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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
31 जनवरी 2021
(जय) श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृंद।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
हरे कृष्ण, आज हमारे साथ 800 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि हरि। सब को ठीक से सुनाई दे रहा है? अभी कुछ श्रोता मेरे सामने भी बैठे हुए हैं। इस जपा टॉक के अंतर्गत हम श्रील प्रभुपाद के हरिनाम के संबंधित टॉक के ऊपर यानी चर्चा के ऊपर चर्चा करते हैं, या श्रील प्रभुपाद के हरिनाम के ऊपर चर्चा या विधि को, या निषेध को, जिसको प्रभुपाद ने कहा है, उनको समझने का यथासंभव प्रयास कर रहे हैं। हम श्रील प्रभुपाद का टॉक 3 दिनों से सुन रहे हैं और अभी शेष वचन जो है आज सुनेंगे या उसकी पूर्णाहुति होगी। हरि हरि। बातें तो कुछ अधिक नहीं बची हैं लेकिन उसके साथ जुड़े हुए भावों की गहराइयां या ऊंचाई अधिक है। ऐसी बातों को कहते कहते और समझते समझते समय तो बीतता ही है। प्रभुपाद हमेशा कहा करते थे, “कृष्ण राम और हरा यह तीन शब्द हरे कृष्ण महामंत्र के परलौकिक बीज हैं और जप मतलब भगवान को कि हुई आध्यात्मिक पुकार है। और हरा इसकी आंतरिक शक्ति है जो जीव को जागरूकता प्रदान करती है।” श्रील प्रभुपाद ने इसको पढ़ा था और समझाया भी था और श्रील प्रभुपाद आगे लिखते हैं कि, जप बिल्कुल वास्तविक रोना है जैसे एक बच्चा अपनी मां के लिए रोता है। तो फिर आगे यह बताने की जरूरत नहीं है कि जप कैसे करें या, कीर्तन कैसे करें और उसमें एक और कहा जा सकता है कि जैसे प्रभुपाद ने यंहा पर कहा है, जप बिल्कुल एक वास्तविक रोना है, जैसे बच्चा अपनी मां के लिए रोता है या फिर जप या कीर्तन ऐसा हो की, एक छोटे बच्चे की मां के लिए रोने जैसा लगे और बालक किसके लिए रोता है? मां के लिए रोता है! हरि हरि। तो यहां हम बालक हैं, और रो सकते हैं, लेकिन हमें रोना नहीं आता है! रोना सीखना है! फिर हमारी मां कौन है? अगर भक्त बालक है, और बच्चा है जैसे अभी बड़े नहीं हुए, अभी भी बच्चे ही हैं। हमारे लिए मां कौन है? भक्तों के लिए मां कौन है? भक्तों के लिए मां भगवान है! बच्चे के लिए कौन होती है मां होती है ना? पहले कौन होता है? मां होती है या बच्चा? मां होती है और इसीलिए बालक होता है! ऐसे ही अगर भक्त बालक हैं, नए भक्त अगर बालक हैं, हम षड गोस्वामी जेसे पुराने भक्त नहीं हैं! उत्तम भक्त, समझदार भक्त नहीं हैं! हम अभी नए-नए हैं, ऐसे ही बालक के पहले मां होती है, अगर मां है तभी बालक है, तो वैसे ही अगर हम भक्त हैं नए या पुराने हैं, अगर भक्त हैं तो फिर भगवान होने चाहिए कि नहीं? पहले भगवान और फिर बाद में भक्त! वैसे आध्यात्मिक जगत में पहला और बाद में यह नहीं चलता है। जब भगवान थे उस समय भक्त भी था,
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
(भगवतगीता १५.७ )
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिनमें मन भी सम्मिलित है।
एक समय ऐसा भी था जब केवल भगवान थे और कोई नहीं था, ऐसा समय ही नहीं होता गीता के प्रारंभ में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि ऐसा समय नहीं था जब तुम नहीं थे यह राजा नहीं थे ऐसा कोई समय ही नहीं था संसार ने ऐसा समय देखा ही नहीं जब हम नहीं थे और हम सदा के लिए रहेंगे भी भगवान शाश्वत हैं तो हम भी शाश्वत ही हैं हम उनके भक्त या अंश भी शाश्वत ही हैं पहले अंडा या पहले मुर्गी ऐसे क्रश प्रश्न का उत्तर कठिन है तो ऐसे ही पहले भगवान या पहले भक्त लेकिन पहले वक्त तो हो ही नहीं सकता तो ऐसा कोई समय नहीं था जब भगवान थे और कोई नहीं था या जीव नहीं था तो हम हैं भक्त और हमारी मां है भगवान!
विठू माझा लेकुरवाळा
संगे गोपाळांचा मेळा
विठू माझा लेकुरवाळा
(संत जनाबाई अभंग)
तो भगवान विठोबा! विठोबा रखुमाई! हमारे विठोबा! कोई कोई विठू माऊली या विठुआई ऐसे भी कहते हैं। विठोबा माऊली हैं! मां हैं! वैसे मां भी हैं और बाप भी हैं! बा है ना विठोबा? म्हसोबा नहीं! म्हसोबा का भी बाप है विठोबा! म्हसोबा, खंडोबा, ज्योतिबा इनके बाप भी विठोबा ही हैं! या फिर भगवान केवल मा ही नहीं हैं,
त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।।
भगवान हमारे सब कुछ हैं, वैसे अलग-अलग संबंध हैं भगवान के साथ तो यह जो चर्चा हो रही जॉब या कार्य कर रहे हैं वास्तविक रोना, बालक का वास्तविक रोना अपनी मां के लिए, हम हैं बच्चे और हमारा रोना भगवान के लिए है। एक तो रोना वास्तविक होना चाहिए असली होना चाहिए जैसे असली भाग होते हैं वैसे ही यह वास्तविक भाव होना या वास्तविक रोना जैसे बालक का वास्तविक रोना कहा है। बाबा का वास्तविक रोना नहीं कहा, एक बच्चे के रोने में और एक बाबा के रोने में अंतर हो सकता है। इसीलिए जानबूझकर प्रभुपाद जब रोने की बात कर रहे हैं तो कहते हैं कि रोना वास्तविक होना चाहिए और एक बालक का ही रोना वास्तविक होता है।
जब बालक धीरे-धीरे बड़ा होता है तो इस संसार में या कलयुग में पाखंड चलता रहता है और कलयुग की पहचान ही है पाखंड या ढोंग तो फिर लोग रोने का भी प्रदर्शन कर सकते हैं तो जब कोई शोकसभा होती है या स्मृति सभा होती है तो वहां पर रोना होता है या रोना चाहिए, तो लोग फिर अपना रुमाल थोड़ा सा गिला करके ले जाते हैं और फिर समय-समय पर आंख पोंछते हैं या आपको गिला भी करते हैं। अश्रु तो नहीं होते लेकिन वे दिखाते हैं कि, हां हां मैं रो रहा हूं! इसकी मृत्यु हुई है और मैं शोक कर रहा हूं और जब शौक कर रहा हूं तो आंख में आंसू हैं लोग ऐसा दिखाते हैं। लेकिन लोग ढोंग करते हैं तो कभी कभी दूसरे कहते हैं, क्या तुमने मुझे बुद्धू समझा है? क्योंकि वे उनको पकड़ लेते हैं। ऐसा ढोंग नहीं चलेगा! एक पार्टी दूसरे पार्टी की ठगाई करती है तो कोई कोई बीच मे बोलता है कि, मुझे सब पता है, क्या तुमने मुझे बुद्धू समझा है? तो अगर किसी के ठगाई या ढोंग को अगर साधारण लोग भी समझ लेते हैं, भगवान को कोई ठग सकता है? अगर हमारा रोना वास्तविक नहीं है लेकिन हम इसका प्रदर्शन कर रहे हैं, तो क्या आप भगवान को मना पाएंगे? यहां पर ठगाई नहीं चलेगी और भगवान के सामने तो एक क्षण के लिए भी नहीं चलेगी! हरि हरि। ठगाई तो खूब चलती रहती है। वैसे जो रोना है अध्यात्मिक जगत में या आध्यात्मिक स्तर पर खूब चलता है यह स्वाभाविक है कि,
भगवान के लिए आंसू बहाना और आंसुओ के भी दो प्रकार होते हैं। आनंद के भी आश्रु होते हैं और दुख के भी आश्रु होते हैं। दोनों प्रकार के आंसू बहाना गोलोक में वैकुंठ में थोड़ा कम होगा। गोलोक में यह रोज की दिनचर्या है। यह पग पग पर चलता रहता है। भगवान के लिए रोना। हरि हरि। पिछले साल एक भक्त सेमीनार दे रहे थे गोवर्धन में। उसका विषय था कृष्ण के लिए रोना। कृष्ण के लिए असली ऐसा ही विषय था उनका। मुझे यह ज्ञात नहीं है कि होने कैसे विवरण और प्रस्तुतीकरण किया। यह विषय अग्रिम अध्य्यन है। यह क ख ग नहीं है। यह पीएचडी स्तर का विषय है। हरि हरि। लोग तो पहुंचे हुए महात्मा नहीं होते, लेकिन दिखाते तो हैं वह कई बार पहुंचे तो नहीं होते, लेकिन हम पहुंचे हैं। जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश किया था।
क्या हुआ ? बहुत कुछ हुआ जगन्नाथ के लिए रोना एक प्रकार का भाव है, ऐसे ही कई सारे भाव प्रदर्शित होते हैं। संख्या 8 होती है और उसके अलग-अलग लक्षण हैं। हमारे असली भाव और भक्ति का लक्षण और प्रदर्शन होता है। लक्षण दिखाना नहीं चाहते तब भी दिखते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने प्रवेश किया तो उनका गला गदगद हो उठा। इसके कारण वह जगन्नाथ भी नहीं कह पाए। जग जग जग इतना ही शब्द निकल रहा था। नाथ भी नहीं कह पा रहे थे। किब शिव शुक नारद प्रेमे गदगद प्रेमे गदगद गला उनका गदगद हो गया। शिवजी पहुंचे, शुकदेव गोस्वामी हैं, नाराद जी हैं, देखो देखो गौरंग महाप्रभु की आरती को तो देखो। किब जयो जयो गौराचंद्र आर्तिको शोभा उस आरती में नारद जी और शुकदेव गोस्वामी पहुंचे हैं। जब वह आरती गा रहे हैं और दर्शन भी हो रहा है।
गला गदगद हो उठना भी एक लक्षण है और यह लक्षण हमने चैतन्य महाप्रभु में देखा। हरि हरि। राधानाथ महाराज की जय। महाराज भी जब गाते हैं तो हम उनके चेहरे पर देख सकते हैं। उनके चेहरे पर भाव देख सकते हैं, वह कृष्ण को याद कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का गला गदगद हो उठा, वह लोटने लगे दर्शन मंडप में, उनका प्रयास था कि जगन्नाथ के ओर दौड़ रहे थे लेकिन वह धड़ाम गिर गए और उनको ध्यान नहीं रहा। तो तब वैसे वहां के पुजारी ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। ऐसे तो कहीं सारे देखे हमने। लोग आते हैं अपने भाव भक्ति का प्रदर्शन ढोंगी पाखंडी करते रहते हैं। हमने तो कई सारे देखेंगे तो यह एक और है। किंतु वह जो भाव थे, असली भाव थे।
जो सिद्ध हुआ सर्व भट्टाचार्य वह निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे की हमने तो कई सारे देखे हैं। यह भी उसी माला के और एक मणि होंगे ऐसा सर्व भट्टाचार्य ने नहीं समझा। वह परीक्षा लेना चाहते थे। निरीक्षण परीक्षण हुआ तो उन्होंने घोषित किया यह केवल भाव ही नहीं है, यह महाभाव है। भाव भक्तों में हो सकता है किंतु राधारानी में होता है महाभाव। महाभाव स्वरूप श्रीराधा ठाकुरानी सर्व गुण खानी कृष्णकांतशिरोमणि। लोग तो नकल करते रहते हैं असली नहीं होते नकली होते हैं। इस कलयुग में ऐसा प्रदर्शन चलता ही रहता है। लेकिन उससे काम नहीं बनेगा। इसका क्या फायदा? सन १९७७ मायापुर उत्सव हुआ था। जय पताका महाराज के निर्देशन में उस कार्यक्रम का संचालन हो रहा था।उन्होंने एक कीर्तन प्रतियोगिता रखी थी और पूरे बंगाल भर के अलग-अलग कीर्तन मंडलियों ने भाग लिए थे। उन दिनों जहां कीर्तन होते थे। लोटस इमारत में द्वितीय मंज़िल पर प्रभुपाद रहते थे उसका स्पीकर उनकी इमारत की तरफ था। सारा कीर्तन प्रभुपाद के कानों तक पहुंच रहा था। बंगाल के जो कीर्तन मंडलियां पूरा प्रदर्शन कर रही थी कि अपनी भक्ति भावना का, कुछ पूछो नहीं और उसमें विश्व भर के भक्त सम्मिलित थे। फिर क्या कहना विदेश के लोग देखेंगे हमारे कीर्तन को देखेंगे और सुनेंगे तो फिर थोड़ा विशेष प्रयास रहा उनके प्रदर्शन का। तो उस कीर्तन के समय लोग ऐसे रो रहे थे, सच में रो रहे थे।
एक दूसरे को गले लगा रहे थे, आलिंगन दे रहे थे, जमीन पर लोट रहे थे। एक के बाद एक के बाद एक मंडली अपना प्रदर्शन कर रही थी, उनको लग रहा था जो मंडली अधिक रोएंगे वह जीतेंगे। लेकिन वह सारा प्रदर्शन ही था। प्रभुपाद भी सुन रहे थे तो उन्होंने यह बात पकड़ ली और वह समझ गए, यह असली नहीं है। यह तो ढोंग है स्वांग है। प्रभुपाद कह रहे थे जप कर रहे हैं और गा रहे हैं वह भगवान के लिए नहीं गा रहे हैं, वह धन के लिए गा रहे हैं। विजेता मंडली को फिर कुछ पुरस्कार मिलेगा, रु500 या रु1000। प्रभुपाद ने कहा अब यह प्रतियोगिता नहीं होगी। अब बहुत हो गया यह पहला और आखरी था। हरि हरि। यह जो कीर्तन में रोने वाले जो लोग होते हैं। जय पताका महाराज ने हमको कहा कि जो कीर्तन के लिए आते हैं। साथ में एक डिब्बी लेकर आते हैं, उसमें होती है मिर्च पाउडर। कीर्तन करते करते ही बड़ी चालाकी से कुछ नाक में कुछ आंखों में मिर्ची डाल लेते हैं तो फिर अगले 1 घंटे तक फिर रोते रहते हैं और यह भाव कैसा है चिली (मिर्च) भाव है। यह भाव भक्ति आत्मा से नहीं आ रही है। यह सिर्फ आंखों तक ही सीमित है। इसकी गहराई आत्मा तक या हृदय तक, गहराई कहो या संबंध यह आत्मा की पुकार नहीं है। जब तक हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे आत्मा की पुकार नहीं आए तो वह पुकार कोई सुनने वाला भी नहीं है, कम से कम भगवान तो नहीं सुनेंगे, वैसे सुनेंगे तो सही जैसे प्रभुपाद सुन रहे थे। लेकिन वह समझ जाएंगे उसी क्षण, ये रोना कैसा है आंसु बहाने के पीछे क्या विचार है, मन की स्थिति क्या है।
ऐसी मन की अवस्था में हमें निरंतर जप करते रहना चाहिए। कीर्तनया सदा हरी कीर्तन सदा होगा, अखंड होगा, खंडित नहीं होगा। कीर्तन कैसा हो? अहेतु – उसमें कोई हेतु ना हो और अप्रतियता – अखंड हो। उसी को चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि कीर्तनया सदा हरी। ऐसा कीर्तन तभी संभव है इसके लिए शर्ते हैं जो चैतन्य महाप्रभु ने बनाई है। सूनिचेना यह शब्द सुन रहे हो कितना नीच सूनिचेना। नीच मतलब नीच कहीं का वह भाव नहीं है, जो खुद को घास से नीच समझता है। यह मन की स्थिति है। यह मन का भाव है। सूनिचेना स्वयं को निम्न समझना। वृक्ष से भी अधिक सहनशील। अमानीना मतलब इसके द्वारा, ऐसे मन के द्वारा जो अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा नहीं करता औरों को मान देता है औरों का सम्मान सत्कार करता है। ऐसा व्यक्ति ऐसे मन की स्थिति के साथ निरंतर जप कर सकता है। मन की ऐसी स्थिति हमारे रोने तक, आंसू बहाने तक पहुंचा देगी। तो फिर जप का फल कृष्णप्रेम है मतलब कृष्ण ही है कृष्ण प्राप्ति हो। यह सब संभव है।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
31 January 2021
Hara, Krishna, and Rama are transcendental seeds of the maha-mantra
Devotees are chanting from 680 locations. We were discussing Srila Prabhupada’s talks on harinama. We are also discussing the rules and regulations of Harinama which Srila Prabhupada has recommended for us. Today we will conclude the ongoing topic. We don’t have much to speak on the rules and regulations today. But we will try to go deeper into it.
Srila Prabhupada writes, “The three words, namely Hara, Krishna, and Rama, are transcendental seeds of the maha-mantra, and the chanting is a spiritual call for the Lord and His internal energy, Hara, for giving protection to the conditioned soul. The chanting is exactly like a genuine cry by the child for the mother”.
Even the Japa or Kirtana should be in this mood of a child crying for the mother. If we consider ourselves in the place of this child then we don’t know how to cry. We need to learn this art of crying. Who is the mother of a devotee? From a mother comes a child. We see devotees here, then God must be here. Or not? But in the case of Krsna and devotees, their appearance is simultaneous.
mamaivamso jiva-loke
jiva-bhutah sanatanah
manah-sasthanindriyani
prakrti-sthani karsati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal, fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind.[BG 15.7]
As Krsna said in Bhagavad Gita – There was never a time when you were not there or I was not there. There was no time when Krsna was not there or the jiva was not there. In Marathi, we say Vithoba Mauli, mother or father to be precise. The Lord is not just a father, He is a mother also. He is a well-wisher and a friend. As a child, we should cry for the Lord, and also our crying should be genuine. There are genuine spare parts of a machine and as well fake ones. There are two conditions – crying should be genuine and it should be like that of a child.
In Kaliyuga, there is hypocrisy. In funeral ceremonies, people cry. People make a fake show of tears in their eyes. This kind of fake show won’t be entertained. Even a normal person can judge whether this person is putting on a show or is genuinely crying. If a normal person can judge then who could make a fool of Krsna. He is God. There are two types of tears – it’s a daily practice in Goloka. They cry for Krsna, sometimes in union and another time in separation. Even last year one seminar was arranged at Govardhan. The topic was “Crying for Krsna.” It’s an advanced topic. Most people are not very advanced, but they make a show of their advancement. For example, when Sri Caitanya Mahaprabhu went to Jagannatha Puri temple, so many things happened there. As soon as He entered the Jagannatha temple his throat choked. He could barely pronounce Jag….
śiva-śuka-nārada preme gada-gada
bhakativinoda dekhe gorāra sampada
Translation
Lord Śiva, Śukadeva Gosvāmī, and Nārada Muni are all there, and their voices are choked with the ecstasy of transcendental love. Thus Ṭhakura Bhaktivinoda envisions the glory of Lord Śrī Caitanya. [Gaura-arati verse 7]
… this is one symptom. Even when Radhanath Swami Maharaja sings we can observe through his expressions that he is missing Krsna. When Caitanya Mahaprabhu entered He had fallen on the ground. Nobody took it seriously, thinking they had seen so many Sadhus like Him. Savabhauma Bhattacarya took Caitanya Mahaprabhu home and after inspection he declared that it was not just bhava. It was Maha-bhava. Devotees can reach the stage of bhava, but only Radharani could experience Maha bhava. Once in Mayapur, a Kirtana competition was organised by Jayapataka Swami Maharaja. So many kirtana mandalis participated. Srila Prabhupada was hearing everything from his room. They were overly excited because of the international audience. Local Bengali teams were crying and rolling on the ground. They were showing ecstatic symptoms, but Srila Prabhupada caught that. He said that they were not genuine. They were not chanting for the Lord, but for the money. He declared there would be no more Kirtan Competitions. Jayapataka Maharaja was sharing that they would come with a box of chilli powder, and very cleverly they would put that in their eyes and then they would cry for the next hour. This was called “Chilli Bhava”. We don’t want such bhava. This won’t help, at least in the case of Krsna. He knows our interior motives.
tṛṇād api sunīcena
taror api sahiṣṇunā
amāninā mānadena
kīrtanīyaḥ sadā hariḥ
Translation
One should chant the holy name of the Lord in a humble state of mind, thinking oneself lower than the straw in the street; one should be more tolerant than a tree, devoid of all sense of false prestige, and should be ready to offer all respect to others. In such a state of mind, one can chant the holy name of the Lord constantly. [ Sri Siksastakam Verse 3]
We should consider ourselves lower than a blade of grass, more tolerant than the tree. In such a state of mind, one can attain Krsna. He can chant continuously, uninterrupted.
Gaur Premanande Hari Haribol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ३०.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७६० स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
हरि! हरि!
सुप्रभातम! हरे कृष्ण!
हरिलीला! हरे कृष्ण! उदय, क्या कृष्णभावना का कुछ उदय उदयपुर में हो रहा है? मायापुर चंद्रोदय?
जैसा कि हम पिछले कुछ दिनों से प्रभुपाद द्वारा की गई हरि नाम की महिमा पर रिकॉर्डिंग व भाष्य व गान व विधि विधान या विधि निषेध पढ़ रहे हैं। श्रील प्रभुपाद ने हरि नाम की महिमा के भाष्य में अंत में लिखा है जिसका हम अब अंतिम वचन लेंगे। (श्रील प्रभुपाद यहाँ अंग्रेजी में कह रहे हैं और हम उसे हिंदी में सुना रहे हैं) श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि हरे कृष्ण महामंत्र जो है, वह तीन बीजों का मंत्र है। वे तीन बीज हैं – राम, कृष्ण, हरा। उसी से राम, कृष्ण, हरे हो जाते हैं। बीज मंत्र जो बीज नाम अथवा मूल नाम है, उससे महामंत्र बनता है। वैसे राम: कृष्ण: और हरा होता है परंतु यहां श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि जब हम इस बीज मंत्र अर्थात इस बीज नाम वाले मंत्र को पुकारते हैं अथवा संबोधित करते हैं तब हम कृष्ण को संबोधित करते हैं, श्री राम को संबोधित करते हैं, हरा को संबोधित करते हैं। जब हम संबोधित करते हैं तब हरा का हरे संबोधन होता है, हरा का संबोधन शब्द हरे है और राम: के संबोधन में राम ही बचता है और विसर्ग हट जाती है। (विसर्ग समझते हो? वह जो कई शब्दों के अंत में बिंदी लगाते हैं। यह प्रथम विभक्ति है।) राम: का राम होता है। राम: का राम संबोधन है। कृष्ण: का कृष्ण संबोधन है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जब हम यह महामंत्र कहते और लिखते भी हैं। तब उसमें फिर हरे राम: नहीं है । हरे कृष्ण: नहीं है अपितु हरे राम है, हरे कृष्ण है।
प्रभुपाद कह रहे हैं कि हम राम, कृष्ण, हरा को पुकारते अथवा बुलाते अथवा सम्बोधित करते हैं। हम इस महामन्त्र का कीर्तन और जप करते समय उन्हें पुकारते अथवा सम्बोधित करते हैं। हरि! हरि!
हमारे पुकारने का उद्देश्य क्या होता है? हमारी रक्षा हो। हे राम! हे कृष्ण! हे राधे! हे हरे! बचाओ! रक्षा करो! मुक्त करो! हमें भक्त बनाओ। हमें अपनी सेवा में लगाओ। यह प्रार्थना अथवा सम्बोधन है ताकि हमारी रक्षा हो जिससे हम बचें और हमारा उद्धार हो। इसलिए हम सम्बोधित करते हैं। मूल रूप से राम, कृष्ण, हरे यह महामन्त्र के बीज हैं या बीज नाम हैं। राम और कृष्ण दो नहीं हैं अपितु राम और कृष्ण एक ही हैं। एक कृष्ण को ही हम सम्बोधित करते हैं। पहले आधे मन्त्र में हरे कृष्ण कहते हैं और शेष मंत्र में उसी कृष्ण को हम राम कहते हैं। बस दो अलग- अलग नामों अथवा सम्बोधनों से पुकारते हैं किन्तु व्यक्ति तो एक ही है, हम कृष्ण को ही पुकारते हैं। तत्पश्चात हमनें हरे कृष्ण कहा या हरे राम कहा, उस समय कृष्ण को ही पुकारते हैं। राम और कृष्ण तो एक ही हैं। फिर हरे बच गया। ऐसा भी कहा जा सकता है कि राधा और कृष्ण या कृष्ण और राधा को ही पुकारते हैं।
कौन सा मन्त्र, महामन्त्र है? हरे कृष्ण मन्त्र, महामन्त्र है। हरे और कृष्ण ही बच गए। हरि! हरि!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह भविष्यवाणी की थी
पृथिवीते आछे यत नगरादि- ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठ भाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं कि सर्वत्र मेरे नाम का प्रचार होगा और हरे कृष्ण हरे कृष्ण का प्रचार हो भी रहा है।
हां! सही है। क्योंकि ‘मोर नाम’ देने वाले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही राधा कृष्ण हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नहे अन्य
( चैतन्य भागवत)
अर्थ:- भगवान् चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
मेरे नाम का प्रचार होगा अर्थात हरे कृष्ण हरे कृष्ण का प्रचार होगा। क्योंकि मैं राधा हूं, मैं ही कृष्ण हूँ।
राधा कृष्ण- प्रणय-विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम्।।
( श्रीचैतन्य- चरितामृत आदि लीला श्लोक १.५)
अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान की अंतरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किंतु उन्होंने अपने आप को अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब यह दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्री कृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूं, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंग कांति के साथ प्रकट हुए हैं।
जो दो थे, वे एक हो गए।
हरि! हरि!
वे गौरांग है। गौरांग! गौरांग! उन्हें गौरांग क्यों कहते हैं? वह एक हुए हैं। राधा कृष्ण एक तनु हैं। राधा कृष्ण मिलकर एक विग्रह अथवा रूप बना है। उनका नाम हरे कृष्ण है। हरे राधा! हरे कृष्ण। हरि! हरि!
इतना तो करना स्वामी,
जब प्राण तन से निकले तो आप आ जाना और राधा को भी साथ ले आना – ऐसी प्रार्थना भक्त किया करते हैं। इस प्राकट्य में इस अवतार में अवतारी श्री कृष्ण राधा को साथ में ले आए हैं। अंत: कृष्ण: बाहिर गौर ऐसा चैतन्य भागवत में उल्लेख है। अंदर कृष्ण छिपे हैं और बाहर राधा है। इसलिए वे गौरांग हो गए। बाहर से वह गौरांगी है अर्थात बाहर से वे राधा हैं। उस विग्रह में राधा का रंग और राधा की कांति का दर्शन होता है। श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य!
राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम् अर्थात मैं
उस स्वरूप को नमस्कार करता हूं। कौन से स्वरूप को? राधा-भाव-द्युति-सुवलितं अर्थात जिस स्वरूप में भगवान ने राधा के भाव को अपनाया है। राधा-भाव-द्युति, द्युति मतलब कांति अथवा रंग। मैं राधा के भाव व राधा की कांति को अपनाए हुए उस विग्रह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करता हूं। हरि! हरि! इस महामंत्र में राधा नाम है इसीलिए भी यह मंत्र महामंत्र बनता है। यह केवल कृष्ण नाम या राम नाम का मंत्र नहीं है या अन्य अवतारों के नाम वाला मंत्र नहीं है। अवतारी श्री कृष्ण के साथ में राधा भी है। साथ में राधा होने के कारण यह मंत्र अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र बन गया है। केवल कृष्ण होता तो शायद यह केवल मंत्र ही कहलाता लेकिन साथ में राधा है इसलिए यह मन्त्र कहलाता है और महामंत्र है भी। राधा साथ में होने से राधा की कृपा प्राप्त होती है, उस जप कर्ता अथवा कीर्तन कर्ता को अर्थात जो
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। महामंत्र का करता है। जैसा कि श्रील प्रभुपाद समझाते हैं कि हम कृष्ण राधा को बुला रहे हैं, पुकार रहे हैं। जब हम राधा को संबोधित करते हैं, तब इस महामंत्र का जप करने वाले को या इस महामंत्र का कीर्तन करने वाले को राधा की विशेष कृपा और अनुग्रह प्राप्त होती है अथवा वह विशेष लाभान्वित होता है। हम कल ही सुन रहे थे जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने कहा था कि हम तटस्था शक्ति हैं, जब हम अंतरंगा शक्ति अथवा दिव्य शक्ति ‘हरा’ अर्थात राधे के संपर्क में आते हैं और हम राधा को पुकारते हैं तब जीवात्मा सुखी होती है और राधा रानी के कारण आनंद का अनुभव करती है। राधा रानी उसको सुखी अथवा आनंदित बनाती हैं। जीव को राधा रानी से आनंद प्राप्त होता है। यह बात राय रामानंद ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को कही थी। यह प्रसिद्ध संवाद राय रामानंद और गौरांग महाप्रभु के मध्य हुआ था। जिसका उल्लेख चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला अष्टम परिछेद अथवा अध्याय में हुआ है।
कृष्णके आह्लादे, ता’ते नाम- ‘ह्लादिनी’। सेइ शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ८.१५७)
अनुवाद:- ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को दिव्य आनन्द प्रदान करती है। इसी ह्लादिनी शक्ति के माध्यम से कृष्ण समस्त आध्यात्मिक आनंद का स्वयं आस्वादन करते हैं।
राधारानी भगवान की ह्लादिनी शक्ति है। भगवान सच्चिदानंद हैं। राधारानी उनको आनन्द देती हैं। अतः आनन्दप्रदा भी कहलाती हैं। आनन्द देने वाली आनन्दप्रदा यह राधारानी का एक नाम है। आनन्दप्रदा अर्थात आनंद देने वाली। किसको आनन्द देती हैं? कृष्णके आह्लादे अर्थात कृष्ण को आह्लाद देती हैं अर्थात आनन्द देती हैं। इसलिए राधा का एक नाम आह्लादिनी हैं अथवा आह्लादिनी शक्ति कहलाती हैं।
‘सेइ शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि’ श्री कृष्ण जो सुख और आनन्द लूटते हैं अर्थात सुखोउपभोग करते हैं, वह राधारानी के कारण होता हैं
सेइ शक्ति- द्वारे ह्लादिनी शक्ति है। राधा शक्ति हैं। शक्ति के माध्यम से ‘शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि’ स्वयं श्रीकृष्ण आस्वादन करते हैं अर्थात आह्लाद का अनुभव करते हैं। यह एक बात हुई। दूसरे वचन में आगे राय रामानंद कहते हैं
सुख रूप कृष्ण करे सुख आस्वादन।भक्त- गणे सुख दिते ‘ ह्लादिनी’- कारण।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ८.१५८)
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण मूर्तिमान सुख होते हुए भी सभी प्रकार के दिव्य सुख का आस्वादन करते हैं। उनके शुद्ध भक्तों द्वारा आस्वादन किया गया सुख भी उनकी ह्लादिनी शक्ति से प्रकट होता है।
यह भी रहस्यमयी बात है। कृष्ण तो स्वयं ही सुख का रूप हैं, वे स्वयं ही सुख के सागर हैं। वे स्वयं ही आनन्द की खान हैं। फिर भी राधा रानी उनके सुख और आनंद का कारण बन जाती हैं। हरि! हरि!
यह बातें अचिन्त्य भी कहलाती हैं। जहाँ तक हम कुछ थोड़ा समझ पाए हैं, यह कृष्ण ही जाने या राधा ही जाने कि कौन किसको सुख देता है। राधा कृष्ण को सुख देती हैं अथवा कृष्ण राधा को सुख देते हैं या दोनों में प्रतियोगिता चलती रहती है।
चैतन्य चरितामृत में लिखा है कि कृष्ण हार जाते हैं और कहते हैं कि अगली बार जब मैं अवतार लूंगा तब मैं राधारानी बनूंगा और राधारानी को समझना चाहूंगा।
राधा के भाव, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का कारण बने। चैतन्य चरितामृतकार, चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में लिखते हैं
भक्त-गणे सुख दिते ह्लादिनी कारण।
भक्तों, जीवों, तटस्थ शक्ति जो सुख प्राप्त होता है वो सुख आह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। राधारानी के कारण जीव को भी सुख प्राप्त होता है। राधारानी और आह्लादिनी शक्ति केवल कृष्ण को ही आनन्द नहीं देती हैं अपितु जीवों को भी आनन्द देने वाली भी राधारानी ही हैं।आह्लादिनी शक्ति जीव के सुख का कारण बन जाती हैं। वह दोनों को सुख देती हैं। राधारानी, कृष्ण को भी सुख देती हैं और जीवों को भी सुख देती हैं।
राधारानी की जय!
महारानी की जय!
यह हरे कृष्ण महामन्त्र ऐसा महामन्त्र है जिसमें हम कृष्ण को भी पुकारते हैं और ऐसी राधारानी को भी पुकारते हैं।
श्रील प्रभुपाद जब जलदूत जहाज से न्यूयॉर्क की ओर जा रहे हैं। रास्ते में 10 सितंबर1965 अर्थात न्यूयॉर्क में कुछ ही दिनों में पहुंचने ही वाले थे। 13 सितंबर को वहां बोस्टन क्षेत्र में जलदूत जहाज पहुंचा था। उस समय प्रभुपाद के जो विचार अथवा उदगार रहे, वे उन्होंने एक गीत के रूप में लिखे थे।
(टेक) कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ। ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥ ध्रुव अति बोलि तोमा ताइ। श्री सिद्धांत सरस्वती शची-सुत प्रिय अति कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए। सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ॥1॥ ताँर इच्छा बलवान पाश्चात्येते थान थान होय जाते गौरांगेर नाम। पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी सकलेइ लोय कृष्ण नाम॥2॥ ताहले आनंद होय तबे होय दिग्विजय चैतन्येर कृपा अतिशय। माया दुष्ट जत दुःखी जगते सबाइ सुखी वैष्णवेर इच्छा पूर्ण हय॥3॥
से कार्य ये करिबारे, आज्ञा यदि दिलो मोरे योग्य नाहि अति दीन हीन। ताइ से तोमार कृपा मागितेछि अनुरूपा आजि तुमि सबार प्रवीण॥4॥ तोमार से शक्ति पेले गुरू-सेवाय वस्तु मिले जीवन सार्थक जदि होय। सेइ से सेवा पाइले ताहले सुखी हले तव संग भाग्यते मिलोय॥5॥ एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्। कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्॥6॥ तुमि मोर चिर साथी भूलिया मायार लाठी खाइयाछी जन्म-जन्मान्तरे। आजि पुनः ए सुयोग यदि हो योगायोग तबे पारि तुहे मिलिबारे॥7॥
तोमार मिलने भाइ आबार से सुख पाइ गोचारणे घुरि दिन भोर। कत बने छुटाछुटि बने खाए लुटापुटि सेई दिन कबे हबे मोर॥8॥ अजि से सुविधान तोमार स्मरण भेलो बड़ो आशा डाकिलाम ताए। आमि तोमार नित्य-दास ताइ करि एत आश तुमि बिना अन्य गति नाइ॥9॥
अर्थ: शुक्रवार, 10 सितम्बर, 1965 के अटलांटिक महासागर के मध्य, अमेरीका जा रहे जहाज पर बैठे हुए श्रील प्रभुपाद जी ने अपनी डायरी में लिखा, “आज जहाज बड़ी सुगमता से चल रहा है। मुझे आज बेहतर लग रहा है। किन्तु मुझे श्री वृन्दावन तथा मेरे इष्टदेवों- श्री गोविंद, श्री गोपीनाथ और श्री राधा दामोदर – से विरह का अनुभव हो रहा है। मेरी एकमात्र सांत्वना श्रीचैतन्यचरितामृत है, जिसमें मैं चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का अमृत चख रहा हूँ। मैंने चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुगामी श्रीभक्तिसिद्धांत सरस्वती का आदेश कार्यान्वित करने हेतु ही भारत-भूमि को छोड़ा है। कोई योग्यता न होते हुए भी मैंने अपने गुरूदेव का आदेश निर्वाह करने हेतु यह खतरा मोल लिया है। वृंदावन से इतनी दूर मैं उन्हीं की कृपा पर पूर्णाश्रित हूँ। ” तीन दिन पश्चात, (13 सितम्बर, 1965) शुद्ध भक्ति के इस भाव में, श्रील प्रभुपाद ने निम्नलिखित प्रार्थना की रचना की।
हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूँ कि तुम्हें भगवान् श्रीकृष्ण से पुण्यलाभ की प्राप्ति तभी होगी जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जायेंगी।
(1) शचिपुत्र (चैतन्य महाप्रभु) के अतिप्रिय श्रीश्रीमद् भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की कृष्ण-सेवा अतुलनीय है। वे ऐसे महान सदगुरु हैं जो सारे विश्वभर के विभिन्न स्थानों में कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ भक्ति बाँटते हैं।
(2) उनकी बलवती इच्छा से भगवान् गौरांग का नाम पाश्चात्य जगत के समस्त देशों में फैलेगा। पृथ्वी के समस्त नगरों व गाँवों में, समुद्रों, नदियों आदि सभी में रहनेवाले जीव कृष्ण का नाम लेंगे।
(3) जब श्रीचैतन्य महाप्रभु की अतिशय कृपा सभी दिशाओं में दिग्विजय कर लेगी, तो निश्चित रूप से पृथ्वी पर आनंद की बाढ़ आ जायेगी। जब सब पापी, दुष्ट जीवात्माऐं सुखी होंगी, तो वैष्णवों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी।
(4) यद्यपि मेरे गुरू महाराज ने मुझे इस अभियान को पूरा करने की आज्ञा दी है, तथापि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। मैं तो अति दीन व हीन हूँ। अतएव, हे नाथ, अब मैं तुम्हारी कृपा की भिक्षा मांगता हूँ जिससे मैं योग्य बन सकूँ, क्योंकि तुम तो सभी में सर्वाधिक प्रवीण हो।
(5) यदि तुम शक्ति प्रदान करो, तो गुरू की सेवा द्वारा परमसत्य की प्राप्ति होती है और जीवन सार्थक हो जाता है। यदि वह सेवा मिल जाये तो वयक्ति सुखी हो जाता है और सौभाग्य से उसे तुम्हारा संग मिल जाता है।
(6) हे भगवान् मैं एक-एक करके भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए सर्पो के अन्धे कुँए में गिरता जा रहा था। किन्तु आपके दास नारद मुनि ने कृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इस दिवय पद को किस प्रकार प्राप्त किया जाय। अतएव मेरा पहला कर्त्तवय है कि मैं उनकी सेवा करूँ। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ? (प्रह्लाद महाराज ने नृसिंह भगवान से कहा, श्रीमद्भागवत 07.09.28)
(7) हे भगवान् कृष्ण, तुम मेरे चिर साथी हो। तुम्हें भुलाकर मैंने जन्म-जन्मांतर माया की लाठियाँ खायी हैं। यदि आज तुमसे पुर्नमिलन अवश्य होगा तभी मैं आपकी संगती में आ सकूँगा।
(8) हे भाई, तुमसे मिलकर मुझे फिर से महान सुख का अनुभव होगा। भोर बेला में मैं गोचारण हेतु निकलूँगा। व्रज के वनों में भागता-खेलता हुआ, मैं आध्यात्मिक हर्षोन्माद में भूमि पर लोटूँगा। अहा! मेरे लिए वह दिन कब आयेगा?
(9) आज मुझे तुम्हारा स्मरण बड़ी भली प्रकार से हुआ। मैंने तुम्हें बड़ी आशा से पुकारा था। मैं तुम्हारा नित्यदास हूँ और इसलिए तुम्हारे संग की इतनी आशा करता हूँ। हे कृष्ण तुम्हारे बिना मेरी कोई अन्य गति नहीं है।
श्रील प्रभुपाद ने प्रसिद्ध गीत के प्रारंभ में लिखते हैं
कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ। ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥
श्रील प्रभुपाद ने क्या लिखा है। देखिए या सुनिए। (अनुवाद पढ़ रहे हैं।)
हे भाइयों, श्रील प्रभुपाद दुनिया भर के लोगों या पाश्चात्य देश के लोगों को सम्बोधित करते हुए लिख रहे हैं। ‘हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूं कि तुम्हें भगवान् श्री कृष्ण से पुण्य लाभ की प्राप्ति तभी होगी,जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न होगी।’ श्रील प्रभुपाद ने राधारानी का स्मरण किया है। हे दुनिया भर के लोगों! आपको मैं निश्चित रूप से कहता हूं कि भगवान से पुण्य लाभ की प्राप्ति तभी होगी, जबे राधारानी खुशी हबे अर्थात जब राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जाएंगी। तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने इस महामन्त्र को फैलाया । प्रभुपाद न्यूयॉर्क के फुटपाथ पर बैठकर इस महामन्त्र का कीर्तन करने लगे और इस महामन्त्र को शेयर (बांटने) करने लगे अर्थात कृष्ण और राधा को शेयर करने लगे। राधा रानी की कृपा से हम इस महामन्त्र में आठ बार यह हरे हरे कहते हैं और आठ बार कृष्ण के नाम को कहते हैं। आठ कृष्ण के नाम और आठ राधा के नाम से यह षोडश शब्द वाला या सोलह नाम वाला यह महामन्त्र का जब कीर्तन हुआ तब वहां के लोग भी राधारानी की कृपा से सुखी हुए या प्रभुपाद कहा करते थे, हरे कृष्ण जपो और सुखी हो जाओ( चैंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी)
जब आप हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करोगे तो आपको कौन सुखी बनाएगा। राधारानी आपको सुखी बनाएगी। राधारानी सुख देगी, राधारानी आह्लाद देगी। जब राधारानी की कृपा की दृष्टि की वृष्टि होगी। उससे कृष्ण की कृपा भी प्राप्त होगी।
प्रभुपाद कहते हैं कि राधारानी उसी प्रकार सिफारिश करती हैं जैसे जब दीक्षा होने वाली होती है, तब जो नए भक्त होते हैं, उनको दीक्षा लेनी होती है तब मंदिर के अध्यक्ष या हमारे काउन्सलर दीक्षा के लिए सिफारिश करते हैं। गुरुवर! इसको स्वीकार कीजिये। हे गुरुवृन्द! या गुरुजन, गुरुवृन्दों में से एक गुरु। इसी प्रकार यहाँ राधारानी कृष्ण को सिफारिश करती हैं। मैं इस पात्र के लिए स्ट्रोंगली (मजबूती से) सिफारिश करती हूं। हरि! हरि!
हम दोनों को ही पुकार रहे हैं हरे कृष्ण कहकर। किन्तु राधा अधिक दयालू अथवा कृपालु हैं। कृष्ण से भी अधिक कृपालु राधा हैं। इसलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को रूप गोस्वामी ने महावदान्याय कहा कि आप जब कृष्ण थे तब आप वादान्य अर्थात दयालु थे लेकिन अब आप महावदान्याय हो गए हो। यह खिताब जो चैतन्य महाप्रभु को प्राप्त हुआ, यह राधारानी के कारण प्राप्त हुआ। कृष्ण, दयालु कृष्ण बने। कृष्ण राधारानी के कारण अति दयालु बनते हैं।
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥ ( वैष्णव भजन)
अनुवाद:- हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन हैं?
आप जैसा कौन दयालु है। कोई नहीं है, कृष्ण भी नहीं हैं, राम भी नहीं हैं, नरसिम्हा भी नहीं हैं। कोई भी नहीं है। जितने आप दयालु हो। आपका क्या वैशिष्ट्य है। आप इतने क्यों दयालु हो? आप अति दयालु हो क्योंकि आप साथ में राधा को लेकर आये हो। साथ में राधा है और राधा दयालु व कृपालु है इसलिए आप कृपालु बने हो या महा वदान्याय बने हो। इस महामन्त्र में कृष्ण भी हैं और विशेष रूप से राधारानी हैं। यह मन्त्र इसी के साथ महामन्त्र कहलाता है। अन्यथा इतने पतित व संसार भर में जो कलि के चेले बने हुए लोग हैं। पाश्चात्य देश का क्या कहना। वे कितने पतित हैं, पाश्चात्य देश के लोग पापियन में नामी हैं। तत्पश्चात उनका तुरन्त महामन्त्र के कारण उद्धार होने लगा। इस कृपालु और शक्ति और शक्तिमान महामन्त्र के कारण पाश्चात्य देश के लोग भी तरने लगे।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने। नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
पाश्चात्य – देश के लोग भी तर गए। यह महामन्त्र संसार भर के बद्ध जीवों के कल्याण तथा उद्धार के लिए है। व्यवहारिक रूप से हम देख रहे हैं कि किस प्रकार यह महामंत्र उद्धार कर रहा है। किस प्रकार यह महामन्त्र हम पर, विश्व भर कर लोगों के ऊपर, भी कृपा कर रहा है। आप सभी जो उपस्थित हो और आप जप कर रहे हो। ये भी महामन्त्र का जप व कीर्तन का ही फल व परिणाम है। जिसने हमारे जीवन में क्रांति लायी है । ऐसे हरे कृष्ण महामन्त्र की जय!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!
पंढरपुर धाम की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
वैसे अभी भी एक भाग बच ही गया है।।कल आगे करेंगे। सोचा तो था कि आज पूरा करूंगा, पर हो नही पाया।
इस विषय पर कोई प्रश्नोत्तर या टीका टिप्पणी या अनुभव है तो आप चैट पर लिखिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
प्रश्न:- कल की चर्चा में बताया गया था कि पापी लोगों को पाताल लोक या नीचे वाले लोकों की प्राप्ति होती है फिर बलि महाराज को सुतल लोक क्यों प्राप्त हुआ?
गुरु महाराज- सुतल लोक, सुतल लोक नहीं रहा, वह गोलोक हुआ अथवा वैकुंठ हुआ। भगवान भी वहां गए थे। भगवान् बलि महाराज के रखवाले बन गए।
नारायणपरा: सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति।स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिनः
( श्रीमद् भागवतम ६.७.२८)
अर्थ:- पुरी तरह से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण की सेवा में लीन रहने वाले भक्तजन जीवन की किसी भी अवस्था से भयभीत नहीं होते। उनके लिए स्वर्ग, मुक्ति तथा नरक एकसमान हैं, क्योकि ऐसे भक्त ईश्वर की सेवा में ही रुचि रखते हैं।
भगवान के भक्तों को कोई चिंता नहीं होती है। उनके लिए स्वर्ग नर्क में कोई अंतर नहीं होता। वह जहां भी जाते हैं, वहां भगवान की भक्ति करते हैं। बलि महाराज आत्म निवेदन नामक भक्ति के अधिकारी या आत्म निवेदन के लिए विख्यात है। जिन्होंने आत्म निवेदन किया।
मानस-देह-गेह, यो किछु मोर। अर्पिलु तुया पदे, नन्दकिशोर!॥1॥।
अर्थ: हे नन्द महाराज के पुत्र, मेरा मन, शरीर, मेरे घर का साज-सामान तथा अन्य जो कुछ भी मेरा है, मैं आपके चरणकमलों पर अर्पित करता हूँ।
उन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर किया था, अपना सर भी झुकाया और अर्पित किया। ऐसे समर्पित भक्त बलि महाराज को क्या फर्क पड़ता है कि वह स्वर्ग में जाते हैं या नरक में जाते हैं, वह तो अपने आनंद में भक्ति में मगन है। यह तथाकथित दंड है। यह वैसा दंड नहीं है जैसा कि पापियों को दंडित किया जाता है और 28 अलग-अलग प्रकार के पातालों के नाम भी है। इस पाताल में इसको भेजा जाए या उस पाताल में इसको भेजा जाए, इस शराबी को यहां, उस व्यभिचारी को वहां, इस डाकू को वहां… ऐसे ही…. बलि महाराज का तो सुतल लोक यहाँ से तीसरा है। लेकिन उनके लिए वह स्वर्ग ही नहीं वैकुंठ ही है। वहां भगवान स्वयं भी पहुंचे थे। हरि! हरि! यह भक्त की महिमा भी है। तुल्यार्थ अर्थात स्वर्ग नरक जैसा अतुल्य। जैसे दूसरे शब्दों में वे स्वर्ग और नरक से परे अतीत पहुंच जाते हैं। भगवान के भक्त अपने भक्ति भाव के कारण गुणातीत या स्वर्गातीत या नरकातीत से परे है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
प्रश्न- भगवान की बहन सुभद्रा मैया, वह भी आह्लादिनी शक्ति ही है या…
गुरु महाराज – वह अर्जुन की शक्ति है। श्री श्री सुभद्रा अर्जुन की जय! अर्जुन को आह्लाद देने वाली उनकी पत्नी और अभिमन्यु जी जैसे पुत्र को जन्म देने वाली भद्रा। सुभद्रा मैया की जय! वह हमारे जैसे साधारण जीव तो नहीं हो सकती जैसा कि हम जीव हैं लेकिन कोई शक्ति तो है। हर व्यक्ति शक्ति होता ही है। कोई कृष्ण की शक्ति तो कोई तटस्थ शक्ति है तो कोई अतरंग शक्ति के अंतर्गत आता है।
सब अलग-अलग हैं।
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्र्चाभ्यधिकश्र्च दृश्यते। परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।
( श्रे्वाश्र्वतर उपनिषद ६.८)
अनुवाद:- भगवान या परमेश्वर के लिए कोई भी करने लायक कर्तव्य नहीं है अर्थात उन्हें कोई भी कार्य करने की जरूरत नहीं है। भगवान् के समान अथवा उनसे बढ़कर कोई नहीं है। उनकी अनन्त दिव्य शक्तियां हैं जो उनमें स्वाभाविक रूप से रहती हैं और उन्हें पूर्ण ज्ञान, बल और लीलाएँ प्रदान करती हैं।
भगवान की विभिन्न-२ प्रकृतियां हैं। ऐसे कहा जाए श्री कृष्ण ही पुरुष हैं। विष्णुतत्व पुरुष हैं। बाकी सब भगवान की शक्तियां हैं। बाकी सब व्यक्ति एक एक शक्ति हैं। सुभद्रा की तुलना हमारे साथ नहीं हो सकती। हम जीव तटस्थ शक्ति हैं। लेकिन सुभद्रा मैया विशेष हैं। वह अन्तरंग शक्ति के अंतर्गत है। वह कृष्ण और बलराम की बहन ही हैं।
उस शक्ति का क्या नाम् है, कह नहीं सकते। मेरे पास कोई नाम नहीं है, वह किस नाम से जानी जाती है। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज के सत्र को यहीं पर विराम देते हैं। समय भी हो चुका है।
हरे कृष्ण!
श्रील प्रभुपाद की जय!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
30 January 2021
Radha’s name completes the Hare Krishna maha-mantra
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Devotees from 760 locations are chanting with us. For the past few days we have been reading Srila Prabhupada’s commentary on Harinama mahatmya, the vidhi vidhan and vidhi nisheda. Now we will read the last part.
‘These three words, namely Hare, Krsna and Rama, are the transcendental seeds of the maha-mantra. The chanting is a spiritual call for the Lord and His internal energy, Hara, to give protection to the conditioned soul.’
Srila Prabhupada is saying, “We call Rama, Krsna and Hara while chanting the maha-mantra or while performing kirtana.” We call for protection ‘Hé Radhe, Hé Hare, Hé Krsna, Hé Rama, please save us, liberate us, engage us in Your service.’ This is the prayer so that we are protected and delivered. Basically Rama and Krsna are seeds of the maha-mantra. But Rama and Krsna are not two, They are one. We call the same Krsna in the first part of the mantra as Krsna and in the remaining we call the same Krsna as Rama. We call Him by two different names, but the personality is one. We call the same Krsna then if we say Hare Krsna or Hare Rama we only call Krsna. Then the remaining name is Hare. We can say that we call Radha Krsna only. Which mantra is the maha-mantra? Hare Krsna mantra is the maha-mantra. Only Hare Krsna is remaining. Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu had also predicted,
prithvite ache yata nagar adigrama
sarvatra prachara haibe mora nama
Translation
In as many towns and villages as there are on the surface of the earth, My holy name will be preached.
Preaching is going on of Hare Krsna, Hare Krsna. So why is it right? Because Sri Krsna Mahaprabhu is saying, mora nama He is Radha and Krsna.
Sri Krsna caitanya Radha Krsna nahi anya
Translation
Lord Caitanya Mahaprabhu is none other than the combined form of Sri Sri Radha and Krsna.
He says, ‘My holy name will be preached.’ That means there will be preaching of Hare Krsna, Hare Krsna because “I am Radha and I am Krsna.”
rādhā kṛṣṇa-praṇaya-vikṛtir hlādinī śaktir asmād
ekātmānāv api bhuvi purā deha-bhedaṁ gatau tau
caitanyākhyaṁ prakaṭam adhunā tad-dvayaṁ caikyam āptaṁ
rādhā-bhāva-dyuti-suvalitaṁ naumi kṛṣṇa-svarūpam
Translation
The loving affairs of Śrī Rādhā and Kṛṣṇa are transcendental manifestations of the Lord’s internal pleasure-giving potency. Although Rādhā and Kṛṣṇa are one in Their identity, previously They separated Themselves. Now these two transcendental identities have again united, in the form of Śrī Kṛṣṇa Caitanya. I bow down to Him, who has manifested Himself with the sentiment and complexion of Śrīmatī Rādhārāṇī although He is Kṛṣṇa Himself. (CC Adi lila,1.5)
Radha-Krsna is one. Radha-Krsna is Krsna and Krsna’s pleasure potency combined. When Krsna exhibits His pleasure potency, He appears to be two— Radha and Krsna. Otherwise, Radha and Krsna are one. This oneness may be perceived by advanced devotees through the grace of Sri Caitanya Mahaprabhu. This was the case with Ramananda Raya. One may aspire to attain such a position, but one should not try to imitate the maha-bhagavata.
They two become one and that is Gauranga! Gauranga! Why do we say Gauranga ! Gauranga!?
radha-krishna eka tanu hai
Translation
Sri Sri Radha and Krsna have combined as one in a transcendental form.
Their name is Hare Krsna.
itana to karana svaamee jab praan tan se nikale – 2
govind naam lekar, phir praan tan se nikale
raadha ko saath laana
jab praan tan se nikale
Translation
Oh Lord, Please do this much, when the soul leaves my body, at this critical time when death comes quickly, never forget Lord Syama! May I ask, “Oh Syama! Please bring Sri Radhe with You!”
Such a prayer devotees offer to the Lord. In this avatar/avatari Sri Krsna has brought Radha with Him.
antah krsnah bahir gaurah
That’s why He is Gauranga. From the outside He is Gaurangi Radha. We can have darsana of Radha in Him and inside Him Krsna is hiding. Outside He is Radha, Gaurangi, so He is called Gauranga. He has taken the complexion of Radha so we can have darsana of Radha in Him.
Bali Maharaja had surrendered everything to the Lord. He had even offered his head to the Lord. To such a surrendered devotee it hardly matters whether he is in heaven or hell. He is happily engaged in the service of the Lord. Punishment given to Bali Maharaja was just so called punishment. It was like the punishment given to sinners. There are 28 different types of hell. It depends on the type of sin you commit and accordingly you are sent to that particular hell. Bali Maharaja was sent to Sutala-loka and it was Vaikuntha for him. Lord had gone there. This is the speciality of a devotee. Due to his devotion he is beyond heaven and hell.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Question One
Is Subhadra Maiya, sister of the Lord also Alhadini Sakti?
Gurudev uvaca
She is the energy of Arjuna. She is one who gives pleasure to Arjuna as his wife and she is Bhadra who gives birth to a son like Abhimanyu. She is definitely not a living entity like us. She is some sakti. Every person is sakti or energy. Someone is the energy of the Lord and someone is the marginal energy.
na tasya kāryaṁ karaṇaṁ ca vidyate
na tat samaś cābhyadhikaś ca dṛśyate
parāsya śaktir vividhaiva śrūyate
svābhāvikī jñāna-bala-kriyā ca
Translation
The Supreme Personality of Godhead does not need to do anything personally, for He has such potencies that anything He wants done will be done perfectly well through the control of material nature (svābhāvikī jñāna-bala-kriyā ca). Similarly, those who are engaged in the service of the Lord are not meant to struggle for existence. [Śvetāśvatara Upaniṣad 6.8]
There are two different energies of the Lord. Lord Krsna is the purusha. Visnutatva is purusha. The rest is the energy of the Lord. Every remaining individual is one energy of the Lord. Subhadra cannot be compared with us. We living entities are marginal energies of the Lord, but Subhadra maiya is special. She is under the superior energy of the Lord. She is Krsna and Balarama’s sister. What is the name of that sakti or energy we can’t say. I don’t have a name for her sakti.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Hare Krsna
Srila Prabhupada k jai
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
जप चर्चा,
29 जनवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
775 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। दशावतार हरे कृष्ण, रघुवीर मॉरिशियस से और सभी भक्त आप सबको देख कर प्रसन्नता हुई। प्रभुपाद भी आप सब से बहुत प्रसन्न हैं। आचार्य भी आपसे प्रसन्न हैं। जब भी देखते हैं कि आप सब जप कर रहे हो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह मैं भी देखता हूं और श्रील प्रभुपाद भी देख रहे हैं और हमारी परंपरा गौड़िय वैष्णव परंपरा के आचार्य देखते हैं। गौड़िय वैष्णव परंपरा की जय! और फिर भगवान तो देखते ही रहते हैं। भगवान तो साक्षी हैं हमारे हर कर्म के। वह सभी प्रसन्न हो जाते हैं जब हम सब जप करते हैं। कीर्तन करते हैं। कलयुग में इस प्रकार जब हम धार्मिक बन जाते हैं, धर्म के नियम या धर्म के विधि का हम पालन करते हैं भली-भांति समझते हैं की, कलिकालेर धर्म हरिनाम संकीर्तन कलयुग का धर्म है हरिनाम संकीर्तन। यह सब समझ कर जब हम जप करते हैं, कीर्तन करते हैं तो हमसे सब प्रसन्न हो जाते हैं। गुरु गौरांग जयते गुरु और गौरांग प्रसन्न हो जाते हैं।
हम कुछ दिनों से श्रील प्रभुपाद का हरे कृष्ण महामंत्र के ऊपर लिखा हुआ, कहां हुआ या फिर रिकॉर्ड किया हुआ वचन है, उसको सुन रहे हैं और फिर उसको सुनकर समझने का भी हमारा प्रयास चल रहा है।
श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा है, भगवान की यह जो प्रकृति है, प्राकृत शक्ति है, भौतिक शक्ति जिसको हम माया कहते हैं। श्रील पभुपाद यह कहते हैं कि हम भी एक शक्ति हैं। यहां आत्मा का संबोधन होता है, आत्मा का उल्लेख होता है। आत्मा भी एक शक्ति है, आत्मा भी एक भगवान की शक्ति है। यह माया भी एक भगवान की शक्ति है। यह प्रकृति यह सारा संसार भगवान की प्रकृति है, शक्ति है। हम तो जीव हैं हम भी भगवान की एक शक्ति हैं। प्रकृति कहो या उसको माया कहा है (भौतिक शक्ति को), जीव को तटस्थ शक्ति कहा है। उसका उल्लेख यहां पर प्रभुपाद ने नहीं किया है किंतु कई स्थानों पर उल्लेख जीव है। भगवान की तटस्थ शक्ति तो एक है माया शक्ति और दूसरी है तटस्थ शक्ति। तटस्थ शक्ति हम हैं। संसार के जितने भी सारे जीव हैं, कहीं पर भी हो, किसी भी देश या किसी लोक में हो, स्वर्ग में हो या तलाताल में हो या सुतल में हो, या महातल में हो, या वितल में हो इतने सात लोक नीचेे हैं। अधः गच्छंति भगवान नेे कहा नीचे जाते हैं वह जीव जो पापी होते हैं और ऊपर जाते हैं ऊर्ध्व गच्छंति ऊपर जाते हैं। अधः गच्छंति नीचे जाते हैं, समझ रहे हो? अध: नीचे उर्ध्व ऊपर, ऊपर सात लोक हैं। स्वर्गलोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, ब्रह्मा का लोक ऐसे अलग-अलग सात ऊपर सात नीचे लोक हैब।
नाम बिना किछु नाहिक आर, चौदाभुवन-माझे भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा है इन चौदह भुवनो में सात ऊपर सात नीचे हैं। हम बीच में पृथ्वी लोक पर जो मध्य में है इन सारे चौदह भुवनों में कई सारे जीव से भरे पड़े हैं। शास्त्रज्ञ को पता नहीं है, शास्त्रज्ञ तो अंधे हैं, उनका प्रयास चल रहा है, टेलिस्कोप और क्या-क्या सब यंत्रों की मदद से। लेकिन भगवान ने यह देखना आसान किया है शास्त्र चक्षुषा शास्त्र का चश्मा पहनो भाइयों और देखो बहुत कुछ दिखाई देगा। जो इन अंधे जीवों को या बध्द जीवों को, संशयात्मा विनश्यति संशय करने वाले जो जीवात्मा हैं या लोग हैं, उनको नहीं दिखाई देता है। लेकिन जो शास्त्र चक्षुषा हैं उनको समझ में आएगा कि चौदह भुवन हैं और कई सारे जीवों से वह भरे पड़े हैं और तटस्थ है बस इतना ही समझ लेते हैं।
श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा है यह जो भौतिक जगत है, जो पंचमहाभूतों से बना हुआ है, इन पंचमहाभूतों से भी श्रेष्ठ यह तटस्थ शक्ति है । भगवान का जो जीव है, जीवभूत है, जीवात्मा जिसे भगवान ने गीता में जीवभूत कहा है ।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।
(Bg 7.4)
अनुवादः पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार यह आठ मेरे भिन्न प्राकृतिक शक्ति हैं।
आत्मा जो चेतन है वह जड़ प्रकृति से श्रेष्ठ है, श्रील प्रभुपाद ने कहा है, जो सत्य है। भगवान की एक परा प्रकृति है एक अपरा प्रकृति है। माया जो पंचमहाभूतो की बनी हुई है या त्रिगुणमयी माया यह अपरा प्रकृति है’ शक्ति है’ और जीवभूत जीवात्मा जो है यहां परा प्रकृति है श्रेष्ठ शक्ति है। भगवतगीता में इसका आधार क्या है? भगवत गीता सातवां अध्याय श्लोक चौथा और पाँचवा। श्रील पभुपाद कई बार या बारंबार उनको मिलने के लिए आए लोगों को संबोधित करते हैं प्रभुपाद तो कोई सिद्धांत की बात या तत्व की बात समझाते समय कहते हैं, वह श्लोक को ढूंढो। फिर सचिव वह श्लोक ढूंढ लेते हैं और प्रभुपाद कहते हैं, पढ़कर सुनाओ हम भी और फिर प्रभुपाद ने कहा जीवात्मा यह तटस्थ शक्ति यहां पर है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।
अष्टधा इसको जरा पढ़ो समझो। अष्टधा मतलब यह जो आठ प्रकार के मेरी प्रकृति है। इसको भिन्ना प्रकृतिरष्टधा, 8 प्रकार की मेरी भिन्न प्रकृति है। माया शक्ति है। पंचमहाभूत है, पृथ्वी आप तेज वायु आकाश और मन बुद्धि अहंकार यह सुक्ष्म तत्व है। यहांं बहिरंगा भी हुई और माया शक्ति भी हुई भिन्न प्रकृति भी हुई, आगेेे पांचवे श्लोक मे भगवान कहेंगे श्रीभगवानुवााचच तो चल ही रहा है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
अनुवाद: महाबाहु अर्जुन इसके अलावा मेरी और एक श्रेष्ठ ऐसी परा प्रकृति है। जिसमें जीव आते हैं, यह जीव कनिष्ठ भौतिक प्रकृति चीजों का उपभोग लेते हैं।
चौथे श्लोक में जिस प्रकृति का उल्लेख किया है, उसे भिन्ना प्रकृति कहा गया। अष्टधा आठ प्रकार की प्रकृति कहें या फिर आठ प्रकार है माया या भौतिक प्रकृति कहा है।
इसको अपरेयमि यह प्रकृति है अपरा , किंतु का उपयोग किया है भगवान ने। किंतु इसके अलावा यह जो भिन्नात प्रकृति है, यह माया प्रकृति है। यह अपरा है परा नहीं है। इसके अलावा इतः अन्यात दूसरी एक मेरी प्रकृति है। अन्यातप्रकृतिं विद्धि मे पराम् और दूसरी एक मेरी प्रकृति है वह कैसी है पराम् अष्टधा यह जो आठ सूक्ष्म तत्व मिलके जो माया प्रकृति है, भौतिक प्रकृति है यह अपरा है। इसके अलावा जो प्रकृति है वह परा प्रकृति है। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ यह जीवभूतां जीव भगवान की दूसरी प्रकृति है। जिसको हम कहते हैं, परा जीव परा है और भौतिक प्रकृति अपरा है। ऐसा भगवान ने कहा है, यह शास्त्र है यही सत्य है। इसी के साथ हम थोड़े ज्ञानवान हो जाते हैं। इसी के साथ क्या होता है,
ओम अज्ञान तिमिरंधास्य ज्ञानांनजन शलाकायचक्षुरन्मिलितन्मेन तस्मैश्रीगुरुवे नमः
हमारी आंखों में ज्ञान का अंजन भगवान ही डाल रहे हैं। कृष्णम वंदे जगतगुरु आदिगुरु तो भगवान ही हैं या फिर बलराम है आदिगुरु तो बलराम भी कृष्ण ही हैं, हमको सिखा रहे हैं, हमको समझा रहे हैं। हम जीवों की खोपड़ी में कुछ प्रकाश डाल रहे हैं। भगवान एक तो तुम समझ लो हे बेटा, हे पुत्र तुम हो कौन तुम हो जीव और दूसरी मेरी प्रकृति अष्टधा भिन्न प्रकृति माया प्रकृति, माया कनिष्ठ है और तुम श्रेष्ठ हो। तुम परा प्रकृति हो। स्वयं को खोजो। इस प्रकार हम स्वयं को खोज सकते हैं, मैं कौन हूं? भगवान समझा रहे हैं। श्रील पभुपाद यहां कह रहे हैं, यह जो जीवात्मा है, है तो परा प्रकृति लेकिन वो अपरा प्रकृति के चंगुल में फंस जाता है। माया से प्रभावित होता है, यह जीव तटस्थ शक्ति और यही तो हाल है। ऐसा स्वभाव है जीव का तटस्थ, बीच में है या तो माया से प्रभावित होता है, मतलब भगवान की बहिरंगा शक्ति से प्रभावित होता है या फिर भगवान की अंतरंगा शक्ति से प्रभावित होता है। जब वह बहिरंगा शक्ति से प्रभावित होता है या फिर बहिरंगा शक्ति के संग में आ जाता है,
तो वहां मेल न खाने वाली परिस्थिति है। श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं फिर वह मेल नहीं खाता है। उनका जमता नहीं दोनों का उसमें बिगाड़ हो जाता है, परेशान हो जाता है जीव। जब इस माया शक्ति से प्रभावित होता है जीव और प्रभावित होकर यह सारे कार्य कलाप करता है। प्रभावित होना चाहिए भगवान की अंतरंगा शक्ति से, अंतरंगा शक्ति यह दिव्य शक्ति है, अलौकिक शक्ति है। यह जीव भी है अलौकिक जीव भी है, दिव्य जीव भी है। जीव भगवान की अंतरंगा शक्ति के संपर्क में आ जाता है। अंतरंगा शक्ति चलायमान करती है, प्रभावित करती है तो वह मेल खाने वाली परिस्थिति बन जाती है, मेल बैठता है। शादी के वक्त भी यह मेल देखा जाता है, कुंडली बनाई जाती है। नहीं नहीं यह मेल नहीं खाता है। यह जब दूल्हा-दुल्हन बनेंगे तो इनमें कोई मेल नहीं रहेगा। वैवाहिक जीवन में कठिनाइयां रहेगी, मेल रहना मेल नहीं रहना तो इस संसार में अनुभव होता ही है। वैसा ही अनुभव जीवात्मा और भगवान की इन दो प्रकृति बहिरंगा प्रकृति और अंतरंगा प्रकृति के साथ होता है। बहिरंगा प्रकृति के संग में या प्रभाव में लोग दुखाःलयम अशाश्वतम कहो। दुख ही दुख भोगता है। फिर आदि भौतिक आदि आध्यात्मिक आदिदैविक जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
यह सारा बहिरंगा शक्ति के संग में आने से इसके चंगुल में फंसने से उससे प्रभावित होकर कार्यकलाप करने से, सलाह तो यह दी जा रही है कि, हमें अंतरंगा शक्ति के प्रभाव में रहना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ठीक है, इसका आश्रय लिया हमने। नामाश्रय कोरी जतन तुम्ही ताकह आपन काजे
नाम का आश्रय लो, भगवान के नाम की शरण में जाओ, मामेकं शरणम व्रज। तो भगवान ने कहा ही है ऐसा जब जीव करता है तो फिर अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः भगवान उस जीव को मुक्त करते हैं। बहिरंगा शक्ति है या बहिरंगा शक्ति बन जाती है व्यक्ति तो वह है दुर्गा छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दूर्गा कहा है। छाया एव छाया है, माया है छाया ।
हरि हरि। यह छाया किसकी है कृष्ण की छाया है या राधा की छाया है, राधा कृष्ण की छाया है। यह माया ओरिजिनल तो राधा रानी है जो अंतरंगा शक्ति का अल्हादिनी शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। अल्हदिनी शक्ति बन जाती है व्यक्ति परसोनिफिकेशन या एंबोडीमेंट (अवतार) जब होता है तो वह है राधा रानी और दूसरी है दुर्गा। दुर्गा सेेेे प्रभावित होकर और दुर्गा के पास त्रिशूल है विनाशायच दुष्कृतम फिर दृष्टों का संहार होता है उनकी पिटाई होती है इस जगत मे वे दंडित किए जाते हैं, यह सारा संसार कारागार तो हैै ही। दूसरा आश्रय है
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः । भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।
(श्रीमद भगवद्गीता 9.13)
अनुवाद: हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं | वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं |
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता: भगवान नेेेे सलाह दी है हे जीव, क्या करो मेरी दैवी प्रकृति का आश्रय लो वह दैवी प्रकृति है राधा रानी। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का जब हम ध्यान पूर्वक जप करते हैं, राधा रानी का आश्रय चाहते हैं, राधा रानी को पुकारते हैं और आश्रय की मांग करते हैं। मुझे आश्रय दे दो सेवा योग्यम कुरु मुझे सेवा के योग्य बना दो, हे राधा रानी मया सह रमस्व मेरे साथ रहो इत्यादि इत्यादि प्रार्थनाए हम करते हैं। जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं उच्चारण करते हैं तो हम राधा को पुकारते हैं। या श्रील प्रभुपाद समझाते थे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहते वक्त हम लोग हे राधे हे कृष्ण हमको आश्रय दो, उसको भी श्रील प्रभुपाद समझाया करते थे। एक तरफ बहिरंगा शक्ति का प्रभाव, बहिरंगा शक्ति हैंडल करती है जीव को और फिर जब जीव को अन्तरंगा शक्ति का आश्रय मिल जाता है तो फिर स्थिति कुछ अलग है। आनंद ही आनंद है वही जीवन है। प्रान्नत्ती, पुन्नत्ती, शुबन्नति मंगलमय जीवन विश्वम पूर्णम सुखायते फिर सुख ही सुख है तो माया के चंगुल में फंसे हुए या माया से प्रभावित जीव की स्थिति श्रील प्रभुपाद एक उदाहरण के साथ बताया करते थे। जैसे बिल्ली के मुंह में चूहा, बिल्ली ने चूहे को पकड़ लिया। कभी देखा है आपने… तो उस चूहे की जैसी स्थिति या हाल होता है चिल्लाता है बेचारा लेकिन चंगुल से छूट नहीं सकता। भली-भांति पकड़ा हुआ है बिल्ली ने तो यह स्थिति है और फिर वही बिल्ली अपने बच्चे को (किटेन ) को वह जब छोटा होता है तो असहाय होता है एक स्थान से दूसरे स्थान चल कर भी नहीं जा सकता। कभी ऊपर की मंजिल पर जाना है तो छोटा बिल्ली का बच्चा क्या करता है म्याव म्याव… बस। मतलब मम्मी को पुकारता है मदद करो मदद करो तो मम्मी बिल्ली आ जाती है और उसको पकड़ लेती है या हो सकता है गले में पकड़ती है और उसको एक स्थान से दूसरे स्थान या एक मंजिल से दूसरी मंजिल पहुंचाती है। उस समय जो बिल्ली का बच्चा है वह आराम से रहता है वहां से कुछ छूटने का या उस चंगुल से बचने का प्रयास बिल्कुल भी नहीं करता है वहां प्रसन्न रहता है। तो एक ही बिल्ली, जैसे हम चर्चा कर रहे हैं.. बहिरंगा शक्ति का प्रभाव डालती है चूहे के ऊपर और अपने बच्चे के ऊपर वह अंतरंगा शक्ति जैसा कार्य करती है उसका आदान-प्रदान होता है। जैसे अंतरंगा शक्ति का जो आश्रित जीव है, भक्त है, जो शरणागत है और भगवान शरणागत वत्सल है भगवान शरण देते हैं। श्रील प्रभुपाद ने आगे लिखा है जो तटस्थ शक्ति हैं (जीव ) वह जब अंतरगा शक्ति के संपर्क में आ जाती है उस अंतरंगा शक्ति को हरा कहते हैं और हरा से ही फिर होता है हरे और यही है राधा। फिर तटस्था शक्ति जो जीव है जीवभूत महाबाहो वे प्रसन्न हो जाते हैं। प्रभुपाद कह रहे हैं आगे जीव के लिए सामान्य बात है सुखी होना प्रसन्न होना और दुखी होना यह असामान्य बात है। तो नॉर्मल हो जाओ सुखी हो जाओ ऐसा ही संदेश ऐसा ही एक उपदेश ऐसी इच्छा भी भगवान की ही इच्छा है की, सभी जीव सुखी हो। सर्वे सुखिनो भवंतु, सर्वे संतु निरामयाः। सर्वानि भद्राणि पश्यन्तु , न क्वचित दुखः भाग भवेत तो केवल सर्वे सुखीनः भवंतु ऐसी प्रार्थना ही नहीं है। उसके साथ भगवान बता रहे हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने बताया और वही बात गौड़िय वैष्णव आचार्य परंपरा में बता रहे हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
महामंत्र का जाप करो और सुखी बनिये। हम सुखी बनेंगे जब हम जप करेंगे। जब कीर्तन करेंगे तो खुश रहेंगे सुखी बनेंगे और इसको सहजता कहा है।
हरि हरि, ठीक है फिर मैंने सोचा था की, यह पूरा करेंगे लेकिन पूरा हुआ नहीं। कुछ पंक्तियां बची हैं उसको अगले सत्र में सुनाएंगे। तब तक के लिए क्या होगा? आराम, आराम हराम है। मायावी ढंग का आराम हराम है। लेकिन अध्यात्मिक आराम आत्मा को आराम इसका स्वागत है। तब तक आप आराम करो। वैसे जप करेंगे, कीर्तन करेंगे, कीर्तनीय सदा हरी होगा तभी आराम मिलने वाला है जीव को, आत्माराम आत्मा में ही आराम। ठीक है, कुछ प्रश्न है या कुछ विचार है या और क्या है।
प्रश्नः अगर जीव श्रेष्ठ है और भौतिक प्रकृति कनिष्ठ है। आपातकालीन परिस्थिति होती है उस समय हम देखते हैं श्रेष्ठ शक्ति को पर कनिष्ठ शक्ति हावी हो जाती है ऐसा क्यों?
गुरु महाराज: मैंने समझाया ना जीव है तटस्थ शक्ति, है तो आध्यात्मिक। अध्यात्मिक है इसीलिए भौतिक से श्रेष्ठ है। भौतिक शक्ति को अपरा कहा है और जीव को अध्यात्मिक दिव्य अलौकिक कहा है, इसीलिए श्रेष्ठ है। भौतिकता कनिष्ठ है और आध्यात्मिक श्रेष्ठ है। जीवात्मा है अध्यात्मिक इसीलिए श्रेष्ठ है। भौतिक जगत कनिष्ठ है और जीवात्मा श्रेष्ठ है। जीवात्मा भौतिकता श्रेष्ठ कैसे हैं? इसको तटस्थ किसने बनाया? जीवात्मा तटस्थ है। मार्जिनल कहा है। जीव है तो आध्यात्मिक लेकिन कभी-कभी वह माया के प्रभाव में आ जाता है। माया उस पर हावी हो सकती है। कभी-कभी हावी भी हो जाता है। यह सब माया की व्यवस्था है। जीव कभी-कभी संभ्रमित हो जाता है। यह सब माया की व्यवस्था है। समुद्र तट होता है जिसको अंग्रेजी में ब्रिज कहते हैं। उसकी एक ओर समुद्र होता है और दूसरी ओर तट। पूर्णिमा के समय वह खारे पानी से धुल जाता है। पानी का प्रभाव पानी में डूब जाता है। पानी में अच्छादित हो जाता है और फिर दूसरे समय वहैं तक जमीन भूखंड बन जाता है। कभी वह तट पानी का हिस्सा होता है, कभी जमीन का होता है, इसीलिए उसको ब्रिज या तट भी कहा है। प्रभुपाद समझाया करते थे, कैसे जीव की ऐसी दुर्दैवी स्थिति है या उसका बनावट, मार्जिनल मतलब बीच वाला। इसीलिए स्वभाव से श्रेष्ठ है तो भी तटस्थ होने के कारण आखिर उसने जब अहंकार आ जाता है भूल जाता है। दासोस्मि मैं कृष्ण का दास हूं इसको भुलता है। और फिर जीव भोगवाछां करता है।
प्रश्न 2 – गायत्री को हमें कौन सी शक्ति समझना चाहिए आध्यात्मिक या भौतिक?
गुरु महाराज – आध्यात्मिक,सारा श्रीमद भगवतम गायत्री का भाष्य है ऐसी समझ है। गायत्री, इसको गाने से गायत्री का जप करने से मतलब श्रवण कीर्तन करने से वह मुक्त करती है। त्र मतलब त्रायते ऐसे हैं गायत्री। गायत्री की बहुत बड़ी महिमा है। लेकिन फिर वैसे हर देवता की गायत्री है, गायत्री के भी कई प्रकार हैं। कौन से देवता आपने चुने हैं और उस देवता की आराधना, उस गायत्री के उच्चारण से आपने की है तो उस पर निर्भर करेगा। तो वह भौतिक रूप से भी एक्ट करेगा। गंगा की भी गायत्री है, अलग-अलग देवताओं की भी गायत्री है। वैसे गुरु गायत्री भी है, ब्रह्म गायत्री भी है, गौरांग गायत्री भी है, कई सारी गयत्रियाँ हैं, गणेश गायत्री भी है। गायत्री का बहुत बड़ा विशाल जगत है, फिर अलग-अलग परंपरा में अलग-अलग गायत्रियाँ हैं और जो परंपरा में नहीं हैं उनके लिए भी कुछ जो चार वैष्णव संप्रदाय है उसके अलावा उनके लिए भी कुछ गायत्रियाँ हैं। इसको भगवान ने फिर कहा है सर्वधर्मान परित्यज्य धर्म तो है लेकिन कुछ गौण धर्म है और कुछ प्रधान मुख्य धर्म है। सर्व धर्म सार यह कीर्तन जप यह सर्व धर्म का सार है। कुछ गौण धर्म भी हैं कुछ ध्येय हैं और कुछ उपाध्येय हैं। कुछ स्वीकार करना चाहिए किसी को और कुछ ठुकराना चाहिए। गौण धर्म के अंतर्गत भी कई सारे देवता हैं और उनकी गायत्रियाँ हैं और फिर गायत्री का उच्चारण करके आप स्वर्ग जाओगे मतलब आध्यात्मिक नहीं हुआ। फिर और गायत्री का उच्चारण करके आप गोलोक जाओगे। आध्यात्मिक पंच रात्र में सब समझाया है पंचरात्रिक विधि में एकान्तिकी हरेर भक्ति उत्पात कुछ डिस्टरबेंस भी उत्पन्न हो सकता है अगर हमने शास्त्रों की विधि विधान या पंच रात्रि के विधि विधान के बिना भागवत विधि, पंच रात्रि की विधि। पंचरात्रि विधि के अंतर्गत यह गायत्री की विधि की आराधना उपवास यह सब आता है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
29 January 2021
You are superior than My Maya energy!
Hari Hari ! Today we have devotees from 770 locations chanting with us. Have you heard of this Dasavatar? He is all the way from Mauritius! Happy to see you chanting. Gopal is pleased and all the great acaryas of our disciplic succession are pleased with you when they see you chanting.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
I see. Srila Prabhupada is also looking and our great acaryas of the Gaudiya Vaisnava parampara are also looking. The Lord is also watching. The Lord is witness to our every activity. They all are happy when we chant or perform kirtana. Especially in Kaliyuga they are happy when we become dharmik and follow all the principles of dharma by properly learning and understanding dharma.
kali-kale nama-rupe krsna-avatara
nama haite haya sarva-jagat-nistara
Translation
In this Age of Kali, the holy name of the Lord, the Hare Krsna maha-mantra, is the incarnation of Lord Krsna. Simply by chanting the holy name, one associates with the Lord directly. Anyone who does this is certainly delivered. (CC Adi 17.22 )
Harinama sankirtana is the dharma of Kaliyuga. When we chant and do kirtana everyone is pleased with us. Guru and Gauranga are pleased.
For the last few days we have been discussing the statements given and recorded by Srila Prabhupada on the Hare Kṛṣṇa maha-mantra. We are trying to understand and study it. Srila Prabhupada has further said, The material energy called maya is also one of the multi potencies of the Lord, as much as we are the marginal potency of the Lord.
Srila Prabhupada has said that the nature and the material energy of the Lord is known as maya. Srila Prabhupada informs us that we are also one of the energies of the Lord. Here we are addressed as the soul. The soul is an individual energy and it is also one of the energies of the Lord. Maya is also one energy and this material world is also an energy of the Lord. We, as living entities, are also the energy of the Lord. The material world is known as maya ( illusionary energy). Living entities are known as the marginal energy. Here Srila Prabhupada has not mentioned anything about this, but in many other writings, living entities are called the marginal energy. One is the illusionary energy and the other is the marginal energy. Each individual entity no matter where placed – any country, any planet like heaven or hell or Atala -loka or Vitala-loka or Sutala-loka or Talātala-loka or Mahātala-loka or Rasātala-loka or Pātāla-loka.
ūrdhvaṁ gacchanti sattva-sthā
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ
jaghanya-guṇa-vṛtti-sthā
adho gacchanti tāmasāḥ
Pious go to superior planets, those with passion stay on earthly planets; and those in the abominable mode of ignorance go down to the hellish worlds.
(BG 14.18)
People who are engaged in sinful activities go to the hellish planets which are situated at the lowest part of the universe. Urdhvam gachanti means move upwards and adha gachanti means move downwards. There are total seven higher planets:
Satya-loka
Tapa-loka
Jana-loka
Mahar-loka
Svar-loka
Bhuvar-loka
Bhūr-loka
Like this various planets are present. Seven planets are on the higher side and seven planets are on the lower side.
Nama vina kichu nahi ko aar
Chauda Bhuvan maze
Bhaktivinoda Thakura has said that in total there are 14 planets – 7 are upwards and 7 are downwards and we are on the Earth. The Earth is mrityu-loka which is in the middle. All these 14 planetary systems are filled with living entities. Scientists are not aware of this. They are blind. They are trying very hard to see all this by inventing telescopes and other instruments. The Lord has made it easy by the vision of the scriptures. Devotees try to see it through scriptures and you understand many more things that these blind scientists or conditioned souls are not able to see.
ajñaśh chāśhraddadhānaśh cha sanśhayātmā vinaśhyati
nāyaṁ loko ’sti na paro na sukhaṁ sanśhayātmanaḥ
Translation
But persons who possess neither faith nor knowledge, and who are of a doubting nature, suffer a downfall. For the skeptical souls, there is no happiness either in this world or the next. (BG 4.40)
Skeptical people are not able to see this, but through scriptures we can understand this. It is a fact that all 14 planets exist and are filled with many living entities. All of them are marginal energies of the Lord.
Living entities are described as superior energies than matter.
Srila Prabhupada has further said that the material energy, that is, matter is made of five elements. The marginal energy or living entity is superior than this matter which is made of five elements. In Bhagavad Gita the Lord has said that the living entity or jiva is bhut and then there is mahabhut.
bhumir apo ‘nalo vayuh
kham mano buddhir eva ca
ahankara itiyam me
bhinna prakrtir astadha
Translation
Earth, water, fire, air, ether, mind, intelligence and false ego—altogether these eight comprise My separated material energies. (BG 7.4)
Srila Prabhupada has said that the soul is a living thing and it is superior to the material nature which is non-living. This is a fact. The Lord has one para prakrirti and other is apara prakriti. The illusionary energy is made of five elements and it is trigun mayi. It is inferior and is known as apara prakriti. The living entity is superior and it is para prakriti. What is the reference of this theory? It is given in Bhagavad Gita, Chapter 7, Verse 4 and 5. Srila Prabhupada many times asked his secretary to read this verse whenever he was talking about the basic principles while addressing the people who had come to visit him. His assistants would immediately find it and Prabhupada would ask them to read it so that everyone would know about it. In the same way that I am reading it to you what Prabhupada has said that the living entity is para prakriti. The Lord has said it in the fourth verse of the seventh chapter, “Earth, water, fire, air, ether, mind, intelligence and false ego are My eight energies.” Eti means this much. How many are they? ashta dha — ashta means eight and dha means types. Learn this little Sanskrit. The Lord has said that of My energies there are eight types. In that earth , water, fire , air and ether are five elements. Mind , intelligence and false ego are sukshma tatva. This is the external energy or Maya Shakti.
In the next verse, sri bhagavan uvaca
apareyam itas tv anyāṁ
prakṛtiṁ viddhi me parām
jīva-bhūtāṁ mahā-bāho
yayedaṁ dhāryate jagat
Translation
Besides these, O mighty-armed Arjuna, there is another, superior energy of Mine, which comprises the living entities who are exploiting the resources of this material, inferior nature. (BG 7.5)
In the fourth verse the Lord has mentioned the material nature and the eight types. All these eight types combined are known as maya or the material nature. The Lord has said apara eyam : eyam means this. I had just said, ‘bhinna prakrati me ashtadha ‘ is ‘ apara eyam’. This material nature is apara, but the Lord is using kintu. All ifs and buts are going on. In Bhagavad Gita this material nature is apara or inferior, but besides this there is another energy of Krsna, which is para. The energy which constitutes these eight elements is the material energy and besides these another energy is para prakrati. The living entity is another energy of the Lord and it is para. The living entity is para and the matter is apara. The Lord has said this in scripture and it is a fact.
jiva-bhutam maha-baho
yayedam dharyate jagat
Jiva bhutam is another energy of the Lord, which is para. This jiva is para and matter is apara energy of the Lord. This is a science and fact. Through learning all this we become knowledgeable. Along with this we get proper knowledge!
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
cakshur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah
Translation
I offer my respectful obeisances unto my spiritual master, who has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance, with the torchlight of knowledge. (Guru Pranam mantra)
Lord is putting the maskara of knowledge in our eyes. Krsnam vande jagad-gurum. The Lord is the original spiritual master. Balarama is Adi guru. He is explaining this to us to enlighten us. O! Jiva please do understand who you are? You are superior than my Maya energy! You are para prakriti. Discover yourself! This way we can search for our own identity. Living entities are described as superior energy to matter. When the superior energy is in contact with the inferior energy it becomes an incompatible situation. Srila Prabhupada explains that although the Jiva is the superior energy of the Lord, when it gets entangled with the inferior energy, or when the marginal energy gets impressed by the inferior energy, it again becomes an incompatible situation. As the jiva is situated in between, namely on the margin, it sometimes gets affected by the superior energy and other times the inferior energy. When it gets affected by external energy, it is an incompatible situation as it cannot adjust and then experiences difficulties and grief. Actually the jiva should be impressed by the internal energy of the Lord which is divine and extraordinary. The jiva is also superior and divine, so when it gets attached to that it creates a compatible situation. At the time of marriage this compatibility is verified to find the suitable match. In particular in the situation of incompatibility it is explained that these are not suitable matches and married life will be horrible. Similar experience is there in the cases of external and internal energies of the Lord. If the jiva gets entangled in the external energy then he experiences a lot of grief of various types – adhyatmik, adhibhautik and adhidaivik miseries and also birth, old age , death, disease. Thus the advice given to us is that we should be having impressions of internal energy.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Ram Hare Ram
Ram Ram Hare Hare
If we take shelter of this , that is namasrye kari jatan tumi ta kahe aapan kaje. take shelter of the holy name. The Lord also has said, “mamekam sharan vraj” When the jiva does this, then the Lord liberates that soul.
sarva-dharman parityajya
mam ekam saranam vraja
aham tvam sarva-papebhyo
moksayisyami ma sucah
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reaction. Do not fear. ( BG. 18.66)
External energy personified is Durga.
sṛṣṭi-sthiti-pralaya-sādhana-śaktir ekā
chāyeva yasya bhuvanāni bibharti durgā
icchānurūpam api yasya ca ceṣṭate sā
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation
The external potency Māyā who is of the nature of the shadow of the cit potency, is worshiped by all people as Durgā, the creating, preserving and destroying agency of this mundane world. I adore the primeval Lord Govinda in accordance with whose will Durgā conducts herself. ( BS. 5.44)
Chayya iva , Whose shadow? Maya is the shadow of Radha and Kṛṣṇa. Original is Radharani, who represents the alhadini potency of the Lord. The personification of the alhadini potency is Radharani and the personification of the external energy is Maya Devi. Durga has the trident with which she punishes wicked ones. This whole universe is like a jail, but there is also another type of shelter.
mahatmanas tu mam partha
daivim prakrtim asritah
bhajanty ananya-manaso
jnatva bhutadim avyayam
Translation
O son of Prtha, those who are not deluded, the great souls, are under the protection of the divine nature. They are fully engaged in devotional service because they know Me as the Supreme Personality of Godhead, original and inexhaustible.( BG. 9.13)
Lord has advised Arjuna to take shelter of His superior energy or daivi prakriti, which is Radharani. When we attentively chant …
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Ram Hare Ram
Ram Ram Hare Hare
… At hat time we take shelter of Radharani by calling out Her name. We request for Her shelter. Seva yogyam kuru. Make me eligible for service of the Lord! O Radharani! Please enjoy with me. ( Maya saha ramaswa). When we chant the Hare Kṛṣṇa maha-mantra we offer such prayers to Radharani to get Her shelter. Srila Prabhupada explained, this is how we cry out to take shelter of Radharani. This also Srila Prabhupada has explained. When the jiva takes shelter of the internal energy of the Lord then he experiences true bliss and there is happiness all round. Prananti, punanti garinanti. Viswam purna sukhayate
Srila Prabhupada would explain that the condition of a soul entangled in Maya is like a cat holding a rat in its mouth. This is a terrifying situation. The rat tries his best, but can’t get free from the mouth of the cat. But the same cat when holding her kitten in the same mouth to take him from one place to another place, does it with so much care that the kitten is completely relaxed. The kitten is happy and doesn’t try to get free from her mouth at all. The same cat is like the external energy on the rat and the internal energy on the kitten. Surrendered souls take shelter of the lotus feet of the Lord. It is the right situation. Srila Prabhupada explained that when the same supreme marginal potency is in contact with the supreme potency, Hara, a happy, normal situation is established. From Hara it becomes Hare and then the jiva becomes happy. To be happy is the normal state of the soul. To remain unhappy is the abnormal state of the soul. The Lord’s intention is to let all souls become normal and happy.
Om Sarve Bhavantu Sukhinah
Sarve Santu Niraamayaah |
Sarve Bhadraanni Pashyantu
Maa Kashcid-Duhkha-Bhaag-Bhavet |
Om Shaantih Shaantih Shaantih ||
Translation
1. Om, May all be happy
2.May all be free from Illness
3.May all see what is auspicious
4.May no one suffer
5.Om Peace! Peace! Peace!
Caitanya Mahaprabhu and all the Acaryas in Gaudiya Vaisnava parampara have said this. Chant …
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
… and become happy. When we chant and do kirtana then we will be normal.
There are two paragraphs remaining, which I will explain in the next session. Till then you all rest. It’s not rest of an illusory type, but rest for the soul. Till then chant and be happy. There will be kirtaniya sada hari. Atmaram – one who experiences bliss at the level of soul.
Question 1
If the jiva is superior and the material energy is inferior, then during calamities, why does the inferior energy dominate the superior energy?
Gurudev uvaca
I have explained already this. The jiva although spiritual in nature is the marginal energy. Being spiritual it is superior to the material energy. The soul is divine, superior or para energy. The material is inferior and the jiva is superior, but in spite of being spiritual or superior, still it is marginal. Sometimes Maya can dominate it when the soul becomes illusional by the arrangements of Maya. The marginal potency, is called the ‘beach’ in English and ‘beechwala’ in Hindi. On one side of the beach is the sea and on the other side land. Sometimes at full moon the entire beach gets covered with water and at other times that same beach becomes a part of the land. That is why it is seen as marginal. This is also how Prabhupada explained it. Unfortunately this is the state of jiva. The marginal energy is in between, although superior. When it acquires false ego, it forgets its own state as a servant of Kṛṣṇa. Then…
‘Krsna bhuliya jiva bhoga vancha kare nikata aste maya taare jhapatiya dhare’.
Translation
The moment soul desires not to serve the Lord maya immediately grabs him and casts him into material existence.
Question 2
Gayatri vs the material or spiritual energy?
Gurudev uvaca
The understanding is that the whole of the Srimad Bhagavatam is a commentary on the Gayatri. Gaya means singing, tri or tra means it protects the chanter. The glories of Gayatri are unlimited. There is a Gayatri of each demigod. There are various types of Gayatris. Whether it is material or spiritual will depend on which demigod you are worshipping by chanting a particular Gayatri. There is a Ganga Gayatri. There are Gayatris of various demigods. There is also Guru-Gayatri, Brahma-Gayatri, Gauranga-Gayatri and Ganesh Gayatri. The extent of Gayatri is very vast. There are different Gayatri mantras for different sampradayas. There are different Gayatris mantras for those who are not in any sampradaya. But the Lord has mentioned, sarva dharman parityajya. Although it is a religion, but it’s an inferior or subordinate religion.
Kirtana and Japa is the essence of all religions, but then there are some subordinate religions also. Some are eeya means one which can be discarded. Other is upadeya which cannot be discarded. In inferior religions also there are many worshipable entities. Devan Deva yajo yanti. One will go to heaven by chanting that Gayatri, means that is not spiritual. By the chanting of Gaur-Gayatri you will go to Goloka, then it’s spiritual. In Pancaratra all these things have been explained.
śruti-smṛti-purāṇādi-
pañcarātra-vidhiṁ vinā
aikāntikī harer bhaktir
utpātāyaiva kalpate
Translation
“Devotional service of the Lord that ignores the authorized Vedic literatures like the Upaniṣads, Purāṇas and Nārada Pañcarātra is simply an unnecessary disturbance in society.” (Bhakti-rasāmṛta-sindhu 1.2.101)
There can be a lot of disturbances. In Pancaratra worship and chanting of Gayatri have been explained elaborately.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
28 जनवरी 2021
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वेतचंद्र जय गौरभक्तवृंद।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज 762 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
हम सुन और पढ़ रहे थें प्रभुपाद का महामंत्र के ऊपर लिखा हुआ भाष्य। मै उसको भाष्य कह रहा हूँ। श्रील प्रभुपाद ने इस महिमा का गान किया है। हरे कृष्ण महामंत्र का महात्म्य कहा है।हरि हरि!
जहां रुके थे वहां से हम आगे बढ़ेंगे आपको यह मिला? वचन (भाष्य)। हमने कहा तो था इसको अपलोड करने के लिए। जरूर प्राप्त कीजिएगा। पुनः पुनः पढ़ना और सुनना और इस पर मनन करना चाहिए। ये श्रील प्रभुपाद के जो वचन है हरिनाम महिमा के या नाम तत्व के और हरिनाम जप के संबंधी कुछ विधि-विधानो का या विधि-निषेधों का प्रभुपाद ने उल्लेख किया है। अपने लाइब्रेरी में आपको यह रिकॉर्डिंग या वचन संग्रहित करना चाहिए। उस पर आप कथा करिए,जपा रिट्रीट करोगे,जपा रिफाँन, जप को कैसे सुधारा जा सकता है आपको समझना है। समझना है इसको फिर समझाना है आपको इसका उपयोग कर सकते हो आप गौर – वाणी प्रचारिणे गौरांग महाप्रभु की ओर से श्री प्रभुपाद ने कहा है। महामंत्र में जो हरे है वह हरा से आता है हरे; हरा है हरे; हरा भगवान कि आल्हादिनी शक्ति है, श्री राधा ही है या हरिती जो कृष्ण के मन को हर लेती है इसीलिए यह जो शक्ति है हरा; हरा कहते हैं। हर लेती है जो मन को। अगर मगर की बात नहीं कृष्ण है ही मदन मोहन, मदन को मोहित करने वाले। मदन मोहन को भी मोहित करने वाली है यह राधा रानी इसलिए राधा रानी को राधा रानी की ख्याति है मदन मोहन मोहिनी के नाम से विख्यात है राधा रानी। राधारानी कि जय…!
यह हरा कृष्ण के मन को कृष्ण के चित्त को हर लेती है कृष्ण को भी यह मोहित करती है ऐसी है राधा। भगवान की शक्ति है और फिर वह शक्ति बन जाती है व्यक्ति, मूर्तिमान! वह शक्ति मूर्तिमान बनती है। वह मूर्ति है राधा रानी! राधा ठाकुरानी! श्रील प्रभुपाद यह कह रहे हैं, है तो हरा लेकिन हम कहते हैं हरे इस महामंत्र में उस शक्ति को उस राधा रानी को संबोधित करते हैं संबोधन में। हरि हरि।
श्रील प्रभुपाद कहते हैं इस महामंत्र में वैसे एक है कृष्ण नाम दूसरे है श्री राम तीसरा नाम है हरे। हरे के संबंध में भी श्रील प्रभुपाद ने कहा है कृष्ण और राम यह दोनों भी कृष्ण और राम; राम तो वैसे श्रीराम ही हैं जय श्री राम कभी-कभी लोग पूछा करते थे श्रील प्रभुपाद से हम जब
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कहते हैं यह कौन से राम हैं? श्रीराम हैं क्या हम श्रीराम समझ के जप कर सकते हैं? प्रभुपाद को कोई आपत्ति नहीं थी इस बात से, के हरे कृष्ण महामंत्र में जो राम है वह राम भी है, वे श्रीराम भी हैं और वह बलराम भी है। ऐसे श्रील महाप्रभु कहते थे यह तो वैसे महामंत्र में जो इस तत्व की दृष्टि से नाम तत्व की दृष्टि से विचार किया जाए तो हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। राम कृष्ण ही हैं, क्योंकि हरे हरे या हरा राधा है तो फिर राधा के साथ जो राम है वह कुछ नहीं होने चाहिए और आप राम को हरे राम को जय श्रीराम समझोगे तो फिर हरे या हरा सीता हुई ऐसा स्वीकार करना होगा, किंतु इस हरे कृष्ण महामंत्र में तो हरे अभी-अभी प्रभुपाद सिद्ध किए, ये कृष्ण कि शक्ति है, महामंत्र में यह राम की शक्ति नहीं है, बलराम की शक्ति हो सकती है।
रमति रमयति च इति राम:
ऐसी परिभाषा भी समझाई जाती है जो रमते हैं और रमाते हैं वह है राम और वही है श्री कृष्ण। जैसे रमण रेती है।
श्री कृष्ण बलराम कि जय…! श्री कृष्ण बलराम मंदिर रमण रेति क्षेत्र में है। उस क्षेत्र का नाम रमण रेती क्यों हुआ। उस रेती में वहां के बालू में भी कहो, या रज रज में कृष्ण रमण किए राधा रमण, राधा के साथ रमण और भक्तों के साथ भी रमण, वहां गायों के साथ भी रमण किया, गोचारण लीला भी वहाँ हुई, या गायों के साथ, या कृष्ण बलराम के साथ रमन किए, गोपियों के साथ, राधा रानी के साथ रमण किए। कृष्ण बलराम मंदिर के आंगन में जो तमाल वृक्ष है श्रील प्रभुपाद उसको संभाल के रखे जब कंट्रक्शन (निर्माणकार्य)शुरू हो रहा था तो कुछ लोगों ने तो प्रस्ताव रखा कि इस वृक्ष को तोड़ना चाहिए, हटाना चाहिए। प्रभुपाद ने विरोध किया नहीं यह तमाल वृक्ष है क्योंकि तमाल वृक्ष का वर्ण कृष्ण जैसा ही है। तमालवर्ण! कृष्ण का नाम ही तमाल वर्ण तमाल कृष्ण श्रील प्रभुपाद ने तमाल कृष्ण गोस्वामी को यह नाम दिया। तमाल कृष्ण! तमालवृक्ष का जो वर्ण है तने का या शाखाओं का वह कृष्ण से मिलता जुलता है। तमाल वृक्ष को देखती है तो राधा रानी को कृष्ण का स्मरण होता है वह दौड़ कर आती है उस वृक्ष कि ओर कृष्ण यहां उपस्थित है आलिंगन देने के उद्देश्य से वह आ जाती है।तमाल वृक्ष से राधा कृष्ण कि लीलाओं का घनिष्ठ संबंध है। ऐसे तमाल वृक्ष कि भी जय…! उस क्षेत्र में कृष्ण रमे हैं इसलिए उसे रमणरेती कहते हैं। राम मतलब जो रमते हैं रमाते हैं एक धातु है रम, रम से श्रीराम हरि हरि!
और कृष्ण, अनंत कृष्ण या अकर्षिणी कृष्ण जो सभी को आकृष्ट करें,आकृष्ट करने वाले भगवान।
कृष्ण कन्हैया लाल कि जय…!
यह श्री कृष्ण का वैशिष्ट है उन्हीं को राम कहते हैं क्योंकि वह रमते है रमाते है उन्हीं को कृष्ण भी कहते हैं या मुख्य नाम तो भगवान का प्रधान पूर्ण नाम तो कृष्ण ही है। भगवान के कई सारे नाम हो जाते हैं अलग-अलग लीलाओं के कारण भगवान के सौंदर्य के कारण, भगवान के अलग-अलग भक्तों के साथ जो संबंध है उनके कारण भगवान के कई सारे नाम हो जाते हैं। उन नामों में प्रधान नाम है कृष्ण।हरे कृष्ण! और उस नाम को हम पुकारते हैं जब हम जप करते हैं नाम को पुकारते हैं मतलब कृष्ण को पुकारते हैं, संबोधित करते हैं ओह कृष्ण! हे कृष्ण! कैसे कृष्ण? जो सभी को आकृष्ट कर रहे हैं अपनी ओर वे हैं कृष्ण। य आकर्षति स कृष्ण जो सब को अपनी और आकर्षित करते हैं वह कृष्ण है। स्व माधुरयेन मम चित आकर्षय तो जब हम हरे कृष्ण कहते हैं ,कृष्ण को संबोधित भी किया कीर्तन या जप करते समय। तब हमारा निवेदन है स्व माधुरयेन मम चित आकर्षय अपने माधुर्य से मेरे चित्र को आकर्षित कीजिए। कृष्ण ने भी कहा अर्जुन से
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्
कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||
(श्रीमद भगवद्गीता 10.9)
अनुवाद: मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं |
मेरे भक्तों की क्या पहचान है? मेरा भक्त कैसा हो? जिसकी चेतना मुझ में लगी हुई हो। जो मुझसे आकृष्ट है फिर मैं गर्व से कहूंगा कि वह मेरा भक्त है । जिन्होंने प्राण भी समर्पित किये हैं और जब भी मेरे भक्त एकत्रित होते हैं वे बोध करते हैं ,एक दूसरे से मेरे संबंध में कुछ सुनते सुनाते हैं । ऐसे हैं मेरे भक्त। मेरा भक्त इसी में संतुष्ट रहता है और रमण करता है। पुनः इस रमने की क्रिया का उल्लेख हुआ है तो महामंत्र का जप करते समय यह भी प्रार्थना है मया सः रमस्व हे राधे आपका जो रमण होता है उसमें मेरा भी समावेश करिए ना । मेरे साथ रामिये हे कृष्ण, हे राधे, ऐसा भी भाष्य महामंत्र पर लिखा गया है ।
श्रील प्रभुपाद आगे लिख रहे हैं, भगवान को आह्लाद देने वाली शक्ति है, राधा रानी ।भगवान सच्चिदानंद है। संधिनी से सत और संवित से चित्त ।संवित नाम की भगवान की शक्ति है। भगवान सत हैं का मतलब शाश्वत हैं। चित यानी भगवान को व ज्ञान है, इसीलिए वह भगवान है। भगवान सच्चिदानंद विग्रह है और आह्लाद यानी आनंद से पूर्ण है ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् 6.8
न तस्य कार्य करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।।
अनुवाद: – उसके शरीर और इंद्रिया नहीं है, उसके समान और उससे बढ़कर भी कोई दिखाई नहीं देता, उसकी पराशक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है और वह स्वाभाविक ज्ञान क्रिया और बलक्रिया है।
भगवान के कई अलग-अलग शक्तियां हैं यहां पर श्रील प्रभुपाद आह्लादिनी शक्ति के बारे में उल्लेख कर रहे हैं जो कि राधा रानी हैं। वह क्या करती हैं ?भगवान को आनंद देती हैं , उनके आनंद का कारण बनती है। पर कहा तो है कि भगवान ही सर्व कारण कारण है, इसलिए शक्तिमान और शक्ति में भेद नहीं है। शक्तिमान ही शक्ति बने हैं। राधारानी जो स्वयं कृष्ण की ही शक्ति है और फिर शक्ति ही आह्लाद देती है या फिर कृष्ण ही बन जाते हैं शक्ति और कृष्ण ही कृष्ण को आह्लाद देते हैं, शक्ति के माध्यम से।
राधा कृष्ण – प्रणय – विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह – भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब – द्युति – सुवलितं नौमि कृष्ण – स्वरूपम् ॥ राधा – भाव(आदि लीला चैतन्य चतीतामृत 1.5)
अनुवाद “श्री राधा और कृष्ण के प्रेम – व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । ”
दोनों राधा और कृष्ण एक तनु है, एक आत्मा है, एक विग्रह है। दोनों एक ही आत्मा होते हुए भी भेद हुआ है। एक के दो हुए, एक हुए कृष्ण और दूसरी हुई राधा ।एक दूसरे के साथ लीला खेलने के लिए आदान प्रदान करने के लिए वे दो हुए। वैसे एक ही हैं और फिर इस कलियुग में भगवान चैक्यमापतं दो के पुनः एक हो जाते हैं ।और वह रूप है द्युति सुवलितं नौमी कृष्ण स्वरूपं
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का इसमें कृष्ण राधा के भाव और कांति को अपनाते हैं ।जो एक के दो हुए थे वह पुनः दो के एक हो जाते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय। अधुना मतलब इस कलियुग में प्रकट हुए हैं।
वह रूप है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का तो इस प्रकार राधा और कृष्ण का घनिष्ठ संबंध है और ऐसा संबंध और किसी के साथ नहीं है। घनिष्ठता में भी घनिष्ठ, घनिष्ठतर और घनिष्ठत्तम होगा। यह संबंध घनिष्ठतम है । द्वितीयो न अस्ति दूसरा नहीं है। जैसा कृष्ण का संबंध राधा रानी के साथ है।
जय श्री राधे ।
जय श्री राधे।
हरि हरि ।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
28 January 2021
Attractor of the All Attractive
Hare Kṛṣṇa!
jaya jaya śrī caitanya jaya nityānanda
jayādvaita-candra jaya gaura bhakta vrṇda
nama om vishnu-padaya krishna-preshthaya bhu-tale
srimate bhaktivedanta-svamin iti namine
namas te sarasvate deve gaura-vani-pracarine
nirvishesha-shunyavadi-pashchatya-desha-tarine
jaya sri-krsna-caitanya prabhu nityananda sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrinda
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Devotees from 762 locations are chanting with us. Yesterday we were hearing and reading Srīla Prabhupāda’s commentary on the Hare Krishna mahā-mantra. We will start from where we stopped. Did you get the statement? If not, then please make sure you get it for repeated reading, hearing and contemplating. After reading, one must understand and make others understand too. gaura-vani-pracarine – preaching the message of Lord Caitanya. Srīla Prabhupāda has spread this message or the holy name on behalf of Lord Caitanya.
Srīla Prabhupāda continues:
The word Hara is the form of addressing the energy of the Lord. The word Hare in the mahā-mantra is derived from the word Hara. Hara is the Ahladini Sakti or internal potency of Kṛṣṇa. This internal potency is Radha. This energy of Kṛṣṇa or Hara attracts Kṛṣṇa. Krsna is known as Madan Mohan, who attracts Madan or Kāma deva and Radharani is Madan Mohan Mohini – the One who attracts Kṛṣṇa, Madan Mohan. This energy becomes a personality, who is Radharani. Hare is the way to address Hara or Radharani.
Srīla Prabhupāda further says, both Kṛṣṇa and Rāma are forms of addressing the Lord directly and They mean the highest pleasure, eternal. One is the name of Kṛṣṇa, another is Rama and the third is Hare, in the mahā-mantra. Rāma is Lord Srī Rāma. People would ask Srīla Prabhupāda, “Who is Rāma in the mahā-mantra. Is He Lord Sri Rama?” Prabhupāda would reply, “Yes yes, this is the same Rama or Balarama also.” But since Hare is Radharani, therefore Rāma is Kṛṣṇa only in the mahā-mantra. If we consider Rāma as Sri Rāma, then this Hare must be addressing Sita, but since Srīla Prabhupāda already asserted Hare as Radharani, therefore Rāma must be Kṛṣṇa here.
ya ramati ramayati ca iti ramah
The one who derives joy for Himself and gives joy to others is Rāma or Sri Kṛṣṇa. The Kṛṣṇa Balaram temple in Vrindavan is in Raman Reti. That area is known as Raman Reti because Kṛṣṇa performed His transcendental pastimes with Radharani there. He also performed His pastimes with Balarama, the Gopis, cows and cowherd boys. In the courtyard of Kṛṣṇa Balaram temple, there is a Tamal tree and the proposal was to remove it during the construction of the temple, but Srīla Prabhupāda rejected that proposal. That was because the colour of the tree is that of Kṛṣṇa. Kṛṣṇa is also known as Tamala varna or Tamala Kṛṣṇa. Srīla Prabhupāda also named a disciple Tamala Kṛṣṇa Goswami. When Radharani sees the Tamala tree, it reminds Her of Kṛṣṇa and She runs to embrace the tree thinking of Kṛṣṇa. The Tamala tree has an intimate relationship with the transcendental pastimes of Radha and Kṛṣṇa. All glories to such a Tamala tree!
Rāma is one who derives joy for Himself and gives joy to others. Rāma is derived from the word Rama in Sanskrit. Ya akarshati sa Kṛṣṇaha Krsna attracts everyone. This is His transcendental quality. He is also called Rāma as He performs varied pastimes. Kṛṣṇa is called many names according to His pastimes, but the foremost name is Kṛṣṇa and this is what we call out during chanting when we say Hare Krsna.
Sva-madhuryena mac-cittah akarsaya
Translation
O Krsna! Capture my mind with the sweetness of your name, form and pastimes. (Explanation of the Mahā-mantra by Gopala Guru Gosvami)
When we say Hare Kṛṣṇa, it is our request to Him to attract our mind and attention with His pastimes and qualities.
mac-cittā mad-gata-prāṇā
bodhayantaḥ parasparam
kathayantaś ca māṁ nityaṁ
tuṣyanti ca ramanti ca
Translation
The thoughts of My pure devotees dwell in Me, their lives are fully devoted to My service, and they derive great satisfaction and bliss from always enlightening one another and conversing about Me. (BG. 10.9)
In Bhagavad-Gīta Kṛṣṇa says, “mac-cittā- whose thoughts dwell in Me and who are attracted by Me, mad-gata-prāṇā- whose lives are fully devoted to My service, bodhayantaḥ parasparam – who discuss about My pastimes and derive satisfaction (tuṣyanti ca) and bliss (ramanti ca) – such is My devotee.”
maya saha ramasva
Translation
O Hari! Take pleasure in me and enjoy with me. (Explanation of the Mahā-mantra by Gopala Guru Gosvami)
Srīla Prabhupāda continues – Hara is the supreme pleasure potency of the Lord. Kṛṣṇa is sat-cit-ananda. Sandhini is Kṛṣṇa’s energy of eternal existence (Sat), Samvit is Krsna´s energy of eternal knowledge (Cit) and Ahladini is Kṛṣṇa’s energy of eternal bliss (Ananda). Therefore, Kṛṣṇa is sat-cit-ananda – made up of eternity, knowledge and bliss.
parashya shaktir vibhidhev shruyate
There are different energies of the Lord. Our discussion here is with respect to this Ahladini energy or Radharani who gives pleasure to Kṛṣṇa.
īśvaraḥ paramaḥ kṛṣṇaḥ
sac-cid-ānanda-vigrahaḥ
anādir ādir govindaḥ
sarva-kāraṇa-kāraṇam
Translation
Kṛṣṇa who is known as Govinda is the Supreme Godhead. He has an eternal blissful spiritual body. He is the origin of all. He has no other origin and He is the prime cause of all causes. (Śrī Brahma-Saṁhitā 5.1)
Kṛṣṇa is said to be sarva karan kaaranam, the prime cause of all causes. As the energy (Radharani) and the possessor of energy (Kṛṣṇa) are non-different. Therefore Kṛṣṇa is His own energy and He personified as Radharani to give pleasure to Himself.
ek atmanāma api
deha bedha gatau to
Radha Kṛṣṇa ek tanu hai – Radha and Kṛṣṇa are one soul, two transcendental bodies. Tanu means vigrah or Deities. Deha bedha gatau to, One is Krsna and another is Radharani. Just to perform the pastimes, They became two but actually They are one. This relationship of Kṛṣṇa with Radharani is very profound.
I think the time is up. We could discuss only one paragraph, 2-3 paragraphs are remaining. We shall discuss this in the next session. We wish this mercy of Radharani is bestowed on us as well!
Srīla Prabhupāda is a Radha devotee like all Gaudiya Vaisnavas. Gaudiya Vaisnavas worship Radharani and later on they become Kṛṣṇa devotees also. We worship those who worship Radha Kṛṣṇa.
ramyā kācid upāsanā vraja-vadhu-vargeṇa yā kalpitā
Translation
There is no better worship than what was conceived by the gopīs.
Sri Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu strongly recommended that we must be devoted to the Gopis of Vraja and the chief amongst them is Radharani. Therefore we must be situated in the mood of Radharani following in Her footsteps and worshipping like Her. Then the mercy of Radharani will be bestowed. Kṛṣṇa is the epitome of mercy and so is Radharani. She bestows her mercy to us through Srīla Prabhupāda. Therefore we offer our respectful obeisances to Srīla Prabhupāda.
Question and Answer
Question
All our mundane activities come to an end at the stage of pure goodness. How?
Gurudev uvaca
The mode of pure goodness or suddha satva is away from the three modes of material nature, namely mode of goodness, passion and ignorance. This is a kind of stage of our progress in spiritual life. Therefore this stage can be considered as one of the satvas, the 4th satva or suddha satva (nirguna or without any mundane attribute).
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ
ahaṅkāra-vimūḍhātmā
kartāham iti manyate
Translation
The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature. (BG. 3.27)
Whatever we do, is influenced by the three modes of material nature, but when we attain pure goodness then it is not influenced by the three modes or lust, but by love for Kṛṣṇa.
māṁ ca yo ’vyabhicāreṇa
bhakti-yogena sevate
sa guṇān samatītyaitān
brahma-bhūyāya kalpate
Translation
One who engages in full devotional service, unfailing in all circumstances, at once transcends the modes of material nature and thus comes to the level of Brahman. (BG. 14.26)
‘The three modes of material nature’ – here Kṛṣṇa is summarising it. Please read it and it will be clear from the purport. Srīla Prabhupāda explains, one who engages in full devotional service, unfailing in all circumstances, at once transcends the modes of material nature and thus comes to the level of Brahman. This stage is also called Brahman Bhuta or Suddha Satva. One is satva (goodness) and other is Suddha Satva (pure goodness). Goodness is material but pure goodness is spiritual or transcendental.
Gaura premanande hari haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 28 января 2021 г.
ТА, КТО ПРИВЛЕКАЕТ ТОГО, КТО ПРИВЛЕКАЕТ ВСЕХ
Харе Кришна!
Джайа Джайа Шри Чайтанья Джайа Нитьянанда
Джайа Адвайта Чандра Джайа Гаура Бхакта Вринда!
нама ом вишну-падайа
кршна-прештхайа бху-тале
шримате бхактиведанта-свамин ити намине
намас те сарасвате деве
гаура-вани-прачарине
нирвишеша-шунйавади-
пашчатйа-деша-тарине
Перевод:
В глубоком почтении я склоняюсь перед Его Божественной Милостью А.Ч. Бхактиведантой Свами Прабхупадой, который очень дорог Господу Кришне, ибо для него нет иного прибежища, кроме лотосных стоп Господа. О духовный учитель, слуга Сарасвати Госвами, мы склоняемся перед тобой в глубоком почтении. Ты милостиво проповедуешь учение Господа Чайтаньядевы и несешь освобождение странам Запада, в которых широко распространился имперсонализм и философия пустоты.
(джай) Шри-Кришна-Чаитанйа
Прабху Нитйананда
Шри-Адваита Гададхара
Шривасади-Гаура-Бхакта-Вринда
Перевод:
Я выражаю свое глубокое почтение Шри Кришне Чайтанье, Прабху Нитьянанде, Шри Адвайте, Гададхаре, Шривасе и всем остальным, следующим путем преданного служения.
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
С нами воспевают преданные из 762 мест. Вчера мы слушали и читали комментарий Шрилы Прабхупады к маха-мантре Харе Кришна. Мы начнем с того места, где остановились. Вы получили сообщение? Если нет, то убедитесь, что вы получили его для многократного чтения, слушания и размышлений. После прочтения нужно понять и дать понять другим. гаура-вани-прачарине – проповедуя послание Господа Чайтаньи. Шрила Прабхупада распространял это послание или святое имя от имени Господа Чайтаньи.
Шрила Прабхупада продолжает:
Слово Хара – это форма обращения к энергии Господа. Слово Харе в маха-мантре происходит от слова Хара. Хара – это Хладини Шакти, внутренняя энергия Кришны. Эта внутренняя энергия – Радха. Эта энергия Кришны или Хара привлекает Кришну. Кришна известен как Мадан Мохан, который привлекает Мадана или Камадева, а Радхарани – Мадан Мохан Мохини – Та, кто привлекает Кришну, Мадана Мохана. Эта энергия становится личностью, которой является Радхарани. Харе – это способ обратиться к Хара или Радхарани.
Шрила Прабхупада далее говорит, что и Кришна, и Рама являются формами прямого обращения к Господу и означают высшее наслаждение, вечное. Одно имя – Кришна, другое – Рама, а третье – Харе в маха-мантре. Рама – это Господь Шри Рама. Люди спрашивали Шрилу Прабхупаду: «Кто такой Рама в маха-мантре. Он Господь Шри Рама?» Прабхупада отвечал: «Да, да, это тоже тот же Рама или Баларама». Но поскольку Харе – это Радхарани, поэтому Рама – это Кришна только в маха-мантре. Если мы рассматриваем Раму как Шри Раму, тогда эта Харе, должно быть, это обращение к Сите, но поскольку Шрила Прабхупада уже назвал Харе Радхарани, значит, Рама здесь должен быть Кришной.
йа рамати рамаяти ча ити рамах
Тот, кто получает радость для Себя и доставляет радость другим, – это Рама или Шри Кришна. Храм Кришны Баларама во Вриндаване находится в Раман Рети. Эта местность известна как Раман Рети, потому что Кришна проводил там Свои трансцендентные игры с Радхарани. Он также проводил Свои игры с Баларамой, гопи, коровами и мальчиками-пастушками. Во дворе храма Кришны Баларама растет дерево тамал, и предлагалось убрать его во время строительства храма, но Шрила Прабхупада отклонил это предложение. Это потому, что цвет дерева – цвет Кришны. Кришну также называют Тамала варна или Тамала Кришна. Шрила Прабхупада также назвал ученика Тамал Кришна Госвами. Когда Радхарани видит дерево тамала, оно напоминает Ей о Кришне, и Она бежит, чтобы обнять дерево, думая о Кришне. Дерево тамала тесно связано с трансцендентными играми Радхи и Кришны. Слава такому дереву тамала!
Рама – это тот, кто получает радость для Себя и доставляет радость другим. Рама происходит от слова Рама на санскрите. Йа акаршати са Кришна – Кришна привлекает всех. Это Его трансцендентное качество. Его также называют Рамой, поскольку Он проводит разнообразные игры. Кришну называют многими именами в соответствии с Его играми, но главное имя – Кришна, и это то, что мы произносим во время воспевания, когда говорим Харе Кришна.
сва-мадхурйена мак-читтах акаршайа
Перевод:
О Кришна! Захвати мой разум сладостью Твоего имени, формы и игр.
(Объяснение маха-мантры Гопала Гуру Госвами)
Когда мы говорим Харе Кришна, мы просим Его привлечь наш ум и внимание к Своим играми и качествами.
мач-читта̄ мад-гата-пра̄н̣а̄
бодхайантах̣ параспарам
катхайанташ́ ча ма̄м̇ нитйам̇
тушйанти ча раманти ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все мысли Моих чистых преданных поглощены Мной, и вся их жизнь посвящена Мне. Всегда делясь друг с другом знанием и беседуя обо Мне, они испытывают огромное удовлетворение и блаженство.
(Б.Г. 10.9)
В «Бхагавад-гите» Кришна говорит: «мач-читта – чьи мысли пребывают во Мне и кого привлекаю Я, мад-гата-прана – чья жизнь полностью посвящена служению Мне, бодхаянтах параспарам – которые обсуждают Мои игры и получают удовлетворение. (тушьянти ча) и блаженство (раманти ча) – таков Мой преданный».
майя саха рамасва
Перевод:
О Хари! Наслаждайся мной и наслаждайся со мной.
(Объяснение маха-мантры Гопала Гуру Госвами)
Шрила Прабхупада продолжает: Хара – это высшая энергия наслаждения Господа. Кришна сат-чит-ананда. Сандхини – это энергия вечного существования Кришны (Сат), Самвит – это энергия вечного знания Кришны (Чит), а Хладини – энергия вечного блаженства Кришны (Ананда). Поэтому Кришна сат-чит-ананда – состоящий из вечности, знания и блаженства.
парашья шактир вибхидев шруйате
Есть разные энергии Господа. Здесь мы обсуждаем эту энергию Хладини или Радхарани, доставляющую удовольствие Кришне.
ишварах парамах кршнах
сат-чит-ананда-виграхах
анадир адир говиндах
сарва-карана-каранам
Перевод:
Кришна, известный как Говинда — Всевышний Господь, Абсолютная Истина. Он вечен и полон блаженства, а тело Его духовно. Безначальный, Он Сам— начало всего сущего и причина всех причин.
(Шри Брахма-Самхита 5.1)
Кришна считается сарва карана каранам, первопричиной всех причин. Поскольку энергия (Радхарани) и обладатель энергии (Кришна) неотличны. Поэтому Кришна – это Его собственная энергия, и Он олицетворил Радхарани, чтобы доставить Себе удовольствие.
эк атманама апи
деха бедха гатау
Радха Кришна эк тану хай – Радха и Кришна – это одна душа, два трансцендентных тела. Тану означает виграх или Божества. Деха бедха гатау, Один – Кришна, а другой – Радхарани. Просто для проведения игр, Их стало двое, но на самом деле Они – одно. Эти отношения Кришны с Радхарани очень глубоки.
Думаю, время вышло. Мы могли обсудить только один абзац, осталось 2-3 абзаца. Об этом мы поговорим на следующей сессии. Мы желаем, чтобы эта милость Радхарани была дарована и нам!
Шрила Прабхупада – преданный Радхи, как и все Гаудия-вайшнавы. Гаудия-вайшнавы поклоняются Радхарани, а позже они также становятся преданными Кришны. Мы поклоняемся тем, кто поклоняется Радха-Кришне.
рамйа качид упасана враджа-вадху-варгеша йа калпита
Перевод:
Нет лучшего поклонения, чем то, что выполняли гопи враджа.
(Чайтанья Манджуша)
Шри Кришна Чайтанья Махапрабху настоятельно рекомендовал нам быть преданными гопи Враджа, и главной из них является Радхарани. Поэтому мы должны пребывать в настроении Радхарани, идущим по Ее стопам и поклоняющимся ей. Тогда будет ниспослана милость Радхарани. Кришна – воплощение милости, как и Радхарани. Она дарует нам свою милость через Шрилу Прабхупаду. Поэтому мы в глубоком почтении склоняемся перед Шрилой Прабхупадой.
Вопросы и ответы:
Вопрос
Вся наша мирская деятельность заканчивается на стадии чистой благости. Как?
Гурудев сказал:
Гуна чистой благости, или шуддха-сатва, находится за пределами от трех гун материальной природы, а именно гуны благости, страсти и невежества. Это своего рода этап нашего продвижения в духовной жизни. Поэтому эту стадию можно рассматривать как одну из сатв, 4-ю сатву или шуддха-сатву (ниргуна или без каких-либо мирских атрибутов).
пракр̣тех̣ крийама̄н̣а̄ни
гун̣аих̣ карма̄н̣и сарваш́ах̣
ахан̇ка̄ра-вимӯд̣ха̄тма̄
карта̄хам ити манйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Введенная в заблуждение ложным эго, душа считает себя совершающей действия, которые на самом деле совершаются тремя гунами материальной природы.
(Б.Г. 3.27)
Все, что мы делаем, находится под влиянием трех гун материальной природы, но когда мы достигаем чистой благости, тогда на это влияют не три гуны или вожделение, а любовь к Кришне.
ма̄м̇ ча йо ’вйабхича̄рен̣а
бхакти-йогена севате
са гун̣а̄н саматӣтйаита̄н
брахма-бхӯйа̄йа калпате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто целиком посвящает себя преданному служению, ни при каких обстоятельствах не отклоняясь от этого пути, преодолевает влияние гун материальной природы и достигает уровня Брахмана.
(Б.Г. 14.26)
«Три гуны материальной природы» – здесь Кришна объясняет это. Прочтите, пожалуйста, и это будет ясно из содержания. Шрила Прабхупада объясняет, что тот, кто занимается полным преданным служением, неизменно при любых обстоятельствах, сразу преодолевает гуны материальной природы и, таким образом, достигает уровня Брахмана. Эта стадия также называется Брахма Бхута или шуддха сатва. Одна – сатва (благость), а другая – шуддха сатва (чистая благость). Благость материальна, но чистая благость духовна или трансцендентна.
Гаура премананде хари харибол!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक २७.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 692 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
श्रील प्रभुपाद ने महामंत्र की महिमा का गान किया अथवा उन्होंने महामन्त्र के भावों के संबंध में कहा कि जब हमें जप करना है तो कैसे भाव होने चाहिए, कैसी भक्ति होनी चाहिए। हमारी महामन्त्र अथवा जप के संबंध में जोकि हम प्रतिदिन करते हैं, क्या समझ होनी चाहिए।
आइए वही हम पहले सुनते हैं। कुछ लोग पढ़ कर सुना रहे थे, अब हम प्रभुपाद से सीधे सुनेंगे। यह स्टेटमेंट (वाक्य) इतना महत्वपूर्ण है कि प्रभुपाद ने इसको लिख लिया अथवा रिकॉर्ड भी किया जिससे भविष्य में भक्त इसे सदा के लिए सुन सकें। हम इसे सुन कर समझ सकते हैं अथवा प्रेरित हो सकते हैं। श्रील प्रभुपाद इस स्टेटमेंट में ऐसे ही भावों का उल्लेख करते हैं। हम ऐसे भाव जगाने का अभ्यास कर सकते हैं।
ध्यानपूर्वक सुनिए। शायद यह वाला अंग्रेजी में है। प्रभुपाद ने दोनों भाषाओं में इसकी रिकॉर्डिंग की है, पहले तो रिकॉर्डिंग अंग्रेजी में ही की थी परंतु बाद में उन्होंने इसे हिंदी में भी किया।
देखते हैं कौन सा रैडी (तैयार) है, सुनियेगा।
श्रील प्रभुपाद-( रिकॉर्डिंग)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस महामन्त्र के कीर्तन से उत्पन्न हुई अप्राकृतिक प्रतिध्वनि हमारी अप्राकृतिक चेतना को जागने के लिए अतुलनीय कृष्ण विधि है। जीवात्मा के रूप से हम सब कृष्णभावनाभावित हैं परंतु अनादि काल से जड़ प्रदार्थ के संपर्क में रहने के कारण हमारी चेतना भौतिक वातावरण द्वारा अशुद्ध हो गयी है। इस भौतिक वातावरण को माया कहते हैं, माया का अर्थ है ‘वो जो नहीं है।’अब हमें देखना है कि यह माया किस प्रकार की है? माया यह है कि हम सभी इस भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं। जबकि वास्तव में हम सभी अपूर्व रूप से इसके कठोर नियम की जकड़ में हैं। जैसे एक नौकर अपने सर्वशक्तिमान स्वामी को नकल करना चाहता है, यह माया का प्रभाव है।
हम इस भौतिक प्रकृति के भंडार का उपयोग करने के लिए सतत् समशील हैं परंतु वास्तव में हम उसकी जटिलता में अधिक से अधिक अबद्ध होते चले जा रहे हैं I कृष्ण भावना मस्तिष्क पर बनावटी दवाब नही है। यह चेतना, यह भावना, जीवात्मा की स्वभाविक प्रारंभिक शक्ति है। जब हम इस मंत्र के कीर्तन से उत्पन्न अप्राकृतिक प्रतिध्वनि को सुनते हैं, तब हमारी यह चेतना सुप्त अवस्था छोड़ कर जगती है। कलियुग में ध्यान की यह सरलतम विधि है व फलदायक मानी गयी है। कोई भी अपने व्यक्तिगत अनुभव से भी जान सकता है कि महामन्त्र के कीर्तन से आध्यात्मिक स्तर से अप्राकृतिक भावना की अनुभूति होती है। आरम्भ में सभी प्रकार की अप्राकृतिक भावना की स्थिति नहीं हो सकती है। जब भगवान् के शुद्ध भक्त द्वारा गाया जाता है तो सुनने वाले पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ता है।अतः तत्कालीन परिणाम के लिए इसे प्रभु के पवित्र भक्त से सुनना चाहिए। जो भगवान् के भक्त नहीं हैं उनके मुख से कीर्तन नहीं सुनना चाहिए। जैसे दूध को यदि जहरीले सर्प ने छू दिया है,
वह विषैला हो जाता है। शब्द ‘हरा’ के द्वारा प्रभु की शक्ति को सम्बोधित किया जाता है। कृष्ण और राम शब्द से प्रभु को सम्बोधित किया जाता है। कृष्ण और राम परम आनंद हैं और ‘हरा’ प्रभु की परम आनंदमयी शक्ति है। प्रभु की यह आनंदमयी शक्ति हमें उनके पास ले जाने में सहायक होती है।भौतिक शक्ति माया भी प्रभु की विविध शक्तियों में से एक है। हम जीवधारी भी प्रभु की तटस्था शक्ति हैं। जीवात्मा भौतिक शक्ति से विशिष्टय होते हैं। परा शक्ति का अपरा शक्ति से सम्पर्क निरुद्ध परिस्थिति उत्पन्न करता है किंतु परा शक्ति एवं तटस्था शक्ति का सङ्ग प्रसन्नता पूर्ण सामान्य परिस्थिति उत्पन्न करता है। ‘हरा’, ‘कृष्ण’ सङ्ग ‘राम’ यह तीन शब्द महामन्त्र के अप्राकृतिक बीज मंत्र है। कीर्तन, प्रभु तथा उनकी शक्ति को बद्ध आत्मा की रक्षा करने के लिए एक आध्यामिक पुकार है। कीर्तन उस बच्चे के रुदन जैसा होता है जो अपने माता की उपस्थिति चाहता है। माता हर भक्त को पिता अर्थात भगवान् के पास ले जाती है। तब प्रभु श्रद्धा एवं विश्वास के साथ कीर्तन करने वाले भक्त के सम्मुख स्वयं उपस्थित होते हैं।
हरे कृष्ण!
आप सबने सुना? और देखा भी?
आप प्रेजेंटेशन देख रहे थे अर्थात जो कहा जा रहा था, उसको दिखाया भी जा रहा था। इसे आप सभी को लोक संघ या इस chantwithlokanathswami कॉन्फ्रेस में भी भेजेंगे ताकि आप सभी इससे लाभान्वित हो सकें।
हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रील प्रभुपाद की जय!
वैसे हमनें हरे कृष्ण महात्म्य के विषय में और भी कमैंट्स सुने हैं लेकिन इस्कॉन के संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद का दिव्य अलौकिक हरे कृष्ण महामंत्र पर यह भाष्य बड़ा महत्वपूर्ण है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह हमारी कृष्णभावनामृत के पुनः जागृत करने की उदात्त विधि है।
वैसे हमनें कुछ दिखाया भी था अथवा कुछ सुनाया भी था। यह हरे कृष्ण महामन्त्र की विधि है, उच्चारण, श्रवण और जप सब उदात्त विधियां हैं और हम सब जीवित इकाइयां है।
हरे कृष्ण!
प्रभुपाद लिखते हैं कि वर्षा होती है तो जल के बिन्दु जब तक आकाश में होते हैं अथवा गिर रहे होते हैं, तब तक वह शुद्ध जल ही रहता है लेकिन जैसे वह बूंदे जमीन अथवा धरती पर पहुंचती हैं,
सारा कचरा, मैला, गंदा, मिट्टी उसमें मिल जाता है और उस जल की स्थिति गंदा जल अथवा गंदा नाला जैसी बन जाती है। वैसे तो हम भी वास्तविक रूप से शुद्ध पवित्र आत्माएं है। हम भी इस जगत के संपर्क में जैसे ही आए, इस जगत का मल कहा जाए, वैसे मल ही हैं,हम सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण से मलिन हो जाते हैं।
अतः पुनः हमारी चेतना, भावना, विचारों और पूरे जीवन में जो मल मिला हुआ है उसको हटाना है, उसको मिटाना है। जब हम हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करते हैं। वही प्रयास होता है, उसी के विषय में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी कहते हैं।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
(श्री श्री शिक्षाष्टकम)
अर्थ:-
श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
चेतोदर्पणमार्जनं अर्थात हमारी आत्मा अथवा हमारी चेतना के दर्पण पर पड़े हुए मल को मिटाना है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करने से यह संभव है।
जीवन की इस प्रदूषित अवधारणा में, हम सभी भौतिक प्रकृति के संसाधनों का शोषण करने की कोशिश कर रहे हैं।
हमारी भावना चेतना जब कुलषित अथवा दूषित होती है तो हम इस संसार के भोग भोगने का प्रयास करते हैं। श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं कि वास्तव में हम जटिलताओं में अधिक से अधिक उलझते जाते है। जब हमारा भोक्ता बनने का प्रयास होता है तो उससे हमारा जीवन और भी अधिक क्लिष्ट हो जाता है। इससे हम अधिकाधिक इस संसार में धंस अथवा फंस जाते हैं। क्रिया- प्रतिक्रिया, कारण और परिणाम होते ही रहते हैं। यह भ्रम माया कहलाती है। यह भ्रम अथवा भ्रांति जो है यह छाया है। यह छाया है, यह माया है लेकिन वास्तविक तो प्रकाश है।
कृष्ण सूर्य सम; माया हय अंधकार।याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.३१)
अर्थ:- कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान है। जहाँ कहीं सूर्य प्रकाश है, वहाँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्यों ही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्यों ही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता है।
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्
( श्रीमद् भगवतगीता १५.१)
अनुवाद:-
भगवान् ने कहा – कहा जाता है कि एक शाश्र्वत अश्र्वत्थ वृक्ष है, जिसकी जड़े तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं। जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है।
भगवान के धाम में जो सुल्टा( सीधा) है, यहां उल्टा हो जाता है। वहाँ कृष्ण है, यह माया है। हम भौतिक प्रकृति के कठोर कानूनों पर अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते हैं।
हम सुन तो चुके ही हैं परंतु हम भूल भी जाते ही हैं।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१४)
अनुवाद:- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।
इस मायावी नियमों व कानूनों का उल्लंघन करने या उससे परे पहुंचने अथवा गुणातीत होने के लिए कई सारे प्रयास करने पड़ते हैं। हम कृष्ण चेतना के पुनरुद्धार से भौतिक प्रकृति के विरुद्ध यह भ्रमपूर्ण संघर्ष रोक सकते हैं।
हमारा मायातीत अर्थात माया से परे पहुंचने, गुणातीत पहुंचने का संघर्ष अथवा प्रयास है, वह प्रयास तभी सफल होता है, जब हम हमारी कृष्ण भावना को जगाते हैं। हरि! हरि!
कृष्ण चेतना दिमाग पर एक कृत्रिम दबाव नहीं है, यह चेतना जीवित इकाई की मूल ऊर्जा है
हम कृष्ण भावना से मन को आच्छादित नहीं करते। श्रील प्रभुपाद यह लिख रहे हैं अथवा कह भी गए हैं कि यह कृष्ण भावना जीव की मूल शक्ति अथवा भावना ही है।हम कृष्ण भावना को मन पर लाद अथवा आच्छादित नही कर रहे हैं। दिव्य मन भी हैं, दिव्य बुद्धि भी है। आत्मा तो दिव्य है ही। उसका ही स्वाभाविक, शाश्वत लक्षण है। उसका ही कृष्ण भावना भावित होना भाव है। यह कृत्रिम आच्छादन नहीं है।
हमारी इस समय जो भावना अथवा विचार है, यह सब इस संसार के विचार हैं जिससे हम कलुषित दूषित अथवा आच्छादित हो चुके हैं।
जब हम ट्रांस डेंटल अलौकिक कंपन को सुनते हैं, तो यह चेतना पुनर्जीवित होती है
यह महामन्त्र जो दिव्य ध्वनि है, वह हमारी आत्मा की जो मूल कृष्ण भावना है, उसको जागृत अथवा प्रकाशित करती है। साधु, शास्त्र, आचार्य जो भी प्रमाण है, उनकी भी यही सिफारिश (मराठी में) है कि इस कलयुग के लिए यही विधि है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(बृहन्नारदीय पुराण( ३.८.१२६)
अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम हरिनाम और केवल हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है।
व्यावहारिक रूप से आते ही, हम यह समझ सकते हैं कि इस महा-मंत्र का चिंतन करके, एक बार आध्यात्मिक स्तर से दिव्य परमानंद को महसूस कर सकते हैं
प्रभुपाद कहते हैं कि हम सभी का ऐसा व्यवहारिक अनुभव होता है और होना चाहिए कि जैसे जैसे हम महामंत्र को सुनते हैं तब हम कम या अधिक आनंद का अनुभव करते हैं। कृष्ण के सानिध्य का अनुभव करते हैं या कृष्ण के स्मरण का अनुभव करते हैं। कृष्ण का स्मरण होता है। प्रभुपाद कहते हैं कि यह व्यवहारिक अनुभव की बात है। आपका भी ऐसा अनुभव होगा ही, मेरा भी है और सभी का होता ही है ।जैसे ही व्यक्ति इस महामंत्र को सुनता है।
जब कोई आध्यात्मिक समझ के विमान पर होता है- इंद्रियों, मन, बुद्धि के चरणों को पार करने से एक अलौकिक विमान पर स्थित होता है।
यह अलग अलग स्तर है- ऐन्द्रिक, मानसिक तथा बौद्धिक। यह महामंत्र का श्रवण कीर्तन इसके परे पहुंचा देता है। तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुणडावली-लब्धये कर्ण-क्रोड़-कड़म्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम्। चेतः-प्राङ्गण- सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृषणेति वर्ण-द्वयी।
(श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक१.९९)
अर्थ:- मैं नहीं जानता हूं कि कृष्-ण के दो अक्षरों ने कितना अमृत उत्पन्न किया है। जब कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया जाता है, तो यह मुख् के भीतर नृत्य करता प्रतीत होता है। तब हमें अनेकानेक मुखों की इच्छा होने लगती है। जब वही नाम कानों के छिद्रों में प्रविष्ट होता है, तो हमारी इच्छा करोड़ों कानों के लिए होने लगती है और जब यह नाम ह्रदय के आंगन में नृत्य करता है, तब यह मन की गतिविधियों को जीत लेता है, जिससे सारी इंद्रियां जड़ हो जाती हैं।
श्रील रूप गोस्वामी ने ऐसा भी कहा ही है।
विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं
हमारी इन्द्रियों की कृति अथवा कार्य या जो भी है, वह ठप्प हो जाता है। जब हम इंद्रियों को जीत लेते हैं और इंद्रिय निग्रह मन निग्रहः इस हरे कृष्ण महामंत्र के उच्चारण से यह संभव होता है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रील प्रभुपाद दोहरा रहे हैं कि यह महामंत्र हमें मानसिक, बौद्धिक या कायिक वाचिक स्तरों से परे पहुंचा देता है।
प्रभुपाद कहते हैं कि कीर्तन करो, जप करो। उसकी भाषा समझने की आवश्यकता नहीं है उसकी भाषा तो कृष्ण ही हैं। कृष्ण भाषा हैं। यह चाइनीस, हिंदी, मराठी या हिब्रो ऐसी कोई भाषा तो है नहीं, वैसे जब यह नाम इस जगत का ही नहीं है तब यह महामंत्र इस जगत की भाषा भी नहीं बोलता। हम इस जगत की भाषाओं की मदद से इस महामन्त्र को नहीं समझ पाएंगे। ना तो किसी मानसिक अर्थात मनोधर्म की आवश्यकता है। यह है, वह है, मैं सोचता हूँ कि.. नहीं! यह महामंत्र उस से परे है।
यह स्वचालित रूप से आध्यात्मिक मंच से स्प्रिंग करता है।
आत्मा का जो प्लेटफार्म है, आत्मा का जो स्तर है। आत्मा का जो हृदय है, वहां से उदित होता है प्रकट होता है। कोई भी व्यक्ति बिना किसी पुरानी योग्यता अर्थात पूर्व प्रशिक्षण के बिना कीर्तन और नृत्य कर सकता है वैसे हम सभी का पूर्व प्रशिक्षण तो है क्योंकि एक समय आत्मा यही करती थी जब वह भगवान के साथ थी, भगवत धाम में थी। उसने खूब नृत्य और कीर्तन किया है। वह अभ्यस्त और प्रशिक्षित थी। यह उसका स्वभाव ही था। इसलिए अब जब हम कीर्तन सुनते हैं ओह! कृष्ण! हे कृष्ण! तो उसको पुरानी यादें याद आ जाती है। जग जाती हैं। पुनः पूर्ववत्त वह जीव पहले जैसे वह कीर्तन और नृत्य करने लगता है। हरि! हरि!
मैं सोच रहा हूं कि यहीं विराम देना चाहिए। प्रभुपाद का स्टेटमेंट (वाक्य) अभी और भी काफी है, इसे कल पूरा करेंगे। अब तक जो आपने सुना, इस संबंध में कोई प्रश्न अथवा टीका टिप्पणी है तो आप कह सकते हो। पदमाली उसके पश्चात तुम्हारे स्कोर्स आदि का अनाउंसमेंट क्या है? उसे भी तुम कह सकते हो।
हरे कृष्ण!
यदि आपका कोई प्रश्न है, तो अब
आप चैट पर अपने प्रश्न लिखिए।हरि! हरि! हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
बाकी सब जप करते रहिए। जिसको लिखना है वह अपने प्रश्न या टीका टिप्पणी लिख सकते हैं। अन्य भक्त जप करते रहिए।
प्रश्न- क्या हमने यहां आने से पहले कृष्ण को देखा है?
गुरु महाराज- आप कह रहे हो कि यहां आने से पहले क्या हमने कृष्ण को देखा है? आपने तो उत्तर दे ही दिया। इतना तो स्वीकार करते हो यहां आने से पहले…. तो यहां आने से पहले आप कहां थे? उत्तर तो है। हम आने से पहले भगवान के साथ ही थे, भगवत धाम में थे। हम भगवान को देखते ही थे। भगवान का दर्शन करते थे। भगवान के साथ हम भी भोजन करते होंगे।हम कृष्ण के साथ खेलते होंगे, नाचते होंगे और हमने क्या-क्या नहीं किया होगा। आप भूल गए? यही तो समस्या है। कृष्ण ने इसलिए भी कहा था।
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ४.५)
अर्थ:- श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है।
भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन तुम्हारे और मेरे कई सारे जन्म हो चुके हैं लेकिन उन सारे जन्मों को तुम भूल गए हो और मुझे वह सारी बातें याद हैं। मुझे याद हैं, तुम भूल गए हो क्योंकि तुम माया में हो। हम एक समय कृष्ण के थे या कृष्ण के साथ थे।हम कृष्ण को देखते थे, हम इस बात को भूल गए हैं इसलिए ऐसा प्रश्न पूछ रहे हैं, क्या हमने कृष्ण को देखा है?
श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि
‘रिवाइवल ऑफ श्री कृष्ण कॉन्शसनेस’ अर्थात
कृष्ण भावना को पुनः जगाना है। कृष्णभावना कृष्ण की यादें हैं, स्मृतियां हैं। आत्मा को बस पुनः स्मरण दिलाना है, उसे जगाना है। श्रील प्रभुपाद ने भी यही कहा कि कृष्णभावनामृत मानसिकता और बौद्धिकता पर कोई दवाब नहीं है अर्थात मन और बुद्धि पर हम इसको लादते नहीं हैं। हम आच्छादित नही करते। कृष्ण भावना कृत्रिम नही है अपितु कृष्ण भावना स्वभाविक है। यह कृष्णभावना तो आत्मा की है। कृष्ण ने आत्मा के लिए कही है। हमनें कृष्ण को खूब देखा है। क्या तुम्हें याद है? कोई हमसें पूछ सकता है कि क्या तुम्हें वह व्यक्ति याद है? हम जब कहेंगे कि आप कौन से व्यक्ति की बात कर रहे हो? वह यदि आपको उसका फ़ोटो ग्राफ दिखायगा, तो हम कहेंगे कि हमें याद है, हमने उसको पहले देखा था, उसका चित्र हमें दिखाया जाएगा तो.. हम कहेंगे ओह्ह, वो सांगली में रहता था ना, यस, यस!.. वही बात है। भगवान का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम, परिकर जब इसका हम श्रवण करते हैं तब पुनः हम कृष्ण का स्मरण करते हैं। कृष्ण भी याद आते हैं, राधारानी भी याद आती है। नंद बाबा और यशोदा भी याद आते हैं और मधुमंगल भी याद आते हैं। सुरभि गाय भी याद आती है।
चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्। लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥
( ब्रह्म सहिंता श्लोक २)
अर्थ:- मैं उन आदिपुरूष भगवान् गोविन्द का भजन करता हूँ, जो लाखों कल्पवृक्षों से घिरे हुए चिंतामणिसमूह से निर्मित भवनों में कामधेनु गायों का पालन करते हैं एवं जो असंख्य लक्ष्मियों अथवा गोपियों द्वारा सदैव प्रगाढ़ आदर और प्रेम सहित सेवित हैं।
कल्प वृक्ष भी याद आते हैं।
सब कुछ याद आते हैं।
प्रश्न- जब हम प्रांरभिक दिनों में जप करते थे तो उसमें कुछ उत्साह और स्वाद होता था लेकिन अब कुछ वर्षों के बाद लग रहा है कि वो स्वाद अब नहीं रहा है? ऐसा क्यों?
गुरु महाराज- इसमें महामन्त्र का कसूर नहीं है। महामंत्र तो मीठा ही है। हो सकता है कि हमसे कुछ अपराध हो रहे हैं। हम ऐसा विचार कर सकते हैं कि कुछ अपराध तो नहीं हो रहा है। नामे रुचि, जीवेर दया, वैष्णव सेवा अर्थात नाम में और औऱ रुचि बढ़ाने के लिए और वैष्णवों की सेवा और जीवे दया करनी होती है। क्या वो हम नहीं कर रहे हैं?
जब अपराध होते हैं तो एक बात यह होती है कि नाम में रुचि नहीं आती। कृष्ण मीठे नहीं लगते। कृष्ण कड़वे लगते हैं।
यहाँ तक कि भगवान् का नाम भी मुख से निकलना मुश्किल हो सकता है। इन अपराधों का परिणाम ऐसा निकलता है। हमनें देखा है।
एक बात् हमें याद है एक भक्त छोड़ कर चले गए या माया ने उनको वहाँ से बाहर कर दिया। पुनः जब वे लौटे तब वह कह रहे थे कि मैं जानता हूं। मैं समझ चुका हूँ कि किसके कारण मैं भक्तों के सङ्ग से वंचित हुआ था, मैं चला गया या मुझे भेजा गया था। मैं वैष्णव अपराधी था। मैं वैष्णवों के प्रति अपराध, निंदा खूब किया करता था। इसलिए मुझे जाना पड़ा। मुझे भक्तों से, भगवान् से दूर भेजा गया। मेरी साधना भी छूट गयी। अब लातों के भूत बातों से नहीं मानते तो मुझे लात मिल गयी है। अब मैं पुनः वैष्णव अपराध नहीं करूंगा। नो मोर! नो मोर! मैं इसका दुष्परिणाम जानता हूँ। हमसे ऐसा तो कुछ नहीं हो रहा ? हम थोड़ा दिल टटोलकर देख सकते हैं। कुछ सिंहावलोकन कर सकते हैं लेकिन यह विश्वास होना चाहिए कि हरिनाम तो मीठा ही है। इसमें कोई दो राय नहीं है। इसका आस्वादन करते जाओ, जप करते जाओ, कीर्तन करते जाओ। एक दिन अवश्य रक्षिबे कृष्ण होगा
दैन्य, आत्मनिवेदन, गोप्तृत्वे वरण। ‘अवश्य रक्षिबे कृष्ण’-विश्वास, पालन॥3॥
(भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित वैष्णव गीत)
अर्थ:- शरणागति के सिद्धांत हैं – विनम्रता, कृष्ण के प्रति आत्म-समर्पण, कृष्ण को अपना पालनकर्ता स्वीकार करना, यह दृढ़ विश्वास होना कि कृष्ण अवश्य ही रक्षा करेंगे।
या
उत्साहान्निश्चयाद्धैर्या त्तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् ।
सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
( उपदेशामृत श्लोक 3)
अर्थ:- शुद्ध भक्ति को संपन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं:(१) उत्साही बने रहना(२) निश्चय के साथ प्रयास करना(३) धैर्यवान होना(४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना( यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम- कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना)(५) अभक्तों की संगति छोड़ देना(६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरण चिन्ह पर चलना
ये छहों सिद्धांत निस्संदेह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
भक्ति कैसी करनी होती है? उत्साह के साथ, निश्चय के साथ, धैर्य के साथ कि मुझे इस हरिनाम का आस्वादन करना ही है। श्रील प्रभुपाद पीलिया नामक रोग के उदाहरण से समझाया करते थे कि जब आप पीलिया के रोगी को कुछ मीठा शक्कर या मिश्री खाने के लिए दोगे। वह कहेगा कि यह तो कड़वा है। मिश्री तो मीठी ही है लेकिन वह स्वयं मरीज है, बीमार है, रोगी है उसे पीलिया हुआ है।इसलिए पुनः वह डॉक्टर के पास जाकर कह सकता है कि क्या दूसरा कोई उपाय या औषधि नहीं है? डॉक्टर कहेगा नहीं!
जैसे हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(बृहन्नारदीय पुराण( ३.८.१२६)
अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम हरिनाम और केवल हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है।
उसी प्रकार मिश्री मिश्री मिश्री ही केवलम या मिश्री ही खानी होगी। यह पीलिया रोग की दवा है। जब पीलिया होता है तब गन्ना या गन्ने का रस या मिश्री ऐसे पदार्थ खाने से ही उस रोग से मुक्ति होती है। डॉक्टर कहेंगे- दूसरा उपाय नहीं है। दूसरा उपाय नहीं है। यही उपाय है। इसी को खाना होगा। मरीज, डॉक्टर और दवा में विश्वास के साथ वह मिश्री खाता जाएगा, तो क्या होगा? तत्पश्चात वह हर दिन अनुभव करने लगेगा कि यह मिश्री अथवा शक्कर तो मीठी है। कुछ दिन पश्चात उसे लगेगा और मीठी है, फर्स्ट क्लास है। एक दिन तो वह खाने के लिए तैयार नहीं था, मिश्री खाते खाते खाते वह रोग से मुक्त हो रहा है और अब तो वह और मांग रहा है मुझे और दो, मुझे और मिश्री दो, मुझे और मिश्री दो, मिश्री समाप्त हो गई है, तब खड़े क्यों हो? जाओ, लेकर आओ। मुझे और चाहिए। वैसा ही हरि नाम है। हरेर्नामैव केवलम। हरि नाम तो मीठा है ही। नहीं! नहीं!
यह तो मीठा नहीं है, कुछ और मीठा है क्या? चलो, सिनेमा संगीत ही सुनते हैं। इससे और अपराध होंगे। हरि नाम में श्रद्धा नहीं होना, यह भी दसवां नाम अपराध है। हरिनाम में पूरी श्रद्धा नहीं होना अर्थात इस संबंध में बहुत सारा उपदेश सुनने के उपरांत भी विषय आसक्ति बनाए रखना, सारा उपदेश सुना तो सही लेकिन फिर भी चाय पीते ही जाना। यह अपराध है। यह नाम अपराध है। देखना चाहिए वैसे दस नाम अपराध है तो उस में से कौन सा अपराध हो रहा है। पहला अपराध हो रहा है ? दूसरा हो रहा है? वैसे प्रायः पहला अपराध तो हम सभी करते ही रहते हैं। अपराधपरायण। हम अपराध करने में एक्सपर्ट हैं अर्थात सबसे आगे होते हैं। वैष्णव निंदा क्या यह अपराध तो नहीं हो रहा है? गुरु अवज्ञा तो नहीं हो रही है? श्रुति, शास्त्र, निंदनम तो नहीं हो रहा है? श्रुति शास्त्रों की निंदा तो नहीं हो रही है?.. यह भी देखना है, सोचना है लेकिन हमें किसी हालत में हरिनाम को नहीं छोड़ना है।
ओके! प्रश्न उत्तर को अब यहीं विराम देंगे। समय समाप्त हो चुका है।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
27 January 2021
Supreme, sublime method of reviving our Krishna Consciousness
Hare Krishna! Welcome to this japa talk. Devotees from over 695 locations are chanting with us right now. Today we will discuss what Srila Prabhupada said about how to chant and what should be the mood? We will first hear from Srila Prabhupada. This is an extremely important topic and Srila Prabhupada wrote and recorded it. He immortalised it. We must read it, learn from it and understand it and try to practice it in our life. I wish to speak in correlation with this. We’ll play it in parts and discuss. Did you all see the video?
We have heard the glories and commentary of the Hare Krishna maha-mantra from several speakers, but this one has been spoken by our founder Acarya. This is very important.
This transcendental vibration by chanting of …
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
… is the sublime method for reviving our Krsna consciousness. We have shown and heard about it many times already. This is the method of the Hare Krishna maha-mantra. To hear and chant always.
Srila Prabhupada says that originally we were Krishna conscious. Rain drops are pure before reaching the ground. They become dirty after touching the ground. Similarly, we all are pure souls, but in association of this material world, have become contaminated by the three modes of nature. We forget Krsna. We get contaminated just like the rain drops get dirty after touching the ground. We need to remove all this contamination and this is called ceto darpana marjanam by Mahaprabhu.We need to clear all the dirt accumulated on the mirror of our consciousness. It is possible by the process of chanting the Hare Krsna maha-mantra.
In this polluted concept of life, we are all trying to exploit the resources of material nature, but actually we are becoming more and more entangled in her complexities.
When our consciousness is complicated, we try to exploit and enjoy more and more resources to gratify our senses, but we get more and more entangled in the complexities of actions and reactions. We try to become the enjoyer. Our lives become more entangled in the actions and reactions, cause and effect.
This illusion is called Maya which is the shadow of the divine potency. It is originally a divine light, a reflection of the eternal abode.
kṛṣṇa — sūrya-sama; māyā haya andhakāra
yāhāṅ kṛṣṇa, tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra
Translation
“Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish. [CC Madhya 22.31]
śrī-bhagavān uvāca
ūrdhva-mūlam adhaḥ-śākham
aśvatthaṁ prāhur avyayam
chandāṁsi yasya parṇāni
yas taṁ veda sa veda-vit
Translation
The Supreme Personality of Godhead said: It is said that there is an imperishable banyan tree that has its roots upward and its branches down and whose leaves are the Vedic hymns. One who knows this tree is the knower of the Vedas. [BG 15.1]
Everything over here is the opposite. Whatever is present in Krsna’s abode is completely opposite in the material world. Krsna is there and here it is Maya.
It is a hard struggle to exist over the stringent laws of material nature. We have heard this already, but have forgotten.
mama maya duratyaya
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. (BG 7.14)
These laws of material nature are very stringent. We need to put in effort and struggle to cross or surpass these modes of material nature.
This illusory struggle against the material nature can at once be stopped by the revival of our Krishna Consciousness. These efforts to go beyond the material nature or beyond the modes of material nature will be successful when we revive our Krishna Consciousness. We need to try to get free from this entanglement. Our efforts to get free from this entanglement are successful only when we strive in Krsna Conscious spirits.
Krishna Consciousness is not an artificial imposition on the mind; this consciousness is the original energy of the living entity. It is not any kind of external load forced upon us. Srila Prabhupada says, “Krishna consciousness is the nature of the Jiva.” The mind, intelligence and soul are divine, pure and Krsna conscious by nature.
As living spiritual souls we are all originally Krishna conscious entities, but due to our association with matter from time immemorial, our consciousness is now polluted by the material atmosphere. Our current consciousness is fully covered by worldly affairs and thoughts.
This original consciousness is revived when we hear the transcendental vibration of the Hare Krishna maha-mantra. This process is recommended by the authorities for this age. The scriptures, spiritual masters and the saints prescribe and recommend this process in this age of Kali.
harer nāma harer nāma
harer nāmaiva kevalam
kalau nāsty eva nāsty eva
nāsty eva gatir anyathā
Translation
“ ‘In this age of quarrel and hypocrisy, the only means of deliverance is the chanting of the holy names of the Lord. There is no other way. There is no other way. There is no other way.’ ” [CC Madhya 6.242]
By practical experience also, we can perceive that by chanting this maha-mantra, one can at once feel transcendental ecstasy from the spiritual stratum. It is the great chanting for deliverance. Srila Prabhupada says that we all experience or should experience some bliss while chanting. Also it can be practically experienced. We do experience a special bliss when we hear this transcendental vibration of the Hare Krishna maha-mantra. We experience the association of Krsna, remember Krsna, His qualities and pastimes. It is a matter of practical experience. We all have this experience. Even I have such experiences the moment we start hearing the maha-mantra.
When one is factually on the plane of spiritual understanding – surpassing the stages of senses, mind, and intelligence – one is situated on the transcendental plane. There are different categories such as sensual, mental and intellectual. This maha-mantra takes us beyond the senses and their engagement in their objects is stopped. Srila Prabhupada repeats that this maha-mantra takes us beyond the sensual, mental and intellectual.
tuṇḍe tāṇḍavinī ratiṁ vitanute tuṇḍāvalī-labdhaye
karṇa-kroḍa-kaḍambinī ghaṭayate karṇārbudebhyaḥ spṛhām
cetaḥ-prāṅgaṇa-saṅginī vijayate sarvendriyāṇāṁ kṛtiṁ
no jāne janitā kiyadbhir amṛtaiḥ kṛṣṇeti varṇa-dvayī
Translation
“I do not know how much nectar the two syllables ‘Kṛṣ-ṇa’ have produced. When the holy name of Kṛṣṇa is chanted, it appears to dance within the mouth. We then desire many, many mouths. When that name enters the holes of the ears, we desire many millions of ears. And when the holy name dances in the courtyard of the heart, it conquers the activities of the mind, and therefore all the senses become inert.” [CC Antya 1.99]
Srila Rupa Goswami says that the senses become inert and we can win over our senses and mind. This is only possible by chanting this maha-mantra.
This chanting of …
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
… is directly enacted from the spiritual platform, surpassing all lower strata of consciousness – namely sensual, mental and intellectual. Here Srila Prabhupada is repeating that this maha-mantra will take us beyond the sensual, mental and intellectual level.
There is no need to understand the language of the mantra, nor is there any need for mental speculation, nor any intellectual adjustment for chanting of this maha mantra. Just go for it. Chant and do kirtan. Srila Prabhupada says that it is the vibration that works. There is no need to understand the language. The language is Krsna. This is Krsna’s language. It is not Hindi, Chinese or Marathi. It is Krsna. As such this name doesn’t belong to this material world so how can we understand it by any material language? There is no need of mental speculation like ‘I think the meaning of the maha-mantra is this or that.’ There is no need of that. This maha-mantra is beyond all this.
It springs automatically from the spiritual platform, and as such, anyone can take part in this transcendental sound vibration without any previous qualification, and dance in ecstasy. It is coming from the soul. This arises from the heart. Anybody, without any previous qualification or training can chant and dance in ecstasy. However there is some previous qualification and experience also because there was a time when the soul was doing this only i.e. chanting and dancing with the Lord in the spiritual abode. There we have danced a lot. We were busy there. It has been our eternal nature. We remember our actual conscious nature by engaging in the process of chanting the Hare Krishna maha-mantra. We remember that maha- mantra, that Krsna’ These are our very old memories which awakens as soon as we start chanting and then again we start chanting and dancing like before.
We shall stop here now. There is more to discuss that we shall continue tomorrow.
Hare Krishna.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 27 января 2021 г.
ВЫСШИЙ, СОВЕРШЕННЫЙ МЕТОД ВОЗРОЖДЕНИЯ НАШЕГО СОЗНАНИЯ КРИШНЫ
Харе Кришна! Добро пожаловать на эту беседу о джапе. Прямо сейчас с нами воспевают преданные из более чем 695 мест. Сегодня мы обсудим, что Шрила Прабхупада сказал о том, как воспевать и какое должно быть настроение. Сначала мы услышим от Шрилы Прабхупады. Это чрезвычайно важная тема, и Шрила Прабхупада написал и записал ее. Он увековечил это. Мы должны прочитать это, извлечь уроки из этого, понять и попытаться применить это в своей жизни. Я хочу поговорить об этом. Разберем по частям и обсудим. Вы все смотрели видео?
Мы слышали славу маха-мантры Харе Кришна и комментарии к ней из нескольких источников, но эту произнес наш ачарья-основатель. Это очень важно.
Эта трансцендентная вибрация при воспевании…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
… это совершенный метод возрождения нашего сознания Кришны. Мы это уже много раз показывали и слышали. Это метод маха-мантры Харе Кришна. Всегда слушать и воспевать.
Шрила Прабхупада говорит, что изначально мы были в сознании Кришны. Капли дождя чистые, не достигнув земли. Они загрязняются после прикосновения к земле. Точно так же все мы являемся чистыми душами, но соприкоснувшись с этим материальным миром осквернились тремя гунами природы. Мы забываем Кришну. Мы загрязняемся так же, как капли дождя загрязняются, коснувшись земли. Нам нужно удалить все загрязнения, и Махапрабху назвал это чето дарпана марджанам. Нам нужно очистить всю грязь, накопившуюся на зеркале нашего сознания. Это возможно с помощью повторения маха-мантры Харе Кришна.
В этой оскверненной концепции жизни мы все пытаемся эксплуатировать ресурсы материальной природы, но на самом деле мы все больше и больше запутываемся в ее сложностях.
Когда наше сознание усложнено, мы пытаемся использовать все больше и больше ресурсов, чтобы удовлетворить свои чувства, но мы все больше и больше запутываемся в сложных действиях и реакциях. Мы стараемся наслаждаться. Наша жизнь становится все более запутанной в действиях и реакциях, причинах и следствиях.
Эта иллюзия называется майей, тенью божественной энергии. Изначально это божественный свет, отражение вечной обители.
кр̣шн̣а — сӯрйа-сама; ма̄йа̄ хайа андхака̄ра
йа̄ха̄н̇ кр̣шн̣а, та̄ха̄н̇ на̄хи ма̄йа̄ра адхика̄ра
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Кришна сравнивается с солнечным светом, а майя — с тьмой. Там, где светит солнце, нет тьмы. Как только человек обращается к сознанию Кришны, тьма иллюзии (влияние внешней энергии) мгновенно рассеивается».
(Ч.Ч. Мадхья-лила 22.31)
ш́рӣ-бхагава̄н ува̄ча
ӯрдхва-мӯлам адхах̣-ш́а̄кхам
аш́ваттхам̇ пра̄хур авйайам
чханда̄м̇си йасйа парн̣а̄ни
йас там̇ веда са веда-вит
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь сказал: Писания говорят о вечном дереве баньян, корни которого устремлены вверх, а ветви вниз, листья которого — ведические гимны. Знающий это дерево знает Веды.
(Б.Г. 15.1)
Здесь все наоборот. Все, что присутствует в обители Кришны, полностью противоположно материальному миру. Кришна здесь, и это Майя.
Выживать по строгим законам материальной природы – нелегкая борьба. Мы это уже слышали, но забыли.
мама ма̄йа̄ дуратйайа̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
Преодолеть влияние Моей божественной энергии, состоящей из трех гун материальной природы, невероятно трудно.
(Б.Г. 7.14.)
Эти законы материальной природы очень строги. Нам необходимо прилагать усилия и бороться, чтобы преодолеть или превзойти эти гуны материальной природы.
Эта иллюзорная борьба с материальной природой может быть немедленно остановлена возрождением нашего сознания Кришны. Эти попытки выйти за пределы материальной природы или гун материальной природы увенчаются успехом, когда мы возродим наше сознание Кришны. Нам нужно попытаться освободиться из этой путаницы. Наши усилия вырваться из этой путаницы успешны только тогда, когда мы тянемся к настроению Сознания Кришны.
Сознание Кришны – это не искусственное навязывание уму; это сознание – изначальная энергия живого существа. Это не какая-то внешняя нагрузка, навязываемая нам. Шрила Прабхупада говорит: «Сознание Кришны – это природа Дживы». Ум, разум и душа божественны, чисты и сознают Кришну по своей природе.
Как живые духовные души все мы изначально являемся существами в сознании Кришны, но из-за того, что с незапамятных времен мы общаемся с материей, наше сознание теперь загрязнено материальной атмосферой. Наше нынешнее сознание полностью покрыто мирскими делами и мыслями.
Это изначальное сознание оживает, когда мы слышим трансцендентную вибрацию маха-мантры Харе Кришна. Этот процесс рекомендован писаниями для этой эпохи. Священные Писания, духовные учителя и святые предписывают и рекомендуют этот процесс в век Кали.
харер на̄ма харер на̄ма
харер на̄маива кевалам
калау на̄стй эва на̄стй эва
на̄стй эва гатир анйатха̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
В этот век ссор и лицемерия единственным средством освобождения является воспевание святых имен Господа. Другого пути нет. Другого пути нет. Другого пути нет.
(Ч.Ч. Мадхья-лила 6.242)
Также на практическом опыте мы можем понять, что, повторяя эту маха-мантру, можно сразу почувствовать трансцендентный экстаз духовного звука. Это великое воспевание освобождения. Шрила Прабхупада говорит, что все мы испытываем или должны испытывать какое-то блаженство во время воспевания. Также это можно испытать на практике. Мы действительно испытываем особое блаженство, когда слышим эту трансцендентную вибрацию маха-мантры Харе Кришна. Мы переживаем общение с Кришной, вспоминаем Кришну, Его качества и игры. Это вопрос практического опыта. У всех есть такой опыт. Даже у меня есть такой опыт, когда мы начинаем слушать маха-мантру.
Когда человек фактически находится на уровне духовного понимания – преодолевая уровни чувств, ума и разума, – он находится на трансцендентном уровне. Есть разные категории, такие как чувственные, умственные и интеллектуальные. Эта маха-мантра выводит нас за пределы чувств, и их связь с объектами прекращается. Шрила Прабхупада повторяет, что эта маха-мантра выводит нас за пределы чувственного, умственного и интеллектуального уровня.
тун̣д̣е та̄н̣д̣авинӣ ратим̇ витануте тун̣д̣а̄валӣ-лабдхайе
карн̣а-крод̣а-кад̣амбинӣ гхат̣айате карн̣а̄рбудебхйах̣ спр̣ха̄м
четах̣-пра̄н̇ган̣а-сан̇гинӣ виджайате сарвендрийа̄н̣а̄м̇ кр̣тим̇
но джа̄не джанита̄ кийадбхир амр̣таих̣ кр̣шн̣ети варн̣а-двайӣ
Перевод Шрилы Прабхупады:
„Трудно представить, сколько нектара заключено в двух слогах „криш“ и „на“. Когда святое имя повторяют, то кажется, что оно танцует на устах, и тогда хочется иметь множество уст. Когда имя Кришны проникает в уши, хочется иметь миллионы ушей. Когда же святое имя начинает танцевать в саду моего сердца, оно подчиняет себе всю деятельность ума, и все чувства мои цепенеют“.
[Ч.Ч. Антья 1.99]
Шрила Рупа Госвами говорит, что чувства становятся инертными, и мы можем победить свои чувства и ум. Это возможно только при воспевании этой маха-мантры.
Это воспевание…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
…происходит прямо с духовной платформы, превосходя все нижние слои сознания, а именно чувственный, умственный и интеллектуальный. Здесь Шрила Прабхупада повторяет, что эта маха-мантра выведет нас за пределы чувственного, умственного и интеллектуального уровня.
Нет необходимости понимать язык мантры, нет необходимости ни в умственных спекуляциях, ни в каких-либо интеллектуальных приспособлениях для повторения этой маха-мантры. Просто нужно пойти на это. Повторяйте и проводите киртан. Шрила Прабхупада говорит, что действует вибрация. Нет необходимости понимать язык. Этот язык есть Кришна. Это язык Кришны. Это не хинди, китайский или маратхи. Это Кришна. Таким образом, это имя не принадлежит этому материальному миру, так как мы можем понять его на любом материальном языке? Нет необходимости в умственных спекуляциях, например: «Я думаю, что значение маха-мантры то или это». В этом нет необходимости. Эта маха-мантра превосходит все это.
Она автоматически возникает с духовного уровня, и поэтому любой может принять участие в этой трансцендентной звуковой вибрации без какой-либо предварительной квалификации и танцевать в экстазе. Она исходит из души. Она исходит из сердца. Кто угодно, без какой-либо предварительной квалификации или обучения, может воспевать и танцевать в экстазе. Однако есть некоторые предварительные квалификации и опыт, потому что было время, когда душа делала только это, то есть воспевала и танцевала с Господом в духовной обители. Там мы много танцевали. Мы были там заняты. Это была наша вечная природа. Мы вспоминаем нашу настоящую осознанную природу, участвуя в процессе воспевания маха-мантры Харе Кришна. Мы помним эту махамантру, Кришну. Это наши очень старые воспоминания, которые пробуждаются, как только мы начинаем воспевать, а затем мы снова начинаем воспевать и танцевать, как раньше.
Мы остановимся на этом сейчас. Есть еще кое-что, что мы продолжим завтра.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
26 जनवरी 2021
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
गौरांग ।
696 जगह से आज जप हो रहा है । आप सब जप कर रहे हो , आप सब का स्वागत है । है कि नहीं ? आप सब का जप करने के लिए स्वागत है । हरि हरि । वैसे आत्मा का काम धंधा जप करना है , आत्मा का काम धंधा है , वैसे काम प्रेम धंधा है , काम धंधा नही (हसते हुये) हरि हरि । आत्मा वैसे करता ही रहता है ,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
मन के लिए भी जप करते रहना चाहिए या कुछ समय के लिए हम भूल गए थे , कुछ नही बहुत से समय के लिए बहिर्मुखी , अनादि बहिर्मुखी , अनादि काल से बहिर्मुखी होकर हमारा काम धंधा क्या हो गया है ? भोग वांच्छा करें , ऐसे भोग वांच्छा के काम धंधे हम कर रहे थे किंतु अब कृष्ण की विशेष कृपा या कृपा की दृष्टि की वृष्टि हम पर हो रही है और भगवान ने हमारा चयन किया हुआ है जिसके कारण हम अब मरा मरा के बजाय राम राम कर रहे हैं । आपका नाम क्या है ? ऐसा हमने किसी से पूछा तब उन्होंने कहा था , ” मेरा नाम करमरकर है ।” कर और फिर मर , आप पुनः जन्म ले सकते और फिर पुनः कर और पुनः मर (हसते हुये) मैंने कहा तुम्हारा बहुत अच्छा नाम है और फिर मैंने यह भी सोचा कि केवल तुम ही करमरकर नही हो , संसार का हर एक व्यक्ति करमरकर है । नाम तो कुछ ही लोगों का करमरकर होता है लेकिन कार्यकलापों के दृष्टि से देखे तो हर कोई कर फिर मर फिर कर फिर मर कर रहे हैं । यह हो ही रहा था अब भगवान ने हम पर कृपा की और दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त करवाया ।
भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन, अभय चरणारविन्द रे।
दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे, तरह ए भव सिन्धु रे॥
अर्थ
(1) हे मन, तुम केवल नन्दनंदन के अभयप्रदानकारी चरणारविंद का भजन करो। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर संत जनों के संग द्वारा भवसागर तर जाओ!
और दुर्लभ मानव का सदुपयोग , सदुपयोग और असदुपयोग भी होता है , सदुपयोग तो हो ही रहा था ,
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु।।
अर्थ
(1) हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
यह सत्संग और असत्संग काम धंधे चल ही रहे थे किंतु अब भगवान क्या कर रहे हैं ? हमको जगा रहे हैं और हम जग गये हैं । भगवान जगाते तो सबको है , लेकिन सब जगते नही हैं।
जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले।
कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥
अर्थ
(1) श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे?
जीव जागो जीव जागो गौराचांद बोले , गौरचांद अपना कर्तव्य पुरा करते हैं हमको जगाकर। उनका प्रेम है उनके जिओ के प्रति हम उनके हैं , किनके हैं ? गौरांग महाप्रभु के हैं । हम तो समझ कर बैठे हैं कि हम अपने मां बाप के हैं या हम भारत के हैं । आज 26 जनवरी भी है, प्रजासत्ता का दिन है । 1950 साल में हमारे भारत का कारोबार शुरू हुआ, भारत संविधान के अनुसार चलने लगा यह कुछ अच्छा नहीं हुआ, भारत का कारोबार तो भगवत गीता के अनुसार होना चाहिए था । ऐसा कृष्ण ने कहा है
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: |स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||
(भगवद्गीता 4.2)
अनुवाद: इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है |
राजऋषी सुनेंगे , मैं जो सुना रहा हूं सर्वप्रथम तो राजा सुनेंगे , राजा को कारोभार संभालना है वह राजा सुनेंगे , राजाओं को ऋषी सुनाएंगे तो वैसे राजा कहलाएंगे राजऋषि और फिर वही सुशासन संभाल सकते हैं । शासक दुशासन ही हुए , अधिकतर आजकल के शासक , प्रशासक दुशासन जैसे ही हैं। हरि हरि । भगवान ने गीता सुनाई ,भागवत भी है , कृष्ण कहीला वेद पुराण सभी मनुष्य के कल्याण के लिए भगवान ने वेद पुराणों की रचना की है ऐसा संविधान होना चाहिये । गीता भागवत संविधान, धर्म किसको कहते हैं ? प्रभु बात कहते हैं , “भगवान के दिए हुए नियम , भगवान के नियम ।” हम लोगों ने अपने अपने भूमी के नियम बनाए हैं और वह अधिकतर भगवान के नियम के साथ मेल नहीं खाते उसी को फिर मनोधर्म कहा जाता है । मनोधर्म है , फिर आंबेडकर और उनका संघ , कुछ उनके साथ में थे फिर उन्होंने रचना की है , हरी हरी । अब कुछ बातें तो ठीक हैं , हम देख सकते हैं पर उसके पहले परवानगी नहीं थी लेकिन अब है, सविधान में सुधार करते हैं और उसको अब लीगल बनाते हैं , यह मनोधर्म हुआ। भगवान के दिये हुये धर्म का पालन नहीं हुआ और इसी के साथ फिर जुआ यह सब, हमारे इस्कॉन के जो 4 नियम हैं , वह 4 नियम है उसके अंतर्गत एक नियम है जुआ नहीं खेलना किंतु मनोधर्म की बातें सुनाना भी जुआ ही है और सुनना भी जुआ ही है, इसको श्रील प्रभुपाद चीटर आर चिटेड , कुछ लोग ठगते हैं और कुछ लोग क्या करते हैं ? ठगाते हैं , ठग बन जाते हैं । कोई ठगता है तो कोई ठग कर उसे ले जाता है , जहां गधों की सभा है तो गधा पति कौन होगे ? महागधा , तो इसी तरह हरि हरि ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
राजा बहुत बड़ी पदवी है और बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, राजा भगवान का प्रतिनिधि होता है । हरि हरि । और राजा की होती है प्रजा, राजा का भी अपना खुदका परिवार होता है वह भी प्रजा है किंतु वैसे उस राज्य के जितने भी नागरिक हैं वह भी प्रजा बन जाते हैं । प्रजा उनके बाल बच्चे हैं ऐसे ही समझ के साथ फिर राम ने राज किया था । आज भी यह प्रसिद्ध है कैसा राज हो ? रामराज हो । राजा हो तो राम जैसा , राज्य हो तो राम राज्य जैसा, ऐसा सपना तो महात्मा गांधी ने लिखा था लेकिन मिला क्या है ? राम राज नहीं रावण राज । कुछ साल पहले रावण राज आपने सुना , नहीं ? आप बच्चे थे (हंसते हुये) सच्चे भी थे इसलिए आप ने ना सुना , ना देखा । बुरा मत देखो , बुरा मत सुनो , बुरा मत बोलो , जो छोटे होते तो ऐसे चलता रहता है , बड़े हो जाते हैं तो फिर बदमाश भी हो जाते हैं , चालू हो जाते हैं। हरि हरि। भगवान ने हम पर कृपा दृष्टि की है , भगवान की हम पर कृपा दृष्टि हुई है। कम से कम जो उपस्थित हैं या हमारे साथ जो जप कर रहे थे या इतना ही नहीं जो अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत इस्कॉन संघ के संपर्क में आए हैं , इस्कॉन के मतलब इस्कॉन के भक्तों के संपर्क में आए हैं वह सभी भाग्यवान हैं । चैतन्य महाप्रभु ने आपको भाग्यवान बनाया है । हरि हरि ।
हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु।
मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु॥
अर्थ
(1) हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है।
उन्होंने अब जहर पीना बंद किया और अब नामामृत पी रहे हैं । नाम के अमृत का पान कर रहे हैं , धन्यवाद ! किस को धन्यवाद देना चाहिए ? भगवान धन्यवाद , भगवान का आभार मानना चाहिए , आपने भगवान का आभार कभी माना है ? थैंक यू , थैंक यू , धन्यवाद धन्यवाद कृष्ण , हरि हरि । ऐसा नही होना चाहिए लेकिन ऐसे भी धन्यवाद बोला जाता है , जब किसी के पास सिगरेट तो होती है , सिगरेट तैयार है और उसके पास माचिस नहीं है फिर बगल वाले को दया आ जाती है, और वह कहता है , ” बेचारे के पास लगता है कि माचिस नहीं है ” वह अपना माचिस या लाइटर देकर उसकी मदद करता है , उसकी सिगरेट जलाने में उसकी मदद करता है , उसकी सिगरेट जिसने भी जलाई वह कहता है धन्यवाद , “अब तो तुमने मेरी सिगरेट को जलाया , धीरे-धीरे मेरे फेफड़े भी जल जाएंगे , ” (सभी भक्त हंसते हुये ) बाद में मिलेंगे , नहीं मिलेंगे पहले ही मेरा धन्यवाद। से भी धन्यवाद हमारे जगत मे चलते रहते हैं । ऐसी मेहरबानी करने वाले कुछ लोग कम नहीं हैं। भगवान की जो हम पर कृपा हुई है , भगवान हमारा कल्याण करना चाह रहे हैं , कर रहे हैं , भविष्य में आने वाली कई सारी परेशानियों से हमको भगवान बचाने वाले हैं। दुखालय से हमको सुखालय ले जाने की भगवान की योजना है । वही योजना है , वैसे शास्त्रों में इस योजना का वर्णन है और वही संविधान भी है । ऐसे कृष्ण को, ऐसे श्री भगवान को मेरे बारंबार प्रणाम है। हम उनका शुक्रिया अदा कर सकते हैं , केवल कहके ही नहीं , हमारा आभार दिखा भी सकते हैं , मैं आपका आभारी हूं इस भाव का दर्शन भी कर सकते हैं , जब हम प्रणाम करेंगे , साष्टांग दंडवत करेंगे या पंचांग प्रणाम माताएं करेंगी तो यह धन्यवाद ही है। हम भगवान के सामने झुकते हैं , उनके अनुग्रहि बोल ही रहे हैं हम आपके आभारी हैं । हरी हरी । इसी के साथ और भी कुछ कल का विषय आगे बढ़ाना था लेकिन और भी समाचार मैंने पढ़ा तो उसको कहे बिना रहा नहीं जाता, नेपाल में एक नई पदयात्रा का प्रारंभ हो रहा है , हरि बोल । इसी के साथ फिर क्या होगा ? चैतन्य महाप्रभु ने जो भविष्यवाणी की है वह और सच होगी , श्रील प्रभुपाद की पदयात्रा , पदयात्रा के संस्थापक श्रील प्रभुपाद हैं , पदयात्रा संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद की जय । तब प्रभुपाद भी थे , श्रीकृष्ण कृपा मूर्ति , कृपा की मूर्ति , कृपा मूर्ति श्रील प्रभुपाद सोच रहे थे कैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी को सच किया जाये ? चैतन्य महाप्रभु ने कहा है ,
नगर आदि ग्राम सर्वत्र प्रचार होईब मोर नाम
मेरे नाम का प्रचार करो , मेरे नाम का प्रचार करो , भगवान के नाम का प्रचार करो , मेरे नाम का नहीं ।जो कहने वाले हैं , वह कहने वाले श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं , वह कहते हैं मेरे नाम का प्रचार करो । आपका नाम तो कोई कहेगा श्रीकृष्ण चैतन्य है , तो श्रीकृष्ण चैतन्य के नाम का प्रचार होना चाहिए यहाँ प्रचार तो हरे कृष्ण का हो रहा है ?
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
हरे कृष्ण का प्रचार हो रहा है। श्रील प्रभुपाद मुझे कह रहे थे पदयात्रा करो, प्रथम पदयात्रा का उद्घाटन 1976 में 10 सितंबर का दिन था, वृंदावन धाम में प्रभुपाद के क्वार्टर मे एकत्रित हुए थे और श्रील प्रभुपाद हमको वृंदावन से मायापुर भेज रहे थे पदयात्रा। उस पदयात्रा के उद्घाटन समारोह में प्रभुपाद ने कुछ पदयात्रियों को संबोधन किया अंत में हम आगे बढ़ने ही वाले थे, वहां से उठकर जाने ही वाले थे प्रभुपाद कह रहे थे ,
यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ‘ एइ देश ।। (चैतन्य चरितामृत 7.128)
अनुवाद ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । “
यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ‘ एइ देश ।।
प्रभुपाद ने कहा , यारे देख , तारे कह ‘ हरे कृष्ण ‘ – उपदेश ।
वैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा है , यारे देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।आमार आज्ञाय गुरु हया तार ‘ एइ देश ।। इस उपदेश के साथ श्रील प्रभुपाद ने कहा यारे देख , तारे कह ‘ हरे कृष्ण ‘ – उपदेश ।
श्रील प्रभुपाद की हरे कृष्ण महामंत्र के, इस कलयुग के धर्म के प्रचार के साथ और कई सारी योजनाएं थी उसके अंतर्गत एक विशेष योजना पदयात्रा है। फिर पदयात्रा तब से आज तक चल ही रही है और आज के लिए, आज की ताजा खबर, खुश खबर और विशेष खबर सारे देश में, नेपाल में पहली पदयात्रा है जो बैल गाड़ी से गौर निताई के साथ चल रही है , वो नेपाल के सभी ग्रामों में जाने वाले हैं । यहां ऐसा करने से रामराज फैलेगा, जब हम अपनी भक्ति प्रभु को, भक्ती प्रभु नाम सुने हो ? भक्ति प्रभु की इसमें बड़ी भूमिका है , योगदान है । श्रील प्रभुपाद और गौरांग महाप्रभु की ओर से यह पदयात्रा हो रही है । इस्कॉन के लीडर्से और इस्कॉन नेपाल पदयात्रा की जय और भी समाचार है आज इस्कॉन अरावड़े भी उत्सव मना रहा है , एक विशेष उत्सव है । राधा गोपाल की जय । राधा गोपाल का जन्मदिन उत्सव है, 11 साल पहले वैसे वह दिन नित्यानंद त्रयोदशी का था लेकिन अब इस बार तो 26 जनवरी को मना रहे हैं , छुट्टी का दिन होता है तो सुविधा होती है ।
राधा गोपाल , मेरे जैसे गरीब के गांव में भगवान विद्यमान है । भगवान तो सब कुछ है भगवान क्या नहीं है ? हरि हरि । गोपाल , नंद गोवर्धन रखवाला, नंद महाराज के धन के रखवाले, बृजवासी और नंद महाराज गाय को धन समझते थे । जिसके पास अधिक गाय हैं वह अधिक धनी , जिसके पास अधिक जमीन है वह अधिक धनी यह पेपर मनी है ,कोई किमत नही होती । ऐसे धन के गोधन रखवाले भी गोपाल कहलाते हैं । कृष्ण भगवान की जय । राधा के साथ आए , आज के दिन प्रकट हुए और उस दिन जो उत्सव मनाया गया अरावडे जैसे छोटे गांव में ऐसा उत्सव ना भूतो ना भविष्यति ऐसा उत्सव मनाया गया । एक तो पहले कभी भगवान नहीं आए थे या पहले कभी भगवान की प्राण प्रतिष्ठा नहीं हुई थी। वैसे पहले भगवान वहां आए थे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय । चैतन्य महाप्रभु जब कोल्हापुर से पंढरपुर आ रहे थे, महाराष्ट्र में कोल्हापुर है दूर देशों के दूसरे राज्यों के भक्तों के लिए महाराष्ट्र में एक नगर में कोल्हापुर और वहां की महालक्ष्मी प्रसिद्ध है , महालक्ष्मी वैसे रुठके वैकुंठ से कोल्हापुर पहुंच गई , जब भृगुुमुनी आए थे और उन्होंने भगवान के वक्षस्थल पर लात मारी थी , परीक्षा हो रही थी ब्रह्मा , विष्णु , महेश में से कौन श्रेष्ठ है ? जो अधिक सहनशील है वह अधिक श्रेष्ठ है । भृगुमुनि आए लक्ष्मी भगवान के चरण कमलों की सेवा कर रही थी और भृगुमुनि आते ही , पहुचते ही, प्रणाम तो दूर ही रहा , भगवान के चरण भी छूये नही उलटे उन्होंने अपने चरणों से भगवान को लात मारी , “हे मृगु मेरा वक्षस्थल तो कठोर है , तुम्हें कुछ चोट आघात तो नहीं पहुंचा ?” ऐसे कहने वाले भगवान कृष्ण यह परीक्षा भी पास हो गए ।
और फिर भृगुमुनि आए, वहाँ कई सारे ऋषि मुनि ऊनकी राह देख रहे थे । वह परीक्षक थे , कौन उत्तीर्ण हुआ। फिर उन्होंने घोषित किया था जय श्रीकृष्ण । उस समय लक्ष्मी नाराज क्यों नहीं होगी ? अपने पति से नाराज हुई , पति को जो किसी ने अपमानित किया और उलटे पति कहते हैं कि , “आप को चोट तो नहीं लगी?” वह लक्ष्मी वैकुंठ को छोड़कर इस ब्रह्मांड में आई और कही स्थान ढूंढ रही थी जहां उतरेगी, तब कोल्हापुर का चयन हुआ और वह कोल्हापुर में रहने लगी, अब तक वह कोल्हापुर में ही है । हरी हरी । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा में जब जा रहे थे तो दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए महाराष्ट्र या मध्य भारत कहो , महाराष्ट्र में आए तो पहला बड़ा नगर कोल्हापुर ही था, कोल्हापुर में उन्होंने महालक्ष्मी को दर्शन दिया, यह मैं कहता रहता हूं , हम लोग कोल्हापूर महालक्ष्मी का दर्शन करने जाते हैं लेकिन जब उनके प्रभु आएंगे कृष्ण भगवान, जब कृष्ण भगवान आए हैं तो कौन किसका दर्शन करेगा ? महालक्ष्मी अपने प्रभु का दर्शन करेगी । वैसे एक दूसरे का दर्शन उन्होंने किया और फिर वहां से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को पंढरपुर आना था विट्ठल दर्शन के लिए, विट्ठल ही आ रहे थे चैतन्य महाप्रभु के रूप में कोल्हापुर से पंढरपुर तब रास्ते में आ गया हमारा गांव अरावडे, अरावडे गांव से चैतन्य महाप्रभु ,
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण हे …..
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण पाहिमाम ……
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण रक्षमाम……
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
करते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कोल्हापुर से सांगली, सांगली से तासगांव और तासगांव से 10 किलोमीटर दूरी पर अरावडे गांव है । वहा छोटा सा पहाड़ है , दिखता भी नहीं है उतना ऊंचा नही है वहा चैतन्य महाप्रभु चढे होंगे और रहे होंगे , मैं ऐसे स्मरण करता रहता हूं । चैतन्य महाप्रभु अरावडे में ,
आजानुलम्बित – भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक – पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥
(चैतन्य भागवत 1.1)
अनुवाद: मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण , इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक , सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया ।
चैतन्य महाप्रभु या भगवान मेरे गांव में आए थे । हरि हरि । ऐसे हैं भगवान फिर विग्रह के रूप में 11 साल पहले प्रकट हुए , 12? 1 साल बढ़ गया, 12 साल पहले महोत्सव हुआ तो उस दिन का जो दर्शन और उस दिन इतने लोग अरावडे मे बिखरे हुये थे । वह लोग कभी अरावडे में नहीं आए थे । अरावडे के इतिहास में जब से अरावडे गिणती में आया और फिर इतना ही नहीं नेता भी आए , महाराष्ट्र के मंत्रिमंडल के कई सारे मंत्री भी आए । हरी हरी। आर आर पाटिल गृह मंत्री थे, उप मुख्यमंत्री थे , ऐसे कई कई आए, हेलीकॉप्टर से आए । हेलीकॉप्टर का लैंडिंग भी हुआ, जैसे देवता आते है (हसते हुये) रुरल डेवलपमेंट मिनिस्टर भी आए थे, उन्होंने घोषित किया था इस्कॉन अरावड़े मंदिर के विकास के लिए महाराष्ट्र की ओर से एक करोड़ का अनुदान। यह मुख्य उपस्थिति तो वैसे मेरे गुरू बंधु , गुरु भ्राता , गुरु बहने 42 ऐसी संख्या बनी थी, प्रभुपाद के अनुयायी इसमे कई जीबीसी, सन्यासी और फिर दूसरी पीढ़ी के इस्कॉन के लीडर कई सारे मंदिर के अध्यक्ष और इसी तरह बडी संख्या मे इस्कॉन के साधु महात्मा आये थे , अविस्मरणीय उत्सव था, इसलिए आज भी अविस्मरणीय, भूला नहीं जा सकता उसकी आज याद आ रही है और आज के दिन अरावडे मे मनाया जा रहा है। कोविंड 19 की परिस्थितियां है, हर वर्ष वैसे बडा उत्सव मनाया जाता है अभी साधारण छोटा होगा , गांव की दृष्टी से मोटा होगा। वैसे मैं भक्तों से यही से संबोधित करने वाला हूं, ऑनलाइन 2:30 बजे मराठी में होगा, यथासंभव आप भी निमंत्रित हो, कार्यक्रम लाइव होगा आप सब देख सकते हो , ठीक है ।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
26 January 2021
The Real Constitution of a Republic is Bhagavad Gita & Srimad Bhagavatam
Hare Krsna! Welcome to this Japa session. Devotees from 696 locations are chanting with us right now. Welcome! It is the business of the soul to chant and hear. It is the loving business of the soul. It’s not work business.
The atma keeps on chanting.
Hare Krsna Hare Krsna
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
The sound keeps on chanting. It’s not new for the soul. We have forgotten for a long time, since we have been engaged in material satisfaction. For the past many births, we were only engaged in sense gratification activities. But now by the mercy of Krsna we have the right engagement. His kind sight is now falling on us. We have been chosen and selected by the Lord.
hari hari! bifale janama gonainu
manushya-janama paiya, radha-krishna na bhajiya,
janiya suniya visha khainu
Translation
0 Lord Hari, I have spent my life uselessly. Having obtained a human birth and having not worshiped Radha and Krishna, I have knowingly drunk poison.
(Narottama Das Thakur)
Earlier we were saying, “mara mara” now we are saying “Rama Rama”. First we were in the dying business and now we are in the chanting business. I once met a person whose name was Karmarkar. Kar means do and mar means die. Do, then die and then take birth again. This is not only his story. Everyone is Karmarkar. Every person is taking birth and then death. By Krsna’s mercy we have got to know the truth. We have woken up. Krsna wishes to wake everyone up, but everyone doesn’t wake up. We have got this rare human birth.
bhajahū re mana śrī-nanda-nandana
abhaya-caraṇāravinda re
durlabha mānava-janama sat-sańge
taroho e bhava-sindhu re
Translation
O mind just worship the lotus feet of the son of Nanda, which make one fearless. Having obtained this rare human birth, cross over this ocean of worldly existence through the association of saintly persons.
We must make the right use of this rare human birth.
kṛṣṇa bhuliya jīva bhoga vāñchā kare
pāśate māyā tāre jāpaṭiyā dhare
Translation
Māyā means the illusory energy, where we want to enjoy, but it is not actual enjoyment; it is illusion. So the sex life in this material world is the centre of this attraction. (Prema-vivarta)
Krsna has woken us up. He keeps on waking us up, but many of us do not wake up. It’s His love for us. We belong to Gauranga. We presume we belong to our parents, to the country. We knowingly drink the poison.
Today is 26 January, Indian Republic day. Today the constitution of India was implemented. This was not very good news then. The constitution must be based on Bhagavad Gita. Krsna has said,
evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
sa kaleneha mahata
yogo nastah parantapa
Translation
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. (BG 4.2)
First the King who has to run the business must listen to the saints. The saints would advise the king who would then become known as a saintly king. The government should be a good government. There is also Dushasan – bad government. Religion means the laws of the Lord. The Lord has made the Veda and Purana for the welfare of all. There should be a constitution based on Gita and Bhagavat. Gita Bhagavat Constitution! What is religion? Prabhupada would say, “Laws of the Lord”. Dharma is the laws given by the Lord. There are laws of the Lord and laws of the land. These people have made the laws of the land and mostly what they do, is against the laws of the Lord. They are not in sync with the Lord’s laws. This is called mano dharma, or laws of your own mind. The constitution was framed by Dr. Ambedkar and others in the assembly. They created the constitution.
Some things are good, but then in many places there are some actions which are offensive according to the laws of the Lord but they are allowed and legalised. Abortion is legalised. Gambling is legalised. If certain things were not allowed, they make amends and allow it. This is Mano dharma, it contradicts the laws of the Lord. The 4 principles of Bhagavat Dharma and also of ISKCON are the same. One of the principles is not to gamble. But here there are cheaters and the cheated. This is the assembly of donkeys, so the greatest donkey will preside.
It is a very big responsibility to be a king. The king is the representative of the people and the people belong to the king. The king also has a family. The citizens of the nation are also his children. It becomes the duty of the king to take care of the citizens and their welfare. The entire empire is the family of the King. People have the right to preach what they feel is right. Everyone has different opinions. They don’t necessarily follow what Krsna or the Acaryas say. They preach their own speculations and interpretations.
Mahatma Gandhi had a dream that India will have Rama Rajya – rule of King Rama post independence. But that didn’t happen. Rather it became the rule of Ravana. However all those who have come in contact with ISKCON, Srila Prabhupada are made fortunate by Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. We are all relishing the nectarean holy name. This is all by the mercy of the Lord. Did we ever express our gratitude for this? We must thank the Lord for this.
A person has a cigarette. He desires to smoke, but he does not have a light. A person near him helps him light the cigarette. In return he gets a thank you for lighting “my cigarette which will soon burn up along with my lungs.” So many such thank yous for small and big help are given away during our lifetime. Those who help us in such destructive ways are not few.
The Lord has mercifully brought to us great fortune which will free us from the cycle of birth and death. Krsna is trying to save us. For future problems the Lord is trying to save us once and for all. Lord has His plan to take us from this place of miseries to a place where there are no miseries. There is mention about the Lord’s plans in the scriptures to save us. We must certainly express our gratitude to the Lord. We must offer our obeisances. When we bow down in front of the Lord and offer our gratitude, we must say to Him that we are extremely thankful to Him, that we are forever grateful.
māyā-mugdha jīvera nāhi svataḥ kṛṣṇa-jñāna
jīvere kṛpāya kailā kṛṣṇa veda-purāṇa
Translation
“When a living entity is enchanted by the external energy, he cannot revive his original Kṛṣṇa consciousness independently. Due to such circumstances, Kṛṣṇa has kindly given him the Vedic literatures, such as the four Vedas and eighteen Purāṇas.” Every human being should therefore take advantage of the Vedic instructions; otherwise one will be bound by his whimsical activities and will be without any guide. (CC Madhya 20.122)
I also wanted to continue with yesterday’s topic, but then I just read the news and am unable to stop myself from sharing it. A new Padayatra has started in Nepal. This is another milestone crossed in the fulfilment of the forecast by Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. Srila Prabhupada is the founder acarya of Nepal Padayatra also. Lord Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu said, “My name will be preached all over the world.” He said, “My name.” But we are preaching the Hare Krishna maha-mantra. Once Srila Prabhupada told me – Hare Krishna upadesa It was during the first Padayatra, 10 September 1976. It was our first Padayatra from Vrindavan to Mayapur. Srila Prabhupada addressed us and in the end he said, “Whoever you see or may come across, speak and preach Hare Krsna to them. This was a little different from what Mahaprabhu said. He said, “Preach about Krsna,” whereas Srila Prabhupada specified to simply preach the Hare Krishna maha-mantra.
This beginning of the Nepal Padayatra is good morning news. It is their desire to go to every village and town of Nepal. Ram Rajya can be established by such activities. Atri Patri Prabhu from Nepal has a big commitment in this. There is a full arrangement. We are grateful to them on behalf of Prabhupada and Mahaprabhu. We thank them and the ISKCON leaders in Nepal. ISKCON Nepal Padayatra ki Jaya !
pṛthivīte āche yata nagarādi grāma
sarvatra pracāra hoibe mora nāma
Translation
Lord Caitanya desired that “In all the towns, in as many towns and villages as they are on the surface of the globe, My name will be broadcast.” He is Kṛṣṇa Himself, svayaṁ kṛṣṇa, kṛṣṇa caitanya-nāmine, simply changing His name as Kṛṣṇa Caitanya. So His prediction will never go in vain. That’s a fact. (CB Antya-khaṇḍa 4.126)
We also have more news. ISKCON Aravade is having a celebration. It is the 12th birthday anniversary of Sri Radha Gopal. Time literally flies. It has already been 12 years. The Lord is merciful and agreed to appear and stay in the village of poor people like us. The Lord is very rich. He has everything. But for Krsna, wealth is not paper money. The Brajavasis’ wealth was calculated according to the cows they had. They considered the cows their wealth. The one who had more cows had more wealth and the one who had more land, had more wealth.
Krsna was the caretaker of such cows. Today ISKCON Aravade has a special celebration. The celebration 12 years ago was unparalleled. Never in the past nor in the future, was such a celebration undertaken. It is not that the Lord never came to Aravade. Lord Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu came to Aravade 500 years ago when He was on Padayatra. He came to a nearby place called Kolhapur from Pandharpur where there is a famous temple of Sri Mahalakshmi. She came there when she was upset with the Lord. She left Vaikuntha and came to Kolhapur. Bhrgu Muni was testing the three Lords – Brahma, Vishnu and Shiva. When he came to Vaikuntha he immediately kicked the Lord on the chest. Instead of offering obeisances he kicked the Lord. Despite that the Lord said, “ O Bhrgu, My chest is as hard as Vajra, and your feet are so soft, I fear you have hurt your feet.” Upon seeing this reaction of her husband, the Lord of the Lord’s, Mahalakshmi was upset and she left Vaikuntha and came to Kolhapur. Lord Caitanya came to Kolhapur to give Darshan to Mahalakshmi.
During His visit to South India and to middle India, Mahaprabhu came to Kolhapur. We all go to receive darshan, but Lord Caitanya is the Master of Mahalaksmi so He went to give darshan to her. From there He headed towards Pandharpur to have darshan of Sri Vitthala. On the way He came to Aravade chanting the names of Krsna.
kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! he
kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! he
kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! rakṣa mām
kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! kṛṣṇa! pāhi mām
rāma! rāghava! rāma! rāghava! rāma! rāghava! rakṣa mām
kṛṣṇa! keśava! kṛṣṇa! keśava! kṛṣṇa! keśava! pāhi mām
(CC Madhya 7.96)
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu walked towards Sangli then to Tasgaon and 10 kms further from there to Aravade. There is a small hill. He must have climbed it. I usually visualise this. This happened 500 years ago and 12 years ago He appeared in the Deity form of Sri Radha Gopal.
ājānu-lambita-bhujau kanakāvadātau
saṅkīrtanaika-pitarau kamalāyatākṣau
viśvambharau dvija-varau yuga-dharma-pālau
vande jagat priya-karau karuṇāvatārau
Translation
I offer my respectful obeisance’s unto my spiritual master, who with the torchlight of knowledge has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance. (CB Ādi-khaṇḍa 1.1)
The Lord had come to my village. He appeared in the form of a Deity 12 years back. Prana prathistha ceremony was conducted. It was such a grand temple opening celebration. So many people arrived in Aravade. It was the first time in the history of Aravade that so many people arrived. So many ministers of Maharashtra had arrived. PR Patil, who I think was the Deputy Chief Minister, also came.
Some even arrived in helicopters like the demigods. Rural development minister had also come and he pledged a donation of INR ₹10 million for the development of ISKCON Aravade. 32 Prabhupada disciples had arrived. Many second generation leaders and Gurus of ISKCON were also present. These are unforgettable memories. Temple Presidents, GBCs , many saints of ISKCON came. They cannot be forgotten. Today the 12th anniversary is being celebrated. This year it is restricted due the current pandemic. I will also be giving a class in Marathi which will be telecast online around 2.30 pm IST today. You’re all welcome to that session as well.
Hare Krishna
Gaura premanande Hari Haribol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 26 января 2021 г.
НАСТОЯЩАЯ КОНСТИТУЦИЯ РЕСПУБЛИКИ – ЭТО БХАГАВАД ГИТА И ШРИМАД БХАГАВАТАМ
Харе Кришна! Добро пожаловать на сеанс джапы. Прямо сейчас с нами воспевают преданные из 696 мест. Добро пожаловать! Воспевать и слушать – это занятие души. Это преданное занятие души. Это не рабочее занятие.
Атма продолжает воспевать.
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Голос продолжает воспевать. Для души это не ново. Мы давно забыли, так как занимались материальным удовлетворением. В течение многих прошлых жизней мы были заняты только деятельностью по удовлетворению чувств. Но теперь по милости Кришны у нас есть правильное занятие. Его милостивый взгляд сейчас падает на нас. Мы были выбраны и избраны Господом.
хари хари!
бипхале джанама гонаину
манушйа-джанама паийа, радха-кришна на бхаджийа,
джанийа шунийа биша кхаину
Перевод:
О Господь Хари, моя жизнь прошла впустую. Всю свою жизнь я сознательно пил яд, ибо, родившись человеком, не поклонялся Радхе и Кришне.
(Молитва любимому Господу (из “Прартханы”) Нароттама Даса Тхакур, стих 1)
Раньше мы говорили «мара мара», теперь мы говорим «Рама Рама». Сначала мы были заняты умиранием, а теперь мы занимаемся воспеванием. Однажды я встретил человека по имени Кармаркар. Кар означает делать, а мар означает умереть. Сделай, затем умри и снова родись. Это не только его история. Каждый – Кармаркар. Каждый человек рождается, а затем умирает. По милости Кришны мы узнали истину. Мы проснулись. Кришна хочет разбудить всех, но не все просыпаются. У нас есть это редкое человеческое рождение.
бхаджаху ре мана шри-нанда-нандана
абхайа-каранаравинда ре
дурлабха манава-джанама сат-санге
тарохо э бхава-синдху ре
Перевод:
О, ум просто поклоняйся лотосным стопам сына Нанды, это делает человека бесстрашным. Получив это редкое человеческое рождение, можно пересечь этот океан материального существования имея общение святых людей.
(Бхаджа Ху Ре Мана, Говинда Даса Кавираджа)
Мы должны правильно использовать это редкое человеческое рождение.
кр̣ш̣н̣а-бахирмукха хан̃а̄ бхога-ва̄н̃чха̄ каре
никат̣а-стха ма̄йа̄ та̄ре джа̄пат̣ийа̄ дхаре
Перевод:
Как только у живого существа возникает желание наслаждаться материальной природой отдельно от Кришны, оно тут же становится жертвой майи, материальной энергии.
(«Шри Према-виварта», 6.2)
Кришна разбудил нас. Он продолжает будить нас, но многие из нас не просыпаются. Это Его любовь к нам. Мы принадлежим Гауранге. Мы думаем, что принадлежим нашим родителям, стране. Мы сознательно пьем яд.
Сегодня 26 января, День Республики Индии. Сегодня была введена в действие конституция Индии. Тогда это были не очень хорошие новости. Конституция должна быть основана на Бхагавад Гите. Кришна сказал:
эвам̇ парампара̄-пра̄птам
имам̇ ра̄джаршайо видух̣
са ка̄ленеха махата̄
його нашт̣ах̣ парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Так эта великая наука передавалась по цепи духовных учителей, и ее постигали праведные цари. Но с течением времени цепь учителей прервалась, и это знание в его первозданном виде было утрачено.
(Б.Г. 4.2)
Прежде всего, царь, которому предстоит управлять царством, должен прислушаться к святым. Святые давали советы царю, который затем становился известен как святой царь. Правительство должно быть хорошим правительством. Есть еще Душасан – плохое правительство. Религия означает законы Господа. Господь создал Веды и Пураны на благо всех. Должна быть конституция, основанная на Гите и Бхагавате. Гита Бхагават Конституция! Что такое религия? Прабхупада говорил: «Законы Господа». Дхарма – это законы, данные Господом. Есть законы Господа и законы страны. Эти люди установили законы страны, и в большинстве случаев то, что они делают, противоречит законам Господа. Они не согласуются с законами Господа. Это называется мано дхарма, или законы вашего собственного ума. Конституция была составлена доктором Амбедкаром и другими участниками собрания. Они создали конституцию.
Некоторые вещи хороши, но во многих местах есть некоторые действия, которые являются оскорбительными согласно законам Господа, но они разрешены и легализованы. Аборт легализован. Азартные игры легализованы. Если определенные вещи были запрещены, они исправляют и позволяют это. Это мано дхарма, она противоречит законам Господа. Четыре принципа Бхагават Дхармы и ИСККОН одинаковы. Один из принципов – не играть в азартные игры. Но здесь есть читеры (обманщики) и обманутые. Это собрание ослов, поэтому величайший осел будет председательствовать.
Быть царем – очень большая ответственность. Царь – представитель народа, а народ принадлежит царю. У царя тоже есть семья. Граждане нации также являются его детьми. Обязанностью царя становится забота о гражданах и их благополучии. Вся империя – это семья царя. Люди имеют право проповедовать то, что они считают правильным. У всех разные мнения. Они не обязательно следуют тому, что говорят Кришна или ачарьи. Они проповедуют свои собственные предположения и интерпретации.
Махатме Ганди приснился сон, что в Индии будет Рама Раджья – правление царя Рамы после обретения независимости. Но этого не произошло. Скорее это стало правлением Раваны. Однако всех, кто контактировал с ИСККОН, Шрила Прабхупада сделал удачливыми благодаря Шри Кришне Чайтанье Махапрабху. Все мы наслаждаемся нектаром святого имени. Все это по милости Господа. Выражали ли мы когда-нибудь нашу благодарность за это? Мы должны благодарить Господа за это.
У человека есть сигарета. Он хочет курить, но у него нет огня. Человек рядом с ним помогает ему прикурить сигарету. В ответ он получает благодарность за то, что зажег «его сигарету, которая скоро сгорит вместе с его легкими». Так много таких благодарностей за маленькую и большую помощь раздается в течение нашей жизни. Тех, кто помогает нам столь разрушительными способами, немало.
Господь милостиво принес нам великую удачу, которая освободит нас от цикла рождений и смертей. Кришна пытается нас спасти. От будущих проблем Господь пытается спасти нас раз и навсегда. У Господа есть план, чтобы забрать нас из этого места страданий в место, где нет страданий. В Священных Писаниях упоминается о планах Господа спасти нас. Мы обязательно должны выразить свою благодарность Господу. Мы должны предложить свои поклоны. Когда мы склоняемся перед Господом и выражаем свою благодарность, мы должны сказать Ему, что мы чрезвычайно благодарны Ему, что мы вечно благодарны.
ма̄йа̄-мугдха джӣвера на̄хи сватах̣ кр̣шн̣а-джн̃а̄на
джӣвере кр̣па̄йа каила̄ кр̣шн̣а веда-пура̄н̣а
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Обусловленная душа не может возродить в себе сознание Кришны собственными усилиями. Поэтому Кришна по Своей беспричинной милости дал людям Веды и дополняющие их Пураны».
(Ч.Ч. Мадхья лила 20.122)
Я также хотел продолжить вчерашнюю тему, но потом просто прочитал новости и не могу удержаться от того, чтобы ими не поделиться. В Непале стартовала новая падаятра. Это еще одна веха, достигнутая в исполнении прогноза Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху. Шрила Прабхупада также является основателем ачарьей непальской падаятры. Господь Шри Кришна Чайтанья Махапрабху сказал: «Мое имя будет проповедоваться по всему миру». Он сказал: «Мое имя». Но мы проповедуем маха-мантру Харе Кришна. Однажды Шрила Прабхупада сказал мне: Харе Кришна упадеша. Это было во время первой падаятры, 10 сентября 1976 года. Это была наша первая падаятра от Вриндавана до Маяпура. Шрила Прабхупада обратился к нам и в конце сказал: «Кого бы вы не увидели или смогли встретить, говорите и проповедуйте им Харе Кришна. Это немного отличалось от того, что сказал Махапрабху. Он сказал: «Проповедуйте о Кришне», тогда как Шрила Прабхупада указал, что нужно просто проповедовать маха-мантру Харе Кришна.
Это начало непальской падаятры – хорошие утренние новости. Они хотят побывать в каждой деревне и городе Непала. Рам Раджья может быть установлена такой деятельностью. Атри Патри Прабху из Непала очень привержен этому. Выполнены все приготовления. Мы благодарны им от имени Прабхупады и Махапрабху. Мы благодарим их и лидеров ИСККОН в Непале. ИСККОН Непал падаятра ки Джая!
притхивите аче йата нагаради грама
сарватра прачара хайбе мора нама
Перевод:
В каждом городе и деревне будет слышно воспевание Моего имени.
(Чайтанья Бхагавата Антья-кхана 4.126)
У нас также есть другие новости. ИСККОН Араваде празднует. Это 12-я годовщина со дня рождения Шри Радхи Гопала. Время буквально летит. Прошло уже 12 лет. Господь милостив и согласился явиться и остаться в деревне таких бедняков, как мы. Господь очень богат. У него есть все. Но для Кришны богатство – это не бумажные деньги. Богатство враджаваси рассчитывалось по количеству коров, которые у них были. Они считали коров своим богатством. У того, у кого было больше коров, было больше богатства, и у того, у кого было больше земли, было больше богатства.
Кришна заботился о таких коровах. Сегодня у ИСККОН Араваде особый праздник. Праздник 12 лет назад не имел аналогов. Никогда ни в прошлом, ни в будущем такого празднования не проводилось. Дело не в том, что Господь никогда не приходил в Араваде. Господь Шри Кришна Чайтанья Махапрабху прибыл в Араваде 500 лет назад, когда был на падаятре. Он пришел в соседнее место под названием Колхапур из Пандхарпура, где находится знаменитый храм Шри Махалакшми. Она пришла туда, когда была недовольна Господом. Она покинула Вайкунтху и пришла в Колхапур. Бхригу Муни испытывал трех Владык – Брахму, Вишну и Шиву. Придя на Вайкунтху, он сразу же ударил Господа ногой в грудь. Вместо того, чтобы предложить поклоны, он ударил Господа ногой. Несмотря на это, Господь сказал: «О Бхригу, Моя грудь тверда, как Ваджра, а твои ступни такие мягкие, я боюсь, что ты повредил свои ступни». Увидев такую реакцию своего мужа, Господа, Махалакшми была расстроена и покинула Вайкунтху и пришла в Колхапур. Господь Чайтанья прибыл в Колхапур, чтобы дать Махалакшми даршан.
Во время своего визита в Южную Индию и в среднюю Индию Махапрабху пришел в Колхапур. Мы все ходим на даршан, но Господь Чайтанья – Господь Махалакшми, поэтому Он пошел дать ей даршан. Оттуда Он направился в Пандхарпур, чтобы получить даршан Шри Виттхалы. По дороге Он пришел в Араваде, воспевая имена Кришны.
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! хе
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! хе
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! ракша мам
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! пахи мам
кршна! кршна! кршна!кршна!кршна!кршна! кршна! ракша мам
рама! рагхава! рама! рагхава! рама! рагхава! ракша мам
кршна! кешава! кршна! кешава! кршна! кешава! пахи мам
Перевод:
Господь пел:
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! хе
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! хе
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! ракша мам
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! пахи мам
Рама! Рагхава! Рама! Рагхава! Рама! Рагхава! ракша мам
Кришна! Кешава! Кришна! Кешава! Кришна! Рагхава! пахи мамКришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Хе!
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Хе!
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Ракша мам!
Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Кришна! Пахи мам!Рама! Рагхава! Рама! Рагхава! Рама! Рагхава! Ракша мам!
Кришна! Кешава! Кришна! Кешава! Кришна! Кешава! Пахи мам!
(Ч.Ч. Мадхья 7.96)
Шри Кришна Чайтанья Махапрабху пошел в сторону Сангли, затем в Тасгаон и еще 10 км оттуда в Араваде. Там есть небольшой холм. Он, должно быть, забрался на него. Обычно я это представляю. Это произошло 500 лет назад, а 12 лет назад Он явился в форме Божества Шри Радхи Гопала.
аджану-ламбита-бхуджау канакавадхатау
санкиртанаика-питарау камалаятаксау
вишвамбхарау двиджа-варау юга-дхарма палау
ванде джагат-приякаро карунаватарау
Перевод:
Я выражаю свое почтение Шри Чайтанье Махапрабху и Шри Нитьянанде Прабху, чьи руки простираются до колен, у которых золотисто-желтый цвет лица, и которые начали совместное воспевание Святых имен. Их глаза напоминают лепестки лотоса; Они покровители всех живых существ; Они лучшие из брахманов, защитники религиозных принципов этого века, благодетели вселенной и самые милостивые из всех воплощений.
(Чайтанья-Бхагавата 1.1.1)
Господь пришел в мою деревню. Он появился в образе Божества 12 лет назад. Была проведена церемония прана-пратиштха. Это было грандиозное празднование открытия храма. Столько людей прибыло в Араваду. Это был первый раз в истории Араваде, когда прибыло так много людей. Прибыло так много чиновников Махараштры. П.Р. Патил, который как мне кажется, был заместителем главного министра, тоже приехал.
Некоторые даже прилетели на вертолетах, как полубоги. Прибыл также министр сельского развития и пообещал пожертвовать 10 миллионов индийских рупий на развитие ИСККОН Араваде. Прибыло 32 ученика Прабхупады. Также присутствовали многие лидеры второго поколения и гуру ИСККОН. Это незабываемые воспоминания. Пришли президенты храмов, члены ДжиБиСи, многие святые ИСККОН. Их нельзя забыть. Сегодня отмечается 12-летие. В этом году оно ограничено из-за текущей пандемии. Я также буду вести лекцию на маратхи, которая будет транслироваться онлайн сегодня около 14:30 п.м. IST. Приглашаем всех вас на эту сессию.
Харе Кришна!
Гаура Премананде Хари Харибол!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण।।
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से, 25 जनवरी 2021
सभी को हरे कृष्णा
747,कभी-कभी 777 होते हैं,पर आज 747 हैं।747 स्थानो से लोग जुड़े हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
आप जप करते रहो।कर रहे हो?कर तो रहे ही हो।
प्रभुपाद उवॉच-
“हरे कृष्ण का जप एक उत्कृष्ट विधि है हमारी दिव्य चेतना को पुनः जागृत करने के लिए”
श्रील प्रभुपाद का एक विशेष वचन,प्रभुपाद उवॉच इस पर प्रभुपाद ने एक अलग से रिकॉर्डिंग भी किया है,काफी प्रसिद्ध है यह इस्कॉन में।आप इस्कॉन में हो तो पता नहीं आपके पास इस वचन की प्रसिद्धि पहुंची थी या नहीं।किंतु आज तो हम पहुंचा रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद के मुखारविंद से निकले हुए यह वचन,यह वाणी श्रील प्रभुपाद वाणी,हम सब को,आप को, प्रभावित करे प्रेरित करे,महा मंत्र के जप के लिए। इन वचनों में प्रभुपाद ने हरिनाम की महिमा के बारे में बताया है। यह वाणी,यह वचन अद्भुत है। इसकी रिकॉर्डिंग भी आपको मिल जाएगी।उसको ढूंढो और सुनो। अंग्रेजी में और शायद हिंदी में भी प्रभुपाद ने इसके अनुवाद की रिकॉर्डिंग की है।श्रीलप्रभुपाद की जय। जो जप योगी हैं,आप हो ना जप योगी?जप योगी ही होते हैं भक्ति योगी। कलियुग में भक्ति की जाती है जप करके।
इसको यज्ञानाम जपयज्ञोऽस्मि कृष्ण ने कहा है गीता में-
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय: ||(भगवदगीता 10.25)
सभी यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूं और यह जप यज्ञ श्रेष्ठ है,तो जप यज्ञन कहो या संकीर्तन यज्ञन कहो,यह जप यज्ञ कलियुग का धर्म है। श्रील प्रभुपाद यहां कह रहे हैं –
“हरे कृष्ण का जप एक उत्कृष्ट विधि है, हमारी दिव्य चेतना को पुनः जागृत करने के लिए”
हमारी चेतना,हमारी भावना अलौकिक तो है,दिव्य तो है पर उसको यह महामंत्र जागृत करता है। हमारी मूल भावना कैसे जागृत होती है? कैसे जगती है? कैसे प्रकाशित होती है, प्रदर्शित होती है? हरे कृष्ण महामंत्र के जप से,हरे कृष्ण महामंत्र के उच्चारण से, हरे कृष्ण महामंत्र के श्रवण से, कीर्तन से। आशा है कि आप जानते होंगे या आपने सुना या समझा होगा कि यह चेतना जीव का लक्षण है,जीव का परिचय है। जीव की पहचान होती है चेतना से। जो कभी-कभी कलुषित भी होती है, दूषित भी होती है, है कि नहीं? भावना तो है। चेतना तो है यह चेतना ही जीव का परिचय है।जीव का लक्षण है। हमारी जो मूल भावना है वह कृष्ण भावना है। हरे कृष्ण महामंत्र के जप से होता क्या है?
“चेतों दर्पण मारजनम”
हमारी चेतना का दर्पण। हमारी चेतना को दर्पण भी कहा जाता है।
यह महामंत्र जो स्वयं भगवान ही है , कृष्ण ही है, हमारी चेतना में अगर कोई दोष है,कोई कचरा भरा पड़ा है, कोई गंदगी है, कोई मल है उसको यह कृष्णसूर्य सम, कृष्ण का नाम शुद्ध बनाता है पवित्र बनाता है और इसी के साथ हम भक्त बनते हैं, पुनः भक्त बनते हैं। हरि हरि।।
यह वास्तविक चेतना है।
यहां हम देख रहे हैं,कृष्ण और कृष्ण के भक्तों में जो आदान-प्रदान हो रहा है यही वास्तविक चेतना है। वैकुंठ में या गोलोक में श्रीकृष्ण हैं यह वास्तविक चेतना है। विशुद्ध आत्मा होने के कारण हम मूलतः कृष्णभावनाभावित हैं। प्रभुपाद आगे कह रहे हैं, हम आत्मा हैं विशुद्ध आत्मा और बेशक, आत्मा जीवित है।आत्मा में जान है बाकी सब तो मृत है।
लेकिन आत्मा कैसा है? जीवित। इस आत्मा के रूप में हम मूलत: सभी कृष्णभावनाभावित हैं। कृष्णभावनाभावित जीव आत्माएं। मूलत: हम कृष्णभावनाभावित थे और अब भी हैं किंतु कृष्ण भावना को भूल गए हैं या माया के आवरण ने, इस कृष्ण भावना को आच्छादित किया हुआ है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण।।
“आदिकाल से हमारा भौतिक पदार्थ से संपर्क होने के कारण, हम सभी भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की कोशिश कर रहे हैं,परंतु वास्तव में तो हम उसके कड़े नियमों की जकड़ में हैं।”
जब से हम इस भौतिक प्रकृति के संपर्क में आए हैं,कब से?अनादि काल से, ना जाने कब से, बहुत समय से। हरि हरि।।
हम सभी भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश कर रहे हैं। यहां हम आ गए या प्रकृति के संपर्क में आ गये या निकटस्थ माया तारे झापटिया धरे माया ने हमको झपट लिया है, हमारा गला पकड़ा हुआ है लेकिन प्रयास तो यह हो रहा है हमारा यहां कि हम स्वामी बनने कि कोशिश कर रहे हैं। ईश्वरोअह्मम वाली बात है। कृष्ण ने इसको ऐसे कहा है कि वह है तो दास, जीव है तो दास, लेकिन यहां पर वह स्वामी बनने का प्रयास करता है, हर बद्ध जीव, आप सब भी स्वामी बनने के प्रयास में थे या अभी भी कुछ हद तक, कुछ सीमा तक वह प्रयास जारी रहता ही है जब तक हम शुद्ध, मुक्त, नित्य और शांत नहीं बनते।एक स्वामी ही काफी है। एक स्वामी तो है और स्वामी की कोई जरूरत नहीं है और है भी वैसे एकले ईश्वर कृष्ण आर सब भृत्य ईश्वर परमेश्वर तो अकेले कृष्ण ही हैं या कृष्ण के अवतार हैं, विस्तार हैं और हम हैं उनके दास,सेवक।इसी में प्रसन्न रहना चाहिए लेकिन प्रयास होता है प्रभुपाद कह रहे हैं, जो सत्य भी है कि हम प्रकृति के स्वामी बनने की कोशिश कर रहे हैं। सारी मानवता मिलकर, यह जो वैज्ञानिक मंडली है और यह जो मूर्ख हैं और भी कई हैं ,चांडाल चौकड़ी जो है यह सब मिलकर स्वामी बनने का प्रयास कर रहे हैं।प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि वास्तव में हम तो प्रकृति के सख्त नियमों की जकड़ में हैं यह श्रील प्रभुपाद का साक्षात्कार है,अनुभव है जो कृष्ण ने भी कहा है मम् माया दुरतया।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (भगवदगीता 7.14)
माया के या महामाया के नियमों का उल्लंघन हम नहीं कर सकते,संभव नहीं है।यहां के नियम जो भगवान ने बनाए बड़े कड़े नियम हैं।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। (भगवदगीता2.27)
“जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु”
पहला नियम
आपने जन्म लिया है तो आपको मरना ही होगा। ऐसे-ऐसे नियम हैं, इस माया ने हमको पूरी तरह पछाड़ दिया है।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।। (भगवदगीता3.27)
हमसे माया कार्य करवाती है, माया के तीन गुण कार्य करवाते हैं हमसे, किंतु समस्या यह है अहंकार विमुढ आत्मा, कर्ताऽहमिति मन्यते।
कृष्ण कह रहे हैं, सुनो क्या कह रहे हैं।लेकिन जो अहंकारी बद्ध जीव होते हैं उनको भगवान ने भी मूढ कहा, मूर्ख कहीं के , गधे कहीं के।
कर्ताऽहमिति मन्यते, लेकिन कर्ता तो भगवान हैं
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || (भगवदगीता9.10)
श्रील प्रभुपाद आगे लिख रहे हैं
“बिना किसी पूर्व योग्यता के कोई भी संकीर्तन आंदोलन में भाग लेकर नित्य आनंद प्राप्त कर सकता है ”
जैसे आप यहां देख रहे हो कोई भी जप कर सकता है। कोई भी बिना किसी पूर्व योग्यता के कीर्तन कर सकता है, जप कर सकता है जप या कीर्तन करने के लिए कोई भी पिछली योग्यता या पहले की कोई गुणवत्ता, कोई अधिकार की आवश्यकता नहीं है। यहां पर चैतन्य महाप्रभु दिखा रहे हैं कि उन्होंने झारखंड में पशुओं तक को नचाया। एक दिन वह झारखंड के जंगल से वृंदावन जा रहे थे, जाते-जाते पहले कोई पूर्व सूचना भी नहीं मिली थी कि चैतन्य महाप्रभु आने वाले हैं या कीर्तन होगा आप थोड़ा तैयारी करो या कुछ प्रशिक्षण ले लो।हरि हरि । ऐसा कुछ भी नहीं चैतन्य महाप्रभु आए और तत्क्षण इस पार्टी ने उनसे खुद को जोड़ लिया। झारखंड के वन के सारे पशु पक्षी सब नाचने लगे जो पशुवत लोग हैं धर्मेंन हीना पशुभि समान
आहार-निद्रा-भय-मैथुनम च सामान्यम् एतत् पशुभिर् नराणाम् । धर्मो हि तेषांअधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः (२५ हितोपदेश)
धर्म हीन व्यक्ति को तो पशु कहा जाता है द्विपद पशु कहा जाता है। अधिकतर पशु चतुपदी होते हैं,लेकिन मनुष्य के पैर तो दो ही हैं इसलिए द्विपद पशु कहा है क्योंकि कहा गया है कि धर्म हीन व्यक्ति पशु ही कहलाता है पशुवत ही उसका जीवन है। श्रील प्रभुपाद ने ऐसे पशुओं को नचाया।अमेरिका में, अफ्रीका में, जहां-जहां प्रभुपाद गए और उनकी पहले की कोई पूर्व योग्यता ना होते हुए भी प्रभुपाद ने टोम्स्कीन स्क्वेयर पार्क में छोटे, बड़े, बूढ़े, बच्चो, सबको नचाया। सब कीर्तन करने लगे और आनंद में नृत्य करने लगे। कोई भी व्यक्ति जप या कीर्तन की शुरुआत कर सकता है और व्यक्ति करने भी लगता है।
“कोई भी जप कर सकता है और आनंद में नित्य कर सकता है”
पूरी तरह से आनंद नहीं भी है तो भी यह तो शुरुआत है। आनंद का प्रारंभ ही हुआ है और जैसे आप देख रहे हो इसका उदाहरण, कोई भी जप करते हुए आनंद पूर्वक नृत्य कर सकता है।
यह बालक भी है, एक महिला भी है,और एक अफ्रीकन महिला भी है और देश विदेश के कई भक्तों को यहां नगर संकीर्तन करते हुए देख रहे हो। भक्ति विनोद ठाकुर ने भी कहा था लगभग डेढ़ सौ साल पहले भक्ति विनोद ठाकुर ने यह भविष्यवाणी की थी कि अमरिका से, जर्मनी से, इंग्लैंड से,यहां से, वहां से लोग जय सच्चिनन्दन जय सच्चिनन्दन गोर हरि का उच्चारण करेंगे | जैसा भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा था वैसा ही हो रहा है।
और यह सब भक्त, हम सब भक्त,आप भी अनुभव कर रहे हो आप भी हो उन भक्तों में। तो जब सब कीर्तन कर रहे हैं तो किसको फर्क पड़ता है कि कौन किस देश का है? किसको परवाह है कि कौन किस देश का है? किसी को याद नहीं रहता,ऐसा बाहय ज्ञान नहीं रहता, कोई सोचता भी नहीं कि कौन किस देश का है। पहले इसाई था या पहले मुसलमान था , पहले ऐसा था या पहले वैसा था। जो भी था कम्युनिस्ट था या इस पार्टी का था, कृष्णा ही इस परिवार के मुखिया हैं तो ऐसी एकता भी और कहीं नहीं पाई जाएगी सारी उपाधियों को
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिर् उच्यते॥ (१.१.१२ भक्ति रसामृत सिंधु)
सारी उपाधियों को त्याग कर, भूल कर, निर्मल बनें। उपाधि मतलब मल, निर्मल बनो,आत्मा भी निर्मल है| निर्मल भाव के साथ कीर्तन और जप करें। ऐसी एकता ऐसा एकय और कहीं नहीं मिलेगा | श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा है –
*तुरंत लाभ के लिए जप को भगवान के किसी शुद्ध भक्त के मुख से ही सुनना चाहिए। हम जप सुनेंगे या जप स्वीकार करेंगे कैसै? दीक्षा भी होगी तो मंत्र प्राप्त करेंगे। परंपरा में आने वाले भक्त,आचार्यगण, गुरुगण ही से करें। उनसे हरि नाम को सुनकर या प्राप्त करके,तुरंत लाभ को प्राप्त किया जा सकता है। इसका जो परिणाम है,परिवर्तन है यह तुरंत ही अनुभव किया जा सकता है।
“अभक्तों के मुख से निकला हुआ जप,उसी प्रकार जहरीला हो जाता है जिस प्रकार सांप के मुख से छुआ हुआ दूध जहरीला होता है इसलिए अभक्तों के मुख से कभी भी हरि नाम को नहीं सुनना चाहिए”
जो अभक्त हैं, अभक्तों के मुख से सुना हुआ जप विष के समान है।भुक्ति,मुक्ति,सिद्धि कामी सक्ल अशांत, कृष्ण भक्त निष्काम अतैव शांत
हरि हरि।।
मुक्ति कामी, सिद्धि कामी इनसे अगर हम सुनेंगे महामंत्र या कीर्तन तो यह विष के समान होगा। प्रभुपाद कह रहे हैं इसको टालना चाहिए, सुनना नहीं चाहिए।मायावादी, कृष्ण अपराधी। उनका खुद तो कोई विश्वास नहीं होता कृष्ण के नाम में, कोई श्रद्धा नहीं होती। अगर भुक्ति कामी भी हैं,कर्मकांड करने वाले, वस्त्र तो पहनें ही हैं,भगवा वस्त्र,तो हम झट से सुनने लगते हैं वह उपलक्षण होता है,ऐसे कुछ कमंडलु भी हैं,भगवा पहना हुआ है या कुछ उसी तरह का तिलक भी पहना हुआ है या ऐसा कुछ हरि हरि।।
तो यह भक्त के,साधु के, संतों के गौंण लक्षण हैं।
प्रधान लक्षण तो यही है कि उसकी भावना कैसी है? वह कृष्णभावनाभावित है कि नहीं ?वह कृष्ण को समर्पित है कि नहीं?
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। (9.13 भगवदगीता)
यहां महात्मा की परिभाषा सुना रहे हैं, महात्मा तो वह व्यक्ति है जो
दैवी प्रकृति आश्रित:।
जो दैवी प्रकृति का आश्चर्य लेता है। कौन है दैवी प्रकृति? राधा रानी दैवी प्रकृति है जो राधा रानी का आश्रय लेता है या जो राधा रानी के भावों को प्रकट करने वाली परंपरा में आने वाले आचार्य या भक्त वृंद हैं,उनका आश्रय लेता है, वह महात्मा है। हम सीधे भी नहीं जा सकते राधा रानी के पास आश्रय लेने के लिए।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: (भगवदगीता4.34)
श्री कृष्ण ने भगवत गीता में कहा है कि गुरुजनों के पास पहुंचो, उनकी शरण में जाओ उनका आश्रय ले लो और वे आपको प्रेरित करेंगे, सिखाएंगे, समझाएंगे कि कैसे लेना होता है राधा रानी का आश्रय या फिर वो आपको महामंत्र देंगे और महामंत्र में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – यह हरे हैं राधा।
हे राधे-सेवा योग्य करो,मुझे भी सुनाओ। हे राधे,श्रावय:। तुम्हारी कृष्ण के साथ जो लीला संपन्न होती है, उसे मुझे सुनाओ। जब हम महामंत्र का जप कर रहे हैं,हरे कृष्ण हरे हरे कह रहे हैं उसमें तो यह प्रार्थना है, यह शरणागति है। राधा रानी के चरणों में श्रावय:र्दशय:।
सुनाइए कृष्ण की लीला। तुम्हारी कृष्ण के साथ होने वाली लीला ऐसे भक्तों से हमें यह महामंत्र सुनना चाहिए/प्राप्त करना चाहिए वरना
जीवेर निस्तार लागि ’ सूत्र कैल व्यास ।मायावादी-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश।। (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 6.169)
जो सिद्ध महात्मा है, महात्मा नहीं कहना चाहिए उन्हें, पर महात्मा कहना पड़ता है।अनीमा जैसी सिद्धियों के पीछे लगे हैं, वह भगवान के नामों का उच्चारण, शुद्ध नाम का उच्चारण अपराध रहित कर ही नहीं सकते। ऐसी उनकी समझ नहीं है ऐसी उनकी श्रद्धा नहीं है और ऐसी उनकी परंपरा भी तो नहीं है
सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मता: (पद्म पुराण)
यदि कोई मान्यताप्राप्त गुरु-शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता , तो उसका मंत्र या दीक्षा निष्फल है।
संप्रदाय के बाहर वाला कोई मंत्र तंत्र सीखने से क्या होगा? विफल संप्रदा-संप्रदा विहीन।।
फल- विफल, सफल या विफल?
साफलय,सफलता प्राप्त नहीं होगी।कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं होगा।
कैवलयम नर्कायते।
हमारे वैष्णवों का ऐसा मत है कैवल्य मुक्ति,निराकार या निरंजन का दर्शन।केवलयम नरकायते। नरक से भी खराब चीज है,ये कैवल्य मुक्ति।
यह कृष्ण प्रेम तो जिनकी ऐसी समझ है कि प्रेम प्राप्ति ही पुरुषार्थ है, सर्वोपरि सर्वोच्च।उनसे हमें यह महामंत्र को प्राप्त करना चाहिए। दूसरे जो पक्ष हैं वह परंपराएं कुछ अलग ही हैं या मनगढ़ंत हैं और मनोधर्म की बातें हैं तो इस को हटाना चाहिए। प्रभुपाद चेतावनी दे रहे हैं हमें, सावधान और भी विधि निषेध हैं जो प्रभुपाद ने हरि नाम के जप के लिए बताए हैं पर अभी हम यहां रुकते हैं।
“हरे कृष्णा”।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
25 January 2021
The goal of this life is to attain Kṛṣṇa prema
Hare Krishna to everybody! Today devotees from 747 locations are chanting with us. Sometimes it is 777. Today we have 747.
Gaura Premanande Hari Haribol ! You keep chanting. Are you chanting? I can see that you are chanting. We cannot have a complete seminar here today.
Chanting Hare Krishna is a sublime method for reviving our transcendental consciousness.
It is a special speech given by Srila Prabhupada. Prabhupada has recorded it, specially. This speech is very popular in ISKCON. You all are followers of ISKCON still I am not aware whether this popular speech has reached you or not? But today we will inform you. This speech is known as ‘Prabhupada Vani.’ It should inspire and motivate all of us. It should inspire you to chant the maha-mantra. In this speech Srila Prabhupada has glorified the holy name in an amazing and wonderful way. You search for a recording and listen to it. It is available in English and possibly Prabhupada has done it in Hindi also.
We all are Japa yogis. Aren’t we ? Only Japa yogis are known as Bhakti yogis. In Kaliyuga we can do Bhakti only by chanting.
maharṣīṇāṁ bhṛgur ahaṁ
girām asmy ekam akṣaram
yajñānāṁ japa-yajño ’smi
sthāvarāṇāṁ himālayaḥ
Translation
Of the great sages I am Bhṛgu; of vibrations I am the transcendental oṁ. Of sacrifices I am the chanting of the holy names [japa], and of immovable things I am the Himālayas. (BG 10.5)
The Lord has declared in Bhagavad Gita that among all sacrifices I am the chanting of the maha-mantra. Chanting sacrifice is the best sacrifice. We may call it chanting or kirtan sacrifice which is recommended for Kaliyuga. Srila Prabhupada has said in this speech:
Chanting of the Hare Krishna maha-mantra is a sublime method for reviving our transcendental consciousness.
Our transcendental consciousness or our senses are transcendental, divine and supernatural originally. How is our original consciousness revived, realised or displayed? It is possible by chanting of Hare Krishna maha-mantra. This is the sublime method. By chanting the Hare Krishna maha-mantra, by pronouncing the Hare Krishna maha-mantra or by listening and performing kirtan of maha-mantra it is possible to revive our transcendental consciousness. I hope you have heard and understood that consciousness is the main characteristic of a living entity.The living entity is known by its consciousnesses, feelings, emotions. The living entity is identified by Kṛṣṇa consciousness or consciousness. Sometimes it is polluted or contaminated but that consciousness always remains. This consciousness is the identification of the living entities. This is our original Kṛṣṇa Consciousness. By chanting Hare Kṛṣṇa mantra it is revived.
ceto-darpaṇa-mārjanaḿ bhava-mahā-dāvāgni-nirvāpaṇaḿ
śreyaḥ-kairava-candrikā-vitaraṇaḿ vidyā-vadhū-jīvanam
ānandāmbudhi-vardhanaḿ prati-padaḿ pūrṇāmṛtāsvādanaḿ
sarvātma-snapanaḿ paraḿ vijayate śrī-kṛṣṇa-sańkīrtanam
Translation
Glory to the sri-krsna-sankirtana, which cleanses the heart of all the dust accumulated for years and extinguishes the fire of conditional life, of repeated birth and death. This sankirtana movement is the prime benediction for humanity at large because it spreads the rays of the benediction moon. It is the life of all transcendental knowledge. It increases the ocean of transcendental bliss, and it enables us to fully taste the nectar for which we are always anxious.
Our mind is also called a mirror of the consciousness. The maha-mantra is Kṛṣṇa or Kṛṣṇa Who is very effulgent like the sun. Our consciousness is filled with polluted trash, dirt. The consciousness is cleared and made pure by the holy name or by Kṛṣṇa.
kṛṣṇa — sūrya-sama; māyā haya andhakāra
yāhāṅ kṛṣṇa, tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra
Translation
Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish. (CC Madhya 22.31)
Accordingly by going through this process we become devotees again. This is our original consciousness. In this picture we can see the original consciousness between Kṛṣṇa and the devotee. Sri Krsna is in Vaikuntha or Goloka Dhama. It is the original consciousness. Prabhupada further said …
As living spiritual souls we are all originally Kṛṣṇa conscious entities.
We are living souls. The soul is the only living thing. Everything else is dead. The soul is living. In the form of this soul we all are Kṛṣṇa conscious entities. Hare Kṛṣṇa people are Kṛṣṇa conscious people. All people were originally Kṛṣṇa conscious and today also everyone is Kṛṣṇa conscious. Maya (the illusionary energy of the Lord) has covered or hidden our original Kṛṣṇa Consciousness.
Due to our association with matter for time immemorial we are all trying to be lords of the material nature where actually we are under the grip of her astringent laws. From time immemorial and no one knows since when, we have come into contact with this material world. We are all trying to be lords of material nature. We came here in this world and we came in contact with material nature.
Krsna bhuliya jiva bhoga vancha kare, pasate maya tare japatiya dhare”
Translation
It says” The moment a conditioned soul forgets Krishna and wants to do sense enjoyment , that moment maya or illusion hugs him”. (Prema – Vivarta)
Maya has completely taken hold of us. Here we are trying to become lord. It is the same as Kṛṣṇa has said.
idam adya mayā labdham
imaṁ prāpsye manoratham
idam astīdam api me
bhaviṣyati punar dhanam
asau mayā hataḥ śatrur
haniṣye cāparān api
īśvaro ’ham ahaṁ bhogī
siddho ’haṁ balavān sukhī
āḍhyo ’bhijanavān asmi
ko ’nyo ’sti sadṛśo mayā
yakṣye dāsyāmi modiṣya
ity ajñāna-vimohitāḥ
Translation
The demoniac person thinks: “So much wealth do I have today, and I will gain more according to my schemes. This much is mine now, and it will increase in the future, more and more. He is my enemy, and I have killed him, and my other enemies will also be killed. I am the lord of everything. I am the enjoyer. I am perfect, powerful and happy. I am the richest man, surrounded by aristocratic relatives. There is none so powerful and happy as I am. I shall perform sacrifices, I shall give some charity, and thus I shall rejoice.” In this way, such persons are deluded by ignorance. (BG 16.13-15)
Each living entity tries to become a boss. All of you were trying to be a boss and today also that effort is going on till we become pure and liberated and peaceful souls. One Lord is enough and we do not need any more. And it is fact …..
ekale īśvara kṛṣṇa, āra saba bhṛtya
yāre yaiche nācāya, se taiche kare nṛtya
Translation
Lord Kṛṣṇa alone is the supreme controller, and all others are His servants. They dance as He makes them do so. (CC Ādi 5.142)
Kṛṣṇa and his other manifestations are the only Lord and we are His servants. We should be satisfied with this position, but as Prabhupada said we are trying to be the Lord. Humanity as a whole are unitedly trying to be master of nature. The group of scientists and foolish people all are unitedly trying to be Lord. They are trying to become masters of nature and they are trying to control nature. While actually we are under the grip of her astringent laws. This is Srila Prabhupada’s realisation and experience. Kṛṣṇa has also said the same.
daivi hy esa guna-mayi
mama maya duratyaya
mam eva ye prapadyante
mayam etam taranti te
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG 7.14)
We cannot violate the laws made by maha maya. It is not possible. The Lord has made the rules and laws here which are very strict.
jātasya hi dhruvo mṛtyur
dhruvaṁ janma mṛtasya ca
tasmād aparihārye ’rthe
na tvaṁ śocitum arhasi
Translation
One who has taken his birth is sure to die, and after death one is sure to take birth again. Therefore, in the unavoidable discharge of your duty, you should not lament.(BG 2.24)
First rule.
You have taken birth, so you must die. Such rules are there. We are under the grip of maya. We are puppets in the hands of maya. Maya makes us do whatever she wants us to do.
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ
ahaṅkāra-vimūḍhātmā
kartāham iti manyate
Translation
The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature.
(BG 3.27)
The three modes of nature actuality carry out various activities from us. The main problem is that due to the false ego of a bewildered soul we assume that we are the doers. Krsna has called proud people vimudha or foolish. They think they are the doers of all activities. Actually the Lord is the only one who is the doer and He gets everything done by us.
mayadhyaksena prakrtih
suyate sa-caracaram
hetunanena kaunteya
jagad viparivartate
Translation
This material nature is working under My direction, O son of Kunti, and it is producing all moving and unmoving beings. By its rule this manifestation is created and annihilated again and again. (BG 9.10)
Srila Prabhupada further says,
Anyone can take part in the chanting without any previous qualification and dance in ecstasy.
Here in this picture you can see that any one can participate in chanting. Anyone can chant. Anyone can do kirtan or chant without any previous qualification. It is not mandatory to have any special qualities or any authority. Even animals can take part in this. Sri Caitanya Mahaprabhu made animals dance when He was in Jharkhand. Once He was going to Vrindavan through the forests of Jharkhand. Nothing was announced nor planned that Caitanya Mahaprabhu is coming and He will do Kirtan. Caitanya Mahaprabhu came to forest and immediately He started His kirtan. He always performs kirtan continuously. As He was doing kirtan He was joined by other animals of Jharkhand forest. All dangerous animals started dancing with Caitanya Mahaprabhu. In this way Caitanya Mahāprabhu has shown us that without any previous qualification anyone can take part in Kirtan. Prabhupada when went to western countries. The people there were living like animals.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṁ ca
sāmānyam etat paśubhir narāṇām
dharmo hi teṣām adhiko viśeṣo
dharmeṇa hīnāḥ paśubhiḥ samānāḥ
Translation
Eating, sleeping, sex, and defense—these four principles are common to both human beings and animals. The distinction between human life and animal life is that a man can search after God but an animal cannot. That is the difference. Therefore a man without that urge for searching after God is no better than an animal.
A person without knowledge of God is called a binomial : animal with two legs. Normally animals have four legs – chatushpad. Humans have only two legs so they are called dvipad or binomial. A person without dharma is like an animal. His life is like that of an animal. Srila Prabhupada made all such animals dance in kirtan in America, Africa and whenever he went. They did not have any previous qualification. Still Prabhupada made all of them dance in kirtan. There were young, old , children and all other types of people dancing in ecstasy. When a new person comes to a temple then Hare Krsna devotees give him chanting beads. As soon as he enters and sits down to relax, immediately, Hare Krsna devotees hand over chanting beads to him and instruct him to chant. The person begins chanting immediately. Everyone can chant and dance in ecstasy. Even if you don’t have full fledged ecstasy, still you can dance. This is a beginning. You can experience the joy and happiness in this. Everyone can chant and dance in ecstasy. As you can see there is a lady and there is an African lady also. Devotees from various countries are dancing together. Srila Bhaktivinod ThakurA has declared, ‘One such day will come’. 100 – 150 years ago Bhaktivinod Thakura predicted that devotees from America , England and other parts of the world will come to India. They will sing with local devotees
Jai Sachinandan! Jai Sachinandan!! Jai Sachinandan!!! Gaura Hari !!
It is exactly happening as Bhaktivinoda Thakur has predicted. All devotees including you, do not bother about the country of the other devotee when doing kirtan. No one remembers this. No one asks any questions like from which country are you? No one cares whether the devotee was Christian or Muslim, Communist or of a different political party. All devotees harmoniously enjoy the kirtan with a feeling of one family. All enjoy with each other like Krsna’s family members. We will not find such unity anywhere else.
sarvopādhi-vinirmuktaṁ
tat-paratvena nirmalam
hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa-
sevanaṁ bhaktir ucyate
Translation
Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and, simply by being employed in the service of the Lord, one’s senses are purified.’ (CC Madhya 19.170)
When a person renounces all designation he becomes pure. The soul is always pure. With this pure feeling everyone takes part in kirtan. We will not find such unity anywhere else.
Further Srila Prabhupada said
Chanting should be heard from the lips of the pure devotee of the Lord. So that immediately its effects can be achieved.
When you start chanting then you will be initiated. It should be heard from the lips of a pure devotee. They should be part of disciplic succession. When we hear harinama from such bhaktas, acaryas or spiritual masters then immediate effects can be achieved. The result or transformation of this can be immediately experienced.
Chanting from the lips of non devotee should be avoided, just as one will avoid milk touched by the lips of a serpent because it has a poisonous effect.
Chanting from the lips of a non devotee is like
kṛṣṇa-bhakta–niṣkāma, ataeva ‘śānta’
bhukti-mukti-siddhi-kāmī–sakali ‘aśānta’
Translation
Because a devotee of Lord Kṛṣṇa is desireless, he is peaceful. Fruitive workers desire material enjoyment, jñānīs desire liberation, and yogīs desire material opulence; therefore they are all lusty and cannot be peaceful. (CC Madhya 19.149)
Prabhupada has said that we should avoid hearing the maha-mantra or kirtan from those who have the desire for liberation, material opulence and material enjoyment. Mayavadi Kṛṣṇa aparadhi — they do not believe in Kṛṣṇa. They do not have faith in Krsna’s names. They are mukti kami or karma kandi dressed like sadhus. They are dressed in saffron cloth and have kamandalu in the hand. These are minor characteristics of sadhus and saintly persons. An important and major characteristic is the state of his consciousness? Is he Kṛṣṇa conscious or not? Has he surrendered to Kṛṣṇa or not ? Or
mahātmānas tu māṁ pārtha
daivīṁ prakṛtim āśritāḥ
bhajanty ananya-manaso
jñātvā bhūtādim avyayam
Translation
O son of Pṛthā, those who are not deluded, the great souls, are under the protection of the divine nature. They are fully engaged in devotional service because they know Me as the Supreme Personality of Godhead, original and inexhaustible. (BG 9.13)
Kṛṣṇa has defined a mahatma as a person who takes shelter of the divine nature. Who is the divine nature ? Radharani is divine nature. A mahatma will take shelter of Radharani or he will take shelter of those who have achieved Radharani’s bhava and who are part of the disciplic succession. We cannot go directly to Radharani for shelter.
tad viddhi praṇipātena
paripraśnena sevayā
upadekṣyanti te jñānaṁ
jñāninas tattva-darśina
Translation
Just try to learn the truth by approaching a spiritual master. Inquire from him submissively and render service unto him. The self-realized souls can impart knowledge unto you because they have seen the truth. (BG 4.34)
Sri Kṛṣṇa has said in Bhagavad Gita that one should approach a spiritual master and take shelter of him. He will inspire and teach how to surrender to Radharani. Otherwise he will give you knowledge of the maha-mantra.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Ram Hare Ram
Ram Ram Hare Hare
In this mantra, ‘Hare’ addresses Radharani. It is prayer to Radharani as he hare – mayA sah ramasva |O Hare! Please enjoy with me. ( from the commentary of Maha-mantra by Bhakti Vinod Thakure)
He Radharani! please make me eligible for doing Your service. Please tell me Your pastimes with Kṛṣṇa. This is the prayer of surrender to Radharani when we chant the Hare in the maha-mantra. Sravaya, Darsaya, please tell us and show us Your pastimes with Krsna. We should acquire the maha-mantra from such exalted devotees otherwise you will lose our devotional service.
jīvera nistāra lāgi’ sūtra kaila vyāsa
māyāvādi-bhāṣya śunile haya sarva-nāśa
Translation
Śrīla Vyāsadeva presented the Vedānta philosophy for the deliverance of conditioned souls, but if one hears the commentary of Śaṅkarācārya, everything is spoiled. (CC Madhya 6.169)
Those who are Mayavadi or who are trying to achieve siddhi, are siddha mahatmas. We should not call them mahatma. They are trying to get siddhi like anima , lagima. They are never able to chant pure and offenceless holy names. They do not have such faith and understanding and their disciplic succession is not like that.
Sampradaya-vihina ye mantras te nisphala matah
Translation
Any mantra that does not come in disciplic succession is considered to be fruitless.
If we learn or chant any mantra which is not authorised by the sampradaya (institution) then it is fruitless. Safal- vifal. Vifal means in vain. It is of no use then. You will not achieve Krsna prema which is the main objective of chanting.
kaivalyaṁ narakāyate tridaśa-pūr ākāśa-puṣpāyate
durdāntendriya-kāla-sarpa-paṭalīṁ protkhāṭa-daṁṣṭrāyate
viśvam pūrṇa-sukhāyate vidhi-mahendrādiś ca kīṭāyate
yat-kāruṇya-kaṭākṣa-vaibhavavatāṁ taṁ gauram eva stumaḥ
Translation
To one who has received the power of Gaura’s merciful glance, liberation appears like hell, the heavenly worlds like so many pies in the sky; the unconquerable senses become like snakes with the fangs removed, the universe is filled with joy everywhere, while gods like Vidhi and Mahendra are seen as of no more significance than insects. I praise Gauranga Mahaprabhu. (Caitanya-candrāmṛta 95)
It is the opinion of Vaisnavas that attaining Kaivalya Mukti , Niranjan or nirakar is worse than hell. Kaivalya Mukti is worse. They are trying for liberation or salvation. The super most glorious thing is to attain Kṛṣṇa prema. We should take the maha-mantra from those who have such understanding that Kṛṣṇa prema is a supreme glorious thing. The various other parties are of different successions or they are speculated. Prabhupada is warning us that this should be avoided. Be aware!
The statement further has many more things that Prabhupada has sung. Prabhupada has explained the do’s and don’ts of chanting the pure names of the Lord. Much more is there. Today we will stop here and tomorrow we will continue. Prabhupada has said many interesting quotes further. You will hear it in the next session. Thank you.
Hare Krishna
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 25 января 2021 г.
ЦЕЛЬ ЭТОЙ ЖИЗНИ – ОБРЕСТИ КРИШНА-ПРЕМУ
Харе Кришна всем! Сегодня с нами воспевают преданные из 747 мест. Иногда это 777. Сегодня у нас 747.
Гаура Премананде Хари Харибол! Вы продолжаете воспевать. Вы воспеваете? Я вижу, что вы воспеваете. Сегодня у нас не может быть полноценной лекции.
Повторение Харе Кришна – прекрасный метод возрождения нашего трансцендентного сознания.
Это особая речь Шрилы Прабхупады. Прабхупада специально это записал. Эта речь очень популярна в ИСККОН. Вы все являетесь последователями ИСККОН, но я не знаю, дошла ли до вас эта популярная речь или нет? Но сегодня мы сообщим вам. Эта речь известна как «Прабхупада Вани». Она должна вдохновлять и мотивировать всех нас. Это должно вдохновить вас на воспевание маха-мантры. В этой речи Шрила Прабхупада удивительным и чудесным образом прославил Святое имя. Вы ищете запись и слушаете ее. Она доступна на английском языке, возможно, Прабхупада сделал это и на хинди.
Мы все джапа-йоги. Не так ли? Только джапа-йоги известны как бхакти-йоги. В Кали-югу мы можем совершать бхакти только воспеванием.
ира̄м асмй экам акшарам
йаджн̃а̄на̄м̇ джапа-йаджн̃о ’сми
стха̄вара̄н̣а̄м̇ хима̄лайах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из великих мудрецов Я Бхригу, а среди звуков Я трансцендентный звук ом. Из жертвоприношений Я повторение святых имен [джапа], а из недвижимого — Гималайские горы.
(Б.Г. 10.25)
В «Бхагавад-гите» Господь сказал, что среди всех жертвоприношений Я – воспевание маха-мантры. Жертвоприношения в виде воспевания – лучшее жертвоприношение. Мы можем назвать это воспеванием или жертвоприношением – киртаном, которое рекомендуется для Кали-юги. Шрила Прабхупада сказал в этой речи:
Воспевание маха-мантры Харе Кришна – прекрасный метод возрождения нашего трансцендентного сознания.
Наше трансцендентное сознание или наши чувства изначально трансцендентные, божественные и неземные. Как наше изначальное сознание возрождается, реализуется или отображается? Это возможно, повторяя маха-мантру Харе Кришна. Это возвышенный метод. Повторяя маха-мантру Харе Кришна, произнося маха-мантру Харе Кришна или слушая и проводя киртан маха-мантры, можно оживить наше трансцендентное сознание. Я надеюсь, вы слышали и понимали, что сознание – это главная характеристика живого существа. Живое существо известно по своему сознанию, чувствам, эмоциям. Живое существо определяется сознанием или сознанием Кришны. Иногда оно загрязнено или затуманено, но это сознание всегда остается. Это сознание – отождествление живых существ. Это наше изначальное сознание Кришны. Воспеванием мантры Харе Кришна оно возрождается.
чето-дарпан̣а-ма̄рджанам̇ бхава-маха̄-да̄ва̄гни-нирва̄пан̣ам̇
ш́рейах̣-каирава-чандрика̄-витаран̣ам̇ видйа̄-вадхӯ-джӣванам
а̄нанда̄мбудхи-вардханам̇ прати-падам̇ пӯрн̣а̄мр̣та̄сва̄данам̇
сарва̄тма-снапанам̇ парам̇ виджайате ш́рӣ-кр̣шн̣а-сан̇кӣртанам
Перевод Шрилы Прабхупады:
„Да славится всепобеждающее пение святого имени Господа Кришны, которое способно очистить зеркало сердца и потушить пылающий пожар материального существования! Пение святого имени подобно прибывающей луне, которая побуждает распуститься белую лилию удачи для всех живых существ. В нем жизнь всего знания. Повторение святого имени Кришны углубляет океан духовного блаженства. Оно несет живительную прохладу всем и позволяет вкушать нектар бессмертия на каждом шагу“.
(Ч.Ч. Антйа лила 20.12. 1-й стих, Шри Шикшаштака)
Наш ум также называют зеркалом сознания. Маха-мантра – это Кришна, или Кришна, сияющий, как солнце. Наше сознание заполнено оскверненным хламом, грязью. Сознание очищается святым именем или Кришной.
кр̣шн̣а — сӯрйа-сама; ма̄йа̄ хайа андхака̄ра
йа̄ха̄н̇ кр̣шн̣а, та̄ха̄н̇ на̄хи ма̄йа̄ра адхика̄ра
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Кришна сравнивается с солнечным светом, а майя — с тьмой. Там, где светит солнце, нет тьмы. Как только человек обращается к сознанию Кришны, тьма иллюзии (влияние внешней энергии) мгновенно рассеивается».
(Ч.Ч. Мадхья-лила 22.31)
Соответственно, пройдя через этот процесс, мы снова становимся преданными. Это наше изначальное сознание. На этой картинке мы можем увидеть изначальное сознание между Кришной и преданным. Шри Кришна находится на Вайкунтхе или Голока Дхаме. Это изначальное сознание. Далее Прабхупада сказал:
“Все мы, живые духовные души, изначально обладаем сознанием Кришны”.
Мы живые души. Душа – единственное живое существо. Все остальное мертво. Душа живая. В форме этой души мы все являемся существами в сознании Кришны. Люди Харе Кришна – это люди, обладающие сознанием Кришны. Изначально все люди были в сознании Кришны, и сегодня все также обладают сознанием Кришны. Майя (иллюзорная энергия Господа) покрыла или спрятала наше изначальное Сознание Кришны.
Из-за нашей связи с материей с незапамятных времен мы все пытаемся быть владыками материальной природы, в которой на самом деле мы находимся под властью ее вяжущих законов. С незапамятных времен и никто не знает, с каких пор мы вступили в контакт с этим материальным миром. Мы все пытаемся быть владыками материальной природы. Мы пришли сюда, в этот мир, и соприкоснулись с материальной природой.
кр̣ш̣н̣а-бахирмукха хан̃а̄ бхога-ва̄н̃чха̄ каре
никат̣а-стха ма̄йа̄ та̄ре джа̄пат̣ийа̄ дхаре
Перевод:
Как только у живого существа возникает желание наслаждаться материальной природой отдельно от Кришны, оно тут же становится жертвой майи, материальной энергии».
(«Шри Према-виварта», 6.2)
Майя полностью завладела нами. Здесь мы пытаемся стать господином. Это то же самое, что сказал Кришна.
идам адйа майа̄ лабдхам
имам̇ пра̄псйе маноратхам
идам астӣдам апи ме
бхавишйати пунар дханам
асау майа̄ хатах̣ ш́атрур
ханишйе ча̄пара̄н апи
ӣш́варо ’хам ахам̇ бхогӣ
сиддхо ’хам̇ балава̄н сукхӣ
а̄д̣хйо ’бхиджанава̄н асми
ко ’нйо ’сти садр̣ш́о майа̄
йакшйе да̄сйа̄ми модишйа
итй аджн̃а̄на-вимохита̄х̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Сегодня, — думает демонический человек, — я получил хорошую прибыль, когда же мои планы осуществятся, я получу еще больше. Сейчас я владею неплохим состоянием, и оно будет только расти. Этого моего врага я убил, и та же участь ожидает остальных. Я хозяин всего. Я наслаждаюсь жизнью. Я достиг совершенства, обрел могущество и счастье. Я богаче всех, и меня окружают знатные родственники. В мире нет никого могущественнее и счастливее меня. Я буду совершать жертвоприношения, заниматься кое-какой благотворительностью и радоваться жизни». Так эти люди становятся жертвами собственного невежества.
(Б.Г. 16.13-15)
Каждое живое существо пытается стать начальником. Все вы пытались быть боссом, и сегодня это усилие продолжается, пока мы не станем чистыми, освобожденными и смиренными душами. Одного Господа достаточно, и нам больше не нужно. И это факт…
экале ӣш́вара кр̣шн̣а, а̄ра саба бхр̣тйа
йа̄ре йаичхе на̄ча̄йа, се таичхе каре нр̣тйа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Господь Кришна — единственный верховный повелитель, а все остальные — Его слуги. Все танцуют, подчиняясь Его воле.
(Ч.Ч. Ади 5.142)
Кришна и другие его проявления – единственный Господь, а мы – Его слуги. Мы должны быть удовлетворены этим положением, но, как сказал Прабхупада, мы пытаемся быть Господом. Человечество в целом дружно пытается овладеть природой. Группа ученых и глупые люди все вместе пытаются быть Господом. Они пытаются стать хозяевами природы и пытаются контролировать природу. Хотя на самом деле мы находимся под властью ее строгих законов. Это осознание и опыт Шрилы Прабхупады. Кришна сказал то же самое.
даивӣ хй эша̄ гун̣а-майӣ
мама ма̄йа̄ дуратйайа̄
ма̄м эва йе прападйанте
ма̄йа̄м эта̄м̇ таранти те
Перевод Шрилы Прабхупады:
Преодолеть влияние Моей божественной энергии, состоящей из трех гун материальной природы, невероятно трудно. Но тот, кто предался Мне, с легкостью выходит из-под ее власти.
(Б.Г. 7.14)
Мы не можем нарушать законы, установленные маха-майей. Это невозможно. Господь установил здесь очень строгие правила и законы.
джа̄тасйа хи дхруво мр̣тйур
дхрувам̇ джанма мр̣тасйа ча
тасма̄д апариха̄рйе ’ртхе
на твам̇ ш́очитум архаси
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто родился, непременно умрет, а после смерти снова появится на свет. Это неизбежно, поэтому, исполняя свой долг, ты не должен предаваться скорби.
(Б.Г. 2.27)
Первое правило. Вы родились, значит, вы должны умереть. Такие правила есть. Мы находимся во власти майи. Мы марионетки в руках майи. Майя заставляет нас делать то, что она хочет от нас.
пракр̣тех̣ крийама̄н̣а̄ни
гун̣аих̣ карма̄н̣и сарваш́ах̣
ахан̇ка̄ра-вимӯд̣ха̄тма̄
карта̄хам ити манйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Введенная в заблуждение ложным эго, душа считает себя совершающей действия, которые на самом деле совершаются тремя гунами материальной природы.
(Б.Г. 3.27)
Три гуны природы действительно осуществляют с помощью нас различные действия. Основная проблема в том, что из-за ложного эго сбитой с толку души, мы считаем себя деятелями. Кришна назвал гордых людей вимудхами или глупцами. Они думают, что они совершают все действия. На самом деле Господь – единственный действующий, и Он делает все при помощи нас.
майа̄дхйакшен̣а пракр̣тих̣
сӯйате са-чара̄чарам
хетуна̄нена каунтейа
джагад випаривартате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Будучи одной из Моих энергий, о сын Кунти, материальная природа действует под Моим надзором, производя на свет все движущиеся и неподвижные существа. Под ее началом мироздание снова и снова возникает и уничтожается.
(Б.Г. 9.10)
Шрила Прабхупада далее говорит:
“Любой может принять участие в воспевании без какой-либо предварительной подготовки и танцевать в экстазе”.
Здесь, на этой картинке, вы можете видеть, что в воспевании может участвовать каждый. Кто угодно может воспевать. Любой может проводить киртан или воспевать без какой-либо предварительной подготовки. Необязательно иметь какие-то особые качества или авторитет. В этом могут участвовать даже животные. Шри Чайтанья Махапрабху вдохновлял животных танцевать, когда был в Джаркханде. Однажды Он шел во Вриндаван через лес Джаркханда. Ничего не было объявлено и не запланировано, что Чайтанья Махапрабху придет и проведет киртан. Чайтанья Махапрабху пришел в лес и сразу начал свой киртан. Он всегда проводит киртан непрерывно. Когда Он проводил киртан, к нему присоединились различные животные леса Джаркханд. Все опасные животные начали танцевать с Чайтаньей Махапрабху. Таким образом Чайтанья Махапрабху показал нам, что любой человек может принять участие в киртане без каких-либо предварительных требований. Прабхупада, когда уехал в западные страны. Люди там жили как животные.
ахара-нидра-бхайа-маитхунах ча
саманйам этат пашубхир наранам
дхармо хи тешам адхико вишешо
дхармена хинам пашубхих саманах
Перевод:
Такие виды деятельности, как еда, сон, совокупление и оборона, присущи как животным, так и людям. Человек считается выше животного только тогда, когда он вопрошает об Абсолютной Истине, в противном случае он ничем от животного не отличается.
(Хитопадеша – сборник историй на санскрите в прозе и стихах)
Человека, не знающего Бога, называют биномом: животное с двумя ногами. Обычно у животных четыре ноги – чатушпад. У людей всего две ноги, поэтому их называют двипад или биномиальные. Человек без дхармы подобен животному. Его жизнь похожа на жизнь животного. Шрила Прабхупада вдохновлял всех таких животных танцевать во время киртана в Америке, Африке и везде, где бы он ни был. У них не было предварительной квалификации. Тем не менее Прабхупада вдохновлял их танцевать киртан. Молодые, старые, дети и все остальные люди танцевали в экстазе. Когда новый человек приходит в храм, преданные Харе Кришна дают ему чётки для воспевания. Как только он входит и садится, чтобы расслабиться, преданные Харе Кришна сразу же передают ему чётки и наставляют его повторять. Человек сразу начинает воспевать. Каждый может воспевать и танцевать в экстазе. Даже если у вас нет полноценного экстаза, вы все равно можете танцевать. Это начало. Вы можете чувствовать в этом радость и счастье. Каждый может воспевать и танцевать в экстазе. Как видите, есть дама, а также дама-африканка. Преданные из разных стран танцуют вместе. Шрила Бхактивинод Тхакур провозгласил: «Однажды такой день наступит». 100 – 150 лет назад Бхактивинод Тхакур предсказал, что преданные из Америки, Англии и других частей света приедут в Индию. Они будут воспевать с местными преданными
Джай Шачинандана!! Джай Шачинандана!! Джай Шачинандана!! Гаура Хари!!
Это происходит в точности, как предсказывал Бхактивинода Тхакур. Все преданные, включая вас, не беспокоятся о стране другого преданного во время киртана. Об этом никто не помнит. Никто не задает вопросов типа из какой вы страны? Никого не волнует, был ли преданный христианином или мусульманином, коммунистом или членом другой политической партии. Все преданные гармонично наслаждаются киртаном, чувствуя себя одной семьей. Все наслаждаются друг другом, как члены семьи Кришны. Такого единства мы больше нигде не найдем.
сарвопа̄дхи-винирмуктам̇
тат-паратвена нирмалам
хр̣шӣкен̣а хр̣шӣкеш́а
севанам̇ бхактир учйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
„Идти путем бхакти, преданного служения, — значит занять все свои чувства служением Верховной Личности Бога, повелителю чувств. Служа Всевышнему, душа, помимо главного плода, обретает два второстепенных: она избавляется от всех материальных самоотождествлений и ее чувства, занятые служением Богу, очищаются“.
(Ч.Ч. Мадхья 19.170)
Когда человек отказывается от всех привязанностей, он становится чистым. Душа всегда чиста. С этим чистым чувством каждый принимает участие в киртане. Такого единства мы больше нигде не найдем.
Далее Шрила Прабхупада сказал:
“Воспевание следует слушать из уст чистого преданного Господа. Так что эффект может быть достигнут немедленно”.
Когда вы начнете воспевать, вы получите посвящение. Это следует слушать из уст чистого преданного. Они должны быть частью ученической преемственности. Когда мы слышим харинаму от таких бхакт, ачарьев или духовных учителей, можно сразу же добиться результатов. Результат или трансформация этого можно сразу почувствовать.
Следует избегать слушать воспевание из уст непреданных, так же как избегают прикосновения к молоку губами змеи, потому что оно имеет ядовитый эффект.
Воспевание из уст непреданного – это как
кр̣шн̣а-бхакта — нишка̄ма, атаэва ‘ш́а̄нта’
бхукти-мукти-сиддхи-ка̄мӣ — сакали ‘аш́а̄нта’
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Поскольку преданный Кришны свободен от всех желаний, он умиротворен. В отличие от него, карми одержимы желанием материальных удовольствий, гьяни стремятся к освобождению, а йоги — к материальным достижениям. Все они обуреваемы материальными желаниями и потому не способны обрести умиротворение».
(Ч.Ч. Мадхья 19.149)
Прабхупада сказал, что нам следует избегать слушания маха-мантры или киртана от тех, кто стремится к освобождению, материальному богатству и материальным наслаждениям. Майавади Кришна апарадхи – они не верят в Кришну. Они не верят именам Кришны. Это мукти ками или карма канди, одетые как садху. Они одеты в шафрановую одежду, а в руках у них камандалу. Это второстепенные характеристики садху и святых людей. Важной и главной характеристикой является состояние его сознания? Сознает он Кришну или нет? Предался он Кришне или нет? Или
маха̄тма̄нас ту ма̄м̇ па̄ртха
даивӣм̇ пракр̣тим а̄ш́рита̄х̣
бхаджантй ананйа-манасо
джн̃а̄тва̄ бхӯта̄дим авйайам
Перевод Шрилы Прабхупады:
О сын Притхи, те же, кто свободны от заблуждений, великие души, находятся под покровительством божественной природы. Они служат Мне с любовью и преданностью, ибо знают, что Я Верховная Личность Бога, изначальная и неистощимая.
(Б.Г. 9.13)
Кришна определил махатму как человека, который принимает прибежище у божественной природы. Кто такая божественная природа? Радхарани – божественная природа. Махатма примет прибежище у Радхарани или у тех, кто достиг бхавы Радхарани и является частью ученической
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण।
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
24 जनवरी 2021
एकादशी श्रवण कीर्तन उत्सव! बहुत सारे भक्त और लीडर्स इसमें सम्मिलित हो रहे है। जपा टॉक के बारे में वह चर्चा करेंगे और उसके बाद वह कीर्तन करेंगे इसमें तीन घटक होंगे जपा टॉक, श्रवण और कीर्तन कोई बस जपा टॉक करेगा, कोई बस कीर्तन करेगा। इसमें 30 मिनट का एक भाग है और यह जितना ज्यादा हो सके उतना चलता रहेगा। हर एक एकादशी को यह चलता रहेगा और उसका उद्घाटन समारंभ आज है। एकादशी श्रवण कीर्तन उत्सव! आप सब समझ रहे हो ना? हम यह जब और जपा टॉप 2 सालों से कर रहे है, हर दिन की ब्रह्म मुहूर्त पर। मैं कभी-कभी इंग्लिश में जपा टॉक देता था और वह हिंदी में ट्रांसलेट हो जाता था। लेकिन मैं बहुत बार हिंदी में ही जपा टॉक देता हूं। लेकिन आज इंग्लिश में दे रहा हूं, ताकि सबको उसका फायदा हो। और अंग्रेजी हमारी इंटरनेशनल भाषा भी है। तो हम अंग्रेजी में बोलेंगे! स्वरूप मंजरी आप इंग्लिश जानती हो ना? ठीक है। तो अब रामलीला का क्या होगा!
उसके लिए भी अंग्रेजी से हिंदी में ट्रांसलेशन चैट सेशन में चल रहा है। तो ने जब जपा टॉक देता हूं तो जागरूक रहिए! श्रवन हमेशा जागरूक रहना चाहिए। जब आप हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का श्रवण करते हो, या फिर हरि कथा का श्रवण करते हो तो इन दोनों के लिए आप को जागरूक रेहके उसका श्रवण करना चाहिए! जागरूक होकर श्रवन होना चाहिए। जीव जागो! यह एक जपा टॉक का भाग है। आज मैंने यह निर्धारित किया है कि, जीव जागो जीव जागो वैष्णव भजन पर हम चर्चा करेंगे, उसका कीर्तन करके उसको समझने की कोशिश करेंगे। कृपया सुनिए यह भजन भक्ति विनोद ठाकुर, जो हरिनाम चिंतामणि के लेखक है और वे आदर्श हरिनाम के गवाय्या थे। और यह जीव जागो वैष्णव भजन भी उन्होंने लिखा है। और हमें इस भजन का गुह्य अर्थ समझने की कोशिश करनी चाहिए! यह हमे जागरूक रहकर हरि नाम का जप करने में मदत करेगा। और जीव जागो जैसे भजन का श्रवण करने से कोमल श्रद्धा जरूर दृढ़ श्रद्धा में बदल जाएगी! तो यह भजन क्या कहता है? जीव जागो! इसका अर्थ है कि, सोई हुई आत्माओ उठो! जीव जागो! यहां पर ऐसा नहीं कहा कि, सोए हुए शरीरों उठो! यहां पर कहां है, सोई हुई आत्मा उठो! हरि हरि। हम हाथ में पेन लेकर बैठे है, लेकिन हमारी आत्मा अभी तक सोई हुई है। आत्मा यह है कि, जो भगवान के लिए हमेशा जागरूक रहती है। आत्मा कभी भागती नहीं है। और आत्मा को सुनने के लिए जगे रहने की जरूरत नहीं है। ऐसा कई बार होता है कि, हम हरि कथा में बैठे हुए होते है और हमारा शरीर तो जगह रहता है लेकिन आत्मा सोई हुई ही रहती है। तो भक्तिविनोद ठाकुर ने जो कुछ भी कहा है उसको जागरूक होकर सुनिए, पढ़िए!
जीव जागो, जीव जागो, गौराचांद बोले! भक्तिविनोद ठाकुर कह रहे है कि, गौरचंद्र बोल रहे है गौरचंद्र आपको बुला रहे है! और हमें यह भी समझना चाहिए कि, गौरचंद्र हमें बोल रहे है कि, जीव जागो! जीव जागो! कौन बोल रहे है? ऐसा गौरचंद या गौरांग बोल रहे है।
कोत निद्रा याओ माया-पिशाचीर कोले तो और कितने समय तक आप माया में सोते रहोगे? कृपया जाग जाओ! विशेषतः सब शरीर सोते है जैसे खिलौने सोते है वैसे ही आप सोए हो। आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह जानवर और मनुष्य के बीच में सामान्य बातें है। सामान्य बातें है! जैसे हम सोते है, वैसे ही पंछी भी सोते है। हर कोई सोता है। लेकिन अब, तुम आत्मा! तुम्हें इस शरीर के रूप में सबसे अनमोल तोहफा मिला है। तो उत्तिष्ठत जागृत जैसे हमारे शास्त्र कहते है कि, उत्तिष्ठत जाग्रत वरान्निबोधत तो इसीलिए है आत्मा जाग जाओ! और फिर भक्तिविनोद ठाकुर कहते है,
भजिबो बोलिया एसे संसारभितोरे।
भुलिया रोहिले सुमि अविद्यार भोरे।।
तुम्हें पता नहीं है? कि कृष्ण और गौरांग को सब कुछ पता है, वे तुम्हारे ऊपर ध्यान रखते है। हर एक जीव पर उनका ध्यान है, यह तुम्हें पता नहीं है? तुम्हें याद नहीं है कि, जब तुम मां के गर्भ में थे और तुम पीड़ा सेह रहे थे और उसी समय तुमने मुझे आग्रह किया था, प्रार्थना कि थी। सभी को पता ही है श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कंध में यह चर्चा है। विशेष कर मनुष्य योनि में, जब शिशु गर्भ के अंदर होता है तब वह भगवान से प्रार्थना करता है कि, हे भगवान कृपा करके मुझे यहां से बाहर निकालिए और जैसे ही मैं यहां से बाहर आऊंगा तो मैं क्या करूंगा? मैं आप आपको शरण आऊंगा, मैं आपकी भक्ति करूंगा, मैं आपकी पूजा करूंगा, मैं आपके नाम का कीर्तन करूंगा, मैं हरे कृष्ण महामंत्र का जप करूंगा! मुझे पता है हर युग के अनुसार एक एक धर्म होता है और कलयुग के अनुसार हरि नाम यह धर्म है। और ऐसे ही वह शिशु या आत्मा भगवान से याचना करता है। तो गौरांग हर एक जीव से बोल रहे है कि, तुमने मुझे वचन दिया था कि तुम मेरे नाम का जप करोगे लेकिन यह तो तुम वह भूल गए! भुलिया रोहिले सुमि अविद्यार भोरे।। लेकिन जब तुम्हारा जन्म हुआ मां, ममता और अहंकार ने तुम्हें घेर लिया और अब तुम पूरे तमोगुण में जाकर तुम्हारा जीवन जी रहे हो। तुम विद्यालय में जाते हो, लेकिन वहां के शिक्षक जैसे शंढ और अमर्क असुरों के समर्थक है।
और वे तुम्हें विद्या नहीं अविद्या प्रदान कर रहे है। वह तुम्हें शुद्ध तम गुण का ज्ञान दे रहे है। वे बस तुम्हें स्थूल चीजों का ज्ञान दे रहे है, आत्मा का ज्ञान नहीं दे रहे। और इसके परिणाम वश तुम वह सब भूल गए हो और शुद्ध तमोगुण में चले गए हो। तमसो मा ज्योतिर्गमय! अब में यहां पर तुम्हें उसी का स्मरण दिलाने आया हूं, इस चमक से बाहर निकलो, अंधेरे से प्रकाश में आ जाओ! तुम्हारे दिए हुए वचन को पूरा करो! हरे कृष्ण का जप करो! भगवान यह हर एक जीव से कह रहे है। और हमें समझना चाहिए कि, वह जीव कौन है? वह जीव में हूं! हम सब जीव है। बराबर है ना? और भगवान हमें ही यह समझा रहे है। तो कृपा करके यह बात समझो!
तोमारे लोइते आमि होइनु अवतार।
आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार?
तो अब आगे भगवान बोल रहे है कि, केवल तुम्हारे लिए मैंने यह अवतार लिया है। गौरांग! गौरांग! गौरांग! यह अवतार बस मैंने तुम्हारे लिए लिया है। मैंने गोलोक का त्याग किया है, वहां के सारे आनंद का त्याग किया है, और मैं इस भौतिक जगत में आया हूं। किस लिए? तोमारे लोइते आमि होइनु अवतार। केवल तुम्हारे लिए! तुम्हें यहां से बाहर निकालने के लिए! और तुम्हारे घर लेकर जाने के लिए। आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार? तो सोच लो मेरे अलावा तुम्हारा कोई और दोस्त है? केवल मैं तुम्हारा मित्र हूं। मैंने अर्जुन को कहा था।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || २९ ||
(श्रीमद्भगवद्गीता 5.29)
तात्पर्य-
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है |
जो मुझे जानते हैं मैं सभी जीवात्माओं का मित्र हूं और मैं तुम्हारी ह्रदय में वास करता हूं। असली मित्र वही है जो जरुरत के समय आपके साथ हो। मैं तुम्हारी मदद के लिए यहां पर हूं। मैं इस बात को साबित करना चाहता हूं कि मैं तुम्हारा असली मित्र हूं। इसलिए तुम जागो और जप करो हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
एनॆछि औषधि माया नाशिबारॊ लागि हरि-नाम महा-मंत्र लओ तुमि मागि
चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। क्या कह रहे हैं?
जीव जागो जीव जागो गौरचांद बोले
मैं तुम्हारी समस्या जानता हूं और मैं यह भी जानता हूं कि तुम भवरोगी,कामरोगी हो। आप में से कुछ करोना रोगी रह चुके हो। अब आप सोच रहे होंगे कि टीका आ गया है तो चिंता करने की बात नहीं है। परंतु आपको यह बात याद नहीं होगी कि यह शरीर रोग से ग्रस्त होता है। शरीर रूपी मंदिर में रोग एक मूर्ति है। हरि हरि। मेरे पास आपके लिए दवाई है। मैं यह जानता हूं कि आप बीमार हैं। यह दवाई रामबाण उपाय है। रामबाण कभी व्यर्थ नहीं जाता। यह हमेशा लक्ष्य को भेदता है। मेरा इलाज शत प्रतिशत काम करता है। वह इलाज क्या है?
हरि-नाम महामंत्र लओ तुमि मागि
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यही दवाई है। भगवान जीव को प्रभु नहीं बुलाते हैं क्योंकि वह स्वयं महाप्रभु है।
कुरुक्षेत्र में अर्जुन भगवान को आदेश देते हैं कि वह रथ को युद्ध स्थल के मध्य में ले जाए। अर्जुन प्रभु की भूमिका निभा रहे हैं। हे प्रभु, कृपया करके आप इस दवाई को लीजिए। इस अमृत रूपी दवाई को ग्रहण कीजिए। हरि हरि।
भकति विनोद प्रभु-चरणे पडिया सॆइ हरिनाम मंत्र लोइलो मागिया
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर इस गीत का निष्कर्ष निकाल रहे हैं। उन्होंने जीवात्मा और भगवान के बीच की वार्तालाप को सुना है। भगवान ने प्रस्ताव रखा है कृपया करके हरे कृष्ण महामंत्र का जप करे। जैसे ही श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने सुना कि भगवान के पास दवाई है तो उन्होंने कहा मैं यह दवाई लेना चाहता हूं। कृपया मुझे यह दवाई प्रदान कीजिए। मैं आपसे भीख मांगता हूं मैं यह दवाई सबसे पहले अपने पर इस्तेमाल करना चाहता हूं। भकति विनोद प्रभु-चरणे पडिया हे प्रभु मैं आपके चरणो में शरण लेता हूं। सॆइ हरिनाम मंत्र लोइलो मागिया हरिनाम लो हरिनाम लो। जिस विषय में तुम पूछ कह रहे थे तुम्हें सिर्फ हरि का नाम लेना है। मैं इस हरिनाम का सदुपयोग करना चाहता हूं। एक साधारण आत्मा शुद्ध हरिनाम लेने से महात्मा और भक्त बन जाता है। भगवान का नाम लेते समय हमें सचेत रहना चाहिए। यदि आप सचेत नहीं रहोगे तब आप अपराधी कहलाओगे। सभी अपराधों का कारण असावधानी है। हमें ध्यान पूर्वक सुनते हुए जप करना चाहिए। भगवान हम सबको संबोधित करते हुए कह रहे हैं हमें केवल उनको सुनना है। हमने जो भगवान से वादा किया था भगवान वह हमको स्मरण करवा रहे हैं। श्रील प्रभुपाद हमें स्मरण करवा रहे हैं। हमें श्रील प्रभुपाद और पूर्व आचार्यों को सुनना चाहिए। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर, श्ठ गोस्वामी, भगवान गौरांग के पार्षद क्या करते हैं? कीर्तनिय सदा हरि यही कार्य करते हैं। 6 वर्षों तक गौरांग ने पूरे भारतवर्ष यात्रा की।
राधा भाव गौरांग प्रकट हुए। उन्होंने भगवान के नाम का गुणगान किया, नृत्य किया पूरे भारत में। उस समय वह कहते थे जीव जागो जीव जागो। डरो मत मेरे निकट आओ। उन्होंने शेर और जंगली जानवरों को हरिनाम पर नृत्य कराया। यदि जंगली जानवर हरिनाम का जप और नृत्य कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं कर सकते? हम सभी को जप करना चाहिए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हमें तुलसी माला पर जप करना चाहिए और कम से कम 16 माला करनी चाहिए। एकादशी पर ज्यादा जप करना चाहिए। यह एक तरीका है। दूसरा तरीका है कीर्तन महाप्रभु कीर्तन नृत्य गीत वादित्र माद्यान मनसो रसेन। संगीत उपकरण जैसे मृदंगा, करताल, हम जप करते हैं और नाचते है। जप स्वयं के लिए होता है। परोपकार घर से आरम्भ होता है। जप इतना जोर से होना चाहिए कि हम स्वयं उसको सुन सके। हम जप करते हुए कीर्तन या नगर कीर्तन भी कर सकते हैं।
भगवान हमसे प्रसन्न होते हैं जब हम कीर्तन करते हैं। इसका हजारों गुना लाभ पहुंचता है। एकादशी श्रवण कीर्तन उत्सव में मैंने आपके साथ जप करा और फिर जपा टॉप हुआ। अब हम 20 मिनट के लिए कीर्तन करेंगे। हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
24 January 2021
Remember the promise you made to the Lord
Hare Krishna dear chanters of the holy name. We did Japa for about half an hour. ISKCON Kirtan Ministry wishes to conduct such a program on every Ekadasi. It is called the Ekadasi Sravanam Kirtanam Utsava. Many devotees and leaders will participate in chanting Japa with you, delivering a Japa talk and then they will do kirtana with you. Many of them will do all three items – Japa, talk and kirtana. Some will do just Japa, some will do Japa and Japa talk, and some will just do kirtana. It’s up to them. We have 30 minutes slots. This will go on as long as possible on Ekadasis.
We are inaugurating this Ekadasi Sravanam Kirtanam Utsava today on this Putrada Ekadasi day. I have been doing this Japa and Japa talk for 2 years now during the early morning hours. I was doing the talk in English and sometimes it was translated into Hindi. Then I was mostly speaking in Hindi only. Somehow ISKCON’s international language has become English. I wish it could be Sanskrit. We will be talking in English today. Those who do not understand English can follow the Hindi translation in the chat. Be attentive as I talk. The hearing has to be attentive…..
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Bothe Hari katha and Harinama have to be heard attentively – attentive chanting, attentive hearing. Jiv Jago! As part of this Japa Talk I have decided to share a song jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole. We will not sing the song. We will try to understand the song so please listen. Bhaktivinoda Thakur who is the compiler of Harinama Cintamani was an ideal chanter. He has sung and compiled this song, Jiv Jago. If we can understand the deeper meaning of his song, it will further help and convince us about attentive chanting. Our komal sraddha will become driid sraddha.
Jiv Jago Jiv Jago. Jiv Jago means wake up sleeping souls. The very word has significance. It doesn’t say wake up sleeping bodies, it says wake up sleeping souls. The soul keeps on sleeping. We get up from the bed. We open our eyes, but still the soul could remain sleepy. The soul is not paying attention to the Lord. The soul is not running for sringar darshan in the temple. The soul is not hearing or saying that I want to hear some Harikatha or some Harinama. It happens often that the body wakes up and the soul is still sleeping, in complete darkness. Listen carefully to what Bhaktivinoda Thakura is singing and writing, jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole. Bhaktivinoda Thakura is saying that gauracānda is calling, gauracānda bole. Gauracānda is calling, addressing jīv jāgo, jīv jāgo. Who is saying this? Gauracānd is saying – wake up sleeping souls.
jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole
kota nidrā jāo māyā-piśācīra kole.
Translation
Lord Gauranga is calling, “Wake up, sleeping souls! Wake up, sleeping souls! How long will you sleep in the lap of the witch called Maya.[Jiv Jago Jiv Jago Verse 1]
Bhaktivinoda Thakura is saying that gauracānda is calling, gauracānda bole. Gauracānda is calling, saying jīv jāgo, jīv jāgo. Oh, sleeping soul, wakeup…
kota nidrā jāo māyā-piśācīra kole
Wakeup or else you will be sleeping in the lap of a witch, Maya. Please get up especially when the body is sleeping. It means that dogs also sleep, everybody sleeps – eating, sleeping, mating, and defending.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṃ cha
samānam_etat_pashubhir_narāṇām |
dharmo hi teṣhāmadhiko visheṣho
dharmeṇa hīnāḥ pashubhiḥ samānāḥ
Translation
Eating, Sleep, Fear and Sex; these habits are common between human beings and animals. It is Dharma which is the special quality of human beings. Without the Dharma, they are similar to the animals. [Hitopadesh Verse 0.25]
Eating, sleeping, mating, and defending are common amongst animals as well as human beings. Animals also sleep, birds also sleep, and everyone sleeps. But now you, the soul, you are in a human body. You have received such a rare gift.
uttiṣṭhata jāgrata prāpya varānnibodhata
kṣurasya dhārā niśitā duratyayā durgaṁ pathastatkavayo vadanti
Translation
Arise, awake; having reached the great, learn; the edge of a razor is sharp and impassable; that path, the intelligent say, is hard to go by.[Upanishad Verse 1.3.14]
Wake up and try to understand the boon you have received in this human form of life. Soul, Atma, atmanam wake up once and for all. Stay up day and night. The song continues …
bhajibo boliyā ese saḿsāra-bhitare
bhuliyā rohile tumi avidyāra bhare
Translation
You have forgotten the way of devotional service and are lost in the world of birth and death.[[Jiv Jago Jiv Jago Verse 2]
Gauranga knows, Krsna knows. The Lord is addressing jiv jago. The Lord is addressing a living entity – don’t you remember when you were in the womb of your mother and you were suffering. At that time you had approached Me and you were praying. This we know from Srimad Bhagavatam, Kapiladev is giving us the knowledge in the third canto. The living entity, especially in this human form is crying in the womb and praying for help. It promises that if You get me come out of here, I will worship You, bhajibo boliyā, I will surrender unto You, I will chant Your glories, I will chant…
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
You had promised to do whatever it took according to the age and dharma, Satya Yuga, Treta Yuga, Dwapara Yuga, Kaliyuga, or the Hare Krishna Yuga. The Lord is talking to the living entity. Gauranga is talking to the living entity that you have promised Me that you will worship Me, you will chant My names and glories, see what has happened to you. A promise is a promise. Gentlemen do this. It’s a gentleman’s promise, but bhuliyā rohile tumi avidyāra bhare. All this could not happen as soon as you took birth. Mummy and Mamta and aham have taken over and now you have become engrossed in mundane activities. You have become ignorant. You were sent to school, but the teachers are the followers of Shand and Amarkha. Instead of teaching you vidya, they are teaching you avidya. They filled you with ignorance and taught you only matter, forgetting the spirit. As a result, you are full of ignorance. Hence to remind you, to get out of this ignorance Lord Gauranga is saying get up sleeping souls, come to the light. Keep your promise. Chant Hare Krsna. The Lord is talking to the living entities, and by hearing this we have to understand that the Lord is talking to us. Each one of us is a living entity. The Lord is addressing us. Listen attentively.
tomāre loite āmi hoinu avatāra
āmi binā bandhu āra ke āche tomāra
Translation:
I have descended just to save you; other than Myself you have no friend in this world.[ Jiv Jago Jiv Jago Verse 3]
The Lord is kindly saying, just for your sake I have taken this avatara. I have appeared in the form of Gauranga just for you.
golokam ca parityajya
lokanam trana-karanat
kalau gauranga-rupena
lila-lavanya-vigrahah
Translation:
In the Kali-yuga, I will leave Goloka and to save the people of the world, I will become the handsome and playful Lord Gauranga. (Markandeya Purana)
The Lord is saying I have left Goloka and come here to take you back home back to Godhead. He is saying, consider Me as your friend. I have told Arjuna:
bhoktaram yajna-tapasam
sarva-loka-mahesvaram
suhrdam sarva-bhutanam
jnatva mam santim rcchati
Translation:
The sages, knowing Me as the ultimate purpose of all sacrifices and austerities, the Supreme Lord of all planets and demigods and the benefactor and well-wisher of all living entities, attain peace from the pangs of material miseries.
[ BG 5.28]v
I am the friend of all the living entities, I am here in your heart next to you. I am your friend. A friend in need is a friend indeed. I know you need help. I am here to help you. I am proving to you, I am your real friend. Please get up, please wake up, and chant
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
enechi auṣadhi māyā nāśibāro lāgi’
hari-nāma mahā-mantra lao tumi māgi’
Translation:
I have brought the medicine that will wipe out the disease of illusion from which you are suffering. Take this maha-mantra-Hare Krsna, Hare Krsna, Krsna Krsna, Hare Hare/Hare Rama, Hare Rama Rama Rama, Hare Hare.” [ Jiv Jago Jiv Jago Verse 4]
Lord Gauranga is saying, I know you are bhava rogi and Kama rogi and I know some of you are Corona rogi and you think you have a vaccination now. You don’t know that the body is given to you and the nature of the body is to be diseased. The deity of sickness is installed in the body. I have medicine for you, and this medicine is Rama Vana upaya. It never goes in vain. It must hit the target. This for sure is the cure. I have come with the cure. And what is the cure…
hari-nāma mahā-mantra lao tumi māgi
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
This is the medicine. He is Mahaprabhu. But then …
ahaṁ bhakta-parādhīno
Sometimes the Lord also takes the stand and devotees become Prabhu for Him.
senayor ubhayor madhye
ratham sthapaya me ‘cyuta
Arjuna is saying, “Acyuta, bring my chariot forward in between the two armies”. Arjuna has become Prabhu of sarthi Krsna. He could say Prabhu to a living entity. The Lord is saying, “Prabhu, take this medicine, drink this.”
bhakativinoda prabhu-caraṇe pariyā
sei hari-nāma-mantra loilo māgiyā
Translation
Srila Bhaktivinoda Thakura says: “I fall at the Lord’s feet, having taken this mahā-mantra.”
Bhaktivinoda Thakura is concluding the song and saying, “Oh Lord, you have the medicine. I need this. I beg you. Oh Lord, I fall at Your feet, I am asking for that name that You talked about”. Please give that holy name. I want to nourish myself with that holy name. I want to become a mahatma. I want to become a pure devotee. I want to do suddah harinama. Unless that is done we are not going to become a mahatma.
aparadha-sunya hoye loha krishna-nama
Be attentive while chanting the holy name of the Lord. If you are not attentive then you are going to be offensive. Inattention is the cause of all the offences. Let us always chant and the Lord is addressing each of us. Just listen to Him, He is reminding us of our promise. Each one of us promised to Lord…
bhajibo boliyā ese saḿsāra-bhitare
bhuliyā rohile tumi avidyāra bhare
ISKCON Founder Acarya has spoken and written on behalf of Lord Gauranga. Let us listen to Srila Prabhupada, our previous Acaryas, Srila Bhaktivinoda Thakur and the six Goswamis. What are they doing? Kirtana sada hari. Gauranga travelled for 6 years.
Lord Gauranga appeared in Radha bhava and chanted and danced all over India. At that time He also sang jiva jago. Come here, I am here, don’t fear. He even easily managed to wake up the tigers. Of course, He didn’t wake up the tiger’s body, but He woke up the soul. They were chanting and dancing. If animals can chant and dance, why not human beings. Always chant…
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Kṛṣṇa Kṛṣṇa Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Chanting is done in two ways. We chant on our Japa beads a minimum of 16 rounds. Some chant more every day and some chant more on Ekadasi so that’s one way. Another way is to do kirtana….
mahaprabhoh kirtana-nritya-gita
vaditra-madyan-manaso rasena
We take instruments, mrdanga and karatals. We chant and dance. While the Japa is for ourselves, charity begins at home. We chant for ourselves. We chant loud enough just so that we could hear. But when we do kirtana, Nagar sankirtana there is mrdanga, karatals and dance. That is for us as well as for others around us. The Lord is very pleased as we perform kirtana, Nagar sankirtana also means congregational chanting. We congregate in big numbers then we chant, dance, and then there will be a thousand more benefits.
As part of Ekadasi Sravanam Kirtana Utsava I did some Japa, a Japa talk and now I would love to do Kirtana for 20 minutes or so before the next presenter takes over. Stay tuned and join us for kirtana….
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 24 января 2021 г.
ПОМНИТЕ ОБЕЩАНИЕ, КОТОРОЕ ВЫ ДАЛИ ГОСПОДУ
Харе Кришна, дорогие воспевающие святого имени. Мы проводили киртан около получаса. Министерство Киртана ИСККОН намерено проводить такую программу в каждый экадаши. Это называется экадаши Шраванам Киртанам Утсава. Многие преданные и лидеры будут вместе с вами повторять джапу, проводить беседу о джапе, а затем проводить с вами киртан. Многие из них будут выполнять все три действия – джапу, беседу и киртан. Кто-то будет проводить просто джапу, кто-то будет проводить джапу и беседовать о джапе, а кто-то просто будет проводить киртан. Это их дело. У нас есть 30-минутные интервалы времени. Это будет продолжаться столько, сколько возможно в экадаши.
Сегодня, в день Путрада экадаши, мы открываем этот фестиваль экадаши Шраванам Киртанам Утсава. Я проводил эту джапу и беседу о джапе в течение двух лет рано утром. Я давал лекцию на английском, а иногда ее переводили на хинди. Затем я в основном говорил только на хинди. Каким-то образом международным языком ИСККОН стал английским. Я бы хотел, чтобы это был санскрит. Сегодня мы будем говорить на английском. Те, кто не понимает английского, могут следить за переводом на хинди в чате. Будьте внимательны, когда я говорю. Слушание должно быть внимательным…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
И Хари катху и Харинаму нужно слушать внимательно – внимательное воспевание, внимательное слушание. Джив Джаго! В рамках этой беседы о джапе я решил поделиться песней джив джаго джив джаго гаура чандра боле. Мы не будем петь эту песню. Мы постараемся понять песню, поэтому, пожалуйста, послушайте. Бхактивинода Тхакур, составитель Харинама Чинтамани, был идеальным воспевающим. Он написал и спел эту песню Джив Джаго. Если мы сможем понять более глубокий смысл его песни, это еще больше поможет и убедит нас в необходимости внимательного воспевания. Наша первоначальная шраддха станет твердой шраддхой.
Джив джаго джив джаго. Джив джаго означает проснитесь спящие души. Само слово имеет значение. Он не говорит, что просыпаются спящие тела, он говорит, что просыпаются спящие души. Душа продолжает спать. Мы встаем с постели. Мы открываем глаза, но все же душа может оставаться спящей. Душа не обращает внимания на Господа. Душа не бежит на шрингар даршан в храм. Душа не слышит и не говорит, что я хочу услышать харикатху или харинаму. Часто бывает, что тело просыпается, а душа все еще спит, в полной темноте. Внимательно слушайте, что поет и пишет Бхактивинода Тхакур: джив джаго, джив джаго, гаурачанда боле. Бхактивинода Тхакур говорит, что гаурачанда боле, гаурачанда боле. Гаурачандра зовет, обращаясь к джив джаго, джив джаго. Кто это говорит? Гаурачандра говорит – просыпайтесь спящие души.
джив джаго, джив джаго, гаурачанда боле
кота нидра джао
майа-пишачира коле
Перевод:
Господь Гауранга призывает: «Просыпайтесь, спящие души! Просыпайтесь, спящие души! Как долго вы будете спать на коленях у ведьмы по имени Майя?»
(1-й стих, Джив джаго джив джаго, Арунодая киртана песня 2, Бхактивинода Тхакур)
Бхактивинода Тхакур говорит, что Гаурачандра зовет, Гаурачандра боле. Гаурачандра зовет, говорит джив джаго, джив джаго. О, спящая душа, очнись…
кота нидра джао
майа-пишачира коле
Просыпайся, иначе ты будешь спать на коленях у ведьмы Майи.
Пожалуйста, вставайте, особенно когда тело спит. Это означает, что собаки тоже спят, все спят – едят, спят, совокупляются и защищаются.
ахара-нидра-бхайа-маитхунах ча
саманйам этат пашубхир наранам
дхармо хи тешам адхико вишешо
дхармена хинам пашубхих саманах
Перевод:
Такие виды деятельности, как еда, сон, совокупление и оборона, присущи как животным, так и людям. Человек считается выше животного только тогда, когда он вопрошает об Абсолютной Истине, в противном случае он ничем от животного не отличается.
(Хитопадеша – сборник басен на санскрите в прозе и стихах)
Еда, сон, совокупление и защита распространены как среди животных, так и среди людей. Животные тоже спят, птицы тоже спят, и все спят. Но теперь ты, душа, ты в человеческом теле.
Вы получили такой редкий дар.
Уттиштхата джааграта праапья варан нибодхата.
Кшурасья дхаараа нишитаа дуратьяйаа дургам патхаам тат
кавайо ваданти.
Перевод:
Пробудись! Встань! Заручившись поддержкой Мудрецов, обрети знание своего Я. Тот путь, что ведёт к Познанию Истины, лезвию подобен – столь тонок он, что труднопроходим. Так говорят Мудрецы.
(«Катха-упанишад», 1.3.14)
Проснитесь и попытайтесь понять благо, которое вы получили в этой человеческой форме жизни. Душа, атма, атманам просыпаются раз и навсегда. Не спать днем и ночью. Песня продолжается…
бхаджибо болийа̄ эсэ сам̇са̄ра-бхитаре
бхулийа̄ рохиле туми
авидйа̄ра бхоре
Перевод
«Вы пришли в этот мир со словами: „Мой Господь, поверь, я буду поклоняться Тебе“, но, забыв об этом обещании, вы погрузились во тьму невежества!»
(2 стих, Джив джаго джив джаго, песня Арун̣одойа кӣртан
стих 2, Бхактивинода Тхакур)
Гауранга знает, Кришна знает. Господь обращается к джив джаго. Господь обращается к живому существу – разве ты не помнишь, когда ты был в утробе матери и страдал. В то время ты обратился ко Мне и молился. Это мы знаем из Шримад Бхагаватам, Капиладев дает нам знание в третьей песне. Живое существо, особенно в этой человеческой форме, плачет в утробе матери и молится о помощи. Оно обещает, что если Ты поможешь мне выйти отсюда, я буду поклоняться Тебе, бхаджибо блийа, я предаюсь Тебе, я буду воспевать Твою славу, я буду повторять…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Вы пообещали сделать все, что потребуется, в соответствии с возрастом и дхармой, Сатья-югой, Трета-югой, Двапара-югой, Кали-югой или Харе Кришна-югой. Господь разговаривает с живым существом. Гауранга разговаривает с живым существом, что ты обещала Мне, что ты будешь поклоняться Мне, ты будешь воспевать Мои имена и славу, посмотри, что с тобой случилось. Обещание есть обещание. Джентльмены поступают так. Это обещание джентльмена, но бхулия рохиле туми авидьяра бхаре. Все это не могло произойти сразу после рождения. Мам, Мамта и Ахам («Я — тело, а все, что принадлежит этому телу — мое) взяли верх, и теперь вы погрузились в мирские дела. Вы стали невежественными. Вас отправили в школу, но учителя – последователи Шанда и Амархи. Вместо того, чтобы учить вас видье (знание), они учат вас авидье (незнание). Они наполнили вас невежеством и научили только материи, забыв о душе. В результате вы полны невежества. Поэтому, чтобы напомнить вам, чтобы выбраться из этого невежества, Господь Гауранга говорит: вставайте, спящие души, выходите к свету. Сдержите свое обещание. Повторяйте Харе Кришна. Господь разговаривает с живыми существами, и, слушая это, мы должны понимать, что Господь говорит с нами. Каждый из нас – живое существо. Господь обращается к нам. Вслушайтесь.
тома̄ре лоите а̄ми хоину авата̄ра
а̄ми бина̄ бандху а̄ра ке а̄чхе тома̄ра
Перевод:
«Я снизошел, чтобы спасти вас! Есть ли у вас друг, кроме Меня?»
(3-й стих, Джив джаго джив джаго, песня Арунодая киртана 2, Бхактивинода Тхакур)
Господь милостиво говорит, что я принял эту аватару только ради вас. Я явился в форме Гауранги только для вас.
голокам ча паритаджйа,
локанам трана-каранат;
калау гауранга-рупена, лила-лаванья-виграхах
Перевод:
В Кали-югу я оставлю Свою вечную обитель Голока Вриндавана и приму форму самого красивого и игривого Господа Гауранги, чтобы спасти все живые существа во вселенной.
(Маркандея Пурана)
Господь говорит, что я покинул Голоку и пришел сюда, чтобы забрать вас обратно домой, к Богу. Он говорит: считайте Меня своим другом. Я сказал Арджуне:
бхокта̄рам̇ йаджн̃а-тапаса̄м̇
сарва-лока-махеш́варам
сухр̣дам̇ сарва-бхӯта̄на̄м̇
джн̃а̄тва̄ ма̄м̇ ш́а̄нтим р̣ччхати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Человек, полностью осознавший, что Я единственный, кто наслаждается всеми жертвоприношениями и плодами подвижничества, что Я верховный владыка всех планет и полубогов, а также друг и благодетель всех существ, избавляется от материальных страданий и обретает полное умиротворение.
(Б.Г. 5.29)
Я друг всех живых существ, я здесь, в вашем сердце, рядом с вами. Я твой друг. Друг познается в беде. Я знаю, тебе нужна помощь. Я здесь, чтобы помочь тебе. Я доказываю тебе, что я твой настоящий друг. Пожалуйста, вставай, пожалуйста, проснись и пой
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
энэчхи ауш̣адхи ма̄йа̄ на̄ш́иба̄ро ла̄ги’
хари-на̄ма маха̄-мантра лао туми ма̄ги’
Перевод:
«Я принес способ избавления от иллюзии (майи). Молитесь же об этой харинама-маха-мантре и примите ее!»
(4-й стих, Джив джаго джив джаго, песня Арунодая киртан 2, Бхактивинода Тхакур)
Господь Гауранга говорит: «Я знаю, что вы бхава роги (плывущие на волнах своих желаний) и кама роги, и я знаю, что некоторые из вас – корона роги, и вы думаете, что теперь у вас есть вакцинация». Вы не знаете, что тело дано вам, а природа тела – болеть. В теле установлено божество болезни. У меня есть лекарство для вас, и это лекарство – Рама вана упая. Оно никогда не проходит напрасно. Оно должно поразить цель. Это наверняка лекарство. Я пришел с лекарством. И какое лекарство…
хари-нама маха-мантра лао туми маги
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Это лекарство. Он Махапрабху. Но потом…
ахам бхакта-парадхино
Иногда Господь также занимает другую позицию, и преданные становятся для Него прабху.
сенайор убхайор мадхйе
ратхам̇ стха̄пайа ме ’чйута
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: О непогрешимый, прошу Тебя, выведи вперед мою колесницу и поставь ее между двумя армиями.
(Б.Г. 1.21-22)
Арджуна говорит: «Ачьюта, приведи мою колесницу между двумя армиями». Арджуна стал прабху колесничего Кришны. Он мог сказать “прабху” живому существу. Господь говорит: «Прабху, прими это лекарство, выпей это».
бхакативинода прабху-чаране парийа сеи хари-нама-мантра лоило магийа
Перевод:
Тхакур Бхактивинода упал к лотосным стопам Господа Гауранги, моля дать ему святое имя, и получил эту махамантру.
(5-й стих, Джив джаго джив джаго, песня Арунодая, Бхактивинода Тхакур)
Бхактивинода Тхакур завершает песню и говорит: «О Господь, у тебя есть лекарство. Мне нужно оно. Умоляю Тебя. О, Господь, я падаю к Твоим стопам, я прошу того лекарства – Святого имени, о котором Ты говорил». Пожалуйста, назови это Святое имя. Я хочу питаться этим Святым именем. Я хочу стать махатмой. Я хочу стать чистым преданным. Я хочу совершать шуддах харинаму. Если этого не сделать, мы не станем махатмами.
апарадха-шунйа хойе лоха кришна-нама
Будьте внимательны, воспевая Святое имя Господа. Если вы невнимательны, вы будете оскорбителем. Невнимательность – причина всех оскорблений. Давайте всегда воспевать, и Господь обращается к каждому из нас. Просто послушайте Его, Он напоминает нам о нашем обещании. Каждый из нас обещал Господу…
бхаджибо болийа эсе самсара-бхитаре бхулийа рохиле туми авидйара бхаре
Перевод:
“Вы пришли в этот мир со словами: “Мой Господь, я буду поклоняться Тебе”, – но, забыв о своем обещании, погрязли в глубоком невежестве”.
(2-й стих, Джив джаго джив джаго, песня Арунодая, Бхактивинода Тхакур)
Ачарья-основатель ИСККОН говорил и писал от имени Господа Гауранги. Давайте послушаем Шрилу Прабхупаду, наших предыдущих ачарьев, Шрилу Бхактивиноду Тхакура и шесть Госвами. Что они делают? Киртанийа сада хари. Гауранга путешествовал 6 лет.
Господь Гауранга явился в Радха-бхаве, пел и танцевал по всей Индии. В то время Он также пел джив джаго. Иди сюда, я здесь, не бойся. Ему даже легко удалось разбудить тигров. Конечно, Он не разбудил тело тигра, но Он разбудил душу. Они пели и танцевали. Если животные умеют петь и танцевать, то почему не люди. Всегда повторяйте…
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Воспевание проводится двумя способами. Мы повторяем на наших четках Джапу минимум 16 кругов. Некоторые повторяют больше каждый день, а некоторые повторяют больше в экадаши, так что это один из способов. Другой способ – провести киртан….
махапрабхох киртана-нритйа-гита-
вадитра-мадьян-манасо расена
Перевод:
Пение святого имени, танцы в экстазе, пение и игра на музыкальных инструментах духовный учитель всегда рад движению санкиртаны Господа Чайтаньи Махапрабху.
(Стих 2, Шри Гурваштакам)
Берем инструменты, мриданги и караталы. Мы поем и танцуем. Джапа предназначена для нас самих, благотворительность начинается дома. Мы воспеваем для себя. Мы воспеваем достаточно громко, чтобы мы могли слышать. Но когда мы проводим киртан, нагар-санкиртан, есть мриданга, караталы и танец. Это как для нас, так и для окружающих. Господь очень доволен, когда мы проводим киртан. Нагар-санкиртана также означает совместное воспевание. Мы собираемся в большом количестве, затем поем, танцуем, и тогда будет еще тысяча благословений.
В рамках фестиваля экадаши Шраванам Киртана Утсава, я провел джапу, поговорил о джапе, и теперь я хотел бы провести киртан в течение 20 минут или около того, прежде чем следующий ведущий приступит. Оставайтесь с нами и присоединяйтесь к нам на киртан…
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक २३.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 726 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं।
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
अर्थ:- मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आँखें खोल दी। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
(आप भी कहिए।)
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे
( श्रील प्रभुपाद प्रणति)
अर्थ:- मैं कृष्णकृपाश्रीमुर्ति श्री श्रीमद् ए.सी.भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद को सादर प्रणाम करता हूँ जो दिव्य नाम की शरण लेने के कारण इस पृथ्वी पर भगवान श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय है।
हे गुरुदेव! सरस्वती गोस्वामी के दास! आपको मेरा सादर विन्रम प्रणाम है। आप कृपा करके श्री चैतन्य महाप्रभु के संदेश का प्रचार कर रहे हैं तथा निराकारवाद एवं शून्यवाद से व्याप्त पाश्चात्य देशों का उद्धार कर् रहे हैं।
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।
( पञ्चतत्व मंत्र)
अर्थ:- मैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानंद प्रभु, श्री अद्वैताचार्य प्रभु, श्री गदाधर पंडित प्रभु तथा श्रीवास प्रभु सहित अन्य सभी गौरभक्तों को प्रणाम करता हूँ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जय ॐ विष्णुपाद परमहंस परिव्राजकाचार्य अष्टोत्तरशत कृष्णकृपामूर्ति श्रीमद् ए. सी.भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की जय!
यदि प्रभुपाद न होएते तो कि होइते।
वर्ष 2021प्रारंभ हो चुका है। इस्कॉन के भक्तों या प्रभुपादनुगों के लिए यह विशेष वर्ष है। प्रभुपादनुग कौन है? अच्छा! कुछ अपना हाथ ऊपर करके दिखा रहे हैं। ” मैं भी हूँ, मैं प्रभुपादनुग हूँ।” प्रभुपाद अर्थात प्रभुपाद और अनुग अर्थात श्रील प्रभुपाद के जो अनुयायी हैं अथवा उनके चरण चिन्हों का अनुगमन करने वाले प्रभुपादनुग कहलाते हैं।
हम सब प्रभुपादानुग हैं। हम प्रभुपादानुगों के लिए यह वर्ष विशेष वर्ष है। इस वर्ष का क्या विष्ट्यता है? यह वर्ष श्रील प्रभुपाद के जन्म का 125 वां वर्ष है। श्रील प्रभुपाद 1896 में जन्मे थे। 125 वर्ष बीत चुके हैं अथवा इस वर्ष बीत रहे हैं। हम इस्कॉन के अथवा प्रभुपादनुगों के लिए यह प्रभुपाद का125 वां बर्थ (अभिर्भाव) वर्षगांठ वर्ष है। हरि! हरि! 125 वी जन्म वर्षगांठ महोत्सव की जय!
हम आपको वर्ष के प्रारंभ में ही स्मरण दिला रहे हैं और हम पूरे वर्ष भर यह एनिवर्सरी उत्सव मनाते जाएंगे। इस्कॉन मनाएगा। इस्कॉन मतलब क्या है? आप इस्कॉन हो। हम इस्कॉन हैं। सदस्यों से इस्कॉन इंस्टिट्यूशन अर्थात इस्कॉन संस्था बनती है। यदि सदस्य ही नहीं होंगे तो इंस्टिट्यूशन ( संस्था) का कोई अर्थ ही नहीं है। यदि लोग या भक्त संगठित ही नहीं हुए तो वह संघ कैसे हो सकता है। इस्कॉन को हिंदी में अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ कहते हैं। हम इस संघ में संगठित हुए हैं।
चतुर्विधा-श्री भगवत्-प्रसाद- स्वाद्वन्न-तृप्तान् हरि-भक्त-संङ्घान्। कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक)
अर्थ:- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
श्रील प्रभुपाद जब हरि भक्तों को
संगठित होते हुए देखते हैं कि वह प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं तब वे तृप्त और प्रसन्न होते हैं कि हम इस प्रकार संगठित हुए हैं अथवा एकत्रित हुए हैं। एकत्रित होना जरूरी है, एकत्रित होने से ही तो अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ बनेगा। संगठित होने से संगठन होता है। इसे संघे शक्ति कलौ युगे भी कहा है। कलयुग में संघ से शक्ति का प्रदर्शन होगा। लोग संगठित होकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेंगे। जिस प्रकार लोग अलग-अलग यूनियंस में करते ही रहते हैं। यह लेबर यूनियन है आदि आदि। वे इकट्ठे होते हैं परंतु उनका उद्देश्य कुछ गलत भी हो सकता है और अधिकतर होता भी है। वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन तो करते ही हैं। संगठन से शक्ति का प्रदर्शन होता है। जिसे ‘यूनाइटेड वी स्टैंड’ भी कहा गया है। इस वर्ष हमें भी संगठित होना है। हरि! हरि!
हमें इस वर्ष प्रभुपाद कॉन्शसनेस, प्रभुपाद का स्मरण, प्रभुपाद के भाव को उजागर करने हैं और उन भावों के साथ इकट्ठा होना है तब प्रभुपाद की शक्ति या कृष्ण की शक्ति का प्रदर्शन होगा अथवा भक्ति की शक्ति का प्रदर्शन होगा या हरि नाम की शक्ति का प्रदर्शन होगा। श्रील प्रभुपाद ने हमें यह संदेश दिया है – चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी ( हरे कृष्ण का जप करो और सदैव खुश रहो ) या केवल चेंट कहा है। प्रभु के नामों का उच्चारण करो। हरि! हरि!
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
श्रील प्रभुपाद के चरणों में नमस्कार! नमस्ते सारस्वते देवे – सरस्वती नहीं कहना है। सुधरो! आप कब सुधरोगे? या सुधार करके कब कहोगे?
हमें नमस्ते सारस्वते कहना है। श्रील प्रभुपाद ने हमें स्मरण दिलाया था। यह उच्चारण की बात है। हम् सब अधिकतर गलत ही उच्चारण करते हैं। प्रभुपाद ने एक बार अपने एक शिष्य को पत्र लिखा था। प्रभुपाद ने अपने शिष्य को कहा -‘नहीं !सरस्वती नहीं। यह लक्ष्मी औऱ सरस्वती में से सरस्वती नहीं है। यह सारस्वते देवे है, श्रील प्रभुपाद,भक्ति सिद्धांत सरस्वती के शिष्य हैं। इसीलिए हम श्रील प्रभुपाद को नमस्ते सारस्वते ऐसा संबोधन या प्रार्थना करते हुए कहते हैं आप कहो। मेरी ओर से आप थोड़ा दूसरों को भी सुनाओ। उन्हें याद दिलाओ कि सरस्वती कहना गलत है। जब हम अपने संस्थापकाचार्य को प्रणाम करते हैं तब हम उसका उच्चारण सही नहीं करते हैं। हम इस वर्ष इसका सुधार करते हुए यह प्रणाम मंत्र कहेंगे। ‘नमस्ते सारस्वते कहो।’ कहा आपने? अर्जुन, तुम कह रहे हो? नमस्ते सारस्वते, नमस्ते सरस्वती देवी मत कहिए। यहां कोई सरस्वती नहीं है। वैसे श्रील प्रभुपाद के गुरु का नाम भक्ति सिद्धांत सरस्वती है और हम उनके शिष्य को संबोधन करते हैं, पुकारते हैं अथवा प्रार्थना करते हैं इसलिए नमस्ते सारस्वते देवे। 752 भक्त मुझे सुन रहे हैं, इसलिए आप थोड़े एजेंट बनो। हमारी ओर से एवं हमारी कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से भी आप भक्तों को थोड़ा स्मरण दिलाओ। जब जब वे सरस्वती कहते हैं, तब आप उनको बोलो, नहीं! यह गलत है। आप करोगे? आप यह गलत उच्चारण नहीं करना और दूसरा भी जब कोई गलत उच्चारण करता है तो उन्हें कहो, प्रभुपाद ने भी अपनी नाराजगी व्यक्त की थी इसलिए उन्होंने एक शिष्य को पत्र लिखा था-” नहीं! नहीं! नहीं-नहीं सरस्वती नहीं, सारस्वते देवे। उन सारस्वते देवे श्रील प्रभुपाद ने क्या किया?
नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे
उन्होंने चैतन्य महाप्रभु ने गौर वाणी का प्रचार किया। उन्होंने गौर वाणी का प्रचार करते हुए पाश्चात्य देश को बचाया।
निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे
पाश्चात्य देश की रक्षा की।
उन्होंने किससे रक्षा की ? निर्विशेषवाद और शून्यवाद से रक्षा की। बुद्धदेव ने इस शून्यवाद का प्रचार किया था। हरि! हरि! शंकराचार्य ने निर्विशेषवाद का प्रचार किया था।
अद्वैतवाद का प्रचार किया। शून्यवाद और निर्विशेषवाद का यह प्रचार प्रसार पूरे विश्व भर में फैला है। श्रील प्रभुपाद ने शून्यवाद और निर्विशेषवाद से पाश्चात्य देश को बचाया लेकिन हम लोग तो पाश्चात्य देश के नहीं है, आप कहोगे कि हमें भी तो बचाया है। यहां पाश्चात्य – देश – तारिणे क्यों कहा है? आप समझ रहे हो? कोई भी ऐसा प्रश्न पूछ सकता है? यह पाश्चात्य – देश – तारिणे क्या है? पाश्चात्य देश के लोगों को थोड़े ही बचाया है, केवल उनको ही नहीं बचाया अपितु हमें भी बचाया है। केवल वेस्टर्न ही नहीं अपितु ईस्टर्न को भी बचाया है। पूर्व से होता है पूर्वात्य। हम ईस्टर्न देशों के लोगों को भी तो बचाया है। उस समय ही श्रील प्रभुपाद के प्रणाम मंत्र की रचना हुई थी इसलिए आप यह प्रणाम मंत्र कह सकते हो। जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने सभी को आदेश और आशीर्वाद दिया। उस समय इस्कॉन का प्रचार अथवा श्रील प्रभुपाद का प्रचार पाश्चात्य देशों में ही हो रहा था। 1970 से पहले ही इस प्रणाम मंत्र की रचना हुई थी। 1970 के बाद श्रील प्रभुपाद भारतवर्ष वापस लौटे थे। तत्पश्चात 1971 में हम श्रील प्रभुपाद से मिले। वैसे और भी मिले। हरि! हरि! जब इस प्रणाम मन्त्र की रचना हुई थी, उस समय पाश्चात्य देशों में प्रचार हो रहा था। अतः उस समय जो मंत्र रचित हुआ था, हम अब भी उसी मन्त्र का ही प्रयोग करते हैं लेकिन हमें समझना चाहिए कि प्रभुपाद ने सिर्फ पाश्चात्य देशों को नहीं अपितु पूर्वात्य देशों को भी बचाया। प्रभुपाद ने क्यों और कैसे बचाया? उन्होंने गौर वाणी का प्रचार करके बचाया। गौरांग! गौरांग! गौरांग! इसे श्रील प्रभुपाद का विशिष्टय कहो या उनके प्रचार का विशिष्टय कहो, उन्होंने गौर वाणी का प्रचार किया। प्रभुपाद ने मनोधर्म की बात कभी नहीं की।
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्
( श्री रूप गोस्वामी प्रणाम मंत्र)
अर्थ:- श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत में भगवान चैतन्य की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रचार अभियान की स्थापना की है?
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं- चैतन्य महाप्रभु का मनोऽभीष्ट। चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं भगवान् हैं, उनके क्या विचार हैं? उनकी क्या इच्छा है? उनकी क्या योजना है? उन्होंने कौन सी भविष्यवाणी की थी? चैतन्य महाप्रभु क्या चाहते थे? उन्होंने कौन से धर्म का प्रचार किया? स्वयं भगवान् चैतन्य महाप्रभु ने कौन से धर्म की स्थापना की? यह सब समझ कर और उसके साक्षात्कार के साथ ही फिर श्रील प्रभुपाद ने उस गौर वाणी का प्रचार किया।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।( श्री भगवतगीता ४.२)
अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है। उनके गुरु महाराज ने उनको आदेश दिया कि तुम पाश्चात्य देशों में प्रचार करो। तुम बड़े बुद्धिमान लगते हो।
मैं तो कहूंगा और कहता ही रहता हूं। 1922 में कोलकाता में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अभय बाबू की ओर उंगली करते हुए कहा था जोकि अभी अभी अंदर ही आए थे और प्रणाम करके पूरी तरह अंदर बैठे ही नहीं थे। इतने में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने उंगली करते हुए बोले कि तुम पाश्चात्य देशों में प्रचार करो। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के मुखारविंद से यह वचन तो निकले थे लेकिन इसके मूल वक्ता तो स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर के मुख अथवा जिव्हा का उपयोग किया अर्थात उन्होंने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को निमित्त बनाया। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर इस आदेश देने के निमित्त बने लेकिन यह आदेश तो भगवान का ही आदेश है जो कि अभय बाबू को वहाँ हो रहा था। जो भविष्य में हमारे श्रील प्रभुपाद बने। श्रील प्रभुपाद की जय!
श्रील प्रभुपाद ने गौर वाणी का प्रचार किया। राम और कृष्ण का प्रचार तो हो ही रहा था लेकिन कलियुग में चैतन्य महाप्रभु द्वारा किए गए प्रचार की आवश्यकता अधिक थी। राम और कृष्ण के साथ में चैतन्य महाप्रभु का प्रचार हो रहा था। यह नहीं कि राम से कृष्ण भिन्न हैं। चैतन्य महाप्रभु भिन्न हैं। राम ही कृष्ण है और कृष्ण ही स्वयं कृष्ण चैतन्य महाप्रभु है।
हरि! हरि!
अयोध्या सभी को पता थी।
मथुरा, वृंदावन को सभी जानते थे लेकिन मायापुर, नवद्वीप का किसको पता था? श्रील प्रभुपाद ने नवद्वीप मायापुर को प्रकाशित किया। कुछ ही सीमित संख्या में लोग मायापुर को जानते थे। श्रील प्रभुपाद रॉक द् न्यूज़। उन्होंने इस बात को सारे विश्व भर में फैलाया। प्रभुपाद ने मायापुर को प्रकाशित किया और उन्होंने ही मायापुर फेस्टिवल प्रारंभ किया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कौन है?
श्रील प्रभुपाद ने उन्होंने चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं व चरित्र अर्थात चैतन्य चरितामृत में अंग्रेजी में अनुवाद किया और कहा कि अब चैतन्य चरितामृत का संसार भर की जितनी अधिक भाषाओं में संभव हो, अर्थात जितने से अधिक से अधिक भाषाओं में अनुवाद कर सकते हो उसका अनुवाद करो। इस प्रकार अनुवाद होते गए और उसी के साथ केवल बांग्ला भाषा या उड़िया भाषी लोग ही चैतन्य महाप्रभु व उनकी लीलाओं को जानते थे या उनके धाम को जानते थे, अब वे चैतन्य चरितामृत को अपनी-अपनी भाषाओं में पढ सकते हैं। संसार भर के जीव जो भगवान के ही अंश हैं
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १५.७)
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है।
वे मायापुर धाम से परिचित हुए। तत्पश्चात मायापुर विश्वभर के गौड़ीय वैष्णवों के लिए मक्का बन गयी। जैसे मुसलमान का तीर्थ स्थान मक्का है या ईसाइयों का जेरुसलम है। सिख भाइयों का अमृतसर है ऐसे ही गौड़ीय वैष्णवों का तीर्थ मायापुर है। मायापुर धाम की जय!
हरि! हरि!
चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं भी नृत्य और कीर्तन किया था।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
( श्री श्री गुर्वाष्टक श्लोक संख्या २)
अनुवाद:-श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
हम गाते ही रहते हैं। महाप्रभोः कहना है, महाप्रभू नहीं कहना है। यह भी एक करेक्शन है। समझे? आप इतनी आसानी से नहीं समझोगे, मुंडी तो हिला रहे हो? सुनने के बाद भी आपका महाप्रभू कीर्तन-नृत्यगीत ही चलेगा। थोड़ा वैष्णव गीत पुस्तक( सॉन्ग बुक) में देखा करो। जो गलत उच्चारण करते हैं, यदि हम उनको सुनते हैं तब हम भी अंधाधुंध उनका अनुसरण करते हैं। ऐसे हम भी गलत उच्चारण को दोहराते रहते हैं, थोड़ा ध्यान दो। सॉन्ग बुक खोल कर, थोड़ा नए भक्त बन कर छोटी बड़ी मात्राएँ आदि देखो। प्रभु है या प्रभू और उसमें नमस्ते सारस्वते देवे भी लिखा है। सरस्वती नहीं लिखा है।
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत
महाप्रभु ने कीर्तन और नृत्य किया और तब वादित्र अर्थात वाद्य भी बजते थे। परिभाषा की दृष्टि से संकीर्तन उसको कहा जाता है जब कम से कम तीन बातें तो होती ही हैं। कीर्तन होता है, वाद्य बजते हैं और नृत्य होता है। ये तीन तो होने ही चाहिए, तब ही सम्यक प्रकार से संकीर्तन हुआ।
‘मनसो-रसेन’ वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। हमारे भाव भक्ति मन की स्थिति ऐसी है, तो फिर संकीर्तन हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं ऐसा संकीर्तन किया। फिर उन्होंने भविष्यवाणी भी की।
पृथिवीते आछे यत नगरादि-ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत अन्तय खण्ड ४.१.२६)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
इसको भी कंठस्थ करो। आप प्रचारक हो। चैतन्य महाप्रभु की वाणी को कंठस्थ करो, ह्रदयंगम करो। चैतन्य महाप्रभु ने भविष्यवाणी की थी या की हुई है कि मेरे नाम का सर्वत्र प्रचार होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इसका प्रचार सर्वत्र होगा, हर नगर हर ग्राम में होगा। हरि! हरि! इसके लिए भी प्रभुपाद ने कई सारी योजनाएं बनाई जिससे हरि नाम का प्रचार हो। प्रभुपाद ने ही नगर संकीर्तन प्रारंभ किए। 26 सेकंड एवेन्यू से पहले भी प्रभुपाद फुटपाथ पर कीर्तन किया करते थे। वह न्यूयॉर्क के फुटपाथ पर बैठकर अक्षरशः कीर्तन करते थे। पब्लिक चेंटिंग(जपा) फुटपाथ पर शुरू हुई थी। तत्पश्चात धीरे-धीरे श्रील प्रभुपाद ने न्यूयॉर्क में मैनहैटन के सेकंड एवेन्यू नाम के स्थान पर किराए का स्थान लिया।
वहां एक साइन बोर्ड था। उनके अनुयायियों ने कहा,- स्वामी जी! स्वामी जी! एक साइन बोर्ड लगा हुआ है। उसको उतार दें? पहले के दुकानदार ने अपनी दुकान तो शिफ्ट कर दी लेकिन अपना साइन बोर्ड वहीं छोड़कर चला गया। तब प्रभुपाद ने पूछा- क्या लिखा है? तो उन्होंने बताया उस पर लिखा है मैचलेस गिफ्ट। प्रभुपाद ने जब सुना कि उस बोर्ड पर मैचलेस गिफ्ट लिखा है। प्रभुपाद ने कहा- ‘नहीं! नहीं!’ इसे मत छुओ। साइन बोर्ड मत उतारो उसे वही लगे रहने दो। यह सही है। यह साइन बोर्ड सही है क्योंकि जो भेंट मैं लेकर आया हूं या जिस भेंट का मैं इस स्थान से वितरण कर रहा हूं, यह भेंट, यह गिफ्ट मैचलेस गिफ्ट ही है। वह साइन बोर्ड वहीं रह गया। वह इस्कॉन का पहला औपचारिक स्थान रहा। मैचलेस गिफ्ट शॉप जो किराए का लिया हुआ था, वहां पर कीर्तन, नृत्य औऱ प्रसाद वितरण सब हुआ फिर धीरे-धीरे श्रील प्रभुपाद टम्पकिन स्क्वेयर पार्क में गए। वह न्यूयॉर्क का सबसे प्रसिद्ध पार्क है। वहां पर श्रील प्रभुपाद ने कीर्तन प्रारंभ किया। यह वही स्थान है, आपने देखा होगा कि श्रील प्रभुपाद एक पेड़ के बगल में खड़े हैं। उसका तना बड़ा है। श्रील प्रभुपाद ऐसे खड़े हैं और कुछ लोग प्रभुपाद के सामने खड़े हैं। प्रभुपाद उनको देख रहे हैं और उनको सम्बोधित(एड्रेस) कर रहे हैं। आपको याद है? आपने टम्पकिन स्क्वेयर पार्क का वह चित्र देखा होगा? 1996 में श्रील प्रभुपाद का १००वां बर्थ एनिवर्सरी अर्थात जन्म शताब्दी महोत्सव मनाया गया था। वह एक बहुत ही विशेष आयोजन रहा। (क्या कहा जा सकता है)
इस्कॉन में जी.बी.सी मिनिस्ट्री का संगठन किया हुआ था। प्रभुपाद सैनिटनियल मिनिस्ट्री। सेलिब्रेशन तो 1996 में होना था किंतु इस मिनिस्ट्री की स्थापना1992 में हुई थी। जी.बी.सी ने मुझे आदेश दिया अथवा मुझे मिनिस्टर बनाया था और हम सैनिटनियल मिनिस्टर के रूप में सारे उत्सव की तैयारी कर रहे थे। ऐसी समझ होती हैं कि 80% प्लानिंग 20% एग्जीक्यूशन( कार्यान्वन) के लिए समय या रिसोर्सेज का उपयोग होना चाहिए। हम उत्सव के सेलिब्रेशन के लिए मास्टर प्लान बना रहे थे अथवा चार वर्ष तैयारी कर रहे थे। तब पांचवें वर्ष 1996 में पूरे साल भर के लिए 1 जनवरी से वह सेलिब्रेशन प्रारंभ किया और 31 दिसंबर 1996 तक चलता ही रहा। हरि! हरि! कई सारी योजनाएं थी। अब पुनः वैसा ही कुछ वर्ष 2021 है। जब इस्कॉन श्रील प्रभुपाद के 125वां जन्म शताब्दी उत्सव को मना रहा है, मतलब आप मनाओगे। आपके बिना तो इस्कॉन का अस्तित्व ही नहीं है। हम सब मिलकर साल भर यह उत्सव मनाएंगे। देखो! आप क्या क्या कर सकते हो? एक तो थोड़ा मैंने हल्की सी बात कही है कि हमें प्रभुपाद कॉन्शियस बनना है। हमें अपनी प्रभुपाद कॉन्शसनेस को बढ़ाना होगा। श्रील प्रभुपाद कौन थे और श्रील प्रभुपाद कौन है? हम भविष्य में समय-समय पर श्रील प्रभुपाद के विषय में और भी कहते जाएंगे। श्रील प्रभुपाद का जीवन चरित्र है। आप प्रभुपाद से नहीं मिल पाए जब स्वयं श्रील प्रभुपाद विद्यमान थे तब आपने उन्हें नहीं देखा। आपने उनको नहीं सुना। आप श्रील प्रभुपाद का जीवन चरित्र प्रभुपाद लीलामृत ग्रंथ से पढ़ सकते हैं। यदि आपके पास नहीं है, क्या आपके पास है? श्याम सुंदर शर्मा जी क्या आपके पास प्रभुपाद लीलामृत है? है! वेरी गुड (बहुत अच्छा) माताजी के पास भी है, पदम सुंदरी के पास भी है। जिनके पास नहीं है और संभावना है कि अधिकतर भक्तों के पास नहीं होगी। प्रभुपाद के अन्य ग्रंथ गीता भागवत होते हैं लेकिन भक्त लीलामृत थोड़ा कम ही लेते हैं।
इस वर्ष के प्रारंभ में ही देखना कि आपकी लाइब्रेरी अथवा ग्रंथालय में प्रभुपाद लीलामृत हो। जब अगली बार इस्कॉन मंदिर जाओगे या कल रविवार है, आप कल भी जा सकते हो या प्रभुपाद लीलामृत मंगवा सकते हो। प्रभुपाद लीलामृत का अध्ययन करो। श्रील प्रभुपाद को जानो, श्रील प्रभुपाद को समझो। इस्कॉन के संस्थापकाचार्य को समझो। जिन्होंने (क्या कहा जाए) संसार भर में खलबली मचाई है। संसार भर के कई जीवो के विचारों व भावों में क्रांति ‘रेवोल्यूशन इन कॉन्शसनेस’ लायी है। पाश्चात्य देश के लोग और अब संसार भर के लोग ऐसे नियमों का पालन कर रहे हैं जो कभी उन्होंने सुने भी नहीं थे और कल्पना भी नहीं की होगी कि ऐसी जीवनशैली भी हो सकती है या ऐसे नियम भी होते हैं या पालन करना होता है। ‘नो मीट ईटिंग’ अर्थात मांस भक्षण नहीं करना- केवल कृष्ण प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। लोग इस नियम का पालन करने लगे। यह भी एक क्रांति है। कोई नशा पान नहीं करना- जैसे आप लोग जलपान करते हो या भोजन के समय कुछ जल का प्याला रखते हो, उसी प्रकार पाश्चात्य देशों में भोजन के समय ब्रेकफास्ट या लंच या डिनर के समय साथ में शराब की बोतल होती है, वे लोग शराब पीते हैं, शराब जो खराब है जो राक्षसों का पेय है, राक्षस पीते हैं, वैसा पान करने वालों को श्रील प्रभुपाद ने चैतन्य चरितामृत का पान या हरिनामामृत का पान या चरणामृत ( भगवान् के अभिषेक के बाद चरणामृत) का पान करना सिखाया। वे तैयार हुए , इसमें चाइनीज भी सम्मिलित हुए जो क्या नहीं खाते, क्या नहीं पीते स्नेक सूप पीने वाले या चूहे खाने वाले और क्या क्या कहा जाए आपको, ऐसे लोगों से यह सब अभक्ष्य भक्षण छुड़वाया और यह सारे संसार भर के पेय बंद किए और अवैध स्त्री पुरुष सङ्ग जो उनके लिए नार्मल जीवन है,सेकेंड नेचर है, यह बाएं हाथ का खेल है ऐसे काम धंधे करना पर स्त्री पर पुरुष सङ्ग करना श्रील प्रभुपाद ने वह सब छुड़वा दिया। प्रभुपाद ने ब्रह्मचारी, संन्यासी और गृहस्थ आश्रम की स्थापना की। जो पहले ग्रहमेधी हुआ करते थे, प्रभुपाद ने उनको गृहस्थ आश्रमी बनाए। यह तीसरी बात हुई। चौथी बात है नो गैम्बलिंग अर्थात जुआ नहीं खेलना- प्रभुपाद ने यह बात सिखाई और हम संसार भर में समझ और उनका पालन कर रहे हैं। यह बहुत बड़ी घटना है। इन नियमों का पालन करने के लिए भी संसार भर के लोग तैयार हुए हैं व पालन कर रहे हैं। यह सब करो।भगवान ने श्रील प्रभुपाद को यह सब करने का उपदेश देने के लिए ही निमित्त बनाया।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ११.३३)
अनुवाद:- अतःउठो! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकरसम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।
यह सब फैलना तो था ही क्योंकि चैतन्य महाप्रभु की इच्छा और भविष्यवाणी थी कि हरि नाम का प्रचार सर्वत्र होगा और सर्वत्र हरि राम का कीर्तन होगा। और सारे संसार भर के लोग नाम से ही फिर धाम तक नवद्वीप तक पहुंचेंगे, जहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट (जन्म स्थान) हुए थे। यह सब होना था। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भविष्यवाणी की थी। महाप्रभु ने श्रील प्रभुपाद को सेनापति भक्त बनाया और उनको ऐसी एंपावरमेंट ( शक्ति) दे दी, उनको साक्षात हरि बनाया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको निमित्त बनाया और भगवान् ने श्रील प्रभुपाद से अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना करवाई। उससे पहले श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर से वह आदेश दिलवाया अर्थात चैतन्य महाप्रभु ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर को माध्यम अथवा निमित बनाकर आदेश दिया।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९)
अनुवाद:- अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है।
भगवान के यह गिने-चुने महात्मा बहुत ही दुर्लभ महात्मा हैं। श्रील प्रभुपाद की जय! हम उनका 125 वां जन्म वर्ष मनाने वाले हैं। आप भी मनाओगे? आप भी तैयार हो? आप अगर तैयार हो तो हम यहीं पर विराम देते हैं। अगर आप तैयार नहीं हो तो फिर और कुछ बोलना होगा। ठीक है।
समय भी बीत चुका है। मैं यहीं पर विराम देता हूं। आप सोचो क्या क्या कर सकते हो? एक तो प्रभुपाद लीलामृत का अध्ययन करना है। प्रभुपाद के जीवन चरित्र और शिक्षाओं का अध्ययन करो। अच्छे प्रभुपादनुग बनो। जैसे पिता या दादा की इच्छा(विल) होती है उसी प्रकार प्रभुपाद कि विल को समझो और उसका एग्जीक्यूशन(कार्यान्वन) करो। प्रभुपाद के शिष्य या प्रभुपाद के पड़शिष्य हम यह मिलकर उत्सव मनाने वाले हैं। तैयार हो जाओ।
कल एकादशी है। हम कल मिलेंगे। कल वैसे कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से कुछ कार्यक्रम रखे हैं। विश्व भर के भक्तों के लिए हमारा जप और जपा टॉक और थोड़ा कीर्तन भी होगा। मेरा भी स्लॉट है और कुछ अन्य भक्तों के भी स्लॉट हैं अन्य भक्त भी जप करने वाले हैं जपा रिट्रीट जैसे कुछ टॉक भी होंगे और कीर्तन भी होगा। हमारी मिनिस्ट्री का हर एकादशी को ऐसा करने का विचार है। कल पहली एकादशी है जिसे श्रवणं कीर्तन उत्सव नाम दिया गया है। श्रवण कीर्तन उत्सव एकादशी के दिन ही मनाएंगे जो कि कल से 6:00 बजे से प्रारंभ हो रहा है लेकिन हम अपना सत्र 5:45 बजे शुरू करेंगे लेकिन उसकी घोषणा में 6:00 बजे ही कहा है। ६-७.३० तक जप तत्पश्चात जपा टॉक फिर कीर्तन होगा। सब आधा-आधा घंटे का रहेगा तत्पश्चात तब दूसरे भक्त इसको आगे बढ़ाएंगे। कल जप चर्चा अंग्रेजी में होने की संभावना है क्योंकि यह सारे संसार भर के भक्तों के लिए है। ओके (ठीक है)
पदमाली स्कोर का अनाउंसमेंट कल नहीं हो पाएगा क्योंकि कीर्तन मिनिस्ट्री ने कल फिक्स प्रोग्राम रखा है। इसका अनाउंसमेंट सोमवार को रखो।
ठीक है।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
23 January 2021
Let the whole world know who is Srila Prabhupada
Hare Krsna! Devotees from over 726 locations are chanting with us right now.
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
cakshur unmilitam yena tasmai sri-gurave namah
nama om vishnu-padaya krishna-preshthaya bhu-tale
srimate bhaktivedanta-svamin iti namine
namas te sarasvate deve gaura-vani-pracarine
nirvisesha-sunyavadi-pascatya-desa-tarine
sri-krsna-caitanya prabhu-nityananda sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrnda
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Jaya Om Vishnu-pada paramahamsa parivrajakacharya ashtottara-shata Shri Srimad His Divine Grace Srila A. C. Bhaktivedanta Swami Srila Prabhupada ki …jai
yadi prabhupada na hote toh kya hota, yeh jivan behta kaise?
If Srila Prabhupada had not come, what would have happened? How could we have passed our lives?
2021 is a very special year for ISKCON devotees, for Prabhupadanugas. Who are Prabhupada – anuga? Some are raising their hands. I am also Prabhupadanuga. Prabhupada is Prabhupada and anuga means the followers of Srila Prabhupada. We all are Prabhupadanuga. This is a very special year for Prabhupadanugas. Prabhupada was born in 1896 so this year is the 125th birth anniversary of Srila Prabhupada.
I am reminding you of this at the beginning of the year. We will have celebrations throughout this year. ISKCON will be celebrating. What does ISKCON mean? You all are ISKCON. We all make ISKCON. ISKCON is made by its members. If there are no members then there is no existence of the society. If the people don’t unite, then how can it be a society? In the International society for Krishna Consciousness we are united and because of our unity,
catur-vidha-sri-bhagavat-prasadasvadv-
anna-triptan hari-bhakta-sanghan
kritvaiva triptim bhajatah sadaiva
vande guroh sri-caranaravindam
Translation:
The spiritual master is always offering Krishna four kinds of delicious food [analyzed as that which is licked, chewed, drunk, and sucked]. When the spiritual master sees that the devotees are satisfied by eating bhagavat-prasada, he is satisfied. I offer my respectful obeisances unto the lotus feet of such a spiritual master. When Srila Prabhupada sees the devotee honouring prasada he becomes very happy.
hari-bhakta-sanghan
When we come together, it’s very important that we unite, then only will it become the International society for Krishna Consciousness.
It is said Sanghe Shakti Kaliyuge — only unity has power in Kaliyuga. Unity is strength. People will display their power by coming together and uniting. Many unions keep doing that. They just come together, unite. Their objective may be something wrong also and mostly it is, but they display their power by coming together.
United we stand.
This year we have to come together. Being Prabhupada conscious, we have to increase awareness of Prabhupada, remembrance of Prabhupada and manifest transcendental emotions for Srila Prabhupada. With transcendental emotions we have to unite and display the power of Srila Prabhupada, the power of Krsna and the power of our devotion and Harinama.
Prabhupada gave us a message, Chant and be happy.
namas te sārasvate deve gaura-vāṇī-pracāriṇe
nirviśeṣa-śūnyavādi-pāścātya-deśa-tāriṇe
Translation
Our respectful obeisances are unto you, O spiritual master, servant of Bhaktisiddhanta Saraswati Goswami. You are kindly preaching the message of Lord Chaitanya and delivering the Western countries, which are filled with impersonalism and voidism.
Don’t say sarasvati, say namas te sārasvate. Many of us keep pronouncing it wrongly as sarasvati. Prabhupada had written a letter to one of his disciples.
Srila Prabhupada says, ” You should pronounce it Sarasvate, not Sarasvati. Sarasvati is my spiritual master. So his disciple is Sarasvate.’’
It’s not sarasvati as in Laksmi and Sarasvati, its sarasvate, a disciple of Bhakti Siddhanta Sarasvati.
Let us do it this year, let’s say namaste sarasvate. There is no sarasvati here. Bhakti Siddhanta Sarasvati is there and his disciple is addressed as namaste sarasvate deve. You remind others that saying sarasvati is wrong. When we offer obeisances to the founder acarya we pronounce it incorrectly. All 726 of you hearing me become agents on my behalf and also on behalf of the Kirtana Ministry. Correct those who pronounce it incorrectly. Remind them whenever they say namaste sarasvati that it is wrong. Will you do this? Prabhupada had expressed his resentment in a letter to his disciple.
namaste sarasvate deve
gaura-vani-pracharine
nirvishesha-sunyavadi
He preached gaura-vani, preached the message of Lord Caitanya and protected the Western countries from impersonalism and voidism.
Buddha Deva preached sunyavad [voidism]. Sankaracarya preached impersonalism, advaitavada and the whole world is filled with this impersonalism and voidism, Prabhupada saved the world from impersonalism and voidism.
You will say we are not from the Western world. Prabhupada has not only saved them, but us also. Then why is it pashchatya-desha-tarine you may ask. Are your understanding what is this pashchatya-desha-tarine? He not only saved the westerners, but also the eastern people. Prabhupada pranam mantra was written and Prabhupada instructed everyone to say this pranam mantra. At that time, before 1970, preaching was being done only in the Western countries. This pranam mantra was written then. After 1970 Prabhupada returned to India. In 1971 we meet Srila Prabhupada. We are using the same mantra written before 1970. We have to understand that Prabhupada saved not only the western countries but also the eastern countries. He saved us by preaching the message of Sri Caitanya Mahaprabhu, Gauranga! Gauranga!
Srila Prabhupada’s speciality is that he spread Gaura-vani all over. There is no place for mental
speculation.
namo maha-vadanyaya
krishna-prema-pradaya te
krishnaya krishna-chaitanya-
namne gaura-tvishe namah
Translation
O most munificent incarnation! You are Krsna Himself appearing as Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu. You have assumed the golden colour of Srimati Radharani, and You are widely distributing pure love of Krsna. We offer our respectful obeisances unto You.
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu is Lord Krsna. Understanding the desires, thoughts and plans and prediction of Sri Caitanya Mahaprabhu and realising all this, Srila Prabhupada preached Gaura-vani.
evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
sa kaleneha mahata
yogo nastah parantapa
Translation
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. [BG 4.2]
His spiritual master instructed him to preach in the West. You look very intelligent. I always keep saying, in Kolkatta in 1922 Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur had said pointing his finger towards Abhay Babu who had just arrived at the gathering. He had not even settled after offering obeisances. His spiritual master said, ‘You preach in the West.’ The words are coming from Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur, but the original instructor was Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu, Bhaktisiddhanta Sarasvati was made the instrument to give that instruction to Srila Prabhupada. This was order of Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu to Abhaya Babu who in future became our Srila Prabhupada.
Preaching of Rama and Krsna was going on, but in Kaliyuga the preaching of Caitanya Mahaprabhu was required. It’s not that Rama is different from Krsna or Krsna is different from Caitanya Mahaprabhu. They are the same.
Everyone knew Ayodhya, Vrndavana and Mathura, but nobody knew Mayapur, Navadvipa. Prabhupada has revealed Mayapur and Navadvipa. Very few people knew about Mayapur, but Srila Prabhupada broke the news. He started the Mayapur festival. Then who is Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu and the Life and teachings Caitanya-caritamrta was translated in English by Prabhupada. He then instructed that Caitanya-caritamrta should be translated in as many languages as possible. These translations kept happening. Only some Bengali devotees knew Caitanya Mahaprabhu, but now people all over the world know about Caitanya Mahaprabhu by reading Caitanya-caritamrta in their own language.
mamaivamso jiva-loke
jiva-bhutah sanatanah
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal, fragmental parts.
The Jiva got introduced to Mayapur and Navadvipa. Mayapur became famous. It became the Mecca for devotees. It became a pilgrimage place for Vaisnavas all over the world. The pilgrimage place for our Muslim brothers is Mecca, Amritsar is for our Sikhs brothers and Jerusalem for our Christian brothers. Like that Mayapur is the pilgrimage place for Gaudiya vaisnavas.
mahaprabhoh kirtana-nritya-gitavaditra-
madyan-manaso rasena
Translation
Chanting the holy name, dancing in ecstasy, singing, and playing musical instruments, the spiritual master is always gladdened by the sankirtana movement of Lord Caitanya Mahaprabhu. Because he is relishing the mellows of pure devotion within his mind,
Say Mahaprabhoh not Mahaprabhu. This also we should be aware of. This is again another correction. Check the diacritics in the song books. We follow whoever pronounces incorrectly and say Mahaprabhu. Be careful! Become a new devotee. Correct yourself. Mahaprabhu performed kirtana, nrtya and played musical instruments. By definition Sankirtana means there should be at least three things: kirtana, musical instruments are being played and there is nrtya. manaoso-rasena- the state of our mind is very important. Such sankirtana Caitanya Mahaprabhu performed. He also predicted.
prithvite ache yata nagaradi grama
sarvatra prachara haibe mora nama
Translation
In as many towns and villages as there are on the surface of the earth, My holy name will be preached.
All our preachers should learn this prediction of Caitanya Mahaprabhu.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Prabhupada made plans so that the prediction is realised. He started nagar sankirtana. He literally performed sankirtana on footpaths of New York. Public chanting started on the footpath. Slowly Srila Prabhupada took 26 second Avenue on rent in Manhattan, New York.
Swamiji there is a sign board. Should we remove it?
No, don’t remove the sign board.
The owner of the shop moved shop, but forgot to remove the sign board. Prabhupada asked, “What is written on the board? Matchless gifts. When Prabhupada heard this he said, “No! No! Don’t touch it. Let it be. It’s the correct sign board because the gift which I have brought and will be going to distribute from this place is matchless.” The sign board was left there and this was the first official centre of ISKCON’s Matchless Gift Shop.
Slowly preaching started from there. Prabhupada went to Tompkins Square and started sankirtana there. There is a big tree and Prabhupada is standing there addressing some people who are standing in front of Srila Prabhupada.
In 1996 we celebrated Srila Prabhupada’s 100th birth anniversary. It was a grand celebration. ISKCON formulated the Srila Prabhupada Centennial Ministry in 1992 and the GBC had made me Centennial Minister. We were preparing for the celebration – 80% planning and 20% execution. For four years we were making amaster plan for the celebration and in the fifth year, in 1996 we started the celebration from 1 January till 31 December 1996. It was a full year of celebrations. There were many plans. It is 2021. Similarly we all will be celebrating 125th birth anniversary of Srila Prabhupada. There is no existence of ISKCON without you. All together we will be celebrating this festival for the whole year. Think what you all can do?
We have to become Prabhupada conscious. We have increase our Prabhupada consciousness. Who is Srila Prabhupada? We will keep speaking about Srila Prabhupada as we get time. The life of Srila Prabhupada – Prabhupada Lilamrta. As you all did not meet Srila Prabhupada, you did not hear him. Prabhupada Lilamrta is his life and teachings. There is a possibility that many devotees do not have Prabhupada Lilamrta. Those who don’t have, this is the year see to add it to your library and read it. Know about Srila Prabhupada. Try to understand him. He had brought about revolution in consciousness in the lives of many people. People all over the world are following the rules and regulations given by him.
No meat eating. Honour only Krsna prasada. This rule is being followed. This is also a revolution.
No intoxication. Like we have a glass of water with poor meals, in Western countries people have a glass of alcohol. It is a bad thing. It is the drink of the demons. To such people Srila Prabhupada offered Caitanya-caritamrta, Harinamarita and Caranamrita.
No illicit sex. In the West it’s normal or second nature to have an illicit connection, but Prabhupada inspired them give up all this and made them grhastas. They were grhmedis, and Prabhupada made them grhasta.
No gambling. People are understanding and following this.
It is great that people all over the world are following the 4 rules and regulations. Preach all this. The Lord has made Srila Prabhupada instrumental.
nimitta-matram bhava savya-sacin
Caitanya Mahaprabhu had predicted that Harinama will spread all over but Srila Prabhupada was made instrumental. All the people will be performing sankirtana and then, nama se dhama tak. The holy name will take us to the Lord’s abode.
Caitanya Mahaprabhu made Srila Prabhupada the senapati bhakta, made him sakshat hari, made him nimmita and ISKCON was established.
bahunam janmanam ante
jnanavan mam prapadyate
vasudevah sarvam iti
sa mahatma su-durlabhah
Translation
After many births and deaths, he who is actually in knowledge surrenders unto Me, knowing Me to be the cause of all causes and all that is. Such a great soul is very rare. [BG 7.19]
We will be celebrating 125th birth anniversary of Srila Prabhupada so get into action. Study the life and teachings of Srila Prabhupada and become a good Prabhupadanuga. Understand the will of Srila Prabhupada and execute it.
Prabhupada’s disciples, Prabhupada’s grand disciples will be celebrating Srila Prabhupada’s 125th birth anniversary together.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 23 января 2021 г.
ПУСТЬ ВЕСЬ МИР УЗНАЕТ, КТО ТАКОЙ ШРИЛА ПРАБХУПАДА
Харе Кришна! Прямо сейчас с нами воспевают преданные из более чем 726 мест.
ом аджнана-тимирандхасйа джнананджана-шалакайа
чакшур-унмилитам йена тасмаи шри-гураве намах
Перевод:
Я был рожден во тьме невежества, но мой духовный учитель открыл мне глаза, озарив мой путь факелом знания. Я в глубоком почтении склоняюсь перед ним.
(Гуру пранама-мантра)
нама ом вишну-падайа кришна-прештхайа бух-тале
шримате-бхактиведанта-свамин ити намине
Перевод:
В глубоком почтении я склоняюсь перед Его Божественной Милостью А.Ч. Бхактиведантой Свами Прабхупадой, который очень дорог Господу Кришне, ибо нашел прибежище у Его лотосных стоп.
(Прабхупада пранама-мантра)
намас те сарасвате деве гаура-вани-прачарине
нирвишеша-шунйавади-пашчатйа-деша-тарине
шри-кша-чаитанйа прабху-нитйананда
шри-адваита гададхара шривасади-гаура-бхакта-вринда
Перевод:
О духовный учитель, слуга Сарасвати Госвами, я почтительно склоняюсь перед тобой. Ты милостиво проповедуешь учение Господа Чайтаньядевы и несешь освобождение странам Запада, зараженным имперсонализмом и философией пустоты.
(Прабхупада пранама-мантра)
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе рама Харе рама
Рама Рама Харе Харе
джая ом вишну-пада парамахамса паривраджакачарья аштоттара-шата Шри Шримад Его Божественная Милость Шрила А.Ч. Бхактиведанта Свами Шрила Прабхупада ки… джай!
йади прабхупада на хаита табе ки хаита дживана бахита кише?
Если бы Шрила Прабхупада не пришёл, что произошло бы? Как бы мы прожили свою жизнь?
2021 год – особенный год для преданных ИСККОН, для Прабхупадануг. Кто такой Прабхупада – ануга? Некоторые поднимают руки. Я также Прабхупадануга. Прабхупада – это Прабхупада, а ануга означает последователи Шрилы Прабхупады. Все мы Прабхупадануги. Это особенный год для Прабхупадануг. Прабхупада родился в 1896 году, поэтому в этом году исполняется 125 лет со дня рождения Шрилы Прабхупады.
Я напоминаю вам об этом в начале года. В этом году у нас будут празднования. ИСККОН будет праздновать. Что означает ИСККОН? Вы все являетесь ИСККОН. Мы все составляем ИСККОН. ИСККОН создается его членами. Если нет членов, значит, общества не существует. Если люди не объединены, то как может быть общество? В Международном обществе сознания Кришны мы едины, и благодаря нашему единству:
чатур-видха-шри-бхагават-prasāda-
свадв-анна-тптан хари-бхакта-сангхан
критваива триптих бхаджатах садайва
ванде гурох шри-чаранаравиндам
Перевод:
Духовный учитель предлагает Кришне чудесную пищу четырех видов. И когда духовный учитель видит, что преданные, вкусив бхагават-прасада, полностью удовлетворены, он испытывает радость. В глубоком почтении я склоняюсь к стопам такого духовного учителя.
(Стих 4, Шри Гурваштакам)
хари-бхакта-сангхан
Когда мы собираемся вместе, очень важно, что мы объединяемся, только тогда это станет Международным обществом сознания Кришны.
Сказано санге шакти калиюге – только единство имеет силу в калиюге. Единство это сила. Люди проявят свою силу, собираясь вместе и объединяясь. Многие профсоюзы продолжают это делать. Они просто собираются вместе, объединяются. Их цель тоже может быть неправильной, и в основном это так, но они демонстрируют свою силу, объединившись.
Сила в единстве.
В этом году мы должны собраться вместе. Находясь в сознании Прабхупады, мы должны повышать осведомленность о Прабхупаде, помнить о Прабхупаде и проявлять трансцендентные эмоции для Шрилы Прабхупады. С трансцендентными эмоциями мы должны объединиться и продемонстрировать могущество Шрилы Прабхупады, силу Кришны и силу нашей преданности и Харинамы.
Прабхупада дал нам послание: воспевайте и будьте счастливы.
намас те сарасвате деве гаура-вани-прачарине
нирвишеша-шунйавади-пашчатьйа-деша-тарине
Перевод:
О духовный учитель, слуга Сарасвати Госвами, я почтительно склоняюсь перед тобой. Ты милостиво проповедуешь учение Господа Чайтаньядевы и несешь освобождение странам Запада, зараженным имперсонализмом и философией пустоты.
(Прабхупада пранама-мантра)
Не говорите сарасвати, говорите намасте сарасвате. Многие из нас продолжают неправильно произносить это как сарасвати. Прабхупада написал письмо одному из своих учеников.
Шрила Прабхупада говорит: «Вы должны произносить это слово Сарасвате, а не Сарасвати. Сарасвати – мой духовный учитель. Итак, его ученик – Сарасвате».
Это не как сарасвати, как в Лакшми и Сарасвати, а сарасвате, ученик Бхакти Сиддханты Сарасвати.
Давайте сделаем это в этом году, давайте говорить намасте сарасвате. Здесь нет сарасвати. Там находится Бхакти Сиддханта Сарасвати, и к его ученику обращаются как намасте сарасвате деве. Вы напоминайте другим, что говорить сарасвати неправильно. Когда мы предлагаем поклоны основателю-ачарье, мы произносим это неправильно. Все 726 мест из вас, слышащих меня, становятся агентами от моего имени, а также от имени Министерства Киртана. Поправьте тех, кто неправильно произносит. Напоминайте им, когда они говорят намасте сарасвати, что это неправильно. Вы сделаете это? Прабхупада выразил свое возмущение в письме своему ученику.
намасте сарасвате деве
гаура-вани-прачарин
нирвишеша-шуньявади
Он проповедовал гаура-вани, проповедовал послание Господа Чайтаньи и защищал западные страны от имперсонализма и философии пустоты.
Будда Дев проповедовал шуньяваду [философию пустоты]. Шанкарачарья проповедовал имперсонализм, адвайтаваду, и весь мир наполнен этим имперсонализмом и философией пустоты, Прабхупада спас мир от имперсонализма и философии пустоты.
Вы скажете, что мы не из западного мира. Прабхупада спас не только их, но и нас. Тогда спросите вы, почему это пашчатйа-деша-тарине. Вы понимаете, что это за пашчатйа-деша-тарине? Он спас не только жителей Запада, но и жителей Востока. Была написана пранама-мантра Прабхупады, и Прабхупада наставлял всех произносить эту пранама-мантру. В то время, до 1970 года, проповедь велась только в западных странах. Тогда была написана эта пранама-мантра. После 1970 года Прабхупада вернулся в Индию. В 1971 году мы встречаемся со Шрилой Прабхупадой. Мы используем ту же мантру, что написали до 1970 года. Мы должны понимать, что Прабхупада спас не только западные страны, но и восточные страны. Он спас нас, проповедуя послание Шри Чайтаньи Махапрабху, Гауранги! Гауранга!
Особенность Шрилы Прабхупады в том, что он распространял Гаура-вани повсюду. Нет места умственным спекуляциям.
намо маха-ваданйайа
кришна-према-прадая те
кришная кришна-чайтанья-
намне гаура-твише намах
Перевод Шрилы Прабхупады:
О самое милостивое воплощение Господа! Ты – Сам Господь Кришна, явившийся как Шри Чайтанья Махапрабху. Кожа Твоя золотистого цвета, как у Шримати Радхарани, и Ты щедро раздаешь чистую любовь к Кришне. Я выражаю Тебе свое почтение.
Шри Кришна Чайтанья Махапрабху – Господь Кришна. Понимая желания, мысли, планы и предсказания Шри Чайтаньи Махапрабху и осознавая все это, Шрила Прабхупада проповедовал Гаура-вани.
эвам̇ парампара̄-пра̄птам
имам̇ ра̄джаршайо видух̣
са ка̄ленеха махата̄
його нашт̣ах̣ парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
Так эта великая наука передавалась по цепи духовных учителей, и ее постигали праведные цари. Но с течением времени цепь учителей прервалась, и это знание в его первозданном виде было утрачено.
(Б.Г. 4.2)
Его духовный учитель наставил его проповедовать на Западе. Вы выглядите очень разумным. Я всегда повторяю, в Калькутте в 1922 году Шрила Бхактисиддханта Сарасвати Тхакур сказал, указывая пальцем на Абхая Бабу, который только что прибыл на встречу. Он даже не остановился говорить, когда Абхай Баба предложил поклоны. Его духовный учитель сказал: «Вы проповедуйте на Западе». Эти слова исходят от Бхактисиддханты Сарасвати Тхакура, но первоначальным наставником был Шри Кришна Чайтанья Махапрабху, Бхактисиддханта Сарасвати стал инструментом, чтобы дать это наставление Шриле Прабхупаде. Это было указание Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху Абхаю Бабе, который в будущем стал нашим Шрилой Прабхупадой.
Проповедь Рамы и Кришны продолжалась, но в Кали-югу требовалась проповедь Чайтаньи Махапрабху. Дело не в том, что Рама отличен от Кришны или Кришна отличен от Чайтаньи Махапрабху. Они одинаковые.
Все знали Айодхью, Вриндаван и Матхуру, но никто не знал Маяпур, Навадвипу. Прабхупада открыл Маяпур и Навадвипу. Очень немногие люди знали о Маяпуре, но Шрила Прабхупада сообщил новость. Он начал фестиваль в Маяпуре. Тогда кто такой Шри Кришна Чайтанья Махапрабху? Тогда Его жизнь и учение «Чайтанья-чаритамрита» были переведены Прабхупадой на английский язык. Затем он сказал, что «Чайтанья-чаритамриту» следует перевести на как можно больше языков. Эти переводы продолжались. Лишь некоторые бенгальские преданные знали Чайтанью Махапрабху, но теперь люди во всем мире знают о Чайтанье Махапрабху, читая «Чайтанья-чаритамриту» на своем родном языке.
мамаива̄м̇ш́о джӣва-локе
джӣва-бхӯтах̣ сана̄танах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Живые существа в материальном мире — Мои вечные отделенные частицы.
(Б.Г. 15.7)
Дживы познакомились с Маяпуром и Навадвипой. Маяпур прославился. Он стал Меккой для преданных. Он стал местом паломничества вайшнавов всего мира. Место паломничества наших братьев-мусульман – Мекка, Амритсар – для наших братьев-сикхов, а Иерусалим – для наших братьев-христиан. Подобно этому Маяпур – место паломничества Гаудия-вайшнавов.
махапрабхох киртана-нритйа-гита-
вадитра-мадьян-манасо расена
Перевод:
Движение санкиртаны Господа Чайтаньи Махапрабху – источник непреходящей радости для духовного учителя, который порой повторяет святое имя, порой танцует, охваченный экстазом, а порой поет и играет на музыкальных инструментах. Его ум наслаждается нектаром чистой преданности.
(Стих 2, Шри Гурваштакам)
Скажите Махапрабхох, а не Махапрабху. Мы также должны знать об этом. Это снова еще одна поправка. Проверьте диакритические знаки в песенниках. Мы следуем за тем, кто произносит неправильно, и говорим Махапрабху. Будьте осторожны! Станьте новыми преданными. Поправляйтесь. Махапрабху исполнял киртан, нритйа и играл на музыкальных инструментах. По определению санкиртана означает, что должно быть как минимум три вещи: киртан, игра на музыкальных инструментах и нритйа. манаосо-расена – состояние нашего ума очень важно. Такую санкиртану совершал Чайтанья Махапрабху. Он тоже предсказал.
притхивите аче йата нагаради грама
сарватра прачара хайбе мора нама
Перевод:
В каждом городе и деревне будет слышно воспевание Моего имени.
(Чайтанья Бхагавата Антья-кхана 4.126)
Все наши проповедники должны изучить это предсказание Чайтаньи Махапрабху.
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Прабхупада строил планы, чтобы предсказание сбылось. Он начал нагар-санкиртану. Он буквально проводил санкиртану на пешеходных дорожках Нью-Йорка. Публичное воспевание началось на пешеходной дорожке. Постепенно Шрила Прабхупада снял в аренду помещение на второй авеню, 26 в Манхэттене, Нью-Йорк.
Свамиджи есть вывеска. Мы должны снять это?
Нет, вывеску не снимайте.
Хозяин магазина переехал, но вывеску забыл убрать. Прабхупада спросил: «Что написано на вывеске? Бесценные дары. Когда Прабхупада услышал это, он сказал: «Нет! Нет! Не трогайте это. Будь как будет. Это правильная вывеска, потому что подарок, который я принес и собираюсь распространять отсюда, бесценен». Там была оставлена вывеска, и это был первый официальный центр магазина Бесценные дары ИСККОН.
Постепенно проповедь началась оттуда. Прабхупада пошел на Томпкинс-сквер и начал там санкиртану. Есть большое дерево, и Прабхупада стоит там, обращаясь к некоторым людям, стоящим перед Шрилой Прабхупадой.
В 1996 году мы отметили 100-летие со дня рождения Шрилы Прабхупады. Это был грандиозный праздник. ИСККОН запланировал отпраздновать столетие Шрилы Прабхупады в 1992 году, а Джи-би-си назначил меня ответственным за празднование. Подготовка к торжеству – 80% планирование и 20% исполнение. Четыре года мы составляли общий план празднования, а на пятый год, в 1996 году, мы начали празднование с 1 января по 31 декабря 1996 года. Это был весь год празднований. Планов было много. Сейчас 2021 год. Точно так же мы все будем отмечать 125-ю годовщину со дня рождения Шрилы Прабхупады. Без вас не существует ИСККОН. Мы все вместе будем отмечать этот праздник целый год. Подумайте, на что вы все способны?
Мы должны стать сознающими Прабхупаду. Мы увеличили наше сознание Прабхупады. Кто такой Шрила Прабхупада? Мы будем продолжать говорить о Шриле Прабхупаде, когда у нас будет время. Жизнь Шрилы Прабхупады – Прабхупада Лиламрита. Поскольку вы все не встречали Шрилу Прабхупаду, вы не слышали его. Прабхупада Лиламрита – это его жизнь и учение. Есть вероятность, что у многих преданных нет Прабхупада Лиламриты. Те, у кого нет, в этом году могут добавить ее в свою библиотеку и прочитать. Знайте о Шриле Прабхупаде. Попытайтесь понять его. Он произвел революцию в сознании в жизни многих людей. Люди во всем мире соблюдают установленные им правила и нормы.
Никакого мяса. Почитай только Кришна прасад. Это правило соблюдается. Это тоже революция.
Нет опьянения. Как у нас есть стакан воды при сухой еде, так и в западных странах люди выпивают стакан алкоголя. Это плохо. Это напиток демонов. Таким людям Шрила Прабхупада предложил Чайтанья-чаритамриту, Харинамамриту и Чаринамриту.
Никакого незаконного секса. На Западе это нормально или вторая натура – иметь незаконные связи, но Прабхупада вдохновил их отказаться от всего этого и сделал их грихастхами. Это были грихамедхи, и Прабхупада сделал их грихастхами.
Никаких азартных игр. Люди это понимают и следуют этому.
Это здорово, что люди во всем мире соблюдают 4 принципа и правила. Проповедуйте все это. Господь сделал Шрилу Прабхупаду своим инструментом.
нимитта-матрам бхава савйа-сачин
Чайтанья Махапрабху предсказал, что Харинама распространится повсюду, но Шрила Прабхупада сыграл важную роль. Все люди будут проводить санкиртану, а затем
нама се дхама так
Святое имя приведет нас в обитель Господа.
Чайтанья Махапрабху сделал Шрилу Прабхупаду сенапати-бхактой, сделал его сакшат хари (Шри Гуру), сделал его ниммитой (тем кто исполняет предсказание), и был основан ИСККОН.
бахӯна̄м̇ джанмана̄м анте
джн̃а̄нава̄н ма̄м̇ прападйате
ва̄судевах̣ сарвам ити
са маха̄тма̄ су-дурлабхах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто, пройдя через множество рождений и смертей, обрел совершенное знание, вручает себя Мне, ибо он понял, что Я причина всех причин и все сущее. Такая великая душа встречается очень редко.
(Б.Г. 7.19)
Мы будем отмечать 125-ю годовщину со дня рождения Шрилы Прабхупады, так что приступайте к делу. Изучите жизнь и учение Шрилы Прабхупады и станьте хорошим Прабхупаданугой. Поймите волю Шрилы Прабхупады и выполните ее.
Ученики Прабхупады, великие ученики Прабхупады будут вместе отмечать 125-ю годовщину со дня рождения Шрилы Прабхупады.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
जप चर्चा,
22 जनवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! नवद्वीप सब ठीक है। हरि हरि, 777 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं।
जय श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौरभक्तवृंद।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण, जय पद्मावती और यहां डॉ नेहा। यहां एक छोटा सा पीपीटी प्रेजेंटेशन प्रस्तुत करेंगे। transformation lust into love ऐसा उसका शीर्षक है। कैसे lust को love में परिवर्तित कर सकते हैं। लस्ट जानते हो, काम या काम वासना। काम क्रोध परायण तो हम हैं ही। जो काम में होता है, पता नहीं होता है कि हम कामवासना में हैं। जो माया में होता है उसको पता नहीं होता है कि हम माया में है। वह सोचता है यह माया क्या होती है? और जो कामी है सोचता है काम क्या होता है? यह काम क्या होता है? काम में है इसलिए कामी है। यह काम हमारा शत्रु है। विद्धयेनमिह भगवान ने कहा है ना गीता में,
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।।
(Bg 3.37)
अनुवाद श्री भगवान ने कहा है अर्जुन रजोगुण के संपर्क से उत्पन्न हुआ यह काम है। और वह बाद में क्रोध में परिवर्तित होता है। वही काम इस संसार का सबसे बड़ा शत्रु है।
विद्धयेनमिह विधि मतलब जान लो। हे अर्जुन यह जान लो, समझ लो, यह काम तुम्हारा शत्रु है। विद्धयेनमिह वैरिणम् इस काम से वशीभूत होकर हम कई सारे या सभी कार्य करते रहते हैं। इस संसार में बद्ध जीव कामवश होकर काम के वशीभूत होकर आपको और कोई मार्ग ही नहीं। हमेंं करना तो चाहिए प्रेम। प्रेमी होना चाहिए काम ही नहीं। प्रेमी होना चाहिए और प्रेम करना चाहिए। भगवान से प्रेम। भक्तों सेेेे प्रेम। प्रेमी होना चाहिए भगवत प्रेम या भक्त प्रेम। तो प्रेमी बनना चाहिए कामी को प्रेमी बनना चाहिए या बन सकते हैं। इसकी थोड़ी चर्चा है यहां पर या समझ है कम से कम यह तो समझाया जाएगा कि, एक होता है काम और दूसरा प्रेम कैसे दिव्य है अलौकिक है।…. आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य वैसे मनुष्यय जीवन का उद्देश्य। आध्यात्मिक जीवन को हम अपनाते हैं तो, उसका उद्देश्य क्या है? कैसे हमारा परिवर्तन हो सकता है? हमारा अहंकार है अहम,। अहम के अंतर्गत यह शरीर भी मैं हूं या शरीर ही मुख्य तो अहंकार है तो यह शरीर भी मैं नहीं हूं या मैं यह शरीर हूं। यह जो अज्ञान है यह ज्ञान नहीं है। मैं शरीर हूं और उसके कारण जो अहंकार, अहम भोगी, अहम सुखी, अहम बलवान यह सारे अहंकार की बातें हैं। इसको कैसे हम स्वाभाविक और शुद्ध हमारा तो स्वभाव है। मतलब हम आत्मा हैं। हम शरीर नहीं है। शरीर को जो हम अहम मानते हैं, इसके स्थान पर जो असली ज्ञान है समझ है कि, मैं आत्मा हूं मैं शुद्ध आध्यात्मिक जीवात्मा हूं। इसके संबंध में प्रभुपाद समझाते हैं कि, कैसे अहम दो प्रकार के हैं। एक हमारा अहंकार कैसा झूठ का या मायावी अहंकार जो शरीर को ही अहम मानतेे बैठा है। और दूसरा अहंकार क्या है अहमदासोस्मि मैं भगवान का क्या हुंं, दास हूं। जीव कृष्णदास एई विश्वास करलो तो आर दुखः नाय श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं जीव समझेगा कि मैं कृष्णदास हूं। मैं आत्मा हूं कृष्णा दास हूं मैंं शरीर नहीं हूं वह झूठा अहंकार में नहीं हूं। मैं सत्य हूं।
मैं नकली नहीं हूं, मैं असली हूं। शरीर तो नकली है। आज है तो कल नहीं है तो उस दृष्टि से वह नकली है। और असली है आत्मा। असली है आत्मा्। सच्चा है आत्मा। शाश्वत है आत्मा और वह मैं हूं।
आध्यात्मिक जीवन यह सिर्फ ज्ञानार्जन के लिए नहीं होता है, तो वह परिवर्तन के लिए होता है। यह आध्यात्मिक जीवन केवल जानकारी ग्रहण करने के लिए नहीं है। जानकारी जमा करने केेेे लिए नहीं है। यह भी सुन लिया वह भी सुन लिया वह भी समझ लिया। केवल संसार भर की जानकारी इकट्ठी की। लेकिन वह जानकारी वह ज्ञान शास्त्रों में जो कुछ ज्ञान है जानकारी है उससे हमारा परिवर्तन होना चाहिए। केवल संग्रहित करना इकट्ठा करना ही नहीं। ज्ञान को भी या दिव्य ज्ञान को भी इकट्ठा तो हमने किया लेकिन उस ज्ञान को केवल सुनकर या पढ़कर इकट्ठा करके संग्रहित करके रखना हमारा उद्देश्य नहीं है। उस ज्ञान से उस जानकारी से जानकारी हमनेे जो कुछ प्राप्त की है। आत्मा के संबंध में कहो, परमात्मा के संबंध में भी कहो, उसे होना चाहिए एक तो उस ज्ञान को हजम करना चाहिए या उसको हृदयंगम होना चाहिए। उसके अनुसार वैसे हमारे भाव उदित होने चाहिए। परिवर्तन भी होना चाहिए सिर्फ जानकारी प्राप्त करना ही नहीं परिवर्तन। श्रील प्रभुपाद के शब्दों में क्रांति होनी चाहिए। revolution in consciousness क्रांति होनी भी चाहिए।
तो कहां क्रांति, हमारे भावों में क्रांति होनी चाहिए। भावना में क्रांति। बाजार भाव के बजाय कृष्ण भाव यह क्रांति हुई ऐसे क्रांति ऐसा परिवर्तन।
हरि हरि, काम की उत्पत्ति। तो यह काम कैसे उत्पन्न होता है यहां पर श्री कृष्ण ने कहा है। भगवत गीता के सातवें अध्याय में 27 वां श्लोक
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
(Bg 7.27)
अनुवाद: परमतप भारत, इच्छा और द्वेष इन दोनों से उत्पन्न होने वाले द्वंद से मोहित होकर सभी जीव इस मोह माया में जन्म लेते हैं।
हे भारत, हे अर्जुन, हे शत्रुओं को जीतने वाले, शत्रुओं को परास्त करने वाले ,अरे तुम तो परमतप कहलाते हो। तुम शत्रुओं का विनाश करते हो। शत्रुओं को परास्त करते हैं। तुम्हारा जो काम नामक शत्रु है उसको परास्त करो। उसको जीतो। यही उसका विनाश करो। भगवतगीता के तृतीय अध्याय में भगवान ने कहा है। काम के साथ क्या करना चाहिए। इसकी जान लो। इच्छाद्वेषसमुत्थेन सभी जीव इच्छा करते हैं यही इच्छा और द्वेष ईर्ष्या द्वेष और यह द्वंद्व और उससेे उत्पन्न होने वाला मोह। स्त्री और पुरुष यह भी द्वंद्व है। और कई सारे द्वंद्व है सारा संसार द्वंद्व से भरा पड़ा है। यह जब चर्चा हो रही है तो उसके अंतर्गत कह सकतेे हैं। यह स्त्री पुरुष का द्वंद्व, स्त्री पुरुष का समा और उससे उत्पन्न होता है फिर मोह आगे इससे से फिर ध्यायतेे विषयान्पुंसः इच्छा है फिर द्वेष भी है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (Bg 2.62)
अनुवादः इंद्रिय विषय का चिंतन करते हुए मनुष्य के उस विषय में आसक्ति बढ़ती है। और उस आसक्ति से काम उत्पन्न होता है। और काम से क्रोध की उत्पत्ति होती है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः संसार भर के विषयों का ध्यान या स्त्री का ध्यान पुरुष का ध्यान और भी काम ना आए हैं लेकिन उसने प्रबल कामना तो यह लैगिक काम लैगिक कृत्य या इच्छा यह काम यह उत्पन्न होता है ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ काम और प्रेम यह दोनों एक योग माया से प्रेम और महामाया से काम उत्पन्न होता है या जीव को प्राप्त होता है वह स्त्रोत है वैसे अंततः स्रोत तो एक ही है भगवान ही हैं सर्वस्य प्रभावः योगमाया के या महामाया के महामाया से काम और योग माया से प्रेम प्राप्त होता है उत्पन्न ना होता है जागृत होता है या स्रोत एक ही होता है जो पहले कह चुके हैं या दिखाया है यह हीरा यह सोना यह प्रकृति है मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं । भगवान इस प्रकृति के अध्यक्ष है तो इसीसे इसका प्रकाशन उस रूप में उसका इस रूप में ऐसे अलग-अलग काम और प्रेेेेेेेेेम इसके स्रोत तो भगवान ही है जैसे बिजली स्रोत तो बिजली ही है लेकिन उसी एक बिजली से कूलर चलता है और हिटर भी उसी से चलता है करंट तो एक ही है बिजली तो एक ही है लेकिन उसके अलग-अलग मार्ग यहां लिखा है हरि हरि ब्रह्मांड का सत्य सभी जीव सभी योनि के 8400000 जीव ब्रह्मा से लेकर जिसे हम देख भी नहींं सकते ऐसे सूक्ष्मजीव यहांं देख रहे हम ब्रह्मा से लेकर सूक्ष्मजीव श्री ल ला प्रभुपाद कहते हैं इंद्र से लेकर इंद्र गोप इंद्रगोप नामक कोई सूक्ष्मजीव है जंतु हैै अति सूक्ष्मा तो इंद्र से लेकर इंद्रगोप जंतु तक सभी परेशान हैं यह सभी प्रभावित है 8400000 योनियों में यह काम का प्रभाव है कामवश सारी योनि में यह काम का धंधा चलता है सारी योनियों में यह श्री पुरुष है कुत्ताा है कुत्तिया है बंदर है बंद रानी है भैंस हैै भैंसा है हाथी है हाथीनी है सभी व्यस्त हैं या सभी का व्यस्त रखा जाता है इस संसार में काम बस काम केेेेेेे वशीभूत होकर वह सब व्यस्त हैं उनका भी परिवार हैं कर्मण्यवाधिकारस्ते कृष्णा नेेे कहते है कर्म करो कर्तव्य हैैै क्या कर्तव्य है परिवार का पालन पोषण करो लेकिन बंधुओं ऐसा परिवार का पालन पोषण तो हर समाज में योनि में चलता ही है यह केवल मनुष्य जाति या मनुष्य समाज ही नहीं है हाथियों का अपना समाज हैै पक्षी समाज है जानवरों का भी समाज है कुत्तों का अपना समाज है बिल्लियों का अपना समाज है हर योनि का अपना अपना समाज है और इन सारे समाजों में परिवार भी हैं वह सभी अपने अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं यह नहीं समझना कि आप बहुत बढ़िया से अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं और कोई नहीं करताा है योनि में समाज में ऐसा नहीं होता है और योनि में भी यही होता है भगवत गीता का उपदेश सुने बिना ही वह अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं ऊपरी भरण पोषण हां यह पक्का है कि आप थोड़ी देर में समझ जाएंगे की असल मेंं परिवार का भरण पोषण क्या होता है उनके भी बच्चे होते हैं उनका वहां ख्याल करते हैं जो काम हैैै हमारे सारेेे भाव कहो हमारे विचार कहो हमारा मन कहो या फिर मन के जो कार्य होते हैं सोचना समझना इच्छा करना इसमें काम के विचार से हम ग्रस्त रहते है परेशान रहते हैं व्यस्त रहते हैं काम के विचार काम धंधे के विचार कामवासना के विचार काम के तृप्ति के विचार फिर विचार हैं सोचनााा महसूस करना फिर कुछ कुछ होता है मन मेंं भाव उत्पन्न होते हैं काम भावना सोचने पर विचार करने पर काम भावनाा उत्पन्न होते हैं विचार भी काम का है विचार कामुक कामुकता है विचारों में फिर सोचना महसूस करना इच्छा करना इच्छाद्वेषसमुत्थेन फिर इच्छा भी है कामवासना की तीव्र इच्छा है फिर इसीलिए अर्जुन ने कहा
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
अनुवादः अर्जुन ने कहा हे वृष्णि वंशज किस वजह से मनुष्य उसकी इच्छा ना होते हुए भी जैसे बलपूर्वक पाप कर्म करने के लिए प्रेरित होता है?
अर्जुन ने कहा, बताइए बताइए प्रभु अनिच्छन्नपि हम जानते हैं कि यह सही नहीं है। पाप है। ऐसा कृत्य नहीं करना चाहिए। किंतु बल पूर्वक इच्छा इतनी तीव्र है। इतनी तीव्र इच्छा है कि, व्यक्ति पाप करके बैठता ही है। तो यह मन में सब चलता रहता है। सोचना, महसूस करना, इच्छा करना और यह सब विचार काम के विचार, भाव भी काम भाव और इच्छा भी कामुक इच्छा। सोचने से हम महसूस करते हैं। महसूस करने से फिर इच्छा जागृत होती है। और फिर जैसे अधिक सोचतेे हैं फिर अधिक भाव उत्पन्न होते हैं, जागृत होते हैं और उसी के साथ हमारी इच्छा अधिक अधिक तीव्र बनती जाती है फिर इससे हम अपनेे कृति से संपन्न करते हैं। कायेन वाचा मनसा हम इसको बोलतेे रहते हैं। कामुकता की बाते करते हैं। काम के विचार जो मन में होतेे हैं उसको कहतेे हैं और फिर केवल कहकर ही रुकते नहीं हम कुछ करके बैठते हैं। करना ही होता है कामवश।
हरि हरि, तो कृष्ण भुलिया जीव भोग वांछा करें माया तारे झपाटिया धरे यह प्रसिद्ध भजन है। चैतन्य चरितामृत चैतन्य महाप्रभु ने भी कहां है, भगवान ने कहां है। जीव भुलिया कृष्ण को भूलकर जीव भोग वांछा करें भोग वासना की वांछा इच्छा काम इच्छा करता है। और उसी के साथ फिर निकटअस्थे है माया तारे झपाटिया धरे अलग-अलग शब्दों में कहां है। माया तारे झपटिया धरे पास मेंं माया है। निकट में है या पास मेंं है, झपटियाधरे या फिर उसका गला भी पकड़ सकती हैं। फांसी दे सकती हैं, देती है। जान लेती है यह माया। इसके लिए मरतेेे रहते हैं यह माया हमको मारती है। पुर्नजन्म देती है ऐसे ही चलते रहता है।
यह जो काम है, इस काम की जो अग्नि है कामाग्नि, इसको हम पोषण करते जाएंगे। अग्नि में कोई कामाग्नि है। कामेच्छा है उसकी पूर्ति करते जाएंगे। कुछ मांग है मन में कोई इच्छा है हम इसको पूरा करते जाएंगे। तो क्या होगा, जैसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती। इसको अधिक खिलाओ, अधिक पिलाओ, तेल डालो यह कोई इंधन हो तो वह डालते रहो जलती रहेगी आग या फिर पढ़ती रहेगी आग।
तो यहां हाथी यह जो काम का जो आवेग है। काम आवेश, वह बड़ा बलवान है। वाचो वेगम् मनसा क्रोध वेगम जिव्हा.वेगम उदरउपस्थ वेगम ऐसा उपदेशामृत में कहां है। यह वेग इसका यह जो धक्का देता रहता है। प्रेरित करता है यहां काम हमको। हाथी हाथीनी के पीछे पड़ा है। कितना बलवान हाथी इसको कभी पकड़ना है तो क्या करता है? कुछ हांथीनी के पीछे लगा देते हैं तो वह दौड़ता है। हाथी भी पीछे दौड़ता है और फिर कुछ दूरी पर तैयारी करके रखते हैं। वहांं पर बड़ा गड्ढा बनाया होता है। उस पर कुछ घास डाल दी हरियाली डाल दी। उस गड्ढे के पास जब आते हैं तो बड़े युक्ति पूर्वक झट से हथिनीकों हाथी से अलग करते हैं। और पीछे से जो दौड़कर आ रहा है हाथी कामवश हाथी आगे बढ़ता है और फिर गिरता है गड्ढे में। खत्म, पकड़ में आ गया उसको पकड़तेे हैं, फिर सर्कस में या कहीं और उसको लगाते हैं। इतना बड़ा हाथी पकड़ में आता है। कामवासना के कारण।
वैसे जीव जो है वेदांत सूत्रों में कहां है
आनंदमयी अभ्यासात स्वभाव से और विधान से आत्मा और परमात्मा छोटे से छोटा जीव आध्यात्मिक आनंद के लिए बने हैं।
आनंदमयी अभ्यासात भगवान और उनके अंश अंश के अंश मतलब हम तो जीव हैं उनकी बात चल रही हैं।
यह दोनों भी वैसे ही सच्चिदानंद आनंद की मूर्तियां है। भगवान भी हैं जीव भी है और यह आनंद ही चाहते हैं। ऐसा उनका गुणधर्म है भगवान का भी और हम जैसे छोटे छोटे जीव का भी। और इसीलिए प्रयास करते रहते हैं कैसे हम सुखी रह सकते हैं। संसार में कोई जीव नहीं है जो दुख चाहता हो। सभी सुख चाहते हैं। क्यों सूख चाहते हैं? स्वभाव ही है सुख सुखी होना। उसका स्वभाव ही है सुख उसका स्वभाव है। सुखी होना स्वाभाविक है। जीव के लिए दुख आते हैं। जीव प्रयास करता है कैसे वहां पुनः सुखी हो सकता है। एक क्षण के लिए भी दुखी नहीं रहना चाहता तुरंत ही प्रयास होता है सुखी होने का प्रयास, क्योंकि स्वभाव में उसके सुख है आनंद है। भगवान तो अच्युत हैं। भगवान का कभी पतन नहीं होता। सदा के लिए वह आनंद के विग्रह रह जाते हैं। लेकिन जीव की स्थिति वैसे हम तटस्थ होने के कारण कभी सुख तो कभी दुख है तटस्थ है।
माया से संपर्क, इस संसार के जो माया है उसके संपर्क में जो आता है जीव और उसको भोगता है अहम भोगी तो फिर वह दुखी होता है।
आत्मा का अध्यात्म से संपर्क, और जब आत्मा का संपर्क सत्संग करता है। जीव सत् संग करता है। भगवान के साथ, संग भक्तों के साथ संग तो उसी से उसे सुख है या आनंद को प्राप्त करता है। वैसे माया के संपर्क से वह काम को प्राप्त करता है। कामवासना जागृत होती है। सत्संग के संपर्क से और आध्यात्मिक जीवन साधना करने से वह प्रेम को प्राप्त करता है। प्रेम जागृत होता है। तो उसका स्वभाव है उसके स्वभाव को वह प्राप्त करता है। उसको आत्म साक्षात्कार होता है।
सुख को प्राप्त करने की इच्छा, इस संसार में देखा जाता है। यह चार प्रयास ऊपरी इंद्रिय तृप्ति के लिए चार प्रकार हैं। आहार निद्रा भय मैथुन इसके माध्यम से सुखी होने का प्रयास हर बद्ध जीव करता है। और ऐसे प्रयास केवल मनुष्य योनि में ही नहीं आहार निद्रा भय मैथुन हर योनि में 8400000 योनियों में बद्ध जीव व्यस्त है। किसमें आहार निद्रा भय मैथुनमच। सामान्य एतत पशुभीरनरानाम।।! किसी योनि में भी हो या सामान्य कृत्य तुम्हारे होंगे और इस प्रकार तुम शरीर को सुखी बनाने का तुम प्रयास करोगे।
कुछ मानसिक या मनोरंजन कहो, या पूरी तरह मानसिक आनंद पूरा परिवार समाज मे यह सारे प्रयास होते हैं। पार्टीज होती है और फिर या कुछ देवी देवताओं के उत्सव भी हो सकते हैं। इसको भी मन के स्तर पर ही रखा है। आत्मा के स्तर पर नहीं रखा है। यह मानसिक आनंद कुछ बुद्धिजीवी होते हैं। वैज्ञानिक होते हैं और फिर उनकी बौद्धिक संपत्ति होती है उसका आनंद लेते रहते हैं। और उनको शायद ज्यादा मनोरंजन में रुचि नहीं होगी लेकिन अपने बुद्धि में उनका अहंकार। बुद्धि और उसी स्तर पर उनका आनंद लेने का प्रयास करते हैं। और अध्यात्मिक योगी हैं तो ब्रह्म सक्षात्कार अहं ब्रह्मास्मि का प्रयास चल रहा है। चलो हम ब्रह्म हैं, हम ब्रम्ह साक्षात्कार करते हैं तब हमको आनंद मिलेगा। इसीलिए ऐसे प्रयास होते रहते हैं लेकिन वह भी शाश्वत नहीं होता पतंती अधह कहते हैं यह भागवत कहता है। तो यह अलग-अलग स्तर पर प्रयास बताएं शरीर के स्तर पर प्रयास होते हैं। सुखी होने के प्रयास फिर मन के स्तर पर प्रयास होते हैं, फिर बुद्धि के स्तर पर प्रयास होते हैं। लेकिन प्रयास तो होना चाहिए आत्मा के स्तर पर क्योंकि हम आत्मा है। वैसे शरीर भी स्वयं (सेल्फ) कहा जाता है मन भी हमारा स्वयं (सेल्फ ) का ही भाग कहां जाता है एक दृष्टि से। बुद्धि भी हमारा सेल्फ या आत्मा की परिभाषा है। लेकिन मुख्य तो हमारा रियल सेल्फ आत्मा है, हम आत्मा हैं। हम मन भी नहीं हैं, मन एक तत्व है। स्थूल शरीर फिर सूक्ष्म शरीर तो मन भी हम नहीं हैं बुद्धि भी हम नहीं है। वैसे आध्यात्मिक मन है और आध्यात्मिक बुद्धि भी है। लेकिन इस संसार का जो मन है प्राकृतिक मन, वह हम नहीं है। तो आत्मा के स्तर पर जब हम कार्य करेंगे तो श्री कृष्ण के साथ अपना संबंध स्थापित करेंगे। भक्तों के साथ भक्तों के संग में उसके बाद फिर आनंद ही आनंद है। आनंदी आनंद गडे जिकड़े तिकड़े चोही कड़े विश्वम पूर्ण सुखायतें फिर सुख के आनंद का अनुभव संभव है। आगे जीव प्रेम करना चाहता है और प्रेम प्राप्त भी करना चाहता है। वह औरों से प्रेम करना चाहता है ओर और उसे प्रेम करें यह भी चाहता है। यह चाहत सभी जीवो में है इसमें कोई अपवाद नहीं है, हर योनि में यह होता है। लेकिन दुर्दैव से इस काम को ही प्रेम मान के वह ठगे जाते हैं। काम को ही प्रेम मानते हैं इस तरह इस काम का आदान-प्रदान चलता है संसार में। जो कामी होते हैं काम करते हैं और काम करवाते हैं अपने ऊपर। आध्यात्मिक जगत में प्योर ईगो मतलब आत्मा है और भोग करने वाले भोक्ता भोक्ताराम यज्ञ तपसा भगवान भोक्ता है और उसे प्रेम प्राप्त होता। और प्योर ईगो मे यह शरीर कहो, मन कहो बुद्धि कहो, यह सारे झूठ के अहंकार मायावी अहंकार अशुद्ध अहंकार है, इसलिए मैं ही भोक्ता हूं ऐसे विचार होते हैं। इस ग्राफ में आप देख ही रहे होंगे भोक्ता (enjoyer) तो कृष्ण है, यह वस्तुस्थिति है। लेकिन जो माया में फंसा हुआ है, जो प्रेमी नहीं कामी है तो वह मे भोक्ता हू इसे घोषित करता है या वह उसी के अनुसार कार्य करता है। तो यह अंतर है मैं भोक्ता हूं, मैं भोग भोगूंगा यह विचार छोड़ के, त्याग के सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज भगवान की शरण में जाकर यह समझो कि कृष्ण ही भोक्ता है। कृष्ण को भोगने दो उनके साथ मुकाबला ( compitation) नहीं करना। और तुम घोषित करोगे ओ मे भोक्ता हू कृष्ण कौन होते हैं तो इस तरह जीव इच्छा द्वेष समुत्थेन जो कृष्ण ही कहे हैं। वैसे द्वेष तो बद्ध जीव भगवान से द्वेष करते हैं साथ ही साथ औरों के साथ भी उसका एनवी या द्वेष के भाव चलते रहते हैं। मैं भोक्ता हूं यह भाव उसका बना रहता है। उसके स्थान पर भगवान भोक्ता है तो आत्मेंदरिय प्रीती वांछा तार बलि काम जीव जब अपने खुद के इंद्रियों के लिए काम करता है उसका नाम है काम। और कृष्णेन्द्रिय प्रीती भगवान की भी इंद्रियां है वे ऋषिकेश है। ऋषिक मतलब इन्द्रिया। तो कृष्णेन्द्रिय प्रीती वांछा धरे प्रेम नाम उसका नाम है प्रेम। तो आत्मेंदरिय प्रीती काम कृष्णेन्द्रिय प्रीती नाम।
नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम साध्य कब्बू नाय।
श्रवनादि शुद्ध चित्ते करह उदय ।।
(च. च. मध्य 22.107)
यहां हम रुक रहे हैं, अंत में या पुनः मध्य लीला से चैतन्य चरितामृत यह सिद्धांत की बात है। सिद्धांत बलिया ना करे आलस सिद्धांत बोलने में या सुनने में कभी आलस नहीं करना चाहिए। यह बड़ा महत्वपूर्ण सिद्धांत है नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम जीव स्वभाव से ही प्रेमी है। लेकिन अब इस संसार ने उस को घेर लिया पछाड़ लिया या उसको अच्छादित किया हुआ है। काम की वासना या भावना ओ ने। लेकिन वह क्या करेगा श्रवनादि शुद्ध चित्ते करह उदय श्रवनादि नवविधा भक्ती से श्रवण कीर्तन, वंदन या पादसेवनम आत्मनिवेदनम इस तरह यह करने से क्या होगा चित्त शुद्ध होगा चेतो दर्पण मार्जन होगा। और करह उदय उदित होगा क्या उदित होगा? नित्य सिद्ध कृष्ण प्रेम । स्वभाव से जो वह प्रेमी है ही जीव का स्वभाव ही है प्रेम, प्रेम करना, प्रेम प्राप्त करना। ओके समय समाप्त हुआ है।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
22 January 2021
Spiritual progress commences when lust becomes love
Gaura Premanande Hari Haribol! We have devotees chanting from 777 locations with us.
jaya sri-krsna-caitanya prabhu nityananda sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrinda
Hare Kṛṣṇa Hare Kṛṣṇa
Krsna Krsna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
There is a small PPT on ‘Transforming lust into love’ which will be shown here.
āśā-pāśa-śatair baddhāḥ
kāma-krodha-parāyaṇāḥ
īhante kāma-bhogārtham
anyāyenārtha-sañcayān
Translation
Bound by a network of hundreds of thousands of desires and absorbed in lust and anger, they secure money by illegal means for sense gratification. (BG 16.12)
People in illusion do not know that they are controlled by Maya. The same goes for lust oriented people. Yes, we are lusty and therefore lust is our enemy.
śrī-bhagavān uvāca
kāma eṣa krodha eṣa
rajo-guṇa-samudbhavaḥ
mahāśano mahā-pāpmā
viddhy enam iha vairiṇam
Translation
The Supreme Personality of Godhead said: It is lust only, Arjuna, which is born of contact with the material mode of passion and later transformed into wrath, and which is the all-devouring sinful enemy of this world. (BG 3.37)
We are subdued by lust and do our activities under lust. We have no choice. In reality we must have love. We should be lovers of Lord Kṛṣṇa and His devotees, bhaghavat prema, bhakta prema. This presentation will help us to understand how to differentiate between love and lust.
“The goal of spiritual life is learning how to transform our egoistic nature back to its natural and real state.”
We have these preconceived notions, ‘I am this body’, aham bhogi, aham sukhi, aham balawan, ‘I am powerful.’ This is our ego, but this is not our real nature. Instead we should think that we are pure spirit soul. There are two types of egos – one is that we think the body is all in itself and the other is I am spirit soul, dasosmi – I am an eternal servant of Krsna. Bhaktivinoda Thakur says,
aham krsna dasa…….
I am not false, but real. The body is false and temporary, but the soul is real, eternal and that’s who I am. Spiritual life is not for information, but for transformation. We have gathered all the information from around the world, but it should lead to transformation, not just accumulating knowledge. Storing knowledge is useless. There should be an assimilation of the knowledge and it should be digested well to transform us. We have to do it – Hrdyangam. Srila Prabhupada said that there should be a revolution in consciousness. Instead of material transformation there should be spiritual transformation that is Kṛṣṇa consciousness. Lord Krsna explains in Bhagavad Gita the origin of lust,
icchā-dveṣa-samutthena
dvandva-mohena bhārata
sarva-bhūtāni sammohaṁ
sarge yānti paran-tapa
Translation
O scion of Bharata, O conqueror of the foe, all living entities are born into delusion, bewildered by dualities arisen from desire and hate. (BG 7.27)
The whole world is occupied by dualities. One duality is the attraction between a man and woman, which leads to attachment and lust.
dhyāyato viṣayān puṁsaḥ
saṅgas teṣūpajāyate
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ
kāmāt krodho ’bhijāyate
Translation
While contemplating the objects of the senses, a person develops attachment for them, and from such attachment lust develops, and from lust anger arises. (BG 2.62)
Lust and love are different manifestations of the same energy. From yoga-maya comes love and from maha-maya comes lust. The origin of both is Kṛṣṇa,
mayādhyakṣeṇa prakṛtiḥ
sūyate sa-carācaram
hetunānena kaunteya
jagad viparivartate
Translation
This material nature, which is one of My energies, is working under My direction, O son of Kuntī, producing all moving and nonmoving beings. Under its rule this manifestation is created and annihilated again and again. (BG 9.10)
Just like electricity is the source of heat and cold, similarly Lord Kṛṣṇa is the source of love and lust.
“The universe affects all 8.4 million of species from Lord Brahma to the insignificant bacteria.”
Srila Prabhupada says from Indra to Indra-gop germ (type of micro organism) everyone is disturbed and affected by lust. In every species, everyone is engrossed by lust, be it monkeys, elephants, dogs, germs.
karmaṇy evādhikāras te
mā phaleṣu kadācana
mā karma-phala-hetur bhūr
mā te saṅgo ’stv akarmaṇi
Translation
You have a right to perform your prescribed duty, but you are not entitled to the fruits of action. Never consider yourself the cause of the results of your activities, and never be attached to not doing your duty. (BG 2.47)
Maintain your family, but this maintenance is carried out in every species. They are also maintaining their families. It’s not only in human beings. The activities of the mind are thinking, feeling, willing. By thinking about the object of our senses it engages us throughout the day. This leads to intense feelings of envy, furthermore leading to lust. Arjuna said,
arjuna uvāca
atha kena prayukto ’yaṁ
pāpaṁ carati pūruṣaḥ
anicchann api vārṣṇeya
balād iva niyojitaḥ
Translation
Arjuna said: O descendant of Vṛṣṇi, by what is one impelled to sinful acts, even unwillingly, as if engaged by force? (BG 3.36)
Kṛṣṇa says that having lusty thoughts binds us to a strong desire and we end up acting on those, resulting in repeated birth and death.
kāyena vācā manasendriyair vā
buddhyātmanā vānusṛta-svabhāvāt
karoti yad yat sakalaṁ parasmai
nārāyaṇāyeti samarpayet tat
Translation
In accordance with the particular nature one has acquired in conditioned life, whatever one does with body, words, mind, senses, intelligence or purified consciousness one should offer to the Supreme, thinking, “This is for the pleasure of Lord Nārāyaṇa.” ( SB 11.2.36)
As stated in Caitanya-caritamrta,
kṛṣṇa bhuliya jīva bhoga vāñchā kare
pāśate māyā tāre jāpaṭiyā dhare [Prema-vivarta]
If we add fuel to the fire of lust, if we keep supplying the lusty desires in our heart then the fire of lust will always be blazing and will never extinguish.
Kamavesh, engrossed in lust.
vāco vegaṁ manasaḥ krodha-vegaṁ
jihvā-vegam udaropastha-vegam
etān vegān yo viṣaheta dhīraḥ
sarvām apīmāṁ pṛthivīṁ sa śiṣyāt
Translation
A sober person who can tolerate the urge to speak, the mind’s demands, the actions of anger and the urges of the tongue, belly and genitals is qualified to make disciples all over the world. (NOI text 1)
To trap a huge elephant, a she elephant makes him run after her. Finally he ends up falling in the pit covered with grass which was arranged to trap him. Just see this huge elephant is caught because of lust.
Anandmayao abhasat
Translation
“By nature and constitution every living being including the Supreme Lord and each of His part and parcel is meant for eternal enjoyment”. (Vedanta sutra)
Everyone is hankering for happiness because it’s the nature of the soul. The soul does not wish to be sad, even for a moment, Thus the living entity seeks happiness continuously. The Lord is infallible, and so He is eternally happy. But the living entity is the tatastha potency of the Lord and so sometimes he is happy and sometimes sad because of the interaction with matter with wishes to enjoy the material nature. When the entity interacts with the spirit (Kṛṣṇa) then it attains the original nature which leads to true happiness. As we can see in this material world, everyone is running after gross sense gratification – eating, sleeping, mating and defending. Through this the conditioned living entity tries to achieve false happiness.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṁ ca
samānam etat paśubhir narāṇām
Translation
Eating, sleeping, sex intercourse and defense—these four principles are common either to the animal or to the man. The animal also eats, the animal also sleeps, the animal also has sex intercourse, and he knows in his own way how to defend. So these things are natural in animal. [Hitopadeśa]
Emotional fulfilment is achieved through parties, family gatherings, rituals, demigod worship. All these keep the living entity on the level of mental happiness. Then there are intellectual people like scientists and philosophers trying to get happiness through speculation. There are spiritualists trying for happiness through Brahman realization, aham brahmasmi resulting in a fall down. One should try to find happiness through the soul, not through the body, mind, intellect. One’s real self is the soul. We are soul, not mind which is a subtle body. We are not the material mind and intelligence. Everything should be transformed into Krsna’s service. Working on the level of soul, trying to build our relationship with the Lord, and His devotees then there will be happiness all around us. Ikde tikde chohi kade… ( Everywhere)
The living entity wants love and also gives love to others. This want or desire of love is present in all species, no exceptions. But unfortunately, by getting lust in the name of love the living entities are being cheated. There is reciprocation of lust going on in the world. But in the spiritual world, our true ego is illuminated by serving Kṛṣṇa the true enjoyer,
bhoktāraṁ yajña-tapasāṁ
sarva-loka-maheśvaram
suhṛdaṁ sarva-bhūtānāṁ
jñātvā māṁ śāntim ṛcchati
Translation
A person in full consciousness of Me, knowing Me to be the ultimate beneficiary of all sacrifices and austerities, the Supreme Lord of all planets and demigods, and the benefactor and well-wisher of all living entities, attains peace from the pangs of material miseries. (BG 5.9)
Then our false ego will vanish. The true enjoyer is Sri Krsna, but the living entities under the spell of illusion thinks himself to be the enjoyers and acts accordingly. One should abandon this mastership and serve the Lord sincerely.
sarva-dharmān parityajya
mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja
ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions. Do not fear. (BG 18.66)
One should not compete with the Lord for being the enjoyer.
icchā-dveṣa-samutthena
dvandva-mohena bhārata
sarva-bhūtāni sammohaṁ
sarge yānti paran-tapa
Translation
O scion of Bharata, O conqueror of the foe, all living entities are born into delusion, bewildered by dualities arisen from desire and hate. (BG 7.27)
The jiva is envious of the Lord along with other living entities resulting in a competition to be the enjoyer. Let the Lord be the enjoyer as He is the real enjoyer and we are meant to be enjoyed by Him.
ātmendriya-prīti-vāñchā — tāre bali ‘kāma’
kṛṣṇendriya-prīti-icchā dhare ‘prema’ nāma
Translation
The desire to gratify one’s own senses is kāma [lust], but the desire to please the senses of Lord Kṛṣṇa is prema [love]. (CC Ādi 4.165)
nitya-siddha kṛṣṇa-prema ‘sādhya’ kabhu naya
śravaṇādi-śuddha-citte karaye udaya
Translation
Pure love for Kṛṣṇa is eternally established in the hearts of the living entities. It is not something to be gained from another source. When the heart is purified by hearing and chanting, this love naturally awakens. (CC Madhya 22.107)
This is important philosophy. One should attentively hear and not become lazy to hear.
siddhānta baliyā citte nā kara alasa
ihā ha-ite kṛṣṇe lāge sudṛḍha mānasa
Translation
A sincere student should not neglect the discussion of such conclusions, considering them controversial, for such discussions strengthen the mind. Thus one’s mind becomes attached to Śrī Kṛṣṇa. ( CC adi 2.117)
Originally we are Kṛṣṇa conscious souls, but we are attacked by Maya, but by following the nine process of devotional service one can definitely attain real love, Kṛṣṇa Prema.
Questions and Answers
Question 1:
Can the soul think and feel?
Gurudev uvaca
Of course, if Lord Kṛṣṇa can think, then definitely the soul can also think as we are part and parcels of the Lord. ‘Like father like children’, the living entity is a person. He has its own thoughts, activities, desires, form, character, feelings. He is the complete person, full fledged.
Question 2:
Sometimes this topic of lust is misunderstood by grhasthas. How can it be taken in a matured way so that it does not disturb the married life?
Gurudev uvaca
You don’t have to take sannyasa. You are in the grhastha ashram which means to follow the rules of that ashram properly. Sannayasi means no sex, no question about sex. Grhastha means no illicit sex, that means no sex outside marriage. One has to be careful about this. Sex is allowed only in grhastha, but there are certain rules prescribed so one must follow it. For example, liquor is sold at licensed outlets which leads to controlled usage. Sex should be regulated, controlled. One of the devotees has written a book entitled ‘Joy of No Sex’, which is the joy derived from the feeding the soul. As stated by Sri Kṛṣṇa in Bhagavad Gita,
balaṁ balavatāṁ cāhaṁ
kāma-rāga-vivarjitam
dharmāviruddho bhūteṣu
kāmo ’smi bharatarṣabha
Translation
I am the strength of the strong, devoid of passion and desire. I am sex life which is not contrary to religious principles, O lord of the Bhāratas [Arjuna]. (BG 7.11)
In the grhastha ashram sex is approved within certain limits. It is like a license to procreate. The difficulty is that one stays in the grhastha ashram forever. One should also take to vanaprastha. It does not mean that you have to go to the forest, but stay at home and practice detachment. The wife stays with the husband in the vanaprastha ashram, but there is no sex as Krsna says that sex is not Me, Detachment should be practiced. The age of 51 is the time to renounce by taking up vanaprastha – zero sex and fully engaging in the services of the supreme Lord Kṛṣṇa.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 22 января 2021 г.
ДУХОВНЫЙ ПРОГРЕСС НАЧИНАЕТСЯ, КОГДА ВОЖДЕЛЕНИЕ СТАНОВИТСЯ ЛЮБОВЬЮ
Гаура Премананде Хари Харибол! С нами воспевают преданные из 777 мест.
джайа шри-кришна-чайтанья прабху нитйананда
шри-адвайта гададхара шривасади-гаура-бхакта-вринда
Перевод:
Я выражаю свое глубокое почтение Шри Кришна Чайтанье, прабху Нитьянанде, Шри Адвайте, Гададхаре, Шривасе и всем остальным, следующим путем преданного служения.
(Панча-Таттва Маха-Мантра)
Харе Кришна Харе Кришна
Кришна Кришна Харе Харе
Харе Рама Харе Рама
Рама Рама Харе Харе
Здесь будет показана небольшая презентация на тему «Превращение вожделения в любовь».
аша-паша-шатаир баддхах
кама-Кродха-парайанах
иханте кама-бхогартхам
анйайенартха-санчайан
Перевод Шрилы Прабхупады:
Запутавшись в сетях сотен желаний, снедаемые вожделением и гневом, они всеми правдами и неправдами добывают деньги, чтобы с их помощью удовлетворять свои чувства.
(Б.Г. 16.12)
Люди в иллюзии не знают, что ими управляет Майя. То же самое и с людьми, ориентированными на вожделение. Да, мы похотливы, и поэтому вожделение – наш враг.
ш́рӣ-бхагава̄н ува̄ча
ка̄ма эша кродха эша
раджо-гун̣а-самудбхавах̣
маха̄ш́ано маха̄-па̄пма̄
виддхй энам иха ваирин̣ам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Верховный Господь сказал: О Арджуна, эта сила не что иное, как вожделение, которое возникает под влиянием гуны страсти, а затем превращается в гнев. Вожделение — всепожирающий, греховный враг всех существ в этом мире.
(Б.Г. 3.37)
Мы покорены вожделением и действуем под влиянием вожделения. У нас нет выбора. На самом деле у нас должна быть любовь. Мы должны любить Господа Кришну и Его преданных, бхагхават према, бхакта према. Эта презентация поможет нам понять, как отличить любовь от вожделения.
«Цель духовной жизни – научиться преобразовывать нашу эгоистическую природу в ее естественное и реальное состояние».
У нас есть эти предвзятые представления: «Я есть это тело», ахам бхоги, ахам сукхи, ахам балаван, «Я могущественный». Это наше эго, но это не наша настоящая природа. Вместо этого мы должны думать, что мы чистая духовная душа. Есть два типа эго: одно состоит в том, что мы думаем, что тело само по себе, а другое – я духовная душа, дашошми – я вечный слуга Кришны. Бхактивинода Тхакур говорит:
ахам кришна дас…
Я не лживый, а настоящий. Тело фальшиво и временно, но душа реальна, вечна, и это то, кем я являюсь. Духовная жизнь предназначена не для информации, а для преобразования. Мы собрали всю информацию со всего мира, но она должна привести к трансформации, а не только к накоплению знаний. Хранить знания бесполезно. Знания должны быть усвоены, и они должны хорошо усвоиться, чтобы преобразовать нас. Мы должны это сделать – Хрдянгам. Шрила Прабхупада сказал, что в сознании должна произойти революция. Вместо материального сознания должно появиться духовное сознание, то есть сознание Кришны. Господь Кришна объясняет в Бхагавад-гите происхождение вожделения:
иччха̄-двеша-самуттхена
двандва-мохена бха̄рата
сарва-бхӯта̄ни саммохам̇
сарге йа̄нти парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
О потомок Бхараты, о покоритель врагов, все живые существа, появляясь на свет, оказываются во власти иллюзорной двойственности, возникающей из желания и ненависти.
(Б.Г. 7.27)
Весь мир занят двойственностями. Одна двойственность – это влечение между мужчиной и женщиной, которое приводит к привязанности и вожделению.
дхйа̄йато вишайа̄н пум̇сах̣
сан̇гас тешӯпаджа̄йате
сан̇га̄т сан̃джа̄йате ка̄мах̣
ка̄ма̄т кродхо ’бхиджа̄йате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Созерцая объекты, приносящие наслаждение чувствам, человек развивает привязанность к ним, из привязанности рождается вожделение, а из вожделения — гнев.
(Б.Г. 2.62)
Вожделение и любовь – разные проявления одной и той же энергии. Из йога-майи рождается любовь, а из маха-майи рождается вожделение. Происхождение обеих – Кришна,
майа̄дхйакшен̣а пракр̣тих̣
сӯйате са-чара̄чарам
хетуна̄нена каунтейа
джагад випаривартате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Будучи одной из Моих энергий, о сын Кунти, материальная природа действует под Моим надзором, производя на свет все движущиеся и неподвижные существа. Под ее началом мироздание снова и снова возникает и уничтожается.
(Б.Г. 9.10)
Подобно электричеству, источнику тепла и холода, Господь Кришна является источником любви и вожделения.
«Вселенная содержит все 8,4 миллиона видов жизни, от Господа Брахмы до незначительных бактерий».
Шрила Прабхупада говорит, что от Индры до бактерии Индра-гопа (тип микроорганизма) каждый страдает вожделением и страдает от него. Вожделение охватывает все виды, будь то обезьяны, слоны, собаки и микробы.
карман̣й эва̄дхика̄рас те
ма̄ пхалешу када̄чана
ма̄ карма-пхала-хетур бхӯр
ма̄ те сан̇го ’ств акарман̣и
Перевод Шрилы Прабхупады:
Ты можешь выполнять предписанные тебе обязанности, но у тебя нет права наслаждаться плодами своего труда. Никогда не считай, что результаты твоих действий зависят от тебя, но при этом и не отказывайся от выполнения своих обязанностей.
(Б.Г. 2.47)
Поддерживайте свою семью, но это служение проводится у всех видов. Они также содержат свои семьи. Дело не только в людях. Деятельность ума – это мышление, чувство, желание. Когда мы думаем об объекте наших чувств, мы занимаемся этим в течение дня. Это приводит к сильному чувству зависти, а также к вожделению. Арджуна сказал:
арджуна ува̄ча
атха кена прайукто ’йам̇
па̄пам̇ чарати пӯрушах̣
аниччханн апи ва̄ршн̣ейа
бала̄д ива нийоджитах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Арджуна сказал: О потомок Вришни, какая сила заставляет человека совершать грехи даже против его воли?
(Б.Г. 3.36)
Кришна говорит, что похотливые мысли привязывают нас к сильному желанию, и мы в конечном итоге действуем в соответствии с ними, что приводит к повторяющимся рождениям и смерти.
ка̄йена ва̄ча̄ манасендрийаир ва̄
буддхйа̄тмана̄ ва̄нуср̣та-свабха̄ва̄т
кароти йад йат сакалам̇ парасмаи
на̄ра̄йан̣а̄йети самарпайет тат
Перевод Шрилы Прабхупады:
Какой бы характер ни приобрел человек за время обусловленной жизни, всем, что у него есть — телом, речью, умом, чувствами, разумом и очищенным сознанием, — он должен поклоняться Всевышнему, думая при этом: «Всё это я делаю ради удовольствия Господа Нараяны».
(Ш.Б. 11.2.36)
Как сказано в Чайтанья-чаритамрите,
кр̣ш̣н̣а-бахирмукха хан̃а̄ бхога-ва̄н̃чха̄ каре
никат̣а-стха ма̄йа̄ та̄ре джа̄пат̣ийа̄ дхаре
Перевод:
Как только у живого существа возникает желание наслаждаться материальной природой отдельно от Кришны, оно тут же становится жертвой майи, материальной энергии.
(«Шри Према-виварта», 6.2)
Если мы подливаем масла в огонь вожделения, если мы продолжаем подпитывать похотливые желания в нашем сердце, то огонь вожделения всегда будет гореть и никогда не угаснет.
Камавеш (слуга желания) охвачен вожделением.
ва̄чо вегам̇ манасах̣ кродха-вегам̇
джихва̄-вегам ударопастха-вегам
эта̄н вега̄н йо вишахета дхӣрах̣
сарва̄м апӣма̄м̇ пр̣тхивӣм̇ са ш́ишйа̄т
Перевод Шрилы Прабхупады:
Уравновешенный человек, способный контролировать свою речь и ум, сдерживать гнев и укрощать побуждения языка, желудка и гениталий, достоин принимать учеников повсюду в мире.
(Текст 1, Нектар Наставлений)
Чтобы поймать огромного слона, слониха заставляет его бежать за собой. В конце концов, он падает в яму, покрытую травой, которая была устроена так, чтобы поймать его. Вы только посмотрите, этого огромного слона поймали из-за вожделения.
анандмайа абхасат
Перевод:
«По природе и конституции каждое живое существо, включая Верховного Господа и каждую из Его неотъемлемых частиц, предназначено для вечного наслаждения».
(Веданта-сутра)
Все стремятся к счастью, потому что это природа души. Душа не желает грустить ни на мгновение. Таким образом, живое существо постоянно ищет счастья. Господь непогрешим, поэтому Он вечно счастлив. Но живое существо – это пограничная энергия Господа, и поэтому иногда оно бывает счастливым, а иногда грустным из-за взаимодействия с материей и желанием наслаждаться материальной природой. Когда душа взаимодействует с духом (Кришной), она обретает изначальную природу, которая ведет к истинному счастью. Как мы можем видеть в этом материальном мире, все стремятся к грубым чувственным удовольствиям – есть, спать, совокупляться и защищаться. Благодаря этому обусловленное живое существо пытается достичь ложного счастья.
ахара-нидра-бхайа-маитхунан ча саманам этат пашубхир наранам
Перевод:
Еда, сон, страх и продолжение рода присущи как животным, так и людям.
(Хитоупдеша, текст 25)
Эмоциональное удовлетворение достигается через общение, семейные союзы, ритуалы, поклонение полубогам. Все это поддерживает счастье ума живого существа. Кроме того, есть разумные люди, такие как ученые и философы, которые пытаются достичь счастья с помощью спекуляций. Есть экстрасенсы, пытающиеся обрести счастье через осознание Брахмана, ахам брахмасми, что приводит к падению. Нужно пытаться найти счастье через душу, а не через тело, ум, разум. Настоящее я – это душа. Мы душа, а не ум, который является тонким телом. Мы не материальный ум и разум. Все должно быть преобразовано в служение Кришне. Думать на уровне души, пытаясь построить наши отношения с Господом и Его преданными, тогда будет счастье вокруг нас. Икде тикде чохи кадэ… (Везде)
Живое существо хочет любви, а также дает любовь другим. Это желание любви присутствует у всех без исключения видов. Но, к сожалению, живые существа обманывают из-за вожделения во имя любви. В мире происходит взаимное влияние вожделения. Но в духовном мире наше истинное эго освещается служением Кришне, истинному наслаждающемуся,
бхокта̄рам̇ йаджн̃а-тапаса̄м̇
сарва-лока-махеш́варам
сухр̣дам̇ сарва-бхӯта̄на̄м̇
джн̃а̄тва̄ ма̄м̇ ш́а̄нтим р̣ччхати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Человек, полностью осознавший, что Я единственный, кто наслаждается всеми жертвоприношениями и плодами подвижничества, что Я верховный владыка всех планет и полубогов, а также друг и благодетель всех существ, избавляется от материальных страданий и обретает полное умиротворение.
(Б.Г. 5.29)
Тогда наше ложное эго исчезнет. Истинным наслаждающимся является Шри Кришна, но живые существа, находящиеся под чарами иллюзии, считают себя наслаждающимися и поступают соответственно. Следует отказаться от этого представления и искренне служить Господу.
сарва-дхарма̄н паритйаджйа
ма̄м экам̇ ш́аран̣ам̇ враджа
ахам̇ тва̄м̇ сарва-па̄пебхйо
мокшайишйа̄ми ма̄ ш́учах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Оставь все религии и просто предайся Мне. Я избавлю тебя от всех последствий твоих грехов. Не бойся ничего.
(Б.Г. 18.66)
Не следует соревноваться с Господом за то, что Он наслаждается.
иччха̄-двеша-самуттхена
двандва-мохена бха̄рата
сарва-бхӯта̄ни саммохам̇
сарге йа̄нти парантапа
Перевод Шрилы Прабхупады:
О потомок Бхараты, о покоритель врагов, все живые существа, появляясь на свет, оказываются во власти иллюзорной двойственности, возникающей из желания и ненависти.
(Б.Г. 7.27)
Джива завидует Господу вместе с другими живыми существами, что приводит к конкуренции за право наслаждаться. Пусть Господь наслаждается, поскольку Он действительно наслаждается, и Он предназначен для того, чтобы мы наслаждали Его.
а̄тмендрийа-прӣти-ва̄н̃чха̄ — та̄ре бали ‘ка̄ма’
кр̣шн̣ендрийа-прӣти-иччха̄ дхаре ‘према’ на̄ма
Перевод Шрилы Прабхупады:
Желание удовлетворять собственные чувства именуется камой, вожделением, а желание услаждать чувства Господа Кришны называют премой, или чистой любовью.
(Ч.Ч. Ади-лила 4.165)
итйа-сиддха кр̣шн̣а-према ‘са̄дхйа’ кабху найа
ш́раван̣а̄ди-ш́уддха-читте карайе удайа
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Чистая любовь к Богу вечно обитает в сердцах живых существ. Она не относится к категории вещей, получаемых извне. Когда сердце очищено слушанием и воспеванием, эта любовь пробуждается сама собой».
(Ч.Ч. Мадхья 22.107)
Это важная философия. Нужно внимательно слушать и не лениться слышать.
сиддха̄нта балийа̄ читте на̄ кара аласа
иха̄ ха-ите кр̣шн̣е ла̄ге судр̣д̣ха ма̄наса
Перевод Шрилы Прабхупады:
Искренний ученик не сочтет подобные обсуждения сиддханты пустыми препирательствами и не обойдет их вниманием, ибо они укрепляют ум. Благодаря им в уме развивается привязанность к Шри Кришне.
(Ч.Ч. Ади-лила 2.117)
Изначально мы являемся душами в сознании Кришны, но на нас нападает Майя, но, следуя девяти методам преданного служения, можно определенно достичь настоящей любви, Кришна Премы.
Вопросы и ответы
Вопрос 1: Может ли душа думать и чувствовать?
Гурудев сказал:
Конечно, если Господь Кришна может думать, тогда определенно может думать и душа, поскольку мы являемся неотъемлемыми частицами Господа. «Как отец, как дети», живое существо – это личность. У него есть свои мысли, деятельность, желания, форма, характер, чувства. Она полноценная личность, полноценная.
Вопрос 2:
Иногда грихастхи неправильно понимают эту тему вожделения. Как его принять по-серьезному, чтобы оно не мешало семейной жизни?
Гурудев сказал:
Вам не нужно принимать санньясу. Вы находитесь в грихастха-ашраме, что означает правильное следование правилам этого ашрама. Санньяси означает отсутствие секса, никаких вопросов о сексе. Грихастха означает запрет на секс, то есть секс вне брака. С этим нужно быть осторожным. Секс разрешен только в грихастха ашраме, но есть определенные правила, поэтому им нужно следовать. Например, спиртные напитки продаются в лицензированных торговых точках, что ведет к контролируемому употреблению. Секс нужно регулировать, контролировать. Один из преданных написал книгу под названием «Счастье без секса», которая представляет собой счастье, получаемое от удовлетворения души. Как сказал Шри Кришна в Бхагавад Гите:
балам̇ балавата̄м̇ ча̄хам̇
ка̄ма-ра̄га-виварджитам
дхарма̄вируддхо бхӯтешу
ка̄мо ’сми бхаратаршабха
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я сила сильных, свободная от страсти и желания. Я половая жизнь, не противоречащая законам религии, о предводитель Бхарат.
(Б.Г. 7.11)
В грихастха ашраме секс разрешается в определенных пределах. Это похоже на лицензию на размножение. Трудность в том, что человек остается в грихастха ашраме навсегда. Также следует принять ванапрастху. Это не значит, что нужно идти в лес, а оставаться дома и практиковать отрешенность. Жена остается с мужем в ашраме ванапрастха, но там нет секса, поскольку Кришна говорит, что секс – это не Я, следует практиковать непривязанность. 51 год – это время отречься, приняв ванапрастху – отказ от секса и полное участие в служении верховному Господу Кришне.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
21जनवरी 2021
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
(पञ्चतत्त्व महामन्त्र)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
सूनो जगजीवन! (उपस्थित भक्तों में से)
नाम का संकीर्तन हो रहा हैं। रूप गोस्वामी, प्रभुपाद कह रहे हैं। तन्नामरुपचरितादिसुकीर्तनानु हमें नाम रुपादि कीर्तन ,हमें आदि मतलब इत्यादि इत्यादि मतलब, हम समझा ही रहे हैं नाम का, रूप का, गुण का, लीला का, धाम का,परिकरों का कीर्तन करना चाहिए ।ऐसा जीवन व्यतीत करना चाहिए। नाम,रूप,गुण, लीला, धाम ,परिकरो के कीर्तन में, कीर्तनीय सदा हरी इसमें से नाम, रूप,गुण का हमने स्मरण किया। कुछ कथा कि कहो या किर्ति का गान किया,नाम का कीर्तन या नाम का महिमा।रूप हम जीवन भर केवल रूप का कीर्तन कर सकते है,जीवन भर नाम कीर्तन कर सकते, कितना सारा हैं। नाम का कीर्तन इतना है और रूप का कीर्तन,रूप कि कीर्ति, रूप का महिमा, रूपों का वैशिष्ट, रूपों का वर्णन इतना सारा है कि हम सदैव नित्यम भागवत सेवया कर सकते हैं। नाम,रूप, गुण,दोनों का तो कितना बखान हम कर सकते हैं। अनंत शेष जिनको सहस्त्र वदन भी कहते हैं। उनके एक हजार मुख हैं,अनंत शेष और वे गा ही रहे हैं;कीर्ति का गान कर रहे हैं, अपने हजार मुखों सें। ना जाने कब से वह ये कर रहे हैं जब से वह है तब से कर ही रहे हैं, और उसका कोई अंत नहीं है, अनंत है। भगवान अनंत हैं। कहते हैं ना अनंत…शेष। तो भी कुछ रही जाता हैं। अनंतशेष इतना सारा कहे जाने पर भी कुछ ना कुछ शेष रह जाता है, कहने का।ऐसे है,ऐसे हैं भगवान, ऐसे हैं कृष्ण। ऐसा है उनका नाम, ऐसा है उनका रूप, ऐसे उनके गुण हम बता रहे थे कितने सारे गुण ही है ,गुणों की खान हैं। हरि हरि! गुणार्णवस्य
वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखित संसार दावानल
गुणार्णव गुरु जनो को गुणार्णव कहा जा सकता है अर्णव मतलब गुण के सागर सागर गुरु तो भगवान कृष्ण के बारे में क्या कहा जाए। गुणार्णव गुणों के सागर। और इतना होते हुए भी उनको निर्गुण कहते हैं तो भगवान निर्गुण, निराकार है नाम रूप कितने इतने सारे रूप है इतने सुंदर रूप है तो भी प्रचार क्या है? भगवान निराकार हैं। तो हम कल बता रहे थे, निर्गुण मतलब भगवान के गुण भौतिक गुण नहीं है सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण भगवान ने नहीं है,वैसे भगवान निर्गुण है मतलब गुनातीत है तीन गुणों के परे हैं। अलौकिक गुणों से संपन्न है, युक्त है भगवान तो रूप की बात वैसी ही है निराकार भगवान का आकार भौतिक आकार नहीं हैं, प्राकृतिक नहीं है या प्रकृति से नहीं बना हैं। वह है सच्चिदानंदविग्रह: सत् चित्र आनंद विग्रह, विग्रह मतलब रूप,तो भगवान के आकार ही आकार हैं रूप ही रूप हैं।
अव्दैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभत्त्कौ गोविन्दमादिपरुषं तमहं भजामि।।
श्री ब्रम्ह संहिता 5.33
अनुवाद: -जो वेदों के लिए दुर्लभ है किंतु आत्मा कि विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ है, जो अद्वैत है, अच्छी है, अनादि है, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि है तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदि पुरुष भगवान गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
भगवान के अनंत रूप हैं। नाम, रूप, गुण और फिर लीला।जितने रूप है इतने सारी रूपों से भगवान लीला खेलते है, लीला करते हैं ।जो भी करते हैं भगवान, वह लीला ही हैं। गीता का उपदेश सुनाते हैं वह भी लीला ही हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
श्रीमद्भगवद्गीता 4.8
अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
दुष्टो का विनाश करते है, रावण का वध करते है, वो भी लीला ही हैं। योग निद्रा में पहुडे है,महाविष्णु भगवान वह भी उनकी लीला हैं।
गीतं मधुरं पीतं मधुरं
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥
श्री वल्लभाचार्य लिखित अधरं मधुरं गीत
अनुवाद: -उनका गायन मधुर है, उनके पीत वस्त्र (पीले वस्त्र) मधुर हैं, उनका खाना मधुर है, उनका शयन करना मधुर है, उनका सौंदर्य मधुर है, उनका तिलक मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर हैं।
भगवान का विश्राम करना, सोना भी अद्भुत है, मधुर है श्रीरंगम् में भगवान विश्राम कर रहे हैं उनके दर्शन के लिए लोग जाते हैं भगवान का हर कृत्य हर कार्य जो भी हिलना, डुलना, चलना,सोचना ,सोचना भी कार्य है, भावना हैं। भगवान में भावना हैं। भगवान भी भावना व्यक्त करते हैं, उन से प्रेम करते हैं भगवान कृष्ण और फिर कृष्ण अपने माधुर्य के लिए प्रसिद्ध हैं। भगवान कृष्ण में 64 गुण है, उनमें से चार विशेष गुण हैं। माधुर्य उनको कहते हैं प्रेम माधुर्य हैं। भगवान भक्तों से प्रेम करते हैं। प्रेम! भगवान में प्रेम हैं, उनका प्रेम किन के प्रति भक्तों के प्रति और कौन है?एक तो है भगवान और दुसरा है भक्त तीसरा कोई है ही नहीं। एक है भगवान ओर उनके है अंश।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.7
अनुवाद:- इस बध्द जगत में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बध्द जीवन के कारण वे छहों इंद्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं। जिनमें मन भी सम्मिलित हैं।
वैसे भगवान के अलग-अलग जो विस्तार हैं
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
श्रीमद्भागवतम् 1.3.28
अनुवाद:-उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
भगवान के वैसे दो प्रकार के अंश हैं। हम जीवात्मा भी अंश है और भगवान के अवतार भी, वे भी भगवान के अंश है स्व अंश, विभिन्न अंश। भगवान के जो अवतार है फिर बलराम है या..
रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु।
कृष्ण: स्वयं समभवत्परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
ब्रम्ह संहिता 5.39
अनुवाद: -जिन्होंने श्रीराम, नृसिंह, वामान इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान श्री कृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
भगवान के जो नाना अवतार है,
विस्तार है, वह भी भगवान के अंश ही हैं।और भगवान कृष्ण अंशी है और अंशी कृष्ण के अंश है ये इतने सारे विस्तार, अवतार भी उनको स्व अंश कहा है, और हम जो जीव है जीवात्मा भी भगवान के अंश है।और उनको कहा है विभिन्न अंश, स्वअंश भगवान के सारे जो अवतार है और भगवान के जो सारे जीव है जीवात्मा जो हम जीव है वे भी अंश ही हैं। वे हैं विभिन्न अंश इस प्रकार भगवान के कई सारे रूप हो गये। हरि हरि!
उन रूपों में स्वयं कृष्ण का जो रूप है वह रूप माधुरी वह सर्वोपरि हैं। उनका प्रेम माधुर्य और और अवतार भी उनके भक्तों से प्रेम करते हैं ।लेकिन कृष्ण का भक्तों के प्रति जो प्रेम है उस प्रेम की सीमा है असीम अतुलनीय हैं।मैचलेस!हरि हरि!
उनके और अवतार है उनका संबंध भगवान के साथ, भगवान स्वामी है, भगवान है,परमेश्वर है और उनके भक्त दास है, उसे दास्य भाव या फिर गौण भाव का रसों का आदान-प्रदान भगवान के अन्य अवतारों में अवतारों और भक्तों के मध्य में किंतु श्री कृष्ण के साथ जो लेनदेन या जो प्रेम का व्यवहार है, या व्यापार है,वह है साख्य रस है,और वात्सल्य रस, और है माधुर्य रस ,और उसमें भी पहले बता चुके हैं आपको अब नहीं कहूंँगा यह तो दूसरी बात है तो नाम,रूप गुण लीला कि बात हो रही है तो भगवान जो भी करते हैं वह उनका खेल ही है, लीला ही हैऔर भगवान कि लीला संपन्न होती रहती हैं। अष्टकालीय लीला जो वृंदावन की बात हैं।
व्रज तिष्ठन् करो! रूप गोस्वामी ने कहा हैं। तन्नामरुपचरितादिसुकीर्तनानु कीर्तन करो!नाम, रूप, लीला का कीर्तन करो! व्रज तिष्ठन् वृंदावन में रहते हुए! हरि हरि! या इस्कान के मंदिरो में रहते हुए,या अपने घर को मंदिर बनाते हुए। भगवान लीला करते हैं। विग्रह की लीलाएं होती हैं। साक्षी गोपाल विग्रह कि लीला या मदन मोहन की लीला, संवाद सनातन गोस्वामी के साथ या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि लीला जगन्नाथ स्वामी के साथ या फिर तुकाराम महाराज को भगवान का दर्शन देना। हरि हरि!
वे भी रूप हैं विग्रह भी रूप हैं और विग्रह भी लीला खेलते हैं। विग्रह भी भोजन करते हैं। विग्रह को भी हम राजभोग को ग्रहण करने के उपरांत भगवान विश्राम करते है, लीला हैं। उत्थान आरती का समय होता है तो भगवान को जगाते हैं। भगवान का अभिषेक होता है लीला हैं। भगवान का श्रृंगार करते हैं हम वह लीला हैं। भगवान मुरलीधर मुरली बजाते हैं और शुद्ध भक्त उस मुरली के नाद (सुर) सुनते हैं। हरि हरि!
माधुर्य लीला
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखित संसार दावानल
अनुवाद: -श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
गुरुजन क्या करते हैं? गुर्वाष्टक में कहां हैं। प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य
क्षणअनूक्षण कोई कीर्तन कर रहा हैं। रसास्वादन कर रहे हैं किस प्रकार करते हैं।
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
राधामाधव के माधुर्य लीला का,
उनके के गुणों का, उनके रूप का वर्णन कर रहा हैं। -नाम्नाम् उनके नाम का कोई कीर्तन कर रहा हैं, कोई श्रवण कर रहा है मतलब प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य लोलुप हो चुका है,लंपट हो चुका है,ये सब श्रवण करने में भी, कोई कहने में, कोई उसके श्रवण में, प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य हरि हरि!
यह लीला की बातें इतना ही कह सकते है और भी कह सकते हैं लेकिन इस परिस्थिति में हम बोल रहे हैं यहां तो इतना ही बोल सकते हैं।और फिर धाम की बात है ।धाम का भी कीर्तन करना चाहिए। धाम भी इतने सारे हैं, भगवान धाम में काम करते हैं ।उस काम को हम लीला कहते हैं। लीला खेलने के लिए कोई स्थान चाहिए ।वह स्थान धाम है और सारी सृष्टि के दो विभाजन हो चुके हैं, एक भौतिक साम्राज्य है और दूसरा आलौकिक साम्राज्य है ।अलौकिक साम्राज्य धाम है ।
भ. गीता 15.6
न तभ्दासयते सूर्यो न शशाक्डो न पावक:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तध्दाम परमं मम।।
अनुवाद: -वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चंद्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहाँ पहुंँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत में फिर से लौट कर नहीं आते।
और अन्य शास्त्रों में भी बहुत सारा वर्णन है ।श्रीमद्भागवतम में भी वर्णन है। वृंदावन ,मथुरा, द्वारका धाम, बैकुंठ, साकेत (अयोध्या) का वर्णन है। यह सब धाम है। यह जितने अवतार हैं उनके अपने-अपने धाम हैं। इसलिए उन अवतारों को धामी कहा जाता है। जिनका धाम होता है उन्हें धामी कहा जाता है। श्री कृष्ण वृंदावन के धामी हैं, श्री राम अयोध्या के धामी हैं, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मायापुर के धामी है, द्वारकाधीश द्वारका के धामी हैं ,द्वारकाधीश की जय! तो कई सारे धाम है ,उसके भी प्रकार, श्रेणियां और स्तर हैं ।और सब का विस्तार हुआ है ,आध्यात्मिक जगत में और इस भौतिक जगत में भी धाम है। वृंदावन धाम… वैसे वृंदावन भौतिक जगत में नहीं है ऐसा लगता है कि है।
गोलोकर वैभव लीला कोरिल प्रकाश
भगवान ने गोलोक की वैभव लीला गोकुल में प्रकाश की तो उसी गोलोक का विस्तार गोकुल है। अयोध्या भी यहां है, पंढरपुर और श्रीरंगम को भू वैकुंठ कहते हैं, जगन्नाथ पुरी धाम यहां भी है और वहां भी ,सर्वत्र है।
श्रीमद भागवतम 1.13.10
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता ॥
जहां भी भगवान के भक्त रहते हैं वही तीर्थ स्थान बन जाता है ,क्योंकि भगवान उनके हृदय में वास करते हैं।
गौर-बिहित, कीर्तन सुनी,आनंदे हृदय नाचे
शुद्ध भगत( शरणागति)
जे -दिन गृहे,भजन देखि गृहेते गोलोक भाय
शुद्ध भगत( शरणागति)
भक्ति विनोद ठाकुर कह गए जिस दिन मेरे घर में कीर्तन होता है, संत महात्मा आते हैं, भक्त आते हैं, साधु संग होता है और मृदंग बचता है, तो मृदंग और कीर्तन की ध्वनि जब मैं सुनता हूं तो मेरा ह्रदय आनंद से नाचता है। और मेरा घर गोलोकधाम बन जाता है। पहले आपका ह्रदय धाम हुआ,फिर आपका घर धाम हुआ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
अनुवाद : जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
संत महात्मा के आंखों में प्रेम के अंजन और अश्रु हैं। जब वे ऐसी दृष्टि से देखते हैं तो ह्रदय में उनको सदा भगवान का दर्शन होता है। तो ह्रदय धाम हो गया, या ह्रदय को विश्राम भी कहा गया है। तोमार हृदय सदा गोविंद विश्राम एक गीत में कहते है कि एक भक्त के ह्रदय में भगवान सुख पूर्वक विश्राम करते हैं।
तो हमारा ह्रदय धाम हो गया ,इसे कहते हैं दिल एक मंदिर है। जहां मंदिर है, जहां भगवान है, वहीं धाम है। फिर कहां धाम नहीं है? जब श्री राम वनवास के लिए जा रहे थे तब उन्होंने वाल्मीकि जी से पूछा मैं कहां रह सकता हूं ?वन में मेरा निवास कहां होगा ?तो वाल्मीकि जी ने कहा प्रभु पहले यह बताइए कि आप कहां नहीं रहते हैं? यदि ऐसा कोई स्थान है जहां आप नहीं हैं तो फिर वहां भी रहिए। और फिर आपने पूछा ही है कि आप कहां रह सकते हैं? तो मेरा यह विशेष निवेदन है कि हे प्रभु आप अपने भक्तों के हृदय प्रांगण में रहिये। भगवान जहां भी रहते हैं वह धाम है। इस प्रकार भगवान के धाम ही धाम हैं। और यह सब होते हुए भी दुनिया वालों को बिल्कुल पता नहीं है।
भ गीता 7.25
नाहं प्रकाश सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोSयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।
अनुवाद: -मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूंँ। उनके लिए तो मैं अपनी अंतरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूंँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूंँ।
महामाया से मैं सब को ढक लेता हूं। इसको प्रकाशित नहीं करता। तो ऐसी परिस्थिति के कारण असंख्य लोगों को धाम का ज्ञान नहीं है। जो मायावादी हैं भगवान के रूप को नहीं मानते ।जब रूप ही नहीं है तो लीला कैसे खेलेंगे? जब लीला ही नहीं खेलेंगे तो धाम की क्या आवश्यकता है ?
भ.ग 7.3
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ॥ ३ ॥
अनुवाद
कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है |
भ.ग. 4.9
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
जो केवल भगवान को तत्व से जानते हैं ,वे ही भगवान के धाम को प्राप्त करते हैं।नाम का तत्व है ,धाम का तत्व है, लीला का तत्व है, गुरु का भी तत्व है। जो भगवान को तत्व से नहीं जानते वह जानते ही नहीं हैं ।
ब्रम्ह संहिता 5.43
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
अनुवाद: -जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुंठ लोक (हरीधाम), महेश लोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों में विभिन्न स्वामियों को यथा योग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
ब्रह्मा जी देख रहे हैं। यह उनका साक्षात्कार है। वह देखो गोलोक! गोलोक निज धाम में कृष्ण वास करते हैं। यह धाम है और उस धाम में भगवान लीला खेलते हैं। खेल भी खेलना है तो खेलने के लिए खिलाड़ी चाहिए और यहां फिर भगवान के परिकर आ जाते हैं। भगवान के अनगिनत परिकर हैं। कुछ तो भूले भटके यहां इस ब्रह्मांड में भटक रहे हैं। उनकी गणना कौन कर सकता है? 8400000 योनियों में भटक रहे हैं। भ्रमित होते हैं।कुछ ही साथ आते हैं जैसे राजा कहीं जाते हैं तो उनके कुछ ही संगी साथी साथ आते हैं, जैसे सचिव इत्यादि। कोई मंत्री जाता है तो पूरी जनता को नहीं लेकर जाता। भगवान भी कुछ ही विशेष परिकरों के साथ प्रकट होते हैं। महाभारत में लाखों भक्तों का उल्लेख हुआ है। रामायण पढ़ो कितने सारे भगवान के परिकरों का उल्लेख है ।राम भक्त हनुमान की जय! सुग्रीव की जय! वशिष्ठ की जय! सब माताओं की जय! राजा दशरथ की जय! इतने सारे श्री राम के चरित्र में पतिकारों का उल्लेख है। फिर चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत, चैतन्य मंगल है। आप गिनोगे कितने भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ संकीर्तन करते हैं ?जब काज़ी की कोठी की तरफ चैतन्य महाप्रभु जा रहे थे, तो उस समय का चैतन्य भागवत में संकीर्तन का जो वर्णन है, कि कितने जन उस संकीर्तन में उपस्थित थे ,तो उसमे यह वर्णन है कि कई कोटि-कोटि भक्त उस कीर्तन में थे। तो कहां जीसस कहते हैं कि मैं भगवान का पुत्र हूं। हमारे इसाई बंधु ऐसा कहते है पर हम तो कुछ ही भक्तों का उल्लेख कर सकते हैं। भगवान के कितने पुत्र होने चाहिए? भगवान को सीमित क्यों बना रहे हो? जैसे आप गृहस्थ हो तो, आप दो आपके दो ,ऐसा चल रहा है ।पर पहले अष्ट पुत्र सौभाग्यवती हो, या दर्जन बेटे बेटियां हुआ करती थी ।गृहस्थों के जब इतने पुत्र पुत्रियां हो सकती हैं तो भगवान के कितने पुत्र पुत्रियां, भक्त, परिकर हो सकते हैं? वह भी उनका भगवान के साथ शाश्वत और घनिष्ठ संबंध है। कोई है दास ,तथा माता-पिता, प्रेयसी ,प्रियकर, ऐसे संबंध हैं। परिकर ही परिकर है। तो चैतन्य महाप्रभु के पहले मायापुर में परिकर,फिर जगन्नाथपुरी में परिकर,फिर वृंदावन में परिकर थे। और इसी तरह फिर कुलीन ग्राम में, श्रीखंड में और शांतिपुर में परिकर ही परिकर थे।
हरे कृष्ण
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
21 January 2021
Unlimited glories of Lord’s pastimes, abode and associates
Hare Kṛṣṇa!
We are chanting the holy names of the Lord Kṛṣṇa which is called Kirtana. As Srila Rupa Goswami says,
tan-nāma-rūpa-caritādi-sukīrtanānu-
smṛtyoḥ krameṇa rasanā-manasī niyojya
tiṣṭhan vraje tad-anurāgi-janānugāmī
kālaṁ nayed akhilam ity upadeśa-sāram
Translation
The essence of all advice is that one should utilize one’s full time – twenty-four hours a day – in nicely chanting and remembering the Lord’s divine name, transcendental form, qualities and eternal pastimes, thereby gradually engaging one’s tongue and mind. In this way one should reside in Vraja [Goloka Vṛndāvana-dhāma] and serve Kṛṣṇa under the guidance of devotees. One should follow in the footsteps of the Lord’s beloved devotees, who are deeply attached to His devotional service. (NOI 8)
Out of which we have been discussing about the glories of the names and the beautiful form of the Lord. kirtaniya sada harih! We can go on discussing about the same forever as it’s so vast. nityam bhagavata sevaya! Ananta Sesa has been singing the glories of the Lord from His thousand mouths since time immemorial but still he misses out on something – such is the vastness of Kṛṣṇa’s glories. One can describe unlimitedly about one’s spiritual master vande guro sri caranarvinda. Then what to say about the qualities of the Lord. Krsna is guna arnava – ocean of qualities. Despite this, some people say the Lord is formless; Nirguna means above the three modes of material nature. His form is not material. He is sat cit ananda, full of knowledge, bliss and eternity. As stated in Brahma Samhita,
advaitam achyutam anadim ananta-rupam
adyam purana-purusham navayauvanam cha
vedesu durlabham adurlabham atma-bhaktau
govindam adi-purusham tam aham bhajami
Translation
I worship Govinda, the primeval Lord, whose transcendental form is full of bliss, truth, substantiality and is thus full of the most dazzling splendor. Each of the limbs of that transcendental figure possesses in Himself, the full-fledged functions of all the organs, and eternally sees, maintains and manifests the infinite universes, both spiritual and mundane. (Brahma Samhita Text 5)
Whatever Kṛṣṇa does is His transcendental pastimes – narrating Bhagavad Gita, killing demons, lying in the causal ocean, or resting in Sri Rangam, His thinking, feeling, willing all are transcendental and eternal. Kṛṣṇa has 64 qualities and out of those there are 4 chief qualities. Prema Madhuri is the topmost which He exhibits with His devotees.
ete cāṁśa-kalāḥ puṁsaḥ
kṛṣṇas tu bhagavān svayam
indrāri-vyākulaṁ lokaṁ
mṛḍayanti yuge yuge
Translation
All of the above-mentioned incarnations are either plenary portions or portions of the plenary portions of the Lord, but Lord Śrī Kṛṣṇa is the original Personality of Godhead. All of them appear on planets whenever there is a disturbance created by the atheists. The Lord incarnates to protect the theists. (SB 1.3.28)
We living entities are known as vibinna amshas of the Lord. In this way there are many forms of Kṛṣṇa. His love for His devotees is matchless. There are five mellows in which the devotees connect with the Lord known as Sakhya Rasa, Shanta Rasa, Madhurya Rasa, Vatsalya Rasa, Dasya Rasa. Vraje tishthan as Srila Rupa Goswami emphasised that one should engage in Kirtana of the Lord’s name, form, qualities and pastimes. In Vrindavan the ashtakalya lila of the Lord takes place. One can remember these pastimes from anywhere and connect oneself with the Lord and His pastimes. There are many pastimes of the Lord with His devotees like that of Sanatana Goswami talking with his Deity and Saint Tukarama’s devotion to Lord Vitthala, Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu’s pastime with Lord Jagannatha at Puri temple. The Deity is the form of the Lord and performs multiple pastimes with His devotees. There are various devotional services like waking up the Deity, doing abhishek, offering bhoga, performing aratik.
In Gurvastaka there is a verse
shri-radhika-madhavayor apara- madhurya-lila-guna-rupa-namnam prati-kshanasvadana-lolupasya vande guroh shri-charanaravindam
Translation
The spiritual master is always eager to hear and chant about the unlimited conjugal pastimes of Radhika and Madhava, and Their qualities, names, and forms. The spiritual master aspires to relish these at every moment. I offer my respectful obeisances unto the lotus feet of such a spiritual master. (Text 5)
One should also remember the glories of the holy place, do kirtan of the dhama. The Lord’s pastimes predominantly takes place at two different places. The extraordinary place where the Lord resides is known as the spiritual world and the other one is the material world. The Lord says in Bhagavad Gita,
na tad bhāsayate sūryo
na śaśāṅko na pāvakaḥ
yad gatvā na nivartante
tad dhāma paramaṁ mama
Translation
That supreme abode of Mine is not illumined by the sun or moon, nor by fire or electricity. Those who reach it never return to this material world. (BG 15.6)
In Srimad Bhagavatam there are descriptions of different dhamas of the Lord like Mathura, Vrindavan, Dwaraka, Jagannatha Puri, Ayodhya and so on. The original dhamas have expanded in this material world.
bhavad-vidhā bhāgavatās
tīrthī-bhūtāḥ svayaṁ vibho
tīrthī-kurvanti tīrthāni
svāntaḥ-sthena gadā-bhṛtā
Translation
Saints of your caliber are themselves places of pilgrimage. Because of their purity, they are constant companions of the Lord, and therefore they can purify even the places of pilgrimage. (S.B. 1.13.10)
Bhaktivinoda Thakura also explains,
je-dina gṛhe bhajana dekhi,
gṛhete goloka bhāya
ānande hṛdoya nāce
Translation
When devotees come to my home and do kirtan with mrdanga, my house becomes Goloka.
In this way our house becomes a Dhama. When devotees witness the presence of Kṛṣṇa in their hearts, it also becomes dhama – a residing place of Kṛṣṇa.
When Lord Rama asked Sage Valmiki, “Where can I accommodate Myself in the forest?” Valmiki replied, “Is there any place where you do not reside? But since you are asking me, I would request you to reside in the hearts of Your devotees.”
nāhaṁ prakāśaḥ sarvasya
yoga-māyā-samāvṛtaḥ
mūḍho ‘yaṁ nābhijānāti
loko mām ajam avyayam
Translation
I am never manifest to the foolish and unintelligent. For them I am covered by My internal potency, and therefore they do not know that I am unborn and infallible [ BG. 7.25]
manuṣyāṇāṁ sahasreṣu
kaścid yatati siddhaye
yatatām api siddhānāṁ
kaścin māṁ vetti tattvataḥ
Translation
Out of many thousands among men, one may endeavor for perfection, and of those who have achieved perfection, hardly one knows Me in truth. (BG 7.1)
janma karma ca me divyam
evaṁ yo vetti tattvataḥ
tyaktvā dehaṁ punar janma
naiti mām eti so ’rjuna
Translation
One who knows the transcendental nature of My appearance and activities does not, upon leaving the body, take his birth again in this material world, but attains My eternal abode, O Arjuna. (BG 4.9)
goloka-namni nija-dhamni tale ca tasya
devi-mahesa-hari-dhamasu tesu tesu
te te prabhava-nicaya vihitas ca yesu
govindam adi-purusam tam aham bhajami
Translation
Lowest of all is located Devi-dhama [mundane world], next above it is Mahesa-dhama [abode of Mahesa]; above Mahesa-dhama is placed Hari-dhama [abode of Hari] and above them all is located Krishna’s own realm named Goloka. I adore the primeval Lord Govinda, who has allotted their respective authorities to the rulers of those graded realms. (BS text 16)
When you want to play some players are required. Similarly when the Lord wants to play His pastimes He requires associates. There are unlimited associates of the Lord. Who can count them? Many living entities who have become lost in this material world and are just passing through 8.4 million species of life. When the Lord appears, He brings some of His associates with Him. Just like when any king goes somewhere he takes some of the ministers and the entourage with him. They don’t carry all the people along with them. Similarly when Kṛṣṇa appears, He comes with His prominent associates. When we read Mahabharata, Ramayan so many devotees and associates have been mentioned along with the Lord, like Rama bhakta Hanuman, Sugriva, Vasistha, Dasharatha and so on. There is mention of so many devotees even in Caitanya-caritamrta, Caitanya Bhagavata and Caitanya Mangala, Can someone count how many associates of the Lord were there in the pastimes of the deliverance of Chand Kazi? They were in multi millions. You know Haridas Thakura. He was defamed for chanting the holy name of the Lord inspite of being a Muslim,
It is said that Jesus is the son of God. We know that this is a fact, but there are innumerable sons of God. Why should we limit it? There are so many sons of the Lord. If you are a house holder, you may have a few children ‘ham do hamare do.’ But once upon a time there used to be astaputra saubhagyavati bhava and there were so many children. If a householder can have so many children then how many sons, daughters, relatives and associates can the Lord have? Some associates of Kṛṣṇa are His friends, parents, lover, servant and so on. There were so many associates of Caitanya Mahaprabhu in Navadvipa, Vrindavan, Jagannatha Puri, and then in Kulin gram and Srikhand. We have discussed the name, form, qualities and pastimes of the Lord.
Hari Haribol!
QUESTIONS AND ANSWERS
Question 1
Can Mayavadi attain Lord Kṛṣṇa?
Gurudev uvaca
Mayavadi Kṛṣṇa apradhi. Mayavadis are offenders and so they cannot attain the Lord. They think Brahman is everything, sarvam khalvidam Brahma and we are brahma too aham brahmasi. I am Brahma. That is what they feel which is their illusion. They reach only till Brahman which is also God, but without form or qualities which is incomplete. They can only reach the effulgence of Kṛṣṇa, but cannot attain the beautiful formed Sri Krsna.
Question 2
In ISKCON we say that the living entities are part and parcel of the Lord, how to understand this?
Gurudev uvaca
On the tattva of acintya-bheda-abheda philosophy, the Lord said,
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. (BG 15.7)
Just like our hands, legs, feet are all parts of the body, similarly we are part of the complete whole. We exist because of the whole that exists that is Lord Kṛṣṇa. This is Bhakti Yoga otherwise our existence is useless. But because of our desire to live independently we have drifted away from Kṛṣṇa.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Наставления после совместной джапа сессии 21 января 2021 г.
Безграничная слава игр, обители и спутников Господа
Харе Кришна!
Мы повторяем святые имена Господа Кришны, это называется Киртан. Как говорит Шрила Рупа Госвами:
тан-на̄ма-рӯпа-чарита̄ди-сукӣртана̄ну-
смр̣тйох̣ крамен̣а расана̄-манасӣ нийоджйа
тишт̣хан врадже тад-анура̄ги-джана̄нуга̄мӣ
ка̄лам̇ найед акхилам итй упадеш́а-са̄рам
Перевод:
Все наставления сводятся к следующему: необходимо все время — двадцать четыре часа в сутки — сосредоточенно повторять божественное имя Господа и воспевать Его трансцендентный облик, качества и вечные игры, постепенно занимая этой деятельностью свой язык и ум. Всегда памятуя о святом имени, облике, качествах и вечных играх Кришны, человек должен жить во Врадже [Голоке Вриндавана-дхаме] и служить Кришне под руководством преданных. Необходимо идти по стопам преданных, которые очень дороги Господу и глубоко привязаны к преданному служению Ему.
(Нектар Наставлений Стих 8)
Из которых мы обсуждали славу имен и прекрасную форму Господа. киртания сада харих! Мы можем продолжать обсуждать одно и то же бесконечно, поскольку оно настолько обширно. нитйам бхагавата севайа! Ананта Шеша воспевает славу Господа из тысячи уст с незапамятных времен, но все же он что-то упускает – такова бескрайность славы Кришны. Можно бесконечно описывать своего духовного учителя ванде гурох шри чаранарвиндам. Тогда что говорить о качествах Господа. Кришна – это гуна арнава, океан качеств. Несмотря на это, некоторые люди говорят, что Господь бесформенен; Ниргуна означает выше трех гун материальной природы. Его форма не материальна. Он сат чит ананда, исполненный знания, блаженства и вечности. Как сказано в Брахма Самхите,
адваитам ачьютам анадим ананта-рупам
адйам пурана-пурушам нава-йаванан ча
ведешу дурллабхам адурллабхам атма-бхактау
говиндам ади-пурушам там ахам бхаджами
Перевод:
Я поклоняюсь Тому Предвечному Господу Говинде, недостижимому даже посредством Вед, но достижимому преданностью души; Он — единый, непогрешимый, безначальный и бесконечный; Он — начало; и хотя Он — старейший, Он вечно юн и прекрасен.
(Шри Брахма Самхита, 5.33)
Все, что делает Кришна, – это Его трансцендентные игры: повествование Бхагавад-гиты, убийство демонов, возлежание в причинном океане или отдых в Шри Рангаме. Его мысли, чувства, желания – все трансцендентно и вечно. У Кришны 64 качества, из которых 4 главных. Према Мадхури – это высшее качество, которое Он демонстрирует вместе со своими преданными.
эте ча̄м̇ш́а-кала̄х̣ пум̇сах̣
кр̣шн̣ас ту бхагава̄н свайам
индра̄ри-вйа̄кулам̇ локам̇
мр̣д̣айанти йуге йуге
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все перечисленные воплощения представляют собой либо полные части, либо части полных частей Господа, однако Господь Шри Кришна — изначальная Личность Бога. Они нисходят на разные планеты, когда там по вине атеистов возникают беспорядки. Господь нисходит, чтобы защитить верующих.
(ШБ 1.3.28)
Мы, живые существа, известны как вибинна амши Господа. Таким образом, есть много форм Кришны. Его любовь к своим преданным бесподобна. Есть пять вкусов, с помощью которых преданные соединяются с Господом, известными как Сакхья Раса, Шанта Раса, Мадхурья Раса, Ватсалья Раса, Дасья Раса. Враджа тиштхан, как Шрила Рупа Госвами, подчеркивал, что человек должен заниматься прославлением имени, формы, качеств и игр Господа. Во Вриндаване проходит аштака лила Господа. Эти игры можно вспомнить откуда угодно и связать себя с Господом и Его играми. Господь со Своими преданными проводит много игр, таких как беседа Санатаны Госвами со своим Божеством, и преданность Святого Тукарамы Господу Виттале, игра Шри Кришны Чайтаньи Махапрабху с Господом Джаганнатхой в храме Пури. Божество является формой Господа и проводит множество игр со Своими преданными. Существуют различные виды преданного служения, такие как пробуждение Божества, совершение абхишеки, предложение бхоги, выполнение арати.
В Гурваштаке есть стих
шри-радхика-мадхавайор апара- мадхурья-лила-гуна-рупа-намнам прати-кшанасвадана-лолупасйа ванде гурох шри-чаранаравиндам
Перевод:
Духовный учитель всегда стремится слушать и воспевать безграничные супружеские игры Радхики и Мадхавы, а также их качества, имена и формы. Духовный учитель стремится наслаждаться ими каждое мгновение. Я предлагаю свои почтительные поклоны лотосным стопам такого духовного учителя.
(5-й стих, Шри Гурваштака, Шрила Вишванатха Чакраварти Тхакур)
Также следует помнить о славе святого места, совершать киртан дхамы. Игры Господа преимущественно происходят в двух разных местах. Удивительное место, где обитает Господь, называется духовным миром, а другое – материальным миром. Господь говорит в Бхагавад Гите:
на тад бха̄сайате сӯрйо
на ш́аш́а̄н̇ко на па̄ваках̣
йад гатва̄ на нивартанте
тад дха̄ма парамам̇ мама
Перевод Шрилы Прабхупады:
Эта Моя высшая обитель не освещена ни солнцем, ни луной, ни огнем, ни электрическим светом. Те, кто достигает ее, уже не возвращаются в материальный мир.
(БГ 15.6)
В «Шримад-Бхагаватам» есть описания различных дхам Господа, таких как Матхура, Вриндаван, Дварака, Джаганнатха Пури, Айодхья и так далее. Изначальные дхамы воплотились в этом материальном мире.
бхавад-видха̄ бха̄гавата̄с
тӣртха-бхӯта̄х̣ свайам̇ вибхо
тӣртхӣ-курванти тӣртха̄ни
сва̄нтах̣-стхена гада̄бхр̣та̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
О мой господин, воистину такие преданные, как ты — это олицетворенные святые места. Ты несешь в своем сердце Личность Бога и потому превращаешь любое место в место паломничества.
(ШБ 1.13.10)
Бхактивинода Тхакур также объясняет:
дже-дина грихе, бхаджана декхи,
грихете голока бхая
а̄нанде хр̣дойа на̄че
Перевод:
Когда я вижу, как в моем доме поклоняются и служат Господу Хари,
он тут же превращается в Голоку Вриндавана. мое сердце танцует в экстазе!
(Песня вайшнавов Шуддха Бхакта Чарана Рену, стих 4, 6 Шрилы Бхакти Виноды Тхакура)
Таким образом, наш дом становится Дхамой. Когда преданные видят присутствие Кришны в своем сердце, оно также становится дхамой – местом обитания Кришны.
Когда Господь Рама спросил мудреца Вальмики: «Где мне поселиться в лесу?» Вальмики ответил: «Есть ли место, где Ты не живешь? Но поскольку Ты спрашиваешь меня, я прошу Тебя поселиться в сердцах Твоих преданных ».
на̄хам̇ прака̄ш́ах̣ сарвасйа
йога-ма̄йа̄-сама̄вр̣тах̣
мӯд̣хо ’йам̇ на̄бхиджа̄на̄ти
локо ма̄м аджам авйайам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Я никогда не являю Себя глупцам и невеждам. От них Меня скрывает Моя внутренняя энергия, и потому они не знают, что Я нерожденный и неисчерпаемый.
(БГ 7.25)
манушйа̄н̣а̄м̇ сахасрешу
каш́чид йатати сиддхайе
йатата̄м апи сиддха̄на̄м̇
каш́чин ма̄м̇ ветти таттватах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Из многих тысяч людей едва ли один стремится к совершенству, а из достигших совершенства едва ли один воистину познал Меня.
(БГ 7.3)
джанма карма ча ме дивйам
эвам̇ йо ветти таттватах̣
тйактва̄ дехам̇ пунар джанма
наити ма̄м эти со ’рджуна
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто знает божественную природу Моего явления и деяний, никогда больше не рождается в материальном мире. Покинув тело, он достигает Моей вечной обители, о Арджуна.
(БГ 4.9)
голока-намни ниджа-дхамни тале ча тасья
деви-махеша-хари-дхамасу тешу тешу
те те прабхава-ничая вихитах ча йена
говиндам ади-пурушам там ахам бхаджами
Перевод
Первой идет Деви-дхама, затем —Махеша-дхама, а выше Махеша-дхамы — Хари-дхама;выше же всех — Его собственный дом, Голока. Повелителю всех сил, присущих каждой из этих обителей — Ему — Предвечному Господу, Говинде, я поклоняюсь.
(Брахма-самхита 5.43)
Когда вы хотите играть, требуются какие-либо игроки. Точно так же, когда Господь хочет играть в Свои игры, Ему требуются спутники. У Господа неограниченное количество спутников. Кто их посчитает? Многие живые существа, заблудившиеся в этом материальном мире, проходят через 8,4 миллиона видов жизни. Когда является Господь, Он приводит с Собой некоторых из Своих спутников. Также как когда любой царь куда-то идет, он берет с собой некоторых министров и свиту. Они не ведут за собой всех людей. Точно так же, когда является Кришна, Он приходит со Своими выдающимися спутниками. Когда мы читаем Махабхарату, Рамаяну, вместе с Господом упоминается так много преданных и спутников, как Рама бхакта Хануман, Сугрива, Васиштха, Дашаратха и так далее. Даже в «Чайтанья-чаритамрите», «Чайтанья-Бхагавате» и «Чайтанья-мангале» упоминается так много преданных. Можно ли сосчитать, сколько спутников Господа было там в играх освобождения Чанда Кази? Их было несколько миллионов. Вы знаете Харидаса Тхакура. Он был оклеветан за воспевание святого имени Господа, несмотря на то, что он мусульманин.
Говорят, что Иисус – сын Бога. Мы знаем, что это факт, но есть бесчисленное множество сыновей Бога. Почему мы должны его ограничивать? У Господа так много сыновей. Если вы домохозяин, у вас может быть несколько детей «хам до хамаре до». Но когда-то давным-давно была аштапутра саубхагйавати бхава, и было так много детей. Если у домохозяина может быть столько детей, то сколько сыновей, дочерей, родственников и спутников может иметь Господь? Некоторые спутники Кришны – Его друзья, родители, возлюбленные, слуги и так далее. Было так много спутников Чайтаньи Махапрабху в Навадвипе, Вриндаване, Джаганнатха Пури, а затем в Кулинграме и Шрикханде. Мы обсудили имя, форму, качества и игры Господа.
Хари Харибол!
ВОПРОСЫ И ОТВЕТЫ
Вопрос 1: Может ли майявади достичь Господа Кришны?
Гурудев сказал
Майавади Кришна апрадхи. Майявади – оскорбители, и поэтому они не могут достичь Господа. Они думают, что Брахман – это все, сарвам халвидам Брахма, а мы тоже брахма ахам брахмаси. Я Брахма. Это то, что они чувствуют, что является их иллюзией. Они достигают только Брахмана, который также является Богом, но без формы или качеств, что является неполным. Они могут достичь только сияния Кришны, но не могут достичь прекрасного, полного Шри Кришну.
Вопрос 2: В ИСККОН мы говорим, что живые существа являются неотъемлемыми частицами Господа, как это понять?
Гурудев сказал
О таттве философии ачинтья-бхеда-абхеда Господь сказал:
мамаива̄м̇ш́о джӣва-локе
джӣва-бхӯтах̣ сана̄танах̣
манах̣-шашт̣ха̄нӣндрийа̄н̣и
пракр̣ти-стха̄ни каршати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Живые существа в материальном мире — Мои вечные отделенные частицы. Оказавшись в обусловленном состоянии, они вынуждены вести суровую борьбу с шестью чувствами, к числу которых относится ум.
(БГ 15.7)
Также как наши руки, ноги и ступни являются частями тела, точно так же мы являемся частью единого целого. Мы существуем как частица всего сущего, которое есть Господь Кришна. Это бхакти-йога, иначе наше существование бесполезно. Но из-за нашего желания жить независимо мы отдалились от Кришны.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक २०.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
गौर हरिबोल!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 786 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। वैसे जपा टॉक भी होता है जो कि शुरू हो रहा है। इसमें आप सभी का स्वागत है। आपका स्वागत है। हरि! हरि!
सुस्वागतम!
ऎसा सत्कार्य अथवा कृत्य के लिए आपका स्वागत है। हरि! हरि!
कल हम संकीर्तन स्कोर भी सुन रहे थे। कुछ भक्तों, प्रचारकों अथवा गीता वितरकों ने अपने अपने स्कोर भी घोषित किए थे अथवा सुनाए थे। वैसे आज ग्रंथ वितरण की ओवरऑल रिपोर्ट अथवा द बेस्ट परफॉर्मेंस स्कोर का अनाउंसमेंट होना है।
श्रील प्रभुपाद की जय!
श्रील प्रभुपाद दिव्य ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय!
श्रील प्रभुपाद ट्रांसडेन्टिअल बुक वितरण की जय!
गीता जयन्ती महोत्सव की जय! वितरकों की जय!
आज हम स्कोर सुनने वाले हैं।
उसके अतिरिक्त मैंने कल कुछ कहा था और भक्तों ने भी कुछ कहा था। कल भक्त ग्रंथ वितरण के अपने अनुभव, स्टोरीज ( कहानियां) साक्षात्कार सुना रहे थे। हरि! हरि! मैंने भी कल साथ ही साथ कुछ कहना प्रारंभ किया था। श्रील रूप गोस्वामी के उपदेशामृत के आठवें श्लोक का उल्लेख करते हुए कहा था-
तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु स्मृत्योः क्रमेण रसनामनसी नियोज्य। तिष्ठन व्रजे तद्नुरागि जनानुगामी कालं नयेदखिलमित्युपदेशसारम्।।
( श्रीउपदेशमृत श्लोक संख्या ८)
अनुवाद्- समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय- चौबीसों घंटे भगवान् के दिव्य नाम, दिव्य रूप, गुणों तथा नित्य लीलाओं का सुंदर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने में लगाये, जिससे उसकी जीभ तथा मन क्रमशः व्यस्त रहे। इस तरह व्रज ( गोलोक वृन्दावन धाम) में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्गदर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को भगवान् के उन प्रिय भक्तों के पदचिन्हों का अनुगमन करना चाहिए, जो उनकी भक्ति में प्रगाढ़ता से अनुरक्त है।
हमें इस प्रकार अपना काल या अपना जीवन अथवा समय अर्थात जीवन व्यतीत करना चाहिए, सारे उपदेशों का सार यही है। श्रील रूप गोस्वामी ने ऐसा भी कहा है। वैसे यह समय व्यतीत नहीं होगा। समय का व्यय….( नहीं कहेंगे) उन्होंने यह भी कहा
तिष्ठन व्रजे अर्थात ब्रज में रहो या धाम में रहो। इस्कॉन मंदिर में रहो या इस्कॉन मंदिर जाओ या फिर घर का ही मंदिर बनाओ।
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः स्थेन गदाभृता।।
( श्रीमद् भागवतम् १.१३.१०)
अनुवाद- हे प्रभु, आप जैसे भक्त, निश्चय ही, साक्षात पवित्र स्थान होते हैं। चूंकि आप भगवान् को अपने ह्रदय में धारण किए रहते हैं, अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थस्थानों में परिणत कर देते हैं।
आप जहां भी हो, उस स्थान को ब्रज अथवा वृंदावन बनाओ।
आप जहां पर भी हो, वहाँ धाम की स्थापना करो। हरि! हरि! रूप गोस्वामी का ऐसा भी उपदेश है कि आप अनुगामी बनो। ‘तद्नुरागि जनानुगामी’ अर्थात जो अनुरागी भक्त हैं, हम गौड़ीय वैष्णव रागानुग भक्ति का अवलंबन करते हैं।
जो भक्त या आचार्य या ब्रज के भक्त अलग-अलग रागों, भक्ति या रसों का आस्वादन करने वाले हैं, ऐसे भक्तों का अनुगमन करो। ऐसे भक्तों के अनुगामी बनो। ऐसे भक्तों को अपने जीवन का एक लक्ष्य या आदर्श बनाओ। उनके चरण कमलों का अनुसरण करो। यह अनुगमन हुआ, जिसे अनुगतय भी कहा है। ( हम उल्टे जा रहे हैं लेकिन हम थोड़ा पीछे से जा रहे हैं) इस श्लोक के प्रारंभ में कहा है कि ऐसे समय व्यतीत करें कि अपने समय का सदुपयोग करें, ब्रज अथवा धाम में रहें, पवित्र स्थल में रहें। अनुरागी भक्तों का अनुगतय स्वीकार करें। उनके अनुगामी बने।( हम पीछे से प्रारंभ करके आगे आ रहे हैं) तत्पश्चात उन्होंने कहा- रसनामनसी नियोज्य – अपनी जिव्हा और अपने मन में स्थापना करो अथवा बिठाओ।( किसको बिठाओ) तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु –
नाम, रूप, गुण, लीला धाम,परिकर आदि इन सब का कीर्तन करें।कीर्तनानु अर्थात उसका कीर्तन अथवा गान करें।
नाम का गान अथवा नाम का कीर्तन, रूप कीर्तन, गुण कीर्तन अर्थात कृष्ण के गुणों की कीर्ति का गान करें, लीला का गान करें। भगवान के नाम का गान अर्थात कीर्ति गौरव गाथा गाए और परिकरों के चरित्र का अध्ययन करें अथवा उन्हें सुने, सीखे, समझे और फिर उनका गान करें, उनकी कीर्ति बढ़ाएं। भगवान्, भक्तों व उनके परिकरों का गान करें व इन सब का कीर्तन करें। कीर्तन होता है तो श्रवण भी होता है। श्रवणं कीर्तन करें। स्मृत्योः क्रमेण अर्थात धीरे-धीरे स्मरण करें या स्मरण करते हुए कह सकते हैं। ( हम आपको अलग अलग तत्व बता रहे हैं।
हम इस श्लोक के अनुवाद को पुनः पढ़ते हैं, तत्पश्चात कुछ और कहते हैं। हमें कुछ और कहना तो था और कहना है) समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय अर्थात 24 घंटे भगवान के दिव्य नाम, दिव्य रूप, दिव्य गुणों तथा नित्य लीलाओं का सुंदर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने में लगाएं जिससे उनकी जिव्हा अर्थात रसना मन क्रमशः व्यस्त रहे। इस तरह उसे व्रज गोलोक वृंदावन धाम में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्ग दर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को भगवान के उन प्रिय भक्तों के पद चिन्हों का अनुसरण करना चाहिए जो भगवान की भक्ति में प्रगाढ़ता से अनुरक्त हैं। उनके पद चिन्हों का अनुकरण अथवा अनुगमन करना चाहिए। यह उपदेश का सार है। (मेरा विचार तो यह था और थोड़ा-थोड़ा यह भी था, मैंने कहा भी फिर आज भी थोड़ा कहना था और कहा भी, अभी भी अतिरिक्त कहा) नाम,रूप, गुण, लीला, धाम, परिकर का थोड़ा-थोड़ा उल्लेख करने का मैं सोच रहा था और उसको कहना था) कल हमने नाम के संबंध में कुछ कहा था वैसे यह विषय तो आप जानते हो और अलग से चर्चा भी की है। बहुत समय पहले नाम की चर्चा, रूप की चर्चा, गुणों की चर्चा, लीलाओं की चर्चा, धाम की चर्चा, परिकरों की चर्चा कर चुके हैं।
वैसे मैंने पहले भागवत सप्ताह भी किया था और एक दिन नाम की कथा सुनाई थी अथवा नाम का कीर्तन किया था या फिर द्वितीय दिवस रूप के संबंध में चर्चा हुई थी। मैं अब उसी के आधार पर ग्रंथ भी लिख रहा हूं। मैंने ग्रंथ का नाम “श्री कृष्ण स्वरूप चिंतन” दिया है जोकि फाइनल स्टेज में है। बहुत शीघ्र ही उसका प्रकाशन होगा तत्पश्चात आप उसे प्राप्त कर सकते हो और पढ़ सकते हो। श्री कृष्ण स्वरूप चिंतन यह अलग अलग स्वरूप है। भगवान का नाम, भगवान का स्वरूप है। भगवान् का रूप, भगवान का स्वरूप है अर्थात भगवान ही है। नाम भगवान ही है, रूप भगवान ही है गुण भगवान ही है, लीला भगवान ही है। लीला से भगवान को अलग नहीं किया जा सकता। यह सारे भगवान के स्वरुप हैं। भगवान के कई सारे नाम हैं।
विष्णु सहस्त्रनाम नाम है। कई नाम हैं।केवल विष्णु सहस्त्रनाम ही नहीं है, विट्ठल सहस्त्रनाम भी है, राधा सहस्त्रनाम नाम भी है। ऐसे ही नरसिंह भगवान् का भी सहस्त्र नाम है। नाम ही नाम है। भगवान वैसे नामी हैं। भगवान् के कई सारे नाम हैं। राम भी कृष्ण का एक नाम है।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।सहस्त्र नामभिस्तुल्यं राम- नाम वरानने।।
अनुवाद:- शिव जी ने अपनी पत्नी दुर्गा से कहा:- हे वरानना, मैं राम, राम राम के पवित्र नाम का कीर्तन करता हूं और इस सुंदर ध्वनि का आनंद लूटता हूं। रामचंद्र का यह पवित्र नाम भगवान विष्णु के एक हज़ार नामों के बराबर है।
शिवजी पार्वती को सुना रहे हैं कि ‘रमे रामे मनोरमे’ अर्थात वे इन नामों में रमते हैं। ये जो राम राम रामेति.. राम राम ये जो नाम है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
शिवजी, पार्वती को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि रमे रामे मनोरमे …मनोरमा का मनोरमे हुआ है। शिवजी, मनोरमा से कहते हैं कि मैं राम में रमता हूं। हम नाम को भी प्रार्थना करते हैं ‘मया सह रम्यस’ अर्थात मेरे साथ रमिये। हे कृष्ण! हे राधे! मेरे साथ रमिये। यह आत्मा की पुकार है। हम कहते हैं कि मेरे साथ भी रमिये। हम रमते हैं। जब हम भगवान के नामों का उच्चारण करते हैं तब हम भगवान में रम जाते हैं।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
(श्री मद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
भगवतगीता के 10वें अध्याय में चार विशेष श्लोकों में से एक श्लोक यह भी है। हम रमते हैं। हम भगवान् के भक्त, साधक है, हमें रमना है। कथयन्तश्च मां नित्यं भगवान् के नामों में रमना है। केवल नाम में ही नहीं रमना है, कृष्ण के रूप में भी रमना है, लीला में भी रमण करना है, ऐसा नहीं कि नाम अलग है, रूप अलग है, गुण अलग है, लीला अलग है, यह एक ही है।
अभिन्नतवा नाम नामिनो
भगवान् एक ही है। यह भगवान् स्वरूप है। हम केवल इतनी चर्चा करके आगे बढ़ रहे हैं। भगवान् के रूप ही रूप हैं।
वह स्वयं रूप भी है।
कॄष्ण अस्तु भगवान् स्वयं। अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरषं नवयौवनं च। वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
(ब्रह्म संहिता श्लोक संख्या ३३)
अनुवाद:- जो वेदों के लिए दुर्लभ है किंतु आत्मा की विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ है, जो अद्वैत है, अच्युत है, अनादि है, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदि पुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
ब्रह्माजी, ब्रह्म संहिता में कहते हैं ‘ हे भगवन! आपके अनंत रूप हैं। जितने वैकुंठ लोक हैं। वैकुंठ लोक का अर्थ यह नहीं कि एक ही लोक है। नहीं! इस ब्रह्मांड में ही कई सारे प्लैनेट्स( ग्रह) हैं, जिसे गैलेक्सी अथवा आकाशगंगा भी कहते हैं, उसमें कितने सारे ग्रह नक्षत्र तारे हैं। हम तो सिर्फ एक गैलेक्सी की बात कर रहे हैं जोकि हमारे पास में है। खगोल शास्त्रज्ञ कुछ कुछ लोकों का टेलीस्कोप से पता लगवाते हैं लेकिन इस एक ब्रह्मांड में और भी कई सारी गलेक्सीज़ या आकाशगंगाएं हैं। भगवान् अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक भी हैं। यह सारे ब्रह्मांड इस प्राकृतिक जगत में हैं और इसको एक पाद विभूति भी कहते हैं। तीन पाद विभूति भगवान का दिव्य धाम, वैकुण्ठ या गोलोक अथवा साकेत है। बहुत सारे ग्रह हैं। इसलिए मैंने इस आकाशगंगा का उल्लेख किया है। ऐसी आकाशगंगाएं हर ब्रह्मांड में हैं। ब्रह्मांड भी अनंत कोटी हैं और भगवान उनके नायक हैं। साथ ही साथ भगवान वैकुंठ नायक भी हैं। हर वैकुंठ लोक पर भगवान का एक एक रूप है। वासुदेव, संकर्षण, प्रधुम्न, अनिरुद्ध चतुर्भुज इस प्रकार भगवान् का विस्तार होता है। फिर संकर्षण से द्वितीय संकर्षण तत्पश्चात संकर्षण से महाविष्णु, गर्भोदक्शायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु। इस प्रकार भगवान के विस्तार अथवा अवतार हैं। यदि भगवान् के व्यापक रूपों की बात है तो भगवान के अलग-अलग अवतार हैं और भगवान के उतने ही सारे रूप हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
( श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
समय समय पर अलग अलग रूपों में जैसे नरसिंह रूप है, नरहरी रूप या राम शरीरा या कुर्म शरीरा इस प्रकार भगवान के अलग-अलग रूप हैं, भगवान् के अंसख्य रूप हैं। वे एक होते हुए भी अनेक बन जाते हैं अथवा अनेक रूप धारण करते हैं। उन रूपों से वे अलग अलग लीलाएं खेलते हैं। भगवान् निराकार नहीं हैं। भगवान के इतने सारे रूप ही रूप हैं, भगवान का स्वरूप है। इस संसार के लोग कितने अनाड़ी हैं, जो नास्तिक हैं और जो फिर आस्तिक हैं, उसमें जो मायावादी हैं या अद्वैतवादी हैं, उनका ज्ञान तो देखिए। यह सब ज्ञान की बात है कि भगवान हैं, उनके रूप हैं और उनका रूप शाश्वत है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ९.११)
अनुवाद:- जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।
‘अवजानन्ति मां मूढा’ लेकिन कुछ ऐसे मूढ अथवा गधे हैं, जो मेरे परम भाव अथवा मेरे शाश्वत भाव अथवा रूप को जानते नहीं हैं और कहते रहते हैं कि भगवान् निराकार हैं। भगवान् निराकार हैं। यदि गुण की बात होती है तब वे कहते हैं कि भगवान निर्गुण हैं। ऐसे निराकार या निर्गुण जिन शब्दों का प्रयोग होता है, उसे समझना होगा। आचार्य और गौड़ीय वैष्णव आचार्य भी समझाते हैं। श्रील प्रभुपाद भी हमें खूब समझाते रहे। वे हमें अपने ग्रंथों में समझा रहे हैं। हम उनके प्रवचन भी सुन सकते हैं। निर्गुण मतलब भगवान् का गुण नहीं हैं। भगवान् गुणहीन हैं? नहीं! नहीं! ऐसी बात नहीं है, निर्गुण मतलब भगवान में सतोगुण, रजोगुण,तमोगुण का गंध नहीं है। वे तीन गुणों अर्थात सत, रज, तम् से परे हैं। इसलिए भगवान् को निर्गुण कहते हैं अथवा कहा जा सकता है। भगवान् निर्गुण हैं अर्थात प्रकृति के जो भौतिक गुण हैं
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
(श्रीमद् भगवतगीता ३.२७)
अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।
प्रकृति के जो तीन गुण सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण हैं ये गुण भगवान् में नहीं हैं, इसलिए उनको निर्गुण भी कहा जा सकता है। ऐसा नहीं कि भगवान् में गुण ही नहीं हैं। भगवान् तो गुणों की खान हैं। गुणवान हैं।
भक्ति रसामृत सिंधु में श्रील रूप गोस्वामी ने भगवान के गुणों की सूची दी है। ऐसा नहीं कि भगवान में 64 ही गुण हैं, तत्पश्चात समाप्त। नही! और भी हैं। उसमें मुख्य मुख्य गुणों की चर्चा प्रारंभ हुई, उन्होंने उसमें 64 मुख्य गुणों का ही उल्लेख किया है जबकि भगवान में और भी गुण हैं। हरि! हरि!
कहीं भी हमें अगर गुण का दर्शन होता है अर्थात हमें कोई गुणी या गुणवान लोग या भक्त या महात्मा मिलते हैं, उनके उस गुण के स्त्रोत भगवान् हैं।
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम्। अजातशत्रव: शांता: साधव: साधुभूषण:।।
( श्रीमद् भागवतम ३.२५.२१)
अनुवाद:- साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।
साधु के आभूषण यही हैं। वह गुण संतों/ साधु के अलंकार हैं। तितिक्षवः अर्थात सहनशीलता और भक्तों का कारुण्य, सुहृदःअर्थात भक्त, वैष्णव अर्थात साधु उनका मैत्री पूर्ण व्यवहार और भी साधु के गुण हैं जैसे शांत होना। भक्त शांत होते हैं।
उनका चित्त शांत होता है। भगवान् तो फिर
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विशवाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध् यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलौकैकनाथम।।
( विष्णु सहस्त्र नाम)
यदि हमें भक्तों में कोई भी गुण दिखता है। वह गुण पहले भगवान् में होते हैं। फिर वह भगवान् के गुण जीव में आ जाते हैं। हम भगवान् के ही अंश हैं।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १५.७)
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है।
भगवान् में जो गुण हैं, वही गुण जीव में भी हैं लेकिन कुछ मात्रा कम हो सकती है परंतु गुण वही हैं। खान में भी सोना है अर्थात सोने की खान है। उसी सोने की खान में से कुछ सोना लेकर हम कुछ अलग आकार बनाते हैं, अगुँठी बनाते हैं। वह सोना जो खान में ढेर का ढेर रखा है,
हमारी अंगूठी में वही सोना समान क्वालिटी का होता है। हमारे में जो गुण हैं, वह भगवान् के कारण हैं। भगवान् में पहले हैं तत्पश्चात बाद में हममें भी हैं। क्योंकि हम उन्हीं के हैं अर्थात हम भगवान के अंश हैं। भगवान में गुण ही गुण हैं। भगवान गुणवान हैं। हरि! हरि!
हम यहीं विराम देते हैं।
नाम, रूप, गुण का थोड़ा जिक्र हुआ और आगे का यह विषय लीला, धाम और परिकर की चर्चा हम कल के सत्र में करेंगे। आज यह फ़ूड फ़ॉर थॉट के लिए पर्याप्त है। पर्याप्त है ना? एक दिन के लिए ही नहीं अपितु पूरे जीवन के लिए पर्याप्त है। यह भोजन या खुराक आपके आत्मा व आपके विचारों व आपके मस्तिष्क के पोषण के लिए है। ओके! यहीं पर रुक जाते हैं। यदि किसी का कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है तो पूछ सकते हैं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
20 January 2021
Krsna is the reservoir of all divine forms and qualities
Hare Krishna. Devotees from over 790 locations are chanting with us right now. All of you are welcome to this session for chanting and Japa talk. Welcome in this auspicious and pious engagement. We have been listening to different devotees with their scores and experiences and realisations but the announcement of the final scores are pending. Today we will get to know the best scores. All Glories to Srila Prabhupada and their distributors!
Yesterday I was also talking about the 8th verse of Nectar of Instruction written by Srila Rupa Goswami. kālaṁ nayed means how one should utilize their time. It was about how to live life, how time should be spent. This is the most important of all instructions. In all the instructions, the instruction about how one should utilize time is the most important. How should we spend our time?
tiṣṭhan vraje – Rupa Goswami says – Reside in Vrindavan any other holy dhama or reside in ISKCON or visit ISKCON. Go and stay in Vrindavan.
tīrthī-kurvanti tīrthāni – wherever you are or sthāne sthitāḥ means wherever you are, make that place Vraja, Vrindavan Dhama. Turn your home into temple and establish dhama. Rupa Goswami also instructs us to become anugāmī (following). He writes tad-anurāgi-janānugāmī. Those who are anuragi (deeply attached to devotional service) are the devotees. We, Gaudiya Vaisnava devotees depend on rāgānugā-bhakti (spontaneous love of Godhead). He says, become a follower. The devotees of Vraja are engrossed in services and exchanges with the Lord in different moods. You must become a follower of those devotees. It should be the goal of our life to associate with them and to follow into their footsteps. This is anugaman or anugatya (to be in their shelter). We are going backwards. It is mentioned how time should be utilised? How to make the best use of time? How to engage yourself? Stay in Vraja and follow in the footsteps of exalted and pure devotees and take their shelter. Then he said rasanā-manasī niyojya – engage your tongue and mind tan-nāma-rūpa-caritādi which mean establish a Deity in your heart, sing the glories of Their names, fame, form, qualities, pastimes, devotees, etc. Remember Them. Adi means etc. Sukīrtanānu means that one should sing the glories of His holy names, form, qualities, associates, dhama and pastimes. Hear about the glories of the nature and character of the associates and pure devotees of the Lord. Sing their glories also. smṛtyoḥ krameṇa – after hearing and singing one must also remember. These are different components. Lets us read the translation and then I wish to speak something more.
tan-nāma-rūpa-caritādi-sukīrtanānu-
smṛtyoḥ krameṇa _rabsanā-manasī niyojya
tiṣṭhan vraje tad-anurāgi-janānugāmī
kālaṁ nayed akhilam ity upadeśa-sāram
Translation
The essence of all advice is that one should utilize one’s full time – twenty-four hours a day – in nicely chanting and remembering the Lord’s divine name, transcendental form, qualities and eternal pastimes, thereby gradually engaging one’s tongue and mind. In this way one should reside in Vraja [Goloka Vṛndāvana-dhāma] and serve Kṛṣṇa under the guidance of devotees. One should follow in the footsteps of the Lord’s beloved devotees, who are deeply attached to His devotional service. [NOI 8]
This is the conclusion. Yesterday we discussed the holy name. We keep on discussing this. I wish to say something about this. We have already discussed the topic of name, form, qualities, pastimes, abode, etc. I have also done several Bhagavat Kathas and in one of them I had divided the days as per these topics. One day we discussed name and second day I gave class on His form. I have written a book on this and soon it is going to be published, the book is Sri Krsna Svarupa Cintana – Meditating on Sri Krsna’s form. It is in the final stage. Layout designs is in process. Soon you’re going to get the news. You can get that book and read it. Sri Krsna Svarupa Cintana. The Lord’s name, form, qualities is Lord Himself and the Lord’s pastimes are also non different from the Lord. We cannot separate them from each other.
First comes name. There are innumerable names of Krsna. Visnu Sahasra nama means 1000 names of Visnu. That is not it. Krsna has 1000’s of names, Radha has 1000’s of names, Rama has 1000’s of names, Nrsimha has 11000’s of names, Vitthala has 1000’s of names. Lord has many names. Rama is also a name of Krsna.
Ram Raameti Raameti, Rame Raame Manorame ।
Sahasra-Nama Tat-Tulyam, Raama-Naama Varanane ॥
Translation:
By meditating on “Rama Rama Rama” (the Name of Rama), my mind gets absorbed in the Divine Consciousness of Rama, which is transcendental. The name of Rama is as Great as the Thousand Names of God (Vishnu Sahasranama).
[Padma Purana 72.335]
Lord Siva says, “ O Parvati I enjoy being engrossed in deep meditation of the names of Lord Rama.” Raame means enjoy. Raame in Rama means I enjoy in Rama. Hare Krsna Hare Krsna Krsna Krsna Hare Hare, Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Lord Siva says, “ While chanting these holy names, I enjoy being engrossed in them.” He is addressing Parvati by saying Manorame. He is addressing Manorame(O Parvati), I enjoy being engrossed(Raame) in Rama.
maya saha ramasva (purport on Hare Krsna Mahamantra by Gopala Guru Goswami)
We pray to the holy name, O Krsna O Radhe please play pastimes with me. This is the call of our soul to Krsna and Radha that Hare! O Hari! Please take pleasure in me and enjoy with me. We all enjoy in him while chanting his names.
mac-cittā mad-gata-prāṇā
bodhayantaḥ parasparam
kathayantaś ca māṁ nityaṁ
tuṣyanti ca ramanti ca
Translation
The thoughts of My pure devotees dwell in Me, their lives are fully devoted to My service, and they derive great satisfaction and bliss from always enlightening one another and conversing about Me. [BG 10.9]
This is a verse from catuh shloki gita.
ramanti ca – enjoy transcendental bliss. Devotees of the Lord enjoy in Lord’s katha.
kathayantaś ca māṁ nityaṁ – conversing about Me always.
Playing means to be engaged. We all have to play in His names, in meditation of His form, qualities, pastimes. It’s not like that name is different from the Lord and that His qualities and pastimes are all different. No! This is all one.
bhinnatvān nāma-nāminoḥ – the name of Kṛṣṇa and Kṛṣṇa are identical.
Name of Krsna and the person Krsna are non different. Krsna also has a beautiful form. He has as many forms as his names.
kṛṣṇas tu bhagavān svayam – Lord Śrī Kṛṣṇa is the original Personality of Godhead.
advaitam acyutam anādim ananta-rūpam
ādyaṁ purāṇa-puruṣaṁ nava-yauvanaṁ ca
vedeṣu durlabham adurlabham ātma-bhaktau
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation
I worship Govinda, the primeval Lord, who is inaccessible to the Vedas, but obtainable by pure unalloyed devotion of the soul, who is without a second, who is not subject to decay, is without a beginning, whose form is endless, who is the beginning, and the eternal puruṣa; yet He is a person possessing the beauty of blooming youth. [Bs 5.33]
Brahma said in Brahma Samhita. You have unlimited forms as many as the Vaikuntha Planets. Vaikuntha is not just one planet. There are so many Vaikunthas. Just like in this material world there are so many celestial bodies just in the Milky way. There are so many galaxies, stars, planets in this universe only. This is just one galaxy which our scientists can see through astronomy. There are so many other galaxies and akash gangas. This is all in one universe. There are so many such universes. There is the Lord who is the Master of all these universes. All this together comprises one quarter of creation. Three quarters is the spiritual sky where Vaikuntha, Goloka, Saket is present. There are so many planets in the spiritual sky. Those are spiritual planets. That is why I mentioned galaxies and numerous akash gangas in a universe and there are many such universes. Anant koti brahmanda nayak means the Master of innumerable universes. He is also Lord of the Vaikuntha planet. There are innumerable Vaikuntha planets. Every Vaikuntha planet has a different form of Krsna. Vasudev, Sankarsan, Aniruddh, Pradyumna are the primary quadruple form (catur-vyūha) expansions.Then these further expand into other forms of Visnu. From Sankarsana, Catur-vyuha, Narayana then Dvitiya-catur-vyuha: again Sankarsana; from Sankarsana, Maha-Visnu; Maha-Visnu to Garbhodakasayi Visnu; Garbhodakasayi Visnu, then Ksirodakasayi Visnu and in this way the expansions continue.
Then also there are the forms of different incarnations. The Lord has that many forms. He comes in different forms in different ages. sambhavami yuge yuge – I advent Myself millennium after millennium. Sometimes He comes as Narasimha.
Narhari rupa – Narsimha’s form
Rama sharira – Rama’s form
Kurma sharira – Kurma’s (tortoise)
These are different forms. He has unlimited forms. He is one but takes innumerable forms. Every time in a different form He performs different pastimes. The Lord is not formless. We can see there are so many innumerable unlimited forms. The people of this world are so foolish. Those who are atheists and those who are theistic do not believe in the form of the Lord( impersonalists ). Lord has a form which is eternal. They say that the Lord has no form and no qualities. But The Lord says in Bhagavad Gita,
avajānanti māṁ mūḍhā
mānuṣīṁ tanum āśritam
paraṁ bhāvam ajānanto
mama bhūta-maheśvaram
Translation
Fools deride Me when I descend in the human form. They do not know My transcendental nature as the Supreme Lord of all that be. [BG 9.11]
avajānanti māṁ mūḍhā – there are some fools who don’t know Me.
paraṁ bhāvam ajānanto – they don’t know My transcendental nature and they keep on saying that God doesn’t possess any form or any quality. These words like impersonalists or nirguna have a different meaning as described by impersonalists. For them nirguna means without qualities.
Our acaryas and Srila Prabhupada have been explaining Nirguna. Nirguna doesn’t mean that the Lord has no qualities, but it means that Lord is beyond the three modes of Nature. He is not influenced by the modes of goodness, passion and ignorance. He doesn’t possess a tinge of any material quality. Krsna says,
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ
ahaṅkāra-vimūḍhātmā
kartāham iti manyate
Translation
The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature. [BG 3.27]
These three modes of material nature are not present in Lord. Otherwise,He is a reservoir of qualities. He is mine of qualities. In Nectar Of Devotion, 64 qualities are mentioned by Srila Rupa Goswami. This doesn’t mean there are only 64 but there are many more. But these are main qualities. Infact he is the source of all the qualities that exist in this world. But since Lord is not bound by the three modes of nature so he is Nirguna.He has so many qualities.
titikṣavaḥ kāruṇikāḥ
suhṛdaḥ sarva-dehinām
ajāta-śatravaḥ śāntāḥ
sādhavaḥ sādhu-bhūṣaṇāḥ
Translation
The symptoms of a sādhu are that he is tolerant, merciful and friendly to all living entities. He has no enemies, he is peaceful, he abides by the scriptures, and all his characteristics are sublime. [SB 3.25.21]
These qualities are like ornaments of a sadhu.
titikṣavaḥ—tolerant;
kāruṇikāḥ—merciful;
suhṛdaḥ—friendly to everyone
śāntāḥ—peaceful. Devotees are peaceful. They have peaceful mind.
Shaantaakaaram bhujagashayanam padmanaabham suresham
[Visnu sahastra nam]
Translation
(I Meditate on Lord Vishnu) Who has a Serene Appearance (which fills our inner being with Peace); Who is Lying on (the Bed of) Serpent (Ananta or Adisesha, representing the eternal Primal Energy or Mula Prakriti); From Whose Navel is springing up a Lotus (which is the source of all Creations through Brahmadeva); and Who is (presiding over the various elements of those Creations as) the Lord of the Devas.
He is tolerance, peaceful and friendship. All qualities are in Him. Wherever you see any qualities in the world, in devotees, these are originally sourced from Krsna. After all the jiva is a minute parcel of Krsna.
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. [BG 15.7]
Whatever qualities the Lord has, are also present in a Jiva but in a smaller quantity. It is just like a little gold from the gold mine is the same in quality, but different in quantity. We can make a small ring from that little gold or anything from that mine of gold. The quality is the same in both, but the quantity is different. In the mine there must be loads of gold, but not in the ring. Whatever qualities we possess, it is actually present in Krsna first and then in us because we are His part and parcel. The Lord is full of qualities. We saw that the Lord has innumerable names, forms and qualities.
The next topics will be pastimes, abodes and devotees in the next class. This food for thought is sufficient for today. Not only today, it is enough for you to think on your whole life.
Hare Krishna.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Наставления после совместной джапа сессии 20 января 2021 г.
Кришна – источник всех божественных форм и качеств
Харе Кришна. Прямо сейчас с нами воспевают преданные из более чем 790 мест. Приглашаем всех вас на эту конференцию для воспевания и беседы о джапе. Добро пожаловать в это благоприятное и благочестивое занятие. Мы слушали разных преданных с их результатами, опытом и реализациями, но объявление окончательных результатов еще не сделано. Сегодня мы узнаем лучшие результаты. Вся слава Шриле Прабхупаде и распространителям его книг!
Вчера я также говорил о 8-м стихе «Нектара наставлений», написанном Шрилой Рупой Госвами. калах найед означает, как следует использовать свое время. Речь шла о том, как прожить жизнь, на что нужно тратить время. Это самое важное из всех наставлений. Во всех наставлениях наиболее важно наставление о том, как следует использовать время. Как нам проводить время?
тихан врадже – Рупа Госвами говорит – Живите во Вриндаване в любой другой святой дхаме, или живите в ИСККОН, или посещайте ИСККОН. Идите и оставайтесь во Вриндаване.
тиртхи-курванти тиртхани – где бы вы ни были, или стхане стхитах означает, где бы вы ни были, сделайте это место Враджей, Вриндаван Дхамой. Превратите свой дом в храм и установите дхаму. Рупа Госвами также наставляет нас стать анугами (последователями). Он пишет тад-анураги-джананугами. Те, кто являются анураги (глубоко привязанными к преданному служению), являются преданными. Мы, преданные Гаудия-вайшнавов, зависим от рагануга-бхакти (спонтанной любви к Богу). Он говорит, станьте последователем. Преданные Враджа в разном настроении поглощены служением и общением с Господом. Вы должны стать последователем этих преданных. Общаться с ними и идти по их стопам должно быть целью нашей жизни. Это анугаман или анугатья (находить у них прибежище). Мы идем назад. Упоминается, как следует использовать время? Как лучше всего использовать время? Как заниматься? Оставайтесь во Врадже, следуйте по стопам возвышенных и чистых преданных и примите их прибежище. Затем он сказал расана-манаси ниёджйа – займите свой язык и ум тан-нама-рупа-чаритади, что означает установление Божества в своем сердце, воспевайте славу Их имен, славы, формы, качеств, игр, преданных и т. д. Помните Их . Ади означает и т. д. Сукиртанану означает, что человек должен воспевать славу Его святых имен, формы, качеств, спутников, дхамы и игр. Услышьте о славе природы и характера спутников и чистых преданных Господа. Воспевайте также их славу. смр̣тйох̣ крамен̣а – услышав и спев, нужно также помнить. Это разные компоненты. Давайте прочитаем перевод, а потом я хочу сказать еще что-нибудь.
тан-на̄ма-рӯпа-чарита̄ди-сукӣртана̄ну-
смр̣тйох̣ крамен̣а расана̄-манасӣ нийоджйа
тишт̣хан врадже тад-анура̄ги-джана̄нуга̄мӣ
ка̄лам̇ найед акхилам итй упадеш́а-са̄рам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все наставления сводятся к следующему: необходимо все время — двадцать четыре часа в сутки — сосредоточенно повторять божественное имя Господа и воспевать Его трансцендентный облик, качества и вечные игры, постепенно занимая этой деятельностью свой язык и ум. Всегда памятуя о святом имени, облике, качествах и вечных играх Кришны, человек должен жить во Врадже [Голоке Вриндавана-дхаме] и служить Кришне под руководством преданных. Необходимо идти по стопам преданных, которые очень дороги Господу и глубоко привязаны к преданному служению Ему.
(Нектар Наставлений Стих 8)
Это заключение. Вчера мы обсуждали святое имя. Мы продолжаем это обсуждать. Я хочу кое-что сказать об этом. Мы уже обсуждали тему имени, формы, качеств, игр, обители и т. д. Я также провел различные Бхагават Катхи, и в одной из них я разделил дни по этим темам. Однажды мы обсудили имя, а на второй день я провел лекцию по Его форме. Я написал об этом книгу, и скоро она будет опубликована, это книга «Шри Кришна Сварупа Чинтана – Медитация на форму Шри Кришны». Она находится на завершающей стадии. Макетирование находится в процессе. Скоро вы получите новости. Вы можете взять эту книгу и прочитать ее. Шри Кришна Сварупа Чинтана. Имя, форма и качества Господа – это Сам Господь, и игры Господа также неотличны от Господа. Мы не можем отделить их друг от друга.
Сначала идет имя. Есть бесчисленное множество имен Кришны. Вишну Сахасра нама означает 1000 имен Вишну. Это не так. У Кришны тысячи имен, у Радхи – тысячи имен, у Рамы – тысячи имен, у Нрисимхи – тысячи имен, у Витталы – тысячи имен. У Господа много имен. Рама – это также имя Кришны.
Рама Рама Рамети, Раме Раме Манораме;
Сахасренама таттулам, рама нама варанане
Перевод
Медитируя на «Рама Рама Рама» (Имя Рамы), мой Разум погружается в Божественное Сознание Рамы, которое Трансцендентно, Имя Рамы так же велико, как Тысяча Имен Вишну
(Сахасранама-стотра, Уттара -ханда, Падма Пурана 72.335)
Господь Шива говорит: «О Парвати, мне нравится погружаться в глубокую медитацию на имена Господа Рамы». Рааме означает наслаждаться. Рааме в Раме означает, что я наслаждаюсь Рамой.
Харе Кришна Харе Кришна Кришна Кришна Харе Харе,
Харе Рама Харе Рама Рама Рама Харе Харе.
Господь Шива говорит: «Когда я повторяю эти святые имена, я наслаждаюсь ими». Он обращается к Парвати, говоря Манораме. Он обращается к Манораме (о Парвати). Мне нравится быть поглощенным (Рааме) Рамой.
майа саха рамасва (комментарий Гопала Гуру Госвами к Харе Кришна Махамантре)
Мы молимся святому имени: о Кришна, о Радхе, пожалуйста, задействуйте меня в Своих играх. Это зов нашей души к Кришне и Радхе, Харе! О Хари! Пожалуйста, наслаждайся мной и наслаждайся со мной. Мы все наслаждаемся им, повторяя его имена.
вомач-читта̄ мад-гата-пра̄н̣а̄
бодхайантах̣ параспарам
катхайанташ́ ча ма̄м̇ нитйам̇
тушйанти ча раманти ча
Перевод Шрилы Прабхупады:
Все мысли Моих чистых преданных поглощены Мной, и вся их жизнь посвящена Мне. Всегда делясь друг с другом знанием и беседуя обо Мне, они испытывают огромное удовлетворение и блаженство.
(БГ 10.9)
Это стих из чатур шлоки гиты.
раманти ча – наслаждайтесь трансцендентным блаженством. Преданные Господа наслаждаются катхой Господа.
катхайантаś ча мам нитйах – всегда говорящие обо Мне.
Играть – значит заниматься. Мы все должны играть в Его имена, медитировать на Его формы, качества и игры. Это не значит, что Его имя отличается от Господа и что Его качества и игры разные. Нет! Это все одно.
бхиннатван нама-намино – имена Кришны и Кришна идентичны.
Имя Кришны и личность Кришна неотличны. У Кришны тоже красивая форма. У него столько же форм, сколько и его имен.
кшас ту бхагаван свайам – Господь Шри Кришна – изначальная Личность Бога.
адваитам ачйутам анадим ананта-рупам
адйам пурана-пурушам нава-йауванам ча
ведешу дурлабхам адурлабхам атма-бхактау
говиндам ади-пурушам там ахам бхаджами
Перевод:
Я поклоняюсь Тому Предвечному Господу Говинде, недостижимому даже посредством Вед, но достижимому преданностью души; Он — единый, непогрешимый, безначальный и бесконечный; Он — начало; и хотя Он — старейший, Он вечно юн и прекрасен.
(Брахма-самхита 5.33)
Брахма сказал в «Брахма-самхите». У Тебя неограниченное количество форм, сколько планет Вайкунтх. Вайкунтха – это не одна планета. Есть так много Вайкунтх. Также как в этом материальном мире есть так много небесных тел только в Млечном Пути. Только в этой вселенной так много галактик, звезд, планет. Это всего лишь одна галактика, которую наши ученые могут увидеть с помощью астрономии. Есть так много других галактик и акаш ганг. Это все в одной вселенной. Таких вселенных так много. Есть Господь, Владыка всех этих вселенных. Все это вместе составляет одну четверть творения. Три четверти – это духовное небо, где присутствуют Вайкунтха, Голока, Сакет. В духовном небе так много планет. Это духовные планеты. Вот почему я упомянул галактики и многочисленные акаш ганги во вселенной, а таких вселенных много. Анант коти брахманда найак означает Владыка бесчисленных вселенных. Он также является Владыкой планет Вайкунтхи. Есть бесчисленное множество планет Вайкунтхи. На каждой планете Вайкунтха есть своя форма Кришны. Васудева, Санкаршан, Анируддх и Прадьюмна являются первичными экспансиями четверной формы (чатур-вьюха), которые затем расширяются в другие формы Вишну. От Санкаршаны, Чатур-вьюха, Нараяна, затем Двития-чатур-вьюха: снова Санкаршана; из Санкаршаны – Маха-Вишну; Маха-Вишну – Гарбходакашайи Вишну; Гарбходакашайи Вишну, затем Кширодакашайи Вишну, и таким образом экспансии продолжаются.
Также есть формы разных воплощений. У Господа столько форм. Он бывает в разных формах в разные эпохи. самбхавами юге юге – Я прихожу эпоху за эпохой. Иногда Он приходит как Нарасимха.
Нархари рупа – форма Нарсимхи
Рама шарира – форма Рамы
Курма шарира – Курма (черепаха)
Это разные формы. У него неограниченное количество форм. Он один, но принимает бесчисленные формы. Каждый раз в другой форме Он совершает разные игры. Господь не бесформенен. Мы видим, что существует так много бесчисленных неограниченных форм. Люди этого мира такие глупые. Те, кто являются атеистами и теистами, не верят в форму Господа (имперсоналисты). Господь имеет форму, которая вечна. Говорят, что у Господа нет ни формы, ни качеств. Но Господь говорит в Бхагавад Гите:
аваджа̄нанти ма̄м̇ мӯд̣ха̄
ма̄нушӣм̇ танум а̄ш́ритам
парам̇ бха̄вам аджа̄нанто
мама бхӯта-махеш́варам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Глупцы смеются надо Мной, когда Я прихожу в материальный мир в облике человека. Им неведома Моя духовная природа верховного повелителя всего сущего.
(БГ 9.11)
аваджа̄нанти ма̄м̇ мӯд̣ха̄ – есть глупцы, которые Меня не знают.
парам̇ бха̄вам аджа̄нанто – они не знают Моей трансцендентной природы и продолжают говорить, что Бог не обладает какой-либо формой или какими-либо качествами. Такие слова, как имперсоналисты или ниргуна, имеют другое значение, описанное имперсоналистами. Для них ниргуна означает отсутствие качеств.
Наши ачарьи и Шрила Прабхупада объясняли Ниргуну. Ниргуна не означает, что Господь не имеет качеств, но это означает, что Господь находится за пределами трех гун Природы. На него не влияют гуны благости, страсти и невежества. У него нет ни малейшего материального оттенка. Кришна говорит,
пракр̣тех̣ крийама̄н̣а̄ни
гун̣аих̣ карма̄н̣и сарваш́ах̣
ахан̇ка̄ра-вимӯд̣ха̄тма̄
карта̄хам ити манйате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Введенная в заблуждение ложным эго, душа считает себя совершающей действия, которые на самом деле совершаются тремя гунами материальной природы.
(БГ. 3.27)
Эти три гуны материальной природы отсутствуют в Господе. В противном случае Он – истосник качеств. У Него много качеств. В «Нектаре преданности» Шрила Рупа Госвами упоминает 64 качества. Это не значит, что их всего 64, но их намного больше. Но это основные качества. Фактически, он является источником всех качеств, существующих в этом мире. Но поскольку Господь не связан тремя гунами природы, он и есть Ниргуна. У него так много качеств.
титикшавах каруниках сухридах сарва-дехинам
аджата-шатравах шантах садхавах садху-бхушанах
Перевод Шрилы Прабхупады:
Садху терпелив и милосерден, он – друг всех живых существ. У него нет врагов, он умиротворен, строго следует предписаниям шастр и наделен всеми добродетелями.
(ШБ 3.25.21)
Эти качества подобны украшениям садху.
титикшавах – терпимый;
каруниках – милостивый;
сухридах – дружелюбный ко всем
шантах – мирный. Преданные миролюбивы. У них мирный ум.
Шантаакаарам бхуджагашаянам падманаабхам сурешам
(Вишну сахастра нам)
Перевод
(Я медитирую на Господа Вишну), Который имеет Безмятежный вид (который наполняет наше внутреннее существо Покоем); Кто лежит на (ложе) змея (Ананта или Адишеша, олицетворяющих вечную Изначальную энергию или Мула Пракрити); Из Чьего Пупа растет Лотос (который является источником всех Творений через Брахмадеву); и Кто (председательствует над различными элементами этих Творений в качестве) Владыки Дэвов.
Он терпимость, миролюбие и дружба. Все качества в Нем. Везде, где вы видите в мире какие-либо качества, в преданных, они исходят от Кришны. В конце концов, джива – это крошечная частичка Кришны.
мамаива̄м̇ш́о джӣва-локе
джӣва-бхӯтах̣ сана̄танах̣
манах̣-шашт̣ха̄нӣндрийа̄н̣и
пракр̣ти-стха̄ни каршати
Перевод Шрилы Прабхупады:
Живые существа в материальном мире — Мои вечные отделенные частицы. Оказавшись в обусловленном состоянии, они вынуждены вести суровую борьбу с шестью чувствами, к числу которых относится ум.
(БГ 15.7)
Какие бы качества ни были у Господа, они также присутствуют в Дживе, но в меньшем количестве. Это похоже на то, как немного золота из золотого рудника одинакового качества, но другого по количеству. Мы можем сделать маленькое кольцо из этого маленького количества золота или чего-нибудь из этого золотого рудника. Качество у них одинаковое, но количество разное. В шахте должно быть много золота, но не в кольце. Какими бы качествами мы ни обладали, они на самом деле сначала присутствуют в Кришне, а затем в нас, потому что мы – Его неотъемлемые частицы. Господь полон качеств. Мы видели, что Господь имеет бесчисленное множество имен, форм и качеств.
Следующими темами будут игры, обитель и преданные следующего класса. На сегодня этой пищи для размышлений достаточно. Не только сегодня, вам достаточно пищи для размышлений на всю жизнь.
Харе Кришна.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
19 जनवरी 2021
हरे कृष्ण। 800 स्थानों से आज जप हो रहा है। समझ रहे हो ? हरि हरि। आप सभी का पुनः पुनः स्वागत है। आज प्रात कालीन कक्षा , जप चर्चा के अंतर्गत उपदेशामृत का आठवां श्लोक पढ़ेंगे और फिर उसके अलावा कई सारे भक्त होंगे वह अलग-अलग मंदिरों के बुक डिसटीब्यूटर्स ,अपने अपने ग्रंथ वितरण के अनुभव सुनाएंगे , अपने अपने साक्षात्कार सुनाएंगे । इस तरह मैं भी , वह भी , आप सभी भी आज कुछ प्रस्तुत करेंगे । ठीक है।
नाम रूप चरित ….
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अनुवाद सुनिये , ध्यानपूर्वक सूनना । प्रत्येक शब्द , प्रत्येक अक्षर सुनो । वाक्य और प्रत्येक वाक्य का समूह या उसका अनुवाद समझो । जैसे हम ध्यान पूर्वक जप करते हैं वैसे ध्यान पूर्वक शास्त्रो के वचनों का श्रवण भी करना चाहिए। समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय 24 घंटे वैसे उस श्लोक में 24 घंटे तो नहीं कहा हैं , प्रभूपाद का भाषांतर भी है यह , चौबीसों घंटे भगवान की दिव्य नाम , दिव्य रूप , गुणों तथा नित्य लीला का सुंदर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने में लगाएं । जिसमे उसकी जीभ , मन क्रमशः व्यस्त रहें । इस तरह उसे गोलोक वृंदावन धाम में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्गदर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को भगवान के उन प्रिय भक्तों के पदचिन्हो का अनुगमन करना चाहिए , मनुष्य को भगवान के उन प्रिय भक्तों के पदचिन्हो का अनुसरण करना चाहिए जो उनके भक्ति में प्रगाढता से अनुरक्त है।
हरी हरी। आप पढियेगा , अब पढ़ने का समय नहीं है और वैसे इस श्लोक का उल्लेख करने का मेरा उद्देश्य यह भी है कि , एक भौतिकवादी होते हैं , प्रत्यक्ष वादी भी कहा जा सकता है जो देखते है , सुनते हैं , सुन सकते हैं वही है यह सब मानने वाले जो हम देख नहीं सकते , सून नहीं सकते , सुंग नहीं सकते , उसको स्पर्श नहीं कर सकते वह है नहीं ऐसे भी होते हैं , यह भौतिक वादी या प्रत्यक्ष वादी , उन्हे नास्तिक कहा है और फिर होते हैं निराकार निर्गुण वादी या मायावती जिनको आस्तीक तो कहां है।
धर्म में भगवान में जिनकी आस्था है भगवान की अस्तित्व को वह मानते हैं , स्विकार करते हैं किंतु भगवान का नाम नहीं है , रूप नहीं है , गुण नहीं है वह लीला नहीं करते , उनका धाम नहीं है ऐसी उनकी मान्यता दुर्दैव से होती है , ऐसे होते हैं यह दूसरा समूह है। एक भौतिकवादी नास्तिक , निराकार निर्गुण , मायावादी आस्तिक समूह और फिर यह अद्वैत वादी भी होते हैं निराकार वादी , निर्गुण वादी और फिर होते हैं वैष्णव हरी हरी , वह प्रत्यक्ष को प्रमाण नही मानते या प्रत्यक्ष प्रमाण भी हो सकता है , अंदमान भी प्रमाण है लेकिन वैष्णव का विश्वास शब्द में होता है, शब्द प्रमाण या शास्त्र प्रमाण। हरि हरि। शब्द प्रमाण यह प्रमाण है । प्रमाण क्या है ? इसका सबुत क्या है ? शास्त्र प्रमाण। शब्द जो शब्दों से भरे है वह शब्द प्रमाण, उसको स्वीकार करते हैं और यह शब्द प्रमाण , शास्त्र प्रमाण को स्वीकार करते है। मायावती भी आस्तिक कहलाते हैं। वह भी शास्त्र को , शब्दों को प्रमाण मानते हैं किंतु उनके भाष्य चलते हैं । हां , भगवान है किंतु भगवान का रूप नहीं है या भगवान का कोई गुण नहीं है ऐसे ही अंततोगत्वा अद्वैत मतलब हम और भगवान एक ही है ।
सर्वं खल्विदं ब्रह्म ।
(छान्दोग्य उपनिषद् ३.१४.१)
अनुवाद: भगवान् एक हैं और वे सर्वत्र विद्यमान हैं । चूँकि पूर्ण भक्त के लिए शक्ति व शक्तिमान अभिन्न हैं , इसलिए उसके लिए यह तथाकथिक भौतिक जगत भी आध्यात्मिक बन जाता है । सबकुछ भगवान् की सेवा के लिए है , और निपुण भक्त कोई भी तथाकथित भौतिक वस्तु भगवान् की सेवा में लगा सकता है । ( श्रील प्रभुपाद ने श्रीमद् भागवतम् के ४.२४.६२ व ४.२८.४२ के तात्पर्यों में सर्वं खल्विदं ब्रह्म का यह अर्थ बतलाया है । )
सब ब्रह्म है । केवल ब्रह्म का अस्तित्व है , परमात्मा का नहीं है , भगवान का नहीं है यह जो नाम, रूप, गुण, लीला, धाम यह भगवान के संबंध में है। पराश मतलब भगवान की कई सारी विविध शक्तियां है । यह मायावती, निराकार निर्गुण वादी के लिते भगवान केवल ब्रम्ह है। भगवान के शक्ति को नहीं मानते , हरी हरी।
ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या , बाकी सब मिथ्या है केवल ब्रह्म ही सत्य है और फिर अहम ब्रह्मास्मि , मैं ही ब्रह्म हूं , यह जो ब्रह्म है उसमें में लीन होता हूं। इसी में सिद्धि है , ब्रह्मलीन होने में सिद्धि है या अहं ब्रह्मास्मि यह सर्वोपरि साक्षात्कार है। तो इस मान्यताओं के साथ यह मायावादी यानी कृष्ण अपराधी भगवान के चरणों में अपराध करते है। कृष्णा के चरणों को स्वीकार ही नहीं करते, कृष्ण के तो चरण ही नहीं है, को नहीं नहीं है ऐसा वह मानते है। हरि हरि। फिर वह भगवान से वंचित रह जाते है और भगवान से अपरिचित रह जाते है। भगवान का भी परिचय होता है और वैसे किसी व्यक्ति का ही परिचय है, इस संसार के यानी आपके जैसे जो व्यक्ति है उनका भी परिचय होता है, उसका नाम, रूप, गुन होता है। उसकी कुछ विशेषता होती है यानी अच्छा आदमी है या बदमाश है, गुण या अवगुणों का ऐसे परिचय होता है। नाम रूप गुण लीला और वे क्या करते है? क्या उद्योग करते है? कुछ उद्योग नहीं करते बेरोजगार है या किसी कंपनी में नौकरी करते है। तो ऐसे ही नाम रूप गुण और कार्यकलाप और उसी के साथ आता है धाम यानी वह कहां पर रहते है।
उनका पता क्या है कौन से देश में कौन से शहर में या कौन सी गली में रहते है? और उनके कौन-कौन रिश्तेदार है या मित्र है? तो ऐसे व्यक्ति का परिचय मतलब उसके नाम, रूप, गुण, कार्यकलाप और उसके पते के हिसाब से उसका परिचय होता है। तो ऐसे ही भगवान का भी ऐसा ही परिचय होता है। भगवान का भी ऐसे ही नाम, रूप, धाम, गुण होता है। जैसे संसार के लोगों का परिचय होता है तो भगवान का भी परिचय वैसे ही होता है। तो यहां कहा है, इस उपदेशामृत के श्लोक में कि, भगवान का क्या-क्या है, नाम रूप गुण लीला आदि है। तो भक्त को ब्रज में याद धाम में रहना चाहिए ऐसा उल्लेख हुआ है। तो जब हम कई सारे भौतिकवादी भी इस ज्ञान के यानी भक्ति पूर्ण ज्ञान, भगवान के नाम और रूप गुण, लीला धाम परिकर का जो ज्ञान है इसको भक्तिपूरक ज्ञान यानी भक्ति को बढ़ाने वाला यह ज्ञान है।
केवल ज्ञान ज्ञानयोग का ज्ञान नहीं है! यह भक्तियोगियों का ज्ञान है या फिर भक्ति करने पर ही ऐसा ज्ञान प्राप्त होता है। ऐसा ज्ञान प्राप्त करनेसे भक्ति बढ़ जाती है। तो जब हम भगवान का नाम कहते है तो कितनी सारी ज्ञान की बातें नाम के साथ जुड़ी हुई है। और भगवान के कितने सारे नाम भी है। विष्णुसहस्त्रनाम! और कुछ नाम भगवान के रूप के कारण है। जेसे श्यामसुंदर! और कुछ नाम भगवान के लीला के कारण है, जेसे वेनूधर! नाम भी हुआ और लीला का उल्लेख भी हुआ। तो भगवान के अलग-अलग या असंख्य नाम है। भगवान के रूप के कारण या गुणों के कारण, भगवान की लीलाओं के कारण, भगवान के धाम के कारण, जेसे अयोध्या वासी राम येसे अलग अलग नाम हो जाते है। तो इस बारे में कभी और बताएंगे!
भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, परीकर और धाम इसके संबंध में कुछ कहने का विचार था। कुछ भक्तों ने संकीर्तन किया या संकीर्तन यानी ग्रंथों का वितरण भी किया, तो भगवान के नाम रूप गुण लीला धाम और परिकर का किर्तन किया! उन ग्रंथों में यह सब है जैसे कि नाम का कीर्तन, रूप का कीर्तन, लीला का कीर्तन, या धाम का कीर्तन और भगवान के परिकर यानी भक्त, पार्षद के कीर्ति का गान यह सब कीर्तन है। बुक डिस्ट्रीब्यूशन पार्टी यानी संकीर्तन पार्टी है ग्रंथ वितरण हो रहा है यानी संकीर्तन ही हो रहा है! हरि हरि। ठीक है में यहां पर रुक जाता हूं। गौरव प्रेमानंदे हरि हरि बोल! हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
19 January 2021
Everything is Lord Kṛṣṇa
Hare Krsna. Welcome to this Japa session. 805 participants are chanting with us right now. Welcome again and again to this morning session. I hope you are all listening attentively. Listen to every word, actually not every word, listen to every letter of this verse from Updesamrta. Just like we chant very carefully, so we should be careful in understanding the scriptures also.
Today we shall study the 8th verse of Updesamrta. We shall recite the verse and also understand it. Then we will have book distributors from different locations sharing their experiences and realisations.
You must all listen to and read the translation of this verse attentively, as attentively as you chant.
tan-nāma-rūpa-caritādi-sukīrtanānu-
smṛtyoḥ krameṇa rasanā-manasī niyojya
tiṣṭhan vraje tad-anurāgi janānugāmī
kālaṁ nayed akhilam ity upadeśa-sāram
Translation
The essence of all advice is that one should utilize one’s full time – twenty-four hours a day – in nicely chanting and remembering the Lord’s divine name, transcendental form, qualities and eternal pastimes, thereby gradually engaging one’s tongue and mind. In this way one should reside in Vraja (Goloka Vṛndāvana-dhāma) and serve Kṛṣṇa under the guidance of devotees. One should follow in the footsteps of the Lord’s beloved devotees, who are deeply attached to His devotional service. (NOI Verse 8)
Read the purport for this verse. We don’t have the time to read it. I shall discuss the purpose of studying this verse today.
There are different types of people. Materialistic people are atheists because they believe only in that which they can see, hear, touch, smell or taste. They are theistic as they believe in voidism. They believe in the formless and the philosophy that the Jiva and Lord are one. They believe in the words of the scriptures as proof. If they cannot feel, sense, smell, touch something they do not believe in it.
Mayavadis are atheistic. They believe in the words of the scriptures, but they give their own interpretation. They believe that the Lord exists, but He is formless, Only Brahman exists. They say He has no qualities, no name, no form. He has no residence. Their belief is that He has no pastimes. We are all equal to the Lord. There is no Paramatma or Bhagavan. They don’t believe in the energies of the Lord. They say that Brahman is truth and the material world is false. I am also Brahman or I am going to merge with the Brahman. In this way of not accepting Krsna and the false preaching about the non existence of Krsna, they offend Krsna.They are not introduced to Krsna.
prabhu kahe,–“māyāvādī kṛṣṇe aparādhī
‘brahma’, ‘ātmā’ ‘caitanya’ kahe niravadhi
Translation
Śrī Caitanya Mahāprabhu replied, “Māyāvādī impersonalists are great offenders unto Lord Kṛṣṇa; therefore they simply utter the words Brahman , ātmā and caitanya. (CC Madhya 17.129)
Then there are Vaisnavas who have faith in the scriptures, the words which serve as proof. They accept them completely. Mayavadis also accept the scriptures, but are called atheist because they give their own commentaries and do not accept the Lord and His form. They believe they are one with the Lord. They believe that only Brahman has existence.. They do not accept the power of the Lord.
sāstra yonitvāt Scriptures are the source of knowledge of Brahman. (Brahma-sūtra Verse. 1.1.3)
Brahma Satya Jagat Mithya. They say only Brahman is the truth and the rest is false. Then they say, Aham Brahmasmi – I am Brahman or I merge with Brahman. They say they get purity in this and this is the prime realisation. With these realisations they commit offences at the lotus feet of Krsna. Poor people get deprived of the divine glories of the Lord. They remain without the knowledge of Lord. They do not know Him.
Bhagavan has an introduction, just like any individual. What is His name? How does He look? What are His qualities? Such are the ways in which we introduce an individual.
na tasya kāryaṁ karaṇaṁ ca vidyate
na tat-samaś cābhyadhikaś ca dṛśyate
Translation
The Supreme Lord, Kṛṣṇa, has senses and a body like the ordinary man, but for Him there is no difference between His senses, His body, His mind and Himself. Foolish persons who do not perfectly know Him say that Kṛṣṇa is different from His soul, mind, heart and everything else. Kṛṣṇa is absolute; therefore His activities and potencies are supreme. It is also stated that although He does not have senses like ours, He can perform all sensory activities; therefore His senses are neither imperfect nor limited. No one can be greater than Him, no one can be equal to Him, and everyone is lower than Him. (Śvetāśvatara Upaniṣad 6.8)
What He does, His pastimes , where He stays, who are His associates? These are the ways through which we get to know someone and even the Lord.
ṣaṇṇāṁ bhaga itīṅganā
Translation
Bhagavan, the Supreme Personality of Godhead, is thus defined by Sri Parashara Muni as one who is full in six opulences—who has full strength, fame, wealth, knowledge, beauty, and renunciation. (Vishnu-purana 6.5.47)
sarvaṁ khalv idaṁ brahma
Translation
Everything is Lord Kṛṣṇa in the sense that everything is His energy. That is the vision of the mahā-bhāgavatas. They see everything in relation to Kṛṣṇa. The impersonalists argue that Kṛṣṇa Himself has been transformed into many and that therefore everything is Kṛṣṇa and worship of anything is worship of Him.
(Chāndogya Upaniṣad 3.14.1)
This verse from the Nectar of Instruction gives the introduction of the Lord. This knowledge is not knowledge acquired by Jnana Yogis. This knowledge enhances devotion and is the knowledge of the Bhaktas.
When we chant the names of the Lord there is much knowledge that is linked to every name of the Lord. There are numerous names of the Lord with which so many things are linked. Some names are as per His form like Shyamasundar, One who is dark complexioned and extremely beautiful. Some names are according to His pastimes like Venudhar, One who plays the flute. Some names are according to His qualities and some names according to His abode. He has innumerable names.
We shall discuss more in detail later. We have some devotees who will share their Sankirtan experiences. Book distribution is also Sankirtan. A book distribution party is a Sankirtan party. The books they distribute carry knowledge about the name, form, qualities, pastimes and abode of the Lord. This is Kirtan.
I shall stop here today. Hare Krsna! Gaura premanande Hari Haribol!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 19 января 2021 г.
ВСЕ ЕСТЬ ГОСПОДЬ КРИШНА
Харе Кришна. Добро пожаловать на сеанс джапы. Сейчас с нами воспевают участники из 805 мест. Добро пожаловать снова и снова на эту утреннюю сессию. Надеюсь, вы все внимательно слушаете. Слушайте каждое слово, фактически не каждое слово, слушайте каждую букву этого стиха из Упадешамриты. Также как мы очень внимательно воспеваем, мы также должны быть внимательны в понимании Священных Писаний.
Сегодня мы изучим 8-й стих Упадешамриты. Мы будем читать стих, а также понимать его. Затем у нас будут распространители книг из разных мест, которые поделятся своим опытом и достижениями.
Вы все должны слушать и читать перевод этого стиха внимательно, так же внимательно, как вы повторяете.
тан-на̄ма-рӯпа-чарита̄ди-сукӣртана̄ну-
смр̣тйох̣ крамен̣а расана̄-манасӣ нийоджйа
тишт̣хан врадже тад-анура̄ги-джана̄нуга̄мӣ
ка̄лам̇ найед акхилам итй упадеш́а-са̄рам
Перевод:
Все наставления сводятся к следующему: необходимо все время — двадцать четыре часа в сутки — сосредоточенно повторять божественное имя Господа и воспевать Его трансцендентный облик, качества и вечные игры, постепенно занимая этой деятельностью свой язык и ум. Всегда памятуя о святом имени, облике, качествах и вечных играх Кришны, человек должен жить во Врадже [Голоке Вриндавана-дхаме] и служить Кришне под руководством преданных. Необходимо идти по стопам преданных, которые очень дороги Господу и глубоко привязаны к преданному служению Ему.
(Нектар Наставлений, стих 8)
Прочтите комментарий к этому стиху. У нас нет времени это читать. Сегодня я буду обсуждать цель изучения этого стиха.
Есть разные типы людей. Материалистические люди являются атеистами, потому что верят только в то, что могут видеть, слышать, осязать, обонять или пробовать. Они теисты, поскольку верят в пустоту. Они верят в бесформенность и философию, согласно которой джива и Господь – одно. Они не верят словам Священных Писаний как доказательству. Если они не могут ощутить, почувствовать, обонять, потрогать что-то, они не верят в это.
Майявади атеисты. Они верят словам Священных Писаний, но дают свое собственное толкование. Они верят, что Господь существует, но Он не имеет формы, существует только Брахман. Они говорят, что у Него нет качеств, имени, формы. У него нет места жительства. Они верят, что у Него нет игр. Мы все равны Господу. Нет ни Параматмы, ни Бхагавана. Они не верят в энергии Господа. Они говорят, что Брахман – это истина, а материальный мир – ложь. Я тоже Брахман, и я сливаюсь с Брахманом. Таким образом, не принимая Кришну и ложные проповеди о несуществовании Кришны, они оскорбляют Кришну. Они не знакомятся с Кришной.
прабху кахе, — “ма̄йа̄ва̄дӣ кр̣шн̣е апара̄дхӣ
‘брахма’, ‘а̄тма̄’ ‘чаитанйа’ кахе ниравадхи
Перевод Шрилы Прабхупады:
Шри Чайтанья Махапрабху ответил: «Имперсоналисты-майявади — хулители Господа Кришны. Поэтому они произносят лишь такие слова, как „Брахман“, „атма“ и „чайтанья“».
(Ч.Ч. Мадхья 17.129)
Кроме того, есть вайшнавы, которые верят в писания, слова, которые служат доказательством. Они полностью их принимают. Майявади также принимают писания, но их называют атеистами, потому что они дают свои собственные комментарии и не принимают Господа и Его форму. Они верят, что едины с Господом. Они верят, что существует только Брахман. Они не принимают силу Господа.
шастра йонитват
Абсолютную Истину можно постичь с помощью ведического откровения
(Брахма-сутра, стих 1.1.3)
Брахма Сатья Джагат Митхья. Они говорят, что истиной является только Брахман, а все остальное – ложь. Затем они говорят: Ахам Брахмасми – я Брахман или я сливаюсь с Брахманом. Они говорят, что обретают в этом чистоту, и это главное осознание. Осознав это, они оскорбляют лотосные стопы Кришны. Бедные люди лишаются божественной славы Господа. Они остаются без осознания Господа. Они не знают Его.
У Бхагавана есть внешнее описание, как и у любого другого человека. Как его зовут? Как он выглядит? Какие у него качества? Так мы представляем человека.
на тасйа ка̄рйам̇ каран̣ам̇ ча видйате
на тат-самаш́ ча̄бхйадхикаш́ ча др̣ш́йате
Перевод Шрилы Прабхупады:
Нараяна — это всевластный, всесильный Господь, Верховная Личность. Он обладает великим многообразием энергий и потому может, не покидая Своей обители и не прилагая никаких усилий, наблюдать за материальным космосом и управлять им с помощью трех гун материальной природы — саттва-, раджо- и тамо-гуны. Эти гуны, взаимодействуя, порождают различные объекты, тела, действия и изменения, причем делают это совершенным образом. Господь совершенен, и потому все в этом мире происходит так, как если бы Он Сам всем управлял и все вершил.
(Шветашватара Упанишад, 6.8, перевод из Ш.Б. 6.1.43)
Что Он делает, Свои игры, где пребывает, кто Его спутники? Это способы, с помощью которых мы узнаем кого-то и даже Господа.
шаннам бхага итингана
Перевод:
Таким образом, Парашара Муни определяет Бхагавана, Верховную Личность Бога, как того, кто полон шести достояний – обладающий полной силой, славой, богатством, знанием, красотой и отречением.
(Вишну Пурана, 6.5.47)
сарвах халв идам брахма
Перевод:
Все есть Господь Кришна в том смысле, что все – Его энергия. Это видение маха-бхагават. Они видят все в связи с Кришной. Имперсоналисты утверждают, что Сам Кришна превратился во многих, и поэтому все есть Кришна, а поклонение чему-либо – это поклонение Ему.
(Чандогья Упанишад, 3.14.1)
Этот стих из «Нектара наставлений» знакомит с Господом. Это знание не является знанием, полученным гьяна-йогами. Это знание усиливает преданность и является знанием бхакт.
Когда мы воспеваем имена Господа, мы получаем много знаний, связанных с каждым именем Господа. Есть множество имен Господа, с которыми связано так много всего. Некоторые имена соответствуют Его форме, например, Шьямасундара, темнокожий и чрезвычайно красивый. Некоторые имена соответствуют Его играм, например, Венудхар, Тот, кто играет на флейте. Некоторые имена соответствуют Его качествам, а некоторые – Его обители. У него бесчисленное количество имен.
Обсудим подробнее позже. У нас есть преданные, которые поделятся своим опытом санкиртаны. Распространение книг – это также санкиртана. Деятельность по распространению книг – это деятельность санкиртаны. Книги, которые они распространяют, несут знания об имени, форме, качествах, играх и обители Господа. Это Киртан.
Я остановлюсь здесь сегодня. Харе Кришна! Гаура премананде Хари Харибол!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
Japa talk-18 January 2021
“ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै शीगुरवे नमः”
आप जानते हैं यह प्रार्थना?
जिन्होंने हमारी आंखें खोली या हमारी आंखों में प्रेमांजन अथवा ज्ञानांजन डाला ऐसे श्रील प्रभुपाद की जय।
समय तो कम है,यहां तक कि मरने के लिए भी समय नहीं है।
आज कुछ समय के उपरांत लगभग 7:00 बजे हम संकीर्तन कहानियाँ,संकीर्तन पुस्तक वितरण की कुल संख्या का स्कोर हमारे मंदिर के भक्तों से सुनने वाले हैं।इसलिए मैं कुछ संक्षिप्त में ही कहूंगा।और मैं जो भी कहूंगा सच ही कहूंगा,सच के अलावा मुझे और कुछ भी कहना नहीं आता।अच्छा होता अगर कुछ और कहना नहीं आता तो,लेकिन हम सब बहुत कुशल होते हैं झूठ बोलने में।और हम जो भी बोलते हैं झूठ ही बोलते हैं झूठ के अलावा और कुछ नहीं बोलते ।संसार में ऐसी ठगाई चलती रहती है।इसलिए श्रील प्रभुपाद जी कहा करते थे ठगने वाला और ठगाने वाला,एक ठगाता है और दूसरा ठग जाता है।ठग को कोई महा-ठग मिलता है,और फिर उसको कोई और।
हरि हरि।
तो हम ऐसे जगत के लोग हैं। तो मैं जब पहली बार श्रील प्रभुपाद से मिला,मतलब श्रील प्रभुपाद को देखा या सुना सबसे पहली बार।श्रील प्रभुपाद मुंबई में थे,गिरगांव चौपाटी में।और आप जानते है? गिरगांव चौपाटी,मरीन ड्राइव और मारबर हिल्स सब पास में ही है।हमारा राधा गोपीनाथ मंदिर भी वहीं पास में ही है गिरगांव चौपाटी के पास। तो वहां पर श्रील प्रभुपाद एक उत्सव में लोगों को संबोधित कर रहे थे,श्रील प्रभुपाद हरे कृष्ण उत्सव मनाने जा रहे थे मुंबई में।1971 की बात है,यह उत्सव क्रॉस मैदान में होना था चर्चगेट के पास मैदान में,लेकिन इस उत्सव के प्रारंभ में एक शोभायात्रा संपन्न होनी थी।शोभा यात्रा का प्रारंभ गिरगांव चौपाटी से होना था।वहां पर श्रील प्रभुपाद बोल रहे थे तो मैं भी वहां पहुंचा था, उस समय मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था।मैं उस विज्ञापन को पढ़कर वहां पहुंचा था कि अमेरिकी साधु या यूरोपीय साधु मुंबई पहुंचे हैं।मैं इस बात से आकृष्ट हुआ था कि अमेरिकी साधु या यूरोपीय साधु मुंबई पहुंचे हैं।क्या सचमुच वह साधु है? या ऐसे ही कुछ नौटंकी चल रही है।
खैर,ऐसे कहते-कहते मुझे जो कुछ कहना होता है वह भी रह जाता है।
तो श्रील प्रभुपाद से मैंने वहां जो बात सुनी,श्रील प्रभुपाद वैकुंठ की बात कर रहे थे।श्रील प्रभुपाद घर वापस जाने की,भगवद्दर्शन की बात कर रहे थे।वैकुंठ का,भगवद्धाम का परिचय और वहां जाना हमारे जीवन का लक्ष्य है यह बातें सुना रहे थे।तो बिल्कुल पहली ही मुलाकात या दर्शन या श्रवण जो मैंने किया श्रील प्रभुपाद से,उसमें चर्चा,दिव्य जगत की हो रही थी वैकुंठ की हो रही थी।हरि हरि।।
वैकुंठ के या गोलोंक के ही वह प्रतिनिधि थे।हम उनको आध्यात्मिक जगत के दूत कहते हैं।आध्यात्मिक जगत के राजदूत। तो जितनी चर्चा श्रील प्रभुपाद ने की वैकुंठ के संबंध में।और लिखा भी वैकुंठ के गोलोंक के,वृंदावन के संदर्भ में और वहां पर जाने के संबंध में।प्रभुपाद इस पर जोर दिया करते थे कि हमें वहां पर जाना है ।और फिर यह जोर इसलिए भी क्योंकि ऐसा जोर भगवान ने भी दिया ही है।हम यह चर्चा हमेशा करते आए हैं कि कैसे भगवान भी गीता में अपने धाम का पुनः पुनः जिक्र किया करते हैं और बार-बार हम सभी को प्रेरित या आमंत्रित करते हैं।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।(भगवद गीता-15.6)
इन शब्दों में कहते हैं
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे (भगवदगीता-18.65)
इन वचनों के माध्यम से पुनः पुनः श्री कृष्ण ने जैसे वैकुंठ लोक, गोलोक,दिव्यलोक की चर्चा की तो श्रील प्रभुपाद ने इन वचनों का प्रचार यथारूप,इसकी ख्याति यथारूप,भगवान ने जैसा कहा है वैसी ही बात,उतना ही जोर अलग-अलग बातों पर दिया।
इसलिए उनके प्रचार को,प्रचार यथारूप कह सकते हैं।तो केवल भगवद्गीता ही यथारूप नहीं है ,श्रील प्रभुपाद की हर बात हर प्रचार यथारूप रहा।जैसे होना चाहिए,जैसे भगवान ने कहा हैं।ऐसी चर्चा,लोग,प्रचारक और धर्म के संस्थापक ही कहो जो अलग ही धर्म की स्थापना करते हैं और धर्म के संस्थापक बनते हैं और फिर स्वर्ग की चर्चा करते हैं,स्वर्ग जाने की बातें होती हैं या फिर ब्रह्म में लीन होने की बातें होती हैं।तुम भगवान हो,मैं भगवान हूं और ऐसे कई सारे भगवान भी हमारे देश में गलियों में घूमते रहते हैं।आओ,मैं भी आप को भगवान बना सकता हूं।ऐसी चर्चा,यह मायावाद का प्रचार है। मायावादी कृष्ण अपराधी जो है वो ऐसा प्रचार करते हैं। तो भगवान तो हमको अपने धाम,उनके धाम बुला रहे हैं।अगर हम वासी हैं तो हम वास्तव में तो वैकुंठ वासी हैं,गोलोक वासी हैं,हम ब्रजवासी हैं।तो कृष्ण और कृष्ण के परंपरा में आने वाले आचार्य,उन्होने तो ऐसा ही आमंत्रण भेजा है ऐसे ही आमंत्रित किया है,प्रेरित किया है,घर वापस आ जाओ घर वापस आ जाओ लेकिन ऐसा प्रचार ओर लोग नहीं करते।वैसे आने जाने का प्रश्न ही नहीं है क्योकि
यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा धृतं पिबेत्।
भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनंकुत:। (चार्वाक-दर्शन)
यह भी समस्या है कि चार्वाक हुए और चार्वाक के चेले भी कुछ कम नहीं है इस संसार में।कोई कह सकता है कि चार्वाक तो हिंदू थे,चार्वाक तो भारतीय थे,हमें तुम्हारे चार्वाक से कोई लेना देना नहीं है।हम चार्वाक को नहीं मानते।नहीं मानते होंगे या नहीं जानते होंगे चार्वाक को ।उसका नाम नहीं सुना होगा या उसके तत्वज्ञान को तुमने नहीं सुना होगा पर तुम हो तो पक्के चार्वाक के चेले।क्योंकि चार्वाक ने जैसा कहा है कि जब इस देह का अंत होता है तो सब कुछ खत्म हो जाता है।कुछ शेष नहीं बचता।यह पुनः जन्म वगैरा है ही नहीं।आत्मा है ही नहीं।आत्मा अमर और
न जायते म्रियते वा कदाचि
नायं भूत्वा भविता वा न भूय: |
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।(भगवदगीता-2.20)
जो कृष्ण ने सुनाया है ऐसा कुछ भी नहीं है।श्रील प्रभुपाद मोस्को पहुंचे तो वहां कोटासकवी नाम के एक विश्वविद्यालय के बड़े प्रोफेसर थे तो उनके साथ भी प्रभुपादजी जब बात कर रहे थे तो उन्होंने भी कहा कि स्वामी जी जब शरीर खत्म हो जाता हैं तो सब कुछ खत्म हो जाता है।जब शरीर का अंत हुआ तो समझो सब कुछ अंत हो गया कुछ बचा ही नहीं। तो आजकल ऐसा प्रचार है।हरि हरि।।
तो जब कोई मरता है तो लोग समझते हैं कि वह स्वर्गवासी हो गया। उसका चित्र टांग कर भी लिखते हैं स्वर्गवासी फलाना स्वर्गवासी ।तो पता नहीं कि स्वर्गवासी या नर्क वासी।क्योंकि कृष्ण ने तो कहा है कि यह काम,क्रोध,लोभ यह तीन जो शत्रु है यह बद्ध जीवो को परास्त करके नर्क ले जाते हैं।कृष्ण ने कहा है कि ये तीन द्वार हैं,छह भी हो सकते हैं लेकिन उनमें से तीन और भी प्रमुख है तो इन तीनों का जिक्र करते हुए कृष्ण ने कहा है कि यह तीन नरक के द्वार हैं।”काम ,क्रोध,लोभ”
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा: |
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्जयान् (भगवदगीता-16.12)
ऐसा कृष्ण ने कहा है कि इस संसार के जीव आशा के पाश से बद्ध है।
सेंकडो,सौ हजार पाश।पाश मतलब रस्सी,डोरी।ऐसी डोरियों से हम बंधे हैं।और वह कठपुतली वाला हमको नचा रहा है।हमारी डोरिंया उनके हाथ में है और काम,क्रोध परायणा।होने तो भक्ति परायन चाहिए।लेकिन कृष्ण कहते हैं कि कलियुग में बद्ध जीव काम और क्रोध में बहुत कुशल है।उनको प्रमाण पत्र भी मिलता है कामी और क्रोधी होने का।और यह सारा फिल्म उद्योग इसी का प्रचार करता है काम और क्रोध का।यह दो ही चीजें चलती है सिनेमा में। काम और क्रोध।कामवासना की तृप्ति जब नहीं होती और वह तो होती ही नहीं है । तो क्या होता है-कामात्क्रोधोऽभिजायते
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते | सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते (भगवदगीता-2.62)
तो काम से उत्पन्न होता है क्रोध
हरि हरि।।
तो इस प्रकार कुछ लोग कहते हैं कि हमारे परिवार के लोग तो स्वर्ग गए या फिर ब्रह्मलीन हुए।मुख्यता इन दो बातों पर जोर दिया जाता है।
संसार के लोग समझते हैं और कहते हैं कि फलाने लोग स्वर्गवासी हुए या कुछ कहते हैं कि कैलाश वासी हुए,ब्रह्मलीन हुए।लेकिन हम लोग,गोडिय वैष्णव तो कहते रहते हैं
नित्य लीला प्रविष्ठ।गौर किशोर दास बाबाजी महाराज की जय।।
जय ओम नित्य लीला प्रविष्ठ।सुन रहे हो?और समझ रहे हो?नित्य लीला प्रविष्ठ।भगवान के नित्य धाम में जो नित्य नीला होती है उस में प्रवेश किया।और प्रवेश करने वाले प्रविष्ठ जो हुए उन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की जय।।गौर किशोर दास बाबा जी महाराज की जय।।
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज की जय।।और जयानंद प्रभु की जय( श्रील प्रभुपादजी के शिष्य)।वह जब नहीं रहे तो श्रील प्रभुपादजी ने कहा कि वह घर वापस चले गए हैं। तो वैकुंठ चलो।।
तो श्रील प्रभुपाद ने इस सत्य का प्रचार किया और जब प्रभुपाद ने अपनी पत्रिका प्रारंभ कि 1944 मे तो उसका नाम प्रभुपाद ने दिया “बैक टू गॉड हेड”(“भगवत दर्शन”)
उसको मराठी में हम कहते हैं जाऊ देवा छिया गावा नाम कि पत्रिका।
जिसको प्रभुपाद कह रहे हैं कि बैक टू गॉड पत्रिका इस्कॉन कि रीढ की हड्डी है। तो उस पत्रिका को नाम ही दिया प्रभुपाद ने “घर वापसी”। चलो गोलोक चलते हैं।तो ऐसे श्रील प्रभुपाद की जय।क्योंकि जो भगवद्दर्शन है या भगवदगीता है या भागवतम् है या चेतनयचरित्रामृत है या इशोपनिषद है या उपदेशामृत है या भक्ति रसामृत सिंधु है।इतने सारे ग्रंथ प्रभुपाद ने प्रकाशित किए इन सभी में वही संदेश है भगवद्धाम लौटना है,भगवद्धाम लौटना है मतलब भगवत प्राप्ति करनी है और फिर अंततोगत्वा भगवद्धाम लौटना है।
हरि हरि।।
ठीक है तो अब यहां समाप्त करेंगे।
तो ऐसा संदेश जिन ग्रंथों में है “भगवद्धाम लौटने का संदेश”।उसी के संबंधित जो प्रचार है,सत्य है,प्रभुपाद जी ने इन ग्रंथों में सब कुछ भरा है,लिखा है।तो इन ग्रंथों का वितरण होना चाहिए और आपने अभी-अभी इन ग्रंथों का या भगवदगीता का,गीता जयंती होने के कारण खूब प्रचार किया है तो अब हम आपसे सुनना चाहते हैं।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
18 January 2021
Back to Godhead – the ultimate goal of this life
Jai! Around 768 devotees are present today. Hari Hari!
om ajnana-timirandhasya jnananjana-salakaya
caksur unmilitam yena tasmai shri-gurave namah
Translation
He who removes darkness of ignorance of the blinded (unenlightened) by applying the ointment(medicine) of (Spiritual) knowledge He Who opens the eyes, salutations unto that holy Guru (Pranam mantra of spiritual master)
Do you know this prayer?
jnananjana-salakaya. tasmai sri guruve namah. Srila Prabhupada ki Jai !
Prabhupada has opened our eyes by giving us spiritual life. He has kindly applied the medicine (anjan) of knowledge, wisdom and love in our eyes. We are short of time today. Everyone is so busy that they do not even have time to die. Today some time after 7:00am we will hear sankirtana stories , book distribution reports and scores also. Therefore today I will talk in brief, but whatever I say, I will always tell the truth. It would have been nice if we were not able to lie or cheat others. We are all very expert in lying. Whatever we say, is a lie and we do not say anything else other than lies. This type of cheating continuously goes on in this world. Prabhupada said that this world is full of cheaters and the cheated. One person cheats another and the other person is cheated. And then a cheater meets a super cheater. People are like this in this world.
I saw Prabhupada for the first time during the Hare Krsna festival in Girgaon Chowpatty, Mumbai. You all know Marine drive and Girgaon Chowpatty Hills are close to it. Our Sri Radha Gopinatha temple is also there near Girgaon Chowpatty. Srila Prabhupada was addressing people during this festival. In 1971 Prabhupada was planning to arrange the ‘Hare Krsna Festival’ in Mumbai . This festival was arranged at Cross Maidan near Churchgate. Before that a big procession was arranged which started from Girgaon Chowpatty. Srila Prabhupada was speaking at that place. I was a college student at that time. I also reached there after reading an advertisement which said, ‘ American Sadhus are in town. European sadhus have reached Mumbai’. I was attracted by this advertisement. American sadhus and European sadhus are in Mumbai. What does this mean ? I wanted to check whether they are really sadhus or some gimmick is going on. Anyway I will forget what I want to say.
I heard something new there. Srila Prabhupada was speaking about Vaikuntha. He was talking about ‘going back home’ ‘back to Godhead.’ He was introducing Vaikuntha and the abode of the Lord to everyone. He was telling everyone that going back to the Lord’s abode should be the goal of our life. The first thing I heard from Prabhupada was about the divine planet of the Lord, Vaikuntha. He was a representative of Goloka Dhama or Vaikuntha. We call him an Ambassador of the spiritual world. Prabhupada has discussed and written a lot about Vaikuntha, the spiritual abode of the Lord, Vrindavan and he gave information on how to go back to Godhead. He emphasised going back to Godhead. This emphasis was because the Lord has also emphasised this. In Bhagavad Gita the Lord has repeatedly mentioned it. The Lord inspires us again and again to go back to Him.
na tad bhasayate suryo
na sasanko na pavakah
yad gatva na nivartante
tad dhama paramam mama
Translation
That abode of Mine is not illumined by the sun or moon, nor by electricity. One who reaches it never returns to this material world. (BG 15.6)
The Lord has also said mām evaiṣyasi satyaṁ te
man-manā bhava mad-bhakto
mad-yājī māṁ namaskuru
mām evaiṣyasi satyaṁ te
pratijāne priyo ’si me
Translation
Always think of Me, become My devotee, worship Me and offer your homage unto Me. Thus you will come to Me without fail. I promise you this because you are My very dear friend.(BG 18.65)
Being asked various questions, the Lord discussed Vaikuntha and Goloka Dhama. Just like Sri Kṛṣṇa described Vaikuntha and Goloka Dhama , Srila Prabhupada also preached it as it is. Exactly what the Lord has said Srila Prabhupada has repeated with the same emphasis. Therefore Prabhupada’s preaching is as it is. Not only Bhagavad Gita, but every talk of Prabhupada’s or preaching was as it is. It should always be like this. Everything remains the same as told by the Lord. The other preachers or self declared God men establish dharma on their own philosophies.They discuss heaven and inform them how to go to heaven. In other words they discuss about merging into brahma. They say, ‘You are also god’. Such types of so-called self declared God men are wandering the streets in our country. They claim that they can make anybody God. These are impersonalists (Mayavadi). They are Mayavadi Krsna aparadhi and they preach like this. The Lord is always calling us back to His abode. In reality we are Vaikuntha-vasis, Goloka-vasis or Vrindavan-vasis. Hence Kṛṣṇa and His followers have always preached about Vaikuntha and they inspire and motivate others to go back home to Godhead. Other people do not preach like this. They do not have this philosophy of going back to Goloka.
ṛṇaṁ kṛtvā ghṛtaṁ pibet
yavaj jīvet sukhaṁ jīvet
bhasmī-bhūtasya dehasya
kutah punar āgamano bhavet
Translation
This theory was that as long as one lives one should eat as much ghee as possible.As soon as your body is burned to ashes after death, everything is finished. (Theory given by Charvak Muni taken from the purport of CC Ādi 7.119)
This is known as Charvak theory. There are many followers of Charvak in the world. It is said that Charvak was Hindu or Indian, but now we have nothing to do with Charvak. We do not agree with him. We do not know him. We have never heard his name nor his philosophies. There are many strong believers of his theory. He said that when a person dies everything is finished with death. Rebirth theory and the eternal soul are not existing. The soul is not eternal.
na jāyate mriyate vā kadāchin
nāyaṁ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ
ajo nityaḥ śhāśhvato ’yaṁ purāṇo
na hanyate hanyamāne śharīre
Translation
For the soul there is neither birth nor death at any time. He has not come into being, does not come into being, and will not come into being. He is unborn, eternal, ever-existing and primeval. He is not slain when the body is slain.
(BG 2.20)
Kṛṣṇa has said this about the soul, but Charvak propagated that this does not exist. When Prabhupada was discussing this with a renowned professor from Moscow, he also said to Prabhupada, ‘Swamiji, when the body is finished everything is finished.’ Nothing remains after the body is dead. This was preached everywhere. When someone dies, people make a frame of his photograph and below they write swargvasi (now residing in heaven). No one knows whether he is residing in heaven or hell. Kṛṣṇa has said that our three enemies lust, anger and greed defeat the conditioned souls and take them to hell. These three are the main entrance gates for hell. In total there are six. The other three are also important. But as Kṛṣṇa has said these three are the main entrance to hell.
cintām aparimeyāṁ ca
pralayāntām upāśritāḥ
kāmopabhoga-paramā
etāvad iti niścitāḥ
āśā-pāśa-śatair baddhāḥ
kāma-krodha-parāyaṇāḥ
īhante kāma-bhogārtham
anyāyenārtha-sañcayān
Translation
They believe that to gratify the senses is there prime necessity of human civilization. Thus until the end of life their anxiety is immeasurable. Bound by a network of hundreds of thousands of desires and absorbed in lust and anger, they secure money by illegal means for sense gratification.
(BG 16.11 and 16.12)
There are hundreds of desires in human life, hundreds and thousands of bindings. We are tied by these bindings like a puppet and the ropes of these are in the hands of the puppeteer. We are supposed to be always mentally situated in devotional service to the Lord, but Kṛṣṇa says that specially in Kaliyuga people are always situated in thoughts of lust and anger. They are experts in lust and anger. They get certificates for being lusty and greedy. The film industry is always propagating lust and anger. These two topics goes on in the movies.
dhyayato visayan pumsah
sangas tesupajayate
sangat sanjayate kamah
kamat krodho ‘bhijayate
Translation
While contemplating the objects of the senses, a person develops attachment for them, and from such attachment lust develops, and from lust anger arises.
(BG 2.62)
Lust is never satisfied and then develops anger. Some people always say that a family member of our family has gone to heaven or merged in Brahman after death. Basically these two principles are accepted everywhere. The people of this world say that a person in our family is now residing in heaven or a few say that he is now residing in Kailasa (abode of Mahadev ) or a few say that he is merged in Brahman. But we Gaudiya Vaisnavas always keep on saying
jai om visnupad nitya lila pravishta — Gaur Kishore Das Babaji Maharaj ki Jai. !
jai om nitya lila pravishta — are you understanding this ? What does this mean ? We say all glories to those who have entered in the eternal pastimes of the Lord.
Nitya Lila Pravishta
Bhakti Vinod Thakua Maharaja ki Jai !
Gaur Kishore Das Babaji Maharaja ki Jai !
Srila Bhakti Sidhant Saraswati Thakura ki Jai !
Jayanand Prabhu ki Jai !! He was a disciple of Srila Prabhupada. When he left his body Prabhupada had said that he had gone back to God. Srila Prabhupada has preached the truth ‘let us go to Vaikuntha’. When Prabhupada started printing his journal in 1944 he named it Back to Godhead. In Marathi we say ‘jau devachiya gava’ journal. This is published. Prabhupada said Back to Godhead magazine is back home. Prabhupada named that magazine Back to Home. Let us go to Vaikuntha or Goloka. Srila Prabhupada ki Jai !
Prabhupada has published many scriptures like Bhagavad Gita, Bhagavatam, Caitanya-caritamrta, Isopanisad, Updeshamrita , Nectar of Devotion along with Back to Godhead magazine. All these books give the same message that we should return to Godhead. It means we should achieve the love for the Lord in our lifetime and at the end of our life we should go back to Godhead. We should stop here. We should distribute the books which give this message of the abode of the Lord and information related to this. Just now you have preached about Bhagavad Gita on the occasion of Gita Jayanti. Now I want to hear from all of you your experiences and realisations and scores. We will hear from the full time devotees of our temples.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Полные наставления после совместной джапа сессии 18 января 2021 г.
ОБРАТНО К БОГУ – КОНЕЧНАЯ ЦЕЛЬ ЭТОЙ ЖИЗНИ
Джай! Сегодня к нам подключились преданные из 768 мест. Хари Хари!
ом аджнана-тимирандхасйа джнананджана-шалакайа
чакшур-унмилитам йена тасмаи шри-гураве намах
Перевод:
Я был рожден во тьме невежества, но мой духовный учитель открыл мне глаза, озарив мой путь факелом знания. Я в глубоком почтении склоняюсь перед ним.
(Гуру пранама мантра)
Вы знаете эту молитву?
джнананджана-шалакайа
тасмаи шри-гураве намах
Шрила Прабхупада ки Джай!
Прабхупада открыл нам глаза, дав нам духовную жизнь. Он любезно применил лекарство (анджан) знания, мудрости и любви на наших глазах. Сегодня у нас мало времени. Все так заняты, что даже не успевают умереть. Сегодня, где-то после 7:00, мы услышим рассказы о санкиртане, отчеты о распространении книг и реализации. Поэтому сегодня я буду говорить кратко, но что бы я ни говорил, я всегда буду говорить правду. Было бы хорошо, если бы мы не могли лгать или обманывать других. Мы все очень искусны во лжи. Все, что мы говорим, – ложь, и мы не говорим ничего, кроме лжи. Этот вид мошенничества продолжается в этом мире постоянно. Прабхупада сказал, что этот мир полон обманщиков и обманутых. Один человек обманывает другого, а тот другого обманывает. И тут читер (обманщик) встречает супер читера. Таковы люди в этом мире.
Я впервые увидел Прабхупаду во время фестиваля Харе Кришна в Гиргаон Чоупатти, Мумбаи. Все вы знаете, Марин драйв и холмы Гиргаон Чоупатти находятся недалеко от него. Наш храм Шри Радха Гопинатхи также находится недалеко от Гиргаон Чоупатти. Шрила Прабхупада обращался к людям во время этого фестиваля. В 1971 году Прабхупада планировал организовать «Фестиваль Харе Кришна» в Мумбаи. Этот фестиваль проходил на Кросс Майдане возле Черчгейта. Перед этим была устроена большая процессия, которая стартовала с Гиргаон Чоупатти. Шрила Прабхупада говорил в этом месте. В то время я был студентом колледжа. Я также приехал туда после прочтения объявления, в котором говорилось: «Американские садху в городе. Европейские садху достигли Мумбаи. Меня привлекла эта реклама. Американские садху и европейские садху находятся в Мумбаи. Что это значит? Я хотел проверить, действительно ли они садху или что-то там творится. В любом случае я забуду то, что хочу сказать.
Я услышал там кое-что новое. Шрила Прабхупада говорил о Вайкунтхе. Он говорил о «возвращении домой», «назад к Богу». Он представлял всем Вайкунтху и обитель Господа. Он говорил всем, что возвращение в обитель Господа должно быть целью нашей жизни. Первое, что я услышал от Прабхупады, было о божественной планете Господа, Вайкунтхе. Он был представителем Голока Дхамы или Вайкунтхи. Мы называем его послом духовного мира. Прабхупада много обсуждал и писал о Вайкунтхе, духовной обители Господа, Вриндаване, и дал информацию о том, как вернуться к Богу. Он подчеркнул, что нужно вернуться к Богу. Этот акцент был сделан потому, что Господь также подчеркнул это. В Бхагавад Гите Господь неоднократно упоминал об этом. Господь снова и снова вдохновляет нас вернуться к Нему.
на тад бха̄сайате сӯрйо
на ш́аш́а̄н̇ко на па̄ваках̣
йад гатва̄ на нивартанте
тад дха̄ма парамам̇ мама
Перевод Шрилы Прабхупады:
Эта Моя высшая обитель не освещена ни солнцем, ни луной, ни огнем, ни электрическим светом. Те, кто достигает ее, уже не возвращаются в материальный мир.
(Б.Г. 15.6)
Господь также сказал эваишйаси сатйам̇ те
ман-мана̄ бхава мад-бхакто
мад-йа̄джӣ ма̄м̇ намаскуру
ма̄м эваишйаси сатйам̇ те
пратиджа̄не прийо ’си ме
Перевод Шрилы Прабхупады:
Всегда думай обо Мне, стань Моим преданным, поклоняйся Мне и почитай Меня. Так ты непременно придешь ко Мне. Я обещаю тебе это, ибо ты Мой дорогой друг.
(Б.Г. 18.65)
Когда Господу задавали различные вопросы, он обсуждал Вайкунтху и Голока Дхаму. Подобно тому, как Шри Кришна описал Вайкунтху и Голока Дхаму, Шрила Прабхупада также проповедовал их такими, какие они есть. В точности то, что сказал Господь, Шрила Прабхупада повторил с тем же ударением. Поэтому проповедь Прабхупады такая, какая она есть. Не только Бхагавад Гита, но и все разговоры Прабхупады о проповеди были такими, какие они есть. Так должно быть всегда. Все остается так, как сказал Господь. Другие проповедники или самопровозглашенные боги утверждают дхарму на основе своей философии. Они обсуждают небеса и сообщают людям, как попасть на небеса. Другими словами, они обсуждают слияние с Брахманом. Они говорят: «Ты тоже бог». Такие типы так называемых самопровозглашенных богочеловеков ходят по улицам нашей страны. Они заявляют, что могут сделать кого угодно Богом. Это имперсоналисты (майавади). Они майявади Кришна апарадхи, и они проповедуют вот так. Господь всегда зовет нас обратно в Свою обитель. На самом деле мы – Вайкунтха-васи, Голока-васи или Вриндаван-васи. Поэтому Кришна и Его последователи всегда проповедовали о Вайкунтхе, они вдохновляют и побуждают других вернуться домой к Богу. Другие люди так не проповедуют. У них нет философии возвращения на Голоку.
рнам кртва пибет
йавадж дживет сукхам дживет
бхасми-бхутасйа дехасйа кутах
пунар агамано бхавет
Перевод:
Согласно его теории, пока человек живет, он должен есть столько ги, сколько сможет. Но что делать, если на это не хватает денег? «Если у вас нет денег — просите, одалживайте или воруйте, но добудьте ги и наслаждайтесь жизнью». Как только твое тело умрет и будет предано огню, для тебя все будет кончено»
(Теория, изложенная Чарваком Муни, взята из комментария Ч.Ч. Āди 7.119)
Это известно как теория Чарвака. Последователей Чарвака в мире много. Говорят, что Чарвак был индуистом или индийцем, но теперь мы не имеем никакого отношения к Чарваку. Мы с ним не согласны. Мы его не знаем. Мы никогда не слышали ни его имени, ни его философии. Многие твердо придерживаются его теории. Он сказал, что когда человек умирает, все кончается смертью. Теории перерождения и вечной души не существует. Душа не вечна.
на джа̄йате мрийате ва̄ када̄чин
на̄йам̇ бхӯтва̄ бхавита̄ ва̄ на бхӯйах̣
аджо нитйах̣ ш́а̄ш́вато ’йам̇ пура̄н̣о
на ханйате ханйама̄не ш́арӣре
Перевод Шрилы Прабхупады:
Душа не рождается и не умирает. Она никогда не возникала, не возникает и не возникнет. Она нерожденная, вечная, всегда существующая и изначальная. Она не гибнет, когда погибает тело.
(Б.Г. 2.20)
Кришна сказал это о душе, но Чарвак проповедовал, что ее не существует. Когда Прабхупада обсуждал это с известным профессором из Москвы, он также сказал Прабхупаде: «Свамиджи, когда тело умерло, все кончено». После смерти тела ничего не остается. Это проповедовалось повсюду. Когда кто-то умирает, люди делают рамку с его фотографией, а под ней пишут сваргваси (ныне живущий на небесах). Никто не знает, в раю он или в аду. Кришна сказал, что три наших врага – вожделение, гнев и жадность – побеждают обусловленные души и уводят их в ад. Эти три – главные врата ада. Всего их шесть. Остальные три также важны. Но, как сказал Кришна, эти трое – главный вход в ад.
чинта̄м апаримейа̄м̇ ча
пралайа̄нта̄м упа̄ш́рита̄х̣
ка̄мопабхога-парама̄
эта̄вад ити ниш́чита̄х̣
а̄ш́а̄-па̄ш́а-ш́атаир баддха̄х̣
ка̄ма-кродха-пара̄йан̣а̄х̣
ӣханте ка̄ма-бхога̄ртхам
анйа̄йена̄ртха-сан̃чайа̄н
Перевод Шрилы Прабхупады:
Они убеждены, что главное для человека — услаждать свои чувства. Поэтому их до конца дней преследуют бесчисленные тревоги. Связанные путами сотен желаний, снедаемые вожделением и гневом, они неправедными путями добывают деньги на чувственные наслаждения.
(Б.Г. 16.11-12)
В жизни человека сотни желаний, сотни и тысячи привязок. Мы связаны этими путами, как марионетка, и веревки в них находятся в руках кукольника. Предполагается, что мы всегда мысленно пребываем в преданном служении Господу, но Кришна говорит, что особенно в Кали-югу люди всегда пребывают в мыслях вожделения и гнева. Они мастера вожделения и гнева. Они получают сертификаты вожделения и жадности. Киноиндустрия всегда пропагандирует вожделение и гнев. Эти две темы продолжаются в фильмах.
дхйа̄йато вишайа̄н пум̇сах̣
сан̇гас тешӯпаджа̄йате
сан̇га̄т сан̃джа̄йате ка̄мах̣
ка̄ма̄т кродхо ’бхиджа̄йате
Перевод Шрилы Прабхуады:
Созерцая объекты, приносящие наслаждение чувствам, человек развивает привязанность к ним, из привязанности рождается вожделение, а из вожделения — гнев.
(Б.Г. 2.62)
Вожделение никогда не удовлетворяется, а затем развивается гнев. Некоторые люди всегда говорят, что член нашей семьи ушел на небеса или слился с Брахманом после смерти. В основном эти два принципа приняты везде. Люди в этом мире говорят, что кто-то из нашей семьи сейчас живет на небесах, или некоторые говорят, что он сейчас живет на Кайласе (обитель Махадева), или некоторые говорят, что он слился с Брахманом. Но мы, Гаудия-вайшнавы, всегда говорим:
джай ом вишнупад нитйа лила правишта – Гаура Кишора Дас Бабаджи Махарадж ки Джай!
джай ом нитйа лила правишта – понимаете ли вы это? Что это значит ? Мы возносим всю славу тем, кто вошел в вечные игры Господа.
нитья лила правишта
Бхакти Винод Тхакура
Махарадж ки Джай!
Гаура Кишора Дас Бабаджи Махарадж ки Джай!
Шрила Бхакти Сидханта
Сарасвати Тхакур ки Джай!
Джаянанда Прабху ки Джай! Он был учеником Шрилы Прабхупады. Когда он покинул свое тело, Прабхупада сказал, что он вернулся к Богу. Шрила Прабхупада проповедовал истину: «пойдемте на Вайкунтху». Когда в 1944 году Прабхупада начал печатать свой журнал, он назвал его «Назад к Богу». На маратхи мы говорим журнал «джау девачия гава». Это опубликовано. Прабхупада сказал, что журнал «Назад к Богу» вернулся домой. Прабхупада назвал этот журнал «Назад домой». Пойдемте на Вайкунтху или Голоку. Шрила Прабхупада ки Джай!
Прабхупада опубликовал множество писаний, таких как Бхагавад-Гита, Бхагаватам, Чайтанья-чаритамрита, Ишопанишад, Упадешамрита, Нектар преданности, а также журнал «Назад к Богу». Во всех этих книгах говорится о том, что мы должны вернуться к Богу. Это означает, что мы должны достичь любви к Господу в нашей жизни, а в конце нашей жизни мы должны вернуться к Богу. Мы должны остановиться здесь. Мы должны распространять книги, которые передают это послание обители Господа и информацию, связанную с этим. Только что вы проповедовали о Бхагавад Гите по случаю Гита Джаянти. Теперь я хочу услышать от всех вас ваш опыт, реализации и результаты. Мы будем слушать преданных которые служат в наших храмах.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
17 जनवरी 2021
गौरांग! आज हमारे साथ 540 स्थानों से भक्त जप कर रहे है।
ॐ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
श्रीचैतन्यमनोऽभिष्ठं स्थापितं येन भूतले।
स्वयं रूप: कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।
वाञ्छाकल्पतरुभ्यंछ्य कृपासिंधुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: ।।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|
कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा ||
नमो महावदान्याय कृष्णप्रे -प्रदायते ।
कृष्णाय कृष्णचैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नम: ।।
(जय) श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृंद ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। 9.34।।
भगवतगीता ९.३४
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परमप्रिय मित्र हो।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||
भगवतगीता १८.६६
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
ऐसी कई सारी वचन है जो गीता के अंत में और यह वचन जो मैंने आपको भी सुनाएं यह सब कहे है। और मामेवैष्यसि भगवान कहे, मुझे ही प्राप्त करोगे! मुझे प्राप्त करोगे मतलब, कैसे करोगे? तुम जहां हो वहां मुझे प्राप्त करोगे! और फिर अंततोगत्वा इस शरीर को जब त्योगोगे तुम कृष्ण कह रहे है, त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन यहां केवल भगवान को प्राप्त करने के बाद नहीं कह रहे है, आने जाने की बात कर रहे है। मैं जहां हूं या में जहां रहता हूं यहां आओगे या मैं तुम्हें ले आऊंगा वहां! हरि हरि। तो कृष्ण आए संभवामि युगे युगे हुआ और भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया, शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् और मुझे दीजिए ऐसा अर्जुन ने कृष्ण से कहा और फिर कृष्ण ने सारी बात कही 18 अध्याय में, भगवान उवाच हुआ। यह सब कहने के पीछे भगवान के इस जगह पर प्रकट होने के पीछे उद्देश्य तो उनको घर वापस लाने के लिए उद्देश्य से भगवान प्रकट होते है, इस उद्देश्य से भगवान अर्जुन से वार्तालाप किए है। और हम मतलब यहां मैं जो आपसे कहता रहता हूं और आपसे बात करते रहता हूं और भगवान हमसे भी बात करते है, जब जब हम भगवत गीता को पढ़ते है, जब जब हम भगवत गीता को सुनते है, इन दिनों में भगवत गीता के संबंध में सुन रहे है, तो हमें समझना चाहिए कि, भगवान हमें सुना रहे है। और भगवान रहे है। जैसे भगवान अर्जुन सुन रहे थे। अब हमारी बारी है! वहीं बाते सुनने की फिर भगवान ने अर्जुन निम्मित बनाया लेकिन यह सारा संदेश और उपदेश तो हम मूर्खों के लिए है। या हम जो विमुख गए है, और भोगवांचा करने वाले हम,हमे भगवान कह रहे है। या हमसे बात कर रहे है, ऐसा भाव और समझ होनी चाहिए जब जब हम भगवतगीता को पढ़ते है या जब-जब भगवद गीता को सुनते है।
भगवतगीता पर प्रवचन हो रहा है या प्रभुपाद जब सुनाएं है भगवतगीता को, या भगवत गीता को प्रस्तुत किए है भगवत गीता यथारूप के रूप में, जब इसको पढ़ते है तब हम प्रभुपाद को सुनते है, ऐसी बात है! एक बार प्रभुपाद यह बातें जो प्रभुपाद लिखे है या ग्रंथ लिखे है, भावार्थ लिखे है, यह भावार्थ या भाषांतर प्रभुपाद कहते थे और ट्रांसक्रिप्शन होता था। और फिर हल्की सी प्रूफ रीडिंग के लिए जाती थी और लेआउट डिजाइन हुआ, कव्हर बना, छपाई हुई और फिर श्रील प्रभुपाद हमें आदेश दिए कि, ग्रंथों का वितरण करो! ग्रंथों का वितरण करो! और फिर उस आदेश का पालन करते हुए जब हम ग्रंथ वितरण करते और वह गीता किसी के हाथ लग जाती यानी किसी भाग्यवान के हाथ लग जाती तो वह व्यक्ति जब गीता को पड़ता है, पढ़नी ही चाहिए केवल होनी नहीं चाहिए! लेकिन कुछ लोग उसे, उसी रूप में रखते है, वैसी की वैसी रखी है, ऐसा नहीं करना चाहिए। उसे खोलिए और पढ़िए और जब हम उसे पढ़ते हैं तब हमको समझना चाहिए कि, जब यह भगवद गीता पढ़ी या भाषांतर सुनाएं, फिर श्रीमद्भागवत है ऐसे कई सारे भाषांतर है।
वैसे प्रभुपाद लिखते नहीं थे, वे बस डिक्टेटर के ऊपर कहते थे या कभी कभार टाइपिंग करते थे। लेकिन अधिकतर प्रभुपाद कहते थे और जब हमे वह ग्रंथ प्राप्त होता है, और हम उसे पढ़ते है तो हमको समझना चाहिए कि, हम प्रभुपाद को सुन रहे है। तो भक्ति को जब हम श्रवण से प्राप्त करते हैं यानी हम सुन रहे है, प्रभुपाद हमें सुना रहे है। श्री भगवान यह शास्त्र भगवान ने दिए है, यह अपौरुषेय वाणी भगवान कहे है। हरि हरि। तो जब हम पढ़ते है, कहने की तो कई सारी बातें है तब हम को समझना चाहिए कि, हम सीधे भगवान को सुन रहे है या फिर भगवान की बातें कोई हमें सुना रहे है। आचार्य हमें सुना रहे है। या गुरुजन सुना रहे है। या पढ़ रहे हैं तो सुना ही रहे है। तो इस प्रकार भगवान का संदेश उपदेश हम तक पहुंचता है। तो जब गीता की बातें भगवान ने की है तो बारंबार बारंबार कहे है, मुझे प्राप्त करोगे। मेरा नाम है या धाम है मेरा नंद ग्राम है मैं गोलोक या वृंदावन में रहता हूं। और इसका परिचय देते हुए कृष्ण कहते है,
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
भगवतगीता 15.6
अनुवाद:- उस(परमपद) को न सूर्य? न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर (संसारमें) नहीं आते? वही मेरा परमधाम है।
ऐसा है मेरा धाम! वहां सूर्य की आवश्यकता नहीं है, चंद्रमा की आवश्यकता नहीं है। मेरे धाम का गोलोक का वृंदावन का सूर्य तो मैं ही हूं। वहां का प्रकाश मेरे कारण ही है। मेरे धाम में मै ही शशि और चंद्रमा हूं। कृष्ण चन्द्र सम या कृष्णचंद्र, रामचंद्र चैतन्यचंद्र ऐसे भी कहते है हम। बहुकोटि चन्द्र जिनि वदन उज्ज्वल ऐसे भक्तिविनोद ठाकुर भगवान के गौरव गाथा गाए है। गौरांग महाप्रभु कि आरती तो देखो! जय जय गौराचाँदेर आरतिक शोभा आरती हो रही है, और उसका महाप्रभु का वर्णन किए है दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर निकटे अद्वैत श्रीनिवास छत्रधर ऐसे पंचतत्वों का उल्लेख हुआ है। और श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु ऐसा ही कुछ दृश्य गोलोका भी है जहां पर कृष्णचंद्र यानी कृष्ण चैतन्यचंद्र है। आरति करेन ब्रह्मा-आदि देवगणे श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु की आरती कौन कर रहे है? ब्रह्मा आरती कर रहे है।
केवल ब्रह्मा ही नहीं आए है, अन्य देवता भी आए है कई सारे देवता एकत्रित है और वे सभी मिलकर भगवान की आरती उतार रहे है, भगवान को देखने आए है। श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु कैसे विराजमान है, और कौन-कौन चमार डुला रहे है, और कीर्तन हो रहा है, और गले में माला है, गलदेशे वनमाला करे झलमल उनके गले में माला है उसकी शोभा तो देखो! यह सब कहते कहते फिर भक्तिविनोद ठाकुर आरती की शोभा का वर्णन करते हुए कह रहे है कि, देखो कितना सारा प्रकाश चैतन्य महाप्रभु के बहुकोटि चन्द्र जिनि वदन उज्ज्वल कोटि-कोटि चंद्रमा का प्रकाश विस्तृत हो रहा है श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के सर्वांग से! तो फिर इसीलिए श्री कृष्ण धाम का परिचय करते हुए दे रहे है, न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः मेरे धाम में सूर्य की आवश्यकता नहीं है, चंद्रमा की आवश्यकता नहीं है, विद्युत की आवश्यकता भी नहीं है और ऐसे धाम में जब कोई लौटता है या एक तो भगवान हमें आमंत्रित कर रहे है।
कृपया मेरे धाम आइए! इसीलिए भगवान आए यहां। या कभी-कभी बड़े मंत्री महामंत्री प्रधानमंत्री भी कारागृह को मुलाक़ात दे सकते है, उद्देश्य क्या होता है? वहां के कैदियों को आमंत्रित करते हैं कि आप कृपया करके सुधर जाइए और सरकार के नियमों का पालन करो, उलंघन करोगे तो यह हाल है! हथकड़ी और बेड़ियां है, परेशानियां है। लेकिन तुम्हें तो स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार है, नियमों का पालन करो! तो वहां पे सुधारने के लिए रखा जाता है ताकि उनमें सुधार हो। सरकार नहीं चाहती कि वह सदा के लिए वहां रहे। कुछ समय के लिए रखा जाता है ताकि सुधर जाए। दंड देने से व्यक्ति सुधर जाता है। कुछ लोग बात नहीं मानते उनको लाथ की जरूरत होती है! हाथों से नहीं मानते है उन्हें फिर लाथ मिलती है। और यह ब्रह्मांड या त्रिभुवन है यह भी कारागार ही है! इसकी तुलना भी कारागार से हुई है। हम सब कैदी है, अपराधी है, मायावती भी कृष्ण अपराधी है, और कहीं सारे अपराधी है, संडे हो या मंडे खाते जाओ अंडे फिर पड़ेंगे यमराज के डंडे! इसको जानते ही नहीं है इसीलिए शास्त्र को पड़ेंगे और परेशानी बढ़ेगी, तो कृष्ण के जैसे मैं कह रहा था कि कोई अधिकारी या मंत्री भी कारागार में जा कर कैदियों को समझाते बुझाते है, आजाओ! बाहर आजाओ! स्वतंत्र हो जाओ! क्यों मर रहे हो यहां? क्यों परेशान हो रहे हो? दुखाःलयम् आशश्वतम् कृष्ण भी कहे, मेरा धाम ऐसा है। तो तो भगवान भी आते है इस कारागार में और हम कैदियों को, अपराधियों को, पापियों को, हममें से कुछ ऐसे नामि पापी भी है, पापी नंबर वन! जगाई और बधाई है और रत्नाकर जो भविष्य में जो वाल्मीकि बने तो मैं कितने सारे अपराध किया करते थे। एक अपराध किया हमने सुना था कि, वे एक पत्थर घड़े में डालते थे।
किसी जानवर को मारा तो, किसी की जान ली, कही चोरी की तो एक एक पत्थर डालते थे। ऐसे कितने सारे घड़े उसने भरे थे तो ऐसा पापियों में नामी पापी थे वह रत्नाकर! पाप राशि, ढेर की ढेर किंतु फिर भगवान ने भेजा नारद जी को भेजा उनके पास या वह स्वयं जा रहे थे, तो उन्होंने नारद जी को भी रोक लिया, उन्हें लूटना चाहते थे! नारद जी कहे, लूट सके तो लूट लेे यह बैरागी बाबा, वैराग्य की मूर्ति उनके पास और क्या है? बस एक वीणा है और नारायण! नारायण! नारायण! तो ऐसी प्रभु की कृपा हुई और फिर जो भी था नारद जी के पास उन्होंने दे दिया! नारायण राम का नाम था वह नाम ही दे दिया! बस मेरे पास इतना ही है, लूट लो! लूट सके तो लूट! राम नाम के हीरे मोती बिखराऊं में गली गली… तो नारद जी से राम का नाम लिया और उन्होंने स्वीकार भी क