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जप चर्चा 2 मई 2021 पंढरपुर धाम गौरंग, हरि बोल, सभी से बात हुई है? वैकुंठेश्वर, हरि बोल। पुरे परिवार और बाल बच्चों सहित बैठे हो। आप सभी का स्वागत है, 808 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। आप सभी का हार्दिक स्वागत है। हरि हरि। आप मेरा स्वागत कर रहे हो और मैं आपका स्वागत कर रहा हूं। हरि हरि। हमारा यहां सम्मेलन हो रहा है और हर प्रातः काल को होता है। हरि हरि। *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |* *कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.9) अनुवाद मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | *बोधयन्तः परस्परम्* होता है, तो कुछ विचार मिलते हैं। हरि हरि। *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय* इस प्रकार श्रीमद्भागवत की शुरुआत या प्रारंभ होता है। *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जन्माद्यस्य* *यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञ : स्वराद तेने ब्रह्म हदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।* *तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥१ ॥* (श्रीमद् भागवत 1.1.1) अनुवाद हे प्रभु , हे वसुदेव - पुत्र श्रीकृष्ण , हे सर्वव्यापी भगवान , मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ । मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता है , क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति , पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं । वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र है , क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं । उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया । उन्हीं के कारण बड़े - बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं , जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है । उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड , जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं , वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं । अत : मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ , जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं । मैं उनका ध्यान करता हूँ , क्योंकि वे ही परम सत्य हैं। श्रील व्यासदेव इस भागवत के रचयिता है। उन्होंने भागवत की रचना करी और फिर अपने पुत्र शुकदेव गोस्वामी को भागवत पढ़ाया और सिखाया। फिर शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को भागवत सुनाते हैं। कल मैं श्रील प्रभुपाद की एक रूम कन्वर्सेशन(बातचीत) सुन रहा था। प्रभुपाद ने श्रीमद्भागवत के इस प्रथम श्लोक का दो बार उल्लेख करा। ऐसे कुछ उल्लेख कर रहे थे। संकेत कर रहे थे। इस प्रथम श्लोक का या अपनी बातचीत में प्रभुपाद किसी को समझा रहे थे। भागवत के प्रथम श्लोक का उन्होंने संदर्भ दिया। जब मैंने सुना तो मुझे लगा कि मुझे और समझ में आ गया। प्रभुपाद को जब मैं सुन रहा था। फिर दिन में उस श्लोक को पुनः स्वयं मैंने भी पढ़कर समझने का प्रयास करा और समझ में आया। तो फिर सोचा कि इसी को आपको सुनाते हैं। मेरी समझ, श्रील प्रभुपाद जो मुझे दिव्य ज्ञान हृदय प्रकाशित करें हैं। मेरे हृदय प्रांगण में जो दिव्य ज्ञान प्रकाशित किए हैं। तो उसी के कुछ किरणे, कुछ प्रकाश आप तक पहुंचाते हैं। हरि हरि। भागवत में यह प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक है जैसा मैंने कहा। भागवत यहां से प्रारंभ हो रहा है, नमस्कार के साथ शुरुआत किए हैं। *माम् नमस्कुरु* मुझे नमस्कार करो। श्रील व्यासदेव नमस्कार कर रहे हैं और साथ में स्तुति भी कर रहे हैं। संस्मरण भी हो रहा है और उन्होंने *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय* से प्रारंभ किया। प्रथम श्लोक के अंत में *सत्यम परम धीमहि* भी ऐसा लिखें। यह श्लोक दोनो वचनों या विचारों के मध्य और भी कई सारे बातें होने कहीं हैं। नमस्कार कहे, किसको नमस्कार ? उन्होंने नमस्कार किया। ऐसा उन्होंने कहा और लिखा है। इस श्लोक में *सत्यम परम धीमहि* मैं ध्यान भी करता हूं। *धीमहि* का अर्थ ध्यान(मेडिटेशन) है। भागवतम् गायत्री मंत्र का भाष्य है। यह हम समझ सकते हैं धीमहि शब्द गायत्री मंत्र का वशिष्ठ है। धीमहि शब्द का प्रयोग होता है तो इससे भी संकेत होता है कि यह गायत्री मंत्र का भाष्य है। हरि हरि। तो *सत्यम परम धीमहि* मैं ध्यान करता हूं। किसका ध्यान करता हूं? परम सत्य का ध्यान करता हूं। तो परम सत्य कौन है? परम सत्य के विशेषण कहो या वशिष्ठ है कहो इस श्लोक में कहे हैं। वैसे भी हम गाते रहते हैं कि ऐसे भगवान को मेरे बारंबार प्रणाम है। कैसे कैसे भगवान को? कृष्ण जिनका नाम है ऐसे भगवान को, गोकुल जिनका धाम है ऐसे भगवान को, मैं नमस्कार करता हूं। मैं बारंबार प्रणाम करता हूं। जैसे हम गाते हैं। श्रील व्यासदेव कहकर *सत्यम परम धीमहि* इस श्लोक के अंत में कहते हैं, कैसे परम सत्य को? ऐसे परम सत्य का मैं ध्यान करता हूं। इस श्लोक में भगवान का महिमा का गान या भगवान का वैशिष्ट्य या माहात्म्य अलग-अलग शब्दों से, वचनों से कर रहे हैं और फिर कह रहे हैं कि ऐसे परम सत्य का मैं ध्यान करता हूं। हरि हरि। तो कैसे परम सत्य का? *जन्माद्यस्य* यहां से शुरुआत कर रहे हैं। *जन्माद्यस्य* यह एक वेदांत सूत्र का वचन हुआ या एक सूत्र या वेदांत सूत्र हुआ। सैकड़ों सूत्र है। उसमें से यह शुरुआत का सूत्र है और यह *जन्माद्यस्य यत:* सूत्र है। तो श्रीमद् भागवत का प्रारंभ वेदांत सूत्र से हो रहा है। इसे हमको समझना होगा। पहले के कई अचार्य समझे हैं। अब हमारी बारी है। हम पहले भी आप को सुनाएं तो हैं। *अर्थोऽयं ब्रह्म - सूत्राणां भारतार्थ विनिर्णय गायत्री - भाष्य - रूपोऽसी वेदार्थ - परिबृहितः पुराणानां साम - रूपः ।* *साक्षाद्भगवतोदितः द्वादश - स्कन्ध - युक्तोऽयं शत - विच्छेद - संयुतः ग्रन्थोऽष्टादश - साहस श्रीमद्भागवताभिधः* (म 25.143) अनुवाद वेदान्त - सूत्र का अर्थ श्रीमद्भागवत में पाया जाता है । महाभारत का पूरा सारांश भी इसमें है ब्रह्म - गायत्री की टीका भी इसी में है और समस्त वैदिक ज्ञान के सहित इसे विस्तृत रूप दिया गया है । श्रीमद्भागवत सर्वश्रेष्ठ पुराण है और इसकी रचना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने अपने व्यासदेव अवतार के रूप में की इसमें बारह स्कन्ध हैं . 335 अध्याय हैं । और अठारह हजार श्लोक हैं । *अर्थोऽयं ब्रह्म - सूत्राणां* ऐसे पद्म पुराण में कहा है। श्रीमद्भागवत क्या है? अर्थ है भावार्थ है या भाष्य है कहिए। अंग्रेजी में कहे कॉमेंट्री है। किसकी? *ब्रह्म - सूत्राणां*, वेदांत सूत्राणां या व्यास सूत्राणां। वेदांत सूत्र के भी कहीं सारे नाम है। तो यह श्रीमद् भागवत वेदांत सूत्र का भाष्य है। इसीलिए श्रील प्रभुपाद लिखते हैं कि यह वेदांत सूत्र का प्राकृतिक भाष्य है। नैसर्गिक या स्वाभाविक इसीलिए भी कहा है क्योंकि वेदांत सूत्र के रचयिता श्रील व्यासदेव ही हैं। उन्हीं वेदांत सूत्रों को समझने में कठिन होते हैं। कुछ ही शब्दों में बहुत कुछ कहा जाता है इसीलिए इसका भाष्य आवश्यक था। इसीलिए श्रील व्यासदेव केवल वेदांत सूत्र के रचयिता नहीं है। उन्होंने साथ में श्रीमद्भागवत की रचना करी है मतलब श्रीमद्भागवत के रूप में उन्होंने वेदांत सूत्र को समझाया है। तो यहां यह स्पष्ट है और आगे भी पूरे भागवत में स्पष्ट होता है और भी कई सूत्रों का भाष्य भागवतम् में मिलेगा। यहां वेदांत सूत्र से शुरुआत हो रही है। मैंने कह तो दिया। जो भी कहा सच ही कहा। लेकिन समय थोड़ा ही होता है। जो मुझे कहना था कि श्रील व्यासदेव *सत्यम परम धीमहि* इस श्लोक में भगवान की महिमा, भगवान कौन है, भगवान का परिचय दे रहे हैं। ऐसे ऐसे भगवान। ऐसे महान भगवान, ऐसे वशिष्ठ वाले भगवान, ऐसे गुणों की खान वाले भगवान। *जन्माद्यस्य यत:* से वशिष्ठ हुआ, गुणगान हुआ, महिमा का गान हुआ। नमस्कार भी तो करा ही है *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय* मैं नमस्कार भी करता हूं। *सत्यम परम धीमहि* ध्यान भी करता हूं। किनका ध्यान करता हूं? *जन्माद्यस्य यत:* यत: – जन्म आदि जिनसे होते है या जो कारण बनते हैं या सभी कारणों के कारण हैं। वेदांत सूत्र की ऐसी शैली है। तो पूरा तो कहा नहीं। तो हमें समझना होगा जन्म आदि यानी जन्म के कारण यानी संसार के जन्म के या संसार के सृष्टि के कारण भगवान हैं। इस सृष्टि के पालन के कारण भगवान हैं और सृष्टि के संहार करने वाले भी भगवान ही है। तो *जन्माद्यस्य यत:* मतलब जो इस संसार के सृष्टि, पालन और संहार करते है। *सत्यम परम धीमहि* मैं उनका ध्यान करता हूं। ऐसी एक बात हुई। आगे श्रील व्यासदेव कहते और लिखे हैं इसी श्लोक में *यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञ : स्वराद* ऐसी पहली पंक्ति हो गई। मैं ध्यान करता हूं किनका? उस भगवान का या वैसे यह भी कहना होगा या आपको स्मरण दिलाना होगा कि उन्होंने कहा ही है *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय* वह भगवान कौन हैं? मैं उनको नमस्कार करता हूं। किसको नमस्कार करता हूं? वासुदेव को नमस्कार करता हूं। *वासुदेवः सर्वमिति* भगवान भगवत गीता में कहते हैं। *बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |* *वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || १९ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 7.19) अनुवाद अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है | तो वासुदेव ही सब कुछ है। ऐसे वासुदेव को मेरा नमस्कार उन्होंने कहा ही है। इस श्लोक में उस वासुदेव का ही परिचय हो रहा है। जिस वासुदेव को *सत्यम परम धीमहि* कहे हैं। वासुदेव कहो या परम सत्य कहो। जो वासुदेव है, वह भगवान ही है। वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हर बात को भलीभांति जानते हैं। वैसे इस सृष्टि, पालन और संहार के कारण भी है। वह अभिज्ञ है। श्रील व्यासदेव *अभिज्ञ* शब्द का उपयोग करें हैं। इसका मतलब भगवान जानकार हैं। ओमनिसीएंट अंग्रेजी में कहते हैं। भगवान सब कुछ जानते हैं। केवल ज्ञेय ही नहीं। अभि मतलब संपूर्ण, हर दृष्टि से वह ज्ञानवान है, जानकार हैं या जानते हैं। तो मेरा नमस्कार। सत्यंपरम धीमहि को मेरा नमस्कार। परम सत्य को नमस्कार जो अभिज्ञ है। जो सब कुछ जानते है। गीता में भगवान कहते है। *वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन* । *भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन* ॥२६॥ (श्रीमद भगवद्गीता अध्याय 7, श्लोक 26) अनुवाद: हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता | अहम वेद मैं जानता हूं। तो ऐसे है भगवान, अभिज्ञ और स्वराट। जैसे सम्राट होता है वैसे ही स्वराट है। सवराट का अर्थ ये भी है कि वो स्वतंत्र है, सर्वोपरी नियंता या नियंत्रतक है। “मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || १० ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 9.10) अनुवाद हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है | तो भगवान अभिज्ञ है, फिर भगवान स्वराट है, स्वतंत्र है, सर्वाध्यक्ष है। ऐसे भगवान को मैं नमस्कार भी करता हूं और उनका ध्यान भी करता हूं। आगे श्रील व्यासदेव लिख रहे है। भगवान का परिचय हो रहा है। उसी के साथ उनका गौरव गाथा भी गाई जा रही है। ये भगवान कैसे है? भ्रम हृदा आदि कव्य है। आदि कवि है ब्रह्मा, आदि जीव भी ब्रह्मा है। इस ब्रह्मांड के पहले जीव ही ब्रह्मा है। एक समय केवल भगवान थे और फिर पहला जीव जो जन्मा, स्वयंभू कहते है। ब्रह्मा को स्वयंभू कहते है। मतलब भगवान से जो उत्पन हुए, वहां और कोई नही था। स्त्री पुरुष नही थे। पुरुष ने जन्म दिया ऐसी बात नही है। बस भगवान थे और उन्होंने एक व्यक्ति को जन्म दिया, स्वयंभू और वे है ब्रह्मा। जन्म तो दिया ही और साथ में ब्रह्मा को शिक्षा दी, ज्ञान दिया। उनके कर्तव्यों का स्मरण दिलाया। ब्रह्मा का क्या धर्म है ये भी बताया और भी सब कुछ सिखाया। भगवान ने दिव्य ज्ञान प्रकाशित किया। *दिव्य ज्ञान हृदय प्रकाशित* ब्रह्मा के हृदय प्रांगण में जिस भगवान ने ब्रह्मा को ज्ञान दिया। कृष्ण वंदे जगत गुरु। *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय* ये वासुदेव ही बने गुरु और ब्रह्मा बने शिष्य और गुरु ने, आदि गुरु भगवान वासुदेव ने ब्रह्मा को ज्ञान दिया। हरि हरि। फिर ब्रह्मा ने नारद को ज्ञान दिया। फिर नारद ने व्यासदेव को ज्ञान दिया। व्यासदेव यहां परंपरा में आ रहे हैं। वासुदेव परंपरा में ब्रह्मा, नारद, व्यास और मध्व इत्यादि है। तो स्मरण कर रहे हैं कि मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ, नारद मुनि से नारद मुनि को ज्ञान प्राप्त हुआ, ब्रह्मा से लेकिन ब्रह्मा ने कहा से प्राप्त किया भगवान से। लेकिन भगवान इतने महान है और समझने में कठिन भी है। देवताओं के भी दिमाग चकराते हैं। मुह्यंती यत सूर्य। ये महिमा है भगवान की। मुह्यंती अर्थात मोहित होते है कौन मोहित होते है? सूर्य, मोहित के कारण बनते हैं। किसको मोहित करते हैं? सुर और असुर दोनो मोहित होते है। देवाय तसने नाम। भगवद के द्वादश स्कंध में लगभग अंत में गान हुआ ही है की कैसे है भगवान। ऐसे प्रथम श्लोक में भगवान की स्तुति हो रही है और उनकी महिमा का गान हो रहा है वहां पर भी *यश अंतम सुर असुर विधाह*। भगवान को भली भांति जानना सुर न विदूर, ये असुर नही जानते। और ऐसे भगवान के चरणों में देवाय तस्मे नमः। पश्यंतिम ना योगिनो। जिनको जानना सुर और असुरों के लिए भी कठिन जाता है वे भी भगवान को भली भांति या पूर्णतः नही जानते। ऐसे भगवान को तस्में श्री गुरवे नमः। मैं नमस्कार करता हूं। मुह्यंती यत सूर्य। यत मतलब जो भगवान मोहित करते है सूर्यः देवताओं को। भगवान की उत्पन की हुई जो माया है, ये मायावी जगत है, संसार है। जो कैसा बना है, किस से बना है, तेजो वाणी मृगः और भी तत्व है लेकिन तीन के ही नाम लिए है। अग्नि से, पानी से, और मृग मतलब मिट्टी से और त्रिसर्ग , ये त्रिगुण मई माया। यह सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण मई माया। भगवान की बनाई हुई जो माया है ये सही है या सच्ची है। माया मतलब जो नही है। ऐसा मानना ही माया है। मा अर्थात नही, या मतलब जो। जो नही है, ऐसे जब हम मानते है तो हम माया में होते है। अहम माया दुरंत्यः । इस माया को पार करना , इस माया से बचना कठिन है। ऐसी आकर्षक माया ही है। यह सोने की नही है। लेकिन जो आकर्षित होता है चमक धमक से आकृष्ट होता है। जैसे पतंगा अग्नि को देख कर दौड़ पड़ता है तो वह अपना अंतिम संस्कार स्वयं ही करता है। वैसे ही ये जो माया है भगवान की, भगवान की बनाई हुई। कार्य प्रतिक्रिया के संयोग से, रसायन के संयोग से, अलग अलग तत्वों के संयोग से ऐसे ही बनती है माया। और त्रिसर्ग तीन गुण वाली ये माया। ये तीन गुण भी माया के अलग अलग चेहरे का प्रदर्शन कराती है तमोगुण, रजोगुणी और सतोगुणी का। लेकिन लगती है ये अत मिशाद, मतलब झूट। जिस भगवान ने बनाई है उनका में ध्यान करता हूं। *धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि* भगवान ने मायावी जगत तो बना लिया, ये संसार बना लिया। लेकिन वे स्वयं वे अपने निज धाम में रहते है। जिस जगत में जिस धाम में किसी प्रकार का अभाव, त्रुटि या कमी, माया या ऐसा प्रभाव नहीं है। यह संसार त्रिगुणमयी माया है। भगवान का अपना धाम तो गुणातीर्थ है। सतोगुण, रजोगुण या तमोगुण का वहा मल नही है। ऐसे धाम में स्वयं भगवान रहते है और ऐसे भगवान का को परम सत्य है उनका मैं ध्यान करता हूं। हमे भी फिर ध्यान के लिए, किसका ध्यान करे, भगवान का ध्यान करना है यह भी सीखा रहे है श्रील व्यासदेव। श्रील प्रभुपाद अनुवाद किए है इस श्लोक का। हे प्रभु, हे वासुदेव पुत्र श्री कृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान मैं आपको सादर नमस्कार करता हूं। मैं भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूं। क्योंकि वे परम सत्य है और व्यक्त ब्रह्मांडो की उत्पत्ति और पालन संहार के समस्त कारणों के आदि कारण है। प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में सारे जगत से अवगत रहते है। वे परम स्वतंत्र है क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नही। उन्होंने ही सर्व प्रथम, आदि जीव ब्रह्मा के ह्रदय में ज्ञान प्रदान किया। उन्ही के कारण बड़े बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह से मोह में पड़ जाते है जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर माया के द्वारा मोहग्रहस्थ हो जाता है। उन्ही के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्मांड जो प्रकृति के तीन प्रक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते है। वास्तविक लगते है। जबकि ये वास्तविक होते है। अतः मैं उन भगवान श्री कृष्ण का ध्यान करता हूं जो भौतिक जगत के प्रमुख रूपो से सर्वतः अपने दिव्य धाम में निरंतर वास करते है। मैं उनका ध्यान करता हूं क्योंकि वे ही परम सत्य है। श्रील प्रभुपाद ने इस श्लोक में व्याख्या किया है, तात्पर्य भी है इसको भली भांति समझने के लिए आप इसे पढ़िएगा। ये श्लोक भागवतम का महत्वपूर्ण श्लोक है। इसको समझेंगे तो आगे की बाते समझने में सहायता मिलेगी। हरी हरी बोल। आप पढ़ो। केवल जपा टॉक ही नही सुनना। दिन में आप और अधिक पढ़ते रहो। जपा टॉक में कुछ बात नही समझते हो तो फिर ढूंढो की इस बात को किस ग्रंथ में समझाया है। इसका पता लगाओ या औरों से चर्चा करो। सुनी हुई बातों का मनन तो करना ही होता है, तो मनन करो। चिंतन करो। मनन जरूरी है। मनन करेंगे तो मन में बिठा पाएंगे ये बाते और मनन के साथ दिव्य ज्ञान हृदय प्रकाशित, ये ज्ञान अधिक से अधिक प्रकाशित होगा। हर वक्त हम एक ही श्लोक पढ़ते सुनते है उससे हम अधिक समझते है। जैसे मेने शुरुआत में कहा की कल जब मैं सुन रहा था श्रील प्रभुपाद इस श्लोक के कुछ वचन कह रहे थे। दिन में इस श्लोक का थोड़ा और अध्ययन किया। फिर और अधिक समझ में आया । फिर क्या किया मैने जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश किया। अपना साक्षात्कार जब हम औरों को सुनाते है। तो सुनाते सुनाते फिर और अधिक समझ में आने लगता है, दिव्य ज्ञान हृदय प्रकाशित। भगवान कुछ समझाते सिखाते है या फिर वह बोलने लगते है। आपको माध्यम बनाकर भगवान ही बोलते है। वैसे प्रभुपाद कहा करते थे कि कृष्ण को अपने बारे में खुद ही कहने का अवसर दो। पहले सुनो भगवान को, फिर समझो और फिर बोलो। हरे कृष्ण। निताई गौर प्रेमानंदी हरी हरी बोल।

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