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जप चर्चा पंढरपुर धाम से 16 फरवरी 2021 नयनें गलदश्रु-धारया वदने गद्गद-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥ (चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 20.36 ) अनुवाद हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?' यह भी प्रार्थना है कब ऐसा समय आएगा जब इन भक्तों के संस्मरण मात्र से और फिर वसंत पंचमी जैसे महोत्सव के स्मरण से शरीर में रोमांच और इत्यादि इत्यादि गौरांग ।यह सारी बातें तो दिव्य जगत की है , इस जगत के बाहर की है । वसंत पंचमी भी है , यह गोलोक की या वृंदावन की वसंत पंचमी है । हमें स्मरण करना चाहिए , आज वसंत ऋतु प्रारंभ हो रहा है और वैसे आज होली महोत्सव का भी प्रारंभ हो रहा है , आज से होली तक होली खेली जाएगी या कृष्ण खेलते थे , उनका होली का खेल वसंत पंचमी से प्रारंभ होता था । आज से वैसे काम नहीं सिर्फ खेलना , नंद बाबा कहते थे आज से तुम्हारी छुट्टी है , अभी गोचारण के लिए जाने की जरूरत नहीं है , हम संभाल लेंगे तुम लोग खेलो । कृष्णा बलराम और बालको को भी उनके पिताश्री छुट्टी देते थे और फिर कृष्ण के राधा के साथ गोपियों के साथ खेल चलते थे और इसी समय वैसे राधा भी जावंट से , जो उनका ससुराल है वहां से बरसाना जाती है , अपने मायके में रहती है तो फिर जटिला कुटिला नजर नहीं रख सकती , राधा रानी भी मुक्त है । अपने सखियों के साथ वह जहां चाहे वहां जा सकती आ सकती है कोई रोक-टोक नहीं है तो दोनों तरफ से , एक तो कृष्ण और बलराम उनका संघ है , ग्वाल बालकों को छुट्टी है और एक दृष्टि से राधा की भी छुट्टी है । अब वह बरसाने में रहेंगी लेकिन राधा का जो नंदग्राम में कामकाज हुआ करता था , नित्य लीला , हर दिन राधा रानी नंदग्राम में कृष्ण के लिए भोजन बनाने के लिए जाती है । आज के दिन भी जा रही है बरसाने से नंदग्राम , कृष्ण और मित्रों को पता है कि राधा रानी अब आने वाली है नंदग्राम में , राधा रानी प्रस्थान करती है बरसाने से पिलीपोखर तक आ गई राधा , ललिता , सखिया , गोपिया , सभी सखींवृंद , गोपियों समाज के साथ राधा रानी प्रेम सरोवर तक पहुंच गई , वह संकेत तक पहुंच गई और आगे बढ़ते बढ़ते उद्धव बैठक तक आ गई और कृष्ण और फिर बलराम भी वहां थे और मित्र भी है वह बेर कदम के पास छुपे हुए हैं । घड़ी के और देख रहे है अब आती है , अब आती है , आती ही होंगी और वह सब छुप के बैठे हैं उनके पास अभीर और गुलाल है और फिर आ गई रे तो जब सामने वह पहुंच जाती है फिर कृष्ण और मित्र भी हमला करते हैं अभीर और गुलाल इतना सारा फेकते हैं , उसी का खेल होता है बम या बाण नहीं फेकते , यहा गोली नहीं है यहा गुलाल है और फिर सारा आकाश लाल ही लाल हो जाता है , अभीर होता है तो फिर काला भी और लाल भी सारा आकाश धुंदला दिखाई दे रहा है , स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा है इसका फिर फायदा कृष्ण उठाते हैं और कृष्ण राधा रानी के साथ छेड़खानी शुरू करते हैं और जब ललिता को यह सब कृष्ण की करतूतें पता चलती है तो ललिता पहुंच जाती है और कहती है हमें हमारे कामकाज करने है , हमारी राहू देख रही होगी , पीछे हो जाओ ललिता उनको वहां से मुक्त करती है या फिर खींच कर बाहर लेकर जाती है , फिर नंदग्राम की ओर प्रस्थान करते हैं । इस प्रकार के खेल वसंत में होते है । कुसुमाकर भी कहां है इस ऋतु में फूल खिलते हैं पुष्प की वृष्टी भी होती है , इस वसंत पंचमी के खेल में पुष्पो का अभिषेक भी होता है । इस उत्सव का आज प्रारंभ होता है होली का खेल चलता ही रहता है , उत्सव चलता ही रहता है । वसंत पंचमी महोत्सव की जय। आज सरस्वती पूजा भी है । ऐसी नरसिंह भगवान की प्रार्थना है वाभीशा , वचनों की स्वामिनी है , भगवान के मुख में जिसका निवास है या भगवान बोलते हैं तो यह भगवान की दिव्यध्येय श्रुयते कई सारी शक्तियां भगवान की सेवा में उपस्थित है सदैव तत्पर रहती है उसमें ध्यान शक्ति भी कहिये इस रूप में भगवान की सेवा करती है और ज्ञान देती है । जब विद्यारंभ होता है तब सरस्वती का पूजन होता है । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अभी बालक थे उनका भी विद्या आरंभ हुआ तब सरस्वती पूजा हुई और उनसे लिखवाया जा रहा था , लिखो और कहो , क ख ग घ कहो तब चैतन्य महाप्रभु कहते हैं क ख ग घ तब कई सारे लोग जो वहां उपस्थित हुआ करते थे जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का विद्यारंभ हो रही थी । सरस्वती पूजन होता ही है विद्याआरंभ के समय तब चैतन्य महाप्रभु जादा कुछ नहीं कह रहे थे वर्णमाला का ही उच्चारण कर रहे थे , उनको सिखाया जा रहा था वह उसके पीछे उच्चारण करते थे वह सुनने के लिए । गौरांग उस समय के वह नीमाई , नीमाई बोल रहा है ज्यादा कुछ नहीं बोल रहा है , मुळाक्षर ही बोल रहा है लेकिन चैतन्य महाप्रभु के मुख से निकल रहा है या सरस्वती निकलवाती थी उसको सुनने के लिए कितनी सारी भीड़ रहती थी और बड़े ध्यान के साथ उसका श्रवण कर रहे थे बहुत सारी संख्या में श्रोता बाहर इकट्ठा हुए थे वह भगवान को देख रहे थे , भगवान विशेष कथा का पान करावा रहे होंगे कह तो रहे थे क ख ग घ रोमांचित होते थे । जब लौटने लगते थे चैतन्य महाप्रभु कह रहे है उनका वचन सुन रहे हैं । सरस्वती मैया की जय । सरस्वती इस ब्राह्मांड भी है और सरस्वती भगवत धाम में भी है , गोलोक में भी है । नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥ (श्रीमद भागवतम 1.2.4) अनुवाद विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमद्भागवत का पाठ करने (सुनने) के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान् नारायण को, नरोत्तम नर-नारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रंथकार श्रील व्यासदेव को नमस्कार करे। सर्वत्र पुराणों में या पुराणों के प्रारंभ में सूत गोस्वामी जब प्रणाम करते हैं तब जिनको जिनको वह प्रणाम करते है उसमें सरस्वती भी है इनको नमस्कार करने के उपरांत , उनको नमस्कार करने के उपरांत सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूं , फिर व्यास देव को मैं नमस्कार करता हूं । उसकी एक सूची है जिनको जिनको सूत गोस्वामी प्रणाम करते हैं और प्रणाम करने के उपरांत फिर ओम नमो भगवते वासुदेवाय कथा सुनाते हैं उनमें सरस्वती भी है जीनको प्रणाम , नमस्कार वह करते है । श्री पुंडरीक विद्यानिधी थे , राजा वृषभानु ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला में प्रकट हुए । तप्त कांचन गौरांगी राधे वृंदावनेश्वरी वृषभानू सुते देवी प्रणमामी हरि प्रिये राधा रानी वृषभानु सुता है , राजा वृषभानू की पुत्री है । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में पुत्री प्रकट हुई है , राधा प्रकट हुई है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रुप में , श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नाही अन्य और वैसे राधा रानी , पंचतत्व में जो गदाधर है श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्त वृंद अद्वैतगदाधर , यह जो गदाधर है यह भी राधा रानी ही है , राधा रानी गदाधर के रूप में प्रकट हुई है और एक श्री गदाधर करके भी है वह भी राधा रानी की आभा या कांति का प्राकट्य अवतार माना जाता है । दो , तीन रूप में वह प्रसिद्ध है ही , राधा रानी प्रकट हुई तो राजा वृषभानु जब प्रकट हुए और वह आज के दिन प्रकट हुए हैं , आज उनका प्राकट्य दिन या जन्मदिन है , बसंत पंचमी के दिन व प्रकट हुए । पुंडरीक विद्यानिधि राजा वृषभानु है , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रेम से उनको पिता के रूप में या पुत्री और पिता के प्रति जैसा स्नेह होता है वैसा ही स्नेह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का पुंडरीक विद्यानिधी के साथ था । हरि हरि । कई बार वह पुंडरीक विद्यानिधि , पुंडरीक विद्यानिधि ऐसा जोर-जोर से पुकार रहे थे तब पुंडरीक विद्यानिधि बंगाल में या बांग्लादेश में कहना चाहिए प्रकट हुए थे । पुंडरीक विद्यानिधी ऐसा गौरांग महाप्रभु जोर-जोर से पुकार रहे थे उनको विरह महसूस हो रहा था । वह पुंडरीक विद्यानिधि को पुनः मिलना चाहते थे तब पुंडरीक विद्यानिधि बांग्लादेश से नवद्विप आते हैं और फिर वहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ भी मिलन होता है , लेन देन होती है और जो स्नेह है पुत्री और पिता के बीच में का वैसा दर्शन गौरांग महाप्रभु और पुंडरीक विद्यानिधि के मध्य में हुआ करता था और पंचतत्व की श्री गदाधर जो राधा रानी ही है वह पुंडरीक विद्यानिधि से ही दीक्षित हुये । पुंडरीक विद्यानिधी को अपना गुरू बनाए और फिर कई सारी लीलाएं हैं । फिर वह श्री गदाधर पंडित की पुंडलिक विद्यानिधी के साथ पहली मुलाकात कैसी हुई , कैसे मुकुंद ले गए थे उसके बड़े विस्तार से वर्णन चैतन्य भागवत में किया गया है । इससे परिचय भी होता है जब हम पढ़ेंगे पुंडरीक विद्यानिधि का भाव और भक्ति का जो वहां दर्शन हुआ और उससे प्रभावित होके गदाधर पंडित उनके शिष्य बने । श्री पुंडरीक विद्यानिधि अविर्भाव तिथी महोत्सव की जय । आज के दिन 500 से अधिक वर्ष के पूर्व की बात है वह प्रकट हुये फिर रघुनंदन ठाकुर , श्री रघुनंदन ठाकूर का भी आज अविर्भाव , जन्मोत्सव है । यह श्रीखंड नाम के खाने का नहीं (हसते हुये) श्रीखंड नाम के स्थान के निवासी थे और मुकुंद दत्त के पुत्र रहे । हरि हरि । एक समय ऐसे उच्च कोटि के महात्मा या भक्त उतरे थे । श्री रघुनंदन ठाकुर पिताश्री से भी कुछ बढ़-चढ़कर ही थे , उनकी भक्ति , भाव तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने एक समय पुछा , " मुकुंद ! तुम और रघुनंदन मे से पिता कौन है और पुत्र कौन है ?" (हंसते हुए) प्रश्न बडा अजब गजब का है । पिता से पूछ रहे हैं , "मुकुंद तुम पिता हो कि तुम्हारा पुत्र तुम्हारा पीता है ?" इसके जवाब में मुकुंद पिताश्री ने कहा , " मेरा पुत्र ही मेरा पिता है । " रघुनंदन मेरा पिता है मैं पुत्र हू । जिसको वयोवृद्ध कहते हैं , वय , उम्र के दृष्टी से मैं वृद्ध हू ,पीता हूं मैं लेकिन जब ज्ञान की बात है , भक्ती की बात है , समझदारी की बात है , भक्ति की उचाई की बात है , गहराई के बात का विचार करेंगे तो मैं मेरे पुत्र को अपने पिता के रूप में मानता हूं ।" ऐसा मुकुंद श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से कहते हैं । रघुनाथ दास गोस्वामी महाराज की जय । यह षठ गोस्वामी वृंदो में से एक रहे हैं , इतने बड़े सप्तग्राम के जमींनदार , मजूमदार के पुत्र थे लेकिन ना तो उनको संपत्ति बांध सकी ना तो कोई सुंदर युवा पत्नी उन्हें बांध सकी। सारे बंधन तोड़ के वह जगन्नाथपुरी को प्रस्थान किए और गौरांग महाप्रभु के शरण में आए। फिर एक और गौरांग महाप्रभु खींच रहे थे तो एक और माया खींच रही है और दूसरी और कृष्ण की रहे है, तो फिर जीत किसकी होगी? यह खींचातानी है जिसमें माया एक और और कृष्ण एक और खींच रहे हैं तो किसकी जीत होती है? श्रीकृष्ण की जीत होती है! तो कृष्ण की जीत हुई और उसी के साथ रघुनाथ दास गोस्वामी की जीत हुई और वे सारे माया के बंधन छोड़ छाड़ के आशापाशशतैर्बद्धा: श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को प्राप्त किए। और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे वह एक दैनंदिनी रखते थे जिसमें चैतन्य महाप्रभु के साथ हर दिन के उनके अनुभव, लीलाएं, कथाएं और जो भी घटनाएं घटी थी वह उसमें लिखा करते थे। और फिर जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नहीं रहे, अपने धाम लौट गए तो तब रघुनाथ दास गोस्वामी ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के, युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥ शिक्षाष्टकम अनुवाद: हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है ॥ शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बिना जीना तो क्या जीना? या बेकार का जीना! ऐसा लगा और वृंदावन आकर वह जान देना चाहते थे और फिर वृंदावन पहुंचे तो रूप और सनातन जान गए कि, रघुनाथ दास क्या सोच रहे है। वे आत्महत्या क्या विचार कर रहे थे। तो उन्होंने उनको समझाया तो फिर रघुनाथ दास शांत हुए और फिर आगे के 40 वर्ष में राधा कुंड के तट पर वृंदावन में रहे और वृंदावन के भक्तों को उन्होंने अपना संघ दिया और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आंखों देखा वर्णन उन्होंने लिखा भी था और वे सुनाया भी करते थे। तो सुनने वालों में से कृष्णदास कविराज गोस्वामी भी थे जो राधा कुंड की तट पर रघुनाथ दास गोस्वामी के पास में उनकी कुटिया थी, तो जिन्होंने चैतन्य चरित्रामृत की रचना की तो फिर रघुनाथ दास गोस्वामी उनका अद्वितीय सा वैराग्य रहा! वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य़ोग- शिक्षार्थमेक:पुरुष:पुराण:। श्री-कृष्ण-चैतन्य-शरीर-धारी कृपाम्बुधिर्य़स्तमहं प्रपद्ये।। (श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला,6.254) अनुवाद: -मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूंँ, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के हिंदू होने के कारण अवतरित हुए हैं।मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूंँ। वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-य़ोग- शिक्षार्थमेक:पुरुष:पुराण:। तो रघुनाथ दास गोस्वामी का वैराग्य! वैसे सारे षड गोस्वामी वृंद वैरागी थे लेकिन, रघुनाथ दास गोस्वामी का वैराग्य अद्भुत था। रघुनाथ दास गोस्वामी की जय! और विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का भी आज तिरोभाव अतिथि महोत्सव है और वह भी एक समय 250 या 300 वर्ष पूर्व की बात है, जब विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस संसार में थे। और राधा कुंड के तट पर ही उनका निवास था। और उस समय वे गौड़ीय संप्रदाय के रक्षक रहे और उन्होंने कई सारे ग्रंथों की रचना और भागवत पर कई सारे टिकाए लिखी है। उनकी टीका प्रसिद्ध है। वैसे मैं सभी का नाम ले रहा हूं यह परिकर नित्यसिद्ध थे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के श्री कृष्ण के नित्यपरिकर, गोलोकपरिकर थे। इसलिए हम कहते रहते है, केवल भगवान ही अवतार नहीं लेते भगवान के भक्त भी अवतार लेते है! जब भगवान अवतार लेते है तो अकेले नहीं आते उनके साथ कई सारे परिकर प्रकट होते है। ऐसे ही परिकर में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर रहे और रघुनाथ दास गोस्वामी भी रहै, रघुनंदन ठाकुर भी रहे और पुंडरीक विद्यानिधि भी रहे। और कृष्ण लीला में गोलोक में वह कौन थे? यह भी हम पढ़ सकते है या जान सकते है। उसके लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के ग्रंथ लिखा है उससे वे हम जान सकते है कि, कृष्ण लीला में एक वह कौन थे और महाप्रभु केला में कौन बने। तो विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के बारे में क्या कहना? उन्होंने गायत्री मंत्र पर भी एक भाष्य लिखा है। और जब भाष्य लिखते है तो उनको लग रहा था कि, गायत्री या उसमें भी जो काम गायत्री है 21 अक्षर होने चाहिए। किंतु कृष्णदास कविराज गोस्वामी तो चैतन्य चरित्रामृत के मध्य लीला के 21 अध्याय में काम गायत्री में 24.5 अक्षर है ऐसा कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखे है। और विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर संख्या गिन रहे थे तो उनको यह हिसाब ठीक नहीं लग रहा था कि, 24.5 कैसे? 24 या 25 हो सकते है! लेकिन 24.5 नहीं होने चाहिए। तो अलग-अलग पद्धति से संख्या का गनर होता है तो विश्वनाथ चक्रवर्ती सोच रहे थे और कृष्णदास कविराज गोस्वामी तो लिखे है कि, 24 अक्षर है। तो द्विधा में पड़े और सोच रहे थे कि इसका उत्तर या सही उत्तर मुझे प्राप्त नहीं होगा तो मैं अपनी जान दे दूंगा! या फिर मैं क्यों सोच रहा हूं? कि यह 24.5 नहीं है या 24 है या 25 है तब उस समय विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर को साक्षात राधारानी का दर्शन होता है और साक्षात राधा रानी उनको बताती है कि, हां हां 24.5 अक्षर ही है! कृष्णदास कविराज गोस्वामी जो लिखे है, यह सही है। और कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने पूरा हिसाब किताब लिखा है। और 24.5 अक्षरों को वह 24.5 चंद्र भी कहते है। कृष्ण चंद्र है! तो कितने चंद्र है? कोटि-कोटि चंद्र है! लेकिन 24.5 चंद्र जिनके सर्वांग में है तो इसीलिए भगवान कृष्ण चंद्र या चैतन्य चंद्र कहलाते है। तो कृष्णदास कविराज गोस्वामी बताए है, मध्य लीला के 21 वे अध्याय में जिसका वर्णन वैसे चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में किए थे। जब यह बताते हैं तो कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखे हैं कि, भगवान का जो सर्वांग है यह एक आसन है और इस आसन पर भगवान का मुख मंडल एक चंद्र है! और मुख्य चंद्र है, चंद्र का राजा है! तो भगवान के शरीर को आसान बना कर यह मुख्य चंद्र विराजमान है। और वे लिखते हैं कि, भगवान के जो कपूर है वह दो है, फिर भगवान जो कस्तूरी तिलकं या चंदन का गोलाकार तिलक लगाते है वह भी एक चंद्र है हुआ यह चौथा चंद्र हुआ। आप गिनते जाइए! आगे आगे बड़ी गिनती आने वाली है! और भगवान के जो मस्तक है अष्टमी के चंद्र के आकार का है यह आधा चंद्र है। तो भाल तिलक के मध्य में है तो उसको भी आधा चंद्र बोले है। तो कितने हुए? 4.5 चंद्र हुए! अब भगवान के जो दोनों हाथों की उंगलियां और नाखून है इसमें 5 और उस हाथ में 5 है, वह नाखून भी चंद्र है। वह 10 चंद्र हुए और भगवान अपने उंगलियों से जो मुरली बजाते हैं तो कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि, मुरली के जो नाद है वह कृष्ण का यशोगान करते है। ठीक है! और फिर चरणकमल! तो चरण कमलों के जो नाखून है वह भी 10 हुए। तो बताओ कितने हुए? 24.8 हुए कि नहीं? और भगवान के चरणों में पायल की झंकार या नूपुर जो बजते है तो वह नूपुर के जो नाद है, तो यह नाद चरण के जो चंद्रमा है उनके आवेदन करते है। तो उनका जब गान करते है, तो नूपुर से वह नाद निकलती है। तो इस प्रकार वे कृष्णदास कविराज लिखते है। तो ऐसे कृष्णचंद्र क्या करते है? राधारानी को घायल करते है! आपने कृपाकटाक्ष से घायल करते है! और अपनी नजर से या कृष्ण की जो भौंवे है वह धनुष है और उनकी आंखें बाण है और भगवान के जो कान है वह प्रत्यंचा है! और जब प्रत्यंचा को खींचकर आंखों के बान को भौंवे की धनुष्य से प्रहार करते है, तब राधारानी घायल हो जाती है! तो यह विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस गायत्री मंत्र पर अपना भाष्य लिखे है। गायत्री मंत्र! और उसके ऊपर भाष्य! कामगायक गायत्री को समझ में या उसके भावार्थ को समझना यह विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ही समझते है! तो इनके फिर शिष्य है गौडीय वैष्णव वेदांताचार्य बलदेव विद्या भूषण! जिन्होंने गोविंद भाष्य लिखा। गौडीय वैष्णव की ओर से वेदांत सूत्रों पर भाष्य लिखे हुए गौडीय वेदांताचार्य बलदेव विद्याभूषण! जो शिष्य थे विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के! तो ऐसे शिष्य महान तो गुरु कितने महान होंगे? और फिर फिर श्रीमती विष्णुप्रिया का भी आज आविर्भाव तिथि महोत्सव है। एक रही लक्ष्मी प्रिया और वह वह जब नहीं रही तब शचीमाता ने अपने पुत्र का दूसरा विवाह किया। निमाई का दूसरा विवाह हुआ विष्णु प्रिया के साथ हुआ। और वह महोत्सव बड़े धूमधाम के साथ मनाया गया था। और फिर विवाह ज्यादा समय तक नहीं टिका क्योंकि चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास लिया और उसके उपरांत विष्णु प्रिया कि विरह की व्यथा को कौन जान सकता है! फिर घर में रहे शचीमाता की विष्णुप्रिया सेवा कर रही थी। और विष्णु प्रिया अपना अधिकतर समय हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करने में बिताती थी। एक मंत्र या एक माला कहती तो एक चावल का दाना अलग रखती थी, तो इस प्रकार जब के उपरांत जितने भी चावल इकट्ठे होते थे उनको पका के गौरांग महाप्रभु को भोग लगा थी और उसी से उनका गुजारा होता था। ऐसा तपस्या का जीवन और नाम संकीर्तन का भी जीवन वह जीती रही। और महाप्रभु के विग्रह की आराधना वह किया करती थी। वह विग्रह धामेश्वर महाप्रभु! जो आज का नवद्वीप धाम का मंदिर है, वहां के विग्रह है। वहां उनकी पूजा विष्णु प्रिया ने की जब चैतन्य महाप्रभु ने सन्यास लिए। भगवान के विग्रह की आराधना वह करती थी और उसी मंदिर में चैतन्य महाप्रभु की पादुका भी है। और जब हम जाते हैं दर्शन के लिए तब वहां के पुजारी, वहां के पादुका आपके सिर पर रख सकते है। जहां की पादुका की सेवा विष्णु प्रिया ने भी की थी। विष्णुप्रिया आविर्भाव तिथि महोत्सव की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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