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CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक 31 October 2020
हरे कृष्ण!
आज 851 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। हल्की सी वृद्धि हो चुकी है। इसीलिए इस बात का स्वागत है। अभिनंदन है। हरि! हरि!
‘हैप्पी कार्तिक टू ऑल’ आप सभी को कार्तिक महोत्सव की शुभकामनाएं! कार्तिक मास में आपके सारे कार्यकलाप मंगलमय हो।आपके सारे कार्यकलाप सुसम्पन्न हो और विशेषतया साधना भक्ति। आप अध्यात्मिक समृद्ध हो। जब हम समृद्धि शब्द के विषय में सोचते अथवा कहते हैं तब तुरंत हम धन प्राप्ति, संपत्ति प्राप्ति या धनाढ्य होने के सम्बंध में सोचते हैं किन्तु हम चाहेंगे कि आप दिव्य दृष्टि से धनी हो। वैसे भी संत महात्मा कहते रहते हैं, ‘धन्य हो! धन्य हो!’ अर्थात आप धनी हो या आप धन्य होइए अथवा धनी बनिए।
वैसे धनी शब्द का सरल सा अर्थ कहा जाए तो जिसके पास धन है, उसको धनी कहते हैं। धन का मालिक धनी। जैसे सुख का मालिक सुखी और जिसके जीवन में दुख ही दुख है वह दुखी कहलाता है। ऐसे ही शब्द बन जाते हैं। ऐसे कई सारे असंख्य शब्द है। जिसके पास धन है, उसको धनी कहते हैं अर्थात ‘धनवान ।’ ऐसी भी एक कहावत है जिसके पास अधिक धन धान्य है, वह धनी है। जिसके पास अधिक गाय हैं अर्थात अधिक से अधिक गायों का मालिक है उसको भी धनी कहते हैं। वे भी धनी होंगे। किन्तु हम धन को भी दिव्य बना सकते हैं। हरि! हरि!
वैसे भी गाय तो दिव्य ही होती हैं। गायों का होना ही दिव्य है। नंद महाराज भी धनी थे , वह वैश्य थे। उनका कार्य अथवा उनका जॉब डिस्क्रिप्शन(विवरण) कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य था। नंद महाराज नौ लाख गायों के मालिक थे। वह निश्चित ही धनी थे। वह धनवान थे।
ब्रज-जन-पालन, असूर-कुल-नाशन,
नन्द-गोधन-रखवाला।
गोविन्द माधव, नवनीत-तस्कर,
सुन्दर नन्द-गोपाला॥3॥ ( श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित वैष्णव गीत)
अर्थ:- कृष्ण व्रजवासियों के पालन कर्त्ता तथा सम्पूर्ण असुर वंश का नाश करने वाले हैं, कृष्ण नन्द महाराज की गायों की रखवाली करने वाले तथा लक्ष्मी-पति हैं, माखन-चोर हैं, तथा नन्द महाराज के सुन्दर, आकर्षक गोपाल हैं।
यह सारी नौ लाख गाय तो कृष्ण के बाप की थी, कृष्ण की नहीं थी। कृष्ण केवल उनकी रखवाली करते थे। गाय तो नंद महाराज की थी और धान्य भी था। जब कृष्ण का पहला जन्मोत्सव अर्थात जिसको हम नंदोत्सव भी कहते हैं, जब वह मनाया जा रहा था तब नंद महाराज अपने खेतों में जो उत्पन्न धान है (जैसे तिल एक धान है। तिल से तेल बनता है।) उन्होंने तेल के कई सारे पहाड़ खड़े किए थे। और वह ब्राह्मणों को तिल का दान दे रहे थे। वह ब्राह्मणों को भी गायों का भी दान दे रहे थे। उनके पास गाय के रूप में धन था। ‘हे ब्राह्मण!’ ‘गाय ले लो,’ ‘गाय ले लो’ और साथ ही साथ वह ब्राह्मणों को धान्य तिल का भी दान दे रहे थे। ब्राह्मणों द्वारा तिल का बहुत प्रयोग होता है। जब यज्ञ होता है तो उसमें भी ‘स्वाहा’, ‘स्वाहा’ ‘स्वाहा’ तिल का उपयोग होता है। ब्राह्मण यज्ञ करते रहते हैं। तिल से तेल बनता है। ब्राह्मणों, सभी गृहस्थों .. जिसके पास अधिक धान है अथवा जिसके पास अधिक गाय हैं, वे भी धनी है। हरि! हरि! लेकिन मैं जो सोच रहा था कि आप धन्य हो, समृद्ध हो, क्योंकि आप अधिक से अधिक
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस मास में करोगे। इस हरे कृष्ण महामंत्र को अपनी बैंक में डिपाजिट करो। ‘हरिनाम महामंत्र का डिपाजिट।’ ‘ हरिनाम को कमाओ’, इसको कमाओ। उच्चारण करो, श्रवण करो, हरि नाम को प्राप्त करो, हरि नाम का संग्रह करो। अपने फिक्स्ड डिपॉजिट बढ़ा दो। फिर आप धनी हो गए। आप समृद्ध हो गए। वैसे भी हरि नाम को धन ही तो कहा है।
गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन,
रति ना जन्मिल केने ताय।
संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले,
जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥ ( श्रील नरोत्तम दास ठाकुर – वैष्णव गीत)
अर्थ:- गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता।
यह हरि नाम धन है। इस कार्तिक मास में इस हरि नाम को अधिक से अधिक कमाइए, प्राप्त कीजिए, श्रवण कीजिए। हरि! हरि!
अपराध रहित जप करने का या .. मैं सोच रहा था कि अपराधों में भी सतत निंदा करने वाला जो वैष्णव अपराध है, उसमें हम इतने अधिक एक्सपर्ट होते हैं अर्थात यह हम अपराध करने में इतने अधिक कुशल होते हैं कि वैष्णव अपराध तो हमारे लिए बाएं हाथ का खेल होता है। कितना आसान काम है। वैष्णव अपराध करना ही हमारा स्वभाव है। अंग्रेजी में कहते हैं- ‘इट्स आवर सेकंड नेचर’। हम बड़े आराम के साथ वैष्णव अपराध करते रहते हैं। हरि! हरि! इससे हरि नाम हमसे नाराज होगा। हरिनाम हरि है। हरि नाम भगवान है। भगवान् को अपने जीव, अपने अंश अर्थात जो अपने दास व भक्त बहुत प्रिय हैं। चाहे वे कैसे भी हो। जैसे माता को अपने सभी बालक/ बालिकाएं प्रिय होते हैं। हो सकता है कि कोई एकाध बालक अधिक बुद्धिमान हो और दूसरा बुद्धू भी हो लेकिन माता दोनों से प्रेम करती है। यदि कोई बदमाश भी बन जाता है तब भी माता का प्रेम उस बदमाश बच्चे के प्रति बना ही रहता है। यही तो माता है। इसलिए उसे माता कहा है। ‘मदर।’ मदर से प्यार। जैसे इस संसार की माताओं का अपने सभी बच्चों के प्रति प्रेम रहता है, थोड़ा सा कम या अधिक हो सकता है लेकिन माताएं सभी से प्रेम करती रहती हैं। तब फिर भगवान का क्या कहना…
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव,
त्वमेव सर्वमम देव देवः।।
अर्थ – तुम ही माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो। हे देवताओं के देव! तुम ही मेरा सब कुछ हो।
भगवान आप माता हो, आप ही पिता हो।हम महाराष्ट्र या पंढरपुर में ऐसा भी गाते हैं।
विठू माझा लेकुरवाला संगे गोपालांचा मेला ( महाराष्ट्रीयन गीत)
विठू माझा लेकुरवाला.. विठू को माउली भी कहते है। माउली मतलब आई। बंगाल में आई (मदर, माँ) चलता है। विठू माऊली है। विठू माझा लेकुरवाला लेकुरवाला मतलब विट्ठल भगवान के कई सारे बाल बच्चे हैं। वह हम सभी से प्रेम करते हैं। भगवान का प्रेम तो सभी से है। सभी जीव भगवान के हैं। भगवान का उनसे प्रेम है। भगवान उनसे प्रेम करते हैं और हम उनसे नफरत, ईर्ष्या, द्वेष करते हैं या गाली गलौच अथवा मारपीट करते हैं। हरि! हरि!
यदि हमें सचमुच धनी होना है तो हमें
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
का श्रवण, कीर्तन करते रहना चाहिए जिससे भगवान का स्मरण हो।
भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा है –
अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम
कृष्ण माता, कृष्ण पिता, कृष्ण धन-प्राण॥
अर्थ:-“पवित्र नाम के प्रति अपराध किए बिना, कृष्ण के पवित्र नाम का जप कीजिए। कृष्ण ही आपकी माता है, कृष्ण ही आपके पिता हैं, और कृष्ण ही आपके प्राण-आधार हैं। ”
हमें इस अपराध और सभी अपराधों से बचना चाहिए।
यह भक्ति विनोद ठाकुर का हमारे लिए आदेश है, हमारा लक्ष्य क्या है, अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम, अर्थात अपराधों से मुक्त होने का सारा प्रयास ही साधना है। जो दस नाम अपराध है, उसमें वैष्णव अपराध नंबर वन अपराध है। यह हमारी साधना / हमारे नाम जप में व्यवधान उत्पन्न करता है। हमें इससे बचना चाहिए। हम इस चतुर्मास में ऐसा भी कुछ संकल्प ले सकते है जैसे कल व्रज मंडल परिक्रमा का आदिवास हुआ। इस आदिवास में भी संकल्प हुआ कि मैं कार्तिक मास में परिक्रमा करूंगा। आशा है कि आप भी उस आदिवास में थे और आपने भी परिक्रमा करने का संकल्प लिया होगा। इस कार्तिक मास में एक ऐसा संकल्प लो कि मैं वैष्णव अपराध को टालने का हर सम्भव प्रयास करूंगा। यदि मैं वैष्णव अपराध नहीं करूंगा, तो क्या करूंगा? वैष्णव सेवा करूंगा। नामे रुचि, जीवे दया, वैष्णव सेवा। मैं वैष्णवों की सेवा करूंगा, वैष्णव अपराध नहीं करूंगा और जीवेदया भी करूंगा अर्थात जीवों के प्रति दया करूंगा। हरि! हरि!
इस कार्तिक मास में अपनी साधना को बढ़ाने का संकल्प या अधिक जप करने का संकल्प या परिक्रमा करने का संकल्प जो हर सायं काल को 7:00 बजे प्रारंभ होने वाली है और प्रतिदिन यशोदा दामोदर को दीपदान करने का संकल्प- यह सारी विधि हुई। यह करो, यह विधि हुई। कुछ निषेध भी हैं कि यह मत करो। निषेधों के अंतर्गत मैं यह अपराध नहीं करूंगा, मैं वह अपराध नहीं करूंगा, मैं देरी से नहीं उठूंगा। अब यह जप सेशन भी थोड़ा सा जल्द होने लगा है। हम लोग 5:45 बजे से प्रारंभ कर रहे हैं और आप में से कई सारे भक्त शामिल होते हैं।
मैं जल्दी उठूंगा, पहले नहीं उठता था। कार्तिक मास में ब्रह्म मुर्हत में उठूँगा। नहीं उठता था, तो यह निषेध की बात है। देरी से नहीं उठना चाहिए, जल्दी उठना चाहिए या फिर मुझसे यह वैष्णव अपराध होता था कि मैं यह नहीं करूंगा, मुझसे जो भी कुछ गलतियां होती रहती थी, अपराध होते रहते थे, अब उन अपराधों से भी बचने का अभ्यास अथवा प्रयास करने का भी संकल्प इस कार्तिक मास में लीजिए।
आप समृद्ध होइए, आप कार्तिक मास में सुखी रहिए, हैप्पी रहिए। कार्तिक मास में समृद्ध होइए या मंगलमय होइए। समृद्ध होना कौन नहीं चाहता , आप भी चाहते हो लेकिन चाहने से क्या होता है, कुछ करना होगा ताकि हम सचमुच समृद्ध हो सकें, सचमुच धनी हो सकें और इस हरिनाम धन को प्राप्त करें।
हमारी चेतना व भावना में इस हरिनाम का प्रवेश हो। हमारे विचारों, अंतःकरण में हरि नाम का प्रवेश, हरे का प्रवेश, कृष्ण का प्रवेश, हरे राम का प्रवेश हो।16 नाम वाला महामंत्र का प्रवेश, हर नाम के साथ जो भाव जुड़े हैं, विचार जुड़े हुए हैं इस हरि नाम का प्रवेश हो।
कृष्ण त्वदीयपदपंङ्कजपञ्जारान्तम्
अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः।
प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः
कण्ठावरोधनविधौ समरणं कुतस्ते।। ( मुकंद माला स्तोत्र श्लोक 33)
अर्थ:- हे भगवान कृष्ण, इस समय मेरे मनरूपी राजहंस को अपने चरणकमल के डंठल के जाल में प्रवेश करने दें मृत्यु के समय जब मेरा गला कफ वात स्थापित से अवरुद्ध हो जाएगा तब मेरे लिए आपका स्मरण करना कैसे संभव हो सकेगा।
राजा कुलशेखर प्रार्थना कर रहे हैं- हे भगवान, अद्यैव अर्थात आज ही, क्या हो? मानसराजहंसः- मन को हंस कहा है। वह राजहंस है अर्थात विशेष हंस है। मेरा मन हंसों में राजा है। उसका प्रवेश हो। किस में प्रवेश हो?
त्वदीयपदपंङ्कजपञ्जारान्तम् आपके जो चरण कमल हैं, चरण कमल में प्रवेश हो या वो चरण कमल मेरे अंतःकरण अथवा मेरे हृदय में प्रवेश हो। जहां कमल खिलते है, वहाँ हंस जरूर विचरण करते रहते हैं। जहां भी कमल हैं, वहाँ हंस आ जाते हैं। जैसे हिमालय में मानसरोवर है, वहां कमल खिलते हैं तब सारे हंस वहां पहुंच जाते हैं और जहाँ कूड़ा करकट फेंका जाता है, वहां कौवे आ जाते हैं। हरि! हरि!
राजा कुलशेखर ने भगवान से प्रार्थना की और भगवान ने उनकी प्रार्थना सुनी भी और वे भगवान को प्राप्त भी हुए। अब हमारी बारी है। उन्होंने हमें सिखाया है कि हमें कैसी प्रार्थना करनी है। हमें भी वैसी प्रार्थना करनी है। श्रील प्रभुपाद इस प्रार्थना को समझाते थे। हां, आज ऐसा है, अब वैसा है। इसका मैं आगे धकेलना नहीं चाहता। पोस्टपोन नहीं करना चाहता।
प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः
कण्ठावरोधनविधौ समरणं कुतस्ते
मैं बूढ़ा हो जाऊंगा, और कंठ में घुर घुर की आवाज आने लगेगी। तब मेरे द्वारा आपका नाम लेना भी मुश्किल होगा। प्रभु! उस स्थिति में, उस मन की स्थिति में फिर कहां से स्मरण होगा, कहां से इस हरि नाम का उच्चारण होगा। इसीलिए ‘अद्यैव मे विशतु’ अर्थात मैं इसी कार्तिक मास के प्रथम दिन से ही प्रारंभ करना चाहता हूं। इस कार्तिक मास में मैं साधना, भक्ति, विधि विधानों का पालन और निषेधों को भी ध्यान रखते हुए अपनी साधना को संपन्न करूंगा। ऐसा संकल्प भी हर व्यक्ति ले सकता है। कुछ अलग अलग आइटम की भिन्नता हो सकती है – मुझसे यह अपराध हो होता था या मुझसे वह अपराध होता था अथवा मुझसे यह पाप होता था। अब मैं इनसे बचूंगा। ऐसा नहीं करूंगा। हरि! हरि! इस तरह से आप निश्चित ही संकल्प लो कि मैं इन विधानों का पालन करूंगा और इन निषिद्ध कार्यों से बचूंगा।
तत्पश्चात कार्तिक मास के अंत में आप देख सकते हो, अपना रिव्यू कर सकते हो, परीक्षण- निरीक्षण हो सकता है कि कार्तिक मास में मेरी साधना भक्ति कैसी रही? कुछ लक्ष्य बनाइए, संकल्प लीजिए। हरि! हरि! हमारा यह सब करने का उद्देश्य कार्तिक मास में वृंदावन में भी रहना है। अपने मन को वृंदावन पहुंचाना है। वृंदावन में ही रहना है। हमारे शरीर जहां भी हो, नागपुर में हो या बेंगलुरु में है या कानपुर में है या उदयपुर में है – हमारा शरीर वहाँ हो लेकिन हमारा मन, हमारी आत्मा, हमारा ध्यान, हमारा स्मरण वृंदावन का स्मरण हो वृंदावन में रहना है तो वृंदावन का स्मरण मतलब राधा कृष्ण का स्मरण, कृष्ण बलराम का स्मरण, उनकी लीलाओं का स्मरण है।
आज जब मैं मंगला आरती के लिए जा रहा था तब विचार तो आ ही गया कि कार्तिक के पहले दिन जो कि शरद पूर्णिमा का भी दिन है। मैं पिछले 33 वर्षों से प्रतिवर्ष वृंदावन में ही रहा करता था परंतु इस वर्ष अभागा मैं इस समय वृंदावन में नहीं हूं। मैं थोड़ा शोक करते हुए राधा पंढरीनाथ मंदिर की ओर जा रहा था। फिर जब मैनें वहाँ राधा पंढरीनाथ की आरती उतारी । वहां आल्टर पर राधा पंढरीनाथ के साथ-साथ गोवर्धन शिला भी है। गोवर्धन भी है। जब मैं गोवर्धन की आरती उतार रहा था तब ऐसा विचार मन में आया कि क्या मैं वृंदावन में नहीं हूं।
अगर मैं गोवर्धन का दर्शन कर रहा हूं या गोवर्धन की आराधना कर रहा हूं। मेरे और गोवर्धन के मध्य में और कुछ भी नहीं है। जो 1000 मील की दूरी है, वह दूरी नहीं है। मैं गोवर्धन के सानिध्य में पास में हूं, सामने हूं और गोवर्धन को देख रहा हूं। गोवर्धन शिला जहां भी हो लेकिन गोवर्धन तो वृंदावन में ही रहते हैं। गोवर्धन वृंदावन में ही हैं। मुझे स्ट्रांग फीलिंग हुई कि मैं वृंदावन में ही हूं। क्यों शोक कर रहे हो? जहां गोवर्धन है, वहां निश्चित ही वृंदावन है। फिर जहां- जहां राधा कृष्ण हैं, वहां वृंदावन है। जहाँ
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
है, वह वृंदावन है। वैसे भागवतम में वर्णन है-
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूताः स्वयं विभो।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः स्थेन गदाभृता।। ( श्री मद् भागवतं १.१३.१०)
अनुवाद:- हे प्रभु,आप जैसे भक्त, निश्चय ही साक्षात पवित्र स्थान होते हैं क्योंकि आप भगवान को अपने हृदय में धारण किए रहते हैं। अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थ स्थानों में परिणत कर देते हैं।
संत महात्मा भी कई स्थानों को अपना निवास बनाकर तीर्थ स्थान बनाते हैं। वैसे जहाँ वे अपना निवास बनाते हैं, भगवान को वहां ले आते हैं। भगवान की स्थापना करते हैं। भगवान की आराधना करते हैं। भगवान की सेवा करते हैं, हो गया वृंदावन। इस प्रकार हम अपने घर को भी वृंदावन बना सकते हैं और वृंदावन में रह सकते हैं। ‘होम अवे फ्रॉम होम’ या ‘बैक टू होम’ थोड़ा दूर लगता है लेकिन दूर नहीं है। उसको अलग नहीं किया जा सकता। वृंदावन का अविभाज्य अंग है। हम जहां भी साधना कर रहे हैं, वहाँ राधा कृष्ण की आराधना कर रहे हैं। जब हम गोवर्धन की आराधना/ पूजा विशेषतया हरे कृष्ण महामंत्र का जप या कीर्तन करते हैं तब हम वृंदावन में ही रहते है। हरि! हरि! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
९०० प्रतिभागी हो गए। आप अपने कुछ गुरु भाई या गुरु बहनों पर दया करो। उनको भी जोड़ दो। इस ज़ूम कॉन्फ्रेंस में उनको बुलाओ। उन पर दया करो।
वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
कर उनको भी ले आओ ताकि यह जो थोड़ा रिक्त स्थान है। भर जाए। पदमाली प्रभु कह रहे थे कि जूम कॉन्फ्रेंस में 1000 लोगों की क्षमता है अर्थात 1000 भक्तों की सिटींग संभव है परंतु 100 सीट अभी भी खाली हैं। आप सब मिलकर प्रयास करोगे तो उदयपुर/ बेंगलुरु या नागपुर या कानपुर के जहां जहाँ के भी भक्त जो हमारे साथ जप नहीं करते पर अपनी अपनी आराधना कर रहे हैं या हो सकता है कि पंढरपुर या मायापुर के भक्त या हमारी शिष्य मंडली या फिर नए कुछ भी हो सकते हैं या आपके परिवार के सदस्य जो जॉइन नहीं करते, उनको याद कीजिए, देख लीजिए। ऐसा करने से कुछ वैष्णव सेवा भी हो जाएगी और जीवे दया भी हो जाएगी। ओके।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
31st October
Prepare Your Consciousness to Observe Kartik
Happy Kartik Mahaotsav to all of you. May the time of Kartik month be auspicious. May all your activities become successful. And especially your devotional activities. And you are prosperous. When we talk about the word prosperous we immediately want to become rich and wealthy. But I want you all to become rich in devotional activities. Even when saints and Mahatma keep saying you are blessed! You are blessed! This means you are rich. One who has money is rich.
There is a saying that those who have more cows and crops, they are called rich. Nanda Maharaja was vaishya. He was owner of 9 lakhs cows. He was rich. Krsna used to protect those cows. When Nanda Maharaja was celebrating the Nanda Utsav, at that time there were mountains of grains, and sesame crops were grown up. So he donated that to all the Brahmanas. And also he donated cows to them. So those who have more grains are rich. As I was saying that you all are rich, so deposit the Hare Krsna Mahamantra in your bank. Earn, chant, and hear the glories of the holy name. Increase the fixed deposit of Harinam and become rich.
golokera prema-dhana, hari-nāma-saṅkīrtana
Translation:
The treasure of divine love in Goloka Vṛndāvana has descended as the congregational chanting of Lord Hari’s holy names.
Harinam is wealth. Earn this wealth as much as possible in this Kartik Maas. We must engage in this process as this is the ultimate process to take you back to Godhead in this age of Kali. But chanting has to be attentive and offenseless. Blasphemy of pure devotees is the most powerful offense that is capable of destroying all bhakti. Lord always loves His devotees. It does not matter whoever it may be. The mother always loves her children.
Maybe one child is intelligent and the other one is foolish, but she loves both of them. This is the mother’s affection. What to say about lord then. Lord is our mother, he is our father. He is the father and mother of each being. We all belong to him.whether a person is gentle or wicked, intelligent or foolish, yet he is dear to the Lord.and if he is a devotee, then very dear to the Lord. And when we blaspheme or criticize such people who are dear to the Lord out of personal grudges, hatred, or envy then Lord is displeased. So one must try to refrain from any such mental or physical activity. So if we want to chant and hear attentively we have to restrain from these. The goal of the Bhaktivinoda Thakur is to :
aparādha-śūnya ho’ye loho kṛṣṇa-nām
kṛṣṇa mātā, kṛṣṇa pitā, kṛṣṇa dhana-prān
Translation:
Being careful to remain free of offenses; just take the holy name of Lord Krsna. Krsna is your mother, Krsna is your father, and Krsna is the treasure of your life.[ Nadiya Godrume Nityananda Mahajana verse 3 by Bhaktivinoda Thakura]
In this Chaturmasya you can take a vow to restrain from Vaishnava offense. And always engage in Vaishnava Seva
Jive Doya, Nama Ruchi, Vaishnava-Seva. In this Kartik maas, you can also take a vow to do more chanting, more Parikramas. We must make the optimal use of it. We are having the great opportunity of doing Brajmandal parikrama Virtually sitting at home. Offering ghee lamp to Yashoda Damodar. There are some dos and don’ts. We must make some oaths. I will chant sincerely, I will not get up late, I will refrain from Vaishnava Aparadh. As I was saying that you have to become prosperous. So to become, you have to earn the wealth of Hari Naam. Try to please the Lord and his devotees. Become more wealthy in terms of your wealth of Bhakti. Accumulate more wealth of the Holy Name. Let these individual syllables of Hare…Krsna…Hare…Rama enter your heart. sing Kulashekhar prays…
kṛṣṇa tvadīya-pada-paṅkaja-pañjarāntam
adyaiva me viśatu mānasa-rāja-haṁsaḥ
prāṇa-prayāṇa-samaye kapha-vāta-pittaiḥ
kaṇṭhāvarodhana-vidhau smaraṇaṁ kutas te
Translation:
“My Lord Kṛṣṇa, I pray that the swan of my mind may immediately sink down to the stems of the lotus feet of Your Lordship and be locked in their network; otherwise at the time of my final breath, when my throat is choked up with cough, how will it be possible to think of You?”[MM 33]
O Lord, my mind is like the King of Swans which dwells in the places where there are lotuses, let it focus, and meditate upon your lotus feet. We should also make such prayers to the Lord. Srila Prabhupada used to repeat this prayer. King Kulashekhar says let so happen today, now. He doesn’t want it to be delayed.
prana-prayana-samaye kapha-vata-pittaih
kanthavarodhana-vidhau smaranam kutas te
Translation:
At the time of death, when my throat will be choked up with mucus, bile, and air, how will it be possible for me to remember You?”
So we must be firm that we want to do it from today itself, on this first day of the month of Kartik. Everyone knows themselves. So introspect and find out what you need to implement and what you need to stop. Decide to do it from today, practice it for one month, and then make it your daily routine. We all have to reside in Vrindavan in this month of Kartik. Wherever you may physically be, but your mind and soul should be in Vrindavan. Remembrance of Vrindavan means remembrance of the divine pastimes of Radha Krsna and Krsna Balaram. Today morning I got this thought while going to mangal arati that for the past 33+ years I have always spent this month of Kartik in Vrindavan. I was feeling unfortunate. But as I started offering the arati to Sri Radha Pandharinath I also saw Sri Giriraj Shila and realized that I am in Vrindavan.
bhavad-vidhā bhāgavatās
tīrtha-bhūtāḥ svayaṁ vibho
tīrthī-kurvanti tīrthāni
svāntaḥ-sthena gadābhṛtā
Translation:
My Lord, devotees like your good self are verily holy places personified. Because you carry the Personality of Godhead within your heart, you turn all places into places of pilgrimage.[ SB 1.13.10]
The scriptures say that the saints and sages make every place where they go into a holy place. So we all can make our homes into Vrindavan. It can be a home away from home.
So all of you please try to make your home into Vrindavan by sincere Bhakti.
Hari Hari
Gaur Premamande Hari Hari Bol
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण,
30 अक्टूबर 2020
पंढरपुर धाम
827 स्थानों से जप भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! दामोदर मास की जय! कार्तिक मास की जय हो! कार्तिक मास आरंभ हो रहा है। यह एक विशेष मास दामोदर मास, कार्तिक मास अलग-अलग नाम है। हरि हरि, बढ़िया है या बहुत ही अच्छा है, वृंदावन में पहुंच कर, बृजवासी बन कर, वृंदावन वासी बनकर यह साधना भक्ति करें। वैसे ही लक्ष्य ही होना चाहिए जीवन का। एक समय, एक समय इस मंत्र में सिद्धि प्राप्त होगी मंत्र सिद्धि। हरे कृष्ण हरे कृष्ण मंत्र का जप हम साधना करते हैं तो, सिद्धि प्राप्त होगी, तो पहुंच जाएंगे वृंदावन और सदा के लिए रहेंगे वृंदावन में। भक्ति यत्र नृत्य किचः वंदावन में भक्ति सदा के लिए नृत्य करती हैं। भक्ति ही भक्ति है। वहां का जीवन भक्तिमय है। जिसको हम लोग कृष्णभावनाभावित जीवन कहते हैं। यह एक लक्ष्य ही है या उस साधना के अंतर्गत, एक साधना में साधना सिद्ध होना लक्ष्य है। और दूसरा हम साधक हैं तो, साधकों के लिए भी शास्त्रों में पद्म पुराण या श्रील रूप गोस्वामी भक्तिरसामृतसिंधु विशेष सिफारिश की गई है कि, हम वृंदावन में पहुंचकर कार्तिक मास करें। कार्तिक मास का व्रत करें। उस समय 1972 में श्रील प्रभुपाद इतने व्यस्त श्रील प्रभुपाद परिभ्रमण कर रहे थे पूरे विश्व का। वह सब छोड़ छाड़ के वृंदावन के और दौड़े वृंदावन पहुंच कर पूरे कार्तिक मास मेंं वह वृंदावन में रहे। और फिर उस वक्त मुझे भी अवसर प्राप्त हुआ था। श्रील प्रभुपाद के संग का सानिध्य का। श्रील प्रभुपाद से श्रवण कीर्तन करने का। उसी के साथ श्रील प्रभुपाद ने एक आदर्श रखा। कार्तिक व्रत संपन्न करने का आदर्श कहिए। और फिर वैसे हर वर्ष पिछले 34 वर्षोंं से मैं भी वृंदावन में रहता था कार्तिक मास में। और हम लोग ब्रज मंडल परिक्रमा करते थे।
किंतु दुर्दैव से ऐसी परिस्थिति धमकी है। अब वहां नहीं जा रहे हैं। नहीं जा पा रहे हैं। आप में से भी अधिक तक नहीं जा पाओगे। तो फिर आप जहां कहीं भी हो, वहीं रहकर या उसी स्थान को वृंदावन बनाकर, घर का मंदिर बना कर, या फिर मंदिर में ही रहते हैं हरे कृष्णा कैंपस में तो उसी को बनाईए बृंदावन। और रहिए वृंदावन में कार्तिक मास में। और साधना कीजिए कार्तिक व्रत को संपन्न कीजिए।
हरि हरि यह भक्ति देने वाला महीना है। या पर्व है या मुहूर्त है, भक्ति देने वाला। भक्ति का वर्धन होगा। भक्ती बढ़ेगी। भक्ति का एक लक्षण है, कृष्णाकर्षिनी। कृष्ण को आकृष्ट करती है यह भक्ति। कृष्ण आकृष्ट होते जाते हैं उस भक्त से और भक्त भी तो हो ही रहा है आकृष्ट भगवान की ओर। और फिर एक योग होता है मिलन होता है, भक्त और भगवान का। भक्ति से भक्त का भगवान के साथ संबंध प्रस्थापित हो जाता है। यह भक्ति बढेगी कार्तिक मास में की गई साधना से या फिर अधिक साधना से।
जब 1972 में हम पहुंचे थे वृंदावन। कार्तिक मास में और भी कुछ शिष्य थे 30 40 शिष्य थे। उस समय तब प्रभुपाद से पूछा था। यह जो कार्तिक मास आया है ना इससे ऊर्जा व्रत भी कहते हैं। यह राधा रानी का महीना है। व्रत है या उर्जा व्रत है। ऊर्जा मतलब शक्ति। और कौन सी शक्ति? यह आल्हादिनी शक्ति, भगवान कोअल्हाद देने वाली शक्ति का यह व्रत है। यह कार्तिक दामोदर व्रत है। साथ साथ और उर्जा व्रत राधारानी का भी व्रत है।
राधा दामोदर की जय! मुझे ऐसे लगता है। 1972 में जब हम राधा दामोदर मंदिर में ही पूरा दिन हम रहते थे। हम रहने के लिए वहां नहीं थे। प्रभुपाद ने हमारे रहने की व्यवस्था केशी घाट मैं की थी। केशी घाट में वहां एक राजा का महल है। हमारे रहने की व्यवस्था वहां की गई थी। क्यों? क्योंकि वह जमुना के तट पर है। जमुना में हम डुबकी लगाते थे प्रतिदिन। प्रभुपाद को हम लोगों ने पूछा था, कि हम क्या करें दामोदर मास में? श्रील प्रभुपाद ने कहा था कि, दिन-रात हरे कृष्ण का जप करो। ना खाना ना सोना सिर्फ जप करो। हरि हरि, ना खाना ना सोना बस 24 घंटे जप करो। मतलब जरूर अधिक जप करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। हम से 24 घंटे अहर्निश तो नहीं होगा या वह तो नाम आचार्य श्रील हरिदास ठाकुर ही कर सकते हैं। जप जरूर बढ़ाना चाहिए ऐसा तो समझ में आ ही रहा था श्रील प्रभुपाद के वचन से। हरि हरि। दामोदर अष्टक का गान और साथ में दीपदान दामोदर को, दीपदन करना है और श्रवण कीर्तन को बढ़ाना है। आपकी सेवा में ही कहिए हमारा जो ब्रज मंडल परिक्रमा का व्यवस्थापन है तो उनकी ओर से या पदयात्रा मिनिस्ट्री के और से कहिए एक प्रेजेंटेशन बनाया जा रहा है या कुछ बन चुका है। ताकि आप घर बैठे बैठे उसे देख सके। बैठे हो घर में जब उसको आप देखोगे ऑडियो विजुअल प्रस्तुति वर्चुअल परिक्रमा ऑनलाइन ब्रज मंडल परिक्रमा तो आप घर बैठे बैठे उसको देख सकोगे जैसे भी अब देखो गे सुनोगे ऑडियो विजुअल, तो आप वह दृश्य, वह दर्शन, वह श्रवण कीर्तन, कीर्तन भी होंगे, भजन भी सुनाए जाएंगे, कथाएं होंगी। वृंदावन के कई सारे विग्रहो का दर्शन आप कर पाओगे, कुंडों का दर्शन करोगे, यमुना मैया की जय कम से कम मानसिक स्नान भी कर सकते हो। तो सारे ब्रज चौरासी कोस की यात्रा होगी। केशी घाट वंशीवट द्वादश कानन जहां सब लीला कई लो श्री नंदनंदन तो द्वादश कानन बारा वनों की यात्रा होगी। कार्तिक व्रत के अंतर्गत इस व्रत को भी अपनाइए, इस साधना को भी अपनाइए। आप कार्तिक मास में प्रतिदिन वर्चुअल ऑनलाइन परिक्रमा से जुड़ जाइए देखिए सुनिए इसे भी आपका कार्तिक व्रत बढ़िया से संपन्न होगा। इसके संबंध में कुछ ही देर में दिनानुकंपा माताजी और अकिंचन भक्त प्रभु जी आपको जानकारी देने वाले हैं, आप कैसे इस से जुड़ सकते हो कुछ ही मिनटों में। वैसे आप औरों को भी कुछ नए नए लोगों को भी जोड़ सकते हो कृष्ण भावना से जोड़िए या उनसे भी करवाइए कुछ कार्तिक व्रत का पालन। आपके इष्ट मित्र, कलीग्स, पड़ोसी उनको भी प्रेरित कीजिए ताकि वह भी देखें और जुड़ जाए इस परिक्रमा से ब्रजमंडल ऑनलाइन परिक्रमा को और वे भी दीप दान करें दामोदर को। हरे कृष्ण महामंत्र सिखाइए उनको, उनसे बुलवाइये, हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करते हुए दीप दान करवाइए और यह करते समय आप वीडियो ले सकते हो। या पहले उन्होंने सिर्फ महामंत्र ही कहा था और आपने उनका वीडियो खींचा था उनको भाग्यवान बनाया था और इस समय उनसे महामंत्र भी बुलवाइए और साथ-साथ दीपदान भी करवाइए और उसका वीडियो बनवाइये। इस अभियान इस प्रतियोगिता का कंपटीशन भी हो सकता है या होगा ही। हरि हरि। इसके बारे में और भी कहेंगे, लेकिन बहुत कुछ कह दिया तो उस पर विचार कीजिए। जुम पर भक्तों को संबोधित करते हुए गुरु महाराज कह रहे हैं हां बजरंगी प्रभु संभव है हां क्यों नहीं निष्ठावान प्रभु भुवनेश्वर से और उज्वला गोपी माताजी औरो से जप करवाइए और दीप दान करवाइए। आप सभी थोड़ा औरों का भी कल्याण कीजिए, केवल भजनानंदी नहीं होना है क्या होना है हमको गोष्टीआनंदी बनना है। केवल अपने स्वार्थ का ही सोचना नहीं है परमार्थ करना है औरों का भी कैसे कल्याण हो और यही है
भारत भूमिते हइला मनुष्य जन्म यार।
जन्म सार्थक करी कर पर-उपकार।।
(च. च. आदि 9.41)
यह परोपकार का कार्य है। औरों को कृष्ण दीजिए उनके नाम के रूप में, इस दीपदान की सेवा के रूप में। ठीक है, हम यही रुकेंगे।
हरे कृष्ण।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
30 OCTOBER 2020
STAY IN VRINDAVAN DHĀMA!
Hare Krsna!
Devotees from 827 locations are chanting with us.
Gaura premanande Hari Hari bol!
Dāmodar māsa ki jai!
Kārtika vrat ki jai!
The Holy Kārtika month is starting from tomorrow. It is a very important month for the devotees. We must practice sincere devotional service in Holy Vrindavan Dhāma in this Kārtika month. It is the aim of life to stay in Vrindavan forever after attaining perfection in Hare Krsna Mahā-mantra.
Vrindavanasya Sanyogat Punastvam Taruni Nava,
Dhanyam Vrindavanam Tena Bhaktirnrityati Yatra Cha
TRANSLATION
Shri Narad Ji says, O Bhakti Devi, You are really blessed! Upon reaching Vrindavan, you have become a young girl. Here at Vrindavan, Bhakti is dancing at every lane, every house, every tree and every creeper i.e everywhere. (Padma Purāna, Bhāgawat Mahatmya 1.61)
Vrindavan is the place where Bhakti Devi Dances. Bhakti means Krishna Consciousness life. It is recommended in Padma Purāna and the Nectar of Devotion book of Śrīla Rupa Goswami that we must practice devotional service in Holy Vrindavan Dhāma during Kārtika month. Śrīla Prabhupāda was having a very busy schedule preaching around the world in 1972, still in the month of Kārtika, he came to Vrindavan and stayed there for the full month. I also got the opportunity to stay with Śrīla Prabhupāda that time. Śrīla Prabhupāda started this Vrindavan Festival in Kārtika month. I have also been doing the same for the past 34 years and doing Vraja Mandala parikrama. However, unfortunately this year the scenario is different. I am not going to go to Vrindavan this time. Many of you also will not be going to Vrindavan because of the prevailing scenario. But you can practice sincere devotional service wherever you are. Make your house Vrindavan and then stay in Vrindavan during Kārtika month. Kārtika month is Bhakti giver. This month enhances Bhakti and Bhakti attracts Krsna. Therefore, Bhakti establishes an eternal relationship between the devotee and the Lord.
In 1972, when I went to Vrindavan with Śrīla Prabhupāda in Kārtika month, we used to spend the day in Radha Dāmodar temple and stayed at Keśī Ghāta arranged by Śrīla Prabhupāda. Kārtika month is also called Dāmodar month. Also the ‘Urja Vrat’ is observed in this month, the energy giver, as this is also Radharani’s month (Alahdini energy of Krsna). When we asked Śrīla Prabhupāda, “What should we do in this Kārtika month?” he replied, “You must chant Hare Krsna day and night. No eating and no sleeping. Just chant.” Only Nāmācārya Śrīla Haridāsa Thākura can chant 24 hours. However, we must try to increase Japa. Offering of ghee lamps to yashoda Dāmodar singing Damodaraśtak is also done in this month. The Vraja Mandala parikrama administration is making a presentation. This will enable you to do Vraja Mandala parikrama virtually sitting at home. You will be able to get darshans of different deities of Vraja, classes by various senior devotees, bhajans and kīrtans. You can do Mansik snāna – mentally.
kesi-ghata, bamsi-bata, dwadasa-kanan
jaha saba lila koilo sri-nanda-nandan
TRANSLATION
All glories to Kesi-ghata, where Krishna killed the Kesi demon. All glories to the Vamsi-vata tree, where Krishna attracted all the gopis to come by playing His flute. Glories to all of the twelve forests of Vraja. At these places the son of Nanda, Sri Krishna, performed all of His pastimes. (3rd verse, jaya radhe, jaya krishna, Sri Vraja-dhama-mahimamrita)
You will be virtually taken to all the 12 forests of Vrindavan. You must join daily and attend the virtual parikrama to successfully complete Kārtika vrat. Dinanukampa mataji and Akinchana Bhakta prabhu shall be giving you all the information regarding the details of this virtual Vraja Mandala Parikrama in a few minutes from now. You must attend daily and you may encourage others also to join virtual parikrama and perform deep daan to Yashoda Dāmodar. Teach them Hare Krsna kīrtana. Even new people can be encouraged to attend this Pilgrimage trip to the 12 forests of Vrindavan. The Fortunate people Campaign can also be started again. You may approach people to offer lamps to Yashoda Dāmodar and chant Hare Krsna in this Kārtika month. You may take a video of people doing this. This would be a competition again. All of you should enthusiastically participate in this. We are not supposed to be concerned about our Sadhana alone, we should be preachers.
bhārata-bhūmite haila manuṣya janma yāra
janma sārthaka kari’ kara para-upakāra
TRANSLATION
One who has taken his birth as a human being in the land of India [Bhārata-varṣa] should make his life successful and work for the benefit of all other people. (CC Ādi 9.41)
Caitanya Mahāprabhu said that we must not be selfish, instead we must work for the welfare of people. Therefore, take this to more and more people. Give Krsna to others in the form of His name and service of deep daan.
Hare Krsna!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
29अक्टूंबर 2020
आज 794 स्थानो सें भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं।
स्वागत है। सुप्रभातम्! गुड मॉर्निंग! मॉर्निंग को आप गुड बना रहे हो या बेटर बना रहे हो हरि हरि!
जप करके, जप यज्ञ करके, हरि हरि!
I तृणादपि सु – नीचेन तरोरिव सहिष्णुना अमानिना मान – देन कीर्तनीयः सदा हरिः।।
( चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला अध्याय17 श्लोक1)
अनुवाद ” जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता , फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है , वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है । ”
कीर्तनीय सदा हरी हो रहा था। सदैव जप करो, सदैव कीर्तन करो!
हरेर्नाम हरेर्नाम हरे मैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
( श्री चैतन्य चरित्रामृत, मध्य लीला अध्याय6 श्लोक242)
अनुवाद ” इस कलियुग में आत्म – साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है । ”
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।
( श्रीमद भगवतम, स्कंध9, अध्याय4, श्लोक18)
अनुवाद:-भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है ।
हर्रेनाम हर्रेनाम हर्रेनाम मैव केवलम् के साथ-साथ नित्यं भागवत सेवया भी कहां है उसको भी करो, सदैव। कीर्तनीय सदा हरी और नित्यम भागवत सेवया। यह कैसे संभव है?कीर्तन भी करे सब समय। अखंड हो! और नित्यम भागवत सेवया सें अब भागवत कि सेवा भी भागवत का श्रवण भी भागवत कि सेवा भी श्रवण भी नीत्य हो।इन दोनों में कोई अंतर नहीं है ऐसा ही समझना होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह अगर कीर्तन हैं।किर्तनीय सदा हरी श्रीमद् भागवत भी कीर्तन ही हैं। भगवान की किर्ति भी हैं। भगवान के नाम रूप गुण लीला का कीर्तन शुकदेव गोस्वामी गाये हैं। वैसे इसलिए भी शुकदेव गोस्वामी को कीर्तन के आचार्य कहते हैं। कीर्तन के आचार्य कैसे हो गए वो तो भागवत की कथा सुनाते है, सुनाएं हैं। भागवत कीर्तन ही हैं। हरि हरि!
हम दोनों ही करते हैं। दोनों करके एक ही करते हैं वैसे कीर्तन भी करते हैं। जप भी करते हैं और श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण भी करते हैं। हरि हरि!
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व – रूपेण व्यवस्थितिः।।
(श्रीमद्भागवतम् स्कंध 2 अध्याय 10 श्लोक 6)
अनुवाद:-अपनी बद्धावस्था के जीवन -जय सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुए महाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है । परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति ‘ मुक्ति ‘ है ।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व – रूपेण व्यवस्थितिः।।
श्रील शुकदेव गोस्वामी श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध में मुक्ति की परिभाषा समझा रहे हैं। क्या है मुक्ति? कैसे मुक्ति को प्राप्त करें? उनका तो कहना है कि जब हम भक्त बनेंगे तो फिर हम मुक्त भी होंगे। भक्त मुक्त होता है या भक्त बने बिना व्यक्ति मुक्त नहीं होता या पुर्णतः मुक्त नहीं होता।शुकदेव गोस्वामी ने कहा मुक्ति क्या है?
हित्वा अन्यथा, हित्वा मतलब त्याग कर। अन्यथा रूपम और जो रूप है शरीर है इन को त्याग कर सारे शरीरों को त्याग कर वो कई प्रकार के हैं। वैसे मुक्ति तो हम मनुष्य शरीर में ही प्राप्त कर सकते हैं। वैसे और कुछ अपवाद भी है,किंतु यह कार्य संभव या संपन्न होता है मुक्त होने का मनुष्य जीवन में ही यह संभव हैं। र्हित्वान्यथारूपं जहां तक रूप की बात है या शरीर की बात है फिर हमको हरि हरि! हमारा लिंग शरीर भी हैं। यह स्थूल शरीर हैं। इस स्थूल शरीर को तो हम कई बार त्याग ते तो हैं। इसी को मृत्यु कहा जाता हैं। लेकिन केवल स्थूल शरीर को त्यागने से मृत्यु होने से हम मुक्त नहीं होतें। शुकदेव गोस्वामी क्या कह रहे है? र्हित्वान्यथारूपं तो फिर हमको लिंग शरीर को भी त्यागना होगा। इस सूक्ष्म शरीर के बंधनों से भी मुक्त हो ना होगा। ये लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर क्या हैं? मन बुद्धि अहंकार से बनता है यह सूक्ष्म शरीर।
इतना सूक्ष्म अति सूक्ष्म है इसीलिए डॉक्टर या सर्जन उन्हें भी नहीं दिखता है यह सूक्ष्म शरीर या माइक्रोस्कोप सूक्ष्मदर्शक यंत्र से भी वे देख नहीं पाते। इतना सूक्ष्म है यह मन,बुद्धि,अहंकार से बना हुआ शरीर, लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर। इस सूक्ष्म शरीर के बंधनों से भी मुक्त होना होगा। पूर्णतः मुक्त होने के लिए। पूर्णतः मुक्त होने के लिए इस मन, बुद्धि, अहंकार वाले शरीर से मुक्त होना होगा इसलिए भी कहा हैं।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्तं निर्विषयं स्मृतम्।।
(अथर्ववेद से अमृतबिन्दुउपनिषद श्लोक 2)
अनुवाद:-केवल मन ही लोगों के बंधन और मुक्ति का कारण है। जब वस्तुओं से जुड़ा होता है, तो यह बंधन की ओर जाता है। वस्तुओं से मुक्त होने पर, यह मुक्ति की ओर ले जाता है।
कारणं बन्धमोक्षयोः
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
मन ही तो है मनुष्य के बंधन का कारण और मुक्ति का कारण भी मन बन सकता हैं। बंधन का कारण तो बना हुआ है ही मन, लेकिन मुक्ति का कारण भी बन सकता है मन। सेवाई मन: कृष्ण पदारविंदयो ऐसे कुल शेखर ने कहा है एक आदर्श साधक और प्रसिद्ध भक्त भी रहे हैं। वह कह रहे हैं सेवाई मन: कृष्णपदारविंदयो पद -अरविंद, मैं अपने मन से सदैव भगवान के चरणारविंद का स्मरण करता हूंँ। ध्यान करता हूँ।
तदा पश्यन्ति सुरया सब समय देखते हैं भगवान का परमधाम और फिर भगवान का रूप का दर्शन भी करते हैं। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । फिर मन मुक्त हुआ। मन से भगवान का ध्यान कर रहे हैं। मन बुद्धि अहंकार। बुद्धि दी भगवान ने हम फिर साधना कर रहे हैं। साधक बने हैं तो भगवान बुद्धि भी देंगे सद्बुद्धि मिलेगी इस बुद्धि का उपयोग
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 श्लोक 10)
अनुवाद:-जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
ऐसी बुद्धि विनाश काले विपरीत बुद्धि बुद्धि के भी दो प्रकार या दो प्रकार के लोग हैं। कोई बुद्धिमान सचमुच बुध्दिमान या फिर बुध्धु। बुध्धु तो बंधन में होते हैं बंधे होते हैं और जब व्यक्ति बुद्धिमान बनता है भगवान बुद्धि देते हैं।जो हृदय प्रांगण में भगवान विराजमान होते हैं
सर्वस्य चाहे हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैचश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृव्देदविदेव चाहम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 श्लोक 15)
अनुवाद: – मैं प्रत्येक जीव के ह्रदय में आसीन हूं और मुझसे ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूंँ। निस्संदेह मैदान का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जाने वाला हूंँ।
मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। भगवान ने कहा है।श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 श्लोक 15। मैं सबके ह्रदय प्रांगण में विराजमान हूं और मुझसे ही मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। मुझे से ही स्मृति प्राप्त होती है जीव को।मैं ही देता हूं स्मृति या बुद्धि या स्मरण। मेरा ही स्मरण मै ही देता हूँ जीव को। ऐसा दिमाग ऐसी बुद्धि ऐसे विचार उच्च विचार मैं देता हूं जीव को भगवान कहते हैं ऐसे विचार वाले हम बुद्धिमान बन गये इसके साथ हम क्या कर रहे हैं?
र्हित्वान्यथारूपं मन जो कलुषित, दूषित मन या चंचल मन हमने त्याग दिया उससे मुक्त हुए। अब ए दिव्य मन कहिए वैसे बुद्धि भी कहिए सांसारिक विचार त्याग दिया भोग विलास के विचार या हरि हरि! विपरीत बुद्धि को त्याग दिया विनाश काले विपरीत बुद्धि हमारा विनाश करने वाली बुद्धि को जो है र्हित्वान्यथारूपं मुक्त हो रहे हैं। मन से मुक्त हो रहे हैं या मन को त्याग दिया दूषित मन को या भौतिक मन को प्राकृतिक मन को, उसी प्रकार प्राकृतिक बुद्धि को को भी त्याग दिया। दिव्य बुद्धि को प्राप्त किया। मन, बुद्धि और अहंकार फिर अहंकार से भी मुक्त हुए और अब हम समझ रहे हैं। अहम् या अहंकार… भगवान कृष्ण ने कहा
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |
अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 27)
अनुवाद :-जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
विमूढात्मा, मुरख, पागल, गधा कहीं का, कोई दिमाग ही नहीं होता जब बुद्धि नहीं होती या जड़ बुद्धि वाला वह क्या सोचता हैं? कर्ता अहम् मैं करता हूंँ। मैं कर्ता हूँ। वैसे कोई करवा रहा है कर्ता करविता तो और कोई है।हे भगवान की प्रकृति है प्रकृति के ऊपर भगवान कि अध्यक्षता हैं।भगवान ही करा रहे हैं।प्रकृति के माध्यम से या फिर बीच में देवताओं को भी डाल देते हैं और हमारे सारे कार्यकलाप प्रकृते: क्रियमाणानि प्रकृति ही करती है करवाती है हमसे सारे कार्य लेकिन विमूढात्मा कर्ता अहम् मै कर रहा हूँ।
उसका जो अहंकार है मैं कर रहा हूं अहम् अहम्, मैं- मै इस से मुक्त होना हैं।वो भी एक अच्छा उदाहरण हैं। या आप देखे होंगे जरूर देखे होंगे। या आप भारत के निवासी हो या आप कभी ग्रामीण क्षेत्र में भी गए होंगे तब आप ने बैलगाड़ी भी देखी होंगी बैलगाड़ी में कभी-कभी बहुत सारा माल सामान्य हो सकता है कोई फसल या धान डाल देते हैं भर देते हैं और उस गाड़ी को बैल खींचते रहते हैं कभी-कभी कोई कुत्ता आ जाता है और बैलगाड़ी गाड़ी के नीचे दोनों पैय्यो के बीच में कुत्ता चलता रहता है बैल भी चल रहे हैं।बैल खींच रहे हैं बैलगाड़ी आगे बढ़ रही है लेकिन जब बैलगाड़ी के नीचे जो कुत्ता है वह सोचता है कि वैसे बैलगाड़ी तो मैं ही खींच रहा हूंँ। यह भ्रम है यह है माया यह है कर्ताहमिति मन्यते का एक ज्वलंत उदाहरण कहो।वैसे कुत्ता सोच सकता है। मैं इसको खींचने वाला हूंँ। मेंरे कारण ये गाड़ी आगे बढ़ रही हैं। हकीकत तो और ही हैं बैल खींच रहे हैं, तो यह जो हंकार है। तो इस* अहंकार को त्याग कर वैसे अहम हैं लेकिन फिर अहम् दासोस्मी मैं भगवान का दास हूंँ।
(जीव) कृष्णदास, ए विश्वास,
कर्’ ले त’ आर दुःख नाइ
(कृष्ण) बल् बे जबे, पुलके ह’बे
झ’र्बे आँखि, बलि ताइ॥2॥
( राधा कृष्ण बोल बोल वैष्णव वैष्णव गीत शीला भक्ति विनोद ठाकुर विरचित)
अनुवाद:-परन्तु यदि मात्र एकबार भी तुम्हें यह ज्ञान हो जाए कि ‘मैं कृष्ण का दास हूँ’ तो फिर तुम्हें ये दुःख-कष्ट नहीं मिलेंगे तथा जब ‘कृष्ण’ नाम उच्चारण करोगे तो तुम्हारा शरीर पुलकित हो जाएगा तथा आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगेगी।
जीव को विश्वास होगा कि मैं जो जीव हूं मैं कृष्ण दास हूंँ ऐसा विश्वास, ऐसा साक्षात्कार, ऐसा आत्मसाक्षात्कार। खुद को समझो पहचानो। के आमी जैसे सनातन गोस्वामी भी पूछ रहे थे मैं कौन हूंँ? केने आमाय जेये कापत्राय हरि हरि!
ये नहीं के अहम् नहीं हैं। अहम है मतलब मैं। यह नहीं कि मैं नहीं हूं मैं हूंँ लेकिन मैं कौन हूंँ? सचमुच कौन हूंँ! इस बात को जब हम समझेंगे तो फिर जो झूठा अहम है, अहंकार है।अहङकारविमूढात्मा इस विचार से मुक्त होंगे। इस प्रकार र्हित्वान्यथारूपं तो यह लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर से भी हम मुक्त हुए इसको त्याग दिए। इसका बंधन नहीं रहा और फिर शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा फिर क्या होगा? स्व – रूपेण व्यवस्थिति:” फिर हमारा या आत्मा का जो हम आत्मा है या कृष्णदास हैं।
स्व – रूपेण व्यवस्थिति: अपने स्वरूप में। पहले तो कहा कि, र्हित्वान्यथारूपं और- और जो रूप हम धारण करते रहते हैं। और -और शरीर जो हम धारण करते हैं।नाना प्रकार की योनिया भी हैं। मनुष्य शरीर भी हैं। उसको भी त्याग कर र्हित्वा- त्याग कर ठुकरा कर और फिर हमने यह समझाने का प्रयास किया है कि असली बंधन तो या बध्दता तो इस लिंग शरीर के कारण है क्योंकि मृत्यु के समय तो इस शरीर को हम त्यागते तो हैं किंतु ये जो मन, बुद्धि, अहंकार का बंधन या पकड तो बनीं रहती हैं। जीवात्मा जो मन,बुद्धि,अहंकार बंधन में रहता है वहीं अगले शरीर में प्रवेश करता हैं। अगले स्थूल शरीर में प्रवेश किया किसने आत्मा ने भी किया और आत्मा के ऊपर जो मन बुद्धि अहंकार वाला जो शरीर है लिंग शरीर उसी के साथ प्रवेश करता हैं। उनको मन, बुद्धि, अहंकार वाले शरीर से या रुप से भी मुक्त होना हैं।
र्हित्वान्यथारूपं उस स्थूल रुपं, सुक्ष्म रुपं, र्हित्वा- त्याग कर स्व रुपेण अपना तो रुप है संसार के प्रकृति के दिए इतने सारे रूप है इतनी सारी योनियाँ है कि दुनिया हैं। सूक्ष्म शरीर भी एक रूप हैं। सूक्ष्म रूप है यह सब त्याग कर स्व – रूपेण व्यवस्थिति: अपने स्वरूप में हम स्थित हो जाएंगे। स्वरूप में आत्मा का अपना स्वरूप हैं। आत्मा का रूप हैं। आत्मा का फॉर्म हैं। आत्मा का खुद का मन बुद्धि हैं। आत्मा के अपने अवयव हैं। हाथ पैर हैं। आत्मा का आप सेल्फी खींच सकते हो या तो कृष्ण के साथ भी फोटो खींचा जा सकता है और जिनको हम देखते हैं भगवान को अपने मित्रों के साथ या माता पिता के साथ गोपियों के साथ या फिर गाय भी है कुछ बछड़े भी है वे भी उनके रूप हैं। कई सारे उनके रूप हैं। वैसे ही रूप वाले हम भी हैं। जीव का वैसा ही रूप है जैसा हम कृष्ण के सर्वांग सुंदर रूप का हम दर्शन करते हैं और साथ ही साथ कृष्ण जिनके साथ लीला खेलते है उन भक्तों के रूप उनके शाश्वत रूप है या वे ऊन रुपो को ही तो कहा है स्व – रूपेण व्यवस्थिति: वह स्थित हुए अपने स्वरुप में और उनका भगवान के साथ विशेष संबंध भी हैं। हर रूप का भगवान के साथ अलग-अलग संबंध हैं। अलग-अलग रस हैं। कृष्ण दास्य रस,साख्य रस, वास्यल्य रस। वैसे नाम भी है और फिर हर जीव का जब अपने स्वरूप में वह जाता हैं। अपनी उसकी वेशभूषा भी हैं। उसका नाम भी हैं। उसका काम भी हैं। एक निश्चित काम हैं। निश्चित सेवा हैं। एक निश्चित सेवा हैं। शाश्वत सेवा है भगवान के संबंध मे…
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व – रूपेण व्यवस्थितिः ॥
जब व्यक्ति अपने स्वरूप में स्थित होगा और फिर जब…
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||
(श्रीमद् भगवद्गीता अध्यय 4 श्लोक 9)
अनुवाद: -हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
त्यक्त्वा देहं अपने शरीर को त्याग दिया मृत्यु हुई उसका जो स्व – रूपेण व्यवस्थितिः उसका जो आत्मा है अपने स्वरूप में स्थित हुआ हैं। उसका क्या होगा? भगवत धाम लौटेगा या त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति पुनर्जन्म नहीं, नहीं होगा। मामेति मैं जहां रहता हूं वहां आएगा। मुझे प्राप्त होगा ऐसा भगवान ने भगवद् गीता में अर्जुन से कहा हैं। हरी हरी! This is food for thought for the day(धीस इज फुड फाँर द डे) ये विचार चिंतन के लिए विषय हैं। इसका चिंतन कीजिएगा। मन में बिठाईए। गीता में भागवत में आप पढ़ सकते हो और भी कोई शोध संशोध इसके संबंध में हो या साधु शास्त्र आचार्य के प्रमाण वचन हैं। उनको भी प्राप्त करके खोज के पढ के और इस चिंतन को मनन को आगे बढ़ाया जा सकता हैं। आपका प्रश्न है तो आप लिख लो मैंने कहा आपका कोई विचार है कोई बात आपको समझ में आई कुछ अनुभव हुआ उसको भी लिख सकते हो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कार्तिक मास भी आ रहा हैं। कल वर्चुअल ऑनलाइन ब्रजमंडल परिक्रमा कल से प्रारंभ हो रही हैं। कल होगा अधिवास। अधिवास शुभारंभ और फिर प्रतिदिन परिक्रमा आपको सूचना मिलेगी कल सायंकाल 4:00 बजे तक। कल सायंकाल 7:00 बजे से प्रतिदिन सायंकाल 7:00 बजे से आप वृंदावन पहुंच सकते हो और वृंदावन निवास कर सकते हो। परिक्रमा करोगें, दर्शन होंगे, स्नान होगा, मानसिक स्नान होगा। परिक्रमा ब्रज मंडल परिक्रमा के अंतर्गत गोवर्धन परिक्रमा है फिर राधा कुंड परिक्रमा है फिर बरसाना परिक्रमा हैं। ये सब परिक्रमा के अंदर विभिन्न परिक्रमा चलती रहेगी हरि हरि!
नाउ गेट रेडी!( तो तैयार हो जाओ!)बहुत बड़ा व्रत कार्तिक व्रत प्रारंभ होने जा रहा है और यह महान पर्व हैं। वैसे वर्ष भर में आने वाले पर्वो में ये एक नामी पर्व हैं। कार्तिक पर्व या दामोदर मास इस महीने में कई सारी भगवान की लीला और कई सारे उत्सव संपन्न होंगें। शरद पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक गोवर्धन पूजा होगी। दामोदर अष्टक होगा। गोपाष्टमी होगी। बहूलाष्टमी होगी। श्रील प्रभुपाद का तिरोभाव महोत्सव संपन्न होगा। साथ में रहो परिक्रमा का साथ दो। प्रतिदिन घर बैठे बैठे आपको ना तो हिलने की ना तो डुलने की आवश्यकता हैं। ना तो ट्रेन बुकिंग ना प्लेन बुकिंग। रिलैक्स…हरि हरि!
*मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्व – रूपेण व्यवस्थितिः ॥
आपको अपने स्वरूप में स्थित होने के लिए मदद करेगी यह ब्रजमंडल आँनलाइन परिक्रमा या ब्रजवास और श्रवण किर्तन आप कर पाओगे। साधु संग भी होगा। भागवत कथाएं भी होंगी। किर्तन भी होगा।मथुरा वास, वृंदावन वासऔर विग्रह आराधना ये जो प्रोग्राम साधन है आज मुख्य साधन इसकी साधना भी होगी।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
ओके(ठीक हैं) ! जिनको लिखना था या तो प्रश्न या आपके अनुभव की बात लिखें ही होंगे ऐसी आशा करते हुए हम यहा रुक जाते हैं। हरि हरि! जपा टाँक सेशन तो थोड़ा समय पर रोकना है! ओके(ठीक हैं)! तो जप करो! बचा हुआ जप करो और व्यस्त रहो! अपने अपने स्वरूप में स्थित हो जावो।
हरे कृष्ण…!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
29 October 2020
Situate yourself in original Identity as ‘eternal Krsnadas‘.
Hare Krsna!
Nitai Gaura premanande Hari Hari bol!
We have participants from 790 locations. Welcome and good morning! You are making your morning good by performing japa yajna. That was kirtaniyah sada harih that is, chanting the holy name of the Lord constantly.
harer nāma harer nāma
harer nāmaiva kevalam
kalau nāsty eva nāsty eva
nāsty eva gatir anyathā
TRANSLATION
In this age of quarrel and hypocrisy, the only means of deliverance is the chanting of the holy names of the Lord. There is no other way. There is no other way. There is no other way. (CC Madhya 6.242)
naṣṭa-prāyeṣv abhadreṣu
nityaṁ bhāgavata-sevayā
bhagavaty uttama-śloke
bhaktir bhavati naiṣṭhikī
TRANSLATION
By regular attendance in classes on the Bhāgavatam and by rendering of service to the pure devotee, all that is troublesome to the heart is almost completely destroyed, and loving service unto the Personality of Godhead, who is praised with transcendental songs, is established as an irrevocable fact. (ŚB 1.2.18)
It is said that we have to serve Śrīmad Bhāgavatam and perform kīrtana always without any break. How is that possible, both simultaneously and also always? The fact is that both are the same.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
If Hare Krsna Mahā-mantra is a kīrtana, then Śrīmad Bhāgavatam is also a kīrtana, song of glories of the Lord. Śukadeva Goswami has sung the glories of name, form, qualities, pastimes and abode of the Lord. Studying Śrīmad Bhāgavatam is also a kīrtana. That is why Śukadeva Goswami is called the Ācārya of Kīrtana Bhakti. We do both, kīrtana and studying of the Śrīmad Bhāgavatam.
nirodho ’syānuśayanam
ātmanaḥ saha śaktibhiḥ
muktir hitvānyathā rūpaṁ
sva-rūpeṇa vyavasthitiḥ
TRANSLATION
The merging of the living entity, along with his conditional living tendency, with the mystic lying down of the Mahā-Viṣṇu is called the winding up of the cosmic manifestation. Liberation is the permanent situation of the form of the living entity after he gives up the changeable gross and subtle material bodies. (ŚB 2.10.6)
Śrīla Śukadeva Goswami is explaining the definition of liberation (mukti) in the 2nd canto of ŚB. How to attain liberation? He says that a devotee is always liberated. Without becoming a devotee, one cannot be liberated. Liberation is hitvānyathā rūpaṁ, where hitvā means – giving up. Therefore, liberation is possible after giving up all the bodies. Liberation can be obtained only in human life. We have a physical or gross body which we give up several times again and again. But simply giving up this gross body, one does not get liberated. There is another body, the subtle body. It is made up of mind, intelligence and false ego. One has to be freed from this body also to get liberated. Doctors also have not seen yet this subtle body.
mana eva manuṣyāṇāṁ
kāraṇaṁ bandha-mokṣayoḥ
bandhāya viṣayāsaṅgo
muktyai nirviṣayaṁ manaḥ
TRANSLATION
For man, mind is the cause of bondage and mind is the cause of liberation. Mind absorbed in sense objects is the cause of bondage, and the mind detached from the sense objects is the cause of liberation. (Currently mind is the cause behind our bondages. But the same mind can also be the cause of our liberation.)
sa vai manaḥ kṛṣṇa-padāravindayor
vacāṁsi vaikuṇṭha-guṇānuvarṇane
karau harer mandira-mārjanādiṣu
śrutiṁ cakārācyuta-sat-kathodaye
TRANSLATION
Mahārāja Ambarīṣa always engaged his mind in meditating upon the lotus feet of Kṛṣṇa, his words in describing the glories of the Lord, his hands in cleansing the Lord’s temple, and his ears in hearing the words spoken by Kṛṣṇa or about Kṛṣṇa. This is the way to increase attachment for the Lord and be completely free from all material desires. (ŚB 9.4.18)
om tad vishnoh paramam padam sada
pashyanti surayo diviva chakshur-atatam
tad vipraso vipanyavo jagrivamsaha
samindhate vishnor yat paramam padam
TRANSLATION
Just as the sun’s rays in the sky are extended to the mundane vision, so in the same way the wise and learned devotees always see the supreme abode of Lord Vishnu. Because those highly praiseworthy and spiritually awake brahmanas are able to see the spiritual world, they are also able to reveal that supreme abode of Lord Vishnu. (Rig Veda 1.22.20)
Devotees always see the form and abode of the Lord. If we engage our mind in Krsna always, then we get liberated.
teṣāṁ satata-yuktānāṁ
bhajatāṁ prīti-pūrvakam
dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ
yena mām upayānti te
TRANSLATION
To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (B.G. 10.10)
Krsna gives us the right intelligence.
There is intelligence and foolishness (vinash kale viprit buddhi). Foolishness results in bondages.
sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca
vedaiś ca sarvair aham eva vedyo
vedānta-kṛd veda-vid eva cāham
TRANSLATION
I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas. (B. G.15.15)
The intelligence is given by Krsna so that we can give up our gross and subtle bodies and get liberated. We must give up all thoughts that are of desire for sense gratification as they entangle us into bondages.
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ
ahaṅkāra-vimūḍhātmā
kartāham iti manyate
TRANSLATION
The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature. (B.G.3.27)
vimūḍhātmā means bewildered soul. This gives us the feeling of the doership. We start having the feeling that I am the doer. This develops the false ego. Whereas the fact is that Krsna is the actual doer through material nature. We have to get liberated from false ego. You must have seen a loaded bullock cart many times. It is heavily loaded and pulled by the bullocks. Sometimes a dog comes and starts walking under the cart, between it’s wheels. Now if the dog thinks that I am so strong that I am carrying so much weight then it is false doership. False Ego means Ahankar, where Aham means I. Ahankar means the feeling that I am the doer, I am the controller, I am the owner and enjoyer.
Whereas real ego is Aham dashoshmi, that is, I am the servant of the Lord.
yeh jiva krishna dāsa ehi vishwaas karlo to dukh na hoi
We have to realize that we are servants of the Lord.
‘ke āmi’, ‘kene āmāya jāre tāpa-traya’
ihā nāhi jāni — ‘kemane hita haya’
TRANSLATION
Who am I? Why do the threefold miseries always give me trouble? If I do not know this, how can I be benefited? (CC Madhya 20.102)
Sanātana Goswami asked, “Who am I?” When we understand the real aham, I or real ego, we will get rid of false ego (ahankar). Śukadeva Goswami says hitvānyathā rūpaṁ, that giving up all the physical bodies at death is not enough to be liberated. The subtle body made up of ‘mind, intelligence and false ego’ is also to be given up. It is then only sva-rūpeṇa vyavasthitiḥ, that we can know and see the actual form of our soul. The soul has its form and qualities. Any soul, irrespective of what body it has been given, has eternal form. This is our original form. This is svarupa. The associates of the Lord are situated in their original eternal form. We are also of the same form. Every soul has a different eternal relation with the Lord namely dāsya rasa, sākhya rasa, vātsalya rasa. Soul has its own eternal name, form and services to the Lord.
janma karma ca me divyam
evaṁ yo vetti tattvataḥ
tyaktvā dehaṁ punar janma
naiti mām eti so ’rjuna
TRANSLATION
One who knows the transcendental nature of My appearance and activities does not, upon leaving the body, take his birth again in this material world, but attains My eternal abode, O Arjuna. (B.G. 4.9)
He, whose soul is situated in its original form after giving up both gross and subtle bodies and who knows the appearance and activities of the Lord and leaves his body, can go back home back to godhead. This is food for thought for the day. Contemplate on this topic during the day. You can read Bhagavad-gītā and Śrīmad Bhāgavatam. Listening has to be followed by contemplation & reflection. One must have a vigorous thinking so as to apply it to his life.
If anyone has any questions, realizations or comments then you may write it down in the chat.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
The month of Kārtika is going to start. The virtual Braj Mandal Parikrama is also going to start from tomorrow. Tomorrow will be the adivāsa ceremony and day after tomorrow the Parikrama shall start from 7pm. This virtual Parikrama will have so many benefits. You will be able to reach Vrindavan through this virtual parikrama.
You’ll have different darshan’s, snāna, celebrations, Govardhan parikrama, etc. This will be a great festival. There will be many celebrations like Damodarshtak, Gopashtami, Bahulashtami, Govardhan Puja, Śrīla Prabhupāda disappearance day, etc. in this month. This will help us to be situated in our original identity. Sādhusanga, kīrtana, virtual residence in the holy Dhama, hearing Bhāgavata katha, deity worship, etc will be available. We shall stop here. We will try to end the session timely. Chant and remain busy. Stay in your original identity.
Hare Krsna!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
28 अक्टूबर 2020
हरे कृष्ण!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 782 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
हरि! हरि! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
जे आनिल प्रेमधन करुणा प्रचुर।
हेन प्रभु कोथा गेला अचार्य ठाकुर॥1॥
काँहा मोर स्वरूप-रूप, काँहा सनातन?
काँहा दास-रघुनाथ पतितपावन?॥2॥
काँहा मोर भट्टयुग, काँहा कविराज?
एक काले कोथा गेला गोरा नटराज?॥3॥
पाषाणे कुटिबो माथा, अनले पशिब।
गौरांङ्ग गुणेर निधि कोथा गेले पाब?॥4॥
से सब संगीर संगे जे कैल विलास।
से संग ना पाइया कान्दे नरोत्तमदास॥5॥
अर्थ
(1) अहो! जो अप्राकृत प्रेम का धन लेकर आये थे तथा जो करुणा के भंडार थे ऐसे आचार्य ठाकुर (श्रीनिवासआचार्य) कहाँ चले गये?
(2) मेरे श्रील स्वरूप दामोदर, श्रीरूप-सनातन तथा पतितों को पावन करनेवाले श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी कहाँ हैं।
(3) मेरे रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, गोपाल भट्ट गोस्वामी, कृष्णदास कविराज गोस्वामी तथा महान नर्तक श्री चैतन्य महाप्रभु, ये सब एक साथ कहाँ चले गये?
(4) मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इन सबका वियोग मैं कैसे सहूँ? मैं अपना सिर पत्थर से पटक दूँ या आग में प्रवेश कर जाऊँ! गुणों के भण्डार श्री गौरांग महाप्रभु को मैं कहाँ पाऊँगा?
(5) इन सब संगियों के साथ गौरांगमहाप्रभु ने लीलाएँ की, उनका संग न पाकर श्रील नरोत्तमदास केवल विलाप कर रहे हैं।
हम, श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के ‘भगवत विरह पार्षद’ नामक गीत को गाया करते हैं। हम इस गीत को तब गाते हैं जब हम किसी वैष्णव की तिरोभाव तिथि महोत्सव को मनाते हैं। हरि! हरि!
श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का वैष्णव के प्रति अत्याधिक स्नेह रहा है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर के वृंदावन पहुंचने से पहले ही कई सारे आचार्यों, चैतन्य महाप्रभु के पार्षदों व परिकरों का तिरोभाव हुआ अथवा वे पुनः राधा कृष्ण की नित्य लीला में प्रविष्ट हुए। तब श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने अपने विरह की व्यथा को इस गीत “जे आनिल प्रेमधन” में व्यक्त किया। जो प्रेम धन को लाए थे अथवा जो करुणा से भरपूर व प्रचूर थे अर्थात करुणा की मूर्ति थे। ‘कोथा गेला’ अर्थात वे अचानक कहां गए,
पाषाणे कुटिबो माथा, अनले पशिब। मैं पाषाण पर सिर पटकूँगा या मैं आग में प्रवेश कर लूंगा। मैं उनके बिना जी नहीं सकता। हरि! हरि!
ऐसी समझ श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की है। वे आचार्यों को ऐसा समझते हैं। उनका आचार्यों के प्रति अत्याधिक प्रेम था। वे आचार्यों को समझते थे इसीलिए उनका आचार्यों से प्रेम अथवा स्नेह भी था।
हरि! हरि!
आज के दिन हम हमारे कुछ पूर्व आचार्यों का तिरोभाव तिथि महोत्सव मना रहे हैं या गौड़ीय वैष्णव जगत मना रहा है। आज श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी का तिरोभाव तिथि महोत्सव है।
श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
रघुनाथ दास गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
रघुनाथ भट्ट गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय!
आज तीन आचार्यों का तिरोभाव तिथि महोत्सव है। उनकी समाधि राधा कुंड पर है। आप कभी गए होंगे? हम तो जाते ही रहते हैं। वहां राधा कुंड के तट पर इन तीन आचार्यों की एक ही स्थान पर समाधि है। वैसे तिरोभाव तो एक ही दिन हुआ लेकिन वे दिन अलग अलग महीने या अलग-अलग वर्ष हैं। वह एक ही दिन नहीं है। तिथि के हिसाब से एक ही तिथि है किंतु वे अलग-अलग समय है। हरि! हरि! अब हम गौड़ीय वैष्णव बन रहे हैं। हमारे भाग्य का उदय हुआ है। भगवान ने हमें भाग्यवान बनाया है।
ब्रह्मांड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव।
गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति लता बीज।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१)
अनुवाद:- सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्मांड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह मंडलों को। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है।
हमें ऐसे गुरुजन अथवा आचार्य गण प्राप्त हैं।
आचार्यवान् पुरुषो वेदा ( छान्दोग्य उपनिषद ६.१४.२)
अनुवाद:- जो मनुष्य आचार्यों की गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण करता है, वह वस्तुओं को असली रुप में जान पाता है।
अब हम आचार्यवान बन चुके हैं। ये हमारे पूर्व आचार्य हैं। गौड़ीय वैष्णव आचार्य, हमारे आचार्य हैं। जब हम उनको अपने जीवन में स्वीकार करते हैं तब हम आचार्यवान बनते हैं। आचार्यवान बनकर ही ‘आचार्यवान् पुरुषो वेदा’ बनते हैं। तत्पश्चात हम जानकार बनते हैं, हम ज्ञानवान बनते हैं या फिर हम भक्तिवान भी हो जाते हैं अर्थात आचार्यों को अपने जीवन में स्वीकार करने से हम भक्ति से युक्त अथवा संपन्न हो जाते हैं व समृद्ध हो जाते हैं। वैसे हर जन्म में माता पिता तो मिलते हैं लेकिन कुछ ही जन्म में या किसी एक जन्म में हमें गुरु मिलते हैं या आचार्य मिलते हैं। हरि! हरि!
जब तक हमें गुरु या आचार्य नहीं मिलते तब तक हम इस घराने के हैं या इस परिवार या वंश के हैं। हम मराठा परिवार से हैं या हम पाटिल घराने के हैं। या हम यह है, हम वह है। हम ऐसा रोबाब दिखाते ही रहते हैं। यह चलता ही रहता है। कुंती महारानी कहती हैं कि
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमानः।
नैवार्हत्याभिधातुं वै त्वाम् किञ्चनगोचरम् । । ( श्रीमद् भागवतम १.८.२६)
अनुवाद:- हे प्रभु, आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा, जो भौतिक दॄष्टि से अकिंचन हैं। जो सम्मानित कुल, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुंच पाता।
हमें अहंकार होता है (अभी तो नहीं बताएंगे।) हम ऐसे ऐसे घराने व परिवार में जन्मे हैं। या हो सकता है कि मेरा जन्म अमेरिका या चाइना में हुआ है। जन्म ऐश्वर्या.. लेकिन यह सारे जन्म इस कलियुग में
‘कलौ शुद्रसम्भव:’ ( स्कन्द पुराण)
अर्थ:- कलियुग में जन्मजात सभी शुद्र हैं।
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा
आभीरशुम्भा यवनाः खसादयः।
येअनये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः
शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः।। (श्रीमद् भागवतं २.४.१८)
अनुवाद:- किरात, हूण, आंध्र, पुलिन्द, पुल्कश, आभीर, शुम्भ, यवन, खस आदि जातियों के सदस्य तथा पाप कर्मों में लिप्त रहने वाले लोग अन्य लोग परम् शक्तिशाली भगवान् के भक्तों की शरण ग्रहण करके शुद्ध हो सकते हैं। मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ।
हम परिवार में जन्मे होते हैं और फिर अचानक भगवान की अहेतु की कृपा से छप्पर फाड़ के कहा जाए कि हम पर भगवान कृपा करते हैं अथवा कृपा की वृष्टि करते हैं। तब जब हम पर कृपा की दृष्टि की वृष्टि होती है अर्थात हम पर आचार्यों की कृपा की दृष्टि की वृष्टि होती है, तत्पश्चात ही हमारा भाग्य खुलता है। हमारे भाग्य का उदय होता है। हमारे भाग्य का उदय करने वाले श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के पार्षद या परिकर या आचार्यगण कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी भी रहे हैं। अब हमारा गौड़ीय संप्रदाय बन चुका है। इन्होंने भी हमारे संप्रदाय को समृद्ध बनाया है। उन्होंने अपने चरित्र से और अपने गुणों से इस परंपरा को भी गुण संपन्न बनाया है। संक्षिप्त में हम इन तीनों के संबंध में कुछ कहना भी चाहेंगे।
कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज का जन्म बंगाल में हुआ। वे बचपन से ही अपने वैराग्य के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें संसार में रुचि नहीं थी। उन्होंने अपनी पैतृक संपत्ति को भी परिवार के सदस्यों को दे दिया अथवा बांट दिया। वे मुक्त ही थे। एक रात्रि को उन्हें स्वप्नादेश हुआ। उनके स्वपन में साक्षात नित्यानंद प्रभु प्रकट हुए और उन्हें आदेश दिया, “वृंदावन जाओ” उन्होंने उठते ही वृंदावन जाने की तैयारी की। वह बंगाल से सीधे ही वृंदावन पहुंच गए। यहां पर उनको गौड़ीय वैष्णवों के सानिध्य का लाभ प्राप्त हुआ। वह अब राधा कुंड के तट पर ही निवास किया करते थे। उनकी कुटिया आज भी है। राधाकुंड के तट पर उनकी समाधि भी है। वे एक साधारण निवास स्थान पर रहते थे। वह स्थान भी है, वहाँ आप जाकर उसका दर्शन कर सकते हो व नतमस्तक हो सकते हो। हरि! हरि! वहां पर उनको विशेषतया रघुनाथ दास गोस्वामी का सानिध्य लाभ हुआ। आज रघुनाथ दास गोस्वामी का भी तिरोभाव तिथि महोत्सव है। वह चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथपुरी में 14 साल रहे थे। उनकी भी चर्चा शुरू हो ही रही है। जब चैतन्य महाप्रभु नहीं रहे अर्थात जब चैतन्य महाप्रभु ने टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रवेश किया अर्थात श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु अंतर्धान हुए तब रघुनाथ दास गोस्वामी के लिए वह विरह सहन करना कठिन या असंभव सा ही था। उन्होंने जगन्नाथपुरी को छोड़ दिया और वे वृंदावन हेतु प्रस्थान के लिए विचार कर रहे थे अथवा सोच रहे थे कि मैं वृंदावन में जाकर अपने अस्तित्व को समाप्त कर दूंगा। चैतन्य महाप्रभु के बिना अर्थात उनके सानिध्य के बिना जीना, क्या जीना है। चैतन्य महाप्रभु के बिना जीवन बेकार है। जब मैं वृंदावन पहुँचुंगा तब गोवर्धन के शिखर पर चढ़कर खाई में गिर पडूंगा और अपनी जान ले लूंगा। इस विचार से वृंदावन में आए हुए रघुनाथ दास गोस्वामी जब रुप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी के सम्पर्क में आए, तब उन दोनों ने उनके दिमाग को पढ़ लिया कि वह क्या विचार कर रहे हैं। वे दोनों इसको समझ गए और उन्होंने रघुनाथ दास गोस्वामी को खूब समझाया- बुझाया। तत्पश्चात रघुनाथ दास गोस्वामी ने प्राण त्यागने का विचार छोड़ दिया। तब रघुनाथ दास गोस्वामी वृंदावन में 40 वर्ष तक रहे। तत्पश्चात वे भी राधा कुंड के तट पर रहने लगे। हमारे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी भी वहीं रहते थे। रघुनाथ दास गोस्वामी ने यह भी एक विशेष कार्य किया था, जब वे जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु के साथ थे तब उनको स्वरूप दामोदर दास गोस्वामी और रामानंद राय का सानिध्य प्राप्त हुआ था। वैसे जब रघुनाथ दास गोस्वामी जगन्नाथपुरी पहुंचे तब चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर गोस्वामी को कहा था (जो कि चैतन्य महाप्रभु के सचिव थे) कि ‘रघुनाथ दास का ख्याल किया करो।’ स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने रघुनाथ दास गोस्वामी का वैसा ही ख्याल रखा तब रघुनाथ दास गोस्वामी स्वरूपे रघु के नाम से पहचाने जाने लगे। यह रघुनाथ दास गोस्वामी कौन से हैं? यह स्वरूपे रघु’ है। जिनको स्वरूप दामोदर गोस्वामी संभालते व देख रेख करते हैं। यह कौन से रघुनाथ हुए? ‘स्वरूपे रघु’ अर्थात स्वरूप के रघु। रघुनाथ दास गोस्वामी प्रतिदिन चैतन्य महाप्रभु के हर दिन के कार्यकलापों का लीलाओं का अवलोकन भी करते थे और फिर निरीक्षण करके लिखा करते थे। जिसे कड़चा भी कहते हैं। रघुनाथ गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का वर्णन किया करते थे। रघुनाथ गोस्वामी वृंदावन में पहुंचकर राधा कुंड के तट पर रहते थे, वहां पर वे प्रतिदिन वृंदावन के भक्तों को गौर लीला सुनाते थे क्योंकि वृंदावन के भक्तों को पता नहीं था जगन्नाथ पुरी में कैसी कैसी लीलाएं संपन्न हुई थी।
रघुनाथ दास गोस्वामी ने अपनी आंखों देखी लीलाएं अथवा वे जिन लीलाओं के स्वयं साक्षी थे और उन्होंने जिन लीलाओं को लिखकर भी रखा था, वे उन लीलाओं को वृंदावन में राधा कुंड के तट पर सुनाया करते थे। उनमें एक श्रोता कृष्ण दास कविराज गोस्वामी भी थे। भक्त, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को और भी सुनना चाहते थे। वैसे जगन्नाथ पुरी की लीलाओं का कुछ श्रवण या कुछ तो संस्मरण तो हो रहा था किंतु मायापुर, नवद्वीप में सम्पन्न हुई लीलाओं का उनको पता नहीं था। चैतन्य महाप्रभु की यात्रा में व मध्य लीला जब वह सन्यासी हो गए थे औऱ
‘ले कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार’ कर रहे थे तब वह उन सारी लीलाओं को सुनना या पढ़ना चाहते थे। हम तो सुन रहे हैं, हम तो लाभान्वित हो रहे हैं। वैसे सारी लीलाएं तो हम नहीं सुन पा रहे हैं क्योंकि मायापुर में संपन्न हुई लीला तो हमें सुनने को नहीं मिल रही है और पढ़ने का प्रश्न नहीं है, क्योंकि ग्रंथ ही नहीं है।
तब वहां के भक्तों ने श्री कृष्ण दास कविराज गोस्वामी से मिलकर एक विशेष निवेदन किया कि आप चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के ग्रंथ की रचना कीजिए। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी बड़े विद्वान थे। वैसे उन्होंने और भी गोविंद लीलामृत आदि कुछ ग्रंथों की रचना की थी और कर रहे थे। जब कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज को यह विशेष निवेदन हुआ, तब वह तैयार नहीं हो रहे थे लेकिन जब एक समय वह राधा मदन मोहन मंदिर में दर्शन के लिए गए। अन्य कई सारे भक्त भी उनके साथ में थे। वे भगवान से जानना चाहते थे कि क्या भगवान कुछ संकेत करते हैं कि वे ऐसे ग्रंथ की रचना करें। वहां पहुंचने पर जब वह राधा मदन मोहन का दर्शन कर रहे थे तब श्री राधा मदन मोहन के गले की माला नीचे गिर गई। मानो श्री राधा मदन मोहन, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी को भी माल्यार्पण करा कर अपना अभिनंदन व्यक्त करना चाह रहे थे। यस! यस! बधाई! बधाई! सेवा करो! ग्रंथ की रचना करो! तब स्पष्ट हुआ और कृष्णदास कविराज और सभी वैष्णव मान गए। भगवान भी चाहते हैं, मदनमोहन भी चाहते हैं तब कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज ने राधा कुंड के तट पर अपनी कुटिया में चैतन्य चरितामृत नामक ग्रंथ की रचना की। चैतन्य चरितामृत की जय! हरि! हरि!
यह ४००- ५०० वर्ष पूर्व की बात है कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने जब ग्रंथ की रचना की थी और चैतन्य महाप्रभु पहले ही दुनिया से अंतर्ध्यान हो चुके थे।
यदि चैतन्य चरितामृत की रचना नहीं होती तब उस समय के बहुत सारे लोगों, भक्तों या दुनिया को चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का पता नहीं चलता। उस समय कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज के समकालीन जो लोग थे या फिर हमारा क्या होता ,यदि कृष्णदास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरितामृत की रचना नहीं करते तब हम सारे वंचित रह जाते। हम सब कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज के ऋणी हैं जिन्होंने चैतन्य चरितामृत की रचना की। हरि! हरि! उनकी विनम्रता का क्या कहना! इसको कौन समझ सकता है ।
तृणादपि सुनीचेन
तरोरपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीयः सदा हरिः॥ (श्री शिक्षाष्टकं श्लोक ३)
अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है।
तृणादपि सुनीचेन जो भाव है। मैं जगाई मधाई से भी अधिक पापी हूं। अभी मैं चैतन्य चरितामृत देख रहा था जिसमें कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज ने चैतन्य चरितामृत की अन्त्य लीला के अंतिम अध्याय के में जो अंतिम पंक्तियां लिखी हैं।
चैतन्य चरितामृत ये़इ जन शुने।
ताँर चरण धुञा करों मुञि पाने।। ( श्री चैतन्य चरितामृत अन्तय लीला २०.१५१)
अर्थ:- यदि कोई व्यक्ति श्री चैतन्य चरितामृत में वर्णित श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को सुनता है, तो मैं उसके चरणकमल धोकर उस जल का पान करता हूँ।
कृष्ण दास कविराज लिख रहे हैं कि भविष्य में जो भी चैतन्य चरितामृत अमृत ग्रंथ को पढ़ेंगे अथवा सुनेंगे, उनके चरणों की धूलि को मैं अपने सिर पर धारण करूंगा या उनके चरणों की धूलि का मैं पान करूंगा। हरि! हरि!
जब उन्होंने इस ग्रंथ को लिखा तब कुछ 90 साल के थे। उन्हें दिखने में मुश्किल हो रहा था। वे लगभग दृष्टिहीन ही हो रहे थे। ऐसी अवस्था में उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ की अंतिम पंक्ति में लिखते हैं
शाके सिन्ध्वग्नि वाणेन्दौ ज्यैषेठ वृन्दावनान्तरे।
सूर्याहेअसित पञ्चम्यां ग्रंथोअयं पूर्णतां गतः।। ( श्री चैतन्य चरितामृत२०. १५६)
अनुवाद: शक सम्वत 1537 के ज्येष्ठ मास में रविवार के दिन कृष्णपक्ष की पंचमी को यह चैतन्य चरितामृत वृंदावन में पूरा हुआ।
1537 शक सम्वत का जयेष्ठ मास का रविवार का दिन और पंचमी तिथि थी अर्थात जयेष्ठ मास की पंचमी को रविवार के दिन वृंदावन में राधा कुंड के तट पर यह ग्रंथ संपूर्ण हुआ।
रघुनाथ दास गोस्वामी का भी क्या कहना? उनके वैराग्य का क्या कहना? उनका जन्म बंगाल में ही सप्तग्राम में हुआ। उनके पिता श्री मजूमदार बड़े धनी और दानी थे। उस जमाने के बड़े जमींदार कहेंगे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जमींदार और दानी भी थे। रघुनाथ दास गोस्वामी के पिता उनको भी दान दिया करते थे अथवा सहायता करते थे। बचपन में वैसे ही नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का सानिध्य लाभ उनको प्राप्त हुआ। वे अपने घर को त्याग कर शांतिपुर में चैतन्य महाप्रभु से मिले थे तब वे छोटे ही थे। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था ‘जाओ! घर जाओ! घर में रहो! घर में भक्ति करो!’ किंतु घर में रहना उनको बिल्कुल पसंद नहीं था। वह चैतन्य महाप्रभु के साथ रहना चाहते थे। फिर पानीहाटी में नित्यानंद प्रभु की रघुनाथ दास पर विशेष कृपा हुई। वह नित्यानंद प्रभु की कृपा से चैतन्य महाप्रभु से मिले। उनके कई सारे प्रयास घर को छोड़ने के थे अर्थात वे घर से जो भाग जाया करते थे लेकिन उनके पिता ने उनको रोकने के लिए कई सारे गार्ड्स रखे थे ताकि यह घर से भागे नहीं अपितु घर में ही रहे। इसीलिए उनका एक सुंदर पत्नी के साथ विवाह किया था जिससे इस बंधन में वह बंध जाएगा। लेकिन सुंदर पत्नी उनको घर से बांध नहीं पाई। घर की धन दौलत और ऐशो आराम तो था ही लेकिन वे बंधन में नही आए। एक दिन वह सफल हुए और सारे भव बंधनों को संबंधों को रिश्ते नातों को तोड़ कर वे जगन्नाथपुरी की ओर दौड़ पड़े। जिससे उन्हें चैतन्य महाप्रभु का दर्शन लाभ और संग प्राप्त हुआ। वहां पर जगन्नाथ मंदिर के द्वार पर ही जो उन्हें भिक्षा प्राप्त होती थी, वह उसी से अपना गुजारा करते थे। घर पर इतनी सारी संपत्ति पड़ी है और वह इतने बड़े जमीदार के बेटे थे।
वे भिक्षा मांग रहे थे। अपितु वे मांगते नहीं थे। उनके अंदर याचकवृत्ति ही थी। द्वार पर जो भी कुछ देता था, वही ले लेते थे। लेकिन उन्होंने वह भी छोड़ दिया कि यह उचित नहीं है। मैं सोचता हूं कि यह व्यक्ति मुझे दे देगा और इसने तो मुझे कुछ भी नहीं दिया। यह भला व्यक्ति था और यह अच्छा नहीं था। ऐसे मैं भला बुरा सोच लूंगा। किसी के सम्बन्ध में भला, किसी के बारे में बुरा। यह द्वंद ठीक नहीं है। ऐसा विचार ठीक नही है।
लोग जो जगन्नाथ का प्रसाद ऐसे ही फेंक देते थे, दो दिन का फेंका हुआ व सड़ा हुआ, उसी को रघुनाथ दास गोस्वामी उठाकर थोड़ा साफ कर ग्रहण करते थे। चैतन्य महाप्रभु सोचते थे – ‘क्या खाता है?’ लेकिन एक दिन उनको पता चला। जब एक दिन वे छिप कर जगन्नाथ का प्रसाद खा रहे थे तब चैतन्य महाप्रभु वहां पधारे। रघुनाथ गोस्वामी,चैतन्य महाप्रभु से दूर दौड़ने लगे लेकिन चैतन्य महाप्रभु से कौन दूर जा सकता है। किसमें सामर्थ्य है। चैतन्य महाप्रभु उनके पास पहुंच ही गए। चैतन्य महाप्रभु ने भी वही प्रसाद जो रघुनाथ दास स्वामी ग्रहण कर रहे थे, उसी को ग्रहण किया और बोले तुम मुझे इस प्रसादमृत से वंचित कर रहे हो। तुम अकेले ही खा रहे हो। हरि! हरि!
जब चैतन्य महाप्रभु अंतर्धान हुए। उनकी जगन्नाथ पुरी की लीलाओं का समापन हुआ। रघुनाथ गोस्वामी वृंदावन आए। राधाकुंड के तट पर रहते थे। वैसे रघुनाथ गोस्वामी की अलग से भी समाधि है। इन तीनों आचार्यों की समाधि है जिनका आज हम उत्सव मना रहे हैं। रघुनाथ दास गोस्वामी की राधा कुंड के तट पर ही अलग से भी एक समाधि है। वे वैसे अपने वैराग्य के लिए ही प्रसिद्ध थे। गोवर्धन की परिक्रमा करते थे। ताकि उनको गोवर्धन का सानिध्य प्राप्त हो। उन्होंने ऐसा अष्टक भी लिखा है। उनका मनः शिक्षा नाम का शिक्षा ग्रंथ प्रसिद्ध है। वह थोड़ा सा हल्का सा एक कुल्लड़ भरकर छाछ पी लेते थे व रात्रि के समय एक-दो घंटे सोते थे या वो भी नहीं सोते थे। यह निद्रा की बात है और जहां तक आहार है- कुल्हड़ भर छाछ पी लिया। हमारे आचार्यों की वैराग्य विद्या अचिंत्य है। हरि! हरि!
लेकिन एक दिन उनको अपचन हुआ। तब उनकी नाड़ी परीक्षा हुई तो वैद्य ने कहा- क्या आपने कुछ ज्यादा भोजन किया? यह अत्याहार का परिणाम है। वे केवल कुल्हड़ भर छाछ पीने वाले, उन्होंने अत्याहार कहां और कब किया ? वैसे एक रात पहले श्री कृष्ण के लीला में प्रवेश करके किया ही था। जहां कृष्ण स्वयं ग्वाल बालों व मित्रों के साथ भोजन कर रहे थे, वहां रघुनाथ दास गोस्वामी भी अपने स्वरूप में पहुंचे थे और वहां खूब अत्याहार हुआ था।
सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ,
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥ ( महाप्रसादे गोविन्दे)
अर्थ:-भगवान् कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।
भगवान अपने परिकरों के साथ अन्नामृत, मिष्ठान, यह व्यंजन, वह व्यंजन, कई सारे भोग जो ग्रहण कर रहे थे , रघुनाथ दास गोस्वामी ने वैसा भोजन किया और थोड़ा अधिक भोजन किया था। रघुनाथ दास गोस्वामी को मानना पड़ा कि हां हां, यह अत्याहार का ही दुष्परिणाम है। यह हैं हमारे आचार्य इनका भी अवतार होता है, जैसे भगवान का अवतार होता है। कुछ भक्तों का भी अवतार होता है। रघुनाथ दास गोस्वामी का भी अवतार हुआ। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी का भी अवतार हुआ। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी का भी अवतार हुआ जिनका आज हम तिरोभाव उत्सव मना रहे हैं। इन तीनों का अवतार हुआ था। वे भगवत धाम से भगवान के साथ या भगवान के आगे या पीछे अर्थात पहले या बाद में अवतरित होते हैं। यह आचार्य मुक्त आत्माएं हैं या नित्य सिद्ध आत्माएं अथवा भक्त हैं । कुछ साधन सिद्ध होते हैं वे साधना कर करके सिद्ध होते हैं। कुछ तो नित्य सिद्ध ही होते हैं। भगवत धाम से अवतरित होते हैं । ये हमारे आचार्य ऐसे भगवत धाम से पधारे अथवा अवतरित हुए हैं । हम ऐसे आचार्यों की परंपरा में आ रहे हैं या हमारा संबंध स्थापित हो रहा है। क्या आपने भगवान देखा है? हमने तो नहीं देखा है जी, लेकिन हम उनको जानते हैं जिन्होंने भगवान को देखा है। यह जो हमारे गौड़ीय वैष्णव आचार्य हैं। गौड़ीय वैष्णव आचार्यों ने भगवान को देखा है। देखा क्या है अपितु वह भगवान के साथ रहते हैं। वह भगवान को कितना जानते हैं? वे भगवान को पूरा जानते हैं। इसलिए कहा है आचार्यवान पुरुषो वेदा। ऐसे आचार्यों के संबंध में जो आते हैं, इन आचार्यों की परंपरा से जो जुड़ते हैं, वह भी सर्वज्ञ बन जाते हैं। वे भी भगवत साक्षात्कारी बनते हैं।
दो रघुनाथ हैं। एक रघुनाथ भट्ट और दूसरे रघुनाथ दास गोस्वामी हैं।
रघुनाथ दास गोस्वामी को कभी कभी दास गोस्वामी भी कहते हैं और दूसरे रघुनाथ भट्ट गोस्वामी हैं।
रघुनाथ भट्ट गोस्वामी यह वाराणसी से थे। यह तपन मिश्र के पुत्र थे। चैतन्य महाप्रभु, तपन मिश्र को बंगाल या आज का बंगला देश में मिले थे। लक्ष्मीप्रिया के साथ विवाह के उपरांत वे प्रचार के लिए वहाँ गए थे। वहां पर तपन मिश्र के साथ चैतन्य महाप्रभु की मुलाकात हुई। तपन मिश्र वैसे कुछ सम्भर्मित थे। चैतन्य महाप्रभु ने उनको भ्रम से मुक्त किया और कहा कि तुम वाराणसी जाओ, भविष्य में वहां मिलूंगा। तब तपन मिश्र बंगाल को छोड़कर वाराणसी में रहे। जब चैतन्य महाप्रभु, जगन्नाथ पुरी से वृंदावन जा रहे थे तब वे रास्ते में वाराणसी आ गए। चैतन्य महाप्रभु, चंद्रशेखर नामक गृहस्थ के घर में निवास करते थे और तपन मिश्र के घर में भिक्षा प्रसाद ग्रहण करते थे। उस समय तपन मिश्र का पुत्र रघुनाथ भट्ट भी बालक था और वहां खेला करता था। इस प्रकार यह रघुनाथ भट्ट श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संपर्क में आए और चैतन्य महाप्रभु के चरणों की सेवा का अवसर लाभ लिया। जब चैतन्य महाप्रभु वहां से वाराणसी से प्रस्थान करना चाह रहे थे तब रघुनाथ भट्ट भी साथ में जाना चाहते थे। लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने बोला- नहीं! नहीं! तुम रुको! यहीं पर रहो। फिर चैतन्य महाप्रभु वृंदावन होकर जगन्नाथपुरी वापस लौटे। रघुनाथ भट्ट, चैतन्य महाप्रभु से मिलने के लिए जगन्नाथपुरी गए और चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे। वे उनके निजी परिकर रहे। उन्हीं के साथ लीला खेल रहे थे। उनकी लीला सम्पन्न हो रही थी। एक दिन चैतन्य महाप्रभु ने कहा- तुम वाराणसी वापिस जाओ। अपने माता- पिता की सेवा करो। तपन मिश्र और उनकी धर्मपत्नी उच्च कोटि के वैष्णव थे। वैष्णव माता पिता की सेवा करो। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी वाराणसी वापस लौट गए और सेवा में रत रहे लेकिन जब माता-पिता नहीं रहे तो पुनः श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से मिले। तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा- ‘वृंदावन जाओ। वहां भागवत का अध्ययन- अध्यापन करो।’ रघुनाथ भट्ट गोस्वामी भागवत का गुणगान किया करते थे। अलग अलग अलग रागों और छंदों में या चार अलग-अलग छंदों में एक एक श्लोक का मधुर उच्चारण/ गान किया करते थे। ऐसे भावों व प्रेम के साथ भागवत को पढ़ा करते थे। जिससे सभी अष्ट विकार अथवा सात्विक विकार उनके शरीर में होते थे और उनके अंग प्रत्यंग के स्पर्श से जिस भागवत को वह पढ़ा करते थे, वह भागवत इनके आंसुओं से भीग जाता था।
ब्रज के भक्त रघुनाथ भट्ट के भागवत उच्चारण को बहुत पसंद किया करते थे। उन्होंने अलग से कोई ग्रंथ नहीं लिखा था लेकिन वे भागवत का पाठ करते थे अथवा गान किया करते थे। उनका एक और विशिष्टय बताते हैं कि वह कभी भी किसी की भी निंदा नहीं करते थे। सभी में जो अच्छाई है, वे केवल उसी को देखते थे। उनकी दृष्टि में कभी दोष नहीं आया। उन्होंने दोष दृष्टि से कभी किसी को देखा ही नहीं। साधु निंदा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उन्होंने ऐसा वैष्णव अपराध कभी नहीं किया। जीवे दया, नामे रुचि, वैष्णव सेवा। वे इसके लिए प्रसिद्ध थे। नाम में रुचि, भागवत में रुचि और सभी जीवो में दया और वैष्णव सेवन- कोई निंदा नहीं, प्रजल्प नहीं। वैष्णव अपराध जो काया, वाचा या मन से हो सकता है। उन्होंने मन से भी कभी कोई वैष्णव अपराध नही किया।हरि! हरि! आप इनके संबंध में और भी पढ़िए, एक दूसरे को सुनाइए। जे आनिल प्रेमधन गाइए। उनके चरणों में प्रार्थना कीजिए कि हम पर भी कृपा करें और हमें भी इस गौड़ीय वैष्णव परंपरा के साथ जोड़ें और हमारे घनिष्ठ संबंध को स्थापित करें। हमें भी अपना ही एक अंश माने और हम भी उनके बने। उन्होंने जो भी प्रेम धन इस संसार को दिया है और जो हमें भी प्राप्त हो रहा है, जिस प्रकार उन्होंने वितरण किया, हम भी उसका वितरण करें अर्थात औरों के साथ शेयर करें।
ददाति प्रतिगृह्णति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्के भोजयते चैव षडविधं प्रीति-लक्षणम्।। ( उपदेशामृत श्लोक ४)
अर्थ:- दान में उपहार देना, दान स्वरूप उपहार लेना विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना- भक्तों के आपस में प्रेम पूर्ण व्यवहार के यह 6 लक्षण है।
ऐसा करके हम भी वैष्णवों के प्रति व जीवो के प्रति प्रीति का प्रदर्शन करें।
हरि! हरि!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण!
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
27 अगस्त 2020
हरे कृष्ण! आप सभी का जप चर्चा में स्वागत है। आज 880 स्थानों के भक्त हमारे साथ जप कर रहे है।
आज एकादशी है! हर एकादशी पर यह एक विशेष गीत है जो पंढरपुर में गाया जाता है,
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी
कर कटावरी ठेवोनिया।।
तुळसीहार गळा कासे पितांबर
आवडे निरंतर हेची ध्यान।।१।।
मकर कुंडले तळपती श्रवणी
कंठी कौस्तुभ मणी विराजित।।२।।
तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख
पाहीन श्रीमुख आवडीने
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी।।३।।
अभंग – संत तुकाराम महाराज
दूर-दूर से लोग कमर पर हाथ रखकर खड़े भगवान के सुंदर दर्शन को देखने की इच्छा से पहुंचते है। भगवान के बहुत भक्त हैं, जो हमेशा उनके साथ है। कुछ नाम भगवान को बहुत खुश करते है, और अगर यदि हम उन्हे यशोदानंदन कहते है तो वह बहुत प्रसन्न होते है। भक्त भगवान के हृदय में रहते है और भगवान अपने भक्तों के हृदय में रहते है। यहां कोई तीसरा पक्ष नहीं है! अपने भक्तों के लिए उनका प्यार बहुत स्पष्ट है।
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।
मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥
(श्रीमद भागवत 9.4.67)
अनुवाद :- शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ । मेरे भक्त मर सिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता ।
इस प्रेम की सीमा इतनी है कि, भगवान कहते है कि मैं अपने भक्तों द्वारा वांछित और निर्देशित हूं। आप उन्हें नंदनंदन भी कह सकते है। वह इस नाम को भी पसंद करते है। वे नंद महाराज के पुत्र है। वह नंदग्राम में रहते है। तुलसी कृष्ण को बहुत प्रिय है और वह अपने गले में एक तुलसी की माला पहनते है ,जेसे तुसली को आलिंगन देते है और उनके गले में कौस्तुभ मणि है। तुकाराम महाराज का कहना है कि, वह इस रूप को हमेशा देखना पसंद करते है। ऐसे ही भक्तों का संग लगा रहता है! इसलिए हमें कृष्ण और उनके भक्त दोनों से प्रेम करना होगा! यह अच्छी तरह से कहा जाता है कि, अगर हमें किसी व्यक्ति को खुश करना है, तो हमें पहले उनके कुत्ते को खुश करना होगा। इसलिए, कृष्ण बहुत प्रसन्न हो जाते हैं जब उनके भक्तों का महिमा मंडन किया जाता है।
मेरे प्रिय गुरुभाई जशोमतिनंदन प्रभु ने अपना शरीर छोड़ दिया। मैं अपनें शिष्यो , अनुयायियों, शुभचिंतकों और दोस्तों से उनकी महिमा को सुनना चाहता हूँ। अब हम महिमा सत्र को शुरुआत करेंगे …
आपका बहुत – बहुत धन्यवाद!
हरे कृष्णा!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
26 अक्टूबर 2020
हरे कृष्ण 734 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*
श्रील प्रभुपाद की जय….
यशोमती नन्दनं प्रभु की जय….
यशोमती नंदन प्रभु मेरे भ्राता श्रील प्रभुपाद जी को प्राप्त किए श्रील प्रभुपाद जहां होंगे वहां वह गए होंगे ऐसी प्रार्थना है श्री राधा गोविंद देव के चरणों का आश्रय मे उनकी सेवा आगे बढ़ाएंगे।
कल के प्रातः कालीन सत्र में स्क्रीन शेयरिंग हुआ परिचय दिया यशोमती नंदन प्रभु जी का और साथ ही कुछ गुणों का वर्णन मैंने ही किया और कल पूरा इस्कॉन परिवार शोक में था…..
हा हा प्रभु कोरो दया
देह मोरे पद छाया,
एबे यश घुषुक त्रिभुवन।।
अर्थ:- हे गुरुदेव, करूणासिन्धु तथा पतितात्माओं के मित्र! आप सबके गुरु एवं सभी लोगों के जीवन हैं। हे गुरुदेव! मुझ पर दया कीजिए तथा मुझे अपने चरणों की छाया प्रदान दीजिए। आपका यश तीनों लोकों में फैला हुआ है।
संसार भर में यशोमती नन्दन प्रभुजी का गुण गान किया गया और काफी सारे भक्त प्रस्तुत कर रहे थे दिन में एक सत्र भी हुआ इस्कॉन संसार के कई सारे लीडर 400 से 500 जीबीसी और संन्यासी साथ ही सारे मंदिर के अध्यक्ष हमारे कांग्रेगेशन लीडर और सभी भक्त एकत्रित हुए थे।
साथी यशोमती नंदन प्रभु जी के पुत्र और पुत्रियां भी उपस्थित थे और यशोमती नंदन प्रभु जी की धर्मपत्नी राधा कुंज माताजी वह भी उपस्थित थे उसके साथी हमारे प्रधानमंत्री उनका भी संदेश आया वह भी जानते थे यशोमती नंदन प्रभु जी को उन्होंने भी अपना संदेश श्रद्धांजलि व्यक्त की उन्होंने टि्वटर के माध्यम से यह संदेश भेजा उसको भी हमने पढा।
अभी यह जो जब चर्चा का समय है अभी मैं तो बोल ही रहा हूं पर मैं चाहता हूं कि आप ही कुछ बोलिए जो भी यशोमती नंदन प्रभु जी से परिचित हैं जिन भक्तों को यशोमती नंदन प्रभु जी का सानिध्य प्राप्त हुआ था और उनसे प्रभावित थे या उनसे कुछ शिक्षाए उन्होंने प्राप्त की या अजिंक्य यशोमती नंदन प्रभु जी शिक्षा गुरु है। शिक्षा तो नहीं शिक्षण देते थे और साथ ही उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था वह जन्म से ब्राह्मण ही थे।
और शेर श्रील प्रभुपाद जी ने उन्हें वैष्णव बनाया और साथ ही वो गोष्टी आनंद गोष्टी में आनंद लेने के लिए भी मशहूर थे। उनको पांडित्य प्राप्त था उनकी कथा और में ऐसे कथा वो करते थे।
तो अभी हम आपसे सुनना चाहते हैं क्या पद्ममाली आप उपस्थित हो ठीक है आप तैयार रही है। वैसे दिक्षा गुरु तो एक ही रहते हैं पर शिक्षा गुरु अनेक हो सकते हैं वैसे मेरे सभी गुरु भ्राता और सभी गुरु बहने वो सभी आप सभी के शिक्षा गुरु हो सकते हैं।
आप सभी को उनसे भी शिक्षा ग्रहण करनी है। और यह जल्दी करिए क्योंकि अभी हम सभी वैकुंठ गमन को लोक गमन के लिए तैयार हो रहे हैं, प्रस्थान कर रहे हैं तो आप समझ सकते हो कि यह आपके पास आखरी मौका है समय सीमित है तो आपको लाभ उठाना चाहिए और शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए अधिक से अधिक शिक्षा गुरुओं से यशोमती नंदन प्रभु प्रस्थान किया है उनका तिरोभाव हम मना रहे हैं तो उनसे हमें क्या सिखना चाहिए या क्या सीखें या उनके चरित्र कैसे प्रभावित हुए या हो सकता है कि आप उनसे मिले होंगे नहीं मिले होंगे केवल सुना ही होगा उनके संबंध में और हरि हरि उनके बारे में मैंने भी उनका एक उन्होंने लिखा हुआ पत्र श्रील प्रभुपाद जी को पत्र लिखे थे कृष्ण भक्त प्रभु ने मुझे उसे भेजा था यह पत्र तो वह जब अभी-अभी भक्त बने थे ब्रह्मचारी ही थे अभी दीक्षित हुए थे यशोमती नंदन बने थे वैसे कल राधानाथ महाराज कह रहे थे जो उनको दिया हुआ नाम यशोमती नंदन बहुत पसंद आया बहुत सुंदर नाम है।
ऐसे राधानाथ स्वामी महाराज का रहते उन्होंने अभी-अभी उनके आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत की थी अभी दीक्षित हुए थे तब उन्होंने पत्र लिखा और वह पत्र मैं जब पढ़ रहा था तो मैं बहुत प्रभावित हुआ और वह पत्र जब श्रीला प्रभुपाद पढ़े तब 100 बहुत प्रसन्न हुए।
उस पत्र का एकांश प्रारंभ का उतना मैं आप को पढ़कर सुनाऊंगा और फिर उसके उत्तर में सूर्य प्रकाश जी क्या लिखे हैं वह भी मैं आपको बताऊँगा, फिर अब बोल सकते हो…..
पत्र की शुरुआत
पूजनीय श्रील प्रभुपाद
कृपया मेरा दंडवत प्रणाम स्वीकार करिए
(गुरुमहाराज जी ने कहा देखिए साष्टांग दंडवत प्रणाम कर रहे हैं पत्र के प्रारंभ में आप सब नए हो तो यह भी आप सब को सीखना है।)
पत्र कैसे लिखने होते हैं। आगे पत्र को पढ़ते हुए…..
जन्माष्टमी के बाद दो महीने से ज्यादा हो गए हैं,और मैं अभी भी हवाई अड्डे पर आपको देखते हुए आपके कमल जैसे चेहरे के दर्शन का आनंद ले रहा हूं।
(गुरु महाराज जी ने कहा)
वो लिख रहे हैं कि 2 महीने बीत चुके हैं जन्माष्टमी के समय आपको मिला था और फिर पिक्सबर्ग एयरपोर्ट पर से जब आपने प्रस्थान किया तब जब मैंने आपको देखा आपका चेहरा देखा तो वही मुझे याद आ रहा है और उसको मैं भूल नहीं पा रहा हूं यशोमती नंदन प्रभु 6 दिन के लिए प्रभुपाद जी के सानिध्य में थे और प्रतिदिन मैं आपको सुनता था और आपका दर्शन करता था तब मुझ में लोभ उत्पन्न हुआ है। मैं लोभी हुआ और सुनना चाहता हूं और दर्शन करना चाहता हूं आपका मेरे कान और कुछ नहीं सुनना चाहते बजाय आपके आपकी जो वाणी हैं और इन आंखों से मैं और कुछ नहीं देखना चाहता हूं बस आपके मूर्ति का आप जो कृपा मूर्ति हो आपके चेहरे का ही स्मरण और दर्शन करना चाहता हूं।
जन्माष्टमी के समय से मैं शिकागो मंदिर में रह रहा हूं और यह मंदिर के व्यास आसन पर जो आप का चित्र है उसके और मैं देखते रहता हूं और इस आशा से मैं देख रहा हूं कि किसी ना किसी दिन आप मुझसे बात करोगे लेकिन अब तक आप मुझसे बात नहीं किए हो और अब मैं अधिक उतावला हो चुका हूं।
और इसीलिए आप मुझसे बात नहीं कर रहे थे इसीलिए मैं स्वयं ही आपको पत्र लिख रहा हूं या बातचीत कर रहा हु इस पत्र के माध्यम से और मैं इंजीनियर हूं ऐसे लिख रहे हैं लेकिन जन्माष्टमी के समय से यह इंजीनियर होना और जो इंजीनियरिंग का काम सेवा अब मेरी रुचि नष्ट हो रही है कम हो रही है।
आपका जो भक्ति रस अमृत सिंधु ग्रंथ के श्रवन में अध्ययन में मै रुचि ले रहा हूं मैं और भक्तों के साथ प्रतिदिन प्रचार के लिए आपके ग्रंथों के वितरण के लिए या नगर संकीर्तन के लिए बाहर जा रहा हूं प्रतिदिन 8 घंटे कभी-कभी 15 घंटों तक उन भक्तों के संग संकीर्तन कर रहा हूं ग्रंथों का वितरण कर रहा हूं..
बाहर जाकर आपके ग्रंथों का वितरण करने में मुझे बहुत रुचि है और मैं अत्यंत आनंदित हूं जो मैं प्रचार के लिए जाता हूं उनके ग्रंथों का वितरण करता हूं कीर्तन करता हूं और प्रतिदिन आपके भी आपके हरे कृष्ण आंदोलन का औदार्य हैं उसका भी मैं अनुभव कर रहा हूं।
आपसे जो भी मैंने सीखा है या आपका या आपकी उदारता है यह संकीर्तन आंदोलन यह आपकी कृपा है जिससे मैं मुझ में अधिक वैराग्य उत्पन्न हो रहा है और मुझ में और शक्ति भी मुझे वह शक्ति भी मिल रही हैं ताकि मैं इस संसार के पशु भी हैं कर्मी जो है उनका हमला कहो उनसे मैं बच सकता हूं। प्रतिदिन संसार के लोग अमेरिका के लोग अधोगति की ओर आगे बढ़ रहे हैं एक प्रगति होती है और दूसरा अधोगति होती है तो यह संसार अधोगति की ओर जा रहा है।
और मैं जानता हूं कैसे और क्यों वह सब नरक की ओर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं हो सकता था कि उन्हीं में से मैं भी एक नरक की ओर आगे बढ़ने वाला था यदि आपने मुझे बचाया नहीं होता तो इस संसार के लोभ प्रवाह से मुझे बचाया या उठाया नहीं होता तो मैं भी संसार के प्रवाह के साथ नरक की और आगे बढ़ता और यह बात वैसे औरो को भी और अमेरिका में जो भारतीय पोहोंचे हैं उनको लागू होती हैं।
मुख्य तौर से जो भारतीय अमेरिका में पहुंचे हैं और वह वैदिक संस्कृति को और तत्वज्ञान को नहीं जानते या भूल चुके हैं। और उनका तत्वज्ञान चार्वाक मुनी जैसे हि हैं और वह क्या है बस खाओ पियो और मौज करो वर्णाश्रम धर्म लगभग प्रायः नष्ट ही हो चुका है।
और ब्राह्मण तो लगभग नहीं रहे देखिए यह सब साक्षात्कार है यशोमती नंदन प्रभु जी के मुझे कुछ लगभग 50 वर्ष पूर्व के लिखे हुए उनके विचार हैं उनका पत्र है हरि हरि….
यह शिष्य है ये शिष्य के विचार हैं और इनके साथ इन्ही विचारों के साथ वो समर्पण भी हैं। और फिर दीक्षित भी होते हैं श्रील प्रभुपाद जी के शिष्य ऐसे विचारों के हुआ करते थे यह एक उदाहरण है यशोमती नंदन प्रभु और अन्य कई शिष्य यह समाज दिशाहीन है और लोगों को जब पता ही नहीं कि शांति और समृद्धि का अर्थ ही नहीं जानते तो वह से कैसे प्राप्त करेंगे शांति और समृद्धि को और विश्व बंधुत्व की बात तो शायद वह करते होंगे लेकिन वह कैसे विश्वबंधुत्व है जब हमको पिता का ही पता नहीं है मतलब उनका विचार है कि हमारे पिता तो भगवान है।
तो परमपिता का ही पता नहीं तो कैसे बनेंगे हम भाई भाई हिंदी चीनी भाई भाई या जो कुछ भी है और वह कैसे होगा रामराज्य या महात्मा गांधी भी चाहते थे भारत में रामराज्य हो लेकिन कैसे होगा रामराज्य राम के बगैर कैसे होगा देश के लोगों के जीवन के केंद्र में राम नहीं है मुख में राम नहीं है और सब हराम है सब हरामखोरी है या आराम कर रहे हैं राम के बिना मरा मरा मरा कर रहे हैं ये मेरा ही भाष्य है तो ऐसे ही हमें समझ में आना चाहिए जैसे यशोमती नंदन प्रभु जी कह रहे हैं।
पत्र तो काफी विस्तार से लिखा है यशोमती नंदन प्रभु आप सभी मे मैं ये बाटूंगा, ताकि आप इसे बाद में पढ़ सकते हो।
अब मैं प्रभुपाद जी का उत्तर पढ़ता हूं
मेरा आशीर्वाद स्वीकार करो मुझे तुम्हारा पत्र प्राप्त हुआ है मैं बहुत प्रसन्न हूं गुरु प्रसन्न है।
यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो
यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
अर्थ:-श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए
गुरु को प्रसन्न करने वाले और पत्र या समाचार लेकर आने वाले ऐसे भी शिष्य होते हैं। जो गुरु के प्रसन्नता के लिए जो शिष्य लिखते नहीं तो जहां हम देख सकते हैं कि श्रील प्रभुपाद प्रसन्न है और कह रहे हैं कि मैं इस पत्र को पढ़कर प्रसन्न हूं।
तो उस श्रील प्रभुपाद जी लिख रहे हैं कि मैं इतना प्रसन्न हूं तुम्हारे पत्र से कि हमारी जो बैक टू गॉड हेड नामक पत्रिका है उसमें इस पत्र का प्रकाशन हो ऐसा मैं संदेश भेज रहा हूं जो भी टीम है बैक टू बोर्ड हेड मैगजीन पत्रिका की तो इसी के साथ प्रभुपाद जी प्रसन्न है प्रभुपाद जी अब यशोमती नंदन प्रभु जी को निजी आदेश दे रहे गुरु सभी को आदेश देते हैं पर गुरु कभी-कभी ही विशेष आदेश देते हैं।
यहां पर प्रभुपाद जी विशेष आदेश दे रहे है मेरे ग्रंथों का गुजराती भाषा में अनुवाद करो।
और जब तुम अनुवाद करोगे मेरे ग्रंथों का गुजराती भाषा में उसको हम तुरंत ही प्रकाशित करना शुरू करेंगे किस में हमारे पत्रिका में गुजराती पत्रिका भी होगे गुजराती बैक टू गॉड हेड पत्रिका में फिर अन्य अन्य भाषाओं का प्रकाशन होता रहेगा।
और यह बात तुम को मंजूर है या तुम गंभीर हो तो मैं तुमको इस बैक टू गॉड गुजराती पत्रिका का एडिटर बना रहा हूं।
प्रभुपाद जी ने उनको विशेष आदेश दे दिया और उनको एडिटर बना दिया तो तुरंत शीघ्र अति शीघ्र वाली बात क्या करो अनुवाद करो और गुजराती भाषा में पुस्तकों का प्रकाशित करो मेरे ग्रँथ और तुम्हारे लिए यह विशेष सेवा होगी ऐसा यदि तुम करोगे।
एक सिद्धांत की बात भी प्रभुपाद जी यहां पर कह रहे हैं तुम और सेवा करोगे तो तुमको अधिक साक्षात्कार या भगवत साक्षात्कार भी अधिक होगा अधिक सेवा अधिक साक्षात्कार…….
चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ,
दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित
प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते
वेदे गाय याँहार चरित
अर्थ:-वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिवय ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं।
ये होगा अधिक और मैं पुनः तुम्हारा आभार मानता हूं देखिए आप के आध्यात्मिक गुरु कह रहे हैं धन्यवाद ये शिष्य मैं तुम्हारा आभारी हूं किसके लिए हमारा यह जो कृष्ण भावना का जो तत्वज्ञान है उसको तुम भली-भांति समझे हो समझ रहे हो उसके लिए मैं आभारी आशा और प्रार्थना है कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक रहे तुम्हारा सदैव हितचितंक ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामि प्रभुपाद
श्रील प्रभुपाद की जय…..
ठीक है अभी समय थोड़ा कम है मैंने सोचा था कि बोलू नही आप सभी से कुछ बुलवाऊ तो ठीक है अब आप सभी बोलिए…
आप मे से जो भी तैयार हैं वो एक दो मिनट में बोलिये मै सुनना चाहता हूं और साथ ही सभी सुनेंगें जो इस जप चर्चा सत्र में उपस्थित है……
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
26 October 2020
Inspiring memories of HG Yasomatinandan Prabhu
Hare Krishna . Today we have devotees chanting from 734 locations.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Ram Hare Ram
Ram Ram Hare Hare
Srila Prabhupada ki Jai ! Yasomatinandan Prabhu ki Jai !!
Yasomatinandan Prabhu is my dear god brother. He reached Prabhupada wherever Prabhupada is. This is our hope and prayer also, or he must have received shelter at the lotus feet of Sri Radha Govind. He will further increase his services towards Sri Sri Radha Govind.
In our morning session yesterday I introduced you to Yasomatinandan Prabhu and discussed some of his qualities. Then throughout the day the whole universe of ISKCON was engrossed in deep sadness in separation of Yasomatinandan Prabhu. It was like.
śrī-guru karuṇā-sindhu,
adhama janāra bandhu,
lokanāth lokera jīvana
hā hā prabhu koro doyā, deho more pada-chāyā,
ebe jaśa ghuṣuk tribhuvana
Translation
Our spiritual master is the ocean of mercy, the friend of the poor, and the lord and master of the devotees. O Lokanatha Goswami! O master! Be merciful unto me. Give me the shade of your lotus feet. Your fame is spread all over the three worlds.
(Guru Vandana verse 4)
Yesterday the world was glorifying Yasomatinandan Prabhu. His qualities, achievements and accomplishments were presented by various devotees. During the day we had a remembrance session in which we had so many leaders of ISKCON from all over the world around 400 to 500 were present. Also GBC’s members , sannyasis, Bureau members, temple presidents , leaders of various congregations, many devotees and leaders from ISKCON Gujarat, general followers gathered together and discussed the glories of Yasomatinandan Prabhu. Children of Yasomatinandan Prabhu were present along with his wife HG Radha-kunda Mataji. Everyone was expressing and at that moment we received a message from Prime Minister Sri Narendra Modi. He knew Yasomatinandan Prabhu so he tweeted his condolences. We read that also. Now I wish that during this Japa talk , I am already discussing, but I also want you to express your feelings. The devotees who were familiar with Yasomatinandan Prabhu or the devotees who associated with Yasomatinandan Prabhu, or those who were inspired by him and those who followed his teachings should speak about him. Yasomatinandan Prabhu was a siksa guru. He had not given initiation. He was a Brahman by birth. Srila Prabhupada increased his qualifications by making him a pure Vaishnav. He was popular for taking bliss in discussing the scriptures. He was a scholar. His lectures and preaching were very scholastic. I want devotees to speak their feelings very soon. Be prepared.
We can have only one Spiritual Master but we can have multiple siksa gurus. Actually all my god brothers and god sisters are qualified siksa gurus. All of them can be the siksa gurus, for all of you. You should learn from all of them. Be quick, because we are preparing to go back home, Back to Godhead. This is the last chance for you as they are departing. Time is short so you should take advantage. Learn more and more from these siksa gurus.
Prabhu has disappeared and we are celebrating his disappearance and we are glorifying him. I want to know what you have learnt from him or how he has inspired you. Probably you met him personally or not or you must have learnt about him. I would like to read out a letter that he had written to Srila Prabhupada in the beginning days of his spiritual life. Krishnabhakta Prabhu has forwarded this letter to me. This letter was written 50 years ago, a few days after he was initiated and became Yasomatinandan. HH Radhanath Swami Maharaja has mentioned that he liked this name Yasomatinandan which Srila Prabhupada has given. He said it is a beautiful name. I was also very influenced by this letter when I read it. When Srila Prabhupada read that letter he was very happy and pleased. I will read the first part of that letter and then I will share what Prabhupada had replied to him.
This letter is in English, which goes as follows – [ sentences from letter are in italics]
Most worshipable Srila Prabhupada
Please accept my most humble obeisances.
Since you are also new you should also learn from this: How to write letters? You have no idea.
It has been more than two months since Janmashtami and I am still cherishing the vision of your lotus face while seeing you off at Pittsburg airport. After hearing you for six days and seeing you everyday my ears and eyes have become lusty. Ears do not want to hear anything but your transcendental voice. Eyes do not want to see anything but your lotus face. I have been living in a Chicago temple since Janmashtami. Everyday I keep looking at your picture on the vyasasana. Thinking that some day you will speak. It has not happened yet. And I have become impatient. I decided to write to you , so that you can hear me more distinctively. All my desires to work as an engineer seems to have dwindled by seeing your lotus face in New Vrindavan.
I am enjoying the Nectar of Devotion more and more everyday. I have been going on sankirtan everyday for an average of six to eight hours, sometimes even fifteen hours. I love to go out on Sankirtan and distribute your books. Krsna is rewarding me with unaccepted pleasure. Everyday I am realising the magnanimity and the potency of your sankirtan movement. This gives me strength to resist the attack of dense forests of the material world with wild animals of karmies and materialistic. The people in general are taking one major step everyday towards degradation. I cannot understand their royal march towards hell. Even though I would have been one of them had you not pick me up from this rolar coast. This is more true with Indians then anybody else, especially those present in this country. They do not know anything about Vedic philosophy. They do not have any religion but Charvak only eats, drinks and be happy. Varnasharam is existing only in skeleton form. The Brahman class has almost become extinct.
These are all realisations of Yasomatinandan Prabhu around 50 years ago. These are his thoughts. These are the thoughts of a disciple. He has total surrender with these thoughts. Srila Prabhupada has such a type of disciples. Yasomatinandan Prabhu is a special, unique example of this.
Society is a headless body. How can there be any peace and prosperity when they do not know what peace and prosperity mean. How can there be brotherhood when they do not know who their father is ? How can there be the Kingdom of Ram without Ram?
Yasomatinandan Prabhu has written a very elaborate letter. Someday I will share this letter. Then you can read further. I would like to share the reply by Srila Prabhupada to this letter, which is as follows-
My dear Yasomatinandan,
Please accept my blessings.
I am in receipt of your letter. I am so much pleased to read it.
Here Spiritual master is pleased
yasya prasadad bhagavat-prasado
yasyaprasadan na gatih kuto ‘pi
dhyayan stuvams tasya yashas trisandhyam
vande guroh sri-caranaravindam
Translation
By the mercy of the spiritual master one receives the benediction of Krsna. Without the grace of the spiritual master, one cannot make any advancement. Therefore, I should always remember and praise the spiritual master. At least three times a day I should offer my respectful obeisances unto the lotus feet of my spiritual master.
(Sri Gurvastakam verse 8)
Spiritual master is saying that he is pleased. Not displeased, not disturbed. There are some letters or disciples who bring such messages that do not please the spiritual master or they behave in such a way that the spiritual master is not pleased. Here Srila Prabhupada is happy and said that, ‘ I am Pleased.’
Letter continues
Your letter is so nice that I am advising that it should be published in Back to Godhead. In the meantime you can immediately begin translating all our books into the Gujarati language.
Prabhupada is giving him special instructions. Normally a spiritual master gives general instructions to everyone, but sometimes they give special orders. Now this is a special instruction being given. Translate all my books in Gujarati language.
Letter continues
All these translations will be published in a series in Gujarati BTG. And if you are serious about it ; you can be the editor. You immediately begin translating and regularly publishing books is Gujarati . It would be great service for you. The more you render service the more you will be enlightened.
Prabhupada has said that by more service you will get more knowledge and realisation.
cakṣu-dān dilo jei,
janme janme prabhu sei,
divya jñān hṛde prokāśito
prema-bhakti jāhā hoite,
avidyā vināśa jāte,
vede gāy jāhāra carito
Translation
He opens my darkened eyes and fills my heart with transcendental knowledge. He is my Lord birth after birth. From him ecstatic prema emanates; by him ignorance is destroyed. The Vedic scriptures sing of his character. (Guru Vandana Verse 3)
Letter continues
Thank you once more for understanding our philosophy very nicely. Hope you will get this in good health.
Your ever well wisher
A C Bhaktivedanta Swami
Srila Prabhupada ki Jaya! There is not much time. Actually I had planned that I will not speak much and you speak more. The devotees who are ready can speak for two to three minutes. I want to hear. And everyone else will also listen to those who are present in this forum.
Shubhangi mataji from Nagpur :
Hare Krishna. We had once met Yasomatinandan Prabhu when we had gone to Tirupati Balaji for darsana. Prabhu was also present there with his daughter and grandchildren. He was in Govindas restaurant and we also went there to honour prasada. We could not talk much with him, but at least we met him. Bhagiratha Prabhuji has shared the letter that you mentioned just now. I read it in again yesterday. It is a very long letter. After reading it I had shared it with Prabhu also. The essence of the letter is that Yasomatinandan Prabhu always remained totally surrendered to his spiritual master, Srila Prabhupada. It means 100% surrendered. And in the letter he has expressed deep love for Prabhupada. He says that I am very, very eager to hear you and meet you again. It has been a long time, but the fact was that a very short time had passed after he was separated from Prabhupada. And he himself asked for service to Prabhupada. He said he wants to translate all books in Gujarati. He was an expert in Gujarati literature. He had complete knowledge of Gujarati language and its grammar and all. Prabhuji mentioned that he goes for sankirtan for eight hours and sometimes fifteen hours also. This was a huge dedication. I had never talked with him personally. I met him only once for a short time. But from this letter we understand his dedication. Here we hesitate to take up new services, but Prabhu personally requested Prabhupada and demanded more seva. Prabhupada was also very pleased to know this. Prabhupada ordered Yasomatinandan Prabhuji to translate in Gujarati and was ready to appoint him as editor. And Prabhupada said that I want your letter to be published in a magazine. Therefore I realised that the Prabhupada and the Lord will always accept such an exalted devotee who has totally surrendered to the spiritual master. Prabhuji life is an inspiration for all of us. We also get inspiration that we should also make our life exemplary like him.
Achyut Chetna mataji from Ahmedabad
I got close association of Yasomatinandan Prabhuji from when I joined ISKCON in 2011. We have experienced his total surrender and separation feeling for his spiritual master in his many lectures. He was always overwhelmed. Whenever he heard Prabhupada’s name. And we have experienced this many times very closely. He had mastered Caitanya-Caritamrta. It is a very dear topic for him. Whenever we had lectures on Caitanya-Caritamrta before Gaur Purnima he always used to be so engrossed in the class that he was unstoppable. And this we are going to miss now. He was very loving and caring to each and everyone in the temple. Now each and everyone is crying about how we will get such love again. He was so caring towards everyone. In fact he always enquired from me how I am managing my twins. He has helped us to progress in devotion and he had personal relationships with everyone. And he had asked me two to three times about my second initiation. Definitely now I will sincerely try for Brahmin initiation. Since it was his wish.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
25 अक्टूबर 2020
हरी हरी।
अयोध्या वासी राम
दशरथ नंदन राम पतित पावन राम
जानकी जीवन सीता मोहन राम राम
जय श्री राम! आज तो याद करना ही होगा श्रीराम को और साथ ही साथ आज याद करेंगे यशोमती नंदन प्रभु को भी! रामविजय उत्सव का दिन है और यशोमती नंदन प्रभु का तिरोभाव तिथि उत्सव हम मनाना चाहते है। हरि हरि। जैसे एक नवमी प्रसिद्ध है, राम के नाम से रामनवमी! तो एक दशमी भी प्रसिद्ध है विजयादशमी! वह आज का दिन है। राम का विजय हुआ, राम का विजय ही होता है और कुछ नहीं होता! और आज ही लंका में श्रीराम का विजय हुआ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
भगवतगीता ४.८
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
येसा कहने वाले श्री कृष्ण राम के रूप में प्रकट हुए तो यही उन्होंने भी किया विनाशाय च दुष्कृताम् दुष्ट का या अग्रगण्य दुष्ट का या अग्रगण्य चूड़ामणि का रावण का आज के दिन वध किए भगवान! हरि बोल! हरि हरि। और इनके वध की योजना तो वैसे राम के जन्म के पहले ही या जिस दिन राजा दशरथ पुत्रेश्ठि यज्ञ संपन्न कर रहे थे और इसी में सारे देवी देवता भी सम्मिलित थे और उस पुत्रेश्ठि यज्ञ में उनका गुह्यम आख्यति पृछ्चती भी चल रहा था तो चर्चा करते समय वे अपने अनुभव एक दूसरे को सुना रहे थे कि, कैसे अधर्म फैल रहा है। कौन फैला रहा है? रावण फैला रहा है! उस रावण के कारण हम देवता भी परेशान है, डरे हुए है तो इनके वध की योजना बननी चाहिए। उनको यह पता है कि ब्रह्मा वरदान दे चुके है, रावण का वध और कोई नहीं कर पाएगा जैसे हिरण्यकश्यपु को वरदान दिए थे कि, कोई पशु पक्षी नहीं मारेगा या यह नहीं वह नहीं मारेगा, किसी योनि का जीव जंतु कोई नहीं मारेगा तो ऐसे ही वरदान ब्रह्मा रावण को भी दे चुके थे! लेकिन ब्रह्मा जी को याद आया कि, उसने एक वरदान नहीं मांगा! वह कौन सा? वह मनुष्य से मारे ना ही जाएंगे मनुष्यों में नहीं मारेगा ऐसा वरदान उसने मांगा ही नहीं था! मनुष्य को कोई कीमत ही नहीं थी, रावण इसे सोचता था कि मनुष्य को नगण्य है उसे मनुष्य की चिंता नहीं थी। तो ऐसा वरदान नहीं मांगे तो फिर सभी ने विचार-विमर्श किया और क्यों ना हम भगवान से प्रार्थना या निवेदन करते है कि, वह मनुष्य रूप में मनुष्य आकृति नरआकृति धारण करके अगर वे प्रगट हो जाए तो वह इस रावण का वध करेंगे और फिर ऐसा ही हुआ! और सभी ने यज्ञ के समय जिसको दशरथ महाराज पुत्र प्राप्ति के लिए कर रहे थे तो सभी देवताओं ने भगवान से निवेदन किया कि आप दशरथ के पुत्र बनिए, जो मनुष्य रूप में ही होंगे, और फिर ऐसा ही हुआ! और रामायण तो बड़ा विस्तृत है और उसकी चर्चा भी बड़ी विस्तृत है। और यह सब एक इतिहास भी है, इसको पढ़ते समय याद रखना होगा या समझना होगा कि यह कल्पना नहीं है! राम कोई काल्पनिक नहीं थे यह सच्चाई थी। यह भी एक समस्या है कि, संसार में भगवान की लीला को काल्पनिक कहते है! लोग कहते है त्रेतायुग सतयुग कौन जानता है? तो यहां के डॉक्टर फ्रोग जिनको प्रभुपाद कहते थे संसार के बद्ध जिवोंकी यह सोच नहीं है और पाश्चात्य लोगों की।
तो 1000000 वर्ष पूर्व प्रभु श्रीराम इस पृथ्वी पर थे। जब मैं कैलिफोर्निया लॉस एंजलिस में कुछ साल पहले था, तो वहां कैलिफोर्निया शहर की बर्थ एनिवर्सरी वे मना रहे थे तो जब मैं वहां था तो मैंने अमेरिकन से पूछा कि, कहा क्या हो रहा है? वहां पर उसने बताया कि, लॉस एंजेलिस का वर्धापन दिन मनाया जा रहा है, जन्मोत्सव मना रहे है! तो मैने पूछा कि, कब जन्म हुआ, कितना पुराना है यह लॉस एंजलिस? तो उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि, लॉस एंजिलिस तो बहुत पुराना है! तो मैंने पूछा कि, कितना पुराना है? उन्होंने कहा 200 साल पुराना है! तो यह हुए डॉक्टर फ्रॉग! मेंढक! कूप मंडुक वृत्ति है इन कलयुग के जीवो कि! जो लोग 200 साल को भी बहुत पुराना मानते है बोहोत पुराना इतिहास मानते है और वे कहां से समझेंगे कि, 1000000 वर्ष पूर्व श्रीराम आज के दिन लंका में थे और आज के दिन उन्होंने रावण का वध किया। तो 5000 वर्ष भी पूर्व एक युद्ध हुआ वैसे तो वह वर्ल्ड वॉर था। जैसे वर्ल्ड वॉर की गणना होती है, तो पहला वर्ल्ड वॉर 1920 के लगभग और दूसरा वर्ल्ड वॉर 1940 में और महाभारत का जो युद्ध हुआ उसकी तो गनाना ही नही है। लेकिन लोग महाभारत के युद्ध को कल्पना समझते है, इतिहास नहीं समझते। वह समझते है कि, महाभारत का युद्ध संभव ही नहीं या हुआ ही नहीं!अगर वह महाभारत के युद्ध को स्वीकार नहीं करते, तो फिर आज के दिन जो श्रीराम 1000000 वर्ष पूर्व अयोध्या में थे, और स्वयं कुरुक्षेत्र में स्वयं पार्थसारथी बने थे। वहां पर तो युद्ध नहीं खेले किंतु, लंका के रनांगन में राम स्वयं युद्ध किए और अग्रगण्य थे सबसे आगे थे! हरि हरि। तो आज के दिन दशहरा के दिन, विजयादशमी की तिथि भी है और दशहरा भी है! जिसमें दशानन, रावण के 10 मूखो को भगवान श्रीराम हर लिए! हरि हरि। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
तो फिर सुखदेव गोस्वामी भी राम की कथा राजा परीक्षित को सुनाएं नौवें स्कंध में जहां सूर्यवंशम का वर्णन है, तो वहां सूर्यवंश के राम की लीला कथा का वर्णन की है। और फिर आज के दिन वध के उपरांत भगवान सीधे अशोकवन पहुंचे है। और सुखदेव गोस्वामी कहे,
ततो ददर्श भगवानशोकवनिकाश्रमे ।
क्षामां स्वविरहव्याधि शिशपामूलमाश्रिताम् ॥
श्रीमद भागवत स्कंद ९ अध्याय १० श्लोक ३०
अनुवाद:- तत्पश्चात् भगवान् रामचन्द्र ने सीतादेवी को अशोकवन में शिशपा नामक वृक्ष के नीचे एक छोटी
सी कुटिया में बैठी पाया। वे राम के वियोग के कारण दुखी होने से अत्यन्त दुयली-पताली हो गई
थीं।
तो अशोक वन में, सीशम वृक्ष के नीचे एक साधारण झोपड़ी में सीता निवास कर रही थी। जब वहां श्रीराम पहुंचे है,
रामः प्रियतमां भार्यां दीनां वीक्ष्यान्वकध्पत ।
आत्मसन्दर्शनाहादविकसन्मुखपङ्कजाम् ॥
श्रीमद भागवत स्कंद ९ अध्याय १० श्लोक ३१
अनुवाद:- अपनी पनी को उस दशा में देखकर भगवान् रामचन्द्र अत्यधिक दयार््र हो उठे। जब वे पत्नी के
समक्ष आये तो वे भी अपने प्रियतम को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और उनके कमल सदृश मुख
से आह्वाद झलकने लगा।
और श्रीराम जब वह पोहोचे और सीता को जब वे देखें प्रियतमां भार्यां प्रिय पत्नी दीनां गरीब बिचारी, दीन सीता को देखकर राम को दया आई और राम के ह्रदय में कंपन हुआ। सीता को उस स्थिति में देखकर राम की ऐसी स्थिति हुई। और सिता ने जब राम को देखा तो सुखदेव गोस्वामी कहते है,
आत्मसन्दर्शनाहादविकसन्मुखपङ्कजाम् तो जब सीता ने राम को देखा, आत्मसन्दर्शनाहाद तो आत्मदर्शन या राम दर्शन जब सीता ने किया है तो सीता अल्लादित हुई है और उनका मुरझाया हुआ मुख मंडल हर्ष के साथ खिल गया है । हरि हरि। तो बहुत समय के उपरांत आज के दिन दोनों का पुनः मिलन हुआ। और अब श्रीराम सीता और लक्ष्मण के साथ और हनुमान के साथ, विभीषण के साथ, और भी कईयों के साथ अयोध्या लौटने की तैयारी कर रहे है। उससे पहले राम ने लंकेश बनाया, किए बनाए? विभीषण को लंकेश बनाया और रावण पर कुछ दया दिखाते हुए कहा कि, उनके अंतिम संस्कार करो तो विभीषण ने उनके अंतिम संस्कार किए है। 10 संस्कारों में एक संस्कार होता है अंतिमसंस्कार! तो ऐसे आदेश उपदेश किए है। एक भाई सूर तो दूसरा भाई असुर! विभीषण सूर और रावण असुर! विभीषण सदैव हनुमान की तरह राम नाम का भजन कीर्तन किया करते थे।
राम नाम राम नाम राम नामैव केवलम।
रामायण के महात्म में ऐसे राम के नाम का महिमा भी है। तो विभीषण तो सदैव लंका में रहते हुए करते थे। तो जब हनुमान लंका में पहुंचे तो तो उनकी सहायता करने वाले विभीषण ही थे। और हनुमान को कैसे पता चला कि यहां पर कोई राम भक्त है? जब हनुमान आकाश मार्ग से बिहार कर रहे थे तो दूर से उन्हें राम नाम की ध्वनि सुनाई दी,
राम राम राम सीता राम राम राम
तो हनुमान यह सुनकर वहां पर पहुंच गए। तो उसी निवास स्थान पर एक बार रावण पहुंचे थे तो विभीषण के अंदर बाहर सर्वत्र राम ही राम थे। अपने घर की दीवारों पर विभीषण राम राम राम लिखवाए थे! रावण नहीं है जब देखा तो उसने पूछा, है तुम राम का नाम सर्वत्र लिखे हो? यह क्या है? तो विभीषण उस वक्त युक्ति पूर्वक कहते है, नहीं नहीं! वह राम का नाम थोड़ी है! इसमें जो रा है वह आपका नाम है और मा है वह मंदोदरी है! यह रावण और मंदोदरी संक्षिप्त में है! तो यह सुन के रावण प्रसन्न हो गए और बोले शाबाश विभीषण भैया, तुम्हारी जय हो! फिर कहते है कि, रावण ने क्या किया? अपने नगरी में सर्वत्र लिखवाया! क्या लिखवाया? राम राम राम राम जय श्रीराम!
तो पुष्पक विमान में विराजमान होकर आज के दिन श्री राम प्रस्थान किए जो कि, 14 साल का वनवास अब समाप्त हो रहा था और वहां अयोध्या में भरत अपने घड़ी की ओर देख रहे थे। और भरत ने कहा था कि, भैया अब तो तुम आ नहीं रहे हो ठीक है! तुम्हारी मर्जी! तो उस समय वैसे चित्रकूट में राम भरत मिलन के अंतर्गत राम ने अपनी पादुका दी थी और कहा था कि, मैं नहीं आऊंगा तो मेरी पादुका ले लो! तो राम की पादुका राम से भिन्न नहीं है। पादुका ही राम है! तो यह भरत स्वीकार किए थे और कहे थे कि जिस क्षण 14 साल के वनवास का काल समाप्त होगा उस क्षण या उसके पहले आपको पहुंचना होगा! एक क्षन भी देरी से पहुंचेंगे तो आपका नहीं आना ठीक होगा और आप आ भी जाओगे तो मुझे जीवित नहीं पाओगे! ऐसी सूचना या वार्निंग भरत दिए थे, तो राम भी अपनी घड़ी की ओर देख रहे थे। तो राम आते समय तो चलकर आए थे अयोध्या से लंका तक पैदल यात्रा करते हुए थे और पैदल यात्रा करते हुए जाने का सोचते तो उस समय पहुंचने का प्रश्न ही नहीं था, तो इसलिए भी श्रीराम पुष्पक विमान में आरूढ़ होकर, अपने कई सारे परी करो के साथ उन्हें भी अरुढ कराकर अयोध्या के लिए प्रस्थान किए। अयोध्या धाम की जय! और फिर वहां पहुंचकर उनका बड़ा स्वागत हुआ सभी ने और फिर अयोध्या में विजयादशमी का उत्सव या राम का स्वागत का उत्सव अयोध्या में मनाया गया। अयोध्या का श्रंगार हुआ, अयोध्या को सजाया गया, अयोध्या में सर्वत्र दीप ही दीप जलाए गए, मिठाई बाटी गई, सभी के मुंह मीठे किए और सभी सज धज के राम के स्वागत के लिए खड़े थे। तो राम का स्वागत ऐसे अयोध्या में हुआ, और उसी के साथ अयोध्या में यह दीपावली का उत्सव मनाया गया!
यह दोनों उत्सव बड़े महत्वपूर्ण उत्सव है। जेसे पाश्चात्य जगत में क्रिसमस प्रसिद्ध है, तो वैसे ही हम हिंदू या सनातन धर्म के लिए दशहरा और दिपावली महत्वपूर्ण है! वैसे दशहरे के दिन दिवाली प्रारंभ होती है। हरि हरि। तो इन दोनों उत्सव के साथ हमारा घनिष्ठ संबंध है क्योंकि, राम के कारण ही यह दोनों उत्सव मनाया जाते है। विजयादशमी उत्सव और दीपावली महोत्सव! तो जेसे अयोध्या में राम ने प्रवेश किया और उनका अयोध्या मे स्वागत हुआ और आलिंगन हुआ, तो ऐसे ही हम भी अपने जीवन में राम का स्वागत करते है और उनके चरणों का स्पर्श करते है! अगर वह हमें गले लगाना चाहे तो कौन रोक सकता है? तो हम भी अयोध्यावासी बन कर हम उन्हें गले लगा सकते है, वे भी हमें गले लगाएंगे। राजा कुलशेखर एक प्रसिद्ध राजा हुए दक्षिण भारत के श्रीरंगम के, तो वे जब राम की लीलाओं का श्रवण करते या पढ़ते या सुनते तो वे राम की लीला में प्रवेश करते। राम की लीला मानो संपन्न हो रही है ऐसा अनुभव करते। तो भगवान जब वहां पर युद्ध किए थे पंचवटी के पास, तो राम जब युद्ध के लिए गए है ऐसा जो वर्णन कुलशेकर ने सुना, तो वह तुरंत ही कहे चलो चलो! तैयार हो जाओ! तैयार हो जाओ! कहां है घोड़े हाथी? कहा है सेना? धनुष बाण कहा है? तैयार हो जाओ! तो जब सब दौड़ के आते है और उन्हें पूछते है की, क्या हुआ? क्या हो रहा है? कहां जाना है? तो वे बोलते है कि, चलो! पंचवटी जाते है! तो फिर सभी को समझ में आता है कि यह राम भावनाभावित है, जब राजा कुलशेकर रामायण का अध्ययन करते या फिर भगवान की लीलाओं का श्रवण करते तो वह देखते और फिर वह भी उस लीला में प्रवेश करके राम की सहायता करना चाहते है। तो ऐसे ही राम का अयोध्या में स्वागत हो रहा है, तो ऐसा जब हम सुनते है या सुन ही रहे है तो हमारे मन में भी विचार आता है कि, चलो हम भी स्वागत करते है!राम का अयोध्या में स्वागत हो रहा है, तो अच्छा होता हम भी वहां पर होते! तो चलो राम का स्वागत करते है। जय श्रीराम! जय श्रीराम! हरि हरि।
तो इस्कॉन के अधिकतर मंदिर मैं राधा कृष्ण के विग्रह है, और गौर निताई तो होते ही है! लेकिन कुछ ही मंदिरों में या इस्कॉन के कुछ ही मंदिर राम मंदिर भी है। जहां पर सीता राम लक्ष्मण हनुमान है। और उन मंदिरों में इस्कॉन अहमदाबाद एक राम मंदिर है। तो इस्कॉन अहमदाबाद में जब स्थापना हो रही थी, प्राणप्रतिष्ठा हो रही थी तो उन प्राणप्रतिष्ठित विग्रह में श्री राम लक्ष्मण सीता हनुमान जी की भी स्थापना हुई और जिन्होंने की वै थे हमारे यशोमती नंदन प्रभु। यशोमती नंदन प्रभु की जय! तो वह भी राम भक्त रहे, वैसे कृष्ण भक्त राम भक्त तो होता ही है। और राम भक्त कृष्ण भक्त होता है। राम ही कृष्ण है! तो वे राम भक्त यशोमतीनंदन प्रभु या कृष्ण भक्त यशोमतीनंदन प्रभु! हमारे लिए दुर्देव उनके लिए सुदैव कहो वे राम कृष्ण को प्राप्त किये और हम विरह की व्यथा से व्यथित है। वैष्णव का तीरोभाव उत्सव हर्ष कि बात है, हर्ष इस बात का वे वैष्णव भगवान को प्राप्त किये तो निश्चित ही ये हर्ष का कारण बनता है। जिनका संग हमे या मुझे कहो ४० वर्षो से प्राप्त था,पुनः पुनः मिले और पुनः पुनः दधाति प्रति गृन्हाती गुह्यम आख्यति पृछ्चती। किया और साथ ही भुन्कते भोजयते चैव षडविथम् प्रीति लक्षणम् भोजन प्रसाद खाये और खिलाये हम जब अहमदाबाद जाते तो उनको प्रसाद खिलाते। वे जब नॉएडा आते तो हम उनको प्रसाद खिलाते या अन्य स्थानों पर भेज देते तो वो प्रीति लक्षण का जो हमने अनुभव किया इनके कारण हमको प्रीति मिली उनका प्रेम मिला। यशोमतीनन्दन प्रभु हमारे मध्य नहीं रहे तो ये हमारे दुःख और शोक का कारण भी है। हरी हरी। तो मैं आपको कुछ शेयर करना चाहता हूँ उनके कुछ चित्र हमारे साथ है, कुछ चित्र आप देख रहे हो, यशोमतीनन्दन प्रभु और उनकी महिमा का जितना भखान कर सकते है उतना कम ही है! हरी हरी।
हम मुंबई में थे साथ,वैसे यशोमतीनन्दन प्रभु अमेरिका में थे तो श्रील प्रभुपाद अमेरिका पहुंचे तो उसके पहले ही संभावना है यशोमतीनन्दन प्रभु पहुंचे थे वहाँ इंजीनियर बनने, उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु, इंजीनियर बन के जॉब भी कर रहे थे। श्रील प्रभुपाद के सम्पर्क में आये, श्रील प्रभुपाद ने उन्हें आदेश भी दिया, यहाँ क्या कर रहे हो ? भारत लौटो! गुजरात जाओ, गुजरात में कृष्णभावनामृत का प्रचार करो! तो बड़ी तपस्या है ये सब छोड़ दिया, जो भी उनका स्वप्न था, लक्ष्य थासब समर्पित किया। तो फिर मुंबई आये १९७५ साल की बात होगी तो श्रील प्रभुपाद ने उन दिनों मुंबई को अपना दफ्तर बनाये थे। तो जहाँ मैं भी था और भी कर्मचारी थे श्रील प्रभुपाद के उस दफ्तर में और फिर यशोमतीनन्दन प्रभु जो अब गृहस्थ बन गए, अमेरिकन स्त्री से उन्होंने विवाह किया, अच्छी भक्त श्रील प्रभुपाद की शिष्या, राधा कुंड माताजी। जब दोनों मुंबई आये तो मुंबई में ही कुछ सालो तक रहे क्यूंकि प्रभुपाद वहां रहते थे और प्रभुपाद का बहुत बड़ा प्रोजेक्ट वहां हरे कृष्ण लैंड में बन रहा था, राधा रासबिहारी को कहा आपके लिए मैं महल बनाऊंगा! यशोमतीनन्दन प्रभु वैसे इंजीनियर भी थे, उनके पास कई कला, कौशल्य थे तो वही रहे और श्रील प्रभुपाद की उस प्रोजेक्ट में सहायता भी किये। तो आप देख रहे थे उस स्लाइड में यशोमतीनन्दन प्रभु गुरु पूजा कर रहे थे सुबह राधा रासबिहारी मंदिर में। और यहाँ सुबह की सैर में जो कृष्ण किताब पढ़ रहे हैं वो है यशोमतीनन्दन प्रभू। सुबह की सैर में उन्हें पुनः पुनः जाने का अवसर मिलता था, मैं तो राधा रासबिहारी का पुजारी था तो मैं तो नहीं जा सकता था।
लेकिन यशोमतीनन्दन प्रभु और अन्य भक्त पुनः पुनः श्रील प्रभुपाद के साथ जाया करते थे। वैसे यशोमतीनन्दन प्रभु बड़े विद्वान भी थे, जन्म इनका ब्रह्मिण परिवार का था, वे गुजरात के जोशी थे। तो कभी कभी डॉक्टर पटेल जो श्रील प्रभुपाद के साथ बहस किया करते थे या कभी संवाद तो कभी वाद विवाद भी चलता था। तो कभी कभी यशोमतीनन्दन प्रभु भी डॉक्टर पटेल के कूउतर का जवाब दिया करते थे। उन्होंने कहना शुरू किया जोशी महाराज ,जोशी महाराज! श्रील प्रभुपाद भी कभी कभी उन्हें जोशी महाराज कहा करते थे। मतलब विद्वान! प्रभु जी को भगवद गीता के सारे श्लोक कंठस्थ थे और उनके कक्षाओं में उनके पांडित्य का और उनके विद्व्त्ता का प्रदर्शन का हम उनके पांडित्य और विद्वत्तापूर्ण भागवत, भगवद गीता की कक्षा में। तो यहाँ देख रहे हो, ये जुहू समुन्द्र तट है , इसमें डॉक्टर पटेल भी है जो तिरछी नज़र से देख रहे है। प्रभुपाद के दाहिने हाथ – यशोमतीनन्दन प्रभु चल रहे है। दूसरे चित्र में सुबह की सैर ही है और मैं भी हूँ और यशोमतीनन्दन प्रभु एक परिवार की तरह, वो मेरे भाई थे! श्रील प्रभुपाद ने हमे यशोमतीनन्दन प्रभु जैसे भाई दिए इसलिए हम प्रभुपाद के आभारी है। यहाँ देख रहे हो, श्रील प्रभुपाद सायंकाल को दर्शन दिया करते थे और यहाँ देख रहे है यशोमतीनन्दन प्रभु बैठे हैं। तो यशोमतीनन्दन प्रभु को श्रील प्रभुपाद की वपु सेवा का अवसर प्राप्त हुआ करता था। श्रील प्रभुपाद के क्वार्टर में वह समय बिताया करते थ।
श्रील प्रभुपाद की मालिश करने की सेवा भी उनको बारम्बार दिया करते थे। यशोमतीनन्दन प्रभु बताया करते थे श्रील प्रभुपाद ने ये किया वो किया। यहाँ देख रहे हो, श्रील प्रभुपाद किसी पार्क में बैठे हुए है यशोमतीनन्दन प्रभु उनके चरणों में बैठे हुए है। फिर से यह भी सुबह की सैर की प्रसिद्ध तस्वीर है जिसमे यशोमतीनन्दन प्रभु जवान है। श्रील प्रभुपाद के समय की तस्वीर है। इस वीडियो में देख रहे हो वो की, वे प्रभुपाद के सानिध्य को नहीं छोड़ते। वे काफी जिज्ञासु थे और श्रील प्रभुपाद से वार्तालाप किया करते थे। और उसमे यशोमतीनन्दन प्रभु काफी रूचि भी लिया करते थे। हम वीडियो नहीं सुन पा रहे है। थिक है तो।
एक समय प्रभुपाद गुजरात गए थे वह के राजा ने उन्हें आमंत्रित किया था। प्रभुपाद का स्वागत और प्रचार कार्यक्रम हुआ था, यशोमतीनन्दन प्रभु वहां थे तो उन्होंने यशोमतीनन्दन प्रभु से पूछा था, प्रभुपाद क्या कहे उस समय? कई बात कही थी उसमे से एक यशोमतीनन्दन प्रभु ने कही प्रभुपाद एक गांव आनंद में गए थे और आस पास के गावों में भी गए और हम भारत को बदल सकते हैं इन गावों में जा कर, हरे कृष्ण का प्रचार कर के क्रांति ला सकते है! गांववासी कैसे भक्त बन सकते है वो उन्हें सीखा सकते है! पदयात्रा व्यावहारिक प्रदर्शन है कि हम ग्रामीण क्षेत्रो, नगरों और ग्रामो को भी कैसे सुधार सकते है! और यह भी लोगो को सीखा सकते है साधा जीवन और भगवान पर निर्भरता तो ऐसे विचार श्रील प्रभुपाद ने व्यक्त किये थे यह बात यशोमतीनन्दन प्रभु ने हमे सुनाई थी तब श्रील प्रभुपाद आनंद में थे। यह बात १९८४ कि है जब हम श्रील प्रभुपाद के आदेशानुसार जब हम पदयात्रा कर रहे थे।
बैलगाडी संकीर्तन पार्टी कार्यकर्म कर रहे थे तो फिर हमने एक योजना बनाई। जीबीसी की योजना थी कि हम पदयात्रा करेंगे कहाँ से कहाँ तक? द्वारका से मायापुर जायेंगे, कन्याकुमारी होते हुए! तो हम कुछ ८-९ राज्यो में से पदयात्रा करते हुए आगे बढ़ने वाले थे। प्रथम क्रमांक में गुजरात था, तब गुजराती थे और वो बोला करते थे कृष्ण गुजराती थे। १०० साल रहे द्वारका में गुजरात में। इस चित्र में यशोमतीनन्दन प्रभु को अहमदाबाद में देख रहे हो, मुख्यालय था वहाँ पे। और वैसे जो आदेश दिया था कि, गुजरात में प्रचार करो! यशोमतीनन्दन प्रभु इतना यशस्वी प्रचार करा गुजरात में और वहाँ १०-१५ इस्कॉन के मंदिर और प्रोजेक्ट्स बनाए। अहमदाबाद , बड़ोदा , सूरत , विद्यानगर , द्वारका में मंदिर , तो उनकी देख-रेख में ये सारे मंदिर बन चुके है। जब हम पदयात्रा कर रहे थे तो यशोमतीनन्दन प्रभु ने बहुत बड़ा योगदान दिया और गुजरात में जब तक पदयात्रा थी तो वहाँ की सारी व्वयस्था उन्होंने की। यहाँ अहमदाबाद में कार्यकर्ताओ को सम्भोदित कर रहे है, सूचना दे रहे है कि पदयात्रा संपन्न होने जा रही है, तैयार हो जाओ! मैं उनकी बगल में बैठा हूँ और इस्कॉन के भक्त बैठे है। तो यहाँ पदयात्रा शुरू हुई द्वारका से आगे बढ़ रही है , कुछ नेताओ के साथ को प्रचार कर रहे है। दूसरे चित्र में हाथी पर सवार है यशोमतीनन्दन प्रभु। नगाड़े बजाते हुए पदयात्रा और यशोमतीनन्दन प्रभु का स्वागत हो रहा है। कानपूर मंदिर का उदघाटन हुआ उसका चित्र है जिसमें यशोमतीनन्दन प्रभु ने निर्माण और उद्घाटन किया उस समारोह में, इस्कॉन के भक्तो को देख रहे हो। यशोमतीनन्दन प्रभु बी बी टी इंडिया ट्रस्ट के ट्रस्टी भी रहे। और वैसे गुजरात के आंचलिक सचिव भी रहे। और पूरे भारत ब्यूरो के सदस्य भी रहे 40 साल तक पूरे भारत ब्यूरो के अध्यक्ष रहे। यशोमती नंदन प्रभु एक विशेष नेता रहे। प्रभु पुरे भारत के संचालक रहे। अहमदाबाद में कई बार कई मुलाकात होती थी, मंदिर अध्क्षय, ब्यूरो या आई आई ऐ सी मुलाकात होती थी। उसकी मेज़बानी यशोमतीनन्दन प्रभु अहमदाबाद , बड़ोदा में कई बार किये तो यहाँ इनको व्हील चेयर पे बैठे हुए देख रहे हो। पिछले कुछ सालो से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा फिर भी वह सक्रिय रहे। इस्कॉन नॉएडा ने २०१८ में ब्यूरो मुलाकात का आयोजन किया था।
उस मुलाक़ात में आप देख रहे हो यशोमतीनन्दन प्रभु सम्भोदित कर रहे है उपस्थ्तित ब्यूरो सदस्यों को । काफी अच्छे भागवत और गीता के वक्ता तो थे ही और साथ ही साथ बुद्धिमान प्रबंधक थे। उनकी बातो को सभी सदस्य बड़ी गंभीरता से सुना और स्वीकार किया करते थे। जैसा की आप यहाँ देख रहे है। यहाँ नॉएडा में मेरे आलिंगन को स्वीकार कर रहे है यशोमतीनन्दन प्रभु। सुबह का कार्यकर्म नॉएडा में ,यशोमतीनन्दन प्रभु व्हील चेयर पर बैठे हुए है। हरी हरी। कितनी सारी हमारी मुलाकाते पिछले ४० वर्षो में हुई है। भाई, परिवार के सदस्य तो परिवार के साथ ही रहते है, मिलते है साथ में , प्रसाद ग्रहण करते है साथ में और व्यवस्था साथ में सँभालते थे। हरी हरी। दामोदर महीने में नॉएडा मुलाकात में दीप दान हो रहा है यशोमतीनन्दन प्रभु यशोदा दामोदर को दीप दान कर रहे है। अर्जुन कृष्ण भी वहाँ पर है। पिछले वर्ष जो आषाढ़ी एकादशी महोत्सव हुआ, व्यास पुजा भी हुई तो कुछ ही गुरु भाई वहाँ थे उस में से मुख्य थे यशोमतीनन्दन प्रभु। मुझे सानिध्य और संग देने के लिए वे पधारे थे। यहाँ देख रहे हो प्रह्लाद प्रभु इस्कॉन पंढरपुर के अध्यक्ष कृष्ण भक्त प्रभु के साथ यशोमतीनन्दन प्रभु अतिथि ग्रह के पास ही। बाकी सारे शिष्यगण और सदस्य आये और चले भी गए परन्तु यशोमतीनन्दन प्रभु उत्सव के उपरांत काफी दिनों तक यहां रुके, पंढरपुर धाम में और विट्ठल दर्शन भी किया। हरी हरी। अब देख रहे हो हम उनको कुछ भेंट दे रहे है। पंढरपुर जरूर आना है ये उनका संकल्प था। मैंने उनको कई बार निवेदन किया था किन्तु वह नहीं आ पाए थे, फिर आ ही गए पिछले वर्ष हम उनके आभारी है। हरी हरी। पिछले वर्ष प्रभुपाद घाट का उद्धघाटन हुआ तो उनके कर कमलों से ही कहो या और भी कई सारे इस्कॉन नेता थे। यशोमतीनन्दन प्रभु ने फीता काटा था! साथ में नित्यानंद पादुकाएं भी है। यह घाट का उद्घाटन यशोमती नंदन प्रभु के कर कमलों से हुआ। तो अहमदाबाद रथ यात्रा में प्रसाद वितरण कर रहे है, इनका बहुत बड़ा परिवार था उनकी धर्मपत्नी श्रिल प्रभुपाद की बहुत बड़ी शिष्या है। उन्होंने अपने बच्चो की भक्ति वेदांत स्वामी गुरुकुल वृन्दावन में उनकी शिक्षा कराई। वह बड़े ही आदर्श गृहस्थ रहे। हरी हरी। अच्छे कथाकार और कीर्तनकार भी थे। वन्दे कृष्ण नन्द कुमार ऐसा उनका एक भजन है, उसको भी पुनः पुनः गाया करते थे।
अहमदाबाद मुलाकात में यशोमतीनन्दन प्रभु। प्रभुपाद के ग्रंथो का वितरण , गुजराती में अनुवाद! जैसे भक्ति चारु महाराज ने प्रभुपाद के ग्रंथो का बंगाली में अनुवाद करा तो ऐसे ही यशोमती नंदन प्रभु गुजराती अनुवाद किए। साथ ही साथ प्रभुपाद के ग्रंथो का वितरण करने में बहुत रूचि रखते थे, आगे रहा करते थे और एक समय उनकी संकीर्तन किताब वितरण गुजराती में काफी प्रसिद्ध थी। कई सारे मैराथन को वे जीतते थे! हर साल गीता जयंती पर गोपाल कृष्ण महाराज भी जा कर या गुजरात के भक्तो और प्रचारकों को प्रेरित किया करते थे। वो दोनों सबको ग्रंथ वितरण की प्रेरणा देते तो एक लाख से अधिक एक महीने में अहमदाबाद में वितरण हुआ करता था। ये करते रहना है! यशोमतीनन्दन प्रभु ने मंदिरो की स्थापना , गौशाला की स्थापना , गुरुकुल भी बने है गुजरात में उसका रखरखाव, उसको आगे बढ़ाना है। या फिर ग्रंथ वितरण जो इतने बड़े स्तर पर होता था तो यह सब हमे करते रहना है! यह सब सेवायें यशोमतीनन्दन प्रभु जो भारत में प्रारम्भ किये जिसके लिए वह प्रसिद्ध है वह सेवा होती रहे , चलती रहे। और इसे चलने के लिए हमे योगदान देना होगा और वही होगी श्रद्धांजलि यशोमतीनन्दन प्रभु के चरणों में। और यह बात भी भक्ति विनोद ठाकुर लिखे है कि कौन कहता है कि वैष्णव कि मृत्यु होती है, नहीं नहीं वैष्णव कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं करते वे जीते रहते है , कैसे जीते रहते है ?अपने चरित्र के रूप में जीते रहते है, अपने वाणी के रूप में जीते रहते है यह बात यशोमती नंदन प्रभु को लागू होती है। अपने प्रकट की हुई जो इच्छाएं है उनके रूप में जीते रहते है। वैष्णव जीने के लिए ही मरते है। वह तथाकथित मरन है। जो कीर्तिमान है वही जीवित है बाकी सब मेरे हुए है। मराठी में भी कहावत है, मरावे परी कीर्ति रूपी उरावे मरना तो एक बार होता ही है, वैष्णव है तो उनके शरीर का मृत्यु होगा लेकिन हमको कीर्ति के रूप में जीवित रहना चाहिए। हमारे यशोमतीनन्दन प्रभु कीर्ति के रूप में जीवित है और जीवित रहेंगे और जीवित रह कर कृष्णभावना प्रचार प्रसार करेंगे। हमे प्रेरित करेंगे और हरीनाम का प्रचार भी होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे। हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। और अधिक अधिक नगरों में ग्रामो में यह पहुंचेगा। जिसे यशोमतीनन्दन प्रभु प्रारम्भ किये, शुभ आरम्भ किये। चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन के स्थापना किये गुजरात में। इस कार्य को आगे बढ़ाना है ताकि चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी सच हो। क्या है उनकी भविष्यवाणी ? सर्वत्र प्रचार सभी नगरों सभी गावों में, अभी हम सभी जगह नहीं पहुंचे है। यशोमतीनन्दन प्रभु हमसे तभी प्रसन्न होंगे जब हम इस प्रयास को जारी रखेंगे। कोनसा प्रसाय? हरिनाम गौर वाणी प्रचारीने का प्रचार गुजरात के हर नगर में , हर गांव में पहुंचे। तब उनकी आत्मा शांत और प्रसन्न रहेगी। ये हमारे लिए घर का पाठ है। हमारे लिए ये कार्य है और इस कार्य को करते रहना है। इस कार्य को आगे बढ़ाता रहना है! हरी हरी। उनकी कृपा हम सब पर रहे।
यशोमतीनन्दन प्रभु की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
राधा गोविन्द देव की जय!
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज की जय!
वाञ्छाकल्पतरुभ्यंछ्य कृपासिंधुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: ।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
25th October
Sri Ramachandra Vijayotsava & Remembering HG Jasomatinandan Prabhu
Hare Krsna! Devotees from 716 locations are chanting with us right now. Jai Shree Ram!
Ayodhya Vaasi Ram Ram Ram, Dasaratha Nandana Ram
Patita Pavana Janaki Jeevana Sita Mohana Ram.
We must remember Lord Rama today and also we will remember HG Jashomatinandan Prabhu. He disappeared yesterday. Just Navami is popular as Rama Navami. Similarly, this Dashami is popular as Vijaya Dashami or Dusshera. Today is the day on which Lord Rama won. By the way, Lord Rama always wins. And today also Rama won in Sri Lanka.
paritrāṇāya sādhūnāṁ
vināśāya ca duṣkṛtām
dharma-saṁsthāpanārthāya
sambhavāmi yuge yuge
Translation:
To deliver the pious and to annihilate the miscreants, as well as to reestablish the principles of religion, I Myself appear millennium after millennium.[ BG 4.8]
The Lord slew the greatest of demons then Lord killed Ravana. When Dashrath Maharaj was performing a yajna with the desire to get a son, all the Demigods were present. They were all terrorized by Ravana and they knew that Ravana can be killed only by Humans or monkeys. When Ravan practiced severe penance, Brahma was pleased and he appeared, so Ravana asked from him that he wanted a boon such that he would become so powerful that no one could kill him. But then he thought humans are not very powerful so he didn’t ask for them. At the time of Yajna, which was done by Dasharatha Maharaj to get a son, all the gods requested God to become the son of Dasaratha, who would be in human form, and then it happened! And Ramayana is very detailed and its discussion is also very detailed. This Katha is not a myth. It is a fact. It is History. It has very much happened.
Once, a few years ago, I was in California, Los Angeles, there was a celebration going on. Someone said it was the birthday of the city and that the city was very very old. Upon asking I got to know that it was 200 years old. But the cities of our history are more than a million years old. Those who consider 200 years history as too old, from where will they understand that 1000000 years ago, Shri Ram was in Lanka on this day and on this day he killed Ravana. So even 5000 years ago there was a war, although it was a World War. As the World War is calculated, the first World War was around 1920 and the second World War in 1940, and the war of Mahabharata is not in the calculation. However, Krsna did not fight in Kurukshetra, he was a Parthasarthi. But as Lord Rama, he was the main fighter of his army. And today is the day when he killed Ravana. Sukadev Goswami has also narrated the Rama Katha to Parikshit Maharaj in the 9th Canto.
tato dadarśa bhagavān
aśoka-vanikāśrame
kṣāmāṁ sva-viraha-vyādhiṁ
śiṁśapā-mūlam-āśritām
Translation:
Thereafter, Lord Rāmacandra found Sītādevī sitting in a small cottage beneath the tree named Siṁśapā in a forest of Aśoka trees. She was lean and thin, being aggrieved because of separation from Him.[ SB 9.10.30]
He says that after killing Ravana, Rama goes to the Ashoka Vatika where mother Sita was kept after the kidnapping.
rāmaḥ priyatamāṁ bhāryāṁ
dīnāṁ vīkṣyānvakampata
ātma-sandarśanāhlāda-
vikasan-mukha-paṅkajām
Translation:
Seeing His wife in that condition, Lord Rāmacandra was very compassionate. When Rāmacandra came before her, she was exceedingly happy to see her beloved, and her lotus like mouth showed her joy.[ SB 9.10.31]
Lord Rama felt a lot of pain upon seeing how Sita was living in the past few months. When Sita saw Lord Rama, she was extremely heartened. They United again and now Lord Sita Rama along with Lakshman, Hanuman and Vibhishan left from there. Ravana was cremated. Vibhishan was coronated as the King by Sri Rama. Despite being brothers Ravan was demoniac but Vibhishan was a great Vaishnava. Although he lived in Lanka still he managed to chant Rama Rama Rama.
When Hanuman came to Lanka looking for Sita he heard someone chanting. When looked for the place where the sound was coming, he reached the room of Vibhishan, and Vibhishan helped him. Once Ravana reached the palace. And he saw that all over in the room Sri Rama Rama was written. And Vibhishan was also chanting the names of Lord Rama. So, upon seeing this Ravan was extremely angry and he asked why Vibhishan was chanting the names of his enemies, So Vibhishan replied that Rama is the abbreviation for Ravana and Mandodari. So Ravana was pleased and he ordered this to be written on all the walls of Lanka. So now Ravana has been killed, Sita has been rescued and Vibhishan has been the King. Bharat was looking towards his watch. And Bharat had said that brother, you are not coming now, okay! Your wish! So at that time, Rama had given his paduka in Chitrakoot and said, I will not come, then take my paduka! So Rama’s paduka is not different from Rama’s.Paduka is Ram! So Bharat had accepted this and said that the moment the period of exile of 14 years will end, you have to reach that moment or before that! So while sitting in Pushpak Vimana, Shri Ram departed on this day, complete his 14 years of exile.
The entire city was decorated. So today is the day when Ravana was killed and the day when he returned back to Ayodhya is celebrated as Deepawali. Just like Lord Rama was welcomed in Ayodhya, we also should welcome Him in our lives. King Kulashekhar, one of the alwars, was a saintly king. He was a pure devotee. When he was hearing in the Ramayan Katha that the war is going to take place, He immediately ordered his army to get ready to fight against Ravana. Like we also feel sometimes that let us decorate our house and wear new clothes on Diwali. Most of the ISKCON temples have Radha and Krsna. Very few temples have Sita, Ram, Lakshman, and Hanuman. ISKCON Ahmedabad, Gujarat is one such temple. Our dear HG Jashomatinandan Prabhu was such a great devotee of Lord Rama. Lord Rama or Krsna is the same. Unfortunately, he left yesterday. Unfortunately for us and fortunately for him. It is great pleasure that such a pure devotee has attained the highest abode. I got the opportunity to meet him many many times in the past 40 years. Whenever I would visit Ahmedabad, he would invite me to take prasadam with him. However, he is not physically present with us now. You can see the presentation.
So Jashomatinandan Prabhu had gone to America to be an Engineer, and then was working there when he came in contact with Srila Prabhupada. So Srila Prabhupada instructed him to return to India and preach in Gujarat. Then, he came to Mumbai around 1975. So Srila Prabhupada had also come to Bombay. I was also there.
Jashomatinandan Prabhu was already a Grihastha then, he married Radhakunda Mataji, another disciple of Srila Prabhupada. So here you can see Jashomatinandan Prabhu is offering GuruPuja to Srila Prabhupada in Bombay. He would get the opportunity to go for morning walks with Srila Prabhupada. I was also there but I was the Pujari so I couldn’t go. HG Jashomatinandan Prabhu was also very scholarly. Dr. Patel would often have questions and debates, so many times Jashomatinandan Prabhu would respond. Prabhupada would call him Joshi Maharaj. He was so scholarly. His classes were also proof of him being a scholar. He would also get to massage Srila Prabhupada. He would narrate to us many times what Srila Prabhupada used to say while taking massages. So this is young Jashomatinandan Prabhu. He would ask many questions. He would show a lot of interest in the talks that Srila Prabhupada would give. Once Srila Prabhupada visited anand in Gujarat, so Jashomatinandan Prabhu was also present there. So Jashomatinandan Prabhu recollects that” When Srila Prabhupada visited anand, which was then a village, he enjoyed giving darsana to the people there and he also visited the surrounding villages. Prabhupada told me we can transform India by going to these villages and teaching them how to be devotees. Padayatra is a live demonstration of Srila Prabhupada’s desire to preach in rural India. It also teaches devotees to live a simple life of total dependence on Krsna.”
I was doing Padayatra and then we decided that we will do Padayatra from Dwarka to Mayapur. So we started Padayatra from Gujarat. This picture is from Ahmedabad. He is telling people about the Padayatra. This picture is from Kanpur. He was the Zonal Secretary of Gujarat. He was a member of the All India ISKCON Bureau. He was also a trustee of the BBT. His health was not very good in the past few years. In this picture, you can see that Jashomatinandan Prabhu is addressing the meeting. He was a very smart and intelligent manager. So there were so many times that we met in the past 40+ years. Meeting, staying, and eating together…Another picture from Noida. Another picture from Noida. Along with the good Speaker on Bhagavatam and Gita, he was also a good leader. He also came for the Ashadhi Ekadashi to Pandharpur to give me his association on my appearance day. Many devotees came and went away but he stayed there for the next few days. I had invited him several times to Pandharpur so he came finally. This is the inauguration of Prabhupada Ghat. RevatiRaman Prabhu is there. I am also there. In the middle is Jashomatinandan Prabhu. Here he is distributing prasadam in Ahmedabad Ratha yatra. His wife is also a very sincere disciple of Srila Prabhupada.
He was an exemplary Grihastha. He was also a Kirtaniya, He would sing various Vaishnava songs. Like Bhakti Caru Swami Maharaja translated most books of Srila Prabhupada in Bengali, Prabhuji translated all books of Srila Prabhupada in Gujarati. He was also a good book distribution leader. Every December, Ahmedabad temple would do very good book distribution, more than a hundred thousand Gitas. He has established big temples in Gujarat. He started so many services in Gujarat. We all will have to contribute to keeping the services on, that will be our offering to him.
Bhaktivinoda Thakur says they reason ill who tells that Vaishnavas die when thou are leaving still in sound. One who has done great service to the Lord to the society they live forever. The body has to die. But in the form of his fame and glory, he is still with us and will keep preaching Krsna Consciousness. He established the movement of Caitanya Mahaprabhu in different towns, villages of Gujarat. So Jashomatinandan Prabhu will be pleased with us only when we help take ahead his mission. This is a Home Work for us. We need to take this task ahead. Hare Krsna. HG Jashomatinandan Prabhu ki Jai!.
Srila Prabhupada ki jay.
Radha Govind Dev ki jay.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक २४ अक्टूबर २०२०
हरे कृष्ण!
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।
आप सोच या समझ रहे होंगे कि हम चैतन्य महाप्रभु के विषय में बात करने वाले हैं, हां, ऐसी ही बात है।
श्री चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान कर रहे थे। वैसे तो सारा संसार ही जाना चाहता है। सारे शांतिपुर निवासी जाना चाहते थे। वैसे भी उस समय चैतन्य महाप्रभु के दर्शन के लिए शांतिपुर में नवद्वीप वासी भी पहुंचे हुए थे। सभी ही जाना चाहते थे परंतु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अकेले ही जाना चाहते थे। ठीक है! अकेले नहीं जाने देंगे, कम् से कम कुछ ही भक्त तो साथ में जाएंगे ही लेकिन सारी भीड़ साथ में नहीं जाएंगी।
चैतन्य महाप्रभु ने अब संन्यास लिया है, वे अब कुछ एकान्त भी चाहते थे। हरि! हरि! जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से वृन्दावन जाने के लिए तैयार थे। उस समय भी चैतन्य महाप्रभु के यही विचार थे या फिर जब वे दक्षिण भारत की यात्रा में भी जाना चाह रहे थे तब भी चैतन्य महाप्रभु ने सबको मना किया कि आप नहीं आ सकते। आप यहीं रहिए। यू स्टे बिहाइंड। हरि! हरि! लोग तो जाना चाहते थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनके प्राणनाथ हैं। चैतन्य महाप्रभु का वहां से प्रस्थान करना मतलब उनके प्राण ही जा रहे हैं। अतः वे प्राणनाथ के पीछे तो जाना ही चाहेंगे।
जय श्री राम! श्री राम जब वनवास में जाने के लिए तैयार थे। तब सारे अयोध्यावासी भी श्री राम, लक्ष्मण व सीता के साथ जाने के लिए तैयार थे, वे कुछ दूरी तक गए भी थे। उस समय अयोध्या के जो वृक्ष अर्थात स्थावर योनि अथवा अचर वस्तुएं हैं अर्थात वे कहीं भी चल नहीं सकते, वे कहीं आ जा नहीं सकते। वे बेचारे शोक कर रहे थे। देखो! हमारा हाल, हम स्थावर योनि है। अच्छा होता कि यदि हम भी चल सकते। यदि हम में भी चलने की क्षमता होती तो हम भी श्री राम के साथ या उनके पीछे पीछे जाते जैसे अयोध्या वासी जा रहे हैं। हरि! हरि! इसी तरह वैसे ही यहाँ पर वे , श्री राम ही अथवा वे श्री कृष्ण ही, कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं।
भगवान ने संन्यास लिया है। संन्यास लेने वाले केवल यही भगवान हैं। हरि! हरि! वे क्या त्यागेंगे, कठिन है क्योंकि जिनको त्यागना है, वे सभी उन्हीं के हैं, उन्हीं के अंग है, उन्ही के अंश हैं, उन्हीं की शक्ति हैं। फिर भी निमाई ने संन्यास लिया और वे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बने।
वैराग्य विद्या निज भक्ति योग
शिक्षार्थमेक: पुरुष: पुराण:।
श्री कृष्ण चैतन्य शरीर धारी
कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।। ( श्री चैतन्य चरितामृत ६.२५४)
अनुवाद:- “मैं उन पूर्ण पुरषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूं, जो हमें वास्तविक ज्ञान अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं। मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूं।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही, वैराग्य सिखाने और विद्या का दान करने व ‘निज भक्ति योग’ अर्थात अपनी खुद की भक्ति सिखाने ‘ शिक्षार्थमेक: पुरुष: पुराण:’ अर्थात प्रधान पुरुष या आदि पुरुष हैं।
गोविन्दमादिपुरूषं तमहं भजामि .. उन्होंने संन्यास लिया और वे हमें वैराग्य विद्या भी सिखा रहे हैं। हरि! हरि! उनके साथ सगे संबंधी हैं अर्थात जिनके साथ वे रहते थे, वे अब उनके साथ नहीं रहेंगे।
वे उनको वैराग्य सिखाएंगे या उनको वैराग्य का प्रदर्शन करना ही होगा व करना चाहते हैं। हरि! हरि!
जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने शांतिपुर से प्रस्थान किया तब केवल 4 लोग या भक्त थे और उसमें से एक भगवान स्वयं ही थे। उनके साथ बलराम भगवान जा रहे हैं। उन्होंने उनको जाने दिया। ठीक है।
दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया। और साथ में मुकुंद दत्त जा रहे हैं। जो कि चैतन्य महाप्रभु की लीला में प्रसिद्ध गायक रहे। वह गायन किया करते थे एवं जगदानंद पंडित भी साथ में जा रहे हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान कर रहे थे। इस प्रस्थान के पीछे व संन्यास ग्रहण करने के पीछे का उद्देश्य वैसे हरे कृष्ण महामंत्र का प्रचार है।
श्री राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार।। ( जय जय जगन्नाथ- वैष्णव गीत)
वैसे यही समय है अर्थात इसी समय से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की मध्य लीला भी प्रारंभ हुई। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने इसे आदि लीला भी कहा है। अब निमाई के संन्यास के साथ मध्य लीला प्रारंभ हो रही है। अगले 6 वर्षों तक श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भ्रमण करेंगे। उनका सर्वत्र भ्रमण होगा। पहले दक्षिण भारत की यात्रा होगी। फिर वे जगन्नाथपुरी लौटेंगे। क्योंकि शची माता ने कहा था, ‘बेटा! तुम जगन्नाथ पुरी में रहो।’ उनको रहना तो था लेकिन उनकी ड्यूटी भी हैं। क्या ड्यूटी है?
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ( श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
मैं धर्म स्थापना के हेतु प्रकट होता हूं और मुझे धर्म संस्थापन की सेवा अथवा कर्तव्य को भी निभाना है। श्री कृष्ण चैतन्य गौर भगवान की जय!
जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में गए, वहां वे केवल दो मास ही रहे। उन्होंने वहाँ कृष्णभावना की स्थापना की। वहां भी उन्होंने हरि नाम संकीर्तन किया।
कलि- कालेर धर्म- कृष्ण- नाम- संकीर्तन।
कृष्ण- शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन।। ( श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक ७.११)
अनुवाद: कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
उन्होंने संकीर्तन धर्म की स्थापना की। एक दिन उन्होंने जगन्नाथ पुरी के मुखिया या एक दृष्टि से सार्वभौम भट्टाचार्य को ही भक्त बनाया। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनके घर में ही व्यक्तिगत रूप से पहुंच गए और कुछ समय उनके घर में ही रहे। उनके घर में ही क्यों रहने लगे और अन्य जगह पर क्यों नहीं रहे? इस विषय में बाद में और विस्तार से कहना होगा। अभी हमें पढ़ना भी तो होगा ना। हर बात सुनोगे ही । वैसे हर बात को सुनना ही है। उसको सुनो। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज को सुनो। उन्होंने अपने हृदय प्रांगण में जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला, नाम, रूप, गुण, लीला के विचार व भाव उदित हुए थे, उन विचारों से चैतन्य चरितामृत रचना की। उनको सुनो। कृष्ण दास कविराज को सुनो। कैसे सुनोगे? चैतन्य चरितामृत को पढ़ना होगा, उनको आप सुनोगे । साथ ही साथ आप श्रील प्रभुपाद को भी सुनो। श्रील प्रभुपाद ने इस ग्रंथ चैतन्य चरितामृत जो बांग्ला भाषा में है, उसकी अंग्रेजी भाषा में रचना की फिर उसका अंग्रेजी से हिंदी में तथा संसार भर की असंख्य भाषाओं में अनुवाद हुआ और हो रहा है। जब हम चैतन्य चरितामृत पढ़ते हैं तो हम श्रील प्रभुपाद को भी सुनते हैं। हम बाद में विस्तार से इस लीला का श्रवण करेंगे।
यदि कोई कथा सुन रहे हैं उसको सुनना भी श्रवण है अथवा हमनें यदि किसी ग्रंथ का अध्ययन किया तो वह भी श्रवण ही है। अभी अभी सुना अभी अभी कहा। हम कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज को सुनते हैं। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने कीर्तन किया है। चैतन्य चरितामृत कीर्तन से भरा पड़ा है। किस ने कीर्तन किया? कृष्ण दास कविराज गोस्वामी महाराज ने कीर्तन किया। जब हम पुस्तकों को खोलते हैं, पढ़ते हैं तो हम श्रवण करते हैं। पढ़ना अथवा अध्ययन करना मतलब श्रवण करना ही है। हरि! हरि!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को भक्त बनाया व अपने निज सानिध्य का लाभ दिया और उनके कई प्रश्नों के उत्तर भी दिए। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनकी कई सारी शंकाओं का समाधान भी किया। सार्वभौम भट्टाचार्य ने जो बातें श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से सुनी, उस ज्ञान का विज्ञान भी हुआ। एक दिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको दर्शन दिया। चैतन्य महाप्रभु का दर्शन भगवान का दर्शन ही है। वह भगवान ही हैं। गौरंगा! गौरंगा! किंतु एक दिन चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को षड्भुज वाला दर्शन दिया। सार्वभौम भट्टाचार्य को शंका थी और वे शुरुआत में इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे थे कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान हैं। जबकि गोपीनाथ आचार्य को साक्षात्कार था। वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की भगवत्ता को पूरी तरह समझ गए थे। वे सार्वभौम भट्टाचार्य के रिश्तेदार भी थे व संगी साथी भी थे एवं वह कुछ समय नवद्वीप में भी रहे थे। वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य भी एक समय नवद्वीप में थे। गोपीनाथ आचार्य कहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु या गौरांग स्वयं भगवान हैं लेकिन सार्वभौम भट्टाचार्य शुरुआत में इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे थे। तब एक दिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को एक विशेष व अद्भुत दर्शन दिए। उसे षड्भुज दर्शन कहते हैं।
अजानुलम्बित-भुजौ कनकावदातौ
सङ्कीर्तनैक-पितरौ कमलायताक्षौ।
विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ
वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ। ( चैतन्य भागवत १.१)
अनुवाद:- मैं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान श्री नित्यानंद प्रभु की अराधना करता हूं, जिनकी लंबी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुंचती हैं, जिनकी सुंदर अंग कांति पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है, जिनके लंबाकार नेत्र रक्त वर्ण के कमल पुष्पों के समान हैं। वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, इस युग के धर्मतत्वों के रक्षक, सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान के सर्वदयालु अवतार हैं। उन्होंने भगवान कृष्ण के पवित्र नामों के समूहिक कीर्तन का शुभारंभ किया।
द्विभुज गौरांग अर्थात दो भुजा वाले गौरांग अर्थात अपनी लंबी भुजाओं को कीर्तन के समय ऊपर उठाने वाले वह गौरांग अब षट्भुज बने। दो भुजाएं तो उनके उसी अवतार की ही थी।
जिसे वे कीर्तन में उठाते हैं लेकिन उस रुप में, उन दो भुजाओं में चैतन्य महाप्रभु ने एक हाथ में दंड और दूसरे में कमंडलु धारण किया हुआ था और दूसरी दो भुजाओं में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने मुरली को धारण किया है। मुरली को धारण करने वाली दो भुजाएं श्याम वर्ण की हैं। अन्य दो भुजाओं में जिनका वर्णन हरित या घास की हरियाली का रंग है उस रंग की दो भुजाओं में धनुष और बाण धारण किए हुए थे। धनुष बाण धारण करने वाले हुए, जय श्री राम! मुरली को धारण करने वाले हुए, जय श्री कृष्ण! व दंड व कमंडलु को धारण किए , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको वैसा दर्शन दिया। हरि! हरि! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को केवल दो महीनों में ऐसा साक्षात्कार कराया। अर्थात उनको केवल दो महीने में श्रद्धा से प्रेम तक पहुंचाया।
हरि! हरि!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दक्षिण भारत के लिए प्रस्थान किया और तब वे वहां से जगन्नाथपुरी लौटे। तत्पश्चात वे वृंदावन जाना चाहते थे। ‘लेकिन मैं वृंदावन कैसे जाऊंगा ? वाया बंगाल होते हुए फिर आगे बढूंगा।’ उनका ऐसा प्रयास तो रहा लेकिन वे सफल नहीं हुए। वे सफल इसलिए नहीं हुए क्योंकि बंगाल जिसमें नवद्वीप भी है और जैसे ही जब उन भक्तों को पता चला कि चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के लिए प्रस्थान कर रहे हैं तो मानो सारा बंगाल अथवा लाखों करोड़ों की संख्या में लोग चैतन्य महाप्रभु के साथ वृंदावन जाने के लिए तैयार हो गए और पीछे पीछे जाने लगे। चैतन्य महाप्रभु ऐसी भीड़ के साथ वृंदावन में नहीं जाना चाहते थे। वे वृंदावन में अकेले जाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने वृंदावन जाने का विचार छोड़ दिया।
बंगाल और बिहार के बॉर्डर पर कन्हाई नटशाला नाम का स्थान है, वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाने के बजाय जगन्नाथपुरी पुन: वापिस लौटे। उनका वृंदावन जाने का विचार पूरा नहीं हो पाया लेकिन वृन्दावन तो जाना ही था। अतः अब वे पुनः वृंदावन जाने के लिए तैयार हुए। तब उस समय भी जगन्नाथ पुरी के निवासी उनके साथ जाना चाहते थे लेकिन चैतन्य महाप्रभु की शर्त थी, ‘नहीं! मैं अकेला जाऊंगा, मैं अकेला जाऊंगा।’ इसी प्रकार वे दक्षिण भारत की यात्रा में भी अकेले ही जाना चाहते थे किंतु फिर भक्तों ने कहा, ‘नहीं! नहीं! एक तो भक्त को साथ में रखिए ना। आप जब कीर्तन और नृत्य करोगे तो आपके दंड और कमंडलु या जो भी कुछ थोड़ी सामग्री या वस्तुएं आपके साथ हैं, उसको कौन संभालेगा? कोई तो चाहिए। कम से कम एक भक्त को साथ रखिए।
चैतन्य महाप्रभु मान गए और कृष्णदास को दक्षिण भारत की यात्रा में जाने दिया। इसी प्रकार जब वृंदावन जाना चाहते थे तो बलभद्र भट्टाचार्य नामक एक भक्त को साथ में जाने दिया। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन की यात्रा अर्थात ब्रज यात्रा करते थे। चैतन्य महाप्रभु ने ब्रज मंडल परिक्रमा भी की। केवल कृष्ण बलराम मंदिर का दर्शन किया और हो गयी यात्रा, चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा नहीं किया अपितु चैतन्य महाप्रभु ने पूरे पूरे ब्रजमंडल की परिक्रमा की। हरि! हरि! कार्तिक मास आ रहा है चैतन्य महाप्रभु ब्रजमंडल की यात्रा में जिस मार्ग पर चले थे और अभी जो ब्रज मंडल परिक्रमा होती है, उसमें हम उसी मार्ग पर चलते हैं। 500 वर्ष पूर्व नारायण भट्ट गोस्वामी नामक एक आचार्य हुए, उन्हें ब्रजाचार्य भी कहते हैं। उन्होंने इस परिक्रमा मार्ग की पुनः स्थापना की थी। यह ब्रज परिक्रमा नई बात नहीं है। जब से वृंदावन है तबसे वृंदावन की परिक्रमा भी है। किन्तु ब्रजाचार्य ने पुनः स्थापना की। उसी मार्ग पर चैतन्य महाप्रभु भी चले। श्रील सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी उसी मार्ग पर परिक्रमा की।
अब भी उसी मार्ग पर कार्तिक मास में इस्कॉन की ओर से ब्रज मंडल परिक्रमा होती है। इस वर्ष करोना वायरस के कारण व लॉकडाउन होने के कारण फिजिकल रूप से परिक्रमा तो नहीं होने वाली है या तो कुछ दो चार गिने-चुने भक्त ही महाराज के साथ परिक्रमा करने वाले हैं। आपको परिक्रमा करना मना है लेकिन आपके लिए वर्चुअल परिक्रमा या ऑनलाइन परिक्रमा के आयोजन की व्यवस्था हो रही है। आने वाली 30 अक्टूबर से परिक्रमा का अधिवास होगा और 31 से यह ब्रज मंडल परिक्रमा प्रारंभ होगी। आप अपने अपने घरों में आराम से रहो, बैठो या खड़े भी हो सकते हो और वहीं से उस परिक्रमा को देखो, सुनो या परिक्रमा के साथ आगे बढ़ो। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ब्रजमंडल परिक्रमा का आदर्श भी हम सभी के समक्ष रखा है। हम ब्रज की आराधना भी करते हैं जब हम ब्रज की आराधना करते हैं
आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं
रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता।
श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान्
श्री चैतन्य महाप्रभोर्मत तत्रादरो न परः।। ( चैतन्य मंज्जुषा)
अनुवाद:- भगवान व्रजेन्द्रनंदन श्री कृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृंदावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है और प्रेम ही पुरुष पुरुषार्थ है- यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम आदरणीय हैं।
चैतन्य महाप्रभु का जो मत है, उस मत के अनुसार बृजेश तनय नंदननंदन की आराधना है वृंदावन की आराधना है। वृंदावन धाम भी आराध्य है। वृंदावन धाम की आराधना कैसे करेंगे ?ब्रज की परिक्रमा करो। वृंदावन परिक्रमा करो। ऐसी परिक्रमा को पाद सेवनम भी कहा है जो नवधा भक्ति है उसमें एक भक्ति का प्रकार पाद सेवनम है। जब हम परिक्रमा करते हैं तो पादसेवनम नामक भक्ति भी करते हैं। यह आपके लिए परिक्रमा की घोषणा अथवा सूचना है। परिक्रमा को जॉइन करने के लिए आप सभी का स्वागत है। अधिक जानकारी आपको मिलती रहेगी।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पुनः जगन्नाथपुरी लौटे हैं। उन्होंने जगन्नाथपुरी से तीन बार प्रस्थान किया और तीन बार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पुनः जगन्नाथ पुरी लौटे। उन्होंने जगन्नाथ पुरी को बेस बनाया है। बेस बना कर उन्होंने पूरे भारतवर्ष का परिभ्रमण किया है। उसमें 6 वर्ष बीते। उसी समय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ( श्री मद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
या
कलि- कालेर धर्म- कृष्ण- नाम- संकीर्तन।
कृष्ण- शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन।। ( श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक ७.११)
अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है। कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
या
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्तयेव नास्तयेव नास्तयेव गतिरन्यथा।। (बृहन्नारदीय पुराण ३.८.२६)
अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरि नाम हरि नाम और केवल हरि नाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है।
या
कृते यद्धयायते विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्।। ( श्री मद् भागवतम १२.३.५२)
अनुवाद:- सत्य युग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से तथा द्वापर में भगवान के चरण कमलों की सेवा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है।
त्रेता युग में यज्ञ से और कलयुग में हरि कीर्तन से भगवान् की आराधना होती है। यह हरि कीर्तन/ हरि नाम/ जप कीर्तनं ही धर्म है। इस धर्म की स्थापना श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने की। हरि! हरि! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
यहीं विराम देते हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आपका कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है तो आप उसे लिख भी सकते हो या आप कह भी सकते हो।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
23 अक्टूबर 2020,
पंढरपुर धाम.
गौरांंग गौरांंग, महाप्रभु ने जब संन्यास लिया ऐसे ही कुछ याद आ रही है। हरि हरि। चैतन्य महाप्रभु पूनः शांतिपुर में सब भक्तों से मिले। सची माता से भी पनः मिलन हुआ। वैसे चैतन्य महाप्रभु का विचार तो वृंदावन जाने का था। वृंदावन थाम की जय! लेकिन सची माता ने प्रस्ताव रखा, ‘नहीं नहीं वृंदावन तो बहुत दूर है जगन्नाथपुरी में रहो”। तो चैतन्य महाप्रभु तथास्तु मैया वैसा ही हो। आपकी इच्छा ही मेरा वचन है। आपके आदेश का पालन करूंगा। हरि हरि, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। शांतिपुर से जो अद्वैताचार्य का धाम है। ग्राम है जो गंगा के तट पर है। जहां से अद्वैताचार्य श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के लिए प्रार्थना कर रहे है। धर्मस्य ग्लानिर्भवति धर्म की ग्लानि खूब हो रही है। प्रभु आप कहे तो है गीता में, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत और फिर अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् और अधर्म मच जाता है। फैलता है। तब मैं प्रकट होता हूं।
अद्वैताचार्य चैतन्य महाप्रभु के पहले प्रकट हुए थे, कुछ 50 वर्ष पूर्व। तो उन्होंने सारे संसार का, भारत का, यह निष्कर्ष निकला था। यही तो है धर्म की ग्लानि। यही तो है धर्म का उत्थान।
हरि हरि, अधर्म कैसे फैल रहा है। धर्म की हो रही है ग्लानि। धर्म की ग्लानि, धर्म का ह्रास, धर्म हो रहा है कम और ज्यादा हो रहा है अधर्म। अधर्म बढ़ रहा है। अधर्म फैल रहा है। ऐसा अद्वैताचार्य प्रभु देखें कई सारे लक्षण उन्होंने देखे होंगे। अद्वैताचार्य ने देखा की कली को जो स्थान दिया था, राजा परीक्षित ने कि तुम यहां रहो, तुम वहां रहो ,4 स्थान दिए थे।
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः अद्वैताचार्य भी देखें, द्यूत क्रीडा हो रही है सर्वत्र। पानम मद्यपान हो रहा है। और अवैध स्त्री पुरुष संग चल रहा है। वैश्यागमन चल रहा है और मांस भक्षण हो रहा है। मछली भक्षण हो रहा है। बंगाल में तो क्या कहतेे हैं, जलेर फल। भगवान ने भगवदगीता में कहां है, पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति जल से प्राप्त होती है मछली। तो हम भी फल खाते हैं। जल का फल। यह सब हो रहा था।
हरि हरि, वैसे और एक भी स्थान दिया था कली को और वह है काला पैसा। धन का दुरुपयोग, संपत्ति का दुरुपयोग या संपत्ति का अपने उपभोग विलास के लिए इंद्रिय तृप्ति के साधन जुटाने के लिए अर्थव्यवस्था। यह भी हैं कली का स्थान। वैसे यह बहुत बड़ा स्थान है। वहीं पर श्रीमद् भागवत में कली को 4 स्थान देने पर भी प्रसन्ना नहीं हुआ होगा। या फिर कहां होगा धन्यवाद आपने मुझे कुछ तो स्थान दिया। लेकिन और भी कुछ स्थान दीजिए। तो राजा परीक्षित ने कहा था जहां काला धंधाचलता है। काला बाजार चलता है। जहां धन का दुरुपयोग करते हैं। हरि हरि, धर्म अर्थ काम मोक्ष यह पुरुषार्थ है। धर्म के लिए अर्थव्यवस्था, धर्म की स्थापना के लिए अर्थव्यवस्था, धार्मिक बनने के लिए अर्थव्यवस्था, मतलब भगवान के लिए ही अर्थव्यवस्था या भक्त बनने के लिए जो भी साधन आवश्यक है, तो यह पुरुषार्थ हुआ। धर्म पहले धर्म अर्थ भी धर्म के लिए फिर काम धर्म अर्थ काम मोक्ष यह चार पुरुषार्थ है।
धर्म अर्थ काम मोक्ष धर्म और काम के बीच में उस क्रम से यह चार पुरुषार्थो का उल्लेख होता है।अर्थ बीच में है और एक तरफ है काम और दूसरी तरफ है धर्म। पुरुषार्थ क्या है ?अर्थ का उपयोग धर्म के लिए इसमें पुरुषार्थ है। लेकिन कली को जो स्थान दिया अर्थ। अर्थ का उपयोग जब काम के लिए होता है। इंद्रिय तृप्ति के लिए होता है। मनोरंजन के लिए होता है। घर का होम थिएटर बनाने में होता है। फाइव स्टार होटल में जाने के लिए होता है। और वहां जाकर फिर खाओ गाओ नाचो और फिर सारा तमाशा करो या खेलो। तो इसके लिए यह काम का जो साम्राज्य है उसके लिए अर्थ का उपयोग करना मतलब वहां कली का प्रवेश हो गया। कली आ गयाऋ वहां कली का अंडास्थान बन गया। वहां तू यह 5 स्थान दिए। यत्र अधर्म चतुर्विदः भागवत में कहां है वैसे कली को पहले चार ही स्थान दिए थे। तुम जहां अधर्म होता है तो यहां यह चार स्थान और फिर एक पांचवा स्थान जहां धन का सत्यानाश करते हैं।
हरि हरि, तो मैं यह कह रहा था अद्वैताचार्यने देखा कि यह सब हो रहा है। अधर्म फैल रहा है। तो उन्होंने विशेष प्रार्थना की थी भगवान से। वह अद्वैताचार्य गंगा के तट पर प्रार्थना कर रहे थे। गंगाजल और तुलसी दल को अपनी शीला को अर्पित कर रहे थे। भगवान ने उनकी प्रार्थना सुनकर ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए थे और है। तो भगवान क्या कर रहे थे। अधर्म फैला हुआ था। धर्म की हो रही थी ग्लानि और अधर्म फैल रहा था। उसमें सुधार करने के लिए तो ही भगवान आते हैं। भगवान प्रकट होते हैं। यही तो चाह रहे थे अद्वैताचार्य कि, भगवान आकर सुधार करें। और भगवान करते ही है। जब भगवान आते हैं क्या करते हैं? धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे धर्म की स्थापना के लिए मैं प्रकट होता हूं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए और धर्म की स्थापना की उन्होंने प्रारंभ की। वैसे प्रकट होने से पहले ही धर्म की स्थापना का कार्य प्रारंभ हुआ। प्रकट तो होने वाले थे सायंकाल सूर्यास्त के समय चंद्रोदय के समय। लेकिन दिन में ही भगवान कली-काले नाम रूपे कृष्णावतार कृष्णवतार ने जन्म लिया या कृष्णावतार के रूप में भगवान ने जन्म लिया। अवतार लेकर क्या करते हैं? भगवान धर्मसंस्थापनार्थाय।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस रूप में भगवान पूर्णिमा के दिन 14 मार्च 1488 उस दिन में नाम के रूप में प्रकट हुए। और धर्म संस्थापन का काम शुरू हुआ। और फिर सचीगर्भसिंधु सची माता के गर्भ से सची माता के गर्भ को गर्भ सिंधुु कहां है,। तो अजनी उत्पन्न हुए जन्मे। हरि इंदु हरि मतलब कृष्ण, इंदु मतलब चंद्र हरिश्चंद्र। और यहां कौन सेे हरी? चैतन्य हरि चैतन्य चंद्र प्रकट हुए।
हरि हरि, अब 24 वर्ष तो मायापुर में अपनी लीला संपन्न करते हुए उन्होंने धर्म की स्थापना की है हरिनाम धर्म की स्थापना की हैं।
वहां अपने गुरु ईश्वर पुरी से शिक्षित दिक्षित हुए। तो उन्होंने धर्म संस्थापन का कार्य किया। मायापुर में किया। गौर मंडल में किया। लेकिन धर्म संस्थापन का कार्य सारे जगत के कल्याण के लिए होनी चाहिए। केवल मायापुर नवद्वीप में धर्म की स्थापना करके काम नहीं बनेगा। तो फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब संन्यास लेंगे। संन्यास लेकर क्या करेंगे? सारे जगत में धर्म संस्थापन का कार्य और आगे बढ़ाएंगे,। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीराधार भावे एबे गौरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार अब संन्यास लेकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार हरि नाम संकीर्तन का प्रचार करेंगे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु।
हर्रेनाम हर्रेनाम हर्रेनाम केवलम्।
कलो नास्तैव नास्तैव नास्तैव गतीर्न्यथा।।
इसको समझाएंगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सर्वत्र। वही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हम कह रहे थे। संन्यास लेकर पहुंचे हैंं अब शांतिपुर। और यहां पर सची माताने आदेश दिया है। बेटा निमाई उनके लिए तो निमााई ही है वैसेे संन्यास दीक्षा हुई। उनकेेे संन्यास गुरु केशव भारती ने उनको नाम दिया। तुम्हारा नाम होगा यह दंड लेे लो तुम्हारा नाम होगा, श्रीकृष्णचैतन्य। तो संन्यास दीक्षा का नाम श्रीकृष्ण चैतन्य, चैतन्य महाप्रभु का हुआ। वैसे पहले चैतन्य नहीं कहा करते थे। पहले निमाई कहते थे। गौर हरी कहते थे। विश्वंभर कहते थे। लेकिन अब जब दीक्षा हुई तो उनके गुरु ने नाम दिया तुम्हारा नाम श्रीकृष्ण चैतन्य क्या नाम भी है यह, तो श्रीकृष्णा हो ही। यह ध्वनित हो रहा है इस नाम से तुम श्रीकृष्ण हो और तुम्हारा नाम क्या होगा श्रीकृष्ण चैतन्य। लेकिन कैसे श्रीकृष्ण होंगे? चैतन्य सारे संसार भर में चैतन्य को फैलाने वाले। चेतना लाने वाले। संसार जो जड़ हैं जड़ बुद्धि भी है सारा जड़ है। तो इस संसार में जान डालोगे तुम चैतन्य लाओगे। चेतना लाओगे। एक तो होता है जड दूसरा होता है चेतन। मायाबद्ध जो जीव है वह लगभग जड़ बन जाते हैं। स्वयं को शरीर मानते हैं। तो हो गए ना जड़ या सारी उपाधियांं ले बैठे हैंं।श शरीर के संबंध में। मैंं अमेरिकन हूं। मैं भारतीय हूं। मैं इस देश सेे हूं। मैं उस देश से हूं। मैं स्त्री हूं। मैं पुरुष हूं यही सारी बातें। मैं बालक हूं मैं वृृद्ध हूूंं। तो यह सारी शरीर के संबंध में बातें करते हैं हम। तो ऐसे जडबध्द या जड़ जगत में जीवो में चेतना जीवन डालने हेतु इनका नाम भी वैसे ही रखा है। श्रीकृष्ण चैतन्य तुम्हारा नाम होगा।
श्रीकृष्ण चैतन्य तो वे श्रीकृष्ण चैतन्य आप संन्यास लिए हैं। और अपना घर त्याग दिया है। सारे संसार के कल्याण और उद्धार के लिए। और पूरे संसार भर धर्म के स्थापना के लिए प्रचाार हेतु। शांतिपुर से आगे बढ़ेंगे जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान हो रहा है, यहां से उनका जो प्रचार कार्य जो सीमित था। मायापुर नवद्वीप या गौरमंडल से। इसको सारे संसार भर में फैलाने के उद्देश्य से चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान कर रहे हैं भगवान की क्या सेवा है उनका क्या काम है किस कार्य के लिए निकले हैं धर्म संस्थापनार्थाय ऐसेे कहे है ना कि मैं प्रकट होकर क्या करता हूं दैव परित्राणाय साधुनांं करता हूंं और विनाशायच दुष्कृताम् करता हुुंं। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे कृष्ण भावना का प्रचार प्रसार मतलब ही धर्म अंतर्राष्ट्रीय कृष्णाभावनामृत संघ यह कृष्णभावना हित और धर्म है। या कृष्णभावना भावित होना ही धार्मिक है। और इस अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का उद्देश्य भी वही है। जो उद्देश श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पीछे था। या जिस उद्देश्य से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। और फिर जिस उद्देश्य से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु में सन्यास लिया है। वही उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का है। और इस संस्था के संस्थापक आचार्य है, श्रील प्रभुपाद की जय! श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित यहां आंदोलन अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का उद्देश्य। वैसे श्रील प्रभुपाद जब अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ का स्थापना हुई तो 7 उद्देश्य तो लिखे थे। इस्कॉन के सात उद्देश्य उसका भी हम अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा। यही तो है धर्मसंस्थापन या फिर परित्राणाय साधुनांं भी है। भक्तों की रक्षा भी है। सहायता भी है। मदद भी है। चिंता करना और उनके भक्ति में भी मदद करना।
,विनाशायच दुष्कृताम् और जो कोई विघ्न बनते हैं इस भक्ति के मार्ग में उनका विनाश करना। सारे संसार भर में दो ही पार्टियां होती हैं। दैव असुर एवच गीता में भगवान कहे दो प्रकार के लोग होते हैं दैव असुर एवच। एक दैव देवता होते हैं भक्त होते हैं साधु संत होते हैं। साध्वीया होती है। और असुर होते हैं या आसुरी प्रवृत्ति के होते हैं। सुर असुर दो पार्टी, तीसरी पार्टी है ही नहीं सिर्फ दो पार्टी दो पक्ष। तो भगवान ने क्या कहा? परित्राणाय साधुनांं जो साधु है उनकी रक्षा करता हूं। किन से रक्षा करता हूं? असुरों से उनको बचाता हूं। असुरों को दूर रखता हूं। या असुरों का विनाश ही करता हूं। या असुरों के आसुरी प्रवृत्ति का विनाश करता हूं मैं। और ऐसा करके मैं धर्म की स्थापना करता हूं। वैसे कहां जाए तो इस्कॉन के सात उद्देश्य लिखे हैं। लेकिन उसको और थोड़ा मिश्रित करकेे हम कह सकते हैं तीन उद्देश है। परित्राणाय साधुनांं एक उद्देश्य है। और विनाशायच दुष्कृताम् उद्देश है।
दुष्टता का विनाश और हो सकता है। पक्के दुष्ट है संसार भर में। या हो सकता है ऐसे दुष्ट हम भी हो सकते हैं, इस्कॉन को जॉइन तो किए हैं लेकिन कुछ दुष्टता अब भी है हममे, अब भी कुछ आसुरी प्रवृत्ति, जड़ भाव, विचार अब भी है तो उसका भी विनाश करना है। उसको अनर्थ भी कहा जा सकता है इस जड़ प्रवृत्ति को या आसुरी प्रवृत्ति को भोग विलास की प्रवृत्ति को तो उसका भी विनाश करते जाना ऐसी दुष्टता का। और फिर धर्मसंस्थापनार्थाय फिर हो गई धर्म की स्थापना। उसका नाम भागवत धर्म दो या सनातन धर्म दो उसी का एक नाम वर्णाश्रम धर्म भी बन जाता है। वह शाश्वत नहीं होता नाम वर्णाश्रम या फिर नाम दो कलि कालेर धर्म हरिनाम संकीर्तन हरि नाम संकीर्तन ही धर्म है। इस हरि नाम संकीर्तन की स्थापना तो मोटे-मोटे तीन कार्य हुए परित्राणाय साधुनाम एक कार्य एक उद्देश और विनाशाय च दुष्कृताम् दूसरा उद्देश और धर्मसंस्थापनार्थाय धर्म की स्थापना तीसरा उद्देश। भगवान के इस कार्य को हमारे लीडर तो भगवान ही है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं संकीर्तन आंदोलन के पिताश्री पितरो दो है गौरांग और नित्यानंद प्रभु उन्होंने प्रारंभ किया हुआ यह कार्य।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||
अनुवाद – भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
यह कार्य इस कार्य में हमें भी अपना योगदान देना है। आप बोल सकते हो कि यह हमारा फैमिली बिजनेस है, हेड ऑफ द फैमिली भगवान है गौर नित्यानंद है। उनके परिवार का यह फैमिली बिजनेस है परंपरा में। तो यहां फैमिली बिजनेस हमको भी करना है फिर हम ब्रह्मचारी है, गृहस्थ है या वानप्रस्थ है या सन्यासी हैं या फिर ब्राम्हण है, क्षत्रिय है, वैश्य है या शुद्र है किसी भी वर्ण या किसी भी आश्रम के हो सकते है। लेकिन संसिद्धिर्हरितोषणम् हरि को संतुष्ट करना ही हमारे कार्य की सफलता हैं, सिद्धि है, पूर्णता है। इस प्रकार हम सभी के लिए यह जॉब एंप्लॉयमेंट है, बेकार नहीं रहना। जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास आप कृष्ण के दास हो। लेकिन सरकारी सेवक बनके सरकार की सेवा कर रहे हो भगवान की सेवा नहीं कर रहे हो। या सरकार की ज्यादा सेवा कर रहे हो और भगवान की कम कर रहे हैं। हरि हरि। तो याद रखिए आप कौन हो ए जीव कृष्ण दास हम कृष्ण के दास हैं, कृष्ण के सेवक है। फिर हम सेवकों के लिए कौन सी सेवा है.. यह भी अभी हम सुना रहे थे और यह सेवा ही धर्म है। धर्म की यह भी एक परिभाषा हुई सेवा ही धर्म है क्योंकि जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास हम कृष्ण दास हमारा स्वरूप ही है कृष्ण दासत्व कृष्ण दास। दास का धर्म क्या है सेवा करना दास का धर्म है। वैसे हर चीज का धर्म होता है जल का भी धर्म होता है, बिजली का भी धर्म होता है हाथ लगाते ही शौक देना। इस तरह से थोड़े में यह समझना चाहिए कि हमारा धर्म है सेवा कृष्ण की सेवा जिनके हम दास हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
प्रश्न उत्तर सेशन
प्रश्न – कंसनिसूदन प्रभुजी द्वारा
हम लोग जो जप करते हैं वह साधना है या सेवा। हम लोग सिर्फ जप कर रहे हैं और दूसरी कोई सेवा नहीं कर रहे हैं इसका मतलब है हम लोग कुछ भक्तिमय सेवा नहीं कर रहे हैं तो जप करना यह साधना है या सेवा है?
उत्तर – जप करना यह धर्म है और जीव का धर्म है सेवा। हां साधना भी सेवा है साधना भी धर्म है। साधना मतलब क्या है आप जप करते हो नित्यं भागवत सेवया होती है तो वह भी सेवा है ना। श्रवणं कीर्तनं यह नवविधा भक्ती है यह साधना भी हैं सेवा भी है और धर्म भी है और इसी के अलग-अलग नाम है साधना ही सेवा है सेवा ही धर्म है।
प्रश्न – माधवी गोपी माताजी द्वारा
गुरु महाराज हम जैसे पिछले चार-पांच दिनों से गुणों के बारे में चर्चा कर रहे थे, जो भक्ति में सेवा हम करते हैं तभी भी गुणों का प्रयोग होता है। जैसे जप सेवा करते हैं तो सुबह में सत्व गुण ज्यादा प्रभावशाली होता है और अगर कुछ कार्य करना है बाहर जाकर नगर संकीर्तन है या और कुछ कार्य तभी बहुत एक्टिविटी की जरूरत होती है और तभी रजोगुण में कार्य होता है। क्या यह सही समझ है कि हम गुणों का प्रयोग भगवान की सेवा में करते हैं और कुछ अलग समझ है और तमोगुण का भी प्रयोग करते हैं कि हम भगवान के सेवा में?
उत्तर – इसको उत्साह कहते हैं उत्साहात निश्चयात धैर्यात बाहर जाने के लिए हमको उत्साह की आवश्यकता है। और भगवान की सेवा करनी है तो भगवान की सेवा गुणातीत होती है तीन गुणों से परे है। यह नहीं कि हम तीन गुण में रहकर ही सेवा करेंगे
तीन गुणों से परे पहुंचना है। तो प्रातः काल में उसका फायदा उठाना है अच्छा समय है अनुकूल समय है प्रातः काल में। लेकिन दिन में प्रतिकूल समय होते हुए भी हमको गुनातीत बनके ही कीर्तन करना है या प्रचार करना है। यह नहीं कि दिन में रजोगुण है तो हम भी रजोगुणी बनके प्रचार करते हैं। इसलिए तो कहा है भक्ति मतलब शुद्ध भक्ति, भक्ति मतलब गुनातीत भक्ति। सब अवस्था में यह तीन गुणों के साथ हमको लढ़ना है और सत्व गुण से ऊपर पहुंच कर हमें प्रचार करना है या साधना करनी है। तमोगुणी बनकर नहीं रजोगुणी बनकर नहीं या सत्व गुनी बनके हम लोग प्रचार नहीं करते या प्रचार करते भी हैं तो इन तीन गुणों से ऊपर जाकर। लक्ष्य तो यह है कि हमको परमहंस बनना है कहो या तीन गुणों से ऊपर उठना है, परे पहुंचना है हर स्थिति में। उस स्तिथि को जब प्राप्त करेंगे तब हर समय हमारे लिए अनुकूल होगा या उसको अनुकूल बना कर हम लोग सेवा करेंगे या साधना करेंगे। गुणों से प्रभावित होकर नहीं गुणों से परे पहुंचकर अगर बाहर जाना है तो उत्साह की आवश्यकता है वैसे कहां तो है
जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले।
कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥
माया के गोद में कब तक लेटे रहोगे, पड़े रहोगे। कोई तमोगुण में लेटा है, कोई रजो गुण में लेटा है, कोई सत्व गुण में लेटा है। तो हर स्थिति से ऊपर उठना है, हर गुणों के बंधनों को तोड़कर ऊपर उठना है। फिर वह दिन का टाइम है या रात का टाइम है चाहे कोई स्थान है या काल है।
प्रश्न – गिरिराज गोवर्धन प्रभुजी द्वारा
महाराज आपने जो धर्म अर्थ काम मोक्ष के बारे में बताया, अर्थ का जो प्रमाण है धर्म के लिए और प्रपंच के लिए कितना होना चाहिए?
उत्तर – यह समझ है कि 50% धर्म के लिए 25% अपने देखभाल के लिए और 25% भविष्य में आने वाले आपातकालीन के लिए।
प्रश्न – राधाचित्तहरि प्रभुजी द्वारा
अद्वैत आचार्य जी किसके अवतार है?
उत्तर – अद्वैत आचार्य जी महा विष्णु जी के अवतार हैं।
प्रश्न – मोनिका ठाकुर माताजी द्वारा
जो तीन गुण है मैंने भागवतम मैं पढ़ा था कि यह तीन गुणों से ब्रह्मा जी और शिवजी भी बाहर नहीं निकल सकते, तो बहुत कठिन है, सत्व गुण तक तो ठीक है पर विशुद्ध सत्व में कैसे जा सकते हैं तीन गुणों में रहते हुए?
उत्तर – भगवान ने कहा है मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते जो भी मेरे शरण में आएगा तो वह माया से तर जाएगा इन तीन गुणों के परे पहुंच जाएगा। या प्रभुपाद उदाहरण दिया करते थे हम किसी को मिलने जाते हैं तो उसका कुत्ता ही उसके गेट पर हम को रोकता है, भोंकता है। तो अंदर जाना हमको मुश्किल है, कुत्ता मान लो यह माया है कृष्ण के पास जाने नहीं दे रही हैं मित्र से मिलने नहीं दे रही हैं, तो हम क्या करते हैं मित्र से संपर्क करते हैं बेल बजाते हैं या फोन करके बताते हैं हम आए हैं प्लीज आप कुछ करो कुत्ता रास्ते में है। जब मालिक आएगा कुत्ते का मालिक उसी के साथ कुत्ता रास्ते से हट जाएगा आप का रास्ता खुल गया। तो इस तरह यह माया एक प्रकार से कुत्ता है भगवान का तो कृष्ण को पुकारो वही तो कहते हैं मामेव ये प्रपद्यन्ते जो मेरी शरण में आएगा मायामेतां तरन्ति ते फिर माया से तर सकते हैं कोई भी हो ब्रह्मा भी है या शिवजी भी है। वह भी वैष्णव है उनके लिए भी यह नियम है। फिर जीव भी साधारण जीव भी हम भी भगवान की शरण लो। और यही शरण है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इसका ध्यान पूर्वक प्रेम पूर्वक उच्चारण करेंगे तो हम तर जाएंगे 3 गुणों से परे पहुंच जाएंगे भगवद धाम लौटेंगे तैयारी होगी भगवद धाम लौटने की।
प्रश्न – अंतरात्मा माताजी द्वारा
महाराज कल मैंने एक प्रभुपाद जी का प्रवचन सुना उसमें प्रभुपाद कह रहे थे कि चार प्रकार के शत्रु रहते हैं गृहस्थ आश्रम में। उसमें एक बात बोले प्रभुपाद जी ने की स्त्रियां जो रहती है उनमें रजोगुण और तमोगुण का ही प्रभाव रहता है और उनका अगर पति सत्व गुण में है तो उनको मौका है कि वह भगवद धाम जा सकती है। किसी का पति अगर भक्त नहीं है और प्रभुपाद ने यह भी बोला कि स्त्रियों में बुद्धि कम रहती है। तो हम कैसे समझे कि हम भगवद धाम जा सकते हैं और यह तीन गुणों से परे जा सकते हैं?
उत्तर – भगवान को पति बनाइए ना हमारा शाश्वत संबंध भगवान के साथ हैं। वैसे हम सभी स्त्रियां ही हैं पुरुष भी स्त्री है और स्त्री तो स्त्री है ही। लेकिन हमारे पति है भगवान, तो उनको पति बनाओ उनसे प्रभावित होगी उनसे प्रभावित होकर फिर भगवद धाम को प्राप्त करो। वैसे हम जब भक्ति करते हैं तो हम स्त्री नहीं रहते हैं या पुरुष नहीं रहते हैं सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् भक्ति आत्मा करता है भक्ति स्त्री नहीं करती पुरुष नहीं करता। वैसे हमारे स्त्री के अपने गुण हैं पुरुष के अपने गुण हैं पुरुष शरीर के स्त्री शरीर के गुण हैं। फिर वह रज, तमस, सत्व हो सकते हैं कम अधिक मात्रा में। लेकिन हमारा स्वरूप तो आत्मा है, हम अपने स्वरूप में स्थित होकर भक्ति करो साधना करो और फिर पति को थोड़ा दूर रखो। वैसे भी कहां है शादी होती है तो कृष्ण मैरिज पार्टनर बनते हैं, यह नहीं कि पति और पत्नी और तीसरा कोई है ही नहीं। तीसरा नहीं भगवान तो पहले हैं तो भगवान को केंद्र में रखते हुए जीवन व्यतीत करना है। गृहस्थ जीवन में विशेष रुप से कृष्ण केंद्र में होने चाहिए। उनकी भक्ति करो, उनको पुकारो, उनकी सेवा करो, पति की भी सेवा करो और जो जगतपति है सारे संसार के पति उनकी भी सेवा करो।
शशि माता जी द्वारा गुरु महाराज को निवेदन
गुरु महाराज एक बार मैंने आपसे अष्ट प्रहर लीला सुनी है। उस लीला को अगर आप ठीक समझे और कभी आप को मौका मिले तो उस लीला को आप के मुखारविंद से सुनाइए।
हां कभी सुनाएंगे आज तो नहीं सुना पाएंगे बहुत ऊंची लीला है या कार्तिक में कभी सुनाएंगे आपका परिचय करवाएंगे अष्ट कालीन लीलाओ से। अष्ट कालीन लीला जो 24 घंटे है तो उसका विभाजन होता है। 8 काल है उसे अष्टकाल कहते हैं 24 घंटे के आठ विभाग है। भगवान आठ अलग-अलग प्रकार की लीलाएं संपन्न करते हैं खेलते हैं। तो उषाकाल होता है, फिर प्रातकाल, पूर्वान्न होता है, मध्यान होता है, उपरान्न होता है, प्रदोष काल होता है, निशा काल होता है और रात्रि का काल होता है। 8 काल हमने आपको अभी सुनाए हर काल में जो अलग-अलग लीलाए होती हैं ऐसे भी साधक होते हैं जो जैसे कहा था मैंने यह बात बहुत ऊंची है।
लेकिन हां कुछ साधक अपनी साधना करते हैं भगवान की लीलाओ का स्मरण करते हुए। हां इस समय भगवान गोचरण लीला खेल रहे हैं ग्वाल बालकों के साथ है, कृष्ण इस समय भांडीरवन में है तो वहां का वे स्मरण करेंगे। यह मध्यान का समय है कृष्ण अब राधा कुंड पहुंचे होंगे और राधा और गोपियों के साथ उनकी झूलन यात्रा और जल क्रीड़ा इत्यादि क्रीडाए संपन्न हो रही है तो उसका वह स्मरण करता है। और सायंकाल में गोधूलि बेला हुई तो कृष्ण अब लौट रहे हैं घर लौट रहे हैं गोचारण लीला से घर लौट रहे हैं। धुली के बादल उमड़ आ रहे हैं आकाश में, भगवान के करीब अब पहुंच रहे हैं, पहुंच ही गए। यशोदा स्वागत कर रही है गले लगा रही हैं कृष्ण को और फिर स्नान और अभिषेक हो रहा है। अब बिठाकर कृष्ण बलराम को भोजन खिला रही हैं रोहिणी और यशोदा। और अब हां इस तरह से उस काल में जो जो लीलाए हुई होती है प्रतिदिन उस लीला का स्मरण करने का एक प्रकार का वह एक साधन है।
ठीक है हम हमारे इस सत्र को यहीं विराम देंगे।
हरे कृष्ण।
श्रील प्रभुपाद की जय।
लोकनाथ स्वामी महाराज की जय।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
23 October 2020
Kali’s 5th place of residence
Hare Krsna! Devotees from 788 locations are chanting with us. Gauranga! Hari Haribol!
After accepting Sannyāsa, Gaurānga Mahāprabhu met all the devotees and Saći mata at Santipur. Mahāprabhu desired to go to Vrindavan, but His mother Saći devi proposed that He should go to Jagannātha Puri instead, as it is nearby. Mahāprabhu accepted this proposal. Now Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu is heading for Jagannātha Puri from Santipur, the village of Advaita Ācārya on the banks of Ganges where Advaita Ācārya prayed to the Lord to descend as there was a decline in religious practice.
yadā yadā hi dharmasya
glānir bhavati bhārata
abhyutthānam adharmasya
tadātmānaṁ sṛjāmy aham
Translation
Whenever and wherever there is a decline in religious practice, O descendant of Bharata, and a predominant rise of irreligion – at that time I descend Myself. (BG. 4.7)
Mahāprabhu appears to re-establish Dharma (religion). Advaita Ācārya appeared some 50 years before Caitanya Mahāprabhu. He was observing that in so many ways adharma (irreligious practice) had spread due to the decline in religious practice.
abhyarthitas tadā tasmai
sthānāni kalaye dadau
dyūtaṁ pānaṁ striyaḥ sūnā
yatrādharmaś catur-vidhaḥ
Translation
Sūta Gosvāmī said: Mahārāja Parīkṣit, thus being petitioned by the personality of Kali, gave him permission to reside in places where gambling, drinking, prostitution and animal slaughter were performed. (ŚB 1.17.38)
Advaita Ācārya saw that the four regulative principles were not followed by most people.
patraṁ puṣpaṁ phalaṁ toyaṁ
yo me bhaktyā prayacchati
tad ahaṁ bhakty-upahṛtam
aśnāmi prayatātmanaḥ
Translation
If one offers Me with love and devotion a leaf, a flower, a fruit or water, I will accept it. (BG. 9.26)
In Bengal, people eat fish and say that it is the ‘fruit of water'[jal-phal]. Thus, where these four, gambling, drinking, prostitution and animal slaughter are performed, Kali resides there as ordered by Pariksit Maharaja. Also, upon Kali’s request, Pariksit Maharaja let him stay in the 5th place, where black marketing is practiced. When money is used for sense gratification, eating, enjoying, for extra luxurious life then Kali goes there. Dharma (righteousness), Artha (money), Kama (desire) and Moksha (liberation) are the four puruṣārthas. Artha (money) is in between Dharma and Kama. Money should be used for Dharma or to facilitate us to progress in Bhakti and not for Kama (desire). Hence, these are the 5 places where Kali stays.
Advaita Ācārya was intensely praying to Mahāprabhu that He must appear as Dharma was declining and adharma was spreading. He was offering his water from Ganges with a leaf of Tulasi to his Saligram Sila on the banks of the Ganges.
paritrāṇāya sādhūnāṁ
vināśāya ca duṣkṛtām
dharma-saṁsthāpanārthāya
sambhavāmi yuge yuge
Translation
To deliver the pious and to annihilate the miscreants, as well as to reestablish the principles of religion, I Myself appear, millennium after millennium. (BG. 4.8)
Krsna says, “I appear to protect the devotees, to destroy the demons and to reestablish Dharma.” Thus, Mahāprabhu heard and accepted the prayer request of Advaita Ācārya. He started His work of establishing dharma before He appeared. Caitanya Mahāprabhu appeared in the evening, but He appeared in the form of His holy name during the day.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
On the full moon night of 18 February 1486, Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu appeared (ajani) to Saći Devi.
śrī-rādhāyāḥ praṇaya-mahimā kīdṛśo vānayaivā-
svādyo yenādbhuta-madhurimā kīdṛśo vā madīyaḥ
saukhyaṁ cāsyā mad-anubhavataḥ kīdṛśaṁ veti lobhāt
tad-bhāvāḍhyaḥ samajani śacī-garbha-sindhau harīnduḥ
Translation
“Desiring to understand the glory of Rādhārāṇī’s love, the wonderful qualities in Him that She alone relishes through Her love, and the happiness She feels when She realizes the sweetness of His love, the Supreme Lord Hari, richly endowed with Her emotions, appeared from the womb of Śrīmatī Śacīdevī, as the moon appeared from the ocean.”[CC. Adi 4.230]
Ajani means to appear, Hari means Krsna and indu means moon (chandra). Thus, Mahāprabhu or Caitanya Chandra appeared to Saćidevi. He spent 24 years in Mayapur to establish Harināma Dharma. Mahāprabhu grew up gradually, took teaching and initiation from His spiritual master Iśvara Puri. He started preaching Dharma in Navadvīpa, Mayapur through Harināma Sankīrtana. But He wanted to reach out to more people. Therefore, He accepted Sannyāsa from Keshav Bharti.
śri-rādhār bhāve ebe gorā avatāra
hare kṛṣṇa nāma gaura korilā pracāra
Translation
It is He who has come. He has come! Oh, from Vraja He has come to Nadiya. Accepting the mood and luster of Sri Radha, He has come from Vraja to Nadiya. He has come! Now Lord Govinda, the cowherd boy, has come as Lord Gauranga. He has come distributing the Hare Krsna maha-mantra! (Verse 4, Jaya Jaya Jagannatha Sacira, Vasudeva Ghosa)
harer nāma harer nāma
harer nāmaiva kevalam
kalau nāsty eva nāsty eva
nāsty eva gatir anyathā
Translation
In this age of quarrel and hypocrisy, the only means of deliverance is the chanting of the holy names of the Lord. There is no other way. There is no other way. There is no other way. (CC Madhya 6.242)
After accepting Sannyāsa, Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu preached Harināma Sankīrtana. Mahāprabhu got the name Śrī Krsna Caitanya after His Sannyāsa initiation. Before He was not called Caitanya. He was called Nimai, Visvambhar, Gaura Hari, etc. But now, His name was Sri Krsna Caitanya, who will spread consciousness all over the world. ‘Cetan’, means something that has life. From Cetan, the word Caitanya is derived. Everyone is like the dead if they are devoid of Dharma or in illusion that they are this body, American or Indian, male or female. But Mahāprabhu spread this consciousness to everyone by preaching Dharma. He moved to Jagannātha Puri from Santipur after accepting sannyāsa with the motive to spread the Harināma dharma all over the world. Krsna appears to deliver His devotees, destroy the Adharma and reestablish Dharma. Mahāprabhu also appeared with the same motive. Krishna Consciousness means Dharma. ISKCON, the society established by Śrīla Prabhupāda, also has the same motive as Caitanya Mahāprabhu had. Śrīla Prabhupāda wrote 7 main purposes of ISKCON to help the devotees, destroy the obstacles in devotion and reestablish dharma.
dvau bhūta-sargau loke ’smin
daiva āsura eva ca
daivo vistaraśaḥ prokta
āsuraṁ pārtha me śṛṇu
Translation
O son of Pṛthā, in this world there are two kinds of created beings. One is called divine and the other demoniac. I have already explained to you at length the divine qualities. Now hear from Me of the demoniac. (B.G. 16.6)
There are two types of people. One is the saintly people and the other is the people with demoniac propensities. The Lord appears to protect His devotees by destroying the demons or demoniac qualities and reestablishing Dharma. Although there are seven purposes of ISKCON, it can be condensed to three:
1. Delivering the pious people,
2. Destroying the evil (anarth) in people and make them pious.
3. Re-establishing Dharma (Bhagavat, Sanātana or Varnāśrama Dharma).
avatari’ caitanya kaila dharma-pracāraṇa
kali-kāle dharma — kṛṣṇa-nāma-saṅkīrtana
Translation
In this Age of Kali, Śrī Caitanya Mahāprabhu has descended to preach the religion of Kṛṣṇa consciousness. Therefore the chanting of the holy names of Lord Kṛṣṇa is the religious principle for this age. (CC Madhya 11.98)
Harināma Sankīrtana is also a dharma. Therefore, these are the 3 main purposes behind the appearance of the Lord. Gauranga and Nityānanda Prabhu preached Hare Krsna and thus fulfilled these three motives. They are the fathers of this Sankīrtana movement. We also have to contribute to this movement. It’s our family business. Head of the family is Gauranga and Nityānanda. We also have to engage in Sankīrtana.
ataḥ pumbhir dvija-śreṣṭhā
varṇāśrama-vibhāgaśaḥ
svanuṣṭhitasya dharmasya
saṁsiddhir hari-toṣaṇam
Translation
O best among the twice-born, it is therefore concluded that the highest perfection one can achieve by discharging the duties prescribed for one’s own occupation according to caste divisions and orders of life is to please the Personality of Godhead. (ŚB 1.2.13)
Whether one is brahmaćāri, grahasta, vānprastha, sannyāsi, brāhmana, kśatriya, vaiśya or śūdra, the main motive must be to please the Personality of Godhead, Śrī Krsna. That is our success.
jiver svarupa hoye krsner nitya dasa
Translation
The true nature of the soul is that it is the eternal servant of Śrī Krsna.
One should not remain idle. We are servants of Krsna. We should always remain busy in satisfying Krsna, not the government. That is the perfection of life. Always remember that our original identity is that we are eternal servants of Śrī Krsna. We must accept and understand this and therefore, engage ourselves in the services of Śrī Krsna. This is exactly the dharma as we are servants. Rendering services are the dharma of a servant like the dharma of water is to quench the thirst or the dharma of electricity is to give a shock. Therefore, as a servant, it’s our dharma to serve Krsna.
WHO SAID THIS?
There are two front ends for maintaining the videos. First is mobile application and another is fortunatepeople.com website. To continue the service of making videos worldwide, it’s important to make our application and website more powerful. Therefore, it’s a request if there is any IT professional who knows web designing, can access mobile applications, please use your expertise in the service of Mahāprabhu and help us.
Everyone is supposed to make videos of people offering deep daan during Kārtika month. Chanting of mahā-mantra will also be done along with deep daan. This will be a competition again. You can also approach the same people who made Harināma videos earlier. This will help in getting the mercy of Damodara.
Questions & Answers Session
Question 1: Is chanting a sadhana or seva?
Gurudev Uvaca: Chanting is dharma and rendering services (seva) to Krsna and it is also the dharma of living entities. Therefore, sadhana is seva itself. Sadhana means chanting or reading books. It’s also seva.
naṣṭa-prāyeṣv abhadreṣu
nityaṁ bhāgavata-sevayā
bhagavaty uttama-śloke
bhaktir bhavati naiṣṭhikī
Translation
By regular attendance in classes on the Bhāgavatam and by rendering of service to the pure devotee, all that is troublesome to the heart is almost completely destroyed, and loving service unto the Personality of Godhead, who is praised with transcendental songs, is established as an irrevocable fact. (ŚB 1.2.18)
Nine types of bhakti (śravanam, kīrtanam) is also sadhana and seva as well as dharma. Sadhana is seva and seva is dharma.
Question 2 : Do the modes of nature apply to the devotional services performed?
Gurudev Uvaca: Being enthusiastic is a requirement to go outside for sankīrtana. Devotional services to the Lord is of pure goodness. It does not fall under the three modes of nature. Although we must take advantage of early morning hours as it falls under the mode of goodness, but in daytime also, we have to perform our devotional services in pure goodness even though it’s a time of mode of passion. We must not get affected by the mode of passion. Bhakti should be in pure goodness, above all the three the modes of nature. We have to become paramhansa or transcendental. When we perform devotional services in pure goodness, then every time will become favourable.
jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole
kota nidrā jāo māyā-piśācīra kole
Translation
Lord Gauranga is calling, “Wake up, sleeping souls! Wake up, sleeping souls! How long will you sleep in the lap of the witch called Maya? (Verse 1, Jiv Jago Jiv Jago, Arunodaya Kirtana Song 2, Bhaktivinoda Thakura)
Someone is sleeping in the mode of goodness, some in the mode of passion or some in the mode of ignorance. We have to wake up above these modes, whether it’s day time or night time or any place.
Question 3 : How much Artha (money) should be used for Dharma (religion)?
Gurudev Uvaca: 50% of money should be used for Dharma or religious activities, 25% for day to day maintenance and 25% for future emergency.
Question 4: Whose incarnation was Advaita Ācārya?
Gurudev Uvaca: Advaita Ācārya was the incarnation of Maha Visnu.
Question 5: How can we attain the mode of pure goodness and overcome all the three modes of nature?
Gurudev Uvaca:
daivī hy eṣā guṇa-mayī
mama māyā duratyayā
mām eva ye prapadyante
māyām etāṁ taranti te
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG. 7.14)
Lord said, “Those who surrender unto Me can easily overcome the three modes of material nature.” Śrīla Prabhupāda used to explain. When we go to meet someone and find a dog barking on the door, then we call the owner of the dog to keep him aside so that we can easily enter. Similarly, Maya (illusion) is Krsna’s dog. When we call or surrender unto Krsna, we can overcome Maya. Brahma and Shiva are also Vaiśnavas. Thus, the same rule holds for them. Therefore, we must surrender to the Lord and His holy name.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
When we chant attentively, then we can overcome the three modes of material nature and go Back to Godhead.
Question 6 : There is a presence of the mode of passion and ignorance in women and if her husband is a devotee and in the mode of goodness, then there is a chance for her to go Back to Godhead? What if her husband is not a devotee?
Gurudev Uvaca: Make Krsna your husband. We have an eternal relation with the Lord. We all are the soul and the soul is female. It means we all are women. Therefore, make Krsna your husband. Get attracted to Him and go Back to Godhead. We become free from all material designations like men or women when we perform devotional service.
sarvopādhi-vinirmuktaṁ
tat-paratvena nirmalam
hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa-
sevanaṁ bhaktir ucyate
Translation
Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and one’s senses are purified simply by being employed in the service of the Lord. (CC Madhya 19.170)
The soul performs devotional service, not bodies of men or women. There could be more or less presence of the three modes of nature in men or women, but we are eternal souls. Therefore, we must perform devotional service. Keep the husband away. In a marriage, the first person is Krsna and then the wife and husband. Therefore, keep Krsna in the centre and spend grhasta life doing bhakti. Serve your husband as well as the Supreme husband, Śrī Krsna.
Question 7 : Can you explain ‘aśtha kaliya lila’?
Gurudev Uvaca: There are a total of 8 divisions (prahar) in 24 hours. The Lord performs 8 different pastimes in those 8 prahars. Nishanta kāla, Prātah kāla, Purvahna kāla, Madhyan, Aparahna, Sayana kāla, Pradosh kāla, Nisha kāla are the 8 prahar. There are sādhaks who remember the pastimes of the Lord according to the time or kāla. “This time the Lord must be performing Gochāran lila with His cowherd friends or He must be in Bhāndir vana. At Madhyan, Krsna must be with Radha and the gopīs at Radha-kunda playing with swings and in water. In Sayana kāla, Krsna must be heading back home from Gochāran lila. And now He arrives at Nandagram. Mother Yasoda is embracing Krsna. And now they are bathing and then mother Yasoda and Rohini are feeding them.
Hare Krsna! Gaura Premanande Hari Hari bol!!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
22nd October 2020
Where are enemies reside!
Hare Krsna! Devotees from 800 locations are chanting with us. Gaura Premanande Hari Haribol!
jīv jāgo, jīv jāgo, gauracānda bole
kota nidrā jāo māyā-piśācīra kole
Translation
Lord Gauranga is calling, “Wake up, sleeping souls! Wake up, sleeping souls! How long will you sleep in the lap of the witch called Maya? (Verse 1, Jiv Jago Jiv Jago, Arunodaya Kirtana Song 2, Bhaktivinoda Thakura)
yāre dekha, tāre kaha ‘kṛṣṇa’-upadeśa
āmāra ājñāya guru hañā tāra’ ei deśa
Translation
Instruct everyone to follow the orders of Lord Śrī Kṛṣṇa as they are given in the Bhagavad-gītā and Śrīmad-Bhāgavatam. In this way become a spiritual master and try to liberate everyone in this land. (CC Madhya 7.128)
Wake up sleeping soul! Chant and preach about Krsna. We were discussing the three modes of Nature – the mode of goodness, passion and ignorance from Bhagavad-gītā. We need to identify these modes to get relieved from it. You all were saying what you learnt from this and what changes you are going to implement. Arjun is asking Krsna questions. He doesn’t need to ask, but he is asking on behalf of us.
sa evāyaṁ mayā te ’dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ
bhakto ’si me sakhā ceti
rahasyaṁ hy etad uttamam
Translation
That very ancient science of the relationship with the Supreme is today told by Me to you because you are My devotee as well as My friend and can therefore understand the transcendental mystery of this science. (BG. 4.3)
Arjuna is a devotee and friend of Krsna. He is asking questions for us as we can’t even ask questions. By doing this, he is setting the ideal in front of us.
atha kena prayukto ’yaṁ
pāpaṁ carati pūruṣaḥ
anicchann api vārṣṇeya
balād iva niyojitaḥ
Translation
Arjuna said: O descendant of Vṛṣṇi, by what is one impelled to sinful acts, even unwillingly, as if engaged by force? (BG. 3.36)
Arjuna is asking, O Krsna! Many times it so happens that we don’t wish to do something which we know that we shouldn’t do but still we end up doing it as if some external factor is forcing us to do so. What is that external factor? We should ask this kind of question for proper understanding. Either people don’t inquire or they don’t even know about the sins and good deeds. They don’t have the power of discretion. Those who are in Maya (illusion) don’t know that they are in Maya. Once you start reading, listening and associating with devotees, you start developing the proper understanding.
sādhu-saṅga’, ‘sādhu-saṅga’ — sarva-śāstre kaya
lava-mātra sādhu-saṅge sarva-siddhi haya
Translation
The verdict of all revealed scriptures is that by even a moment’s association with a pure devotee, one can attain all success. (CC Madhya 22.54)
Athāto brahma jijñāsā
Translation
In order to get out of the bodily conception, one has to increase attachment to or inquiry about Brahman. (Vedānta Sutra)
We should have the desire to know about Krsna and not useless things.
kāma eṣa krodha eṣa
rajo-guṇa-samudbhavaḥ
mahāśano mahā-pāpmā
viddhy enam iha vairiṇam
Translation
The Supreme Personality of Godhead said: It is lust only, Arjuna, which is born of contact with the material mode of passion and later transformed into wrath, and which is the all-devouring sinful enemy of this world. (BG. 3.37)
Question asked by Arjuna was replied by the Lord. The factors that forcefully make us do some sinful actions are lust and anger. There are four more such factors – greed, pride, attachment and jealousy. These are also called Shada Ripu where shad means six and ripu means enemy. Krsna says, “O Arjuna! You must know (viddhy) that these six are your enemies which impel you to sinful acts, even unwillingly.” You can read these verses from Bhagavad-gītā 3.36 onwards.
indriyāṇi mano buddhir
asyādhiṣṭhānam ucyate
etair vimohayaty eṣa
jñānam āvṛtya dehinam
Translation
The senses, the mind and the intelligence are the sitting places of this lust. Through them lust covers the real knowledge of the living entity and bewilders him. (BG 3.40)
Then Arjuna asked, “Where do these enemies stay?” Earlier we were embracing these six enemies since we didn’t know that these are our enemies. Now that we know them, to overcome these enemies, to get rid of them, we must know where they live. Krsna says, “The senses, the mind and the intelligence are the sitting places of this lust.” The body is a field, and we, the soul, should be the knower of the field. In this field, the enemies stay in 3 places namely the mind, intelligence and the senses. These enemies have made us lusty, angry, greedy, etc. Therefore, it is important to identify and get rid of the enemies. How to identify and get rid of the enemies?
daivī hy eṣā guṇa-mayī
mama māyā duratyayā
mām eva ye prapadyante
māyām etāṁ taranti te
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG. 7.14)
The Maya (illusion) and we, the soul pertains to the Lord. Therefore, the Lord is giving us the solution to get rid of His illusory energy or six enemies.
tasmāt tvam indriyāṇy ādau
niyamya bharatarṣabha
pāpmānaṁ prajahi hy enaṁ
jñāna-vijñāna-nāśanam
Translation
Therefore, O Arjuna, best of the Bhāratas, in the very beginning curb this great symbol of sin [lust] by regulating the senses, and slay this destroyer of knowledge and self-realization. (BG. 3.41)
The Lord says, “We must control our senses in the beginning (ādau).” These enemies enter from the nine gates of senses in the field (body) in which we live.
sarva-karmāṇi manasā
sannyasyāste sukhaṁ vaśī
nava-dvāre pure dehī
naiva kurvan na kārayan
Translation
When the embodied living being controls his nature and mentally renounces all actions, he resides happily in the city of nine gates [the material body], neither working nor causing work to be done. (BG. 5.13)
If we do not stop these enemies right away then they will enter from the senses and reach the mind, the sixth sense and then intelligence, vināsh kāle vipreet buddhi meaning adversity kills intelligence.
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind.(BG.15.7)
Therefore, we need to identify the enemies before it enters through the senses. We must control our senses.
śamo damas tapaḥ śaucaṁ
kṣāntir ārjavam eva ca
jñānaṁ vijñānam āstikyaṁ
brahma-karma svabhāva-jam
Translation
Peacefulness, self-control, austerity, purity, tolerance, honesty, knowledge, wisdom and religiousness – these are the natural qualities by which the brāhmaṇas work. (BG. 18.42)
The sense object like hearing, touch, sight, taste and smell enters through the senses. We must identify the nature of the sense object, whether it is out of goodness, passion or ignorance.
teṣāṁ satata-yuktānāṁ
bhajatāṁ prīti-pūrvakam
dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ
yena mām upayānti te
Translation
To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (BG. 10.10)
We must pray to the Lord to give us intelligence. He is ready to give us the intelligence. Those who sincerely desire to get rid of these 6 enemies, who desire to grow in Krishna consciousness, Krsna gives them the intelligence. The body is being compared to a chariot. We, the souls are riding on a chariot. The senses are the horses, the mind is the reins, the intelligence is the charioteer and the destination of this chariot is Goloka Dhama which can be attained by practicing Krishna consciousness.
īśvaraḥ sarva-bhūtānāṁ
hṛd-deśe ’rjuna tiṣṭhati
bhrāmayan sarva-bhūtāni
yantrārūḍhāni māyayā
Translation
The Supreme Lord is situated in everyone’s heart, O Arjuna, and is directing the wanderings of all living entities, who are seated as on a machine, made of the material energy. (BG. 18.61)
Our six enemies are derived from the three modes of nature. Lust and anger is derived from the mode of passion. The other four enemies are also derived from the mode of passion and ignorance. If we, by practice, elevate ourselves to pure goodness then we get rid of the modes of nature and by this, we can get rid of lust, anger, etc.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
This Hare Krsna mahā-mantra is devotional service which is of pure goodness. We have to reach this stage of pure goodness where the mode of goodness, passion and ignorance have no access. Well, we are discussing what you have learnt from the katha on the three modes of nature in the past 3-4 days.
What and how will you implement these changes?
Hare Krsna!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक 21 अक्टूबर 2020
हरे कृष्ण!
सुप्रभातम!
या तो प्रभात अच्छी है या आप प्रभात में जप करके, राधा कृष्ण का स्मरण करते हुए उसे अच्छी बना रहे हो।हरि! हरि! तीन गुणों की चर्चा चल ही रही है। आज मैं आपसे पहले कुछ कहूंगा, तत्पश्चात यह भी जानना चाहूंगा कि आप क्या समझे हो और भगवान् की त्रिगुणमयी माया को समझ कर आप अपने जीवन में कैसे परिवर्तन करने वाले हो जो आपने पहले नहीं किया हुआ है। जैसे वह कार्य मेरा तमोगुण कार्य था कि मैं जल्दी नहीं उठता था या वह मेरा कार्य रजोगुण ही होता था जब रजोगुणी लोगों के साथ मेरा मिलना जुलना खूब चलता था क्योंकि ऐसा कहा गया है ‘यू आर् नोन बाय द कंपनी यू कीप’ अर्थात आपकी पहचान कैसे बन जाती है? ‘द कंपनी दैट यू कीप’ आप किन के साथ रहते हो या मिलना जुलना होता है या जिनके साथ आप व्यवहार करते हो, उससे भी आपकी पहचान बन जाती है। आप जिनके साथ अधिक समय बिताते हो, बारंबार समय बिताते हो, यदि वे तमोगुणी है तो आप भी तमोगुणी बन जाते हो। जैसा कि मराठी में भी एक कहावत है
ढोलय… गुण लागलाय।
दो बैल अलग अलग रंग के है यदि एक बैल को दूसरे बैल के साथ बांध दिया जाए या रख दिया जाए तो उनके रंग में परिवर्तन नहीं होगा लेकिन एक बैल दूसरे बैल के साथ रहने से उसके गुणों में परिवर्तन हो जाता है। ऐसे ही कई बातें हैं। हो सकता है कि यह कार्य आपका तमोगुणी कार्य होता था अथवा रजोगुणी कार्य अथवा सतोगुण कार्य होता था। हरि! हरि!
यह तीनों प्रकार के गुणों का कार्य भी अच्छा नहीं है लेकिन तमोगुण से रजोगुण अच्छा है, और रजोगुण से सतोगुण अच्छा है, लेकिन शुद्ध सत्व सर्वोपरि है। हो सकता है कि जहां आप रहते थे, वहां गंदगी रहती थी अर्थात आप गंदगी में रहते थे अथवा गंदे घर में रहते थे या गंदे कमरे में रहते थे। गंदा होना किस गुण का लक्षण है? क्या कहोगे? कौन सा गुण है? तमोगुण, रजोगुण अथवा सतोगुण है? यह तमोगुण है। तब आप क्या उसमें सुधार करना चाहोगे ? क्लीन इंडिया! स्वच्छ भारत मतलब सतोगुण। स्वच्छता मतलब सतोगुण। स्वच्छता मतलब सु-अच्छा। यह गुडनेस है। यह सतोगुण है। जैसा कि आप पिछले कुछ दिनों से तीन गुणों की चर्चा सुन रहे थे। तीन गुणों का प्रभाव हर बात पर व हर बात से होता है। जैसे कि पहले ही बता चुके हैं कि खानपान या जिनका सङ्ग करते हैं, उस पर निर्भर करता है कि आप कौनसे गुण के बनने वाले हो? आप किसके साथ रहते हो या किसका सङ्ग करते हो उससे हमारे गुणों में भी परिवर्तन आता है अथवा उससे प्रभावित होते हैं। आप कौन सा लिटरेचर पढ़ते हो? वांग्मय या किताबें भी तमोगुणी या रजोगुणी या सतोगुणी विषय है। आप क्या देखते हो? कोई मूवी देखता है, कोई सिनेमा देखता है। सिनेमा में क्या दृश्य होता है? उसमें कामवासना का दृश्य होता है अर्थात कामी लोग और क्रोधी लोग होते हैं।
“ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते |
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || ”
( श्री मद् भगवतगीता२.६२)
अनुवाद: इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
मुझे गुस्सा खूब आता है, मुझे क्या करना चाहिए? भगवान कहते हैं कामात्क्रोधोऽभिजायते- आप कामी होंगे। आप इतनी सारी कामवासनाओं से भरे पड़े हो और जब उसकी पूर्ति नहीं होती है या कुछ देर से होती है तो आपको क्रोध आता है। कामात्क्रोधोऽभिजायते। इसलिए आपको कामवासना को कम करना चाहिए। एक एक आइटम अथवा इस काम को हटा दो या उस कामवासना को मिटा दो। ऐसा कुछ प्रोग्राम आप बनाना चाहोगे?
यह कामवासना कहां से आती है। आप रजोगुणी हो क्योंकि
“श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||
( श्रीमद् भगवतगीता 3.37)
अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
यदि आप रजोगुणी हो तो रजोगुण से क्रोध उत्पन्न होता है। काम का कारण क्रोध है। रजोगुण से कैसे मुक्त हो सकते हैं? इस पर विचार करना होगा। हरि! हरि! हमें कुछ ऐसा परिवर्तन करना होगा। हम दिन भर रजोगुण बढ़ाते रहते हैं या पहले के जीवन अथवा पूर्व जन्म में या पिछले पचास वर्षों से हम अलग-अलग गुण वाले बन रहे हैं। अलग-अलग संस्कार या सब अलग-अलग खानपान। ऐसे हम फिर तमोगुणी या रजोगुणी बनेंगे। जैसे हम खाना भी खाते हैं, यदि हमनें तमोगुण भोजन अथवा अभक्ष्य-भक्षण किया तो हम तमोगुण बन जाएंगे। हम तमोगुणी थे और हम तमोगुण ही भोजन भी खा रहे हैं और अधिक तमोगुणी बन रहे हैं। यदि हमनें थोड़ा ज्यादा खा लिया तो हम अधिक तमोगुणी बन जाएंगे। यदि हम अधिक खाते हैं तब हमें अधिक नींद आ जाती है। यदि हम अधिक सोते हैं तो हम और अधिक तमोगुणी बन जाते हैं। अधिक सोओगे तब और अधिक तमोगुणी बन जाओगे। यदि हम अधिक खाएंगे तब रजोगुण भी उत्पन्न हो सकता है और होता ही है। सकता है कि बात ही नहीं है। उपदेशमृत में भी कहा गया है
वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं जिह्वावेगमुदरोपस्थवेगम्।
एतान्वेगान्यो विषहेत धीरः सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात् ॥
(उपदेशामृत १)
अनुवाद – वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन की मांगों को, क्रोध की क्रियाओं को तथा जीभ, उदर एवं जननेंद्रियो के वेगों को सहन कर सकता है, वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य है।
उपदेशामृत में समझाया गया है और प्रभुपाद भी तात्पर्य में कहते हैं कि जिव्हा, पेट और जननेद्रियां एक लाइन में हैं। यदि जिव्हा पर नियंत्रण नहीं रखा और खूब खा लिया या भरपेट खा लिया तो उससे रजोगुण उत्पन्न होगा व कामवासना उत्पन्न होगी ही। तत्पश्चात हम कामवासना की तृप्ति के लिए और प्रयासरत होंगे और इस प्रकार हम लैंगिक क्रिया में फंस जाते हैं। यदि हम अधिक खाएंगे या अधिक सोएंगे या रात को भी अधिक खाएंगे, जिससे और कामवासना उत्पन्न होगी, रजोगुण उत्पन्न होगा लेकिन यदि हम रात में सोएं ही नहीं या फिर पूरी नींद नहीं हुई, या फिर ब्रह्म मुहूर्त में उठे ही नहीं या फिर हम उठे हैं और जप भी कर रहे हैं लेकिन हमारी नींद पूरी नहीं हुई है, इसलिए ध्यानपूर्वक जप नहीं हो रहा है अथवा हरि नाम में ध्यान नहीं लग रहा है या झपकी लग रही है अर्थात यह तमोगुण का प्रभाव है। तब आप उठ सकते हो। जब हम उठते हैं तब रजोगुण का प्रभाव होता है, तत्पश्चात हम तमोगुण से रजोगुण तक पहुंच जाते हैं। यह अच्छी बात है कि आपने थोड़ा उद्धार किया। आप तमोगुण में थे या अंधेरा छा रहा था या नींद आ रही थी तो आप उठ जाओ। जब आप थोड़ा उठ कर थोड़ा जग गए , तत्पश्चात उठने से नींद चली जाएगी । फिर पुनः बैठो और जप करो। बैठना मतलब सतोगुण है। उठना मतलब रजोगुण है। लेटना मतलब तमोगुण है। यदि बैठने से नींद आ रही थी तो लेटने के बजाय उठो।
लेटोगे तो तमोगुण है, उठोगे तो रजोगुण है। लेकिन रजोगुण भी ठीक नहीं है इसलिए पुनः बैठो। यह सतोगुण की स्थिति है। सतोगुण में आसन अथवा सुखासन है। फिर कर्म बंधन है। तमोगुण में सबसे अधिक बंधन है, रजोगुण का उससे कम है, सतोगुण का उससे और कम है। जब आप सतोगुण में होते हो तब आप ध्यानपूर्वक जप कर सकते हो। इस तरह से गुणों का अभ्यास अथवा गुणों को समझना है। गुणों का अध्ययन करना है और फिर अध्यापन भी करना है, प्रचार भी करना है जैसे हम आपको कुछ सुना रहे हैं। हमने भी अध्ययन किया। उसे कुछ समझ लिया, कुछ चिंतन किया तत्पश्चात उसका प्रचार कर रहे हैं। आपको भी इसी परंपरा में करना है ।
य़ारे देख, तारे कह कृष्ण उपदेश।
आमार आज्ञाय गुरु हञा तार’ एइ देश।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला ७.१३८)
अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो कि वह भगवतगीता तथा श्रीमद्भगवत में दिए गए भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।
प्रचार से पहले आचार अर्थात आचरण भी करें। आप यह जो तीन गुणों की चर्चा सुन रहे हो,
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् |
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ( श्रीमद भगवद्गीता १४.१ )
अनुवाद: भगवान् ने कहा – अब मैं तुमसे समस्त ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ इस परम ज्ञान को पुनः कहूँगा, जिसे जान लेने पर समस्त मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की है।
भगवान ने कहा कि यह उत्तम ज्ञान है और इस ज्ञान को समझ कर मुनयः या ऋषियः परां सिद्धिमितो गताः अर्थात यह तमोगुण को त्याग कर परम् गता: अर्थात शुद्ध सत्व को प्राप्त किया है अथवा भगवत धाम लौटे हैं। हमारा लक्ष्य भी वही है। हरि! हरि!
वैसे मैं थोड़ा सा कहूंगा, इन तीन गुणों के संबंध में कहने की तो इतनी सारी बातें हैं। इन तीन गुणों के व्यवस्थापक/ संचालक यह तीन देवता हैं या यह तीन भगवान हैं। शिव भी भगवान हैं और ब्रह्मा को भी छोटे-मोटे भगवान कहा जा सकता है लेकिन मूल भगवान तो विष्णु हैं। यह जो अवतार है। इन्हें गुण अवतारी भी कहते हैं। अलग-अलग अवतारों के कई प्रकार हैं। उसमें से एक प्रकार गुण अवतार है जो ब्रह्मा, विष्णु महेश हैं। ब्रह्मा सृष्टि करता है। ऐसी ही उनकी ख्याति है। ब्रह्मा निर्माण का कार्य करते हैं। तत्पश्चात निर्माण के बाद उसके मेंटेनेस (अनुरक्षण) का समय होता है। सृष्टि, स्थिति, प्रलय ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है। ब्रह्मा सृष्टि करते हैं। स्थिति अर्थात उसको बनाए रखना है अथवा उसको मेन्टेन करना है। इस मेंटेनेंस कार्य को विष्णु संभालते हैं। इसे लालन- पालन कहा जाए या संभालना अथवा उसकी देखरेख करना कहा जा सकता है। जो भी निर्माण किया है, उसका मेंटेनेंस, उसका लालन-पालन, उसकी देखरेख रखना होता है। शिवजी तमोगुण को सक्रिय करते हैं या तमोगुण को चलाएमान करते हैं। तमोगुण का परिणाम विनाश होता है। हम वैष्णव कहलाते हैं। हम विष्णु के भक्त हैं। विष्णु सर्वोपरि भी है और हमारी मान्यता से स्वीकृत भी है।
” बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः (श्रीमद भगवद्गीता ७.१९ )
अनुवाद: अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है।
अहम मन्ये..वासुदेवः सर्वमिति
विष्णु ही सर्वोपरि हैं। हम वैष्णव कहलाते हैं तो फिर हमारी ख्याति भी होनी चाहिए। विष्णु का कार्य मेंटेनेंस है। यह गुडनेस अथवा सतोगुण में मेंटेन होता है। लेकिन हम उसको इग्नोर करते हैं या टालते हैं अथवा मेंटेन नहीं करते। अगर हम मेन्टेन नहीं करेंगे तो उसका विनाश ही होगा। हम शिव के अनुयायी….
निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा।
वैष्णवनां यथा शुम्भुः पुराणानामिदं तथा।।
( श्रीमद् भागवतं १२.१३.१६)
अनुवाद:- जिस तरह गंगा समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान शंभू (शिव) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं, उसी तरह श्रीमद्भागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है।
शिवजी, प्रधान अथवा अग्रगण्य वैष्णव शिरोमणि, चूड़ामणि हैं। उस दृष्टि से वह नंबर वन वैष्णव है लेकिन जहां तक गुणों की बात है, गुण अवतार हैं तो वे तमोगुण के संचालक या नियंता हैं। इसलिए तब विनाश ही होता है। उनके अनुयायी विनाश ही करते हैं। वैसे जब ब्रह्मा सृष्टि कर ही रहे थे तब शिवजी भी प्रकट हुए। हरि! हरि! ब्रह्मा से चार कुमार प्रकट हुए। तत्पश्चात ब्रह्मा जी से शिव जी प्रकट हुए। प्रकट होते ही उन्होंने वैसे अपना कार्य अपने गुणों के अनुसार अथवा तमोगुण कार्य करना प्रारंभ कर दिया। शिवजी के कई सारे संगी साथी पार्षद भी उनके साथ विनाश करने लगे। तब ब्रह्मा ने कहा- ‘नहीं! नहीं! अभी नहीं! यह बहुत जल्दी है! विनाश का कार्य तो कल्प के अंत में होता है या महाकल्प के अंत में होता है। अभी तो सृष्टि बनी है। अभी तो प्रारंभ है, विनाश का समय नहीं है। शिवजी विनाश का कार्य करने के लिए तैयार हो रहे थे। लेकिन ब्रह्मा जी ने कहा- रुको! रुको! यह माला ले लो और थोड़ा जप करो। मैं भी करता हूं।
ब्रह्मा बोले चतुर्मुखी कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
महादेव पंचमुखी राम राम हरे हरे।।
शिव जी ध्यान करने लगे। शिवजी संकर्षण की आराधना करते हैं। हरि! हरि! हम वैष्णव हैं । हम विष्णु की आराधना करते है।
आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम्।
तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम्।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला११.३१)
अनुवाद:- “( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा:) हे देवी, यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है, लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है किंतु भगवान्
विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है, उन वैष्णवों की सेवा, जो भगवान् विष्णु से संबंधित हैं।
विष्णु की आराधना परम आराधना है। हमारी ख्याति मेन्टेन्स के लिए होनी चाहिए। मेंटेन करें। हम अपनी साधना को मेंटेन करें या शरीर का भी मेंटेनेंस है। हमारे घर का मेंटेनेंस है जिस घर का प्रयोग हमें भगवान की सेवा में करना है या जो कुछ भी साधन है,
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते
( श्री भगवतगीता ४.२२)
अनुवाद:- जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं।
भगवान् की इच्छा से हमें जो कुछ भी साधन प्राप्त हुए हैं, उनको मेंटेन करना चाहिए, उसके लिए हमें प्रसिद्ध होना चाहिए। टेम्पल मेन्टेन्स, भक्तों की देखभाल , वह मेंटेनेंस, यह मेंटेनेंस.. मेंटेनेंस,मेंटेनेंस चलता ही रहता है। हम विष्णु के भक्त हैं। विष्णु, सत्व गुण अर्थात विशुद्ध सत्व के भी नियंता हैं। हमें भी मेंटेन करना चाहिए। हमें हमारी साधना को मेंटेन करना है। हर चीज को मेंटेन करना है। ऐसी हमारी ख्याति होनी चाहिए। तब हम वैष्णव है नहीं तो हम कैसे वैष्णव है। फिर आप कहोगे कि हम शैव हो गए। फिर हम सब तथाकथित वैष्णव हैं, नाम तो है वैष्णव लेकिन यदि हमारी कथनी और करनी में अंतर है और हम वैष्णव जैसा मेंटेनेंस का करणीय कार्य नहीं कर रहे हैं तब आप शिव जैसा ही विनाश का कार्य कर रहे हो। अब आप कहिए, आप क्या क्या और कैसे-कैसे सुधार करने का सोच रहे हो ताकि आप तमो गुणो, रजोगुण से बच पाओ और अंततोगत्वा सतोगुण से भी बचना है। शुद्ध सत्व को प्राप्त करना है। या वैसी भावना बनानी है। ठीक है। अब आप बोल सकते हो।
हरे कृष्णा! आप क्या करने वाले हैं, आप कैसे प्रोग्रेस करोगे, कैसे सुधार करोगे? या कई प्रकार से आप एडजस्टमेंट करोगे। इस विषय पर केवल बोलिए।
हरे कृष्ण!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
21 October 2020
Upgrade beyond the three modes of nature
Hare Krsna! Welcome you all to the Japa Talk. Devotees from 767 locations are chanting with us right now. All devotees are welcome! Good morning.
Suprabhatam. Suprabhat is good or you want to make it good. We are making the morning good by this process of chanting. The discussion of the 3 modes of nature is already going on.
We will be discussing this topic and how to identify in which mode of nature we are.
During the day you are meeting different people or friends, they may be in the mode of ignorant, passion or goodness. When we associate with them it affects our nature. It is said, “You are known by the company you keep” because you are identified by your company. In Marathi, there is one proverb, “When we put two bulls together in one stand, their colour cannot be changed but there will be a change in their nature of quality.”
We have to understand that passion is better than ignorance and goodness is better than passion and ignorance. We have to come up in the suddha satva.
Maybe you were living in an unclean house or an unclean room. This creates the mode of ignorance. The habit of keeping the surroundings clean is in the mode of goodness. Whose association you are in, the kind of books you read and if you watch movies, there are scenes of lust and anger. If you are lusty, and your desire is not fulfilled then you become angry.
śrī-bhagavān uvāca
kāma eṣa krodha eṣa
rajo-guṇa-samudbhavaḥ
mahāśano mahā-pāpmā
viddhy enam iha vairiṇam
Translation:
The Supreme Personality of Godhead said: It is lust only, Arjuna, which is born of contact with the material mode of passion and later transformed into wrath, and which is the all-devouring sinful enemy of this world. [BG 3.37]
This anger is a by-product of the mode of passion. We must think what should be done to get rid of the mode of passion. If we are 50 years old, it means that for the past 50 years we are constantly changing dominance of these three modes of nature.
If we eat the uneatable, it increases the mode of passion. The mouth, the tongue, the genitals are in one line, so if we eat more, then we become lusty.
vāco vegaṁ manasaḥ krodha-vegaṁ
jihvā-vegam udaropastha-vegam
etān vegān yo viṣaheta dhīraḥ
sarvām apīmāṁ pṛthivīṁ sa śiṣyāt
Translation:
A sober person who can tolerate the urge to speak, the mind’s demands, the actions of anger and the urges of the tongue, belly and genitals is qualified to make disciples all over the world. [NOI Verse 1]
We sleep more, or we are unable to sleep on time, because we are unable to get up on time. If you get up early, but you have not slept properly so you cannot chant attentively.
To sit in one place is mode of goodness
To stand is in mode of passion
To lie down is in the mode of ignorance
All of them have a nature of binding so we must practice being situated in the mode of pure goodness. Krsna says when we get this supreme knowledge of the three modes of nature, we must practice being situated in mode of pure goodness. By this we can go back home back to Godhead.
We have to attentively study the three modes of nature. Then we have a better understanding. After that we have to preach this knowledge also.
yāre dekha, tāre kaha ‘kṛṣṇa’-upadeśa
āmāra ājñāya guru hañā tāra’ ei deśa
Translation:
“Instruct everyone to follow the orders of Lord Śrī Kṛṣṇa as they are given in the Bhagavad-gītā and Śrīmad-Bhāgavatam. In this way become a spiritual master and try to liberate everyone in this land.” [Madhya 7.128]
This knowledge of the three modes of nature is supreme wisdom. And earlier also, many munis attained supreme perfection. We have to leave ignorance and lift ourselves up to suddh satva – parāṁ siddhim ito gatāḥ – because it leads us back to Godhead.
The Lords of the three modes of nature are Brahma, Vishnu and Shiva. Lord Brahma is situated in the mode of passion, and he creates (srishti) the material world. Lord Vishnu shows the influence of mode of goodness and takes care of the maintenance (sthiti) of the material world. Lord Shiva shows the influence of the mode of ignorance and takes care of the annihilation (pralayah) of the world.
Lord Shiva is the number one Vaisnava and there is no doubt. He is certainly situated beyond the three modes of nature, but just to fulfil his duties he uses and controls the mode of ignorance. As soon as Lord Shiva appeared from between the brows of Brahma, he started accomplishing his duties of annihilation. Lord Brahma stopped him saying that this was not the time. He handed Lord Shiva a japa mala and asked him to sit and chant till the time comes.
Maintenance is in mode of goodness
brahma bole chatur mukhe krishna krishna hare hare
mahadeva pancha mukhe rama rama hare hare
Translation:
Brahma sings “krishna krishna hare hare” in ecstasy with four mouths & Shiva ecstatically sings “rama rama hare hare” as if with five mouths.
Lord Vishnu is the controller of mode of goodness and pure goodness.
ārādhanānāṁ sarveṣāṁ
viṣṇor ārādhanaṁ param
tasmāt parataraṁ devi
tadīyānāṁ samarcanam
Translation:
“[Lord Śiva told the goddess Durgā:] ‘My dear Devī, although the Vedas recommend worship of demigods, the worship of Lord Viṣṇu is topmost. However, above the worship of Lord Viṣṇu is the rendering of service to Vaiṣṇavas, who are related to Lord Viṣṇu.’ [CC Madhya 11.31]
We are Vaisnavas. That is why we can focus on maintenance and not pay too much attention on annihilation and creation. We have to maintain our sadhana, japa, preaching, prasada etc.
We should also try to engage in maintaining our house, the temples, etc. If we are busy in creating or destroying then we are not pure Vaisnavas. You all may share what you are planning to do to upgrade yourselves to the mode of pure goodness.
Haribol! Thank you so much.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
20 अक्टूबर 2020
गौर निताई! आज हमारे साथ 761 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय!
ॐ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
तो भगवगीता अध्याय 14। प्रकृति के 3 गुण,
श्री भगवान उवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् |
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ||
भगवतगीता १४.१
अनुवाद:- भगवान् ने कहा – अब मैं तुमसे समस्त ज्ञानोंमें सर्वश्रेष्ठ इस परम ज्ञान को पुनः कहूँगा, जिसे जान लेने पर समस्त मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की है |
वहीं टॉपिक है जो पिछले कुछ दिनों से हम समझा रहे है या कह रहे है। प्रकृति के तीन गुण, आपको बताया था ना? इस अध्याय को पढ़िए कहा तो था ना? कहा था! गीता का 14 वा अध्याय। और यह भी कहा था कि केवल 14 अध्याय में ही 3 गुणों की चर्चा नहीं है, और भी अध्यायों में है भगवान ने चर्चा की है। इसलिए भगवान ने क्या? परं भूयः प्रवक्ष्यामी कहा भूयः मतलब पुनः! तो भगवान भी कह रहे है कि, मैं पुनः तुम्हें कहूंगा जो अब मैं कहने जा रहा हूं 14 वे अध्याय में भगवान ने यह नहीं कहा कि,इस 14 वा अध्याय में कह रहा हूं, श्रील व्यासदेव इस प्रकार की रचना किए है! हरि हरि। कृष्ण का सवांद जब चल रहा था तो भगवान ने नहीं कहा कि, थिक है छठवां अध्याय! या श्री भगवान उवाच! तो ऐसी रचना श्रील व्यासदेव ने की है। परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् | परं भूयः पुनः मैं समझाऊंगा, प्रकृति के तीन गुणों की चर्चा में पुनः करूंगा ऐसा भगवान कह रहे है। और इसीलिए हम भी पुनः पुनः इन तीन गुणों की चर्चा पिछले कुछ दिनों से कर रहे है। आगे क्या कहें ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् | अब मैं जो कहूंगा हे अर्जुन तुमसे यह ज्ञान की बात है! वैसे तुम हो अज्ञानी और हम सब भी अज्ञानी है, लेकिन तुमको मैं जो कुछ भी कहूंगा परं भूयः प्रवक्ष्यामि क्या कहूंगा? ज्ञान की बात कहूंगा! और यह ज्ञान कैसा है? ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् उत्तम ज्ञान में तुमको कहूंगा! साधारण ज्ञान नहीं, उत्तम! उत्तम ज्ञान मैं कहूंगा। तो यह तीन गुणों के संबंधित जो ज्ञान है उसको भगवान उत्तम ज्ञान कह रहे है। वैसे अन्य स्थानों पर भगवान कहे है, राजविद्या, राजगुह्यम और उत्तमम! मैं तुम्हें कुछ गोपनीय बात कहूंगा, यह भगवतगीता तो ज्ञान का राजा है! और यह उत्तम ज्ञान है। तो 3 गुणों के संबंधित जो ज्ञान है उसे भगवान उत्तम ज्ञान कहे है। उत् मतलब ऊपर और तम मतलब अज्ञान या अंधेरा होता है। तो उत्तम ज्ञान मतलब तम से परे वाला ज्ञान! तुम तो अभी तम या तमोगुण में मग्न हो, तल्लीन हो, बद्ध हो तमोगुण से! हरी हरी। तो उस तम से परे वाला यह ज्ञान है। और तमोगुण तो होता ही है, लेकिन रजोगुण में भी कुछ तमगुण का मिश्रण होता ही है। और हम सत्वगुणी बने तो भी उसमें कुछ तमोगुण की मात्रा होती ही है। हरी हरी। इसीलिए वैसे श्रीमद्भागवत को अमल पुराण कहा गया है। में विषयांतर नहीं कर रहा हूं। अमल मतलब मल रहित। जिसमें कोन सा मल नहीं है? इस श्रीमद्भागवत में तम, या रज, या सत्व गुण का मल नहीं है। यह अमल पुराण है! यह शुद्ध सत्व की चर्चा करता है। ग्रंथराज श्रीमद् भागवत। वैसे अन्य पुराण है उनका भी उल्लेख हुआ है। यह 6 पुराण है, यह पुराण तमगुनी है, या रजगुणी के उद्धार के लिए है। मतलब उन पुराणों में भी सत्वगुण, रजगुण और तमगुण का मल है। तो जो भगवान यहां पर कह रहे है ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् मतलब जो ज्ञान में तुम्हें कह रहा हूं, यह तुम्हें रजोगुण तमोगुण और सत्वगुण से परे पहुंचा देगा। मतलब इस प्रकृति के 3 गुणों का तुम्हें ज्ञान होगा और उसके अनुसार तुम कार्य करोगे। और फिर लक्ष्य तो है गुनातीत होना! इन गुणों से परे पहुंचना! इस उद्देश्य से तो बता जा रहा है कि तुम बद्ध हो, है जीव या अर्जुन तुम बद्ध हो! यह रजगुण, तमगुण और सत्वगुण का बंधन है। या तुम्हारी जीवन शैली तमगुनी है। तो इस संसार में कुछ लोग लोग जीवनशैली जीते है वह तमगुनी होती है या रजगुनी होती है। या कोई सत्वगुणी जीवनशैली जीते है। जैसे हम चर्चा कर रहे है, मिश्रण भी होता है! एक गुण दूसरे के साथ इतनी मात्रा में मिल गया तो इन तीन गुणों से फिर कई गुण बन जाते है। और इसे अलग गुणों से लोग अलग-अलग जीवन शैली जीते है। देशी या विदेशी जीवनशैली, या शहरों की या गांव की जीवनशैली, ऋषि मुनियों की या वन में रहते हैं उनकी जीवनशैली और फिर शहरों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली जो एक दूसरों से प्रतियोगिता करते रहते है रजगुणी बनके तो इसी कई जीवनशैली संसार में है। क्योंकि वह अलग अलग गुणों से प्रभावित है, या फिर 3 गुणों के अलग-अलग मिश्रण से उनसे यह गुण बने है। लेकिन लक्ष्य तो गुनातीत पहुंचना है! अब जब मैं जीवनशैली की बात कर रहा हूं, तो जीवनशैली सरल होनी चाहिए। और जब मैं अमेरिका में था तो एक कोई संगठन है जिसमें कुछ लोग इकट्ठे होकर एक प्रकार के जीवनशैली का प्रचार प्रसार कर रहे है। तो उसका उन्होंने नाम दिया है और उन्होंने मुझे कहा कि, महाराज या स्वामी जी हम ऐसी जीवनशैली अवलंब कर रहे है, जिसमें जिसका नाम है किस फार्मूला तो मैंने कहा कि मैं एक सन्यासी हो तो यह किस या चुंबन क्या बात है? तो उन्होंने कहा कि, नहीं नहीं! उस किस की बात नहीं! तो मैंने पूछा कि, कौन सी किस की बात है? तो उन्होंने कहा कीप इट सिंपल स्टुपिड है मूर्खो, अपने जीवनशैली को थोड़ा सरल बना दो! तो हम लोग फिर कहते तो रहते है, हमारा भी उद्देश रहता है सिंपल लिविंग एंड हाई थिंकिंग की जीवनशैली कैसी हो? सरल हो, ज्यादा क्लिष्ठा नहीं हो! मतलब सत्व गुनी हो या फिर सत्व गुण का उसमें प्राधान्य हो। और विचार उच्च हो गीता भागवत के विचार हो, जो भगवान के विचार है। तो वैसे विचार उच्च है तो ही हम लोग साधारण जीवन या सरल जीवन से प्रसन्न होंगे। और अगर विचार नीच हे या फिर तमोगुण या रजोगुण से वशीभूत विचार है, या हम सोच रहे है, तो वह जीवन सरल नहीं! वह विचार ही नीच विचार हो गए तो तमोगुण के विचार नीच होते है या नीचतम होते है। और राजगुनी लोगों के विचार नीचतर होते है।और सत्वगुणी लोगों में भी कुछ नीचता होती रहती है थोड़े से नीचे होते है। रजगुनि मतलब अधिक नीच लोग और जो तमगुनी होते हैं उनके विचार नीचे यानी सर्वाधिक नीच होते है। तो ऐसे तमगुणी से रजगुनी होना बेहतर है। इसका मतलब हमने थोड़ी प्रोग्रेस की है। क्योंकि हम बता रहे थे, तमगुनी मतलब तीन डोरियों से हमें बांध दिया है। और रजगुनी मतलब दो डोरियों से बांध दिया है। और सत्वगुणी मतलब एक डोरी से बांध दिया है। जैसे कभी कभी पशुओं को कई डोरियों से बहुत मजबूती से बांधा जाता है, और पशु तो बंधन पसंद नहीं करते वह प्रयास करते है डोरी को तोड़कर कहीं जाने का या खाने का। तो तीन दूरी है तो मुश्किल है डो डोरिया है तो आसान है और एक डोरी ने तो और भी आसान है। तो तमगुण से बेहतर रजगुण और रजगुण से बेहतर सत्वगुण! लेकिन सत्वगुण भी बंधन है। तो अगर हमारे विचार नीच है या फिर विचार ही नहीं है, विचारहीन है और आधुनिक सभ्यता में यही प्रचार है। जस्ट डू इट बस करो! अच्छा लगता है? करो! पहले करो और बाद में सोचो! कई लोग टी शर्ट पहन के घूमते रहते हैं और उसके पीछे लिखा होता है जस्ट डू इट सोचना भी नहीं! अच्छा लगता है? करो! जैसे पतिंगा को ज्वलनशील अग्नि अच्छी लगती है और बहुत तेजी के साथ वह उसकी तरफ दौड़ पड़ता है, और उसी के साथ उसका वहीं पर अंतिम संस्कार हो जाता है, वह जल जाता है। तो इसी प्रकार जस्ट डू इट का परिणाम यही होता है! जैसे पतिंगा बड़ी स्पीड के साथ अग्नि के और दौड़ता है वैसे हम भी जा रहे है। लेकिन इसे कौन समझता है? संसार की जो चमक-दमक है यह सारा सोना नहीं है! जो चमकता है वह सोना नहीं है। हो सकता है अग्नि में भी सोने जैसी चमक होगी लेकिन सोना नहीं है। तो सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग सिंपल लिविंग से ही हाई थिंकिंग होगा तभी सिंपल लिविंग से व्यक्ति प्रसन्न होगा वरना भूल जाओ! तो विचार अगर नीच है और वह चाहेगा हाईलिविंग उच्च जीवनशैली और वैसे थोड़ा-थोड़ा भगवान कहे हैं पहले श्लोक में कहे है, यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः || (भगवतगीता १४.१) यह ज्ञान कैसा है? ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् जो में कहूंगा, उसको सुनो! आप सून रहे हो? और इसको सुनकर किसी का लाभ हुआ है? और इस बात को उत्तम ज्ञान भी कह रहे हो । आप हमको कुछ समझाओ बुझाओ कि यह कैसे उत्तम ध्यान है। तब भगवान कहते हैं ,
श्रीभगवानुवाच |
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् |
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ||
(भगवद् गीता 14.1)
अनुवाद: भगवान् ने कहा – अब मैं तुमसे समस्त ज्ञानोंमें सर्वश्रेष्ठ इस परम ज्ञान को पुनः कहूँगा, जिसे जान लेने पर समस्त मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की है |
यज्ज्ञात्वा मतलब जिस ज्ञान को जानकर , फिर वह सारा भगवत गीता का ज्ञान कहां हो या साथ ही साथ उसके अंतर्गत तिन गुणों का जो ज्ञान है , वैसे यहा तो तीन गुणों का ही उल्लेख है । उसी ज्ञान की ओर उंगली दिखाते हुए या संकेत करते हुए भगवान कह रहे है ,
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे
इस ज्ञान को जानकर समझकर , और केवल समझ कर ही नहीं उस पर अमल करके , क्या हुआ ? मुनयः मुनी , मुनि लोग चिंतनशील होते हैं , आप कहेंगे हम तो मन ही नहीं है ? लेकिन आपको मुनि बनना होगा । आपको , हर साधक को मुनि बनना होगा । मुनी ग्रहस्त भी हो सकते हैं । हरी हरी ।
ऋषी , मुनि या योगी बनने के लिए हिमालय जाने की या गुफा में प्रवेश करने की या बन में रहने की आवश्यकता नहीं है , ऐसे गृहे थाको वने थाको, सदा हरि बले डाको,
बन में रहते हो या घर में रहते हो , क्या करो ? गृहे थाको वने थाको, सदा हरि बले डाको
गृहे थाको वने थाको, सदा हरि बले डाको,
सुखे दुःखे भुल नाको।
वदने हरिनाम कर रे॥1॥
(भक्ती विनोद ठाकूर)
अर्थ
: भगवान गौरांग बहुत ही मधुर स्वर में गाते हैं- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे॥चाहे आप घर में रहे, या वन में रहें, सदा निरन्तर हरि का नाम पुकारें “हरि! हरि!” चाहे आप जीवन की सुखद स्थिति में हों, या आप दुखी हों, हरि के नाम का इस तरह उच्चारण करना मत भूलिए।
हमको मुनि बनना पड़ेगा । भूतकाल में कई सारे मुनियोने , साधकों ने ,भक्तों ने , वैष्णवो ने , शिष्यों ने क्या किया ? इस ज्ञान को समझा यज्ज्ञात्वा फिर क्या हुआ ? सुनिये भगवान क्या कहते है , परामगत: कहां गए ? परामगत: उच्च स्थान को प्राप्त किया , वैकुंठ गए , परामगत: और फिर बीच मे कहते हैे , परम सिद्धि इत: गत: इत: मतलब यहां से , जहां भी वह थे यह मुनिजन या साधक अपनी साधना उन्होंने की , अपने जीवन शैली को वैसे ही बनाया , इन तीन गुणों को समझने के ऊपरांत जो समझ में आया उसी के अनुसार उंहोणे अपनी जीवन शैली को बनाया , वैसे वह जीए और फिर इत: गत: , इत: मतलब यहां से , जहां वे थे इत: यहां से परम गत: वह जहा भी थे , दिल्ली में थे , मायापुर में थे , महापुर में है तो फिर वह पहुच ही गए , पहुचे हुये महात्मा है । लेकिन जो दिल्ली में थे , नागपुर में थे , उदयपुर में थे या बेंगलुर में थे , या जहां-जहां वह थे । इत: परम गत: यहा से इस संसार से ,स्थान की बात है तो स्थान को छोड़कर परम गति को प्राप्त किया , परमधाम को प्राप्त किया , ऐसे भी समझ है और ऐसा मतलब निकाल सकते हैं । इत: मतलब जब तमोगुण में फंसे हुए थे , तमोगुण की परिस्थिती मे जो थे , तमोगुणी थे या वह रजोगुणी थे या वह सत्वगुणी थे । तमोगुणी , रजोगुणी , सत्वगुणी स्थिति या परिस्थिति या मन:स्तिथी , मनःस्थिती से परे परम गत: परे गये मतलब गुनातीत हुए , तीन गुणों से परे पहुंच गए और उस अवस्था का नाम वैसे शुद्ध सत्व हुवा । यह चौथा गुण कहो , वैसे गुणों में गणना नहीं है । तमोगुण , रजोगुण , सत्वगुण से परे है उसे शुद्ध सत्व कहते हैं । जैसे हमने कहा ही है जो सत्व है , सत्वगुण मे भी कुछ मल है वह मल अभी निकाल दिया ।
चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महा-दाबाम्नि-निर्वापणं श्रेयः-कैरव-चन्द्रिका-वितरणं विद्या-वधू-जीवनम् ।
आनन्दाम्बुधि-वर्धनं प्रति-पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म-स्नपन परं विजयते श्री-कृष्ण-सङ्कीर्तनम् ।।
(चैतन्य चरितामृत अंत लिला 20.12 , शिक्षाष्टकम 1)
अनुवाद : “भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो, जो हृदय रूपी दर्पण
को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता
है। यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है, जो समस्त जीवों के लिए सौभाम्य रूपी श्वेत
कमल का वितरण करता है। यह समस्त विद्या का जीवन है। कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर बिस्तार करता है। यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है।
अपने चेतना का मार्जन किया , हमने अपनी चेतना को स्वच्छ किया । अपने अंतकरण को स्वच्छ किया । विचारों का मंथन किया , विचारों का मंथन , मंथन किया और जो भी जो माखन निकाला वह जो माखन शुद्ध सत्वगुण है । जो छाछ से भी अधिक मूल्यवान है । छाछ को पीछे छोड़ा और उसके के ऊपर यह माखन पहुंच गया । माखन का गोला या जब धातु , सोने को तपाते हैं तब उस सोने में अन्य धातुओं का मिश्रण अगर था तो वह सारे धातु या तो जल के राख होगे या फिर अलग होंगे । और फिर आपको शुद्ध सोना जो है वह शुद्ध सोना आपको मिलेगा । हमारे भावना में , हमारे विचारों में , हमारे जीवन शैली में जो तमोगुण का मिश्रण था , जो रजोगुण का मिश्रण था और सत्व गुण का मिश्रण था उसको हमने हटाया ।
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान्कामानह्हते विइ्भुजां ये ।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्ं शुद्धवेच्यस्माइृह्यासौख्यं त्वनन्तम् ॥
(श्रीमद भागवत 5.5.1)
अनुवाद: भगवान् तषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा-है पुत्रो, इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन-रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर-सूकर भी कर लेते हैं। मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का
दिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने को तपस्या में लगाये। ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है, तो उसे शाश्चत जीवन का आनन्द मिलता है, जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है ।
भगवान ऋषभदेव अपने पुत्रों को कह रहे हैं , अपने सौ पुत्रों को संबोधित कर रहे हैं तब उन्होंने कहा , सुनो भरत या भारत आदि पुत्रों , आप तपस्या करो , तपस्या करो , तपो दिव्यं और दिव्य तपस्या करो , तपस्या का जो तप या ताप है या तपस्या की जो अग्नि भी है वह ज्ञान की अग्नि है , तप की जो ज्योति है , तप का जो ताप है इससे क्या होता है ? सत्त्ं शुद्धवेच्यस्माइृह्यासौख्यं इससे शुद्धिकरण होगा । तप की अग्नि , ज्ञान की अग्नि हमारे अंतरण , चेतना में , भावना में विचारों में , जीवन के शैली में जो जो तमोगुण , रजोगुण , सत्व गुण का जो प्रभाव है उस सब को मिटा देगा , मिटा देगी यह तपस्या । हमारी साधना भक्ति यह ,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
यह भी तप है , यह भी यज्ञ है और हमारी जीवन शैली है । यह जीवनशैली गौडिय वैष्णव की है ही , इस्कॉन के अनुयाई है , इसका हम अनुसरण करेंगे । तब ऋषभदेव भगवान ने कहा शुद्धवेच्यस्माइृह्यासौख्यं तुम्हारा शुद्धिकरण होगा । शुद्धवेच्यस्माइृह्यासौख्यं त्वनन्तम् फिर जो आनंद है वह आनंद तुम्हारी प्रतीक्षा में है । इृह्यासौख्यं ब्रह्मा का परब्रह्मा का वह कृष्णानंद तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है । श्रवणानंद या प्रसादानंद , आनंद , भगवान आनंद2 है । आनंद ! नंद के घर क्या भयो ? आनंद भयो । नंद के घर आनंद भयो । कृष्ण ही आनंद है या कृष्ण का दूसरा नाम आनंद है , आनंद मतलब कृष्ण । सच्चिदानंद घन श्री कृष्णा । ब्रह्यासौख्यं त्वनन्तम् अनंत – अनंत सुख को प्राप्त करोगे , तुम तपस्या करोगे या इस संदर्भ में कह सकते हैं इस ज्ञान को हम प्राप्त करेंगे , प्रकृति के इन 3 गुणों का जो का ज्ञान प्राप्त करेगे तो यह ज्ञान ,
श्रीभगवानुवाच |
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् |
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ||
(भगवद् गीता 14.1)
अनुवाद : भगवान् ने कहा – अब मैं तुमसे समस्त ज्ञानोंमें सर्वश्रेष्ठ इस परम ज्ञान को पुनः कहूँगा, जिसे जान लेने पर समस्त मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की है |
ज्ञानमुत्तमम् उत्तम ज्ञान है , यज्ज्ञात्वा इसको जानकर मुनयः मुनी , जो भूतकाल के मुनि या फिर वर्तमान के मुनि भी परां सिद्धिमितो गताः या से , जो जहा जहा है , उनकी मनःस्थिती तमोगुणी थी , रजोगुणी थी या सत्वगुणी थी वहा से ऊपर उठेगी और पुन्हा कृष्णभावना भावीत अवस्था को मन:स्थिति को , विचारों को , जीवन शैली को प्राप्त करेंगे जीवन मुक्त होंगे । भगवत धाम लौटेंगे या भगवत धाम लौटने के लिये वह पात्र बनेंगे । हरि हरि । इसको आप और आगे पढ़िए , यह नही की , हम तो गोडीय वैष्णव है , यह तिन गुणों हमको थोडी1 पढना है हम तो रासलीला पढेगे , हम मधुर लीला का श्रवण करेंगे ।यह इन 3 गुणों की चर्चा , 3 गूण क्या होते हैं , नहीं ! नहीं ! यह फिर गलत धारणा हुई , यह ज्ञान की नींव है , इसके बिना हम आगे बढ़ नहीं पाएंगे । पहेली बात पहले यह एक सिद्धांत है , पहेली बात पहले , दूसरी बात बाद में जीवन का लक्ष्य क्या है ? इस को ध्यान में रखते हुए कुछ कदम उठाना पड़ेगा । यह प्रारंभिक कदम है और यह हमारा सब समय साथ देंगे । यह नहीं कि हम पीएचडी करना चाहते हैं तो फिर हम इस एबीसीडी को कोई महत्व नहीं देंगे । यह ऐसा होता है क्या ? नहीं , मैं पीएचडी करने जा रहा हूं तो मेरा ए बी सि डी से कोई संबंध नहीं है ,मुझे एबीसी की कोई परवाह नहीं है , मैं पीएचडी करने वाला हूं । ऐसा थोड़ी होता है , (हसते हुये) एबीसीडी साथ में रहेगी । एबीसीडी के बिना तुम आगे नहीं बढ़ सकते , एबीसीडी आपके हमेशा साथ रहेगी । श्रील प्रभुपाद कहा करते थे , भगवद गीता का ज्ञान यह प्रारंभिक है , प्रारंभिक ज्ञान है ,लेकिन यह ज्ञान काम आएगा , अनिवार्य रहेगा आध्यात्मिक जीवन की हर स्तरपर , हर श्रेणीपर यह ज्ञान होगा । ठीक है ।
आपको कोई प्रश्न है ? या तो आप यहां लिखो या फिर कहो , क्या प्रश्न है ?
पद्मावली आप इधर हो ?
पद्मावली प्रभुजी : हाँ , गुरुमहाराज , शंभू नाथ प्रभु आपका कोई प्रश्न है आज की जप चर्चा के लिये ?
गोवर्धन प्रभुजी दिल्ली से ,
प्रश्न: जब हम सुबह के कार्यक्रम करते हैं , जप करते हैं , प्रवचन करते हैं , सुबह के कार्यक्रम बिलकुल सत्वगुण मे होते हैं लेकिन जब हम जब हमारी जॉब पर जाते हैं , काम पर जाते है वहां लगता है कि रजोगुण का प्रभाव बढ़ रहा है , तो उसके लिए क्या करना चाहिए कि हम वहां पर भी सत्वगुण में रहे ?
उत्तर : सुबह थोड़ा बैटरी को चार्ज करो , अधिक चार्ज करो बैटरी ताकि वह चार्ज दिन भर बना रहे । चार्ज थोड़ा कम किया सुबह में तो फिर फिन के मध्य मे डिस्चार्ज हो जाएगा । हरि हरि । उस समय भी आप याद रखो कि दिन में भी कैसे सत्वगुण मे रहना है या कैसे सत्वगुणी रहना है या गुनातीत रहना है , आप किस को मिलते हो , या क्या पढ़ते हो , क्या खाते हो यह सब से ही हमारा पूरा जीवन प्रभावित होता है । प्रातः काल की स्थिती को और जीवनशैली को थोड़ा बनाए रखो और यह अभ्यास की बात है । हरि हरि । जब कहीं महामारी होती है तब वहा जाने वाले जो डॉक्टर या और जो लोग वहा सहायता के लिये जाना चाहते हैं या और किसी कारण के लिए तो इनॉग्लेशन करके जाते हैं , एक इंजेक्शन लेकर जाते हैं फिर वहां जाने से वहां के जो किटाणू है , जीव जंतु है , जो भी मलेरिया है यह है, वह है उससे वह व्यक्ति प्रभावित नहीं होता । वहां जाने पर भी वहां के परिस्थिती से वह प्रभावित नहीं होता है , रोगग्रस्त नहीं होता , हरे कृष्ण महामंत्र का जो सुबह का जप है , श्रवण कीर्तन है या फिर तीन गुणो अध्ययन भी कर लिया , अध्याय भी पढ़ लिया तो यह सब तैयारी करके हम जब जायेंगे तो फिर वह इनॉग्लेशन करने जैसी बात है । इनॉग्लेशन करके आप गए फिर आप काफी हद तक सुरक्षित रहोगे ।
शंभूनाथ प्रभुजी
प्रश्न : जिस प्रकार से प्रकृति के द्वारा सुबह के समय सत्वगुण का प्राधान्य रहता है फिर दोपहर को रजोगुण का रहता है फिर शाम के समय तमोगुण का रहता है तो यह प्रकृति के द्वारा इस प्रकार से क्यों व्यवस्था कि गई है ? और क्योंकि , दोपहर के समय भी रजोगुण का प्रभाव होता है तो हमारे विचार भी जाते हैं ?
उत्तर : हम जब जप करते है , जप करने के लिए तो हमको वैसे कोई नियम नहीं है ऐसे भगवान ने व्यवस्था की हुई है । हम अगर परमहंस है , हम गुनातीत ही पहुंचे हैं तो उनके लिए कोई नियम नहीं है , यह आपका दिन का रजोगुण उनपर प्रभाव नही डालेगा या उनके ऊपर रात्रि को तमोगुण का प्रभाव नहीं होगा जो भक्ति कर रहे हैं या जो जप कर रहे हैं , इस प्रकार हम तीनों कालों को या प्रातकाल कहो या दिन का काल कहो या रात्री का काल कहो हम उस काल का जो गुण है उसके अतीत पहुंच सकते हैं , इसलिए कहा है कीर्तनीय सदा हरी करो ताकि दिन में रजोगुण का प्रभाव नहीं होगा और रात्रि में तमोगुण का प्रभाव नहीं होगा । श्रीलं प्रभूपाद ने हमको कहा था कि , दिन के चौबीस तास भगवान की सेवा में , भगवान की ध्यान में लगे रहो । भगवान ने ऐसी व्यवस्था तो की है , प्रातःकाल मे सत्वगुण का प्राधान्य है लेकिन हमतो उस समय भी हम लेटे रहते हैं , उसका फायदा उठाणा चाहीये । हरी हरी । तब ही हम गुणों से अतीत पहुंच जाएंगे रहेंगे , सब अवस्था में सब त्रिकालो में इसी तरह , और भक्तों का संग करना चाहीये । प्रभूपाद हमको दिन में प्रचार के लिए भेजते थे तब प्रभूपाद का यह सुझाव रहाता था कि आप अकेले मत जाना , आप संघ बनाकर जाना , जब लाइफ मेंबरशिप बनाने जाना है तो साथ मे भक्तों को रखते है ताकी दोनो मिलकर फिर उस दिन के रजोगुण से लढो , रजोगुण लोगों के साथ जो वार्तालाभ है तो दोनों मिलके आप मजबूत बनोगे । ऐसा भी आप कर सकते हो , दिन में फिर रात में भक्तों का संग कर सकते हो , भक्तों के साथ बात करो कि अब ऐसा हो रहा है , वैसा हो रहा है तो अब मुझे क्या करना होगा या फिर माला निकालो और जप करो , प्रार्थना करो भगवान से या ग्रंथ साथ में रखो और खोल कर देखो कि अब क्या करना चाहिए ? यह तमोगुण का यहां खेल चल रहा है । हरि हरि । जैसे हमने कहा कि तीन गुणों का प्रभाव सारी सृष्टि पर है । इसी से सतयुग मिश्रित है , इसी से कलयुग या फिर इसी से कौन से कौन से युग है ? द्वापारयुग भी है । वैसे 24 घंटे का जो कालावधी है उसपर भी तीन गुणों का प्रभाव होता है । प्रातकाल एक ढंग का , रजोगुण वाला दिन है और रात में ऐसा है ,यह काल चक्र सर्वत्र है और सर्वदा है और सारे कार्यकलापों में है तो सावधान रहिये , और तैयारी करो ।
राधानाथ कृष्ण प्रभुजी यवतमाल से ,
प्रश्न: महाराज आपने बोला लेकिन ऐसे बहुत बार होता है कि , हमको पता नहीं चलता कि हम कौन से गुण में हैं , हमारा गुण बदल जाता है जैसे दूसरों को भी हम देखते हैं तो हम उनको समझाना चाहते है कि आपकी ऐसी ऐसी समस्या है लेकिन वह उसको समझते नहीं है , लेकिन वही समस्या हमारे साथ भी होती है तो कैसे समझना कि हमारे अंदर तमोगुण या रजोगुण बढ़ गया है और उसका हल क्या रहेगा ?
उत्तर : हल तो है , हरे कृष्ण , हरे कृष्ण , उसका कोई दूसरा पर्याय ही नहीं है या गीता भागवत का श्रवण ही उसका हल है , संसार के सारे प्रश्नों के उत्तर गीता , भागवत है यह कृष्णा भावना ही सारे प्रश्नों का उत्तर है । बड़े-बड़े प्रश्न कहो या यह जन्म की समस्या है , मृत्यु की समस्या है , बुढ़ापे की समस्या है और बीमारी की समस्या है यह कृष्णा भावना ही उसका उत्तर है । प्रात:काल में आप सो रहे हो मतलब आप कौन से गुण में होंगे ? आप ब्रह्म मुहूर्त में , मंगल आरती में नहीं उठ रहे हो या उठ कर आप जप नहीं कर रहे हो तो आप कौन से गुण में होंगे ? तमोगुण में हो । ऐसा है भागम भाग चल रही है , ईर्ष्या द्वेश चल रहा है , ईर्ष्या द्वेश यह रजोगुण के कारण होता है ।
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||
(भगवद् गीता 3.37)
अनुवाद : श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः वैसे अर्जुन ने पूछा था यह क्या है ? कौन है ? यह कौन स गुण है या अवगुण है कि हम नहीं चाहते फिर भी , भगवद् गीता के तिसरे अध्याय के अंत मे अर्जुन ने प्रश्न पूछा है , जैसे आप प्रश्न पूछ रहे हो तो यह किसके कारण हो रहा है ? इच्छा नही होते हुये भी हम लोग पाप करते हैं । यह किसकी योजना है ? हमने तो नहीं किया लेकिन ऐसा कार्य ऐसा पाप हमसे कोई करवा रहा है , कौन है ? उत्तर में भगवान ने कहा है , काम एष क्रोध एष अर्जुन इसका कारण है काम , तुम्हारी कामवासना और तुम्हारा क्रोध ही कारण है या फिर धीरे कहा जा सकता है कि अन्य जो शत्रु है यह कारण है , यह तुमसे पाप करवाते हैं तो फिर आगे भगवान ने कहा है , काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः और यह काम वासना उत्पन्न कैसे होती है ? रजोगुण से काम उत्पन्न होता है और काम से हम वशीभूत होते हैं और हमारे सब काम धंधे चलते रहते है । मैं अभी काम में हूं , काम में हूं मतलब कामवासना में हूं , काम वासना से लिप्त होकर मे काम कर रहा हूं । प्रेम के लिए समय नहीं है आप तो प्रेम की बात कर रहे हो जप करने की बात प्रेम करने की बात है , मंदिर जाने के बात प्रेम की बात है , भगवत गीता अध्ययन करना प्रेम की बात है , नहीं , नहीं , वह नहीं करूंगा मैं काम में हूं , यह रजोगुण है । तो आप भगवत गीता का 14 वा अध्याय पढ़िए और भी अध्यायो में ऐसे लक्षण बताए हैं , तमोगुण का लक्षण यह है , रजोगुण की यह पहचान है , सत्वगुणी के कार्यकलाप ऐसे होते हैं ऐसा भगवान ने कहा है , फिर आप जो दान देते हो , आपने तो सोचा होगा कि मैं तो इतना बड़ा दानवीर , दानशुर हू , मैंने दान दिया लेकिन आपने जो दान दिया वह तमोगुणी दान था या रजोगुण दान था या सत्वगुणी था इसका ध्यान किसको है ? यह भी समझना होगा ताकि हम ने दिए हुए दान से हम भी लाभान्वित हो । हरी हरी । सब अज्ञान ही है तो भगवान कह रहे हैं यज्ञात्वा इस ज्ञान को सुनो , मैं जो सुना रहे हो ज्ञानानं उत्तमम हम पढ़ते नहीं है , हम सुनते नहीं है सिर्फ प्रश्न पूछते रहती है , पूछेंगे ही क्योंकि हमने पहले पढ़ा नहीं था , पहले सुना नहीं था , तोे पढो , सुनो , समझो और फिर उसके अनुसार अपनी जीवनशैली बनाओ और यथा संभव औरों को भी समझाओ । ठीक है , तो हम यही रुकते हैं ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज की जय।
श्रील प्रभुपाद की जय ।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
20 October 2020
Supreme Wisdom – Attain The Higher Perfection
Hare Krishna! Welcome all to the Japa Talk. Today devotees from 797 locations are chanting with us.
Om namo bhagavate vasudevaya
Translation
“O my Lord, the all-pervading Personality of Godhead, I offer my respectful obeisances unto You.”
oṁ ajñāna-timirāndhasya
jñānāñjana-śalākayā
cakṣur unmīlitaṁ yena
tasmai śrī-gurave namaḥ
Translation
I was born in the darkest ignorance, and my spiritual master opened my eyes with the torch of knowledge. I offer my respectful obeisances unto him. When will Śrīla Rūpa Gosvāmī Prabhupāda, who has established within this material world the mission to fulfill the desire of Lord Caitanya, give me shelter under his lotus feet?
We shall continue with the same topic that we have been discussing for the past few days. It’s Chapter 14 of Bhagavad-Gita – The three modes of Nature
śrī-bhagavān uvāca
paraṁ bhūyaḥ pravakṣhyāmi jñānānāṁ jñānam uttamam
yaj jñātvā munayaḥ sarve parāṁ siddhim ito gatāḥ
Translation
The Divine Lord said: I shall once again explain to you the supreme wisdom, the best of all knowledge; by knowing which, all the great saints attained the highest perfection. [BG 14.1]
Krsna has mentioned the three modes of Nature in all the chapters. That’s why He is saying paraṁ bhūyaḥ- supreme again.
Bhagavad-Gita is a conversation between Krsna and Arjuna. Krsna did not speak dividing it into chapters like Chapter 1, Chapter 2, Dharamkshetre, Kurushetre like that. It was later divided by Vyasa Dev. This Bhagavad-Gita is Raja Vidya. It is the king of Knowledge. It is the topmost knowledge, above all ignorance. That’s why in sloka pravakṣhyāmi – I shall explain, jñānānāṁ jñānam uttamam – of all knowledge—the supreme wisdom. We are conditioned by ignorance, but the knowledge is above this ignorance. Even after being in the mode of passion or goodness there is mixed ignorance. But this knowledge is above all (uttamam) U-above, tamam – beyond ignorance or supervision.
We also call the knowledge of Srimad-Bhagvatam as the Amala Purana, the spotless/purest Purana. Out of the 18 Puranas, 6 are in the mode of goodness, 6 in the mode of passion and the remaining 6 in the mode of ignorance. Everything is divided into these 3 modes of Nature. Every person depending on his/her choices and likings is said to have proportional mixture of the three modes of nature. Therefore the main aim of discussing on this topic is to overcome the bondage of these 3 modes of Nature.
To go beyond that. Once I was in America and I was approached and asked to speak on a new style of living that some people had started there…It was called the KISS formula. I said I am a Sannayasi and I have nothing to do with kiss, then they said that KISS means – Keep It Simple Stupid. The thoughts of people in ignorance are the lowest of all. The thoughts of a person in passion are a little better than the lowest and of those in goodness are even better than that. Yet the mode of goodness is also binding. Many people nowadays wear a t-shirt which states Just Do It! Don’t even think. But this is not proper. Just like when a moth keeps going near the flame, but in the end burns its own wings. Krsna clearly says, “I am going to say the topmost of all knowledge.” Arjun asks Krsna to explain further… Whatever Krsna says there is of these three modes of nature.
yaj jñātvā munayaḥ sarve parāṁ siddhim ito gatāḥ
Translation
All the great saints (muni)attained the highest perfection.
The Munis(sages) are thoughtful. You can also be Muni. You need not go to the forest for that. Whether you stay at home or go to the forest, just keep singing the glories of Krsna.
grihe thako, vane thako, sada ‘hari’ bole’ dako,
sukhe duhkhe bhulo na’ko, vadane hari-nam koro re
Translation
Whether you are a householder or a sannyasi, constantly chant “Hari! Hari!” Do not forget this chanting, whether you are in a happy condition or a distressful one. Just fill your lips with the hari-nama. [Gay Gaur Madhur Sware:Sri Nama(from Gitavali]
What happens to such Munis? After death they go back home, back to Godhead. After practicing sadhana properly they go back to from where they have come.
ceto-darpana-marjanam bhava-maha-davagni-nirvapanam
shreyah-kairava-chandrika-vitaranam vidya-vadhu-jivanam
anandambhdhi-vardhanam prati-padam purnamritasvadanam
sarvatma-snapanam param vijayate sri-krsna-sankirtanam
Translation
Glory to the Sri Krsna sankirtana (congregational chanting of the Lord’s holy names), which cleanses the heart of all the dust accumulated for years and extinguishes the fire of conditional life, of repeated birth and death. That sankirtana movement is the prime benediction for humanity at large because it spreads the rays of the benediction moon. It is the life of all transcendental knowledge. It increases the ocean of transcendental bliss, and it enables us to fully taste the nectar for which we are always anxious. [Sri Sri Siksastakam]
But those bound by the three modes of nature don’t go back. Only those beyond these 3 Gunas who are situated in the Suddha Sattva Guna go back. After cleaning our mind and heart, after churning out our thoughts we got the butter, the essence of all knowledge. Just like when you want pure gold you must heat it and separate it.
ṛṣabha uvāca
nāyaṁ deho deha-bhājāṁ nṛloke
kaṣṭān kāmān arhate viḍ-bhujāṁ ye
tapo divyaṁ putrakā yena sattvaṁ
śuddhyed yasmād brahma-saukhyaṁ tv anantam
Translation
Lord Ṛṣabhadeva told His sons: My dear boys, of all the living entities who have accepted material bodies in this world, one who has been awarded this human form should not work hard day and night simply for sense gratification, which is available even for dogs and hogs that eat stool. One should engage in penance and austerity to attain the divine position of devotional service. By such activity, one’s heart is purified, and when one attains this position, he attains eternal, blissful life, which is transcendental to material happiness and which continues forever. [SB 5.5.1]
Lord Rsabha Dev is telling his 100 sons. O dear sons, perform penance, this heat of penance burns everything and then we get purity. We will become pure.Then we become eligible to relish the supreme bliss. Krsna is this supreme bliss. Attaining the knowledge beyond these modes of nature results in eternal bliss. From whatever mode we are influenced we shall be lifted to the platform of Suddha Sattva.
All of you please read this topic in detail. It is not a book for neophytes or for others, One should not think that Bhagavad-Gita is not for me. I will reach only 10 canto – Rasa Lila. This is basic knowledge and it will be useful at every level of our spiritual life.
Thank you very much!
Hare Krsna!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
हरे कृष्ण
जप चर्चा पंढरपुर धाम से
19 अक्टूबर 2020
750 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल
हरी बोल……
सभी स्थानों के भक्त पुंडलिक भी नागपुर से जप कर रहे हैं अभी कथा सुनो जप चर्चा आप सब वैकुंठ में हो आपको बताया तो गया है अब अपने घरों को क्या बना दो मंदिर बना दो केवल दिल एक मंदिर है ही नहीं वह तो है या दिल एक मंदिर है ऐसा क्यों कहते हैं हम क्योंकि हृदय में भगवान रहते हैं इसका कैसे पता चलता है तो भगवान कहते हैं।
*सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः* *स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च* |
*वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो* *वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्*
*भगवद्गीता श्लोक 15.15*
*अनुवाद:-मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |*
*सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः* मैं सबके हॄदय प्रांगण में निवास करता हूं। श्री भगवान उवाच भगवान ने कहा तो इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि भगवान ने हमारे हॄदय को मंदिर बनाया है।
साथ ही घर का भी मंदिर बनाना है और मंदिर मतलब वैकुंठ है या भगवान निवास करते हैं वैकुंठ में भगवान का वास निवास श्रीनिवास जो श्री के निवासी है जो जगन निवास है।
जगत भी जीन में निवास करता है वह है जगन निवास तो वह जगन निवास वैकुंठ में निवास करते हैं और वो….
*आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस् ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः । गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।*
*श्री ब्रम्ह संहिता 37 श्लोक*
*अनुवाद:-अपने धाम गोलोक में अपनी स्वरूप शक्ति , चौंसठ कलायुक्त हलादिनीरूपा श्रीराधा तथा उनके ही शरीर की विस्तार रूपा उनकी सखियों के साथ निवास करते हैं जो कि उनके नित्य आनंदमय चिन्मय रस से स्फूर्त एवं पूरित रहती हैं , उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ ।*
*गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो* गोलोक में निवास करते हैं और उस गोलोक पति को या वैकुंठ वासी को और साथ ही *अयोध्या वासी राम राम दशरथ नंदन राम राम राम* तो फिर उस कोई वैकुंठ पती या वैकुंठ नायक गोरख निवासी अयोध्या वासी पंढरपुर वासी पंढरपुर धाम की जय……..
उनकी स्थापना जब हम अपने घर पर करते हैं उसी के साथ हमारा घर भी बन जाता है वह वैकुंठ बन जाता है।
वैसे यह सब ज्यादा तो नहीं कह रहा हूं लेकिन मैं अभी वैसे ही प्रकृति के 3 गुण उस गुणों के साथ ही हूं इसीलिए कुछ भूमिका बना रहा हूं।
इन तीन गुणों को भलीभांति समझना भी जरूरी है। भगवत गीता में दिए हुए ज्ञान उपदेश का यह तीन गुण एक बहुत बड़ा अंग हैं, इन तीन गुणों को समझे बिना हमारा ज्ञान पूर्ण नहीं होता अधूरा रह जाता है इन तीन गुणों का बहुत संबंध है इस प्रकृति के साथ या वैसे प्रकृति ही है गुना मई गुणों से ही तो बनी है प्रकृति यदि गुणों से प्रकृति को अलग किया जाए वह प्रकृति होंगी और प्राकृत जैसे एक होता हैं प्राकृत और दूसरा अप्राकृत तो यह तीन गुणों की माया है या प्रकृति है तीन गुणों से इसे अलग करेंगे तो वह प्रकृति नहीं रहेंगी भौतिक ही प्रकृति नहीं रहेंगी भौतिक साम्राज्य नहीं रहेगा एक पाद विभूति नहीं रहेगी वो त्रिपाद विभूति होंगी भगवान के दो प्रकार के साम्राज्य है एक यह भौतिक प्रकृति और दूसरा और अप्राकृत साम्राज्य जिसे हम वैकुंठ कहते हैं। या दिव्य लोक कहते हैं। इस प्रकृति में भी या इस प्राकृत में भी अलग-अलग स्थान पाए जाते हैं जो त्रिगुण में से सत्व गुण कुछ स्थान होते हैं।
गॉड मेक द कंट्री अंग्रेजी में कहते हैं भगवान ने निसर्ग बनाई प्रकृति बनाई या गांव बनाएं ग्राम बनाएं जहां निसर्ग का सानिध्य हैं जहां स्वत्व गुण का पूरा प्राधान्य है। या फिर वन भी है, या फिर वन का कुछ अंग यहां सत्व गुण होता है। वहां ऋषि मुनि रहते हैं। और जहां ग्राम हैं जहां सीधे-साधे भोले भाले सत्व गुनी लोग भी रहते हैं, और यह जो शहर है शहरों में है तमोगुण, रजोगुण अधिकतर रजोगुण ही है और फिर जहां झुग्गी झोपड़ी भी हो सकती है या फिर कई लोगों के अमीर भी हो सकते हैं उनका महल भी हो सकता है लेकिन वहां पर गंदा है और इत्यादि, वहां आलस्य निद्रा खूब चलती रहती है जो वह भी तामसिक स्थान है।
तो जो अलग-अलग स्थान है उसमें से कुछ स्थान जैसे हम बता रहे हैं कुछ सत्व गुनी है कुछ रजो गुनी है कुछ तमो गुनी हैं।
किंतु जब हम अपने घर को मंदिर बनाते हैं तो वह स्थान वह आपका घर गुनातीत हो जाता है तीन गुणों से परे वह तमोगुण नहीं है रजोगुण नहीं है सत्व गन का भी नामोनिशान नहीं है तो ऐसे घर को या फिर आश्रम को भी कह सकते हैं गृहस्थाश्रम अधिकतर आप जो श्रोता यहां हो ग्रहस्थ आश्रम ही हो इसीलिए थोड़ा संबोधन ज्यादा होता है गृहस्थ भक्तों के लिए वैसे ब्रह्मचारी भी कोई वानप्रस्थ भी कोई सन्यासी भी सिंह शायद सुनते होंगे लेकिन मेजोरिटी ग्रहस्तो की है। और उन्हें संबोधन पुनः होते ही रहता है। तो घर में रहिए और घर को बनाइये आश्रम या मंदिर बनाइये।
और फिर आप सुनते ही हो कि गृहमेधी नहीं बनना गृहस्थाश्रम बनना है। यदि घर का आश्रम बनाना है या मंदिर बनाना है तो वहां का जो खानपान है या यह संसार तो तीन गुणों की खान है तो यह 3 गुण सर्वत्र है तो हमारा जो खानपान हैं इसके साथ ही 3 गुणों का संबंध है आहार भी इसीलिए आपको पढ़ना चाहिए भगवद गीता पढ़ो भगवत गीता में पूर्ण अध्याय ही है 14 वा अध्याय प्रकृति के 3 गुण और यह भी हमने कहा कि उस अध्याय के अलावा और अध्याय हैं 13 से लेकर 18 तक इन अध्याय में पुनहा पुनहा तीन गुणों का उल्लेख हुआ है इन तीनों गुणों के संबंधित भगवान ने संवाद चर्चा किया है। जहां तक भोजन की बात है भोजन भी तामसिक भोजन होता है राजसिक भोजन होता है और सात्विक भोजन होता हैं।
और वैसे कहा ही है जैसा अन्न वैसा मन जैसा भी आप अन्य खाओगे वैसा ही आपका बनेगा मन और फिर अंग्रेजी भक्त कहते हैं यू आर व्हाट यू ईट आप वैसे ही बनोगे जैसे आप खाओगे।यदि आप तमोगुणी भोजन करोगे या फिर किस भोजन को तमोगुणी कहना है कौन से पदार्थ है रजोगुणी है कौन से पदार्थ सत्व गुनी है।
*पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।*
*तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः।।*
*भगवद्गीता श्लोक 9.26*
*अनुवाद:-*
*यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ*
*पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।* यह सत्व गुण हैं, ये रजोगुणी हैं ये तमोगुणी हैं इसमे मास भक्षण भी है और भी है इसको भी समझना होगा शास्त्र चक्षु से शास्त्र का चश्मा पहन कर तो हमारा मन प्रभावित होता है इन तीन गुणों का प्रवेश होता है। हमारे इंद्रियों के माध्यम से इंद्रिय है जब इंद्रिय इंद्रियों के विषय के संपर्क में आते हैं और यह सारा संसार ही है विषय और भोग विलास की सामग्री जहां है। ए शरीर के साथ इंद्रिया जुड़ी हुई है पांच इंद्रियां वैसे कुल 11 इंद्रिया है वैसे उस में से 5 को कहा गया है ज्ञानेंद्रियां इन इंद्रियों के मदद से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, का ज्ञान हम प्राप्त करते रहते हैं।
इस संसार का ज्ञान या विषय है ये संसार विषयों से भरा पड़ा है इन विषयों से और साथ ही इस संसार में कुछ शब्द है वह तामसिक शब्द है।
कुछ शब्द राजसिक हैं। कुछ सात्विक शब्द है। जब हम उनका श्रवण करेंगे कान से जो ज्ञान इंद्रिय है…..
*ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन:*
*मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति*
*भगवद्गीता श्लोक 15.7*
*अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है*
*मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति* उस कान मैं प्रवेश तो हुआ है शब्दों का और फिर वह शब्द मन तक पहुंच जाते हैं।
और फिर मन को प्रभावित करते हैं फिर मन वैसा ही बनता है जैसा हम सुनते हैं फिर अगर हमने तामसिक बातें सुनी है ग्राम कथाएं सुनो कुछ प्रज्वल पर सुनाओ कुछ राजनीतिक बातें सुनी तो वैसा ही मन बन जाता है।
यह तो शब्द वाली बात हुई और फिर स्पर्श भी है।
स्पर्श आप ही होंगे कई सारे कई सारे क्या वैसे यह जो चर्चा हो रही है इसके अंतर्गत सारे तो मतलब कि नहीं कह सकते हैं तीन प्रकार के स्पर्श एक तामसिक राजसिक सात्विक स्पर्श जहां तक इस स्पर्श प्राकृतिक भौतिक हैं। शब्द स्पर्श रूप है जिसको हम आंखों से देखते हैं आंख भी एक ज्ञानेंद्रिय है हम जो भी इन आंखों से दूर से देखेंगे जैसे हम हैं दृष्टा जब दृष्टि से दृष्टा सृष्टि को देखेगा तब कितने प्रकार के दृश्य हैं तो तीन प्रकार के दृश्य यह तीन प्रकार के रूप है तामसिक है,राजसिक और सात्विक है।
शब्द स्पर्श रूप रस रस जो है वह पिया है खाना भी है अन्ना का ही हम रस बनाते हैं तो अलग से रस होते हैं।
रसना से जिव्हा से उसका आस्वादन करते हैं और ज्ञान होता है यह रस भी तीन प्रकार के होंगे तामसिक राजसिक सात्विक उसके बाद शब्द स्पर्श रूप रस गंध नासिका से हम सुनते हैं और पुनः गंध के तीन प्रकार होंगे।
राजसिक, तामसिक, और सात्विक गंध तो इस प्रकार यह सब आना और जाना चलता ही रहता है। तो हमारे इंद्रियों को हम बहार के संसार को हमारे से कनेक्ट करते हैं। यह जो सारा संसार हमारे इर्द-गिर्द है या जो है भी नहीं वहां जा जाकर या पब में सिनेमा घर में जाकर ऐसे बहुत सारे जगह हैं।
वहां जाकर हम यह भक्षण हम करते रहते हैं। इस प्रकार का आहार चलता रहता है आहार केवल जीवा का ही नहीं हर इंद्रियों का अपना अपना आहार है आंखों का आहार रूप है नासिका का आहार गंध है ऐसे ही पांचों इंद्रियों के अपने अपने आहार है अपने अपने विषय हैं और यह आहार फिर अत्याहार…..
*अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः।*
*जनसङ्गण्च लौल्यच्च* *षड्भिर्भभक्तिर्विनश्यति ॥ २॥*
*अनुवाद*
*जब कोई निम्नलिखित छह क्रियाओं में अत्यधिक लिप्त हो जाता है, तो उसकी भक्ति विनष्ट*
*हो जाती है (१) आवश्यकता से अधिक खाना या आवश्यकता से अधिक धन-संग्रह करना।*
*(२) उन सांसारिक वस्तुओं के लिए* *अत्यधिक उद्यम करना, जिनको प्राप्त करना अत्यन्त*
*कठिन है* । *(३) सांसारिक विषयों के बारे में अनावश्यक बातें करना। (४) शाखत्रीय विधि-*
*विधानों का आध्यात्मिक उन्नति के लिए नहीं अपितु केवल नाम के लिए अभ्यास करना या*
*शाख्रों के विधि-विधानों को त्याग कर स्वतन्त्रतापूर्वक या मनमाना कार्य करना। (५) ऐसे*
*सांसारिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों की संगति करना जो कृष्णभावनामृत में रुचि नहीं रखते,*
*तथा (६) सांसारिक उपलब्धियों के लिए लालयित रहना*
*अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः।* उपदेशामृत में कहां है
*षड्भिर्भभक्तिर्विनश्यति* हमारे भक्ति का सत्यानाश विनाश किसने किया अत्याआहार ने किया।
वैसे ही करना तो चाहिए प्रत्याहार जैसे यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार ध्यान धारणा समाधि अष्टांग योग है अष्टांग योग के अंतर्गत जो पांचवा अंग है सोपान है वह कहलाता है प्रत्याहार मतलब आहार का विरोध करना ऊंचाहार का विरोध करना जो हमारे कृष्ण भावना के लिए प्रतिकूल हैं।
*परिकुलस्य वर्जनम* प्रत्याहार में संसार व्यस्त है काम में है अत्याआहार चल रहा है। आहार,अत्याआहार
*श्रीप्रह्लाद उवाच मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् । अदान्तगोभिर्विशतां तमित्रं पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥३० ॥*
*श्रीमद्भागवत 7.5.30*
*अनुवाद:*
*प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया : अपनी असंयमित इन्द्रियों के कारण जो लोग भौतिकतावादी जीवन के प्रति अत्यधिक लिप्त रहते हैं , वे नरकगामी होते हैं और बार – बार उसे चबाते हैं , जिसे पहले ही चबाया जा चुका है । ऐसे लोगों का कृष्ण के प्रति झुकाव न तो अन्यों के उपदेशों से , न अपने निजी प्रयासों से , न ही दोनों को मिलाकर कभी होता है ।*
*पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम्* प्रल्हाद महाराज की शब्दों में संसार चर रहा है। भक्षण हो रहा है अलग-अलग इंद्रियों से दो उसे प्रत्याहार कहा गया है या अष्टांग योग विधि तो कहती है प्रत्याहार सेंस कंट्रोल इंद्रियों को संयम मे रखना। उसे भगवान ने भगवत गीता में आठवें अध्याय में कहां है…..
*शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |*
*ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || ४२ ||*
*भगवद्गीता 18.42*
*अनुवाद:- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं |*
*शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |* *ब्रह्मकर्म स्वभावजम्* ब्राह्मणों के लक्षण जब भगवान ने कहे तब यह कहा शमा दम सम मतलब संयम मन का निग्रह और दम मतलब इंद्रियों पर संयम यह करना होता है साधकों को शमः दमः या प्रत्याआहार पर संयम करना होता हैं।
संसार भरा हुआ है इन तीनों गुणों से भरा हुआ है कुछ संसार के कुछ रंग कुछ विभाग तामसिक है कुछ राजसिक है कुछ सात्विक है तो हमें देखना चाहिए कि सर्वत्र इन तीनों का प्रभाव हम देख पाते हैं हम जिस स्थान पर रहते हैं उस पर भी तीन गुणों का चक्र खेल रहता ही है खान और पान है उसमें भी 3 गुण होते हैं वैसे कहां है कि पूरे ब्रह्मांड में तीन गुणों का प्रभाव है इसलिए कहा गया है स्वर्ग भी सत्व गुण का प्राधान्य है और मध्य में पृथ्वी पर राजसिक और पाताल में तमोगुण ही तमोगुण हैं।
लेकिन यह सत्व गन भी कहा है और ये भी एक बंधन हैं।
*“आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |*
*मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते || १६ ||”*
*भगवद्गीता8.16*
*अनुवाद:-*
*इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है | किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता*
*“आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन* ऐसे भगवान ने अर्जुन से कहा आब्रह्म ब्रह्मा लोकतक यह बंधन है और पूरे संसार को वैसे कारागार भी कहा हैं। प्रचारक कहते हैं कि स्वर्ग भी कारागृह है फिर कारागृह की भी प्रकार होते हैं प्रथम श्रेणी का कारागृह द्वितीय श्रेणी का कारागृह है और तृतीय श्रेणी का कारागृह थर्ड क्लास कभी-कभी बड़े-बड़े मिनिस्टर को भी जेल में बंद किया जाता है लेकिन उनको कहा रखते हैं प्रथम श्रेणी के कारागृह में जहां उनको सभी प्रकार के सुविधाएं पहुंचाई जाती है लेकिन वह है तो कारागृह में है बंधन में है तो वैसे ही स्वर्ग जाना भी एक प्रकार से प्रथम श्रेणी के कारागृह में में जाने के बराबर है लेकिन वहां भी सत्व गुण का बंधन है तो हम देख सकते हैं कि यह 3 गुण जो है आप कह सकते हो कि यह कारागृह है तू जहां कड़ी कहां है बेडी कहां है रस्सी कहां है जिससे हम को बांधा हुआ है यह तमोगुण दोरी है रजोगुण का बंधन है और यह सत्रुघन भी हमको बनाता है बांधता है जैसे कोरोनावायरस को हम देख नहीं सकते पर वह एक अनदेखा शत्रु है।
यह कोरोनावायरस कैसा है यह हमारा शत्रु है अदृश्य है जिसे हम देखते तो नहीं लेकिन वह है दिखता नहीं लेकिन वह है तो उसी प्रकार यह बंधन तीन गुणों के बंधन रसिया हैं वह हमें देखती तो नहीं कठपुतलियों के हाथ में जैसे कठपुतलियां होना चाहता है धागा दौरा होती है तभी तो होना चाहता है कठपुतलियों को उसी प्रकार यह तमोगुण रजोगुण सत्व गुण यह भेड़िया है ना तो हम मिल सकते हैं ना ढूंल सकते हैं।
जैसे कहते हैं कि भगवान की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता जो अनुमंता जो साक्षी है। वैसे भगवान यह कार्य प्रकृति के माध्यम से कराते हैं।
*मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |*
*हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || १० ||”*
*भगवद्गीता 9.10*
*अनुवाद:-*
*हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है*
*मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |* प्रकृति के माध्यम से सारे संसार का चर अचर चलायमान कराते हैं। और फिर वह स्वयं नहीं करते वह प्रकृति से कर आते हैं और फिर प्रकृति में भी अलग अलग देवता है वह हम को घुमाते फिर आते हैं।
कभी-कभी वह भी हमारे ईश्वर बन जाते हैं लेकिन वह परमेश्वर नहीं है।
*सृष्टि-स्थिति-प्रलय-साधनशक्तिरेका*
*छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दुर्गा।*
*इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा*
*गोविन्दमादिपुरुष तमहं भजामि *॥४४॥*
*अनुवाद-*स्वरूपशक्ति या चित्-शक्तिकी छायारूपा प्रापज्चिक जगतकी*
*सृष्टि, स्थिति और प्रलयकारिणी मायाशक्ति ही भुवन पूजिता ‘दुर्गा जी हैं।*
*वे जिनकी इच्छाके अनुसार सारी चेष्टाएँ करती हैं, उन आदिपुरुष श्रीगोविन्दका*
*मैं भजन करता हैँ॥४४॥*
*अनुरूपम चेष्टतेसा* दुर्गा के बारे में कहा है दुर्गा के सारे प्रयास भगवान के इच्छा के अनुसार ही होते हैं और देवताओं के भी भगवान के इच्छा के अनुसार ही होते हैं वह स्वतंत्र नहीं है।
**एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य।य़ारे य़ैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य।।*
*( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ५.१४२)*
*अनुवाद:-*
*एकमात्र भगवान कृष्ण ही परम नियंता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।*
कृष्णा ईश्वर है बाकी सब सेवक है नौकर चाकर तो यह देवी देवता भी नौकरी चाकरी करते हैं इनको भी अलग-अलग विभाग दिए हैं और फिर उनका हमारे ऊपर नियंत्रण चलता रहता है ऐसे ही ठीक है तो हमें घर का मंदिर बनाए बनाना है रजोगुण शत्रुघ्न तमोगुण को हम बाहर करेंगे हकाल देंगे यहां प्रवेश नहीं करने देंगे हम घर का होम थिएटर नहीं बनाएंगे फिर रजोगुण आ जाएगा फिर मंदिर नहीं रहा चित्र मंदिर या सिनेमा घर बन गया कृष्ण मंदिर राम मंदिर गौरंग गौर निताई मंदिर नहीं रहा तुलसी भगवान मंदिर नहीं रहा तो इस प्रकार पूरा तो नहीं कहा….
*जे दिन गृहेति भजन देखी गृहेत गोलोक भाये*
भक्ति विनोद ठाकुर जी ने गाया की जब मेरे घर में संत भक्त आते हैं और फिर घर में संकीर्तन होता है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* तो क्या हुआ *गृहेत गोलोक भाये* मेरे घर का हो गया वैकुंठ मेरा घर हो गया मंदिर तो फिर आप का घर इस संसार में नहीं रहेगा आपका घर गुनातीत तीन गुणों से परे जहां भी विष्णु मंदिर है या इस्कॉन मंदिर है या अन्य मंदिर है वह इस संसार में नहीं है वह प्राकृतिक नहीं है वह तीन गुणों से परे हैं तो आपका घर भी मंदिर बनाना है तो देखना है कि कैसे कैसे अपने घर को मंदिर बना सकते हैं और साथ ही प्रातकाल उठना भी होगा घर में है और ब्रह्म मुहूर्त का समय आ गया और हमारा आलस और नेत्रा तो चल ही रही है फिर कैसा मंदिर हरि हरि तो हमें सचमुच आपके सारे हाऊ और भाव है। आचार और विचार हैं और फिर प्रचार भी हैं या आहार-विहार भी है सारे धर्मों के नियमों का पालन करते हुए आपका आहार हुआ रहा है पत्रं पुष्पं हो रहा है हम भगवान को खिला रहे हो आहार है निद्रा है और निद्रा के भी नियम है निद्रा के बिना व्यक्ति जी नहीं सकता निद्रा तो अनिवार्य हैं वैसे अन्य के बिना भी हम जी नहीं सकते निद्रा के बिना भी नहीं जी सकते तो नियम है। आहार जरूर करना चाहिए लेकिन किस आहार को ग्रहण करना चाहिए प्रशांत को ग्रहण करो और निद्रा भी कितनी होनी चाहिए उसका भी नियम है। उसका भी पालन करना चाहिए आहार निद्रा भय इतना हम अपने सुरक्षा के लिए ठंडी से है या चोरों से हैं इनसे है उनसे हैं कुछ तो आप उनके लिए कुछ कर सकते हो अपनी सुरक्षा के लिए लेकिन अति प्रयास नहीं करना चाहिए *अति सर्वत्र वर्जयेत* तो ऐसा भी नियम है।
*युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु*
*युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा || १७ ||”*
*अनुवाद:-*
*जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है*
*युक्ताहारविहारस्य* जैसे भगवान ने भगवत गीता में कहा है ऐसा आहार निद्रा भय और मैथुन यह सबसे बड़ा मुद्दा है मैथुन जीवन यदि आपको घर का मंदिर बनाना है इसके लिए जो सारी नियमावली है बंधन है इस इन सारी बातों को समझ कर यह जो मैथुन है यह जो पशु वृत्ति है आहार निद्रा भय मैथुन इसको हम कृष्ण भावना भावित बना सकते हैं उसको सीखना और समझना होगा क्योंकि हमें संकल्प भी लिया होता है 4 नियमों का मैं पालन करता हूं करूंगा मांसाहार नहीं करूंगा परस्त्री संगम नहीं करुंगा मद्यपान नहीं करूंगा जुगाड़ नहीं खेलूंगा जो अवैध स्त्री पुरुष संग मतलब और विधि पूर्वक इस मैथुन इसका भी विधि विधान है उसका भी समय है उसकी भी मात्रा है उसका डोज है यह डोज भी उतना ही लेना चाहिए साधु शास्त्र और आचार्य के हिसाब से ही हमें वह डोज लेना चाहिए यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम उस संकल्प उल्लंघन कर रहे हैं उस नियम का पालन नहीं करें हैं हमारे घर को यदि मंदिर बनाना है।
इसी बात पर निर्धारित होता है एवं आहार निद्रा मैथुन जैसे हम आहार घर में ही करते हैं निद्रा भी घर पर ही करते हैं और मैथुन भी घर में ही होता यदि हमें घर का मंदिर बनाना है तो हमें इस आहार निद्रा भय और मैथुन के संबंध में जो साधकों के लिए नियम है उसका हमें पालन करना होगा यदि हम पालन करते हैं तो घर का बन गया मंदिर यह नहीं हो सकता केवल पूजा बेदी है विग्रह भी है यह तो चल ही रहा है। लेकिन उसने से मंदिर नहीं बनेगा और बहुत कुछ करना होगा 24 घंटे आपको सभी विधि-विधान ओं का विधि निषेध का पालन करना होगा और फिर इसके लिए समझना होगा अनुकूल क्या है।
*अनुकुल्यस्य संकल्प प्रतिकुल्यस्य वर्जनम*
क्या अनुकूल है क्या प्रतिकूल है यह दो चीजें होती है इसका विचार विमर्श हमें घर में इष्ट गोष्टी करते हुए परिवार के सभी सदस्यों को बिठाकर या फिर परिवार के जो मुखिया होते हैं उनके मध्य में…..
*ददाति प्रतिगृङ्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति ।*
*भङ्क्ते भोजगते चैव षडविधं प्रीति-लक्षणम् ॥४॥*
*अनुवाद:-*
*दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना* ।
*भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं*
*ददाति प्रतिगृङ्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति ।* होनी चाहिए यह सब होना चाहिए हमारे बीच संवाद पति पत्नी के बीच हमें नए घर को मंदिर बनाना है ऐसा संकल्प लेना चाहिए धन्यवाद हम यहां रुकते हैं।
मैं जानता हूं कि कई सारे प्रश्न हो सकते हैं कई सारे प्रश्न और हां हम करना तो चाहते हैं पर वह समस्या है यह समस्या है कैसे करें यह सब प्रकार के प्रश्न है परिवार के सदस्य ही अनुकूल नहीं है।
मंदिर बनाना तो दूर रहा आपका जप करने के लिए उनका विरोध है ऐसे कई प्रकार के प्रश्न हो सकते हैं।
सभी पत्रं पुष्पम पसंद नहीं करते किसी को मटनम चिकनम भी चाहिए होता हैं।
ऐसी बहुत सारी समस्याएं हैं घर के सारे सदस्य अपने अपने गुणों के अनुसार कोई तमों गुनी है कोई रज गुनी नहीं है कोई सत्व गुनी है। कभी अधिकतर सत्व गुनी रहता है यहां कभी अधिकतर तमो गुनी रहता है।
ऐसे बहुत सारे समस्याएं हैं परिवार के सदस्यों में और फिर परिवार के सदस्य ही नहीं मित्र हैं पड़ोसी हैं और फिर क्या कहना सारा संसार है फिल्म इंडस्ट्री हैं शास्त्रज्ञ है राजनेता हैं अभिनेता हैं के सारे दुनिया भर का प्रभाव हमारे मन पर और उन्होंने कि वह सारी व्यवस्थाएं हैं और फिर आधुनिक सभ्यता है या दूसरे शब्दों में कई सारे व्यवधान हैं या फिर ये *सर्व साधन बाधक* यह जो कलयुग है इसीलिए कई सारे प्रश्न हो सकते हैं स्वाभाविक तौर पर आप आपस में चर्चा करें अपने परिवार में या फिर आपके काउंसिल आर के साथ में चर्चा करिए कुछ सलाह लीजिए और फिर महात्मा गांधी कहा करते थे अपना अनुभव उनको कोई समस्या या कोई समस्या उद्भव उत्पन्न होता था तो उन्होंने अपने निजी अनुभव के साथ में कहा है कि जब हमने शास्त्र भगवद्गीता खोली अरे मुझे जवाब मिल गया वह जिज्ञासु थे वो जानना चाहते थे कि ये क्या है वो क्या है ये करे न करे तो उन्हें भगवद्गीता से जवाब मिल जाते थे।
उत्कंठित रहते हैं इस प्रश्न का उत्तर उस प्रश्न का उत्तर चाहिए तब भगवान व्यवस्था करेंगे तभी वह उत्तर या तो हम देंगे या आपकी गुरु बहन गुरु भाई देंगे या आपके काउंसलर दे सकते हैं।
या मंदिर के व्यवस्थापक दे सकते हैं और आप अपने अपने घरों में रखे हुए ग्रंथ हैं वह भी आपके गुरु है वह भी आपको प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं।
जैसे हम मराठी में कहते हैं ग्रंथ हेच अपने गुरु मराठी में हम कहते हैं ग्रंथ ही है हमारे गुरु और है जैसे हम कहते हैं कि शास्त्रों से पता लगाओ कि इसका उत्तर क्या है इसका उत्तर क्या है।
शास्त्रों के अनुसार चलो *अथातो ब्रह्म जिज्ञासा* हर सवाल का क्या है जवाब है।
आपके मन में प्रश्न उत्पन्न होने से पहले ही उसका उत्तर आप के लिए तैयार हैं समय संबंध स्थापित करने की जरूरत है।
तब हमारे भाग्य का उदय का दिन आ चुका है तो आपको पता चल जाएगा या फिर भगवान आपके हॄदय प्रांगण में
ऐसे भगवान ने भगवत गीता में कहा है।
*तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |*
*ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते*
*भगवद्गीता10.10*
*अनुवाद :-जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं*
*ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते* तो भगवान भी तो गुरु है कृष्णम वंदे जगत गुरु कृष्ण कौन से गुरु हैं उनका नाम क्या है चैत्य गुरु प्रदर्शक गुरु को भेज दे है आपके पास यह आपकी मुलाकात कराते हैं या फिर शिक्षा गुरु के साथ आपकी मुलाकात होती है या दीक्षा गुरु है ही तो भगवान ने सारी व्यवस्था की हुई है आपके प्रश्नों के उत्तर के लिए आपको मिल जाएंगे लेकिन प्रश्न पूछने भी तो आना चाहिए अगर हम बुद्धू हैं तो फिर हम ऐसे कुछ फालतू प्रश्न पूछते रहते हैं।
भगवान आपको बुद्धि दे वैसे मेरी मा कहा करती थी मैं जब छोटा था तब और मंदिर में ले जाती थी और फिर मंदिर में जब हम पहुंच जाते थे तो फिर मुझे कहते थे कि हाथ जोड़ो हाथ जोड़ो की प्रार्थना करो तब मैं कहता था कि क्या प्रार्थना करना है *मराठी में गुरु महाराज जी ने कहा भगवंता मला बुद्धि दे हां मला बुद्धि दे*
ऐसे ही प्रार्थना करो हे भगवान मुझे बुद्धि दे दो ऐसे मेरी मां मुझे कहती थी लेकिन पता नहीं किस प्रकार कहते थे कि बुद्धि तो फिर भगवान ने हमको बुद्धि दे ही दी कैसे बुद्धि थी उनके पास ही पहुंचा दिए भगवान हम इस्कॉन को ज्वाइन किया राधा रासबिहारी को प्राप्त किया राधा रास बिहारी जी को प्राप्त किया तब मेरी मां थोड़ी नाराज हो गई भगवान से ऐसे क्यों बुद्धि दे दी आपने ऐसे बुद्धि देने को नहीं कहा था और वह बहुत बड़ी कहानी है आगे कभी करेंगे यह भी समस्या है तो यह दुनिया वाले ऐसी बुद्धि नहीं चाहते….
*तं येन मामुपयान्ति ते* उस बुद्धि की मदद से ताकि तुम मेरे पास मेरे अधिकारी तुम निकट आओगे मेरे मार्ग पर लग जाऊंगी ऐसी बुद्धि दे दो ठीक है हम प्रार्थना करते हैं कि आपको ऐसी बुद्धि भगवान दे।
हरि हरि गौर प्रेमानंदे
हरि हरि बोल
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
19 October 2020
Unseen shackles of the modes dominate all our activities
Hare Krishna! Devotees from 757 locations are chanting with us today. Gaura Premanande Haribol!
Devotees from all locations are still chanting. Now you should listen to the Japa talk. Are you all in Vaikuntha? It has been informed to you that you all can transform your home into a temple. Only our home is not a temple. Our heart is also a temple. We say it because the Lord resides in our heart. How can we confirm this? Lord has said in Bhagavad-Gita that sarvasya cāhaṁ.
sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo
mattaḥ smṛtir jñānam apohanaṁ ca
vedaiś ca sarvair aham eva vedyo
vedānta-kṛd veda-vid eva cāham
Translation
I am seated in everyone’s heart, and from Me come remembrance, knowledge and forgetfulness. By all the Vedas, I am to be known. Indeed, I am the compiler of Vedānta, and I am the knower of the Vedas.( BG 15.15)
The heart is transformed into a temple and simultaneously we should make our house a temple. The meaning of temple is Vaikuntha where the Lord resides. Vaikuntha is the Lord’s home, it is also a home of Sri or it is termed as Jagannivas. Jagat means the whole universe, which resides in the Lord so He is also known as ‘Jagannivas’. The Lord resides in Vaikuntha or Goloka. That Lord who resides in Goloka, or Vaikuntha or Ayodhya is king of Vaikuntha.
Ayodhya Vasi Ram Ram Ram Dasharatha Nandana Ram
Translation
Chant the name of Rama, the Lord of Ayodhya, the Son of Dasaratha.
When we install such a Lord who is Vaikuntha-vasi or Ayadhya-vasi or Pandharpur-vasi in our home then immediately our home becomes Vaikuntha. I have not explained much about this. Actually right now I am in the mood of three modes of material nature. That is why I am preparing for my contribution towards this explanation.
It is essential to understand and learn the three modes of nature. These three modes are a major part of Gyana-yoga which is explained in Bhagavad-Gita. Your spiritual knowledge is incomplete without learning these three modes. These three modes are closely related to nature. Or we can say that nature is made from all these modes.
daivī hy eṣā guṇa-mayī
mama māyā duratyayā
mām eva ye prapadyante
māyām etāṁ taranti te
Translation
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG 7.14)
If we separate these modes from nature then it will become unnatural or transcendental. This nature consists of the three modes. The divine energy of the Lord or nature cannot be separated from these modes, else it will not be a material nature. It will not remain ekpad vibhuti, then it will be known as tripad vibhuti. There are two types of Kingdoms of the Lord. One is material and the other is transcendental or which is beyond this nature. It is also known as Vaikuntha or Divya Lok.
This world also has divisions according to these three modes of nature. The Lord has made the kingdom. He made nature – villages, cities etc. The places where there are forests, and where mode of goodness is prominent, sages reside in such places. Also the villages where austere, honest and gentle people stay, are places in the mode of goodness. The cities come under the influence of the mode of passion. In cities slums are present or there are villas of rich people. But there is a lot of dirty habits, laziness and predominance of sleep. These places are under more ignorance. Thus a few places come under the mode of goodness. Some are in the mode of passion and others in the mode of ignorance. When we transform our home into a temple then that house goes out of control of these three modes of nature. In such a house there is no place for mode of ignorance or passion. Mode of goodness is also not there. Since the most of the devotees present here are grhasta ashrami we always talk about grhasta ashram. Actually vanprastha ashrami and sannyasi are also present here. They are also listening, but the majority is of grhasta-ashrami so we again and again refer to grhasta-ashrami people. Stay at home and make your home a hermitage or a temple. You have always heard that one should become a grhasta-aharami and not a grah medhi. If you want to make your home a hermitage or temple then you have to follow some rules for food in that home. The world comes under the control of the three modes of nature. These three modes are present everywhere. Our food is also related to these three modes of nature. To understand this you should learn Bhagavad-Gita. A complete chapter is dedicated to the explanation of these modes of nature. Chapter 14 is known as ‘The Three Modes of Material Nature.’ In the other chapters from 13 to 18 these three modes are mentioned again and again.
As far as food is concerned , it also comes under goodness or passion or ignorance. Vegetarian food comes under the mode of goodness. It is said in English, ‘You are what you eat’. If we want to know which food comes under ignorance then you should understand that vegetables, fruits are in mode of goodness and meat eating is in ignorance.
patram puspam phalam toyam
yo me bhaktya prayacchati
tad aham bhakty-upahrtam
asnami prayatatmanah
Translation
If one offers Me with love and devotion a leaf, a flower, fruit a water, I will accept it.
(BG 9.26)
There is passionate and ignorant food also. You should understand that also by studying scriptures. Our mind is affected due to these three modes. These modes enter through our sense organs. Our sense organs and this complete world is full of sense gratification. These sense organs are connected with our body. There are a total of five sense organs. Out of these, five are known as knowledge acquiring senses. We get knowledge from sound, touch, form, taste and smell. This world is full of sense gratification and out of that a few sounds come under mode of passion or ignorance. Few sounds are in mode of goodness. We will hear these sounds through our ear , which is one of the knowledge senses. And manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi the sounds that enter our ears reach our minds.
mamaivāṁśo jīva-loke
jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ
manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛti-sthāni karṣati
Translation
The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. (BG 15.7)
The sounds that we hear, affect our thought process. Our mind thinks in the same way as what we hear. If we hear some topics in the mode of ignorance or if we engage ourselves in gossiping, then our mind becomes like that. This is about sounds then there is the sense of touch also. There are many, many different kinds of touches. There are mainly three types of touches – goodness, passion and ignorant.
Then next is forms that we see through our eyes. We have vision through which we see the outside scenes. With the help of vision one sees a scene. How many types of scenes are there? There are three types of scenes. Or there are three types of forms namely in goodness, passion and ignorance. After sound , touch, form next is ras or drinks. Food is also included in this or there are special categories of drinks also. We relish this through our tongue. They are also of three types like passionate, ignorant and in goodness. Sound, touch, form, taste then smell. We enjoy various smells through our nose. They are also of three types: passionate, ignorant and in goodness. In this way various inputs enter our body. Do you understand this language of output and input ? We plug in our sense organs with the outside world. We are in various different atmospheres. If the surroundings that someone has, does not offer a particular type of happiness, he goes there for sense gratification like pubs, cinema halls, and he plugs into such activities. Each sense organ has its own requirements. The eyes need forms, the nose needs smells, like that. All five ingredients have their own requirements. And these requirements sometimes are taken in excess.
atyaharah prayasas cha prajalpo niyamagrahah
jana-sangas cha laulyan cha sadbhir bhaktir vinasyati
Translation
Over-accumulation, over-endeavour, unnecessary talk, misapplication of rules,
association with nondevotees, and fickle-mindedness — devotion is destroyed by these six faults. (Nectar of Instructions, Verse 2)
It is said in Nectar of Instruction that our devotion is destroyed by overeating or over accumulation. Actually we should withdraw our senses from these. The eight categories mentioned in ‘Astanga Yoga ‘ are: He defined the eight limbs as yama (abstinences), niyama (observances), asana (postures), pranayama (breathing), pratyahara (withdrawal), dharana (concentration), dhyana (meditation) and samadhi (absorption). The fifth category in this is the withdrawal it specifies that we should avoid such things which are unfavourable for our Krsna consciousness. The world is busy with work and what are they doing? They are over accumulating everything. Aahar, atyaahar
śrī-prahrāda uvāca
matir na kṛṣṇe parataḥ svato vā
mitho ’bhipadyeta gṛha-vratānām
adānta-gobhir viśatāṁ tamisraṁ
punaḥ punaś carvita-carvaṇānām
Translation
Prahlad Maharaja said, “Because of their uncontrolled senses, persons too addicted to materialistic life make progress toward hellish conditions and repeatedly chew that which has already been chewed. Their inclinations toward Kṛṣṇa are never aroused, either by the instructions of others, by their own efforts, or by a combination of both.”
(SB 7.5.30)
The world is going on like this. Over accumulation is going on continuously through various sense organs. But the Astanga Yoga method recommends withdrawal and sense control. Control all sense organs as the Lord has specified in the 18 chapter of Bhagavad-Gita:
śamo damas tapaḥ śaucaṁ
kṣāntir ārjavam eva ca
jñānaṁ vijñānam āstikyaṁ
brahma-karma svabhāva-jam
Translation
Peacefulness, self-control, austerity, purity, tolerance, honesty, knowledge, wisdom and religiousness – these are the natural qualities by which the brāhmaṇas work.
(BG 18.42)
When the Lord has mentioned the qualities of Brahman he specified tolerance, peacefulness. It means mind control and sense control. The knowledge seekers should do this mind control, sense control and withdrawal.
The world is full of these three modes of nature. A few categories in this world are passionate, few are ignorant and few are in goodness. We experience the effect of these three modes everywhere. The three modes are present in the place where we stay or in the category of food we prefer. We can say that the whole universe is affected by the three modes. In heaven the mode of goodness is prominent and in middle the mode of passion is there and below in hell, darkness and ignorance is prominent. But this mode of goodness is also binding. As the Lord has said in Bhagavad-Gita
ā-brahma-bhuvanāl lokāḥ
punar āvartino ’rjuna
mām upetya tu kaunteya
punar janma na vidyate
Translation
From the highest planet in the material world down to the lowest, all are places of misery wherein repeated birth and death take place. But one who attains to My abode, O son of Kuntī, never takes birth again. (BG 8.16)
The whole world is actually like a prison house. This way heaven is also a prison. There are different categories of prisons also like first class. Sometimes well known ministers are also put behind the bars and they are kept in a first class prison. They are in prison, but they are watching television, they get newspapers also and they have many facilities also. But still they are in prison. This way going to heaven is also like going to a first class prison. The mode of goodness is prominent there. You may ask that if it is a prison then where are the handcuffs? Where is the rope with which we are tied? All the three modes we studied are the ropes which bind the conditioned soul. Like Coronavirus is unseen. It is an invisible enemy. We cannot see it, but it is present around us. Similarly the binding of these three modes of material nature is also existing like ropes of a puppet show. The person showing the puppet show has ropes in his hands that’s why he is able to present the puppet show. This passion and ignorance are our handcuffs. We are not independent. The Lord says, ‘not even blade of grass moves without my sanctions’. And the Lord gets this done through the material nature.
mayādhyakṣeṇa prakṛtiḥ
sūyate sa-carācaram
hetunānena kaunteya
jagad viparivartate
Translation
This material nature, which is one of My energies, is working under My direction, O son of Kuntī, producing all moving and nonmoving beings. Under its rule this manifestation is created and annihilated again again. (BG 9.10)
Through the medium of material nature the Lord performs all various activities. He never does it. He gets it done by the material nature. The demigods also control us. They are not the Supreme Personality of Godhead.
sṛṣṭi-sthiti-pralaya-sādhana-śaktir ekā
chāyeva yasya bhuvanāni bibharti durgā
icchānurūpam api yasya ca ceṣṭate sā
govindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi
Translation
The external potency Māyā who is of the nature of the shadow of the cit potency, is worshiped by all people as Durgā, the creating, preserving and destroying agency of this mundane world. I adore the primeval Lord Govinda in accordance with whose will Durgā conducts herself. ( Brahma Samhita 5.44)
This is said about Durga. All Durga’s efforts are as per the Lord’s wishes. Even the demigods are also not independent. Krsna is only independent.
ekalā īśvara kṛṣṇa, āra saba bhṛtya
yāre yaiche nācāya, se taiche kare nṛtya
Translation
Lord Kṛṣṇa alone is the supreme controller, and all others are His servants. They dance as He makes them do so. (CC Ādi-līlā 5.142)
Lord Krsna is only Paramesvar and all others are His associates. Demigods are assigned to various departments. They are heads of departments and thus they control us.
We will transform our home into a temple means we will destroy the mode of goodness, passion and ignorance within us. We will throw them out or we will not allow them to enter. We will not make our home a home theatre. Then it is in passion mode. Then it’s a cinema house, and not a Krsna temple or Rama temple or Gaur Nitai temple. Or it is not a Narsimha Bhagawan mandir.
je-dina grihe, bhajana dekhi,
grihete goloka bhaya
carana-sidhu, dekhiya ganga,
sukha sa sima paya
Translation
One day while performing devotional practices, I saw my house transformed into Goloka Vrindavana. When I take the caranamrita of the Deity, I see the holy Ganges waters that come from the feet of Lord Vishnu, and my bliss knows no bounds.( Verse 6,Shuddha Bhakta charan renu m from ‘Sharanagati by BVT)
Bhaktivinoda Thakura sings this bhajan -When devotees arrive in my home and do kirtan
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Then my home becomes Goloka Dhama. Then it is not a materialistic home. It is Vaikuntha or Goloka Dhamas. It will become free from the three modes of material nature. Wherever there is a Visnu temple or any other temple then it is not in this world. They are out of these three modes. If you want to make your house a temple then you have to understand the rules. You should rise early. If you have Deities at home and you are sleeping at the time of Brahma muhurat then it will not be a temple. Like that you will have to change all your activities accordingly, including food. You should regularise sleep also. Sleep is essential for us. No one can sustain without sleep. Sleep is essential; you cannot exist or survive without it. We cannot live without food and sleep. There are rules about food and sleep regulations are there. You may have defence mechanism from theft or safety precautions. You should do it within limits. But you cannot put lot of efforts on this. ‘Ati sarvatra varjayet’ Too much should be avoided. Balance your activities.
yuktāhāra-vihārasya
yukta-ceṣṭasya karmasu
yukta-svapnāvabodhasya
yogo bhavati duḥkha-hā
Translation
He who is regulated in his habits of eating, sleeping, recreation and work can mitigate all material pains by practicing the yoga system. (B.G. 6.17)
This accumulation of everything should be avoided. Mating is a big activity. If you really want to make your home a temple then there are rules for mating also. We should krsnise or spiritualise these activities as per scriptures. We should learn and understand them. We have taken a vow to will follow four regulative principles. No meat eating, no gambling, no illicit sex. Illicit sex means, one which is not as mentioned in the scriptures. There are rules, timing frequency for this. We should follow whatever is given in scriptures, or explained by sages and acharyas. If we do not follow this then it is breaking of vow. Transforming our house in a temple depends on these factors. How are they regularised ? Because eating, sleeping, mating and defence everything happens in the home. You should follow the rules given for the seekers. If you follow rules then the home transforms into a temple. It will not become a temple by just physically keeping an altar and Deities. You have to do many other things in the 24 hours. You have to follow rules and avoid unfavourable things.
anukulyasya sankalpah pratikulyasya varjanam
raksisyatiti visvaso goptrtve varanam tatha
atma-niksepa-karpanye sad-vidha saranagatih
Translation
“The six divisions of surrender are: accepting those things favorable to devotional service, rejecting unfavorable things, the conviction that Krsna will give protection, accepting the Lord as one’s guardian or master, full self- surrender, and humility.” Narada will gradually explain these principles of devotion in the remaining sutras. (CC Madhya 22.100)
You should discuss in the home what is favourable and what is unfavourable for devotional services. The leaders of the home, wife and husband should discuss this.
dadāti pratigṛhṇāti
guhyam ākhyāti pṛcchati
bhuṅkte bhojayate caiva
ṣaḍ-vidhaṁ prīti-lakṣaṇam
Translation
Offering gifts in charity, accepting charitable gifts, revealing one’s mind in confidence, inquiring confidentially, accepting prasāda and offering prasāda are the six symptoms of love shared by one devotee and another. (NOI Text 4 )
There should be dialogue and understanding between husband and wife that we want to make our home a temple. All right I will stop now.
I do not think there is time for any questions. For sure you will have many, many questions on this topic. Like : we want to do this, but this is a problem. We do not understand how to do it. Sometimes family members are not favourable then you cannot think of making a temple. Your chanting is also not allowed. Some may not be ready for vegetarian food if they want to have meat. These are all problems. The members of family perform as per their mode of nature. There is lot of variety in family members. Some may be passionate or ignorant. And our friends, colleagues and neighbours also affect us. And this modern civilisation is also affecting us. Kaliyuga puts distractions in everything. Sarva sadhana badhaka
That’s why you will have many questions. So you discuss within family, or with your councillor. Or refer to the scriptures. As Mahatma Gandhi narrated his experience whenever he had some queries, many times he has experienced this, the time when he had some doubt, and then next time he opened a scripture or Bhagavad-Gita then he got the answer there. He was very curious to know what this is. Should I do this or not then he got answers like this. Or when we are very anxious or eager or very enthusiastic to know the answer then the Lord makes necessary arrangements.
You will get the answer. Maybe I will give you an answer or your god brother or god sister will give you or counsellor or ISKCON temple authorities may provide you an answer. And Bhagavad-Gita and Bhagavatam kept in your house are also your guru. In Marathi language there is a quote ‘Granth hech Guru’. Scriptures are also our guru and they are. Find out from scriptures.
Athato brahma jijnasa
Translation
The first aphorism of Vedanta Sutra: “Now is the time to discuss the Supreme Absolute Truth, Brahman.
And each question has an answer. The world is complete. The answer is ready before queries arise in your mind. Answer exists only connection with it is required. And if you are fortunate then you will come to know the answer automatically. Or the Lord will give you necessary wisdom to understand it. (Vedanta-sutra 1.1.1)
teṣāṁ satata-yuktānāṁ
bhajatāṁ prīti-pūrvakam
dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ
yena mām upayānti te
Translation
To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (BG 10.10)
The Lord is also our Guru. Lord is Caitya guru.
Vasudev sutan devan, Kans chaanoor mardhanan, Devakee paramaanandan, Krishnan vande jagat gurun.
Lord will send vartya pradarshak guru or a siksa guru or a Dikha guru for you. Lord has made all the arrangements for your questions. You will get all answers. But you should ask proper questions. If you are a fool then you will keep on asking irrelevant questions. May Lord give you proper wisdom.
My mother used to take me a temple when I was a child. Then in the temple she asked me to pray. I would ask what I should pray for. She told me to pray, ‘ Lord please give me intelligence’. Then the Lord gave me wisdom to join Him. I joined ISKCON and got Radha Rasbihari. Then my aunt was a little bit upset at the Lord as to why HE had given such wisdom. I had not asked for such wisdom. Anyway it is a long story. You write your questions in the chat box.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण!*
जाप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
18 अक्टूबर 2020
आप सभी भक्तों का स्वागत है। हरे कृष्ण! हरि हरि! हाय (hi) हेलो (hello) छोडो हरे कृष्णा बोलो! तो कल की चर्चा हम आगे बढ़ाते है, कल तीन गुणों की चर्चा चल रही थी, सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण! और यह तीन गुणों से बनी है यह प्रकृति।
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |*
*मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||*
भगवतगीता ७.१४
अनुवाद:- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |
गीता में भगवान कहे है, यह मायावी जगत या माया कैसी है? त्रिगुण मई माया! और *दुरत्यया* इसको पार करना या इसके चंगुल से मुक्त होना बहुत कठिन है किंतु, फिर भगवान आगे कहे हैं *मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते* मतलब यह त्रिगुणमई माया को पार करना या संसार में तर जाना कठिन है किंतु, कठिन कार्य सरल हो सकता है! जो मेरी शरण में आएगा माया से वह तर सकता है। तो जिस माया ने हमें बंधन में डाल दिया है, हमें जो बद्ध जीव कहा जाता है, जैसे मुक्त आत्मा या बद्ध आत्मा! हम कैसे बंधे हुए है? माया से बद्ध हुए है! *झपटिया धरे* माया ने हमें पकड़ा हुआ है तो इस माया को भी या बंधन को भी समझना होगा, कौन मुझे बांध रहा है या फिर कौन सी शक्ति मुझे बांध रही है? तो इस शक्ति के लक्षणों को या प्रकारों को समझना होगा और माया को समझना होगा तभी माया से मुक्त हो सकते है। जो माया में है उन्हें पता नहीं कि वे माया में है, या वह इतने माया में फंसे है कि, उन्हें माया का पता ही नहीं है! जैसे की मछली को पूछा जाए पानी कैसा है? तो मछली कहेगी कौन सा पानी? मछली वैसे जल में ही रहती है, वहीं पर विहार करती है, उसी को जीवन मानती है और कुछ अधिक सोचती भी नहीं है। जल में विचरण करने वाली जलचर मछली कुछ जल के संबंध में सोचती नहीं है! इसलिए वह मछली कहती है, पानी मतलब क्या? वैसे ही हम भी माया में इतने या बंधे हुए है या फिर जो लोग माया में है, उन्हें पता ही नहीं है कि वह माया में है! माया में होना भी स्वाभाविक है, यही जीवन है ऐसा समझने लगता है! हरि हरि। लेकिन कृष्णभावना भवित व्यक्ति को ही पता चलती है माया क्या है! माया क्या चीज है! जैसे वह व्यक्ति अधिकाधिक कृष्ण भावना भावित होते रहता है उसी के साथ उसे माया का भी अधिकाधिक ज्ञान होने लगता है कि, यह माया कृष्ण है और यह माया विज्ञान है तो इस माया का ज्ञान भी भगवान भगवतगीता में सुनाते है। एक पूरा अध्याय ही है इस तीन गुणों का जो 14 वा अध्याय भगवदगीता का है बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय है। और उसी से संबंधित वैसे और भी अध्याय है जैसे कि देवी संपदा इसका भी तीन गुणों से ही संबंध है। या फिर 17 वें अध्याय में श्रद्धा के विभाग बताया गया है यह भी तीन गुणों के आधार पर ही है। तो भगवान ने जो आदेश या उपदेश दिया है अर्जुन को और उनके पास ज्यादा समय था भी नहीं तो उस आपातकालीन स्थिति में जो भी कहा है वह बहुत महत्वपूर्ण ही कहा होगा! रोजमर्रा की बातें या गपशप तो नहीं ऐसा नहीं है! भगवान *धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे* उस कुरुक्षेत्र के मैदान में जो भी कुछ कहे है वह सच ही कहा है और जो भी कहे है वह बहुत महत्वपूर्ण बातें कहे है, और सच बातें महत्वपूर्ण होती है! तो यह त्रीगुन या तीन गुणों का जो विषय है इनको भली-भांति समझना होगा, इसका अध्ययन करना होगा! यह 3 गुण एक दृष्टि से इस संसार का आधार है। और गीता में भगवान कहे है कि,
*मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |*
*हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ||*
भगवतगीता ९.१०
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है |
*मयाध्यक्षेण प्रकृतिः* इस प्रकृति का अध्यक्ष में हूं! और प्रकृति को माध्यम बनाकर मैं क्या करता हूं? *सूयते सचराचरम्* चर,अचर मतलब घूमने वाले और जो स्थिर है ऐसे दो प्रकार है। वैसे जीव भी स्थावर होते है जैसे वृक्ष है। और फिर अधिकतर जीव योनियां विचरण करती है। तो सारे चराचरम को में नियंत्रण करता हूं, यह मेरे अध्यक्षता में होता है और प्रकृति को माध्यम बनाकर सारे संसार को मैं चलाता हूं! ऐसा भगवान कहे है। यह माया भगवान की है। प्रकृति किसकी है? भगवान की है! माया मतलब बहीरंगा शक्ति। भगवान है शक्तिमान और माया है शक्ति! भगवान श्रीमद भागवत में कहे है, मेरे माया की शक्ति को तो देखो! हरि हरि। तो भगवान बन जाते है कठपुतलीवाला और हम सभी जीव, बद्ध जीव या संसार के जीव, प्राणी मात्रा हम है कठपुतली। भगवान है कठपुतलीवाले और हम है कठपुतलियां! तो कठपुतलीवाले के हाथ में डोरिया होती है और वह कठपुतलीवाला डोरियों के माध्यम से कठपुतलियों को चलाता है। लेकिन कठपुतलीवाला जब जिस रस्सी से या डोरी से कठपुतलियों को बांध दिया है वह हिलाएगा नहीं तो कठपुतली स्वतंत्र नहीं होती या कठपुतली स्वयंचलामान नहीं हो सकती, यह बड़ी सरल बात है! तो वैसे ही हमारा भी हाल है। संसार में जो भी हम करते है, माया से बंद हो के मायावी बनके तो यह कार्य वैसे हम नहीं करते! हमसे करवाया जाता है! भगवान गीता में कहे हैं
*प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |*
*अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।*
भगवतगीता ३.२७
अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
क्या बात है! क्या बात है! तो भगवान ऐसा कुछ सत्य सुनाएं है *प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |* प्रकृति में जो भी क्रिया होती है या प्रकृति से बद्ध जो जीव है वह कुछ भी कार्य करते है तो यह सारे कार्य गुनोंद्वारा उससे करवाए जाते है। यह सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण इनके द्वारा यह सब कार्य करवाए जाते है। *अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।* लेकिन जो अहांकरी और गधे हम जो हम संसार में है, *कर्ताहमिति मन्यते* मैं करता हूं! मैं ही कर रहा हूं! यह बद्ध जीव का अहंकार है, वह समझते हैं कि यह सब मैं कर रहा हूं। जैसे कठपुतलियां दावा करती है कि, मैं नाच रही हूं या मैं किसी को पीट रही हूं या फिर मैं आ रही हूं या जा रही हूं। लेकिन तुम जीव है वह तुम कुछ नहीं कर सकती जब तक कठपुतली वाला तुम्हें चलाएगा नहीं, नचाएगा नहीं या लिटाएगा नहीं तुम कुछ नहीं कर सकती हो! तो ऐसे हाल है इस संसार के बद्ध का जीवो का, तो हम पूरे बंधन में बंधे हुए है। बंधन तो माया का है, हम हमेशा कहते रहते है। लेकिन जो अधिक जानता है जो गीता को पड़ा है फिर वह कहेगा कि, माया कैसी है? त्रीगुनमयी माया है! और फिर क्या कहेगा? यह त्रिगुण मई माया है और फिर इन गुणों का, जो लोग सात्विक होते है, कुछ राजसिक और कुछ तामसिक होते है। तो हम कल कह रहे थे, कोई ब्राह्मण होते है, कोई क्षत्रिय होते है, तो कुछ वैश्य होते है या शुद्र होते है उनकी ऐसी पहचान या उपाधि मिलती है गुण के कारण। और भगवान ने समाज का, यह मानव जाति का चार वर्णों में विभाग किया है। किस आधार पर? गुण कर्मों के आधार पर! तो झट से हमें समझना होगा इन गुणों को। सत्वगुण या तमोगुण इसके कारण विभाजन होता है इन अलग-अलग चार वर्णों में विभाजन होता है। हरि हरि! और फिर आगे क्या होता है इन तीन गुणों का मिश्रण होता है। एक दूसरों में वह घुल मिल जाते है। और फिर यह 3 गुण चतुर वर्ण मतलब एक और से रंग ऐसे होता है। लेकिन सत्वगुण मतलब सफेद रंग, रजोगुण मतलब लाल रंग और तमोगुण मतलब काला रंग ऐसी भी समझ है इन वर्णों की। वर्ण मतलब कलर यानी रंग। तो इसका मिश्रण होता है मतलब 3 के जरिए 9 बन जाते है, 9 से फिर 81 बन जाते है, और फिर और मिल जाते है तो कई सारे वर्ण बन जाते है। और फिर हम कभी-कभी कहते है कि, वह पता चला उसने अपना रंग दिखाया, ऐसी चाल चली! तो ऐसे हम संसार में अलग अलग हो जाते है इन तीन गुणों का अलग-अलग मिश्रण होने से। वैसे प्रमुख रंग भी 3 माने जाते है, जब हम विद्यालय में पढ़ते थे जिसमें चित्रकला का क्लास होता था तो हम तीन कलर लेकर जाते थे लाल हरा और पीला। फिर हम एक दूसरे में कलर मिलाकर और कलर बनाते थे और ऐसे कितने सारे शेड और रंग बनाए जाते है हम देखते है। तो इस प्रकार हम कई सारी अलग अलग गुणों के बन जाते है और फिर रंग बदल भी देते है। जिसे गीता में भगवान कहे है कि, इन तीन गुणों में प्रतियोगिता चलती रहती है!
खींचातानी चलती रहती है! कभी यह सत्वगुण का प्राधान्य होता है तो कभी रजोगुण नीचे खींचेगा और ऊपर जाएगा और थोड़ी देर के बाद फिर तमोगुण नीचे खींचेगा और वह ऊपर जाएगा तो ऐसे प्रतियोगिता चलती रहती है। और फिर एक ही व्यक्ति कभी सत्वगुण तो कभी रजगुणी तो कभी तमगुणी कार्य करता रहता है। कभी-कभी अच्छे भी चकित हो जाते है कि, उसने ऐसा कहा वह ऐसे कभी नहीं करता था! वह भला या बुरा भी हो सकता है! किसी ने कुछ देखा या कहा या सुना तो हम कहते है, उसने ऐसा किया या ऐसे कहा मतलब दूसरा गन ऊपर गया और रजगुण ने उससे करवाया। तो यह सब चलता रहता है। एक गुण की स्थिरता नहीं देखी जाती, आश्चर्य नहीं होता है, उसमें खींचातानी होती रहती है और प्रतियोगिता चलती रहती है। और कभी-कभी तो यह चलता रहता है तो ऐसे ही यह चलता रहता है। तो यह बहुत बड़ा विषय है। 3 गुण! तो 3 गुण सर्वत्र है इन गुणों के कारण ही 4 वर्ण में बंटवारा होता है। तो जो काल है, काल भी और फिर यह चार युग भी जेसे सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग यह भी तीन गुणों के कारण ही बनते है। सत्वगुण का प्राधान्य है तो सत्ययुग ऐसे हम समझा रहे है। तो उस समय ब्राह्मणों का प्राधान्य होता है सत्ययुग में! तो सत्वगुण थोड़ा कम हुआ और थोड़ा रजोगुण आ गया तो तो त्रेतायुग बन जाता है। और सत्वगुण कम हुआ रजोगुण बढ़ गया और उसमें तमोगुण का मिश्रण हुआ तो द्वापर युग हो जाता है।
*त्वं नः सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् ।*
*कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम् ॥*
श्रीमद भागवत स्कंद १ अध्याय १श्लोक २२
अनुवाद :- हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है , जिससे मनुष्यों के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें ।
*कलिं सत्त्वहरं पुंसां* मतलब सत्व गुण का नामोनिशान नहीं रहा या हल्का सा कई गंद ही है।
सतोगुण से अधिक रजोगुण से अधिक तमोगुण इस युग में है उसका नाम है कलियुग ।
*कलौ शूद्र संभव:*
तात्पर्य : भगवान् श्रीकृष्ण में श्रील प्रभुपाद इस लीला का वर्णन करते हुए इस तरह समापन करते हैं : “ हम इस घटना से यह शिक्षा पाते हैं कि भगवान् ने राजा बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेव का एक ही स्तर पर स्वागत किया , क्योंकि दोनों ही विशुद्ध भक्त थे । भगवान् द्वारा पहचाने जाने के लिए यही वास्तविक योग्यता है । क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर झूठा गर्व करना आज के युग का प्रचलन बन गया है । अतएव हम पाते हैं कि जन्म के अतिरिक्त अन्य किसी योग्यता के न होते हुए लोग ब्राह्मण , क्षत्रिय अथवा वैश्य होने का दावा करते हैं , किन्तु जैसाकि शास्त्रों में कहा गया है कलौ शूद्रसम्भव : -इस कलियुग में प्रत्येक व्यक्ति शूद्र पैदा होता है । इसका कारण संस्कार नामक शुद्धिकरण की विधियों का निष्पादन नहीं होना है , जिनका शुभारम्भ माता के गर्भधारण से होता है तथा जो व्यक्ति के मृत्युपर्यन्त चलते रहते हैं । किसी भी व्यक्ति को जन्मजात अधिकार के आधार पर किसी विशेष वर्ण , विशेष रूप से उच्च वर्ण जैसे ब्राह्मण , क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्ण के सदस्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है । यदि गर्भाधान संस्कार द्वारा किसी का शुद्धिकरण नहीं किया जाता , तो उसे तत्काल ही शूद्रों में वर्गीकृत किया जाता है , क्योंकि केवल शूद्र ही यह शुद्धिकरण नहीं करते । कृष्णभावनामृत की शुद्धिकरण प्रक्रिया से रहित ऐन्द्रिय मैथुनिक जीवन शूद्रों अथवा पशुओं की गर्भाधान प्रक्रिया मात्र है । किन्तु कृष्णभावनामृत सर्वोच्च सिद्धि है , जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति वैष्णव पद को पा सकता है । इसमें समस्त ब्राह्मणोचित योग्यताओं से युक्त होना भी सम्मिलित है । वैष्णवों को ऐसी शिक्षा दी जाती है , जिससे वे चारों प्रकार के पापकर्मों से मुक्त सकें । ये चार पापकर्म हैं अवैध यौन , मादक पदार्थों का सेवन , जुआ खेलना तथा मांसाहार । इन प्रारम्भिक योग्यताओं के बिना कोई भी ब्राह्मणत्व के स्तर पर नहीं रह सकता तथा योग्य ब्राह्मण बने बिना , वह शुद्ध भक्त नहीं बन सकता । ”
कलियुग में प्रधान होगा शूद्रों का, सर्वत्र शुद्र पाए जाएंगे।
3 गुण सारे संसार को चलाते हैं ।
*प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः* *|*
*अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति* *मन्यते ||*
अनुवाद
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
यह सिर्फ अमेरिका में ही नहीं अपितु पूरे संसार में है।
इस पृथ्वी तक ही सीमित नहीं है तीन गुणों का प्रभाव।
सारे ब्रह्मांड भर में इन तीनों का प्रभाव है।
इसके कारण यह जो तीन लोक हैं तीन गुणों के कारण ही 3 लोक बनते हैं।
जहां सतोगुण का प्रधान है वह स्वर्ग लोक।
जहां रजोगुण का प्रधान है वह मृत्यु लोक।
जहां तमोगुण का प्रधान है वह है पताल लोक या नरक।
*ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |*
*जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || १८ ||*
अनुवाद
सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।
भगवान ने गीता में कहा –
जो सतोगुणी होते है वह ऊपर यानी स्वर्ग जाएंगे।
जो रजोगुणी होते हैं वह मध्य लोक, मृत्यु लोक यानी पृथ्वी पर जाएंगे।
जो तमोगुणी होते है, नीचे जाएंगे, जो पापी हैं, पाताल लोक सीधे नरक जाएंगे।
इन तीन स्थानों के अलावा चौथा स्थान और है।
स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक, नरक लोक, इनके परे है भगवान का लोक वैकुंठ धाम।
जो गुणातीत है * गुण अतीत* – गुणों से परे है।
जो जीव गुनातीत है जो साधक स्वयं को गुनातीत पहुंचाते हैं। शास्त्रों में शुद्ध सत्व भी कहा है।
*अवियाय कृष्ण भावना*
शुद्ध एक तो सतोगुण है , जो सतोगुण के बंधन से मुक्त हो गए।
सतोगुण भी बंधन है, रजोगुण भी बंधन है, तमोगुण भी बंधन है।
गुण को डोरी भी कहा गया है, गुण का अर्थ है डोरी (रस्सी)।
कठपुतली वाले के हाथ में डोरी होती है और उसी से वह कठपुतली को चलाता है घुमाता है।
यह 3 गुण डोरी है।
तमोगुणी होना मतलब तीनों डोरियों से बंधना ।
रजीगुणी होना मतलब दो डोरियों से बंधना ।
सतोगुणी होना मतलब एक डोरी से बंधना ।
लेकिन गुणातीत पहुंचना है कृष्णभावनाभावित होना है,
अंततोगत्वा वैकुंठ जाना है।
*माम एती*
मैं जहां रहता हूं वैकुंठ लोक में, वहां जाना है तो सतोगुण के बंधन से भी मुक्त होना पड़ेगा।
व्यक्ति जब सतोगुण के बंधन से मुक्त होता है तब शुद्ध सत्व अवस्था को प्राप्त करता है।
यही है कृष्णभावनाभावित होने की स्थिति, मन की स्थिति या विचार कार्यकलाप शब्द सत्त्व।
*माम ऐव सत्यअंते*
जो मेरी शरण में आएगा, भगवान ने कहा जो व्यक्ति मेरी शरण में आएगा तो *माम ऐव* यानी मेरे अकेले की शरण में जो आएगा, ऐसा करोगे तो , माया से तर सकता है, माया से बच सकता है और मुझे प्राप्त कर सकता है।
हरि हरि
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
जिसने नाम का आश्रय लिया है, नाम का आश्रय भगवान का आश्रय है।
जब हम जप करते हैं, जप योगी बनते हैं , जप यज्ञ करते हैं तो हम माया के बंधन हैं जो 3 गुणों का जो प्रभाव है उसको मिटाने का, उससे मुक्त होने का प्रयास या साधन है।
भगवान का आश्रय नाम आश्रय।
हरि हरि
गौर प्रेमानंदे
कोई प्रश्न?
क्या समझे या जाने?
समझे हो उस पर भी कुछ कह सकते हो।
*धर्मात्मा प्रभु मुंबई से -*
हरे कृष्ण प्रभु जी, महाराज जी के चरणों में दंडवत प्रणाम।
सभी वैष्णव के चरणों में दंडवत प्रणाम।
हम गौर निताई विग्रह की सेवा करना चाहते हैं घर में और महाराज जी की आज्ञा चाहते हैं क्या आज्ञा है उनकी?
*लोकनाथ स्वामी -*
आपके काउंसलर से ले लीजिए आज्ञा।
काउंसलर ने कहां हैं आप से पूछने के लिए।
यहां नहीं पूछना, इसका माध्यम अलग है।
*पदमाली -*
प्रभु जी आप इसकी अलग से व्यक्तिगत तौर से चर्चा कर सकते हैं।
यहां पर तो केवल जापा टॉक के विषय में प्रश्न या चर्चा हो।
भक्तों से प्रार्थना है, क्षमा कीजिए लेकिन पूछने से पहले सोच लीजिए कि आप क्या पूछना चाह रहे है।
*परम करुणा प्रभु -*
दंडवत प्रणाम गुरु महाराज
जब जीवात्मा यहां धरती पर कलियुग में जन्म लेती है और उसको हम सतोगुण मे ही रखते हैं, तो क्या कुछ समय बाद वह फिर से भौतिक जगत के संसर्ग में आता है, तो क्या रजोगुण और तमोगुण उसको उसी तरह से प्रभावित करेंगे या उसको सतोगुण से शुरू करा और सतोगुण तक लेकर गए ऐसा हो सकता है क्या?
*लोकनाथ स्वामी-*
लक्ष्य तो सतोगुणी बनना नहीं है।
लक्ष्य तो गुणातीत होना है, वही तो हम करते हैं इस अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संग में।
हमको संग मिलता है और हम सत्संग में आ जाते हैं।
कहीं किसी को बैठा लिया है बंद कर दिया है तो फिर वहां पर सत्संग में साधना करते हैं, विचारों का मंथन होता है जप साधना करते हैं।
होना यह चाहिए कि वैसे दही का मंथन करेंगे तो दही का जो सत्व है वह माखन होता है।
दही के मंथन से माखन ऊपर आएगा।
थोड़ा हल्का फुल्का भी होता है, तैरने लगता है और महिलाएं जो उसका मंथन करती हैं मैं उसको गोला बनाती है।
और वही तैरता रहता है, पूरे छाछ के ऊपर तैरता है।
नीचे दबाव के बाद ऊपर छलांग कर आ जाता है।
तो ऐसी स्थिति होनी चाहिए भक्तों के संग में, संगति में हमें तीन गुणों – सतोगुण से रजोगुण से तमोगुण से मुक्त होना है।
सतोगुणी लक्ष्य बनना नहीं है।
गुणातीत पहुंचना है और वही है कृष्ण भावना भावित हुए तो आप फिर आप संसार में होते हुए भी संसार से अलिप्त होंगे।
साधना करोगे श्रवण कीर्तन करोगे जप करोगे तो फिर तीन गुणों से प्रभावित नहीं होंगे।
*वामन प्रपन्न प्रभु निगडी से -*
हरे कृष्ण, गुरु महाराज जी गुणातीत बनने में ग्रहस्त को कितना समय लगेगा ?
*लोकनाथ स्वामी* –
प्रभुपाद बोले यह जीवन अंतिम जीवन बनाइए, आप कृष्ण भावना भावित हुए ऐसा प्रभुपाद में इच्छा व्यक्त करी।
यह संभव है, राजा परीक्षित भी तो गृहस्थ थे।
उसी जीवन में उनका उद्धार हुआ और अर्जुन और बाकी गृहस्थ भी हैं जो प्रशिक्षित हो रहे हैं वह गृहस्थ नहीं रहेंगे वानप्रस्थी बनेंगे।
संन्यास लेंगे या नहीं लेंगे परंतु उनमें सन्यास लेने का भाव होगा।
कामवासना से मुक्त होंगे।
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी एक ही व्यक्ति की तो बात चल रही है।
अलग-अलग जीवन की अवस्था में हर एक आश्रम का स्पर्श होता है।
तो एक ही तो जीवन में ब्रह्मचारी था एक समय, अब गृहस्थ बन गया।
लेकिन समझना चाहिए कि कलियुग में एक ही आश्रम चलता रहता है।
पहला और अंतिम आश्रम गृहस्थ आश्रम होता है।
जीना यहां और मरना भी वहां गृहस्थ आश्रम में ही।
ऐसा प्रभाव है इस कलियुग का।
लेकिन जब हम साधक बनते हैं कृष्णभावनामृत से जुड़ जाते हैं।
फिर हम शिक्षित होकर दीक्षित भी हो जाते हैं।
सदा के लिए गृहस्थ नहीं रहना चाहिए। हमको वानप्रस्थ का भी सोचना है।
वन में जाने की जरूरत नहीं है घर में रहकर भी वानप्रस्थ के कार्यकलाप करने चाहिए।
और फिर सन्यास भी नहीं लेते हो। सन्यास कामना से मुक्त होना है।
सन्यास अवस्था प्राप्त करनी है।
यह सब इसी जीवन में करना है।
प्रभुपाद उदाहरण दिया करते थे जैसे व्यापारी व्यापार करता है और लाभ का इसी जीवन में सोचता है ना कि अगले जीवन में।
इस जीवन के अंत से पहले हमारा लाभ है कृष्ण प्रेम।
ऐसा लक्ष्य बनाओ।
और हम कल या परसों यह भी कह रहे थे कि कृतवांग मुनि के पास एक ही मुहूर्त था और उन्होंने उसी मुहूर्त में कृष्णभावनाभावित बन गए।
इस जीवन में यह कैसे संभव है समय तो थोड़ा है लेकिन फिर कृतवांग मुनि के पास एक ही मुहूर्त था मतलब हमारी जो गतिविधियां है कृष्ण भावना भावित तीव्र भक्ति योग।
*एतत पुरुष परम*
हमारी भक्ति को तीव्र भक्ति बनाना होगा।
दो चीजें बड़ानी है,
तीव्रता और आवृत्ति को बढ़ाओ।
भागवत में कहा गया है भक्ति कैसे करनी चाहिए भौतिक प्राकृतिक मायावी हेतु ना हो।
मतलब तीव्र भक्ति शुद्ध भक्ति और कब कब करें?
अखंड भक्ति तीव्र भक्ति तो हमें जीवन के अंत की राह नहीं देखनी होगी।
जीवन में पहले ही मुक्त होंगे जब भी शरीर छूटेगा छूटने दो तब भगवत धाम लौटेंगे लेकिन हम अभी हम तैयार हैं।
क्या भरोसा इस जिंदगी का, कोई भरोसा नहीं है, कृष्ण भावना मृत को टालना नहीं है।
जो लक्ष्य है उसको टालना नहीं है, अभी और यहीं ऐसे विचारों के साथ आगे बढ़ेंगे जीवन के अंत के पहले ही।
हरि हरि
*पदमाली -*
अन्य भक्त जिनके प्रश्न है जो प्रश्न पूछना चाहते थे समय मर्यादा के कारण हम यही समाप्त करेंगे।
हम रोज बताते ही हैं, चैंट जप विथ लोकनाथ स्वामी फेसबुक पेज है।
वहां पर आप अपनी प्रश्न लिख सकते हैं तो यह नहीं सोचना है कि वहां कौन लिखेगा मैं तो महाराज से ही पूछूंगा/पूछूंगी ।
यदि सब भक्त यही भाग रखेंगे इतनी सारी सुविधाएं , इतनी सारी प्लेटफार्म बढ़ाने का मतलब नहीं है।
वह भी हम पहले कह चुके हैं और आज फिर दोहरा रहा हूं। वहां भी गुरु महाराज व्यक्तिगत तौर पर देखते हैं।
कौन से भक्त क्या प्रश्न पूछ रहे है और काफी बार खुद गुरु महाराज उत्तर देते हैं।
लिखने वाला कोई और भक्त हो सकता है परंतु उत्तर गुरु महाराज की ओर से ही होते हैं।
और यदि गुरु महाराज ने उत्तर नहीं दिए हो तो गुरु महाराज के निर्देशन में ही उत्तर दिए जाते हैं।
आप यह ना सोचें कि आपको प्रश्न पूछने का मौका नहीं मिला।
*लोकनाथ स्वामी -*
आप एक दूसरे के प्रश्न का उत्तर भी दे सकते हैं।
यह जो मंच है जिनको उत्तर पता है वह उत्तर दे सकते हैं।
आप में से कोई प्रश्न का उत्तर दे सकता है और उत्तर दे रहे भी हैं।
जो विद्वान है ज्ञानी है उत्तर दे सकते हैं।
हरे कृष्ण
आज हम यही विराम देंगे।
लोकनाथ स्वामी की जय
श्रील प्रभुपाद की जय
🙏
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
18 October 2020
Transcend the three Modes of Material Nature
Hare Krishna! Devotees from 727 locations are chanting with us right now.
We shall continue yesterday’s topic. We were discussing the three modes of nature.
daivi hy esa guna-mayi
mama maya duratyaya
mam eva ye prapadyante
mayam etam taranti te
Translation:
This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it.[ BG 7.14]
Nature is made up of 3 modes. It is very difficult to overcome these 3 modes. But Krsna says, “Those who surrender unto Me, can easily be freed from the clutches of Maya.” We become conditioned by the influence of Maya. Maya entangles us. We have to understand which energy is bounding me. We have to understand this Maya so that we can become free. People are not even aware that they are under the influence of Maya. They don’t know that they are bound by the clutches of Maya. If a fish can be asked how is the water? The fish can ask which water as the fish always remains in the water and doesn’t think much about it. Similarly, people are under the influence of Maya, but they don’t think much about it. A Krsna consciousness person can only know about Maya. When a person becomes advanced in Krsna consciousness then slowly he can identify Krsna and Maya. This is also knowledge. Krsna also explained this in the 14th chapter of Bhagavad Gita entitled “Three modes of material nature”. Faith depends on these three modes.
The instructions that Krsna gave to Arjun are very important. It is not a routine or general leisure time talk. This talk is between two large armies on the battlefield just before the great battle was about to start. There cannot be gags and gossips or unimportant talks at such time.
mayadhyaksena prakrtih
suyate sa-caracaram
hetunanena kaunteya
jagad viparivartate
Translation:
This material nature is working under My direction, O son of Kunti, and it is producing all moving and unmoving beings. By its rule this manifestation is created and annihilated again and again.[ BG 9.10].
Krsna says, “I am the Master of Nature. All the moving and immobile are controlled by Me.” They are controlled under the mastership and supervision of Krsna. What is nature? It is the external energy of Krsna. It is very powerful. We are all mere puppets, and Krsna is our controller. The master controls the puppets using thin invisible threads. These three modes of Nature are these threads. The puppets are not free or independent to move or take any step. Similarly whatever we do, is only out of the dominance of any of these three modes of Nature.
prakrteh kriyamanani
gunaih karmani sarvasah
ahankara-vimudhatma
kartaham iti manyate
Translation:
The bewildered spirit soul, under the influence of the three modes of material nature, thinks himself to be the doer of activities, which are in actuality carried out by nature.[ BG 3.27]
Whatever we do in the material world is under the influence of the three modes of material nature, but foolish people think that we are the doers. The person who reads Bhagavad Gita knows this easily.
Based on these qualities dominated by the three modes of nature, society is classified into 4 Varnas – Categories.
atur-varnyam maya srstam
guna-karma-vibhagasah
tasya kartaram api mam
viddhy akartaram avyayam
Translation:
According to the three modes of material nature and the work ascribed to them, the four divisions of human society were created by Me. And, although I am the creator of this system, you should know that I am yet the non-doer, being unchangeable.[ BG 4.13]
Also, there is a mixture of the three modes. Varna also means colour.
1. Sattva – White
2. Raja – Red
3. Tama – Black
These are the colours that symbolize these gunas/modes. There are 3 main colours. I remember when we had Art class at school, we would carry 3-4 colours with us and then make more colours by mixing them in different proportions. Similarly, every person has all these three Gunas in different proportions. All actions are based on the qualities dominated either by the mode of goodness, passion or ignorance. These three modes are everywhere and accordingly, the 4 Varnas have been categorised. Even the 4 Yugas are divided according to the dominance of different Gunas. In Satya – Sattva Guna is prominent. In Treta – Sattva Guna is lessened and Raja Guna enters. And in Dwapare yuga, Tama Guna enters. Then there is no sign of Sattva guna in Kaliyuga and Sudras can be found everywhere. Not only in India, but in every part of the universe. Because of 3 Gunas, three Loks are made. In Swarga Lok mode of goodness is prominent, Passion is prominent in Mrityu Lok, mode of ignorance is prominent in Patal Lok or it is also called hell.
urdhvam gacchanti sattva-stha
madhye tisthanti rajasah
jaghanya-guna-vrtti-stha
adho gacchanti tamasah
Translation:
Those situated in the mode of goodness gradually go upward to the higher planets; those in the mode of passion live on the earthly planets; and those in the mode of ignorance go down to the hellish worlds.[ BG 14.18].
Above these planets, there is one more planet which is the abode of the Lord, Vaikuntha Dhama, which is free from the three modes. If a living entity is free from the three modes then he goes back home, back to Godhead. These Gunas are like a rope. If we are in the mode of ignorance then we are bound by three ropes, similarly, if we are in a mode of passion then we are bound by two ropes and similarly by 1 rope if we are in a mode of goodness. We have to free for Sattva Guna also and we have to reach suddha satva stage. Then we can go to Vaikuntha.
Those who have taken shelter of the name are taken the shelter of the Lord. When we do Japa we become Japa Yogi. When we do Japa Yagya then we become free from the three modes of material nature.
Questions and Answers session
Question 1: If a soul comes to this material and if the parents give only the goodness environment to the child then will it get influenced by other modes because of Maya? Can we again bring him to the mode of goodness? (Paramkaruna Prabhu, Nagpur)
Gurudev Uvaca: Being in the mode of goodness is not our motive. ISKCON has been formed to bring people out of the clutches of Maya beyond the three modes of Nature. When we associate with the devotees we will be free from these three modes.
When you churn the yogurt well in essence the butter separates and starts floating. Similarly, after achieving perfection by practice we will be separated from this Maya, though we will be in this world. When you will do sadhana, Japa and Kirtana you will be not affected by the three modes.
Question 2: How much time does it take for a grhasta to become free from all the modes? Is it possible? (Vamana Prabhu, Nigidi)
Prabhupada said that in this life only you have to attain perfection. You have to become Krsna conscious. Raja Parakshit was also a grhasta and many such grhastas attain perfection. Those who are taking training, will not remain grhasta for a lifetime, they will become vanaprastha. They will take sannyasa. At least that mood will be there. They will be free from lust. In one lifetime, you have to become brahmachari, grhasta, vanaprastha, and sannyasi.
In Kaliyuga people don’t go further than the grhasta ashram. When we do sadhana and become initiated then we should not stick to grhasta ashram, we have to become vanaprastha. It’s not necessary that you have to go the forest. You can be at the home and do all the activities. After taking sannyasa we have to free from lust. All these you have to do in this lifetime. Prabhupada would say that businessmen expect the profit on the same day. He doesn’t wait for the next year. Similarly, we have to attain Krsna prema in this life only. Make a goal to make this life your last life.
Like Khatwanga Muni had just 48 minutes and he did it. We have 1 lifetime. Make your devotion very intense. We have to increase the intensity and frequency. Ahaituki apratihata Intense and continuous devotional services are the solution. If you do so, you should not wait for the last moment, before that itself you will become liberated. We will be ever ready. Whenever we leave the body we will go to back home, back to Godhead. Don’t postpone it. Now and here we have to become Krsna conscious.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक 17 अक्टूबर 2020
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 723 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
अर्थ:- मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी आकाश से मेरी आंखें खोल दी। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूं।
थाईलैंड के भक्त सामूहिक मंगल आरती कर रहे हैं। वहाँ मंगल आरती का समय है। हरि! हरि!
आप सब जप कर रहे थे। दुनिया के अधिकतर लोग जप करते ही नहीं, क्या आप ऐसे लोगों को जानते हो जो जप नहीं करते हैं? आपके इर्द-गिर्द या अड़ोस- पड़ोस या आपके मोहल्ले, नगरादि ग्रामों में ऐसे लोग मिलेंगे जो जप भी नही करते और तप भी नहीं करते। वे कुछ भी नहीं करते, केवल अपना काम धंधा ही करते रहते हैं। काम का धंधा करते हैं। वे कलि के चेले होते हैं।
भागवतम में वर्णन है-
कलौ शुद्रसम्भव: (श्रीमद् भागवतं १०.८६.५९ तात्पर्य)
अर्थ:- इस कलियुग में प्रत्येक व्यक्ति शुद्र पैदा होता है।
कलौ अर्थात कलियुग में, शूद्र
अर्थात शुद्र, सम्भव मतलब होना अर्थात कलियुग में शुद्र होते हैं।
हरि! हरि!
त्वं नः सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम्।
कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम्।। (श्रीमद् भागवतम १.१.२२)
अर्थ:- हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्यों के सत्व का नाश करने वाले उस कलि रुप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रुप में ग्रहण कर सकें।
कलियुग में व्यक्ति शुद्र कैसे बनता है अर्थात कलि का चेला कैसे बनता है? ‘सत्त्वहरं पुंसां’
जब यह कलियुग मनुष्य की सत्व गुण अथवा अच्छाई जिसे मराठी में सांगलुपना भी कहते हैं, को हर लेता है अर्थात जब वह सत्व से रहित या सतो गुण से रहित कहा जाए या एक से युक्त और दूसरे से मुक्त हो जाता है, तब वह कलि का चेला बनता है। कलियुग, सतोगुण से मुक्त होता है। कलियुग के जीवों में सतोगुण नहीं होता है। वे तमोगुण से युक्त होते हैं। सतो, रजो , तमो तीन ही गुण होते हैं और कलियुग में तमोगुण का प्राधान्यता होती है। इसीलिए ‘कलौ शुद्रसम्भव:’ लोग सर्वत्र शुद्र होंगें अर्थात इस पृथ्वी पर सभी मनुष्य अधिकतर शुद्र ही होंगे। यहां हिंदू होने का कोई संबंध नहीं है। हम हिंदू थोडे ही हैं? विदेश के लोग कहते हैं कि हम हिंदू थोडे ही हैं। हम हिंदू नहीं हैं, इसलिए हम शुद्र भी नहीं हैं। हमारा शुद्रता के साथ कोई संबंध नहीं है। हम हिंदू नहीं हैं। आप हिंदू हो या नहीं हो लेकिन आप शुद्र हो क्योंकि आप कलियुग में हो। कलियुग में तमोगुण की प्राधान्यता होती है और तमोगुण विश्वव्यापी है। हरि! हरि!
चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || ( श्री मद् भगवतगीता ४.१३)
अनुवाद:- प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये | यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्त्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ |
भगवान कहते है कि ‘चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ अर्थात मैंने ही इन चार वर्णों की व्यवस्था की है कि कौन किस वर्ण का है? यह इस वर्ण का है, वह इस वर्ण का है, यह कैसे निर्धारित होगा? गुणकर्मविभागशः- कौन व्यक्ति किस वर्ण का है? यह उसके गुण और कर्मों पर निर्भर रहेगा। यह तो वेद की वाणी है और गीता की भी वाणी है, कृष्ण की वाणी है। यह सतो, रजो और तमो जो तीन गुण जो है- यह कितना बढ़िया ज्ञान है। यह उत्तम ज्ञान है। हरि! हरि!
दुनिया वालों को यह गुण क्या होते हैं, उनका पता ही नहीं है। इस संसार में गुणो- अवगुणों की गणना होती रहती है कि यह गुण है, वह गुण है लेकिन शास्त्रों, वेदों, पुराणों , भगवत गीता में तीनों गुणों सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण का उल्लेख किया हुआ है। गुणकर्मविभागशः से समाज का विभाजन होगा।
चातुवर्ण्यं मया सृष्टं
चातुवर्ण्यं अर्थात चार वर्ण। समाज, देश, संसार का चार वर्णों में विभाजन होगा और हुआ है। जो सतोगुण में हैं, वे ब्राह्मण हैं।आपको ब्राह्मण-अमेरिका, यूरोप, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया,अफ्रीका में भी मिलेंगे। उनको लोग ब्राह्मण नहीं कहते हैं क्योंकि ब्राह्मण क्या करते हैं? (यह आपको थोड़ा ज़्यादा बता रहे हैं, थोड़ी आगे की बात बता रहे हैं) ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन, यजन याजन करते हैं। वे अध्ययन अध्यापन किसका करते है?- शास्त्रों का अध्ययन व अध्यापन करते हैं। वे शास्त्र को पढ़ते और पढ़ाते हैं । शास्त्र तो संसार भर में हैं । बाइबल, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब आदि जो इन ग्रंथों का अध्ययन करते हैं व जो गिरजाघर या चर्च या मस्जिद या गुरुद्वारे से जुड़े हुए हैं वे ब्राह्मण हैं। वे शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और उसको पढ़ते, पढ़ाते हैं व उसका प्रचार भी करते हैं। वे स्वयं धार्मिक हैं। वे गॉड कॉन्शियस हैं लेकिन कृष्ण कॉन्शियस नहीं हैं। अपितु वे गॉड कॉन्शियस तो हैं ही। वे सतोगुणी ब्राह्मण होंगे।
क्षत्रिय रजोगुणी होंगे। उनमें कुछ सतोगुण भी होगा कुछ रजोगुण भी होगा। यह दो वर्ण हुए।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जिसमें सतोगुण भी कम् हुआ रजोगुण कम् हुआ और थोड़ा तमोगुण भी आ गया। ऐसा व्यक्ति वैश्य बनता है। जिससे वैश्यों का समाज बनता है। इस प्रकार पूरा संसार, देश अथवा मनुष्य जाति का विभाजन होता है कि यह ब्राह्मण है, यह क्षत्रिय है और यह वैश्य है। हर एक का अपना कार्य होता है। क्षत्रियों का कार्य प्रशासनिक केवल शासन ही नही अपितु सुशासन अथवा अनुशासन करना होता है।
ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम्।
आचरन्दासवन्नीचो गुरौ सुदृढ़सौहदः ।। ( श्रीमद् भागवतम ७.१२.१)
अनुवाद:- नारद मुनि ने कहा: विद्यार्थी को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखने का अभ्यास करे। उसे विनीत होना चहिये और गुरु के साथ दृढ़ मित्रता की प्रवृति रखनी चाहिए। ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह महान् व्रत लेकर गुरुकुल में केवल अपने गुरु के लाभ के हेतु ही रहे।
जब वैदिक पद्धति में क्षत्रिय बालक को ब्रह्मचारी आश्रम में भेजा करते थे। जब कृष्ण और बलराम भी छोटे थे और भी कई सारे बालक भी, संदीपनी मुनि के आश्रम में गए थे।
ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम्- जब बालक ब्रह्मचारी होते हैं, वहीं पर उन बालकों की प्रवृत्ति व उनके गुण धर्मों को देखा जाता है, उनका अवलोकन किया जाता है। उनके लक्षणों की ओर ध्यान दिया जाता है। उसके अनुसार उनको वहीं पर ट्रेनिंग दी जाती है। यह ब्राह्मण बनेगा अर्थात इसमें ब्राह्मण के गुण अथवा प्रवृत्ति है। इसमें ब्राह्मण के कार्यों में प्रति कुछ, लग्न अथवा आकर्षण है।
जिसमें लीडरशिप क्वालिटी( प्रबंधन का गुण) भी है। वह एक क्षत्रिय बन सकता है। उसको एक क्षत्रिय की ट्रेनिंग दी जाती थी।वैश्य अर्थात कृषि गौरक्षा वाणिज्य, कृषि अथवा गौ रक्षा व पशुपालन, व्यापार करेगा और जिनमें ब्राह्मणों की प्रवृति व गुण नही है, क्षत्रियों की भी नहीं है, वैश्यों की भी नहीं है अथवा जो फिर बचे हैं व अवशेष हैं। वे शुद्र होंगे। वे सेवा करेंगे। वे ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों की सहायता करेंगे।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को द्विज कहा है। द्विज मतलब दूसरा जन्म। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का होता है लेकिन शुद्र द्विज नहीं कहलाते। वे केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सहायता करते हैं। लेकिन फिर भी वर्णाश्रम पद्धित में उनका समावेश है। क्योंकि वे शुद्र बन कर भी ब्राह्मणों को सहायता करते हैं । जब ब्राह्मण मंदिर का निर्माण करेंगे, तब वे उसके लिए पत्थर फोड़ेंगे, वुड वर्क आदि कर ब्राह्मणों की सहायता करते हैं या राजा की सहायता करते है। इस प्रकार शूद्रों का भी वर्णाश्रम में समावेश है। हरि! हरि! लेकिन जो शुद्र होने के लिए भी फिट नही हैं या जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों की सेवा करने की क्षमता नहीं रखते अथवा उनमें ऐसी कोई रुचि नहीं है तब वे फिर कहीं फिट नहीं होते और वर्णाश्रम धर्म में उनका समावेश नहीं होता। वे यवन बन जाते हैं, चांडाल बन जाते हैं। चांडाल,शुद्र से भी नीच है। यवनाखसा
भागवतं में ऐसे कई सारे उल्लेख हुए हैं। हरि! हरि! ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो शुद्र भी नहीं होते, शुद्र से भी नीच होते हैं। फिर वे मनुष्य भी नहीं होते हैं।
आहारनिद्राभयमैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मों हि तेषामधिको विशेषो
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।। ( हितोपदेश)
अनुवाद:-मानव व पशु दोनों ही खाना, सोना, मैथुन करना व भय से रक्षा करना इन क्रियाओं को करते हैं परंतु मनुष्यों का विशेष गुण यह है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन का पालन कर सकते हैं। इसलिए आध्यात्मिक जीवन के बिना, मानव पशुओं के स्तर पर है।
शुद्र को पशु नही कहा जायेगा क्योंकि शुद्र भी मदद कर रहे हैं। वे अप्रत्यक्ष रूप से भगवान या भगवान के सेवकों की सेवा कर रहे हैं अर्थात वे ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्यों की सहायता कर रहे हैं। वे धर्म विहीन नहीं हैं। वे भी धार्मिक हैं क्योंकि वे भी सहायता कर रहे हैं । जिस प्रकार हमारे शरीर के सारे अवयव या अंग पेट की पूजा अथवा सेवा करते हैं। पेट शरीर का एक केंद्र है। पेट ही सेंटर पॉइंट है। पेट भरने के लिए अन्य अंग भी काम करते हैं, हाथ, पैर सब काम करते हैं। जब पेट भर जाता है तो फिर उन पदार्थों को हजम करने में, उसको पाचन क्रिया में और फिर अंग जैसे पैर भी सेवा करते हैं अथवा सहायता करते हैं। सिर, हाथ, पेट, पैर सभी शरीर के अवयव हैं। यह सारे मिलकर एक दूसरे को योगदान देते हैं, उनका एक प्रकार से लक्ष्य बन जाता है –
अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। ( श्रीमद् भगवतगीता ३.१४)
अनुवाद: सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है।
भूतानि अर्थात होंगे, मनुष्य अर्थात और अन्य योनियों के शरीर भी बने रहेंगे। इस शरीर का मेंटेनेंस संभव है। कैसे? अन्नाद्भवति भूतानि- जब हम अन्न ग्रहण करते हैं, तभी हम जी सकते हैं। तभी हमारा मेंटेनेंस संभव है,अन्न ग्रहण करके बॉडी का मेंटेनेंस होगा अथवा यह शरीर जीता रहेगा व बना रहेगा। इसमें चारों अवयव । सारे मनुष्यों के शरीर के जो अलग-अलग अवयव, अंग, पुर्जे व पार्ट्स हैं। समाज की रक्षा के लिए, समाज की मेंटेनेस के लिए व समाज की स्थिति के लिए योगदान देंगे। सृष्टि, स्थिति, प्रलय यह तीन क्रियाएं होती हैं। सृष्टि तो हो गयी। शरीर ने जन्म लिया हुआ है। सृष्टि जब होती है तो उसका पालन कार्य भी बना रहता है तो समाज को मेंटेन करना है सारे मनुष्य समाज को मेंटेन करना है।
चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || ( श्रीमद भगवद्गीता ४.१३ )
इस मेंटेनेंस में सारे चारों वर्ण के चारों आश्रम भी आते हैं । पहले वर्ण होते हैं, फिर आश्रम होते हैं। चारों वर्णों के लोग जुड़े रहते हैं।
भागवतम् में वर्णन है
अतः पुम्भिर्द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागशः।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम्।। ( श्रीमद् भागवतं १.२.१३)
अर्थ:- अतः हे द्विजश्रेष्ठ, निष्कर्ष यह निकलता है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा करने से जो परम् सिद्धि प्राप्त हो सकती है, वह है भगवान को प्रसन्न करना।
सभी को मिलकर पेट को संतुष्ट करना है पेट भरना है, पेट एक प्रकार से इस शरीर का केंद्र है अथवा स्त्रोत है। इसी प्रकार सारे मनुष्यों का स्तोत्र भगवान है।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। ( श्रीमद् भगवद्गीता १४.४)
अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ।
भगवान हमारे बीज हैं। भगवान हैं तो हम हैं। भगवान के कारण हम हैं। यह सारा समाज, यह सारी मानव जाति, मनुष्य समाज मिलकर मनुष्य के केंद्र में जो भगवान हैं, उनकी सेवा में लगे रहते हैं। संसिद्धिर्हरितोषणम्। यदि हम भगवान की सेवा में लगे रहते हैं तो भगवान प्रसन्न होते हैं और भगवान की प्रसन्नता ही संसिद्धि कहलाती है। वही हमारे जीवन की परफेक्शन है। सारे मनुष्य ने मिलकर सिद्धि को प्राप्त करना है। तभी परफेक्ट ह्यूमन सोसाइटी बनेगी जब सारे वर्णों और सारे आश्रमों के लोग मिलकर रहेंगे।
यहां तो वर्णो की चर्चा हो रही है। जब सभी जन भगवान की सेवा में लगेंगे।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। ( श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
धर्म संस्थापना हेतु साधुर् व्यवहार करेंगे… यदि वे धार्मिक हैं तो वे साधु भी कहलाएंगे। उनके सारे व्यवहार का उद्देश्य संसिद्धिर्हरितोषणम् होगा। अर्थात वे उसी के साथ धर्म की स्थापना करेंगे। कृष्णभावना की स्थापना करेंगे।
जब कृष्णभावना की स्थापना होगी और धर्म की स्थापना होगी, तब वही धर्म देश , मनुष्य समाज की रक्षा करेगा।
हरि! हरि!
मनु स्मृति का वचन है
धर्म रक्षति रक्षिता
हमनें धर्म का रक्षण किया, हमनें धर्म का पालन किया या हमनें धर्म का प्रचार प्रसार किया तो हम इस धर्म की छत्रछाया में सभी सुरक्षित रहेंगे।
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गःपरं व्रजेत्।। ( श्रीमद् भागवतम १२.३.५१)
अर्थ:- हे राजन यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण भी है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भव बंधन से मुक्त हो सकता है और दिव्य धाम को प्राप्त करता है।
इस समाज, देश, परिवार में जो भी दोष अथवा त्रुटियां हैं, यह कलियुग का प्रभाव है। यह कलियुग के प्रभाव के कारण त्रुटि है।
पूरा समाज या पूरा देश या पूरी मानव जाति धर्म का अवलंबन करने से ही मुक्त होगी। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गःपरं व्रजेत्, तब हम फिर कलि के चेले नहीं रहेंगे। कलि के चेले ही तो ऐसा काम धंधा करते हैं, अपना खान-पान ऐसा रखते हैं क्योंकि राजा परीक्षित ने 5000 वर्ष पूर्व कलि को वो स्थान दिया था, अरे, तुम वहां रह सकते हो, जहां क्या होता है?
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ।
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्र्चतुर्विधः।। ( श्रीमद् भागवतम १.१७.३८)
अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा: कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किए जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी, जहाँ जुआ खेलना, शराब पीना, वेश्यावृत्ति तथा पशु- वध होते हों।
जहाँ द्यूतं पानं होता है।
जहां मद्यपान होता है। कलि तुम वहां रहो। स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्र्चतुर्विधः जहाँ अभक्ष्य- भक्षण होता है, मांस मछली भक्षण होता है, वहां तुम रहो। जहाँ वेश्या गमन होता है, परस्त्री या पर-पुरूष गमन होता है, तुम वहां रहो। कलि के चेले बनकर हम यह सब काम धंधा करते रहते हैं। हमारा ऐसा चरित्र होता है हमारा ऐसा व्यवहार होता है, ऐसा हमारा खानपान होता है। ऐसा हमारा संग होता है। इसे ही भागवतम में कहा है
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः।
यह दोष युक्त अथवा दोषपूर्ण जो समाज है, मनुष्य जाति है लेकिन यदि हम धर्म का अवलंबन करेंगे तो क्या होगा? कलियुग का धर्म है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तब उसी के साथ वे जपकर्ता / कीर्तनकार अथवा वे वैष्णव या गौड़ीय वैष्णव परम दृष्ट्वा निर्वन्ते अर्थात ऊंचा ऊंचा स्वाद का अनुभव करने लगेगा। जिससे वह बड़ी आसानी के साथ यह मांस भक्षण, यह अवैध स्त्री पुरुष सङ्ग, नशापान या जुगाड़ आदि ठुकरा सकता है। तत्पश्चात यह सारे विचार अथवा ऐसे विचार ही नहीं आएंगे। वह ऐसे विचारों से मुक्त होगा। जब ऐसा विचार ही नहीं होगा तो ऐसा आचार कहां से होगा। ऐसे विचारों व ऐसी वासनाओं से व्यक्ति मुक्त हो जाएगा। पाप की वासना ही नहीं रहेगी।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥१२॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। ( श्रीमद् भगवतगीता १०.१२-१३)
अनुवाद:-अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।
सूर्य उदय हो रहा है। सूर्योदय होते ही जो कृष्ण सूर्य सम अर्थात कृष्ण जो सूर्य के समान है। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधेरा दूर दूर भागता है। जहां कृष्ण वहां माया का अधिकार नहीं होता है। जहां सूर्य अथवा प्रकाश है वहां अंधेरा टिक नहीं सकता। वैसे भी जहां कृष्ण हैं, वहाँ माया टिक ही नहीं सकती।
चैतन्य चरितामृत में वर्णन है
कृष्ण सूर्य सम; माया हय अंधकार। याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार आधिकार।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.३१)
अनुवाद:- कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान है। जहाँ कहीं सूर्य प्रकाश है, वहां अंधकार नहीं हो सकता। ज्यों ही भक्त कृष्ण भावनामृत अपनाता है, त्यों ही माया का अंधकार तुरंत नष्ट हो जाता है।
यह मायावी कलियुग नहीं टिकेगा। इसका विनाश होगा। हरि! हरि! आप किसी कलि के चेले का नाम सुनना चाहते हो? कईं हैं और थे भी। ज्वलंत उदाहरण जगाई मधाई है। पापिइन में नामी। उनका नाम पापियों में था। वे हर प्रकार का पाप किया करते थे।
मैं कहना चाहता था कि जैसे ही हम भगवान के संपर्क में आ जाते हैं तब भगवान जो पवित्र हैं तब हमारे अंदर जो भी अपवित्रता व अमंगल या गंदगी व गंदे विचार हैं, भगवान उसको पवित्र बना देते हैं। कीर्तन करने वाला, जप करने वाला या फिर नित्यम भागवत सेवया करने वाला अर्थात भागवत का श्रवण करने वाला या सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, अर्थात कृष्ण प्रसाद का अमृत पाने वाला, सत्संग करने वाला, पवित्र होंगे क्योंकि वे भगवान के संपर्क में आ जाते हैं।
साधु- सङ्ग’, ‘साधु- सङ्ग’- सर्व शास्त्रे कय।
लव मात्र साधु सङ्गे सर्व- सिद्धि हय।। (श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.५४)
अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है। हमारा “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” कहते ही भगवान् कृष्ण के साथ संपर्क हो जाता है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥
(श्रीमद भागवत 1.1.1)
अनुवाद : हे प्रभु , हे वसुदेव – पुत्र श्रीकृष्ण , हे सर्वव्यापी भगवान् , मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ । मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति , पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं । वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं , क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं । उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े – बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं , जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है । उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड , जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं , वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं । अतः मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं । मैं उनका ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे ही परम सत्य हैं ।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय कहते सुनते ही और भगवान की लीला कथा सुनते ही हम भगवान के संपर्क में आ जाते हैं। यदि हम भगवान के भक्तों के संपर्क में आ गए तो भगवान के भक्त तुरंत ही हमारा संबंध भगवान के साथ स्थापित करेंगे। जैसे यहां हो रहा है। वहाँ भी भगवान की चर्चा होगी। जैसे यहां सत्संग हो रहा है । वहाँ पहुंचते ही वहां क्या होगा?
भगवान् कहते हैं –
मेरा जो वीर्य है शौर्य है…
उसकी चर्चा सुनने को मिलेगी। जब हम भगवान के तीर्थ आते हैं जैसे पंढरपुर आए या फिर इस्कॉन के मंदिर गए तब हम मुक्त आत्माओं के संपर्क में आते हैं और उनका दर्शन हमें पवित्र बना देता है। हरि! हरि!
चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || १३ ||
अनुवाद: प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये | यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्त्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।
भगवान ने चार वर्ण चार आश्रम बनाए हैं। पहले वर्ण होते हैं तब आश्रम भी बनते हैं। इसको समझिएगा। हमें वर्णाश्रम का पालन करना है। एक दूसरे का हरिनाम का दान देना है। और इसी के साथ संसिद्धिर्हरितोषणम् जो लक्ष्य है और कृष्ण भावना की स्थापना होगी।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार।
नाम हइते हय सर्व जगत निस्तार ।। (चैतन्य चरितामृत 1.17.22)
अनुवाद:- इस कलियुग में भगवान के पवित्र नाम अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र भगवान कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है। जो कोई भी ऐसा करता है, उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है।
भगवान् हरिनाम का अवतार ले हरिनाम के रूप में अवतरित हुए है। धर्मसंस्थापनार्थाय हरिनाम ही धर्म है। इसकी स्थापना करने का कार्य हमारा है अर्थात हम भक्तों का है। हम गौड़ीय वैष्णवों का है। हम साधकों का है, जो साधक आप बने हो। हम भगवान् के सम्पर्क में आकर और यदि उनके सम्पर्क में रहेंगे तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा और भी बहुत कुछ होगा।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!रे।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
17 October 2020
Varnashram is for the pleasure of Lord Hari
Hare Krsna! Devotees from 720 locations are chanting with us right now.
om agayana-timirandhasya
gayananjana-salakaya
chaksur unmilitam yena
tasmai sri-gurave namah
Devotees from Thailand are doing Mangal Aarati and you all were chanting. Most of the people in this world don’t chant. You can see many people around you who are not chanting. They don’t chant nor perform any austerity. They are always engaged in their work. They are the followers of Kali.
kalau sudra-sambhava
Everyone in this age of Kali Yuga is a Sudra[low class]. They are all majorly in the mode of ignorance. Their goodness is taken away by this age. Goodness is lost and ignorance and passion remain. Everyone is a Sudra. This has nothing to do with Hindus, Muslims, Christians, or any other person. You cannot say, “I cannot be Sudra because I am not born in a Hindu family or simply because I am not a Hindu.”
catur-varnyam maya srstam
guna-karma-vibhagasah
tasya kartaram api mam
viddhy akartaram avyayam
Translation:
According to the three modes of material nature and the work ascribed to them, the four divisions of human society were created by Me. And, although I am the creator of this system, you should know that I am yet the non-doer, being unchangeable.[BG 4.13]
Everyone is the Lord’s creation and has been classified according to the qualities and actions. All the qualities that you see or find in this world are divided into the 3 main modes of nature – goodness, passion, and ignorance. As per these qualities, there are four Varna:
1. Brahmana
2. Ksatriya
3. Vaisya and
4. Sudra.
Brahmans are dominated by the mode of goodness. You can find Brahmanas all over the world in any country. People who study sastras and share with others are called Brahmanas. Sastras are available everywhere. You can find Brahmanas in any part of the world. Some people study the Bible, Some study Quran or some study Granth Sahib. They are Brahmanas. They study and preach. They are not connected to Krsna consciousness, but they are God-consciousness. We may not refer to them as Brahmanas, but according to their work and quality, they fall in the category of Brahmana. Then we find Ksatriyas who are dominated by both modes of goodness and passion. Vaisyas are dominated by the mode of passion. They are usually engaged in farming, cattle rearing, and other business activities. Earlier at the age of 5 years child used to go to Gurukul.
brahmacārī gurukule
vasan dānto guror hitam
ācaran dāsavan nīco
gurau sudṛḍha-sauhṛdaḥ
Translation:
Nārada Muni said: A student should practice completely controlling his senses. He should be submissive and should have an attitude of firm friendship for the spiritual master. With a great vow, the brahmacārī should live at the gurukula, only for the benefit of the guru.[ SB 7.12.1]
Krsna, Balarama, and Sudama also went to Sandipani Muni’s Ashram. According to the qualities of the child, Gurukul gave training.Those who don’t have qualities matching to those in the above mentioned 3 fall in the category of Sudras. Their job is to serve these 3 categories [Brahmana, Ksatriya, Vaisya] and are called Dwija, which means twice-born. Sudras are not called Dwija. They are also under Varnasram. But the Sudras who are not interested in serving the other categories are out-castes. They are considered to be lower than Sudras. People belonging to any of these 4 categories are considered to be having the qualities of a human being. But those who don’t fall in any of these categories are not to be considered as humans, because they are not following any dharma or discipline. We have bodies, and we sustain and maintain these bodies with grains(food). Food nourishes all the parts of the body.You don’t need to feed your hands, legs or head separately. Similarly, for the maintenance of society, Dharma plays a nourishing role. All these 4 Varnas unanimously follow their prescribed Dharma and Krsna is Father of all of them.
sarva-yonisu kaunteya
murtayah sambhavanti yah
tasam brahma mahad yonir
aham bija-pradah pita
Translation:
It should be understood that all species of life, O son of Kunti, are made possible by birth in this material nature, and that I am the seed-giving father.[ BG 14.4]
By rendering services unto the Lord, the perfection of life can be attained. People will be called sadhus as per their qualities. They abide by and then also preach Krsna consciousness.
Dharmo Rakshati Rakshitah
They are protected by Dharma, who protect Dharma.
kaler doṣa-nidhe rājann
asti hy eko mahān guṇaḥ
kīrtanād eva kṛṣṇasya
mukta-saṅgaḥ paraṁ vrajet
Translation:
My dear King, although Kali-yuga is an ocean of faults, there is still one good quality about this age: Simply by chanting the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra, one can become free from material bondage and be promoted to the transcendental kingdom. [SB 12.3.51]
Kaliyuga is an ocean of negativities, yet there is one good quality which is a great boon. Simply chanting and remembering Krsna one can be freed from the entangling nets of this material nature. On the other hand, the followers of Kali are engaged in the activities where Pariksita Maharaja allowed Kali to stay, the places of 4 major sins.
abhyarthitas tadā tasmai
sthānāni kalaye dadau
dyūtaṁ pānaṁ striyaḥ sūnā
yatrādharmaś catur-vidhaḥ
Translation:
Sūta Gosvāmī said: Mahārāja Parīkṣit, thus being petitioned by the personality of Kali, gave him permission to reside in places where gambling, drinking, prostitution and animal slaughter were performed.[SB 1.17.38]
A Vaisnava can very easily give up even the thoughts of meat-eating, intoxication, gambling, and illicit sex. Even the desire to commit any kind of sinful activities will be completely gone.
paraṁ brahma paraṁ dhāma
pavitraṁ paramaṁ bhavān
puruṣaṁ śāśvataṁ divyam
ādi-devam ajaṁ vibhum
āhus tvām ṛṣayaḥ sarve
devarṣir nāradas tathā
asito devalo vyāsaḥ
svayaṁ caiva bravīṣi me
Translation:
Arjuna said: You are the Supreme Personality of Godhead, the ultimate abode, the purest, the Absolute Truth. You are the eternal, transcendental, original person, the unborn, the greatest. All the great sages such as Nārada, Asita, Devala and Vyāsa confirm this truth about You, and now You Yourself are declaring it to me.[BG 10.12-13]
Just like the darkness runs away as soon as the sun rises, similarly as soon as we engage in the services of Krsna, who is like millions of suns, Maya will be gone.
kṛṣṇa — sūrya-sama; māyā haya andhakāra
yāhāṅ kṛṣṇa, tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra
Translation:
“Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish.[CC Madhya 22.31]
Do you want to hear the name of a disciple of Kali? There are many and this too. They are Jagai and Madhai. They did all types of sins.
I want to say that a person who is engaged in the processes of chanting, kirtana, studying Srimad Bhagavatam, in association of sadhus, honoring prasada will become purified. As soon as you come in contact with devotees of Krsna, they will start putting in efforts in bringing us closer to Krsna, engaging us in Services to Krsna. According to the qualities the Lord has made 4 Varnas and then 4 ashrams.
cātur-varṇyaṁ mayā sṛṣṭaṁ
guṇa-karma-vibhāgaśaḥ
tasya kartāram api māṁ
viddhy akartāram avyayam
Translation:
According to the three modes of material nature and the work associated with them, the four divisions of human society are created by Me. And although I am the creator of this system, you should know that I am yet the nondoer, being unchangeable.[BG 4.13]
The goal is to serve Krsna.
kali-kāle nāma-rūpe kṛṣṇa-avatāra
nāma haite haya sarva-jagat-nistāra
Translation:
In this Age of Kali, the holy name of the Lord, the Hare Kṛṣṇa mahā-mantra, is the incarnation of Lord Kṛṣṇa. Simply by chanting the holy name, one associates with the Lord directly. Anyone who does this is certainly delivered. [CC 1.17.22]
He appears to re-establish Dharma, so in Kaliyuga He has appeared in names. Engage in more and more chanting. I hope that you all understood well. Share in brief what you have understood in today’s class.
Question and Answer session
Question 1: As you said that those who read the Bible, Quran, are called Brahmanas. But recently pope said that eating and mating are god gift qualities. So what type of Brahamana is he? (Haridasa Thakur Prabhu, Gurugram)
Gurudev Uvaca : They are Kaliyugi Brahmanas. Their intelligence is influenced by Kali so they give such statements. The same Pope who gave that statement said yesterday that we can make the Lord happy by prayers and one should cry while praying to the Lord. They have the qualities, but are influenced by Kali. Similarly, if someone does the administration they are called Ksatriya and so on. Every continent, every country has people falling in each of these categories. It is not only limited to India. If people take birth in a Brahmana family they say we are Brahmanas. Like this so-called Brahmanas, Ksatriya, and Vaisya are there. It is the influence of Kali that controls them.The dollar currency says – In God We Trust. They take an oath on the Bible. Wherever there are church and religious institutions, Brahmanas will be there, but they are influenced by kali.
Question 2: How do people in administration in ISKCON understand Varnasrama Dharma as they toggle in all the 4 Varnas. Because he has to do all the activities that belong to his life, his family, and temple. What will be his base varna? And how will the toggling of different Varnas influence the base varna. (Param Karuna Prabhu, Nagpur)
Gurudev Uvaca :We should play all the roles as Vaisnavas, Vaisnavas are beyond the rules of Varnasrama. They perform all the duties be it of a Brahmana or Sudra simply to satisfy Krsna. They may teach like a Brahmana, do administration like a Ksatriya, distribution books like a Vaisya, or clean temple like a Sudra. Brahmanas give training. The work of ISKCON is like that of a Brahmana. Prabhupada said that there is a shortage of Brahmanas. Without Brahmanas, a society is headless. ISKCON gives guidance to the Society. When a child goes to Gurukula, he gets training by a brahmana, according to his qualities. ISKCON plays this role of giving training. Lord says in Gita:
evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
sa kaleneha mahata
yogo nastah parantapa
Translation:
This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. [BG 4.2]
The Lord said to Arjuna, “The knowledge which I am giving you will first be received by kings through the Brahmana. Then they will be called Rajarsay [Saintly kings].” ISKCON plays the role of Brahmana and gives training. ISKCON is an educational society. As you are a member of ISKCON, if required you become a brahmana, or if required you become Ksatriya. If required raise funds and build a temple.
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण,*
*16 अक्टूबर 2020,*
*पंढरपुर धाम से*
767 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। आप सभी का स्वागत है । सुप्रभातम।
*सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी,*
*कर कटावरी ठेवोनिया।*
*तुळसीहार गळा कासे पितांबर,*
*आवडे निरंतर तेची रूप।*
*मकर कुंडले तळपती श्रवणी,*
*कंठी कौस्तुभ मणी विराजित।*
*तुका म्हणे माझे हेची सर्व सुख,*
*पाहीन श्रीमुख आवडीने।*
*सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी*
*(तुकाराम महाराज अभंग संग्रह)*
*जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद।*
*श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्त वृंद।।*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
हरे कृष्ण, मैंने सुप्रभातम या अंग्रेजी में गुड मॉर्निंग कहा। वैसे आप इस्कॉन पंढरपुर के भक्तों के लिए प्रार्थना कीजिए। सुप्रभातम कहिए, गुड मॉर्निंग की प्रार्थना कीजिएगा। करोगे? कर रहे हो ना? आप शायद सोचते होंगे, मैंने तो पहले कभी नहीं कहा ऐसे प्रार्थना करो। गुड मॉर्निंग कहो, सुप्रभातम कहो, इस्कॉन पंढरपुर के भक्तों के लिए। आज ही क्यों वैसे हर रोज ऐसी प्रार्थना कर सकते हो किंतु यह समय ,
*विपद: सन्तु ता: शश्वतत्र तत्र जगद् गुरो।*
*भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ।।*
(श्रीमद्भागवत 1.8.25)
अनुवाद: ऐसी विपदा हम पर हमेशा आती रहे ऐसी मेरी इच्छा है, क्योंकि इसी वजह से पुनः पुनः हमें आपका दर्शन प्राप्त होता रहेगा। और आपका दर्शन प्राप्त होना है। हमें पुनः जन्म मृत्युरूपी संसार का दर्शन नहीं होना है।
पंढरपुर के भक्त और भगवान भी कुछ विपदा में फंसे हैं। चंद्रभागा मैया की जय! कुछ विशेष कृपा हो रही है। यहां चंद्रभागा का जल उमड़ आ रहा है। सर्वत्र फेल रहा है। और क्या कहा जाए बाढ़ सदृश्य परिस्थिति, नहीं सच में यहां पर बाढ़ आ चुकी है। पंढरपुर मंदिर चंद्रभागा के जल के पास हुआ करता था और अब वहां जल मंदिर में पहुंच चुका है। जल में मंदिर हो ना तो ठीक है पर मंदिर में जल ऐसी स्थिति है। और फिर राधा पंढरीनाथ के मूल विग्रह को आपकी भाषा में सुलाना कहते हैं या निद्रा में रखा गया है। और उत्सव मूर्तियों को लेकर बगल वाले आवास निवास तक पहुंचे थे , यह सोच कर कि यहां सुरक्षित स्थान है लेकिन यहां तक भी जल पहुंच गया है और अब हम एक द्वीप में ही रह रहे हैं। यहां के 50 गाये सुरक्षित स्थान पर पहुंचायी गई हैं और यहां पर विद्युत भी नहीं है। यह इनवर्टर काम कर रहा है , देखते हैं अभी कितना समय यह काम करेगा। स्थिति कुछ बिकट है।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
किंतु हम सब स्मरण करे , यहां के भक्त भी भगवान का स्मरण कर रहे हैं । और राधा पंढरीनाथ का भी जो सोये हैं योगनिद्रा में है। जैसे महाविष्णु वे सदैव ही योगनिद्रा में होते हैं। वैसे वह सदैव के लिए ही योगनिद्रा में लेटे रहते हैं। महाविष्णु क्षीर सागर में लेटे रहते हैं। महाविष्णु, वैसे हमारे पंढरीनाथ अपनी आपत्तियों के चलते लेटे हैं। यहां की ऐसी स्थिति को देखकर मुझे स्मरण हो रहा था कि कैसे वह भी ऐसी स्थिति में पहुंच गए थे। हरि हरि। यह नाम मैं हमेशा भुलते रहता हूं। आज भी मुझे याद नहीं। हरि हरि, मार्कंडेय मुनि। मार्कंडेय मुनि ने सोचा होगा कि मुझे वरदान मिला है। आयुष्मान भव! कितना आयुष मिला है सात कल्पों तक तुम जी सकते हो। कल्प मतलब ब्रह्मा जी के 1 दिन को कल्प कहते हैं और हर कल्प के अंत में आंशिक पहले होता है। उस प्रलय में मार्कंडेय मुनि फस गए हैं , मार्कंडेय मुनि का ऐसा बुरा हाल हो रहा था , फस गए हैं । जब वहां प्रलय की स्थिति में फंसे थे किंतु फिर वह एक स्थान में पहुंच गए और वह स्थान जगन्नाथपुरी था। मायापुर भी ऐसा वर्णन आता है। और वहां पर उन्होंने देखा , उनको एक विशेष दर्शन हुआ । उन्होंने एक वटवृक्ष के , एक शाखा के, एक पत्ते पर एक बालक लेटा हुआ है ऐसा दर्शन उन्होंने किया।
*करारविंदेन पदारविंदं मुखारविंदे विनिवेशयंतम् ।*
*वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि ॥*
ऐसा भी उस दर्शन का वर्णन है । वह देखते हैं कि बालक लेटा हुआ है। मुकुंद यह बालक क्या कर रहा था, कैसा बालक था? *करारविंदेन पदारविंदं* अपने ही करकमल को हस्तकमल से पकड़ा था। इस बालक के हास्तकमल में उसका करकमल था। *मुखारविंदे विनिवेशयंतम्* अपने चरण कमल को अपने मुख में डालकर उसे चूस रहा था। *वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं* और यह बालक पत्र पर लेटा हुआ है और ऐसा बालक *बालकमस्मरामि* मैं स्मरण करता हूं। *बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि* मार्कंडेय मुनि स्मरण कर रहे थे , ऐसा चित्र आपने देखा होगा , जरूर देखा होगा। देखते हैं तो मिलता है। मैं जब जगन्नाथपुरी में गया था पिछली बार, वैकुंठनाथ प्रभु पहली बार मै उधर दर्शन देखा। जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में ही एक वटवृक्ष है। उस वटवृक्ष के नीचे ही जैसे यह बालक , यही भगवान का दर्शन उस वटवृक्ष के नीचे हैं। एक पत्ते पर भगवान के छोटे विग्रह है उसका भी मैंने दर्शन किया। कोई भी कर सकता है। आप भी जा सकतेे हो। आपका भी स्वागत है। अभीभी जाकर दर्शन कर सकते हो। वहां पर मुझे इस लीला का स्मरण हुआ था , जिसका अभी वर्णन कर रहे हैं। महा प्रलय की स्थिति में मार्कंडेय मुनि दर्शन कर ही रहे थे। भगवान समक्ष है और भगवान के बाहर है। मार्कंडेय मुनि ऐसा दर्शन कर रहे थे , इतने में भगवान ने मार्कंडेय मुनि को अंदर ले लिया। और फिर वहां मार्कंडेय मुनि दर्शन करने लगे। जो बाहर भी हैं वह अंदर भी हैं ऐसा अनुभव मार्कंडेय मुनि करने लगे और फिर ऐसे भगवान है। अचिंत्य भगवान है। भगवान को समझना अचिंत्य , कठिन है। हमारे चिंतन से परे हैं।
*तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके ।*
*तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ।।५ ।।*
(श्रीइशोपनिषद् 5)
अनुवाद: वह गतिहीन वही गतिदाता रचता और चलाता है। अज्ञानी से दूर सदा ज्ञानी के हिय में बसता है। जड़ – चेतन सबके अन्तर में एक उसी की आभा है। बाह्य जगत में मात्र चमकती उसी ब्रह्म की प्रतिभा है।
*तदेजति तन्नैजति* भगवान चलते हैं। भगवान नहीं चलते हैं। *तद्दूरे तद्वन्तिके* भगवान दूर है, भगवान निकट भी है। *तदन्तरस्य सर्वस्य* सब कुछ उनके अंदर भी है। *तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः* और वह बाहर भी है। एक तो मार्कंडेय मुनि को आयुष्मान भव, जीते रहो बेटा जीते रहो यह चाहते थे। वह चाहते थे कि मैं आयुष्मान बनु। लेकिन क्या फायदा है, आयु लंबी है लेकिन उसका फायदा नहीं उठा रहे हैं , ऐसे ही जी रहे हैं। भागवत में कहां है
*तरव: किं जीवन्ति भस्त्रा: किं न श्वसन्त्युत।*
*न खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामे पशवो परे।।*
(SB 2.3.18)
अनुवाद: क्या वृक्ष जीते नहीं है? क्या लोहार की धाँकनी सांस नहीं लेती? हमारे चारों और क्या पशुगन भोजन नहीं करते या वीर्यपात नहीं करते?
वहीं पर श्रीमद्भागवतम में कहां है , *तरव: किं जीवन्ति न खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामे पशवो परे।।* क्या तुम्हारे ग्राम में न *खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामे पशव:* पहले तो तरव: कि बात की , क्या वृक्ष लंबी आयु नहीं जीते ? फिर आगे कहां है पशव: क्या पशु तुम्हारे ग्राम में नहीं है ? क्या करने वाले पशुन खादन्ति न मेहन्ति? बस वे केवल खाने के लिए जी रहे हैं। मेहन्ति और मैथुन करने वाले , कुत्ते बिल्लियां मैथुन में व्यस्त रहते हैं। उसमें भी कबूतर , वह तो 50 बार दिन में मैथुन का आनंद भोगता या लूटता है। क्या तुम्हारे ग्राम में, या नगर में, गली में कुत्तों को शास्त्रोंं में ग्रामसिंह कहां है। गांव का शेर सिंह कुत्ता। कुत्तेे बिल्ली कबूतर यह जीते रहते हैं। तुुम भी कुत्ते बिल्ली जैसा तुम्हारा जीवन तुम जी रहेे हो तो क्या अंतर है? *धर्मेनहीन पशुभिर समान* धर्महीन या कृष्णभावनाहीन जीवन तो पशुुुवत है,। या पक्षीवत है। या कृमी कीड़े जैसा ही जीवन है। तरु लता जैसा ही जीवन है। वह जीवन जिसमें कृष्णभावना नहीं है। वैसे जब खटवांंग मुनि को पता चला, मेरी आयु कितनी बाकी है? ऐसी जिज्ञासा उनकी रही तो उत्तर में उन्होंने सुना।
एक मुहूर्त, कितना समय बाकी बस एक मुहूर्त , तुम्हारी मृत्यु बस एक मुहूर्त दूर है। तो खटवांग मुनि ने क्या किया वैसे यह चर्चा भागवत में प्रारंभ में ही आती है। जब राजा परीक्षित थोड़ा शोक कर रहे हैं यह सोच कर कि अब मेरे पास बहुत कम समय है, कितना समय? सात दिवस ही बाकी है। उनको शाप मिला था सात दिनों के अंदर अंदर या सात दिन के पूरा होते ही वैसे तक्षक नामक पक्षी आएगा और डसेगा और उसी के साथ तुम निष्प्राण होंगे ऐसा शाप मिला था। तब राजा परीक्षित सोच रहे थे, मेरे पास सिर्फ एक सप्ताह की अवधि बची है, बहुत समय कम है तो कैसे होगा ? क्या कैसे होगा? *अन्ते नारायण स्मृतिः* उनको यह भी सलाह दी जा रही थी कि *अन्ते नारायण स्मृतिः* अंत में नारायण का स्मरण हुआ तो जीवन सफल , या जीवन का लक्ष्य ही है अंत में नारायण का स्मरण हो। तब राजा परीक्षित सोच रहे थे कैसे सात दिनों के अंदर अंदर में मेरी साधना करूंगा, उसमे में सिद्ध हो जाऊंगा। साधन सिद्ध मतलब भगवान का स्मरण होना ही साधना की सिद्धि है। ऐसे सोचने वाले राजा परीक्षित को कहां जा रहा था या कहां गया यह सात दिन तो बहुत होते हैं, खटवांग मुनि के पास तो एक मुहूर्त था , एक मुहूर्त। एक मुहूर्त में ही उन्होंने स्वयं को पूर्ण कृष्ण भावना भावित बनाया। अपनी साधना के सिद्धि के लिए उनके पास केवल एक मुहूर्त था मतलब हम कल्पना कर भी सकते हैं और कर भी नहीं सकते कि कैसे उन्होंने एक मुहूर्त मतलब 24 मिनट या 48 मिनट होते हैं ऐसा सुनते हैं।
इतने मिनटों में उनको कृष्ण भावना भावित होना था और वह हो भी गए। कैसे किया होगा उन्होंने? हर क्षण और अनुक्षण, क्षण अनुक्षण एक क्षण फिर उसके बाद वाला क्षण, क्षण अनुक्षण, एक क्षण अनुक्षण। खटवांग मुनि ने कितना सदुपयोग किया होगा कि वे एक मुहूर्त में कृष्ण भावनाभावित हुए। पूरी भावना , कृष्णभावना को विकसित किया और श्रद्धा से प्रेम तक सारे सोपान वह चढ़े। इसीलिए कहा है समय बलवान है और समय मूल्यवान भी है। चाणक्य पंडित कहते है बीता हुआ जो समय है या क्षण है कोटि-कोटि मुद्रा चुकाने पर या बदले में देने पर उस क्षण को हम वापस नहीं ला सकते। *सुवर्ण कोटिभिः* मेरे पास यह कोटि मुद्राएं है और स्वर्ण मुद्राएं है यह ले लो और उसके बदले में मुझे बीता हुआ एक क्षण दे दो नहीं मिलेगा, वह क्षण जो गवाया वह हमेशा के लिए गया, समय के मूल्य को भी समझना होगा। राजा परीक्षित को पता था कि सात दिन बचे हैं, भाग्यवान थे राजा परीक्षित जिनको चेतावनी मिली और पता था कि सात दिन बाकी है। लेकिन हमारी क्या स्थिति है हमको पता नहीं हैं, सात दिन या कितने क्षण या कितने दिन बाकी है ऐसे हम अभागी हैं ।
*अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम् ।*
*शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥*
( महाभारत, वनपर्व )
अनुवाद – यहां इस लोक से जीवधारी प्रतिदिन यमलोक को प्रस्थान करते हैं, यानी एक-एक कर सभी की मृत्यु देखी जाती है । फिर भी जो यहां बचे रह जाते हैं वे सदा के लिए यहीं टिके रहने की आशा करते हैं । इससे बड़ा आश्चर्य भला क्या हो सकता है ?
यह युधिष्ठिर महाराज के वचन हैं । हम सोचते नहीं हां औरों को मरने दो, हम भी देख रहे हैं हर रोज खबर आ रही है, यह मरा, वह मरा, वह मरा दुनिया वाले मरते ही है और हमारे हरे कृष्ण वाले भक्त भी मृत्यु को प्राप्त कर रहे हैं। कल के दिन ही रूस के परम पूज्य निताई चैतन्य गोस्वामी महाराज 1980 से जुड़े थे इस्कॉन के साथ , फिर प्रशिक्षित और दीक्षित भी हो गए और सन्यास भी लिया , इतना सारा प्रचार और प्रसार भी कर रहे थे , फिर परसों की ही बात है नर्सों हमारे साथ थे फिर परसों वह हमारा साथ छोड़ कर चले गए , प्रस्थान कर चुके। वैसे भक्तों का निधन और असंसारिक लोगों के मरण में अंतर है, किंतु मरण तो है ही मृत्यु को हर व्यक्ति प्राप्त करता है ही। हमको भी प्राप्त करना है लेकिन हम ज्यादा गंभीरता से सोचते नहीं फिर हमारी तुलना पुनः पशुओं के साथ हो जाती है, जिन पशुओं को या कुछ पशुओं को कभी-कभी कत्लखाने में ले आते हैं तो क्रम से एक बैच के गर्दन काटे तो दूसरी बैच प्रतीक्षा में रहती है। फिर वह भेड़ी , बकरी है या अन्य पशु है या जो भी है तो जो प्रतीक्षा में है उनको पता भी नहीं होता कि अगले क्षण उनकी बारी है। इसीलिए वह क्या करते? उनका चलता रहता है , आखरी सांस तक उसमें से कोई पशु लेटे हैं या कोई चुगाली कर रहे हैं और बकरी और बकरे का व्यवसाय चल रहा है । बकरा बकरी के पीछे भाग रहा है यह अंतिम मौका है मैथुन के लिए। आहार, निद्रा, भय, मैथुन चल रहा है दूसरे शब्दों में कहां जाए , दूसरे ही क्षण जो वरदान मिला है कौन सा वरदान *दुर्लभ मानव जन्म* मिला है यह वरदान है। और कौन सा वरदान मनुष्य जीवन में प्राप्त कर सकते हो? वह कौन सा है *वैकुंठ प्रिय दर्शनं* वैकुंठ प्रिय मतलब भगवान का भक्त, साधु, संत, महात्मा भागवत में उनको वैकुंठ प्रिय कहां है। हां भगवान का भी एक नाम है वैकुंठ या वैकुंठ पति। उनके प्रिय जो भक्त हैं,
*साक्षाद्-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः*
*उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः।*
*किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य*
*वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥7॥*
अनुवाद – श्रीभगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्री गुरुदेव को स्वयं श्रीभगवान् ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी श्रुति-शास्त्र व प्रामाणिक अधिकारिओं ने स्वीकार किया है। भगवान् श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे अतिशय प्रिय प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
वह साक्षात हरि है, गुरुजन, आचार्य, आचार्य वृंद किंतु साथ ही साथ वे भगवान के प्रिय है। *प्रिय एव तस्य* तस्य मतलब कृष्णस्य वह भक्त कृष्ण के प्रिय है । उनका दर्शन यह भी वरदान है, उनका संग प्राप्त होना यह भी एक वरदान है। हे जीव उठो , जागो और प्राप्त हुए वरदानो को समझो। *दुर्लभ मानव जनम सत्संगे* यह दुर्लभ मानव जीवन सत्संग में बिताओ ताकि *भव सिंधुरे* भव सिंधु , भवसागर हम अब देख रहे हैं, हम मानो सागर में ही बैठे हैं। वैसे ही भवसागर है जहां भी है , सागर मतलब जल का स्मरण होता है। कभी-कभी जब बाढ़ आती है तो वह सागर बन ही जाता है। ऐसे भवसागर से अगर बचना है तो इस दुर्लभ मनुष्य जीवन का सदुपयोग करना चाहिए, सत्संग में उसको व्यतीत करना चाहिए फिर हम पांडुरंग पांडुरंग विट्ठल विट्ठल का नामस्मरण गाते हुए , नाम लेते हुए , नाम से धाम तक भी पहुंच सकते हैं और विशेष रूप से जो विट्ठल भगवान के दर्शन के लिए पंढरपुर आते हैं और जब दर्शन करते हैं , विट्ठल भगवान उस दर्शन में जब हम देखेंगे विट्ठल भगवान को *कर कटावरी ठेऊनिया* उनके कर है करकमल या हस्त कमल कटी प्रदेश पर , कमर पर रखे हैं। ऐसा है *सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी* वह इट पर खड़े हैं और उनके हाथ कमर पर रखे हैं। ऐसा दर्शन देकर वह यह संदेश भी देना चाहते है कि तुम मेरे दर्शन के लिए आए हो, अच्छा हुआ मेरे दर्शन कर रहे हो। इस जीवन में दुर्लभ मनुष्य जीवन का लाभ उठाकर जो तुम सत्संग कर रहे हो। हरि हरि। यह सत्संग का ही लाभ है जो तुम मेरा दर्शन कर रहे हो। विट्ठल भगवान का दर्शन तुम कर रहे हो तो भगवान कहते हैं कि हां अब तुम भवसागर से तर गए तुम मेरे समक्ष आ गए हो। अब यहां भवसागर में तुम डूब नहीं सकते हो, तुम किनारे आ गए, तुम्हारा बेड़ा पार हो गया। यहा ज्यादा पानी नहीं है, कितना पानी है ? बस इतना कमर तक, इतने पानी में तो तुम डूब के नहीं मरोगे, तुम बच गए, तुम्हारी रक्षा हुई है तुम मेरा दर्शन कर रहे हो, मुझे प्राप्त किया है, तुम्हारा जीवन सफल हुआ। *तरह ए भव सिन्धु रे* भवसागर को तुमने पार किया , तुम तर गए हो। हरि हरि।
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
प्रार्थना करिए, भक्तों की सहायता करिए, जप करिए, कीर्तन करिए।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
16 October 2020
Understand the value and goal of a human birth
Hare Krsna! Devotees from 766 locations are chanting with us. Welcome! Good morning!
Sundar te dhyan ubhe vitewari |
Kar katawari thevuniya ||
Tulasi har gala kanse pitambar |
Aawde nirantar techi roop ||
Makar kundale talapati shrwani |
Kanthi koustubhmani virajit ||
Tuka mhane maze he chi sarva sukha |Pahin shreemukh aawadine ||
Translation
This abhanga is a beautiful description of the Lord! The beautiful, great pleasure to behold, ie Lord Vithoba, is standing on the brick with His hands resting on the waist. There is a Basil leaves’ necklace around His neck and He is wearing a yellow golden silk garment around His waist. I am in perpetual love with this face of the Lord. Fish shaped ear rings are shining in His ears and the well known ‘Kaustubh’ precious stone is glistening in His neck. Tukaram says, I will keep looking ceaselessly at the lotus face of God with love; this is my complete happiness. (Tukaram Gatha Abhanga 14 – Sundar te dhyan)
jaya sri-krisna-caitanya prabhu nityananda sri-advaita gadadhara srivasadi-gaura-bhakta-vrinda
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Please pray for the devotees in Pandharpur. The Lord and the devotees there are in trouble. The Candrabhaga River has flooded. There is lot of water here, all around. You must have seen the river flowing nearby the temple if you have ever visited. But this water has come inside the temple now. The small Deities of Radha Pandharināth have been brought out of the temple and Their worship is being done. We are living on a sort of island. We have shifted around 50 cows to a safer place. There is no electricity here and we are running on the inverter which may get exhausted at any time. The situation is critical.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
dukh me sumiran sab kare
sukh me kare na koi
jo sukh me sumiran kare
toh dukh kaahe ko hoy
Translation
In trouble everyone prays to Him, in joy does none
To one who prays in happiness, how can sorrow come
The devotees here are also remembering the Lord in this time of trouble. Radha Pandharinātha is in Yoga nidra (yogic sleep) like Mahā Visnu always lie in the Kārana ocean in Yoga nidra.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
This situation is like that of Markandeya Muni who had got the boon of a long life. Seven times as long as that of Brahma. But he was caught in a flood and somehow, floating and drowning he reached Jagannātha Puri. He had a long life, thus he could not die. Upon reaching Jagannātha Puri, he had an amazing darsana. He saw that on a leaf of a Banyan tree, a baby was lying. The child was sucking His own toe.
kararavindena padaravindam
mukharavinde viniveshayantam
vatasya patrasya pute shayanam
balam mukundam manasa smarami
Translation
The one who keeps his lotus like feet on his lotus like mouth with his lotus like hand, I think of Balamukundan who sleeps on the vata pathra leaf. (Text 1, Sri Bala-Mukunda-Astakam)
This was an amazing sight. This is a common image that we get to see in paintings. Have you seen it? When I visited Jagannātha Puri last time, I saw a Banyan tree in the courtyard there and under this tree, there is such darsana available. You may also visit and see. When Markandeya Muni was seeing the Lord from outside, the Lord took him inside of Himself. Markandeya Muni could perceive that the Lord is the same inside and outside. The Lord is inconceivable.
tad ejati tan naijati
tad dūre tad v antike
tad antar asya sarvasya
tad u sarvasyāsya bāhyataḥ
Translation
The Supreme Lord walks and does not walk. He is far away, but He is very near as well. He is within everything, and yet He is outside of everything. (verse 5, Śrī Īśopanishad)
The Lord walks and does not walk. The Lord is both far and away at the same time. Everything is simultaneously outside and inside the Lord. This is explained in Śrī Īśopanisad. Markandeya Muni had a very long life, but he was not taking full benefit out of it. He was seeing so many generations being born and then dying.
taravaḥ kiṁ na jīvanti
bhastrāḥ kiṁ na śvasanty uta
na khādanti na mehanti
kiṁ grāme paśavo ’pare
Translation
Do the trees not live? Do the bellows of the blacksmith not breathe? All around us, do the beasts not eat and discharge semen? (ŚB 2.3.18)
Śrīmad Bhāgavatam says such a life is like that of an old tree which is also witnessing many generations coming and going, but doesn’t do anything fruitful. If you are also living a life like that of an animal which is busy eating and mating then what is the benefit? Therefore, such a life is no better than that of an insect, animal or a tree.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṃ cha
samānam_etat_pashubhir_narāṇām |
dharmo hi teṣhāmadhiko visheṣho
dharmeṇa hīnāḥ pashubhiḥ samānāḥ ||
Translation
Food, sleep, fear and mating, these acts of humans are similar to animals. Of them (humans), dharma is the only special thing, without dharma humans are also animals. ( Hitopadesh verse 0.25)
A life without Krishna consciousness is an animal life. Khatvanga Muni desired to know how much life is left. The answer was 1 muhurt, meaning 24 minutes or 44 minutes. This katha we get to read in the beginning of Śrīmad Bhāgavatam when Pariksit Maharaja gets to know that he will die on the seventh day by Takshaka serpent. He was wondering that how can he remember the Lord in these seven days or at the end of his life.
etāvān sāṅkhya-yogābhyāṁ
sva-dharma-pariniṣṭhayā
janma-lābhaḥ paraḥ puṁsām
ante nārāyaṇa-smṛtiḥ
Translation
The highest perfection of human life, achieved either by complete knowledge of matter and spirit, by practice of mystic powers, or by perfect discharge of occupational duty, is to remember the Personality of Godhead at the end of life. (ŚB 2.1.6)
The aim of life is remembrance of Nārāyana at the end. It is the perfection of Sādhanā. Then King Pariksit was told that 7 days are more than 1 muhurt. Khatvanga Muni made himself fully Krishna conscious in that 1 muhurt. He had such a strong dedication that he achieved perfection in just 24 minutes. He relished everything from śraddha (faith) to prema (love). That’s why it is said that time is very important and powerful. Chanakya Pandit said that even by paying billions of gold coins, one cannot get back one single second of life. That second is gone forever. Therefore, we need to understand the importance of time. At least King Pariksit knew that he had just seven days left, but we are so unfortunate that we don’t even know when we will die.
ahany ahani bhūtāni
gacchantīha yamālayam
śeṣāḥ sthāvaram icchanti
kim āścaryam ataḥ paraṁ
Translation
Hundreds and thousands of living entities meet death at every moment, but a foolish living being nonetheless thinks himself deathless and does not prepare for death. This is the most wonderful thing in this world. (Mahābhārata, Vana-parva 313.116)
Many people are dying daily. Many of our known, relatives and friends die. Many of our Hare Krsna devotees also leave their bodies. HH Nitai Caitanya Swami Maharaja of Russia left us yesterday. He had joined our movement in the early 1980s. He got trained and also accepted Sannyāsa. He was with us the day before yesterday. Although there is a difference in the death of a devotee and a material person, but still it’s a death. We don’t know who may die and when. We also have to die, but we don’t take it seriously. We are being compared with animals. Many animals are taken to the slaughter houses and they are killed in batches. Those who are waiting are not even aware that their turn is next. They are somewhat relaxed, lying down, grazing or chewing the cud. He goat is attracted towards the she goat. They think that it is the last chance for them though. Next moment their lives are going to be taken. But they are totally oblivious to the surroundings and are engaged in eating, sleeping, mating and defending.
uttiṣṭhata jāgrata prāpya varānnibodhata |
kṣurasya dhārā niśitā duratyayā durgaṁ pathastatkavayo vadanti ||
Translation
Arise, awake; having reached the great, learn; the edge of a razor is sharp and impassable; that path, the intelligent say, is hard to go by. (Verse 1.3.14, Kathopanishad)
O Human! Wake up! Better understand and realise this special boon of a human body.
bhajahū re mana śrī-nanda-nandana
abhaya-caraṇāravinda re
durlabha mānava-janama sat-sańge
taroho e bhava-sindhu re
Translation
O mind just worship the lotus feet of the son of Nanda, which make one fearless. Having obtained this rare human birth, cross over this ocean of worldly existence through the association of saintly persons. (Verse 1, Bhaja Hu Re Mana, Govinda Dāsa Kavirāja)
durlabho mānuṣo deho
dehināṁ kṣaṇa-bhaṅguraḥ
tatrāpi durlabhaṁ manye
vaikuṇṭha-priya-darśanam
Translation
For the conditioned souls, the human body is most difficult to achieve, and it can be lost at any moment. But I think that even those who have achieved human life rarely gain the association of pure devotees, who are dear to the Lord of Vaikuṇṭha. (ŚB 11.2.29)
What is another boon? That humans have the chance to get the association of pure devotees, who are also called Vaikuntha Priya as Lord’s another name is Vaikuntha Pati.
sākṣād-dharitvena samasta-śāstrair
uktas tathā bhāvyata eva sadbhiḥ
kintu prabhor yaḥ priya eva tasya
vande guroḥ śrī-caraṇāravindam
Translation
The spiritual master is to be honored as much as the Supreme Lord, because he is the most confidential servitor of the Lord. This is acknowledged in all revealed scriptures and followed by all authorities. Therefore I offer my humble obeisances unto the lotus feet of such a spiritual master, who is a bona fide representative of Shri Hari [Krishna]. (Verse 7, Gurvastaka)
The spiritual master is to be honored as much as the Supreme Lord and most dear to Lord Krsna simultaneously. Getting to see them, being in their association is a boon. Therefore, O Human! Wake up! Understand and realise the special boon of a human body. This human life is very rare and is obtained after many, many lifetimes. If you want to be saved and rescued from this dangerous Bhava Sagar then you should engage in satsanga and chanting the names of Krsna, Pandurang or Vitthal.
Kar katawari thevuniya, If you see Vitthala here in Pandharpur, He is standing on the brick with His hands on His waist. He is also giving a message through this, ”Dear devotee, you have come to have My darsana, since you have seen Me and you are in front of Me, this means that you have crossed the ocean or bhava sagar. You have reached the banks. Here the water is not much, It is only upto the waist. You will not drown. You can easily swim through or walk through.”
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Pray and help the devotees. Serve the cows. Chant and do kīrtana. Practice Krishna consciousness. If you have any questions, you may ask.
Hare Krsna!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
*हरे कृष्ण..!*
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
15 अक्टूबर 2020
*जय जय श्री चैतन्य जय-जय नित्यानंद जय अद्वैतचंद्र जय भक्तवृंद।*
*हरि हरि!*
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!*
लॉसएंजेलिस सें , जयदीप और गणेश और राघव आचार्य कैसे हो ?हरि हरि!
*हरे कृष्ण!*
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि जय!*
*रामानंद राय कि जय!*
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब
राय रामानंद से मिले।हरि हरि।
उन दोन्होने एक दूसरों को देखा भी और फिर एक दूसरों को मिले भी , वैसे राय रामानंद जी को देखते ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनकी और दौड़ना चाह रहे थे किंतु सोचा कि सन्यासी के लिए यह उचित नहीं होगा , ऐसी भाउकता , गांभीर्य होना चाहिए। इसलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बैठे रहे । यह गोदावरी का तट है वहां पर आंध्र प्रदेश में कोहूर नाम का जो स्थान है । रामानंद राय का ध्यान चैतन्य महाप्रभु की ओर जाता हैं। प्रकांड देह अरुण वसन ऐसा कहा गया हैं। चैतन्य महाप्रभु का कैसा देह है? प्रकांड देह और अरुण वसंत, भगवा वस्त्र पहने हुए। *अरुणोदय झाला* अरुणोदय के समय जैसे लालिमा छा जाती है उसी वर्ण के वस्त्र पहने हुए गौरांग स्वयं गौर वर्ण के भी है , गौरांग और उन्होंने अरुण वसन पहना हुआ है और फिर ,
*आजानुलम्बित – भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक – पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥*
चैतन्य भागवत १.१
अनुवाद: –
मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण , इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक , सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया ।
*आजानुलम्बित – भुजौ*
गौरांग हैं। *कनकावदातौ* सुवर्ण वर्ण के *कमलायताक्षौ* उनकी आंखे विशाल हैं ,इत्यादि इत्यादि । ऐसे गौरांग है । यह दृश्य देखने के बाद , गौरांग महाप्रभु को देखते ही राय रामानंद दौड़ पड़े। हरि हरि। थोड़ा निकट जब पहुंचे तो साष्टांग दंडवत प्रणाम भी किया और करबद्ध प्रार्थना करते हुए वह खड़े हुए और फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी राय रामानंद जी का स्वागत या उनका सम्मान करते हुए खड़े हो जाते हैं , बैठे रहते तो सम्मान नहीं होता। कोई विशेष व्यक्ति का जब आगमन होता है तब उनके अगुवाई उनके स्वागत के लिए वह व्यक्ति खड़े हो जाते हैं या फिर थोड़ा आगे बढ़ते हैं और फिर आलिंगन देते हैं । चैतन्य महाप्रभु भी राय रामानंद जी का सम्मान करना चाह रहे हैं। तब चैतन्य महाप्रभु खड़े हुए आगे बढ़े और एक दूसरों को आलिंगन देने के पहले चैतन्य महाप्रभु पूछने लगे। क्या राय रामानंद आप ही हो? यह पहले कभी मिले नहीं थे और सार्वभौम भट्टाचार्य ने भी बताया था। आंध्र प्रदेश में जब पहूँच जाओगे आप वहां राय रामानंद को जरूर मिलना। हा! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद जी को जरूर मिलना चाहते थे । कई लक्षणों से, उनके भावो से वैसे वह नतमस्तक हुए , साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और फिर उनकी क्रिया, मुद्रा राय रामानंद जी की देख कर अंदाजा तो लग रहा था यही रामानंद होने चाहिए । फिर चैतन्य महाप्रभु जी ने पूछा ,
आप राय रामानंद हो? हां हां हां! मैं वही रामानंद हूंँ , शुद्र अधम राय रामानंद मैं ही हूंँ। जब पूरा परिचय हुआ ऐसे सब कैसे कहते समय मैं जब कह रहा हूंँ यह विचार आता है कि क्या चैतन्य महाप्रभु को पता नहीं है वह कौन है? ऐसा कोई व्यक्ति है जो चैतन्य महाप्रभु से अपरिचित हो।
*वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन |*
*भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्र्चन ||*
(श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 26)
अनुवाद:-हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानते।
ऐसे कहने वाले भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं। क्या कहते हैं? *वेदाहं* मैं जानता हूँ । *समतीतानि* मतलब उनके भूतकाल को मैं जानता हूंँ। *वर्तमानानि* वर्तमान काल में जो उनके संबंधी बातें हैं। *भविष्याणि* उनका भविष्य भी मैं जानता हूँ। मैं सभी जिवो का भूतकाल , वर्तमान काल , भविष्य काल जानता हूंँ। ऐसे कहने वाले श्री कृष्ण , कहने वाले ही नहीं जानने वाले यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं तब भी पूछ रहे हैं। ऐसा वह जानते नहीं अज्ञ है , प्रज्ञ नहीं हैं। प्रज्ञ मतलब सब कुछ जानना, अज्ञ मतलब नहीं जानना । भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को ऐसा स्वांग करना पड़ता है कि वह नहीं जानते , जो जानते हैं। हरि हरि।
जो जानते हैं कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण हैं फिर वह सोचने लगते हैं। यह जो यहां चैतन्य महाप्रभु पूछ रहे हैं कि आप राय रामानंद तो नहीं हो? पूछने कि उन्हें आवश्यकता थी? नहीं थी? किंतु चैतन्य महाप्रभु जो लीला खेल रहे हैं। भक्त बने हैं ,भक्त रूप ।हरि हरि। फिर चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ते हैं और फिर राय रामानंद भी आगे बढ़ते हैं और एक दूसरों को गाढ़ आलिंगन देते हैं । बहुपाश में एक दूसरों को धारण करते हैं और जब एक दूसरों का अंग संग प्राप्त हुआ , अंग संग से दोनों के विग्रह, रोग, शरीर या रोमांच, रोमांच कंपा, कंपन है। दोनों के शरीरों में रूपों में दोनों के गले गदगद हो रहे हैं और दोनों के आंखों से भी प्रेमाश्रू बह रहे हैं , और एक दूसरों के विग्रह का उन आंसुओं से अभिषेक भी कर रहे हैं। यह करते-करते देहभान नहीं रहा। वह स्तंभित हो जाते हैं , वह भी एक भक्ति का विकार है , प्रकार है, लक्षण हैं स्तंभित होना। स्तंभित हुए हैं तो वह स्तंभ सीधा नहीं है झुका हुआ हैं। तब वह धड़ाम करके गिर जाते है और फिर दोनों भी भूमि पर लौटने लगते हैं । हरि हरि। दोनों को बहुत समय के उपरांत यह पता चला , जो भी उनकी स्थिति हुई हैं। भावविभोर हुए हैं या भावभक्ति का प्रदर्शन हो रहा हैं। प्रदर्शन मतलब दिखावा नहीं क्योंकि यह स्वाभाविक है और इसको देख रहे हैं। स्मार्त ब्राह्मण देख रहे हैं। राय रामानंद गोदावरी के तट पर स्नान करने के लिए पालकी में बैठकर आए थे , उनके साथ कई सारे वैदिक ब्राह्मण भी आए थे और भी लोग पहुंचे हैं और कुछ सैनिक भी हैं , अंगरक्षक भी हैं तब उन्होंने नोट किया कि वह देख रहे हैं । ठीक नहीं लगा कि शायद वह गलत समझेंगे उनको यह जो दृश्य हैं , समझ में नहीं आएगा।
*वैष्णवेर क्रिया मुद्रा विज्ञेह ना बुझय*
वैष्णवो कि क्रिया,मुद्रा,हाव,भाव विद्वानों को भी समझ में नहीं आता। उसमें से कुछ थोड़े विद्वान होंगे , सारे विद्वान भी नहीं थे , वह कैसे समझेंगे?वह गलत भी समझ सकते हैं।गलतफहमी हो सकती हैं और फिर कुछ टीका टिप्पणी हो सकती हैं । उसका प्रसार प्रचार हो सकता है इस वजह से राय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं को संभाला। वैसे कुछ समय से मिलन ही चल रहा था लेकिन अब अभी वार्तालाप संवाद प्रारंभ हुआ और कुछ समय के लिए संवाद चला । वैसे यह भी होता है कि इस समय श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को एक ब्राह्मण ने आमंत्रित किया। आज की भिक्षा , आज क्या भोजन आप हमारे यहां , हमारे घर में, हमारे गृहस्थ आश्रम में स्वीकार कीजिए प्रभु! मध्यान का समय भी हुआ था , भोजन का समय हुआ था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनका आमंत्रण , निमंत्रण स्वीकार किया और अब जाने से पहले राय रामानंद को चैतन्य महाप्रभु ने निर्धारित किया कि वह पुनः मिलेंगे और फिर विदाई हुई। निर्धारित समय पर वे मिले। वह कई दिनों तक एक दूसरों से मिलते ही रहे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु परिव्राजक आचार्य हैं , सन्यासी हैं ,एक स्थान पर ज्यादा टिकता नहीं , किंतु राय रामानंद का विशेष निवेदन हुआ तो कई दिनों तक वे रहे । साथ में और संवाद होते रहे और चैतन्य चरित्रामृत के मध्य लीला अष्टम अध्याय में यह राय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु का संवाद बड़ा प्रसिद्ध संवाद हैं। यह पठनिय हैं। पढ़ने योग्य समझने योग्य ऐसा संवाद है । जो संवाद चैतन्य महाप्रभु का राय रामानंद जी के साथ हुआ हैं , इसमें माधुर्य लीला या श्रृंगार दर्शन यह जो चर्चा हुई हैं अति गोपनीय है । वैसी चर्चा केवल राय रामानंद के साथ ही संभव थी क्योंकि राय रामानंद विशाखा , कृष्ण की वृंदावन लीला की विशाखा है । रामानंद के रूप में प्रकट हुई है और विशाखा बनी है , अब आंध्र प्रदेश की गवर्नर विशाखा बनी है । गौरांग महाप्रभु गवर्नर से मिल रहे हैं जो राय रामानंद हैं। लेकिन उनका मूल जो स्वरूप वह विशाखा का है , बाहर से तो राय रामानंद है या पुरुष रूप में है किंतु जब रामानंद के साथ चर्चा हो रही है तो यह चर्चा वैसी चर्चा है जो श्रीकृष्ण और विशाखा के बीच में होने वाली चर्चा है । यह चर्चा का विषय विशेष हैं और अद्वितीय है ।और किसी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसे मुद्दे पर, विषय पर , माधुर्य लीला के विषय पर या राधा रानी का भी विषय है , राधा रानी का भी परिचय हैं। राधा रानी के भाव की चर्चा है , विषय हैं और फिर इसी मुलाकात में भी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी अपने मूल रूप जो कृष्ण रूप हैं।
*श्रीकृष्णचैतन्य राधाकृष्ण नहे अन्य*
अनुवाद: -भगवान् चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन् श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं ।
*चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्व्दयं चैक्यमाप्तं।*
*राधा-भाव–द्द्युति- सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरुपम।।*
(श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला अध्याय 1 श्लोक 5)
अनुवाद: – अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुन्हा श्री कृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूं,जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंग कांति के साथ प्रकट हुए हैं।
*अन्तः कृष्णं बहिौरं दर्शिताङ्गादि – वैभवम् । कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण – चैतन्यमाश्रिताः ॥*
(श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला अध्याय 3 श्लोक 81)
अनुवाद “ मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ , जो बाहर से गौर वर्ण के हैं , किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं । इस कलियुग में वे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात् अपने अंगों तथा उपांगों का प्रदर्शन करते हैं ।
राधा का भाव और राधा की कांति को , रूप को धारण किया । वह अंदर कृष्ण है और बाहर गौरांग है , गौर वर्ण के हैं। और बाहर है राधा पर अंदर छुपे है कृष्ण ऐसा रूप है। *तद्व्दयं चैक्यमाप्तं* वो रूप दो के एक हुए हैं और वह विग्रह है । *नौमिकृष्ण-स्वरुपम* ऐसे कृष्ण को मैं नमस्कार करता हूं और वह कृष्ण है , श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विशाखा के समक्ष अपने स्वरूप को छिपा नहीं पाए और रहस्य का उद्घाटन हो ही गया , करना ही पड़ा। वह इतने दिनों से जिन से मिल रहे थे राय रामानंद या विशाखा मिल रही थी । उस रुप को अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का भी मूलरूप है या नवद्वीप में वह मूल रूप हैं। गौरांग महाप्रभु का चैतन्य महाप्रभु का रूप *श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नाही अन्य* उसमें कृष्ण है और राधा है। वृंदावन में राधा कृष्ण ।नवद्वीप में *राधा-भाव–द्द्युति- सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरुपम।।* राधा भाव और राधा की कांति वाला वह स्वरुप अंदर कृष्ण बहिर गौर वाला रूप है। अब राय रामानंद भी राय रामानंद नहीं है वे भी विशाखा हैं। विशाखा ने देखा या विशाखा को दिखाया ,
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने क्या दिखाया? विशाखा देखती है कि अब तक इतने दिनों से इस रूप को देख रहे थे , विशाखा या राय रामानंद देख रहे थे और अभी इसी रुप को विशाखा जब देखती हैं तब कृष्ण है, राधा है, विशाखा के समक्ष राधा और कृष्ण वृंदावन में होते हैं। वैसा ही दृश्य , वैसा ही दर्शन , ऐसा ही दृश्य यहां कोहूर में राय रामानंद ने किया या विशाखा ने किया। इसीलिए वहां के कोहुर के गोदावरी के तट पर यह दक्षिण का वृंदावन हैं। दक्षिण भारत का वृंदावन हैं। वहां पर एक गौडीय मठ की स्थापना भी है और राय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु के संवाद का प्रदर्शन भी हैं और यह दर्शन भी है , राय रामानंद दर्शन कर रहे हैं। कृष्ण है,राधा है उस स्थान को वह वृंदावन समझते हैं और यही एक स्थान है जहां चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा दर्शन दिया। मैं राधा हूंँ , मैं कृष्णा हूंँ। यह जो दर्शन है यह एक विशेष स्थली हैं। यह दर्शन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने राय रामानंद जी को दिया और दर्शन तो राय रामानंद जी को दिया उसी के साथ चैतन्य चरितामृत के ग्रंथ का वह लीला का वर्णन चैतन्यचरितामृ में किया है , और जिसका हम चैतन्य चरितामृत जब श्रवण करते हैं , अध्ययन करते हैं तो हमको भी फिर ज्ञात होता हैं। चैतन्य महाप्रभु के परिचय का ज्ञान होता है , चेतन महाप्रभु कोन है? एक प्रकार से यह सिद्ध होगा यह लीला एक प्रमाण बनी है ।
अथॉरिटी स्टेटमेंट वह कह के नहीं सुनाएं *श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण ना ही अन्य* यह स्टेटमेंट भी है। यह शास्त्र का उदाहरण भी है लेकिन यहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उसका दर्शन , उस ज्ञान का प्रैक्टिकल कराया और स्वयं को दो रूपों में दीखाया , दर्शाया। राधा कृष्ण ऐसा दर्शन नहीं देते तो थोड़ा कठिन लगता है , यह समझने के लिए कि कैसे चैतन्य महाप्रभु *श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य* कैसे हैं ? राधा और कृष्ण यह बात बड़ी स्पष्ट है और बड़ी सरलता से हम समझ सकते हैं । चैतन्य महाप्रभु ने दिखाया , सिद्ध किया । जैसे कृष्ण ने भी अर्जुन से कई सारे वैभव की बाते कि , दसवे अध्याय मे विभूतियों की बात कि , और केवल बात ही नहीं कि फिर ग्यारहवें अध्याय में विराट रूप भी दिखाया । भगवान ने जो जो कहा था ,मैं ऐसा हूंँ , मैं वैसा हूंँ उन सब को भगवान ने विराट रूप में दिखाया । वैसे ही राय रामानंद को ऐसा दर्शन दिया। *श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य* जो पढ़ने को सुनने को मिलता है उसका प्रत्यक्षिक चैतन्य महाप्रभु ने किया , दिखाया, दर्शाया।,सबूत दिया। हरि हरि!
*गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!*
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
15 October 2020
Ecstatic meeting of Mahāprabhu with Vishakha Gopi in Gaur-Lila!
Hare Krsna! Devotees from 777 locations are chanting with us today.
jaya jaya śrī-caitanya jaya nityānanda
jayādvaita-candra jaya gaura-bhakta-vṛnda
Gaura Premanande Hari Haribol!
Śrī Krishna Caitanya Mahāprabhu ki jai! Rāmānanda Rāya ki jai!
When Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu saw Rāya Rāmānanda, He wanted to run towards him, but Mahāprabhu thought that it would not be appropriate as a sannayāsi. A sannayāsi must be serious, not sentimental. Thus, Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu remained seated on the bank of Godāvarī situated in Kohur, Andhra Pradesh. Then, Rāya Rāmānanda’s attention went to Caitanya Mahāprabhu.
sūrya-śata-sama kānti, aruṇa vasana
subalita prakāṇḍa deha, kamala-locana
Translation
Śrīla Rāmānanda Rāya then saw Śrī Caitanya Mahāprabhu to be as brilliant as a hundred suns. The Lord was covered by a saffron garment. He was large in body and very strongly built, and His eyes were like lotus petals. (CC Madhya 8.18)
Mahāprabhu was dressed in a yellow coloured dhoti, yellow as that of early dawn. His complexion is also of golden yellow colour.
ajanu-lambita-bhujau kanakavadhatau
sankirtanaika-pitarau kamalayataksau
visvambharau dvija-varau yuga-dharma palau
vande jagat-priyakaro karunavatarau
Translation
I offer my respects unto Sri Caitanya Mahaprabhu and Sri Nityananda Prabhu, whose arms extend down to Their knees, who have golden yellow complexions, and who inaugurated the congregational chanting of the Holy Names. Their eyes resemble the petals of a lotus; They are the maintainers of all living entities; They are the best of brahmanas, the protectors of religious principles for this age, the benefactors of the universe, and the most merciful of all incarnations.(Caitanya-Bhagavata 1.1.1)
His hands are reaching to the knees. His eyes resemble the petals of a lotus. Seeing this form of Gaurānga Mahāprabhu, Rāya Rāmānanda ran towards Mahāprabhu and offered his obeisances. Then, both of them stood up. This was the first time the two were meeting. Rāya Rāmānanda was welcomed by Mahāprabhu. When a special person arrives, the other person honours him either by standing or embracing him. That is why Caitanya Mahāprabhu stood up and then enquired, “Are you Rāya Rāmananda?” As they had never met before. Mahāprabhu had been told by Sārvabhaumā Bhattācārya that Rāya Rāmānanda was a very good devotee and therefore, Mahāprabhu should surely meet him. Seeing him, Mahāprabhu almost realised that he should be Rāya Rāmānanda. Then, Rāya Rāmānanda very humbly introduced himself as the lowly fallen soul. Mahāprabhu behaved as if He didn’t know anything and so He enquired whether he was Rāya Rāmānanda. Is there any person whom Caitanya Mahāprabhu is not aware of?
vedāhaṁ samatītāni
vartamānāni cārjuna
bhaviṣyāṇi ca bhūtāni
māṁ tu veda na kaścana
Translation
O Arjuna, as the Supreme Personality of Godhead, I know everything that has happened in the past, all that is happening in the present, and all things that are yet to come. I also know all living entities; but Me no one knows. (BG. 7.26)
Śrī Krsna said that He knows everything, samatītāni, here atītā means past. He knows the past, the present (vartamānāni) and the future (bhaviṣyāṇi) of all living entities. Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu is Krsna Himself. But since He has become a devotee, He is playing this role very nicely. He is acting as a foolish person (agya), and not prgya meaning knowledgeable person. Those who knew Caitanya Mahāprabhu as Krsna Himself, got bewildered by such kinds of inquiries by the Lord. Then Caitanya Mahāprabhu and Rāya Rāmānanda came further and hugged each other. As soon as their bodies touched, they experienced ecstasy. Their bodies were shivering, tears were rolling out of their eyes which were bathing each other. They lost their bodily consciousness. They became stiff like a pillar, and since there was no bodily consciousness, they fell down as pillars would fall on the ground with a firm base. This is transcendental darsana. It is not any kind of fakism. After some time, they got to know that the Vedic brāhmanās were witnessing them, who came with Rāya Rāmānanda to have a bath in Godāvarī River. They thought that it’s not appropriate to show these emotions in front of those brāhmanās as they would not understand.
vaiṣṇavera kriyā mudrā vijñeha nā bujhaya
Translation
Even a very intelligent man cannot understand the activities of a pure Vaiṣṇava.
It is difficult to understand the actions of pure Vaiśnavas, even the scholars and materially intelligent people fail to understand. Many of the people witnessing this divine unison were not scholarly or even intelligent. Thus, Mahāprabhu and Rāya Rāmānanda controlled themselves and didn’t let their bhāva or emotions take over. Then, they proceeded with their conversations, which lasted for sometime.
One day, one brāhmana invited Mahāprabhu to honor lunch prasada at his place. Mahāprabhu accepted the invitation. Before proceeding to the brāhmana’s place, Mahāprabhu and Rāya Rāmānanda decided to meet again and not only once again, but they kept on meeting several times and had transcendental discussions. Although Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu is parivrājakācārya sannayāsi meaning always travelling for preaching purposes, but on special request by Rāya Rāmānanda, He stayed for many days and had discussions. This conversation between Rāya Rāmānanda and Caitanya Mahāprabhu is a very popular one, described in the 8th chapter in Madhya-lila, Caitanya Caritāmrta. This is worth studying. In this, they are discussing the highest mood of conjugal love. This could only be discussed with Rāya Rāmānanda as he is Vishakha Devi of Krsna lila. Vishakha Devi has now become the governor of Andhra Pradesh in the male form of Rāya Rāmānanda, but his actual mood is that of Vishakha gopi. Therefore, they were discussing these confidential matters. This conversation is like the conversation between Krsna and the primary gopi Vishakha, which is unique. Caitanya Mahāprabhu would not discuss such topics with any other person. Rādhārāni is also an important part of the discussion. They are discussing Rādhārāni and Her divine mood.
śrī-kṛṣṇa-caitanya, rādhā-kṛṣṇa nahe anya
Translation
Lord Caitanya Mahāprabhu is none other than the combined form of Śrī Śrī Rādhā and Krsna. (Caitanya Bhāgavata)
rādhā kṛṣṇa-praṇaya-vikṛtir hlādinī śaktir asmād
ekātmānāv api bhuvi purā deha-bhedaṁ gatau tau
caitanyākhyaṁ prakaṭam adhunā tad-dvayaṁ caikyam āptaṁ
rādhā-bhāva-dyuti-suvalitaṁ naumi kṛṣṇa-svarūpam
Translation
The loving affairs of Śrī Rādhā and Kṛṣṇa are transcendental manifestations of the Lord’s internal pleasure-giving potency. Although Rādhā and Kṛṣṇa are one in Their identity, previously They separated Themselves. Now these two transcendental identities have again united, in the form of Śrī Kṛṣṇa Caitanya. I bow down to Him, who has manifested Himself with the sentiment and complexion of Śrīmatī Rādhārāṇī although He is Kṛṣṇa Himself. (CC Ādi 1.5)
antaḥ kṛṣṇaṃ bahir-gauraṃ darśitāṅgādi-vaibhavam
kalau saokīrtanadyaiḥ smaḥ kṛṣṇa-caitanyam-āśritāḥ
Translation
I take shelter of Śrī Kṛṣṇa Caitanya Mahāprabhu, who is Kṛṣṇa Himself, thinking of Himself. He is internally Kṛṣṇa blackish but externally, he appears in golden complexion. In this age of Kalī, Kṛṣṇa appears as Kṛṣṇa Caitanya, simultaneously manifesting His eternal associates, opulences, expansions, and incarnations. In this way, he preaches the process of Kṛṣṇa consciousness by performing sankīrtana. (Tattva-sandarbha 2)
With the mood and complexion of Śrīmati Rādhārani, Krsna has appeared as Caitanya Mahāprabhu. tad-dvayaṁ caikyam āptaṁ, Radha and Krsna are two souls and have united to become Caitanya Mahāprabhu. I offer my respectful obeisances to such a Krsna. Śrī Krsna Caitanya Mahāprabhu could not hide His real identity in front of Vishakha. Rāya Rāmānanda (Vishakha Devi) was meeting Mahāprabhu for so long, that now he wanted to see the original Vrindavan form of Krsna. Mahāprabhu’s form is also the original form in Navadvīpa. Thus, Mahāprabhu showed this unison of Radha and Krsna to Vishakha. Just like Radha and Krsna give darsana to Vishakha in Vrindavan, similarly Mahāprabhu gave darsana to Rāya Rāmānanda in Kohur, on the bank of Godāvarī River. This place is also considered as Vrindavan of South India. There is also a Gaudīya Matha there. This is an extremely rare and fortunate place, where Mahāprabhu gave this transcendental darsana as Radha and Krsna. When we read this pastime in Caitanya Caritāmrta, we become aware of the true identity of Mahāprabhu. This pastime is proof of the fact that Mahāprabhu is the united form of Radha and Krsna. It is not only in words that Mahāprabhu is Radha and Krsna united, but it was also shown by Mahāprabhu Himself. Otherwise it would have been difficult for us to understand this fact only verbally. Like Śrī Krsna gave Arjuna special darsana of His universal form in the 11th chapter of Bhagavad-Gītā, He gave darsana of His original Vrindavan form to Rāya Rāmānanda, that is the unison of Radha and Krsna in Caitanya Mahāprabhu.
Question and Answer session
Question 1: Why do we need to read Bhagavad-Gītā first then Śrīmad Bhāgavatam and then Caitanya Caritāmrta?
Gurudev uvaca: Bhagavad-Gītā begins with,
na jāyate mriyate vā kadācin
nāyaṁ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ
ajo nityaḥ śāśvato ’yaṁ purāṇo
na hanyate hanyamāne śarīre
Translation
For the soul there is neither birth nor death at any time. He has not come into being, does not come into being, and will not come into being. He is unborn, eternal, ever-existing and primeval. He is not slain when the body is slain. (B.G. 2.20)
We are soul, not body. And Bhagavad-gītā ends with,
sarva-dharmān parityajya
mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja
ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo
mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ
Translation
Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions. Do not fear. (BG. 18.66)
Krsna asks to surrender unto Him, but people surrender unto demigods.
kāmais tais tair hṛta-jñānāḥ
prapadyante ’nya-devatāḥ
taṁ taṁ niyamam āsthāya
prakṛtyā niyatāḥ svayā
Translation
Those whose intelligence has been stolen by material desires surrender unto demigods and follow the particular rules and regulations of worship according to their own natures. (B.G 7.20)
Surrendering unto Krsna means giving up all Karma-kanda, Jnana-kanda, etc. He has given do’s and don’ts also.
man-manā bhava mad-bhakto
mad-yājī māṁ namaskuru
mām evaiṣyasi satyaṁ te
pratijāne priyo ’si me
Translation
Always think of Me, become My devotee, worship Me and offer your homage unto Me. Thus you will come to Me without fail. I promise you this because you are My very dear friend. (BG 18.65)
Then Krsna asks to worship Him. Śrīmad Bhāgavatam begins with the end of Bhagavad-Gītā. Bhagavad-Gītā has already established the devotion in us by surrendering unto Krsna. That is the first step or the basic knowledge.
Śrīmad Bhāgavatam starts with,
Om Namo Bhagavate Vasudevaya
bahūnāṁ janmanām ante
jñānavān māṁ prapadyate
vāsudevaḥ sarvam iti
sa mahātmā su-durlabhaḥ
Translation
After many births and deaths, he who is actually in knowledge surrenders unto Me, knowing Me to be the cause of all causes and all that is. Such a great soul is very rare. (BG. 7.19)
Śrīmad Bhāgavatam is for those who know Vāsudeva or Krsna to be the cause of all causes and therefore surrender unto Him. Śrīmad Bhāgavatam also mentions,
dharmaḥ projjhita-kaitavo ’tra paramo nirmatsarāṇāṁ satāṁ
vedyaṁ vāstavam atra vastu śivadaṁ tāpa-trayonmūlanam
śrīmad-bhāgavate mahā-muni-kṛte kiṁ vā parair īśvaraḥ
sadyo hṛdy avarudhyate ’tra kṛtibhiḥ śuśrūṣubhis tat-kṣaṇāt
Translation
Completely rejecting all religious activities which are materially motivated, this Bhāgavata Purāṇa propounds the highest truth, which is understandable by those devotees who are fully pure in heart. The highest truth is reality distinguished from illusion for the welfare of all. Such truth uproots the threefold miseries. This beautiful Bhāgavatam, compiled by the great sage Vyāsadeva [in his maturity], is sufficient in itself for God realization. What is the need of any other scripture? As soon as one attentively and submissively hears the message of Bhāgavatam, by this culture of knowledge the Supreme Lord is established within his heart. (ŚB 1.1.2)
Śrīmad Bhāgavatam rejects all the religious activities covered by fruitive intention. It uproots the threefold miseries. It is for those devotees who are fully pure in heart. First, there are 9 cantos in Śrīmad Bhāgavatam and then in the 10th canto, the Lord talks about Himself.
ete cāṁśa-kalāḥ puṁsaḥ
kṛṣṇas tu bhagavān svayam
indrāri-vyākulaṁ lokaṁ
mṛḍayanti yuge yuge
Translation
All of the above-mentioned incarnations are either plenary portions or portions of the plenary portions of the Lord, but Lord Śrī Kṛṣṇa is the original Personality of Godhead. All of them appear on planets whenever there is a disturbance created by the atheists. The Lord incarnates to protect the theists. (ŚB 1.3.28)
kṛṣṇas tu bhagavān svayam, this is the main statement of Śrīmad-Bhāgavatam. The appearance, the activities and the disappearance of Śrī Krsna has been vividly described in the 10th and 11th canto of Śrīmad-Bhāgavatam. The Lord discusses His conjugal love with the Gopis in the middle of 10th canto.
jaya jayojjwala-rasa sarva-rasa-sār
parakīyā-bhāve jāhā brajete pracār
Translation
All glories, all glories to the mellow of conjugal love, which is the most excellent of all rasas and is propagated in Vraja by Sri Krsna in the form of the divine parakiya-bhava [paramour love]. (10th verse, Jaya Radhe Jaya Krsna Jaya Vrndavana, Sri Vraja Dhama Mahimamrta, by Krsna Dāsa)
There is dominance of parakiya-bhava or madhurya rasa in Vrindavan and a little bit of dāsya rasa, sākhya rasa and vātsalya rasa is there. These rasas are highest and divine in Vrindavan as compared to Vaikuntha or Dvaraka. The highest of the pastimes of the Lord are those of conjugal love with the Gopis, that has been explained very briefly in the 5 chapters of Rasa Pancadhyaya of 10th Canto of Śrīmad-Bhāgavatam. The conjugal love pastimes have been discussed vividly in Caitanya Caritāmrta. In fact, the main or confidential motive behind the appearance of Caitanya Mahāprabhu was to realise the mood of Śrīmati Rādhārāni.
paritrāṇāya sādhūnāṁ
vināśāya ca duṣkṛtām
dharma-saṁsthāpanārthāya
sambhavāmi yuge yuge
Translation
To deliver the pious and to annihilate the miscreants, as well as to reestablish the principles of religion, I Myself appear, millennium after millennium. (BG. 4.8)
Every incarnation of the Lord appears to protect the pious, to destroy the demons and to reestablish the principles of religion. In this incarnation also, Caitanya Mahāprabhu protected His devotees, destroyed the demoniac qualities in people like in case of Jagai Madhai and established religion by spreading the Hare Krsna mahā-mantra everywhere, but the main motive behind His appearance was to realise the mood of Śrīmati Rādhārāni. That is why, Krsna has appeared as Caitanya Mahāprabhu with the mood and complexion of Śrīmati Rādhārani.
śri-rādhār bhāve ebe gorā avatāra
hare kṛṣṇa nām gaura korilā pracāra
Translation
It is He who has come. He has come! Oh, from Vraja He has come to Nadiya. Accepting the mood and luster of Sri Radha, He has come from Vraja to Nadiya. He has come! Now Lord Govinda, the cowherd boy, has come as Lord Gauranga. He has come distributing the Hare Krsna maha-mantra! (4th verse, Jaya Jaya Jagannatha Sacira, by Vasudeva Ghosa)
Gaurānga Mahāprabhu distributed the Hare Krsna mahā-mantra in Madhya-lila and finally he did His main work in Gambhira, Jagannātha Puri for 18 years. This all happened when Mahāprabhu was with Rāya Rāmānanda who is Vishakha Devi, Swarūpa Dāmodara who is Lalita Devi and many other associates. Their discussions would go on. They got engrossed in Hare Krsna kīrtana which is in Madhurya Rasa. They would listen to Geet Govinda filled with Madhurya lila, hear books by Vidyapati Chandi Dāsa, read Krsna Karnamrta and would listen to Śrīmad-Bhāgavatam from Gadādhar Pandita. Some parts of Madhya lila and majorly Antya lila narrate a lot of nectarian pastimes and discussions of the conjugal love of Radha and Krsna. In Śrīmad Bhāgavatam, there is limited mention of these pastimes.
anayārādhito nūnaṁ
bhagavān harir īśvaraḥ
yan no vihāya govindaḥ
prīto yām anayad rahaḥ
Translation
Certainly this particular gopī has perfectly worshiped the all-powerful Personality of Godhead, Govinda, since He was so pleased with Her that He abandoned the rest of us and brought Her to a secluded place.( SB. 10.30.28)
Śukadeva Goswāmī has very cautiously delivered it. He has not even uttered the name of Rādhārāni openly as the katha was publicly being delivered. He didn’t find all the audience eligible to listen to the ultimate pastimes of Radha and Krsna. Śrīla Prabhupāda said that Śrīmad Bhāgavatam is graduation and Caitanya Caritāmrta is post graduation.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
Therefore, we must not rush towards the highest level. We are not qualified or capable of jumping to Madhurya or Sringāra rasa. We should climb gradually through the steps.
rāja-vidyā rāja-guhyaṁ
pavitram idam uttamam
pratyakṣāvagamaṁ dharmyaṁ
su-sukhaṁ kartum avyayam
Translation
This knowledge is the king of education, the most secret of all secrets. It is the purest knowledge, and because it gives direct perception of the self by realization, it is the perfection of religion. It is everlasting, and it is joyfully performed. (BG. 9.2)
The real king of education (rāja-vidyā) and the king of confidential knowledge (rāja-guhyam) has been described in Caitanya Caritāmrta or the Nectar of Devotion (Bhakti-rasamrta-sindhu). This has been mentioned in many scriptural sources that those who rush towards the conjugal love pastimes, who don’t wish to follow the chapter wise sequence, who wish to jump to higher levels, become sahājiya, which means they are not following the proper ladder. This is one of the Ap-sampradayas which is very dangerous. They take the Antya-lilas cheaply. Therefore, it is said in relation to Śrīmad Bhāgavatam that first we must read 9 cantos in sequence and then the 10th canto. The sahājiyas don’t learn the basics like Bhagavad-gītā or first 9 cantos of Śrīmad Bhāgavatam. They skip that and jump directly to rasa panchadhyay of the 10th canto. Although not understanding it properly, they wish to not only study it, but also teach it to others.
There is secondary, then higher secondary, then graduation and then post graduation. This is the sequence. Therefore, Śrīla prabhupāda cautioned us. There must be foundation first, then the higher floors in a building. Similarly, If the basics are strong then your steps are firm, you won’t fall from where you reach. These sahājiyas don’t understand Radha Krsna properly.
ātmavan manyate jagat
Translation
Everyone thinks of others according to his own position.
They misunderstand that Krsna is also lusty like us and always engrossed in the sexual inclination activities. It is difficult and rather dangerous to preach to such faithless people. Preaching is an art and thus requires proper identification of whom to deliver the instructions of the Lord, otherwise it will be an offence. There is not the same medicine for every person. Therefore, we must consult the physician for whether it is kāma-roga, krodha-roga or lobha-roga. You cannot prescribe medicines and diet till you do not have proper knowledge about the medicines and diseases. Therefore, always start from the foundation. If the foundation is strong then the building can go upto great heights.
Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
You all can join Navadvīpa-mandala parikrama from 8 to 9:30 pm. You can find all the questions and answers of japa talk in ‘Chant Japa with Lokanath Swami’ Facebook page. Or you may ask your questions there.
Hare Krsna!
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
दिनांक 14 अक्टूबर 2020
हरे कृष्ण!
वृन्दावन धाम की जय!
नवद्वीप धाम की जय!
ये दोनों अभिन्न हैं। हरि! हरि!
वृन्दावन के कृष्ण ही नहीं अपितु राधा भी नवद्वीप में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का रुप धारण करते हैं। वृन्दावन के कृष्ण ही नवद्वीप के श्री कृष्ण चैतन्य हैं।
श्रीकृष्णचैतन्य राधाकृष्ण नहे अन्य। ( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- भगवान चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा तथा कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
राधारानी भी नवद्वीप में गदाधर बन जाती हैं।
ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ,
बलराम हइल निताइ।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल,
ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥
अनुवाद:- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं।
बलराम, नित्यानंद बन जाते हैं और गोकुल नवद्वीप बन जाता है। वैसे वृन्दावन ही नवद्वीप बनता है और वृन्दावन के सभी वासी और स्वयं भगवान भी नवद्वीप में प्रकट होते है और प्रकट हैं। ऐसा नहीं कि एक समय वृन्दावन ही था, नवद्वीप नहीं था और अचानक फिर नवद्वीप उत्पन्न हुआ। ऐसी बात नहीं है। दोनों ही शाश्वत हैं। वृन्दावन भी सदा के लिए है और नवद्वीप भी सदा के लिए है। वैसे दोनों ही गोलोक हैं।
आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि-
स्ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।
गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥३७॥( ब्रह्मसंहिता)
अनुवाद:-आनन्द-चिन्मयरसके द्वारा प्रतिभाविता, अपने चिद्रूपके
अनुरूपा, चिन्मय रस स्वरूपा, चाँसठ कलाओंसे युक्ता, हादिनी-शक्ति-स्वरूपा
श्रीराधा और उनकी कायव्यूह-स्वरूपा सखियोंके साथ जो अखिलात्मभूत
गोविन्द अपने गोलोक-धाममें निवास करते हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्दका
मैं भजन करता हूँ।
अखिलात्मभूत अर्थात श्रीकृष्ण गोलोक में निवास करते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी गोलोक में ही निवास करते हैं। बृजवासी अथवा वृंदावन वासी गोलोक के ही निवासी हैं और नवद्वीप वासी भी गोलोक के ही निवासी हैं। वृंदावन के वासी नवद्वीप में अलग-अलग भूमिका निभाते हैं। दो दिन पहले जब हम संध्या आरती पर चर्चा कर रहे थे।
दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर।
निकटे अद्वैत श्रीवास छत्रधर॥2॥
अर्थ:-उनके दाहिनी ओर नित्यानन्द प्रभु हैं तथा बायीं ओर श्रीगदाधर हैं। चैतन्य महाप्रभु के दोनों ओर श्रीअद्वैत प्रभु तथा श्रीवास प्रभु उनके मस्तक के ऊपर छत्र लिए हुए खड़े हैं।
तब हमनें संध्या आरती का गीत हल्का सा गाया भी था और उसको थोड़ा समझाया भी था। तब किसी भक्त ने प्रश्न पूछा था कि वृंदावन की राधारानी नवद्वीप में गदाधर बन जाती है। वृंदावन में राधारानी का स्त्री स्वरूप होता है किंतु नवदीप में वह पुरुष रूप धारण करके आती हैं अर्थात पुरुष बन जाते हैं। इसको कैसे समझा जा सकता है कि वे वह राधा रानी हैं या नहीं है? वैसे हमने उस दिन भी कुछ समझाया था, कुछ संस्मरण हुआ था और यह समझाने का प्रयास किया था कि हां-हां, गदाधर ही राधा रानी के भावों के साथ हैं लेकिन हम ब्राह्य दृष्टि से देखते हैं। हमने उनके रूप को देखा कि यह पुरुष का रूप है। ऐसे में कोई संशय उत्पन्न हो सकता है। वैसे संशय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हरि! हरि! उनके कई हाव- भावों से पता ही चलता है कि गदाधर राधारानी हैं। हमनें उस दिन बताया भी था कि वह सदैव कृष्ण के सानिध्य का लाभ लेना चाहती हैं जोकि वृंदावन में नहीं होता। राधा रानी सदैव कृष्ण के साथ रहना चाहती हैं। उनका अंग संग चाहती हैं किंतु वह संभव नहीं हो पाता। वही राधा रानी नवद्वीप में गदाधर के रूप में प्रकट होती हैं। तब उनका लक्ष्य बनता है कि अब मैं कृष्ण का साथ कभी नहीं छोडूंगी। मैं अब कृष्ण के इर्द-गिर्द रहूंगी। कृष्ण का सानिध्य लाभ करूंगी। उन्होंने वैसा ही किया और उनको वैसा करते हुए जब हम देखते हैं, सुनते हैं व पढ़ते हैं तो यह समझ आना चाहिए कि हां हां, यह राधारानी तो हैं जो कृष्ण के साथ गदाधर के रूप सदैव रहने लगी हैं। ‘दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर’ दक्षिणत्: औऱ बामतः।
दक्षिणत् अर्थात दाएं और बामतः बाएं।
दाएं में उनके बलराम जी हैं और बामे गदाधर अर्थात बाएं बगल में गदाधर हैं। वृंदावन में कृष्ण बलराम मंदिर में कृष्ण के दाहिने हाथ में बलराम खड़े हैं। याद है आपको? आपने कृष्ण बलराम के दर्शन किए है? वह अंग्रेज का मंदिर तो नहीं है लेकिन लोग कहते हैं ‘अंग्रेज मंदिर’। लेकिन वह अंग्रेज मंदिर नहीं है, वह कृष्ण बलराम मंदिर है।
कृष्ण के दाहिने हाथ में बलराम खड़े हैं। बलराम हइल निताइ। वही बलराम, नवद्वीप लीला में नित्यानंद प्रभु बने हैं। किबे दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर’दाहिने हाथ में बलराम अब नित्यानंद प्रभु बने हैं। जब हम पञ्चतत्व का दर्शन करते हैं तब चैतन्य महाप्रभु के दाहिने तरफ नित्यानंद प्रभु का दर्शन करते हैं।
आपने राधा श्याम सुंदर का दर्शन किया होगा या राधा माधव या राधा रास बिहारी या राधा पंढरीनाथ या राधा मदन मोहन या राधा गोविंद या राधा दामोदर का इन सारे दर्शनों में राधा रानी कहां खड़ी होती है? बामे गदाधर अर्थात बाएं हाथ अथवा बाय बगल में राधा रानी खड़ी होती हैं।
जहां पंचतत्व का दर्शन है, वहां पर भी बाम गदाधर अर्थात बायीं तरफ गदाधर खड़े होते हैं। जैसे राधा रानी उनके बगल में खड़ी रहती हैं। ऐसे भी समझ में आ सकता है और आना चाहिए कि गदाधर राधा रानी हैं। हरि! हरि!
नवद्वीप में कई बहुत सारे गौर गदाधर के मंदिर हैं। कभी कहते हैं गदाई गौरांग! गदाई गौरांग! गदाई गौरांग! गदाई के गौरांग के मंदिर हैं। गदाई कौन हैं? राधा रानी! राधा रानी के गौरांग अथवा गौर गदाई। नवदीप में ऐसा ही एक प्रसिद्ध मंदिर है। ऋतु द्वीप में जिसको चंपाहाटी भी कहते हैं, वहाँ पर गौर गदाधर अर्थात प्राचीन विग्रह ( प्राचीन मतलब 500 वर्ष पुराने विग्रह) की आराधना होती है। गौर गदाधर की आराधना एकदृष्टि से राधा कृष्ण की आराधना ही है और गौर निताई की आराधना कृष्ण बलराम की आराधना है। गौर नित्यानंद बोल! हरि बोल! हरि बोल!
गौरंगा! नित्यानंद!
गौरंगा! नित्यानंद!
गौरंगा! नित्यानंद!
नवद्वीप में यह सब चलता रहता है। गौर निताई कृष्ण बलराम हैं। गौर गदाधर राधा-कृष्ण हैं। हरि! हरि!
एक समय मुकुंद दत्त ने गदाधर पंडित से कहा चलो, मैं तुम्हें एक विशेष महात्मा से मिलवाता हूं। वह दोनों विशेष महात्मा से मिलने के लिए गए। वे विशेष महात्मा पुंडरीक विद्यानिधि थे, वे गृहस्थ थे। वे उनके द्वार अर्थात उनके घर पर भी पहुंचे। उन दोनों (मुकुंद और गदाधर पंडित) ने पुंडरीक विद्यानिधि की लाइफ़ स्टाइल अथवा जीवनशैली को बड़े गौर से देखा। पुंडरीक विद्यानिधि का वैभव अथवा वहां का सारा फर्नीचर, वहाँ का ठाठ और पुंडरीक विद्यानिधि भी एक विशेष आसन पर बैठे थे।
और वहाँ सिंपल लिविंग और हाई थिंकिंग का कोई नामोनिशान ही नहीं था। सादा जीवन तो दिख ही नहीं रहा था। सारा वैभव ही था। वहाँ ऐशो आराम की सारी सामग्री मौजूद थी। वे जब अपने नौकर चाकर का नाम पुकारते थे तब उनके सेवक वहाँ ‘यस सर’ करते हुए आते थे। जब उन्होंने यह सब देखा कि वहां चवरं ढुलाएं भी चल रहा है व पुंडरीक विद्यानिधि के सेवक उन को पंखा झल रहे हैं और भी कई प्रकार से पुंडरीक विद्यानिधि की सेवाएं हो रही हैं। यह सब देख कर गदाधर पंडित सोचने लगे कि हम यहाँ एक महात्मा के दर्शन के लिए आए थे लेकिन यह व्यक्ति अर्थात पुंडरीक विद्यानिधि तो एक साधारण आदमी ही है। यह कैसे संभव है। उनमें कोई लक्षण तो मुझे दिख नहीं रहा है। तब मुकुंद जो बगल में बैठे थे, उनको पता चलने लगा कि गदाधर पंडित क्या सोच रहे हैं। वे कुछ अच्छा नहीं सोच रहे हैं। वे पुंडरीक विद्यानिधि के चरणों में कुछ अपराध कर रहे हैं, उनको एक साधारण व्यक्ति समझ रहे हैं। तब मुकंद ने अचानक
अहो बकी यं स्तनकालकुटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोअ्नयं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।। ( श्रीमद् भागवतं ३.२.२२)
अनुवाद:- ओह्ह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूंगा जिन्होंने उस असुरिनी (पूतना) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था?
यह उद्धव का गाया हुआ और विदुर जी का सुना हुआ वचन है इसमें भगवान की दयालुता का वर्णन है कि भगवान कितने दयालु हैं। उन्होंने पूतना पर भी कितनी दया दिखाई है। भगवान से और अधिक कौन दयालु हो सकता है?जब ऐसा भाव वाला वचन अथवा श्लोक का मुकुंद ने उच्चारण किया और पुंडरीक विद्यानिधि ने जैसे ही इसे सुना, तब पुंडरीक विद्यानिधि के हाव भाव में पूरी क्रांति हो गयी और उनमें पूरा कृष्ण प्रेम उमड़ आया। उनके शरीर में रोमांच, आँखों में अश्रु धाराएं और जहां जिस आसन पर बैठे थे, वहाँ से वे गिर पड़े और जमीन पर लौटने लगे और कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! पुकारने लगे। अब गदाधर पंडित उनमें सारे अष्ट विकारों व भक्ति के सारे लक्षणों का दर्शन कर रहे थे। उनको यह देख कर अचरज लग रहा था। वे सोच भी रहे थे कि इतने बड़े महात्मा? और मैं इनके संबंध में क्या सोच रहा था कि यह साधारण है, भोगी है, भोग विलास का जीवन जीते हैं। यह देखो कैसा वैभव? देखो कैसा ठाट बाठ ऐसा मैं सोच रहा था लेकिन अब मुझे समझ में आ गया है कि पुंडरीक विद्यानिधि सचमुच ही एक महान भक्त हैं। वे सोचने लगे कि मैंने जो अपराध के वचन सोचे या मैं वैष्णव अपराध कर रहा था, मुझे इस अपराध से मुक्त होने के लिए कुछ करना होगा तो उन्होंने पुंडरीक विद्यानिधि के चरणों में प्रस्ताव रखा कि ‘कृपया मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कीजिए” मुझे अपना शिष्य बनाइए’
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ( श्रीमद् भगवतगीता २.७)
अनुवाद: अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ ।अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ। कृप्या मुझे उपदेश दें।
अर्जुन ने भी ऐसा कृष्ण से कहा था, वैसा ही गदाधर पंडित कहने लगे। पुंडरीक विद्यानिधि ने उनको स्वीकार किया। पुंडरीक विद्यानिधि की जय! यह गदाधर पंडित ही राधा रानी हैं। पुंडरीक विद्यानिधि राजा वृषभानु हैं। राधा रानी की जय! महारानी की जय! बरसाने वाली की जय! जय! जय!
जो आप कहते हो बरसाना, उसका वैसे नाम वृषभानुपुर है। राजा वृषभानु बरसाने के राजा रहे हैं।
तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि
वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरिप्रिये
राधारानी वृषभानु सुता हैं। राधारानी वृषभानु नंदिनी हैं। पुंडरीक विद्यानिधि वृषभानु बने हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला में वृषभानु, पुंडरीक विद्यानिधि बने हैं। उन्होंने पुंडरीक विद्यानिधि का शिष्यत्व स्वीकार करके अपना जो घनिष्ठ संबंध है, उसको पुनः स्थापित किया है। इस लीला से भी स्पष्ट होता है कि गदाधर पंडित राधारानी हैं।
इस प्रकार का ऐश आराम कहो या इसे जीवन की शैली कहो। यह राजा, वृषभानु ही तो प्रकट हुए हैं। उनकी जीवनशैली राजा पुंडरीक विद्यानिधि के रूप में है। हरि! हरि!
हम कुछ कुछ लक्षणों से यह संबंध स्थापित कर सकते हैं कि यह चैतन्य महाप्रभु की लीला के जो पात्र हैं या यह वृंदावन में भूमिका निभाने वाले व्यक्तित्व कौन हैं और अब नवद्वीप में यह, वह भूमिका निभा रहे हैं अर्थात वे अब अलग-अलग भूमिकाएं निभा रहे हैं। गदाधर पंडित राधा रानी ही हैं। हम उस दिन बता रहे थे कि जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लिया तो फिर नवद्वीप वासी तो नवद्वीप में ही रह गए और मायापुर वासी, मायापुर में ही रह गए। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपनी मैया शची माता के शिक्षा और आदेशानुसार जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान किया। अधिकतर नवद्वीपवासी नवद्वीप में ही रहे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के परिकर व पार्षद, संगी साथी नवद्वीप में थे लेकिन गदाधर पंडित जगन्नाथपुरी पहुंच जाते हैं बाकी लोग नहीं जाते हैं लेकिन वे जाते हैं और जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु का सानिध्य अथवा अंग संग प्राप्त करते हैं। महाप्रभु जगन्नाथपुरी में गंभीरा में ललिता, विशाखा के साथ रहते थे अर्थात वह स्वरूप दामोदर और राय रामानंद के साथ रहते थे। स्वरूप दामोदर जो कि ललिता हैं और राय रामानंद, विशाखा है। स्वरूप दामोदर, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की प्रसन्नता के लिए भिन्न भिन्न गीतों का गायन करते हैं। वे चैतन्य महाप्रभु के भावों के अनुसार उनके भावों की पुष्टि व पोषण करते हुए गायन करते हैं अर्थात उनके भावों के अनुरूप कुछ गीत गाते हैं। स्वरूप दामोदर अपने गायन के लिए प्रसिद्ध थे। जहाँ तक कथा सुनने की बात है, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंभीरा से टोटा गोपीनाथ मंदिर जाते हैं जो कि कुछ दूरी पर अर्थात गंभीरा, जगन्नाथ मंदिर के पास ही है। वहां से काफी दूर टोटा गोपीनाथ मंदिर है। गदाधर पंडित गोपी नाथ के पुजारी बने हैं।
वे टोटा गोपीनाथ की आराधना करते हैं। वहां के विग्रह किनके नाथ है? गोपीनाथ! गोपीनाथ कहो हो या फिर राधानाथ कहो। वहां राधानाथ की आराधना गदाधर पंडित किया करते थे। वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गदाधर पंडित से जाकर मिलते थे। गदाधर पंडित भी अपनी कथा के लिए प्रसिद्ध थे। वह श्रीमद्भागवत की कथा सुनाते थे। वह भागवतं के आधार पर कृष्ण की कथा गाथा सुनाते थे। राधा रानी ही गदाधर पंडित हैं,अब जब वह कथा सुनाते तो उस कथा के श्रवण के लिए कृष्ण, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में पहुंचते। इस प्रकार गदाधर पंडित को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सानिध्य का लाभ होता। प्रेम वैचित भी एक तरह से प्रेम का प्रकार है। गोपियां या राधारानी या अन्य उच्च कोटि के भक्त इसका अनुभव कर सकते हैं या करते हैं कहा जाए कि ऐसे भक्तों के साथ भगवान है भी तो उनको यह भय बना रहता है कि भगवान कभी भी यहां से जा सकते हैं, फिर मैं अकेली रह जाऊंगी। भगवान श्री कृष्ण अभी राधा रानी के साथ या किसी अन्य भक्त के साथ भाग ले रहे हैं परंतु ऐसा हो सकता है कि वह श्रीकृष्ण मुझे छोड़ कर चले जाएं, वे विरह की व्यथा का अनुभव करती हैं। जबकि कृष्ण तो वहीं उनके पास अथवा बगल अथवा गोद में ही हैं लेकिन ये भक्त सोचते हैं कि कृष्ण जा सकते हैं, तब मैं फिर अकेला रह जाऊंगा/ जाऊंगी या फिर सोचते हैं कि वह चले गए हैं, अब वे मेरे साथ नहीं हैं। भक्तिरसामृत सिंधु में इसे प्रेम वैचित्य कहा है। गदाधर पंडित भी ऐसा ही अनुभव किया करते थे।
जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाना चाहते थे तब गदाधर पंडित भी साथ में जाना चाह रहे थे। वैसे गदाधर पंडित को क्षेत्र संन्यास मिला था। गदाधर पंडित आजीवन ब्रह्मचारी रहे। उन्होंने कभी विवाह नहीं किया। वह किसके साथ विवाह करेंगे, उनका विवाह तो राधा रानी के प्राण वल्लभ के साथ हो ही चुका है। राधा वल्लभी हैं तो कृष्ण वल्लभ हैं। वल्लभ! वल्लभी!, वल्लभ!- वल्लभी!
गदाधर पंडित अविवाहित रहे। ब्रह्मचारी रहे। हरि! हरि! पति व्रत का पालन किया। गदाधर पंडित की दृष्टि से चैतन्य महाप्रभु उनके पति थे। वे और किन के साथ विवाह करेंगे? जब वे जगन्नाथपुरी में थे, उनको क्षेत्र सन्यास दिया गया अथवा प्रभुदत्त देश दिया गया। प्रभु अथवा महाप्रभु ने उनको स्थान अथवा देश अथवा प्रदेश दिया कि यहां पर रहो और यहां सेवा करो। कभी कभी ऐसा आदेश, उपदेश गुरुजन /आचार्यजन करते हैं तो इसे प्रभुदत्त देश कहा जाता है अर्थात प्रभु द्वारा दिया हुआ देश। श्री चैतन्य महाप्रभु, गदाधर पंडित को प्रभु दत्त देश दे चुके थे। इसलिए उनका देश जगन्नाथपुरी था। जब चैतन्य महाप्रभु, वृंदावन के लिए प्रस्थान कर कर रहे थे अथवा वृंदावन की ओर जा रहे हैं। वे जगन्नाथपुरी को छोड़कर आगे कटक पहुंच कर और आगे जा रहे थे तो उनके पीछे पीछे गदाधर पंडित जा रहे थे। वैसे कुछ अन्य भक्त जैसे राजा प्रताप रुद्र, राय रामानंद भी जा रहे थे। कुछ गिने-चुने अधिकारी/ भक्त जा रहे थे लेकिन जब उनको चैतन्य महाप्रभु ने कहा की ‘अब आप लौट सकते हो’। वे सब लौट गए। लेकिन जब गदाधर पंडित को कहा कि ‘लौट जाओ’, ‘लौट जाओ’, जगन्नाथपुरी लौट जाओ ऐसा पुनः पुनः कहने पर भी वे उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। वे चैतन्य महाप्रभु के साथ जाना चाहते थे। मार्ग में एक नदी आई तो नदी को पार करना था। चैतन्य महाप्रभु नौका में चढ़ गए और गदाधर पंडित उनके साथ जाना चाहते थे कि वह नौका विहार करें या नौका में बैठ कर आगे उनके साथ जाएं लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने उनको साफ मना कर दिया। नहीं ‘नदी मत पार करना’ उस समय गदाधर पंडित की मनोस्थिति खराब हो गयी। वे वियोग के भाव में बेहोश हो कर उस नदी के तट पर गिर गए और क्रंदन करने लगे ,लौटने लगे और चैतन्य महाप्रभु की ओर देखते ही रहे। यह जो लीला है अथवा प्रसंग है, यह हमको स्मरण दिलाता है कि (क्या आपको याद है, याद आना चाहिए) जब अक्रूर, कृष्ण बलराम को वृंदावन से मथुरा ले गए अथवा ले ही गए, काफी विरोध तो हुआ, राधा रानी ने या गोपियों ने विरोध किया किंतु अक्रूर ने एक नहीं मानी। वे कृष्ण बलराम को ले ही गए।
सोडुनीया गोपींना कृष्ण मथुरेसी गेला ।।
अकृराने रथ सजविला ।
कृष्ण रथामध्ये बैसला ।।1।।
कृष्ण गोपियों को वृंदावन में छोड़कर मथुरा आ गए। उस समय जो राधा रानी एवं गोपियों की जो मनोस्थिति हुई वैसा ही हाल गदाधर पंडित का हुआ जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी को छोड़कर और गदाधर पंडित को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाह रहे थे तब गदाधर पंडित भाव विरह में थे। उनकी विरह की व्यथा कौन समझ सकता है। हरि! हरि! गदाधर पंडित की जय! गौरंगा! नित्यानंद!
हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जप करते रहो।
चैतन्य महाप्रभु स्वरूप दामोदर से कीर्तन भी सुनते थे या गदाधर पंडित से कथा भी सुनते थे इसलिए हमें दोनों ही सुनना है। कीर्तनीय सदा हरि और क्या नित्यम भागवत सेवया करना है।
भागवत दो प्रकार होते हैं।
ग्रंथ भागवत और व्यक्ति भागवत। व्यक्ति भागवत जो आचार्यगण होते हैं। इस्कॉन संस्थापकाचार्य व्यक्ति भागवत हैं। हमारे गुरुजन व्यक्ति भागवत हैं, उनकी भी सेवा या अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ अथवा इस्कॉन या हरे कृष्णा मन्त्र के प्रचार कार्य की सेवा ही नित्यम भागवत सेव्या है। ग्रंथ भागवत और व्यक्ति भागवत नित्य भागवत है। इसलिए ‘डू समथिंग प्रैक्टिकल’ हर एक को अपने अपने गुणधर्मों या वर्ण आश्रमों के अनुसार सेवा करनी होती है। हरि! हरि!
ग्रंथ वितरण की सेवा है अथवा अर्चा विग्रह की सेवा है या मंदिर मार्जन की सेवा है या फिर फंड धनराशि को जुटाने की सेवा है या मंदिर निर्माण की सेवा है या संडे स्कूल को चलाना है या युवकों के मध्य प्रचार करने की सेवा है।
यार देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।
आमार आज्ञाय गुरु हय तार ‘ एइ देश ॥१२८ ॥ (चैतन्य चरितामृत)
अनुवाद ” हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । ”
यह सब सेवाएं भी नित्यम भागवत सेवया हो गई। श्रील प्रभुपाद इस प्रकार इस प्रकार इसकी व्याख्या करते हैं नित्यम भागवत सेवया केवल भागवतम् को पढ़ना व अध्ययन करना या सुनना नहीं है। व्यक्ति भागवत जो भक्त होते हैं, उनको भागवत कहा जाता है। भगवान के भक्तों को भी भागवत कहते हैं।
वैसे द्वादश भागवत तो प्रसिद्ध हैं। इसलिए आपको अचरज नहीं लगना चाहिए कि जब नित्यम भागवत सेवया कहा तो भागवत के दो प्रकार कैसे हो गए? नित्यम भागवत सेवया… भागवत तो ग्रंथ है? ग्रंथ भी भागवत है और साथ में भगवान के भक्त भी भागवत हैं। यह सही समझ है। भागवत विद्या पीठ भी होता है। विद्यापीठ भी भागवत है। जैसे कई भक्त कहते है महाप्रसादे गोविन्दे भागवत है। भागवत महाप्रसाद की जय!भागवत प्रसाद। जो भगवान से संबंधित हैं, उसको भागवत कहते हैं। पाणिनि व्याकरण का इत प्रत्यय लगाने से भगवत शब्द का भागवत शब्द बन जाता है या भागवत नाम बन जाता है।इस प्रकार भागवत कई प्रकार के हैं।
व्यक्ति भागवत तो है ही। भगवान के भक्त भी भागवत है। उनकी सेवा वपू सेवा और उनकी वाणी सेवा होती है। वाणी सेवा अर्थात उनके आदेश का पालन करना है। प्रतिदिन 16 माला का जप करो, यह वाणी सेवा हो गई। गुरु ने आदेश दिया या भक्तों का आदेश हुआ या भागवत का आदेश हुआ कि 16 माला का जप करो। यदि हम 16 माला का जप कर रहे हैं तो हमने क्या किया? हमनें वाणी सेवा की। तुम पदयात्रा कर लो, बैलगाड़ी संकीर्तन को चलाओ ऐसा आदेश हुआ और हम कर रहे हैं तो यह वाणी सेवा हुई। हरि! हरि!
प्रति घरे गए भरे आमार आज्ञाय होय प्रकाश। ऐसा चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु को कहा तब हरिदास ठाकुर और नित्यानंद प्रभु प्रचार के लिए निकल पड़े। उन्होंने जब जगाई मधाई को प्रचार किया तब हरिदास और नित्यानंद प्रभु वाणी सेवा कर रहे थे। आदेशों का पालन करना वाणी सेवा है। वे उनके आदेशों का पालन कर रहे थे। हरि! हरि!
इस वक़्त यह वाणी सेवा है कि ब्रह्म मुहूर्त में समय पर उठो। मंगल आरती करो, यह वाणी सेवा है ब्रह्म मुहूर्त इज द बेस्ट पीरियड। 24 घंटों में इसके जैसा समय नहीं है। ब्रह्म मुहूर्त भक्ति के लिए अनुकूल समय है। जब हम ऐसे वचन सुनते हैं तो ऐसे करना चाहिए। यह वाणी सेवा हो गई। कई सारे उपदेश सुनने के उपरान्त भी भौतिक आसक्ति बनाये रखना यह दसवां नाम अपराध हुआ। जैसे कई बार बताया है यह करो, वह करो, ब्रह्म मुहूर्त में समय पर उठो, मंगल आरती करो, जप करो, अध्ययन करो, कृष्णार्जन करो लेकिन पुनःपुनः सुनने के उपरांत भी नहीं करना अर्थात वाणी सेवा नहीं करना है। क्योंकि हम भौतिक आसक्ति बनाए रखते हैं। प्रातः काल में जो मीठी नींद का समय है, हम उस मिठास को छोड़ना नहीं चाहते। हरि! हरि !ओके!
यदि किसी का कोई प्रश्न या अनुभव तो लिखिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Hindi Transcription
जप चर्चा
पंधरपुर धाम से,
१३ अक्टूबर २०२०
आज हमारे साथ 882 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। हरीबोल!
एकादशी महामहोत्सव की जय… हर दिन एकादशी होनी चाहिए! एकादशी नहीं होती तो इतनी ज्यादा भक्तों की संख्या नहीं होती। हर रोज एकादशी होनी चाहिए! हरि हरि। एकादशी महोत्सव नहीं लेकिन उत्सव तो हर दिन होता ही है! जपउत्सव होता है, श्रवणोत्सव होता है! तो प्रतिदिन हम उत्सव मनाते है उत्सव खलू प्रिय मानवात मनुष्य को निश्चित ही उत्सव पसंद आते है, प्रिय होते है!हरि हरि।
तो ऐसे हर रोज उत्सव होता है, जपउत्सव, श्रवणोत्सव! आप समिल्लित हुआ करो जैसे आप आज किए हो। आप में से कुछ भक्त बस एकादशी को ही सम्मिलित करते हो, हर दिन हमारा साथ नहीं देते हो! इसीलिए हम कहते रहते है। कोई भरोसा नहीं है आप में से कुछ जपकर्ता कभी करता है और कभी नहीं करते है या फिर हमारे साथ नहीं करते है! और जप करने का तो यही समय है प्रातःकाल में। इस काल का पूरा लाभ उठाना चाहिए। इस समय प्रातःकाल या ब्रह्ममुहूर्त में किया हुआ या जप का कुछ विशेष फल मिलता है। तो जप करने का समय या मौसम कहो! कुछ विशेष मौसम में कमाई अच्छी होती है, जैसे बारिश का मौसम है तो छाता की बिक्री ज्यादा होती है और गर्मी में पंखे की बिक्री ज्यादा होती है, तो हर चीज का एक मौसम होता है तो ऐसे ही प्रातःकाल जप का सीजन या मौसम है! वैसे तो हर समय जप का सीजन है क्योंकि, कीर्तनीय क्या? इसके आगे क्या? कीर्तनीय सदा हरि! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे है कि, जप तो सदैव करना चाहिए, तो उसी दृष्टि से जप करने का एक समय है, लेकिन प्रातःकाल के समय का कुछ अलग महात्म्य या महिमा है! हर एक शास्त्र में ब्रह्ममुहूर्त का माहात्म्य गाया है। ब्रह्ममुहूर्त की महिमा सुनो,पढ़ो और फिर ब्रह्ममुहूर्त का लाभ भी उठाओ! प्रतिदिन यह ब्रह्ममुहूर्त आता है ना? प्रतिदिन यह ब्रह्म मुहूर्त होता है। तो साधकों को ब्रह्ममुहूर्त! ब्रह्म प्राप्ति के लिए यह शुभ मुहूर्त है।
हरि हरि
चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है, गेलोरे राती लोग क्या करते है? सोने में रात बिताते है और दिवस शरीर साजे और दिन में शरीर को सजाते रहते है! तो एंसे व्यस्त रहते है। महाप्रभु ने यह बताया है कि, ग्रहमेदि येसे होते है जो रात में सोते है और रात कों खूब खाते भी है!
या सुखदेव गोस्वामी कहे हैं कि,
निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः।
दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्ब – भरणेन वा।।
श्रीमद भागवत स्कंद २ अध्याय १ श्लोक ३
अनुवाद:- ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी ) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिन में धन कमाने या परिवार के सदस्यों के भरण – पोषण में बीतता है ।
मतलब आयु को गवाते है, रात्रि को सोने में और खाने में गवाते है। हरि हरि। आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि क्रियाओं में तल्लीन या मस्त रहते है! और समय बीत रहा है इसका उन्हें पता भी नहीं चलता। तो ग्रहमेदी की रात येसे बीत जाती है। लेकिन आप तो गृहस्थआश्रमी हो! हरि हरि। तो गृहस्थआश्रमी की बात न्यारी है। और न्यारी होनी ही चाहिए! ठीक है, तो प्रतिदिन आपका स्वागत होगा अगर आप हमारे साथ रहोगे! गौर गौर! और फिर अंततोगत्वा भगवतधाम में आपका स्वागत होगा लेकिन जप सेशन में स्वागत नहीं होगा तो फिर गोलोक में भी स्वागत होगा?
शुभांगी माताजी तो कह रही है कि, नहीं होगा! तो और कौन कह रहा है? हरि हरि। उत्तिष्ठित जाग्रत वरान्निबोधत ठीक है! यह सब उद्देश की बातें है ज्यादा नहीं कहना चाहते लेकिन आप फिर समझते भी नहीं हो! तो इसीलिए पुनः पुनः समझाना पड़ता है। वही बात पुनः पुनः दोहरानी पड़ती है! हरी हरी। तो सुधर जाओ! फिर हम बताते ही रहे है हम और श्रील भक्तिविनोदा ठाकुर की बात तो एकादशी के दिन थोड़ा आप साधकों को सिंहावलोकन सिंह अवलोकन करना चाहिए! पिछले 2 सप्ताह की आपकी साधना और सेवा का कुछ अवलोकन करो, कुछ निरीक्षण करो, परीक्षण करो। अपने साधना कार्ड में लिखो! अगर आप लिखते हो तो यह अच्छी आदत है। और अगर आप साधना कार्ड भरते हो और आपके जो काउंसिलर है उनको आप प्रस्तुत करते हो तो फिर वह बता सकते है आपको की, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा! जैसे आप पहले मंगल आरती को नहीं आते थे लेकिन अब मंगल आरती में आ रहे हो या घर में मंगल आरती कर रहे हो तो यह बहुत अच्छी बात है! पहले ज्यादा मंगल आरती नहीं करते थे लेकिन अब आप कर रहे हो, तो यह अच्छी बात है! लेकिन प्रातः काल में जप नहीं हो रहा है तो ऐसा कभी-कभी साधना कार्ड में लिखा जाता है की प्रातःकाल में कितनी मालाएं हुई और फिर सायंकाल या रात्रि तक आप कितनी माला आप करते रहे, जैसे सुबह थोड़ी हुई या और रात को जप पूरा करने का प्रयास कर रहे है, तो ऐसा अगर पिछले 2 सप्ताह में हुआ है तो यह अच्छी बात नहीं है! इसमें सुधार करना पड़ेगा येसा इस प्रकार समझाने वाले आपके काउंसिलर होने चाहिए! और आपके कोई काउंसलर होने चाहिए! आपका कोई मददगार या सलाहगार होना चाहिए। सलाहगार होना चाहिए, जैसे फैमिली डॉक्टर होते है, वैसे ही काउंसलर हमारे डॉक्टर है।
तो एकादशी के दिन हम देख सकते है कि, पिछले 2 सप्ताह में हमारी साधना और सेवा कैसी रही, श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों का अध्ययन हमने किया या नहीं किया, भक्तिवृक्ष के कार्यक्रम में भाग लिया या नहीं, रविवार के दिन मंदिर गए या नहीं, वैसे आप सब लोग जा सकते है जो मंदिर के पास रहते है उन्हें तो मंदिर जाना चाहिए, हर रोज जाना चाहिए! अगर हर रोज नहीं जा सकते तो फिर रविवार को तो जाना चाहिए। श्रील प्रभुपाद यह संडे फेस्टिवल शुरू किए थे। और फिर भक्तों का संघ आपको वहां प्राप्त हो सकता है! हमे यह कह सकते की, हमारे घर में भगवान है तो मंदिर जाने की क्या आवश्यकता है? हां! आपके घर में भगवान है लेकिन, आपके घर में भक्त नहीं है, या कम है! लेकिन मंदिर में भक्त है, मंदिर में साधु है, ब्रह्मचारी है, संन्यासी है, ब्राह्मण है तो वे आपको मार्गदर्शन करेंगे। उनका संग प्राप्त होगा! हम घर में पढ़ तो सकते है या पढ़ते है लेकिन अगर उसको सुधारने की बात तो ध्यान में नहीं आएगी कि क्या सुधार करना चाहिए, केसे करो यह ध्यान में नहीं आता किंतु, अगर हम साधु संग में अध्ययन कर रहे है, पठन-पाठन हो रहा है तो वहां पे आप कुछ प्रश्न पूछ सकते है, या पढ़ते पढ़ते हम सो गए तो वह साधु आपको जगाएंगे, है! उठ जाओ! तो मंदिर इसलिए भी है! वहां पर प्रशिक्षण होता है, मंदिर में केवल हम विग्रह के दर्शन के लिए नहीं जाते या माथा टेकने के लिए नहीं जाते वहां जाकर केवल दर्शन ही नहीं करना चाहिए, वहां पर बैठकर कुछ श्रवन या कीर्तन भी करना चाहिए! या फिर अपने काउंसीलर से या मंदिर के ब्रह्मचारी या सन्यासी भक्तों से जो विद्वान है, वैराग्यमान है और भक्त भी है लेकीन हममें इतनी विद्वत्ता नहीं है, इसीलिए हम उनके पास जाते है! हम उतने वैरागी नहीं है और इसीलिए हम उनके पास जाते है ताकि,
वैराग्य – विद्या – निज – भक्ति – योग शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः ।
श्री – कृष्ण – चैतन्य – शरीर – धारी कृपाम्बुधिर्मस्तमहं प्रपद्ये ॥
चैतन्य चरितामृत, मध्य लिला, अध्याय ६ श्लोक २५४
अनुवाद:- ” मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता हूँ , जो हमें वास्तविक ज्ञान , अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं । वे दिव्य कृपा के सिन्धु होने के कारण अवतरित हुए हैं । मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ ।
वैराग्य – विद्या – निज – भक्ति – योग शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु का
प्राकट्य शिक्षा देने के लिए हुआ है। पुरुषः पुराणः अति पुराने, प्राचीन भगवान गौरांग प्रगट हुए। किसलिए? वैराग्य विद्या सिखाने के लिए। वैराग्य एक ज्ञान दोन और भक्ति यह तीन बातें सिखाने के लिए उनका प्राकट्य हुआ है। यह तीन बातें सिखाने के लिए भगवान प्रकट हुए। वैसे भक्ति सिखाने के लिए ही भगवान प्रकट हुए, और उन्होंने भक्ति सिखाई! लेकिन जब हम भक्ति सीखते है उसी के साथ है हम वैराग्य और न्याय सीख बैठते है।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥
श्रीमद भागवत स्कंद १ अध्याय २ श्लोक ७
अनुवाद:- भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है ।
यह भागवत के सिद्धांतों का वचन है। जिसमें कहा है कि, जब हम भक्ति करते है भक्ति मतलब वासुदेव की भक्ति! देवी देवता की भक्ति नहीं होती, वह भुक्ती होती है! तथाकथित देवी देवताओं की भक्ति हम करते है लेकिन आप इस्कॉन मंदिर में जाओगे और वह पर दर्शन करके बैठोगे या कथा के श्रवण करोगे, पठन-पाठन होगा तो यह आपको सिखाया जायेगा! भक्ति किसकी करते है? या भक्ति किसे कहते है?
आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम् ।
तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥
चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला, अध्याय ११ श्लोक ३१
अनुवाद:- ( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा ) हे देवी , यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है , लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है । किन्तु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णवों की सेवा।
लेकिन यह भी कहे है कि,
कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः |
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||
भगवतगीता ७.२०
अनुवाद:- जीनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं |
कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः भगवान कहे तो है गीता में और आप सभी पढ़ते भी है, गीता का बहुत प्रचार भी होता है लेकिन किसी को कुछ समझ में नहीं आता! जो यथारूप बातें है वह सभी को समझ में नहीं आती! श्रील प्रभुपाद एक बार कहे थे कि, भारतमे में अकेला हूं जो समझा रहा हूं! क्या समझा रहा हूं? लोग अन्य देवताओं की ओर दौड़ते है और क्यों दौड़ते है? वैसे दौड़ना नहीं चाहिए, लेकिन जाते है, यह सही नहीं है! यह में बता रहा हूं! वही बात भगवान बता रहे है। कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः मतलब तीव्र काम की वासना द्वारा जो ग्रस्त है, काम काम काम! उसका क्या होता है भगवान कह रहे है, र्ह्रतज्ञानाः वह ज्ञान रहित हो जाता है, उसका ज्ञान चुराया जाता है। इतनी कामना, इतनी कामना है! जो कामवासना सही ज्ञान को चुरा लेती है, हर लेती है! और फिर क्या होता है प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ऐसे कामी शरण में जाते है। किसकी शरण में जाते है? अन्य देवता के शरण में जाते है। भगवान कह रहे है कि, में मूल देव, आदि पुरुष हूं! लेकिन मुझे छोड़कर अन्य देवताओं के पास जाते है! कौन जाते है? कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः लेकिन जो सचमुच ज्ञानी होते है, या जिनको ज्ञान प्राप्त हुआ होता है,
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||
भगवतगीता ७.१९
अनुवाद:- अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते भगवान यह बता रहे है कि, जो अज्ञानी है, जो कामी है वे अन्य देवताओं के पास जाते है। लेकिन जो ज्ञानी ज्ञानवान्मां प्रपद्यते है वह मेरी शरण में आते है! उसी को भगवान संक्षिप्त में समझा रहे है, तो ज्ञान क्या है? ज्ञानी कोन है? वासुदेव सर्वमिती जो जानता है कि, वासुदेव ही सर्वे सर्वा है! वासुदेव ही सब कुछ है, तो ऐसा जो जानता है उसको भगवान ज्ञानवान कहे है। और ऐसा ज्ञानवान क्या करता है? मां प्रपद्यते और ऐसे महात्मा कितने होते है? वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ऐसे महात्मा केवल दुर्लभ ही नहीं कहा, अति दुर्लभ होते है! हरि हरि।
तो जब महात्मा का उल्लेख हुआ तो और एक वचन स्मरण हो रहा है भगवान कहे है,
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः |
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ||
भगवतगीता ९.१३
अनुवाद:- हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं | वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं |
तो भगवान गीता में महात्मा की परिभाषा या व्याख्या कर रहे है। क्या कह रहे है? भगवान ने कहा, श्री भगवान ऊवाच ऐसा कहा है, लेकिन ज्ञानवान ऊवाच ऐसा भी कहा जा सकता है। भगवान ने कहा लेकिन इस भगवान का एक ऐश्वर्य है ज्ञान! ज्ञान वैराग्येचैव भगवान जो शड़ ऐश्वर्यों से जो पूर्ण है, उनको भगवान कहते है! तो उन शड़ ऐश्वर्यों में से एक ऐश्वर्य है ज्ञान! तो गीता का उपदेश जब भगवान सुना रहे है, तो उनके ज्ञान का प्रदर्शन हो रहा है। ज्ञान एक वैभव है भगवान का जिसका प्रदर्शन कर रहे है। तो भगवान के स्थान पर श्री ज्ञानवान उवाच एंसा कहा जा सकता है। तो कौन कह रहे है? श्री भगवान कह रहे है। कौन कह रहे है? श्री ज्ञानवान कह रहे है। और कितने ज्ञानवान है? ऐश्वर्यस्य समग्रस्य सम्पूर्ण ज्ञान! इसीलिए भगवान को सर्वज्ञ कहा गया है। सर्वज्ञ! जो सब कुछ जानते है। अभिज्ञ मतलब सर्वे सर्वा! तो ऐसे भगवान है। ऐसे ज्ञानवान ने कहा महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः वह व्यक्ति महात्मा है, जो क्या करता है? दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः मेरी दैवी प्रकृति का आश्रय लेता है। और आश्रय लेने वाला महात्मा कहलाता है! तो दैवी प्रकृति है राधारान राधारानी की जय! भगवान की योगमाया शक्ति या भगवान की अल्हादिनी शक्ति! तो राधारानी का आश्रय लेने वाले महात्मा केहलाएंगे! महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः तो हम अन्य देवी यो के शरण में जाते हैं , दुर्गा के शरण में जाते हैं ,भवानी के शरण में जाते हैं , इसी तरह फिर लोग कहते हैं कि हम शाक्त है , शाक्त ! एक उपासना का प्रकार हुआ । एक प्रकार के उपासक शाक्त कहलाते है । शाक्त मतलब जो शक्ति के पुजारी हैं उनको शाक्त कहते हैं , जो विष्णु के पुजारी हैं उनको वैष्णव कहते हैं , जो पंचों उपासना, पांच प्रकार की उपासना या पांच अलग-अलग रूप को आराध्य बनाते हैं , उनकी आराधना करते हैं उनको पंच उपासक कहते है । उनमें से एक होते हैं शक्ति के उपासक , दुर्गा , काली इत्यादि ,इत्यादि जो शक्ति है और वह शाक्त कहलाते हैं । और वैसेही कई बार वैष्णव भी शाक्त होते हैं । वैष्णव को भी शाक्त कहा जा सकता है क्योंकि वैष्णव शक्ति के पुजारी होते हैं , लेकिन कौन से शक्ति के पुजारी होते हैं ? अंतरंगा शक्ति के पुजारी होते हैं । राधा रानी भी शक्तीहै । वैसे वह शक्ति व्यक्ति बन जाती है । शक्ति बन जाती है व्यक्ति ! शक्ति या मूर्तिमान बन जाती है , वह अल्हादिन शक्ति , भगवान की शक्ति बन जाती है राधा रानी और इस शक्ति की आराधना गौडिय वैष्णव करते हैं । संसार भगवान की आराधना करता हैं , वैसे तो नहीं करते लेकिन करते ही है । हिंदू समाज में भगवान की आराधना करते है , विष्णु की आराधना करते हैं किंतु अन्य वैष्णव या विष्णु के या वैष्णव के अन्य संप्रदाय भी है उस संप्रदाय में भी विष्णु की आराधना होती है ।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय ।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥
(श्रीमद भागवत 1.1.1)
अनुवाद : हे प्रभु , हे वसुदेव – पुत्र श्रीकृष्ण , हे सर्वव्यापी भगवान् , मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ । मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति , पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं । वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं , क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं । उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया । उन्हीं के कारण बड़े – बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं , जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है । उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड , जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं , वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं । अतः मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं । मैं उनका ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे ही परम सत्य हैं ।
ओम नमो नारायणाय ।
विष्णु की आराधना , पूजा होती है किंतु गौडिय वैष्णव का वैशिष्ठ है कि वह वैसे राधा रानी के पुजारी बनते हैं । राधा रानी की आराधना करते हैं , राधा रानी की आराधना करके राधा रानी को प्रसन्न करके फिर कृष्ण को प्रसन्न न करना चाहते हैं । शक्ति से शक्तिमान की ओर जाते हैं । उस दृष्टि से खासकर के गौडीय वैष्णव शाक्त है , शक्ति के पुजारी हैं । दोनो भी शाक्त है तो फिर भेद क्या है ? एक बहीरंगा शक्ति के पुजारी हैं , देवी देवता के पुजारी या देवी के पुजारी है । खूब चलती है देवी की पुजा हमारे देश भर में , हमारे हिंदू धर्म में या हिंदू समाज में और गौडिय वैष्णव भगवान की अंतरंगा शक्ति की आराधना करते हैं ।
सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दुर्गा । इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
(ब्रम्हसहिता 5.44)
अनुवाद : भौतिक जगत् की सृष्टि , स्थिति एवं प्रलय की साधन कारिणी , चित् – शक्ति की छाया – स्वरूपा माया शक्ति , जो कि सभी के द्वारा दुर्गा नाम से पूजित होती हैं , जिनकी इच्छा के अनुसार वे चेष्टाएँ करती हैं , उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ ।
ऐसा ब्रह्मा जी ने ब्रह्म संहिता में कहां है । यह दुर्गा कैसी है ? छायेव भगवान की छाया है , वह मूल रूप नहीं है , मूल तो राधा है ।
कृष्णा की या राधा की छाया माया होती है । राधा की छाया दुर्गा है ,
सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दुर्गा । इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।
और वैसे दुर्गा के भी सारा कार्यकलाप चेष्टा भगवान के इच्छा के अनुसार ही दुर्गा भी कार्य करती है । दुर्गा मतलब ? ग मतलब जाना , दूर मतलब कठीन , जाना कठिन कर देती है । यह ब्रह्माड या संसार को दुर्ग भी कहा है । दुर्ग मतलब किला , किले के अंदर जो लोग हैं उन्हें किले के बाहर जाना कठिन होता है । जो कारागार मे है , जो दुर्ग है फिर ज्याना कठिन है , इस प्रकार यह दुर्गा कठिन करती है । हरि हरि । अधिक नहीं कहेंगे । हरि हरि ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
जब हम हरे कृष्ण कहते है तब हम राधा रानी की आराधना करते हैं । राधा रानी के पुजारी हम बनते हैं । हम शाक्त बन जाते हैं । जय राधे । जय राधे । वृंदावन में भी वैसे कृष्ण को कौन पूछता है ? सभी राधे-राधे कहते हैं ।
राधे राधे , राधे राधे वैसे मैं यह भी कह रहा था कि , मंदिर में जाना चाहिए , केवल दर्शन के लिए नहीं सत्संग के लिए जाना चाहीये ताकि यह सब सिद्धांत है , वेदांत है उसको भली-भांति समझ सकते हैं या जैसा है वैसा समझ सकते हैं और उसको समझने के लिए प्रभुपाद के ग्रंथ भी है , लेकिन ग्रंथों को भी समझने के लिए हमें भक्तों की मदद लेनी चाहिए । वह फिर हमारे काउंसलर भी हो सकते हैं या मंदिर के अन्य अधिकारी भी हो सकते हैं , जो प्रचारक है वह भी हो सकते हैं , उनकी मदद से हम शास्त्र को समझ सकते हैं , फिर हम धीरे-धीरे विद्वान बन जाएंगे और विद्वान बनेंगे साथ में वैराग्य वान भी बनेंगे और भक्ति करेंगे । भक्ति के भी 2 पुत्र है , भक्ति देवी के 2 अपत्य है , एक है ज्ञान और दूसरे है वैराग्य । भक्ति करने से आप भी ज्ञानवान बनोगे , आप भी वैराग्य वान बनोगे । निद्रा में जो आसक्ती हैं या फिर इसमें आसक्ती है उसमें आसक्ती है वह घटेगी , मिटेगी । थोड़ा जल्दी उठा करो प्रातकाल में , रामभजन प्रभुजी कहा है ? (हसते हुए) , और कुछ कार्यों में व्यस्त है । हरि हरि । ठीक है , हम यही रुकते हैं ।
आप सभी ने विश्व हरि नाम उत्सव में हिस्सा लिया कि नहीं ? विश्व हरि नाम उत्सव मनाया कि नहीं ? किसने किसने मनाया ? अपना हात उठाओ । अधिकतर भक्तो ने मनाया है । शंभू मनाया ? हरिदास ?
आप सबके योगदान के लिये हम आपके आभारी है । श्रीलं प्रभूपाद , गुरु और गैरांग की ओर से आपके पुन्हा पुन्हा आभार । आप सिर्फ साक्षी ही नही बने , आपने अपना सहयोग भी दिया । बोहोत कुछ किया है आप लोगो ने व्हीडिओ बनाये , कई जोवो को आपने भाग्यवान बनाया , उन्हे महामंत्र देके और जप मॅरेथॉन , जपथॉन मे अधिक जप किया ।
24 घंटे अखंड कीर्तन हो रहे थे उसमें भी आप ने कीर्तन किया ऐसे कई प्रकार से इसी तरह आपने दान धर्म किया , इस हरिनाम उत्सव की सेवा में धन लगाया ।
प्राणेर अर्पित वाच: भगवान ने कहा है , ऐसा आचरण , ऐसा व्यवहार सराहनीय है या श्रेयस्कर है , श्रेय: आचरण सदा वर्ल्ड होली नेम फेस्टिवल का बैनर लगाया है । आपने अपने प्राणों के साथ हर सास अर्पित की है । धन लगाया इस सेवा में , किसी ने अपनी बुद्धि , दिमाग लगाया या फिर वाचा , आप बोलते रहे प्रचार करते रहे ।
यार देख , तारे कह ‘ कृष्ण ‘ – उपदेश ।
आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ‘ एइ देश ॥
(चैतन्य चरितामृत मध्य लिला 7.128)
अनुवाद : हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो ।
अच्छी युक्ति थी उसे आपने ली होगी या फिर किसी और की युक्ति आपने उधार ली होगी और फिर उसे आप ने कहा , वह भी सेवा हि है । पुन्हा पुन्हा आपके आभार और अभिनंदन करते हैं । आपमे से कई सारे विजेता भी बने होगे या फिर आपका मंदिर श्रेष्ट 10 मे आया , या फिर 64 माला मे आपका मंदिर आ गया या फिर आप भी आ गए , आप में से कई सारे विजेता भी बन गए । सभी विजयी भक्तों का भी अभिनंदन और वैसे इसमे किसी का पराजय होता भी नहीं है , सभी का विजय है ।
परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तन जिसने भी , जितना भी हिस्सा लिया , भाग लिया वह सब वीजयी है । जय पराजय तो इस संसार मे होता है परंतु आध्यात्मिक जगत में जय ही होती है । आप सब की जय हो । ठीक है ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk English Transcription
CHANT JAPA WITH LOKANATH SWAMI Japa Talk Russian Translation
Наставления после совместной джапа сессии 13 октября 2020 г.
ХРАМ – ОБИТЕЛЬ ДАРШАНА И ФИЛОСОФСКОГО ПОНИМАНИЯ
Харе Кришна! С нами воспевают преданные из 907 мест. Сегодня большое число. Экадаши Махотсава ки Джай! Некоторые из вас посещают беседу о джапе только в экадаши, в другие дни вы не присоединяетесь к нам. Это неправильный путь. Мы должны регулярно воспевать, не только на фестивалях.
утсава халу прия манват
Джапа – это также джапа утсава и шраван утсава. Мы должны ежедневно присоединяться к беседе о джапе, а не только в экадаши. Но большинство участников – айа рама гая рама (выражение в политике Индии — переступать порог, менять взгляды). Они воспевают с нами только в экадаши. Для хорошего садхаки каждый день – это экадаши. Шриман Махапрабху говорит: киртания сада хари.
Лучшее время для воспевания – Брахма Мухурта (утро). Есть разные времена года, например, в сезон дождей мы пользуемся зонтиком. Летом пользуемся веером. Итак, какое время года для джапы? Чайтанья Махапрабху описал это. Всегда киртания сада хари! Во всех шастрах упоминается, что следует воспевать в Брахма Мухурту, потому что в этой Мухурте садхака может достичь Парам Брахмы (Шри Кришны).
мукунда мадхава йадава хари, боло-ре боло-ре вадана бхори’
мичхе нида-ваше гело-ре рати, диваса шарира-садже
Перевод:
«Мукунда, Мадхава, Ядава, Хари! О люди, пойте же, пойте эти святые имена! Пусть ваши уста всегда украшает имя Господа, а иначе ваша жизнь пройдет впустую: ночью – в иллюзорных сновидениях, а днем — в заботах о своем теле».
(Стих 3, Нама-киртана предрассветный бхаджан, Гитавали, арунодая-киртана, песня 1 Шрила Бхактивинод Тхакур)
Итак, мы должны стать грихастхами, а не гриха-медхами.
нидрайа̄ хрийате нактам̇
вйава̄йена ча ва̄ вайах̣
дива̄ ча̄ртхехайа̄ ра̄джан
кут̣умба-бхаран̣ена ва̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
По ночам такие завистливые домохозяева спят или занимаются сексом, а днем зарабатывают деньги или заботятся о членах своей семьи. В этих занятиях проходит их жизнь.
(Ш.Б. 2.1.3)
Гриха-медхи всегда заняты едой, сном и совокуплением. Грихастхи не такие, они заняты жизнью в сознании Кришны. Поэтому каждый день мы приглашаем всех вас на эту беседу о джапе. Если вы будете ежедневно посещать эту беседу о джапе, вас также будут приветствовать в Бхагават Дхаме. Но если вы не регулярно говорите о джапе, вы не сможете перейти к Бхагават Дхаме.
уттиш̣т̣ха джа̄грата пра̄пйа вара̄н нибодхат…
Перевод:
Очнись и постарайся понять благо, которые ты получил, родившись в теле человека. Путь духовной реализации очень труден и подобен лезвию бритвы. Таково мнение знатоков трансцендентной литературы.
(«Катха-упанишад» 1.3.14)
Все это ведические сиддханты (истины). Но вы этого не понимаете. Так что я должен повторять это снова и снова, чтобы вы могли запомнить.
Шрила Бхактивинода Тхакур сказал, что экадаши – это день самоанализа. В этот день мы должны сделать анализ нашего прогресса в преданной жизни. Мы должны наблюдать за нашим прогрессом за последние 15 дней и совершать манам этого прогресса. Мы также должны иметь хорошую садхану, заполненяя нашу карту садханы, мы должны передавать ее нашему наставнику. Для этого у нас сначала должен быть наставник, к которому мы можем обратиться за помощью и советом. Мы должны регулярно посещать храмы. Мы можем сказать или подумать, что наш дом – это еще и храм. Это верно, но у вас не будет преданных в вашем доме или у вас может быть меньше преданных по сравнению с храмом. В храме есть преданные, садху, и они помогают всем вам продвигаться в вашей религиозной жизни. Мы можем принимать общение с грантхом (книгой), но это может не помочь нам так сильно, как может помочь преданный. Например, когда мы читаем, мы можем заснуть, и страница книги не разбудит нас, но преданный сделает это. Мы всегда должны быть в постоянном общении с ними. Мы принимаем их общение, поскольку мы не настолько продвинуты в преданной жизни. Мы должны сделать Садху Сангу регулярной привычкой, чтобы продвигаться в нашей религиозной жизни. Когда мы посещаем храмы ИСККОН, мы узнаем, как выполнять бхакти и для кого должна совершаться бхакти.
ваира̄гйа-видйа̄-ниджа-бхакти-йога-
ш́икша̄ртхам эках̣ пурушах̣ пура̄н̣ах̣
ш́рӣ-кр̣шн̣а-чаитанйа-ш́арӣра-дха̄рӣ
кр̣па̄мбудхир йас там ахам̇ прападйе
Перевод Шрилы Прабхупады:
«Я предаюсь Верховному Господу Шри Кришне, который нисшел на землю в образе Господа Чайтаньи Махапрабху, чтобы дать нам истинное знание и научить нас преданности Ему и отрешенности от всего, что мешает сознанию Кришны. Он явился потому, что Он океан трансцендентной милости. Я предаюсь Ему у Его лотосных стоп».
(Ч.Ч. Мадхья-лила 6.254)
Гауранга Махапрабху учит нас вайрагья видье и бхакти. Когда мы совершаем бхакти, автоматически проявляются вайрагья и гьяна. Это два сына Бхакти Деви. Бхакти означает Васудев Бхакти, а не полубоги.
ва̄судеве бхагавати
бхакти-йогах̣ прайоджитах̣
джанайатй а̄ш́у ваира̄гйам̇
джн̃а̄нам̇ ча йад ахаитукам
Перевод Шрилы Прабхупады:
Благодаря преданному служению Личности Бога, Шри Кришне, человек тотчас же обретает беспричинное знание и избавляется от привязанности к миру.
(Ш.Б. 1.2.7)
Мы должны посетить храм ИСККОН, где мы сможем получить знания о Сиддханте.
а̄ра̄дхана̄на̄м̇ сарвеша̄м̇
вишн̣ор а̄ра̄дханам̇ парам
тасма̄т паратарам̇ деви
тадӣйа̄на̄м̇ самарчанам
Перевод Шрилы Прабхупады:
(Господь Шива сказал богине Дурге:) „Дорогая Деви, хотя Веды советуют поклоняться полубогам, высшим видом поклонения является поклонение Господу Вишну. Однако еще выше — служение вайшнавам, тем, кого связывают прочные узы с Господом Вишну“.
(Ч.Ч. Мадхья 11.31)
ка̄маис таис таир хр̣та-джн̃а̄на̄х̣
прападйанте ’нйа-девата̄х̣
там̇ там̇ нийамам а̄стха̄йа
пракр̣тйа̄ нийата̄х̣ свайа̄
Перевод Шрилы Прабхупады:
Те же, кого материальные желания лишили разума, принимают покровительство полубогов и поклоняются им, следуя предписаниям Вед, соответствующим природе этих людей.
(Б.Г. 7.20)
Люди в целом могут знать о преданности в общем, но они не знают деталей. Шрила Прабхупада однажды сказал: «Я единственный во всей Индии, кто знает эту науку, и я даже обучаю их в одиночку». Мы не должны обращаться к разным полубогам, чтобы исполнить наши желания. Как сказано в священных писаниях:
ка̄маис таис таир хр̣та-джн̃а̄на̄х̣
прападйанте ’нйа-девата̄х̣…
Перевод Шрилы Прабхупады:
Те же, кого материальные желания лишили разума, принимают покровительство полубогов…
(Б.Г. 7.20)
Мы идем к разным полубогам, чтобы исполнить наши желания. Это также называется вожделением (кама).
Кришна говорит в Бхагавад Гите: «Я Ади-Дев, но из-за ограниченного знания люди принимают прибежище у полубогов».
бахӯна̄м̇ джанмана̄м анте
джн̃а̄нава̄н ма̄м̇ прападйате
ва̄судевах̣ сарвам ити
са маха̄тма̄ су-дурлабхах̣
Перевод Шрилы Прабхупады:
Тот, кто, пройдя через множество рождений и смертей, обрел совершенное знание, вручает себя Мне, ибо он понял, что Я причина всех причин и все сущее. Такая великая душа встречается очень редко.
(Б.Г. 7.19)
Господь говорит в Бхагавад Гите, что тот, кто идет к полубогам, чтобы исполнить свои похотливые желания, лишается разума. Когда они теряют свой разум, они становятся жертвами материальной природы и уходят от Господа.
Господь объясняет разницу между ними. «Разумный предается Мне, а глупцы предаются полубогам». Правильный разум – это когда мы знаем, что Васудева – это все. Шрила Прабхупада сказал это – Васудева – это все.
маха̄тма̄нас ту ма̄м̇ па̄ртха
даивӣм̇ пракр̣тим а̄ш́рита̄х̣
бхаджантй ананйа-манасо
джн̃а̄тва̄ бхӯта̄дим авйайам
Перевод Шрилы Прабхупады:
О сын Притхи, те же, кто свободны от заблуждений, великие души, находятся под покровительством божественной природы. Они служат Мне с любовью и преданностью, ибо знают, что Я Верховная Личность Бога, изначальная и неистощимая.
(Б.Г. 9.13)
…ва̄судевах̣ сарвам ити…
Перевод Шрилы Прабхупады:
…Я причина всех причин и все сущее…
(Б.Г. 7.19)
Это настоящий Разум. Чтобы познать Господа, предаться Ему и поклоняться Ему, выполняйте для Него Бхакти. Когда Господь рассказывал Бхагавад-Гиту, одно из Его 6 достояний было показано – знание. Он продемонстрировал, что знание – это изобилие. Вместо Шри Бхагавана увача мы можем также сказать Шри Гьянаван увача. Господа также можно назвать Гьянаваном. Он Саврешвара. Он все знает. Абхигья в «Шримад-Бхагаватам».
ом̇ намо бхагавате ва̄судева̄йа
итараташ́ ча̄ртхешв абхиджн̃ах̣ свара̄т̣
тене брахма хр̣да̄ йа а̄ди-кавайе
мухйанти йат сӯрайах̣
теджо-ва̄ри-мр̣да̄м̇ йатха̄
винимайо йатра три-сарго ‘мр̣ша̄
дха̄мна̄ свена сада̄ нираста-
кухакам̇ сатйам̇ парам̇ дхӣмахи
Перевод Шрилы Прабхупады:
О мой Господь Шри Кришна, сын Васудевы, о всепроникающая Личность Бога, я почтительно склоняюсь перед Тобой. Я медитирую на Господа Шри Кришну, ибо Он является Абсолютной Истиной и изначальной причиной всех причин созидания, сохранения и разрушения проявленных вселенных. Прямо и косвенно Он сознает все проявления и независим, ибо не существует иной причины, кроме Него. Именно Он вначале вложил ведическое знание в сердце Брахмаджи, первого живого существа. Даже великие мудрецы и полубоги введены Им в заблуждение, подобно тому, как человека сбивает с толку обманчивый образ воды в огне или суши на воде. Лишь благодаря Ему материальные вселенные, временно проявленные взаимодействием трех гун природы, кажутся истинными, хотя в действительности они нереальны. Поэтому я медитирую на Него, Господа Шри Кришну, вечно пребывающего в трансцендентной обители, которая всегда свободна от иллюзорных образов материального мира. Я медитирую на Него, ибо Он — Абсолютная Истина.
(Ш.Б. 1.1.1)
Тот, кто предается Господу, известен как Махатма. Господь говорит: «Теперь, кто принимает прибежище у Меня, известен как Махатма». Господь говорит: «Тот, кто принимает прибежище у моей Дайви Пракрити, известен как Махатма». И кто эта Деви Пракрити? Это Шримати Радхарани! Человек, который идет к Господу, известен как Махатма и Знающий. Люди идут к полубогам, таким как Дурга, и поклоняются Шакти, и поэтому они известны как Шакты. Поклонники Вишну известны как Вайшнавы. Есть два типа Упасаны: один – поклонник Вишну, а второй – поклонник Панчо Упасаны. Один из них – поклонник Дурги Деви. Поклонники Дурги / Кали известны как Шакты. Даже Вайшнавы называются Шактами. Потому что они также служат Шакти Господа. Какой Шакти они служат? Антаранга Шакти. В определенном смысле они также известны как Шакты. Поскольку они поклоняются Радхарани, которая является Антаранга Шакти Господа. Есть и другие вайшнава-сампрадаи, которые поклоняются только Вишну. Гаудии обладают этим особым качеством – сначала они служат Радхарани, а затем они служат Кришне. Сначала они служат Шакти – Радхарани, а через Шакти они служат Шактиману – Кришне. Нас также называют Шактами. Так как мы тоже поклоняемся. Шакти Господа.
сришти-стхити-пралайа-садхана-шактир эка
чхайева йасйа бхуванани бибхарти дурга
иччханурупам апи йасйа ча чештате са
говиндам ади-пурушам там ахам бхаджами
Перевод:
Его внешней энергии – Майе, которая есть тень духовной энергии ЧИТ, все люди поклоняются как Дурге – творящей, поддерживающей и разрушающей энергии этого материального мира. Я поклоняюсь изначальному Господу