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जप चर्चा पंढरपुर धाम 12 सितंबर 2020 हरे कृष्ण ! कृष्ण को आप ने पुकारा भी तो उनका रूप है तो उस रूप का स्मरण या उसी रूप से उसी स्वरूप से लीला खेलते हैं । लीला का स्मरण भी कृष्ण का ही तो स्मरण है । भगवान की लीला कृष्ण से अलग नहीं है । भिन्न नहीं है और उनके परीकरो का स्मरण करते हो तो भी कृष्ण का ही स्मरण है वह कृष्ण भावना भावित होकर ही तो आप भगवान के परी करो का फिर ग्वाल बाल है या नंद यशोदा है या राधा,गोपियां है या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के परिकर हैं यह स्मरण ही कृष्ण का स्मरण है। स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् । सर्वे विधि - निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 22.113 ) अनुवाद:- कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं । उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए । शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने चाहिए । मतलब यह है कि कृष्ण का ही कृष्ण की जो मूर्ति है उसका स्मरण ही कृष्ण का मरण है ऐसी बात नहीं है । फिर नाम स्मरण भी कहा है भगवान के नाम के स्मरण कर रहे हैं तो वह भी कृष्ण का ही स्मरण है । क्योंकि उन्हीं कृष्ण का ही तो नाम है कृष्ण । कृष्ण किसका नाम है ? इसका उत्तर क्या होगा ? किसका नाम है कृष्ण ? कृष्ण का ही नाम तो कृष्ण है । याद कभी-कभी लोग कहते हैं ! मैं कृष्ण हूं और मेरी धर्मपत्नी राधा है । ऐसा कभी-कभी होते उनका नाम । पति होते हैं कृष्ण और पत्नी राधिका या राधा ऐसा कुछ नाम होता है । लेकिन वह कहने वालेकि मैं कृष्ण हूं और मेरी धर्मपत्नी राधा है मेरी धर्मपत्नी राधा है तो ना तो वह उनकी धर्मपत्नी राधा है ना तो वह स्वयं कृष्ण है । वह राधा दासी है और वह स्वयं कृष्ण दास है तो कृष्ण जब कहते हैं तो और कोई किसी को हम संबोधित नहीं करते और किसी का स्मरण नहीं होना चाहिए कृष्ण काही तो स्मरण होना चाहिए क्यों ? क्योंकि कृष्ण ,"कृष्ण जिनका नाम है गोकुल जिनका धाम है ! ऐसे श्री भगवान को मेरे बारंबार प्रणाम है !" तो इस कृष्ण नाम ही कृष्ण है या फिर उनका धाम का स्मरण किया तो वह भी कृष्ण का ही स्मरण है । राम कृष्ण से अभिन्न है अलग किया नहीं जा सकता । मैं वहां नहीं जाऊंगी जहां जमुना नहीं है राधा ने कहा था । मैं वहां नहीं जाऊंगी जहां गोवर्धन पर्वत नहीं है जब उनको प्रकट होना था । जहां वृंदावन है वहां राधा-कृष्ण है । वृंदावन का स्मरण भी राधा कृष्ण का ही स्मरण है या वृंदावन का स्मरण जैसे व्रज मंडल परिक्रमा में हम जब जाते हैं, तो यह है भोजन स्थली । भोजन स्थली, भोजन का स्थल । और यह है भोजन थाली । वही काम वन में यह भोजन स्थली है और वहां भोजन की थाली भी है । एक पत्थर पर ही भगवान ने अपनी थाली रखी या कभी-कभी भगवान पत्थर पर ही उसको साफ करके अपने कुछ व्यंजन पत्थर पर ही रखते हैं तो व्यंजन रखे पदार्थ रखें और कलेवा खा रहे थे तो वह पत्थर भी पिघल गया उस अन्न प्रसाद के स्पर्श से पत्थर पिघल गया और फिर बन गई वह भोजन थाली बन गई । तो क्या यह स्थली वह थाली जो है काम वन में जिसको हम देखते हैं दर्शन करते हैं परिक्रमा के अंतर्गत है तो यह क्या कृष्ण का स्मरण नहीं है ? उह स्थल कहो या थाली कहो कृष्ण का स्मरण दिलाती है और यहां झूलन यात्रा होती थी । यह झूला देखो ! कृष्ण के समय का झूला या फिर कृष्ण यह लीला के उपरांत वज्रनाभ ने या वृंदावन का एक प्रकार से नव निर्माण किया या अलग अलग ग्रामों को नगरों को उनका नामकरण किया । अलग-अलग लीला के अनुसार वहां कुछ चिन्ह बनाएं तो यहां झूलण यात्रा भगवान खेलते थे वहां झूला है । झूला देखते ही फिर झूलन यात्रा की या झूले राधा कृष्ण कैसे झूलते थे झूले में उसकी चर्चा होती है उसके विचार आते हैं उसका तो फिर राधा कृष्ण का स्मरण हुआ देखा झूले को । इसलिए हम उसमें रुचि लेते हैं क्योंकि यहां भगवान झूला झूले थे तो कैसे अलग कर सकते हैं भगवान को भगवान के धाम से या उन स्थलियों से जहां भगवान ने लीला खेलें । भगवान के नाम का स्मरण ही भगवान कृष्ण का स्मरण है । हरि हरि !! प्रभुपाद कहा करते थे, यह संसार के वस्तु और उसका नाम दो अलग चीज होती है । तो प्रभुपाद का उदाहरण प्रसिद्ध । कहाकरते थे आम जो आम है फल है उसका नाम आम है यह दो अलग-अलग बातें हुई । आम, नाम और आम फल एक नहीं है इसीलिए हम अगर आम आम आम .... कहते जाओ आम का आमरस का आस्वादन नहीं कर सकते । क्योंकि आम नाम और आम फल यह दो अलग-अलग भिन्न है । क्योंकि भगवान का नाम ही भगवान होने के कारण .. नाम चिन्तामणिः कृष्णःश्चैतन्य-रस-विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य- मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ॥ ( पद्म पुराण ) अनुवाद:- कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंदमय है । यहां सभी प्रकार के आध्यात्मिक वर देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनंद के आगार, स्वयं कृष्ण है । कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है । यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है । चूँकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कल उचित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता । ऐसा इसलिए है, क्योंकि कृष्ण-नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं । भगवान के नाम क को उच्चारण करते हैं तो भगवान जो मधुर है रस की खान है या रस के विग्रह है चिन्तामणि , "नाम चिन्तामणिः कृष्णःश्चैतन्य-रस-विग्रहः" कहा है "नाम चिन्तामणिः चैतन्य" भी है उस नाम में चैतन्य भी है । "नाम चिन्तामणिः चैतन्य" "रस-विग्रहः" विग्रह मतलब मूर्ति । रस की मूर्ति है । "अखिल रसामृतसिंधु" भगवान स्वयं ही है तो उनका नाम लिया तो, नाम ही मधुर क्यों है ? क्योंकि भगवान नाम ही भगवान है । इसीलिए तो जब हम नाम का उच्चारण करते हैं तो हम आस्वादन करते है । रसास्वादन करते हैं । हरि हरि !! अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् । हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 1 ॥ ( श्री श्रीमधुराष्टक ) अनुवाद:- मधुरापतिके होठ मधुर है, उनका मुख मधुर है, नयन मधुर है, उनका हृदय मधुर है, गमन मधुर है, अहो ! उनका सब कुछ मधुर है । वह जो गीत है, भगवान का अधर भी मधुर है और "बचनं मधुरं" "मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्" , "मधुराधिपते" माधुर्य पति स्वामी भगवान है । "मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्" "अखिलं" यानी संपूर्ण एक खिल होता है एक अखिल होता है । अखिल मतलब संपूर्ण तो भगवान के संबंधित जो भी है वे भगवान ही है और वे मधुर है, माधुर्य है उसमें इसलिए भगवान का नाम भी मधुर है । "पादो मधरो" भगवान के चरण मधुर है । भगवान के हाथ मधुर है । भगवान के सोना मधुर है, भगवान जब विश्राम करते हैं वह मधुर है । "भुक्तं मधुरं", "सुप्तं मधुरं" ! "भुक्तं" भगवान जब भोजन करते हैं तो वह लीला भी मधुर है । "सुप्तं मधुरं" भगवान जब विश्राम करते हैं, वह श्रीरंगम भी जाते हैं वह भी एक स्थान है । भगवान विश्राम कर रहे हैं, भगवान के विग्रह वह भी भगवान है, वह क्या कर रहे हैं ? विश्राम कर रहे हैं, तो विश्राम करते हुए उस भगवान के दर्शन के लिए कितनी सारी भीड़ हां ! भगवान का सोना भी मधुर है । "यमुना मधुरा वीची मधुरा" । यमुना भी मधुर है और उसकी लहरें तरंगे भी मधुर है तो उस गीत में जो, हरि हरि !! हर बात मधुर मधुर, माधुर्य की चर्चा हुई है । क्योंकि सब भगवान ही है । भगवान का अभिन्वत सिद्ध होता है उसी के साथ । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ भगवान अपने नाम के रूप में स्वयं को स्वयं को उपस्थित कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं । इस कलीयुग में भगवान से संपर्क करना भगवान ने यह आसान कर दिया है । कैसे करें भगवान से संपर्क ? पुकारो उनके नामों को । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ जब हम प्रेम से कहते हैं, या कुछ दिन दुखी होकर आर्थ नाद , हमारा नाथ या हम जो ध्वनि उत्पन्न करते हैं कहते हैं "हरे कृष्ण हरे कृष्ण !" क्या है ? "आर्थ" हैं, मतलब हम दुखी हैं । तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ ( भगवद् गीता 10.11 ) अनुवाद:- मैं उन पर विशेष कृपा करने के हैतू उनके ह्रदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूं । और जब हमारी आर्थनाद को हमारे पुकार को भगवान सुनते हैं और वह सचमुच आर्थनाद है, या भाव पूर्ण है, प्रेम पूर्वक ! कैसा कीर्तन ? कीर्तन प्रेमी कहते हैं या प्रेम कीर्तन । चैतन्य महाप्रभु के परी कर कीर्तन करते थे, कैसा कीर्तन ? प्रेम कीर्तन करते थे । अपराध रहित कीर्तन । सभी अपराधों को डालते हुए, सभी अनर्थों से मुक्त होते हुए या प्रयास करते करते ... इस अनर्थ से मुक्त हो गए फिर उस अनर्थ से मुक्त हो गए और अनर्थों से मुक्त हो रहे हैं ऐसा अभ्यास प्रतिदिन करते हुए जब हम ... अपराध- शून्य हो' ये लोहो कृष्ण-नाम कृष्ण माता, कृष्ण पिता, कृष्ण धन-प्राण ॥ 3 ॥ ( भक्तिविनोद ठाकुर के लिखित गीतावली ) अनुवाद:- पवित्र नाम के प्रति अपराध किए बिना, कृष्ण के पवित्र नाम का जप कीजिए । कृष्ण ही आपकी माता है, कृष्ण ही आपके पिता है, और कृष्ण ही आपके प्राण-आधार हैं । एस्से भक्तिविनोद ठाकुर ने उस गीत में गाए हैं । ऐसे करो कीर्तन या जप । भगवान को कैसे पुकारो ? "अपराध- शून्य हो' ये लोहो कृष्ण-नाम" ऐसा उच्चारण जब होगा कि हमको सचमुच कृष्ण चाहिए आपके बिना हम जी नहीं सकते, जैसा पानी के बिना मछली जी नहीं सकती तो ऐसी हमारी हालत हमारी मन की स्थिति जब ऐसी होगी तो फिर भगवान कहें गीता में ! .."तेषामेवानुकम्पार्थमहम" 10 वें अध्याय में भगवान कहे हैं । तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ तो हमारा पुकारना हमारे किस भाव से किस विचारों के साथ हम पुकार रहे हैं ! कि वह पुकार द्रोपदी जैसी पुकार है या गजेंद्र जैसी पुकार है या सभी भक्त जैसे पुकारते रहते हैं भगवान को तो फिर भगवान क्या करते हैं ? "तेषामेवानुकम्पार्थमहम" क्या होता है "तेषाम" ? "तेषामेवानुकम्पा" भगवान के हृदय में कंम्पीत होते हैं । भगवान को दया आती है । समझ रहे हो "तेषामेवानुकम्पा" तो हम को देखते हैं हमारे आर्थ नाद को सुनते हैं । हमारे पुकार को सुनते हैं भगवान तो फिर भगवान का हृदय द्रविभुत होता है, भगवान के ह्रदय में अनुकम्पा होती है और फिर भगवान हमारे लिए कुछ करना चाहते हैं । उसको मेरी मदद की आवश्यकता है । मदद करो मदद करो कह भी रहा है ... आयि नन्द-तनुज किंकरं पतितं मां विषमे भावांबुधौ । कृपया तव पाद-पंकज-स्थित-धूली-सदृशं विचिंतय ॥ ( श्री श्री शिक्षाष्टक ) अनुवाद:- हे महाराज नंद के पुत्र ( कृष्ण ) ! मैं आपका नित्य दास ( किंकर ) हूं, फिर भी न जाने किस तरह, मैं जन्म तथा मृत्यु के सागर में गिर गया हूं । कृपया मुझे इस मृत्यु-सागर से निकाल कर अपने चरण-कमल की धूली बना लें । हो सकता है वह यही मंत्र या संस्कृत भाषा में नहीं कहता या बोलता होगा हो सकता है वह कनाडियन या मराठी, तेलुगु या तमिल, रशियन या हिब्रू किसी भाषा में बोलता होगा लेकिन उस बोल का भाव है ! कृष्ण आप चाहिए मुझे और कुछ नहीं चाहिए, मैं आपका दास हूं यह भाव है । देखो देखो तो सही देखो तो सही ! मेरा हाल क्या हो रहा है ! "विषमे भावांबुधौ" यह जो विषम, भयानक जो संसार सागर है, मैं डूब रहा हूं, डूब के मर रहा हूं । ओ प्रभु कुछ करो मुझे उठाओ इस संसार से, ऊपर उठाओ और आपके चरणों के सेवा दे दो मुझे । मुझे अपना बनाओ है प्रभु तो यह भाव । हम तो कर रहे हैं जप .. हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ और यह सब ऐसे विचार भी चल रहे हैं, ऐसी प्रार्थना हो रही है । ऐसे पुकार रहे हैं, ऐसे मन की स्थिति मंव तो फिर भगवान को कुछ पर्याय नहीं रहता भगवान के लिए । तब जाकर वह हम पर ध्यान देंगे । फिर कहते हैं भगवान "तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्या" तो उस व्यक्ति का जो जप कर रहा है, मुझे पुकार रहा है उसका जो "अहमज्ञानजं तमः" अज्ञान से उत्पन्न जो अंधेरा है, वह अंधेरे में गोते लगा रहा है । या खूब सारी पढ़ाई उसने की है, और किसका अर्जुन किया ? अज्ञान का अर्जन किया । उच्च विद्यालय में था अज्ञान का अर्जन हुआ । उस विद्यालय का नाम तो था यह विद्यालय है लेकिन अविद्या का अर्जन किया । यह सब जड़ विद्या जो है और उसका जो अध्ययन है और फिर उच्च अध्ययन फिर हमने ग्रेजुएशन (स्नातक स्तर की पढ़ाई) किया अब मैं कंप्यूटर सॉफ्ट इंजीनियर बन गया और फिर उच्चशिक्षा के लिए जा रहा हूं मुझे मेरे पिताश्री मातोश्री भेज रही है तो वह सारा जो अर्जन करते हैं विद्यालय अनुसार, अज्ञान का अर्जन, सुनो ध्यान दो "अ" की ओर ध्यान दो "अ" के नीचे रेखांकन करो । ज्ञान अर्जन नहीं हो रहा है अज्ञान अर्जन हो रहा है, अविद्या को हम पढ़ रहे हैं एक परा विद्या और अपरा विद्या । विद्या के दो प्रकार होते हैं तो भगवान भगवद् गीता में कहे "अज्ञानजं तमः" तो उस अज्ञान का अर्जन किया तो दुनिया ने तुमको अज्ञानी रखा ऐसा दिमाग धो डालें की बस पूछो नहीं तो उस अज्ञान से जो उत्पन्न अंधेरा है, अंधेर नगरी है उस अंधेरे को "नासयामी" मैं उसको नाश करूंगा । जय हो ! जय हो ! और फिर "ज्ञानदीपेन भास्वता" कैसे ज्ञान का उस अज्ञान से उत्पन्न अंधेरे को कैसे आप विनाश करोगे ? तो "नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता" तुम्हारे हृदय प्रांगण में मैं ज्ञान का दीपक जला लूंगा, ज्ञान का दीपक जला लूंगा मैं और यह कैसे होगा ? ॐ अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुर् उन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ( श्री गुरु प्रणाम मंत्र ) अनुवाद:- मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आंखें खोल दीं । मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूं । मैं तुम्हें मेरे प्रतिनिधि के संपर्क में ले आऊंगा, वे तुम्हारे बनेंगे शिक्षा गुरु, दीक्षा गुरु, वर्तम प्रदर्शक गुरु और वे तुम्हें ज्ञान देंगे । फिर ब्रह्मचारी भी हो सकते हो और ब्रह्मचारी क्या करता है ? ज्ञान अर्जन । जो मुख्य सेवा ब्रह्मचारी की होती है, ज्ञान अर्जन और फिर गृहस्थ को भी और सभी को ज्ञान का अर्जन कराना चाहिए और कराते हैं गुरुजन । इसी प्रकार यह "ज्ञानदीपेन भास्वता" ज्ञान का दीपक मैं जलाता हूं तुम्हारे हृदय प्रांगण में और यही तो है ... तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ ( भगवद् गीता 10.10 ) अनुवाद:- जो प्रेम पूर्वक मेरी सेवा करने में निरंतर लगे रहते हैं, उन्हें में ज्ञान प्रदान करता हूं, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं । मैं तुमको बुद्धि देता हूं । ज्ञान देता हूं, बुद्धि देता हूं और उसी के साथ फिर "मामुपयान्ति ते" ताकि तुम मेरे पास आओगे या अधिक अधिक मेरे निकट पहुंचेंगे । हरि हरि !! हरि नाम प्रभु की जय ! तो ऐसे हरि नाम प्रभु कि हम सेवा करते हैं जब हम जप करते हैं । उनका स्मरण करते हैं उनको प्रार्थना करते हैं और यह प्रार्थना फिर हमारे लिए भी औरों के लिए भी बन जाती हैं । आने वाला विश्व हरि नाम उत्सव मनाने का यही उद्देश्य है ताकि हम हरि नाम प्रभु की हम भी सेवा करें और हरी नाम प्रभु की सेवा औरों से करवाएं ताकि संसार में अधिक अधिक लोग भाग्यवान बन सकते हैं, भाग्यवान जीव बन सकते हैं तो हम भी कुछ हद तक भाग्यवान बन चुके हैं हमको भी अधिक भाग्यवान बनना है और साथ ही साथ औरों के भाग्य के उदय के लिए भी प्रयास करना है और यह प्रयास ही है या यह उद्देश्य है यह प्रयास फिर उद्देश्य है । विश्व हरिनाम सप्ताह उत्सव के पीछे । ॥ हरे कृष्ण ॥

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