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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *3 मई 2021* *हरे कृष्ण* 809 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। *हरि हरि।* मैं आपके जप को या श्रवन, कीर्तन को रोकना तो नहीं चाहता हूं किंतु पहले नाम कीर्तन हो रहा था अब कुछ रूप, लीला, गुण,परिकर, पार्षद, कीर्तन होगा। कीर्तन बंद नहीं होगा। कीर्तन चलता रहेगा। भगवान की कीर्ति का गान हमेशा चलते रहना चाहिए। आज संख्या बढ़ी हुई हैं,इसलिए अधिक संख्या में भाग लेने वालों की कीर्ति का भी गान होना चाहिए।उनका भी आभार और सत्कार होना चाहिए। अगर पता चलता कि कौन कौन हैं, तो सब का नाम लेते।अब कोरोना वायरस के कारण फूलों की माला भी उपलब्ध नहीं हो रही हैं और क्योंकि आप थोड़े दूर हो इसलिए माल्यार्पण नहीं कर सकते हैं,नहीं तो उन सभी का माल्यार्पण भी करते जिन नए भक्तो या जप कर्ताओं ने आज भाग लिया हैं।आपका भी भला हो। हरि हरि।जब भी यहां संख्या बढ़ती हैं, तो यह इस बात का संकेत करती हैं, कि कोरोना वायरस की संख्या बढ़ गई हैं, क्योंकि जब भी करो ना वायरस की संख्या बढ़ती हैं, तो हमारी जूम कॉन्फ्रेंस की भी संख्या बढ़ जाती हैं, फिर कहना ही पड़ता है कि आप में से कुछ ऐसे भूत है जो बातों से नहीं मानते, परंतु कयोकि कोरोना वायरस की बाढ़ आ चुकी हैं, इसीलिए डर के मारे हम में से कुछ लोग जग जाते हैं और येन केन प्रकारेण फिर हम जप और कीर्तन करते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। हममें से कुछ भक्तों के लिए कोरोना का आशीर्वाद, कोरोना का थप्पड़, कोरोना की लात और कोरोना जो अपना विकराल रूप धारण कर रहा हैं, हममें से कुछ लोगों के लिए वह वरदान बन जाता हैं। जिससे कि हम हरे कृष्ण का जप प्रातः काल में ही पूरा कर पाते हैं,नहीं तो इस वक्त तक,आप और किसी कामों में लग जाते।या शायद उठते ही नहीं। अच्छा है कि कोरोना के कारण हमको हरि नाम की करुणा प्राप्त हो रही हैं। कोरोना करता हैं शोषण और हरि नाम की महिमा या महाप्रभु की करुणा हरि नाम के रूप में करती हैं पोषण। दोनों पर्याय हमारे समक्ष हैं कि हम क्या चाहते हैं शोषण चाहते हैं या पोषण।दोनों पर्याय हमारे समक्ष हैं कि हम क्या चाहते हैं शोषण चाहते हैं या पोषण। शोषण कौन चाहेगा?आपका चुनाव एकदम सही हैं।आज आप सभी कुछ अधिक संख्या में जुड़े हैं,आमतौर पर इस जपा टोंक से ना जुड़ने वाले थी आज जुड़ रहे हैं,आशा हैं कि आप हमारे साथ बने रहेंगे और जप करते रहेंगे। हमारे साथ और अन्य देश विदेश के भक्तों के साथ जप करते रहिए। जब हम ऐसे इकट्ठे हो जाते हैं और हमें ऐसा संग प्राप्त होता है तो फिर क्या होता हैं? *कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार।* *य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।* *(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31)* *अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान हैं।* *जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त* *कृष्णभावनामृत नाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति* *का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता हैं।* हम जब भक्तों के साथ घनिष्ठ संबंध रखते हैं और उनका संग करते हैं तो फिर माया का कोई प्रवेश करना बाकी नहीं रह जाता। इस पर मुझे एक बात याद आ रही हैं, मेरी एक इटालियन शिष्या थी।जब उसका अंतिम क्षण आया, तब सभी भक्त इकट्ठे हुए और सभी कीर्तन कर रहे थे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे* *हरे* जिस कक्ष में वह बीमार माताजी थी, वह घर भक्तों से खचाखच भरा हुआ था। वहां बिल्कुल भी जगह नहीं थी।जाहिर हो चुका था कि वहां यमदूत तो आ ही नहीं सकते। कोई जगह ही नहीं थी। इतनी भीड़ थी। भक्तों की भीड़ और कोई रिक्त स्थान था ही नहीं। तो और कोई कैसे आता और खास तौर पर कोई पराया व्यक्ति, दूसरे पक्ष का व्यक्ति तो आ ही नहीं सकता और वैसे भी वहां कीर्तन हो रहा था।सभी भक्त कीर्तन कर रहे थे, प्रार्थना कर रहे थे। उन माता जी की ऐसी प्रार्थना थी कि इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकले,गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले और उनकी मदद करने के लिए सभी भक्त इकट्ठे हुए और सभी मिलकर कीर्तन कर रहे थे। कीर्तन के रूप में भगवान वहां मौजूद थे। *य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार* जहां कृष्ण है, वहां माया के लिए स्थान कहां हैं। हरि हरि।।इसलिए ऐसे एकत्रित होना अच्छा हैं। इसीलिए इस आंदोलन को संकीर्तन आंदोलन कहा गया हैं।कोंगरीग्रेशनल,कोंगरीग्रेशनल अर्थात एकत्रित होकर जपकरना और इकट्ठे होकर भक्ति करना श्रवनम्, कीर्तनम् करना,अर्चनम, वंदनम, पादसेवनम् करना यह सब भक्ति ही हैं। *श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं* *वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ* *भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा* *तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४* *श्रीमद भागवतम 7.5.23* *प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के* *दिव्य पवित्र नाम , रूप ,* *साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना ,* *उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना ,* *षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से* *प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप* *में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा ,* *वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ* *स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की* *सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान* *व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।* अधिक से अधिक संख्या में जुड़कर या एकत्रित होकर एक दूसरे को भक्ति में सहयोग करते हुए, योगदान करना । जब हम भक्ति में लगे रहते हैं या भक्ति में तल्लीन होते हैं तो यही बन जाता है संकीर्तन।अगर हमारे साथ अधिक से अधिक भक्त हैं तो वहां भगवान भी हैं। *nāhaṁ tiṣṭhāmi vaikuṇṭhe* *yogināṁ hṛdayeṣu vā* *tatra tiṣṭhāmi nārada* *yatra gāyanti mad-bhaktāḥ* यह सिद्धांत भी है तब हमारा पोषण होगा तो इस तरह से बुद्धिमान बनो। *स्रोत : कलिसन्तरण उपनिषद्* *हरेर् नाम हरेर् नाम हरेर् नाम एव केवलम् |* *कलौ नास्ति एव नास्ति एव नास्ति एव गतिर् अन्यथा ||* *इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरि-नाम, हरि-नाम और* *केवल हरि-नाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई* *विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है |* इस कलयुग में हरि नाम के अलावा और कोई उपाय नहीं है नहीं है नहीं हैं। एक ही मार्ग हैं, एक ही विधि हैं।तो इसीलिए इसे अपना चुनाव बनाओ। सिर्फ इसे ही अपना चुनाव बनाओ, क्योंकि और कोई चुनाव है ही नहीं। हां !बुद्धिमान लोगों के लिए और कोई चुनाव नहीं हैं। बुद्धू के लिए तो और बहुत चुनाव हैं। उनके लिए तो कृष्ण हैं नहीं।उनके लिए तो माया ही माया हैं। लेकिन जो बुद्धिमान हैं वो कया करते हैं? *“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |* *ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || भगवदगीता 10.10 ||”* *अनुवाद* *जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान* *प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |* वह भगवान की प्रीति पूर्वक सेवा करते हैं और भगवान उनको बुद्धि देते हैं। और फिर वह सब भगवान की भक्ति करते रहते हैं और भगवान का भजन करते हैं।भजन मतलब आराधना साधना।यह सारा मिलकर भजन होता हैं। भक्ति विनोद ठाकुर ने लिखा हैं भजन रहस्य। तब हमारी पूरी जीवनशैली ही भजन होती हैं और वह भजन प्रीति पूर्वक करना हैं, प्रेम पूर्वक। हरि हरि। जब भी हम भोजन करते हैं तो हम औरों को दिखाने के लिए भोजन नहीं करते, भोजन का कभी प्रदर्शन नहीं होता। भोजन की तो आवश्यकता होती हैं। भोजन तो एक जरूरी चीज हैं।भोजन अनिवार्य होता हैं।भगवान ने कहा हैं- *“अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |* *यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः || भगवदगीता 3.14 ||”* *अनुवाद* *सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है | वर्षा यज्ञ* *सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता हैं |* अन्न है तो ही हम जीवित हैं और जीते रहेंगे। इसलिए अन्न ग्रहण करना या भोजन करना हम किसी दिखावे या प्रदर्शन के लिए नहीं करते। वैसे ही हमको यह जप करना हैं *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* और मैं तो कहता ही रहता हूं कि यह हरे कृष्ण महामंत्र का जप एक खाद्य हैं और ना केवल महामंत्र सारा भक्ति का जीवन ही।हम आत्मा को खिलाते और पिलाते हैं। हम आत्मा को हष्ट पुष्ट करके महात्मा बनाते हैं। तो यह एक आवश्यकता की चीज हैं, जैसे शरीर के लिए अन्न की आवश्यकता होती हैं। अन्न अनिवार्य हैं।वैसे ही आत्मा के लिए यह हरे कृष्ण महामंत्र का जप अनिवार्य हैं। शरीर तो शाश्वत भी नहीं हैं।शरीर तो आया राम गया राम हैं और आप उसका इतना ख्याल रखते हो। अपना खुद का ख्याल नहीं रखते। हम खुद क्या हैं? हम आत्मा हैं। अपना ध्यान रखो। अपना ध्यान रखो ऐसा तो सभी कहते ही रहते हैं लेकिन यहां यह कहना चाहिए कि आप जो सच में हो उसका ख्याल रखो शरीर तो शाश्वत नहीं है शरीर तो हम नहीं हैं हां परंतु फिर भी शरीर का भी ध्यान रखना चाहिए लेकिन हम आत्मा हैं। *“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |* *मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||भगवदगीता 15.7 ||”* *अनुवाद* *इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के* *कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी* *सम्मिलित हैं ।* हम भगवान के हैं,हम भगवान के अंश हैं, भगवान विभु आत्मा हैं और हम अनु आत्मा हैं। यही हमारी असली पहचान हैं। इसका कब ख्याल करोगे आप।कब इसका ख्याल करोगे? जो आप वास्तव में हो। आत्मा को खिलाओ, पिलाओ।आपने कब से आत्मा को खिलाया पिलाया नहीं हैं? इसलिए आत्मा भूखी और प्यासी हैं। आप कब से इंद्रियों को मन को और शरीर को खिलाते पिलाते आ रहे हो। हरि हरि। ह्रदय में जो भगवान है उनका अगर भजन नहीं किया,पूजन नहीं किया, उनको अगर प्रसन्न नहीं किया और साथ-साथ आत्मा का भी ख्याल नहीं किया तो, तो फिर क्या किया? *हरि हरि ! विफले जनम गोङाइनु । मनुष्य जनम पाइया , राधाकृष्ण* *ना भजिया , जानिया शुनिया विष खाइनु ।।* *हे भगवान् हरि ! मैंने अपना जन्म विफल ही* *गवाँ दिया ।मनुष्य देह* *प्राप्त करके भी मैंने राधा - कृष्ण का भजन नहीं किया । जानबूझ* *कर मैंने विषपान कर लिया है* तो जानबूझकर हमने जहर पी लिया और सारा संसार जहर पी रहा है और मर रहा है हर व्यक्ति मरता ही है क्योंकि जहर पी रहा है तो यह *पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।* *इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे* *भावार्थ : बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में* *शयन कराने वाले इस संसार से पार जा पाना अत्यन्त कठिन है,हे* *कृष्ण मुरारी कृपा करके मेरी इस संसार से रक्षा करें।* तो यह पुनरपि जननं क्यों हो रहा हैं? क्योंकि हम जहर का पान कर रहे हैं।हम माया का पान कर रहे हैं। माया के पान या जहर के पान के स्थान पर जब हम अमृत का पान करेंगे, जब हम इस नामअमृत का पान करना प्रारंभ करेंगे, अमृत शब्द विशेष हैं। इस शब्द को सुनिए। अमृत अ मतलब नहीं मृत मतलब मरण। हरि नाम अमृत का जो पान करेगा वह कभी मरेगा नहीं।एक बार अगर मर भी गया क्योंकि जन्मा हैं तो मरेगा भी तो फिर पुनः जन्म नहीं लेगा और जन्म नहीं लेगा तो फिर मरेगा भी नहीं। चैतन्य महाप्रभु ने हमारे लिए यह व्यवस्था की हैं। *तोमारे लोइते आमि होइनु अवतार।* *आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार?* चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा कहा है कि मेरे अलावा आपका और कौन मित्र हैं। मैं सभी का परम मित्र हूं। *“भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |* *सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || भगवदगीता 5.29 ||”* *अनुवाद* *मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों* *तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं* *हितैषीजानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति* *लाभ-करता है |* *एनेछि औषधी माया नाशिबारो लागि'।* *हरिनाम महामंत्र लओ तुमि मागि'* यह कौन कह रहे हैं?भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। मैं इस माया के लिए औषधि लेकर आया हूं। हरि नाम लो। हरि नाम लो। उसका दिखावा मत करो। उसे वास्तव में लो। हरि हरि।अपराधों से बचते हुए हरि नाम का पान करो।आज के दिन अभिराम ठाकुर तिरोभाव तिथि महोत्सव भी हैं। मैं तो आज का जपा टॉक उन्हीं के संबंध में कहना चाहता था लेकिन मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाया। जब भी कुछ कहना शुरू करता हूं, तो फिर वही बात है की बात आगे बढ़ जाती हैं। अच्छा होता कि मैं शुरुआत से ही अभिराम ठाकुर तिरोभाव तिथि की चर्चा करता। लेकिन कर नहीं पाया। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। लेकिन चलो अब दो शब्द अंत में कहता हूँ।अभी राम ठाकुर नित्यानंद प्रभु के परिकर या उनके सहयोगी थे और कृष्ण बलराम की नित्य लीला के एक ग्वाल बाल थे। नित्यानंद प्रभु के साथ द्वादश ग्वाल बाल की एक मंडली थी। चैतन्य महाप्रभु ने जब नित्यानंद प्रभु को कहा कि बंगाल में जाकर प्रचार करो तब नित्यानंद प्रभु के साथ कयी सारे भक्त उनके सहयोगी बने।तब नित्यानंद ठाकुर के साथ अभिराम ठाकुर भी उनके टीम के सदस्य बने, लेकिन यह कुछ विशेष थे। वह सिद्ध थे। भगवान के भक्त तो सभी सिद्ध होते ही हैं लेकिन इनको कुछ विशेष सिद्धि प्राप्त थी। विशेष शक्ति और विशेष सिद्धि प्राप्त थी। नित्यानंद प्रभु जब पानी हाटी आए, नित्यानंद प्रभु जगन्नाथ पुरी से सर्व प्रथम स्थान जिस स्थान पर आए उस पानी हाटी, गंगा के तट पर जहां दही चिड़ा महोत्सव भी संपन्न हुआ था और जिस पानी हाटी में नित्यानंद प्रभु का कई महीनों तक लगातार बिना रुके कीर्तन हो रहा था, तब अभिराम ठाकुर भी उनके साथ थे।अभिराम ठाकुर पेड़ की शाखाओं पर भी चढ जाते थे और पेड़ की शाखाओं पर चढ़कर नृत्य करते थे।कभी-कभी वह ग्वाल बाल के मनोभाव में आ जाते। ग्वाल बाल भी मुरली बजाना जानते हैं इसलिए अभिराम ठाकुर मुरली बजाते थे और वह मुरली कैसे बनाते थे किसी बड़े वृक्ष के तने को वह मुरली बनाते थे। कम से कम 40 50 फीट लंबी लकड़ी से वह मुरली बनाया करते थे। वह पूरे बड़े से तने को उठाते और आसानी से अपने होठों पर रखते और मुरली वादन करते थे । यह लीला तब करते थे जब वह छोटे से बालक ही थे ।सोचो एक छोटा सा बालक और 40 50 फिट लंबी लकड़ी के तने को उठाकर मुरली वादन करते थे। वह तना काफी लंबा और चौड़ा होता था। अगर उस समय की कोई फोटो या वीडियो होती तो आप देख कर हैरान हो जाते। जैसा वर्णन हुआ हैं, वह केवल अगर पढेंगें और सुनेंगे भी तो आप हैरान हो जाएंगे।जब हम शब्द सुनते हैं या यह वर्णन सुनते हैं,जब शब्दों से और वाक्यों से वर्णन होता हैं, तो उससे थ्री डाइमेंशनल रूप का हम दर्शन करने लगते हैं। अगर ऑडियो उपलब्ध हैं, तो अलग से वीडियो की आवश्यकता नहीं हैं। अभिराम ठाकुर का व्यक्तित्व बहुत ही अद्भुत रहा। उनके पास एक चाबुक भी था। उसको भी हर जगह लेकर वह अपने साथ चलते थे ।पर उस चाबुक का प्रयोग नहीं करते, लेकिन जिस किसी पर भी वह विशेष कृपा करना चाहते तो वह उस चाबुक से उसको पीटते, जैसे किसान अपने चाबुक से बैल को मारता पीटता हैं। उस चाबुक का नाम भी उनके चरित्र में लिखा हैं, जय मंगल। उस चाबुक का नाम था जय मंगल चाबुक।वह जिस भी व्यक्ति को उस चाबुक से पीटते वह प्रेम से ओतप्रोत हो जाता। मान लो उस चाबुक की पिटाई से अगर उसमें कोई माया फंसी हुई हैं,या उस व्यक्ति का कोई अनर्थ हैं,या है पाप बुद्धि हैं,या वह कोई भूत हैं, तो उस को पीट कर उस चाबुक से वह निकाल देते। जय मंगल चाबुक की पिटाई के बाद व्यक्ति नाचने लगता। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे* *हरे* ऐसे भाव विभोर होकर वह नाचने लगता है लौटने लगता है या रोमांचित होता है अभी राम ठाकुर इस प्रकार से कृपा करते हैं यह भी कुछ अलग तरह का आशीर्वाद है हो तो पिटाई रही है लेकिन आशीर्वाद मिल रहा हैं। *नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय।* *श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।107॥* *चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107* *अनुवाद* *"कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है।* *यह ऐसी बस्तु नहीं* *है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा* *कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता* *है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।"* जीव का तो भगवान से प्रेम हैं ही। सभी जीवो का भगवान से प्रेम हैं, लेकिन गलती से या संक्रमित होकर यह संसार के जीव माया से प्रेम करते हैं या फिर कह सकते हैं कि अपना लक्ष्य ही बदल देते हैं। प्रेम तो कृष्ण से करना चाहिए, लेकिन करते किससे हैं? माया से, कामवासना से पीड़ित या प्रेरित होकरकाम करते हैं और उसी को प्रेम कहते हैं। और मैं तुमसे प्यार करता हूं या करती हूं कहने लगते हैं।लेकिन वास्तव में तो जीव का भगवान से प्रेम हैं,परंतु वह ढका हुआ हैं। उस पर कई सारे आवरण चढ़े हुए हैं। यह अभिराम ठाकुर अपनी चाबुक से उस प्रेम को पुनः जागृत करते थे। जब वह अपने भ्रमण में कई मंदिरों में जाते, तब वहां के विग्रह को जब वह प्रणाम करते थे,तो अगर उस विग्रह की विधि पूर्वक प्राण प्रतिष्ठा नहीं हुई हैं या विग्रह भगवान की हैं, ऐसी समझ के साथ उस विग्रह की सेवा नहीं हो रही हैं या विधि पूर्वक स्थापना भी नहीं हुई हैं, तो जैसे ही यह अभिराम ठाकुर नमस्कार या प्रणाम करते थे, क्योंकि वह विग्रह प्राण प्रतिष्ठित नहीं है या पुजारी उस भाव के साथ सेवा भी नहीं कर रहा हैं,तो उस मूर्ति में विस्फोट हो जाता। वह मूर्ति फट जाती थी और खंडित हो जाती थी, जिसके कारण कयी लोग डर भी जाते थे कि ऐसा ना हो कि अभिराम ठाकुर हमारे मंदिर में आकर प्रणाम करें और विस्फोट हो जाए। इसलिए लोग थोड़े सावधान भी हो जाते थे और सावधान होकर विधि पूर्वक भगवान की आराधना भी करते होंगे या कभी-कभी उनके जीवन चरित्र में ऐसा भी देखा गया कि वह दर्शन के लिए गए और दर्शन करते करते वह भगवान की नित्य लीला में पहुंच गए और उस लीला में अभिराम ठाकुर भी हैं, एक ग्वाल बाल के रूप में,तो गर्मी के दिन होते तो अभिराम ठाकुर कहने लगते कि देखो, देखो इतनी धूप में मेरे कृष्ण कन्हैया गाय चरा रहे हैं।घर से ना कोई जूता लाए हैं ,ना कोई छाता लाए हैं और इतना परिश्रम कर रहे हैं और इतनी गाय भी हैं।900000 गाय हैं।तो देखो कृष्ण पसीने पसीने हो रहे हैं।कोई पंखा ले कर आओ। वहां पर जो लोग उपस्थित होते वह अभिराम ठाकुर को वह पंखा दे देते और विग्रह के रूप में कृष्ण वहां हैं,तो उन्हें पंखा झलने लगते थे।भगवान की प्रसन्नता के लिए ही वह पंखा झलते थे। ऐसा अद्भुत उनका चरित्र था। यह तो एक झलक मात्र हैं, वह ऐसी कई सारी अद्भुत घटनाएं करते। उनकी हर बात अद्भुत हैं। उनका बहुत ही अद्भुत चरित्र हैं। यह घटनाएं हमें अध्यात्मिक जगत की एक झलक देती हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के परिकर या नित्यानंद प्रभु के परिकर क्योंकि नित्यानंद प्रभु बलराम हैं और चैतन्य महाप्रभु कृष्ण है और अपने गोलोक के परिकरो को लेकर आए हैं और लीला खेल रहे हैं और उस खेल-खेल में ऐसी कुछ घटनाएं घटती हैं या उनके कार्यकलापों से हमें गोलोंक की लीलाओं के दर्शन होते हैं गोलोंक के ग्वाल बालों का भगवान के प्रति प्रेम और स्नेह प्रदर्शित होता हैं,जब हम शास्त्र पढ़ते हैं, तो इसका प्रदर्शन होता हैं। या भगवान की भक्तों की कीर्ति कि जब गाथा पढते हैं तब हमें भगवद्धाम का दर्शन होता हैं, और यह सुनकर क्या होता हैं? *नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय।* *श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।107॥चैतन्य* *चरितामृत मध्य लीला 22.107* *अनुवाद* *"कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है।* *यह ऐसी बस्तु नहीं* *है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा* *कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता* *है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।"* भगवान से प्रेम तो हैं ही,लेकिन जब यह र्कीती के गान का श्रवन हम करते हैं,तो वह प्रेम पुनः जागृत हो जाता हैं। इसीलिए श्रवण कीर्तन और विष्णु स्मरण को हमें जारी रखना हैं और, और भी भक्ति के प्रकार हैं ।ठीक हैं।अब मैं यहां रुकूंगा। .

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