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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक:- 1 मई 2021 गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 821 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। आप सभी तैयार हो? ठीक है। जप करते रहिए। जब आप जप करोगे तब भगवान आएंगे, कृष्ण आपके पास आपको मिलने के लिए आएंगे। विठ्ठल तो आला, आला मला भेटण्याला। विठ्ठल तो आला, आला मला भेटण्याला। मला भेटण्याला आला, मला भेटण्याला। विठ्ठल तो आला, आला मला भेटण्याला। विट्ठल भक्त ऐसे भी गाते रहते हैं। विट्ठल आए!विट्ठल आए! मुझे मिलने के लिए विट्ठल आए। कईयों ने विट्ठल भगवान की उपस्थिति का अनुभव किया है। वैसे सभी को अनुभव होता ही है, किसी को अधिक, किसी को कम। किसी को थोड़ा अधिक अनुभव होता है, हो सकता है किसी को पूरा अनुभव होता हो। प्रकट लीला में भगवान भक्तों को मिलने के लिए जाते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु भक्तों को मिलने के लिए जा रहे थे। वह 6 वर्ष जाते रहे, जाते रहे व भक्तों को मिलते रहे। हमारे जप करने का आईडिया (विचार) भी वही है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। मनो मध्ये स्थितो मंत्रों मंत्र मध्ये स्थितं मन: मनोमन्त्र: समायुक्तं एतदे ही जप लक्षणा।। मन में मंत्र को स्थित करना है। इसका अर्थ यह है कि हमें मन में भगवान को स्थिर् करना है। भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला व धाम को स्थित करना है। मैं इसको आगे नहीं बढ़ाऊंगा। मुझे और कुछ कहना है। सुनो! आप फिर से जप करते ही जा रहे हैं। आप भगवान के सानिध्य का लाभ उठा ही रहे हो। जब भगवान से मिलते हैं... हम जप को कई बार इंटरव्यू अथवा भगवान के साथ मुलाकात और भगवान के साथ संवाद भी कहते हैं। जब संवाद होगा तो भक्त अथवा साधक अपने दिल की बात करेगा। ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीति-लक्षणम् ॥ (उपदेशामृत श्लोक संख्या ४) अनुवाद:- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना - भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं। वह अपने कॉउंसलर से मिलेगा, गुरु से मिलेगा, वैष्णवों से मिलेगा लेकिन यहां तो हम सीधे भगवान से मिलने की बात कर रहे हैं। तब उसको क्या करना है? गुह्ममाख्याति पृष्छति। गोपनीय बात अथवा अपने दिल की बात और यहां तक कि दिल को चुभने वाली बात या दिल या स्वयं को आनंद देने वाली बात, दुख अथवा शोक की बात हो सकती है। हमें इसे भगवान् से कहना है। इस प्रस्तावना को ज़्यादा लंबा नहीं खींचते हुए मुझे कहना चाहिए गोपीनाथ, मम निवेदन शुन। विषयी दुर्जन, सदा कामरत, किछु नाहि मोर गुण॥1॥ गोपीनाथ, आमार भरसा तुमि। तोमार चरणे, लइनु शरण, तोमार किंकर आमि॥2॥ गोपीनाथ, केमने शाधिबे मोरे। ना जानि भकति, कर्मे जड़-मति, पड़ेछि संसार-घोरे॥3॥ गोपीनाथ, सकलि तोमार माया। नाहि मम बल, ज्ञान सुनिर्मल, स्वाधीन नहे ए काया॥4॥ गोपीनाथ, नियत चरणे स्थान। मागे ये पामर, काँदिया-काँदिया, करह करुणा दान॥5॥ गोपीनाथ तुमि त’सकलि पार। दुर्जने तारिते, तोमार शकति, के आछे पापीर आर॥6॥ गोपीनाथ, तुमि कृपा-पाराबार। जीवेर कारणे, आसिया प्रपन्चे, लीला कैले सुविस्तार॥7॥ गोपीनाथ, आमि कि दोषे दोषी। असुर सकल, पाइल चरण, विनोद थाकिल बसि’॥8॥ अर्थ (1) हे गोपीनाथ! कृपया मेरा निवेदन सुनो। मैं एक विषयी तथा पापी वयक्ति हूँ तथा सदैव काम में रत रहता हूँ। इसी कारणवश, मैं योग्यताविहीन हूँ। (2) हे गोपीनाथ! आप ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं। मैं आपके चरणकमलों में शरणागत होता हूँ क्योंकि मैं आपका नित्य दास हूँ। (3) हे गोपीनाथ! आप मुझे किस प्रकार शुद्ध करेंगे? मुझे भक्तिमय सेवा के विषय में किन्चित्‌ भी ज्ञान नहीं है। कर्मकाण्डों में लिप्त होने के कारण मेरी बुद्धि जड़ हो गई है। मैं भौतिक जगत्‌ में गिर गया हूँ, जो कि जीवन की सर्वाधिक भयावह स्थिति है। (4) गोपीनाथ, मुझे सर्वत्र आपकी बहिरंगा शक्ति, माया की ही रचना दिखाई देती है। मुझमें बल या विशुद्ध ज्ञान का अभाव है। वस्तुतः, मेरा शरीर भी मेरे अधीन नहीं है। (5) हे गोपीनाथ! यह पापी वयक्ति निरन्तर रो रहा है तथा आपके चरणकमलों के निकट वास करने की भिक्षा माँग रहा है। कृपया मुझ पर अपनी कृपा प्रदर्शित करें। (6) हे गोपीनाथ! आप सबकुछ करने में समर्थ हैं। आपमें सर्वाधिक कुटिल वयक्तियों का उद्धार करने की भी शक्ति है। तब आपके अतिरिक्त यह पापी किसकी ओर देखे। (7) हे गोपीनाथ! आप दयासिन्धु हैं। आपने इस भौतिक संसार में अवतरित होकर लीलायें प्रकट कीं, जिससे पतितात्माओं का कल्याण संभव हो सके। (8) हे गोपीनाथ! मैं कौन से दोषों के लिए दोषी ठहराया गया हूँ? समस्त असुरों ने आपके चरणकमलों को प्राप्त कर लिया है, परन्तु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि वे अभी तक यहीं बैठे हुए हैं। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर अपने इस प्रसिद्ध गीत ' हे गोपीनाथ' में कहते हैं ... क्या आपने इस गीत को सुना है? प्रसिद्ध होगा फिर? मैंने प्रसिद्ध कहा लेकिन यदि आपको पता नहीं है तो फिर कैसा व कितना प्रसिद्ध। यदि न्यूजर्सी में भक्त जानते हैं तब तो यह प्रसिद्ध होगा ही। इस गीत का दिल्ली तक पता चल गया । इस गीत में भक्ति विनोद ठाकुर गुह्ममाख्याति पृष्छति की बात कर रहे हैं। वे इस गीत में अपनी दिल की बात,अपनी त्रुटियों,अपने जीवन में कुछ कमियों व कुछ पाप के विचारों का उल्लेख करने वाले हैं। (अभी पूरा तो नहीं सुनाया) हरि! हरि! यह श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की नम्रता है अर्थात जिसे हम विनम्रता भी कहते हैं और ऐसा है भी। वे कोई छोटी त्रुटि, कोई छोटी गलती, कोई छोटा अभाव के प्रभाव को भी मोटा अथवा ज्यादा करके ही कह रहे हैं। आइडिया है कि वे कहते हैं, स्वीकार करते हैं कि ऐसी- ऐसी गलतियां हो रही है, 'ऐसे ऐसे मैं पाप कर रहा हूं।' वैसे कई आचार्यगण जैसे तुलसी दास जी ने विनय पत्रिका नामक पत्रिका लिखी। उसमें उन्होंने विनय के वचन अर्थात विनयी अर्थात विन्रम बन कर 'ऑनेस्टी इस द बेस्ट पॉलिसी' पूरी प्रामाणिकता के साथ, पूरी ईमानदारी के साथ अपने दिल को खोल कर दिखाया है। ऐसा नहीं कि भगवान देखते नहीं या भगवान जानते नहीं लेकिन फिर भी भक्त दिखा तो देते ही हैं व अपने पाप की वासना या अपने पाप की प्रवृत्ति, त्रुटियों, गलतियां की ओर भगवान् का ध्यान आकृष्ट करते हैं। ताकि भगवान् कुछ मदद करें। यह बात बिल्कुल वैसी ही है, जैसे यदि कोई मरीज या कोरोना ग्रस्त व्यक्ति डॉक्टर से मिलता है। वहां सब उसे डॉक्टर को बताना पड़ता ही है। बुखार है, उल्टी है। यह है, वह है। आप सब लक्षण जानते ही हो। जानना चाहिए भी ताकि पता चले कि यह कोरोना तो नहीं हैं? जब करोना या कोई भी बीमारी होती है तब बीमार व्यक्ति डॉक्टर के पास पहुंचता है। डॉक्टर को देखने से कुछ तो पता चलता है। वह कहता है 'आ करो, आ।' वह जिव्हा को देखता है, तापमान देखता है। फिर नाड़ी परीक्षा होती है। ब्लड टेस्ट होता है। इसके अतिरिक्त मरीज को बताना पड़ता है, यह समस्या है या यहां दर्द है या मैं शराब पिया करता था, क्या उसका तो इसके साथ कोई संबंध नहीं है? यह कैंसर तो नहीं है? यह, वह आदि, मरीज जितना ईमानदारी से बताएगा, उसके अनुसार ही डॉक्टर उसके लक्षणों का परीक्षण व निरीक्षण करते हुए कुछ प्रिसक्रिप्शन (सलाह) दे सकता है। विषयी दुर्जन, सदा कामरत, किछु नाहि मोर गुण॥ मैं विषयी हूं। (विषयी को समझना भी तो.. विषय क्या होता है? वह तो हम जानते हैं जैसे केमिस्ट्री एक विषय होता है, फिजिक्स एक विषय होता है। जब हम स्कूल में जाते हैं, तब हम सब्जेक्ट व इतने सारे सब्जेक्ट पढ़ते हैं, उनको विषय कहते हैं लेकिन यह विषयी अभी नहीं बताएंगे) हमें समझना भी तो चाहिए भक्ति विनोद ठाकुर क्या कह रहे हैं विषयी दुर्जन अर्थात मैं विषयी हूं, मैं दुर्जन हूं। सदा कामरत मैं सदैव काम में रत रहता हूं। मैं कामी हूं, मैं क्रोधी हूं, क्या आप में से कोई कामी क्रोधी, लोभी है? नहीं! आप में से कोई नहीं है। और होंगे कामी, क्रोधी, लोभी। पड़ोसी कामी, क्रोधी, लोभी हैं। वैसे इसको स्वीकार करने के लिए कुछ आध्यात्मिक शक्ति भी चाहिए। यदि स्वीकार नहीं करेंगे, तो मरते रहेंगे। जैसे यदि हम डॉक्टर को सारे लक्षण नहीं बताएंगे तब उस परेशानी अथवा उस बीमारी की दवाई तो डॉक्टर हमें नहीं देगा और वह बीमारी बनी रहेगी। किछु नाहि मोर गुण॥ गोपीनाथ, आमार भरसा तुमि। बस हे प्रभु! आपके भरोसे हूँ। मेरी डोरी तेरे हाथ। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई आश्रय नहीं है। गोपीनाथ, आमार भरसा तुमि। तोमार चरणे, लइनु शरण, तोमार किंकर आमि॥ मैं आपकी शरण में आया हूं मैं आपका दास हूं। गोपीनाथ, केमने शाधिबे मोरे। शाधिबे- मेरा शुद्धिकरण कैसे करोगे? कृपया कीजिए। हरि! हरि! ना जानि भकति, कर्मे जड़-मति, पड़ेछि संसार-घोरे॥ मैं तो भक्ति नहीं जानता हूं, बहुत कम भक्ति जानता हूं। मैं दुर्देव से भक्तिरसामृत सिंधु नहीं पढ़ता हूं। फिर मैं भक्ति कैसे जानूंगा। मैं और और कुछ पढ़ता रहता हूं, ब्रेकिंग न्यूज़ सुनता रहता हूं लेकिन श्रील रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृत सिंधु में भक्ति की जो व्याख्या की है, वह मैं नहीं जानता। कर्मे जड़-मति, कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।। ( श्रीमद् भगवतगीता २.४७) अनुवाद: तुम्हें अपने कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ । ऐसा सुना पढ़ा है, वैसा ही मैं करता हूं। मैं गीता का अनुसरण करता हूं। गीता में लिखा है- 'कर्मण्यवाधिकारस्ते' काम ही पूजा है, मैं करता हूँ। लेकिन यह पता नहीं, भगवान ने किस काम को पूजा कहा है। कर्म करने पर तुम्हारा अधिकार है, कर्म करते जाओ। 'करमरकर' ऐसी मेरी स्थिति है। कर्मे जड़-मति, मेरी मति कैसी है? जड़ है अर्थात चेतन नहीं है। जड़ है, जैसे एक समय पर जड़ भरत रहे। जड़ और मंद। मैं मंद बुद्धि वाला हूं। मैं कलियुग का जीव जो हूं। प्रायेणाल्पायुषः सभ्य कलावस्मिन् युगे जनाः । मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ॥ ( श्रीमद्भागवतगम १.१.१०) अनुवाद:- हे विद्वान, कलि के इस लौह - युग में लोगों की आयु न्यून है। वे झगड़ालू , आलसी, पथभ्रष्ट, अभागे होते हैं तथा साथ ही साथ सदैव विचलित रहते हैं। भक्ति विनोद ठाकुर अपने शब्दों में कह रहे हैं। उन्होंने इन शब्दों व विचारों का चयन किया है । कहा जाए यह उनके खुद के अनुभव हैं। हर एक की अपनी अपनी कहानी होगी। कोई अधिक कामी है, कोई अधिक क्रोधी है। काम क्रोध तो नहीं सताता लेकिन लोभ की कोई सीमा ही नहीं है, हम लोभी हैं। हर एक का अपना जीवन है, चरित्र है, जीवन शैली अथवा लाइफ स्टाइल है । उसके पीछे हमारा अंतःकरण अथवा मन है। हर एक का मन अलग- अलग है, चंचल है। किसी का अधिक चंचल है, किसी का कम चंचल है। हर एक को अपना अपना लिखना होगा , कहना होगा जो भी त्रुटियां व कमियां है। कन्फैशन जैसा कि ईसाई लोग कहते हैं या फिर जब हम अपने सलाहकार( काउंसलर) से मिलते हैं और करते है।( एनीवे) जप करते समय भगवान पहुंचे हैं , हमने उनको बुलाया है। हम भगवान को यह सारी समस्याएं भी बता सकते हैं। गोपीनाथ, सकलि तोमार माया। । हे प्रभु! यह सारी तुम्हारी माया है और यह माया बड़ी बलवान है। नाहि मम बल, ज्ञान सुनिर्मल, लेकिन मैं तो बल हीन हूं। तब भगवान कहेंगे दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।। ( श्रीमद् भगवतगीता ७.१४) अनुवाद:- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं। बेटा! मेरी शरण में आओ। माया से तर जाओगे। भगवान जो हमारे ह्रदय प्रांगण में बैठे हैं, वे उत्तर देंगे। वैसे बैठे ही हैं, जब हम जप करते हैं, तब भगवान आ जाते हैं। किन्तु वे भगवान तो सब समय हमारे साथ ही होते हैं। भगवान कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ते। नाहि मम बल,ज्ञान सुनिर्मल, स्वाधीन नहे ए काया॥ मेरा ज्ञान निर्मल नहीं है अर्थात वह मल से मुक्त नहीं है। मैंने एम.ए., पी.एच.डी., डि.लिट क्या-क्या किया है, मैं डॉक्टर हूं, मर्मलोजिस्ट हूँ। मैंने क्या-क्या किया है परंतु यह ज्ञान निर्मल नहीं है या थोड़े में कह सकते हैं कि वह ज्ञान तमोगुणी है, रजोगुणी व सतोगुणी है वह ज्ञान ऐसे गुणों से मिश्रित है। यह भी मेरी समस्या है। * स्वाधीन नहे ए काया॥* मेरी काया, मेरा मन, मेरे अधीन नहीं है। मेरा नियंत्रण से यह नहीं चलता। उल्टा मेरा मन, मुझे ही नचाता रहता है। ए, मुझे यह चाहिए, ए मुझे वह चाहिए। फिर मैं शॉपिंग के लिए दौड़ता हूं, यहां जाता हूं, वहां जाता हूं क्योंकि मेरी इंद्रियों की मांगे हैं। मन मनोरंजन चाहता है। मुझे अपने घर को थिएटर बनाना होगा। भूल जाओ कि घर एक मंदिर है। मैं घर को एक सिनेमाघर बना लूंगा। क्योंकि मन मनोरंजन चाहता है कि मनोरंजन हो जाए। तब मेरे लिए पर्दे पर नटी नाचेगी अथवा कुछ कव्वाली होगी। इस प्रकार मेरा मन तो मेरे अधीन नहीं है। गोपीनाथ, नियत चरणे स्थान। हे प्रभु! मैं तो आपके चरणों में स्थान चाहता हूं। मागे ये पामर, काँदिया-काँदिया, करह करुणा दान॥ मैं यह पामर, गरीब बेचारा पापी काँदिया-काँदिया रोते हुए क्रंदन करते हुए करुणा का दान मांग रहा हूं। यह कोरोना बहुत हो गया। हे प्रभु! थोड़ी करुणा दीजिए,अपनी कृपा कटाक्ष मुझ पर डालिए। गोपीनाथ तुमि त’सकलि पार। आपने कईयों का उद्धार किया, कईयों का बेड़ा पार किया, उनको अपने भगवत धाम ले गए। दुर्जने तारिते, तोमार शकति, के आछे पापीर आर॥ दर्जनों को तारने की शक्ति आप में है। वैसे मैं भी एक दुर्जन हूं। हे प्रभु! मुझे सज्जन बनाओ। 'के आछे पापीर आर' मुझ जैसा और कौन पापी होगा, पापियन में नामी .. पापियों में मेरा नाम है। यह पापी नामी पापी है। उसका एक बड़ा नाम है। जैसे चोराग्रगण्य अर्थात पाप करने वालों में मैं अग्र गण्य, शिरोमणि हूं। गोपीनाथ, तुमि कृपा-पाराबार। जीवेर कारणे, आसिया प्रपन्चे, लीला कैले सुविस्तार॥ जीव के उद्धार के लिए आप प्रकट होते हो। आपकी सारी जो लीलाएँ हैं, उनका सु-विस्तार है। कई अवतार और हर अवतार की जो लीलाएं है, आप उन्हें 'जीवरे कारणे' अर्थात हमारे लिए संपन्न करते हो। नदिया-गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन पातियाछे नाम-हट्ट जीवेर कारण॥1॥ भक्ति विनोद ठाकुर दूसरे गीत में लिखते हैं 'नदिया-गोद्रुमे' में 'पातियाछे नाम-हट्ट' अर्थात एक नाम- हट्ट प्रारंभ हो चुका है। 'श्रद्धावान जन हे, श्रद्धावान जन हे' श्रद्धावान लोगों, नोट करो। नित्यानंद प्रभु ने नदिया गोद्रुम में नामहट्ट खोला है। जब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को जगन्नाथपुरी में कहा कि जाओ! बंगाल में जाओ! यहां क्या कर रहे हो? वहां जाकर प्रचार करो, बंगाल में जाकर प्रचार करो। गोष्ठानंदी बनो, तुम तो केवल भजनानंदी ही हो। केवल अपना स्वार्थ ही चाहते हो, औरों के लिए कुछ करो। तब नित्यानंद प्रभु गए थे यारे देख, तारे कह' कृष्ण'- उपदेश।आमार आज्ञाय गुरु हञा तार' एइ देश।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ७.१२८) अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो कि वह भगवदगीता तथा श्रीमद् भागवत में दिए गए भगवान् श्री कृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो। तत्पश्चात उन्होंने सभी को प्रचार किया। सुनो! सुनो! अनुपम! नरसिम्हा! चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर व नित्यानंद प्रभु को कहा था- शुन शुन नित्यानंद! शुन हरिदास! सर्वत्र आमार आज्ञा करह प्रकाश!! प्रति घरे घरे गिया कर एइ भिक्षा। "कृष्ण भज, कृष्ण बोल कर " कृष्ण- शिक्षा।" ( चैतन्य भागवत) अनुवाद:- सुनो, सुनो, नित्यानंद! सुनो, हरिदास! मेरी आज्ञा सर्वत्र जाना! घर-घर जाओ और सभी निवासियों से भीख मांगो, 'कृष्ण के नाम का जप करो, कृष्ण की पूजा करो, और दूसरों को कृष्ण के निर्देशों का पालन करना सिखाओ।' किसी को भी बोलने, या बोलने का कारण न बनाएं, इसके अलावा कुछ भी। " अपने अपने घरों में, नासिक अथवा अपने अपने गाँव में सबको बताओ। बोलो कृष्ण! भजो कृष्ण! करो कृष्ण शिक्षा। श्री कृष्ण महाप्रभु के आदेशानुसार नित्यानंद प्रभु ने किया। भगवान् के प्रयास 'जीवेर कारण' जीव के उद्धार के लिए होते हैं और सफल प्रयास होते हैं। इसलिए भगवान् आते हैं। गोलोकम च परित्यज्य लोकानां त्रां-करण कलौ गौरांग रूपेना लीला लावण्य विग्रह ( मार्कण्डेय पुराण) अनुवाद:- कलयुग में, मैं गोलोक छोड़ दूंगा और दुनिया के लोगों को बचाने के लिए मैं सुंदर और चंचल भगवान् गौरांगा बन जाऊंगा। गोलोक में रास क्रीड़ा आदि या जो मधुर लीलाएं हैं, उनको छोड़ छाड़ कर भगवान 'लोकानां त्रां-करण' के लिए इस ब्रह्मांड में आते हैं। भक्ति विनोद ठाकुर भी इस गीत में कह रहे हैं -हां, हां! आप आते हो। जीवेर कारणे। गोपीनाथ, आमि कि दोषे दोषी। हे प्रभु! मुझ में कितने सारे दोष हैं। आप ही जाने। असुर सकल, पाइल चरण, विनोद थाकिल बसि’॥ भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं कि पता नहीं, कैसा दोष मुझ में है या कितने दोष मुझ में हैं। आपने सारे असुरों का उद्धार किया है। पाइल चरण और असुरों ने आपके चरणों का आश्रय प्राप्त किया है। विनोद थाकिल बसि’ लेकिन यह भक्ति विनोद ठाकुर तो बेचारा यहीं रह गया। यहीं बैठा है, बाकी सब का उद्धार तो आप कर रहे हो और किया है लेकिन इस बेचारे भक्ति विनोद ठाकुर का क्या? आमि कि दोषे दोषी। मुझ में ऐसा कौन सा दोष है प्रभु, जिसके कारण आप इस भक्ति विनोद ठाकुर का उद्धार नहीं कर रहे हैं। हे गोपीनाथ, मम निवेदन शुन। हे गोपीनाथ मेरे निवेदन को सुनो। ठीक है। भक्ति विनोद ठाकुर के गोपीनाथ मम निवेदन सुनो जैसे एक-दो गीत और भी हैं। जिसमें वे अपने भावों को प्रकट करते हैं। किंतु यह पूरा हुआ अथवा आपको थोड़ा पढ़ कर सुनाया। आप भी ऐसे अपने अपने गीत तैयार करो। पद्य नहीं लिख सकते, गद्य तो लिखो। पद्य और गद्य में अंतर जानते हो। एक होता है पद्य और दूसरा होता है गद्य। पद्य होता है कविता( पोएट्री) और गद्य का अर्थ प्रोज होता है। सभी तो पद्य नहीं लिख सकते। सभी कवि नहीं हो सकते। गद्य तो लिख ही सकते हैं, कह भी सकते हैं। ठीक है। कहिए, आपको क्या कहना है। आप में कुछ भक्त अपनी कहानी सुनाओ। अभी सुनाओ और सुनाते जाओ। भगवान् को सुनाते जाओ। अपने काउंसलर, या गुरुओं और गौरांग को सुनाते जाओ। गौरांग तो एक ही है। गुरु तो अनेक होते हैं। दीक्षा गुरु एक ही होते हैं, शिक्षा गुरु अनेक होते हैं। वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपद – कमलं श्रीगुरुन् वैष्णवांश्च श्रीरूपं साग्रजातं सहगण – रघुनाथान्वितं तं सजीवम् साद्वैतं सावधूतं परिजन सहितं कृष्ण – चैतन्य – देवम् श्रीराधा – कृष्ण – पादान् सहगण – ललिता – श्रीविशाखान्वितांंश्च अनुवाद:- मैं अपने गुरु के चरण कमलों को तथा समस्त वैष्णव के चरणों को नमस्कार करता हूं। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके अग्रज सनातन गोस्वामी एवं साथ ही रघुनाथ दास, रघुनाथ भट्ट, गोपाल भट्ट एवं श्रील जीव गोस्वामी के चरण कमलों को सादर नमस्कार करता हूं। मैं भगवान कृष्ण को, श्री ललिता तथा श्री विशाखा सखियों सहित सादर नमस्कार करता हूं। मैं गुरुओं के चरणों की वंदना करता हूँ। किसी को कुछ कहना है। आप आजाद हो, यह गीत हमें विचार देता है कि हमें भी भगवान को ऐसे निवेदन करना चाहिए । इस संबंध में आपके क्या विचार हैं या कोई प्रश्न है, यह कोई अनुभव है। लिखिए। हरि बोल!

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