits, (Purohit means one who wishes good for his people) I am the Brhaspati, the spiritual master of the demigods. Of generals, I am the Karttikeya, the brother of Lord Ganesha. We cannot measure the depth or width, the power of the ocean, I am the ocean of all the water bodies.
maharṣīṇāṁ bhṛgur ahaṁ
girām asmy ekam akṣaram
yajñānāṁ japa-yajño ’smi
sthāvarāṇāṁ himālayaḥ
Translation :
Of the great sages I am Bhṛgu; of vibrations I am the transcendental oṁ. Of sacrifices I am the chanting of the holy names [japa], and of immovable things I am the Himalayas. (BG 10.25)
Among all the sages, I am Bhrgu Muni. The Muni was elected to check who is supreme from the three prime gods Brahma, Visnu, Siva. To ascertain, he went and kicked Lord Viṣṇu on his chest. You can clearly see the foot mark on Lord Vitthala’s chest. Of all the vibrations, I am the transcendental sound aum. Among all the Yajnas, sacrifices I am the Japa Yajna, the chanting of the holy name.
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
This is japa yajna, sankirtan Yajna. We perform our sacrifice yajna simply by taking Tulasi beads in our hand and chanting (yajna). There is no need of a Purohit or fire. Most prominent of all the yajnas is japa yajna and I am the Japa Yajna, whether it be Ashvameda yajna, Gomedha Yajna, Rajasuya Yajna.
aśvatthaḥ sarva-vṛkṣāṇāṁ
devarṣīṇāṁ ca nāradaḥ
gandharvāṇāṁ citrarathaḥ
siddhānāṁ kapilo muniḥ
Translation
Of all trees I am the banyan tree, and of the sages among the demigods I am Nārada. Of the Gandharvas I am Citraratha, and among perfected beings I am the sage Kapila. (BG 10.26)
uccaiḥśravasam aśvānāṁ
viddhi mām amṛtodbhavam
airāvataṁ gajendrāṇāṁ
narāṇāṁ ca narādhipam
Translation
Of horses know Me to be Uccaiḥśravā, produced during the churning of the ocean for nectar. Of lordly elephants I am Airāvata, and among men I am the monarch. (BG 10.27)
While churning the ocean, 14 gems appeared, one of them is the horse Uccaiḥśra and I am that Uccaiḥśrva.
āyudhānām ahaṁ vajraṁ
dhenūnām asmi kāma-dhuk
prajanaś cāsmi kandarpaḥ
sarpāṇām asmi vāsukiḥ
Translation
Of weapons I am the thunderbolt; among cows I am the surabhi. Of causes for procreation I am Kandarpa, the god of love, and of serpents I am Vāsuki. (BG 10.28)
I am the Vajra, the strongest weapon among all the weapons and Surabhi among the cows. While churning the ocean, the 33 crore demigods needed ropes to churn so they made Vasuki serpent a rope to churn the Mandarachala Mountain. How lengthy and strong must Vasuki be to hold that mountain. The Lord says I am Vasuki.
anantaś cāsmi nāgānāṁ
varuṇo yādasām aham
pitṝṇām aryamā cāsmi
yamaḥ saṁyamatām aham
Translation
Of the many-hooded Nāgas I am Ananta, and among the aquatics I am the demigod Varuṇa. Of departed ancestors I am Aryamā, and among the dispensers of law I am Yama, the lord of death. (BG 10.29)
prahlādaś cāsmi daityānāṁ
kālaḥ kalayatām aham
mṛgāṇāṁ ca mṛgendro ’haṁ
vainateyaś ca pakṣiṇām
Translation
Among the Daitya demons I am the devoted Prahlāda, among subduers I am time, among beasts I am the lion, and among birds I am Garuḍa. (BG 10.30)
pavanaḥ pavatām asmi
rāmaḥ śastra-bhṛtām aham
jhaṣāṇāṁ makaraś cāsmi
srotasām asmi jāhnavī
Translation
Of purifiers I am the wind, of the wielders of weapons I am Rāma, of fishes I am the shark, and of flowing rivers I am the Ganges. (BG 10.31)
Once in Padayatra, while going to Badrikasrama from Haridwar, we were surrounded by the gigantic Himalayas. The sun was over head and the pleasant pure Ganges was flowing by. This enhances Kṛṣṇa conscious spirits. All these are the opulences of Kṛṣṇa. Someone asked Srila Prabhupada, “Can we see the beautiful sunset?” In reply he said, “If you see it with the vision that the sun is an opulence of Kṛṣṇa, then it not considered maya.” Another time, Srila Prabhupada was giving a lecture and he wanted to explain raso ’ham apsu kaunteya – Krsna says, “I am the taste of water.” In demonstrating he drank a sip of water and showed the content saying, “This satisfaction is Krsna.” This is Kṛṣṇa Consciousness, very practical.
There is no end to the opulences of Krsna and at the end of the chapter Krsna says, “These opulences are a small part of all My opulences”. Here, in this chapter the Lord is speaking, but in the next chapter He will show His Virat Rupa to Arjuna.
Nitai Gaur Premanande Hari Haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 11 января 2021 г.
ВСЕЛЕНСКАЯ ФОРМА – ОКОНЧАТЕЛЬНОЕ ДОКАЗАТЕЛЬСТВО МОГУЩЕСТВА ГОСПОДА
Харе Кришна! С нами воспевают преданные из 800 мест. Добро пожаловать на ежедневную утреннюю сессию.
Я вспоминал различные достояния и силы Господа, которые я сказал, что опишу сегодня. Кришна говорил в течение последних 9 глав и 11 стихов 10-й главы, теперь Арджуна поделится своими реализациями.
арджуна ува̄ча
парам̇ брахма парам̇ дха̄ма
павитрам̇ парамам̇ бхава̄н
пурушам̇ ш́а̄ш́ватам̇ дивйам
а̄ди-девам аджам̇ вибхум
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: Ты Верховная Личность Бога, высшая обитель, чистейший, Абсолютная Истина. Ты вечная, божественная, изначальная личность, нерожденная и величайшая.
(Б.Г. 10.12)
сарвам этад р̣там̇ манйе
йан ма̄м̇ вадаси кеш́ава
на хи те бхагаван вйактим̇
видур дева̄ на да̄нава̄х̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
О Кришна, все, о чем Ты мне рассказал, я принимаю как истину. Ни полубоги, ни демоны, о Господь, не способны постичь Тебя.
(Б.Г. 10.14)
Арджуна хочет больше слышать о могуществе Господа. У него было осознание Бога. Арджуна захотел узнать Абсолютную Истину, брахма-джиджнасу. Как живые существа, мы всегда проявляем любопытство ко всему, но настоящее любопытство должно быть направлено на Высшую Абсолютную Истину, ататхо брахма джиджнаса – это то, что говорит «Веданта-сутра». Как Господь сказал в Бхагавад Гите, есть четыре типа людей, которые приближаются к Господу.
чатур-видха̄ бхаджанте ма̄м̇
джана̄х̣ сукр̣тино ’рджуна
а̄рто джиджн̃а̄сур артха̄ртхӣ
джн̃а̄нӣ ча бхаратаршабха
Перевод Шрилы Прабхупады:
О лучший из Бхарат, четыре вида праведников встают на путь преданного служения Мне: страждущие, ищущие богатства, любознательные и те, кто стремится постичь Абсолютную Истину.
(Б.Г. 7.16)
Далее Арджуна сказал Господу Кришне:
вактум архасй аш́ешен̣а
дивйа̄ хй а̄тма-вибхӯтайах̣
йа̄бхир вибхӯтибхир лока̄н
има̄м̇с твам̇ вйа̄пйа тишт̣хаси
Перевод Шрилы Прабхупады:
Пожалуйста, подробно расскажи о Своих божественных достояниях, которыми Ты пронизываешь все миры.
(Б.Г. 10.16)
Арджуна просит Кришну рассказать о Себе и Его славных деяниях, больше о Его достояниях. Шрила Прабхупада пишет в своем комментарии, что преданные полностью удовлетворены изначальной формой Шри Кришны, однако Арджуне любопытно узнать о всеведущих и всемогущих достояниях Господа.
катхам̇ видйа̄м ахам̇ йогим̇с
тва̄м̇ сада̄ паричинтайан
кешу кешу ча бха̄вешу
чинтйо ’си бхагаван майа̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
О Кришна, о высший мистик, как мне научиться постоянно думать о Тебе и как постичь Тебя? В каких из Твоих многочисленных проявлений должен я помнить Тебя, о Верховная Личность Бога?
(Б.Г. 10.17)
В главе 10 с 10.19 по 10.42 Кришна описывает Свое могущество.
ш́рӣ-бхагава̄н ува̄ча
ханта те катхайишйа̄ми
дивйа̄ хй а̄тма-вибхӯтайах̣
пра̄дха̄нйатах̣ куру-ш́решт̣ха
на̄стй анто вистарасйа ме
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь сказал: Хорошо, Я поведаю тебе о Своих блистательных проявлениях, но только о самых главных из них, о Арджуна, ибо величие Мое безгранично.
(Б.Г. 10.19)
Я опишу тебе свои выдающиеся достоинства, поскольку я проникаю повсюду, будь то материальное или духовное. Это проявление Моих разных энергий. Вселенная – Моя часть. Ее нельзя отличить от Меня; шакти шактиматайо абхедха нет разницы между одной энергией и другой. Все безграничные универсальные проявления – это все энергии Шри Кришны. Как сказано в Ишопанишад,
ӣш́а̄ва̄сйам идам̐ сарвам̇
йат кин̃ча джагатйа̄м̇ джагат
тена тйактена бхун̃джӣтха̄
ма̄ гр̣дхах̣ касйа свид дханам
Перевод:
Все живое и неживое во вселенной находится во власти Господа и принадлежит Ему. Поэтому каждый должен пользоваться только тем, что ему необходимо и выделено ему как его доля, и не посягать ни на что другое, хорошо понимая, кому все принадлежит.
(Шри Ишопанишад, стих 1)
Кришна говорит: «Слушай», – Арджуна внимательно слушал, но это наставление было предназначено нам, поскольку наш ум всегда изменчив. Шукадева Госвами также говорит царю Парикшиту в «Шримад Бхагаватам»: слушать – значит обращать внимание! В Бхагавад Гите мы отмечаем, что Кришна и Арджуна называют друг друга разными именами. В этом стихе к Арджуне обращаются как к Гунакеше, что означает «тот, кто победил невежество сна».
ахам а̄тма̄ гуд̣а̄кеш́а
сарва-бхӯта̄ш́айа-стхитах̣
ахам а̄диш́ ча мадхйам̇ ча
бхӯта̄на̄м анта эва ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
О Арджуна, Я Сверхдуша, пребывающая в сердце каждого живого существа. Я начало, середина и конец всего сущего.
(Б.Г. 10.20)
Первое достояние, провозглашенное Господом, – это то, что Он есть душа. Принимая это как подтверждение, майявади проповедуют, что Шри Кришна также является душой, и мы, как живые существа, также являемся душой, поэтому мы – Бог. Но наши ачарьи-вайшнавы опровергают эту пропаганду майявади, утверждая, что Господь – Параматма – Сверхдуша.
ваданти тат таттва-видас
таттвам̇ йадж джн̃а̄нам адвайам
брахмети парама̄тмети
бхагава̄н ити ш́абдйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Сведущие трансценденталисты, познавшие Абсолютную Истину, называют эту недвойственную субстанцию Брахманом, Параматмой или Бхагаваном.
(Ш.Б. 1.2.11)
сарвасйа ча̄хам̇ хр̣ди саннивишт̣о
маттах̣ смр̣тир джн̃а̄нам апоханам̇ ча
ведаиш́ ча сарваир ахам эва ведйо
веда̄нта-кр̣д веда-вид эва ча̄хам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я пребываю в сердце каждого, и от Меня исходят память, знание и забвение. Цель изучения всех Вед — постичь Меня. Я истинный составитель «Веданты» и знаток Вед.
(Б.Г. 15.15)
Кришна пребывает в сердце каждого как Сверхдуша. Следующее описанное достояние:
а̄дитйа̄на̄м ахам̇ вишн̣ур
джйотиша̄м̇ равир ам̇ш́ума̄н
марӣчир марута̄м асми
накшатра̄н̣а̄м ахам̇ ш́аш́ӣ
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из Адитьев Я Вишну, среди светил — лучезарное солнце, из Марутов Я Маричи, а среди звезд Я луна.
(Б.Г. 10.21)
Среди всех ярких светящихся тел Я Солнце. Только маленькая лампочка освещает наш дом. Точно так же эта большая лампочка (солнце) освещает все творение. Часто мы обращаемся к солнцу как сурья нарайан или сурья бхагаван. Среди звезд я Луна.
веда̄на̄м̇ са̄ма-ведо ’сми
дева̄на̄м асми ва̄савах̣
индрийа̄н̣а̄м̇ манаш́ ча̄сми
бхӯта̄на̄м асми четана̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из Вед Я «Сама-веда», среди полубогов Я царь небес Индра, из чувств Я ум, а в живых существах Я жизненная сила [сознание].
(Б.Г. 10.22)
Ум имеет изменчивую природу, он кажется очень сильным и трудноуправляемым. Арджуна говорит в 6-й главе:
чан̃чалам̇ хи манах̣ кр̣шн̣а
прама̄тхи балавад др̣д̣хам
тасйа̄хам̇ ниграхам̇ манйе
ва̄йор ива су-душкарам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Ум неугомонен, неистов, упрям и очень силен, о Кришна, и, мне кажется, укротить его труднее, чем остановить ветер.
(Б.Г. 6.34)
Кришна говорит: «Я сознание живых существ».
нитйо нитйанам четанаш четананам
эко бахунам йо видадхати каман
Перевод:
Верховный Господь вечен, и живые существа вечны. Верховный Господь знает, и живые существа осведомлены.
(Катха Упанишад 2.2.13)
рудра̄н̣а̄м̇ ш́ан̇караш́ ча̄сми
виттеш́о йакша-ракшаса̄м
васӯна̄м̇ па̄вакаш́ ча̄сми
мерух̣ ш́икхарин̣а̄м ахам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из Рудр Я Господь Шива, среди якшей и ракшасов Я хранитель сокровищ [Кувера], из Васу Я огонь [Агни], а среди гор Я гора Меру.
(Б.Г. 10.23)
Есть 11 Рудр, среди них Я Шива, Шива – одна из сил Кришны. Это означает благоприятный. Это не другое существо. Он экспансия Кришны. Он самый отреченный, у него нет особых богатств. У него есть последователи-призраки. Здесь Кришна говорит обо всем творении. Он говорит не только о земле и не только о настоящем, но также о прошлом и будущем. Кришна говорит, что среди якшей Я Кувера, владыка богатств. Среди гор Я гора Меру. Никакая другая гора не может сравниться с горой Меру. В Бхагавад Гите Кришна говорит, что нет никого равного Мне,
маттах̣ паратарам̇ на̄нйат
кин̃чид асти дханан̃джайа
майи сарвам идам̇ протам̇
сӯтре ман̣и-ган̣а̄ ива
Перевод Шрилы Прабхупады:
О завоеватель богатств, нет истины выше Меня. Все сущее покоится на Мне, подобно жемчужинам, нанизанным на нить.
(Б.Г. 7.7)
Следующее достояние,
пуродхаса̄м̇ ча мукхйам̇ ма̄м̇
виддхи па̄ртха бр̣хаспатим
сена̄нӣна̄м ахам̇ скандах̣
сараса̄м асми са̄гарах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Знай же, О Арджуна, что среди жрецов Я главный жрец, Брихаспати. Среди военачальников Я Карттикея, а среди водоемов — океан.
(Б.Г. 10.24)
Далее Кришна говорит, что из всех пурохитов (Пурохит означает тот, кто желает добра своему народу), я – Брихаспати, духовный учитель полубогов. Из генералов я Карттикея, брат Господа Ганеши. Мы не можем измерить глубину или ширину, силу океана, я океан из всех водоемов.
махаршӣн̣а̄м̇ бхр̣гур ахам̇
гира̄м асмй экам акшарам
йаджн̃а̄на̄м̇ джапа-йаджн̃о ’сми
стха̄вара̄н̣а̄м̇ хима̄лайах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из великих мудрецов Я Бхригу, а среди звуков Я трансцендентный звук ом. Из жертвоприношений Я повторение святых имен [джапа], а из недвижимого — Гималайские горы.
(Б.Г. 10.25)
Среди всех мудрецов Я Бхригу Муни. Муни был избран, чтобы проверить, кто из трех главных богов – Брахма, Вишну и Шива – верховный. Чтобы убедиться в этом, он пошел и ударил Господа Вишну ногой в грудь. Вы можете ясно видеть след ноги на груди Господа Виттхалы. Из всех вибраций я трансцендентный звук аум. Среди всех ягий, жертвоприношений я – джапа-ягья, повторение святого имени.
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Это джапа ягья, санкиртана ягья. Мы совершаем жертвоприношение ягья, просто беря четки Туласи в руки и повторяя (ягья). Не нужно ни пурохита, ни огня. Самая известная из всех ягий – это джапа-ягья, а я – Джапа-ягья, будь то Ашвамедха-ягья, Гомедха-ягья, Раджасуя-ягья.
аш́ваттхах̣ сарва-вр̣кша̄н̣а̄м̇
деваршӣн̣а̄м̇ ча на̄радах̣
гандхарва̄н̣а̄м̇ читраратхах̣
сиддха̄на̄м̇ капило муних̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из деревьев Я баньян, а из мудрецов среди полубогов — Нарада. Из Гандхарвов Я Читраратха, а среди совершенных живых существ Я мудрец Капила.
(Б.Г. 10.26)
уччаих̣ш́равасам аш́ва̄на̄м̇
виддхи ма̄м амр̣тодбхавам
аира̄ватам̇ гаджендра̄н̣а̄м̇
нара̄н̣а̄м̇ ча нара̄дхипам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Среди скакунов Я Уччайхшрава, появившийся на свет во время пахтанья океана. Среди могучих слонов Я Айравата, а среди людей — царь.
(Б.Г. 10.27)
При пахтании океана появилось 14 драгоценностей, одна из которых – конь Уччайхшрава, а Я – тот Уччайхшрава.
а̄йудха̄на̄м ахам̇ ваджрам̇
дхенӯна̄м асми ка̄мадхук
праджанаш́ ча̄сми кандарпах̣
сарпа̄н̣а̄м асми ва̄суких̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из оружия Я молния, среди коров Я сурабхи. Из причин появления потомства Я Кандарпа, бог любви, а среди змеев Я Васуки.
(Б.Г. 10.28)
Я Ваджра, самое сильное оружие среди всех видов оружия и Сурабхи среди коров. Во время пахтания океана 33 миллионами полубогов понадобились веревки для пахтания, поэтому они сделали змея Васуки веревкой, чтобы взбить гору Мандарачала. Каким длинным и сильным должен быть Васуки, чтобы удержать эту гору. Господь говорит, что я Васуки.
ананташ́ ча̄сми на̄га̄на̄м̇
варун̣о йа̄даса̄м ахам
питР̣̄н̣а̄м арйама̄ ча̄сми
йамах̣ сам̇йамата̄м ахам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Среди многоглавых нагов Я Ананта, а среди обитателей вод — полубог Варуна. Среди предков Я Арьяма, а среди вершащих правосудие — Яма, повелитель смерти.
(Б.Г. 10.29)
прахла̄даш́ ча̄сми даитйа̄на̄м̇
ка̄лах̣ калайата̄м ахам
мр̣га̄н̣а̄м̇ ча мр̣гендро ’хам̇
ваинатейаш́ ча пакшин̣а̄м
Перевод Шрилы Прабхупады:
Среди демонов Дайтьев Я праведный Прахлада, из разрушительных сил Я время, среди зверей Я лев, а среди птиц — Гаруда.
(Б.Г. 10.30)
паванах̣ павата̄м асми
ра̄мах̣ ш́астра-бхр̣та̄м ахам
джхаша̄н̣а̄м̇ макараш́ ча̄сми
сротаса̄м асми джа̄хнавӣ
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из очистительных сил Я ветер, из носящих оружие — Рама, среди рыб Я акула, а среди полноводных рек — Ганга.
(Б.Г. 10.31)
Однажды в Падаятре, по пути в Бадрикашрам из Харидвара, мы были окружены гигантскими Гималаями. Солнце стояло над головой и текла приятная чистая Ганга. Это усиливает дух сознания Кришны. Все это богатства Кришны. Кто-то спросил Шрилу Прабхупаду: «Можем ли мы увидеть прекрасный закат?» В ответ он сказал: «Если вы видите его таким образом, что солнце – достояние Кришны, тогда это не считается майей». В другой раз Шрила Прабхупада читал лекцию и хотел объяснить расо’хам апсу каунтейа – Кришна говорит: «Я вкус воды». Демонстрируя это, он сделал глоток воды и выразил удовлетворение, сказав: «Это удовлетворение – Кришна». Это сознание Кришны, очень практично.
Достояниям Кришны нет конца, и в конце главы Кришна говорит: «Эти достояния – небольшая часть всех Моих достояний». Здесь, в этой главе, говорит Господь, но в следующей главе Он покажет Арджуне Свою Вират Рупу.
Нитай Гаура Премананде Хари Харибол!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण*
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम,
१० जनवरी २०२१
773 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। हरि हरि। कैसे वासुदेव नम: को नमस्कार भगवते वासुदेव भगवान को, वासुदेव जो भगवान है उनको नमस्कार। ऐसा ही साक्षात्कार हुआ अर्जुन उवाच, भगवत गीता अध्याय 10 श्लोक संख्या याद है आपको? 11वा श्लोक, कुछ को याद है और भगवत गीता है आपके पास? अर्जुन ने कहा उवाच मतलब कहा एक संस्कृत का शब्द हम सीख भी सकते है। तो उवाच मतलब कहा। एक बार समझ लिया उवाच का अर्थ तो फिर वेदिक वांडमय में कितने जगह हजारों जगह उवाच उवाच गीता में भागवत में पुराणों में उपनिषदों में उवाच उवाच चलता है मतलब कहा।
अर्जुन उवाच
*परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।। आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥*
(श्री मद् भगवतगीता १०-१२.१३)
अनुवाद:-अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।
अर्जुन ने कहा और भी कहा है दो श्लोक साथ में लिखे हैं। इससे पहले श्लोक में अर्जुन ने अपना साक्षात्कार हमें सुना रहे हैं। मैं आपको कब से सुन रहा हूं। ज्यादा समय तो नहीं लिया अर्जुन ने यह बातें समझने में। कुछ 20-25 मिनट बीत चुके हैं इतने में अर्जुन को साक्षात्कार भी हुआ। हमें तो 20-25 साल ही नहीं, 20-25 जन्म बीत भी सकते है। इसलिए कृष्ण ने कहा है
*बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |*
*वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || १९ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 7.19)
अनुवाद
अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |
तो हम तो लगाते हैं किंतु सदियां बीत जाती है। कई जन्म जन्मांतर के उपरांत वासुदेव सब कुछ है। ऐसा ज्ञान, ऐसा अनुभव, ऐसा साक्षात्कार होता है। हरि हरि। ऐसे अर्जुन श्रोता है। ऐसे अर्जुन शिष्य हैं। ऐसी श्रद्धा है अर्जुन की।
*श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |*
*ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || ३९ ||*
अनुवाद –
जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है |
व्यक्ति श्रद्धालु है, श्रद्धालु को ही ज्ञान प्राप्त होता है। हम संशय करेंगे तो विनाश होगा। श्रद्धा है तो हम ज्ञानवान बनेंगे। अर्जुन श्रद्धालु है, शिष्य बने हैं और उन्होंने निवेदन भी किया था।
*कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः*
*पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः |*
*यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे*
*शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां* *प्रपन्नम्* *|| ७ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.7)
अनुवाद –
अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |
हे प्रभु, जिन जिन बातों में मेरा कल्याण है, उन बातों को कहिए। मैं आपकी शरण में आया हूं मुझे उपदेश दीजिए। तो ऐसे मन की स्थिति कृष्ण को सुने हैं अर्जुन।
वैसे इस श्लोक को पूरा समझाए तो नहीं किंतु मेरा ध्यान इस बात पर आ गया। जैसा मैं कह रहा हूंतो उसका संबंध अक्ल ऐसे अगले श्लोक के साथ है। श्लोक संख्या 14 में अर्जुन कहते हैं।
*सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव |*
*न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः || १४ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.14)
अनुवाद –
हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं |
ऐसे ही श्रद्धालु है अर्जुन। आप जो भी कह रहे हो, आप सच ही कह रहे हो। ऐसी श्रद्धा है अर्जुन की आप जो भी कह रहे हो, कैसे क्या कह रहे हो। *सर्वम एतत* मतलब जो जो कहा है आपने। *ऋतम्* मतलब सत्य ऋतम् शब्द का अर्थ है सत्य। *मन्ये* मुझे मंजूर है, 100 प्रतिशत। *यन्मां वदसि* जो आप सत्य मुझे सुना रहे हो। यह तो सत्य है। आप भी सत्य हो और आप जो भी कहते हो वो भी सत्य है। ऐसी श्रद्धा के साथ अर्जुन श्रवण कर रहे हैं। कृष्ण को सुन रहे हैं और उसी का ही तो परिणाम है उसी के फल स्वरुप अब उनको यह अनुभव हो रहा है और वह अनुभव क्या है? परम ब्रह्म – अर्जुन कृष्ण को कह रहे हैं। अर्जुन अर्जुन है उनके समक्ष श्री कृष्ण है। दोनों ही रथ पर विराजमान है, दोनों सेना के मध्य में है। तो अर्जुन एक और श्रीकृष्ण एक है। दो एक नहीं है। स्पष्ट है उस लीला में, यह लीला है भगवत गीता का उपदेश जो श्रीकृष्ण सुना रहे हैं यह लीला है श्रीकृष्ण की। ऐसी लीला रची है भगवान ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में। भगवान लीला खेल रहे हैं। उस लीला में, लीला किसी के साथ खेली जाती है और भक्त चाहिए और जीव चाहिए और भगवान फिर उनके साथ मिलकर लीला खेलते हैं। आदान-प्रदान होता हैं कुछ कार्यकलाप होता है। तो बोलना, कहना भी कार्य है। तो यह बोल रहे हैं श्रीकृष्ण *श्रीभगवान उवाच*, फिर *अर्जुन उवाच* उस लीला के मध्य में संवाद हो रहा है यह लीला है। कृष्ण भी है और अर्जुन भी है। यहां अर्जुन को साक्षात्कार हुआ *अहम ब्रह्मस्मी* आप भी ब्रह्म हो और मैं भी ब्रह्म हूं। तो ब्रह्म में ब्रह्मलीन हुआ ऐसा साक्षात्कार नहीं हो रहा है। जो अद्वैतवादियों का मायावादियों का साक्षात्कार होता है। जो अधूरा होता है। हरि हरि। ऐसे साक्षात्कार की पुष्टि, समर्थन गीता और भागवत नहीं करते। यह साक्षात्कार भगवत साक्षात्कार है। अर्जुन को आत्म साक्षात्कार हो रहा है। मैं भी हूं और आप भी हो। अर्जुन भी है और भगवत साक्षात्कार और आप भी हो। आप परम ब्रह्म हो। हरि हरि।
*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |*
*मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || ७ ||*
(श्रीमद्भगवद्गीता 15.7)
अनुवाद –
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
आपने कहा है मैं आपका अंश हूं। तो ठीक है मैं भी ब्रह्म हूं। लेकिन आप परमब्रह्म हो। मैं केवल ब्रह्म ही हूं। परमब्रह्म का अंश ब्रह्म हूं। मैं भी आत्मा हूं आप भी आत्मा हो। आप परमात्मा हो मैं आत्मा हूं। आप विभु आत्मा हो और मैं अनु आत्मा हूं। अनु मतलब छोटा सा और विभु मतलब महान आत्मा। यह इसीलिए सब हम कह रहे हैं ताकि मायावादियों का निर्गुण वादी जो होते हैं उनके साक्षात्कार की पुष्टि या नहीं हो रही है, वैसे साक्षात्कार अर्जुन का नहीं हो रहा है। अर्जुन के साक्षात्कार को तो समझो। तभी तो हमको भी साक्षात्कार होगा। हम सीखना चाहते हैं अर्जुन का क्या है साक्षात्कार। क्या अनुभव है अर्जुन का। इस श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद लिखे हैं दूसरी पंक्ति में तात्पर्य। इस अध्याय के चार महत्वपूर्ण श्लोकों को सुन। अर्जुन की सारी शंकाएं जाती गई और उसने भगवान को स्वीकार कर लिया। भगवान श्रीकृष्ण को भगवान स्वीकार कर लिया। उसने तुरंत ही उद्घोष किया आपको परब्रह्म हो। मैं आपका ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट करने का विचार है।श्रील प्रभुपाद लिखे है, इस अध्याय के यानी 10वे अध्याय के 4 महत्वपूर्ण श्लोक को सुनकर। चार महत्वपूर्ण श्लोक कौन से हैं? श्लोक संख्या 8,9,10 और 11। इसको हम चतुश्लोकी ऐसा कह रहे थे परिभाषित श्लोक। तो उन श्लोकों को सुनकर। वैसे अर्जुन ने और भी श्लोक सुने हैं। पूरे 9 अध्याय सुने हैं और फिर दसवें अध्याय के चार महत्वपूर्ण श्लोक श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं। ऐसे जो आठवां श्लोक उसको अर्जुन सुने, भगवान ने सुनाया। तो भगवान कहते हैं और भगवान ने जैसे ही कहा उसका अनुभव, उस ज्ञान का हो रहा है। उस ज्ञान के सत्य वचनों को सुन सुन का उसका अनुभव अर्जुन करते हैं और कह रहे हैं। आप परब्रह्म हो, आप परमधाम हो। धाम मतलब आश्रय या स्थान भी होता है। वृंदावन धाम की जय। पंडरपुर धाम की जय। मायापुर धाम की जय। यह धाम ही है। लेकिन भगवान को भी धाम कहा है। मूल धाम तो भगवान है। उस धाम के धामी है भगवान। आश्रय स्थानों में आप सर्वोपरि हो। आप ही आधार हो, आश्रय हो,धाम हो। हरि हरि। परमधाम आप आधार हो। श्रील प्रभुपाद धाम का शब्दार्थ, धाम शब्द का अर्थ आधार कहते है। *पवित्रम परमम भवान* हर बात के साथ परम्म का उपयोग हो रहा है। परम्म का मतलब सर्वश्रेष्ठ। आप ब्रह्म हो तो कैसे ब्रह्म हो परम ब्रह्म। आप धाम हो तो कैसे धाम हो परम धाम। आप पवित्र हो तो कैसे पवित्र हो परम पवित्र हो। यहां भवां भी महत्वपूर्ण है। मैं भी हूं और आप भी हो। अब यहां मेरा अस्तित्व समाप्त नहीं हो रहा है साक्षात्कार के साथ। मैं मैं हूं और आप आप भी हो मेरे समक्ष। इस बात का साक्षात्कार हो रहा है अर्जुन संबोधित कर रहे हैं। पूरे हावभाव के साथ कहते हैं बॉडी लैंग्वेज के साथ क्योंकि आत्मा की बात है! अर्जुन पूरे भाव भक्ति और दृढ़ श्रद्धा के साथ कृष्ण को संबोधित कर रहे है कि, आप परम पवित्र हो, आप स्वयं तो पवित्र हो और आपके संपर्क में जो भी आता है वह भी पवित्र हो जाता है, आप उसे पवित्र बना देते हो! *पतित पावन हेतु तव अवतार* चैतन्य महाप्रभु को कहते है, नरोत्तमदास ठाकुर थे उनसे पूछा गया कि, चैतन्य महाप्रभु को कैसे संबोधित करते हैं तो उन्होंने बताया *पतित पावन हेतु तव अवतार* आपका अवतार किस लिए हुआ है? पतित को पवित्र बनाने के लिए आप प्रकट होते हो। आप के संपर्क में जो भी आता है वह पवित्र हो जाता है, आपकी ऐसी ख्याति है। हरि हरि। हम कृष्ण को सूर्यसम कहते ही है, जैसे कि सूर्य की किरने जहां भी गिरती है वह स्थान अगर गंदा है तो उसके ऊपर भी सूर्य की किरने गिरती है तो स्वयं सूर्य की किरने अपवित्र नहीं होती। और मल मूत्र विसर्जन का स्थान भी है, तो वहां भी सूर्य की किरने पहुंचकर उस स्थान को पवित्र कर देती है, शुद्ध करती है! और स्वयं किरने कभी अशुद्ध नहीं होती। तो वैसे ही भगवान भी पवित्र है! हम जैसे ही उनके संपर्क में आते है, तो भगवतगीता के वचन में भगवान है और गीता भगवान से अभिन्न नहीं है। तो जेसे ही हम गीता को वचनों को सुनते है, इन वचनों के संपर्क में आते है या फिर भगवतगीता सुनी और सुनने वाला कौन है? आत्मा सुनता है! आत्मा के जो भाव और विचार कलुषित हो चुके है, उसमें दोष आया है, उसमें काम, क्रोध, लोभ, भरा हुआ है, अंतःकरण में! जो आच्छादित करता है, तो ऐसी आत्मा जब भगवान को सुनती है जैसे अर्जुन सुन रहे है, तो वैसे ही जब हम भगवतगीता को सुनते है जैसे कि अर्जुन में सुना था अब हमारी बारी है! हमारी आत्मा सुन रही है तो उसी के साथ हम जागृति आती है, और हम पवित्र हो जाते है। चेतो दर्पण मार्जन हो जाता है जब हम भगवान के संपर्क में आते है या उन्हें सुनते है, उनके वचन सुनते है, हरि कथा सुनते है, या गीता के अमृत का पान करते है, या फिर जैसे गीता महात्म में के कहा गया है,
*भारतामृतसर्वस्वं विष्णुववक्त्राव्दिनि:सृतम् |*
*गीता-गङ्गोदकं पित्वा पुनर्जन्म नविद्यते ||*
(गीता महात्म्य ५)
अनुवाद:- जो गंगाजल पीता है उसे मुक्ति मिलतीहे ! अतएव उसके लियए क्या कहा जाय जोभगवद्गीता का अमृत पान करता हो?भगवद्गीता महाभारतका अमृत है ओर इसे भगवान् कृष्ण (मूल विष्णु ) ने स्वयं सुनाया है|
*गीता-गङ्गोदकं पित्वा* यहां पर गीता की तुलना की है, किसके साथ? गंगा के उदक यानि जल के साथ! *गंगा तेरा पानी अमृत* गंगा के जल का पान करो तो व्यक्ति पवित्र हो जाता है। अमृत! अमर हो जाता है, मरता नहीं है। तो वैसे ही यह गीता अमृत है, तो इसका अगर पान और श्रवण करेंगे और चिंतन करेंगे, सुनी हुई बातों को हृदयंगम करेंगे तो उसी के साथ हम भी पवित्र हो जाएंगे। ऐसे भी श्रद्धा होनी चाहिए! अर्जुन पवित्र हुआ, अर्जुन मोह से मुक्त हुआ, ममता से मुक्त हुआ, उन्होंने घोषित किया तो हमारा भी ऐसा ही अवश्य हो सकता है। *अवश्य रक्षीते कृष्ण*। वैसे श्रद्धा के साथ हम भी सुनेंगे तो पवित्र हो जाएगा। हे भगवान आप पवित्र हो और हम आपके है तो आप हमें भी पवित्र बनाइए। आप चाहते है कि, हम भी पवित्र हो इसीलिए तो हे प्रभु, आप भगवत गीता का संदेश सुनाएं है! तो ऐसा हम विचार कर सकते है।
*अर्जुन उवाच*
*परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।*
*पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।१२*
*आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।*
*असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।१३*
भगवतगीता १०.१२-१३
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे है।
*परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।*
*पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।* तो ऐसे हर एक वचनों का साक्षात्कार कैसे हो? यह भी बहुत बड़ा साक्षात्कार है कि, आप पुरुष हो! पुरुष के साथ जुड़े हुए कई साक्षात्कार है, गोविंद आदि पुरुष, आपका एक व्यक्तित्व है क्योंकि आप पुरुष हो। और फिर हम हैं प्रकृति! ऐसी भी एक समझ है। आप पुरुष हो और हम आप की प्रकृति है। यह प्रकृति कह रही है कि, जैसे अर्जुन भी कृष्ण की प्रकृति है। पुरुष की तटस्थ शक्ति है। तो अर्जुन कह रहा है कि मैं तटस्थ शक्ति हूं और आप पुरुष हो! और पुरुष कहने से यह भी समझ में आना चाहिए कि, भोक्तरम यज्ञ तपसा, पुरुष को ही अधिकार होता है क्योंकि पुरुष ही भोक्ता होता है। पुरुष भोक्ता होता है और प्रकृति भोज्य होती है। पुरुष के सुख और उपभोग के लिए प्रकृति होती है। और माया क्या करती है? प्रकृति पुरुष बनना चाहती है।
*असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।*
*ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥*
भगवतगीता १६.१४
अनुवाद:- “मैं ईश्वर हूँ और भोगी हूँ”, “मैं सिद्ध पुरुष हूँ”, “मैं बलवान और सुखी हूँ”,।।
आसुरीसंपदा और देवीसंपदा नामक अध्याय में, आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के विचार बताए है, जिसमें वह सोचता है कि, अहम भोगी या फिर अहम ईश्वर यहीं से शुरूआत होती है, मैं ईश्वर हूं, मैं स्वामी हूं, इस प्रकृति या इस देश का, इस परिवार का मैं मालिक हूं। जिसमें अहम और मम यानी में और मेरा के साथ ईश्वर अहम! अगर मैं ईश्वर हूं तो मैं क्या करूंगा? मैं भोगूंगा! किंतु यहां जब अर्जुन कह रहे हैं कि, आप पुरुष हो मतलब इसी के साथ वे स्वीकार कर रहे है कि, मैं प्रकृति हूं और आप पुरुष हो। मेने स्वयं का पुरुष बनने के कई सारे विफल प्रयास किए लेकिन अब ऐसा पुरुष बनने का और ईश्वर होने का प्रयास नहीं करूंगा। क्योंकि आप पुरुष हो और मैं प्रकृति हूं! और आप शाश्वत हो। आप सदा के लिए हो। गोविंदम आदि पुरुषम! आप पुरुष थे, है और रहोगे! आप पुरुषोत्तम हो। दिव्य, अलौकिक और अप्राकृतिक आपका व्यक्तित्व है। आप दिव्य जगत के हो। आप दिव्य जगत के निवासी हो। आपका लोग कभी दिव्य है और आप भी दिव्य हो! और आप आदिदेव हो। वैसे कई सारे देव देवता है जिनकी संख्या 33 करोड़ बताई है, लेकिन आप कौन हो? आप आदि देव हो, देवों के देव हो, देवों के स्रोत हो! देवों को आप ने बनाया है, देवी देवताओं को आप ने अलग-अलग सेवाओं में नियुक्त किया हुआ है। तो आप आदि देव हो और आप अज हो, अ मतलब नहीं और ज मतलब जन्म। आपका कभी जन्म नहीं होता क्योंकि आप शाश्वत हो और अगर आप जन्म लेते हो तो वह आप की लीला है लेकिन वैसे तो आप अजन्मा हो और आप वैभव से पूर्ण हो सर्वोच्च हो। हरि हरि। तो ऐसे धीरे-धीरे यह साक्षात्कार अर्जुन ने कहे है ही तो और फिर अर्जुन १० वे अध्याय में कहने वाले है कि आप मुझे कहिए अर्जुन कहेंगे कि,
*वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।*
*याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥* (१६)
भगवतगीता १०.१६
अनुवाद : हे कृष्ण! कृपा करके आप अपने उन अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण स्वरूपों को विस्तार से कहिये जिसे कहने में केवल आप ही समर्थ हैं, जिन ऎश्वर्यों द्वारा आप इन सभी लोकों में व्याप्त होकर स्थित हैं।
आपकी विभूतियां कहिए! आपको मैंने विभूत कहा, आप सर्वोच्च हो, तो आप की विभूतियों को मुझे सुनाइए। इन विभूतियों का वर्णन कीजिए ताकि मैं स्मरण कर पाऊंगा।
*विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।*
*भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥*
भगवतगीता १०.१८
अनुवाद:- हे जनार्दन! अपनी योग-शक्ति और अपने ऎश्वर्यपूर्ण रूपों को फिर भी विस्तार से कहिए, क्योंकि आपके अमृत स्वरूप वचनों को सुनते हुए भी मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।
*विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।* मैं आपके विभूतियों के ऐश्वर्य के संबंध में और सुनना चाहता हूं। थोड़ा आपने बताया है और थोड़ा विस्तार में बताइए! तो फिर श्री कृष्ण १० वे अध्याय के श्लोक संख्या 19 से इस अध्याय के अंत तक अलग-अलग विभूतियों का उल्लेख करेंगे। यह भी मैं हूं यह भी मैं हूं ऐसी मेरी पहचान है। तो उन विभूतियों को हम कल के सत्र में चर्चा करेंगे। कृष्ण तो उसी समय कहे थे ऐसा नहीं कहा कि, अब हम आगे का कल सुनाएंगे। यह विभूतियों का वर्णन बहुत ही महत्वपूर्ण है, तो हम इसे कल चर्चा करेंगे। हरि हरि। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक ०९.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
गौरांगा!
एकादशी महोत्सव की जय! लगभग मैं कहने ही जा रहा था कि भगवतगीता महोत्सव की जय! और मैंने कह भी दिया।भगवतगीता महोत्सव की जय! वास्तव में मैं गीता के संबंध में कुछ सोच रहा था।
हरि! हरि!
यह गीता का समय और सीजन भी है। गीता का ध्यान और गीता का श्रवण कीर्तन अथवा कहा जाए कि गीता का वितरण करने का समय भी है।
आज ८७५-८७७ स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। अप-डाउन(वृद्धि- कमी) हो रहा है। एकादशी होने के कारण कुछ अतिरिक्त स्थानों से जप हो रहा है। हरि! हरि!
आप में से कुछ भक्त इस कॉन्फ्रेंस में सीजनली या कभी कभार सम्मलित होते हैं जैसे कि आज एकादशी का दिन अथवा प्रसंग है। अच्छा होता, यदि आप प्रतिदिन हमारा साथ देते। हमारा क्या, आप भगवान का साथ देते। जो प्रतिदिन हमारे साथ नहीं होते, अच्छा होता यदि आप प्रतिदिन साथ होते। वह दिन कब आएगा। कबे हबै सेइ दिन हमार।
कि आप सभी साथ में रहोगे। क्योंकि हम अभी अभी कल या परसों में पढ़ ही चुके हैं।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.१०)
अनुवाद:- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि
सतत्ं। सातत्य शब्द भी कितना अच्छा है। विशेष शब्द है आप ‘सतत्’ कहो।( प्रतिभागियों से कहते हुए) ‘सतत्।’ कह रहे हो? कहो सतत्! नहीं कह रहे हो। पुण्डरीक विधानिधि, तुम नहीं कह रहे हो।सतत्। मैंने यह नोट किया है कि जब हम सतत् शब्द कहते हैं तब इसका अर्थ सतत् मतलब सातत्य है । इस शब्द में भी इतना सातत्य है कि इसके एक अक्षर से दूसरे अक्षर से तीसरे अक्षर पर जाते समय कोई खंड नही होता है। सतत् शब्द में हम इतने फटाफट पहुंचते हैं, उसमें कोई खण्ड नहीं है। सतत् बहुत ही विशेष शब्द है। राघव चैतन्य!अमेरिका में बैठे हो। सतत्! इस शब्द को याद रखो तथा इस शब्द को भी समझो। यह सतत्, सातत्य का भी एक प्रतीक है। एक् के बाद एक अक्षर आते हैं और सातत्य बनाए रखते हैं जिसमें कोई खंड नहीं है। सतत् एक अखंड शब्द है जो कि सतत् बनाए रखते हैं।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । यह सतत् अखंड शब्द है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९)
अर्थ:-अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है।
मैं सोचता हूँ कि भगवान ने कुछ सोच कर यह विशेष शब्द बनाया है और उसी शब्द का यहां प्रयोग कर रहे हैं तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् अर्थात जो मेरी सतत् भक्ति करते हैं….
सतत् शब्द का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूँ कि आप में से कुछ लोग हर एकादशी को ही जॉइन करते हो। वो भी सातत्य हुआ। जैसे मैं कहता रहता हूं कि आप मंदिर आते हो ? तब कुछ कहते हैं कि हां हां, प्रत्येक जन्माष्टमी या मैं हर जन्माष्टमी को आता हूँ। उसमें में सातत्य हुआ ना । सातत्य तो है लेकिन एक जन्माष्टमी से दूसरी जन्माष्टमी तक नहीं आता हूँ, जन्माष्टमी को आता हूँ। जो हर एकादशी को यह ज़ूम सेशन जॉइन करते हैं। कहते हैं कि मैं रेगुलर हूँ, मैं हर एकादशी को आता हूँ।
हरि हरि!
किन्तु श्रीकृष्ण सतत् की बात करते हैं – तेषां सततयुक्तानां अर्थात युक्त अथवा लगे हैं अथवा व्यस्त हैं, भजतां प्रीतिपूर्वकम् अर्थात जो निरंतर भजन में व्यस्त हैं।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.८)
अनुवाद:- मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
भजन्ते मां अर्थात मेरा भजन करते हैं। कैसा भजन? तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् यहाँ जीवन में एक बार या हर एकादशी या हर जन्माष्टमी जैसे सातत्य की बात या अपेक्षा भगवान नहीं कर रहे हैं। भगवान क्षण-अक्षुण्ण अर्थात हर क्षण अर्थात उसके बाद वाला क्षण और उसके बाद वाला क्षण भी चाहते हैं कि हम निरंतर उनका स्मरण करें।
अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् । कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥
( गोपी गीत १५)
अर्थ:- (हे प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है की इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।
हम आपको याद कर रही हैं।
त्रुटिर्युगायते- यह गोपियों का भाव है। त्रुटिर्युगायते। त्रुटि अर्थात क्षण का भी छोटा सा अंश। एक क्षण भी नही, एक सैकंड भी नहीं। उसका भी एक छोटा सा अंश।
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे।।
( श्री शिक्षाष्टकम श्लोक 7)
अनुवाद:-हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा है तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दिख पड़ता है।
आपके बिना, आपके स्मरण के बिना, आपके सानिध्य के बिना अर्थात आपका सङ्ग प्राप्त न होने से , हम जो त्रुटिकाल (त्रुटि जो कि काल का अंश है) के लिए आपसे बिछुड़ गयी हैं और हम आपसे दूर हैं अथवा हमें आपका सानिध्य प्राप्त नही हो रहा है तो हमें लगता है कि कितने युग बीत गए हैं और हम कब से कृष्ण से नहीं मिली हैं। यह सातत्य है, हर क्षण और यहीं लक्ष्य है। यह गोपियों का भाव अथवा विचार है। वह सतत् भगवान का स्मरण करना चाहती हैं। हरि! हरि!
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
यहाँ चार विशेष श्लोकों पर चर्चा हो रही है। उसी के अंतर्गत भगवान ने यह सतत् उल्लेख किया है।
ये चार श्लोक (१०.८ से १०.११ तक) आप याद रख सकते हो। रामनाम याद रहेंगे? यह चार विशेष श्लोक अथवा परिभाषित वचन/ वाक्य हैं या चर्तुश्लोकी भगवतगीता है।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
( श्रीमद् भगवतगीता १०.११)
अनुवाद:- मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।
श्लोक को कंठस्थ करो। तत्पश्चात हम कहेंगे कि केवल कंठस्थ ही नहीं करना है उसे ह्रदयंगम भी करना है। केवल कंठस्थ का लाभ नहीं लेकिन प्रारंभ तो कर सकते हैं। पहले कंठस्थ करो, फिर ह्रदयंगम करो। हमें श्लोकों को केवल कंठ में नही बिठाना है जैसे तोता कंठ से बोलता है अपितु हमें इन श्लोकों को ह्रदय में बैठाना है। ह्रदयंगम अर्थात ह्रदय में बैठाना अर्थात आत्म भावस्थो अर्थात आत्मा में बिठाना है। आत्मा ह्रदय में स्थित है। इसलिए ह्रदयंगम या ह्रदयास्थ अर्थात आत्मा में बैठाना है अथवा आत्मा की चेतना में अथवा अंतःकरण में इन श्लोकों/ वचनों और गीता को स्थापित करना है।
कृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि ‘तेषाम’ अर्थात उन पर अर्थात जिनका पूर्व में उल्लेख किया है।
तेषामेवानुकम्पार्थम अर्थात उन पर या उन पर ही( अभी इतना विस्तार से नहीं समझा सकते, आप कल्पना भी कर सकते हो) तेषाम अर्थात उन पर, जो तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् अर्थात जो सतत् मेरा कीर्तन प्रेमपूर्वक करते हैं, मेरी भक्ति सतत् करते हैं, वह भी प्रीतिपूर्वक भक्ति करते हैं) मैं उन पर ही, उन पर निश्चित ही, दोनों ही अर्थ ‘ही’ के हो सकते हैं। ही को संस्कृत में अव्यय कहते हैं।’ही’ अर्थात निश्चित ही या वहीं। मैं उन पर विशेष अनुकंपा करता हूं। यह अनुग्रह करता हूँ। मैं अनुग्रह के लिए क्या करता हूँ। भगवान आगे कहते हैं कि अज्ञानतम तम् नाशयामिः
(यहाँ अहम का अर्थ भगवान् हैं, आप नहीं हो। कृष्ण ‘अहम’ हैं) अर्थात भगवान कह रहे हैं- अज्ञानतम तम्: नाशयामिः अर्थात मैं अज्ञान के कारण उत्पन्न तम्: अर्थात अंधकार का नाश करता हूँ। ऐसा कुछ भाषान्तर है। (अभी यहाँ भावार्थ नही है। वैसे भावार्थ भी है, लेकिन कह नही रहे हैं) नाशयाम्यात्मभावस्थो अर्थात उनके ह्रदय में स्थित ज्ञान के दीपक द्वारा प्रकाशमान हुए..। श्रील प्रभुपाद ने ऐसा शब्दार्थ दिया है। मैं( भगवान्) उन पर विशेष कृपा करने हेतु उनके ह्रदयों में वास करते हुए (भगवान् हमारे ह्रदय में वास करते हैं तथा वास करते हुए कुछ करने में व्यस्त रहते हैं।) ज्ञानदीपेन भास्वता अर्थात ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा ज्ञान का दीपक जलाता हूं। मैं ह्रदय में वास करता हूँ और उस व्यक्ति के ह्रदय में ज्ञान का दीपक जलाता हूं। ज्ञान के प्रकाश मान दीपक के द्वारा अज्ञान जन्य अर्थात अज्ञान से उत्पन्न अंधकार को दूर करता हूँ। अंधकार दूर हुआ तो प्रकाश होगा। भगवान, गीता का उपदेश सुना कर यही कर रहे हैं। हमारे पूर्व आचार्य श्रीधर स्वामी टीका में लिखते हैं कि यह संसार अंधेर नगरी है। हम इस से मुक्त होंगे, हम इस संसार के अंधेरे में हैं। कहाँ आ रहे हैं, जा रहे हैं, कुछ पता ही नहीं है। हरि! हरि! अंग्रेजी में कहते हैं कि शूटिंग इन द् डार्क अर्थात आपके पास बंदूक है अर्थात अंधेरा है, आप अंधेरे में बंदूक चला रहे हो। बंदूक तो चलेगी परंतु गोली कहाँ पहुंचेगी। कौन जानता है। नो आईडिया। इसलिए कहावत ही है। यह संसार अंधेरा है, अंधेर नगरी है। तमोगुण से उत्पन्न अंधेरे में हम शूटिंग अर्थात लक्ष्यहीन होकर कार्य कर रहे हैं। भगवान विशेष गीता ज्ञान देकर अनुग्रह करते हैं। यह भगवत गीता का महात्म्य हुआ। इस भगवतगीता के ज्ञान प्राप्ति की कितनी उपयोगिता है।
यह अंधेरे से बाहर निकालता है और कहा भी है –
कृष्ण सूर्य सम; माया हय अंधकार।य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.३१)
अनुवाद:- कृष्ण की तुलना धूप से की जाती है, और माया की तुलना अंधेरे से की जाती है। जहां भी धूप है, वहां अंधेरा नहीं हो सकता। जैसे ही कोई कृष्ण चेतना में जाता है, भ्रम का अंधेरा (बाहरी ऊर्जा का प्रभाव) तुरंत गायब हो जाएगा।
माया अंधकार है और कृष्ण सूर्य सम हैं या कृष्ण सूर्य भी हैं।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥
( श्री मद् भगवतगीता ७.८)
अनुवाद:-हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ।
भगवान कहते हैं कि सूर्य तथा चंद्रमा में जो प्रकाश है, प्रभास्मि अर्थात मैं प्रकाश हूँ। सूर्य, चंद्रमा को भगवान की आंखें कहा गया है। भगवान के वैभवों में इनका समावेश है। सूर्य का प्रकाश कृष्ण का प्रकाश है। सूर्य का प्रकाश अपना खुद( स्वयं) का प्रकाश नहीं है। सूर्य का प्रकाश भी भगवान का ही प्रकाश है। कृष्ण का प्रकाश है अथवा ब्रह्म ज्योति है। शास्त्रों में भी कहा है कि
कोटि- सूर्य-सम सब- उज्ज्वल- वरण। कभु नाहि शुनि एइ मधुर कीर्तन।।
( श्री चैतन्य चरितामृत ११.९५)
अनुवाद:- सचमुच, उनका तेज करोड़ सूर्यों के तेज के समान है। न ही मैंने इसके पूर्व कभी भगवन्नाम का इतना मधुर कीर्तन होते सुना है।
कृष्ण के अंग विग्रह से जो कांति प्रकाश निस्तरित होता है, वह कोटि- सूर्य-सम प्रभा के समान होता है। वह प्रभा जो उत्पन्न होती है, वह प्रभा भगवान् से भिन्न नहीं है।
वदन्ति तत्तत्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। ब्रह्मेति परमात्मेती भगवानिति शब्द्यते।।
( श्रीमद् भागवतम १.२.११)
अनुवाद:- परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्त्वविद) इस अद्वय तत्व को ब्रह्म, परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं।
वह ब्रह्म ज्योति अथवा वह प्रकाश भगवान से अभिन्न है। प्रभास्मि शशिसूर्ययोः भगवान कहते हैं कि चंद्रमा और सूर्य में जो प्रकाश है, वह भी मैं ही हूँ।
हरि! हरि!
भगवान् कृष्ण इस गीता ज्ञान को देते हुए, भगवतगीता के मध्य में पहुंचे हैं अर्थात १८ अध्यायों में से10 अध्याय तक पहुंचे हैं। वे इन गीता के वचनों को कहते हुए कह रहे हैं कि यह अनुग्रह है।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।
( श्री मद् भगवतगीता १०.११)
अनुवाद:- मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।
मैं जो ज्ञान दे रहा हूँ, यह मैं अनुग्रह कर् रहा हूँ। यह मेरा तुम पर अनुग्रह है। केवल तुम पर ही नहीं अथवा मेरा लक्ष्य केवल तुम ही नहीं हो। तुम्हें तो मैंने निमित बनाया है। (आप में से कोई मेरा लक्ष्य है – सुंदरलाल! मॉरीशस में भगवान् ने आपको टारगेट बनाया है या मुकन्द माधव आपको लक्ष्य बनाया है)
भगवान जब अर्जुन को गीता का उपदेश सुना रहे थे तब जो भी इस
संसार के अंधेरे में फंसे है, बद्ध है अथवा बद्धता के कारण त्रसित एवं ग्रसित हैं। सम्भवतः भगवान ने उन सब को लक्ष्य बना कर अथवा स्मरण करते हुए गीता का उपदेश दिया है।
भगवान् ऐसा कर सकते हैं। भगवान् एक ही साथ हम सभी का स्मरण कर सकते हैं। कर सकते है या नहीं? कृष्ण के लिए यह सम्भव है। कृष्ण ऐसे ही अद्भुत हैं जिन्होंने कहा भी हैं-
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥
( श्री मद् भगवतगीता ७.२६)
अनुवाद:- हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता।
भगवान कहते हैं कि मैं सब जीवों को जानता हूँ। मैं सभी जीवों के वर्तमान, भूतकाल, भविष्य काल को जानता हूँ। जैसे भगवान इस श्लोक में भी कह रहे हैं अहमज्ञानजं तमः
नाशयाम्यि – यह गीता का उपदेश सुनाकर मैं अज्ञान से उत्पन्न अंधकार का नाश करता हूँ। वैसे भागवतम भी है। यदि एक शब्द में कहना है तो वेद कह सकते हैं।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १५.१५)
अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।
वेद के अंतर्गत उपनिषद भी आते हैं। इसलिए गीता को भी गीतोपनिषद कहा गया है। इसलिए यह भी वेद हुआ। महाभारत पंचम वेद है। उसके अंतर्गत भगवतगीता आती है। वेद किसलिए हैं- वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो- अर्थात वेद भगवान को जानने के लिए हैं। भगवान का अनुग्रह हम सभी पर है। गीता सुनाते समय भगवान हमारा अर्थात हर एक एक जीव का स्मरण कर रहे थे। यदि भगवान् हमें भूल जाएंगे तो सब समाप्त (फिनिश्ड)। क्या हाल होता हमारा, यदि भगवान् हमें याद नहीं रखते तो, कौन याद करता और कौन हमें बचाता। भगवान ने हमें याद रखते हुए गीता का उपदेश सुनाया है। उनका गीता कहने का उद्देश्य अब सफल हो गया। कब सफल हुआ? जब आज के दिन या फिर कुछ दिनों से स्वरूपानंद भगवतगीता को सुन रहे हैं या जब से हमनें इस गीता का श्रवण अध्ययन करना प्रारंभ किया और अब भी कर रहे हैं, तब भगवान् का जो यह गीता सुनाने का उद्देश्य था , वह उद्देश्य अधिक सफल हुआ। नहीं तो बेकार था। भगवान् ने गीता सुना दी, लेकिन यदि हमनें फायदा नहीं उठाया या हमनें नहीं सुनी और ना ही गीता को समझा तो क्या लाभ परंतु यदि अब हम सुन रहे हैं , पढ़ रहे हैं और फिर पढ़ा भी रहे हैं। अध्ययन और अध्यापन भी हो रहा है तो भगवान् का गीता का उपदेश सुनाते समय जो उद्देश्य था अर्थात गीता के वक्ता का जो उद्देश्य था कि संसार के सभी बद्ध जीव कभी मेरे वचनों को सुने, ऐसा सोचकर भगवान ने बोला था। वह उद्देश्य सफल हुआ। यह अनुग्रह की बात है।
अनुग्रहितोअस्मि
भगवान् ने हम पर अनुग्रह किया है । जब हमें गीता प्राप्त हुई और अब हम सुन रहे हैं। हमें प्राप्त हुई गीता के लिए अनुग्रहितोअस्मि कहना चाहिए। अनुग्रहितोअस्मि अर्थात मैं आप का आभारी हूँ। धन्यवाद कृष्ण! धन्यवाद कृष्ण! धन्यवाद् कृष्ण!
क्या आप अनुग्रहितोअस्मि कह सकते हो? कहो। धन्यवाद तो कहते रहते हो लेकिन अनुग्रहितोअस्मि नहीं कहते हो आप। बजरंगी कहो।
हे कृष्ण! मैं आपका आभारी हूँ। आपने जो कृपा प्रसाद अनुग्रह किया है। अर्जुन ने भगवान के अनुग्रह को प्रसाद के रूप में स्वीकार किया है।
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥
( श्रीमद् भगवतगीता१८.७३)
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई । अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ ।
आपका प्रसाद मिला, आपका अनुग्रह हुआ। त्वत्प्रसादान्मयाच्युत इस भगवतगीता को अर्जुन ने भगवान् के अनुग्रह के रूप में स्वीकार किया है अथवा अर्जुन कहते हैं कि भगवान् ने इस गीतामृत के रूप में मुझे प्रसाद खिलाया अथवा पिलाया है। हरि! हरि!
यह चार श्लोक, वैसे अर्जुन पिछले नौ अध्याय से सुन चुके हैं और उन्होंने अब यह चार विशेष श्लोक सुने हैं। अब अर्जुन का साक्षात्कार सुनो लेकिन अभी नहीं सुना पाएंगे। समय पूरा हो चुका है। अर्जुन का साक्षात्कार विशेष साक्षात्कार है। आप सुनोगे तो आप सुन कर आप भी सोच सकते हो कि हमें ऐसा साक्षात्कार कब होगा। देखो! अर्जुन को क्या साक्षात्कार हुआ। अर्जुन ने अभी पूरी भगवतगीता नहीं सुनी है, लेकिन जितनी सुनी है अधिकतर सुन चुके ही हैं। जो सारगर्भित बात है, वह भक्तियोग की बात है या भगवान कौन हैं। भगवान ने कहा ही है और अब अर्जुन कहने वाले हैं।
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।। आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥
(श्री मद् भगवतगीता १०-१२.१३)
अनुवाद:-अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।
यह कृष्ण ने कहा है। वैसे कृष्ण ने बहुत कुछ कहा है लेकिन कहा है कि हे अर्जुन तुम आत्मा हो।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
( श्रीमद् भगवतगीता १५.७)
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है, तुम मेरे अंश हो इत्यादि इत्यादि बहुत कुछ कहा है।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥
(श्री मद् भगवतगीता ११.५४)
अनुवाद:- हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिसरूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है | केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो।
भगवान् कहते हैं कि मैं बस भक्ति से केवल प्राप्त होता हूँ। यह सारी बातें कृष्ण ने कही हैं। यह सुनकर अब अर्जुन ने अपने साक्षात्कार को कहा है। भगवान् ने अर्जुन को कहा है कि तुम कौन हो? अब अर्जुन पूरे साक्षात्कार के साथ कहने वाले हैं कि भगवान्, आप कौन हैं? आपने मुझे बताया कि मैं कौन हूँ वैसे आप कौन हो, यह बातें भी मुझे आपने सुनाई है। अब मैं मेरा साक्षात्कार सुनाता हूँ कि आप कौन हो? इस प्रकार हम अर्जुन का आत्म साक्षात्कार और भगवत्( कृष्ण) साक्षात्कार को कल सुनेंगे।
कल आगे जारी रखेंगे।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा,
8 जनवरी 2020,
पंढरपुर धाम.
897 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। हरिबोल! यहां पर विशेष दर्शन है। भक्त यहां से, भक्त भुनेश्वर से, भक्त यूक्रेन से, मुंबई से अरवड़े से, भक्त सोलापुर से, भक्त नागपुर से, मॉरिशियस से, अलीबाग से, थाईलैंड से भक्त, यह दर्शन विशाल है, यह विश्वरूप है। उसमें भी भक्तों के रूप है या भक्त हरिनाम के माध्यम से भगवान को पुकार रहे हैं। यह दृश्य और भी अधिक मधुर बन जाता है।
कृष्ण दयालु है। कृष्ण दयालु है कि नहीं ओजस्विनी? श्रीचंद्रिका कहती है कि कृष्ण अतिदयालु है। और कृष्ण दयालु नहीं होते तो इस वक्त हमारे हरिनाम का उच्चारण नहीं करते। हरिहरि, कृष्ण आपको जगाते भी है। जीव जागो जीव जागो गौराचांँद बोले गौराचांँद सभी को बुलाते हैं। हरिहरि, सूर्य का प्रकाश उपलब्ध तो है किंतु जो घर से बाहर निकलेंगे या छत पर पहुंचेंगे वहीं अनुभव कर सकेंगे सूर्य प्रकाश का, सूर्यकिरणों का, सूर्य के प्रकाश से वे लाभान्वित हो सकते हैं। सूर्य ने तो कई सारे कदम उठाएं। कहां का सूरज कहां पहुंचा। हम अगर कुछ कदम उठाते हैं उनकी ओर रास्ते में फिर मिलन होता है। तदवत कृष्ण या गौरंगा तोम बिना के दयालु जगत संसारे आपके बिना और कौन दयालु है कृपालु है।
हरि हरि, भगवान कृपा बरसा रहे हैं। और वह कृपा की दृष्टि यहां कृपा कटाक्ष हम पर भगवान का है। कृष्ण के दया के बिना और कोई उत्तर तो नहीं हो सकता इस जन्म में। हम कुछ स्मरण कर रहे हैं। शुरुआत तो कर रहे हैं कुछ हल्का सा स्मरण हो रहा है। और स्मरण को बढ़ाना चाहते हैं और याद करना चाहते हैं। हरि हरि, और यादें बढ़ाने के लिए हम उनके नामों का उच्चारण, कीर्तन करते हैं, यह श्रवण होता है।
उच्चारण करते हैं तो श्रवण भी होता है। या नित्यसिद्ध कृष्णप्रेम साध्य का उद्देश। श्रवणादि शुद्ध चित्ते करय उदय हमारा तो प्रेम है कृष्ण से, तो हम गलती से औरों से हरि हरि माया से प्रेम करते हैं। माया के भी कई रूप हैं हम उनसे प्रेम करते हैं। वह बात गलत है। फिर हम बात करते हैं, श्रवणादि शुद्ध चित्ते करय उदय श्रवणादि श्रवण आदि इस शब्द की ओर ध्यान तो दो। श्रवणादि मतलब सिर्फ श्रवण नहीं कहा है।
श्रवण आदि, श्रवण और इत्यादि इत्यादि। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वंदन यह सब आ गए। कह तो दिया श्रवणादि। श्रवण आदि कहने से समझ लेना चाहिए कि नवविधा भक्ती का उल्लेख हो रहा। है श्रवणादि शुद्ध चित्त करय उदय शुरुआत तो श्रवण से होती है नवविधा भक्ती की शुरुआत या और भक्ति हम तब करेंगे जब प्रारंभ मे श्रवण भक्ति करेंगे। सुनेंगे कृष्णा कथा तो हम कृष्ण से प्रेम करना हम प्रारंभ करेंगे या कृष्ण का प्रेम बढ़ेगा। और ग्राम कथा करेंगे, इस कथा के वैसे दो भाग हैं। यह भाग में थोड़ा जल्दी खत्म करना चाहता हूं। भगवदगीता की जो कल सूचना दी गई थी, उसमें हम आगे बढ़ेंगे। गीता के 10 वे अध्याय के कुछ श्लोक सुनाने थे आपको, सुनाऊंगा। लेकिन अभी तो यह श्रवण का महिमा सुना रहेे हैं।
कथाओं के दो प्रकार होते हैं या श्रवण के दो प्रकार के होते हैं। एक कृष्णकथा और दूसरी ग्रामकथा, माया की कथा। श्रवणादि शुद्ध चित्ते करय उदय। नित्यसिद्ध कृष्णप्रेम।। तो कथा या नामगान भी कहो, हम कृष्ण का सुनेंगे। कृष्णकथा सुनेंगे तो कृष्ण से प्रेम होगा। कृष्ण से प्रेम करने लगेंगे और ग्रामकथा सुनेंगे ग्रामकथा, संसारी कथा, स्त्रीपुरुष कथा इत्यादि इत्यादि तो क्या उदित होगा, काम उदित होगा। एक कथा तो कृष्णप्रेम को जगाती है। तो दूसरी कथा काम। दूरदर्शन, सिनेमाज, मूवीज, रेडियो, इंटरनेट जिसमें क्या है, ग्रामकथा, राजनीति, यह और वह। यह सुनने से क्या होगा? हमारा काम बढ़ेगा। कामवासना बढ़ेगी। वैसे भी आग लगी हुई है हमारे जीवन में। संसार दावानल कहते हैं। हमारे इंद्रियों में आग लगी हुई है। वह आग जितनी अधिक प्रज्वलित होगी हम उसको पोषण देंगे ग्राम कथा करेंगे। या फिर कह भी सकते हैं इंद्रियों के जो विषय हैंं
उसका आहार होगा। इंद्रियों का आहार होगा आंखों को कुछ रूप से खिलाएंगे, पिलाएंगे। जो भी है लेकिन यह रोकना है। हरि हरि, दूरदर्शन देखेंगे, बॉलीवुड, हॉलीवुड का संगीत सुनेंगे जिसका विषय होता है काम। याद रखिए थोड़ा दिमाग लड़ाइये थोड़ा चिंतन करो। मराठी में कहते हैं शहाणे व्हा। और यह जो भेद हैैै ग्रामकथा कृष्णकथा, कृष्ण में माया मेंं, इस को समझो। प्रेम में काम में क्या अंतर है इसको समझो और यही समझाती हैं भगवत गीता। कृष्ण समझाते है। कृष्ण स्वयं ही शिक्षक बने हैं या गुरु बने हैं। कृष्णम वंदे जगत गुरु और अर्जुन बने हैं शिष्य। शिष्यस्ते अहम् शाधिमाम् त्वाम प्रपन्नाम तो हमको भी अर्जुन जैसा शिष्य बनना है। तो उस बने हुए शिष्य अर्जुन को भगवान गीता का उपदेश सुनाते सुनाते दसवें अध्याय तक पहुंच गए हैं। तो यहां विशेष जो चार श्लोक हैं। वैसे भागवत भी चतुश्लोकी भागवत कहते हैं। भागवत में भी द्वितीय स्कंध में विशेष चार श्लोक हैं। तो चतुश्लोकी भागवत कहते है। भगवतगीता के 4 श्लोक 10 वीं अध्याय के 4 श्लोक 8 9 10 11 यह जो श्लोक हैं यह चतुश्लोकी या परिभाषित वाक्य है गीता के। दो श्लोक तो पहले सुनाएं हैं और अभी यह 10वां।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
भाषांतर जो प्रेम पूर्वक मेरी सेवा करने में निरंतर लगे रहते हैं हमें ज्ञान प्रदान करता है जिसके द्वारा जिसके द्वारा वह मुझ तक आ सकते हैं
देखिए कितनी रहस्यमई बात रहस्य भगवान यहां सुना रहे हैं। जीव को पहुंचाना है मुझ तक। येन मामुपयान्ति ते जीव को वैकुंठ पहुंचाना है। गोलोक पहुंचाना है। तो यह कैसे संभव है। यह तो लक्ष्य ही है जीव का। जीव का लक्ष्य कृष्ण और फिर कृष्ण जहांं रहते है वहां स्थान गंतव्य स्थान है। कृष्ण पहले चौथे अध्याय में कह चुके हैं।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति पुनर्जन्म न एति की मामयेती कृष्ण ने कहां है पुनर्जन्मा न एति मामयेती मतलब जाता है आता है। वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं करता है। मेरे पास आता है। वह कौन और कैसा व्यक्ति मेरे पास आएगा? सुन तो लो कृष्ण कह रहे हैं। अब आपको कृष्ण सीधे आपको सुना रहे हैं। आपके और कृष्ण के बीच में कोई नहीं है। वैसे हमारे गुरु है। एवं परंपरा प्राप्त लेकिन उस कृष्ण की और से ही वह बोल रहे हैं और वह वही बात बोल रहे हैं जो कृष्ण ने कही थी एक समय, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे और वह जो हुआ और सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत यह भी हुआ दोनों सेना के मध्य में मेरे रथ को खड़े करो। वहां पहुंचने पर ऐसे अर्जुन को भगवान जो कहे या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता भगवान के मुखारविंद से नि:सृत निकले जो वचन है वही सीधे हम तक पहुंच रहे हैं।
वैसा ही अनुभव है मानो, क्या वैसा ही है? भगवान हमको सुना रहे हैं तेषां सततयुक्तानां सुनो और कौन सुना रहे हैं कृष्ण सुना रहे हैं तेषां सततयुक्तानां पहले कभी नहीं सुना था या सुना भी था तो समझे नहीं थे। किंतु अब भगवदगीता यथारूप सुनाई जा रही है विश्वभर में इसका प्रसारण हो रहा है। सुनो उत्तीशठाता जाग्रता उठो जागो वरान निबोदतः और आप को वरदान मिल रहा है, इसका बोध होने दो समझो भगवान वरदान दे रहे हैं। क्या दे रहे हैं भगवान, अपना संदेश अपना उपदेश दे रहे हैं सुना रहे हैं जीव को आपको मुझे हमको। तो सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् कृष्ण यहां पर तो बुद्धि देने की बात कर रहे हैं मैं बुद्धि देता हूं और बुद्धि को ड्राइवर भी कहा है। यन्त्रारुढाणी मायया इस शरीर को यंत्र कहे हैं भगवान गीता मे हीं कहे हैं इसको हम आपको समझा भी चुके हैं। इस यंत्र को रथ भी कहां है इस रथ को खींचने वाले घोड़े भी हैं, इंद्रियां है वह घोड़े। लगाम भी है वह है मन और बुद्धि है चालक या ड्राइवर और आत्मा है प्रवासी आत्मा है पैसेंजर। तो यह प्रवास हैं और हमारा जीवन भी एक प्रवास है एक यात्रा के रूप में। कुछ लोग कहते हैं फ्रॉम वोम्ब टू टोम्ब (गर्भ से कब्र तक) लेकिन यात्रा वहां समाप्त नहीं होती लेकिन कहते तो हैं। यात्रा है तो यात्रा का लक्ष्य पहले ही निर्धारित होता है यात्रा के प्रारंभ के पहले ही। हमें यहां जाना है हमें वहां जाना है
हमें वहां जाना है फिर हम वाहन में बैठे हैं और ड्राइवर उसको चलाते हैं और जो बैठे हैं सवारी है उनको पहुंचाता है। तो इस तरह बुद्धि की महत्वपूर्ण भूमिका है। भगवान यहां पर कह रहे हैं मैं बुद्धि देता हूं दादामि बुद्धि योगं अहं दादामि यह हम छुपा हुआ है कहां नहीं गया है लेकिन यह स्पष्ट ही है। जब दादामि कहां है तो उसको सर्वनाम कहते हैं वह अहं ही हैं। यहां श्री भगवान उवाच चल रहा है अहं दादामि बुद्धि योगं मैं बुद्धि देता हूं। किन को बुद्धि देता हूं तेषां सततयुक्तानां जो मेरी भक्ति करते हैं भक्ति करना प्रारंभ किए हैं। तो वे तेषां उनको सततयुक्तानां जो मेरी भक्ति सेवा में युक्त है, कितने समय के लिए, सततयुक्तानां। वैसे कितने समय की बात नहीं है इसमें सातत्य की बात है। सातत्य मतलब सतत निरंतरता (कंटिन्यूटी), संगति (कांसिस्टेंसी)।
तेषां सतत मतलब सदैव कीर्तनीय सदा हरी कि बात या नित्यम भागवत सेवया नित्यम सदा सततम् जो मेरी सेवा करते हैं। तो यह तो वॉल्यूम की बात कहो कितनी सेवा करते हैं या कब-कब सेवा करते हैं उसका ग्रैंड टोटल मतलब वॉल्यूम। उसकी संख्या उसकी मात्रा कितनी है तेषां सततयुक्तानां सतत। वैसे श्रील प्रभुपाद कहते थे 1 दिन में 24 घंटे जीवात्मा को दूसरा कोई धंधा है ही नहीं सिर्फ कृष्ण की सेवा जीवेर स्वरुप हय कृष्णेर नित्य दास कृष्ण का नित्य दास है तो तेषां सततयुक्तानां और भजतां प्रीतिपूर्वकम्। और एक तो सतत तो सेवा कर रहे हैं भगवान की अपेक्षा है वे सतत सब समय सेवा करें यह क्वांटिटी हुई। और जहां तक क्वालिटी की बात है प्रीतिपूर्वकम प्रेममई सेवा करें व्यापार ना करें कृष्ण के साथ भगवान के साथ प्रेम करें प्रेम मई सेवा करें।
अहैतुकि अप्रतिहता जिसको श्रीमद्भागवत में ही कहा है स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे जो परम धर्म है, वही भागवत धर्म है, वही जैव धर्म है, वही सनातन धर्म है जीव का। तो वहां पर कहां है यह धर्म का अवलंबन और भगवान की सेवा कैसी अहैतुकि अप्रतिहता जिसमें कोई है कि नहीं हो अहैतुकि अप्रतिहता मतलब प्रेम मई और अखंड अप्रतिहता अखंड और प्रेममई। तो जैसे यहां भागवत में कहां है वही बात श्री कृष्ण यहां गीता के इस श्लोक में कह रहे हैं तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् यही धर्म है। और प्रेम पूर्वक नहीं हो रहा है तो फिर भगवान फिर आगे कहने वाले हैं सर्वाधर्मान परित्यज्य जो दूसरे दूसरे धर्म है जिसमें प्रेम नहीं है कृष्ण के प्रति प्रेम नहीं है जिसमें काम है, अपना कुछ हेतू है भुक्ति कामी, मुक्ति कामी, सिद्धि कामी कामना है। ऐसे धर्म को परित्यज्य मतलब प्रेम मई सेवा, मतलब श्रवणम, कीर्तनम, विष्णुस्मरणम। हरि हरि। और तत्कुरुष्व मदर्पणम् भी है फिर उसके साथ आत्मानिवेदन भी हआ, श्रवण से शुरुआत की। अंततोगत्वा सिमन्तद्वीप नवद्वीप मंडल परिक्रमा प्रारंभ हुई जहां श्रवण का महीमा है, गोद्रुम द्वीप गए तो वहां कीर्तन हुआ, अगले द्वीप गए तो वहां स्मरण हुआ मध्य द्वीप में, कोल द्वीप गए तो अर्चनम हुआ। ऐसे परिक्रमा परिभ्रमण करते करते जब हम लोग अंतरद्वीप पहुंच जाते हैं मध्य वाला जो द्वीप है तो वहां क्या करना होता है
आत्मनिवेदनम पूर्ण समर्पण। तो शुरुआत हुई श्रवण से और यह श्रवण परिणत हुआ और श्रवण से फिर कीर्तन हुआ तो इस तरह फिर आत्मनिवेदन। तो तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ददामि ऐसे व्यक्ति को भगवान कहते हैं ऐसे व्यक्ति की जो शर्ते हैं जो करेगा क्या करेगा तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ददामि बुद्धियोगं तं तं उस व्यक्ति को मैं बुद्धि दूंगा मैं बुद्धि देता हूं। और फिर भगवान कृष्ण कहे तो है ये यथा मां प्रपद्यन्ते ।हरि हरि। जब हमारा तेषां सततयुक्तानां हुआ सातत्य आ गया तभी भगवान ने बुद्धि दे दी उसके पहले नहीं दी ऐसी बात नहीं है। या प्रीतिपूर्वकम उसमें डिग्री भी है, उसमे मात्रा भी है और थोड़ी प्रीति से भगवान की सेवा की या फिर कुछ समय के लिए भगवान की सेवा की। तो कृष्ण कहते हैं ये यथा मां प्रपद्यन्ते जो जितनी मेरी शरण में आता है उतना मेरा उनके साथ आदान-प्रदान होता है। तो भगवान जरूर हमने जितनी भक्ति की है, जितने समय के लिए, इतने प्रेम से तो भगवान उतनी बुद्धि देंगे। ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव यथा तथा ये यथा मां प्रपद्यन्ते ये मतलब जो मां प्रपद्यन्ते जो जितनी मेरे शरण में आते है ताम उनको तथा एव मैं क्या करता हूं भजाम्यहम् यह तो बड़ी अद्भुत बात भगवान ने कही है। ताम तथा एव भजामी अहं वैसे समझना कठिन है लेकिन जहां तक यह शब्द जिस शब्द का भगवान उपयोग प्रयोग किए हैं। तो अहं भजामी भगवान कहते हैं जो जितनी मेरी शरण में आता है और शरण लेकर फिर मेरा भजन या सेवा करता है तो अहमपि भजामी मैं भी उसका भजन करता हूं। भगवान भी उसका भजन करते हैं भगवान भी उसका गुणगान गाते हैं
भगवान भी उस से प्रेम करते हैं तो यह दो तरफा ट्राफिक है। तो ऐसा संबंध है जीव का भगवान के साथ ऐसा संबंध है। यह नहीं कि हमें ही केवल भगवान से प्रेम करना है और भगवान हमसे प्रेम नहीं करेंगे, नहीं, हम प्रेम करते हैं भगवान प्रेम करते हैं। वैसे भगवान पहले प्रेम करते हैं भगवान का प्रेम तो बना ही रहता है। प्रिय असि कृष्ण कहने वाले है यह सब मैं तुम्हें इसीलिए सुना रहा हूं है अर्जुन। यह भगवदगीता का उपदेश और यह सुनोगे यह सुनकर वैसे ही करोगे, तो कृष्ण ने कहा मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे प्रिय: असि तुम मुझे प्रिय हो जीव को भगवान प्रिय हैं। भगवान को जीव प्रिय होता है, ऐसे प्रिय जीव को भगवान बुद्धि देते हैं ताकि वह जल्द से जल्द भगवदधाम लौटे। ऐसी समझ है कि वैसे भगवान अधिक उत्कंठीत है हमको उनके पास लाने के लिए उनके धाम लौटाने के लिए।
हम उतने उत्कंठीत नहीं है। जितने भगवान उत्कंठीत भी है और भगवान कई सारे प्रयास भी करते हैं। ताकि यह जीव जो बहिर्मुख हुआ है पुनः अंतरमुख हो और मुझे प्राप्त हो मैं भी उसे प्राप्त हो। अभी तो बीच में माया है, जीव और मेरे बीच में माया खड़ी हुई है। तो उस माया को हटाकर हम एक दूसरे को मिलेंगे, गले लगाएंगे इस तरह यह जीव वापस आएगा। तो यह सारा गीता का उपदेश सुनाने के पीछे यही उद्देश्य है। और इस गीता को कभी बुद्धि योग भी कहते हैं योग मतलब लिंक भी है। हमारे संबंध को पुनः स्थापित करने की बात योग द लिंकिंग। हरि हरि। येन माम उपयंन्ति ते उपयंन्ति आएंगे पास जैसे उपवास है ना उप शब्द से परिचित हुआ उपवास मतलब पास निकट वैसे यहां उपयंन्ति कहां मतलब पास जैसे नगर और उपनगर होते हैं नगर वाले के बगल में उपनगर। उपयंन्ति ते वह मेरे पास आएंगे। मैं यहां पर रुकूंगा। एक ही हुआ श्लोक और एक बचा है यह जो चार विशेष श्लोक है ग्यारहवा श्लोक दसवा अध्याय उसको कल पढ़ेंगे सुनेंगे। तब तक आप यह तात्पर्य वगैरह भी पढ़ो और विचारों का मंथन चिंतन करिए फिर आगे बढ़ेंगे हम।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
8 January 2021
Have faith that the Lord loves you more than you love Him – Gita Paribhasa sutras
Hare Kṛṣṇa ! We have 827 participants chanting with us. This is special darshan which we are getting. There are devotees from Bhubaneswar, Ukraine, Mumbai, Aravade, Nagpur, Mauritius, Alibagh, Thailand, South Africa, present with us. This is like Virata-Rupa or Visvarupa darshan of devotees around the world. Devotees are calling out for Krsna by chanting the maha-mantra :
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Kṛṣṇa bada doya maya, Kṛṣṇa is kind. Can we say that? We wouldn’t be chanting His holy name if He wasn’t kind. He wakes us up from the sleep, jiva jago jiva jago gaura chandra bole… The sun is available for everyone who wakes up early and they are blessed.
toma bina ke dayalu jagat samsare? Who can be more merciful than You? Krsna is showering mercy, Krsna kripa kataksha. There cannot be any other way other than Kṛṣṇa’s mercy to remember Him or trying to remember Him. By reciting Kṛṣṇa’s name, we are directly contacting Him through hearing.
nitya-siddha Kṛṣṇa-prema ‘sādhya’ kabhu naya
śravaṇādi-śuddha-citte karaye udaya
Translation :
Pure love for Kṛṣṇa is eternally established in the hearts of the living entities. It is not something to be gained from another source. When the heart is purified by hearing and chanting, this love naturally awakens. (CC Madhya 22.107)
Mistakenly we love illusion (maya). This is wrong. We commit sins by loving maya.
śravaṇādi-śuddha-citte karaye udaya. śravaṇādi means hearing, chanting, kirtan etc. The nine processes of devotional service begin with hearing. By hearing Kṛṣṇa’s pastimes we revive and increase our love for Kṛṣṇa.If we hear mundane talks then we end up remembering mundane things. There are 2 types of hearing,
1.Kṛṣṇa katha and
2.Gram katha
By hearing Kṛṣṇa katha, we start loving Kṛṣṇa and by hearing gram katha (movies, politics, radio, internet) lust and anger increases. We are amidst the blazing fire of material existence – samsara davanala, our senses are on fire and if we further add fuel to the senses with mundane news then it will create havoc. Think wisely and differentiate between the two kathas and choose accordingly. This is what Bhagavad Gita teaches us, Lord Krsna is the teacher krsnam vande jagatgurum and Arjuna is the disciple
karpanya-dosopahata-svabhavah
prcchami tvam dharma-sammudha-cetah
yac chreyah syan niscitam bruhi tan me
sisyas te ‘ham sadhi mam tvam prapannam
Translation:
Now I am confused about my duty and have lost all composure because of weakness. In this condition I am asking You to tell me clearly what is best for me. Now I am Your disciple, and a soul surrendered unto You. Please instruct me. ( BG 2.7)
We are in the 10th chapter discussing the catur sloki, the 4 main verses from 10.8 to 10.11. We heard 2 verses yesterday and today we will hear the next two verses.
teṣāṁ satata-yuktānāṁ
bhajatāṁ prīti-pūrvakam
dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ
yena mām upayānti te
Translation
To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (BG 10.10)
This is the secret of success. The spirit soul has to reach Vaikuntha, the supreme destination where Lord Kṛṣṇa resides. In the 4th chapter Lord Kṛṣṇa says :
janma karma ca me divyam
evaṁ yo vetti tattvataḥ
tyaktvā dehaṁ punar janma
naiti mām eti so ’rjuna
Translation
One who knows the transcendental nature of My appearance and activities does not, upon leaving the body, take his birth again in this material world, but attains My eternal abode, O Arjuna. (BG 4.9)
How can you reach Krsna ? He is telling you explicitly, through the guru, spiritual master.
evaṁ paramparā-prāptam
imaṁ rājarṣayo viduḥ
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paran-tapa
Translation
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. (BG 4.2)
The spiritual master delivers the same message of Kṛṣṇa. This message is directly from the lotus lips of Lord Kṛṣṇa. Mukha padma bhasya. Keep hearing from the guru and understand it deeply, teṣāṁ satata-yuktānāṁ, the Lord is giving the benediction to us, comprehend it. The Lord is being merciful and granting a special benediction to all of us through His teachings. bhajatāṁ prīti-pūrvakam – the Lord is giving us intelligence which is the driver, the means to understand.
īśvaraḥ sarva-bhūtānāṁ
hṛd-deśe ’rjuna tiṣṭhati
bhrāmayan sarva-bhūtāni
yantrārūḍhāni māyayā
Translation
The Supreme Lord is situated in everyone’s heart, O Arjuna, and is directing the wanderings of all living entities, who are seated as on a machine, made of the material energy. (BG 18.61)
The body is the vehicle or the chariot which is driven by the horses, which are our senses, and are bridled by the rope, our mind and the driver, is our intelligence and the soul, the passenger. Our life is a journey from ‘womb to tomb.’ It does not end. The destination is pre-decided. The driver drives the chariot and the migrant which is the soul is sent to the destination. Intelligence plays an important role. Here Lord Kṛṣṇa says, “I give the intelligence.” dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ. “To whom do I give intelligence?” To those who are devoted to Me constantly, teṣāṁ satata-yuktānāṁ, consistently, always kirtaniya sada harih. Srila Prabhupada says, remember the Lord and engage in devotional service, 24 hours, jivera svarupa hoye Krsnera nitya dasa. This is quantitative service. Do the services qualitatively, with love prīti-pūrvakam. Do not have a business mentality.
sa vai puṁsāṁ paro dharmo
yato bhaktir adhokṣaje
ahaituky apratihatā
yayātmā suprasīdati
Translation
The supreme occupation [dharma] for all humanity is that by which men can attain to loving devotional service unto the transcendent Lord. Such devotional service must be unmotivated and uninterrupted to completely satisfy the self. (SB 1.2.6)
This is the prime duty of living entity, the duty prescribed by Srimad Bhagavatam. The eternal dharma of the soul is to serve Lord Kṛṣṇa with selfless love, with unmotivated selfish desires, ahaituky apratihatā. The Lord is repeating the same thing in Bhagavad Gita bhajatāṁ keprīti-pūrvakam. Furthermore the Lord will be declaring, if you can’t serve with love then at least give up the selfish desires to achieve liberation, mystic power.
sarva-dharmān parityajya
mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja
ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions. Do not fear. (BG 18.66)
Follow the nine process of devotional service beginning with hearing and going upto complete surrender. These are practiced on the nine islands of Mayapur. On Navadvipa-mandala Parikrama, each island is dedicated to the nine devotional processes. The island Simantadvipa signifies hearing (sravan bhakti). Next is Godrumadvipa which signifies kirtan. The next island Madhyadvipa signifies remembering and the next island Koladvipa is for arcanam. In this way by touring all the islands one finally reaches Antardvipa, the central island which signifies full surrender, atma-nivedam. When one fulfils the conditions laid down by the Lord, He awards intelligence to that devotee.
teṣāṁ satata-yuktānāṁ
bhajatāṁ prīti-pūrvakam
dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ
yena mām upayānti te
Translation
To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (BG 10.10)
ye yathā māṁ prapadyante
tāṁs tathaiva bhajāmy aham
mama vartmānuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ
Translation
As all surrender unto Me, I reward them accordingly. Everyone follows My path in all respects, O son of Pṛthā. (BG 4.11)
The Lord says that even if you do a little service unto Him He will give intelligence accordingly. The Lord also sings the glories of His devotees. This is two way traffic. This is the kind of relationship the living entity can have with the Lord. Initially the Lord loves us. We are His part and parcel and need to revive our loving propensity towards Him.
man-manā bhava mad-bhakto
mad-yājī māṁ namaskuru
mām evaiṣyasi satyaṁ te
pratijāne priyo ’si me
Translation
Always think of Me, become My devotee, worship Me and offer your homage unto Me. Thus you will come to Me without fail. I promise you this because you are My very dear friend. (BG 18.65)
Devotees are dear to Kṛṣṇa and similarly Kṛṣṇa is dear to the devotees. The Lord is more eager than us to take us back to Godhead. The living entity has turned his back to the Lord and Maya is the obstacle in between. She is the keeping us away from the Lord. But if we turn our face to the Lord then we can attain the Lord and embrace Him. This is Buddhi Yoga and the thought of the Lord and the intention to narrate Bhagavad-Gita. Revive our lost relationship with the Lord, yena mām upayānti te. Read the purports, contemplate on it.
Gaura Premanande Hari Haribol!
Question 1
If we haven’t achieved love until now, is there any hope to get it in the future?
Gurudev uvaca
Honestly, if you have served the Lord and haven’t received any love. That cannot happen. It is not possible. Krsna immediately reciprocates. Lord has said in Bhagavad Gita
ye yathā māṁ prapadyante
tāṁs tathaiva bhajāmy aham
mama vartmānuvartante
manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ
Translation
As all surrender unto Me, I reward them accordingly. Everyone follows My path in all respects, O son of Pṛthā. (BG 4.11)
Question 2
Service was done quantitatively, but quality wise love was not enough. Is there any hope?
Gurudev uvaca
There is less love, but at least some love is there. Otherwise how could there be service, Japa, tapa, book distribution. It was all done with love.
Question 3
We hear so many spiritual topics, but still there are diversions. What is the solution to stay focused?
Gurudev uvaca
This is the result of weakness of the heart. We are shown the truth, but still cannot see it because we are too attached. We are blinded by lust, anger, envy, greed and so on. Carry on with the process, stick to it and gradually you will see the truth. In the end of 3rd chapter Arjuna asks why unwillingly we also commit sins and in answer to that, the Lord replied that it was because of lust, anger, sins which are committed. Try controlling the senses. The Lord will help you. Be enthusiastic and determined, have patience. Follow some guidelines to change the bad habits, abhyasena tu kaunteya. Practice every day, try. Have faith Avishya rakhshibe Kṛṣṇa – this is the symptom of surrender, have faith that Kṛṣṇa loves you.
Question 4
I read in Srimad Bhagavatam that we should go to Kṛṣṇa for everything, but we also hear that, we shouldn’t ask anything from the Lord, I find this contradictory. How to understand this?
Gurudev uvaca
akāmaḥ sarva-kāmo vā
mokṣa-kāma udāra-dhīḥ
tīvreṇa bhakti-yogena
yajeta puruṣaṁ param
Translation
A person who has broader intelligence, whether he be full of all material desire, without any material desire, or desiring liberation, must by all means worship the supreme whole, the Personality of Godhead. (SB 2.3.10)
Krsna says that four kinds of persons come to Him.
catur-vidha bhajante mam
janah sukrtino ‘rjuna
arto jijnasur artharthi
jnani ca bharatarsabha
Translation
O best among the Bharatas [Arjuna], four kinds of pious men render devotional service unto Me—the distressed, the desirer of wealth, the inquisitive, and he who is searching for knowledge of the Absolute. (BG 7.16)
Similarly there are four persons who do not come to Me.
na māḿ duṣkṛtino mūḍhāḥ
prapadyante narādhamāḥ
māyayāpahṛta-jñānā
āsuraḿ bhāvam āśritāḥ
Translation
Those miscreants who are grossly foolish, who are lowest among mankind, whose knowledge is stolen by illusion, and who partake of the atheistic nature of demons do not surrender unto Me. (BG 7.15)
Dhruva Maharaja was purified of his material desire to achieve the kingdom, by going to Vrindavan and meditating on the four armed Visnu form as ordered by his spiritual master Narada Muni. He did severe austerities and chanted the mantra. By doing this his heart was purified and his devotion attracted the attention of the Lord. The Lord appeared in front of him in the place called Madhuvana near Vrindavan, but Dhruva Maharaja couldn’t see the Lord. He saw the Lord seated within his heart through meditation. The Lord became pleased and by His potency He turned off the form which Dhruva Maharaja was meditating on in order to have his attention on the personal form. He asked him for any benediction as the Lord knew that Dhruva Maharaja wanted a bigger kingdom than his father’s. But Dhruva Maharaja didn’t ask for anything. Rather he said, “swamin krutartosi varam na yache. I am feeling grateful. I was searching for the broken pieces of glasses which has no value but I got You who is the most valuable diamond. You are a precious jewel.”
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 8 января 2021 г.
ВЕРЬТЕ, ЧТО ГОСПОДЬ ЛЮБИТ ВАС БОЛЬШЕ, ЧЕМ ВЫ ЛЮБИТЕ ЕГО – ГИТА ПАРИБХАСА СУТРЫ
Харе Кришна! С нами воспевают участники из 827 мест. Это особый даршан, который мы получаем. Вместе с нами присутствуют преданные из Бхуванешвара, Украины, Мумбаи, Араваде, Нагпура, Маврикия, Алибага, Таиланда, Южной Африки. Это как Виратрупа или Вишварупа даршан преданных всего мира. Преданные взывают к Кришне, повторяя маха-мантру:
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Кришна бада дойа майа, Кришна добр. Мы можем это сказать? Мы бы не стали повторять Его святое имя, если бы Он не был добрым. Он пробуждает нас ото сна, джив джаго джив джаго гаура чандра боле… Солнце доступно для всех, кто просыпается рано, и они благословлены.
тома бина ке дайалу джагат самсаре? Кто может быть милосерднее Тебя? Кришна изливает милость, Кришна крипа катакша. Не может быть иного способа, кроме милости Кришны, чтобы вспомнить Его или попытаться вспомнить Его. Повторяя имя Кришны, мы напрямую связываемся с Ним через слушание.
итйа-сиддха кр̣шн̣а-према ‘са̄дхйа’ кабху найа
ш́раван̣а̄ди-ш́уддха-читте карайе удайа
Перевод:
«Чистая любовь к Богу вечно обитает в сердцах живых существ. Она не относится к категории вещей, получаемых извне. Когда сердце очищено слушанием и воспеванием, эта любовь пробуждается сама собой».
(Ч.Ч. Мадхья 22.107)
Мы ошибочно любим иллюзию (майю). Это не правильно. Мы совершаем грехи, любя майю.
шраванади-шуддха-читте карайе удайа. шраванади означает слушание, воспевание, киртан и т.д. Девять процессов преданного служения начинаются со слушания. Слушая игры Кришны, мы пробуждаем и усиливаем нашу любовь к Кришне. Если мы слышим мирские разговоры, мы в конечном итоге вспоминаем мирские вещи. Есть 2 типа слушания:
1. Кришна катха
и
2. Грам катха
Слушая Кришна катху, мы начинаем любить Кришну, а слушая грам катху (фильмы, политика, радио, интернет), усиливаются вожделение и гнев. Мы находимся посреди пылающего огня материального существования – самсара даванала, наши чувства горят, и если мы и дальше подливаем масла в чувства мирскими новостями, это приведет к опустошению. Думайте мудро, различайте две катхи и выбирайте соответственно. Это то, чему нас учит Бхагавад Гита, Господь Кришна – учитель кришнам ванде джагат гурум, а Арджуна – ученик.
ка̄рпан̣йа-дошопахата-свабха̄вах̣
пр̣ччха̄ми тва̄м̇ дхарма-саммӯд̣ха-чета̄х̣
йач чхрейах̣ сйа̄н ниш́читам̇ брӯхи тан ме
ш́ишйас те ’хам̇ ш́а̄дхи ма̄м̇ тва̄м̇ прапаннам
Перевод:
Я больше не знаю, в чем состоит мой долг, и постыдная слабость скупца лишила меня самообладания. Поэтому прошу, скажи прямо, что лучше для меня. Отныне я Твой ученик и душа, предавшаяся Тебе, — наставляй же меня.
(Б.Г. 2.7)
Мы в 10-й главе обсуждаем чатур шлоки, 4 основных стиха с 10.8 по 10.11. Вчера мы услышали 2 стиха, а сегодня мы услышим следующие два стиха.
теша̄м̇ сатата-йукта̄на̄м̇
бхаджата̄м̇ прӣти-пӯрвакам
дада̄ми буддхи-йогам̇ там̇
йена ма̄м упайа̄нти те
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тех, кто постоянно служит Мне с любовью и преданностью, Я наделяю разумом, который помогает им прийти ко Мне.
(Б.Г. 10.10)
Это секрет успеха. Духовная душа должна достичь Вайкунтхи, высшей точки назначения, где обитает Господь Кришна. В 4-й главе Господь Кришна говорит:
джанма карма ча ме дивйам
эвам̇ йо ветти таттватах̣
тйактва̄ дехам̇ пунар джанма
наити ма̄м эти со ’рджуна
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто знает божественную природу Моего явления и деяний, никогда больше не рождается в материальном мире. Покинув тело, он достигает Моей вечной обители, о Арджуна.
(Б.Г. 4.9)
Как вы можете достичь Кришны? Он говорит вам прямо через гуру, духовного учителя.
ээвам̇ парампара̄-пра̄птам
имам̇ ра̄джаршайо видух̣
са ка̄ленеха махата̄
його нашт̣ах̣ парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Так эта великая наука передавалась по цепи духовных учителей, и ее постигали праведные цари. Но с течением времени цепь учителей прервалась, и это знание в его первозданном виде было утрачено.
(Б.Г. 4.2)
Духовный учитель передает то же послание Кришны. Это сообщение исходит прямо из лотосных уст Господа Кришны. Мукха падма бхашйа. Продолжайте слушать гуру и глубоко поймите это, тешам сатата-йуктанам, Господь дает нам благословение, поймите это. Господь проявляет милосердие и дарует особое благословение всем нам через Свои учения. бхаджатам прити-пурвакам – Господь дает нам разум, который является движущей силой, средством понимания.
ӣш́варах̣ сарва-бхӯта̄на̄м̇
хр̣д-деш́е ’рджуна тишт̣хати
бхра̄майан сарва-бхӯта̄ни
йантра̄рӯд̣ха̄ни ма̄йайа̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь, о Арджуна, пребывает в сердце каждого и направляет скитания всех живых существ, которые словно находятся в машине, созданной материальной энергией.
(Б.Г. 18.61)
Тело – это повозка или колесница, которую ведут лошади, которые являются нашими чувствами, и обузданы веревкой, нашим умом и возницей, это наш разум, а душа – пассажир. Наша жизнь – это путь от «чрева к гробу». Он не заканчивается. Пункт назначения определен заранее. Погонщик ведет колесницу, и переселенец, который является душой, отправляется к месту назначения. Разум играет важную роль. Здесь Господь Кришна говорит: «Я даю разум». дадами буддхи-йогам там. «Кому я даю разум?» Тем, кто постоянно предан Мне, тешам сатата-йуктанам, постоянно, всегда киртания сада харих. Шрила Прабхупада говорит: помни Господа и занимайся преданным служением 24 часа, дживера сварупа хойе кришнера нитйа дас. Это количественная услуга. Совершайте служение качественно, с любовью прити-пурвакам. Не имейте делового менталитета.
са ваи пум̇са̄м̇ паро дхармо
йато бхактир адхокшадже
ахаитукй апратихата̄
йайа̄тма̄ супрасӣдати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Высшим занятием (дхармой) для всех людей является такое занятие, с помощью которого они могут прийти к любовному преданному служению трансцендентному Господу. Чтобы полностью удовлетворить душу, такое преданное служение должно быть бескорыстным и непрерывным.
(Ш.Б. 1.2.6)
Это основная обязанность живого существа, обязанность, предписанная Шримад Бхагаватам. Вечная дхарма души – служить Господу Кришне с бескорыстной любовью, с немотивированными эгоистичными желаниями, ахаитукй апратихата. Господь повторяет то же самое в «Бхагавад-гите» бхаджата̄м̇ прӣти-пӯрвакам. Более того, Господь заявляет, что если вы не можете служить с любовью, тогда, по крайней мере, откажитесь от эгоистичных желаний, чтобы достичь освобождения, мистической силы.
сарва-дхарма̄н паритйаджйа
ма̄м экам̇ ш́аран̣ам̇ враджа
ахам̇ тва̄м̇ сарва-па̄пебхйо
мокшайишйа̄ми ма̄ ш́учах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Оставь все религии и просто предайся Мне. Я избавлю тебя от всех последствий твоих грехов. Не бойся ничего.
(Б.Г. 18.66)
Следуйте девяти процессам преданного служения, начиная со слушания и заканчивая полным преданием. Их практикуют на девяти островах Маяпура. В Навадвипа-мандала парикраме каждый остров посвящен девяти процессам преданного служения. Остров Симантадвипа означает слушание (шраван бхакти). Далее идет Годрумадвипа, что означает киртан. Следующий остров Мадхьядвипа означает памятование, а следующий остров Коладвипа предназначен для арчанам. Таким образом, совершив путешествие по всем островам, вы наконец достигнете Антардвипы, центрального острова, который означает полное предание, атма-ниведанам. Когда человек выполняет условия, поставленные Господом, Он награждает этого преданного разумом.
теша̄м̇ сатата-йукта̄на̄м̇
бхаджата̄м̇ прӣти-пӯрвакам
дада̄ми буддхи-йогам̇ там̇
йена ма̄м упайа̄нти те
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тех, кто постоянно служит Мне с любовью и преданностью, Я наделяю разумом, который помогает им прийти ко Мне.
(Б.Г. 10.10)
йе йатха̄ ма̄м̇ прападйанте
та̄м̇с татхаива бхаджа̄мй ахам
мама вартма̄нувартанте
манушйа̄х̣ па̄ртха сарваш́ах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Как человек предается Мне, так Я и вознаграждаю его. Каждый во всем следует Моим путем, о сын Притхи.
(Б.Г. 4.11)
Господь говорит, что даже если вы немного послужите Ему, Он соответственно даст разума. Господь также воспевает славу Своих преданных. Это двустороннее движение. Это такие отношения между живым существом и Господом. Изначально Господь любит нас. Мы – Его неотъемлемые частицы, и нам нужно возродить нашу любовную привязанность к Нему.
ман-мана̄ бхава мад-бхакто
мад-йа̄джӣ ма̄м̇ намаскуру
ма̄м эваишйаси сатйам̇ те
пратиджа̄не прийо ’си ме
Перевод Шрилы Прабхупады:
Всегда думай обо Мне, стань Моим преданным, поклоняйся Мне и почитай Меня. Так ты непременно придешь ко Мне. Я обещаю тебе это, ибо ты Мой дорогой друг.
(Б.Г. 18.65 )
Преданные дороги Кришне, и точно так же Кришна дорог преданным. Господь больше нас самих хочет вернуть нас к Богу. Живое существо повернулось спиной к Господу, и Майя является препятствием между ними. Она держит нас подальше от Господа. Но если мы обратимся лицом к Господу, тогда мы сможем достичь Господа и обнять Его. Это буддхи-йога и мысль о Господе и намерение рассказать Бхагавад Гиту. Восстановите наши утраченные отношения с Господом, йена мам упайанти те. Прочтите комментарии, поразмышляйте над этим.
Гаура Премананде Хари Харибол!
Вопрос 1
Если мы не достигли любви до сих пор, есть ли надежда получить ее в будущем?
Гурудев сказал:
Честно говоря, если вы служили Господу и не получили любви… Этого не может быть. Это невозможно. Кришна немедленно отвечает взаимностью. Господь сказал в Бхагавад Гите
йе йатха̄ ма̄м̇ прападйанте
та̄м̇с татхаива бхаджа̄мй ахам
мама вартма̄нувартанте
манушйа̄х̣ па̄ртха сарваш́ах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Как человек предается Мне, так Я и вознаграждаю его. Каждый во всем следует Моим путем, о сын Притхи.
(Б.Г. 4.11)
Вопрос 2
Служение было формальным, но качественной и мудрой любви было недостаточно. Есть ли надежда?
Гурудев сказал:
Любви мало, но хоть немного любви есть. Иначе как могло быть служение, джапа, тапа, распространение книг? Все это было сделано с любовью.
Вопрос 3
Мы слышим так много духовных лекций, но все же происходят уходы. Как можно оставаться сосредоточенным (на Кришне)?
Гурудев сказал:
Это результат слабости сердца. Нам показывают правду, но мы все еще не можем ее видеть, потому что мы слишком привязаны. Мы ослеплены вожделением, гневом, завистью, жадностью и так далее. Продолжайте процесс, придерживайтесь его, и постепенно вы увидите истину. В конце 3-й главы Арджуна спрашивает, почему мы также неохотно совершаем грехи, и в ответ на это Господь ответил, что это было из-за вожделения, гнева и грехов. Попытайтесь контролировать свои чувства. Господь поможет вам. Будьте полны энтузиазма и решительности, проявите терпение. Следуйте некоторым рекомендациям, чтобы избавиться от вредных привычек, абхйа̄сена ту каунтейа. Практикуйтесь каждый день, пробуйте. Имейте веру, авишья ракшибе кришна – это признак преданности, верьте, что Кришна любит вас.
Вопрос 4
Я читал в «Шримад-Бхагаватам», что мы должны идти к Кришне для чего то, но мы также слышим, что мы не должны ничего просить у Господа, я нахожу это противоречивым. Как это понять?
Гурудев сказал:
ака̄мах̣ сарва-ка̄мо ва̄
мокша-ка̄ма уда̄ра-дхӣх̣
тӣврен̣а бхакти-йогена
йаджета пурушам̇ парам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Человек с возвышенным складом ума — исполнен ли он материальных желаний, свободен от них или стремится к освобождению — должен во что бы то ни стало поклоняться высшему целому — Личности Бога.
(Ш.Б. 2.3.10)
Кришна говорит, что к Нему приходят четыре типа людей.
чатур-видха̄ бхаджанте ма̄м̇
джана̄х̣ сукр̣тино ’рджуна
а̄рто джиджн̃а̄сур артха̄ртхӣ
джн̃а̄нӣ ча бхаратаршабха
Перевод Шрилы Прабхупады:
О лучший из Бхарат, четыре вида праведников встают на путь преданного служения Мне: страждущие, ищущие богатства, любознательные и те, кто стремится постичь Абсолютную Истину.
(Б.Г. 7.16)
Подобным образом есть четыре типа людей, которые не приходят ко Мне.
на ма̄м̇ душкр̣тино мӯд̣ха̄х̣
прападйанте нара̄дхама̄х̣
ма̄йайа̄пахр̣та-джн̃а̄на̄
а̄сурам̇ бха̄вам а̄ш́рита̄х̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Невежественные глупцы, низшие из людей, те, чье знание украдено иллюзией и кому присуща безбожная природа демонов, — все эти грешники не предаются Мне.
(Б.Г. 7.15)
Дхрува Махарадж очистился от своего материального желания достичь царства, отправившись во Вриндаван и медитируя на четырехрукую форму Вишну, как велел его духовный учитель Нарада Муни. Он совершил суровые аскезы и повторял мантру. Благодаря этому его сердце очистилось, а его преданность привлекла внимание Господа. Господь явился перед ним в месте под названием Мадхуван недалеко от Вриндавана, но Дхрува Махарадж не мог видеть Господа. Через медитацию он увидел Господа, находящегося в его сердце. Господь был доволен и Своей энергией Он отключил форму, на которую медитировал Дхрува Махарадж, чтобы сосредоточить свое внимание на личностной форме. Он попросил у него любого благословения, поскольку Господь знал, что Дхрува Махарадж хотел большего царства, чем царство его отца. Но Дхрува Махарадж ни о чем не просил. Скорее он сказал: «свамин крутартоси варам на яче». Я благодарен. Я искал осколки стекла, которые не имеют никакой ценности, но я нашел Тебя, самый ценный алмаз. Ты драгоценный камень».
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण।
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
7 जनवरी 2021
आज 820 स्थानों सें अविभावक जप कर रहे हैं
जय गौरांग…!
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||
(श्रीमद्भभागवतगीता 7.19)
अनुवाद: -अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता हैं |
वासुदेवः सर्वमिति वासुदेव ही क्या है?, कोन है? वासुदेव ही सबकुछ हैं। वासुदेवः सर्वम इसको ज्ञान कहते हैं। संपूर्ण ज्ञान हुआ आपको, क्या समझने से वासुदेव सर्वम। इतना ही जानना हैं। कितना जानना है? वासुदेव सर्वम वासुदेव ही सबकुछ हैं।
शौनको ह वैसे महाशालोडि्गरसं विधिवदुपसन्न: पप्रच्छ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।
(मुण्डकोपनिषद् 1.3)
अनुवाद: – महाशालाआधीपति शौनक अंगिरस के पास विधिवत शिष्य रूप में आये और उनसे पूछा: -है भगवान! क्या है जिसे जान लेने के पश्चात यह सब कुछ ज्ञात हो जाता हैं।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।। जीनको जानकर सर्वमिदं सब जानते हैं कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते तब समझ में आता है जानना पुरा हुआ भगवान को जानने से आप सब कुछ गया जान गए वासुदेव सर्वमिति जो वासुदेव को जानता है स महात्मा वह महात्मा कहलाता हैं। स महात्मा सुदुर्लभः ऐसा महात्मा दुर्लभ है केवल दुर्लभ ही नहीं सुदुर्लभ। ऐसे महात्मा बनीएँ आप। मनु प्रिया! हरि हरि!ठीक हैं! अब नहीं कहेंगे(जप चर्चा में उपस्थित एक भक्त को प. पु. लोकनाथ महाराज ने संबोधित किया)
जय गौरांग…!
श्रीमद्भगवत् गीता की जय हो! भगवत गीता के नववे अध्याय के अंतिम श्लोक 43 में भगवत गीता यथारुप वहां पर जो भगवान ने कहा है…
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:।।
(श्रीमद्भभागवतगीता 9.43)
अनुवाद: – अपने मन को मेरे नित्य चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझ को प्राप्त होगे।
यह बात भगवान नवावा अध्याय और नववे अध्याय का अंत मतलब मध्य हुआ भगवत गीता का मध्यांतर भाग कुल अध्याय कितने है? 18 हैं ना, इतना तो पता चला के नहीं चला अबतक आपकोे। कितने है? 18 अध्याय।जो बात भगवान ने गीता के बिल्कुल मध्य में कहीं है, वह बात पुन: भगवान ने गीता के अंत में भी कहा हैं। और यह ऐसी एक बात है जो भगवान ने दो बार कही है, जहां तक मैं समझा हूंँ। एक ही वचन पूरा तो श्लोक नहीं लगभग तीन पद पर कुल 4 पद होते हैं अनुष्टुप स्कंद में 4 पद होते हैं, उसके 3 पद भगवान ने दो बार कहा हैं।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:।।
कंठस्थ किया इसको तो याद करो! भगवान ने क्या कहा। ऐसे भी भक्त है जो जिनको पूरी गीता कंठस्थ होती हैं। पूरे सहस्त्र श्लोक कुछ तो याद करो! प्रार्थना करो भगवान से कि आपको याद रहे भगवत गीता के वचन। आपका ध्यान मै जरा आकृष्ट कर रहा हूंँ यह बड़ी बात या छोटी बात है एक बात भगवान ने दो बार कहीं हैं। इसको आप नोट करो दुबारा भी देख सकते हो नववे अध्याय के अंत में और फिर अठारहवें अध्याय के अंत में भगवान ने पुनः
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||
(श्रीमद्भभागवतगीता 18.65)
अनुवाद: -सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
यह बड़ी महत्वपूर्ण बात हैं। हरि हरि!
यह चार बातें करने के लिए कहा हैं मन्मना मेरा स्मरण करो! भव मद्भक्तो मेरा भक्त बनो! मद्याजी मेरी आराधना करो! मां नमस्कुरु मुझे नमस्कार करो! श्रील प्रभुपाद ने एक समय कहा था आप चार बातों का या नियमों का पालन करते हो ऐसा जब प्रभुपाद ने कहा तो भक्त सुन रहे थे भक्त सोच रहे थे कि प्रभुपाद कहेंगे 4 रेगुलेटिव प्रिंसिपल (नियामक सिध्दांत) नशा पान नहीं करेंते, मांस भक्षण नहीं करते, अवैध स्त्री पुरुष संग नहीं करते और जुआ नहीं खेलते ऐसा प्रभु बात कहेंगे, ऐसा भक्तों ने सोचा था। चार नियमों का पालन करते है, लेकिन प्रभुपाद ने तो यह सब कहने के बजाय प्रभुपाद ने कहा मन्मना मेरा स्मरण करो! भव मद्भक्तो मेरा भक्त बनो! मद्याजी मेरी आराधना करो! मां नमस्कुरु मुझे नमस्कार करो!, और इतना करोगे तो जो बात भगवान ने दो बार कही है, नववे अध्याय के अंत में और भगवत गीता के अंत में उन्होंने दोनों स्थानों पर मामेवैष्यसि बात कही है इतना करोगे तुम तो तुम मुझे प्राप्त करोगे,ऐसा भगवान ने कहा हैं। हरि हरि!
इतना तो करना स्वामी!,उन्होंने तो किया ही है, उन्होंने तो कहा ही है, और अगर उतना ही करते है, जितना उन्होंने कहा है बस इतना सा करने से मामेवैष्यसि मेरी ओर आओगे, मुझे प्राप्त होंगे मेरे धाम लौटोगे के इस बात को भगवान ने गोपनीय भी कहा है तो यह आप याद रखिए। कौन सा श्लोक भगवान ने दो बार कहा हैं? और कोई बात दोहराई जाती है दो बार या तीन बार कही जाती हैं।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नाम तीन बार कहीं गयी है क्यों महत्वपूर्ण है क्यो यह पुनः पुनः स्मरण दिलाया जा रहा है जो बात गीता के मध्य में नववे अध्याय के अंत में कहा था भगवान ने पुनः स्मरण दिला रहे है,और गीता के अंत में वैसे यह बात कह के उपदेश का समापन होने वाला है तो और फिर पुनः अंत में जो बात कही जाती है,वह महत्वपूर्ण होती है दो बार बात कही गई है तो महत्वपूर्ण होनी चाहिए।इसे नोट करो!,(ध्यान दो) भगवान क्या कह रहे हैं? मैं यह भी कहना चाह रहा था, कहूंगा ही, वैसे हर शास्त्र का कुछ श्लोक या एक श्लोक शास्त्र का परिभाषित वचन,वाक्य,या श्लोक ऐसी प्रसिद्धि होती है, परिभाषित या पेहचान होती हैं।
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
(श्रीमद्भागवतम् 1.3.28)
अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
भागवत का परिभाषित श्लोक माना जाता हैं।
*ईशवर: परम: कृष्ण: सच्चिदानंदविग्रह:।
अनादिरादिगोंविन्द: सर्वकारणकारणम्।।
(श्री ब्रम्ह-संहिता 5.1)
अनुवाद: – गोविंद के नाम से विख्यात कृष्ण ही परमेश्वर हैं। उनका सच्चिदानंद शरीर हैं। वे सबों के मूल उत्स हैं। उनका कोई अन्य उत्स नहीं एवं वे समस्त कारणों के मूल कारण हैं।
यह श्लोक ब्रह्म संहिता का परिभाषित श्लोक माना जाता हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
वैसे ही भगवत गीता के दसवें अध्याय के चार श्लोकों को भगवत गीता के परिभाषित वचन या श्लोक रूप में प्रसिद्धी हैं। जहा तक मै समझा हूँ। सुना, पढ़ा या समझा। वह श्लोक है दसवें अध्याय श्लोक संख्या आठवां नववा, दसवां, ग्यारहवा। गीता लेकर बैठा हूंँ मैं,कलीयुग के जीव हैं। हरी हरी!
भूल जाते हैं उनके लिए श्रील व्यास देव ने ग्रंथों को लिखा पहले ग्रंथ लिखे नहीं जाते थे। ग्रंथ केवल सुने जाते थे। ग्रंथों का केवल और केवल श्रवणं कीर्तनं किया जाता था। उसीसे स्मरणं होता था। यह श्लोक महत्वपूर्ण हैं ऐसे भी और एक महत्वपूर्ण जानकारी बताता हूंँ। गीता के बीच वाले जो 6 अध्याय हैं, यह भी महत्वपूर्ण हैं। भक्ति योग की चर्चा है या भक्तों की, भक्ति की, भगवान की चर्चा का विषय है अध्याय संख्या 7 से 12 तक, यह अध्याय गीता के बगल वाले पहले छ: और अंतिम छ: यह बीच वाले छ: अध्याय को सुरक्षित रखते हैं। एक प्रकार का पैकेजिंग(संवेष्टन) यह छ: -छ:अध्याय शुरुआत के छ: अंक वाले छ: रक्षा करते हैं और बीच वाले जो भक्ति योग की चर्चा है, भगवान और भक्त की चर्चा हैं। यह गोपनीय बातों की चर्चा बीच के छ: अध्याय में हैं। इसको नोट कीजिए! बीच वाले जो छ: अध्याय है, उसके बीच वाला जो दसवां अध्याय हैं। यह भगवान का ऐश्वर्य…
*ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसा: श्रीय: ज्ञान वैराग्ययोश चैव सन्नम भग इतिंगना।।
(विष्णु पुराण 6.5.47)
अनुवाद: – पराशर मुनि जो श्रील व्यास देव के पिता हैं श्री भगवान के बारे में कहते हैं कि छः ऐश्वर्य यथा धन बल यश रूप ज्ञान एवं वैराग्य परम पुरुषोत्तम भगवान में पूर्ण मात्रा में विद्यमान होते हैं अतः श्री भगवान सर्व आकर्षक हैं।
भगवान के छ: ऐश्वर्य हम जानते ही है, उनके अलावा और छ: अन्य कार्यों का उल्लेख भगवान ने भगवत गीता के दसवें अध्याय में किया हुआ हैं। इसका वर्णन हम कभी सुना सकते हैं। यह प्रात कालीन कक्षाएं हो रही हैअभी, तो इस 10 अध्याय में भगवान ने भगवान का ऐश्वर्या चार श्लोक दसवें अध्याय के चार श्लोक परिभाषित वाक्य वचन या श्लोक बड़े प्रसिद्ध हैं। वह पहला श्लोक यह है…
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता:।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 10.8)
अनुवाद: – मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूंँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत हैं। जो बुद्धिमान यह भली-भांति जानते हैं, वह मेरी प्रेमा भक्ति में लगते हैं तथा ह्रदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
आप सब गीता के विद्यार्थी बनो, भगवान के विद्यार्थी बनो । श्री कृष्ण गुरु हैं (कृष्णम वंदे जगत गुरु) और गीता को अभ्यासक्रम के रूप में स्वीकार करो और पढ़ो भी ।और कुछ पढ़ा नहीं पढ़ा ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, आपने खगोल पढ़ा, भूगोल पढ़ा, पर सबसे महत्वपूर्ण है भगवत गीता को पढ़ना। यदि आपने भगवद गीता नहीं पड़ी तो क्या पढ़ा ? आपकी सारी पढ़ाई बेकार है। गीता को पढ़ो, कृष्ण को सुनो और स्वयं को भी समझो ।
सारे संसार की परेशानियों से मुक्त हो जाओ। कृष्ण को प्राप्त करो और भगवद धाम लौटो। भगवद गीता में कृष्ण हम सबको आमंत्रित कर रहे हैं।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥ ८ ॥
श्रीमद भगवद गीता ,आधाय 10,श्लोक8
अनुवाद
मैं समस्त भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों का कारण हूँ,प्रत्येक वस्तु मुझसे ही उद्भूत है।जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं ,वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
तात्पर्य पढ़कर सुनाने का समय नहीं, यह आपका गृह कार्य है। मैं सोच रहा था पूरी मानव जाति के समक्ष ये प्रश्न है या कह सकते हैं कि पाश्चात्य जगत ऐसा समझता है कि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका कोई उत्तर प्राप्त नहीं कर पाया। उनमें से एक है कि, हम आए कहां से ?हमारा और इस संसार का स्तोत्र क्या है? इसका उद्गम क्या है? कहां से शुरुआत हुई संसार की? सब समझते है कि उसका उत्तर प्राप्त नहीं हुआ है ।यह संसार के लोग इसकी खोज करते ही रहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि इसका उत्तर पता नहीं है।
मैं, आप, शृष्टि और हम सब का स्तोत्र भगवान हैं।ये बात भगवान ने घोषित की है।
अहं सर्वस्य प्रभवः श्रील प्रभुपाद भाषांतर में लिख रहे हैं समस्त आध्यात्मिक और भौतिक जगतों का कारण मैं हूं और जो इसको स्वीकार करेगा तो उसका कल्याण होगा।
इति मत्वा भजन्ते माम् ……….. इस बात को जानकर व्यक्ति बुद्धिमान बनेगा। इस बात को जानकर कि भगवान सारी सृष्टि के ,हर चीज़ के स्तोत्र हैं ।
आप आंख बंद करके कह सकते हैं कि हर चीज के स्तोत्र भगवान ही हैं। यहां अहं कौन हैं? श्री भगवान उवाच हम कहने वाले श्री कृष्ण हैं ।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९ ॥
भगवद गीता अध्याय 10 ,श्लोक 10
अनुवाद
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमे वास करते हैं,उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करए तथा मेरे विषय में बाते करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं।
उन चार श्लोकों मैं से यह दूसरा श्लोक है ।जब वह यह समझ जाएगा कि मैं ही स्तोत्र हूं सभी जड़ और चेतन का ।
श्रील प्रभुपाद कहते हैं कि जीवन एक जीवित वस्तु में से ही आ सकता है ना की जड़ वस्तु में से ।
जैसे संसार में हम आत्मा हैं,हम चेतन है, तो उसका स्तोत्र भी चेतना ही है।
नित्योSनित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तमात्मस्थं येSनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्ति: शाश्वती नेतरेषाम्।।
कठोपनिषद् 2.2.13
अनुवाद: – जो अनित्य पदार्थों में नित्य स्वरूप तथा ब्रह्मा आदि क्षेत्रों में चेतनोंमें चेतन है और जो अकेला ही अनेकों की कामनाएं पूर्ण करता है, अपनी बुद्धि में स्थित उस आत्मा को जो विवेकी पूर्व देखते हैं उन्हीं को नित्य शांति प्राप्त होती है औरोंको नहीं
हमारी चेतना का स्तोत्र या आत्मा का स्तोत्र या फिर देह का स्तोत्र ,जो पंचमहाभूत (पृथ्वी ,जल, अग्नि ,वायु आकाश )से बना है,इस सबके स्तोत्र श्री भगवान है। यह भी कहा जाता है कि भगवान है और भगवान की शक्ति है। हम भगवान की शक्ति हैं भगवान की तीन शक्तियां हैं। बहिरंगा शक्ति, अंतरंगा शक्ति और तटस्थ शक्ति । अंतरंगा शक्ति जिससे बैकुंठ लोक गोलोकधाम ,यह आध्यात्मिक जगत बना है। बहिरंगा शक्ति जिससे यह सारी सृष्टि बनी है ,जो हम प्रत्यक्ष देखते हैं ,सुनते हैं और स्पर्श करते हैं। और तटस्थ शक्ति यानी जो तट पर है।जिसको अंग्रेजी में बोलते हैं बीच ।बीच इसलिए कहते हैं क्योंकि वह बीच में होता है एक तरफ से समुद्र है और दूसरी तरफ भूखंड है ।तो हम जीवात्मा भी बीच में हैं। अंतरंगा बहिरंगा तटस्थ यह भगवान की ही शक्तियां हैं। इसीलिए भगवान जो है वह शक्तिमान है ।
न तस्य कार्य करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।।
श्वेताश्वतरोपनिषद् 6.8
अनुवाद: – उसके शरीर और इंद्रिया नहीं है, उसके समान और उससे बढ़कर भी कोई दिखाई नहीं देता, उसकी पराशक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है और वह स्वाभाविक ज्ञान क्रिया और बलक्रिया हैं।
और आगे इन्हीं तीन शक्तियों से विविधता हो जाती है। कई प्रकार की शक्तियां बन जाती हैं ।पर मोटे मोटे प्रकार से यह तीन ही शक्तियां हैं। तो संसार में बस भगवान और भगवान की शक्ति हैं और तीसरा किसी का अस्तित्व नहीं है। और शक्ति का स्तोत्र भगवान ही हैं। अहं सर्वस्य प्रभवः बिजली शक्ति है, इस विद्युत का स्तोत्र है पावर हाउस या जनरेटर। उसी प्रकार हमारी शक्ति के जनरेटर भगवान हैं और शक्ति और शक्तिमान का ही अस्तित्व है तीसरा किसी का नहीं।
जो इस प्रकार जानता है तो उसकी चेतना भगवान में लग जाती है। वह भगवान का चिंतन करने लगता है और भगवान कितने महान हैं या फिर भगवान की कितनी शक्तियां हैं। राधा रानी भी भगवान की शक्ति हैं। इस अध्याय में भगवान आगे अपनी शक्तियों का नाम लेने वाले हैं। मच्चित्ता मद्गतप्राणा फिर हमारा चिंतन कृष्ण का होगा । फिर हम जान जाएंगे राधा कृष्ण प्राण मोर युगल किशोर ।
फिर समर्पण होगा एयर हम अपने प्राण समर्पित करेंगे भगवान के लिए। बोधयन्त: परस्परम् इतना प्रभावित हो जाएगा वह यह जानकर कि मेरे कारण ही सारा संसार निर्मित होता है ।यह सब से आश्चर्य होगा। आश्चर्यावर्त पश्यति। भक्त जैसा अनुभव करेगा वह अपने अनुभव को दूसरों को सुनाएगा बोधयन्त: परस्परम् एक दूसरे को याद दिलाएगा और फिर तुष्यन्ति च रमन्ति च संतुष्ट होगा। *आत्माराम बनेगा। आत्मा में आराम ।तो जो सुना है उसका मनन करो, चिंतन करो और हृदयंगम करो। हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
7 January 2021
Paribhasa sutras
Hare Kṛṣṇa !
om namo bhagavate vasudevaya!
bahūnāṁ janmanām ante
jñānavān māṁ prapadyate
vāsudevaḥ sarvam iti
sa mahātmā su-durlabhaḥ
Translation
After many births and deaths, he who is actually in knowledge surrenders unto Me, knowing Me to be the cause of all causes and all that is. Such a great soul is very rare. (BG 7.19)
This is knowledge, complete knowledge. To know vāsudevaḥ sarvam iti, Vasudeva is all in all.
yasmin vijñāte sarvam idaṁ vijñātaṁ bhavati
Translation
By understanding the Lord, we understand everything.
Person who knows the Vasudeva, is known as Mahatma and such mahatmas are very rare. [Muṇḍaka Upaniṣad 1.3]
I’m sharing some of my insights on Bhagavad Gita. At the end of chapter 9, which is the interval of Bhagavad Gita, the Lord has made the same point which is repeated at the end of chapter 18. Almost 3 verses has been repeated by Kṛṣṇa. I would like you all to learn these verses of Bhagavad Gita.
man-manā bhava mad-bhakto
mad-yājī māṁ namaskuru
mām evaiṣyasi yuktvaivam
ātmānaṁ mat-parāyaṇaḥ
Translation
Engage your mind always in thinking of Me, become My devotee, offer obeisances to Me and worship Me. Being completely absorbed in Me, surely you will come to Me. (BG 9.34)
This verse is very important as the topic discussed is important.
Once Srila Prabhupada said, “We follow 4 regulative principles.” The devotees sitting there thought that Prabhupada would say – no meat eating, no intoxication, no gambling and no illegal sex. But instead he said this verse which states the 4 do’s which one must offer to the Lord . These are
Engage your mind in thinking of Me.
Become My devotee.
Offer obeisances unto Me.
Worship Me.
By doing this, “Being absorbed in Me you will surely achieve Me.” This is also known as confidential knowledge. Kṛṣṇa is repeating this at the end of Bhagavad Gita in the 18th chapter again.
Only important points are repeated multiple times to stress the importance of a topic. We must take note of this. There are a few verses which are known as paribhasa sutras (definitive verses)
We have one such verse from Srimad Bhagwatam
ete cāmśa-kalāḥ puṁsaḥ
kṛṣṇas tu bhagavān svayam
indrāri-vyākulaṁ lokaṁ
mṛḍayanti yuge yuge
Translation
All of the above-mentioned incarnations are either plenary portions or portions of the plenary portions of the Lord, but Lord Śrī Kṛṣṇa is the original Personality of Godhead. All of them appear on planets whenever there is a disturbance created by the atheists. The Lord incarnates to protect the theists. ( SB 1.3.28)
Paribhasa verse for Brahma Samhita
īśvaraḥ paramaḥ kṛṣṇaḥ
sac-cid-ānanda-vigrahaḥ
anādir ādir govindaḥ
sarva-kāraṇa-kāraṇam
Translation
Kṛṣṇa who is known as Govinda is the Supreme Godhead. He has an eternal blissful spiritual body. He is the origin of all. He has no other origin and He is the prime cause of all causes. [B.S. 5.1]
Similarly we have such verses in Bhagavad Gita.
I am sitting with Bhagavad Gita in my hands because we are born in the age of Kali and we are conditioned to forgetfulness. That’s the reason Vyasadeva has written down the Vedic literatures. In the past devotees memorised them.
The middle chapters of the Bhagavad Gita, 7-12 are important as they are based on Bhakti Yoga. The initial 6 chapters and the last 6 chapters are providing a fence around the middle 6 chapters. In the middle of the 10th chapter, is The Opulence of the Absolute. We have heard about the six opulences of the Lord, but here we can hear more opulences of the Lord. The four verses of this chapter are known as the paribhasa sutras of the Bhagavad Gita. I want you all to become the students of Bhagavad Gita. Become the students of Lord Kṛṣṇa. He is the teacher, so become His student, accept Bhagavad Gita as the syllabus and study it. It does not matter if you have studied Geography or Biology, if you haven’t studied Bhagavad Gita then your so-called knowledge is useless.
ahaṁ sarvasya prabhavo
mattaḥ sarvaṁ pravartate
iti matvā bhajante māṁ
budhā bhāva-samanvitāḥ
Translation
I am the source of all spiritual and material worlds. Everything emanates from Me. The wise who perfectly know this engage in My devotional service and worship Me with all their hearts. (BG 10.8)
Kṛṣṇa says, “I am the source of everything that exists, either in the material or spiritual world.” Homework for you is to read the verse and its purports. People in the western world think that they have some unanswered questions. They think we don’t know what is the source of our origin? How did this world come into being? Here Lord Kṛṣṇa has openly proclaimed, “I am the source of everything”. What else do you want to know? In the purport, Srila Prabhupada has written – Kṛṣṇa is declaring, ” I’m the source of everything”. If you understand and accept this, then you are intelligent. What is He saying, aham means I, only Lord Kṛṣṇa can claim this.
mac-cittā mad-gata-prāṇā
bodhayantaḥ parasparam
kathayantaś ca māṁ nityaṁ
tuṣyanti ca ramanti ca
Translation
The thoughts of My pure devotees dwell in Me, their lives are fully devoted to My service, and they derive great satisfaction and bliss from always enlightening one another and conversing about Me. (BG 10.9)
This is the second verse, “Whatever is matter or spirit I am the source of all”. Srila Prabhupada says, ‘Life comes from life, not from matter’. The source of our soul or our body is life which is made up of five elements earth, water, air, fire, ether.
nityo nityānāṁ cetanaś cetanānām
eko yo bahūnāṁ vidadhāti kāmān
Translation
Amongst all the living entities, both conditioned and liberated, there is one supreme living personality, the Supreme Personality of Godhead, who maintains them and gives them all the facility of enjoyment according to different work. That Supreme Personality of Godhead is situated in everyone’s heart as Paramātmā. [Kaṭha Upaniṣad 2.2.13]
There is Lord Kṛṣṇa and His energies – Bahiranga (external), Antaranga (internal) and Tathasta (marginal) sakti. From the material energy (Bahiranga), whatever we perceive in the material world is created. From the spiritual energy (Antaranga) the whole spiritual world is created and in the middle there is the marginal potency (tathastha) wherein lies the living entities. It is known as marginal, because the soul lies in the middle, called the marginal potency.
na tasya kāryaṁ karaṇaṁ ca vidyate
na tat-samaś cābhyadhikaś ca dṛśyate
parāsya śaktir vividhaiva śrūyate
svābhāvikī jñāna-bala-kriyā ca
Translation: Nārāyaṇa, the Supreme Personality of Godhead, is almighty, omnipotent. He has multifarious energies, and therefore He is able to remain in His own abode and without endeavour supervise and manipulate the entire cosmic manifestation through the interaction of the three modes of material nature [Śvetāśvatara Upaniṣad 6.8]
Everything is an expansion of the energies of Krsna. These are the basic three energies of the Lord and there are more sub divisions of the energies. The source of energy is Lord Kṛṣṇa and He is known as shaktimaan. We know that a generator generates electricity. Similarly Kṛṣṇa is our Generator. One who understands this, his consciousness gets attached to Kṛṣṇa. Ashcharya vat, then he will say, ‘How wonderful is the Lord’ and will devote himself in Lord Kṛṣṇa’s service. He will be amazed by knowing the Lord, get different realisations and then share it with others, finding peace in the shelter of the Lord. The soul will find such satisfaction in the discussions on the topics of the Lord’s pastimes. tuṣyanti ca ramanti ca.
Meditate, study, contemplate on the topics you’ve heard, get convinced.
Hare Kṛṣṇa!
Question 1
1.Is Krsna the source of Ignorance too?
Gurudev uvaca
In 15th chapter of Bhagavad Gita, the Lord says,
sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca
vedaiś ca sarvair aham eva vedyo
vedānta-kṛd veda-vid eva cāham
Translation
I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas. (BG 15.15)
The Lord is busy. What does He do while sitting in the heart of a person? “I give knowledge or forgetfulness or ignorance.” The Lord is the source of everything. When Hiranyakashipu asked his son Prahlada, “Who gives you intelligence?” Prahlada replied, “The source of my good intelligence and your exploitative intelligence is one. The source of my devotion and your demoniac nature of abusing your power and strength is one. Like electricity is the source of giving heat and cold, origin is the same but the effects are different, whatever one desired or deserved, one will be bestowed.”
avatīrṇe gaura-candre
vistīrṇe prema-sāgare |
suprakāśita-ratnaughe
yo dīno dīna eva saḥ ||19||
Translation
The advent of Lord Caitanya Mahāprabhu is just like an expanding ocean of nectar. One who does not collect the valuable jewels within this ocean is certainly the poorest of the poor. (Caitanya Candrika by Srila Prabodhananda Sarasvati)
Caitanya Mahaprabhu has propagated the movement of love but those who do not wish to take it, they have sent to anartha sagara to suffer. By knowledge you can differentiate between good and evil, lust and love, jnana and ajnana. The Lord said, “I’m the origin of knowledge” Then similarly He is the origin of evil too. Why to ask? Who else can be the origin? Maya is there but she also belongs to Krsna,
mayādhyakṣeṇa prakṛtiḥ
sūyate sa-carācaram
hetunānena kaunteya
jagad viparivartate
Translation
This material nature, which is one of My energies, is working under My direction, O son of Kuntī, producing all moving and nonmoving beings. Under its rule this manifestation is created and annihilated again and again. (BG 9.10)
Even Ignorance belongs to Krsna.
daivī hy eṣā guṇa-mayī
mama māyā duratyayā
mām eva ye prapadyante
māyām etāṁ taranti te
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG 7.14)
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 7 января 2021 г.
СУТРЫ ПАРИБХАСЫ
Харе Кришна!
ом намо бхагавате васудевайа!
бахӯна̄м̇ джанмана̄м анте
джн̃а̄нава̄н ма̄м̇ прападйате
ва̄судевах̣ сарвам ити
са маха̄тма̄ су-дурлабхах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто, пройдя через множество рождений и смертей, обрел совершенное знание, вручает себя Мне, ибо он понял, что Я причина всех причин и все сущее. Такая великая душа встречается очень редко.
(Б.Г. 7.19)
Это знание, полное знание. Чтобы знать васудевам сарвам ити, Васудева – это все во всем.
йасмин виджнате сарвам
эвам виджнатах бхавати
Перевод:
Брахман возник первым из богов, творец всего, хранитель мира.
Поскольку преданный знает Васудеву, он знает и все что происходит в творении Васудевы.
(Мундака Упанишад 1.3)
Я делюсь некоторыми своими мыслями о Бхагавад Гите. В конце 9-й главы, которая является половиной Бхагавад-гиты, Господь подчеркивает то же самое, что повторяется в конце 18-й главы. Кришна повторяет почти 3 стиха. Я бы хотел, чтобы вы все выучили эти стихи Бхагавад Гиты.
ман-мана̄ бхава мад-бхакто
мад-йа̄джӣ ма̄м̇ намаскуру
ма̄м эваишйаси йуктваивам
а̄тма̄нам̇ мат-пара̄йан̣ах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Всегда думай обо Мне, стань Моим преданным, выражай Мне почтение и поклоняйся Мне. Полностью сосредоточенный на Мне, ты непременно придешь ко Мне.
(Б.Г. 9.34)
Этот стих очень важен, поскольку важна обсуждаемая тема.
Однажды Шрила Прабхупада сказал: «Мы следуем 4 регулирующим принципам». Сидящие там преданные думали, что Прабхупада сказал бы – никакого мяса, никаких интоксикаций, никаких азартных игр и никакого незаконного секса. Но вместо этого он сказал этот стих, в котором говорится о 4 действиях, которые нужно делать для Господа. Это:
Думай обо Мне.
Стань Моим преданным.
Предлагай Мне поклоны.
Поклоняйся Мне.
Делая это: «Поклоняясь Мне, ты непременно достигнешь Меня». Это также известно как сокровенное знание. Кришна снова повторяет это в конце Бхагавад Гиты в 18-й главе.
Только важные моменты повторяются несколько раз, чтобы подчеркнуть важность темы. Мы должны это принять к сведению. Есть несколько стихов, которые известны как сутры парибхаса (итоговые стихи).
У нас есть один такой стих из Шримад Бхагватам:
эте ча̄м̇ш́а-кала̄х̣ пум̇сах̣
кр̣шн̣ас ту бхагава̄н свайам
индра̄ри-вйа̄кулам̇ локам̇
мр̣д̣айанти йуге йуге
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все перечисленные воплощения представляют собой либо полные части, либо части полных частей Господа, однако Господь Шри Кришна — изначальная Личность Бога. Они нисходят на разные планеты, когда там по вине атеистов возникают беспорядки. Господь нисходит, чтобы защитить верующих.
(Ш.Б. 1.3.28)
Стих Парибхасы для Брахма Самхиты:
ишварах парамах кршнах
сат-чит-ананда-виграхах
анадир адир говиндах
сарва -карана-каранам
Перевод:
Кришна, известный как Говинда — Всевышний Господь, Абсолютная Истина. Он вечен и полон блаженства, а тело Его духовно. Безначальный, Он Сам— начало всего сущего и причина всех причин.
(Шри Брахма Самхита 5.1)
Подобным образом у нас есть такие стихи в Бхагавад Гите.
Я сижу с Бхагавад Гитой в руках, потому что мы рождены в век Кали и мы приучены к забывчивости. Вот почему Вьясадева записал ведические писания. В прошлом преданные запоминали их.
Средние главы Бхагавад Гиты, 7–12 важны, поскольку они основаны на Бхакти Йоге. Первые 6 глав и последние 6 глав образуют ограждение вокруг средних 6 глав. В середине 10-й главы – «Великолепие Абсолюта». Мы слышали о шести достояниях Господа, но здесь мы можем услышать больше достояний Господа. Четыре стиха этой главы известны как сутры парибхаса Бхагавад Гиты. Я хочу, чтобы вы все стали учениками Бхагавад Гиты. Станьте учениками Господа Кришны. Он учитель, поэтому станьте Его учеником, примите Бхагавад Гиту как программу и изучите ее. Не имеет значения, изучали ли вы географию или биологию, если вы не изучали Бхагавад Гиту, тогда ваши так называемые знания бесполезны.
ахам̇ сарвасйа прабхаво
маттах̣ сарвам̇ правартате
ити матва̄ бхаджанте ма̄м̇
будха̄ бха̄ва-саманвита̄х̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я источник всех духовных и материальных миров. Все исходит из Меня. Мудрецы, постигшие эту истину, служат и поклоняются Мне всем сердцем.
(Б.Г. 10.8)
Кришна говорит: «Я источник всего сущего в материальном или духовном мире». Домашнее задание для вас – прочитать стих и его содержание. Люди в западном мире думают, что у них есть вопросы, на которые нет ответов. Они думают, что мы не знаем, что является источником нашего происхождения? Как появился этот мир? Здесь Господь Кришна открыто провозгласил: «Я источник всего». Что еще вы хотите знать? В комментарии Шрила Прабхупада написал: Кришна заявляет: «Я источник всего». Если вы понимаете и принимаете это, значит, вы разумны. Что Он говорит, ахам означает я, только Господь Кришна может утверждать это.
мач-читта̄ мад-гата-пра̄н̣а̄
бодхайантах̣ параспарам
катхайанташ́ ча ма̄м̇ нитйам̇
тушйанти ча раманти ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все мысли Моих чистых преданных поглощены Мной, и вся их жизнь посвящена Мне. Всегда делясь друг с другом знанием и беседуя обо Мне, они испытывают огромное удовлетворение и блаженство.
(Б.Г. 10.9)
Это второй стих: «Все, что есть материя или дух, Я источник всего». Шрила Прабхупада говорит: «Жизнь происходит из жизни, а не из материи». Источником нашей души или нашего тела является жизнь, состоящая из пяти элементов: земли, воды, воздуха, огня и эфира.
нитйо нитйанам четанаш четананам
эко бахунам йо видадхати каман
…
Перевод:
Верховный Господь вечен, и живые существа вечны. Верховный Господь знает, и живые существа осведомлены. Разница в том, что Верховный Господь обеспечивает все необходимое для жизни многих других живых существ.
(Катха Упанишад 2.2.13)
Есть Господь Кришна и Его энергии – Бахиранга (внешняя), Антаранга (внутренняя) и Татхаста (пограничная) шакти. Из материальной энергии (Бахиранга) создается все, что мы воспринимаем в материальном мире. Из духовной энергии (Антаранга) создается весь духовный мир, а в середине находится пограничная энергия (татхастха), в которой находятся живые существа. Она известна как пограничная, потому что душа находится посередине, это называется пограничной энергией.
на тасйа ка̄рйам̇ каран̣ам̇ ча видйате
на тат-самаш́ ча̄бхйадхикаш́ ча др̣ш́йате
пара̄сйа ш́актир вивидхаива ш́рӯйате
сва̄бха̄викӣ джн̃а̄на-бала-крийа̄ ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
Нараяна — это всевластный, всесильный Господь, Верховная Личность. Он обладает великим многообразием энергий и потому может, не покидая Своей обители и не прилагая никаких усилий, наблюдать за материальным космосом и управлять им с помощью трех гун материальной природы — саттва-, раджо- и тамо-гуны. Эти гуны, взаимодействуя, порождают различные объекты, тела, действия и изменения, причем делают это совершенным образом. Господь совершенен, и потому все в этом мире происходит так, как если бы Он Сам всем управлял и все вершил. Безбожники, чей взор затуманен тремя гунами природы, не могут видеть, что Нараяна — высшая причина всякой деятельности.
(Шветашватара Упанишад 6.8, перевод из Ш.Б. 6.1.43)
Все является проявлением энергий Кришны. Это три основные энергии Господа, и есть еще несколько типов энергий. Источник энергии – Господь Кришна, известный как шактиман. Мы знаем, что генератор вырабатывает электричество. Подобным образом Кришна – наш генератор. Тот, кто понимает это, его сознание привязывается к Кришне. Ашчарья ват, тогда он скажет: «Как прекрасен Господь» и посвятит себя служению Господу Кришне. Он будет поражен, познав Господа, получит различные осознания, а затем поделится этим с другими, обретя мир в прибежищи Господа. Душа найдет такое удовлетворение, обсуждая темы игр Господа. Тушйанти ча раманти ча (получают блаженство и удовлетворение).
Медитируйте, изучайте, размышляйте над темами, которые вы слышали, поймите.
Харе Кришна!
Вопрос 1
1. Является ли Кришна источником невежества?
Гурудев сказал
В 15-й главе Бхагавад-Гиты Господь говорит:
сарвасйа ча̄хам̇ хр̣ди саннивишт̣о
маттах̣ смр̣тир джн̃а̄нам апоханам̇ ча
ведаиш́ ча сарваир ахам эва ведйо
веда̄нта-кр̣д веда-вид эва ча̄хам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я пребываю в сердце каждого, и от Меня исходят память, знание и забвение. Цель изучения всех Вед — постичь Меня. Я истинный составитель «Веданты» и знаток Вед.
(Б.Г. 15.15)
Господь занят. Что Он делает, находясь в сердце человека? «Я даю знание, или забвение, или невежество». Господь – источник всего. Когда Хираньякашипу спросил своего сына Прахладу: «Кто дает тебе разум?» Прахлада ответил: «Источник моего смиренного разума и вашего амбициозного разума – один. Источник моей преданности и вашей демонической природы, злоупотребления вашей властью и силой – один. Подобно тому, как электричество является источником тепла и холода, происхождение одно и то же, но эффекты разные, независимо от того, чего он желает или заслуживает, он это получит».
аватирне гаурачандре вистирне према-сагаре
супракашита-ратнаугхе йо дино дина эва сах
Перевод:
«Явление Господа Чайтаньи Махапрабху — океан нектара, который простирается без конца и без края. Тот, кто не собирает драгоценные камни в этом океане, — несчастнейший из несчастных».
(Стих 34, Чайтанья-чандрамрита, Шримад Прабодхананда Сарасвати)
Чайтанья Махапрабху проповедовал движение любви, но тех, кто не желает принимать его, они (энергии Господа) отправляли в анартха сагара (материальный мир), чтобы страдать. С помощью знания вы можете различать добро и зло, вожделение и любовь, гьяну и агьяну. Господь сказал: «Я источник знания». Точно так же Он является источником зла. Зачем спрашивать? Кто еще может быть источником? Майя есть, но она также принадлежит Кришне:
майа̄дхйакшен̣а пракр̣тих̣
сӯйате са-чара̄чарам
хетуна̄нена каунтейа
джагад випаривартате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Будучи одной из Моих энергий, о сын Кунти, материальная природа действует под Моим надзором, производя на свет все движущиеся и неподвижные существа. Под ее началом мироздание снова и снова возникает и уничтожается.
(Б.Г. 9.10)
Даже Невежество принадлежит Кришне:
даивӣ хй эша̄ гун̣а-майӣ
мама ма̄йа̄ дуратйайа̄
ма̄м эва йе прападйанте
ма̄йа̄м эта̄м̇ таранти те
Перевод Шрилы Прабхупады:
Преодолеть влияние Моей божественной энергии, состоящей из трех гун материальной природы, невероятно трудно. Но тот, кто предался Мне, с легкостью выходит из-под ее власти.
(Б.Г. 7.14)
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक ०६.०१.२०२१
आज ८३६ स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हरे कृष्ण!
द्वारका धाम की जय!
पद्ममाली प्रभु ने कल घोषणा की थी कि आज हम द्वारका जाएंगे और पदयात्रा में शामिल होंगे।
द्वारका में आपका स्वागत है, ऑनलाइन तो हम कहीं भी पहुंच सकते हैं, कोई बंधन नही है। आप यदि प्रतिदिन पंढरपुर पहुंच सकते हो, मुझ से मिलते हो, मुझे सुनते हो। मैं भी कभी कभी आप सब को सुनता हूँ। मैं रशिया, यूक्रेन भी पहुंच जाता हूं या मैं ऑनलाइन नागपुर, कोल्हापुर, शोलापुर कही भी पहुंच जाता हूं। यह सब ऑनलाइन सम्भव होता है तो क्यों ना हम द्वारका धाम पहुंचे। द्वारकाधीश की जय! विशेष रूप से निताई गौर सुंदर की जय! आल इंडिया पदयात्रा, सभी पदयात्राओं की जननी है।इस आल इंडिया पदयात्रा के पदयात्री भक्तों की जय!
हमें इसकी भी गौरव गाथा सुननी चाहिए और अन्यों को सुनानी चाहिए। पदयात्रा के भक्त कितना परिश्रम कर रहे हैं। पद्ममाली! क्या तुम हो?
(पद्ममाली प्रभु- जी गुरु महाराज)
गुरु महाराज – क्या द्वारका पदयात्री भी इस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित हैं?
(पद्ममाली प्रभु- जी गुरु महाराज)
गुरु महाराज ठीक है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
आप सभी भक्तों का अभिवादन करो। पदयात्रियों का स्वागत करो। पदयात्रियों का दर्शन करो। आप कहाँ हो? क्या आप द्वारका मंदिर में हो। ( पदयात्रियों से पूछते हुए)
पद्ममाली प्रभु-इस्कॉन द्वारका।
गुरु महाराज- वहाँ कम से कम दो द्वारका मंदिर है। एक तो द्वारका धाम के द्वारकाधीश और दूसरा इस्कॉन द्वारका मंदिर भी है । इस्कॉन द्वारका मंदिर में हमारे पदयात्री उपस्थित हैं। केवल पदयात्री ही नहीं, इन पदयात्रियों का नेतृत्व हमारे आचार्य प्रभु कर रहे हैं। आचार्य प्रभु की जय!
अन्य कई स्थानों से भक्त वहाँ आ पहुंचे हैं। थोड़ी देर में वे आपको बता सकते हैं कि कौन कौन वहाँ पधार चुके है। मंदिर के अध्यक्ष औऱ मंदिर के अधिकारी भी हैं।
वैष्णव सेवा प्रभु कहाँ हैं? सामने मैदान में आओ।
पदयात्री-” महाराज वैष्णव सेवा प्रभु आये हैं।
महाराज – कहां पर आये हैं। यहां पर नहीं हैं।
पद्ममाली प्रभु:- शंभूनाथ प्रभु, उन्हें स्क्रीन पर बुलाइए।
यदि वे मंदिर में हैं तो?
( द्वारका में उपस्थित भक्त बोलते हुए) महाराज- वैष्णव नाथ आ गए।
पद्ममाली प्रभु- ओके( ठीक है )
(गुरू महाराज) आयो रे!आयो रे। जैसे वृंदावन में कृष्ण आ गए।
वैष्णव सेवा प्रभु:- दण्डवत महाराज!
गुरू महाराज- हरे कृष्ण!
द्वारकाधीश का आशीर्वाद प्राप्त करो। मैं बहुत कुछ कह रहा था। एक ही बात ही नहीं, अनेक बातें। अनेक विषय बोल दिए। एक तो मैं आपको द्वारका चलने के लिए आमंत्रित कर रहा था। चलो द्वारका।
द्वारका धाम की जय!
यह तो आपको पता ही है यह
द्वारकाधीश भगवान् का स्थान है। यहीं पर द्वारका भी है। वैसे द्वारकाधाम से आज पुनः 7 वीं बार पदयात्रा प्रारंभ हो रही है। हरि बोल!
आप उतने उत्साही नहीं लग रहे हो, जितने की पदयात्री, पदयात्रा करने के लिए उत्साहित हैं। आपको उनका उत्साह बढ़ाना है। इसलिए आपका पदयात्रियों के साथ मिलन हो रहा है।
वैसे इसी द्वारकाधाम से यह पदयात्रा ३६ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई थी। २ सितंबर १९८४ का दिन था। राधाष्टमी भी थी।जय राधे!
हम थोड़ा इतिहास बताते हैं, यह पदयात्रा का आयोजन क्यों हुआ था। वर्ष 1986 में चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य अथवा आविर्भाव को ५०० वर्ष पूर्ण होने जा रहे थे। संसार और इस्कॉन को भी महाप्रभु के आविर्भाव का पंच शताब्दी महोत्सव मनाना था। इस्कॉन की गवर्निंग बॉडी कमिशन ने इस पर बहुत विचार विमर्श किया कि कैसे हम चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव दिवस का पंच शताब्दी महोत्सव मना सकते हैं। तत्पश्चात यह तय हुआ कि इस्कॉन के भक्त पदयात्रा का आयोजन करेंगे। हरि! हरि!
हम एक पदयात्रा द्वारका से प्रारंभ करेंगे।पदयात्रा करते हुए पदयात्रियों को पहुंचना तो ईस्ट इंडिया (पूर्व भारत) में था अर्थात गौर पूर्णिमा के समय बंगाल, मायापुर धाम पहुंचना था अर्थात वर्ष १९८८ में गौर पूर्णिमा अर्थात जिस दिन चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए थे, उस दिन मायापुर, नवद्वीप पहुंचना था जोकि पूर्व भारत में स्थित है। पश्चिम दिशा में द्वारका अर्थात आप अधिक से अधिक पश्चिम दिशा में जा सकते हो। भारत का नक्शा द्वारका ही है।
अंग्रेजी में कहते हैं कि वह मोस्ट वेस्टर्न पॉइंट है। वहाँ अर्थात द्वारकाधाम से पदयात्रा प्रारंभ होगी, यह भी लक्ष्य था ।
श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥4॥
( श्री वासुदेव घोष द्वारा रचित)
अनुवाद:- अब वे पुनः भगवान् गौरांग के रूप में आए हैं, गौर-वर्ण अवतार श्रीराधाजी के प्रेम व परमआनन्दित भाव से युक्त और पवित्र भगवन्नामों हरे कृष्ण के कीर्तन का विस्तार से चारों ओर प्रसार किया है। (अब उन्होंने हरे कृष्ण महामंत्र का वितरण किया है, उद्धार करने का महान कीर्तन। वे तीनों लोकों का उद्धार करने के लिए पवित्र भगवन्नाम वितरित करते हैं। यही वह रीति है जिससे वे प्रचार करते हैं। )
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कलियुग में धर्म हरे कृष्ण नाम , हरे कृष्ण महामंत्र का प्रचार करने हेतु यात्रा की, जोकि मायापुर से प्रारंभ हुई थी। चैतन्य महाप्रभु मायापुर से काटवा गए। उन्होंने वहा संन्यास लिया। चैतन्य महाप्रभु ने पदयात्रा प्रारंभ की अर्थात भगवान् ने पदयात्रा की। हरि हरि बोल।
पृथिवीते आछे यत नगरादि-ग्राम।सर्वत्र प्रचार होइबे मोर नाम।
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठ भाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
मेरे नाम का प्रचार सर्वत्र हो, इस उद्देश्य से स्वयं भगवान् ने अपने नाम का प्रचार किया। चैतन्य महाप्रभु ने जहां जहाँ प्रचार किया था अर्थात बंगाल में चैतन्य महाप्रभु जहां जहां गए थे या उडीसा में चैतन्य महाप्रभु जहाँ जहाँ गए या फिर आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तत्पश्चात गुजरात में थोड़ा सा प्रवेश किया था। उसके पश्चात चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप पुनः लौटे।
हम थोड़ा उल्टी दिशा में .. चैतन्य महाप्रभु, पूर्व दिशा से पश्चिम की ओर पहले दक्षिण भारत गए। कन्याकुमारी या फिर गुजरात की ओर आए। यह पदयात्रा शुरू हुई गुजरात द्वारिका से, तत्पश्चात जहां जहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए थे। वहां वहाँ पुनः चैतन्य महाप्रभु जाएंगे।
२ सितंबर १९८४ की बात है।
श्री निताई गौर सुंदर द्वारिकाधीश मंदिर के प्रांगण में प्रकट हुए। श्री निताई गौर सुंदर की जय! मंदिर के पदाधिकारियों व महंतों ने बहुत योगदान दिया, हमारे लिए पूरा मंदिर ही खोल दिया। मंदिर प्रांगण में भगवान द्वारकाधीश के दर्शन मंडल अथवा उनके चरणों से यह हमारी पदयात्रा प्रारंभ हुई। उसी आंगन में निताई गौर सुंदर की प्राण प्रतिष्ठा हुई। प्राण प्रतिष्ठा जब विग्रह की होती है, तब भगवान् प्रकट होते अथवा अवतार लेते हैं अर्थात अर्चा विग्रह के रूप में अवतार लेते हैं। निताई गौर सुंदर अर्थात गौर नित्यानंद ने अवतार लिया, वे प्रकट हुए, पदयात्रा प्रारंभ हुई। पदयात्रा करने के पीछे एक अन्य उद्देश्य भी था।
श्रील प्रभुपाद ने अपने अंतिम दिनों में अर्थात वर्ष १९७७ में तीर्थयात्रा की इच्छा व्यक्त की थी। उसकी तैयारी भी हुई थी। जैसा कि आप जानते हो कि प्रभुपाद पहले से ही बैल गाड़ी से ब्रज यात्रा करना चाहते थे। यह काफी लंबा और गहरा इतिहास है। बहुत सी घटनाएं घटी हैं। वो बात नही हो पाई कि बैलगाड़ी से पहले गोवर्धन जाना था।तत्पश्चात ब्रज मंडल की यात्रा करनी थी। फिर उससे आगे बढ़ना था। वह बात तो नहीं बनी। लेकिन पुनः चर्चा हुई। इस समय भी प्रभुपाद ने तीर्थ यात्रा करने का विचार त्यागा नही। जब उन्हें बोला कि आप बैलगाड़ी से यात्रा नहीं कर सकते हो। उन्होंने बोला कि नहीं! मुझे यात्रा तो करनी है। बस से यात्रा करेंगे, ऐसा विचार भी हुआ। उसकी भी तैयारी चल रही थी, लेकिन श्रील प्रभुपाद भगवत धाम ही चले गए, हमारे साथ नही रहे। तीर्थ यात्रा पर नहीं गए। वरिष्ठ भक्तों को प्रभुपाद की इच्छा का पता था कि प्रभुपाद यात्रा करना चाहते थे।
यहां दो बातों का संगम हुआ। एक तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ५००वां अभिर्भाव दिवस था, उसका भी उत्सव मनाना है, उसके लिए यात्रा करेंगे और उन्हीं स्थानों पर जाएंगे, जहाँ चैतन्य महाप्रभु गए थे औऱ उन्होंने कीर्तन किया था। तत्पश्चात वे आगे बढे थे। वह भी पदयात्रा के आयोजन का एक उद्देश्य था। दूसरा उद्देश्य यह था कि प्रभुपाद की तीर्थ यात्रा करने की तीव्र इच्छा थी। पदयात्रा के आयोजन के पीछे प्रभुपाद की इच्छा पूर्ति भी दूसरा उद्देश्य था । ऐसा मोटा मोटी कह सकते हैं कि इन दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पदयात्रा का आयोजन हो रहा था। द्वारकाधीश की जय! द्वारकाधाम की जय!
कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन कहे बिना रहा भी नहीं जाता। इन दोनों यात्राओं का प्रभुपाद एक तो बैल गाड़ी से यात्रा करना चाहते थे, फिर वह बात नहीं बन पा रही थी। तो फिर वह बस से यात्रा करना चाहते थे। उस समय प्रभुपाद ने सभी के समक्ष मुझे संबोधित करते हुए कहा था।
तुम इस यात्रा का नेतृत्व करोगे। इस बात को भी सभी ने नोट किया हुआ था। जब जी.बी.सी. ने पदयात्रा का निर्णय लिया, कि हम पदयात्रा करेंगे -द्वारिका से कन्याकुमारी होते हुए मायापुर नवद्वीप जाएंगे तब उसके लीडरशिप नेतृत्व के लिए मेरा स्मरण किया गया। इस दास को पदयात्रा का नेतृत्व दिया।।
वैसे पदयात्रा करने के लिए मुझे कहा ही था। वर्ष 1976 में बैलगाड़ी संकीर्तन पदयात्रा वृंदावन से आरंभ हुई थी। हम वृन्दावन से गए भी थे और मायापुर तथा जगन्नाथ पुरी के रास्ते में भी आगे बढे व भुवनेश्वर तक भी आगे पहुंचे ही थे। उस समय मुझे यह आदेश ही था कि बैलगाड़ियों से यात्रा करो। मुझे यह सेवा प्राप्त हुई। वह सेवा भक्तों तथा पदयात्रियों के सहयोग से ऑल इंडिया पदयात्रा, 1984 में प्रारंभ हुई थी। ऑल इंडिया पदयात्रा, पदयात्राओं की जननी परंतु वह नही चली खंडित हो गयी। वर्ष 1986 में यात्रा पुनः चली। पदयात्रा कहो या बैलगाड़ी संकीर्तनं पार्टी द्वारका से प्रारंभ हुई। तब से यह यात्रा अब तक चल रही है। चार- पांच वर्षों के पश्चात पदयात्रा पूरे भारत का भ्रमण अथवा परिभ्रमण करके द्वारका वापिस लौटी। पहली बार जब पदयात्रा परिक्रमा सम्पूर्ण करके चार वर्षों बाद १९८८ में वापिस लौटी थी तब पदयात्रा का भव्य स्वागत हुआ था। पहली परिक्रमा जब पूर्ण हुई थी तब द्वारिका धाम के प्रवेश पर ही ( जहाँ पर यात्री पूरे संसार भर से आते हैं) वहीं से द्वारका मंदिर की ओर जाना होता है।
वहाँ भव्य (यात्रा गेट) का निर्माण हुआ था। वहां भव्य स्वागत हुआ था। द्वारिका वासियों ने, द्वारका नगर पालिका, नगरअध्यक्षों, नगर सेवको तथा मंदिर के अधिकारियों ने, महन्तों, संतों भक्तों ने पदयात्रियों का स्वागत किया था। इस प्रकार हम हर ४-५ वर्षो बाद द्वारका लौटते हैं। यह छठवीं बार पदयात्रा लौटी थी। यह पदयात्रा अब रुकने का नाम नहीं ले रही है। वैसे पहले आपको बता तो चुके ही थे। 1984 में प्रारंभ हुई पदयात्रा का लक्ष्य अर्थात गंतव्य स्थान नवद्वीप था। वहाँ जाकर रूकना था, किन्तु मार्ग में जो यश मिला पदयात्रा कार्यक्रम को। जितना जन सम्पर्क हुआ। पूछो नही। जब उडीसा, जगन्नाथ की … वैसा ही अनुभव भक्त कर रहे थे जैसे चैतन्य महाप्रभु स्वयं ५०० वर्ष पूर्व अपनी यात्रा में अनुभव करते थे। कितने लोग जुड़ते थे, दर्शन करते थे, कीर्तन और नृत्य करते थे। इसका इतना यश मिल रहा था तो हम नवद्वीप में रुक नहीं पाए अर्थात हम मायापुर में रुके नही पाए और आगे बढ़े। तत्पश्चात द्वारका लौटे। लौट ही रहे हैं। छह बार लौट चुके हैं। आज 7वीं बार पुनः भक्त आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। तैयार हो या नहीं? क्या आप तैयार हो?
हरिबोल!
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
06 January 2021
Srila Prabhupada’s dream fulfilled – many times over by All India Padayatra
Hare Krsna spirit soul, Haribol! Welcome all to this Japa Talk. Devotees from over 835 locations are chanting with us right now.
Dwarka Dhama ki jaya! Those who were present yesterday must already be aware that today we will be going to Dwarka. We will be joining Padayatra. Welcome to Dwarka. Virtual travelling is possible. There are no restrictions, virtually. You all travel to Pandharpur daily to listen to me. Even I travel to different parts of the world listening to you all – Ukraine, Russia, Nagpur, Kanpur, Kolhapur. If this is all possible then why not travel to Dwarka Dhama especially on this special occasion. Dwarkadhish ki Jaya! Sri Sri Nitai Gaurasunder ki Jaya!. Padayatris of All India Padayatra ki Jaya!
All India Padayatra will be starting their 7th Padayatra around India.Today so many ISKCON Padayatras are going on, but this All India Padayatra is the mother of all other Padayatras. They are doing a glorious service. This service is extremely tiring, yet they have been doing it with such continuity. You can see the Padayatra devotees on screen. All India Padayatra is headed by Acarya Prabhu. The Padayatra devotees are sitting in ISKCON Dwarka temple. Temple President, Vaisnava Seva Prabhu is also present. You all are welcome to Dwarka Dhama. There is the famous ancient temple of Sri Dwarkadhish and there is also ISKCON Dwarka.
Today is that auspicious day when Padayatra is going to start their 7th round. 36 years ago, on 2 September 1984, All India Padayatra had started from Dwarka. It was Radhastami. Let me share some glimpses of the history and journey of All India Padayatra.
Gaura Purnima 1986 marked the 500th Birth Anniversary of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. ISKCON GBC was making several plans on how ISKCON will celebrate this 500th birth anniversary of Mahaprabhu. We came up with the idea of Padayatra. Mayapur is in the East so we chose Dwarka, the westernmost tip of India. Padayatra was supposed to begin from Dwarka. The other reason was – hare krishna nama gaura karila prachar – To preach the Hare Krsna maha-mantra, the only dharma for Kaliyuga. This Padayatra was also to follow Caitanya Mahaprabhu.
We were supposed to reach there exactly on Gaura Purnima in 1988 which marks the 500th birth anniversary. Mahaprabhu also did Padayatra. He started from Mayapur, went to Katwa, took sannayasa then went on the tour of entire South India. Why did He do Padayatra? sarvatra pracara haibe mora nama – To preach harinama everywhere. The Lord preached His name, “Please take My name.” The Lord said. He started from Bengal and visited Orissa, Andhra Pradesh then Tamil Nadu then Kerala, Karnataka , Maharashtra and finally entered into Gujarat and went back to Navadvipa, Mayapur. Our Padayatra was going in the opposite direction as we started from the West. But it started from Dwarka and would cover all those places where Mahaprabhu visited. Sri Sri Nitai Gaurasundara appeared in the Deity form to be taken again to all the places where Mahaprabhu went. On 2 September 1984, Sri Sri Nitai Gaurasundara appeared. The appearance of Sri Nitai Gaurasundara took place on the campus of Dwarkadish temple. The temple authorities gave a lot of support. Sri Nitai Gaurasundara with Their lotus feet started our Padayatra in the courtyard of Dwarka temple and from there we started. Prāṇa-pratiṣṭhā ceremony (installation of Deities) was performed there. The Lord has appeared in the form of the Deities called arcā-avtār. Nitai and Gaurasundara appeared there and then we started our Padayatra. There was another purpose behind the organisation of this Padayatra.
During his final days in 1977, Srila Prabhupada expressed his desire to go on pilgrimage. He desired to go to Govardhan, then Vraja-mandala and other places. He wanted to go on a bullock cart. But due to health issues, it did not happen. He was even ready to go by bus, but then he left for the eternal abode so this could not happen. Srila Prabhupada in the form of his deity, was also taken to all the places along with Padayatra to fulfil his will, his desire. All the senior devotees, leaders knew that Prabhupada wanted to go on yatra in his last days. There were two things behind organising this Padayatra – The first purpose was to take Nitai Gaurasundara to all those places where Mahaprabhu went 500 years ago and preach harinama and second to fulfil Srila Prabhupada’s intense desire to go on pilgrimage.
Although I should not say this, but I can’t resist to share it. When Prabhupada wanted to go on pilgrimage by bullock cart and later on by bus, he had publicly declared that Lokanath would be the leader of this bullock cart yatra. He addressed me and said,” You will be the leader.” This was saved in the memories of the devotees. When ISKCON GBC planned this Padayatra from Dwarka via Kanyakumari to Mayapur, they remembered me at the time when choosing a leader for All India Padayatra. This servant was supposed to lead the Padayatra. Even before 1977 this All India Padayatra, I had carried Padayatra from Vrindavan to Mayapur and from there to Puri. This time also it was offered to me. It was an instruction for me to ” travel by bullock cart”. Now this service is being continued by the cooperation of these Padayatris. Other Padayatras are going on, but this is the main Padayatra and I call it the “Mother of All Padayatras”.
We had started in 1976 also, but somehow it did not continue. Then it again started in 1984 from Dwarka, after which it has not stopped and has completed 6 Parikramas of India. Every 4-5 years, it completes one parikrama of the whole of India. The first round was completed in 4 years in 1988. There was a grand welcoming of All India Padayatra by Dwarka temple and the city authorities. There was a huge welcome at the main gate of Dwarka from where everyone has to pass if they wanted to go Dwarka temple. Dwarkavasis, municipality leaders, presidents, saintly people and the chief of temples welcomed us. Like this after every 4-5 years, we reach Dwarka. Now it reached Dwarka for the sixth time and they are not going to stop. A huge gate was erected and everyone honoured and celebrated the completion of the first round. When we started from Dwarka in1984 and the plan was to stop in Navadvipa. We received a lot of praise. We connected with and preached to a lot of people. We could not stop, so we continued and haven’t stopped. The feeling of Padayatris was the same as we had read about Mahaprabhu’s yatra in the scriptures. We met so many people. They gathered for darsana of Their Lordships, participated in kirtans and accept prasada. This was an overwhelming response that we received and we couldn’t stop. We continued our yatra and came back to Dwarka. Since then we are always coming back to Dwarka every few years. They have been moving around India and returning to Dwarka and now they will be starting with the 7th Parikrama. Thank you.
Hare Krishna.
HG Vaishnav Seva Prabhu, Temple President, ISKCON Dwarka, will say a few words.
I came to Dwarika in 1996 under the guidance and instructions of HH Mahavishnu Maharaja. When I first reached there, it was night and the riksha person dropped me at the Padayatra Gate. That gate was as popular as ISKCON and is even popular now. I remember that we rented out rooms of the guest house that was donated to ISKCON. Whoever came to ISKCON was dropped at the gate and was not brought to the temple. More than the temple, it is the gate that is popular. Those who were present in that historical moments in 1984 remember that event and are very happy and enthusiastic to share about it. I congratulate the padayatra devotees and wish them good luck for the 7th round. I would also like to announce that next month we are organising a padayatra from ISKCON Rajkot to ISKCON Dwarka. HG Murali Mohan Prabhu said that the corona effect has subsided and so one day Padayatra will now taken up with great enthusiasm again.
HG Acarya Prabhu:
As Guru Maharaja said that in the beginning days the Padayatra completed one round in 4 years. The 6th Padayatra took 9years 8 months. ISKCON has spread so much that we need to stop at many places. Sri Nitai Gaurasundara and Srila Prabhupada are lively and they are indeed doing miracles everywhere we go. Once on the way, we reached a village which was full of drunkards who would disrespect or rather harass devotees. We did not want to go, but still surrendering to Sri Nitai Gaurasundara we went and the people pulled the chariot and also chanted Harinama happily and were ready to support us. This is how Nitai Gaurasundara delivered so many Jagais and Madhais. We also get a lot of opportunity for book distribution. We face many difficulties, but we continue by the mercy of Guru Maharaja, Srila Prabhupada and Sri Nitai Gaurasundara. We have a lot of devotees from across Gujarat and other supporters assembled here in Dwarka.
Hare Krishna.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставнивления после совместной джапа сессии 6 января 2021 г.
МЕЧТА ШРИЛЫ ПРАБХУПАДЫ ОСУЩЕСТВИЛАСЬ – МНОГОКРАТНАЯ ВСЕИНДИЙСКАЯ ПАДАЯТРА
Харе Кришна, духовная душа, Харибол!
Приветствую всех на этом разговоре о джапе.
Прямо сейчас с нами воспевают преданные из более чем 835 мест.
Дварака Дхама ки джай! Те, кто присутствовал вчера, уже должны были знать, что сегодня мы отправляемся в Двараку. Мы присоединимся к Падаятре. Добро пожаловать в Двараку. Возможно виртуальное путешествие. Практически нет никаких ограничений. Вы все ежедневно путешествуете в Пандхарпур, чтобы послушать меня. Даже я езжу по разным уголкам мира, слушая вас всех – Украина, Россия, Нагпур, Канпур, Колхапур. Если это все возможно, почему бы не поехать в Дварака Дхаму, особенно по этому особому случаю. Дваракадхиш ки Джай! Шри Шри Нитай Гаурасундер ки Джай! Падаятри Всеиндийской Падаятры ки Джай!
Всеиндийская Падаятра начнет свою 7-ю Падаятру вокруг Индии. Сегодня проводится так много Падаятр ИСККОН, но эта Всеиндийская Падаятра является матерью всех остальных Падаятр. Они выполняют великое служение. Это служение чрезвычайно утомительно, но они проводили его непрерывно. Вы можете видеть преданных Падаятры на экране. Всеиндийскую Падаятру возглавляет Ачарья Прабху. Преданные Падаятры находятся в храме ИСККОН Дварака. Президент храма, Вайшнав Сева Прабху также присутствует. Добро пожаловать в Дварака Дхаму. Здесь находится знаменитый древний храм Шри Дваракадхиш, а также ИСККОН Дварака.
Сегодня тот благоприятный день, когда Падаятра собирается начать свой 7-й тур. 36 лет назад, 2 сентября 1984 года Всеиндийская Падаятра началась из Двараки. Это был Радхаштами. Позвольте мне поделиться некоторыми моментами по истории и путешествию Всеиндийской Падаятры.
Гаура Пурнима 1986 ознаменовала 500-летие со дня рождения Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху. ДжиБиСи ИСККОН обдумывал несколько вариантов относительно того, как ИСККОН будет отмечать 500-летие со дня рождения Махапрабху. Мы пришли к идее Падаятры. Маяпур находится на востоке, поэтому мы выбрали Двараку, самую западную оконечность Индии. Падаятра должна была начаться с Двараки. Другой причиной было – харе кришна нама гаура карила прачар – проповедовать маха-мантру Харе Кришна, единственную дхарму для Кали-юги. Эта Падаятра тоже должна была следовать за Чайтаньей Махапрабху.
Мы должны были попасть туда именно на Гаура Пурниму в 1988 году, когда исполняется 500 лет со дня рождения. Махапрабху тоже проводил Падаятру. Он отправился из Маяпура, поехал в Катву, принял санньясу, а затем отправился в путешествие по всей Южной Индии. Почему Он провел Падаятру? сарватра прачара хайбе мора нама – проповедовать Харинаму повсюду. Господь проповедовал Свое имя: «Пожалуйста, примите имя Мое». Сказал Господь. Он отправился из Бенгалии и посетил Ориссу, Андхра-Прадеш, затем Тамил Наду, затем Кералу, Карнатаку, Махараштру и, наконец, вошел в Гуджарат и вернулся в Навадвипу, Маяпур. Наша Падаятра проводилась в противоположном направлении, когда мы стартовали с запада. Но она началась с Двараки и охватила все те места, где бывал Махапрабху. Шри Шри Нитай Гаурасундара явился в форме Божества, чтобы их снова возили во все места, куда ходил Махапрабху. 2 сентября 1984 года явился Шри Шри Нитай Гаурасундара. Явление Шри Нитай Гаурасундара произошло на территории храма Дваракадиш. Храмовые старшие оказали большую поддержку. Шри Нитай Гаурасундара Своими лотосными стопами начали нашу Падаятру во дворе храма Двараки, и оттуда мы начали. Там была проведена церемония прана-пратиштха (установка Божеств). Господь явился в форме Божеств, называемых арча-аватара. Там появились Нитай и Гаурасундара, а затем мы начали нашу Падаятру. За организацией этой Падаятры стояла другая цель.
В свои последние дни в 1977 году Шрила Прабхупада выразил желание отправиться в паломничество. Он хотел отправиться на Говардхан, затем во Враджа-мандалу и другие места. Он хотел поехать на воловьей повозке. Но из-за проблем со здоровьем этого не произошло. Он даже был готов ехать на автобусе, но потом ушел в вечную обитель, так что этого не могло произойти. Шрила Прабхупада в форме своего божества был также взят во все места вместе с Падаятрой, чтобы исполнить его волю, его желание. Все старшие преданные, руководители знали, что Прабхупада хотел пойти на ятру в свои последние дни. За организацией этой Падаятры стояли две цели: первая цель заключалась в том, чтобы доставить Нитай Гаурасундару во все те места, куда Махапрабху ходил 500 лет назад и проповедовать харинаму, а во-вторых, чтобы исполнить страстное желание Шрилы Прабхупады отправиться в паломничество.
Хотя я не должен этого говорить, но я не могу не поделиться этим. Когда Прабхупада хотел отправиться в паломничество на повозке, запряженной волами, а затем на автобусе, он публично заявил, что Локанатх будет лидером этой ятры, запряженной воловьей повозкой. Он обратился ко мне и сказал: «Ты будешь лидером». Это сохранилось в воспоминаниях преданных. Когда ДжиБиСи ИСККОН планировал эту Падаятру из Двараки через Каньякумари в Маяпур, они вспомнили меня в то время, когда выбирали лидера для Всеиндийской Падаятры. Этот слуга должен был вести Падаятру. Еще до 1977 года этой Всеиндийской Падаятры я проводил Падаятру из Вриндавана в Маяпур, а оттуда в Пури. На этот раз мне тоже предложили. Для меня это было наставление «путешествовать на воловьей повозке». Теперь это служение продолжается благодаря сотрудничеству этих падаятри. Проводятся и другие Падаятры, но это главная Падаятра, и я называю ее «Матерью всех Падаятр».
Мы тоже начали в 1976 году, но почему-то так и не продолжили. Затем она возобновилась в 1984 году из Двараки, после чего не останавливалась и было проведено 6 Парикрам вокруг Индии. Каждые 4-5 лет совершается одна парикрама через всю Индию. Первый тур был завершен за 4 года в 1988 году. Состоялось торжественное приветствие Всеиндийской падаятры храмом Дварака и властями города. Был грандиозный прием у главных ворот Двараки, где каждый должен пройти, если он хочет попасть в храм Двараки. Нас приветствовали дваракаваси, руководители муниципалитетов, президенты, святые люди и старшие храмов. Таким образом, каждые 4-5 лет мы достигаем Двараки. Сейчас она (падаятра) достигла Двараки в шестой раз, и останавливаться они не собираются. Были воздвигнуты огромные ворота, и все почтили и отметили проведение первого тура. Когда мы отправились из Двараку в 1984 году, мы планировали остановиться в Навадвипе. Мы получили много похвал. Мы общались со многими людьми и проповедовали им. Мы не могли остановиться, поэтому продолжали и не останавливались. Ощущение Падаятри было таким же, как мы читали о ятре Махапрабху в писаниях. Мы встретили так много людей. Они собирались на даршан Их Светлостей, участвовали в киртанах и принимали прасад. Это был потрясающий отклик, который мы получили, и мы не могли остановиться. Мы продолжили ятру и вернулись в Двараку. С тех пор мы всегда возвращаемся в Двараку каждые несколько лет. Они путешествовали по Индии и возвращались в Двараку, и теперь они начнут 7-й тур парикрамы. Спасибо.
Харе Кришна.
Е.М. Вайшнав Сева Прабху, президент храма ИСККОН Дварака, скажет несколько слов:
Я приехал в Двараку в 1996 году под руководством Его Святейшества Махавишну Махараджа. Когда я впервые добрался туда, была ночь, и рикша высадил меня у ворот Падаятры. Эти врата были так же популярны, как ИСККОН, и популярны даже сейчас. Я помню, что мы арендовали комнаты в гостевом доме, подаренном ИСККОН. Всякий, кто приходил в ИСККОН, остановился у ворот и не приводился в храм. Больше, чем храм, популярны ворота. Те, кто присутствовал в тех исторических моментах 1984 года, помнят это событие и с радостью и энтузиазмом рассказывают о нем. Поздравляю преданных падаятры и желаю им удачи в 7-м туре. Я также хотел бы объявить, что в следующем месяце мы организуем падаятру от ИСККОН Раджкот до ИСККОН Дварака. Е.М. Мурали Мохан Прабху сказал, что коронавирус утих, и поэтому однажды Падаятра снова возьмется за дело с большим энтузиазмом.
Е.М. Ачарья Прабху:
Как сказал Гуру Махарадж, в первые туры Падаятра завершала один круг за 4 года. Шестая падаятра длилась 9 лет 8 месяцев. ИСККОН распространился настолько широко, что нам нужно останавливаться во многих местах. Шри Нитай Гаурасундара и Шрила Прабхупада полны жизни и действительно творят чудеса везде, куда бы мы ни пошли. По пути мы достигли деревни, полной пьяниц, которые неуважительно относились к преданным или, скорее, беспокоили их. Мы не хотели ехать, но, тем не менее, предавшись Шри Нитай Гаурасундаре, мы пошли, и люди тянули колесницу, а также радостно пели Харинаму и были готовы поддержать нас. Вот как Нитай Гаурасундара привел столько джагаев и мадхаев. У нас также есть много возможностей для распространения книг. Мы сталкиваемся со многими трудностями, но по милости Гуру Махараджа, Шрилы Прабхупады и Шри Нитая Гаурасундара мы продолжаем. У нас есть много преданных со всего Гуджарата и других сторонников, собравшихся здесь, в Двараке.
Харе Кришна.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
5 जनवरी 2021
जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद ।
श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्त वृंद ।।
825 स्थानों से आज जप हो रहा है। हरि हरि। आपका स्वागत है।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||
(भगवद्गीता 15.6)
अनुवाद : वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते ।
श्री गोपी तुम सुन रही हो कि तुम महामंत्र को सुन रही हो ? श्वेत मंजिरी तुम सुन रही हो ? सुनो । मैंने कहा , वैसे मैंने जो कहा वह भगवान ने कहा है क्योंकि यह भगवत गीता ऐज इट इज , यथारुप है । जो भगवान ने कहा है वही मैं कहता हूं । या आप भी कहते हो । भगवान ने जो कहा है उसिको आप कहते हो , भगवत गीता यथारूप है । भगवत गीता का मूल रूप है , भगवत गीता जशी आहे तशी हो जाएंगी । भगवान ने कहा , “जो मेरे धाम में लौटते हैं , यद्गत्वा न निवर्तन्ते फिर वह ऐसे लोग , ऐसे जिव मेरे धाम लौटते है तो फिर लौटते ही है । न निवर्तन्ते लौटते हैं मैंने कहा अच्छा किया मैंने , अच्छा कहा , लौटना मतलब वहा पहले कभी थे , ऐसा अर्थ निकलता है । लौट गया मतलब पहले यहा था और अब पुनः लौट गया , लौट आया आप समझ रहे हो ना ? यह तो मुझे नहीं कहना था लेकिन अभी लौटने की बात कहते ही मुझे यह मेरे मन में पुनीत हुआ । भगवत धाम जब हम लौटते हैं , मतलब वहां हम पहले कभी थे अब पुनः लौट आए हैं या जिसको हम अंग्रेजी में कहते हैं , गोइंग बैक टू होम , ही हास कम बॅक , मतलब वह व्यक्ती अगर पहले पंढरपुर में नहीं था तो फिर हम ऐसा नहीं कहेंगे कि वह लौट चुका है । पहले यहां नहीं था तो फिर हम कहेंगे कि वह आ चुका है । वह लौट चुका है ऐसा नहीं कहेंगे । आपको समझ में आ रहा है क्या ? मैं जो कह रहा हू , मुझे तो समझ मे आ रहा है । बैक टू होम , यह बात है , घर वापसी (हसते हुये) उत्तर प्रदेश में जब घर वापसी हुई । पहले हिंदू थे फिर धर्मांतर हुआ वह मुस्लिम बन गए , फिर उनको पुनः जब हिंदू बनाया उत्तर प्रदेश में उसको कहते हैं घर वापसी , मतलब घर वापस आ गए । पहले हिंदू थे पुनः अब हिंदू बन गए हैं उनको धर्म वापसी कहते हैं ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम
लौट आया और भगवान ने कहा कि वह यहासे वापस नहीं जाएगा , अब यही रहेगा । न निवर्तन्ते इसकी तुलना वैसे भगवान के एक दूसरे वचन के साथ करनी थी और वह यह है कि भगवान ने कहा है ,
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति |
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ||
(भगवद्गीता 9.21)
अनुवाद : इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है |
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति कुछ जीव , कुछ धार्मिक लोग क्या करते हैं ? ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ||
(भगवद्गीता 14.18)
अनुवाद: सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।
जो सत्व गुनी होते हैं ,
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था
वैसे एक एक शब्द को एक एक अक्षर की ओर ध्यान देना होगा । सत्त्वस्था संस्कृत भाषा भी ऐसी है , बहुत बढ़िया है और इसके ऐसे अर्थ भी बहुत गुड अर्थ है भावार्थ इसमें छिपे है । सत्त्वस्था मतलब जो सत्व में स्थित है वह क्या करते हैं ? ऊर्ध्वं गच्छन्ति मतलब ऊपर जाते हैं , स्वर्ग में जाते हैं । स्वर्ग पहुंचते हैं तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है । स्वर्ग की प्राप्ति तो होनी है , भगवान कहते हैं कि आप वहां सदा के लिए नहीं रह सकते ।
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति जब पुण्य क्षीण होगा , आपने कुछ पुण्य कमाया , दान धर्म किया , दान धर्म सात्विक , सत्व के स्तर पर , आप स्वर्ग गये लेकिन आप सदा के लिए वहां नहीं रहे सकते ।
मर्त्यलोकं विशन्ति
आपको पुनः मृत्यु लोक में वापस आना होगा , यह एक भेद है । सत्वगुणी बनो । हरि हरि । अब फिर कुछ कहना होगा या कुछ बोलना होगा देवता की पूजा करो । सत्वगुण मे वैसे देवता की पूजा होती है । देवता की पूजा सात्विक मानी जाती है , इसको हम कर्मकांड कहते हैं ।
कृष्ण-भक्त- निष्काम, अतएव ‘शान्त’।
भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी- सकलि ‘अशान्त’ ।।
(चैतन्य चरितामृत मध्य , 19.149)
अनुवाद: चूंकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है, इसलिए वह शान्त होता है। सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं, ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं; अत: वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते।
देवताओं की पूजारियोकी कामना तो होती है , देवताओं की पूजा कर रहे हैं लेकिन कामना के साथ होती है । कृष्ण की पूजा कामना के साथ नहीं होनी चाहिए , एक समय उसको निष्काम बनना ही होगा । कुछ थोड़ी सी कामना है तो कृष्ण सेवा करने से , कृष्ण आराधना करने से , कृष्ण के नाम का जप करने से वह 1 दिन उस कामवासना से मुक्त हो जाएगा।
कृष्ण ने कहा ही है , यह जो देवता का पुजारी है ,
काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः |
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ||
(भगवद्गीता 4.12)
अनुवाद : इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं | निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है |
यह भगवत गीता की बातें चल रही है , देवता की पूजा क्यों करते हैं ? काङ्न्तः जिनकी कोई महत्वाकांक्षा होती है , धनं देही या जन्म देही या कुछ देहि , देहि , देहि ,यह दीजिए , वह दीजिए , सुख संपति घर आवे , ऐसा कुछ है , ऐसा कुछ संकल्प होता है और उसकी पूर्ति के लिए देवता के पास पहुंचते हैं । काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः लोग देवता के पूजारी क्यों बनते हैं ? हम नहीं जानते लेकिन भगवान जानते हैं , भगवान बता रहे हैं आपकी कोई आशा आकांक्षा है , महत्वाकांक्षा है , कुछ कामना है , भुक्ति कामी है , मुक्ति कामी है सिद्दी कामी , यह सभी कामी मंडल है । कामीयो का मंडल है , भुक्ती कामी , मुक्ति कामी , सिद्धि कामी ,
कृष्ण-भक्त- निष्काम, अतएव ‘शान्त’।
किंतु कृष्ण भक्त निष्काम होता है वह शांत , धीर होता है । हरि हरि । तीन गुणों से प्रभावित होकर व्यक्ति अलग-अलग पद्धति की अर्चना कहो या आराधना कहो , स्वीकार करते हैं या अलग अलग व्यक्तित्व उनके इष्ट देव बनते हैं । ऐसा कृष्ण ने कहा ,
“यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः|
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ||
(भगवद्गीता 9.25)
अनुवाद: जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं |
यहां पर समझाया है , देवता की पूजा करो देव लोग जाओ और यह सत्व गुण मे होता है । न्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः
पितरों की पूजा करो पितृलोक जाओ यह रजोगुण में होता है ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या
भूत पिताच की आराधना , मंत्र तंत्र , तांत्रिक यह तमोगुण में होता है ।
यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् मेरी जो आराधना करते हैं वह मुझे प्राप्त करते है , मेरे धाम लौटतेे हैं । 3 गुनो के प्रभाव से यह सत्व, रज, तम अलग अलग आराधना , वासना अलग-अलग आराध्य देव आप समझते हो वही हमारे आराध्य देव है ।
आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम्।
तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥
( चैतन्य चरितामृत मध्य 11.31)
अनुवाद: ( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा :)हे देवी, यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है, लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है। किन्तु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णबों की सेवा, जो भगवान् विष्णु से सम्बन्धित हैं।”
आराधना तो विष्णु की , कृष्ण की , विष्णु तत्व की होनी चाहिए , यह तो कहा है लेकिन लोग अलग अलग गुणों के प्रभाव से विष्णु को छोड़कर , विष्णु की आराधना छोड़कर , देवी देवताओं की या पितरों की भूतों की पूजा आराधना , उपासना करते रहते हैं । इन तीन गुणों का इस अध्याय में वर्णन है , 14 वा अध्याय भगवद गीता का , उस अध्याय के अंत में श्री कृष्ण कहते हैं ,
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ||
(भगवद्गीता 14.26)
अनुवाद : जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है |
यह तीन गुणों की चर्चा वाला अध्याय है । चौदावे अध्याय के अंत मे भगवान भक्ति की स्थापना कर रहे है या भक्तों की स्थापना कर रहे है , अपनी खुद की भी स्थापना कर रहे है , महिमा का गान कर रहे हैं ।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
किंतु जो मां मेरी सेवा करता है , मेरी आराधना करता हैं । कैसे ? भक्तियोगेन भक्ति योग से , भक्ति योग से जो मेरी भक्ति योग पूर्ण आराधना करता है ,सेवा करता है वह व्यक्ति ,
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते
यह तीन गुणों के परे पहुंचता है । इन तीन गुणों को लांग कर जाते है । तीन गुणो का प्रभाव अभी नहीं रहा क्योकी वह मेरी भक्ति कर रहा है या फिर दोनों भी हो सकता है , उसने इन तीनों को लांग लिया है और फिर मेरी भक्ति कर रहा है या मेरी भक्ति कर रहा है तो उसे भी यह तीन गुणों को लांग ने में मदद हो रही है , यह तीन गुणों के समतीत्य , उसके ऊपर ,परे पहुंचने में यह मेरी भक्ति मदद कर रही है । मेरी भक्ति , मेरी भक्ति , भक्ति मतलब भगवान की भक्ति , देवता की भक्ति नहीं कहा जा सकता वह भुक्ति है , देवता की तथाकथित भक्ति , भक्ति नहीं है वह भुक्ति है । हरि हरि।
आत्मेन्द्रिय-प्रीति-वाब्छा- तारे बलिकाम’ ।
कृष्णेन्द्रिय-प्रीति-इच्छा धरे प्रेम” नाम ।।
(चैतन्य चरितामृत आदी 4.165)
अनुवाद: अपनी खुद की इन्द्रियों की तृप्ति करने की इच्छा काम है, किन्तु कृष्ण की इन्द्रियों को तुष्ट करने की इच्छा ‘प्रेम’ है।
आत्मेन्द्रिय-प्रीति और कृष्णेन्द्रिय-प्रीति , देवता की भक्ति आत्म इंद्रिय की प्रीति के लिए होती है ,
काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः
आपने सुना , जो हमने सुना है भगवान से ही सुना है ।
भक्ति मतलब प्रेम पूर्वक किया हुआ कृत्य , कार्य वह भक्ति कहलाती है । भक्ति में क्या होता है ? कृष्णेन्द्रिय-प्रीति और उसका नाम है प्रेम , और जो आत्मेन्द्रिय-प्रीति है उसका नाम है काम , यह जो काम है , और देवता की आराधना यह कामना है ।
देवताओ की आराधना कामना पूर्वक होती है और भगवान की आराधना प्रेम पूर्वक होती है । एक काम वश और एक प्रेम वश । हरि हरि । वैसे मैं यह कहने जा रहा था कि , भगवान की भक्ति ही भक्ति कही जा सकती है , देवता की आराधना , पूजा , वासना है उसे भक्ति नहीं कहा जा सकता वह भक्ति नहीं वह भुक्ति है इसलिए कहा भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी , ऐसा नाम भी दिया । भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी , और यह तीनों के परे है भक्ति , भगवान की भक्ति और वैसे भक्ति ,
श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥
(श्रीमद भागवत 7.5.23 , 24)
अनुवाद: प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज – सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।
यह नवविधा भक्ती हैं । हम जब उसे करना प्रारंभ करते हैं , प्रल्हाद महाराज ने यह वचन कहे है । बेटा क्या सीखे हो ?
मैंने तुम्हें गुरुकुल भेजा , षण्ड , अमर्क शुक्राचार्य के पुत्र है वह तुम्हारे शिक्षक मैंने नियुक्त किए है , तो क्या-क्या सीखे हो बताओ तो सही ? प्रह्लाद को गोद में लिए हैं और पूछ रहे हैं , क्या सीखे हो ? तब प्रह्लाद महाराज ने कहा ,
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्
यह सीखा । यह सिखा तुमने ? यह सीखने के लिए भेजा था तुमको ? वैसे प्रल्हाद महाराज ने यह मैंने सीखा हूं यह तो कहा , यह नवविधा भक्ती मैंने सिखी है यह कहा लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि यह वह कहां से सीखे हैं । प्रल्हाद महाराज जब अपने मित्रों को संबोधित कर रहे थे तब वहांपर इस रहस्य का उद्घाटन किया है । क्योंकि उनके मित्र भी समझ रहे थे , यह तो हमारे शिक्षक षण्ड , अमर्क ने नहीं सिखाया है तुम तो कुछ और ही सिख के आए हो , ना जाने कहां सीखे हो ? लेकिन उम्र तो अभी , हमारी उम्र इतने तुम हो ।
कौमार आचरेत्पाज्ञो धर्मान्भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यश्रुवमर्थदम् ॥
(श्रीमद भगवद 7.6.1)
अनुवाद: प्रह्माद महाराज ने कहा : पर्याप्त बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ से ही अर्थात् बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव
शरीर का उपयोग करे। यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान् होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है। यदि
निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
तुम जो कह रहे हो , हे प्रल्हाद , कौमार अवस्था मे हमे धार्मिक बनना चाहीये , कृष्णा भावना को अपनाना चाहिए और हरे कृष्ण हरे कृष्ण करना चाहिए इस कलयुग में , कलयुग का धर्म है हरी नाम , प्रह्लाद और उनके मित्र कुमार थे । वह कहते है , कहां से सीखे यह सारी बातें ? तब प्रल्हाद महाराज ने कहा , यह बाते मैने गुरुकुल में नहीं सीखी है , गर्भ मे सिखी है और यह सिखाने वाले षण्ड अमर्क नहीं थे , यह सिखाने वाले नारद मुनि थे । परंपरा के आचार्य नारद मुनि थे ।
ब्रह्म नारद मध्व गौडीय संप्रदाय! तो नारद मुनि ने यह बात सिखाई थी। प्रल्हाद महाराज से पूछा कि क्या सीखे हो? उन्होंने उत्तर में बताया मैं भक्ति सीखा हूं, यह है नवधा भक्ति। तो श्री कृष्ण यहां गीता में कह रहे है कि, जो मेरी भक्ति करता है जो भगवत गीता का सार है, यह सिखा रहे हैं भगवान। कर्मयोग नहीं, अष्टांग योग नहीं, भक्ति करो!
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||
(भगवद्गीता 18.65)
अनुवाद: सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |
मन्मना भव मद्भक्तो मेरे भक्त बनो!
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ||
(भगवद्गीता 6.47)
अनुवाद: और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है | यही मेरा मत है |
यह कर्मयोग, ध्यानयोग इत्यादि इसका परिचय देते हुए इस को समझाएं लेकिन बाद में बताएं कि, भक्ति ही सर्वोपरि है, भक्तियोग सर्वोपरि है। तो और योगों में या पद्धति और उपासना में कुछ अभाव है। और तीन गुणों का प्रभाव होता है। लेकिन भक्ति मतलब यह गुण का प्रभाव नहीं है। इसीलिए यहां पर कृष्ण कहे, यह तीन गुणों को लांग कर व्यक्ति भक्ति करता है या भक्ति करते करते ही इन तीन गुणों को लांग देता है, या गुनातीत हो जाता है। गुन अतीत गुणों के परे हो जाता है। और फिर कृष्णभावनाभावित हो जाता है।तो इसके साथ बहुत सारी बातें सीखने को मिलती है या आप को ध्यान में रखनी चाहिए। कृष्ण की पूजा और अन्य देवी देवताओं की पूजा, इसमें कौन सी पूजा श्रेष्ठ है? या फिर स्वर्ग पहुंचना और वैकुंठ पहुंचना और इसी के साथ यह भी समझ में आना चाहिए कि, देवताओं का निवास है वह है स्वर्ग लोक लेकिन भगवान तो स्वर्ग में नहीं रहते। भगवान तो वैकुंठा में रहते है, गोलोक में रहते है। बहुईश्वरवाद! आप तो कई देवताओं की पूजा करते हो यह सही नहीं है ऐसा नहीं करना चाहिए। क्रिश्चियन या मुस्लिम इनका एक वशिष्ट है कि उनके एक ही भगवान है, एक ही भगवान की आराधना वह करते है। एक ईश्वर, एक परमेश्वर है। लेकिन आप हिंदुओं के तो कई सारे है,हजारों है,लाखों है,करोड़ों है। हर किसी को पकड़कर उनकी आराधना करते हो जैसे म्हसोबा या खंडोबा इत्यादि। तो यह बात सही नहीं है, बहुईश्वरवाद गीता नहीं सिखाती है अनेक ईश्वर उनकी आराधना भगवद्गीता नहीं सिखाती है। और भगवत गीता यहां नहीं सिखाती इसीलिए भगवान ने कहा है कि,
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | तो हम भी कुछ कम नहीं है, हमारे मुस्लिम, क्रिश्चियन यह धर्म है। वैसे यह एक ही परिवार के है। पहले थे जूस फिर बने क्रिश्चियन और फिर बने मुस्लिम। या फिर पहले थे मोझेज, फिर मोहम्मद तो यह एक ही परिवार के है। फिर भी आपस में लड़ते है। तो हम भी एकम की बात है, सर्वधर्मान् मतलब धर्म की बात है या आराधना की बात है। इतना ही नहीं भूत पिशाच यह भी हमारे धर्म में है, कुछ लोग उसे भी अपनाते है। लेकिन कृष्ण कहे है कि, सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं या फिर चैतन्य चरितामृत कहता है,
एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।
यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य।।
(चैतन्य चरित्रामृत आदि 5.142)
अनुवाद: एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य अकेले एक ईश्वर कृष्ण है, बाकी सब तो सेवक है। यह देवी देवता सेवक है। यह देवता ईश्वर है परमेश्वर नहीं है। हरि हरि। तो यह भी बातें सीखनी है समझ नहीं है जब हम भगवत गीता पढ़ते है। भगवद्गीता यानी श्री कृष्ण यह सब सिखाएं है अर्जुन को, अर्जुन को तो सिखाएं अर्जुन सब सीख गए लेकिन हम दुनिया वाले नहीं सीख रहे है। हमें गीता का उपदेश सिखाने वाले स्वयं ही कर्मकांडी होते है, ज्ञानकांडी होते है, या सिद्धि और मुक्ति का मी होते है। और यह भगवद्गीता पर भाष्य सुनाते है। वह स्वयं अद्वैतवाद ही होते हैं और वह क्या गीता पर भाष्य सुनाएंगे? ज्योत में ज्योत मिलाने की वह बात करेंगे। इसीलिए भगवान ने गीता भक्तों को ही सुनाई थी और भक्तों से ही हमें भगवद्गीता सुननी चाहिए। देवताओं की भक्ति, भक्ति नहीं है वह भूक्ति है। देवताओं का भक्त कृष्ण का या भगवान का भक्त नहीं है। क्योंकि वह भुक्त है मुक्त नहीं है वह भोगी है! वह भोग भोगना चाहता है। जैसे प्रभुपाद कहते थे कर्म करने वाला कर्मकांडी, जो अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना चाहता है उसे कर्मी कहते है। लेकिन भगवान का भक्त तो,
यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ||
(भगवद्गीता 9.27)
अनुवाद : हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो |
यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् | भगवान ही केवल भोक्ता है।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ||
(भगवद्गीता 5.29 )
अनुवाद: मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है |
भगवान भोक्ता है। लेकिन जियो भगवान के साथ प्रतियोगिता करता है, और स्वयं भोक्ता बनना चाहता है या भोगी बनना चाहता है। और उसीसे रोगी बन जाता है। हरि हरि। तो में यह पर रुक जाता हूं। ठीक है।
तो अब आप क्या करोगे? गीता का वितरण तो हो रहा है ना? गीता का वितरण भी करो और यह बातें अपने परिवार में या समारोह में सब को समझाओ। या फिर जो आप श्रवण करते हो उसका कीर्तन करो। जो सुनते हो उसको सुनाओ! आप ऑनलाइन भी सुना सकते हो। ताकि सत्य की स्थापना हो! बहुत कुछ झूठ मूठ कहा गया है उसका कोई विरोध नहीं करता, प्रभुपाद हमेशा कहा करते थे कि, इस भारत में मैं ही केवल अकेला हूं जो देवी देवताओं की पूजा को विरोध कर रहा है। प्रभुपाद कौन होते हैं विरोध करने वाले वैसे भगवान ने ही विरोध किया है। भगवान ने ही दोनों में जो भेद है वह समझाया है। कृष्ण की आराधना और देवी देवताओं की आराधना इसमें जो भेद है वह भगवान ने ही समझाया है। भगवत गीता यथारूप का प्रचार होने से फिर भगवान के विचार, भगवान का जो उद्देश्य था वह सफल होगा। आप अभी उसमें योगदान दो। प्रभुपाद ने जिस संगठन की स्थापना की है जिसमें आप भी जुड़े हुए हो, तो इसमें संगठित होकर हम प्रचार कर सकते है,सत्य का प्रचार कर सकते है। तो सब तैयार हो जाओ और मैदान में उतरो! संसार के लोगों को मदद की आवश्यकता है, बहुत झूठ मूठ का प्रचार चल रहा है, काफी ठगाई हो रही है, धर्म के क्षेत्र में जितनी ठगाई होती है शायद ही किसी और क्षेत्र में होती हो। धर्म के क्षेत्र में जितना मनोधर्म चलता है, मनोधर्म मतलब मेरा खयाल या मेरा विचार! तो अपने खयालों को कचरे के डिब्बे में डाल दो। हर बदमाश कुछ ना कुछ बकता ही रहता है। हमें अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है, तो ऐसे अधिकार लोगों को प्राप्त है तो फिर गांधीवाद, तिलकवाद मोदिवाद सुरु होता है। कितने लोग हैं इस संसार में और हरेक का अपना अपना विचार है, भगवान के विचार में मिलावट करते हुए फिर वे कहते है। कहता स्वयं है, लेकिन कहता है कि भगवान ने ऐसा कहा है। भगवान के पीछे छुपता है। भगवतगीता लेकर बैठ जाता है लेकिन भगवान को बोलने नहीं देता! उसका मन बोलता है या उसके अपने खुद के विचार! कितनी सारी बातें! प्रभुपाद तीन गुणों को समझाते हुए कहते है कि, मूल रूप से कलर केवल ३ ही है। हम भी जब स्कूल में थे तो, जब चित्रकला का क्लास होता था तब, तीन रंगों को लेकर जाते थे। पता है कौन-कौन सी? लाल, नीली और पीली। यह तीन कलर एक दूसरे में मिलाओ तो तिनके फिर नो हो जाते है, ९ के ८१ हो सकते है। मूल रूप से तो 3 ही थे लेकिन उनके असंख्य कलर बन सकते है। वैसे ही मूल गुण तो तीन ही है लेकिन इन तीन से ही कितने सारे विचार या भाव बन जाते है। भगवान गीता में कहे है,
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |
अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||
( भगवद्गीता 3.27 )
अनुवाद: जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः | हम जो कुछ भी कार्य करते है, यह हमसे 3 गुण करवाते है। केवल सत्वगुण नहीं करवाता, उसके साथ कुछ रजोगुण और तमोगुण भी आ जाता है। और इसके एकत्रीकरण से फिर कितने सारे अलग-अलग प्रकार के विचार बन सकते है, इसीलिए हर व्यक्ति का विचार अलग होता है। जैसे मैं कह रहा था कि गांधीवादी, साम्यवाद, इत्यादि ऐसा ही है। जैसे अर्जुन और कृष्ण के मध्य में जो संवाद हो रहा था , लेकिन संसार में क्या होता है? वाद विवाद होता रहता है। और यही कलयुग का लक्षण है और पहचान भी है। यह युग कलयुग है जिसमें क्या होता है? वाद विवाद होते रहते है। एक होता है पाखंड और दूसरा होता है एक दूसरे में लड़ाई! कोई पूछता है कि कलयुग का क्या लक्षण है? तो शास्त्रों में कहा गया है कि बड़े-बड़े 2 लक्षण है।
एक तो है घमंड , पाखंड या ढोंग और दूसरा है लड़ाई! हमारे जो वचन है वह बाण के जैसा कार्य करते है। हरि हरि। क्योंकि अलग अलग मतोंकी की भिन्नता है। जत मत तत पत है , हर एक को अपने विचार रखने का अधिकार है। हरि हरि। तो यह बड़ी भ्रामक स्थिति है। मराठी में जिसे गोंधल कहा जाता है। तो इसे बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ का कार्य है। जिसकी श्रील प्रभुपाद स्थापना की है। श्रील प्रभुपाद की जय! हमारे इस्कॉन के भक्त एक ही भाषा बोलते है, भगवान की भाषा बोलते है! ठीक है। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
5 January 2021
Devotees live in Krsna’s heart
Hare Krsna. Welcome to this Japa session. 860 participants are chanting with us. I said, what the Lord has said. If we repeat what the Lord has said then it is Bhagavad Gita As It Is. Bhagavan said,
na tad bhāsayate sūryo
na śaśāṅko na pāvakaḥ
yad gatvā na nivartante
tad dhāma paramaṁ mama
Translation
That abode of Mine is not illumined by the sun or moon, nor by electricity. One who reaches it never returns to this material world (B.G.15.6)
Such Jivas (souls) don’t come back. Once they have returned to the Dhama , they don’t go back. This means that he was there sometime in the past and has returned. If a person was in Pandharpur then we will say, he has come we won’t say he has come back. In English we say, Back home. Earlier the person was Hindu, later he changed his religion to Islam, but later became a Hindu again. This happens in states like Uttar Pradesh. He came back, back home, once he is reconverted to Hinduism.
Originally, I wanted to discuss urdhvam gacchanti sattva-stha, we need to focus on each word. This is the glory of Sanskrit. The meanings are hidden in the words. sattva-stha, one who is stable in sattva guna, those in the mode of goodness go to heaven, but they can’t remain there for long, they cannot stay there for ever. They have collected some pious credits so that they could enter heaven, but they will have to come back to Mrityu Lok as soon as their pious credits are depleted. After exhausting the pious credits they have to come back. This is the secret.
te taṁ bhuktvā svarga-lokaṁ viśālaṁ
kṣīṇe puṇye martya-lokaṁ viśanti
evaṁ trayī-dharmam anuprapannā
gatāgataṁ kāma-kāmā labhante
Translation
When they have thus enjoyed vast heavenly sense pleasure and the results of their pious activities are exhausted, they return to this mortal planet again. Thus those who seek sense enjoyment by adhering to the principles of the three Vedas achieve only repeated birth and death. (BG 9.21)
We worship demigods in the mode of goodness. They worship demigods, but there are desires for material gain. We don’t worship Krsna with material desires in the heart.
kṛṣṇa-bhakta—niṣkāma, ataeva ‘śānta’
bhukti-mukti-siddhi-kāmī—sakali ‘aśānta’
Translation
Because a devotee of Lord Kṛṣṇa is desireless, he is peaceful. Fruitive workers desire material enjoyment, jñānīs desire liberation, and yogīs desire material opulence; therefore they are all lusty and cannot be peaceful. (CC. Madhya 19.149)
bhoktāraṁ yajña-tapasāṁ
sarva-loka-maheśvaram
suhṛdaṁ sarva-bhūtānāṁ
jñātvā māṁ śāntim ṛcchati
Translation
The sages, knowing Me as the ultimate purpose of all sacrifices and austerities, the Supreme Lord of all planets and demigods and the benefactor and well-wisher of all living entities, attain peace from the pangs of material miseries (BG 5.29)
Even if we have material desires then by worshipping or chanting Krsna’s names the material desires get purified. Worship of Krsna should be without any desire. We should do devotional service to Krsna. While the demigod worshippers goes to the demigods to get the material desires fulfilled, worshippers of Krsna, become free from desires. They may not know, but Krsna knows.
We worship according to the mode of material nature by which we fulfil our desires. Because of desires people become devotees of demigods. People may not know explicitly, but Krsna states in the Bhagavad Gita that some want mukti, others want sidhi. This is a gathering of those who have desires. Some people worship ghosts. They are in the mode of ignorance. But those who worship Me come back to Me, My abode.
ārādhanānāṁ sarveṣāṁ
viṣṇor ārādhanaṁ param
tasmāt parataraṁ devi
tadīyānāṁ samarcanam
Translation
Lord Śiva told the goddess Durga, ‘My dear Devi , although the Vedas recommend worship of demigods, the worship of Lord Visnu is topmost. However, above the worship of Lord Visnu is the rendering of service to Vaiṣṇavas, who are related to Lord Visnu. (CC Madhya 11.31)
kṛṣṇa-bhakta—niṣkāma, ataeva ‘śānta’ – The devotees of Krsna do not worship to fulfil any material desire. Influenced by the three modes, people do different kinds of worship and find different types of demigods to fulfil their desires.
kṛṣṇa-bhakta–niṣkāma, ataeva ‘śānta’
bhukti-mukti-siddhi-kāmī–sakali ‘aśānta’
It is explained that you worship demigods and go to the abode of the demigods. If you pray to your ancestors, you go the planet of your ancestors.
yānti deva-vratā devān
pitṝn yānti pitṛ-vratāḥ
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti mad-yājino ‘pi mām
Translation
Those who worship the demigods will take birth among the demigods; those who worship ghosts and spirits will take birth among such beings; those who worship ancestors go to the ancestors; and those who worship Me will live with Me. (BG 9.25)
The fruits of worshiping in different modes satva, rajas, tama are different. We act as worshippers according to our modes but ideally, we should be the worshippers of Visnu, Krsna. Still by the effects of the modes of material nature they worship the demigods, the ghosts etc. This is because of the influence of these three modes. At the end of 14 chapter of Bhagavad Gita which describes the modes of material nature, Krsna says.
māṁ ca yo ‘vyabhicāreṇa
bhakti-yogena sevate
sa guṇān samatītyaitān
brahma-bhūyāya kalpate
Translation
One who engages in full devotional service, who does not fall down in any circumstance, at once transcends the modes of material nature and thus comes to the level of Brahman. (BG 14.26)
In the end of this chapter Krsna is establishing Bhakti, establishing His devotees, His worship and Himself. He says one who worships Me with devotional services supersedes the three modes of material nature. He crosses the three modes and then performs devotional services.
yoginām api sarveṣāṁ
mad-gatenāntar-ātmanā
śraddhāvān bhajate yo māṁ
sa me yuktatamo mataḥ
Translation
And of all yogīs, he who always abides in Me with great faith, worshiping Me in transcendental loving service, is most intimately united with Me in yoga and is the highest of all (BG 5.47)
Bhakti means devotional service of the Lord. Bhakti of the demigods is not possible, it is Bhukti (desire for something). Devotional services are performed for the pleasure of Krsna out of love and devotion, but we worship demigods for personal sense gratification which is lust – bhukti-mukti-siddhi-kāmī. Beyond this is devotional service. Remembrance of Visnu is bhakti beyond the three modes.
ātmendriya-prīti-vāñchā–tāre bali ‘kāma’
kṛṣṇendriya-prīti-icchā dhare ‘prema’ nāma
Translation
The desire to gratify one’s own senses is kama [lust], but the desire to please the senses of Lord Krsna is prema [love]. (CC Ādi 4.165)
Prahlada Maharaja father asked him, “What have you learnt?” Prahlada Maharaja was in his lap and Prahlada Maharaja replied, “Sravanam, kirtanam, Visnu smarnam (all nava-vidha bhakti process) and his father was furious, saying that he did not send him to Gurukul to learn this. Sanda and Amarka were assigned as his teachers. Prahlada Maharaja explained the process to his father, but he has not told how to practice this nava-vidha bhakti. This secret he has revealed to his classmates. He explained to them how to practice nava-vidha bhakti. The classmates were amazed and wanted to know who had taught him this as they had never learnt this in the Gurukula.
śrī-prahrāda uvāca
śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ
smaraṇaṁ pāda-sevanam
arcanaṁ vandanaṁ dāsyaṁ
sakhyam ātma-nivedanam
iti puṁsārpitā viṣṇau
bhaktiś cen nava-lakṣaṇā
kriyeta bhagavaty addhā
tan manye ’dhītam uttamam
Translation
Prahlāda Mahārāja said: Hearing and chanting about the transcendental holy name, form, qualities, paraphernalia and pastimes of Lord Viṣṇu, remembering them, serving the lotus feet of the Lord, offering the Lord respectful worship with sixteen types of paraphernalia, offering prayers to the Lord, becoming His servant, considering the Lord one’s best friend, and surrendering everything unto Him (in other words, serving Him with the body, mind and words) — these nine processes are accepted as pure devotional service. One who has dedicated his life to the service of Kṛṣṇa through these nine methods should be understood to be the most learned person, for he has acquired complete knowledge. (SB 7.5.23)
Then Prahlada Maharaja said that he had learnt this from Narada when he was in his Mother’s womb. The teacher was non other than Narada Muni, who had received the same knowledge in parampara from Brahmaji. Bhakti is the topmost. It’s free from the effects of all the three modes of material nature. Krsna has explained in Bhagavad Gita that (which is the gist of the t Gita also) beyond dhyana yoga, karma yoga, asthang yoga the best is Bhakti Yoga. In the others there is impact of the three modes, but not in Bhakti.
The person is able to cross over the three modes by doing Bhakti. A person becomes gunatet – going beyond the three modes of material nature by doing devotional services. We need to learn a lot. We should understand that the place where demigods reside is known as Swarga-loka, but Krsna doesn’t reside there. He resides in Vaikuntha, in Goloka. That is the reason why so many faiths – Jews, Christians say you follow mono-theisim, polytheism. Worshipping so many Gods is not right. But Bhagavad Gita doesn’t teach this. Krsna says, “Just worship Me.” Actually, we belong to one family. Jewish, Christians and Muslims they belong to the same family. They have one God, but Hindus have many Gods – thousands, millions. Poly means many and mono means one. Bhagvat Gita does not teach to worship many Gods.
sarva-dharmān parityajya
mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja
ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reaction. Do not fear. (BG 18.66)
First their were Jews, then Christians and then Muslims, they believe in one God, but they fight .
ekale īśvara kṛṣṇa, āra saba bhṛty
yāre yaiche nācāya, se taiche kare nṛtya
Translation
Lord Kṛṣṇa alone is the supreme controller, and all others are His servants. They dance as He makes them do so. (CC Ādi 5.142)
But there was some time conversion, isvara kevala krsna. God is only one and that is Krsna and the others are His servants. Krsna is teaching this to Arjuna. He has understood, but we are not understanding because our teachers are
bhukti mukhti sidhi kami, advaitavadi and impersonalists. They don’t have any clue about Bhagavad Gita then how can they teach Bhagavad Gita. We need to hear Bhagavad Gita from a devotee and only he can explain. These other people are fruitive workers. Only Krsna is bhokta.
The ones who are explaining Bhagavad Gita are Karma kandi, Mukti kandi, Sidhi Kandi. They are not explaining the way Krsna has spoken about bhakti and these people talk about Bhagavad Gita. Like God told Gita to His devotee, we should hear and learn the Bhagavad Gita from one who is a devotee of Krsna only. We must not listen to one who desires fruitive results, but one who gives his results to Krsna. Jiva wants himself to be the bhogi.
yat karoṣi yad aśnāsi
yaj juhoṣi dadāsi yat
yat tapasyasi kaunteya
tat kuruṣva mad-arpaṇam
Translation
Whatever you do, whatever you eat, whatever you offer or give away, and whatever austerities you perform – do that, O son of Kuntī, as an offering to Me. (BG 9.27)
Are you distributing books? Please distribute Bhagavad Gita and discuss these concepts amongst your friends, family and relatives. You can call, you can give online classes. So many false concepts are there, please spread the truth. Establish the truth. Srila Prabhupada said, “I am the only one who is opposing this demigod worship.” So please contribute and spread this truth. Are you ready? Everyone needs you. The amount of mano-dharma we have in the area of dharma there is hardly any other place where people wrongly preach. They say they want freedom of speech and then they start to speak rubbish. They say Krsna said this, but they present their own views. He sits with Bhagavad Gita, says that Krsna said this, but he never lets Krsna speak. His words are effected by modes of nature.
By combining basic colours so many different colours can be formed. Such is the case with these three modes. It’s not that a person is in the mode of goodness. No, he will have some proportion of goodness, some of passion and some of ignorance and this is how so many conceptions come into origin. Gandhi-vad, Mata-vad, Vishal Gupta vad and so many others. This is how hypocrisy comes and quarrel takes place. These are the two symptoms of Kali Yuga – hypocrisy and quarrel. Jato math tatho path. I can choose my way according to my will. Srila Prabhupada has established this institution to spread the real truth. All ISKCON devotees speak the same language. Is there anything else. If you have any question then you can ask.
Hare Krishna. Gaura premanande Hari Haribol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
4 जनवरी 2021
आज हमारे साथ 700 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
गौरप्रेमानंदे हरि हरि बोल….
क्या आप सब तैयार हो उत्साही हो और सतर्क हो गीता का ध्यान करने वाले हैं या कर रहे हैं ? इतने दिनों से हम गीता ध्यानम कर रहे है। गीता का ध्यान भी महत्वपूर्ण है और गीता का ध्यान करके हम खुद का भी ध्यान करेंगे । स्वयं का ध्यान मतलब आत्मा का ध्यान ।वैसे तो हम शरीर का ही ध्यान या स्मरण करते रहते हैं।
भगवद गीता के माध्यम से कृष्ण सिखाते हैं । कृष्ण कहते हैं हम शरीर नहीं हैं हम आत्मा हैं गीता के श्रवण से हमें अपना भी स्मरण होता है। स्वयं का स्मरण होता है ।भगवान का स्मरण होता है और फिर पिता के ध्यान में हम कह सकते हैं कृष्ण का ध्यान ।
हमारे स्वयं के भी ध्यान की हम चर्चा करते हैं। हम कहते हैं मेरी उम्र कितनी है यह गलत है। ऐसा जवाब गलत है सही नहीं है। यह कभी सोच सकते हो आप कृष्ण भक्त जब से आप बन रहे हो तब आपने यह सोचना प्रारंभ किया होगा । अन्यथा प्रायः ऐसा कोई सोचता नहीं मैं 40 साल का हूं क्या आप 40 साल के हो तो हमें गीता कृष्ण में सिखाते हैं –
न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्र्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||
अनुवाद:- आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु | वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा | वह अजन्मा, नित्य, शाश्र्वत तथा पुरातन है | शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |
तुम तो ऐसे हो, ऐसा व्यक्तित्व है तुम्हारा । न जायते म्रियते तुम्हारा तो कभी जीवन में ही नहीं होता ना तो तुम्हारी कभी मृत्यु होती है। यह क्या जवाब दे रहे हैं- मैं 40 साल का हूं मैं 70 साल का हूं ।यह हम नहीं शरीर जवाब दे रहा है और शरीर भी तो जवाब नहीं देता वैसे हमारी आत्मा देती है भ्रम भ्रम में यही है देहात्मबुद्धि
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी : कलत्रादिषु भौम इज्यधीः । यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ॥
अनुवाद :- जो व्यक्ति कफ , पित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है , जो अपनी पत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है , जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनी जन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है , किन्तु आध्यात्मिक ज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता , उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता , उनकी पूजा नहीं करता अथवा उनके दर्शन नहीं करता – ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है ।
भगवान ने यह कुरुक्षेत्र में कहा था। कुणपे त्रिधातुके तीन धातु का कफ, पित्त और वायु का जो बना हुआ यह शरीर है तो इसको हम मैं हूं ऐसा मानते हैं यही है देहात्मबुद्धि ।
देह को स्वयं की आत्मा समझना। हमारा शरीर 40 साल या 70 साल का है लेकिन हम हम 40 साल के 17 साल के नहीं हैं नहीं हो सकते क्योंकि न जायते म्रियते और….
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||
अनुवाद :-इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
भगवान ने कहा है यह सब सत्य है दुनिया इसको नहीं जानती कि हम भगवान के सनातन अंश हैं । ममैवांशो भगवान बड़े अभिमान और वक्तव्य के साथ में कह रहे हैं तुम मेरे हो। तुम जो भी हो तुम तुम मेरे ही हो। मेरे अंश हो यह बोलने वाले श्री कृष्ण है। हम कृष्ण के अंश है और यह भाषा संसार में और कोई व्यक्ति कृष्ण के अलावा विष्णु तत्व के अलावा और कोई ऐसी भाषा नहीं बोल सकता ।ना बोला है ना बोल सकता हैं।
ब्रह्मा भी यह नहीं कह सकते, शिव जी ने भी नहीं कहा है कि जीव तुम मेरे अंश हो । 36 कोटी देवी देवता है उन्होंने भी कभी कहीं नहीं कहा ऐसा उल्लेख नहीं किया है कि तुम मेरे अंश हो, नहीं यह संभव नहीं है।
मम अंश नही कहे भगवान, मम एव अंश मेरा ही और किसीके अंश तुम नहीं हो। केवल मेरे ही अंश हो किसी देवी देवता को ऐसा कहने का अधिकार नहीं है। और न तो ऐसी टूट-फूट की बात देवता क्यों करेंगे । हम भगवान के हैं। मम एव अंश हमारे स्वरूप को हमारे आत्मा को भगवान ने संबोधित किया है ।
इसका उल्लेख करके भगवान ने कहा है तुम मेरे अंश हो और फिर क्या जीव भूत सनातन तुम्हारा अंत नहीं है और जो कहते हैं कि मैं 40 साल का हूं 70 साल का हूं संसार के सभी लोगों के विचार ऐसे ही होते हैं मेरी उम्र यही है हमारा अस्तित्व केवल हमारे उम्र पर निर्भर नहीं है हम 40 वर्ष पूर्व भी थे। मैं 40 साल का ही था उसे पहले मेरा अस्तित्व नहीं था ऐसे हमें भूलाया जाता है। हमें माया भुला देती है भगवान की शक्ति माया है और बड़ी जबरदस्त शक्ति है ।हरि हरि !!
तो हम भूल जाते हैं हमारे पूर्व जन्म जो हुए हैं पहले हमारे कई जन्म हुए है । इसी बात का कथन करते हैं कि हम 40 साल के हैं हम 70 साल के हैं । 40 साल पहले के हम 40 साल के बाद के हैं या से हैं अरे भाई तुम्हारा शरीर है 40 साल का 70 साल का तुम 40 साल के नहीं हो तुम शाश्वत हो तुम सनातन हो तुम भगवान के हो यही तो कृष्ण कहते हैं। भगवान ने अर्जुन को भी भूलाया था या भूलवा दिया था। वह भी कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के प्रारंभ में एक बद्ध जीव बना दिया गया। अर्जुन को भ्रमित किया गया…
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||
अनुवाद:- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें।
भगवान ने कहा हैं कार्पण्यदोषो पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: ऐसा अर्जुन ने कहा मैं मूढ़ हूं या मैं बन चुका हूं । जहां तक धर्म की बात है जहां तक आत्मा परमात्मा की बात है , हमें जो आप बता रहे हैं हमें कुछ समझ नहीं आ रहा है।
हरि हरि !! ऐसे ही अर्जुन संभ्रमित हुए । देखिए कैसे बात करता है अर्जुन चौथे अध्याय में भगवान ने कहा है शुरुआत में हम पहले संक्षिप्त में आपको सुनाया है।
श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||
अनुवाद:- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया |
हे अर्जुन तुमको जो मैं अब बताने जा रहा हूं। वही ज्ञान मैंने विवस्वान को दिया था । विवस्वान ने मनु को दिया था, उन्होंने इक्षवाकु को सुनाया था और इस परंपरा में इस ज्ञान का अंत हो रहा था। राजा महाराजा ऐसे गुरु शिष्य परंपरा है इसके माध्यम से वे इस ज्ञान को समझते हैं । वही ज्ञान आज मैं तुम्हें सुना रहा हूं । तुम्हें ही क्यों सुना रहा हूं ? तुम मेरे भक्त हो इसलिए सुना रहा हूं। और जहां रहस्यमई बात तुम्हें सुना रहा हूं यह बात जब कृष्ण ने अर्जुन को सुनाएं तब अर्जुन बोले यह क्या है और आप यह क्या डिंग मार रहे हो कृष्ण । अर्जुन उवाच…
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ||
अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था |
अपरं भवतो जन्म अर्जुन का यह प्रश्न है भगवान ने जैसे ही यह सुनाया कि मैंने यह ज्ञान विवस्वान को सुनाया था और यह बहुत समय पहले की बात है जो कृष्ण कह रहे हैं यह जो अर्जुन ने सुना तब अर्जुन पूछता है यह क्या है आपका जन्म तो अभी अभी हुआ है आप और मैं तो एक ही उम्र वाले हैं भाई भी है। हरि हरि!! आपका जन्म और मेरा जन्म अभी अभी हुआ है । विवस्वान का जन्म तो बहुत पहले का हुआ था , आपका जन्म अभी हुआ है मेरे ही आगे । आपके जन्म के पश्चात् मैं कुंती का पुत्र बना। आप देवकी के पुत्र हो आपको देवकी ने जन्म दिया, मुझे कुंती ने जन्म दिया तो हम दोनों के जन्म अभी हुए है ।
विवस्वान का जन्म पहले हुआ है लाखो वर्ष पहले विवस्वान थे और हम तो अभी अभी जन्मे हैं। कैसे, मैं कैसे ,समझ सकता हूं यह। मैं यह कैसे स्वीकार करूं कि आपने गीता का उपदेश आपने कहा कि मैंने सबसे पहले इसे विवस्वान को सुनाया था इस बात को मैं कैसे समझ सकता हूं और कैसे स्वीकार कर लूंगा क्योंकि विवस्वान का जन्म तो पहले का हुआ है और हमारे जन्म अभी हुए है।
यह सारे संसार के व्यक्तियों का प्रश्न है। ऐसे प्रश्न संसार के सभी व्यक्ति पूछेंगे क्योंकि देहात्मबुद्धि के कारण कृष्ण तो अभी अभी जन्मे है, पहले थे ही नहीं इसका उत्तर देते हुए फिर श्री भगवान उवाच….
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन |
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||
अनुवाद:- श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है |
ऐसे कृष्ण कह रहे हैं बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन | बहुत जन्म व्यतीत किए हैं किसने किसने तुमने और मैंने भी किंतु अंतर यह है उन जन्मों को मैं तो भली-भांति जानता हूं और याद है , किंतु तुम अर्जुन भूल चुके हो। माया ने तुम्हें भुला दिया है।
उन जन्मों को अनेक जन्मों को मैं जानता हूं उन सभी जन्मों को मैं जानता हूं , मुझे याद है किंतु हे अर्जुन तुम नहीं जानते उन जन्मों को तुम भूल चुके हो और इतना आप समझ ही रहे हो फिर भगवान ने और अधिक स्पष्टीकरण दिया है। मेरे कई सारे जन्म हुए हैं तो फिर भगवान ने कहा कि…..
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||
अनुवाद:- हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |
मैं जन्म लेता हूं भगवान का प्राकट्य भगवान का अवतार हम कहते हैं तो भगवान कहते हैं यदा यदा ही धर्मस्य जब जब धर्म की होती है ग्लानि , तब क्या होता है विस्तार होता है किसका पहले यदा यदा कहा और अब कह रहे हैं तदा मैं प्रकट होता हूं। स्वयं को संबोधित करते हुए सृजामी मैं प्रकट होता हूं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
क्यों प्रकट होता हूं मैं अपने भक्तों की जो श्रद्धालु है उनके रक्षा करने हेतु मैं प्रकट होता हूं धर्मसंस्थापनार्थाय,परित्राणाय साधूनां,विनाशाय च दुष्कृताम् इन तीन कार्यों के लिए भगवान प्रकट होते हैं। दुष्टों का संहार करता हूं और साधु संतों की भक्तों की सहायता करता हूं । और वैसे साधु-संतों की रक्षा कैसे करता हूं धर्म संस्थापना करके, धर्म की स्थापना करता हूं मैं और फिर धर्म ही साधु-संतों की रक्षा करता है।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः
अर्थात: धर्म का लोप कर देने से वह लोप करने वालों का नाश कर देता है और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है ।
धर्म क्या करता है रक्षति धर्म रक्षण करता है हमारा । हम धार्मिक बनते हैं। जय!!
जो धर्म की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं स्वयं भी करते हैं और अपने जीवन में या जो धर्माधिकारी जो धर्म रक्षक बनते हैं भगवान की ओर से जो धर्म के रक्षक होते हैं जैसे हम लोग साधक बन जाते हैं श्रद्धालु बनकर यह जप करते हैं। तो हम धर्म की स्थापना कर रहे हैं हम धार्मिक बन रहे हैं हम अपने जीवन में या अपने घर में प्रतिदिन धर्म की स्थापना और रक्षा कर रहे हैं ।
ये दिन गृहे, भजन देखि
गृहते गोलोक भाय,
चरण-सीधु, देखिया गंगा
सुख ना सीमा पाय॥6॥
जिस दिन घर में भजन-कीर्तन होता है, उस दिन घर साक्षात् गोलोक हो जाता है। श्रीभगवान् का चरणामृत और श्रीगंगाजी का दर्शन करके तो सुख की सीमा ही नहीं रहती ।
भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं जब मैं क्या करता हूं या भक्तों को बुलाता हूं संतो को बुलाता हूं मेरे घर पर और जब कीर्तन होता है तब मेरा घर गोलोक बन जाता हैं।
मृदंग-वाद्य, शुनिते मन,
अवसर सदा याचे
गौर-विहित, कीर्तन शुनि’,
आनन्दे हृदय नाचे॥4॥
अनुवाद : मृदङ्ग की मधुर ध्वनि को सुनने के लिए मेरा मन सर्वदा लालायित रहता है तथा श्रीगौरसुन्दर द्वारा प्रवर्तित कीर्तनों को सुनकर आनन्द से भरकर मेरा हृदय नाचने लगता है ।
मेरा आनंद से हृदय नाचने लगता है।
मेरे घर का मंदिर गोलोक हो गया। जब मैं धर्म का पालन कर रहा हूं धर्म के रक्षा की बात भी कह रहा हूं तो धर्म रक्षति रक्षितः ।
धर्म हमारी रक्षा करेगा या करता है जब हम धर्म की रक्षा करते हैं जो धर्म की पालन करते हैं तो वही धर्म हमारी रक्षा करता है। मैया इतनी चिंता क्यों करती हो कृष्ण भी कह रहे थे यशोदा को यशोदा कृष्ण को कहती है कि तुम बिना जूते पहने ही नंगे पांव वन में जा रहे हो, इसलिए मैं चिंतित हूं। तब कृष्ण ने कहा था कि बस गाय की सेवा करना हमारा धर्म है वही करने जा रहा हूं गाय की सेवा करूंगा मैं । मुझे ज्यादा परवाह नहीं होंगी जूता है छाता है कि नहीं मैं गाय की सेवा करने जा रहा हूं मैं गाय की सेवा करने जा रहा हूं। गौ माता की सेवा करना , यही हमारा धर्म है। गाय हमारी माता है और बैल हमारा पिता है। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर उन्होंने जप नही छोड़ा कीर्तन नहीं छोड़ा जो चांद काजी थे उन्होंने हरिदास जी को 22 बाजारों में कोड़े लगवाए थे और उन्हें पीट रहे थे पर श्रील हरिदास ठाकुर सदैव कीर्तन कर रहे थे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
उन्होंने कहा कि आप मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर सकते हो लेकिन मैं नाम को नहीं छोडूंगा तो चांद काजी के लोग या चांद काजी और चांद का जी का आदेश था कि यह हरे कृष्ण कीर्तन बंद करो।
वह मुस्लिम परिवार में जन्मा है उसे नमाज पढ़ पाओ और यह क्या कर रहे हो हरे कृष्ण हरे राम कर रहे हो, तो फिर जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी महा प्रकाश नाम की एक विशेष लीला को दर्शाया या प्रकट किया तो उस लीला में अलग-अलग भक्तों को गौरांग महाप्रभु दर्शन दे रहे थे यह बहुत अद्भुत लीला थी ।तो उस समय हरिदास ठाकुर को भी उसका दर्शन मिला।
उनका जब समय आया चैतन्य महाप्रभु के साथ संवाद का दर्शन का तब उस समय वैसे चैतन्य महाप्रभु ने अपनी पीठ दिखाई और कहा देखो देखो मेरी पीठ देखो वहां पर सारे लाठी के निशान थे । भक्तों ने भगवान के पीठ पर जब निशान देखें तब उन्होंने पूछा यह क्या है ?
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें स्मरण दिलाया तुम्हें याद है चांद काजी के लोग तुम्हें जब पीट रहे थे तो वह सारी पिटाई मैंने मेरे पीठ पर ली थी। धर्मों रक्षति रक्षित: जो धर्म का रक्षण करते हैं उनका रक्षण भगवान करते हैं।
तो ठीक है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
04 January 2021
Our true identity is our timeless, ageless soul
Gaura Premanande Hari Haribol !
Are you all ready? Are you enthusiastic and attentive? Is your attention towards the Lord? We want your attention. We all are doing Gita dhyana for many days now. Dhyana or meditation on Gita is actually meditation of the Lord also. By doing meditation or studying of Gita we will know more about ourselves. Knowledge of the self is knowledge of our soul as a living entity. Normally we are always thinking of our body, but in Bhagavad Gita Krsna, the narrator of Gita has taught us that we are not this body, but living entities. Studying and learning of Gita gives us remembrance of our self and the Lord. How old are you ? Then immediately we answer, “I am 40 years old.” Or “I am 70 years old.” This answer is wrong. Have you ever thought about this? Actually you must have started thinking on this after you became a Kṛṣṇa devotee. Normally in this world no one gives attention to this. They say, “I am 40 years old.” Or “I am 70 years old.” When you say, “I am 40 years old” are you really 40 years old. Krsna informs us in Gita.
na jāyate mriyate vā kadāchin
nāyaṁ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ
ajo nityaḥ śhāśhvato ’yaṁ purāṇo
na hanyate hanyamāne śharīre
Translation
The soul is neither born, nor does it ever die; nor having once existed, does it ever cease to be. The soul is without birth, eternal, immortal, and ageless. It is not destroyed when the body is destroyed. (BG 2.20)
Kṛṣṇa informs us na jayate na mriyate. You are never born and you never die. Then what does this answer that I am 40 years old or I am 70 years old mean? The body is actually giving this answer. The body is not giving any answer, actually we are giving this answer in illusion. This is known as dehatma budhi. This is a very nice word. Pay some attention to this.
yasyātma-buddhiḥ kuṇape tri-dhātuke
sva-dhīḥ kalatrādiṣu bhauma ijya-dhīḥ
yat-tīrtha-buddhiḥ salile na karhicij
janeṣv abhijñeṣu sa eva go-kharaḥ
Translation
Persons, yasyātma-buddhiḥ kuṇape tri-dhātuke… Kuṇape: this is a bag of three elements, kapha, pitta, vāyu. According to Āyurveda, this body is developed on three material principles: kapha, pitta…, pitta, vāyu, air. Kapha, pitta, vāyu. The Āyurvedic treatment is on these three principles. Their method of treatment is they can feel the pulse, and by the beating of the pulse they can understand how these three elements are working. [SB 10.84.13]
Krsna said this in Kurukshetra. This kunape tri-dhatu ke gives information about our body that our body is made up of three elements known as kapha, pitta and vayu. We assume this body as our self. This is known as dehatma budhi. To consider our body as our soul is dehatma budhi.
Your body’s age may be 40 or 70 years, but your age is not 40 or 70 years. It is not possible because ‘na jayate na mriyate’.
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. (BG 15.7)
The people in this world are not aware that the Lord has said this. We belong to the Lord. The Lord is claiming this very proudly ‘mamaivāṁśo’ : whoever you are, actually you are My part. Here the person who is saying this is Lord Sri Krsna, Bhagavan uvaca. We are part of Krsna. Such a statement is never made by anyone other than Krsna or Visnu Tattva. No one has claimed this and no one can say this. Brahma will not claim this mamaivāṁśo and Shivji has also never claimed that the living entities are his part. Other than this there are 33 crores demigods existing, but no one has ever claimed this. No, it is not possible. Hence the Lord has said mam eva – that is, you are not a part of anyone else, only Mine. No other demigod has the right to claim this. The demigods will never say this. We belong to the Lord only. Here when the Lord is instructing us – mamaivāṁśo, the Lord is addressing the soul. Another addition is that the living entity is eternal. You are eternal and perpetual. All the people in this world have assumed that they have existed for the last 40 years only if their body age is 40 years or they think that they have come into existence 40 years ago. My age is 40 and before that I was not existing. It is due to the illusionary energy of the Lord. This energy keeps us in illusion. It is very strong and Arjuna was confused and noticed what he was saying? At the beginning of the fourth chapter of Bhagavad Gita the Lord has said this. I have explained this earlier many times now. I will explain briefly.
śrī-bhagavān uvāca
imaṁ vivasvate yogaṁ
proktavān aham avyayam
vivasvān manave prāha
manur ikṣvākave ’bravīt
Translation
The Personality of Godhead, Lord Śrī Kṛṣṇa, said: I instructed this imperishable science of yoga to the sun-god, Vivasvān, and Vivasvān instructed it to Manu, the father of mankind, and Manu in turn instructed it to Ikṣvāku. (BG 4.1)
Lord said, ‘Arjuna now I am telling you this is very ancient knowledge.”
sa evāyaṁ mayā te ’dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ
bhakto ’si me sakhā ceti
rahasyaṁ hy etad uttam
Translation
That very ancient science of the relationship with the Supreme is today told by Me to you because you are My devotee as well as My friend and can therefore understand the transcendental mystery of this science.(BG 4.3)
The Lord has said that the knowledge which He had given to Vivasvan , Vivasvan has told it to Manu, then Manu has explained to Iksvaku. In this way this knowledge was transferred through disciplic succession.
evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
sa kaleneha mahata
yogo nastah parantapa
Translation
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. (BG 4.2)
Various kings and emperors understood this knowledge in a chain of disciplic succession. The same knowledge I will tell you today because you are My devotee. It is confidential knowledge. When Arjuna heard this he immediately asked ‘What is this ? Kṛṣṇa, what are you telling me?’
Arjuna is saying this in the fourth verse of the fourth chapter of Bhagavad Gita. You also study this everyday. In the fourth verse of the fourth chapter Arjuna asked,
arjuna uvāca
aparaṁ bhavato janma
paraṁ janma vivasvataḥ
katham etad vijānīyāṁ
tvam ādau proktavān iti
Translation
Arjuna said: The sun-god Vivasvān is senior by birth to You. How am I to understand that in the beginning You instructed this science to him?
(BG 4.4)
Arjuna asked the question immediately after the Lord said, “I have already given this knowledge to Vivasvan.” It means it was a very ancient incident. When Arjuna came to know this then Arjuna asked how it was possible? “You have recently taken birth and we both are of the same age. And we are cousins also. Both of us have taken birth recently. Vivasvan was born many, many years ago. You are the son of Devaki and I am son of Kßåuntī. Both of us were born recently. Vivasvan was born in ancient times, millions of years ago. We were born recently so how is it possible ? How I will understand that you have given this Bhagavad Gita knowledge earlier to Vivasvan. How I will accept this because Vivasvan’s birth was in ancient times and both of us were born recently. This is a query of each individual of this world.” Everyone will ask such questions. Because they consider age according to the body. That is dehatma budhi. To answer this the Lord said,
śrī-bhagavān uvāca
bahūni me vyatītāni
janmāni tava cārjuna
tāny ahaṁ veda sarvāṇi
na tvaṁ vettha paran-tapa
Translation
The Personality of Godhead said: Many, many births both you and I have passed. I can remember all of them, but you cannot, O subduer of the enemy! (BG 4.4)
The Lord said that both of them have spent many, many lifetimes. The difference is that the Lord remembered all His past lives, but Arjuna had forgotten all them. “Illusionary energy has made you forget everything. I remember all the lives, but Arjuna you have forgotten all of them. Now you also understand this.” The Lord gave more explanations and said, “I have taken many, many births.” Now Lord said,
yadā yadā hi dharmasya
glānir bhavati bhārata
abhyutthānam adharmasya
tadātmānaṁ sṛjāmy aham
Translation
Whenever and wherever there is a decline in religious practice, O descendant of Bharata, and a predominant rise of irreligion – at that time I descend Myself. (BG 4.7)
In the same chapter verse number 7 the Lord states, “I take birth.” We call it the appearance of the Lord. The Lord is saying that whenever dharma declines or is destroyed and when adharma increases at that time to spread dharma again I appear. The Lord is addressing himself as srujamy aham. Technical meaning of srujamy is to appear. At that time I appeared. Why do I appear?
paritrāṇāya sādhūnāṁ
vināśāya ca duṣkṛtām
dharma-saṁsthāpanārthāya
sambhavāmi yuge yuge
Translation
To deliver the pious and to annihilate the miscreants, as well as to reestablish the principles of religion, I Myself appear, millennium after millennium. (BG 4.8)
To protect my devotees I appear. Lord has given three reasons of His appearance
To destroy the miscreants.
Help and protect the sages and devotees.
3. I protect them by establishing the religion again. This dharma or religion then protects the sages.
dharma eva hato hanti dharmo rakShati rakShitaH
tasmaaddharmo na hantavyaH maano dharmo hatovadhIt
Translation
Dharma only destroys (those) that destroy it. Dharma also protects those that protect it. Hence, Dharma should not be destroyed. Know that if violated, Dharma destroys us. (Manu Smriti 8.15)
Dharma rakshati is one statement in Sanskrit and then it is also says rakshitaha which means those who follow the principle of religion or those who establish dharma in their life or those who try to protect dharma on behalf of the Lord. Dharma also protects them. As we begin our spiritual life with different steps like ado shraddha , bhajan kriya, anartha nivrutti then we are in the process of becoming dharmik and we are establishing dharma in our life or in our home.
je-dina grihe, bhajana dekhi,
grihete goloka bhaya
carana-sidhu, dekhiya ganga,
sukha sa sima paya
Translation
One day while performing devotional practices, I saw my house transformed into Goloka Vrindavana. When I take the caranamrita of the Deity, I see the holy Ganges waters that come from the feet of Lord Vishnu, and my bliss knows no bounds. (Vaishnav song Suddha Bhakta Carana Renu verse 6 by Srila Bhakti Vinoda Thakura)
Bhakti Vinoda Thakura is saying that whenever he sees devotees in hishouse and kirtan is performed in his house then his heart is overwhelmed with joy and he experiences that his house has become Goloka. “As I am following and protecting dharma then dharma will surely protect us.” Once Krsna asked Yasoda maiya, “ Why are you worrying so much?” When Yasoda maiya asked Kṛṣṇa to put on shoes while taking the cows for grazing in the forest Kṛṣṇa refused and said, ‘ Our dharma is to protect the cows. I am going to do the same. I will serve the cows. I will not bother about whether I have shoes or an umbrella or not. I am a servant of a cow. It is our dharma cow is our mother and bull is our father.’ At that time also Kṛṣṇa has expressed same emotion of dharmo rakshati rakshitaha. When we are following our dharma then there is nothing to worry about. Dharma or Kṛṣṇa will surely protect us. Nama acarya Srila Haridasa Thakura has never given up the chanting of the holy name. The soldiers of Chand Kazi were beating Haridas Thakura in 24 markets still Haridas Thakura continued chanting .
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Haridas Thakura said to the soldiers, “You may kill me and cut my body into pieces. You are free to do so, but I will continue chanting the holy name.” It was order from the emperor Chand Kazi to stop the chanting of Haridas Thakur. ‘He is born is Muslim family he should visit the mosque and offer namaz there. Instead of that he is chanting Hare Krsna Hare Rama so beat him’. Still Haridas Thakur did not stop his chanting.
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu did a special pastime known as maha prakash lila. During this past time Gauranga Mahaprabhu was giving darshana to various devotees. It was a miraculous pastime. When it was Nama acarya Srila Haridasa Thakura ’s time to meet to meet Sri Caitanya- Mahaprabhu Chaitanya Mahaprabhu showed his back to Haridas Thakur. There were many marks of injuries that could be seen on the back of Lord. When Haridas Thakura saw this he asked how it had happened ? Then Caitanya Mahaprabhu recalled the time when the soldiers of Chand Kazi were beating him. At that time I have taken those beating on My back. In this way dharmo rakshati rakshitaha. Those who protect dharma Lord will protect them.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Ram Hare Ram
Ram Ram Hare Hare
Anyway you summarize this. I will not explain what we learn this from this incident. You must have learned different things now during today morning’s Gita dhyana. Hari Hari
Anything else? How are you? I am fine. In Hindi it is called swastha. Again we are talking in reference to dehatma budhi. Your body may be healthy or swastha. We heard all the Puranas and Ramayan, but still did not get the proper knowledge. The meaning of how are you question is how are you as a soul? The question should be how is your atma ? Or are you aware of your original position as a living entity? ( sva me sthith) Earlier this was the meaning. In ancient times people considered each other as souls. People had self realisation. If anyone asked at that time ‘swastha ho? it meant, ‘Are you a self realised soul?’ Or are you “A ‘soul surrendered to the Lord?” If it is surrendered then it is fine. The basic meaning of sva is atma or soul. Then body and mind are also known as sva. There are seven different meanings of sva. When Caitanya Mahaprabhu was discussing the atmaram verse in Bhagavatam with Sanatan Goswami He explained 64 meanings of atmaram. 7 different meanings of sva are mentioned there. Atma is the main meaning. Mind, heart and body are also there. If you have any questions or comments then you can write it.
Question 1
What should be our ideal answer if someone asks us, ‘How are you?’
Gopal Radhe Prabhu
Gurudev uvaca
You may tell them about your daily sadhana. You may also answer as per your asaram. If you are a Brahman then you may give information about your sadhana, devotion and studies. If you are a Ksatriya then you may inform them about your people, how the law and order is going on in your place. If you are a Vaisya then you may talk about farming, cows and business. And finally if you are a Sudra then you may inform them how you are serving brahmana and others. If the person who is asking this question is interested in these things then you may answer accordingly. If you have any problems in your sadhana or if it is going well, then you may share that also. Or if you have setbacks you may express it.
Question 2
If someone does black magic on devotees then what we should do ? Shall we call another black magician or should we have faith in Krsna and depend on the Lord only?
Gadadhar Pandit Prabhuji, Solapur
Gurudev uvaca
It is said in scriptures:
harer nāma harer nāma
harer nāmaiva kevalam
kalau nāsty eva nāsty eva
nāsty eva gatir anyathā
Translation
For spiritual progress in this Age of Kali, there is no alternative, there is no alternative, there is no alternative to the holy name, the holy name, the holy name of the Lord.
harer nāma harer nāma
harer nāmaiva kevalam
After all, this is the only solution. At the time of Bhakti Vinod Thakura one black magician was inspiring many people. He had developed many followers. Bhakti Vinod Thakura was a district magistrate so he arrested that person and kept him in prison. Because of this that magician performed some black magic and one of Bhakti Vinod Thakura’s daughters became critically ill. Still Bhakti Vinod Thakura was not ready to spare him. Bhakti Vinod Thakura’s health was affected by this magician, but still he remained under the shelter of Jagannatha and kept faith in the holy name. He did not approach any other black magician to counteract. All his solutions were within the boundaries of Kṛṣṇa consciousness. Keep faith in the holy name, Kṛṣṇa and Bhakti.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
This maha-mantra will remove evil enemies. That is why it is said three times harer nāma harer nāma harer nāmaiva kevalam Eva means surely and kevalam means only.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम,
03 जनवरी 2021
758 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले,
श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामिन इति नामिने ।
नमस्ते सरस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे,
निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ।।
नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले,
श्रीमते भक्ति सिद्धांत सरस्वती इति नामिने ।
श्रीवर्षाभानवीदेवी दयिताय कृपाब्धये ।
कृष्णसंबंधविज्ञानदायिने प्रभवे नम: ।।
माधुर्योज्जवल प्रेमाढय श्रीरूपनुगभक्तिद।
श्रीगौरकरुणाशक्ति विग्रहाय नमोस्तुते।।
नमस्ते गौरवाणी-श्रीमूर्तये दीन-तारिणे।
रूपानुग विरुद्वापसिद्धांत-ध्वान्त- हारिणे।।
यह प्रणाम मंत्र है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय।
आप समझ गए होंगे और आपने ध्यानपूर्वक सुना होगा। मैं प्रणाम मंत्र कह रहा था। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर चित्र भी देख रहे हो। हरि हरि। तो ऐसे श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर तिरोभाव महोत्सव की जय। तिरोभाव आविर्भाव समझते हो। आज पुण्यतिथि है महाराष्ट्र में कहते हैं पुण्यतिथि। आज के दिन समाधिस्थ श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर, इनकी समाधि मायापुर में है। चैतन्य गौड़ीय मठ जहां पर श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का गौडीय मठ का हेड क्वार्टर मायापुर में है।
उसी हेड क्वार्टर में आज के दिन 1936 में समाधिस्थ हुए श्रील भक्ति सिद्धांत। वैसे वह कोलकाता में थे, एक विशेष रेलगाड़ी से उनके वपू को कोलकाता से कृष्ण नगर और कृष्ण नगर से मायापुर लाया गया था। समाधि समारोह उस वर्ष 31 दिसंबर 1936 था। हरि हरि। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय। उनका जन्म हुआ जगन्नाथपुरी में। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के सुपुत्र रहे। जगन्नाथ को प्रार्थना कर ही रहे थे। विमला देवी से प्रार्थना कर रहे थे कि उन्हें ऐसा एक पुत्र रत्न प्राप्त हो जो इस हरे कृष्ण आंदोलन का प्रचार कर सकता है। जब पुत्र रत्न प्राप्त हुआ ही तो तब श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने उनका नाम रखा विमला प्रसाद। यह जगन्नाथ प्रसाद है, विमला देवी का प्रसाद है। तो भगवान की शक्ति है विमला। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के कुछ चरित्र भी लिखे गए हैं। एक चरित्र का नाम दिया गया, विष्णु का जगन्नाथ का एक किरण। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में प्रकट हुआ। हरि हरि। जब विमला प्रसाद शिशु ही थे। अभी अभी जन्म थे फिर उस वर्ष की रथयात्रा संपन्न हो रही थी और रथ जब श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के कोठी के सामने से गुजर जा रहा था।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे। रथ को कोठी के समक्ष वहां रोका गया। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को सीढ़ी से चढ़कर, भगवती शायद जहां तक नाम याद है श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की भार्या। फिर उनकी धर्मपत्नी ने अपने बालक को जगन्नाथ के दर्शन कराए और जगन्नाथ के चरणों में रखा छोटे विमला प्रसाद को। जगन्नाथ में विशेष कृपा की आशीर्वाद दिया शक्ति प्रदान की, कैसे? जगन्नाथ के गले का हार विमला प्रसाद के गले में गिर गया। मानो जगन्नाथ ने पहनाया अपने गले का हार श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर, भविष्य में होने वाले श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर, विमला प्रसाद को पहनाया। हरि हरि। ऐसे विमला प्रसाद श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में विख्यात हुए। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने प्रारंभ की हुई कई कार्य कई योजनाएं या एक दृष्टि से श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कृष्णभावनामृत आंदोलन की नींव डाल रहे थे स्थापना कर रहे थे। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर उसको आगे बढ़ाएं श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के प्रचार प्रसार को। हरि हरि। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जो सप्तम गोस्वामी के रूप में भी प्रसिद्ध थे। छ: गोस्वामी वृंदावन के और सातवे गोस्वामी हुए मायापुर के नवद्वीप के और वह रहे भक्ति विनोद ठाकुर। एक दृष्टि से कहा जा सकता है भक्ति विनोद ठाकुर ही नवद्वीप धाम को प्रकाशित किए। एक समय ऐसा भी था कि नवद्वीप में चैतन्य महाप्रभु का जन्मस्थली कहां है कौन सी है।इसके संबंध में कहीं सारे भ्रम उत्पन्न थे। कोई कहता है यहां है कोई कहता है यहां है कोई कहता है गंगा के उस पश्चिमी तट पर है। तो कई सारे मत मतांतर थे।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने एक समय जब वह अपनी कोठी में जो स्वरूप गंज में जलंगी नदी के तट पर भक्ति विनोद ठाकुर रह रहे थे। पहले जगन्नाथ पुरी डिस्ट्रिक्ट के मैजिस्ट्रेट थे। वहां के स्थानांतरण कराए गए कृष्ण नगर जिला। तब वह रहने लगे स्वरूप गंज में जलंगी नदी के तट पर। तो एक दिन की बात है उन्होंने एक विशेष दर्शन हुए जलंगी नदी के उस पार। सप्रकाश को देखा और प्रकाश के मध्य में कीर्तन हो रहा है ऐसा भी दृश्य देखा। फिर उनको एक साक्षात्कार हुआ दर्शन हुआ इस बात का कि चैतन्य महाप्रभु की जिस स्थान को देख रहे थे कोटी सूर्य समपप्रभा तो ऐसी बात प्रकाश ही प्रकाश। वही स्थान चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव स्थान है और उनको ऐसा अनुभव हुआ भक्ति विनोद ठाकुर को हुआ। इसकी पुष्टि करने के लिए उन्होंने अपने शिक्षा गुरु जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज की सहायता ली।
उस समय जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज की आयु 140 वर्ष थी। चलना घूमना फिरना तो मुश्किल ही था। उन दिनों उनको टोकरी में बैठा कर, उनको ढोह के अलग-अलग स्थानों पर ले जाया करते थे। तो भक्ति विनोद ठाकुर ने ऐसी व्यवस्था की और स्वयं भी साथ में थे। जहां पर उन्होंने प्रकाश देखा था। उस स्थान की ओर ले जा रहे थे जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज को। वहां पहुंच ही रहे थे तो जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जिनको बड़ी वृद्धावस्था के कारण बैठे रहा करते थे। लेकिन वहां जैसे पहुंचाया गया उनको, टोकरी में थे वहां पर वह खड़े हुए और नृत्य करने लगे हरि बोल हरि बोल या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। तो यह बात पक्की हुई कि यह चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव स्थली। इसकी अब हम योगपीठ कहते हैं और वहां पर एक नीम का पेड़ भी था और वहां तुलसी के पेड़ पौधे कई सारे उगे थे। वहां कई लोग हमें कीर्तन सुनाई देता है समय समय पर। लेकिन वहां अधिकतर लोग मुस्लिम ही रहा करते थे। तो उनसे पूछा गया था यहां पर स्थान का नाम क्या है? मीयापुर। वैसे तो कहना चाहिए था मायापुर। इस प्रकार जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज का जो प्रणाम मंत्र है इसके लिए वो विख्यात हैं। किसके लिए गौर आविर्भाव भूमि, गौरांग महाप्रभु कहां प्रकट हुए कहां जन्मे उसको निर्धारित किए जगन्नाथ दास बाबा महाराज। उन्होंने संकेत किया और उंगली कर के दिखाए या स्वयं जाकर बताएं यही है यही है। जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज की जय, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की जय, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर की जय। जो फिर भक्ति विनोद ठाकुर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे।
वह कोलकाता में नव मंदिर निर्माण के लिए धन राशि जुटाने लगे। घर घर जाकर वह भिक्षा मांगते थे। ताकि मंदिर का निर्माण हो योगपीठ में। कितना धन लेते थे? मुझे ₹1 चाहिए। तो मंदिर का निर्माण प्रारंभ हुआ और आगे वह पूरा तो नहीं हुआ था। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर मंदिर निर्माण को आगे बढ़ाएं पूरा किया। भक्ति विनोद ठाकुर ने नवद्वीप धाम माहात्म्य नामक ग्रंथ की भी रचना की। ताकि नवद्वीप की परिक्रमा हो और श्रील भक्ति विनोद ठाकुर उन्होंने विशेष आदेश दिया अपने पुत्र को। अब श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के साथ ही रहा करते थे। स्वरूप गंज में जहां भक्ति विनोद ठाकुर की समाधि स्थल है। भक्ति विनोद ठाकुर ट्रेन कर रहे थे। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को कोई आदेश, उपदेश या निर्देश दे रहे थे। उसमें के एक यह भी था की नवद्वीप मंदिर की परिक्रमा तुम करो,उसकी स्थापना तुम करो। एक अंतिम इच्छा रही श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की। ऐसा स्वप्न रहा और उसको साकार किए श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर, 8 बार श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर। अब श्रील भक्ति विनोद ठाकुर नहीं रहे।
श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर परिक्रमा की स्थापना करी। हरी हरी। जब श्रील प्रभुपाद इस्कॉन हरे कृष्ण आंदोलन की इस्कॉन की स्थापना किए। तब प्रभुपाद के अनुयायी तब मायापुर में आने लगे। मायापुर महोत्सव गौर पूर्णिमा के समय प्रारंभ हुआ। तब श्रील प्रभुपाद परिक्रमा करने के लिए हम शिष्यों को आदेश दिए। किंतु शुरुआत में तो हम बस से परिक्रमा करते थे। फिर हम लोग धीरे-धीरे प्रभुपाद ने हमको पदयात्रा करने के लिए कहा था और पदयात्रा करते हुए हम गए थे वृंदावन से मायापुर और फिर भारतवर्ष की परिक्रमा। ऐसी परिक्रमा करते-करते या पदयात्रा करते करते 1 वर्ष फिर हमने नवद्वीप मंडल परिक्रमा भी प्रारंभ की। वैसे ही जैसे श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर चलके सारे नवद्वीपो की यात्रा करते थे। शुरुआत में जब इस्कॉन में बस से पदयात्रा शुरू हुई तब कई स्थानों पर ही पहुंच पाते थे। लेकिन पैदल पदयात्रा नवदीप मंडल की प्रारंभ हुई तो हम भक्तिविनोद ठाकुर ने जो मार्ग दिखाया था नवदीप मंडल महात्म्य में तो वैसा ही हम भी करने लगे। 1 द्वीप में एक रात बिताना। हरि हरि। गौरा प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
वैसे भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर 1932 में वृंदावन में परिक्रमा किए। इस परिक्रमा में अभय बाबू भी सम्मिलित हुए थे। तब प्रभुपाद का नाम अभय बाबू था और तब श्रील प्रभुपाद प्रयाग में रहते थे गृहस्थ थे। प्रयाग में फार्मेसी चलाते थे और वहां से प्रभुपाद परिक्रमा में सम्मिलित होने के लिए आए थे और श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के परिक्रमा में कुछ दिनों के लिए जुड़ गए। वृंदावन में कोशी नाम का स्थान है जब परिक्रमा वहां पहुंची थी तब श्रीला भक्तिसिद्धांता सरस्वती ठाकुर की कथाएं प्रभुपाद ने सुनी, और फिर श्रीला प्रभुपाद श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को वृंदावन में राधा कुंड के तट पर भी मिले थे। तो तब श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहे थे कि, तुम्हें कभी धनराशि प्राप्त होती है तो ग्रंथों की छपाई करो! तो यह आदेश उन्हें हुआ था। श्रील प्रभुपाद को श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का यह आदेश हुआ। तो इस व्रज मंडल परिक्रमा में सम्मिलित होने के उपरांत श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर स्वयं प्रयाग गए थे। और तब श्रील प्रभुपाद की दीक्षा हुई। प्रयाग में श्रील प्रभुपाद दीक्षित हुए और उनका नाम अभयचरण हुआ। श्रील प्रभुपाद के दीक्षा से पहले 1922 में, दीक्षा तो 1932 या 33 लेकिन उससे पहले 1922 में पहली मुलाकात में श्रीला भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर युवक अभय को आदेश दिए थे कि, तुम पाश्चात्य देशों में जाकर प्रचार करो या अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो! तो उस आदेश का पालन करने के लिए पूरे जीवन भर तैयारी करते रहे।
1922 में प्राप्त हुए उस आदेश का उन्होंने पालन किया और 1963 में श्रील प्रभुपाद विदेश गए और उन्होंने अंतरराष्ट्रीयकृष्णभावनामृत संघ की स्थापना किए। और तब श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के आदेश का पालन प्रारंभ हुआ। हरि हरि। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर हमारे परंपरा के महान आचार्य है। भक्तिसिद्धांत! वही किसी ने सूर्यसिद्धांत भी लिखा था। क्योंकि वह खगोलशास्त्री थे। उन्होंने एक सिद्धांत लिखा उसका नाम था सूर्य सिद्धांत और वैसे भक्ति के सिद्धांतों से तो वह मुक्त पुरुष थे। वे साधन सिद्ध नहीं थे भगवातधाम से ही भगवान है उनको भेजा था और अपने कार्य को पूरा करके वहीं पर वे लौटे। अपसिद्धान्त-ध्वान्त-हारिणे ऐसी उनकी ख्याति थी। सिद्धांत के विपरीत की बातें वह सहन नहीं करते थे। तो जैसे हम कह रहे थे कि, भक्तिविनोद ठाकुर जो कार्य प्रारंभ किए उसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर आगे बढ़ाएं। तो भक्तिविनोद ठाकुर ने धर्म के क्षेत्र में जो कार्य होता है उनका भलीभांति निरीक्षण या परीक्षण करते हुए कई सिद्धांत प्रचार प्रसार किए। 13 अलग-अलग प्रकार के अपसिद्धान्त को नोट करवाए थे। तो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर उसका मुंहतोड़ जवाब दे रहे थे। ऐसे अपप्रचार को रोक रहे थे। उसके अंतर्गत मायावाद या अद्वैतवाद का प्रचार, अद्वैतवाद भी अपसिद्धान्त है! यह कुछ अधूरा या त्रुटिपूर्ण सिद्धांत, अपूर्ण सिद्धांत है। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का बहुत कठोर प्रचार या विरोध हुआ करता था, और ऐसे प्रचारक कभी सामने आ जाते तो भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर उन्हें कभी-कभी गला पकड़ कर कहते थे, ये! क्या कह रहे हो तुम? क्या कहा तुमने ? मायावाद का प्रचार करते हो? श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर सिंहगुरू जिनकी गर्जना सिंह जैसी थी।
उनसे सब मायावादी या अद्वैतवादी डरते थे। हरि हरि। और इनका प्रचार प्रसार! ग्रंथों के प्रकाशन के माध्यम से वे प्रचार पर जोर देते थे। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कई ग्रंथ लिखे थे। चैतन्य चरितामृत कर उपर भक्तिविनोद ठाकुर अमृतप्रभा नाम का भाष्य लिखे। और श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर अनुभाष्य लिखें। वैसे श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर चैतन्य भागवत या आज जिसमें चैतन्य चरित्र लिखा है उसपर टीका टिप्पणी लिखे उसका नाम है गौडीय भाष्य, यह बड़ा प्रसिद्ध ग्रंथ है। तो ऐसे कई सारे भाषा लिखें और ब्रह्मसंहिता पर अंग्रेजी में भाष्य लिखें और फिर उसे ही श्रीला प्रभुपाद इस्कॉन में बीबीटी से प्रकाशित करवाएं। और फिर भक्ति विनोदठाकुर की स्मृति भी अद्भुत थी वह अखंड ब्रह्मचारी थे जिसके कारण उनकी स्मृति अद्भुत थी, वे स्मृति धर थे उन्हें वाकिंग इनसाइक्लोपीडिया कहा जाता था।
हरि हरि। कई राजा महाराजा जैसे मनीपुर या त्रिपुरा के राजा के के साथ उनका कार्य रहा और ब्रिटिश राज चल रहा था तो कई अधिकारियों के साथ उनका संबंध था और कोलकाता से या जहां कहां से और मायापुर से कई ब्रिटिश अधिकारी ब्रिटिश राज को संभाल रहे थे तो उन्हें आमंत्रित करते थे। मायापुर में कई कार्यक्रम का उद्घाटन ओं में उनका समावेश करवाए थे। तो व्यक्तित्व या प्रभाव भी बहुत था। शारीरिक तौर पर भी बहुत ऊंचे कद के थे। हरि हरि। जब वह मंदिर बनाते विशेष रूप से कोलकाता में जब उन्होंने मंदिर की स्थापना की तो मंदिर के कोर्ट यार्ड में प्रिंटिंग प्रेस की भी स्थापना करते थे। जहां से भगवान के विग्रह प्रिंटिंग प्रेस को देख सकते थे। तो मंदिर में ही या भगवान के विग्रह के सामने ही प्रिंटिंग प्रेस हुआ करता था! और प्रिंटिंग प्रेस को वे बृहद मृदंग कहा करते थे। एक मृदंग आप जानते हो जो वाद्य होता है लेकिन प्रिंटिंग प्रेस यह बहुत बड़ा मृदंग है। मृदंग करताल के साथ हम जो कीर्तन करते हैं वह हो सकता है कि 100 200 मीटर तक उसकी ध्वनि पहुंच सकती है लेकिन जब प्रिंटिंग प्रेस में ग्रंथ की छपाई होती है तो यह ग्रंथ कीर्ति से भरे होते है। अदो मध्यै च अन्ते च हरी सर्वत्र ग्रिह्यते हरि का कीर्तन होता है। प्रिंटिंग प्रेस में छुपे हुए जो ग्रंथ है वह भगवान के कीर्ति को दूर-दूर तक फैलाते है। इसीलिए प्रिंटिंग प्रेस को बृहद मृदंग कहे थे। तो तुम्हें जब धन प्राप्त होगा तब ग्रंथों की छपाई करो यह आदेश प्रभुपाद को मिला था
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से इसको श्रील प्रभुपाद ने बड़ी गंभीरता पूर्वक इस आदेश का पालन किए और कार्य को आगे बढ़ाएं। श्रील प्रभुपाद विदेश जाने से पहले ही कुछ ग्रंथ जैसे श्रीमद्भागवत, इशोपनिषद इनको छपे थे और अपने साथ विदेश ले गए थे। और फिर विदेश में जब उन्हें धनराशि प्राप्त होने लगी तो प्राप्त हुई धनराशि का सर्वोत्तम उपयोग ग्रंथों की छपाई के लिए और प्रकाशन के लिए श्रील प्रभुपाद करना चाहते थे या कर रहे थे क्योंकि ऐसा आदेश ही था! श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहे थे कि, तुम अंग्रेजी भाषा में प्रचार करो तो श्रीला प्रभुपाद अंग्रेजी भाषा में प्रचार करने के लिए अंग्रेजी भाषा में ग्रंथ लिखे और उनकी छपाई भी किए। और आगे श्रील प्रभुपाद अपने संसार भर के शिष्यों को संबोधित करते हुए कहे थे कि, अब जितने भाषाओं में संभव हो सके उतने भाषाओं में ग्रंथों की छपाई करो! लॉस एंजेलिस कैलिफोर्निया में यह बात कही थी कि, मेरी ग्रंथों का अधिक से अधिक भाषाओं में तुम अनुवाद करो! फिर तो प्रभुपाद के हम सब शिष्य यह कार्य करने लगे और श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ अब कुछ 70-80 भाषाओं में प्रकाशित है। भाषा अंतरित हुए है, और उसका प्रकाशन और वितरण भी संसार भर में हो रहा है। तो इन दिनों में हम भी, अब तो गीताजयंती का समय ही है और गीता का वितरण हम कर रहे है यह हमारे परंपरा का कार्य है। हम कभी-कभी इसे पारिवारिक या परंपरा का व्यापार कहते है।
परंपरा में षड गोस्वामी है, भक्तिविनोद ठाकुर है फिर आगे भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर है और श्रील प्रभुपाद है यह जो हमारा परिवार है इस परिवार का यह व्यापार है कि, ग्रंथों की छपाई करो और उसका वितरण करो! तो यह परंपरा का कार्य है तो जब हम ग्रंथों का वितरण करते है, भगवद्गीता का वितरण करते है या और ग्रंथों का वितरण करते है। तो श्रीला भक्तिसिद्धांतसरस्वती ठाकुर ने दिया हुआ आदेश था कि,जब धन मिल जाए तो ग्रंथों की छपाई करो! इसका मतलब क्या ? कि ग्रंथ का प्रचार प्रसार करो। यारे देख तारे कह कृष्ण उपदेश यह जो चैतन्य महाप्रभु का आदेश है उस आदेश का पालन होता है, और भक्तिविनोद ठाकुर की इच्छा की पूर्ति होती है, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर और श्रील प्रभुपाद के आदेश का पालन होता है और उनके शिष्यों के जो आदेश है जो हम तक पहुंचते है उनके आदेश का पालन हम से होता है, जब हम भगवतगीता का वितरण करते है।
भगवतगीता लेकर हम किसी के द्वारपर या दुकान पर पहुंचते है, या रास्ते में किसी को देते है। यारे देख तारे कह कृष्ण उपदेश! तो श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का यह एक सरल उपाय या श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर को प्रसन्न करने का उपाय है कि हम यह जो वैदिक वांग्मय है, गीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत, इशोपनिषद है इन ग्रंथों का या ग्रंथों में जो ज्ञान है इस ज्ञान का, जिसमें भगवान को जानने का या उनके संबंधित ज्ञान है उसको वितरित कर सकते है। तो यह जो कार्य है या ग्रंथों का वितरण है और भगवत गीता का वितरण करते हैं यह सबसे उत्तम श्रद्धांजलि होगी हमारे आचार्य भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के चरणों में! हरि हरि। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
3 January 2021
Inspirational remembrance of Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura
nama om vishnu-padaya krishna-preshthaya bhu-tale
srimate bhaktisiddhanta-sarasvatiti namine
Translation:
I offer my respectful obeisances unto His Divine Grace Bhaktisiddhanta Sarasvati, who is very dear to Lord Krishna, having taken shelter at His lotus feet.
sri-varshabhanavi-devi-dayitaya kripabdhaye
krishna-sambandha-vijnana-dayine prabhave namah
Translation:
I offer my respectful obeisances to Sri Varshabhanavi-devi-dayita dasa [another name of Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati], who is favoured by Srimati Radharani and who is the ocean of transcendental mercy and the deliverer of the science of Krishna.
All glories to the disappearance day of Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura! Today is his disappearance day. I just chanted his pranam mantra. Do you understand appearance and disappearance days? Disappearance day is the day when he entered the eternal pastimes of Sri Radha Krsna. Today in 1936 he departed from this material world. He was in Kolkata and was taken to Mayapur via Krsna Nagar on a special train. Then the day was 31 December. His samadhi temple has been erected in Sri Caitanya Gaudiya Matha in Mayapur. He was born to Srila Bhaktivinoda Thakura in Jagannatha Puri. Bhaktivinoda Thakura was praying to Sri Jagannatha and goddess Sri Vimala Devi for a great gem-like son who could preach the movement of Krishna consciousness.
Since he was born by the special mercy of Sri Vimala Devi, he was named Vimala Prasada. He was a ray of Lord Jagannatha, a ray of the Lord’s effulgence. Bhaktivinoda Thakura was the district magistrate of Puri. The Jagannatha Ratha-yatra passed by their house. The year when Vimala Prasada was born the Ratha stopped at their gate. Vimala Prasada’s mother took him on the chariot to Lord Jagannatha for His blessings and Jagannatha’s garland fell on him. He grew up to be Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura. He was sowing the seeds of the expansion of the Gaudiya Sampradaya.
Bhaktivinoda Thakura is also popular as the 7th Goswami. He discovered Navadvipa Dhama. At that time there were many conflicts as to which is the actual birthplace of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. He took a job transfer from Jagannatha Puri to Krsna Nagar near Navadvipa.
He was living on the other bank of the Ganges in Swarupganj. From his house he saw on the other side of the river, a special effulgence where kirtana was taking place. He had a realization that, that was the actual birthplace of Caitanya Mahaprabhu. To confirm that he took the help of his siksa Guru, Jagannatha Das Babaji Maharaja. Jagannatha Das Babaji Maharaja was 140 years old then and was too weak to move. His disciples would carry him in a basket. He was carried in this way to that place where Bhaktivinoda Thakura had seen that transcendental effulgence. Upon reaching there Srila Jagannatha Das Babaji stood up and started jumping and dancing in ecstasy.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
There he confirmed that it was the actual birthplace of Mahaprabhu. There was also an old Neem tree there. Then the Yoga-pitha temple was built there.
That place was inhabited by Muslims then, yet a lot of kirtan was heard by Bhaktivinoda Thakura. When inquired he got to know that the place was called Miyapur. Jagannatha Das Babaji Maharaja’s pranam mantra also says that he is famous for confirming the discovery of the birthplace of Mahaprabhu.
gauravirbhava-bhumes tvam nirdeshta saj-jana-priyah
vaishnava-sarvabhaumah shri-jagannathaya te namah
Translation:
I offer my respectful obeisances to Jagannatha dasa Babaji, who is respected by the entire Vaishnava community and who discovered the place where Lord Caitanya appeared.
Bhaktivinoda Thakura collected money for this project of Yoga-pitha. He also wrote a book called Navadvipa Dhama Mahatmya – Glories of Navadvipa Dhama.
Srila Bhaktisiddhanta Saraswati Thakura was always with his father and learnt a lot. Bhaktivinoda Thakura instructed Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura to do Navadvipa-mandala Parikrama and he fulfilled it later with his disciples. He did 8 Navadvipa-mandala Parikramas.
Srila Prabhupada also started this when we started with the Mayapur festivals. In the beginning, we did it by bus. But then after Srila Prabhupada’s instruction to me about Padayatra, we went walking to Mayapur from Vrindavan and then All India Padayatra. Later we started the walking Parikrama. Buses had limitations and could not travel to every place. We follow what Bhaktivinoda Thakura has written in Navadvipa Dhama Mahatmya book about Navadvipa-mandala Parikrama.
Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura also did Vraja-mandala Parikrama in 1922. This is where Srila Prabhupada met him for the first time. There is a place called Kosi in Vrindavan where Srila Prabhupada heard Katha from Bhakti Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura. They met on the banks of Radha-kunda and there he was instructed – “Whenever you get some money, print books”. Later Srila Prabhupada was initiated in Prayaga in 1932. He was named Abhay Charan Dasa. In his first meeting with Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura, Srila Prabhupada was instructed to go to the West and preach in English. Srila Prabhupada dedicated his entire life to this instruction. He made all the preparations and finally went abroad in 1965 to fulfil this instruction of his spiritual master.
Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura was a great devotee and acarya.
He took forward the work started by Bhaktivinoda Thakura.
Srila Bhaktivinoda Thakura was a social scientist and he identified 13 different ways in which wrong philosophies were being preached and propagated. Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura opposed these and also gave proper answers for their falsehood. He also strongly opposed Mayavad. He would strongly raise his voice against the spread of wrong and false philosophies.
He was called Simha Guru – Lion Guru. He would roar like a lion against all the false philosophies. He also wrote many books. Bhaktivinoda Thakur wrote a commentary on Caitanya-caritamrta called Amrta Pravaha. Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura wrote a commentary on Caitanya Bhagavat named Gaudiya Bhasya. He also wrote many other commentaries on different subjects like Brahma Samhita. The same book is published by BBT in English. He was a Brahmachari and had a very good memory. He was a walking encyclopaedia. Many kings of adjoining states and many British viceroys would visit him.
He was invited to many places and programs as chief guest. He had a very influential physical personality as well. He was very tall. In the temples that he would inaugurate, he would also set up printing presses. He would set them in such a way that the main Deity could see the press. He would call it Brhad Mrdanga – Mega Mrdanga. The regular Mrdanga is heard up to a short distance, but the books can travel to far off places preaching and spreading the knowledge of Krsna. Srila Prabhupada also followed this. Before traveling abroad he carried books from here and when he started getting money there in the western countries he started printing books. He wrote in English and carried those books with him fulfilling the instructions of his Guru and later he asked his disciples to carry the books and translate them in many languages. Now there are books in 80 languages. This book distribution is our family business – the Goswamis, Srila Bhaktivinoda Thakura, Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura, Srila Prabhupada, and all of us. This is the instruction by Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura – When you get money, print books. When you distribute books the instructions of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu to preach Hare Krsna to everyone who you may come across, the six Goswamis, Srila Bhaktivinoda Thakura, Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura, Srila Prabhupada, and other Vaisnavas are all fulfilled at the same time.
If anyone wishes to speak about Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura then they may quickly speak in short.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक २ जनवरी २०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 744 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे है।
(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन।
(जय) यमुनातीर वनचारी॥
अर्थ
वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।
हरि! हरि!
हम तो कुंज विहारी का गायन और स्मरण कर रहे हैं।
भीष्म पितामह की जय!
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे .. कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण हैं जो कि यमुना तीरे वनचारी हैं अर्थात वह एक ऐसा दृश्य अथवा दर्शन है जिसमें श्रीकृष्ण यमुना के तट पर कुंजों में विहार कर रहे हैं। वृन्दावन में यमुना के तट पर श्रीकृष्ण के ऐसे दर्शन और व्यवहार को ब्रजवासी और ब्रजवधुएँ अर्थात गोपियां पसन्द करती हैं किन्तु भीष्म पितामह की पसंद तो भिन्न है। उनका संबंध, जिसको रस या प्रेम भी कहते हैं, वह भिन्न है।
वह श्री कृष्ण को वीर रस में देखना चाहते हैं। कृष्ण शूरवीर अर्थात अपने शौर्य, धैर्य, वीरता का प्रदर्शन करते हैं। जीवों का
भगवान् के साथ बारह प्रकार से अलग अलग रस अथवा संबंध अथवा प्रेम होता है जिसमें पांच प्रधान रस और सात गौण रस हैं। सात गौण रसों में एक वीर रस है। भीष्म पितामह वीर रस से प्रसन्न हो सकते थे और वे कुरुक्षेत्र के मैदान में प्रसन्न हुए भी थे।
श्रीमद् भागवतम के प्रथम स्कन्ध के नवें अध्याय में भीष्म स्तुति आती है जिसमें वे स्वयं कहते हैं-
श्रीभीष्म उवाच
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवती सात्वतपुङ्गवे विभुम्नि। स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाह:।।
( श्रीमद् भागवतम १.९.३२)
अनुवाद:-भीष्म देव ने कहा: अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहने वाले हैं, किन्तु कभी कभी भक्तों के नायक होने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनंद- लाभ करते हैं, यद्यपि यह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है।
आप भी कभी पढ़िएगा, श्रीमद् भागवतम की अनेक स्तुतियों में भीष्म पितामह द्वारा की हुई स्तुति प्रसिद्ध है। यह श्रीमद् भागवतम की दूसरी स्तुति है। पहली स्तुति तो कुन्ती महारानी की है जो इसी स्कन्ध में कुछ अध्याय पहले ही वर्णित है। दूसरे नम्बर पर भीष्म पितामह की स्तुति है। यह विशेष स्तुति है।
हरि! हरि!
इस स्तुति का वैशिष्ट्य है कि भगवान् स्वयं वहाँ उपस्थित हैं अर्थात भगवान स्वयं वहाँ पहुंचे थे। भगवान् हस्तिनापुर से पाण्डवों के साथ पुनः कुरुक्षेत्र लौटते हैं। क्योंकि उन्हें समाचार मिला कि अब भीष्म पितामह महाप्रयाण की तैयारी कर रहे हैं। हरि! हरि!
अब भीष्म पितामह नहीं रहना चाहते हैं। अब उनकी इच्छा हुई है कि अब वे नहीं रहेंगे। उनको ऐसा वरदान प्राप्त था कि जब वे चाहे मृत्यु को स्वीकार कर सकते थे। महाराज शांतनु ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था। उनके पिताश्री का ही यह वरदान था। हरि! हरि!
भीष्म पितामह को ‘गांगेय’ भी कहते हैं। वे गंगा के आठवें पुत्र थे। वैसे उनका नाम देवव्रत था किंतु जब देवव्रत ने प्रतिज्ञा की कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा। मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा। उन्होंने जब ऐसा कुछ भयानक अथवा डरावना संकल्प लिया, तब देवताओं ने भी कहा- भीष्म… भीष्म… एक राजपुत्र होकर, ऐसी प्रतिज्ञा करना .. अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा अथवा संकल्प… भीष्म.. भीष्म…। भीष्म पितामह का नाम देवव्रत था और गंगा के पुत्र होने से गांगेय भी कहलाते थे। जैसे कुंती के पुत्र कौन्तेय वैसे ही गंगा के पुत्र गांगेय हुए।
अब वे भीष्म पितामह बने हैं। उनकी उम्र लगभग ४०० वर्ष की चल रही थी। कई पीढ़ियां आई और गयी भी लेकिन भीष्म पितामह जीते रहे किन्तु आज वे प्रस्थान करेंगे। उनका देहान्त अर्थात निधन होगा। श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र पहुँचे, उस समय भीष्म पितामह शरशय्या पर लेटे हुए थे। तब से लेटे ही रहे। वह कुरुक्षेत्र के युद्ध का दसवां दिन था। अर्जुन ने पितामह भीष्म को उस दिन इतने सारे बाणों से आघात अथवा प्रहार किया।
भीष्म पितामह का शरीर तीरों से बिंध गया ह, उनकी देह को खड़ा होना भी मुश्किल था। वे लेट गए अथवा अर्जुन ने उनको अपने बाणों के आघातों से लिटा दिया। भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर ही लेटे हुए थे। आज भी निश्चित ही वह स्थान कुरुक्षेत्र में है। मैं भी उस स्थान पर गया हूँ, कोई भी जा सकता है। वहाँ प्रदर्शनी भी है जो वहाँ के उस दृश्य का स्मरण दिलवाती है। इस प्रकार भीष्म पितामह के समक्ष कृष्ण विराजमान हैं। उनका दर्शन करते करते भीष्म पितामह उनका स्तुति गान कर रहे हैं। इस स्तुतियों के वचनों में अधिकतर उनको युद्ध भूमि अर्थात धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र के ही सारे दृश्य यादआ रहे हैं और उन्हीं को वे स्तुति के रुप में कह रहे हैं। आप इसे पढ़िएगा।
त्रिभुवनकमानं तमालवर्णं रविकरगौरवम्बरं दधाने वपुरलककुलावृतान्नबजं विजयसखे रतिरस्तु मेअनवद्या।।
(श्रीमद् भागवतं १.९.३३)
अनुवाद:- श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश्य नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोगों (उच्च मध्य तथा अधोलोक) में हर एक को आकृष्ट करने वाला है। उनका चमचमाता पीतांबर तथा चंदन चर्चित मुख कमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल की इच्छा ना करूं।
भीष्म पितामह स्तुति में यह भी कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण विजय सखा हैं और विजय अर्थात अर्जुन। अर्जुन का एक नाम विजय है।
हे विजयसखे
रतिरस्तु अर्थात मेरी रति आप में हो, मेरा आकर्षण आप में हो। मेरा मन आपसे आकृष्ट हो।
त्रिभुवनकमानं तमालवर्णं – वैसे यह कठिन तो नहीं है। भीष्म पितामह, कृष्ण को देख ही रहे हैं और कह रहे हैं ‘तमालवर्णं’ – आप का वर्ण तमालवर्णं हैं। (वृन्दावन अथवा ब्रज में जो तमाल के वृक्ष हैं, उनका जो रंग होता है)
तमाल वर्ण, ऐसा ही एक वृक्ष कृष्ण बलराम मंदिर के कोर्टयार्ड (आंगन) में है। हमनें भी उसको देखा है। जब हम वर्ष १९७२ में गए थे, उस समय मंदिर का निर्माण अभी प्रारंभ ही हो रहा था। हमें बताया गया था कि श्रील प्रभुपाद ने जानबूझकर उसकी रक्षा की है और उस पेड़ को काटा नहीं। उन्होंने ऐसा डिज़ाइन बनवाया था कि तमाल वृक्ष आंगन में बना रहेगा। ऐसे तमाल वृक्ष को देखकर ही राधारानी और श्रीकृष्ण का स्मरण हुआ करता था। उस तमाल वृक्ष का ऐसा वर्ण है। तमालवर्णं के संबंध में ऐसा वर्णन है कि तमालवर्णं घनश्याम बादलों के जैसे है। प्रभुपाद उसमें भी कहते हैं कि यह मानसून फ्लॉवर जैसे है, यह कार्तिक या शरद ऋतु के बादल जैसा नहीं है। शरद ऋतु के बादल सफेद होते हैं। वर्षा ऋतु के बादलों में खूब जल होता है, वे जलधर होते हैं। इसलिए भी वे अधिक डरावने काले सांवले होते हैं। भीष्म पितामह अपने समक्ष उपस्थित श्रीकृष्ण को देखते हुए भी कहते हैं कि हे तमालवर्णं…
हे तमालवर्णं।
रविकरगौरवम्बरं – आप जो अम्बर वस्त्र पहनें हो, रविकरगौरवम्बरं – रवि अर्थात सूर्य, कर अर्थात किरण, उनको सूर्य की किरणें भी कह सकते हैं।आपके वस्त्र ऐसे तेजस्वी हैं, आप भी और आपके वस्त्र भी सुंदर है, उनमें तेज है। भीष्म पितामह को याद आ रहा है, यह कुछ संक्रांति का समय है। युद्ध के दसवें दिन अर्जुन ने उनको शरशय्या पर लिटाया था। युद्ध तो चलता रहा था और तत्पश्चात युद्ध समाप्त भी हुआ लेकिन भीष्म पितामह वहाँ लेटे रहे। युद्ध के उपरांत यदि कोई बचा भी था जैसे श्रीकृष्ण अथवा पांडव, वे सब प्रस्थान कर चुके थे। भीष्म पितामह अकेले ही लेटे रहे। अब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करेगा। संक्रांति के समय संक्रमण होता है। सूर्य का उत्तरायण में होना अनुकूल माना जाता है। सद्गति प्राप्त होती है, अर्थात शरीर त्यागते समय जब सूर्य उत्तरायण में होता है।
उस समय वह घड़ी शुभ मूर्हत होता है। अब भीष्म पितामह प्रस्थान की तैयारी कर रहे थे, उस समय उनको कुरुक्षेत्र के युद्ध का स्मरण हो रहा था। कृष्ण को देखते देखते उनको और भी स्मरण आ रहे थे। वे यहाँ स्तुति में कह रहे हैं कि
युधि तुरगरजो विधूम्रविष्वक्- कच्छुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये। मम निशितशरैर्विभिद्यमान- त्वचि विलसत्कवचेअस्तु कृष्ण आत्मा।।
( श्री मद् भागवतम १.९.३४)
अनुवाद:- युद्धक्षेत्र में( जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे)
भगवान् कृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गए थे तथा श्रम के कारण उनका मुख मंडल पसीने की बूंदों से भीग गया था।
भगवान,जब आप अपने रथ पर चलते थे तब विशेषतया आपका रथ, वैसे रथ आपका नहीं था। रथ तो अर्जुन का था। अर्जुन उस रथ के रथी थे। आप तो केवल रथी के साथ वाले सारथी थे। आप उस रथ का संचालन कर रहे थे अथवा रथ हांक रहे थे। उस रथ के पहियों की जो धूलि थी, वह आसमान में उड़ जाती। धीरे धीरे वह पुनः सेटल हो रही है अर्थात जम रही है। आपके बालों अथवा आपके चेहरे अथवा आपके वस्त्रों पर वो जो दर्शन है, बड़ा सुहावना दर्शन है।
भीष्म पितामह ऐसे दर्शन की बात कर रहे हैं। धूल भी जम रही है। भीष्म पितामह कह रहे हैं कि रथ हांकने से आपको इतना परिश्रम करना पड़ रहा था कि आपके चेहरे पर धूल भी जमी है औऱ आप परिश्रम बिंदु या श्रम बिंदु अर्थात पसीने पसीने हो रहे थे। श्रम बिंदु,पसीने की बूंदे आपके चेहरे के सौंदर्य को बढ़ा रही थी।
अलङ्कृतास्ये – आपका चेहरा अलंकृत था।
सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य। स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवती पार्थसखे रतिर्ममास्तु ।।
( श्रीमद् भागवतं १.९.३५)
अनुवाद:-अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच में प्रविष्ट हो गए और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी कृपापूर्ण चितवन से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी। यह सब शत्रु पर उनके दृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया। मेरा मन उन कृष्ण में स्थिर हो।
एक स्थान पर विजय सखे कहा और अब दूसरे वचन में पार्थ सखे कहा जा रहा है।
पार्थसखे रतिर्ममास्तु अर्थात भीष्म पितामह कह रहे हैं कि मेरी रति ऐसे विजय सखा अथवा पार्थ सखा में हो।
विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयश्मिनि तच्छियेक्षणीये। भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षो- र्यमिह निरीक्ष्य हता गता: स्वरूपम् ।।
( श्रीमद् भागवतं १.९.३९)
अनुवाद:- मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूं, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएं हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यंत सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।
वे कह रहे हैं कि हे श्री कृष्ण! यह वहीं दर्शन है जिस दर्शन में आपके बाएं हाथ में रस्सी है।
धृतहयश्मिनि अर्थात आपके बाएं हाथ में घोड़ों की रस्सियां हैऔर आप अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए हुए हैं।
शितविशिखहतो विशीर्णदंश: क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे प्रसभमभिसार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ।।
( श्री मद् भागवतम १.९.३८)
अनुवाद:- भगवान श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अंतिम गंतव्य हों। युद्ध- क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गए हों। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था।
मेरी गति, मेरा लक्ष्य, मेरा गंतव्य वैसा हो, जैसा दर्शन मुझे स्मरण आ रहा है। भीष्म पितामह का भगवान से संबंध वीर रस में है। जैसा कि हमनें कहा भी कि भगवान अपनी शौर्यता अथवा वीरता का प्रदर्शन कर रहे थे। भीष्म पितामह कहते हैं कि आप ही मेरा लक्ष्य हो। ऐसा ही संबंध मेरा आपके साथ है।आपके साथ ऐसा संबंध स्थापित हुआ, उसका मैंने दर्शन किया, अनुभव अथवा साक्षात्कार किया।
स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः
हे मुकन्द अर्थात मुक्ति के दाता, आप मुझे मुक्त कीजिये। बस यही विचार मेरे मन में हो कि वह छवि मेरे मन में बसी हो, जब प्राण तन से निकले। यह छवि उनको बहुत पसंद है। कुरुक्षेत्र के मैदान में वैसे सामने ही थे। हर समय तो नहीं लेकिन दसवें दिन का जो युद्ध सम्पन्न हो रहा था। उस दिन एक विशेष घटना घटी थी। भीष्म पितामह को श्रीकृष्ण के दर्शन हुए।
नवें दिन की रात्रि को (वैसे यह सब बता नहीं पाएंगे) भीष्म पितामह ने संकल्प लिया था कि ‘कल या तो मैं अर्जुन का वध करूंगा वरना श्रीकृष्ण को हथियार उठाना होगा।’ मैं जानता हूं कि उन्होंने ( भगवान्) ने संकल्प लिया है कि मैं युद्ध में रहूंगा लेकिन लड़ूंगा नहीं, न ही कोई हथियार उठाऊंगा।
कल या तो मैं अर्जुन की जान ले लूंगा, यदि यह संभव नहीं हो पाया तब श्रीकृष्ण को हथियार उठाना ही होगा। भीष्म पितामह ने ऐसा संकल्प क्यों लिया? इसका वर्णन महाभारत में है। उस सांयः काल को क्या क्या हुआ था और दुर्योधन ने भीष्म पितामह को क्या कहा था … कि आप पक्षपात कर रहे हो। यह नौवां दिन है और अभी तक यह सारे पांडव जीवित हैं। आप इनके वध करने की क्षमता तो रखते हो लेकिन आप जानबूझकर उनको बचा रहे हो। हमारे कई सारे भाइयों की मृत्यु हुई है लेकिन यह पांच पांडव अर्थात सारे भाई जीवित हैं। आप सेना के सेनापति अथवा मुखिया हो। सर्वसमर्थ हो। जब यह बात भीष्म पितामह ने भी सुनी तो यह बात थोड़ी सी उनको चुभ गई। तब उन्होंने कहा दुर्योधन से कहा कि कल तुम देखोगे और उन्होंने संकल्प लिया। दसवें दिन के युद्ध का जब प्रारंभ हुआ तब उस दिन भीष्म पितामह ने अर्जुन को ही अपना निशाना बनाया। उन्होंने इस प्रकार युद्ध खेला कि अर्जुन, भीष्म पितामह दोनों के रथ एक दूसरे के समक्ष थे और बाणों की वर्षा हो रही थी। भीष्म पितामह अनुभवी है, पुराने हैं, वरिष्ठ हैं। उनके समक्ष अर्जुन क्या है?
उस समय श्रीकृष्ण कह रहे हैं
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा- मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्यः। धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु र्हरिरिव हन्तुमिमं गतोत्तयरीयः
( श्रीमद् भागवतम १.९.३७)
अनुवाद:- मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर, वे रथ से नीचे उतर आए, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी और दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी को मारने के लिए दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।
भीष्म पितामह कह रहे हैं कि ये मैंने क्या किया कि आप अपने अर्जुन को बचाने के लिए जो अकेला लड़ नही सकता था, तब आप भी अर्जुन की मदद के लिए युद्ध में शामिल होना चाहते हो, लड़ना चाहते हो। आप रथ से उतरे और आपने वहीं से एक टूटे हुए रथ के पहिए को उठाया।
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु
दूसरे रथ का चरण कौन सा होता है? आपने रथ का चक्र अथवा पहिया को उठाया और तब आप चक्र पानी या रथांगपाणि अर्थात रथ अंग पाणि हो गए भगवान् का एक नाम भी रथांगपाणि है। पाणि पीने वाला पानी नही है। पाणि मतलब हाथ। जैसे शंख पाणि – जिन हाथों में शंख धारण किए, वह शंख पाणि, चक्रपाणी अर्थात जो सुदर्शन चक्र धारण करते हैं जो चक्र पाणि। रथांगपाणि – आपने रथ के अंग को अर्थात रथ के पहिए को उठाया और आप मेरी ओर रथ के अंग अथवा चक्र के पहिये को लेकर दौड़ कर आ रहे थे। मानो आप शेर बन गए हो। भीष्म पितामह कहते हैं मानो जैसे मैं कोई हाथी था, आप शेर बनकर मेरी और बड़ी तेजी से आ रहे थे। आते आते आपका उतरीय जो था, वह गिर गया। इतने में अर्जुन भी रथ से कूदा और वह आप को रोकने के लिए आपकी और दौड़ रहा था। भगवन! क्या कर रहे हो, क्या कर रहे हो। नहीं! नहीं! अर्जुन, कृष्ण को रोक रहे थे। उस दिन ऐसा सारा दृश्य भीष्म पितामह ने देखा था। वह कैसे सारी बातें भूल सकते थे। भीष्म पितामह अपनी स्तुति में सुना रहे हैं।
भगवति रतिरस्तु मे- ऐसे भगवान् में मेरी रति हो। ऐसे आप में मेरी रति हो। इस प्रकार वे
निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम्।
भीष्म पितामह अपना अनुभव भी कह रहे है। उस युद्ध में वैसे 64 करोड़ शूरवीर सभी मारे गए थे। महात्मा गांधी ने सोचा कि भगवान् ने हिंसा करवाई है। भगवान को ऐसा नहीं करना चाहिए था। बाकी भी नहीं समझते। गांधी नहीं समझते तो इसलिए कोई समझता ही नहीं है। भीष्म पितामह समझते हैं, भीष्म पितामह का अनुभव है। भीष्म पितामह अधिकृत है। द्वादश भागवतों में भीष्म एक महाभागवत है। उनका कहना है कि आपने सभी को मुक्त किया। आपकी उपस्थिति में जो मरे हैं अर्थात आप कुरुक्षेत्र के मैदान में उपस्थित ही थे, वहां जिनकी जिनकी मृत्यु हुई, आपने उनको उनको मुक्त किया। हरि हरि! वे स्तुति कर ही रहे थे और स्तुति करते करते ही वह कृष्ण को देख अथवा दर्शन कर रहे हैं व कुरुक्षेत्र के मैदान में घटी हुई लीलाओं का स्मरण कर रहे हैं। सभी का दर्शन करते हुए भीष्म पितामह ने प्रस्थान किया अथवा महाप्रयाण किया।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
2 January 2021
Bhismadeva glorifies the Lord at his last breath
Hare Krsna! Devotees from over 745 locations are chanting with us right now.
(jaya) radha-madhava (jaya) kunja-bihari
(jaya) gopi-jana-vallabha (jaya) giri-vara-dhari
(jaya) jasoda-nandana, (jaya) braja-jana-ranjana,
(jaya) jamuna-tira-vana-cari
Translation:
Krishna is the lover of Radha. He displays many amorous pastimes in the groves of Vrindavana, He is the lover of the cowherd maidens of Vraja, the holder of the great hill named Govardhana, the beloved son of mother Yasoda, the delighter of the inhabitants of Vraja, and He wanders in the forests along the banks of the River Yamuna.
We are singing the names of Kunja Bihari moving around in the forests on the banks of the Yamuna, liked by the Gopis of Vrindavana. Bhishma Pitamah has some other desire. He wants to see Krsna as a warrior. The relationship of the living entities with the Lord includes 12 rasas. Among them 5 are primary. There are 7 secondary rasas and among the 7 there is vīra rasa (chivalry). Bhismadeva wants to see Krsna in this rasa. He says this in Srimad Bhagavatam 1.9.32 in the verses of Bhishma stuti.
śrī-bhīṣma uvāca
iti matir upakalpitā vitṛṣṇā
bhagavati sātvata-puṅgave vibhūmni
sva-sukham upagate kvacid vihartuṁ
prakṛtim upeyuṣi yad-bhava-pravāhaḥ
Translation:
Bhīṣmadeva said: Let me now invest my thinking, feeling and willing, which were so long engaged in different subjects and occupational duties, in the all-powerful Lord Śrī Kṛṣṇa. He is always self-satisfied, but sometimes, being the leader of the devotees, He enjoys transcendental pleasure by descending on the material world, although from Him only the material world is created. [ SB 1.9.32]
Stuti means glorification prayer. There are several Stutis in Srimad Bhagavatam. First of all are the prayers by Kunti Devi. Then this is the second one.
The scene is that everyone got the news that grandfather Bhishma, who was given a benediction by his father that he could choose the time of his death, had now decided to depart. He was also called Gangeya as he was the 8th son of Ganga with King Santanu. His name was Devavrat, but when he took the great vow of celibacy for a lifetime he was named Bhishma. Since he had a benediction that he could choose his time of death, he has been living and seeing many generations come and go. He was almost 400 years old. On the 10th Day of the battle of Mahabharata, Arjuna had fought with Grandfather Bhishma and shot many arrows piercing right through his body. He fell and was lying on an entire bed of arrows. He was alive till the end of the war. Now he had decided to depart and everyone had assembled around him. Here he is singing the glories of Krsna.
tri-bhuvana-kamanaṁ tamāla-varṇaṁ
ravi-kara-gaura-vara-ambaraṁ dadhāne
vapur alaka-kulāvṛtānanābjaṁ
vijaya-sakhe ratir astu me ’navadyā
Translation:
Śrī Kṛṣṇa is the intimate friend of Arjuna. He has appeared on this earth in His transcendental body, which resembles the bluish color of the tamāla tree. His body attracts everyone in the three planetary systems [upper, middle and lower]. May His glittering yellow dress and His lotus face, covered with paintings of sandalwood pulp, be the object of my attraction, and may I not desire fruitive results. [SB 1.9.33]
There is a Tamala tree in the courtyard of the Krsna Balaram temple in Vrindavan. When I went to Vrindavan in 1972, the temple construction was going on. During the construction, Srila Prabhupada’s instruction was not to cut the Tamala tree. By looking at such a Tamala tree, Radharani remembered Lord Krsna. Bhismadeva is singing the glories of Krsna by saying tamāla-varṇaṁ. On the 10th day of the Kurukshetra war, during the month of Sankranti, Bhismadeva was lying down and looking for a time when the sun would come in the Northerly direction, which is a good time to leave the body. So now the time has come and he is remembering Krsna.
yudhi turaga-rajo-vidhūmra-viṣvak-
kaca-lulita-śramavāry-alaṅkṛtāsye
mama niśita-śarair vibhidyamāna-
tvaci vilasat-kavace ’stu kṛṣṇa ātmā
Translation:
On the battlefield [where Śrī Kṛṣṇa attended Arjuna out of friendship], the flowing hair of Lord Kṛṣṇa turned ashen due to the dust raised by the hoofs of the horses. And because of His labor, beads of sweat wetted His face. All these decorations, intensified by the wounds dealt by my sharp arrows, were enjoyed by Him. Let my mind thus go unto Śrī Kṛṣṇa. [ SB 1.9.34]
Now in the next verse, he again addresses Krsna as a friend of Arjuna.
sapadi sakhi-vaco niśamya madhye
nija-parayor balayo rathaṁ niveśya
sthitavati para-sainikāyur akṣṇā
hṛtavati pārtha-sakhe ratir mamāstu
Translation:
In obedience to the command of His friend, Lord Śrī Kṛṣṇa entered the arena of the Battlefield of Kurukṣetra between the soldiers of Arjuna and Duryodhana, and while there He shortened the life spans of the oppos.[ [ SB 1.9.35]
He shortened the life span of the opposite party by His merciful glance. This was done simply by glancing at the enemy. Let my mind be fixed upon that Kṛṣṇa. Krsna is holding the ropes of the horses in one hand and the hunter in the other. He wants to have that image of Sri Krsna in front of his eyes before leaving. Bhishma had taken a vow that on the night of the 9th day that either I shall kill Arjuna or force Krsna to take up arms. Krsna had already taken a vow that he will not fight. Bhishma was blamed for being biased towards the Pandavas as many Kauravas had already been slain, but the 5 Pandavas were all alive. So he took this vow. The next day, the 10th day of battle, Bhishma fought against Arjuna. Bhishma is the grandfather and he is experienced and powerful. Arjuna was not as experienced. A fierce fight took place between them. Bhishma provoked Krsna so much that Krsna got down from his chariot and lifted a wheel of a chariot and charged towards Bhishma. Bhishma said, “I felt as if I was an elephant, and You were like an angry lion charging at me.” Arjuna was chasing Krsna to stop Him.
Bhishma was praying “O Lord, let my mind be stably situated on this form of Yours.” In this way, Bhisma was glorifying the Lord. 640 million people were slain in the battle of Mahabharata. Many people misunderstand this as unnecessary violence. Mahatma Gandhi is one of them. Bhishma understands this correctly. It was necessary and Krsna also granted liberation to all of them. Then with this remembrance, Bhishma departed.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
जप चर्चा,
1 जनवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
जय राधामाधव कुंजबिहारी।
गोपीजनवल्लभ गिरिवरधारी।।
हरे कृष्ण, 780 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। ओम नमो भगवते वासुदेवाय ओम नमो भगवते वासुदेवाय वैसे कहने को आज नया साल प्रारंभ हुआ। आज के 1 जनवरी 2021, 21वी सदी का यह 21 साल। यह कौन सी सदी चल रही है, 21 दिन और साल भी आ गया 21 वा, 2021 की। वैसे मैंने कहां है, नया साल आ गया। आपको कुछ नया लग रहा है? इसमें मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा है नया। वही सब कुछ। हरि हरि, वही सूरज वही सूर्य लगभग कुछ आभास हो रहा है। भास नामाभास नामाभास। नाम का पूरा उदित होने से पहले नाम के प्रकट होने से पहले नाम आभास होता है। नाम का भास होता है। जैसे सूर्य आभार सूर्य के उदय होने से पहले उषाकाल आप कहते हो। सूर्य आभास होता है सूर्य के अस्तित्व का थोड़ा पता लगने लगता है तो वही हो रहा है। अभी सूर्य का आभास होने लगा है फिर सूर्योदय होगा। बिल्कुल वैसे ही सूर्य वही सूर्य है। हरि हरि, आप सबका स्वागत है। आज भी स्वागत है। 1 जनवरी को भी स्वागत है। ऐसी है कालगणना इसको टुकड़ों में बांटा है। वैसे इसका विभाजन तो नहीं होता लेकिन 24 घंटे, यह रात है यह दिन से काल होता है। फिर सप्ताह अवधी काल कहते हैं।
काल वही होता है जो 12 मास होते हैं वही काल है। वैसे भगवत गीता बलदेव विद्याभूषण गीता पर भाषण लिखे हैं। और श्रील प्रभुपाद ने भी जो भगवद्गीता भगवद्गीता यथारूप वह बलदेव विद्या भूषण के भाष्य के आधार पर ही भगवद गीता का तात्पर्य लिखे हैं। वैसे श्रील प्रभुपाद ने भगवद्गीता का जो भूमिका है उसी में लिखा है। भगवतगीता के विषय पाच हैंँ। आप भी लिख कर रखो। वृंदा सखी तैयार है अपनी नोटबुक के साथ। तो टॉपिक विषय पांच है। एक है ईश्वर, दूसरी है प्रकृति, तीसरा है जीव, चौथा है काल, और पांचवा है कर्म। गीता के यह पांच विषय हैं पांच विषय वस्तु। मैं इसे पुनः पुनः बोल रहा हूं ताकि आप याद रखें जीवन भर। ईश्वर है प्रकृति और जीव काल कर्म इसे आगे समझाया है या फिर सरल ही है। वैसे इसमें से चार जो विषय हैं या फिर कोई व्यक्ति भी कोई विषय भी है तो यहां शाश्वत है। केवल कर्म शाश्वत नहीं है। ईश्वर शाश्वत परमेश्वर है। और प्रकृति भी शाश्वत है। पुरुष शाश्वत है मतलब ईश्वर और प्रकृति भी शाश्वत है. प्राकृति को शक्ति भी कहते हैं।
पराशक्तिर विविधेव शुय्यते तो पुरुष शाश्वत है। तो पुरुषोत्तम भगवान पुरुषोत्तम की जो विविध शक्तियां भी शाश्वत है। तो यह भी आपको आसानी से समझ में आना होगा समझ स्वीकार करना होगा। यह पंचमहाभूत है पृथ्वी, वायु, आप, तेज, आकाश यह शाश्वत है। और भी कई शक्तियां हैं वह शाश्वत है। हरिहरि ऐसे संक्षिप्त में यह भी कहा जाता है कि, बस एक तो पुरषोत्तम है इस पर है और फिर उनकी शक्तियां है बस खत्म। इसके अलावा और कुछ नहीं है जिसको हम अस्तित्व कहते हैं। वस्तु वास्तविकता कहते हैं। बस भगवान है और भगवान की शक्तियां हैं और कुछ नहीं है,अस्तित्व में। प्रकृति शाश्वत है और प्रकृति शक्ति है तो वह भी शाश्वत हैं। और जैसे हमने कहा पुरुष है प्रकृति है और शक्तियां हैं तो बहिरंगा शक्ति है। अंतरंगा शक्ति है आध्यात्मिक जगत में अंतरंगा शक्ति हैं और बहिरंगा शक्ति है। आध्यात्मिक जगत में राधारानी है और इस प्राकृत जगत में दुर्गा देवी है। छायेव यस्य भुवनानि विभर्ती दुर्गा ऐसे ही राधारानी की छाया है या भगवान की छाया है यह सब प्रकृति है। आध्यात्मिक जगत एक प्रकृति है और यह भौतिक जगत एक प्रकृति हैं। और जीवात्मा प्रकृति है तो यह सब शाश्वत है। पुरुष शाश्वत है प्रकृति शाश्वत है तो जीव भी जीव तटस्थ शक्ति है तो जीव ही शाश्वत है। ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः
ऐसे भगवान ने कहा है जीव भी शाश्वत है। अब तक तो 3 हो गए। पुरुष शाश्वत है या ईश्वर शाश्वत है। प्रकृति शाश्वत है और जीव शाश्वत है। जीव भी एक प्रकृति है या तटस्थ शक्ति है और काल है। कर्म शाश्वत नहीं है। हरि हरि, काल शाश्वत है। वैैसे काल को समझना तो कठिन है। काल एक प्रकार से अचिंत्य ही है। इस काल को भगवान नेे कहा, कालोअस्मम अहम् कालः अस्मि ऐसे काल का परिचय दिया है। मैं काल हूं मैं काल हू कल मैं हूं और सारा संसार काल के अंतर्गत रहता है। या काल इस को प्रभावित करता है। मृत्यु सर्वस्य हरम् वैसे मृत्यु को भी काल कहा जाता है। वह काल बनकर आया। काल भगवान ने सभी जीवो के लिए नियम बनाया। क्या है नियम? जातस्य ही ध्रुवम मृत्यु लिख लो यह नियम है। जातस्य मतलब जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। तो उसी के साथ यह काल खेलता है जन्म लिया है तो मृत्यु होगी। मृत्यु सर्वस्य हरम् जन्म लिया है तो मृत्यु होगी। गोविंदम आदि पुरुषम तमहम भजमि वैसे मैं गोविंद हूं मैं कृष्ण हूं। या संभवामि युगे युगे, रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु यह सब मैं हूं। राम आदि जो मूर्तियां है भगवान के रूप है। वह भगवान है। जो लोग ऐसे भगवान की ऐसे श्रीभगवान को मेरे बारंबार प्रणाम है। ऐसे भगवान को जो प्रणाम नहीं करते उनके शरण में नहीं जाते। तां नान यद्वम्, मृत्यु सर्वस्य हरम् भगवान आते हैं मृत्यु के रूप में। काल आता है। यमराज स्वयं ही नहीं आते हैं उनके दूत होते हैं उनको भेजते हैं।
उनको ले आना किन को ले आना। अजामिल प्रसंग में यह आदेश दिया यमराजने यमदूतो को। तां नान यद्वम् मृत्यु उनको ले आना किन को जो असत होते हैं। एक साधु होते हैं और दूसरे असत होते हैं। जो असत होते हैं उनको ले आना। हरि हरि तो यह अकालतो, यह काल गणना करते हैं यहां द्वंद्व उत्पन्ना किया है भगवान ने। यह द्वंद्व क्या है जन्म और मृत्यु। हजारों लाखों द्वंद्व से भरा पड़ा है यह संसार लेकिन इसमें से एक मुख्य द्वंद्व क्या है जन्म मृत्यु। काल के प्रभाव से कर्म शाश्वत नहीं है जैसे हमने कहां मैंने इसलिए कहा कि वह सच है। हम कुछ कार्य करते हैं तो कार्य के साथ कुछ वासनाओं उत्पन्न होती हैं और उस वासना के बीज हम बोते हैं। वैसे हर कार्य के साथ और फिर पाप भी उसको कहा पाप केे बीज को हम बोते हैं। अगर पाप का कृत्य किया है तो पाप का बीज और पुण्य का कृत्य किया है पुण्य का बीज बोया है हमने। जिसको हम कहते हैं कर्म शाश्वत नहीं है और कर्मों के भी कई प्रकार हैं। और काल के अनुसार फिर यह बीज हम जो बोते हैं पाप के अनुसार या फिर पुण्य के अनुसार काल के प्रभाव से वहां अंकुरित होते हैं। इसको फिर हम प्रारब्ध कर्म या आप्रारब्ध कर्म ऐसे शब्दों में कहते हैं। वैसे भक्तिरसामृतसिंधु में भी इसको कहां है। हमारे नसीब सतअसत जन्म योनीषु कर्मणा दैव नेेत्रेन कर्मणा दैव नेेत्रेन सतअसत जन्म योनीषु हमारे कर्म के अनुसार कर्मणा दैव नेेत्रेन क्या होता है सत असत योनि में पुण्य कृत्य किया है पुण्य आत्मा हम हैं। सत सात्विक कृत्य हम किए हैं सत्त्व गुणी हम हैं।
तू ऊर्ध्वम गच्छन्ति सत्व सा गीता मेंंं भगवान ने यह सब बातें बताई हैं। किंतु हमने पापके बीज बोए हैं तो वे भी अंकु्रित होंगे। उसका फल भी हम चखेंगे अधु गच्छन्ति तामसा अधो गच्छन्ति हम नीचे जाएंगे। जघन्य गुणा वृत्तीसः मतलब हम पाप कर्म कार्य किया तो अधो गच्छन्ति। तो इस प्रकार काल के प्रभाव से कुछ बीज हमने जीवन में बोए वह या बोते ही रहते हैं। हर कृत्य कार्य कर्म अपना प्रभाव अपनी वासना पीछे छोड़ता है। जैसे बीज बोता है। हमारे भावों में हमारे विचारों में या फिर हमारे चेतना में, ढेर पाप के पापाच्या राशि पाप के ढेर के ढेर या पुण्य के ढेर के ढेर भी हो सकते हैं। और उसी के अनुसार हमारा सारा भविष्य बनता है। हो सकता है कि इस जीवन में बोए हुए जो बीज है वह अंकुरित अगले जन्म में भी हो सकते हैं, तो यह काल के प्रभाव से होता है। आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तं च यन्नसौ भागवत कहता है पुंसाम मतलब मनुष्य आयुर्हरति आयु को खोते हैं, गवाते हैं, बिताते हैं। उद्यन्नस्तं च यन्नसौ हर सूर्य के उदय फिर उस सूर्य के अस्त के साथ, आज 1जनवरी का सूर्योदय हो रहा है फिर अस्त होगा। इसी के साथ आयुर्हरति यह जो काल है हमारे आयु को हर लेता है। हरि हरि।तस्यर्ते किंतु इसको एक अपवाद भी है, हां सारा संसार, संसार के जीव आयुर्हरति उनकी आयु छीन ली जाती है। इसीलिए अंग्रेजी भाषा मे जब लोग पूछते हैं आपकी क्या आयु है तो पूछते हैं हाउ ओल्ड आर यू, आप कितने साल के पुराने हो। कितनी आयु आपने गवाई खोई। तो हर सूर्योदय और सूर्यास्त के साथ आयु घटती रहती है आयु घटती रहती है। लेकिन इसको एक अपवाद है भागवत कहता है उत्तमश्लोकवार्तया अगर हम उत्तम श्लोक, भगवान का एक नाम है, क्यों उनको ऐसा नाम पड़ा? उनको उत्तम श्लोक क्यों कहते हैं। उत्तम श्लोकों से उनकी स्तुति होती है।
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै देवता भी स्तुति गान करते हैं दिव्य स्तवों से, उत्तमश्लोको से तो भगवान का एक नाम हो गया उत्तमश्लोकवार्तया। तो जो उत्तम श्लोक की वार्ता में तल्लीन है उसका यह काल कुछ बिगाड़ता नहीं। उस पर कोई प्रभाव नहींं डालता यह काल। और ऐसा व्यक्ति वैसे जो उत्तम श्लोकवार्तया या बोधयन्त: परस्परम् कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च बस एक दूसरे को बोध कर रहे हैं। ऐसे श्री कृष्ण भगवान उवाच भगवद्गीता में कहे है बोधयन्त: परस्परम् जैसे हम अभी कर रहे है, वही कार्य कर रहे हैं, बोधयन्त: परस्परम्। एक दूसरे को बोध कर रहे हैं या कृष्ण की कथा सुना रहे हैं। तुष्यन्ति च रमन्ति च इसमें संतुष्ट है इस हरि कथा में, हरि नाम में, भगवद भक्ति में, इसी मैं रममान है, या तल्लीन है। तत्-लीन-तल्लीन, तत् मतलब भगवान, तत्वम असी तो जो भगवान में लीन है, भगवान के साथ अपने संबंध को जिन्होंने पुनः स्थापित किया है तो उस व्यक्ति का ऐसे भक्तों का काल कोई बिगाड़ नहीं सकता। काल का प्रभाव उस पर नहीं है क्यों? हरि हरि। हमने जो किए थे कर्म पाप कर्म या पुण्य कर्म वह हम को भोगने नहीं पड़ेंगे। मतलब पुनः जन्म लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। अगर बीज है तो वह अंकुरित होंगे और पुनः वृक्ष बनेगा और पुष्प खिलेंगे और फल चखेगा।
लेकिन अगर जो बीज है पाप के हो या पुण्य के दोनों भी सही नहीं है। वैसे या जो पुण्य हम कहते हैं पुण्य मतलब अच्छाई या सच्चाई भौतिक दृष्टि से। या सात्विकता की बात है तो सत्व गुनी स्वर्ग जाते हैं और तमोगुणी नर्क जाते है। लेकिन वैष्णव तो नरक जाना चाहता ही नही और स्वर्ग जाने की योजना नहीं बनाता। पुनः आगये यह स्वर्ग और नरक यह द्वंद्व हुआ इसके पहले पहुंचना होता है वैष्णवो को और वह स्थान है वैकुंठ, वह स्थान है गोलोक, वह स्थान है साकेत राम का धाम। तो जब हम साधक उत्तमश्लोकवार्तया उत्तम श्लोक की वार्ता कथा बोधयन्त: परस्परम् करते हैं और उसी में रममान रहते हैं, तल्लीन रहते हैं प्रसन्न रहते हैं, संतुष्ट रहते है। ऐसी हमारी समझ है, हमको समझ में आ रहा है कि ऐसे ही कार्य हमको करना चाहिए। और फिर यह कार्य, यह कृत्य, यह कर्म, भौतिक नहीं है। यह पाप भी नहीं है, यह पुण्य भी नहीं। इसको गीता में फिर कृष्ण ने अकर्म कहा है कर्मेति कर्म, विकर्म, अकर्म ऐसे तीन कर्म के नाम भगवान एक स्थान एक श्लोक में कहे हैं। कर्म, विकर्म, अकर्म। कर्म मतलब पुण्य कर्म इस संदर्भ में और विकर्म मतलब पाप कर्म और अकर्म मतलब वह कर्म ही नहीं है इस संसार को कर्म ही नहीं है उसको अकर्म कहा है। और वहीं तो है भक्ति, भक्ति का कर्म है, भक्ति का कार्य है। तो हम जो भक्ति करते है
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित: ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ ७ ॥
भक्ति करते हैं तो हमको ज्ञान प्राप्त होता है या भक्ति से ज्ञान उत्पन्न होता हैं। वैसे भी भक्ति देवी के दो पुत्र है एक है ज्ञान और दुसरा है वैराग्य। जो भक्ति करता है उसे ज्ञान प्राप्त होता है या उसीको भगवान ने कहा है कि वह बुद्धि देते है।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
जो मेरी सेवा में रत है तेषां सततयुक्तानां और कैसे रत है प्रीतिपूर्वक उनके सारे कृत्य प्रीतिपूर्वक प्रेमपूर्वक भगवान की सेवा कर रहे है, उनको मैं देता हूं बुद्धि देता हूं अहं ददामि बुद्धियोगं ऐसे व्यक्ति को में बुद्धि देता हूं। ताकि वे नरक और स्वर्ग से भी परे जो मेरा धाम है वहां पर पहुंच जाएंगे। यह भी एक बात है श्री कृष्ण ने कहा ही है कि जिन को ज्ञान प्राप्त हो जाएगा ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा यह जो ज्ञान है, हमने ज्ञान प्राप्त कर लिया, ज्ञान को सुन रहे हैं हम, गीता का अध्ययन, श्रवन, कीर्तन हो रहा है, भागवत पढ़ रहे है हम कुछ ज्ञानवान हो रहे हैं, ज्ञानी बन रहे हैं, यह ज्ञान क्या करेगा ज्ञानाग्णिः यह ज्ञान की जो अग्नि है, ज्ञान की जो ज्योति है ज्योति की जो अग्नि है ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात हमने जो कर्म किए थे और कर्म के जो बीज भी हमने बोए थे, वह अंकुरित, फलित फुलित होने के पहले ही भस्मसात हो जाएगा। और पाप के बीज, उसके ढेर के ढेर पड़े हैं हमारे चेतना में। तो जो पाप के बीज, पाप का कृत्य हमें नरक भेजने वाला था, हम ज्ञानवान हो गए हैं, हमने प्राप्त की ज्ञान की अग्नि उस बीज को वहीं पर जला देगा।
पाप का फल नहीं भोगना पड़ेगा नरक की यात्रा। या कृष्ण गीता में कहे हैं काम, क्रोध, लोभ यह तीन द्वार है नरक के द्वार तीन है। काम, क्रोध, लोभ यह तीन मुख्य गेट है नीचे नरक की ओर जाने के लिए। फिर ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था भी है तो पुण्य का फल भी हमको नहीं चाहिए होता है और पाप का फल तो चाहिए ही नहीं होता है। अकर्म करने से, भक्ति करने से, फिर ज्ञान प्राप्त करने से ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा उसकी राख होगी, भस्म होगा वह बीज। और फिर उस कर्म के होने वाले प्रभाव से, परिणाम से, हम बच जाते हैं। और फिर ना हमको न तो नर्क जाना पडता है न तो स्वर्ग जाने की आवश्यकता है। ऐसा व्यक्ति मामेति मुझे प्राप्त करता है भगवान कहते हैं। तो काल का प्रभाव सभी पर है, लेकिन कुछ लोगों के लिए जो कर्म और विकर्म करते हैं, जो पाप और पुण्य करते हैं उनके लिए मृत्यु निश्चित है। या मृत्यु: सर्वहरश्चाहम मृत्यु के रूप में भगवान आएंगे और सब कुछ छीन लेंगे लात मार के बाहर कर देंगे। लेकिन जो कृष्ण भक्त है
भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामि सकले अशांत।
कृष्ण भक्त निष्काम अतएव शांत।
किंतु जो कृष्ण भक्त है उनके लिए स्वयं भगवान आएंगे। औरों के लिए मृत्यु को भेजेंगे कहेंगे इसको ले आओ, उसको ले आओ, यमदूत ले जाएंगे जिसकी मृत्यु होगी उसे। लेकिन जो कृष्ण भक्त है, साधना करते करते उनको जब अन्ते नारायण स्मृतिः अंत मे नारायण की स्मृति हो रही है,
इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले। गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले।
ऐसा जिनका का प्रयास और उस प्रयास में जब वह सफल होंगे तो यह मृत्यु नहीं आएगी। वैसे शरीर की तो तथाकथित मृत्यु होगी। लेकिन हां उस महात्मा की जो आत्मा है, साधक साधना से सिद्ध हुए उसकी आत्मा को भगवान अपने साथ लेकर जाएंगे। किसी को नरक भेजेंगे, किसी को स्वर्ग भेजेंगे उसके कर्म के अनुसार। किंतु जिसके कर्म ऐसे रहेंगे यह कर्म ही है नवधा भक्ति।
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
यह नवधा भक्ति कर्म है, कृत्य है लेकिन यह भक्ति का कृत्य है कार्य है। जो ऐसा कार्य करेंगे वह नर्क और स्वर्ग के परे भगवद्धाम है वहां पहुचेंगे पहुचाये जाएंगे। हरि हरि। तो इस प्रकार इस काल और कर्म को भी हमें समझना चाहिए। विषय पांच है गीता के ईश्वर, प्रकृति, जीव, काल और कर्म यह गीता में समझाया है। इसी को फिर भागवत में आगे उदाहरण के साथ, ऐतिहासिक घटनाओं के साथ उसे समझाया है। ठीक है तो साल तो नया आ गया है लेकिन हमको कुछ नया नहीं करना है। हमको क्या करना है? भक्ति करनी है और इन दिनों में गीता का वितरण। और बोधयन्तः परस्परम् आपको करना है। हम भी करते हैं, आपको कुछ सुनाते हैं, आप श्रवण करते हो, श्रवण के बाद क्या करना चाहिए? श्रवण के बाद क्या होता है? जो बातें सुनते हैं उसको कीर्तन करना चाहिए श्रवणं किर्तनं। अब आपकी बारी आपने श्रवण किया अब कीर्तन करो। यह जो सत्य है इसको फैलाव संसार भर में गीता का प्रचार, प्रसार करो, गीता का वितरण करो।
ताकि संसार इस संसार के द्वंद्व से “राउंड एंड राउंड अप एंड डाउन” जो चल रहा है संसार का ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव कछ्छ हबुदुबु भाई भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं। रोलर कोस्टर की तरह इस संसार में अप डाउन, कभी नर्क में तो कभी स्वर्ग में, कभी इस इस योनि में कभी उस योनि में 8400000 योनिया तो है। अब बहुत हो गया और चखना है? एक तो कोविड था अभी उसका बच्चा और एक उत्पन्न हो गया कोई। तो वह भी बिजी रखेगा और वह भी जान लेगा कहीं यो की। तो इस तरह यह नियमित व्यवसाय चल रहा है। नए साल में भी तो ऐसे परिणाम और फल से हमको बचना है। इस नए साल में तो उत्तमश्लोकवार्तया उत्तम श्लोक की वार्ता कथा जो गीता है भागवत है इसका श्रवण कीर्तन करना है । और साथ में
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
और उसके बाद प्रसाद लीजिए और आपका जीवन सफल हो जाएगा। औरों को भी प्रेरित करो। सोशल मीडिया को कैसा मीडिया बनाओ स्प्रिचुअल मीडिया। हाय हेलो छोडो हरे कृष्ण बोलो फोन पर भी इंटरनेट पर भी। ओके समय काफी बीत चुका है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
1 January 2021
Krsna descends for His devotees
Hare Kṛṣṇa! Devotees from 778 locations are chanting with us.
om namo bhagavate vasudevaya!
Today the new year commences, 1 January 2021, the 21st year of the 21st century. Wish you all a very happy new year! It’s a new year just to say that the year has changed. Are you able to experience any new change? I’m not seeing anything different. The same sun has risen today. We still have the same 24 hours. This year will also have 24 hours in a day, 12 months a year.
Baldeva Vidya Bhushan has written his commentary on Bhagavad-Gita, Srila Prabhupada has also written his purports. In the preface of Bhagavad Gita, Srila Prabhupada writes, there are 5 subjects matters – Ishvara (God), Prakriti (Material Nature), Jiva (living entity), Kala (time) Karma (work). Besides Karma all other subject matters are eternal, the Supreme Lord (Ishvara) is eternal, His energy (Prakriti) is also eternal,
parāsya śaktir vividhaiva śrūyate svābhāvikī jñāna-bala-kriyā ca
Translation
“The Supreme Lord has got multi-varieties of energy, and they are working.” [Śvetāśvatara Upaniṣad]
The five elements of nature namely earth, air, water, fire, ether are also eternal; Jiva is an eternal energy of the Lord. Only the Lord and His energies exist eternally. There are different energies in the whole universe, antaranga shakti, bahiranga shakti (material world), adhyatmika shakti (spritual world), tatastha shakti (living entity) all these energies are eternal.
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. (BG 15.7)
Next is kala, time which is also eternal, inconceivable. The Lord says, aham kalosmi; I am death for the living entity.
jātasya hi dhruvo mṛtyur
dhruvaṁ janma mṛtasya ca
tasmād aparihārye ’rthe
na tvaṁ śocitum arhasi
Translation
One who has taken his birth is sure to die, and after death one is sure to take birth again. Therefore, in the unavoidable discharge of your duty, you should not lament. (BG 2.27)
mṛtyuḥ sarva-haraś cāham
udbhavaś ca bhaviṣyatām
kīrtiḥ śrīr vāk ca nārīṇāṁ
smṛtir medhā dhṛtiḥ kṣamā
Translation
I am all-devouring death, and I am the generating principle of all that is yet to be. Among women I am fame, fortune, fine speech, memory, intelligence, steadfastness and patience. (BG 10.34)
I am Kṛṣṇa, I am Govind. govindam adi-purusham tam aham bhajami.
rāmādi-mūrtiṣu kalā-niyamena tiṣṭhan
nānāvatāram akarod bhuvaneṣu kintu
kṛṣṇaḥ svayaṁ samabhavat paramaḥ pumān yo
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation
I worship Govinda, the primeval Lord, who manifested Himself personally as Kṛṣṇa and the different avatāras in the world in the forms of Rāma, Nṛsiṁha, Vāmana, etc., as His subjective portions. (BS 5.39)
People who do not take shelter of the Supreme Lord, Kṛṣṇa arrives in the form of death. Tan anay dhavam….. Yamaraja orders the Yamdutas to get those untruthful persons to him for severe punishment. The material existence is full of of thousands types, one of which is birth and death.
With every activity that we do, we sow a seed. A seed of desire or a seed of sin or piety and in this way karma is not eternal. By time it fructifies and is given to us.
śrī-bhagavān uvāca
karmaṇā daiva-netreṇa
jantur dehopapattaye
striyāḥ praviṣṭa udaraṁ
puṁso retaḥ-kaṇāśrayaḥ
Translation
The Personality of Godhead said: Under the supervision of the Supreme Lord and according to the result of his work, the living entity, the soul, is made to enter into the womb of a woman through the particle of male semen to assume a particular type of body. (SB 3.31.1)
If one has committed pious deeds and similarly if sins are committed, then the influence of time will derive its results.
ūrdhvaṁ gacchanti sattva-sthā
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ
jaghanya-guṇa-vṛtti-sthā
adho gacchanti tāmasāḥ
Translation
Those situated in the mode of goodness gradually go upward to the higher planets; those in the mode of passion live on the earthly planets; and those in the abominable mode of ignorance go down to the hellish worlds. (BG. 14.18)
Therefore as work is done, one will get the results by the influence of time. It may even take several lifetimes.
āyur harati vai puṁsām
udyann astaṁ ca yann asau
tasyarte yat-kṣaṇo nīta
uttama-śloka-vārtayā
Translation
Both by rising and by setting, the sun decreases the duration of life of everyone, except one who utilizes the time by discussing topics of the all-good Personality of Godhead. (SB 2.3.17)
The Lord is known as uttama-śloka, because He is glorified by the best of the verses (sloka) by great demigods and devotees. When a person is engaged in the talks of the Lord, uttama-śloka, the time in the form of death does not affect that person.
mac-cittā mad-gata-prāṇā
bodhayantaḥ parasparam
kathayantaś ca māṁ nityaṁ
tuṣyanti ca ramanti ca
Translation
The thoughts of My pure devotees dwell in Me, their lives are fully devoted to My service, and they derive great satisfaction and bliss from always enlightening one another and conversing about Me. (BG 10.9)
This means that they will not have to suffer the consequences or fruits of any of their deeds or actions. They will be freed from the cycle of birth and death. Both pious and sinful activities are binding by nature. A sinner goes to hell and a pious man goes to heaven, but both are temporary. A devotee doesn’t desire either of these. Devotional activities don’t belong to this world so they do not result in pious or sinful deeds. There are 3 types of activities : akarma (devotional activities), karma (dutiful or piety), vikarma (sinful).
vāsudeve bhagavati
bhakti-yogaḥ prayojitaḥ
janayaty āśu vairāgyaṁ
jñānaṁ ca yad ahaitukam
Translation
By rendering devotional service unto the Personality of Godhead, Śrī Kṛṣṇa, one immediately acquires causeless knowledge and detachment from the world. (SB 1.2.7)
teṣāṁ satata-yuktānāṁ
bhajatāṁ prīti-pūrvakam
dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ
yena mām upayānti te
Translation
To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (BG 10.10)
Krsna said those who have gained knowledge, by reading and hearing Bhagavad-Gita and Srimad Bhagwatam, their karma will get burnt.
yathaidhāṁsi samiddho ’gnir
bhasma-sāt kurute ’rjuna
jñānāgniḥ sarva-karmāṇi
bhasma-sāt kurute tathā
Translation
As a blazing fire turns firewood to ashes, O Arjuna, so does the fire of knowledge burn to ashes all reactions to material activities. ( BG 4.37)
The seeds instead of fructifying will get destroyed by knowledge. The three gates to hell are lust, envy and greed. A person who is not interested in enjoying the fruits of his pious deeds and engages in devotional service attains the eternal abode of Krsna. As stated in Caitanya-caritamrta,
kṛṣṇa-bhakta — niṣkāma, ataeva ‘śānta’
bhukti-mukti-siddhi-kāmī — sakali ‘aśānta’
Translation
Because a devotee of Lord Kṛṣṇa is desireless, he is peaceful. Fruitive workers desire material enjoyment, jñānīs desire liberation, and yogīs desire material opulence; therefore they are all lusty and cannot be peaceful. (CC Madhya 19.149)
Krsna sends death for everyone, He takes away everything from that person, but for His devotees, He Himself descends to take that soul. When you practice devotional service your whole life then at the last breath you shall remember Kṛṣṇa and you will certainly attain Kṛṣṇa. Any engagement in the nine process of devotional service is bhakti.
śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ
smaraṇaṁ pāda-sevanam
arcanaṁ vandanaṁ dāsyaṁ
sakhyam ātma-nivedanam
Translation
Hearing and chanting about the transcendental holy name, form, qualities, paraphernalia and pastimes of Lord Viṣṇu, remembering them, serving the lotus feet of the Lord, offering the Lord respectful worship with sixteen types of paraphernalia, offering prayers to the Lord, becoming His servant, considering the Lord one’s best friend, and surrendering everything unto Him (in other words, serving Him with the body, mind and words) — these nine processes are accepted as pure devotional service. (SB 7. 5.23)
In this way we understand death (kaal) and karma (action). These are the total five topics explained in Bhagavad Gita. New year has arrived, but we don’t have to do anything new. You are supposed to continue with your devotional activities. Engage in hearing, chanting and singing the glories of Kṛṣṇa, uttama-śloka-vārtayā. We are discussing on several topics daily, go and preach them to others. Distribute more and more books.
In this world we are experiencing lots of ups and downs, round and rounds like a roller-coaster ride. To be protected and saved we must engage ourselves in devotional activities.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Utilize the media, make it spiritual media, reach out with knowledge of Bhagavad Gita to more and more people.
Hare Krsna!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
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